विचार / लेख
- प्रभाकर मणि तिवारी
क्या पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में बीजेपी के ख़िलाफ़ तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा और कांग्रेस के बीच तालमेल होगा. क्या हर सीट पर बीजेपी उम्मीदवार के ख़िलाफ़ इन तीनों दलों का साझा उम्मीदवार होगा?
अगर भाकपा (माले) के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के सुझाव को ध्यान में रखें तो पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तस्वीर कुछ ऐसी ही उभरती है.
हालांकि बंगाल वाममोर्चा नेताओं के रवैए ने इस तस्वीर के बनने से पहले ही कैनवास पर घड़ों पानी उड़ेल दिया है.
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद पश्चिम बंगाल में अगले विधानसभा चुनावों की रणनीति पर दीपंकर भट्टाचार्य की टिप्पणी ने यहां राजनीति के ठहरे पानी में कंकड़ उछाल दिया है.
दीपंकर ने कहा कि वाम दलों को पश्चिम बंगाल और असम में बीजेपी को ही नंबर एक दुश्मन मानते हुए भावी रणनीति बनानी चाहिए. इसके लिए ज़रूरत पड़ने पर तृणमूल कांग्रेस के साथ भी हाथ मिलाया जा सकता है.
लेकिन उनके इस सुझाव को वाममोर्चा ने सिरे से ख़ारिज कर दिया है. दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस ने इसका स्वागत किया है.
दीपंकर भट्टाचार्य के नेतृत्व में बिहार में वाम दलों को 19 में से 12 सीटें जीतने में कामयाबी मिली है.
बावजूद इसके पश्चिम बंगाल में वाम नेता उस मॉडल को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं. वाममोर्चा अध्यक्ष विमान बसु कहते हैं, "बंगाल का अपना अलग मॉडल है. यहां बिहार मॉडल अपनाने की कोई ज़रूरत नहीं है."
दीपंकर का कहना था कि पश्चिम बंगाल में तमाम वामदल बीजेपी की बजाय तृणमूल कांग्रेस को ही अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मान कर आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने संकेत दिया कि ममता बनर्जी के साथ हाथ मिलाने में कोई समस्या नहीं है.
दीपंकर के मुताबिक़, हमें यह समझना होगा कि देश के लोकतंत्र और नागरिकों के लिए बीजेपी सबसे प्रमुख दुश्मन है. तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस इस श्रेणी में नहीं आते.
दीपंकर की इस टिप्पणी से यहां माकपा मुख्यालय अलीमुद्दीन स्ट्रीट में हलचल तेज़ हो गई है.
विमान बसु समेत तमाम नेताओं ने दीपंकर की टिप्पणी के लिए उनकी खिंचाई की है.
बंगाल बिहार से अलग
उनका कहना है कि दीपंकर को बंगाल की राजनीति के बारे में कोई जानकारी नहीं है. माकपा के एक वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, "दरअसल भट्टाचार्य यहां वाम नेताओं पर दबाव बनाने की रणनीति के तहत ऐसा कर रहे हैं ताकि अगले चुनावों में उनको अधिक सीटें मिल सकें. बिहार में बेहतर प्रदर्शन के आधार पर ऐसे बयान देना उचित नहीं है. बंगाल की राजनीति बिहार से कई मायनों में अलग है."
विमान बसु ने बुधवार को मालदा में पत्रकारों से कहा, "बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस दोनों सांप्रदायिक पार्टियां हैं. ऐसे में बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ चुनावी या दूसरे किसी गठजोड़ का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता. वाममोर्चा यहां तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी दोनों से लड़ेगा. तृणमूल कांग्रेस के पास कोई आदर्श या नैतिकता नहीं है. बीजेपी को बंगाल में वही ले आई है."
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य मोहम्मद सलीम कहते हैं, "दूरबीन से बंगाल को देखने वाले लोग ज़मीनी हक़ीक़त से अवगत नहीं है. तृणमूल कांग्रेस का गठन कर ममता ने एनडीए के साथ हाथ मिलाया था. बंगाल में बीजेपी के प्रवेश और वाममोर्चा के सफ़ाए के लिए ममता ही ज़िम्मेदार हैं."

उधर, तृणमूल कांग्रेस ने भट्टाचार्य के सुझाव का स्वागत किया है.
पार्टी के प्रवक्ता सांसद सौगत राय कहते हैं, "एक साथ दो मोर्चों पर लड़ना रणनीतिक रूप से गंभीर ग़लती है. नेपोलियन और हिटलर ने इसे काफ़ी नुकसान उठाने के बाद समझा था. पता नहीं बंगाल में वाममोर्चा कब यह बात समझेगा? जब इसके लिए काफी देरी हो चुकी होगी?"
सौगात राय का कहना है कि राष्ट्रहित में वाममोर्चा को बंगाल में बीजेपी के ख़िलाफ़ लड़ाई में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ममता की मदद करनी चाहिए.
दूसरी ओर, बीजेपी ने दीपंकर के बयान पर कोई टिप्पणी नहीं की है.
प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, "अगले चुनावों में बंगाल में हमारी जीत तय है. बिहार के बाद अब हमारा लक्ष्य यहां दो-तिहाई बहुमत से जीत कर सत्ता हासिल करना है. बिहार के नतीजों का फ़ायदा पार्टी को यहां भी मिलेगा."
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि दीपंकर का सुझाव उतना बुरा नहीं है जितना बंगाल के वाम नेता मान या कह रहे हैं.
34 साल तक बंगाल पर राज करने वाले वाममोर्चा के पैरों तले तेज़ी से खिसकती ज़मीन को ध्यान में रखते हुए उसे अपना वजूद बचाने के लिए सही रास्ता चुनना चाहिए.
दीपंकर के सुझाव को मानेंगी पार्टियां?
राजनीतिक पर्यवेक्षक विश्वनाथ पंडित कहते हैं, "2011 के बाद होने वाले तमाम चुनावों में वाममोर्चा की ज़मीन धीरे-धीरे खिसकती रही है. हालांकि उसके पास अब भी आठ से 10 फ़ीसद वोट हैं. लेकिन उसने कांग्रेस से हाथ मिलाया है जिसके पास न तो कोई ढंग का नेता है और न ही कोई जनाधार. बीजेपी ने उसे तेज़ी से राजनीतिक हाशिए पर पहुंचा दिया है. ऐसे में बंगाल में भी बिहार मॉडल अपनाने में कोई बुराई नहीं नज़र आती है. चुनावों में हार-जीत ही मायने रखती है. नतीजों के बाद चुनावी रणनीति या तालमेल जैसी बातों की अहमियत ख़त्म हो जाती हैं."

बांग्ला अख़बार आनंद बाज़ार पत्रिका के लिए दशकों तक वाम राजनीति कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं, "दरअसल, वाममोर्चा नेता यहां ममता की तृणमूल कांग्रेस के हाथों मिले हार के ज़ख्मों को भुला नहीं सके हैं. ममता बनर्जी भी गाहे-बगाहे वामपंथी दलों को निशाना बनाती रही हैं. हालांकि राजनीति में दोस्ती या दुश्मनी स्थायी नहीं होती. लेकिन मौजूदा संदर्भ में दीपंकर के सुझाव पर अमल दूर की कौड़ी ही है."
बीते लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के बावजूद वामदलों का खाता नहीं खुल सका था.
मुखर्जी कहते हैं कि वाममोर्चा बीजेपी और तृणमूल दोनों से समान दूरी बना कर चलने की रणनीति पर बढ़ रही है. दिलचस्प बात यह है कि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी भी बार-बार बीजेपी और वाम दलों से समान दूरी बना कर चलने की बात कहती रही हैं. बावजूद इसके उनकी पार्टी को वाम दलों के समर्थन पर कोई आपत्ति नहीं है.(bbc)


