विचार / लेख

-सुशान्त कुमार
सम्पादक दक्षिणकोसल
भारत की आजादी का ही नहीं, दुनिया का इतिहास बहादुर और ताकतवरों का इतिहास रहा है। जिसे चालक शासक वर्ग ने अपने हिसाब से लिखा। जिन्होंने 1857 में मंगल पांडेय के नेतृत्व में हुए सिपाही विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया उन्हें यह भी जान लेना चाहिए कि 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू, चांद-भैरव एवं फूलो-झानो के नेतृत्व में लगभग 30,000 से अधिक संथालों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह कर दिया था, जिसमें लगभग 15,000 संथाल मारे गये थे एवं सिदो-कान्हू को फांसी पर लटकाया गया था। आपको यह जानकार हैरानी होगी कि मंगल पांडे नहीं, तिलका मांझी और सिदो-कान्हू और उनके परिवार के लोग थे पहले स्वतंत्रता संग्रामी। आदिवासी नेत्री दयामनी बारला कहती है कि मैं आजादी की पहली लड़ाई यानी संथाल हूल को ही मानती हूं। चारों भाइयों सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के साथ फूलो और झानो ने अंग्रेजों और महाजनों से जमकर लोहा लिया था। रानी लक्ष्मीबाई से काफी पहले इन्होंने आजादी की ज्वाला जलाई थी। फूलो-झानो को इतिहास में शायद ही लोग जानते हैं। अब समय आ गया है कि इतिहास को दुरूस्त करें इन्हें झांसी की रानी के पहले लोग नाम लें।
हूल दामिन ए कोह (पुराना संताल परगना) के क्षेत्र में बसने वाले संथालों और अन्य ग्रामीण-गरीब खेतिहर समाज के लोगों द्वारा अपनी खोई हुई जमीन की वापसी, सूदखोर-महाजनों और सरकारी अमलों के शोषण तथा अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाने हेतु एक स्वाधीन राष्ट्र कायम करने के लिए था। इसमें नेतृत्व भले ही संथालों का था, लेकिन इसमें शामिल होकर हूल की अग्नि में न्योछावर तथा गिरफ्तार हुए कई लोगों में गैर-संताल समुदाय के लोगों का नाम भी सरकारी दस्तावेजों में देखे जा सकते हैं। संथालों ने अंग्रेज आला अफसरों के पास कई बार अपने कष्टों का शिकायत-पत्र भेज कर गुहार लगायी, जिसमें महाजनों-जमींदारों द्वारा सूदखोरी, जमीन से बेदखली, सरकारी अमलों द्वारा लूट और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा इन समस्याओं के प्रति उपेक्षा की ढेरों शिकायतें थीं।लेकिन हुकूमत द्वारा उसे अनसुना किये जाने से थक-हार कर विद्रोह करना ही एकमात्र विकल्प रह गया था। आज का दिन कई मायनों में महत्व का है अर्थात आज संथाल हूल दिवस है। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का दिन। ब्रिटिश इतिहास के दृष्टि से देखा जाए तो अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह 1857 है, यहां हमारे इतिहास को दुरूस्त कर देखने की जरूरत है अर्थात आदिवासियों के इतिहास के नजरिए से देखते हैं तो पहला विद्रोह 1771 में ही तिलका मांझी ने शुरू किया था।
इसके बाद एक ही परिवार के छह लोगों ने 30 जून 1855 को संथाल आदिवासियों ने सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो के नेतृत्व में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के लगभग 30,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया था। गिरधारी राम गंझू कहते हैं कि संथाल हूल में पहली बार नारे लगे ‘अबुआ राज’, ‘करो या मरो’, ‘अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो’, ‘हमने खेत बनाए हैं, इसलिए ये हमारे हैं’। आंदोलन राजमहल, बांकुड़ा, हजारीबाग, गोला, चास, कुजू, बगोदर, सिंदरी, हथभंगा, बीरभूम, जामताड़ा, देवघर, पाकुड़, गोड्डा, दुमका, मधुपुर सहित कई क्षेत्रों में फैल गई। सिदो ने इस पर जोर देते हुए कहा था, ‘समय आ गया है अंग्रेजों को खदेड़ देश से बाहर भगाने का। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा को संताल विद्रोहियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संथाल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक फैल गया। जब जब आदिवासी इतिहास, परंपरा, संस्कृति तथा उनके जल, जंगल जमीन को अधिग्रहण की कोशिश हुई है जन प्रतिरोध भडक़ उठी है। महाजनों, जमींदारों और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब तब उनके खिलाफ आदिवासियों (मूलनिवासियों) का गुस्सा बिना समर्पण के इस लड़ाई में एक ही परिवार के छह लोग सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, फूलो, झानो सहित लगभग 20 हजार संतालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी जान न्योछावर कर दिए।
इतिहासकारों के अनुसार इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संताल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेजों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर मुंह की नहीं खाई हो। अपने ही बीच मौजूद विभीषण के कारण सिदो और कान्हू को पकड़ लिया गया और भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी गई। बताया जाता है कि लगभग 20 हजार संथालों ने जल, जंगल, जमीन जैसे सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा के लिए न्योछावर हो गए। प्रसिद्ध इतिहासकार बीपी केशरी कहते लिखते हैं कि संथाल हूल ऐसी घटना थी, जिसने 1857 के संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन के बाद ही अंग्रेजों ने संथाल क्षेत्र को बीरभूम और भागलपुर से हटा दिया। 1855 में ही संथाल परगना को ‘नॉन रेगुलेशन जिला’ बनाया गया। क्षेत्र भागलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था, जिसका मुख्यालय दुमका था। 1856 में पुलिस रूल लागू हुआ। 1860-75 तक सरदारी लड़ाई, 1895-1900 ई. तक बिरसा आंदोलन इसकी अगली कड़ी थीं। अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा और मार्शल लॉ लागू कर दिया। हजारों संताल आदिवासियों को गिरफ्तार किया गया, लाठियां चली, गोलियां चलाई गई। यह लड़ाई तब तक जारी रही, जब तक अंतिम आंदोलनकारी जिंदा रहा।
विशद कुमार लिखते हैं कि इसके पूर्व 1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाडिय़ा ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और सामंती महाजनों-अंग्रेजी की नींद उड़ा दी। पहाडिय़ा लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाडिय़ा भारत के पहले आदिविद्रोही हैं। जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाडिय़ों पर अंग्रेजी हुकूमत के दांत खट्टे कर दिए। इन पहाडिय़ा लड़ाकों में तिलका मांझी ने 1778 ई. में अंचल के सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेडक़र कैंप को मुक्त कराया था। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकूट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और तिलका को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह तिलका मांझी जीवित था। बताया जाता है कि खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थीं। अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर लटका दिए गए। वह दिन 13 जनवरी 1785 का था।
तिलका मांझी संथाल थे या पहाडिय़ा इसे लेकर विवाद है। इतिहासकार बताते हैं कि तिलका मांझी मूर्म गोत्र के थे। अनेक लेखकों ने उन्हें संताल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संथाल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संथाल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संथाल परगना की तरफ आए और बसे।वे आगे लिखते हैं कि ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, 1868 के पहले खंड (पृष्ठ संख्या 219-227) में सर विलियम विल्सर हंटन ने लिखा है कि संथाल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका पलायन आज के संथाल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संतालों का नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संथाल परगना में संथालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संतालों को बसाया गया (पृ. 224)।1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संथाल परगना’, वॉल्यूम 13 में एलएसएस ओ मेली ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संथालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांथार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिने कोह में संथालों के बसने का प्रमाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर:संथाल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त आर. कार्सटेयर्स जो 1885 से 1898 तक संथाल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास ‘हाड़मा का गांव’ की शुरुआत ही पहाडिय़ा लोगों के इलाके में संतालों के बसने के तथ्य से की है। अश्विनी पंकज जैसे झारखंड के जानकारों का मानना है कि हूल को सिर्फ संथाल परगना से जोड़ कर देखा जाता है, लेकिन यह बिहार, झारखंड, बंगाल से ओडिशा तक फैला था। सिर्फ संथाली ही नहीं कई जाति के लोग इसमें शामिल थे। पूरे इलाके में मार्शल लॉ लगाया था, जिससे हम समझ सकते हैं कि इसकी व्यापकता कितनी थी। वास्तव में संथाल हूल भारत का पहला जन विद्रोह था। स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के तौर पर इसे स्थान मिलना ही चाहिए। प्रेमचंद मुर्मू कहते हैं कि करीब 30 हजार लोगों ने एक साथ विद्रोह किया और अंग्रेजों को मार भगाया। इस हूल के फलस्वरूप ही अंग्रेजों ने स्वीकार किया कि ये स्वतंत्र लोग हैं, किसी के काबू में नहीं आ सकते। इसलिए 22 दिसंबर, 1855 को संथाल परगना जिले का निर्माण किया। हूल के छह महीने के अंदर ही जिला बन गया। उनकी जमीन पर उनका अधिकार दिलाने के लिए एसपीटी एक्ट भी बना। फिर 1874 में शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट बना। फिर 1900 में सीएनटी एक्ट बना, जिसमें जमीन पर उनका अधिकार पुख्ता हुआ। आजादी के बाद संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 5वीं अनुसूची, 6वीं अनुसूची, पेसा कानून तथा ग्राम सभा के प्रस्ताव और स्वशासन और मालिकाना हक प्रदान किया। इन एक्ट से हम हूल की व्यापकता समझ सकते हैं। आजादी की पहली लड़ाई तो यह सच में थी, जिसे उचित स्थान मिलना चाहिए।
1935 में प्रकाशित अंग्रेज प्रशासक आर कास्टेयर्स ने अपनी लिखी औपन्यासिक किताब हाई माय विलेज के जरिये ब्रिटिश दस्तावेजों में दर्ज हूल के कारणों की पड़ताल और तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक व प्रशासनिक स्थितियों से अवगत कराते हुए जो सवाल उठाये, विडंबना है कि कमोबेस वे आज भी कायम हैं। इसे रेखांकित करते हुए आजाद भारत के जाने-माने मानवशास्त्री, इतिहासकार और छोटा नागपुर क्षेत्र के बेहद लोकप्रिय प्रशासक रहे कुमार सुरेश सिंह ने अपनी पुस्तक बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन की भूमिका लिखते हुए लंदन विश्वविद्यालय के ‘स्कूल ऑफ ओरिएण्टल एंड अफ्रीकन स्टडीज’ के विद्वान क्रिस्टोफर फॉन फ्यूरेर-हाइमेंडोर्फ का हवाला देते हुए लिखा कि ये दुखद विद्रोह कदापि न होते, यदि तत्कालीन सरकारों ने आदिवासियों-ग्रामीणों का दर्द समझ ली होती और उनको दूर करने के लिए समय रहते सही कदम उठाये होते। अंत में उन्होंने यह भी कहा कि बिरसा मुंडा आन्दोलन से जो सबक मिलता है, उसे आधुनिक प्रशासन भूल न जाये। विकास के नाम पर पिछड़े जनजातीय समाज को किसी जोर-जबरदस्ती या डरा-धमका कर अपना दृष्टिकोण या जीवन-पद्धति बदलने के लिए बाध्य करना नुकसानदेह होगा। इन्हीं संदर्भों में हमें यह सनद रखने की नितांत आवश्यकता है कि 1855 के संथाल-हूल ने ही इतिहास में दर्ज भारतीय स्वतंत्रता के 1857 के पहले जनयुद्ध की मजबूत बुनियाद रखी थी। हूल की प्रेरणा के साथ-साथ उसके सवाल आज भी लोकतांत्रिक संवैधानिक समाज के लिए एक जरूरी कार्यभार बनकर हमारे समक्ष उपस्थित हैं।