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गंभीर बीमारियों के खतरे तो मंडरा ही रहे, पर टालना भी...
सुनील कुमार ने लिखा है
08-Jun-2025 3:55 PM
गंभीर बीमारियों के खतरे तो मंडरा ही रहे, पर टालना भी...

आज दुनिया में चारों तरफ जीवनशैली से उपजने वाली गैरसंक्रामक बीमारियों का खतरा बढ़ते चल रहा है। बहुत संपन्न देशों में तो खानपान, और अतिरिक्त आराम की वजह से मोटापा बढ़ते जा रहा है, लेकिन भारत जैसा देश भी बड़ा खतरा झेल रहा है। यहां खानपान और रहन-सहन की वजह से डायबिटीज, हाईब्ल्ड प्रेशर, दिल की बीमारियां, मोटापा, कैंसर, और कई तरह की मानसिक समस्याएं बढ़ रही हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में अब 60 फीसदी से अधिक मौतें गैरसंक्रामक बीमारियों से हो रही हैं, जिनमें से अधिकतर जीवनशैली की गड़बड़ी से हैं। देश में अभी 10 फीसदी से थोड़े से कम, 13 करोड़ से अधिक लोग डायबिटीज के खतरे में हंै। और इसकी बड़ी वजहों में से एक, खराब किस्म का खानपान, बैठे रहना, तम्बाकू और शराब जैसी चीजें हैं।

अब हम खराब किस्म के खानपान को देखें तो इसमें शक्कर, नमक, और घी-तेल का सबसे बड़ा हाथ दिखता है। लोग परिवार के भीतर अपनी रईसी दिखाने को, किसी मेहमान के आने पर, या किसी के घर जाने पर चॉकलेट या मिठाई लेकर जाना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की बात मानते हैं। खुशी का कोई भी मौका रहे, लोग मिठाई बांटने को एक परंपरा मानते हैं। इसके साथ-साथ घर आने वालों के लिए, या अपनी खुद की जुबान की वजह से लोग घरों में कोल्डड्रिंक रखने लगे हैं, या बाहर जाने पर पीने लगे हैं, जो कि शक्कर से लबालब रहते हैं। कोल्डड्रिंक में शक्कर, मिठाई, आइस्क्रीम, केक, पेस्ट्री, इन सबमें शक्कर, और अब तो मध्यम वर्ग या उससे ऊपर के बच्चों की तमाम पार्टियों में यही सब चीजें चलती हैं। लोग एक-दूसरे के घर आते-जाते बच्चों के लिए यही सब लाते ले जाते हैं, आने वालों को खिलाते हैं। आज बचपन से ही शक्कर का इतना अधिक खानपान हो रहा है कि उससे होने वाला नुकसान बहुत से लोगों को सीधे डायबिटीज तक पहुंचा रहा है।

देश की संस्कृति में एक मामूली से फेरबदल की जरूरत है। शक्कर वाले सारे सामानों को घटाकर उनकी जगह फलों को बढ़ावा दिया जाए, तो शक्कर का यह खतरा एकदम से कम हो सकता है। दूसरी तरफ फलों से जो फायदा हो सकता है, वह चॉकलेट-बेकरी, या मिठाई जैसे किसी सामान से नहीं हो सकता। और इन दोनों में खर्च में भी बहुत बड़ा फर्क नहीं रहेगा। आज भी सौ-दो सौ रूपए से कम की कोई मिठाई नहीं आती, और इतने ही दाम में उससे चार-छह गुना वजन के फल ले जाए जा सकते हैं।

यह सिलसिला कछ लोग अगर एक संकल्प की तरह शुरू करें, तो यह धीरे-धीरे जोर पकड़ सकता है। आज भी बहुत से लोग कई किस्म के धार्मिक, या खानपान के संकल्प लेते ही हैं। कई लोग धार्मिक कारणों से जमीन के नीचे उगी चीजों को नहीं खाते। कई लोग रात का अंधेरा होने के पहले खाना खा लेते हैं। कुछ लोग हफ्ते में किसी दिन नहीं खाते। ऐसे में लोग अगर यह तय कर लें कि वे मेहमानों को सिर्फ फल खिलाएंगे, और किसी के घर जाते हुए सिर्फ फल लेकर ही जाएंगे, तो यह चलन धीरे-धीरे बढ़ सकता है।

आज लोग जब अपने घर का फ्रिज खोलते हैं, और उसमें मिठाई रखती दिखती है, तो किसी का अपने पर काबू नहीं रह पाता। लोग इच्छा न रहते हुए भी आंखों के रास्ते दिमाग तक पहुंची हुई इच्छा पूरी करने के लिए मीठा खाने बैठ जाते हैं। और घर आए मेहमानों को भी जिद करके मीठा खिलाया जाता है, जो कि मध्यमवर्गीय और उसके ऊपर के आय वर्ग के लोगों की सेहत के लिए ठीक नहीं रहता। कमाई जितनी अधिक रहती है, वैसे परिवारों के लोगों की देह उतना ही कम खाने के लायक बच जाती है। सामाजिक व्यवहार में यह फेरबदल एकदम तुरंत जरूरी है कि त्यौहारों से लेकर, खुशियों के दूसरे मौकों तक मिठाई की जगह फलों को बढ़ावा दिया जाए, बहुत ही गरिष्ठ सब्जियों की जगह, या कम से कम उनके साथ-साथ सलाद को बढ़ावा दिया जाए। लोगों को मेजबानी, और खातिरदारी के साथ-साथ मेहमानों की सेहत को भी ठीक रखने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए, और अतिथि सत्कार के लिए बदनाम कुछ समाजों में तो जब तक मेहमान अघा न जाए, तब तक उसका मनुहार करते रहना ही न्यूनतम शिष्टाचार माना जाता है। इस सिलसिले को भी तोडऩा चाहिए।

हम इसके पहले भी उपहार देने के मौकों पर गुलदस्तों की जगह किताबों की बात सुझाते आए हैं, और ऐसी किताबों में भी लोग सेहतमंद खानपान, कसरत, योग-ध्यान जैसे विषयों पर किताबें दूसरों को तोहफे में दे सकते हैं, ताकि उनका पूरा परिवार ही जागरूक होकर अपनी कुछ फिक्र कर सके। गुलदस्तों का क्या है, वे तो एक या दो दिन में मुरझाकर कचरे में चले जाते हैं, लेकिन फिटनेस और पोषण आहार से जुड़ी किताबें पूरे परिवार का भला कर सकती हैं।

एक आखिरी बात सुझाने लायक यह लगती है कि अपने यार-दोस्तों से गप्प मारने के लिए किसी के घर या किसी रेस्त्रां में बैठकर चाय-भजिया खाने की जगह पैदल चलने, दौडऩे, खेलने जैसे किसी काम के बारे में भी सोचना चाहिए। यह कोई बहुत दुर्लभ खूबी नहीं है, आज भी सुबह-शाम सैर के लिए जो जानी-पहचानी जगहें हैं, उनमें दोस्तों के ऐसे जत्थे दिखते ही हैं, जो एक-दूसरे की देखादेखी, या एक-दूसरे के कहने से इकट्ठा होते हैं, और अपने बदन का ध्यान रखते हैं। कुछ ऐसा ही काम अड़ोस-पड़ोस के लोग, एक दफ्तर में काम करने वाले, या एक परिवार के लोग भी एक-दूसरे के लिए कर सकते हैं।

बहुत मामूली सी इन छोटी-छोटी बातों पर अमल करके लोग अपने आसपास के पूरे दायरे की सेहत बेहतर बना सकते हैं, सिर्फ चली आ रही परंपराओं को थोड़ा सा बदलने की जरूरत है। या तो बर्बादी बढ़ाते चलें, या जागरूकता फैलाते चलें।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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