कोण्डागांव

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
कोण्डागांव, 11 दिसंबर। बाबा साहेब सेवा संस्था कार्यालय में शहीद वीर नारायण सिंह का शहादत दिवस मनाया गया। कार्यक्रम में स्वतंत्रता सेनानी शहीद वीर नारायण सिंह के छाया चित्र के समक्ष दीप प्रज्वलित कर श्रद्धांजलि अर्पित की गई। इस अवसर पर वीर नारायण सिंह को नमन करते उनकी जीवनी पर प्रकाश डाला।
कार्यक्रम में संस्था के मुख्य सलाहकार पी पी गोंडाने अध्यक्ष मुकेश मार्कंडेय, सचिव रमेश पोयाम, कोषाध्यक्ष ओम प्रकाश नाग, भुवन लाल मारकंडेय, देवानंद चौरे, संदीप संदीप वासनीकर, एवं पदाधिकारी उपस्थित रहे।
ज्ञात हो कि छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी, वीर पुत्र, सच्चे देशभक्त थे । जिन्होंने अकाल के समय से अपनी प्रजा को अनाज पहुचाया जो दाने दाने को तरस रहे थे, तथा इसके चलते अंग्रेजों से लोहा लिया था, और अपनी प्रजा के हित के लिए अपनी जान को बलिदान कर दिए ।
वीर नारायण सिंह जी का जन्म 1795 को सोनाखान में हुया था । इनके पिता का नाम राम राय था जो कि सोनाखान के ज़मीदार थे, वे बिंझवार आदिवासी समुदाय के थे । उनके पिता ने 1818 - 1819 के दौरान अंग्रेजों तथा भोंसले राजाओ के विरुद्ध तलवार उठाई लेकिन कैप्टन मैक्सन ने विद्रोह को दबा दिया था। पिता के मृत्यु के बाद 1830 में वे सोनाखान के ज़मीदार बने, उस समय वे 35 वर्ष के थे ।
सोनाखान का विद्रोह
1856 में सोनाखान गांव (जिसका प्राचीन नाम सिंघगढ़ था) वह भीषण आकाल पड़ा था, जिसमे सोनाखान के हजारों लोगो को अन्न के दाने दाने के लिए तरसना पड़ गया था ।
अकाल से पीडि़त लोगों की मदद के लिए नारायण सिंह जी ने वह के गोदाम मालिक माखन बनिया नाम के व्यपारी को अनाज के लिए आग्रह किया परंतु जमाखोर गोदाम मालिक अनाज देने से मना कर दिया, लोगो की पीड़ा देखकर नारायण सिंह ने हजारों किसानों को साथ लेकर माखन बनिया के गोदाम में धावा बोलकर अनाज लूट लिया वा भूखी प्रजा जो दाने दाने के लिए तरस रहे थे उनमें बांट दिया ।
इस घटना की शिकायत गोदाम मालिक ने डिप्टी कमिश्नर इलियट से कि, इस घटना की रिपोर्ट मिलते ही डिप्टी कमिश्नर इलियट ने फौज की टुकड़ी वीर नारायण जी को गिरफ्तार करने के लिए भेज दिया ।
वीर नारायण सिंह को कड़ी मसक्कत के बाद 24 अक्टूबर 1856 को संबलपुर से गिरफ्तार कर रायपुर जेल में बंद कर दिया। 1857 में चल रही क्रान्ति के चलते वीर नारायण सिंह ने अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचारों के खिलाफ बगावत करने की ठान ली थी। लोगों ने जेल में बंद वीर नारायण को ही अपना नेता मान लिया और चल रही क्रांति के समर में शामिल हो गए।
अगस्त 1857 में कुछ समर्थकों और सैनिकों की मदद से वीर नारायण जी अपने 3 मित्रों के साथ जेल से भाग निकले और अपने गांव सोनाखान पहुंच गए। वहां उन्होंने 500 बंदूकधारियों की सेना बनाई और अंग्रेजी सैनिकों से मुठभेड़ की। इस बगावत से बौखलाई अंग्रेज सरकार ने जनता पर अत्याचार बढ़ा दिए। अपने लोगों को बचाने के लिए उन्होंने समर्पण कर दिया जिसके बाद उन्हें मौत की सजा सुनाई गई।
10 दिसंबर 1857 को ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रायपुर के जयस्तंभ चौक पर सरेआम फाँसी पर लटका दिया।