विचार/लेख
हर साल 30 करोड़ से ज्यादा बच्चे ऑनलाइन यौन शोषण का शिकार होते हैं. वैश्विक स्तर पर किए गए एक अध्ययन में डराने वाले आंकड़े सामने आए हैं.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
ब्रिटेन की एडिनबरा यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का अनुमान है कि दुनियाभर में हर साल 30 करोड़ से ज्यादा बच्चे ऑनलाइन यौन शोषण और प्रताडऩाओं के शिकार हो रहे हैं। वैश्विक स्तर पर इस तरह का यह पहला अध्ययन है, जो दिखाता है कि इंटरनेट पर बच्चों के शिकार हो जाने की समस्या कितनी बड़ी है।
27 मई को प्रकाशित इस शोध के मुताबिक पिछले 12 महीने में दुनिया के हर आठवें बच्चे को इंटरनेट पर यौन शोषण का शिकार होना पड़ा। इसमें गतिविधियों का शिकार बने। रिपोर्ट के मुताबिक अनचाहे अश्लील संदेश भेजने या यौन गतिविधियों के आग्रह करने के पीडि़त बच्चों की संख्या भी लगभग इतनी ही रही।
ऑनलाइन यौन उत्पीडऩ की ये गतिविधियां ब्लैकमेल करने तक भी गईं और कई मामलों में निजी तस्वीरों की एवज में अपराधियों ने धन की मांग की। इसके अलावा आर्टिफिशियल इंटेलीजेंससे लेकर डीपफेक तकनीक के जरिए आपत्तिजनक वीडियो और तस्वीरें बनाकर भी बच्चों को शिकार बनाया गया।
शोधकर्ता कहते हैं कि यह समस्या पूरी दुनिया में फैली है लेकिन अमेरिका में खतरा बेहद ज्यादा आंका गया है। वहां हर नौ में से एक व्यक्ति ने कभी ना कभी बच्चों के साथ ऑनलाइन दुर्व्यवहार की बात मानी।
लडक़े खासतौर पर खतरे में
चाइल्डलाइट के प्रमुख पॉल स्टैन्फील्ड ने बताया, ‘बच्चों के यौन उत्पीडऩ की संख्या इतनी बड़ी है कि औसतन हर सेकंड पुलिस या किसी समाजसेवी संस्था को इस तरह की घटना की शिकायत मिलती है। यह एक वैश्विक स्वास्थ्य महामारी है जो जरूरत से ज्यादा समय से ढकी-छिपी रही है। ऐसा हर देश में होता है और बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर कदम उठाए जाने की जरूरत है।’
पिछले महीने की ब्रिटेन की पुलिस ने चेतावनी जारी की थी कि पश्चिमी अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशिया में सक्रिय गिरोह ब्रिटिश किशोरों को यौन उत्पीडऩ के बाद ब्लैकमेल का शिकार बना रहे हैं।
सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के मुताबिक किशोर लडक़ों के साथ यौन उत्पीडऩ के मामलों में खासतौर पर तेजी देखी जा रही है। ब्रिटेन की नेशनल क्राइम एजेंसी (एनसीए) ने लाखों शिक्षकों को चेताया था कि वे अपने छात्रों के साथ ऐसे किसी व्यवहार को लेकर सजग रहें।
अधिकारियों के मुताबिक ये अपराधी बच्चों की ही उम्र का होने का ढोंग रचकर सोशल मीडिया पर संपर्क करते हैं और फिर इनक्रिप्टेड मेसेजिंग ऐप्स के जरिए बातचीत बढ़ाकर पीडि़तों को अपनी निजी तस्वीरें या वीडियो साझा करने को उकसाते हैं। अक्सर देखा गया है कि निजी तस्वीरें मिलने के एक घंटे के भीतर ही ये ब्लैकमेल करना शुरू कर देते हैं और जितना ज्यादा हो सके धन ऐंठने की कोशिश करते हैं क्योंकि उनका मकसद शारीरिक संतुष्टि नहीं बल्कि धन उगाहना होता है।
भारत में कई गुना वृद्धि
भारत में इस तरह के अपराधों में तेजी से वृद्धि देखी गई है। पिछले साल आई एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के बाद से भारत में बच्चों के ऑनलाइन यौन शोषण के मामलों में 87 फीसदी की वृद्धि हुई। नेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड एक्सप्लॉयटेड चिल्ड्रन नामक संस्था की इस रिपोर्ट में बताया गया कि बच्चों के यौन शोषण की ऑनलाइन सामग्री में 3।2 करोड़ का इजाफा हुआ है।
कैसे दें रिवेंज पॉर्न का जवाब
‘वी प्रोटेक्ट ग्लोबल अलांयस' ने अक्तूबर में अपनी चौथी सालाना रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें बताया गया कि 2021 में उसके सर्वेक्षण में 54 फीसदी प्रतिभागियों ने माना कि बचपन में उन्हें ऑनलाइन यौन शोषण का सामना करना पड़ा। साथ ही, 2020 से 2022 के बीच बच्चों के अपनी निजी तस्वीरें या वीडियो इंटरनेट पर साझा करने के मामलों में 360 फीसदी की बढ़ोतरी हुई।
इस रिपोर्ट में कहा गया कि सोशल ऑनलाइन गेमिंग प्लैटफॉर्म खासतौर पर बच्चों के यौन शोषण के गढ़ बन रहे हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि कई बार तो बच्चों को फांसने में 19 सेकंड का समय लगता है जबकि औसतन समय 45 मिनट है।
निजी तस्वीरों के आधार पर धन ऐंठने के मामले 2021 में 139 थे जबकि 2022 में इनकी संख्या दस हजार को पार कर गई। (dw.com)
-मोरिल सेबेस्टियन
भारत की एक बड़ी आबादी के पास स्मार्टफोन में कई तरह के ऐप होते हैं।
टैक्सी बुक करने के लिए, खाने के लिए या डेटिंग के लिए अलग-अलग ऐप मौजूद हैं।
दुनियाभर के अरबों लोगों के पास ऐसे ऐप होते हैं, जिससे कोई नुक़सान नहीं होता है और ये रोजमर्रा की ज़रूरतों को पूरा करते हैं।
लेकिन भारत में ये ऐप संभावित रूप से आपकी हर एक बात राजनेताओं को बता देते हैं। आप ऐसा चाहें या नहीं चाहें राजनेता जो भी जानना चाहते हैं, आपके बारे में जान लेते हैं।
चुनावी रणनीतिकार रुत्विक जोशी इस चुनाव में कम से कम एक दजऱ्न सांसदों को फिर से चुनाव जीताने के लिए काम कर रहे हैं।
रुत्विक कहते हैं कि किसी व्यक्ति का धर्म, मातृभाषा, वो सोशल मीडिया पर कैसे अपने दोस्तों को मैसेज भेजता है, ये सब बातें किसी नेता के लिए वो डेटा हैं, जिन्हें वो जानना चाहते हैं।
रुत्विक का दावा है कि जिस तरह से भारत में स्मार्टफ़ोन की लोकप्रियता बढ़ी है और निजी कंपनियों को डेटा बेचने की अनुमति से जुड़े नियमों में ढील मिली है, इससे ज़्यादातार राजनीतिक दलों ने हर काम के लिए डेटा जुटा लिया है। यहां तक कि आज आप क्या खा रहे हैं? इसका ब्यौरा भी उनके पास मिल जाएगा।
नेताओं को ये जानकारी क्यों चाहिए?
आखिर राजनीतिक दलों को ये सब क्यों चाहिए? रुत्विक कहते हैं कि आसान शब्दों में कहें तो इन जानकारियों से वोट का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। उनका दावा है कि ये अनुमान आमतौर पर कभी ग़लत साबित नहीं होते हैं।
लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आपको इस बात की चिंता क्यों करनी चाहिए?
माइक्रोटारगेटिंग- मतलब कि निजी डेटा का इस्तेमाल विज्ञापन दिखाने और जानकारी देने के लिए किया जाए।
ये माइक्रोटारगेटिंग चुनाव के मद्देनजर कोई नई बात नहीं है। लेकिन पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की साल 2016 में हुई जीत के बाद ये सुर्खय़िों में आया।
उस वक्त, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी कैंब्रिज़ एनालिटिका पर ऐसे आरोप लगे थे कि उसने फेसबुक के बेचे हुए डेटा का इस्तेमाल लोगों की प्रोफाइल तैयार करने और उन्हें ट्रंप के समर्थन वाले कंटेंट भेजने के लिए किया था। हालांकि, फर्म ने इन आरोपों को खारिज कर दिया था लेकिन अपने सीईओ अलेक्जेंडर निक्स को निलंबित कर दिया था।
साल 2022 में मेटा ने कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़े डेटा उल्लंघन के एक मुकदमे को निपटाने के लिए 725 मिलियन डॉलर का भुगतान करने की सहमति जताई थी।
इससे लोगों के मन में ये सवाल उठने लगा कि क्या उन्होंने जो विज्ञापन देखा है, उसकी वजह से उनके वोट पर कोई असर पड़ा है। दुनियाभर के देश लोकतंत्र पर पडऩे वाले इसके असर को लेकर इतने परेशान दिखे कि उन्होंने तुरंत कार्रवाई शुरू कर दी।
भारत में क्या हुआ था
भारत में कैंब्रिज एनालिटिका से जुड़ी एक कंपनी ने कहा था कि भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी कांग्रेस दोनों ही पार्टियां उनके क्लाइंट हैं। हालांकि, दोनों ने ही इस बात से इनकार किया था।
भारत के उस वक़्त के सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी भारतीय नागरिकों के डेटा के गलत इस्तेमाल करने पर कंपनी और फेसबुक के खिलाफ कार्रवाई करने की चेतावनी दी थी।
डेटा और सिक्योरिटी रिसर्चर श्रीनिवास कोडाली कहते हैं कि वोटरों को सूक्ष्म स्तर पर निशाना बनाने (माइक्रो-टारगेटिंग) से रोकने के लिए अब तक कोई बड़े कदम नहीं उठाए गए हैं।
वो कहते हैं, ‘दूसरे सभी चुनाव आयोगों ने जैसे ब्रिटेन और सिंगापुर में चुनावों के दौरान माइक्रो-टारगेटिंग की भूमिका को समझने की कोशिश की। ऐसे आयोगों ने कुछ निश्चित कदम उठाए, जो कि आमतौर पर एक चुनाव आयोग को करना ही चाहिए लेकिन हम भारत में ऐसा होते नहीं देखते हैं।’
कोडाली कहते हैं, ‘भारत में ये समस्या और भी जटिल हो गई है क्योंकि यहां एक ऐसी डेटा सोसाइटी है जिसे सरकार ने बिना सुरक्षा उपाय किए हुए तैयार किया है।’
दरअसल, भारत में 65 करोड़ स्मार्टफोन उपयोगकर्ता हैं और इन सभी स्मार्टफोन में ऐसे ऐप्स हैं जो डेटा को थर्ड पार्टी के साथ साझा कर सकते हैं।
सरकार भी साझा करती है निजी डेटा
लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ स्मार्टफोन की वजह से ही आप निशाना बन रहे हैं। सरकार के पास खुद ही निजी डेटा का एक बड़ा भंडार है और यहां तक कि सरकार भी निजी कंपनियों को व्यक्तिगत जानकारी बेचती रही है।
कोडाली कहते हैं, ‘सरकार ने नागरिकों का बड़ा डेटाबेस तैयार किया है और उसे प्राइवेट सेक्टर के साथ साझा किया है।’
इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक प्रतीक वाघरे कहते हैं कि इससे नागरिकों पर निगरानी का ख़तरा बढ़ा है।साथ ही इस बात पर उनका कोई नियंत्रण नहीं रह गया है कि कौन सी जानकारी निजी होगी।
विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले साल सरकार ने डेटा सुरक्षा कानून पारित किया था जो अब तक लागू नहीं हो सका है। कोडाली कहते हैं कि ये नियमों की कमी की दिक्कत है।
और इस बड़े पैमाने पर उपलब्ध डेटा का नतीजा क्या है? रुत्विक जोशी के शब्दों में भारत ने ‘दुनिया के सबसे बड़े डेटा माइन’ के तौर पर चुनावी साल में क़दम रखा है।
जोशी कहते हैं कि बात ये है कि कोई व्यक्ति कुछ भी अवैध नहीं कर रहा है। वो इस बात को कुछ ऐसे समझाते हैं, ‘मैं ऐप से ये नहीं कह रहा कि ‘मुझे ये आंकड़ा चाहिए कि कितने यूजऱ ऐप को इस्तेमाल कर रहे हैं, या उन यूजर्स का कॉन्टेक्ट नंबर दे दो।’ लेकिन मैं ये पूछ सकता हूं कि ‘क्या आपके इलाके में लोग शाकाहारी खाना खाते हैं या मांसाहारी?’
और ऐप ये डेटा दे देता है क्योंकि यूजर ने पहले ही इसके लिए अनुमति दे दी है।
रुत्विक की कंपनी नीति-आई, कई निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं का व्यवहार समझने के लिए डेटा का उपयोग कर रही है। रुत्विक समझाते हैं, ‘उदाहरण के लिए, आपके मोबाइल में 10 अलग-अलग भारतीय ऐप है । आपने अपने कॉन्टेक्ट, गैलरी, माइक, स्पीकर, जगह जिसमें लाइव लोकेशन भी शामिल तक ऐप कोई पहुंच दे रखी है।’
ये वही डेटा है, जिसे पार्टी कार्यकर्ताओं के जरिए इकट्ठा किए गए डेटा के साथ इस्तेमाल किया जाता है। जो ये तय करने में मदद करता है कि उम्मीदवार कौन होना चाहिए, उम्मीदवार की पत्नी को पूजा या आरती के लिए कहां जाना चाहिए, उन्हें किस तरह का भाषण देना चाहिए, यहां तक कि उन्हें क्या पहनना चाहिए।
क्या लोगों का मन बदला जा सकता है?
लेकिन इस स्तर पर निशाना साधकर लोगों का मन बदला जा सकता है? ये अभी स्पष्ट नहीं है।
लेकिन जानकार मानते हैं कि बुनियादी स्तर पर ये लोगों की निजता का उल्लंघन है। इन जानकारियों का इस्तेमाल और बढ़ा दिया जाए तो इसका इस्तेमाल लोगों के खिलाफ भी किया जा सकता है।
प्रतीक वाघरे कहते हैं कि ऐसा हो रहा है जो एक समस्या है। वो कहते हैं, ‘हमने देखा है कि इस बात में कोई स्पष्ट अंतर नहीं होता है कि किसी सरकारी योजना के लाभार्थी के डेटा को कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है और कैसे उसके डेटा का इस्तेमाल राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर कैंपेन मैसेज के जरिए माइक्रो टारगेट करने के लिए किया जाता है।’
कानून, सरकार और सरकारी निकायों को अपने विवेक के आधार पर व्यापक धाराओं से छूट देता है। इनके पास निजी जानकारियों को थर्ड पार्टी के साथ इस्तेमाल और साझा करने की भी शक्ति है।
वाघरे इस बात की चिंता जताते हैं कि भविष्य में आने वाली सरकारें इसे एक कदम और आगे ले जा सकती हैं। वो कहते हैं, ‘ये भी हो सकता है- ‘आइए देखते हैं कि कौन हमारा समर्थन कर रहा है और केवल उन्हें लाभ दिया जाए।’
कोडाली कहते हैं कि डेटा का इस तरह का इस्तेमाल भारत में ‘मिसइंफॉर्मेशन’ की समस्या को और बढ़ाता है।
वो कहते हैं, ‘जब आप आर्टिफिशिएल इंटेलिजेंस, टारगेटेड एडवर्टिज़मेंट और मतदाताओं की माइक्रो-टारगेटिंग की बात करते हैं तो ये सब ‘कंप्युटेशनल प्रोपेगेंडा’ के तहत आता है।’
वो बताते हैं, ‘इस तरह के सवाल 2016 में ट्रंप के चुनाव के वक्त भी उठाए गए थे, जहां उस चुनाव पर विदेशी प्रभाव माना जाता है।’
कोडाली का कहना है कि चुनाव प्रचार में डेटा और टेक्नोलॉजी को उसी तरह रेगुलेट करना चाहिए जैसा कि अभी पैसे के इस्तेमाल और विज्ञापन पर खर्च को रेगुलेट किया जाता है। ताकि चुनाव को निष्पक्ष रखा जा सके।
वो कहते हैं, ‘अगर एक या कुछ सियासी दलों या समूहों के पास ऐसी टेक्नोलॉजी तक पहुंच हो तो चुनाव निष्पक्ष नहीं लगेंगे।’ (bbc.com/hindi)
घरेलू कामों में हाथ- ऐवरटीन मेंस्ट्रुअल हाइजीन सर्वे
भारत की अग्रिम फेमनिन हाइजीन ब्रांड ऐवरटीन ने 9वें वार्षिक ऐवरटीन मेंस्ट्रुअल हाइजीन सर्वे के परिणाम जारी किए हैं। इस सर्वे में 18 से 35 वर्ष के 7800 से अधिक लोगों की प्रतिक्रियाएं शामिल की गईं। इन लोगों में तकरीबन 1000 पुरुष थे जिनमें ज्यादातर स्नातक या उससे से ज्यादा शिक्षित थे।
ऐवरटीन मेंस्ट्रुअल हाइजीन सर्वे 2024 में भाग लेने वाले 60.2 प्रतिशत पुरुषों ने बताया कि वे अपनी पार्टनर से पीरियड्स के बारे में बहुत खुल कर बात करते हैं। यद्यपि, आधे से अधिक (52.2 प्रतिशत) पुरुषों ने स्वीकार किया कि उन्होंने अब तक कि जिंदगी में अपनी पार्टनर के लिए कभी मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट नहीं खरीदा। केवल 11.7 प्रतिशत पुरुषों ने कहा कि जब उनकी पत्नी को माहवारी होती है तो वे उसके बोझ को कम करने के लिए घरेलू कामों की अतिरिक्त जिम्मेदारी उठाते हैं।
मासिक धर्म के दौरान अपनी पार्टनर के अनुभव को बेहतर ढंग से समझने की बात करें तो 77.7 प्रतिशत पुरुषों का कहना था उन्होंने इस विषय पर स्वयं को शिक्षित करने के लिए कोई रिसर्च नहीं की या फिर बेहद कम रिसर्च की।
69.8 प्रतिशत पुरुष महसूस करते हैं कि मासिक धर्म को लेकर समाज में जो संकोच है, जो हिचक है उसके चलते उनके लिए यह मुश्किल हो जाता है कि वे इस विषय पर अपनी पार्टनर से बात करें। 65.3 पुरुषों ने इस बात पर सहमति जताई की मासिक धर्म के बारे में पुरुषों को शिक्षित किया जाना चाहिए।
मेंस्ट्रुएशन को लेकर हुए इस सर्वे में पुरुषों को शामिल किया जाना पहला कदम था और इससे धारणाओं में कुछ परिवर्तन में मदद मिली है क्योंकि 41.3 प्रतिशत पुरुषों ने वादा किया इस सर्वे में शामिल होने के बाद वे मासिक धर्म के बारे में स्वयं को शिक्षित करेंगे। जबकि 27.7 प्रतिशत ने कहा कि वे अपनी पार्टनर की जरूरतों को सुनेंगे और पीरियड्स के दौरान उन्हें सहयोग देंगे। 21.2 प्रतिशत पुरुषों ने कहा कि वे अपनी पार्टनर से इस विषय पर ज्यादा खुलकर बात करेंगे।
पैन हैल्थकेयर के सीईओ चिराग पैन इस सर्वे पर कहते हैं, यदि हम पीरियड-फ्रैंडली दुनिया के सपने को हकीकत बनाना चाहते हैं पुरुषों को भी इसमें स्पष्ट रूप से भागीदारी निभानी होगी। अगर दुनिया की आधी आबादी मासिक धर्म के विषय पर बेपरवाह या अशिक्षित बनी रहेगी तो माहवारी के अनुकूल दुनिया बनाने का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा। भारतीय समाज की वर्जनाएं पुरुषों के लिए इसे कठिन बना देती हैं कि वे मासिक धर्म को एक सामान्य घटना तौर पर स्वीकार कर सकें। हमने इस साल अपने ऐवरटीन मेंस्ट्रुअल हाइजीन सर्वे में पुरुषों की भागीदारी शामिल कर के एक विनम्र कोशिश की है और इस विषय पर उनसे संवाद आरंभ किया है। मुझे यह देख कर खुशी हुई है कि इतने सारे पुरुष सहभागियों पर इसका सकारात्मक प्रभाव हुआ है और उन्होंने पीरियड्स के दौरान अपनी महिला पार्टनरों को अतिरिक्त सहयोग देने का वादा किया है।
ऐवरटीन की निर्माता कंपनी वैट् एंड ड्राई पर्सनल केयर के सीईओ श्री हरिओम त्यागी ने कहा, ’’हमारे ऐवरटीन मेंस्ट्रुअल हाइजीन सर्वे में शामिल महिलाओं ने भी इस पर जोर दिया कि मासिक धर्म के विषय पर पुरुषों के बीच ज्यादा जागरुकता जगाने की जरूरत है। तकरीबन 90 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि अपने पिता या भाई से पीरियड्स के बारे में बात करने में वे सहज महसूस नहीं करतीं, जबकि हर चार में से तीन महिलाओं (77.4 प्रतिशत) को अपने पति के साथ भी इस पर बात करना असहज करता है। केवल 8.4 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं जो कार्यस्थल पर अपने पुरुष सहकर्मियों के साथ मासिक धर्म संबंधी मुद्दों पर बात करने में सहज थीं।
ऐवरटीन मेंस्ट्रुअल हाइजीन सर्वे में यह भी सामने आया कि 7.1 प्रतिशत महिलाएं अब भी अपने परिवार में पीरियड्स को लेकर किसी से बात नहीं करतीं। 56.8 प्रतिशत महिलाएं किराने या दवा की दुकान से सैनिटरी नैपकीन खरीदने में अब भी झिझकती हैं, खासकर तब जब वहां कोई ग्राहक मौजूद हो। 51.8 प्रतिशत महिलाएं पीरियड के पहले दो दिनों में ठीक से सो नहीं पातीं, जबकि 79.6 प्रतिशत महिलाएं रात को नींद में दाग लगने को लेकर चिंतित रहती हैं। 64.7 प्रतिशत महिलाओं ने मध्यम से लेकर गंभीर मेंस्ट्रुअल क्रैम्प अनुभव किए हैं। 53.1 प्रतिशत महिलाएं पीरियड्स के दौरान बाहर जाने से परहेज करती हैं। चार में से एक महिला (25.8 प्रतिशत) को नहीं मालूम था कि श्वेत स्त्राव होने पर क्या किया जाए और सिर्फ 32.8 प्रतिशत महिलाओं ने इस मुद्दे पर डॉक्टर से सलाह की।
87.1 प्रतिशत महिलाओं की राय थी कि माहवारी की छुट्टियां देने की बजाय कंपनियों को मेंस्ट्रुअल फ्रैंडली कार्यस्थल तैयार करने पर ध्यान देना चाहिए। 91.1 प्रतिशत महिलाओं का मानना था कि जो कंपनियां इस कॉन्सेप्ट को बढ़ावा देंगी वे ज्यादा महिलाओं को अपनी कंपनी जॉइन करने के लिए आकर्षित करेंगी।
हर साल ऐवरटीन भारत में महिलाओं से बड़े पैमाने पर जुडऩे का अभियान चलाता है और उन्हें प्रोत्साहित करता है कि वे खुल कर मेंस्ट्रुएशन के मुद्दे पर अपनी बात रखें। फेमनिन इंटीमेट हाइजीन हेतु संपूर्ण उत्पादों की रेंज बनाने वाले अग्रगामी ब्रांड ऐवरटीन ने प्तस्नद्ब&ङ्घशह्वह्म्क्कद्गह्म्द्बशस्रह्य, प्तस्द्धद्गहृद्गद्गस्रह्यक्कड्डस्र और प्तक्कड्डस्र॥द्गह्म्रुद्बद्घद्ग जैसी कैम्पेन के जरिए जनाना एवं मेंस्ट्रुअल हाइजीन पर निरंतर जागरुकता का प्रसार किया है। आज, ब्रांड ऐवरटीन महिलाओं के लिए 35 भिन्न हाइजीन और वैलनेस उत्पाद प्रस्तुत करता है जिनमें पीरियड केयर सैनिटरी पैड, रिलैक्स नाइट्स अल्ट्रा ओवरनाईट सैनिटरी पैड, सिलिकॉन मेंस्ट्रुअल कप, मेंस्ट्रुअल कप क्लीन्जर, टैम्पून, पैन्टी लाइनर, बिकिनी लाइन हेयर रिमूवर क्रीम, पीएच बैलेंस्ड इंटीमेट वॉश, टॉयलेट सीट सैनिटाइजर, फेमनिन सिरम, जैल आदि बहुत कुछ शामिल हैं।
वैट् एंड ड्राई पर्सनल केयर के बारे में
वर्ष 2013 में स्थापित वैट् एंड ड्राई पर्सनल केयर प्राइवेट लिमिटेड पैन हैल्थ (डब्ल्यू एंड डी) की पहल है जो हैल्थ, हाइजीन व पर्सनल केयर उत्पाद पेश करती है। नई दिल्ली मुख्यालय वाली डब्ल्यू एंड डी चार ब्रांडों की स्वामी है जो हैं- ऐवरटीन (फेमनिन हाइजीन), न्यूड (प्रीमियम पर्सनल केयर प्रोडक्ट), नेचर श्योर (नैचुरल वैलनेस प्रोडक्ट) और मैनश्योर (पुरुषों के लिए प्रीमियम हैल्थ प्रोडक्ट)।
अमेजन, फ्लिपकार्ट, नायका, पर्पल, मिंत्रा, जियोमार्ट, मीशो आदि ऑनलाइन मार्केटप्लेसिस पर ये उत्पाद खूब बिकते हैं। भारत में बिक्री के अलावा हमारे उत्पाद दुनिया भर के ग्राहकों तक पहुंचाए जाते हैं जिनमें ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, फिजी, फ्रांस, फिनलैंड, घाना, हांग कांग, आयरलैंड, कीनिया, मलेशिया, नामिबिया, नाइजीरिया, ओमान, कतर, सउदी अरब, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, श्री लंका, स्विटजरलैंड, यूएस, यूके, युगांडा, वियतनाम आदि देश शामिल हैं। आप हमारे आधिकारिक ब्रांड स्टोर #Fi&YourPeriods, #SheNeedsPad से ऑनलाइन भी उत्पाद खरीद सकते हैं।
डॉ. आर.के. पालीवाल
सुबह के अख़बार में कोई दिन भी ऐसा नहीं जाता जिस दिन कहीं न कहीं किसी न किसी विभाग या व्यक्ति के भ्रष्टाचार के बारे में कोई बड़ा समाचार नहीं होता। भ्रष्टाचार हमारे देखते देखते पिछले तीन चार दशक में इतना भारी भरकम हो गया है कि उसकी तुलना जीव जगत में पगलाए हाथी और वनस्पति जगत में वट वृक्ष से ही की जा सकती है। जिस तरह से पागल हाथी अपने रास्ते में आने वाली हर चीज को तहस नहस कर देता है और वट वृक्ष अपने आसपास किसी पौधे को फलने फूलने नहीं देता उसी तरह हमारे यहां भ्रष्टाचार किसी भी सरकारी योजना को सफल नहीं होने देता और ईमानदार नागरिकों के रास्ते में तरह तरह की बाधा खड़ी करता है। चाहे फसल का मुआवजा लेना हो या प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ या राशन कार्ड बनवाना हो या कोई नया काम शुरू करने के लिए एन ओ सी लेनी हो हर जगह भ्रष्टाचारियों को चढ़ावे के बगैर सफलता नामुमकिन है। दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के दम पर जहर को अमृत बताकर बेचा जा सकता है और किसी भी अपराध को अंजाम दिया जा सकता है। इसका एक बड़ा उदाहरण हाल ही में मध्य प्रदेश के नर्सिंग कॉलेज घोटाले के रूप में सामने आया है।व्यापम घोटाले के बाद यह ऐसा दूसरा बड़ा घोटाला है जिसने मध्य प्रदेश सरकार, नर्सिंग कॉलेज से जुडे स्वास्थ्य शिक्षा विभाग और केंद्रीय जांच एजेंसी सी बी आई की छवि पर गहरा दाग लगाया है।हद तो यह है कि इस मामले की जांच मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देश और निगरानी में सी बी आई को सौंपी गई थी। शिकायतकर्ताओं के अनुसार मध्य प्रदेश सरकार इस मामले की शिकायतों पर कारगर कार्यवाही नहीं कर रही थी इसलिए इस मामले को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया था। जिस एजेंसी को भ्रष्टाचार के मामलों की विशेषज्ञ मानकर उच्च और सर्वोच्च न्यायालय महत्त्वपूर्ण जांच सौंपते हैं यदि वह खुद भ्रष्टाचार की तलैया में लोट लगाने लगे तब भ्रष्टाचार के हाथी को कैसे बांधा जा सकता है! ऐसे में आम नागरिक कैसे विश्वास करे कि प्रधानमंत्री जिस डबल इंजन सरकार की भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की बात करते हैं उसमें जरा भी दम है।
भ्रष्टाचारियों का नेटवर्क कितना मजबूत और बेखौफ हो गया है इसका अंदाज मीडिया की उन रिपोर्ट से लगाया जा सकता है जिसके अनुसार सी बी आई टीम के दलाल मध्य प्रदेश के कई जिलों में सक्रिय होकर नर्सिंग कॉलेज के संचालकों से घूस की सौदेबाजी कर रहे थे और घूस की रकम से सोने के बिस्किट खरीद कर काले धन के अंबार लगा रहे थे।यह तो सी बी आई के दिल्ली मुख्यालय की तारीफ करनी होगी जिसने अपने भ्रष्ट इंस्पेक्टरों और डी एस पी की टीम के भ्रष्टाचार को पकड़ कर जांच एजेंसी पर लगे धब्बे को थोडा सा हल्का कर दिया। उम्मीद है कि मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय और अन्य राज्यों के उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय भी इस मामले के प्रकाश में आने के बाद सी बी आई और ई डी जैसी ताकतवर एजेंसियों को सौंपी गई जांचों की निगरानी बढ़ाएंगे और इन एजेंसियों की जॉच रिपोर्ट को शत प्रतिशत विश्वसनीय मानकर निर्णय नहीं करेंगे। अभी तक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय इन एजेंसियों को सरकार के दबाव में काम करने के लिए डांट फटकार लगाते थे लेकिन अब इनकी रिपोर्ट्स को भी संदेह की नजर से देखा जा सकता है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सी बी आई पर सरकारी तोता वाली कड़ी टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश के नर्सिंग कॉलेज के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय भी सी बी आई से कड़े सवाल कर सकता है ताकि इस मामले के भ्रष्टाचार की सही जांच होकर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही सुनिश्चित हो सके। भ्रष्टाचार के हाथी को रोके बिना हम विश्व गुरु बनना तो दूर अपनी रही सही साख भी नहीं बचा पाएंगे। भ्रष्टाचार के हाथी को रोकने के लिए हवाई भाषणों से कुछ नहीं होगा जमीन पर ठोस कार्रवाई की जरूरत है ताकि भ्रष्टाचारियों के मन में कानून का खौफ हो।
इकबाल अहमद
लोकसभा चुनाव के छह चरण हो चुके हैं और अब सिफ़$ सातवां और अंतिम चरण बाकी है। इसके लिए एक जून को वोट डाले जाएंगे।
चार जून को वोटों की गिनती होगी।
इस बार के चुनाव प्रचार में वैसे तो सत्ताधारी बीजेपी और विपक्ष ने कई मुद्दों को उठाया लेकिन एक बात जिसकी शायद सबसे ज़्यादा चर्चा हुई वो है भारतीय संविधान और आरक्षण।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के शुरुआती दौर से ही इस बार चार सौ पार का नारा दिया।
ज़ाहिर है जब मोदी ने यह नारा दिया तो उनकी पार्टी और एनडीए गठबंधन के दूसरे घटकों ने भी इसको अपनी-अपनी रैलियों में दोहराना शुरू कर दिया।
बीजेपी के कुछ नेताओं और सांसदों के इस तरह के कुछ बयान भी आए।
बीजेपी नेताओं के बयान
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (अब अयोध्या) से सांसद और बीजेपी उम्मीदवार लल्लू सिंह ने कहा था ‘कि सरकार तो 272 सीटों पर ही बन जाती हैं, लेकिन संविधान बदलने या संशोधन करने के लिए दो-तिहाई सीटों की ज़रूरत होती है।’
कर्नाटक बीजेपी के वरिष्ठ नेता और छह बार सांसद रहे अनंत कुमार हेगड़े ने एक बयान में कहा था, "संविधान को ‘फिर से लिखने’ की जरूरत है। कांग्रेस ने इसमें अनावश्यक चीजों को जबरदस्ती भरकर संविधान को मूल रूप से विकृत कर दिया है, ख़ासकर ऐसे कानून लाकर जिनका उद्देश्य हिंदू समाज को दबाना था, अगर ये सब बदलना है, तो ये मौजूदा बहुमत के साथ संभव नहीं है।’
हालांकि बीजेपी ने उनके बयान से किनारा काटते हुए उनका टिकट भी काट दिया।
राजस्थान के नागौर से बीजेपी उम्मीदवार ज्योति मिर्धा का एक बयान भी वायरल हुआ था। एक वीडियो में मिर्धा कहती नजऱ आ रही थीं, ‘देश के हित में कई कठोर निर्णय लेने होते हैं। उनके लिए हमें कई संवैधानिक बदलाव करने पड़ते हैं।’
विपक्ष और खासकर उसके सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस ने यह कहना शुरू कर दिया कि बीजेपी इसलिए 400 सीटें चाहती है ताकि वो संविधान को बदल सके और दलितों-पिछड़ों के मिलने वाले आरक्षण खत्म कर सके।
बीजेपी के इन्हीं कुछ नेताओं के बयान को आधार बनाकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी, राजद नेता लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव, शिवसेना (उद्धव गुट) के उद्धव ठाकरे समेत विपक्ष के लगभग हर नेता कहने लगे कि अगर मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनते हैं तो संविधान और आरक्षण दोनों खतरे में पड़ जाएगा।
विपक्ष का यह नारा वाकई संविधान को बचाने के लिए है या दलित और पिछड़े मतदाताओं को अपनी ओर खींचने के लिए है, यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना जरूर है कि यह मुद्दा पूरे प्रचार में छाया रहा है।
एससी-एसटी का आरक्षण
केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में दलितों (लगभग 15 फीसद), एसटी (लगभग 7.5 फीसद) और पिछड़ों (27 फीसद) को आरक्षण मिलता है।
राज्यों में भी उनको आरक्षण मिलता है लेकिन उनकी संख्या में कुछ फर्क होता है।
इसके अलावा अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोगों के लिए संसद और विधानसभाओं में सीटें भी आरक्षित होती हैं।
संसद की कुल 545 सीटों में दो सीटें एंग्लो-इंडियन लोगों के लिए आरक्षित होती हैं, जिनका नामांकन राष्ट्रपति करते हैं। बाकी 543 सीटों के लिए चुनाव होते हैं।
इन 543 सीटों में से 84 सीटें अनुसूचित जातियों और 47 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होती हैं।
विधानसभाओं में भी एससी-एसटी के लिए सीटें आरक्षित होती हैं।
संविधान संशोधन
भारतीय संविधान में संशोधन की एक जटिल प्रक्रिया है। संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान और उसकी प्रक्रियाओं में संशोधन करने की संसद की शक्ति का जिक्र है।
कुछ संशोधन संसद में साधारण बहुमत से पास हो जाते हैं और कुछ संशोधन के लिए विशेष बहुमत (दो तिहाई) की जरूरत होती है।
इसके अलावा कुछ संशोधन में विशेष बहुमत के अलावा आधे राज्यों की विधानसभाओं की भी मंजूरी अनिवार्य होता है।
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बहुचर्चित बोमई केस (1994) में संविधान के ‘मूल ढांचे’ की व्याख्या करते हुए यह साफ कर दिया है कि संविधान के मूल ढांचे में किसी भी तरह का संशोधन नहीं किया जा सकता है।
भारतीय संविधान में हालांकि सौ से ज़्यादा बार संशोधन हो चुके हैं और यह ज़्यादातर उस वक्त हुए हैं, जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही है। तो फिर इस बार ऐसा क्या है कि इसकी ना सिर्फ चर्चा हो रही है बल्कि सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष दोनों इसे अपने चुनावी प्रचार का हिस्सा बना रहे हैं।
कुछ लोगों को लगता है कि सदन के सारे काम तो संसद की साधारण बहुमत से हो ही सकते हैं, ऐसा क्या है जिसे करने के लिए बीजेपी को 400 सीटों की जरूरत है?
विपक्ष इसी बात को आधार बनाकर वोटरों और खासकर दलितों और पिछड़ों को यह बताने की कोशिश कर रहा है कि प्रधानमंत्री संविधान को बदलने और आरक्षण को ख़त्म करने के लिए 400 सीट चाहते हैं।
तो सवाल उठता है कि क्या विपक्ष के इस दावे का कुछ असर दलितों पर भी पड़ा है और क्या वो वाक़ई इस बात को लेकर चिंतित हैं कि बीजेपी की जीत से संविधान को ख़तरा हो सकता है या आरक्षण खत्म हो सकता है।
यह जानने के लिए हमने बिहार, यूपी, महाराष्ट्र और पंजाब चार राज्यों में लोगों से बात की।
इसे जानने और समझने के लिए बीबीसी संवाददाता चंदन जजवाड़े ने बिहार के कुछ इलाकों का दौरा किया और अलग-अलग लोगों से बात की।
छपरा जिले के महाराजगंज लोकसभा के शामपुर गाँव के रहने वाले विश्वजीत चौहान अंग्रेज़ी में पीजी की पढ़ाई कर रहे हैं।
बीबीसी से उन्होंने कहा, ‘जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिलता है, उस समाज में यह बात जरूर पहुँची है कि बीजेपी की सरकार आरक्षण को खत्म कर सकती है और इसका वोटिंग पर भी असर पड़ रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है कि बीजेपी के कई बड़े नेताओं ने अलग-अलग मंच से आरक्षण को खत्म करने को लेकर बयान दिए हैं।’
पटना के मनेर इलाक़े के रहने वाले विकास कुमार, मगध विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं।
उनका कहना है, ‘दलितों में यह चेतना है कि बीजेपी आरक्षण को खत्म कर सकती है या इसे कम कर सकती है। इसी के लिए ईडब्लूएस कैटिगरी को लाया गया है। आरक्षण का लाभ पाने वाले जो सामाजिक दंश को झेलते हैं, उनके मन में संविधान और आरक्षण के भविष्य को लेकर डर है और यह उनके वोटिंग पैटर्न में जरूर दिख रहा है।’
लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी लोग एक जैसा ही सोचते हैं।
बीजेपी पर भले ही संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने के आरोप विपक्ष लगा रहा है। पर बिहार में दलित नेता चिराग पासवान और जीतनराम मांझी बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में हैं।
दलित बस्ती का हाल
बीबीसी संवाददाता चंदन जजवाड़े सिवान जिले के सरावे गांव में एक दलित बस्ती पहुंचे।
विश्वकर्मा मांझी इस गाँव के सरपंच भी रह चुके हैं। उनका कहना है कि गांव में ऐसी बातों का कोई असर नहीं दिखता है।
वो कहते हैं, ‘हमारी समझ में संविधान को नहीं बदला जा सकता और न ही बदला जाना चाहिए। जो पढ़ा लिखा होगा जिसको जानकारी होगी उसे कोई डर नहीं होगा कि संविधान बदल जाएगा और आरक्षण छीन लिया जाएगा। चुनाव में इस तरह की बात होती रहती है लेकिन इससे कोई फक़ऱ् नहीं पडऩे वाला।’
इसी गांव के रहने वाले भीखू राम कहते हैं, ‘ऐसी कोई बात गांव में नहीं है। आरक्षण और संविधान खत्म कैसे हो जाएगा? अभी मोदी जी चावल और गेहूं देते हैं। लेकिन चुनाव किस मुद्दे पर होगा, लोग किस मुद्दे पर वोट करेंगे यह अभी 4- 5 दिनों में तय होगा?’
सरावे गांव के इंद्रजीत राम कहते हैं, ‘यहां ऐसा कोई डर नहीं है। ऐसे संविधान कैसे बदल देंगे। देश संविधान से चलता है। आरक्षण भी संविधान से मिला है। कोई भी पार्टी संविधान से चलती है। संविधान ऐसी चीज नहीं है कि आज लिख दिया, कल बदल दिया। हमारे लिए मुद्दा शिक्षा है।’
पटना के एएन सिंहा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ के प्रोफेसर विद्यार्थी विकास ने दलितों और आदिवासियों के सामाजिक आर्थिक पहलू पर काफी शोध किया है।
बीबीसी संवाददाता चंदन जजवाड़े से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘इसकी हकीकत जानने के लिए आपको गौर करना होगा कि आरक्षण और संविधान का फायदा किसे मिलता है। अगर आप बिल्कुल आम दलितों की बात करेंगे तो उन्हें चावल और रोटी की जरूरत ज़्यादा बड़ी दिखती है।’
‘लेकिन पढ़े लिखे तबक़े, जिनको आरक्षण का लाभ लेना है, उनमें यह बिल्कुल स्पष्ट है कि पिछले दस साल में संविधान के कई प्रावधानों पर धीरे-धीरे हमले किये गए हैं। एक बार तो राज्यसभा में प्रस्ताव भी गया था कि इससे सेक्युलरिज़्म जैसे शब्द हटा दिए जाएं, फिर इसपर मनोज झा (राजद के राज्यसभा सांसद) ने काफी बहस की थी। पढ़े लिखे दलितों और उनके परिवार को इसकी जानकारी भी है और इसका डर भी है कि अगर केंद्र में बीजेपी की सरकार लौटी तो उनका आरक्षण खत्म हो जाएगा।’
एसआर दारापुरी यूपी के रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं।
बीबीसी की सहयोगी पत्रकार नीतू सिंह से बातचीत में वो कहते हैं, ‘ये बिल्कुल चिंता है, आशंका है। जैसा कि भाजपा के लोग दावा भी कर रहे हैं कि अगर बहुमत से हमारी सरकार आई तो संविधान बदल देंगे।’
‘समय-समय पर आरक्षण के रिव्यू की बात करते हैं कि इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। तो ये दोनों दावे दलितों के हित में नहीं हैं। ये संविधान को बदल देंगे और जो आरक्षण है, उसे खत्म तो नहीं करेंगे लेकिन आरक्षण को नाकारा कर देंगे।’
अगर वाक़ई इस तरह का डर है तो क्या उनके वोटिंग पैटर्न पर भी इसका असर पड़ रहा है, इस सवाल के जवाब में दारापुरी कहते हैं, ‘अभी तक जो चुनाव हुआ है, दलितों ने इसी अंदेशे को देखते हुए एक रणनीति अपनाई है कि भाजपा हराओ और गठबंधन जिताओ। वो मायावती को भी वोट नहीं दे रहे हैं।’
‘लखीमपुरखीरी में अभी ख़ुद मैंने अपना वोट किया हैं। वहां पर मैंने देखा कि दलित का मुख्य लक्ष्य भाजपा को हराना है जिसका मतलब गठबंधन को जिताना है। जो जागरूक दलित हैं वो मायावती को कत्तई वोट नहीं दे रहे हैं। इस वक्त वोट डालने के पैटर्न में बहुत बड़ा परिवर्तन दिखाई देता है। वो भाजपा के खिलाफ खड़े दिख रहे हैं।’
वोटर्स क्या सोच रहे हैं?
उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जि़ले के पथखुरी गाने के कल्ला चौधरी दलित समाज से आते हैं।
वो कहते हैं, ‘हम पारंपरिक रूप से बहुजन समाज पार्टी के वोटर रहे हैं। उससे पहले कांग्रेस को वोट दिया करते थे। लेकिन अब माहौल दूसरा है, सरकार आरक्षण ख़त्म करने का प्रयास कर रही है, कर पाती है कि नहीं यह बात अलग है।’
कल्ला कहते हैं, ‘अलायंस को वोट करेंगे। एक तो हमारी पार्टी कमजोर है, दूसरा बीजेपी को हराना उद्देश्य है।’
बांदा जिले के तिन्दवारी गांव के एक दलित टोले में कुछ महिलाएं सुबह के वक़्त पानी भर रही हैं, थोड़ी ही दूर पर गांव के पुरुष ताश खेल रहे हैं। उनसे बात करने के लिए नीतू सिंह जब उनके पास रुकीं और चर्चा शुरू की तो ज़्यादातर लोगों को चुनाव में कोई रुचि नहीं दिखी, महिलाओं को तो यह भी नहीं पता था कि उनके यहां वोटिंग कब है।
हालांकि पुरुष इस मामले में जागरूक दिखे। मंशाराम कहते हैं, ‘सरकार मनुस्मृति को लागू करना चाहती है। दलित किस हाल में हैं यह तो टोले को देखकर अंदाज़ा लगा ही सकते हैं। ऐसे में आरक्षण भी खत्म कर देंगे तो हमारा क्या होगा?’
वह कहते हैं, ‘हम बसपा को वोट देंगे। हम तो बसपा को ही जानते हैं।’
सपा-कांग्रेस गठबंधन को वोट न देने का कारण बताते हुए रामाधार चौधरी कहते हैं, ‘उनकी सरकारों में गुंडागर्दी ज़्यादा होती है। हमारे लोगों के साथ अक्सर मार पीट जैसी घटनाएं होती हैं। ऐसे में हम क्या करें वोट बसपा को ही देंगे, बहन जी ने हमें बहुत अधिकर दिए हैं।’
महाराष्ट्र में भी दलितों के बीच इस बात को लेकर चिंता जताई जा रही है कि संविधान के साथ कुछ छेड़छाड़ या बदलाव की आशंका है।
कई दलित बहुल इलाक़ों में यह एक चुनावी मुद्दा भी बनता हुआ नजऱ आया। 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र में दलितों की आबादी करीब 12 फीसद हैं।
विदर्भ में दलितों और आदिवासियों की एक बड़ी संख्या रहती है। यहां पहले दो फेज में चुनाव हुए थे। ना सिर्फ राजनीतिक दल और उनके कार्यकर्ता बल्कि आम लोग और सामाजिक कार्यकर्ता भी इस मुद्दे पर बातचीत कर रहे हैं।
नागपुर स्थित वरिष्ठ पत्रकार रवि गजभिए ने बीबीसी संवाददाता मयूरेश कोण्णूर से बातचीत करते हुए कहा, ‘चुनाव की घोषणा से पहले ही ईवीएम को लेकर यहां जो विरोध प्रदर्शन हुए थे उसी दौरान नागपुर और विदर्भ के इलाक़ों में संविधान बदलने की आशंका पर बातचीत होने लगी।’
‘नागपुर के संविधान चौक पर कुछ दलित कार्यकर्ता, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता धरने पर बैठे थे। उसी से यह बात निकलने लगी कि यह लोग (बीजेपी) ईवीएम के सहारे 400 सीटें जीतेंगे और फिर संविधान पर खतरा मंडराने लगेगा। कई कार्यकर्ताओं ने इसे दलित और पिछड़ों की बस्तियों में जाकर लोगों को बताना शुरू किया। और इस तरह विदर्भ के गांव-गांव में यह बात पहुंच गई।’
हालांकि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी रैलियों में कई बार यह कहा कि संविधान के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होगी। 17 मई को मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई रैली में भी मोदी ने दलितों को विश्वास दिलाने की कोशिश की कि बाबा साहेब आंबेडकर के ज़रिए लिखे गए संविधान को कोई नहीं छू सकता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा एनडीए में शामिल कई दलित नेता भी कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के इन दावों को पूरी तरह खारिज करते हैं।
केंद्रीय सामाजिक न्याय राज्य मंत्री रामदास अठावले ने तो यहां तक कह दिया कि अगर ऐसा हुआ तो वो इस्तीफ़ा दे देंगे।
अठावले महाराष्ट्र के एक प्रमुख दलित नेता हैं और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) के अध्यक्ष हैं।
महाराष्ट्र के भंडारा-गोंदिया लोकसभा सीट से एनडीए गठबंधन के उम्मीदवार सुनील मेंढे के लिए प्रचार करने अठावले गोंदिया गए थे।
अठावले ने उस समय पत्रकारों से कहा था, ‘वर्तमान एनडीए सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा ना होने के कारण कांग्रेस अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोगों को गुमराह करने का प्रयास कर रही है और आरोप लगा रही है कि अगर यह सरकार 400 से अधिक सीटें जीतती है तो वह संविधान बदल देगी। उनका आरोप पूरी तरह निराधार है। यदि सरकार ऐसा कोई प्रयास करती है
तो मैं मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दूंगा और भाजपा से समर्थन वापस ले लूंगा।’
शोलापुर एक आरक्षित सीट है। वहां एक चुनावी रैली के दौरान मोदी ने कहा, ‘कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के लोग झूठ फैला रहे हैं। वो लोगों से कह रहे हैं कि बीजेपी संविधान को बदलकर आरक्षण ख़त्म कर रही है। लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि अगर ख़ुद बाबासाहेब आंबेडकर भी आ जाएं और संविधान के बदलने की मांग करें तो यह संभव नहीं है।’
कश्मीर में बीजेपी लोकसभा चुनाव क्यों नहीं लड़ रही है?
दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे ने अपने मुखपत्र सामना में एक इंटरव्यू में कहा, ‘उन्हें (बीजेपी) यह बात पसंद नहीं है कि उन्हें डॉक्टर आंबेडकर के लिखे संविधान का पालन करना पड़ता है जो कि दलित समाज से आते थे। इसीलिए बीजेपी इसे (संविधान) बदलने की कोशिश कर रही है।’
मुंबई में भी इस पर चर्चा होते हुए देखा गया है। दलित कार्यकर्ता जितेंद्र निकलजे ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘कई लोग सोचते हैं कि चुनाव के कारण यह मुद्दा उठ रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। दलितों में यह डर एक लंबे समय से समाया हुआ है।’
‘जब उन्होंने देखा कि सीएए के जरिए मुसलमानों को दबाया जा रहा है तो वो भी सोचने पर मजबूर हो गए कि क्या होगा अगर हम भी अपने अधिकार खो देंगे तो। संविधान को बदलना तो असंभव है लेकिन इसको लेकर दलितों में जो डर है उससे इनकार नहीं किया जा सकता है।’
एक सरकारी अधिकारी ने अपना नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘हर साल छह दिसंबर को मुंबई में संविधान की हजारों कॉपी बिकती है। दलित यह बात जानते हैं कि उन्हें जो भी अधिकार मिले हैं वो डॉक्टर आंबेडकर और उनके बनाए गए संविधान से मिले हैं। इसलिए जब कभी भी इसे(संविधान) छूने की बात होती है तो दलित समाज के लोग आक्रामक हो जाते हैं।’
दलित समाज से आने वाले सचिन मगाडे एक होटल में मैनेजर की नौकरी करते हैं। उनका मानना है कि राजनीतिक पार्टियां संविधान के प्रति दलितों की भावना का राजनीतिक लाभ लेना चाहती हैं।
वो कहते हैं, ‘उन्हें (राजनीतिक पार्टियां) पता है कि हमलोग बाबासाहेब और संविधान के कारण राजनीतिक तौर पर जागरूक हैं। यह एक भावनात्मक मुद्दा है। इस भावना से दलित लामबंद होते हैं। कोई भी संविधान को नहीं बदल सकता है।’
दलितों के मुद्दे पर लंबे समय से काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक अर्जुन डांगले कहते हैं, ‘जहाँ तक महाराष्ट्र के दलित मतदाताओं का सवाल है, उनके लिए यह एक अहम चुनावी मुद्दा है। यह गलत धारणा है कि दलित लोग अपने नेताओं के पीछे भागते हैं। इस बार अलग बात है।’
अर्जुन डांगले के अनुसार, कर्नाटक से बीजेपी सांसद अनंत कुमार हेगड़े के 400 पार और संविधान संबंधित बयान ने दलितों में इस बात को लेकर चर्चा ज्यादा होने लगी।’
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर सुहास पालशिकर कहते हैं, ‘यह मुद्दा दलित वोटरों को ज़रूर प्रभावित करेगा। दुर्भाग्य से हमारे समाज में यह बात मानी जाती है कि आंबेडकर और संविधान का मुद्दा सिफऱ् दलितों तक सीमित है। और इसीलिए यह दलितों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है।’
पंजाब में कुल आबादी के कऱीब 33 फ़ीसद लोग दलित समाज से आते हैं।
पंजाब की कुल 13 लोकसभा सीटों में से कुछ पर दलित मतदाताओं की संख्या 40 फीसद से भी ज़्यादा है।
पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर मोहम्मद ख़ालिद ने बीबीसी संवाददाता अर्शदीप कौर से कहा, ‘संविधान को बदलना या आरक्षण खत्म करना एक लंबी प्रक्रिया है। मैं तो कहूंगा कि यह करीब-करीब असंभव है। इसके लिए राज्यों की अनुमति भी जरूरी होती है।’
हालांकि वो यह भी कहते हैं कि अगर दलितों को लगने लगा कि आरक्षण ख़त्म हो सकता है तो यह उनके वोटिंग पैटर्न को भी प्रभावित करेगा। (bbc.com/hindi)
क्या प्रचंड गर्मियों में ही आम चुनाव कराए जाने जरूरी हैं या इनका समय थोड़ा बदला जा सकता है. यह जानने के लिए डीडब्ल्यू ने बात की आम मतदाताओं और चुनाव विशेषज्ञों से.
डॉयचे वैले पर रामांशी मिश्रा की रिपोर्ट-
"हर बार आम चुनाव भयंकर गर्मी के मौसम में होते हैं. तेज धूप होने के कारण लोग घर से निकलने से कतराते हैं क्योंकि मतदान स्थलों पर लंबी लाइन में कोई खड़ा नहीं होना चाहता." यह कहना है, लखनऊ के अंकित सिंह का, जो तपती गर्मी को मतदान में कमी की अहम वजह मानते हैं.
भारत में अभी तक छह चरणों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं, लेकिन हर जगह मतदान में गिरावट दर्ज की जा रही है. लखनऊ में भी पांचवें चरण में मतदान संपन्न हुआ, जहां 2019 के मुकाबले मतदान प्रतिशत 2.55 प्रतिशत अंक घटकर 52.12 प्रतिशत रहा. इस सीट पर बीजेपी के टिकट से रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह एक बार फिर सबसे प्रमुख चेहरा हैं.
पूर्व राष्ट्रपति ने की मौसम अनुकूल चुनाव की वकालत
घटते मतदान के पीछे बढ़ती गर्मी को भी एक बड़ी वजह माना जा रहा है. इस समय उत्तर भारत के तमाम इलाकों में पारा तकरीबन 50 डिग्री को छूने को तैयार है. कुछ दिन पहले चुनाव प्रचार अभियान के दौरान केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भी गर्मी के चलते मंच पर बेहोश हो गए थे. करीब 98 करोड़ मतदाताओं वाले भारतीय लोकसभा चुनाव सात चरणों में हुए हैं. उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर सभी सातों चरणों के दौरान मतदान हो रहा है. जहां अप्रैल के मुकाबले अब गर्मी ज्यादा बढ़ चुकी है.
बढ़ती गर्मी और हीटवेव स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अखबारों में एक आलेख लिखा है कि भारत में मौसम अनुकूल चुनाव कराए जाने का समय आ गया है और अब इससे जुड़ी संभावनाओं को तलाशा जाना चाहिए. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद एक राष्ट्र-एक चुनाव पर गठित समिति के प्रमुख भी हैं.
मतदान कर्मी भी परेशान
गर्मी में परेशानियों से सिर्फ मतदाता ही नहीं बल्कि मतदान स्थल पर कार्यरत पीठासीन अधिकारियों को भी दो चार होना पड़ता है. रजत राज रस्तोगी चुनावों में पीठासीन अधिकारी की भूमिका में हैं. वह कहते हैं, "भीषण गर्मी में ईवीएम को लेकर आने के लिए तेज धूप में ही घंटों रहना पड़ता है. हमारी चार-पांच लोगों की टीम होती है. सभी लोग गर्मी में ईवीएम की रखवाली भी करें, अपना भी ख्याल रखें और मतदान भी सुचारु रूप से करवाएं, यह जिम्मेदारी निभाना काफी मुश्किल है."
मतदान स्थल ज्यादातर सरकारी स्कूलों में बनाए जाते हैं जहां पर बिजली और पानी की बहुत उचित व्यवस्था नहीं होती है. उनकी मांग है कि सुबह से शाम तक भीषण गर्मी में रहकर मतदान करवाने वाले कर्मियों के लिए भी उचित व्यवस्था की जानी चाहिए.
मौसम विभाग ने दिए बचाव के उपाय
तेज गर्मियां का मौसम मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी भारत, मध्य, पूर्व और उत्तर प्रायद्वीपीय भारत के मैदानी इलाकों में मार्च से जून के दौरान होता है. ये गर्म हवाओं का महीना होता है.
लखनऊ स्थित आंचलिक मौसम विज्ञान विभाग के निदेशक डॉ. मनीष रानाल्कर कहते हैं, "हम लगातार जिला प्रशासन के संपर्क में रहते हैं और उन्हें रोज का पूर्वानुमान भेजते हैं. बढ़ती गर्मी को देखते हुए मतदान स्थल पर भी लू से बचाव के लिए सुझाव पट्टी और कुछ अन्य व्यवस्था की सलाह भी दी गयी है.” मतदान स्थलों पर बुजुर्गों और गर्भवतियों के लिए बैठने की व्यवस्था और लू लगने पर पास के अस्पताल में आकस्मिक व्यवस्था का भी सुझाव दिया गया है.
पार्टियां सहमत हों तो बदल जाए चुनावों का मौसम
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त ओपी रावत बताते हैं कि लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने से पहले चुनाव संपन्न हो जाना जरूरी होता है. इस साल 16 जून को यह कार्यकाल समाप्त होने वाला है. ऐसे में उससे पहले चुनाव होने जरूरी है. ऐसे में हीटवेव के दौरान मतदान होने या न होने पर कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता.
ओपी रावत कहते हैं, "पहले चुनाव फरवरी में और एक दिन पर हो जाते थे लेकिन अब सभी पार्टियों की मांग सेंट्रल पैरामिलेट्री फोर्स की होती है जो कि सीमित है. ऐसे में कई चरणों में मतदान किए जाते हैं." उनके मुताबिक वर्तमान में भी चुनाव फरवरी या मार्च में कराए जा सकते हैं, लेकिन सभी पार्टियों की सहमति होनी जरूरी है."
क्या ई-वोटिंग बन सकती है विकल्प?
2024 में युवा मतदाताओं की संख्या भी सबसे अधिक है. ऐसे में कई लोग मानते हैं कि ई-वोटिंग भी एक विकल्प हो सकता है. इसपर रावत कहते हैं, "निर्वाचन आयोग 2015 से ही वोटिंग करवाने की कोशिश कर रहा है. तब से ही वॉलंटियरी बेसिस पर आधार और मतदाता पहचान पत्र को जोड़ने की कवायद शुरू हो गई थी और 20 करोड़ मतदाताओं का वोटर कार्ड, आधार कार्ड से लिंक हो भी गया था.”
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर निजता के उल्लंघन के आधार पर यह रोक दिया गया. कोर्ट के आदेश के बाद फिर संसद से निजता के अधिकार एक्ट में जरूरी बदलाव के बाद यह प्रक्रिया शुरू की गई है. इसका उद्देश्य यही है कि कहीं भी आधार कार्ड से मतदाता की बायोमेट्रिक पहचान सुनिश्चित कर ई-वोटिंग कराई जा सके. हालांकि उनके मुताबिक ऐसा कोई कदम सभी पार्टियों की सहमति होने के बाद ही उठाया जा सकेगा.
मतदाताओं के लिए सुविधा पर जागरूकता नहीं
2017 में मतदाताओं की सुविधा के लिए निर्वाचन आयोग ने ‘क्यू मैनेजमेंट सिस्टम' नाम का एक ऐप बनाया था जिसमें पोलिंग स्टेशन पर कितनी भीड़ है, इसके बारे में जानकारी मिल सकती थी. रावत कहते हैं, "अभी भी निर्वाचन आयोग की ओर से 'क्यू मैनेजमेंट सिस्टम' और 'सी-विजिल' समेत कई ऐसी व्यवस्थाएं हैं, लेकिन इसके बारे में लोगों में जागरूकता की कमी है. इस वजह से लोग हीटवेव या अन्य बातों के बारे में सोचकर मतदान करने नहीं जाते.”
गर्मी के अलावा लोग, मतदान स्थलों पर समान रखने के लिए पर्याप्त प्रबंध ना होने को भी समस्या मानते हैं. लखनऊ निवासी 27 वर्षीय इलेक्ट्रिकल इंजीनियर अंकित कहते हैं, "जो व्यक्ति अकेले ही मतदान स्थल पर जाता है उसे मोबाइल और पर्स जैसे जरूरी सामानों को रखने की कोई सुविधा नहीं मिलती और इन्हें मतदान स्थल के अंदर ले जाने की अनुमति नहीं होती. इस वजह से भी लोग जाने से कतराते हैं." (dw.com)
-माजिद जहांगीर
भारत-प्रशासित कश्मीर की श्रीनगर और बारामूला लोकसभा सीट पर रिकॉर्ड वोटिंग होने के बाद 25 मई को अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट पर भी वोटिंग प्रतिशत में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। चुनाव अधिकारियों के मुताबिक़ इस सीट पर 53 प्रतिशत मतदान रिकॉर्ड किया गया है।
जम्मू- कश्मीर के मुख्य निर्वाचन अधिकारी पांडुरंग कोंडबारो पोल ने श्रीनगर में प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि, ‘साल 2014 के चुनाव में 49.58 प्रतिशत मतदान रिकॉर्ड किया गया था जबकि साल 1996 में 47.99 प्रतिशत वोट पड़ा था।’
जम्मू-कश्मीर की पांच सीटों पर 2024 के लोकसभा चुनाव में कुल 58 प्रतिशत मतदान रिकॉर्ड किया गया है जो कि बीते पैंतीस वर्ष में सबसे ज़्यादा है।
अनंतनाग लोकसभा सीट में दो साल पहले हुए परिसीमन के दौरान जम्मू क्षेत्र के पुँछ और राजौरी के इलाकों को भी शामिल किया गया था। परिसीमन के बाद इस सीट पर शनिवार को पहली बार वोटिंग हुई है।
2019 में इस अनंतनाग लोकसभा सीट पर कुल 8.9 प्रतिशत वोटिंग रिकॉर्ड की गई थी।
पांडुरंग के। पोल ने बताया कि अनंतनाग-राजौरी की इस सीट के अधीन पडऩे वाले कुलगाम और अनंतनाग में वोट का प्रतिशत कम रहा और इन दो जगहों पर 32-33 प्रतिशत मतदान रिकॉर्ड किया गया। लेकिन, इसी सीट के सुरनकोट में सबसे अधिक वोटिंग रिकॉर्ड की गई जहाँ 68 प्रतिशत वोटिंग दर्ज की गई है।
श्रीनगर और बारामूला लोकसभा सीटों पर 13 और 20 मई को वोट डाले गए थे।
श्रीनागर लोकसभा सीट पर करीब 38.99 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, जो बीते तीस वर्षों में अपने आप में एक रिकॉर्ड है।
इसी तरह बारामूला लोकसभा सीट पर बीते चार दशकों में सबसे ज़्यादा दर्ज किया गया है जो करीब 59 प्रतिशत है।
अनुच्छेद 370 का फैक्टर
शनिवार को अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट जिला अनंतनाग के मटन पोलिंग बूथ पर 65 साल के मतदाता शौकत अहमद गणाई ने बीबीसी के साथ बातचीत में बताया कि उन्होंने कऱीब तीन दशकों से अधिक समय के बाद वोट डाला है।
शौकत अहमद बताते हैं कि 2024 में मत डालने से पहले उन्होंने 1987 में आखिरी बार वोट डाला था। उन्होंने यह भी बताया कि पहली बार उन्होंने वोट डाला था तो उस समय वो बेरोजगार थे और नौकरी पाने की चाहत के साथ उन्होंने वोट दिया था।
उन्होंने बताया, ‘पहली बार वोट देने के बाद करीब पैंतीस वर्षों के बाद वोट दिया है। इतने लंबे समय तक वोट न देने का कारण कुछ डर भी था और कुछ खास दिलचस्पी भी नहीं थी। कश्मीर में अफरा-तफरी का माहौल भी था।’
‘अब महसूस होता है कि कुछ हालात भी बेहतर हो रहे हैं और एक समाज के लिए वोट देना अच्छी बात है। वोट देने का मकसद अब ये है कि पढ़े लिखे लोगों को सरकारी नौकरी मिले।’
वो बताते हैं, ‘2019 में आर्टिकल 370 खत्म किया गया। हमारा एक विशेष दर्जा था, जो अब नहीं रहा। हमारी एक क्षेत्रीय पहचान थी, जो अब ़त्म हो गई।’
‘अब हमारे बच्चों को पूरी देश में हर शिक्षा में एक कड़े मुक़ाबले का सामना करना पड़ रहा है। हमारे पास वो संसाधन भी नहीं हैं। इस वजह से आर्टिकल 370 का हटना भी चुनाव में वोट देने का एक मुद्दा है।’
इस पोलिंग बूथ पर सुबह दस बजे तक लोगों ने धीरे-धीरे आना शुरू किया जिसके बाद लोगों की संख्या बढ़ती गई। वहीं श्रीनगर लोकसभा सीट पर वोट डालने वाले शाबिर अहमद ने बताया कि उन्होंने इस चुनाव में पहली बार वोट दिया है। उन्होंने यह भी बताया कि जिस तरह से कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाया गया, उनका वोट उस फैसले के खिलाफ था।
शाबिर का कहना था कि वो दस साल पहले फस्र्ट टाइम वोटर बन गए थे लेकिन वोट उन्होंने आज पहली बार डाला है।
‘जीवन में पहली बार डाला वोट’
पांच अगस्त 2019 में जम्मू -कश्मीर से केंद्र सरकार ने आर्टिकल 370 हटा कर यहां का विशेष दर्जा खत्म कर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया। इसके बाद केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में पहली बार कोई बड़ा चुनाव हो रहा है।
बारामूला सीट पर मतदान करने वाले पचास वर्ष के डॉक्टर इकबाल शाह ने बताया कि उन्होंने अपने जीवन में पहली बार अपने मत का इस्तेमाल किया है। शाह ने बताया कि इस बार मत का इस्तेमाल करने का कारण ये था कि उन्हें जमीन पर कुछ तबदीली नजर आ रही है।
वो कहते हैं, ‘बीते कुछ वर्षों में सबसे बड़ी तब्दीली ये देखने को मिली कि सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारी काम-काज को ढंग से अंजाम देते नजर आ रहे हैं। दूसरी बात ये महसूस हुई कि बीते कुछ वर्षों से विकास के काम जमीन पर नजर आने लगे।’
‘पहले ये होता था कि वो वोट मांगने आते थे और सडक़ देने का वादा करते थे, वो कभी फिर सडक़ भी नहीं देते थे। मैंने उसको वोट दिया, जो मेरे पास वोट मांगने भी नहीं आया।’
‘बीते पांच वर्षों में सरकार ने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए बहुत काम किया और अभी बहुत कुछ करना बाकी है।आम लोगों के अभी दो ही मसले हैं। एक मसला भ्रष्टाचार है और दूसरा विकास है।’
यह पूछने पर कि क्या अगर बीजेपी का उमीदवार मैदान में होता, तो क्या फिर आप उन्हीं को वोट देते, तो उनका जवाब था, ‘गुड गवर्नेंस में किसी पार्टी का नाम नहीं लेना चाहिए, गुड गवर्नेंस वाली पार्टियां भी वोट लेने का हक रखती हैं।’
अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट के जिला कुलगाम के दमहाल पोलिंग बूथ पर वोट देने के बाद यास्मीन गनी ने बातचीत में बताया कि वो हमेशा से वोट डालती रही हैं। उनका कहना था कि इस बार उन्होंने बीजेपी को कश्मीर से दूर रखने के लिए वोट दिया है।
जम्मू-कश्मीर पूरे भारत में एकमात्र मुस्लिम बहुल केंद्र शासित प्रदेश है। साल 1989 में जब कश्मीर में चरमपंथ का दौर शुरू हुआ तो तभी से कश्मीर में अलगावादी या चरमपंथी संगठन, आम लोगों को चुनाव से दूर रहने को कहती रही हैं।
हालांकि 2024 के चुनाव में पहली बार कश्मीर में किसी अलगावादी या चरमपंथी संगठन ने लोगों से चुनाव बहिष्कार की अपील नहीं की। इससे ये कहा जा सकता है कि चुनाव का विरोध करने वाली कोई भी आवाज किसी भी दिशा में सुनाई नहीं दी।
राजनीतिक सरगर्मी
कश्मीर में चुनाव के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले अलगावादी नेताओं को या तो जेलों में नजरबंद कर दिया गया है और कुछ का निधन हो चुका है।
जम्मू -कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद कश्मीर में एक लंबे समय तक प्रतिबंध लगाए गए और कई राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया।
जम्मू-कश्मीर के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी घरों में कैद करके रखा गया था। इस दौरान जम्मू-कश्मीर में लंबे समय तक एक तरह का सियासी सन्नाटा छाया रहा। 5 अगस्त 2019 के बाद कश्मीर में किसी भी बड़े सियासी प्रदर्शन की ना तो भारतीय सियासी दलों को इजाजत दी जा रही थी और न ही किसी अलगावादी संगठन या नेता को। ऐसे में चुनाव के दौरान कश्मीर में पहली बार लोग और सियासी दल सडक़ों पर चुनावी सरगर्मियों में जुटे नजर आए।
मुख्य रूप से कश्मीर में पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी और जम्मू-कश्मीर पीपल्स कांफ्रेंस चुनाव लड़ रहे हैं।
कश्मीर में इस बार बीजेपी ने अपना कोई भी उम्मीदवार मैदान में नहीं उतारा है।
हालांकि इस बात की चर्चा हो रही है कि बीजेपी अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी और सज्जाद लोन की पीपल्ज कॉन्फ्रेंस का समर्थन कर रही है। दोनों ही दलों को बेजीपी का बहुत करीबी समझा जा रहा है।
कानून व्यवस्था का फैक्टर
कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुलाह बारामूला सीट से चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि महबूबा मुफ्ती अनंतनाग-राजौरी से चुनावी मैदान में हैं।
दोनों ही दल नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी 05 अगस्त 2019 के केंद्र सरकार के फैसले के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों ही दलों ने लोगों से इसी मुद्दे को लेकर वोट भी माँगा है।
इस बार वोटिंग प्रतिशत बढऩे का कारण कश्मीर में कानून एवं व्यवस्था की बेहतर स्थिति को भी माना जा रहा है। श्रीनगर लोकसभा सीट पर कुल चौबीस उम्मीदवार मैदान में थे। इस लोकसभा क्षेत्र के लिए कुल 2,135 पोलिंग बूथ बनाए गए थे।
इसी तरह उतारी कश्मीर की बारामूला सीट पर करीब 59 प्रतिशत मतदान रिकॉर्ड किया गया, जो श्रीनगर सीट से करीब 23 ज्यादा था।
पांडुरंग के। पोल के मुताबिक, बारामूला लोकसभा सीट पर 1984 के बाद पहली बार इतनी संख्या में लोगों ने अपने मत का इस्तेमाल किया है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 1984 में इस सीट पर 61.09 प्रतिशत मतदान रिकॉर्ड किया गया था। वहीं 2019 में इस लोकसभा सीट पर 37.41 मत रिकॉर्ड किया गया था।
रिकॉर्ड वोटिंग के कारण
विश्लेषक कहते हैं कि कश्मीर में इस बार जिस तरह से लोगों ने बड़े पैमाने पर मत का इस्तेमाल किया है, उसके कई कारण रहे हैं।
कश्मीर यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर नूर अहमद बाबा कहते हैं कि पांच अगस्त 2019 के बाद कश्मीर में राजनीति का प्रसंग ही बदल गया है।
वो बताते हैं, ‘एक तो कश्मीर में अलगावाद राजनीतिक नक्शे से गायब है। दूसरी बात ये है कि कई वर्षों के बाद कश्मीर में किसी बड़े चुनाव में लोगों को अपनी राय सामने रखने का मौका मिला है।’
‘लोगों की चुनाव में भारी भागीदारी से ये भी साबित हो रहा है कि यहां की जनता की लोकतंत्र में दिलचस्पी है। लेकिन, लोगों के वोट देने के पीछे क्या कारण रहा, उसकी पूरी जानकारी चार जून को चुनाव नतीजे सामने आने के बाद ही किया जा सकता है कि लोगों ने किस मुद्दे को लेकर वोट दिया है?’
बाबा का कहना था, ‘अगर नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के उमीदवार जीत जाते हैं तो फिर ये भी साफ होगा कि लोग 05 अगस्त 2019 के फैसले के साथ नहीं हैं। अगर अपनी पार्टी या पीपल्ज पार्टी को लोगों का ज़्यादा वोट मिला तो ये समझा जाएगा कि आर्टिकल 370 के हटाने के फ़ैसले को लोगों की हरी झंडी मिल गई है।’ वहीं कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक तारिक बट कहते हैं कि इस बार लोगों का बड़ी संख्या में वोट देने के दो खास कारण हैं। उनका कहना था कि एक तो अलगावादी बहिष्कार का कोई भी फैक्टर नहीं था और दूसरा कारण आर्टिकल 370 को लेकर लोगों में अभी तक काफी गम और गुस्सा है।
अपनी आवाज संसद में भेजने की चाहत
भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने 14 मई 2024 को समाचार एजेंसी एएनआई के एक इंटरव्यू में बताया कि कश्मीर में वोटिंग का प्रतिशत जिस तरह से इस बार बढ़ गया है वो आर्टिकल 370 को खत्म करने की कामयाबी को दर्शाता है।
नूर अहमद बाबा गृहमंत्री अमित शाह ने इस दावे पर बताते हैं कि, ‘वो तो ऐसा कहेंगे ही क्योंकि आर्टिकल हटाने के पीछे भी वही लोग हैं। सारी तस्वीर चुनाव के बाद स्पष्ट हो जाएगी।’
दरअसल कश्मीर में बीते पांच वर्षों में पथरबाज़ी की घटनाएँ थमी हैं, हड़ताल का आह्वान अब कोई नहीं करता और हिंसा भी कुछ हद तक कम हो गई है।
हालांकि समय-समय पर इस दौरान टार्गेटेड किलिंग्स की घटनाएं होती रही हैं। इन टार्गेटेड किल्लिंग्स में खासकर कश्मीरी पंडित और प्रवासी मजदूर मारे गए हैं। साल 2019 के बाद भी टार्गेटेड किलिंग्स होती रही हैं। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माक्र्सवादी) नेता और पूर्व विधायक मोहम्मद यूसफ तारिगामी कश्मीर में लोगों का मतदान देने की भारी वजह ये मानते हैं कि लोग अपनी चिंताओं को वोट के माध्यम से समाधान चाहते हैं। उन्होंने कहा कि लोगों को अब समझ आ गया है कि वोट के बगैर अब उनके पास और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
वहीं पीडीपी के प्रवक्ता मोहित भान बताते हैं, ‘पांच अगस्त के बाद ये बताया जा रहा था कि क्षेत्रीय सियासी दलों की अब कोई अहमियत नहीं है। लेकिन ये कश्मीर के क्षेत्रीय सियासी दल हैं, जिन्होंने लोगों को बड़ी संख्या में बाहर निकलने में अहम किरदार निभाया है।’
‘दूसरी बात ये कि, लोगों की जिस आवाज को दबाने की कोशिश की जा रही थी तो उस आवाज को संसद में भेजने के लिए लोगों ने वोट दिया है।’
कश्मीर में बीजेपी के प्रवक्ता अल्ताफ ठाकुर बड़ी संख्या में लोगों के मतदान को कश्मीर में हिंसा के दौर का अंत बताते हैं और लोग वोट देने को सही रास्ता मान चुके हैं।
लोकसभा चुनावों के दौरान अब तक पाकिस्तान विरोधी भावनाएं नहीं भड़की हैं. हालांकि, भाजपा ने डीडब्ल्यू से कहा कि कश्मीर में वर्षों से चल रहे पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की वजह से यह भारत के लिए भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है.
डॉयचेवैले पर मुरली कृष्णन का लिखा-
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर की विवादास्पद टिप्पणियों वाला पुराना वीडियो हाल में फिर से वायरल हुआ। इससे लोकसभा चुनाव के अंतिम दो चरणों में पाकिस्तान विरोधी बयानबाजी को लेकर गहमागहमी बढ़ गई है।
इस वीडियो में अय्यर पाकिस्तानियों को ‘भारत की सबसे बड़ी संपत्ति' बता रहे हैं। साथ ही उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को पाकिस्तान के साथ फिर से बातचीत शुरू करनी चाहिए। मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने भी उनके बयानों का समर्थन किया।
भारत के चुनावों में पाकिस्तान की भूमिका
यह वीडियो फिर से वायरल होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के नेताओं को चुनावी मौसम में कांग्रेस पार्टी को पाकिस्तान के प्रति ‘नरम’ दिखाने का मौका मिल गया।
बिहार में एक रैली के दौरान पीएम मोदी ने अपने तीखे हमले में कहा, ‘अगर पाकिस्तान ने चूडिय़ां नहीं पहनी हैं, तो हम उन्हें चूडिय़ां पहना देंगे। उनके पास आटा नहीं है, उनके पास बिजली नहीं है, और अब मुझे पता चला है कि उनके पास चूडिय़ों की भी कमी है।’
हाल ही में मोदी ने कहा था कि आतंकवाद से निपटने के भारत सरकार के रुख में कांग्रेस शासन के दौरान अपनाए गए दृष्टिकोण की तुलना में बहुत बड़ा बदलाव देखा गया है।
महाराष्ट्र के लातूर में एक चुनावी रैली के दौरान मोदी ने कहा, ‘कांग्रेस शासन के दौरान खबरों की सुर्खियां होती थी कि भारत ने आतंकी गतिविधियों के बारे में पाकिस्तान को एक और डोजियर सौंपा। आज भारत डोजियर नहीं भेजता, बल्कि आतंकियों के घर में घुसकर उन्हें मारता है।’
फिलहाल मौजूदा लोकसभा चुनावों में पाकिस्तान विरोधी भावनाएं अब तक नहीं भडक़ी हैं। हालांकि, पाकिस्तान से जुड़ा मुद्दा अब नेताओं के लिए एक तरह से अवसरवादी मुद्दा बन गया है। हर कोई पाकिस्तान से जुड़ी भावनाओं का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए अपने-अपने तरीके से करता है।
पिछले कुछ हफ्तों में, राजनीतिक दलों ने पाकिस्तान पर तीखी टिप्पणियां की हैं। जबकि, विदेश नीति से जुड़े मुद्दे अभी तक चुनाव प्रचार के दौरान प्रमुखता से नहीं उठाए गए हैं।
भाजपा प्रवक्ता शाजिया इल्मी ने डीडब्ल्यू से कहा, ‘पाकिस्तान भारत के लिए एक भावनात्मक मुद्दा बना हुआ है। 2008 के मुंबई हमलों और 2019 में पुलवामा में अर्धसैनिक बलों पर हुए हमलों के साथ-साथ, कई वर्षों तक सीमा पार आतंकवाद और कश्मीर में पाकिस्तान प्रायोजित उग्रवाद की वजह से यह भारत के लोगों के दिमाग में पूरी तरह बैठ गया है। मणिशंकर अय्यर और फारूक अब्दुल्ला की टिप्पणियां विवादास्पद और निंदनीय हैं।’
2019 में बड़ा मुद्दा था पाकिस्तान
जब 2019 में नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार सत्ता में वापसी की थी, तब भाजपा के अभियान का मुख्य मुद्दा पाकिस्तान था। दरअसल, 2019 के मतदान से कुछ महीने पहले, भारत प्रशासित कश्मीर में एक आत्मघाती हमलावर ने भारतीय अर्धसैनिक बलों को ले जा रहे वाहनों के काफिले पर हमला कर दिया था। इस हमले में 46 सैनिकों की मौत हो गई थी।
इसके जवाब में, भारत ने पाकिस्तान के अंदर बालाकोट में लड़ाकू विमानों से हमला किया था। भारत का दावा है कि यहां उसने उन आतंकवादियों को मार दिया जो भारत में हमले की योजना बना रहे थे।
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा कि मौजूदा चुनावी चर्चा पाकिस्तान नीति से ज्यादा राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर है।
वह कहते हैं, ‘2019 में हमने देखा कि पुलवामा हमले और बालाकोट में भारत की जवाबी कार्रवाई के बाद, भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मजबूत अभियान चलाया। इस बार के चुनावी अभियान में राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा उस तरह का मुद्दा नहीं दिख रहा है। हालांकि, मौजूदा सत्तारूढ़ सरकार कश्मीर और पाकिस्तान से जुड़ी अपनी नीतियों का श्रेय लेने पर जोर दे रही है।’
राजनीतिक दांव-पेच
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 की वजह से जम्मू और कश्मीर को अपना संविधान और कुछ हद तक आंतरिक स्वायत्तता की अनुमति मिली हुई थी। हालांकि, भारत सरकार ने 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया। राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेश, जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख में विभाजित कर दिया।
बिसारिया कहते हैं, ‘बालाकोट हवाई हमले और अनुच्छेद 370 हटाए जाने के फैसले की अब पांच साल बाद समीक्षा की जा सकती है। साथ ही, यह दावा किया जा सकता है कि बालाकोट हवाई हमले ने आतंकवादियों को यह डर दिखा दिया कि अगर वे भारत के खिलाफ कोई हरकत करेंगे तो उन्हें कड़ा जवाब दिया जाएगा। वहीं, अनुच्छेद 370 हटाने से जम्मू और कश्मीर में शांति स्थापित करने में मदद मिली है।’
हाल की चुनावी रैलियों में देश के गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस बात पर जोर दिया कि इस बार सत्ता में आने के बाद भारत सरकार पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर को ‘वापस हासिल करने’ के लिए अतिरिक्त कदम उठाएगी।
ये बातें हाल ही में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के कई इलाकों में हुए विरोध प्रदर्शनों के बारे में किए गए सवालों के जवाब में कही गई थीं। वहां गंभीर आर्थिक संकट के बीच खाने और बिजली की बढ़ती कीमतों के खिलाफ लोग सडक़ों पर उतर आए थे।
शाह ने चुनावी रैलियों में कहा, ‘मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसी नेता कहते हैं कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके पास (पाकिस्तान) परमाणु बम है। लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि ‘पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर (पीओके)’ भारत का हिस्सा है और हम इसे लेकर रहेंगे।’
बिसारिया कहते हैं, ‘यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेना फिलहाल भारत का मुख्य लक्ष्य नहीं है, लेकिन इस क्षेत्र में हो रही अशांति से भारत को यह मौका मिला है कि वह अपने पुराने रुख को दोहराए और भारत-पाकिस्तान के बीच ताकत के अंतर को दिखाए।’
भाजपा नेताओं की बयानबाजी जारी
एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के सीनियर फेलो और रणनीतिक विशेषज्ञ सी। राजा मोहन ने कहा कि मोदी पाकिस्तान के साथ संबंधों को बदलने में कामयाब रहे हैं।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोदी ने पाकिस्तान पर कटाक्ष करने के साथ-साथ उसके मौजूदा आर्थिक संकट की ओर भी इशारा किया। प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट सहयोगियों ने चुनाव प्रचार के दौरान फिर से पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों को निशाना बनाने की बात कही।’
मोहन आगे कहते हैं, ‘पाकिस्तान के खिलाफ अनावश्यक मौखिक आक्रामकता ऐसे समय में सामने आई है, जब शरीफ भाइयों-नवाज और शहबाज शरीफ के नेतृत्व वाली नई पाकिस्तान सरकार भारत के साथ संबंधों को सुधारने के लिए दिलचस्प संकेत दे रही है।’
हालांकि, मोहन ने तुरंत इशारा किया कि मोदी और दक्षिणपंथी विचारधारा वाली उनकी पार्टी भाजपा को उम्मीद है कि पाकिस्तान में उनके वार्ताकार समझेंगे कि यह तीखी बयानबाजी सिर्फ चुनाव प्रचार का हिस्सा है। ये नीतिगत इरादे नहीं हैं।
मोदी सहित अन्य भारतीय नेताओं के बयानों पर प्रतिक्रिया देते हुए पाकिस्तान के विदेश कार्यालय ने कहा कि इन बयानों में पाकिस्तान के प्रति एक अस्वस्थ और जड़ जमाई हुई सोच की झलक दिखाई देती है। साथ ही, इससे चुनावी लाभ के लिए अति-राष्ट्रवाद का फायदा उठाने का एक सुनियोजित इरादा भी उजागर होता है।
पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मुमताज जहरा बलूच ने साप्ताहिक प्रेस ब्रीफिंग में भारतीय चुनाव के दौरान दिए जा रहे बयानों के बारे में पूछे जाने पर कहा, ‘यह बढ़ती घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय आलोचना से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा एक हताश प्रयास भी है।’ (dw.com/hi)
प्रभाकर मणि तिवारी
‘मैं अगले साल राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारियों में जुटा था। लेकिन अदालत के फ़ैसले ने मेरे सपने पर पानी फेर दिया है। अब सामान्य वर्ग में नौकरी मिलनी तो मुश्किल है। अगर सरकार ने कुछ नहीं किया तो सरकारी नौकरी का मेरा सपना एक सपना बन कर ही रह जाएगा।’
यह कहना है 25 वर्षीय मोहम्मद शफ़ीकुल्ला का। तीन साल पहले ग्रेजुएशन करने के बाद से ही वो सरकारी नौकरी की तैयारी में जुटे हैं।
यह स्थिति अकेले शफ़ीकुल्ला की ही नहीं है। वर्ष 2010 के बाद जारी अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के तमाम सर्टिफिकेट रद्द करने के कलकत्ता हाईकोर्ट के फैसले के बाद उनकी तरह के हज़ारों युवकों को लग रहा है कि उनका भविष्य अनिश्चित हो गया है।
हालांकि, अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा है कि इससे उन लोगों पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा जो आरक्षण का लाभ उठा कर सरकारी नौकरी कर रहे हैं या फिर जिनका चयन हो चुका है।
लेकिन अब ऐसे लोगों की चिंता यह है कि उनको प्रमोशन में आगे शायद आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकेगा।
दक्षिण 24-परगना जिले में बांगड़ इलाके में रहने अब्दुल मसूद पारिवारिक स्थिति के कारण ज्यादा पढ़ नहीं सके। लेकिन वो खेती के जरिए अपने छोटे भाई को पढ़ा रहे हैं।
मसूद कहते हैं, ‘मैंने सोचा था कि पढ़-लिख कर भाई को कोई सरकारी नौकरी मिल जाएगी। तब परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। खेती अब फायदे का सौदा नहीं रही। लेकिन अब क्या होगा, समझ में नहीं आ रहा है।’

वहीं कुछ लोग अदालत के इस फ़ैसले का समर्थन भी कर रहे हैं।
एक शिक्षक प्रदीप्त चंद कहते हैं, ‘आरक्षण की वजह से मुझे नौकरी पाने में कई साल लग गए। अब आज़ादी के इतने साल बाद आरक्षण बेमानी है। पिछड़े तबके के लोगों को सरकारी योजनाओं के जरिए बेहतर तरीके से मदद दी जा सकती है। अदालत का फ़ैसला सही है। आरक्षण खत्म होने पर सबके लिए लेवल प्लेइंग फील्ड बनेगा यानी सबके लिए समान मौके रहेंगे।’
प्रदीप्त उन शिक्षकों में शामिल हैं जिनकी नौकरी हाईकोर्ट ने बीते महीने रद्द कर दी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल उस फैसले पर अंतरिम रूप से रोक लगा दी है।
साल 2016 में राज्य में हुई शिक्षक भर्तियों को हाईकोर्ट ने अवैध कऱार देते हुए रद्द कर दिया था।
प्रदीप्त कहते हैं कि उन्होंने अपनी प्रतिभा के बूते नौकरी हासिल की थी, आरक्षण के भरोसे नहीं।
इस मुद्दे पर राजनीतिक विवाद भी लगातार तेज हो रहा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस मुद्दे पर काफी आक्रामक नजर आ रही हैं। भाजपा ने फ़ैसले का स्वागत किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो इस फ़ैसले को विपक्षी गठबंधन के मुंह पर करारा तमाचा बताया है।
क्या है पूरा मामला?
इसी सप्ताह बुधवार को कलकत्ता हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में साल 2010 के बाद से जारी अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के तहत सारे सर्टिफिक़ेट रद्द कर दिए।
इसकी वजह से पांच लाख लोगों के ओबीसी सर्टिफिक़ेट रद्द हो गए। इनमें से ज़्यादातर लोग मुसलमान हैं।
इस लिस्ट में 77 कैटेगरी के तहत ओबीसी सर्टिफिक़ेट बांटे गए थे। ज़्यादातर कैटेगरी मुस्लिम समुदाय से हैं।
दिलचस्प बात ये है कि राज्य में मुसलमानों को ओबीसी आरक्षण के दायरे में वामपंथी सरकार लेकर आई थी। फिर 2011 में तृणमूल कांग्रेस सत्ता में आई।
राज्य सरकार की आलोचना करते हुए अदालत ने कहा, ‘ओबीसी के तहत 77 नई कैटेगरी जोड़ी गईं और ऐसा सिफऱ् राजनीतिक फ़ायदे के लिए किया गया। ऐसा करना ना सिफऱ् संविधान का उल्लंघन है बल्कि मुस्लिम समुदाय का भी अपमान है।’
हलांकि कोर्ट ने ये भी कहा कि भले ही ये ओबीसी सर्टिफिक़ेट रद्द कर दिए गए हों लेकिन इनके तहत जो लोग किसी शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश हासिल कर चुके हैं या नौकरी हासिल कर चुके हैं या दूसरे लाभ ले चुके हैं, उन पर इसका असर नहीं पड़ेगा।
अदालत ने राज्य सरकार के पिछड़ी जाति क़ानून 2012 को रद्द कर दिया। इस क़ानून का सेक्शन 16, सरकार को पिछड़ी जातियों से संबंधित अनुसूची में बदलाव की इजाज़त देता है।
इस नियम के सहारे राज्य सरकार ने अन्य पिछड़ी जातियों में 37 नई श्रेणियां जोड़ दीं।
हलांकि अदालत ने ये भी कहा कि वो 2010 से पहले ओबीसी के तहत दर्ज की गई 66 कैटेगरी के मामले में दख़ल नहीं देगी। अदालत ने कहा, ‘इसकी वजह ये है कि अदालत में दाख़िल जनहित याचिका में 2010 के पहले ओबीसी के तहत दर्ज की गई इन श्रेणियों को चुनौती नहीं दी गई थी।’
अदालत के इस फ़ैसले की आलोचना करते हुए राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों से आरक्षण छीनना चाहती है।
उन्होंने कहा, ‘मैं यह फैसला नहीं मानती। राज्य में ओबीसी तबके के लोगों को आरक्षण मिलता रहेगा। मैं आखिर तक यह लड़ाई लड़ूंगी। सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी।’
उन्होंने इसे भाजपा का फैसला बताते हुए कहा, ‘प्रधानमंत्री मोदी आग से खेल रहे हैं। पिछड़े तबके के लोगों का आरक्षण रद्द नहीं किया जा सकता।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अदालत के फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहा, ‘तृणमूल और कांग्रेस दोनों ही तुष्टिकरण की राजनीति कर रही हैं जिस पर लगाम लगाना ज़रूरी है।’
गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि ममता बनर्जी सरकार ने किसी तरह के सर्वेक्षण के बिना ही वोट बैंक की राजनीति के तहत अन्य पिछड़ी जातियों के लिए तय आरक्षण मुस्लिमों को दे दिया था।
दूसरी ओर वामपंथी दलों ने तृणमूल कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा, ‘हमने पिछड़ी जातियों के विकास के लिए जो क़दम उठाए तृणमूल कांग्रेस ने उनका दुरुपयोग किया। तृणमूल के सत्ता में रहने के दौरान बिना नियमों का पालन किए ओबीसी सर्टिफिक़ेट जारी किए गए। सिफऱ् वोटबैंक की राजनीति की ख़ातिर ऐसा किया गया।’
सीपीएम नेता मोहम्मद सलीम ने कहा, ‘वाममोर्चा सरकार ने रंगनाथ आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी का आरक्षण सात से बढ़ा कर 17 फीसदी किया था। अल्पसंख्यकों में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को पढ़ाई और नौकरी में आरक्षण देने के लिए ऐसा किया गया था। लेकिन ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद अपने सियासी हित के लिए मनमाने तरीके से ओबीसी सर्टिफिकेट बांटे थे।’
सीएए के तहत क्या किसी ने नागरिकता के लिए आवेदन किया है? मोदी सरकार का जवाब और बीजेपी की रणनीति
राज्य की सियासत पर क्या होगा असर?
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर चौधरी ने भी इस मुद्दे पर ममता सरकार की खिंचाई की है। उन्होंने पुरुलिया की एक चुनावी रैली में कहा, ‘तृणमूल कांग्रेस सरकार की उदासीनता के कारण ही अदालत ने पांच लाख लोगों का ओबीसी सर्टिफिकेट रद्द कर दिया है। इस सरकार ने ओबीसी वर्ग के लाखों लोगों का भविष्य अंधेरे में धकेल दिया है।’
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि चुनाव के बीच में आए इस फैसले ने तृणमूल कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इससे पहले बीते महीने 26 हजार शिक्षकों की भर्ती रद्द करने के फैसले से भी उसे झटका लगा था। उस पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम रोक जरूर लगा दी। लेकिन उन हजारों लोगों का क्या होगा, यह तय नहीं है।
राजनीति विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर उत्पल सेनगुप्ता कहते हैं, ‘अदालत का यह फैसला तृणमूल कांग्रेस सरकार के लिए एक झटका है। इससे उसका सियासी समीकरण में गड़बड़ी हो सकती है। शायद यही वजह है कि ममता इस मुद्दे पर काफी आक्रामक नजर आ रही हैं।’
चार दशकों से भी ज्यादा समय तक राज्य के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारिता करने वाले तापस मुखर्जी कहते हैं, ‘राज्य में अभी दो अहम चरणों का मतदान बाकी है। उन इलाकों में कई सीटों पर मुस्लिम और दलित वोटर निर्णायक हैं। ऐसे ज्यादातर लोग ममता बनर्जी सरकार की बनाई ओबीसी सूची में शामिल थे। अब उनका आरक्षण रद्द करने के फैसले का क्या असर होगा, यह पूरी तरह समझना तो मुश्किल है। लेकिन इससे तृणमूल कांग्रेस की दिक्कत बढ़ सकती है।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
पुणे में बिल्डर के नाबालिग बिगड़ैल बेटे ने अपने पिता की ढाई करोड़ की कार से शराब के नशे में दो युवा इंजीनियर को कुचल दिया। इस हाई प्रोफाइल मामले में महाराष्ट्र पुलिस और महाराष्ट्र जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने जिस तरह से संवेदनहीनता दिखाकर मामले पर लीपापोती की उसकी सोशल मीडिया सहित चौतरफा भत्र्सना होने पर इस मामले को दुबारा खोलकर कड़ी कार्यवाही की जा रही है। यह मामला भी हमारे देश की व्यवस्था को जंग लगने का सटीक उदाहरण है जहां सी सी टी वी फुटेज में शराब पीते दिखते बिल्डर के बिगड़ैल बेटे को मेडिकल में क्लीन चिट मिल गई और बालिग होने की दहलीज पर खड़े सत्रह साल आठ महीने के इस बिगड़ैल किशोर को नाबालिग कहकर तुरंत रिहा कर दिया गया और सजा के तौर पर कुछ दिन ट्रैफिक पुलिस की सहायता करने और सडक़ दुर्घटना पर तीन सौ शब्दों का निबंध लिखने को कहा गया।
इस सजा का चारों तरफ मजाक बनने पर महाराष्ट्र सरकार के उप मुख्यमंत्री के संज्ञान लेने पर जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने अपने फैसले पर पुनर्विचार कर दो युवा इंजीनियर की मौत के जिम्मेदार किशोर को बाल गृह में भेजा है और पुलिस ने इसके पिता के साथ साथ रेस्टोरेंट में नाबालिगों को शराब परोसने वाले मालिक और मेनेजर को गिरफ्तार किया है। यदि चुनाव का मौसम नहीं होता और चौतरफा निंदा से जगी सरकार का दखल नहीं होता तो मध्यम वर्गीय परिवार से आने वाले दो युवा इंजीनियर की मौत के लिए जिम्मेदार इस धनाढ्य परिवार का बाल भी बांका नहीं होता।
हमारे देश में आर्थिक उदारीकरण और काले धन एवम भ्रष्टाचार के चलते नव धनाढ्य बिल्डरों, दलालों, नेताओं और अफसरों की संख्या तेजी से बढ़ी है और उसी अनुपात में इन परिवारों में बिगड़ैल औलादों की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ी है और भविष्य में इसके और भी तेजी से बढऩे की पूरी संभावनाएं हैं। कुछ साल पहले दिल्ली में उद्योगपति की बिगडैल औलाद ने ऐसा ही कांड किया था।सलमान खान का फुटपाथ पर सो रहे गरीबों को कुचलने का किस्सा भी हम सबको याद है । इसी तरह मुंबई में अंबानी परिवार की गाड़ी से भी एक हादसा होने की दबी सहमी खबरें सामने आई थी। इन सभी मामलों में रसूख और धन के बल पर कानून को ठेंगा दिखा दिया गया था। इस मामले में भी ऐसा ही होना था लेकिन सशक्त सोशल मीडिया के कारण इस मामले में ढुलमुल शुरुआत के बाद कड़ी कार्यवाही हो रही है। यह कहना तो संभव नहीं कि कोर्ट कचहरी में इस मामले का हस्र सलमान खान की तरह होगा या सही अर्थ में न्याय होगा।
हमारे समाज में आजकल मोटा-मोटी तीन वर्ग बन गए हैं। एक नव धनाढ्य रईसों का वह समूह जिसने पिछले दो दशक में येन-केन प्रकारेण राजनीति, ठेकेदारी, बिल्डर, दलाली, अफसरी या फि़ल्म और क्रिकेट जैसे खेलों से अथाह धन संपत्ति अर्जित की है और अपने बच्चों को दारू, ड्रग्स और अय्याशी के क्लबों, होटलों और पब एवं बारों में आवारागर्दी करने के लिए खुली छूट दे रखी है। दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो इंजीनियरिंग, मेडिकल या एम बी ए आदि की पढ़ाई कर पांच दस लाख से 25-30 लाख सालाना के पेकेज पाकर आराम से अपनी जिंदगी जी रहे हैं। तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो पहले और दूसरे वर्ग के लोगों की सेवा में ड्राइवर, माली, घरेलू सहायक सहायिकाओं और गार्ड आदि के काम करते हैं। दूसरा और तीसरा वर्ग पहले वर्ग के धन और रसूख के सामने कीड़े-मकोड़े के समान है। आजकल जिस तरह से पहले वर्ग के किशोर संगीन अपराधों में लिप्त हो रहे हैं उससे किशोरों को भी तीन वर्ग में बांटने की आवश्यकता महसूस हो रही है। एक बारह साल से कम उम्र के, दूसरे बारह से पंद्रह और तीसरे पन्द्रह से अ_ारह वर्ष के किशोर। पन्द्रह से अठारह साल के किशोर इंटरनेट ने व्यस्क बना दिए हैं इसलिए उनके संगीन अपराधों को बच्चा समझ कर माफ करना समाज हित में नहीं है।
जेम्स लेंडेल
जब गाजा में युद्ध अब भी जारी है और वेस्ट बैंक में हिंसा लगातार बढ़ रही है, ऐसे वक्त में फिलीस्तीनियों के लिए स्वतंत्र राष्ट्र हासिल करने की संभावनाएं पहले से कहीं ज़्यादा कम होती चली गईं।
फलीस्तीनियों की इस नाउम्मीदी के बीच यूरोपीय देशों ने जब फिलीस्तीन को बतौर राष्ट्र मान्यता देने का फ़ैसला किया तो इससे ये हकीकत नहीं बदलेगी कि इस राह में कई बड़े रोड़े हैं।
नॉर्वे, स्पेन, आयरलैंड ने फलीस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देने का एलान 22 मई को किया है।
इस ऐलान से यूरोप के दूसरे देशों पर भी दबाव बढ़ेगा कि फलीस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करें। इन देशों में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी भी शामिल हैं।
अरब के एक राजनयिक ने कहा, ‘ये बहुत महत्वपूर्ण है। ये दिखाता है कि यूरोपियन इसराइल सरकार के कुछ भी ना सुनने के रवैये से ऊब चुके हैं। इससे यूरोपीय संघ पर भी दबाव बना है।’
इसराइली मंत्रियों का कहना है कि इस फैसले से हमास का हौसला बढ़ेगा और ये आतंकवाद को पुरस्कृत करना है।
इसराइल की मानें तो इससे बातचीत के ज़रिए समझौते की संभावनाएं और घटी हैं।
फिलीस्तीन को मान्यता और देशों का रुख
करीब 139 देश फिलीस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देते हैं।
10 मई को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 सदस्य देशों में से 143 ने फिलीस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता दिलाने के पक्ष में वोटिंग की। ये सदस्यता सिर्फ संप्रभु देशों को मिलती है।
संयुक्त राष्ट्र में फिलहाल फिलीस्तीन को पर्यवेक्षक यानी ऑब्जर्वर का दर्जा हासिल है। इससे फिलीस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में सीट तो मिलती है लेकिन वोट देने का अधिकार नहीं मिलता है।
फिलीस्तीन को कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों से भी मान्यता मिली है। इनमें अरब लीग और ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) शामिल हैं।
जब 22 मई को यूरोपीय देशों ने फिलीस्तीन को मान्यता दी तो ओआईसी ने इसका स्वागत किया।
ओआईसी ने इसे ऐतिहासिक कदम बताते हुए कहा कि यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप है और इससे फिलीस्तीनियों के अधिकारों को मजबूती मिलेगी।
यूरोप के कुछ देशों ने फिलीस्तीन को पहले ही राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी हुई है।
इनमें हंगरी, पोलैंड, रोमानिया, चेक रिपब्लिक, स्लोवाकिया, बुल्गारिया जैसे देश शामिल हैं। इन देशों ने फिलीस्तीन के लिए अपना ये रुख 1988 में अपना लिया था।
स्वीडन, साइप्रस और माल्टा संयुक्त राष्ट्र को मान्यता देने वाले कुछ और देश हैं। लेकिन कुछ दूसरे यूरोपीय देशों और अमेरिका का कहना है कि मध्य-पूर्व के संघर्ष के लिए दीर्घकालीन राजनीतिक समाधान के तहत ही फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी जाएगी।
इसे दो राष्ट्र सिद्धांत भी कहा जाता है। इसके तहत इसराइलियों और फ़लस्तीनियों के लिए अपना देश, अपनी सरहद होने की बात कही जाती है।
अमेरिका नहीं बताता है वक्त
यूरोपीय देश और अमेरिका के बीच इस पर मतभेद है कि फिलीस्तीन को राष्ट्र कब माना जाए।
आयरलैंड, स्पेन और नॉर्वे का कहना है कि वो ऐसा करने की राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू कर रहे हैं।
इन देशों का तर्क है कि मौजूदा संकट का स्थायी समाधान तभी निकल सकता है, जब दोनों पक्ष किसी तरह का राजनीतिक लक्ष्य बना सकें।
इन देशों पर घरेलू स्तर पर इस बात का राजनीतिक दबाव भी रहा कि वो फिलीस्तीन के पक्ष में ज़्यादा समर्थन दिखाएं।
अतीत में कई पश्चिमी देशों का रुख़ ये रहा है कि फिलीस्तीन को राष्ट्र मानना अंतिम शांति समझौते का इनाम होना चाहिए।
यानी शांति समझौता करो और बदले में राष्ट्र के तौर पर मान्यता इनाम में पाओ।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड कैमरन और कुछ दूसरे यूरोपीय देश ने बीते कुछ महीनों में फ़लस्तीन के मसले पर अपना रुख़ बदला है।
इनका कहना है कि फिलीस्तीन को पहले मान्यता देनी चाहिए, इससे राजनीतिक समाधान का माहौल तैयार करने में मदद मिलेगी।
फ्रांस का रूख
फरवरी में फ्ऱांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था- फ्रांस के लिए फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देना कोई टैबू नहीं है।
मई की शुरुआत में फ्ऱांस ने संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन की सदस्यता दिलाने के पक्ष में वोटिंग की थी।
अमेरिका ने निजी स्तर पर अपने यूरोपीय सहयोगियों से इस बारे में बात की थी।
मगर अमेरिका ज़्यादा सतर्क है और वो स्पष्ट समझ चाहता है कि इस नीति का व्यावहारिक रूप क्या होगा।
फिलीस्तीन और कुछ सवाल
पर्दे के पीछे की मुख्य बहस ये है कि दबदबा रखने वाले इन देशों को फ़लस्तीन को कब मान्यता देनी चाहिए?
कब इसराइल और फिलीस्तीन लोगों के बीच औपचारिक शांति वार्ता शुरू होनी चाहिए?
इसराइल और सऊदी अरब कब अपने राजनयिक संबंधों को सामान्य करेंगे? कब इसराइल कुछ कार्रवाई करने में विफल रहता है या कब फिलीस्तीन कुछ कार्रवाई करते हैं?
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ये देश चाहते हैं कि राजनयिक मुकाम हासिल करने के किसी बड़े पल में फिलीस्तीन को मान्यता दी जाए।
पश्चिमी देश के एक अधिकारी ने कहा, ‘ये एक बड़ा दांव है, जिसे पश्चिमी देशों को चलना है। हम इस बाजी को जाने नहीं देंगे।’
दिक्कत कहाँ आ रही है?
दिक्कत ये है कि अगर अहम सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं तो फिलीस्तीन को राष्ट्र की मान्यता देना बस सांकेतिक कदम ही है।
सरहदें क्या होंगी? राजधानी कहाँ बनेगी? दोनों पक्ष ऐसा करने के लिए पहले क्या कदम उठाएंगे?
ये कुछ मुश्किल सवाल हैं, जिस पर सहमति नहीं बनी है और न ही दशकों से इनके संतोषजनक जवाब मिले हैं।
आज की तारीख़ में कुछ और यूरोपीय देश हैं जो ये मानते हैं कि एक अलग फ़लस्तीन देश होना चाहिए।
इस बात के समर्थक ख़ुशी में झूमेंगे और विरोधी इसे ग़लत बताएंगे।
ऐसे में ज़मीन पर फ़लस्तीनी लोगों की हक़ीक़त बदलने की संभावना कम ही है। (bbc.com/hindi)
प्रकाश दुबे
देश की राजधानी दिल्ली में 25 बरस पहले 10 जनवरी की रात को कार ने छह लोगों को कुचल दिया। कार थी-अनेक रईसों के सपने में दिखने वाली बीएम डब्ल्यू ई38 और मरने वाले आधा दर्जन लोगों में से तीन पुलिस अधिकारी थे। लोदी कालोनी जैसी समृद्ध कालोनी में गोल्फ लिंक में कार बरामद की गई। नौजवान संजीव ने कीड़े मकोड़ें की तरह मसल दिया। उसके पिता हथियारों के कारोबारी सुरेश नंदा थे और वह भारतीय नौसेना के अध्यक्ष का पोता था।
ठीक चार महीने बाद 30 अप्रैल को देश की राजधानी में एक और वारदात हुई। कुतुब मीनार से नजऱ आने वाले इमली के पेड़ों को समर्पित शराबघर टेमरिंड में चहल पहल थी। नौजवान ने शराब मांगी। मना करने पर उसने गोली दाग दी। साकी का नाम था-जेसिका लाल। गोली चलाने वाले को पहचानने वाले मनु शर्मा के नाम से जानते थे। बार में मौजूद पुलिस अधिकारी सहित कुछ लोग जानते थे कि वह हरियाणा से लोकसभा सदस्य विनोद शर्मा का लाडला है। उसका नाम है- सिद्धार्थ वशिष्ट।
25 साल बाद। दिल्ली से दूर सांस्कृतिक पहचान वाले शहर पुणे में शनिवार अलविदा कह चुका था। मध्यरात्रि के बाद दोपहिए को कार ने ऐसी टक्कर मारी कि पीछे बैठी युवती कई कदम दूर जाकर गिरी और फिर नहीं उठी। चालक युवक को अस्पताल पहुंचाया गया। डाक्टरों ने बताया कि उसकी सांसें पूरी हो चुकी हैं।
इन वारदातों से कुछ मिलते जुलते सवाल उठते हैं। दिल्ली की चौड़ी सडक़ पर मस्ती में कार चलाने वाले युवक को मध्यरात्रि में, धुंधलके वाली सर्द कोहरा लपेटे रात में रोकने की पुलिस वालों को जरूरत क्या थी? नहीं भी रोका तो वे सडक़ से 25 कदम दूर नहीं रह सकते थे? जिस देश में महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने के साथ साल भर में अधिकतम सात दिन शराबबंदी की जाती है, और बाकी दिन गली कूचे से लेकर देर रात तक आसानी से मदिरा उपलब्ध है, वहां अदना सी साकी को और पिला दे कहने पर मना करने की जुर्रत करनी ही क्यों चाहिए? और तीन दिन से यह सवाल सब जगह घुमड़ रहा है कि नाबालिग बच्चे का इतना सा कसूर है कि थोड़ी सी गले से उतार ली। बाप की दी करोड़ों की पोर्श गाड़ी पर हवा खाने और गले को फिर तर करने रवाना हुआ।
तीनों किस्सों में अनेक समानताएं हैं। पुणे के पुलिस थाने में दो मौतों से घबराए लाडले को पिज्जा बर्गर देकर संयत करना चाहा। अमीर बिल्डर दोस्त के बेटे से बदसलूकी रोकने की चिंता में डूबे एक विधायक ने बच्चे बेकसूर बताया। प्रकरण-1 नंदा परिवार की सारी कोशिशों के बावजूद मात्र नौ साल बाद 2008 में संजीव को सिर्फ दो साल की सजा सुनाई गई। अच्छे चाल चलन के कारण इस आधार पर माफी मिल गई कि वह जुर्माना भरेगा और सुप्रीम कोर्ट के सुझाए तरीके से समाज सेवा करेगा। प्रकरण-2 मनु शर्मा के पिता की दौलत और ताकत के सामने जन आक्रोश ठंडा नहीं हुआ इसलिए आजीवन कारावास की सजा मिली। आप किसी से जाकर पूछना कि मनु कब घर लौट आया? हरियाणा-पंजाब से लेकर दिल्ली तक उसके अपनों की ताकत और रसूख का पता लग जाएगा।
ऐसे में अगर नाबालिग बच्चे का खयाल रखते हैं तो उत्तेजित मत होइए। इन लोगों ने सबक नहीं लिया कि उनके अपने पुलिस वाले 25 बरस पहले निर्ममता से कुचले गए थे। कार के पसंदीदा नंबर प्लेट के लिए दक्षिणा का लेन देन होता है। यह जानते हुए सवाल करते हैं कि बिना नंबर प्लेट की गाड़ी सडक़ पर कैसे दौड़ रही थी? नंबर होता तब क्या कार किसी को कुचलने से मना करती? मणिपुर में महिलाओं के साथ बदसलूकी करने वाले हत्या करने से नहीं चूके। उनमें से किसी को जेसिका लाल जैसा न्याय नहीं मिला। देह हिंसा की हर शिकार को निर्दयता से बचाकर निर्भया वाला सम्मान मिलना आज भी अपवाद की श्रेणी में दर्ज होता है।
संवेदनशील नागरिकों के अपशब्द सहने की कीमत पर यही कहूंगा कि एक किशोर और दो नौजवानों को दोषी ठहराने वाले, अंगुली उठाने वाले सोचें कि आए दिन ताकत के बूते कितने लोग छुट्?टा घूमते हैं। है किसी पहलवान मर्द और मर्दानी की हिम्मत जो उनका बाल बांका कर सके? ऐन चुनाव के दिनों में किस आरक्षी को फुर्सत है कि अपराधियों के गले पड़े? नागरिक जी, मतदाता जी, हत्या, बलात्कार, हेराफेरी, भृष्टाचार जैसे आरोपों से लिपे पुते महानुभावों को कानून बनाने वाले मंदिर प्रवेश कराने के लिए आप लालायित होते हैं।
कवि धूमिल की तमतमाती कलम ने लिखा था- वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिए हैं । वे वकील हैं, अध्यापक हैं, नेता हैं, कवि कलाकार हैं , यानि कि कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का परिवार है।
आप पर भावुकता सवार हो रही है? चलिए, इस तरह दुनिया को अलविदा कहने वालों को श्रद्धांजलि देकर मन हल्का कर लें।
मेरा प्रणाम, उन कुछ लोगों को, संगठनों को, जिन्हें लगता है कि मानव के प्राण और इंसान की इज्जत का कोई मोल नहीं होता। ऐसे जागरूक लोग सत्ता को चुनौती देते रहते हैं। सत्ता कानून की हो, न्याय की या कोई और। वे साबित करते हैं कि इंसान में इंसनियत और संवेदना मरी नहीं है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
विनीत खरे
साल 1952 में भारत में जब पहले आम चुनाव की बात उठी तो कई लोगों को लगा कि ये कैसे होगा।
करीब 17 करोड़ वोटरों में सिर्फ 15 प्रतिशत ही पढ़ और लिख सकते थे। डर था कि चरमपंथी गुट इस मौके का इस्तेमाल सांप्रदायिक तनाव भडक़ाने के लिए करेंगे।
दुनिया की निगाहें भारत पर थीं और चुनौतियों और सवालों के बावजूद नए आजाद हुए भारत में सफलतापूर्वक चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग की काफी तारीफ हुई थी।
इस भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पहले सुकुमार सेन और बाद में टीएन शेषन, जेएम लिंगदोह जैसे मुख्य चुनाव आयुक्तों ने मजबूती दी।
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने का सारा दारोमदार चुनाव आयोग पर ही है।
हम 543 संसदीय सीटों के लिए हो रहे चुनाव के मध्य में हैं और सात चरणों के लिए करीब 97 करोड़ योग्य मतदाता हैं।
लेकिन ये चुनाव का दौर ऐसा है जब चुनाव आयोग आरोपों और विवादों के केंद्र में हैं। इन आरोपों में एक आरोप की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है।
चुनाव आयोग पर मतदान संबंधी आंकड़ों को देरी से जारी करने का आरोप लग रहा है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को भारतीय चुनाव आयोग को एक सप्ताह के अंदर मतदान संबंधी आंकड़ों को जारी करने से संबंधित याचिका पर अपना पक्ष रखने को कहा है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और कॉमन कॉज़ की याचिका में बूथों पर मतों की संख्या संबंधित फॉर्म 17-सी की स्कैनड कॉपी अपलोड करने संबंधी याचिका दाखिल की थी।
इस याचिका में मांग की गई है कि चुनाव आयोग मतदान में मतों की कुल गिनती की संख्या मतदान ख़त्म होने के तुरंत बाद वेबसाइट पर जारी करे।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाय चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पार्दीवाला और मनोज मिश्रा की बेंच इस मामले की अगली सुनवाई 24 मई को करेगी।
इस आरोप के अलावा चुनाव आयोग पर कई दूसरे आरोप भी लग रहे हैं। विपक्ष सरकारी एजेंसियों का विपक्षी नेताओं के खिलाफ दुरुपयोग का आरोप पहले से लगाता आया है। ठीक चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी को लेकर भी विपक्ष सरकार पर हमलावर रही है।
विपक्ष के मुताबिक चुनाव आयोग को इन मामलों को भी नैतिक तौर पर देखना चाहिए, हालांकि चुनाव के दौरान भी लॉ इन्फोर्समेंट एजेंसी, चुनाव आयोग के अधीन नहीं होती हैं और वह अपनी कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र होती हैं।
लेकिन कुछ आरोप ऐसे भी हैं जो सीधे चुनाव आयोग के दायरे में आते हैं।
चुनाव आयोग पर क्या आरोप लग रहे हैं?
ये हैं चुनाव आयोग के खिलाफ लगने वाले आरोपों की फेहरिस्त-
भाजपा नेताओं के सांप्रदायिक चुनावी भाषण
कांग्रेस के खातों के फ्रीज होने की ख़बर
इलेक्टोरल बॉण्ड का मुद्दा
प्रधानमंत्री मोदी का बांसवाड़ा वाला भाषण जिसमें ‘घुसपैठिए’ और ‘ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाले’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया गया लेकिन उनकी जगह भाजपा अध्यक्ष को नोटिस जारी किया गया।
चुनाव में कुल वोटों की संख्या की बजाय वोटिंग प्रतिशत जारी किया गया।
इस तरह विपक्ष लगातार कई मुद्दों को लेकर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है। आरोप लग रहे हैं कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ बीजेपी को लेकर बेहद नर्म है और विपक्ष को लेकर गर्म।
टीएमसी नेता डेरेक ओब्रायन ने कहा कि चुनाव आयोग ‘पक्षपाती अंपायर’ की तरह बर्ताव कर रहा है। अपनी शिकायतों को लेकर विपक्षी इंडिया गठबंधन का एक प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग से भी मिला।
बीबीसी की कई कोशिशों के बावजूद चुनाव आयोग से इन आरोपों पर जवाब नहीं मिल पाया लेकिन कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खडग़े के एक सवाल के जवाब में चुनाव आयोग ने कहा, ‘चुनाव प्रक्रिया के दौरान चुनाव आयोग राजनीतिक दलों पर टिप्पणी करने से बचता है क्योंकि उसे सभी राजनीतिक दलों के साथ सम्मानपूर्वक, सहयोगी रिश्ते में विश्वास है। ये एक स्वस्थ भारतीय लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण है।’
‘चुनाव आयोग को निष्पक्ष होना ही नहीं, दिखना भी चाहिए’
जर्मनी के हाइडिलबर्ग विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर और ‘इंडिपेंडेंट पैनल फॉर मॉनिटरिंग इलेक्शंस’ के सदस्य डॉक्टर राहुल मुखर्जी विपक्ष की चिंताओं से सहमत हैं।
वो कहते हैं, ‘चुनाव आयोग को न सिर्फ निष्पक्ष होना चाहिए, बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। आप देखिए कि किस तरह चुनाव आयोग प्रधानमंत्री को हेट स्पीच के लिए फटकार नहीं लगा पाया, बल्कि उसने पार्टी अध्यक्ष को जवाबदेह बना दिया।’
दरअसल, 21 अप्रैल को राजस्थान के बांसवाड़ा में चुनावी भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों पर टिप्पणी की और ‘घुसपैठिए’ और ‘ज्यादा बच्चे पैदा करने वाला’ जैसे जुमलों का इस्तेमाल किया।
विपक्ष ने चुनाव आयोग से शिकायत की।
कई हलकों में इस भाषण को मुसलमानों के खिलाफ ‘हेट-स्पीच’ बताया गया। लेकिन चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री मोदी की जगह भाजपा अध्यक्ष को नोटिस भेजा।
पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने बीबीसी से बातचीत करते हुए कहा कि अगर विपक्ष चुनाव आयोग के कदमों से खुश नहीं है तो उन्हें न्यायालय का रुख करना चाहिए।
पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत आयोग के कदम से सहमत नहीं हैं, बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, ‘जब शिकायत प्रधानमंत्री के खिलाफ है तब नोटिस प्रधानमंत्री को भेजिए।’
भाजपा प्रमुख जेपी नड्डा ने चुनाव आयोग को भेजे जवाब में प्रधानमंत्री के भाषण का बचाव किया।
एक टीवी चैनल से बातचीत में बांसवाड़ा वाले भाषण से जुड़े सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘मैं हैरान हूँ जी। ये आपसे किसने कहा कि जब ज़्यादा बच्चों की बात होती है तो मुसलमान की बात जोड़ देते हैं। क्यों मुसलमान के साथ अन्याय करते हैं आप।’
लेकिन पीएम मोदी ने एक रैली में फिर मुसलमानों के मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर आरोप लगाए और कहा, ‘बाबा साहेब धर्म के आधार पर आरक्षण के खिलाफ थे। लेकिन कांग्रेस कह रही है कि एसटी, एससी, ओबीसी और गरीबों का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को दे देंगे। कांग्रेस आपकी संपत्ति को भी जब्त करके अपने वोट बैंक को देने की तैयारी में हैं।’
प्रधानमंत्री मोदी के 21 अप्रैल के विवादित भाषण के बारे में चुनाव आयोग ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है।
इन विवादित भाषणों के अलावा भाजपा का वरिष्ठ नेतृत्व कांग्रेस के घोषणा पत्र पर ‘शरिया कानून’ या ‘मुस्लिम लीग’ जैसी टिप्पणियां कर रहा है। विपक्ष सवाल उठा रहा है कि चुनाव आयोग ने इन टिप्पणियों का संज्ञान क्यों नहीं लिया।
उधर, पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति के मुताबिक, ‘ये पहली बार नहीं हैं जब चुनाव आयोग पर आरोप लगे हैं।’
वो कहते हैं, ‘पार्टियों की संख्या, वोटरों की संख्या, पोलिंग बूथों की संख्या, सब बढ़े हैं। पार्टियों के बीच लड़ाइयां तीखी हुई हैं। चुनाव आयोग के खिलाफ शिकायतें भी बढ़ी हैं।’
‘अपनी दृढ़ इच्छा दिखाओ या इस्तीफा दो’
11 मई को गैर-सरकारी संगठनों ने कई शहरों में चुनाव आयोग के खिलाफ ‘ग्रो ए स्पाइन ऑर रिजाइन’ या ‘दृढ़ता दिखाओ या इस्तीफा दो’ कैंपेन शुरू किया।
उनकी नाराजगी लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव आचार संहिता के कई उल्लंघनों के बावजूद चुनाव आयोग की ‘निष्क्रियता’ से थी। इस कैंपेन के अंतर्गत लोगों ने चुनाव आयोग को पोस्टकार्ड पर संदेश लिखकर भेजे।
कैंपेन के मुताबिक, अब तक 12 शहरों से करीब तीन हजार शिकायती पत्र चुनाव आयोग को भेजे गए हैं।
इस कैंपेन से जुड़े विनय कुमार के मुताबिक उनकी मांगों में चुनाव के दौरान हेट-स्पीच पर नियंत्रण शामिल है। कैंपेन की मांग है कि चुनाव आयोग हर चरण में डाले गए कुल वोटों की संख्या बताए।
लोकसभा चुनाव के पहले दो चरणों में हुई वोटिंग के आंकड़ों में ‘बड़ी अनिश्चितता’ को देखते हुए सिविल सोसाइटी के कुछ जाने-माने लोगों ने चुनाव आयोग से अपील की है कि वो फॉर्म 17सी के पार्ट वन के आंकड़े अपनी वेबसाइट पर जारी करे ताकि कुल मतदान का सही आंकड़ा पता लग सके।
चुनाव से जुड़े आंकड़ों पर उठते सवाल
सीताराम येचुरी जैसे विपक्षी नेताओं ने भी सवाल उठाए कि चुनाव आयोग प्रतिशत की बजाए डाले गए वोटों की कुल संख्या क्यों नहीं बता रहा है।
उनका कहना था कि जब तक संख्या की जानकारी न हो, प्रतिशत का कोई मतलब नहीं है।
कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा, ‘इन संदेहों को कम करने के लिए, आयोग को न सिर्फ हर संसदीय निर्वाचन क्षेत्र (और संबंधित विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों) का डेटा जारी करना चाहिए था, बल्कि उसे प्रत्येक मतदान केंद्र में वोटर टर्नआउट डेटा भी जारी करना चाहिए था।’
पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने बीबीसी से कहा, ‘पहले चुनावी आंकड़े वोटिंग के दिन ही जारी कर दिए जाते थे। चाहे वोट प्रतिशत हो, पुरुष वोटिंग प्रतिशत हो, महिलाओं की वोट संख्या और प्रतिशत हो, या कुल वोटों की संख्या या प्रतिशत। साथ ही, आयोग ये भी कहता था कि आंकड़ों में बदलाव हो सकता है क्योंकि कई पोलिंग बूथों में वोटिंग जारी है।’
चुनाव आयोग को लिखे पत्र में पत्रकार संगठनों ने भी हर चरण में वोटिंग के बाद आयोग से प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की मांग की है।
उन्होंने कहा है कि आयोग ये भी बताए कि वोटिंग के अगले दिन तक कुल वोटों की संख्या और प्रतिशत क्या है।
चुनाव आयोग का जवाब
चुनाव आयोग ने कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खडग़े को दिए जवाब में लिखा कि सारी जानकारी वोटर टर्नआउट ऐप पर उपलब्ध है।
आयोग ने कहा, ‘आयोग किसी निर्वाचन क्षेत्र, राज्य या चुनाव के एक चरण के समग्र स्तर पर किसी भी वोटर टर्नआउट डेटा को प्रकाशित करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं है क्योंकि वोटर टर्नआउट केंद्र स्तर पर वैधानिक फॉर्म 17 सी में दर्ज किया जाता है जिसे पीठासीन अधिकारी तैयार करते हैं और उपस्थित उम्मीदवारों के मतदान एजेंट उस पर दस्तख़त करते हैं। फॉर्म 17ष्ट की प्रतियां पारदर्शिता के सबसे मजबूत उपाय के रूप में, उपस्थित मतदान एजेंटों के साथ साझा की जाती हैं। इसलिए, उम्मीदवार जागरूक हैं।’
चुनाव आयोग ने मल्लिकार्जुन खडग़े से कहा, ‘आयोग आपके आरोपों को स्पष्ट रूप से खारिज करता है और आपको सावधानी और संयम बरतने की सलाह देता है।’
ओपी रावत के मुताबिक, पहली नजर में चुनाव आयोग की ओर से जारी बयान के लिए चुने गए शब्द अच्छे नहीं थे और उनसे बहुत ‘भ्रम’ फैला।
वो कहते हैं, ‘एक राजनीतिक पार्टी के लिए हम ऐसे शब्द नहीं इस्तेमाल करते हैं। हम उनके साथ एक साझेदार की तरह व्यवहार करते हैं जिनके साथ सम्मान से पेश आना चाहिए।’
ओपी रावत के मुताबिक, ‘ये कहना भी सही नहीं है कि चुनाव आयोग सत्ताधारी पार्टी को लेकर सॉफ्ट है लेकिन ये ज़रूरी है कि चुनाव आयोग उन वजहों का पता लगाए और उन पर काम करे, जिन वजहों से मीडिया एक हिस्से में आयोग की ऐसी छवि बन रही है।’
रावत ये भी कहते हैं कि वक्त के साथ-साथ राजनेता भी नए-नए तरीकों के साथ विपक्ष पर हमले कर रहे हैं, और अगर कोई नेता विपक्ष के चुनाव घोषणा पत्र, नीति आदि को लेकर हमले करता है तो वो आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है।
वो कहते हैं, ‘आप दूसरे लोकतांत्रिक देशों जैसे अमेरिका को देखें जहां चुनाव के बाद कैपिटल हिल पर हमला हुआ, जबकि हमारे देश में ऐसा कुछ नहीं हुआ।’ वो जोर देकर कहते हैं कि चुनाव आयोग में फर्जीवाड़े की कोई गुंजाइश नहीं रहती।
आयोग की छवि
सरकार ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की भूमिका खत्म कर दी है जिस पर सवाल उठते रहे हैं हालांकि सरकार ने इस फ़ैसले को सही ठहराया है।
और अब जब चुनाव आयोग पर तीखे हमले हो रहे हैं, क्या आयोग की स्वतंत्र संगठन की छवि को नुकसान नहीं पहुंच रहा है?
पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति को ऐसा नहीं लगता है क्योंकि उनके मुताबिक चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठाना नई बात नहीं।
वो कहते हैं, ‘चुनाव आयोग को बहुत कम समय में फ़ैसले लेने होते हैं। अगर इसकी तुलना न्यायालय से करें तो वहां फैसले लेने में महीनों, कभी-कभी सालों लग जाते हैं। मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आयोग गलती नहीं करता।’
पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति राजनीतिक दलों को जिम्मेदार ठहराते हैं जो आचार संहिता का पालन नहीं करते और नेता एक दूसरे पर निजी हमले करते हैं।
वो कहते हैं कि चुनाव आयोग को हर कदम पर कसूरवार ठहराना फ़ैशन-सा बन गया है और ज़रूरी है कि चुनाव आचार संहिता को मजबूत बनाया जाए।
वो कहते हैं, ‘मैं लंबे समय से कह रहा हूं कि चुनाव आयोग को वोटर या उम्मीदवार पर आर्थिक पेनाल्टी या फिर आचार संहिता के गंभीर उल्लंघन पर पार्टी या उम्मीदवार को अयोग्य घोषित करने का अधिकार होना चाहिए।’
उधर, प्रोफ़ेसर राहुल मुखर्जी चुनाव आयोग की आलोचना करते हैं।
वो कहते हैं, ‘ये सुप्रीम कोर्ट ही था जिसने इलेक्टोरल बॉन्ड को गंभीरता से लिया और सामने लेकर आया जबकि ये काम चुनाव आयोग का था। आयोग में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर संशय था लेकिन वो खामोश रहा।’
वो कहते हैं, ‘चुनाव आयोग के एक चुनाव आयुक्त (अरुण गोयल) ने अचानक इस्तीफा दिया, जिसके कारण स्पष्ट नहीं हैं, उसकी वजह से सत्ताधारी पार्टी ने दो चुनाव आयुक्तों को चुना, इसलिए ऐसा नहीं लगता कि वो (चुनाव आयोग) स्वतंत्र है।’
पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत को आयुक्तों के चुने जाने की प्रक्रिया से कोई समस्या नहीं, और वो मानते हैं कि प्रक्रिया पहले से बेहतर हुई है क्योंकि ‘पहले सरकार राष्ट्रपति के पास नए चुनाव आयुक्त को चुनने के लिए सिफ़ारिश भेजती थी जबकि अब एक फोरम ये फैसला करता है और इस फोरम में विपक्ष का नेता भी होता है।’ (bbc.com/hindi)
संजय श्रमण
संत कबीर के बारे में एक कहानी है ‘काशी के ब्राह्मणों ने पंगत सजाई लेकिन शूद्र कबीर को वे अपने साथ नहीं बैठने देना चाहते थे, उन्होंने तरकीब निकाली कि जो भी व्यक्ति वेद ऋचाओं का पाठ कर सकता है वो आये और साथ बैठकर भोजन करे।
धीरे धीरे सभी ब्राह्मण एक या दो ऋचाएं पढक़र पंगत में बैठ गये, कबीर की बारी आई ब्राह्मणों को पता था कि ये शूद्र कबीर वेद नहीं पढ़ सकेगा और बाहर हो जाएगा।
तभी कबीर पास में खड़ी भैंस से कहते हैं कि वेद पढो, और वह भैंस वेद ऋचाएं दोहराने लगती है। इस ‘चमत्कार’ को देखकर सभी ब्राह्मण कबीर से माफ़ी मांगते हैं।’
अब इसका क्या मतलब हुआ? ब्राह्मणों ने माफी मांग ली लेकिन उसके बाद ब्राह्मण क्या करते रहे हैं? इससे भी बड़ा सवाल ये कि कबीर के अपने लोग क्या कर रहे हैं?
कबीर चाहते तो अपने मुंह से वैदिक ऋचाएं दोहरा सकते थे लेकिन उन्होंने सबक सिखाने के लिए वैदिक ऋचाएं भैंस से कहलवाई (जैसा कहानी कहती है)।
लेकिन इस कहानी के सदियों बाद भी कबीर को मानने वाले कहाँ अटके हैं? ब्राह्मणवादियों ने भी एक बार माफी मांगकर फिर से गोरखधंधा शुरू कर दिया। वे फिर फिर ऐसा करते हैं। क्यों करते हैं? क्योंकि दलित शूद्र फिर फिर वेदों और मंदिरों के भगवानों के पास जाकर गिडगिडाते हैं।
इस सबका मतलब क्या हुआ?
पोंगा पंडित कभी आपको आजाद नहीं होने देंगे, आप ही रुके हुए हैं। जब तक भारत के शूद्र और दलित इस धर्म में रुके हुए हैं उनका शोषण और अपमान होगा ही, ब्राह्मण क्षत्रिय उनसे माफी भी मांगते रहेंगे और उन्हें लूटते सताते भी रहेंगे। कबीर जैसे लोग भी इन्हें नहीं सुधार सके। अब एक ही उपाय है, जैसा कि अंबेडकर कहते हैं कि ‘जो धर्म तुम्हें लात मारता है उसे तुम लात मार दो और आगे बढ़ जाओ, बुद्ध तुम्हारे लिये उपलब्ध हैं’
डॉ. आर.के. पालीवाल
आम आदमी पार्टी अन्ना आंदोलन की नींव पर खड़ी होकर जितनी तेजी से धूमकेतु की तरह राजधानी दिल्ली के राजनैतिक आकाश पर नमूदार हुई थी इन दिनों उतनी ही तेजी से गर्त की तरफ बढ रही है। पहले अपने वरिष्ठ संस्थापक सदस्यों प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव आदि को किनारे करने और बाद में आशुतोष, कुमार विश्वास और साजिया इल्मी आदि के अलग होने के झटके को इस पार्टी ने जैसे तैसे झेल लिया था और दिल्ली के साथ साथ विधान सभा चुनाव में पंजाब को भी फतह कर लिया था।
दिल्ली और पंजाब का राजनीतिक माहौल कुछ अलग तरह का रहा है जहां शिक्षित और प्रगतिशील लोगों की संख्या अच्छी खासी है। साथ ही इन दोनों राज्यों ने कालांतर में कांग्रेस और भाजपा एवं उनके गठबंधन साथी अकाली दल के शासन की विफलताओं को लंबे समय तक झेला था इसलिए वहां तीसरे विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी तेजी से आगे बढ़ी थी। यदि यह दल अपनी आंतरिक कलह पर नियंत्रण रखकर धैर्य से कदम दर कदम आगे बढ़ता तो उत्तर और मध्य भारत में हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे भाजपा और कांग्रेस की लंबी सत्ता से निराश हो चुके राज्यों मे देर सवेर सत्ता प्राप्त कर सकता था, लेकिन फिलहाल इस पार्टी का निकट भविष्य अंधकारमय दिख रहा है।
एक तो अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली लोकतान्त्रिक नहीं है। वे संगठन और सरकार की असीमित शक्ति तो अपने पास रखना चाहते हैं और जिम्मेदारियां दूसरों के कंधे पर डालते हैं। दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इसी चक्कर में लगभग साल भर से जमानत नहीं पा रहे हैं क्योंकि ऐसे समाचार हैं कि शराब नीति सहित अधिकांश सरकारी फाइलों पर उनके ही हस्ताक्षर होते थे और अरविन्द केजरीवाल सिफऱ् आदेश देते थे और मौखिक रूप से अपना निर्णय बताते थे। इसके अलावा कांग्रेस के जिस परिवार वाद की मुखालफत आम आदमी सहित अन्य पार्टियां करती रही हैं अरविंद केजरीवाल के जेल जाने पर उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल उसी तरह पार्टी के केंद्रीय मंच पर आ गई जैसे कभी लालू यादव के जेल जाने पर राबड़ी देवी आई थी और जिस तरह हेमंत सोरेन के जेल जाने पर उनकी पत्नी कल्पना सोरेन आगे आई हैं।
भ्रष्टाचार भी एक ऐसा बड़ा मुद्दा था जिसे खत्म करने के लिए अरविन्द केजरीवाल और उनके साथियों ने अन्ना हजारे की छत्रछाया में लोकपाल आंदोलन चलाया था। आज आम आदमी पार्टी के पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के अलावा शीर्ष पर बैठे अधिकांश वरिष्ठ नेता जेल जा चुके हैं और कुछ के सिर पर जेल जाने की तलवार लटक रही है। राजनीति में तमाम तरह की शुचिताओं और नैतिकता का नारा देने वाली आम आदमी पार्टी महात्मा गांधी के नाम और नारों के सहारे पहले आंदोलन और फिर राजनीति में घुसी थी।पंजाब के चुनाव आते आते उन्होंने अपने प्रचार प्रसार में गांधी को उसी तरह विस्मृत कर दिया जैसे अपने दल के वरिष्ठ संस्थापक साथियों को किया है। इन सब कारणों से आम आदमी पार्टी ने बहुत तेजी से अपनी विश्वसनीयता का ग्राफ कम किया है।
ऐसा लगता है कि इन दिनों आम आदमी पार्टी के खेमे में कुछ भी बेहतर नहीं घट रहा। हाल ही में आम आदमी पार्टी की राज्य सभा सांसद और दिल्ली महिला आयोग की भूतपूर्व अध्यक्ष स्वाति मालीवाल के साथ अरविंद केजरीवाल के सरकारी आवास पर उनके निजी सचिव रहे बिभव कुमार द्वारा की गई कथित हिंसा ने अरविंद केजरीवाल और उनके आवास की छवि भी धूमिल की है। भले ही आम आदमी पार्टी अब अपनी ही सांसद के आरोपों को भाजपा की साजिश बताकर चुनाव के समय इस मामले से बचना चाह रही हो लेकिन यह भी एक ऐसा दाग है जिसका साफ होना आसान नहीं है। कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल, उनकी पार्टी और उनके आवास का एक साथ अपराधों में उलझना इन सबके लिए बेहद अशुभ है।
नितिन सिंघवी
हर निर्णय लेते वक्त हम ध्यान रखते हैं, जैव विविधता ज्यादा से ज्यादा बर्बाद हो।
प्रतिवर्ष 22 मई को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस, जैव विविधता के मुद्दों के बारे में समझ और जागरूक का बढ़ाने के लिए आयोजित किया जाता है। खेद! यह सिर्फ आयोजन तक सीमित रहता है। 20 वर्ष पहले ही हम समझ गए थे कि जैव विविधता खतरे में पड़ गई है। तब पहली बार जैव विविधता पर कन्वेंशन हुआ, जिसे कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टी (कॉप) कहा गया, 15 ऐसे सम्मलेन हो चुके हैं।
कॉप-15, कुनमिंग (चीन)-मोंटेरियल(कनाडा) में 2022 में आयोजित हुआ। उसमें लिया गया निर्णय, राष्ट्रों को 2030 तक प्रकृति के नुकसान को रोकने और उलटने के लिए प्रतिबद्ध करता है। कुनमिंग में निर्णय लिया गया था - इकोलॉजिकल सिविलाइजेशन: बिल्डिंग ए शेयरड फ्यूचर फॉर ऑल लाइफ ऑन अर्थ। वहां चर्चा हुई कि हर निर्णय लेते वक्त हम जैव विविधता का ध्यान रखेंगे। परंतु उसके बाद हर विकास कार्य में निर्णय लेते वक्त या खदान खोलते वक्त हम यह भूल जाते हैं कि इस अंतरराष्ट्रीय संधि पर हमने दस्तखत किया है। सच्चाई यह है कि हर निर्णय में जैव विविधता को बर्बाद करने का निर्णय हम औद्योगिक युग चालू होने से ही ले रहे हैं।
क्या है जैव विविधता
पृथ्वी की सतह से 500 मीटर नीचे तथा 11 किलोमीटर ऊपर मौजूद अरबों प्रकार के जीवन की विविधता को बताने के लिए जैव विविधता शब्द का उपयोग 1968 से किया जा रहा है। पृथ्वी पर जैव विविधता से अधिक पेचीदा और कुछ नहीं है। अमूमन सभी चीजें, मानव और दूसरे जीवों को जैव विविधता निशुल्क ही प्रदाय करती है। जैसे पेड़, ये भी जीव है, इनसे दूसरे सभी जीव ऑक्सीजन पाते हैं, ये मिट्टी का स्तर बनाए रखते है, मृदा अपरदन (साइल इरोजन) रोकते है, जलवायु और जल नियंत्रित करते है, इससे गिरने वाली पत्तियों, फलों, बीजों को खाने से शाकाहारी स्तनपाई और कई जीव-जंतु, मांसाहारी जानवरों के खाने की खाद्य श्रृंखला (फूड चेन) को चलाते हैं। पेड़ों के मरने के बाद कई प्रकार के कीट-पतंगे, फंगी उस पर जिंदा रहते हैं, फंगी का नेटवर्क पूरे जंगल में पेड़ों की रक्षा करता है। पेड़ों और वनों का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह कार्बन डाइऑक्साइड को सोख कर जलवायु नियंत्रित करते हैं। जैव विविधता (पेड़ों) के इन फायदों को छोटे से लेख में लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता।
फायदे का एक और उदाहरण
घास-स्थली और वन-स्थली में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीव (माइक्रोब्स), इन्हें ‘ओल्ड फ्रेंड’ के नाम से जाना जाता है। ये मानव की प्रतिरक्षा प्रणाली को नियंत्रित करते हैं, अन्यथा प्रतिरक्षा प्रणाली का कुछ हिस्सा स्वयं हम पर हमला कर सकता है। ये रोगजनकों से हमारी रक्षा करते हैं और उसका रिकॉर्ड रखते हैं। परंतु शहरी क्षेत्रों में, विशेष रूप से बरसात में, जब उगी घास में जैव विविधता की भरमार रहती है और खरबों सूक्ष्मजीव, कई कीट-पतंगे अपना जीवन काल घास-स्थली में पूरा करते पाए जाते हैं, तब सफाई के नाम से हम घास को कटवा देते है। शहरी क्षेत्रों में जैव विविधता की कमी हमें बीमार रखेगी, इसे पुन: स्थापित करने के लिए शहरों में हमें कई अर्बन फारेस्ट चाहिए।
कैसे करते है बर्बाद : एक छोटा उदाहरण
जैवविविधता को बर्बाद करने का बिलकुल छोटा उदाहरण लें तो अभी हमारे देश में तालाबों के सौंदरीकरण का काम गांव-गांव तक चालू हो गया है, जिसके तहत सबसे पहले तालाब के मेड़ पर, पानी की तरफ, कांक्रीट की टो वाल बनाई जाती है, फिर मेड़ के ऊपर कांक्रीट या पेवर का पाथ वे। पानी का संपर्क मिट्टी से खत्म होने से क्लीन वाटर सिस्टम खत्म हो जाता है, तलाब की हत्या हो जाती है; तालाब डेड वाटर बॉडी बन जाता है, नतीजा वहां की जैव विविधता समाप्त हो जाती है। आप विचार कर के सोच लीजिए इस प्रकार, विकास से सम्बंधित हर निर्णय में हम जैव विविधता बर्बाद करने का निर्णय लेते हैं।
क्या करें
विश्व जैव विविधता संकट और जलवायु संकट से जूझ रहा है। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। किसी एक संकट से निकलने पर भी मानव और अन्य जीव जंतुओं का विनाश निश्चित है अत: हमें दोनों संकटों से बाहर निकलना होगा, जो कि सिर्फ 22 मई को बात करने से नहीं होगा। अज्ञान जैव विविधता का एक नंबर का दुश्मन है, इसलिए वर्ष भर इसे समझिये और बचाइए। एक बात और जैव विविधता मानव के बिना रह सकती है परन्तु मानव उसके बिना जिन्दा नहीं रह सकता।
लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा विरोधी 'इंडिया' गठबंधन के सत्ता में आने पर तृणमूल कांग्रेस नई सरकार के गठन में ‘बाहर से समर्थन’ देगी।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की इस टिप्पणी के बाद बुधवार शाम से ही राजनीतिक हलकों में कयासों और अटकलों का दौर तेज़ हो गया था।
सवाल उठ रहा था कि क्या उनकी इस टिप्पणी में कोई नया संकेत छिपा है?
इस चर्चा के जोर पकडऩे के बाद ममता बनर्जी ने एक बार फिर अपने बयान बदल दिया। उन्होंने बता दिया कि वो गठबंधन में शामिल हैं।
मुख्यमंत्री ने बुधवार को हुगली जिले के चूंचुड़ा में तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार रचना बनर्जी के समर्थन में एक चुनावी सभा को संबोधित किया था। उसमें अपने भाषण के दौरान उन्होंने साफ कर दिया कि वो ‘इंडिया’ गठबंधन की जीत के बारे में आश्वस्त हैं।
लेकिन साथ ही उन्होंने ये भी जोड़ा कि भाजपा-विरोधी गठबंधन के सत्ता में आने पर तृणमूल कांग्रेस बाहर से समर्थन देकर नई सरकार के गठन में हर संभव सहायता करेगी।
ममता ने उस सभा में कहा था, ‘हम इंडिया का नेतृत्व करते हुए बाहर से हर संभव सहायता देकर सरकार का गठन करा देंगे ताकि बंगाल की माताओं-बहनों को कभी कोई दिक्कत नहीं हो और सौ दिनों के काम में भी कभी समस्या नहीं हो।’ उसके बाद इस मुद्दे पर कयासों और अटकलों का दौर तेज हो गया कि मुख्यमंत्री आखिर क्या संकेत देना चाहती हैं?
इसकी वजह यह थी कि उनको पहले कई बार ‘इंडिया’ गठबंधन बनाने में अपनी भूमिका का जिक्र करते हुए सुना जा चुका है।
कांग्रेस समेत कुछ घटक दलों के खिलाफ अपनी नाराजगी नहीं छिपा पाने के बावजूद ममता इंडिया गठबंधन की जीत के प्रति आश्वस्त हैं।
दूसरी ओर, बंगाल में इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं होने की बात कहने के बावजूद वो कहती रही हैं कि केंद्र में उनकी पार्टी इसका हिस्सा है।
लेकिन बुधवार से पहले उनके मुंह से ऐसा नया सुर सुनने में नहीं आया था। देश में लोकसभा चुनाव के पहले चार चरणों का मतदान हो चुका है। अब पांचवें चरण का मतदान होना है।
इसके साथ ही राजनीतिक समीकरण भी बदले हैं। जानकार भले ही गठबंधन के भविष्य को लेकर सवाल उठाते रहे हों, अब तस्वीर कुछ बदली सी दिख रही है।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ़्तारी और विपक्ष के नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की सक्रियता जैसे मुद्दों पर ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक दलों में एकजुटता बढ़ी है।
दूसरी ओर, प्रधानमंत्री के खिलाफ धार्मिक ध्रुवीकरण के आरोप, संदेशखाली मामले के ताज़ा घटनाक्रम और दूसरी घटनाओं से भाजपा कुछ हद तक असहज स्थिति में जरूर है।
यह भी माना जा रहा है कि भाजपा की यह असहजता ‘इंडिया’ गठबंधन के हित में काम कर रही है।
मौजूदा परिस्थिति में सरकार के गठन में बाहर से सहायता देने की ममता बनर्जी की टिप्पणी ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।
ये सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्या यह बयान ‘इंडिया’ गठबंधन को लेकर ममता बनर्जी के नए रुख का संकेत है या फिर चुनाव के अगले चरणों को ध्यान में रखते हुए इसके पीछे कोई राजनीतिक समीकरण काम कर रहा है?
भाजपा ने उनके इस बयान पर कटाक्ष किया। वाममोर्चा और कांग्रेस ने इसे मौकापरस्ती करार दिया है।
हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों की राय में इस बयान के पीछे ठोस राजनीतिक समीकरण हैं।
मुख्यमंत्री के इस बयान पर राजनीतिक माहौल गरमाने के बाद उन्होंने एक बार फिर अपना बयान बदल दिया।
पहले बयान के 24 घंटे के भीतर गुरुवार शाम को हल्दिया में अपनी एक चुनावी सभा में उन्होंने दावा किया कि वो राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल हैं।
मुख्यमंत्री का कहना था, ‘ऑल इंडिया लेवल (अखिल भारतीय स्तर) पर हमने विपक्षी दलों का इंडिया गठबंधन तैयार किया था। हम गठबंधन का हिस्सा बने रहेंगे। कई लोगों ने मेरे बयान को गलत समझा है। मैं गठबंधन में शामिल हूं। मैंने वह गठबंधन तैयार किया है और उसमें शामिल भी रहूंगी। राष्ट्रीय स्तर पर हम गठबंधन में रहेंगे। बंगाल में सीपीएम और कांग्रेस भाजपा के साथ हैं।’
बार-बार बयान बदलना
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हाल की अपनी चुनावी रैलियों में भाषण के दौरान बार-बार जिन मुद्दों का जिक्र करती रही हैं उनमें भाजपा के 400 पार के लक्ष्य पर कटाक्ष करना, हाल में भाजपा पर लगे आरोप, केंद्र की ओर से राज्य को वंचित करना और राज्य सरकार की विकास परियोजनाओं समेत दूसरे कामकाज शामिल हैं।
इस दौरान ‘इंडिया’ गठबंधन का भी जिक्र होता रहा है। वो हर बार गर्व से कहती रही हैं कि विपक्षी गठबंधन का 'इंडिया' नाम उन्होंने ही दिया था।
उन्होंने कहा है कि चुनाव के बाद तस्वीर बदलेगी और भाजपा सरकार के पतन के बाद ‘इंडिया’ गठबंधन सत्ता में आएगा।
ममता कई बार कह चुकी हैं कि बंगाल में इस गठबंधन का कोई अस्तित्व नहीं है। इसकी वजह यह है कि वो वाममोर्चा और कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने को तैयार नहीं हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वो गठबंधन के साथ हैं।
लेकिन बुधवार की चुनावी सभा में उनका सुर बदला था। उन्होंने भाजपा के ‘अबकी बार, चार सौ पार’ नारे पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘भाजपा ने घमंड के साथ नारा दिया था कि ‘अबकी बार, चार सौ पार’। लेकिन लोग कह रहे हैं कि नहीं होगा दो सौ पार। अबकी बार होगा पत्ता साफ।’
राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंडिया’ गठबंधन का जिक्र करते हुए तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ने राज्य में वाममोर्चा और कांग्रेस पर कटाक्ष किया था।
बुधवार की सभा में उन्होंने कहा था, ‘बंगाल में सीपीएम और कांग्रेस हमारे साथ नहीं हैं। यह दोनों राजनीतिक दल भाजपा के साथ हैं।’
उसके बाद ही मुख्यमंत्री ने कहा था कि चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा-विरोधी सरकार के गठन में उनकी पार्टी बाहर से समर्थन और हरसंभव सहायता करेगी।
ममता बनर्जी की आलोचना
तृणमूल कांग्रेस प्रमुख की ओर से बुधवार को की गई इस टिप्पणी के बाद विपक्षी दलों ने उन पर तीखे हमले शुरू कर दिए।
‘इंडिया’ गठबंधन के सहयोगी दल वाममोर्चा और कांग्रेस भी इसमें पीछे नहीं रहे थे।
ममता के बुधवार के बयान के संदर्भ में गुरुवार सुबह लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान (जो विपक्षी एनडीए का हिस्सा हैं) ने कहा, ‘इंडिया गठबंधन में शामिल दलों का कोई आदर्श या नैतिकता नहीं है।’
उन्होंने सवाल उठाया, ‘ममता बनर्जी जिनके खिलाफ चुनाव लड़ती रही हैं उनके साथ मिल कर केंद्र में सरकार का गठन कैसे करेंगी? दरअसल गठबंधन में शामिल कोई भी पार्टी देश के विकास के बारे में नहीं सोचती। इनकी निगाह सिर्फ इस पर है कि सत्ता कैसे हासिल की जाए।’
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी इंडिया गठबंधन पर हमला करने से नहीं चूके।
उन्होंने बुधवार को पुरुलिया की चुनावी सभा में कहा, ‘हम मोदी जी के नेतृत्व में मजबूत सरकार चला रहे हैं। हम चुनाव के बाद एक बार फिर मजबूत सरकार का गठन करना चाहते हैं। लेकिन ममता दीदी और इंडी गठबंधन एक असहाय सरकार बनाना चाहती हैं।’
‘इंडिया’ गठबंधन को 'बाहर से समर्थन' देने और राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का हिस्सा होने के बयान सामने आने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने कहा, ‘वो (ममता) गठबंधन से पलायन कर गई हैं। ममता अपनी विश्वसनीयता खो चुकी हैं। मैं उनकी किसी भी बात पर भरोसा नहीं करता। हवा का रुख बदलते हुए देख कर वो इधर झुक रही हैं। भाजपा का पलड़ा भारी देख कर उधर चली जाएंगी।’
इससे पहले बुधवार के ममता के बयान पर अधीर रंजन चौधरी ने कहा था कि चुनाव के नतीजों का पूर्वाभास होने के कारण ही मुख्यमंत्री ने सुर बदल लिया है।
उनका कहना था, ‘तृणमूल कांग्रेस अब समझ गई है कि बंगाल में उसका भविष्य अंधकारमय है। चुनाव के बाद वह पार्टी ही टूट जाएगी और कई लोग कांग्रेस में शामिल हो जाएंगे। इसलिए वह तमाम विकल्प खुले रखने का प्रयास कर रही हैं।’
दूसरी ओर, सीपीएम नेता सुजन चक्रवर्ती ने दावा किया कि ममता बनर्जी की टिप्पणी से एक बार फिर इस बात का संकेत मिला है कि भाजपा के साथ उनका गोपनीय समझौता है।
वह कहते हैं, ‘हम तो शुरू से ही कह रहे हैं कि भाजपा के खिलाफ लड़ाई में ममता बनर्जी पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
इस उतार-चढ़ाव वाली स्थिति से यह बात साफ़ हो गई है। दरअसल, उन्होंने भाजपा को यह संदेश दिया है ताकि भतीजा जेल नहीं जाए। वो दो नावों पर पांव रखना चलना चाहती हैं।’
विश्लेषकों का क्या कहना है
मुख्यमंत्री के बार-बार सुर बदलने के मुद्दे पर राजनीतिक विश्लेषक और प्रोफ़ेसर विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, ‘ममता बनर्जी अपनी सहूलियत के हिसाब से बात करती हैं और ज़रूरत होने पर अपना बयान बदल भी देती हैं।’
हिंदुत्ववादी राजनीति के शोधकर्ता और लेखक स्निग्धेंदु भट्टाचार्य कहते हैं, ‘दरअसल, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तिकोनी लड़ाई बनाए रखना चाहती हैं। वो चाहती हैं कि तृणमूल कांग्रेस बनाम भाजपा बनाम वाममोर्चा-कांग्रेस की लड़ाई जारी रहे ताकि तृणमूल विरोधी वोट एकतरफा तरीके से भाजपा की झोली में नहीं जा सकें।’
स्निग्धेंदु भट्टाचार्य की राय में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख एक और मामले में भरोसा कायम रखना चाहती हैं।
वह कहते हैं, ‘वो एक बार फिर इस बात का भरोसा देना चाहती हैं कि बंगाल में वाममोर्चा और कांग्रेस के साथ उनकी दुश्मनी है और यहां उनसे हाथ मिलाने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन ममता यह काम थोड़ी सावधानी के साथ कर रही हैं। अगर वो सीधे उनके ख़िलाफ़ हमला करती हैं तो उससे वाममोर्चा और कांग्रेस को फ़ायदा होगा। उन दोनों को ये कहने का मौका मिल सकता है कि तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच गोपनीय समझौता है।’
इस बारे में चर्चा करते हुए स्निग्धेंदु भट्टाचार्य पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों की ओर से एक-दूसरे पर विपक्षी दलों के साथ गोपनीय तालमेल का आरोप लगाने या उनकी ओर से मैदान में उतरने वाली बी टीम बताने वाली प्रवृत्ति का भी जिक्र करते हैं।
वह कहते हैं, ‘यहां अब सब एक-दूसरे को बी-टीम के तौर पर चिह्नित करना चाहते हैं। भाजपा की दलील है कि तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और वाममोर्चा के साथ 'इंडिया' गठबंधन में शामिल है। इसलिए कांग्रेस या वाममोर्चा को वोट देने का मतलब तृणमूल कांग्रेस को वोट देना है। दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि सीपीएम और कांग्रेस को वोट देने का मतलब भाजपा को वोट देना है। वाममोर्चा और कांग्रेस का दावा है कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस को वोट देना बराबर है।’
स्निग्धेंदु भट्टाचार्य की राय में मौजूदा परिस्थिति में ममता बनर्जी दो संदेश देना चाहती हैं।
उनका कहना है, ‘भाजपा सत्ता में नहीं आ रही है, यह भांप कर वो उसके पक्ष में बहने वाली हवा का रुख बदलना चाहती हैं। साथ ही वाम-कांग्रेस का विरोध कर वो तृणमूल कांग्रेस विरोधी वोटों का विभाजन करना चाहती हैं।’
बार-बार बयान में बदलाव क्यों
इंडिया गठबंधन के मुद्दे पर तृणमूल कांग्रेस के सुर में बदलाव की टाइमिंग पर भी सवाल उठ रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों की राय में इसके पीछे वोट बैंक का समीकरण है।
स्निग्धेंदु भट्टाचार्य कहते हैं, ‘एकदम निचले स्तर पर आम लोगों में ममता बनर्जी की पार्टी के प्रति भारी नाराजगी है। पार्टी यह बात जानती है।’
लोकसभा चुनाव के चार चरणों का मतदान हो चुका है। अब आगामी 20 मई को पांचवें चरण का मतदान होना है। राजनीतिक दलों को अब नतीजों का पूर्वानुमान भी हो चला है।
भट्टाचार्य का कहना था, ‘उत्तर दिनाजपुर से मुर्शिदाबाद और कृष्णनगर तक जिन इलाकों में मुस्लिम वोट हिंदुओं के बराबर या ज्यादा हैं, वहां मतदान हो चुका है। तृणमूल कांग्रेस जानती है कि उन इलाको में वाम और कांग्रेस को कुछ हद तक अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाबी मिली है। अब दक्षिण बंगाल के उन इलाकों मतदान होना है जहां हिंदू वोटरों की तादाद ज्यादा है। ऐसी परिस्थिति में वाममोर्चा और कांग्रेस के प्रति सुर नरम करने की स्थिति में हिंदू वोटों के भाजपा के पक्ष में संगठित होने की संभावना रहती है। ममता ऐसा नहीं चाहतीं।’
अब सवाल है कि ममता बनर्जी ने बृहस्पतिवार को तमलुक की अपनी चुनावी सभा में ‘इंडिया’ गठबंधन पर अपने रवैये की दोबारा व्याख्या क्यों की है?
भट्टाचार्य कहते हैं, ‘इसकी वजह यह है कि ममता नहीं चाहती कि आम लोगों में ऐसी कोई धारणा मजबूत हो कि भाजपा के साथ तृणमूल कांग्रेस का कोई गोपनीय समझौता है। इसीलिए उन्होंने दोबारा इस मुद्दे पर सफ़ाई दी है। दूसरी ओर, बशीरहाट में 45 प्रतिशत, डायमंड हार्बर में 38 प्रतिशत और जयनगर में 30 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं। इन सीटों पर मतदान अभी बाकी है। ऐसे में अगर यह संदेश जाता है कि ममता ‘इंडिया’ गठबंधन के खिलाफ हैं तो उन सीटों पर वाममोर्चा और कांग्रेस को फायदा हो सकता है।’ (bbc.com/hindi)
नियाज फारूकी
इंदौर के एक लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल के खि़लाफ़ नमाज़ पढऩे, इसके लिए प्रेरित करने, लाइब्रेरी में ‘देश विरोधी’ किताब रखने, मुसलमान शिक्षकों की भर्ती करने और ‘लव जिहाद’ को बढ़ावा देने जैसे आरोपों का मुक़दमा दर्ज किया गया था। इस मुक़दमे के बाद सरकार ने उनसे इस्तीफ़ा ले लिया था। मगर अब डेढ़ साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनके खि़लाफ़ दर्ज मुक़दमे को ‘अनुचित’ बताते हुए एफ़आईआर रद्द करने का आदेश दिया है।
डॉक्टर इनामुर्रहमान इंदौर स्थित गवर्नमेंट न्यू लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जिन्हें दिसंबर 2022 में उस समय सस्पेंड कर दिया गया था, जब भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े एक समूह ने उनके खि़लाफ़ द्वेषपूर्ण व्यवहार जैसे गंभीर आरोप लगाए थे।
डॉक्टर इनामुर्रहमान के खि़लाफ़ दर्ज मुक़दमा तो रद्द हो गया लेकिन जो जख़़्म उनके दिल पर लगे हैं शायद ही वह मिट सके। बीबीसी ने डॉक्टर इनामुर्रहमान से इस मुक़दमे और इससे उन पर पडऩे वाले असर के बारे में विस्तार से बात की है।
हालांकि, डॉक्टर इनामुर्रहमान ने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का स्वागत किया है क्योंकि उनके रिटायर होने से कुछ दिन पहले उन्हें इंसाफ़ मिला है, मगर शायद जो दर्द उनके सीने में है, इससे वह और बढ़ गया है।
बीबीसी से फ़ोन पर बात करते हुए प्रोफ़ेसर डॉक्टर इनामुर्रहमान भावुक हो गए। उन्होंने कहा, ‘मेरे 38 साल के टीचिंग करियर में कभी भी किसी तरह का कोई आरोप नहीं लगा था। कभी कोई जाँच नहीं हुई थी, एक कारण बताओ नोटिस तक नहीं जारी हुआ था।’
वह कहते हैं कि कॉलेज की बेहतरी के लिए अपनी तमाम ऊर्जा लगाने के बावजूद ख़ुद को मुश्किल में पाता हूं। ‘मैं बाहर से शिक्षक लेकर आया। बाहर के अच्छे कॉलेजों से संपर्क स्थापित किया। सरकार के सीनियर अफ़सरों से जाकर मुलाक़ात की। चाहता था कि आने वाली पीढिय़ों को कोई परेशानी ना हो। लेकिन इसका क्या फ़ायदा हुआ?’
भेदभाव का भी था आरोप
उन पर यह आरोप भी लगाया गया कि उन्होंने मुसलमान शिक्षकों को कॉलेज में नौकरियां दी हैं और हिंदू छात्रों के खि़लाफ़ इम्तिहानों में भेदभाव किया है।
मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के फ़ैसले के खि़लाफ़ प्रोफ़ेसर इनामुर्रहमान ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था।
डॉक्टर इनामुर्रहमान के खि़लाफ़ आरोपों को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘एफ़आईआर का जायज़ा लेने से यह बात साफ़ हुई कि एफ़आईआर अनुचित होने के सिवा कुछ नहीं है।’
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एफ़आईआर में लगाया गया कोई भी आरोप साबित नहीं होता।
अदालत ने इस मामले में राज्य सरकार की कार्रवाई की आलोचना करते हुए कहा कि यह अत्याचार और प्रताडऩा का मामला लगता है।
डॉक्टर इनामुर्रहमान 31 मई को रिटायर हो रहे हैं। अभी सरकार की ओर से शुरू की गई विभागीय जांच में उन्हें अगले माह जांच कमिटी के सामने पेश होने को कहा गया है।
वेबसाइट ‘लाइव लॉ’ के अनुसार, अदालत ने सरकार के वकील से सवाल किया, ‘मध्य प्रदेश सरकार ऐसे मामले में अदालत में एक एडिशनल एडवोकेट जनरल को क्यों भेज रही है? साफ़ तौर पर ऐसा लगता है कि यह एक प्रताडऩा का मामला है।’
अदालत ने कहा, ‘कोई उन्हें यानी आवेदन देने वाले को परेशान करने में दिलचस्पी रखता है। हम अनुसंधान अधिकारी को नोटिस जारी करेंगे।’
कैसे शुरू हुआ था ये मामला?
प्रोफ़ेसर इनामुर्रहमान कॉलेज में बिताए अपने समय पर बात करते हुए कहते हैं कि उन्होंने कॉलेज में कई सुधार लागू करवाए थे और उसे एक शीर्ष केंद्र बनाने के लिए दिल्ली और दूसरी जगह के कॉलेजों से संपर्क स्थापित किया था।
वह कहते हैं कि उन्होंने छात्रों के व्यापक हित में मुफ़्त कोचिंग क्लास, अदालती फ़ैसले लिखने की प्रतियोगिता, मूट कोर्ट्स और सर्टिफिक़ेट कोर्स जैसी चीज़ें शुरू करवाईं।
वह कहते हैं कि उनमें बहुत से छात्रों ने हिस्सा नहीं लिया लेकिन सब सर्टिफिक़ेट लेना चाहते थे। कोर्स कराने वाली संस्थाओं ने कहा, ‘हम उन्हें कोर्स में शामिल किए बिना सर्टिफिक़ेट नहीं दे सकते हैं।’
डॉक्टर इनामुर्रहमान ने यह भी कहा कि कॉलेज में कुछ ऐसे छात्र भी हैं, जिन्होंने दो साल तक फ़ीस जमा नहीं की है। उनके अनुसार, ‘मैंने उनसे कहा कि यह एक सरकारी कॉलेज है और आपको फ़ीस जमा करनी पड़ेगी। मैंने इस मामले में कड़ा रुख़ अपनाया।’
लेकिन उन छात्रों में से कई ने डॉक्टर इनामुर्रहमान और दूसरे मुस्लिम शिक्षकों पर गंभीर आरोप लगा दिए। आरोप लगाने वाले छात्रों ने कहा कि उन्हें जानबूझकर परीक्षा में फेल किया जा रहा है। इनामुर्रहमान कहते हैं, ‘हमारा कहना था कि इसमें हमारा कोई रोल नहीं होता। इम्तिहान तो यूनिवर्सिटी लेती है, ना कि कॉलेज।’
लेकिन मामला थमा नहीं। कॉलेज के छात्रों ने डॉक्टर इनामुर्रहमान और दूसरे मुस्लिम शिक्षकों के खि़लाफ़ सांप्रदायिक विद्वेष का आरोप लगाकर विरोध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया।
विरोध प्रदर्शन करने वाले छात्रों ने और भी कई आरोप लगाए। उन्होंने इस कॉलेज की लाइब्रेरी की एक किताब की तरफ़ ध्यान दिलाया, जिसके बारे में उनका कहना था कि यह ‘हिंदूफ़ोबिक’ और देश विरोधी है।
‘कलेक्टिव वायलेंस ऐंड क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम’ नाम की इस किताब को डॉक्टर फऱहत ख़ान ने समाचार पत्रों में छपे आलेखों से तैयार किया था। यह किताब अमर लॉ बुक नाम के प्रकाशक ने छापी थी जो सन 2014 से इस कॉलेज की लाइब्रेरी में थी।
छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बाद डॉक्टर इनामुर्रहमान पर मुक़दमा दर्ज कर दिया गया था।
एफ़आईआर दर्ज होने के बाद उन्हें इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर किया गया। उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘मैंने सरकार को लिख कर दिया कि मैंने दबाव में इस्तीफ़ा दिया है। मैं अपनी जि़म्मेदारी से नहीं भाग रहा।’
मगर सरकारी जांच में मुझे दोषी ठहराया गया’
जब इस मामले ने गंभीर रुख़ ले लिया तब राज्य सरकार ने जांच का आदेश दे दिया।
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने पुलिस को उन्हें गिरफ़्तार करने की इजाजत दे दी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2022 में उस फैसले पर रोक लगा दी।
उन्हें सस्पेंड करने के बाद उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई जारी रही। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी से पता चलता है कि बहुत से छात्रों और शिक्षकों ने उनके पक्ष में जांच कमिटी को बयान दिया था।
डॉक्टर इनामुर्रहमान कहते हैं, ‘शिक्षकों और छात्रों- दोनों ने मेरे समर्थन में लिखकर बयान दिया लेकिन जांच कमिटी ने उन पांच-सात लोगों पर विश्वास करके मेरे खि़लाफ़ सरकार को रिपोर्ट दे दी। जांच कमिटी ने यह नहीं बताया कि उसने कॉलेज के पूरे स्टाफ़ पर क्यों भरोसा नहीं किया।’
वह कहते हैं कि उन्होंने इंक्वायरी कमिटी को अपना पक्ष बताया और राज्यपाल को दया का आवेदन भी दिया लेकिन उसे नहीं माना गया। आखिऱ में उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाने पर मजबूर होना पड़ा।
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने एफ़आईआर को रद्द कर दिया है, वह उम्मीद कर रहे हैं कि सरकार उनके खि़लाफ़ विभागीय कार्रवाई को बंद कर देगी और वह 31 मई को लगभग 40 साल की नौकरी के बाद सम्मान के साथ रिटायर हो पाएंगे।
‘ग़ैर मुस्लिम मेरे साथ रहे’
डॉक्टर इनामुर्रहमान कहते हैं कि यह पूरा मामला अफ़सोसजनक है लेकिन ‘सबसे बड़ी बात यह थी कि इस पूरे विवाद में ग़ैर मुस्लिम हमेशा मेरे साथ रहे। वह सामने नहीं आए लेकिन वह मेरे साथ थे।’
उन्होंने कहा कि उन्हें ख़ुद को इस दौरान जो नुक़सान हुआ वह अपनी जगह है लेकिन उन्हें इस बात का ज़्यादा अफ़सोस है कि अगर वह कॉलेज में होते तो कुछ बच्चों का भला करने में ज़रूर कामयाब होते। ‘कम से कम कुछ बच्चों को तो ट्रेनिंग देकर देश के हवाले कर देता।’
वह कॉलेज और छात्रों की भलाई के लिए किए गए उपायों को याद करते हुए रो पड़े। वह कहते हैं, ‘मैंने प्रिंसिपल रहते हुए भी कोई क्लास नहीं छोड़ी। मैं कॉलेज में दस बजे से रात साढ़े आठ-नौ बजे तक रहता था ताकि उसे काफ़ी आगे लेकर जाऊं।’
वह बताते हैं कि उनका बेटा न्यायिक अधिकारी है और बेटी डॉक्टर। उनका दामाद प्रोफ़ेसर और बीवी रिटायर्ड जज हैं। अब उनकी इच्छा थी कि वह अपने कॉलेज और छात्रों के लिए कुछ करें।
वह राज्य वक़्फ़ बोर्ड में सरकार के प्रतिनिधि थे और जिस यूनिवर्सिटी से उनका कॉलेज एफि़लिएटिड है, वह उसकी एग्ज़ीक्यूटिव काउंसिल के मेंबर भी थे।
वह कहते हैं कि अगले एक महीने के बाद शैक्षणिक संस्थाओं की रेटिंग करने वाली ‘नैक’ नाम की सरकारी एजेंसी कॉलेज आने वाली थी और वह उसी की तैयारी कर रहे थे कि यह विवाद खड़ा हो गया।
उन्होंने भर्राई हुई में आवाज़ में कहा, ‘मैंने बच्चों को पढ़ाने में पूरा जीवन लगा दिया। लेकिन अंत में मुझे यह नतीजा देखने को मिला।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
पिछले दो साल से लगातार आज़ादी के अमृत काल का जश्न मनाया जा रहा है लेकिन जो लोग गांवों से जुड़े हैं वे जानते हैं कि देश के अधिकांश गांवों में अभी भी ऐसा कुछ विकास नहीं दिखता जिससे कहा जा सके कि गांवों में भी अमृत काल का जश्न मन सकता है। आजकल लोकसभा चुनाव का शोर चरम पर है लेकिन उसमें ग्रामीण मुद्दे लगभग नदारद हैं। स्वस्थ शिक्षित और समृद्ध गांव अभियान के साप्ताहिक वेबिनार में इस रविवार को हम लोगों ने संविधान में ग्राम पंचायत के अधिकार और कार्यक्षेत्र पर विषद चर्चा की थी क्योंकि अधिकांश ग्राम वासियों को इस बात की जानकारी ही नहीं है कि पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत ग्राम पंचायत को ग्राम विकास के क्या अधिकार हैं!सभी ग्राम वासियों और ग्राम विकास के कार्यों से जुड़े व्यक्तियों, संस्थाओं, ग्राम प्रधानों, पंचों और सरपंचों के लिए यह जानना ज़रुरी है कि 73 वें संविधान संशोधन के अनुसार ग्राम पंचायत के लिए निम्न 29 काम निर्धारित किए गए हैं-
1. कृषि विस्तार सहित कृषि विकास संबंधी कार्य। 2. भूमि सुधारो का कार्यान्वयन, भूमि समेकन और मृदा संरक्षण आदि। 3. लघु सिंचाई, जल प्रबंधन और वाटरशेड विकास। 4. पशुपालन, डेयरी और मुर्गी पालन। 5. मछली पालन। 6. सामाजिक वानिकी और कृषि वानिकी। 7. लघु वनोपज। 8. खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों सहित लघु उद्योग। 9. खादी और कुटीर उद्योग। 10. ग्रामीण आवास। 11. पेय जल। 12. ईंधन और चारा। 13. सडक़ें, पुलिया, पुल, घाट, जलमार्ग और संचार के अन्य साधन। 14. बिजली के वितरण सहित ग्रामीण विद्युतीकरण। 15. गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोत। 16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम। 17. प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों सहित शिक्षा। 18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा। 19. वयस्क और गैर-औपचारिक शिक्षा। 20. पुस्तकालय। 21. सांस्कृति गतिविधियां। 22. बाजार और मेले। 23. स्वास्थ्य और स्वच्छता, जिसमें अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय शामिल हैं। 24. परिवार कल्याण। 25. महिला बाल विकास। 26. विकलांगों और मानसिक रूप से मंद लोगों के कल्याण सहित सामाजिक कल्याण। 27. कमजोर वर्गों का कल्याण, और विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण। 28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली।29. सामुदायिक संपत्ति का रखरखाव।
इतनी सारी जिम्मेदारियों के होते हुए आज़ादी से आज तक ग्राम पंचायतें ठीक से अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई। इसीलिए अभी तक गांवों में अमृतलाल के दर्शन नहीं हुए। ग्राम प्रधानों और सरपंचों से हमारी बातचीत के दौरान यह निष्कर्ष निकला है कि पंचायतों की निम्न प्रमुख समस्या हैं.1. योजनाओं का राजधानी दिल्ली या भोपाल में बनना जिनमें गांव के लोग शामिल नहीं किए जाते।2. सुविधाओं के नाम पर गांवों में पंचायत भवन आदि तो बने पर वे जीवंत नहीं हैं।3. जैविक और उन्नत खेती की बातें बहुत की जाती हैं लेकिन सरकार का कोई समर्थन नहीं मिलता।4. दूर के गांव में कोई अधिकारी नहीं आता। 5. अधिकांश योजनाओं की जानकारी ब्लॉक से नीचे नही आती। 6. ज्यादा जोर किसी अच्छे काम की असली नकली फोटो ऊपर दिखाने पर रहता है इसलिए अधिकारी खाना पूर्ति करते हैं दिमाग नहीं लगाते। 7. काफी सरपंच और पंच शिक्षित नहीं। वे सोचते हैं सरकार का पैसा है अधिकारी जैसा चाहे खर्च करे। 8. जनता में जागरूकता की कमी है।9. फ्री राशन मिलने के कारण काफी लोग मनरेगा में मजदूरी नहीं करना चाहते। गांव के लोग भी कंफर्ट जोन में चले गए इसलिए ज्यादातर काम जे सी बी से करना पंचायत की मजबूरी हो गई। यही भ्रष्टाचार की जड़ बन गया।10. संपन्न लोग ही सब योजनाओं का लाभ ले लेते हैं क्योंकि उनके राजनीतिक कनेक्शन हैं और वे डॉक्यूमेंट्स के मामले में समृद्ध हैं। 11.पंचायत सचिव पंचायत की बजाय सरकार की बात मानता है। इन्हीं सब कारणों से गांव विकसित नहीं हो रहे। गांवों में अमृतलाल लाने के लिए इन तमाम बाधाओं को दूर करना होगा तभी गांवों में अमृतलाल का प्रवेश संभव है।
ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी और विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन की हेलिकॉप्टर क्रैश में मौत हो गई है।
ये हेलिकॉप्टर रविवार को दुर्घटना का शिकार हुआ था।
ईरान के सरकारी मीडिया के मुताबिक, दुर्घटना का शिकार हुए हेलिकॉप्टर में किसी की जिंदगी बचने के कोई संकेत नहीं मिले।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक, एक ईरानी अधिकारी ने बताया कि क्रैश में हेलिकॉप्टर पूरी तरह से जल गया है।
बचावकर्मी सोमवार सुबह घटनास्थल तक पहुँचे थे। ईरान की रेड क्रिसेंट सोसाइटी के प्रमुख ने कहा था कि हालात अच्छे नहीं हैं।
ये दुर्घटना जिस जगह पर हुई है, वहाँ मौसम काफ़ी खऱाब है। इस वजह से रेस्क्यू टीमों को घटनास्थल तक पहुँचने में दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी के हेलिकॉप्टर का पता लगाने के लिए तुर्की ने अपने ड्रोन भेजे थे। तुर्की की न्यूज एजेंसी अनादोलू ने एक जगह पर हीट ऑफ सोर्स के पता चलने की तस्वीरों को साझा किया था।
हीट ऑफ सोर्स यानी किसी जगह से आग या ज़्यादा ताप का उठना। जैसा किसी हेलिकॉप्टर के दुर्घटनाग्रस्त होने पर वहां से उठने वाली आग या धुंआ।
तुर्की को मिली इस जानकारी को ईरान के साथ साझा किया गया। अनादोलू ने ड्रोन के रात के वक्त रिकॉर्ड किए एक वीडियो को भी जारी किया।
इस वीडियो में देखा जा सकता है कि एक जगह पर काला धब्बा दिख रहा है।
इस रिपोर्ट में पढि़ए उन सवालों के जवाब जो शायद आपके मन में हो सकते हैं।
हेलिकॉप्टर में कौन-कौन था?
ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन, ईरान के पूर्वी अजरबैजान प्रांत के गवर्नर मलिक रहमती, पायलट, सुरक्षा प्रमुख समेत क्रू।
हेलिकॉप्टर कहां क्रैश हुआ और रईसी जा कहाँ रहे थे?
राष्ट्रपति रईसी अजरबैजान में किज कलासी और खोदाफरिन बांध का उद्घाटन करने गए थे। इस उद्घाटन के बाद वो तबरेज शहर की ओर जा रहे थे।
तबरेज ईरान के पूर्वी अजरबैजान प्रांत की राजधानी है। इसी दौरान रास्ते में किसी जगह पर हेलिकॉप्टर दुर्घटना का शिकार हुआ। जहां हेलीकॉप्टर ने हार्ड लैंडिंग की, वह इलाक़ा तबरेज शहर से 50 किलोमीटर दूर वर्जेकान शहर के पास है।
मलबा मिलने में देरी क्यों हुई
जिस जगह हेलिकॉप्टर क्रैश हुआ, वहां काफी धुंध बताई जा रही है।
बचाव दल के साथ मौजूद एक रिपोर्टर ने बताया था- पहाड़ी और इस घने जंगल में विजिबिलिटी सिर्फ पांच मीटर तक की ही है।
कौन से देश रेस्क्यू के लिए आगे आए?
तुर्की ने ड्रोन से घटनास्थल के बारे में जानकारी दी।
रूस के सरकारी मीडिया के मुताबिक़, बचाव के लिए 47 विशेषज्ञों की टीम और एक हेलिकॉप्टर को भेजा गया।
यूएई ने भी मदद की पेशकश की थी।
क्या हेलिकॉप्टर क्रैश के पीछे
किसी तरह की कोई साजि़श है?
अमेरिका के सीनेटर चक शूमर ने कहा है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों से हुई बातचीत ये बताती है कि अभी ऐसे कोई सबूत नहीं हैं, जिसके आधार पर साजिश की बात कही जा सके।
शूमर ने कहा कि हालात पर नजर बनाए हुए हैं।
एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा- नॉर्थ वेस्ट ईरान जहाँ ये हेलिकॉप्टर क्रैश हुआ, वहाँ मौसम बहुत खऱाब था। ऐसे में ये हादसा लगता है, मगर इसकी पूरी तरह से जाँच बाकी है।
कुछ ईरानी सोशल मीडिया पर ये सवाल उठा रहे हैं कि ये कैसे संभव हुआ कि काफिले के दो हेलिकॉप्टर सही सलामत पहुंच गए और रईसी का हेलिकॉप्टर क्रैश का शिकार हुआ।
आखिरी बार रईसी किसके साथ देखे गए?
राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी ने उड़ान भरने से पहले अजऱबैजान के राष्ट्रपति इल्हाम अलियेव के साथ ही दोनों देशों की सीमा पर बांध का उद्घाटन किया था। इन दोनों की तस्वीर भी सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही है।
राष्ट्रपति अलियेव ने कहा था कि संकट की इस घड़ी में अजऱबैजान ईरान की हर मदद करने के लिए तैयार है।
भारत की प्रतिक्रिया क्या है?
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मौत की खबर से स्तब्ध और उदास हूं। भारत-ईरान के रिश्तों को मजबूत करने के लिसए उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। ईरान के लोगों और रईसी के परिवार से शोक प्रकट करता हूं। इस दुख की घड़ी में ईरान भारत के साथ खड़ा है।’
पाकिस्तान ने क्या कहा?
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने कहा, ‘माननीय राष्ट्रपति सैयद इब्राहिम रईसी के हेलिकॉप्टर क्रैश होने के बारे में ईरान से परेशान करने वाली खबर सुनी। बड़ी चिंता के साथ खुशखबरी का इंतजार कर रहा हूं कि सब ठीक है। हमारी दुआएं और शुभकामनाएं माननीय राष्ट्रपति रईसी और पूरे ईरानी राष्ट्र के साथ हैं।’
अमेरिका क्या बोला?
अमेरिका के विदेश विभाग के एक प्रवक्ता ने कहा है कि वो ईरान के राष्ट्रपति के हेलिकॉप्टर के क्रैश होने की रिपोर्टों पर नजर रखे हुए हैं।
ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह
खामेनई ने क्या कहा?
अयातोल्लाह खामेनई ने कहा- ईरान का प्रशासन इस हादसे से प्रभावित नहीं होगा। लोग चिंता ना करें, सरकार के काम प्रभावित नहीं होंगे।
हादसे के बाद ख़ामेनई ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के साथ आपात बैठक भी की है।
रईसी को कुछ हुआ तो आगे क्या होगा?
बीबीसी की चीफ अंतरराष्ट्रीय संवाददाता लुइस डोकेट के मुताबिक, रईसी के मारे जाने की स्थिति में ईरान की विदेश या घरेलू नीतियों पर कम ही असर पडऩे वाला है।
ईरान में सुप्रीम नेता के पास ही सबसे ज़्यादा ताक़त होती है। सुप्रीम नेता ही नीतियों को तय करता है। हालांकि रईसी को खामेनई के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखा जा रहा था।
बीबीसी फारसी सेवा के जियार गोल के मुताबिक, रईसी को ईरानी गंभीरता से नहीं लेते, इसी कारण 2022 में जब विरोध प्रदर्शन हुए, तो उसमें रईसी के खिलाफ नारे कम ही सुनाई दिए। प्रदर्शनकारियों के निशाने पर तब खामेनई रहे थे।
मध्य-पूर्व मामलों के जानकार जेसन के मुताबिक, रईसी की मौत होने पर सुप्रीम नेता कुर्सी पर बने रहेंगे।
ईरान के संविधान के अनुच्छेद 131 के मुताबिक, अगर राष्ट्रपति की मौत होती है या वो पद से हटते हैं, ऐसी स्थिति में उपराष्ट्रपति (मोहम्मद मुखबर) चुनाव होने तक राष्ट्रपति बन जाएंगे। नया राष्ट्रपति 50 दिनों के अंदर चुना जाना होगा।
इब्राहिम रईसी के बारे में कुछ ख़ास बातें क्या हैं?
इब्राहिम रईसी 63 साल के थे।
रईसी का जन्म साल 1960 में उत्तर पूर्वी ईरान के पवित्र शहर मशहद में हुआ था। इसी शहर में शिया मुसलमानों के लिए सबसे पवित्र मानी जाने वाली मस्जिद भी है। वे कम उम्र में ही ऊंचे ओहदे पर पहुंच गए थे।
रईसी के पिता एक मौलवी थे। रईसी जब सिफऱ् पाँच साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया था।
वो धार्मिक स्कॉलर, वकील भी रहे।
शिया धर्म गुरुओं के पदानुक्रम में वे धर्मगुरू अयातोल्लाह से एक क्रम नीचे माने जाते थे।
इब्राहिम रईसी ने जब जून 2021 में ईरान की सत्ता संभाली तब उनके सामने घरेलू स्तर पर कई चुनौतियां थीं।
रईसी ने अपने पिता के रास्ते पर चलते हुए 15 साल की उम्र से ही क़ोम शहर में स्थित एक शिया संस्थान में पढ़ाई शुरू कर दी थी।
सिर्फ 20 साल की उम्र में ही उन्हें तेहरान के कऱीब स्थित कराज का महा-अभियोजक नियुक्त कर दिया गया था।
साल 1989 से 1994 के बीच रईसी, तेहरान के महा-अभियोजक रहे और इसके बाद 2004 से अगले एक दशक तक न्यायिक प्राधिकरण के डिप्टी चीफ रहे।
साल 2014 में वो ईरान के महाभियोजक बन गए थे। ईरानी न्यायपालिका के प्रमुख रहे रईसी के राजनीतिक विचार ‘अतिवादी’ माने जाते थे।
रईसी जून 2021 में उदारवादी हसन रूहानी की जगह इस्लामिक रिपब्लिक ईरान के राष्ट्रपति चुने गए थे। (bbc.com/hindi)
-डोमिनिक कास्सियानी
संयुक्त राष्ट्र की सर्वोच्च अदालत इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आईसीजे) ने इसराइल के खिलाफ लाए गए दक्षिण अफ्रीका के मुकदमे की सुनवाई शुरू कर दी है।
दक्षिण अफ्रीका ने इसराइल पर गाजा में जनसंहार करने का आरोप लगाया है और कोर्ट से गुजारिश की है कि वो रफाह में इसराइल की सैन्य कार्रवाई को तुरंत रोकने का आदेश दे।
दक्षिण अफ्रीका के लाए इस मामले पर इसराइल ने ‘पूरी तरह से बेबुनियाद’ और ‘नैतिक रूप से विरोध में’ बताया था। इसराइल ने इस मामले में शुक्रवार को अपना जवाब दिया है।
दक्षिण अफ्रीका के इसराइल के खिलाफ मामला लेकर कोर्ट जाने के बाद से ही इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस के शब्दों की समीक्षा की जा रही है। ये चर्चा उसके अंतरिम फैसले में इस्तेमाल किए गए शब्द ‘प्लॉजिबल’ को लेकर हो रही है।
इसी साल जनवरी में कोर्ट ने इस मामले में अपना अंतरिम फैसला सुनाया था। इस फैसले के एक पैरा ने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा। इस पैरा में लिखा गया था, ‘कोर्ट की राय में, पेश किए गए तथ्य और परिस्थितियां। ये निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए पर्याप्त हैं कि दक्षिण अफ्रीका ने जिन अधिकारों का दावा किया गया है और जिसके लिए वो सुरक्षा की मांग कर रही है उनमें से कुछ प्लॉजिबल हैं।’
प्लॉजिबल का अर्थ
प्लॉजिबल का अर्थ है विश्वसनीय या मुमकिन।
कई लोगों ने कोर्ट के इस फैसले का ये अर्थ समझा कि कोर्ट ने ये निष्कर्ष निकाला है कि इसराइल गाजा में जनसंहार कर रहा है ये दावा ‘विश्वसनीय या मुमकिन’ है। फैसले की ये समीक्षा करने वालों में कानूनी मामलों के कई जानकार भी शामिल थे।
कोर्ट के फैसले की ये समीक्षा तेजी से फैल गई।
संयुक्त राष्ट्र की प्रेस विज्ञप्ति, कैंपेन समूहों के जारी किए बयान के साथ साथ बीबीसी और अन्य कई मीडिया संस्थानों में कोर्ट के फैसले की इसी समीक्षा को जगह दी गई।
हालांकि अप्रैल में अंतरिम फ़ैसले के वक्त आईसीजे की अध्यक्ष रही योआन डोनोह्वे ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि कोर्ट ने जो फैसला दिया उसका ये मतलब नहीं था।
उन्होंने कहा कि कोर्ट के फैसले का उद्देश्य ये घोषित करना था कि दक्षिण अफ्रीका को इसराइल के खिाफ मामला लाने का अधिकार है और फिलस्तीनियों को ‘जनसंहार से सुरक्षा का विश्वसनीय अधिकार’ है - खासकर वो अधिकार जिन्हें अपूरणीय क्षति पहुंचने का जोखिम है।
जेनोसाइड कन्वेन्शन
जजों ने इस बात पर जोर दिया था कि उन्हें अभी ये कहने की जरूरत नहीं है कि जनसंहार हुआ है या नहीं बल्कि कोर्ट ने ये निष्कर्ष निकाला कि दक्षिण अफ्रीका ने जिन कदमों के बारे में शिकायत की है उनमें से कुछ, अगर साबित हो जाते हैं, तो संयुक्त राष्ट्र जनसंहार समझौते (जेनोसाइड कन्वेन्शन) के तहत आ सकते हैं।
पहले एक नजर इस पर डालते हैं कि इस मामले की पृष्ठभूमि क्या है और इसमें कानूनी विवाद कैसे हुआ।
आईसीजे संयुक्त राष्ट्र की शीर्ष अदालत है जो अंतरराष्ट्रीय कानून से जुड़े मामलों में सरकारों के बीच विवाद में फैसले देती है। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य स्वत: आईसीजे के सदस्य हैं।
इसका मतलब जेनोसाइड कन्वेन्शन उन कानूनों से है जिन पर मुल्कों की सहमति बन गई है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फिर से बड़े पैमाने पर जनसंहार न हो इसके लिए जेनोसाइड कन्वेन्शन बनाया गया था।
बीते साल दिसंबर में दक्षिण अफ्रीका ने आईसीजे के सामने अपनी दलील दी थी और ये साबित करने की कोशिश की थी कि उसकी राय में जिस तरह इसराइल गाजा में हमास के खिाफ युद्ध कर रहा है, वो जनसंहार के बराबर है।
उसका आरोप था कि जिस तरह इसराइल युद्ध को अंजाम दे रहा है उसकी ‘प्रकृति जनसंहार के समान है’ क्योंकि दक्षिण अफ्ऱीका के लाए केस के अनुसार इसके पीछे उसका इरादा ‘गाजा में फिलस्तीनियों को तबाह करने’ की है।
इसराइल ने इन आरापों को खारिज कर दिया था। उसका कहना था कि ये पूरा मामला जो ज़मीन पर हो रहा है उसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है।
दक्षिण अफ्रीका को कोर्ट के समक्ष इसराइल के कथित जनसंहार करने को लेकर स्पष्ट और ठोस सबूत पेश करने होंगे।
वहीं इसराइल को ये अधिकार होगा कि वो कोर्ट में किए गए दावों की एक के बाद एक पड़ताल करे और ये जिरह करे कि शहरी गलियों में हो रहे इस युद्ध में उसकी कार्रवाई हमास से आत्मरक्षा के लिए वैध कदम हैं। कई मुल्कों ने हमास को आतंकी संगठन घोषित किया हुआ है। इस पूरे मामले को तैयार करने और इसमें जिरह करने में कई सालों का वक्त लग सकता है।
आईसीजे से जुड़ी शब्दावली
इसलिए दक्षिण अफ्ऱीका ने आईसीजे में जजों की बेंच से गुजारिश की कि वो इस मामले में पहले ‘अतंरिम फैसला’ दे।
आईसीजे से जुड़ी शब्दावली में इसका मतलब है स्थिति को यथास्थिति में रोक देने के लिए कोर्ट की तरफ से आदेश ताकि कोर्ट का अंतिम आदेश आने से पहले किसी पक्ष को और नुकसान न पहुंचे।
दक्षिण अफ्रीका ने कोर्ट से गुज़ारिश की थी कि वो ‘फिलस्तीनी लोगों के अधिकारों को गंभीर और अपूरणीय क्षति होने से बचाने के लिए’ इसराइल को कदम उठाने के लिए आदेश दे।
कोर्ट में दो दिन तक दोनों मुल्कों के वकील ये जिरह करते रहे कि गाजा में रह रहे फिलस्तीनियों के अधिकार क्या हैं जिनकी कोर्ट को रक्षा करनी चाहिए। कोर्ट के 17 जजों ने (जिनमें से कुछ फैसले से सहमत नहीं थे) इस मामले में 26 जनवरी को अंतरिम फैसला दिया था।
आईसीजे ने कहा, ‘जिस वक्त मामला इस स्टेज पर हो तब कोर्ट से ये गुजारिश नहीं की जाती कि वो निश्चित रूप से ये फैसला दे कि दक्षिण अफ्रीका जिन अधिकारों की रक्षा की बात कर रहे है वो वाकई अस्तित्व में हैं।’
‘कोर्ट को फिलहाल केवल ये तय करना था कि जिन अधिकारों की रक्षा के लिए दक्षिण अफ्ऱीका ने दावा किया है और जिनकी रक्षा के लिए उसने कोर्ट में गुहार लगाई है, वो मुमकिन है।’
यूके लॉयर्स फॉर इसराइल की चिट्ठी
कोर्ट की राय में, पेश किए गए तथ्य और परिस्थितियां। ये निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए पर्याप्त हैं कि दक्षिण अफ्रीका ने जिन अधिकारों का दावा किया गया है और जिसके लिए वो सुरक्षा की मांग कर रही है उनमें से कुछ प्लॉजिबल हैं।’
ये तय करने के बाद कि जेनोसाइड कन्वेन्शन के तहत गाजा में रह रहे फिलस्तीनियों के विश्वसनीय अधिकार हैं, कोर्ट ने ये निष्कर्ष निकाला कि इन्हें अपूरणीय क्षति पहुंचने का जोखिम था और इसराइल को तब तक जनसंहार न हो, इसके लिए कदम उठाने चाहिए जब तक उन गंभीर मुद्दों पर सवाल उठाए जा रहे हैं।
कोर्ट ने अब तक ये फ़ैसला नहीं दिया है कि इसराइल ने जनसंहार किया है या नहीं- लेकिन क्या कोर्ट ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उसका ये मतलब है कि उसे भरोसा है कि ये हो सकता है?
और यहीं से ये विवाद शुरू हुआ कि अदालत का असल में मतलब क्या था।
अप्रैल में, 600 ब्रितानी वकीलों में जिनमें सुप्रीम कोर्ट के चार पूर्व जज भी शामिल हैं, ने ब्रितानी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसराइल के लिए हथियारों की बिक्री रोकने की मांग की। उन्होंने ‘नरसंहार के संभावित खतरे’ का संदर्भ दिया था।
इसके जवाब में यूके लॉयर्स फॉर इसराइल (यूकेएलएफआई) ने एक पत्र लिखा। 1300 सदस्यों वाले इस समूह ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय ने सिर्फ ये फैसला दिया है कि गाजा के फिलीस्तीनियों के पास नरसंहार से सुरक्षित किए जाने का तर्कसंगत अधिकार हैं- दूसरे शब्दों में कहे तो, अदालत एक जटिल और कुछ हद तक अमूर्त कानूनी तर्क से निपट रही थी।
ये विवाद और लिखे गए पत्रों और व्याख्याओं में बढ़ता रहा।
पहले समूह में शामिल बहुत से लोगों ने यूकेएलएफआई की व्याख़्या को ‘शब्दों से खेलना’ बताया। उन्होंने तर्क दिया कि अदालत, सिर्फ एक अकादमिक प्रश्न को लेकर ही चिंतित नहीं रह सकती है, क्योंकि इस मामले में और भी बहुत कुछ दांव पर लगा है। और, अन्य जगहों की तरह ही, ये बहस इसराइल को हथियार निर्यात करने को लेकर चर्चा कर रही ब्रितानी संसदीय समिति के समक्ष क़ानूनी लड़ाई में बदल गई।
ब्रितानी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज लॉर्ड सम्पशियन ने संसदीय समिति से कहा, ‘मुझे ऐसा लगता है कि, (यूकेएलएफआई के पत्र में) ये सुझाव दिया गया है कि आईसीजे जो कुछ भी कर रहा है वो सिर्फ ये स्वीकार कर रहा है कि, अमूर्त क़ानून के रूप में गाजा में रहने वालों के पास ये अधिकार है कि उनका नरसंहार ना किया जाए। मैं ये कहना चाहूंगा कि मैं उस प्रस्ताव को मुश्किल से बहस के योग्य मानता हूं।’
इसके जवाब में यूके लॉयर्स फॉर इसराइल की तरफ से नतासा हाउसड्रॉफ ने कहा, ‘ऐसा नहीं है।’ उन्होंने जवाब दिया, ‘मैं सम्मान के साथ ये कहना चाहती हूं कि तर्कसंगत ख़तरे को इस तरह देखना कि इसराइल गज़़ा में नरसंहार कर रहा है, कोर्ट के अस्पष्ट बयान की अवहेलना है।’ इसके एक दिन बाद, आईसीजे से रिटायर हो चुकीं जस्टिस योआन डोनोह्वे ने बीबीसी के शो हार्डटॉक ने इस बहस को ख़त्म करने की कोशिश करते हुए ये समझाने की कोशिश की कि अदालत ने क्या किया है।
पूर्व जज ने कहा, ‘अदालत ने ये तय नहीं किया- और ये वो बात नहीं है जो आमतौर पर मीडिया में कही जा रही है और जिसे मैं सही कर रहा हूंज्। कि नरसंहार का दावा तर्कसंकत है।’
‘आदेश में इस बात पर जरूर जोर दिया गया है कि नरसंहार से सुरक्षित होने के फिलीस्तीनियों के अधिकार को अपूरणीय क्षति पहुंचने का खतरा था। लेकिन आमतौर पर जो इसके मायने दिख रहे हैं कि, नरसंहार का तर्कसंगत खतरा है, अदालत ने ऐसा तय नहीं किया था।’ या इस तरह के भयावह नुकसान का कोई सबूत है, अदालत यह तय करने से बहुत दूर है। (bbc.com/hindi)
भारत डोगरा
हाल ही में दुबई में मात्र 1 दिन में 18 महीने की वर्षा हो गई और अति आधुनिक ढंग से निर्मित यह शहर पानी में डूब गया। कुछ दूरी पर स्थित ओमान में तो 18 लोग बाढ़ में बह गए, जिनमें कुछ स्कूली बच्चे भी थे।
इस बाढ़ के अनेक कारण बताए गए। इनमें प्रमुख यह है कि जलवायु बदलाव के चलते अरब सागर भी गर्म हो रहा है व पिछले चार दशकों में ही इसकी सतह के तापमान में 1.2 से 1.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। इसके कारण वाष्पीकरण बढ़ रहा है और समुद्र के ऊपर के वातावरण में नमी बढ़ रही है।
दूसरी ओर गर्मी बढऩे के कारण आसपास के भूमि-क्षेत्र के वायुमंडल में नमी धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। समुद्र सतह गर्म होने से समुद्री तूफानों की सक्रियता भी बढ़ती है। अत: पास के क्षेत्र में कम समय में अधिक वर्षा होने की संभावना बढ़ गई है।
तिस पर चूंकि यह शुष्क क्षेत्र है, तो यहां नए शहरों का तेज़ी से निर्माण करते हुए जल-निकासी पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितनी ज़रूरत थी। इस कारण भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई।
इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण भी चर्चा का विषय बना। वह यह है कि यूएई में काफी आम बात है कि बादलों पर ऐसा छिडक़ाव किया जाता है जिससे कृत्रिम वर्षा की संभावना बढ़ती है। जब मौसम वैसे ही तूफानी था तो इस तरह का छिडक़ाव बादलों पर नहीं करना चाहिए था। इस कारण भी वर्षा व बाढ़ के विकट होने की संभावना बढ़ गई।
यह तकनीक काफी समय से प्रचलित है कि वायुमंडल में कहीं सिल्वर आयोडाइड तो कहीं नमक का छिडक़ाव करके कृत्रिम वर्षा की स्थिति बनाई जाती है। इसके लिए विशेष वायुयानों का उपयोग किया जाता है। अनेक कंपनियां इस कार्य से जुड़ी रही हैं। यह तकनीक तभी संभव है जब वायुमंडल में पहले से यथोचित नमी हो। इस छिडक़ाव से ऐसे कण बनाने का प्रयास किया जाता है जिन पर नमी का संघनन हो और यह वर्षा या बर्फबारी के रूप में धरती पर गिरे।
इस प्रयास में कई बार यह संभावना रहती है कि तमाम चेष्टा करने पर भी वर्षा न हो, या कई बार यह संभावना बन जाती है कि अचानक इतनी अधिक वर्षा हो जाती है कि संभाली न जा सके व भीषण बाढ़ का रूप ले ले।
1952 में इंगलैंड में डेवान क्षेत्र में कृत्रिम वर्षा के प्रयोगों के बाद एक गांव बुरी तरह तहस-नहस हो गया था व 36 लोग बाढ़ में बह गए थे। इसी प्रकार, वॉल स्ट्रीट जर्नल में जे. डीन की रिपोर्ट (नवंबर 16, 2009) के अनुसार चीन में एक भयंकर बर्फीला तूफान इसी कारण घातक बन गया था।
हाल के एक विवाद की बात करें तो शारजाह में करवाई गई कृत्रिम वर्षा के संदर्भ में एक अध्ययन हुआ था। यह अध्ययन खलीद अल्महीरि, रेबी रुस्तम व अन्य अध्ययनकर्ताओं ने किया था जो वॉटर जर्नल में 27 नवंबर 2021 को प्रकाशित हुआ था। इसमंन यह बताया गया कि कृत्रिम वर्षा से बाढ़ की संभावना बढ़ी है।
दूसरी ओर, यदि कृत्रिम वर्षा से ठीक-ठाक वर्षा हो, तो भी एक अन्य समस्या उत्पन्न हो सकती है - आगे जाकर जहां बादल प्राकृतिक रूप से बरसते वहां वर्षा न हो क्योंकि बादलों को तो पहले ही कृत्रिम ढंग से निचोड़ लिया गया है। इस कारण हो सकता है कि किसी अन्य स्थान से, जो सूखा रह गया है, उन क्षेत्रों का विरोध हो जहां कृत्रिम वर्षा करवाई गई है। यदि ये स्थान दो अलग-अलग देशों में हों, तो टकराव की स्थिति बन सकती है।
जियो-इंजीनियरिग तकनीक के उपयोग भी विवाद का विषय बने हैं। कहने को तो इनका उपयोग इसलिए किया जा रहा है कि इनसे जलवायु बदलाव का खतरा कम किया जा सकता है, पर इनकी उपयोगिता और सुरक्षा पर अनेक सवाल उठते रहे हैं।
इस संदर्भ में कई तरह के प्रयास हुए हैं या प्रस्तावित हैं। जैसे विशालकाय शीशे लगाकर सूर्य की किरणों को वापस परावर्तित करना, अथवा ध्रुवीय बर्फ की चादरों पर हवाई जहाज़ों से बहुत-सा कांच बिखेरकर इससे सूर्य की किरणों को परावर्तित करना (यह सोचे बिना कि पहले से संकटग्रस्त ध्रुवीय जंतुओं पर इसका कितना प्रतिकूल असर पड़ेगा)। इसी तरह से, समताप मंडल (स्ट्रेटोस्फीयर) में गंधक बिखेरना व समुद्र में लौह कण इस सोच से बिखेरना कि इससे ऐसी वनस्पति खूब पनपेगी जो कार्बन को सोख लेगी।
ये उपाय विज्ञान की ऐसी संकीर्ण समझ पर आधारित हैं जो एकपक्षीय है, जो यह नहीं समझती है कि ऐसी किसी कार्रवाई के प्रतिकूल असर भी हो सकते हैं।
फिलहाल सभी पक्षों को देखें तो ऐसी जियो-इंजीनियरिंग के खतरे अधिक हैं व लाभ कम। अत: इन्हें तेज़ी से बढ़ाना तो निश्चय ही उचित नहीं है। पर केवल विभिन्न देशों के स्तर पर ही नहीं, विभिन्न कंपनियों द्वारा अपने निजी लाभ के लिए भी इन्हें बढ़ावा दिया जा रहा है जो गहरी चिंता का विषय है।
चीन में मौसम को कृत्रिम रूप से बदलने का कार्य सबसे बड़े स्तर पर हो रहा है। अमेरिका जैसे कुछ शक्तिशाली देश भी पीछे नहीं हैं। समय रहते इस तरह के प्रयासों पर ज़रूरी नियंत्रण लगाने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है।
(स्रोतफीचर्स)
तफसीर बाबू
बांग्लादेश में कुष्टिया के भेड़ामारा उप-जि़ला के मासूम अली बीती जनवरी में मज़दूरी करने के लिए मलेशिया गए थे।
वहां पहले दो महीने तक उनको कोई काम नहीं मिला। उस दौरान मासूम को एक से दूसरे दलाल के हाथों से गुजऱते हुए लगभग क़ैदी के तौर पर दिन गुज़ारना पड़ा था।
तीसरे महीने में मासूम को एक कंपनी में काम मिला। लेकिन काम मिलते ही उनसे पासपोर्ट और तमाम दूसरे दस्तावेज़ छीन लिए गए। उस दौरान मासूम अपने साथ होने वाली घटनाओं के बारे में रोज़ाना कुष्टिया में रहने वाली अपनी पत्नी को बताते रहते थे।
उन्होंने अपनी पत्नी को बताया कि काम का बहुत ज़्यादा दबाव अब बर्दाश्त नहीं हो रहा है।
मासूम की पत्नी रत्ना बेगम बताती हैं, ‘वहां उनको सुबह से रात तक काम करना पड़ता था। अक्सर उनको आधी रात के समय भी काम करने के लिए बुला लिया जाता था। खाने-पीने का भी कोई भरोसा नहीं था। लगातार काम करने के बावजूद उनके साथ गाली-गलौज और मारपीट की जाती थी।’
रत्ना ने बीबीसी को बताया कि नई कंपनी में कऱीब एक महीना काम करने के बाद उनके पति ने वहां से भागने का प्रयास किया था। लेकिन उनको पकड़ लिया गया।
उसके बाद उन पर शारीरिक अत्याचार का सिलसिला शुरू हो गया। रत्ना को बीते एक महीने से अपने पति के बारे में कोई सूचना नहीं मिली है।
दलाल के ज़रिए मलेशिया गए थे मासूम अली
वह बताती हैं, ‘अप्रैल में ईद से कुछ दिन पहले अचानक एक दिन मेरे पास पति का फ़ोन आया था। उन्होंने बताया कि उनके साथ काफ़ी मारपीट की जा रही है। कान के पास से ख़ून बह रहा है। पति ने वीडियो कॉल पर अपनी चोट दिखाई थी। उन्होंने उस दिन कहा था कि यह लोग मुझे मार डालेंगे, मुझे बचा लो। उसके बाद महीने भर से ज़्यादा समय बीत चुका है। लेकिन मुझे अपने पति के बारे में कोई सूचना नहीं मिली है।’
मासूम अली जिस दलाल के ज़रिए मलेशिया गए थे वह ख़ुद भी वहीं रहता है। रत्ना ने अपने पति की जान बचाने के लिए उसके साथ भी संपर्क किया था। लेकिन वह भी मासूम के बारे में कोई जानकारी नहीं दे सका है। रत्ना बेगम को अब यह नहीं सूझ रहा है कि वे क्या करें और किससे अपने पति को बचाने की गुहार लगाएं?
बांग्लादेश से हर साल जिन देशों में सबसे ज़्यादा लोग मज़दूरी करने जाते हैं उनमें मलेशिया का स्थान काफ़ी ऊपर है। मोटे अनुमान के मुताबिक़, वहां मज़दूरी करने के लिए 14 लाख से भी ज़्यादा लोग जा चुके हैं।
वहां पहुंचने के बाद इन मज़दूरों में से कइयों के साथ धोखाधड़ी और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप नए नहीं हैं।
लेकिन हाल में ऐसी कई घटनाओं के सामने आने के बाद संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के कार्यालय समेत विभिन्न घरेलू और विदेशी अंतरराष्ट्रीय संगठन इस मामले में सक्रिय हुए हैं।
लेकिन मलेशिया जाने वाले बांग्लादेशी मज़दूरों को आखऱि किन हालात का सामना करना पड़ रहा है? यह भी एक बड़ा सवाल है कि वहां बांग्लादेश के मज़दूरों को अत्याचारों का सामना क्यों करना पड़ रहा है?
दो-दो लाख की दर से बिकने का अनुभव
मन्नान मियां (बदला हुआ नाम) बांग्लादेश की राजधानी ढाका से आठ महीने पहले मलेशिया गए थे। उनके साथ एक ही कंपनी में काम करने के लिए एक ही उड़ान से 35 दूसरे लोग भी गए थे।
वहां जाने से पहले नियोक्ता एजेंसी के साथ उन्होंने समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। उसमें वेतन और नियोक्ता कंपनी के नाम का जि़क्र किया गया था।
लेकिन मलेशिया पहुंचने के बाद उस समझौते को लागू नहीं किया गया। मन्नान मियां का दावा है कि उन सबको दो-दो लाख टका में विभिन्न कंपनियों को बेच दिया गया था। उन कंपनियों में तय वेतन के मुक़ाबले काफ़ी कम पैसे पर काम कराया जाता था।
मन्नान मियां बीबीसी बांग्ला को बताते हैं, ‘हमारा वेतन 25 हज़ार बांग्लादेशी टका था। हालांकि पहले हमसे 50 हज़ार टका से भी ज़्यादा मासिक वेतन देने की बात तय हुई थी। तीन महीने बाद हमने कंपनी के सुपरवाइजऱ से ओवरटाइम देने की मांग की। लेकिन वेतन-भत्ते का सवाल उठाते ही सुपरवाइजऱ ने लोहे की छड़ से हमारे साथ मारपीट शुरू कर दी। हमारे साथ काफ़ी मारपीट की गई। बाद में उसने धमकी दी कि बाहर किसी से मारपीट की बात बताने पर हमें जान से मार दिया जाएगा या फिर हमें बांग्लादेश वापस भेज दिया जाएगा।’
मन्नान मियां समेत सात लोगों ने उस कंपनी से पलायन करने के बाद दूसरी कंपनी में काम शुरू किया है। लेकिन उनके पास अब तक कोई वैध दस्तावेज़ नहीं हैं। ऐसे में वह लोग फि़लहाल पुलिस के हाथों गिरफ़्तारी के आतंक के बीच दिन काट रहे हैं।
मज़दूरों को कैसे धोखा दिया जा रहा है?
मलेशिया पहुंचने के बाद बांग्लादेशी मज़दूरों को सबसे पहले जिस धोखाधड़ी का शिकार होना पड़ता है वह है वहां कोई काम नहीं होना। यानी जिस काम के लिए उनको वहां ले जाया जाता है वहां वह काम या नौकरी ही नहीं है। इसके बाद अपर्याप्त वेतन का मुद्दा आता है। समझौते में जितना वेतन देने की बात कही जाती है, हक़ीक़त में उतना नहीं दिया जाता।
तीसरी समस्या है उनके पासपोर्ट और वीज़ा को छीन लेना। एजेंसी के लोग मज़दूरों के मलेशिया पहुंचने के बाद वीज़ा की औपचारिकताएं पूरी करने के नाम पर उनके पासपोर्ट ले लेते हैं। उसके बाद वह लोग उसे लौटाना नहीं चाहते।
भुक्तभोगियों का आरोप है कि ज़्यादातर मामलों में पासपोर्ट और वीज़ा दोबारा हासिल करने के लिए 70 हज़ार से एक लाख टका की अतिरिक्त रक़म का भुगतान करना पड़ता है।
इसके अलावा एक छोटे कमरे में ठूंस-ठूंस कर रहना और तीन बार की बजाय दो बार कम मात्रा में खाना मिलने की समस्या है। इन सबके बाद अत्याचार के आरोप अलग हैं।
कुआलालंपुर में रहने वाले प्रवासी मजदूर खालेक मंडल (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि कुल मिला कर वहां पहुंचने के बाद ज्यादातर मजदूर बंधक जैसी स्थिति में रहने पर मजबूर हो जाते हैं।
वह बताते हैं, ‘दरअसल, यहां काम नहीं है। लेकिन सब लोग मज़दूरों को बुला रहे हैं। बांग्लादेश और मलेशिया की जिन कंपनियों के पास मज़दूरों को भेजने या बुलाने की अनुमति है, उनके लिए यह एक व्यापार बन गया है। जिनके पास 50 मज़दूरों को नौकरी पर रखने की क्षमता है वह सात सौ मज़दूरों को यहां बुला रहा है। यह कैसे संभव है। उनको आखऱि इसके लिए ज़रूरी अनुमति कैसे मिल रही है। उनकी क्षमता की जांच क्यों नहीं की जा रही है। दरअसल, हम सब लोग यहां बंधक हैं।’
खालेक मंडल बताते हैं कि उनको ख़ुद भी आने से पहले हुए समझौते के मुताबिक़ तयशुदा कंपनी में नौकरी नहीं मिली थी। उनको एक दूसरी कंपनी में काम पर रखा गया है। लेकिन मलेशिया के क़ानून के मुताबिक़ यह ग़ैर-क़ानूनी है। इस वजह से वो फि़लहाल ग़ैर-क़ानूनी रूप से वहां रहते हुए बंधक की हालत में हैं।
वह बताते हैं, ‘यहां पहुंचने में मुझे कऱीब छह लाख टका ख़र्च करना पड़ा था। फि़लहाल जहां काम करता हूं वहां रहने की स्थिति में पैसे बचाना तो दूर, परिवार का ख़र्च निकाल कर जीवित रहना ही संभव नहीं है। मजबूरन यहां से पलायन करने के अलावा दूसरा कोई उपाय नहीं है। अगर ऐसा नहीं करना चाहते तो स्वदेश लौटना ही अंतिम विकल्प है। लेकिन वैसा करना भी संभव नहीं है। आखऱि बांग्लादेश लौटने के बाद कजऱ् का बोझ कैसे उतारेंगे?’
संगठित आपराधिक गिरोह
बांग्लादेश से दुनिया के विभिन्न देशों में मज़दूरों के जाने की शुरुआत वर्ष 1976 से हुई थी।
ब्यूरो ऑफ़ मैनपावर, एम्प्लॉयमेंट एंड ट्रेनिंग (बीएमईटी) के आंकड़ों के मुताबिक़, वर्ष 1976 से 2023 तक बांग्लादेश से 1।60 करोड़ प्रवासी मज़दूर दुनिया के विभिन्न देशों में जा चुके हैं। इनमें से सबसे ज़्यादा कऱीब 57 लाख सऊदी अरब में गए हैं।
इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात में 26 लाख और ओमान में 18 लाख मज़दूर गए हैं। इन देशों के बाद ही मलेशिया का स्थान है। वहां अभी तक 14 लाख से ज़्यादा मज़दूर जा चुके हैं। लेकिन अकेले वर्ष 2023 में ही बांग्लादेश से 3।51 लाख प्रवासी मज़दूर मलेशिया गए थे।
उसी साल यानी वर्ष 2023 से ही मज़दूरों को काम नहीं मिलने और उन पर अत्याचार और उनके लापता होने जैसी शिकायतें सामने आ रही हैं।
उस साल मलेशिया में रहने वाले बांग्लादेशी मज़दूरों की दुर्दशा की तस्वीर मलेशिया की मुख्यधारा की मीडिया और मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट में भी सुर्खियों में रही थी।
उनमें कहा गया था कि बांग्लादेश के हज़ारों मज़दूर वहां अमानवीय जीवन बिता रहे हैं। इसके अलावा कम मज़दूरी मिलना, बेरोजग़ार रहना, अत्याचार और ग़ैर-क़ानूनी स्थिति में फंस जाने जैसे मुद्दे भी उसी समय सामने आए थे।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन ने भी इस बारे में जारी अपनी एक रिपोर्ट में इस मामले पर चिंता जताई थी।
बीबीसी बांग्ला की ओर से संपर्क करने पर समसामयिक दासता पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक टोमोया ओबोकाटा ने कहा, ‘मलेशिया में रहने वाले बांग्लादेशी मज़दूरों की मौजूदा परिस्थिति पर चिंतित होने के ठोस कारण हैं। मज़दूरों को वहां भेजने के बाद उनसे धोखाधड़ी कर पैसे वसूलने के मामले में दोनों देशों में सक्रिय एक संगठित आपराधिक गिरोह शामिल है।’
ओबोकाटा का कहना था, ‘बांग्लादेश और मलेशिया में एक ताक़तवर आपराधिक गिरोह पनप उठा है। इसके लोग बेहतर नौकरी और बढिय़ा वेतन का लालच दिखा कर मज़दूरों को मलेशिया ले जाकर उनके साथ धोखाधड़ी करते हैं। ऐसे लोग मज़दूरों से पांच से छह गुनी ज़्यादा रक़म ले लेते हैं। इसके कारण मज़दूर कजऱ् के जाल में फंस जाते हैं। इसके अलावा तयशुदा कंपनी में काम नहीं मिलने के कारण मज़दूरों की स्थिति ग़ैर-क़ानूनी हो जाती है। इन ग़ैर-क़ानूनी लोगों को नौकरी देने वाले लोग भी उनका शोषण करने से नहीं चूकते। नतीजतन यह समस्या काफ़ी गंभीर है।’
उनका कहना था कि बांग्लादेश और मलेशिया की सरकार को मज़दूरों की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया को बदलना चाहिए ताकि मज़दूरों को दुर्व्यवहार का शिकार होने से बचाया जा सके।
बांग्लादेश उच्चायोग क्या कहता है?
विस्तृत जांच-पड़ताल के बाद ही बांग्लादेश सरकार उन लोगों को अंतिम मंज़ूरी देती है। ऐसे मामलों में मलेशिया में जिन कंपनियों में नौकरी दी जा रही है उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में पता लगाने की जि़म्मेदारी मलेशिया स्थित बांग्लादेश उच्चायोग की है।
लेकिन इस मामले में मलेशिया स्थित बांग्लादेश के उच्चायोग की क्या भूमिका है? वह ग़लत कंपनियों की शिनाख्त क्यों नहीं कर पा रहा है?
वहां नियुक्त बांग्लादेश के उच्चायुक्त शमीम अहसन के सामने भी यही सवाल रखे गए थे। हालांकि छह महीने पहले ही उनकी तैनाती हुई है।
बीबीसी बांगाला के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने ऐसे तमाम आरोप सामने आने की बात स्वीकार की। उन्होंने बताया कि ऐसे आरोप नए नहीं हैं। ऐसे मामलों का निपटारा भी किया जा रहा है। लेकिन यह भी सच है कि कुछ कंपनियों के कारण लोगों को धोखाधड़ी का शिकार बनना पड़ रहा है।
उनका कहना था, ‘ऐसा नहीं है कि फज़ऱ्ी कंपनियों के कारण लोगों को धोखाधड़ी का शिकार होना पड़ रहा है। यहां क़ानूनी रूप से ऐसी तमाम कंपनियां वैध हैं। लेकिन उनके अनैतिक आचरण और वादों को पूरा नहीं करने के कारण ऐसी घटनाएं हो रही हैं। अकेले दूतावास ऐसे मामलों का त्वरित समाधान नहीं कर सकता।’
‘इससे मलेशिया के नियोक्ताओं की ईमानदारी का मुद्दा भी जुड़ा है। उनको क़ानून के दायरे में लाने की जि़म्मेदारी मलेशिया सरकार की है। लेकिन बांग्लादेश की ओर से भी इस मामले में कई क़दम उठाए गए हैं। जहां इतने मज़दूर काम कर रहे हैं वहां कुछ समस्या तो हो ही सकती है। लेकिन हम इन समस्याओं के समाधान की दिशा में प्रयास कर रहे हैं।’
बांग्लादेशी उच्चायुक्त ने यह स्वीकार किया कि नियोक्ता कंपनियों में ज़रूरत के मुक़ाबले अतिरिक्त वीज़ा हासिल करने की एक प्रवृत्ति ज़रूर है। यही प्रवासी मज़दूरों के साथ होने वाली धोखाधड़ी की सबसे बड़ी वजह है।
उन्होंने बताया कि इस मामले में मलेशिया के श्रम मंत्रालय के साथ संपर्क किया गया है। इसके अलावा जल्दी ही होने वाली दोनों देशों के सचिव स्तर की बैठक में भी इन समस्याओं को उठाया जाएगा।
गूगल सर्च इंजन के 25 साल के इतिहास में यह पहली बार होगा जब उसके सर्च नतीजों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जवाब भी शामिल किए जाएंगे. जेनेरेटिव एआई की दुनिया में चल रही उठा-पटक से गूगल भी दबाव में है.
कैलिफोर्निया में हुए एक कार्यक्रम के दौरान गूगलके मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुंदर पिचाई ने कहा, ‘मैं यह घोषणा करते हुए बहुत उत्साहित हूं कि हम अमेरिका में इस हफ्ते एक ताजा अनुभव पेश करने जा रहा हैं, एआई ओवरव्यू। यह बदलाव जल्दी ही दूसरे देशों में भी होगा जिसे करोड़ों लोग इस्तेमाल कर सकेंगे। गूगल के सर्च नतीजों में सामान्य तौर पर आने वाले पन्नों के लिंक से पहले, संक्षिप्त एआई सारदिया जाएगा।’
गूगल की जेमिनाई तकनीक के जरिए निकली एआई सामग्री, इंटरनेट पर मिलने वाली सूचनाओं का सार होगा जो स्रोत के लिंक के साथ मिलेगा। गूगल सर्च टीम की प्रमुख लिज रीड ने कहा, ‘आपके दिमाग में जो भी है या आप जो कुछ भी करना चाहते हैं, वह पूछ सकते हैं। प्लानिंग से लेकर सोच-विचार तक, गूगल सारी मेहनत करेगा।’
बदलाव की वजह
गूगल में हो रहा यह बदलाव वक्त की परछाई है। परप्लेक्सिटी जैसे एआई की ताकत वाले सर्च इंजनों की वजह से गूगल दबाव बढ़ता जा रहा है। खबरें तो यह भी हैं कि चैटजीपीटी की मालिक कंपनी ओपन एआई भी अपना एआई सर्च टूल बनाने में लगी है। यही नहीं एआई चैट के जरिए फेसबुक, इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप पर सर्च की बातें भी सामने आई हैं जिसमें गूगल की कतई जरूरत नहीं पड़ती। इन विकल्पों को लेकर प्रतिक्रिया सकारात्मक भी है क्योंकि सर्च के नतीजे परंपरागत रूप लिए हुए नहीं होते। हालांकि कंटेट बनाने वाले और छोटे पब्लिशर इस बदलाव को लेकर जरा असमंजस में हैं। उन्हें डर है कि इस नए फीचरके आने से लोग अब लिंक पर क्लिक करके वेबसाइट के जरिए सूचनाएं नहीं लेंगे।
रिसर्च फर्म गार्टनर का अनुमान है कि एआई बॉट के इस्तेमाल की वजह से, साल 2026 तक सर्च इंजन के जरिए वेबसाइट पर आने वाले यूजरों की संख्या में 25 प्रतिशत की गिरावट आएगी। चैटजीपीटी के स्टाइल में एआई का इस्तेमाल, गूगल के बिजनेस पर असर डालेगा?
इस सवाल पर गूगल की सर्च प्रमुख रीड ने बचाव की मुद्रा में कहा, ‘हमने पाया है कि एआई ओवरव्यू के चलते लोग सर्च इंजन का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं और नतीजे से ज्यादा संतुष्ट भी हैं।’
कंपनी का मानना है कि जेनेरेटिव एआई टूल ग्राहकों की जिंदगी आसान बना रहे हैं, अब वह चाहे वह इतवार के दिन खुले रहने वाले योगा स्टूडियो ढूंढ रहे हों या फिर कोई खास तरह का व्यंजन।
गूगल जल्द ही वीडियो आधारित कंटेट सर्च के लिए एआई के इस्तेमाल की टेस्टिंग भी करेगी।
गूगल का नया प्रोजेक्ट
गूगल ने अपने नए प्रोजेक्ट एस्ट्रा की भी झलक पेश की है। इस प्रोजेक्ट में डिजिटल असिस्टेंट विकसित किए जा रहे हैं जो छोटे-बड़े काम करने के काबिल हों। गूगल के डीपमाइंड के प्रमुख डेमिस हसाबिस ने कहा, ‘हम लंबे वक्त से एक ऐसा व्यापकएआई एजेंट विकसित करना चाह रहे हैं जो रोजमर्रा की जिंदगी में वाकई मदद कर सके। एक ऐसे भविष्य की परिकल्पना आसान है, जहां विशेषज्ञता वाला असिस्टेंट आपके साथ हो, फोन के जरिए या फिर नए रूपों में जैसे कि चश्मा।’ एआई एजेंट का डेब्यू गूगल के कुछ प्रॉडक्टों पर होगा जैसे जेमेनाई ऐप और साल के अंत में असिस्टेंट पर।
एआई की दुनिया में गूगल की ओपनआई से तगड़ी रेस चल रही है। ओपनआई ने इसी हफ्ते सोमवार को अपने फ्लैगशिप एआई सर्च का नया वर्जन जीपीटी-4श पेश किया है। यह नया वर्जन आवाज, टेक्स्ट और तस्वीरों के जरिए दिए गए कमांड पहचान सकता है। जेनेरेटिव एआई, तकनीकी दुनिया का नया रणक्षेत्र है जहां चीजें तेजी से बदल रही हैं। आईफोन पर चैटजीपीटी की ताकत का इस्तेमाल करने के लिए ओपनएआई और एप्पल के बीच समझौते की खबरें इसी जबर्दस्त होड़ की एक झलक हैं। (dw.com/hi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
न्यायपालिका हमारे संविधान के तीन महत्वपूर्ण स्तंभों में इस अर्थ में सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उसे संविधान के अन्य दो स्तंभों विधायिका और कार्यपालिका द्वारा बनाए और क्रियान्वित किए गए कानूनों की समीक्षा का अधिकार है। संसद द्वारा पारित कई कानूनों को सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल भावना के विपरित मानते हुए असंवैधानिक करार दिया है। इलेक्टोरल बॉन्ड इसका ताजातरीन उदाहरण है। संविधान के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया प्रत्येक निर्णय अंतिम होता है और उसे देश भर का कानून मानकर लागू किया जाता है। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अवमानना करने पर संबंधित व्यक्ति या संस्था के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जा सकती है। विगत में इसी तरह के मामले में सहारा समूह के तत्कालीन प्रमुख सुब्रत रॉय सहारा को तिहाड़ जेल में लंबी सजा काटनी पड़ी थी।
अभी हाल में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की शिकायत पर पतंजलि योगपीठ समूह के प्रमुख बाबा रामदेव और आचार्य बालकृष्ण के खिलाफ भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का समुचित अनुपालन नहीं करने की वजह से अवमानना की कार्यवाही शुरू की गई थी। इन दोनों के सार्वजनिक रूप से विज्ञापन जारी कर बिना शर्त माफी मांगने पर सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें सजा नहीं सुनाई थी। हाल ही में इस मामले ने एक और करवट ली है। अब बाबा रामदेव और उनकी संस्था पतंजलि ने शिकायतकर्ता इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ अशोकन द्वारा पी टी आई को दिए साक्षात्कार की सर्वोच्च न्यायालय में शिकायत की है। बाबा रामदेव और पतंजलि द्वारा भ्रामक विज्ञापन और एलोपैथी की कटु आलोचना करने के मामले में सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की बैंच ने एलोपैथी के कुछ चिकित्सकों का जिक्र करते हुए यह टिप्पणी की थी कि जब आप किसी की शिकायत करते हैं तो आपकी तरफ भी उंगलियां उठती हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएसन के अध्यक्ष ने पी टी आई को दिए साक्षात्कार में सर्वोच्च न्यायालय की इसी टिप्पणी को दुर्भाग्यपूर्ण बताया था। इसी सिलसिले में उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने तलब किया था कि क्यों ना आपके खिलाफ सर्वोच्च अदालत की अवमानना की कार्यवाही की जाए। हालांकि सुनवाई के दौरान इंडियन मेडिकल एसोसिएसन के अध्यक्ष ने बिना शर्त माफी मांग ली है लेकिन मामले की सुनवाई कर रही बैंच इतने से संतुष्ट नहीं है।
आजकल यह फैशन सा बन गया है कि अपने खिलाफ या अपनी विचारधारा से जुड़े किसी व्यक्ति, संगठन या राजनीतिक दल के खिलाफ उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने पर नाराज़ लोग सोशल मीडिया पर न्यायालय की कटु आलोचना करने लगते हैं जो अदालत की अवमानना के दायरे में आता है। पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट और इंडियन मेडिकल एसोसिएसन के मामले में भी यही हुआ है। यह मामला इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इसमें शामिल दोनों पक्षों को सर्वोच्च न्यायालय ने अवमानना का नोटिस दिया है और दोनों ही पक्षों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए बिना शर्त माफी मांगी है। सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी यह संभव नहीं है कि वह अवमानना के सभी मामलों में कड़ी कार्यवाही कर सके इसलिए बहुत से अवमाननाकर्ता बिना सजा के छूट जाते हैं, लेकिन जब किसी प्रतिष्ठित पद पर आसीन लोग अवमानना करते हैं, जो राष्ट्रीय मीडिया के माध्यम से सार्वजनिक हो जाता है, ऐसे मामले में सर्वोच्च न्यायालय का संज्ञान लेना ज़रुरी हो जाता है। पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट बनाम इंडियन मेडिकल एसोसिएशन मामले पर भी राष्ट्रीय मीडिया की नजर थी। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस मामले के बाद लोग सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना करने से बचेंगे।


