विचार/लेख
ह्योजंग किम
कोरिया की 'हैप्पीनेस फैक्ट्री' में बने छोटे कमरों को अगर बाहरी दुनिया से कुछ जोड़ता है, तो वो है दरवाज़े पर बने छेद जिनका इस्तेमाल कमरे में खाना देने के लिए किया जाता है. इन्हें फीडिंग होल कहा जाता है.
इन छोटे बंद कमरों में रहने वालों को न तो फ़ोन रखने की इजाज़त है और न ही लैपटॉप.
ये कमरे स्टोर के जितने बड़े हैं और इनमें रहने वालों का साथ देती हैं कमरों की खाली दीवारें.
इन कमरों में रहने वाले लोग जेल में पहने जाने वाली नीली यूनिफ़ॉर्म ज़रूर पहनते हैं लेकिन ये क़ैदी नहीं है.
बल्कि ये वो लोग हैं जो दुनिया की चहल-पहल से दूर "एकांत में वक्त बिताने का अनुभव" लेने के लिए इन कमरों में रह रहे हैं.
इनमें से अधिकतर लोग ऐसे माता-पिता हैं जिनके बच्चों ने समाज से पूरी तरह से दूरी बना ली है.
ये माता-पिता ये जानने के लिए इन बंद कमरों में रह रहे हैं कि दुनिया से अलग-थलग रहने पर कैसा महसूस होता है.
एक कमरा और एकांतवास
दुनिया और समाज से अलग-थलग रहने वालों को 'हिकिकोमोरी' कहा जाता है. 'हिकिकोमोरी' शब्द जापान में 1990 के दशक में बना था, इसका इस्तेमाल जापान में युवाओं और बच्चों के बीच गंभीर सामाजिक अलगाव को बताने के लिए किया जाता था.
बीते साल दक्षिण कोरिया की हेल्थ एंड वेलफ़ेयर मिनिस्ट्री ने 15 हज़ार लोगों के बीच एक सर्वे किया. 19 से 34 साल के युवाओं के बीच किए गए इस सर्वे में पाया गया कि इसमें हिस्सा लेने वाले 5 फ़ीसदी लोग एकांतवास में रहना पसंद करते हैं.
अगर इस आंकड़े को दक्षिण कोरिया की कुल आबादी के हिसाब से देखा जाए तो, इसका अर्थ होगा कि पांच लाख 40 हज़ार लोग दुनिया और समाज से अलग होकर जीना चाहते हैं.
इस साल अप्रैल से दक्षिण कोरिया में इस तरह के युवाओं के माता-पिता 13 सप्ताह के पेरेंटल एजुकेशन प्रोग्राम में हिस्सा ले रहे हैं.
ये कार्यक्रम 'कोरिया यूथ फाउंडेशन' और 'ब्लू व्हेल रिकवरी सेंटर' नाम की दो ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की मदद से चलाया जा रहा है.
इस कार्यक्रम का मकसद माता-पिता को ये बताना है कि वो एकांत में रह रहे अपने बच्चों के साथ कैसे बेहतर तरीक़े से संवाद करें.
इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वालों को गैंगवॉन प्रांत के होंगचियॉन-गन में चलाई जा रही 'हैप्पीनेस फैक्ट्री' के एक कमरे में तीन दिन तक अकेले बंद रहना होता है.
इस कार्यक्रम को आयोजित करने वाले ये मान रहे हैं कि एकांत में कुछ वक्त गुज़ारने के बाद इन माता-पिता को अपने बच्चों को समझने में मदद मिलेगी.
मेंटल हेल्थ हेल्पलाइन
स्वास्थ्य मंत्रालय - 080 4611 0007
सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय - 1800 599 0019
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर एंड एलायड साइंसेस- 9868 39 6824, 9868 39 6841, 011-2257 4820
विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड एलायड साइंसेस- 011 2980 2980
'इमोशनल क़ैद'
जिन यंग-हेई (पहचान छिपाने के लिए नाम बदला गया है) का बेटा बीते तीन सालों से अपने कमरे से बाहर नहीं निकला है, वो अकेले रहना पसंद करता है.
बंद कमरे में अकेले कुछ दिन बिताने के बाद अब जिन को लगता है कि वो अपने 24 साल के बेटे की 'इमोशनल क़ैद' को बेहतर तरीक़े से समझ पा रही हैं.
50 साल की जिन यंग-हेई कहती हैं, "मैं सोचती रहती थी कि मैंने क्या ग़लत किया... ये सब सोचना अपने आप में बहुत दर्द देता था, लेकिन वहां रहने के दौरान मैंने सभी बातों पर फिर से सोचा और मुझे थोड़ी स्पष्टता मिली."
जिन कहती हैं कि उनका बेटा पहले से ही टैलेंटेड था और उन्हें और उनके पति को बेटे से काफी उम्मीदें थीं.
वो अक्सर बीमार रहता था और दूसरों के साथ दोस्ती करने में उसे दिक्कत होती थी. धीरे-धीरे उसे खाने में दिक्कतें होने लगी जिसके कारण उसने स्कूल जाना बंद कर दिया.
वो बताती हैं कि जब उनका बेटा यूनिवर्सिटी पहुंचा, तो पहले सेमेस्टर तक वो ठीक-ठाक था. लेकिन फिर एक दिन- उसने खुद को समाज से अलग-थलग कर लिया.
जिन कहती हैं, "वो खुद को अपने कमरे में बंद कर रहने लगा, उसे न तो अपनी निजी साफ़-सफ़ाई का ध्यान था और न ही खाने-पीने का."
वे कहती हैं कि ये देखकर उनका दिल टूट गया.
बात करने से कतराना
जिन यंग-हेई कहती हैं कि उनका बेटा तनाव, परिवार और दोस्तों के साथ रिश्ते बनाने में मुश्किलों का सामना करता है. इसके साथ ही टॉप यूनिवर्सिटी में दाखिला न हो पाने को लेकर वह डिप्रेशन झेल रहा हो सकता है, लेकिन इस बारे में वो उनके साथ बात करने से कतराता रहा है.
जिन कहती हैं कि 'हैप्पीनेस फैक्ट्री' में आने के बाद उन्होंने एकांत में रहने वाले युवाओं के लिखे नोट्स पढ़े.
वो कहती हैं, "ये नोट्स पढ़ने के बाद मुझे एहसास हुआ कि वो दरअसल खुद को प्रोटेक्ट कर रहा है क्योंकि उसे लगता है कि उसे समझने वाला कोई नहीं है."
जिन की ही तरह पार्क हान-सिल (पहचान छिपाने के लिए नाम बदला गया है) भी यहां आई हैं. वो अपने 26 साल के बेटे के लिए यहां आई हैं जिसने सात साल पहले दुनिया से अपना संपर्क काट लिया है.
उनके बेटे ने कई बार घर से भागने के कोशिश की, लेकिन अब वो अपने कमरे से बाहर नहीं निकलता.
पार्क अपने बेटे को लेकर डॉक्टरों और काउंसलर्स के पास गईं लेकिन उनके बेटे ने डॉक्टरों की दी मानसिक स्वास्थ्य की दवा लेने से इनकार कर दिया. उनके बेटे को वीडियो गेम खेलने की लत लग गई है.
पारस्परिक संबंध
पार्क हान-सिल कहती हैं कि बेटे से बात करना अभी भी उनके लिए मुश्किल हो रहा है.
हालांकि वो कहती हैं कि 'हैप्पीनेस फैक्ट्री' में आने के बाद वो अपने बेटे की भावनाओं को बेहतर समझ पा रही हैं.
वो कहती हैं, "मुझे इस बात का एहसास हुआ कि उसे जबरन किसी ढांचे में डालने से ज़रूरी है कि मैं उसकी ज़िंदगी को वैसे ही स्वीकार करूं जैसी वो है."
दक्षिण कोरिया की हेल्थ एंड वेलफ़ेयर मिनिस्ट्री का कहना है कि युवाओं के खुद को दुनिया से अलग-थलग करने के कई कारण हो सकते हैं.
दक्षिण कोरिया दुनिया के उन कुछ देशों में से एक है जहां आत्महत्या की दर सबसे अधिक हैं. बीते साल दक्षिण कोरियाई सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए पांच साल की एक योजना पेश की थी.
सरकार ने घोषणा की है कि हर दो साल में एक बार 20 से 34 साल तक के युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य की जांच की जाएगी. इसका पूरा खर्च सरकार देगी.
1990 के दशक में जापान में पहला दौर आया जब युवाओें ने खुद को समाज से अलग करना शुरू क्या. नतीजा ये हुआ कि इससे वहां की जनसांख्यिकी में बदलाव आने लगा, मध्यम आयु वर्ग के लोग अपने बूढ़े माता-पिता पर निर्भर होने लगे.
केवल पेंशन के सहारे जीने वाले बुज़ुर्गों के लिए अपने वयस्क बच्चों की मदद कर पाना भी आसान नहीं था. ऐसे में बुज़ुर्ग और ग़रीब होते चले गए और कई अवसाद का शिकार हो गए.
क्युंग ही यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी विभाग के प्रोफ़ेसर जियोंग गू-वॉन कहते हैं कि कोरियाई समाज में माना जाता है कि जीवन के कुछ बड़े लक्ष्य एक ख़ास उम्र तक हासिल कर लिए जाने चाहिए. इससे युवाओं में तनाव बढ़ता है, ख़ासकर ऐसे वक्त पर आमदनी में इज़ाफ़ा न हो पाना और रोज़गार न मिलना आम है.
ये नज़रिया कि बच्चे की उपलब्धि माता-पिता की सफलता है, ये पूरे परिवार को अलग-थलग होने के दलदल में धकेल देती है.
ऐसे माता-पिता जिनके बच्चों को नौकरी पाने में मुश्किल होती है या आर्थिक स्थिरता हासिल करने में परेशानी होती है, वो इसके लिए खुद को और परवरिश को दोषी ठहराते हैं और पछतावा करते हैं.
प्रोफ़ेसर जियोंग गू-वॉन कहते हैं, "कोरिया में माता-पिता अक्सर अपना प्यार या भावनाएं, बातों में नहीं दिखाते बल्कि व्यावहारिक कार्य और भूमिका निभाकर दिखाते हैं."
"माता पिता का कड़ी मेहनत कर बच्चे की पढ़ाई के लिए पैसे जमा करना, कन्फ्यूशियस संस्कृति का एक आम उदाहरण है, लेकिन इसे बड़ी ज़िम्मेदारी के तौर पर देखा जाता है."
वे कहते हैं कि यहां की संस्कृति में कड़ी मेहनत पर ज़ोर देने को दक्षिण कोरिया में तेज़ी से हुए विकास के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है."
21वीं सदी के दूसरे हिस्से में यहां तेज़ी से आर्थिक विकास हुआ और ये दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन गई.
इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने वाले कुछ लोगों का कहना है कि वो अपने बच्चे को बेहतर समझ पा रहे हैं
ब्लू व्हेल रिकवरी सेन्टर की निदेशिका किन ओक-रैन कहती हैं कि एकांत पसंद करने वाले युवा एक 'पारिवारिक समस्या' हैं- इस नज़रिये का नतीजा ये भी हो सकता है कि कई माता-पिता अपने बच्चों से संबंध ख़त्म कर लें.
कुछ युवाओं को डर होता है कि उनके बारे में सोच बना ली जाएगी, ऐसे में वो अपने या अपनी स्थिति के बारे में परिवार के किसी सदस्य से बात करने से कतराने लगते हैं.
किम कहती हैं, "ये युवा खुलकर अपनी समस्या साझा नहीं कर पाएंगे, ऐसे में उनके अभिभावकों के लिए भी एक तरह से अलग-थलग पड़ जाने का जोखिम है. ये लोग अक्सर छुट्टियों के वक्त परिवार के कार्यक्रमों में शामिल होना बंद कर देते हैं."
'चिंता मत करो...'
'हैप्पीनेस फैक्ट्री' में आकर एकांत में रहने के कार्यक्रम में शळिरकर करने वाले लोग अभी भी उस वक्त का इंतज़ार कर रहे हैं जब उनके बच्चे उनके खुलकर बात करेंगे और सामान्य जीनव में लौटेंगे.
हमने जिन यंग-हेई से पूछा कि अगर उनका बेटा एकांत रहने को छोड़ देगा, तो वो उससे क्या कहेंगी. ये सवाल सुनकर उनकी आंखे भर आईं, गला रुंध गया.
उन्होंने कहा, "तुमने काफी कुछ झेला है. ये मुश्किल था, है ना? चिंता मत करो मैं तुम पर नज़र रखूंगी." (bbc.com)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
केंद्र की नई सरकार ने प्रारंभिक दो बड़ी बाधाएं, 1. मंत्रिमंडल के गठन में विभागों का बंटवारा और 2. लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव, ठीक से पार कर ली हैं। बहुत से राजनीतिक विश्लेषक कयास लगा रहे थे कि गठबंधन में शामिल जनता दल और तेलगु देशम पार्टी गृह, वित्त, रक्षा और रेलवे जैसे महत्वपूर्ण विभागों की दावेदारी करेंगे और ऐसा सौदा नहीं होने की स्थिति में लोकसभा अध्यक्ष अपने दल से बनाने की कोशिश होगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। भाजपा ने अपने पास सभी बड़े मंत्रालय भी रख लिए और लोकसभा अध्यक्ष का पद भी रख लिया। यह ठीक ही हुआ। लोकतंत्र का तकाजा है कि छोटे दलों को गठबंधन सरकार में बड़े भाई नहीं बनना चाहिए।
भारत जैसे विविधता से सरोबार देश के लिए गठबंधन सरकार सबसे अच्छा विकल्प साबित हो सकता है क्योंकि गठबंधन सरकारें लोकतंत्र को सही अर्थों में मजबूती प्रदान करती हैं। गठबंधन में कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के अंतर्गत राजनीतिक दलों या उनके दबंग किस्म के नेताओं की व्यक्तिगत पसंद या विरोध पर नियंत्रण रहता है और हर विचार और क्षेत्र को सहभागिता का अवसर मिलता है । गठबंधन सरकार महात्मा गांधी के राजनीतिक विचारों के भी ज्यादा करीब हैं। हमें याद रखना चाहिए कि आजादी के बाद जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में बने पहले मंत्रिमंडल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ भीमराव अंबेडकर जैसे विरोधी माने जाने वाले नेताओं को शामिल कराने की पहल महात्मा गांधी ने ही की थी।
वर्तमान परिपेक्ष्य में देखें तो जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछले दो मंत्रीमंडलों की आलोचना होती थी कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के कई अनुभवी और वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर स्मृति ईरानी जैसे नौसिखियो को भारी भरकम मंत्रालय देकर मनमानी की थी , अब उस तरह की मनमानी सम्भव नहीं होगी।इसी तरह जैसे हिन्दुत्व और सीएए आदि मुद्दों पर एकतरफा निर्णय किए जा रहे थे ऐसी नीतियों और फैसलों पर भी काफी विचार-विमर्श के बाद ही बेहतर निर्णय लिए जाएंगे।
गठबंधन सरकार चलाने का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण संभवत अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी और एन डी ए की केंद्र सरकार का ही है। नरसिंह राव ने भी इसी तरह की सरकार चलाते हुए मनमोहन सिंह के नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की थी। बाद में मनमोहन सिंह ने भी गठबंधन सरकार का सफल नेतृत्व किया था। जो लोग गठबंधन सरकारों के समय ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकायत करते हैं वे भूल जाते हैं कि दुनिया में पूर्ण बहुमत वाली तानाशाही सरकारों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पनपे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने भी कहा है कि भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत न मिलने और विपक्ष के मजबूत होने से भारतीय लोकतंा और अर्थ व्यवस्था का भला होगा। यदि नरेन्द्र मोदी सरकार को तीसरी बार भी पूर्ण बहुमत मिलता तो लोकतंत्र और अर्थ व्यवस्था में सुधार की संभावना कम थी। उन्होंने यह भी कहा है कि भले ही आर्थिक वृद्धि की दर तेज हो लेकिन यह उन क्षेत्रों में भी होनी चाहिए जिनसे ज्यादा जनता प्रभावित होती है।
वर्तमान गठबन्धन सरकार के संबंध में निकट भविष्य में तीन चार चीजें बहुत महत्पूर्ण होंगी।मोदी जी, जिन्हें अब तक गोदी मीडिया ने एक अलौकिक और चमत्कारी गुणों वाला व्यक्ति सिद्ध करने में दिन रात एक किए थे, के व्यक्तित्व की असली परख आने वाले समय में होगी जब वे अपने सहयोगी दलों से तालमेल बिठाने की कोशिश करेंगे।
दूसरे, अब मोदी सरकार के फैसलों की जानकारी सहयोगी दलों के नेताओं और मीडिया के माध्यम से जनता के सामने अधिक पारदर्शी तरीके से आएगी क्योंकि मोदी और उनके जबरदस्त नियंत्रण के चलते चुप्पी साधे हुए भाजपा के मंत्री खुलकर नहीं बोल पाते थे।अब सहयोगी दलों के मंत्री अपनी उपलब्धियों को जनता के सामने जोर शोर से प्रचारित प्रसारित करेंगे और उसका सारा श्रेय पहले की तरह मोदी जी को नहीं मिलेगा। लोकतंत्र के लिए यह सब शुभ लक्षण हैं।
तीन आपराधिक कानून- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य संहिता एक जुलाई यानी सोमवार से देश में हो लागू हो गए हैं।
इस विधेयक को बीते साल संसद के दोनों सदनों में ध्वनिमत से पारित किया गया था।
इस विधेयक को दोनों सदनों से पास करते समय सिफऱ् पाँच घंटे की बहस की गई थी और ये वो समय था जब संसद से विपक्ष के 140 से अधिक सांसद निलंबित कर दिए गए थे।
उस समय विपक्ष और कानून के जानकारों ने कहा था कि जो कानून देश की न्याय व्यवस्था को बदलकर रख देगा, उस पर संसद में मुकम्मल बहस होनी चाहिए थी।
आज से ये नए कानून देश में लागू हो गए हैं जबकि कई गैर-बीजेपी शासित राज्यों ने इस कानून का विरोध किया है। रविवार को केंद्र सरकार के अधिकारियों ने कहा कि राज्य सरकारें भारतीय सुरक्षा संहिता में अपनी ओर से संशोधन करने को स्वतंत्र हैं।
सोमवार से भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया संहिता,1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की जगह ले चुके हैं।
नए भारतीय न्याय संहिता में नए अपराधों को शामिल गया है। जैसे- शादी का वादा कर धोखा देने के मामले में 10 साल तक की जेल। नस्ल, जाति- समुदाय, लिंग के आधार पर मॉब लिंचिंग के मामले में आजीवन कारावास की सजा, छिनैती के लिए तीन साल तक की जेल।
यूएपीए जैसे आतंकवाद-रोधी कानूनों को भी इसमें शामिल किया गया है।
एक जुलाई की रात 12 बजे से देश भर के 650 से ज्यादा जिला न्यायालयों और 16,000 पुलिस थानों को ये नई व्यवस्था अपनानी है। अब से संज्ञेय अपराधों को सीआरपीसी की धारा 154 के बजाय बीएनएसएस की धारा 173 के तहत दर्ज किया जाएगा।
आज नए आपराधिक कानून लागू होने से क्या-क्या बदलेगा?
एफ़आईआर, जांच और सुनवाई के लिए अनिवार्य समय-सीमा तय की गई है। अब सुनवाई के 45 दिनों के भीतर फ़ैसला देना होगा, शिकायत के तीन दिन के भीतर एफ़आईआर दर्ज करनी होगी।
एफ़आईआर अपराध और अपराधी ट्रैकिंग नेटवर्क सिस्टम (सीसीटीएनएस) के माध्यम से दर्ज की जाएगी। ये प्रोग्राम राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के तहत काम करता है। सीसीटीएनएस में एक-एक बेहतर अपग्रेड किया गया है, जिससे लोग बिना पुलिस स्टेशन गए ऑनलाइन ही ई-एफआईआर दर्ज करा सकेंगे। ज़ीरो एफआईआर किसी भी पुलिस स्टेशन में दर्ज हो सकेगी चाहे अपराध उस थाने के अधिकार क्षेत्र में आता हो या नहीं।
पहले केवल 15 दिन की पुलिस रिमांड दी जा सकती थी। लेकिन अब 60 या 90 दिन तक दी जा सकती है। केस का ट्रायल शुरू होने से पहले इतनी लंबी पुलिस रिमांड को लेकर कई कानून के जानकार चिंता जता रहे हैं।
भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को ख़तरे में डालने वाली हरकतों को एक नए अपराध की श्रेणी में डाला गया है। तकनीकी रूप से राजद्रोह को आईपीसी से हटा दिया गया है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी रोक लगा दी थी, यह नया प्रावधान जोड़ा गया है। इसमें किस तरह की सजा दी जा सकती है, इसकी विस्तृत परिभाषा दी गई है।
आतंकवादी कृत्य, जो पहले ग़ैर क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम जैसे विशेष क़ानूनों का हिस्सा थे, इसे अब भारतीय न्याय संहिता में शामिल किया गया है।
इसी तरह, पॉकेटमारी जैसे छोटे संगठित अपराधों समेत संगठित अपराध में तीन साल की सज़ा का प्रवाधान है। इससे पहले राज्यों के पास इसे लेकर अलग-अलग क़ानून थे।
शादी का झूठा वादा करके सेक्स को विशेष रूप से अपराध के रूप में पेश किया गया है। इसके लिए 10 साल तक की सज़ा होगी।
व्याभिचार और धारा 377, जिसका इस्तेमाल समलैंगिक यौन संबंधों पर मुक़दमा चलाने के लिए किया जाता था, इसे अब हटा दिया गया है। कर्नाटक सरकार ने इस पर आपत्ति जताई है, उनका कहना है कि 377 को पूरी तरह हटाना सही नहीं है, क्योंकि इसका इस्तेमाल अप्राकृतिक सेक्स के अपराधों में किया जाता रहा है।
जांच-पड़ताल में अब फॉरेंसिक साक्ष्य जुटाने को अनिवार्य बनाया गया है।
सूचना प्रौद्योगिकी का अधिक उपयोग, जैसे खोज और बरामदगी की रिकॉर्डिंग, सभी पूछताछ और सुनवाई ऑनलाइन मोड में करना।
अब सिफऱ् मौत की सज़ा पाए दोषी ही दया याचिका दाखिल कर सकते हैं। पहले एनजीओ या सिविल सोसाइटी ग्रुप भी दोषियों की ओर से दया याचिका दायर कर देते थे।
डर, आशंकाएं और आपत्ति
क़ानूनों को लागू किए जाने से एक सप्ताह पहले विपक्ष शासित राज्यों के दो मुख्यमंत्रियों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के एम के स्टालिन ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर क़ानूनों को लागू ना करने की मांग की थी।
तमिलनाडु और कर्नाटक ने इस क़ानून के नाम पर भी आपत्ति जताई थी कि कर्नाटक और तमिलनाडु का कहना था कि संविधान के अनुच्छेद 348 में कहा गया है कि संसद में पेश किए जाने वाले कानून अंग्रेज़ी में होने चाहिए।
देश की जानी-मानी अधिवक्ता और पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने हाल ही में पत्रकार करन थापर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि अगर तीन नए आपराधिक क़ानून एक जुलाई को लागू होगा तो हमारे सामने बड़ी ‘न्यायिक समस्या’ खड़ी होगा। सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अभियुक्त की ‘जि़ंदगी और आज़ादी ख़तरे में पड़ सकती है।’
इंदिरा जयसिंह ने क़ानून मंत्री के साथ-साथ देश के सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं से सार्वजनिक रूप से अपील की है कि वो तीनों आपराधिक क़ानूनों पर तब तक रोक लगा दें, जब तक कि उन पर और चर्चा नहीं हो जाती। उनका कहना है कि एक बार फिर से बारीकी से विचार किया जाए।
उन्होंने इस इंटरव्यू में कहा, ‘क़ानून का मूलभूत तत्व है कि कोई भी तब तक सज़ा का पात्र नहीं है, जब तक उसने वो काम तब ना किया हो, जब वैसा करना अपराध था। इसे क़ानून की भाषा में सब्सटेंसिव लॉ यानी मूल क़ानून कहते हैं। अब जो पहले अपराध नहीं था, आज अपराध बन गया है। ऐसे में ये क़ानून तभी लागू होगा, जब आपने वो अपराध इस क़ानून के लागू होने के बाद किया है।’ ‘लेकिन हमारे प्रक्रियात्मक क़ानून यानी प्रोसिजऱ लॉ, जिसे अब तक हम दंड प्रक्रिया संहिता के नाम से जानते हैं, वो ऐसे काम नहीं करते। अतीत में हमारे पास कई ऐसे फ़ैसले होते हैं, जिनके जरिए हम ट्रायल को आगे बढ़ाते हैं, कानूनों की व्याख्या अतीत में हुई है तो हमारे लिए कानूनों की उस प्रिज़्म से देखने की सहूलियत है।’
‘एक जुलाई से पहले जो अपराध हुए हैं, उन पर पुराना सब्सटेंसिव लॉ लगेगा और एक जुलाई के बाद के अपराध के लिए नया कानून लागू होगा। लेकिन कोर्ट में सुनवाई नए कानून से होगी या नए प्रक्रियात्मक कानून से इसे लेकर तनातनी बनी रहेगी। मुझे लग सकता है कि नए कानून मेरे प्रति भेदभाव कर रहा है तो मैं चाहूंगी कि मेरा ट्रायल पुराने प्रक्रियात्मक कानून के तहत हो।’
इस कानून की दिक्कतों को लेकर वह कहती हैं, ‘भारतीय दंड संहिता डेढ़ सदी से भी ज्यादा पुरानी है और दंड प्रक्रिया संहिता को भी1973 में संशोधित किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी न्यायिक व्याख्या की है और इसलिए भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के बारे में हमारे पास निश्चितता है।’
‘नए कानून के लिए उस स्तर की निश्चितता हासिल करने में 50 साल और लगेंगे। तब तक मैजिस्ट्रेट को यह नहीं पता होगा कि उसे क्या करना है। जब तक कि सुप्रीम कोर्ट कानून के किसी विशेष प्रावधान पर फैसला नहीं ले लेता और देश में सैकड़ों और हजारों मैजिस्ट्रेटों में से हर मैजिस्ट्रेट कानून की अलग-अलग व्याख्या कर सकता है। ऐसे में एकरूपता होगी ही नहीं।’
‘लेकिन सवाल ये है कि इन सब में फंसेगा कौन- वो जो अभियुक्त है। मूल चिंता यही है कि अभियुक्त के साथ क्या हो रहा है? इस बात की क्या गारंटी है कि जब यह सब स्पष्ट हो रहा होगा, तो अभियुक्त जमानत पर होगा, कानून के तहत ऐसी कोई गारंटी नहीं दी गई है।’
‘सवाल ये भी है कि क्या आपने बैकलॉग में जो केस पड़े हैं, उनके बारे में सोचा है, क्या उन्हें भी ध्यान में रखा गया है?’
इंदिरा जयसिंह ये भी कहती हैं कि ‘संविधान के अनुच्छेद 21 में बहुत स्पष्ट है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा जीवन और स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।’
मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ ने भी नए आपराधिक कानूनों को ‘संविधान का मज़ाक’ बताया है।
सीतलवाड़ ने ‘भारत के नए आपराधिक कानून:सुधार या दमन?’ विषय पर आयोजित एक कार्यक्रम में शुक्रवार को बोलते हुए कहा, ‘ये कानून संविधान में निहित अधिकारों का मजाक उड़ाते हैं। इन कानूनों को पारित करने से पहले विस्तृत चर्चा की जरूरत थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।’
सीतलवाड़ का कहना है कि ये कानून ‘लोकतंत्र और लोकतांत्रिक तानेबाने के खिलाफ हैं’ और ‘हिंदू राष्ट्र की दिशा में बढ़ते क़दम की तरह है।’ (bbc.com/hindi)
भारत में एक जुलाई से तीन नए आपराधिक कानून लागू होने जा रहे हैं. लेकिन इन कानूनों को लेकर विरोध भी हो रहा है और सुप्रीम कोर्ट में याचिका डालकर एक्सपर्ट कमेटी गठित करने की मांग की गई है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने और पुराने पड़ चुके कानूनों को समाप्त करने के उद्देश्य से 17वीं लोकसभा में पारित तीनों नए आपराधिक कानून भारतीय न्याय संहिता 2023 (बीएनएस), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 (बीएसए) 1 जुलाई से लागू हो जाएंगे।
लेकिन इन कानून के लागू होने के पहले 27 जून को भारत के सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर इनके कार्यान्वयन और संचालन पर रोक लगाने की मांग की गई। याचिका में कोर्ट से इन तीनों कानूनों को लागू करने पर रोक लगाने की मांग की गई।
सुप्रीम कोर्ट में अंजले पटेल और छाया मिश्रा ने अपनी याचिका में मांग की है कि तीनों कानूनों को लागू करने से पहले एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया जाए। इस कमेटी से पहले इसका विस्तृत अध्ययन कराया जाए।
नए कानूनों के खिलाफ याचिका
याचिका में कहा गया है कि तीनों कानूनों को संसद में विस्तृत बहस या ठोस चर्चा के बिना पारित कर दिया गया, उस दौरान विपक्ष के दर्जनों सांसदों को निलंबित कर दिया गया था। याचिका में कहा गया है, ‘संसद में विधेयकों का पारित होना अनियमित था, क्योंकि कई सांसदों को निलंबित कर दिया गया था। विधेयकों के पारित होने में सदस्यों की भागीदारी बहुत कम थी।’
याचिका में तर्क दिया गया कि नए कानून अस्पष्ट हैं, जमानत विरोधी हैं, पुलिस को व्यापक शक्तियां प्रदान करते हैं और यहां तक ??कि गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी फिर से लगाने जैसे कुछ बिंदुओं पर ‘अमानवीय’ भी हैं।
सुप्रीम कोर्ट की वकील अपर्णा भट्ट कहती हैं कि नए कानून की कुछ धाराएं ऐसी हैं जिससे आने वाले समय में समस्याएं पैदा हो सकती हैं। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा कि इन कानूनों की वजह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर आम लोगों को परेशानी हो सकती है।
भट्ट कहती हैं, ‘जब आप इतने पुराने कानून को बदलने जा रहे हैं और कानून की कई ऐसी धाराएं हैं जो अब गैरजरूरी हो चुकी हैं तो उन्हें दोबारा से देखा जाना चाहिए था। साथ ही नए अपराध जैसे कि साइबर अपराध के बारे में ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए क्योंकि इतने सारे साइबर अपराध हो रहे हैं और आम लोग पीडि़त हो रहे हैं।’
कितने तैयार हैं पुलिसकर्मी
जानकारों का कहना है कि नए कानूनों को लेकर वकीलों में भी जानकारी की कमी है और उन्हें इन्हें पढऩे और समझने में समय लगेगा। कानूनी प्रणाली में इस तरह के बड़े बदलाव की तैयारी इस साल की शुरुआत से हो रही है। पुलिसकर्मियों को ट्रेनिंग दी जा रही है और उन्हें नए कानून को लागू करने के लिए तैयार किया जा रहा है।
पुलिस विभाग ने पुलिसकर्मियों की ट्रेनिंग के लिए ट्रेनिंग मैटेरियल भी तैयार किया है, जिनमें से कुछ ऑनलाइन उपलब्ध हैं। यह ट्रेनिंग निचले स्तर के पुलिसकर्मी जैसे सब-इंस्पेक्टर और कांस्टेबल के लिए महत्वपूर्ण है, जो पुलिस स्टेशन के संचालन के लिए अहम भूमिका निभाते हैं। उनके सभी काम जैसे प्राथमिकी रिपोर्ट, चार्जशीट और पुलिस डायरी दर्ज करने से लेकर जांच करने तक नए कानूनों द्वारा शासित होंगे।
भट्ट कहती हैं, ‘नए कानूनों को लेकर कई राज्यों में पुलिस की ट्रेनिंग पूरी भी हो गई है। भले ही मीडिया में ट्रेनिंग के बारे में इतनी रिपोर्टिंग नहीं हुई हो लेकिन ट्रेनिंग हुई है। सबसे पहले पुलिसकर्मियों का ही इन नए कानूनों से सामना होगा क्योंकि अपराध तो होंगे ही और पुलिस को कार्रवाई करनी ही होगी।’
नए आपराधिक कानूनों में क्या है
नए आपराधिक कानूनों के प्रमुख प्रावधानों में घटनाओं की ऑनलाइन रिपोर्ट करना, किसी भी पुलिस थाने पर प्राथमिकी यानी जीरो एफआईआर दर्ज करना, प्राथमिकी की बिना शुल्क कॉपी देना, गिरफ्तारी होने पर सूचना देने का अधिकार, गिरफ्तारी की जानकारी प्रदर्शित करना, फॉरेंसिक साक्ष्य संग्रह और वीडियोग्राफी आदि शामिल है।
इसके अलावा पीडि़त महिलाओं और बच्चों के लिए बिना शुल्क चिकित्सा उपचार, इलेक्ट्रॉनिक समन, पीडि़ता के महिला मजिस्ट्रेट द्वारा बयान, पुलिस रिपोर्ट और अन्य दस्तावेज उपलब्?ध कराना, न्यायालय में सीमित स्थगन, गवाह सुरक्षा योजना, जेंडर समावेश, सारी कार्रवाई इलेक्ट्रॉनिक मोड में होना, बयानों की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग, विशेष परिस्थितियों में पुलिस थाने जाने से छूट भी शामिल हैं। (dw.com/hi)
-ओनर ईरम
अक्सर लोग कहते हैं कि नए चावल के मुक़ाबले पुराना चावल ज़्यादा ख़ुशबूदार और ज़ायकेदार होता है। लेकिन सवाल है कि क्या 10 साल पुराना चावल खाना सेहत के लिए ठीक है?
इस सवाल पर चर्चा उस समय शुरू हुई जब हाल ही में थाईलैंड के वाणिज्य मंत्री फमथाम वेचायाचाई ने मीडिया के सामने 10 साल पुराने चावल खाकर दिखाए।
उनका मक़सद यह साबित करना था कि हाल ही में थाई सरकार की ओर से नीलाम किए जाने वाले 15 हज़ार टन चावल खाने योग्य है।
थाई प्रशासन को ऐसा करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि नीलाम किए जाने वाले चावल का भंडार 10 साल पुराना है।
साल 2011 में उस समय के थाई प्रधानमंत्री यंग लिक शिनावात्रा ने एक विवादित स्कीम लागू करवाई थी जिसके तहत किसानों से मार्केट रेट से अधिक दर पर 540 लाख टन से अधिक चावल खऱीदा गया लेकिन यह स्कीम उनकी आर्थिक नाकामी समझी जाती है।
इस स्कीम के बाद थाई सरकार को आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा क्योंकि वह उसे अधिक क़ीमत पर आगे बेच नहीं सके और इस तरह सरकार के पास चावल का एक बड़ा भंडार रह गया।
पिछले महीने थाईलैंड के वाणिज्य मंत्री ने घोषणा की कि चावल की बिक्री की निगरानी के लिए एक कमिटी बनाई जाएगी।
17 जून को एक थाई कंपनी ‘वी 8 इंटरट्रेडिंग’ ने 28 करोड़ 60 लाख भाट (78 लाख डॉलर) की बोली लगाकर नीलामी हासिल की।
लेकिन लोगों में अब भी चर्चा इस बात पर है कि 10 साल पुराना चावल कितना खाने योग्य होता है।
शिनावात्रा की चावल स्कीम
थाईलैंड की गिनती दुनिया के सबसे अधिक चावल निर्यात करने वाले देशों में होती है लेकिन इसके बावजूद वह चावल को मुनाफ़े पर नहीं बेच पाया।
वित्त मंत्रालय के अनुसार, इस स्कीम में सरकार को लगभग 15 अरब डॉलर का नुक़सान हुआ।
साल 2014 में कई महीनों तक जारी रहने वाले प्रदर्शनों के बाद हुए सैनिक विद्रोह में प्रधानमंत्री यंग लिक शिनावात्रा की सरकार उलट दी गई।
इसके बाद साल 2017 में उन पर इस स्कीम की वजह से होने वाले आर्थिक नुक़सान के आरोप में मुक़दमा चलाया गया, जिसमें उन्हें लापरवाही का दोषी पाया गया।
चावल की क्वॉलिटी कैसी है?
चावल को बड़े-बड़े गोदामों में स्टोर किया जाता है।
पिछले महीने थाईलैंड के वाणिज्य मंत्री ने इसकी गुणवत्ता को साबित करने की कोशिश में मीडिया के सामने उस भंडार में से लिए गए चावल खाए।
वाणिज्य मंत्री फमथाम वेचायाचाई का कहना था कि चावल के दाने अब भी बहुत ख़ूबसूरत लग रहे हैं। ‘इसका रंग थोड़ा ज़्यादा पीला हो सकता है। 10 साल पुराना चावल ऐसा ही नजऱ आता है।’
उन्होंने मीडिया के प्रतिनिधियों को चुनौती देते हुए कहा कि वह चावल के किसी भी थैली में छेद कर चावल की क्वॉलिटी चेक कर सकते हैं।
थाई वाणिज्य मंत्री ने स्वास्थ्य मंत्रालय की एक लैब में उन चावलों की जांच की और उसके नतीजे मीडिया प्रतिनिधियों से साझा किए।
उनका कहना था कि जांच के दौरान चावल में ज़हरीले केमिकल नहीं पाए गए।
लेबोरेटरी के अनुसार, उस पुराने चावल की पौष्टिकता अभी मार्केट में मिलने वाले चावलों से अलग नहीं थी।
चैनल 3 नाम के एक स्थानीय टीवी नेटवर्क ने एक स्वतंत्र लैब से चावल का एक और टेस्ट करवाया और उसका भी नतीजा वही आया कि चावल खाने के लिए सुरक्षित है।
बीबीसी ने उन जाँच के नतीजों की पुष्टि नहीं की और ना ही चावलों का टेस्ट किया।
क्या चावल कभी खऱाब होते हैं?
संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड ऐंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइज़ेशन (एफ़एओ) के अनुसार, अगर चावल को सूखी और ठंडी जगह में किसी ऐसे कंटेनर में रखा जाए, जिसमें हवा ना आए तो चावल को लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
इसी तरह अमेरिका की राइस फ़ेडरेशन का कहना है कि अगर चावल को सही ढंग से स्टोर किया जाए तो वह ‘लगभग अनिश्चितकाल’ तक इस्तेमाल के लायक़ रहता है।
पौष्टिकता और स्वाद पर असर
बीबीसी ने ‘एफ़एओ’ से पूछा कि क्या एक दशक तक कीटनाशकों के इस्तेमाल से चावल में ज़हर पैदा हो सकता है।
‘एफ़एओ’ क्या कहना था कि अगर दवाओं का इस्तेमाल करते हुए सभी सावधानियां बरती जाएं तो उससे चावल पर कोई असर नहीं पड़ता।
हमने यह पूछा कि क्या 10 साल तक स्टोर करने से चावल की पौष्टिकता में कोई कमी आती है? इसके जवाब में उनका कहना था कि हालांकि चावल में थोड़ी मात्रा में मिलने वाले कुछ माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की कमी हो सकती है लेकिन इससे चावल की कुल पौष्टिकता पर बहुत फक़ऱ् नहीं पड़ता।
‘एफ़एओ’ का कहना है कि चावल के इस्तेमाल से सबसे अधिक पौष्टिक लाभ उसमें मौजूद स्टार्च की उच्च क्वालिटी से मिलता है। मानव शरीर इसे ऊर्जा में बदल देता है।
‘एफ़एओ’ का कहना है कि आमतौर पर समय के साथ चावल अपना स्वाद खो देता है लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि चावल को स्टोर कैसे किया गया है।
थाई टीवी के एक एंकर सूरयोत सोथासनाचंदा ने 10 साल पुराने स्टॉक से जैस्मिन चावल चखे।
उनका कहना था कि उसका स्वाद सफ़ेद चावल जैसा है और यह इतना चिपचिपा, नर्म और सुगंधित नहीं जितना जैस्मिन चावल को होना चाहिए।
चुनाव कमिटी के एक पूर्व सदस्य सोमचाई सरिसोथया कोरन ने भी पुराने चावल का एक नमूना चखा। उनका कहना था कि उसकी ख़ुशबू अच्छी नहीं थी और वह थोड़ा टूटा हुआ था और उसकी मोटाई भी कम थी।
इन चावलों का क्या होगा?
थाई राइस एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के अनुसार, पिछले साल थाई चावल के सबसे बड़े खऱीदार इंडोनेशिया और दक्षिण अफ्ऱीका थे।
बीबीसी से बात करते हुए थाईलैंड के एक राइस मिल से संबंध रखने वाले पैरोट वांगडी का कहना था कि पुराने चावल की अधिक खपत गऱीब देशों में है।
दक्षिण अफ्रीका के अलावा थाईलैंड कई दूसरे अफ्ऱीकी देशों को भी चावल बेचता है।
थाई वाणिज्य मंत्री फमथाम वेचायाचाई का भी कहना है कि अफ्ऱीकी देशों में थाई चावल की मांग है।
थाई सरकार की ओर से नीलामी की घोषणा के बाद से अफ्ऱीका में सोशल मीडिया यूज़र्स उस चावल के बारे में अपनी आशंकाएं जाता रहे हैं।
कुछ सोशल मीडिया यूज़र्स का कहना है कि हमेशा की तरह अफ्ऱीका को डंपिंग ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है।
दूसरी ओर कीनिया की सरकार ने घोषणा की है कि केवल उन चावलों के आयात की इजाज़त दी जाएगी जो मापदंड के अनुसार सही हों और जिनकी लेबोरेटरी में जांच पड़ताल की गई हो।
नीलामी जीतने वाली कंपनी ‘वी 8 इंटरट्रेडिंग’ के पास चावल की खऱीदारी के लिए समझौते पर दस्तख़त करने को 30 दिन का समय है।
(बीबीसी)
-क्रिस्टल हेस-हॉली होडेरिक
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की पहली प्रेसिडेंशियल बहस खत्म हो चुकी है और इसके नतीजे मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन के लिए अच्छे नहीं रहे।
गुरुवार को हुई बहस के दौरान बाइडन का पहला लक्ष्य अपनी उम्र को लेकर छाई धुंध को साफ करना था। इसकी बजाय बहस ने इन चिंताओं को और बढ़ाया ही।
इसी दौरान कथित तौर पर कुछ डेमोक्रेटिक नेताओं और पार्टी के लोगों ने सीएनएन के पत्रकारों को संदेश भेजा कि शायद 81 वर्षीय बाइडन अपना पद छोड़ देंगे।
कुछ लोगों ने उनके व्हाइट हाउस जाने की संभावना और उम्मीदवार के रूप में उनके बने रहने को लेकर सार्वजनिक चिंता की बात भी कही।
इसके बाद से ही सवाल उठ रहे हैं कि क्या बाइडन अब राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी से पीछे हट जाएंगे? अगर ऐसा होता है तो इसका असर क्या होगा और उनकी जगह कौन ले सकता है?
बाइडन उम्मीदवारी वापस ले सकते हैं?
क्या बाइडन अपना नाम वापस ले सकते हैं? डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार के आधिकारिक चयन की घोषणा 19-22 अगस्त को शिकागो में डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेंशन (डीएनसी) में किया जाएगा।
वहां, राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को प्रतिनिधियों (डेलीगेट्स) के बहुमत का समर्थन हासिल करना होगा, औपचारिक रूप से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का चयन करते हैं।
हर एक राज्य के प्राइमरी चुनावों के नतीजों के आधार पर आनुपातिक रूप से उम्मीदवारों को डेलिगेट्स दिए जाते हैं। इस साल बाइडन ने 4,000 प्रतिनिधियों में से लगभग 99त्न जीते हैं।
डीएनसी नियमों के मुताबिक ये प्रतिनिधि बाइडन के लिए ‘प्रतिबद्ध’ हैं और उनके नामांकन का समर्थन करने के लिए बाध्य हैं।
लेकिन अगर बाइडन बाहर हो जाते हैं तो फिर राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए कन्वेंशन सबके लिए खुल जाएगा। उनके या पार्टी में किसी और के लिए अपने उत्तराधिकारी को चुनने के लिए कोई सिस्टम नहीं है।
मुमकिन है कि बाइडन का अपने प्रतिनिधियों पर असर हो, लेकिन अंतत: वे जैसा चाहें वैसा करने को आजाद है।
ऐसे में डेमोक्रेट्स के बीच एक खुला मुक़ाबला भी शुरू हो जाएगा, जो नामांकन में एक मौका आजमाना चाहते हैं।
यहां ये बताना जरूरी है कि बाइडन ने अभी तक अपनी उम्मीदवारी से पीछे हटने का कोई भी संकेत नहीं दिया है।
क्या जबरन बाइडन को दौड़ से बाहर किया जा सकता है?
आधुनिक राजनीतिक युग में किसी भी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी ने कभी नामांकन को पलटने की कोशिश नहीं की और इस तरह के किसी गंभीर योजना लागू करने की कोशिश के साक्ष्य नहीं हैं। हालांकि डीएनसी नियम क़ानून में कुछ छोटी-मोटी खामियां हैं जिससे सैद्धांतिक रूप से बाइडन को दौड़ से बाहर करना संभव बन सकता है।
नियम, प्रतिनिधियों को पूरे विवेक के साथ उन लोगों की भावनाओं को प्रतिबिंबित करने की इजाज़त देते हैं, जिन्होंने चुना है, इसका मतलब ये है कि अगर पूरे देश में डेमोक्रेटिक मतदाता बड़ी संख्या में बाइडन के खिलाफ हो जाते हैं तो वे उम्मीदवारी के लिए किसी और की तलाश कर सकते हैं।
क्या कमला हैरिस बाइडन की जगह ले सकती हैं?
अगर अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में बाइडन पद छोड़ते हैं तो उप राष्ट्रपति कमला हैरिस स्वत: उनकी जगह ले लेंगी।
लेकिन यही नियम तब लागू नहीं होता है अगर बाइडन नवंबर में होने वाले चुनाव की दौड़ से खुद को बाहर कर लेते हैं, और ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो उप राष्ट्रपति को खुले कन्वेंशन में बढ़त दे।
इसकी बजाय, हैरिस को अन्य उम्मीदवारों की तरह ही प्रतिनिधियों में बहुमत को हासिल करना होगा।
वो पहले ही डेमोक्रेटिक पार्टी में अग्रणी जगह पर हैं, निश्चित रूप से उनको पसंद किया जा सकता है। लेकिन अमेरिकी जनता में उनकी कम लोकप्रियता इस संभावना को भी धूमिल करती है।
एक सर्वे के मुताबिक, उनके प्रति जनता की कुल नापसंदगी (नेट डिसअप्रूवल) अब बाइडन या ट्रंप से कम है।
बाइडन की जगह और कौन ले सकता है?
इस बार की चुनावी प्रक्रिया में कई डेमोक्रेट उम्मीदवारों ने बाइडन को चुनौती देने की कोशिश की थी, जिनमें मिन्नेसोटा रिप्रेंज़ेटेटिव डीन फिलिप्स और लेखक मैरियाना विलियम्सन का नाम भी है।
दोनों ही बड़े प्रयासरत थे लेकिन इन दोनों में से किसी के भी शीर्ष पद के लिए शॉर्टलिस्ट किए जाने की कम संभावना है।
कुछ अनुमान लगाए जा रहे हैं कि कैलिफोर्निया गवर्नर गैविन न्यूसम या मिशिगन गवर्नर ग्रेचेन व्हिटमर विकल्प हो सकते हैं।
लेकिन इन दोनों ने भी बाइडन की जगह लेने में कोई रुचि ज़ाहिर नहीं की है।
न्यूसम ने अटलांटा में गुरुवार को कहा था, ‘मैं कभी राष्ट्रपति बाइडन से मुंह नहीं मोड़ूंगा।’
उन्होंने कहा, ‘मैंने उनके साथ काफ़ी समय गुज़ारा है और मैं जानता हूं कि उन्होंने पिछले साढ़े तीन सालों में क्या हासिल किया है। मैं उनकी क्षमता और विजन को जानता हूं और मुझे कोई घबराहट नहीं है।’ (bbc.com/hindi)
सऊदी अरब में हज यात्रा के दौरान इस साल अब तक कई भारतीयों समेत 1,300 से ज्यादा लोगों की मौत की खबरें हैं. भीषण गर्मी, खराब प्रबंधन या बिना अनुमति के शामिल हुए हज यात्री, आखिर क्या है इतनी सारी मौतों का कारण.
डॉयचे वैले पर मोहम्मद फरहान का लिखा-
सोशल मीडिया पर अफवाह की तरह शुरू हुई बात हज यात्रा खत्म होते ही सच साबित हो गई। करीब एक हफ्ते से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सऊदी अरब से आ रही तस्वीरों और वीडियो से अटे पड़े थे। इनमें मक्का की हज यात्रा पर निकले लोग सडक़ के किनारे गिरे हुए या व्हीलचेयर पर बेहोश दिखाई दे रहे थे। उन तस्वीरों से लगता था कि या तो वे लोग मरने के करीब हैं या उनकी मौत हो चुकी है। लगभग सबने पारंपरिक सफेद कपड़े पहने हैं और उनके चेहरे कपड़े से ढके हुए हैं। कुछ तस्वीरों में तो ऐसा लगता है कि शवों को उसी जगह छोड़ दिया गया है जहां वे गिरे थे।
14 से 19 जून तक चले इस सालाना आयोजन के दौरान इस्लाम के सबसे पवित्र शहर मक्का में तापमान 51.8 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। यात्रा खत्म होने का बाद सऊदी अरब में हजारों हज यात्रियों की मौत की पुष्टि हो गई है। माना जा रहा है कि तेज गर्मी, टेंट और पानी की कमी इसकी सबसे बड़ी वजहें रहीं। सऊदी अरब के स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि यात्रा के दौरान उन्होंने ‘लू लगने’ के 2,700 मामले दर्ज किए थे। अब तो देश के आधिकारिक आंकड़ों के हिसाब से इस आयोजन से जुड़े कारणों से मरने वालों की संख्या 1,300 से ऊपर पहुंच चुकी है।
हज दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजनों में से एक है। इसकी इस्लाम में बहुत अहमियत है। माना जाता है कि हर वह मुसलमान जो शारीरिक रूप से सक्षम है उसे अपनी जिंदगी में कम से कम एक बार हज यात्रा करनी चाहिए। ऐसी उम्मीद की गई थी कि इस साल करीब 18 लाख मुसलमान हज के लिए सऊदी अरब पहुंचेंगे।
भीषण गर्मी बनी बड़ी वजह
मिस्र, इंडोनेशिया, सेनेगल, जॉर्डन, ईरान, इराक, भारत और ट्यूनीशिया इन सभी देशों की सरकारों ने अपने नागरिकों की हज यात्रा के दौरान मौत की पुष्टि की है। मरने वालों में सबसे ज्यादा संख्या मिस्र से बताई जा रही है, जो संभवत: 300 से भी अधिक है। इंडोनेशिया के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी 140 से अधिक नागरिकों की मौत की सूचना दी है।
भारत के विदेश मंत्रालय ने 21 जून को बताया कि इस साल 1,75,000 भारतीय हज करने के लिए सऊदी अरब पहुंचे, जिनमें अब तक 98 लोगों की मौत की सूचना है। मंत्रालय ने ज्यादातर मौत का कारण बीमारी और ज्यादा उम्र बताया है। विदेश मंत्रालय ने यह भी बताया कि पिछले साल 187 भारतीयों की हज यात्रा के दौरान मौत हो गई थी।
पिछले कुछ सालों में, सऊदी अरब के अधिकारियों ने हज यात्रियों को भीषण गर्मी से बचाने की कोशिश की है। उन्होंने यात्रियों के लिए मिस्टिंग स्टेशन बनाए, जो पानी की बारीक बूंदों को हवा में छोड़ता है जिससे लोगों को गर्मी से राहत मिलती है। पानी उपलब्ध कराने के लिए मशीनें लगाईं, ताकि लोगों को ठंडा पानी मिल सके।
हालांकि, इन उपायों के बावजूद माना जा रहा है कि ज्यादातर मौतें गर्मी से ही जुड़ी हुई हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हज यात्रा करने वाले कई यात्री बुजुर्ग होते हैं। हज उनके लिए धार्मिक नजरिए से एक अहम काम है जिसे वे अपने जीवनकाल में पूरा करना चाहते हैं। अपनी उम्र और कमजोर शारीरिक स्थिति के कारण वे भीषण गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं।
लापता लोगों की तलाश जारी
माना जा रहा है कि मृतकों की संख्या अभी और बढ़ सकती है। रिश्तेदार और दोस्त अभी भी सऊदी अरब के अस्पतालों में अपने प्रियजनों को ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लोग सोशल मीडिया पर मदद की गुहार लगा रहे हैं। ये वे लोग हैं जो मक्का पहुंचे थे लेकिन अब लापता हैं।
दक्षिणी मिस्र के असवान की रहने वाली इहल्सा ने डीडब्ल्यू को व्हाट्सएप के जरिए बताया, ‘ईमानदारी से कहूं तो इस साल हज वाकई बहुत बुरा रहा। यह बहुत कठिन था, खासकर जमरात (कंकड़ फेंकने की रस्म) के दौरान। लोग बेहोश होकर जमीन पर गिर रहे थे।’
हज यात्रा के एक हिस्से के रूप में, यात्री तीन दीवारों पर पत्थर फेंकते हैं, जो कि ‘शैतान को पत्थर मारने’ का प्रतीकात्मक रूप है। इहल्सा ने बताया, ‘मैंने कई बार सुरक्षाकर्मियों को जमीन पर गिरे एक यात्री के बारे में बताया। पत्थर फेंकने की दूरी वाकई में काफी ज्यादा थी। उस समय बहुत ज्यादा गर्मी भी थी।’
आखिर किसे जिम्मेदार ठहराया जाए?
हज यात्रियों के देशों में इस बात को लेकर भयंकर बहस छिड़ी हुई है कि आखिर इतनी मौतों के लिए कौन जिम्मेदार है?
हज यात्रा करने के लिए, यात्रियों को सऊदी अरब में दाखिल होने की आधिकारिक अनुमति लेनी होती है। चूंकि वहां आने वाले लोगों की संख्या काफी ज्यादा होती है, इसलिए हर साल सऊदी अरब एक तय संख्या में ही लोगों को आने की अनुमति देता है। पहले भी हज यात्रा में अधिक भीड़ और गर्मी के कारण काफी समस्याएं हो चुकी हैं।
हज यात्रा के लिए आमतौर पर ट्रैवल एजेंसियां यात्रा की व्यवस्था करती हैं। ये एजेंसियां अक्सर यात्री के अपने देशों में मुस्लिम समुदाय के संगठनों या मस्जिदों से जुड़ी होती हैं। एजेंसियां ही मक्का में रहने की जगह, खाने और आने-जाने की व्यवस्था करती हैं।
रजिस्टर्ड यात्री मक्का में उन्हीं ट्रैवल एजेंसियों द्वारा चलाए जाने वाले किसी मिशन या शिविर का हिस्सा होते हैं।
कुछ पीडि़तों के परिवार सऊदी के अधिकारियों या अपने ही देशों के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनका आरोप है कि इन अधिकारियों ने या तो पर्याप्त व्यवस्था नहीं की या फिर यात्रियों को भीषण गर्मी से बचाने के लिए जरूरत के मुताबिक टेंट नहीं लगाए।
वहीं, कुछ लोगों का मानना है कि बिना अनुमति के मक्का पहुंचे यात्री भी इस घटना के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। हज शुरू होने से पहले सऊदी अरब में 1,71,000 से अधिक बिना रजिस्ट्रेशन वाले यात्रियों की पहचान की गई थी। यह जानकारी हफ्ते की शुरुआत में सऊदी के सार्वजनिक सुरक्षा के निदेशक मोहम्मद बिन अब्दुल्ला अल-बासामी ने दी थी। सऊदी के सुरक्षा बलों ने इससे पहले बिना अनुमति हज करने वाले किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए अभियान चलाया था।
बिना रजिस्ट्रेशन वाले यात्रियों को वे सुविधाएं नहीं मिल पातीं जो रजिस्टर्ड यात्रियों को मिलती हैं। इन सुविधाओं में एयर कंडीशनिंग, पानी, टेंट और पानी के फव्वारे या कूलिंग सेंटर शामिल हैं। यही कारण हो सकता है कि इनमें से कुछ लोगों की मौत भी हो गई।
टेंट की कमी
डीडब्ल्यू ने मिस्र के एक निजी टूर कंपनी के मैनेजर से बात की। यह कंपनी पिछले कई सालों से मिस्र के यात्रियों को मक्का ला रही है। कंपनी के मैनेजर इस सप्ताह सऊदी अरब में ही थे। हालांकि, इस मैनेजर ने अपना नाम नहीं बताया क्योंकि उन्हें मीडिया से बात करने की इजाजत नहीं थी।
उन्होंने डीडब्ल्यू को फोन पर बताया, ‘तापमान काफी ज्यादा था। लोग नियमों का पालन नहीं कर रहे थे। साथ ही, लोग इस बात से भी बेपरवाह थे कि यह गर्मी जानलेवा हो सकती है। हर कोई बस वही कर रहा था जो उसे करना था। सारी चीजें अव्यवस्थित थी। इसके अलावा, सभी के लिए पर्याप्त टेंट तक नहीं थे। हालांकि, किसी तरह की भगदड़ नहीं हुई थी। लोग माउंट अराफात पर खड़े होकर खुश थे।’
मैनेजर ने आगे बताया, ‘मेरा मानना है कि जब लोगों को गर्मी और तेज धूप का अंदाजा हो गया था, तो उन्हें सबसे ऊपर जाने से बचना चाहिए था। कई यात्रियों को यह नहीं पता होता कि निचली ढलान पर खड़े होकर भी रस्में पूरी की जा सकती हैं।’
उन्होंने कहा, ‘यात्रियों को हज के बारे में ज्यादा जागरूक होना चाहिए। हालांकि, प्रशासन की भी जवाबदेही बनती है और वह जिम्मेदारी निभाता भी है, लेकिन कुछ यात्रियों के व्यवहार से लगा कि उन्हें इस बात की पर्याप्त जानकारी नहीं थी कि हज की रस्में कैसे निभाई जाती हैं। जैसे, सरकार माउंट अराफात की सबसे ऊंची चोटी पर धूप से बचाने के लिए टेंट नहीं लगा सकती है।’
आरोप-प्रत्यारोप का दौर और मदद की गुहारें चलती रहेंगी, लेकिन एक बात पक्की है कि आने वाले समय में हज यात्रा के दौरान गर्मी और भी ज्यादा बढऩे वाली है।
2019 में एक अध्ययन किया गया था। इस अध्ययन में यह पता लगाने की कोशिश की गई थी कि क्या हज यात्रा के दौरान यात्रियों को गर्मी से बचाने के लिए सऊदी अरब की सरकार के उपाय कारगर साबित हुए हैं? अध्ययन में पाया गया कि सरकार के उपायों से कुछ मदद तो मिली, लेकिन जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले हर साल हज यात्रा के दौरान गर्मी बढ़ती ही जा रही है, जिससे यह यात्रा खतरनाक होती जा रही है। (dw.comhi)
-दिनेश श्रीनेत
वैचारिक लड़ाइयों में हम एक अहम बात भूल जाते हैं, पर्सपेक्टिव। यदि हम खुद को विचारवान मानते हैं तो इसका क्या अर्थ है? पंचतंत्र की कहानी में एक ब्राह्मण को दक्षिणा में कुछ ज्यादा अनाज मिल जाता है तो वह लेटे-लेटे कल्पना में उस अनाज से मुर्गियां, फिर बकरियां और उसके बाद गाएं खरीदता है। अपने लिए महल खड़ा कर लेता है, विवाह कर लेता है, बच्चे पैदा हो जाते हैं और फिर उसी स्वप्न में वह क्रोध में वह किसी को लात मारता है, हवा में उसका पैर चलता है और सारा अनाज जमीन पर गिर जाता है।
क्या उस ब्राह्मण को विचारवान कहेंगे? सोच तो उसने बहुत कुछ लिया। बौद्धिक जगत की लड़ाइयां भी कुछ ऐसी ही है। ऊपर से वैचारिक-बौद्धिक दिखने वाली मगर विचारविहीन। लोग काल्पनिक थ्योरी गढ़ते हुए हवा में हाथ और पांच चला रहे हैं और अनाज को मिट्टी में मिला रहे हैं।
फिर विचारवान होना क्या है? सबसे पहली जरूरत है दूरी तय करना। दूर से सब कुछ साफ-साफ दिखता है। व्यामोह में ग्रस्त और अहंकार में डूबे लोग नजऱ आते हैं। अब यह कहा जा सकता है कि निष्पक्ष होना क्या होता है? यह तो चालाकी है। किसी न किसी के पक्ष में तुमको खड़ा होना ही पड़ेगा। बीच का रास्ता नहीं होता। निष्पक्षता पाखंड है।
चींटियां मिलकर जब खांड का छोटा टुकड़ा उठाती हैं तो सब की सब उसे अपनी तरफ खींच रही होती हैं। नतीजा यह होता है कि अच्छे खासे संघर्ष के बावजूद वह खांड का टुकड़ा वहीं का वहीं रह जाता है। यह बात दूर से देखने पर ही समझ में आती है। चींटियां इसे नहीं समझ सकतीं (कोई यह न कहे, 'देखो जरा, हमें चींटी कह रहे हैं...'), उनके पास तो अपना पक्ष है कि देखो हम तो पूरी जान लगा कर इसे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि किसी तरह आप चींटी के साइज का होकर उनके पास जाकर खड़े होंगे तो उनके श्रम, संघर्ष की सराहना किए बिना नहीं रह सकेंगे। अगर कोई यूट्यूब माइक लेकर चींटियों के पास जाएगा तो हर चींटी यही कहेगी कि मैं पूरी ईमानदारी से अपना काम कर रही हूँ।
कुल मिलाकर कहना यही है कि चाहे आप गिरकर बेहोश हो जाएं। आपकी मेहनत और ईमानदारी की कद्र तो होगी मगर खांड का टुकड़ा कहीं नहीं जाएगा। असल वैचारिकता हमें यथार्थ के निकट ले जाती है। वह निष्कर्ष तक ले जाती है। वैचारिकता अपने समय की जटिलताओं को समझने का नाम है। जिस मार्क्सवादी चिंतन पद्धति ने सबसे पहले चीजों को द्वंद्वात्मकता में समझने की कुंजी दी, उसी के समर्थक सपाट तरीके से फतवे देने और गाली-गलौज में उतर आते हैं।
सही पर्सपेक्टिव के लिए आपको अपने पूर्वाग्रह से बाहर आना होगा। जटिलताओं पर बात करनी होगी। चीजों को उनके ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में देखना होगा। हममें से कितने बौद्धिक कहे जाने वाले लोग यह समझ पाते हैं कि किस तरह बदलती हुई अर्थव्यवस्था उनके जीवन और सोच के तरीके बदल रही है। और उनकी आर्थिकी भी किसी स्वत:स्फूर्त तरीके से नहीं बल्कि बड़े पैमाने पर वैश्विक राजनीति और टेक्नोलॉजी से संचालित हो रही है।
हिंदी के कितने बुद्धिजीवी भारत के वर्कफोर्स पर आसन्न आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के खतरे को पहचान रहे हैं? उस पर लिख रहे हैं? यथार्थ से मुंह छिपाने की हमारी पुरानी आदत रही है। जब कंप्यूटर आए तो सबसे पहले मीडिया में जमे तथाकथित-बौद्धिक पत्रकारों ने उसका विरोध किया। यह वही लिखने-पढऩे वाला वर्ग बीते दस सालों के राजनीतिक परिदृश्य में एक बेहद ताकतवर झूठ और तुष्टिकरण पर आधारित नैरेटिव को काउंटर करने के लिए कोई लोकप्रिय नैरेटिव नहीं तैयार कर पाया, इनकी आधी जि़ंदगी प्रतिक्रियाएं देते बीत गई।
देश की साधारण समझी जाने वाली जनता ने समझदारी दिखाई और लोकतांत्रिक संतुलन बनाने में मदद की। मगर इसमें बुद्धिजीवियों और लेखकों का कोई योगदान नहीं है। उनको मु_ी भर सुनने वाले पहले भी थे और आज भी उतने ही है। यह चुनौती आज की नहीं है। उपनिवेशकाल से रही है। गांधी इसे बखूबी जानते थे। इसलिए उन्होंने छोटी-छोटी प्रतीकात्मक लड़ाई लड़ी।
हम हिंदी पट्टी के लोग कब लोकतांत्रिक होने की लड़ाई में असहिष्णु हो जाते हैं, कब दयालु होने की वकालत करते-करते हिंसक हो जाते हैं, भाईचारे की बात करते-करते जातिवादी और सांप्रदायिक हो जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता।
हम लाठियों से पीट-पीटकर लोगों को अहिंसा का महत्व समझाना चाहते हैं। हमारी वैचारिक लड़ाइयां बेहद खोखली हैं। निजी हमलों, निजी लाभ और निजी स्वार्थों पर आधारित हैं। इन्हीं खोखली काल्पनिक लड़ाइयों के चलते दान में मिले अनाज को भी बिखेर देते हैं।
भारतीय लेखिका अरुंधति रॉय को साल 2024 के पेन पिंटर प्राइज़ से नवाज़ा जा रहा है। उन्होंने कहा है कि ये अवॉर्ड पा कर वह काफ़ी खुश हैं।
साल 2009 से ये अवॉर्ड नोबेल विजेता और प्ले राइटर हेरोल्ड पिंटर की याद में दिया जाता है। 10 अक्टूबर 2024 को अरुंधति रॉय ये अवॉर्ड दिया जाएगा।
ये अवॉर्ड हर साल ब्रिटेन और कॉमनवेल्थ देशों के नागरिक लेखकों को दिया जाता है जिनका दुनिया पर एक ‘अडिग’, ‘सहासी’ नजरिया हो और जिसके लेखन में ‘जीवन, समाज की वास्तविक सच्चाई को परिभाषित करने का बौद्धिक दृढ़ संकल्प झलकता हो।’
इस अवॉर्ड की इस साल की ज्यूरी में पेन संस्था की अध्यक्ष रूथ बॉर्थविक, अभिनेता खालिद अबदल्ला और लेखर रोजर रॉबिनसन थे।
ये अवॉर्ड अरुंधति को ऐसे समय दिया जा रहा है जब हाल ही में दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने उनके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी यूएपीए के तहत मुक़दमा चलाए जाने की अनुमति दे दी है। ये केस 14 साल पुराने एक भाषण को लेकर उन पर दर्ज किया गया था।
इंग्लिश पेन की अध्यक्ष रूथ बॉर्थविक ने अरुंधति रॉय की तारीफ करते हुए कहा कि उन्होंने ‘बहुत ही चुटीले अंदाज में सुंदरता के साथ अन्याय की जरूरी कहानियां’ सामने रखी हैं।
बोर्थविक ने कहा, ‘भारत फोकस में बना हुआ है, रॉय एक अंतरराष्ट्रीय विचारक हैं, और उनकी शक्तिशाली आवाज को दबाया नहीं जा सकता।’
62 साल की अरुंधति रॉय मोदी सरकार की खुलकर आलोचना करती रही हैं।
अपने लेखन, भाषण और विचार को लेकर कर वह दक्षिणपंथी समूहों के निशाने पर अक्सर रहती हैं।
ये अवॉर्ड अतीत में माइकल रोसेन, मैलोरी ब्लैकमैन, मार्गरेट एटवुड, सलमान रुश्दी, टॉम स्टॉपर्ड और कैरोल एन डफी जैसे लेखक पा चुके हैं।
ये सम्मान मिलने पर अरुंधति रॉय ने कहा, ‘काश, हेरोल्ड पिंटर आज हमारे बीच होते और दुनिया जिस समझ से परे मोड़ पर जा रही है, उसके बारे में लिखते। चूंकि वे अब हमारे बीच नहीं हैं, इसलिए हममें से कुछ लोगों को लिखना चाहिए।’
भारत में अरुंधति पर केस चलाने के आदेश
अपनी किताब ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के लिए साल 1997 में बुकर पुरस्कार जीतने वाली अरुंधति ने कई उपन्यास और निबंध लिखे हैं। इस महीने ही दिल्ली के उपराज्यपाल की ओर से अरुंधति पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाए जाने की मंजूरी दी है।
ये साल 2010 का मामला है। जिसमें रॉय ने कथित तौर पर कहा था कि ‘कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है।’
अरुंधति रॉय ने सात नॉन-फिक्शनल किताबें भी लिखी हैं। इनमें साल 1999 में आई ‘कॉस्ट ऑफ़ लिविंग’ भी शामिल है, जिसमें विवादास्पद नर्मदा बांध परियोजना और परमाणु परीक्षण कार्यक्रम के लिए सरकार की कड़ी आलोचना की गई है।
इसके अलावा उन्होंने साल 2001 में ‘पावर पॉलिटिक्स’ नाम की किताब लिखी, जो निबंधों का संकलन है। इसी साल उनकी ‘द अलजेब्रा ऑफ इनफिनाइट जस्टिस’ भी आई। इसके बाद साल 2004 में ‘द ऑर्डिनर पर्सस गाइड टू एम्पायर’ आई।
फिर साल 2009 में रॉय ‘इंडिया, लिसनिंग टू ग्रासहॉपर्स : फील्ड नोट्स ऑन डेमोक्रेसी’ नाम की किताब लेकर आईं। ये किताब ऐसे निबंधों और लेखों का संग्रह थीं, जो समकालीन भारत में लोकतंत्र के अंधेरे हिस्से की पड़ताल करते हों।
रॉय 90 के दशक में किए गए पोखरण परमाणु परीक्षण की भी मुखर विरोधी थीं। वह गुजरात में साल 2002 में हुए सांप्रदायिक दंगों के समय से ही नरेंद्र मोदी की सरकार के खिलाफ मुखर रही हैं।
रॉय ने भारत में नक्सल आंदोलन पर भी काफ़ी कुछ लिखा है।
वह अक्सर कहती रही हैं कि एक आदिवासी जिसे कुछ भी नहीं मिलता, वह सशस्त्र संघर्षों में शामिल होने के अलावा और क्या करेगा।
अरुंधति रॉय सत्ता के खिलाफ आलोचनात्मक रवैये को लेकर चर्चा में रहती हैं। (bbc.com/hindi)
- स्वाति मिश्रा
जंगल में आग लगने की घटनाएं और उनकी तीव्रता, दोनों तेजी से बढ़ रही हैं। प्रकृति और पर्यावरण को बड़े स्तर पर हो रहा नुकसान और जलवायु परिवर्तन वाइल्डफायर की उग्रता बढ़ाता जा रहा है, लेकिन इससे निपटने के लिए दुनिया की तैयारी अब भी काफी कमजोर है।
भारत भी इसकी चपेट में है। बीते दिनों उत्तराखंड में लगी आग में 1,000 हेक्टेयर से ज्यादा जंगल तबाह हो गए। काउंसिल ऑफ एनर्जी, एनवॉयरमेंट एंड वॉटर की एक स्टडी बताती है कि साल 2000 से 2020 तक भारत में फॉरेस्ट फायर की घटनाओं की बारंबारता में 52 प्रतिशत का इजाफा हुआ है।
भारतीय राज्यों में 62 फीसदी से ज्यादा पर उच्च-तीव्रता वाली जंगल की आग का जोखिम है। पिछले दो दशकों में आंध्र प्रदेश, असम, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मणिपुर, नागालैंड और उत्तराखंड जंगल की आग के प्रति अत्यधिक संवेदनशील रहे हैं। भारत के कुल जिलों में 30 प्रतिशत से ज्यादा प्रचंड जंगल की आग के हॉटस्पॉट हैं।
कैलिफोर्निया के पास जंगलों में लगी आग बुझाने के लिए छिडक़ाव कर रहा एक हेलिकॉप्टर। तस्वीर जून 2024 की है। कैलिफोर्निया के पास जंगलों में लगी आग बुझाने के लिए छिडक़ाव कर रहा एक हेलिकॉप्टर। तस्वीर जून 2024 की है।
बहुत अपर्याप्त हैं हमारी तैयारियां
दुनिया के कई और हिस्से फॉरेस्ट फायर के नियमित शिकार बन रहे हैं। अमेरिका, कनाडा, तुर्की में गर्म लहरों के कारण तापमान ऊंचा रहा और गर्मियों की शुरुआत में औसत समय से पहले ही जंगलों में आग भडक़ने लगी। यूरोप में स्पेन, ग्रीस और फ्रांस जैसे देश तकरीबन हर साल ही प्रचंड दावानलों का सामना कर रहे हैं। हालिया सालों में जंगल की आग बुझाने के लिए भले ही अतिरिक्त संसाधन लगाए गए हों, लेकिन ऐसी आपदाओं के लिए रणनीति और तैयारी करने के स्तर पर उतना काम नहीं हुआ।
श्टेफान डोर, ब्रिटेन की स्वानसी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर वाइल्डलाइफ रिसर्च में निदेशक हैं। समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में अपर्याप्त तैयारियों की ओर ध्यान दिलाते हुए उन्होंने कहा, ‘असल में हम अभी भी बस हालात के बारे में जान ही रहे हैं।’
बहुत तीव्र होती जा रही हैं वाइल्डफायर की घटनाएं
जंगल में लगी आग कितनी तीव्र होगी, कहां आग लग सकती है या आग कब भडक़ सकती है, इनका अनुमान लगाना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। स्थानीय मौसम समेत कई पक्ष इनमें भूमिका निभाते हैं। जैसे कि हवा की रफ्तार, कम नमी, ऊंचा तापमान। इंसानी लापरवाही भी आग लगने की एक बड़ी वजह है।
वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फाउंडेशन इंटरनेशनल ने 2020 की अपनी रिपोर्ट में अनुमान दिया कि जंगलों में आग लगने की घटनाओं में करीब 75 फीसदी मामलों के लिए इंसान जिम्मेदार हैं। डोर ने हाल ही में वाइल्डफायर जैसी चरम घटनाओं और प्राकृतिक आपदा की बारंबारता और तीव्रता की समीक्षा करते हुए एक शोध प्रकाशित किया है। वह कहते हैं कि समूची स्थिति देखते हुए यह तो तय है कि जंगल की आग ज्यादा विस्तृत और भीषण होती जा रही है।
अभी जून में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बीते 20 साल के दौरान जंगल की अत्यधिक प्रचंड आग की आवृत्ति और आकार, दोनों में करीब दोगुनी वृद्धि हुई है। यूनाइटेड नेशंस एनवॉयरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) की 2022 में आई रिपोर्ट में आशंका जताई गई कि इस सदी के अंत तक पूरी दुनिया में एक्सट्रीम वाइल्डफायर की घटनाएं 50 प्रतिशत तक बढ़ सकती हैं।
सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही नहीं है वजह
श्टेफान डोर कहते हैं कि इतना बड़ा खतरा सामने होने पर भी इंसानों ने अब तक सच्चाई का सामना नहीं किया है। तैयारियों के संदर्भ में वह आगाह करते हैं, ‘हमारे आगे जैसी स्थिति है, उसके लिए स्पष्ट तौर पर हम पूरी तरह से तैयार नहीं हैं।’ इस खतरनाक स्थिति के लिए सिर्फ जलवायु परिवर्तन ही अकेला कारण नहीं है। जमीन के इस्तेमाल का तरीका और घरों का निर्माण भी बड़ी भूमिका निभा रहा है।
जानकार बताते हैं कि जंगल में जमीन पर उगी घास और झाड़ी जैसी वनस्पतियों को मशीन से हटाना, मवेशी चराना जैसे तरीके भी काम आ सकते हैं।
ये चीजें सूखने के बाद जंगल की आग भडक़ाने का ईंधन बनती हैं। एडिनबरा यूनिवर्सिटी के रोरी हेडेन आग से सुरक्षा और इंजीनियरिंग के विशेषज्ञ हैं। वह सुझाव देते हैं कि कैंपफायरों पर पाबंदी लगाना और सडक़ें बनाना भी जरूरी है, ताकि दमकलकर्मी प्रभावित इलाके में आसानी से पहुंच सकें और शुरुआती दौर में ही आग को फैलने से रोका जा सके।
कहर बनी यूरोप में साल की सबसे खतरनाक आग
लेकिन ऐसे प्रयासों के लिए सरकारी स्तर पर योजना बनाने और फंड मुहैया कराना जरूरी है। जबकि कई बार सरकार की वरीयताएं कुछ और होती हैं या बजट की कमी होती है। हेडेन कहते हैं, ‘किसी प्राकृतिक जगह के प्रबंधन के लिए आप जो भी तरीका या तकनीक इस्तेमाल कर रहे हों, उस निवेश का नतीजा यह होगा कि कुछ (दुर्घटना) नहीं होगा। यह बड़ी अजीब सी मनोवैज्ञानिक स्थिति है। सफलता यही है कि कुछ नहीं हुआ।’
भारत के जंगलों पर भी है बड़ा जोखिम
भारत में जंगल में आग लगने की अधिकतर घटनाएं आमतौर पर नवंबर से जून तक होती हैं। ज्यादातर पतझड़ी या पर्णपाती वनों में आग लगती है। सदाबहार, आंशिक सहाबहार और पहाड़ी जंगलों पर वाइल्डफायर का जोखिम कम है। हालांकि, अब बारिश और बर्फबारी में आई नाटकीय कमी यह स्थिति भी बदल सकती है।
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) की 2019 में आई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 36 फीसदी से ज्यादा वन्यक्षेत्र नियमित तौर पर जंगल की आग के खतरे का सामना कर रहा है। वहीं, चार फीसदी वन्यक्षेत्र अत्यधिक खतरे की जद में है। यह वन्यजीव और जैवविविधता के लिए भी बड़ी नाजुक स्थिति है।
जंगलों की आग को कम-से-कम करने के लक्ष्य से भारत का पर्यावरण, जंगल एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय 2018 में एक राष्ट्रीय योजना लाया। इस योजना में जंगल के पास रह रहे समुदायों को सूचना देना और आग लगने की स्थिति में वन विभाग के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करना शामिल है।
साथ ही, जंगल में आग लगने के लिहाज से जोखिम भरी चीजों को घटाना, वन विभाग के कर्मियों की क्षमता बढ़ाना और आग लगने के बाद रीकवरी की प्रक्रिया तेज करने पर ध्यान देने की भी बात है। मंत्रालय ने एक केंद्रीय निगरानी समिति (सीएमसी) का भी गठन किया है, जो फॉरेस्ट फायर पर बनाई गई योजना के क्रियान्वयन पर नजर रखेगी।
आग बुझाने से ज्यादा बचाव पर ध्यान देने की जरूरत
जेजुस सन मिगेल, यूरोपियन कमिशन जॉइंट रिसर्च सेंटर से जुड़े एक विशेषज्ञ हैं। उन्होंने एएफपी को बताया कि आग सीमा नहीं देखती, ऐसे में इन आपदाओं से साथ मिलकर निपटने के लिए सरकारों के बीच एक व्यवस्था आकार ले रही है। यूरोपीय संघ (ईयू) के सदस्य देशों में अपने संसाधन साझा करने का मजबूत मॉडल है।
सन मिगेल बताते हैं कि ईयू के बाहर के देशों को भी जरूरत पडऩे पर ब्लॉक के दमकल उपकरणों और आर्थिक सहायता का फायदा मिला है। लेकिन वह यह भी कहते हैं कि जंगल की आग जिस तरह तेजी से ज्यादा प्रचंड होती जा रही है, ऐसे में सिर्फ आग बुझाने के उपाय काम नहीं आएंगे। उन्होंने कहा, ‘नागरिक सुरक्षा विभाग के साथी हमें बताते हैं, ‘हम आग से नहीं लड़ सकते। जमीन पर पहुंचने से पहले ही पानी भाप बनकर उड़ जाता है। हमें बचाव पर और ज्यादा काम करने की जरूरत है।’ (dw.com/hi)
सीबीआई ने बुधवार को शराब नीति से जुड़े कथित घोटाले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर लिया है।
आज ही इस मामले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग केस में केजरीवाल की जमानत पर सुनवाई होनी थी।
लेकिन इससे पहले राउज एवेन्यू कोर्ट के स्पेशल जज अमिताभ रावत ने सीबीआई को उन्हें गिरफ्तार करने की अनुमति दे दी।
केजरीवाल को इससे पहले कथित शराब नीति घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी ने 21 मार्च को गिरफ्तार किया था। इस समय वो तिहाड़ जेल में बंद हैं।
सीबीआई ने अरविंद केजरीवाल के लिए पांच दिन की हिरासत की मांग की है। कोर्ट ने अभी इस पर कोई फैसला नहीं दिया है।
अरविंद केजरीवाल के वकील ने कहा कि सीबीआई जिस आधार पर अरविंद केजरीवाल को हिरासत में रखना चाहती है, उसका आधार बेहद कमजोर और अस्पष्ट है। ये सत्ता के ताकत के दुरुपयोग का क्लासिक केस है।
केजरीवाल और सीबीआई के बीच आरोप-प्रत्यारोप
अदालत में अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वो निर्दोष हैं। साथ ही उन्होंने पूर्व उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और और पूरी आम आदमी पार्टी को भी बेकसूर करार दिया।
समाचार एजेंसी पीटीआई की मुताबिक केजरीवाल ने अदालत से कहा, ‘सीबीआई के स्रोतों के हवाले से मीडिया में ये दिखाया जा रहा है कि मैंने अपने बयान में सारा दोष मनीष सिसोदिया पर मढ़ दिया है। लेकिन मैंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया है, जिसमें मनीष सिसोदिया या किसी और पर दोष मढ़ा है। मैंने कहा था कि मैं निर्दोष हूं। सिसोदिया निर्दोष हैं और आम आदमी पार्टी निर्दोष है।’
केजरीवाल ने कहा, ‘उनका पूरा प्लान मुझे मीडिया के सामने बदनाम करना है। इसे रिकॉर्ड कीजिए, सब कुछ सीबीआई के सूत्रों के हवाले से मीडिया में चलाया गया है।’
हालांकि सीबीआई ने कहा है कि उसके किसी सूत्र ने कुछ भी नहीं कहा है।
कोर्ट से केजरीवाल को हिरासत के में रखे जाने की मांग करते हुए सीबीआई ने कहा कि इस मामले में बड़ी साजिश का पता करने के लिए ये जरूरी है।
सीबीआई ने कहा, ‘केजरीवाल से हिरासत में पूछताछ जरूरी है। क्योंकि वो तो इस बात को भी नहीं मान रहे हैं उनके सह आरोपी विजयन नायर उनके मातहत काम कर रहे थे। वो कह रहे हैं कि नायर तो आतिशी मर्लेना और सौरभ भारद्वाज के मातहत काम कर रहे थे। उन्होंने सारा दोष मनीष सिसोदिया पर मढ़ दिया। उनसे पूछताछ करनी होगी। उनके सामने हमें दस्तावेज रखने होंगे।’
ट्रायल कोर्ट में सुनवाई के दौरान सीबीआई ने कहा कि दस्तावेजों से आमना-सामना कराने के लिए केजरीवाल की हिरासत की जरूरत है।
सीबीआई ने यह भी दावा किया कि शराब ठेकों के निजीकरण का जिम्मा दिल्ली के पूर्व मंत्री मनीष सिसोदिया पर डालते हुए केजरीवाल ने कहा कि यह उनका ही आइडिया था।
विजय नायर आम आदमी पार्टी का पूर्व कम्युनिकेशन इंचार्ज हैं, जो दिल्ली शराब घोटाले के मुख्य अभियुक्तों में से एक हैं।
सीबीआई ने केजरीवाल के बारे में क्या कहा
सीबीआई ने कहा, ‘दिल्ली में कोविड से मौतें हो रही थीं। और शराब नीति तय करने की जल्दी हो रही थी। जब कोविड था तो दिल्ली पर किसका शासन था। मुख्यमंत्री का। एक दिन शराब नीति पर हस्ताक्षर हुए और उसी दिन ये अधिसूचित हो गई। साउथ लॉबी दिल्ली में बैठी हुई थी ये देखने के लिए उसके सामने इस पर दस्तखत हो और ये नोटिफाई हो जाए।’
सीबीआई ने अरविंद केजरीवाल पर ये आरोप भी लगाया है कि वो उसे बदनाम करने की कोशिश कर रही है।
जब अदालत ने पूछा कि अरविंद केजरीवाल को अभी क्यों गिरफ्तार किया जा रहा है। तो उसने कहा कि वो चुनाव के समय में उन्हें गिरफ़्तार नहीं करना चाहती थी।
अरविंद केजरीवाल की गिरफ़्तारी पर उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल ने कहा कि पूरा सिस्टम यह सुनिश्चित करने में लगा है कि उनके पति जेल से बाहर न निकलें। उन्होंने कहा सब कुछ तानाशाही और इमरजेंसी की तरह लग रहा है।
आम आदमी पार्टी ने कहा कि मनी लॉन्ड्रिंग केस में अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने वाली थी। इसलिए बीजेपी घबरा गई और उन्हें ‘फर्जी केस’ में गिरफ़्तार करवा दिया।
सुनीता केजरीवाल ने एक्स पर लिखा, ‘अरविंद केजरीवाल को दिल्ली शराब नीति से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग केस में जमानत मिल गई थी लेकिन ईडी ने इसे स्टे करवा दिया।’
‘अगले दिन सीबीआई ने उन्हें आरोपी बनाया। और आज उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। पूरा सिस्टम मिल कर ये सुनिश्चित करने में लगा है कि ये आदमी जेल से बाहर न आने पाए। ये कोई कानून नहीं है। ये तानाशाही है। इमरजेंसी है।’
केजरीवाल को कथित शराब नीति घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग केस में ईडी ने 21 मार्च को गिरफ्तार किया था। राउज एवेन्यू कोर्ट ने उन्हें इस मामले में 20 जून को जमानत दे दी थी।
लेकिन ईडी ने ट्रायल कोर्ट के इस फ़ैसले दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी थी और दावा किया था कि राउज़ एवेन्यू कोर्ट की एक जज न्याय बिंदु ने रिकॉर्ड पर दस्तावेजों को पढ़े बिना ही अभियुक्त को जमानत देने का फ़ैसला किया।
सीबीआई की गिरफ्तारी के बाद अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट में दायर वह याचिका वापस ले ली, जिसमें उन्होंने मनी लॉन्ड्रिंग मामले में अपनी जमानत पर रोक लगाने के दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी।
अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा, ‘जब से दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी है मुख्यमंत्रियों की तकलीफ बढ़ी है, परेशानियां बढ़ी है। दिल्ली (केंद्र सरकार) सरकार से जो सहयोग और मदद मिलनी चाहिए उसे भी सरकार ने पूरा नहीं किया।’
उन्होंने कहा, ‘केंद्र सरकार ने सबसे ज्यादा भेदभाव अगर किसी के साथ किया है तो वो दिल्ली सरकार के साथ और खासकर अरविंद केजरीवाल जी के साथ किया है। केंद्र सरकार लगातार उनको तकलीफ परेशानी पहुंचा रही है। जब उन्हें हर जगह से राहत मिलने का काम शुरू हो गया, जब वो बाहर आ जाते तो वे निकल ना पाएं सरकार ना चला पाएं इसलिए फिर उन पर ना जाने कौन सा मुकदमा लगाकर उनको फंसा दिया गया। सीबीआई के लोग लगातार उन लोगों को फंसाते हैं और उनको फंसाते हैं जिनसे इनको (भाजपा) खतरा है।’
सीबीआई की गिरफ्तारी के क्या हैं मायने?
शराब नीति से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग केस में केजरीवाल के खिलाफ ईडी की पहले ही जांच चल रही है फिर सीबीआई की गिरफ्तारी के क्या मायने हैं?
दरअसल प्रवर्तन निदेशालय कथित मनी ट्रेल के बारे में जांच कर रहा है। जबकि सीबीआई को ये साबित करना है कि इस मामले में भ्रष्टाचार हुआ और जनसेवकों ने पैसा लिया है।
ईडी ने मनी लॉन्ड्रिंग केस में केजरीवाल की इस साल मार्च में गिरफ्तार किया था। उस समय तक उनके खिलाफ कथित गैरकानूनी फंडिंग और इसके इस्तेमाल का ही आरोप था।
अप्रैल में सीबीआई ने जब केजरीवाल को पूछताछ करने के लिए बुलाया था कि उनके वकीलों ने कहा था क वो शराब नीति से जुड़े कथित घोटाले में एक गवाह हैं अभियुक्त नहीं।
अब केजरीवाल को अभियुक्त बनाने के लिए सीबीआई को कथित घोटाले से सीधे जोडऩे के लिए कुछ विश्वसनीय सबूत इक_ा करने होंगे।
दूसरी ओर ईडी के केस में भी उन्हें जमानत मिलने की प्रक्रिया लंबी होगी।
अगर सीबीआई केजरीवाल को अभियुक्त साबित करने में कामयाब हो जाती है तो वो लंबे समय तक जेल में बने रह सकते हैं। उनकी जमानत में भी देरी होगी। केजरीवाल के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी शायद यही चाहते हैं।
क्या है पूरा कथित शराब घोटाला
दिल्ली सरकार ने एक नई आबकारी नीति (आबकारी नीति 2021-22) नवंबर 2021 में लागू की थी।
नई आबकारी नीति लागू करने के बाद दिल्ली का शराब कारोबार निजी हाथों में आ गया था।
दिल्ली सरकार ने इसका तर्क दिया था कि इससे इस कारोबार से मिलने वाले राजस्व में वृद्धि होगी।
दिल्ली सरकार की यह नीति शुरू से ही विवादों में रही। लेकिन जब यह विवाद बहुत बढ़ गया तो नई नीति को ख़ारिज करते हुए सरकार ने जुलाई 2022 में एक बार फिर पुरानी नीति को ही लागू कर दिया।
मामले की शुरुआत दिल्ली के मुख्य सचिव नरेश कुमार की उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना, आर्थिक अपराध शाखा नई दिल्ली, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को भेजी गई रिपोर्ट से हुई।
यह रिपोर्ट 8 जुलाई 2022 को भेजी गई थी। इसमें एक्साइज डिपार्टमेंट के प्रभारी होने के नाते सिसोदिया पर उपराज्यपाल की मंज़ूरी के बिना नई आबकारी नीति के जरिए फर्जी तरीके से राजस्व कमाने के आरोप लगाए गए।
रिपोर्ट में बताया गया कि कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस में 144.36 करोड़ की छूट दी गई थी।
रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना के समय शराब विक्रेताओं ने लाइसेंस शुल्क माफी के लिए दिल्ली सरकार से संपर्क किया।
सरकार ने 28 दिसंबर से 27 जनवरी तक लाइसेंस शुल्क में 24.02 प्रतिशत की छूट दे दी।
रिपोर्ट के मुताबिक इससे लाइसेंसधारी को अनुचित लाभ पहुंचा, जबकि सरकारी खजाने को लगभग 144।36 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ।
जबकि अधिकारियों के मुताबिक, लागू हो चुकी नीति में किसी भी बदलाव से पूर्व आबकारी विभाग को पहले कैबिनेट और फिर उप-राज्यपाल के पास अनुमति के लिए भेजना होता है। कैबिनेट और उप-राज्यपाल की अनुमति के बिना किया गया कोई भी बदलाव गैर-कानूनी कहलाएगा।
रिपोर्ट सीबीआई को भेजी गई जिसके आधार पर बीते साल मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार किया गया।
मनीष सिसोदिया पर विदेशी शराब की कीमतों में बदलाव करने और प्रति बीयर 50 रुपये आयात शुल्क हटाकर लाइसेंस धारकों को अनुचित फायदा पहुंचाने का आरोप था।
-अमीरा महजबी
इसराइली सेना, हमास और फ़लस्तीनी इस्लामिक जिहाद के हथियारबंद संगठनों को संयुक्त राष्ट्र ने 'लिस्ट ऑफ़ शेम' में एक साथ डाला है.
इसमें उन ग्रुपों को जोड़ा गया है जिन्होंने संघर्ष के दौरान बच्चों पर विपरीत असर डालने वाले गंभीर उल्लंघन किए.
यह सूची, बच्चों और हथियारबंद संघर्ष पर संयुक्त राष्ट्र महासचिव जनरल एंटोनियो गुटेरेस की वार्षिक रिपोर्ट में जोड़ी गई है.
सबसे हालिया यह रिपोर्ट जनवरी और दिसम्बर 2023 के बीच के समय की है जिसे 13 जून को सार्वजनिक किया गया था.
26 जून को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस रिपोर्ट पर बहस होगी.
ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है, "साल 2023 में किसी हथियारबंद संघर्ष में बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा अपने चरम पर पहुंच गई थी, इस दौरान नियमों में गंभीर उल्लंघन हैरतअंगेज़ रूप से 21% बढ़ा गया था."
इसके अनुसार, "हत्याओं और अपंगता के मामलों में 35 प्रतिशत की भारी वृद्धि दर्ज हुई."
साल 2024 की रिपोर्ट में इसराइल और कब्ज़े वाले फ़लस्तीनी इलाक़े को, बच्चों के ख़िलाफ़ सबसे अधिक हिंसा वाला क्षेत्र बताया गया है.
अधिकांश हिंसा के लिए इसराइल ज़िम्मेदार
संयुक्त राष्ट्र ने हिंसा के 5,698 मामलों की पुष्टि की है जो इसराइली सशस्त्र बल और सेना से जुड़े हैं जबकि 116 मामले हमास के इज़्ज़ अल-दीन अल-क़ासम ब्रिगेड्स और 21 मामले फ़लस्तीनी इस्लामिक जिहाद अल-कुद्स ब्रिगेड से जुड़े हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके अलावा बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा के 2,051 मामलों की जांच जारी है.
रिपोर्ट में सत्यापित मामले
रिपोर्ट में सत्यापित किया गया है किः
सात अक्टूबर और 31 दिसम्बर के बीच 2,267 फ़लस्तीनी बच्चे मारे गए, जिनमें अधिकांश ग़ज़ा से थेः "अधिकांश मामले घनी आबादी में इसराइली सेना और सुरक्षा बलों की ओर से इस्तेमाल किए गए विस्फ़ोटक हथियारों की वजह से हुए."
कुल 43 इसराइली बच्चों की हत्या हुई, इनमें अधिकांश घटनाएं सात अक्टूबर को हुई गोलीबारी और रॉकेट हमले की वजह से हुईं.
हमास के इज़्ज़ अल-दीन अल-क़ासम ब्रिगेड्स और अन्य फ़लस्तीनी हथियारबंद समूहों ने 47 इसराइली बच्चों का अपहरण किया.
इसराइली सुरक्षा बलों ने कथित सुरक्षा से जुड़े अपराधों के लिए 906 फ़लस्तीनी बच्चों को गिरफ़्तार किया.
स्कूलों और अस्पतालों में पर हुए 371 हमलों के लिए इसराइली सेना, सुरक्षा बल और इसराइली बाशिंदे और अज्ञात हमलावर ज़िम्मेदार हैं.
इसराइल में स्कूलों और अस्पतालों पर 17 हमलों के लिए अल-क़ासम ब्रिगेड्स और अन्य फ़लस्तीनी हथियारबंद संगठन और अज्ञात हमलावर ज़िम्मेदार हैं.
इस लिस्ट में शामिल किए गंभीर हिंसा वाले मामलों में बच्चों की अपंगता और मानवीय सहायता के रोके जाने को भी शामिल किया गया है.
हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने माना कि "दर्ज की गई सूचनाएं बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा की पूरी तस्वीर नहीं दिखातीं क्योंकि ज़मीनी हालात पर पुष्टि करना चुनौती बना हुआ है."
'लिस्ट ऑफ़ शेम' क्या है और इसमें और कौन कौन हैं?
साल 2001 में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1379 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव से "संघर्ष में शामिल" उन पार्टियों को चिह्नित करने और सूचीबद्ध करने के लिए कहा जो बच्चों को भर्ती करते हैं और उनका इस्तेमाल करते हैं.
तब से, यह सूची संयुक्त राष्ट्र महासचिव की सुरक्षा परिषद की वार्षिक रिपोर्ट से जुड़ी हुई होती है, जिसमें "सशस्त्र संघर्ष का बच्चों पर प्रभाव के ढर्रे और अपराधों" की जानकारी होती है.
साल 1996 में बच्चों और सशस्त्र संघर्ष के लिए महासचिव के स्पेशल रिप्रजेंटेटिव की व्यवस्था बनाई गई, जिसमें संघर्ष के दौरान बच्चों पर असर का आकलन करने के लिए छह गंभीर अपराधों को चिह्नित किया गया.
इनमें पांच अपराध करने वाला अपराधी स्वतः इस सूची में शामिल हो जाता हैः
भर्ती और बच्चों का इस्तेमाल
बच्चों की हत्या और उनकी अपंगता
बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा
स्कूलों और अस्पतालों पर हमले
बच्चों का अपहरण
छठा अपराध है बच्चों समेत नागरिकों को मानवीय सहायता से दूर रखना.
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि "यह चौथे जिनेवा संधि और इसके अतिरिक्त प्रोटोकॉल्स के तहत यह प्रतिबंधित है और यह मानवता के ख़िलाफ़ अपराध या युद्ध अपराध के बराबर हो सकता है."
ताज़ा लिस्ट में बोको हरम, इस्लामिक स्टेट और तालिबान जैसे हथियारबंद संगठन शामिल हैं.
पिछले साल रूसी सेना को भी इसमें शामिल किया गया है.
इसराइल क्यों कहा 'अनैतिक'
संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट पर अभी तक हमास या इस्लामिक जिहाद की ओर से कोई टिप्पणी नहीं है लेकिन इसराइल ने इसे 'अनैतिक' कहते हुए निशाना साधा है.
संयुक्त राष्ट्र महासचिव के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ कोर्टनी रैटेरे ने 7 जून को यूएन में इसराइली राजदूत गिलाड अर्डान को फ़ोन पर बताया था कि आईडीएफ़ को सूची में डाला जाएगा.
बाद में अर्डान ने सोशल मीडिया पर डाले एक पोस्ट में इसे एक "अनैतिक फैसला बताया था जिससे केवल हमास को फायदा होगा."
इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने एक बयान में कहा कि "संयुक्त राष्ट्र ने हमास हत्यारों का समर्थन करने वालों के खेमे में जाकर खुद को इतिहास में ब्लैकलिस्ट कर लिया है."
उन्होंने घोषणा की, "आईडीएफ़ दुनिया में सबसे नैतिकवादी सेना है, संयुक्त राष्ट्र का कोई भ्रामक फैसला इसे बदल नहीं पाएगा."
हालांकि इसराइल को पहली बार इस लिस्ट में शामिल किया गया है लेकिन सशस्त्र संघर्षों में बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर पहले की रिपोर्टों में उसका ज़िक्र आता रहा है.
पिछले साल जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि इसराइली सेना की ओर से दागे गए आंसू गैस के कारण 524 बच्चे (517 फ़लस्तीनी, 7 इसराइली) अपंग हो गए और 563 बच्चों को मेडिकल सहायता की ज़रूरत पड़ी.
मानवाधिकार संगठन, यूएन की पूर्व की रिपोर्टों में इसराइल को इस सूची में न डालने के लिए महासचिव गुटेरेस की काफ़ी आलोचना करते रहे हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच के बाल अधिकार मामलों के डायरेक्टर जो बेकर ने कहा, "संयुक्त राष्ट्र की लिस्ट ऑफ़ शेम में इसराइली सेना को शामिल करना काफ़ी समय से लंबित था."
वो कहती हैं, "हमास के इज़्ज़ अल-दीन अल-क़ासम ब्रिगेड्स और फ़लस्तीनी इस्लामिक जिहाद के अल-क़ुद्स ब्रिगेड्स को भी शामिल करना सही है."
एमनेस्टी इंटरनेशनल के सेक्रेटरी जनरल एग्नेस कैलामार्ड ने इस महीने की शुरुआत में लिखा था, "इस शर्मनाक लिस्ट में शामिल होने के लिए इसराइल को ग़ज़ा में 15,000 बच्चों की हत्या नहीं करनी चाहिए थी."
इस लिस्टिंग का क्या होगा असर?
इस रिपोर्ट की मंशा बच्चों के हालात को सबके सामने लाना है लेकिन इसकी कोई क़ानूनी बाध्यता नहीं है.
ऑक्सफ़ोर्ड इंस्टीट्यूट फॉर एथिक्स, लॉ एंड आर्म्ड कॉन्फ्लिक्ट में वरिष्ठ शोधकर्ता इमानुएला-चियारा गिलार्ड ने बीबीसी को बताया, "देशों और संगठनों को उस सूची में डालना मुख्य रूप से 'शर्मिंदा' करना है - इसका कोई तत्काल ठोस कानूनी नतीजा नहीं होता."
उनके मुताबिक़, "हालांकि, यह कुछ देशों के इसराइल को हथियार देने के फैसले को प्रभावित कर सकता है, अगर वे ये मानें कि क़ानून के पालन के मामले में इसराइल को लेकर कुछ चिंताएं वाजिब हैं. लेकिन इससे कोई प्रतिबंध या पाबंदी लागू नहीं होता."
हमास और फ़लस्तीनी इस्लामिक जिहाद पहले ही इसराइल, अमेरिका और ब्रिटेन की 'आतंकवादी संगठनों' की सूची में शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि ग़ैर सरकारी तत्वों (नॉन स्टेट ऐक्टर्स) के रूप में ज़िक्र से उनकी क़ानूनी स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता.
गिलार्ड का कहना है कि इस सूचि में शामिल होने का व्यावहारिक असर पड़ सकता है क्योंकि इसराइल और हमास को और आलोचनात्मक नज़रिए से देखा जाने लगेगा और इसका असर सुरक्षा परिषद में संबंधित प्रस्तावों पर पड़ेगा.
संयुक्त राष्ट्र की इस लिस्ट से खुद को बाहर लाने के लिए संगठनों को एक्शन प्लान बनाने और लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र बातचीत शुरू करनी होती है ताकि आगे बच्चों के ख़िलाफ़ जिस तरह के हिंसा का ज़िक्र है उसे रोका जा सके. (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
25 जून 1975 को लागू किए गए देश के इकलौते आपातकाल को लगे पचासवा साल शुरू हुआ है। देश की बड़ी आबादी को, जिसकी उम्र पचपन साल से कम है, आपातकाल के गर्मी में सर्दी सी सिहरन पैदा करने वाले लोकतन्त्र के काले अध्याय की प्रत्यक्ष जानकारी नहीं है। हमारी पीढी ने आपातकाल को अपनी युवावस्था में साक्षात देखा और कुछेक ने आपातकाल की यातना को काफी करीब से महसूस भी किया था। अच्छा यह रहा कि गांधी के शिष्य रहे लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए अभूतपूर्व अहिंसक जन आंदोलन के कारण आपातकाल बहुत दिन नहीं टिक पाया था। यह भी एक सुखद स्थिती है कि पिछले पचास साल में फिर किसी भी दल की केंद्र सरकार की यह हिम्मत नहीं हुई कि आपतकाल के उस काले दौर को दोबारा पुनर्जीवित कर सके। आपातकाल का स्मरण करते हुए हमे इसकी तह में भी जाना चाहिए कि आपात काल के दौर में प्रताडि़त हुए काफी लोग आज उसी कांग्रेस के साथ इंडिया गठबन्धन में क्यों शामिल हैं जिसने आपातकाल लगाया था ? और आपात काल के प्रताडि़त लोगों की जनता पार्टी की बहुमत की सरकार को जनता ने तीन साल में ही अलविदा कहकर दोबारा इंदिरा गांधी को देश की कमान क्यों सौंप दी थी ! राजनीति एकतरफा और सपाट नहीं होती इसलिए उसका अध्ययन भी सतही तौर पर नहीं हो सकता।
जिस तरह से आपात काल घोषित करने की सजा इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी हार के रूप में मिली थी कुछ कुछ उसी तरह से थोड़ी कम सजा इस साल लोकसभा चुनाव में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को भी मिली है जिनकी सीटों की संख्या बहुमत के आंकड़े से काफी कम हो गई है। यह अकारण नहीं है कि 2019 में मिले प्रचंड बहुमत के बाद नरेंद्र मोदी सरकार पर भी देश को अघोषित आपातकाल सरीखी स्थिति में लाने के आरोप लगने लगे थे।जिस तरह से पुलिस प्रशासन और केंद्रीय जांच एजेंसियों का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग आपात काल में हुआ था कुछ कुछ वैसी ही स्थिति भारतीय जनता पार्टी के पिछले कार्यकाल में किसान आंदोलन के प्रति संवेदनहीनता, महिला पहलवानों के मामले में हीलाहवाली और मणिपुर की हिंसा पर जबरदस्त चुप्पी एवम विरोधी दलों के नेताओं के खिलाफ एकतरफा जांच एजेंसियों की दंडात्मक कार्रवाई के रूप में दिखाई देने लगी थी। इसीलिए प्रबुद्ध नागरिकों का एक बड़ा तबका इसे अघोषित आपातकाल की संज्ञा दे रहा था।अब उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह सत्ता से बाहर होकर इंदिरा गांधी ने अपने खुद के व्यवहार और राजनीति में सकारात्मक परिर्वतन किया था उसी तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जनता द्वारा बहुमत नहीं देने के फैसले से हताश निराश नहीं होंगे और संविधान एवम लोकतांत्रिक मूल्यों का पहले से बेहतर ढंग से पालन करेंगे।
आपात काल को लेकर एक दो सकारात्मक बात भी लोगों के जेहन में जिंदा है। उस दौरान नौकरशाही का बड़ा वर्ग अनुशासनात्मक कार्यवाही के भयवश दफ्तरों में समय से आने लगा था और नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर भी काफी अंकुश लगा था, इसीलिए इसे अनुशासन पर्व की संज्ञा भी दी गई थी। अघोषित आपातकाल एक तरह से घोषित आपातकाल से भी खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि इसमें अधिसंख्य लोगों को लोकतन्त्र और कानून के राज का भ्रम रहता है जिससे वे अचानक वैसे ही इसके शिकार बन जाते हैं जैसे वन में निश्चिंत विचरते हिरण को पीछे से दबे पांव आया बाघ या तेंदुआ दबोच लेता है। सत्तासीन राजनीतिक ताकतों के खिलाफ अभिव्यक्ति की तनिक सी आजादी लेने पर किसी को भी संगीन धाराओं में जेल में सड़ाया जा सकता है। मीडिया के उस वर्ग को विज्ञापनों से वंचित किया जा सकता है जो सत्ता की आलोचना करता है। ऐसे में प्रबुद्ध वर्ग की जिम्मेदारी बनती है कि जनता को घोषित अघोषित आपातकाल के खतरों के प्रति आगाह करता रहे।
अविनाश द्विवेदी
परीक्षा में गड़बडिय़ों के मामले पर पूरे भारत में बवाल मचा हुआ है। 23 जून यानी रविवार को होने जा रही नीट पीजी परीक्षा को एहतियात के तौर पर टालने के अचानक आए फैसले के बाद परीक्षा में बैठने जा रहे छात्र काफी चिंतित हैं। परीक्षा से सिर्फ कुछ घंटे पहले ही इसे टाले जाने की सूचना जारी की गई।
नीट पीजी परीक्षा को लेकर कोई नई तारीख भी नहीं बताई गई है। जिसके बाद छात्रों के साथ, डॉक्टरों के एसोसिएशन और विपक्षी पार्टियों ने भी चिंता जताई है। नीट पीजी की पूरे भारत में करीब 52 हजार सीटें हैं, जिनके लिए हर साल करीब 2 लाख एमबीबीएस ग्रेजुएट परीक्षा में बैठते हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इस मामले में शनिवार को बीजेपी पर हमला बोला। नीट पीजी परीक्षा को टाले जाने पर उन्होंने कहा, ‘यह एक और दुखद मिसाल है कि शिक्षा व्यवस्था बर्बाद हो चुकी है।’ वहीं नीट यूजी परीक्षा में गड़बडिय़ों के आरोप के बाद रविवार को 1500 से ज्यादा छात्रों को फिर से परीक्षा देनी पड़ रही है। नीट यूजी की परीक्षा 5 मई को कराई गई थी। इसमें कथित गड़बडिय़ों, नकल, पेपर लीक होने और दूसरों के स्थान पर पेपर देने के आरोप में कई मामले दर्ज किए गए थे।
सीबीआई करेगी नीट में गड़बड़ी की जांच
1500 से ज्यादा छात्र जो फिर से नीट यूजी परीक्षा दे रहे हैं, नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) की ओर से इन्हें अलग-अलग वजहों से ग्रेस मार्क दिए जाने की बात कही गई थी। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान एनटीए ने छात्रों को मिले ग्रेस मार्क खारिज करने और इनकी फिर से परीक्षा कराए जाने की बात कही थी। भारत की मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक बहुत से छात्र फिर से परीक्षा और टाली गई काउंसिलिंग का विरोध कर रहे हैं। गुजरात के राजकोट में छात्र फिर से परीक्षा कराए जाने के विरोध में सडक़ों पर उतरे हैं।
परीक्षाओं को लेकर खड़े हुए विवाद के बीच केंद्र सरकार की ओर से मेडिकल इंट्रेंस परीक्षा, नीट में गड़बडिय़ां सामने आने के बाद कई कदम उठाए गए हैं। सरकार ने नीट में गड़बडिय़ों की जांच शनिवार रात सीबीआई को सौंपे जाने की घोषणा की। इसके अलावा नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) के निदेशक सुबोध सिंह को भी उनके पद से हटा दिया गया है। सरकार की ओर से इसरो के पूर्व प्रमुख के राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक सात-सदस्यीय समिति का गठन किया गया है, जो परीक्षा सुधार पर काम करेगी।
परीक्षा में गड़बड़ी से जुड़ा कड़ा कानून लागू
पिछले हफ्ते नेशनल टेस्टिंग एजेंसी की ओर से आयोजित यूजीसी नेट की परीक्षा का पेपर डार्कनेट पर लीक होने की सूचना के बाद, नेट की परीक्षा को भी रद्द कर दिया गया था। अब शुक्रवार को केंद्र सरकार ने लोक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम, 2024 को अधिसूचना जारी की थी। इस कानून में पेपर लीक और नकल के अपराध में कड़ी सजाओं का प्रावधान है।
कानून शुक्रवार से प्रभावी हो गया है। कानून के तहत, अगर किसी को पेपर लीक या उत्तर पुस्तिका के साथ छेड़छाड़ का दोषी पाया जाता है, तो उसे कम से कम तीन साल जेल की सजा होगी। अपराध के मामले में अधिकतम 5 साल की जेल और 10 लाख रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान किया गया है। कानून के मुताबिक इस तरह के सारे अपराध दंडनीय और गैर-जमानती होंगे।
इस नए कानून के मुताबिक परीक्षा से जुड़े अधिकारियों पर भी कार्रवाई हो सकती है। अगर कोई अधिकारी, जिसे संभावित अपराध की जानकारी हो लेकिन उसने शिकायत नहीं की तो उस पर अधिकतम 1 करोड़ रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा उसे 3 साल से 10 साल तक की जेल की सजा भी हो सकती है। यह अधिनियम फरवरी में संसद के दोनों सदनों में पास हुआ था। इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी इस पर फरवरी में ही हस्ताक्षर कर दिए थे।
निकोला ब्रायन
कइयों को लिए अब ये बात पुरानी हो गई है कि पुरुष नहीं रोते। लेकिन राजनीतिक नेताओं को लेकर क्या कहेंगे। वो रोते हैं तो लोग क्या महसूस करते हैं?
बुधवार को वेल्स के फस्र्ट मिनिस्टर वॉगन गेथिंग वेल्स पार्लियामेंट में अविश्वास प्रस्ताव के पहले रोते दिखाई दिए। गेथिंग अविश्वास प्रस्ताव हार गए थे।
इस तरह गेथिंग चर्चिल से लेकर ओबामा तक, दुनिया के ऐसे नेताओं में शामिल हो गए, जिनके आंसू सार्वजनिक जगहों पर बहते दिखे।
क्या इस तरह सार्वजनिक जगहों पर रोने वाले नेता ज्यादा मानवीय या प्रामाणिक माने जाते हैं या फिर इसे उनकी कमजोरी के एक संकेत के तौर पर देखा जाता है।
ग्यूटो हेरी नंबर 10 के पूर्व कम्यूनिकेशन डायरेक्टर रहे हैं। वो पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के जमाने में काम कर चुके हैं।
वो कहते हैं कि लोग चाहते हैं कि आप उनकी भावनाओं से जुड़े रहें। भावनात्मक तौर पर सजग रहें।
लोग नेताओं को कमजोर नहीं देखना चाहते
लेकिन क्रूर सच्चाई तो ये है लोग नेताओं को कमजोर नहीं देखना चाहते। आपमें कितनी भी करुणा क्यों न हो और आप अपने चैंबर में रोते हुए पाए जाते हैं तो माना जाता है कि आप ताकतवर नहीं हैं।
हेरी कहते हैं कि किसी भी राजनीतिक नेता के लिए असली और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि उसके अंदर कितनी असलियत है।
वो कहते हैं, ‘जो लोग स्वाभाविक रूप से आकर्षक नहीं हैं उन्हें अगर मुस्कुराने के लिए कहें तो वो अजीब लग सकते हैं। जैसे- गॉर्डन ब्राउन और टेरेसा मे जैसे लोग एक हद तक ऐसा लग सकते हैं।
उन्होंने कहा, ‘इसका एक बेहतरीन उदाहरण है जब एड मिलिबैंड जो एक बेकन सैंडविच खाने की कोशिश कर रहे थे या विलियम हेग बच्चों के साथ बेसबॉल की कैप उठाने की कोशिश कर रहे थे। ये उन राजनीतिक नेताओं में शुमार हैं जो इस बात का खमियाजा भुगतते रहे हैं कि वो जो हैं उससे अलग दिखने की कोशिश कर रहे थे।’
नेताओं की भावनाओं का मजाक न उड़ाएं
राजनीति के बाहर और राजनीति के अंदर कई ऐसे नेता हैं जिन्हें लोगों ने कैमरे पर रोते देखा है। विंस्टन चर्चिल सार्वजनिक जगह पर रोने के लिए जाने गए।
ब्रिटेन की महारानी उस समय अपने आंसू पोछती दिखाई दीं जब 1997 में उनका उनका याच सर्विस से हटा लिया गया। या फिर 2019 में भी वो सेनोटेफ में रिमेंबरेंस सनडे सर्विस के दौरान रोती दिखाई दी थीं।
चासंलर जॉर्ज ओसबोर्न के आंखों में भी 2013 में उस समय आंसू दिखाई दिए थे जब 2013 में मार्गरेट थैचर के शव को दफनाया जा रहा था।
अपने कार्यकाल के दौरान पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कई बारे सार्वजनिक तौर पर रोते दिखाई दिए।
2012 में सैंडी हूक नरसंहार पर और 2015 में एरेथा फ्रैंकलिन के परफॉरमेंस के दौरान वो रोते दिखाई दिए।
2019 में प्रधानमंत्री पद छोडऩे का एलान करते हुए टेरेसा मे रो पड़ी थीं।
गेथिंग जिस तरह से रो रहे थे और और वेल्श सरकार के चीफ व्हीप जेन हट जिस तरह उन्हें शांत करा रही थीं वो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। गेथिंग टिश्यू पेपर से आंसू पोछते दिखाई दिए।
लोगों ने इसे घडिय़ाली आंसू कहा क्योंकि वो कैमरे पर आंसू बहाते नजर आए। खुद को शर्मसार करते हुए। उन पर लैंगिंक टिप्पणी भी गई। कहा गया कि ‘वो छोटी बच्ची जैसे रो रहे हैं।’
लेकिन मिस्टर हेरी का मानना है कि वे आंसू असली थे। उनका कहना है कि ऐसे मौकों पर जो भावनात्मक चोट पहुंचती है उसे कम करके नहीं आंकना चाहिए।
वो कहते हैं, ‘मैंने बोरिस के हटने को काफी करीब से देखा है। यह मेरा निजी अनुभव है। ये काफी क्रूर था। मैंने उनके हताश-निराश लम्हे देखे थे। लेकिन ये सब आमतौर पर बंद दरवाजे के अंदर ही हुआ।’
कभी पुरुषों का रोना कमजोरी माना जाता था लेकिन अब नहीं
वो कहते हैं कि सार्वजनिक तौर पर रोना हमेशा जोखिम भरा होता है क्योंकि लोग सोचते हैं कि आपके आंसू नकली हैं और आप लोगों की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।
‘कई बार राजनीति और जिंदगी के किसी भी क्षेत्र में आप हताशा और बेचैनी भरा कदम उठाते हैं। जैसे आपके पार्टनर ने आपको छोड़ दिया है और चाहते कि आप पर लोगों को दया आए। लेकिन ये अपील इतनी ताकतवर नहीं होती कि लोगों पर आपको विश्वास हो।
वॉरविक यूनिवर्सिटी में इतिहास विभाग के एमिरेटस प्रोफेसर और ब्रिटिश एकेडमी के फेलो बर्नार्ड कैप कहते हैं कि अब तक के इतिहास में सार्वजनिक जगहों पर रोने के प्रति लोगों की धारणाएं कई बार बदली हैं।
उन्होंने कहा, ‘ये पेंडुलम की तरह है। जैसै कई कालखंडों में जैसे प्राचीन ग्रीस या रोम या फिर इंग्लैंड में मध्यकाल लोग पुरुष खुल कर अपनी भावनाएं व्यक्त करते थे। इनमें रोना भी शामिल था। गुस्से और रोष का भी इजहार सार्वजनिक तौर पर होता था।’
‘लेकिन दूसरे कालखंड जैसे पुनर्जागरण काल यानी 18वीं और शुरुआती 20वीं सदी में भावनाओं को नियंत्रित रखना सही माना जाता था।’
उन्होंने कहा कि आज के दौर में लोग राजनीति और खेल जैसे क्षेत्र में लोग खुल कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं।
उन्होंने कहा, ‘किसी दिग्गज बिजनेस लीडर के बारे में ये सोचना अकल्पनीय है कि कंपनी के बोर्ड से हटाए जाने पर वो रोएगा। लेकिन राजनीति में थैचर और थेरेसा मे दोनो पद छोड़ते हुए रोई थीं। इसी तरह विंस्टन चर्चल भी हाउस ऑफ कॉमन्स में रोए थे। ब्लिट्ज में बमबारी वाली जगहों पर दौरा करते हुए भी रो पड़े थे।’
आंसुओं को छिपाने की जरूरत नहीं
थैचर और मे दोनों पद छोडऩे के बाद रोते हुए आहत दिख रही थीं।
जबकि डेविड कैमरन अपने इस्तीफे के दौरान गुनगुनाते दिखे। ऐसा करके वो दिखाना चाहते थे कि उनका ख़ुद पर काबू है।
सवाल ये है कि सार्वजनिक जगहों पर रोने को कैसा देखा जाता है।
वो कहते हैं, ‘वॉगन गेथिंग केस बहुत ज्यादा आत्मदया का मामला है। ये स्वीकार्य नहीं है। डी-डे वेटरन्स में शामिल काफी लोगों के आंखों के आंसू देखे गए। लेकिन वो खुद नहीं रो रहे थे। वे अपने शहीद साथियों की याद में रो रहे थे।
मार्क बोरकोवस्की एक क्राइसिस पीएआर कंस्लटेंट्स हैं जो बड़ी अंतरराष्ट्रीय हस्तियों और बड़ी कंपनियों के लिए काम करते हैं।
उन्होंने कहा कि अगर उन्हें गेथिंग को सार्वजनिक जगह पर रोने के बाद सलाह देनी होती तो वो उन्हें कहते है कि इसे छिपाने (आंसुओं को) की जरूरत नहीं है। इसका फायदा लीजिए। लेकिन इस पर इतना ज्यादा निर्भर भी मत होइए। अपनी प्रामाणिकता को बताने के लिए दूसरे तरीकों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
आदमी कमजोर है इसे मान लेना चाहिए
मार्क बोरकोवस्की कहते हैं कि ब्रिटेन की जनता जनता अब नेताओं की ओर से तरह अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के प्रति ज्यादा खुले हैं।
उन्होंने कहा, ‘राजनीतिक नेताओं से कभी ये उम्मीद की जाएगी कि वो अपनी ताकत को लोगों के सामने दिखाएंगे। कमजोरियों को छिपाएंगे। लेकिन हम मनुष्य हैं और कमजोर भी। हम गलतियां करते हैं और दुनिया इसे स्वीकार भी करती है। कोई भी मुकम्मल नहीं है। लेकिन ईमानदारी तो अभी भी लोगों में बरकरार है।’
वो कहते हैं मुद्दा ये है कि अब इन चीजों को पीछे छोड़ कर कैसे आगे बढ़ाया जाए। संकट में हमेशा कोई मौका मौजूद होता है।
भारत में नेताओं का रोना
ये तो हुई दुनिया भर के नेताओं की बातें, भारतीय संदर्भ में कुछ उदाहरण मौजूद हैं।
भारत की पूर्व पीएम इंदिरा गाँधी को कम से कम सार्वजनिक तौर पर रोने से काफी परहेज था।
उनके छोटे पुत्र संजय गाँधी की मौत पर जब उनके साथी संवेदना व्यक्त करने गए तो वह यह देख कर हतप्रभ रह गए कि इतने बड़े सदमे के बाद भी उनकी आँखों में आँसू नहीं थे।
भारत के लोगों को वह दृश्य भूला नहीं है जब अपने बेटे की शव यात्रा के दौरान उन्होंने एक धूप का चश्मा लगा रखा था कि अगर उनकी आँखे नम भी हो रही हों तो देश के लोग यह न देख पाएं कि मानवीय भावनाएं उन्हें भी प्रभावित कर सकती हैं।
लाल कृष्ण आडवाणी को भी कई मौकों पर भावुक होते देखा गया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई टीवी इंटरव्यू के दौरान भावुक दिखे हैं। पीएम मोदी चुनावी सभाओं में भी कई बार भारी गले के साथ बोलते सुने गए। (bbc.com/hindi)
-दिनेश कुमार
देश में लगातार बढ़ते तापमान के साथ ही पीने के पानी की समस्या भी बढ़ी है। इससे राजधानी दिल्ली और अन्य महानगर भी अछूते नहीं हैं। ऐसी स्थिति में ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी इलाकों में आबाद कच्ची बस्तियों के हालात को बखूबी समझा जा सकता है। जहां आज भी पीने के साफ पानी के लिए परिवारों को संघर्ष करना पड़ रहा है। हालांकि 2019 में शुरू हुए केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी योजना 'हर घर नल जल' ने इस समस्या को काफी हद तक कम कर दिया है। जल शक्ति मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार इस योजना के जरिए देश के 19 करोड़ से अधिक घरों में से लगभग 15 करोड़ घरों में नल के कनेक्शन लगाए जा चुके हैं। जो कुल घरों की संख्या का 77।10 प्रतिशत है।
मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक देश के 34 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में गोवा, अंडमान और निकोबार, दादर और नागर हवेली तथा दमन और दीव, हरियाणा, तेलंगाना, पुडुचेरी, गुजरात, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम ऐसे राज्य हैं जहां इस योजना के तहत शत प्रतिशत घरों में नल से जल पहुंचाया जा चुका है। जबकि राजस्थान देश का दूसरा ऐसा राज्य है जहां इस योजना की रफ्तार बहुत कम है। यहां 01,07,04,126 घरों में से मात्र 53,63,522 घरों में नल का कनेक्शन पहुंच सका है। न केवल ग्रामीण क्षेत्रों बल्कि शहर में आबाद कच्ची बस्तियों में भी पीने के पानी की बहुत बड़ी समस्या है। इसकी एक झलक राजधानी जयपुर स्थित बाबा रामदेव नगर कच्ची बस्ती है। शहर से करीब 10 किमी दूर यह बस्ती मुख्य रूप से गुर्जर की थड़ी इलाके में आबाद है।
न्यू आतिश मार्केट मेट्रो स्टेशन से 500 मीटर की दूरी पर स्थित इस बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है। यहां अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े समुदायों की बहुलता है। जिसमें लोहार, मिरासी, कचरा बीनने वाले, फक़ीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है। इस बस्ती में पीने के साफ़ पानी की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण परिवारों को प्रतिदिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस संबंध में बस्ती की 60 वर्षीय यशोदा लोहार बताती हैं कि ‘मेरे परिवार में 8 सदस्य हैं, जिनके लिए प्रतिदिन पीने के पानी की व्यवस्था बड़ी मुश्किल से होती है। इतनी बड़ी बस्ती में नल की कोई व्यवस्था नहीं है। केवल पानी की एक टंकी है जिसमें सुबह केवल आधे घंटे के लिए जलापूर्ति होती है। जो इतनी बड़ी बस्ती के लिए बहुत कम होता है। ऐसे में हमें गुर्जर की थड़ी इलाके से पानी लाना पड़ता है। इसके लिए मैं और मेरी दोनों बहुएं प्रतिदिन सुबह 4 बजे उठती हैं और घंटों लाइन में लगती हैं। कई बार पानी भरने को लेकर झगड़े भी होते हैं।’
वहीं 28 वर्षीय सबिता गरासिया कहती हैं कि "चार साल पहले पति और दो छोटे बच्चों के साथ अच्छी मज़दूरी की तलाश में जोधपुर के दूर दराज़ गांव कराणी से बाबा रामदेव नगर बस्ती में आई थीं। लेकिन यहां किसी प्रकार की सुविधाएं नहीं हैं। सबसे अधिक पीने के साफ़ पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। पानी लाने की जि़म्मेदारी हम महिलाओं की होती है। चाहे बीमार ही क्यूं न हों, इसके लिए हमें रोज़ सवेरे उठना पड़ता है। फिर भी कभी कभी पानी नहीं मिल पाता है। कई बार बच्चे गंदा पानी पीकर बीमार हो जाते हैं। बहुत कठिनाइयों से हम यहां जीवन बसर कर रहे हैं।’ वहीं काम की तलाश में पांच साल पहले परिवार के साथ झारखंड के सिमडेगा से आए जब्बार कबाड़ी का काम करते हैं।
वह कहते हैं कि ‘इस बस्ती में मूलभूत सुविधाएं तक नहीं है। न तो बिजली का कनेक्शन है और न ही पीने का पानी उपलब्ध है। प्रशासन का कहना है कि यह बस्ती गैर क़ानूनी रूप से आबाद है, इसलिए यहां सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई जा सकती हैं। हमें ऐसे ही हालात में जीना होगा।’ विमला कहती हैं कि अक्सर बस्ती के लोग आपस में चंदा इकठ्ठा कर पानी का टैंकर मंगवाते हैं। जिसकी कीमत 700-800 प्रति टैंकर होती है। लेकिन आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के कारण प्रतिदिन ऐसा कर नहीं पाते हैं।
पिछले आठ वर्षों से बाबा रामदेव नगर बस्ती में स्वास्थ्य के मुद्दे पर काम कर रहे समाजसेवी अखिलेश मिश्रा यहां का इतिहास बताते हुए कहते हैं कि यह बस्ती करीब 20 से अधिक वर्षों से आबाद है। उस समय यह शहर का बाहरी इलाका माना जाता था। आज बढ़ती आबादी के कारण यह नगर निगम ग्रेटर जयपुर के अधीन आता है। अक्सर लोग इसे योग गुरु बाबा रामदेव के नाम से समझते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि बस्ती वालों के इष्ट देव के नाम से इसका नामकरण हुआ है। वह बताते हैं कि इस बस्ती के बीच से मुख्य सडक़ गुजऱती है। सडक़ के दाहिनी ओर जहां स्थाई बस्ती आबाद है, वहीं बाई ओर की खाली पड़ी ज़मीन पर अस्थाई बस्ती बसाई जाती है। जिसमें मुख्य रूप से कालबेलिया और अन्य घुमंतू समुदाय के लोग कुछ महीनों के लिए ठहरते हैं और अपने बनाये सामान को शहर में बेच कर वापस लौट जाते हैं। दोनों ही बस्ती में सभी प्रकार की सुविधाओं का अभाव है। यहां पीने के साफ़ पानी की कमी के कारण महिलाओं और बच्चों में बहुत सारी बीमारियां फैली रहती हैं।
अखिलेश मिश्रा के अनुसार जिस प्रकार लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए नगर निगम की ओर से शौचालय की व्यवस्था की गई है, यदि इसी प्रकार पानी के पर्याप्त आपूर्ति भी कर दी जाए तो यहां की एक बड़ी समस्या हल हो जाएगी।
कम्पोजिट वॉटर मैनेजमेंट इंडेक्स (CWMI) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में पीने के साफ पानी की अपर्याप्त पहुंच के कारण हर वर्ष दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। यह आंकड़ा इस बात को इंगित करता है कि राजस्थान में जल जीवन मिशन की रफ़्तार को और तेज़ करना होगा ताकि बाबा रामदेव नगर जैसे आर्थिक और सामजिक रूप से कमज़ोर परिवारों तक भी पीने के साफ़ पानी की पहुंच जल्द से जल्द हो सके जिससे कि इस बस्ती के लोगों विशेषकर बच्चों का स्वास्थ्य बेहतर रह सके। आखिर अच्छा स्वास्थ्य पाने का बुनियादी अधिकार सभी को है। (चरखा फीचर)
- डॉ. संजय शुक्ला
नीट-यूजी प्रश्नपत्र लीक मामले पर देश का सियासत इन दिनों सरगर्म है, इस मसले पर रोज एक नया खुलासा हो रहा है। इस मामले में जहां सियासत का बाजार गर्म है वहीं सुप्रीम कोर्ट से विभिन्न राज्यों के हाईकोर्ट में इस मसले पर लगातार याचिकाएं दायर हो रही है।कांग्रेस की अगुवाई वाली इंडिया गठबंधन के लिए यह सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार बन चुका है। दूसरी ओर केंद्र सरकार ने संसद के वर्तमान सत्र के मद्देनजर विपक्ष के हथियार को भोथरा करने के लिए जहां इस मामले के सीबीआई जांच की घोषणा कर दी है वहीं परीक्षा आयोजित करने वाली नेशनल टेस्टिंग एजेंसी 'एनटीए' के महानिदेशक को भी हटा दिया है। हालांकि एनटीए महानिदेशक को हटाने और उनकी जगह एक रिटायर्ड नौकरशाह को यह कुर्सी देने पर भी लोगों की त्योरियां चढ़ी हुई है। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट भी काफी गंभीर है तथा गड़बडिय़ों के मद्देनजर अदालत ने परीक्षा की शुचिता प्रभावित होने जैसी गंभीर टिप्पणी किया है।
बहरहाल उच्चतम न्यायालय ने अनेक परीक्षार्थियों और अभिभावकों द्वारा नीट - यूजी को रद्द करने और काउंसलिंग रोकने संबंधी दायर याचिका पर फिलहाल इंकार करते हुए सरकार और एनटीए से याचिका पर जवाब मांगते हुए मामले की सुनवाई 8 जुलाई को निश्चित किया है। इस बीच सुप्रीम अदालत ने कहा है कि परीक्षा में यदि 0.001 फीसदी भी गलती हुआ है तो एनटीए उसे माने और सुधार करे। दूसरी ओर कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल इस मुद्दे पर देशव्यापी धरना- प्रदर्शन के लिए उतर चुके हैं और लगातार विरोध प्रदर्शन जारी है जो फिलहाल हालिया संसद सत्र तक जारी रहने की संभावना है। दरअसल विपक्ष नीट को रद्द कर फिर से यह परीक्षा आयोजित करने पर अड़ी हुई है तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले और सीबीआई जांच की दलील दे रही है। इस बीच तमाम राजनीतिक विरोध प्रदर्शन और मुकदमेबाजी के बीच सीबीआई ने नीट में कथित अनियमितताओं के संबंध में आपराधिक साजिश और धोखाधड़ी समेत अन्य धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज कर जांच व छापेमारी का सिलसिला तेज कर दिया है। गौरतलब है कि इस मामले में सीबीआई जांच के पहले बिहार, गुजरात और झारखंड पुलिस के एस?आईटी ने पेपर लीक से जुड़े 25 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया था।
इस बीच नीट परिणाम पर जारी सियासी घमासान और मुकदमेबाजी के बीच इस परीक्षा में सफल हुए हजारों अभ्यर्थियों और उनके अभिभावकों में उहापोह की स्थिति बनी हुई है। बिलाशक इस परीक्षा के पेपर लीक से लेकर जिस तरह से अनियमितताओं की खबरें रोज-ब- रोज सामने आ रहे हैं उससे यह सही है कि यह ‘नीट’ पूरी तरह से ‘क्लीन’ नहीं है। शुरूआती जानकारी के मुताबिक मुख्य रूप से उपरोक्त तीन राज्यों में नीट के क्वेश्चन पेपर लीक मामले के सबूत मिल रहे हैं जिसमें इस अपराध पर संलिप्त आरोपियों और छात्रों की गिरफ्तारियां हुई है।
एनटीए के मुताबिक फिलहाल इस मामले में बिहार और गुजरात के कुल 110 परीक्षार्थियों को परीक्षा से अपात्र ‘डिबार’ कर दिया गया है। गौरतलब है कि नीट - यूजी परीक्षा बीते 5 म?ई को विभिन्न राज्यों के 571 शहरों में 4,750 केंद्रों सहित विदेश के 14 शहरों में आयोजित की गई थी जिसमें 24 लाख से ज्यादा अभ्यर्थियों ने भाग लिया था। अहम सवाल यह कि तीन राज्यों बिहार, झारखंड और गुजरात में हुए पेपर लीक कांड के चलते पूरी परीक्षा की शुचिता और पारदर्शिता पर सवालिया निशान लगाना कहां तक उचित है? दरअसल हिंदी में एक कहावत है ‘गेहूं के साथ घुन पिसना’ लेकिन इस मसले में यही लग रहा है कि पूरी परीक्षा प्रणाली में लगे घुन की वजह से यदि यह परीक्षा रद्द होती है तब यह ‘घुन के साथ गेहूं पिसने’ वाली बात होगी क्योंकि इस फैसले से उन हजारों लगनशील और मेधावी छात्रों के मेहनत पर पानी फिरेगा जो अपनी काबिलियत के बलबूते परीक्षा में खरे उतरे हैं।
अलबत्ता विपक्षी दलों और कुछ अभिभावकों व परीक्षार्थियों के फिर से नीट आयोजित करने के मांग के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय है कि किसी भी परीक्षा में परीक्षार्थी की सफलता उसके मेहनत, लगनशीलता और ईमानदारी पर निर्भर करता है।आम अभिभावक आज भी अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर ही बनाने की सपना संजोता है। आमतौर पर हर पालक अपने सपनों को पूरा करने और बच्चे के सुरक्षित भविष्य के लिए अपने खर्चे में कटौती कर अथवा कर्ज लेकर बच्चे को अपने से दूर पराए शहर में महंगे कोचिंग इंस्टीट्यूट में दाखिला दिलाता है। कोचिंग में दाखिला लेने वाले अधिकांश बच्चे अपने माता-पिता के अपेक्षाओं को पूरा करने अनजान शहर में एक नहीं बल्कि क?ई साल कड़ी मेहनत करते हैं। इन परिस्थितियों में जिन बच्चों ने ईमानदारी और कड़े मेहनत के बलबूते यदि इस परीक्षा में सफलता पाई है तब भला चंद लोगों के काले करतूतों का खामियाजा वे भला क्यों भोगें? क्या परीक्षा रद्द करने का फैसला उन अभिभावकों के सपनों को चकनाचूर नहीं करेगा जिन्हें इस रिजल्ट से अपने सपने साकार होने का सुकून पाया है?
क्या रि-नीट का फैसला उन मेधावी, ईमानदार और गरीब छात्रों के साथ अन्याय नहीं होगा जो इस परिणाम के बाद मेडिकल कॉलेजों में दाखिले का बाट जोह रहे हैं और जिनके मन में डॉक्टर का तमगा मिलने का ख्वाब पल रहा है? देश के कोचिंग हब राजस्थान के कोटा शहर में कोचिंग ले रहे छात्रों के खुदकुशी के बढ़ते आंकड़े यह बताते हैं कि आज हर बच्चा अपने पालकों के अपेक्षाओं के बोझ तले इतना दबा हुआ है कि उसके मन में नीट या जेईई जैसे प्रतियोगी परीक्षा क्रैक नहीं कर पाने की भय या ग्लानि में मौत को गले लगाने के लिए विवश हो रहा है। इन आत्महत्याओं के मद्देनजर यह भी विचारणीय है कि आज जिस परीक्षार्थी ने मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लायक अंक बटोरे हैं यदि वह रि-नीट में आशातीत सफलता प्राप्त नहीं करता और मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए वंचित हो जाता है तब यदि वह किसी आत्मघाती कदम उठाने के लिए मजबूर होता है तब इसका जवाबदेह कौन होगा? गौरतलब है कि नीट जैसे कड़े इम्तिहान में हजारों गरीब और सामान्य आर्थिक स्थिति के बच्चे भी शामिल होते हैं जिनके लिए इस परीक्षा के पढ़ाई खर्च उठाना टेढ़ी खीर होता है।
बहरहाल सुप्रीम कोर्ट और सियासी दलों के नीट में हुई कथित धांधलियों के मद्देनजर उन हजारों निर्दोष अभ्यर्थियों के बारे में भी गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए जिन्होंने वर्षों की कड़ी मेहनत और लगन से इस परीक्षा में सफलता पाई है और जिनकी संलिप्तता इस मामले में नहीं है।
विडंबना यह है कि देश की मीडिया और सियासत इस मामले में निरपराध बच्चों के मामले में लगभग संवेदनहीन रुख अपना रही है जबकि अधिकांश अभ्यर्थियों ने अपने मेधा और मेहनत के बलबूते इस परीक्षा में सफलता अर्जित किया है। अलबत्ता यह कोई पहला मामला नहीं है जब देश में प्रोफेशनल कोर्सेज और नौकरियों के लिए ली जाने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक हुए हों या अन्य धांधलियां हुई हों। कालांतर में भी देश में मेडिकल कॉलेजों के लिए हुए दाखिला परीक्षाओं में अनेक घोटाले हुए हैं जिसके मामले आज भी अदालतों में फैसलों के लिए तारीख मांग रहे हैं तो दूसरी ओर इन धांधलियों के बलबूते मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वाले छात्र अब डॉक्टर बन चुके हैं। देश आज भी मध्यप्रदेश में 2009 में हुआ व्यापम घोटाले को नहीं भूला है, इसके छत्तीसगढ़ में 2011का पीएमटी पर्चा लीक कांड, उत्तरप्रदेश में 2021 का आयुष घोटाला इन परीक्षाओं की पवित्रता की पोल खोल रहे हैं।
दरअसल इन धांधलियों के मूल में मुख्य रूप से राजनीतिक हस्तक्षेप, कोचिंग माफियाओं की बढ़ती पहुंच और धनबल का बढ़ता प्रभाव ही जिम्मेदार है जिसके चलते आज भी इन घोटालों में शामिल बड़ी मछलियां आजाद हैं। जानकारी के मुताबिक भारत में पिछले सात वर्षों में 15 राज्यों में 70 से अधिक परीक्षाओं के क्वेश्चन पेपर लीक हुए हैं इनमें नौकरी, दाखिला और बोर्ड परीक्षाएं शामिल हैं। इस अनियमितताओं और धांधलियों के चलते लगभग 1.7 करोड़ अभ्यर्थी प्रभावित हुए हैं। केंद्र सरकार ने प्रतियोगी परीक्षाओं में अनियमितताओं और धांधलियों के रोकथाम के लिए पिछले 21 जून को सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) अधिनियम 2024 अधिसूचित किया है। इस कानून का उद्देश्य संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों, कर्मचारी चयन आयोगों, मेडिकल, इंजीनियरिंग और विश्वविद्यालयों में दाखिले के लिए ली जाने वाली संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं सहित राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी द्वारा आयोजित कम्प्यूटर आधारित परीक्षाओं में धोखाधड़ी और अनियमितताओं पर अंकुश लगाना है। इस कानून के तहत दोषी व्यक्ति या सिंडिकेट में शामिल लोगों को न्यूनतम तीन से अधिकतम दस साल के कारावास का प्रावधान है।
कानून के अंतर्गत सेवा प्रदाता कंपनियों के परीक्षाओं में अनियमितताओं और धांधलियों में संलिप्त पाए जाने पर एक करोड़ जुर्माना और परीक्षा का लागत वसूलने का भी प्रावधान है। अलबत्ता यह कानून 21 जून 2024 से प्रभावी हुआ है लिहाजा नीट 2024 में यदि किसी भी प्रकार की अनियमितता या धांधली साबित होती है तब इस कानून प्रावधान लागू होंगे यानि इस परीक्षा कानून के लिए भी यह अग्निपरीक्षा होगी। बहरहाल इसमें दोराय नहीं कि हर प्रतियोगी परीक्षाओं की शुचिता और पारदर्शिता सुनिश्चित होनी चाहिए आखिरकार यह देश के युवाओं से जुड़ा मुद्दा है जो हमारे भविष्य हैं। नीट - यूजी रिजल्ट पर मचे घमासान के बीच यह भी आवश्यक है कि इस मुद्दे पर किसी भी अदालती या सरकारी फैसलों में उन बेगुनाह छात्रों के पक्ष पर भी विचार होना चाहिए जिन्होंने इस परीक्षा में ईमानदारी, मेहनत, मेधा और लगन के बलबूते सफलता पाई है तभी समावेशी न्याय होगा।
-तजिन्दर सिंह
मुझे याद है मैं एक बार वेल्लोर का गोल्डन टेम्पल घूमने चला गया। वहां 4 तरह की लाइने बनी हुई थीं। 100, 250, 500 और फोकटिया।
हम सिखों ने कभी पैसे दे दर्शन करना नहीं सीखा इसलिए फोकटिया वाली लाइन में लग गया। लोहे की जाली से बने संकरे गलियारे से धीरे-धीरे हम आगे बढ़ते रहे। कुछ आगे बढ़े तो 100 रुपये वाले यहां पर हमसे मिल गए। कुछ और आगे बढ़े तो 250 वाले साथ शामिल हो गए। 500 वालों की लाइन अलग थी। अब मूर्ति की परिक्रमा कर लाइन में घूमते हुए हम मूर्ति के सामने पहुंचे। यहां 70-80 फुट दूर ही सबको रोक दिया गया। सब को यही से दर्शन करने थे। केवल 500 वाले मूर्ति के ठीक सामने बैठे थे।
जब सभी पंक्तियों के लोग एक एक कर मिलते चले गए तो मूर्ति के दर्शन करने वाले स्थान पर बहुत भीड़ हो गयी। भीड़ होने के कारण धक्का मुक्की होने लगी। जैसा कि सावन में अक्सर बाबाधाम में दिखती है। लोग उचक उचक कर मूर्ति का दर्शन कर सौभाग्य प्राप्त कर रहे थे। सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लोग इस कदर लालायित थे कि एक दूसरे पर चढ़े जा रहे थे।
मैं और मेरी पत्नी ने ऐसे उचक दर्शन को खारिज किया और बिना दर्शन किये जब वहीं से वापसी के लिए मुड़े तो वहां खड़ा गार्ड थोड़ा हैरान हुआ। गार्ड बोला यहां तक आ गए हैं तो थोड़ा कष्ट कर दर्शन कर ही लीजिए।
मैंने कहा, मैंने देवी के दर्शन नहीं किए तो क्या हुआ देवी ने तो मेरे दर्शन कर ही लिए होंगे। अब मैं ये उनके ऊपर छोड़ता हूँ। अगर एक दूसरे की पीठ पर सवार हो ऐसे उचक दर्शनों को देवी सही समझती हैं तो ठीक है। अन्यथा बिना उचक दर्शन के भी उनकी कृपा दृष्टि मुझे मिल जाएगी। तुम चिंता मत करो।
गार्ड मुंह बाए हैरानी से मुझे वापस जाते देखता रहा।
यही हाल बद्रीनाथ में भी था। दर्शन करने पहुंचे तो पंडितजी बोले, अभी भगवान जी के विश्राम का समय है। हमने भी उनके विश्राम में खलल नहीं डाला और वापस चले आये।
अभी पता लगा कि केदारनाथ में दर्शनों के लिए 2500 की रसीद काटी जा रही है और रसीद वालों को ही एंट्री मिल रही है।
पता नही किसने भक्तों के दिमाग मे घुसा दिया कि पैसे देकर, मारा मारी कर दर्शनों से लाभ होगा। पर्व त्योहारों पर दर्शनों के दौरान भगवान के सामने से किस तरह ये धकियाये जाते हैं। उसका नजारा देख मुझे इन पर तरस आता है।
भीड़ और कुव्यवस्था के कारण हुए हादसों पर भक्तों और धर्म स्थल के प्रशासकों पर गुस्सा तो आता है लेकिन वो भी क्या करें जब भीड़ हद से ज्यादा हो जाए। ऐसे हादसों के लिए अगर व्यवस्थापक जिम्मेवार हैं तो भक्त भी किसी हद तक जिम्मेवार हैं।
सुनते हैं हज में लोग टूरिस्ट वीजा ले कर भी चले जाते हैं। वहां इनकी पकड़ धकड़ भी होती है। हद है भाई ऊपर वाले के दर्शनों में भी बेईमानी। पुण्य भी कमाना है तो बेईमान बन कर और 52 डिग्री में पुण्य कमाने का इतना भी क्या पागलपन। चार-पांच लाख में जरूरतमंदों की मदद कर यहां भी सवाब लूटा जा सकता है। लेकिन हाजी कहलाने का सुख/गर्व जरूरतमंदों की मदद में आड़े आ जाता है।
पैसे खर्च कर लोग पुण्य कमाने जाते हैं कि वहां बैठे लोगों की झोली भरने। ये सवाल भक्तों को खुद से पूछना चाहिए। एक बार मैं साउथ के किसी मंदिर में दर्शन के लिए गया। धर्मस्थल के बाहर मूत्रालय में पेशाब कर जब बाहर निकल रहा था तो वहां बैठे व्यक्ति ने 10 रुपये मांगे। मैंने कहा कि भाई मूत्र विसर्जन के कहीं भी पैसे नहीं लगते। वो व्यक्ति हिंदी भाषी था, बोला साहब इसे रेलवे स्टेशन का मूत्रालय या पाठक साहब का सुलभ शौचालय मत समझिए। मंदिर प्रशासन का बस चले तो यहां सांस लेने के भी पैसे वसूल लें।
पैसे से पुण्य खरीदने की मानसिकता वालों का दोहन होना तो निश्चित है। जितने ज्यादा ऐसे पागल पहुंचेंगे उतनी वहां के लोगों की कमाई होगी। ऐसे में हादसों की चिंता किसको है। सब तो माल कमाने में लगे हुए हैं। वो सरकारें हों या पुरोहित वर्ग। और अगर कहीं पुण्य के चक्कर मे मर मरा गए सरकार से मुआवजा और जन्नत तो ये ठेकेदार दिला ही देंगे।
खैर धार्मिक स्थलों पर हुए हादसों में मरने वाले भक्तों को जन्नत मिलती है या जहन्नुम। ये तो पता नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि इन भक्तों ने इन खूबसूरत स्थलों का बेड़ा गर्क जरूर कर देना है। यात्रा को हम जितना सुगम बना रहे हैं। उतनी तेजी से ये खूबसूरत स्थल नष्ट हो रहे हैं।
अभी एक वीडियो देखा कि थार में लोग केदारनाथ पहुंच जा रहे हैं। मेरे लिए इसमें खुश होने की कोई वजह नहीं और न ही मालदारों के लिए उपलब्ध हेलीकॉप्टर सेवा पर मुझे खुशी होती है।
ये सब एक पागलपन है जिसे वर्तमान दौर में और भी बढ़ाया जा रहा है।
-चन्द्र शेखर गंगराड़े
विधान सभा एवं लोक सभा में यदि सबसे अधिक सम्मानजनक कोई पद है तो वह है अध्यक्ष का पद। अध्यक्ष की भूमिका लोक सभा एवं विधान सभाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है और उस पद की गरिमा भी अपने आप में उच्च स्तर की होती है इसीलिए न केवल सभी सदस्य अध्यक्ष का सर्वाधिक सम्मान करते हैं बल्कि उनके पद की गरिमा को बनाये रखना भी सदस्यों का दायित्व है।
अध्यक्ष का प्रमुख कार्य सदन का संचालन करना है और इस संचालन में उन्हें निष्पक्ष बने रहना बहुत आवश्यक है क्योंकि जहां सत्ता पक्ष के पास बहुमत का सहारा होता है तो वहीं विपक्ष जो कि संख्या बल में कम रहता है उसके पास अध्यक्ष के संरक्षण का आसरा होता है और अध्यक्ष पक्ष एवं विपक्ष के बीच संतुलन स्थापित करते हुए सदन की कार्यवाही का सुचारू रूप से संचालन करते हैं। अध्य?क्ष एक ओर नियम प्रक्रियाओं के अनुसार कार्यवाही का संचालन करते हैं तो वहीं दूसरी ओर पूर्ववर्ती अध्य?क्षों द्वारा स्थापित संसदीय परंपराओं का अनुसरण भी करते हैं और आवश्यकता होने पर नई परंपराएं भी स्थापित करते हैं जो भविष्य के लिए मार्गदर्शन का काम करती है। चूंकि अध्यक्ष निष्पक्ष होकर सदन का संचालन करते हैं इसलिए पक्ष एवं प्रतिपक्ष दोनों का उनमें विश्वास रहता है और इस विश्वास को कायम रखना अध्यक्ष की जिम्मेदारी बन जाती है। अध्यक्ष के प्रति पक्ष एवं प्रतिपक्ष के इस विश्वास का ही एक महत्वपूर्ण उदाहरण यह है कि लोकसभा में प्रथम लोकसभा के समय से 17 वीं लोकसभा तक हमेशा अध्यक्ष का निर्वाचन सर्वसम्मति से हुआ भले ही सत्ता पक्ष के पास बहुमत रहा है या सत्ता पक्ष अल्पमत में रहा हो या गठबंधन की सरकार रही हो हमेशा एक सर्वमान्य उम्मीदवार के पक्ष में सर्वानुमति रही है।
18वीं लोकसभा जिसका गठन 6 जून, 2024 को हो गया है और मंत्रिपरिषद ने भी 9 जून को शपथ ले ली है और अब जिस पद पर किसी लोकसभा सदस्य का निर्वाचन होना है वह है लोकसभा अध्यक्ष का पद और आज सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात पर हो रही है कि सांसद या किस पार्टी के सांसद को यह जिम्मेदारी मिलने वाली है। जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत मिलता है तब तो यह उस दल का आंतरिक मामला रहता है कि वह किस सांसद को लोकसभा अध्यक्ष के पद हेतु नामांकित करती है लेकिन चूंकि वर्तमान में गठबंधन की सरकार है ऐसी स्थिति में अध्यक्ष की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। एन.डी.ए. गठबंधन में भारतीय जनता पार्टी की सबसे अधिक 240 सीटें हैं इसलिए उनके उम्मीदवार का स्वाभाविक तौर पर उस पद पर अधिकार बनता है लेकिन जो सहयोगी दल है टी.डी.पी. और ज.द.यू. भी उस पद के लिए कोशिश में है हालांकि ज.द.यू. ने एन.डी.ए. उम्मीदवार को समर्थन करने का फैसला किया है लेकिन टी.डी.पी. ने कहा है कि एन.डी.ए. आपसी सहमति से उम्मीदवार चुनेगा। इससे स्पष्ट है कि वे भी इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि लोक सभा अध्यक्ष का पद टी.डी.पी. को मिले। वहीं इंडी गठबंधन में शामिल दलों ने भी यह कहा है कि यदि टी.डी.पी. इस पद के लिए उम्मीदवार उतारेगी तो इंडी गठबंधन समर्थन करेगा।
अब हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि आखिर स्पीकर का पद इतना अहम क्यों है कि न केवल विपक्ष बल्कि गठबंधन में शामिल दल भी चाहते हैं कि यह पद उनकी पार्टी को मिले। इस सोच के पीछे कारण है लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार एवं शक्तियां। जब गठबंधन की सरकार होती है तब स्पीकर की भूमिका बेहद खास हो जाती है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि लोकसभा अध्यक्ष का मुख्य कार्य सदन को चलाना है और संसदीय मामलों में वे अंतिम निर्णयकर्ता होते हैं और उनके निर्णयों को चुनौती नहीं दी जाती। लेकिन इसके अलावा जो उनका मुख्य कार्य है दल बदल से संबंधित मामलों में अपना निर्णय देना। वे दल बदल से संबंधित मामलों में दल बदलने वाले सदस्य को अयोग्य घोषित कर सकते हैं।
चूंकि गठबंधन वाली सरकार में छोटे दलों के विभाजन और दूसरे दलों में विलय का खतरा बना रहता है और ऐसी परिस्थिति में अध्यक्ष को दसवी अनुसूची के तहत प्राप्त शक्तियों के पालन में वह चाहे तो दल को मान्यता दे या दल बदल करने वाले सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दें और यही कारण है कि गठबंधन में शामिल छोटे दलों का यह प्रेशर रहता है कि अध्यक्ष का पद उनके दल को मिले। पूर्व में भी जब अल्पमत या गठबंधन की सरकार रही तो अध्यक्ष का पद सहयोगी दलों को दिया गया चूंकि गठबंधन सरकार में सरकार की सबसे पहली चुनौती लोकसभा अध्यक्ष पद पर किसी सांसद के निर्वाचन की होती है और यही कारण है कि 1996 में 11वीं लोकसभा में जब किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला तब भारतीय जनता पार्टी को सबसे बड़ा दल होने के कारण सरकार बनाने का अवसर दिया गया और उनके पास बहुमत नहीं था इसलिए उन्होंने अध्यक्ष पद हेतु उम्मीदवार की घोषणा नहीं की और कांग्रेस के श्री पी.ए. संगमा लोक सभा निर्विरोध निर्वाचित हुए। 12वीं लोक सभा में टी.डी.पी. के श्री जी.एम.सी. बालयोगी एवं 13वीं लोक सभा में एन.डी.ए. गठबंधन की सरकार बनी थी तब भी पहले टीडीपी के श्री बालयोगी अध्यक्ष बने और उनके निधन के बाद लोक सभा अध्यक्ष का पद शिवसेना के मनोहर जोशी को दिया गया। 14वीं लोकसभा में भी जब किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था तब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में गठित यू.पी.ए. को सरकार बनाने का अवसर दिया गया तब यू.पी.ए. के सहयोगी दल सी.पी.आई. के श्री सोमनाथ चटर्जी को अध्यक्ष पद पर नामांकित किया गया।
जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है नियमों/प्रक्रियाओं के अलावा अध्यक्ष को अपने दायित्वों के निर्वहन में कुछ मामलों में अपने विवेक से भी काम लेना पड़ता है और अध्यक्ष को जो विवेकाधीन शक्तियां प्राप्त हैं, वही उस पद की महत्ता को और बढ़ाती है और संकट के समय अध्यक्ष विवेक का उपयोग कर निर्णय लेते हैं इसलिए उनसे यह अपेक्षा रहती है कि वे अपने विवेक का प्रयोग करके बिना किसी से प्रभावित हुए स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्णय दें और इसी कारण अध्यक्ष का पद बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है।
(लेखक- पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधान सभा)
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
बाबा रामदेव को अभिताभ बच्चन के बाद सबसे बड़ा ब्रांड या मॉडल मान सकते हैं। वे योगी हैं और मॉडल भी। वे संत हैं लेकिन व्यापारी भी। वे गेरूआ वस्त्रधारी हैं लेकिन मासकल्चर के प्रभावशाली रत्न भी हैं। बाबा रामदेव ने योग की मार्केटिंग करते हुए जिस चीज पर सबसे ज्यादा जोर दिया है वह है योग का ‘प्रभाव’। वे अपने योग के सभी विवरण और ब्यौरों का प्रचार ‘प्रभाव’ को ध्यान में रखकर करते हैं। योग के ‘प्रभावों’ पर जोर देने का अर्थ है उनके वक्तव्य के विचारों की विदाई। वे बार-बार एक ही तरीके से विभिन्न आसनों को टीवी लाइव शो में प्रस्तुत करते हैं। उन्हें दोहराते हैं।
बाबा रामदेव ने योग के उपभोक्ताओं को अपने डीवीडी, सीडी आदि की बिक्री करके, लाइव टीवी शो करके योग के साथ आधुनिक तकनीकोन्मुख भी बनाया है। वे योग को व्यक्तिगत उत्पादन के क्षेत्र से निकालकर मासप्रोडक्शन के क्षेत्र में ले गए हैं। पहले योग का लोग अकेले में अभ्यास करते थे, लेकिन बाबा रामदेव ने योग के मासप्रोडक्शन और जनअभ्यास को टेलीविजन के माध्यम से संप्रेषित किया है।
योग का आज बाबा की वजह से मासप्रोडक्शन हो रहा है। यह वैसे ही मास प्रोडक्शन है जैसे अन्य वस्तुओं का पूंजीवादी बाजार के लिए होता है। मास प्रोडक्शन (जनोत्पादन) और जनोपभोग अन्तर्ग्रथित हैं।
लोग सही ढ़ंग से योग सीखें ,इसके लिए जरूरी है सही लोगों से प्रशिक्षण लें। सही लोगों को देशभर में आसानी से पा सकें इसके लिए जरूरी है मासस्केल पर योग शिक्षक तैयार किए जाएं। इसके लिए सभी इलाकों में योग प्रशिक्षण की सुविधाएं जुटाई जाएं और इसी परिप्रेक्ष्य के तहत बाबा ने योग के मासप्रोडक्शन और प्रशिक्षण की राष्ट्रीय स्तर पर शाखाएं बनाई हैं। बाबा के ट्रस्ट द्वारा निर्मित वस्तुओं के वितरण एजेंट हैं।और दुकानदारों की पूरी वितरण प्रणाली है । यह प्रणाली वैसे ही है जैसे कोई कारपोरेट घराना अपनी वस्तु की बिक्री के लिए वितरण और बिक्री केन्द्र बनाता है।
बाबा रामदेव के प्रचार में व्यक्ति की क्षमता से ज्यादा योग की क्षमता के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया जा रहा है। यह मानकर चला जा रहा है कि योग है तो ऊर्जा है, शक्ति है। इसके आगे वे किसी तर्क को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। योग से शरीर प्रभावित होता है लेकिन कितना होता है ? कितने प्रतिशत लोगों को बीमारियों से मुक्त करने में इससे मदद मिली है इसके बारे में कोई स्वतंत्र वैज्ञानिक अनुसंधान अभी तक सामने नहीं आया है। कायदे से बाबा के सदस्यों में यह काम विभिन्न विज्ञान संस्थाओं को करना चाहिए जिससे सत्य को सामने लाने में मदद मिले।
बाबा रामदेव का टेलीविजन से अहर्निश स्वास्थ्य लाभ का प्रचार अंतत: विज्ञानसम्मतचेतना फैला रहा है या अवैज्ञानिक चेतना का निर्माण कर रहा है, इस पर भी गौर करने की जरूरत है। भारत जैसे देश में जहां अवैज्ञानिक चेतना प्रबल है, वहां पर बाबा रामदेव का प्राचीनकालीन चिकित्साशास्त्र बहुत आसानी से बेचा जा सकता है। बाबा ने चिकित्सा विज्ञान को अस्वीकार करते हुए पुराने चिकित्सा मिथों का अतार्किक ढ़ंग से इस्तेमाल किया है। इस क्रम में बाबा ने चिकित्सा विज्ञान को ही निशाना बनाया है। उस पर तरह-तरह के हमले किए हैं।
बाबा रामदेव ने मासकल्चर के फंड़े इस्तेमाल करते हुए योग और प्रणायाम के अंतहीन अभ्यास और इस्तेमाल पर जोर दिया है। योग करना, प्राणायाम करना जिस समय बंद कर देंगे। शारीरिक स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगेगा। अंतहीन योग-प्राणायाम का वायदा अंतत: कहीं नहीं ले जाता।
बाबा रामदेव का फंडा है योग शिविर में शामिल हो,योग के पीछे चलो, वरना पिछड़ जाओगे। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं। जो योग के लिए खर्च कर सकते हैं, प्रतिदिन योग कर सकते हैं,उनके लिए शारीरिक उपद्रवों से कुछ हद तक राहत मिलती है। जो खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं, जो रोज योग-प्राणायाम करने की स्थिति में नहीं हैं वे बेचारे देख-देखकर कुण्ठित होते रहते हैं।
जो खर्च करने की स्थिति में हैं वे खाते-पीते घरों के थके-हारे लोग हैं। इन खाए-अघाए लोगों की सामाजिक भूमिका और, श्रम क्षमता में बढ़ाने में मदद जरूर मिलती है। ये वे लोग हैं जिन्हें भारत की क्रीम कहते हैं। जिनके पास नव्य उदारीकरण के फायदे पहुँचे हैं। इन लोगों में नव धनाढयों का बड़ा हिस्ला है। बाबा रामदेव की योग मार्केटिंग में ये सबसे आगे हैं। इन्हें ही बाबा ने निशाना बनाया है।
बाबा रामदेव ने अप्रत्यक्ष ढ़ंग से कारपोरेट घरानों की सेवा की है यह काम उन्होंने चिकित्सा विज्ञान पर हमला करके किया है। हम सब लोग जानते हैं कि कारपोरेट पूंजीवाद अपने हितों और मुनाफों के विस्तार के लिए मेडीकल साइंस तक को नष्ट करने की हद तक जा सकता है। और यह काम नव्य उदारतावाद के आने के बाद बड़े ही सुनियोजित ढ़ंग से किया जा रहा है। सरकार की तरफ से ऐसी नीतियां अपनायी जा रही हैं जिनके कारण सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं सिकुड़ती जा रही हैं। आज भी हिन्दुस्तान की गरीब जनता का एकमात्र सहारा सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं हैं,लेकिन केन्द्र सरकार सुनियोजित ढंग इन्हें बर्बाद करने में लगी है।
दूसरी ओर फार्मास्युटिकल कंपनियां बीमारियों के उपचार पर जोर दे रही हैं , वे सरकार पर दबाब डाल रही हैं कि सरकार इस दिशा में प्रयास न करे कि बीमारी क्यों पैदा हुई ? सरकार बीमारियों को जड़ से खत्म करने की दिशा में न तो नीति बनाए और नहीं पैसा खर्च करे। वे चाहते हैं बीमारी को जड़ से खत्म न किया जाए। वे बार-बार बीमारी की थेरपी पर जोर दे रहे हैं। वे बीमारी को जड़ से खत्म करने पर जोर नहीं दे रहे हैं।
बाबा रामदेव के योग का भी यही लक्ष्य है उनके पास प्राचीनकालीन थेरपी है जिसे वे जड़ी-बूटियों और प्राणायाम के जरिए देना चाहते हैं। फार्मास्युटिकल कंपनियां यह काम अपने तरीके से कर रही हैं और बाबा रामदेव उसी काम को अपने तरीके से कर रहे हैं। इस क्रम में बाबा रामदेव और फार्मास्युटिकल कंपनियां बड़ी ही चालाकी से एक जैसा प्रचार कर रहे हैं।
मसलन फार्मास्युटिकल कंपनियां किसी बीमारी की दवा के आश्चर्यजनक परिणामों के बारे में बताती हैं तो बाबा रामदेव भी अपने योग के जादू से ठीक होने वाले व्यक्ति को मीडिया में पेश करते हैं। हमारे देश में अनेक बीमारियां हैं जो आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के कारण पैदा होती हैं। बाबा के योग के पास उनका कोई समाधान नहीं है। मसलन बड़े पैमाने पर प्रदूषित जल के सेवन या स्पर्श के कारण जो बीमारियां पैदा होती हैं उनका योग में कोई समाधान नहीं है। शराब के सेवन या नशीले पदार्थों के सेवन से जो बीमारियां पैदा होती हैं, उनका कोई समाधान नहीं है। शराब या नशे के कारण पैदा होने वाली समस्याओं को आप नशे की वस्तु की बिक्री बरकरार रखकर दूर नहीं कर सकते।
थैरेपी के जरिए सामाजिक क्रांति करने के सारी दुनिया में अन्तर्विरोधी परिणाम आए हैं। योग से संभवत: कुछ बीमारियों का सामान्य उपचार हो जाए। छोटी-मोटी दिक्कत कम भी हो जाए लेकिन इससे बीमारी रहित समाज तैयार नहीं होगा। सबल-स्वस्थ भारत तैयार नहीं होगा।
बाबा के योग को पाने के लिए व्यक्ति को अपनी गांठ से पैसा देना होगा। आयुर्वेद का इलाज बाबा के अस्पताल में कराने के लिए निजी भुगतान करना होगा। बाबा मुफ्त में उपचार नहीं करते। यही चीज तो कारपोरेट घराने चाहते हैं कि आम आदमी अपनी इलाज पर स्वयं खर्चा करे और स्वास्थ्य लाभ करे,वे अपने तरीके से सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर मीडिया में हमले करते रहते हैं, बाबा रामदेव अपने तरीके से चिकित्सा विज्ञान की निरर्थकता का ढोल बजाते रहते हैं। बाबा और कारपोरेट फार्मस्युटिकल कंपनियां इस मामले में एक हैं ,दोनों ही चिकित्सा को निजी खर्चे पर करने की वकालत कर रहे हैं।
बाबा और कारपोरेट घरानों की स्वास्थ्य सेवाएं उनके काम की हैं जो इनमें इलाज कराने का पैसा अपनी गांठ से दे सकते हैं। जो नहीं दे सकते वे इस सेवा के दायरे के बाहर हैं। बाबा रामदेव और उनके अंधभक्त जानते हैं कि हिन्दुस्तान की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी 20 रूपये पर गुजारा करती है उसके पास डॉक्टर को देने के लिए सामान्य फीस तक नहीं होती।ऐसी स्थिति में बाबा का योग उद्योग किसकी सेवा करेगा ?
फार्मास्युटिकल कंपनियों ने एंटीबायोटिक दवाओं का प्रचार करके समूचे चिकित्साविज्ञान को ही खतरे में डाल दिया है। दूसरी ओर बाबा रामदेव ने योग के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को निशाना बनाया हुआ है। दोनों का लक्ष्य एक है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों को नष्ट करो। दोनों का दूसरा लक्ष्य है मुनाफा कमाओ। ये दोनों ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर आए दिन हमले बोलते रहते हैं।
बाबा रामदेव और फार्मास्युटिकल कंपनियों के चिकित्साविज्ञान पर किए जा रहे हमलों के कारण स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में असमानता और भी बढ़ेगी । हम पहले से ही आधी-अधूरी स्वास्थ्य सेवाओं के सहारे जी रहे थे लेकिन नव्य उदारतावादी हमलों ने इन सेवाओं को और भी महंगा और दुर्लभ बना दिया है।
इस युग का महामंत्र है हर चीज को माल बनाओ। बाबा ने योग को भी माल बना दिया। बाबा की चिकित्सा सेवाएं कमोडिटी हैं, पैसे दीजिए लाभ लीजिए। पैसा से खरीदने के लिए आपको निजी बाजार में जाना होगा। इसके कारण विगत कई दशकों से स्वास्थ्य सेवाओं को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया है।
मजेदार बात यह है निजी स्वास्थ्य सेवाओं का जनता भुगतान करती है लेकिन फायदा निजी क्षेत्र को होता है। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए भुगतान जनता करती है तो मुनाफा भी जनता के खाते में जाता है। लेकिन निजी कारपोरेट स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर बाबा रामदेव की योग स्वास्थ्य सेवाओं तक भुगतान जनता करती है मुनाफा निजी कंपनियां और बाबा रामदेव की पॉकेट में जाता है। इस अर्थ में बाबा रामदेव ने योग को कारपोरेट मुनाफाखोरी के धंधे में तब्दील कर दिया है।
ध्यान रहे नव्य उदारीकरण का यह मूल मंत्र है पैसा जनता का मुनाफा निजी कंपनियों का। सारी नीतियां इसी मंत्र से संचालित हैं और बाबा रामदेव का योग-प्राणायाम का खेल भी इसके सहारे चल रहा है। जिस तरह का हमला सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर कारपोरेट घरानों और बाबा रामदेव ने किया है उसका लाभ किसे मिला है ? उसका लाभ निजी कंपनियों और बाबा रामदेव के ट्रस्ट को मिला है। इससे राष्ट्र खोखला हुआ है। बाबा रामदेव के ट्रस्ट और निजी स्वास्थ्य कंपनियों के हाथों अरबों-खरबों की संपदा के जाने का अर्थ यह भी है कि अब हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में आगे नहीं पीछे जा रहे हैं। समाज के अधिकांश समुदायों को बेसहारा छोडक़र जा रहे हैं। इनको मिलने वाले लाभ से राष्ट्र को कोई लाभ नहीं होने वाला,यह पैसा किसी नेक काम में ,विकास के किसी काम में खर्च नहीं होगा। यह स्वास्थ्यसेवाओं का व्यक्तिकरण है, व्यवसायीकरण है। यह देशभक्ति नहीं है। पूंजी और मुनाफा भक्ति है। यह कारपोरेट संस्कृति है। यह भारतीय संस्कृति नहीं है। यह खुल्लमखुल्ला जनता के हितों के साथ गद्दारी है। यह जनता के साथ एकजुटता नहीं है।
स्वास्थ्य और बीमारी माल या वस्तु नहीं हैं। इन्हें पूंजीपतिवर्ग ने अपने मुनाफे के लिए माल या वस्तु में तब्दील किया है। बाबा का समूचा योग-प्राणायाम का कार्य व्यापार मुनाफे और माल की धारणा पर आधारित है। बाजार के सिद्धांतों पर आधारित है। योग हमारी विरासत का हिस्सा रहा है। यह बाबा रामदेव का बनाया नहीं है। इसे सैंकड़ो-हजारों सालों से भारत में लोग इस्तेमाल करते आ रहे हैं। यह अमूल्य धरोहर है बाबा रामदेव ने इसे अपनी संपदा और मुनाफे की खान बनाकर जनता की धरोहर को लूटा है। बाबा रामदेव को परंपरागत योग को माल बनाकर बेचने और उससे अबाध मुनाफा कमाने का कोई नैतिक हक नहीं है। योग निजी बौद्धिक उत्पादन या सृजन नहीं है। वह भारत की जनता की साझा सांस्कृतिक संपदा है उससे कमायी गयी दौलत को बाबा को निजी ट्रस्ट के हवाले करने की बजाय राष्ट्र के हवाले करना चाहिए। क्योंकि योग पर उनका पेटेंट राइट नहीं बनता। ऐसी अवस्था में वे इससे मुनाफा अपने ट्रस्ट के खाते में कैसे डाल सकते हैं ?
-इमोजन फोक्स
ब्रिटेन के सबसे अमीर हिंदुजा परिवार के चार सदस्यों को अपने घर में काम करने वालों का शोषण करने के आरोप में जेल की सजा सुनाई गई है।
ये लोग अपने जेनेवा स्थित विला में काम करने के लिए भारत से कुछ कर्मचारियों को लाए थे।
कोर्ट ने प्रकाश और कमल हिंदुजा सहित उनके बेटे अजय और बहू नम्रता को शोषण और अवैध तरीके से रोजग़ार देने का दोषी पाया है।
कोर्ट ने चार से साढ़े चार साल की सजा सुनाई है। हालांकि मानव तस्करी जैसे गंभीर आरोपों से कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया है।
हिंदुजा परिवार की तरफ से कोर्ट में केस लड़ रहे वकीलों का कहना है कि वे इस फैसले के खिलाफ़ अपील करेंगे।
उनके वकील रॉबर्ट असेल ने कहा, ‘मैं हैरान हूं। हम आखिर तक लड़ाई लड़ेंगे।’
भारत से लाए गए तीन कर्मचारियों का आरोप था कि हिंदुजा परिवार ने उन्हें दिन में 18 घंटे काम करने के लिए सिर्फ सात पाउंड का भुगतान किया, जबकि स्विस कानून के मुताबिक कर्मचारियों को इसके लिए कम से कम 70 पाउंड का भुगतान किया जाना चाहिए था।
घर में काम करने वाले लोगों ने यह भी आरोप लगाया है कि उनके पासपोर्ट रख लिए गए थे और उनके कहीं आने-जाने पर पाबंदियां लगा दी थीं।
कर्मचारियों से ज़्यादा कुत्तों पर खर्च
स्विस प्रशासन की नजर इस परिवार पर करीब 6 सालों से है, जबसे प्रशासन ने जिनेवा स्थित एक घर में अपने कर्मचारियों के रखरखाव को लेकर हिंदुजा परिवार के खिलाफ जांच शुरू की थी।
47 बिलियन डॉलर के कारोबारी साम्राज्य वाले परिवार पर अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि उन्होंने अपने नौकरों की बजाय अपने कुत्ते पर ज्यादा खर्च पैसे खर्च किए।
ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के मुताबिक, सरकारी वकील य्वेस बेरतोसा ने कोर्ट में कहा, ‘उन्होंने (हिंदुजा परिवार ने) अपने एक कुत्ते पर एक नौकर से ज्यादा खर्च किया।’
अधिकारी ने बताया कि एक आया ने एक दिन में 18 घंटे काम किया था और उन्हें सिर्फ$ 7.84 मिले थे, जबकि दस्तावेज़ बताते हैं कि इस परिवार ने अपने एक कुत्ते के रखरखाव और खाने पर सालाना 10 हजार अमेरिकी डॉलर खर्च किए।
अधिकारी ने बताया कि कई नौकरों को हफ़्ते के सातों दिन काम करना होता था और तनख्वाह भी भारतीय रुपये में मिलती थी न की फ्रैंक्स में।
वहीं बचाव पक्ष का कहना था कि हिंदुजा परिवार ने घर में काम के लिए लाए गए लोगों को पर्याप्त सुविधाएं दी थी और उनके कहीं आने-जाने पर पाबंदियां नहीं लगाई थीं।
विवादास्पद बयान
बीबीसी जिनेवा के इमोजेन फोक्स की रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदुजा परिवार के वकीलों ने कम सैलरी होने के आरोपों को नकारा नहीं है, लेकिन ये कहा है जो मानदेय तय था उसमें रहना और खाना भी शामिल था।
वकील याएल हयात ने कहा, ‘आप तनख़्वाह कम नहीं कर सकते हैं।’
ज़्यादा देर तक काम करवाने के आरोपों को भी गलत बताया गया, इस पर एक वकील ने कहा कि बच्चों के साथ फि़ल्म देखने को काम नहीं माना जा सकता है।
हिंदुजा के वकीलों ने कहा कि कई कथित पीडि़त लगातार कई मौकों पर हिंदुजा परिवार के लिए काम कर चुके हैं। ये इस बात को दर्शाता है कि सभी काम के माहौल से संतुष्ट थे।
परिवार का बचाव करने वाले वकीलों ने कई ऐसे लोगों को भी गवाही के लिए बुलाया जो पहले इस परिवार के लिए काम कर चुके थे।
इन लोगों ने अदालत में हिंदुजा परिवार को अच्छे व्यवहार वाला बताया और ये भी कहा कि वो अपने नौकरों को सम्मान के साथ रखते थे।
हिंदुजा परिवार के वकील ने सरकारी वकील पर क्रूरता और बदनाम करने के आरोप लगाए।
डिफेंस के वकीलों में से एक ने कहा, ‘दूसरे किसी और परिवार के साथ ऐसा नहीं हुआ।’
भारत ने निकला दुनिया भर में छाया हिंदुजा परिवार
हिंदुजा परिवार की जड़ें भारत में हैं और इसी नाम से एक कारोबारी घराना भी चलाता है, जो कई सारी कंपनियों का एक समूह है।
इसमें कंस्ट्रक्शन, कपड़े, ऑटोमोबाइल, ऑयल, बैंकिंग और फाइनेंस जैसे सेक्टर भी शामिल हैं।
हिंदुजा ग्रुप को संस्थापक परमानंद दीपचंद हिंदुजा अविभाजित भारत में सिंध के प्रसिद्ध शहर शिकारपुर में पैदा हुए थे।
1914 में, उन्होंने भारत की व्यापार और वित्तीय राजधानी, बॉम्बे (अब मुंबई) की यात्रा की।
हिंदुजा ग्रुप को वेबसाइट के अनुसार वहां उन्होंने जल्दी ही व्यापार की बारीकियां सीख लीं।
सिंध में शुरू हुई व्यापारिक यात्रा 1919 में ईरान में एक दफ़्तर के साथ अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में प्रवेश कर गई।
समूह का मुख्यालय 1979 तक ईरान में रहा। इसके बाद यह यूरोप चला गया। शुरू को वर्षों में मर्चेंट बैंकिंग और ट्रेडिंग हिंदुजा ग्रुप के व्यवसाय के दो स्तंभ थे।
ग्रुप के संस्थापक परमानंद दीपचंद हिंदुजा के तीन बेटों-श्रीचंद, गोपीचंद और प्रकाश ने बाद में कामकाज संभाला और कंपनी का देश-विदेश में प्रसार किया।
साल 2023 में श्रीचंद हिंदुजा के निधन के बाद उनके छोटे भाई गोपीचंद ने उनकी जगह ली और ग्रुप के प्रमुख के तौर पर कामकाज संभाला। स्विटजरलैंड में मानव तस्करी के केसा का सामना कर रहे प्रकाश को मोनैको में जमा हुआ कारोबार मिला।
युनाइटेड किंगडम में हिंदुजा परिवार ने कई सारी कीमती प्रॉपर्टीज खरीदी है।
सितंबर 2023 में हिंदुजा ग्रुप ने लंदन के व्हाइटहॉल में स्थित ओल्ड वॉर ऑफिस जो पहले ब्रिटेन का रक्षा मंत्रालय भी था, इसी में रैफ्फल्स नाम का होटल बनाया था। इस होटल की ख़ासियत ये है कि ये ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के सरकारी आवास 10 डाउनिंग स्ट्रीट से कुछ ही मीटर दूर है।
यही ग्रुप कार्लटन हाउस की छत का भी एक हिस्सा के मालिकाना हक रखता है, इस बिल्डिंग में कई दफ्तर, घर और ईवेंट रूम हैं। साथ ही ये बकिंघम पैलेस से भी काफी नजदीक है।
हिंदुजा ग्रुप का दावा है कि दुनियाभर में 2 लाख लोग उनकी कंपनियों में काम कर रहे हैं।
जून 2020 में यूके की एक अदालत में हलफऩामा दायर हुआ था। इस हलफऩामें के मुताबिक हिंदुजा भाइयों के रिश्ते अच्छे नहीं थे।
दस्तावेज़ बताते हैं कि भाइयों में सबसे बड़े श्रीचंद ने अपने छोटे भाई के खिलाफ़ स्विटजऱलैंड के जिनेवा में स्थित एक बैंक के मालिकाना हक पाने के लिए केस किया था।
जेनेवा का सियाह पक्ष
दुनिया के सबसे अमीर लोगों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के सेंटर, जेनेवा में दजऱ् होने वाला ये पहला मामला नहीं है।
साल 2008 में लीबिया के पूर्व तानाशाह मुअम्मर गद्दाफ़ी के बेटे हानिबल गद्दाफ़ी के बेटे को भी अल्पाइन सिटी पुलिस ने एक पांच सितारा होटल से गिरफ़्तार किया था। हानिबल गद्दाफी और उनकी पत्नी पर अपने नौकर को पीटने आरोप लगे थे।
ये केस बंद हो गया था, लेकिन इसकी वजह से लीबिया और स्विट्जरलैंड के कूटनीतिक रिश्तों में तब दरार आ गई थी जब इसके बदले में त्रिपोली में 2 स्विस नागरिकों को गिरफ्तार कर लिया गया था।
पिछले साल 4 फिलिपीनी डॉमेस्टिक वर्कर्स ने संयुक्त राष्ट्र में एक राजदूत के खिलाफ़ ये आरोप लगाते हुए केस दर्ज करवाया था कि उनकों सालों से पैसे नहीं चुकाए गए। (bbc.com/hindi)
-जय शुक्ला
गुजरात में 12वीं कक्षा की समाजशास्त्र की पाठ्य पुस्तक में बौद्ध धर्म पर लिखे गए पाठ को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया है।
बौद्धों का कहना है कि गुजरात पाठ्य पुस्तक बोर्ड द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक बौद्ध धर्म के बारे में ग़लत धारणाएं फैलाती है और पाठ में कई त्रुटियां हैं।
बौद्धों ने गुजरात पाठ्य पुस्तक मंडल के निदेशक से मुलाकात कर अपना विरोध दर्ज कराया है। विरोध स्वरूप मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल और राज्यपाल देवव्रत अयारी को भी याचिकाएं भेजी गई हैं।
इस मामले में खुद गुजरात राज्य पाठ्य पुस्तक मंडल ने भी अपनी ग़लती मानी है।
बौद्ध किस बात पर नाराज़ हैं
गुजरात सरकार के पाठ्य पुस्तक मंडल द्वारा 12वीं क्लास की समाजशास्त्र पुस्तक के दूसरे अध्याय में 16वें पृष्ठ पर बौद्ध धर्म पर एक पाठ प्रकाशित किया गया है।
जिसमें लिखा है, ‘बौद्ध धर्म के दो स्तर हैं। बौद्धों की उच्च श्रेणी में ब्राह्मण, क्षत्रिय और कुछ गृहस्थ श्रेणी के लोग हैं, जबकि निचली श्रेणी में बौद्ध धर्म अपनाने वाले आदिवासी और उपेक्षित लोगों का समूह है।’
बौद्धों ने इस पाठ पर आपत्ति जताते हुए कहा है कि बौद्ध धर्म जाति-मुक्त है, जबकि पाठ जातिवाद को बढ़ावा देता है।
बीबीसी गुजराती से बात करते हुए गुजरात बौद्ध अकादमी के सचिव रमेश बैंकर कहते हैं, ‘बौद्ध धर्म वर्णन से परे है। इसमें कोई ऊंच-नीच नहीं है। भगवान तथागत ने वर्णित स्थिति पर कुठाराघात किया था। ये सारी जानकारी झूठी और भ्रामक है।’
रमेश बैंकर पूछते हैं, ‘गुजरात में आदिवासियों ने बौद्ध धर्म कहाँ अपनाया?’
गुजरात लोक सेवा आयोग के पूर्व सदस्य मूलचंद राणा ने बीबीसी गुजराती से कहा,‘बौद्ध धर्म सामाजिक बंधनों से परे है। पाठ्य पुस्तक में लिखा है कि बौद्ध पुजारी को लामा कहा जाता है। जो कि पूरी तरह से ग़लत जानकारी है। केवल तिब्बती क्षेत्र में ही बौद्ध पुजारी को लामा के नाम से जाना जाता है।’
मूलचंद राणा कहते हैं, ‘इस पुस्तक में एक और ग़लत सूचना यह है कि बौद्ध धर्म कर्म और पुनर्जन्म में विश्वास करता है। यह सरासर झूठ है।’
मूलचंद राणा ने पाठ्य पुस्तक मंडल पर आरोप लगाते हुए कहा कि इस तरह के विवादास्पद लेख बौद्ध धर्म के प्रति सम्मान को कमजोर करते हैं और इसलिए इन लेखों को पाठ्य पुस्तकों से तुरंत हटा दिया जाना चाहिए।
‘बौद्ध धर्म में जातिवाद की बात गलत’
गुजरात विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर और बौद्ध धर्म के विशेषज्ञ डॉ। हरपाल बौद्ध ने बीबीसी गुजराती को बताया, ‘बौद्ध धर्म के ग्रंथ त्रिपिटक में निहित बुद्ध वाणी से यह स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म में कोई जातिवाद नहीं है।’
उनका कहना है कि, ‘जब बुद्ध विहार से एक गाँव में पहुँचे तो उस गाँव के कुछ समुदायों ने बौद्ध धर्म अपना लिया और बुद्ध के प्रेम, मित्रता और करुणा के प्रभाव में बौद्ध बन गए। पुरानी संकीर्णतावादी व्यवस्था से विमुख होकर कल्याण व्यवस्था की ओर जाने का विवरण बुद्ध वाणी में मिलता है। एक बार जब कोई बौद्ध धर्म में आ जाता है, तो हर कोई समान हो जाता है।’
साथ ही, गुजरात राज्य पाठ्य पुस्तक बोर्ड की इस पुस्तक में कहा गया है कि बौद्ध धर्म के तीन सैद्धांतिक विभाग हैं, हीनयान, महायान और वज्रयान।
इस बारे में जानकारी देते हुए डॉ। हरपाल बौद्ध कहते हैं, ‘हीनयान और महायान बौद्ध धर्म की दो शाखाएँ हैं। प्रांत और विभिन्न समुदायों के अनुसार धर्म में भिन्नताएँ थीं। छठी शताब्दी में तंत्र मंत्र का ज्ञान रखने वाला एक बौद्ध संप्रदाय तिब्बत में फैलने लगा। वज्रयान मूल रूप से बौद्ध धर्म से जुड़ा नहीं है, इसे एक संप्रदाय कहा जा सकता है।’
सम्राट अशोक के समय के बारे में जानकारी देते हुए डॉ.हरपाल बौद्ध कहते हैं, ‘बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद तीसरी संगीति मौर्य सम्राट अशोक के संरक्षण में पाटलिपुत्र में मिली थी। उस समय बौद्ध धर्म के 18 विभिन्न संप्रदाय थे।’
‘पुनर्जन्म की बात गलत है’
रमेश बैंकर कहते हैं, ‘इस किताब में लिखा है कि बौद्ध पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं लेकिन बौद्ध पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते हैं। चेतना एक शक्ति है। आत्मा पर विश्वास मत करो। बौद्ध धर्म एक जीववादी धर्म है। आत्मा और पुनर्जन्म हिंदू धर्म की अवधारणाएं हैं, बौद्ध धर्म की नहीं।’
उनका कहना है कि इस पाठ्य पुस्तक में लिखा है कि बौद्ध पुजारी लामा होता है लेकिन असल में बौद्ध पुजारी को भिक्खु कहा जाता है।
डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज यानी क्च्रक्रढ्ढस्स् के चेयरमैन बालकृष्ण आनंद बीबीसी गुजराती से बातचीत में कहते हैं, ‘बौद्ध धर्म में कोई जाति नहीं है। भगवान बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे। प्रारंभ में उनके साथ क्षत्रिय और ब्राह्मण भी शामिल हो गए लेकिन जब वे सभी बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गए, तो उनकी जाति गायब हो गई।’ उनका कहना है कि इस तरह की गलत जानकारी बच्चों के दिमाग पर गलत प्रभाव छोड़ती है।
बालकृष्ण आनंद कहते हैं, ''पाठ्य पुस्तक में इसका जिक्र तक नहीं है कि इस तरह की ग़लत जानकारी कहां से आई।’
रमेश बैंकर कहते हैं, ‘पाठ्य पुस्तक बोर्ड ने ये विवरण एक निजी प्रकाशन पुस्तिका से लिए हैं। उन्होंने फैक्ट चेक भी नहीं किए। किसी पुस्तिका में लिखे विवरण को सत्य कैसे माना जा सकता है?’
दूसरी ओर, गुजरात राज्य पाठ्य पुस्तक बोर्ड के निदेशक वी.आर. गोसाई ने भी इस मामले में गलती स्वीकार की है।
वी.आर. गोसाई ने बीबीसी गुजराती को बताया, ‘यह पाठ्य पुस्तक वर्ष 2017 में प्रकाशित हुई थी और पहली बार हमें यह प्रतिवेदन मिला है कि बौद्ध धर्म के बारे में कुछ विवरण सच्चाई से बहुत दूर हैं।’
किताबों को जांच कर दोबारा छापने की मांग
किताब में ऐसे विवरण कहां से आये? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वी। आर। गोसाई कहते हैं, ‘बौद्ध धर्म के बारे में जो जानकारी 2005 में प्रकाशित कक्षा 12 की समाजशास्त्र पाठ्य पुस्तक में शामिल थी, बिना किसी बदलाव के इस पाठ्यपुस्तक में शामिल की गई है।’
इस त्रुटि को कैसे दूर किया जाएगा? इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘यदि कोई तथ्यात्मक त्रुटि है तो सबूतों की जांच और जरूरी सुधारों के बाद बौद्ध धर्म के मुद्दे को दोबारा लिखने के बारे में लेखक-पैनल के साथ चर्चा की गई है।’
हालांकि उन्होंने साथ ही कहा, ‘इस पाठ्य पुस्तक को 20 सितंबर 2016 को संशोधित किया गया था। जिसकी रिपोर्ट में कहा गया था कि विशेषज्ञों को अन्य प्रस्तावित संशोधनों के साथ-साथ पुस्तक में किसी भी धर्म या समुदाय के लिए आपत्तिजनक कोई सामग्री नहीं मिली। फिर सरकार से मंजूरी मिलने के बाद यह किताब साल 2017 में प्रकाशित हुई।’
उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए जाएंगे कि अगर बौद्ध धर्म के बारे में लेखन बुद्धिस्ट अकादमी के माध्यम से भेजा जाता है तो पाठों को साक्ष्य की जांच के बाद आवश्यक सुधार के साथ दोबारा लिखा जाए। (bbc.com/hindi)
-सनियारा खान
अकेलापन एक ऐसी चीज़ है जो किसी के लिए मनचाही है, तो किसी के लिए अनचाही। अगर आप ख़ुद के साथ अकेले भी खुश रहने का हुनर रखते है तो अकेलापन आप के लिए स्वर्ग है। और अगर आप अकेले रहने में डरते है तो यही अकेलेपन आपके लिए नर्क बन जाता है।
अभी अभी असम के एक आई पी एस अधिकारी के बारे में जान कर यही लगा कि अकेलापन किसी को किस हद तक डरा सकता है!
असम के गृह सचिव शिलादित्य चेतिया की पत्नी गंभीर बीमारी से जूझ रही थी। पिछले एक महीने से उन्हें एक निजी अस्पताल में रखा गया था। उनके पति छुट्टी ले कर अपनी पत्नी की देखभाल कर रहे थे। क्योंकि इस काम के लिए उनका अपना कोई और नहीं था। माता पिता का पहले ही देहांत हो चुका था और उनके कोई बच्चे भी नहीं थे। एक बहन है जो आयरलैंड में रहती है। श्री चेतिया ने जैसे अस्पताल को ही अपना घर बना लिया था। वे सबको यही कहते थे कि उनकी पत्नी जल्दी ठीक हो जाएगी। हालाँकि उनकी पत्नी की हालत दिन ब दिन खराब हो रही थी। मंगलवार को वे अस्पताल में ही थे जब उनकी पत्नी की मृत्यु हुई। उन्होंने पत्नी के कमरे से सभी को ये कह कर बाहर जाने कहा कि उन्हें पत्नी के साथ कुछ देर अकेले रहना है और उनके लिए प्रार्थना करनी है। फिर उन्होंने सर्विस रिवॉल्वर से खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली।
ऐसा लगता है कि वे पहले से ही तय कर चुके थे कि पत्नी अगर जि़ंदा नहीं बची तो वे भी जि़ंदा नहीं रहेंगे। ये शायद उनके अकेले रह जाने का डर ही था, जिसके कारण उन्होंने ये घातक कदम उठाया। ये कदम गलत है या सही है वह एक अलग सवाल है। अभी तो हम अकेलापन किसी को किस हद तक डरा सकता है, इस बात को लेकर बात कर रहे हैं। वैसे अकेलेपन का कोई एक कारण नहीं है। जिंदगी में अचानक आए बदलाव, किसी अपने से अलग होना या फिर वित्तीय आपदा भी अकेलापन ला सकते हैं। इस हालत में उदासी, खालीपन और बेबसी महसूस होती है।
कई बार ऐसे लोगों को लगता है कि उन्हें आस पास के लोग हमेशा गलत समझते हैं। उम्र बढऩे के साथ साथ कई लोग खुद को अकेला पाते हैं। उनको लगने लगता है कि उन्हें दूसरे लोग कम सम्मान देते हैं, उनकी बातें नहीं सुनी जाती हैं, और वे अपने अनुभव किसी को बाट नहीं पा रहे हैं। इसी तरह युवा वर्ग में भी बहुतों को लगता है कि समाज तो दूर की बात है, उनके माता पिता भी उन्हें समझ नहीं पाते हैं। तभी तो हर साल अलग अलग कारणों से ना जाने कितने बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं।
यूएस के 19 वें सर्जन जनरल डा. विवेक मूर्ति ने अकेलेपन को एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता के रूप में प्रस्तुत कर एक पुस्तक लिखी है। Together_ The Healing Power Of Human Connection In A Sometimes Lonely World इस पुस्तक में लेखक ने तर्क दिया है कि दुनिया की बढ़ती हुई जटिलता ने इंसान को ज़्यादा अकेला कर दिया है। हम सभी एक दूसरे को साथ लेकर इस अलगाववाद से लड़ सकते हैं। दोस्त, परिवार और समाज के साथ चल कर ही यह संभव हो सकता है।
हमें इसी बात को लेकर एक और पहलू पर भी विचार करना चाहिए। हाल ही की एक स्टडी रिपोर्ट के अनुसार बताया गया है कि अकेले रहने की आदत के भी अनेक फ़ायदे हैं। जो लोग अपनी मर्जी से अकेले रहना चाहते हैं वे खुद को बेहतर ढंग से समझ पाते हैं। हर इंसान को कभी न कभी एकांत की जरूरत होती है। हर अकेले रहने वाले इंसान को डिप्रेशन के शिकार मान लेना गलत है। अकेले रहना और रह कर बहुत कुछ सीखना भी जीने का एक ज़रूरी अंग है। एक स्टडी ये भी कहती है कि जो लोग अकेले रहना पसंद करते हैं वे कई बार मानसिक और भावनात्मक रूप से औरों से मज़बूत होते हैं। क्योंकि उनको अपने विचारों को लेकर सोचने के लिए समय मिलता है। वे अपने शौक को ज़्यादा निखार सकते हैं, और हर पसंदीदा काम ज़्यादा एकाग्रता से कर पाते हैं। इस तरह वे लोग खुद को ले कर आज़ादी भी महसूस करते हैं।
अंत में शायद ये कहना सही होगा कि जो अकेलापन आपको खुशी दे उसे आप साथ लेकर चले। लेकिन अगर आपका अकेलापन आपको भारी लगता है तो उसको लेकर बात कीजिए, दोस्त बनाएं और पीछे छूट चुके किसी शौक को फिर से जि़ंदा करें, कुछ नहीं तो एक सामाजिक कार्यकर्ता बन कर भी अपना अकेलापन कम कर सकते है। सब से बड़ी बात तो ये है कि किसी और से कोई उम्मीद न रख कर खुद के अंदर ही खुद के लिए उम्मीद का एक दिया जलाए रखिए।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
तंत्र के मकडज़ाल और नेताओं की नीतियों से व्यथित होकर अदालत/ अधिकारी पर जूता या स्याही फेंकना और मारपीट करना कभी कभार पहले भी होता रहा है।
अरविंद केजरीवाल के साथ यह शायद सबसे ज्यादा बार हुआ है। इधर कंगना रनौत और प्रधानमंत्री के साथ हुई दुर्घटनाओं की गंभीरता इसलिए अधिक है कि जेड श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त कंगना रनौत के साथ एक महिला सुरक्षाकर्मी ने दुर्व्यवहार किया (वैसे आम आदमी के साथ तो पुलिस दुर्व्यवहार की देश भर में आए दिन हजारों घटना होती हैं) और प्रधानमन्त्री के त्रि स्तरीय कड़ी सुरक्षा वाले काफिले पर चप्पल फेंकना यह प्रमाण है कि हमारे समाज में हिंसा और नफरत हर स्तर पर तेज़ी से बढ़ती जा रही है। इसमें कोई शक नहीं कि इस हिंसा और नफरत को बढ़ाने में नेताओं के नफरती और उकसाऊ भाषण भी प्रमुख कारण हैं।
महावीर, बुद्ध और गांधी के मूलत: अहिंसक देश में कुछ लोग भगत सिंह आदि की आड़ में हिंसा को जायज़ ठहराने की कोशिश करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि भगत सिंह की हिंसा अपने देश के लोगों के प्रति नहीं थी , उसमें राक्षसी प्रवृत्ति के उन लोगों को सजा देने का भाव था जो निर्बलों को सताते थे। वैसी धर्म प्रधान हिंसा तो राम और कृष्ण ने भी रामायण और महाभारत काल में की है।
हाल की घटनाओं से यह आभास होता है कि कंगना रनौत और प्रधानमन्त्री के लिए कुछ लोगों के मन में नफरत के भाव हैं क्योंकि इन दोनों के भाषणों और वक्तव्यों से काफ़ी लोग आहत हुए हैं। फिर भी हिंसक प्रतिक्रिया को उचित नहीं ठहरा सकते। हम नेताओं से अपनी वाणी पर संयम की अपील कर सकते हैं और व्यथित नागरिकों से नफऱत फैलाने और भावनाएं आहत करने वाले नेताओं के शांतिपूर्ण विरोध की अपील कर सकते हैं।
नीट यूजी (NEET UG) परीक्षा 2024 पर छिड़ा विवाद अभी थमा नहीं था कि 18 जून को हुई यूजीसी नेट परीक्षा रद्द कर दी गई।
केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा है कि इसमें गड़बडिय़ों की ख़बर मिली थी। अब सीबीआई से इसकी जांच के आदेश दे दिए गए हैं।
देश भर के कऱीब नौ लाख छात्र इसमें बैठे थे।
गृहमंत्रालय के तहत आने वाले इंडियन साइबर क्राइम कॉर्डिनेश सेंटर ने यूजीसी को इनपुट दिया था जिससे साफ़ हो गया था कि नेट की परीक्षा में कुछ गड़बड़ी हुई है।
नेट मतलब नेशनल एलिजिबिलीटी टेस्ट यानी भारत के कॉलेजों और विश्वविद्दालयों में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के लिए नेट क्लियर करना लाजि़मी होता है।
इस एग्ज़ाम के रद्द होने के बाद दिल्ली और लखनऊ समेत कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन हुआ। छात्रों के अलावा यूथ कॉंग्रेस और वाम दलों के कार्यकर्ताओं ने शिक्षा मंत्री के आवास और दफ़्तर के पास विरोध प्रदर्शन किया और उनके इस्तीफ़े की मांग की।
कांग्रेस पार्टी और इसके नेता राहुल गांधी ने पेपर लीक न रोक पाने पर मोदी सरकार को घेरा और शुक्रवार को देशव्यापी प्रदर्शन की कॉल दी। उन्होंने कहा है कि विपक्ष संसद में पेपर लीक का मुद्दा उठायेगा।
नीट परीक्षा में पहले गड़बडिय़ों से इनकार करते रहने वाले केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने गुरुवार शाम एक प्रेस कॉन्फ्ऱेंस बुलाकर 'पारदर्शिता से कोई समझौता न करने का' आश्वासन दिया।
उन्होंने कहा, ‘नीट परीक्षा के संबंध में पटना से कुछ जानकारी आई है। हम बिहार सरकार से लगातार संपर्क में हैं। पटना पुलिस इस घटना की तह तक जा रही है। इसकी डिटेल्ड रिपोर्ट जल्द ही भारत सरकार को भेजी जाएगी।’
उन्होंने कहा कि प्राथमिक जानकारी के अनुसार, कुछ एरर स्पेसेफिक़ रीजन में सीमित है।
उन्होंने कहा, ‘पुख्ता जानकारी आने पर दोषियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी। एनटीए हो या कोई भी बड़ा व्यक्ति हो, जो दोषी पाया जाएगा उसके ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की जाएगी।’
शिक्षा मंत्री ने कहा, ‘सरकार एक हाई लेवल कमेटी गठन करने जा रही है। ये समिति एनटीए के स्ट्रक्चर, उसकी फ़ंक्शनिंग, परीक्षा की प्रक्रिया, पारदर्शिता आदि के संबंध में सुझाव देगी। उन्होंने कहा कि इस संवेदनशील इशू पर किसी तरह की अफवाह न फैलाई जाए।’
छात्रों ने कहा- हम एग्ज़ाम पर एग्ज़ाम देते रहें...
नीट और नेट परीक्षा कराने वाली केंद्रीय एंजेंसी एनटीए (नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) को रद्द करने की मांग भी हो रही है।
एग़्जाम देने वाले छात्रों में परीक्षाओं के रद्द होने के सिलसिले से व्यापक रोष है। कुछ छात्रों ने इन हालात में गहरी निराशा ज़ाहिर की है।
इस साल यूजीसी नेट परीक्षा देने वाले अखिलेश यादव ने कहा, ‘मुझे लग रहा था कि मेरा नेट निकल जाएगा। मैंने काफ़ी मेहनत की थी, लेकिन अब यह रद्द हो गया है। किसी ने इस पर कुछ कहा नहीं लेकिन खुद एनटीए ने माना कि इसमें गड़बड़ी हुई है।’
उन्होंने कहा कि 'बार बार पेपर लीक और परीक्षाएं रद्द होने की समस्याएं आ रही हैं फिर कोई ठोस कदम न उठाना कहीं न कहीं संस्थानों की ग़ैरजि़म्मेदारी वाले रवैये को दिखाता है।’
एक अन्य छात्रा प्राची पांडे ने कहा, ‘जब देखा जा रहा है कि नीट जेईई जैसे एग्ज़ाम में घपलेबाज़ी हो रही है उसके बाद भी नेट का एग्ज़ाम करवाया गया। बच्चों के साथ ये बहुत ही ग़लत हुआ है। अभी पुलिस भर्ती का पेपर लीक हुआ और अब नेट का।’
उन्होंने कहा, ‘लड़कियों पर पैरेंट्स का अधिक दबाव रहता है कि वो जल्द से अपनी पढ़ाई पूरी करें नहीं तो उनकी शादी कर दी जाए।’
18 जून को नेट का एक्ज़ाम देने वाली श्रुति मिश्रा ने कहा, ‘सबसे पहली बात तो हमारा समय नष्ट हो रहा है। छात्र बड़ी मेहनत करते हैं और जब परीक्षा रद्द हो जाती है तो उसकी मेहनत पर पानी फिर जाता है और मोटिवेशन पर भी क्योंकि फिर हम क्यों एग्ज़ाम की तैयारी करें, ईमानदारी से पढ़ाई करें, जब कोई शिक्षा माफिय़ा पेपर लीक करा देंगे, कुछ लोग पैसे देकर पास हो जाएंगे और हमसे आगे निकल जाएंगे।’
वो कहती हैं, ‘ऐसा होता रहेगा और हम यहां मेहनत करेंगे और एग्ज़ाम पर एग्ज़ाम देते रहेंगे।’
नीट परीक्षा में कथित धोखाधड़ी के आरोप
एनटीए का गठन 2018 में हुआ था। पहले अलग-अलग एग्ज़ाम अलग-अलग एजेंसियां कराती थीं।
अब नीट की परीक्षा की जि़म्मेदारी एनटीए के पास है और इसमें कथित धोखाधड़ी को लेकर पूरे भारत में घमासान मचा हुआ है।
देशभर के मेडिकल कॉलेज में दाख़िले के लिए नीट की परीक्षा होती है। इस बार चार जून को इसका रिज़ल्ट आया और तभी से इसको लेकर बवाल शुरू हो गया।
कऱीब 24 लाख छात्रों ने इसकी परीक्षा दी थी। यह एग्ज़ाम कुल 720 नंबर का होता है और 67 छात्रों को 720 में से 720 नंबर आ गए। कुछ को 719 और 718 नंबर आए।
एनटीए ने अपनी सफ़ाई देते हुए कहा कि 1563 छात्रों को ग्रेस मार्क्स दिए गए थे।
मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। वहां एनटीए ने कहा कि वो ग्रेस मार्क्स ख़त्म कर रही है। और इन छात्रों के लिए 23 जून को फिर से टेस्ट देना होगा।
और अगर कोई छात्र इसमें नहीं बैठना चाहता है तो उनके ओरिजिनल मार्क्स के आधार पर रिज़ल्ट निकाल दिया जाएगा।
नीट की परीक्षा के पेपर लीक मामले में बिहार में कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया गया है, जिनमें कुछ छात्र भी हैं।
बिहार पुलिस की जांच में सामने आया है कि कुछ अभ्यर्थियों को परीक्षा से पहले ही पेपर के सवाल मिल गए थे।
लेकिन गुरुवार को बुलाई प्रेस कांफ्रेंस में शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि, ‘बिहार सरकार और भारत सरकार के बीच समन्वय था, कुछ विसंगतियां हमारे ध्यान में आई हैं, सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद जो भी जि़म्मेदार होगा, उसे छोड़ा नहीं जाएगा। बिहार पुलिस इस मामले में जांच को और आगे बढ़ा रही है, उसे पूरा हो जाने दिया जाए।’
हालांकि, उन्होंने नीट परीक्षा दोबारा आयोजित किए जाने से जुड़े सवालों का स्पष्ट जवाब नहीं दिया।
जबकि पहले शिक्षा मंत्री ने कहा था, ‘नीट परीक्षा में किसी प्रकार की धांधली, भ्रष्टाचार या पेपर लीक की कोई भी पुख़्ता सबूत अभी तक सामने नहीं आया है। इससे संबंधित सारे तथ्य सुप्रीम कोर्ट के सामने हैं और विचाराधीन हैं।’
परीक्षाओं को रद्द होने से कैसे रोका जा सकता है?
बीबीसी संवाददाता इक़बाल अहमद से यूजीसी के पूर्व चेयरमैन प्रोफ़ेसर एसके थोराट ने कहा, ‘परीक्षाएं ऐन वक़्त पर रद्द नहीं होनी चाहिए, इसके कारण छात्रों में भरोसे की भावना कम हो जाती है उससे उनके करियर पर प्रभाव पड़ता है।’
‘मंत्रालयों को एहतियात बरतनी चाहिए कि कोई सूचना लीक न हो और छात्रों को सही तरह से परीक्षा देने का मौक़ा मिले। सरकार को कोशिश करनी चाहिए कि इसको फ़ुल प्रूफ़ बनाया जाए।’
एनटीए को सभी परीक्षाओं की जि़म्मेदारी दिए जाने पर थोराट कहते हैं, ‘ये लग रहा है कि एक स्वतंत्र एजेंसी को जि़म्मेदारी देने के बाद उनमें जवाबदेही कम हो जाती है, आउटसोर्सिंग में कुछ कमियां होती हैं, नेट जैसी परीक्षाओं की जि़म्मेदारी यूजीसी से जुड़े कर्मचारियों को देनी चाहिए क्योंकि अगर कोई ग़लती हो तो उन्हें लगे कि उनकी नौकरी ख़तरे में है।’
बीजेपी-आरएसएस के लोगों के संस्थानों पर काबिज़ होने के कांग्रेस नेता के आरोपों पर थोराट कहते हैं, "ये बात सही है कि बहुत सारे केंद्रीय संस्थानों में एक विचारधारा के लोगों को दाख़िल करने की कोशिश चल रही है, अब उसका कनेक्शन किसी से है या उस पर किसी का क़ब्ज़ा है तो ये साफ़ साफ़ नहीं कहा जा सकता है।’
प्रोफ़ेसर थोराट कहते हैं, ‘पिछली सरकारों में था कि आपके पॉलिटिकल कनेक्शन से आपको किसी पोजि़शन को पाने में मदद मिल जाती थी लेकिन आज की तरह किसी ख़ास संगठन से जुड़ाव को नहीं देखा जाता था।’ ‘इसकी वजह से हो सकती है कि जो सक्षम लोग आपको मिलने चाहिए वो नहीं मिल पा रहे हैं। एजेंसी को लेकर सरकार की मॉनिटरिंग बहुत ज़रूरी है किसी को पूरी तरह स्वतंत्रता नहीं देनी चाहिए।’
एनटीए को लेकर क्या कहते हैं शिक्षाविद्
नीट परीक्षा विवाद को लेकर शिक्षाविदों की अलग राय है। उनका कहना है कि इस वक़्त इस मुद्दे पर जो बहस हो रही है वो ग़लत दिशा में है और असल मुद्दा कुछ और है।
मशहूर शिक्षाविद अनिल सदगोपाल ने बीबीसी संवाददाता इक़बाल अहमद से कहा,‘तीन मुद्दे हैं। पहला, नीट के कारण हर एक राज्य में जो पब्लिक हेल्थ सर्विसेज़ थी उनकी सर्विस गिरी है। दूसरा, नीट देश के बहुजन युवाओं को डॉक्टर बनने से रोक रहा है, बहुजन में आदिवासी, दलित, ओबीसी, ट्रांसजेंडर्स और घुमंतू जातियां हैं। ये कुल मिलाकर देश के 85 फ़ीसदी युवा हैं। इन युवाओं को डॉक्टर बनने का अधिकार नहीं है और नीट के कारण इनका अधिकार छीना जा चुका है।’
‘तीसरा, जब एनटीए बना और शिक्षा नीति की घोषणा की गई तो ये दावा किया गया कि नीट इसलिए शुरू किया जा रहा है ताकि पूरे देश में एमबीबीएस के एडमिशन में सबको बराबर का मौक़ा मिले।’
वो कहते हैं, ‘ये तीनों बातें पीछें चली गई हैं और जो देश में और सुप्रीम कोर्ट में डिबेट चल रही है वो असली मुद्दा ही नहीं है। देश के हर किसी एंट्रेस एग्जाम में हमेशा ऐसी ग़लतियां होती रहती हैं।’
अनिल सदगोपाल के अनुसार, ‘आज़ादी से लेकर और नीट लागू होने तक क्या देश के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन नहीं होते थे। देश के हर राज्य में मेडिकल कॉलेज थे जो राज्य सरकारों के ख़र्चों से बनवाए गए थे। नीट 2018 में जब लागू हुआ तब सबसे पहले तमिलनाडु की 18 साल की लडक़ी अनीता का मामला सामने आया।’
‘अनीता तमिलनाडु स्टेट बोर्ड परीक्षा में 12वीं कक्षा में 98 फ़ीसदी से ज़्यादा मार्क्स लेकर पास हुई थी, वो गऱीब घर की लडक़ी थी जिसके पिता सब्जी मंडी में ढुलाई का काम करते थे। उसकी तमन्ना डॉक्टर बनकर गांव में डिस्पेंसरी खोलने की थी लेकिन तभी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद नीट लागू हुआ तो अनीता को लगा कि सबकुछ अंग्रेज़ी में होगा जबकि वो तमिल भाषा में पढ़ी लिखी थी।’
‘इसके बाद अनीता ने जवाब दिया था कि कौन नहीं जानता भारत की स्कूल व्यवस्था ग़ैर बराबरी की बुनियाद पर खड़ी है, जिस देश में स्कूल स्तर पर भेदभाव होता है वहां समतामूलक धरातल हो नहीं सकता है। अनीता ने उसी दिन आत्महत्या कर ली, उसकी बात इतनी सच्ची है जिसे कोई चुनौती नहीं दे सकता।’
नीट की संवैधानिकता पर सदगोपाल कहते हैं, ‘संविधान की सातवीं अनुसूची कहती है कि सारी शिक्षा व्यवस्था राज्य सरकारों के हाथ में रहेगी, शिक्षा के कुछ पहलू केंद्र सरकार के हाथ में हो सकते हैं। राज्य और केंद्र सरकार के अधिकार संविधान में बांटे गए हैं तो इसको न तो प्रधानमंत्री, संसद और न सुप्रीम कोर्ट बदल सकता है। सातवीं अनुसूची भारत के संविधान की आत्मा है तो बिना राज्य सरकारों की अनुमति के बिना नीट क्यों लागू किया गया?’
वो कहते हैं, ‘इसलिए तमिलनाडु सरकार ने स्टैंड लिया और उसने इसे ख़ारिज कर दिया। इससे पहले राज्य सरकारों के मेडिकल कॉलेज में अपनी राज्य की भाषा में एडमिशन होता था। ये संविधान का पूरी तरह उल्लंघन है। मद्रास हाई कोर्ट के जस्टिस एके राजन की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन हुआ जिसने पाया कि जब से नीट की परीक्षा हुई तब से तमिलनाडु की ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा बर्बाद हो गई जबकि नीट से पहले वो देश में टॉप पर थी।’
नीट परीक्षा को लेकर हो रहे विवाद का आखिर समाधान क्या है?
इस सवाल पर अनिल सदगोपाल कहते हैं कि मेडिकल कॉलेज में दाख़िले की जि़म्मेदारी राज्य सरकारों को सौंपी जानी चाहिए, भारत के संविधान का पालन किया जाना चाहिए क्योंकि ये राज्य की सूची में है।
(bbc.com/hindi)


