विचार/लेख
-अपूर्व गर्ग
अपने पोहे को जब वो दुनिया की सबसे निराली डिश बताते हैं तो बात समझ आती है पर उसी सांस में जब वो अपनी सिटी को सबसे स्मार्ट कहते हैं तो उनसे आग्रह करना पड़ता है जऱा हरा चश्मा तो दीजिये!
सीमेंट, ईंट, पत्थरों ढकी सिटी यदि स्मार्ट कहलाने लगे हरे चश्मे से हरियाली , शावर से बारिश, स्नो वल्र्ड जाकर बर्फबारी देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।
ये कैसी स्मार्टनेस है जो जंगलों, तालाबों , नदियों, समुद्र को तबाह कर तैयार की जा रही है।
नतीजा 50 से 52 डिग्री पर फिर भी लालच भरे कुल्हाडिय़ों से दाँत हजारों-लाखों पेड़ों को निगलने तैयार।
न्यूज़ 18 की एक ख़बर है ‘13 दिन में 5 लाख गाडिय़ां शिमला पहुंचीं’।
गाडिय़ाँ आसानी से पहुँच रही हैं फोरलेन बन गए और भी आगे तक बन रहे पर किस कीमत पर ?
ओह्ह, ये क्या सवाल किया मैंने? खासकर उन लोगों से जो हरे कपड़े पहन कर सेल्फी -सेल्फी कर पर्यावरण दिवस मनाते हैं, ऐसे पर्यावरण प्रेमियों से चुभते सवाल क्यों हो? पहले ही धूप की चुभन है ।।वैसे अब इन्हें चुभन कहाँ होती है ? शर्म तो आई ही नहीं कभी।।
घर एसी, गाड़ी एसी, दफ्तर एसी। नदियों का रुख इनकी ओर है सो पानी ही पानी , तालाब सुखाकर इनकी इमारतें तनी हैं, जंगल में रिट्रीट है।
ऊपर से ये तबका जब पहाड़ जाता है तो पहाड़ से ऊंचा कचरे का ढेर छोडक़र आता है।
समाज के एक तबके ने समुद्र को समेट कर ‘रेसीडेंशियल’ बना डाला तो बेचारे तालाब चोरों को क्या ही कहें ?
गज़ब दुनिया है सामने तालाब चोर सम्मानित तो समुद्री डकैत आदरणीय नागरिक बने -ठने बैठे हैं ।।
ऊपर से जल-थल और पर्यावरण के सवाल पर न जाने कितने प्रकार के दिवस मनाते हैं।
मेरी ये पुख़्ता धारणा है जिस -जिस का दिवस मनाया जाता है उस-उस का दोहन किया जाता है।
शिक्षक दिवस से लेकर पर्यावरण दिवस तक यही होता आया।।
50 डिग्री ताप सहा जा सकता है पर पहाड़, पेड़, नदी, तालाब निगलने वाले जब बारिश न होने पर और मानसून के भटकने पर व्हाट्सएपिया ज्ञान देते हैं तो लगता है पहले ही तपी हुई तवे समान पीठ पर कोई हथौड़ा मार रहा है।।
सुनिए, मानसून कहीं भटका नहीं बल्कि वायरस से हैक हुआ है।।
अपने पेड़, अपने पहाड़-जंगल, नदी तालाब बचाने ही नहीं वापिस मांगने होंगे! आइये, तब तक पेड़ों से गले मिलकर रो लें।
शायद आंसुओं को देखकर बादल रहम करें।
वायनाड छोड़ने के राहुल गांधी के फैसले का कांग्रेस पर काफी असर पड़ सकता है. कांग्रेस और प्रियंका गांधी वाड्रा को एक तरफ तो लेफ्ट मोर्चा की कोशिशों से और दूसरी तरफ बीजेपी द्वारा लगाए जा रहे परिवारवाद के आरोपों से लड़ना होगा.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी के दो सीटों से जीतने के बाद से ही यह सवाल खड़ा हो गया था कि वो अंत में कौन सी सीट अपने पास रखेंगे और कौन सी छोड़ेंगे। एक तरफ रायबरेली कांग्रेस का और नेहरू-गांधी परिवार का पुराना गढ़ है तो दूसरी तरफ वायनाड वो सीट है जिसने 2019 में राहुल गांधी को तब चुना जब उनकी पुरानी सीट अमेठी के मतदाताओं ने उनका साथ छोड़ दिया।
अब वायनाड छोडऩे के उनके फैसले की वजह से वहां उप-चुनाव होंगे और पार्टी को दोबारा संघर्ष करना होगा। हालांकि लोकसभा चुनावों में राहुल वहां काफी बड़े अंतर से जीते थे (3,64,422 वोट), लेकिन कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों ने राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन का हिस्सा होते हुए भी केरल में, खास कर वायनाड में, एक दूसरे के खिलाफ काफी कड़वी लड़ाई लड़ी थी।
वायनाड का दिल जीतने की जरूरत
लेफ्ट मोर्चे ने सीपीआई की वरिष्ठ नेता ऐनी राजा को वायनाड से उतारा था। ऐनी को काफी बुरी हार का सामना करना पड़ा और अब उप-चुनाव में मोर्चा दोबारा उन्हीं को मैदान में उतारेगा, इसकी अभी घोषणा नहीं हुई है। लेकिन राहुल के वायनाड छोडऩे पर ऐनी ने कांग्रेस को आड़े हाथों लिया है और कहा है कि वायनाड के मतदाताओं के साथ अन्याय हुआ है।
नतीजों पर क्या कहती है भारत की जनता
अब देखना होगा कि लेफ्ट प्रियंका के खिलाफ वायनाड से किसको उतारेगा। यब भी देखना होगा कि प्रियंका इस सीट पर अपने भाई जैसी लोकप्रियता हासिल कर पाएंगी या नहीं। वो कई सालों से पार्टी के लिए कई राज्यों में कैंपेन कर चुकी हैं लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव ऐसे पहले चुनाव हैं जहां उनके अभियान के बाद पार्टी को सफलता मिली है।
परिवारवाद का आरोप
प्रियंका और उनकी पार्टी के लिए संघर्ष का दूसरी मोर्चा बीजेपी ने खोल दिया है। बीजेपी ने कांग्रेस पर वायनाड की जनता को धोखा देने के साथ साथ परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं। केरल के तिरुवनंतपुरम से लोकसभा चुनाव लडऩे वाले बीजेपी नेता राजीव चंद्रशेखर ने एक्स पर लिखा कि कांग्रेस इस परिवार के सदस्यों को एक के बाद एक कर वायनाड के मतदाताओं पर थोप रही है।
प्रियंका यदि चुनाव जीत जाती हैं तो यह पहली बार होगा जब वो, उनके भाई और उनकी मां सोनिया गांधी तीनों एक समय में संसद के सदस्य होंगे। सोनिया गांधी इस समय राज्यसभा की सदस्य हैं। चुनावों से पहले माना जा रहा था कि इन्हीं आरोपों से बचने के लिए प्रियंका चुनाव नहीं लड़ रही हैं, लेकिन अब पार्टी ने अपना रुख बदल लिया है।
(dw.comhindi)
अपने खुले विचारों के लिए जाने जाने वाले मशहूर लेखक उपन्यासकार विक्रम सेठ एक बार फिर चर्चा में हैं।
बेस्ट सेलर अंग्रेजी उपन्यास ‘अ सूटेबल बॉय’ लिखने वाले विक्रम सेठ ने हनुमान चालीसा का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है।
अनुवाद के लिए हनुमान चालीसा को चुनने और उसे इस समय प्रकाशित करने को लेकर उन्होंने कुछ दिलचस्प वाकया साझा किया है।
‘द हनुमान चालीसा’ के लॉन्च से पहले बीबीसी संवाददाता संजय मजूमदार से उन्होंने बात की।
उन्होंने अनुवाद की पृष्ठभू्मि, इसके संदेश, मौजूदा राजनीतिक हालात आदि पर भी बात की। हालिया लोकसभा के चुनावी नतीजों पर कहा कि ‘तानाशाही में कमी आई है।’
अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रेरणा
हनुमान चालीसा का अंग्रेज़ी अनुवाद करने की प्रेरणा के बारे में विक्रम सेठ कहते हैं, ‘बचपन से ही मुझे हनुमान चालीसा से बड़ा लगाव है और मैंने एक वक़्त अपनी ख़ुशी के लिए इसका तर्जुमा किया था और दस साल पहले इसकी शुरुआत की थी।’
इसे प्रकाशित करने का विचार आने के बारे वो कहते हैं, ‘अभी इसे प्रकाशित करने का विचार तब आया जब 90 साल की मेरी विधवा मामी ने मुझसे कहा कि ये तुमने अपने लिए किया है, दूसरों को भी दिखाओ। मैंने कहा, मेरा अनुवाद तुलसीदास की तुलना में कुछ नहीं है। तो उन्होंने कहा कि यह एक तरह से खिडक़ी तो है, कि जो लोग हिंदी नहीं समझ सकते या इस कविता से परिचित नहीं हैं, उन्हें तो कम से कम इस कविता के बारे में पता होना चाहिए।’
‘हो सकता है कि वो इससे प्रेरित होकर मूल कृति की ओर जाएं। और ऐसा न भी हो तो इससे कुछ तो लुत्फ़ मिलेगा।’
यह अवधी में लिखी गई है, तो भाषा के सवाल पर विक्रम सेठ कहते हैं, ‘हिंदी तो हम खड़ी बोली में बोलते हैं, लेकिन ब्रज भाषा या अवधी, ये भी तो महान साहित्यिक भाषाएं हैं। हमारा ज़्यादातर साहित्य इन भाषाओं में लिखा गया है। हां, अब आधुनिक युग में हम अक्सर खड़ी बोली में लिखते हैं। लेकिन जो लोग हनुमान चालीसा को याद करते हैं या जपते हैं, वो अवधी में ही ऐसा करते हैं।’
कोई राजनीतिक संदेश?
क्या इसमें कोई राजनीतिक संदेश भी है? इस सवाल पर विक्रम सेठ कहते हैं, ‘कुछ खास नहीं लेकिन ये है कि हनुमान जी इतने घमंडी नहीं थे, जैसे कि हमारे आजकल के सियासतदान हैं। आजकल सब अपनी पेट सेवा में हैं लेकिन हनुमान लड़ते तो थे पर अपने लिए नहीं बल्कि दूसरे के लिए लड़ते थे।’
हालांकि विक्रम सेठ ख़ुद को दुरुस्त करते हुए कहते हैं, ‘सच कहा जाए तो इसमें कोई राजनीतिक संदेश है ही नहीं। हालांकि मैं चाहता था कि चुनाव से पहले हनुमान जयंती के मौक़े पर प्रकाशित हो लेकिन फिर सोचा कि यह चुनाव के झमेले में पड़ जाएगा, तो इससे बचना चाहिए।’
उन्होंने कहा, ‘फिर मैंने सोचा कि जून में अपने जन्मदिन के मौके पर इसे प्रकाशित करूंगा। यानी मैं राजनीति से बचना चाहता था।’
चुनाव और नतीजों को लेकर पूछने पर उन्होंने कहा, ‘कह सकते हैं कि तानाशाही पर कुछ लगाम तो लग गई। अब देखा जाएगा आगे क्या होता है। भारत महान देश है। लेकिन जो जहर हमारी नसों में बहना शुरू हो गया है, उसे निकलने में टाइम लगेगा। आप जर्मनी के बारे में सोचिए। जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ इतनी नफरत थी। अब वहां ऐसा कुछ नहीं है। जो अपने देशवासी के खिलाफ नफरत पैदा करते हैं, वो देशभक्त नहीं हो सकते।’
क्यों चर्चा में रहे हैं विक्रम सेठ
विक्रम सेठ का सबसे चर्चित उपन्यास 'ए सूटेबल ब्वॉय’ 1993 में प्रकाशित हुआ था।
बाद में इस उपन्यास का बीबीसी टेलीविजन रूपांतरण प्रसिद्ध निर्देशक मीरा नायर ने किया था।
ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र में डिग्री हासिल करने वाले विक्रम सेठ को एक बार न्यूयॉर्क टाइम्स ने ‘विनम्र व्यंग्य’ करने वाला व्यक्ति कहा था।
अपने लेखन से साहित्य की दुनिया में पहचान बनाने वाले विक्रम सेठ की मां लीला सेठ भारत में हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश बनने वाली पहली महिला थीं।
विक्रम सेठ अपने विचारों को मुखरता से व्यक्त करने के लिए भी जाने जाते रहे हैं। वो भारत में समलैंगिक अधिकारों के समर्थक रहे हैं।
साल 2013 में इंडिया टुडे मैग्जीन के कवर पेज पर उनकी एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जिसमें वो एक तख़्ती लिए अस्त व्यस्त खड़े हैं। तख्ती पर लिखा था- नॉट ए क्रिमिनल।
असल में उस समय एलजीबीटी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए विक्रम सेठ ने यह अनूठा तरीका अपनाया था।
वह समलैंगिक संबंधों पर रोक लगाने वाले कानून को बरकरार रखने के लिए देश की सुप्रीम कोर्ट से खफा थे।
तब उन्होंने बीबीसी को इस तस्वीर के खींचे जाने और फिर प्रकाशित होने के पीछे कहानी के बारे में बताया था।
(bbc.com/hindi)
शिक्षा मंत्रालय ने बुधवार को हुई यूजीसी-नेट परीक्षा रद्द कर दी है.
मंत्रालय का कहना है कि प्रथम दृष्टया उसे परीक्षा में गड़बड़ी के संकेत मिले हैं.
मंत्रालय ने बयान जारी कर बताया कि राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) ने 18 जून, 2024 को देश भर में दो शिफ्टों में पेन और पेपर मोड में यूजीसी-नेट जून 2024 की परीक्षा आयोजित की थी.
बयान में कहा गया है कि परीक्षा के अगले ही दिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को गृह मंत्रालय के इंडियन साइबर क्राइम कोऑर्डिनेशन सेंटर से परीक्षा के बारे में कुछ इनपुट मिले, जिनके विश्लेषण से प्रथम दृष्टया लगता है कि इसमें गड़बड़ी हुई है.
मंत्रालय ने परीक्षा रद्द करते हुए इसकी जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दी है.
अब स्थिति यह है कि करीब 9 लाख छात्रों को फिर से यह परीक्षा देनी होगी.
यूजीसी-नेट क्या है?
देश भर की यूनिवर्सिटीज में जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) और असिस्टेंट प्रोफ़ेसर पद के लिए लाखों बच्चे यह परीक्षा देते हैं.
यह परीक्षा साल में दो बार जून और दिसंबर के महीने में होती है.
सुबह 9.30 बजे से दोपहर 12.30 बजे तक और 3 बजे से शाम 6 बजे तक, दो शिफ्टों में हुई इस परीक्षा में कुल 9 लाख 8 हजार 580 बच्चों ने पेपर दिया था.
तीन घंटे की परीक्षा में छात्रों को दो पेपर देने होते हैं. पहला पेपर सबके लिए एक जैसा होता है, वहीं दूसरा पेपर, छात्र जिस विषय को चुनता है, उससे संबंधित होता है.
पहले पेपर में छात्रों के लिए 50 सवाल और दूसरे पेपर में 100 सवाल होते हैं. ये सवाल मल्टीपल चॉइस होते हैं, जिन्हें छात्रों को ओएमआर शीट में भरना होता है. इस परीक्षा में सवाल ग़लत करने पर नंबर नहीं काटे जाते.
यूजीसी के मुताबिक़ जून 2024 के नेट एग्जाम के लिए 317 शहरों में 1205 सेंटर बनाए गए थे.
इस परीक्षा के लिए कुल 11 लाख 21 हजार 225 छात्रों ने रजिस्ट्रेशन करवाया था, लेकिन 81 प्रतिशत छात्र ही परीक्षा देने के लिए पहुंचे.
वहीं दिसंबर, 2023 में हुए नेट एग्जाम में कुल 9 लाख 45 हजार 872 छात्रों ने रजिस्ट्रेशन किया था.
राजस्थान के रहने वाले गर्वित गर्ग ने यूजीसी-नेट की परीक्षा दिसंबर 2020 में मास कम्युनिकेशन विषय से दी थी. उन्होंने इस परीक्षा में जेआरएफ़ क्वॉलिफाई किया था.
वे कहते हैं, “फ़िलहाल मुझे हर महीने पीएचडी रिसर्च करने के लिए 37 हज़ार रुपये यूजीसी की तरफ़ से मिलते हैं. इसके अलावा क़रीब 9 हज़ार घर का किराया भी मिलता है.”
एनटीए पर उठते सवाल
यूजीसी-नेट परीक्षा का आयोजन भी नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) ने किया था.
साल 2018 से ही एनटीए, यूजीसी की तरफ़ से यह परीक्षा आयोजित करवा रही है. पहले यह परीक्षा कंप्यूटर आधारित थी, लेकिन इस साल एजेंसी ने तय किया कि छात्र अलग-अलग सेंटर्स पर एक साथ पेन, पेपर की मदद से यह परीक्षा देंगे.
नीट परीक्षा को लेकर एनटीए पहले ही सवालों के घेरे में है. देश के मेडिकल कोर्सेज़ में दाखिले के लिए भी परीक्षा एनटीए ने ही करवाई थी, लेकिन चार जून को नतीजे घोषित होने के बाद से उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
यह परीक्षा करीब 24 लाख छात्रों ने दी थी. इसमें 67 छात्रों को 720 में से 720 नंबर दिए गए थे, वहीं कुछ ऐसे भी छात्र थे जिन्हें 718 या 719 नंबर मिले थे.
लोगों ने दावा किया कि एक साथ एक परीक्षा में इतने टॉपर नहीं हो सकते और और 718 और 719 नंबर मिलना संभव नहीं है.
लेकिन एनटीए ने तर्क दिया कि जवाब में बदलाव के चलते 1563 छात्रों को ग्रेस मार्क्स दिए गए हैं. हालांकि जल्द ही यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां एनटीए ने कहा कि वह छात्रों को दिए गए ग्रेस मार्क्स रद्द कर रही है.
एनटीए ने बताया कि अब इन छात्रों के लिए 23 जून, 2024 को फिर से टेस्ट का आयोजन किया जाएगा.
एजेंसी के मुताबिक जो बच्चे फिर से टेस्ट में शामिल नहीं होना चाहते हैं उनका रिज़ल्ट उनके वास्तविक मार्क्स (बिना क्षतिपूर्ति अंक के) पर आधारित होगा.
विपक्ष ने उठाए सवाल
कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यूजीसी नेट और नीट परीक्षा को लेकर सवाल पूछे हैं.
खड़गे ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर कहा, "नरेंद्र मोदी जी, आप परीक्षा पर चर्चा तो बहुत करते हैं, नीट परीक्षा पर चर्चा कब करेंगे."
कांग्रेस प्रमुख ने कहा, "यूजीसी नेट परीक्षा रद्द करना लाखों छात्र-छात्राओं के जज़्बे की जीत है. ये मोदी सरकार के अहंकार की हार है, जिसके चलते उन्होंने हमारे युवाओं के भविष्य को रौंदने का प्रयास किया."
उन्होंने कहा, "केंद्रीय शिक्षा मंत्री पहले कहते हैं कि नीट यूजी में कोई पेपर लीक नहीं हुआ. जब बिहार, गुजरात और हरियाणा में शिक्षा माफ़ियाओं की गिरफ़्तारियां होती हैं, तो शिक्षा मंत्री मानते हैं कि कुछ घपला हुआ है."
कांग्रेस प्रमुख ने पूछा कि नीट की परीक्षा कब रद्द होगी. उन्होंने कहा, "मोदी जी नीट परीक्षा में भी अपनी सरकार की धांधली और पेपर लीक को रोकने की ज़िम्मेदारी लीजिए."
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने लिखा, “भाजपा सरकार का लीकतंत्र व लचरतंत्र युवाओं के लिए घातक है. नीट परीक्षा में हुए घपले की खबरों के बाद अब 18 जून को हुई नेट की परीक्षा भी गड़बड़ियों की आशंका के चलते रद्द की गई. क्या अब जवाबदेही तय होगी? क्या शिक्षा मंत्री इस लचरतंत्र की जिम्मेदारी लेंगे?”
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने एक्स पर लिखा, “अबकी बार, पेपर लीक सरकार. अब ये सरकार कुछ ही दिनों की मेहमान है.”
आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने एक्स पर लिखा, “2 साल में 2 करोड़ युवाओं की ज़िंदगी ‘पेपर लीक’ के कारण बर्बाद हो चुकी है. कभी उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती, कभी नीट, अब यूजीसी, बीजेपी ने देश को ‘पेपर लीक’ देश बना दिया है. क्या आपको ग़ुस्सा नहीं आता? आप बार-बार मोदी जी को वोट देते हैं मोदी जी आपको ‘पेपर लीक’ का चोट देते हैं.” (bbc.com/hindi)
- पल्लब घोष
इवोल्यूशन (क्रमिक विकास) के सिद्धांत के चलते चार्ल्स डार्विन की इज़्ज़त वैज्ञानिकों के बीच भगवान जैसी रही है.
लेकिन इंसानों की तरह जीवों में भी चेतना वाले उनके विचार को लंबे समय से कोई ख़ास तवज्जो नहीं मिली है.
डार्विन ने लिखा था, "सुख, दर्द, खुशी और दुख को महसूस करने की क्षमता में इंसानों और जीवों के बीच कोई बुनियादी अंतर नहीं है."
लेकिन जानवर सोचते और महसूस करते हैं उनके इस सुझाव को, अधिकांश एनिमल बिहैवियर एक्सपर्ट को छोड़कर, बहुत से लोगों के बीच विज्ञान से उलट माना जाता रहा.
उनकी प्रतिक्रियाओं के आधार पर चेतना को जीवों से जोड़ने को 'पाप' समझा जाता था.
तर्क ये दिया गया कि मानवीय गुणों और भावनाओं को जीवों पर लागू करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था और न ही जीवों के दिमाग में क्या चल रहा है, इसकी जांच करने का कोई तरीका था.
लेकिन अगर, अपने आस पास के माहौल को महसूस करने और उसे समझने की जीवों की क्षमता के नए तथ्य सामने आएं तो क्या इसका मतलब होगा कि वो चेतनशील हैं?
हम जानते हैं कि मधुमक्खियां गिन सकती हैं, इंसानी चेहरे पहचान सकती हैं और कुछ तरीक़े इस्तेमाल कर सकती हैं.
लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर, लार्स छिट्टका ने मधुमख्खियों की बुद्धिमत्ता पर कई बड़े अध्ययन किए हैं.
वो कहते हैं, "अगर मधुमक्खियां बुद्धिमान हैं, तो वे सोचने के साथ महसूस कर सकती हैं, जोकि चेतना की बुनियादी इकाई है."
प्रोफ़ेसर छिट्टका के प्रयोगों ने दिखाया है कि किसी सदमे वाली दुर्घटना के बाद मधु मक्खियां अपने व्यवहार में बदलाव लाती हैं और ऐसा लगा कि वो खेलने, लकड़ी के छोटे से गोले को रोल करने में सक्षम हैं. प्रोफ़ेसर का कहना है कि वे इसे एक एक्टिविटी के रूप में आनंद लेती दिखीं.
इन नतीजों ने एनिमल रिसर्च में जाने माने और रसूखदार वैज्ञानिक को और स्पष्टता से कुछ कहने को प्रेरित कि.
उन्होंने कहा, "सभी तथ्यों को देखते हुए यह बहुत संभव है कि मुधमक्खियां चेतनशील हों."
चेतना क्या है?
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर जोनाथन बर्च कहते हैं, "हमारे पास ऐसे रिसर्चर हैं जो जीवों की चेतना को लेकर सवाल पूछने की हिम्मत करने लगे हैं और इस बारे में सोचने लगे हैं कि उनकी रिसर्च कैसे इस सवाल का जवाब दे सकती है."
हालांकि यह कोई नई चीज़ नहीं है, बल्कि कई सारे तथ्यों ने रिसर्चरों में इस विचार को बढ़ावा दिया.
जो कुछ पता चला है वो जीवों की चेतना का कोई ठोस सबूत तो नहीं है लेकिन अगर इन्हें एकसाथ मिलाया जाए तो, प्रो. बर्च के अनुसार, इसकी प्रबल संभावना बनती है कि जीवों में चेतनशीलता की क्षमता होती है.
यह बात सिर्फ वानरों और डॉल्फ़िन में ही नहीं होती, जोकि विकासक्रम में अधिक विकसित हैं. आगे के रिसर्च के लिए फंडिंग जुटाने की कोशिश कर रहे एक ग्रुप के अनुसार, यह सांप, ऑक्टोपस, केकड़ा, मधुमक्खी और संभवतः फ़्रूट फ्लाईज़ जैसे साधारण जीवों पर भी लागू होता है.
लेकिन चेतना क्या है, इस पर वैज्ञानिक एकमत नहीं हैं.
फ़्रांसीसी दार्शनिक रेने देकार्त ने 17वीं सदी में इसे समझने की कोशिश की थी.
उन्होंने कहा था: आई थिंक, देयरफ़ोर आइ एम यानी मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं."
उन्होंने ये भी कहा था, "केवल भाषा ही शरीर में छिपे विचार का निश्चित संकेत है."
चेतना की परिभाषा पर अध्ययन करने वाले इंग्लैंड की ससेक्स यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अनिल सेठ ने बीबीसी से कहा, "भाषा, बुद्धिमत्ता और चेतना की यह अपवित्र तिकड़ी देकार्त तक जाती है."
यह 'अपवित्र तिकड़ी' 20वीं सदी में सामने आए व्यवहारवाद आंदोलन के केंद्र में थी.
इसके अनुसार, विचार और अहसास को वैज्ञानिक तरीकों से नहीं मापा जा सकता और व्यवहार की पड़ताल करते समय इसे नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए.
अधिकांश एनिमल बिहैवियर एक्सपर्ट इसी विचार के हैं, लेकिन प्रोफ़ेसर सेठ के मुताबिक, यह कम मानव केंद्रित नज़रिये के लिए रास्ता बनाने की शुरुआत है.
वो कहते हैं, "क्योंकि हम चीजों को इंसानी चश्मे देखते हैं और चेतना को भाषा और बुद्धिमत्ता से जोड़ने की आदत होती है. चूंकि ये हममें एक साथ होती है, इसका ये मतलब नहीं कि आम तौर पर भी यह एक साथ हो."
अन्य जीवों में चेतना का स्तर
कुछ लोग चेतना शब्द के कुछ इस्तेमाल की तीखी आलोचना करते हैं.
क्यूबेक यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर स्टीवन हर्नाड कहते हैं, "यह ऐसा शब्द है जिसे बहुत सारे लोग बड़े आत्मविश्वास से इस्तेमाल करते हैं लेकिन सबका अलग अलग मतलब होता है. और इसलिए ये स्पष्ट नहीं है कि असल में इसका क्या मतलब है."
वो कहते हैं कि इसके लिए बेहतर शब्द है 'संवेदना' जोकि महसूस करने की क्षमता से ज़्यादा जुड़ी है.
प्रोफ़ेसर हर्नाड कहते हैं, "हर चीज़ अनुभव करना, चुटकी काटने, लाल रंग देखने, थका और भूखा महसूस करने से लेकर जो भी हम फ़ील करते हैं."
लेकिन कुछ व्यवहारवादी इससे सहमत नहीं हैं.
व्यवहारवादी पृष्ठभूमि से आने वाली ओरेगॉन स्टेट यूनिवर्सिटी की डॉ. मोनिक उडेल के अनुसार, "अगर हम अलग अलग व्यवहारों को देखें, उदाहरण के लिए जीवों की प्रजातियां एक मिरर में खुद को पहचान सकती हैं, उनमें से कितनी प्रजातियां अतीत में घटित चीजों को याद रख पाती हैं या पहले से योजना बना सकती हैं. प्रयोगों से हम इन सवालों को टेस्ट कर सकते हैं और डेटा पर आधारित अधिक सटीक नतीजे निकाल सकते हैं."
"और अगर हम चेतना को मापे जा सकने वाले व्यवहारों के जोड़ के तौर पर लेते हैं तो इस प्रयोग में जो जानवर सफल हुए उन्हें चेतनशील कहा जा सकता है."
कुछ लोगों का कहना है कि चेतनशीलता की जांच करने के लिए अधिक जीवों पर अध्ययन की ज़रूरत है.
टोरंटो में यॉर्क यूनिवर्सिटी में एनिमल माइंड्स पर विशेषज्ञता रखने वाले दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर क्रिस्टीन एंड्र्यूज़ कहते हैं, "अभी अधिकांश वैज्ञानिक प्रयोग इंसानों और बंदरों पर किए गए और हम इस काम को ज़रूरत से अधिक कठिन बना रहे हैं क्योंकि हम चेतना को इसके बुनियादी स्वरूप में नहीं जान पा रहे हैं."
प्रोफ़ेसर एंड्र्यूज़ और कई अन्य लोगों मानना है कि इंसान और बंदर पर रिसर्च उच्च स्तर की चेतना का अध्ययन है, जबकि ऑक्टोपस और सांप भी चेतना का कुछ बुनियादी स्वरूप रख सकते हैं, जिन्हें हम नज़रअंदाज़ करते हैं.
प्रोफ़ेसर एंड्र्यूज़ उन चंद लोगों में से है जिन्होंने जीवों में चेतना पर न्यूयॉर्क घोषणापत्र को आगे बढ़ाया था, जिस पर इसी साल हस्ताक्षर हुए हैं. अभी तक इस पर 286 शोधकर्ताओं ने हस्ताक्षर किए हैं.
संक्षेप में घोषणा के चार पैराग्राम में लिखा है कि जीवों की चेतनशीलता की संभावना को नज़रअंदाज़ करना “ग़ैरज़िम्मेदाराना” है.
जीवों पर प्रयोग करने वाली कंपनियों और रिसर्च संस्थाओं की ओर से समर्थित ब्रिटिश संस्था अंडरस्टैंडिंग एनिमल रिसर्च के क्रिस मैगी कहते हैं कि प्रयोगों की बात आती है तो हम पहले ही उन्हें चेतनशील मानकर चलते हैं.
और शोध की ज़रूरत
लेकिन हम केकड़े, लोबस्टर, क्रेफ़िश और झींगा के बारे में बहुत अधिक नहीं जानते.
2021 प्रोफ़ेसर बर्च के नेतृत्व में एक सरकारी रिव्यू में ऑक्टोपस, स्क्विड और कटलफ़िश जैसे जीवों पर 300 वैज्ञानिक अध्ययनों की पड़ताल की गई.
इसमें पाया गया कि इस बात के मजबूत तथ्य थे कि ये जीव दर्द, सुख, प्यास, भूख, गर्मी, खुशी, आराम, उत्तेजना को लेकर संवेदनशील थे.
इन नतीजों के बाद ही 2022 में इन जीवों को एनिमल वेलफ़ेयर (सैंटिएंस) एक्ट के तहत लाया गया.
प्रोफ़ेसर बर्च के अनुसार, "ऑक्टोपस और केकड़े की सुरक्षा को नज़अंदाज़ किया जाता रहा है. उभरते हुए विज्ञान को इन मुद्दों को अधिक गंभीरता से लेने के लिए जागरूकता फैलानी चाहिए."
जीवों की दसियों लाख प्रजातियां हैं जिनपर बहुत कम अध्ययन किया गया है.
मधुमक्खियों के बारे में हम जानते हैं और अन्य शोधकर्ताओं ने कॉकरोच और फ़्रूट फ्लाईज़ में चेतना के संकेत दिए हैं.
यॉर्क घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने वाले आधुनिक ज़माने के 'अधर्मियों' का दावा है कि यह एक अध्ययन का क्षेत्र है जिसे नज़रअंदाज़ किया गया और यहां तक कि इसका उपहास उड़ाया गया.
खुल कर बात करने का उनका नज़रिया कोई नई बात नहीं है.
जिस ज़माने में देकार्त ने कहा था कि 'मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं,' उसी दौर में ये कहने पर कि ब्रह्मांड का केंद्र पृथ्वी नहीं है, कैथोलिक चर्च ने इतालवी खगोलशास्त्री गैलीलियो गेलीली को अधर्मी क़रार दिया था. (bbc.com/hindi)
-कविता पुरी
सुज़ैना हरबर्ट मुझसे कहती हैं कि, ‘जो कुछ हुआ उसको लेकर मैं बहुत शर्मिंदगी महसूस करती हूँ.’
सुज़ैना के दादा, ब्रिटिश भारत में बंगाल के गवर्नर थे, जब 1943 में बंगाल सूबे में भयंकर अकाल पड़ा था. उस अकाल में कम से कम 30 लाख लोगों की मौत हो गई थी.
सुज़ैना उस तबाही में अपने दादा की अहम भूमिका के बारे में अभी ताज़ा ताज़ा जानकारी हासिल कर रही हैं और एक पेचीदा पारिवारिक विरासत से रूबरू हो रही हैं.
जब मैं सुज़ैना से पहली बार मिली, तो उन्होंने 1940 में खींची गई एक तस्वीर हाथ में ले रखी थी.
ये तस्वीर उस वक़्त बंगाल के गवर्नर के आवास में क्रिसमस के दिन खींची गई थी.
ये बेहद औपचारिक क़िस्म की तस्वीर है. इसमें लोग अपने शानदार लिबास पहनकर क़तार में बैठे हुए सीधे कैमरे की तरफ़ देख रहे हैं.
पहली क़तार में शामिल मानिंद हस्तियों में ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो भी शामिल हैं. वो भारत में ब्रिटिश हुकूमत की बड़ी शख़्सियतों में से एक थे. उनके साथ ही बंगाल के गवर्नर और सुज़ैना के दादा सर जॉन हरबर्ट भी बैठे हुए थे.
उनके पैरों के पास सफ़ेद कमीज़ और हाफ पैंट, घुटनों तक की जुराबें और चमकते जूते पहने हुए एक छोटा सा बच्चा भी बैठा हुआ है. ये बच्चा सुज़ैना के पिता हैं.
जॉन हरबर्ट
सुज़ैना के पिता ने उन्हें भारत में बिताए अपने दिनों की कुछ कहानियां तो सुनाई थीं. जैसे कि फादर क्रिसमस एक रोज़ हाथी पर सवार होकर आए थे. लेकिन, उन्होंने सुज़ैना को बहुत ज़्यादा बातें नहीं बताई थीं.
इन क़िस्सों में भी सुज़ैना के दादा का ज़िक्र बहुत कम आया था. उनकी मौत 1943 के आख़िरी दिनों में हो गई थी.
बंगाल में पड़े अकाल पड़ने के पीछे बहुत से और जटिल कारण रहे थे. इसमें कोई शक नहीं कि उस दौरान जॉन हरबर्ट बंगाल में ब्रिटिश औपनिवेशक हुकूमत की सबसे अहम शख़्सियत थे.
लेकिन, वो एक बड़े साम्राज्यवादी ढांचे का एक हिस्सा मात्र थे. वो दिल्ली में बैठे अपने आला अधिकारियों को रिपोर्ट करते थे और वो अधिकारी लंदन में बैठे अपने बॉस के प्रति जवाबदेह थे.
डॉक्टर जनम मुखर्जी एक इतिहासकार और हंगरी बंगाल किताब के लेखक हैं. वो मुझे बताते हैं कि जॉन हरबर्ट ‘इस अकाल से सीधे तौर पर जुड़े साम्राज्यवादी अधिकारी थे. क्योंकि वो उस वक़्त बंगाल सूबे के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी थे.’
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जॉन हरबर्ट ने बंगाल में जो नीतियां लागू कीं, उनमें से सबसे अहम फ़ैसले को ‘महरूम करने’ के तौर पर जाना जाता है. इस नीति के तहत पूरे बंगाल सूबे के हज़ारों गांवों में नावों और लोगों के मुख्य भोजन चावल को ज़ब्त करके उन्हें नष्ट कर दिया गया था.
ऐसा, बंगाल पर जापान के हमले के डर की वजह से किया गया था. इसका मक़सद था कि अगर दुश्मन हमला करे, तो उसे भारत में आगे बढ़ने में मदद करने वाले स्थानीय संसाधन हासिल न हों.
हालांकि, इस उपनिवेशवादी नीति की वजह से बंगाल की पहले से ही नाज़ुक अर्थव्यवस्था बुरी तरह तबाह हो गई थी. नावें ज़ब्त होने से मछुआरे समुद्र में नहीं जा सकते थे. किसान, नदियां पार करके अपने खेतों तक नहीं पहुंच सकते थे. कारीगर अपना सामान बाज़ार तक नहीं ले जा सकते थे. और, सबसे अहम बात ये कि बंगाल के प्रमुख खाद्यान्न चावल को कहीं लाया ले जाया नहीं जा सकता था.
युद्ध के बीच खाद्यान्न संकट
1940 की इस तस्वीर में अपनी पत्नी लेडी मैरी के साथ दिख रहे सर जॉन हरबर्ट.
उस दौर में महंगाई पहले ही आसमान छू रही थी, क्योंकि दिल्ली की औपनिवेशिक सरकार विशाल एशियाई मोर्चे पर चल रही जंग का ख़र्च उठाने के लिए धड़ाधड़ नोटें छाप रही थी.
कोलकाता- जो उस वक़्त कलकत्ता था- में मित्र राष्ट्रों के लाखों सैनिक तैनात थे, जिनकी वजह से खाद्य संसाधनों पर बोझ बहुत बढ़ गया था.
जब बर्मा पर जापानियों ने क़ब्ज़ा कर लिया, तो वहां से बंगाल को चावल का आयात बंद हो गया. मुनाफ़ाख़ोरी के लिए चावल की जमाखोरी होने लगी. इसी दौरान एक भयंकर समुद्री चक्रवात ने बंगाल में धान की ज़्यादातर फसलों को तबाह कर दिया था.
विश्व युद्ध के दौरान, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और उनकी वॉर कैबिनेट से बार-बार खाद्यान्न के आयात की मांग की गई. लेकिन, चर्चिल की सरकार ने या तो ये मांग सिरे से ख़ारिज कर दी या फिर उस पर ध्यान नहीं दिया.
अकाल में मारे गए लोगों की तादाद बहुत अधिक है. मैं सोचती हूँ कि बंगाल के तत्कालीन गवर्नर की पोती सुज़ैना आख़िर इतने दशकों बाद इस बात पर शर्मिंदगी क्यों महसूस कर रही हैं.
वो मुझे समझाने की कोशिश करते हुए कहती हैं कि, ‘जब मैं छोटी थी तो ब्रिटिश साम्राज्य से किसी भी तरह का ताल्लुक़ बहुत आकर्षक लगता था.’
वो कहती हैं कि बचपन में वो अपने दादा के कपड़ों में से कुछ कपड़े निकालकर इस्तेमाल करती थीं. सुज़ैना बताती हैं कि, ‘उनमें रेशम के रूमाल थे. उन पर लगे लेबल में मेड इन ब्रिटिश इंडिया-लिखा होता था.’
‘और अब जब मैं उन्हें अल्मारी के पिछले हिस्से में रखा हुआ देखती हूं, तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं और मैं कहती हूं कि मैं ये सब क्यों ही पहनना चाहूंगी? क्योंकि अब इन कपड़ों पर लगा हुआ ‘ब्रिटिश भारत’ का लेबल’ पहनना अब अनुचित मालूम होता है.’
पुराने दस्तावेज़ों से क्या पता चला
HERBERT FAMILY
ब्रिटिश इंडिया के लेबल वाले मफ़लर लपेटना अब सुज़ैना को ठीक नहीं लगता.
सुज़ैना ने ब्रिटिश भारत में अपने दादा की ज़िंदगी के बारे में और जानकारी जुटाने और सारी बातें समझने का पक्का इरादा कर लिया है.
वो बंगाल के अकाल पर वो सब कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही हैं, जो उन्हें हासिल हो सकता है. इन दिनों वो अपने दादा-दादी के दस्तावेज़ों को खंगाल रही हैं.
ये दस्तावेज़ वेल्श में उनके पारिवारिक मकान में बनाए गए हरबर्ट आर्काइव में रखे हुए हैं.
उन्हें नियंत्रित तापमान वाले एक कमरे में रखा गया है और ऐसे दस्तावेज़ सहेजने में माहिर एक शख़्स महीने में एक बार उनकी देख-रेख के लिए आता है.
इन काग़ज़ात को पढ़ते-पढ़ते सुज़ैना को अपने दादा को लेकर समझ और बढ़ी है.
वो कहती हैं कि, ‘इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने जो नीतियां लागू कीं या जिनकी शुरुआत की, उनकी वजह से अकाल का दायरा और इसका असर बहुत बढ़ गया.’
सुज़ैना कहती हैं कि, ‘उनके पास हुनर था. उनकी एक प्रतिष्ठा थी और उनको कभी भी ब्रिटिश हुकूमत के एक कोने में स्थित बंगाल सूबे में छह करोड़ लोगों की क़िस्मत तय करने के लिए गवर्नर नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए था. उनको वहां नहीं तैनात किया जाना चाहिए था.’
परिवार के पुराने काग़ज़ात में सुज़ैना को एक चिट्ठी मिली. ये चिट्ठी उनकी दादी लेडी मैरी ने अपने पति को 1939 में उस वक़्त लिखी थी, जब उन्हें पता चला था कि जॉन हरबर्ट को बंगाल का गवर्नर बनाने की पेशकश की गई है.
इस चिट्ठी में अच्छी बातें भी हैं और कुछ बुरी भी हैं. सुज़ैना की दादी की ये ख़्वाहिश बिल्कुल नहीं थी कि वो बंगाल जाएं. हालांकि, लेडी मैरी ने चिट्ठी में ये भी लिखा था कि उन्हें अपने पति का फ़ैसला क़ुबूल होगा.
सुज़ैना बताती हैं कि, ‘आप वो चिट्ठियां उस दौर की जानकारी के साथ पढ़ते हैं. आज आपको वो सारी बातें मालूम हैं, जो उस वक़्त चिट्ठी लिखने और उसे पढ़ने वाले को पता नहीं थी. अगर आप गुज़रे हुए दौर में पहुंच सकते तो आप उनसे यही कहते: ऐसा मत करो. मत जाओ. भारत मत जाओ. तुम अच्छा काम नहीं कर सकोगे.’
पिछले कई महीनों से मैं सुज़ैना हरबर्ट से उनके अतीत के इस सफ़र के बारे में बातचीत कर रही हूं. इस दौरान सुज़ैना ने अपने दादा को लेकर कई सवाल विस्तार से तैयार किए हैं.
वो इतिहासकार जनम मुखर्जी से मिलने को उत्सुक रही हैं ताकि उनसे सीधे ये सारे सवाल कर सकें. उन दोनों की मुलाक़ात जून महीने में हुई.
जनम ये स्वीकार करते हैं कि उन्होंने कभी ये तसव्वुर नहीं किया था कि वो जॉन हरबर्ट की पोती के साथ आमने-सामने बैठकर बातें करेंगे.
सुज़ैना ये जानना चाहती हैं कि उनके दादा, जो एक राज्य स्तर के सांसद और सरकार के सचेतक (व्हिप) थे, उनको आख़िर बंगाल का गवर्नर क्यों नियुक्त किया गया था. जबकि उनको तो भारत की राजनीति का कोई तजुर्बा नहीं था. वो तो एक युवा अधिकारी के तौर पर बस कुछ दिनों के लिए दिल्ली में रहे थे.
जनम मुखर्जी इस सवाल के जवाब में समझाते हैं कि, ‘उपनिवेशवाद का तो यही तौर-तरीक़ा होता है और इसकी जड़ ख़ुद को श्रेष्ठ समझने की सोच में है.’
वो कहते हैं कि, ’कुछ सांसद जिनको उपनिवेशों में काम करने का कोई तजुर्बा नहीं होता. जिनको स्थानीय भाषा की कोई समझ नहीं होती. जिन्होंने ब्रिटेन के बाहर की किसी सियासी व्यवस्था में काम नहीं किया होता, वो भी सीधे कलकत्ता में गवर्नर के आवास में भेजे जा सकते हैं और वहां बैठकर वो उन लोगों की पूरी आबादी के बारे में फ़ैसले ले सकते हैं, जिनके बारे में उनको कोई जानकारी नहीं होती.’
बंगाल अकाल में 30 लाख लोग मरे
वैसे भी जॉन हरबर्ट, बंगाल में चुने हुए भारतीय राजनेताओं के बीच लोकप्रिय नहीं थे. वहीं, दिल्ली में बैठे उनसे वरिष्ठ अधिकारियों को भी उनकी क़ाबिलियत पर भरोसा नहीं था. इनमें उस वक़्त के वायसराय लिनलिथगो भी शामिल थे.
जनम मुखर्जी कहते हैं कि, ‘लिनलिथगो उन्हें भारत का सबसे कमज़ोर गवर्नर कहते थे. सच्चाई तो ये है कि वो उन्हें हटाना चाहते थे. लेकिन, उनको इस बात की फ़िक्र थी कि इस फ़ैसले पर न जाने कैसी प्रतिक्रिया हो.’
सुज़ैना कहती हैं कि, ‘ये सब सुनना बड़ा मुश्किल है.’
मैं इस बात से हैरान हूं कि जनम और सुज़ैना का बंगाल के अकाल से एक निजी रिश्ता है. जनम और सुज़ैना दोनों के पिता लगभग उसी दौर में हम उम्र छोटे बच्चे थे. हालांकि, दोनों बिल्कुल ही अलग-अलग ज़िंदगियां जी रहे थे. अब उन दोनों का निधन हो चुका है. सुज़ैना के पास तो कम से कम कुछ तस्वीरें हैं.
पर, जनम के पास अपने पिता के बचपन की कोई तस्वीर नहीं है. वो कहते हैं कि, ‘आज मुझे जो कुछ भी पता है वो मुझे मेरे पिता ने अपने बचपन के अनुभव के तौर पर बताए थे और उन्होंने एक औपनिवेशिक युद्ध क्षेत्र से जुड़े अपने बुरे ख़्वाब भी मुझसे साझा किए थे.’
जनम कहते हैं कि, ‘मैं सोचता हूं कि उस वक़्त मेरे पिता की ज़िंदगी किस क़दर टूटी फूटी रही होगी और मैं ये समझने की कोशिश करता हूं कि उनकी औलाद के तौर पर मुझ पर इसका क्या असर हुआ होगा.’
और तभी वो ऐसी बात कहते हैं, जिसकी मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी.
जनम ने बताया कि, ‘मेरे दादा भी साम्राज्यवादी पुलिस बल में काम करते थे. इस तरह मेरे दादा भी कई तरह से उस उपनिवेशवादी हुकूमत से मिले हुए थे. सब कुछ समझने की हमारी प्रेरणा के पीछे ये दिलचस्प समानताएं भी हैं.’
बंगाल के अकाल में कम से कम 30 लाख लोगों की जान चली गई थी और उन लोगों की याद में न तो कोई स्मारक बना और न ही उनके लिए कहीं एक पट्टी लगी.
सुज़ैना कम से कम अपने दादा के एक स्मारक की तरफ़ तो इशारा कर ही सकती हैं.
वो कहती हैं कि, ‘हम जिस चर्च में पूजा करने जाते हैं, वहां उनकी याद में एक पट्टिका लगी है.’
वो बताती हैं कि चर्च में ये पट्टिका इसलिए लगी है, क्योंकि उनके दादा की कोई क़ब्र नहीं है. उनको ठीक ठीक ये भी नहीं पता कि उनके दादा के अवशेष शायद कोलकाता में हों, या न हों.
अपने दादा के लिए सुज़ैना सबसे ज़्यादा जो शब्द इस्तेमाल करती हैं, वो है मान-सम्मान का. हालांकि, वो उनकी नाकामियों को भी स्वीकार करती हैं.
सुज़ैना कहती हैं कि, ‘मेरे लिए ये क़बूल करना काफ़ी आसान है कि इतिहास जैसा हमें पढ़ाया गया, उससे कहीं ज़्यादा जटिल है. फिर भी मेरे लिए ये कल्पना करना काफ़ी मुश्किल है कि जॉन हरबर्ट […] किसी भी तरह से अपनी शान के ख़िलाफ़ बर्ताव कर रहे थे.’
जनम मुखर्जी का नज़रिया इससे अलग है. वो कहते हैं कि, ‘नीयत से जुड़े इन सवालों में मेरी दिलचस्पी कभी नहीं रही. मेरी दिलचस्पी तो ऐतिहासिक घटनाक्रम में है. क्योंकि मुझे लगता है कि जो कुछ घटित होता है, उस पर नीयत अक्सर मुलम्मा चढ़ा देती है.’
एक जटिल विरासत की छानबीन
सुज़ैना कहती हैं कि उनके लिए ये कल्पना करना बहुत मुश्किल है कि उनके दादा ने अपनी प्रतिष्ठा के उलट बर्ताव कर रहे थे. वहीं जनम का कहना है कि उनकी दिलचस्पी इरादों से ज़्यादा ऐतिहासिक घटनाक्रम में है.
आठ साल की कोशिशों के बाद भी सुज़ैना के लिए ये मसला पेचीदा और बिल्कुल ताज़ा बना हुआ है. मैं सोचती हूं कि महीनों की अपनी रिसर्च के बाद भी सुज़ैना जो कुछ सोचती और महसूस करती हैं, क्या उसे ‘शर्मिंदगी’ कहा जा सकता है?
वो मुझे बताती हैं कि उन्होंने अपना नज़रिया बदल लिया है. सुज़ैना का कहना है कि, ‘मुझे लगता है कि शर्मिंदगी से ये पूरा घटनाक्रम मेरे ऊपर कुछ ज़्यादा ही केंद्रित हो जाता है. ये सिर्फ़ मेरी बात नहीं कि मैं क्या सोचती हूं.’
‘मुझे लगता है कि ये तो एक बड़ी परियोजना का हिस्सा है. जिसमें हम ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि उस वक़्त हुआ क्या था और हम कहां से चले थे और कहां तक पहुंचे. हम? मेरा मतलब है ब्रिटेन, मेरा ये देश.’
जनम भी मानते हैं कि, ‘एक औपनिवेशिक हुकूमत के अधिकारी की वारिस के तौर पर मुझे नहीं लगता कि कोई शर्मिंदगी है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती है. मुझे लगता है कि ये ब्रिटेन के लिए शर्मिंदा होने की बात है.’
जनम कहते हैं कि, ‘मेरे कहने का मतलब है कि बंगाल में लाखों लोग भूख से मर गए. तो मुझे लगता है कि ये निजी स्तर और सामूहिक तौर पर एक ऐतिहासिक घटना की समीक्षा है.’
सुज़ैना अपनी विरासत के बारे में सोच विचार कर रही हैं. वो अपनी तलाश के नतीजे अपने परिवार के दूसरे सदस्यों से साझा करना चाहती हैं. हालांकि, उनको नहीं पता कि परिवार के बाक़ी लोग इस सच्चाई को किस तरह देखेंगे.
सुज़ैना को उम्मीद है कि शायद उनके बच्चे उन्हें वेल्श के पारिवारिक संग्रहालय में जमा दस्तावेज़ों के पहाड़ से ज़रूरी चीज़ें तलाशने में मदद करें.
आज जब ब्रिटेन ये समझने की कोशिश कर रहा है कि वो अपने युद्ध इतिहास और उपनिवेशवादी तारीख़ का सामना किस तरह करे, तो सुज़ैना के बच्चे भी एक जटिल निजी विरासत से जूझ रहे हैं. (bbc.com/hindi)
-मुकेश कुमार योगी
वर्ष 2009 में बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम प्रदान कर उन्हें शिक्षा से जोड़ने का बहुत बड़ा कदम उठाया गया. इससे शिक्षा से वंचित देश के लाखों बच्चों को लाभ जरूर हुआ लेकिन अधिनियम लागू होने के 15 साल बाद भी यदि हम धरातल पर वास्तविक स्थिति को देखें तो अभी भी हजारों और लाखों बच्चे किसी न किसी कारण स्कूल की दहलीज से दूर हैं. अकेले राजस्थान में ही दो लाख से अधिक बच्चे शिक्षा से वंचित हैं. इनमें एक बड़ी संख्या प्रवासी मजदूरों के बच्चों की है. जो बेहतर रोजगार की तलाश में माता-पिता के साथ प्रवास करते हैं लेकिन उनके पास किसी प्रकार के उचित दस्तावेज़ नहीं होते हैं, जिसके कारण प्रवास स्थल के निकट स्कूल भी उन्हें एडमिशन देने से रोक देते हैं.
इसका एक उदाहरण राजस्थान के पाली जिला स्थित कालिया मगरा कॉलोनी है. जिला के सुमेरपुर ब्लॉक से करीब 24 किमी और सिंदूरू ग्राम पंचायत से लगभग पांच किमी दूर आबाद इस कॉलोनी में 40 आदिवासी परिवार आबाद है. जो आजीविका की तलाश में 35 वर्ष पूर्व उदयपुर जिला के कोटडा ब्लॉक स्थित विभिन्न गांवों से प्रवास कर यहां संचालित क्रेशर (पत्थर तोड़ने वाली मशीन) पर काम करने के लिए आए थे. लेकिन कई सालों तक उनके पास अपनी पहचान का कोई उचित दस्तावेज नहीं था. जिससे यह लोग किसी भी प्रकार की सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित थे. इन 40 परिवारों में 3 से 14 वर्ष की उम्र के 80 बच्चे हैं जो आज भी शिक्षा से वंचित हैं.
इस संबंध में 32 वर्षीय शांति बाई कहती हैं कि उनके तीन बच्चे हैं जिन्हें स्थानीय स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया, क्योंकि उनके बच्चों के जन्म का कोई प्रमाण नहीं है. जन्म प्रमाण पत्र नहीं होने के सवाल पर शांति बाई के पड़ोसी 40 वर्षीय अन्ना राम कहते हैं कि कॉलोनी के सभी बच्चों का जन्म घर पर ही होता है. ऐसे में उनका प्रमाण पत्र कैसे बनेगा? वहीं 38 वर्षीय वरदा राम गमेती बताते हैं कि "हम मजदूर लोग हैं, यदि अस्पताल का चक्कर लगाएंगे तो हमारी मजदूरी काट ली जाएगी. इसलिए कोई भी मजदूर अस्पताल की जगह पत्नी का घर पर ही प्रसव करवाता है, लेकिन इसके कारण बच्चों का प्रमाण पत्र नहीं बन पाता है."
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में कोटडा आदिवासी संस्थान (केएएस) सहित स्थानीय स्तर पर कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं इन परिवारों के हितों में लगातार काम कर रही है. जिससे इन परिवारों को सरकारी योजनाओं का लाभ तो मिलने लगा है लेकिन बच्चों की शिक्षा का मुद्दा अभी भी हल नहीं हुए है. इस संबंध में केएएस के निदेशक सरफराज़ शेख कहते हैं कि दो वर्ष पूर्व तक इन परिवारों के पास किसी प्रकार का पहचान पत्र तक नहीं था. जिसके कारण उन्हें किसी प्रकार की योजनाओं का लाभ नहीं मिलता था. यह परिवार सरकार की ओर से मज़दूरों के हितों में बनाये गए सभी सुविधाओं का लाभ प्राप्त करने से वंचित थे. जिसके बाद संस्था की ओर से इस दिशा में पहल की गई. जिसकी वजह से आज इनके आधार कार्ड बन चुके हैं और यह परिवार कई योजनाओं का लाभ उठाने लगा है. लेकिन अभी भी बच्चों की शिक्षा का मुद्दा हल नहीं हो सका है.
वह कहते हैं कि इसके लिए संस्था की ओर से सिंदूरू ग्राम पंचायत से संपर्क भी किया गया लेकिन सरपंच द्वारा यह कह कर प्रमाण पत्र जारी करने से मना कर दिया गया कि इन बच्चों के अभिभावक गांव के स्थाई निवासी नहीं है. इसके बाद हमारे द्वारा अलग-अलग स्तर पर पैरवी करने का कार्य किया गया. यह जहां से प्रवास होकर आये हैं वहां की ग्राम पंचायत से भी दस्तावेज के लिए संपर्क किया गया था. परंतु उनके द्वारा भी मना कर दिया गया और कहा गया कि गांव में भी इनका कोई भी प्रूफ नहीं है जिस आधार पर दस्तावेज दिया जाए. सरफराज़ बताते हैं कि कोटडा के एक समाजसेवी चुन्नी लाल ने संस्था के इस काम में मदद भी करना शुरू किया था. लेकिन एक दिन जब वह कोटडा ब्लॉक के उपखण्ड अधिकारी से दस्तावेज के सिलसिले में मिलकर लौट रहे थे तो सड़क दुर्घटना में उनकी मौत हो गई, जिसके बाद इनके लिए दस्तावेज़ तैयार करने के काम रुक गया और बच्चों का एडमिशन नहीं हो सका.

सरफराज़ शेख बताते हैं कि केएएस की सहयोगी संस्था श्रमिक सहायता एवं संदर्भ केंद्र के माध्यम से साल 2015 में भी बच्चों की शिक्षा के लिए प्रयास किये गए थे. इसके लिए कालिया मगरा में एक बालवाड़ी केंद्र का निर्माण भी किया गया था. इसे बनाने में प्रवासी मज़दूरों ने भी अपना योगदान दिया था. इसमें प्रतिदिन 60 बच्चे पढ़ने आते थे. लेकिन कुछ वर्षों बाद उस केंद्र द्वारा सहयोग बंद कर देने से इसे चलाने की चुनौती आ गई. हालांकि शिक्षा विभाग के अधिकारियों के हस्तक्षेप के बाद न केवल बिना किसी प्रमाण पत्र के इन बच्चों का करीब के इंदिरा कॉलोनी स्थित प्राथमिक विद्यालय में एडमिशन कराया गया बल्कि उन अधिकारियों की पहल पर बच्चों के आने जाने के लिए ऑटो की व्यवस्था भी की गई. लेकिन चार माह बाद पैसे नहीं मिलने के कारण ऑटो वाले ने आना बंद कर दिया. जब इस सिलसिले में विभाग के अधिकारियों से संपर्क किया गया तो उनकी ओर से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला. जिसके बाद से अब तक बच्चों की शिक्षा पूरी तरह से ठप है. वह कहते हैं कि यहां काम करने वाले मज़दूरों को कभी छुट्टी नहीं मिलती है. वहीं इनकी मज़दूरी इतनी कम है कि वह अपने बच्चों का कहीं एडमिशन भी नहीं करा सकते हैं.
केएएस के अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर अधिवक्ता शंकर लाल मीना, महिपाल सिंह राजपुरोही और गणेश विश्वकर्मा जैसे कुछ समाजसेवियों ने भी समय समय पर अपने स्तर से इन प्रवासी मज़दूरों के बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास किया. इसके लिए कॉलोनी में ही अस्थाई स्कूल चलाया गया जिससे इन बच्चों में शिक्षा की लौ जल सके. लेकिन यह सभी कोशिशें स्थाई साबित नहीं हो सकी. कभी संसाधनों के अभाव में तो कभी राजनीति के दबाव में यह स्कूल बहुत अधिक दिनों तक चल नहीं सके. जिससे इन प्रवासी मजदूरों के बच्चे शिक्षा से वंचित रह गए है. हालांकि कई बार बच्चों के परिजनों द्वारा भी अलग अगल स्तर पर अधिकारियों को ज्ञापन देकर स्कूल या आंगनबाड़ी खोलने की मांग की गई, लेकिन इसका कोई सकारात्मक हल नहीं निकल सका है.
शिक्षा से यह दूरी धीरे धीरे बच्चों को बाल श्रम की ओर धकेल रहा है. कुछ बच्चे घर का कार्य करने मे व्यस्त हो गए हैं तो कोई परिवार चलाने के लिए होटलों पर काम करने को मजबूर हो गया है. हालांकि शिक्षा का अधिकार कानून में बिना किसी दस्तावेज के सभी बच्चो का स्कूल में प्रवेश देने की बात कही गई है. लेकिन अक्सर नियमों का हवाला देकर सरकारी स्कूल उन्हें बिना दस्तावेज़ के प्रवेश देने से इंकार कर देते हैं. ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि क्या प्रवासी मजदूरों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं है? जरूरी है कि सरकार इस प्रकार के नियम बनाए जिससे कि ऐसे बच्चों के लिए किसी प्रकार के प्रमाण पत्र की आवश्यकता के बिना सरकारी स्कूलों तक पहुंच आसान हो सके. (चरखा फीचर)
- सुधांशु मित्तल
पीछा करने के सदियों पुराने रोमांचक खेल खो-खो की जड़ें भारतीय पौराणिक कथाओं में हैं, और यह खेल प्राचीन काल से प्राकृतिक घास या मैदान में नियमित रूप से पूरे भारत में खेला जाता है। खो मराठी शब्द है जिसका अर्थ है जाओ और पीछा करो। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों द्वारा खेले जाने वाला खो-खो प्राचीन भारत का पारंपरिक खेल माना जाता है और यह ग्रामीण क्षेत्रों में कबड्डी के बाद दूसरा रोमांचक टैग गेम है। खो-खो की उत्पत्ति भारत में मानी जाती है। इतिहास में इसका वर्णन मौर्य शासनकाल (चौथी ईसा पूर्व) में मिलता है। खो-खो खेल का वर्णन महाभारत काल में भी किया गया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि महाभारत काल में खो-खो रथ पर खेला जाता था जहां प्रतिद्वंद्वी रथ पर सवार होकर एक-दूसरे का पीछा करते थे, जिसे रथेरा कहा जाता था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत युद्ध के 13वें दिन गुरु द्रोणाचार्य द्वारा बनाए गए चक्रव्यूह में प्रवेश करने के लिए अभिमन्यु ने खो-खो में इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति का उपयोग किया था और खो-खो के कौशल का उपयोग करके कौरव वंश को भारी नुकसान पहुँचाया था।
लोकमान्य तिलक द्वारा गठित डेक्कन जिमखाना पुणे ने पहली बार इस खेल के विधिवत नियम तय किए। वर्ष 1923-24 में इंटर स्कूल स्पोर्ट्स कम्पटीशन की स्थापना की गई जिसके माध्यम से ग्रामीण स्तर पर खो-खो को लोकप्रिय करने के लिए कदम उठाए गए। वर्ष 1928 में भारत की पारंपरिक खेलों को प्रोत्साहित करने के लिए गठित अखिल भारतीय शारीरिक शिक्षण मंडल द्वारा वर्ष 1935 में इस खेल के नियमों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया।
आधुनिक काल में खो-खो खेल को महाराष्ट्र के अमरावती के हनुमान व्यायाम प्रसारक मंडल के तत्वाधान में सबसे पहले 1936 के बर्लिन ओलंपिक्स में प्रदर्शित किया गया था तथा इस खेल को अडोल्फ हिटलर ने जमकर सराहा। वर्ष 1938 में अखिल महाराष्ट्र शारीरिक शिक्षण मंडल ने खो-खो खेल की दूसरी नियम पुस्तिका प्रकाशित की। इसी वर्ष अकोला में इंटर जोनल स्पोर्ट्स का आयोजन किया गया।
आज खो-खो भारत के सभी राज्यों में खेली जाती है तथा राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर खो-खो की अनेक प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं।
आजादी के बाद भारतीय खेलों को प्रोत्साहन देने के अंतर्गत 1955-56 में अखिल भारतीय खो-खो मंडल की स्थापना की गई। पुरुषों की पहली राष्ट्रीय खो-खो चैंपियनशिप का आयोजन 25 दिसंबर 1959 से 01 जनवरी 1960 को आयोजित किया गया जबकि महिलाओं की पहली राष्ट्रीय खो-खो चैंपियनशिप महाराष्ट्र के कोल्हापुर में 13 से 16 अप्रैल 1961 को आयोजित की गई। वर्ष 1964 में इंदौर, मध्य प्रदेश में आयोजित 5वीं नेशनल खो-खो चैंपियनशिप में व्यक्तिगत पुरस्कार शुरू किए गए। वर्ष 1966 में खो-खो फेडरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना की गई तथा वर्ष 1970 में किशोर लडक़ों की पहली नेशनल खो-खो चैंपियनशिप का आयोजन किया गया जबकि वर्ष 1974 में किशोर लड़कियों की पहली नेशनल खो-खो चैंपियनशिप का आयोजन किया गया। 1982 में दिल्ली में आयोजित 9वीं एशियाई खेलों में खो-खो का डेमोंस्ट्रेशन मैच आयोजित किया गया। वर्ष 1987 में कोलकाता में आयोजित तीसरी साउथ एशियाई खेलों में खो-खो खेल को प्रदर्शित किया गया।
अंतरराष्ट्रीय खेलों में पहली बार वर्ष 1996 में खो-खो की पहली एशियाई खो-खो चैंपियनशिप आयोजित की गई, जिससे खो-खो को अंतरराष्ट्रीय खेल के रूप में लोकप्रियता मिली, जिससे आज यह खेल 36 से अधिक देशों में खेला जाता है।
वर्ष 1998 में पहला नेता जी सुभाष गोल्ड कप इंटरनेशनल खो-खो टूर्नामेंट का आयोजन किया गया। खो-खो को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रोत्साहित करने के लिए जुलाई 2018 में इंटरनेशनल खो-खो फेडरेशन का गठन किया गया जिसका हेडक्वार्टर लंदन में है। लंदन में पहली इंटरनेशनल खो-खो चैंपियनशिप वर्ष 2018 में आयोजित की गई।
आज खो-खो भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक रूप से खेला जाने वाला खेल है। यह विभिन्न अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों का हिस्सा है जिसमें लगभग 20 देशों की राष्ट्रीय खो-खो टीमें हैं। ऐसे गौरवशाली इतिहास के साथ खो-खो की लोकप्रियता आने वाले वर्षों में भी बढ़ती रहेगी।
(लेखक इंटरनेशनल खो-खो फेडरेशन के अध्यक्ष हैं।)
इटली में पिछले हफ़्ते जी-7 समिट में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के बाद कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने शनिवार को कहा कि भारत और कनाडा अहम मुद्दों पर एक दूसरे से सहयोग करेंगे.
हालांकि ट्रूडो ने उन मुद्दों का ज़िक्र नहीं किया, जिस पर उन्होंने सहयोग करने की बात कही. ट्रूडो ने यह भी नहीं बताया कि क्या भारतीय प्रधानमंत्री से उनकी बात सिख नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के मामले में हुई या नहीं. जस्टिन ट्रूडो ने निज्जर की हत्या का आरोप भारत पर लागाया था.
ट्रूडो ने कनाडा की संसद में निज्जर की हत्या का आरोप भारत पर लगाया था. इसके बाद से दोनों देशों के संबंधों में तनाव है.
शनिवार सुबह इटली में एक न्यूज़ कॉन्फ़्रेंस में ट्रूडो ने कहा, ''मैं अहम और संवेदनशील मुद्दों के विस्तार में नहीं जाऊंगा. लेकिन इन मुद्दों को सुलझाना ज़रूरी है. हमारी प्रतिबद्धता है कि साथ मिलकर काम करेंगे. आने वाले वक़्त में हम अहम मुद्दों को सुलझाने के लिए प्रतिबद्ध हैं.''
जी-7 अमीर अर्थव्यवस्था और उदार लोकतंत्र वाले देशों का गुट है. भारत इस गुट का सदस्य नहीं है लेकिन उसे आमंत्रित किया गया था. पिछले हफ़्ते शुक्रवार को इटली में जी-7 देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिल्कुल सेंटर में दिख रहे थे.
ट्रूडो का सीधा जवाब नहीं
नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया अकाउंट पर जी-7 देशों के नेताओं से मुलाक़ात का एक वीडियो भी पोस्ट किया था. वीडियो में ब्रिटिश पीएम ऋषि सुनक, फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, यूक्रेन के राष्ट्रपत्ति वोलोदमीर ज़ेलेंस्की और पोप फ्रांसिस के साथ मोदी मिलते हुए दिख रहे हैं.
शुक्रवार शाम मोदी एक्स अकाउंट से कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के साथ हाथ मिलाते हुए तस्वीर पोस्ट की गई. इस तस्वीर के साथ कैप्शन लिखा था- जी-7 समिट में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो से मुलाक़ात हुई.
ट्रूडो के कार्यलय ने भी जी-7 में नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात की बात को स्वीकार करते हुए कहा कि कनाडा के प्रधानमंत्री ने मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनने की बधाई दी. ट्रूडो ने कहा, ''दुनिया भर के साझेदार देशों के साथ वार्ता जारी रहना ज़रूरी है. इसमें भले कई चुनौतियां हैं लेकिन हम रूल ऑफ लॉ के लिए प्रतिबद्ध हैं.''
पिछले साल सितंबर में जस्टिन ट्रूडो भारत में आयोजित जी-20 समिट में शामिल होने आए थे. भारत से लौटने के बाद ट्रूडो ने भारत निज्जर की हत्या का आरोप लगाया था. इसके बाद से दोनों देशों के संबंध अब तक सामान्य नहीं हो पाए हैं. कनाडा ने अपने यहाँ चुनाव में भी भारत पर हस्तक्षेप का आरोप लगाया है.
इस आरोप के बाद पीएम ट्रूडो और पीएम मोदी पहली बार इटली में मिले.
ट्रूडो ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्होंने इन मुद्दों को पीएम मोदी के सामने उठाया था या नहीं. अगले साल जी-7 समिट कनाडा में है. क्या ट्रूडो भारत को इस समिट में आमंत्रित करेंगे? कनाडाई पीएम ने इस सवाल का जवाब भी स्पष्ट रूप से नहीं दिया.
ट्रूडो ने इस सवाल के जवाब में कहा, ''इसके बारे में अगले साल ही कुछ कहा जा सकता है, जब कनाडा के पास जी-7 की अध्यक्षता आएगी.''
पीएम मोदी को जी-7 समिट में 2019 में फ्रांस, 2022 में जर्मनी, 2023 में जापान और 2024 में इटली आमंत्रित कर चुका है. 2020 में अमेरिका भी पीएम मोदी को आमंत्रित करने वाला था लेकिन कोविड महामारी के कारण समिट नहीं हो पाया था. 2021 में ब्रिटेन ने भी आमंत्रित किया था लेकिन कोविड के कारण पीएम मोदी इसमें वर्चुअली शामिल हुए थे.
पत्रकारों ने ट्रूडो से चुनाव में भारत पर हस्तक्षेप के आरोप के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि उनकी सरकार ने इस मुद्दे को 2015 से ही बहुत गंभीरता से लिया है.
निज्जर की हत्या के कारण कैसे बिगड़े संबंध
हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के पीछे भारत सरकार का हाथ बताने के बाद कनाडा सरकार ने भारत के राजनयिक पवन कुमार राय को निष्कासित कर दिया था. इसके बाद भारत ने भी दिल्ली स्थित कनाडाई उच्चायोग से एक सीनियर राजनयिक को निष्कासित करने का फ़ैसला किया था.
कनाडा की संसद में ट्रूडो ने कहा था, ''हमारे देश की ज़मीन पर कनाडाई नागरिक की हत्या के पीछे विदेशी सरकार का होना अस्वीकार्य है और ये हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है.'' पिछले साल 18 जून को निज्जर की कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया में एक गुरुद्वारे के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.
भारत सरकार निज्जर को आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों का मुखिया बताती रही है. निज्जर के समर्थक इन आरोपों को ख़ारिज करते हैं.
दोनों देशों के बीच ताज़ा विवाद की शुरुआत जी-20 सम्मेलन के दौरान हो गई थी.
9-10 सितंबर को दिल्ली में जी-20 सम्मेलन हुआ था. इस सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए जस्टिन ट्रूडो भी भारत आए थे.
सम्मेलन के दौरान आधिकारिक अभिवादन के दौरान ट्रूडो नरेंद्र मोदी से हाथ मिलाते हुए उस जगह से तेज़ी से निकलते हुए दिखे.
इस तस्वीर को दोनों देशों के रिश्तों के बीच 'तनाव' के तौर पर देखा गया.
ट्रूडो और पीएम मोदी के बीच द्विपक्षीय वार्ता भी हुई थी. जानकारों ने इस वार्ता के बारे में कहा था कि ये मुलाक़ात अच्छी नहीं रही थी.
भारतीय प्रधानमंत्री कनाडा में सिख अलगाववादियों के 'आंदोलन' और भारतीय राजनयिकों के ख़िलाफ़ हिंसा को उकसाने वाली घटनाओं को लेकर नाराज़ थे. जबकि जस्टिन ट्रूडो का कहना था कि भारत कनाडा की घरेलू राजनीति में दख़ल दे रहा है.
भारत सरकार ने इस वार्ता के बाद एक बयान जारी कर कहा, ''जी-20 के दौरान मुलाक़ात में नरेंद्र मोदी ने जस्टिन ट्रूडो से कहा है कि दोनों देशों के संबंधों में प्रगति के लिए 'आपसी सम्मान और भरोसा' ज़रूरी है. सिख आंदोलन अलगाववाद को बढ़ावा देता है और भारतीय राजनयिकों के ख़िलाफ़ हिंसा को उकसाता है.''
मोदी और ट्रूडो के आपसी संबंधों में दरार
जस्टिन ट्रूडो और पीएम मोदी के बीच दूरियां आने का ये पहला मामला नहीं है. कहा जाता है कि दोनों राष्ट्रप्रमुखों के बीच कभी संबंध बेहतर नहीं रहे.
मोदी मई 2014 में पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बने और जस्टिन ट्रूडो अक्तूबर 2015 में पहली बार कनाडा के प्रधानमंत्री बने.
2019 में भी नरेंद्र मोदी दूसरे कार्यकाल के लिए चुनकर आए और ट्रूडो को भी अक्टूबर 2019 में दूसरे कार्यकाल के लिए चुना गया.
ट्रूडो की लिबरल पार्टी ऑफ कनाडा ख़ुद को उदारवादी लोकतांत्रिक बताती है और पीएम मोदी की बीजेपी की पहचान हिन्दुत्व और दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी के रूप में है.
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने अप्रैल 2015 में कनाडा का दो दिवसीय दौरा किया था. उस वक़्त कनाडा के प्रधानमंत्री कन्जर्वेटिव पार्टी के स्टीफन हार्पर थे.
2010 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी-20 समिट में शामिल होने कनाडा गए थे. लेकिन समिट से इतर किसी भारतीय प्रधानमंत्री का कनाडा जाना 42 साल बाद तब हो पाया, जब पीएम मोदी कनाडा के दौरे पर 2015 में गए.
जस्टिन ट्रूडो जब से पीएम बने हैं, तब से नरेंद्र मोदी कनाडा नहीं गए हैं. (bbc.com/hindi)
भारत में पड़ रही भीषण गर्मी की वजह से अब तक 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों लोग बीमार पड़ चुके हैं. इसका सबसे ज्यादा असर हाशिए पर पड़ी दलित जातियों पर हो रहा है.
डॉयचे वैले पर मिदहत फातिमा का लिखा-
भारत में इस साल मई की शुरुआत से पड़ रही भीषण गर्मी की वजह से उत्तरी और पश्चिमी इलाकों में तापमान रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है. गर्म हवा के थपेड़ों ने कई लोगों की जान ले ली है. भीषण गर्मी की वजह से अब तक 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है.
देश के मौसम विभाग ने मई के अंत में रेड अलर्ट जारी किया था. इसमें चेतावनी दी गई थी कि 'इस बात की काफी ज्यादा आशंका है कि बहुत से लोग गर्मी से होने वाली बीमारी और हीट स्ट्रोक से प्रभावित होंगे.' जो लोग खुले वातावरण में काम करते हैं, उन्हें काफी ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है.
खौलती गर्मी के लिए कितनी तैयार है दुनिया
इसके बावजूद, इस भीषण गर्मी में कई लोग खुले वातावरण और गर्म मौसम में काम करने के लिए मजबूर हैं. अगर वे काम नहीं करेंगे, तो उनके घर खाना नहीं पकेगा. ऐसी ही एक महिला हैं कंचन देवी, जो हरियाणा में एक ईंट भट्ठी पर ईंट पकाने का काम करती हैं. यह उनके जीवन-यापन का एकमात्र साधन है.
कंचन देवी जैसे मजदूरों के लिए तापमान की चेतावनी बहुत काम नहीं आती. 20 साल की कंचन देवी दलित समुदाय से आती हैं. यह भारत की सदियों पुरानी भेदभावपूर्ण जाति व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रखा गया और ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर धकेला गया समुदाय है. सिर पर सिर्फ एक कपड़ा लपेटे कंचन ईंट बनाने के लिए भट्ठी पर घंटों तक काम करती हैं. पिछले महीने काम करते हुए उन्हें चक्कर आने लगा और बाद में ब्लड प्रेशर कम होने के कारण अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा.
जान जोखिम में डालकर काम करना
सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन ने एक सर्वे किया है. सर्वे में शामिल 21 ईंट भट्ठों पर काम कर रहे मजदूरों से बातचीत के दौरान उन्होंने पाया कि यहां काम करने वाले 50 फीसदी से अधिक श्रमिक दलित थे.
नई दिल्ली में निर्माण कार्यों के लिए काम करने वाले एक दलित मजदूर राहेब राजपूत ने डीडब्ल्यू को बताया कि मई में लू लगने की वजह से उनके चचेरे भाई की मौत हो गई थी. राहेब बताते हैं, "हमारी जिंदगी हमेशा खतरे में रहती है. हर साल गर्मी बढ़ती जा रही है."
जलवायु परिवर्तन के दौर में तेज हो रही ग्लोबल वॉर्मिंग के बीच हीटस्ट्रोक की चपेट में आने वालों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है. शोध बताते हैं कि आने वाले समय में करोड़ों भारतीय भीषण गर्मी की चपेट में आ सकते हैं. स्थितियां अभी ही बेहद चिंताजनक हैं.
न्यूज वेबसाइट द प्रिंट ने सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया कि भारत में गर्मी के मौसम के दौरान मार्च से लेकर मई तक लगभग 25,000 लोगों के हीटस्ट्रोक का शिकार होने का अनुमान है, यानी वे लू की चपेट में आए हैं. नागरिक अधिकार संगठन 'नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स' ने मांग की है कि इस साल की भीषण गर्मी को भारत के आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत आपदा घोषित किया जाए.
जाति और गर्मी से बीमार होने के बीच क्या संबंध है?
असहनीय गर्मी पड़ने पर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की समस्याओं को कई अध्ययनों और रिपोर्टों में दिखाया गया है. भारत के कामगारों का बहुत बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र में आता है. हालांकि, इस बात पर काफी कम चर्चा की गई है कि जाति भी गर्मी से बीमार होने के खतरे को बढ़ाने वाला एक कारक है.
विशेषज्ञों का मानना है कि सामाजिक और आर्थिक स्थिति से भी यह तय होता है कि कौन से लोग गर्मी से ज्यादा प्रभावित हो सकते हैं और किन पर कम असर पड़ेगा. यूरोपियन ट्रेड यूनियन इंस्टिट्यूट (ईटीयूआई) के एक अध्ययन से पता चला है कि काम के दौरान गर्मी में रहने से गरीब और अमीर लोगों के बीच स्वास्थ्य संबंधी असमानता और बढ़ जाती है.
भारत के सबसे अधिक आबादी वाले शहरों में से एक बेंगलुरु में भारतीय प्रबंधन संस्थान के प्रोफेसर अर्पित शाह बताते हैं, "शोध से पता चलता है कि भारत के आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था में जाति व्यवस्था के आधार पर काम का बंटवारा अभी भी जारी है."
अर्पित शाह अपने मौजूदा शोध में इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि जाति और काम के दौरान गर्मी के संपर्क में आने का क्या संबंध है. वह कहते हैं, "निर्माण क्षेत्र में लगे मजदूर और सफाई कर्मचारियों में दलित और हाशिए पर पड़े अन्य समाज के लोग ज्यादा होते हैं. चूंकि ये काम ज्यादातर खुले वातावरण में ही करने पड़ते हैं, तो भीषण गर्मी में इन लोगों के बीमार पड़ने का खतरा भी ज्यादा रहता है."
कुछ रिपोर्टों के मुताबिक, भारत में करीब 90 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोगों में से एक बड़ी आबादी दलित समुदाय, अनुसूचित जनजाति और अन्य वंचित जातियों से ताल्लुक रखती है.
ईंट भट्ठों पर काम करने वाले मजदूरों की चुनौतियां
ईंट भट्ठों पर काम करने वाले ज्यादातर मजदूर प्रवासी होते हैं. ये लोग ईंटों को एक-दूसरे के ऊपर रखकर बनाई गई ऐसी झुग्गियों में रहते हैं, जिनकी छत पर टिन की चादरें या तिरपाल का इस्तेमाल किया जाता है. कभी-कभी प्रवासी मजदूर अपने बच्चों समेत पूरे परिवार के साथ भट्ठों पर भीषण गर्मी में रहते हैं.
कंचन देवी बताती हैं कि वह रात में खुले मैदान में सोती थीं. वह कहती हैं, "हमारी टिन की छत वाली झुग्गी के अंदर ज्यादा गर्मी होती है." ज्यादातर झुग्गियों में पंखे और बिजली के बल्ब तक नहीं होते हैं. डीडब्ल्यू से बात करने वाले कई मजदूरों ने बताया कि उन्होंने पंखे का इंतजाम खुद से किया है.
बातचीत के दौरान यह भी पता चला कि कई जगहों पर मजदूरों को पीने का पानी भी नहीं दिया जाता. उन्हें आस-पास के इलाकों में पानी की तलाश करनी पड़ती है और यह कमी उन्हें जोखिम में भी डालती है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के पूर्व शोधकर्ता गुलरेज शाह अजहर ने बताया कि लोगों के रहने के तौर-तरीकों की वजह से भी गर्मी से बीमार होने का खतरा बढ़ सकता है.
गुलरेज कहते हैं, "मान लें कि कोई व्यक्ति झुग्गी में रहता है. वहां कोई अलग शौचालय नहीं है और न ही वहां नल से पानी आता है, ताकि वह बंद जगह पर नहा सके. इन सभी वजहों से किसी व्यक्ति के लिए गर्मी सहना और भी मुश्किल हो जाता है. साथ ही, उसके बीमार होने का खतरा भी बढ़ जाता है."
प्रकृति और पर्यावरण को लंबे समय से हो रहे नुकसान के कारण तेजी से गर्म होती दुनिया और साल-दर-साल बढ़ते तापमान में खुद को बचाने के लिए जरूरी है कि आप ठंडी और छायादार जगहों पर रहें, लेकिन डीडब्ल्यू ने दलित समुदाय के जिन लोगों से बात की उनमें से ज्यादातर के पास पंखा या कूलर तक नहीं था. एयर कंडीशनर की तो बात ही छोड़िए. यहां तक कि कुछ रिपोर्टों के मुताबिक, वंचित जातियों और आदिवासी परिवारों तक बिजली की पहुंच भी 10 से 30 फीसदी तक कम है.
गर्म लहरों से निपटने की रणनीति
नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने संयुक्त राष्ट्र के सेंडाई फ्रेमवर्क फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन को अपनाया और 2016 में अपनी योजना जारी की. शुरुआती योजना के तहत सिर्फ बुजुर्गों और विकलांगों को ही प्राकृतिक आपदा के प्रति संवेदनशील माना गया. दूसरे शब्दों में कहें, तो यह माना गया है कि प्राकृतिक आपदा का सबसे ज्यादा असर बुजुर्गों और विकलांगों पर पड़ता है. हालांकि, 2019 में इसे संशोधित कर अनुसूचित जाति और जनजाति को भी शामिल किया गया.
नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स की महासचिव बीना जॉनसन ने कहा, "राज्य, शहर और जिला स्तर पर गर्मी से निपटने के लिए तैयार की गई योजनाओं, यानी हीट ऐक्शन प्लान में कमजोर जाति समूहों पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में नहीं रखा गया है." दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च थिंक टैंक की ओर से किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि "गर्मी से निपटने के लिए तैयार की गई लगभग सभी योजनाएं कमजोर समूहों की पहचान करने और उन्हें राहत पहुंचाने में विफल रही हैं."
'कास्ट ऐंड नेचर' किताब के लेखक मुकुल शर्मा बताते हैं कि सरकार ने सिर्फ गर्मी से होने वाली मौतों के आंकड़े उपलब्ध कराए हैं, लेकिन संख्याओं को अलग-अलग करने पर पता चलेगा कि पीड़ितों में से कई दलित हैं. वहीं, अजहर कहते हैं, "हम सभी एक अलग ही समय में जी रहे हैं. गर्मी हमारे समय में असमानता से जुड़ा बड़ा मुद्दा है." (dw.com/hi)
-महबूबा नवरूजी
महिलाओं की शिक्षा, नौकरी और सार्वजनिक जगहों पर जाने पर तालिबान ने प्रतिबंध लगाए उसके बाद कुछ महिलाओं ने शुरू में इन नए नियमों को तोड़ा और सडक़ों पर प्रदर्शन किए। लेकिन राजधानी काबुल और अन्य शहरों में खाना, काम और आज़ादी की मांग को लेकर जो महिलाएं सडक़ों पर उतरीं, उन्हें जल्द ही तालिबान की पूरी ताक़त का अहसास हुआ।
प्रदर्शनकारियों ने बीबीसी को बताया कि उन्हें पीटा गया, अपमानित किया गया, जेल में डाला गया और यहां तक कि पत्थर से मार-मार कर मार डालने की धमकी तक दी गई। हमने उन तीन महिलाओं से बात की जिन्होंने 15 अगस्त 2021 को तालिबान के कब्ज़े के बाद महिलाओं की आज़ादी पर लगाए गए प्रतिबंधों के ख़िलाफ़ तालिबान सरकार को चुनौती दी थी।
14 जून को तालिबान के उस फैसले के 1000 दिन पूरे हो गए हैं, जिसमें छह साल से अधिक उम्र की लड़कियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
काबुल में प्रदर्शन
जब 15 अगस्त 2021 को अफगानिस्तान पर तालिबान चरमपंथियों का कब्ज़ा हुआ। उसके बाद से ज़ाकिया की जि़ंदगी परेशानियों में घिरती गई। इससे पहले वो अपने परिवार का खर्च उठाती थीं, लेकिन कब्ज़े के तुरंत बाद उनकी नौकरी चली गई।
ज़ाकिया (बदला हुआ नाम) ने एक साल बाद दिसम्बर 2022 में एक प्रदर्शन में हिस्सा लिया। यह पहला मौका था जब नौकरी और शिक्षा का अधिकार छीने जाने पर उनका ग़ुस्सा बाहर आया।
प्रदर्शनकारी काबुल विश्वविद्यालय की ओर मार्च कर रहे थे। जगह का चुनाव प्रतीकात्मक महत्व वाला था लेकिन उन्हें वहां पहुंचने से पहले ही रोक दिया गया।
ज़ाकिया ज़ोर-ज़ोर से नारे लगा रही थीं, जब तालिबान की सशस्त्र पुलिस ने इस अल्पकालिक विद्रोह को दबा दिया।
वो याद करते हुए कहती हैं, ‘उनमें से एक ने सीधे मेरे मुंह पर बंदूक तान दी और धमकी दी कि अगर मैं चुप नहीं हुई तो वो मुझे वहीं मार देगा।’
ज़ाकिया ने देखा कि बाकी प्रदर्शनकारियों को एक गाड़ी में भर दिया गया था।
वो कहती हैं, ‘मैंने विरोध किया। वे मेरी बांह मरोड़ रहे थे। मुझे तालिबानी खींच रहे थे और अपनी गाड़ी में डालने की कोशिश कर रहे थे जबकि बाकी प्रदर्शनकारी मुझे उनके चंगुल से छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे।’
अंत में, ज़ाकिया उनके चंगुल से छूटने में क़ामयाब रहीं लेकिन उस दिन जो कुछ भी उन्होंने देखा, उससे वो आगे के लिए भी डर गईं।
वो कहती हैं, ‘हिंसा बंद दरवाज़े के अंदर नहीं बल्कि यह राजधानी काबुल की सडक़ों पर खुलेआम हो रही थी।’
गिरफ़्तारी और पिटाई
मरियम (बदला हुआ नाम) और 23 साल की स्टूडेंट परवाना इब्राहिम खेल नजाराबी उन अफग़़ान प्रदर्शनकारियों में शामिल थीं, जिन्हें तालिबान के कब्ज़े के बाद गिरफ़्तार किया गया था।
मरियम विधवा हैं और अपने बच्चों के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य हैं।
जब तालिबान ने महिलाओं को काम पर जाने से प्रतिबंध लगाने के नियमों की घोषणा की तो मरियम डर गई थीं। उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यही था कि वो अपने परिवार को अब कैसे पालेंगी।
दिसम्बर 2022 में हुए एक प्रदर्शन में उन्होंने हिस्सा लिया। जब उन्होंने देखा कि साथी प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया जा रहा है तो उन्होंने वहां से भागने की कोशिश की लेकिन समय रहते वो ऐसा नहीं कर पाईं।
वो याद करते हुए कहती हैं, ‘मुझे टैक्सी से ज़बरदस्ती खींच कर बाहर निकाला गया। उन्होंने मेरे बैग की तलाशी ली और उन्हें मेरा फ़ोन मिला।’
मरियम कहती हैं कि जब तालिबान अधिकारी को उन्होंने अपना पासकोड देने से मना किया तो उनमें से एक ने उन्हें इतनी ज़ोर से थप्पड़ मारा कि उनका कान सुन्न हो गया। इसके बाद उन्होंने फ़ोन के अंदर जो वीडियो और तस्वीरें थीं, उनकी जांच की। वो कहती हैं, ‘वे गुस्सा हो गए। उन्होंने मेरे बाल पकडक़र मुझे घसीटा। उन्होंने मेरे पैर और हाथ पकड़े और अपनी रेंजर गाड़ी के पिछले हिस्से में फेंक दिया।’
मरियम बताती हैं, ‘वे बहुत हिंसक थे और लगातार मुझे अपमानित कर रहे थे। उन्होंने मुझे हथकड़ी लगाई और एक काला झोला मेरे सिर पर पहना दिया, मैं सांस भी नहीं ले पा रही थी।’
एक महीने बाद परवाना ने भी तालिबान के ख़िलाफ़ प्रदर्शन में शामिल होने का फैसला किया। उनकी साथी छात्राओं ने कई मार्च आयोजित किए थे। लेकिन उनको भी इसी तरह के बर्ताव का सामना करना पड़ा।
परवाना बताती हैं, ‘गिरफ़्तार करने के बाद ही उन्होंने मुझे टॉर्चर करना शुरू कर दिया।’ उन्हें दो हथियारबंद पुरुष गार्ड के बीच बैठाया गया।
वो कहती हैं, ‘मैंने बैठने से मना किया, तो उन्होंने मुझे आगे खिसका दिया और मेरे सिर पर कंबल डाल दिया और बंदूक तान कर बिल्कुल भी न हिलने को कहा।’
परवाना को लगा कि वो बहुत ‘कमज़ोर' हो गई हैं और भारी हथियारों से लैस पुरुषों के बीच वो 'जि़ंदा लाश’ की तरह चल रही थीं।
उन्होंने बताया, ‘मेरा चेहरा सूज गया था क्योंकि उन्होंने कई बार मेरे चेहरे पर थप्पड़ मारे थे। मैं इतनी डर गई थी कि मेरा पूरा शरीर कांप रहा था।’
जेल की जि़ंदगी
सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन का क्या ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ सकता है इस बात का मरियम, परवाना और ज़ाकिया को पूरी तरह से एहसास था। परवाना कहती हैं कि उन्होंने तालिबान से उनके साथ इंसानों जैसा बर्ताव करने की कभी उम्मीद नहीं लगाई थी, लेकिन बावजूद इसके वे जिस तरह से अपमानजनक व्यवहार कर रहे थे, उससे मैं हैरान थी। जेल में सबसे पहले जो खाने को मिला उसे देखकर परेशानी और बढ़ गई। वो कहती हैं, ‘मुंह में मुझे कोई धारदार चीज़ महसूस हुई। जब मैंने देखा वो एक नाखून था। मैंने उसे फेंक दिया।’ इसके बाद जो खाना दिया गया उसमें बाल और पत्थर मिले।
परवाना कहती हैं कि उन्हें बताया गया था कि उन्हें पत्थर मार-मार कर मार डाला जाएगा। इसकी वजह से वह रातों को रोती थीं और सपने आते थे कि वो एक हेलमेट पहने हुए हैं और उन्हें पत्थरों से मारा जा रहा है। 23 साल की परवाना पर अनैतिकता, वेश्यावृत्ति और पश्चिमी संस्कृति फैलाने के आरोप लगाए गए थे। वो जेल में एक महीने तक रहीं।
मरियम को कई दिनों तक हाई सिक्योरिटी यूनिट में रखा गया जहां एक काला कपड़ा पहनाकर उनसे पूछताछ की जाती थी। वो याद करते हुए बताती हैं, ‘मैं कई लोगों की आवाज़ सुन सकती थी, एक उन्हें मारता और पूछता कि प्रदर्शन करने के लिए उन्हें किसने पैसे दिए थे। दूसरा घूसा मारता और पूछता तुम किसके लिए काम करती हो?’
मरियम कहती हैं कि उन्होंने पूछताछ करने वालों को बताया कि वो विधवा हैं और उन्हें अपने दो बच्चों को पालने के लिए काम की ज़रूरत है, लेकिन हर जवाब के साथ और हिंसा होती।
रिहाई आसान नहीं थी
परवाना विदेशों में रहते हुए अपनी आवाुज़ उठाती रही हैं।
मानवाधिकार संगठनों और स्थानीय नेताओं की दख़ल के बाद परवाना और मरियम को अलग-अलग रिहा कर दिया गया और अब वे दोनों अफग़़ानिस्तान में नहीं रहती हैं।
दोनों ने कहा कि उन्हें अपराध स्वीकार करने और दोबारा तालिबान के ख़िलाफ़ प्रदर्शन में हिस्सा न लेने के एक बयान पर साइन करने को मजबूर किया गया।
उनके पुरुष रिश्तेदारों को भी इन क़ागज़ों पर हस्ताक्षर करने पड़े और वादा करना पड़ा कि महिलाएं अब और किसी प्रदर्शन में शामिल नहीं होंगी।
जब हमने तालिबान सरकार के वरिष्ठ प्रवक्ता जबीहुल्ला मुजाहिद से इन आरोपों को लेकर पूछा तो उन्होंने इन महिलाओं की गिरफ़्तारी की बात स्वीकार की लेकिन उनके साथ हुए बुरे बर्ताव से इनकार किया।
उन्होंने कहा, ‘गिरफ़्तार की गई कुछ महिलाएं ऐसी गतिविधियों में शामिल थीं जो सरकार और सार्वजनिक सुरक्षा के ख़िलाफ़ थीं।’
जबीहुल्ला ने महिलाओं के दावों और टॉर्चर का खंडन किया। उन्होंने कहा, ‘इस्लामिक अमीरात की जेलों में किसी की पिटाई नहीं होती और उनके खाने को हमारी मेडिकल टीमें चेक करती हैं।’
बुनियादी सुविधाओं की कमी
रिहाई के बाद कुछ प्रदर्शनकारियों का ह्यूमन राइट्स वॉच ने इंटरव्यू किया। इसमें भी प्रदर्शनकारी महिलाओं ने वैसी ही बातें कहीं, जो उन्होंने बीबीसी को बताई हैं।
ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़रिश्ता अब्बासी ने कहा, ‘तालिबान हर तरह के टॉर्चर का इस्तेमाल करता है। वे इन प्रदर्शनों के लिए उनके परिवारों पर हर्जाना लगाते हैं। कभी कभी वे उन्हें उनके बच्चों के साथ बहुत बुरी हालत में जेल में बंद कर देते हैं।’
एमनेस्टी इंटरनेशनल रिसर्चर ज़मान सुल्तानी ने रिहाई के बाद कई प्रदर्शनकारियों से बात की थी। उन्होंने कहा कि जेल में बुनियादी ज़रूरत की सुविधाएं तक नहीं हैं।
सोल्तानी ने कहा, ‘सर्दियों में गरम करने की कोई सुविधा नहीं है, कैदियों को अच्छा या पर्याप्त खाना नहीं दिया जाता और स्वास्थ्य और सुरक्षा पर तो बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता।’
सामान्य जि़ंदगी की याद
जब तालिबान ने कब्ज़ा किया तो उन्होंने कहा था कि महिलाएं काम करना जारी रख सकती हैं और स्कूल जा सकती हैं लेकिन इसके साथ ही एक शर्त भी लगा दी थी, यह केवल अफग़़ान संस्कृति और शरिया क़ानून के तहत ही हो सकता है।
वे लगातार कहते रहे कि छह साल से ऊपर की लड़कियों की पढ़ाई पर पाबंदी अस्थाई है लेकिन उन्होंने कभी भी लड़कियों के सेकेंडरी स्कूलों को खोलने के लिए ठोस प्रतिबद्धता नहीं जताई।
उधर अफग़़ानिस्तान में ज़ाकिया ने एक और कोशिश की। उन्होंने लड़कियों को शिक्षित करने के लिए घर में ट्यूशन शुरू की, लेकिन यह तरीका भी कामयाब नहीं हो पाया।
वो कहती हैं, ‘जब लड़कियां एक जगह नियमित रूप से इक_ी होती हैं तो उन्हें इससे ख़तरा महसूस होता है। तालिबान जो चाहते थे, करने में सफल रहे। मैं अपने घर में ही क़ैदी हूं।’ वो अभी भी अपने साथी एक्टिविस्टों से मिलती हैं लेकिन वे अब कोई प्रदर्शन की योजना नहीं बना रही हैं। वे छद्मनाम से सोशल मीडिया पर अक्सर बयान डालती रहती हैं। जब उनसे पछा गया कि अफग़़ानिस्तान को लेकर उनका क्या सपना है, उनकी आंखों में आंसू छलक आए। उन्होंने कहा, ‘मैं कुछ नहीं कर सकती। हमारा अब वजूद नहीं है, महिलाओं को सार्वजनिक जि़ंदगी से हटा दिया गया है। 12 साल की उम्र से ऊपर की लड़कियां अभी भी स्कूल नहीं जा सकतीं। बस हम अपने बुनियादी अधिकार चाहते हैं, क्या यह मांग बहुत ज़्यादा है?’ (bbc.com/hindi)
चीन में महिलाओं के यौन शोषण के खिलाफ आंदोलन चलाने वाली पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता ह्वांग शुएकिन को पांच साल की कैद सुनाई गई है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
चीन की मानवाधिकार कार्यकर्ता ह्वांग शुएकिन के समर्थकों ने कहा है कि शुक्रवार को एक अदालत ने उन्हें पांच साल की जेल की सजा सुनाई है. दक्षिणी चीन की एक अदालत ने उन्हें राष्ट्रद्रोह के मामले में दोषी करार दिया.
35 साल की शुएकिन एक स्वतंत्र पत्रकार और महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं. उनके समर्थकों ने कहा है कि वह इस फैसले के खिलाफ अपील करेंगी. इस मुकदमे में मानवाधिकार कार्यकर्ता वांग जियांबिंग भी एक आरोपी थे. उन्हें तीन साल छह महीने की जेल की सजा सुनाई गई.
इन दोनों कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए अभियान चलाने वाले एक समूह ‘ह्वांग शुएकिन और वांग जियांबिंग को रिहा करो' के प्रवक्ता ने कहा, "उन्हें अनुमान से कहीं ज्यादा सजा दी गई है.”
इस समर्थक समूह के अधिकतर सदस्य विदेशों में रहते हैं. समूह के इस प्रवक्ता ने सुरक्षा कारणों से अपना नाम प्रकाशित नहीं करने का अनुरोध किया. उसने कहा, "मुझे नहीं लगता कि इतनी कड़ी सजा दी जानी चाहिए थी और यह बिल्कुल गैरजरूरी है. इसलिए हम शुएकिन की अपील करने की मंशा का समर्थन करते हैं.”
क्यों लगा राष्ट्रद्रोह का आरोप?
शुएकिन और वांग को सितंबर 2021 में हिरासत में लिया गया था. पिछले साल ही उनके ऊपर आरोप दायर किए गए और मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई. समर्थकों के मुताबिक बंद कमरे में हुई सुनवाई में दोनों कार्यकर्ताओं ने अपने ऊपर लगे आरोपों को गलत बताया था.
इन दोनों पर राष्ट्रद्रोह के आरोप लगाए गए थे. इन आरोपों का आधार उन बैठकों को बनाया गया, जो उन्होंने चीनी युवाओं के साथ की थीं. इन बैठकों में वे युवाओं के साथ विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चर्चा किया करते थे.
मुकदमे का फैसला आने से पहले जारी एक बयान में समर्थक समूह ने कहा, "मजदूरों, महिलाओं और समाज के अन्य तबकों के अधिकारों के लिए उनकी कोशिशों और प्रतिबद्धता को सिर्फ इस अन्यायपूर्ण मुकदमे से खारिज नहीं किया जाएगा, ना ही समाज उनके योगदान को भूलेगा. इसके उलट, जैसे-जैसे अन्याय और दमन बढ़ेगा, उनकी तरह के और कार्यकर्ता खड़े होंगे.”
दोनों कार्यकर्ताओं को ग्वांगजू की पीपल्स इंटरमीडिएट कोर्ट में सजा सुनाई गई. शुक्रवार सुबह से ही वहां पुलिस की भारी मौजूदगी थी और सुरक्षाबल आने-जाने वाले लोगों से भी सवाल-जवाब कर रहे थे.
कार्यकर्ताओं पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे
चीन में अक्सर सरकार का विरोध करने वालों को राष्ट्रद्रोह के मुकदमे झेलने पड़ते हैं. हालांकि अगर आरोपी किसी समूह का नेता नहीं है या उसने कोई गंभीर अपराध नहीं किया है तो इन मामलों में अधिकतम पांच साल की सजा होती है.
19 सितंबर 2021 को जब ह्वांग शुएकिन को गिरफ्तार किया गया था, उससे एक दिन पहले ही उन्हें ब्रिटेन जाना था, जहां वह ससेक्स यूनिवर्सिटी में ब्रिटिश सरकार की एक स्कॉलरशिप पर मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई करने वाली थीं.
ह्वांग शुएकिन ने चीन में मीटू (MeToo) आंदोलन पर कई खबरें और लेख लिखे थे. उन्होंने 2019 में हांगकांग में हुए सरकार विरोधी आंदोलनों की भी रिपोर्टिंग की थी.
उनके समर्थकों के मुताबिक हिरासत में लिए जाने के बाद दोनों कार्यकर्ताओं को महीने तक काल-कोठरियों में अकेले बंद रखा गया. ग्वांगजू पुलिस ने इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की.
क्या था #MeToo अभियान?
#MeToo आंदोलन महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न और यौन हिंसा के खिलाफ आवाज उठाने का एक वैश्विक अभियान था. यह 2006 में अमेरिकी एक्टिविस्ट तराना बर्क द्वारा शुरू किया गया था, लेकिन 2017 में सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से फैल गया जब कई महिलाओं ने अपने अनुभव साझा किए. "मीटू" हैशटैग का उपयोग करते हुए, महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन शोषण की घटनाएं सार्वजनिक रूप से बताईं. इस आंदोलन ने कई प्रमुख व्यक्तियों और संस्थाओं के खिलाफ कानूनी कार्रवाई और सामाजिक बहिष्कार को जन्म दिया. यह आंदोलन महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ.
चीन में #MeToo आंदोलन ने 2018 में बड़ा रूप लिया, जब महिलाओं ने यौन उत्पीड़न के खिलाफ बोलना शुरू किया. चीन में यह आंदोलन कई प्रमुख हस्तियों और शिक्षाविदों को उजागर करने में सफल रहा. पेकिंग विश्वविद्यालय की छात्रा लो शियाओशू ने अपने प्रोफेसर द्वारा किए गए यौन शोषण के खिलाफ आवाज उठाई, जिससे देशभर में महिलाओं को साहस मिला. एक अन्य मामले में, टीवी होस्ट झू जुन और गायक-एक्टर क्रिस वू पर गंभीर आरोप लगे और उनकी आलोचना हुई. (रॉयटर्स)
-भाग्यश्री राउत
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे नेता इंद्रेश कुमार का बयान आया है जिसमें उन्होंने सत्तारूढ़ बीजेपी को ‘अहंकारी’ और विपक्षी इंडिया गठबंधन को ‘राम विरोधी’ बताया है।
आरएसएस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार ने कहा, ‘2024 में राम राज्य का विधान देखिए, जिनमें राम की भक्ति थी और धीरे-धीरे अहंकार आ गया, उन्हें 240 सीटों पर रोक दिया। जिन्होंने राम का विरोध किया, उनमें से राम ने किसी को भी शक्ति नहीं दी, कहा- तुम्हारी अनास्था का यही दंड है कि तुम सफल नहीं हो सकते।’
कुछ दिन पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी लोकसभा परिणाम के कारणों का विश्लेषण करते हुए एक बयान दिया था।
उन्होंने कहा, ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है। गर्व करता है लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है।’
समझा जाता है कि उन्होंने बीजेपी के कथित अहंकार को लेकर ये बात कही थी।
इतना ही नहीं उन्होंने कई मुद्दों पर सत्तारूढ़ बीजेपी सरकार को नसीहत भी दी। वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने मणिपुर में हो रही हिंसा का भी जिक्र किया और कहा कि कर्तव्य है कि इस हिंसा को अब रोका जाए।
लोकसभा चुनाव के नतीजे आ गए हैं। पिछले दो चुनावों की तरह बीजेपी को अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। इस झटके को लेकर कई सहयोगी, समर्थक और विरोधी बीजेपी की आलोचना कर रहे हैं।
लेकिन इन सबके बीच बीजेपी के लिए सबसे बड़ा झटका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया के बयान को माना जा रहा है।
चुनाव नतीजों के बाद मोहन भागवत का भाषण कई मायनों में अहम था। इसकी चर्चा देश भर की मीडिया में हुई और अभी भी हो रही है।
लेकिन संघ की ओर से आलोचना का सिलसिला यहीं नहीं रुका। आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजऱ ने भी बीजेपी और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की आलोचना की।
ऑर्गनाइजऱ ने लिखा कि लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के अति आत्मविश्वासी नेताओं और कार्यकर्ताओं को आईना हैं। हर कोई भ्रम में था। ‘किसी ने लोगों की आवाज़ नहीं सुनी।’
संघ के सदस्य रतन शारदा ने यह लेख लिखा है और बीजेपी और मोदी सरकार की आलोचना की है।
तो स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि क्या संघ और बीजेपी के बीच सब कुछ ठीक है या नहीं? यह सवाल इसलिए भी पूछा जा रहा है क्योंकि इससे जुड़ा एक वाकया है।
लोकसभा चुनाव के शुरुआती कुछ चरणों के बाद प्रचार के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा था कि ‘बीजेपी को अब संघ की जरूरत नहीं है।’
सभी जानते हैं कि देश भर में फैला संघ का तंत्र, पारिवारिक संस्थाएं, उनसे जुड़े लोग किस कदर चुनाव में बीजेपी की मदद करते हैं, फिर उन्होंने चुनाव में यह बयान क्यों दिया होगा?
चुनाव परिणाम घोषित होते ही मोहन भागवत ने मोदी सरकार की आलोचना की और अगले ही दिन आरएसएस के मुखपत्र ने बीजेपी नेताओं की आलोचना कर दी।
किन मुद्दों पर बोले मोहन भागवत?
मोहन भागवत सार्वजनिक रूप से दो बार बोलते हैं, एक विजयदशमी पर और दूसरे संघ के कार्यकर्ता विकास कक्षाओं के बाद, हालांकि इन कक्षाओं में कभी राजनीतिक सलाह या बयान नहीं देते।
लेकिन, इस बार उन्होंने चुनाव नतीजों के तुरंत बाद कार्यकारी विकास वर्ग-2 के समापन भाषण में परोक्ष रूप से वरिष्ठ भाजपा नेताओं को नसीहत दी।
उनका भाषण थोड़ा आक्रामक था, इसमें उन्होंने चार प्रमुख बातें कही थीं।
पहला है मणिपुर पर उनका बयान। उन्होंने कहा, ‘विकास के लिए देश में शांति जरूरी है। देश में अशांति है और काम नहीं हो रहा है। देश का अहम हिस्सा मणिपुर एक साल से जल रहा है। नफऱत ने मणिपुर में अराजकता फैला दी है।’
उन्होंने मौजूदा एनडीए सरकार को सलाह दी कि वहां हिंसा रोकना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए।
दूसरा, पीएम मोदी हमेशा खुद को प्रधान सेवक कहते हैं। सरसंघ चालक ने अपने भाषण में इस सेवक शब्द का उल्लेख किया था।
भागवत ने कहा, ‘देश को निस्वार्थ एवं सच्ची सेवा की ज़रूरत है। जो मर्यादा का पालन करता है उसमें अहंकार नहीं होता और वह सेवक कहलाने का हक़दार होता है।’ राजनीति के जानकार लोगों का मानना है कि यह अप्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कहा गया था।
तीसरा, विपक्षी पार्टी को लेकर मोहन भागवत ने बयान दिया। उन्होंने कहा, ‘सत्ता पक्ष और विपक्ष की अलग-अलग राय है। मूलत: हमें विपक्ष शब्द का प्रयोग करना चाहिए, विरोध का नहीं। वे संसद में अपनी बात रखते हैं। इसका भी सम्मान किया जाना चाहिए। चुनाव की एक सीमा होनी चाहिए। लेकिन, इस बार ऐसा देखने को नहीं मिला।’
चौथा, चुनाव प्रचार को लेकर बयान। उन्होंने कहा, ‘चुनाव युद्ध नहीं प्रतिस्पर्धा है। इसकी सीमाएं होनी चाहिए। झूठ का सहारा लेने से काम नहीं चलता। कैंपेन में आलोचना हुई और समाज में नफरत पैदा करने की कोशिश की गई। बिना वजह संघ जैसे संगठनों को भी इसमें घसीटने की कोशिश की गई।’
‘यह सही नहीं है कि टेक्नोलॉजी की मदद से झूठ फैलाया जाए। केंद्र में भले ही एनडीए सरकार वापस आ गई है, लेकिन देश के सामने चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं।’
मोहन भागवत ने ये भाषण 10 जून की रात को दिया था और अगले ही दिन 11 जून को आरएसएस से जुड़ी पत्रिका ‘ऑर्गनाइजऱ’ ने बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं को आईना दिखाने का काम किया।
‘आर्गनाइजर’ में क्या लिखा गया है?
आर्गनाइजर में छपे लेख में कहा गया, ‘बीजेपी ने आरएसएस का काम नहीं किया। लेकिन, बीजेपी एक बड़ी पार्टी है और उनके अपने कार्यकर्ता हैं। वे पार्टी की कार्यप्रणाली, उसकी विचारधारा को लोगों तक पहुंचा सकते हैं।’
‘संघ चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए जनजागरण का काम कर रहा है। लेकिन, बीजेपी कार्यकर्ताओं ने संघ तक अपनी बात नहीं पहुंचाई, उन्होंने स्वयंसेवकों से चुनाव में सहयोग करने के लिए भी नहीं कहा। उन्होंने ऐसा क्यों किया।’
इस लेख में महाराष्ट्र में जोड़ तोड़ की राजनीति पर भी बीजेपी की आलोचना की गई है और कहा गया कि महाराष्ट्र में जोड़-तोड़ की राजनीति से बचा जा सकता था। साथ ही ये भी कहा गया कि बीजेपी कार्यकर्ता ‘मोदी की गारंटी, अबकी बार 400 पार’ के अतिआत्मविश्वास में लिप्त हो गए।
लेख में सवाल उठाया गया कि जब बीजेपी और शिवसेना को बहुमत मिल रहा था तब भी अजित पवार को साथ क्यों लिया गया? भाजपा समर्थक उन लोगों को अपने साथ लेने से आहत हैं जिनके खिलाफ उन्होंने वर्षों तक लड़ाई लड़ी। एक झटके में अपनी ब्रांड वैल्यू कम करने को लेकर बीजेपी की कड़ी आलोचना हो रही है। इन बयानों और लेखों से पहले, संघ की मशीनरी ने अपने स्वयंसेवकों, पदाधिकारियों से चुनाव परिणाम के बारे में ‘फीडबैक’ इकट्ठा किया था।
एक वरिष्ठ स्वयंसेवक, जिनसे यह 'फीडबैक' लिया गया था और जो पेशेवर रूप से इस चुनाव के राजनीतिक प्रबंधन में भी शामिल थे, उन्होंने नाम न ज़ाहिर करते हुए बीबीसी मराठी को बताया, ‘संघ की शाखा स्तर से इस तरह का ‘फीडबैक’ आया है, राष्ट्रीय कार्यकारिणी स्तर पर यह कोई नई बात नहीं है।’
‘वोटों का प्रतिशत क्यों घटा, सामाजिक एकजुटता पर क्या प्रभाव पड़ा, चुनाव में क्या नैरेटिव चला और नतीजे ऐसे क्यों रहे, जैसे मुद्दों पर ‘फीडबैक’ मांगा गया था। यह बीजेपी और उससे जुड़े लोगों पर भी लागू होता है।’
हालांकि नतीजों के मद्देनजर भागवत के बयान की ज़्यादा चर्चा हो रही है, लेकिन यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने इस तरह की आलोचना की है। भागवत ने उन मुद्दों पर टिप्पणी की है जिन पर मोदी सरकार पहले भी चुप्पी साधे रही है। न सिर्फ भागवत बल्कि उनके पूर्व सरसंघ नेता भी सार्वजनिक तौर पर अपनी बात रख चुके हैं।
मोहन भागवत ने पहले क्या दिया था बयान?
वहीं मणिपुर का मुद्दा सुर्खियों में रहने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर कुछ नहीं कहा। विपक्ष ने प्रधानमंत्री से इस मुद्दे पर बोलने की मांग को लेकर संसद में हंगामा किया। कुछ सांसदों को निलंबित भी किया गया था।
लेकिन, सरकार की ओर से कोई भी मणिपुर के बारे में बात करने को तैयार नहीं था। उस समय मोहन भागवत ने 2023 के अपने विजयादशमी भाषण में मणिपुर पर टिप्पणी की थी।
उन्होंने कहा था, ‘मणिपुर में हिंसा किसने भडक़ाई? यह हिंसा अपने आप नहीं हुई या लाई गई। अब तक, मैतई और कुकी दोनों समुदाय अच्छे से रह रहे थे।’
भागवत ने कहा था कि यह सीमावर्ती राज्य है और अगर यहां हिंसा होती है तो हमें सोचना चाहिए कि इससे किसे फायदा हो रहा है।
मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की ज़रूरत बताई थी। उन्होंने यह तय करने के लिए एक समिति बनाने का प्रस्ताव रखा था कि आरक्षण का लाभ किसे और कितने समय तक मिलेगा। इसके बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव में भी यही मुद्दा छाया रहा।
प्रचार किया गया कि संघ आरक्षण ख़त्म करना चाहता है। देखा गया कि इसका असर बीजेपी पर भी पड़ा।
फिर आरक्षण के समर्थन में मोहन भागवत का बयान आया, जो उनके पहले के बयान और संघ के कुछ पदाधिकारियों के रुख़ से उलट था।
उन्होंने कहा, ‘जब तक समाज में भेदभाव है तब तक आरक्षण बरकरार रहना चाहिए। जो भी आरक्षण संविधान के मुताबिक रहना चाहिए, संघ उसका समर्थन करता है।’
संघ और बीजेपी के बीच मतभेद पहले भी सामने आ चुके हैं। इनका एक महत्वपूर्ण उदाहरण संघ के तत्कालीन नेता के.एस. सुदर्शन का अटल बिहारी वाजपेयी से नाराजगी जताना है।
वाजपेयी सरकार से संघ का तनाव
2000 के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। लेकिन, 2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी हार गई। तब संघ के तत्कालीन प्रमुख के। एस। सुदर्शन ने एनडीटीवी को इंटरव्यू दिया।
इस समय उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की खुलकर आलोचना की।
प्रधानमंत्री के रूप में वाजपेयी के कार्यकाल की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था, ‘मुझे नहीं लगता कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान बहुत कुछ किया। उन्होंने कुछ अच्छे फैसले लिए, लेकिन, उन्हें सभी के साथ जुडऩा चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।’
‘हमें यह पसंद नहीं आया कि उन्होंने वीएचपी, बजरंग दल, विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ से बातचीत बंद कर दी। अब वाजपेयी और आडवाणी को संन्यास ले लेना चाहिए और नए नेतृत्व को मौका देना चाहिए।’
इतना ही नहीं उन्होंने वाजपेयी के परिवार की भी आलोचना की। सुदर्शन ने सरकारी काम में दखल देने के लिए वाजपेयी के दामाद रंजन भट्टाचार्य की भी आलोचना की थी। उस समय बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं और संघ के बीच रिश्ते तनावपूर्ण थे।
हालाँकि, वर्षों से संघ पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों का कहना है कि नागपुर में संघ शिक्षा वर्ग के समापन पर मोहन भागवत का भाषण पिछले कुछ वर्षों के इन बयानों से अधिक आक्रामक था।
नड्डा के बयान से संघ नाराज था?
चुनाव के दौरान किसी ने कुछ नहीं कहा। विशेष रूप से चुनाव के दौरान 17 मई को इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दिए इंटरव्यू में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि ‘बीजेपी को अब संघ की जरूरत नहीं है, बीजेपी राजनीतिक फैसले लेने में सक्षम है।’
उस समय भी न तो बीजेपी की ओर से स्पष्टीकरण दिया गया और न ही आरएसएस की ओर से किसी ने नाराजगी जताई। लेकिन, जैसे ही चुनाव नतीजे घोषित हुए, मोहन भागवत का बयान आ गया।
सवाल उठता है कि क्या भागवत का बयान नड्डा के बयान से नाराजगी के चलते आया है? क्या इसका जवाब आरएसएस ने अब दिया है?
नागपुर लोकसत्ता के संपादक देवेन्द्र गावंडे का कहना है कि नड्डा के बयान से संघ के कई स्वयंसेवकों को ठेस पहुंची है।
बीबीसी मराठी से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘एक अभियान चलाया गया कि संघ के लोग चुनाव में काम नहीं करें। बीजेपी के लोग अकेले में ऐसी बातें करते थे। इसमें चुनाव के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह बयान पसंद नहीं आया कि बीजेपी को संघ की ज़रूरत नहीं है। इस बयान से तनाव साफ़ दिख रहा था।’
लेकिन नागपुर में आरएसएस, बीजेपी और राजनीति पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार विकास वैद्य की राय अलग है।
वह कहते हैं, ‘जेपी नड्डा ने जो बयान दिया है, वह बीजेपी और आरएसएस की सहमति है। इसलिए संघ के नाराज होने का सवाल ही नहीं उठता। यदि संघ को आपत्ति थी तो वे उसी समय दर्ज कराते या नाराजगी व्यक्त करते। बीजेपी भी सफाई देती। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।’
बीजेपी और संघ के बीच कोई टकराव है?
अगर विधानसभा का सत्र होता है तो सभी बीजेपी विधायकों के लिए विशेष निर्देश जारी किए जाते हैं और उन्हें रेशीम बाग स्थित स्मारक स्थल पर माथा टेकने के लिए बुलाया जाता है।
लेकिन, मोदी सरकार पिछले 10 साल से सत्ता में हैं। मोदी खुद कई कार्यक्रमों का उद्घाटन करने नागपुर आए हैं। लेकिन, नागपुर में चर्चा है कि वह कभी आरएसएस मुख्यालय या स्मारक स्थल नहीं गए।
राजनीतिक विश्लेषक सुहास पलशिकर नहीं मानते कि बीजेपी और संघ में कोई टकराव है।
वो कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि बीजेपी और संघ में कोई बुनियादी मतभेद है। जिन मुद्दों पर काम करना है उस पर दोनों में सहमति है।’
पलशिकर ने कहा कि मौजूदा समझौते को यूनियनों और संबद्ध संगठनों की सांस्कृतिक क्षेत्र में आजादी और प्रशासन और आर्थिक नीतियों के क्षेत्र में बीजेपी की स्वायत्तता के रूप में देखा जाता है।
उनके अनुसार, बीजेपी और संघ जिस सामाजिक और सांस्कृतिक सर्वोच्चता को स्थापित करना चाहता है, उस पर वे स्पष्ट हैं। लेकिन संभव है कि सरकार के चलाने के तरीक़े पर मतभेद हो।
हर चुनाव में संघ और बीजेपी के बीच तालमेल रहता था। लेकिन जैसा कि देवेन्द्र गावंडे का कहना है कि वह इस चुनाव में शामिल नहीं हुए।
वो कहते हैं, ‘संघ को बीजेपी से कोई शिकायत नहीं है। लेकिन मोदी की बीजेपी नाराज है। क्योंकि, संघ एक सीधी रेखा में है। इसलिए संघ बीजेपी की विखंडित राजनीति और उससे बीजेपी की खराब हो रही छवि से सहमत नहीं है। भागवत के ये बयान उसी से आए होंगे। इसका मतलब ये नहीं कि संघ और बीजेपी में मतभेद है। लेकिन, थोड़ा तनाव जरूर है।’
विकास वैद्य भी इस बात से सहमत हैं कि पार्टी जोड़-तोड़ की इस राजनीति से संतुष्ट नहीं है। लेकिन, वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि संघ और बीजेपी के बीच कोई मतभेद नहीं है।
वे कहते हैं, ‘अगर संघ मोदी से नाराज होता तो भागवत सीधे उनका नाम लेते। संघ बीजेपी का अग्रज है। इसलिए उनका पीछे हटना संघ को स्वीकार्य नहीं है। संघ को बीजेपी से लगाव है। तो मोहन भागवत सामने आए।’
लेकिन बीजेपी को नसीहत देने, विरोधियों को प्रतिस्पर्धी मानने, उनकी राय का सम्मान करने जैसे तमाम बयानों और इसकी टाइमिंग पर नागपुर लोकमत के संपादक श्रीमंत माने संदेह जताते हैं।
उनका मानना है कि यह संघ को संतुलित करने की कोशिश है।
वो कहते हैं, ‘बीजेपी की जीती हुई सीटों पर वोटिंग प्रतिशत कम हुआ है। विपक्ष की ताकत बढ़ती जा रही है। क्या इस पृष्ठभूमि में संघ का यह दिखाने का प्रयास नहीं है कि हमारा झुकाव पूरी तरह से भाजपा की ओर नहीं है?’
‘पिछले 10 साल से वह बीजेपी के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं और अब संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं ताकि वह विपक्ष का निशाना न बनें। भागवत ने चुनाव के दौरान यह क्यों नहीं कहा कि वे विपक्ष को प्रतिद्वंद्वी मानें, मणिपुर पर ध्यान दें? वे चुनाव तक चुप क्यों रहे?’
अब सवाल यह है कि अगर संघ और बीजेपी के बीच सब कुछ ठीक नहीं है और अगर बीजेपी पूरी तरह से संघ के साथ नहीं है तो आगे के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
भाजपा को संघ की जरूरत पड़ सकती है, खासकर गठबंधन सरकार चलाते समय। अगले चार महीनों में महाराष्ट्र समेत तीन राज्यों में चुनाव होने के कारण चुनौतीपूर्ण स्थिति में टीम की जरूरत होगी।
ऐसे समय में सबकी नजर इस पर होगी कि मोहन भागवत के भाषण से मोदी और बीजेपी क्या कदम उठाते हैं।
बीजेपी नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की तैयारी में है। उस विकल्प से भी संघ और बीजेपी के मौजूदा रिश्तों का अंदाजा लगाया जा सकता है। (bbc.com/hindi)
-डॉ. परिवेश मिश्रा
वेरियर ऐल्विन और सारंगढ़ तथा छत्तीसगढ के साथ उनके रिश्तों के बारे में जानने की जिज्ञासा मुझमें पैदा करने का श्रेय जाता है स्व. अर्जुन सिंह के एक निर्णय को।
1980 में मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही समय बाद श्री अर्जुन सिंह ने राज्य को बाहरी दुनिया से परिचित कराने के लिए डॉम मॉरेस को आमंत्रित किया कि वे आयें, राजकीय अतिथि के रूप में घूमें, देखें, समझें और राज्य के बारे में एक पुस्तक लिखें। उस समय तक छत्तीसगढ़ अलग नहीं हुआ था।
प्रसिद्ध पत्रकार फ्रैंक मॉरेस के बेटे डॉम यूं तो अंग्रेजी भाषा के एक नामी भारतीय (गोआ मूल के) उपन्यासकार, कवि और कथाकार थे जिन्हे उनके लेखन के लिए अनेक राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे, फिर भी प्रसिद्ध अभिनेत्री और ‘मिस इंडिया’ रहीं लीला नायडू के पति के रूप में भी उनकी एक पहचान रही है।

जो पुस्तक आयी वह थी ‘आन्सर्ड बाद फ्लूट : रिफलेक्शन्स फ्रॉम मध्यप्रदेश’।
1983 में पुस्तक को पढ़ते हुए जब मेरी नजर इसमें सारंगढ़ के उल्लेख पर गई तो उत्सुकता स्वभाविक थी। सारंगढ़ का उल्लेख वेरियर ऐल्विन के सन्दर्भ में आया था। दरअसल डॉम ने लिखा था कि ऐल्विन ने अपने पुत्र का नामकरण सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह के नाम पर जवाहर किया था। (यही बात बाद में ऐन्थ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की पुस्तक में प्रकाशित अपने संस्मरण में ऐल्विन की दूसरी पत्नी ने भी लिखी)। यह सब पढक़र ऐल्विन के बारे में अधिक जानने की मेरी उत्सुकता स्वाभाविक थी।
वेरियर ऐल्विन पच्चीस साल की उम्र में सन 1927 में एक क्रिश्चियन मिशनरी के रूप में भारत आये थे। लेकिन चर्च से नाता तोड़ कर आगे के जीवन की दिशा तय करने का जिम्मा उन्होंने गांधी जी को सौंप दिया और अपना सारा जीवन आदिवासियों के बीच खपा देने का विकल्प चुना।

सारंगढ़ में मैंने सबसे पहले राजा जवाहिर सिंह के पुत्र राजा नरेशचन्द्र सिंह जी से ऐल्विन के बारे में पूछा।
आज़ादी की लड़ाई के दौर में भारत के आदिवासियों की ओर आमतौर पर देश का ध्यान नहीं गया था। पश्चिम में गुजरात के भीलों के बीच ठक्कर बापा (अमृतलाल वि_लदास ठक्कर) काम अपवाद और सीमित था। वे गांधी जी के साथ हरिजन सेवक संघ का काम भी देखते थे। ऐल्विन न केवल देश के मध्य में रहने वाले मूल निवासियों के बीच पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे बल्कि उन्होने भारतीय आदिवासियों की जीवन-शैली, उनके रीति-रिवाज, उनकी भाषा-बोली, गीत-संगीत आदि को जितना समझा, आत्मसात और रिकॉर्ड किया उतना तब तक कोई नहीं कर सका था। अकादमिक दुनिया में यह सब करना ‘ऐन्थ्रोपोलॉजी’ (मानव विज्ञान) का विषय माना जाता है। और भारत में वेरियर एल्विन को ऐन्थ्रोपोलॉजी के पितामह का दर्जा दिया गया है।
यह सब करने के लिए लंबे समय तक आदिवासियों के बीच रहकर, उनका विश्वास जीतकर शोध कार्य करना पहली आवश्यकता थी। और मैं इन सब में सारंगढ़ और छत्तीसगढ़ की भूमिका समझना चाहता था। नरेशचन्द्र सिंह जी के संस्मरण सुनना चाहता था। एक जिज्ञासु व्यक्ति की लम्बी ‘विश-लिस्ट’ लेकर मैं राजा साहब के पास पहुंचा था। लेकिन अल्पभाषी और अध्यनशील राजा साहब ने गिरिविलास पैलेस की विजिटर बुक्स और किताबों की अलमारियों की ओर इशारा कर दिया। इनमें कुछ शेल्फ़ वेरियर एल्विन की पुस्तकों से भरे थे जिनमें से कुछ उनके हस्ताक्षरों के साथ थीं।
विजिटर्स बुक में वेरियर एल्विन की अनेक प्रविष्टियों के साथ की गयी टिप्पणियों में से एक एल्विन ने हिन्दी (देवनागरी) में लिख कर नीचे स्वयं इसका भावार्थ अंग्रेजी में लिखा है।

‘संवरा के पांगे, राऊत के बांधे, राजा के फांदे’
संवरा के जादू में कैद (संवरा इस क्षेत्र का एक आदिवासी समुदाय है जिसे झाड़-फूंक, जादू-टोना जैसी ‘विद्याओं’ में पारंगत माना जाता है) ; राऊत (जिसे मवेशियों को कस कर बांधने की कला में महारत थी) की रस्सी से बंधा बैल, और सारंगढ़ राजा के प्रेम जाल/मोह पाश में फंसा मित्र, ‘इनके लिए बच कर निकलना नामुमकिन है’।
वेरियर एल्विन कौन थे, सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह से उनकी मित्रता कैसे हुई, गिरिविलास पैलेस कैसे एल्विन का दूसरा घर बना, महात्मा गांधी, नेहरू और पटेल से उनके क्या संबंध थे, आजादी के बाद की भारत सरकार में आदिवासियों के हित संरक्षण की वकालत करने और समझ विकसित करने में उनकी क्या भूमिका थी, इस तरह के तमाम प्रश्नों के उत्तर मिलते चले गये।
राजा साहब के अनुसार एल्विन से उनके पिता की मित्रता की वजह महात्मा गांधी थे। सौराष्ट्र के नगर राजकोट में सबसे प्रतिष्ठित वकीलों में से एक थे सीताराम पण्डित। गांधी जी ने ब्रिटेन से बैरिस्टरी पास कर हिन्दुस्तान लौटने के बाद वकालत की प्रैक्टिस करने का प्रयास किया तो शुरुआती दिनों में उन्होने इन्हीं सीताराम पण्डित के ऑफिस से शुरुआत की थी। सीताराम पण्डित के पुत्र थे रणजीत जो कुछ वर्षों के बाद स्वयं भी ब्रिटेन से बैरिस्टर बन कर लौटे। रणजीत पण्डित सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह के अभिन्न मित्र थे। जब रणजीत पण्डित का विवाह इलाहाबाद के आनन्द भवन में मोतीलाल नेहरू की बेटी विजयलक्ष्मी के साथ सम्पन्न हुआ तो बारातियों में राजा जवाहिर सिंह शामिल थे। दूसरी तरफ गांधी जी से रणजीत पण्डित के घरेलू संबंध थे। रणजीत पण्डित के माध्यम से राजा जवाहिर सिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये थे। गांधी जी ने वेरियर एल्विन को जब मध्य-भारत के वनों में जाकर आदिवासियों के बीच बसने और उनके लिए काम करने की सलाह दी तब उन्होने एल्विन को राजा जवाहिर सिंह का संदर्भ देकर उनसे मिलने की सलाह दी थी।
इतिहासकार रामचंद्र गुहा (‘सावेजिंग द सिविलाईज़्ड’ जिससे मैंने अनेक संदर्भ लिए हैं) के अनुसार वेरियर एल्विन विदेशी मूल के सम्भवत: पहले व्यक्ति थे जिन्हे आजादी के बाद भारत की नागरिकता प्रदान की गयी। राष्ट्रपति के हाथों उन्हे पद्मभूषण सम्मान भी प्राप्त हुआ।
गांधी जी समेत कांग्रेस के नेताओं की सलाह पर एल्विन ने अपने मित्र शाम राव हिवाले को साथ लिया और दो सौ रुपये के साथ जनवरी 1932 में बैतूल से बैलगाड़ी पर निकल पड़े थे। उनका पड़ाव बना मैकल पर्वत पर अमरकंटक के पास करंजिया नाम का एक छोटा सा गोंड गांव। यहां दोनों ने झोपड़ी बनायी और रहना शुरू किया। कुछ समय के बाद पास के गांव में रहने वाली कोसी (कोसल्या) नामक गोंड महिला से एल्विन ने विवाह किया।
इन्ही कोसी और एल्विन के पुत्र थे जवाहर जिनसे पुस्तक के लिए शोध के दौरान मंडला में डॉम मॉरेस की भेंट हुई थी। दरअसल जब जवाहर की उम्र स्कूल जाने की हुई तो एल्विन ने उन्हे मुम्बई मे फ्रैंक मॉरेस की सुपुर्दगी में ही छोड़ा था। जवाहर और डॉम एक ही स्कूल में पढ़े थे।
छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच विश्वसनीयता पैदा करने के लिए राजा जवाहिर सिंह के कंधे ऐल्विन के माध्यम बने। दोनों ने मिलकर जो शोध किये और जहां किये उन्हें ‘री-विजिट’ करना भी आज के शोधकर्ताओं के लिए एक विषय बनने की संभावना रखता है।
1946 में राजा जवाहिर सिंह जी का देहांत हुआ और उसके बाद एल्विन सारंगढ़ नहीं आये।
आज़ाद भारत में जवाहरलाल नेहरू ने उन्हे आदिवासी मामलों के लिए भारत सरकार का सलाहकार नियुक्त किया। इतिहास का एक अपेक्षाकृत अल्पचर्चित पहलू यह है कि जब तक भारत में अंग्रेज़ रहे, भारत के उत्तर पूर्व के इलाके में प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था खड़ी करने में अंग्रेज़ों की रुचि नहीं थी। तेल के कुएं, चाय बागान, और शिलॉंग के मौसम के कारण असम का कुछ हिस्सा अपवाद था। बाकी बचे इलाके जो आज मिजोरम, नगालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश आदि नामों से जाने जाते हैं, वहां प्रशासन की उपस्थिति शून्य थी। जब देश आजाद हुआ यह इलाका स्थानीय राजाओं या आदिवासी कबीलों के हाथों में था।
इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस) के अधिकारियों के पास न तो उत्तर पूर्वी इलाकों में काम करने का अनुभव था न प्रशिक्षण। नेहरू ने अंग्रेजों की नीति को पलटते हुए भारतीय प्रशासनिक उपस्थिति को चीन की सीमा तक पहुँचाने का निर्णय लिया। वेरियर ऐल्विन की सलाह पर पण्डित नेहरू ने विदेश मंत्रालय के नेतृत्व में एक नयी सेवा का गठन किया - इंडियन फ्रन्टियर ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आई.एफ.ए. एस.)। सिविल सर्विस, विदेश सेवा, पुलिस, फौज, विश्वविद्यालय, सभी स्रोतों से आवेदन मँगवाये गये। हज़ारों आवेदनों में से पच्चीस योग्य व्यक्तियों का चयन कर शिलॉंग भेजा गया जहां वेरियर ऐल्विन का जि़म्मा था आदिवासियों के बीच काम करने के लिए इन्हें प्रशिक्षण देना। इस तरह 1953 में आई.एफ.ए. एस. का गठन हुआ। नेहरू और ऐल्विन की मृत्यु के बाद आदिवासी क्षेत्रों और आदिवासियों की विशेष चिंता करने के लिए इन दोनों की आलोचना बहुत बढ़ गई थी।
अरुणाचल प्रदेश (पूर्व में नेफा) में रहने वालों का भारत से परिचय कराने और उनमें भारतीयता के लिए गर्व का जज़्बा जगाने का काम ऐल्विन ने किया। नेहरू के पंचशील के सिद्धांतों का स्रोत नेफा पर लिखी ऐल्विन की पुस्तक ही थी।
1968 में इंडियन फ्रंटियर ऐडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस को भंग कर इसका विलय आई.ए.एस. के साथ कर दिया गया।

ऐल्विन के जीवन के अंतिम वर्ष शिलॉंग में बीते।
1964 में हृदयाघात ने उनका जीवन समाप्त कर दिया। अनेक लोगों का मानना रहा है कि कुछ ही महीनों के अंतराल में दोनों घनिष्ठ मित्रों नेहरू और ऐल्विन की हुई मौतों के पीछे नेफ़ा पर हुए चीनी हमले से पहुँचे आघात की भी भूमिका थी।
गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़
जो होगा, अच्छा होगा यह मान लेने भर से जीवन बदल सकता है. शोधकर्ता कहते हैं कि ऐसा सोचने वाले लोग ज्यादा लंबा जीते हैं.
प्रिंस भोजवानी खुद को कभी निराशावादी इंसान नहीं मानते थे। लेकिन जब एक महीने में तीन बार उन्हें अस्पताल के चक्कर लगाने पड़े तो उन्हें अपने बारे में कुछ अलग पता चला। मई 2018 से पहले वह एक स्वस्थ इंसान थे। नियमित रूप से 30 किलोमीटर साइकल चलाते थे। फिर एक दिन अचानक उनका ब्लड प्रेशर बढ़ गया। आंखें धुंधला गईं और चलना मुश्किल हो गया।
इमरजेंसी के डॉक्टरों को लगा कि उन्हें स्ट्रोक हुआ है लेकिन वह उनकी स्थिति की सही वजह नहीं बता पाए। भोजवानी बताते हैं कि उनके एक ‘बेहद आशावादी दोस्त’ ने इस बात की ओर इशारा किया कि वह हमेशा निराशावादी नजरिया रखते हैं और यह उनकी सेहत खराब होने की वजह बना।
न्यू यॉर्क में रहने वाले भोजवानी कहते हैं, ‘उसके अगले दिन से ही मैंने जिंदगी को अलग तरह से देखना शुरू किया।’ उन्होंने ध्यान लगाना शुरू किया और रोज सुबह इस बात के लिए शुक्रिया अदा करना शुरू किया कि वह जीवित हैं।
इस तरह भोजवानी को एक मकसद मिला। उन्होंने साथियों के साथ मिलकर एक समाजसेवी संस्था ‘आसन वॉइसेज' की शुरुआत की।
तब से भोजवानी की सेहत पर वैसा संकट नहीं आया है, जबकि वह घंटों तक काम करते हैं। वह कहते हैं कि ऐसा उनके नए आशावादी नजरिए के कारण है। वह बताते हैं, ‘उस जिंदगी बदल देने वाली घटना ने मुझे सकारात्मक सोच अपनाने को मजबूर किया। अब मैं उस तरह से जीना सोच भी नहीं सकता, जैसा पहले जिया करता था।’
क्या करता है आशावाद?
आशावाद अपने आप में किसी चीज का इलाज नहीं है। लेकिन बहुत से अध्ययन सकारात्मक सोच और अच्छी सेहत के बीच सीधा संबंध दिखा चुके हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि कोई व्यक्ति कितना आशावादी है, यह जानने के लिए ‘लाइफ ओरिएंटेशन टेस्ट' के दस सवाल एक मानक टेस्ट है। यह टेस्ट 1994 में प्रकाशित हुआ था।
इस टेस्ट में लोगों से विभिन्न बातों पर एक से पांच के बीच नंबर देने को कहा जाता है, जैसे कि ‘जब जीवन में अनिश्चितता हो तो मैं उम्मीद करता हूं सबसे अच्छा नतीजा निकलेगा।’
हार्वर्ड सेंटर फॉर पॉप्युलेशन एंड डिवेलपमेंट स्ट्डीज में शोधकर्ता हयामी कोगा कहती हैं, ‘आमतौर पर यह मानना कि सब अच्छा होगा या भविष्य में जो होगा वह मेरे लिए लाभकारी होगा, आशावाद की परिभाषा है।’
कोगा 2022 में हुए एक अध्ययन में मुख्य शोधकर्ता थीं जिसका निष्कर्ष था कि जो लोग आशावादी होते हैं, उनके 90 साल से ज्यादा जीने की संभावना अधिक होती है। इसी साल मई में जेएएमए साइकिएट्री पत्रिका में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कहा कि जैसे-जैसे आशावादी लोगों की उम्र बढ़ती है, उनके शारीरिक अंगों के काम सुचारू रूप से करते रहते हैं।
इस अध्ययन के लिए छह साल तक 5,930 ऐसी महिलाओं पर अध्ययन किया गया था जो मेनोपॉज से गुजर चुकी थीं।
कोगा कहती हैं, ‘हम जानते हैं कि ज्यादा आशावादी लोगों के अधिक स्वस्थ जीवन जीने की संभावना बहुत होती है। उनकी आदतें स्वस्थ होती हैं, वे सेहतमंद भोजन करते हैं और एक्सरसाइज करते हैं।’
क्या आशावादी होना सीखा जा सकता है?
कुछ लोग तो पैदा ही आशावादी होते हैं लेकिन न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में साइकिएट्री पढ़ाने वालीं सू वर्मा कहती हैं कि आशावादिता सीखी भी जा सकती है।
‘प्रैक्टिकल ऑप्टिमिजम: द आर्ट, साइंस एंड प्रैक्टिस ऑफ एक्सेपशनल वेल-बीइंग’ नामक किताब की लेखिका वर्मा बताती हैं, ‘गिलास को हमेशा आधा भरा देखने और सब अच्छा होने की उम्मीद का गुण भले ही आपके अंदर जन्म से नहीं हो, तब भी आप इसे सीख सकते हैं।’
वर्मा की सलाह है कि जब भी कोई उलझन या संदेह की स्थिति हो तो बुरे के बजाय अच्छा होगा, यह सोचना सीखना होता है। वह कहती हैं, ‘क्या रोशनी की कोई किरण दिखाई दे रही है? क्या कोई समस्या है जिसे हल किया जा सकता है, या फिर कोई सच्चाई है जिसे स्वीकार कर लेना चाहिए?’
वर्मा कहती हैं कि वह अपने मरीजों को कहती हैं कि किसी भी उलझन में यह मानना चाहिए कि जो सबसे अच्छा हो सकता है, वही होगा और फिर उस नतीजे के लिए कदम-दर-कदम रास्ता बनाना चाहिए।
- निवित कुमार यादव, पार्थ कुमार, श्रेया वर्मा, अनुभा अग्रवाल
पर्यावरण खराब होने का एक बड़ा कारण है पर्यावरण को बचाने के लिए बनाए गए नियमों को ठीक से लागू न करना। नई सरकार को इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए, खासकर ऐसे समय में जब देश की औद्योगिक क्षमता तेजी से बढ़ रही है। सरकार को उन मुख्य मुद्दों को सुधारने की जरूरत है जो देश के उद्योगों के प्रदूषण को रोकने में बाधा बन रहे हैं।
मजबूत प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाएं
कई कानूनों के तहत प्रदूषण नियंत्रण का काम राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) करता है। लेकिन इनकी कार्यप्रणाली में कमी रहती है क्योंकि इनके पास पर्याप्त कर्मचारी, पैसा और जरूरी उपकरण नहीं होते। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की 5 अप्रैल 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, सभी एसपीसीबी में स्वीकृत पदों में से आधे से ज्यादा (6,075) खाली पड़े हैं। आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और मणिपुर में तो ये खाली पद 60 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं।
कर्मचारियों की इतनी कमी से प्रदूषण को रोकने के लिए बनाए गए नियमों को लागू करना मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2022 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वहां 1,11,928 कारखानों की निगरानी के लिए स्वीकृत 839 पदों में से सिर्फ 505 भरे हुए हैं। इन 505 कर्मचारियों में से भी सिर्फ 315 ही तकनीकी विशेषज्ञ हैं। यानी हर एक विशेषज्ञ को 355 कारखानों की निगरानी करनी पड़ती है। इसलिए यह जरूरी है कि इन बोर्डों में कर्मचारियों की कमी को दूर किया जाए और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल किया जाए।
हालांकि एसपीसीबी प्रदूषण की निगरानी के लिए 'लगातार उत्सर्जन निगरानी प्रणाली' (सीईएमएस) जैसी तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इस तकनीक से मिलने वाले आंकड़ों को कानूनी कार्रवाई के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि वायु अधिनियम 1981 के तहत इन्हें सबूत के तौर पर मान्यता नहीं दी गई है। अगर सीईएमएस को कानूनी मान्यता दे दी जाए, तो वायु अधिनियम में बदलाव करके इन आंकड़ों को प्रदूषण फैलाने वाली फैक्ट्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा 2019-20 में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) और प्रदूषण नियंत्रण समितियों (पीसीसी) के प्रदर्शन का लेखा-परीक्षा किया गया था। इस लेखा-परीक्षा में पता चला कि पूर्वोत्तर राज्यों को छोडक़र ज्यादातर बोर्डों और समितियों को फंड की कमी नहीं है। हालांकि, उन्हें इस बात की चिंता है कि भविष्य में फंड मिलना मुश्किल हो सकता है। इस चिंता को दूर करने के लिए नए फंड जुटाने के रास्ते तलाशने चाहिए और मौजूदा फंड का सही इस्तेमाल करने में आने वाली दिक्कतों को दूर करना चाहिए।
प्रदूषण फैलाने वाली फैक्ट्रियों को नियमों का पालन करवाने के लिए, जवाबदेही बढ़ाने के लिए, लोगों को जागरूक करने और उनकी भागीदारी बढ़ाने के लिए पारदर्शी तरीके से आंकड़े देना बहुत जरूरी है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में एसपीसीबी और पीसीसी को आदेश दिया था कि वे सीईएमएस से मिलने वाले आंकड़ों को सार्वजनिक करें।
लेकिन अभी भी नौ एसपीसीबी और पीसीसी ने इस आदेश का पालन नहीं किया है।
जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के अनुसार भी एसपीसीबी और पीसीसी को अपनी सालाना रिपोर्ट सार्वजनिक करनी चाहिए। हालांकि, 11 एसपीसीबी और पीसीसी अपनी सालाना रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं करते। जो रिपोर्ट सार्वजनिक हैं, उनमें भी आंकड़ों में विसंगति होती है, जिससे रिपोर्ट का फायदा कम हो जाता है। इसलिए सभी एसपीसीबी और पीसीसी को अपनी सालाना रिपोर्ट में आंकड़े देने का एक समान प्रारूप अपनाना चाहिए।
पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना में सुधार जरूरी
पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना, 2006 औद्योगिक इकाइयों को स्थापित करने या उनका विस्तार करने की अनुमति देने से पहले उनके पर्यावरण पर पडऩे वाले संभावित प्रभाव का आकलन करने का कानूनी दस्तावेज है। समय के साथ बदलती परिस्थितियों के अनुसार ईआईए अधिसूचना में बदलाव किए जा सकते हैं। लेकिन इस खासियत का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। पिछले कुछ सालों में सरकारों ने सख्त नियम लागू करने के बजाय उद्योगों को आसानी से स्थापित करने और उनका विस्तार करने के लिए ईआईए प्रक्रिया को कमजोर करने का प्रयास किया है। इससे बहुत प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों को भी फायदा हुआ है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) के रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले पांच सालों में ईआईए अधिसूचना, 2006 में सिर्फ दफ्तरी ज्ञापनों के जरिए 110 से ज्यादा बदलाव किए गए हैं। इन ज्ञापनों पर जनता की राय नहीं ली गई। इनमें से कुछ बदलावों को राष्ट्रीय हरित अधिकरण में चुनौती दी गई है। 2020 में ईआईए अधिसूचना के मसौदे में भी कुछ ऐसे प्रावधान शामिल किए गए थे जिनकी वजह से पर्यावरण संबंधी नियम कमजोर पड़ते। इस मसौदे की भी काफी आलोचना हुई थी।
नई सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ईआईए अधिसूचना में बार-बार बदलाव न किए जाएं। ईआईए अधिसूचना को एक मजबूत कानून (ईआईए अधिनियम) में बदलना ज्यादा जरूरी है ताकि इसका सही तरीके से पालन हो सके। इसके अलावा, परियोजना शुरू होने के बाद पर्यावरण स्वीकृति (ईसी) की शर्तों को कैसे लागू किया जा रहा है, इस बारे में पारदर्शिता लाना भी जरूरी है।
फिलहाल, परियोजना शुरू करने वाली कंपनियां हर छह महीने में एक रिपोर्ट देती हैं कि उन्होंने पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन किया है या नहीं। यह रिपोर्ट पर्यावरण मंत्रालय (एमओईएफसीसी) या राज्य सरकार की वेबसाइट पर डाली जाती है। लेकिन यह जानकारी आम लोगों को आसानी से नहीं मिल पाती। इन रिपोर्ट्स की गुणवत्ता भी संदेहजनक होती है और ये अक्सर अधूरी होती हैं। ऐसी रिपोर्ट जमा करने का कोई फायदा नहीं है।
एक्शन प्वाइंट
द्य सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में आधे से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। इन बोर्डों की क्षमता का आंकलन किया जाए और खाली पदों को भरना प्राथमिकता हो।
द्य पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना, 2006 को और सख्त कानून से बदला जाए और उसका सही से पालन सुनिश्चित किया जाए।
द्यपर्यावरण संबंधी मंजूरी की शर्तों को लागू करने में पारदर्शिता लाई जाए।
कभी-कभी किसी परियोजना को चलाने की अनुमति (कंसेंट टू ऑपरेट) देते समय तय की गईं पर्यावरण शर्तें पर्यावरण स्वीकृति (ईसी) पत्र में बताई गई शर्तों से ज्यादा सख्त होती हैं। या फिर अतिरिक्त पर्यावरण मानकों का पालन करना होता है। ऐसे में हो सकता है कि परियोजना ईसी के हिसाब से नियमों का पालन कर रही हो, लेकिन फिर भी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) द्वारा तय किए गए पर्यावरण मानकों का उल्लंघन कर रही हो।
नई सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पर्यावरण से जुड़ी सारी जानकारी एक ही जगह पर उपलब्ध हो, चाहे वो राज्य सरकार के दायरे में आए या केंद्र सरकार के।
प्रदूषण कम करने के उपाय
वायु प्रदूषण के मामले में ज्यादातर उद्योगों पर नजर रखी जाती है। उद्योगों से दो तरह का प्रदूषण फैलता है:
चिमनी से निकलने वाला प्रदूषण। यह प्रदूषण आमतौर पर ईंधन जलाने से होता है। इस तरह के प्रदूषण को कम करने के लिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उद्योग स्वच्छ ईंधन इस्तेमाल करें, कम प्रदूषण फैलाने वाली और ज्यादा कुशल तकनीक अपनाएं और प्रदूषण रोकने वाले उपकरण लगाएं और उनकी देखभाल करें। छोटे और मझोले उद्योगों की संख्या ज्यादा होने के कारण उनकी निगरानी मुश्किल होती है। ऐसे उद्योगों के लिए तकनीक के आधार पर मानक तय किए जा सकते हैं। साथ ही, नियम बनाने वालों और उद्योगों दोनों पर बोझ कम करने के लिए एक ही बॉयलर जैसी साझा दहन सुविधाएं शुरू की जा सकती हैं।
भागने वाला प्रदूषण-पत्थर तोडऩे की मशीनें, खनिज पीसने के कारखाने और ईंट भट्टे 'भागने वाले प्रदूषण' के बड़े स्रोत हैं। चूंकि इस तरह का प्रदूषण किसी एक जगह से (जैसे चिमनी) नहीं निकलता, इसलिए जरूरी है कि हर क्षेत्र के लिए अलग-अलग प्रदूषण कम करने के सख्त दिशानिर्देश बनाए जाएं और उनका सही तरीके से पालन किया जाए। पुराने दिशानिर्देशों में कमजोरियों और उनके खराब कार्यान्वयन की वजह से प्रदूषण की स्थिति ज्यादा खराब हो गई है।
इन दो तरह के प्रदूषण के अलावा रसायन और रिफाइनरी जैसे कुछ उद्योग वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (जैसे ईथर) का उत्सर्जन करते हैं, जिन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
सभी क्षेत्रों में कार्बन उत्सर्जन कम करें
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने 2023 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र रूपरेखा सम्मेलन (यूएनएफसीसीसी) को तीसरा राष्ट्रीय संप्रेषण (नेशनल कम्यूनिकेशन) भेजा था। इस रिपोर्ट के अनुसार, उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण (जिसमें ईंधन जलाने और औद्योगिक प्रक्रियाओं से निकलने वाला प्रदूषण शामिल है) देश के कुल प्रदूषण का 22 प्रतिशत है। इस प्रदूषण में सबसे ज्यादा हिस्सा स्टील, सीमेंट और एल्यूमिनियम उद्योगों का है। अब तक कार्बन उत्सर्जन कम करने की ज्यादातर चर्चाएं सिर्फ स्टील उद्योग पर केंद्रित रही हैं, जिसके लिए एक अलग मंत्रालय है। अब वक्त आ गया है कि सरकार सीमेंट, एल्यूमिनियम और उर्वरक जैसे अहम प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों के लिए भी अलग मंत्रालय या संस्था बनाए।
इसके अलावा, उद्योगों से कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सरकार को निम्नलिखित रणनीतियों पर ध्यान देना चाहिए: पहला, स्वच्छ ईंधन और आधुनिक, कम प्रदूषण फैलाने वाली तकनीक का इस्तेमाल करना। दूसरा, वैकल्पिक स्वच्छ कच्चे माल का ज्यादा इस्तेमाल करना और यह पता लगाना कि कचरे से कच्चा माल कैसे बनाया जा सकता है। इसका मतलब है कि एक उद्योग का कचरा दूसरे उद्योग के लिए उपयोगी बनाना। इससे हवा और पानी साफ होगा और कचरे का प्रबंधन भी बेहतर होगा।
भारत में छोटे और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) रोजगार का एक बड़ा जरिया हैं और देश की आर्थिक तरक्की में भी अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर उद्योग गंदे ईंधन का इस्तेमाल करते हैं।
छोटे और मध्यम उद्योगों में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सरकार को इन उद्योगों का सही आंकड़ा इक_ा करने के लिए एक राष्ट्रीय अभियान शुरू करना चाहिए। इस आंकड़े के आधार पर ही इन उद्योगों में कार्बन उत्सर्जन कम करने की योजना बनाई जा सकती है।
भारत अपना खुद का कार्बन बाजार स्थापित कर रहा है, जिसमें उद्योगों की अहम भूमिका होगी। यह बाजार ‘प्रदर्शन, प्राप्ति और व्यापार’ (पीएटी) योजना पर आधारित है, जो 2012 से चली आ रही है। इस योजना में भी कई चुनौतियां रहीं, जैसे कम दाम, बाजार में ऊर्जा प्रमाणपत्रों की अधिकता, कम महत्वाकांक्षी लक्ष्य, नियम न मानने पर जुर्माना न लगाना और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में मामूली कमी। यह जरूरी है कि आने वाले कार्बन बाजारों में भी यही चुनौतियां न आने पाएं। साथ ही, यह भी ध्यान रखना होगा कि इन बाजारों में देश के कुल उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा शामिल हो।
एक्शन प्वॉइंट
सीमेंट, उर्वरक जैसे ज्यादा प्रदूषण करने वाले उद्योगों के लिए अलग मंत्रालय या संस्थाएं बनाई जाएं।
कोयला आधारित बिजलीघरों को बिना किसी देरी के 2015 के प्रदूषण नियमों का पालन करना चाहिए और ज्यादा अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल करके ऊर्जा के मामले में किफायती बनना चाहिए।
कई फैक्ट्रियों के लिए साथ में इस्तेमाल की जा सकने वाली साझी सुविधाएं और रहने वाले इलाकों से दूर उपयुक्त स्थान मिलने से उद्योगों की टिकाऊपन बढ़ सकती है।
साफ ऊर्जा
सरकार ने 2015 में कोयला आधारित बिजलीघरों के लिए प्रदूषण कम करने के नए नियम बनाए थे। लेकिन, आठ साल बाद भी कुछ ही बिजलीघर इन नियमों का पालन कर रहे हैं। ये बिजलीघर देश की कुल बिजली बनाने की क्षमता का सिर्फ 5त्न हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि सरकार ने इन बिजलीघरों को इन नियमों को पूरा करने के लिए कई बार मोहलत दे दी है। आखिरी बार मोहलत देकर ये नियम अब 2026 तक पूरे करने होंगे। हमें सरकार से कहना है कि इन नियमों को पूरा करने का समय और न बढ़ाया जाए। कोयला आधारित बिजलीघरों से प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। साथ ही, दस साल बाद इन नियमों को पूरा करने का कोई फायदा नहीं है।
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके थर्मल पावर प्लांट्स और ज्यादा ऊर्जा दक्षता वाले हैं। सरकार को बिजली बनाने के ज्यादा किफायती तरीके अपनाने चाहिए। जो पुराने बिजलीघर ज्यादा प्रदूषण करते हैं उन्हें बंद कर देना चाहिए और उनकी जगह ज्यादा किफायती सुपरक्रिटिकल और अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल बिजलीघर लगाने चाहिए। बिजली बनाने के लिए कोयले के साथ जैविक पदार्थों का इस्तेमाल बढ़ाना चाहिए। इन बिजलीघरों को जल्दी से ज्यादा अक्षय ऊर्जा पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए। इससे हवा साफ रखने में मदद मिलेगी.
टिकाऊ औद्योगिक विकास के लिए बुनियादी ढांचा
भारत में औद्योगिक विकास तेजी से हो रहा है, लेकिन अब समय आ गया है कि हम सिर्फ आर्थिक फायदे के नजरिए से नहीं, बल्कि पर्यावरण के लिहाज से भी सोचें। ज्यादा सामान बनाने के लिए हमें ऐसी फैक्ट्रियों की जरूरत है जो कम प्रदूषण करें। अभी, भारत के औद्योगिक क्षेत्रों में कई समस्याएं हैं- खराब सडक़ें, कचरे के निपटारे का सही इंतजाम ना होना, गाडिय़ों के लिए पार्किंग की कमी, हरियाली ना होना और दूसरी जरूरी सुविधाओं का अभाव।
टिकाऊ औद्योगिक विकास के लिए सबसे जरूरी है - कई फैक्ट्रियों के लिए साथ में इस्तेमाल की जा सकने वाली सुविधाएं। उदाहरण के लिए, साझा बायलर (भाप बनाने का संयंत्र), गंदे पानी के शोधन का साझा कारखाना, साझा कचरा प्रबंधन केंद्र, भारी गाडिय़ों के लिए साझा पार्किंग, मजदूरों के रहने के लिए अच्छे घर, बाजार, हरियाली वाले क्षेत्र आदि।
नए औद्योगिक क्षेत्रों को रहने वाले इलाकों से दूर बनाना चाहिए, बीच में हरियाली का बफर जोन होना चाहिए। वहां प्रदूषण कम करने वाले ईंधन उपलब्ध होने चाहिए, हवा की गुणवत्ता जांचने की व्यवस्था होनी चाहिए, पेड़ लगाकर अच्छी सडक़ें और फुटपाथ बनाए जाने चाहिए।
यह बदलाव सिर्फ नए क्षेत्रों के लिए नहीं, बल्कि पुराने औद्योगिक क्षेत्रों के सुधार के लिए भी जरूरी हैं। बिना टिकाऊ बुनियादी ढांचे के, हमारा पर्यावरण लगातार खराब होता जाएगा।
-एलेनोरा कुलेंबेकोवा
एक ज़माने में यूरोप में कारोबारी सरोगेसी (किराए की कोख) का सबसे पसंदीदा ठिकाना यूक्रेन हुआ करता था। लेकिन जबसे रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है, तब से यूक्रेन में सरोगेसी से पैदा होने वाले बच्चों की तादाद 90 प्रतिशत तक कम हो गई है।
इसीलिए अब, बच्चे पैदा कराने की ख्वाहिश रखने वाले जोड़े यूक्रेन के बजाय जॉर्जिया का रुख कर रहे हैं। इस वजह से जॉर्जिया में सरोगेसी की जो कीमत प्रचारित की जा रही है, उसमें जबरदस्त उछाल देखा जा रहा है।
लेकिन इस वजह से महिलाओं पर दबाव डालने की आशंकाएं भी बढ़ रही हैं, क्योंकि सरोगेसी के लिए बहुत सी विदेशी महिलाओं को भी भर्ती किया जा रहा है।
37 साल की अलीना (बदला हुआ नाम) कहती हैं, ‘अगर पैसे का मामला न होता, तो मैं ये काम कतई नहीं करती।’ अलीना ने एक जोड़े का बच्चा अपने पेट में पालने के लिए जॉर्जिया की एक सरोगेसी एजेंसी के साथ कऱार किया है।’ इसके एवज़ में अलीना को प्रेगनेंसी के दौरान हर महीने 500 डॉलर मिलेंगे। वहीं, बच्चे की पैदाइश के बाद उन्हें 15 हजार डॉलर की रकम दी जाएगी।
अलीना कहती हैं कि, ‘मैं उन परिवारों की मदद करना चाहती हूं, जो अपने बच्चे ख़ुद पैदा नहीं कर सकते। मैंने ऐसे बहुत से परिवारों को टूटते हुए देखा है, जो अपने बच्चे पैदा करने में सक्षम नहीं हैं।’ हालांकि, अलीना इसमें ये भी जोड़ती हैं, ‘लेकिन, सबसे बड़ी बात ये है कि मुझे पैसों की ज़रूरत है। मैं अपने परिवार के लिए अच्छे से अच्छा करना चाहती हूं। मुझे ख़ुद के साथ-साथ अपने बच्चों के लिए मज़बूत बनना पड़ेगा।’
सरोगेसी की प्रक्रिया के दौरान, मां-बाप बनने के आकांक्षी जोड़ों के अंडाणु और शुक्राणुओं को लैब में मिलाकर भ्रूण तैयार किया जाता है। इसे टेस्ट ट्यूब भी कहते हैं।
फिर इस भ्रूण को सरोगेट मां यानी बच्चे पैदा करने के लिए अपनी कोख किराए पर देने वाली महिला के गर्भ में प्रत्यारोपित किया जाता है। दुनिया भर में सरोगेसी यानी किराए की कोख का कारोबार करोड़ों डॉलर का है।
जॉर्जिया की सरोगेसी एजेंसी ने अलीना को उनके अपने देश कजाखस्तान से भर्ती किया था। जहां पर अलीना दो बच्चों की परवरिश अकेले ही करती हैं।
अलीना, कपड़ों की एक दुकान में काम करके जितने पैसे कमाती हैं, उससे तीन गुना ज़्यादा पैसे उन्हें अपनी कोख किराए पर देने या सरोगेसी की प्रक्रिया से मिलेंगे। वो कहती हैं कि, ‘मुझे अपने बच्चों के सिवा किसी और की परवाह नहीं है।’ अभी वो एक जोड़े के भ्रूण को अपने गर्भ में प्रत्यारोपित कराने के लिए जॉर्जिया की राजधानी तिब्लिसी जाने का इंतज़ार कर रही हैं। अलीना कहती हैं कि, उन्हें अपने बच्चों की बहुत याद आती है।
अलीना का कहना है कि, ‘मैंने ख़ुद को इस काम के लिए तैयार किया है। लेकिन मुझे लगता है कि मैं अकेली हूं। मेरा कोई मददगार नहीं है।’
तेज़ी से बढ़ी मांग
दमीरा बेकबर्गेनोवा एक सरोगेसी एजेंसी चलाती हैं।
यूरोप में किराए की कोख के कारोबार में अब जॉर्जिया ने यक्रेन को बहुत पीछे छोड़ दिया है पर जॉर्जिया की आबादी यूक्रेन के दसवें हिस्से के बराबर ही है। ऐसे में यहां की सरोगेसी एजेंसियां अलीना जैसी महिलाओं को पूरे मध्य एशिया से भर्ती कर रहे हैं।
सरोगेसी के कारोबार में इतनी भारी रकम होने की वजह से महिलाओं पर अपनी कोख किराए पर देने का दबाव बनने को लेकर आशंकाएं भी जताई जा रही हैं। इस उद्योग से जुड़े लोग भी इस दबाव को लेकर फिक्रमंद हैं।
बोलाशक (कजाख में इसका मतलब भविष्य है) नाम की सरोगेसी एजेंसी चलाने वाली दमीरा बेबर्गेनोवा कहती हैं कि, ‘देखिए, अपनी कोख से दूसरे का बच्चा पैदा करने के व्यवहारिक रूप से कोई फ़ायदा नहीं है। हमारी लड़कियों को लगता है कि उनसे ज़बरदस्ती की जा रही है।’
दमीरा कहती हैं कि ‘सरोगेट मदर बनने वाली कोई भी महिला अपनी भलमनसाहत में ये काम नहीं करती है। वो ये काम पैसे की मजबूरी में करती हैं। लगभग सारी की सारी लड़कियां दूसरों के बच्चे सिफऱ् इसलिए पैदा कर रही हैं, ताकि वो अपना भविष्य महफ़ूज़ कर सकें।’
दमीरा की एजेंसी टिकटॉक और इंस्टाग्राम पर विज्ञापनों के ज़रिए 20 से 34 बरस की महिलाओं को अपने साथ जोड़ती है। ख़ास तौर से ऐसी महिलाएं, जो अपना कम से कम एक बच्चा पैदा कर चुकी हैं।
सरोगेसी की मांग में उछाल की वजह से दमीरा को संभावित सरोगेट मदर्स से मिलने के लिए अक्सर कज़ाख़्स्तान की फ्लाइट पकडऩी पड़ती है, जहां उनके तीन ऑफिस हैं। कई बार तो ऐसी महिलाओं की तलाश में उन्हें चीन भी जाना पड़ता है।
वैसे तो कोख किराए पर लेने की कीमत काफी बढ़ गई है। फिर भी, दमीरा कहती हैं कि कज़ाख़्स्तान में रहन-सहन का ख़र्च बढ़ गया है। कई महिलाएं तो दूसरी और तीसरी बार सरोगेट मदर बनने को तैयार हो जाती हैं, ताकि अपना उधार लौटा सकें।
दमीरा बताती हैं कि, ‘अफ़सोस की बात है कि आजकल टीचर और जूनियर डॉक्टर तक सरोगेसी के लिए हमसे जुड़ रही हैं। क्योंकि वो अपनी मेडिकल ट्रेनिंग का ख़र्च नहीं उठा सकती हैं, और ये मेरे लिए कोई गर्व करने वाली बात नहीं है।’
दमीरा का कहना है कि, ‘मुझे इन लड़कियों के लिए अफ़सोस होता है। मुझे नहीं लगता कि दूसरे के बच्चे की मां बनने की वजह से वो जो जज़्बाती बोझ उठाती हैं, उसकी भरपाई पैसे से हो सकती है। हम उनको मनोवैज्ञानिक मदद भी मुहैया कराते हैं। कई सरोगेसी एजेंसियां ऐसा नहीं भी करतीं। फिर भी, मां बनने का शरीर पर काफी बोझ पड़ता है। कमाई का ये कोई आसान तरीका नहीं है। ये बहुत मेहनत का काम है।’
सवाल ये है कि अगर ऐसा तो फिर दमीरा, सरोगेसी को क्यों बढ़ावा दे रही हैं? उससे मुनाफ़ा क्यों कमा रही हैं?
इसके जवाब में दमीरा का कहना है कि, ‘मैं इसलिए ये काम कर रही हूं, क्योंकि इसकी मांग बढ़ती जा रही है। इस धंधे को कानूनी बनाकर पारदर्शिता लानी चाहिए, ताकि इससे सबका फायदा हो सके।’
दमीरा पहलेकानून की लेक्चरर रह चुकी हैं। इसीलिए उनका कहना है कि इस कारोबार से जुड़े सभी लोगों को जहां तक मुमकिन हो क़ानूनी संरक्षण मिलना चाहिए।
दमीरा का दावा है कि ऐसी बहुत सी महिलाओं ने उनसे संपर्क किया है, जो बेहद खराब हालत से गुजरी हैं। जिन्हें पैसे नहीं दिए गए। या फिर उन्हें उन देशों में बच्चों की तस्करी में शामिल कर लिया गया, जहां सरोगेसी पर पाबंदी लगी है।
सामाजिक डर
हालांकि, हम जितनी महिलाओं से मिले उनमें से कोई ऐसी नहीं थी, जो ख़ुद को पीडि़त मानती हो। सरोगेट मां बनने वाली बहुत सी महिलाओं को इस बात पर गर्व था कि वो इस काम से अपनी और अपने बच्चों की जि़ंदगी बेहतर बना रही हैं। इन महिलाओं ने अपने देश में कोख किराए पर देने से जुड़े कलंक को लेकर खीझ भी जताई।
सबीना (ये वास्तविक नाम नहीं है) के पेट में पल रहा लडक़ा उनका पांचवां बच्चा है। उनका सातवां महीना चल रहा है। ये तीसरी बार है, जब वो किसी और के बच्चे को अपनी कोख में पाल रही हैं। उन्होंने जॉर्जिया की राजधानी तिब्लिसी में हमें अपने अपार्टमेंट में आने की दावत दी।
ये अपार्टमेंट उन्हें उनकी सरोगेसी एजेंसी ने मुहैया कराया है। इस अपार्टमेंट का लिविंग रूम, किचेन और बाथरूम वो अपने जैसी पांच और गर्भवती महिलाओं से साझा करती हैं। सरोगेसी की शर्तों के मुताबिक इन सबको अपनी प्रेगनेंसी के आखऱिी तीन महीने, या इससे भी ज़्यादा वक़्त जॉर्जिया में बिताने होते हैं।
सबीना का फ्लैट खुला और रौशनी से भरपूर है। उसकी छत ऊंची है और एक बालकनी से कॉकेशस के पहाड़ दिखाई देते हैं।
सबीना, कजाखस्तान की बलख़श झील के किनारे बसे एक छोटे से कस्बे की रहने वाली हैं। उनकी शादी महज 15 साल की उम्र में हो गई थी। वो कहती हैं कि जॉर्जिया में रहने की वजह से उन्हें उस आलोचनाओं से निजात मिल गई है, जिसका सामना उन्हें अपने देश में रहने पर करना पड़ता। सबीना का कहना है कि उनके अपने समुदाय के बीच कोख किराए पर देने की तुलना अक्सर सेक्स का धंधा करने से की जाती है।
सबीना कहती हैं कि, ‘लोगों की मानसिकता ऐसी है कि वो सरोगेसी को बढ़ावा नहीं देतीं। लोग मेरे ऊपर उंगली उठाते और बच्चा बेचने का इल्ज़ाम लगाते। मैंने तय किया है कि मैं अपने क़स्बे के लोगों को कुछ नहीं बताऊंगी, वरना घर लौटने पर मुझे बिरादरी से बाहर कर दिया जाएगा।’
सबीना का कहना है कि, ‘एक मुसलमान होने के नाते मैंने ख़ुद से सवाल किया कि कहीं मैं कोई गुनाह तो नहीं कर रही। मैंने सरोगेसी के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ा और इंटरनेट पर भी इसके बारे में रिसर्च किया था। मुझे लगता है कि बच्चा पैदा करना सवाब का काम है। क्योंकि मैं किसी को जीवन दे रही हूं और उन लोगों का भला कर रही हूं, जो ख़ुद से बच्चा पैदा नहीं कर सकते।’
सबीना ने कहा कि, ‘मैं ये काम मुफ़्त में तो क़तई नहीं करती। मेरे बच्चे पढ़ रहे हैं। मुझे उनका पेट भरना है। मेरा सबसे बड़ा बेटा अगले कुछ सालों में कॉलेज जाने लगेगा। सरोगेसी से मुझे जितने पैसे मिलेंगे, कज़ाख़्स्तान में मुझे इतनी रक़म कमाने में इससे दोगुना वक़्त लगेगा।’
क़ानूनी पाबंदी
सरोगेसी को लेकर जो विवाद है, उसकी वजह से जॉर्जिया के दोनों सियासी तबक़े इसकी आलोचना करते रहे हैं।
जॉर्जिया के उदारवादी राजनेता और महिलावादी संगठन, महिलाओं को शोषण से बचाने के लिए इसके मेडिकल नियम सख़्त बनाने और महिलाओं की सुरक्षा के ठोस क़दम उठाने की मांग करते रहे हैं।
वहीं, जुलाई 2023 में उस वक़्त जॉर्जिया के प्रधानमंत्री रहे और देश की रुढि़वादी ड्रीम पार्टी के नेता इराकली गैरिबाशविली ने एलान किया कि वो विदेशी नागरिकों के लिए अपने देश में सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाएंगे। गैरिबाशविली ने कहा कि ये विदेशी नागरिक, ‘इस पूरे मामले को कारोबार में तब्दील कर रहे हैं’ और ‘बहुत ज़्यादा विज्ञापन’ दिए जा रहे हैं।
जॉर्जिया की सरकार ने बार-बार ऐसी नीतियां बनाई हैं और ऐसे बयान दिए हैं, जिन्हें एलजीबीटी विरोधी कहा जाता है।
वहां की सरकार ने इस बात पर भी चिंता जताई है कि समलैंगिक शादियां करने वाले जॉर्जिया में पैदा हुए बच्चों को ले जाएंगे। हालांकि, सरोगेसी कराने वाली एजेंसियों की पुरज़ोर वकालत के बाद, इस पर पाबंदी का क़ानून संसद में अटक गया है और अब जॉर्जिया में चुनाव होने वाले हैं।
अलीना जैसी बहुत सी अकेली मांओं को उम्मीद है कि अपनी कोख किराए पर देने के बदले में उनके लिए पैसे कमाने का रास्ता खुला रहेगा।
अलीना कहती हैं कि, ‘मैं बहुत जल्द ये कार्यक्रम शुरू करना चाहती हूं, जिससे ये जल्दी से जल्दी ख़त्म भी हो जाए।’ (bbc.com/hindi)
13 से 15 जून के बीच इटली के पुलिया में जी7 शिखर सम्मेलन हो रहा है।
ये सम्मेलन ऐसे समय हो रहा है, जब दुनिया एक कठिन दौर से गुजर रही है।
गाजा से लेकर यूक्रेन तक में युद्ध चल रहा है। कई जी7 देश भी घरेलू चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
अमेरिका, यूके और फ्रांस में इस इस साल चुनाव होना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस सम्मेलन में हिस्सा लेने इटली पहुंचे हैं। बतौर प्रधानमंत्री अपना तीसरा कार्यकाल शुरू करने के बाद मोदी का ये पहला विदेश दौरा है।
इससे पहले जब साल 2023 में जापान के हिरोशिमा में जी7 का सम्मेलन हुआ था तो भी नरेंद्र मोदी उसमें शामिल हुए थे। 2019 में भी भारत को जी7 के लिए आमंत्रित किया गया था।
2020 में भी जो जी7 समिट अमेरिका में होने वाला था, उसके लिए भी भारत को बुलाया गया था। हालांकि कोविड 19 के कारण इसे कैंसिल करना पड़ा था।
इस साल भी भारत के साथ कई ऐसे देशों को न्योता दिया गया है, जो जी7 का हिस्सा नहीं हैं।
भारत को बुलाने के मायने
जी7 का भारत के साथ बातचीत करना उसके लिए कई कारणों से जरूरी है।
2.66 ट्रिलियन डॉलर की जीडीपी के साथ भारत की अर्थव्यवस्था जी-7 के तीन सदस्य देशों-फ्रांस, इटली और कनाडा से भी बड़ी है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार, भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। भारत की आर्थिक वृद्धि पश्चिमी देशों से अलग है, जहां अधिकतर देशों में विकास की संभावनाएं स्थिर हैं लेकिन भारत में ये संभावनाएं काफ़ी ज़्यादा हैं।
आईएमएफ की एशिया-पैसेफिक की उप निदेशक ऐनी-मैरी गुल्डे-वुल्फ ने बीते साल कहा था कि भारत दुनिया के लिए एक प्रमुख आर्थिक इंजन हो सकता है जो उपभोग, निवेश और व्यापार के ज़रिए वैश्विक विकास को गति देने में सक्षम है।
दुनिया की कई अर्थव्यवस्थाओं के बीच भारत बाजार क्षमता, कम लागत, व्यापार सुधार और अनुकूल औद्योगिक माहौल होने के कारण निवेशकों के लिए पसंदीदा जगह है।
भारत ने चीन को जनसंख्या के मामले में पीछे छोड़ दिया है।
देश में 68 प्रतिशत आबादी कामकाजी (15-64 वर्ष) है और 65 प्रतिशत आबादी 35 साल से कम की है। भारत में युवा, स्किल्ड और सेमी-स्किल्ड लोगों की अच्छी तादाद है।
दूसरा कारण ये है कि अमेरिका, जापान और यूरोपीय देश ऐसी नीतियां बना रहे हैं, जिनमें हिंद-प्रशांत क्षेत्र के साथ कऱीबी बढ़ाने की बात है।
पिछले कुछ सालों में ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी यानी यूरोप के जी-7 सदस्यों ने अपनी-अपनी इंडो-पैसिफिक रणनीतियां तैयार की हैं। इटली ने भी हाल ही में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के साथ जुडऩे की इच्छा जताई है।
अमेरिका के वॉशिंगटन में स्थित थिंकटैंक हडसन इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट कहती है कि ऐसा लगता है कि भारत हालिया सालों में जी7 का स्थायी मेहमान देश बन गया है।
जी-7 प्रभावशाली समूह है। ऐसे वक्त में जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) का प्रभाव कम होता जा रहा है तो ये संगठन और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
अमेरिका और चीन-रूस के बीच बिगड़ते रिश्तों के कारण यूएनएससी अब बहुत मजबूत फैसला लेने की स्थिति में नहीं है।
अगर यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध की बात करें तो यूएन सिक्यॉरिटी काउंसिल के मुक़ाबले जी7 ने रूस के खिलाफ ज़्यादा कड़ा रवैया अपनाया।
ये भी एक महत्वपूर्ण बात है कि बीते सालों में जी7 के प्रभाव में कमी आई है, ये उतना प्रभावशाली नहीं रहा, जितना पहले हुआ करता था।
एक वजह ये भी है कि 1980 के दशक में जी7 देशों की जीडीपी विश्व के कुल जीडीपी का लगभग 60 प्रतिशत था। अब यह घटकर लगभग 40 फीसदी हो गया है।
हडसन इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट कहती है कि प्रभावशाली देश होने के वाबजूद भविष्य में इसके दबदबे में और कमी आने की संभावना है। ऐसे में भारत जी7 का नया सदस्य बन सकता है।
इसके सदस्य बनने को लेकर अटकलें दुनिया के गई वैश्विक राजनीतिक थिंक टैंक लगाते हैं और भारत के पक्ष में तर्क दिया जाता है कि रक्षा बजट के मामले में भारत दुनिया में तीसरे स्थान पर है।
भारत की जीडीपी ब्रिटेन के बराबर है और फ्रांस, इटली और कनाडा से ज़्यादा है। साथ ही, भारत एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए जी7 हर साल भारत को आमंत्रित करता है और उससे संवाद करना चाहता है।
इस बार जी7 के एजेंडे में क्या है?
इटली में होने वाले जी-7 शिखर सम्मेलन कई कारणों से महत्वपूर्ण है। सबसे पहले इसका उद्देश्य दुनिया में बढ़ती मंहगाई और व्यापार से जुड़ी चिंताओं के बीच वैश्विक अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए आर्थिक नीतियों को कोऑर्डिनेट करना है।
दूसरा, इस शिखर सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को कम करने और सस्टेनेबेल एनर्जी को बढ़ावा देने की रणनीति होगी और जलवायु परिवर्तन से निपटने पर ध्यान फोकस किया जाएगा।
तीसरा मुद्दा होगा वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर बनाना क्योंकि कोविड19 के बाद ये बात और साफ़ हुई की इस तरह के स्वास्थ्य आपातकाल के लिए सिस्टम को और बेहतर बनाना होगा। इसके अलावा सम्मेलन में भू-राजनीतिक तनावों, चीन और रूस सहित गाजा और यूक्रेन युद्ध भी चर्चा की जाएगी।
जी7 क्या है?
जी-7 यानी ‘ग्रुप ऑफ़ सेवेन’ दुनिया की सात ‘अत्याधुनिक’ अर्थव्यवस्थाओं का एक गुट है, जिसका ग्लोबल ट्रेड और अंतरराष्ट्रीय फ़ाइनेंशियल सिस्टम पर दबदबा है।
ये सात देश हैं - कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, ब्रिटेन और अमेरिका।
रूस को भी 1998 में इस गुट में शामिल किया गया था और तब इसका नाम जी-8 हो गया था पर साल 2014 में रूस के क्राइमिया पर कब्ज़े के बाद उसे इस गुट से निकाल दिया गया।
एक बड़ी इकॉनमी और दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश होने के बावजूद चीन कभी भी इस गुट का हिस्सा नहीं रहा है।
चीन में प्रति व्यक्ति आय इन सात देशों की तुलना में बहुत कम है, इसलिए चीन को एक एडवांस इकॉनमी नहीं माना जाता। लेकिन चीन और अन्य विकासशील देश जी 20 समूह में हैं।
यूरोपीय संघ भी जी-7 का हिस्सा नहीं है लेकिन उसके अधिकारी जी-7 के वार्षिक शिखर सम्मेलनों में शामिल होते हैं।
पूरे साल जी-7 देशों के मंत्री और अधिकारी बैठकें करते हैं, समझौते तैयार करते हैं और वैश्विक घटनाओं पर साझे वक्तव्य जारी करते हैं।
विकासशील देशों के साथ कैसे काम करता है जी-7
इटली का कहना है कि जी-7 समिट के लिए ‘विकसित देशों और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के साथ रिश्ते एजेंडे के केंद्र में होंगे’ और वो ‘सहयोग और आपसी फायदे की साझीदारी पर आधारित मॉडल बनाने के लिए काम’ करेगा।
शिखर सम्मेलन के लिए इटली ने अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और भारत प्रशांत क्षेत्र के 12 विकासशील देशों के नेताओं को निमंत्रण दिया है।
जियोर्जिया मेलोनी की सरकार के ‘मैटेई प्लान’ के तहत इटली कई अफ्रीकी देशों को 5.5 अरब यूरो का कज़ऱ् और आर्थिक सहायता देने जा रहा है।
इटली की इस योजना का मकसद इन अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्थाओं को आगे बढ़ाने में मदद देना है।
इस योजना से इटली को ऊर्जा सेक्टर में खुद को ऐसे महत्वपूर्ण देश के रूप से स्थापित करने में मदद मिलेगी जो अफ्रीका और यूरोप के बीच गैस और हाइड्रोजन की पाइपलाइन बना सकता है। हालांकि कई विश्लेषकों को ये संदेह भी है कि इटली ‘मैटेई प्लान’ की आड़ लेकर अफ्रीका से होने वाले प्रवासन को रोकने जा रहा है। इस योजना के लिए इटली अन्य देशों से भी वित्तीय योगदान देने की अपील कर रहा है।
(bbc.com/hindi)
लोकसभा चुनाव के नतीजों को लेकर किए गए अपने दावों पर जाने-माने राजनीतिक रणनीतिकार और जन सुराज अभियान से जुड़े प्रशांत किशोर ने कहा है कि 'इसे आप इस आकलन में मेरी कमज़ोरी का नतीजा कह सकते हैं।’
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने चुनावों में एनडीए गठबंधन, बीजेपी, इंडिया गठबंधन और कांग्रेस के प्रदर्शन के साथ-साथ मोदी के प्रदर्शन पर बात की। साथ ही इस बात पर भी चर्चा की कि बीजेपी का कौन सा क़दम उसी पर भारी पड़ गया।
चुनाव के नतीजे आने से पहले प्रशांत किशोर ने नतीजों को लेकर कई आकलन लगाए थे उनमें से एक था एनडीए की और मज़बूत वापसी।
उन्होंने कहा था कि ‘एनडीए सरकार की वापसी होनी पक्की है। बीजेपी और पीएम मोदी 2019 की तरह ही या उससे थोड़ा बेहतर आंकड़ों के साथ सत्ता में लौटेंगे।’
उनका ये आकलन खरा नहीं उतरा। चुनाव के नतीजों में बीजेपी को 240 सीटें मिलीं जो 2019 में मिली 303 के आंकड़े से काफ़ी कम है। ऐसे में कई लोगों ने ये सवाल उठाया कि उनका इतना बड़ा दांव ग़लत कैसे पड़ गया।
बीबीसी से बात करते हुए प्रशांत किशोर ने इस सवाल के जवाब में कहा- ‘ये प्रोफ़ेशन एसेसमेन्ट है, इसके पीछे कोई इरादा नहीं है। मैंने जो आकलन किया उसके मुक़ाबले बीजेपी की 20 फ़ीसदी सीटें कम आईं। इसे आप मेरी ग़लती मान लो या आकलन में मेरी कमज़ोरी रही उसका नतीजा है।’
उन्होंने कहा, ‘मैंने अपने आकलन में जिन बातों को आधार बनाया वो थे- (1) मोदी के ख़िलाफ़ अंडरकरंट नहीं था, न ही उनके ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर कोई नाराजग़ी थी। (2) एक कोऑर्डिनेटेड विपक्ष की कमी थी (3) एक नए नेता को चुनने का लोगों का मिजाज़ भी नहीं था जो देश बदल सके।’
उन्होंने कहा- ‘मैंने बीजेपी के लिए 303 या उससे बेहतर आंकड़े के साथ जीत की बात की थी। इस आकलन का आधार दक्षिण और पूर्व के राज्यों में बीजेपी की बढ़त का अंदाज़ा था।’
‘नतीजे बताते हैं कि अंडरकरंट पूरे देश में नहीं था और बीजेपी को बीते चुनावों में 37।7 फ़ीसदी वोट शेयर मिला था जो इस साल घटकर 36।56 हुआ है, यानी उन्हें 0.7 फ़ीसदी कम आया है ये यथास्थिति है।’
चुनावों में बीजेपी और विपक्ष के प्रदर्शन पर प्रशांत किशोर ने क्या कहा, जानिए
बीजेपी की सीटों में कमी क्यों आईं?
मुझे लगता है कि इसका एक कारण बीजेपी के विपक्ष में रहने वालों में एकजुटता रही है, उनकी लामबंदी बेहतर थी और उनमें उत्साह था।
बीजेपी के मुक़ाबले वो अपनी बातों को बेहतर तरीक़े से लोगों तक पहुंचा सके। उनके सामने उनका लक्ष्य स्पष्ट था कि उन्हें बीजेपी को रोकना है।
बीजेपी के समर्थकों को अधिक भरोसा था कि सरकार तो बन ही रही है, वोट करने न करने से फर्क़ नहीं पड़ता। ये कॉन्फिडेंस उन्हें भारी पड़ गया।
इसका अच्छा उदाहरण है वाराणसी, जहां पीएम मोदी का अपना वोट शेयर 2014 की तुलना में कऱीब 2 फ़ीसदी कम हुआ है।
2014 में अरविंद केजरीवाल ने मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था। उस वक्त मोदी का वोट शेयर 56।37 फ़ीसदी था। इस बार के चुनावों में ये आकड़ा घटकर 54।234 फ़ीसदी रह गया है।
हालांकि उनका मार्जिन नाटकीय रूप से कम हो गया है। 2014 में उनका मार्जिन 25।85 फ़ीसदी था जो कम होकर 2024 में 9।38 फ़ीसदी तक घट गया। 2014 में उनके ख़िलाफ़ लड़े केजरीवाल को 21 फ़ीसदी वोट मिले थे, वहीं उनके विरोधी को 40।74 फ़ीसदी वोट आए हैं।
मोदी जी का वोट शेयर लगभग वहीं रहा जहां था लेकिन विपक्ष ने बेहतर कोऑर्डिनेट किया और काम किया, उसका वोट शेयर बढ़ा।
‘अधूरा स्लोगन भारी पड़ा’
स्लोगन एक ऐसी चीज़ है जो स्थिति सुधार भी सकती है और बिगाड़ भी सकती है। अब की बार मोदी सरकार से जुड़ता हुआ किसी ने लिख दिया अब की बार चार सौ पार। लेकिन उसने ये नहीं बताया कि क्यों।
पिछली बार लिखा गया, बहुत हुई महंगाई की मार, अब की बार मोदी सरकार या फिर बहुत हुआ महिला पर अत्याचार, अब की बार मोदी सरकार। इस बार उन्होंने स्लोगन तो लिखा लेकिन वो आधा-अधूरा था।
उनके कुछ बड़बोले नेताओं ने इसे इंटरप्रिट किया कि हमको चार सौ पार इसलिए चाहिए कि हमें संविधान बदलना है। ये चीज़ उन पर भारी पड़ गई।
शायद अब बीजेपी इसका विश्लेषण भी कर रही होगी क्योंकि लोगों को लगा कि अब की बार ये चार सौ पार इसलिए चाहते हैं क्योंकि वो संविधान बदलना चाहते हैं।
अपने आकलन को लेकर क्या कहा?
बीते दिनों प्रशांत किशोर अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग मीडिया चैनलों पर अपने पहले के लगाए अपने आकलन पर चर्चा कर रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि वो बीजेपी के पक्ष में बातें कर रहे हैं।
इस पर प्रशांत किशोर कहते हैं कि चुनावों से पहले मैंने कहा था कि मुझे लगता है कि बीजेपी को पश्चिम और उत्तर में सीटों का नुक़सान नहीं होगा और पूर्व और दक्षिण में सीटें मिलेंगी और इस कारण उसकी यथास्थिति बनी रहेगी।
‘मुझे कई साथियों ने कहा कि चुनाव शुरू होने से पहले इस तरह की बातों से विपक्ष का मनोबल टूट सकता है। मैंने उनकी बात मानी और पांच चरणों की वोटिंग तक कोई बात नहीं की। 80 फ़ीसदी मतदान संपन्न होने के बाद ही मैंने कहा कि मुझे बीजेपी जीतती दिख रही है।’
‘अगर चरणवार देखा जाए तो दूसरे, तीसरे और चौथे चरण के मतदान में बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया था लेकिन मेरे आकलन के बाद तो उसका प्रदर्शन खऱाब हुआ।’
क्या प्रशांत को इसका पछतावा है कि उनका आकलन सही नहीं बैठा। इस पर उन्होंने कहा कि ‘ऐसा बिल्कुल नहीं है। हम जैसे लोग जो इस काम में लगे हैं वो आकलन लगाते हैं वो आंकड़ों के आधार पर बताते हैं। लेकिन हमसे ग़लती होती है, पहला, वोट शेयर को सीटों में तब्दील करना का कोई भरोसेमंद सिस्टम नहीं बन पा रहा है, दूसरा वोटर में डर के सही आकलन को आंकने का तरीका नहीं है।’
वो आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का उदाहरण दे कर कहते हैं कि ‘मैंने छह महीने पहले कहा था कि वो बुरी तरह हारने जा रहे हैं। लेकिन हम ये नहीं बता सकते थे कि वो 10 से भी कम पर सिमट जाएंगे।’
‘एक सरकार जितनी मज़बूत होती है, उसका फियर फैक्टर भी उतना अधिक होता है। इस कारण कई राजनीतिक रणनीतिकार लोगों से बात करने के बाद भी इसका सही आकलन नहीं कर पाते हैं।’
मोदी की गठबंधन सरकार का भविष्य
‘मुझे नहीं लगता कि सरकार को कोई परेशानी होने वाली है। आंकड़ों को देखा जाए तो बीजेपी को 240 सीटें मिली हैं।’
‘2009 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में कांग्रेस के पास 206 सीटें थीं। तो क्या उसे आप सरकार नहीं मानेंगे? उस दौर में आर्थिक सुधार और वित्त सुधार हुए हैं।’
‘लोगों का मानना है कि मोदी इसके आदी नहीं हैं, लेकिन हम ये तय करने वाले कौन होते हैं। मुझे लगता है कि वो अच्छे से सरकार चला लेंगे।’
‘लेकिन अभी सरकार की स्थिरता को लेकर जो महत्वपूर्ण है वो है आने वाले वक्त में महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा के विधानसभा चुनाव। अगर यहां विपक्ष का प्रदर्शन अच्छा रहा तो सरकार की स्थिरता को लेकर परेशानी शुरू हो सकती है, लेकिन तब तक कोई परेशानी नहीं है।’
‘अगली सरकार 'वन नेशन वन इलेक्शन', 'यूसीसी' जैसे बड़े फ़ैसले कर सकेगी या नहीं ये भी इसी पर निर्भर करेगा।’
मोदी और राहुल की ताक़त और कमज़ोरी
‘एक बड़ी बात ये भी है कि हमारा समाज अपने शासक को दयालु, उदार और सहिष्णु देखना चाहते हैं। और मुझे मोदी की ये कमज़ोरी दिखती है क्योंकि वो काफ़ी ताक़त के साथ सत्ता में बैठे हैं।’
‘ये बात कहीं न कहीं इन चुनाव के नतीजों में दिख रही है।’
‘वहीं राहुल गांधी की बात करें तो बीते 10 सालों में उन्होंने लगभग हर चुनाव हारा है और उन्हें लगता है कि सही रास्ते पर हैं।’
‘वो लगातार इस रास्ते पर बढ़ते जा रहे हैं और ये करने के लिए बड़ा जज़्बा और अपनी सोच पर पूरा भरोसा चाहिए, ये उनकी चरित्र है।’
‘मैं कहता हूं कि अगर मोदी जी 90 फ़ीसदी चुनाव हार जाएं तो वो इतने बड़े लीडर नहीं रह पाएंगे। लेकिन राहुल गांधी बड़े नेता बने हुए हैं ये उनके चरित्र की ताक़त है।’
‘मैं ये नहीं कहूंगा कि विपक्ष ने मोदी को हराया नहीं है बल्कि उसे थोड़ा रोक दिया है। पीएम तो अभी भी मोदी ही बन रहे हैं।’
‘कांग्रेस ने बीते सालों में ऐसा कुछ नहीं किया कि मैं कहूं कि कांग्रेस फिर से उभर रही है।’ (bbc.com/hindi)
-नासिरुद्दीन
मर्द का धौंसपूर्ण बर्ताव, उसकी दबंग मर्दानगी का हिस्सा है। ऐसे बर्ताव की गिनती बुराई में नहीं होती बल्कि उसकी ख़ासियत मानी जाती है।
दबंग मर्दानगी पर कइयों को फख़़्र होता है। कई उसे ही मर्द का असली गुण मानते हैं। कुछ लोग यह कहकर बचाव नहीं कर सकते कि सभी मर्द ऐसे नहीं होतेज्लेकिन ज़्यादातर मर्द ऐसे ही होते हैं।
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो ख़ूब घूमा। इस वीडियो में ऐसी ही मर्दानगी की झलक देखने को मिलती है। उसमें यह भी देखने को मिलता है कि कैसे हम ऐसी मर्दानगी का मज़ा लेते हैं। ज़ाहिर है, जब मज़ा लेंगे तो उसे बुरा मानने या उसकी निंदा करने का सवाल ही नहीं उठता।
मगर ऐसा भी नहीं है कि सभी लोग ऐसी चीज़ें आसानी से बर्दाश्त कर लेते हैं। अनेक हैं, जिन्हें ऐसे बर्ताव पर एतराज़ होता है। वे आवाज़ भी उठाते हैं।
क्या हुआ, किसकी बात हो रही है
एक हैं नंदमुरी बालकृष्ण। तेलुगू फि़ल्मों के बड़े अभिनेता हैं। राजनेता हैं।
नंदमुरी एक बड़े राजनीतिक परिवार से आते हैं। इन्हीं नंदमुरी बालकृष्ण का एक वीडियो चर्चा में है। वीडियो एक फि़ल्म के प्रचार के मौक़े का है। स्टेज पर कई लोग हैं। इनमें महिला कलाकार भी हैं।
बालकृष्ण को फि़ल्म के प्रचार कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि बुलाया गया था। वह स्टेज पर पहुँचते हैं। कुछ कलाकार पहले से खड़े हैं। वे जहां खड़ा होना चाहते हैं, वहां उनके खड़े होने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है।
उन्होंने फि़ल्म की अभिनेत्री अंजलि से थोड़ा खिसकने के लिए इशारा किया। अभी वह समझतीं और कुछ करतीं इससे पहले बालकृष्ण ने उनकी बाँह पर ज़ोरदार धक्का दे दिया।
इस अचानक हुए व्यवहार से कोई भी भौंचक रह जाता। वे भी भौंचक थीं। मगर उन्होंने इसे ज़ाहिर नहीं होने दिया। धकियाए जाने के बाद वे ज़ोरदार तरीके से हँसते हुए देखी जा सकती हैं।
एक और अभिनेत्री नेहा शेट्टी जो इन दोनों के बीच में थीं, वे पहले तो स्तब्ध रह गईं। उन्हें समझ में नहीं आया कि हो क्या रहा है। बाद में वे भी हँसने की कोशिश करती हैं। और यह सब देखकर वहाँ मौजूद दर्शक हँसते और तालियाँ बजाते हैं।
मर्द ऐसे कैसे धकिया सकता है
बालकृष्ण चाहते तो आसानी से इन दोनों अभिनेत्रियों के बगल में खड़े हो सकते थे। उनके पास जगह थी। यही नहीं, अंजलि को जब उन्होंने आगे खिसकने का इशारा किया तो उसे खिसकने का मौक़ा ही नहीं दिया। चंद सेकंड रुकना भी उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ। मर्द का अहम आड़े आ गया और उन्होंने धकियाने का काम किया। उनका यह धकियाना सन्नाटे की वजह बनने की बजाय वहां मौजूद लोगों की हँसी की वजह बना। यह बात भी कम ताज्जुब की नहीं है।
आखिर एक स्त्री को ऐसे धकियाए जाना हँसी की वजह कैसे बन सकता है? क्या यह नहीं बताता है कि हम स्त्री को किस दर्जे पर देखते हैं?
महिला कलाकारों के साथ बर्ताव
हमारा समाज पितृसत्तात्मक है। यहाँ स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाता है। पुरुष ख़ुद को हाकिम समझता है।
इस विचार से फि़ल्मों की दुनिया भी अछूती नहीं है। फि़ल्मों में स्त्री का चित्रण हो या महिला कलाकारों के साथ बर्ताव, स्त्री विरोधी पितृसत्तात्मक मूल्यों का वर्चस्व आसानी से देखा जा सकता है। कई बार तो स्त्री के बारे में सामंती नज़रिए की झलक मिलती है।
बालकृष्ण के इस व्यवहार को इस नज़रिए से देखा जाना चाहिए। तब ही समझ में आता है कि एक मर्द इस तरह का साहस कैसे जुटा लेता है और वह सार्वजनिक मंच पर एक स्त्री को बिना किसी उकसावे के धक्का दे देता है। बालकृष्ण की पूरी शारीरिक भाव-भंगिमा उनके मर्दाना नज़रिए की निशानदेही करती है।
महिला कलाकारों को पुरुष कलाकार किस स्तर पर रखते हैं, यह उसकी निशानदेही भी है।
क्या ऐसा व्यवहार वे किसी पुरुष कलाकार के साथ कर सकते थे? ऐसा व्यवहार उसी के साथ मुमकिन जिसे अपने से नीचा या कमतर माना जाता है। जहां ख़ुद को श्रेष्ठ माना जाता है।
पुरुष कलाकारों की हीरो की छवि गढ़ी जाती है। वे आम जीवन में भी ख़ुद को ‘हीरो’ यानी बाकियों से श्रेष्ठ मानने लगते हैं। इसीलिए ज़्यादातर ‘हीरो’ स्त्री कलाकारों को अपने से कमतर और अपने हाथ की कठपुतली समझते हैं।
स्त्री को हँसना पड़ता है
लेकिन स्त्री को क्या करना पड़ता है? एक बड़े कलाकार के अचानक किये गये ऐसे बर्ताव पर नापसंदगी का इज़हार करना या विरोध जताना तो दूर की बात है, उसे हँसना पड़ता है।
शायद अपनी झेंप मिटाने के लिए ऐसा करना पड़ता है। एक अच्छी स्त्री के साँचे में ख़ुद को ढालते हुए ऐसा दिखाना पड़ता है, जैसे कुछ अटपटा हुआ ही न हो। या जैसे यह सब सामान्य बात है।
यही नहीं अभिनेत्री अंजलि ने इस घटना के बाद जो कहा वह भी बताता है कि स्त्री को ऐसी घटनाओं के बाद क्या कहने पर मजबूर होना पड़ता है। उसे किस तरह की प्रतिक्रिया देनी पड़ती है।
अंजलि ने फि़ल्म के कार्यक्रम में आने के लिए बालकृष्ण का शुक्रिया अदा किया। उसने कहा कि हम दोनों के बीच बढिय़ा रिश्ते हैं, दोस्ती है, वो एक-दूसरे का सम्मान करते हैं।
उन्होंने एक वीडियो भी पोस्ट किया। उस वीडियो में वे बालकृष्ण से हाथ मिलाते और हाथ से हाथ ताल मिलाते हुए देखी जा सकती हैं।
मगर यहां रुककर सोचने की बात है कि क्या कोई पुरुष कलाकार अपने साथ हुए ऐसे बर्ताव के बाद ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त करता?
ऐसा माना जा रहा है कि बालकृष्ण की जैसी हैसियत है, उस हालत में किसी महिला कलाकार के लिए विरोध करना या नाख़ुशी भी ज़ाहिर करना आसान नहीं होता। मगर अंजलि भी तो बड़ी कलाकार हैं। हाँ, वे महिला हैं। यह बड़ा सच है।
ऐसी इकलौती या पहली घटना नहीं है
फि़ल्म की दुनिया में किसी महिला के लिए आवाज़ उठाना कितना मुश्किल होता है, यह बॉलीवुड फि़ल्म की अभिनेत्री तनुश्री दत्ता के उदाहरण से समझा जा सकता है।
तनुश्री दत्ता ने मशहूर अभिनेता नाना पाटकर पर एक फि़ल्म के सेट पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया था। इस पर काफ़ी हंगामा हुआ। बाद में पता चला कि उस फि़ल्म में तनुश्री दत्ता की जगह किसी और को ले लिया गया। यह यों ही नहीं हुआ। जिस दुनिया में मर्दाना हीरो का ऐसा रौब चलता हो, उस दुनिया में आवाज़ उठाना आसान नहीं है।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव फि़ल्मी दुनिया में ही होता है। आगे बढ़ती, बोलती, कद्दावर, सशक्त महिलाएँ ज़्यादातर मर्दों को पसंद नहीं आतीं। इसलिए जहां भी ऐसी स्त्रियाँ दिखती हैं, उनके लिए राह आसान नहीं होती। इसलिए बढ़ी हुई हर स्त्री की राह बाधाओं से भरी रहती है। मर्दाना समाज उन्हें ‘धकियाता’ रहता है।
कई अपने को ऐसे ‘घुटन भरे माहौल’ में ढालती हुई आगे बढ़ती हैं। अगर वे अपने को ऐसे माहौल में न ढालें या चुप्पी न ओढ़ लें तो उन्हें उस माहौल में रहना मुश्किल कर दिया जाता है। उलटा उनके चरित्र के बारे में ही बातें शुरू हो जाती हैं।
इसलिए उनके लिए चुप रहना भले ही कठिन कदम हो, मगर वे उठाती हैं। ‘मी टू’ अभियान के दौर में कुछ आवाज़ें सुनने को मिली थीं। लेकिन वे सब आवाज़ धीरे-धीरे गुम हो गईं। जिन्होंने आवाज़ उठाई उन पर ही सवाल उठाये गये। मगर इन सबके बीच कई हौसलामंद बहादुर स्त्रियाँ है, जिन्हें चुप रहना गवारा नहीं। वे बोलती हैं। जैसे तनुश्री दत्ता ने बोला।
लेकिन लोगों को नापसंद है
जहां कई लोगों के लिए बालकृष्ण का दबंग व्यवहार हँसने या ताली बजाने की वजह बना, वहीं कइयों ने इस पर सख़्त एतराज़ जताया।
सोशल मीडिया पर एतराज़ के कई स्वर सुने जा सकते हैं। लोगों ने कहा कि यह एक स्त्री का अपमान है।
एक स्त्री को सिफऱ् इसलिए धक्का मारा गया क्योंकि वह खड़ी थी। खड़ा होना यानी बराबरी में खड़ा होना है। कहीं बराबरी में खड़ी स्त्री नाक़ाबिले बर्दाश्त तो नहीं?
दबंग और ज़हरीली मर्दानगी है
ऐसा व्यवहार दबंग और ज़हरीली मर्दानगी का अंग है। इसमें मर्द को अपनी मन मर्जी के ख़िलाफ़ कुछ भी बर्दाश्त नहीं है। उसे यह बर्दाश्त नहीं है कि उसके ‘हुक्म’ के पालन में सेकंड भर की भी देरी की जाए। उसकी इच्छा जैसे पत्थर की लकीर है। उसका पालन बिना सोचे-समझे तुरंत होना चाहिए। ऐसा न हुआ तो सामने वाले को मर्द का ग़ुस्सा झेलना पड़ सकता है या धकियाया जा सकता है।
हमारे आसपास जब तक मर्दानगी का दबंग या ज़हरीला रूप मौजूद रहेगा तब तक स्त्री के साथ ऐसे व्यवहार दिखते रहेंगे। इसलिए ऐसी मर्दानगी से तौबा करना ज़रूरी है। इसके ख़िलाफ़ मज़बूत आवाज़ उठाई जानी ज़रूरी है। (लेखक के निजी विचार हैं)
-संजय कुमार
भारत जैसे विशाल और विविध देश में वोटरों की पसंद, ख़ासकर युवाओं (25 साल के कम उम्र) की, एक ऐसा पिटारा है जिसे बहुत सावधानी से खोलने और समझने की ज़रूरत है।
कऱीबी मुकाबले वाली लड़ाई में उनके वोट निर्णायक हो सकते हैं, जिससे वे राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रमुख लक्ष्य बन जाते हैं।
तो, इस बार युवाओं ने कैसे वोट किया?
इस बार की कहानी
साल 2019 में 20 प्रतिशत युवा वोटरों ने कांग्रेस का समर्थन किया था। यह आंकड़ा 2024 में महज एक प्रतिशत बढ़ा। यह कांग्रेस के लिए युवाओं की किसी भारी लामबंदी को नहीं दिखाता है।
इसके उलट 2019 में बीजेपी को अच्छे ख़ासे युवाओं का समर्थन मिला था, उन्हें 40 प्रतिशत युवा वोटरों का समर्थन मिला, जो एक अलग पैटर्न है। यह उन्हें बड़ी उम्र के वोटरों से अलग करता है।
2024 में बीजेपी के युवा समर्थकों में बहुत कम गिरावट दर्ज हुई। 25 से कम उम्र के वोटरों में महज एक प्रतिशत वोट और 26 से 35 साल के उम्र के वोटरों में दो प्रतिशत वोट की कमी आई। (टेबल 1)
यह सवाल खड़ा करता है कि कांग्रेस बीजेपी को चुनौती देने में कैसे सक्षम हुई और युवाओं ने इसमें क्या भूमिका निभाई?
2024 में लोकसभा चुनावों में 21 प्रतिशत युवा वोटरों ने कांग्रेस का समर्थन किया जबकि 39 प्रतिशत ने बीजेपी को वोट किया और कऱीब 7 प्रतिशत ने बीजेपी के सहयोगियों का समर्थन किया। एनडीए को युवाओं का कुल 46 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ।
हालांकि, इंडिया गठबंधन को फ़ायदा पहुंचा, वो था कांग्रेस के सहयोगियों को युवाओं का 12 प्रतिशत वोट मिलना, जो बीजेपी सहयोगियों (7%) से कहां ज़्यादा था और इसने एनडीए और इंडिया के बीच वोट साझेदारी के अंतर को कम करने में मदद की। (टेबल 2)
संक्षेप में, बीजेपी बिना किसी ख़ास नुकसान के अपने युवा समर्थन को बरकऱार रखने में कामयाब़ रही, जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने युवा वोटरों के बीच ख़ासी बढ़त हासिल की। और सबसे महत्वपूर्ण ये कि, हालांकि अलग-अलग उम्र के वोटर समूहों के बीच कांग्रेस और इसके सहयोगियों की वोट साझेदारी सपाट बनी रही, बीजेपी के मामले में, अधिक उम्र के साथ समर्थन घटा। इसका मतलब ये हुआ कि अधिक उम्र के वोटरों की बजाय युवा वोटरों में बीजेपी का आकर्षण बरकऱार रहा।
2024 में महिला वोटों में विभाजन, कांग्रेस को मामूली बढ़त
ऐसा लगता है कि भारतीय चुनावों में महिला मतदाताओं की अहमियत को थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया है।
यह सच है कि हाल के सालों में भारतीय राजनीति में महिलाओं ने चर्चा में कहीं अधिक केंद्रीय जगह पाई।
लेकिन दूसरी तरफ़ इस बात के समर्थन में कोई तथ्य नहीं है कि पार्टी की 2019 में बड़ी जीत और 2024 में ठीक ठाक प्रदर्शन के बावजूद, बीजेपी के पक्ष में महिला वोटों का निर्णायक शिफ़्ट हुआ है।
निश्चित तौर पर पहले की तुलना में अभी महिलाएं बहुत अधिक संख्या में वोट करने के लिए निकल रही हैं।
महिलाओं के मतदान के शुरुआती आंकड़े (7वें चरण की वोटिंग को छोडक़र) दिखाते हैं कि महिलाओं और पुरुषों ने 2019 की तरह से एक जैसे अनुपात में वोट किया।
पाठकों को यह ध्यान दिलाना ज़रूरी है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान, महिलाओं का मतदान पुरुषों के मतदान से महज 0.6% ही कम था, जो 1990 के दशक में 10% से अधिक हुआ करता था।
लेकिन तथ्य इस बात का समर्थन नहीं करते कि राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के पक्ष में महिलाओं का वोट कोई निर्णायक रूप से शिफ़्ट हुआ है।
इस विषय पर लोकप्रिय लेखन से उलट, लोकनीति-सीएसडीएस चुनाव बाद सर्वे के आंकड़े संकेत देते हैं कि पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में बीजेपी को अधिक समर्थन नहीं मिलता। यह केवल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए ही सच नहीं है, बल्कि यह पिछले 2019 और 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए भी सच है।
डेटा संकेत देते हैं कि हालिया संपन्न हुए चुनावों में 37% पुरुषों और 36% महिलाओं ने बीजेपी को वोट किया यानी पार्टी को मिले वोटों में महज एक प्रतिशत का जेंडर गैप है। जबकि दूसरी तरफ़ कांग्रेस ने पुरुषों की बजाय महिलाओं में लगातार अधिक समर्थन हासिल किया है।
एनईएस डेटा पर आधारित विश्लेषण से पता चलता है कि कांग्रेस के पक्ष में महिलाओं के बीच जेंडर गैप 1990 के दशक से ही धीरे-धीरे खत्म होता गया है। हालांकि 2024 में कांग्रेस को पुरुषों के मुकाबले महिलाओं से अधिक समर्थन मिला।
इससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी की भारी जीत की कहानी को इसके लोकप्रिय कल्याणकारी योजनाओं, ख़ासकर महिला वोटरों को ध्यान में रख कर लाई गई उज्जवला योजना से जोडक़र देखा गया था।
लेकिन लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव बाद सर्वे डेटा से पता चलता है कि 2019 में भी बीजेपी सामान्य तौर पर महिलाओं के लिए कम पसंदीदा पार्टी बनी रही थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि यही ट्रेड 2024 में बना रहा। महिलाओं के बीच बीजेपी के लगातार पिछडऩे को दो स्तर पर समझाया जा सकता है।
पहला, 2014 तक पार्टी का कुल वोट शेयर सीमित था और अगर हम उनकी कुल संख्या को जोड़ें तब भी, वास्तव में बहुत अधिक महिलाओं ने पार्टी को वोट नहीं किया था।
दूसरा- लंबे समय से बीजेपी को भारतीय समाज के सामाजिक रूप से अधिकार संपन्न वर्ग की पार्टी के रूप में जाना जाता था और इसलिए उसका सामाजिक आधार असमान था। ये दोनों फ़ैक्टर मिलकर, पार्टी के अब तक के जेंडर गैप के लिए एक संभावित स्पष्टीकरण प्रदान कर सकते हैं।
जैसा कि टेबल 2 दिखाता है, यह असमानता 2024 में भी साफ दिखाई देती है। विभिन्न सामाजिक ग्रुपों में महिलाओं की वोटिंग प्राथमिकता से पता चलता है कि अधिक पढ़ी लिखी महिलाओं के बीच बीजेपी को थोड़ी बढ़त है, लेकिन ग्रामीण और शहरी अंतर दिखाई नहीं देता।
दूसरे शब्दों में कहें तो 2024 में महिलाओं के वोट का डेटा, महिला वोटरों के बीच बीजेपी के कम प्रभाव के पुराने ट्रेंड की ही पुष्टि करता है, हालांकि पार्टी ने विभिन्न सामाजिक समुदायों, जैसे दलित, आदिवासी, ग्रामीण वोटरों के बीच अपने आधार को बढ़ाया है।
(लोकनीति-सीएसडीएस की ओर से 191 संसदीय क्षेत्रों में 776 स्थानों पर चुनाव बाद सर्वे कराया गया था। सर्वे का नमूना राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय वोटरों की सामाजिक प्रोफ़ाइल का प्रतिनिधि है। सभी सर्वे आमने-सामने साक्षात्कार की स्थिति में, अधिकांश मतदाताओं के घरों पर किए गए।) (bbc.com/hindi)
- संपद पटनायक
ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के बेहद ख़ास रहे वीके पांडियन ने रविवार को सक्रिय राजनीति को अलविदा कह दिया.
इस तरह उन्होंने ओडिशा में एक साथ हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान प्रचार करते हुए किए गए अपने एक वायदे को पूरा किया.
सोशल मीडिया पर जारी किए गए अपने एक वीडियो क्लिप में पांडियन ने कहा, “राजनीति में आने की मेरी मंशा केवल नवीन बाबू को मदद करने की थी. अब मैंने सोच समझकर सक्रिय राजनीति से खुद को अलग करने का निर्णय लिया है. मैं माफ़ी चाहता हूं अगर मैंने इस यात्रा में किसी का दिल दुखाया हो.”
मुख्यमंत्री कार्यालय में एक आईएएस ऑफ़िसर के रूप में एक दशक तक सेवा देने के बाद पांडियन ने बीते नवंबर में ही अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दिया था और बीजू जनता दल में शामिल हुए थे. अब महज सात महीने में ही उन्होंने राजनीति को अलविदा भी कह दिया.
दरअसल पांडियन की विदाई को ओडिशा के चुनावी परिणामों के असर के रूप में ही देखना चाहिए., क्योंकि उन्होंने बीजेडी के प्रचार अभियान की कमान अपने हाथ में ले रखी थी.
उन्होंने पूरे ओडिशा का धुआंधार दौरा किया और चुनावी भाषण दिए. पांडियन ने विपक्षी पार्टियों के राजनेताओं के साथ तक़रार भी मोल ली और यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणियों पर जवाबी हमले भी किए.
ओडिशा में लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में बीजू जनता दल की करारी हार हुई है. बीजेपी ने 21 लोकसभा सीटों में से 20 पर जीत हासिल की. बीजेडी को एक सीट भी नहीं मिली जबकि 2019 में उसने 12 लोकसभा सीटें जीती थीं.
दूसरी ओर विधानसभा में बीजेपी ने 147 में से 78 सीटों पर जीत हासिल की और पहली बार वह ओडिशा में अकेले दम पर सरकार बनाने जा रही है.
बीजेडी के खाते में केवल 51 सीटें आईं और अब वो मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका निभाने जा रही है. 2019 में बीजेडी ने 117 सीटें जीती थीं और भारी बहुमत के साथ शासन किया था.
आरोप और डैमेज कंट्रोल
नतीजों से लगा सदमा कम होने के बाद, ओडिशा में एक नैरेटिव को बहुत हवा मिली.
भारत के दूसरे सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले और देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक के तौर पर भी जाने जाने वाले मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की हार के लिए पांडियन को ज़िम्मेदार ठहराया जाने लगा.
विपक्ष पांडियन के उन चुनावी भाषणों और मीडिया साक्षात्कारों का तुरंत लेकर हाज़िर हो गया, जिसमें उन्होंने पहले ही जीत की घोषणा कर दी थी और राजनीतिक विरोधियों का मखौल उड़ाया था.
चुनाव प्रचार के दौरान पांडियन ने ओडिशा में मतदाताओं से वादा किया था कि अगर नवीन पटनायक छठी बार लगातार मुख्यमंत्री नहीं बन पाए तो वह “राजनीति से संन्यास” ले लेंगे.
असल में पांडियन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में ओडिशा में बीजेपी के प्रचार अभियान का जवाब दे रहे थे, जिसमें मोदी ने इसी महीने 24 साल पुरानी बीजेडी सरकार की 'एक्सपाइरी डेट' की घोषणा कर दी थी.
इसके जवाब में पांडियन ने नवीन पटनायक के शपथ ग्रहण समारोह की तारीख़ का एलान कर दिया था.
जीत को लेकर पांडियन इतने आत्मविश्वास में थे कि उन्होंने प्रेस के सामने ये भी एलान कर दिया कि विधानसभा चुनाव के तीन चरणों में ही बीजेडी ने साधारण बहुमत हासिल कर लिया, जबकि एक चरण की वोटिंग अभी बाकी ही थी.
हालांकि, चार जून को आए नतीजे के बाद कुछ दिनों तक पांडियन सार्वजनिक तौर पर नज़र नहीं आए.
वहीं पांडियन की पत्नी और राज्य में ताक़तवर आईएएस ऑफ़िसर सुजाता कार्तिकेयन ने चुपचाप छह महीने के लिए चाइल्ड केयर अवकाश का आवेदन दे दिया, जिसे सरकार ने स्वीकार कर लिया.
कार्तिकेयन खुद भी राजनीतिक हलचल में विवादों के घेरे में रहीं और उनपर चुनावों में बीजेडी की मदद करने के आरोप लगे थे.
चुनाव आयोग ने ओडिशा के चार चरणों के चुनावों के पहले ही उनका तबादला वित्त विभाग में कर दिया, जो कि एक ग़ैर सार्वजनिक कामकाज वाला विभाग है.
कार्तिकेयन सरकार के मिशन शक्ति डिपार्टमेंट की अगुवाई कर रही थीं, जो राज्य के क़रीब छह लाख सेल्फ़ हेल्प ग्रुप (एसएचजी) की निगरानी करता है. उन्हें ओड़िया भाषा, साहित्य और संस्कृति विभाग का अतिरिक्त कार्यभार भी सौंपा गया था.
पहले भी बीजेपी अक्सर बीजेडी पर एसएचजी सदस्यों को वोट बैंक की तरह और निचले अधिकारियों को पार्टी काडर की तरह इस्तेमाल करने के आरोप लगाती रही थी.
इस बीच, जैसे ही नतीजे आने लगे कि बीजेपी, बीजेडी को हरा रही है, स्थानीय टेलीविज़न चैनलों, बीजेपी की विरोधी पार्टियों के नेताओं और कई समाचार विश्लेषकों और टिप्पणीकारों ने मिलकर पांडियन के ख़िलाफ़ भावना को और हवा दी.
फिर कथित तौर पर दिल्ली की फ़्लाइट में बैठे पांडियन का एक वीडियो सामने आया तो पूरे राज्य में अफ़वाहें फैल गईं कि वे राज्य से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे.
नौकरशाही से राजनीति में आगमन
र्दे के पीछे के रणनीतिकार से वीके पांडियन, 2019 में शुरू हुए नवीन पटनायक के पांचवें कार्यकाल में उनका प्रशासनिक का चेहरा बन गए थे.
चाहे सरकार की ओर से सभी अहम धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण का काम हो या मेडिकल कॉलेजों और बस टर्मिनलों का नवीनीकरण हो, पांडियन इन सभी जगहों पर दौरा करते थे. अक्सर सुबह पांच बजे, वो भी बिना नोटिस दिए. उन्हें ‘5 ए.एम.’ अफ़सर और ‘5टी’ सेक्रेटरी के रूप में जाना जाता था.
वो स्थानीय प्रशासन के डरे हुए अधिकारिओं और प्रोजेक्ट में शामिल अन्य लोगों से घिरे हुए, कैमरे के सामने प्रगति की समीक्षा करते और आगे के लिए दिशानिर्देश देते.
साल 2019 में जब नवीन पटनायक ने पांचवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो उन्होंने ‘5टी’ गवर्नेंस फ़्रेमवर्क (प्रशासनिक ढांचे) की घोषणा की थी, जिसका मतलब था, ट्रांसफर्मेशन, टाइम लिमिट, टेक्नोलॉजी, ट्रांसपैरेंसी और टीम वर्क.
पांडियन को 5टी सेक्रेटरी बनाया गया ताकि राज्य के सभी सरकारी विभागों और पहलकदमियों में इस सर्वोपरि प्रशासनिक ढांचे को स्थापित किया जाए.
हालांकि,सीएमओ के हाथों में अभूतपूर्व सत्ता के केंद्रित होने का 5टी उदाहरण बन गया. 5टी सेक्रेटरी के तौर पर पांडियन किसी भी सरकारी विभाग के मुख्य सचिव को दिशानिर्देश दे सकते थे, कोई भी फ़ाइल देख सकते थे और कोई भी फ़ैसला ले सकते थे, जिसपर सहमति की ज़रूरत नहीं होती थी.
5टी प्रशासनिक फ़्रेमवर्कः सत्ता का केंद्रीकरण
ओडिशा में 5टी प्रशासनिक फ्रेमवर्क में शायद टीम वर्क को सबसे अधिक नज़रअंदाज़ किया गया.
हालांकि सभी चिंताओं को दरकिनार कर दिया गया क्योंकि पांडियन कुछ मुख्य परियोजनाओं पर प्रत्यक्ष तौर पर अच्छा नतीजा दे रहे थे. उनके निर्देश में तय समय सीमा के अंदर बहुत सारे काम पूरे हो रहे थे.
राज्य सरकार ने पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर के चारों ओर एक हैरिटेज कॉरिडोर बनाने, ओडिशा के सभी महत्वपूर्ण मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों के जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण, भव्य बस टर्मिनल बनाने और सरकारी स्कूलों के पुराने क्लासरूम को अत्याधुनिक शिक्षण केंद्रों में तब्दील करने का फ़ैसला किया था.
हालांकि, इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए पांडियन को मिली अभूतपूर्व शक्ति का नेताओं, लोगों और यहां तक कि अन्य नौकरशाहों ने भी विरोध किया. लेकिन ये आलोचना सार्वजनिक तौर पर थोड़ी बहुत नाराज़गी तक ही सीमित थी.
ओडिशा की मुख्य धारा की मीडिया में उनकी ज़्यादा आलोचना नहीं थी.
हालांकि अधिकांश लोग ये भूल जाते हैं कि पांडियन का उभार मुख्यमंत्री के आशीर्वाद से ही हुआ था.
नवीन पटनायक ऐसे राजनेता रहे हैं, जो अपने आसपास किसी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की इजाज़त नहीं देते. उन्होंने हमेशा ही अपने प्रशासन के सार्वजनिक चेहरे के लिए नौकरशाहों पर भरोसा किया.
जब नवीन पटनायक पहली बार सत्ता में आए, तब उनके दाएं हाथ थे पूर्व नौकरशाह प्यारी मोहन मोहपात्रा, जिन्होंने 12 साल तक वफ़ादारी से सेवा करते हुए सीएम के ख़िलाफ़ तख़्तापलट की कोशिश की थी.
तख़्तापलट की कोशिश फ़ेल हो गई और नवीन पटनायक ने उन्हें राजनीतिक वनवास में भेज दिया.
ये देखते हुए कि राजनीति में आया ओड़िया नौकरशाह भी उनकी गद्दी छीनने की कोशिश कर सकता है, उन्होंने एक ग़ैर-ओड़िया आईएएस ऑफ़िसर वीके पांडियन को चुना.
इस फैसले ने छोटे-छोटे असंतोषों की शुरुआत की, जिसकी क़ीमत उनको अपना मुख्यमंत्री पद गंवाकर चुकानी पड़ी.
अंत की शुरुआत
पिछले एक दशक में सरकार और पार्टी में पांडियन का दबदबा बढ़ता रहा, जिसके कारण विपक्ष को ये कहने का मौका मिला कि वही प्रशासन के असली मुखिया हैं.
इस तरह की आलोचना से अप्रभावित पांडियन ने राजनीति में और सक्रिय भूमिका निभाने का फ़ैसला किया.
लंबे समय तक दबी यह इच्छा तब बाहर आई जब नौकरशाह के तौर पर उन्होंने अपना इस्तीफ़ा सौंपा, बीजेडी में शामिल हुए और सीधे पार्टी में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता बन गए.
बीजेडी के पुराने नेताओं ने इसका विरोध नहीं किया क्योंकि पांडियन को मुख्यमंत्री का समर्थन हासिल था.
समय के साथ पांडियन ने खुद और बीजेडी में अधिकांश लोगों ने इन घटनाक्रमों को सही ठहराने की कोशिश करना शुरू कर दिया कि वो सरकार की प्रमुख परियोजनाओं को पूरा कर रहे थे.
पिछले चुनाव प्रचार अभियान में जब पांडियन ने प्रमुख भूमिका अपनाई, उनसे पत्रकारों ने कई बार पूछा कि क्या वो नवीन पटनायक के उत्तराधिकारी होंगे.
बीजेडी की प्रतिद्वंद्वी पार्टियां ख़ासकर बीजेपी ने इस संभावना को लेकर प्रचार शुरू कर दिया और वोटरों से अपील की कि वे तमिलनाडु में जन्मे एक पूर्व नौकरशाह को मुख्यमंत्री के तौर पर नवीन पटनायक की जगह लेने न दें.
ओड़िया अस्मिता इन चुनावों में मुख्य थीम के रूप में उभर कर आई.
पांडियन ने खुद को राजनीतिक बहस के केंद्र में आने के ख़तरे को नज़रअंदाज़ ही नहीं किया बल्कि इसका वो आनंद लेते भी दिखे.
हालांकि वह उत्तराधिकार के सवालों पर जवाब देने से बचते रहे, लेकिन उन्होंने अपनी लोकप्रियता और प्रशासन में अपनी उपलब्धि का ज़िक्र किया.
संभवत: पांडियन ये मानने लगे थे कि उनकी महत्वाकांक्षा और कोशिशें राज्य के सबसे अहम राजनीतिक कार्यालय तक पहुंचने के लिए पर्याप्त थीं.
सत्ता के बाद, दर्द
जैसे ही बीजेपी ने ओडिशा में चुनाव जीता, पार्टी के कई जीते हुए उम्मीदवारों ने पांडियन के ख़िलाफ़ जांच की बात कही और कुछ ने तो ये भी अनुमान लगाया कि उनको सज़ा होगी और जेल भेजा जाएगा.
ये कहना मुश्किल है कि ओडिशा की नई राज्य सरकार या केंद्र सरकार इस मामले को आगे ले जाती है या नहीं.
ये भी माना जा रहा है कि बीजेपी के केंद्रीय नेताओ के साथ नवीन पटनायक के मधुर संबंध पांडियन के पक्ष में काम आ सकता है.
मीडिया में अपनी हालिया टिप्पणी में नवीन पटनायक ने स्पष्ट किया कि वो पांडियन को दोष नहीं देते.
उन्होंने राज्य में अच्छे कामों के लिए अपने सहयोगी की तारीफ़ की और उनके ख़िलाफ़ आलोचनाओं को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया.
लेकिन क्या पटनायक का समर्थन पांडियन को क़ानून और जनता की नज़र में बचा पाएगा?
बिना लोकतांत्रिक तरीक़े या जवाबदेही के किसी तंत्र के, सत्ता पाने को लेकर सालों की कोशिशों के चलते पांडियन के ख़िलाफ़ असंतोष बढ़ रहा था.
पांडियन ने ठीक उसी तरह से राजनीति शुरू की जिस तरह से वह अपनी नौकरी कर रहे थे यानी वे खुद को केवल अपने राजनीतिक बॉस के प्रति जवाबदेह मान रहे थे. साथ ही उनकी अपनी महत्वाकांक्षा बढ़ती जा रही थी.
भविष्य में मुख्यमंत्री पद नहीं मांगने को लेकर स्पष्टीकरण देने से पहले वो इस बारे में कुछ भी कहने से बचते रहे.
पांडियन ने राजनीति को एक ऐसी परीक्षा के रूप में लिया जिसे उन्हें एक परीक्षक के मातहत पास करना था. लोगों की सहमति का उतना महत्व नहीं था.
शुरुआत में पांडियन को सिर्फ मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह के रूप में देखा गया, जबकि उनके हाथ में पूरे राज्य का प्रशासन और पार्टी तंत्र था.
लेकिन चुनाव प्रचार में वो नवीन पटनायक को भी नियंत्रित करते दिखे.
इस बीच पांडियन के वीडियो क्लिप ने और आलोचनाओं और कांस्पिरेसी थ्योरी को जन्म दिया. कुछ लोगों का कहना है कि वीडियो में वह अपने कामों को गिना कर कम क्षमाप्रार्थी और खुद को अधिक बधाई देते दिखाई दिए.
कुछ अन्य लोगों ने कहा कि वीडियो क्लिप में पांडियन का अपनी एक आम पृष्ठभूमि और मामूली संपत्ति का हवाला देना सहानुभूति लेना और इंसाफ़ से बच निकलने की कोशिश का संकेत है.
हालांकि उन्होंने घोषणा की है कि वो राजनीति छोड़ देंगे लेकिन ओडिशा की राजनीति में वीके पांडियन को इतनी जल्दी भुलाया नहीं जा सकता. (bbc.com/hindi)
भारत में चिकित्सा पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए आयोजित नीट यूजी 2024 के नतीजे आने के बाद छात्र गड़बड़ी का आरोप लगा रहे हैं. छात्र नीट की परीक्षा दोबारा कराने की मांग कर रहे हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
देश के टॉप मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए आयोजित नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट (नीट-यूजी) को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। छात्र दोबारा परीक्षा की मांग कर रहे हैं और इस परीक्षा को आयोजित कराने वाली राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) सवालों के घेरे में है। चार जून को नीट परीक्षा के नतीजे आए और ऐसा पहली बार देखने को मिला कि इस परीक्षा में बैठे 67 छात्रों ने पूरे अंक हासिल कर पहली रैंक हासिल की। ऑल इंडिया स्तर पर एक रैंक हर बार एक या दो छात्रों को ही मिलती है।
इन विवादों के बीच, नीट-यूजी आयोजित करवाने वाली नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) ने 8 जून को छात्रों द्वारा उठाई गई चिंताओं के बारे में स्पष्टीकरण जारी किया। एजेंसी ने बताया कि एक आसान परीक्षा, रजिस्ट्रेशन में बढ़ोतरी, दो सही उत्तरों वाला एक प्रश्न और परीक्षा के समय में नुकसान की भरपाई के लिए ग्रेस मार्क्स कुछ ऐसे कारक हैं जिन्हें छात्रों को परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त करने के पीछे के कारणों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
इस साल नीट परीक्षा के लिए करीब 24 लाख छात्रों ने रजिस्ट्रेशन कराया था और परीक्षा पांच मई को हुई थी। नीट के नतीजों के मुताबिक इस बार 67 छात्रों ने सौ फीसदी अंक हासिल किए, यानी 720 अंक की परीक्षा में उन्हें पूरे 720 नंबर मिले। पिछले साल सिर्फ दो छात्रों ने पूरे नंबर हासिल किए थे।
एनटीए की दलीलें
प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए छात्रों ने इस साल टॉपरों की संख्या के बारे में चिंता जताई थी, जिस पर एनटीए ने जवाब दिया कि 720/720 अंक पाने वाले 67 अभ्यर्थियों में से 44 को प्रश्नपत्र के भौतिकी खंड में एक प्रश्न में त्रुटि के कारण पूर्ण अंक (720) दिए गए। वहीं छह उम्मीदवारों को अतिरिक्त अंक दिए गए जिन्हें प्रश्न पत्र समय पर नहीं मिला था।
कुछ परीक्षा केंद्रों के छात्रों को ग्रेस मार्क दिए गए हैं, उनमें छत्तीसगढ़ के दो केंद्र बालोद व दंतेवाड़ा, हरियाणा का बहादुरगढ़, चंडीगढ़, मेघालय और गुजरात के सूरत में एक-एक केंद्र शामिल है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इन केंद्रों पर गलत प्रश्न पत्र बांटे गए, छात्रों की शिकायत के बाद दूसरा प्रश्न पत्र दिया गया। इसके चलते उन्हें परीक्षा में कम समय मिल पाया। एनटीए का कहना है कि छात्रों की शिकायत के बाद इसकी जांच की गई और शिकायत सही होने पर नुकसान की भरपाई के लिए एक कमेटी बनी। कमेटी ने ग्रेस मार्क दिए जाने का सुझाव दिया।
एनटीए का कहना है कि एक तय मानक के तहत करीब 1563 छात्रों को ग्रेस मार्क दिए गए। एनटीए के महानिदेशक सुबोध कुमार सिंह ने नीट परीक्षा विवाद पर 8 जून को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए कहा था कि 1,500 से ज्यादा उम्मीदवारों को दिए गए ग्रेस मार्क का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए चार सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया है।
उनके मुताबिक कमेटी एक हफ्ते के अंदर अपनी रिपोर्ट पेश करेगी। कुमार ने दावा किया कि एनटीए ने सभी चीजों का पारदर्शी तरीके से विश्लेषण किया और नतीजे घोषित किए। उनके मुताबिक 4,750 केंद्रों में से समस्या सिर्फ छह केंद्रों तक सीमित थी और 24 लाख उम्मीदवारों में से सिर्फ 1,600 उम्मीदवार प्रभावित हुए।
एनटीए का कहना है कि पूरे देश में इस परीक्षा की शुचिता से समझौता नहीं किया गया। उन्होंने कहा, ‘हमने अपने सिस्टम का विश्लेषण किया और पाया कि कोई पेपर लीक नहीं हुआ।’ वहीं कई छात्र नीट 2024 के नतीजों को रद्द करने और परीक्षा के संचालन में विसंगतियों के आरोपों की गहन जांच की मांग कर रहे हैं।
पेपर लीक का भी सवाल
एनटीए का दावा है कि नीट का पेपर लीक नहीं हुआ है, लेकिन 718 और 719 अंक प्राप्त करने का मुद्दा भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) जूनियर डॉक्टर्स नेटवर्क ने उठाया, जिसने मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो से (सीबीआई) करवाने की मांग की और दोबारा परीक्षा कराने को कहा।
आईएमए जूनियर डॉक्टर्स नेटवर्क ने एनटीए को लिखे पत्र में कहा, ‘कुछ छात्रों ने 718 और 719 अंक हासिल किए हैं, जो नंबरो की नजर से संदिग्ध है।’ संगठन ने यह भी आरोप लगाया कि नीट 2024 का पेपर कई जगहों पर लीक हुआ था, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक बिहार पुलिस ने नीट के पेपर लीक मामले में 13 लोगों को गिरफ्तार किया था। बिहार पुलिस कथित पेपर लीक के मामले की जांच कर रही है। हाल ही में खत्म हुए लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने पेपर लीक का मुद्दा जोरशोर से उठाया था और कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो इसपर वह कानून बनाएगा।
कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने एक्स पर नीट परीक्षा में हुई कथित धांधली को लेकर केंद्र सरकार को घेरा है। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, ‘नरेंद्र मोदी ने अभी शपथ भी नहीं ली है और नीट परीक्षा में हुई धांधली ने 24 लाख से अधिक स्टूडेंट्स और उनके परिवारों को तोड़ दिया है। एक ही एग्जाम सेंटर से 6 छात्र अधिकतम माक्र्स के साथ टॉप कर जाते हैं, कितनों को ऐसे माक्र्स मिलते हैं जो टेक्निकली संभव ही नहीं है, लेकिन सरकार लगातार पेपर लीक की संभावना को नकार रही है।’
राहुल गांधी ने कहा, ‘आज मैं देश के सभी छात्रों को विश्वास दिलाता हूं कि मैं संसद में आपकी आवाज बन कर आपके भविष्य से जुड़े मुद्दों को मजबूती से उठाऊंगा।’
सडक़ पर उतरे छात्र
दिल्ली में सोमवार को शिक्षा मंत्रालय के बाहर छात्र संगठनों ने नीट परीक्षा में कथित अनियमितताओं की जांच की मांग को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया। छात्र संगठनों की मांग है कि नीट की दोबारा परीक्षा आयोजित की जानी चाहिए।
इस बीच भारत के सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है। याचिका में 1563 छात्रों को ग्रेस मार्क देने के एनटीए की कार्रवाई को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता के वकील ने सुप्रीम कोर्ट से इस मामले में तत्काल सुनवाई की मांग की है। इससे पहले कलकत्ता हाईकोर्ट ने भी परीक्षा के संचालन में अनियमितताओं का आरोप लगाने वाली याचिका पर एनटीए से जवाब मांगा था।
नीट को हर साल होने वाली सबसे बड़ी प्रवेश परीक्षाओं में से एक माना जाता है। इस साल लगभग 24 लाख छात्र-छात्रा परीक्षा के लिए बैठे थे। ऐसे में इस तरह की परीक्षा को बिना किसी त्रुटि के कराना सरकार और एनटीए के सामने एक बड़ी चुनौती।
इस परीक्षा के लिए छात्र अपने घर छोडक़र कोचिंग पाने के लिए दूसरे शहरों में जाते हैं, कुछ शहर तो कोचिंग सेंटर के हब के रूप में उभरे हैं, उनमें सबसे प्रमुख राजस्थान का कोटा शहर है। जहां इंजीनियर या डॉक्टर बनने का सपना लिए देशभर से बच्चे नीट (नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट) या जेईई (जॉइंट एंट्रेंस एग्जामिनेशन) परीक्षा की तैयारी के लिए शहर के कोचिंग संस्थानों में दाखिला लेते हैं। लेकिन इस साल नीट के जो नतीजे आए हैं जाहिर है उससे छात्र ही नहीं उनके परिवार वाले भी हैरान होंगे। (डॉयचे वैले)
-दिलनवाज पाशा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 72 सदस्यों वाली मंत्री परिषद में 30 कैबिनेट मंत्री, 5 राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 36 राज्य मंत्री शामिल किए गए हैं।
भारतीय जनता पार्टी के पास अब अकेले अपने दम पर बहुमत नहीं है। गठबंधन सरकार में तेलुगू देशम पार्टी, जनता दल युनाइटेड, शिवसेना (शिंदे गुट), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास),जनता दल सेक्यूलर, राष्ट्रीय लोक दल, हिंदुस्तानी अवामी मोर्चा (हम), द रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया को मिलाकर कुल 11 मंत्री भी हैं।
पिछली सरकार के तीन चर्चित चेहरे स्मृति ईरानी, अनुराग ठाकुर और राजीव चंद्रशेखर इस बार सरकार से बाहर हैं।
वहीं हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी को कैबिनेट में शामिल किया गया है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को भी कैबिनेट में जगह दी गई है।
राजनाथ सिंह, अमित शाह, जेपी नड्डा, निर्मला सीतारमण, एस जयशंकर, नितिन गडकरी और पीयूष गोयल उन 19 मंत्रियों में शामिल हैं जिन्हें मोदी की तीसरी सरकार में भी जगह मिली है। इस बार बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी कैबिनेट मंत्री की शपथ ली है।
पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव और ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी लोकसभा सीट जीतने के बाद मंत्री बनाया गया है। ये सभी राज्यसभा के सदस्य थे।
कुल 33 मंत्री ऐसे हैं जो पहली बार मंत्री बने हैं जबकि देश के छह राजनीतिक परिवारों को भी मंत्री परिषद में जगह मिली है।
राजनीतिक परिवारों के कौन लोग हैं जो बने मंत्री
पहली बार मंत्री बने सात राजनेता बीजेपी की गठबंधन सहयोगी पार्टियों से हैं।
मंत्री बने जयंत चौधरी पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के पोते हैं, चिराग पासवान बिहार के सबसे बड़े नेताओं में शामिल रहे दिवंगत रामविलास पासवान के बेटे हैं।
वहीं बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के बेटे और जदयू के सांसद रामनाथ ठाकुर को भी मंत्री बनाया गया है।
कांग्रेस से बीजेपी में आए और अपनी सीट हारने वाले रवनीत सिंह बिट्टू पंजाब में ख़ालिस्तानियों के हाथों मारे गए पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते हैं।
वहीं महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेता एकनाथ खडसे की बहू रक्षा खडसे को भी सरकार में जगह दी गई है।
2021 में कांग्रेस छोडक़र बीजेपी में आए जितिन प्रसाद को भी मंत्री बनाया गया है। जितिन प्रसाद मनमोहन सरकार में भी मंत्री रहे हैं। जितिन प्रसाद कांग्रेस नेता जितेंद्र प्रसाद के बेटे हैं।
वहीं केरल में पहली बार बीजेपी के लिए लोकसभा सीट जीतने वाले अभिनेता सुरेश गोपी को भी मंत्री बनाया गया है।
नई सरकार में 27 मंत्री अन्य पिछड़ा वर्ग, 10 मंत्री अनुसूचित जातियों, 5 अनुसूचित जनजातियों और 5 अल्पसंख्यक समूहों से हैं। हालांकि भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह यानी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सरकार में नहीं है। नई सरकार में एक भी मुसलमान मंत्री नहीं है।
शपथ समारोह में सात देशों के नेताओं के अलावा पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े और फि़ल्म और उद्योग जगत समेत अलग-अलग क्षेत्रों की कई हस्तियां मौजूद रहीं। भारत के चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ भी समारोह में मौजूद रहे।
गठबंधन सहयोगी टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडु, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, एनसीपी नेता अजीत पवार और जनसेना पार्टी के नेता पवन कल्याण भी शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित रहे।
मंत्रालयों का अभी नहीं हुआ है बंटवारा
केंद्र सरकार के मंत्रियों ने अभी सिफऱ् शपथ ली है, उन्हें पोर्टफ़ोलियो नहीं दिए गए हैं। आमतौर पर शपथ ग्रहण के 48 घंटों के भीतर विभाग बांट दिए जाते हैं।
इस बार बीजेपी के पास अपने दम पर बहुमत नहीं है और वह सरकार चलाने के लिए गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर है, ऐसे में माना जा रहा है कि गठबंधन सहयोगी अपनी पसंद के विभाग लेने के लिए बीजेपी पर दबाव बना सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि सबसे अहम यही है कि सरकार में किस पार्टी को क्या विभाग मिलता है।
वरिष्ठ पत्रकार अदिति फणनीस कहती हैं, ‘अधिकतर गठबंधन सहयोगी यही देख रहे हैं कि हमें क्या मिलेगा। चूंकि ये सरकार गठबंधन सहयोगियों पर निर्भर है और उनकी मदद के बिना सरकार गिर जाएगी, ऐसे में अब बीजेपी में मंथन इसी बात पर हो रहा होगा कि किस पार्टी को क्या विभाग दिए जाएं।’
हालांकि ये माना जा रहा है कि गृह, रक्षा, वित्त और विदेश जैसे अहम मंत्रालय भाजपा अपने पास ही रखेगी।
सरकार में प्रधानमंत्री समेत कुल 72 मंत्री होंगे। ऐसे में बहुत संभावना है कि अगले 2-3 साल तक मंत्री परिषद में विस्तार शायद ना हो पाए।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘अभी शपथ ग्रहण ही हुआ है, मंत्री पद नहीं बंटे हैं। बीजेपी के सामने अपने गठबंधन सहयोगियों को संतुष्ट करने की चुनौती हैं। प्रधानमंत्री सत्ता का केंद्रीकरण करके सरकार चलाने के आदी हैं, गठबंधन सहयोगियों को वह कैसे साधेंगे, ये अभी देखना बाक़ी है। किस पार्टी को क्या विभाग मिलता है, ये तय करेगा कि सरकार कितनी सहजता से चल पाएगी।’ भाजपा को सभी सहयोगी दलों को संतुष्ट करना है, ऐसे में अभी विभागों के बंटवारे में समय भी लग सकता है।
महाराष्ट्र से एनसीपी (अजीत पवार गुट) एनडीए का हिस्सा है लेकिन एनसीपी के किसी मंत्री ने शपथ नहीं ली है। प्रफुल्ल पटेल यूपीए सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हैं, उन्होंने शपथ नहीं ली।
अदिति फडणीस कहती हैं, ‘एनसीपी को मंत्रीपद का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन शायद एनसीपी राज्य मंत्री के पद पर सहमत नहीं हुई, बीजेपी एनसीपी को कैबिनेट में जगह देगी, इसकी भी संभावना कम ही है। अगर एनसीपी और बीजेपी के बीच तनातनी हुई तो आगे चलकर महाराष्ट्र की राजनीति पर इसका असर हो सकता है।’
राज्यों को क्या मिला?
हरियाणा में अगले कुछ महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के अलावा राव इंद्रजीत सिंह और कृष्णपाल गुर्जर को भी मंत्री बनाया गया है।
दस लोकसभा सीट वाले इस राज्य में बीजेपी ने इस बार पांच सीटें गंवाई हैं। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक अदिति फडणीस मानती हैं कि आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए, मंत्री परिषद में हरियाणा को तवज्जो दी गई है।
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को इस बार लोकसभा चुनाव में निराशा मिली है।
अदिति फडणीस कहती हैं, ‘यूपी से राजनाथ सिंह और जितिन प्रसाद जैसे पुराने नेताओं के अलावा नए चेहरों को भी जगह दी गई है। यूपी से अनुप्रिया पटेल, कीर्ति वर्धन सिंह, कमलेश पासवान, बीएल वर्मा, पंकज चौधरी, हरदीप सिंह पुरी और एसपी बघेल समेत कुल दस मंत्री बनाए गए हैं।’
वहीं केरल जहां बीजेपी को सिफऱ् एक ही सीट मिली है, वहां से तीन मंत्री बनाए गए हैं।
राजस्थान, जहां बीजेपी ने 14 सीटें जीती हैं, वहां से भी गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुन राम मेघवाल और भूपेंद्र यादव को मंत्री बनाया गया है, यानी कुल तीन मंत्री राजस्थान से हैं।
वहीं मध्य प्रदेश जहां, बीजेपी ने सभी 29 सीटें जीती हैं, वहां से कुल चार मंत्री बनाए गए हैं जिनमें शिवराज सिंह चौहान, ज्योतिरादित्य सिंधिया के अलावा सावित्री ठाकुर और वीरेंद्र वर्मा शामिल हैं।
बिहार में बीजेपी जनता दल यूनाइटेड और अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार चला रही है। 40 सीटों वाले बिहार से कुल आठ मंत्री हैं।
वहीं महाराष्ट्र, जहां इसी साल चुनाव होने हैं और जहां एनडीए को भारी नुकसान हुआ है, वहां से कुल 5 मंत्री हैं। रामदास अठावले को भी मंत्री परिषद में जगह दी गई है।
तमिलनाडु जहां बीजेपी ने एक भी सीट नहीं जीती है, वहां से कुल तीन मंत्री बनाए गए हैं। वहीं कर्नाटक से सरकार में कुल पांच मंत्री हैं। आंध्र प्रदेश से तीन मंत्री हैं जिनमें टीडीपी के मंत्री भी शामिल हैं, तेलंगाना से कुल दो मंत्री हैं। यानी दक्षिण से कुल 14 मंत्री सरकार में हैं।
क्या अस्थिर रहेगी सरकार?
नरेंद्र मोदी की ये नई सरकार गठबंधन सहयोगियों पर टिकी है, जिसे सदन में मजबूत विपक्ष का भी सामना करना है। कयास लगाए जा रहे हैं कि ये सरकार अस्थिर रहेगी।
हालांकि अदिति फडणीस मानती हैं कि अगर राजनीतिक नजरिये से देखा जाए तो शायद ही ऐसा हो।
फडणीस कहती हैं, ‘दो सबसे बड़े गठबंधन सहयोगियों टीडीपी और जेडीयू का अपना हित भी इसमें हैं कि वो भरोसे के लायक नहीं हैं। अगर जेडीयू गड़बड़ करती है तो बिहार में उसकी सरकार गिर जाएगी। हालांकि टीडीपी राज्य में सरकार चलाने के लिए बीजेपी पर निर्भर नहीं है, लेकिन टीडीपी को लोगों के सामने ये सिद्ध करना है कि हम वाकई विकास चाहते हैं और एक नया राज्य, जिसकी अभी कोई राजधानी भी नहीं है, उसे बनाने के लिए सब कुछ करेंगे। जिस अस्थिरता का डर बार-बार जाहिर किया जा रहा है, वो इतना वास्तविक नहीं है।’ हालांकि वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री की राय इससे थोड़ा अलग है। हेमंत अत्री मानते हैं कि गठबंधन सरकार चलाने के लिए जो अनुभव चाहिए, वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास नहीं है।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी एकाधिकार का शासन चलाते रहे हैं और एकतरफ़ा फ़ैसले लेते रहे हैं, देखना यह होगा कि मोदी गठबंधन सहयोगियों के साथ कितने सहज रहते हैं। पूर्ण बहुमत की सरकार और गठबंधन सरकार के चरित्र में फर्क होता है। बीजेपी के सामने सभी सहयोगियों को जगह देने की मजबूरी है। विभागों के बंटवारे से ही स्पष्ट होगा कि सरकार कितनी स्थिर रहेगी।’
पिछली सरकारों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी जैसे कई बड़े फैसले लिए। विश्लेषक मानते हैं कि अपनी मर्जी से सरकार चलाते रहे नरेंद्र मोदी ख़ुद को गठबंधन की निर्भरता के हिसाब से ढाल पाएंगे या नहीं, यही सबसे अहम है।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘मोदी का गुजरात से लेकर दिल्ली तक का राजनीतिक सफर ‘एकला चलो’ की नीति पर रहा है। इस सरकार में मनमर्जी नहीं चल पाएगी, अब सवाल यही है कि क्या मोदी अपनी मर्जी चलाये बिना सरकार चला पाएंगे?’
पीएम मोदी की सबसे बड़ी चुनौती
नई सरकार में पिछली सरकार के अधिकतर वरिष्ठ मंत्रियों और गठबंधन सहयोगियों को शामिल किया गया है। सरकार में मंत्रियों की संख्या 81 तक हो सकती है। यानी अभी आगे भी मंत्री परिषद में विस्तार की गुंजाइश है।
पिछली सरकार में कुल 24 कैबिनेट मंत्री थे। अब ये संख्या तीस है। यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में अब अन्य राजनेताओं का अधिक दखल होगा।
अब तक नरेंद्र मोदी की सरकारों में बाक़ी मंत्री उनके कहे पर चलते थे। लेकिन विश्लेषक मान रहे हैं कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गठबंधन सहयोगियों के दखल के साथ भी तालमेल बिठाना पड़ेगा।
प्रधानमंत्री मोदी की छवि एक सशक्त नेता की रही है, वो अपनी नीतियों को लागू करवाने के लिए जाने जाते हैं।
पीएम मोदी ने भारत के लोगों से कई बड़े वादे भी किए हैं। उन्होंने हर साल दो करोड़ युवाओं को नौकरी देने और किसानों की आय दोगुनी करने जैसे बड़े वादे किए थे, जो पिछली सरकार में पूरे नहीं हो सके।
विश्लेषक मान रहे हैं कि पीएम मोदी की सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि अब उन्हें अपने वादों का हिसाब देना पड़ सकता है।
हेमंत अत्री कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास अब ना संख्या बल है और ना नैतिक बल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बड़ी-बड़ी बातें करते रहे हैं, उन्होंने चार सौ पार का नारा दिया जो पूरा नहीं हो सका। सभी जानते हैं कि मोदी जी अच्छे वक्ता हैं। 2014 और 2019 में यही मोदी की सबसे बड़ी ताक़त थी, लेकिन इस नई सरकार में यही उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी साबित होगी।’
‘अब मंच से जो भी वो बोलेंगे उसे ज़मीनी वास्तविकता की कसौटी पर परखा जाएगा, वादों का हिसाब मांगा जाएगा। अपनी कही बातों पर खरा उतरना ही उनकी सबसे बड़ी चुनौती होगी।’ (bbc.com/hindi)
-अनुभव स्वरूप यादव
लोकसभा चुनाव को लेकर सबसे चौंकाने वाले परिणाम उत्तर प्रदेश के रहे। इंडिया गठबंधन ने सारे अनुमान और एग्जि़ट पोल को ग़लत साबित करते हुए बीजेपी के अकेले पूर्ण बहुमत हासिल करने की राह में रोड़ा डाल दिया है।
वैसे तो उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर एनडीए और इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी के बीच रोचक चुनाव देखने को मिला है लेकिन इस बार राज्य में एक सीट ऐसी थी जिस पर चुनाव शुरू होने से लेकर परिणाम आने तक सभी की नजऱें टिकी हुई थीं और यह अमेठी की सीट थी।
जहां कांग्रेस के किशोरी लाल शर्मा ने बीजेपी सरकार में केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी को एक लाख 66 हज़ार से ज़्यादा मतों से हराया।
किशोरी लाल शर्मा इतने अधिक मतों से जीतेंगे, इसकी उम्मीद भी किसी को नहीं थी। स्मृति इरानी को अमेठी की सभी पांच विधानसभा सीटों पर हार का सामना करना पड़ा।
अपने-अपने विधानसभा में दबदबा रखने वाले बीजेपी विधायक और मंत्री अपनी विधानसभा में स्मृति ईरानी को जीत नहीं दिलवा सके।
यहां तक कि बीजेपी के लिए प्रचार करने वाले सपा के बाग़ी विधायक राकेश प्रताप सिंह और महाराजी देवी के विधानसभा क्षेत्र से भी बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा।
तिलोई विधायक और प्रदेश के स्वास्थ्य राज्यमंत्री मयंकेश्वर शरण सिंह की विधानसभा में बीजेपी 18,818 वोटों से पराजित हुई।
बीजेपी विधायक अशोक कोरी के सलोन विधानसभा में भी बीजेपी को सबसे बड़ी हार 52,318 वोटों से मिली।
जगदीशपुर विधानसभा में मौजूदा बीजेपी विधायक सुरेश पासी भी कोई कमाल नहीं कर सके और इस विधानसभा में स्मृति इरानी को 15,425 वोटों से मात खानी पड़ी।
गौरीगंज विधानसभा में सपा विधायक राकेश प्रताप सिंह का जादू नहीं चला और यहां स्मृति इरानी की 30,318 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। जबकि सपा विधायक महाराजी देवी के अमेठी में स्मृति को 46,689 वोटों से बड़ी हार का सामना करना पड़ा।
किशोरी लाल शर्मा का भरोसा
दरअसल, इंडिया गठबंधन ने किशोरी लाल शर्मा को चुनाव जितवाने के लिए पूरी ताक़त लगा दी थी।
प्रियंका गांधी ने ना केवल रायबरेली में बड़े भाई राहुल गांधी के लिए पूरी मेहनत की बल्कि अमेठी में किशोरी लाल शर्मा के लिए भी उतनी मेहनत के साथ काम किया।
वहीं दूसरी ओर स्मृति इरानी के प्रति जनता की नाराजग़ी ने भी किशोरी लाल शर्मा के लिए जीत की राह आसान कर दी।
स्मृति इरानी ने 2019 में जब राहुल गांधी को हराया था, उसके बाद से राहुल गांधी का अमेठी आना बंद हो गया था।
ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों के बीच ऐसी चर्चा भी होने लगी थी कि गांधी परिवार ने सीट को हमेशा के लिए छोड़ दिया है।
2024 चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद इस सीट से कांग्रेस का उम्मीदवार कौन होगा, इसको लेकर चर्चाओं का दौर फिर से शुरू हुआ।
नामांकन के अंतिम दिन तक सस्पेंस बनाए रखने के बाद तीन मई की सुबह इंडिया गठबंधन ने अमेठी से किशोरी लाल शर्मा को कांग्रेस का प्रत्याशी बनाया।
किशोरी लाल शर्मा रायबरेली में सोनिया गांधी और अमेठी में राहुल गांधी के सांसद प्रतिनिधि के रूप में काम कर चुके थे, लेकिन पार्टी उन्हें अमेठी से चुनाव मैदान में उतार देगी, इसका अंदाज़ा किसी को नहीं था।
हालांकि इस फ़ैसले पर भी तमाम सवाल उठे कि राहुल गांधी ने एक तरह से मैदान छोड़ दिया है। पहले यह उम्मीद की जा रही थी कि अगर राहुल गांधी यहां से चुनाव मैदान में होंगे तो पिछली हार को देखते हुए सारा दबाव उन पर होगा और स्मृति इरानी को चुनाव लडऩे में आसानी होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
किशोरी लाल के आने के बाद सारा दबाव स्मृति इरानी पर हो गया।
वहीं दूसरी ओर अमेठी की जनता में मोदी सरकार में मंत्री स्मृति इरानी को लेकर ख़ासी नाराजग़ी भी थी।
अमेठी के वरिष्ठ पत्रकार हम्माद सिद्दीक़ी बताते हैं, ‘जनता में स्मृति इरानी के व्यवहार को लेकर रोष था। स्मृति इरानी केंद्र सरकार में मंत्री थीं लेकिन उन्होंने पिछले पांच सालों में विकास का
कोई ठोस काम नहीं किया। इसके साथ-साथ महंगाई और बेरोजग़ारी को लेकर भी जनता ने इस बार स्मृति का साथ नहीं दिया।’
अमेठी की जनता क्या बोली
वहीं गौरीगंज क्षेत्र के निवासी कर्म प्रसाद द्विवेदी ने दावा किया कि स्मृति इरानी ने कोई काम नहीं किया। उन्होंने बताया, ‘जनता को इनसे बड़ी उम्मीद थी कि ये मंत्री हैं क्षेत्र में बहुत काम होगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। स्मृति इरानी की हार का एक कारण यह भी है कि प्रधानमंत्री ने जिस तरह से भैंस और मंगलसूत्र जैसे बयान दिए उससे जनता में नाखुशी हुई। पिछली बार राहुल गांधी हार गए इसको लेकर जनता खुद दुखी थी और किशोरी लाल शर्मा को क्षेत्र की जनता अच्छे से जानती है इसलिए उनकी जीत हुई।’
वहीं गंगा शंकर मिश्र ने कहा, ‘जो परिणाम आया है वो पहले से तय था कि यहाँ से कांग्रेस को ही जीतना है चूंकि पिछली बार राहुल गांधी चुनाव हार गए थे इसलिए इस बार जनता ने कजऱ् चुकाने के लिए किशोरी लाल शर्मा को चुनाव जितवाया है। स्मृति इरानी और उनके स्थानीय प्रतिनिधि की कार्यशैली से लोगों को नाराजग़ी थी इसलिए भी उनकी हार हुई।’ अमेठी के एक युवा ने कहा, ‘मेरा नाम अमेठीयन है क्योंकि हम अमेठी के निवासी हैं यही हमारी पहचान है।’
इस युवा ने कहा, ‘अमेठी ने अपने सम्मान को वापस लिया है। 2019 में राहुल गांधी की हार के बाद से अमेठी की जनता क्षुब्ध थी। लोगों को एहसास हुआ कि उसने बहकावे में आकर हीरा खो कर प्लास्टिक की तरफ़ हाथ बढ़ा दिया था।’
एक अन्य युवक अब्दुल मजीद ने कहा, ‘जायस क़स्बे में एक महिला अस्पताल है जो कि बंद पड़ा है लेकिन कोई पूछने नहीं आया। क्षेत्र में महिलाओं के इलाज के लिए बड़ी समस्या है लेकिन स्मृति इरानी ने सांसद रहते हुए इसको लेकर कुछ नहीं किया।’
महंगाई और आवारा पशु भी थे मुद्दा
स्मृति इरानी की हार पर बात करते हुए अमेठी की महिला बिट्टन ने कहा कि महंगाई और ‘छुट्टा जानवरों’ को लेकर किसान परेशान हैं इसलिए लोगों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया।
वहीं रीता ने कहा, ‘छुट्टा जानवर, महंगाई और बेरोजग़ारी के कारण जनता ने बीजेपी को वोट नहीं दिया। महंगाई कम होनी चाहिए और लोगों को रोजग़ार चाहिए।’
स्थानीय निवासी संजय कुमार शर्मा इलाके में आवारा पशुओं की समस्या को रेखांकित करते हुए कहते हैं, ‘किसान छुट्टा जानवरों से परेशान है। सरकार पांच किलो राशन देती है लेकिन पांच बीघा फसल जानवर खा जाते हैं। पहले जिन खेतों में पांच क्विंटल राशन होता था अब उसमे एक भी क्विंटल नहीं होता है अगर किसान रातभर खेत ताकेगा तो दिन में काम कैसे कर पाएगा। इसीलिए जनता ने बीजेपी को नकार दिया है।’
वहीं एक महिला खुशबू ने बताया कि,‘अमेठी को राहुल गांधी की सरकार में ज़्यादा सुविधाएं मिलती थीं, इसलिए लोगों ने कांग्रेस को वोट किया।’
‘जनता से कनेक्ट नहीं था’
एमबीए के छात्र सनत कुमार मिश्र स्मृति इरानी की हार की वजहों को गिनाते हैं, ‘उन्होंने जनता से कनेक्ट नहीं किया। जब भी दौरे पर आती थीं वो जनता से नहीं मिलती थीं। कुछ चंद लोगों से घिरी रहती थीं। बीते पांच सालों में राहुल गांधी की आलोचना के सिवा उन्होंने कोई काम नहीं किया था।’
‘आप ये भी देखिए कि इस बार यहां चुनाव जनता ने लड़ा क्योंकि यहां जो कुछ भी है कांग्रेस का दिया हुआ है। एचएल, बीएचएल, फूड पार्क और पेपर मिल ये सभी कांग्रेस की देन है। राहुल गांधी की हार के बाद से ऐसा लग रहा था जैसे अमेठी उजड़ गया है।’
एक अन्य निवासी संजय बाबा ने कहा, ‘जायस से अमेठी जाने के लिए आज भी बस की सुविधा नहीं है। हमारे यहां की आठ पैसेंजर ट्रेन बंद है इसको लेकर कई बार शिकायत की गई लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।’
किशोरी लाल शर्मा को जीत दिलवाने में समाजवादी पार्टी का भी योगदान रहा है। किशोरी लाल शर्मा के पक्ष में माहौल बनाने के लिए अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने अमेठी में संयुक्त रैली की थी।
अमेठी से समाजवादी पार्टी के कोषाध्यक्ष जैनुल हसन ने कहा, ‘स्मृति इरानी का कोई भी काम धरातल पर नहीं दिखा और पिछले पांच सालों में सिफऱ् अमेठी की ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश की जनता भारतीय जनता पार्टी से ऊब चुकी थी। जनता ने बहकावे में आकर 2019 में भाजपा को वोट दे दिया था।’
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और किशोरी लाल शर्मा के इलेक्शन एजेंट सुरेश प्रताप सिंह किशोरी लाल शर्मा की जीत के कई कारण बताते हैं। उन्होंने कहा, ‘सबसे बड़ी वजह तो यही है कि क्षेत्र के हर गांव में कुछ ना कुछ लोग ऐसे हैं जो किशोरी लाल शर्मा जी से सीधे जुड़े हुए हैं। वह पिछले 40 सालों में राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ काम कर चुके हैं। इसके अलावा अमेठी की जनता ने 2019 में हुई ग़लती को सुधारने का काम किया है।’
स्मृति इरानी के समय कौन से काम हुए?
वहीं दूसरी ओर स्मृति इरानी की हार के बाद से ही अमेठी के बीजेपी कार्यालय में सन्नाटा पसरा हुआ है। कार्यालय में कोई भी पदाधिकारी मौजूद नहीं थे।
अमेठी क्षेत्र में बीजेपी के महामंत्री सुधांशु ने बताया कि ‘दीदी ने अमेठी में बहुत विकास करवाया इतना काम तो 70 वर्षो में नहीं हुआ था।’
कामों को गिनवाते हुए वो कहते हैं, ‘स्मृति ईरानी ने अमेठी शहर में जाम की समस्या को ख़त्म करने के लिए 4 किलोमीटर का बायपास बनवाया, अमेठी के दक्षिणी हिस्से में रेलवे का ओवर ब्रिज बनवाया जिससे क्षेत्र के लगभग 50 हज़ार लोगों को जाम से निजात मिली है, केंद्रीय विद्यालय की बिल्डिंग बनवाई, कृषि विज्ञान केंद्र बनवाया, मृदा परिक्षण केंद्र बनवाया, अमेठी लोकसभा क्षेत्र के रेलवे स्टेशनों का विस्तार और सौंदर्यीकरण करवाया।’
‘एफ़एम सेंटर की स्थापना हुई, सैनिक स्कूल बनवाया, 50 बेड आयुष हॉस्पिटल बनवाया, तिलोई क्षेत्र में 200 बेड का रेफऱल अस्पताल का निर्माण करवाया। जगदीशपुर में ट्रामा सेंटर का निर्माण करवाया, गोमती नदी पर पीपे के कई पुलों का निर्माण करवाया, खारे पानी की समस्या से ग्रसित निगोहाँ क्षेत्र में पानी की टंकी का निर्माण करवाया। क्षेत्र के मंदिरों का सौंदर्यीकरण करवाया।’
वो कहते हैं, ‘दीदी लगातार जनता के बीच में रही हैं और जनता की समस्याओं का निस्तारण किया, जितना काम आज़ादी के बाद कभी नहीं हुआ उससे ज़्यादा काम पिछले 10 वर्षों में हुआ। खासकर 2019 से 2024 के बीच में दीदी ने सांसद रहते हुए बहुत विकास करवाया है, अब हार क्यों हुई इस पर चिंतन किया जाएगा और हार के कारणों को तालाशा जाएगा।’
स्मृति इरानी ने सोशल प्लेटफॉर्म एक्स पर हार के बाद लिखा है, ‘यही जीवन है। मैंने एक दशक तक एक गांव से दूसरे गांव तक जाती रही, लोगों के जीवन और उम्मीदों को संवारती रही। सडक़, नाली, खड़ंजा, बायपास और मेडिकल कॉलेज सहित दूसरी चीज़ें बनवाईं। जो लोग जीत और हार में मेरे साथ खड़े रहे, उनकी मैं हमेशा अभारी रहूंगी।’
स्मृति इरानी ने ये भी कहा कि उनका जोश अभी भी ‘हाई’ है। (bbc.com/hindi)


