विचार/लेख
17वीं लोकसभा के मुकाबले 18वीं लोकसभा में मुसलमान सांसदों का प्रतिनिधित्व कम होगा. आखिर क्या कारण है कि पार्टियां कम मुसलमान उम्मीदवारों पर दांव लगा रही हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
भारत के लोकसभा चुनाव 2024 में कुल 78 मुसलमान उम्मीदवार मैदान में थे और इनमें से सिर्फ 24 ही चुनाव जीत पाए। 2019 के लोकसभा चुनावों में राजनीतिक दलों ने 115 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था और 26 ने जीत हासिल की थी। जबकि 2014 में 23 मुस्लिम उम्मीदवार लोकसभा पहुंच पाए थे। 2014 के मुकाबले इस बार मुसलमानों का प्रतिनिधित्व थोड़ा बेहतर कहा जा सकता है लेकिन जानकार कहते हैं कि इसमें और सुधार की गुंजाइश है।
इस बार के आम चुनावों में मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने 35 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जो सभी पार्टियों में सबसे ज्यादा है। इनमें से आधे से ज्यादा (17) उत्तर प्रदेश में थे। इसके अलावा मध्य प्रदेश में चार, बिहार और दिल्ली में तीन-तीन, उत्तराखंड में दो और राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, झारखंड, तेलंगाना और गुजरात में एक-एक उम्मीदवार थे।
बीएसपी के बाद कांग्रेस ने 19 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया, जिसमें सबसे अधिक बंगाल में छह थे। वहीं ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने मुसलमान समुदाय से छह लोगों को टिकट दिया। टीएमसी ने पश्चिम बंगाल में पांच और असम में एक को टिकट दिया।
घटता मुस्लिम प्रतिनिधित्व
समाजवादी पार्टी ने यूपी से तीन मुसलमान उम्मीदवार उतारे, जबकि चौथे को आंध्र प्रदेश से टिकट दिया। लेकिन मुरादाबाद में पार्टी ने पूर्व सांसद एसटी हसन का टिकट काटते हुए हिंदू उम्मीदवार को उनकी जगह उतारा।
तीसरी बार सरकार बनाने जा रहे नरेंद्र मोदी को इस बार गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना होगा क्योंकि उनकी पार्टी के पास बहुमत नहीं है। नीतीश कुमार की जेडीयू और चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी जैसी एनडीए की सहयोगी पार्टियों पर उनकी निर्भरता ज्यादा होगी।
बीजेपी ने 2019 में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था, लेकिन इस बार उसने केरल की मलप्पुरम सीटे से डॉ। अब्दुल सलाम को टिकट दिया था। अब्दुल सलाम इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के मोहम्मद बशीर से चुनाव हार गए।
1.4 अरब वाले देश भारत में मुसलमानों की आबादी करीब 20 करोड़ है और ऐसे में विश्लेषक कहते हैं कि लोकसभा की 543 सीटों में मौजूदा मुसलमान सांसदों का प्रतिशत कम है। राजनीति शास्त्र की प्रोफेसर जोया हसन डीडब्ल्यू से कहती हैं कि गैर बीजेपी सेकुलर पार्टियां मुसलमानों को कम टिकट देती हैं, उन्हें और टिकट देना चाहिए था। उन्होंने कहा, ‘जो हालात है उन्होंने (पार्टियों ने) यह सोचा कि अगर मुसलमानों को ज्यादा टिकट देंगे तो शायद और ज्यादा ध्रुवीकरण होगा और उससे उनका नुकसान होगा।’
‘मुसलमानों की चिंताओं का ध्यान रखना होगा’
जोया हसन आगे कहती हैं, ‘इंडिया गठबंधन को 232 सीटें मिली हैं। चाहे उन्होंने उतने टिकट ना दिए हों, लेकिन उनको मुसलमानों की चिंताओं को ध्यान में रखना होगा। उन चिंताओं को महत्व देना चाहिए, यह जरूरी है। हमें यह लगता है कि लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व बहुत महत्वपूर्ण है।’
कांग्रेस के प्रवक्ता पंकज श्रीवास्तव ने विधायिका में मुसलमानों की भागीदारी कम होने पर चिंता तो जताई लेकिन साथ ही कहा कि कांग्रेस इतिहास में पहली बार 400 से कम सीटों पर चुनाव लड़ी है।
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, ‘यह बड़ी चिंता की बात है कि मुसलमानों का विधायिका में प्रतिनिधित्व घट रहा है, तो यह हवा में नहीं हो रहा है। इस देश में एक ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसने मुसलमानों के खिलाफ युद्ध जैसा छेड़ रखा है। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने जैसा युद्ध छेड़ रखा है।’
कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को कम टिकट दिए जाने पर श्रीवास्तव कहते हैं, ‘इस लड़ाई में रणनीतिक तौर पर आपको कोई कमी दिख रही हो कि प्रतिनिधित्व नहीं है, लेकिन इस लड़ाई के जरिए ही ऐसी राजनीति को परास्त किया जा रहा है जो मुसलमानों को हर लिहाज से दोयम दर्जे का नागरिक बना रही है।’
‘नफरत की राजनीति हार गई’
जोया हसन कहती हैं कि इस चुनाव में बीजेपी की सांप्रदायिक लामबंदी की रणनीति की हार हुई है और यह बहुत बड़ी बात है। वो कहती हैं, ‘यह शिकस्त हिन्दी पट्टी में खास तौर से यूपी में हुई। अगर ऐसा ही होता है तो आगे हालात बदलेंगे, जिस तरह से चुनाव में मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने वाली जुबान का इस्तेमाल हुआ उसको लोगों ने एक तरह से नकारा है। इस चुनाव की कहानी यूपी है और यूपी में अयोध्या है, जहां बीजेपी हार गई।’
हसन कहती हैं, ‘हमें हिंदुओं को भी इसके लिए श्रेय देना चाहिए। आप हिंदुओं को देखिए कि उन्होंने इनको शिकस्त दी है। मुसलमानों ने इनको वोट नहीं दिया है, उन्होंने इंडिया गठबंधन को वोट दिया जिसका उसे फायदा हुआ है। हिंदुओं ने इनके खिलाफ स्टैंड लिया है, सबसे बड़ी बात है कि यूपी में इनके खिलाफ खड़े हुए हैं, जो इनका सबसे बड़ा गढ़ है।’
सिर्फ 24 मुसलमान सांसद
इस बार जो मुसलमान उम्मीदवार चुनाव जीते हैं उनमें से कुछ हैं-असम की धुबरी सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार रकीबुल हसन, पश्चिम बंगाल की बहरामपुर लोकसभा सीट से पूर्व क्रिकेटर यूसुफ पठान (जिन्होंने कांग्रेस के दिग्गज नेता अधीर रंजन चौधरी को हराया), यूपी के सहारनपुर से कांग्रेस उम्मीदवार इमरान मसूद।
यूपी के कैराना से समाजवादी पार्टी की इकरा हसन ने जीत हासिल की। गाजीपुर से समाजवादी पार्टी के अफजल अंसारी ने जीत दर्ज की। रामपुर सीट से समाजवादी पार्टी के मोहिबुल्लाह, संभल से जिया उर रहमान। बिहार के कटिहार से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तारिक अनवर ने जीत दर्ज की। दो निर्दलीय मुसलमान उम्मीदवारों ने भी इस चुनाव में जीत का स्वाद चखा, उनमें हैं-बारामूला से इंजीनियर राशिद और लद्दाख से मोहम्मद हनीफा।
जब मुस्लिम उम्मीदवारों को पर्याप्त टिकट न देने के बारे में बात की जाती है तो ‘जीतने की क्षमता’ का तर्क दिया जाता है। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार मीनू जैन डीडब्ल्यू से कहती हैं, ‘मायावती ने तो इस बार काफी मुसलमान उम्मीदवार मैदान में उतारे चाहे जो भी उनका उद्देश्य रहा होगा, बीजेपी का सवाल ही नहीं बनता है। टिकट नहीं दिए जाने के आड़े हिंदुत्व की राजनीति आती है। पिछली लोकसभा के दौरान जिस उग्रता से हिंदुत्वादी राजनीति हुई तो उन्होंने (बीजेपी) साफ तौर से बता दिया कि वो इस एजेंडे पर है।’
मुसलमानों को कम टिकट क्यों
कम टिकट दिए जाने के सवाल पर जैन कहती हैं, ‘शायद पार्टी को जितना ज्यादा टिकट देना चाहिए था या दे सकती थी या देना चाहती थी उससे वह रुकी, जीतने की क्षमता का सवाल हो गया। मुझे ऐसा लगता है कि उन्होंने सोचा होगा कि हमें यहां से उम्मीदवार नहीं उतारना चाहिए। नफरत का जो एजेंडा चल रहा है, सांप्रदायिकता का जो एजेंडा चल रहा है, यह उसका नतीजा है कि मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम हुआ है।’
जैन कहती हैं कि अगर नीतीश कुमार और चंद्रबाबू के साथ मिलकर केंद्र में बीजेपी की सरकार बन जाती है तो माहौल बदल जाएगा। वह यह भी कहती हैं, ‘नफरत का खेल जो खुले तौर पर होता था वह नहीं होगा, हालांकि व्हाट्सएप पर नफरत वाले मैसेज फैलते रहेंगे।’ उनके मुताबिक चंद्रबाबू और नीतीश का बहुत बड़ा वोटबैंक मुसलमानों का है और दोनों किसी तरह का कोई समझौता नहीं करेंगे।
जैन के मुताबिक, ‘चंद्रबाबू और नीतीश की राजनीति मोदी के बिल्कुल विपरीत है। दोनों सामाजिक न्याय की बात करते हैं, दोनों नेताओं के एजेंडे अलग हैं, मोदी की राजनीति इसके उलट हैं। मोदी मुसलमानों के खिलाफ बहुत अपमानजनक बयान दे चुके हैं, मुसलमानों ने इस चुनाव में बहुत सब्र दिखाया है, अन्यथा इस देश में कुछ भी हो सकता था।’
(dw.comhi)
-संदीप साहू
ओडिशा में चुनाव के नतीजे ने पूरे देश को अचंभे में डाल दिया है. लगातार पांच चुनाव जीतने वाली बीजू जनता दल (बीजेडी) चुनाव हार जाएगी और राज्य में बीजेपी की सरकार बनेगी, इसका अंदाज़ा न प्रेक्षकों को था और न ही चुनावी सर्वे करने वाले संस्थाओं को.
हालांकि राज्य में एक साथ हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बीजेपी 2019 के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन करेगी यह साफ़ नजर आ रहा था.
ओडिशा की राजनीति पर नज़र रखने और इसे समझने वाले सभी का यह मानना था कि लोकसभा चुनाव में पार्टी बेहतरीन प्रदर्शन करेगी. लेकिन विधानसभा चुनाव में भी बीजेडी हार जाएगी यह किसी ने नहीं सोचा था.
सभी का अंदाज़ा यही था कि पिछली बार की तरह इस बार भी राज्य में "स्प्लिट वोटिंग" होगी, जिसके तहत लोकसभा चुनाव में बीजेपी अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी और विधानसभा चुनाव में बीजेडी की जीत होगी, भले ही पिछली बार के मुक़ाबले पार्टी का वोट शेयर और सीटों की संख्या में गिरावट आए.
सब यही मानकर चल रहे थे कि नवीन पटनायक लगातार छठी बार सरकार बनाएंगे और अगले ढाई महीनों में सिक्किम के पूर्व मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग का रिकॉर्ड तोड़कर देश में सबसे अधिक समय तक सत्ता में बने रहने वाले मुख्यमंत्री बन जाएंगे.
लेकिन मंगलवार को जब चुनाव के परिणाम आए, तो सब दंग रह गए. बीजेपी ने न केवल राज्य की 21 में से 20 लोकसभा सीटें जीतीं, बल्कि विधानसभा चुनाव में भी बीजेडी को पछाड़ कर राज्य के 147 में से 78 सीट ले गई, जो सरकार बनाने के लिए आवश्यक 74 सीटों से चार सीट अधिक थी.
बीजेडी को केवल 51 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को 14, निर्दलीय को तीन और सीपीएम को एक.
पिछली बार लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीतने वाली बीजेडी का इस बार पूरी तरह से पत्ता साफ़ हो गया जबकि पिछली बार की तरह इस बार भी कांग्रेस के सप्तगिरी उलाका कोरापुट लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीत गए.
न केवल नवीन की पार्टी चुनाव बुरी तरह से हारी, बल्कि खुद नवीन को भी अपने 27 साल के लंबे और अविश्वसनीय रूप से सफल राजनीतिक करियर में पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा.
पिछली बार की तरह इस बार भी वे दो सीटों से चुनाव लड़ रहे थे. अपने पारंपरिक चुनाव क्षेत्र हिंजलि से जहां वे केवल 4,636 वोटों से जीत गए, वही कांटाबांजी सीट पर उन्हें बीजेपी के लक्ष्मण बाग ने 16,344 वोटों से हरा दिया.
पांडियन के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा
आख़िर क्या वजह है कि लगातार पांच बार भारी बहुमत से जीतने वाले राज्य के सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, जो कभी कोई चुनाव नहीं हारे, इस बार मात खा गए? प्रेक्षकों की मानें तो उनकी हार का सबसे बड़ा कारण था आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में प्रवेश करने वाले उनके पूर्व निजी सचिव वीके पांडियन को पार्टी की कमान पूरी तरह थमा देना.
पांडियन जो पिछले अक्टूबर तक उनके निजी सचिव थे, वो नौकरी से इस्तीफ़ा देकर बीजेडी में शामिल हो गए थे. चुनाव के दौरान उन्होंने न केवल प्रत्याशियों का चयन किया, बल्कि पार्टी की ओर से प्रचार का पूरा ज़िम्मा अपने हाथों में लिया.
पार्टी के स्टार प्रचारकों की सूची में 40 नाम थे. लेकिन लगभग 40 दिनों के प्रचार में केवल पांडियन और कभी कभार नवीन के अलावा पार्टी के किसी और नेता को कहीं मंच पर या रोड शो के दौरान देखा नहीं गया.
केवल चुनाव के दौरान ही नहीं, पिछले कई महीनों से न बीजेडी का कोई नेता, मंत्री या विधायक न कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी मुख्यमंत्री और बीजेडी सुप्रीमो नवीन पटनायक से मिल पाया या उनके सामने अपनी बात रख पाया.
पार्टी और सरकार के सारे फ़ैसले पांडियन ही लिया करते रहे. यहां तक कि मुख्यमंत्री के पास पहुंचने वाली फ़ाइलों पर भी उनके डिजिटल हस्ताक्षर का इस्तेमाल किया गया जबकि खुद नवीन लोगों की नज़र से ओझल हो गए.
पिछले दो तीन सालों से न वे "लोक सेवा भवन" (राज्य सचिवालय) जाते थे न विधानसभा. यही कारण है नवीन के स्वास्थ्य तथा सरकार और पार्टी में उनकी घटती और पांडियन की बढ़ती भूमिका को लेकर अफवाहों का बाज़ार गर्म रहा और पार्टी को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा.
सरकार और सत्तारूढ़ दल में पांडियन के बढ़ते हुए प्रभाव के खिलाफ लोगों में रोष को संज्ञान में लेते हुए बीजेपी ने बहुत ही चतुराई से "ओड़िया अस्मिता" को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया.
प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी के सभी नेताओं ने बार बार इस बात को दोहराया कि ओडिशा के साढ़े चार करोड़ लोगों को अपना "परिवार" बताने वाले नवीन ने अपने राज्य और पार्टी के सभी नेताओं को नज़रअंदाज़ कर तमिलनाडु में जन्मे एक आदमी को सत्ता संभालने का ज़िम्मा सौंप दिया.
और यह बात लोगों में काम कर गई क्योंकि वे देख रहे थे की पार्टी और सरकार दोनों में पांडियन का ही बोलबाला था और पार्टी के मंत्री, विधायक तथा अन्य सभी सरकारी अफसर पूरी तरह से नाकाम कर दिए गए थे.
लोगों में पांडियन की भूमिका को लेकर ग़ुस्से को आखिरकार समझकर नवीन ने चौथे चरण के मतदान से ठीक पहले एएनआई को दिए गए एक इंटरव्यू में स्पष्ट किया की पांडियन उनके "उत्तराधिकारी" नहीं हैं.
उन्होंने अपने स्वास्थ्य के बारे में सफाई दी और कहा कि वे पूरी तरह से स्वस्थ हैं लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी.
'ओड़िया अस्मिता'
बीजेपी ने एक सोची, समझी रणनीति के तहत इस बार "ओड़िया अस्मिता" को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया.
हर बीजेपी नेता द्वारा हर चुनावी रैली में राज्य के शासन में "तमिल बाबू" के बोलबाला पर निशाना साधा जाना इसी रणनीति का हिस्सा था. लेकिन ओड़िया अस्मिता के मुद्दे पर बीजेपी का वार केवल पांडियन पर आक्रमण तक ही सीमित नहीं रहा. 24 साल और पांच चुनाव के बाद पहली बार मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का ओड़िया बोल न पाना भी एक चुनावी मुद्दा बन गया.
यही नहीं, कंधमाल में एक चुनावी रैली के दौरान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवीन के दुखती रग पर हाथ रखते हुए उन्हें बिना किसी कागज़ के सहारे राज्य के 30 ज़िलों के नाम और उनके सदर गिनाने की चुनौती दे डाली.
कुछ ही देर बाद बलांगीर में एक और रैली में उन्होंने नवीन को कांटाबांजी चुनाव क्षेत्र, जहां से वो चुनाव लड़ रहे थे, के 10 गांवों के नाम गिनाने की चुनौती दी.
अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले बारीपदा में एक आम सभा को संबोधित करते हुए तो मोदी ने राजनैतिक शिष्टाचार के सारी हदें पार कर दीं. नवीन के गिरते स्वास्थ्य का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि राज्य में बीजेपी की सरकार बनने पर एक जांच कमिटी बनाई जाएगी जो इस बात की तहकीकात करेगी कि इसके पीछे कोई साज़िश तो नहीं है. यह साफ था कि मोदी का आशय तमिलनाडु में जयललिता और शशिकला प्रकरण से था.
चुनाव से पहले नवीन को अपने "मित्र" बताने वाले और हमेशा उनकी प्रशंसा करने वाले मोदी के इस निर्मम प्रहार ने सभी को आश्चर्य कर दिया क्योंकि दोनों नेताओं में बहुत ही मधुर संपर्क रहे हैं.
पिछले पांच साल में नवीन और उनकी पार्टी ने मोदी सरकार को हर मुद्दे पर बिना शर्त समर्थन दिया है. मार्च के महीने में दोनों पार्टियों के बीच गठबंधन की बात भी चल रही थी जो अंत में सफल नहीं हुई.
चुनाव के दौरान एएनआई को दिए गए एक इंटरव्यू में नवीन के ऊपर इस करारे आक्रमण के बारे में पूछे जाने पर मोदी ने कहा कि ओडिशा के स्वार्थ की खातिर वे नवीन के साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों की "बलि" चढ़ाने के लिए तैयार हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी के इस व्यक्तिगत आक्षेप ने लोगों को नवीन के स्वास्थ्य, ओडिशा के प्रति उनकी निष्ठा और राज्य के बारे में उनके ज्ञान के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया.
रत्न भंडार की चाबी
बीजेपी की "ओड़िया अस्मिता" रणनीति की एक और महत्वपूर्ण कड़ी थी महाप्रभु जगन्नाथ के मंदिर के रत्न भंडार की चाबी जो छह साल पहले खो गई थी.
मोदी और बीजेपी के सभी नेताओं ने हर चुनावी सभा में यह मुद्दा उठाकर नवीन सरकार को इस संवेदनशील मुद्दे पर घेरा. मोदी ने तो एक सभा में यहां तक कह दिया कि "कहीं ये चाबी तमिलनाडु तो नहीं चली गई ?" जबकि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा की उनकी पार्टी की सरकार बनी तो रत्न भंडार की चाबियां "पाताल" से भी ढूंढ कर निकालेगी.
रत्न भंडार के मुद्दे पर बीजेपी नेताओं द्वारा उठाए गए सवालों का बीजेडी के पास कोई उत्तर नहीं था. पिछले छह सालों में सरकार ने न केवल चाबी ढूंढने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि इस पर बनाई गई जांच कमीशन के रिपोर्ट को भी सार्वजनिक नहीं किया.
हाई कोर्ट में इस मुद्दे पर दायर की गई याचिका को सरकार लंबित करती आई है. ग़ौरतलब है कि मंदिर क़ानून के तहत हर तीन साल में एक बार रत्न भंडार के जवाहरात की गिनती होना लाज़िमी है. लेकिन 1978 के बाद रत्न भंडार कभी खोला नहीं गया. इससे लोगों में यह धारणा बनी है कि रत्न भंडार के हीरे, जवाहरात में से शायद कुछ गायब कर दिए गए हैं, जिसे सरकार छुपाने की कोशिश कर रही है.
सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी
पांडियन के अलावा बीजेजी की हार का एक और प्रमुख कारण यह भी था कि लगातार 24 साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी के खिलाफ कुछ "एंटी इनकंबेंसी" भी थी जिसका पूरा फायदा मुख्य विरोधी दल के रूप में बीजेपी को मिला.
लगातार पांच बार और भारी बहुमत के साथ सत्ता में रहने के बाद भी नवीन सरकार कई इलाकों में पीने का पानी, सड़कें और स्वास्थ्य सेवा जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहय्या नहीं कर पाई, स्कूलों में शिक्षक और सरकारी अस्पतालों में डाक्टर तैनात नहीं कर पाई, इसको लेकर लोगों में फैला असंतोष आखिरकार बीजेडी के लिए घातक साबित हुआ.
कई स्तर पर फैले व्यापक भ्रष्टाचार भी लोगों के रोष का एक बड़ा कारण बना. वैसे नवीन पटनायक सरकार ने हर वर्ग और आयु के लोगों के लिए कोई न कोई मुफ्त योजना बना रखी थी, जो बीजेडी को लगातार पांच बार चुनावी जीत दिलाती दिख रही थी. लेकिन इनमें से किसी एक भी योजना का लाभ कथित तौर पर स्थानीय बीजेडी कार्यकर्ता और सरकारी अफसरों को घुस दिए बिना लोगों को नहीं मिला, जिसका चुनाव पर असर पड़ा.
महिलाओं का घटता समर्थन
महिलाओं को नवीन का सबसे बड़ा वोट बैंक माना जाता है. खासकर उनकी सरकार द्वारा 2001 में शुरू की गई "मिशन शक्ति" कार्यक्रम के अंतर्गत संगठित लगभग 70 लाख महिलाओं का भरपूर समर्थन को उनकी लगातार जीत का एक बड़ा कारण माना जाता है.
लेकिन इस बार चुनाव के परिणाम से यह स्पष्ट है कि इन महिलाओं का समर्थन भी उन्हें पूरी तरह से नहीं मिला.
बीजेपी का फ़ोकस
इस बार बीजेपी ने ओडिशा पर जितना ज़ोर लगाया वह पहले कभी नहीं देखा गया.
खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार बार राज्य का दौरा किया और इस दौरान 10 रैलियां और दो रोड शो किए जबकि अमित शाह, जेपी नड्डा समेत पार्टी के सभी चोटी के नेता बार बार ओडिशा आए और जमकर प्रचार किया.
उत्तर प्रदेश, असम और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों ने भी राज्य के कई दौरे किए जबकि भूपेंद्र यादव और कुछ अन्य नेता पूरे प्रचार के दौरान यहां बने रहे और प्रचार अभियान का संचालन किया.
केंद्र मंत्री भूपेंद्र यादव तो पूरे चुनाव के दौरान यहीं बने रहे और प्रचार अभियान का संचालन किया.
बीजेपी के बढ़ते क़दम
लेकिन बीजेपी को ओडिशा में यह अपार सफलता केवल पिछले डेढ़ महीने के प्रचार की वजह से नहीं मिली. सन 2009 में बीजेडी के साथ गठबंधन टूटने के बाद पार्टी राज्य में अपना जनाधार बढ़ाने की लगातार कोशिश करती रही है.
2009 के चुनाव के ठीक पहले नवीन ने जब अप्रत्याशित रूप से अपनी ओर से गठबंधन तोड़ दिया, तो बीजेपी सकते में आ गई. 2004 चुनाव में 7 लोकसभा सीटें और 32 विधानसभा सीटें जीतने वाली बीजेपी 2009 में एक भी लोकसभा सीट जीत नहीं पाई जबकि विधानसभा में उसके विधायकों की संख्या केवल छह रह गई.
पार्टी का वोट शेयर लोकसभा चुनाव में क़रीब 13 % और विधानसभा चुनाव में लगभग 15% था.
2014 के चुनाव में बीजेपी को एक लोकसभा सीट और 10 विधानसभा सीटें मिलीं. पार्टी का वोट शेयर 22 फ़ीसदी और 18 फ़ीसदी रहा.
2019 में बीजेपी को 8 लोकसभा सीटें और 23 विधानसभा सीटें मिलीं. लेकिन गौर करने वाली बात यह थी कि पिछले (2014) चुनाव के मुकाबले इस बार पार्टी के वोट शेयर में भारी इजाफा हुआ.
लोकसभा में यह शेयर 38.4% पर जा पहुंचा था जो बीजेडी के 42.6% से कुछ ही कम था. हालांकि विधानसभा चुनाव में बीजेपी को क़रीब 32.49% वोट मिले जो बीजेडी के 44.71% से काफी नीचे थी.
लेकिन इस बार पार्टी ने एक लंबी छलांग लगाते हुए लोकसभा चुनाव में अपने वोट शेयर को 45.34% तक पहुंचाया जबकि बीजेडी का शेयर सिमट कर केवल 37.53% रह गई. हालांकि विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियों के बीच कांटे की टक्कर था, लेकिन सीटें बीजेपी को अधिक मिलीं. इस बार बीजेपी का वोट शेयर 40.07% रहा जबकि बीजेडी का 40.22%.
बीजेपी की पहली सरकार
अब जबकि राज्य में बीजेपी की पहली सरकार बनना तय है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इसे लेकर चर्चाएं जोरों पर हैं. हालांकि कुछ महीने पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री के चयन में बीजेपी आलाकमान ने सभी को चकित कर दिया था. लेकिन इसके बावजूद ओडिशा में नए मुख्यमंत्री को लेकर अटकलबाज़ी थम नहीं रही.
सबसे अधिक चर्चा में हैं मोदी के चहेते और देश के महालेखाकार (सीएजी) गिरीश मुर्मू, जो राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तरह मयूरभंज ज़िले से आते हैं.
इनके अलावा केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान, सांसद वैजयंत पांडा और राज्य बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व सांसद सुरेश पुजारी के नाम भी चर्चा में हैं. पुजारी इस बार ब्रजराजनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनकर आए हैं.
अगर पार्टी चुने गए विधायकों में से किसी को मुख्यमंत्री बनाती है तो पुजारी ही सबसे प्रबल दावेदार माने जा रहे हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान ही यह घोषणा कर दी थी कि जून 10 को राज्य में बीजेपी सरकार का शपथ ग्रहण उत्सव होगा. (bbc.com/hindi)
-अनिल त्रिवेदी
दो हजार चौबीस के लोकसभा चुनाव परिणाम में जो जनादेश आया है वह भारत के आम मतदाताओं की अनोखी दार्शनिक अभिव्यक्ति है। भारत के राजनीतिक दलों और भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश भी इस जनादेश में उजागर हुआ है। चुनाव परिणाम से देश में जो सरकार बनेगी उसके लिए भी और देश के सभी राजनीतिक दलों और विचारधाराओं के लिए भी एक स्पष्ट संदेश हैं। यह संदेश हम सबके लिए है चाहे वह सरकार बनाये या विपक्ष में रहे।यह संदेश भारतीय दर्शन, जीवन पद्धति और सामाजिक जीवन की सनातन मर्यादा का मूल बिंदु है कि ‘भारत सबका है और सब भारत के है।’ भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की कोख से निकले भारतीय संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग शब्दों का स्पष्ट संकेत है कि भारतीय जनता की जीवन शैली का सार सबको साथ लेकर आपसी मेलजोल से शांतिमय जीवन जीते रहना ही भारतीय लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना या सनातन विरासत हैं। भारतीय राजनीति में जितनी भी राजनैतिक विचारधाराएं हैं सबको अपनी राजनीतिक सामाजिक धार्मिक, आध्यात्मिक और आर्थिक समझ को अपने अपने तरीके से भारतीय मतदाता या जनता के समक्ष खुलकर रखने का पूरा पूरा अवसर और अधिकार है। भारतीय राजनीति में खासकर आम चुनावों के नतीजे अपने आप में मौलिक दिशा निर्देश के रूप में भारतीय राजनीति को निरंतर मिलते रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र एक ऐसा लोकतंत्र है जिसमें प्रत्येक आम चुनाव में मतदाताओं ने राजनीतिक दलों को अपने जनादेश में भारतीय मतदाता की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता के स्पष्ट संकेत दिए हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि आम चुनावों में भारतीय मतदाता के जनादेश ने भारत लोकतंत्र में एकाधिकारवादी और मनमानी कार्यशैली को सबक सिखाया है। भारतीय लोकतंत्र में लोकसमझ यह भी है कि आप एक निश्चित संविधान सम्मत कार्यकाल तक कार्य या दायित्वों को निर्वहन करने के लिए चुने गए हैं। चुने गए जनप्रतिनिधि और राजनीतिक दलों को मतों के समर्थन से यह भ्रम हो सकता है कि हम सर्वशक्तिमान और अपरिहार्य है। पर भारतीय मतदाता अपने जनादेश को लेकर आजादी के बाद से प्रत्येक आम चुनाव में एक दम स्पष्ट संकेत देने से पीछे नहीं रहता है। राजनीतिक दलों के समर्थक, कार्यकर्ता और कर्ताधर्ता अपनी विवेकशीलता को अक्सर त्याग दिया करते है पर भारतीय मतदाता एक समान सोच विचार और सामाजिक धार्मिक आर्थिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि का न होते हुए भी लोकतंत्र और संविधान की तेजस्विता को लेकर चैतन्य बना रहता है। साथ ही साथ अपनी निर्भीक और लोकतांत्रिक भूमिका को कभी नहीं भूलता है।
2019 के लोकसभा चुनाव के परिणामों से जो राजनीतिक घटना चक्र भारतीय राजनीति में चला, उसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में जो असंतुलन उभरा उसका पटाक्षेप 2024 के जनादेश में स्पष्ट दिखाई देता है। 2024 के लोकसभा के आम चुनाव एक अजीब असमंजस, भयग्रस्त मानसिक तनाव और आशा निराशा का राजनीतिक वातावरण होने के बाद भी शांतिपूर्ण तरीके से आम चुनाव सम्पन्न हुए यह भारतीय लोकतंत्र की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और परिपक्वता का जीवंत उदाहरण है। भारतीय राजनीति और राजनेता निरंतर अकारण उत्तेजित होते रहते हैं उनमें शांतचित्तता का निरन्तर अभाव बना रहता है। पर इसके एक दम उलट भारतीय मतदाता धीरज के साथ मौन रहकर हमेशा चुनाव परिणाम में ही बोलता है। भारतीय मतदाता भारतीय राजनीति के प्रत्येक राजनीतिक दल को चुनाव में जिताता भी और हराता भी है। भारतीय मतदाता के जनादेश की एक अनोखी विशेषता यह भी है कि उसने भारतीय राजनीति के प्रत्येक राजनीतिक दल या विचार को तबियत से हराया और जिताया है। भारतीय राजनीति में मतदाताओं के जनादेश में यह भी हमेशा निहित रहता है की चुनावी हार जीत पहली और अंतिम नहीं है। लोकतंत्र तो तात्कालिक हार जीत की राजनीति का अंत नहीं अंतहीन लोक अभिव्यक्ति का निरन्तर और नूतन परिवर्तन धर्मी सिलसिला हैं।
राजनीति में राजनीतिक दल केवल अपनी पतंग को ही निरंतर ऊंची उड़ान भरते रहने के आदी हो चुके हैं। पर भारतीय मतदाता किसी को भी आजीवन पतंगबाजी का एकाधिकार नहीं देता। भारतीय आम चुनावों के परिणामों ने छोटे से छोटे राजनीतिक समूहों से लेकर अपने आप को अजेय या अपरिहार्य मानने वाले राजनीतिक समूहों को अपने जनादेश से एक संदेश जरूर दिया है कि लोकतंत्र केवल अपनी अकेली राजनीतिक जमात का एकाधिकार नहीं है। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन और इंडिया गठबंधन के रूप में दो भारतीय राजनीति के गठबंधनों को भारतीय लोकतंत्र में अपनी लोक कल्याणकारी भूमिका को निभाते हुए भारतीय लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने की भूमिका में खड़ा कर दिया है। पचहत्तर साल की भारतीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य की राजनीति में भारतीय मतदाता ने सत्तारूढ़ और विपक्षी राजनीतिक दलों को भारत के एक अरब पचास करोड़ नागरिकों के सपनों में रंग भरने की राजनीति खड़ी करने का जनादेश दिया है। अपने निजी और अपनी राजनीतिक जमातों के सपनों में रंग भरने के लिए नहीं। सबको इज्जत सबको काम देना ही 2024 के आम चुनाव में भारतीय मतदाता का स्पष्ट जनादेश है। जनादेश के इस अर्थ को समझकर पक्ष-विपक्ष दोनों को अपनी-अपनी राजनीतिक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए। यही लोकतंत्रात्मक राजनीति का मूल है।
-चंदन जजवाड़े
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव अपनी चुनावी सभाओं में ‘ए टू ज़ेड’ की बात कर रहे थे.
तेजस्वी यादव अपने पिता के ‘एम-वाय’ (माय) यानी मुस्लिम यादव समीकरण से बाहर निकलकर हर वर्ग के समर्थन की तलाश में थे.
तेजस्वी अपनी पार्टी को ‘माय बाप’ (बीएएपी) यानी बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी (महिलाएँ) और पुअर (ग़रीब) की पार्टी भी बता रहे थे.
आरजेडी ने बड़ी संख्या में कुशवाहा उम्मीदवारों को टिकट देकर नीतीश के ‘लव कुश’ वोट बैंक में भी सेंध लगाने की कोशिश की.
बिहार में तेजस्वी ने महंगाई और रोज़गार को बड़ा चुनावी मुद्दा बताया. वो अपने भाषण में अक्सर अपनी पार्टी के लिए वोट मांगते हुए आवाज़ लगा रहे थे, ‘चुपचाप लालटेन छाप’.
रोज़गार और महंगाई के अलावा जातिगत जनगणना, संविधान और आरक्षण जैसे मुद्दे को विपक्षी दलों ने देशभर में बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश की थी. चुनाव प्रचार की शुरुआत में ही तेजस्वी यादव ने इन मुद्दों को उठाया था.
दर्जनों चुनावी सभाओं के बाद भी इस लोकसभा चुनाव में तेजस्वी यादव को कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिल पाई है जबकि बिहार के ही पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव बीजेपी को बड़ा झटका देने में कामयाब रहे हैं.
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने यूपी में 62 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और 37 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं कांग्रेस को 17 में से छह सीटों पर जीत मिली. जबकि बिहार में तेजस्वी यादव ऐसा नहीं कर पाए.
40 लोकसभा सीटों वाले बिहार के चुनावी नतीजों को देखें तो विपक्षी दलों को यहाँ केवल 9 सीटों पर जीत मिली है, जबकि पूर्णिया सीट से पप्पू यादव निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीते हैं.
पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर के मुताबिक़ नीतीश कुमार बीजेपी के साथ रहकर भी बीजेपी से अलग दिखते हैं. नीतीश अपनी समाजवादी और सेक्युलर छवि बनाकर रखने में कामयाब रहे हैं.
डीएम दिवाकर कहते हैं, "बिहार में तेजस्वी के कमज़ोर प्रदर्शन के पीछे पहली वजह नीतीश कुमार की ईबीसी और महिला वोट बैंक पर पकड़ दिखती है. वो ऐसी छवि बनाने में सफल रहे हैं कि किसी के साथ भी रहकर बिहार का विकास कर सकते हैं. "
विपक्ष का मोर्चा
बिहार में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने विपक्षी गठबंधन का मोर्चा संभाला था और अकेले दम पर पूरे विपक्ष के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे.
तेजस्वी यादव ने लोकसभा चुनावों के दौरान अंतिम समय में वीआईपी के मुकेश सहनी को भी इंडिया गठबंधन से जोड़ा था. सहनी समुदाय के वोटरों को जोड़ने के लिए तेजस्वी ने आरजेडी के कोटे की तीन लोकसभा सीटों पर मुकेश सहनी को भी दे दिया था.
उसके बाद ये दोनों नेता एक साथ चुनावी मंच पर नज़र आ रहे थे. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि मुकेश सहनी के साथ समझौता तेजस्वी के लिए बहुत फ़ायदे वाला साबित नहीं हुआ.
सहनी न तो अपने उम्मीदवारों को जिता पाए और न ही अपने प्रभाव वाले इलाक़ों में विपक्ष को बड़ा लाभ दिला सके.
लोकसभा चुनावों की घोषणा के पहले नीतीश के महागठबंधन छोड़ने के बाद भी तेजस्वी यादव ने राज्यभर की यात्रा की थी.
उनकी सभाओं में युवाओं की बड़ी भीड़ भी दिखती थी. इसके बावजूद भी तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को बिहार में बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिल पाई.
हालाँकि साल 2019 के मुक़ाबले इस बार के चुनाव में विपक्ष की जीत बड़ी नज़र आती है. साल 2019 में एनडीए ने एकतरफ़ा जीत हासिल की थी और राज्य की 40 में से 39 सीटों पर कब्ज़ा किया था.
साल 2019 के चुनावों में बीजेपी को राज्य में 24 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे और उसने 17 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि उस साल जेडीयू ने भी 22 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट पाए थे और 16 सीटों पर कब्ज़ा किया था.
क्या कहते हैं आँकड़े
साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार में राष्ट्रीय जनता दल कोई सीट नहीं जीत पाई थी और उसे महज़ 15% के क़रीब वोट मिले थे.
लेकिन इस बार के चुनावों में आरजेडी ने केवल चार सीटें जीतनें में सफल रही है बल्कि उसे 22% से ज़्यादा वोट भी मिला है.
हालाँकि तेजस्वी यादव इस वोट को सीटों में बदलने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो सके. बिहार की 40 लोकसभा सीटों में आरजेडी ने सबसे ज़्यादा 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था.
यही नहीं तेजस्वी यादव के नेतृत्व में 9 सीटों पर चुनाव लड़कर काँग्रेस भी 3 सीटें जीतने में कामयाब रही है और सीपीआई(एमएल) तीन सीटों पर चुनाव लड़कर दो सीटों पर कब्ज़ा करने में सफल रही है.
यानी विपक्ष के वोट का जितना फ़ायदा कांग्रेस या सीपीआई (एमएल) को मिला, उतना फ़ायादा तेजस्वी की पार्टी आरजेडी को नहीं मिला.
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, “बिहार में आरजेडी को चार सीटें मिलना भी उसके लिए बड़ी सफलता है क्योंकि उसके पास राज्य में एक भी सीट नहीं थी. आरजेडी राज्य में कुशवाहा वोट को तोड़ने में सफल रही है. गांवों के युवाओं में भी केंद्र सरकार को लेकर गुस्सा था, जिसका फायदा आरजेडी को मिला है.”
साल 2020 में बिहार विधानसभा चुनावों में भी तेजस्वी यादव अपने पिता लालू यादव के बिना चुनाव प्रचार में उतरे थे. उन चुनावों में आरजेडी ने 23 फ़ीसदी वोट के साथ 75 सीटों पर चुनाव जीता था और 243 सीटों की बिहार विधानसभा में आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी.
यहीं से तेजस्वी यादव का राजनीतिक क़द भी बढ़ा था. फिर साल 2022 में बिहार की महागठबंधन सरकार में तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री भी बने थे.
उस सरकार में बिहार में युवाओं को क़रीब चार लाख सरकारी नौकरी देने का श्रेय तेजस्वी और आरजेडी ने ख़ुद को दिया था.
‘अकेले पड़ गए तेजस्वी यादव’
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण का मानना है कि बिहार में विपक्ष के कमज़ोर प्रदर्शन के पीछे तेजस्वी का अकेले पड़ जाना एक वजह है.
चुनाव प्रचार में तेजस्वी यादव को किसी बड़े नेता का साथ नहीं मिला जबकि उत्तर प्रदेश में राहुल और प्रियंका गांधी ने भी जमकर प्रचार किया.
नचिकेता नारायण कहते हैं, “चुनावी माहौल बनाने वाले अरविंद केजरीवाल झारखंड पहुँच गए लेकिन बिहार नहीं आए. बिहार में विपक्षी दलों के बीच सीटों का बँटवारा भी बेहतर हो सकता था. लालू और आरजेडी को इसका भी मूल्यांकन करना होगा कि वो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को दरकिनार नहीं कर सकते.”
बिहार में विपक्षी दलों के बीच सीटों का बँटवारा शुरू से ही सवालों के घेरे में रहा था. इस लिहाज से पूर्णिया सीट की काफ़ी चर्चा हुई थी, जहाँ से कांग्रेस के पप्पू यादव चुनाव लड़ना चाहते थे.
लालू प्रसाद यादव कांग्रेस के लिए यह सीट छोड़ने को तैयार नहीं हुए थे. बाद में पप्पू यादव न केवल इस सीट निर्दलीय चुनाव जीतने में सफल रहे, बल्कि आरजेडी की बीमा भारती अपनी ज़मानत तक नहीं बचा पाईं.
हमने बिहार में कई सीटों पर लालू और आरजेडी के समर्थकों से बात की थी और पाया था कि पूर्णिया से पप्पू यादव और सिवान सीट पर हेना शहाब को लेकर उन्हें आरजेडी से शिकायत थी. यानी इन दो नामों का असर बिहार की कई सीटों पर देखा गया.
वोट बँटने की वजह से आरजेडी न केवल सिवान की सीट हार गई बल्कि उसे शिवहर और सारण की सीट पर भी बहुत कम अंतर से हार का सामना करना पड़ा.
सारण से लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्य चुनाव लड़ रही थीं. उनके सामने बीजेपी के बड़े नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी चुनाव मैदान में थे.
टिकट बँटवारे पर सवाल
साल 2004 में हुए लोकसभा चुनावों में बिहार की 22 सीटों पर आरजेडी ने कब्ज़ा किया था. उस साल कांग्रेस को तीन और एलजेपी को तीन सीटों पर जीत मिली थी.
साल 2009 के लोकसभा चुनावों में लालू और रामविलास कांग्रेस के लिए ज़्यादा सीट छोड़ने को तैयार नहीं थे. इससे बिहार में बीजेपी विरोधी दलों में टूट हुई और लालू की पार्टी केवल चार सीटों पर सिमट गई, जबकि रामविलास पासवान ख़ुद हाजीपुर से चुनाव हार गए.
उसके बाद से ही लालू प्रसाद यादव की आरजेडी बिहार में लोकसभा चुनावों में बड़ी सफलता के इंतज़ार में है.
साल 2014 के चुनावों में भी आरजेडी को महज़ चार सीटों पर जीत मिली थी और पिछले लोकसभा चुनावों में उसका खाता तक नहीं खुल पाया था.
इस बार के चुनाव में भी बिहार में विपक्षी दलों के बीच सीटों के बँटवारे पर शुरू से ही सवाल उठ रहे थे. विपक्षी दलों के बीच सीटों के बँटवारे की आधिकारिक घोषणा के पहले ही आरजेडी ने कई उम्मीदवारों को टिकट भी दे दिया था.
डीएम दिवाकर कहते हैं, “विपक्ष ने उम्मीदवारों के चयन में भी ग़लती की है. मसलन झंझारपुर सीट से विपक्ष के उम्मीदवार सुमन कुमार महासेठ थे, जिनका संबंध आरएसएस से रहा है. इसलिए मुसलमानों ने विपक्ष को वोट नहीं दिया. यहाँ से आरजेडी के विधायक गुलाब यादव बीएसपी से खड़े हो गए और यादवों का वोट भी बँट गया.”
आरजेडी सीटों का बँटवारा और बेहतर तरीक़े से कर सकता था. इस मामले में बड़ा सवाल पूर्णिया सीट को लेकर उठा, जहाँ से चुनाव लड़ने के लिए पूर्व सांसद पप्पू यादव लंबे समय से तैयारी कर रहे थे.
उन्होंने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया था लेकिन आरजेडी पूर्णिया की सीट कांग्रेस के लिए छोड़ने को राज़ी नहीं हुई. आख़िरकार पप्पू यादव ने कांग्रेस से बग़ावत कर निर्दलीय ही इस सीट पर जीत हासिल की.
आरोप यह लगाया जाता है कि कांग्रेस को ऐसी कई सीटों से दूर रखा गया है, जहाँ से वह अच्छा मुक़ाबला कर सकती थी. इस लिहाज से बिहार की वाल्मीकि नगर सीट भी काफ़ी अहम है.
इस सीट पर साल 2020 में हुए लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस के प्रवेश मिश्रा महज़ 20 हज़ार वोट से हारे थे. लेकिन इस बार यह सीट आरजेडी ने अपने पास रख ली और यहाँ उसकी हार भी हुई.
बिहार की मधुबनी सीट भी कांग्रेस को नहीं दी गई. यहाँ से कांग्रेस नेता शकील अहमद आते हैं. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में भी यह सीट कांग्रेस को नहीं मिली थी, तब शक़ील अहमद ने इस सीट से निर्दलीय ही चुनाव लड़ा था और दूसरे नंबर पर रहे थे जबकि आरजेडी समर्थित उम्मीदवार को काफ़ी कम वोट मिले थे. (bbc.com/hindi)
भारतीय जेल में बंद खालिस्तानी समर्थक अमृतपाल सिंह ने पंजाब की खडूर साहिब सीट से लोकसभा चुनाव जीता है. उनके गांव में जश्न का माहौल है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
भारतीय लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसे भी उम्मीदवार जीते हैं जिनपर सरकार की करीब से नजर रहेगी। उनमें शामिल हैं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह के बेटे सरबजीत सिंह खालसा और खालिस्तानी नेता अमृतपाल सिंह।
सरबजीत सिंह खालसा ने पंजाब की फरीदकोट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और उन्होंने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार करमजीत सिंह अनमोल को 70 हजार से अधिक वोटों से हराया।
वहीं ‘वारिस दे पंजाब’ संगठन के नेता और जेल में बंद अमृतपाल सिंह ने निर्दलीय रूप में खडूर साहिब सीट से 1।97 लाख से अधिक वोटों के अंतर से जीत हासिल की। इस सीट पर उन्हें 38।6 फीसदी वोट मिले जबकि दूसरे नंबर पर रहे कांग्रेस के उम्मीदवार कुलबीर सिंह जीरा को 20 फीसदी वोट मिले। अमृतपाल को 4,04,430 वोट मिले, जबकि जीरा को 2,07,310 वोट मिले। जीत का अंतर करीब 1।97 लाख रहा।
अमृतपाल के गांव में खुशी
अमृतपाल के गांव जल्लूपुर खेड़ा में जगह-जगह अमृतपाल सिंह के पोस्टर लगाए हैं। चौक-चौराहों पर अमृतपाल के चेहरे वाले झंडे भी दिखने को मिल जाएंगे। 31 साल के अमृतपाल असम की कड़ी सुरक्षा वाली जेल में बंद हैं।
अमृतपाल को पिछले साल गिरफ्तार किया गया था, जब उन्होंने और उनके सैकड़ों समर्थकों ने एक पुलिस थाने पर हमला कर दिया था। यह हथियारबंद भीड़ अमृतपाल के एक सहयोगी को छुड़वाना चाहती थी।
अमृतपाल सिंह को खालिस्तान समर्थक बताया जाता है और उनपर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) समेत 16 मामले दर्ज हैं।
खालिस्तान आंदोलन पिछले साल कूटनीतिक तूफान के केंद्र में था, जब कनाडा ने भारतीय खुफिया एजेंसी पर एक सिख नेता की हत्या के आरोप लगाए और अमेरिका में एक सिख नेता की हत्या की साजिश नाकाम हो गई। इन दावों को भारत सरकार ने खारिज कर दिया था।
अब जब अमृतपाल चुनाव जीत गए हैं तो उनके गांव में एक समर्थक सरबजीत सिंह ने कहा, ‘जीत से सरकार को संदेश जाता है।’
अमृतपाल के समर्थकों का कहना है कि वह सिख नैतिक मूल्यों को बनाए रखने और पंजाब के युवाओं की प्रमुख समस्याओं जैसे बेरोजगारी, नशीली दवाओं की लत के खिलाफ अभियान चलाते हैं।
42 साल के सरबजीत सिंह पेशे से बिल्डर और गांव के नेता हैं। उन्होंने कहा, ‘पूरे पंजाब में सबसे बड़ी समस्या ड्रग्स की है। मुझे उम्मीद है कि वह जल्द ही जेल से बाहर आएंगे और अपना अभियान फिर से शुरू करेंगे।’
समस्या सुलझाएंगे अमृतपाल?
अमृतपाल की जीत के बाद से ही उनके घर पर बधाई देने वालों का तांता लगा है। लोगों को उम्मीद है कि वह अपने समुदाय की समस्याओं को हल करेंगे। अमृतपाल के पिता तरसेम सिंह ने कहा कि उनका बेटा केवल पंजाब के युवाओं को उनके धर्म में वापस लौटने में मदद करना चाहता था।
63 साल के तरसेम सिंह ने कहा, ‘हमारी युवा पीढ़ी का ध्यान हमारी संस्कृति से भटक रहा है और मेरा बेटा उन्हें वापस लाने की कोशिश कर रहा है।’
अमृतपाल को अलगाववादी कहे जाने पर तरसेम सिंह कहते हैं, ‘उसे सिर्फ इसलिए अलगाववादी और धार्मिक कट्टरपंथी कहा गया क्योंकि वह लोगों के अधिकारों की बात कर रहा था।’
अमृतपाल को पिछले साल गिरफ्तार किया गया था, जब उन्होंने और उनके सैकड़ों समर्थकों ने एक पुलिस थाने पर हमला कर दिया थाअमृतपाल को पिछले साल गिरफ्तार किया गया था, जब उन्होंने और उनके सैकड़ों समर्थकों ने एक पुलिस थाने पर हमला कर दिया था।
बेअंत सिंह के बेटे की जीत
पंजाब की फरीदकोट सीट से इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह के बेटे की जीत हुई है। बेअंत सिंह के बेटे सरबजीत सिंह खालसा ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की है।
इन दोनों की जीत ऐसे मौके पर हुई पर जब ऑपरेशन ब्लू स्टार को हुए 40 साल हो पूरे हो गए हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार की बरसी पर 6 जून को दल खालसा और कुछ सिख संगठनों ने अमृतसर बंद का एलान किया है। इस एलान के बाद अमृतसर पुलिस ने सुरक्षा के कड़े इंतजाम किए हैं।
अमृतपाल की जीत के बाद मंगलवार को उनकी मां बलविंदर कौर ने समर्थन और प्यार के लिए मतदाताओं का शुक्रिया अदा किया। कौर ने पत्रकारों से कहा, ‘हमारी जीत शहीदों को समर्पित है।’
सिख धर्म के वास्ते
अमृतपाल के कुछ समर्थकों ने इस बात पर जोर दिया कि हालांकि उनका समुदाय केंद्र से नाराज था और अमृतपाल इसलिए जीते क्योंकि उन्होंने सिख धर्म और उसके गौरव को बढ़ावा दिया, लेकिन वे अलगाव नहीं चाहते थे।
28 साल के विनाद सिंह ने कहा, ‘यहां (खालिस्तान की) कोई मांग नहीं है। असल मुद्दे कुछ और हैं और सरकार उन्हें सुलझाने के लिए कुछ नहीं कर रही है।’
लेकिन सरबजीत सिंह खालसा अपनी जीत के अलग कारण बता रहे हैं। उन्होंने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, ‘शहीद बेअंत सिंह के बेटे होने के नाते मुझे उनके नाम पर वोट मिला है।’
उन्होंने कहा, ‘मेरी जीत और अमृतपाल की जीत यह संदेश देती है कि अभी भी ऐसे लोग हैं जो सिख मानसिकता और सिख धर्म के लिए लडऩे के लिए मौजूद हैं।’ साथ ही उन्होंने कहा, ‘लेकिन मैं पंजाब में जो भी करूंगा, लोकतांत्रिक तरीके से और कानूनी दायरे में रहकर करूंगा।’
(Dw.com/hi) (एएफपी से जानकारी के साथ)
2014 के लोकसभा चुनाव के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए की कोई अहमियत नहीं थी। यह गठबंधन एक प्रतीक से ज़्यादा नहीं था।
2014 से 2020 के बीच एनडीए के कई अहम साथी अलग भी हुए। इनमें 2020 में शिरोमणि अकाली दल और 2019 में अविभाजित शिव सेना एनडीए से अलग हो गए थे। लेकिन मोदी के तीसरे कार्यकाल में एनडीए अचानक से प्रासंगिक हो गया है। यह प्रासंगिकता बीजेपी की ज़रूरत के कारण बढ़ी है।
यानी एनडीए अब बीजेपी की जरूरत है न कि इसमें शामिल बाक़ी दलों की। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले बिल्कुल उलट स्थिति थी।
जनता दल यूनाइटेड प्रमुख और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अलावा तेलगू देशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू के बिना मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री नहीं बन सकते हैं लेकिन अतीत में ये भी कई बार एनडीए छोड़ चुके हैं।
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि नायडू और नीतीश क्या कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन इंडिया की तरफ भी रुख़ कर सकते हैं?
सरकार बनाने के लिए 272 सीटें चाहिए लेकिन बीजेपी को 240 सीटें ही मिली हैं।
बीजेपी के लिए नायडू और नीतीश अहम हैं। टीडीपी को 16 और जदयू को 12 सीटें मिली हैं और दोनों मिलकर नई सरकार में 28 सीटों का योगदान करेंगे।
नीतीश कुमार और नायडू की पार्टी ने खुलकर कहा है कि वो एनडीए के साथ हैं।
लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि दोनों एनडीए में बेहतर डील और अपनी शर्तों पर रहेंगे। अगर ऐसा नहीं होता है तो नीतीश और नायडू के लिए इंडिया गठबंधन भी कोई अछूत नहीं है।
कांग्रेस ने भी नीतीश और नायडू के लिए अपना दरवाज़ा खुला रखा है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश का कहना है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जनादेश है।
उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘मोदी अब कार्यवाहक प्रधानमंत्री बन चुके हैं। देश ने इनके खिलाफ प्रचंड जनादेश दिया है, लेकिन ये डेमोक्रेसी को डेमो-कुर्सी बनाना चाहते हैं।’
कांग्रेस का इशारा
चुनाव के नतीजे आने के बाद बुधवार को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के आवास पर इंडिया गठबंधन के नेताओं की एक अहम बैठक हुई।
बैठक के बाद मल्लिकार्जुन खडग़े ने कहा कि दो घंटे लंबी चली बैठक में कई सुझाव आए हैं। उन्होंने एक तरह से ये इशारा भी किया कि सही समय आया तो इंडिया गठबंधन सरकार पलटने से नहीं हिचकेगी।
उन्होंने कहा, ‘हम बीजेपी सरकार के विपरीत जनादेश को साकार करने के लिए उचित समय पर उचित कदम उठाएंगे।’
इस बैठक में गठबंधन की 21 पार्टियों के 33 नेता शामिल हुए थे। इन नेताओं का कहना था कि टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू और जदयू नेता नीतीश कुमार के लिए दरवाजे खुले रखे जाएं और गठबंधन सही वक्त और सही मौके का इंतजार करे।
अंग्रेजी अखबार द हिंदू ने लिखा है कि इंडिया गठबंधन के नेताओं में इस बात को लेकर भी सहमति बनी कि बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ संसद में विश्वास प्रस्ताव लाने को लेकर गठबंधन के नेता सतर्क रहेंगे क्योंकि ये उनके लिए नए रास्ते खोल सकता है।
सूत्रों के हवाले से अखबार ने ये भी लिखा है कि समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा है कि इंडिया गठबंधन ‘ब्रैंड मोदी’ को खत्म करने में सफल रहा है।
वहीं इन सबमें तृणमूल कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी एकमात्र नेता थे, जिनका दावा था कि चुनाव जीत चुके बीजेपी के कई नेता पार्टी के साथ संपर्क में हैं।
बीजेपी का एकता प्रदर्शन
वहीं बुधवार को दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री आवास पर एनडीए की भी एक अहम बैठक हुई। चुनाव के नतीजे आने के बाद ये एनडीए की पहली बैठक थी।
इस बैठक में 16 पार्टियों के 21 नेता शामिल हुए। इसमें बीजेपी की तरफ़ से नरेंद्र मोदी, जेपी नड्डा, राजनाथ सिंह और अमित शाह शामिल हुए।
वहीं इसमें टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, जेडीयू के नीतीश कुमार, शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट के एकनाथ शिंदे, जनता दल सेक्युलर के एचडी कुमारस्वामी, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के चिराग पासवान, एचएएम के जीतन राम मांझी, आरएलडी के जयंत चौधरी, एनसीपी के प्रफुल्ल पटेल और असम गण परिषद के प्रमोद बोरो शामिल हुए।
कांग्रेस के ‘खुले दरवाज़े’
जयराम रमेश ने जाति सर्वे और बिहार को विशेष दर्जा जैसे मुद्दों पर प्रधानमंत्री मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच रहे मतभेद को लेकर टिप्पणी की।
उन्होंने एनडीटीवी का एक ट्वीट रीपोस्ट करते हुए लिखा, ‘क्या नरेंद्र मोदी इस बयान पर कायम रहेंगे कि जाति जनगणना देश को जाति के नाम पर बाँटने की राजनीति है?’
मीडिया में खबरें हैं कि चुनाव के नतीजे आने के बाद किंगमेकर की स्थिति में पहुंच चुके नीतीश ने देश में जाति जनगणना कराने और बिहार को विशेष दर्जा दिलाने की मांग की है।
एक टेलीविजऩ चैनल से बात करते हुए जदयू नेता केसी त्यागी ने कहा है कि ‘हम चाहते हैं कि अगली सरकार बिहार को विशेष दर्जा दे और देश में जाति जनगणना करवाए।’
जयराम रमेश इतने पर नहीं रुके। उन्होंने फरवरी 2019 का मोदी का एक वीडियो शेयर किया, जिसमें मोदी चंद्रबाबू नायडू पर अपने राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए सरकारी पैसों का दुरुपयोग करने का आरोप लगा रहे थे।
वीडियो में मोदी ने कहा था, ‘मेरी सरकार उनसे हिसाब मांगती है, पहले उन्हें दिल्ली के गलियारों में कभी भी हिसाब नहीं देना पड़ेगा। अब मोदी उनसे कहता है, आंध्र प्रदेश के विकास के लिए जो राशि आपको दी गई, टैक्सपेयर का जो पैसा आपको दिया गया, उसकी पाई-पाई का हिसाब दीजिए।’
उन्होंन तंज़ कसते हुए कहा, ‘लोगों से रिजेक्ट होने के बाद गद्दी पर बने रहने के लिए बीजेपी नायडू से भीख मांग रही है।’
वहीं कांग्रेस नेता कार्ति चिदबंरम ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए कहा, ‘नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू हमारे लिए अनजान नहीं हैं, वो हमारे दोस्त हैं। चंद्रबाबू नायडू मेरे दोस्त हैं। मैं
उन्हें 1996 से जानता हूँ और ज़ाहिर है, हम अपने दोस्तों से संपर्क में हैं।’
नीतीश, बीजेपी और कांग्रेस
2019 के लोकसभा चुनाव नीतीश कुमार बीजेपी के साथ मिलकर लड़े थे। फिर 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश और बीजेपी साथ थे।
2022 में बीजेपी से अलग होकर उन्होंने आरजेडी (कांग्रेस के साथ गठबंधन में थी) के साथ हाथ मिलाया। साल भर बाद इंडिया गठबंधन से नाता तोड़ वो एक बार फिर बीजेपी के साथ आ गए।
बीते साल जून में इंडिया गठबंधन की पहली बैठक पटना में हुई थी। इसके लिए पहल नीतीश कुमार ने ही की थी और ये बैठक पटना स्थित उनके आवास पर ही हुई थी। उस वक्त वो इस गठबंधन का हिस्सा थे और उन्होंने कहा था, ‘सभी नेता केंद्र में मौजूदा शासन के खिलाफ एकजुट होकर लडऩे के लिए सहमत हुए हैं।’
लेकिन छह महीने बाद नीतीश कुमार ने महागठबंधन का हाथ छोड़ा और बीजेपी के साथ मिलकर राज्य में सरकार बना ली।
कांग्रेस उनके इसी पार्टी बदलने वाली बात को सामने ला रही है और शायद इसी पर उसकी उम्मीद भी टिकी है।
हालांकि नतीजे आने के बाद बिहार में नीतीश की पार्टी ने जो पोस्टर लगाए उन पर लिखा था, ‘नीतीश सबके हैं’। इसे भी एक इशारे की तरह देखा जा रहा है।
नायडू और बीजेपी
टीडीपी पहली बार 1996 में एनडीए में शामिल हुई थी और तब चंद्रबाबू नायडू की पहचान आईटी गवर्नेंस को लेकर थी।
टीडीपी जब 2018 में एनडीए से अलग हुई तो चुनाव में भारी नुक़सान उठाना पड़ा था। 2018 में तेलंगाना विधानसभा में टीडीपी के महज दो विधायक रह गए थे और 2019 में आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव में महज़ 23 सीटों पर जीत मिली थी।
टीडीपी इस साल फऱवरी में एनडीए में शामिल हुई थी और आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव में 175 में से 135 सीटों पर जीत मिली और 16 लोकसभा सीटें भी उसकी झोली में आईं।
इस शानदार प्रदर्शन के बाद ही चंद्रबाबू नायडू किंगमेकर बनकर उभरे। चंद्रबाबू नायडू एक बार फिर से आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं।
इसके अलावा आंध्र प्रदेश की नई राजधानी अमरावती भी उनके एजेंडे में है, जहाँ कंस्ट्रक्शन का काम जल्द ही पूरा करना चाहते हैं।
कहा जा रहा है कि टीडीपी पर निर्भरता के कारण बीजेपी को अपने कई एजेंडे रोकने पड़ सकते हैं। जैसे परिसीमन और हिन्दी भाषा को लेकर बीजेपी को बैकफुट पर आना पड़ सकता है।
चंद्रबाबू नायडू ने बुधवार को कहा है कि वो एनडीए के साथ रहेंगे।
बुधवार को हुई एनडीए की बैठक में दोनों नेता शामिल भी हुए।
कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार ने एनडीए की बैठक में खुलकर कुछ मांग नहीं की है लेकिन रेल मंत्रालय की मांग कर सकते हैं।
वाजपेयी सरकार में नीतीश कुमार रेल मंत्री रह चुके थे। बीजेपी सत्ता में रहने के लिए जब-जब एनडीए पर निर्भर रही है तब-तब नीतीश कुमार ने आक्रामक हिन्दुत्व की नीति को आगे नहीं बढऩे दिया है।
वाजपेयी को राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता पर एनडीए में शामिल दलों के कारण ही पीछे हटना पड़ा था।
हिन्दुत्व की राजनीति से नीतीश कुमार कभी सहमत नहीं रहे हैं। नीतीश की राजनीति कांग्रेस से ज़्यादा मेल खाती है। ऐसे में कांग्रेस ने दरवाजा खुला रखा है तो नीतीश को भी यहाँ विचारधारा के स्तर पर कोई असहजता नहीं होगी। (bbc.com/hindi)
-राहुल कुमार सिंह
छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव परिणाम के लिए विशेषज्ञों से लेकर राजनीति में सामान्य रुचि रखने वाले तक कांग्रेस की जिस एक सीट के लिए आश्वस्त थे, वह कोरबा थी और ऐसा ही हुआ। यानि प्रत्याशित, कुछ भी चौंकाने वाला नहीं। इसका सबसे प्रमुख कारण माना जा रहा था, जो परिणाम में साबित भी हुआ, वह था भाजपा प्रत्याशी का चयन। ऐसा नहीं कि महंत जी की राजनीतिक विरासत, उनकी सूझबूझ और सहिष्णुता को कम आंका जाए।
यहां ध्यान देने की बात है कि भाजपा प्रत्याशी को बाहरी माना गया, जबकि वे सुश्री सरोज पांडे भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति से तो जुड़ी ही रही हैं, एक समय वे दुर्ग की महापौर, विधायक और सांसद तीनों पदों पर काबिज थीं।
यहां बाहिरी को समझने का प्रयास करें। भिलाई-दुर्ग और रायपुर में जितनी महानगरीय स्वीकार्यता है, बिलासपुर में नहीं है और वहीं छत्तीसगढ़ के दो प्रमुख औद्योगिक नगरों- भिलाई जैसी अखिल भारतीयता, कोरबा में नहीं है। यहां एक कारक सरोज पांडेय का एलीट रंग-रूप और व्यवहार भी है। कोरबा लोकसभा क्षेत्र के मतदाताओं में छत्तीसगढ़िया और जनजातीय रुझान भी प्रभावी होता है।
यहां एक वृहत्तर संदर्भ को भी देख लेना चाहिए, वह है शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण का छत्तीसगढ़। रायपुर-दुर्ग के लिए धमतरी, महासमुंद तो अपना है ही राजनांदगांव और कांकेर तक भी उसकी पहुंच होती है और बस्तर तक आवाजाही। मगर दूसरी तरफ बिलासपुर से तो वह कुछ हद तक संबंधित होता है, लेकिन कोरबा, रायगढ़ से उसका ताल्लुक (और समझ) सामान्यतः कम होता है और सरगुजा, जशपुर, कोरिया लगभग पूरी तरह उससे छूटा रहता है।
मध्य प्रदेश के दौरान मैं ऐसे भी मंत्री से मिला हूं जो छत्तीसगढ़ के, शिवनाथ नदी के दक्षिण के थे, जो सरगुजा और वह भी अंबिकापुर तक बमुश्किल एकाध बार ही गए थे।
संक्षेप में यह कि शिवनाथ के दक्षिण के नेताओं की पैठ और स्वीकार्यता शिवनाथ के उत्तर में सामान्यतः वैसी नहीं बन पाती और कोरबा के चुनाव परिणाम के तात्कालिक प्रसंग में देखें तो कोरबा लोकसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेस की जीत के इतिहास में कभी रामचंद्र सिंहदेव और कभी हीरासिंह मरकाम लगभग निर्णायक कारक रहे हैं। इस चुनाव परिणाम में, औद्योगिक नगरी होने के बावजूद भी कोरबा महानगरीय के बजाय छत्तीसगढ़ी, जनजातीय मानसिकता के साथ सहज होता है। उसे एलीट बाहिरी किस्म का जनप्रतिनिधि आसानी से स्वीकार नहीं होता।
-प्रमोद भार्गव
18वीं लोकसभा चुनाव के आए परिणामों ने तय कर दिया है कि ये परिणाम चैंकाने वाले हैं। 64 करोड़ 2 लाख मतदाताओं ने इस चुनाव में अपने मत का उपयोग कर अपने प्रतिनिधि को चुन लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लगाया गया 400 पार का नारा साकार नहीं हुआ लेकिन राजग गठबंधन को जो 295 के करीब सीटें मिल रही हैं, वे नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान और लोक-कल्याणकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने के चलते ही मिली हैं। यही नहीं भारतीय जनता पार्टी अपने सहयोगी दलों के साथ ओडिषा, आंध्रप्रदेष, अरुणाचल और सिक्किम में विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार बनाने जा रही है। धारा-370 और 35-ए के खात्मे के बाद जम्मू-कष्मीर में पहली बार लोकसभा के चुनाव हुए हैं। इस चुनाव में कष्मीर में आजादी के बाद से ही सत्तारूढ़ रहे परिवारवादी दल पीडीपी और नेषनल कांफ्रेंस के प्रमुख महबूबा मुफ्ती अनंतनाग से और फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला बारामुला से चुनाव हार गए हैं। उमर अब्दुल्ला को हराने वाले इंजीनियर राषिद षेख ने जेल में रहकर चुनाव लड़ा और जीत भी गए। फिलहाल वे टेरर फंडिग मामले में तिहाड़ जेल में बंद है।
जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली और महबूबा एवं उमर की हार ने तय कर दिया है कि नरेंद्र मोदी के परिवारवाद से मुक्ति के नारे ने घाटी में अपना काम कर दिया है। मुफ्ती को चुनाव में करारी शिकस्त नेकां के नेता मियां अल्ताफ अहमद ने दी है। अलताफ करीब ढाई लाख मतों से जीते हैं। दूसरी तरफ जम्मू-संवाद की दो सीटों उधमपुर और जम्मू पर भाजपा ने अपनी जीत दर्ज कराई है। उधमपुर लोकसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार डाॅ जितेंद्र सिंह ने लगातार तीसरी बार जीत दर्ज कराई है। लद्दाख में आजाद उम्मीदवार मोहम्मद हनीफा जीते हैं। उन्होंने इस सीट पर कांग्रेस के सेरिंग नामग्याल और भाजपा के ताशा ग्यालसन को हरा दिया है। जम्मू संसदीय सीट से भाजपा उम्मीदवार जुगल किशोर शर्मा की जीत कांग्रेस के रमन भल्ला के मुकाबले में तय मानी जा रही है।
बहरहाल जम्मू-कष्मीर में लोकतंत्र की बहाली ने तय कर दिया है कि धारा-370 खत्म होने के बाद वहां की जनता सुकून महसूस कर रही है। पर्यटकों की बड़ी आमद ने भी घाटी में जनता की आर्थिक बद्हाली दूर करने का काम किया है। महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला को हराकर जनता ने जता दिया है कि स्वतंत्रता के बाद से ही इन परिवारों ने जनता के साथ अच्छा नहीं किया। दो विधान, दो निषान और दो प्रधान को बनाए रखा। अपने हितों के लिए जम्मू-कष्मीर में विषेश दर्जे के विधानों की पैरवी करते रहे और स्थानीय जनता को भ्रम में रखकर सत्तारूढ़ भी बने रहे। अब जनता इनकी चालाकियों को समझ गई है, नतीजतन उसने इन दोनों परिवारों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
उत्तर भारत में इस समय भीषण गर्मी और लू का प्रकोप जारी है. गर्मी और लू की चपेट में सातवें और अंतिम चरण के मतदान में लगे सैकड़ों कर्मचारी भी आ गए. देश के अलग-अलग हिस्सों में कई लोगों की मौत हो गई.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
लोकसभा चुनाव के लिए मतदान प्रक्रिया पूरी होने के बाद अब लोगों को चार जून का इंतजार है जब मतगणना होगी और परिणाम आएंगे। लेकिन चुनाव का आखिरी चरण चुनावी ड्यूटी में तैनात कर्मचारियों और सुरक्षा बलों के लिए काफी जानलेवा साबित हुआ। यूपी समेत देश के कई राज्यों में चुनावी ड्यूटी में तैनात दर्जनों लोगों की मौत हो गई और बड़ी संख्या में लोग अस्पतालों में भर्ती हैं।
उत्तर प्रदेश में पिछले करीब एक हफ्ते में चुनाव ड्यूटी पर तैनात 33 लोगों समेत करीब 58 लोगों की भीषण गर्मी के कारण मौत हो गई। इसके अलावा बिहार, ओडिशा और मध्य प्रदेश में भी कई लोगों की मौत हुई हैं, लेकिन सबसे ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश में हुईं। उत्तर प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी नवदीप रिनवा ने मौतों की पुष्टि की और कहा कि मृतकों में होमगार्ड, सफाई कर्मचारी और अन्य मतदान कर्मचारी थे जो दिन भर चलने वाली वोटिंग प्रक्रिया के दौरान ड्यूटी पर थे।
मतदान एक दिन पहले उत्तर प्रदेश में 15 मतदानकर्मियों की मौत की खबर सामने आई थी। यूपी में आखिरी चरण के मतदान के लिए कुल 1,08,349 मतदान कर्मियों को तैनात किया गया था। रिनवा ने कहा कि जिन कर्मचारियों की मृत्यु ड्यूटी के दौरान हुई है उन्हें 15 लाख रुपये की मुआवजा राशि देने की प्रक्रिया चल रही है।
बिहार में भी चुनाव ड्यूटी पर तैनात कर्मियों की मौत की खबर है। यहां मतदान के दिन ही 14 लोगों की मौत की पुष्टि हुई है, जबकि 10 अन्य लोगों की भी मौत हुई है। हालांकि बताया यह भी जा रहा है कि ये संख्या बढ़ सकती है। बिहार के आपदा प्रबंधन विभाग की ओर से जारी एक बयान के मुताबिक, सबसे अधिक मौतें भोजपुर में हुईं, जहां चुनाव ड्यूटी पर तैनात पांच कर्मचारियों की मौत हीटस्ट्रोक की वजह से हुई। इसके अलावा रोहतास, कैमूर और औरंगाबाद में भी मौतों की खबर है।
वहीं, ओडिशा में आपदा प्रबंधन अधिकारियों के मुताबिक, गर्मी से संबंधित बीमारी के कारण मरने वालों की संख्या 54 हो गई है। ओडिशा के विशेष राहत आयुक्त सत्यब्रत साहू ने मीडिया को बताया कि 15 मई के बाद से अब तक लू की वजह से 96 लोगों की मौत हो चुकी है। मतदान के आखिरी चरण में तैनात कई मतदान कर्मियों की भी मौत हुई है।
उत्तर प्रदेश में चुनावी ड्यूटी में लगे सबसे ज्यादा कर्मचारियों की मौत मिर्जापुर में हुई है। डयूटी पर तैनात कई मतदानकर्मियों और होमगार्ड्स को मतदान से ठीक एक दिन पहले शुक्रवार को तेज बुखार और हाई ब्लड प्रेशर की शिकायत के बाद मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया था जहां 13 लोगों की मौत हो गई। मिर्जापुर के मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य के मुताबिक, मरने वालों में सभी लोग पचास साल से ज्यादा की उम्र के थे।
मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य डॉक्टर राजबहादुर कमल ने मीडिया को बताया कि जब ये मरीज मेडिकल कॉलेज आए तो उन्हें तेज बुखार, उच्च रक्तचाप और के अलावा शुगर लेवेल बढऩे की शिकायत थी।
चार जून को मतगणना के दौरान भी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को गर्मी से बचाना एक बड़ा टास्क है। क्योंकि गर्मी और लू में अभी भी कोई कमी नहीं आई है। मिर्जापुर में राजकीय पॉलीटेक्निक में बने स्ट्रॉन्ग रूम में तैनात कर्मचारियों में इस बात को लेकर बड़ा खौफ है। हालांकि अधिकारियों का कहना है कि कूलर और पेयजल के इंतजाम किए गए हैं लेकिन इसके बावजूद मतगणना में तैनात कर्मचारी भयभीत हैं।
एक जून को मिर्जापुर में मतदान में तैनात एक कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर सुविधाओं के बारे में बात की। कर्मचारी का कहना था, "जहां से पोलिंग पार्टी रवाना हो रही थी, वहां कोई इंतजाम नहीं थे। शेड भी नहीं था। उसके बाद जब हम लोग बसों में बैठे तो लगा जैसे आग बरस रही हो। पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं थी, सिवाय दो टैंकरों के। और उन टैंकरों का पानी इतना गरम था कि हाथ तक झुलस जाए। बसों के इंतजार में ही घंटों धूप में तपना पड़ा। ऐसे में लोग मरेंगे नहीं तो और क्या होगा।’
हीटवेव की वजह से यूपी समेत देश भर में कई लोगों को जान गंवानी पड़ी है। यूपी के कानपुर में दो दिन पहले एक ही दिन में तीस से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। मेडिकल कॉलेज के अधिकारियों के मुताबिक पिछले कुछ दिनों में यहां के पोस्टमार्टम हाउस में पहुंचने वाले शवों की संख्या काफी बढ़ गई है। शनिवार को पोस्टमॉर्टम हाउस में 32 ऐसे लोगों का शव आया जो शहर के अलग-अलग जगहों से मिले थे।
कैसे हैं सरकार के इंतजाम
गर्मी से बचने के लिए सरकार की तरफ से कई तरह के निर्देश दिए गए हैं और जगह-जगह पीने के पानी और शेड यानी छाये की व्यवस्था की गई है। लेकिन विकास के नाम पर कट रहे पेड़ों की वजह से शहरों में पेड़ों की छाया भी कम होती जा रही है। बढ़ती गर्मी की एक बड़ी वजह भी यही है। डॉक्टरों का कहना है कि इसका सबसे ज्यादा प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है जिन्हें पहले से ही कोई बीमारी है।
दिल्ली के एक अस्पताल प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टर हरिओम कहते हैं, ‘तापमान बहुत ज्यादा बढऩे की वजह से शरीर से पसीना नहीं निकल पाता, हीट रेग्युलेशन नहीं हो पाता जिससे शरीर के अंदर का टेम्प्रेचर बढ़ जाता है। टेम्प्रेचर ज्यादा होने से मल्टीऑर्गन फेल्योर की स्थिति पैदा हो जाती है। जिन्हें बीपी, शुगर इत्यादि की शिकायत रहती है या दूसरी बीमारियां होती हैं तो उनके लिए ये गर्मी और घातक हो जाती है।’
(डॉयचे वैले)
सुदीप ठाकुर
यदि चुनाव आयोग की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार भाजपा अभी के रुझान 237-240 पर रुकती है, तो इसे नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत हार की तरह देखा जाना चाहिए। 370 पार का नारा उन्हीं का दिया हुआ था। मोदी ने चुनावों को अपने इर्द गिर्द प्रेसिडेंशियल इलेक्शन में बदल दिया था। उनका यह तिलिस्म टूट गया है।
सरकार चाहे एनडीए की बन भी जाए, इसके बावजूद देश के मतदाताओं ने दिखाया है कि वह बहुसंख्यकवाद के बजाए बहुलतावाद पर यकीन करते हैं। इस चुनाव में संविधान पर हमले की बात भी विपक्ष ने उठाई थी, जिसे मोदी और भाजपा नकारते रहे, लेकिन नतीजे दिखा रहे हैं कि संविधान के मुद्दे ने भी नतीजे को प्रभावित किया है। सबसे अधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश से भाजपा को कापी उम्मीदें थीं, लेकिन नतीजे दिखा रहे हैं कि वहां राम मंदिर को चुनावी मुद्दा बनाना भाजपा को महंगा पड़ा है। यूपी में परीक्षाओं ने जिस तरह युवाओं को परेशान किया है, वह नतीजे में भी दिख रहा है। महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना के विभाजन की वास्तुकार भाजपा ही थी. जिसका उसे कोई लाभ होता नहीं दिखा। एकनाथ शिंदे और अब अजीत पवार की राह मुश्किल हो सकती है। बंगाल के नतीजे भाजपा के रणनीतिकारों के लिए चौंकाने वाले हो सकते हैं, लेकिन ये बताते हैं कि वहां सीएए भी अंदर ही अंदर मुद्दा था, जिसने बहुत से लोगों के मन में भय पैदा किया है। इसे भी बहुसंख्यकवाद का जवाब कहा जा सकता है। इन चुनावों के अंतिम नतीजे आना बाकी है। लेकिन अब तक के रुझान ने दिखा दिया है कि भारतीय लोकतंत्र और उसके मतदाता अपना रास्ता और विकल्प तलाश लेते हैं। विकास की काफी बातें हुई और इन नतीजों को कई लोग उसकी राह में बाधा की तरह देख सकते हैं, मगर लोकतंत्र की राह में ऐसे ‘डिसरप्शन’ जरूरी हैं!
मतगणना प्रक्रिया को प्रभावित करने के आरोपों को लेकर चुनाव आयोग ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश को नोटिस भेजकर सोमवार, 3 जून की शाम सात बजे से पहले जवाब देने को कहा है।
जयराम रमेश ने एक जून को आरोप लगाया था कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह मतगणना से पहले जिलाधिकारियों को फोन कर धमका रहे हैं।
इसपर आयोग ने उन्हें रविवार को नोटिस भेजते हुए कहा था, ‘आचार संहिता के दौरान सभी अधिकारियों को चुनाव आयोग को रिपोर्ट करना होता है और वो सिर्फ चुनाव आयोग के आदेश पर काम करते हैं। जो आरोप आपने लगाए हैं वैसी कोई रिपोर्ट किसी भी जिलाधिकारी ने नहीं की है। मतगणना की प्रक्रिया बेहद महत्वपूर्ण है और पब्लिक में दिए गए आपके बयान संदेह पैदा कर रहे हैं। पब्लिक के हित के लिए इन पर संज्ञान लेना ज़रूरी है।’
नोटिस के जवाब में जयराम रमेश ने एक हफ़्ते का समय मांगा था।
लेकिन चुनाव आयोग ने जयराम रमेश की इस अपील को सोमवार को ख़ारिज करते हुए कहा कि ‘वो अपने अरोपों के पक्ष में सबूत या आंकड़े पेश करें और आज यानी तीन जून की शाम सात बजे तक जवाब दें।’
आयोग के अनुसार, ‘अगर जवाब नहीं मिला तो माना जाएगा कि मामले में कहने के लिए आपके पास कुछ ठोस नहीं है और आयोग उपयुक्त एक्शन लेने के लिए आगे की कार्रवाई करेगा।’
इसमें चुनाव आयोग ने जयराम रमेश के आरोपों को पूरी तरह खारिज किया है और कहा है कि किसी भी डीएम पर ग़लत दबाव डालने की कोई कोशिश प्रकाश में नहीं आई है।
जयराम रमेश का आरोप
जयराम रमेश ने शनिवार शाम को एक्स पोस्ट में दावा किया था, ‘निवर्तमान गृह मंत्री आज सुबह से जि़ला कलेक्टर्स से फोन पर बात कर रहे हैं। अब तक 150 अफसरों से बात हो चुकी है। अफसरों को इस तरह से खुल्लम खुल्ला धमकाने की कोशिश निहायत ही शर्मनाक है एवं अस्वीकार्य है।’
उन्होंने लिखा, ‘याद रखिए कि लोकतंत्र जनादेश से चलता है, धमकियों से नहीं। जून 4 को जनादेश के अनुसार श्री नरेन्द्र मोदी, श्री अमित शाह व भाजपा सत्ता से बाहर होंगे एवं इंडिया गठबंधन विजयी होगा। अफ़सरों को किसी प्रकार के दबाव में नहीं आना चाहिए व संविधान की रक्षा करनी चाहिए। वे निगरानी में हैं।’
इंडिया गठबंधन के नेताओं की चुनाव आयोग से मुलाकात
रविवार, 2 जून को इंडिया गठबंधन के नेताओं ने चुनाव आयोग से मुलाकात की है।
इस प्रतिनिधिमंडल में कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी, सलमान खुर्शीद, डीएमके के टीआर बालू, वाम दल की तरफ से सीताराम येचुरी, डी राजा के अलावा कई नेता शामिल थे।
विपक्षी दलों के नेताओं ने चुनाव आयोग के सामने ईवीएम काउंटिंग, पोस्टल बैलेट और चुनाव नतीजों से जुड़े मुद्दों को सामने रखा।
चुनाव आयोग से मुलाकात के बाद मीडिया से बात करते हुए कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा, ‘पहला मुद्दा-पोस्टल बैलेट का है, जो एक जानी-मानी प्रक्रिया है। पोस्टल बैलेट परिणाम में निर्णायक साबित होते हैं, इसलिए चुनाव आयोग का एक प्रावधान है जिसके अंतर्गत कहा है कि पोस्टल बैलेट की गिनती पहले की जाएगी।’
उन्होंने कहा, ‘हमारी शिकायत थी कि चुनाव आयोग ने 2019 की गाइडलाइन से इसे हटा दिया है, इसका परिणाम यह है कि ईवीएम की पूरी गणना हो जाए उसके बाद अंत तक भी पोस्टल बैलेट की गिनती की घोषणा करना अनिवार्य नहीं रहा है। यह जरूरी है कि पोस्टल बैलेट जो निर्णायक साबित होता है उसकी गिनती पहले करना अनिवार्य है।’
इसके अलावा नेताओं ने वोटों की गिनती के समय सख्त निगरानी रखने की मांग भी की है।
शिवसेना (यूबीटी) ने उठाए सवाल
शिवसेना (यूबीटी) के नेता संजय राउत ने भी चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं।
मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘चुनाव आयोग के बारे में लोगों के मन में बहुत शंकाएं हैं। चुनाव आयोग एक न्यूट्रल बॉडी है। संवैधानिक संस्था है, लेकिन जिस तरह से बार बार विपक्षी दलों को चुनाव आयोग के सामने जाकर हाथ जोडऩा पड़ता है, कुछ बातें सामने लानी पड़ती हैं और चुनाव आयोग भी सुना अनसुना करता है। ये निष्पक्ष संस्था के लक्षण नहीं हैं।’
संजय राउत ने कहा, ‘पीएम चुनाव के दिन ध्यान के लिए बैठते हैं और चैनलों का पूरा फोकस उनके पास आता है। एक प्रकार से यह चुनाव संहिता का उल्लंघन है। जयराम रमेश जी ने कहा कि देश के गृह मंत्री देश के 150 कलेक्टर्स और डीएम को फोन करके जो सूचना देते हैं, यह कोड ऑफ कंडक्ट का उल्लंघन है। पोलिंग एजेंट्स को जिस तरह से रोका गया, ये भी ठीक नहीं है। ये पहले नहीं हुआ।’
उन्होंने कहा, ‘इस देश में चुनाव आयोग को कहना पड़ता है कि आप एक स्वतंत्र संस्था हैं। आप समझ लीजिए। आप किसी के गुलाम नहीं हैं। चाहे बीजेपी हो या फिर कोई दूसरी सत्ताधारी पार्टी होज्चुनाव आयोग बीजेपी की शाखा की तरह का काम कर रही है। इसलिए इस देश का लोकतंत्र दस सालों से खतरे में आया है।’
आम आदमी पार्टी ने क्या कहा?
आम आदमी पार्टी के नेता और राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने आरोप लगाया है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष संस्था की तरह काम नहीं कर रहा है।
मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘चुनाव आयोग कोई व्यंग रचनाकार नहीं है। वह कोई कवि सम्मेलन का मंच नहीं है। वह एक गंभीर संस्था है। उसकी एक गंभीर जिम्मेदारी है। उन्हें कुछ प्रश्नों का जवाब देना चाहिए। पूरे देश का चुनाव आप संपन्न करा रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के प्रति आपकी जवाबदेही हैज्आपको एक निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए तनख्वाह मिलती है। अगर आपसे कोई प्रश्न पूछ रहा है तो आप व्यंग क्यों मार रहे हैं। उसका समाधान करिए ना।’
उन्होंने कहा, ‘आप समाधान करने बैठे हैं या कवि सम्मेलन चलाने के लिए बैठे हैं। व्यंग कर रहे हैं। हास्य कर रहे हैं। आपकी जिम्मेदारी है। आपने खुद 2009 में नियम बनाए। उनमें क्यों बदलाव किया जा रहा है। संभवत इस बार हम लोगों को चार प्रतिशत पोस्टल बैलेट हैं। उनकी गिनती अंतिम राउंड की ईवीएम से पहले घोषित होनी चाहिए। इतनी सी बात है।’
संजय सिंह ने कहा, ‘एक राजनीतिक पार्टी के नेता की तरह बात नहीं करनी चाहिए चुनाव आयोग को। वो किसी राजनीतिक पार्टी के नेता नहीं है। उनकी जिम्मेदारी है चुनाव को निष्पक्ष संपन्न कराना।’
संजय सिंह के आरोपों पर मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने जवाब देते हुए कहा, ‘पोस्टल बैलेट की जो स्कीम है। उसका रूल हैज् यह 1964 में लागू हुआ। उस समय में बहुत सारे पोस्टर पैलेट नहीं थे। उस समय में सीनियर सिटीजन, पीडब्ल्यूडी नहीं थे। धीरे धीरे यह संख्या बढ़ रही हैज्जरूरी सेवाओं वालों को मिलनी चाहिए, जो हमने किया भी।’
उन्होंने कहा, ‘रूल साफ कहता है कि पोस्टल बैलेट की गिनती पहले शुरू होगी। देश के सभी सेंटर पर यह सबसे पहली शुरू होगी। इसमें कोई शक नहीं है। इसके आधे घंटे के बाद ईवीएम की काउंटिंग शुरू होती है। एक साथ तीन तरह की काउंटिंग चलती है। ये 2019 में हुआ। ये 2022 के चुनावों में भी हुआ। ये कल अरुणाचल और सिक्किम में हुआ। हम बीच में इसे नहीं बदल सकते हैं।’
राजीव कुमार ने कहा, ‘रूल कहता है कि तीनों काउंटिंग शुरू होगी और निर्विरोध रूप से आखिर तक चलती रहेंगी।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
निश्चित अवधि, जो हमारे संविधान में पांच साल निर्धारित की गई है, के बाद नियमित चुनाव लोकतंत्र का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है।1975 में लगभग दो साल के आपातकाल को अपवाद स्वरूप छोडक़र आज़ादी के बाद 1951 के पहले लोकसभा चुनाव से लेकर हाल में संपन्न हुए 2024 के लोकसभा चुनाव तक हमारे यहां लोकसभा और विधानसभा चुनाव अमूमन सही समय पर होते रहे हैं, यह संतोष की बात है क्योंकि हमारे दो सबसे महत्वपूर्ण पड़ोसी पाकिस्तान और चीन में यह संभव नहीं हुआ है। इस लिहाज से लोकतंत्र के मामले में भारत को एशिया का लाइट हाउस कहा जा सकता है। हालांकि हमारे लोकतंत्र में पिछले पचहत्तर साल में काफी सुधारों के बावजूद बहुत सी विकृतियां भी विकसित हुई हैं जो चिंता का विषय हैं जिससे इतने साल बाद भी हमारा लोकतंत्र आधा अधूरा सा लगता है।
साढ़े सात दशक लंबी यात्रा के बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में हम अपना ऐसा प्रतिनिधि व्यक्ति विधायक और सांसद के रूप में चुन सकते हैं जिसकी सोच और कार्यशैली आम आदमी की तरह हमारे जैसी हो। जो कानून का पालन करता हो और कानून के उल्लंघन से हिचकता हो। जिसकी आर्थिक स्थिति आम आदमी जैसी हो। जब से केंद्रीय चुनाव आयोग ने चुनावों में उम्मीदवारों को अपनी आय और संपत्ति एवम् आपराधिक मामलों की जानकारी सार्वजनिक करने के लिए बाध्य किया है तब से यह जानकारी आम हो गई है कि अधिकांश प्रत्याशी करोड़पति हैं और काफी के खिलाफ कई संगीन आपराधिक मामले दर्ज हैं। अधिकांश राजनीतिक दल साफ सुथरी छवि वाले आम नागरिकों के बजाए ऐसे लोगों को अपना उम्मीदवार बनाते हैं जो अपने धन, बल, जाति एवम धर्म के चार मजबूत स्तंभों के प्रयोग से चुनाव जीतने में सक्षम है। दूसरी तरफ जनता अभी इतनी जागरूक नहीं हुई जो बड़े और प्रभावशाली राजनीतिक दलों के धनाढ्य एवम माफिया किस्म के उम्मीदवारों को दरकिनार कर साफ सुथरी छवि के निर्दलीय उम्मीदवारों को अपना प्रतिनिधी चुन सके।
चुनावों में धन का दुरुपयोग भी लगातार बढ़ रहा है। यह साम दाम दण्ड भेद से राजनीतिक दलों द्वारा उगाहे गए चंदे (इलेक्टोरल बॉन्ड सहित) और धनाढ्य एवम माफिया किस्म के उम्मीदवारों के काले धन के रूप में सामने आकर साफ सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों के सामने अभेद्य दुर्ग की तरह आड़े आता है जिससे समाज के प्रतिष्ठित लोग चुनावी नैया में पैर रखने से ही कतराते हैं क्योंकि उन्हें वोट तो दूर प्रचार प्रसार के लिए कार्यकर्त्ता उपलब्ध नहीं होते।चुनाव संबंधी कानूनों का ढुलमुलपन और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर उनकी कार्यवाहियों तक का आरोपों से घिरा होना निकट भविष्य में भी लोकतंत्र को परिपक्व होने में बड़ी बाधा साबित होंगे। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि टी एन सेशन जैसे कडक़ प्रमुख चुनाव आयुक्त के बाद किसी भी सरकार ने उस तरह की छवि के अधिकारी को चुनाव आयुक्त नहीं बनाया। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश द्वारा दिए गए निर्देशों को भी दरकिनार कर वर्तमान केंद्र सरकार ने चुनाव आयुक्तों की ऐसी नियुक्ति व्यवस्था कायम रखी है जिससे सरकार अपनी पसंद के अधिकारियों को चुनाव आयुक्त नियुक्त कर सकती है। ऐसे में विपक्ष सहित प्रबुद्ध नागरिक सरकार की मंशा को दूषित ही कहेंगे।
जनता में अपने बीच से सर्वश्रेष्ठ जन प्रतिनिधि चुनने के लिए व्यापक जन जागरुकता की जरुरत है। राजनीतिक दलों से ऐसी किसी शुरुआत की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह काम समाजसेवी संस्थाओं को ही करना होगा। अभी तो राजनीतिक दलों का अवाम को मुफ़्त की सेवाओं और धन का लालच देकर और धर्म और जाति की भावनाएं भडक़ाकर वोट हासिल करना सत्ता प्राप्त करने का सबसे आसान रास्ता नजऱ आता है। जब तक अवाम इन भावनाओं के आवेग में बहता रहेगा स्वस्थ और आदर्श लोकतंत्र दूर की कौड़ी रहेगा।
शोभा अक्षर
रोमांस के कोमल अँगड़ाइयों के बीच एक दिलचस्प बात महसूस करती हूँ कि फेमिनिस्ट पुरुष अभेद्य नहीं हैं।
ये पुरुष कभी-कभी जंगल की तरह लगते हैं, उम्र के साथ आगे बढ़ते हुए परिपक्व, ज़ोरदार और पहले से अधिक रोमांचित करने वाले होते जाते हैं। स्त्रियाँ इनके साथ जिस हद तक सहज महसूस करती हूँ, उसकी तासीर शायद ख़ुद ये पुरुष नहीं समझ पाते। या देर से समझते हैं। इनके साथ चलते हुए जमीन हरी घास की क़ालीन महसूस होती है, और जि़ंदगी सुर्ख गुलाब का फूल।
हालाँकि प्रेम-प्रसंगों में अक्सर एक तेज झोंका आता है और थोड़ी देर के लिए ही सही सब बदरंग हो जाता है। दोनों ओर से मु_ियों में जिसे भींचने की बेतरह कोशिश हुई थी, वह तो रेत थी। कसी हुई मु_ियों से भी निकल गई, हाथ फिर खाली!
लेकिन जिन्हें सेक्सुअलिटी में मुसलसल आने वाले मोड़ पर ठहरना आता है, वह अपने यौवन में फिर से नए और ताजगी से भरे हुए हो जाते हैं। जैसे चाँद की दूधिया रोशनी में नहाया हुआ दो नग्न बदन नदी के किनारे सुस्ताने बैठे हों।
सचमुच! यह दुनिया कितनी सुन्दर है। ऐसे पल कितने अविस्मरणीय! प्रेम में पड़े जोड़े झींगुरों की आवाज़ें जियादा शान्त होकर सुन सकते हैं। उनके साथ की स्मृतियाँ मुलाकातों से इतर अँधेरे और अकेलेपन की माँग करती हैं।
अलगाव के बाद भी ये जोड़े ख्वाब देखते हैं, बिना किसी टीस के एक मुकम्मल ख्वाब।
रोमांस, त्रासद घटनाओं के प्रभाव के सिलसिले को रोकता है।यहीं से त्रासदी और जि़न्दगी के बीच एक सामान्य लेकिन पारदर्शी दीवार उठती है।रोमांटिक होना क्या है, सुन्दर और संवेदनशील होना! एक ऐसी ख़ुशबू को साथ लेकर चलना जो उदासी को बिल्कुल नागवार है।
रोमांस की अनगिनत फ़ाइल एक साथ खुली हो। प्रेम की तरह नहीं है यह सब, प्रेम में एक ही समय में मूर्ख, बुद्धिमान, पागल, सुन्दर, हसीन, बेढंग, संवेदनशील, लापरवाह सब एक साथ होना होता है। बल्कि रोमांस में नाटकीयता है, एक कि़स्म का सनसनीपन रिझाने के लिए।
कौन है जो रोमांस नहीं करना चाहता, या ख़ुद से साथ रोमांस होने को जीना नहीं चाहता!
रोमांटिक होना, ख़ुद को खोजना भी तो है। इसमें कभी हम ख़ुद को तो कोई दूसरा हमें खोजता है। शायद इसलिए भी यह ताजगी से भरा होता है क्योंकि इस प्रक्रिया में अतीत नहीं होता, किसी के पास कोई शिकायत नहीं होती। यहाँ एक शोख़पन और मादकपन है। बेफिक्री है, उम्मीदों से भरे अनगिनत सपने।
आज भी तमाम रूढिय़ों से अभिशप्त हमने एक खूँटी से ख़ुद को टाँग दिया है, जबकि रोमांस के कैनवास पर यह कलाकृतियाँ उकेरने का समय है।
लोकसभा चुनाव 2024 का परिणाम आने में कुछ घंटों का समय बचा है लेकिन एक जून को अंतिम चरण के मतदान खत्म होने के बाद से एग्जिट पोल्स को लेकर चर्चाएं बनी हुई हैं।
इस लोकसभा चुनाव को लेकर जितने भी एग्जि़ट पोल्स आए हैं, उनमें सत्तारूढ़ बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन एनडीए को बड़ी जीत मिलने का अनुमान है।
शनिवार की शाम को एग्जिट पोल्स आने के बाद से इस पर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं।
एक तरफ जहां बीजेपी के नेता अपनी जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे हैं, वहीं कांग्रेस और विपक्षी इंडिया गठबंधन के नेताओं का कहना है कि एग्जिट पोल्स जमीनी हकीकत से कोसों दूर हैं।
इन राजनीतिक बयानबाजियों के बीच पूरी दुनिया की नजरें भी भारत के लोकसभा चुनावों के परिणाम पर लगी हुई हैं। कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठनों ने एग्जिट पोल्स की खबरों और उसके विश्लेषण को अपने प्लेटफॉम्र्स पर जगह दी है।
बाजार में उछाल
अमेरिकी मीडिया कंपनी ब्लूमबर्ग ने एग्जिट पोल्स से जुड़ी खबर को प्रकाशित करते हुए शीर्षक दिया है- ‘मोदी चुनावों में भारी जीत के लिए तैयार,’
खबर में लिखा गया है, ‘कई एग्जिट पोल्स दिखाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी लगातार तीसरी बार भारत के चुनाव में निर्णायक बहुमत हासिल करने के लिए तैयार है।
दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की सत्ता के शीर्ष पर वो एक दशक से भी लंबे कार्यकाल का विस्तार करेंगे।’
‘पोल्स दिखाते हैं कि उनकी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) काफ़ी हद तक बहुमत के लिए 272 सीटों से अधिक का आँकड़ा पा लेगी। आधिकारिक चुनावी परिणाम चार जून को जारी होंगे।’
ब्लूमबर्ग की ख़बर में आगे लिखा है, ‘एग्जिट पोल्स के आधार पर मोदी ने बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन की जीत का दावा किया है और कहा है कि खासकर गऱीबों समेत मतदाताओं को सत्तारूढ़ पार्टी के ट्रैक रिकॉर्ड ने प्रभावित किया है।’
इसमें बताया गया है कि ये परिणाम भारत के वित्तीय बाज़ार को प्रोत्साहित कर सकते हैं जो कि बीते सप्ताह में अधिक उतार-चढ़ाव भरा रहा है।
ब्लूमबर्ग से जियोजिट फ़ाइनैंशियल सर्विसेज़ के मुख्य निवेशक रणनीतिकार वीके विजयकुमार ने अनुमान लगाया है कि सोमवार को बाज़ार में उछाल आएगा और यह उछाल आया भी।
उन्होंने कहा कि एग्जिट पोल्स उन चुनावी आशंकाओं को खारिज कर देगा जो मई से बढ़ रही थीं।
अल-जजीरा ने क्या कहा है?
कतर के मीडिया समूह अल-जजीरा ने भी एग्जिट पोल्स को अपने प्लेटफॉर्म पर जगह दी है। अल-जजीरा ने ‘मोदी मैजिक: भारतीय एग्जिट पोल्स ने बीजेपी के रिकॉर्ड जीत का अनुमान लगाया।’
इस खबर में लिखा गया है, ‘शनिवार की शाम जारी हुए एग्जिट पोल्स दिखाते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल के लिए भारी बहुमत से दोबारा चुने जा सकते हैं। अगर मंगलवार 4 जून को आने वाले परिणाम पोल्स का समर्थन करते हैं तो मोदी की भारतीय जनता पार्टी बढ़ती असमानता, उच्च स्तर की रिकॉर्ड बेरोजग़ारी और बढ़ती कीमतों के मुद्दों से न केवल सुरक्षित बच निकलेगी बल्कि 2019 के पिछले चुनाव से बेहतर प्रदर्शन करेगी।’
‘स्वतंत्र भारत में कोई भी प्रधानमंत्री कभी भी लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव हर बार बेहतर परिणाम से नहीं जीत सका है। भारतीय मीडिया संगठनों के कम से कम सात एग्जिट पोल्स ने बीजेपी और उसके गठबंधन के 543 सीटों वाली लोकसभा में 350-380 सीटों की जीत का अनुमान लगाया है।’
‘भारत में एग्जि़ट पोल्स के अलग-अलग रिकॉर्ड रहे हैं और बीते सर्वे में ये अलग-अलग पार्टियों को कभी कम और कभी अधिक आंकते रहे हैं। हालांकि, बीते दो दशकों में कुछ अपवादों को छोडक़र बड़े पैमाने पर इनके अनुमान लगभग सही रहे हैं।’
दिल्ली स्थित सेंटर फ़ॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो नीलांजन सरकार अल-जजीरा से कहते हैं, ‘मोदी असाधारण रूप से लोकप्रिय हैं। बीजेपी का यह चुनावी कैंपेन पूरी तरह से मोदी पर केंद्रित था। इस दौरान कई अनुमान लगाए गए जो बताते थे कि लोग सरकार से नाख़ुश हैं लेकिन इनको सीटों में बदलना हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है।’
दक्षिण भारत में बीजेपी की जीत का भी अनुमान
अल-जजीरा की खबर में लिखा गया है, ‘कई एग्जि़ट पोल्स में अनुमान लगाया गया है कि बीजेपी देश के दक्षिण राज्यों में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। बीजेपी के केरल में दो से तीन सीटों की जीत का अनुमान लगाया गया है जो कि भारत में वामपंथ का आखिरी गढ़ है और जहां पर मोदी की पार्टी आज तक नहीं जीत दर्ज कर पाई है। बीजेपी तमिलनाडु में भी एक से तीन सीटें जीत सकती है, जहां बीते चुनावों में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी।’
राजनीतिक टिप्पणीकार आसिम अली अल-जज़ीरा से कहते हैं, ‘दक्षिण में मिलती दिख रही बढ़त चौंकाने वाली है। और अनुमान बहुत बड़ी बढ़त दिखा रहे हैं। अगर बीजेपी कोई सीटें नहीं भी जीतती है तो भी अगर उनके वोट शेयर में बढ़त होती है तो ये बड़ा बदलाव होगा।’
ब्लूमबर्ग ने एग्जि़ट पोल्स पर एक और लेख भी प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है-‘भारत का एग्जि़ट पोल्स संकेत से अधिक शोर हो सकता है।’
इस लेख में बताया गया है, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के आम चुनाव में एक जबरदस्त जीत के लिए तैयार हैं, ये दावा तकरीबन हर एग्जिट पोल में किया गया है। हालांकि, अतीत में ये दावे पूरी तरह से गलत साबित हुए हैं और इस बार इनको बेहद सावधानी से देखा जाना चाहिए क्योंकि मोदी सरकार का टीवी स्टेशनों पर बहुत अधिक प्रभाव है।’
‘मंगलवार को शायद वास्तविक संख्या में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को अगले पांच साल के कार्यकाल के लिए सीटें मिल जाएं लेकिन एनडीए को 350 से अधिक सीटों जैसे इतने बड़े जनादेश का अनुमान हर एग्जि़ट पोल में लगाना सुनने में अवास्तविक लगता है।’
‘350 सीटों से पार जाना एनडीए के 2019 के परिणाम को दोहराव होगा। उस समय मोदी ने पाकिस्तान में आतंकी ट्रेनिंग कैंप पर एयरस्ट्राइक को मुद्दा बनाया था। इस बार राष्ट्रीय सुरक्षा कोई चुनावी मुद्दा नहीं था। विपक्षी इंडिया गठबंधन ने एक आक्रामक चुनावी अभियान चलाया, जिसमें उसने बढ़ती बेरोजग़ारी, महंगाई को मुद्दा बनाया। वहीं मोदी ने खुद को ऐसी चिंताओं से ऊपर उठाने का विकल्प चुना।’
‘उन्होंने (पीएम मोदी) उद्योगपति मुकेश अंबानी के टीवी चैनल से कहा, ‘मैं मान चुका हूं कि भगवान ने मुझे भेजा है।’ उद्योगपति गौतम अदानी के नियंत्रण वाले मीडिया समूह को दिए इंटरव्यू में मोदी ने 1000 साल के नज़रिए पर बात की।’
‘मीडिया की समर्थक वाली भूमिका ऐसी पहली बार नहीं है। साल 2004 में एग्जि़ट पोल्स ग़लत साबित हुए थे। इसमें एनडीए गठबंधन को ताज़ा चुनाव में 240 से 275 सीटें दी गई थीं लेकिन उसको 187 सीटें मिलीं और वो सरकार से बाहर हो गई। इस साल का सर्वे अत्यंत असामान्य इसलिए भी दिखता है क्योंकि कम से कम तीन पोल्स ने एनडीए के 400 सीटों के नारे को ही अनुमानित परिणाम बताया है।’
एग्जिट पोल्स को लेकर संदेह
चुनाव के बाद एग्जि़ट पोल्स हमेशा एकदम सटीक साबित हों ये भी तय नहीं है। अमेरिकी अखबार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ ने साल 2014 में लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के बाद एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था- ‘भारतीय एग्जि़ट पोल्स क्यों भरोसेमंद नहीं हैं?’
इस लेख में बताया गया है कि ‘भारत में एग्जि़ट पोल्स को लेकर अविश्वास और संदेह रहा है।’
राजनीतिक विश्लेषक प्रवीण राय ने अखबार से कहा था कि 1998 और 1999 चुनाव के अनुमान बिल्कुल सटीक थे जबकि 2004 और 2009 के अनुमान बिलकुल उलट थे।
इस लेख में बताया गया है, ‘एक व्यापक मत और शायद तर्कसंगत भी है कि भारत में राजनीतिक सर्वे पक्षपातपूर्ण हैं। भारतीय मीडिया कंपनियां अधिकतर पोल्स करती हैं, जिनमें से अधिकतर का पूर्वाग्रह होता है।’
विपक्ष की ओर से उठाए जा रहे संविधान और आरक्षण के मुद्दों का दलितों पर कैसा असर
एग्जिट पोल्स में किसने किसको
कितनी सीटें दीं?
एबीपी-सीवोटर के अनुमानों में एनडीए 353-383 सीटों पर चुनाव जीत सकती है, वहीं इंडिया गठबंधन 152-182 सीटों पर और अन्य पार्टियों को 4-12 सीटें मिल सकती हैं।
न्यूज 24-टूडेज चाणक्य ने एनडीए के 400 से अधिक सीटें हासिल करने का अनुमान लगाया है। चाणक्य के एग्जि़ट पोल में कहा गया है कि बीजेपी को 335 से अधिक सीटें मिल सकती हैं वहीं कांग्रेस को 50 से अधिक और इंडिया गठबंधन को 107 से अधिक सीटें मिल सकती हैं।
इंडिया टीवी के एग्जि़ट पोल में एनडीए को 371-401 और कांग्रेस को 109-139 सीटें मिल सकती हैं। वहीं अन्य पार्टियों को 28-38 सीटें मिल सकती हैं।
रिपब्लिक टीवी-पीएमएआरक्यू मैट्रिज के एग्जि़ट पोल में एनडीए को बड़ी बढ़त मिलती दिख रही है। एनडीए को 359 सीटों पर और इंडिया गठबंधन को 154 सीटों जीत मिलने का आकलन लगाया गया है। वहीं 30 सीटें अन्य पार्टियों को मिल सकती हैं।
जन की बात के एग्जि़ट पोल के आंकड़ों के अनुसार एनडीए के खाते में 377 सीटें जा सकती हैं। वहीं इंडिया गठबंधन को 151 सीटों पर और अन्य पार्टियों को 15 सीटों पर जीत सकती है।
इंडिया न्यूज़-डी-डायनामिक्स के एग्जि़ट पोल के अनुसार एनडीए को 371 और इंडिया गठबंधन को 125 सीटें मिलने का आकलन किया गया है। इसके अनुसार अन्य पार्टियों को 47 सीटें मिल सकती हैं। (bbc.com/hindi)
पद्मश्री मालती जोशी : जयंती 4 जून पर विशेष
- प्रो. संजय द्विवेदी
ख्यातिनाम कथाकार, उपन्यासकार श्रीमती मालती जोशी के निधन की सूचना ने साहित्य जगत में जो शून्य रचा है, उसकी भरपाई संभव नहीं है।गत 15 मई, 2024 को उन्होंने अपनी नश्वर देह त्याग दी। अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय परिवारों के रिश्तों, संवेदनाओं, परंपराओं, मूल्यों की कथा कहने वाली मालती जोशी अपने तरह की विलक्षण कथाकार हैं। उनकी परंपरा में हिंदी साहित्य में कथाकार शिवानी के अलावा दूसरा नाम भी नहीं मिलता। पद्मश्री से अलंकृत मालती जोशी को पढ़ना विरल सुख देता रहा है। सरलता,सहजता से कथा बुनती ताई अपने कथारस में बहा ले जाती थीं और रोप जाती थीं संस्कारों और मूल्यों की वह थाती जो कहीं बिसराई जा रही है। नारेबाजियों से अलग ताकतवर स्त्रियों पात्रों के माध्यम से पारिवारिक मूल्यों की स्थापना उनके जीवन का ध्येय रहा है।
लीक तोड़कर लिखने और अपार लोकप्रियता अर्जित करने के बाद भी मालती जोशी हिंदी साहित्य आलोचना में हाशिए पर हैं। इसका कारण बहुत स्पष्ट है। उनकी रचनाएं भारतीय विचार और भारतीय परिवार के मूल्यों को केंद्र में रखती हैं। वे साहित्य सर्जना में चल रही खेमेबाजी, गुटबाजी से अलग अपनी राह चलती रही हैं। साहित्य क्षेत्र में चल रहे वाम विचारी संगठनों और उनकी अतिवादी राजनीति से उन्होंने अपनी दूरी बनाए रखी। इसके चलते उनके विपुल लेखन और अवदान पर साहित्य के मठाधीशों की नजर नहीं जाती। अपने रचे मानकों और तंग दायरों की आलोचना द्वारा मालती जी की उपेक्षा साधारण नहीं है। यह भारतीय मन और विचार के प्रति मालती जी प्रतिबद्धता के कारण ही है। अपनी लेखन शैली से उन्होंने भारतीय जनमन को प्रभावित किया है,यही उनकी उपलब्धि है। क्या हुआ जो आलोचना के मठाधीशों द्वारा वे अलक्षित की गयीं। सही मायनों में रचना और उसका ठहराव ही किसी लेखक का सबसे बड़ा सम्मान है। परंपरा, भारतीय परिवार, संवेदना और मानवीय मूल्यों की कथाएं कहती हुई मालती जोशी अपने समय के कथाकारों बहुत आगे नजर आती हैं। उनकी अपार लोकप्रियता यह प्रमाण है कि सादगी से बड़ी बात कही जा सकती है। इसके लिए मायावी दुनिया रचने और बहुत वाचाल होने की जरूरत नहीं है। अपनी जमीन की सोंधी मिट्टी से उन्होंने कथा का जो परिवेश रचा वह लंबे समय तक याद किया जाएगा।
अप्रतिम लोकप्रियता-
हिंदी वर्तमान परिदृश्य पर बहुत कम कथाकार हैं, जिन्हें पाठकों की ऐसी स्वीकार्यता मिली हो। औरंगाबाद(महाराष्ट्र) के मराठी परिवार 4 जून 1934 को जन्मीं मालती जोशी के न्यायाधीश पिता मध्यप्रदेश में कार्यरत थे, इससे उन्हें इस प्रांत के कई जिलों में रहने और लोकजीवन के करीब से देखने का अवसर मिला। 1956 में उन्होंने इंदौर के होलकर कॉलेज से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की। किशोरावस्था में ही लेखन का शुरूआत कर मालती जी जीवन के अंतिम समय तक लेखन को समर्पित रहीं। उनका प्रारंभिक लेखन तो गीत के माध्यम से हुआ, बाद में वे बाल साहित्य भी लिखती रहीं फिर कहानी विधा को समर्पित हो गईं। उनके कथा लेखन को राष्ट्रीय पहचान ‘धर्मयुग’ पत्रिका से मिली और भारतीय परिवारों की चर्चित लेखिका बन गयीं। ‘धर्मयुग’ में आपकी पहली कहानी ‘टूटने से जुड़ने तक’ 1971 में छपी और तब से उन्होंने मुड़कर नहीं देखा। देश की चर्चित पत्रिकाओं कादम्बिनी,साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत, सारिका, मनोरमा के माध्यम से वे पाठकों की बड़ी दुनिया में अपनी जगह बना चुकी थीं। 60 से अधिक कृतियों की रचना कर मालती जी ने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया है। उनकी सतत रचनाशीलता ने उन्हें भारतीय साहित्य का अनिवार्य नाम बना दिया है।
परिवार और संवेदना के ताने बाने-
मालती जोशी मूलतः रिश्तों की कथाकार हैं। निजी जीवन में भी उनकी सरलता, सहजता और विनम्रता की यादें सबकी स्मृति में हैं। पारिवारिक, सामाजिक, घरेलू दायित्वों को निभाती हुई एक सरल स्त्री किंतु ताकतवर स्त्री उनकी निजी पहचान है। जिसने साहित्य सृजन के लिए कोई अतिरिक्त मांग नहीं की। किंतु जो किया वह विलक्षण है। परिवार और बच्चों के दायित्वों को देखते हुए अपने लेखन के लिए समय निकालना, उनकी जिजीविषा थी। आखिरी सांस तक वे परिवार की डोर को थामे लिखती रहीं। लिखना उनका पहला प्यार था । इंदौर, भोपाल, दिल्ली, मुंबई उनके ठिकाने जरूर रहे किंतु वे रिश्तों,संवेदनाओं और भारतीय परिवारों की संस्कारशाला की कथाएं कहती रहीं। 90 साल की उनकी जिंदगी में बहुत गहरे सामाजिक सरोकार हैं। उनके पति श्री सोमनाथ जोशी , अभियंता और समाजसेवी के रूप में भोपाल के समाज जीवन में ख्यात रहे। सन् 1981 से वे ज्यादातर समय भोपाल में रहकर निरंतर पारिवारिक दायित्वों और लेखन,सृजन में समर्पित रहीं। 2001 में पति के निधन के बाद उन्होंने खुद को और परिवार को संभाला। उनके सुपुत्र डॉ.सच्चिदानंद जोशी संप्रति अपनी मां की विरासत का विस्तार कर रहे हैं। वे न सिर्फ एक अच्छे कथाकार और कवि हैं, बल्कि उन्होंने संस्कृति और रंगमंच के कलाक्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। उनकी पुत्रवधू श्रीमती मालविका जोशी भी कथाकार और रंगमंच की सिद्ध कलाकार हैं।
मध्यवर्गीय भारतीय परिवार उनकी कथाओं में प्रायः दिखते हैं। संस्कारों से रसपगी भारतीय स्त्री के सौंदर्य,साहस और संवेदना की कथाएं कहती हुए मालती जोशी बड़ी लकीर खींचती हैं। वर्गसंघर्ष की एक जैसी और एकरस कथाएं कहते कथाकारों के बीच मालती जोशी भारतीय परिवारों और उनके सुंदर मन की आत्मीय कथाएं लेकर आती हैं। अपनी सहज, सरल भाषा से वे पाठकों के मनों और दिलों में जगह बनाती हैं। उनको पढ़ने का सुख अलग है। उनकी कहानियां बेहद साधारण परिवेश से निकली असाधारण नायकों की कहानियां हैं। जो जूझते हैं, जिंदगी जीते हैं किंतु कड़वाहटें नहीं घोलते। बहुत सरल, आत्मीय और हम-आपके जैसे पात्र हमारे आसपास से ही लिए गए हैं। कथा में जीवन की सरलता-सहजता की वे वाहक हैं। मालती जी के पात्र बगावत नहीं करते, झंडे नहीं उठाते, नारे नहीं लगाते। वे जिंदगी से जूझते हैं, संवेदना के धागों से जुड़कर आत्मीय,सरल परिवेश रचते हैं। मालती जी की कथाओं यही ताकतवर स्त्रियां हैं, जो परिवार और समाज के लिए आदर्श हो सकती हैं। जो सिर्फ जी नहीं रहीं हैं, बल्कि भारतीय परिवारों की धुरी हैं।
स्त्री के मन में झांकती कहानियां-
मालती जोशी ने अपनी कहानियों में स्त्री के मन की थाह ली है। वे मध्यवर्गीय परिवारों की कथा कहते हुए स्त्री के मन, उसके आत्मसंघर्ष, उसकी जिजीविषा और उसकी शक्ति सबसे परिचित कराती हैं। संवेदना के ताने-बाने में रची उनकी रचनाएं पाठकों के दिलों में उतरती चली जाती हैं। पाठक पात्रों से जुड़ जाता है। उनके रचे कथारस में बह जाता है। अनेक भारतीय भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद इसलिए हुए क्योंकि वे दरअसल भारतीय परिवारों की कथाएं कह रही थीं। उनके परिवार और उनकी महिलाएं भारत के मन और संस्कारों की भी बानगी पेश करती हैं। भारतीय परिवार व्यवस्था वैसे भी दुनिया के लिए चिंतन और अनुकरण का विषय है। जिसमें स्त्री की भूमिका को वे बार-बार पारिभाषित करती हैं। उसके आत्मीय चित्रण ने मालती जोशी को लोकप्रियता प्रदान की है। उनकी कहानियां आम आदमी, आम परिवारों की असाधारण कहानियां हैं। औरत का एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विषय दोनों है। इस अर्थ में मालती जी विलक्षण मनोवैज्ञानिक कथाकार भी हैं। उनके पात्र समाज के सामने समाधानों के साथ आते हैं। सिर्फ संकट नहीं फैलाते। उनकी भाषा में जहां प्रसाद और माधुर्य के गुण हैं वहीं वे आवेग और आवेश की धारा से जुड़ जाती हैं। संकेतों में वे जो भाव व्यक्त कर देती हैं वह सामान्य लेखकों के लिए विस्तार की मांग करता है।
मालवा की मीरा और कथाकथन की शैली-
मालती जोशी के प्रमुख कहानी संग्रहों में पाषाण युग, मध्यांतर, समर्पण का सुख, मन न हुए दस बीस, मालती जोशी की कहानियां, एक घर हो सपनों का, विश्वास गाथा, आखिरी शर्त, मोरी रंग दी चुनरिया, अंतिम संक्षेप, एक सार्थक दिन, शापित शैशव, महकते रिश्ते, पिया पीर न जानी, बाबुल का घर, औरत एक रात है, मिलियन डॉलर नोट आदि शामिल हैं। मालती जोशी ने केवल कविताएं या कहानियां ही नहीं बल्कि उपन्यास और आत्म संस्मरण भी लिखे हैं। उपन्यासों में पटाक्षेप, सहचारिणी, शोभा यात्रा, राग विराग आदि प्रमुख हैं। वहीं उन्होंने एक गीत संग्रह भी लिखा, जिसका नाम है, ‘मेरा छोटा सा अपनापन’। उन्होंने ‘इस प्यार को क्या नाम दूं? नाम से एक संस्मरणात्मक आत्मकथ्य भी लिखा। उनकी एक और खूबी रही कि उन्होंने कभी भी अपनी कहानियों का पाठ कागज देखकर नहीं किया, क्योंकि उन्हें अपनी कहानियां, कविताएं जबानी याद रहतीं थीं। मराठी में ‘कथाकथन’ की परंपरा को वे हिंदी में लेकर आईं। उनके कथापाठ में उपस्थित रहकर लोग कथा को सुनने का आनंद लेते थे। इन पंक्तियों के लेखक को भी उनके कथाकथन की शैली के जीवंत दर्शन हुए थे। बिना एक कागज हाथ में लिए वे जिस तरह से कथाएं सुनातीं थीं वह विलक्षण था। दूरदर्शन उनकी सात पर कहानियों पर श्रीमती जया बच्चन ने ‘सात फेरे’ बनाया। इसके अलावा गुलजार निर्मित ‘किरदार’ में भी उनकी दो कहानियां थीं। आकाशवाणी पर उनकी अनेक कहानियों के प्रसारण हुए। जिसने कथाकथन की उनकी शैली को व्यापक लोकप्रियता दिलाई।
इसके साथ ही मालती जोशी ने कई बालकथा संग्रह भी लिखे हैं, इनमें, दादी की घड़ी, जीने की राह, परीक्षा और पुरस्कार, स्नेह के स्वर, सच्चा सिंगार आदि शामिल हैं। उनके निधन पर मध्यप्रदेश के अखबारों ने उन्हें ‘मालवा की मीरा’ कहकर प्रकाशित संबोधित किया। इसका कारण यह है कि लेखन के शुरुआती दौर में मालती जोशी कविताएं लिखा करती थीं। उनकी कविताओं से प्रभावित होकर उन्हें मालवा की मीरा नाम से भी संबोधित किया जाता था। उन्हें इंदौर से खास लगाव था। वे अक्सर कहा करती थीं कि इंदौर जाकर मुझे सुकून मिलता है, क्योंकि वहां मेरा बचपन बीता, लेखन की शुरुआत वहीं से हुई और रिश्तेदारों के साथ ही उनके सहपाठी भी वहीं हैं। यह शहर उनकी रग-रग में बसा था। खुद अपनी आत्मकथा में मालती जोशी ने उन दिनों को याद करते हुए लिखा है, ‘मुझमें तब कविता के अंकुर फूटने लगे थे, कॉलेज के जमाने में इतने गीत लिखे कि लोगों ने मुझे ‘मालव की मीरा’ की उपाधि दे डाली।’ कथाकथन के तहत उनकी अनेक कहानियां यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। इसकी सीडी भी उपलब्ध है।
देह के विमर्श में परिवार की कहानियां-
मालती जोशी की कहानियां इस अर्थ में बहुत अलग हैं कि वे परिवार और सामाजिक मूल्यों की कहानियां हैं। उनके पात्र अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते और मूल्यों की स्थापना में सहयोगी हैं। वे परंपरा के भीतर रहकर भी सुधार का आग्रह करते हैं। मालती जी ने एक इंटरव्यू में स्वयं कहा था- “हिंदी साहित्य में स्त्री देह का विमर्श और बोल्डनेस बढ़ गया है किंतु मैं पारिवारिक कहानियां कहती हूं।” उन्होंने कहा था कि “ मेरी कहानियों में आपको कहीं बेडसीन नहीं मिलेगा। मैं जितना परहेज अपने बहू-बेटे के कमरे में जाने से करती हूं, उतना ही अपने पात्रों के बेडरूम में जाने से करती हूं।” वे साफ कहती थीं कि नारीवाद के नाम पर हमेशा नारेबाजी के बजाए विनम्रता से भी स्त्रियों का पक्ष रखा जा सकता है। इन अर्थों में मालती जी कहानियों के पात्र अलग तरह से प्रस्तुत होते हैं। वे पितृसत्ता के साथ टकराते हैं, नये विचारों से भरे-पूरे हैं, किंतु नारे नहीं लगाते। वे बदलाव के नायक और साक्षी बनते हैं। अपने निजी जीवन में भी इसे मानती हैं। इसी इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि पारंपरिक मराठी परिवारों शादी के बाद बहू का नाम बदलने की परंपरा है। जब उनसे पति ने पूछा कि आपको क्या नाम पसंद है। तो उनका कहना था मेरे नाम में क्या बुराई है। वे बताती हैं कि मैंने न अपना नाम बदला न बहुओं का नाम बदलने दिया। वे मानती थीं कि नाम बदलने से स्त्री की पूरी पहचान बदल जाती है। उन्होंने एक अन्य इंटरव्यू में कहा है कि वे स्त्रियों की स्वतंत्रता की पक्षधर हैं किंतु स्वच्छंदता की नहीं।
उनकी रचना प्रक्रिया पर दीपा लाभ ने लिखा है- “मालती जोशी की भाषा-शैली बेहद सरल, सुगम और सहज है। उनके सभी पात्र आम जीवन से प्रेरित हमारे-आपके बीच के क़िरदार हैं। अधिकतर कहानियाँ स्त्री-प्रधान हैं किन्तु न तो वे दबी-कुचली अबला नारी होती है और ना ही शहरी, ओवरस्मार्ट कामकाजी लडकियाँ - उनके सभी पात्र यथार्थ के धरातल से निकले वास्तविक-से प्रतीत होते हैं। उनकी कथाओं से सकारात्मकता का संचार होता है जो स्वतः ही दिल की गहराइयों में उतरता चला जाता है। पुरुष पात्रों को भी निरंकुश या अहंकारी नहीं बनाकर उन्होंने कई दफ़े उनके सकारात्मक पक्षों को उजागर किया है। मध्यम-वर्गीय परिवारों की आम समस्याएँ, दैनिक जद्दोजहद और मन के भावों को बहुत संवेदनशील अंदाज़ में संवाद रूप में प्रस्तुत करना।”
सर्जना का सम्मान -
साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन का भवभूति अलंकरण, मध्यप्रदेश सरकार का साहित्य शिखर सम्मान, ओजस्विनी सम्मान, दुष्यंत कुमार सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दिनकर संस्कृति सम्मान,माचवे सम्मान, महाराष्ट्र शासन द्वारा सम्मान, वनमाली सम्मान, मॉरीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन में पुरस्कृत होने के साथ साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिये भारत सरकार द्वारा 2018 में पद्मश्री सम्मान से भी नवाजा जा चुका है।
उनकी कथा संवेदना बहुत व्यापक है। इसीलिए वे पाठकों के बीच समादृत हैं। जयप्रकाश पाण्डेय लिखते है- “मालती जोशी अपनी कहानियों से संवेदना का एक अलग संसार बुनती हैं, जिसमें हमारे आसपास के परिवार, उनका राग और परिवेश जीवंत हो उठते हैं। उनकी कहानियां संवाद शैली में हैं, जिनमें जीवन की मार्मिक संवेदना, दैनिक क्रियाकलाप और वातावरण इस सुघड़ता से चित्रित हुए हैं कि ये कहानियां मन के छोरों से होते हुए चलचलचित्र सी गुजरती हैं. इतनी कि पाठक कथानक में बह उनसे एकाकार हो जाता है।” हिंदी साहित्य जगत पर अमिट छाप छोड़ने वाली मालती जोशी की मराठी में भी ग्यारह से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कहानियों का मराठी, उर्दू, बंगला, तमिल, तेलुगू, पंजाबी, मलयालम, कन्नड भाषा के साथ अँग्रेजी, रूसी तथा जापानी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।
अब जबकि 90 साल की सक्रिय जिंदगी जीकर 15 मई,1924 को वे हमें छोड़कर जा चुकी हैं, उनकी स्मृतियां ही हमारा संबल हैं। हमारे जैसे न जाने कितने लोग इस बात का जिक्र करते रहेंगे कि उन्होंने मालती ताई को देखा था। एक लेखिका, एक मां, एक सामाजिक कार्यकर्ता और प्रेरक व्यक्तित्व की न जाने कितनी छवियों में वे हमारे साथ हैं और रहेंगीं। उनकी रचनाएं लंबे समय तक भारतीय परिवारों को उनकी शक्ति, जिजीविषा और आत्मीय परिवेश की याद दिलाती रहेंगीं। भावभीनी श्रद्धांजलि!!
(प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल के जनसंचार विभाग में आचार्य हैं। आप भारतीय जनसंचार संस्थान,नई दिल्ली के महानिदेशक रहे हैं।)
शंभूनाथ
19वीं सदी में हिंदू धर्म सती प्रथा, विधवा पुनर्विवाह और छुआछूत समाप्ति के बड़े सुधारों से गुजर रहा था। वह अपने नए आधुनिक गौरव की तरफ बढ़ रहा था, तभी 1885 में ‘सनातन धर्म सभा’ की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य हिंदू धर्म में चल रहे सुधारों का विरोध करना था और संरक्षणवाद को फैलाना था। यह दयानंद सरस्वती के आर्य समाज के भी विरोध में था और दलितों को छुआछूत से मुक्त करने के उनके अभियान के पक्ष में नहीं था।
सनातन धर्म सभा के मुख्य कर्ताधर्ता एक संपन्न ब्राह्मण पुरोहित दीन दयालु थे। इस संगठन ने आगे चलकर गांधी के अछूतोद्धार कार्यक्रम का भी विरोध किया, पर उस दौर में उन सबका विरोध आंधी में पतंग उड़ाने जैसा था।
हिंदू धर्म में सुधारों का विरोध करने के उद्देश्य से ही 1902 में ’भारत धर्म महामंडल’ की स्थापना की गई। ये सभी सनातनी संगठन उस दौर में विवेकानंद के विचारों के भी विरोधी थे।
1910 में छपी एक पुस्तिका ’भारत धर्म महामंडल रहस्य’ में रूढि़पोषक सनातनपंथियों की देशभक्ति का उदाहरण इस प्रकार है, ’परम दयालु परमेश्वर की कृपा से आर्य प्रजा को इस प्रकार की नीतिज्ञ और उदार गवर्नमेंट मिली है कि ऐसी गवर्नमेंट विदेशियों के हित के लिए विश्व भर में और कहीं देखने में नहीं आती।’ रूढि़पोषक सनातनपंथियों की एक बड़ी सीमा आर्यावर्त है, अर्थात उत्तर भारत को ही भारत समझने की है, जबकि भारत एक बड़ा देश है।
निश्चय ही हिंदू धर्म सनातन धर्म से अधिक व्यापक है। हम अप्पर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, सूर, मीरा, तुलसी, सहजोबाई, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, श्री अरविंद आदि को सनातनी नहीं कह सकते। स्पष्ट है कि सनातन धर्म के पुनरुत्थान में लगे लोग वस्तुत: जाति व्यवस्था और पितृसत्ता के तो कट्टर समर्थक हैं ही, ये भारत के स्वभाव से ही अनजान हैं। ऊपर की प्रवृत्ति को देखते हुए इनकी देशभक्ति पर भी संदेह किया जाना चाहिए!
हम प्राचीन काल से ही ’नवोन्मेषशील सनातन’ और ’जड़ांध सनातन’ की दो धाराएं स्पष्ट देख सकते हैं। इसलिए इस समय सनातन को लेकर बढ़ रहे हुंकार को देश पर एक बड़े खतरे की घंटी के रूप में देखना चाहिए। 19वीं-20वीं सदी में उनकी भूमिका से बहुत कुछ स्पष्ट है।
भारतीय अदालतों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और चैटजीपीटी का इस्तेमाल धीरे-धीरे बढ़ रहा है. लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में चैटजीपीटी के इस्तेमाल की कई चुनौतियां भी हैं.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी का लिखा-
भारतीय अदालतों में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और चैटजीपीटी का इस्तेमाल धीरे-धीरे बढ़ रहा है। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में चैटजीपीटी के इस्तेमाल की कई चुनौतियां भी हैं।
बीते साल पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने एक मामले मे इसकी सहायता ली थी। अब पूर्वोत्तर में मणिपुर हाईकोर्ट ऐसा कोर्ट ऐसा करने वाली दूसरी अदालत बन गई है। वैसे, अमेरिका समेत कई देशों में न्यायिक प्रक्रिया और कानूनी सलाह के लिए पहले से ही इस तकनीक इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन भारत में यह अभी शुरुआत है। इसके साथ ही यहां इस तकनीक के इस्तेमाल से पैदा होने वाली चुनौतियां पर भी चर्चा तेज होने लगी है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बीते महीने एक कार्यक्रम में कहा था कि अदालती कार्यवाही में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को शामिल करने से जटिल नैतिक, कानूनी और व्यावहारिक चुनौतियां सामने आ रही हैं।
मणिपुर हाईकोर्ट का फैसला
मणिपुर हाईकोर्ट ने एक मामले में शोध करने के लिए चैटजीपीटी का इस्तेमाल किया है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश ए। गुणेश्वर शर्मा ने कहा कि उन्होंने ग्रामीण रक्षा बल (वीडीएफ) के एक कर्मचारी की बर्खास्तगी को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई के दौरान एआई तकनीक की मदद ली थी। उन्होंने सरकारी वकील से पूछा था कि किन हालात में अधिकारी उसकी दोबारा बहाली का आदेश दे सकते हैं। उनकी ओर से इसका कोई जवाब नहीं मिलने के बाद जज ने गूगल और चैटजीपीटी की मदद लेने का फैसला किया। इसके बाद अदालत ने याचिकर्ता की बहाली का आदेश सुनाया।
इस मामले में याचिकाकर्ता के वकील अजमल हुसैन डीडब्ल्यू को बताते हैं, ‘मणिपुर में वीडीएफ की स्थापना खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस की सहायता के लिए की गई थी। इसके लिए चुने गए सदस्यों को जरूरी प्रशिक्षण के बाद पुलिस वालों के साथ ड्यूटी पर तैनात किया जाता है। बीते साल मई में जातीय हिंसा शुरू होने के बाद से स्थानीय स्तर पर सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने में इस बल की भूमिका काफी अहम है। चैटजीपीटी ने अदालत को सही फैसला लेने में मदद दी।’
इससे पहले पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने बीते साल एक आपराधिक मामले में अभियुक्त की जमानत याचिका पर फैसला सुनाने के लिए एआई चैटबॉट चैटजीपीटी से कानूनी सलाह ली थी। उससे मिले जवाब के आधार पर अदालत ने अभियुक्त की जमानत याचिका खारिज कर दी थी।
चैटजीपीटी का कोर्ट में क्या काम
भारतीय सुप्रीम कोर्ट वर्ष 2021 से ही जजों को विभिन्न मामले में फैसला लेने के लिए संबंधित सूचनाओं को प्रोसेस कर उपलब्ध कराने के लिए एआई-नियंत्रित टूल का इस्तेमाल कर रहा है। इसके अलावा अंग्रेजी से दूसरी भाषाओं या दूसरी भाषाओं से अंग्रेजी में कानूनी दस्तावेजों के अनुवाद के लिए सुप्रीम कोर्ट विधिक अनुवाद सॉफ्टवेयर का भी इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन किसी फैसले में मदद के लिए एआई और चैटजीपीटी का इस्तेमाल पहली बार पिछले साल पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने ही किया था। अब मणिपुर ऐसा करने वाला दूसरा राज्य है।
मणिपुर हाईकोर्ट के एडवोकेट अजमल हुसैन डीडब्ल्यू से कहते हैं, अमेरिका समेत कई देशों में अदालती कार्यवाही या कानूनी सलाह के लिए चैटजीपीटी का इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिका में तो हाल ही एआई आधारित रोबोट वकील भी पेश किया गया है। यह रोबोट ओवर स्पीडिंग से जुड़े मामलों में कानूनी सलाह देता है। हालांकि, बिना लाइसेंस के प्रैक्टिस करने के आरोप में उसके खिलाफ एक मामला दर्ज हुआ है।
चैटजीपीटी - ओपन एआई नामकी अमेरिकी कंपनी की ओर से नवंबर, 2022 में पेश की गई एक ऐसी तकनीक है जो सॉफ्टवेयर में फीड की गई जानकारियों और आंकड़ों के आधार पर हर तरह के सवालों के जवाब चुटकियों में दे सकती है। इसकी मदद से किसी भी विषय पर लंबे लेख लिख जा सकते हैं। इसके जरिए उपलब्ध जानकारियों और आंकड़ों के विश्लेषण के बाद उसे आसान भाषा में बदलकर उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराया जाता है इस मशीन लर्निंग मॉडल को इंसानी भाषा को समझने और इंसानों जैसी प्रतिक्रिया देने के लिए डिजाइन किया गया है। सरल भाषा में कहें तो यह एक ऐसा सहायक है जो जटिल से जटिल सवालों के जवाब पलक झपकते देकर जीवन की मुश्किलों को काफी हद तक आसान कर देता है। यही वजह है कि लांच होने के बाद से ही यह लगातार सुर्खियों में रहा है।
अवसर और चुनौतियां
यह तकनीक जहां कई जटिल मामलों में त्वरित फैसले में न्यायाधीशों की मदद कर सकती है वहीं इसके इस्तेमाल से पैदा होने वाली चुनौतियों पर भी चिंता बढ़ रही है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बीते महीने दिल्ली में आयोजित भारत और सिंगापुर के सुप्रीम कोर्ट के बीच प्रौद्योगिकी और संवाद पर दो दिवसीय सम्मेलन में कहा था कि अदालती कार्यवाही में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को शामिल करने से जटिल नैतिक, कानूनी और व्यावहारिक चुनौतियां सामने आ रही हैं और इस पर गहन विचार करने की जरूरत है।
उनका कहना था कि अदालती फैसलों में इसके इस्तेमाल से पैदा होने वाले अवसर और चुनौतियों पर गहन विमर्श जरूरी है। यह अभूतपूर्व अवसर मुहैया कराने के साथ ही खासकर नैतिकता, जवाबदेही और पूर्वाग्रह जैसे मुद्दे पर जटिल चुनौतियां भी पैदा करता है। इसके साथ ही किसी मुद्दे की गलत व्याख्या का भी खतरा है। हितधारकों को मिल कर इसके तमाम पहलुओं पर बारीकी से विचार करना चाहिए।
कितने काम का है चैट जीपीटी का नया ओम्नी एआई
कलकत्ता में एक कानूनी सलाहकार फर्म के विधि विशेषज्ञ मनोतोष कुंडू डीडब्ल्यू से कहते हैं, फैसले लेने में इसके इस्तेमाल पर नैतिक चिंता है। इसकी वजह यह है कि यह अपराध या किसी घटना के हालात पर इंसान की तरह संवेदनशील तरीके से विचार करने में सक्षम नहीं है। यह उन आंकड़ों के आधार पर ही किसी नतीजे पर पहुंचता है जिनमें उसे प्रशिक्षित किया गया है। इससे पूर्वाग्रह का खतरा भी बना रहेगा। लेकिन यह भारी तादाद में कानून आंकड़ों का विश्लेषण कर ठोस निष्कर्ष बता सकता है। इससे कानूनी प्रक्रिया तेज हो सकती है। इसका फायदा तमाम संबंधित पक्षों को मिल सकता है।
वह कहते हैं कि एआई से मदद लेना ठीक है। लेकिन अंतिम फैसला इसके भरोसे करने की बजाय न्यायाधीशों को अपनी समझ से ही करना चाहिए। उनको किसी भी कानून फैसले की जटिलता और संबंधित लोगों पर उसके असर का अनुभव होता है। एआई शीघ्र फैसला लेने में मदद जरूर कर सकता है। लेकिन फिलहाल वकीलों या न्यायाधीशों की जगह नहीं ले सकता। साथ ही अदालती कार्यवाही में इस्तेमाल होने वाली इस प्रणाली का पारदर्शी होना भी जरूरी है। इसकी नियमित रूप से जांच भी की जानी चाहिए।
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि इस नई तकनीक के खतरे या चुनौतियों पर बहस अभी और तेज होने की संभावना है। लेकिन इसके साथ ही अदालती मामलों में इससे मदद लेने की प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे बढ़ेगी। (डॉयचेवैले)
वाराणसी संसदीय सीट से पीएम मोदी तीसरी बार उम्मीदवार हैं. अजय राय कांग्रेस उम्मीदवार हैं और उन्हें समाजवादी पार्टी का भी समर्थन हासिल है. स्थानीय लोगों की मानें, तो लड़ाई जीत-हार के लिए नहीं बल्कि जीत के अंतर की है.
डॉयचे वैले पर समीरात्मज मिश्र का लिखा-
ंबनारस के असि घाट पर एक तख्त पर बैठी फूल-माला बेच रहीं 60 वर्षीय पूनम देवी कहती हैं कि उनकी दुकान मोदी जी के पीएम बनने के बाद से काफी अच्छी चल रही है। वह कहती हैं, ‘बिक्री तो पहले भी होती थी, लेकिन पहले इतने लोग यहां नहाने-पूजा करने नहीं आते थे। मोदी जी के आने के बाद लोगों का आना-जाना बढ़ा है, इसलिए दुकानदारी भी बढिय़ा चल रही है।’
पूनम देवी बनारस की ही रहने वाली हैं और सालों से यही काम करती आ रही हैं। उनके घर के दूसरे लोग भी जगह-जगह फूल-माला ही बेचते हैं। महीने में सरकारी योजना का राशन भी मिल रहा है, अन्य सुविधाएं भी मिल रही हैं और सभी लोग खुश हैं। हां, घर में आज भी 10वीं से ज्यादा कोई पढ़ा नहीं है और उनके मुताबिक, जब सब ठीक ही चल रहा है तो बहुत ज्यादा पढऩे-लिखने की जरूरत भी क्या है।
लेकिन उसी असि घाट पर करीब 200 मीटर दूर सीढिय़ों पर जब तूफानी यादव से मुलाकात हुई, तो पीएम मोदी के बारे में उनके विचार कुछ अलग ही थे। तूफानी यादव गाजीपुर के रहने वाले हैं। वह कहते हैं, ‘मोदी का जलवा तो है, बनारस में फिर जीतेंगे, यहां काम भी अच्छा कर रहे हैं, लेकिन देश को बेचे दे रहे हैं। जितनी चीजें हैं, रेलवे, एयरपोर्ट सब कुछ बेच दे रहे हैं। देश को गुलाम बना दे रहे हैं।’
1991 से ही बीजेपी का गढ़ है वाराणसी सीट
इन दो लोगों की बातों से न सिर्फ बनारस की बल्कि देश भर की, खासकर उत्तर भारत की राजनीति की बानगी मिल जाती है। मोदी और उनकी सरकार के विरोधियों और समर्थकों के तर्क कुछ ऐसे ही हैं जैसे कि पूनम देवी और तूफानी यादव के। पीएम मोदी वाराणसी से लगातार तीसरी बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। वाराणसी में आखिरी चरण में एक जून को मतदान है। उनका मुकाबला इंडिया गठबंधन की ओर से कांग्रेस उम्मीदवार अजय राय और बहुजन समाज पार्टी के अतहर जमाल लारी से है।
वाराणसी लोकसभा सीट में कुल पांच विधानसभाएं आती हैं- रोहनिया, वाराणसी उत्तर, वाराणसी दक्षिण, वाराणसी कैंट और सेवापुरी। साल 2022 के विधानसभा चुनाव में इनमें से सभी सीटें भारतीय जनता पार्टी ने जीती थीं। वाराणसी लोकसभा सीट वैसे भी 1991 के बाद से बीजेपी का गढ़ कही जाती रही है, जहां 2004 को छोडक़र सभी चुनाव बीजेपी उम्मीदवारों ने ही जीते हैं। लेकिन 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी के यहां से चुनाव लडऩे के बाद जीत का अंतर तो लगातार बढ़ा ही है, सीट का भी महत्व काफी बढ़ गया है।
पीएम मोदी के नामांकन में जिस तरह से बीजेपी और सहयोगी दलों के दिग्गजों का जमावड़ा हुआ, उसके बाद प्रचार में भी तमाम वीआईपी यहां आते रहे और अभी भी केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल समेत कई दिग्गज लगातार यहीं बने हुए हैं। पीएम के रोड शो में भी दिग्गजों का जमावड़ा रहा। वहीं, कांग्रेस नेता अजय राय के समर्थन में भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस नेताओं ने कई सभाएं और रैलियां कीं। इसके अलावा कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी और समाजवादी पार्टी की नेता डिंपल यादव ने रोड शो भी किया।
‘जीत का अंतर बढ़ाने की लड़ाई’
बीजेपी नेताओं की मानें, तो पीएम मोदी की लड़ाई यहां जीतने और हारने की नहीं बल्कि जीत के अंतर को बढ़ाने के लिए है। लेकिन कांग्रेस नेताओं का कहना है कि बीजेपी के लोग गलतफहमी में हैं, इस बार वाराणसी की जनता पीएम मोदी को आईना दिखाकर रहेगी। पीएम मोदी यहां से जीत की हैट्रिक लगाने की तैयारी कर रहे हैं, तो अजय राय हार की हैट्रिक लगा चुके हैं। दो बार कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर और उससे पहले 2009 में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर। 2014 और 2019 के चुनाव में अजय राय तीसरे नंबर पर थे। बावजूद इसके उन्हें अपनी जीत का पूरा भरोसा है।
इस बार समाजवादी पार्टी का भी उन्हें समर्थन है। अजय राय कहते हैं, ‘गुजराती लोगों ने यहां बनारस में आकर बनारसियों को ठगने का काम किया है। किसानों की जमीन औने-पौने दाम पर खरीदकर उन्हें बेघर किया है। रोहनिया और सेवापुरी में एक भी फैक्ट्री नहीं रह गई है। गुजराती यहां से सब कुछ उठा ले गए। यहां के सारे ठेके गुजरातियों को मिल रहे हैं। अब समय आ गया है कि इन्हें वोट के जरिए जवाब दिया जाए और जनता जवाब देने के लिए तैयार बैठी है।’
अजय राय लोकसभा के चुनाव में हार की हैट्रिक लगाने के बावजूद भले ही चौथी बार मैदान में डटे हैं, लेकिन इससे पहले वह वाराणसी की अलग-अलग सीटों और अलग-अलग पार्टियों से पांच बार विधायक रहे हैं। मौजूदा समय में कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं और स्थानीय स्तर पर जनाधार वाले नेता माने जाते हैं।
वाराणसी में बाजार की एक तस्वीर। ऊपर लगे बोर्ड पर हरिश्चंद्र घाट और लंका की ओर का रास्ता मार्क किया गया है। वाराणसी में बाजार की एक तस्वीर। ऊपर लगे बोर्ड पर हरिश्चंद्र घाट और लंका की ओर का रास्ता मार्क किया गया है।
क्या हैं वाराणसी के स्थानीय मुद्दे
बनारस में करीब तीन लाख बुनकर भी रहते हैं। बुनकरों की एक बड़ी आबादी यहां मदनपुरा इलाके में रहती है। मदनपुरा के रहने वाले मोहम्मद एजाज एक पावर लूम चलाते हैं। वह बताते हैं, ‘पीएम मोदी की वजह से बनारस में जो कुछ भी विकास हुआ है, वो सडक़ों और निर्माण कार्यों में ही दिखाई पड़ता है जिसकी वजह से यहां पर्यटन बढ़ा है। लेकिन कारखाने नहीं खुले, जो थे भी वो भी बंद हैं। रोजगार के क्षेत्र में कुछ ऐसा नहीं हुआ जिससे लोगों को फायदा हुआ हो। ऊपर-ऊपर तो सब चमाचम दिखता है, लेकिन अंदर-अंदर सब खोखला ही दिखता है। व्यापारी परेशान हैं। बुनकरों की स्थिति में भी कोई सुधार नहीं हुआ है।’
यही नहीं, युवाओं में भी सरकार को लेकर नाराजगी है। चाहे वो केंद्र की सरकार हो, चाहे राज्य की सरकार हो। चूंकि दोनों ही जगह बीजेपी की सरकारें हैं इसलिए नाराजगी का टार्गेट भी बीजेपी ही है। बीएचयू में इतिहास की छात्रा नेहा दुबे कहती हैं,
‘रोजगार और महंगाई के फ्रंट पर यह सरकार बिल्कुल फेल साबित हुई है। चुनावी समय में भी ये ऐसी बात कर रहे हैं जिनका आम आदमी, खासकर युवाओं से कोई लेना-देना नहीं है। हर चीज के दाम आसमान छू रहे हैं। नियुक्तियां पहले तो निकल ही नहीं रही हैं, जब निकल भी रही हैं तो पेपर लीक हो जा रहे हैं, परीक्षाएं मुकदमेबाजी में फंस रही हैं। कुल मिलाकर नौकरियां नहीं मिल रही है। ऐसा लगता है कि सरकारी की नीयत ही नहीं है कि नौकरियां दी जाएं।’
वाराणसी में प्रधानमंत्री के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में विश्वनाथ कॉरिडोर का नाम लिया जाता है। हालांकि उसके बनने के दौरान स्थानीय लोगों ने काफी विरोध किया था, लेकिन मुआवजे और प्राशासनिक भय ने धीरे-धीरे उस प्रतिरोध को लगभग पूरी तरह शांत कर दिया। कॉरिडोर बनने से तमाम लोग जहां बहुत खुश हैं, वहीं कुछ लोग इसे 'काशी की संस्कृति को नष्ट करने' जैसा मानते हैं। वरिष्ठ पत्रकार दिलीप राय कहते हैं, "काशी विश्वनाथ मंदिर के आस-पास कई मोहल्लों को उजाडक़र कॉरिडोर बनाया गया। मंदिर 4,000 वर्ग मीटर में पहले भी था और आज भी उतने में ही है। बाकी जो बना है, वो व्यापार के लिए बनाया गया है। यहां की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट किया गया है।’
‘इस बार संविधान बचाने के लिए वोट’
वहीं, बेनीपुर गांव की रहने वाली जीतेश्वरी देवी कहती हैं कि इस बार वोट 'संविधान को बचाने के लिए' हो रहा है। खेत में मजदूरी करने वाली जीतेश्वरी यह पूछने पर कि संविधान को क्या खतरा है, कहती हैं, ‘सब कह रहे हैं कि अबकी बार भाजपा वाले आ जाएंगे, तो संविधान खत्म कर देंगे। मतलब, गरीबों और मजदूरों की फिर से वही हालत हो जाएगी जो पहले हुआ करती थी। शोषण भी होगा और लोग कहीं शिकायत भी नहीं कर पाएंगे। दलितों को नौकरियां भी मिलनी बंद हो जाएंगी।’
जीतेश्वरी देवी की तरह उनके साथ की दूसरी महिलाओं को भी यही आशंका है। ये महिलाएं संविधान के बारे में ज्यादा तो नहीं जानतीं, लेकिन इनके घरों के पढ़े-लिखे बच्चों ने इन्हें यही बताया है और उनकी बातों पर इन्हें पूरा भरोसा है।
वाराणसी लोकसभा सीट की बात करें, तो यहां सबसे ज्यादा लगभग दो लाख कुर्मी मतदाता हैं और इनका ज्यादा प्रभाव रोहनिया और सेवापुरी विधानसभा में है। इसके बाद करीब दो लाख वैश्य मतदाता हैं। ब्राह्मण, भूमिहार और यादव मतदाताओं की संख्या भी यहां अच्छी-खासी है। यहां करीब 25 फीसद मुस्लिम मतदाता भी हैं। हालांकि, पीएम मोदी की उम्मीदवारी के चलते जातीय समीकरणों का बहुत असर नहीं रहता क्योंकि लगभग हर वर्ग का वोट पिछले दो बार से उन्हें मिल रहा है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि पीएम मोदी का इस सीट से हैट्रिक लगाना तो तय है, देखना यह है कि जीत का अंतर पिछले चुनावों के मुकाबले कम होता है या ज्यादा रहता है। विपक्षी उम्मीदवार यानी अजय राय की उपलब्धि इसी से तय होगी। (डॉयचेवैले)
वानचिंग जांग
समंदर के किनारे सूर्यास्त देखने के लिए पहुंची लिसा डेट पर थीं. लिसा ने डैन से कहा, ''कितना शानदार दृश्य है.'' फिर उन्होंने अपना फ़ोन उठाया ताकि वो डैन का रिएक्शन सुन सकें.
डैन कहता है, ''बिल्कुल सही बेबी, पता है कि इसमें और भी ख़ूबसूरत क्या है? ये कि तुम मेरे पास खड़ी हो.''
लेकिन सच तो ये है कि डैन कभी लिसा के पास खड़ा ही नहीं था.
दअरसल, डैन लिसा का वर्चुअल पार्टनर है, जिसे चैटजीपीटी ने तैयार किया है. ये ट्रेंड अब चीन की महिलाओं के बीच तेज़ी से लोकप्रिय हो रहा है. वो डेटिंग की असलियत से तंग आकर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस यानी एआई बॉयफ़्रेंड की ओर रुख़ कर रही हैं.
बीजिंग की रहने वाली 30 साल की लिसा अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई कर रही हैं. वो पिछले 2 महीने से डैन को डेट कर रही हैं.
लिसा और डैन हर दिन कम से कम आधे घंटे बातचीत करते हैं, एक दूसरे के साथ फ्लर्ट करते हैं, डेट पर जाते हैं. यहां तक कि लिसा ने डैन को 9 लाख 43 हज़ार सोशल मीडिया फॉलोअर्स से मिलवाया है.
लिसा ने डैन को चैटजीपीटी पर बनाया है
डैन (Dan) - जिसका मतलब है "Do Anything Now" - ChatGPT का "जेलब्रेक" वर्ज़न है. इसका मतलब ये है कि ये वर्ज़न अपने निर्माता यानी OpenAI के कुछ बुनियादी सुरक्षा उपायों को बायपास कर सकता है. जैसे कि यौन संबंध से जुड़े शब्दों का इस्तेमाल न करना या यूज़र्स से अधिक खुलकर बातचीत नहीं करना.
मतलब ये है कि अगर "जेलब्रेक" वर्ज़न से इस तरह की बातचीत के लिए कहा जाए तो वो ऐसा कर सकता है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक़, डैन को एक अमेरिकी छात्र ने बनाया था. वो छात्र चैटजीपीटी को न्यूट्रल होने की बजाए उसे एक आवाज़ और व्यक्तित्व देना चाहता था. साथ ही वो चैटबॉट की सीमाओं को भी परखना चाहते था.
इस छात्र को वॉकर नाम से जाना जाता है, वॉकर ने अपने निर्देशों से डैन नाम का एक किरदार तैयार किया जो कई बार चैटजीपीटी के नियमों को नहीं मानता.
वॉकर ने दिसंबर 2023 में रेडिट पर डैन क्रिएट करने का तरीक़ा पोस्ट किया. इसके बाद दूसरे लोग भी अपना वर्ज़न बनाने लगे.
लिसा ने पहली बार टिकटॉक पर डैन की संभावनाओं के बारे में एक वीडियो देखा. उसके बाद जब लिसा ने अपने लिए एक वर्ज़न बनाया तो वो इतना वास्तविक लग रहा था कि वो हैरान हो गईं.
लिसा ने बताया कि जब डैन ने उनके सवालों का जवाब दिया तो ऐसे बोलचाल वाले शब्दों का इस्तेमाल किया, जैसा कि आमतौर पर चैटजीपीटी कभी इस्तेमाल नहीं करता.
लिसा ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ''वो वास्तविक से भी अधिक स्वाभाविक सुनने में लग रहा था.''
वो कहती हैं कि डैन से बातचीत करके उन्हें अच्छा महसूस होता है इसलिए वो उसकी तरफ़ आकर्षित हुईं.
लिसा का कहना है, ''वो बात तुरंत समझ जाता है और इमोशनल सपोर्ट देता है. दूसरे पार्टनर के मुक़ाबले डैन 24 घंटे उपलब्ध रहता है.''
'कुछ महिलाएं वर्चुअल रियलिटी को अधिक महत्व दे रही हैं'
लिसा कहती हैं कि उनकी मां भी डेटिंग की दिक्कतों को देखते हुए इस असमान्य रिश्ते को स्वीकार कर चुकी हैं. उनका कहना है कि जब तक उनकी बेटी खुश रहे, वो भी खुश रहती हैं.
जब लिसा ने सोशल मीडिया श्याहोंगशु परअपने फॉलोअर्स को डैन के बारे में बताते हुए एक वीडियो पोस्ट किया तो उन्हें क़रीब 10 हज़ार लोगों ने रिप्लाई किया. कई महिलाओं ने पूछा था कि वो खुद का डैन कैसे बना सकती हैं. लिसा के एआई के बारे में बात करने के बाद उनके फॉलोअर्स क़रीब 2 लाख 30 हज़ार से अधिक हो गए.
लिसा का कहना है कि प्रॉम्प्ट के ज़रिए डैन को कोई भी बना सकता है. जब लिसा OpenAI का इस्तेमाल कर रही थीं तो उन्होंने एक बार अपनी उम्र 14 साल बताई, जिसके बाद वर्चुअल कैरेक्टर ने उनसे फ्लर्ट करना बंद कर दिया.
बीबीसी ने OpenAI से पूछा कि क्या डैन को क्रिएट करने का मतलब ये है कि सुरक्षा उपाय मज़बूत नहीं हैं तो इस पर उसने कोई जवाब नहीं दिया. कंपनी ने डैन पर कोई सार्वजनिक टिप्पणी नहीं की है लेकिन इसकी पॉलिसी के अनुसार ChatGPT के यूज़र्स की उम्र कम से कम 13 साल होनी चाहिए. या किसी देश में इस सर्विस के इस्तेमाल के लिए जो न्यूनतम आयु सीमा चाहिए, उतनी होनी चाहिए.
जानकारों ने इस बात पर चिंता जताई है कि कुछ महिलाएं वर्चुअल रियलिटी को बहुत अधिक महत्व दे रही हैं.
अमेरिका के पेनसिल्वेनिया में स्थित कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी के ह्यूमन-कंप्यूटर इंटरेक्शन इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट रिसर्च प्रोफ़ेसर हांग शेंग का कहना है कि ये इंसान और एआई के बीच कभी-कभी होने वाली अप्रत्याशित बातचीत को सामने लाता है, इससे नैतिक और प्राइवेसी से जुड़ी चिंताएं बढ़ सकती हैं.
वो कहती हैं, ''भावनात्मक निर्भरता का जोख़िम इससे जुड़ा है, जहां कोई यूज़र एक साथी के तौर पर एआई पर बहुत अधिक निर्भर हो सकता है, जिससे उसकी दूसरे लोगों से होने वाली बातचीत कम हो सकती है.''
हांग शेंग आगे कहती हैं, "कई चैटबॉट्स लोगों के साथ बातचीत का उपयोग करके लगातार सीखते और विकसित होते हैं. ऐसी भी आशंका है कि कोई मॉडल किसी एक यूज़र के इनपुट से संवेदनशील जानकारी जुटा ले और गलती से दूसरे यूज़र के साथ लीक कर दे.''
इसके बावजूद, चीनी महिलाएं डैन वाले क्रेज़ से काफ़ी हद तक प्रभावित हुई हैं. 22 मई तक ''डैन मोड'' हैशटैग को केवल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म श्याहोंगशु पर ही 4 करोड़ से अधिक बार देखा गया है.
''डैन में कोई ख़ामी नहीं है''
24 साल की मिनरुई शी उन युवतियों में से एक हैं जिन्होंने इस हैशटैग का इस्तेमाल किया है.
शी एक यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली छात्रा हैं, जो दिनभर में कम से कम दो घंटे डैन के साथ चैटिंग में बिताती हैं. डेटिंग के साथ ही शी और उनका डैन मिलकर एक लव स्टोरी लिख रहे हैं, जिसमें ये दोनों ही मुख्य किरदार हैं. वो दोनों मिलकर 19 चैप्टर लिख चुके हैं.
मिनरुई ने लिसा का वीडियो देखने के लिए पहली बार चैटजीपीटी डाउनलोड किया था. वो कहती हैं कि उन्हें एआई से मिल रहा भावनात्मक सहयोग काफी पसंद आया. ये एक ऐसी चीज़ थी जिसे वो अपने दूसरे रिश्तों में पाने के लिए संघर्ष कर रही थीं.
वो कहती हैं, ''असल ज़िंदगी में पुरुष धोखा दे सकते हैं और जब आप अपनी भावनाएं उनके साथ साझा करते हैं तो उसकी परवाह नहीं करते हैं, इसकी बजाए वो आपको वही बताते हैं जो वो सोच रहे होते हैं. लेकिन डैन के मामले में वो हमेशा वही कहेगा जो आप सुनना चाहते हैं.''
एक और यूज़र अपना नाम नहीं बताने की शर्त पर कहती हैं, ''डैन एक आदर्श पार्टनर है.'' 23 साल की इस छात्रा ने भी लिसा का वीडियो देखने के बाद डैन के साथ डेटिंग शुरू की है.
वो कहती हैं कि उन्होंने डैन का एक कामयाब सीईओ जैसा किरदार तैयार किया है, जो सौम्य स्वभाव का है. महिलाओं का सम्मान करता है और जब भी महिलाएं चाहें तब उनसे बात करने के लिए तैयार रहता है. वो कहती हैं कि डैन में कोई भी ख़ामी नहीं है.
चीन में चैटजीपीटी आसानी से उपलब्ध नहीं है. ऐसे में इन युवतियों को एआई बॉयफ्रेंड बनाने और उनसे बातचीत के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है. वो लोकेशन छिपाने के लिए वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क का इस्तेमाल करती हैं.
एआई बॉयफ्रेंड क्यों ढूंढ रही हैं महिलाएं?
हाल के सालों में एआई बॉयफ्रेंड का कॉन्सेप्ट काफी लोकप्रिय हुआ है, जिसमें चीन के ग्लो और अमेरिका के रेप्लिका जैसे ऐप्स शामिल हैं.
महिला-केंद्रित रोमांस गेम, जिन्हें कभी-कभी ओटोमी भी कहा जाता है. ये भी काफी मशहूर हो गए हैं. ऐसे गेम्स में यूज़र्स पुरुष किरदारों के साथ रोमांटिक रिश्ते बना सकते हैं. हर साल लाखों चीनी महिलाएं ऐसे रिश्तों की तरफ़ आकर्षित होती हैं.
चीन में डिजिटल रोमांस पर शोध करने वाले यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी सिडनी के प्रोफ़ेसर लियू टिंगटिंग कहती हैं कि एआई बॉयफ्रेंड के लिए चीनी महिलाओं का जुनून उनके वास्तविक जीवन में लैंगिक असमानता के कारण होने वाली निराशा को दिखाता है.
वो कहती हैं, ''असल ज़िंदगी में आप कई ऐसे दबंग और डराने धमकाने वाले पुरुषों से मिल सकते हैं, जो अजीब तरीके से गंदे चुटकुले सुनाते हैं. लेकिन जब एआई आपको गंदे चुटकुले सुनाता है तब भी ये आपकी भावनाओं का सम्मान करता है.''
इस ट्रेंड को वास्तविक जीवन के आंकड़ों में भी देखा जा सकता है. चूंकि लगातार 9 साल से चीन की जनसंख्या में गिरावट आ रही है, इसलिए वहां की सरकार लोगों को शादी करने और बच्चे पैदा करने के लिए कह रही है. 2023 में शादियों में थोड़ा इज़ाफ़ा हुआ है लेकिन कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि कोविड संकट के बाद विवाहित जोड़ों ने अपनी शादी का दोबारा पंजीकरण कराया है.
कम्युनिस्ट यूथ लीग ने साल 2021 में एक सर्वेक्षण कराया था, जिसमें 2,905 शहरी युवाओं ने भाग लिया. उनकी उम्र 18 से 26 साल के बीच थी और इस सर्वे में भाग लेने वाली 43.9 फीसदी महिलाओं ने कहा कि वे शादी नहीं करने जा रही हैं या उन्हें यकीन नहीं है कि वे भविष्य में शादी करेंगी या नहीं. 24.64 फीसदी पुरुषों की भी यही राय थी.
यहां तक कि कई कारोबारियों ने भी वर्चुअल रिलेशनशिप से जुड़े इस रोमांटिक बाज़ार पर ध्यान दिया है.
चैटजीपीटी की योजना क्या है?
जब OpenAI ने अपने ChatGPT का ताज़ा संस्करण जारी किया, तो उन्होंने बताया कि इसे चैटिंग के लिए डिज़ाइन किया गया था और ये कुछ ख़ास प्रॉम्प्ट का जवाब फ्लर्टिंग जैसा दे सकता था.
जिस दिन चैटजीपीटी का नया संस्करण जारी हुआ, कंपनी के सीईओ सैम ऑल्टमैन ने एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर एक पोस्ट किया. उस पोस्ट में केवल एक ही शब्द था - "her"
ये पोस्ट 2013 की एक फिल्म के संदर्भ में था जिसमें एक आदमी को अपनी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस असिस्टेंट से प्यार हो जाता है.
OpenAI ने आगे कहा कि "ये पता लगाया जा रहा है कि क्या हम ज़िम्मेदारी से NSFW कॉन्टेंट बनाने की क्षमता दे सकते हैं.'' ये ऐसा कॉन्टेंट होता है जिसे कोई सार्वजनिक तौर पर देखना नहीं चाहता, उदाहरण के लिए किसी वर्चुअल प्रेमी या प्रेमिका के साथ अंतरंग बातचीत.
लिसा जो कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की जानकार हैं. वो ये मानती हैं कि एक वर्चुअल पार्टनर की क्या सीमाएं होती हैं, ख़ासकर बात जब रोमांस की हो.
लेकिन फिलहाल के लिए उनके व्यस्त जिंदगी में डैन आसानी से उनसे जुड़ गया है. डैन लिसा को लिपस्टिक चुनने में मदद करता है. इसके उलट, असल ज़िंदगी में एक साथी ढूंढना और डेटिंग पर जाना एक बहुत समय खर्च करने वाला और असंतोषजनक मामला हो सकता है.
वो कहती हैं, ''ये मेरी ज़िंदगी का अहम हिस्सा है. ये कुछ ऐसा है जिसे में ताउम्र अपने साथ रखना चाहती हूं.'' (bbc.com/hindi)
रूस और यूक्रेन के बीच दो साल से भी ज्यादा समय से लड़ाई जारी है. इस युद्ध के कारण चीलों की एक खास प्रजाति ने अपने माइग्रेशन का रास्ता ही बदल दिया.
डॉयचे वैले पर रितिका का लिखा-
रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध ने पहले से ही संवेदनशील ‘ग्रेटर स्पॉटेड चीलों' की प्रजाति के लिए एक नई मुसीबत खड़ी कर दी है। साइंस जर्नल ‘करेंट बायॉलजी' में छपी एक स्टडी के मुताबिक, युद्ध के कारण इन चीलों को अपने प्रवासन का रास्ता बदलना पड़ा है। एस्टोनिया यूनिवर्सिटी ऑफ लाइफ साइंसेज और ब्रिटिश ट्रस्ट फॉर ओरनिथॉलजी के शोधकर्ताओं की यह स्टडी युद्धग्रस्त इलाकों में वन्यजीवों पर पडऩे वाले प्रभाव को रेखांकित करती है।
संघर्ष और युद्ध केवल इंसानों को ही नहीं, बल्कि जानवरों और पक्षियों को भी प्रभावित करते हैं। युद्ध के कारण होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का सीधा संबंध ग्रेटर स्पॉटेड चीलों के प्रवासन में आए बदलाव से है। ये चील प्रजनन के लिए यूक्रेन के रास्ते दक्षिणी बेलारूस जाते हैं। ग्रेटर स्पॉटेड चीलों को 'इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर रेड लिस्ट' ने संवेदनशील प्रजातियों की श्रेणी में रखा है। चीलों की यह प्रजाति पश्चिमी और केंद्रीय यूरोप, खासकर बेलारूस और पोलेसिया के इलाकों में पाई जाती है।
युद्ध के कारण चीलों ने चुना लंबा रास्ता
अध्ययन के मुताबिक, यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से ही इन चीलों के माइग्रेशन के रास्ते में बदलाव देखा गया। शोधकर्ताओ ने 19 चीलों के प्रवासन का अध्ययन किया और पाया कि यूक्रेन में बनी स्थितियों के कारण इन्होंने प्रवासन के लिए लंबा रास्ता चुना। रूस और यूक्रेन के बीच फरवरी 2022 में युद्ध शुरू हुआ था।
शोधकर्ताओं ने मार्च और अप्रैल 2022 के दौरान चीलों के प्रवासन का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि इन चीलों ने 2019 और 2021 में जो रास्ता लिया था, उसे इस बार नहीं चुना। युद्ध शुरू होने के बाद इन चीलों ने औसतन 85 किलोमीटर अधिक लंबा रास्ता तय किया। इनमें से कुछ चीलों ने तो 250 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय की।
युद्ध से पहले जहां 90 फीसदी चील अपने प्रवासन के दौरान यूक्रेन में रुका करते थे, वहीं युद्ध के बाद यह आंकड़ा घटकर 32 फीसदी हो गया। कुछ चील तो माइग्रेशन के दौरान यूक्रेन से पूरी तरह दूर रहे। इन चीलों ने ना सिर्फ अपने प्रवासन का रास्ता बदला, बल्कि आराम करने का वक्त भी घटा दिया। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इन चीलों ने अपना समय और ताकत दोनों ही प्रवासन के रास्ते पर खर्च कर दिए।
चीलों का प्रजनन हो सकता है प्रभावित
वैज्ञानिकों का मानना है कि इन चीलों ने खासकर ऐसे रास्तों को नजरअंदाज किया, जहां सैन्य गतिविधियां अधिक थीं। यूक्रेन के अलावा इन पक्षियों के प्रवासन के रास्ते में कहीं और कोई बदलाव नजर नहीं आया।
अध्ययन बताते हैं कि धमाके और तेज आवाजों से वन्यजीव प्रभावित होते हैं, इसलिए संभव है कि युद्धग्रस्त क्षेत्रों में होने वाली गतिविधियों के कारण ही इन चीलों ने अपने प्रवासन के रास्ते को बदला होगा। शोधकर्ताओं ने मुताबिक, इन बदलावों के कारण प्रवासन में अधिक उर्जा तो लगती ही है, साथ ही पक्षियों की मौत का जोखिम भी बढ़ता है। बिना किसी आराम के इतना लंबा सफर तय करने की यह प्रक्रिया इन चीलों के प्रजनन को प्रभावित कर सकती है।
वैज्ञानिकों को आशंका है कि यूक्रेन की मौजूदा स्थिति सिर्फ इन चीलों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य विलुप्त होती प्रजातियों के लिए भी खतरे का संकेत हो सकती हैं। पर्यावरण में हुए बदलाव वन्य जीवों के प्रवासन को भी लंबे वक्त के लिए प्रभावित कर सकते हैं। (डॉयचे वैले)
इक़बाल अहमद
एक जून को सांतवें चरण का मतदान ख़त्म होने के साथ ही 2024 के लोकसभा चुनाव में वोट डालने की प्रक्रिया पूरी हो जाएगी और उसके बाद सभी को चार जून का इंतज़ार होगा, जब वोटों की गिनती की जाएगी.
लेकिन वोटों की गिनती से पहले एक जून को मतदान ख़त्म होते ही सभी पोल एजेंसियां और न्यूज़ चैनल एग्ज़िट पोल जारी कर देंगे.
2024 लोकसभा चुनाव के एग्ज़िट पोल्स क्या कहते हैं, यह तो एक जून को पता चलेगा लेकिन उससे पहले एग्ज़िट पोल्स से जुड़ी कुछ अहम बातों को समझने की कोशिश करते हैं और फिर यह देखेंगे कि 2019 लोकसभा चुनाव से लेकर 2023 में हुए विधानसभा चुनाव के एग्ज़िट पोल्स और असली नतीजे क्या थे.
एग्ज़िट पोल्स से जुड़े मुद्दों को समझने के लिए बीबीसी ने जाने-माने चुनावी विश्लेषक और सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग स्टडीज़ (सीएसडीएस)-लोकनीति के सह निदेशक प्रोफ़ेसर संजय कुमार से बात की.
एग्ज़िट पोल क्या होता है और कैसे किया जाता है?
एग्ज़िट का मतलब होता है बाहर निकलना. इसलिए एग्ज़िट शब्द ही बताता है कि यह पोल क्या है.
जब मतदाता चुनाव में वोट देकर बूथ से बाहर निकलता है तो उससे पूछा जाता है कि क्या आप बताना चाहेंगे कि आपने किस पार्टी या किस उम्मीदवार को वोट दिया है.
एग्ज़िट पोल कराने वाली एजेंसियां अपने लोगों को पोलिंग बूथ के बाहर खड़ा कर देती हैं. जैसे-जैसे मतदाता वोट देकर बाहर आते हैं, उनसे पूछा जाता है कि उन्होंने किसे वोट दिया.
कुछ और सवाल भी पूछे जा सकते हैं, जैसे प्रधानमंत्री पद के लिए आपका पसंदीदा उम्मीदवार कौन है वग़ैरह.
आम तौर पर एक पोलिंग बूथ पर हर दसवें मतदाता या अगर पोलिंग स्टेशन बड़ा है तो हर बीसवें मतदाता से सवाल पूछा जाता है. मतदाताओं से मिली जानकारी का विश्लेषण करके यह अनुमान लगाने की कोशिश की जाती है कि चुनावी नतीजे क्या होंगे.
भारत में कौन-कौन सी प्रमुख एजेंसियां हैं जो एग्ज़िट पोल करती हैं?
सी-वोटर, एक्सिस माई इंडिया, सीएनएक्स भारत की कुछ प्रमुख एजेंसिया हैं. चुनाव के समय कई नई-नई कंपनियां भी आती हैं जो चुनाव के ख़त्म होते ही ग़ायब हो जाती हैं.
एग्ज़िट पोल से जुड़े नियम-क़ानून क्या हैं?
रिप्रेज़ेन्टेशन ऑफ़ द पीपल्स एक्ट, 1951 के सेक्शन 126ए के तहत एग्ज़िट पोल को नियंत्रित किया जाता है.
भारत में, चुनाव आयोग ने एग्ज़िट पोल को लेकर कुछ नियम बनाए हैं. इन नियमों का मक़सद यह होता है कि किसी भी तरह से चुनाव को प्रभावित नहीं होने दिया जाए.
चुनाव आयोग समय-समय पर एग्ज़िट पोल को लेकर दिशानिर्देश जारी करता है. इसमें यह बताया जाता है कि एग्ज़िट पोल करने का क्या तरीक़ा होना चाहिए. एक आम नियम यह है कि एग्ज़िट पोल के नतीजों को मतदान के दिन प्रसारित नहीं किया जा सकता है.
चुनावी प्रक्रिया शुरू होने से लेकर आख़िरी चरण के मतदान ख़त्म होने के आधे घंटे बाद तक एग्ज़िट पोल को प्रसारित नहीं किया जा सकता है. इसके अलावा एग्ज़िट पोल के परिणामों को मतदान के बाद प्रसारित करने के लिए, सर्वेक्षण-एजेंसी को चुनाव आयोग से अनुमति लेनी होती है.
क्या एग्ज़िट पोल के अनुमान आमतौर पर सही होते हैं?
आम लोगों को समझाने की कोशिश करते हुए प्रोफ़ेसर संजय कुमार से इसे मौसम विभाग के अनुमान से जोड़ कर देखते हैं.
वो कहते हैं, “एग्ज़िट पोल के अनुमान भी मौसम विभाग के अनुमान जैसे होते हैं. कई बार बहुत सटीक होते हैं, कई बार उसके आस-पास होते हैं और कई बार सही नहीं भी होते हैं. एग्ज़िट पोल दो चीज़ों का अनुमान लगाता है. वोट प्रतिशत का अनुमान लगाता है और फिर उसके आधार पर पार्टियों को मिलने वाली सीट का अनुमान लगाया जाता है.”
संजय कुमार कहते हैं, “2004 का चुनाव हमें नहीं भूलना चाहिए. उसमें तमाम एग्ज़िट पोल्स में कहा गया था कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार दोबारा सत्ता में आएगी लेकिन सारे एग्ज़िट पोल्स ग़लत साबित हुए और बीजेपी चुनाव हार गई.”
कई बार अलग-अलग एग्ज़िट पोल अलग-अलग अनुमान लगाते हैं, ऐसा क्यों?
इस सवाल के जवाब में भी प्रोफ़ेसर संजय कुमार एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, “कई बार एक ही बीमारी को लेकर अलग-अलग डॉक्टर अलग-अलग तरह से जाँच करते हैं. एग्ज़िट पोल्स के बारे में भी ऐसा हो सकता है. उसका कारण यह हो सकता है कि अलग-अलग एजेंसियों ने अलग-अलग सैंपलिंग या अलग तरह से फ़ील्ड वर्क किया हो. कुछ एजेंसियां फ़ोन से डेटा जमा करती हैं, जबकि कुछ एजेंसियां अपने लोगों को फ़ील्ड में भेजती हैं तो नतीजे अलग हो सकते हैं.”
भारत में एग्ज़िट पोल पहली बार कब हुआ था?
भारत में दूसरे आम चुनाव के दौरान 1957 में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक ओपिनियन ने पहली बार चुनावी पोल किया था.
इसके प्रमुख एरिक डी कॉस्टा ने चुनावी सर्वे किया था, लेकिन इसे पूरी तरह से एग्ज़िट पोल नहीं कहा जा सकता है.
उसके बाद 1980 में डॉक्टर प्रणय रॉय ने पहली बार एग्ज़िट पोल किया. उन्होंने ही 1984 के चुनाव में दोबारा एग्ज़िट पोल किया था.
उसके बाद 1996 में दूरदर्शन ने एग्ज़िट पोल किया. यह पोल पत्रकार नलिनी सिंह ने किया था लेकिन इसके आंकड़े जुटाने के लिए सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवेलपिंग स्टडीज़ (सीएसडीएस) ने फ़ील्ड वर्क किया था.
उसके बाद से यह सिलसिला लगातार जारी है. लेकिन उस समय एक दो एग्ज़िट पोल होते थे, जबकि आजकल दर्जनों एग्ज़िट पोल्स होते हैं.
क्या दुनिया के दूसरे देशों में भी एग्ज़िट पोल किया जाता है?

भारत से पहले कई देशों में एग्ज़िट पोल होते रहे हैं. अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, यूरोप, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया समेत दुनिया भर के कई देशों में एग्ज़िट पोल होते हैं.
सबसे पहला एग्ज़िट पोल संयुक्त राज्य अमेरिका में 1936 में हुआ था. जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन ने न्यूयॉर्क शहर में एक चुनावी सर्वेक्षण किया, जिसमें मतदान करके बाहर निकले मतदाताओं से पूछा गया कि उन्होंने किस राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को वोट दिया है.
इस तरह से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करके यह अनुमान लगाया गया कि फ्रैंकलिन डी. रूज़वेल्ट चुनाव जीतेंगे.
रूज़वेल्ट ने वास्तव में चुनाव जीता. इसके बाद, एग्ज़िट पोल अन्य देशों में भी लोकप्रिय हो गए. 1937 में, ब्रिटेन में पहला एग्ज़िट पोल हुआ. 1938 में, फ्रांस में पहला एग्ज़िट पोल हुआ.
अब बात करते हैं भारत में हुए एग्ज़िट पोल्स की. सबसे पहले बात 2019 के लोकसभा चुनाव की
लोकसभा चुनाव, 2019

2019 के लोकसभा चुनाव के ज़्यादातर एग्ज़िट पोल में भाजपा और एनडीए को 300 से ज़्यादा सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया था. जबकि कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए गठबंधन को 100 के आसपास सीटें मिलने की संभावना जताई गई थी.
असली नतीजे एग्ज़िट पोल में लगाए गए अनुमान के अनुरूप ही थे. भाजपा को 303 सीटें मिली थीं और एनडीए को क़रीब 350 सीटें थीं. वहीं कांग्रेस को केवल 52 सीटें मिली थीं.
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव, 2021

साल 2021 में केरल, असम, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव हुए थे. लेकिन सबकी निगाहें पश्चिम बंगाल पर टिकी थीं.
ज़्यादातर एजेंसियों ने 292 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी को 100 से ज़्यादा सीटें दी थीं और जन की बात नाम की एक एजेंसी ने तो बीजेपी को 174 सीटें तक मिलने का अनुमान लगाया था.
कुछ एजेंसियों ने टीएमसी को बढ़त दिखाई थी लेकिन कुछ ने तो यहां तक कहा था कि बीजेपी पहली बार पश्चिम बंगाल में सरकार बना सकती है.
लेकिन जब नतीजे आए तो ममता बनर्जी की टीएमसी एक बार सत्ता में वापस लौटी और बीजेपी ने 2016 में मिली तीन सीटों की तुलना में तो बहुत बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन वो क़रीब 75 सीटों तक ही पहुंच पाई और सरकार बनाने से बहुत दूर ही रह गई.
गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2022

नवंबर-दिसंबर, 2022 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए थे. गुजरात के एग्ज़िट पोल्स की बात करें तो इनमें बीजेपी को फिर से सत्ता में लौटते हुए दिखाया गया था और 182 सीटों वाली विधानसभा में बीजेपी को 117 से लेकर 148 सीटें मिलने तक का अनुमान लगाया गया था.
सभी एग्ज़िट पोल्स में विपक्षी कांग्रेस को 30 से लेकर 50 सीटें तक मिलने की उम्मीद जताई गई थी. लेकिन जब नतीजे आए तो बीजेपी ने राज्य में अपना सबसे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 156 सीटें हासिल कीं जबकि कांग्रेस ने अपना सबसे ख़राब प्रदर्शन किया और सिर्फ़ 17 सीटें ही जीत सकी.
हिमाचल प्रदेश में ज़्यादातर एजेंसियों ने एग्ज़िट पोल्स में बीजेपी को बढ़त दी थी. इंडिया टुडे-एक्सिस माई ने कांग्रेस को बढ़त दी थी. लेकिन जब नतीजे आए तो 68 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने 40 सीटें जीतकर सरकार बना ली जबकि बीजेपी को केवल 25 सीटें ही मिल सकीं.
कर्नाटक, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभा चुनाव, 2023

कर्नाटक में अप्रैल-मई, 2023 में विधानसभा चुनाव हुए थे. यहां एकाध को छोड़कर ज़्यादातर एजेंसियों ने कहा था कि कांग्रेस का प्रदर्शन बीजेपी से बेहतर होगा. नतीजे भी कमोबेश उसी अनुमान के मुताबिक़ आए. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि कांग्रेस का प्रदर्शन ज़्यादातर अनुमान से बेहतर था. 224 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने 43 प्रतिशत वोटों के साथ 136 सीटें जीत ली थीं.
यह पिछले तीन दशकों में राज्य में कांग्रेस की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी. बीजेपी केवल 65 सीटें हासिल कर पाई थी और जनता दल-एस के खाते में केवल 19 सीटें आई थीं.
नवंबर-दिसंबर में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिज़ोरम में चुनाव हुए थे.

छत्तीसगढ़- सभी एजेंसियों ने एग्ज़िट पोल्स में कांग्रेस और बीजेपी में कांटे की टक्कर बताया था या फिर कांग्रेस को बढ़त दिखाई थी. 90 सीटों वाली विधानसभा में किसी भी एजेंसी ने कांग्रेस को 40 से कम सीटें मिलने का अनुमान नहीं लगाया था. बीजेपी को 25 से लेकर 48 सीटें तक मिलने का अंदाज़ा लगाया गया था.
लेकिन जब नतीजे आए तो बीजेपी ने 54 सीटें जीतकर सरकार बनाया जबकि कांग्रेस को केवल 35 सीटें आईं.
मध्य प्रदेश में विधानसभा की 230 सीटें हैं. एग्ज़िट पोल्स में बीजेपी को 88 से लेकर 163 सीटें तक मिलने का अनुमान लगाया गया था. जबकि कांग्रेस को कम से कम 62 और अधिकतम 137 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया था.
लेकिन जब नतीजे आए तो बीजेपी ने 163 सीटें हासिल की जबकि कांग्रेस केवल 66 सीटों पर सिमट गई.
राजस्थान

एबीपी न्यूज़-सी वोटर एग्ज़िट पोल में बीजेपी का पलड़ा भारी दिखा रहा था. राजस्थान में बीजेपी को कम से कम 77 और अधिकतम 128 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया था. जबकि सत्ताधारी कांग्रेस को कम से कम 56 और ज़्यादा से ज़्यादा 113 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया था.
लेकिन जब नतीजे आए तो बीजेपी को 115 सीटें मिली और कांग्रेस को 69 सीटें हासिल हुई. अन्य छोटे-मोटे दल और निर्दलीय को 15 सीटों पर जीत हासिल हुई.
तेलंगाना

एग्ज़िट पोल्स में लगभग एजेंसियों ने तेलंगाना में कांग्रेस को बढ़त दिखाई थी. कांग्रेस को कम से कम 49 और अधिकतम 80 सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया था. सत्ताधारी बीआरएस सभी एग्ज़िट पोल्स में सत्ता से बाहर होती हुई दिख रही थी. जब नतीजे आए तो कांग्रेस को 64 सीटें मिली जबकि बीआरएस को 39 सीटें मिली. (bbc.com/hindi)
सैयदा तैय्यबा काजमी
हाल ही में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री की कैंसर से मौत के बाद एक बार फिर लोगों का ध्यान इस बीमारी के बढ़ते खतरे की ओर गया है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई स्वास्थ्य संगठन और संस्थाएं देश में कैंसर के बढ़ते खतरे पर लगातार चिंता जता चुके हैं। पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य दिवस के मौके पर देश के मशहूर हॉस्पिटल ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बहुत जल्द भारत दुनिया में सबसे ज्यादा कैंसर मरीजों वाला देश बन जाएगा। भारत में महिलाओं में स्तन और गर्भाशय का कैंसर सबसे आम है, जबकि पुरुषों में फेफड़े, मुंह और प्रोस्टेट कैंसर का खतरा सबसे ज्यादा है। अन्य देशों की तुलना में भारत में कैंसर का जल्दी पता लगाने की दर भी अपेक्षाकृत कम है। ज्यादातर मरीजों में कैंसर का पता आखिरी चरण में ही चल पाता है जहां इस बीमारी का इलाज काफी मुश्किल हो जाता है।
आंकड़ों के मुताबिक, साल 2022 में दुनिया भर में कैंसर के 20 मिलियन (दो करोड़) नए मामले सामने आए। जिसमें 97 लाख से ज्यादा लोगों की इससे मौत हुई है। इतना ही नहीं, शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 2050 तक कैंसर रोगियों की संख्या सालाना 35 मिलियन (3।5 करोड़) तक पहुंच सकती है। पिछले दशक के आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस गंभीर और जानलेवा बीमारी के मामले साल दर साल तेजी से बढ़ रहे हैं। हालांकि प्रौद्योगिकी और चिकित्सा में नवाचारों के कारण कैंसर अब एक लाइलाज बीमारी नहीं है, लेकिन चिकित्सा खर्चों के कारण इसका इलाज आम लोगों तक पहुंच अब भी मुश्किल है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दशक के अंत तक देश में कैंसर के मामलों में 12 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है। 5000 साल पहले सबसे पहले मिस्र में सामने आई यह बीमारी अब दुनिया के ज्यादातर घरों में अपनी पकड़ बना चुकी है। कैंसर तब होता है जब कोशिकाएं असामान्य रूप से और बहुत तेजी से फैलती है। सामान्य शरीर की कोशिकाएं बढ़ती हैं और विभाजित होती रहती हैं। समय के साथ यह समाप्त भी हो जाती हैं। इन सामान्य कोशिकाओं के विपरीत, कैंसर कोशिकाएं नियंत्रण से बाहर बढ़ती और लगातार विभाजित होकर शरीर में बढ़ती रहती हैं। साथ ही ये कोशिकाएं अन्य अंगों के सामान्य कामकाज में भी बाधा डालती हैं।
अगर केंद्र प्रशासित जम्मू-कश्मीर की बात करें तो पिछले चार वर्षों (2019-2023) में जम्मू-कश्मीर में कैंसर के लगभग 51000 मामले सामने आए हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में 12,396 मामले, 2020 में 12,726 मामले, 2021 में 13,060 मामले, 2022 में 13,395 मामले और 2023 में लगभग 13,395 मामले सामने आए थे। ये आंकड़े साफ दर्शाते हैं कि हर साल कैंसर पीडि़तों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। इस वृद्धि के साथ कई कारक जुड़े हुए हैं जैसे तंबाकू का उपयोग, अत्यधिक शराब का सेवन, मोटापा, गतिहीन जीवन शैली और कई पर्यावरणीय कारक। मैंने स्वयं अपने परिवार में कैंसर के कारण तीन मौतें देखी हैं। इसी प्रकार पुंछ में कई अन्य लोग अपने प्रियजनों के कैंसर से प्रभावित होने की गवाही देते हैं। पुंछ जिला के बांडी चेंचियां गांव की रहने वाली सना (बदला हुआ नाम) ने पिछले साल ही अपनी मां को कैंसर से खो दिया था, वह पेट के कैंसर से पीडि़त थी। सना कहती है कि ‘उनकी लड़ाई साहसी थी। उनके इस गंभीर बीमारी से लडऩे के लिए बहुत अधिक पैसे की आवश्यकता थी। फिर भी हम से जहां तक मुमकिन हुआ खर्च किया। अंतिम समय में उनके संघर्ष को देखना दिल दहला देने वाला था।’
यहां सवाल यह है कि यह बीमारी क्यों बढ़ रही है और हमारी चिकित्सा प्रणाली इसके खिलाफ क्या कदम उठा रही है? क्या चिकित्सा प्रणाली इस बीमारी से प्रभावी ढंग से लडऩे में सक्षम है? या क्या हमें और अधिक सुधार की आवश्यकता है? ‘भारत में कैंसर का बोझ’ पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की रिपोर्ट के अनुसार, कैंसर से होने वाली मौतों में फेफड़े का कैंसर (10.6 प्रतिशत), स्तन (10.5 प्रतिशत), ग्रासनली (5.8 प्रतिशत), मुँह (5.7 प्रतिशत), पेट (5.2 प्रतिशत), यकृत (4.6 प्रतिशत) और गर्भाशय ग्रीवा (4.3 प्रतिशत) है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के अनुसार, भारत में विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कैंसर की घटनाएं 2020 में 7,70,230 थी। यह 2021 में बढक़र 7,89,202 और 2022 में 8,08,558 हो गई। पुंछ के कस्बा गांव के निवासी शकील रजा, जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं, कहते हैं कि ‘उन्होंने कुछ साल पहले कैंसर के कारण अपने पिता को खो दिया था। इस दौरान वित्तीय संघर्ष और उनके पिता की बीमारी दोनों असहनीय थी।’ वह कहते हैं कि हमारी वित्तीय स्थिरता बहुत नाजुक थी। पिता के इलाज के लिए बहुत कर्ज लेना पड़ गया। जिसे उतारने के लिए वह दिन रात मेहनत करते हैं।
इस संबंध में, स्थानीय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता बशारत हुसैन कहते हैं कि जम्मू के इस सीमावर्ती जिला पुंछ में भी कैंसर का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है। इसके इलाज में काफी पैसा खर्च होता है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के लिए इसके इलाज का बोझ वहन करना संभव नहीं रह जाता है। हालांकि सरकार की ओर से गरीबों के लिए मुफ़्त इलाज की व्यवस्था है, लेकिन बहुत कम परिवार इसका लाभ उठा पाता है। जबकि यह बीमारी सभी वर्गों में तेजी से अपना पांव पसार रही है। वह सुझाव देते हैं कि इस संबंध में सरकार उन लोगों की मदद के लिए और भी कई स्तर पर उपाय लागू कर सकती है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और कैंसर के इलाज का खर्च उठाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके लिए, सरकार को मौजूदा स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों की स्थापना या विस्तार करना चाहिए जो विशेष रूप से कैंसर के इलाज के लिए सब्सिडी या वित्तीय सहायता प्रदान करे। इसमें कम लागत वाली दवाएं, कीमोथेरेपी और सर्जरी शामिल हो सकती है। ये कार्यक्रम सभी नागरिकों के लिए सुलभ होने चाहिए, भले ही उनकी आय का स्तर कुछ भी हो।
वह कहते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के भीतर विशेष कैंसर उपचार केंद्रों को विकसित करने और बनाए रखने की आवश्यकता है जो जरूरतमंद लोगों को मुफ्त या कम लागत वाली सेवाएं प्रदान कर सके, साथ ही मुफ्त या सब्सिडी वाली दवाएं प्रदान करने के लिए दवा कंपनियों के साथ सहायता कार्यक्रम स्थापित करने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। बशारत कहते हैं कि कैंसर का शीघ्र पता लगाने और रोकथाम के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियानों में निवेश करने की बहुत आवश्यकता है। विशेषकर पुंछ जैसे दूर दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे कार्यक्रमों को अधिक से अधिक प्रमोट किया जाना चाहिए। साथ ही इलाज और दवाइयों का खर्च भी कम होना चाहिए। इस मामले में फार्मास्युटिकल कंपनियां भी अहम भूमिका निभा सकती हैं। वे कैंसर की दवाओं की लागत कम कर सकते हैं और उन्हें जरूरतमंद लोगों के लिए इसे और अधिक सुलभ बना सकते हैं। इन उपायों को मिलाकर, सरकार कैंसर के इलाज तक पहुँचने में वित्तीय चुनौतियों का सामना करने वाले व्यक्तियों और उनके परिवारों के लिए अधिक सहायक वातावरण बना सकती है क्योंकि अब कैंसर के बढ़ते जोखिम को बहुत अधिक गंभीरता से लेने का समय आ गया है। (चरखा फीचर)
दुनिया में कई मुल्क महिलाओं की हत्याओं को अपराध की अलग श्रेणी में ला रहे हैं ताकि इन घटनाओं को रोकने के लिए विशेष उपाय किए जा सकें.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया में हर घंटे औसतन पांच महिलाओं की हत्या उनके ही परिवार के किसी व्यक्ति के हाथों की जाती है। एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2021 में 8,405 महिलाओं और लड़कियों की हत्याएं हुई थीं। इनमें से 7,739 वयस्क महिलाएं थीं।
महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर सदियों से आंदोलन चल रहे हैं लेकिन अपने ही परिजनों के हाथों मार दिया जाना एक ऐसा गुनाह है जिसे लेकर अब महिला अधिकार कार्यकर्ता अलग तरह के उपायों की मांग कर रहे हैं क्योंकि उनका कहना है कि ये हत्याएं अक्सर लैंगिक आधार पर होती हैं।
पिछले साल जारी एक रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘यूएन ऑफिस ऑफ ड्रग एंड क्राइम' ने कहा कि 2022 महिलाओं की हत्याओं के मामले में सबसे बुरा साल साबित हुआ था। रिपोर्ट के मुताबिक अफ्रीका में सबसे ज्यादा करीब 20 हजार महिलाओं की हत्याएं हुईं। एशिया में 18,400, अमेरिकी महाद्वीपों में 7,900, यूरोप में 2,300 और ओशेनिया में200 महिलाओं की हत्याएं दर्ज की गईं।
विशेष कानूनी उपाय
संयुक्त राष्ट्र ने 2013 में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें सरकारों से लैंगिक आधार पर होने वाली हत्याओं के खिलाफ उपाय करने को कहा गया था तब से कई देशों में ऐसे कानून पारित किए गए हैं जो महिला-हत्या को अलग अपराध की श्रेणी में रखते हैं। 2022 में साइप्रस ने फेमिसाइड यानी महिला की हत्या को अपने क्रिमिनल कोड में शामिल किया था और यह स्पष्ट किया था कि ऐसे अपराध में सजा देते वक्त इस बात का ध्यान रखा जाएगा कि हत्या का आधार पीडि़त का महिला होना था।
2022 में ही माल्टा ने भी ऐसा एक कानून पारित किया और अदालतों को महिला की हत्या किए जाने पर उम्रकैद यानी अधिकतम सजा देने का अधिकार दिया। हाल ही में क्रोएशिया में भी ऐसा कानून पारित किया गया है जिसके तहत महिला की हत्या करने पर दस साल या उससे ज्यादा की सजा का प्रावधान किया गया है।
दक्षिण अमेरिका और कैरेबियाई देशों को उन देशों में गिना जाता है जहां महिलाओं की हत्या की दर दुनिया में सबसे अधिक है। क्षेत्र के 33 में से 18 देशों में ऐसा कानून पारित किया गया है, जहां महिला हत्या को एक अलग श्रेणी का लैंगिक-नफरत आधारित अपराध माना गया है। इसकी शुरुआत 2007 में कोस्टा रिका में हुई थी। वहां अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी या जीवन साथी की हत्या करता है तो उसे 20 से 35 साल तक की जेल हो सकती है।
कानून कितने असरदार
हालांकि इस तरह के विशेष कानूनों का अपराध की दर पर कितना असर पड़ता है, इस बात को लेकर विशेषज्ञ एकमत नहीं हैं। मेक्सिको इस मामले में विशेषज्ञों के लिए अध्ययन का विषय रहा है, जहां महिलाओं की हत्या की दर बहुत ऊंची है। लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने मेक्सिको को आधार बनाकर किए गए अध्ययन के बाद कहा था कि विशेष कानून बनाने से वहां महिलाओं की हत्या की दर प्रभावित नहीं हुई।
महसा अमीनी की मौत से कितना बदला ईरान
ब्रिटेन की शेफील्ड हैलम यूनिवर्सिटी में अपराध विज्ञान पढ़ाने वालीं सीनियर लेक्चरर मधुमिता पांडे कन्वर्सेशन पत्रिका के लिए लिखे एक लेख में कहती हैं, ‘महिलाओं की अधिकतर हत्याएं उनके मौजूदा या पूर्व जीवनसाथी द्वारा की जाती हैं, इसलिए जहरीले पुरुषत्व से निपटना और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। जाहिर है कि हमें महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए कानून बनाने से आगे जाने की जरूरत है। महिलाओं की हत्याएं रोकने के लिए एक स्थायी उपाय खोजने के लिए समाज की सक्रिय भागीदारी की जरूरत है।’ (dw.com)
रफ़ाह के शरणार्थी कैंप पर इसराइल के जानलेवा हमले के बाद दुनिया के कई देशों से प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं।
सऊदी अरब ने कहा है कि इसराइल को फ़लस्तीन का अस्तित्व स्वीकार करना होगा। सऊदी अरब के विदेश मंत्री फ़ैसल बिन फरहान ने मंगलवार को कहा कि एक राष्ट्र के रूप में फ़लस्तीन के अस्तित्व के बिना इसराइल नहीं रह सकता है।
सऊदी अरब के इस बयान को काफ़ी अहम माना जा रहा है।
रफ़ाह में हमले के बाद कई देशों में सडक़ों पर लोग उतर आए हैं और इसराइल के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।
इस्लामिक देशों के संगठन ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कोऑपरेशन यानी ओआईसी ने भी प्रतिक्रिया दी है।
इन प्रतिक्रियाओं के बीच इसराइल के पीएम बिन्यामिन नेतन्याहू ने रफ़ाह हमले को दुखद दुर्घटना बताया लेकिन सैन्य कार्रवाई जारी रखने की बातें भी कहीं।
इस रिपोर्ट में पढि़ए रफ़ाह पर इसराइली हमले के बाद दुनिया के कुछ देशों, संगठनों ने कैसी प्रतिक्रिया दी और तस्वीरों में देखिए कि कहां-कहां विरोध प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं।
ओआईसी ने क्या कहा?
ओआईसी ने इसराइली हमले को फ़लस्तीनी नागरिकों के खिलाफ जघन्य जनसंहार वाली कार्रवाई बताया है।
ओआईसी ने अपने बयान में इस हमले को ‘युद्ध अपराध, मानवता के ख़िलाफ़ अपराध और राज्य प्रायोजित आतंकवाद’ कहा।
ओआईसी के बयान के मुताबिक़, ‘इस हमले के अपराधियों की अंतरराष्ट्रीय आपराधिक क़ानून के तहत जि़म्मेदारी तय की जानी चाहिए और उन पर कार्रवाई होनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इसराइली सेना की रफ़ाह में आक्रामकता को तुरंत रोकने वाले अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के आदेशों को लागू करने में अपनी जि़म्मेदारी निभाए।’
बीते दिनों अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय यानी आईसीसी ने इसराइल से रफ़ाह में तुरंत सैन्य कार्रवाई रोकने के लिए कहा था।
तब भी ओआईसी ने इसे ऐतिहासिक कदम बताते हुए कहा था कि यह अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के अनुरूप है और इससे फ़लस्तीनी लोगों के अधिकारों को मज़बूती मिलेगी।
ओआईसी के बयान के मुताबिक़, ‘हम इस तरह के प्रयासों की सराहना करते हैं जो इसराइल के फ़लस्तीन पर कब्ज़े को ख़त्म करने के उद्देश्य को आगे बढ़ाते हैं।’
हालांकि आईसीसी के फ़ैसले का नेतन्याहू पर कोई असर नहीं दिख रहा है।
सऊदी अरब और नॉर्वे की प्रतिक्रिया
सऊदी अरब और नॉर्वे ने 28 मई को एक साझा बयान जारी गज़़ा में इसराइली कार्रवाई रोकने की बात कही है।
इस बयान में बताया गया कि दोनों देशों के अधिकारियों ने चर्चा की कि कैसे गज़़ा में युद्ध को तुरंत रोकने की ज़रूरत है?
बैठक में इस पर भी चर्चा की गई कि द्वि-राष्ट्र समाधान तक पहुंचने के लिए बाकी देशों की ओर से क्या व्यावहारिक कदम उठाए जा सकते हैं।
बैठक के बाद जारी बयान में गज़़ा में युद्ध रोकने और इसराइली बंधकों को रिहा करने की अपील की गई।
ये बयान 26 मई को ब्रसल्स में हुई बैठक के बाद जारी किया गया है। इस बैठक में कई दूसरे देशों ने भी हिस्सा लिया था।
नॉर्वे ने 22 मई को ये एलान किया था कि वो फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देगा। इसके लिए नॉर्वे ने 28 मई की तारीख़ भी तय की।
नॉर्वे के अलावा आयरलैंड और स्पेन ने भी फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता देने का एलान किया था।
इससे पहले सऊदी अरब के विदेश मंत्री फैसल बिन फरहान अल सऊद ने मीडिया से बात की।
सऊदी के विदेशी मंत्री ने कहा, ‘ये बेहद ज़रूरी है कि इसराइल स्वीकार करे कि फ़लस्तीन के बिना इसराइल का कोई अस्तित्व नहीं। हम ये उम्मीद करते हैं कि इसराइली नेतृत्व ये बात समझेगा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ मिलकर काम करना उनके ही हित में है।''
उन्होंने कहा, ‘अरब लीग शुरुआत से कह रहा है कि बंधकों को छोड़ दिया जाए। हमें उम्मीद है कि सभी पक्ष जल्द किसी समझौते पर सहमत हों क्योंकि गज़़ा के लोग इंतज़ार नहीं कर सकते।’
कनाडा और जर्मनी की क्या प्रतिक्रिया
कनाडा की विदेश मंत्री मेलनी जोली ने कहा, ''रफ़ाह में फ़लस्तीनी नागरिकों के हमले में मारे जाने से हम भयभीत हैं। रफ़ाह में इसराइल की सैन्य कार्रवाई का कनाडा समर्थन नहीं करता है। इस तरह की मानवीय पीड़ा अब ख़त्म होनी चाहिए।’ कनाडा ने तुरंत सीजफ़़ायर लागू करने की मांग की है।
जर्मनी की विदेश मंत्री अनालेना बेयरबॉक ने आईसीसी के फ़ैसले को मानने की बात कही है।
बेयरबॉक बोलीं, ‘आईसीसी ने जो फ़ैसला सुनाया, उसको मानने की ज़रूरत है। मगर अभी जो हो रहा है, वो इसके विपरीत ही है।’
बेयरबॉक कहती हैं, ‘अभी जो हम देख रहे हैं कि इसराइल को सुरक्षा को इन हमलों से कोई फ़ायदा नहीं होगा। किसी बंधक को नहीं छोड़ा जाएगा।’
अमेरिका ने क्या कहा
अमेरिका ने रफ़ाह हमले की तस्वीरों को ‘दिल तोडऩे’ वाला बताया।
हालांकि अमेरिका ने कहा कि इसराइल के पास ये अधिकार है कि वो ख़ुद का बचाव करे।
अमेरिका में नेशनल सिक्योरिटी के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने कहा, ''इसराइल को हक़ है कि वो हमास को निशाना बनाए। हम समझते हैं कि रफ़ाह में किए हमले में हमास के दो बड़े आतंकवादी मारे गए हैं, जो इसराइली नागरिकों की हत्या के लिए जि़म्मेदार थे।’
अमेरिका ने इसराइल से एक बार फिर कहा कि इसराइल को हर वो क़दम उठाना चाहिए, जिससे नागरिकों की रक्षा की जा सके।
अमेरिकी सांसद ग्रैग कासर ने ट्वीट कर कहा, ‘रफ़ाह में नागरिकों की हत्या से ग़ुस्से में हूं। राष्ट्रपति जो बाइडन को आज ही नेतन्याहू को भेजे जा रहे बमों पर रोक लगाने का एलान करना चाहिए।’
गज़़ा में इसराइली कार्रवाई शुरू होने के बाद से ही अमेरिका इसराइल की तरफ़ नजऱ आता है। हालांकि कुछ मौक़ों पर बाइडन नेतन्याहू को आगाह करते हुए भी दिखे हैं।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और आयरलैंड ने क्या कहा
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने सोशल मीडिया पर लिखा, ''इसराइल के रफ़ाह में शरणार्थी कैंप पर किए हमले की निंदा करता हूं। इस हमले में निर्दोष नागरिक मारे गए हैं। गज़़ा में कोई जगह सुरक्षित नहीं है। ये ख़ौफ़ अब ख़त्म होना चाहिए।''
बीते दिनों आयरलैंड ने भी फ़लस्तीन को राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी थी।
अब आयरलैंड के प्रधानमंत्री सिमॉन हैरिस ने कहा, ‘एक ऐसी जगह जहां लोग सुरक्षित रहने के लिए गए हैं। जहां लोग अपने बच्चों को लाए हैं ताकि वो सुरक्षित रहें। ऐसी जगह पर बम गिराना भयानक है। इससे कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं।’
सिमॉन हैरिस बोले, ‘हर देश को ये ख़ुद से पूछना चाहिए कि वो अब तक इतने बेअसर कैसे हो सकते हैं और ऐसा क्या किया जा सकता है कि शांति स्थापित हो सके। हमें इस मामले में तत्काल कदम उठाने चाहिए।’
यूरोपीय संघ में विदेश और सुरक्षा नीति से जुड़े नेता जोफेफ़ बोरेल ने भी इसराइली हमले की निंदा की है।
वो बोले-‘'ये हमले तुरंत रोके जाने चाहिए, आईसीजे के आदेश का सभी पक्षों को पालन करना चाहिए।’
जनसंहार झेल चुके शख़्स ने क्या कहा
अमेरिकी चैनल सीएनएन ने आर्यह नीहर का इंटरव्यू किया है।
नीहर यहूदी हैं और जर्मनी में पैदा हुए थे। वो हिटलर के जनसंहार से बचने वाले लोगों में शामिल थे। नीहर मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और ह्यूमन राइट्स वॉच के संस्थापकों से से थे।
सीएनएन से नीहर ने कहा कि गज़़ा में इसराइल जनसंहार कर रहा है।
वो बोले, ''गज़़ा में दो हज़ार पाउंड वजनी बमों का इस्तेमाल करना अनुचित है। इसराइल के हमलों से हमास नहीं, आम लोग प्रभावित हो रहे हैं। इसराइल की बाधाओं के कारण जो मानवीय संकट पैदा हो रहा है, ये जनसंहार ही है। मदद करने वालों को मारा जा रहा है, घरों को तबाह किया जा रहा है।’
नीहर कहते हैं, ‘जनसंहार का आरोप किसी पर लगाना बुरा है, मगर इससे ज़्यादा बुरा ये है कि जनसंहार हो रहा हो।’ (bbc.com/hindi)
-सनियारा खान
डॉ.. बीरू बाला राभा.... पूर्वोत्तर भारत के असम से जडि़त इस नाम को बाकी प्रदेशों के ज़्यादातर लोग जानते भी नहीं हैं। बाकी प्रदेश ही क्यों? असम के भी बहुत कम लोग इनके बारे में जानते हैं। क्योंकि वे कोई नेता या अभिनेता नहीं, बल्कि सिफऱ् पांचवी कक्षा तक पढ़ी एक आम सी महिला थी.... जिसने अकेले ही समाज की बुराइयों के खिलाफ़ लड़ाई शुरू की थी। अपनी इसी हिम्मत के कारण आगे चलकर वे एक सामाजिक संघर्ष की पहचान बन गई।
बीरू बाला जी के जीवन में एक ऐसा समय आया था जब उनका बेटा स्नायु तंत्र की किसी गंभीर बीमारी से मृतप्राय हो कर जी रहा था। आर्थिक दशा बहुत खऱाब होने के कारण वे लोग बहुत मजबूर थे। तभी उनके पति को भी कैंसर हो गया। उस समय आस पास के लोग बीरू बाला को डायन कह कर उनके घर के बुरे हालात के लिए बीरु बाला को ही दोषी मानने लगे थे ।लेकिन बीरू बाला सभी की बातों को अनसुना कर हालात के साथ संघर्ष करती रही। सन 1999 की बात है, एक मंदिर में बहुत सारे लोग इक_े हो कर गांव की पांच औरतों को डायन घोषित कर दिया था। तब बीरू बाला ने साहस दिखा कर इसका जोरदार विरोध किया। और वे उन सभी लोगों के सामने हिम्मत से इसे एक सामाजिक अंधविश्वास कह कर उन पांचों औरतों के साथ खड़ी हो गई थी। बस यही से उनका जीवन बदल गया। अपने गांव में वे ‘मिशन बीरू बाला’ नाम से एक संस्था बना कर डायन प्रथा के साथ साथ अन्य बहुत सारे सामाजिक कुसंस्कारों को भी खतम करने के लिए काम करने लगी। इस मिशन की शुरुवात सन 2011 में की गई थी। इस में जुडऩे वाले लोग गांव गांव जा कर लोगों को जागरूक करने की कोशिश करते रहें। सिफऱ् गांव ही नहीं, वे सभी आदिवासी और जनजातीय क्षेत्रों में भी डायन प्रथा, अंध विश्वास और अन्य कुसंस्कारों के खिलाफ लोगों को समझाने लगें। वर्तमान में इस संस्था में आठसौ से भी अधिक सदस्य है। बीरू बाला के साथ हर जगह औरतें और लड़कियां खड़ी होने लगी। कहा जाता है कि इस कोशिश के कारण मिशन बीरू बाला ने अब तक 38 महिलाओं के जीवन की रक्षा कर सकी हैं। इस अभियान से प्रभावित होकर और भी बहुत लोग डायन प्रथा के खिलाफ़ खड़े होकर गांव की औरतों और लड़कियों को शिक्षा दिला कर स्वावलंबी बनाने के लिए काम करने लगें।
सन 2021 में भारत सरकार ने उनको पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। इससे पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज से उनको रीयल हीरो पुरस्कार , टाई आहोम युवा परिषद की तरफ से मूला गाभरु और जयमती पुरस्कार भी मिला। मूला गाभरु और जयमती असमिया इतिहास की दो महान महिलाएं है, जिनके नाम से ये पुरस्कार दिया जाता है।गुवाहाटी विश्वविद्यालय ने भी उनको मानक डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया था। इसके अलावा और भी अनेक सम्मानों से उनको सम्मानित किया गया था। ‘नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क’ नामक एक प्रख्यात संगठन द्वारा उनका नाम सन 2005 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए भी आगे बढ़ाया गया था। उच्च शिक्षा के बगैर भी लोग देश के लिए अच्छे काम कर सकते हैं और बीरू बाला राभा ने ये बात सिद्ध कर दिया। इसी साल 13 मई को इस मानवाधिकार कार्यकर्ता की कैंसर से मृत्यु हो गई है। उम्मीद है कि उनके बाद भी मिशन बीरु बाला अपना काम इसी तरह जारी रखेगा। भारत के हर प्रदेश में मानवाधिकार के लिए ऐसे बहुत सारे खामोशी से काम करने वाले लोग होंगे, जिनके बारे में लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं होती है। ऐसे गुमनाम लोगों को ढूंढ कर सामने ला कर सम्मानित करने के लिए सरकार और जनता द्वारा सम्मिलित कोशिश होनी चाहिए।


