विचार/लेख
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
समाज शास्त्री अब्राहम मास्लो का निष्कर्ष है- ‘यदि मनुष्य को कुछ किए बिना खाने को मिल जाए तो वह अपने बिस्तर से नहीं उठेगा।’ वह ‘भूख’ है जो मनुष्य को काम करने के लिए मजबूर करती है। इसका एक निहितार्थ यह भी है कि मनुष्य परम आलसी जीव है ! किसी भी उम्र का मनुष्य हो, वह काम करने से बचना चाहता है, काम न करने के बहाने खोजता है। योग के कार्यक्रम को देखकर स्वस्थ होना चाहता है लेकिन योग करना नहीं चाहता। ‘खाना खजाना’ के कार्यक्रम को मन लगाकर देखने वालों की कमी नहीं लेकिन किचन में उन डिशों को बनाकर खाने-खिलाने वाले बिरले होते हैं। सुबह जागने का संकल्प करने वाले अलार्म बजने पर अलार्म के आविष्कारक को को मन ही मन गरियाते हैं और उसे ‘ऑफ’ करके और अच्छे से सो जाते हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण हमारे आसपास बिखरे हुए हैं जो हमारे आलस्य का गुणगान करते पाए जाते हैं। अब, स्वभाव से जन्मजात आलसी इस व्यक्ति को काम से लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है।
सरकारी और गैर-सरकारी दोनों सेवाओं में पदानुक्रम होते हैं। इस क्रम में सबके ऊपर कोई न कोई होता है। हर व्यक्ति स्वयं को ‘बॉस’ समझता है लेकिन बॉस कोई नहीं होता, हर कोई अधीनस्थ होता है। हर कोई अपने अधीनस्थ को धमकाकर या उसे चमकाकर काम लेता है क्योंकि हमारे बाप-दादों के जमाने से यही परिपाटी चली आ रही है, हमने वही सीखा है । यह सामंतवादी उपाय सुधारवादी प्रयोग की देन है जिसका असर सरकार में है, समाज में है, व्यापार में है और परिवार में भी है। बीसवीं सदी के आरंभ में अनेक समाजशास्त्रियों ने मानव मन की गहराई में जाकर यह समझने की कोशिश की कि इस आलसी जीव से कैसे अधिक काम लिया जाए?
समस्या यह है कि आलसी व्यक्ति को सक्रिय कैसे किया जाए! आम तौर पर सरकारी नौकरी मज़े के नौकरी मानी जाती है। नौकरी पक्की हो जाए तो काम करना या न करना- शासकीय सेवक की मर्जी से जुड़ा हुआ है। ‘कंफर्म’ होने के पहले और उसके बाद के काम करने की गुणवत्ता में पर्याप्त अंतर देखा जाता है। इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि काम करने का संबंध डर से है जिसमें नौकरी छिन जाने का डर सबसे बड़ा है। ऐसे अनेक उदाहरण देखने में आते हैं जहां ऐसे महानुभावों से काम लेने के लिए डांट-डपट, धमकी और अपशब्दों का सहारा लेना पड़ता है। यह विचारणीय है कि संगठन में इस तरह का माहौल क्या उचित है? क्यों लोग काम करने से विमुख हो जाते हैं, उनका उत्साह भंग हो जाता है ? क्या पढ़े-लिखे लोकतांत्रिक समाज में ‘चमकाइटिस’ के अस्त्र का प्रहार न्यायोचित है ?
अमेरिका में नवंबर में हुए राष्ट्रपति चुनाव में जब डोनाल्ड ट्रंप को जीत मिली तो भारत कहीं से भी निराश नहीं दिख रहा था।
नवंबर के दूसरे हफ़्ते में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तो यहाँ तक कहा था कि डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के दोबारा राष्ट्रपति बनने से कई देश नर्वस हैं लेकिन भारत उन देशों में नहीं है।
जयशंकर ने ये भी कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के डोनाल्ड ट्रंप से अच्छे संबंध हैं और यह भारत के लिए अच्छा है।
मुंबई में नवंबर के दूसरे हफ़्ते में आदित्य बिड़ला ग्रुप स्कॉलरशिप के सिल्लर जुबली प्रोग्राम को संबोधित करते हुए जयशंकर ने कहा था, ‘ट्रंप के आने से कई देश नर्वस हैं लेकिन भारत उन देशों में नहीं हैं। ट्रंप के आने से चीज़ें शिफ़्ट करेंगी। शिफ़्ट तो हम भी कर रहे हैं। वो चाहे अर्थव्यवस्था के मामले में हो, इंडियन कॉर्पोरेट हों, उनकी पहुँच हो या फिर भारत के प्रोफ़ेशनल हों।’
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी बहुत ही गर्मजोशी से ट्रंप की जीत पर बधाई दी थी। यहां तक कहा जा रहा था कि चीन के निर्यात पर अमेरिका टैरिफ लगाएगा तो इसका फ़ायदा भारत को होगा।
लेकिन जिस तरह से बुधवार को अमेरिका ने 104 भारतीयों को अपने मिलिटरी एयरक्राफ़्ट से वापस भेजा है, उसे लेकर सवाल उठने लगे हैं। इन 104 भारतीयों में कई लोगों ने मीडिया से बात करते कहा है कि उन्हें हाथ और पैर में बेडिय़ां लगाकर भेजा गया है।
समाजवादी पार्टी के सांसद राजीव राय ने बुधवार को कहा कि अबकी बार ट्रंप सरकार की नारा लगाने वाले पीएम मोदी को बताना चाहिए कि भारत का ऐसा अपमान क्यों हो रहा है? अमेरिका कोलंबिया के लोगों को भी मिलिटरी एयरक्राफ़्ट से भेज रहा था लेकिन कोलंबिया ने इस पर आपत्ति जताई थी और इसे स्वीकार नहीं किया था। वहीं भारत ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई।
भारत ने सैन्य विमान से भारतीयों को भेजना क्यों स्वीकार किया?
सामरिक मामलों के विशेषज्ञ ब्रह्मा चेलानी मानते हैं कि भारत को अमेरिका से कहना चाहिए था कि वह भारतीयों को मानवीयता के साथ भेजे न कि अपराधियों की तरह हथकड़ी लगाकर।
चेलानी ने एक्स पर लिखा है, ‘मेक्सिको और कोलंबिया ने अपने प्रवासियों को हथकड़ी पहनाकर सैन्य विमान से भेजने को स्वीकार नहीं किया। कोलंबिया ने तो अपना एयरक्राफ़्ट भेजा। लेकिन भारत ने न केवल सैन्य विमान में सवार हथकड़ी पहने भारतीयों को स्वीकार किया बल्कि शेख़ी बघारते हुए कहा कि अवैध प्रवासियों से निटपने के लिए भारत और अमेरिका के बीच सहयोग बहुत मज़बूत है।’
पूरे मामले पर गुरुवार को संसद में एस जयशंकर ने कहा कि दोनों देशों के हित में है कि वैध प्रवासन को प्रोत्साहित करें और अवैध आवाजाही को रोकें।
जयशंकर ने कहा, ‘अवैध प्रवासियों से कई और ग़लत चीज़ें भी जुड़ जाती हैं। लोग बुरी तरह से फँसे हुए थे और अमानवीय हालात में काम कर रहे थे। सभी देशों के साथ अपने नागरिकों को वापस लेने का दायित्व जुड़ा होता है। वापस भेजने की प्रक्रिया कोई नई नहीं है, बल्कि सालों से ऐसा हो रहा है। हम अमेरिकी सरकार के साथ बात कर रहे हैं कि जिन्हें वापस भेजा जा रहा है, उनके साथ फ्लाइट में अमानवीय व्यवहार नहीं होना चाहिए।’
यूनाइटेड स्टेट्स बॉर्डर पट्रोल के चीफ़ माइकल डब्ल्यू बैंक्स ने एक वीडियो एक्स पर पोस्ट किया है, जिसमें साफ़ दिख रहा है कि भारतीयों के पैरों और हाथों में कडिय़ां लगी हैं।
इस वीडियो के साथ अपनी पोस्ट में माइकल डब्ल्यू बैंक्स ने लिखा है, ‘भारत के अवैध एलियंस को सफलतापूर्वक वापस भेज दिया गया है। हम इमिग्रेशन के नियमों को लेकर प्रतिबद्ध हैं। अगर आप अवैध रूप से आएंगे तो आपको इसी तरह वापस भेजा जाएगा।’
ब्रह्मा चेलानी मानते हैं कि ट्रंप ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें व्यापार से मतलब है।
चेलानी ने एक्स पर लिखा है, ‘ट्रंप के आमंत्रण पर पीएम मोदी अगले हफ़्ते व्हाइट हाउस जा रहे हैं और दूसरी तरफ़ अमेरिका ने अपने मिलिटरी एयरक्राफ़्ट से अवैध भारतीय प्रवासियों की पहली खेप वापस भेजी है। इसका स्पष्ट संदेश है- ट्रंप मतलब बिजऩेस। ट्रंप अभी भारत के साथ अपने हक़ में और डील करेंगे लेकिन मोदी वहाँ से क्या लेकर वापस आएंगे?’
ट्रंप को लेकर क्या भारत का आंकलन गलत साबित हुआ?
इससे पहले भारत के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने संसद में कहा था कि ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह में पीएम मोदी को आमंत्रित किया जाए, इसके लिए जयशंकर को अमेरिका भेजा गया था।
इसके जवाब में जयशंकर ने कहा था कि राहुल गांधी झूठ फैला रहे हैं। जयशंकर ने कहा था कि संभव है कि राहुल गांधी जानबूझकर राजनीतिक फ़ायदे के लिए झूठ बोल रहे हों लेकिन इसका नुकसान भारत को विदेशों में होगा। अगर इन राजनीतिक बयानबाजिय़ों को छोडक़र भी देखें तो ट्रंप के 20 जनवरी के शपथ ग्रहण के बाद जो चीज़ें हुई हैं, वे भारत के पक्ष में नहीं दिख रही हैं। नरेंद्र मोदी अगले हफ़्ते अमेरिका जाने वाले हैं और व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मुलाक़ात करेंगे। लेकिन मोदी के दौरे से पहले ट्रंप ने भारत को कई मामलों में असहज कर दिया है।
भारत ईरान में चाबहार पोर्ट बना रहा है ताकि पाकिस्तान को बाइपास कर अफग़़ानिस्तान और मध्य एशिया से व्यापार किया जा सके। दूसरी तरफ़ ट्रंप प्रशासन ईरान पर मैक्सिमम दबाव की रणनीति अपना रहा है।
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में ईरान में चाबहार पोर्ट बनाने को लेकर छूट दे रखी थी लेकिन अब इसकी समीक्षा की बात हो रही है।
व्हाइट हाउस की ओर ईरान पर ‘मैक्सिमम प्रेशर’ को लेकर जो बयान जारी किया गया है, उसमें लिखा है, ‘जो ईरान को किसी भी तरह से आर्थिक फ़ायदा पहुँचाते हैं, उन्हें प्रतिबंध से मिली छूट में या तो परिवर्तन होगा या उसे रद्द कर दिया जाएगा। इसमें ईरान का चाबहार पोर्ट भी शामिल है।’
अमेरिका के इस रुख़ पर भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने लिखा है, ‘पहले ट्रंप को लेकर एक आशावादी माहौल था कि दूसरों की तुलना में भारत को अमेरिका से संबंध बढ़ाने में मदद मिलेगी लेकिन अब ऐसा नहीं लग रहा है। ट्रंप प्रशासन चौतरफ़ा दबंगई दिखा रहा है। अमेरिका की नई सरकार में हमारे दोस्त हैं लेकिन जो नीतियां बन रही हैं, वे नियमों के ख़िलाफ़ हैं। अमेरिका अब चाबहार पर दी हुई छूट को टारगेट कर रहा है। यह हमारे लिए झटका है और हमारी रणनीतिक स्वायत्तता के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी है।’
ट्रंप रूस के मामले में भी करेंगे मुश्किल?
अमेरिकी मीडिया आउटलेट ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ‘भारत ने पहले ही अमेरिका को सहमति दे दी थी कि बिना दस्तावेज़ों वाले भारतीय कामगारों को वापस लाने में मदद के लिए तैयार है। ज़ाहिर है कि भारत सरकार को अपने घर में इस मामले में शर्मिंदगी का सामना करना पड़ेगा। अमेरिका से अवैध प्रवासियों की आने वाली हर फ्लाइट यह सवाल पूछेगी कि मोदी सरकार ने रिकॉर्ड स्तर पर कहाँ रोजग़ार के अवसर पैदा किए हैं? क्यों बड़ी संख्या में भारतीय दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को छोडऩे के लिए बेताब हैं? क्या भारत में उनके लिए जॉब नहीं है?’
ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ‘मोदी सरकार पहले से ही अमेरिका को ख़ुश करने लगी है। पिछले हफ्ते शनिवार को भारत का सालाना बजट पेश हुआ और कई उत्पादों से आयात शुल्क में कटौती की घोषणा की गई।’
ब्लूमबर्ग को लगता है कि भारत भारत रूस से तेल आयात को सीमित कर सकता है।
ब्लूमबर्ग ने अपनी वेबसाइट पर लिखा, ‘भारत इन सब के बदले कुछ छूट चाहेगा। जैसे अमेरिका में गौतम अदानी के ख़िलाफ़ चल रहे क़ानूनी मामले को स्थगित करना। इसके साथ ही भारत चाहेगा कि अमेरिका फिर से अपनी ज़मीन पर किसी अमेरिकी को मारने की साजि़श का आरोप न लगाए।’
थिंक टैंक द विल्सन सेंटर में साउथ एशिया इंस्टिट्यूट के निदेशक माइकल कुगलमैन ने लिखा है, ‘ट्रंप भारत को ‘टैरिफ किंग’ के रूप में देखते हैं लेकिन उन्होंने अब तक कोई नए टैरिफ लगाने की घोषणा नहीं की है। ऐसा शायद इसलिए है कि भारत ट्रंप को ठीक से समझता है। ट्रंप ने जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रपति की कमान संभाली, भारत ने टैरिफ कम करने का संकेत दे दिया था और साथ ही बिना दस्तावेज़ों वाले भारतीय कामगारों को वापस लाने के लिए हामी भर दी थी। भारत ने अमेरिका से तेल आयात के भी संकेत दिए हैं।’
कुगलमैन ने लिखा है, ''दूसरे देशों ने ट्रंप को एहतियात के तौर ऐसा कोई संकेत नहीं दिया था और उन्हें टैरिफ का सामना करना पड़ा। भारत इस मामले में ट्रंप से उलझना नहीं चाहता है। इसका मतलब ये नहीं है कि भारत को ट्रंप प्रशासन से नई चुनौतियां नहीं मिलेंगी। अमेरिका की मैक्सिमम ईरान पॉलिसी से ईरान में भारत का चाबहार प्रोजेक्ट भी प्रभावित होगा। आने वाले वक्त में और दिक्कतें आएंगी।’
कहा जा रहा है कि ट्रंप के इस कार्यकाल में भारत को रूस से संबंधों में गर्मजोशी बनाए रखने में भी समस्या होगी। हालांकि भारत रूस से अपनी सैन्य आपूर्ति की निर्भरता कम कर रहा है। अमेरिका अब भारत पर दबाव बना सकता है कि वह रूस से तेल की खऱीदारी कम करे और अमेरिका से बढ़ाए। (bbc.com/hindi)
-आर.के.जैन
वरिष्ठ पत्रकार व लेखिका नीरजा चौधरी ने अपनी पुस्तक ‘हाऊ प्राइम मिनिस्टर्स डिसाइड’ में इंदिराजी के बारे में लिखा है कि वर्ष 1977 के बाद इंदिराजी बेहद धार्मिक हो गई थी और उनका मंदिरों में जाना बढ़ गया था। उनको डर था कि कहीं सत्तारूढ़ जनता पार्टी के लोग संजय गांधी को कुछ ना कर दे। वो अक्सर कहती थीं कि मैं तो पहाड़ों पर चली जाऊँगी, एक छोटा सा घर ले लूँगी, रिटायर हो जाऊँगी, मेरी जरूरतें ही क्या हैं ? लेकिन वो चाहती थी कि संजय गांधी सुरक्षित रहे।
इंदिराजी ने वर्ष 1966 में पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ संविधान के नाम पर ली थी लेकिन जब वह दोबारा 1980 में प्रधानमंत्री बनी तब उन्होंने ईश्वर के नाम पर शपथ ली थी।
इंदिराजी के करीबी सहयोगी रहे अनिल बाली ने उनको सलाह दी थी कि उन्हें हिमाचल प्रदेश के पालमपुर के प्रसिद्ध चामुंडा माता मंदिर में जाना चाहिए । इंदिराजी ने 22 जून की तिथि तय की पर किसी कारण से उन्हें मंदिर जाने का प्रोग्राम कैंसिल करना पड़ गया था। इस बात से मंदिर के पुजारी बहुत नाराज हुए थे और कहा था कि ‘माता सामान्य लोगों को तो माफ कर देती हैं यदि वह मंदिर नहीं आते लेकिन जब शासक ही नहीं आता तो माता कुपित हो जाती है। पुजारी ने कहा था कि ‘देखना, यह रोती हुई मंदिर में आयेगी।
दिनांक 23 जून को खबर आई कि संजय गांधी का प्लेन क्रैश हो गया है और उनकी मृत्यु हो गई हैं।
अगले दिन इंदिराजी के करीबी चामुंडा माता के मंदिर से लौटे, तो इंदिराजी ने पूछा ‘क्या संजय की मौत इसलिए तो नहीं हुई कि मैं मंदिर नहीं जा पाई?
संजय गांधी की मृत्यु के कुछ महीनों बाद इंदिराजी चामुंडा माता के मंदिर पालनपुर गई और बहुत देर तक मंदिर में खड़ी होकर रोए जा रही थी।
-जेरेमी बोवेन
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की गज़़ा को नियंत्रण में लेने और वहां के लोगों को फिर से बसाने की योजना पूरी नहीं होने वाली है। ऐसी किसी भी योजना के लिए अरब देशों के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। लेकिन अरब देशों ने इस योजना को सिरे से खारिज कर दिया है।
योजना को खारिज करने वाले अरब देशों में जॉर्डन और मिस्र भी शामिल हैं। ट्रंप चाहते हैं कि ये दो देश गाजा के मौजूदा बाशिंदों को अपने यहाँ बसा लें। वह चाहते हैं कि इसका ख़र्च सऊदी अरब उठाए लेकिन वो भी इस योजना से सहमत नहीं है।
अमेरिका और इसराइल के पश्चिमी सहयोगी भी इस विचार के खिलाफ हैं। लेकिन गाजा में कुछ या शायद कई फिलस्तीनियों को अगर मौका मिले तो वो वहां से बाहर निकलने का रास्ता चुन सकते हैं। लेकिन अगर दस लाख लोग वहाँ से निकल भी गए तो भी वहां 12 लाख लोग बच जाएंगे। और शायद अमेरिका को ट्रंप की योजना पूरी करने के लिए इन लोगों को जबरन वहां से हटाना पड़े। साल 2003 में इराक़ में हस्तक्षेप के बाद ऐसी कोई भी कोशिश अमेरिका में बेहद अलोकप्रिय होगी।
ट्रंप की योजना पर क्यों उठे सवाल?
साथ ही ये अरसे से ‘दो-देशों’ के समाधान वाली योजना की उम्मीद का भी अंत होगा। दो देशों वाले समाधान का मकसद इसराइल के साथ-साथ एक स्वतंत्र फिलस्तीनी देश की स्थापना करना रहा है ताकि एक सदी से चला आ रहा है यह ख़ूनी संघर्ष थम जाए।
इसराइल की नेतन्याहू सरकार दो देश बनाने की इस योजना के सख्त खिलाफ है।
कई वर्षों की विफल शांति वार्ताओं के दौरान, ‘दो देशों’ वाला ये समाधान महज एक खोखला नारा बन कर रह गया है। लेकिन 1990 के दशक की शुरुआत से ही यह समाधान अमेरिकी विदेश नीति का केंद्रीय मुद्दा रहा है।
ट्रंप की योजना अंतरराष्ट्रीय कानून का भी उल्लंघन करेगी।
अमेरिका हमेशा कहता रहा है कि वो कानून के तहत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में यकीन करता है।
ट्रंप की योजना पर अमल इस विचार के भी विरुद्ध होगा। इसके अलावा यूक्रेन में रूस की और ताइवान में चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी बल मिलेगा।
मध्य-पूर्व के लिए ट्रंप की योजना के क्या मायने?
अब सवाल ये है कि अगर ऐसा नहीं होने वाला है तो इस सब के बारे में चिंता क्यों करें? इसका उत्तर यह है कि ट्रंप की टिप्पणियाँ चाहे कितनी भी अजीब क्यों न हों, उनका कुछ न कुछ परिणाम तो जरूर होगा।
ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति हैं। वह दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है, भले ही ट्रंप पहले एक रियलिटी टीवी होस्ट और सुर्खियां बटोरने की कोशिश करने वाले राजनीतिक उम्मीदवार रहे हों।
उनकी ये आश्चर्यजनक घोषणा गाजा में चल रहे एक नाज़ुक युद्धविराम को कमजोर कर सकती है। एक वरिष्ठ अरब सूत्र ने मुझे बताया कि ये घोषणा युद्धविराम के लिए 'मौत की घंटी' हो सकती है।
वैसे भी गाजा में भविष्य का शासन कैसा होगा उसपर युद्धविराम समझौता ख़ामोश है क्योंकि दोनों पक्षों में इस विषय पर सहमति नहीं है।
अब ट्रंप ने इस मुद्दे का एक समाधान सुझाया है। भले ही ट्रंप की गाजा योजना पूरी न हो पर फिलस्तीनियों और इसराइलियों के दिमाग में अब एक नया विचार घर कर जाएगा।
इसराइल में यहूदी चरमपंथियों के मन की बात
गाजा पर ट्रंप की योजना अति-राष्ट्रवादी यहूदी चरमपंथियों के सपनों को पोषित करेगी।
ऐसी विचारधारा के लोग मानते हैं कि भूमध्य सागर और जॉर्डन नदी के बीच और शायद उससे आगे की सारी भूमि यहूदियों की है।
अति-राष्ट्रवादी यहूदी चरमपंथियों के नेता नेतन्याहू की सरकार का हिस्सा हैं और उन्हें सत्ता में बनाए रखने में अहम रोल अदा कर रहे हैं। ये सारे लोग ट्रंप के विचार से ख़ुश हैं।
वो चाहते हैं कि गज़़ा का युद्ध फिर से शुरू हो ताकि वहां से फ़लस्तीनियों को हटाकर यहूदियों को बसाया जा सके।
इसराइल के वित्त मंत्री बेजेलेल स्मोट्रिच ने कहा कि ट्रंप ने 7 अक्टूबर के हमलों के बाद गाजा के भविष्य का हल खोज लिया है।
उनके बयान में कहा गया है ‘जिसने भी हमारी जमीन पर सबसे भयानक नरसंहार किया है, उसे हमेशा के लिए अपनी भूमि खोनी पड़ेगी। आखिरकार अब हम भगवान की मदद से, एक स्वतंत्र फिलस्तीनी देश के खतरनाक विचार को दफनाने के लिए काम करेंगे।’
इसराइल विपक्षी नेताओं ने योजना का स्वागत किया है क्योंकि शायद उन्हें अपने भविष्य का डर सता रहा है। ऐसा हो सकता है कि हमास और अन्य फिलस्तीनी सशस्त्र समूह ट्रंप को जवाब देने के लिए बल के प्रदर्शन की जरूरत समझें।
फिलस्तीनियों के लिए, इसराइल के साथ संघर्ष अपनी जमीन से बेदखली है जिसे वे अल-नकबा या ‘तबाही’ का नाम देते रहे हैं। अल-नकबा 1948 में इसराइल के गठन के बाद शुरू हुआ फिलस्तीनियों का पलायन था।
तब 700,000 से अधिक फ़लस्तीनी या तो भाग गए थे या इसराइली सेना ने उन्हें अपने घरों से भागने के लिए मजबूर कर दिया था।
कुछ मु_ी भर फ़लस्तीनियों के अलावा बाकी सभी को कभी भी वापस जाने की अनुमति नहीं दी गई। इसके बाद इसराइल ने ऐसे कानून पारित किए जिनका उपयोग वह अभी भी फ़लस्तीनियों की संपत्ति को ज़ब्त करने के लिए करता है।
अब डर ये रहेगा कि ये सब दोबारा हो सकता है।
कई फिलस्तीनियों को पहले से ही लग रहा था इसराइल हमास के खिलाफ युद्ध का इस्तेमाल गाजा को तबाह करने और वहां की आबादी को बाहर निकालने के लिए कर रहा है।
इसलिए फिलस्तीनी इसराइल पर नरसंहार का आरोप लगाते रहे हैं। और अब उन्हें लग सकता है कि डोनाल्ड ट्रंप इसराइल की योजनाओं का समर्थन कर रहे हैं।
ट्रंप ने ये योजना क्यों पेश की?
सिर्फ इसलिए कि ट्रंप ने कहा है, इससे कोई बात सच या निश्चित नहीं हो जाती। उनके बयान अक्सर अमेरिका की तयशुदा नीति की तुलना में किसी रियल एस्टेट डील के दांव पेच जैसे होते हैं।
शायद ट्रंप किसी और योजना पर काम कर रहे हों और यहां सिफऱ् भ्रम फैला रहे हों। कहा तो ये भी जाता है कि ट्रंप नोबेल शांति पुरस्कार के इच्छुक रहे हैं। मध्य-पूर्व में शांति की पहल को बढ़ावा देने वालों को नोबेल पुरस्कार मिलते रहे हैं।
जब दुनिया उनकी ट्रंप की गज़़ा के बारे में घोषणा को समझने का प्रयास कर रही थी, उन्होंने अपने ट्रुथ सोशल प्लेटफॉर्म पर ईरान के साथ ‘सत्यापित परमाणु शांति समझौते’ की इच्छा पोस्ट की।
ईरान इस बात से इनकार करता है कि वह परमाणु हथियार बनाना चाहता है लेकिन तेहरान में इस बात पर खुली बहस चल रही है कि क्या अब ख़तरा इतना बढ़ गया है कि उन्हें ऐसा कोई हथियार बना लेना चाहिए।
नेतन्याहू कई वर्षों से चाहते हैं कि अमेरिका, इसराइल की मदद से, ईरान के परमाणु ठिकानों को नष्ट कर दे। ईरान के साथ डील करना कभी भी उनकी योजना का हिस्सा नहीं था।
ट्रंप के पहले कार्यकाल में नेतन्याहू ने ईरान के साथ बराक ओबामा के दौरान हुए परमाणु समझौते से अमेरिका को बाहर निकालने के लिए सफल अभियान चलाया था।
अगर ट्रंप का मकसद ईरान के बारे में बात कर के धुर दक्षिणपंथियों को खुश करना था तो वे इसमें सफल रहे हैं। लेकिन ट्रंप ने दुनिया के सबसे अशांत इलाके में एक अनिश्चितता और अस्थिरता पैदा की है। (bbc.com/hindi)
-सलमान रावी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नई किताब चर्चा में है। इस किताब में उन्होंने बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस पर भी निशाना साधा है।
कोलकाता पुस्तक मेले में उनकी तीन किताबों का विमोचन हुआ, लेकिन सबसे ज्यादा बहस ‘बांगलार निरबाचन ओ आमरा (बंगाल के चुनाव और हम)’ पर हो रही है। इस किताब में 2024 लोकसभा चुनाव का विश्लेषण किया गया है।
तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में हार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि कई राज्यों में गठबंधन की वजह से कांग्रेस को फ़ायदा हुआ, लेकिन पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने बीजेपी और वाम दलों से मिलकर तृणमूल कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा।
पश्चिम बंगाल कांग्रेस ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी और वाम मोर्चे के नेता आपस में मिले हुए हैं।
ममता बनर्जी ने ‘बांगलार निरबाचन ओ आमरा’ में 2024 लोकसभा चुनाव में हार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया है। उनका कहना है कि कांग्रेस को जितनी सीटें मिलीं, वो सिर्फ इसलिए क्योंकि गठबंधन के अन्य दलों ने उनके ख़िलाफ़ उम्मीदवार नहीं उतारे, न कि कांग्रेस की खुद की ताकत की वजह से।
उन्होंने किताब में बंगाल की चुनावी राजनीति के साथ-साथ ‘इंडिया’ गठबंधन की भी विस्तार से चर्चा की है।
वह लिखती हैं, ‘2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ही हमें समझ में आ गया था कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ अगर सभी विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो उसे हराया जा सकता है। इसको लेकर विपक्षी दलों की कई बैठकें दिल्ली, मुंबई और कर्नाटक में हुईं। कर्नाटक की बैठक में मैंने ही विपक्षी दलों के गठजोड़ का नाम ‘इंडिया’ रखने की पेशकश की थी।’
अपनी किताब में वह लिखती हैं कि उन्होंने गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम और संयुक्त बयान जारी करने का प्रस्ताव दिया था। साथ ही, उन्होंने कांग्रेस से अनुरोध किया था कि गठबंधन का संयोजक और प्रवक्ता नियुक्त किया जाए।
किताब के आखिरी अध्याय ‘मानुष जोखोन अकुतोभोय, औधोत्तेर पोराजोय’ में वो लिखती हैं कि "जो क्षेत्रीय दल अपने-अपने क्षेत्र में मज़बूत हैं, उन इलाकों में वही दल गठबंधन की अगुवाई करें या उनकी अगुवाई में ही चुनाव लड़ा जाए।’
हालांकि, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं हो पाया। ममता बनर्जी का कहना है कि ‘ना तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम की रूपरेखा बनी और ना ही कोई साझा बयान जारी किया गया। गठबंधन के दल आपस में ही चुनाव लडऩे लगे, जिसका फायदा बीजेपी को हुआ और उसने सरकार बना ली, बावजूद इसके कि बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत नहीं था।’
कांग्रेस पर हमला जारी रखते हुए ममता बनर्जी ने ये भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व करने से बचती रही, लेकिन गठबंधन सहयोगियों के समर्थन के कारण उसे कुछ राज्यों में फ़ायदा हुआ।
ममता बनर्जी ने कहा, ‘पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, वाम दल और बीजेपी ने मिलकर तृणमूल कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा।’
वो कहती हैं कि तमिलनाडु, झारखंड और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सीटें गठबंधन के कारण मिलीं, लेकिन बंगाल में कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए बीजेपी और वाम दलों से हाथ मिला लिया।
ममता बनर्जी आगे लिखती हैं, ‘2024 लोकसभा चुनाव में मीडिया ने तृणमूल कांग्रेस को 12-13 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था, लेकिन हमें 29 सीटें मिलीं। बीजेपी को सिर्फ 12 सीटें और कांग्रेस को केवल 1 सीट मिली।’
2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 18 सीटें और तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं, यानी दोनों दलों के बीच कांटे की टक्कर थी।
पश्चिम बंगाल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष शुभंकर सरकार ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उन्होंने ममता बनर्जी की किताब नहीं पढ़ी है और ना ही पढऩे वाले हैं।
वह कहते हैं, ‘ममता ने अगर कांग्रेस पर कुछ कहा है तो उन्हें इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि जब भारत के उपराष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था, तो तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने उसका बहिष्कार क्यों किया था? वो किताबें लिखती रहती हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम पर उन किताबों को पढऩे की कोई बाध्यता है। जहां तक पश्चिम बंगाल का सवाल है, तो तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और वाम मोर्चे के नेता आपस में मिले हुए हैं।’
शुभंकर सरकार का कहना है कि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में अपने संगठन को शून्य से फिर से खड़ा किया है। उनका दावा है कि ममता बनर्जी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को देखते हुए आम मतदाता कांग्रेस को एक नए विकल्प के रूप में देख रहा है।
पश्चिम बंगाल के उत्तर 24-परगना जि़ले में बांग्लादेश की सीमा से सटा संदेशखाली लोकसभा चुनाव से पहले सुर्खियों में आ गया था। यहां महिलाओं के कथित यौन उत्पीडऩ और बलात्कार के आरोपों के बाद विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गए थे, जिससे ये मामला लगातार चर्चा में बना रहा।
ममता बनर्जी ने अपनी किताब में बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र के संदेशखाली का जिक्र किया है और आरोप लगाया है कि इन घटनाओं को तूल देने की कोशिश की गई, जबकि वे ‘निराधार’ थीं।
उन्होंने लिखा, ‘लोकसभा चुनावों से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी ने ऐसी कहानी गढ़ी कि कई महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है। इस षड्यंत्र में बीजेपी, कांग्रेस और वाम दल सभी शामिल थे। लेकिन जल्द ही इसका पर्दाफाश हो गया।’
संदेशखाली को लेकर बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस आमने-सामने रहे। बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस पर इस मामले में कोई कार्रवाई न करने का आरोप लगाया, जबकि तृणमूल कांग्रेस का कहना था कि ये सब बीजेपी के इशारे पर किया गया। बशीरहाट सीट से तृणमूल कांग्रेस के हाजी नुरुल इस्लाम ने बीजेपी उम्मीदवार रेखा पात्रा को हराया था।
ममता बनर्जी ने इस मामले में शुभेंदु अधिकारी का नाम लिए बिना उन्हें ‘विपक्ष के नेता’ कहकर संबोधित किया और कई आरोप लगाए।
उन्होंने लिखा, ‘संदेशखाली के पूरे मामले के निर्देशक विपक्ष के नेता ही थे।’
उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि ‘बीजेपी ने पश्चिम बंगाल और प्रदेश की महिलाओं की अस्मिता, स्वाभिमान और सम्मान के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की।’
ममता बनर्जी का दावा है कि उन्हें संदेशखाली की महिलाओं के लिए ‘बहुत दुख होता है, जिनके सम्मान को धूल में मिलाकर बीजेपी चुनाव जीतना चाहती थी।’
बीजेपी के प्रदेश महासचिव जगन्नाथ चटर्जी ने कहा कि उन्होंने ममता बनर्जी की किताब नहीं पढ़ी है, लेकिन संदेशखाली मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया है, जिसकी जांच कलकत्ता उच्च न्यायालय की देखरेख में हो रही है।
बीबीसी से बात करते हुए चटर्जी ने दावा किया कि संदेशखाली में 700 एकड़ कब्जाई गई जमीन को सरकार ने ही मुक्त कराकर उसके वास्तविक मालिकों को सौंपा है। उन्होंने कहा, ‘इसलिए भारतीय जनता पार्टी के आरोप मनगढ़ंत नहीं हैं।’
उनका ये भी कहना था, ‘जिन महिलाओं के साथ यौन अपराध किए गए थे या जिनका शोषण हुआ, उन्हीं में से एक को बीजेपी ने बशीरहाट सीट से अपना प्रत्याशी बनाया।’
ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की सत्ता में सीपीएम को हराने के बाद आईं थीं।
उनकी किताब की शुरुआत पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन काल की समीक्षा से हुई है जिसमे उन्होंने आरोप लगाया कि वाम मोर्चा ने ‘अपने शासनकाल में लोकतंत्र को अधीनस्थ कर रखा था।’
वो कहती हैं कि उस दौरान सरकारी अधिकारियों की बजाय वाम दलों के नेताओं का ही सिक्का चला करता था। अहम शासकीय फ़ैसले प्रशासनिक अधिकारियों की जगह वाम दलों के नेता लिया करते थे और पूरी व्यवस्था पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया था। (bbc.com/hindi)
-सलमान रावी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नई किताब चर्चा में है। इस किताब में उन्होंने बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस पर भी निशाना साधा है।
कोलकाता पुस्तक मेले में उनकी तीन किताबों का विमोचन हुआ, लेकिन सबसे ज्यादा बहस ‘बांगलार निरबाचन ओ आमरा (बंगाल के चुनाव और हम)’ पर हो रही है। इस किताब में 2024 लोकसभा चुनाव का विश्लेषण किया गया है।
तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने लोकसभा चुनाव में हार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि कई राज्यों में गठबंधन की वजह से कांग्रेस को फ़ायदा हुआ, लेकिन पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने बीजेपी और वाम दलों से मिलकर तृणमूल कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा।
पश्चिम बंगाल कांग्रेस ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि तृणमूल कांग्रेस, बीजेपी और वाम मोर्चे के नेता आपस में मिले हुए हैं।
ममता बनर्जी ने ‘बांगलार निरबाचन ओ आमरा’ में 2024 लोकसभा चुनाव में हार के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया है। उनका कहना है कि कांग्रेस को जितनी सीटें मिलीं, वो सिर्फ इसलिए क्योंकि गठबंधन के अन्य दलों ने उनके ख़िलाफ़ उम्मीदवार नहीं उतारे, न कि कांग्रेस की खुद की ताकत की वजह से।
उन्होंने किताब में बंगाल की चुनावी राजनीति के साथ-साथ ‘इंडिया’ गठबंधन की भी विस्तार से चर्चा की है।
वह लिखती हैं, ‘2024 के लोकसभा चुनावों से पहले ही हमें समझ में आ गया था कि भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ अगर सभी विपक्षी दल एकजुट हो जाएं तो उसे हराया जा सकता है। इसको लेकर विपक्षी दलों की कई बैठकें दिल्ली, मुंबई और कर्नाटक में हुईं। कर्नाटक की बैठक में मैंने ही विपक्षी दलों के गठजोड़ का नाम ‘इंडिया’ रखने की पेशकश की थी।’
अपनी किताब में वह लिखती हैं कि उन्होंने गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम और संयुक्त बयान जारी करने का प्रस्ताव दिया था। साथ ही, उन्होंने कांग्रेस से अनुरोध किया था कि गठबंधन का संयोजक और प्रवक्ता नियुक्त किया जाए।
किताब के आखिरी अध्याय ‘मानुष जोखोन अकुतोभोय, औधोत्तेर पोराजोय’ में वो लिखती हैं कि "जो क्षेत्रीय दल अपने-अपने क्षेत्र में मज़बूत हैं, उन इलाकों में वही दल गठबंधन की अगुवाई करें या उनकी अगुवाई में ही चुनाव लड़ा जाए।’
हालांकि, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं हो पाया। ममता बनर्जी का कहना है कि ‘ना तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम की रूपरेखा बनी और ना ही कोई साझा बयान जारी किया गया। गठबंधन के दल आपस में ही चुनाव लडऩे लगे, जिसका फायदा बीजेपी को हुआ और उसने सरकार बना ली, बावजूद इसके कि बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत नहीं था।’
कांग्रेस पर हमला जारी रखते हुए ममता बनर्जी ने ये भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व करने से बचती रही, लेकिन गठबंधन सहयोगियों के समर्थन के कारण उसे कुछ राज्यों में फ़ायदा हुआ।
ममता बनर्जी ने कहा, ‘पश्चिम बंगाल में कांग्रेस, वाम दल और बीजेपी ने मिलकर तृणमूल कांग्रेस के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा।’
वो कहती हैं कि तमिलनाडु, झारखंड और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सीटें गठबंधन के कारण मिलीं, लेकिन बंगाल में कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए बीजेपी और वाम दलों से हाथ मिला लिया।
ममता बनर्जी आगे लिखती हैं, ‘2024 लोकसभा चुनाव में मीडिया ने तृणमूल कांग्रेस को 12-13 सीटें मिलने का अनुमान लगाया था, लेकिन हमें 29 सीटें मिलीं। बीजेपी को सिर्फ 12 सीटें और कांग्रेस को केवल 1 सीट मिली।’
2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 18 सीटें और तृणमूल कांग्रेस को 22 सीटें मिली थीं, यानी दोनों दलों के बीच कांटे की टक्कर थी।
पश्चिम बंगाल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष शुभंकर सरकार ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उन्होंने ममता बनर्जी की किताब नहीं पढ़ी है और ना ही पढऩे वाले हैं।
वह कहते हैं, ‘ममता ने अगर कांग्रेस पर कुछ कहा है तो उन्हें इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि जब भारत के उपराष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था, तो तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने उसका बहिष्कार क्यों किया था? वो किताबें लिखती रहती हैं, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम पर उन किताबों को पढऩे की कोई बाध्यता है। जहां तक पश्चिम बंगाल का सवाल है, तो तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और वाम मोर्चे के नेता आपस में मिले हुए हैं।’
शुभंकर सरकार का कहना है कि कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में अपने संगठन को शून्य से फिर से खड़ा किया है। उनका दावा है कि ममता बनर्जी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को देखते हुए आम मतदाता कांग्रेस को एक नए विकल्प के रूप में देख रहा है।
पश्चिम बंगाल के उत्तर 24-परगना जि़ले में बांग्लादेश की सीमा से सटा संदेशखाली लोकसभा चुनाव से पहले सुर्खियों में आ गया था। यहां महिलाओं के कथित यौन उत्पीडऩ और बलात्कार के आरोपों के बाद विरोध प्रदर्शन तेज़ हो गए थे, जिससे ये मामला लगातार चर्चा में बना रहा।
ममता बनर्जी ने अपनी किताब में बशीरहाट लोकसभा क्षेत्र के संदेशखाली का जिक्र किया है और आरोप लगाया है कि इन घटनाओं को तूल देने की कोशिश की गई, जबकि वे ‘निराधार’ थीं।
उन्होंने लिखा, ‘लोकसभा चुनावों से ठीक पहले भारतीय जनता पार्टी ने ऐसी कहानी गढ़ी कि कई महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ है। इस षड्यंत्र में बीजेपी, कांग्रेस और वाम दल सभी शामिल थे। लेकिन जल्द ही इसका पर्दाफाश हो गया।’
संदेशखाली को लेकर बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस आमने-सामने रहे। बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस पर इस मामले में कोई कार्रवाई न करने का आरोप लगाया, जबकि तृणमूल कांग्रेस का कहना था कि ये सब बीजेपी के इशारे पर किया गया। बशीरहाट सीट से तृणमूल कांग्रेस के हाजी नुरुल इस्लाम ने बीजेपी उम्मीदवार रेखा पात्रा को हराया था।
ममता बनर्जी ने इस मामले में शुभेंदु अधिकारी का नाम लिए बिना उन्हें ‘विपक्ष के नेता’ कहकर संबोधित किया और कई आरोप लगाए।
उन्होंने लिखा, ‘संदेशखाली के पूरे मामले के निर्देशक विपक्ष के नेता ही थे।’
उन्होंने ये भी आरोप लगाया कि ‘बीजेपी ने पश्चिम बंगाल और प्रदेश की महिलाओं की अस्मिता, स्वाभिमान और सम्मान के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की।’
ममता बनर्जी का दावा है कि उन्हें संदेशखाली की महिलाओं के लिए ‘बहुत दुख होता है, जिनके सम्मान को धूल में मिलाकर बीजेपी चुनाव जीतना चाहती थी।’
बीजेपी के प्रदेश महासचिव जगन्नाथ चटर्जी ने कहा कि उन्होंने ममता बनर्जी की किताब नहीं पढ़ी है, लेकिन संदेशखाली मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया है, जिसकी जांच कलकत्ता उच्च न्यायालय की देखरेख में हो रही है।
बीबीसी से बात करते हुए चटर्जी ने दावा किया कि संदेशखाली में 700 एकड़ कब्जाई गई जमीन को सरकार ने ही मुक्त कराकर उसके वास्तविक मालिकों को सौंपा है। उन्होंने कहा, ‘इसलिए भारतीय जनता पार्टी के आरोप मनगढ़ंत नहीं हैं।’
उनका ये भी कहना था, ‘जिन महिलाओं के साथ यौन अपराध किए गए थे या जिनका शोषण हुआ, उन्हीं में से एक को बीजेपी ने बशीरहाट सीट से अपना प्रत्याशी बनाया।’
ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की सत्ता में सीपीएम को हराने के बाद आईं थीं।
उनकी किताब की शुरुआत पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के शासन काल की समीक्षा से हुई है जिसमे उन्होंने आरोप लगाया कि वाम मोर्चा ने ‘अपने शासनकाल में लोकतंत्र को अधीनस्थ कर रखा था।’
वो कहती हैं कि उस दौरान सरकारी अधिकारियों की बजाय वाम दलों के नेताओं का ही सिक्का चला करता था। अहम शासकीय फ़ैसले प्रशासनिक अधिकारियों की जगह वाम दलों के नेता लिया करते थे और पूरी व्यवस्था पर उनका नियंत्रण स्थापित हो गया था। (bbc.com/hindi)
- डॉ. संजय शुक्ला
छत्तीसगढ़ की सियासत और मीडिया में इन दिनों सरकारी भर्ती और खरीदी संस्थानों में हुए भ्रष्टाचार और घोटालों की सरगर्मियां है। हालिया राज्य सरकार ने पिछले सरकार के दौरान छत्तीसगढ़ राज्य लोक सेवा आयोग ‘पीएससी’ के कथित पीएससी परीक्षा घोटाले की जांच का मामला सीबीआई को सौंपा है। सीबीआई जांच में इस परीक्षा से जुड़े घोटालों की तार सीधे तौर पर पीएससी के तत्कालीन अध्यक्ष एवं अन्य जिम्मेदार अधिकारियों से जुड़े नजर आ रहे हैं। सीबीआई ने साल 2021 के इस कथित पीएससी घोटाले में फौरी तौर पर आयोग के पूर्व अध्यक्ष सहित सात लोगों को गिरफ्तार किया है आगे कुछ और लोगों के गिरफ्तारी की संभावना है। गौरतलब है कि साल 2023 में इस परीक्षा के रिजल्ट घोषित होने के बाद छत्तीसगढ़ में ही नहीं वरन पूरे देश में रिजल्ट पर उंगलियां उठने लगी थी। पीएससी द्वारा घोषित सूची में राजनेताओं से लेकर खुद पीएससी चेयरमैन, सेक्रेटरी से लेकर अनेक नौकरशाहों के बेटे-बेटियों और नजदीकी रिश्तेदारों का नाम देखकर कड़ी मेहनत करने वाले अभ्यर्थियों और उनके अभिभावकों में काफी तीखी प्रतिक्रिया देखी गई। भाजपा के कद्दावर नेता और पूर्व मंत्री ननकी राम कंवर सहित 20 अभ्यर्थियों ने इस पूरे मामले को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में चुनौती दी।
हाईकोर्ट ने भी मामले की गंभीरता को देखते हुए 18 चयनित अभ्यर्थियों की नियुक्ति पर रोक लगा दी थी। दूसरी ओर भाजपा जो उस समय विपक्ष में थी ने बीते विधानसभा चुनाव में इस मुद्दे को सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के खिलाफ एक राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया तथा अपने संकल्प पत्र में इस कथित घोटाले की सीबीआई जांच कराने का वादा किया था। राज्य के युवाओं ने भाजपा के इस वादे पर ऐतबार किया तथा अपना वोट भाजपा की झोली में डाल दिया। राज्य की सत्ता पर काबिज होने के बाद भाजपा ने 'मोदी की गारंटी ' के नाम से प्रचारित अपने इस वादे को पूरा करने में तेजी दिखाई तथा पीएससी घोटाले से जुड़ा मामला सीबीआई को सौंप दिया। जांच से जुड़ी खबरों पर भरोसा करें तो इस परीक्षा में पीएससी के पूर्व अध्यक्ष सहित शीर्ष अधिकारियों ने नियमों को धता बताते हुए परीक्षा से लेकर साक्षात्कार में खुलकर मनमानी किया है। अलबत्ता पीएससी परीक्षा में जिस तरह से आयोग से जुड़े जिम्मेदार लोगों ने परीक्षा की शुचिता और गोपनीयता को तार-तार किया है वह बगैर सत्ता के संरक्षण संभव नहीं है।
राज्य में दूसरे बड़े घोटाले की खबर सरकार अस्पतालों में दवाई से लेकर जांच और उपचार के लिए जरूरी उपकरण, रिएजेंट, किट, ड्रेसिंग मटेरियल की खरीदी सहित स्वास्थ्य विभाग के तमाम भवन निर्माण करने वाली संस्था छत्तीसगढ़ मेडिकल सर्विसेज कॉर्पोरेशन लिमिटेड 'सीजीएम?एससी' से जुड़ी है। गौरतलब है कि यह कॉर्पोरेशन अपने स्थापना के बाद से ही अनेक विवादों में रहा है। हालिया मामला एक दवाई और उपकरण सप्लाई करने वाले एजेंसी 'मोक्षित कॉरपोरेशन प्राइवेट लिमिटेड ' से जुड़ा है जिस पर आरोप है कि उसने पिछली सरकार के दौरान अधिकारियों से मिलीभगत कर चार सौ करोड़ रूपयों से अधिक का घोटाला किया है। इस मामले की जांच कर रहे आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो ‘ ईओडब्ल्यू’ और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ‘सीबी’ की मानें तो सप्लाई एजेंसी ने बिना शासन के अनुमति के 411 करोड़ के रीएजेंट और अन्य सामग्री क?ई गुना ज्यादा कीमत में सप्लाई किया।? ब्लड सैंपल कलेक्शन करने में उपयोग में आने वाली ट्यूब जो बाजार में 8.50 रूपए में उपलब्ध है उसे इस घोटाले में शामिल एजेंसी ने 2 हजार 352 रूपए प्रति नग के दर पर सरकार को बेचा। इसी प्रकार सीजीएम?एससी ने इस दवा सप्लाई एजेंसी को लगभग 200 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के लिए 300 करोड़ रुपए के रीएजेंट प्रदाय करने का आदेश दे दिया जबकि इन स्वास्थ्य केंद्रों में इस रीएजेंट को उपयोग करने वाली सीबीएस मशीन ही नहीं थी।
‘एसीबी’ की जांच जैसे -जैसे आगे बढ़ रही है अनेक चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं जो स्वास्थ्य जैसे संवेदनशील विभाग के लिहाज से बहुत ही अफसोसजनक है। जांच एजेंसियों ने सप्लाई एजेंसी के डायरेक्टर को गिरफ्तार कर लिया है तथा आगे कुछ और लोगों के गिरफ्तार होने और उनसे इस घोटाले में अनेक अहम तथ्य सामने आने की संभावना है। बिलाशक इस घोटाले में अधिकारियों और अनेक रसूखदारों की संलिप्तता से इंकार नहीं किया जा सकता। अलबत्ता पिछली सरकार के दौरान भर्ती और खरीदी में हुए घोटालों और भ्रष्टाचार की खबरों ने राज्य के लोगों को भौंचक्का कर दिया है। विचारणीय है कि जिस बड़े पैमाने पर इन दोनों संस्थानों पर भर्ती और मेडिकल खरीदी पर घोटाले का आरोप लग रहे हैं वह छत्तीसगढ़ जैसे विकासशील राज्य के साथ ही युवाओं और जनस्वास्थ्य के लिहाज से चिंताजनक है।
विडंबना है कि छत्तीसगढ़ जैसे खनिज संपदा से परिपूर्ण राज्य जहां विकास की अपार संभावनाएं है उसके दामन में पिछले वर्षों में भ्रष्टाचार के दाग लगातार लगे हैं। पिछले सरकार के दौरान कथित तौर पर हुए कोयला, शराब और नान घोटाले की आंच सत्ता के गलियारे में धमक रखने वाले नेताओं और वरिष्ठ नौकरशाहों तक पहुंची वहीं यह पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान प्रमुख विपक्षी दल भाजपा का अचूक राजनीतिक हथियार भी बना जिसके चलते कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसल गई।बहरहाल बात पीएससी की करें तो इस संस्थान द्वारा साल 2003 में ली गई सिविल सर्विसेज भर्ती परीक्षा भी विवादों में रही है। देश में साल 2005 में सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद जब इस परीक्षा में शामिल अभ्यर्थियों ने इस कानून के तहत जानकारी मांगी तब पूरे राज्य में तहलका मच गया।? प्रारंभिक परीक्षा में गड़बड़ी पता चलने के बाद मामला हाईकोर्ट में गया जहां से कोर्ट ने चयन सूची और नियुक्ति को निरस्त करने तथा न?ए सिरे से स्केलिंग कर मेरिट लिस्ट जारी करने का आदेश दिया। हाईकोर्ट के इस आदेश को चयनित अभ्यर्थियों जो कि तब तक राज्य प्रशासनिक सेवा के विभिन्न पदों पर नियुक्त हो चुके थे ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और आदेश के अमल पर स्थगनादेश ले लिया। आज दो दशक बाद भी मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
अलबत्ता छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद मेडिकल कॉलेज में दाखिले और विभिन्न सरकारी नौकरियों में धांधलियों और भ्रष्टाचार के तमाम मामले उजागर होने के बावजूद अब तक किसी भी मामले में दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं हुई है फलस्वरूप लोगों का भरोसा परीक्षा संस्थानों से लगातार उठ रहा है। दरअसल राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण के कारण भर्ती परीक्षाओं में संलिप्त गिरोहों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं होने के कारण यह गोरखधंधा खूब फल-फूल रहा है। विडंबना यह कि भर्ती परीक्षाओं में जारी भ्रष्टाचार, भाई - भतीजावाद और सिफारिश का सबसे ज्यादा खामियाजा मेहनती और मेधावी प्रतिभाओं को भोगना पड़ रहा है। मामलों पर गौर करें तो भर्ती घोटालों के पीछे एक संगठित रैकेट काम करता है जिसमें चयन संस्थानों के ओहदेदारों के साथ परीक्षा प्रश्नपत्र तैयार करने और साक्षात्कार लेने वाले सदस्य लिप्त रहते हैं । परीक्षा माफियाओं को मिल रहे राजनीतिक और प्रशासनिक प्रश्रय का परिणाम है कि देश के करोड़ों युवाओं का करियर दांव में लग रहा है तथा उनके सालों के मेहनत पर पानी फेर रहा है। भर्ती परीक्षाओं में धांधलियों का सबसे ज्यादा असर उन गरीब और मेधावी विद्यार्थियों पर पड़ता है जिनके अभिभावक अपने बच्चे के भविष्य गढऩे के लिए अपना पेट काटकर या कर्ज लेकर उन्हें मोटी फीस वाली कोचिंग दिलाते हैं।
बहरहाल सरकारी नौकरियों के लिए ली जाने वाली भर्ती परीक्षाओं में भ्रष्टाचार और भाई - भतीजावाद का असर हमारे प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था में परिलक्षित हो रहा है। विचारणीय है कि ऐसे आवेदक जो सिफारिश या मोटी रिश्वत के बलबूते दाखिला या नौकरी पाते हैं आखिरकार वह अपनी नौकरी और पेशे में कितना काबिल और ईमानदार होगा? इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। दरअसल देश में भ्रष्टाचार और व्यवसायिक लूट की बुनियाद दरअसल ये भर्ती परीक्षाएं बन रही है जिसमें अपात्र लोगों का चयन धनबल या पहुंच के जरिए हो जाता है।
अलबत्ता प्रदेश के वर्तमान विष्णु देव सरकार ने सत्ता संभालते ही प्रदेशवासियों को भरोसा दिलाया है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाएगी। सरकार के इस घोषणा का असर पीएससी के सिविल सेवा परीक्षा 2023 के रिजल्ट में परिलक्षित हुआ है।? इस परीक्षा के चयन सूची पर गौर करें तो इसमें अधिकांश अभ्यर्थी ग्रामीण या सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि के हैं लिहाजा युवाओं का भरोसा राज्य सरकार के दावों के प्रति जागा है। बहरहाल इस भरोसे के परिप्रेक्ष्य में पीएससी समेत सभी घोटालों की जांच को अंजाम तक पहुंचाना होगा अन्यथा यह जांच भी अदालतों की सीढिय़ों में दम न तोड़ दे लिहाजा सरकार और जांच एजेंसियों को इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति प्रदर्शित करनी होगी।
-विनोद साव
इस उपन्यास को पी.एच.डी.करने वाली लड़कियों ने मुझे भेंट किया है। यह वाणी प्रकाशन से छपा है। इसे अलका सरावगी ने अपने उसी तेवर में लिखा है जिस तेवर में उन्होंने अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ को लिखा था। यह उपन्यास इतिहास के एक ऐसे कालखंड की तलाशी लेता है जो सनसनीखेज होने का अहसास कराता है। यह वर्ष 1919 से लेकर 1944 तक का यानी पच्चीस वर्षों का दो महान व्यक्तित्वों के बीच का उहापोह भरा कालखंड है। यह गाँधी और सरला देवी चौधरानी के अंतरंग रिश्तों की जाँच पड़ताल करता उपन्यास है। इस प्रसंग को लेकर पिछली एक शताब्दी से गाँधी विरोधी खेमा हल्ला भी करता रहा है।
बंगालन सरला देवी गुरुदेव टैगोर की सगी भांजी थी। टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी की बेटी थीं। पिता घोषाल बाबू कांग्रेस के सेक्रेटरी थे। सरला लाहौर के पंजाबी पुरुष रामभज दत्त चौधरी से ब्याह कर कलकत्ता से लाहौर आ गई थीं। गाँधी लाहौर जलियाँवाला बाग के शहीदों के लिए दस लाख रुपये चंदा इकठ्ठा करने पहुंचे थे तब वे चौधरी परिवार में रुके थे जहाँ सरलादेवी अकेली थी और उनके पति रामभज दत्त जलियांवाला कांड की खिलाफत करने के कारण जेल में डाल दिए गए थे। लाहौर के रामभज दत्त चौधरी प्रतिष्ठित वकील और ऊर्दू अख़बार ‘हिंदुस्तान’ के संपादक तथा गाँधी भक्त थे। उनके एक बेटा भी था जिसे पत्नी सरला ने साबरमती आश्रम में पढ़ाने और संस्कार देने के लिए गांधीजी के सुपुर्द कर दिया था। सरला जी बड़े होने पर अपने इस बेटे के विवाह को नेहरू की बेटी इंदिरा से करवाना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने गाँधी से पहल करवाई पर बात नहीं बनी। गाँधी को यह पता चला कि साबरमती आश्रम में ही इस दीपक का प्रेम स्फुरित हुआ था गाँधी के भतीजे मगनलाल की बेटी राधा के साथ। सरलादेवी की रजामंदी नहीं थी। उनकी मृत्यु के बाद गाँधी की सहमति से दीपक और राधा दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ।
गाँधी और सरलादेवी के जीवन के पच्चीस वर्षीय कालखंड में केवल एक वर्ष गाँधी और सरला देवी साथ रहकर खादी प्रचार के जरिए स्वाधीनता के आंदोलनों में संलग्न रहे। शेष चौबीस वर्षों तक दोनों के बीच पत्र-व्यवहार चले हैं। गाँधी के सरला को लिखे अस्सी पत्र उपलब्ध हैं किन्तु सरला देवी के गाँधी को लिखे सिर्फ चार-पांच पत्र ही बचे हैं। बाकी गाँधी की सबसे छोटी बहू लक्ष्मी गाँधी जो राजगोपालाचारी की बेटी थीं, द्वारा जला दिए गए। ये उपलब्ध पत्र ही उपन्यास कथा के आधार बने हैं।।। और यह सरला देवी के पक्ष को रखता है। सरलादेवी चौधरानी अपने समय की अनिंद्य सुन्दरी होने के साथ प्रखर मेधा सम्पन्न प्रबुद्ध महिला थीं जिनसे विवेकानंद भी प्रभावित होकर उन्हें अपने रामकृष्ण मिशन से जोडऩा चाहते थे। पर वे अध्यात्म से बचकर गाँधी के सीधे जमीनी आंदोलनों से जुडऩा चाहती थीं इसलिए गाँधी की ओर गईं। तब उनके बड़े मामा द्विजेन्द्र नाथ टैगोर जिन्हें गाँधी पर पूरा भरोसा था, ने कहा भी था कि ‘तेरा रवीन्द्रनाथ मामा आनंद और संगीत में डूबा है जबकि देश स्वराज के लिए तड़प रहा है। तेरा रास्ता बिलकुल सही है सरला।।। तू जा गाँधी के साथ।’
सरलादेवी के पास भाषण देने की विलक्षण कला थी।।।और वे मानती थीं कि गाँधी के पास बतरस का अंतहीन आनंद है। गाँधी उनकी इसी विलक्षण वाक् कला और उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व का लाभ राष्ट्रीय आन्दोलन में उठाना चाहते थे। उन्होंने समृद्ध कलाप्रिय टैगोर परिवार में रची बसी इस महिला के रेशमी कपड़ों को उतरवाकर उन्हें खद्दर के मोटे वस्त्रों से बनी साड़ी को पहनवाया और नारी एकता के कार्यक्रमों में उन्हें झोंक दिया था। पंजाब व गुजरात के नारी संगठनों व आंदोलनों के लिए उनकी क्षमता का भरपूर दोहन किया गया और भारी सफलता मिली। पर गाँधी के जादुई व्यक्तित्व के प्रति आसक्त सरलादेवी अनेक द्वंदों विरोधों के बाद भी गाँधी जी को कभी ना नहीं कह सकीं। यह जानते हुए भी उनके अमीर पति रामभज दत्त अपनी रूपवती पत्नी को खादी के सादे वस्त्रों में देख आनंदित नहीं होते, पर वे उसे टोकते नहीं। बस, पल भर देख कर आंखें घुमा लेते हैं। सरला देवी हिंदुस्तान की पहली औरत थी जिसने खादी के वस्त्रों को पहना। गाँधी उन्हें खादी वस्त्रों की ब्रांड कहते थे। कहते थे कि 'सरला जितना भी जोरदार भाषण दे, पर उसके खद्दर के वस्त्र ज्यादा बोलेंगे।' सरला सोचती है कि ‘जब हम किसी का इस कदर साथ चाहते हैं तो उसके बिना जीवन बेस्वाद हो जाता है। अपने प्रिय व्यक्ति से सबसे सुस्वादु चीज का साझा न कर पाए तो रस बचता ही कहाँ है उसमें?’ रस प्रेम में ही है।’
गाँधी से सम्मोहित होकर कई सम्मोहक व्यक्तित्व उनके करीब आए और खांटी गाँधी ने उनके सम्मोहन का भरपूर लाभ उठाया। उन्हें उनकी रूचि व अप्रत्याशित क्षमता के साथ अपने कार्यों एवं आंदोलनों में लगा खपा दिया और समुचित परिणाम भी प्राप्त किया। सिद्धांत और कर्तव्य पालन में कट्टर गाँधी के साथ चलना किसी काँटों भरी राह में चलने के समान था। उनसे सम्मोहित होकर आए हुए कई अनुयायियों की काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो जाती थी। न वे विराट व्यक्तित्व गाँधी का विरोध कर सकते थे न उनका साथ बीच आंदोलन में छोडक़र भाग सकते थे। एक किस्म का अवसाद उनमें घर करने लगता था। इस दु:ख और अवसाद का सबसे बड़ा खामियाजा तो गाँधी के परिवार को ही सबसे पहले झेलना पड़ा था।।। और सबसे ज्यादा उनकी जीवन संगिनी कस्तूरबा को। गाँधी का एकमात्र लक्ष्य आजादी हासिल करना था चाहे इसके लिए उन्हें अपने निजी रिश्तों की बलि चढ़ा देना पड़े।।। और उन्होंने चढ़ाए। यह सरलादेवी तथा अन्य कई लोगों के साथ घटित भी हुआ।
गाँधी जी की जब सरला देवी से पहली मुलाकात हुई तब लगभग दोनों युवा और तेजमय थे – गाँधी पचास के करीब रहे और सरलादेवी उनसे दो बरस छोटी। गाँधी के लिए सरला का बौद्धिक होना उनकी मित्रता का सबसे बड़ा सूत्र है। पर आगे चलकर उनके पत्रों में शिकवे-शिकायत भी हुए हैं और रिश्तों में खटास व दूरी भी आती है। इन रिश्तों में वह चिरपरिचित खटक दिखलाई देती है जिसमें लॉ-गिवर (कानूनदाता) बने पुरुष द्वारा किए गए किसी स्त्री की मन: स्थितियों या उसकी खूबियों के विश्लेषण में स्त्री के भ्रमित हो जाने के संकट आते हैं। जो स्त्री को चौंकाकर उसकी सपनीली दुनिया से बाहर भी निकाल देते हैं। सरला के सामने अपने आदर्शों को थोपने की प्रबलता गाँधी में वैसी ही दिखती है जैसा कस्तूरबा के मामले में दिखती थी और कस्तूरबा की मुस्कान गायब हो चुकी थी। सरला सोचती है ‘गाँधी को व्यक्तिगत और सार्वजनिक व्यवहार में जैसे अंतर ही मालूम नहीं है वह रात भर नहीं सो पाई थी। पत्र से शब्द निकल निकलकर उसके दिमाग पर आघात कर रहे थे।।। क्या गाँधी की महिमा की आभा में अपनी औकात को भूलने वाली औरत है वह?
पच्चीस वर्षों तक इनके बीच चले पत्रों में उनके रिश्तों और व्यक्तित्वों के बारीक़ धागों और इनके बुनावट की खूब खोजबीन हुई हैं। उनमें देश-दुनिया, आजादी, आन्दोलन, और अध्यात्म जगत पर व्यापक चर्चाएं हैं। जिनमें एक दूसरे पर अधिकार-पूर्वक प्रेम और क्रोध का प्रदर्शन भी है। गाँधी अपने आश्रम, आन्दोलन, जेल व रेलयात्रा में जहाँ भी रहे वे पत्र रोज लिखते थे। देश के जनमानस, सेनानियों, समाजसेवियों या किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ हों उन्हें लगातार पत्र लिखते थे। इनमें पुरुष स्त्री, वृद्ध व बच्चों सभी की समस्याओं पर विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए उन्हें समझाइश देते थे। गाँधी स्त्रियों को भी लम्बे पत्र लिखते समय उनके स्वास्थ्य व शारीरिक कष्टों में इस कदर घुस जाते थे कि उनके गर्भाशय और मासिक धर्म विषयक समस्याओं पर भी खुलकर बातें कर लेते थे।।। और स्त्रियों को लिखे जाने वाले पत्रों को उनके पतियों को दिखा दिए जाने पर भी जोर देते थे। कुल मिलाकर हर वर्ग के लोगों के साथ बिना किसी लिंग भेद के उनके पत्र खुल्लम खुल्ला होते थे।
वर्ष 1945 के अंतिम समय में सरला के दो पत्रों के जवाब गाँधी ने नहीं दिए जब उनके बेटे दीपक ने उनके स्वास्थ्य बिगडऩे की सूचना दी तब गाँधी ने पत्र लिख कर दिया ‘जन्म-मृत्यु हमारे जीवन के अंग हैं। तुम्हारे हिस्से की तकलीफ सहने की तुम्हें शक्ति मिले।’ किन्तु सरलादेवी की यह पत्र पढने के एक दिन पहले ही मृत्यु हो चुकी थी।
1932 में कैथरीन मेरी हेलमेन नमक एक युवा अंग्रेज औरत सेवाग्राम में आकर आठ साल रही। गाँधी ने उसे ‘सरला बहन’ नाम दिया। यह सरला बहन हमेशा के लिए हिंदुस्तान में रह गई। कुमाऊँ अंचल में स्त्री-शिक्षा और ‘चिपको’ आन्दोलन में सरला बहन का योगदान अविस्मरणीय है। लेखिका अलका सरावगी लिखती हैं ‘संभवत उसका सरला नामकरण कर गाँधी जीवन के पहले व्यक्तिगत प्रेम की स्मृति बनाए रखना चाहते थे।’
गाँधी विशेषज्ञ इतिहासकार सुधीर चन्द्रा कहते हैं ‘
इतिहासकार और जीवनीकार प्राय: तथ्यों के मायाजाल में फंसे रहते हैं। कुशल कथाकार तथ्यों के पीछे छिपे सत्य के मर्म को उद्घाटित कर देते हैं। यह उपन्यास इसी का एक अप्रतिम उदाहरण है। ब्रम्हचर्य का व्रत ले चुके महामानव गाँधी और असाधारण सौन्दर्य और प्रतिभा की धनी सरलादेवी चौधरानी के बीच पनपे झंझावती आकर्षण का जैसा बारीक़, मार्मिक और संयत वर्णन यहां हुआ है कहीं और नहीं मिलेगा।’
(‘छत्तीसगढ़ मित्र’ अंक फऱवरी’25 में प्रकाशित)
अपनी आवाज़ से लोगों का दिल जीतने वाले 69 साल के उदित नारायण इन दिनों सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बने हुए हैं।
उनसे जुड़ा एक वीडियो खूब वायरल हो रहा है। यह वीडियो एक कॉन्सर्ट का बताया जा रहा है।
कॉन्सर्ट में अपना सुपरहिट गाना 'टिप-टिप बरसा पानी' गाते हुए उदित नारायण के पास उनकी एक महिला फ़ैन सेल्फ़ी लेने के इरादे से आती है।
महिला फ़ैन सेल्फ़ी लेने के बाद उदित नारायण के गाल पर किस करती हैं, जिसके बाद उदित नारायण महिला फ़ैन के होठों पर किस कर देते हैं।
इस दौरान वे कुछ और महिला फैन्स को गले लगाने और उनके गाल पर चूमते हुए भी दिखाई देते हैं।
क्लिप वायरल होने के बाद कई सोशल मीडिया यूजर्स इस पर गुस्सा जाहिर कर रहे हैं, तो कुछ उनके समर्थन में भी लिख रहे हैं।
हालांकि, हिंदुस्तान टाइम्स से बात करते हुए उदित नारायण ने इस पूरे मामले पर सफाई दी है। उन्होंने कहा, ‘फैन्स इतने दीवाने होते हैं ना। हम लोग ऐसे नहीं हैं। हम शरीफ लोग हैं। कुछ लोग इसे बढ़ावा देते हैं और इसके जरिए अपना प्यार दिखाते हैं।’
उन्होंने कहा, ‘...फैन्स को लगता है कि उन्हें मिलने का मौका मिल रहा है। इसलिए कोई हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाता है, कोई हाथों को चूमता हैज्ये सब दीवानगी होती है। उस पर इतना ध्यान नहीं देना चाहिए।’
यह पहली बार नहीं है जब उदित नारायण ने स्टेज पर किसी को किस किया हो। इससे पहले भी इस तरह के विवाद में उनका नाम सामने आ चुका है।
श्रेया घोषाल को किस
महिला फैन को किस करने वाले वीडियो के बाद अब उदित नारायण का एक पुराना वीडियो भी वायरल हो रहा है।
इस वीडियो में उदित, गायिका श्रेया घोषाल को किस करते हुए नजर आ रहे हैं।
वायरल वीडियो में उदित नारायण, मंच पर श्रेया को अवॉर्ड देते हैं, और अचानक से उन्हें गाल पर किस कर लेते हैं।
वीडियो में श्रेया के हाव भाव से ऐसा लगता है कि उन्हें इसकी उम्मीद नहीं थी। वे उदित नारायण की इस हरकत पर हैरान नजऱ आती हैं।
अलका याग्निक को लेकर चर्चा
उदित नारायण और अलका याग्निक की जोड़ी को म्यूजिक इंडस्ट्री की हिट जोड़ी माना जाता है।
दोनों ने 90 के दशक से कई ऐसे सुपरहिट गाने दिए हैं, जिन्हें आज भी व्यक्ति गुनगुनाता है।
इनमें ‘देखने वाले ने’, ‘दिल में दर्द सा’, ‘कहो ना प्यार है’, ‘जो भी कसमें खाई थीं’, ‘प्यार की कश्ती में’, ‘किसी डिस्को में जाएं’, ‘गोरे-गोरे मुखड़े पे’ जैसे दर्जनों सुपरहिट गाने शामिल हैं।
रियलिटी शो के दौरान अक्सर दोनों सिंगर्स के बीच हंसी मजाक और नोक झोंक देखने को मिलती है।
सोशल मीडिया पर उदित नारायण का अलका याग्निक को गाल पर किस करते हुए भी एक वीडियो वायरल हो रहा है।
वीडियो में एक सिंगिंग रियलिटी शो के मंच पर जब अलका गाना गा रही होती हैं, तभी उदित नारायण उनके पास आकर उनके गाल पर किस कर देते हैं।
लहरें रेट्रो से बात करते हुए उदित नारायण ने बताया था, ‘जिस तरह से एक सिंगर का दूसरे सिंगर के साथ रिश्ता होता है, वैसा ही रिश्ता मेरा अलका जी के साथ है, लेकिन अलका जी जब भी मुझसे मिलती हैं, तो मैं उनके साथ बहुत दिल्लगी करता रहता हूं, उनसे मजाक करता रहता हूं। उनसे छेड़छाड़ करता रहता हूं।’
उनका कहना था, ‘हमने विदेश या हिंदुस्तान में जो भी शो किए हैं, वे बहुत सफल रहे हैं और लोग साथ में हमारी गायकी को बहुत पसंद करते हैं। शायद हमारी उम्र भी मिलती जुलती होगी।’
सोशल मीडिया पर क्या कह रहे हैं लोग?
वंदन गुप्ता ने एक्स पर लिखा, ‘उदित नारायण ने मीका सिंह को कड़ा मुकाबला दिया है।’
कृतिका शर्मा ने लिखा, ‘उदित नारायण ने जो हरकत की है, वह उन लोगों के मुंह पर तमाचा है, जो उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। एक स्टेज पर सम्मानित कलाकार के रूप में असभ्यता का प्रदर्शन करना आपकी मानसिक स्थिति पर गंभीर सवाल खड़े करता है।’
आइशा ने लिखा, ‘उदित नारायण ने बहुत गलत किया है। मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान था, लेकिन किसी लडक़ी को जबरन किस करना अपराध है। उनके खिलाफ उत्पीडऩ का मामला दर्ज किया जाना चाहिए।’
मोनिका सिंह ने लिखा, ‘उदित नारायण की बीमारी पुरानी है, चर्चा में आज आई है।’
वहीं सेन नाम के एक यूजर ने लिखा, ‘उसने (महिला फैन) पहले किस किया, उसके बाद उन्होंने किस किया, लेकिन उदित नारायण एक आदमी हैं, इसलिए जाहिर है कि गलती उनकी है।’
विकास बिश्नोई ने लिखा, ‘उनकी जिंदगी है, फैन्स को बुरा नहीं लगा, हमें क्यों लगेगा। लेकिन प्रश्न यह है कि समाज में क्या संदेश दे रहे हैं हमारे दिग्गज कलाकार। उसमें भी उदित नारायण जैसे एक दिग्गज कलाकार की ऐसी हरकत शर्मनाक है।’
ऐश्वर्या सिंह ने लिखा, ‘उदित नारायण जी से तो यह उम्मीद नहीं थी।’
सुमित सुभाष गुप्ता ने एक्स पर लिखा, ‘उदित नारायण को पहले महिला ने किस किया, फिर उदित नारायण ने किस किया है। वीडियो में देखा जा सकता है कि महिला बिल्कुल असहज नहींं है बल्कि खुश नजर आ रही है।’
उदित नारायण का सफर
बिहार में सुपौल जिले के बायस गोठ गांव में उदित नारायण का जन्म हुआ। किसान परिवार से आए उदित को रेडियो से बहुत लगाव था।
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया था, ‘उस समय लोगों के पास रेडियो ही हुआ करते थे। मैं जब भी उसमें गाना सुनता तो सोचता कि इस छोटे से बक्से के अंदर लोग कैसे चले जाते हैं। मैं भी एक दिन इसके अंदर जाऊंगा।’
हालांकि गायकी में जाना उनके लिए इतना आसान नहीं रहा।
ईटीवी से बातचीत करते हुए उन्होंने बताया था, ‘पिता जी नाराज होते थे। कहते थे शौक से गाओ। वो कहते थे कि किसान होने के चलते मेरा ये सपना है कि तुम इंजीनियर, डॉक्टर बनो। पैसा कमाओ और मुझे दो।’
उन्हें परिवार का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन उदित ने अपने कदम पीछे नहीं खींचे। बिहार से उन्होंने दसवीं पास की और इंटरमीडिएट करने नेपाल की राजधानी काठमांडू चले गए।
हाई स्कूल के बाद काठमांडू के सरकारी रेडियो स्टेशन में 100 रुपये प्रतिमाह की नौकरी के लिए आवेदन किया, जो उन्हें मिल भी गई।
उनका कहना था, ‘रेडियो के 100 रुपयों से ही मैंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की और इसी दौरान भारत सरकार की ओर से संगीत की छात्रवृत्ति मिली और मैं भारत आ गया।’
साल 1978 में उदित नारायण मुंबई आए। दो साल बाद यानी 1980 में उन्हें पहला बड़ा ब्रेक फिल्म 'उन्नीस बीस' में मिला। इसमें उन्होंने मोहम्मद रफी के साथ गाना गाया।
1988 में फिल्म ‘कय़ामत से कय़ामत’ के गाने ‘पापा कहते हैं’ से उदित नारायण ने जो बुलंदियों की सीढिय़ां चढऩा शुरू किया, तो फिर रुकने का नाम नहीं लिया।
90 के दशक में कुछ गिने चुने गायकों की ही आवाज सुनाई देती थी जिनमें से एक उदित भी थे।
लेकिन साल 2008 में फिल्म ‘टशन’ में गाए उनके गाने ‘फलक तक चल साथ मेरे’ के बाद उन्होंने किसी बड़ी फिल्म में लीड गाना नहीं गाया है।
‘द कपिल शर्मा शो’ में उदित नारायण के बेटे आदित्य नारायण ने बताया था, ‘लोगों को लगता है कि हमारा सरनेम नारायण है, लेकिन हमारा सरनेम झा है।’
वहीं उदित नारायण का इस पर कहना था कि फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें लोगों ने कहा कि सुनने में उदित नारायण नाम ठीक लगता है, इसलिए ये नाम रख लिया।
उनका कहना था, ‘जब पहला गाना मैंने गाया था, उस वक्त एलपी रिकॉर्ड होते थे। उसमें लिखा हुआ हैज्उदित नारायण झा।’
उदित नारायण कई भोजपुरी फिल्में भी बना चुके हैं। इन फिल्मों की प्रोड्यूसर उनकी पत्नी दीपा थीं।
भारत सरकार ने उदित नारायण को संगीत की दुनिया में अहम योगदान देने के लिए पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया है।
साल 2009 में उन्हें पद्म श्री पुरस्कार और 2016 में पद्म भूषण पुरस्कार से नवाज़ा था। इसके अलावा उन्हें 5 फिल्मफेयर और 4 नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिल चुके हैं। (bbc.com/hindi)
-आकाश चन्द्रवंशी
सबसे कमसिन शतरंज विश्व चैंपियन डी. गुकेश के दो खास बयान है- एक) आलोचना हमेशा मुझे प्रेरणा और ताकत देती रही है। दो) मैं जिंदगी में किसी भी मामले में छल करना नहीं चाहता।
पिछले कई महीनों से लगातार शह और मात झेलते हुए सोच रहा था की नए नियमों से शतरंज का विधिवत अभ्यास दो-चार बार किया जाए। फिर यह भी ख्याल आया कि जेन जी (जनरेशन नेक्स्ट) के रूप में उभर रहे शतरंज के भारतीय जलजलों की लिस्टिंग की जाए। घर-दफ्तरों के जंजालों में उलझा रहा। जब अपना घर ही ठीक से न संभलता हो, तो चौसठ खानों के खेल के मायाजाल में क्यों उलझना।
फिर एक विस्मयकारी घटना 12 दिसम्बर 2024 को हुई। 18 वर्ष के डी. गुकेश ने 14 दिन चले 56 घंटों के रोमांचक मुकाबले में डिंग लिरेन को हराकर सबसे युवा विश्व शतरंज चैंपियन बने। उन्होंने ना केवल गैरी कास्परोव के युवा चैंपियन के रिकार्ड को तोड़ा बल्कि वे यह खिताब जीतने वाले ग्रैंड मास्टर विश्वनाथ आनंद के बाद दुसरे भारतीय बने।
नई पीढ़ी के खिलाडिय़ों में एरिगैसी, प्रज्ञानंद, रौनक साधवानी, अरविंद चिदंबरम, प्रणब वी. और रानियों में आर. वैशाली, दिव्या देशमुख, वंतिका अग्रवाल शामिल है।
गुकेश साहसी, दृढ़निश्चयी और निर्भीक चैलेंजर है। शतरंज की बिसात में चाले चलते समय माथे पर विभूति लगाए गुकेश प्राय: शर्ट की कॉलर ठीक करते है तो कभी आंखें मूंद लेते हैं। विरोधी की चाल की गणना और अंदाज ले लेते है। गुकेश पिछले कुछ वर्षों से ध्यान और योग कर रहे है। उनका मानना है कि ये उनके मानसिक और शारीरिक प्रशिक्षण का मुख्य हिस्सा है।
शतरंज की बिसात की तरह आज जिंदगी की सिर्फ एक चाल ने पूरी जमावट और नतीजा बदल दी।
-अनिल जैन
अगर सोशल मीडिया नहीं होता और लोगों के हाथों में स्मार्ट फोन नहीं होते तो कुंभ में मची भगदड़ के बारे में प्रधानमंत्री से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उनका पूरा प्रशासनिक अमले की ओर से यही बताया जाता जो उत्तर प्रदेश पुलिस के एक अधिकारी ने बताया- ‘कोई भगदड़ नहीं हुई, भीड़ भाड़ के कारण कुछ श्रद्धालु घायल हो गए हैं।’ या फिर यह दिया जाता कि इतने बड़े आयोजन और भीड़ में छोटी-मोटी घटनाएं तो होती रहती हैं, जैसा कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के मत्स्य पालन मंत्री संजय निषाद ने कहा।
कथित मुख्यधारा के मीडिया से तो अपेक्षा की ही नहीं जा सकती कि वह सरकारी खबर से अलग कुछ दिखाए। उसे सख्त हिदायत दी गई थी कि वही दिखाए और छापे जो प्रशासन कह रहा है। एकाध अपवाद को छोड़ कर लगभग समूचे मीडिया ने आज्ञाकारी बालक की तरह वैसा ही किया।
यह तो भला हो उन यूट्यूब पत्रकारों का जिनकी वजह से हादसे के कई घंटों बाद राज्य सरकार और मीडिया को यह बताने के लिए मजबूर होना पड़ा कि 30 लोगों की मौत हुई है और 90 लोग घायल हुए हैं। हालांकि ये आंकड़े भी हकीकत से परे हैं, क्योंकि विभिन्न माध्यमों से घटनास्थल के जो वीडियो आ रहे हैं, वे दिल दहला देने वाले हैं।
उन वीडियो में जिस तरह लोग मृत और घायल अवस्था में जमीन पर पड़े हुए हैं, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हताहतों की संख्या सरकार और मीडिया के बताए आंकड़े से कहीं ज्यादा है। इलाहाबाद निवासी कुछ पत्रकार मित्रों ने भी अपने प्रशासनिक सूत्रों के हवाले से बताया कि सैकड़ों लोग मारे गए हैं।
यह आंकड़ा भी सिर्फ संगम पर हुई भगदड़ का है। जी हाँ, सिर्फ संगम पर हुई भगदड़ का! इस भगदड़ के कुछ घंटों बाद एक भगदड़ और भी हुई, जिस पर प्रशासन और पालतू मीडिया ने आपराधिक चुप्पी साध रखी है।
यह दूसरी भगदड़ संगम से करीब दो किलोमीटर मीटर दूर झूंसी इलाके में हुई, जिसमें भी प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक कई लोग मारे गए हैं और बेहिसाब लोग बुरी तरह घायल हुए हैं।
उस भगदड़ स्थल के दृश्य भी विचलित कर देने वाले हैं। वहां भारी मात्रा में बिखरे लोगों के कपड़े-लत्ते, चप्पल-जूते और अन्य सामान को जेसीबी से साफ़ किया जा रहा है।
-अशोक पांडेय
एक ऐसा पतंगा होता है जो ग्यारह किलोमीटर दूर से अपनी मादा की खुशबू सूंघ सकता है। उसकी देह में कोई आहारनली नहीं होती। प्यूपा से बाहर निकलते ही उसके सिर के भीतर मौजूद नसों का एक गुच्छा उसे उसकी पार्टनर का पता दे देता है। इसके तुरंत बाद वह उडऩा शुरू कर देता है और अपनी पार्टनर तक पहुँचता है। दोनों का मिलन होता है। प्रकृति के कारोबार को आगे बढ़ाने वाला यह मिलन पतंगे के जीवन का हाई पॉइंट होता है। उसके बाद वह मर जाता है। इतनी ही उसकी जीवनयात्रा होती है। उसका समूचा जीवन इस एक यात्रा के लिए बना होता है जिसमें उसकी मृत्यु निहित होती है। इंसान भी पैदा होने के बाद से अनवरत उसी आखिऱी लक्ष्य की तरफ यात्रा करते रहते हैं। यह अलग बात है कि हम उस पतंगे जैसे नहीं हो सकते कि नाक की सीध में दौड़े चले जाएं। हमें रास्ते में असंख्य ठोकरें खाकर लडख़ड़ाना-गिरना होता है।
कॉलीन मैकलॉ के बेस्टसेलर उपन्यास ‘द थॉर्न बर्ड’ में एक मिथकीय चिडिय़ा का जिक्र है जो अपने जीवन में सिर्फ एक बार गाती है। उसके अद्वितीय गाने की मिठास की तुलना दुनिया की किसी भी आवाज से नहीं की जा सकती। घोंसले से बाहर निकलते ही वह बिना रुके-थमे तीखे कांटों वाले एक पेड़ की तलाश करती रहती है। उसके बाद वह अपने आप को उस पेड़ के सबसे लम्बे, सबसे तीखे कांटे पर धंसाना शुरू करती है। कांटा उसके दिल में समाता जाता है और वह गाना शुरू करती है। असहनीय पीड़ा से उपजा उसका गान दुनिया के सबसे मीठे स्वरों से ऊपर उठता ईश्वर तक जा पहुंचता है। कला-संगीत का उच्चतम पैमाना माना जा सकने वाला उसका वह गाना उसकी मौत पर समाप्त होता है।
हम उस चिडिय़ा जैसे भी नहीं हो सकते।
हम क़ुदरत की बनाई तरतीब को आगे बढ़ाते हुए दुनिया को और भी ख़ूबसूरत बनाने का ख़्वाब देखने के लिए बनाए गए थे। वसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा करने का रिवाज भी शायद इसीलिये बनाया गया होगा कि ज्ञान और विद्या हासिल कर हम अपने जीवन को वह ख़ूबसूरती अता कर सकें, मौत से पहले जिसकी वह हक़दार है। वसंत पंचमी के मुबारक मौक़े पर हर किसी को उसका काँटा हासिल हो।वो कहती हैं, ‘अगर इस पर भी चर्चा होती तो अच्छा रहता। इसके लिए बजट आबंटन की बहुत
-स्नेहा
शनिवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार आठवीं बार संसद में देश का आम बजट पेश किया।
वित्त मंत्री ने अपने भाषण में विकसित भारत के लिए कई लक्ष्यों की बात कही। साथ ही उन्होंने कहा कि बजट के केंद्र में गऱीब, युवा, किसान और महिलाओं को रखा गया है।
बजट में 70 प्रतिशत महिलाओं को आर्थिक गतिविधियों से जोडऩे का लक्ष्य भी रखा गया है। लेकिन सवाल ये है कि महिलाओं के लिए इसमें क्या ख़ास है? क्या उनके लिए किसी तरह के विशेष योजना की बात की गई है?
पिछले विधानसभा चुनावों के प्रचार से लेकर नतीजों में ये बात सामने आई है कि महिलाएं एक बड़े वोट बैंक के रूप में उभरी हैं। प्रचार के दौरान लगभग हर पार्टी ने उनके लिए विशेष कैश ट्रांसफर योजनाओं का ऐलान किया है।
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में ऐसा देखा गया, जहां उनको केंद्र में रख कर राजनीतिक पार्टियों ने योजनाओं की बात की।
पांच फरवरी को दिल्ली में विधानसभा चुनाव है। पार्टियों के चुनाव प्रचार के केंद्र में महिलाएं और महिलाओं से जुड़ी कई घोषणाएं शामिल हैं। पार्टियां आकर्षक योजनाओं के साथ उनका वोट हासिल करने की कोशिश में है।
सवाल ये भी है कि विधानसभा प्रचार में एक वोट बैंक की तरह दिखने वाली महिलाओं को केंद्र सरकार ने इस साल के बजट में क्या कुछ दिया है?
ऐसे में जानते हैं इस बजट में महिलाओं के लिए क्या ख़ास है और जानकारों की इस पर क्या कहना है।
बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक नई स्कीम की घोषणा की।
इसके तहत पांच लाख महिला, एससी और एसटी उद्यमियों के लिए अगले पांच साल के दौरान दो करोड़ रुपये तक के टर्म लोन की बात कही गई है।
भाषण में वित्तमंत्री ने कहा कि इस योजना में स्टैंड अप इंडिया स्कीम की सफलता से मिले अनुभव को भी शामिल किया जाएगा।
इस घोषणा के बारे में अर्थशास्त्री और इंडियन डेवलपमेंट में सलाहकर मिताली निकोरे कहती हैं, ‘ये एक बहुत बड़ी स्कीम है, लेकिन ये कैसे लागू होगी ये देखने वाली बात होगी। ये सिफऱ् एक साल के लिए नहीं है बल्कि पांच साल की स्कीम है।’
उन्होंने कहा, ‘इसमें सिर्फ औरतें ही नहीं बल्कि अन्य तबके के लोग भी इसमें शामिल हैं। ऐसा देखा गया है कि महिलाओं के नाम पर चीज़ें रजिस्टर तो हो जाती हैं लेकिन असल में पूरा हाउसहोल्ड ही इसमें फ़ायदा ले लेता है। ऐसे में ज़रूरी है कि महिलाओं को वाकई इसका फ़ायदा मिले।’ वहीं आर्थिक मामलों की जानकार और वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन कहती हैं, ‘कई ऐसी स्टडी आई है जिसमें ये कहा गया है कि लोन मिलने में महिला उद्यमियों को काफ़ी दिक्कत होती है, बिजऩेस चलाने में महिलाओं को ज़्यादा दिक्कत होती है।’
वो कहती हैं, ‘सरकार ने इस समस्या को उन्होंने कुछ हद तक दूर करने की कोशिश की है लेकिन देखा जाए तो इसके अलावा इस बजट में महिलाओं के लिहाज से बहुत ख़ास नहीं है।’
अर्थशास्त्री मिताली निकोरे कहती हैं कि इस बजट में महिलाओं के लिए इसके अलावा अलग से कोई बड़ी घोषणा नहीं हुई है लेकिन उद्यम बढ़ाने के लिहाज़ से देखें तो इस योजना से उन महिलाओं को लाभ मिलेगा जो खुद का बिजऩेस सेटअप करना चाहती हैं।
बड़े वोट बैंक के रूप में उभरी महिलाओं के लिए बजट में ख़ास घोषणाओं के बारे में निकोरे कहती हैं कि चुनाव के दौरान पार्टियां जिस तरह से महिलाओं के लिए अलग से घोषणाएं करती हैं, वैसा तो कुछ इस बजट में नहीं लगा क्योंकि ये केंद्र का बजट है।
वो कहती हैं, ‘राज्य सरकार के बजट में महिलाओं के खाते में सीधे कैश ट्रांसफर स्कीम बड़ा हिस्सा ले रही हैं लेकिन केंद्र सरकार के बजट में कैश ट्रांसफर का हिस्सा कम ही होता है।’
वहीं इस पर सुषमा रामचंद्रन का कहना है कि इस बजट की सबसे बड़ी चीज़ जो है, वो है 12 लाख तक टैक्स फ्री करना। वो कहती हैं कि ये लंबे समय से मिडिल क्लास की मांग रही है।
वो कहती हैं, ‘अगर दिल्ली के चुनाव के लिहाज़ से भी देखें तो दिल्ली में 40 प्रतिशत तक तो मिडिल क्लास के लोग हैं। महिलाओं को किसी पार्टी ने कहा कि वो 2,000 देंगे, तो किसी ने कहा कि वो 2,500 देंगे। पार्टियों ने पहले ही इस बारे में घोषणा कर दी है।’
बजट में वित्त मंत्री ने सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2।0 को लेकर भी ऐलान किया। अब इस कार्यक्रम के तहत पौष्टिक सहायता के लिए लागत मानकों में वृद्धि की बात कही गई है।
इस पर वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन कहती हैं, ‘मेरे हिसाब से इसमें जो एक चीज़ होनी चाहिए थी , वो ये कि आंगनवाड़ी को और मज़बूत करना। आंगनवाड़ी ग्रामीण इलाक़ों में एक अच्छा नेटवर्क है। यहां महिलाएं अपने बच्चे रख सकती हैं, बच्चों को पौष्टिक खाना मिलता है, साथ ही गर्भवती महिलाओं की देखभाल होती है और उन्हें भी पोषक आहार दिया जाता है।’
‘इस पर और निवेश की ज़रूरत है ताकि आंगनवाड़ी में जो महिलाएं काम करती हैं, उनका वेतन बढ़े। ये महिलाएं तब और बेहतर काम कर पाएंगी। मुझे लगता है कि बजट में इस बारे में सोचा नहीं गया।’
आंगनवाड़ी सेवाएं एक केंद्र प्रायोजित योजना है। इस योजना को लागू करने का काम राज्य सरकार या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन के दायरे में आता है। इस योजना के तहत 8 करोड़ बच्चों, एक करोड़ गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को पोषक आहार दिया जाता है।
पीआईबी के आंकड़ों के अनुसार, 31 दिसंबर 2023 तक देश में 13,48,135 आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और 10,23,068 आंगनवाड़ी सहायिकाएं थीं। अर्थशास्त्री मिताली निकोरे कहती हैं कि आंगनवाड़ी देश के बच्चे और महिलाओं के लिए बेहद अहम हैं।
वो कहती हैं, ‘अगर आप (महिलाएं) पूरा दिन घर का काम कर रही हैं तो वो वर्कफ़ोर्स में कैसे आ पाएंगी। घर और काम में संतुलन बनाते-बनाते बहुत सारी औरतें ड्रॉप आउट हो जाती है।’
‘केयर इकोनॉमी से भी महिलाओं के लिए रोजग़ार के अवसर पैदा होते हैं। केयर इकॉनोमी में एक पालना स्कीम आंगनवाड़ी के अंदर ही चल रही है। कऱीब 17,000 पालना घर बन रहे हैं लेकिन ये काफी नहीं है। आंगनवाड़ी तो ज़्यादातर ग्रामीण इलाके़ में है लेकिन शहरी महिलाओं के लिए इस बजट में उतना कुछ नहीं है।’
केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने ‘पालना’ योजना के तहत पूरे भारत में आंगनवाड़ी केंद्रों में 17,000 शिशु गृह स्थापित करने की योजना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य रखा है और इसमें महिलाओं की अहम भूमिका की बात कही है।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बड़ी संख्या में महिलाओं को वर्कफ़ोर्स से जोडऩा होगा।
इस लक्ष्य के साथ बजट को देखने के नज़रिए पर वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन कहती हैं, ‘महिलाओं की वर्कफ़ोर्स में हिस्सेदारी बढ़ी है। पहले कम थी लेकिन हालिया आंकड़े में ये 41।7 प्रतिशत तक पहुंची है। लेकिन ये भी काफी कम है। अगर आप वैश्विक स्तर पर देखे तो वहां 50 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है।’
‘अध्ययन में ये भी आया है कि इसमें महिलाओं की जो हिस्सेदारी है, वो काफी कम आय वाली नौकरियों की हैं। कोविड के बाद महिलाओं की भागीदारी कम हुई थी, लेकिन इसमें सुधार हुआ। इस अध्ययन में ये भी आया कि इसमें बड़ी संख्या में वो महिलाए हैं जो खुद छोटे-मोटे काम कर रही हैं, जैसे छोटी दुकान चला रही हैं। अभी इस आंकड़े से संतुष्ट नहीं होना चाहिए।’
वहीं निकोरे कहती हैं, ‘बजट में उन वजहों की बात होनी चाहिए थी जो महिलाओं के वर्कफ़ोर्स का हिस्सा बनने के राह में बाधक है। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।’
वो कहती हैं, ‘‘औरतें जिस वजह से पीछे छूटती हैं, उस पर काम करने की ज़रूरत है। अगर हम जेंडर आधारित हिंसा की बात करें तो लोगों को लगता है कि इसका बजट से क्या लेना-देना है। लेकिन इसका लेना-देना है। वन स्टॉप सेंटर जो पूरे देश में बन रहे हैं, जहां हिंसा का शिकार हुई महिलाएं जा सकती हैं। उसके लिए भी तो आवंटन तो बजट में ही होता है।’
‘अगर हम देखें तो सम्बल स्कीम और सामर्थ्य स्कीम है, जिसके अंतर्गत वन स्टॉप सेंटर बना सकते हैं। इस साल सम्बल स्कीम में 630 करोड़ दिया गया है, जिसे पिछले साल की तुलना में बढ़ाया नहीं गया है। यहां पर आवंटन बढ़ा नहीं है।’
जानकारों ने बताया कि महिलाओं के वर्कफोर्स में आने में एक बड़ी बाधा डिजिटल स्किल्स भी हैं।
निकोरे कहती हैं, ‘नई नौकरियां जो आ रही हैं वो या तो प्लेटफ़ॉर्म इकोनॉमी में आ रही हैं, या फिर वो ऑनलाइन काम के लिए आ रही हैं, या फिर उसमें जरूरत होती है कि आपको ऑनलाइन काम समझ में आए। मैं ये चाहती थी कि बजट में महिलाओं के लिहाज से इस पर चर्चा हो।’
इसके अलावा एक मुद्दा सेफ्टी का भी है। निकोरे कहती हैं कि कोई महिला घर से बाहर काम करने जाती है तो उसके मन में हमेशा एक ही बात रहती है, वो ये कि उसे इतने बजे तक घर पहुंचना ही है। (bbc.com/hindi)
जाने-माने लेखक, स्तंभकार और ग्लोबल इनवेस्टर रुचिर शर्मा का मानना है कि मौजूदा समय में भारतीय अर्थव्यवस्था चीन के मुक़ाबले पिछड़ी हुई है। उन्होंने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए हर किसी को एक समान मौके दिए जाने की ज़रूरत है।
उन्होंने ये भी कहा कि लोगों के लिए कल्याण संबंधी योजनाओं और कॉरपोरेट संबंधी योजनाओं में संतुलन करने की ज़रूरत है।
बीबीसी हिंदी के संपादकों और पत्रकारों से पिछले दिनों रुचिर शर्मा ने एक लंबी बातचीत की। इस बातचीत में उन्होंने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था, अमेरिका-चीन की आपसी होड़, भारतीय अर्थव्यवस्था और नरेंद्र मोदी सरकार की योजनाओं पर विस्तार से अपनी बात रखी।
रुचिर शर्मा 2002 से अमेरिकी शहर न्यू यॉर्क में रह रहे हैं। वह उन भारतीयों में हैं, जिन्होंने अमेरिका में जाकर अपना एक मुकाम बनाया है।
ट्रंप की वापसी से भारत को नफा या नुकसान?
डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर वापसी से भारत को कितना फ़ायदा होगा, पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘ट्रंप की मानसिकता रणनीतिक न होकर लेन-देन वाली है। इसलिए उनका ध्यान इसपर रहेगा कि वह भारत के साथ कैसा व्यापार कर सकते हैं। अगर भारत चीन के साथ कोई व्यापार संधि कर रहा है तो उसमें अमेरिका की क्या हिस्सेदारी रहेगी। तो कुल मिलाकर दोनों देशों के बीच रिश्ते लेन-देन आधारित रहने वाले हैं।’
आम भारतीयों की दिलचस्पी भारतीय प्रधानमंत्री मोदी और ट्रंप के आपसी रिश्तों में भी है, क्या इसका कोई फ़ायदा भारत को नहीं होगा, पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘मित्रता का फायदा होता है। लेकिन ट्रंप के लिए लेन-देन ही सबसे अहम चीज़ है। ट्रंप को जो लोग जानते हैं उनका कहना है कि ट्रंप का कोई दोस्त नहीं है, उनकी केवल लोगों से जान-पहचान है।’
‘उनके पास कोई असली दोस्त नहीं है। उनका व्यक्तित्व ही ऐसा है कि उनकी जान-पहचान बहुत लोगों से हैं, लेकिन उनका कोई नज़दीकी दोस्त नहीं है। इसलिए अगर कोई ये मानता है कि ट्रंप उनके दोस्त है और इससे उन्हें कोई फायदा होगा, तो ऐसा होना मुश्किल है।’
राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में क्या बदलाव आएंगे और ट्रंप को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है? इस पर रुचिर शर्मा कहते हैं, ‘आज का अमेरिका दो दिशा में जा रहा है। एक तरफ़ आपको ये सुनने को मिलेगा कि अमेरिका में बहुत राजनीतिक ध्रुवीकरण है। डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स के बीच में बहुत दुश्मनी है। साथ ही, वहां के सर्वे भी इसी बात को दिखाते हैं कि वहां के नागरिक देश की स्थिति से काफी नाखुश है। वहां हर औसत अमेरिकन को लगता है कि अमेरिका का सिस्टम लोगों के लिए काम नहीं कर रहा है।’
‘दूसरी तरफ़ यह कि दुनियाभर का सारा पैसा अमेरिका को ही जा रहा है। इसलिए आप देखेंगे कि डॉलर की कीमत रुपये और दूसरी करेंसी के मुकाबले काफी ज्यादा है। ट्रंप के आने के बाद इसमें और गति आई है। मुझे नहीं पता कि ट्रंप कैसे इस विरोधाभास को संभाल पाएंगे कि एक तरफ़ तो अमेरिका इतना पैसा जा रहा है, स्टॉक मार्केट इतना बढ़ रहा है, डॉलर की कीमत इतनी बढ़ रही है। साथ ही, अमेरिका एआई के मामले में काफी मजबूत स्थिति में हैं।’
पूंजीवाद और लोकतंत्र पर क्या बोले?
रुचिर शर्मा अपनी किताब ‘व्हाट वेंट रांग विद कैपिटलिज़म’ में कहते हैं कि पूंजीवाद को मजबूत करने के लिए लोकतंत्र का होना ज़रूरी है।
इस पहलू पर वह कहते हैं, ‘पूंजीवादी देशों में सरकार की भूमिका बहुत बढ़ चुकी है, इसलिए इसको पूंजीवाद कहना ठीक नहीं होगा। क्योंकि पूंजीवादी देशों में व्यक्ति की आर्थिक आजादी पर कोई बंदिशे नहीं होती है। लेकिन अगर सरकार की भूमिका इतनी बढ़ गई है कि सरकार व्यापार पर इतने नियम लगा रही है, बड़ी-बड़ी कंपनियों को मदद कर रही है, कंपनियों को राहत पैकेज देकर उन्हें बिखरने से रोक रही है। इसलिए पश्चिमी समाज में पूंजीवाद की परिभाषा बदल गई है।’
हालांकि पिछले कुछ सालों में लोकतांत्रिक देशों में आंतरिक तौर पर ख़तरा बढ़ा है।
रुचिर शर्मा से जब पूछा गया कि जिन देशों में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, वहां पूंजीवाद का फैलना लोगों के लिए कितना सुरक्षित होगा तो उन्होंने कहा, ‘यह कहना बिल्कुल ठीक है कि लोकतांत्रिक देशों को काफी नुकसान पहुंचा है। लेकिन अगर आप चीन को भी देखे, तो वहां भी पिछले पांच-दस सालों में काफी समस्या आई है।’
‘तो यह कहना कि अगर सत्तावादी सरकार के आने से अर्थव्यवस्था में सुधार होगा, तो चीन इस बात का उदाहरण है कि ऐसा नहीं होता है। अगर आपके शीर्ष नेतृत्व के नेता कोई गलती करते हैं, जैसे चीन में शी-जिनपिंग ने काफी गलतियां की, तो इससे भी अर्थव्यवस्था डूब सकती है।’
पूंजीवाद और समाजवाद, दोनों आर्थिक नीतियों में कौन सी प्रणाली ज़्यादा बेहतर है। इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘जिस पूंजीवाद को आज हम पश्चिमी देशों में देखते हैं, वह सच्चा पूंजीवाद नहीं है। पूंजीवाद की नींव रखने वाले दार्शनिक अगर आज के पूंजीवाद को देखेंगे तो वह कहेंगे कि यह तो पूंजीवाद नहीं है। पूंजीवादी प्रणाली में हम बहुत ज़्यादा प्रतिस्पर्धा चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वहां लोगों को ज़्यादा आजादी मिले।’
चीन कैसे भारत से आगे?
रुचिर शर्मा का ये भी मानना है कि पूंजीवाद गऱीबों की हक की बात करता है। उन्होंने ये भी बताया कि 1960 और 1970 तक चीन पूरा समाजवाद पर आधारित था।
1970 के बाद चीन ने पूंजीवाद को अपनाना शुरू किया और उसके बाद हमने देखा कि चीन में कितना विकास हुआ। लेकिन अहम सवाल यह है कि पिछले सौ सालों में पूरी दुनिया में आदर्श पूंजीवाद का कोई उदाहरण देखने को मिला है?
इस पर रुचिर शर्मा ने कहा, ‘मैंने अपनी किताब में तीन देशों का जि़क्र किया है, जहां पर पूंजीवाद आज काम कर रहा है। सबसे पहला देश स्विट्जरलैंड है। स्विट्जऱलैंड आज सबसे अमीर देशों में से एक है। उनकी प्रति व्यक्ति आय अमेरिका से भी ज़्यादा है।’
‘इसके अलावा मैंने ताइवान और वियतनाम का उदाहरण दिया है। वियतनाम भी पहले एक समाजवाद को मानने वाला राज्य था। फिर उन्होंने पिछले 20-30 सालों में अपनी अर्थव्यवस्था को बहुत उदार किया है। आज के समय में वियतनाम में फॉरेन डायेरेक्ट इनवेस्टमेंट भारत से भी ज्यादा जा रहा है।’
भारतीय संदर्भ में रुचिर शर्मा ने कहा, ‘भारत में सरकार की भूमिका बहुत ज्यादा रही है। व्यापार के समर्थन में होना और पूंजीवाद को समर्थन देना, ये दोनों दो अलग-अलग चीजें होती है। मैं इस बात से सहमत हूं कि भारत में ज्यादातर पॉलिसी कुछ लोगों को ध्यान में रखते हुए बनाई जाती है, जिनमें बड़े-बड़े उद्योगपतियों की भूमिका ज्यादा रहती है।’
‘मैं यह कहता रहा हूं कि सरकार छोटे और मध्यम व्यापार को काफी आजादी दें। लेकिन भारत में इतने सारे नियम हैं कि व्यापार करना मुश्किल हो जाता है। हमें यह अंतर समझने की जरूरत है कि पूंजीवाद के समर्थन में होना और बड़े व्यापार के समर्थन में होने में काफ़ी बड़ा अंतर होता है।’
भारत में नरेंद्र मोदी सरकार के लगातार तीसरी बार चुने जाने की वजहों के बारे में रुचिर शर्मा ने बताया, ‘पिछले 5-10 सालों में भारत में विरोधी लहर में काफी कमी आई है और अब 50 प्रतिशत से ज्यादा सरकारें दोबारा चुनाव जीतकर वापस सत्ता में आ रही हैं।’
‘सबसे महत्वपूर्ण बदलाव भारत के डिजिटल इनफ्रास्ट्रक्चर में आया है। इसके कारण लोगों को काफ़ी फ़ायदा हो रहा है। 1980 के दशक में राजीव गांधी का एक बयान था कि सरकार 1 रुपये खर्च करती है तो लोगों तक केवल 15 पैसे ही पहुंचते हैं। लेकिन अब इसमें बहुत बड़ा बदलाव आया है। पिछले 5-10 सालों में सरकार अगर कुछ पैसे लोगों को भेजती है, तो काफी पैसा सीधे लोगों तक पहुंचता है। हमने महाराष्ट्र और हरियाणा में भी देखा कि आखिर में काफी पैसा लोगों तक पहुंचा, जिसके कारण सरकार दोबारा चुनकर आई।’
मुफ्त के वादों से क्या असर?
राजनीतिक दल एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए बढ़-चढक़र योजनाओं (रेवडिय़ों) की घोषणा करती है।
रुचिर शर्मा से ये पूछा गया कि उनके मुताबिक ये रेवड़ी क्या है और क्या ये एक टिकाऊ मॉडल हो सकता है? इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘ये एक टिकाऊ मॉडल नहीं है। इसे हम दो देशों के उदाहरण से समझते हैं। एक तरफ़ 1970 तक बहुत लोग इस बात को कहते थे कि ब्राजील आने वाले समय में एक बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था बनकर सामने आएगा। वहीं दूसरी तरफ़ चीन 1970 में काफी पिछड़ा हुआ था।’
‘ब्राजील 1980 और 1990 के दशक में अपने आप को एक कल्याणकारी राज्य बनाने में जुटा हुआ था। उन्होंने इसके लिए बहुत पैसा खर्च किया। जिसके कारण 1980 के बाद से उनकी विकास दर दो प्रतिशत पर आकर अटक गई और कर्जा भी बहुत बढ़ गया। वहीं चीन में सरकार की भूमिका को आर्थिक मामलों में कम करना शुरू किया गया। 1990 में चीन ने 10 करोड़ लोगों को पब्लिक सेक्टर की कंपनियों से निकाल दिया और लोगों को कोई भी कल्याणकारी योजना देने से मना कर दिया। भारत भी इन दो देशों के मॉडल से कुछ सीख सकता है।’
‘भारत में एक निवेशक के तौर पर मेरे लिए सबसे बड़ा जोखिम यह है कि भारत ने पिछले 5-7 सालों में जो संतुलन बनाया था, वह अब बिगडऩे लगा है। क्योंकि अब सरकार कल्याणकारी योजना पर ज्य़ादा खर्च करेगी और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर कम पैसा खर्च करेगी। इसके कारण हमारी विकास दर चीन की तरह कभी देखने को नहीं मिलेगी।’
मनरेगा की फंडिंग घटने से क्या असर?
भारत में मनरेगा एक ऐसी व्यवस्था है, जो गरीबों के हितों के लिए काम करती है। लेकिन सरकार ने मनरेगा की फंडिंग को कम कर दिया तो दूसरी तरफ अमीर लोगों को राहत पैकेज दिया जा रहा है।
इस पहलू पर रुचिर शर्मा का मानना है, ‘मैं राहत पैकेज दिए जाने के बिल्कुल खिलाफ हूं। अमेरिका में एक लंबे समय तक निजी सेक्टर की कंपनियों को राहत पैकेज नहीं दिया जाता था। लेकिन अमेरिका में 1980 में इसमें काफी तेजी आई है।’
भारतीय अर्थव्यवस्था के चीन की तरह 9 से 10 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढऩे के लिए रुचिर शर्मा कुछ सुझाव भी देते हैं।
वह कहते हैं, ‘आप को चीन की तरह 9 से 10 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढऩा है, तो आपको यह समझना होगा कि चीन ने इसके लिए क्या किया। चीन ने कहा कि हम 9 से 10 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढ़ेंगे और इससे ही ज्य़ादा से ज़्यादा लोगों को मदद की जा सकेगी। जीवाद का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत नतीजों की समानता नहीं है यानी सभी लोगों को एक जैसा परिणाम मिले। लेकिन इसका महत्वपूर्ण सिद्धांत है मौकों की समानता देना, जहां सभी लोगों को समान मौका मिले।’
अमेरिका में एक बात कही जाती है कि वहां कोई भी जाकर सफल हो सकता है, लेकिन क्या ये बात आज के समय में भी पूरी तरह से ठीक है?
इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, ‘नहीं इसमें काफी बदलाव आया है। अगर आप सर्वे का डेटा देखे तो अमेरिका में 50 साल पहले 80 प्रतिशत लोग इस बात को कहते थे कि हमारी जिंदगी हमारे माता-पिता से ज्यादा अच्छी होगी। लेकिन आज ये बात केवल 30 प्रतिशत लोग ही कहते हैं। तो अमेरिका में काफी बदलाव आया है। लेकिन फिर भी अमेरिका में अभी काफी कुछ अच्छा है, जिसके कारण अमेरिका अब भी सभी आप्रवासियों का मनपसंद ठिकाना बना हुआ है।’
आज के समय में दुनियाभर में भारत को लेकर धारणा के बारे में उन्होंने कहा, ‘अमेरिका में एक चीज़ लोग काफी बोलते हैं कि भारतीयों का ब्रांड वैल्यू काफी बढ़ा है। ये वाकई में सच बात है कि भारतीय ब्रांड काफी मजबूत है। अमेरिका में लोग इस बात को देखते हैं कि वहां की बड़ी-बड़ी कंपनियों के ज्य़ादातर सीईओ तो भारतीय ही हैं। इस बात को मानते हैं कि भारतीय लोग काफी बुद्धिमान होते हैं। अब सरकार इसका अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करें तो ये दूसरी बात है। लेकिन फिर भी ज्यादातर निवेशक भारत को व्यापार करने के लिए मुश्किल देश मानते हैं।’
अमेरिका के टैरिफ़ से भारत संग कारोबार पर असर
अफ्रीका और एशिया में बहुत सारे देशों का अमेरिका के साथ ट्रेड सरप्लस है और चीन के साथ ट्रेड डेफिसिट में हैं। ऐसे समय में जब अमेरिका टैरिफ़ बढ़ा सकता है, तो ये भारत जैसे देशों में कारोबार के लिहाज से कैसे रहने वाला है?
इस बारे में रुचिर शर्मा ने कहा, ‘भारत को भी अपना व्यापार बढ़ाना चाहिए और खासकर अपने पड़ोसी देशों के साथ। ज्यादातर सफल देश अपने पड़ोसियों के साथ काफी व्यापार करते थे। 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद उन्होंने आसपास के देशों के साथ व्यापार बढ़ाने पर काफी ध्यान दिया था।’ ‘लेकिन फिर भी पिछले 11 सालों में यह व्यापार ज्य़ादा बढ़ा नहीं है। वहीं आप दुनिया में देखे तो पड़ोसियों के साथ सबसे कम व्यापार दक्षिण एशिया में हुआ है।’
भारत में 2011 के बाद से सामाजिक-आर्थिक जनगणना नहीं हुई है। सरकार पर बहुत बार यह आरोप लगता है कि वह बहुत सारे महत्वपूर्ण डेटा को जारी नहीं कर रही है।
यह आरोप भी लगता है कि डेटा को इस तरीके से बनाया जा रहा है, जिससे भारत की तस्वीर अच्छी दिखें।
इन आरोपों पर रुचिर शर्मा ने बताया, ‘भारत का डेटा सिस्टम काफी खराब है। इसे हर प्रकार से ठीक करने की जरूरत है। लेकिन मुझे लगता है कि ये समस्या प्रोपेगेंडा के साथ-साथ अयोग्यता की भी है। वित्तीय दुनिया में निवेशक सरकार के डेटा से ज्यादा अपने इंडिकेटर पर ध्यान देते हैं। तो हम सरकार के डेटा पर इतना भरोसा नहीं करते हैं।
क्या आने वाले दिनों में वैश्विक बाज़ार में अमेरिकी दबदबा कम होने वाला है, इस सवाल के जवाब में वे कहते हैं, ‘अपनी किताब ‘ब्रेकआउट नेशन’ में मैंने कहा था कि ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्था दुनिया पर हावी होगी और अमेरिका का टूटना शुरू हो जाएगा। लेकिन आज मेरा मानना यह है कि निवेश की दुनिया में सारा दबदबा अमेरिका का है।’
‘तो जो बात मैंने 12 साल पहले अपनी किताब में लिखी थी, वह सब ग़लत साबित हो रही है। क्योंकि आज चीन, ब्राजील और बाकी ब्रिक्स देशों में काफी आर्थिक मंदी है और सभी निवेशकों को अमेरिका निवेश के लिए अच्छा लग रहा है। लेकिन इसके बाद भी मेरा मानना यही है कि अमेरिका के दबदबे में थोड़ी कमी आएगी। इसलिए मेरी सलाह यही है कि सारा पैसा एक मार्केट में न लगाकर अमेरिका के बाहर वाली मार्केट में भी लगाएं।’ (bbc.com/hindi)
"साल 2019-20 में छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य पर 9,906 करोड़ रुपये खर्च किये गये, प्रतिव्यक्ति 3,416 रुपये. यह राज्य जीडीपी का 2.9 % का था. जिसमें से छत्तीसगढ़ सरकार ने 1.5 % याने 52.4 % खर्च किया जो 5,190 करोड़ रुपयों का था. जबकि छत्तीसगढ़ की जनता को 3,634 करोड़ खर्च करने पड़े जोकि 36.7 % का होता है. यह राज्य जीडीपी का 1.1 % है. इस तरह से जनता ने प्रतिव्यक्ति 1,253 रुपये खर्च किये. बाकी का 0.3 % अन्य स्त्रोतों से खर्च किये गये. इसी रिपोर्ट के अनुसार साल 2022-23 में प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय दूसरा अग्रिम अनुमान के अनुसार 1,72,000 रुपये याने प्रतिमाह 14,333 रुपये है. इसमें से 1,253 रुपये स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ता है वह भी 2019-20 के आंकड़ें के अनुसार."
-जे के कर
केन्द्र सरकार ने साल 2025-26 का आम बजट पेश कर दिया है. अमृतकाल के इस बजट के स्वास्थ्य बजट में जीवनामृत याने जरूरत के मुताबिक पर्याप्त धन का अभाव है. साल 2024-25 में स्वास्थ्य बजट रिकवरी को छोड़कर (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण+स्वास्थ्य रिसर्च+आयुष) 93471.76 करोड़ रुपयों का था, उसकी तुलना में साल 2025-26 का स्वास्थ्य बजट रिकवरी को छोड़कर (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण+स्वास्थ्य रिसर्च+आयुष) 103851.46 करोड़ रुपयों का है. इस तरह से मात्र 11.10 % की बढ़ोतरी की गई है जोकि बढ़ती महंगाई को देखते हुये नाकाफी है. इसकी तुलना हम गोल्ड स्टैंडर्ड से कर के देखते हैं. 31 जनवरी'2024 के दिन 24 कैरेट के 10 ग्राम सोने की कीमत 63,970 रुपये थी और 31 जनवरी'2025 के दिन इसी 10 ग्राम सोने की कीमत 83,203 रुपये की रही है. इस तरह से सोने के दाम में 30.06 % की बढ़ोतरी हुई है. चिकित्सा के बढ़ते खर्च मसलन दवाओं के बढ़ते दाम, उपकरणों के बढ़ते दाम, विभिन्न जांचो के बढ़ते दाम, सर्जरी के बढ़ते दाम, चिकित्सकों के बढ़ते फीस, अस्पताल के बिस्तरों के बढ़ते किराया के चलते, बजट में की गई बढ़ोतरी नाकाफी सिद्ध होती है.
केन्द्रीय बजट के एक दिन पहले संसद में पेश आर्थिक सर्वे 2024-25 के अनुसार साल 2021-22 में हमारे देश में (केन्द्र+राज्य सरकारें) ने स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पादन का 1.87 % खर्च किया था. इसी साल जनता को अपने जेब से स्वास्थ्य पर जीडीपी का 1.51% खर्च करना पड़ा. बता दें के आर्थिक सर्वे 2024-25 के अनुसार साल 2021-22 में हमारे देश में स्वास्थ्य पर जीडीपी का 3.8% खर्च किया गया. जबकि स्वास्थ्य क्षेत्र के जानकारों के मुताबिक हमारे जैसे देश में स्वास्थ्य पर सरकार (केन्द्र+ राज्य सरकारों) द्वारा 6 % तक खर्च किया जाना चाहिये. बता दें कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में 2025 तक सकल घरेलू उत्पादन या जीडीपी का 2.5% स्वास्थ्य सेवा पर सरकारी खर्च का लक्ष्य रखा गया है. वैसे भी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुसार सरकार को जनता के स्वास्थ्य पर ज्यादा खर्च करना चाहिये. यदि जनता स्वस्थ्य नहीं होगी तो मजबूत राष्ट्र के निर्माण का दावा किस आधार पर किया जा सकता है. हमारे देश में कोई बहुत अमीर है तो कोई इतना गरीब कि उसके लिये अपने लिये दो जून की रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल है. इस कारण से राज्य ( अर्थात् सरकार) की जिम्मेदारी बनती है कि वह जनता के स्वास्थ्य पर ज्यादा खर्च करें. वैसे भी मानव समाज के विकास क्रम में राज्य की उत्पत्ति समाज में असमानता के बावजूद उसे चलायमान रखने के लिये हुई थी.
आइये स्वास्थ्य पर जीडीपी का खर्च कैसे होता है उसे एक उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं. केन्द्र सरकार द्वारा ताजा जारी नेशनल हेल्थ प्रोफाईल'2023 के अनुसार जिसमें साल 2019-20 का आंकड़ा दिया गया है, स्वास्थ्य पर जीडीपी का 3.27 % खर्च किया गया. जिसमें सरकार (केन्द्र+राज्य सरकारें) की भागीदारी 41.4 % थी. यह जीडीपी का 1.35 % का होता है. इसे केन्द्र सरकार की भागीदारी 35.8 % तथा सभी राज्य सरकारों की भागीदारी 64.2 % की थी. इस कारण से जनता को अपनी जेब से 1.54 % अर्थात् प्रतिव्यक्ति 2,289 रुपये खर्च करने पड़े. वहीं आर्थिक सर्वे 2024-25 के अनुसार साल 2021-22 में स्वास्थ्य पर कुल खर्च का सरकार ने 48% तथा जनता ने 39.4% खर्च किया.
राज्य सरकारें अपने बजट का कितना स्वास्थ्य पर खर्च करती हैं उसे छत्तीसगढ़ के उदाहरण से समझने की कोशिश करते हैं. साल 2019-20 में छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य पर 9,906 करोड़ रुपये खर्च किये गये, प्रतिव्यक्ति 3,416 रुपये. यह राज्य जीडीपी का 2.9 % का था. जिसमें से छत्तीसगढ़ सरकार ने 1.5 % याने 52.4 % खर्च किया जो 5,190 करोड़ रुपयों का था. जबकि छत्तीसगढ़ की जनता को 3,634 करोड़ खर्च करने पड़े जोकि 36.7 % का होता है. यह राज्य जीडीपी का 1.1 % है. इस तरह से जनता ने प्रतिव्यक्ति 1,253 रुपये खर्च किये. बाकी का 0.3 % अन्य स्त्रोतों से खर्च किये गये. इसी रिपोर्ट के अनुसार साल 2022-23 में प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय दूसरा अग्रिम अनुमान के अनुसार 1,72,000 रुपये याने प्रतिमाह 14,333 रुपये है. इसमें से 1,253 रुपये स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ता है वह भी 2019-20 के आंकड़ें के अनुसार.
हमारे देश में स्वास्थ्य पर वित्तीय आवंटन 'आर्थिक सहयोग और विकास संगठन' (Organisation of Economic Co-operation and Development- OECD) देशों के औसत 7.6 % और ब्रिक्स (BRICS) देशों द्वारा स्वास्थ्य क्षेत्र पर औसत खर्च 3.6 % की तुलना में काफी कम है. इसी कारण से हमारे देश में ‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ (OOPE) के मामले में विश्व के शीर्ष देशों में शामिल है. एक अनुमान के अनुसार, हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर लगभग 62 % के करीब है, जो वैश्विक औसत 18 % का लगभग तीन गुना अधिक है.
आइये एक नज़र अपने पड़ोसी देशों तथा दुनिया के विकसित देशों द्वारा स्वास्थ्य पर अपने जीडीपी का कितना खर्च किया जाता है पर डालते हैं. साल 2021 में बंग्लादेश ने 2.36, भूटान ने 3.85, चीन ने 5.38, भारत ने 3.28, नेपाल ने 5.42, पाकिस्तान ने 2.91 तथा श्रीलंका ने 4.07 % खर्च किये. यह आंकड़ा विश्वबैंक समूह का है. इसी तरह से क्यूबा ने 13.79, अमरीका ने 16.57, इग्लैंड ने 11.34 तथा फ्रांस ने 12.31 % खर्च किये थे.
बता दें कि OECD देशों पर किये गये एक अध्धयन से पता चला है कि स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च 1 % बढ़ाने से शिशु मृत्यु दर 0.21 % कम होती है तथा जीवन प्रत्याशा (life expectancy) 0.008 % बढ़ जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के साल 2021 के आकड़ों के अनुसार भारत की जीवन प्रत्याशा 67.3 वर्ष है, अर्थात् भारत के लोग 67.3 वर्ष जीते हैं. भूटान की 74.9 वर्ष, चीन की 77.6 वर्ष, नेपाल की 70 वर्ष, पाकिस्तान की 66 वर्ष, श्रीलंका की 77.2 वर्ष, बांग्लादेश की 73.1 वर्ष है. इसी तरह से क्यूबा की 73.7 वर्ष, अमरीका की 76.4 वर्ष, इग्लैंड की 80.1 वर्ष तथा फ्रांस की 81.9 वर्ष है.
गौर करने वाली एक बात और है. स्वास्थ्य पर पर्याप्त बजट का आबंटन नहीं किया जाता है उस पर आबंटित बजट से कम खर्च भी किया जाता है. जिसका तात्पर्य यह है कि जनस्वास्थ्य प्राथमिकता के एजेंडे में नहीं है. हाल के वर्षो में केवल कोविड 19 के समय दो साल खर्च ज्यादा किया गया था बाकी के समय पूरे रकम को खर्च नहीं किया गया. सेंटर फार डेवलेपमेंट पालिसी एंड प्रैक्टिस के एक अध्धयन के अनुसार साल 2010-11 में बजट प्रस्ताव का 82 % उपयोग किया गया था. इसी तरह से साल 2011-12 में 82 %, साल 2012-13 में 82 %, साल 2013-14 में 82 %, साल 2014-15 में 87 %, 2015-16 में 103 %, 2016-17 में 102 %, 2017-18 में 109 %, 2018-19 में 100 %, 2019-20 में 100 %, 2020-21 में 121 %, 2021-22 में 114 %, 2022-23 में 87 % आबंटित बजट का उपयोग किया गया.
भारत में मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी गैर-संचारी बीमारियां (एनसीडी) तेजी से फैल रही हैं. एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि गैर-संचारी रोग देश के कुल रोग भार में संचारी रोगों पर भारी पड़ रहे हैं. गैर-संचारी रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलता है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में नान कम्यूनिकेबल (non-communicable) बीमारियां 30 से बढ़कर 55 फीसद तक पहुंच गई हैं. जाहिर है कि इनके ईलाज पर खर्च करना पड़ता है.
आज आप किसी भी घर में जायेंगे तो मधुमेह, उच्चरक्तचाप, दमा, किडनी के रोगी, पेटरोग के रोगी कई मिल जायेंगे. इसलिये जरूरत है कि सरकार अपने स्वास्थ्य बजट में बढ़ोतरी करें. लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है. एक तरफ स्वतंत्रता का अमृतकाल मनाया जा रहा है तो दूसरी तरफ जनस्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है. अच्छा स्वास्थ्य एक बिकाऊ वस्तु बनकर रह गई है जिसके लिये अपने पाकेट से खर्च करना पड़ रहा है. यहां पर इस बात का उल्लेख करना गलत न होगा कि जो लोग बजट बनाते हैं उन्हें अपने जेब से स्वास्थ्य के लिये खर्च नहीं करना पड़ता है. इसके अलावा हमारे देश में बीमार लोग या जनस्वास्थ्य वोट बैंक नहीं हैं और न ही चुनावी मुद्दा है, इस कारण उन पर बजट बनाते समय ध्यान नहीं दिया जाता है. इस कारण से 'सबके स्वास्थ्य का विकास' नहीं हो पा रहा है.

-आर.के.जैन
उधर चीन का एआई मॉडल डीपसीक दुनिया भर में कोहराम मचा रहा है, इधर भारत को लोग ताने मार रहे हैं । भारत की हालत उस लडक़े की तरह हो गई है जिसके पड़ोस में ‘शर्माजी का बेटा’ 98 फीसदी नंबर ले आया है।
लेकिन क्या आपको पता है हम भी एआई के क्षेत्र में तोप होते बस ‘अब्बा नहीं माने’
ये ‘अब्बा’ और कोई नहीं इन्फोसिस कंपनी के सह संस्थापक नारायणमूर्तिजी थे, जो अब युवाओं को सप्ताह में 70 घंटे काम करने की सलाह दे रहे हैं।
इन्फोसिस कंपनी के पूर्व सीईओ विशाल सिक्का जिन्होंने 2014-2015 में ही एआई की दुनिया में ओपनएआई पर दांव लगा चुके थे, लेकिन उनका एआई विजन इन्फोसिस कंपनी के सह संस्थापक नारायणमूर्ति के साथ टकराहट और कंपनी के अन्य डायरेक्टरों के साथ अंदरूनी संघर्ष के कारण दब गया।
पहले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बनाने के युग में भारत पिछड़ा। और अब एआई युग में भी पहले अमेरिका और अब चीन भी आगे निकलता जा रहा है।
क्या भारत सिर्फ एआई का उपभोक्ता बनकर रह जाएगा?
2014 में, विशाल सिक्का,इंफोसिस के पहले गैर-संस्थापक सीईओ बने उस वक्त कंपनी के हिसाब से एक साहसिक कदम था। विशाल सिक्का एकदम विशुद्ध इंजीनियरिंग पृष्ठभूमि से आते हैं. उनका ध्यान इनोवेशन पर था. उन्होंने इंफोसिस को पारंपरिक आईटी सर्विस कंपनी से बदलकर ऑटोमेशन और यूएआई-ड्रिवन सॉल्यूशंस की लीडर बनाने का सपना देखा।
लेकिन उनका यह विजन कंपनी के बांकी के नेतृत्व, जिनमें नारायणमूर्तिजी भी थे, उन्हें पसंद नहीं आया।
उसी समय, ओपनएआई बना ही था। इसका उद्देश्य था आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में गहन शोध करना और क्रांतिकारी बदलाव लाना। विशाल सिक्का ने इसका समर्थन किया और यूएआई की शक्ति को भांप लिया था उन्होंने उस समय ही इसे भविष्य की तकनीक मान लिया था ।
उन्होंने इंफोसिस में एनआईए जैसे एआई प्रोजेक्ट्स पर भारी निवेश करने की योजना बनाई।
विशाल सिक्का के इन प्रोजेक्ट्स को इंफोसिस के पारंपरिक बिजनेस मॉडल से जोडऩा आसान नहीं था। संस्थापक नारायण मूर्ति, जो सक्रिय नेतृत्व से अलग हो चुके थे, एआई जैसी महंगी योजनाओं पर सवाल उठाने लगे ।
नारायण मूर्ति मानना था कि इंफोसिस को अपनी कोर स्ट्रेंथ, आईटी सर्विसेज, पर ही फोकस करना चाहिए।
2016 से 2017 के बीच, विशाल सिक्का और नारायण मूर्ति के बीच मतभेद बढऩे लगे। नारायण मूर्ति इनफोसिस के उस समय के सीईओ यानी विशाल सिक्का के महंगे प्रोजेक्ट्स और कंपनी की दिशा पर सार्वजनिक रूप से सवाल उठाने लगे।
बोर्ड मीटिंग्स में बहसें बढऩे लगीं।विशाल सिक्का का लॉन्ग-टर्म इनोवेशन पर जोर इनफ़ोसिस के संस्थापकों के शॉर्ट-टर्म प्रॉफिट फोकस से मेल नहीं खा रहा था।
2017 में यह विवाद चरम पर पहुंच गया। नारायण मूर्ति ने कॉरपोरेट गवर्नेंस और सिक्का के नेतृत्व पर सवाल उठाए। मीडिया में यह मुद्दा उछलने लगा। (इस बारे में आपको बहुत सी ऑनलाइन स्टोरी मिल जाएगी)
नारायण मूर्ति सार्वजनकि तौर पर कह डाले थे कि, ‘डॉ. सिक्का सीईओ मैटेरियल नहीं बल्कि सीटीओ मैटेरियल हैं।’
अंत में विशाल सिक्का ने अगस्त 2017 को इनफ़ोसिस के सीईओ पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने अपने इस्तीफे का कारण ‘व्यक्तिगत हमले’ बताया।
उनके जाने के बाद इंफोसिस के एआई प्रोजेक्ट्स को ठंडे बस्ते में फेंक दिया गया।
उसके बाद तो आपको पता ही है दुनिया एआई युग में प्रवेश कर चुकी है, ओपनएआई माईक्रोसॉफ्ट गूगल और अब चीन के एआई मॉडल डीपसीक की धूम दुनियाभर में है।
- एकलव्य
यह आम लोगों का पर्व है, इस आयोजन की आत्मा आम लोग हैं। वो आम लोग जिन्हें हम 'अमौसा के मेला' कविता में देखते हैं। हजारों हजार लोग बीस बीस किमी पैदल चल रहे हैं ताकि स्नान कर पाएं, हिलने की जगह नहीं है तभी बीच में हूटर बजाती गाडिय़ां आ जाती हैं और उन्हें जगह देना है।
ये तथाकथित वीआईपी लोग यदि पुण्य अर्जित करने की लालसा से आ रहे हैं तो यकीनन आम लोगों के कष्ट की कीमत पर तो उन्हें उनका पुण्य' नहीं मिलने वाला।
वृद्धि- विकास को लेकर मेरी अपनी समझ है जिसे सुनकर बाज दफ़ा सतही रूप से मेरे विचार प्रगति विरोधी भी लग सकते हैं पर मेरा मानना है कि विकास के नाम पर किसी भी चीज की मूल आत्मा से खिलवाड़ नहीं होना चाहिए।
प्रत्येक स्थान का अपना महत्व होता है उसकी स्थानीय विशेषताएं होती हैं जो उसे बाकियों से अलग करती हैं। बनारस में तोड़ फोड़ मचाकर आप उसे लखनऊ नहीं बना सकते और यदि बनाना चाहें तो उसकी कीमत होगी बनारस की मृत्यु।
हमेशा से यह मेला दो वर्ग से बनता आया है- साधु संत नागा सन्यासी और आम लोग, जो दूर दूर से स्नान करने आते हैं या वो जो महीने भर का कल्पवास किये होते हैं। इन सबके बीच बाजार की उतनी ही जगह बचती है जितनी कि उसकी आवश्यकता होती है।
लगातार मेला घूमते हुए मैं महसूस कर रहा हूँ कि अबकी बार आम लोग हाशिये पर हैं जो इस मेला और इस जुटान के श्रृंगार हैं वही लोग कहीं पीछे छूट रहे हैं। बाजार जबरिया घुसा हुआ है। तमाम दावों के बावजूद आम जन के लिए कोई विशेष सुविधा नजऱ नहीं आ रही सिवाय कि उन्हें पैदल चलने दिया जा रहा है।
सबसे पहले तो इस वीआईपी मूवमेंट को तुरन्त रोकना चाहिए। यदि जज साहब और उनकी मेहरारू को श्रद्धा है तो वो भी पैदल चलें और दूसरी बात कि मेला क्षेत्र में प्रशासनिक कार्यालयों के अलावे केवल साधुओं और कल्पवासियों के लिए ही जमीन आवंटित होनी चाहिए। एक-एक लाख रुपये की टेंट सिटी ऐसी जगहों पर न केवल अश्लील लगती हैं बल्कि वो संसाधनों का भी अत्यधिक उपभोग करते हैं।
सरकार और मेला प्रशासन को यह याद तो रहना ही चाहिए कि सर पर गठरी लादे चना चबेना खाते लोग ही कुम्भ को दिव्यता और भव्यता प्रदान करते हैं न कि ये सस्ती चाइनीज झालरें।
-जाह्नवी मूले
पिछले दो दशक में सरकार और निजी संगठनों ने पहले की तुलना में अब खेल पर ज़्यादा धन खर्च करना शुरू किया है।
ओलंपिक में देश ने पहले की तुलना में कहीं अधिक मेडल भी जीते हैं लेकिन क्या इतना काफी है?
2004 के ओलंपिक में भारत ने सिर्फ एक मेडल जीता था लेकिन 2024 में ये आंकड़ा छह रहा।
एशियन गेम्स और एशियन पैरा गेम्स में भी भारत ने रिकॉर्ड स्तर पर मेडल जीते, ये सभी चीज़ें इस ओर इशारा करती हैं कि भारतीय खेल ने एक लंबी दूरी तय की है।
इस साल सरकार ने ‘युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय’ के लिए 3,443 करोड़ रुपए का बजट रखा।
वहीं, ‘गु्रप एम’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, निजी सेक्टर का खेल पर खर्च बढक़र 15,766 करोड़ रुपए हो गया। हालांकि इसमें से बड़ा हिस्सा तो क्रिकेट का ही रहा।
ओलंपिक खेलों के लिए मिलने वाली सहायता और सफलता ने युवा पीढ़ी के मन में खेल की दुनिया में जाने को लेकर महत्वाकांक्षाएं पैदा की हैं। ऐसी ही खिलाडिय़ों में से एक हैं अदिति स्वामी।
2023 में अदिति वल्र्ड चैंपियनशिप जीतने वाली पहली भारतीय और दुनिया में सबसे कम उम्र की आर्चर बनी थीं। उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी।
उन्होंने खेल की दुनिया में अपनी यात्रा के बारे में कहा, ‘मैं अच्छा कर पाई क्योंकि मुझे समय से स्कॉलरशिप मिल गई। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो खेल में करियर बनाना मुश्किल होता।’
स्कॉलरशिप जरूरी
अदिति ने नौ साल की उम्र से ही खेलना शुरू किया। वो सातारा में गन्ने के खेत में अस्थायी तौर पर बने रेंज में अभ्यास किया करती थीं। सातारा महाराष्ट्र में एक छोटा सा कस्बा है।
अदिति के पिता गोपीचंद एक स्कूल में शिक्षक हैं और उनकी मां शैला स्थानीय सरकारी कर्मचारी हैं। उन्हें हमेशा अदिति के लिए पैसे जुटाने में दिक्क़तें आती थीं और इसके लिए उन्होंने कर्ज भी लिए।
उन्होंने कहा, उसे हर 2-3 महीने पर तीर के नए सेट की ज़रूरत पड़ती और उसकी हाइट बढऩे के साथ ही धनुष भी बदलना पड़ता।
तीर का हर सेट कऱीब 40,000 रुपये का आता है और धनुष की क़ीमत 2-3 लाख रुपये की होती है। इसके बाद उसके खाने-पीने और यात्रा करने के खर्चे भी थे।
ऐसा कुछ वर्षों तक चलता रहा। 2022 में अदिति ने गुजरात में नेशनल गेम्स में गोल्ड मेडल जीता। इस जीत के बाद अदिति को भारत सरकार के ‘खेलो इंडिया’ स्कीम के तहत मासिक 10,000 रुपए की स्कॉलरशिप मिलने लगी और इसके अतिरिक्त इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन से 20,000 रुपये की मासिक स्कॉलरशिप भी मिलनी शुरू हुई।
इससे अदिति की काफी सहायता हुई। वो कहती हैं, ‘जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, आपके ख़र्चे बढऩे शुरू होते हैं। परिवार हमेशा खेल के नए सामान खऱीद नहीं सकती। मैं ऐसे खिलाडिय़ों को जानती हूं जो अच्छे होने के बावजूद भी आगे नहीं बढ़ पाए क्योंकि उन्हें आर्थिक सहायता नहीं मिली।’
ये सिफऱ् अदिति की कहानी नहीं है। खेल की दुनिया में आपको ऐसी ढेरों कहानियां मिलेंगी।
जैसे कि ओलंपियन अविनाश साबले की कहानी, जिन्हें करियर के शुरुआती दिनों में मज़दूरी तक करनी पड़ी थी।
वहीं वल्र्ड चैंपियनशिप ब्रॉन्ज मेडलिस्ट बॉक्सर दीपक भोरिया को सही से भोजन नहीं मिलने की वजह से खेल को छोडऩे की नौबत आ गई थी।
इन सब के बाद भी ये डटे रहे। उन्होंने न केवल भारत के लिए मेडल जीते बल्कि भारतीय खेल में एक नई पटकथा भी लिखी।
खेल में भारत की बढ़ती धाक
सितंबर 2024 में दिल्ली में आयोजित ओलंपिक काउंसिल ऑफ़ एशिया की बैठक में शामिल होते हुए खेल मंत्री मनुसख मांडविया ने ‘ट्रेनिंग सुविधाओं में हुए सुधार, बेहतर कोचिंग और खिलाडिय़ों के लिए देश भर में बेहतर अवसरों’ का जिक्र किया।
देश में खेल के क्षेत्र में संभावनाओं का जि़क्र करते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि पेरिस ओलंपिक 2024 के मेडल टैली को देखते हुए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
भारत छह मेडल जीतकर 71वें स्थान पर रहा जबकि भारत जैसी ही बड़ी जनसंख्या वाला पड़ोसी देश चीन 91 मेडल जीतकर दूसरे स्थान पर रहा।
भारत का खेल पर प्रति व्यक्ति सरकारी खर्च चीन की तुलना 5 गुना कम है।
भारत के कई शीर्ष एथलीटों का प्रतिनिधित्व करने वाली स्पोर्ट्स मैनेजमेंट कंपनी ‘बेसलाइन वेंचर्स’ के तुहीन मिश्रा करते हैं, ‘विकासशील अर्थव्यवस्था में खेल को दूसरी आवश्यक चीज़ों की तुलना में प्राथमिकता नहीं दी जाती है। लेकिन जब जीडीपी एक स्तर तक पहुंच जाती है तो खेल बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत में हम यही देख रहे हैं और अगले 15-20 साल में इसके और बड़ा होने की संभावना है।’
ओलंपिक की तुलना में भारत ने पैरालंपिक्स में ज़्यादा मेडल जीते हैं। 2004 में भारत ने सिफऱ् दो मेडल जीते थे लेकिन 2024 में ये आंकड़ा बढक़र 29 हो गया। ये दर्शाता है कि भारत ने पैरालंपिक गेम्स में अपनी छाप छोड़ी है।
कइयों का कहना है कि ऐसा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि विकलांगता को लेकर जागरूकता बढ़ी है और पैरा स्पोर्ट्स पर ज़्यादा से ज़्यादा काम करने की इच्छा दिखाई गई है।
फ़ंडिंग में सुधार
खेल में फंडिंग के लिहाज से देखें तो भारत में सबसे बड़ा बदलाव 2009-10 में दिखता है। दिल्ली ने कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन किया। भारत ने 38 गोल्ड समेत 101 मेडल जीते।
विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली में हुए इस आयोजन के बाद ओलंपिक खेलों को लेकर जागरूकता और दिलचस्पी बढ़ी और इसके साथ ही फ़ंडिंग भी बढ़ी।
2014 में टारगेट ओलंपिक पोडियम की शुरुआत हुई, जिसे टोप्स भी कहा जाता है। इसके बाद 2017-18 में खेलो इंडिया प्रोग्राम की शुरुआत हुई।
एक तरफ़ टोप्स जहां वैसे शीर्ष खिलाडिय़ों के लिए लक्षित था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल के लिए लक्ष्य साध रहे हैं।
वहीं, खेलो इंडिया का लक्ष्य अगली पीढ़ी के टैलेंट को तैयार करना, पूर्व एथलीटों को सहयोग करना और ज़मीनी खेल संरचनाओं का विकास करना है।
मनसुख मांडविया ने संसद में बताया था कि खेलो इंडिया स्कीम के तहत 2781 खिलाडिय़ों को कोचिंग, सामान, चिकित्सकीय देखरेख और निजी खर्च के लिए मासिक राशि दी जा रही है।
ये योजनाएं बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत में किसी भी एथलीट के शुरुआती दिनों में सरकारी फंडिंग का बड़ महत्व होता है। भारत में सरकारी नौकरियों में भी एथलीट कोटा होता है ताकि इन खिलाडिय़ों के जीवन में आर्थिक स्थिरता इनके सक्रिय वर्षों के बाद भी बनी रहे।
मांडविया ने दावा किया कि 2014 की तुलना में खेल पर किया जा रहा खर्चा तीन गुना बढ़ा है। वो युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय के सालाना बजट का हवाला दे रहे थे।
पिछले वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 में कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से खेल पर होने वाले खर्च बढ़े थे। हाल के वर्षों में ये आंकड़े बढ़े हैं।
भारत में वार्षिक बजट में खेलों पर खर्च किए जाने को अनुपात में देखें तो, ये पिछले कुछ वर्षों से स्थिर बना हुआ है, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि फंडिंग के इस्तेमाल में सुधार हुआ है। इसके साथ ही राज्य सरकार भी अपने क्षेत्र में खेल के विकास में योगदान दे रही हैं। हालांकि अलग-अलग राज्यों में स्थिति अलग-अलग सी है। ये दर्शाता है कि हरियाणा कैसे दूसरे राज्यों की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन कर रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार सौरभ दुग्गल कहते हैं, ‘हरियाणा खेल पर काफ़ी पैसे खर्च करता है और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के लिए बड़ी पुरस्कार राशि, सरकारी नौकरियां और अवॉर्ड देता है, इसमें पैरा स्पोर्ट्स भी शामिल है। इससे खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के साथ ही खेल की संस्कृति भी बढ़ती है।’
निजी सेक्टर का योगदान
राइफ़ल शूटर दीपाली देशपांडे ने 2004 में एथेंस में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। वो 2024 पेरिस ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाले स्वप्निल कुसाले की कोच भी रही हैं।
वो कहती हैं, ‘हमारे समय में कॉर्पोरेट से बहुत ज़्यादा फ़ंडिंग नहीं होती थी। कुछ लोगों को कभी-कभी सहयोग मिलता था लेकिन ज़रूरी सामान खऱीदने और बाकी चीज़ो का ख़र्च बहुत ज़्यादा था। लेकिन अब ये चीज़ें काफ़ी बदली हैं।’
2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद से गोल्ड क्वेस्ट, रिलायंस फ़ाउंडेशन, जेएसडब्ल्यू स्पोर्ट्स, गो स्पोर्ट्स समेत की अन्य एनजीओ और फ़ाउंडेशन आगे आए हैं।
ये सभी युवा खिलाडिय़ों के टैलेंट को उभारने में योगदान दे रहे हैं। अब ब्रांड्स भी खुद को टीम या छोटी उम्र से ही खिलाडिय़ों के साथ जोड़ रहे हैं।
तुहीन मिश्रा कहते हैं, ‘जब एक खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करता है तो स्पॉन्सर्स और उनके प्रयासों की भी बात होती है। खिलाड़ी की लोकप्रियता ब्रांड वैल्यू को बढ़ाते हैं, इससे कंपनियों को फ़ायदा पहुंचता है। इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा ब्रांड खेल में सहयोग के लिए आ रहे हैं।’ हालांकि, इन सब के बीच इस फ़डिंग से महिला खिलाडिय़ों को कितना फ़ायदा हो रहा है, इस पर तुहीन कहते हैं, ‘उन्हें अब भी कम फ़ायदा पहुंच रहा है लेकिन निश्चित तौर पर स्थिति में सुधार है।’
‘अगर कॉर्पोरेट चश्मे से देखें तो ये प्रदर्शन पर निर्भर होता है। पिछले कुछ ओलंपिक में हमारी महिला खिलाडिय़ों ने बेहतर प्रदर्शन किया है चाहे वो पीवी सिंधू हों, मीराबाई चनू हों, लोवलिना हों या मनु भाकर। निश्चित तौर पर उन्होंने ध्यान खींचा है।’
पिछले 24 वर्षों में भारत ने ओलंपिक में जो 26 मेडल जीते हैं, उनमें से 10 महिला खिलाडिय़ों ने जीते हैं।
भारत में स्पोर्ट्स इंडस्ट्री का ख़र्च 1।9 अरब डॉलर पहुंचा
ग्रुप एम की ओर से जारी ‘इंडिया स्पोर्ट्स स्पॉन्सरशिप रिपोर्ट’ के अनुसार, अब अधिक महिलाएं खेल की दुनिया में आ रही हैं और उन्होंने कई धारणाओं को तोड़ा है।
इसमें कहा गया है कि महिला केंद्रित टूर्नामेंट ने खेल में महिला खिलाडिय़ों की संख्या को बढ़ाया है। इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि महज आठ सालों में, भारत में स्पोर्ट्स इंडस्ट्री पर ख़र्च 2016 के 94.1 करोड़ डॉलर से बढक़र 2023 में 1.9 अरब डॉलर हो चुका है।
हालांकि, यहां ये बात गौर करने वाली है कि इनमें से 87 प्रतिशत धन क्रिकेट में जाता है। ये देश का सबसे लोकप्रिय खेल है। इसका बड़ा हिस्सा आईपीएल का है। इसलिए कई लोग ये मानते हैं कि हमें स्पॉन्सरशिप से ऊपर देखने की ज़रूरत है।
एथलेटिक्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व ओलंपियन अदिल सुमरीवाला कहते हैं, ‘स्पॉन्सरशिप बहुत ज़्यादा प्रभावशाली नहीं है। हमें ज़्यादा निवेश की ज़रूरत है।’
वो तर्क देते हैं कि ज़्यादातर प्राइवेट फ़ंडर वापसी की उम्मीद में पैसे लगाते हैं। उनका कहना है कि ज़मीनी स्तर पर स्पोर्ट्स फ़ेडरेशनों के सुधार पर पैसे खर्च किये जाने चाहिए ताकि एक पूरा सिस्टम- कोच, मैनेजर, डॉक्टर, स्पोर्ट्स साइंटिस्ट, फिजिय़ो यहां तक कि वॉलंटियर्स का तैयार हो सके।
वो कहते हैं, ‘स्पॉन्सरिंग की तरह नहीं बल्कि 5-10 साल का लंबा सहयोग होना चाहिए जैसा कि ओडिशा ने हॉकी में इंवेस्ट करने की शुरुआत की।’
ये रुख़ धीरे-धीरे बदल रहा है। राष्ट्रीय खेल नीति के नए मसौदे भी प्रस्तावित क़दम हैं जैसे कि एक खिलाड़ी को गोद लें, एक जि़ले के खेल प्रोग्राम को गेद लें, एक वेन्यू को गोद लें।
सौरभ दुग्गल कहते हैं, ‘ये कहावत है -रेंगिए, चलिए और फिर दौडि़ए। हमने अभी चलना सीखा है, हमें बहुत कुछ करना है ताकि दौड़ सकें।’
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)
-अभिनव गोयल
उत्तर पश्चिमी दिल्ली के मंगोलपुरी में बस स्टैंड के पास बने मोहल्ला क्लीनिक के अंदर और बाहर दर्जनों मरीज़ अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं।
हर पांच-दस मिनट में मरीज़ हाथों में दवा लिए बाहर भी आ रहे हैं।
80 साल की विद्या देवी यहाँ स्किन से जुड़ी दिक़्क़तों के कारण आई हैं।
एक प्लास्टिक में कटी-फटी पर्चियों को अलग करते हुए वह कहती हैं, ‘मैं ज़्यादा चल नहीं पाती, इसलिए अस्पताल जाना मुश्किल होता है। 10 रुपए में रिक्शे से मोहल्ला क्लीनिक आ जाती हूँ।’
यहाँ आने वाले ज़्यादातर मरीज़ मंगोलपुरी के स्थानीय निवासी हैं। इंतज़ार कर रहे मरीजों का कहना है कि बीमार पडऩे पर वो सबसे पहले नजदीकी मोहल्ला क्लीनिक का ही रुख़ करते हैं।
पोर्टा केबिन में चल रहे इस मोहल्ला क्लीनिक से स्थानीय लोग काफ़ी ख़ुश नजऱ आते हैं। लेकिन क्या दिल्ली में चल रहे दूसरे मोहल्ला क्लीनिक का भी ऐसा ही हाल है? क्या वहां भी समय से दवाएं मिल रही हैं?
क्या मोहल्ला क्लीनिकों की स्वास्थ्य सेवाओं से दिल्ली के लोग आम आदमी पार्टी के कऱीब हुए हैं?
मोहल्ला क्लीनिक के हाल?
इन्हीं सब सवालों की पड़ताल करने सबसे पहले हम पूर्वी दिल्ली के लक्ष्मीनगर पहुँचे। यहाँ कई सालों से सीपीए बिल्डिंग के ग्राउंड फ्लोर पर एक मोहल्ला क्लीनिक चल रहा है।
सुबह आठ से दोपहर दो बजे तक चलने वाले इस मोहल्ला क्लीनिक में दवाएं, डॉक्टर और रिसेप्शन पर सहायक मौजूद थे।
यहां हमारी मुलाक़ात कंचन से हुई। वह लक्ष्मी नगर विधानसभा की वोटर हैं और घरों में झाड़ू पोछा लगाने का काम करती हैं।
वह कहती हैं, ‘प्राइवेट अस्पताल में बहुत पैसे लग जाते हैं। यहां मुफ़्त में दवा मिल जाती है। मुझे बुखार और कमज़ोरी है, जिसकी दवा लेने मैं यहां आई थी। डॉक्टर ने तीन दिन की दवा दी है। यहां की दवा से मैं ठीक हो जाती हूं।’
विधानसभा चुनावों में मोहल्ला क्लीनिक की भूमिका पर कंचन बोलने से बचती हैं। वे कहती हैं, ‘जो हमारे जैसे लोगों को फ़ायदा देगा, उन्हें फ़ायदा मिलना चाहिए।’
ऐसी ही बात बिहार के मूल निवासी अजय कुमार कहते हैं। उनका कहना है कि वे 1994 से दिल्ली में रह रहे हैं।
अजय कहते हैं, ‘चुनावों में मोहल्ला क्लीनिक का बड़ा असर दिखाई देगा। जो पार्टी दवा, शिक्षा, बिजली दे रही है, उसके बारे में हम क्यों नहीं सोचेंगे?’
वहीं लक्ष्मीनगर की ही रहने वालीं विनेश जब यहाँ आईं तो उन्हें डॉक्टर ने अस्पताल में दिखाने की सलाह दी। इसके बाद हम उत्तर पश्चिम दिल्ली की किराड़ी विधानसभा पहुंचे। 2015 से यहां आम आदमी पार्टी जीत रही है। इस विधानसभा में 11 मोहल्ला क्लीनिक हैं।
निठारी गांव में सडक़ पर बने पोर्टा केबिन में चल रहा महोल्ला क्लीनिक ख़ाली पड़ा है। मरीज़ों के नाम पर यहाँ एक महिला पर्चा बनवा रही हैं।
किराड़ी की स्थानीय निवासी पंपा देवी अपने लडक़े के लिए दवा लेने आई हैं। वह कहती हैं, ‘बच्चे का पैर छिल गया था। डॉक्टर ने एक ट्यूब और कुछ गोलियां दी हैं। अस्पताल में पैसे लगते हैं, यहां मुफ़्त में इलाज हो जाता है।’
वहीं इस क्लीनिक पर पहली बार पहुँचे स्थानीय निवासी अमित कुमार गौतम नाराज़ नजर आते हैं। वह कहते हैं, ‘अस्पताल अच्छे हैं, यहाँ छोटी-मोटी दवा ही मिल पाती है। जो सुविधाएं होनी चाहिए, वे नहीं हैं।’
मोहल्ला क्लीनिक पर ताला
निठारी के बाद हम लोग किराड़ी विधानसभा की इंद्र एन्क्लेव में बने मोहल्ला क्लीनिक पहुँचे।
यहां डोरी से बंधी एक व्हीलचेयर खड़ी है और मोहल्ला क्लीनिक पर ताला लटका लगा हुआ है। क्लीनिक का समय बोर्ड पर सुबह आठ बजे से दोपहर दो बजे तक लिखा हुआ है।
बिना किसी नोटिस के यह मोहल्ला क्लीनिक बंद पड़ा था। क्लीनिक के सामने दुकान चलाने वाले मोहम्मद इकरार कहते हैं, इसे आज (सोमवार) खुलना चाहिए था लेकिन बंद पड़ा है।
इकरार बताते हैं, ‘आम तौर पर इस क्लीनिक पर बहुत भीड़ रहती है। बाहर तक लाइन लग जाती है, लेकिन बीच बीच में ये बंद भी रहता है।’
किराड़ी विधानसभा में बंद पड़े क्लीनिक को लेकर स्थानीय निवासी इकरार ने क्या कहा
वहीं पड़ोस के ही रहने वाले एक अन्य व्यक्ति ने अपना नाम ना ज़ाहिर करते हुए कहा, ‘क्लीनिक का फ़ायदा तो है, लेकिन इसे अच्छे से नहीं चलाया जा रहा है। अपनी मजऱ्ी से लोग इसे बीच-बीच में बंद कर देते हैं।’
क्लीनिक बंद क्यों हैं? यह सवाल जानने के लिए बीबीसी ने उत्तर पश्चिम दिल्ली की चीफ मेडिकल ऑफिसर मीनाक्षी हेम्ब्रम से कई बार संपर्क करने की कोशिश की लेकिन बात नहीं हो पाई।
इसके बाद हम कुछ ही दूरी पर शीश महल इलाके में बने मोहल्ला क्लीनिक पहुंचे। संकरी गली में बने एक जर्जर मकान में यह क्लीनिक चल रहा है।
क्लीनिक के सामने खाली पड़े प्लॉट में गंदगी का अंबार लगा है, जहां किसी भी व्यक्ति के लिए खड़ा होना मुश्किल है।
ऐसी ही शिकायत मंगोलपुरी में बने एक मोहल्ला क्लीनिक पहुंचे सुरेश सिंह भी करते हैं।
वह कहते हैं, ‘आप देखिए क्लीनिक के अंदर बैठने की जगह नहीं है। बाहर हर तरफ गंदगी फैली हुई है। ऐसे में मरीज़ कहां बैठेगा? मैं यहां कई साल से आ रहा हूं। जुकाम और बुखार की दवा छोडक़र और कुछ यहां नहीं मिलता।’
वहीं 80 साल की विद्या देवी सुरेश सिंह की बात से इत्तेफाक नहीं रखतीं। वह कहती हैं, ‘मुझे यहाँ सब दवाई मिलती है। कभी-कभी तो बड़े अस्पताल में भी दवा नहीं मिलती, ये तो फिर मोहल्ला क्लीनिक है।’
राजनीतिक फ़ायदा?
दिल्ली में आम आदमी पार्टी मोहल्ला क्लीनिक को अपनी कामयाबी की मिसाल के तौर पर पेश करती है।
चुनावी भाषणों में अरविंद केजरीवाल बार-बार ये बात कह रहे हैं कि अगर दिल्ली में बीजेपी की सरकार आई तो वे मोहल्ला क्लीनिक बंद कर देंगे। हालांकि बीजेपी ने इस तरह का कोई दावा नहीं किया है।
पिछले 41 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे विनीत वाही का मानना है कि दिल्ली चुनावों में आम आदमी पार्टी अपनी दूसरी योजनाओं की तरह मोहल्ला क्लीनिक का जोर-शोर से प्रचार नहीं कर रही है।
विनीत कहते हैं, ‘मोहल्ला क्लीनिक बहुत अच्छा कॉन्सेप्ट है, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ इसकी व्यवस्था चरमराती गई। अगर मोहल्ला क्लीनिक अच्छा काम कर रहे होते, तो इसकी गूंज चुनाव प्रचार में सुनाई देती।’
हालांकि वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री इस बात से सहमत नजर नहीं आते।
वह कहते हैं, ‘प्रचार किस विधानसभा में किया जा रहा है, उसे देखना ज़रूरी है। अगर नई दिल्ली में चुनाव प्रचार होगा तो वहां उस तरह से मोहल्ला क्लीनिक का जि़क्र नहीं होगा, जैसा जि़क्र बुराड़ी या नजफ़ग़ढ़ विधानसभा क्षेत्र में होगा।’
अत्री कहते हैं, ‘यही वजह है कि अरविंद केजरीवाल अपनी रैलियों में अलग-अलग जगह ये डर भी दिखा रहे हैं कि अगर बीजेपी की सरकार आई तो मोहल्ला क्लीनिक बंद कर देगी।’
दूसरी तरफ़ वाही का कहना है, ‘ये कोई गारंटी नहीं है कि कोई वोटर अगर मोहल्ला क्लीनिक से इलाज करवा रहा है तो वो आम आदमी पार्टी को ही वोट करेगा। आज का वोटर बहुत समझदार है, वह हर पार्टी से फ़ायदा लेता है लेकिन वोट बहुत सोच समझकर करता है।’
मोहल्ला क्लीनिक कितने कारगर
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ने साल 2015 में पहली बार मोहल्ला क्लीनिक की शुरुआत की थी।
केजरीवाल सरकार का लक्ष्य राजधानी में एक हज़ार मोहल्ला क्लीनिक बनाने का था।
अगले नौ महीनों में दिल्ली सरकार ने 11 जि़लों में 100 मोहल्ला क्लीनिक शुरू कर दिए। सरकार का मक़सद राजधानी में एक हज़ार ऐसे क्लीनिक बनाना है। इस टारगेट को फि़लहाल पूरा नहीं किया जा सका है। यहाँ मरीज़ मुफ़्त में इलाज करवा सकते हैं।
स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक़ मोहल्ला क्लीनिक में 212 तरह के लैब टेस्ट और 100 से ज्यादा दवाएं मुफ़्त में दी जाती हैं।
दिल्ली के स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक़ राजधानी में 518 मोहल्ला क्लीनिक हैं, जिसमें से ज़्यादातर सुबह 8 बजे से लेकर दोपहर दो बजे तक खुले रहते हैं, वहीं 25 ऐसे क्लीनिक भी हैं, जो शाम के वक़्त खुलते हैं।
विभाग के मुताबिक हर साल एक करोड़ से ज़्यादा मरीज़ मोहल्ला क्लीनिक में इलाज के लिए आते हैं। आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2020-21 में कऱीब एक करोड़ 50 लाख मरीज़ ओपीडी के लिए आए, वहीं इस दौरान कऱीब पाँच लाख लैब टेस्ट किए गए।
स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक़ आम आदमी मोहल्ला क्लीनिक प्रोजेक्ट को साल 2018 में 93 करोड़, 2019 में 100 करोड़, 2020 में 150 करोड़ और साल 2021 में 345 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे।
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर प्राचीन राजेशराव का मानना है पूरे देश को अच्छे प्राइमरी हेल्थ सिस्टम की ज़रूरत है।
राजेशराव कहते हैं, ‘मोहल्ला क्लीनिक के नाम से दिल्ली में एक बड़ा नेटवर्क स्थापित हुआ है। जनता को प्राइमरी हेल्थ केयर मिल रही है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि लोकल स्तर पर ही बीमारियों का इलाज हो पाता है और बड़े अस्पतालों पर बोझ कम पड़ता है।’
वह कहते हैं, ‘सुधार की गुंजाइश हमेशा होती है लेकिन आइडिया के तौर पर इस तरह की स्वास्थ्य सुविधाएं किसी भी समाज के लिए बेहतर हैं। इनकी मदद से नई बीमारियों को समय से पकड़ा जा सकता है।’
राजेशराव कहते हैं, ‘मोहल्ला क्लीनिक की जगह अगर दिल्ली सरकार दस बड़े अस्पताल खड़े कर देती तो मैं उसे अच्छा क़दम नहीं मानता। ये बात ज़रूर है कि मोहल्ला क्लीनिक की संख्या और वहां काम करने वाले डॉक्टरों को बढ़ाना चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
2025 का बजट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल का पहला पूर्ण बजट है इसलिए इससे लोगों को काफी उम्मीद है। दिल्ली और बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं इसके मद्देनजर भी दिल्ली और बिहार के निवासियों को बजट से खास आशा है। हाल में केंद्र सरकार ने काफी विलंब से कभी हां कभी ना करते हुए केंद्रीय कर्मचारियों को खुश करने के लिए आठवें वेतन आयोग की अचानक घोषणा की है। दिल्ली में केंद्र सरकार का मुख्यालय होने की वजह से बहुत से सरकारी कर्मचारी हैं। ऐसे में दिल्ली के अन्य मतदाता भी सरकारी कर्मचारियों की तरह बजट से लाभ की अपेक्षा कर रहे हैं।
सामान्य धारणा तो यही है कि चुनाव के पहले केंद्र और राज्य सरकारों का बजट ज्यादा आकर्षक और लोकलुभावन बनता है और चुनाव जीतने के बाद बजट में कर उगाही से राजस्व बढ़ाना ही अधिकांश सरकारों का प्रमुख ध्येय बन जाता है और जनता का ध्यान नहीं रखा जाता। सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था वही है जिसमें सरकारों द्वारा हर बजट में आम जनता के कल्याण की नीतियां बनें । दुर्भाग्य से केंद्र सरकार कॉरपोरेट जगत के प्रभाव और अपने वोट बैंक और विचारधारा को ध्यान में रखकर बजट बनाती हैं और उसमें आम जनता और प्रबुद्ध लोगों की सलाह की अनदेखी होती है। इस लेख में कुछ ऐसे ही सुझाव हैं जो बहुत से अनुभवी साथियों और प्रबुद्ध जनों से चर्चा के बाद निकले हैं।
1. सरकार पिछले कुछ साल से छूट रहित टैक्स के नए रिजीम को आकर्षक बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही। इसके लिए उसमें होम लोन आदि की कुछ बहुत जरुरी छूट दी जानी चाहिए । दूसरे नए टैक्स रेजीम को बाय डिफॉल्ट जनता पर नहीं थोपना चाहिए।
2. कर निर्धारण और अपील की फैसलेस प्रणाली में करदाताओं को काफी समस्या आ रही है। टैक्स रेजीम की तरह यह विकल्प होना चाहिए कि करदाता अपना कर निर्धारण और अपील फेसलेस करना चाहता है या सीधी सुनवाई से। एक तरफ सरकार जन अदालत में खुली सुनवाई को बढ़ावा देती है लेकिन आयकरदाता सीधी सुनवाई के अधिकार से वंचित हैं जो उचित नहीं है।
3. कर मुक्त आय की सीमा में बढ़ोतरी डी ए की तरह महंगाई से लिंक होनी चाहिए । यह तार्किक और वैज्ञानिक तरीका है जिसे हर साल अपनाया जाना चाहिए।
4. सरकार अपनी जन कल्याण की स्वास्थ्य सेवा लाभ जैसी लाभकारी योजनाओं से आयकरदाताओं को बाहर रखती है।करदाताओं को अच्छी योजनाओं से बाहर रखने से आयकरदाताओं को कर देना बोझ लगता है। उन्हें यह महसूस होता है कि यदि वे कर नहीं देंगे तो इन योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं। इससे करोड़ों की संख्या में आयकरदाता कर चुकाने से बचते हैं। यह लाभ सबको मिलना चाहिए।
5.व्यक्तिगत कर की अधिकतम दर कॉर्पोरेट कर से अधिक है ,यह भी व्यक्तिगत करदाताओं को खलता है क्योंकि वे कंपनी बनाने में सक्षम नहीं हैं।
6. हमारे यहां करदाताओं के लिए स्वास्थ्य की सोशल सिक्योरिटी नहीं है उल्टे उन्हें अपने और अपने परिवार के मेडिकल इंश्योरेंस पर भी जी एस टी का भुगतान करना पड़ता है जो करदाताओं के जले पर नमक छिडक़ने जैसा है।
7.आम जनता को मुफ्त राशन के बजाय यदि रोजगार के अवसर देंगे तभी देश प्रगति करेगा। इसके लिए मनरेगा के कार्यक्षेत्र में विस्तार होना चाहिए। ग्राम पंचायत के माध्यम से जल संरक्षण और बागवानी आदि के निजी कार्यों में भी रोजगार सृजन की इस योजना का उपयोग होना चाहिए।
8. प्राकृतिक और जैविक खेती स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बहुत जरूरी है। जैविक किसानों को रासायनिक खाद पर मिलने वाली सब्सिडी की एवज में जैविक सब्सिडी मिलनी चाहिए ।
9. पेंशनर्स के लिए टैक्स में राहत मिलनी चाहिए। साठ से सत्तर साल आयु वर्ग वालो को भी स्वास्थ्य लाभ मिलना चाहिए।
-दिनेश उप्रेती
साल 2024 में आखिरी के दो-तीन महीनों में भारतीय शेयर बाजारों में उठापटक शुरू हो गई थी।
26 सितंबर 2024 को सेंसेक्स 85,836 की ऊँचाई पर था और अब हाल ये है कि टूटते-टूटते ये ऊँचाई 75 हजार के आंकड़े के आस-पास पहुँच गया है।
नए साल में दलाल स्ट्रीट पर मंदडिय़ों का कब्ज़ा सा हो गया लगता है। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक यानी एफपीआई का शेयर बेचकर निकलने का सिलसिला जारी है।
जनवरी में अभी तक एफपीआई ने 69 हज़ार करोड़ रुपये की बिकवाली की, हालाँकि घरेलू संस्थागत निवेशकों (म्यूचुअल फंड्स) ने इसी दौरान 67 हजार करोड़ रुपये की खरीदारी कर बाजार को काफी सहारा दिया।
किन शेयरों में है बिकवाली
हालाँकि बाजार में चौतरफा बिकवाली है, लेकिन सबसे ज़्यादा गिरावट छोटे और मझौले शेयरों (मिडकैप और स्मॉलकैप) में है।
सोमवार को कारोबारी सत्र के दौरान बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का मिडकैप इंडेक्स 3 फीसदी टूट गया, जबकि स्मॉलकैप इंडेक्स में 4 फीसदी की गिरावट आ गई।
बाजार अभी दो अहम घटनाओं पर टिकटिकी लगाए हुए है। पहला, 29 जनवरी को अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिज़र्व की बैठक में ब्याज दरों को लेकर क्या फ़ैसला होता है, और दूसरा भारत का केंद्रीय बजट जो एक फऱवरी को संसद में पेश होगा।
अमेरिका में फेडरल रिज़र्व ने अगर ब्याज दरों में बढ़ोतरी की तो दुनियाभर के बाज़ारों की मुश्किलें बढऩी तय हैं, वैसे भी विदेशी निवेशकों ने भारत समेत कई उभरते बाज़ारों से कन्नी काट ली है और इस सूरत में वो अधिक और सुरक्षित रिटर्न की चाह में अमेरिका का रुख़ करने में देरी नहीं करेंगे।
हालाँकि डीआर चोकसी फिनसर्व के मैनेजिंग डायरेक्टर देवेन चोकसी का मानना है कि अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद ये संभावना बहुत कम है कि फेड रिज़र्व ब्याज दरों में इजाफ़ा करेगा। देवेन ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘राष्ट्रपति ट्रंप का जो रुख़ रहा है उसके हिसाब से वो नहीं चाहेंगे कि फेडरल रिज़र्व ब्याज दरें बढ़ाए।’
क्यों टूट रहे बाजार
बाजार विश्लेषक अंबरीश बालिगा बाजार के मौजूदा हालात की कई वजह बताते हैं।
अंबरीश कहते हैं, ‘पिछले कुछ समय से भारत में आर्थिक स्थितियां बदली हैं। निजी एजेंसियों ने ही नहीं, भारत सरकार और रिजर्व बैंक ने जीडीपी ग्रोथ अनुमान घटाए हैं। खाद्य महंगाई दर अब भी काफी अधिक है। कंपनियों के जो तिमाही नतीजे आ रहे हैं, वो भी अधिकतर निराश करने वाले हैं।’
देवेन चोकसी बाज़ार के इस निगेटिव सेंटिमेंट के लिए बाजार नियामक संस्था सेबी के वायदा बाज़ार से जुड़े नए दिशा निर्देश को भी जि़म्मेदार बताते हैं। देवेन ने कहा, ‘सेबी ने हाल ही में फ्यूचर एंड ऑप्शन ट्रेडिंग के लिए न्यूनतम कॉन्ट्रैक्ट साइज़ को काफ़ी बढ़ा दिया है और इसे 15 लाख रुपये कर दिया है।’
देवेन कहते हैं, ‘इसके पीछे सेबी की मंशा रिटेल निवेशकों की एफएंडओ में बेतहाशा गतिविधि पर लगाम लगाना है। कॉन्ट्रैक्ट साइज बढ़ाकर सेबी बाजार में स्थायित्व लाने की कोशिश कर रहा है।’
सेबी ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें दावा किया गया था कि वित्तीय वर्ष 2022 से वित्तीय वर्ष 2024 तक तीन साल में एक करोड़ से अधिक ट्रेडर्स ने एफ़एंडओ में नुकसान उठाया। अगर प्रति ट्रेडर्स नुकसान की बात करें तो ये औसतन दो लाख रुपये रहा।
बजट से उम्मीदें और बाजार की चाल
तो क्या एक फरवरी को पेश होने वाले बजट को लेकर भी क्या बाजार अपनी दिशा बदल रहा है? अंबरीश बालिगा इससे सहमत नहीं दिखते।
उनका कहना है, ‘वैसे भी पिछले 8-10 साल से बजट नॉन इवेंट बन गया है। इसमें हुई घोषणाओं का असर एक-दो दिनों तक ही रहता है। पॉलिसी से जुड़ी कई घोषणाएं सरकार समय-समय पर करती रहती है और उसके लिए बजट का इंतजार नहीं करती। इसके अलावा जीएसटी दरों का फैसला भी समय-समय पर होता ही रहता है।’
अंबरीश कहते हैं कि कैपिटल गेन्स टैक्स के मामले में सरकार पिछले बजट में ही अहम फ़ैसला कर चुकी है, ऐसे में इसमें और बदलाव होने की गुंजाइश नहीं है।
अंबरीश ने कहा, ‘रेलवे और इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में बजट 8 से 10 फीसदी तक बढ़ सकता है, लेकिन समस्या है इन योजनाओं को लागू करने की। क्रियान्वयन तेज़ हो इसके प्रयास होने चाहिए।’
देवेन चोकसी कहते हैं, ‘बजट में बाजार के लिए कुछ निगेटिव होगा, ऐसा लगता नहीं है।"
क्या निवेशकों में डर है?
पिछले साल यानी 2024 भारतीय शेयर बाजारों के लिए इसलिए भी खास रहा कि रिटेल निवेशकों ने अपनी भागीदारी बढ़ाई। सिस्टेमेटिक इनवेस्टमेंट प्लान यानी सिप के जरिये बाजार में जमकर पैसा आया और शेयरों के भाव खूब बढ़े।
अंबरीश बालिगा कहते हैं, ‘जब फंड मैनेजर्स के पास इतनी बड़ी रकम आई तो वो कैश तो अपने पास रख नहीं सकते थे, लिहाजा उन्होंने शेयर खरीदे और कह सकते हैं कि शेयरों की वैल्यू बहुत महंगी हो गई।’
तो क्या इस गिरावट से रिटेल निवेशक घबरा जाएंगे या बाज़ार से हट जाएंगे? इस सवाल पर अंबरीश बालिगा कहते हैं, ‘बाजार में विदेशी संस्थागत निवेशक बेचकर निकल रहे हैं। रिटेल निवेशकों की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन असलियत ये है कि पिछले चार सालों में इनमें से अधिकतर निवेशक पहली बार बाजार का ये रूप (लगातार गिरावट) देख रहे हैं।’
अंबरीश का कहना है कि छोटे निवेशक घबरा गए हैं या अपना निवेश रोक रहे हैं, ये तो आधिकारिक तौर पर जनवरी महीने के आंकड़ों से पता चल पाएगा, लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ समय से नए निवेशक बाज़ार में आए हैं, उनमें घबराहट होना स्वाभाविक है। (bbc.com/hindi)
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
हाल के सालों में खासतौर पर विज्ञान जगत में यह चिंता बढ़ी है कि आम जनता में वैज्ञानिकों पर और वैज्ञानिक शोधों पर भरोसा घट रहा है। एक ताजा अध्ययन से पता चला है कि यह पूरी तरह से सही नहीं है और अब भी आमतौर पर वैज्ञानिकों पर लोगों को ठीक-ठाक भरोसा है। हालांकि अलग-अलग देशों में यह कम या ज्यादा है।
नेचर पत्रिका में एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जो 68 देशों में किए गए एक वैश्विक सर्वेक्षण पर आधारित है। यह शोध ईटीएच ज्यूरिख की विक्टोरिया कोलोग्ना और ज्यूरिख यूनिवर्सिटी के नील्स जी मेडे के नेतृत्व में 241 शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने किया है।
इस सर्वेक्षण में 71,922 लोगों से बात की गई है। इस सर्वेक्षण से यह पता चला कि अधिकांश देशों में ज्यादातर लोग वैज्ञानिकों पर विश्वास करते हैं। लोग यह भी मानते हैं कि वैज्ञानिकों को समाज और नीति निर्माण में ज्यादा हिस्सेदारी निभानी चाहिए।
अध्ययन के अनुसार, सार्वजनिक तौर पर लोगों का वैज्ञानिकों पर विश्वास अब भी ज्यादा है। यह अध्ययन विज्ञान, समाज की अपेक्षाओं और सार्वजनिक शोध प्राथमिकताओं पर विश्वास को लेकर महामारी के बाद सबसे बड़ा अध्ययन है।
सर्वे में औसतन लोगों ने 5 में से 3।62 अंक दिए। कोई भी देश ऐसा नहीं था जहां वैज्ञानिकों पर भरोसा बहुत कम हो। लोग वैज्ञानिकों की काबिलियत पर सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं। 78 फीसदी लोगों का मानना है कि वैज्ञानिक महत्वपूर्ण रिसर्च करने में सक्षम हैं। 57 फीसदी लोग मानते हैं कि वैज्ञानिक ईमानदार हैं, जबकि 56 फीसदी ने कहा कि वैज्ञानिक समाज की भलाई के बारे में सोचते हैं। हालांकि, सिर्फ 42 फीसदी लोगों को लगता है कि वैज्ञानिक दूसरों की बातों पर ध्यान देते हैं।
अलग-अलग देशों में क्या स्थिति है?
सर्वे में यह भी देखा गया कि अलग-अलग देशों में वैज्ञानिकों पर भरोसा अलग-अलग है। पहले हुए अध्ययन कहते थे कि लैटिन अमेरिका और अफ्रीकी देशों में वैज्ञानिकों पर भरोसा कम है। लेकिन इस बार ऐसा कोई पैटर्न नहीं दिखा। हालांकि, रूस और कई पूर्व सोवियत देशों जैसे कजाकिस्तान में वैज्ञानिकों पर भरोसा अपेक्षाकृत कम पाया गया।
एक-दूसरे का चक्कर काटते दिखे दो सितारे
डेनमार्क वैज्ञानिक ईमानदारी और क्षमता में मजबूत विश्वास रखता है। फिनलैंड में विज्ञान में पारदर्शिता के कारण विश्वास बहुत ज्यादा है। स्वीडन में प्रमाण-आधारित नीति निर्माण की सराहना की जाती है, जबकि जर्मनी में लोगों का भरोसा इनोवेशन से जुड़ा है। कनाडा में वैज्ञानिकों को दयालु माना जाता है, जबकि ऑस्ट्रेलिया में वैज्ञानिक शोध में विश्वास सबसे ऊपर है।
इसके उलट, रूस में संस्थागत विज्ञान पर व्यापक अविश्वास है। कजाखस्तान में सोवियत काल के बाद का ऐतिहासिक संदेह विश्वास को प्रभावित करता है, जबकि बेलारूस में पारदर्शिता की कमी के कारण विश्वास कम होता है। मिस्र में गलत सूचना विज्ञान में विश्वास को बाधित करती है, और पाकिस्तान में कम साक्षरता स्तर वैज्ञानिक संस्थाओं पर विश्वास को प्रभावित करते हैं।
भारत इस अध्ययन के अनुसार ‘मध्यम रूप से उच्च भरोसे’ की श्रेणी में आता है। हालांकि यह वैज्ञानिकों पर सबसे ज्यादा भरोसा करने वाले टॉप 10 देशों में शामिल नहीं है, लेकिन भारतीय आमतौर पर वैज्ञानिकों को सकारात्मक रूप से देखते हैं, खासकर उनकी काबिलियत और समाज कल्याण में योगदान के लिए। हालांकि, भारत में भरोसे का स्तर शिक्षा, आय, और शहरी या ग्रामीण क्षेत्रों जैसे कारकों के आधार पर भिन्न हो सकता है। गलत जानकारी और क्षेत्रीय भाषाओं में वैज्ञानिक संवाद की सीमित पहुंच जैसी चुनौतियां कुछ जनसमूहों के भरोसे को प्रभावित कर सकती हैं।
लोग क्या चाहते हैं?
सर्वे में यह भी देखा गया कि किस तरह के लोगों को वैज्ञानिकों पर ज्यादा भरोसा है। मसलन, महिलाओं और बुजुर्गों के बीच वैज्ञानिकों पर भरोसा पुरुषों और युवाओं से ज्यादा था। इसी तरह शहर में रहने वाले, साक्षर और अमीर लोगों ने वैज्ञानिकों पर ज्यादा भरोसा जताया।
ब्रिटेन में मिले डायनासोर के 16 करोड़ साल पुराने पदचिन्ह
सर्वे में पूछा गया कि लोग वैज्ञानिकों से क्या उम्मीद करते हैं। अधिकतर लोगों का मानना था कि वैज्ञानिकों को नीतियां बनाने में हिस्सा लेना चाहिए। हालांकि अगर लोगों को लगता है कि वैज्ञानिक उनकी समस्याओं और प्राथमिकताओं पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, तो उनका भरोसा कम हो जाता है।
वैज्ञानिकों पर भरोसा कुल मिलाकर अच्छा है, लेकिन हर जगह ऐसा नहीं है। भरोसे में कमी के कई कारण हो सकते हैं। पहले कुछ मामलों में वैज्ञानिकों ने अनैतिक तरीके से काम किया, जिससे कुछ समुदायों में विश्वास कम हुआ। इसके अलावा, गलत जानकारी, झूठी जानकारी, और ‘साइंस पॉपुलिज्म’ भी बड़ी चुनौतियां हैं। साइंस पॉपुलिज्म का मतलब है कि कुछ लोग वैज्ञानिकों को ‘जनता’ के विरोध में देखते हैं। वे मानते हैं कि वैज्ञानिक आम लोगों की तुलना में कम समझदार हैं। ये विचार वैज्ञानिकों की साख को नुकसान पहुंचा सकते हैं। (डॉयचेवैले)
-ध्रुव गुप्त
आज हमारी शादी की सालगिरह है। बच्चे कल शाम तैयारी में लगे ही थे कि अर्द्धांगिनी के शाश्वत कटु वचन सुनकर मेरे मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अगले ही दिन घर से भागकर सीधे हिमालय की किसी गुफा में अज्ञातवास का निश्चय करके सोया ही था कि सपने में एक तपस्वी प्रकट हुए। अधरों पर मुस्कान और आशीर्वाद में उठे हाथ। उन्हें देखकर मेरे हाथ स्वत: जुड़ गए।
अपनी व्यथा सुनाने के बाद मैंने कहा- संन्यास लेने का निश्चय किया है। मुझे शरण में ले लो, प्रभु ! दांपत्य की पीड़ा अब सही नहीं जाती।’
तपस्वी ने मुस्कुराकर मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा -‘तुम्हारी व्यथा मैं समझ सकता हूं, वत्स ! इस नश्वर संसार में वैवाहिक जीवन वस्तुत: एक महासमर ही है। न सिर्फ तुम पुरुषों के लिए, बल्कि स्त्रियों के लिए भी। ऐसा महासमर जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को अपनी स्वतंत्रता और उडऩे की अनंत इच्छाओं की आहुति देनी होती है। तुम्हारे इस बलिदान की पटकथा समाज ने पहले से लिख रखी है। तुम इस नाटक में अभिनेता मात्र हो। डरो नहीं। वैवाहिक जीवन में जो कुछ नष्ट होता है, वह असत्य, अनित्य, क्षणभंगुर है। शाश्वत केवल आत्मा है जो बार-बार वस्त्र बदलकर दांपत्य का सुख और दुख झेलने को इस धरा धाम पर अवतरित होती रहेगी। कभी स्त्री रूप में और कभी पुरुष रूप में। तुम्हारे वश में मात्र इतना है कि सुख और दुख, कलह और प्यार, शांति और अशांति, तानों और शब्दवाणों के बीच स्थितप्रज्ञ बनो। कठिन है, परंतु धीरे-धीरे स्वयं को नष्ट करने की प्रक्रिया में तुम्हें रस आने लगेगा।’
कुछ देर के लिए तपस्वी जी ने आंखें मूंद ली। संभवत: उन्हें अपने विगत दांपत्य की याद आई होगी। फिर उन्होंने बुझे स्वर में कहा- ‘संशय त्यागो और घर लौट जाओ ! जीवन में सुख, शांति, प्रेम और स्वतंत्रता ही सब कुछ नहीं है। इसी जीवन में हमें दुख, तनाव, अशांति, दासता, अवसाद, विडंबनाओं और मूर्खताओं के बारे में भी जान लेना चाहिए ! दुर्भाग्य से दांपत्य में किसी भी विधि से सामंजस्य नहीं बन सका तो मेरे पास आ जाना। साम्राज्य, ज्ञान, सत्ता या शांति के लिए पत्नियों का त्याग करने वाले असंख्य देवताओं, ऋषियों और राजपुरुषों के उदाहरण सामने है। मैं स्वयं भी उनमें से एक हूं।’
अभी नींद खुली तो देखा कि लंबी प्रतीक्षा के बाद बाहर मौसम की पहली बारिश हो रही है और मेरे भीतर पहली बार भय का नामोनिशान तक नहीं है। मेरे ज्ञानचक्षु खुल चुके हैं। मैंने सपने वाले तपस्वी को याद कर पहली बार बेगम को पुलिसिया स्टाइल में जोरदार सलाम ठोका और शादी की सालगिरह की बधाई दे डाली।
उनके होंठों पर मुस्कान देखकर मेरा यह निश्चय मजबूत हुआ है कि पत्नी रूपी संकट से अब और नहीं लडऩा। डरकर भागना भी नहीं। उसके आगे चुपचाप आत्मसमर्पण कर देने में ही दांपत्य का सुख है।
-गणेश कर
(शिकागो, अमेरिका)
(मूल शहर-दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़)
भारत सरकार ने गणतंत्र दिवस से एक दिन पहले पद्म पुरस्कारों का एलान किया था।
पद्म पुरस्कार 2025 की इस सूची में 7 पद्म विभूषण, 19 पद्म भूषण और 113 पद्म श्री पुरस्कार शामिल हैं।
पुरस्कार पाने वालों में एक नाम साध्वी ऋतंभरा का भी है। उन्हें सामाजिक कार्य के लिए पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
उन्हें सम्मान मिलने के बाद सोशल मीडिया पर इसे लेकर एक बहस शुरू हो गई है।
एक तरफ सरकार पर पद्म पुरस्कारों का राजनीतिकरण करने का आरोप लग रहा है। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग इस फैसले का स्वागत भी कर रहे हैं।
इस बीच साध्वी ऋतंभरा ने पद्म भूषण दिए जाने पर कहा है, ‘मुझे सबसे बड़ा पुरस्कार तभी मिल गया था जब 22 जनवरी को रामलला राम मंदिर में विराजे थे।’
किसने क्या कहा?
केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी ने कहा, ‘साध्वी ऋतंभरा जी को पद्म भूषण पुरस्कार घोषित होना हर्ष की बात है। राम जन्मभूमि आंदोलन से जुडक़र उन्होंने इस आंदोलन के माध्यम से देश में जागृति का कार्य किया।’
वहीं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने साध्वी ऋतंभरा को पद्म पुरस्कार दिए जाने पर सवाल उठाए हैं।
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘मोदी सरकार के कार्यकाल में पद्म पुरस्कार राजनीतिक तमाशा बन गए हैं।’
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक दयाशंकर मिश्रा ने एक्स पर लिखा, ‘बीजेपी प्रचारक साध्वी ऋतंभरा को पद्म भूषण संविधान के प्रति सरकार की सोच-समझ का स्पष्ट उदाहरण है।’
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने लिखा, ‘साध्वी ऋतंभरा को पद्म भूषण दिया गया है। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस में सक्रिय रूप से भाग लिया था और सुप्रीम कोर्ट ने इसे एक ‘आपराधिक कृत्य’ बताया है। इस घटना से पहले उन्होंने नफऱत से भरे भाषण दिए थे।’
पत्रकार विजैता सिंह ने लिखा, ‘साध्वी ऋतंभरा को ‘सामाजिक कार्य’ श्रेणी में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस में भाग लिया था और उन पर केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने एक आपराधिक मामले में आरोप भी लगाया था।’
कौन हैं साध्वी ऋतंभरा
ऋतंभरा पंजाब के गऱीब मंडी दौराहा गांव के एक परिवार में पैदा हुई जिन्हें निचली जाति का समझा जाता है।
मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ अपनी किताब ‘द कलर्स ऑफ़ वायलेंस’ में बताते हैं, ‘16 साल की उम्र में ऋतंभरा को हिंदू पुनरुत्थान के लिए काम कर रहे कई ‘संतों’ में से प्रमुख स्वामी परमानंद के प्रवचन सुनकर एक आत्मिक अनुभव हुआ।’
इसके बाद ही वो हरिद्वार के उनके आश्रम चली गईं और वहीं पर भाषण देने की कला विकसित की।
वो इतनी पारंगत हो गईं कि विश्व हिंदू परिषद ने उन्हें राम मंदिर आंदोलन के दौरान अपना प्रवक्ता बनाया।
सितंबर 1990 में गुजरात के सोमनाथ से राम मंदिर के लिए रथ यात्रा शुरू हुई। इसे एक महीने में 10,000 किलोमीटर का रास्ता तय कर अयोध्या पहुंचना था।
बीजेपी के अपने अनुमान के मुताबिक दस करोड़ से ज़्यादा लोगों ने रथ यात्रा के अलग-अलग हिस्सों में भाग लिया। इसी दौरान ऋतंभरा ने अपने नाम के साथ ‘साध्वी’ जोड़ लिया।
वृंदावन में साध्वी ऋतंभरा का वात्सल्यग्राम नाम का आश्रम है।
राम जन्मभूमि आंदोलन का प्रमुख चेहरा
1990 के दशक में राम जन्मभूमि आंदोलन में हिंदू औरतों ने बढ़ के हिस्सा लिया। इस आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा साध्वी ऋतंभरा भी थीं।
आंदोलन के भडक़ाऊ संदेश को उकेरते उनके भाषणों के ऑडियो टेप बनाकर एक-एक रुपए में बेचे जाते थे और बीजेपी-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं के घरों में बांटे जाते थे।
इनकी लोकप्रियता हिंदुओं में इतनी थी कि इतिहासकार तनिका सरकार अपनी किताब 'हिंदू वाइफ़, हिंदू नेशन' में लिखती हैं, ‘अयोध्या के पंडितों ने मंदिरों में अपने रोज़ाना तय पूजा-पाठ को स्थगित कर इनके ऑडियो कैसेट के भाषणों को बजाना शुरू कर दिया।’
बाबरी मस्जिद विध्वंस से एक साल पहले, 1991 में दिल्ली में लाखों लोगों की रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण को विश्व की कोई ताकत नहीं रोक सकती।’
छह दिसंबर 1992 को जब कारसेवक बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए थे, तब साध्वी ऋतंभरा, बीजेपी के शीर्ष नेताओं और कई साधु-संतों के साथ मंच पर थीं।
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी किताब ‘युद्ध में अयोध्या’ में उस दिन की आंखों देखी लिखी है।
उनके मुताबिक साध्वी ऋतंभरा कारसेवकों को संबोधित करते हुए कह रही थीं कि वो इस शुभ और पवित्र काम में पूरी तरह लगें।
उन पर विध्वंस के आपराधिक षड्यंत्र रचने और दंगा भडक़ाने का मुकदमा भी चला।
30 सितंबर 2020 को बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया था।
पद्म पुरस्कार किसे दिया जाता है?
पद्म पुरस्कार की शुरुआत साल 1954 में हुई थी। साल 1978, 1979 और 1993 से 1997 को छोडक़र ये पुरस्कार हर साल गणतंत्र दिवस पर घोषित किए जाते हैं।
ये पुरस्कार तीन श्रेणियों में दिए जाते हैं। असाधारण एवं विशिष्ट सेवा के लिए पद्म विभूषण दिया जाता है।
उच्च कोटि की विशिष्ट सेवा के लिए पद्म भूषण और विशिष्ट सेवा के लिए पद्मश्री पुरस्कार मिलता है।
भारत सरकार के मुताबिक इन पुरस्कारों को दिए जाने का मकसद किसी खास काम को मान्यता प्रदान करना है। ये पुरस्कार कला, साहित्य, शिक्षा, खेल-कूद, चिकित्सा, समाज सेवा, विज्ञान, सिविल सेवा, व्यापार समेत कई क्षेत्रों में विशिष्ट काम करने के लिए दिया जाता है।
सरकार के मुताबिक चयनित किए जाने वाले व्यक्ति की उपलब्धियों में लोक सेवा का तत्व होना चाहिए।
पद्म पुरस्कार समिति का गठन हर साल प्रधानमंत्री करते हैं। पद्म पुरस्कार समिति जिन लोगों को पुरस्कार देने की सिफारिश करती है उन्हें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के सामने रखा जाता है।
नाम का एलान होने के दो से तीन महीने के अंदर राष्ट्रपति भवन में पुरस्कार समारोह आयोजित किया जाता है। पुरस्कार में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर और मुहर से जारी किया गया एक प्रमाण पत्र और एक मेडल शामिल होता है। हर पुरस्कार विजेता के संबंध में संक्षिप्त ब्यौरे वाली एक स्मारिका भी समारोह के दिन जारी की जाती है।
पुरस्कार पाने वाले व्यक्ति को मेडल का एक रेप्लिका भी दिया जाता है, जिसे वे अपनी इच्छानुसार किसी भी कार्यक्रम में पहन सकते हैं। (bbc.com/hindi)
भारत सरकार के मुताबिक पद्म पुरस्कार कोई पदवी नहीं हैं और इसे निमंत्रण पत्रों, पोस्टरों, किताबों पर पुरस्कार विजेता के नाम के आगे या पीछे नहीं लिखा जा सकता है।
पुरस्कार विजेताओं को कोई नकद भत्ता और रेल या हवाई यात्रा में रियायत नहीं मिलती है। (बीबीसी)


