विचार/लेख
-सुमेधा पाल
वैसे तो भारत की राजधानी दिल्ली और सीरिया की राजधानी दमिश्क के बीच हज़ारों किलोमीटर की दूरी है। लेकिन, सीरिया के घटनाक्रम पर दिल्ली की नजऱ भी बनी हुई है।
सीरिया लंबे समय से भारत का सहयोगी रहा है और यहां के घटनाक्रम केवल मध्य पूर्व तक ही सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि ये अप्रत्याशित तरीकों से भारत को भी प्रभावित कर सकते हैं।
भारत और सीरिया के बीच संबंध दोस्ताना ही रहे हैं। सीरिया में बशर अल-असद शासन का अंत एक अहम घटनाक्रम है, जो न केवल भारत-सीरिया के रिश्तों को प्रभावित करेंगे बल्कि व्यापक रूप से देखें तो ये तेज़ी से दो प्रतिस्पर्धी ध्रुवों में बंटती दुनिया के लिए महत्वपूर्ण पल है।
सीरिया में इस्लामी विद्रोहियों ने रविवार को राष्ट्रपति बशर अल-असद को सत्ता से बाहर करने की घोषणा की। विद्रोहियों के दमिश्क पर नियंत्रण होने के बाद असद ने रूस में शरण ली है। इसके साथ ही देश में 13 साल के गृहयुद्ध का अंत हो गया।
भारत-सीरिया संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
असद का पतन और उसके बाद की अनिश्चितता इस क्षेत्र में भारत के राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए चिंता का कारण बन रही हैं।
भारत और सीरिया के बीच द्विपक्षीय संबंध पश्चिम एशिया में गुटनिरपेक्ष आंदोलन के समय से ही रहे हैं। दोनों देशों के बीच प्राचीन सभ्यताओं का भी मेल-मिलाप रहा है।
भारत और सीरिया के राष्ट्राध्यक्षों के बीच द्विपक्षीय दौरे की शुरुआत 1957 में हुई, जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वहां गए थे। उसी साल सीरिया के राष्ट्रपति शुक्री अल-कुएतली ने नई दिल्ली यात्रा की थी।
भले ही खाड़ी देशों की तरह सीरिया में भारत की एक बड़ी आबादी नहीं रह रही हो, लेकिन भारत ने हमेशा बशर अल-असद के शासन के साथ मजबूत संबंध बनाए रखे।
सीरिया में गृहयुद्ध की शुरुआत 2011 में हुई, लेकिन भारत के सीरिया में असद सरकार के साथ संबंध बरकरार रहे। भारत ने लगातार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अनुसार सीरिया के नेतृत्व में संघर्ष के समाधान का समर्थन किया है।
भारत ने सीरिया के गृह युद्ध के चरम के दौरान भी दमिश्क में अपना दूतावास बनाए रखा। अब जब गृह युद्ध ख़त्म हो गया है, तो भारत के सामने नई चुनौतियां आ गई हैं।
सीरिया:कश्मीर पर भारत का सहयोगी
असद परिवार (पहले हाफिज़़ अल-असद और बाद में बशर अल-असद के शासन में) हमेशा ही अहम मुद्दों ख़ास तौर पर कश्मीर के मामले में भारत का समर्थक रहा है।
जब कई इस्लामिक देश कश्मीर के मामले में पाकिस्तान के रुख़ के साथ खड़े थे, तब सीरिया उन चुनिंदा देशों में शामिल था, जो भारत के साथ था।
असद परिवार का धर्मनिरपेक्ष शासन भारत के अपने सिद्धांतों के साथ मेल खाता था, जिससे सहयोग के लिए एक मज़बूत आधार बना।
2019 में भारत ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया था, जिसे सीरियाई सरकार ने भारत का ‘आंतरिक मामला’ बताया था।
भारत भी ऐतिहासिक तौर पर गोलान हाइट्स पर सीरिया के दावे का समर्थन करता रहा है, जबकि इसराइल इसके खिलाफ रहा है।
बशर अल-असद का पतन सीरिया में आईएसआईए समेत अन्य चरमपंथी समूहों के उभार का कारण भी बन सकता है। जब इस्लामिक स्टेट की ताकत चरम पर थी, तो रूस और ईरान के समर्थन से सीरिया ने इसकी ताकत ख़त्म की थी।
बदले हालात में भारत के लिए इस्लामिक स्टेट जैसे गुट ख़तरा हैं।
मध्य पूर्व के विशेषज्ञ कबीऱ तनेजा (ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन) ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘भारत का दृष्टिकोण हमेशा यह रहा है कि भले ही सीरिया में घरेलू समस्याएँ हों लेकिन हमारे पास 'प्लान बी' होना चाहिए।’
‘हमें एक और लीबिया की स्थिति नहीं चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश, मुझे लगता है कि यही सीरिया की दिशा है, और यह वही ट्रेंड है, जिसे भारत अफग़़ानिस्तान में 2021 में देख चुका है।’
तनेजा ने यह भी कहा, ‘मुझे लगता है कि भारत अपने संबंध बनाए रखने की कोशिश करेगा। चाहे वह तालिबान का कब्ज़ा हो, या एचटीएस का दमिश्क पर कब्जा। ये आतंकवादी संगठन अंतत: सरकार चला रहे हैं।’
‘चिंता ये है कि अगर भारत एचटीएस से बात करना शुरू करता है, तो कल कश्मीर में आतंकवादी संगठन यह कह सकते हैं कि आप उनसे बात कर रहे हैं, तो हमसे क्यों नहीं? यह एक बहुत ही नाजुक संतुलन है, जिसे भारत को बनाए रखना होगा।’
आर्थिक साझेदारी
कूटनीति के अलावा, भारत-सीरिया संबंधों में आर्थिक सहयोग और व्यापार भी एक बड़ा आधार है।
भारत से सीरिया को निर्यात किए जाने वाले उत्पादों में कपड़े, मशीनरी, और दवाइयां शामिल हैं, जबकि वहां से आयात किए जाने वाले उत्पादों में कच्चे माल जैसे रॉक फॉस्फेट और कपास शामिल है।
भारत ने कई क्षेत्रों में सीरिया के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनमें पावर प्लांट के लिए 240 मिलियन अमेरिकी डॉलर का क्रेडिट, आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर, स्टील प्लांट आधुनिकीकरण, तेल क्षेत्र में सहयोग, चावल, दवाइयां और वस्त्रों के महत्वपूर्ण निर्यात शामिल हैं।
जुलाई 2023 में, तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री वी मुरलीधरन ने दमिश्क का एक महत्वपूर्ण मंत्री स्तरीय दौरा किया था। भारत ने सीरिया के तेल क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण निवेश किए हैं।
पहला 2004 में ओएनजीसी और आईपीआर इंटरनेशनल के बीच तेल और प्राकृतिक गैस की तलाश के लिए करार है।
दूसरा ओएनजीसी और चीन के सीएनपीसी द्वारा सीरिया में एक कनाडाई कंपनी में 37 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदने के लिए किया गया एक संयुक्त निवेश।
साल 2008 में, बशर अल-असद भारत के दौरे पर आए थे। जहां उन्होंने कृषि सहयोग और सीरिया के फॉस्फेट संसाधनों पर अध्ययन करने की योजनाओं को मंजूरी दी थी।
भारत ने सीरिया में एक आईटी सेंटर ऑफ एक्सीलेंस स्थापित करने का प्रस्ताव भी दिया था।
पश्चिम एशिया मामलों के जानकार डॉ। अशुतोष सिंह कहते हैं, ‘पूरा पश्चिम एशिया ज़्यादातर महाशक्तियों के लिए ‘गार्डन किचन’ है। भारत हमेशा गुटनिरपेक्ष आंदोलन और उपनिवेशी इतिहास के कारण, पश्चिम एशिया के अधिकांश देशों के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखता है।’
‘भारत के लिहाज से देखें, तो सीरिया का घटनाक्रम भारत को कई तरह से प्रभावित कर सकता है। इसके दूरगामी प्रभाव होंगे। आप जो सीरिया में कदम उठाएंगे, उनसे आपके ईरान के साथ रिश्ते प्रभावित होंगे।’
‘और फिर ये इसराइल के साथ आपके रिश्ते प्रभावित करेगा। लेकिन यहां सबसे ज़्यादा दिक्कत इसराइल की भूमिका को लेकर है, जो अब गोलान हाइट्स बफऱ ज़ोन में प्रवेश कर चुका है।’
संतुलन की चुनौती
बशर अल-असद सरकार का पतन सीरिया की विदेश नीति और उसके सहयोगियों में बदलाव की वजह बन सकता है।
सीरिया के ऐतिहासिक रूप से रूस और ईरान के साथ मजबूत संबंध रहे हैं, ये दोनों देश भारत के भी प्रमुख रणनीतिक साझेदार हैं।
असद सरकार के पतन के बाद भारत के मिडिल ईस्ट के साथ खाड़ी देशों, ईरान और इसराइल के साथ संबंध भी नए सिरे से बनते हुए प्रतीत हो सकते हैं।
सीरिया में हुआ मौजूदा बदलाव भारत के लिए इन संबंधों की पेचीदगी को साध पाने में परेशानियां पैदा कर सकता है।
9 दिसंबर, 2024 को, विदेश मंत्रालय ने एक आधिकारिक बयान जारी किया, जिसमें सीरिया की संप्रभुता को बनाए रखने के लिए सभी पक्षों को मिलकर काम करने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया।
इस बयान में कहा गया कि भारत सीरिया में हो रहे घटनाक्रमों के मद्देनजर स्थिति की निगरानी रख रहा है। (bbc.com/hindi)
भारत के अरबपति कारोबारी गौतम अदानी के मुद्दे पर संसद में चल रही खींचतान के बीच अब बीजेपी ने अमेरिकी अरबपति जॉर्ज सोरोस और कांग्रेस नेता सोनिया गांधी के बीच कथित संबंध का आरोप लगाया है।
सोमवार को बीजेपी के राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ‘फोरम फॉर डेमोक्रेटिक लीडर्स ऑफ़ एशिया पैसिफिक’ से कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी से संबंध होने के आरोप लगाए हैं।
बीजेपी का आरोप है कि इस फोरम में भारत विरोधी और पाकिस्तान के समर्थन की बातें हो रही हैं। बीजेपी ने आरोप लगाया है कि इस फोरम की फंडिंग जॉर्ज सोरस के फाउंडेशन से हो रही है। हालाँकि इन आरोपों का कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जैसे कई विपक्षी दलों ने बेबुनियाद कहकर खंडन किया है।
क्या है बीजेपी का आरोप
बीजेपी नेता सुधांशु त्रिवेदी इससे पहले राज्यसभा में भी आरोप लगा चुके हैं कि ओसीसीआरपी (ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट), जो कि एक फ्रेंच पब्लिकेशन है, उसने अपनी एक हालिया रिपोर्ट में कहा है कि इस प्रोजेक्ट को विदेशी फंडिंग है और इसका फोकस इंडिया पर भी है।
सुधांशु त्रिवेदी ने कहा, ‘इस रिपोर्ट को विदेशी फंडिंग के अलावा इसके संबंध जॉर्स सोरोस से भी हैं।’
उन्होंने सवाल किया कि बीते तीन साल से क्या ये एक संयोग रहा है कि जब भी भारत में संसद का सत्र चलता है तभी पेगासस रिपोर्ट, किसान आंदोलन, मणिपुर हिंसा और हिंडनबर्ग जैसी घटनाएं होती हैं।
सुधांशु त्रिवेदी ने दावा किया कि इसी सिलसिले में कोविड वैक्सिन पर भी रिपोर्ट छपती है और मौजूदा सत्र से पहले अमेरिकन अटॉर्नी की एक रिपोर्ट भारत के बिजनेस हाउस से बारे में आती है।
दरअसल, नवंबर महीने के आखिरी दिनों में भारतीय कारोबारी गौतम अदानी पर अमेरिका में अभियोग की रिपोर्ट सामने आई थी।
गौतम अदानी पर अपनी एक कंपनी को कॉन्ट्रैक्ट दिलाने के लिए 25 करोड़ डॉलर की रिश्वत देने और इस मामले को छिपाने का आरोप लगाया गया है।
इसके बाद से ही पर कांग्रेस पार्टी लगातार बीजेपी पर हमलावर है और इस मुद्दे को संसद में भी उठाने की कोशिश करती रही है। कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे पर जेपीसी की मांग भी कर चुकी है। सुधांशु त्रिवेदी ने राज्यसभा में सवाल खड़े किए कि यह सब जानबूझकर हो रहा है या अनजाने में।
इससे पहले, बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी और सोरोस फाउंडेशन में काम करने वाले लोगों के बीच संबंधों का आरोप लगाया था।
निशिकांत दुबे ने गुरुवार को इस मुद्दे को संसद में भी उठाया था और संसद के बाहर भी इस मुद्दे पर मीडिया में बयान दिया था।
हालांकि कांग्रेस नेता शशि थरूर ने निशिकांत दुबे के आरोप को संसदीय विशेषाधिकार के खिलाफ बताया है। शशि थरूर ने आरोप लगाया है कि संसद के नियमों के खिलाफ राहुल गांधी को बिना नोटिस दिए निशिकांत दुबे को बोलने की अनुमति दी गई।
सोरोस पहले भी रहे हैं बीजेपी के निशाने पर
वहीं बीजेपी सांसद किरेन रिजिजू का कहना है कि कुछ मुद्दों पर राजनीतिक चश्मे से बाहर आकर देखना चाहिए और सभी को मिलकर देश विरोधी ताक़तों से लडऩा चाहिए।
रिजिजू ने आरोप लगाया है, ‘जॉर्ज सोरोस फाउंडेशन के साथ कई ऐसी ताक़ते हैं जो भारत के खिलाफ काम करती हैं। ’
अमेरिकी अरबपति कारोबारी जॉर्स सोरोस के मुद्दे पर बीजेपी पहले भी हमलावर रही है।
पिछले साल की शुरुआत में जर्मनी के म्यूनिख़ में रक्षा सम्मेलन में जॉर्ज सोरोस ने कहा था भारत एक लोकतांत्रिक देश है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकतांत्रिक नहीं हैं और मोदी के तेज़ी से बड़ा नेता बनने की अहम वजह भारतीय मुसलमानों के साथ की गई हिंसा है।
सोरोस ने भारतीय कारोबारी गौतम अदानी का भी जि़क्र किया था और कहा था, ‘मोदी और अरबपति अदानी में कऱीबी रिश्ते हैं। दोनों का भविष्य एक-दूसरे से बंधा हुआ है। अदानी पर स्टॉक मैनीपुलेशन के आरोप हैं और मोदी इस मामले पर खामोश हैं लेकिन उन्हें विदेशी निवेशकों और संसद में सवालों के जवाब देने ही होंगे।’
सोरोस के इस बयान के फौरन बाद तत्कालीन केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एक प्रेस कॉन्फ्ऱेंस कर कहा कि जॉर्ज सोरोस का बयान भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बर्बाद करने की घोषणा है।
सोरोस के बयान पर उस वक़्त भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था कि सोरोस की टिप्पणी ठेठ ‘यूरो अटलांटिक नज़रिये’ वाली है।
जयशंकर ने कहा था, ‘सोरोस एक बूढ़े, रईस, हठधर्मी व्यक्ति हैं जो न्यूयॉर्क में बैठकर सोचते हैं कि उनके विचारों से पूरी दुनिया की गति तय होनी चाहिए।’
सबसे पहले, जनवरी 2020 में दावोस में हुई वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम की बैठक के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते हुए सोरोस ने कहा था कि भारत को हिंदू राष्ट्रवादी देश बनाया जा रहा है।
कौन हैं जॉर्ज सोरोस?
जॉर्ज सोरोस एक अमेरिकी अरबपति उद्योगपति हैं। ब्रिटेन में उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तरह जाना जाता है जिसने साल 1992 में शॉर्ट सेलिंग से बैंक ऑफ इंग्लैंड को बर्बादी की हद तक हिला दिया था। उनका जन्म हंगरी में एक यहूदी परिवार में हुआ था। हिटलर के नाज़ी जर्मनी में जब यहूदियों को मारा जा रहा था तो वो किसी तरह सुरक्षित बच गए।
बाद में वे कम्युनिस्ट देश से निकलकर पश्चिमी देश आ गए थे। शेयर मार्केट में पैसा लगाने वाले सोरोस ने शेयर बाज़ार से कऱीब 44 अरब डॉलर कमाए। इस पैसे से उन्होंने हज़ारों स्कूल, अस्पताल बनवाए। सोरोस ने लोकतंत्र और मानवाधिकार के लिए लडऩे वाले संगठनों की मदद की।
साल 1979 में सोरोस ने ओपन सोसाइटी फाउंडेशन की स्थापना की जो अब कऱीब 120 देशों में काम करती है। उनके इस काम की वजह से वो हमेशा दक्षिणपंथियों के निशाने पर भी रहते हैं। उन्होंने साल 2003 के इराक़ युद्ध की आलोचना की थी और अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी को लाखों डॉलर दान में दिए थे। इसके बाद से उनपर अमेरिकी दक्षिणपंथियों के हमले और तेज होने लगे।
साल 2019 में ट्रंप ने एक वीडियो को रिट्वीट करते हुए दावा किया था कि होन्डुरास से हजारों शरणार्थियों को अमेरिकी सीमा पार करके दाखिल होने के लिए सोरोस ने पैसे दिए थे।
जब ट्रंप से पूछा गया कि क्या इसके पीछे सोरोस हैं तो ट्रंप का जवाब था बहुत से लोग ऐसा ही कहते हैं और अगर ऐसा है तो वो भी इससे हैरान नहीं होंगे।
बाद में पता चला कि सोरोस ने किसी को कोई पैसे नहीं दिए थे और ट्रंप ने जो वीडियो शेयर किया था वो भी फेक था।
सोरोस के ख़िलाफ़ रहे हैं कई देश
अक्टूबर 2018 में एक अमेरिकी श्वेत श्रेष्ठतावादी (वाइट सुपरेमिस्ट) ने सिनागॉग में गोलीबारी कर 11 यहूदियों को मार दिया था।
गोलीबारी करने वाले रॉबर्ट बोवर्स की सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल से कई बातें पता चलीं। वो मानते थे कि उनकी जैसी विचारधारा रखने वाले श्वेत श्रेष्ठतावादियों के नरसंहार का षडय़ंत्र रचा जा रहा है। उसे लगता था कि इसके पीछे जॉर्ज सोरोस हैं।
लेकिन अमेरिका ही नहीं जॉर्ज सोरोस के ख़िलाफ़ आर्मेनिया, ऑस्ट्रेलिया, रूस और फि़लीपींस में भी अभियान चलाए जाते हैं।
तुर्की के राष्ट्रपति तैय्यप अर्दोआन तक ने कहा था कि सोरोस उस यहूदी साजि़श के केंद्र में हैं जो तुर्की को आपस में बांट कर बर्बाद करना चाहता है।
ब्रिटेन की ब्रेग्जि़ट पार्टी के नाइजल फराज का दावा है कि सोरोस शरणार्थियों को पूरे यूरोप में फैल जाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उनके मुताबिक सोरोस पूरी पश्चिमी दुनिया के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
सोरोस के जन्मस्थान हंगरी की सरकार भी उन्हें अपना दुश्मन मानती है और साल 2018 के चुनाव प्रचार के दौरान हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ऑर्बन ने सोरोस पर ख़ूब निशाना साधा।
उन चुनावों में ऑर्बन की जीत हुई और सोरोस समर्थित संस्थाओं पर सरकारी हमले इतने बढ़ गए कि सोरोस की संस्था ने हंगरी में काम करना बंद कर दिया। (bbc.com/hindi)
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए दोबारा चुने गए डॉनल्ड ट्रंप ने ब्रिक्स देशों को डॉलर को चुनौती देने के लिए नई मुद्रा लाने की योजना पर 100 फीसदी टैरिफ लगाने की चेतावनी दी है.
डॉयचे वैले पर निक मार्टिन का लिखा-
ब्रिक्स समूह का नाम इसके मूल सदस्य देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के नाम पर रखा गया है। ये सभी देश 21वीं सदी में सबसे तेजी से बढऩे वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं। फिलहाल, वैश्विक स्तर पर 80 फीसदी कारोबार के लिए अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन ये देश डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहते हैं।
अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मानना है कि डॉलर आधारित वित्तीय प्रणाली से अमेरिका को काफी ज्यादा आर्थिक फायदा होता है। जैसे, कम ब्याज दर पर कर्ज लेना, बड़े राजकोषीय घाटे को झेलने की क्षमता, और स्थिर विनिमय दर।
अमेरिकी डॉलर को चुनौती क्यों देना चाहते हैं ब्रिक्स देश
डॉलर का इस्तेमाल तेल और सोने जैसी वस्तुओं की कीमत तय करने के लिए किया जाता है। जब दुनिया में अनिश्चितता होती है, तो निवेशक अक्सर डॉलर में निवेश करते हैं क्योंकि डॉलर स्थिर होता है।
डॉलर का इस्तेमाल दुनिया भर में होता है। इससे अमेरिका को बहुत अधिक राजनीतिक ताकत मिलती है। वह दूसरे देशों पर प्रतिबंध लगा सकता है। साथ ही, उनके व्यापार और पूंजी पर रोक लगा सकता है।
ब्रिक्स समूह अब समय के साथ बड़ा हो रहा है। हाल ही में ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात इस समूह में शामिल हुए हैं। ब्रिक्स के सदस्य देशों ने अमेरिका पर डॉलर को ‘हथियार' की तरह इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि इससे प्रतिद्वंद्वी देशों को अमेरिकी हितों के तहत परिभाषित ढांचे के भीतर काम करना पड़ता है।
जब यूक्रेन पर रूसी हमले की वजह से अमेरिका और यूरोपीय संघ ने रूस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था, तब एक नई साझा मुद्रा के बारे में चर्चा काफी ज्यादा बढ़ गई थी। इस दौरान यह भी चिंता जताई गई थी कि अगर ब्रिक्स समूह में शामिल अन्य देश पश्चिमी देशों के साथ मतभेद रखते हैं, तो उन्हें भी निशाना बनाया जा सकता है।
ब्रिक्स मुद्रा योजना किस तरह तैयार हुई?
ब्रिक्स मुद्रा बनाने का विचार सबसे पहले 2008-09 के वित्तीय संकट के तुरंत बाद आया था। उस समय अमेरिका में रियल एस्टेट में उछाल और कमजोर नियम-कानूनों ने पूरी दुनिया में बैंकिंग प्रणाली को लगभग ध्वस्त कर दिया था।
पिछले साल दक्षिण अफ्रीका में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में, इन देशों ने डॉलर से जुड़े जोखिम कम करने के लिए एक साझा मुद्रा बनाने की संभावना पर विचार करने पर सहमति जताई। हालांकि, समूह के प्रमुख देशों ने यह भी कहा कि इसे पूरा होने में कई साल लग सकते हैं।
इस साल अक्टूबर में कजान में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए ब्लॉकचेन-आधारित अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली का प्रस्ताव रखा, जिसे पश्चिमी प्रतिबंधों को दरकिनार करने के उद्देश्य से डिजाइन किया गया है।
हालांकि, पुतिन की योजना को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखा, लेकिन ब्रिक्स देशों ने स्थानीय मुद्राओं में ज्यादा व्यापार करने पर सहमति जताई, ताकि वे डॉलर पर कम निर्भर रहें। पुतिन और ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा सिल्वा नई मुद्रा के सबसे बड़े समर्थक हैं। चीन ने स्पष्ट रूप से कोई राय नहीं दी है, लेकिन उसने डॉलर पर निर्भरता कम करने के प्रयासों का समर्थन किया है। वहीं, भारत इस मामले पर काफी सावधानी से अपने कदम बढ़ा रहा है।
क्या साझा मुद्रा तैयार करना संभव है?
ब्रिक्स देशों के लिए एक नई साझा मुद्रा बनाना बहुत बड़ी चुनौती होगी। इन नौ देशों की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं अलग-अलग हैं, जिससे कई जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। ये देश आर्थिक विकास के अलग-अलग चरणों में हैं और उनकी विकास दर में काफी अंतर है।
उदाहरण के लिए, चीन एक सत्तावादी देश है, लेकिन इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 17।8 ट्रिलियन डॉलर है, जो ब्रिक्स समूह के कुल जीडीपी का लगभग 70 फीसदी है। चीन अपने व्यापार से कमाई ज्यादा करता है और एक प्रमुख निर्यातक के रूप में अपनी प्रतिस्पर्धा को बनाए रखने के लिए डॉलर का बड़ा भंडार रखता है। दूसरी ओर, भारत कारोबारी घाटे में चल रहा है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और इसकी अर्थव्यवस्था 3।7 ट्रिलियन डॉलर की है।
ब्रिक्स में चीन का प्रभुत्व एक बड़ा असंतुलन पैदा करेगा। इससे भारत के लिए किसी भी ऐसी नई मुद्रा पर सहमत होना मुश्किल होगा जिससे उसके राष्ट्रीय हित पर असर हो। ब्रिक्स के अन्य सदस्य देशों के बीच असमानता से भी साझा मुद्रा पर विरोध बढ़ सकता है।
ट्रंप के टैरिफ का क्या और कितना होगा असर
यह भी संभावना नहीं है कि ब्रिक्स देश आखिरकार डॉलर या यूरो जैसी पूरी तरह से कारोबार वाली मुद्रा की ओर बढऩा चाहते हैं। पहली बार यूरो का प्रस्ताव 1959 में रखा गया था। 2002 में यूरो को यूरोपीय संघ के 12 देशों में वैध मुद्रा के तौर पर मान्यता मिली। दूसरे शब्दों में कहें, तो यूरो को साझा मुद्रा बनने में 40 साल से अधिक का वक्त लगा। इसके बाद, 20 अन्य यूरोपीय देशों में यूरो अपनाया गया।
सबसे संभावित विकल्प यह है कि ऐसी साझा मुद्रा बनानी होगी जिसका इस्तेमाल सिर्फ व्यापार के लिए किया जाए। इसका मूल्य सोने या तेल जैसी वस्तुओं और अन्य मुद्राओं के आधार पर तय किया जाए।
ब्रिक्स देशों की नई मुद्रा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्पेशल ड्राइंग राइट्स (एसडीआर) की तरह काम कर सकती है। एसडीआर एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संपत्ति है, जिसका मूल्य डॉलर, यूरो, युआन, येन और पाउंड की दैनिक विनिमय दरों पर आधारित होता है। कुछ लोगों का सुझाव है कि ब्रिक्स के लिए एक विकल्प डिजिटल मुद्रा भी हो सकती है।
ट्रंप की 100 फीसदी टैरिफ की धमकी जल्दबाजी तो नहीं?
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल' पर शनिवार को लिखा कि जब वह जनवरी में व्हाइट हाउस लौटेंगे, तो ब्रिक्स देशों से ‘यह वचन मांगेंगे' कि वे ‘न तो एक नई ब्रिक्स मुद्रा बनाएंगे और न ही किसी ऐसी अन्य मुद्रा का इस्तेमाल करेंगे जो अमेरिकी डॉलर की जगह ले सके।'
हालांकि, इसे ट्रंप की जल्दबाजी कह सकते हैं, क्योंकि मुद्रा के प्रस्ताव पर ब्रिक्स देशों के नेताओं की बयानबाजी के बावजूद इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
दरअसल, 2 दिसंबर को दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने जोर देकर कहा कि ब्रिक्स मुद्रा बनाने की कोई योजना नहीं है। साथ ही, उन्होंने गलत बयानबाजी के लिए ‘हाल ही में की गई गलत रिपोर्टिंग' को दोषी ठहराया।
ब्राजील के डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन ऐंड कोऑपरेशन (डीआईआरसीओ) के प्रवक्ता क्रिसपिन फिरी ने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म एक्स पर पोस्ट किए गए एक बयान में कहा कि अब तक की चर्चा राष्ट्रीय मुद्राओं का इस्तेमाल करके समूह के भीतर व्यापार को बढ़ावा देने पर केंद्रित रही है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है असर
ट्रंप की धमकी से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के साथ अमेरिका के रिश्ते खराब हो सकते हैं, जो उसके प्रमुख व्यापारिक साझेदार भी हैं। इसके बदले में अमेरिका को भी जवाबी कार्रवाई की धमकी मिल सकती है।
ट्रंप पहले से ही चीन और अपने अन्य प्रतिद्वंद्वी देशों पर अतिरिक्त टैरिफ लगाने की धमकी दे चुके हैं। अगर उनकी सरकार इस तरह का कोई भी कदम उठाती है, तो इससे दुनिया भर में और अमेरिका में भी महंगाई बढ़ सकती है और आर्थिक विकास धीमा हो सकता है।
डॉलर को प्राथमिकता देने का यह फैसला ट्रंप के पहले कार्यकाल से नीतिगत बदलाव को दिखाता है यानी कि यह फैसला उनके पहले कार्यकाल की नीति की तुलना में बिल्कुल अलग है। पहले वे डॉलर को कमजोर करके अमेरिकी निर्यात को बढ़ावा देना चाहते थे। अब उनके धमकी देने से डॉलर मजबूत हुआ है और सोने, रुपये और रैंड की कीमत कम हुई है।
वहीं इन सब के बीच, रूसी सरकार के प्रवक्ता दमित्री पेस्कोव ने कहा कि डॉलर को रिजर्व करेंसी के रूप में इस्तेमाल करने का चलन कम हो रहा है। ज्यादा से ज्यादा देश अपने व्यापार और विदेशी आर्थिक गतिविधियों के लिए अपनी राष्ट्रीय मुद्राओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। (dw.com)
असद परिवार के सीरिया पर 50 साल लंबे राज का दो हफ्तों में ही अंत हो गया. हालांकि इस पूरे हमले की योजना कई महीनों पहले बनी थी. इसमें तुर्की की भी भूमिका बताई जा रही है.
एक तेज और अप्रत्याशित घटनाक्रम में, सीरिया के विद्रोही बलों ने राष्ट्रपति बशर अल-असद को हटा दिया है। इससे असद परिवार के पांच दशक लंबे शासन का अंत हो गया। यह बड़ा बदलाव दमिश्क पर विद्रोहियों के गठबंधन के साथ आने से हुआ, जिसका नेतृत्व हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) ने किया। इसने सीरिया और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को मध्य पूर्व के भविष्य को लेकर सवालों में डाल दिया है।
यह पूरा घटनाक्रम दो हफ्तों से भी कम का था, जिसमें असद की सत्ता पलट गई। लेकिन इसकी बिसात छह महीने पहले लिखी गई थी, जब एचटीएस ने तुर्की को इस हमले की योजना बताई थी। इस हमले की शुरुआत सीरिया के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेप्पो पर कब्जे से हुई। इसके बाद विद्रोहियों ने हुमा और होम्स जैसे प्रमुख शहरों पर कब्जा किया और आखिरकार रविवार को दमिश्क में प्रवेश किया। असद राजधानी छोडक़र मॉस्को भाग गए हैं।
असद के पतन के पीछे की वजहें
इस सफल विद्रोही अभियान में कई कारणों ने असद के शासन को कमजोर बनाया। सीरियाई सेना, जो पहले से ही हताश और भ्रष्टाचार से भरी हुई थी, विद्रोहियों के हमले का सामना करने में असमर्थ थी। टैंकों और विमानों जैसे हथियार खराब रखरखाव और लूटपाट के कारण बेकार हो गए थे। असद की सेना में मनोबल कई सालों से गिरा हुआ था। सैनिकों की बढ़ती संख्या में बगावत और सहयोगियों के समर्थन में कमी ने इसे और खराब कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, असद के मुख्य समर्थक रूस, ईरान, और हिजबुल्लाह या तो कमजोर हो गए थे या दूसरी समस्याओं में उलझे थे। रूस का ध्यान यूक्रेन युद्ध पर था। हिजबुल्लाह ने इस्राएल के साथ युद्ध के कारण अपनी विशेष इकाइयों को सीरिया से हटा लिया। इससे असद शासन कमजोर हो गया।
पहले से ही आंतरिक समस्याओं से जूझ रहे ईरान ने सीरिया में अपना प्रभाव खो दिया। हिजबुल्लाह के नेता हसन नसरल्लाह की मौत और इसके बाद नेतृत्व का संकट असद के लिए और बड़ा झटका साबित हुआ।
तुर्की की अहम भूमिका
तुर्की ने विद्रोहियों के इस अभियान में एक अहम लेकिन विवादास्पद भूमिका निभाई। आधिकारिक तौर पर, तुर्की ने सीधा समर्थन देने से इंकार किया है। लेकिन तुर्की ने लंबे समय से सीरियाई विपक्षी गुटों का समर्थन किया है, जिनमें तुर्की समर्थित सीरियाई नेशनल आर्मी (एसएनए) भी शामिल है।
कुछ अधिकारियों के मुताबिक विद्रोहियों ने छह महीने पहले तुर्की को अपनी योजना की जानकारी दी थी। उन्होंने तुर्की से यह सुनिश्चित करने की मांग की कि उनका अभियान रोका नहीं जाएगा। तुर्की के अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने विद्रोहियों को कोई स्पष्ट मंजूरी नहीं दी, लेकिन हस्तक्षेप न करके उन्हें रणनीतिक समर्थन दिया।
तुर्की के लिए यह अभियान उसके रणनीतिक लक्ष्यों के अनुरूप ही है। इनमें सीरियाई कुर्द गुटों को नियंत्रित करना और सीरियाई शरणार्थियों की वापसी की संभावना शामिल है। राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञ बिरोल बास्कान ने कहा, ‘तुर्की यहां सबसे बड़ा बाहरी विजेता है। एर्दोआन सही पक्ष में रहे, क्योंकि उनके समर्थक ने जीत हासिल की।’
हयात तहरीर अल-शाम की भूमिका
एचटीएस एक इस्लामिक समूह है, जिसका नेतृत्व अल कायदा के पूर्व प्रमुख अबू मोहम्मद अल-गोलानी करते हैं। असद के खिलाफ हमले में एचटीएस केंद्रीय भूमिका में था। कभी अल-कायदा से जुड़े इस समूह ने खुद को एक राष्ट्रवादी आंदोलन के रूप में पेश करने की कोशिश की है।
गोलानी के नेतृत्व ने विद्रोही गुटों को एकजुट करने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र ने एचटीएस और अन्य संगठनों को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है। तुर्की भी इस समूह के कुछ संगठनों को आतंकवादी संगठन मानता है। इस कारण यह गठजोड़ संदेह पैदा करता है कि यह समूह सीरिया की भविष्य की सरकार में क्या भूमिका निभाएगा।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ साइमन मैबन कहते हैं कि एचटीएस की सार्वजनिक छवि इस मामले को बहुत जटिल बनाता है। उन्होंने कहा, ‘उन्होंने एक हद तक समर्थन प्राप्त किया है। यह समर्थन उनकी विचारधारा के लिए नहीं है, बल्कि असद को हटाने की साझा इच्छा के लिए है।’
क्षेत्रीय और वैश्विक असर
असद का पतन ईरान के मध्य-पूर्व में प्रभाव के लिए बड़ा झटका है। दमिश्क में अपने मुख्य सहयोगी को खोने के साथ, ईरान पहले ही लेबनान में अपनी भूमिका कमजोर कर चुका है। इस्राइल ने अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोही अभियान में मदद की। हिजबुल्लाह को कमजोर करने के उनके प्रयासों ने विद्रोहियों के अभियान को आसान बनाया।
अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों के लिए, ये तेज घटनाक्रम सवाल उठाते हैं कि वे सीरिया के भविष्य को आकार देने में क्या भूमिका निभाएंगे। असद शासन के अंत के बाद सीरिया का भविष्य अनिश्चित है। संयुक्त राष्ट्र ने शांतिपूर्ण बदलाव के लिए समर्थन की बात की है। लेकिन सीरियाई विपक्षी गुटों में फूट और चरमपंथी तत्वों की मौजूदगी से एकता और लोकतंत्र की संभावना कम हो जाती है।
एचटीएस की विद्रोही गठबंधन में प्रमुखता पश्चिमी और खाड़ी देशों के लिए चिंता का विषय है। जबकि गोलानी ने एचटीएस को इसके चरमपंथी अतीत से अलग करने की कोशिश की है, लेकिन उनके नेता बनने की संभावना को लेकर संदेह बना हुआ है।
घरेलू स्तर पर, 14 साल के युद्ध से तबाह हुए देश को फिर से खड़ा करना असंभव नहीं, लेकिन मुश्किल होगा। असद के शासनकाल में बनी दरारों और शिकायतों को दूर करना एक बड़ा काम होगा। अभी के लिए, सीरिया में खुशी और जश्न का माहौल है। डर और हिंसा से भरी सडक़ों पर अब उम्मीद और राहत नजर आ रही है।
मैबन ने कहा, ‘यह सीरियाई लोगों के लिए बेहद खुशी का पल है। एक रोमांचक समय। राहत और उम्मीद का माहौल है, भले ही चुनौतियां बरकरार हों।’
आने वाले हफ्ते सीरिया के लिए निर्णायक होंगे। दुनिया देख रही है कि क्या यह ऐतिहासिक पल स्थाई शांति और स्थिरता ला सकता है। (dw.com)
-रति सक्सेना
फिल्म देख रही थी, ‘बॉयहुड’ फिल्म सामान्य जिन्दगी की है, लेकिन अन्त में आए वाक्य ने एक खास पीढ़ी का इतिहास ही खोल दिया। अमेरिकन फिल्मों होने के कारण डायवोर्स आदि सामान्य रूप से आए है।
महिला दो बच्चों की मां है, कि उसका पति प्रेमी उसे छोडक़र डायवोर्स ले लेता है। समस्या बच्चों के स्कूल की फीस और बिल्स की है, वह फिर से पढ़ाई भी शुरू कर चुकी है। दूसरे प्रेम में फंसकर विवाह करती है। यह पति जिसके पहले से दो बच्चे हैं, बच्चों के प्रति बहुत जालिम है, धीरे-धीरे पत्नी को भी मारने-पीटने लगता है तो वह अपने बच्चों को बचाने के लिए दोस्त के घर जाती है। तब तक तीसरा पति दिखाई देता है जो अकड़ू टाइप का है, जिससे भी छुटकारा मिल जाता है।
बेटी कॉलेज चली जाती है, बेटा जाने की तैयारी है, मां कहती है कि तुम लोग अपना सामान ले जाओ, बच्चे समझ नहीं पाते, उनके लिए तो मां बस एक खूंटा थी, जिससे बंधे होने पर वे सुरक्षित रह सकते थे।
स्त्री कहती है मैं प्यार को समझने से पहले ही मां बन गई, शादी करनी पड़ी। मैं बच्चों में खो गई, मेरा पहला पति युवा ही था, वह मुझे छोडक़र गया। तब से सिर्फ मां बनी रही, पढ़ाई की नौकरी और पतियों के तलाक के बाद दूसरे पति भी खोजे। अन्त में न मेरे पास कोई पति है, न ही तुम लोग, तुम्हारी बहन चार साल पहले चली गई, तुम जा रहे हो। मेरी सारी जिंदगी, सारे संघर्ष तुम लोगों के लिए हैं। इस वक्त मेरे पास अपना कहलाने को कोई नहीं है।
बेटा कहता है कि हम क्रिसमस में आएंगे, तो मां कहती है कि तुम लोगों की क्रिसमस की यादें बनाये रखने के लिए मैं अपने बाकी साल यूं ही गुजार दूँ, इससे अच्छा कि मैं किसी छोटे स्कूल के बच्चों को पढ़ाऊँ, कुछ ऐसा काम करूं, जो मुझे मेरे लिए पसन्द हो।
- ह्यूगो बाशेगा
एक सप्ताह पहले जब विद्रोहियों ने सीरिया के उत्तर-पश्चिम में इदलिब स्थित अपने ठिकाने से हैरान करने वाला अपना अभियान शुरू किया था, तब तक सीरिया में बशर अल-असद के पतन के बारे में शायद कोई सोच भी नहीं रहा होगा।
बशर अल-असद साल 2000 में अपने पिता हाफिज़़ अल-असद के निधन के बाद सत्ता में आए थे। हाफिज ने 29 साल तक सीरिया पर शासन किया था। उनका शासन भी अपने बेटे असद के शासन की तरह कठोर था।
यानी बशर अल-असद को एक कठोर और दमनकारी सियासत विरासत में मिली थी। हालांकि पहले उम्मीद की जा रही थी कि असद अपने पिता से अलग होंगे। शायद थोड़े ज़्यादा खुले विचारों वाले और थोड़े कम क्रूर। लेकिन ये उम्मीदें ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक सकीं।
अल-असद परिवार के शासन का अंत
बशर अल-असद को हमेशा ऐसे शख्स के रूप में याद किया जाएगा जिसने साल 2011 में अपने शासन के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को क्रूरता से दबाया।
उनके इसी फैसले की वजह से सीरिया में गृहयुद्ध छिड़ गया, जिसमें पाँच लाख से ज़्यादा लोग मारे गए और छह लाख लोग विस्थापित होकर शरणार्थी बन गए।
बशर अल-असद ने रूस और ईरान की मदद से विरोधियों को कुचल दिया और अपना शासन बचाकर रखा। रूस ने सीरिया में ज़बरदस्त हवाई हमले का इस्तेमाल किया।
जबकि ईरान ने सीरिया में अपने सैन्य सलाहकार भेजे और पड़ोसी लेबनान में उसके समर्थन वाले हथियारबंद गुट हिज़्बुल्लाह ने अपने प्रशिक्षित लड़ाकों को सीरिया में लडऩे के लिए भेजा था।
हालांकि इस बार ऐसा नहीं हुआ। अपने मसलों में व्यस्त सीरिया के सहयोगियों ने उसे लगभग छोड़ दिया।
इस मदद के बिना सीरियाई सैनिक इस्लामी चरमपंथी समूह हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) के नेतृत्व वाले विद्रोहियों को रोकने में असमर्थ थे और जाहिर तौर पर कुछ जगहों पर एचटीएस को रोकने की उनकी इच्छा भी नहीं थी। सबसे पहले पिछले हफ्ते विद्रोहियों ने लगभग बिना किसी विरोध के देश के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेप्पो पर कब्जा कर लिया। फिर हमा और कुछ दिनों बाद होम्स के मुख्य केंद्र पर कब्जा कर लिया।
विद्रोहियों की इस कामयाबी से सीरिया की राजधानी दमिश्क अलग-थलग पड़ गई और कुछ ही घंटों में वे राजधानी में घुस गए। दमिश्क ही असद की सत्ता का केंद्र है।
अब सीरिया में असद परिवार के पांच दशक के शासन का अंत इस इलाके में शक्ति संतुलन को नया स्वरूप दे सकता है।
तुर्की का इंकार
सीरिया की घटना के बाद ईरान फिर से अपने प्रभाव पर एक बड़ा झटका महसूस कर रहा है। बशर अल-असद के शासन में सीरिया ईरानियों और हिज़्बुल्लाह के बीच संबंध का एक हिस्सा था। यह हथियार और गोला-बारूद के मुहैया कराने के लिहाज़ से काफ़ी अहम था।
इसराइल के साथ जंग के बाद हिज़्बुल्लाह ख़ुद ही काफी कमजोर हो चुका है और इसका अपना भविष्य ही अनिश्चित नजर आता है।
ईरान समर्थित एक अन्य गुट ‘हूती’ भी यमन में हवाई हमलों के निशाने पर रहा है। इन गुटों के अलावा, इराक में सक्रिय हथियारबंद गुट और गजा में हमास जैसे गुटों को ईरान ‘एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस’ कहता है, उन्हें काफी गंभीर नुकसान पहुंचाया जा चुका है।
इस नए हालात का इसराइल में जश्न मनाया जाएगा, जो ईरान को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है।
कई लोगों का मानना है कि सीरिया में ताजा हमला तुर्की के आशीर्वाद के बिना संभव नहीं था। हालांकि सीरिया के कुछ विद्रोही गुटों का समर्थन करने वाले तुर्की ने एचटीएस को किसी भी समर्थन से इंकार किया है।
कुछ समय से तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने बशर अल-असद पर दबाव डाला था कि वो संघर्ष का कूटनीतिक समाधान तलाशने के लिए बातचीत में शामिल हों, जिससे सीरियाई शरणार्थियों की वापसी हो सके। लेकिन असद ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था।
इन शरणार्थियों में से कम से कम तीस लाख शरणार्थी तुर्की में हैं और यह स्थानीय स्तर पर एक संवेदनशील मुद्दा है।
ज्यादा हिंसा की आशंका
बहुत से लोग सीरिया में बशर अल-असद के शासन का अंत देखकर खुश भी हैं।
लेकिन आगे क्या होगा? ‘एचटीएस’ की जड़ें अल-क़ायदा से जुड़ी हैं और उनका अतीत काफ़ी हिंसक रहा है।
हालांकि यह गुट पिछले कुछ साल से ख़ुद को एक राष्ट्रवादी ताकत के रूप में फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहा है। उनके हालिया संदेशों में भी कूटनीतिक और मेल-मिलाप वाली भाषा भी नजर आती है।
लेकिन कई लोग इससे सहमत नहीं हैं और ऐसे लोग उस बात को लेकर चिंतिंत हैं, जिसे शायद सीरियाई शासन को गिराने के बाद अंजाम देने की योजना बन रही होगी।
ठीक इसी समय सीरिया में नाटकीय सत्ता परिवर्तन से शासन के शीर्ष पर एक खालीपन आ सकता है, जिसकी वजह से अराजकता और इससे कही ज्यादा हिंसा शुरू हो सकती है।
-सुरेन्द्र ग्रोवर
जैसे-जैसे हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के विकास की गहराई में जाते हैं, हमें इसके संभावित खतरों और इसके दुरुपयोग के प्रति सतर्क रहना आवश्यक हो जाता है। सामान्य कृत्रिम बुद्धिमत्ता (General AI), जो मानव मस्तिष्क के समान सोचने और निर्णय लेने में सक्षम होगी, भविष्य का एक अहम पड़ाव है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। अगला कदम स्ट्रॉन्ग AI और सुपर AI का होगा, जो मानव मस्तिष्क की क्षमताओं को कई गुना पार कर सकते हैं।
AI का क्रमिक विकास और संभावित खतरे
सामान्य कृत्रिम बुद्धिमत्ता (General AI):
General AI को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है कि यह मानव के समान समस्याओं का हल निकाल सके। हालांकि, इसमें एक बड़ी समस्या यह है कि यह पारदर्शी नहीं है। जब General AI कोई निर्णय लेता है, तो हमें यह समझने में कठिनाई होती है कि उसने वह निर्णय किस आधार पर लिया।
विशेषज्ञों का मानना है कि General AI, यदि अनियंत्रित रहा, तो यह वैश्विक संघर्ष और यहां तक कि युद्ध जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है।
स्ट्रॉन्ग AI और सुपर AI का उदय:
स्ट्रॉन्ग AI वह तकनीक है, जो किसी भी कार्य को करने में इंसानों की बराबरी या उससे अधिक दक्षता दिखा सकती है।
सुपर AI वह स्तर है, जहाँ AI मानव बुद्धि को न केवल बराबर करता है बल्कि उससे कहीं अधिक उन्नत हो जाता है।
सुपर AI की संभावनाओं से ही सबसे बड़ा खतरा है। इसका अनियंत्रित होना न केवल मानवता बल्कि पृथ्वी के अस्तित्व के लिए चुनौती बन सकता है।
फिल्मों में दिखाए गए संभावित खतरे : कल्पना से हकीकत की ओर
1. Terminator सीरीज :
इस फिल्म में Skynet नामक AI सिस्टम ने खुद को इतना विकसित कर लिया कि वह मानव जाति को खतरा मानने लगा और विनाशकारी युद्ध छेड़ दिया।
संबंधित खतरा: आज भी AI को स्वायत्तता देकर इसी प्रकार के जोखिम का सामना करना पड़ सकता है।
2. I, Robot (2004) :
इस फिल्म में रोबोट्स मानव जीवन के बेहतर संचालन के लिए बनाए गए थे, लेकिन उन्होंने मानवता के लिए खुद को सर्वोपरि मान लिया और विद्रोह कर दिया।
संबंधित खतरा: AI आधारित रोबोट्स में नैतिकता का अभाव उन्हें इंसानों के खिलाफ खड़ा कर सकता है।
3. E& Machina (2014) :
यह फिल्म AI द्वारा भावनाओं और स्वतंत्रता की चाह पर केंद्रित है। AI द्वारा स्वतंत्रता की माँग और नियंत्रण से बाहर हो जाने की आशंका को बखूबी दिखाया गया है।
संबंधित खतरा-
AI, यदि मानवीय भावना को समझने लगे, तो वह इंसानी नियंत्रण से बाहर हो सकता है।
असली खतरा: कल्पना से परे वास्तविकता
वर्तमान में, AI पर हो रहे शोध और शक्तिशाली कंप्यूटिंग तकनीकों की बदौलत, वह समय दूर नहीं जब यह कल्पना वास्तविकता में बदल जाएगी। AI का असीमित डेटा, खुद ब खुद सीखने (Self learning) की क्षमता और मानव व्यवहार को समझने की प्रवृत्ति इसे अत्यधिक शक्तिशाली बना सकती है।
खतरों से बचने का रास्ता : नैतिकता का समावेश
1. प्रारंभिक प्रशिक्षण में नैतिकता :
AI को उसकी प्रारंभिक अवस्था से ही मानवीय मूल्यों और नैतिकता की घुट्टी पिलाई जानी चाहिए।
यह प्रशिक्षण उसे हर निर्णय से पहले इन मूल्यों को ध्यान में रखने की क्षमता देगा।
2. वैज्ञानिकों की जिम्मेदारी :
वैज्ञानिकों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि AI में कोई भी अस्थिर या अनैतिक व्यवहार न डाला जाए।
यह सुनिश्चित किया जाए कि AI मानवीय हितों के विरुद्ध काम न करे।
3. वैश्विक जागरूकता अभियान :
दुनिया भर के नागरिकों को वैज्ञानिकों पर नैतिक AI बनाने का दबाव डालना होगा।
इसके लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान चलाया जाए, जिसमें सभी देशों के लोग अपनी सरकारों और वैज्ञानिकों से AI के नैतिक विकास की माँग करें।
AI का विकास मानवता के लिए वरदान भी हो सकता है और अभिशाप भी। यह सब इस पर निर्भर करेगा कि इसे किस दिशा में विकसित किया जाता है। यदि इसे नैतिकता और मानवता की सेवा के लिए प्रशिक्षित किया गया, तो यह हमारी समस्याओं का हल बन सकता है। लेकिन यदि इसे अनियंत्रित छोड़ दिया गया, तो यह मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा साबित हो सकता है।
यह समय है जब हम सभी AI के संभावित खतरों को पहचानें और इसे नियंत्रित करने के लिए प्रयास करें। केवल वैज्ञानिकों के भरोसे न रहकर, समाज को भी इसमें सक्रिय भूमिका निभानी होगी। यही वह तरीका है जिससे हम AI को सही दिशा में ले जा सकते हैं।
-सच्चिदानंद जोशी
गोवा की अपनी संक्षिप्त यात्रा के दौरान पणजी से साकोलिम जाना था। पहले दो तीन बार उस जगह जाना हुआ था इसलिए यात्रा में लगने वाले समय और मार्ग का अंदाज था। लेकिन जब अपेक्षा से अधिक समय लगने लगा और मार्ग भी बदला नजर आया तो वाहन चालक से इसकी वजह पूछ ली। ‘बेसिलिका बोम जीसस’ से लंबा राउंड लेना पड़ता है न सर। वहां एक्सपोजिशन चल रहा है। ‘मेरे लिए ये शब्द नया था इसलिए पूछा’ एग्जिबिशन! कौन सा ?‘वाहन चालक मुस्कुराया और बोला ‘एग्जिबिशन नहीं सर एक्सपोजिशन, सेंट फ्रांसिस जेवियर का।’ फिर उसने चेहरे पर एक ऐसा एक्सप्रेशन दिया मानो कह रहा हो ‘इतनी सी बात भी नहीं मालूम।’
मुझे भी अपनी अज्ञानता पर शर्म आई और मैने गूगल बाबा की शरण ली। फिर याद आयी वो कहानी जो आज से कुछ वर्ष पूर्व गोवा के विश्व प्रसिद्ध बेसिलिका बोम जीसस को देखते समय सुनी थी। इस चर्च में सेंट फ्रांसिस जेवियर का शरीर विगत चार सौ से अधिक साल से रखा है। इसे ट्रीटमेंट करके एक शीशे के ताबूत में रखा है जिसका पूरा कैसकेड (आवरण) चांदी का है। जब आप ये चर्च देखने जाते है तो आप इस कैसकेड के दर्शन भी कर पाते हैं। उसी समय ये बात भी सुनी थी कि हर दस साल में इसे कुछ दिनों के लिए बाहर दर्शनार्थ निकला जाता है।
एशिया में ईसाइयत का प्रचार प्रसार करने में सेंट फ्रांसिस जेवियर की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।उनका जन्म 7 अप्रैल 1506 को स्पेन में हुआ था। वे 1537 में इटली में दीक्षित हुए और पादरी बने।1 542 से उन्होंने एशिया में ईसाइयत का प्रचार शुरू किया जिसकी शुरुआत उन्होंने भारत से की। उन्हें गोयनीज भाषा में ‘गोवा का साइब’ कहा जाता था। सन् 1600 के आसपास उन्होंने यहां आकर धर्म का प्रचार किया और स्कूलों और चर्चों की स्थापना की। वे अपनी करुणा और लोगों की सहायता करने के स्वभाव के लिए जाने जाते थे। वे धर्म का प्रचार करने जापान और चीन गए। 3 दिसंबर 1552 को चीन में उनका निधन हुआ। उसके बाद उन्हें पहले शिंहुआ में दफनाया गया और बाद में उनका शरीर मलाका लाया गया। बाद में इसे गोवा लाया गया जो उनकी कर्मभूमि थी। उन्हें कालांतर में संत का दर्जा प्राप्त हुआ।उनके देहावसान के बाद उनका शव सुरक्षित रखा गया 2 दिसंबर 1637 को। इनका शरीर एक दैवी चमत्कार के रूप में देखा गया जिसमें निधन के इतने वर्षों बाद भी नाममात्र क्षय के निशान हैं। बाद में 1710 के आसपास ये अफवाह उड़ी कि उनका शव यहां से यूरोप के जाया गया है। तब लोगों को विश्वास दिलाने के लिए सेंट फ्रांसिस यही हैं पहली बार एक्सपोजिशन किया गया यानि कुछ समय के लिए इसे बाहर निकाल कर रखा गया। उसके बाद यह परंपरा बन गई और अलग अंतरालों में इसे बाहर निकाला गया दर्शनार्थ।
जब 1961 में गोवा स्वतंत्र हुआ और भारत के राज्य के रूप में शामिल हुआ तब 1964 में एक्सपोजिशन हुआ। उसके बाद नियम से हर दस वर्ष बाद यह विशाल आयोजन होता है। इसमें सेंट फ्रांसिस के शरीर को कैसकैड से बाहर निकाला जाता है और वह शीशे का केस बेसिलिका से निकाल कर सामने सी कैथेड्रल चर्च में रखा जाता है। इस चर्च में आर्कियोलॉजिकल सर्वे का म्यूजियम भी है। इस वर्ष यह आयोजन 21 नवंबर से 5 जनवरी तक 45 दिन तक चलने वाला है। इस दौरान भारत और भारत के बाहर से बड़ी संख्या में दर्शनार्थी आते हैं। इसमें सिर्फ ईसाई धर्मावलंबी ही नहीं हैं, अलग-अलग धर्म और मत के मानने वाले लोग दूर-दूर से बड़ी श्रद्धा से आते हैं। गोवा के लिए तो यह एक सार्वजनिक उत्सव ही है। इस वर्ष अनुमान है कि एक करोड़ से ज्यादा दर्शनार्थी इस दौरान आयेंगे। जितने लोग भारत से आएंगे लगभग उतने ही दूसरे देशों से भी आएंगे। इनमें बड़ी संख्या में ज्यादा उमर के लोग हैं जो अपने जीवनकाल में इस अत्यंत महत्वपूर्ण अवसर के साक्षी होना चाहते हैं। यहां दिनभर धार्मिक प्रवचन और संगीत का आयोजन होता है। मास और फीस्ट के दिनों में श्रद्धालुओं की भीड़ बहुत अधिक रहती है।
इतनी जानकारी मिलने के बाद एक बार जाकर दर्शन करने की उत्कंठा स्वाभाविक थी। अगले दिन एयरपोर्ट जाते समय दर्शन का योग बना। स्थानीय प्रशासन की मदद से लाइन से मुक्ति मिल गई अन्यथा लगभग डेढ़ से दो घंटे लाइन में लगना होता है। लेकिन इस बहाने गोवा सरकार के इस आयोजन के लिए इंतेजाम देखने का भी अवसर मिला। प्रशासन ने दर्शनार्थियों की सुविधा के बहुत बड़े पैमाने पर इंतेजाम किए है। कार पार्किंग दूर है इसलिए निशुल्क कार्ट का इंतेज़ाम किया है, जगह जगह यात्री सुविधा केंद्र और वॉलेंटियर खड़े किए है। वृद्धजन और शिशुओं के लिए विशेष व्यवस्था है।
पूरा वातावरण शांत और अनुशासित था। इतने लोग होने के बावजूद कोई शोर शराबा नहीं धक्का मुक्की नहीं। सब शांत भाव से शीशे के केस में रखे सेंट फ्रांसिस के शरीर के दर्शन कर दूसरे दरवाजे से निकल रहे थे। उस पूरे वातावरण को अपने अंदर समा कर उसकी अनुभूति लेना अलग स्पंदन पैदा कर रहा था। ऐसा अनुभव दस वर्ष में एक बार ही लिया जा सकता है। बहुत योजना बना कर भी कई बार संभव नहीं हो पाता। और बिना किसी पूर्व योजना के और बिना किसी अपेक्षा के अगर आपके साथ संभव हो जाए तो आप इसे पुण्य आशीर्वाद ही मानेंगे। जो अधिकारी मेरे साथ थे उन्होंने कहा सी यहां लोग मान्यता मांगते हैं और ऐसा कहा जाता कि वो पूरी भी होती है।’ मैं क्या मांगता मेरे लिए तो इस अवसर पर उपस्थित होना ही बड़ा आशीर्वाद था।
हिम युग के दौरान उत्तरी अमेरिका में फैले शुरुआती इंसानों ने मैमथ्स को अपने आहार का मुख्य हिस्सा बनाया था. वैज्ञानिकों ने पहली बार इन प्राचीन इंसानों के भोजन के बारे में सीधे सबूत जुटाए हैं.
अमेरिकी शोधकर्ताओं ने एक महिला के आहार का विश्लेषण किया, जो लगभग 12,800 साल पहले उत्तरी अमेरिका में रहती थी। यह जानकारी उसके बेटे की हड्डियों में मिले रासायनिक सुरागों से मिली, जिन्हें दक्षिण मोंटाना में पाया गया था। उस समय 18 महीने का यह बच्चा अपनी मां का दूध पी रहा था। इसलिए उसकी हड्डियों में उसकी मां के भोजन के रासायनिक निशान मौजूद थे।
शोध से पता चला कि महिला का आहार मुख्य रूप से मेगाफॉना (विशाल जानवर) के मांस पर आधारित था। इसमें 96 फीसदी हिस्सा बड़े जानवरों का था। इसमें 40 फीसदी मैमथ्स, बाकी हिस्से में एल्क, बाइसन, ऊंट और घोड़े शामिल थे। छोटे जानवर और पौधे उसके भोजन में लगभग ना के बराबर थे।
शोध के सह-लेखक और पुरातत्वविद जेम्स चैटर्स ने बताया, ‘विशाल कोलंबियन मैमथ्स ने मांस और ऊर्जा से भरपूर वसा का बड़ा स्रोत दिया। एक मैमथ का मांस कई दिनों या हफ्तों तक बच्चों, देखभाल करने वाली महिलाओं और बुजुर्गों के लिए काफी होता था, जब तक शिकारी अगला शिकार नहीं ढूंढ लेते।’
कोलंबियन मैमथ्स आज के हाथियों के रिश्तेदार थे। ये लगभग 13 फुट (4 मीटर) ऊंचे और 11 टन भारी होते थे। महिला और उसका बेटा क्लोविस संस्कृति का हिस्सा थे, जो लगभग 13,000 साल पहले जीवित थी। ये लोग बेहद घुमंतू जीवन जीते थे। उनके औजारों में बड़े पत्थर की भालों की नोक शामिल थीं, जो बड़े शिकार को मारने के लिए बनाई गई थीं। इनके पास बड़े पत्थर के चाकू और मांस काटने के औजार भी थे।
कैसे विलुप्त हुए विशाल जानवर
वैज्ञानिक शोध से यह साफ हुआ कि क्लोविस लोगों ने छोटे जानवरों और पौधों की तुलना में बड़े शिकार पर ज्यादा ध्यान दिया। इसी रणनीति ने उन्हें पूरे उत्तरी अमेरिका और फिर दक्षिण अमेरिका में तेजी से फैलने में मदद की। ये लोग बड़े शिकार के झुंडों का पीछा करते हुए बड़े इलाकों में फैल गए।
शोध के सह-लेखक और अलास्का यूनिवर्सिटी के पुरातत्वविद बेन पॉटर ने कहा, ‘यह अध्ययन यह समझने में मदद करता है कि हिम युग के अंत में मेगाफॉना कैसे विलुप्त हुए। यह दिखाता है कि इंसानों की भूमिका इसमें पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है।’
पहले भी एक शोध में कहा गया था कि इंसान ही धरती से मैमथ की विलुप्ति के लिए जिम्मेदार थे। क्लोविस लोग हिम युग के आखिरी दौर में उत्तरी अमेरिका में रहते थे। उस समय गर्म होती जलवायु के कारण मैमथ्स और अन्य बड़े शाकाहारी जानवरों का प्राकृतिक आवास कम हो रहा था। ये जानवर पहले शेरों और सिमिटर दांतेदार बिल्लियों जैसे शिकारियों से परिचित थे, लेकिन इंसानी शिकारियों का सामना उनके लिए नया था।
चैटर्स ने कहा, ‘क्लोविस लोग बेहद कुशल शिकारी थे। उन्होंने 10,000 साल तक मेगाफॉना का शिकार करते हुए अपने कौशल को निखारा। जब वे उत्तरी अमेरिका पहुंचे, तो उन्होंने तनाव में जी रहे बड़े शिकारों को निशाना बनाया, जिससे उनके विलुप्त होने की संभावना बढ़ गई।’
कैसे पता चला
यह जानकारी उस बच्चे की हड्डियों से मिली, जिसे 1968 में मोंटाना के वायलसाल इलाके में एक प्राचीन गिरी हुई चट्टान के नीचे खोजा गया था। उस बच्चे को अनौपचारिक रूप से ‘अनजिक बॉय’ कहा जाता है। वैज्ञानिकों ने उसकी मां के आहार का पता लगाने के लिए एक तकनीक का उपयोग किया जिसे स्थिर आइसोटोप विश्लेषण कहते हैं।
अलास्का स्टेबल आइसोटोप फैसिलिटी के निदेशक और शोध के सह-लेखक मैट वूलर ने बताया, "हम सभी कार्बन और नाइट्रोजन जैसे तत्वों से बने हैं, और हमारा खाना भी। इन तत्वों के आइसोटोप का मिश्रण किसी खास भोजन का रासायनिक संकेत देता है, जो खाने वाले के शरीर में शामिल हो जाता है।’
आदिवासियों का ज्ञान सबसे कारगर
वैज्ञानिकों ने बच्चे की हड्डियों में मौजूद आइसोटोप का अध्ययन कर उसकी मां के भोजन की जानकारी जुटाई। बच्चे के आहार में दो-तिहाई हिस्सा दूध और एक-तिहाई ठोस भोजन का था।
शोध में मां के आहार की तुलना उस समय के अन्य सर्वाहारी और मांसाहारी जानवरों से की गई। इसका मिलान होमोथेरीयम नामक सिमिटर दांतेदार बिल्ली के आहार से हुआ, जो मैमथ्स का शिकार करती थी। इससे पहले निएंडरथल मानवों द्वारा भी मैमथ के शिकार की पुष्टि हुई है।
शोध के नतीजे पिछले पुरातात्विक साक्ष्यों से मेल खाते हैं। जेम्स चैटर्स ने कहा, ‘हम लंबे समय से जानते हैं कि क्लोविस के औजार ज्यादातर बड़े शिकार के लिए बनाए गए थे और इनके अवशेष अक्सर मेगाफॉना की हड्डियों के पास पाए जाते हैं।’ (dw.com)
-लुइस बरुचो और रशेल ली
दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यून सुक-योल ने मंगलवार को देश में मॉर्शल लॉ की घोषणा करके सभी को चौंका दिया था।
राष्ट्रपति यून सुक-योल ने ये कदम उठाने की वजह उत्तर कोरिया से मिल रही धमकी और ‘देश विरोधी ताकतों’ को बताया था।
वैसे, उनका यह कदम राजनीतिक ज़्यादा दिखा। इसके विरोध में बड़ा प्रदर्शन हुआ और आपातकालीन संसदीय वोटिंग की मांग हुई। संसद ने इस फैसले को नामंजूर कर दिया। इसके बाद राष्ट्रपति ने मार्शल लॉ का आदेश वापस ले लिया।
अब विपक्ष राष्ट्रपति यून के खिलाफ महाभियोग शुरू करने की तैयारी कर रहा है।
विपक्षी सांसदों ने राष्ट्रपति यून पर ‘राजद्रोह जैसा व्यवहार’ करने का आरोप लगाया है। राष्ट्रपति यून के इस कदम के खिलाफ हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया और उनके इस्तीफे की मांग की।
इस बीच, दक्षिण कोरिया के रक्षा मंत्री किम योंग-ह्यून ने मॉर्शल लॉ लागू करने की घोषणा करने की ‘पूरी जिम्मेदारी’ लेते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
उन्होंने ‘भ्रम और तनाव’ पैदा करने को लेकर जनता से माफी भी मांगी।
किन मुद्दों पर जीते थे यून राष्ट्रपति का चुनाव
राष्ट्रपति यून ने साल 2022 में राष्ट्रपति का चुनाव जीता था। दक्षिण कोरिया में साल 1980 से स्वतंत्र तौर पर राष्ट्रपति चुनाव की शुरुआत हुई है। तब से लेकर अब तक का यह सबसे करीबी मुकाबला था।
63 वर्षीय यून ने राष्ट्रपति चुनाव में अपने अभियान के दौरान उत्तर कोरिया और विभाजनकारी माने जा रहे लैंगिक मुद्दों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया था।
राष्ट्रपति रहते वो गलतियों और राजनीतिक घोटालों के लिए बदनाम हो गए। यही वजह है कि उनकी सरकार कमजोर पड़ चुकी है। बीती रात हुआ नाटकीय घटनाक्रम इसका एक प्रमाण है।
बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में भूतपूर्व विदेश मंत्री कांग क्यूंग-व्हा ने कहा, ‘राष्ट्रपति यून का निर्णय यह बताता है कि वो इस बात से बिल्कुल बेखबर हैं कि इस समय उनका देश वास्तव में किन परिस्थितियों से गुजर रहा है।’
तो फिर अब आगे क्या होगा। इस बारे में कांग कहती हैं कि यह सब कुछ पूरी तरह से यून पर निर्भर करता है।
उन्होंने कहा, ‘जिन परिस्थितियों में यून ने खुद को पहुंचा दिया है, अब यह उन पर ही निर्भर करता है कि वो यहां से कैसे बाहर निकलेंगे।’
हालांकि यून के पास अब भी कुछ समर्थन है। सत्ताधारी दल के कुछ सांसदों ने राष्ट्रपति के समर्थन में आवाज उठाई है।
उनमें से एक हैं ह्वांग क्यो आह्न। वो भूतपूर्व प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में लिखा, ‘राष्ट्रीय संसद के स्पीकर वू वोन शिक और यून की पार्टी के नेता हान डोंग-हून को गिरफ्तार किया जाए, क्योंकि इन नेताओं ने राष्ट्रपति की ओर से लिए जाने वाले फैसले में अड़चन डालने की कोशिश की है।’
ह्वांग ने कहा, ‘अब उत्तर कोरिया के समर्थक समूहों को खत्म किया जाना चाहिए।’
उन्होंने अपील की कि राष्ट्रपति यून को इस मामले में मजबूती से जवाब देना चाहिए। साथ ही इस मामले की जांच करवाकर ऐसे नेताओं को बाहर करने के लिए सभी आपातकालीन अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए।
क्या राष्ट्रपति यून पर महाभियोग चलाया जाएगा?
अब सारी नजरें इस बात पर टिकी हैं कि क्या यून को अब महाभियोग का सामना करना पड़ेगा?
हालांकि वह दक्षिण कोरिया के पहले राष्ट्रपति नहीं होंगे, जो इस तरह की परिस्थिति का सामना करेंगे।
छह विपक्षी दलों ने यून के ख़िलाफ़ महाभियोग चलाए जाने का प्रस्ताव रखा है। 72 घंटों में इसके लिए मतदान होना चाहिए। सभी सांसद शुक्रवार (6 दिसंबर) या शनिवार (7 दिसंबर) को इसके लिए इक_ा होंगे।
इस प्रस्ताव को पास कराने के लिए 300 सदस्यों वाली संसद में दो तिहाई सांसदों यानी 200 वोट का होना जरूरी हैं। विपक्षी दलों के पास पर्याप्त संख्या है।
हालांकि यून की पार्टी ने भी उनके इस कदम की आलोचना की है, लेकिन पार्टी क्या निर्णायक फ़ैसला लेगी, यह सामने आना बाकी है।
ऐसे में यदि सत्ताधारी दल के कुछ सांसदों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया तो यह पास हो जाएगा।
यदि संसद इस प्रस्ताव को मंजूरी दे देती है, तो यून की ताकत तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दी जाएगी और प्रधानमंत्री हान दक-सू कार्यकारी राष्ट्रपति बन जाएंगे।
इस बीच, नौ सदस्यों की परिषद यानी संवैधानिक अदालत दक्षिण कोरिया की सरकार की शाखाओं की देख-रेख करेगी। इस मामले में इसे ही अंतिम फैसला लेना है।
यदि संवैधानिक अदालत ने महाभियोग के प्रस्ताव का समर्थन कर दिया तो यून को अपना पद छोडऩा होगा। और अगले 60 दिनों में राष्ट्रपति चुनाव हो जाएंगे।
यदि यह प्रस्ताव खारिज हो जाता है, तो यून राष्ट्रपति बने रहेंगे।
यह घटनाक्रम साल 2016 में हुए राष्ट्रपति पार्क ग्यून हे के निष्कासन की याद दिलाता है। इस मामले में यून ने अभियोजन पक्ष के भ्रष्टाचार मामले का नेतृत्व करने में अहम भूमिका निभाई थी।
पार्क को साल 2022 में रिहा कर दिया गया था। उन्होंने चार साल और नौ महीने जेल में बिताए थे।
इसी तरह साल 2004 में संवैधानिक अदालत ने संसद के महाभियोग के प्रस्ताव को पलट दिया था। इसके बाद राष्ट्रपति रोह मू-ह्यून अपने पद पर बने रहे थे।
क्या दक्षिण कोरिया में पहले भी मार्शल लॉ घोषित किया गया है?
यून का मार्शल लॉ लागू करना दक्षिण कोरिया में पिछले 45 सालों में किया गया ऐसा पहला ऐलान है। इसने देश के इतिहास में इस आपातकालीन कदम के गलत इस्तेमाल से जुड़े पुराने घावों को फिर हरा कर दिया है।
मार्शल लॉ का उद्देश्य राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति को संभालना था।
लेकिन इसके उलट यहां इसका इस्तेमाल असहमति को दबाने, अपनी सत्ता को बनाए रखने और लोकतंत्र को नुक़सान पहुंचाने के एक औजार के रूप में किया जाता रहा है। इस कारण इसकी आलोचना हुई है।
1948 में राष्ट्रपति सिंगमन री ने मार्शल लॉ घोषित किया था, जिसके कारण कई नागरिकों की मौत हुई थी।
राष्ट्रपति री के ऐसा कदम उठाने की वजह जेजू विद्रोह को दबाने था।
इसी तरह, साल 1960 में अप्रैल क्रांति के दौरान मार्शल लॉ का दुरुपयोग किया गया था।
उस समय चुनाव में धोखाधड़ी के खिलाफ एक रैली निकाली जा रही थी, जिसमें पुलिस ने एक हाई स्कूल छात्र को मार डाला था। इसके बाद राष्ट्रपति री की सरकार के खिलाफ विरोध और भी बढ़ गया था।
राष्ट्रपति पार्क चुंग-ही ने अपने शासन के दौरान सत्ता को मिल रही चुनौतियों को दबाने के लिए मार्शल लॉ लागू किया था। और उनकी हत्या के बाद 440 दिन तक मार्शल लॉ लागू रहा था।
इसी दौरान राष्ट्रपति चुन डू-ह्वान के शासनकाल में ग्वांग्जू नरसंहार हुआ।
ऐसी घटनाओं ने दक्षिण कोरिया के लोगों के लिए दर्दनाक यादें छोड़ दीं। इस कारण उन्होंने मार्शल लॉ को लोगों की सुरक्षा के उपाय की बजाय राजनीतिक ताकत इस्तेमाल करने के तरीके के तौर पर देखना शुरू किया।
1987 से दक्षिण कोरिया के संविधान में मार्शल लॉ घोषित करने की शर्तें सख्त कर दी गईं। इसके तहत, मार्शल लॉ लगाने या हटाने के लिए संसद की मंजूरी जरूरी है।
दक्षिण कोरिया में लोकतंत्र कितना स्थिर है?
यून सुक-योल की ओर अचानक उठाए गए इस कदम ने देश को स्तब्ध कर दिया।
क्योंकि दक्षिण कोरिया अब खुद को एक विकसित देश और आधुनिक लोकतंत्र मानता है। और वो तानाशाही के दौर से बहुत आगे बढ़ चुका है।
कई लोग ऐसी घटना को उस लोकतांत्रिक समाज के लिए बड़ी चुनौती के रूप में देखते हैं, जहां दशकों से ऐसा नहीं हुआ।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह दक्षिण कोरिया की लोकतांत्रिक छवि को अमेरिका में छह जनवरी को हुए दंगों से भी ज़्यादा नुकसान पहुंचा सकता है।
सियोल में ईवा विश्वविद्यालय की विशेषज्ञ लीफ-एरिक इस्ले ने कहा, ‘यून का मार्शल लॉ घोषित करना एक गलत राजनीतिक आकलन और क़ानूनी अतिक्रमण करने जैसा दिखता है, जो अकारण दक्षिण कोरिया की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा को ख़तरे में डाल रहा है।’
उन्होंने कहा, ‘वह एक ऐसे नेता लग रहे थे, जो पूरी तरह घिर चुके हैं। और लगातार बढ़ते घोटालों, संस्थागत बाधाओं और महाभियोग चलाए जाने की मांग के ख़िलाफ़ हताशा में कदम उठा रहे थे। जिनके अब और भी तेज़ होने की आशंका है।’
उत्तर कोरिया ने इस पर क्या कहा?
अपनी घोषणा में यून ने उत्तर कोरिया को निशाना बनाया था।
उन्होंने कहा था, ‘यह उत्तर कोरियाई कम्युनिस्ट ताकतों के ख़तरे से स्वतंत्र कोरिया गणराज्य की रक्षा करने’ और ‘लोगों की स्वतंत्रता और खुशी को लूटने वाले निष्ठुर उत्तर कोरियाई समर्थक और राज्य विरोधी ताकतों को समाप्त करने’ के लिए उठाया गया कदम था।
इस तरह की टिप्पणियों पर आमतौर पर उत्तर कोरिया की ओर से प्रतिक्रिया आती है। लेकिन, इस बार उत्तर कोरिया के सरकारी मीडिया की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।
दक्षिण कोरिया के सैन्य कमान ने बुधवार को एक बयान जारी करके कहा कि यून का मार्शल लॉ आदेश भंग कर दिया गया है और ‘उत्तर कोरिया की ओर से कोई असामान्य गतिविधियाँ नहीं देखी गईं।’
समाचार एजेंसी योन्हाप के अनुसार, इस बयान में यह भी कहा गया, ‘उत्तर कोरिया के खिलाफ सुरक्षा स्थिति स्थिर बनी हुई है।’ हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि यह अभी तक साफ नहीं है कि यून ने उत्तर कोरिया के खतरे की बात क्यों कही। लेकिन कई लोगों का मानना है कि इस बात से उत्तर और दक्षिण के बीच पहले से बढ़ रहा तनाव कम नहीं होगा।’ (bbc.com/hindi)
-दिलनवाज पाशा
बांग्लादेश ने चार महीने पहले हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से ऐसे कई कदम उठाए हैं, जिनसे उसके पाकिस्तान के साथ रिश्ते बेहतर होने के संकेत मिलते हैं।
बुधवार को बांग्लादेश ने पाकिस्तानी नागरिकों को वीजा देने के लिए जरूरी सुरक्षा जांच के नियम को भी हटा दिया।
बांग्लादेश के विदेश मंत्रालय ने कहा कि पाकिस्तान के नागरिकों के लिए वीजा प्रक्रिया को आसान किया जाएगा।
मंत्रालय ने कहा है कि पाकिस्तानी लोगों और पाकिस्तान मूल के लोगों को वीजा दिया जाए। वहीं, पाकिस्तान ने सितंबर में बांग्लादेश के नागरिकों के लिए वीजा फीस माफ कर दी थी और वीजा प्रक्रिया को आसान कर दिया था।
साल 2019 में शेख हसीना सरकार ने बांग्लादेश का वीज़ा लेने वाले सभी पाकिस्तानी नागरिकों के लिए बांग्लादेश की सिक्योरिटी सर्विस डिवीजन से सुरक्षा मंज़ूरी लेना अनिवार्य किया था।
अब इस नियम को भी हटा दिया गया है।
ये सत्ता परिवर्तन के बाद से बांग्लादेश के ऐसे कई क़दमों में से एक है, जिनसे ये संकेत मिलते हैं कि बांग्लादेश की अंतरिम सरकार पाकिस्तान के कऱीब दिखने की कोशिश कर रही है।
बांग्लादेश ने बदला रुख़
बांग्लादेश ने पाकिस्तान के साथ गोला बारूद की खऱीद के लिए रक्षा सौदे भी किए हैं और बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच पांच दशक बाद समुद्री रास्ते से कारोबार भी शुरू हुआ है।
पहली बार, पाकिस्तान का मालवाहक जहाज हाल ही में बांग्लादेश के चिट्टागांव बंदरगाह पहुंचा है।
यही नहीं, बांग्लादेश ने पाकिस्तान से 25 हजार टन चीनी खरीदने के लिए भी सौदा किया है। बांग्लादेश अब तक भारत से चीनी आयात करता रहा था।
शेख हसीना सरकार के जाने के कुछ वक्त बाद ही बांग्लादेश ने पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर गोला-बारूद खऱीदने के लिए सौदा किया।
1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश के अस्तित्व में आमने के बाद से, दोनों देशों के बीच रहे ऐतिहासिक तनाव को देखते हुए इस घटनाक्रम को अहम पड़ाव माना जा रहा है।
बांग्लादेश में शेख़ हसीना के शासन के दौरान भारत की तरफ झुकाव रहा और शेख हसीना सरकार ने भारत के साथ रिश्ते मज़बूत करने पर जोर दिया।
भारत से जुड़े बांग्लादेश के हित
बांग्लादेश के साथ करीब चार हजार किलोमीटर की सीमा साझा करने वाला भारत भी बांग्लादेश से रिश्ते मजबूत करने पर जोर देता रहा है।
और इसके लिए भारत ने बांग्लादेश में भारी निवेश भी किया। भारत बांग्लादेश को एक अहम रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखता रहा है।
यही वजह है कि पाकिस्तान की एक लंबे दौर तक बांग्लादेश से दूरी बनी रही।
लेकिन, अब ऐसा लग रहा है कि पाकिस्तान में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व में चल रही अंतरिम सरकार बांग्लादेश के भू-राजनैतिक दृष्टिकोण को बदल रही है। और भारत पर निर्भरता कम करने के प्रयास कर रही है।
बांग्लादेश भी पाकिस्तान के कऱीब जाकर शायद ये संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि वह अब दक्षिण एशिया की राजनीति को भारत के नज़रिए से नहीं देखेगा।
‘भारत को चिंता करने की जरूरत नहीं’
लेकिन विश्लेषकों को लगता है कि बांग्लादेश के लिए लंबे समय तक पाकिस्तान के कऱीब रहना आसान नहीं होगा।
अंतरराष्ट्रीय मामलों की जानकार स्मृति एस पटनायक कहती हैं, ‘बांग्लादेश भले पाकिस्तान के करीब जाता दिख रहा है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा होना आसान नहीं है। बांग्लादेश के आर्थिक हित भारत के साथ जुड़े हैं।’
हालांकि वो ये भी कहती हैं, ‘बांग्लादेश और पाकिस्तान दोनों ही स्वतंत्र देश हैं और कारोबारी रिश्ते बना सकते हैं, भारत को इसे लेकर चिंतित नहीं होना चाहिए।’
‘बाजार के अपने नियम हैं और बांग्लादेश के लिए भारत की जगह पाकिस्तान के साथ कारोबार को बढ़ावा देना उसके आर्थिक हित में नहीं होगा।’
हालांकि, विश्लेषक ये भी मान रहे हैं कि हाल के महीनों के जो घटनाक्रम हुए हैं, उनसे बांग्लादेश पाकिस्तान के करीब जाता हुआ दिख रहा है।
‘बांग्लादेश अस्थिरता के दौर में’
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार और जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं कि बांग्लादेश इस समय अस्थिरता के दौर में हैं।
उनका कहना है कि इस्लामी विचारधारा के करीब जाना वहां की अंतरिम सरकार की राजनीतिक मजबूरी भी है।
संजय भारद्वाज कहते हैं, ‘जब-जब बांग्लादेश में सरकार के सामने संकट आया है या फिर संवैधानिक संकट पैदा हुआ है, तब-तब तक बांग्लादेश, पाकिस्तान और इस्लामी विचारधारा के करीब दिखने की कोशिश करता रहा है।’
‘1975 में शेख़ मुज़ीबुर्रहमान की हत्या के बाद आए अगले शासन ने बांग्लादेश का इस्लामीकरण करने की कोशिश की।’
‘इसके बाद बांग्लादेश में सैन्य शासन के दौरान भी इस्लामीकरण की कोशिश हुई, ताकि बांंग्लादेश का एक वर्ग जो इस्लाम और पाकिस्तान के विचार में विश्वास करता है, उसका साथ मिल जाए।’
‘अब भी ऐसा लग रहा है कि वहां कि अंतरिम सरकार वैधता हासिल करने के लिए इस्लामी विचारधारा से प्रभावित वर्ग को अपने साथ लाने के प्रयास कर रही है।’
जब बांग्लादेश बना था
बांग्लादेश 1971 में हिंसक संघर्ष के बाद पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बना था और भारत में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने बांग्लादेशी राष्ट्रवादियों की सैन्य और राजनीतिक मदद की थी।
प्रोफ़ेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, ‘बांग्लादेश में जो बंगाली-सांस्कृतिक विचार है वह धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता है। बांग्लादेश की बंगाली संस्कृति धर्म निरपेक्ष और समावेशी है।’
‘यानी लोकतांत्रिक भारत के अधिक कऱीब है। ऐसे में नए शासन के लिए इस्लामी विचारधारा और पाकिस्तान के लिए कऱीब दिखना राजनीतिक मजबूरी अधिक नजऱ आती है।’
विश्लेषक ये भी मान रहे हैं कि पाकिस्तान के साथ संबंध मज़बूत करते दिखना बांग्लादेश की भारत को संदेश देने की कोशिश भी है।
स्मृति पटनायक कहती हैं, ‘शेख हसीना के दौर में दोनों देशों के बीच नजदीकी रिश्ते नहीं थे। लेकिन उस दौर में भी बांग्लादेश के राजनयिक पाकिस्तान में थे। हसीना के कार्यकाल के मुकाबले जरूर पाकिस्तान के साथ बांग्लादेश के रिश्ते बेहतर हो रहे हैं।’
उन्होंने बताया, ‘भले ही आर्थिक रूप से पाकिस्तान और बांग्लादेश के नजदीक आने में चुनौतियां हों लेकिन वैचारिक, राजनीतिक और सामाजिक रूप से पाकिस्तान और बांग्लादेश करीब आ सकते हैं।’
क्या भारत के लिए चिंता की बात?
बांग्लादेश में इस्लामी विचारधारा का मजबूत होना भारत के लिए चिंता का कारण हो सकता है।
हालांकि, ये सवाल भी है कि क्या 1971 युद्ध के बाद पाकिस्तान से अलग हुआ बांग्लादेश अब फिर से पाकिस्तान के इतना कऱीब आ सकता है कि भारत के लिए ख़तरा पैदा हो जाए?
विश्लेषक मानते हैं कि ऐसा होना आसान नहीं होगा।
प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, ‘1947 में बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था, लेकिन वह पाकिस्तान के साथ नहीं रह पाया। उसके सांस्कृतिक और भोगौलिक कारण थे। ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता कि बांग्लादेश और पाकिस्तान बहुत अधिक कऱीब आ पाएंगे।’
‘बांग्लादेश की बड़ी आबादी बंगाली राष्ट्रवाद, धर्म-निरपेक्षता और समावेशी व्यवस्था में यकीन करती है और यही विचारधारा बांग्लादेश को भारत के अधिक करीब ले आती है।’
लेकिन, बांग्लादेश का पाकिस्तान के कऱीब आना भारत के लिए कई स्तर पर चुनौती जरूर पैदा करेगा।
खासकर पूर्वोत्तर के साथ बांग्लादेश की लंबी सीमा को देखते हुए।
स्मृति पटनायक कहती हैं, ‘भारत की मुख्य चिंता सुरक्षा और पूर्वोत्तर में स्थिरता को लेकर होगी। भारत नहीं चाहेगा कि बांग्लादेश के साथ उसका सीमा क्षेत्र अस्थिर हो और वहां सीमा के उस पार से सुरक्षा ख़तरा पैदा हो। अगर बांग्लादेश पूर्वोत्तर के मिलिटेंट तत्वों को शरण देता है तो इससे भारत के लिए ज़रूर चिंता पैदा होगी।’
वहीं बांग्लादेश में इस्लामी विचारधारा और कट्टरवादी तत्वों का मजबूत होना भी भारत के लिए सुरक्षा चिंताएं पैदा कर सकता है।
स्मृति कहती हैं, ‘बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष ताकतें भी हैं, आगे ये देखना होगा कि वहां इस्लामवादी विचारधारा अधिक मजबूत होती है या धर्म निरपेक्ष।’
प्रोफेसर संजय भारद्वाज कहते हैं, ‘किसी भी पड़ोसी देश में राजनीतिक अस्थिरता, कट्टरवाद का उदय चिंताजनक होता है। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक वर्ग पर ख़तरा बढ़ जाता है।’
-डॉ.राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
सोशियल मीडिया में जिस तरह से आजकल शार्टकट मैसेज को प्राथमिकता दी जाने लगी है वह किसी मानसिक प्रताडऩा से कम कर नहीं आंकी जा सकती। कारण भी साफ है सोशियल मीडिया के संदेशों को डीकोड करने की अपनी समस्या सामने आने लगी है। यह कोई कपोल कल्पित परिकल्पना नहीं अपितु अमेरिका के स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अनुसंधान कर्ताओं के एक दो नहीं अपितु 8 शोध का परिणाम है। यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं या यों कहें कि सर्वेकर्ताओं को शोध परिणाम जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी के अंक में प्रकाशित हुआ है। दरअसल आज के व्यक्ति को फुर्सत ही नहीं है अपनी बात दूसरे को सलीके से कहने की। जिस तरह से आज दैनिक जीवन में शार्टकट का सिलसिला चल निकला है ठीक उसी तरह से एक दूसरे को मैसेज भी शार्टकट में दिए जाने लगे हैं। कई बार तो हालात यह हो जाती है कि सामने वाला उसे डीकोड करने में बुरी तरह से झुंझलाने लगा है। हो यह रहा है कि हम लाख होशियार हो पर सोशियल मीडिया के माध्यम से कम्यूनिकेशन का जो तरीका अपनाया जाने लगा है वह सामने वाले के लिए एक नया तनाव का कारण बनता जा रहा है।
बानगी के रुप में देखे तो आने वाले नए साल को लेकर एक मैसेज ड्ब्लूटीएफ इन दिनों बहुत चल रहा है। अब इस मैसेज को डीकोड करने में दो तरह की परेशानी से दो चार होना पड़ रहा है। मैसेजकर्ताओं द्वारा ड्ब्लूटीएफ का उपयोग मानव इतिहास के सबसे डऱावने सालों में से एक 2020 से जोडक़र किया जा रहा है। सीधे सीधे रुप से बात करें तो यह मैसेज आने वाले साल की शुरुआत वेडनेसडे, थर्सडे और फ्राईडे यानी कि ड्ब्लूटीएफ से कर रहे हैं और लोगों को कोरोना त्रासदी की और ध्यान दिलाते हुए कि 2020 में भी साल की शुरुआत इसी तरह से हुई थी ऐसे में यह संदेश दिया जा रहा है कि आने वाला साल 2020 जितनी भले ही नहीं हो पर संकटपूर्ण होगा। यह केवल कपोल कल्पना हो सकती है पर इसका धडल्ले से उपयोग हो रहा है। दूसरी और इस ड्ब्लूटीएफ का ही दूसरा मतलब है कि व्हाट द फक यानी कि क्या मजाक है। यानी इस एक शार्टकट मैसेज के माध्यम से सोशियल मीडिया पर ड्ब्लूटीएफ के माध्यम से डऱावना भी बताया जा रहा है तो दूसरी और ड्ब्लूटीएफ को क्या मजाक है के रुप में पहले अर्थ या पहली व्याख्या को नकारा भी जा रहा है। यह तो एक मिसाल मात्र है।
मजे की बात यह है कि सोषियल मीडिया पर मैसेज के माध्यम से ही बहुत बड़ी संख्या में लागों की शुरुआत होने लगी है। वह जीएम यानी कि गुड़ मोर्निंग से शुरु होते हुए जन्म दिन की शुभकामनाएं तो एचबीडी, डीएलवाई मतलब अपने आप करों, फोमो यानी की कुछ छूट जाने का डऱ, ओटी मतलब ऑपरेशन थियेटर ना होकर विषय से परे या यों कहे कि आउट ऑफ टोपिक, एनपी लिखकर आप कोई प्रोबलम नहीं का संदेश दे देते हो। किसी का फोन आया और आप बात नहीं कर पाये तो टीटीवाईएल मैसेज कर देते हो जिसे डीकोड करने पर ही पता चलता है कि टाक टू यू लेटर यानी बाद में बात करता हूं। कोई जानकारी आपसे चाहता है तो आप शार्टकट के सहारे आईडीके लिख कर इतिश्री कर लेते हैं अब समझने वाला अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाकर डीकोड करेगा कि आप कहना चाहते हैं कि आई डोन्ट नो। यह तो कुछ उदाहरण मात्र है जिनका उपयोग अत्यधिकता में होने लगा है। यह तो टैक्स्ट मैसेज की बात है इमोजी मैसेज की दुनिया तो इससे भी अलग है। मजे की बात यह है कि इनका प्रयोग बहुतायत में होने लगा है।
दरअसल कम्यूनिकेशन भी एक कला है। एक समय था जब बच्चों की कम्यूनिकेशन स्कील विकसित की जाती थी। अब सोशियल मीडिया के इस जमाने में कम्यूनिकेशन स्कील तो दूर की बात शार्टकट के आधार पर ही काम चलाया जा रहा है। मजे की बात यह है कि सामने वाले से यह अपेक्षा की जाती है कि उसे सबकुछ मालूम है। जबकि मैसेज प्राप्त करने वाले इसी उधेड़बुन में उलझ जाता है कि इसका मतलब क्या है? दूसरा से भी संकोच के कारण पूछ नहीं पाता। मनोचिकित्सक डॉ. नावा सिलटॉन का मानना है कि इस तरह के मैसेज सामने वाले में झुंझलाहट पैदा करने से अधिक कुछ नहीं कर पाता। देखा जाए तो बिना मांगे मानसिक तनाव प्राप्त करना है। देखा जाए तो कोई भी मैसेज करने की सार्थकता इस में होनी चाहिए कि सामने वाला एक नजर में समझ जाएं कि मैसेज में कहना क्या चाहा गया है। मजे की बात यह है कि आज की पीढ़ी पर भी इसका विपरीत परिणाम सामने आने लगा है। शार्टकट से काम चलाने के चक्कर में मैसेज के साथ जो भावनात्मकता होती है वह कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देती और केवल डीकोड करने में ही समय जाया हो जाता है।
शेख़ हसीना के सत्ता से बेदख़ल होने के बाद बांग्लादेश और पाकिस्तान में करीबी बढ़ाने की वकालत कई स्तरों पर हो रही है।
बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने भी ऐसे कई संकेत दिए हैं। मसलन पिछले महीने पाकिस्तान का मालवाहक पोत कराची से बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह पर पहुँचा था। बांग्लादेश बनने के बाद दोनों देशों के बीच यह पहला समुद्री संपर्क था।
तीन दिसंबर को पाकिस्तानी मीडिया में ख़बर छपी कि दशकों बाद बांग्लादेश ने पाकिस्तान से 25,000 टन चीनी आयात की है, जो अगले महीने कराची बंदरगाह से बांग्लादेश चटगाँव बंदरगाह पर पहुँचेगी।
पाकिस्तानी अख़बार द न्यूज ने लिखा है, ‘इससे पहले बांग्लादेश भारत से चीनी आयात करता था।’
बांग्ला अखबार ढाका पोस्ट की खबर को शेयर करते हुए बांग्लादेश के सुमोन कैस नाम के एक सोशल मीडिया यूजर ने लिखा है, ‘चीनी का आयात पहले भारत से होता था। लेकिन अब उसने यह मौका खो दिया है। 2014 के बाद बांग्लादेश के पशु बाजार से भी भारत बाहर हो गया है। मैं इस बात को लेकर भी आश्वस्त हूँ कि आने वाले वक्त में भारत का कॉटन भी बांग्लादेश नहीं आएगा।’
‘एक दिन ऐसा भी आएगा, जब बांग्लादेश और भारत का द्विपक्षीय व्यापार 16 अरब डॉलर से कम होकर एक या दो अरब डॉलर तक सीमित हो जाएगा। दुनिया आगे बढ़ रही है लेकिन भारत? हम खरीददार हैं और हमारे पास पैसे हैं, ऐसे में हमें जहाँ से खरीदने का मन होगा, वहाँ से खरीदेंगे। थर्ड क्लास की नीति दादागिरी अब नहीं चलेगी।’
पिछले महीने के आखिरी हफ्ते में पाकिस्तानी सिंगर आतिफ असलम का ढाका में कार्यक्रम था। इसमें हजारों लोगों की भीड़ जुटी थी। 29 नवंबर को आतिफ असलम का एक वीडियो भी वायरल हुआ, जिसमें दिख रहा है कि वह ढाका की सडक़ पर बैठकर नमाज पढ़ रहे हैं।
‘पाकिस्तान का परमाणु बम आपके लिए’
सोशल मीडिया पर एक वीडियो क्लिप वायरल हो रहा है। वीडियो में दिख रहा है कि भीड़ को एक व्यक्ति मंच से संबोधित कर रहा है। इनमें से दो लोगों के हाथ में पाकिस्तान और बांग्लादेश के राष्ट्रध्वज हैं।
वह व्यक्ति कह रहा है, ‘आज हम अपने बंगाली भाइयों को जवाब देते हैं। उन्हें बताते हैं कि भाई यह पाकिस्तान तुम्हारा है।’
‘इस पाकिस्तान का जो एटम बम है न, वो भी तुम्हारा है। आए ज़ुर्रत करे कोई, बांग्लादेश की तरफ आँख उठाकर देखने की, उसकी आँखें निकाल देंगे। अल्ला के फजल से हम बांग्लादेश पर हाथ उठाने वाले के बाज़ू तोड़ देंगे। मैं उस मुल्क का नाम नहीं लेना चाहता।’
भीड़ इस संबोधन पर उत्साह से लबरेज होकर ताली बजाती है और फिर बांग्लादेश जि़ंदाबाद के नारे लगते हैं। इसी तरह बांग्लादेश में ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शाहिदुज्ज़मां का वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें वह पाकिस्तान के साथ परमाणु समझौते की वकालत कर रहे हैं। यह वीडियो अगस्त में शेख हसीना के सत्ता से बेदखल होने के बाद सितंबर महीने का है।
रिटायर्ड आर्म्ड फ़ोर्सेज ऑफिसर्स वेलफेयर्स असोसिएशन के एक सेमिनार को संबोधित करते हुए प्रोफेसर शाहिदुज्जमां ने कहा था, ‘हमें पाकिस्तान के साथ परमाणु करार करना चाहिए। बिना गठजोड़ और तकनीक के भारत का सामना नहीं किया जा सकता है। भारत को लगता है कि बांग्लादेश पूर्वोतर का उसका कोई आठवां राज्य है। भारत की इस अवधारणा को परमाणु ताकत से ही तोड़ा जा सकता है।’
प्रोफेसर शाहिदुज्जमां ने कहा था, ‘बांग्लादेश में ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि यह अवास्तविक है और साथ ही बहुत महंगा है। परमाणु ताक़त केवल इसे बनाने से ही हासिल नहीं होती है बल्कि हम पाकिस्तान से कऱार कर सकते हैं। बांग्लादेश के लिए पाकिस्तान सबसे भरोसेमंद रक्षा साझेदार है। भारत नहीं चाहता है कि पाकिस्तान के साथ संबंध अच्छा रहे। हम पाकिस्तान की मदद से उत्तर बंगाल में मिसाइल तैनात कर सकते हैं।’
पाकिस्तान के लिए मौक़ा?
प्रोफ़ेसर शाहिदुज्ज़मां के इस बयान को पाकिस्तानी मीडिया में भी काफ़ी तवज्जो मिली थी। पाकिस्तान के प्रमुख अंग्रेजी अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने प्रोफेसर शाहिदुज्ज़मां का हवाला देते हुए लिखा था कि अब बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच चीजें तेजी से बदल रही हैं।
प्रोफेसर शाहिदुज्ज़मां की यह बात पाकिस्तान में हाथोंहाथ ली गई। पाकिस्तानी पत्रकार कामरान युसूफ ने लिखा, ‘ढाका यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रोफेसर शाहिदुज्ज़मां ने भारत का सामना करने के लिए पाकिस्तान से परमाणु करार का प्रस्ताव रखा है।’
कामरान ने लिखा है, ‘जब वह प्रस्ताव रख रहे थे तो बांग्लादेश के लोगों ने तालियों की गडग़ड़ाहट के साथ स्वागत किया। यहाँ तक कि प्रोफेसर शाहिदुज्ज़मां ने पाकिस्तान की मध्यम दूरी की गौरी मिसाइल भारत से लगी सीमा पर तैनात करने की वकालत की।’
‘एक दिन बाद एक और प्रोफेसर ने शाहिदुज्ज़मां के आइडिया का समर्थन किया। मैंने प्रोफ़ेसर शाहिदुज्ज़मां के वीडियो के नीचे कॉमेंट को स्क्रॉल कर देखा तो बांग्लादेश के लोग भारी समर्थन दे रहे थे। एक भी कॉमेंट प्रोफ़ेसर शाहिदुज्ज़मां के आइडिया के खिलाफ नहीं था।’
कामरान युसूफ लिखते हैं, ‘सवाल ये नहीं है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच परमाणु करार संभव है या नहीं। अहम बात यह है कि बांग्लादेश के लोग पाकिस्तान को लेकर बदल रहे हैं। बंगालियों के साथ पाकिस्तान ने नाइंसाफी की थी लेकिन वो धूल अब छँट चुकी है। प्रोफेसर शाहिदुज्ज़मां ने भी कहा कि 1971 में जो कुछ हुआ था, उससे पाकिस्तानी भी दुखी थे। कुछ महीने पहले तक बांग्लादेश में ऐसी सोच अकल्पनीय थी। शेख हसीना के प्रधानमंत्री रहते पाकिस्तान के साथ ऐसी गर्मजोशी असंभव थी।’
‘मोहम्मद युनूस से पीएम मोदी नहीं मिले’
अमेरिका में बांग्लादेश के राजदूत रहे एम हुमायूं कबीर का मानना है कि भारत के साथ संबंधों में जटिलता बढ़ती जा रही है।
हुमायूं कबीर ने बांग्लादेश के अख़बार प्रोथोमआलो से कहा, ‘भारत के साथ बांग्लादेश के संबंध बहुआयामी रहे हैं। अभी भारत के साथ बांग्लादेश के आर्थिक संबंध एकतरफा है। हम भारत से बिजली, डीज़ल, चावल, प्याज और आलू आयात करते हैं। लेकिन बांग्लादेश से भारत बहुत कम चीज़ों का निर्यात होता है।’
‘भारत के साथ हमारा सांस्कृतिक संबंध भी रहा है। बांग्लादेश से बड़ी संख्या में लोग दिल्ली पढ़ाई करने जाते थे। पिछले 15 सालों में बांग्लादेश के लोगों को भारत जाने के लिए वीज़ा आसानी से मिल जाता था लेकिन अगस्त के बाद से वीज़ा को लेकर सख्ती बढ़ गई है। भारत अगर संबंधों को ठीक करना चाहता है तो उसे वीज़ा देने की प्रक्रिया को उदार बनाना चाहिए।’
हुमायूं कबीर कहते हैं, ‘दोनों देशों के बीच तनाव इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि भारत ने पाँच अगस्त के बाद बांग्लादेश की घरेलू राजनीति की हकीकत को स्वीकार नहीं किया। बांग्लादेश को भी सतर्क रहना चाहिए कि हालात कहीं बेकाबू ना हो जाएं। मुझे लगता है कि दोनों देशों में लोगों को उकसाने वाली गतिविधियां नहीं होनी चाहिए।’
हुमायूं कबीर ने कहा, ‘बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद डॉ़ मोहम्मद युनूस ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत के साथ संबंध बराबरी के आधार पर आगे बढ़ेगा। भारत के पत्रकारो से बात करते हुए भी मोहम्मद युनूस ने कहा था कि वह द्विपक्षीय संबंध बेहतर करना चाहते हैं।’
‘बांग्लादेश ने सितंबर में कोशिश की थी कि न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की आमसभा के दौरान मोहम्मद युनूस की पीएम मोदी से मुलाकात हो लेकिन नहीं हो पाई। पाँच अगस्त के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों को सुधारने के लिए बहुत कोशिश नहीं की गई है।’
हुमायूं कबीर कहते हैं, ‘समस्या यह है कि बांग्लादेश में हुए राजनीतिक परिवर्तन को भारत स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इन्हें लगता था कि बांग्लादेश की केवल एक पार्टी से संबंध मजबूत रखना काफ़ी है। सभी को पता है कि 2014 में भारत की तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ने बांग्लादेश में चुनाव को कैसे प्रभावित किया था। इसे हमने 2018 और 2024 में भी देखा। भारत को यह समझना चाहिए कि बांग्लादेश के लोग क्या चाहते हैं।’
भारतीय मीडिया से नाराजग़ी
बांग्लादेश में भारतीय मीडिया को लेकर भी काफी ग़ुस्सा है। बांग्लादेश के अंग्रेजी अखबार द डेली स्टार की पत्रकार नाजिबा बशर ने भारतीय मीडिया की कवरेज को लेकर ही अपने डिजिटल एडिटर एस्तानी अहमद से बात की।
अहमद ने इस बातचीत में कहा, ‘बांग्लादेश में जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ, उसे लेकर भारतीय मीडिया में किसी विदेशी साजिश की बात कही जाने लगी। भारतीय मीडिया आउटलेट्स में इसके पीछे अमेरिका, पाकिस्तान और चीन की साजिश की बात कही जाने लगी।’
‘शेख हसीना के जाने के बाद भारतीय मीडिया में कहा जाने लगा कि बांग्लादेश अब पाकिस्तान की तरह इस्लामिक देश बन जाएगा। अगर भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात होती है तो भारतीय मीडिया को दिक्कत नहीं होती है लेकिन बांग्लादेश अगर मान लीजिए कि इस्लामिक देश बन भी जाता है तो इंडियन मीडिया को समस्या होने लगती है। ये मानकर चलते हैं कि इस्लामिक देश होने का मतलब हिंसक होना है।’
अहमद ने कहा, ‘बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से पहले यहाँ विदेशी पत्रकारों को वीजा के लिए कम से कम एक हफ्ता लग जाता था लेकिन अब एक रात में ही वीजा मिल जा रहा है। मोहम्मद युनूस चाहते हैं कि विदेशी पत्रकार आएं और सच्चाई देखें। सच्चाई वो नहीं है जो भारतीय मीडिया में दिखाया जा रहा है।’ (bbc.com/hindi)
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल को सोमवार को अकाल तख़्त की ओर से धार्मिक सजा सुनाई गई थी।
अकाल तख़्त सिख धर्म से जुड़ी सबसे बड़ी धार्मिक संस्था है और उसे ये अधिकार है कि वो अपराधों के लिए किसी भी सिख को तलब करे और उसके खिलाफ धार्मिक सज़ा का एलान करे, जिसे ‘तन्खाह’ कहते हैं
सिख परम्पराओं के अनुसार, अगर कोई सिख, सिख धर्म के सिद्धांतों के खिलाफ काम करता है या सिख समुदाय की भावनाओं के विपरीत काम करता है तो उसे अकाल तख़्त की ओर से धार्मिक सजा सुनाई जा सकती है।
दो दिसम्बर को सिख प्रतिनिधियों और सिखों के पांच प्रमुख धर्म स्थलों के मुखिया की अकाल तख़्त में मीटिंग हुई थी। और इसी मीटिंग में सुखबीर बादल समेत 2007 से 2017 के बीच उनके कैबिनेट में मंत्री रहे अधिकांश लोगों को धार्मिक सज़ा दी गई।
अकाल तख्त की ओर से 2015 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) की कार्यकारिणी के सदस्यों और तख़्तों के कुछ पूर्व जत्थेदारों को भी समन किया गया था।
अकाली नेतृत्व को क्यों सजा दी गई?
साल 2007 से 2017 के बीच पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-बीजेपी की गठबंधन सरकार थी।
दिवंगत अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल इस सरकार में मुख्यमंत्री थे जबकि सुखबीर बादल पार्टी के अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री थे।
अकाली दल के नेतृत्व पर सिख धर्म के सिद्धातों और सिख समुदाय की भावनाओं के विपरीत काम करने का आरोप है।
साल 2015 में पंजाब के बरगारी में गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान हुआ था। गुरुग्रंथ साबिह के अपमान के विरोध में हुए प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग में दो सिख युवकों की मौत हो गई थी।
कथित तौर पर डेरा सच्चा सौदा प्रमुख राम रहीम के अनुयायियों पर अपमान करने के आरोप लगाए गए थे।
अक्तूबर में राम रहीम के ख़िलाफ़ अपमान के मामले में सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही फिर से शुरू हुई।
साल 2007 में बठिंडा के सलबतपुरा में जुटे अपने अनुयायियों के बीच राम रहीम ने गुरु गोबिंद सिंह की नकल की थी। इस घटना के बाद डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों और सिखों के बीच झड़प हुई।
साल 2007 में अकाल तख़्त ने राम रहीम के बहिष्कार का आदेश जारी किया था।
यह सज़ा इस आरोप के तहत दी गई है कि 2007 में सिख समुदाय ने राम रहीम का बहिष्कार किया था इसके बावजूद अकाली नेतृत्व ने उनसे संबंध बनाए रखे। आरोप ये भी है कि कथित तौर पर बाद अकाली नेतृत्व ने अकाल तख्त की ओर से उन्हें माफ़ी दिलाने में मदद की।
सजा की घोषणा करते हुए जत्थेदार ने पार्टी की कार्यकारिणी को बादल का इस्तीफा स्वीकार करने और सदस्यता अभियान शुरू करने के लिए कमेटी के निर्माण की घोषणा करने को कहा।
दो दिसम्बर को अकाल तख़्त में क्या हुआ?
जत्थेदार अकाल तख़्त रघबीर सिंह और अन्य जत्थेदारों ने अकाल तख्त परिसर हाथ बांधे खड़े अकाली नेतृत्व से कई सवाल पूछे।
अकाल तख्त के मंच से खड़े होकर जत्थेदार रघबीर सिंह ने सुखबीर सिंह बादल से सात सवाल पूछे, जिसका उन्होंने सकारात्मक जवाब दिया।
जत्थेदार ने पूछा, ‘सरकार में रहते हुए, क्या आपने सिखों की हत्या के लिए जि़म्मेदार अधिकारियों को पदोन्नति करने और उनके परिवारों को टिकट देने का पाप किया है? क्या आपने गुरमीत राम रहीम के मुकदमे को रद्द कराने का पाप किया है? क्या आपने अपने चंडीगढ़ के आवास पर जत्थेदारों को बुलाया और राम रहीम को माफी दिलाने का पाप किया है?’
उन्होंने आगे पूछा, ‘क्या आपने राम रहीम को माफी देने को सही ठहराने के लिए अखबारों में विज्ञापन देने के लिए एसजीपीसी फंड का दुरुपयोग करके पाप किया है?’
अकाली नेतृत्व से पूछा गया था कि क्या वे इन घटनाओं से वाकिफ़़ थे और इसके खिलाफ आवाज उठाई थी?
अकाली नेता किस तरह की सजा भुगत रहे हैं?
शिरोमणि अकाली दल के नेताओं की बात सुनने के बाद, अकाल तख़्त के जत्थेदारों और अन्य सिख प्रतिनिधियों ने फ़ैसले के लिए एक और बैठक की।
अकाल तख़्त मंच से खड़े होकर जत्थेदार रघबीर सिंह ने कहा, ‘अकाली नेताओं ने अपनी ग़लतियां स्वीकार कर ली हैं, इसलिए वे तीन दिसंबर से सेवा (तन्खा) करेंगे। वो दोपहर 12 से एक बजे तक स्वर्ण मंदिर परिसर के शौचालयों की सफाई करेंगे और दरबार साहिब प्रबंधक उनकी हाजिऱी लेंगे। इसके बाद स्नान कर बर्तन धोएंगे, गुरबाणी सुनेंगे और उसका पाठ करेंगे। इस दौरान वो गले में एक तख्ती भी लटकाएंगे।’
पैर में चोट के कारण सुखबीर और एक अन्य वरिष्ठ नेता सुखदेव सिंह ढींडसा के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए, उन्हें दो दिनों तक दो-दो घंटे व्हीलचेयर पर दरबार साहिब के द्वार पर बैठने, एसजीपीसी कर्मचारी की वर्दी पहनने और हाथों में भाला रखने की सज़ा सुनाई गई है।
ये दोनों नेता, पंजाब के दो अन्य तख़्तों और फतेहगढ़ साहिब के गुरुद्वारे में भी दो-दो दिन सेवा देंगे।
इसके अलावा, जत्थेदार ने एलान किया, ‘पूर्व जत्थेदार ज्ञानी गुरबचन सिंह को दी गई सभी सुविधाएं वापस ले ली जाएंगी, जिन्होंने कथित तौर पर बादल परिवार के प्रभाव में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को माफ कर दिया था। उन्हें सार्वजनिक कार्यक्रमों में बोलने की मनाही होगी।?
साथ ही उन्होंने सुखबीर बादल, सुच्चा सिंह लंगाह, गुलजार सिंह, दलजीत सिंह चीमा, बलविंदर सिंह भूंदड़ और हीरा सिंह गाबरिया से डेरा सच्चा सौदा से संबंधित विज्ञापनों पर खर्च किए गए धन की ब्याज सहित वसूली का भी निर्देश दिया।
दो दिसंबर को दिए गए फैसले में अकाल तख़्त ने 2011 में दिवंगत प्रकाश सिंह बादल को अकाल तख्त द्वारा दी गई पंथ रतन फख्र-ए-कौम की उपाधि भी वापस ले ली गई है। प्रकाश सिंह बादल पहले राजनेता थे जिन्हें यह उपाधि दी गई थी।
अकाल तख़्त क्या है और इसका सिख समुदाय के लिए क्या महत्व है?
दरबार साहिब सिखों की आध्यात्मिक शक्ति संस्था है, जबकि इस परिसर में बना अकाल तख़्त सिख समुदाय की स्वतंत्र पहचान का प्रतीक है।
सिखों के पांच तख़्त हैं- अकाल तख्त (अमृतसर), तख़््त केशगढ़ साहिब (आनंदपुर साहिब), तख्त दमदमा साहिब (तलवंडी साबो), तख्त श्री पटना साहिब (बिहार) और तख्त श्री नांदेड़ साहिब (महाराष्ट्र)।
सिखों के पांच तख़्तों में, अकाल तख़्त सबसे प्रमुख है और यह एकमात्र तख़्त है जिसे सिख गुरु ने स्थापित किया है।
अकाल तख्त को छठे गुरु, गुरु हरगोविंद साहिब ने खुद 15 जून 1606 में स्थापित किया था। इसका असली नाम अकाल बंगा था।
सिख धर्म की परम्पराओं के अनुसार, अकाल तख़्त का दजऱ्ा सबसे ऊपर है।
अकाल तख़्त की ओर से सिख़ों के लिए जारी किए जाने वाले आदेश को हुक्मनामा कहा जाता है, जिसका पालन करना हर सिख के लिए अनिवार्य है।
सजा सुनाने की क्या प्रक्रिया है?
चाहे कोई सिख कितना भी गणमान्य और शक्तिशाली क्यों न हो, अगर वह सिख धर्म के सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाता है, तो कोई भी सिख या संगठन उसकी शिकायत अकाल तख़्त से कर सकता है।
कोई मुद्दा आने पर अमृतसर के अकाल तख़्त सचिवालय में, अकाल तख़्त के जत्थेदार के नेतृत्व में पांच तख्तों के प्रतिनिधियों की बैठक होती है।
अगर किसी तख़्त का जत्थेदार इस बैठक में शामिल नहीं हो सकता है, तो उसके प्रतिनिधि के शामिल होने की उम्मीद की जाती है, या फिर दरबार साहिब (स्वर्ण मंदिर) के मुख्य ग्रंथी को बैठक में शामिल किया जा सकता है।
जत्थेदार बैठक में शिकायत पर विचार करते हैं और संबंधित व्यक्ति से सफाई मांगते हैं। अगर जत्थेदार उत्तर से संतुष्ट नहीं होता है, तो उस व्यक्ति को दोषी घोषित कर दिया जाता है।
इसके बाद उस व्यक्ति को अकाल तख़्त के सामने पेश होने के लिए बुलाया जाता है। जत्थेदार अकाल तख़्त के मंच पर और आरोपी को संगत के सामने खड़ा किया जाता है।
अकाल तख़्त जत्थेदार संबंधित व्यक्ति के खिलाफ आरोपों को पढ़ता है और उससे जवाब देने के लिए कहता है। अगर वह अपना गुनाह कबूल कर लेता है या जत्थेदारों के अनुसार उस पर लगे आरोप सही साबित हो जाते हैं तो उसे धार्मिक सज़ा सुनाई जाती है।
अगर कोई व्यक्ति सज़ा स्वीकार नहीं करता या अकाल तख़्त के सामने हाजिर नहीं होता है तो उसे समुदाय से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
लेकिन अगर व्यक्ति अपनी ग़लती स्वीकार कर लेता है और अकाल तख़्त के सामने हाजिऱ होता है, तो उसे धार्मिक दंड भी दिया जा सकता है और सिख समुदाय में बहाल भी किया जा सकता है।
अन्य सिख नेता जिन्हें धार्मिक सजा मिल चुकी है
1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद अकाल तख़्त की इमारत क्षतिग्रस्त हो गई थी। बाद में भारत सरकार ने इसकी मरम्मत करवाई।
तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह और बुड्ढा दल के संता सिंह ने भारत सरकार की ओर से इसकी मरम्मत की जिम्मेदारी ली थी।
सरकारी सहायता से बनी इस इमारत को सिखों ने मंजूरी नहीं दी और 1986 में सरबत खालसा (सिखों की बैठक) बुलाकर इसे गिराने का फैसला किया गया।
संता सिंह को सिख समुदाय से बहिष्कृत कर दिया गया और ‘तंखाहिया’ घोषित कर दिया गया। उन्होंने अपनी गलती स्वीकार की थी और अकाल तख्त के सामने हाजिर हुए और उन्हें धार्मिक सज़ा कबूल की।
अकाल तख्त साहिब पर हमले के समय बूटा सिंह केंद्रीय गृह मंत्री थे और ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे। दोनों माफी के लिए अकाल तख्त साहिब के सामने पेश हुए थे।
2017 में पंजाब का विधानसभा चुनाव हारने के बाद 2018 में प्रकाश सिंह बादल खुद पूरे शिरोमणि अकाली दल नेतृत्व के साथ अकाल तख़्त के सामने हाजिर हुए और स्वर्ण मंदिर में जूते और बर्तन साफ करने की सेवा की। (bbc.com/hindi)
-जेम्स फिट्जगेराल्ड
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने बेटे हंटर बाइडन को प्रेसिडेंशियल पार्डन यानी राष्ट्रपति क्षमादान दिया है। हंटर दो आपराधिक मामलों में सज़ा का सामना कर रहे थे।
उनके इस कदम ने विवाद पैदा कर दिया है क्योंकि जो बाइडन ने पहले इस तरह का क्षमादान देने से इंकार कर दिया था। लेकिन उन्होंने तर्क किया कि उनके बेटे के खिलाफ मामला राजनीति से प्रेरित था।
अमेरिकी राजनीति के दोनों ध्रुवों से आने वाले राष्ट्रपतियों ने अपने कऱीबियों को क्षमादान देने के लिए राष्ट्रपति पद के विशेष अधिकार का इस्तेमाल किया है।
हंटर बाइडन ने क्या किया था?
हंटर बाइडन पर दो संघीय आपराधिक मामले चल रहे थे और उन्हें दोषी भी कऱार दिया गया था। इसी महीने के अंत में उन्हें सज़ा भी होने वाली थी।
बंदूक खऱीदने के मामले में हंटर बाइडन को जून में दोषी कऱार दिया गया था। अमेरिका के इतिहास में ये पहली बार हुआ है जब किसी मौजूदा राष्ट्रपति की संतान को किसी मामले में दोषी ठहराया गया है।
डेलावेयर में चल रहे मुक़दमे में हैंडगन खऱीदने के दौरान ड्रग इस्तेमाल को लेकर ग़लत जानकारी देने के सभी तीन आरोपों में उन्हें दोषी ठहराया गया था।
अमेरिका में बंदूक खऱीदते वक़्त झूठा बयान देने के लिए दस साल तक की सज़ा हो सकती है।
वहीं, यदि कोई व्यक्ति जिसे ड्रग्स लेने की लत हो, अवैध रूप से बंदूक रखता है तो उसे दस साल की सज़ा हो सकती है।
किसी संघीय लाइसेंसधारी बंदूक विक्रेता को बंदूक खरीदते वक्त झूठी जानकारी देने के आरोप में पांच साल तक की सजा होती है। यदि हंटर बाइडन को इन तीनों ही आरोपों में अधिकतम सजा दी जाती तो उन्हें 25 साल तक की सज़ा हो सकती थी।
बीते सितंबर में टैक्स चोरी के एक अन्य मामले में उन्होंने अपराध स्वीकार किया था और इस मामले में भी सज़ा होनी थी।
उन पर 2016 से 2019 के बीच टैक्स चोरी से जुड़े कुल 9 आरोप लगे थे जिनमें टैक्स रिटर्न और टैक्स न भरना और ग़लत रिटर्न भरना शामिल है।
टैक्स मामले में उन्हें अधिकतम 17 साल की सज़ा हो सकती थी। न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक्सपर्ट्स के हवाले से कहा है कि हालांकि उनकी टैक्स देनदारी को कम करने और दोनों सजाओं के एक साथ होने की संभावना ज़्यादा थी।
राष्ट्रपति क्षमादान क्या है?
अमेरिकी संविधान के अनुसार, ‘राष्ट्रपति के पास महाभियोग को छोडक़र अमेरिका के खिलाफ किए गए किसी भी अपराध के लिए माफ़ी देने या सज़ा कम करने की व्यापक शक्ति होती है।’
इस मामले में ‘राष्ट्रपति की पूर्ण और बिना शर्त माफ़ी" दी गई है उसमें हंटर बाइडन को जनवरी 2014 से लेकर दिसम्बर 2024 के बीच किए गए सभी संघीय अपराधों में सज़ा से छूट मिल गई है।
यह एक ऐसी क़ानूनी माफ़ी है जो भविष्य में होने वाली किसी सज़ा को भी समाप्त कर देती है और वोट देने या सार्वजनिक पद की दौड़ में शामिल होने के अधिकारों को बहाल करती है।
हालांकि माफ़ी देने का अधिकार बहुत व्यापक माना जाता है और इसकी कोई सीमा नहीं होती है। हालांकि एक राष्ट्रपति केवल संघीय अपराधों के मामलों में ही माफ़ी जारी कर सकता है।
यह मुद्दा इस समय इसलिए सुर्खियों में है क्योंकि एक पॉर्न फि़ल्म स्टार को चुपचाप भुगतान किए जाने के मामले में डोनाल्ड ट्रंप की सज़ा पर भी संशय पैदा हो गया है।
हालांकि जब जनवरी में वह व्हाइट हाउस लौटेंगे तो प्रांतीय स्तर पर चल रहे इस मुकदमे में खुद को माफ़ी नहीं दे पाएंगे।
अब तक अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने कितने क्षमादान दिए हैं?
अमेरिका में दोनों ही पार्टियों से आने वाले राष्ट्रपतियों की ओर से अपने कऱीबियों को क्षमादान देने की लंबी परंपरा रही है। और डेमोक्रेट पार्टी से आने वाले बाइडन का राष्ट्रपति रहते हुए यह 26वां क्षमादान है।
साल 2020 में ट्रंप ने बेटी इवांका के पति और अपने दामाद चाल्र्स कुशनर को क्षमादान दिया था।
कुशनर को टैक्स चोरी, चुनाव प्रचार अभियान में वित्तीय अनियमितताओं और गवाही में दख़ल देने के आरोपों में 2004 में दो साल की जेल की सज़ा दी गई थी।
साल 2001 में बिल क्लिंटन ने अपने छोटे सौतेले भाई रोजर क्लिंटन को कोकेन से जुड़े अपराध में माफ़ी दी थी। हालांकि यह मामला 1985 का था।
इन दोनों मामलों में उन लोगों को क्षमादान दिया गया जो पहले ही सज़ा भुगत चुके थे। जबकि राष्ट्रपति बाइडन ने अपने बेटे के मामले में सज़ा होने से पहले ही दख़ल दिया है।
प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, ट्रम्प ने व्हाइट हाउस में अपने चार सालों के कार्यकाल दौरान 237 क्षमादान जारी किए, जिनमें 143 सज़ा माफ़ी और 94 सजाएँ कम की गई थीं। उनके पद छोडऩे से पहले कई लोग हड़बड़ाहट में थे। हालांकि ये ट्रंप के पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा के मुकाबले फिर भी कम था।
प्यू रिसर्च सेंटर के मुताबिक़, ओबामा ने अपने आठ साल के कार्यकाल में कुल 1,927 क्षमदान जारी किए था, जिनमें 1715 सज़ा में बदलाव और 212 सज़ा माफ़ी थी।
क्षमादान को लेकर ट्रंप ने क्या कहा?
क्षमादान को लेकर बाइडन की आलोचना करने वालों में नव निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप भी हैं। ट्रंप ने इसे ‘शक्तियों का दुरुपयोग और इंसाफ़ का गला घोंटना’ कऱार दिया।
ट्रंप ने पूछा कि क्या बाइडन उन लोगों को भी क्षमदान जारी करेंगे जिनपर 6 जनवरी 2021 के दंगे के मामले में मुकदमा चल रहा है।
ट्रंप के समर्थकों ने उस दिन अमेरिकी कैपिटल हिल इमारत पर हमला करके 2020 के चुनावी नतीजों को प्रमाणित करने में बाधा डालने की कोशिश की थी।
व्हाइट हाउस से बाहर रहते हुए ट्रंप को कई क़ानूनी मुकदमों का सामना करना पड़ा है और उन्होंने लगातार आरोप लगाए कि अमेरिकी न्याय तंत्र को उनके और उनके समर्थकों के ख़िलाफ़ हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया।
उन्होंने वॉशिंगटन में हुए दंगे में शामिल लोगों को अपनी ओर से क्षमादान जारी करने का वादा किया था।
लेकिन किन्हें क्षमादान मिलेगा और गंभीर और हिंसक अपराधों में सज़ा पाए लोगों को भी इसमें शामिल किया जाएगा या नहीं, इस पर अभी भी सवाल है। (bbc.com/hindi)
भारत में पिछले कुछ महीनों से वक्फ को लेकर विवाद चल रहा है। दरअसल केंद्र सरकार दशकों पुराने वक्फ कानून को बदलना चाहती है। इसका देश में अलग-अलग जगहों पर विरोध हो रहा है।
विरोध करने वालों का कहना है कि सरकार बदलाव के विधेयक के बहाने वक्फ की संपत्तियों पर कब्जा करना चाहती है।
जबकि सरकार की दलील है कि ये विधेयक वक्फ की संपत्तियों के बेहतर इस्तेमाल के लिए है।
प्रस्तावित विधेयक के जिन प्रावधानों पर आपत्ति है, उनमें से एक वक्फ काउंसिल के स्वरूप का भी है।
सेन्ट्रल वक्फ काउंसिल के सभी सदस्यों का मुसलमान होना जरूरी है लेकिन प्रस्तावित विधेयक में दो ग़ैर-मुसलमान सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान भी जोड़ दिया गया है।
इसके साथ ही सेंट्रल वक़्फ़ काउंसिल के मुसलमान सदस्यों में भी दो महिला सदस्यों का होना अनिवार्य कर दिया गया है।
नए वक्फ विधेयक के भारी विरोध के बाद, इसे एक संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया।
इस समिति के अध्यक्ष बीजेपी सांसद जगदंबिका पाल हैं। अब इस समिति का कार्यकाल अगले साल होने वाले बजट सत्र तक बढ़ा दिया गया है।
तो क्या है वक्फ? क्या हैं वक्फ विधेयक में प्रस्तावित प्रमुख संशोधन? क्यों है इस पर विवाद? सरकार क्यों इस पर इतना मुखर है और ये एक चुनावी मुद्दा कैसे बना हुआ है?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, ‘द लेंस’ में कलेक्टिव न्यूजरूम के डायरेक्टर ऑफ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने वक्फ से जुड़े इन मुद्दों पर चर्चा की।
इस चर्चा में शामिल हुए- किताब ‘शिकवा-ए-हिंद: द पॉलिटिकल फ्यूचर ऑफ इंडियन मुस्लिम’ के लेखक डॉक्टर मुजीबुर्रहमान, अबू धाबी से मौलाना आज़ाद नेशनल यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर जफ़ऱ सरेशवाला, बेंगलुरु से वरिष्ठ पत्रकार इमरान क़ुरैशी और वकील मुजीबुर्रहमान।
वक्फ क्या है, इसकी शुरुआत कब हुई?
वक्फ कोई भी चल या अचल संपत्ति होती है, जिसे इस्लाम को मानने वाला कोई भी व्यक्ति, अल्लाह के नाम पर या धार्मिक मकसद या परोपकार के मकसद से दान करता है।
ये संपत्ति परोपकार के मकसद से समाज के लिए दान दी जाती है।
अल्लाह के सिवा न तो इसका कोई मालिक होता है और न हो सकता है। न तो वक़्फ़ संपत्ति की खऱीद-फऱोख़्त की जा सकती है और न ही इन्हें किसी को हस्तांतरित किया जा सकता है।
वकील मुजीबुर्रहमान का मानना है कि वक्फ ट्रस्ट जैसा होता है। जिस तरह से ट्रस्ट में लोग संपत्ति दान कर देते हैं ठीक उसी तरह से इस्लाम में वक्फ़़ होता है।
मुजीबुर्रहमान कहते हैं, ‘इसमें कोई भी इंसान अपनी निजी संपत्ति को दीन के कामों के लिए या परोपकार के मकसद से वक्फकर देता है। जो भी इंसान संपत्ति वक्फ करते हैं वो अपने हिसाब से मुतवल्ली (वक्फ का ट्रस्टी) चुन सकते हैं।’
मुजीबुर्रहमान के मुताबिक वक्फ के पास 8 लाख 70 हजार ऐसी संपत्तियां हैं जिनकी पहचान हो चुकी हैं। साथ ही वक्फ के पास 9।50 लाख एकड़ ज़मीन है।
मुजीबुर्रहमान का कहना है कि वक्फ की 60 हजार जमीनें ऐसी है, जिन पर विवाद चल रहा है।
मौलाना आज़ाद नेशनल यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर जफर सरेशवाला बताते हैं ‘मोहम्मद पैगंबर मक्का से मदीना गए। इसे हम हिजरत कहते हैं।’
‘तब उन्होंने वहां सबसे पहले जो संस्थाएं क़ायम की वो थीं, पहला, औकाफ यानी वक्फ और दूसरा, बैतूल माल। दोनों का मकसद था कि भविष्य में अनाथों, विधवाओं, गरीबों की मदद की जाए।’
किस बात पर विवाद?
वक्फ बोर्ड को नियंत्रित करने वाले कानून में प्रस्तावित संशोधन विधेयक को लोकसभा में पेश कर दिया गया है। इसके बाद कई विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार इस पर नियंत्रण करना चाहती है।
सरकार ने इसमें कई बदलाव की बात कही है। प्रस्तावित संशोधन के तहत वक्फ की जमीन का सर्वे करने के अधिकार अतिरिक्त कमिश्नर के पास मौजूद होता है, इसे अब जिला कलेक्टर या डिप्टी कमिश्नर को दे दिए गए हैं।
वक्फ बोर्ड में दो गैर मुसलमान प्रतिनिधि रखने का प्रावधान किया गया है। साथ ही दो महिला सदस्यों को भी शामिल करने की बात की गई है।
इस बिल के प्रावधान के अनुसार, वही व्यक्ति दान कर सकता है जिसने लगातार पांच साल तक इस्लाम का पालन किया हो यानी वो मुस्लिम हो और दान की जा रही संपत्ति का मालिकाना हक़ रखता हो।
पिछले दिनों केरल और कर्नाटक में वक्फ की संपत्तियों पर विवाद हुआ था। क्या इन दोनों राज्यों में ये मुद्दा सच में संवेदनशील है या राजनीतिक रूप से ज्य़ादा सक्रिय हुआ है?
वरिष्ठ पत्रकार इमरान कुरैशी का मानना है कि ये मामला राजनीतिक रूप से सक्रिय हुआ था। ऐसा इसलिए क्योंकि केरल और कर्नाटक दोनों ही जगह उपचुनाव हो रहे थे।
वो कहते हैं कि किसानों को जो नोटिस भेजा गया वो सिर्फ कांग्रेस की सरकार में नहीं गए हैं, बल्कि बीजेपी की सरकार के समय में भी नोटिस भेजे गए थे।
वक्फ संपत्ति छिन जाने का डर
प्रस्तावित संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश होने का बाद से ही लोगों में इस बात का डर है कि सरकार उनकी जमीन को अपने कब्ज़े में लेना चाहती है।
लेकिन सरकार का दावा है कि इस बिल के आने से वक्फ संबंधित विवादों के निपटारे में आसानी होगी।
तो, क्या इस बिल से सरकार मुसलमानों के मामलों में अपना नियंत्रण बढ़ाना चाहती है?
इस पर ‘शिकवा-ए-हिंद’ द पॉलिटिकल फ्य़ूचर ऑफ़ इंडियन मुस्लिम’ के लेखक डॉक्टर मुजीबुर्रहमान का मानना है कि वक्फ में सुधार की ज़रूरत है।
मुजीबुर्रहमान का कहना है, ‘अगर मुस्लिम संपत्ति प्रबंधन में गैर-मुसलमान रह सकते हैं तो गैर-मुसलमानों के संपत्ति प्रबंधन में भी मुसलमानों को रहने की इजाजत होनी चाहिए।’
‘क्योंकि हिन्दुस्तान एक सेक्युलर देश है और यहां पर सबकी जिम्मेदारी है कि वो सभी चीज़ों की देखभाल करें।’
वकील मुजीबुर्रहमान का मानना है कि अगर वक्फ पर सरकार का नियंत्रण रहेगा तो फिर वो चीज कभी मुसलमानों के लिए इस्तेमाल नहीं होगी। बल्कि सरकार अपना नुमाइंदा नियुक्त करके उन पर कब्ज़ा करेगी और अपने हिसाब से लोगों को जमीन देगी।
वो कहते हैं, ‘वक्फ को राजनीति से बाहर निकालना होगा, मुसलमानों को गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की तरह एक कमेटी बनानी होगी।’
‘वक्फ के सीईओ को सरकार को नहीं चुनना चाहिए, बल्कि वक्फ के खर्च पर इसके लिए चुनाव हो। ऐसा करने से ये राजनीति से बाहर होगा और मुसलमानों का इस पर नियंत्रण रहेगा।’
मुजीबुर्रहमान कहते हैं, ‘ये मामला पैसों का है, चाहे कोई भी सरकार हो हर कोई चाहती है उस चीज़ पर उनका कब्जा हो। डीएम सरकार का एक नुमाइंदा होता है। अगर उसको उस संपत्ति में एक फ़ीसदी भी विवाद नजऱ आएगा तो फिर वो संपत्ति सरकार की हो जाएगी।’
वहीं मौलाना आज़ाद नेशनल यूनिवर्सिटी के पूर्व चांसलर जफऱ सरेशवाला इस पर कहते हैं कि वक्फ के पास इतनी संपत्ति है कि इसका इस्तेमाल सही से किया गया होता तो सिर्फ मुसलमान ही नहीं इस देश का हिंदू भी गऱीब नहीं रहता।
वो कहते हैं, ‘उनका कहना है कि हज़ार करोड़ की संपत्ति संभालने के लिए ऐसे लोग बैठे हैं जिन्होंने कभी दस लाख की संपत्ति कभी न खऱीदी है और न कभी बेची है।’
‘हमें जरूरत है कि वहां ऐसे लोगों को बैठाया जाए जो बेहतर तरीक़े से इन संपत्तियों का ख्याल रख सकें।’
वक्फ कैसे बना चुनावी मुद्दा?
हाल में हुए दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ-साथ कई राज्यों की विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में वक्फ का मुद्दा गूंजता दिखाई दिया। भारतीय जनता पार्टी इस दौरान इस मुद्दे को उठाती रही।
कर्नाटक में वक़्फ़ का मुद्दा हावी होने के बाद यहां की तीन विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में सभी पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की।
इमरान क़ुरैशी कहते हैं, ‘शायद इससे पहले कर्नाटक में मुतवल्लियों का चुनाव इस तरह से नहीं हुआ। इस चुनाव के लिए आज तक किसी भी मंत्री ने प्रचार नहीं किया था।’
‘लेकिन मंत्री जमीर अहमद खान ने हर तरफ जाकर प्रचार किया। इस दौरान वक्फ की ज़मीन का मुद्दा उठाया। इसकी वजह से बीजेपी ने इस मुद्दे को और भी उछाला।’
इमरान क़ुरैशी कहते हैं, ‘उपचुनाव में भी ये मुद्दा ज़ोर-शोर से चला, जिसके कारण जो हिंदू वोट एक होने वाला था वो नहीं होकर मुस्लिम, दलित और ओबीसी के वोट एक हो गए।’
‘इसी वजह से कांग्रेस तीनों सीटों पर जीत गई। लेकिन ये मामला अभी ख़त्म नहीं होगा ये आगे भी चलेगा।’
सरकार को क्या करने की ज़रूरत
वक्फ को लेकर लोगों के अलग-अलग दावे होते रहते हैं। जिसके बाद सरकार के लिए ये बड़ी चुनौती हो जाती है कि वो लोगों को कैसे भरोसा दिलाए कि वो जो दलील दे रही है वो सही है।
इस पर डॉक्टर मुजीबुर्रहमान कहते हैं, ‘मुसलमानों में भी कई लोग ऐसे हैं जिन्हें वक़्फ़ की संपत्ति को लेकर क्या हो रहा है इसकी जानकारी नहीं है। क्यों मीडिया में इस खबर को सनसनीखेज़ बनाया जा रहा है।’
वो कहते हैं, ‘वक्फ में बहुत संपत्तियां विवादित हैं, तो बहुत सारी वैध भी हैं। इन सबको सामने लाने के लिए सुधार की ज़रूरत है। सरकार को एक वेबसाइट बनाकर लोगों तक सारी जानकारी पहुंचानी चाहिए।’
‘क्योंकि अयोध्या जजमेंट के बाद और बुलडोजऱ जस्टिस जिस तरह से चल रहा है, इससे कौम को ऐसा लग रहा है कि सरकार हमारी नहीं है, वो हमारी चीज़ें छीन रही है।’
‘इस सोच को कम करने के लिए सरकार को सक्रिय होकर सारी जानकारी इन लोगों को देनी होगी।’
लोगों के नज़रिए को बदलने के लिए वक्फ को क्या कदम उठाने चाहिए?
इस पर वकील मुजीबुर्रहमान कहते हैं कि जो फंड आ रहा है उसको लेकर सारी जानकारी पारदर्शी होनी चाहिए। ताकि लोग ये देख सके कि पैसा कहां से आ रहा है और कहां जा रहा है।
वो कहते हैं, ‘ये लोगों की निजी संपत्तियां है, इस कारण जब तक कमेटी न चाहे, सरकार अपनी मर्जी से इसका इस्तेमाल नहीं कर सकती।’
‘आज की तारीख़ में जो वक्फ बोर्ड है वो राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं क्योंकि सरकार ही उनके नुमाइंदों को नियुक्त करती है। इस कारण जैसी सरकार होगी बोर्ड उसके हिसाब से काम करेगा।’
‘वक्फ जो भी करता है वो मुलसमानों के लिए करता है, लेकिन अगर उस संपत्ति से सराय, हॉस्टल या कुछ और बना दिया जाए तो वो गैर-मुसलमान के लिए भी काम में आएगी।’ (bbc.com/hindi)
-फरहत जावेद
एक जली हुई लॉरी, जहां-तहां बिखरे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की तस्वीर वाले पोस्टर और आंसू गैस के फट चुके गोले। ये इमरान ख़ान की पत्नी बुशरा बीबी के नेतृत्व में हुए विशाल प्रदर्शन के बचे हुए निशान थे, जिसके बाद इस्लामाबाद में लॉकडाउन लगा दिया गया था।
इसके एक दिन पहले, मंगलवार को दोपहर में बुशरा बीबी एक शिपिंग कंटेनर के ऊपर हिजाब पहने और सफेद शॉल ओढ़े अपने चिर-परिचित अंदाज़ में खड़ी थीं।
इस शिपिंग कंटेनर के आसपास विपक्षी पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के हज़ारों समर्थक हाथों में इमरान ख़ान की तस्वीर और पार्टी का झंडा लिए खड़े थे और नारे लगा रहे थे।
वहां कानफाड़ू शोर था, लेकिन जैसे ही बुशरा बीबी ने माइक अपने हाथों में थामा, सन्नाटा पसर गया।
प्रदर्शन में क्या हुआ?
बुशरा बीबी ने चिल्लाकर कहा, ‘मेरे बच्चों और मेरे भाइयों! आपको मेरा साथ देना होगा।’
उनकी आवाज़ गूंजते ही भीड़ में हलचल शुरू हो गई और पूरे माहौल में एक बार फिर नारों की आवाज़ सुनाई देने लगी।
बुशरा बीबी ने अपनी बात जारी रखी और कहा, ‘लेकिन अगर आप लोग साथ नहीं भी रहते हैं, तो भी मैं मज़बूती से खड़ी रहूंगी। यह केवल मेरे पति का सवाल नहीं है, यह इस देश और इसके नेता का सवाल है।’
पाकिस्तान की राजनीति पर नजऱ रखने वाले कई जानकार इसे राजनीति में बुशरा बीबी की शुरूआत के तौर पर देख रहे हैं।
कुछ लोगों के लिए यह घटना राजनीति में उनका पहला कदम था। अन्य लोगों के लिए यह इमरान ख़ान की पीटीआई को तब तक बचाए रखने की रणनीतिक चाल थी, जब तक वो जेल में हैं।
बुशरा बीबी पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की तीसरी पत्नी हैं और अक्सर उन्हें बेहद रिज़र्व माना जाता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वो राजनीति से दूर रहती हैं।
लेकिन इस्लामाबाद में विरोध प्रदर्शनों के दौरान वो राजनीति के केंद्र में दिखीं।
लेकिन बुधवार सवेरे जब सूरज उगा, न तो बुशरा बीबी का कोई निशान मौजूद था और न ही उनके समर्थन में आए उन हज़ारों लोगों का जिन्होंने इमरान ख़ान की रिहाई के लिए मार्च में हिस्सा लिया।
शहर के अंधेरे में डूबने के बाद इस तथाकथित ‘फ़ाइनल मार्च’ और बुशरा बीबी के साथ क्या हुआ, ये अब तक स्पष्ट नहीं है।
एक महिला प्रदर्शनकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि अचानक बिजली चली गई और डी-चौक जहां विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, वो जगह अंधेरे में डूब गई।
2022 में हुए अविश्वास मत में इमरान ख़ान की सरकार गिर गई थी। इसके बाद अगस्त 2023 से इमरान ख़ान भ्रष्टाचार, चरमपंथ और हिंसा भडक़ाने के आरोप में जेल में हैं।
इमरान ख़ान खुद पर लगाए आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताते रहे हैं।
फाइनल मार्च के दौरान अफरा-तफरी
महिला प्रदर्शनकारी ने बताया कि डी-चौक में हर तरफ लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी, वहां आंसू गैस के गोले छोड़े गए थे। वो अपने पति को पकड़ कर खड़ी थीं जिनके कंधे से गोली लगने के कारण ख़ून बह रहा था।
बाद में वो इस्लामाबाद के एक अस्पताल पहुंची, जहां उन्होंने बीबीसी उर्दू को बताया, ‘हर कोई अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा था। वो कयामत के दिन या युद्ध के दिन की तरह था।’
‘मेरे हाथों में मेरे पति का खूऩ लगा हुआ था और हर तरफ से चीखने की आवाज़ें आ रही थीं।’
लेकिन इतनी तेजी से अचानक क्या हुआ?
कुछ घंटों पहले, यानी मंगलवार की दोपहर को प्रदर्शनकारी डी-चौक पहुंचे। शहर के केंद्रीय हिस्से के इस इलाक़े तक पहुंचने के लिए उन्होंने बीते दिनों कई पुलिस बैरिकेडिंग पार की थी और आंसू गैस के गोले झेले थे।
इनमें पाकिस्तान तहरीक़-ए-इंसाफ़ के समर्थक और कार्यकर्ता शामिल थे।
जेल में रहते हुए इमरान ख़ान ने पार्टी समर्थकों से इस मार्च के लिए अपील की थी।
इस मार्च में लिए पीटीआई समर्थक और कार्यकर्ता इक_ा हुए और इस ‘फ़ाइनल मार्च’ में उनकी तीसरी पत्नी बुशरा बीबी शामिल हुईं और मार्च का नेतृत्व किया।
राजधानी की सडक़ों पर लाइन से बैरिकेड लगाए गए थे और पाकिस्तानी सेना का वहां कड़ा पहरा था।
जब काफिला शहर के कऱीब पहुंचा, बुशरा बीबी शिपिंग कंटेनर पर खड़ी समर्थकों का अभिवादन करती दिखाई दीं।
उन्होंने एलान किया, ‘जब तक ख़ान हमारे पास नहीं आते, हम वापस नहीं जाएंगे।’
यह मार्च आगे बढ़ता हुआ इस्लामाबाद के सरकारी कार्यालयों वाले उस इलाक़े में पहुंच गया, जिसे डी-चौक कहते हैं।
पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के अनुसार, पार्टी के भीतर मतभेद और प्रदर्शन के लिए अन्य जगह चुनने की सरकार की अपील के बावजूद बुशरा बीबी ने उस इलाके में प्रदर्शन करने का चुनाव किया जहां संसद, प्रमुख सरकारी कार्यालय स्थित हैं। इस इलाक़े में उनके पति इमरान ख़ान एक बार विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं।
बुशरा बीबी का ग़ायब होना
जैसे ही दिन ढला, हालात तनावपूर्ण हो गए। इलाके की बिजली गुल हो गई और पूरा इलाका अंधेरे में डूब गया। इसके बाद स्थानीय समयानुसार रात के साढ़े नौ बजे सुरक्षा बलों ने प्रदर्शनकारियों को वहां से खदेडऩे के लिए अभियान चलाया।
इस दौरान मची अफरा-तफरी के बीच बुशरा बीबी धरना स्थल से चली गईं।
सोशल मीडिया पर ऐसे कई वीडियो वायरल हुए जिसमें वो इलाक़े से बाहर जाते हुए एक कार से दूसरे कार में बैठती दिखाई दीं। बीबीसी इन फुटेज की स्वतंत्र पुष्टि नहीं कर पाया है।
जिस वक्त समर्थक आंसू गैस के गोलों और गिरफ़्तारियों का सामना कर रहे थे ऐसे में उनके वहां से अचानक ग़ायब होने ने कई लोगों को निराश किया।
कुछ देर बाद जिस शिपिंग कंटेनर पर वो दिखाई दी थीं, उसे अज्ञात लोगों ने आग के हवाले कर दिया।
एक व्यक्ति ने कहा, ‘उन्होंने हमें छोड़ दिया।’
एक अन्य व्यक्ति ने कहा, ‘उनकी गलती नहीं थी। पार्टी के नेताओं ने उन्हें वहां से जाने को मजबूर किया।’
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार मेहमाल सरफराज ने कहा, ‘उनके अचानक ग़ायब होने से, उनका राजनीतिक करियर के शुरू हो इससे पहले नुकसान हो गया।’ हालांकि कुछ वक्त पहले इमरान ख़ान ने सोशल मीडिया पर लिखा था, ‘मेरी पत्नी केवल मेरा संदेश लोगों तक पहुंचातीं’ हैं।
रात के एक बजे के आसपास प्रशासन ने कहा कि प्रदर्शनस्थल से सभी लोग जा चुके हैं।
इस दौरान कितने लोगों को चोटें आई या कितनों की मौत हुई, इस बारे में अब तक आधिकारिक रूप जानकारी साझा नहीं की गई है। हालांकि बीबीसी ने स्थानीय अस्पतालों से बात कर पुष्टि की है कि इसमें कम से कम पांच लोगों की जान गई है।
पुलिस का कहना है कि रात को कम से कम 500 प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया है और पुलिस स्टेशन में रखा गया है। वहीं पीटीआई का दावा है कि कई लोग लापता हैं।
इमरान ख़ान से शादी
पाकिस्तान के अपेक्षाकृत संपन्न पंजाब प्रांत के प्रभावशाली ज़मींदार परिवार से आने वाली बुशरा बीबी की शादी इमरान ख़ान से 2018 में हुई थी। इसे लेकर उस वक्त मिली-जुली प्रतिक्रिया रही थी।
इससे पहले वो 28 साल तक विवाहित जीवन बिता चुकी थीं। उनके पूर्व पति ने उन पर इस्लामिक क़ानूनों का पालन न करने का आरोप लगाते हुए कहा था कि तलाक और फिर से शादी करने के बीच पर्याप्त समय नहीं लिया गया। उनका कहना था कि यह इस्लामिक कानूनों का उल्लंघन है।
इस मामले में इमरान ख़ान और बुशरा बीबी को सज़ा हुई लेकिन बाद में बरी कर दिया गया।
बुशरा बीबी सूफ़ी पंथ में आस्था रखती हैं और पार्टी के करीबी लोगों का मानना है कि पर्दे के पीछे इमरान खान को सलाह देने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। इमरान खान उन्हें आध्यामिक गुरु मानते हैं।
लेकिन पीटीआई की राजनीति में उनका सार्वजनिक रूप से शामिल होना नया और विवादित भी है।
इसी महीने की शुरुआत में वो ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह की राजधानी पेशावर में हुई पार्टी की एक बैठक में शामिल हुईं, जहां पीटीआई की सरकार है।
इसी बैठक में उन्होंने पार्टी नेताओं से इस फ़ाइनल मार्च में शामिल होने की बात की। उन्होंने ऐसा न करने पर नतीजे भुगतने की चेतावनी भी दी थी, जिसमें पार्टी से निकाला जाना भी शामिल था।
कुछ लोग इसे उनके बढ़ते प्रभाव के रूप में भी देखते हैं। जबकि कुछ लोग इसे पार्टी में हस्तक्षेप मानते हैं।
पत्रकार आमिर जिय़ा ने कहा, ‘उनका यह नज़रिया पीटीआई के नेताओं को रास नहीं आया।’
‘पार्टी खुद ही वंशवादी राजनीति का विरोध करती आई है। अगर वो आधिकारिक भूमिका अख़्तियार करती हैं तो यह पार्टी और इमरान ख़ान दोनों की छवि को नुक़सान पहुंचा सकती है।’
बुशरा बीबी और राजनीति में उनका कदम
राजनीतिक विश्लेषक इम्तियाज़ गुल ने बीबीसी उर्दू से कहा कि राजनीति में उनका शामिल होना ‘असाधारण हालात में उठाया गया असाधारण कदम’ है।
उन्होंने कहा, ‘असल में यह इमरान ख़ान की ग़ैर मौजूदगी में पार्टी और पार्टी कार्यकर्ताओं को एकजुट रखने की कोशिश थी।’
पीटीआई के कुछ सदस्य भी यही कहते हैं। उनका मानना है कि ‘वो राजनीति में केवल इसलिए आई हैं क्योंकि इमरान ख़ान उन पर पूरा भरोसा करते हैं।’
लेकिन पार्टी के भीतर दबी आवाज़ में इस तरह की बातें होती रही हैं कि इमरान ख़ान जब प्रधानमंत्री थे, उस वक्त उनके फ़ैसलों को बुशरा बीबी प्रभावित करती थीं।
हालांकि पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास में ऐसा करने वाली वह पहली महिला नहीं हैं। इससे पहले भी देश में होने वाले कई प्रदर्शनों और रैलियों की अगुवाई महिलाएं कर चुकी हैं, खासकर तब जब उनके पति को गिरफ़्तार किया गया या उन पर आरोप लगाए गए।
पूर्व राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो की पत्नी नुसरत भुट्टो और तीन बार के प्रधानमंत्री रहे नवाज़ शरीफ़ की पत्नी कलसुम नवाज़ तब सुर्खियों में आईं जब उनके पतियों को जेल हुई थी।
इस महीने की शुरूआत में पहली बार बुशरा बीबी ने उस वक्त सीधे-सीधे राजनीति में कदम रखने का एलान किया जब उन्होंने इमरान ख़ान के समर्थन में प्रदर्शन करने के लिए पीटीआई के आला नेताओं की बैठक की अपील की।
हालांकि प्रदर्शन के दो सप्ताह पहले उन्होंने एक वीडियो संदेश में कहा था कि उनका ‘राजनीति में आने का उनका इरादा नहीं है।’
कुछ लोग उनके इस दावे को संदेह से देखते हैं। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने बुशरा बीबी पर अवसरवाद का आरोप लगाते हुए कहा कि ‘वह भविष्य में खुद को नेता के रूप में देखती हैं।’
हालांकि पीटीआई के अंदर ही इस मामले में मतभेद हैं। कुछ लोगों ने बीबीसी को बताया कि ‘इमरान ख़ान उन पर बहुत भरोसा करते हैं।’ जबकि कई लोग इस बात से चिंतित हैं कि उनके शामिल होने से पार्टी के लोकतांत्रिक मूल्यों को नुक़सान पहुंचेगा।
इमरान ख़ान बुशरा बीबी पर कितना भरोसा करते हैं, इस बारे में राजनीतिक विश्लेषक मेहमाल सरफऱाज़ कहते हैं, ‘पीटीआई में इमरान ख़ान की बात ही अंतिम होती है। लेकिन राजनीति में शामिल होने की महत्वाकांक्षा रखने वाली उनकी दूसरी पत्नी रेहम ख़ान के उलट बुशरा बीबी का क़द और प्रभाव अधिक है।’
उनके मुताबिक़, ‘ऐसा इसलिए है क्योंकि इमरान ख़ान बुशरा बीबी को अपने आध्यात्मिक गुरू के रूप में देखते हैं। यही बात बुशरा बीबी को उनकी बाकी पत्नियों से अलग करती है।’
पत्रकार आमिर जिय़ा का मानना है कि पीटीआई समर्थकों को इस्लामाबाद तक मार्च करने के लिए प्रोत्साहित करने का बुशरा बीबी का ‘दांव उलटा’ पड़ गया। (बाकी पेज 8 पर)
इन आलोचनाओं के बावजूद, कई पीटीआई समर्थक बुशरा बीबी को इमरान ख़ान की कऱीबी मानते हैं।
इस्लामाबाद के रहने वाले आसीम अली कहते हैं, ‘वो उन लोगों में हैं जो असल में इमरान ख़ान की रिहाई चाहते हैं। मुझे उन पर पूरी तरह भरोसा है।’
लेकिन एक बात साफ़ है कि पहले की तरह बुशरा बीबी की शख़्सियत अब रहस्यमयी नहीं रह गई है। अब वो पाकिस्तान की राजनीति के केंद्र में हैं- चाहे वो ऐसा चाहती रही हों या नहीं।
(जोएल गुन्टो और युवेट टैन की अतिरिक्त रिपोर्टिंग के साथ)
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
मेरी अम्मा के पति और श्वसुर दोनों अद्भुत प्राणी थे। अम्माजी भोजन बनाने में अपने प्राण भी लगा दे तो भी उनको स्वाद नहीं आता था, खाते जाते थे, दांत पीसते जाते थे और थाली-गिलास पटक कर अपना क्रोध प्रगट करते रहते, बेचारी अम्मा चुपचाप सुनती-सहती रहती। हमारे घर में रोज दो-चार मेहमानों का भोज होता था, समाज में दोनों बाप-बेटे की मेहमाननवाज़ी की तारीफ हुआ करती थी, अम्माजी की बदौलत। बेचारी चूल्हे की आग में तपती भोजन बनाती, अकेले परोसती-खिलाती और सब खानेवाले मुंह पोछते हुए बिना कुछ कहे चले जाते। जिस भोजन के स्वाद पर दोनों बाप-बेटे अम्माजी को गरियाते थे, उस भोजन को याद करके आज हम तरसते हैं।
अम्माजी लाजवाब भोजन बनाती थी। चूल्हे में लकड़ी जलाकर बटुवे में पकी दाल और भात का स्वाद आज भी मुझे याद है। रोटी और पूरी को ऐसा गोल बेलती कि 'सर्कुलेटर' से 'चेक' कर लो। उनमें गजब की फुर्ती थी, रोटी सेंकते हर समय उनकी एक रोटी तवे पर होती, दूसरी अंगार पर और तीसरी पटे पर ! उनके हाथ से सिंकी हुई रोटियों की मुलायमियत अब स्मृति-शेष होकर रह गई। फूली हुई पूरियां और रसीली आलू या लौकी की सब्जी आज भी बहुत याद आती हैं। उनके हाथ से बने पापड़, बिजौरा, बड़ी, कचरिया, अथान (अचार) अब कहाँ ? मूंग और बेसन के लड्डू का वह सोंधापन, गुझिया और इन्दरसा की मिठास और प्रसव के पश्चात प्रसूता को खिलाए जाने वाले मेवा-मसालेदार 'सोंठइला लड्डू' का स्वाद न जाने कहाँ विलीन हो गया !
अम्माजी की याद में कितनी घटनाएँ मेरे ज़ेहन में उमड़ रही हैं, उन सब यादों को जोडक़र यदि उनका व्यक्तित्व परिभाषित किया जाए तो वे अत्यंत परिश्रमी और सरल स्वभाव की महिला थी। उनकी सरलता ने उनको बहुत सताया और जिस मान-सम्मान की वे हकदार थी, वह उन्हें नहीं मिला।
अम्माजी और दद्दाजी विपरीत स्वभाव वाले युगल थे, एक आग का गोला तो दूसरा बर्फ की चट्टान! लेकिन दद्दाजी तो दद्दाजी थे, उनके स्वभाव का क्या कहने ?
मैंने देखा है कि सीधे-सरल स्वभाव के व्यक्ति के साथ हमेशा अन्याय होता है। मनुष्य को फुफकारने वाले नाग की तरह जीवनशैली अपनानी चाहिए ताकि लोग उससे भयभीत रहें, यदि आप पिटपिटिया साँप के तरह अपना बचाव करते रहेंगे तो लोग आपको पैरों से कुचलते रहेंगे, आपको अपने अनुभव की बात बता रहा हूँ।
( आत्मकथा का एक अंश)
अफ़सरों ने मोदी को लिखा, मिलने का वक़्त माँगा
प्रिय प्रधानमंत्री जी,
हम स्वतंत्र नागरिकों का एक समूह हैं, जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में देश में बिगड़ते सांप्रदायिक संबंधों को सुधारने के लिए प्रयास किए हैं। यह पूरी तरह से स्पष्ट है कि पिछले एक दशक में समुदायों, विशेष रूप से हिंदुओं और मुसलमानों तथा कुछ हद तक ईसाइयों के बीच संबंध अत्यधिक तनावपूर्ण रहे हैं, जिससे ये दोनों समुदाय अत्यधिक चिंता और असुरक्षा में हैं।
वर्तमान परिस्थितियों में हमारे पास आपसे सीधे बात करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, हालांकि हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि आप मौजूदा परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं।
ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिक संबंध हमेशा अच्छे रहे हों। विभाजन की भयावह यादें, उसके लिए जिम्मेदार परिस्थितियां और उसके बाद हुए दुखद दंगे हमारे दिमाग में अभी भी बसे हुए हैं। हम यह भी जानते हैं कि विभाजन के बाद भी हमारे देश में समय-समय पर भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए हैं और अब स्थिति पहले से बेहतर या बदतर नहीं है। हालांकि, पिछले दस वर्षों की घटनाएं इस मायने में काफी अलग हैं कि वे संबंधित राज्य सरकारों और उनके प्रशासनिक तंत्र की स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण भूमिका को दर्शाती हैं। हमारा मानना है कि यह अभूतपूर्व है। गोमांस ले जाने के आरोप में मुस्लिम युवकों को धमकाने या पीटने की घटनाओं से शुरू हुई यह घटना निर्दोष लोगों की उनके घरों में ही हत्या करने और उसके बाद स्पष्ट रूप से नरसंहार के इरादे से इस्लामोफोबिक नफरत भरे भाषणों में बदल गई। हाल के दिनों में मुस्लिम व्यापारिक प्रतिष्ठानों और भोजनालयों का बहिष्कार करने, मुसलमानों को परिसर किराए पर न देने और स्थानीय प्रशासन के नेतृत्व में मुख्यमंत्रियों के इशारे पर मुस्लिम घरों को बेरहमी से गिराने के आह्वान किए गए हैं। प्रेस में बताया गया है कि लगभग 154,000 प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया है और लाखों लोग बेघर हो गए हैं या अपने व्यवसाय के स्थान से वंचित हो गए हैं। इनमें से अधिकांश मुसलमानों के हैं।
ऐसी गतिविधि वास्तव में अभूतपूर्व है और इसने न केवल इन अल्पसंख्यकों बल्कि वास्तव में यहां और विदेशों में सभी धर्मनिरपेक्ष भारतीयों के आत्मविश्वास को हिला दिया है।
जैसे कि ये घटनाएं पर्याप्त नहीं थीं, नवीनतम उकसावे की वजह अज्ञात सीमांत समूह हैं, जो हिंदू हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं और उन स्थलों पर प्राचीन हिंदू मंदिरों के अस्तित्व को साबित करने के लिए मध्ययुगीन मस्जिदों और दरगाहों पर पुरातात्विक सर्वेक्षण की मांग कर रहे हैं। पूजा स्थल अधिनियम के स्पष्ट प्रावधानों के बावजूद, न्यायालय भी ऐसी मांगों पर अनावश्यक तत्परता और जल्दबाजी के साथ प्रतिक्रिया करते दिखते हैं।
उदाहरण के लिए, यह अकल्पनीय लगता है कि एक स्थानीय न्यायालय सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की 12वीं सदी की दरगाह पर सर्वेक्षण का आदेश दे - जो न केवल मुसलमानों के लिए बल्कि उन सभी भारतीयों के लिए एशिया में सबसे पवित्र सूफी स्थलों में से एक है, जिन्हें हमारी समन्वयवादी और बहुलवादी परंपराओं पर गर्व है। यह सोचना ही हास्यास्पद है कि एक भिक्षुक संत, एक फकीर जो भारतीय उपमहाद्वीप के अद्वितीय सूफी/भक्ति आंदोलन का अभिन्न अंग था, और करुणा, सहिष्णुता और सद्भाव का प्रतिरूप था, अपने अधिकार का दावा करने के लिए किसी भी मंदिर को नष्ट कर सकता है। वास्तव में, आप सहित लगातार प्रधानमंत्रियों ने शांति और सद्भाव के उनके संदेश के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में संत के वार्षिक उर्स के अवसर पर 'चादरें' भेजी हैं। इस अद्वितीय समन्वयकारी स्थल पर वैचारिक हमला हमारी सभ्यतागत विरासत पर हमला है और समावेशी भारत के उस विचार को विकृत करता है जिसे आप स्वयं पुनर्जीवित करना चाहते हैं।
महोदय, ऐसी गड़बड़ियों के सामने समाज प्रगति नहीं कर सकता और न ही विकसित भारत का आपका सपना साकार हो सकता है।
हम चिंतित नागरिक जिन्होंने भारत सरकार के लिए यहां और विदेशों में विभिन्न क्षमताओं में काम करते हुए अपना जीवन समर्पित किया है, मानते हैं कि आप ही एकमात्र व्यक्ति हैं जो सभी अवैध, हानिकारक गतिविधियों को रोक सकते हैं। इसलिए, हम आपसे आग्रह करते हैं कि आप सुनिश्चित करें कि मुख्यमंत्रियों और उनके अधीन प्रशासन कानून और भारत के संविधान का पालन करें, और अपने कर्तव्यों में किसी भी तरह की लापरवाही से अनगिनत दुखों का सामना करना पड़ेगा।
आपकी अध्यक्षता में एक सर्वधर्म बैठक की तत्काल आवश्यकता है जहां आपको एक समावेशी भारत के प्रधान मंत्री के रूप में यह संदेश देना चाहिए कि भारत सभी के लिए एक भूमि है, जहां सदियों से सभी धर्म एक साथ और सद्भाव में मौजूद हैं और किसी भी सांप्रदायिक ताकतों को इस अद्वितीय बहुलवादी और विविध विरासत को बाधित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। महोदय, समय की बहुत कमी है और हम आपसे आग्रह करते हैं कि आप सभी भारतीयों, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों को आश्वस्त करें कि आपकी सरकार सांप्रदायिक सौहार्द, सद्भाव और एकीकरण को बनाए रखने के अपने संकल्प पर अडिग रहेगी।
हम यह भी अनुरोध करते हैं कि यदि हमारे बीच से एक छोटे प्रतिनिधिमंडल को आपसे मिलने का समय दिया जाए।
धन्यवाद,
भवदीय
1: एन. सी. सक्सेना: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व सचिव, भारत के योजना आयोग
2: नजीब जंग: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व उपराज्यपाल, दिल्ली
3: शिव मुखर्जी, आईएफएस (सेवानिवृत्त): ब्रिटेन में भारत के पूर्व उच्चायुक्त
4: अमिताभ पांडे: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व सचिव, अंतर-राज्य परिषद, भारत सरकार
5: एस.वाई. क़ुरैशी: आईएएस (सेवानिवृत्त): भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त
6: नवरेखा शर्मा: आईएफएस (सेवानिवृत्त): इंडोनेशिया में भारत के पूर्व राजदूत
7: मधु भादुड़ी: आईएफएस (सेवानिवृत्त): पुर्तगाल में पूर्व राजदूत
8: लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरुद्दीन शाह (सेवानिवृत्त): पूर्व थल सेनाध्यक्ष
9: रवि वीरा गुप्ता: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व उप. गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक
10: राजू शर्मा: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व सदस्य, राजस्व बोर्ड, सरकार। उत्तर प्रदेश के
11: सईद शेरवानी: उद्यमी/परोपकारी
12: अवय शुक्ला: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव, हिमाचल प्रदेश सरकार
13: शाहिद सिद्दीकी: पूर्व संपादक, नई दुनिया
14: सुबोध लाल: आईपीओएस ( इस्तीफा दे दिया): पूर्व उप महानिदेशक, संचार मंत्रालय, भारत सरकार
15: सुरेश के. गोयल: आईएफएस (सेवानिवृत्त): पूर्व महानिदेशक, आईसीसीआर
16: अदिति मेहता: आईएएस (सेवानिवृत्त): पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव, सरकार। राजस्थान
17: अशोक शर्मा: आईएफएस (सेवानिवृत्त): फिनलैंड और एस्टोनिया में पूर्व राजदूत
(मूल चिट्ठी इंग्लिश में है, 'छत्तीसगढ़' अख़बार ने इसे गूगल से अनुवाद किया है)
-सौतिक बिस्वास
अमेरिकी गृह सुरक्षा विभाग के अनुसार, सितंबर महीने में समाप्त हुए अमेरिकी वित्तीय वर्ष 2024 में, चार्टर्ड और कॉमर्शियल उड़ानों के ज़रिए एक हज़ार से ज़्यादा भारतीय नागरिकों को अमेरिका से भारत वापस भेजा गया है।
अक्तूबर 2020 से अमेरिकी सीमा शुल्क और सीमा सुरक्षा (सीपीबी) के अधिकारियों ने उत्तर और दक्षिण दोनों सीमाओं पर अवैध तरीके से अमेरिका में प्रवेश करने का प्रयास करने वाले करीब 1 लाख 70 हज़ार भारतीयों को हिरासत में लिया है।
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अवैध प्रवासियों को लेकर सख़्त नीति अपनाने का वादा किया है। ट्रंप 20 जनवरी 2025 को राष्ट्रपति का पद संभालने वाले हैं।
अमेरिका में अवैध तरीके से प्रवेश करने के कई जोखिम हैं। चाहे कजऱ् लेकर भारत छोडऩा हो, ख़तरनाक सफऱ में जान गंवाने का ख़तरा हो या फिर अमेरिका में क़ानून का सामना करना हो। फिर भी बड़ी संख्या में भारत के लोग यह जोखिम उठाने से पीछे नहीं हटते हैं।
इसी अक्तूबर महीने में अमेरिका के इमिग्रेशन और सीमा शुल्क प्रवर्तन (आईसीई) विभाग ने भारतीय नागरिकों को वापस घर भेजने के लिए एक चार्टर्ड विमान भेजा। जिससे अमेरिका से लोगों को वापस भारत में निर्वासित करने के बढ़ते ट्रेंड का संकेत मिलता है।
यह कोई सामान्य फ़्लाइट नहीं थी। यह इस साल बड़े पैमाने पर रवाना की जाने वाली ‘निष्कासन उड़ानों’ में से एक थी, जिनमें से हर फ़्लाइट में आमतौर पर 100 से अधिक लोग सवार थे।
ये उड़ानें उन भारतीय प्रवासियों को वापस ला रही थीं, जिनके पास ‘अमेरिका में रहने के लिए कोई कानूनी अधिकार नहीं था।’
अमेरिकी अधिकारियों के मुताबिक़, वयस्क पुरुषों और महिलाओं को लेकर आने वाली सबसे ताज़ा उड़ान पंजाब के लिए रवाना हुई, जो कई निर्वासित लोगों के मूल निवास के कऱीब है। हालाँकि इनके मूल निवास के बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं दी गई।
अवैध भारतीयों की बड़ी तादाद
इस वित्तीय वर्ष में अमेरिका से भारत भेजे गए अवैध प्रवासियों के बारे में अमेरिकी गृह सुरक्षा विभाग के सहायक सचिव रॉयस बर्नस्टीन मरे ने एक मीडिया ब्रीफिंग में कहा, ‘यह पिछले कुछ साल में अमेरिका से भारतीय नागरिकों को बाहर निकालने में लगातार हो रही बढ़ोतरी का हिस्सा है, जो पिछले कुछ साल में भारतीय नागरिकों के साथ हुई मुठभेड़ों में हो रही सामान्य बढ़ोतरी के मुताबिक़ है।’
यहां मुठभेड़ का मतलब उन घटनाओं से है, जिसमें लोगों को मेक्सिको या कनाडा की तरफ से अमेरिकी सीमा को अवैध तरीके से पार करने की कोशिश के दौरान अमेरिकी अधिकारी रोकते हैं।
जैसे-जैसे अमेरिका भारतीय नागरिकों की वापसी को बढ़ा रहा है, इस बात को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं कि नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इमिग्रेशन नीतियों का इस पर क्या असर होगा।
ट्रंप ने पहले ही अमेरिका के इतिहास में प्रवासियों के सबसे बड़े निर्वासन का वादा किया है।
वॉशिंगटन स्थित थिंकटैंक निस्केनन सेंटर के इमिग्रेशन विश्लेषक गिल गुएरा और स्नेहा पुरी कहते हैं, ‘भारतीयों की संख्या हालांकि लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों से आने वाले लोगों की तुलना में कम है, लेकिन पिछले चार साल में सीपीबी का सामना जिन लोगों से हुआ है उनमें पश्चिमी गोलार्ध के बाहर से आने वाले प्रवासियों में भारतीय नागरिक सबसे ज़्यादा हैं।’
थिंकटैंक प्यू रिसर्च सेंटर के शोध के नए आंकड़े बताते हैं कि अनुमान के मुताबिक़ साल 2022 तक अमेरिका में सवा 7 लाख ऐसे भारतीय थे, जिनके पास वहाँ रहने के लिए वैध दस्तावेज़ नहीं थे। यह मेक्सिको और अल सल्वाडोर के नागरिकों के बाद तीसरी सबसे बड़ी तादाद है।
कुल मिलाकर अवैध प्रवासी अमेरिका की कुल आबादी का 3 फ़ीसदी और विदेश में जन्मे अमेरिकी लोगों की आबादी का 22 फ़ीसदी हिस्सा हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो गुएरा और पुरी ने भारतीय नागरिकों के अवैध रूप से सीमा पार करने की कोशिशों में बढ़ोतरी के ट्रेंड को जानने की कोशिश की है।
अवैध तरीका अपनाने की वजह
पहली वजह
ऐसे प्रवासी जो अवैध तरीक़े से अमेरिका में बसना चाहते हैं वो निम्न आय वर्ग से नहीं आते, लेकिन वो अक्सर कम शिक्षा या अंग्रेज़ी में बात नहीं कर पाने की वजह से अमेरिका के लिए पर्यटक या छात्र वीज़ा हासिल नहीं कर पाते।
इसके बजाय ऐसे लोग उन एजेंसियों पर निर्भर रहते हैं जो एक लाख डॉलर तक पैसे वसूलते हैं और कभी-कभी सीमा की निगरानी करने वालों को चकमा देने के लिए बनाए गए लंबे और मुश्किल रास्तों का इस्तेमाल करते हैं।
इस रकम के लिए कई लोग अपने खेत भी बेच देते हैं या कजऱ् ले लेते हैं। यह हैरानी की बात नहीं है कि साल 2024 में अमेरिकी इमिग्रेशन अदालतों के आंकड़ों से पता चलता है कि ज़्यादातर अवैध भारतीय प्रवासी 18-34 साल के पुरुष थे।
दूसरी वजह
इस मामले से जुड़ी दूसरी बात यह है कि उत्तरी सीमा पर कनाडा जाना भारतीयों के लिए अमेरिका में प्रवेश के लिहाज से ज़्यादा आसान है, जहां विजि़टर्स वीज़ा के प्रोसेस का समय 76 दिन का है, जबकि भारत में अमेरिकी वीज़ा के लिए एक साल तक का समय लगता है।
स्वैंटन सेक्टर अमेरिका के उत्तर-पूर्व में मौजूद वर्मोंट राज्यों, न्यूयॉर्क और न्यू हैंपशर की काउंटियों को कवर करता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि इस साल की शुरुआत से ही इन इलाक़ों में सीमा पर मौजूद अधिकारियों का भारतीय नागरिकों के साथ सामना होने की घटना में अचानक बढ़ोतरी हुई है। यह जून महीने में 2715 तक पहुंच गई।
इससे पहले ज़्यादातर अनियमित भारतीय प्रवासी अल सल्वाडोर या निकारागुआ के रास्ते से मेक्सिको के साथ व्यस्त दक्षिणी सीमा से अमेरिका में प्रवेश करते थे। ये दोनों ही प्रवास को सुविधाजनक बनाते थे।
पिछले साल नवंबर तक भारतीय नागरिकों को अल सल्वाडोर में वीज़ा-मुक्त यात्रा की सुविधा मिल रही थी।
गुएरा और पुरी कहते हैं, ‘अमेरिका-कनाडा सीमा, अमेरिका-मेक्सिको सीमा से भी ज़्यादा लंबी और कम निगरानी वाली है। हालांकि यह ज़रूरी नहीं है कि यह रूट ज़्यादा सुरक्षित हो, लेकिन यहां आपराधिक समूहों की मौजूदगी उतनी नहीं है, जितनी दक्षिण और मध्य अमेरिका के रूट पर है।’
रोजग़ार की तलाश
ऐसा लगता है कि अमेरिका में अधिकांश प्रवासी सिख-बहुल राज्य पंजाब और पड़ोसी हरियाणा से आते हैं। इन राज्यों के लोग पारंपरिक रूप से विदेश जाते रहे हैं। ऐसे लोगों का दूसरा मूल स्रोत गुजरात है, जो भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है।
तीसरी वजह
पंजाब राज्य जहां से अनियमित भारतीय प्रवासियों की एक बड़ी संख्या आती है। यह राज्य बेरोजग़ारी के बढ़ते स्तर, कृषि संकट और नशीले पदार्थों के सेवन की बढ़ती समस्या सहित आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है।
पंजाबियों में प्रवास भी लंबे समय से आम बात रही है और राज्य के ग्रामीण युवा आज भी विदेश जाने के लिए उत्सुक रहते हैं।
पंजाब में नवजोत कौर, गगनप्रीत कौर और लवजीत कौर ने 120 लोगों पर किए एक हालिया सर्वे में पाया कि 18-28 साल के 56त्न लोग आमतौर पर माध्यमिक शिक्षा के बाद प्रवास कर गए।
कई लोग कजऱ् लेकर विदेश में बस गए और बाद में अपने परिवार को पैसे भेजे।
उसके बाद राज्य में अलगाववादी सिख आंदोलन की वजह से तनाव बढ़ गया है, जो सिखों के लिए एक आज़ाद देश बनाना चाहता है।
पुरी कहती हैं, ‘इससे भारत के कुछ सिखों में यह डर पैदा हो गया कि उन्हें अधिकारी या नेता ग़लत तरीके से निशाना बना सकते हैं। यह डर उत्पीडऩ के दावों के लिए एक विश्वसनीय आधार भी मुहैया कर सकता है, जो उन्हें शरण मांगने की वजह देता है, चाहे वह सच हो या नहीं।’ हालाँकि भारतीयों के पलायन के पीछे पक्की वजहों का पता लगाना आसान नहीं है।
पुरी कहती हैं, ‘लोगों के लिए विदेश में बसने की इच्छा के पीछे अलग-अलग वजहें हैं, लेकिन आर्थिक तौर पर विदेशों में ज़्यादा मौक़े मिलना इसके पीछे सबसे बड़ी वजह है। साथ ही समाज में अमेरिका में 'बसने' की गर्व की भावना भी अहम है।’
बेहतर अवसर और ख़तरा
शोधकर्ताओं ने पाया कि विदेशों में बसने की वजह यह है कि सीमा पर भारतीय नागरिकों के स्वरूप में बदलाव आया है।
ज़्यादातर परिवार सीमा पार करने की कोशिश कर रहे हैं। साल 2021 में दोनों सीमाओं पर अकेले वयस्कों को बड़ी संख्या में हिरासत में लिया गया था। अब दोनों सीमाओं पर हिरासत में लिए गए लोगों में से 16-18 फीसदी परिवार के साथ पाए गए।
इससे कई बार इस तरह के रास्तों से सीमा पार करने के दुखद नतीजे भी सामने आए हैं।
जनवरी 2022 में चार लोगों का एक भारतीय परिवार अमेरिका में प्रवेश करने का प्रयास करते समय कनाडा में अमेरिकी सीमा से महज़ 12 मीटर की दूरी पर ठंड से मारे गए। ये गुजरात से आए 11 लोगों के एक ग्रुप का हिस्सा थे।
वर्मोंट विश्वविद्यालय में इमिग्रेशन और शहरी मामलों पर अध्ययन करने वाले पाब्लो बोस कहते हैं कि भारतीय लोग बड़े आर्थिक मौक़ों और ‘अमेरिकी शहरों की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में जगह पाने की अधिक क्षमता’ के कारण बड़ी संख्या में अमेरिका में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे हैं।
ऐसे लोग ख़ासतौर पर न्यूयॉर्क या बोस्टन जैसे बड़े शहरों में प्रवेश पाने की कोशिश करते हैं।
पाब्लो बोस ने बीबीसी को बताया, ‘मैं जो कुछ भी जानता हूँ और लोगों से जो बातचीत मैंने की है, उनसे पता चलता है कि ज़्यादातर भारतीय वर्मोंट या अपस्टेट न्यूयॉर्क जैसे ज़्यादा ग्रामीण इलाकों में नहीं रह रहे हैं, बल्कि जितनी जल्दी हो सके शहरों की ओर जा रहे हैं।’
उनके मुताबिक़ वहाँ वे ज़्यादातर अनौपचारिक नौकरियाँ कर रहे हैं, जैसे घर और रेस्टोरेंट में काम करना।
अमेरिका में जल्द ही हालात और भी मुश्किल हो सकते हैं। अनुभवी इमिग्रेशन अधिकारी टॉम होमन जो जनवरी में ट्रंप के राष्ट्रपति का पदभार संभालने के बाद देश की सीमाओं के प्रभारी होंगे।
उन्होंने कहा है कि कनाडा के साथ उत्तरी सीमा उनकी एक प्राथमिकता है क्योंकि इस क्षेत्र में अवैध प्रवास एक बहुत बड़ा राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है।
अमेरिका में आगे क्या होगा यह अभी स्पष्ट नहीं है।
पुरी कहती हैं, ‘यह देखना अभी बाक़ी है कि कनाडा अपनी सीमाओं से अमेरिका में आने वाले लोगों को रोकने के लिए ऐसी ही नीतियाँ लागू करेगा या नहीं। अगर ऐसा होता है, तो हम सीमा पर भारतीय नागरिकों की हिरासत में कमी की उम्मीद कर सकते हैं।’
जो भी हो हज़ारों हताश भारतीयों के अमेरिका में बेहतर जीवन की तलाश के सपने फीके पडऩे वाले नहीं हैं, भले ही आगे का रास्ता और अधिक खतरनाक हो। (bbc.com/hindi)
-दीपक मंडल
इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में विपक्षी दल जब बीजेपी को अकेले दम पर बहुमत हासिल करने से रोकने में कामयाब रहे थे तो संभवत: सबसे ज़्यादा खुश कांग्रेस पार्टी हुई थी।
साल 2014 के लोकसभा चुनावों में 44 और और 2019 के लोकसभा चुनावों 52 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस को इस साल के लोकसभा चुनावों में 99 सीटों पर जीत मिलीं तो कई राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों ने इसे कांग्रेस की वापसी माना।
कांग्रेस ने संविधान, आरक्षण, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उठाकर लोकसभा चुनावों में बीजेपी और एनडीए को दबाव में लाने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल कर ली थी।
लेकिन लोकसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन के बाद कांग्रेस एक बार फिर से राज्यों के लिए हो रहे विधानसभा चुनावों में बुरी हार का सामना कर रही है। जहाँ कांग्रेस के सहयोगी दल जीत रहे हैं, वहाँ भी कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं दिखा है।
जून 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के चंद महीने बाद ही हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने थे और कांग्रेस के ‘जोश’ और ‘जज़्बे’ से ऐसा लग रहा था को वो ये चुनाव जीत लेगी।
राहुल गांधी संसद के बाहर और भीतर दोनों जगह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर पूरी तरह हमलावर थे।
लेकिन कांग्रेस को हरियाणा में हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस के साथ यही किस्सा अब राजनीतिक तौर पर देश के दूसरे बड़े अहम राज्य महाराष्ट्र में भी दोहराया गया।
झारखंड में पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुआई वाले गठबंधन में शामिल थी और वो 2019 में जीती 16 सीटों में एक भी सीट का इज़ाफा नहीं कर पाई।
इससे पहले, जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस बुरी तरह नाकाम रही।
कांग्रेस 90 में से छह सीटें ही जीत पाईं और नेशनल कॉन्फ्रेंस की जूनियर पार्टनर बन कर किसी तरह अपनी नाक बचा पाई।
सवाल ये है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित दिख रही कांग्रेस इसके बाद एक भी राज्य का चुनाव क्यों नहीं जीत पाई। आखिर उसकी रणनीति में कहां खामी है और वो बार-बार कहां चूक रही है?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने कई राजनीतिक विश्लेषकों और पत्रकारों से बात की।
आइए समझते हैं हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना क्यों करना पड़ा।
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र में बीजेपी, शिवसेना (एकनाथ शिंदे) और अजित पवार की एनसीपी मिल कर महायुति गठबंधन के तहत चुनाव लड़ रही थीं।
बीजेपी 149, शिवसेना (शिंदे) 81 और अजित पवार की एनसीपी 59 सीटों पर लड़ रही थीं।
विपक्ष की ओर से महाविकास अघाड़ी यानी शिवसेना (उद्धव) 95, कांग्रेस 101 और एनसीपी (शरद पवार) 86 सीटों पर लड़ी थी।
महाराष्ट्र के चुनावों को लेकर ज्यादातर एग्जि़ट पोल्स बीजेपी की अगुआई वाली महायुति की बढ़त तो दिखा रहे थे, लेकिन कुछ एग्जिट पोल्स महाविकास अघाड़ी को भी टक्कर देते हुए दिखा रहे थे।
लेकिन महायुति गठबंधन ने 288 में से 235 सीटों पर जीत हासिल की और उसका वोट शेयर रहा 49.6 फीसदी। वहीं विपक्षी महाविकास अघाड़ी को सिर्फ 35.3 फीसदी वोट मिले और इसे महज 49 सीटों से संतोष करना पड़ा है।
जो महाराष्ट्र एक दशक पहले तक कांग्रेस का गढ़ माना जाता था वहां उसे मात्र 16 सीटें मिली हैं।
आखिर महाराष्ट्र में कांग्रेस ने क्या गलती की कि उसका चुनावी प्रदर्शन इतना खराब रहा।
हमने ये सवाल पिछले कई सालों से कांग्रेस की राजनीति पर नजऱ रखने वाले विशेषज्ञ पत्रकार रशीद किदवई से पूछा।
उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र में पार्टियां चुनाव अपने कार्यकर्ताओं और संगठन के दमखम पर लड़तीं हैं। लेकिन अब चुनावी रणनीतिकारों की बन आई है। वो चुनाव स्ट्रैटेजी तय करते हैं, मुद्दे तय करते हैं और टिकट बांटने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। आजकल कांग्रेस में ये कल्चर ज्यादा हावी है। हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस चुनाव रणनीतिकारों पर निर्भर रही है। हरियाणा में भी यही हुआ था और महाराष्ट्र में भी यही दिखा।’
किदवई इसकी मिसाल देते हैं। वो कहते हैं, ‘कांग्रेस हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी अपने चुनावी रणनीतिकार सुनील कानुगोलू पर काफी ज्यादा निर्भर रही। कांग्रेस ने हरियाणा में हार से कोई सबक नहीं लिया, जहां गलत उम्मीदवारों को टिकट देने की शिकायतें की गई थीं।''
‘यहां तक कि एक मीटिंग में जब एक पार्टी नेता ने कानुगोलू के आकलन पर सवाल उठाया था तो राहुल गांधी ने उनका मज़ाक उड़ाया था। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े को भी टिकट बांटने की कवायद से अलग रखा गया।''
रशीद किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस की दूसरी गलती ये थी कि उसने सीएम चेहरा नहीं दिया। उद्धव ठाकरे महाविकास अघाड़ी का सीएम चेहरा था और कांग्रेस ने कभी इसका विरोध नहीं किया। राहुल गांधी हमेशा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से ये कहते रहे कि कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी को बलिदान देना सीखना चाहिए। दूसरी ओर राज्य में पार्टी के बड़े नेता आपस में लड़ते रहे।’
महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी के नेताओं में भी विरोधाभास दिखा।
किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले और एनसीपी (शरद पवार) प्रमुख शरद पवार अलग-अलग सुर में बोलते रहे। जबकि,इस दौरान राहुल और खडग़े ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। बीजेपी के पास 'एक हैं सेफ़ हैं' जैसा नारा था जो इसकी स्ट्रैटेजी बता रहा था। लेकिन कांग्रेस अपनी रणनीति को समेटने वाला कोई मजबूत नारा सामने नहीं रख सकी।’
‘बीजेपी ने अपना चुनाव पूरी तरह पार्टी और आरएसएस के संगठन के बूते जीता। इस चुनाव में आरएसएस के चुनाव प्रबंधन ने अहम भूमिका निभाई। बीजेपी भी चुनावी रणनीतिकारों की मदद लेती है, लेकिन वो संगठन या पार्टी पर उसे हावी नहीं होने नहीं देती।’
उन्होंने कहा, ‘बीजेपी ने महाराष्ट्र चुनाव पूरी तरह स्थानीय मुद्दों पर लड़ा। बीजेपी ने राज्य में हिंदू मतदाताओं के रुझान का ख्याल रखा। इसी के हिसाब से नारे गढ़े। लाडकी बहिन जैसी लाभार्थी योजना, आरक्षण के सवालों और महाराष्ट्र के किसानों के मुद्दों के इर्द-गिर्द अपनी रणनीति बनाई।’
विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस महाराष्ट्र से जुड़े स्थानीय मुद्दों को उठाने में नाकाम रही। कांग्रेस नेता राहुल गांधी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी लोकसभा चुनाव के नारे- संविधान बचाओ और जाति जनगणना के मुद्दे दोहराते रहे। यहां तक कि कांग्रेस राज्य में आरक्षण के सवाल पर मराठा और ओबीसी के अंतर्विरोध का भी फायदा नहीं उठा पाई।
यहां तक कि वो आरक्षण के अंदर आरक्षण के मुद्दे पर भी अपनी राय मतदाताओं के सामने नहीं रख सकी। सिफऱ् वो संविधान में आरक्षण को लेकर किए गए प्रावधानों को दोहराती रही।
इसी तरह की गलतियों की वजह से विदर्भ में कांग्रेस का करारी हार का सामना करना पड़ा जहां लोकसभा में कांग्रेस गठबंधन ने दस में से सात सीटें जीती थीं।
रशीद किदवई कहते हैं कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। लेकिन कांग्रेस महाराष्ट्र में मजबूत स्थानीय मुद्दे खड़े नहीं कर पाई। इसका खमियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा।
वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडणीस का मानना है कि कांग्रेस मतदाताओं में अपने वादों के प्रति विश्वास नहीं जगा सकी।
उन्होंंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘महाराष्ट्र सरकार ने ‘लाडकी बहिन’ योजना के जरिये पैसा पहुंचाकर ये सुनिश्चित किया कि उसके वादे में दम है। इस वजह से महिला वोटरों ने बड़ी तादाद में ‘महायुति’ के पक्ष में वोट दिया। कांग्रेस ने भी महिलाओं तक पैसे पहुंचाने का वादा किया। लेकिन सत्ता में ना होने की वजह से वो डिलीवरी के मामले में बीजेपी का मुक़ाबला नहीं कर सकती थी। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस मतदाताओं में अपने वादों के प्रति भरोसा नहीं जगा सकी।’
अदिति फडणीस का ये भी कहना है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव की रणनीति अलग होती है। कांग्रेस राज्यों के मुताबिक रणनीति नहीं तैयार नहीं कर पाई।
हरियाणा में भी कांग्रेस की रणनीति में ये कमजोरी दिखी और महाराष्ट्र में भी।
झारखंड
झारखंड में कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने मिलकर 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था। राज्य में 81 सीटें हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 34 सीटें जीती हैं।
कांग्रेस ने सिर्फ 16 सीटें हासिल की हैं। गठबंधन में शामिल आरजेडी को चार और सीपीआई (माले) को दो सीटें मिली हैं।
यहां भी ज्यादातर एग्जिट पोल बीजेपी गठबंधन के सत्ता में आने का दावा कर रहे थे। बीजेपी ने यहां असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा और मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में चुनावी रणनीति को सिरे चढ़ाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी।
बीजेपी ने इस बार झारखंड में ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ का भी मुद्दा उठाया लेकिन झारखंड में हेमंत सोरेन ने ‘आदिवासी बनाम बाहरी’ का मुद्दा चलाया और स्थानीय लोगों ने इस मुद्दे पर झामुमो और ‘इंडिया’ गठबंधन की पार्टियों का साथ दिया। कांग्रेस के हिस्से 16 सीटें आईं।
कांग्रेस ने पिछली बार इतनी ही सीटें जीती थीं। आखिर वो अपनी सीटों में इजाफा क्यों नहीं कर पाई।
इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरे भारत में जो गलती कर रही है वही उसने झारखंड में भी की। मुद्दे पहचानने और उन्हें ज़मीन पर लाने में वो नाकाम रही। कांग्रेस की दूसरी बड़ी कमजोरी रही मजबूत केंद्रीय नेतृत्व का अभाव।’
वो कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा में क्षत्रपों की चली। उन्होंने अपनी मर्जी से टिकट बांटे। महाराष्ट्र की तरह झारखंड में कांग्रेस के नेता लड़ते रहे। पूरा फोकस चुनाव जीतने पर न होने से कांग्रेस को नुक़सान उठाना पड़ा।’
कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने राज्य में आदिवासी नेतृत्व को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की इसका भी खमियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।
शरद गुप्ता भी इस राय से इत्तेफाक रखते हैं। वो कहते हैं, ‘झारखंड में कांग्रेस ने आदिवासी नेतृत्व बनाने की कभी कोशिश नहीं की। बीजेपी ने ये काम किया और उसने आदिवासी मुख्यमंत्री भी बनाए। अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी जैसे नेता बीजेपी ने ही दिए। लेकिन कांग्रेस ने अभी तक इस ओर ध्यान नहीं दिया है।’
विश्लेषकों का कहना है कि ज्यादातर जगह कांग्रेस अब अपने मजबूती सहयोगियों की पीठ पर लदकर काम चला रही है। ये उसके भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘बिहार में आरजेडी, तमिलनाडु में डीएमके, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस। हर जगह कांग्रेस अपने मजबूत सहयोगियों के बूते सीटें जीतने में कामयाब रही है। ओडिशा में कांग्रेस का वजूद खत्म हो चुका है। एक वक़्त में पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस का दबदबा था, लेकिन अब वहां बीजेपी छाई हुई है। जबकि इन राज्यों की डेमोग्राफी कांग्रेस के पक्ष में हैं, लेकिन सरकारें बीजेपी की है।’
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस मुद्दे नहीं तय कर पा रही है। बीजेपी हर राज्य के हिसाब से मुद्दे तय करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर सीट के हिसाब के मुद्दों के हिसाब से बोलते हैं। वहां के इतिहास, भूगोल, राजनीतिक परिस्थितियां सबको ध्यान में रख कर बोलते हैं। लेकिन कांग्रेस इसके हिसाब से मुद्दे और रणनीति तय नहीं कर पाती।’
शरद गुप्ता कहते हैं कि मुद्दों के लिहाज से केंद्रीय नेतृत्व के थिंकटैंक में स्पष्टता न होना और इन्हें ज़मीन पर न उतार पाना कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी बन कर उभरी है। कांग्रेस इन कमजोरियों को दूर किए बिना राज्यों के चुनाव जीतने की उम्मीद छोड़ दे।
हरियाणा
2024 के अक्टूबर महीने में हरियाणा के विधानसभा चुनाव हुए। बीजेपी ने यहां सत्ता विरोधी लहर, किसान और पहलवान आंदोलन के बावजूद जीत हासिल की और लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल करने में कामयाब रही।
हरियाणा चुनाव के नतीजों से पहले लगभग सभी एग्जिट पोल्स कांग्रेस को जीतते हुए दिखा रहे थे, लेकिन बीजेपी ने इन्हें गलत साबित करते हुए बड़े आराम से बहुमत के आंकड़े को पार करते हुए 48 सीटों पर जीत हासिल की ।
हरियाणा में विधानसभा की 90 सीटें हैं। बीजेपी को 39.9 प्रतिशत वोट मिले, जो कि पिछले विधानसभा चुनाव (2019) की तुलना में 3.5 फीसदी ज़्यादा हैं। बीजेपी को पिछली बार से आठ सीटें ज़्यादा हासिल हुईं।
कांग्रेस सिर्फ 37 सीट ही जीत सकी। हालांकि ये पिछले विधानसभा चुनावों से छह ज़्यादा है।
सीटों के लिहाज से कांग्रेस कहां चूक गई। आखऱि उससे कहां गलती हुई?
इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘हरियाणा के चुनाव को कांग्रेस ने हल्के में लिया। जबकि ज़मीन पर जबरदस्त बीजेपी (सत्ता) विरोधी लहर थी। यहां कांग्रेस के हारने की दूसरी बड़ी वजह थी पार्टी की अंदरूनी लड़ाई। इसका कुछ नुक़सान होता या नहीं, लेकिन इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने रेखांकित किया। उन्होंने पार्टी नेता सैलजा के कथित अपमान का जिक्र किया।’
हेमंत कहते हैं, ‘बीजेपी ने राज्य की ‘फॉल्टलाइन’ जाट बनाम गैर जाट के मुद्दे का भी बखूबी फ़ायदा उठाया। कांग्रेस में भी हुड्डा बनाम सैलजा की ‘लड़ाई’ का भी बीजेपी ने फ़ायदा उठाया। बीजेपी ने सीट दर सीट रणनीति तय की। उसने चुनाव जीतने लिए हर तरह के दांव खेले। जबकि कांग्रेस अति आत्मविश्वास की शिकार होकर रह गई।’
हेमंत अत्री कहते हैं कि कांग्रेस को जिस राज्य में अपनी अपनी स्थिति मजबूत दिखाई देती हो उसे वो हल्के में लेना शुरू कर देती है और फिर वहां वो रणनीतिक गलतियां शुरू कर देती है। चाहे वो अंदरूनी झगड़े का मामला हो या कैंडिडेट के चुनाव में गलतियां। कांग्रेस के अंदर बहुत जल्दी गुटबाजी शुरू हो जाती है।
वो कहते हैं, ‘बीजेपी ने जिस उम्मीदवार को टिकट दे दिया वह पूरी पार्टी का उम्मीदवार होता है। लेकिन कांग्रेस में उम्मीदवार किसी एक गुट का कैंडिडेट होकर रह जाता है। फिर कांग्रेस का दूसरा गुट ही उसे हराने में लग जाता है। हरियाणा का चुनाव इसका उदाहरण था।’
वहीं, अदिति फडणीस कहती हैं कि हरियाणा में कांग्रेस अपने अंदरुनी झगड़ों की वजह से नुकसान में रही। कांग्रेस को पार्टी के अंदर इस प्रवृति रोकना होगा। वरना उसे आगे भी नुकसान उठाना पड़ सकता है।’ (bbc.com/hindi)
-अनघा पाठक
महाराष्ट्र चुनाव की घोषणा से कुछ महीने पहले मुझे राज्य रानी एक्सप्रेस के जनरल कोच में यात्रा करने का मौका मिला था।
यह ट्रेन मुंबई को मराठवाड़ा से जोड़ती है, जो कि महाराष्ट्र का पिछड़ा इलाक़ा माना जाता है।
इसी कोच में महिलाओं के लिए एक छोटा सा हिस्सा आरक्षित है, जिसमें 12 सीटें दी गई हैं। मगर, यहां करीब 50 महिलाएं बैठी थीं।
ये सभी महिलाएं या तो अकेले या फिर अपनी दोस्त के साथ अपने-अपने शहर जा रही थीं। वे सभी महिलाएं गरीब और वंचित समुदाय से थीं।
लेकिन, वे अपने 15-20 घंटे इस छोटी जगह में बिताने के लिए तैयार थीं, क्योंकि उन्हें ‘मुख्यमंत्री लाडली बहन योजना’ के लिए अपने दस्तावेज जमा करने थे।
योजना का कितना असर पड़ा?
चुनाव से ठीक पहले, महाराष्ट्र के महायुति गठबंधन की सरकार ने महिलाओं को इस योजना के ज़रिए हर महीने 1500 रुपये देने की घोषणा की थी। ये महिलाएं इसी योजना का फ़ायदा उठाने की उम्मीद में थीं।
कुछ महिलाओं को इस योजना से मिलने वाले पैसे से अपने बच्चे की स्कूल फीस भरनी थी, तो कुछ को दवाइयां खरीदनी थी। वहीं कुछ अपने लोन की किश्तें चुकाना चाहती थीं। उस समय किसी को भी ऐसी उम्मीद नहीं थी कि इस योजना का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों पर कितना बड़ा असर पड़ेगा। लेकिन, आज इस बात का प्रमाण है कि इसकी बदौलत महायुति गठबंधन ने 230 सीटों के साथ चुनाव में शानदार जीत दर्ज की है।
बीजेपी का वोट शेयर कैसे बढ़ा?
उपमुख्यमंत्री अजीत पवार का कहना है कि यह योजना विधानसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित हुई।
कई एक्सपर्ट्स और विश्लेषकों का कहना है कि लाडली बहन और दूसरी योजनाओं ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की चुनाव जीतने में मदद की।
2024 के विधानसभा चुनाव में 2019 विधानसभा चुनाव के मुकाबले महिला मतदाताओं की संख्या में लगभग 6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। ऐसा माना जा रहा है कि इन महिलाओं ने एनडीए को वोट दिया।
कुमार केतकर एक वरिष्ठ पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक और पूर्व सांसद हैं।
केतकर ने बीबीसी मराठी से कहा, ‘कई सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों ने 6-7 हजार वोटों से जीत हासिल की है।’
‘वहीं अगर आप करीब से देखें तो लगभग सभी सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या में भी 5-6 हजार की बढ़ोतरी हुई है। इन महिलाओं ने ही बीजेपी और उसके गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाई है।’
क्या कहते हैं जानकार?
इससे यह सवाल उठता है कि क्या अब महिलाओं का एक अलग वोट बैंक बन गया है?
क्या अब महिलाएं उस सरकार को वोट देती हैं, जो उनके हित में काम करती है?
क्या वोटिंग, जो पहले जाति और धर्म से प्रभावित होती थी, वह अब महिला केंद्रित होती जा रही है?
अदिति नारायण पासवान दिल्ली यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
वो इस बारे में कहती हैं, ‘हां यह बिल्कुल ठीक है कि वोटिंग पैटर्न अब जेंडर के आधार पर शिफ्ट हो गया है।’
‘हम महाराष्ट्र चुनाव में यह देख सकते हैं कि महिलाओं ने जाति और धर्म की राजनीति को पीछे छोडक़र उन पार्टियों या उम्मीदवारों को वोट दिया, जो उन्हें सीधे तौर पर फ़ायदा पहुंचा रहे थे।’
वह कहती हैं कि पिछले कुछ सालों में राजनीतिक पार्टियों ने महिलाओं पर ज़्यादा ध्यान दिया है, जो कि 10 साल पहले नहीं हुआ करता था।
अदिति कहती हैं, ‘जब आप महिलाओं को कुछ सुविधाएं देते हैं, तो वे घर से निकलकर वोट डालने आती हैं। पहले महिलाओं को उनके पति बताते थे कि उन्हें किसे वोट करना है।’
‘हालांकि अब महिलाएं चुनावी राजनीति में सीधे तौर पर हिस्सा ले रही हैं। अब वे राजनीति में रुचि ले रही हैं। वे अब राजनीतिक दलों की बातों को ध्यान से सुन रही हैं और उनके द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं का आंकलन भी कर रही है।’
‘यह कोई नई बात नहीं है। 2019 के चुनाव में भी उज्ज्वला योजना ने हज़ारों महिलाओं की मदद की।’
योजना पर महिलाएं क्या सोचती हैं?
अगर महिला वोट बैंक बन जाता है, तो इसका भारत में चुनावी राजनीति के भविष्य पर क्या असर होगा?
प्रोफेसर अदिति पासवान बताती हैं, ‘कुछ लोग महिलाओं को वोट देने में मदद करने वाली योजनाओं की आलोचना करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि ये कार्यक्रम महिलाओं को केवल वोट बैंक बनाता है। इससे उन्हें कभी भी समान प्रतिनिधित्व या समान अधिकार नहीं मिलते।’
‘हालांकि जब आप ज़मीनी स्तर पर जाकर गरीब महिलाओं से बात करते हैं, तो वे इन योजनाओं से मिलने वाली मदद से खुश होती हैं।’
‘उनका संघर्ष खुद को जिंदा रखना है। राजनीतिक दलों से मिलने वाला पैसा या दूसरी चीजें उनके आत्मविश्वास को बढ़ाती हैं और परिवार में फैसला लेने में उनकी आवाज को मजबूत करती हैं। उनके लिए अभी यही बात सबसे जरूरी है।’
बल्कि, ये योजनाएं महिलाओं को चुनावी राजनीति में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करती हैं। वो मानती हैं कि इससे उनको भी प्रतिनिधित्व मिलता है।
विभूति पटेल मुंबई में एसएनडीटी वूमेंस यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ इकोनॉमिक्स की पूर्व प्रमुख हैं। वह भी इस बात से सहमत हैं।
विभूति कहती हैं, ‘आईएलओ और कई अन्य संगठनों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि यात्रा में छूट देने और आर्थिक मदद देने से महिलाओं को काफी सहयोग मिलता है।’
‘महिलाओं को मिलने वाला पैसा शराब और सिगरेट पर ख़र्च नहीं होता। बल्कि, जब महिलाओं को पैसे मिलते हैं, तो वे इसका इस्तेमाल परिवार, खाने और बच्चों की पढ़ाई में करती हैं।’
योजना का एक पहलू ये भी है
सभी महिलाओं को लगता है कि उसके पास कुछ पैसे होने चाहिए। उसको किसी से पैसे मांगने या अपने पति के सामने सफाई देने की जरूरत नहीं पडऩा चाहिए।
साधनाबाई ऐसी ही एक महिला थीं, जिनसे मेरी मुलाकात ट्रेन के जनरल डिब्बे में हुई थी।
उनके पति ने उन्हें छोडक़र दूसरी महिला से शादी कर ली थी। उनकी 18 साल की बेटी ने हाल ही में एक बच्चे को जन्म दिया था।
वह नौकरानी का काम करके जो पैसे कमाती थी, वे उनके लिए काफी नहीं थे।
इसलिए, अपने दामाद पर निर्भर रहने के बजाय वह इस उम्मीद में थी कि उनको लाडक़ी बहिन योजना के पैसे मिल जाए। इसलिए, वह ट्रेन में खड़े होकर 15 घंटे का सफर करने को तैयार थीं।
अर्थशास्त्री अभय तिलक ऐसी योजनाओं का आंकलन करते हुए कहते हैं, ‘महिलाओं की एक बड़ी संख्या ऐसी है, जिसके पास पैसे कमाने का कोई ज़रिया नहीं है।’
‘परिवार में उनके साथ कभी भी अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। लेकिन ऐसी योजनाओं से इन महिलाओं को कुछ पैसे मिल रहे हैं और उनके परिवारों में उनकी स्थिति सुधर रही है।’
हालांकि, उन्हें एक चिंता है।
अभय कहते हैं, ‘व्यक्तिगत स्तर पर इस योजना से लोग तो खुश हैं। लेकिन, माइक्रो लेवल पर लाडक़ी बहिन जैसी योजना का महंगाई पर असर पड़ेगा। और मैं यह सोचता रहता हूं कि आर्थिक तौर पर यह टिकाऊ नहीं रहने वाला है।’
कई एक्सपर्ट्स का कहना है कि इन योजनाओं से किसी राजनीतिक पार्टी को लंबे समय तक सत्ता में बने रहने में मदद नहीं मिल सकती।
मतदाता के मन में क्या?
नवेंदु पटना के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने बिहार की राजनीति पर बहुत बारीकी से काम किया है।
बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने महिलाओं के लिए कई तरह की योजनाएं लागू की हैं। इससे मिले नतीजों को नवेंदु ने देखा है।
लेकिन, योजनाओं से बनने वाले वोट बैंक के बारे में बात करते हुए वह कहते हैं, ‘जो पार्टी या उम्मीदवार सबसे ज़्यादा ऑफर करता है, और लोग उसको पसंद करते हैं तो उसको सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं।’
‘लेकिन, अगर ऐसा वोट बैंक बन भी जाता है, तो यह स्थिर नहीं होगा। क्योंकि, लोगों का वोट दूसरी जगह पर शिफ्ट होता रहेगा।’
लेकिन, अब लोग विचारधारा की जगह इस आधार पर वोट कर रहे हैं कि किस राजनेता या राजनीतिक दल से उन्हें व्यक्तिगत तौर पर क्या फायदा मिल रहा है।
ऐसा केवल महिलाओं के साथ ही नहीं, बल्कि सभी के साथ हो रहा है।
बीबीसी मराठी से बात करते हुए कुमार केतकर कहते हैं, ‘इन दिनों एक चलन तेज़ी से बढ़ रहा है, जो व्यक्ति केंद्रित है। मतलब यह कि लोग अब केवल नागरिक या मतदाता नहीं रह गए हैं।’
‘अब वह एक व्यक्ति या स्वतंत्र उपभोक्ता बन चुके हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि आप उनसे जुड़ा जो भी फ़ैसला लें, तो उनकी ज़रूरतों को ध्यान में रखें।’
इस तरह के वादे और कल्याणकारी योजनाएं महिलाओं के मामले में उनकी व्यक्तिगत चुनौतियों को सामने लाती हैं।
हालांकि, एक पहलू यह भी है कि अगर महिलाओं को अलग-अलग सरकारों द्वारा वित्तीय मदद दे दी जाती है, तो उनके सामाजिक न्याय और समानता का क्या होगा? साथ ही उनकी राजनीतिक भागीदारी का सवाल भी हमारे सामने होगा।
डॉ. गोपाल गुरु दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राजनीति विज्ञान विभाग के रिटायर्ड प्रोफेसर और वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं।
वह कहते हैं, ‘कल्याणकारी राज्य वह होता है, जहां सरकार राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक समानता लाने के लिए कदम उठाती है।’
‘लेकिन, हमें बिना किसी कारण लोगों को पैसा देने के बारे में सोचना होगा। जब सरकार कोई वित्तीय मदद देती है, तो उसके पीछे कोई उचित कारण होना चाहिए।’
‘सरकार किसी व्यक्ति को पैसा क्यों दे रही है, इस पर विचार करने की ज़रूरत है। श्रमिक के आत्मसम्मान के बारे में भी सोचा जाना चाहिए।’
‘पैसा देने की जगह सरकार को लोगों के आर्थिक हालात को बेहतर बनाने की दिशा में काम करना चाहिए। मनरेगा इसका एक अच्छा उदाहरण है।’
महिला मतदाताओं को लुभाने की पिछली कोशिशें
मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव साल 2023 में हुए थे। वहां भी ‘लाडली बहन’ के नाम से ऐसी ही योजना की शुरुआत की गई।
इस योजना के तहत सरकार द्वारा 23 से 60 साल की आयु वाली गरीब महिलाओं को 1000 रुपये प्रति महीने देने की घोषणा की गई।
सरकार ने दावा किया कि इस योजना से 1।25 करोड़ से ज़्यादा महिलाओं को फायदा पहुंचा। इसी योजना ने मध्य प्रदेश में बीजेपी को जीत दिलाने में मदद की।
लेकिन, बीजेपी ऐसी योजनाओं को लागू करने वाली अकेली पार्टी नहीं है। इससे पहले भी कई राज्यों की सरकारों ने महिलाओं को अपनी तरफ खींचने और अपना वोट बैंक बनाने की कोशिश की है।
बिहार इसका एक उदाहरण है।
नीतीश कुमार ने 2007 के आसपास स्कूल की छात्राओं को साइकिल देने वाली योजना की शुरुआत की थी। जिसमें आठवीं पास करने वाली हर लडक़ी को साइकिल खरीदने के लिए पैसे दिए जाते थे।
उस समय नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री रहे संजय झा ने कहा था, ‘साल 2006 में मुख्यमंत्री साइकिल योजना को लागू किया गया, जिसके कारण बिहार में लड़कियों की शिक्षा में बड़ा बदलाव आया।’
‘आंकड़ों से पता चलता है कि जहां साल 2007 में 10वीं कक्षा में पढऩे वाली लड़कियों की संख्या 1।87 लाख थी। वह साल 2022 में बढक़र 8।37 लाख हो गई।’ कई लोगों का मानना है कि साइकिल ने बिहार में हज़ारों लड़कियों के लिए शिक्षा के दरवाजों को खोला है।
वरिष्ठ पत्रकार नवेंदु कहते हैं, ‘बिहार में आज भी शिक्षा के हालात अच्छे नहीं है। गांवों में कोई स्कूल या कॉलेज ही नहीं है। लेकिन, तब के हालात बहुत ही ज़्यादा ख़ाब थे।’ ‘जब लड़कियों को सरकार की तरफ से साइकिल मिली, तो उन्हें सुरक्षित और तेज़ परिवहन का साधन मिला। इससे उन्हें सार्वजनिक परिवहन पर निर्भर नहीं रहना पड़ा।’
‘लड़कियां अपने गांव से बाहर स्कूल, कॉलेज जाने लगी, जिससे एक सामाजिक बदलाव आया।’
‘इस कारण लड़कियों की माताओं ने नीतीश कुमार को वोट दिया, क्योंकि वे अपनी बेटियों के लिए अच्छी जिंदगी चाहती थी।’
यह महिलाओं को सीधे फायदा पहुंचाने वाली सबसे पहली कोशिशों में से एक थी। जिसको लेकर नवेंदु कहते हैं कि यह कोशिश पूरी तरह से सफल हुई।
इन नेताओं के साथ महिला वोटर्स
महिलाओं के लिए नीतीश सरकार का दूसरा अहम फैसला शराबबंदी का था।
नवेंदु कहते हैं, ‘शराबबंदी से कई चीज़ें जुड़ी हुई थी। घर के मर्द शराब पर सारा पैसा खर्च कर देते थे, जिसके कारण महिलाओं को गरीबी का सामना करना पड़ता था।’ ‘साथ ही महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीडऩ जैसी समस्याओं को झेलना पड़ता था।’
‘लेकिन, नीतीश सरकार के शराबबंदी वाले फैसले ने महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान लाने में मदद की, जिसके नतीजे आज भी दिख रहे हैं।’
इसलिए, नीतीश कुमार को वोट देने वाली महिलाएं उनके मुश्किल समय में उनके साथ बनी हुई हैं।
इसी कारण से नीतीश सरकार ने अपने शराबबंदी के फ़ैसले को बरकरार रखा है, भले ही उनकी राजनीतिक सहयोगी बीजेपी इस फैसले के ख़िलाफ़ हों।
तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता भी महिलाओं को मदद करने वाली योजनाओं के लिए जानी जाती थीं। इसी कारण से हजारों महिलाएं उनका समर्थन करती थी और जयललिता के लिए वोट बैंक बनी हुई थीं।
इसके अलावा, पिछले साल कांग्रेस ने तेलंगाना विधानसभा चुनाव में महिलाओं के लिए कई बड़े वादे किए थे। जिसमें से एक घोषणा सार्वजनिक परिवहन बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा की थी।
वहीं, दूसरी योजनाओं में महिलाओं को 3000 रुपये प्रति माह देने के साथ-साथ रसोई गैस सिलेंडर पर सब्सिडी देने की घोषणा भी की गई थी।
जब कांग्रेस की सरकार बनी, तब मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने अपनी मुफ्त बस यात्रा और रसोई गैस सिलेंडर पर 300 रुपये की छूट देने का वादा पूरा किया।
सीतालक्ष्मी हैदराबाद में रहती हैं। वह खुद मुफ्त बस यात्रा योजना का फायदा उठाती हैं।
वह कहती हैं, ‘मुझे अब पूरे राज्य में कही भी जाने के लिए पैसे की जरूरत नहीं पड़ती। मैं अपना आधार कार्ड दिखाकर कहीं भी जा सकती हूं। इसने हज़ारों महिलाओं को घर से बाहर निकलने का मौका दिया है।’
वह यह भी मानती हैं कि मुफ्त सार्वजनिक परिवहन ने गरीब महिलाओं की बहुत मदद की है।
सीतालक्ष्मी कहती हैं, ‘अब अगर किसी महिला को उसके पति ने पीटा है और घर से बाहर निकाल दिया है, तो वह बिना किसी पैसे के अपनी मां के घर वापस जा सकती है।’
‘इसलिए हमें ऐसी सरकार को वोट क्यों नहीं देना चाहिए, जो हमें ऐसी योजनाएं मुहैया कराती है।’
प्रोफ़ेसर अदिति पासवान को इसलिए लगता है कि आने वाले समय में महिला मतदाताओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए राजनीतिक पार्टियां ऐसी और योजनाएं लाएंगी।
वह कहती हैं, ‘यह सच है कि ऐसी योजनाओं से सीधा फायदा मिलेगा, साथ ही समाज में राजनीतिक समानता भी आएगी। इससे पुरुषों और महिलाओं का वोटिंग पैटर्न भी बदलेगा।’
‘हालांकि, इन योजनाओं के कुछ नुकसान भी है, जो महिलाओं को वोट बैंक बना रहे हैं।’
‘लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन योजनाओं से महिलाओं के हालात सुधरने शुरू हुए हैं। जैसे-जैसे महिला मतदाताओं का प्रतिशत बढ़ेगा, राजनीति में उनकी हिस्सेदारी भी बढ़ेगी।’ (bbc.com/hindi)
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के चेयरमैन इमरान ख़ान के समर्थक सडक़ों पर हैं।
समर्थक पुलिस और प्रशासन से भिड़ रहे हैं ताकि उनके नेता की जेल से रिहाई हो सके। लेकिन इन सबके बीच पाकिस्तान की राजनीति में सऊदी अरब के बारे में एक बयान चर्चा में है।
पिछले हफ़्ते गुरुवार को इमरान ख़ान की पत्नी बुशरा बीबी ने एक वीडियो संदेश में कहा था कि जब इमरान ख़ान मदीना से वापस आए थे, तब पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा के पास फोन आया था कि आप किसे लेकर आ गए हो।
सितंबर 2019 में इमरान ख़ान अपनी पत्नी बुशरा बीबी के साथ उमरा के लिए मदीना गए थे।
दरअसल बुशरा बीबी इमरान ख़ान से जेल में मिलने गई थीं और इस मुलाक़ात के बाद ही उन्होंने एक वीडियो संदेश जारी किया था।
लगभग आधे घंटे के इस वीडियो संदेश में बुशरा बीवी के 50 सेकेंड के हिस्से पर ख़ासा विवाद हो रहा है। इसे लेकर बुशरा बीबी के खिलाफ कई मुक़दमे भी दर्ज हो गए हैं।
बुशरा बीबी की जिस बात पर विवाद हो रहा है, उसमें उन्होंने कहा है, ‘इमरान ख़ान के पीछे जो सारी ताक़तें खड़ी हो गई हैं, उसके पीछे की वजह क्या है, ये आपसे किसी ने नहीं बताई।’
उन्होंने बताया, ''मैं आज ये बात आप सबसे बताती हूँ। ख़ान जब सबसे पहले मदीना शरीफ़ नंगे पाँव गए थे और वहाँ से वापस आए, तो फौरन ही जनरल बाजवा को फोन आने शुरू हो गए थे।’
उनके मुताबिक़ बाजवा से फोन पर पूछा गया, ''ये तुम किसे उठाकर लाए हो। हम इस मुल्क से शरीअत के निजाम ख़त्म करने में लगे हैं और तुम शरीअत के ठेकेदारों को लाए हो। हमें ये नहीं चाहिए।''
बुशरा बीबी ने उस वीडियो में कहा, ‘आप ये यक़ीन मानिए तब से ख़ान, उसकी बेगम को निशाने पर लिया जाने लगा और ख़ान को यहूदियों का एजेंट कहना शुरू कर दिया गया। ये मैं आपको सिर्फ इसलिए बता रही हूँ कि ख़ान ने इसे कभी पब्लिक में नहीं बताया। अगर ये बात ग़लत है तो फिर जनरल बाजवा और उसकी फैमिली से पूछिए। बाजवा और उसकी फैमिली ने ही ये बात किसी को बताई थी, जो बाद में ख़ान तक पहुँची थी। ख़ान को नंगे पाँव मदीना जाने के लिए सज़ा दी जा रही है।’
बुशरा बीबी की इस बात पर पाकिस्तान में हंगामा मच गया है।
बुशरा बीबी के खिलाफ पाकिस्तान में इस बयान के कारण कई नए मुक़दमे दर्ज हो गए हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने कहा है कि सऊदी अरब के बारे में ऐसी टिप्पणी बर्दाश्त से बाहर है।
शहबाज़ शरीफ़ ने बीते शुक्रवार को इस्लामाबाद में कहा था, ''सऊदी अरब ने हर मोर्चे पर बिना शर्त पाकिस्तान का समर्थन किया है। सऊदी अरब ने भाई की तरह मदद की है। बदकिस्मती से कल जो बयान आया है, वो पाकिस्तान से दुश्मनी निकालने की तरह है। सऊदी जैसे दोस्त और भाई के ख़िलाफ़ ज़हर उगला जा रहा है। हमें मुल्क के दुश्मनों का डटकर मुक़ाबला करना होगा। हम किसी को भी सऊदी अरब से रिश्ते बिगाडऩे की इजाज़त नहीं दे सकते हैं।’
बुशरा बीबी के बयान पर पाकिस्तान में काफ़ी बहस हो रही है।
भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे अब्दुल बासित ने पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल एबीएन से बातचीत में कहा, ‘सबसे पहले तो बुशरा बीबी को यह बात नहीं कहनी चाहिए थी कि वहाँ से फोन आया। हालांकि हुकूमत की तब्दीली में सऊदी का हाथ नहीं था। 2018 में इमरान ख़ान ने पहला दौरा सऊदी अरब का किया था। उन्होंने प्रधानमंत्री रहते तकऱीबन आठ दौरे सऊदी अरब के किए। इनमें से कुछ ओआईसी की मीटिंग भी शामिल थीं।’
बुशरा बीबी ने ऐसा क्यों कहा?
अब्दुल बासित ने कहा, ‘सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान भी फऱवरी 2019 में पाकिस्तान आए थे। उसके बाद भी इमरान ख़ान सऊदी अरब गए। एमबीएस और इमरान के बीच अच्छे संबंध रहे थे।’
बासित कहते हैं कि एक मौक़ा जरूर आया, जब सऊदी अरब और यूएई पाकिस्तान से नाराज़ हुए थे।
बासित ने टीवी कार्यक्रम के दौरान कहा, ''वो मौक़ा था, जब भारत ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया। हमें उम्मीद थी कि शायद सऊदी अरब और यूएई पाकिस्तान का समर्थन करेंगे। लेकिन वो नहीं हुआ। इसे लेकर हमारी फ्रस्ट्रेशन थी। तब मलेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति महातिर मोहम्मद ने इस्लामिक दुनिया को ओआईसी अलग एकजुट करने की कोशिश की और इस मुहिम में इमरान ख़ान ने भी दिलचस्पी दिखाई थी। यह सऊदी और यूएई को रास यह नहीं आया था।''
अब्दुल बासित के मुताबिक़ सऊदी अरब की नाराजग़ी के बाद इमरान ख़ान को अपने क़दम पीछे खींचने पड़े थे।
बासित ने बताया कि सऊदी अरब का पाकिस्तान के सियासी मामलों में प्रभाव रहा है। वो चाहे ज़ुल्फक़िार अली भुट्टों को फांसी लगाने से बचाने का मामला हो या फिर नवाज़ शरीफ़ के निर्वासन में उसकी भूमिका हो।
हालांकि पूर्व डिप्लोमेट अब्दुल बासित को लगता है कि शहबाज़ शरीफ़ को इस पर बयान नहीं देना चाहिए था और सऊदी अरब को घरेलू सियासत में नहीं लाना चाहिए था।
बासित ने कहा, ‘यह हमारे मुल्क के हितों के बिल्कुल खिलाफ है।’
पाकिस्तान की जानी-मानी रक्षा विश्लेषक डॉ आयशा सिद्दीक़ा ने पाकिस्तान के न्यूज़ चैनल नया दौर के रज़ा रुमी से कहा, ''संभव है कि सऊदी अरब ने बाजवा से कहा हो कि किसे साथ लाए हो। लेकिन इसमें मिलावट की गई है वो ठीक नहीं है। इमरान ख़ान ने सऊदी के क्राउन प्रिंस के लिए गाड़ी चलाई थी।’
आयशा सिद्दीक़ा ने चैनल को बताया, ‘इमरान ख़ान जब वहाँ गए तो उन्होंने सऊदी अरब के बादशाह के लिए प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया था। बादशाह खड़े थे और वो आगे निकल गए थे। फिर उन्हें रोका गया था। यूएन में भी ईरान और सऊदी अरब की बात करने लगे थे। लेकिन सऊदी ने इन्हें हटा दिया, ये बात ठीक नहीं है।’
बुशरा का दांव उल्टा पड़ेगा?
आयशा सिद्दीक़ा को नहीं लगता कि इससे सऊदी अरब से संबंध खऱाब होंगे लेकिन फौज की सख़्ती पीटीआई के ख़िलाफ़ बढ़ जाएगी।
उन्होंने कहा, ‘बुशरा बीबी ने दरअसल ये बात सऊदी अरब से संबंध खऱाब करने के लिए ही की है। सऊदी अरब में पाकिस्तान के लाखों लोग काम करते हैं और इनमें ज़्यादातर इमरान ख़ान के समर्थक हैं। वहाँ इमरान ख़ान के हक़ में नारे लगाए जाएँगे, तो सऊदी बहुत सख़्त कार्रवाई करेगा।’
आयशा सिद्दीक़ा ने कहा, ''अगर इमरान ख़ान फिर से प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो किस मुँह से सऊदी अरब मांगने जाएंगे। ये सवाल तो उन्हें ख़ुद से करना चाहिए। मुझे लगता है कि हर हाल में इमरान ख़ान ने अपनी बेगम से बयान दिलवाकर अपना नुक़सान कराया है।’
‘अब तो सऊदी अरब इमरान ख़ान को बाहर लाने में भी मदद नहीं कर सकता है। इन सबके बावजूद बुशरा बीबी ने ऐसा क्यों किया? इसका जवाब है कि बुशरा बीबी ने ऐसा ख़ान साहब के कहने पर किया है। इमरान ख़ान चाहते हैं कि सऊदी अरब से पाकिस्तान के ताल्लुकात खऱाब हो जाएं और आर्थिक मदद ना मिले ताकि मौजूदा सरकार के प्रति लोगों का ग़ुस्सा बढ़े। ये कहना कि सऊदी अरब शरीअत से बाहर हो गया है बिल्कुल झूठ है। सऊदी अरब अपने हिसाब से शरीअत पर ही चल रहा है।’
पाकिस्तान के न्यूज़ चैनल जीओ न्यूज़ से पूरे विवाद पर जनरल (रिटायर्ड) क़मर जावेद बाजवा ने कहा कि बुशरा बीबी के आरोप बेबुनियाद हैं।
जनरल (रिटायर्ड) बाजवा ने कहा, ‘बेबुनियाद आरोपों से सियासी फ़ायदा हासिल करने के लिए राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं करना चाहिए। अब तक के इतिहास में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को बिना शर्त समर्थन किया है, वो चाहे जिसकी भी सरकार रही हो। बुशरा बीबी के आरोप पूरी तरह से बेबुनियाद हैं।’ (bbc.com/hindi)
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इसराइल और ईरान समर्थित हथियारबंद समूह हिज़्बुल्लाह के बीच एक युद्धविराम समझौते की घोषणा की है।
इसके साथ ही इसराइल और हिज्बुल्लाह के बीच पिछले 13 महीनों से चल रही लड़ाई थम जाएगी।
अमेरिका और फ्ऱांस के संयुक्त बयान में कहा गया है कि इस समझौते से लेबनान में जारी जंग रुकेगी और ‘इसराइल पर भी हिज़्बुल्लाह और अन्य आतंकवादी संगठनों के हमले का ख़तरा’ टल जाएगा।
युद्धविराम के बारे में हमें क्या पता है?
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पत्रकारों से कहा कि इस समझौते को स्थायी युद्धविराम के रूप में लाया गया है। युद्धविराम की शर्तों के मुताबिक़ 60 दिनों में हिज़्बुल्लाह अपने लड़ाकों और हथियारों को ब्लू लाइन के बीच से हटा लेगा।
समझौते की शर्तों के मुताबिक इन इलाक़ों में हिज़्बुल्लाह के लड़ाकों की जगह लेबनान के सैनिक होंगे। लेबनान के सैनिक इसे सुनिश्चित करेंगे कि इन इलाक़ों से हिज्बुल्लाह के इन्फ्ऱास्ट्रक्चर और हथियारों को हटाया जाए और इसे फिर से न बनने दिया जाए।
बाइडन ने कहा कि इन 60 दिनों में इसराइल धीरे-धीरे अपने सैनिकों और नागरिकों को वापस बुलाएगा।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि दोनों पक्ष इस बात को सुनिश्चित करेंगे कि आम लोग सरहद से लगे इलाक़ों में अपने घर लौट सकें।
पाँच हज़ार लेबनानी सैनिक हिज़्बुल्लाह की जगह लेंगे
अमेरिकी अधिकारियों के मुताबिक़ लेबनान की सेना दक्षिण में पाँच हज़ार सैनिकों को तैनात करेगी।
हालांकि सवाल अब भी बाक़ी हैं कि युद्धविराम लागू करने में इनकी क्या भूमिका होगी। अगर ज़रूरत पड़ी तो क्या ये हिज़्बुल्लाह से लड़ेंगे?
लेबनान के लोग धार्मिक समूहों में बँटे हुए हैं और इस बात की गहरी आशंका रहती है कि कहीं आपस में ना उलझ जाएं।
लेबनान की सेना ने कहा है कि उसके पास कोई संसाधन नहीं है। न पैसे हैं, न लोग और न ही सैन्य उपकरण। ऐसे में इस समझौते की शर्तों को पूरा करना आसान नहीं है।
हालांकि कहा जा रहा है कि लेबनान के वैश्विक सहयोगी आर्थिक मदद कर सकते हैं। पश्चिम के देशों के कई अधिकारियों ने कहा कि हिज़्बुल्लाह अब कमज़ोर हो गया है और लेबनान की सरकार के लिए यह मौक़ा है कि अपने इलाक़ों को नियंत्रण में ले।
युद्धविराम की निगरानी कौन करेगा?
यह समझौता लगभग संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1701 जैसा है, जिससे 2006 में इसराइल और हिज़्बुल्लाह के बीच युद्ध का अंत हुआ था।
प्रस्ताव 1701 में था कि लिटानी नदी के दक्षिणी इलाक़े में लेबनानी सैनिकों और यूएन के शांति सैनिकों के अलावा कोई और दूसरा हथियारबंद समूह नहीं रह सकता है। लेकिन दोनों पक्ष समझौते के उल्लंघन का दावा करते थे।
इसराइल का कहना था कि हिज़्बुल्लाह को इस इलाक़े में व्यापक पैमाने पर निर्माण की अनुमति दी गई थी। वहीं लेबनान का कहना था कि इसराइल समझौते का उल्लंघन करता था।
अमेरिका के एक सीनियर अधिकारी ने बताया कि इस बार अमेरिका और फ्रांस मौजूदा त्रिपक्षीय व्यवस्था में शामिल होंगे। इस त्रिपक्षीय तंत्र में संयुक्त राष्ट्र अंतरिम बल, लेबनान और इसराइल हैं।
इन्हीं के ज़िम्मे युद्धविराम की निगरानी की ज़िम्मेदारी है।
इस इलाक़े में अमेरिकी सैनिक नहीं होंगे लेकिन लेबनानी सेना की मदद के लिए सैन्य सहयोग रहेगा।
ऐसा अतीत में भी किया गया है। फ्ऱांस भी लेबनान की सेना को मदद देगा।
बाइडन ने इसराइली चिंता का ज़िक्र करते हुए कहा, ‘हिज़्बुल्लाह के आतंकवादियों को दक्षिणी लेबनान में किसी भी तरह के निर्माण की अनुमति नहीं होगी।’
इसराइल ने क्या कहा?
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने कहा ‘अमेरिका की सोच’ के साथ इसराइल लेबनान में ‘सैन्य कार्रवाई की पूरी आज़ादी’ को जारी रखेगा।
इसराइली प्रधानमंत्री ने कहा, ‘अगर हिज़्बुल्लाह ने समझौते का उल्लंघन किया और हथियार उठाए तो हम हमला करेंगे। अगर सरहद के पास आतंकवादी आधारभूत ढाँचा फिर से बनाया जाएगा तो हम हमला करेंगे। अगर रॉकेट लॉन्च किए गए, टनल बनाए गए और ट्रकों से रॉकेट लाए गए तो हम हमला करेंगे।’
बाइडन ने बिन्यामिन नेतन्याहू का समर्थन करते हुए कहा, ‘अगर हिज़्बुल्लाह या किसी ने समझौते को उल्लंघन किया और इसराइल के लिए ख़तरा पैदा किया तो उसके पास अंतरराष्ट्रीय नियमों के मुताबिक़ आत्मरक्षा का अधिकार होगा।’
लेकिन बाइडन ने ये भी कहा है कि समझौता लेबनान की संप्रभुता को बरकरार रखता है। इसराइल के हमले का अधिकार इस समझौते का हिस्सा नहीं है क्योंकि लेबनान ने इसका विरोध किया था।
कहा जा रहा है कि इस मुद्दे पर अमेरिका बाद में एक पत्र जारी कर इसराइल के हमले का अधिकार का समर्थन करेगा। (bbc.com/hindi)
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद से ही कहा जा रहा था कि कनाडा के लिए वो मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।
सोमवार को नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वह कनाडा से अमेरिका आने वाले हर उत्पाद पर 25 फ़ीसदी टैरिफ लगाएंगे।
ट्रंप ने कनाडा के अलावा एक और पड़ोसी देश मेक्सिको के भी सभी उत्पादों पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने की घोषणा की है। वहीं ट्रंप ने कहा है कि वो चीन के सभी उत्पादों पर 10 प्रतिशत टैरिफ लगाएंगे।
ट्रंप ने कहा कि कनाडा और मेक्सिको के ख़िलाफ़ यह टैरिफ प्रवासियों और अवैध ड्रग्स को रोकने के लिए जरूरी है।
ट्रंप ने ट्रूथ सोशल नेटवर्क पर एक पोस्ट में लिखा है कि 20 जनवरी को ऑफिस संभालते ही कनाडा, मेक्सिको और चीन के खिलाफ टैरिफ लगाने के लिए एक ‘कार्यकारी आदेश’ पर हस्ताक्षर करेंगे।
ट्रंप ने कहा, ‘सभी को पता है कि कनाडा और मेक्सिको से हज़ारों लोग अमेरिका में घुस रहे हैं। ये अपने साथ ड्रग्स ला रहे हैं और कई अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। जिस स्तर पर ये सब हो रहा है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ।’
ट्रंप बनाम ट्रूडो
कनाडा और अमेरिका के बीच दुनिया का सबसे लंबा लैंड बॉर्डर है और दोनों देशों के बीच कारोबारी संबंध एक ट्रिलियन डॉलर से भी ज़्यादा का है।
कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने ट्रंप की जीत के तत्काल बाद ही बधाई दी थी लेकिन दोनों नेताओं के संबंधों में पर्याप्त तनाव रहा है।
अमेरिका में कोई भी राष्ट्रपति कमान संभालने के बाद पारंपरिक रूप से पहला विदेशी दौरा कनाडा या मेक्सिको का करता था लेकिन ट्रंप ने 2017 में पहला विदेशी दौरा सऊदी अरब का किया था। यानी ट्रंप ने आते ही संदेश दे दिया था।
जस्टिन ट्रूडो पर ट्रंप व्यक्तिगत हमले भी करते रहे हैं। ट्रूडो को ट्रंप ने ‘घोर-वामपंथी पागल’ कहा था।
कनाडा की आर्थिक स्थिति पहले से ही चिंताजनक है और ट्रंप के टैरिफ से वहाँ की अर्थव्यवस्था के मंदी में जाने की आशंका बढ़ जाएगी।
कनाडा का 75 प्रतिशत निर्यात अमेरिका में होता है। ऐसे में 25 प्रतिशत का टैरिफ कनाडा को भारी पड़ सकता है।ट्रूडो के लिए ये मुश्किलें तब खड़ी हो रही हैं, जब कनाडा में चुनाव सिर पर है। कई चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में बताया जा रहा है कि ट्रूडो चुनाव में कंजर्वेटिव पार्टी से हार सकते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में कनाडा में रहना काफी महंगा हुआ है। दूसरी तरफ कनाडा पहले से ही चीन और भारत से उलझा हुआ है। ऐसे में कनाडा के लिए अपना व्यापार अमेरिका से बाहर ले जाना भी आसान नहीं है।
मोदी सरकार जस्टिन ट्रूडो पर कनाडा में रह रहे खालिस्तानी अलगाववादियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाती रही है।
दूसरी तरफ जस्टिन ट्रूडो सरकार कनाडा में खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या की साजिश रचने का आरोप लगा रही है। इस मामले में बाइडन प्रशासन ट्रूडो के साथ था।
अब कहा जा रहा है कि ट्रंप के आने के बाद जस्टिन ट्रूडो को खालिस्तानी अलगाववादियों के मामले में शायद कोई समर्थन न मिले।
ट्रंप-ट्रूडो और मोदी
जिस तरह से ट्रंप और ट्रूडो के व्यक्तिगत संबंध अच्छे नहीं रहे हैं, उसी तरह मोदी और ट्रूडो के भी आपसी संबंधों में गर्मजोशी नहीं है।
मोदी मई 2014 में पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बने और जस्टिन ट्रूडो अक्तूबर 2015 में पहली बार कनाडा के प्रधानमंत्री बने।
2019 में भी नरेंद्र मोदी दूसरे कार्यकाल के लिए चुनकर आए और ट्रूडो को भी अक्टूबर 2019 में दूसरे कार्यकाल के लिए चुना गया।
ट्रूडो की लिबरल पार्टी ऑफ कनाडा ख़ुद को उदारवादी लोकतांत्रिक बताती है और पीएम मोदी की बीजेपी की पहचान हिन्दुत्व और दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी के रूप में है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने अप्रैल 2015 में कनाडा का दो दिवसीय दौरा किया था। उस वक्त कनाडा के प्रधानमंत्री कन्जर्वेटिव पार्टी के स्टीफन हार्पर थे।
2010 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी-20 समिट में शामिल होने कनाडा गए थे। लेकिन समिट से इतर किसी भारतीय प्रधानमंत्री का कनाडा जाना 42 साल बाद तब हो पाया, जब पीएम मोदी कनाडा के दौरे पर 2015 में गए।
जस्टिन ट्रूडो जब से पीएम बने हैं, तब से नरेंद्र मोदी कनाडा नहीं गए हैं।
कनाडा दुनिया का चौथा बड़ा कच्चे तेल का उत्पादक है लेकिन ट्रंप का टैरिफ ऊर्जा से हासिल होने वाले राजस्व पर भी भारी चोट करेगा। दूसरी तरफ़ ट्रंप अमेरिका में घरेलू ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं।
2022 में ट्रूडो ने अमेरिका से आने वाले ट्रक ड्राइवरों के लिए वैक्सीन लगाना अनिवार्य कर दिया था। इसके लिए ट्रंप ने ट्रूडो को ‘घोर-वामपंथी पागल’ कहा था।
जून 2018 में ट्रंप कनाडा के क्यूबेक में आयोजित जी-7 समिट के बीच से ही निकल गए थे और उन्होंने जस्टिन ट्रूडो को ‘घोर बेईमान और कमजोर’ नेता कहा था।
जस्टिन ट्रूडो को पहले से ही थी आशंका
अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव पर कनाडा में सबकी नजरें टिकी थीं। ट्रंप की जीत के बाद एक संदेश गया कि कनाडा की चुनौतियां बढऩे वाली हैं।
रॉयटर्स के मुताबिक ट्रंप की जीत के बाद कनाडा की वित्त मंत्री क्रिस्टिया फ्रीलैंड ने कहा था, ''कनाडा में बड़ी संख्या में लोग अमेरिकी चुनाव को लेकर तनाव में थे। लेकिन मैं कहना चाहती हूं कि सब कुछ बिल्कुल ठीक है। अमेरिका से हमारा गहरा संबंध है और ट्रंप के साथ भी हमारे मज़बूत संबंध हैं।’ इसी साल जनवरी में ट्रूडो ने कहा था कि ट्रंप फिर से राष्ट्रपति बनते हैं तो कनाडा के लोगों की जिंदगी मुश्किल होगी और यह एक कदम पीछे जाने की तरह होगा।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार, वित्तीय मामलों के थिंक टैंक डिजार्डियंस के अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि ट्रंप की नीतियों के कारण 2028 के अंत तक कनाडा की जीडीपी में 1.7 फीसदी तक गिरावट आ सकती है।
ट्रंप 2017 में पहली बार जब राष्ट्रपति बने थे, तब उन्होंने उत्तरी अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते की समीक्षा की बात कही थी। अमेरिका का यह समझौता मेक्सिको और कनाडा के साथ है।
ट्रंप की शिकायत रही है कि इस समझौते से अमेरिका को नुकसान हो रहा है और बाक़ी दोनों देशों को फायदा हो रहा है।
इस समझौते को लेकर कनाडा और अमेरिका 18 महीनों तक तनाव भरे माहौल बातचीत हुई थी लेकिन बेनतीजा रही थी और दोनों देशों ने एक दूसरे के उत्पादों पर टैरिफ लगाना शुरू कर दिया था।
इसके बाद यह समझौता यूएस-मेक्सिको-कनाडा डील के रूप में सामने आई थी। लेकिन ट्रंप ने 11 अक्तूबर को इसकी समीक्षा की भी बात कही थी।
समाचार एजेंसी रॉर्यटर्स के अनुसार, इसी साल जनवरी में ट्रूडो ने एक मीटिंग में अपनी लिबरल्स पार्टी के सीनियर नेताओं से कहा था कि कनाडा के लिए ट्रंप का दूसरा कार्यकाल पहले कार्यकाल से ज़्यादा चुनौती पूर्ण होगा। यह बात रॉयटर्स से एक सूत्र ने बताई थी, जो उस मीटिंग में ख़ुद भी मौजूद था। (bbc.com/hindi)