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जानलेवा बीमारी ने जगाया, सचेत किया...
27-Dec-2024 4:14 PM
जानलेवा बीमारी ने जगाया, सचेत किया...

-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

क्या हम नींद में हैं या उनींदे हैं या जाग रहे हैं लेकिन आँखें बंद करके पड़े हुए हैं? इसका अर्थ यह है कि हम अपने जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को यूँ ही जाने दे रहे हैं. घड़ी की हर एक टिकटिक के साथ आपका जीवन कम होता जा रहा है. अपनी जागरूकता से इन अमूल्य पलों की महत्ता को समझा जा सकता है लेकिन प्रश्न यह है कि खुद को जागरूक कैसे करें?

सोना और जागना हमारे जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है. पूरे दिन का एक तिहाई समय सोने और दो तिहाई जाग कर रहने के लिए होता है. जाग कर रहने का मतलब केवल आंखें खोल कर रहना नहीं होता, मन को जागृत करके रखना होता है, हरेक गतिविधि पर सतर्कता कायम रखना होता है. जो भी हो रहा है, यदि हम बेहोशी में कर रही हैं तो इसका मतलब है कि हम कुछ नहीं कर रहे हैं, वह अपने-आप ही हो रहा है। टू-व्हीलर या फोर-व्हीलर चलाते समय हमारी मानसिक स्थिति गौर किया जाए तो हम लगभग बेहोशी में चलाते हैं, व्हील, एक्सीलरेटर और ब्रेक स्वाभाविक रूप से संचालित होते रहते हैं. हमारा ध्यान कहीं और रहता है। इस ध्यान की अनुपस्थिति का अर्थ है, मन का जागृत न होना।

मन को जागृत करने का अर्थ है, प्रत्येक क्रिया के प्रति मानसिक रूप से सतर्क रहना। जो भी हम कर रहे हैं या जो कुछ हमारे आसपास हो रहा है उसके प्रति सजग रहना. हमारे जीवन में एक क्रिया निरंतर होती है, श्वास लेने की। वह आती-जाती रहती है लेकिन एक मिनट के लिए यदि श्वांस को अवरुद्ध कर दिया जाए तो उसकी उपयोगिता समझ में आ जाएगी. हमारे शरीर के लिए इतनी अधिक आवश्यक क्रिया के प्रति हम सचेत नहीं रहते, उसे ध्यान से नहीं देखते. ऐसी अनेक लापरवाहियां हमारे साथ निरंतर घटती रहती हैं और हम उसके प्रति जरा भी गंभीर नहीं रहते।

जीवन एक खेल का मैदान है जिसमें हम एक खिलाड़ी हैं। हर खेल में जरूरी नहीं है कि हम जीतें लेकिन अच्छी तरह से खेलें, यह बेहद ज़रूरी है. छोटे-छोटे असंख्य खेलों का गुच्छा है यह जीवन। कुछ में जीतेंगे तो कुछ में हारेंगे लेकिन यदि लगातार हारते रहे तो जीतने की अभिलाषा क्षीण हो जाएगी और हमें नैराश्य घेर लेगा. मन पर निराशा का आक्रमण जीवन की सबसे बड़ी पराजय होती है, जीवन नीरस हो जाता है, मन उदास हो जाता है. मन की उदासी से शरीर में निष्क्रियता का आक्रमण होता है जो उसे हमेशा के लिए सुला देता है. शरीर में प्राण रहते हैं, सांसें चलती रहती हैं लेकिन जीवन से उत्साह दूर हो जाता है. ऐसी मनस्थिति में जीने से बड़ा दंड मनुष्य के लिए और क्या हो सकता है?

ऐसी नकारात्मक स्थिति का सामना करने के लिए हमें हर पल सजग रहना होगा. दिमागी नींद से बाहर निकलकर स्वयं को चैतन्य बनाना हमारा नियमित प्रयास होना चाहिए. मैंने अपने जीवन में इन दोनों पहलुओं का अनुभव लिया है। अपनी पचास वर्ष की उम्र मैंने यूँ ही बिता दी. जीवन जैसे खुद-ब-खुद आगे बढ़ता रहा। उसके बाद सन 2003 से 2009 के बीच मुझ पर कैंसर के तीन आक्रमण हुए, मैं बच गया तब मुझे समझ में आया कि जीत कैसे हासिल की जाती है. इस जानलेवा बीमारी ने मुझे जगाया, सचेत किया और मैं लेखन के क्षेत्र में लग गया। मैंने आत्मकथा लिखनी शुरू की, तीन खंड प्रकाशित हुए. उसके बाद विविध विषयों पर आठ और पुस्तकें आई। मैंने जीवन को समाप्त होते देखा, उस जीत के बाद मैं व्यापार के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में जीतने के लिए उद्यत हुआ और अब जीवन को सही मायने में जीते हुए जी रहा हूँ।


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