विचार/लेख
-वकार मुस्तफा
‘गाह’ के मोहना नहीं रहेज् बड़े पेड़ के नीचे गिल्ली-डंडा, कंचे और कबड्डी खेलते उनके बचपन के दोस्त उन्हें इस नाम से ही पुकारते थे।
जब वह सन् 1932 में ब्रितानी भारत के जि़ला झेलम के गांव में कपड़े के दुकानदार गुरमुख सिंह और उनकी पत्नी अमृत कौर के यहां पैदा हुए तो उनका नाम मनमोहन सिंह रखा गया था।
अब यह गांव पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से 100 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में स्थित जि़ला चकवाल का हिस्सा है।
जब 2004 में मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने और अगले दस साल इसी पद पर रहे और कई आर्थिक सुधार किए तो उनके गांव के साथी शाह वली और राजा मोहम्मद अली के दिलों में उनके साथ गुजारे दिनों की यादें हिलोरे मारने लगीं।
‘मैं आज जो कुछ हूं, शिक्षा की वजह से ही हूं’
समाजशास्त्र विशेषज्ञ जॉर्ज मैथ्यू साल 2004 में ही गाह गए थे।
‘ट्रिब्यून इंडिया’ में लिखे गए उनके लेख के अनुसार यहां स्कूल रजिस्टर में मनमोहन सिंह का नंबर 187 था, पिता का नाम गुरमुख सिंह, जाति (पंजाबी खत्री) कोहली, पेशा- दुकानदार और एडमिशन की तारीख़ 17 अप्रैल 1937 दर्ज है।
गांव में मनमोहन सिंह के दोस्त शाह वली ने जॉर्ज मैथ्यू को बताया कि दो कच्चे कमरों का स्कूल था।
शाह वली का कहना था, ‘हमारे उस्ताद दौलत राम और हेड मास्टर अब्दुल करीम थे। बच्चियां और बच्चे इक_े पढ़ते थे।’
‘ट्रिब्यून पाकिस्तान’ में छपे एक लेख के अनुसार उनके दोस्त ग़ुलाम मोहम्मद ख़ान ने समाचार एजेंसी एएफ़पी को बताया था, ‘मोहना हमारे क्लास के मॉनिटर थे और हम इक_े खेलते थे।’
उनका कहना था, ‘वह एक शरीफ़ और होनहार बच्चा था। हमारे उस्ताद ने हमेशा हमें सलाह दी कि अगर हम कुछ समझ न पाएं तो उनकी मदद हासिल करें।’
चौथी क्लास पास करने के बाद मनमोहन अपने घर वालों के साथ अपने गांव से 25 किलोमीटर दूर चकवाल चले गए और 1947 में ब्रितानी हिंदुस्तान के भारत और पाकिस्तान विभाजन से कुछ पहले अमृतसर चले गए।
इस तरह उनके गांव के दोस्त शाह वली उन्हें फिर कभी न मिल सके। अलबत्ता मनमोहन सिंह की दावत पर उनके बचपन के दोस्त राजा मोहम्मद अली सन 2008 में उनसे मिले थे। बाद में सन 2010 में राजा मोहम्मद अली की मौत हो गई थी।
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के अनुसार राजा मोहम्मद अली ने ‘मोहना’ को शॉल, चकवाली जूती और गांव की मिट्टी और पानी दिया और बदले में उन्हें पगड़ी और कढ़ाई वाली शॉल तोहफ़े में मिली।
सत्ता संभालने के कुछ ही समय बाद मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के उस समय के शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ को खत लिखा जिसमें कहा गया कि ‘गाह’ गांव की तरक्की के लिए कोशिश की जाए।
‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के अनुसार 1 अप्रैल 2010 को असाधारण तौर पर भावनात्मक राष्ट्रीय संबोधन में सिंह ने कहा कि उन्होंने मिट्टी के तेल के चिराग की रोशनी में पढ़ाई की।
कांपती आवाज़ में उन्होंने कहा, ‘मैं आज जो कुछ हूं, शिक्षा की वजह से ही हूं।’
गाह के दोस्तों का इंतजार और अधूरी ख्वाहिश
मनमोहन सिंह ने कैंब्रिज और फिर ऑक्सफर्ड जाने से पहले भारत में अर्थशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी।
साल 1991 में जब वह भारत के वित्त मंत्री बने तो अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर थी मगर फिर 2007 तक भारत ने अपनी सर्वोच्च जीडीपी की दर हासिल कर ली।
गाह गांव में मनमोहन सिंह के दूसरे दोस्त इंतजार कर रहे थे कि कब वह पाकिस्तान का दौरा करें और वह उनसे मिलें क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान आने की दावत तो क़बूल कर ली थी, मगर किसी वजह से वह जा न सके।
उन्हें ‘मोहना’ के आने की उम्मीद इसलिए भी थी कि मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरण सिंह का परिवार भी विभाजन से पहले पंजाब के जि़ला झेलम के गांव ढक्कू में रहता था।
भारत और पाकिस्तान के नेताओं का अजब रवैया होता है। मिलना हो तो बहाना ढूंढ लेते हैं, न मिलना हो तो पास से गुजरते हुए भी एक-दूसरे से आंख नहीं मिलाते।
साउथ एशियन एसोसिएशन फ़ॉर रीजनल कोऑपरेशन (सार्क) का सोलहवां शिखर सम्मेलन 2010 में भूटान में हुआ था।
मैं दक्षिण एशिया के पत्रकारों की एक कॉन्फ्रेंस में शामिल होने के लिए वहीं पर मौजूद था।
‘सार्क’ के दूसरे देश समझते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का होना और बातचीत न होना दक्षिण एशिया के विकास में रुकावट है और अपनी इन भावनाओं का उन्होंने बैठक में खुलकर इज़हार किया।
शायद इसीलिए शिखर सम्मेलन के मेज़बान भूटान ने राजधानी थिम्पू के ‘सार्क’ विलेज में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ़ रज़ा गिलानी को हिमालय की ख़ुशगवार पहाड़ी हवा के बीच दो मंजिला विला में पड़ोसी बनाया।
शायद उन्हें उम्मीद थी कि आते-जाते वह दोनों दिन में किसी वक्त एक दूसरे से हाल-चाल पूछ ही लेंगे।
थिम्पू के एक टैब्लॉयड ‘भूटान टुडे’ के अनुसार सिंह और गिलानी को कम से कम पड़ोसियों की तरह मिलने पर मजबूर करने के लिए यह पुरानी, देहाती लेकिन प्रभावी भूटानी कोशिश थी।
लेकिन दोनों प्रधानमंत्रियों ने यह कोशिश नाकाम कर दी। जिन्हें नहीं मिलना था, वे नहीं मिले।
यहां तक कि ‘सार्क’ देशों के राष्ट्राध्यक्षों को एक दिन कहना पड़ा कि ढलते सूरज में वह दोनों एक तरफ होकर टहल लें।
फिर ‘सार्क’ प्रेस रिलीज के अनुसार उनकी जिद पर पाकिस्तान और भारत के प्रधानमंत्रियों ने सार्क विलेज में एक साथ चहलकदमी की और बातचीत भी की।
बहरहाल, फिर मनमोहन सिंह और गिलानी की मुलाकात हुई जहां उन्होंने विश्वास बहाल करने के लिए बातचीत के रास्ते खुले रखने का फैसला किया।
भारत-पाकिस्तान रिश्तों को सुधारने
का मंसूबा पूरा नहीं हुआ
उस समय विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने सिंह की कांग्रेस सरकार पर पाकिस्तान के बारे में नरम रवैया अपनाने का आरोप लगाया।
जनवरी में अपनी अलविदाई प्रेस कॉन्फ्रेंस में मनमोहन सिंह ने यह बताया कि उनकी सरकार परवेज़ मुशर्रफ सरकार से कश्मीर पर शांति समझौता करने के बहुत नजदीक पहुंच चुकी थी लेकिन फिर 2008 में मुंबई में आतंकवादी हमले हो गए।
सिंह की राय थी कि अगर भारत को अपनी आर्थिक इच्छाओं को पूरा करना है तो उसके लिए कश्मीर समस्या को हल करना होगा।
मुशर्रफ के बाद आने वाले राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी से मनमोहन सिंह की मुलाकात न्यूयॉर्क में हुई।
साल 2011 में उस समय के पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को पंजाब के शहर मोहाली में क्रिकेट वल्र्डकप का मैच देखने की दावत दी गई।
पत्रकार अभीक बर्मन ने लिखा कि भारत ने क्रिकेट में पाकिस्तान को हरा दिया लेकिन एक और मैदान ‘क्रिकेट डिप्लोमैसी’ में भारत और पाकिस्तान दोनों ही जीते हुए हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनके पाकिस्तानी समकक्ष यूसुफ राजा गिलानी ने क्रिकेट मैच और डिनर के दौरान एक दूसरे से बिना रुकावट आठ घंटे बातचीत की।
साल 2012 में उस समय के भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा और पाकिस्तानी विदेश मंत्री रहमान मलिक ने स्वतंत्र वीजा समझौते पर हस्ताक्षर किए जिससे दोनों तरफ के लोगों के लिए दूसरे देश में यात्रा वीजा हासिल करना आसान हो गया।
उसी साल पंजाब और बिहार के राज्यों के भारतीय राजनेताओं के एक शिष्टमंडल ने भी पाकिस्तान का दौरा किया।
वर्ष 2013 में मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली के मौके पर न्यूयॉर्क में मिले।
दोनों ने एक-दूसरे के देशों के दौरे की दावत भी कबूल की लेकिन कोई तारीख तय नहीं हुई।
उसी साल मई में नवाज शरीफ के पीएम चुने जाने के बाद यह उनकी पहले आमने-सामने की मुलाक़ात थी।
अगला साल मनमोहन सिंह की सरकार का आखिऱी साल था।
वर्ष 2019 में मनमोहन सिंह पाकिस्तान आए भी तो बक़ौल उनके वह ‘एक आम आदमी’ के तौर पर यात्रियों के पहले जत्थे में करतारपुर तक गए, जहां सिखों के लिए पवित्र गुरुद्वारा दरबार साहिब तक भारत से डेरा बाबा नानक के रास्ते आने के लिए कॉरिडोर का उद्घाटन हुआ था।
उन्होंने उम्मीद जताई थी कि ‘करतारपुर मॉडल’ भविष्य के विवादों को हल करने में मदद कर सकता है।
उनका कहना था, ‘खुशहाल भविष्य को सुनिश्चित करने के लिए शांति और सद्भावना ही आगे बढऩे का अकेला रास्ता है।’
लेकिन ‘मोहना’ की पाकिस्तान में अपने जन्म स्थान का दौरा करने की इच्छा पूरी नहीं हो सकी। ((bbc.com/hindi)
-हृदयेश जोशी
ऐसा नहीं है कि डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते सब कुछ ठीकठाक था लेकिन वह मीडिया की परवाह करते थे और उनकी सरकार आलोचनात्मक रिपोर्टिंग का संज्ञान लेकर कदम उठाती थी। उनके दौर में कई मंत्रियों के (ए राजा, पवन बंसल, अश्विनी कुमार) इस्तीफे लिये। कुछ को (शशि थरूर) उनके बड़बोलेपन की सजा भुगतनी पड़ी। और मीडिया खुलकर सरकार के खिलाफ कैंपेन चला सकता था। चाहे आरटीआई कानून में बदलाव के खिलाफ या 2-जी और कोयला खदानों की नालानी को लेकर उठे सवालों पर। सीएजी रिपोर्ट आलोचनात्मक होती तो कई दिनों तक टीवी और अख़बारों में बैनर हेडलाइन चलती। संसद में हंगामा होता तो विपक्ष की आवाज़ को प्रमुखता मिलती।
अपनी तमाम आलोचनाओं के बाद भी डॉ मनमोहन सिंह पत्रकारों के सवालों का सामना सहजता से करते थे और बतौर वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री लगातार मीडिया से मुख़ातिब होते रहे। उनकी हर साल होने वाली प्रेस कांफ्रेंस के अलावा भी किसी मौके पर उनसे कोई भी कठिन सवाल पूछा जा सकता था।
इससे जुड़ा एक मेरा निजी अनुभव आज बताने लायक है।
बात वर्ष 2012 की है, जब असम में दंगे भडक़े थे और एनडीटीवी की ओर से मुझे उसे कवर करने के लिए भेजा गया। कोकराझार और चिरांग के इलाकों में। तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राहत कैंपों का दौरा करने आये। कई शिविरों की हालत बहुत खऱाब थी जैसा कि इन घटनाओं के वक्त होता है। लोगों में काफी गुस्सा था और यहां शरणार्थियों की हालत देखकर बहुत बुरा लगा और हमने इसकी व्यापक रिपोर्टिंग भी की।
लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौरे से पहले दो शिविरों को ( जिनमें से एक में बोडो और दूसरे में मुस्लिम शरणार्थी रह रहे थे) दुरुस्त किया गया। वहां सफाई की गई, लोगों के लिए ज़रूरी सामान, मेडिकल सहूलियत, पीने का पानी, पका हुआ भोजन आदि सब लाया गया।
स्वाभाविक रूप से उन दो कैंपों को मनमोहन सिंह के दौरे के लिए तैयार किया गया था ताकि प्रधानमंत्री को लगे कि राहत का काम अच्छा चल रहा है। इन्हीं में से एक कैंप के बाहर पीएम मनमोहन सिंह ने खड़े होकर पत्रकारों को संबोधित किया और तब प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार पंकज पचौरी भी उनके साथ दिल्ली से आये थे।
पीएम के इंतज़ार में कई ओबी वैन खड़ी थी। बीसियों पत्रकार वहां जमा थे और दिल्ली से पत्रकारों का हुजूम पहली शाम वहां पहुंच गया था। यह पत्रकार वार्ता लाइव थी और सभी टीवी चैनलों पर इसका सीधा प्रसारण हो रहा था।
उस दिन करीब 5 फुट की दूरी से इस पत्रकार वार्ता में मैंने पीएम से ज़ोर से पूछा था कि प्रधानमंत्री जी आप इन दो कैंपों का दौरा कर रहे हैं लेकिन यहां से कुछ दूरी पर जाएंगे तो पता चलेगा कि लोगों के हालात बहुत खऱाब हैं। आपको पता है कि इन दो कैंपों को बस आपके मुआयने के लिए चमकाया गया है?
डॉ. मनमोहन सिंह अपने स्वभाव के मुताबिक जऱा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने बस इतना कहा कि सभी कैंपों में सारी जरूरी सुविधाएं देने और हालात बेहतर करने के लिए आदेश दिये हैं और यह सुनिश्चित किया जायेगा।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ‘ओजस्वी वक्ता’ नहीं थे लेकिन वह कभी सवालों से नहीं डरे और हर वक्त पत्रकारों में भेदभाव किये बिना उनके सवालों का सामना करते थे।
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
क्या हम नींद में हैं या उनींदे हैं या जाग रहे हैं लेकिन आँखें बंद करके पड़े हुए हैं? इसका अर्थ यह है कि हम अपने जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को यूँ ही जाने दे रहे हैं. घड़ी की हर एक टिकटिक के साथ आपका जीवन कम होता जा रहा है. अपनी जागरूकता से इन अमूल्य पलों की महत्ता को समझा जा सकता है लेकिन प्रश्न यह है कि खुद को जागरूक कैसे करें?
सोना और जागना हमारे जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है. पूरे दिन का एक तिहाई समय सोने और दो तिहाई जाग कर रहने के लिए होता है. जाग कर रहने का मतलब केवल आंखें खोल कर रहना नहीं होता, मन को जागृत करके रखना होता है, हरेक गतिविधि पर सतर्कता कायम रखना होता है. जो भी हो रहा है, यदि हम बेहोशी में कर रही हैं तो इसका मतलब है कि हम कुछ नहीं कर रहे हैं, वह अपने-आप ही हो रहा है। टू-व्हीलर या फोर-व्हीलर चलाते समय हमारी मानसिक स्थिति गौर किया जाए तो हम लगभग बेहोशी में चलाते हैं, व्हील, एक्सीलरेटर और ब्रेक स्वाभाविक रूप से संचालित होते रहते हैं. हमारा ध्यान कहीं और रहता है। इस ध्यान की अनुपस्थिति का अर्थ है, मन का जागृत न होना।
मन को जागृत करने का अर्थ है, प्रत्येक क्रिया के प्रति मानसिक रूप से सतर्क रहना। जो भी हम कर रहे हैं या जो कुछ हमारे आसपास हो रहा है उसके प्रति सजग रहना. हमारे जीवन में एक क्रिया निरंतर होती है, श्वास लेने की। वह आती-जाती रहती है लेकिन एक मिनट के लिए यदि श्वांस को अवरुद्ध कर दिया जाए तो उसकी उपयोगिता समझ में आ जाएगी. हमारे शरीर के लिए इतनी अधिक आवश्यक क्रिया के प्रति हम सचेत नहीं रहते, उसे ध्यान से नहीं देखते. ऐसी अनेक लापरवाहियां हमारे साथ निरंतर घटती रहती हैं और हम उसके प्रति जरा भी गंभीर नहीं रहते।
जीवन एक खेल का मैदान है जिसमें हम एक खिलाड़ी हैं। हर खेल में जरूरी नहीं है कि हम जीतें लेकिन अच्छी तरह से खेलें, यह बेहद ज़रूरी है. छोटे-छोटे असंख्य खेलों का गुच्छा है यह जीवन। कुछ में जीतेंगे तो कुछ में हारेंगे लेकिन यदि लगातार हारते रहे तो जीतने की अभिलाषा क्षीण हो जाएगी और हमें नैराश्य घेर लेगा. मन पर निराशा का आक्रमण जीवन की सबसे बड़ी पराजय होती है, जीवन नीरस हो जाता है, मन उदास हो जाता है. मन की उदासी से शरीर में निष्क्रियता का आक्रमण होता है जो उसे हमेशा के लिए सुला देता है. शरीर में प्राण रहते हैं, सांसें चलती रहती हैं लेकिन जीवन से उत्साह दूर हो जाता है. ऐसी मनस्थिति में जीने से बड़ा दंड मनुष्य के लिए और क्या हो सकता है?
ऐसी नकारात्मक स्थिति का सामना करने के लिए हमें हर पल सजग रहना होगा. दिमागी नींद से बाहर निकलकर स्वयं को चैतन्य बनाना हमारा नियमित प्रयास होना चाहिए. मैंने अपने जीवन में इन दोनों पहलुओं का अनुभव लिया है। अपनी पचास वर्ष की उम्र मैंने यूँ ही बिता दी. जीवन जैसे खुद-ब-खुद आगे बढ़ता रहा। उसके बाद सन 2003 से 2009 के बीच मुझ पर कैंसर के तीन आक्रमण हुए, मैं बच गया तब मुझे समझ में आया कि जीत कैसे हासिल की जाती है. इस जानलेवा बीमारी ने मुझे जगाया, सचेत किया और मैं लेखन के क्षेत्र में लग गया। मैंने आत्मकथा लिखनी शुरू की, तीन खंड प्रकाशित हुए. उसके बाद विविध विषयों पर आठ और पुस्तकें आई। मैंने जीवन को समाप्त होते देखा, उस जीत के बाद मैं व्यापार के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में जीतने के लिए उद्यत हुआ और अब जीवन को सही मायने में जीते हुए जी रहा हूँ।
-सौत्विक बिस्वास
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का गुरुवार को 92 साल की उम्र में निधन हो गया। यह जानकारी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली ने दी।
एम्स ने प्रेस रिलीज में बताया कि 92 वर्षीय मनमोहन सिंह को गुरुवार की शाम घर पर ‘अचानक बेहोश’ होने के बाद गंभीर हालत में एम्स के आपातकालीन विभाग लाया गया था।
मनमोहन सिंह लगातार दो बार भारत के प्रधानमंत्री रहे और उनकी व्यक्तिगत छवि काफी साफ-सुथरी रही।
भारत में आर्थिक सुधारों का श्रेय उन्हें ही जाता है। फिर चाहे उनका 2004 से 2014 का प्रधानमंत्री का कार्यकाल रहा हो या फिर इससे पूर्व वित्त मंत्री के रूप में उनका कामकाज।
मनमोहन सिंह के नाम एक और उपलब्धि दर्ज है, वह जवाहरलाल नेहरू के बाद पहले भारतीय थे, जो लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बने। मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख दंगों के लिए संसद में माफ़ी मांगी थी। 1984 में हुए सिख दंगों में लगभग 3000 सिख मारे गए थे।
मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री के रूप में दूसरा कार्यकाल खासा चर्चित रहा। इस दौरान भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए। कई लोगों का मानना है कि इन घोटालों की वजह से ही 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा।
पंजाब में जन्म, कैंब्रिज से मास्टर्स
मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में हुआ था। यह हिस्सा अब पाकिस्तान में है। पंजाब यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से मास्टर्स किया और ऑक्सफॉर्ड से डी फिल किया।
मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि कैंब्रिज में पढ़ाई के दौरान उन्हें आर्थिक तंगी से गुजऱना पड़ा था। दमन सिंह ने लिखा था, ‘उनकी ट्यूशन और रहने का खर्च सालाना लगभग 600 पाउंड था। पंजाब यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप से उन्हें करीब 160 पाउंड मिलते थे, बाकी के लिए उन्हें अपने पिता पर निर्भर रहना पड़ता था। मनमोहन बेहद सादगी और किफायत से जीवन बिताते थे। डाइनिंग हॉल में सब्सिडी वाला भोजन अपेक्षाकृत सस्ता था, जिसकी कीमत दो शिलिंग छह पेंस थी।’
दमन सिंह ने अपने पिता को ‘घर के कामों में पूरी तरह असहाय’ बताते हुए कहा कि ‘वो न तो अंडा उबाल सकते थे और न ही टीवी चालू कर सकते थे।’
मनमोहन सिंह साल 1991 में भारत के वित्त मंत्री के तौर पर उभरे, ये ऐसा दौर था जब देश के आर्थिक हालात बहुत खऱाब थे।
उनकी अप्रत्याशित नियुक्ति ने उनके लंबे और सफल करियर को नई ऊंचाई दी। उन्होंने एक शिक्षाविद और नौकरशाह के रूप में तो काम किया ही, सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में भी योगदान किया और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रहे।
वित्त मंत्री के रूप में अपने पहले भाषण में उन्होंने विक्टर ह्यूगो का हवाला देते हुए कहा, ‘इस दुनिया में कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है।’
ये भाषण उनके महत्वाकांक्षी और अभूतपूर्व आर्थिक सुधार कार्यक्रम की शुरुआत थी। उन्होंने टैक्स में कटौती की, रुपये का अवमूल्यन किया, सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया।
इससे अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ, उद्योग तेजी से बढ़े, बढ़ रही महंगाई पर काबू पाया गया और 1990 के दशक में विकास दर लगातार ऊंची बनी रही।
एक्सीडेंटल पीएम
मनमोहन सिंह को बहुत अच्छी तरह से पता था कि उनका राजनीतिक जनाधार नहीं है।
उन्होंने कहा था, ‘राजनेता बनना अच्छी बात है। लेकिन लोकतंत्र में राजनेता बनने के लिए आपको पहले चुनाव जीतना पड़ता है।’
लेकिन जब उन्होंने 1999 में लोकसभा का चुनाव जीतने की कोशिश की तो निराशा हाथ लगी। हालांकि कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा।
2004 में भी ऐसा ही हुआ। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से इनकार करने पर मनमोहन सिंह पीएम बने।
तब सोनिया गांधी पर उनके विदेशी मूल को लेकर सवाल उठाए गए थे।
हालांकि आलोचकों का कहना था कि भले ही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाए गए हों, लेकिन असली ताकत तो सोनिया गांधी के पास है।
मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी कामयाबी प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता था।
उनके समय में ये ऐतिहासिक समझौता हुआ और इसकी बदौलत अमेरिका की परमाणु टेक्नोलॉजी तक भारत की पहुंच बन गई। लेकिन इस सौदे की कीमत भी चुकानी पड़ी। मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन दे रहे वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया।
कांग्रेस को बहुमत जुटाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी। उसे दूसरी पार्टियों से समर्थन लेना पड़ा और इस दौरान कांग्रेस पर आरोप लगा कि उसने सांसदों का समर्थन खरीदने के लिए पैसे खर्च किए।
मनमोहन सिंह आम सहमति कायम करने के पक्षधर थे। उन्होंने उस दौरान गठबंधन सरकार का जिम्मा संभाला जब सहयोगी दलों को मनाना मुश्किल काम होता था। वो मुखर थे। मनमोहन सरकार को समर्थन देने वाली क्षेत्रीय पार्टियां भी अपनी मांग बढ़-चढ़ कर रखती थीं। दूसरी समर्थक पार्टियां भी इसमें पीछे नहीं थीं।
हालांकि मनमोहन सिंह को उनकी विश्वसनीयता और बुद्धिमत्ता की वजह से भरपूर सम्मान मिला।
उन्हें नरम व्यक्तित्व का माना जाता था और कहा जाता था कि वो निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं। कुछ आलोचकों का कहना था कि उनके कार्यकाल में आर्थिक सुधारों की गति धीमी हो गई। वित्त मंत्री के तौर पर उन्होंने जिन आर्थिक सुधारों की गति दी थी उन्हें प्रधानमंत्री रहते आगे नहीं बढ़ा पाए।
मनमोहन सिंह ने दूसरी बार साल 2009 में कांग्रेस को निर्णायक चुनावी जीत दिलाई।
लेकिन जीत की चमक जल्द ही फीकी पडऩे लगी, और उनका दूसरा कार्यकाल ज्यादातर गलत कारणों से खबरों में रहा- उनके मंत्रिमंडल के कई मंत्रियों पर घोटाले के आरोप लगे, जिनसे देश को कथित तौर पर अरबों डॉलर का नुकसान हुआ। विपक्ष ने संसद को लगातार ठप रखा, और नीतिगत ठहराव के चलते देश को गंभीर आर्थिक मंदी का सामना करना पड़ा।
बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सिंह को भारत का ‘सबसे कमजोर प्रधानमंत्री’ कहा। इस पर मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल का बचाव करते हुए कहा कि उनकी सरकार ने देश और जनता के कल्याण के लिए ‘पूरी प्रतिबद्धता और समर्पण’ के साथ काम किया।
यथार्थवादी विदेश नीति
अपने विदेश नीति में, मनमोहन सिंह ने अपने दो पूर्ववर्तियों की व्यावहारिक राजनीति को आगे बढ़ाया। उन्होंने पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया जारी रखी, लेकिन इसमें उन हमलों के कारण रुकावट आई, जिनका आरोप पाकिस्तानी चरमपंथियों पर लगा।
इसका चरम नवंबर 2008 के मुंबई हमले और बम धमाके में देखने को मिला।
उन्होंने चीन के साथ सीमा विवाद खत्म करने की कोशिश की और 40 साल से अधिक समय से बंद नाथू ला दर्रा फिर से खोलने के लिए समझौता किया।
मनमोहन सिंह ने अफग़़ानिस्तान के लिए वित्तीय सहायता बढ़ाई और लगभग 30 वर्षों में वहां जाने वाले पहले भारतीय नेता बने।
साथ ही, उन्होंने भारत के पुराने सहयोगी ईरान से रिश्ते खत्म करने का संकेत देकर कई विपक्षी नेताओं को नाराज़ भी किया।
सादगी से जीने वाले नेता
एक मेहनती पूर्व शिक्षक और नौकरशाह के रूप में, वो अपनी विनम्रता और शांत स्वभाव के लिए जाने जाते थे। उनका ट्विटर अकाउंट (एक्स) साधारण और नीरस पोस्ट्स के लिए जाना जाता था, जिसके फॉलोअर्स की संख्या भी काफी कम थी।
मनमोहन सिंह मितभाषी थे। वो हमेशा शांत नजऱ आते थे। उनके व्यक्तित्व के इन पहलुओं की वजह से उनके कई प्रशंसक थे।
कोयला खदानों के अवैध आवंटन से जुड़े अरबों डॉलर के घोटाले के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने इस मामले पर अपनी चुप्पी का बचाव करते हुए कहा था कि उनकी ‘ये चुप्पी हजारों शब्दों के जवाब से बेहतर है।’
2015 में उन्हें आपराधिक साजिश, भरोसा तोडऩे और भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों के आरोपों पर जवाब देने के लिए कोर्ट में बुलाया गया। इस दौरान परेशान मनमोहन सिंह ने संवाददाताओं कहा था, वो ‘जांच के लिए पूरी तरह से तैयार’ हैं। सच की जीत होगी।’
प्रधानमंत्री का अपना कार्यकाल ख़त्म करने के बाद बढ़ती उम्र के बावजूद वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के तौर पर विपक्ष की राजनीति में सक्रिय रहे।
अगस्त 2020 में उन्होंने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि कोविड महामारी से अर्थव्यवस्था को पहुंचे नुक़सान की भरपाई के लिए भारत को तीन कदम तुरंत उठाने चाहिए। इस महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख दिया था।
उन्होंने कहा था कि सरकार को लोगों को कैश देना चाहिए। साथ ही कारोबारियों को पूंजी मुहैया करानी चाहिए और वित्तीय सेक्टर की दिक्कतों को दूर करना चाहिए। और आखऱि में इतिहास में मनमोहन सिंह को इस शख़्स के तौर पर याद किया जाएगा जिन्होंने भारत को आर्थिक और परमाणु अलगाव से बाहर निकाला। हालांकि कुछ इतिहासकार कहेंगे कि उन्हें काफी पहले रिटायर हो जाना चाहिए था।
2014 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मेरा पूरा विश्वास है कि मौजूदा मीडिया और संसद में मौजूद विपक्षी पार्टियों की तुलना में इतिहास मेरे प्रति ज्यादा दयालु होगा।’
मनमोहन सिंह के परिवार में उनकी पत्नी और तीन बेटियां हैं। (bbc.com/hindi)
-अभिनव गोयल
‘राम मंदिर के साथ हिंदुओं की श्रद्धा है लेकिन राम मंदिर निर्माण के बाद कुछ लोगों को लगता है कि वो नई जगहों पर इसी तरह के मुद्दों को उठाकर हिंदुओं का नेता बन सकते हैं। ये स्वीकार्य नहीं है।’
ये बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने ऐसे समय पर कही है जब देश में मंदिर-मस्जिद वाले कई नए अध्याय लिखे जा रहे हैं।
उपासना स्थल अधिनियम पर चल रही बहस के बीच देश में संभल, मथुरा, अजमेर और काशी समेत कई जगहों पर मस्जिदों के प्राचीन समय में मंदिर होने का दावा किया जा रहा है।
गुरुवार, 19 दिसंबर को पुणे में 'हिंदू सेवा महोत्सव' के उद्घाटन के मौके पर बोलते हुए मोहन भागवत ने इस माहौल पर चिंता जाहिर करते हुए एक बार फिर मंदिर-मस्जिद वाले चैप्टर को बंद करने की बात कही है।
उन्होंने कहा, ‘तिरस्कार और शत्रुता के लिए हर रोज नए प्रकरण निकालना ठीक नहीं है और ऐसा नहीं चल सकता।’
मोहन भागवत के बयान के बाद ना सिर्फ राजनीतिक गलियारों में खींचतान शुरू हो गई है बल्कि कई साधु संतों ने भी उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है।
मोहन भागवत के इस भाषण के क्या मायने हैं? क्या वे संघ के काडर को अपनी दिशा बदलने की नसीहत दे रहे हैं?
कई साधु-संतों ने उठाए सवाल
मोहन भागवत के बयान पर स्वामी रामभद्राचार्य ने सवाल उठाए हैं।
समाचार एजेंसी एएनआई से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘ये मोहन भागवत का व्यक्तिगत बयान हो सकता है। ये सबका बयान नहीं है। वो किसी एक संगठन के प्रमुख हो सकते हैं, हिंदू धर्म के वो प्रमुख नहीं हैं कि हम उनकी बात मानते रहें। वो हमारे अनुशासक नहीं हैं। हम उनके अनुशासक हैं।’
रामभद्राचार्य ने कहा, ‘हिंदू धर्म की व्यवस्था के लिए वो ठेकेदार नहीं हैं। हिंदू धर्म की व्यवस्था, हिंदू धर्म के आचार्यों के हाथ में हैं। उनके हाथ में नहीं हैं। वो किसी एक संगठन के प्रमुख बन सकते हैं। हमारे नहीं हैं। संपूर्ण भारत के वो प्रतिनिधि नहीं हैं।’
ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद भी मोहन भागवत के बयान के बाद गुस्से में दिखाई दे रहे हैं।
एबीपी न्यूज चैनल से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘जो लोग आज कह रहे हैं कि हर जगह नहीं खोजना चाहिए, इन्हीं लोगों ने तो बात बढ़ाई है और बढ़ाकर सत्ता हासिल कर ली। अब सत्ता में बैठने के बाद कठिनाई हो रही है।’
अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा, ‘अब कह रहे हैं कि ब्रेक लगाओ। जब आपको जरूरत हो तो आप गाड़ी का एक्सीलेटर दबा दो और जब आपको जरूरत लगे तो ब्रेक दबा दो। ये सुविधा की बात हो गई। न्याय की जो प्रक्रिया है, वो सुविधा नहीं देखती। वो ये देखती है कि सच्चाई क्या है।’
उन्होंने कहना है, ‘हम चाहते हैं कि जहां-जहां के बारे में इस तरह की बातें आ रही हैं, उन पर विचार कर लिया जाए। क्यों नहीं अलग से एक प्राधिकरण बना दिया जाता है, जो इन्हीं बातों पर तेजी से विचार करे और प्रमाणों को देखकर सच्चाई का पता लगाकर सही कर दे।’
इस मुद्दे पर बाबा रामदेव ने भी अपनी राय रखी है। समाचार एजेंसी पीटीआई से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘ये सच है कि आक्रांताओं ने आकर हमारे मंदिर, धर्म स्थान, सनातन के गौरव चिन्हों को नष्ट भ्रष्ट किया है और इस देश को क्षति पहुंचाई है।’
बाबा रामदेव ने कहा कि तीर्थस्थलों और देवी देवताओं की प्रतिमाओं को खंडित करने वालों को दंड देने का काम न्यायपालिका का है, लेकिन जिन्होंने ये पाप किए हैं उन्हें इसका फल मिलना चाहिए।
‘दिल्ली का आशीर्वाद’
ये पहली बार नहीं है जब संघ प्रमुख ने देश के मुसलमानों को साथ लेकर चलने और मस्जिदों में मंदिर ना ढूंढने की सलाह दी है।
नागपुर में साल 2022 में मोहन भागवत ने कहा था, ‘इतिहास वो है जिसे हम बदल नहीं सकते। इसे न आज के हिंदुओं ने बनाया है और न ही आज के मुसलमानों ने। ये उस समय घटाज्हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखनाज्अब हमको कोई आंदोलन करना नहीं है।’
साल 2024 में मोहन भागवत ने लोकसभा परिणाम के कारणों का विश्लेषण करते हुए एक बयान दिया था। उस समय भी यही समझा गया था कि उन्होंने बीजेपी के कथित अहंकार को लेकर यह बात कही थी।
उन्होंने कहा था, ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है, गर्व करता है लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है।’
लेकिन इस बार के बयान को राजनीतिक विश्लेषक अलग नजर से देखते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और दशकों से संघ को करीब से देखने वाले शरद गुप्ता कहते हैं कि इस बार उन्होंने एक वाक्य जोड़ा है कि राम मंदिर के बाद लोग राजनीति करके हिंदुओं का नेता बनना चाहते हैं।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘ये आलोचना या तो बीजेपी नेताओं के इशारे पर हो रही है, जो यह सह नहीं सकते कि कोई परोक्ष रूप से भी नरेंद्र मोदी पर कटाक्ष करे।’
ऐसी ही बात वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े भी करते हैं। वे कहते हैं, ‘जिस तरह से कथावाचक और धर्मगुरु, मोहन भागवत के बयान पर असहमति जता रहे हैं। सोशल मीडिया पर अंधभक्त उन्हें संघ छोडऩे को कह रहे हैं। ये सब बिना दिल्ली के आशीर्वाद के संभव नहीं है।’
वे कहते हैं, ‘अगर ये बात नरेंद्र मोदी ने कही होती तो क्या तब भी ऐसी ही आलोचना होती। ये साफ है कि मोहन भागवत के खिलाफ खुलकर फ्रंट खोला गया है। ये दिल्ली की सत्ता और मोहन भागवत की बीच सीधी लड़ाई है।’
वहीं दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार और आरएसएस पर किताब लिख चुके विजय त्रिवेदी का कहना है कि मोहन भागवत के बयानों का मतलब है कि जो इस वक्त देश में चल रहा है, वो उन्हें पसंद नहीं आ रहा है।
वे कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी के साथ उनकी कोई लड़ाई हो, ऐसा दिखाई नहीं देता है। उनके बयान पर शक करना बेईमानी है। ये सिर्फ आज की बात नहीं है, बल्कि वे लंबे समय से इस बात का समर्थन करते आ रहे हैं कि हिंदू-मुसलमानों को साथ लेकर चलने की जरूरत है।’
त्रिवेदी कहते हैं, ‘वो अच्छा बनने के लिए ऐसे बयान दे रहे हैं, ऐसा भी नहीं है। उनकी बातें उन सभी लोगों के लिए है जो सामाजिक समरसता को बिगाडऩे की कोशिश कर रहे हैं।’
संघ का प्रभाव
लोकसभा चुनाव 2024 के समय भी भारतीय जनता पार्टी और संघ के बीच मतभेद सामने आए थे।
शुरुआती कुछ चरणों के बाद प्रचार के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा था कि ‘बीजेपी को अब संघ की ज़रूरत नहीं है।’
वरिष्ठ पत्रकार अशोक वानखेड़े कहते हैं कि जेपी नड्डा के इस बयान के बाद मोहन भागवत आक्रामक हो गए थे।
वे कहते हैं, ‘हमेशा संगठन पर संघ का वर्चस्व रहा है। अटल बिहारी की सरकार के समय भी ऐसा ही था, लेकिन अब स्थिति इंदिरा गांधी की कांग्रेस जैसी हो गई है। सत्ता और संगठन एक ही व्यक्ति के हाथ में है, जिससे संघ को तकलीफ है। उन्हें डर है कि कहीं उनके हाथ से चीजें चली ना जाएं।’
वानखेड़े का मानना है कि सरसंघचालक का भाषण बहुत मायने रखता है और बहुत विचार-विमर्श और रणनीति के तहत बातें कही जाती हैं।
दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता का कहना है कि संघ में भी ऐसे कई लोग हैं जो मोहन भागवत की जगह नरेंद्र मोदी के पीछे खड़े हैं।
उनका मानना है कि संघ में मोहन भागवत की पकड़ भी कमजोर हो रही है, क्योंकि अब ये भी सवाल उठने लगे हैं कि वो संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाने में कितने सक्षम रह गए हैं।
गुप्ता कहते हैं, ‘पांचजन्य संघ का मुखपत्र है। इस बार के संपादकीय में इस बात की वकालत की गई है कि जहां पर भी हिंदू धर्म के प्रतीक छिपे हुए हैं, जहां हिंदू मंदिर तोड़े गए हैं, सबको वापस लेने की जरूरत है। अगर संघ का अपना मुखपत्र, अपने ही प्रमुख के विरोध में खड़ा होगा, तो इसे क्या कहेंगे?’
संघ प्रमुख के बयान का असर?
सवाल है कि क्या संघ प्रमुख के इस तरह के बयानों का कुछ असर जमीनी स्तर पर पड़ेगा? क्या संघ से जुड़े संगठन मोहन भागवत की बात को सुन रहे हैं?
वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं कि संघ प्रमुख का बयान कोई फतवा नहीं है कि हर कोई मानने लगेगा।
त्रिवेदी कहते हैं, ‘देश में संघ के स्वयंसेवकों की संख्या करीब एक करोड़ है, जबकि हिंदुओं की आबादी करीब 80 करोड़ है। ऐसे में हम मान लेते हैं कि हर हिंदू संघ से जुड़ा है, लेकिन ऐसा नहीं है। इसलिए भी यह जरूरी नहीं है कि मोहन भागवत के बयानों का सीधा असर जमीन पर दिखाई दे।’
वहीं शरद गुप्ता का कहना है कि संघ और बीजेपी ने मिलकर एक ऐसी सेना खड़ी कर दी है, जो अब चार्ज हो गई है, जिसे डिस्चार्ज करना आसान नहीं है।
वे कहते हैं, ‘हिंदुत्व, वो टाइगर है जिस पर चढऩा और उसकी सवारी करना तो आसान है, लेकिन उतरना बहुत मुश्किल है। दोनों ने मिलकर पूरे देश को हिंदुत्व की लहर में झोंक दिया है और अब उससे उतर नहीं पा रहे हैं और जो कोशिश कर रहे हैं उन्हें इस तरह की आलोचनाओं और ट्रोलिंग का सामना करना पड़ रहा है और इसमें मोहन भागवत भी अछूते नहीं हैं।’
कांग्रेस ने उठाए सवाल
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट कर लिखा, ‘मोहन भागवत का बयान आरएसएस की ख़तरनाक कार्यप्रणाली को दर्शाता है - उनकी कथनी और करनी में ज़मीन आसमान का अंतर है।’
‘आरएसएस का काम करने का तरीक़ा आज़ादी के वक्त जितना ख़तरनाक था, आज उससे भी ज़्यादा है। वे जो बोलते हैं, उसका उल्टा करते हैं।’
उन्होंने लिखा, ‘अगर मोहन भागवत को लगता है कि मंदिर-मस्जिद का मुद्दा उठाकर नेतागिरी करना ग़लत है तो उन्हें बताना चाहिए कि ऐसे नेताओं को उनका संघ संरक्षण क्यों देता है? क्या आरएसएस-बीजेपी में मोहन भागवत की बात नहीं मानी जाती?’
‘अगर वह सच में अपने बयान को लेकर ईमानदार हैं तो सार्वजनिक रूप से घोषित करें कि भविष्य में संघ कभी भी ऐसे नेताओं को सपोर्ट नहीं करेगा जिनके कारण समाजिक भाईचारे को ख़तरा पहुंचता है।’
‘लेकिन ये ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि मंदिर-मस्जिद संघ के इशारे पर ही हो रहा है। कई मामलों में ऐसे विभाजनकारी मुद्दे को भडक़ाकर दंगा करवाने वालों का कनेक्शन आरएसएस से निकलता है। ये बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद या भाजपा से जुड़े होते हैं और संघ वकील दिलाने से लेकर मुकदमे तक में इनकी पूरी मदद करता है।’
उन्होंने लिखा, ‘स्पष्ट है- भागवत का बयान सिफऱ् समाज को गुमराह करने के लिए है। उन्हें लगता है कि ऐसी बातों से आरएसएस के पाप धुल जाएंगे और उनकी छवि अच्छी हो जाएगी, लेकिन उनकी वास्तविकता देश के सामने है।’ (bbc.com/hindi)
-अंशुल सिंह
जुलाई 2018 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर लोकसभा में शिक्षा का अधिनियम, 2009 के संशोधन पर अपनी बात रख रहे थे।
इस दौरान उन्होंने कहा कि कई सरकारी स्कूल अब मिड डे मील स्कूल बन गए थे क्योंकि इनमें शिक्षा और सीखना गायब है।
उस समय केंद्र में नो डिटेंशन पॉलिसी थी जिसे अब केंद्र की मोदी सरकार ने पांचवीं और आठवीं कक्षा के लिए हटा दिया है।
मोदी सरकार के इस फ़ैसले के बाद अब पांचवीं और आठवीं कक्षा में पढऩे वाले छात्रों को फेल किया जा सकता है।
साल, 2010 में केंद्र की मनमोहन सरकार नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार, अधिनियम में संशोधन करके नो डिटेंशन पॉलिसी बनाई थी।
सोमवार को इस फैसले के बारे में जानकारी देते हुए केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के सचिव संजय कुमार ने कहा कि केंद्र सरकार ने बच्चों में सीखने के परिणाम में सुधार लाने के इरादे से यह फैसला लिया है।
संजय कुमार ने कहा, ‘हम लोगों ने यह निर्णय लिया है कि पांचवीं और आठवीं में हर प्रयास करने के पश्चात यदि डिटेंशन करने की आवश्यकता पड़े तो डिटेन किया जाए। लेकिन उसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी भी बच्चे को हमारे स्कूलों से निष्कासित नहीं किया जाए। हम एक्सेस तो चाहते हैं लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत यह भी चाहते हैं कि हर बच्चे का लर्निंग आउटकम उम्दा हो।’
सरकार के इस फ़ैसले से केंद्र के अधीन चलने वाले लगभग 3000 स्कूल प्रभावित होंगे। इनमें केंद्रीय विद्यालय, जवाहर नवोदय विद्यालय और सैनिक स्कूल शामिल हैं।
तमिलनाडु सरकार ने केंद्र सरकार के इस फ़ैसले का विरोध किया है। तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री अंबिल महेश पोय्यामोझी ने कहा है कि तमिलनाडु में आठवीं कक्षा तक नो-डिटेंशन पॉलिसी जारी रहेगी।
क्या है नो डिटेंशन पॉलिसी?
नो डिटेंशन पॉलिसी जब लाई गई थी तो उसका उद्देश्य स्कूलों में हो रहे ड्रॉपआउट को कम करना, सीखने की प्रक्रिया को आनंददायक बनाना और परीक्षा में फेल होने के डर को दूर करना था।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 छह से 14 साल के बच्चे के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाता है और इसके सेक्शन 16 में नो डिटेंशन पॉलिसी का विस्तार से जिक्र है।
इसके मुताबिक़, ‘नो डिटेंशन का प्रावधान इसलिए बनाया गया है क्योंकि परीक्षाओं का इस्तेमाल अक्सर खराब अंक पाने वाले बच्चों को बाहर करने के लिए किया जाता है। एक बार ‘फेल’ घोषित होने के बाद, बच्चे या तो कक्षा दोहराते हैं या फिर स्कूल ही छोड़ देते हैं। बच्चे को एक कक्षा दोहराने के लिए मजबूर करना हतोत्साहित करने वाला होता है। आरटीई अधिनियम में ‘नो डिटेंशन’ प्रावधान का मतलब बच्चों की शिक्षा का आकलन करने वाली प्रक्रियाओं को छोडऩा नहीं है।’
नो डिटेंशन पॉलिसी के तहत किसी भी छात्र को तब तक फ़ेल नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वह कक्षा एक से लेकर आठवीं तक प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर लेता है।
इसका मतलब है कि अगर कोई छात्र फ़ेल होता है तो उसे अगली क्लास में प्रमोट कर दिया जाएगा।
इस पॉलिसी के तहत छात्रों का मूल्यांकन पारंपरिक परीक्षा प्रणाली से अलग सतत और व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) के तहत किया जाता है। इसमें पेपर-पेंसिल टेस्ट, चित्र बनाना, पढऩा और मौखिक रूप से अभिव्यक्ति आदि शामिल है।
नए नियम में क्या है?
साल 2019 में शिक्षा के अधिकार अधिनियम में संशोधन किया गया था। इसके तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया था कि वो अपने राज्य में पांचवीं और आठवीं के बच्चों के लिए साल के अंत में वार्षिक परीक्षा आयोजित करवा सकती हैं।
अगर कोई छात्र इस परीक्षा में फ़ेल हो जाता है तो उसे उस कक्षा में रोक सकती हैं।
2018 में आरटीई अधिनियम में संशोधन का विधेयक लोकसभा में पेश किया गया था और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था, ‘यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिल है और अधिकांश राज्य सरकारों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। यह हमारी प्रारंभिक शिक्षा में जवाबदेही लाता है। कई सरकारी स्कूल केवल मिड डे मील स्कूल बन गए हैं, क्योंकि शिक्षा और सीखना गायब है।’
संशोधन के बाद से लेकर अब तक 15 से ज़्यादा राज्य नो डिटेंशन पॉलिसी को हटा चुके हैं। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब और दिल्ली जैसे राज्य शामिल हैं।
वहीं आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल और मणिपुर जैसे राज्यों में अभी नो डिटेंशन पॉलिसी लागू है।
नए नियमों में कहा गया है कि कक्षा पांच या आठ का कोई छात्र साल के अंत में होने वाली परीक्षा में फ़ेल होता है तो उसे एक और मौक़ा दिया जाएगा।
परीक्षा का परिणाम आने के बाद दो महीने के भीतर पुन: परीक्षा का मौक़ा दिया जाएगा। अगर छात्र इस परीक्षा में भी फेल हो जाता है तो उसे रोका जा सकता है।
ऐसे मामले में क्लास टीचर बच्चे के साथ-साथ अगर ज़रूरत है तो माता-पिता को भी गाइड करेंगे।
नियम में यह भी कहा गया है कि स्कूल के प्रमुख उन पीछे रहने वाले बच्चों की लिस्ट बनाएंगे और इसके कारण का जानने का प्रयास करेंगे।
परीक्षा और पुन: परीक्षा बच्चे के समग्र विकास को हासिल करने के लिए योग्यता-आधारित परीक्षाएँ होंगी न कि याददाश्त आधारित।
नियमों में स्पष्ट किया गया है कि प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक किसी भी बच्चे को निष्कासित नहीं किया जाएगा।
क्या कहते हैं आंकड़ें?
शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 का असर स्कूली छात्रों के एडमिशन में और पढऩे-लिखने की क्षमता पर देखा जा सकता है।
एन्युअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) बच्चों के एडमिशन के साथ बुनियादी पढऩे और गणित समझने की क्षमता से संबंधित सर्वे है। यह सर्वे देश के लगभग हर जि़ले में एक स्थानीय संस्था के वॉलिंटियर्स के द्वारा किया जाता है।
एएसईआर के आंकड़ों के अनुसार, स्कूलों में दाखिला लेने वाले 7 से 16 साल की आयु के बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है।
आंकड़ों के मुताबिक, 2008 में 7 से 16 वर्ष की आयु के लगभग 5।7 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, यह संख्या 2022 में घटकर 2।3त्न रह गई।
लेकिन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पढऩे और अंकगणितीय क्षमता के आधार पर सीखने के स्तर में भी इस अवधि के दौरान गिरावट आई है।
2008 में कक्षा 5 के 56 प्रतिशत छात्र कक्षा दो की किताब पढ़ सकते थे और 2010 में 53.4 फ़ीसद छात्र ऐसा कर पाए लेकिन उसके बाद के सालों में इस आंकड़े तक दोबारा नहीं पहुंचा जा सका।
2022 में कक्षा 5 के सिर्फ 42.8 फीसद छात्र ही कक्षा दो की किताब पढ़ सकते थे।
अगर कक्षा 8 के छात्रों के लिए सीखने के आंकड़े देखें तो इसमें और भी गिरावट देखने को मिलती है।
2008 में 84.8 फ़ीसद छात्र और 2010 में 82.9 फ़ीसद छात्र ऐसे थे जो कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते थे लेकिन 2022 में यह आंकड़ा लगभग 70 प्रतिशत पर आ गया है।
समय के साथ बच्चों की गणितीय क्षमता पर भी असर पड़ा है।
सरकारी और निजी स्कूलों को मिलाकर बात करें तो 2008 में कक्षा 5 में पढऩे वाले पांच में से दो छात्र भाग कर पाते थे लेकिन 2022 आते-आते यह संख्या चार में से सिफऱ् एक रह गई।
नो डिटेंशन पॉलिसी की आलोचना
जब से नो डिटेंशन पॉलिसी लागू हुई थी तब से इस पर पुनर्विचार की बातें उठती रहती थीं। इसके प्रमुख कारण बताए जाते थे-
पॉलिसी को सपोर्ट के करने के लिए शिक्षा प्रणाली की कमियां
फ़ेल न करने की नीति बच्चों को कड़ी मेहनत करने से हतोत्साहित करती है
शिक्षकों की जवाबदेही में कमी और बच्चों को सिखाने में कम गंभीरता
सीसीई के उचित कार्यान्वयन और शिक्षक प्रशिक्षण के साथ इसके एकीकरण की कमी
2015 में सभी राज्यों से नो डिटेंशन पॉलिसी पर सुझाव मांगे गए थे। तब अधिकांश राज्यों ने नीति के मौजूदा स्वरूप में संशोधन का सुझाव दिया था।
साल 2023-24 से दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों में पांचवीं और आठवीं कक्षा में नो डिटेंशन पॉलिसी को लागू किया था। इसके बाद आठवीं कक्षा के जो परीक्षा परिणाम आये थे उनमें लगभग 20 प्रतिशत छात्रों को फेल होने के कारण आगे की कक्षा में नहीं जाने दिया गया था। जबकि कक्षा पांच के लिए यह आंकड़ा लगभग एक प्रतिशत था।
एक आरटीआई के जवाब में दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय ने बताया था कि कुल 2.34 लाख छात्रों ने कक्षा आठ की परीक्षा दी थी और इनमें से 46,662 छात्रों को उसी क्लास में रोक दिया गया था।
हालांकि नो डिटेंशन पॉलिस के पक्ष में तर्क देते हुए कहा जाता है कि
इससे फ़ेल होने के डर के बिना ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे स्कूल आएंगे
बच्चे काम पर जाने की वजह स्कूल आते हैं।
लड़कियों के स्कूल न छोडऩे की एक बड़ी वजह
बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?
प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के निदेशक रहे हैं।
शिक्षा मंत्रालय के फ़ैसले पर कृष्ण कुमार कहते हैं, ‘मेरी समझ में यह शिक्षा के अधिकार क़ानून में थोड़ा सा विचलन है क्योंकि पुराने नियम के अनुसार हर साल हर बच्चे का सतत प्रक्रिया के तहत मूल्यांकन करना होता था। अब नए नियम के हिसाब से अगर किसी बच्चे को रोक लेते हैं तो उसका पूरा एक साल बर्बाद हो जाता है। आम तौर पर बच्चा एक या दो विषयों में कमजोर होता है तो उस विषय के चलते उसे रोक लिया जाता है।’
कृष्ण कुमार का कहना है, ‘पहले भी दिल्ली जैसे कई राज्य ऐसा कर चुके हैं। इस छोटी सी उम्र में परीक्षा लेना मेरी समझ में संसद से पारित हुए क़ानून में विचलन ही है और यह एक अच्छा संकेत नहीं है। अभी तक हर बच्चे का आठ वर्ष तक स्कूल में रहने का अधिकार होता था और यह मूलभूत अधिकार था।’
दिल्ली पेरेंट्स असोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम इस फैसले को सही ठहराती हैं और उनका मानना है कि इससे पढ़ाई का स्तर सुधरेगा।
अपराजिता गौतम कहती हैं, ‘पिछले कुछ समय से बच्चे पढ़ाई को गंभीरता से नहीं ले रहे थे क्योंकि उन्हें पता है कि आठवीं तक उन्हें कोई फेल नहीं कर सकता है। दूसरी ओर शिक्षक भी गंभीर नहीं थे क्योंकि बच्चे तो पास हो ही जाएंगे। इन दोनों चीज़ों से बच्चों की शिक्षा पर सीधे असर पड़ रहा था। ज़्यादातर ऐसी समस्याएं सरकारी स्कूलों में देखी गई हैं और प्राइवेट की तुलना में सरकारी स्कूल की संख्या ज़्यादा है।’
हालांकि अपराजिता गौतम को इस बात की आशंका है कि प्राइवेट स्कूल इसे आपदा में अवसर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं।
सरोज यादव एनसीईआरटी की पूर्व डीन रही हैं और उनका कहना है कि वो सीसीई प्रणाली के पक्ष में हैं।
सरोज यादव कहती हैं, ‘ये जो फेल होने का डर होता है वो बच्चे के मन में बैठ जाता है अगर वो फैल होता है। इसके बाद फेल होने का एक साइन बच्चे के साथ पूरी जि़ंदगी भर चिपका रहता है। इसलिए ज़रूरत थी कि नियम को और मजबूती से लागू किया जाता। ऐसा कोई भी बच्चा नहीं है जो सीख नहीं सकता है।’
सरोज यादव का मानना है कि सिस्टम को सुधारने की ज़रूरत है लेकिन हम उसे दोबारा मौके देने की बात को प्राथमिकता दे रहे हैं। (bbc.com/hindi)
2024 धरती पर अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो सकता है और इसी साल कोयले की खपत सारे पुराने रिकॉर्ड तोड़ने की तैयारी कर रही है.
इस साल दुनिया के सबसे गर्म साल बनने की संभावना के बीच, कोयले की खपत रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) की नई रिपोर्ट ‘कोयला 2024’ में बताया गया है कि इस साल दुनिया भर में कोयले की मांग 8।77 अरब टन तक पहुंचने की संभावना है। यह लगातार तीसरा साल होगा जब कोयले की खपत ने रिकॉर्ड बनाया है, जबकि इसे कम करने की जोरदार अपील की जा रही है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से होने वाले खतरनाक प्रभावों को रोकने के लिए इन्हें तेजी से घटाना जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो धरती और मानवता पर इसके गंभीर परिणाम होंगे।
चीन में कोयले की खपत सबसे ज्यादा
दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला चीन में जलाया जाता है। यहां की बिजली की बढ़ती मांग इसका बड़ा कारण है। 2024 में चीन की कोयले की खपत 4।9 अरब टन तक पहुंचने की संभावना है। यह भी एक नया रिकॉर्ड होगा। हालांकि चीन सौर और पवन ऊर्जा में बड़े निवेश कर रहा है, लेकिन उसकी ऊर्जा जरूरतों में कोयला अभी भी प्रमुख भूमिका निभा रहा है।
आईईए के ऊर्जा बाजार निदेशक केइसुके सदामोरी ने कहा, ‘मौसम से जुड़े कारक, खासकर चीन में, कोयले की मांग पर बड़ा असर डालेंगे। बिजली की मांग कितनी तेजी से बढ़ती है, यह भी बहुत अहम होगा।’
भारत और इंडोनेशिया भी कोयले की खपत बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं। 2024 में भारत की कोयले की मांग 5 फीसदी बढक़र 1।3 अरब टन हो सकती है। वहीं, इंडोनेशिया ने कोयले का उत्पादन रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ा दिया है। चीन और भारत के साथ मिलकर इस साल वैश्विक उत्पादन 9 अरब टन से अधिक हो जाएगा।
विकसित देशों में कोयले की खपत घटी
इसके उलट, अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे विकसित क्षेत्रों में कोयले की खपत कम हो रही है। हालांकि, गिरावट की रफ्तार धीमी हो गई है। 2024 में अमेरिका और यूरोप में कोयले की मांग क्रमश: 5 फीसदी और 12 फीसदी कम होने की उम्मीद है। पिछले साल यह गिरावट 17 फीसदी और 23 फीसदी थी। 2023 में जर्मनी में कार्बन उत्सर्जन 70 सालों में सबसे कम रहा था।
इस धीमी गिरावट के पीछे राजनीतिक अस्थिरता को बड़ा कारण माना जा रहा है। अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से जलवायु नीतियों पर असर पड़ सकता है। ट्रंप पहले भी जलवायु परिवर्तन को ‘धोखा’ बता चुके हैं, जिससे वैश्विक प्रयासों पर खतरा मंडरा रहा है।2023 में भी ऊर्जा क्षेत्र से होने वाले उत्सर्जन ने रिकॉर्ड बनाया था।
आईईए ने बताया कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के कारण डेटा सेंटरों की बिजली की खपत बढ़ रही है। इनमें ज्यादातर बिजली कोयले से चलने वाले संयंत्रों से आती है, खासकर चीन जैसे देशों में। यह चलन कोयले की खपत कम करने के प्रयासों को और मुश्किल बना सकता है।
कोयले की मांग में गिरावट कब आएगी?
हालांकि 2024 के लिए स्थिति गंभीर है, लेकिन आईईए का अनुमान है कि 2027 तक वैश्विक कोयला खपत अपने चरम पर पहुंच जाएगी। यह भविष्यवाणी इस बात पर निर्भर करती है कि नवीकरणीय ऊर्जा का विस्तार और बिजली की मांग स्थिर हो सके।
सदामोरी ने कहा, ‘स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों का तेजी से उपयोग बिजली क्षेत्र को बदल रहा है। लेकिन 2027 तक कोयला खपत को चरम पर लाने के लिए लगातार प्रयास जरूरी हैं।’
कोयले की बढ़ती खपत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु की सुरक्षा के लिए किए जा रहे वादों के उलट है। पिछले साल दुबई में हुए कॉप28 सम्मेलन में देशों ने जीवाश्म ईंधन से दूर जाने का वादा किया था। लेकिन इस साल अजरबैजान में हुए कॉप29 सम्मेलन में खास प्रगति नहीं हुई।
जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि इन वादों को नहीं निभाने से जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास खतरे में पड़ सकते हैं। यूरोपीय संघ के जलवायु मॉनिटर ने इस महीने की शुरुआत में कहा कि 2024 लगभग निश्चित रूप से अब तक का सबसे गर्म साल होगा। (dw.comhi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
एक सप्ताह पहले मध्य प्रदेश सरकार अपने एक साल की उपलब्धियों के ढोल पीट रही थी। इसी के तुरंत बाद अब पिछले एक सप्ताह से तमाम अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया पर आयकर विभाग और लोकायुक्त की दो कार्यवाहियों से जिस तरह से काले धन , सोने, चांदी और बेनामी दिखती संपत्तियों और काली कमाई की डायरियों के समाचार प्रमुखता से प्रकाशित हो रहे हैं उससे साफ जाहिर हो रहा है कि भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की सरकारी गर्जनाओं के बावजूद सरकार की नाक के नीचे राजधानी भोपाल में भ्रष्टाचार से अर्जित काले धन के ढेर घरों , दफ्तरों और जंगल किनारे बने फॉर्महाउस में छिपाई गई कार से निकल निकल कर सरकार के माथे पर कलंक की तरह चिपक रहे हैं।
इस पूरे घटनाक्रम में सरकार के साथ साथ सरकार की इंटेलीजेंस एजेंसीज, जांच एजेंसियों और पुलिस की कार्यप्रणाली पर भी कई प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं। और इस सबके बावजूद सरकार की तरफ से मुख्यमंत्री से लेकर संबंधित विभागों के मंत्रियों और भारतीय जनता पार्टी संगठन के पदाधिकारियों की चुप्पी चौंकाने वाली है। विपक्षी दल जरूर इस अवसर को भुनाने के लिए विधानसभा सत्र के दौरान इस मुद्दे पर सरकार के पूर्व चीफ सेक्रेटरी और परिवहन विभाग के मंत्रियों और अफसरों पर संगीन आरोप लगा रहे हैं। प्रदेश सरकार के साथ साथ काले धन की इतनी मात्रा में बरामदगी केंद्र सरकार के काले धन के खिलाफ की गई नोटबंदी समेत कई घोषणाओं का भी मखौल उड़ा रही है। ऐसा लगता है कि मध्य प्रदेश सरकार पूरी तरह बैकफुट पर आ गई और किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थिति में है जहां यह समझ में नहीं आता कि इस पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की जाए! छापों के कई दिन बाद मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का वही घिसा पिटा राग अलापा है।
ज्यादा समय नहीं हुआ जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पास ही नशे की सामग्री बनाने वाली बड़ी फैक्ट्री का भंडाफोड़ गुजरात की जांच एजेंसी द्वारा किया गया था। तब भी मध्य प्रदेश सरकार, उसकी खुफिया एजेंसियों और पुलिस प्रशासन पर निष्क्रियता के आरोप लगे थे। अब काले धन कांड ने मध्य प्रदेश की गरीब जनता को चौंका दिया है।
जिस प्रदेश की लगभग तीन चौथाई आबादी गरीबी का दंश झेलकर मुफ्त राशन की लाइन में लगने की जिल्लत उठा रही हो वहां कुल जमा छह सात साल परिवहन विभाग में सिपाही की नौकरी लेकर इस्तीफ़ा देने वाले युवा सौरभ शर्मा के यहां से सैकड़ों करोड़ की नगदी, सोना, चांदी और संपत्तियों का निकलना किसी चमत्कार से कम नहीं है। सच तो यह है कि कोई सिपाही छह साल तो क्या अपने पूरे जीवन में भी भ्रष्टाचार कर सौ करोड़ नहीं कमा सकता। यह तभी संभव है जब उसे महकमे के बड़े अफसरान या मंत्रियों आदि का वृहदहस्त प्राप्त हो। जिस तरह की खबरें आ रही हैं उनसे यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि सौरभ शर्मा को बहुत ऊपर का संरक्षण मिल रहा था तभी वह धड़ल्ले से इनोवा कार पर हूटर और परिवहन विभाग की नेम प्लेट का इस्तेमाल कर रहा था। जो ट्रैफिक पुलिस जगह जगह चौराहों पर हेलमेट, सीट बेल्ट और पॉल्यूशन सर्टिफिकेट न होने या नंबर प्लेट का साइज सही न होने पर हजारों चालान काटती है वह पुलिस व्यक्तिगत नंबर की कार पर हूटर का चालान नहीं कर पाई।
ऐसे भी समाचार प्रकाशित हुए हैं कि पुलिस ने इस गाड़ी की तलाशी नहीं ली। यदि कोई गाड़ी संदिग्ध अवस्था में पाई जाती है तो उसकी तलाशी की ड्यूटी पुलिस की ही है। आयकर या अन्य विभाग को तभी बुलाया जाता है जब कार से कोई ऐसी चीज बरामद होती है जिसकी कार्यवाही का क्षेत्राधिकार पुलिस के पास नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि सौरभ शर्मा किसी शक्तिशाली व्यक्ति का मोहरा या बेनामी है तभी उसका ऐसा रुतबा है और इसी वजह से उसके पास से इतनी दौलत मिली है। ऐसे मामलों की जांच यदि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होगी तो इस मामले की सच्चाई सामने आने की संभावना काफी बढ़ जाएगी।
ईरान ने महिलाओं के लिए सख्त हिजाब कानून लागू करने की प्रक्रिया फिलहाल रोक दी है. इस कानून को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा है.
महसा अमीनी की मौत के बाद महिलाओं के हिजाब पहनने को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध झेलने वाले ईरान ने विवादित हिजाब कानून का लागू करना फिलहाल टाल दिया है। संसद में पारित इस कानून की आलोचना इसलिए हो रही थी क्योंकि इसमें हिजाब ना पहनने वाली महिलाओं और ऐसे कारोबारों पर सख्त सजा का प्रावधान था जो उन्हें सेवाएं देते।
मंगलवार को उपराष्ट्रपति शहराम दबीरी ने कहा कि कानून को राजनीतिक नेतृत्व और नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के पास दोबारा समीक्षा के लिए भेजा गया है। दबीरी ने अखबार ‘हममिहन’ को बताया, ‘फैसला हुआ है कि इस कानून पर फिलहाल आगे बढऩे की प्रक्रिया रोकी जाएगी।’
इस कानून में हिजाब ना पहनने पर भारी जुर्माना, सरकारी सेवाओं से वंचित करना और जेल भेजने तक का प्रावधान था। बार-बार नियम तोडऩे वालों के लिए 15 साल तक की जेल और संपत्ति जब्त करने का भी प्रस्ताव था। कारोबारियों को भी नियम ना मानने पर जुर्माना और दुकान बंद करने जैसी सजा का सामना करना पड़ सकता था।
राष्ट्रपति का विरोध
यह कानून दिसंबर के मध्य में लागू होना था, लेकिन मध्यमार्गी राष्ट्रपति मसूद पेजेश्कियान ने इसे वीटो कर दिया। उन्होंने चेतावनी दी थी कि इस कानून से देश में फिर से अशांति फैल सकती है। राष्टप्तपति ने कहा कि कानून में कई ‘सवाल और अस्पष्टताएं’ हैं।
पेजेश्कियान इसी साल देश के राष्ट्रपति बने हैं और पश्चिमी देशों के साथ परमाणु समझौतों पर बातचीत फिर से शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं। वह कानून के सख्त प्रावधानों को लेकर चिंता जता चुके हैं। नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल अब इस कानून की समीक्षा करेगी। माना जा रहा है कि इसमें कुछ बदलाव किए जा सकते हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि इस कानून को रोकना राष्ट्रपति पेजेश्कियान के लिए राजनीतिक जीत है। वह कट्टरपंथी नेताओं और न्यायपालिका के बीच संघर्ष कर रहे हैं। हालांकि, उनके पास कानून को रोकने का अधिकार नहीं है, लेकिन वह देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खमेनेई को इस कानून को रद्द करने के लिए मना सकते हैं।
महिलाओं का बढ़ता विरोध
हालांकि हिजाब पहनना अभी भी ईरानी कानून का हिस्सा है, लेकिन बड़े शहरों में कई महिलाएं खुलेआम इसका विरोध कर रही हैं। वे बिना सिर ढके सार्वजनिक स्थानों पर जाती हैं। 2022 के ‘महसा अमीनी’ आंदोलन के बाद यह चलन और तेज हुआ है। महसा अमीनी की मौत के बाद पूरे देश में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए थे। 22 साल की इस कुर्द महिला को पुलिस ने ठीक से हिजाब न पहनने के आरोप में गिरफ्तार किया था। पुलिस हिरासत में उनकी मौत हो गई थी।
नए कानून में न केवल महिलाओं बल्कि उनके समर्थन करने वालों के लिए भी सजा का प्रावधान था। पहली बार हिजाब ना पहनने पर 800 डॉलर यानी लगभग 70 हजार रुपये का जुर्माना और दूसरी बार पर सवा लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाना था। तीसरी बार पर जेल की सजा का नियम था।
इसके अलावा, कारोबारियों और टैक्सी चालकों को ऐसी महिलाओं की रिपोर्ट करनी होती, जो हिजाब नहीं पहनतीं। ऐसा ना करने पर उन पर भी जुर्माना लग सकता था। इस कानून में सीसीटीवी कैमरों से निगरानी करने और सजा तय करने का प्रावधान भी था।
आगे क्या होगा?
इस कानून पर रोक से साफ है कि ईरान के राजनीतिक नेतृत्व और समाज के बीच भारी मतभेद हैं। कट्टरपंथी नेता सख्ती के पक्ष में हैं, जबकि सुधारवादी नेता और जनता इसे मानने को तैयार नहीं।
महसा अमीनी की मौत ने महिलाओं के अधिकारों के लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। इस घटना के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों में 500 से अधिक लोग मारे गए और 22,000 से अधिक गिरफ्तार हुए।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हिजाब कानून की कड़ी आलोचना हुई है। मानवाधिकार संगठनों और वैश्विक नेताओं ने ईरान से महिलाओं की आजादी का सम्मान करने की अपील की है।
फिलहाल, कानून पर रोक एक राहत की तरह है। लेकिन महिलाओं के अधिकारों और उनके विरोध के मुद्दे पर ईरान में बहस जारी है। नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल की समीक्षा से देश के भविष्य पर असर पड़ सकता है। (dw.comhi)
अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पनामा से कहा है कि वह पनामा नहर की फीस कम करे या तो उस पर नियंत्रण अमेरिका को वापस कर दे।
ट्रंप ने आरोप लगाया कि मध्य अमेरिकी देश पनामा अमेरिकी मालवाहक जहाज़ों से ज़्यादा क़ीमत वसूल रहा है। रविवार को ट्रंप ने एरिज़ोना में अपने समर्थकों से कहा, ''पनामा अमेरिका से मनमानी फीस वसूल रहा है। यह पूरी तरह से अनुचित है। यह हमारे लिए काफ़ी महंगा है और हम इसे तत्काल रोकेंगे।''
ट्रंप के पास अगले महीने अमेरिका की कमान आने वाली है। ट्रंप ने टर्निंग पॉइंट यूएसए नाम के एक कंजर्वेटिव ग्रुप को संबोधित करते हुए यह बात कही है।
लेकिन पनामा के राष्ट्रपति होसे राउल मुनीलो ने ट्रंप को जवाब देने में देरी नहीं की।
राष्ट्रपति मुनीलो ने कहा, ‘पनामा नहर का हर वर्ग मीटर हमारा है और इसके चारों तरफ़ का इलाक़ा भी हमारा है। पनामा की संप्रभुत्ता और स्वतंत्रता पर कोई समझौता नहीं होगा।’
इस तरह की मिसाल कम ही देखने को मिलती है, जब एक अमेरिकी नेता कहे कि वह किसी देश के हिस्से को अपने नियंत्रण में ले लेंगे।
हालांकि ट्रंप ने ये नहीं बताया कि वह इसे कैसे अंजाम देंगे। ट्रंप 20 जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति की कमान संभालेंगे और वह संदेश दे रहे हैं कि उनके कार्यकाल में विदेश नीति का रुख़ क्या होने जा रहा है।
पनामा नहर अहम क्यों?
इससे पहले ट्रंप ने कहा था कि पनामा नहर अमेरिका के लिए 'अहम राष्ट्रीय संपत्ति' हुआ करती थी। ट्रंप ने रविवार को कहा कि अगर पनामा ने शिपिंग की दरें कम नहीं कीं तो वह पनामा नहर पर नियंत्रण वापस करने की मांग करेंगे।
82 किलोमीटर लंबी पनामा नहर अटलांटिक और प्रशांत महासागर को जोड़ती है।
इसका निर्माण 1900 के दशक की शुरुआत में किया गया था। 1977 तक इस पर अमेरिका का नियंत्रण था। इसके बाद पनामा और अमेरिका का संयुक्त नियंत्रण हुआ लेकिन 1999 में इस पर पूरा नियंत्रण पनामा का हो गया था।
हर साल पनामा नहर से कऱीब 14 हज़ार पोतों की आवाजाही होती है। इनमें कार ले जाने वाले कंटेनर शिप के अलावा तेल, गैस और अन्य उत्पाद ले जाने वाले पोत भी शामिल हैं।
पनामा के अलावा ट्रंप मेक्सिको और कनाडा पर भी कथित अनुचित टैक्स के लिए हमला बोल चुके हैं। ट्रंप का कहना है कि कनाडा के ज़रिए अवैध प्रवासी और ड्रग्स अमेरिका आ रहे हैं।
1914 में पनामा नहर खोली गई थी। यानी इसके 110 साल हो चुके हैं। पनामा नहर को कुशल इंजीनियरिंग का नतीजा बताया जाता है और वैश्विक व्यापार में इसे क्रांतिकारी बदलाव के रूप में भी देखा जाता है।
पनामा सिटी गगनचुंबी इमारतों के लिए जाना जाता है। कई बार इसे लातिन अमेरिका की दुबई कहा जाता है। पनामा की तरक़्क़ी का इंजन उसकी यही नहर है।
पनामा के पास जब से नहर का नियंत्रण आया है, तब से उसके संचालन की तारीफ़ होती रही है। पनामा की सरकार को इस नहर से हर साल एक अरब डॉलर से ज़्यादा की ट्रांजिट फीस मिलती है।
हालांकि पनामा नहर रूट से कुल वैश्विक ट्रेड का महज पाँच फ़ीसदी करोबार ही होता है।
कहा जा रहा है कि पनामा नहर को ख़ुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। न्यू सुपरटैंक्स इस नहर के ज़रिए आवाजाही करने में सहज नहीं हैं।
इसके विस्तार के लिए पनामा अरबों डॉलर ख़र्च कर रहा है। कहा जा रहा है कि वैश्विक व्यापार में चीन के ताक़त के रूप में उभरने के बाद इसकी अहमियत बढ़ गई है। यह नहर चीन से अमेरिका के पूर्वी तट को जोड़ती है।
पनामा नहर की चुनौतियां
पनामा नहर को स्वेज़ नहर से भी चुनौती मिल रही है। स्वेज़ नहर का भी विस्तार किया जा रहा है। वहीं निकारगुआ अटलांटिक और प्रशांत महासागर के बीच अपनी नहर बना रहा है।
पनामा नहर की परियोजना का विचार सबसे पहले 15वीं सदी में दिया गया था। शुरुआती असलफताओं के बाद फ्रांस ने 1881 में इस परियोजना पर काम शुरू किया। लेकिन आर्थिक नुकसान, बीमारी और दुर्घटनाओं में लोगों के मरने की वजह से इसे बीच में अधूरा छोड़ दिया गया था।
इसके बाद 1904 में अमरीका ने इस परियोजना में दिलचस्पी लेनी शुरू की और काम शुरू हो गया। पनामा नहर में आवागमन 1914 में चालू हो गया था।
पनामा नहर से अमेरिकी पोतों की आवाजाही सबसे ज़्यादा होती है। पनामा कैनाल अथॉरिटी के अनुसार, पनामा नहर से लगभग 75 फ़ीसदी कारगो या तो अमेरिका जाते हैं या अमेरिका से आते हैं। कऱीब 270 अरब डॉलर का कारोबार इस रूट के ज़रिए हर साल हो रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में पनामा नहर में पानी कम होने का असर कारोबार पर सीधा पड़ा है।
2017 में पनामा ने ताइवान से राजनयिक संबंध ख़त्म कर चीन से कायम कर लिया था। जो देश ताइवान से राजनयिक संबंध रखते हैं, चीन उनसे नहीं रखता है क्योंकि चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है। चीन के भारी निवेश के कारण पनामा का अहम सहयोगी बन गया है।
पनामा नहर के दो पोर्ट्स का संचालन हॉन्ग कॉन्ग की एक कंपनी करती है। ट्रंप ने रविवार को कहा था कि पनामा नहर चीन के लिए नहीं है। उन्होंने कहा था कि यह नहर ग़लत हाथों में चली गई है। हालांकि पनामा के राष्ट्रपति ने कहा है कि इस नहर पर प्रत्यक्ष और या अप्रत्यक्ष रूप से चीन का नियंत्रण नहीं है। (bbc.com/hindi)
-सच्चिदानंद जोशी, के साथ रिया जोशी त्रिवेदी और 4 अन्य
उस दिन इंदौर में कई साल बाद उस सडक़ से गुजरना हुआ। कई साल यानी लगभग पैंतीस साल बाद। काफी कुछ बदलने के बाद भी उसे पहचानना कठिन नहीं था। मैंने चालक से पूछा ‘ये छोटी ग्वाल टोली है न?’ चालक को आश्चर्य हुआ । उसे लगा कि मैं शायद इस सडक़ से खुश नहीं हूं। बोला ‘सॉरी सर उधर ट्रैफिक ज्यादा था इसलिए मैं यहां से ले आया। ‘उसे क्या मालूम था कि उसने अनजाने मेरी बचपन की यादें ताजा कर दी थी।
‘इधर चौराहे पर मंदिर है न वहां रोक लेना। आज शनिवार है दर्शन कर लेंगे । ‘चालक ने राहत की सांस ली। बोला ‘चौराहे पर रोकना मुश्किल है , मैं थोड़ी आगे रोकता हूं।’
मैं कार से उतर कर मंदिर की ओर बढ़ गया। दर्शन का तो बहाना था। इसलिए औपचारिकता पूरी कर मंदिर के साथ वाले ओटले की ओर बढ़ा। वह पहले से छोटा हो गया था , शायद अतिक्रमण विरोधी मुहिम के कारण। लेकिन बहुत भर गया था। समोसे, कचौड़ी, आलू बड़ा ,पोहा, और हां चाउमिन भी। एक कोने में कड़ाही में जलेबियां तली जा रही थी। कांच के एक शो कैसे में पेस्ट्री और क्रीम रोल भी था। मुझे वह सारा सामान देख कर हैरत हुई। भीड़ अभी भी वैसी ही थी।
‘अरे मंगौड़े नहीं हैं?‘मैंने वहां सामान देने वाले लडक़े से पूछा।’ हैं न वो क्या उधर रखे हैं। ‘उसने एक कोने में रखे पीतल के थाल की तरफ इशारा किया। उसमें दस पंद्रह मंगौड़े बेचारे अपने ग्राहक की प्रतीक्षा में पड़े थे। ‘गरम करवा दूं?’ लडक़े ने पूछा। उन्हें देख खाने की इच्छा नहीं हुई। फिर भी पुरानी याद ताज़ा करने जितने भी थे सब बंधवा लिए।
घोर निराशा से ग्रस्त मैं वापिस कार में बैठा। बचपन की स्मृतियां उभर आई।
एक समय के सुपर स्टार थे ये हनुमान मंदिर के मंगौड़े। हमारा ननिहाल पास ही था और घर में पंद्रह बीस लोग थे। घर में कोई भी खुशी की खबर होती तो मंगौड़े आते। खुशी की खबर में किसी की शादी तय होने से लेकर किसी का अच्छा रिजल्ट आने तक सभी शामिल था। यहां तक कि ताश के खेल में हार जीत के लिए भी मंगौड़े की शर्त होती।
हम लोग तब जौरा में होते थे। छुट्टियों में ननिहाल जाते। तो पिताजी का मां को खत आना भी मंगौड़े का कारण बनता। खुशी के आकार से मंगौड़े की मात्रा तय होती। फिर भी ज्यादा लोग थे कुछ नाना जी के घर के और कुछ नाना जी के छोटे भाई यानी छोटे नाना जी के घर के।
इसलिए कितने भी मंगवाओ, हर एक के हिस्से में दो या बहुत हुआ तो तीन, उससे ज्यादा नहीं आते थे। लेकिन उसके लिए भी जी ललचाता ही था। और तो और दोने में नीचे बचने वाले चेटा पेटी ( और भी नाम है इस पदार्थ के) को खाने के लिए लाइन या नंबर लगता था। बाकायदा हिसाब रखा जाता था कि पिछली बार किसने खाया था।
घर में मंगौड़े आए है ये किसी को बताना नहीं पड़ता था। घर में घुसते ही उसकी खुशबू से पता चल जाता था कि आज कोई खुशखबरी है। कई कई बार तो मंगौड़े खाने के लिए खुशी के मौके बना लिए जाते थे।
एक बार नानी ने मंझले मामा के साथ बाजार सौदा लाने भेज दिया। मामा जी ने उसी ट्रिप में अपना रोमांटिक दौरा भी शामिल कर लिया। अपनी प्रेमिका ( अब मामी) मिल भी लिए। रिश्वत के तौर पर उन्होंने हमें सुभाष चौक के समोसे भी खिलाए ताकि हम अपना मुंह बंद रखें।
लेकिन जैसे ही घर में घुसे मंगौड़े की सुगंध ने दिमाग खराब कर दिया। ‘मंगौड़े आए थे’ मैंने चिल्लाकर पूछा। ‘आए थे और खत्म भी हो गए’ बहना ने चिढ़ाकर बताया। मन रोने रोने को हो उठा। समोसे की रिश्वत भूल गए और इस बात को कोसते रहे कि नानी ने क्यों भेजा मामा के साथ सौदा लाने।
बाद में नानी ने बुलाया और सिर पर चपत लगाते हुए कहा ‘तेरे लिए नहीं रखूंगी ऐसा हो सकता है क्या। जा चौके में कप प्लेट में छुपा कर रखे हैं।’
चौके में नानी ने एक कप में प्लेट से ढांक कर दो मंगौड़े रखे थे। ऐसा लगा मानो स्वर्ग मिल गया हो।
फिर पूछा कि किस खुशी में आए थे मंगौड़े तो पता लगा शांति मौसी का रिजल्ट आया है। शांति मौसी कई बार फेल होने के बाद पास हुई थी। मैने शैतानी से पूछा ‘बस इतने से? और ज्यादा आने चाहिए थे।’ मां ने डपट कर चुप करा दिया।
आज हनुमान मंदिर के मंगौड़े खाए तो न वो स्वाद आया न ही वो रोमांच हुआ। शायद इसलिए कि उन्हें खाने के लिए छीना झपटी नहीं हुई और शायद इसलिए कि कोई अवसर भी नहीं बना था उन्हें खाने का। बचपन में जरूर लगता था कि जब बड़ा होऊंगा तब एक किलो मंगौड़े लूंगा और पूरे खा जाऊंगा । किसी को भी नहीं दूंगा। लेकिन आज इतने मंगौड़े लेने के बाद भी कोई थ्रिल नहीं हुआ ।
कारण शायद ये भी है कि अब किसी चीज का वो थ्रिल रहता ही नहीं।
अभी बड़े बेटे ने कार खरीदी । और बताया तब जब वो बिल्डिंग के नीचे कार लेकर आ गया। बचपन में
तो साइकिल के टायर ट्यूब बदलना या साइकिल घंटी लगवाना भी थ्रिल होता था। उसकी कई दिन पहले से घोषणा हो जाती। चर्चा के कई दौर होते। तब वो चीज घर में आती। अब वैसा नहीं है। सरप्राइस का जमाना है।
बेटा कार लेकर आया तो सबने जाकर मंदिर में कार की पूजा करवाई। फिर खुश होकर मिठाई खाई। मेरे मुंह से निकला ‘अरे वाह आज की खुशी में तो हनुमान मंदिर के मंगौड़े होने चाहिए।’ दोनों बच्चे और बहुएं मेरी ओर देखने लगे और सोचने लगे कि ये क्या अजीब बात कह दी इन्होंने। लेकिन श्रीमती जी वहां से उठ कर किचन की ओर चली गई। बड़े बेटे ने कहा भी ‘मां आज खाना नहीं बनेगा। हम सब डिनर पर जा रहे हैं। ’ लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि मुझे मालूम था कि वो किचन में मंगौड़े की दाल भिगोने गई है।
-रवि तिवारी
आज हम लोग (मैं, अंशुल बेगानी और नवीन पडिहार) रायपुर से लगभग 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सिहावा पहुंचे महानदी का उद्गम स्थल देखने के लिए, पहुंचने से पहले तक हम सब लोगों के मन में बहुत उत्साह था, कई कल्पनाएं थी उद्गम स्थल को लेकर, क्योंकि हम लोग अमरकंटक में नर्मदा का उद्गम स्थल देख चुके थे, किंतु सिहावा पहुंचने पर अत्यधिक निराशा हुई, एक तो वहां पहुंच मार्ग तक पहुंचने के लिए कोई भी शासकीय साइन बोर्ड नहीं दिखाई दिया, पर्यटन मंडल या विभाग को कोई योगदान भी दिखाई नहीं दिया, सिहावा चौक से बस्ती के बीच से पूछते-पूछते वहां तक पहुंचे, वहां देखते हैं कि नदी के किनारे एक छोटा सा मंदिर नुमा इमारत खड़ी थी, वहां से नीचे की तरफ सीढ़ियों से सामने बहता हुआ नाला या नदी जो भी कह ले दिखाई दिया इसे ही नदी कहते होंगे क्योंकि वहां पर बताने वाला कोई भी नहीं था, मंदिर नुमा इमारत के निचले भाग में चट्टान के मध्य छोटी सी जगह दिखाई दी जिसे वहां उपस्थित सैनालियों ने बताया कि यही उद्गम स्थल है (तस्वीर में देख सकते हैं) जिससे अब पानी आना बंद हो गया है, इसमें पानी पहाड़ी के ऊपर बने कुंड से पानी आता था और यही महानदी का उद्गम स्थल है। इस मंदिर के बाहर भी लिखा हुआ है महानदी का उद्गम स्थल, साथ ही पास की लगी हुई दीवार पर महानदी के उद्गम की गाथा लिखी हुई थी, जिसे आप तस्वीर में देख सकते हैं।
पहाड़ी के ऊपर एक आश्रम या मंदिर महर्षि श्रृंगी ऋषि का है जिसमें एक कुंड है और उसमें थोड़ा पानी है कहा जाता है कि यही से महानदी का उद्गम हुआ जो पहाड़ों के अंदर से नीचे बने मंदिर के पास से निकलता हुआ नदी का रूप लिया था, किंतु अब ना तो वहां से कोई पानी बहता दिखाई देता है और नहीं कुंड से निकलता हुआ पानी।
महानदी भारत की सुप्रसिद्ध नदियों में से एक गिनी जाती है जो छत्तीसगढ़ से निकल कर उड़ीसा राज्य से बहती हुई बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इसकी कुल लंबाई 858 किलोमीटर की बताई जाती है। उड़ीसा में 1957 में बना हीराकुंड डैम इसी नदी पर बना हुआ है।यह छत्तीसगढ़ व उड़ीसा दोनों राज्यों की जीवन रेखा मानी जाती है।
इतनी महत्वपूर्ण नदी का उद्गम स्थल इतना उपेक्षित होगा कल्पना से परे रहा। छत्तीसगढ़ का पर्यटन विभाग क्यों नहीं इसकी देखरेख या विकास नहीं कर पाया समझ से परे है। अमरकंटक की भाती इस स्थान को भी रमणीक व दर्शनीय बनाया जा सकता था, क्योंकि प्रकृति ने इस स्थान को बहुत सुंदरता प्रदान की हुई है केवल उसको संवारने की जरूरत थी किंतु अफसोस इतने सालों में भी यह हो ना सका। पहुंचने वाला हर पर्यटक निराश होकर लौटता है इसके लिए किसे जिम्मेदार माने और किसे नहीं इस पर बहस करने से कही अधिक बेहतर होगा यदि वर्तमान सरकार इस पर ध्यान देकर इसे छत्तीसगढ़ का अमरकंटक बना दे।
एक महिला के साथ फ़ोटो खिंचवाने से पहले उसे सिर ढंकने के लिए कहने को लेकर उठे विवाद को सीरिया के विद्रोही नेता अहमद अल-शरा ने ख़ारिज किया है।
पिछले हफ्ते हुई इस घटना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।
जब से सीरिया पर विद्रोहियों ने कब्जा किया है, देश के भविष्य को लेकर जारी अटकलों के बीच इस घटना पर उदारवादी और संकीर्ण टिप्पणीकारों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है।
सुन्नी इस्लामी ग्रुप हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) के प्रमुख ने फोटो खिंचवाने से पहले महिला से सिर ढंकने के लिए कहा था।
उदारवादी खेमा इसे बशर अल-असद सरकार के पतन के बाद सीरिया में इस्लामी व्यवस्था थोपने के रूप में देख रहा है।
जबकि कट्टर संकीर्ण खेमा पहली बार महिला के साथ फोटो खिंचवाने के लिए अहमद अल-शरा की आलोचना कर रहा है।
बीबीसी के जेरेमी बॉवेन से एक साक्षात्कार में शरा ने कहा, ‘मैंने उन्हें मजबूर नहीं किया। लेकिन यह मेरी निजी आज़ादी है। मैं उस तरह से फ़ोटो खिंचाना चाहता हूं जैसा मुझे ठीक लगता है।’
महिला लिया ख़ैरल्लाह ने भी कहा है कि इस निवेदन पर उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई थी।
उन्होंने कहा कि यह बात उन्होंने बहुत ‘विनम्रता और पिता जैसे तरीके’ से कही थी और उन्होंने सोचा कि ‘विद्रोही नेता का ये अधिकार है कि वो किस तरह पेश’ आना चाहते हैं।
हालांकि इस घटना ने दिखाया है कि सीरिया जैसे धार्मिक विविधता वाले देश को एकजुट करने में सीरिया के भविष्य के नेता के साथ क्या कुछ दिक्कतें आ सकती हैं।
सीरिया में सुन्नी बहुल आबादी है, जबकि बाक़ी आबादी ईसाई, अलावाइत, द्रूज और इस्माइलियों की है।
इसके अलावा असद का विरोध करने वाले विभिन्न राजनीतिक और हथियारबंद ग्रुपों में भी कई तरह के विचार हैं। इनमें से कुछ सेक्युलर लोकतंत्र चाहते हैं, जबकि कुछ धड़े इस्लामिक कानून का शासन चाहते हैं।
2017 में विद्रोहियों के गढ़ इदलिब पर कब्जा किया था तो शुरू में सार्वजनिक व्यवहार और ड्रेस कोड के कड़े नियम लागू किए थे। हालांकि लोगों की आलोचना के बाद हाल के सालों में उन्होंने ये नियम वापस ले लिए।
इस्लाम की पवित्र किताब क़ुरान में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं को शालीन कपड़े पहनने चाहिए।
पुरुष शालीनता की व्याख्या नाभि से घुटने तक के ढंकने के रूप में की गई है जबकि महिलाओं के लिए आमतौर पर ग़ैर रिश्तेदार पुरुषों की मौजूदगी में चेहरा छोडक़र हाथ पैर और सबकुछ ढंकने के रूप में देखा जाता है।
सीरिया में विद्रोही संभाल रहे क़ानून व्यवस्था
उदारवादी क्यों कर रहे आलोचना
लिया ख़ैरल्लाह 10 दिसम्बर को दमिश्क के मेज़्ज़ेह इलाक़े में गई थीं और वहां उन्होंने शरा, जिन्हें पहले अबू मोहम्मद अल-जुलानी के नाम से जाना जाता था, के साथ फ़ोटो खिंचाने का आग्रह किया था।
सहमत होने से पहले शरा ने उन्हें सिर ढंकने के लिए कहा और लिया ख़ैरल्लाह ने ऐसा ही किया, अपनी शर्ट के हुड से सिर ढंका और फिर फ़ोटो खिंचवाई।
सोशल मीडिया पर इसके कई वीडियो क्लिप और तस्वीरें साझा की गईं, जिसके बाद आम यूज़र्स और मीडिया टिप्पणीकारों में इसे लेकर काफ़ी ग़ुस्सा देखा गया।
उदारवादी या ग़ैर रुढि़वादी विचारों वाले लोगों ने इसे एचटीएस के नेतृत्व में सीरिया के संभावित भविष्य की एक परेशान करने वाली झलक के रूप में देखा और उन्हें इस बात का डर भी सता रहा है कि कहीं सभी महिलाओं को हिजाब पहनने को अनिवार्य बनाने वाली रूढि़वादी नीतियों की तरफ़ तो यह क़दम नहीं है।
फ्ऱांस 24 के अरबी चैनल ने इस घटना पर चर्चा की और शीर्षक लगाया कि 'क्या सीरिया इस्लामिक क़ानून की ओर जा रहा है?'
बाकी लोगों ने तो और तीखे सवाल किए। एक सीरियाई पत्रकार ने कहा, ‘हमने एक तानाशाह को प्रतिक्रियावादी तानाशाह से बदल दिया है।’
सोशल मीडिया पर तमाम यूज़र्स ने सत्ता पर ‘कट्टर चरमपंथियों’ के क़ब्ज़े की चेतावनी दी, जबकि अन्य लोगों ने एक स्वतंत्र महिला को रुढि़वादी तरीक़े अपनाने को मजबूर करने की निंदा की।
कट्टरपंथियों को क्यों लगा बुरा
उधर, इस्लामी कट्टरपंथियों ने टेलीग्राम पर आलोचना की कि शरा ने क्यों एक युवा महिला के साथ वीडियो बनवाने और फ़ोटो खिंचाने पर राजी हुए।
कुछ लोगों ने खैऱल्लाह को ‘मुताबारिजाह’ कहा जो कि ग़ैर शालीन महिला या मेकअप लगाने वाली महिला के लिए एक नकारात्मक शब्द है।
इन कट्टरपंथियों में मौलवी से लेकर प्रभावशाली टिप्पणीकार हैं, जिनके विचार आमतौर पर सीरिया के रुढि़वादी समुदायों में बहुत पढ़े और साझा किए जाते हैं और जिनकी पहुंच एचटीएस समर्थकों और यहां तक कि इस ग्रुप के अधिकारियों तक है।
ऐसा लगता है कि इनमें अधिकांश सीरिया से हैं और मुख्य रूप से एचटीएस के पूर्व गढ़ इदलिब से हैं, इनमें से कुछ तो पहले एचटीएस के पदाधिकारी के रूप में भी रहे हैं।
इनका कहना था कि गैर रिश्तेदार महिलाओं और पुरुषों के बीच करीबी संपर्क धार्मिक रूप से अस्वीकार्य है और उन्होंने शरा पर बेवजह ‘जनता का ध्यान आकर्षित’ करने और सख़्त मजहबी शिक्षाओं में ‘दखल’ देने का आरोप लगाया।
मिन इदलिब (इदलिब से) नामक एक टेलीग्राम चैनल में किए गए पोस्ट में कहा गया है कि इदलिब में एचटीएस जेलों से क़ैदियों की रिहाई की मांग पर कार्रवाई करने की बजाय, एचटीएस नेता ‘युवा महिलाओं के साथ सेल्फ़ी’ लेने में बहुत व्यस्त हैं।
इस तस्वीर के ख़िलाफ़ विचार ज़ाहिर करने वाले अधिकांश रूढि़वादी शख़्सियतों ने अतीत में भी राजनीतिक और धार्मिक कारणों से शरा की आलोचना की है और इनमें ऐसे मौलवी भी शामिल हैं जिन्होंने एचटीएस छोड़ दिया है।
-अहमद नूर, जो टाइडी
- और यारा फरारा
बीबीसी की रिसर्च के अनुसार सोशल नेटवर्किंग साइट फ़ेसबुक ने इसराइल-गाजा युद्ध के दौरान फिलस्तीनी इलाक़ों के न्यूज आउटलेट्स की खबरों को बड़े पैमाने पर पाठकों-श्रोताओं तक पहुंचने से रोका।
फेसबुक डेटा के विश्लेषण में हमने पाया कि फिलस्तीनी इलाकों (गाजा और वेस्ट बैंक में) में मौजूद न्यूजरूम्स के ऑडियंस एंगेजमेंट में भारी गिरावट आई है।
बीबीसी ने ऐसे लीक दस्तावेज़ भी देखे हैं जो बताते हैं कि इंस्टाग्राम (फेसबुक की पैरेंट कंपनी मेटा की और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म) ने अक्टूबर 2023 के बाद फिलस्तीनी यूजर्स के कमेंट में अपना मॉडरेशन बढ़ा दिया था।
मेटा ने कहा है अगर कहीं से भी ये लगता है कि उसने जानबूझकर किन्हीं खास आवाजों को दबाया है तो ये ‘सरासर ग़लत’ है।
क्या मेटा फिलस्तीनी न्यूज़ आउटलेट्स के कंटेंट को ‘शैडो बैन’ कर रही है?
इसराइल और गाजा युद्ध शुरू होने के बाद कुछ ही बाहरी संवाददाताओं को बाहर से गाजा के फिलस्तीनी तटीय इलाकों में घुसने की इजाजत थी। रिपोर्टिंग करते वक्त उनके साथ इसराइली सेना होती है।
गाजा के अंदर से आने वाली अनसुनी आवाजों को लोगों तक सोशल मीडिया ने पहुंचाया। वहां से आने वाली सूचनाओं में जो खालीपन है उसे काफी हद तक इस मीडिया ने भरने की कोशिश की है।
इस दौरान वेस्ट बैंक इलाके से काम करने वाले पैलस्टाइन टीवी, वफा न्यूज एजेंसी और फल़स्तीनी अल-वतन इस दौरान पूरी दुनिया के लिए ख़बरों के अहम स्रोत बने रहे।
बीबीसी न्यूज़ की अरबी सेवा ने 7 अक्टूबर 2023 को हमास के इसराइल पर हुए हमले के एक साल पहले और उसके लगभग एक साल बाद तक फ़लस्तीन स्थित 20 प्रमुख न्यूज़ आउटलेट्स के फेसबुक पेजों के एंगेजमेंट डेटा इक_ा किए हैं।
एंगेजमेंट से पता चलता है कि किसी न्यूज आउटलेट के सोशल मीडिया अकाउंट का कितना असर है और कितने लोग इसके कंटेंट देखते हैं। इसमें न्यूज आउटलेट्स के कंटेंट पर कमेंट, रिएक्शन और शेयर्स (कंटेंट को सोशल मीडिया पर साझा करना जैसे फॉरवर्ड या शेयर करने जैसी गतिविधि शामिल है)।
अब तक इस युद्ध के दौरान एंगेजमेंट बढऩे की उम्मीद थी। लेकिन डेटा बताते हैं कि 7 अक्टूबर 2023 को हमास के हमले के बाद इसमें 77 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई।
फेसबुक पर पैलस्टाइन टीवी के 58 लाख फॉलोअर्स हैं। इसके न्यूज़रूम में काम करने पत्रकारों ने हमसे जो आंकड़े साझा किया है वो बताते हैं कि उनके पोस्ट देखने वाले लोगों में 60 फ़ीसदी की कमी आई है।
चैनल में काम करने वाले पत्रकार तारिक जिया ने बताया, ‘यूज़र्स इंटरएक्शन पूरी तरह प्रतिबंधित हो चुका है। इस वजह से हमारी पोस्ट का लोगों तक पहुंचना बंद हो चुका है।’
पिछले एक साल में फिलस्तीनी पत्रकारों ने बार-बार ये डर ज़ाहिर किया है मेटा उनके ऑनलाइन कंटेंट को ‘शैडो बैन’ कर रही है। मतलब वो ये तय कर रही है कि इसे कितने लोग देखें।
इसका पता लगाने के लिए हमने येदियत अहरोनोत, इसराइल हेयोम और चैनल13 जैसे 20 इसराइली न्यूज़ आउटलेट्स के फेसबुक पेजों की समान अवधि के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इन पेजों से बड़ी संख्या में युद्ध से जुड़े कंटेंट पोस्ट किए गए थे। लेकिन उनके ऑडियंस एंगेजमेंट में लगभग 37 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
हमारी रिसर्च का जवाब देते हुए मेटा ने कहा कि अक्टूबर 2023 में लिए गए ‘नीतिगत फैसलों और अस्थायी प्रोडक्ट’ के लिए बताकर इसने किसी रहस्य को उजागर नहीं किया है।
मेटा ने कहा कि उसके सामने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और हमास के बीच संतुलन बिठाने की चुनौती थी। हमास पर अमेरिका ने प्रतिबंध लगा रखा है और मेटा की अपनी नीति के तहत भी ये ख़तरनाक संगठन है। इसलिए ये दोहरी चुनौती थी।
मेटा ने ये भी कहा कि जो पेज युद्ध के बारे में विशेष तौर पर पोस्ट करते थे उनसे एंगेजमेंट पर असर पडऩे की संभावना थी।
कंपनी के एक प्रवक्ता ने कहा, ‘हम अपनी गलतियों को मानते हैं। लेकिन कहीं से भी ऐसा लगता है कि हम जानबूझकर किसी ख़ास आवाज को दबा रहे हैं तो ये बिल्कुल गलत है।’
इंस्टाग्राम से लीक हुए दस्तावेज़ों ने क्या बताया
बीबीसी ने मेटा के ऐसे पांच पूर्व और मौजूदा कर्मचारियों से बात की जिन्होंने बताया था कि उनकी कंपनी की नीतियों का अलग-अलग फ़लस्तीनी यूज़र्स पर क्या असर हुआ था।
हमने एक ऐसे एक शख़्स से बात की जिन्होंने अपना नाम न जाहिर करने की शर्त पर कंपनी के कुछ आंतरिक दस्तावेज लीक किए थे। ये दस्तावेज़ इंस्टाग्राम से एलगोरिद्म में किए गए बदलाव से जुड़े थे। इसने इंस्टाग्राम पोस्ट पर फिलस्तीनियों की टिप्पणियों के मॉडरेशन को कठिन बना दिया था।
उन्होंने बताया, ‘हमास के हमले के एक सप्ताह के अंदर कोड इस तरह बदल दिया गया कि ये फिलस्तीनी लोगों के प्रति ज्यादा आक्रामक हो गया।’
आंतरिक मैसेज दिखाते हैं कि एक इंजीनियर ने इस आदेश को लेकर चिंता जाहिर की थी। उनकी चिंता ये थी ये फिलस्तीनी यूजर्स के खिलाफ नया पूर्वाग्रह ला सकता है।’
मेटा ने कहा कि इसने ये कदम उठाए लेकिन लेकिन ये फैसला नफरत पैदा करने वाल कंटेंट में बढ़ोतरी को रोकने के लिए था। ये कंटेंट फ़लस्तीनी इलाकों से आ रहा था।
इसने बताया कि ये नीतिगत बदलाव इसराइल-गज़़ा युद्ध की शुरुआत में किया गया था लेकिन इसे वापस ले लिया गया है। लेकिन कंपनी ने ये नहीं बताया कि ये कब हुआ।
हमास-इसराइल संघर्ष शुरू होने के बाद से गाजा में अब तक 137 पत्रकारों के मारे जाने की खबर है। हालांकि कुछ लोग अब भी खतरा मोल लेकर वहां काम कर रहे हैं।
इन ख़तरों के बावजूद उत्तरी गाजा में काम कर रहे फोटो जर्नलिस्ट उमर अल कता ने बताया, ‘कुछ चीजें तो इतनी विचलित करने वाली थी कि इन्हें प्रकाशित नहीं किया जा सकता था। जैसे मान लीजिये कि सेना (इसराइली) जनसंहार कर रही है और हम इसका वीडियो बना लें। लेकिन ये वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत ज़्यादा शेयर नहीं होगा। ’
हालांकि उन्होंने ये कहा, ‘इन चुनौतियों, जोखिमों और कंटेंट बैन के बावजूद हमें फ़लस्तीनी कंंटेंट शेयर करना जारी रखना चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
( इस स्टोरी के लिए रेहाब इस्माइल और नताली मरज़ोगुई ने भी रिपोर्टिंग की है।)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
डॉक्टर भीमराव अंबेडकर हमारे देश की वर्तमान राजनीति के लिए एक ऐसा तुरुप का इक्का बन गया है जिसे अपने अपने दल के ताश की गड्डी में जोडऩे के लिए अमूमन हर दल लालायित है। संसद में डॉ अम्बेडकर को लेकर जिस तरह की तीखी नोंकझोंक हाल ही में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच हुई है वह इसी जद्दोजहद का नतीजा है जो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। गृह मंत्री अमित शाह ने अपने तथाकथित विवादित बयान में एक बात तो सच कही है कि अंबेडकर का नाम राजनीतिक दलों ने फैशन की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।
समस्या यह है कि वोट बटोरने के लिए अम्बेडकर के नाम का दुरुपयोग हाथी के दिखावटी दांत की तरह लगभग सभी दल एक दूसरे से ज्यादा करना चाहते हैं। अमित शाह के बचाव में उतरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विवाद को कांग्रेस की तरफ घुमाते हुए अम्बेडकर को कमतर दिखाने का सारा दोष कांग्रेस और प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के सिर मढ़ दिया। यह भी आजकल का फैशन है कि कोई सत्ता पक्ष की जरा सी आलोचना करे तो सत्ता पक्ष अपनी गलती स्वीकार कर उसे सुधारने की बजाय विपक्ष की कब्र से गड़े मुर्दे उखाडऩे लगता है। लेकिन जब कब्रगाह खोदे जाते हैं तो उसमें अपनों के गुनाहों के भूत भी सामने आते हैं। भाजपा यह भूल जाती है कि उनकी मातृ संस्थाएं हिंदू महासभा, आर एस एस और जनसंघ अम्बेडकर के हिंदू कोड बिल का किस हद तक विरोध करते थे। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े और नेता विपक्ष राहुल गांधी का भी यह दायित्व बनता है कि वे भी सच्चाई का सामना दृढ़ता से करें और इतिहास को सही तरह से पेश कर बताएं कि अम्बेडकर से तत्कालीन कांग्रेस के किन नेताओं से किस तरह के संबंध थे।
आज जो लोग अम्बेडकर के नाम की माला जप रहे हैं और उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाने का श्रेय लेने के लिए एक दूसरे पर कीचड उछाल रहे हैं वे बहुत सारे तथ्य आम जनता से छिपाकर इसलिए झूठ बोल पा रहे हैं क्योंकि आम जनता को भी डॉ अम्बेडकर के जीवन और विचारों के बारे में वही आधी अधूरी जानकारी है जो राजनीतिक दल अपने अपने स्वार्थ के कारण उन्हें परोसते हैं और जो सूचनाएं स्वार्थी तत्वों द्वारा अखबारों और सोशल मीडिया के माध्यम से जनता को परोसी जा रही है।जिन्हें डॉ अम्बेडकर के बारे में पूरी सच्चाई जाननी है उनके लिए डॉ अम्बेडकर के विपुल लेखन और समय समय पर दिए असंख्य भाषणों को पढऩा जरूरी है। सार संक्षेप में कहें तो डॉ अम्बेडकर को जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री बनाने और उनकी प्रतिभा की पहचान कर उन्हें संविधान निर्माण में महती भूमिका निभाने देने में महात्मा गांधी और राजकुमारी अमृत कौर का सबसे ज्यादा योगदान है। उनकी इस योजना में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्हीं के अनुरोध पर महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने एक सीट खाली कर डा अम्बेडकर को संविधान सभा में जगह दिलाई थी। यदि महात्मा गांधी के अनुरोध को सरदार वल्लभ भाई पटेल और जवाहर लाल नेहरू अनसुना कर देते तो डॉ अम्बेडकर को देश का कानून मंत्री बनने और संविधान निर्माण में ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष बनने का सौभाग्य ही नहीं मिलता और आजाद देश को उनकी सेवाओं से वंचित रहना पड़ता। जहां तक डॉ अम्बेडकर के मंत्रिमंडल से त्यागपत्र का संबंध है वे हिंदू कोड बिल पास करने के लिए इंतजार नहीं करना चाहते थे और जवाहर लाल नेहरू कट्टर हिंदुत्व के विरोध को शांत करने के लिए थोड़ा समय चाहते थे। अम्बेडकर को लगा कि जवाहर लाल नेहरू हिंदू महासभा और आर एस एस आदि के जबरदस्त विरोध के सामने झुक गए हैं। इसलिए उन्होंने अपनी बात मनती नहीं देख मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। यह सब घटनाएं विस्तार से मेरी किताब ‘अम्बेडकर जीवन और विचार’ में दर्ज हैं, अधिक जानकारी के लिए अन्य ग्रंथों के साथ यह किताब भी पढ़ी जा सकती है।
-अंशुल सिंह
कांग्रेस किसी मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को घेरे और जवाब देने खुद अमित शाह आएं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के कार्यकाल में ऐसे मौके कम ही देखने को मिले हैं।
बुधवार यानी 18 दिसंबर को ऐसा ही मौका आया, जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बाबा साहेब आंबेडकर पर दिए बयान को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करने आए।
मंगलवार को अमित शाह ने राज्यसभा में संविधान पर चर्चा के दौरान लगभग एक घंटे से ज़्यादा लंबा भाषण दिया। इस भाषण के एक हिस्से पर कांग्रेस समेत विपक्षी दल संसद से लेकर सडक़ तक विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं।
अमित शाह ने अपने भाषण के एक हिस्से में कहा था, ‘अभी एक फैशन हो गया है।। आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।’
राहुल गांधी ने अमित शाह के बयान पर कहा कि ये लोग संविधान और बाबा साहेब आंबेडकर की विचारधारा के खिलाफ हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमित शाह का बचाव करते हुए एक्स पर लिखा कि शाह ने आंबेडकर को अपमानित करने के काले अध्याय को एक्सपोज़ किया है।
अमित शाह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि कांग्रेस पर आंबेडकर को चुनाव हराने और भारत रत्न न देने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
अमित शाह का कहना था कि नेहरू जी की आंबेडकर के प्रति नफरत जगजाहिर है। लेकिन असल में आंबेडकर के नेहरू और कांग्रेस से संबंध कैसे थे?
महाड़ सत्याग्रह से मिली पहचान
साल 1924 में इंग्लैंड से वापस आने के बाद आंबेडकर ने वकालत और दलितों के उत्थान के लिए काम करना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने एक असोसिएशन बहिष्कृत हितकारिणी सभा की शुरुआत की थी। इसके अध्यक्ष सर चिमनलाल सीतलवाड़ थे और चेयमैन ख़ुद बीआर आंबेडकर थे।
एसोसिएशन का तात्कालिक उद्देश्य शिक्षा का प्रसार करना, आर्थिक स्थिति में सुधार करना और दलितों की समस्याओं को उठाना था।
साल 1927 में डॉ. आंबडेकर ने महाड़ सत्याग्रह आंदोलन का नेतृत्व किया और इसके बाद भारत में उन्हें दलितों की आवाज के रूप में पहचान मिली।
यह आंदोलन दलितों को सार्वजनिक चावदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया था। महाड़ पश्चिम महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक कस्बा है। इस सत्याग्रह से डॉ. आंबेडकर के राजनीतिक करियर की शुरुआत मानी जाती है।
लेखक केशव वाघमारे बताते हैं, ‘महाड़ सत्याग्रह में मंच पर मुख्य तस्वीर महात्मा गांधी की थी। बाबा साहेब हिन्दू धर्म में एक सुधार लाना चाहते थे और छुआछूत को खत्म करना चाहते थे। इसके लिए वो चाहते थे कि हिन्दू धर्म के प्रगतिशील लोग सामने आएं और इस सामाजिक कुरीति को ख़त्म कर दें।’
केशव वाघमारे का कहना है कि आंबेडकर, गांधी और कांग्रेस के बीच ‘प्यार और नफरत’ के रिश्ते थे।
महात्मा गांधी से पहली मुलाकात
आंबेडकर अछूतों के लिए काम कर रहे थे और उस दौरान गांधी भी इस वर्ग की आवाज़ उठा रहे थे। लेकिन दोनों के काम करने के अपने तरीक़े थे।
आंबेडकर को गोलमेज सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया गया था। गांधी सालों से दलितों के लिए काम कर रहे थे और अब आंबेडकर इस विमर्श के केंद्र में आ गए थे। 14 अगस्त, 1931 को मुंबई के मणि भवन में दोनों के बीच पहली बैठक तय हुई। यह मुलाकात काफी दिलचस्प थी। आंबेडकर ने आरोप लगाते हुए कहा कि कांग्रेस की दलितों के प्रति सहानुभूति औपचारिकता भर है।
महात्मा गांधी ने आंबेडकर को शांत करने की कोशिश की और उन्हें मातृभूमि के संघर्ष में ‘एक महान देशभक्त’ बताया। आंबेडकर ने इस पर जवाब दिया, ‘गांधी जी मेरी कोई मातृभूमि नहीं है। कोई भी स्वाभिमानी अछूत इस भूमि पर गर्व नहीं कर सकता, जहाँ उसके साथ बिल्लियों और कुत्तों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है।’
दोनों के बीच इस बातचीत का जिक्र शशि थरूर की किताब ‘आंबेडकर:अ लाइफ’ में मिलता है।
गांधी-आंबेडकर के बीच तनाव और पूना पैक्ट
साल 1932 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के बाद ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दलितों, मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों और अन्य लोगों के लिए अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों की घोषणा की गई थी।
इसके तहत केंद्रीय विधानमंडल में दलितों के लिए 71 सीटें आरक्षित की गई थीं। इन निर्वाचन क्षेत्रों में दलित उम्मीदवार और केवल दलितों को ही वोट देने का अधिकार था। गांधी को यह बिल्कुल पसंद नहीं आया था।
इसके खिलाफ सितंबर 1932 में गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में अपना अनशन शुरू किया और देश में तनाव का माहौल बन गया।
आंबेडकर ने कहा था, ‘मैं चर्चा के लिए तैयार हूँ लेकिन गांधी जी को कोई नया प्रस्ताव लेकर आना चाहिए।’ 22 सितंबर को आंबेडकर गांधी से मिलने यरवदा जेल गए। आंबेडकर ने कहा कि आप हमारे साथ अन्याय कर रहे हैं।
इस पर गांधी ने कहा, ‘आप जो कह रहे हैं, मैं उससे सहमत हूँ। लेकिन आप चाहते हैं कि मैं जीवित रहूँ?’
इसके बाद पूना पैक्ट हुआ। स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्रों की जगह आरक्षित सीटों के प्रस्ताव पर सहमति बनी। डॉ आंबेडकर ने 24 सितंबर 1932 को अछूतों के लिए 147 से ज्यादा आरक्षित सीटों के साथ पूना पैक्ट के समझौते पर हस्ताक्षर किए।
पूना पैक्ट ने आंबेडकर और कांग्रेस के बीच गहरी खाई को सामने ला दिया। आंबेडकर का मानना था कि गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दलितों के अधिकारों से समझौता किया है, जिसके कारण उन्होंने खुद को पार्टी से दूर कर लिया है।
1955 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में आंबेडकर ने कहा था, ‘मुझे आश्चर्य होता है कि पश्चिम गांधी में इतनी दिलचस्पी क्यों लेता है। जहाँ तक भारत की बात है, वो देश के इतिहास का एक हिस्सा भर हैं। वो युग निर्माण करने वाले नहीं हैं।’
राजनीति में आंबेडकर और कांग्रेस
डॉ.आंबेडकर की आजादी के संघर्ष में भूमिका को लेकर आज भी सवाल उठाए जाते हैं और आलोचना की जाती है। साल 1942 से लेकर 1946 तक जब स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था, तब आंबेडकर वायसराय की काउंसिल में श्रम मंत्री थे।
इसके बाद जुलाई, 1946 में आंबेडकर बंगाल से संविधान सभा के सदस्य बने थे। ब्रिटेन से आज़ादी मिलने के बाद संविधान सभा के सदस्य ही पहली संसद के सदस्य बने थे। विभाजन के बाद आंबेडकर का निर्वाचन क्षेत्र पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में चला गया। तब आंबेडकर के सामने संविधान सभा में पहुंचने की चुनौती थी।
वरिष्ठ लेखक रावसाहब कसबे बताते हैं कि बाबा साहेब दोबारा संविधान सभा में गांधी जी की इच्छा से गए थे।
रावसाहब कसबे कहते हैं, ‘कांग्रेस और बाबा साहेब के बीच मतभेद जगजाहिर थे लेकिन फिर भी गांधी चाहते थे कि आंबेडकर संविधान सभा में रहें। उन्होंने राजेंद्र प्रसाद और वल्लभभाई पटेल को बुलाया और कहा कि मुझे हर हाल में आंबेडकर संविधान सभा में चाहिए। दोनों ने फिर बाबा साहेब को खत लिखे और फिर बाबा साहेब को मुंबई प्रांत से चुनकर भेजा गया।’
इसके बाद डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान निर्माण समिति के अध्यक्ष के रूप में उल्लेखनीय योगदान दिया।
हिन्दू कोड बिल और आंबेडकर का इस्तीफा
भारत को आज़ादी मिली लेकिन बहुसंख्यक हिन्दू समाज में पुरुष और महिलाओं को समान अधिकार नहीं थे।
पुरुष एक से ज़्यादा शादी कर सकते थे लेकिन विधवा महिला दोबारा शादी नहीं कर सकती थी। विधवाओं को संपत्ति से भी वंचित रखा जाता था और महिलाओं को तलाक़ का अधिकार नहीं था।
आंबेडकर इन समस्याओं से भली-भांति परिचित थे, इसलिए उन्होंने 11 अप्रैल 1947 को संविधान सभा के सामने हिंदू कोड बिल पेश किया था। इसमें संपत्ति, विवाह, तलाक और उत्तराधिकार संबंधित कानून शामिल थे।
आंबेडकर ने इस कानून को अब तक का सबसे बड़ा सामाजिक सुधार उपाय बताया था लेकिन इस बिल का जमकर विरोध हुआ। आंबेडकर के बिल के पक्ष में तर्क और नेहरू का समर्थन काम न आया और 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्ट कमिटी के पास भेज दिया गया।
बाद में 1951 में इस बिल को फिर से संसद में पेश किया गया लेकिन फिर से विरोध हुआ। संसद में जनसंघ और कांग्रेस का एक हिंदूवादी धड़ा इसका विरोध कर रहा था। विरोध करने वालों के मुख्य रूप से दो तर्क थे।
पहला- संसद के सदस्य जनता के चुने हुए नहीं हैं, इसलिए इतने बड़े विधेयक को पास करने का नैतिक अधिकार नहीं है। दूसरा- इन कानून को सभी पर लागू होना चाहिए यानी समान नागरिक आचार संहिता।
आंबेडकर कहते थे, ‘भारतीय विधानमंडल द्वारा अतीत में पारित या भविष्य में पारित होने वाले किसी भी कानून की तुलना इसके (हिंदू कोड) महत्व के संदर्भ में नहीं की जा सकती है। समुदायों के बीच और लिंग के बीच असमानता हिंदू समाज की आत्मा है। इसे अछूता छोडक़र आर्थिक समस्याओं से संबंधित क़ानून पारित करना हमारे संविधान का मज़ाक बनाना और गोबर के ढेर पर महल बनाना है।’
लेकिन यह बिल आंबेडकर के कानून मंत्री रहते हुए पास नहीं हो सका और आंबेडकर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
पहला आम चुनाव और आंबेडकर की हार
भारत की आजादी के चार साल बाद पहला लोकसभा चुनाव हुआ।
यह प्रक्रिया 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक लगभग चार महीने तक चली। पहले चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए 50 से अधिक पार्टियों के 1500 से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा।
इनमें से लगभग 100 निर्वाचन क्षेत्र द्वि-सदस्यीय थे। यानी एक ही निर्वाचन क्षेत्र से दो सांसद- सामान्य और आरक्षित वर्ग से चुने जाते थे।
बाबा साहेब आंबेडकर तत्कालीन बॉम्बे प्रांत सेअपनी पार्टी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे थे। उनका निर्वाचन क्षेत्र उत्तरी मुंबई था और यह दो सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र था।
कांग्रेस ने आंबेडकर के खिलाफ नारायण काजरोलकर को उतारा था। चुनाव हुए और नतीजों ने सारे देश को चौंका दिया।
काजरोलकर को एक लाख 38 हजार 137 वोट मिले थे जबकि बाबा साहेब आंबेडकर को एक लाख 23 हजार 576 वोट मिले थे। कांग्रेस के काजरोलकर ने आंबेडकर को हराया, वो भी पूरे 14 हज़ार 561 वोटों से।
तब से लगातार यह आरोप लगता रहा है कि कांग्रेस ने जानबूझकर बाबा साहब को हराया।
क्या कांग्रेस ने जानबूझकर ऐसा किया था? इसे समझने के लिए उस समय की घटनाओं को देखना पड़ेगा।
एस.के. पाटिल उस समय मुंबई कांग्रेस के प्रमुख हुआ करते थे।
मुंबई में पाटिल का दबदबा था और चुनाव से कुछ महीने पहले उन्होंने कहा था, ‘अगर आंबेडकर आरक्षित सीट से चुनाव लड़ते हैं तो कांग्रेस उनके खिलाफ उम्मीदवार नहीं देगी।’
फिर उन्होंने उम्मीदवार क्यों दिया? आचार्य अत्रे अपनी मराठी भाषा में की किताब ‘कन्हेचें पाणी’ में लिखते हैं, ‘आंबेडकर की पार्टी और समाजवादियों का गठंबधन हुआ तो एस। के। पाटिल इससे नाराज हो गए और उन्होंने नारायण काजरोलकर को बतौर कांग्रेस प्रत्याशी आंबेडकर के खिलाफ उतार दिया था।’
हमें यहां ध्यान देना चाहिए कि एस.के.पाटिल समाजवादियों के कट्टर विरोधी थे। समाजवादियों और कम्युनिस्टों के प्रति उनका ग़ुस्सा जगजाहिर था।
हालांकि पाटिल ने जब घोषणा की थी तब आंबेडकर नेहरू कैबिनेट में मंत्री थे।
एक वर्ग यह भी मानता है कि कम्युनिस्टों की वजह से आंबेडकर चुनाव हारे थे। उनका तर्क होता है कि कम्युनिस्टों ने उस समय आंबेडकर के खिलाफ वोट करने की अपील की थी और काजरोलकर को इसका फायदा हुआ था।
आंबेडकर इस हार से इतने सदमे में थे कि पहले से ही कई बीमारियों से जूझ रहे आंबेडकर का स्वास्थ्य भी इस दौरान खऱाब हो गया। बाद में आंबेडकर बम्बई प्रांत से राज्यसभा में चले गए लेकिन वे लोकसभा में जाना चाहते थे।
इसके दो साल बाद ही भंडारा में उपचुनाव हुए तो आंबेडकर वहां खड़े हुए। हालांकि, कांग्रेस उम्मीदवार ने उन्हें वहां भी हरा दिया।
यह आंबेडकर का आखिरी चुनाव था क्योंकि दो साल बाद यानी 1956 में उनकी मृत्यु हो गई। (bbc.com/hindi)
-दिलनवाज पाशा
‘अभी एक फ़ैशन हो गया है...आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर, आंबेडकर। इतना नाम अगर भगवान का लेते तो सात जन्मों तक स्वर्ग मिल जाता।’
संसद में केद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के संविधान पर चर्चा के दौरान एक लंबे भाषण के इस छोटे से अंश को लेकर ऐसा हंगामा हुआ कि संसद की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ी।
इस बयान में आंबेडकर का अपमान देख रहे हमलावर विपक्ष को जवाब देने के लिए अमित शाह ने बुधवार को प्रेस कॉन्फ्ऱेंस की।
अमित शाह ने कहा, ‘जिन्होंने जीवन भर बाबा साहेब का अपमान किया, उनके सिद्धांतों को दरकिनार किया, सत्ता में रहते हुए बाबा साहेब को भारत रत्न नहीं मिलने दिया, आरक्षण के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ाईं, वे लोग आज बाबा साहेब के नाम पर भ्रांति फैलाना चाहते हैं।’
यही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया पर बयान जारी कर बताया कि उनकी सरकार ने भारत के संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर के सम्मान में क्या-क्या काम किए हैं।
लेकिन इस सबके बावजूद हंगामा नहीं रुका। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने अमित शाह पर आंबेडकर का अपमान करने का आरोप लगाते हुए उनका इस्तीफा मांग लिया।
खडग़े ने कहा, ‘बाबा साहेब का अपमान किया है, संविधान का अपमान किया है, उनकी आरएसएस की विचारधारा दर्शाती है कि वो स्वयं बाबा साहेब के संविधान का सम्मान नहीं करना चाहते हैं। समूचा विपक्ष अमित शाह का इस्तीफा मांगता है।’ वहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने बयान जारी कर कहा कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों भीमराव आंबेडकर के नाम पर सिर्फ राजनीति कर रही हैं।
बीजेपी को क्यों देनी पड़ी सफ़ाई
अमित शाह के इस बयान को आंबेडकर का अपमान क्यों माना जा रहा है और इससे बीजेपी की दलित राजनीति कैसे प्रभावित हो सकती है?
इसका जवाब देते हुए दलित शोधकर्ता और पंजाब की देशभगत यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ। हवलदार भारती कहते हैं, ‘अगर ईश्वर शोषण से मुक्ति देने वाला है तो डॉ. भीमराव आंबेडकर जाति व्यवस्था में बँटे भारतीय समाज के उन करोड़ों लोगों के ईश्वर हैं जिन्होंने सदियों तक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक भेदभाव झेला है। भीमराव आंबेडकर ने संविधान में बराबरी का अधिकार देकर अनुसूचित और पिछड़ी जातियों को शोषण से मुक्ति दी है।’
डॉ. हवलदार भारती कहते हैं, ‘यही वजह है कि आंबेडकर की विचारधारा से जुड़े और दलित राजनीति से जुड़े लोग अमित शाह के इस बयान को आंबेडकर के अपमान के रूप में देख रहे हैं।’ लेकिन भारती ये भी कहते हैं कि इस समय सभी राजनीतिक पार्टियों में आंबेडकर को अपनाने की होड़ मची है और राजनीतिक दल आंबेडकर के विचारों को लागू करने की बजाय उनकी पहचान का इस्तेमाल कर दलित मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रहे हैं।
आबेंडकर पर अमित शाह के बयान के बाद से बीजेपी बचाव की मुद्रा में हैं।यही नहीं भारतीय जनता पार्टी ने हाल के सालों में दलित और पिछड़े वोटरों को अपनी तरफ खींचने के प्रयास किए हैं। इसके कई कारण हैं।
ब्राह्मणों और बनिया की पार्टी की पहचान
भारतीय जनता पार्टी के बारे में लंबे समय तक कहा जाता रहा कि यह ब्राह्मणों और बनिया की पार्टी है। लेकिन बीजेपी ने पिछले एक दशक में इस पहचान से आगे जाकर हिन्दू की समाज की दूसरी जातियों को भी जोडऩे में कामयाबी हासिल की है।
बीजेपी की कोशिश रहती है कि जातीय पहचान की राजनीति हावी न हो और बहुसंख्यक हिन्दुओं की धार्मिक पहचान की राजनीति मजबूत हो। राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ मुख्य तौर पर महाराष्ट्र की ऊंची जातियों, ख़ासकर ब्राह्मणों का संगठन था और शुरुआत में अनुसूचित जातियां इसकी तरफ़ आकर्षित नहीं होती थीं।’
‘आरएसएस में ना उस समय ब्राह्मणवाद की आलोचना की गुंजाइश थी और ना अब है। आरएसएस की विचारधारा समता की नहीं बल्कि समरसता की है। आज स्थिति ये है कि बीजेपी और आरएसएस को चुनाव की राजनीति करनी है तो उसके लिए चुनावी हिंदू एकता बनानी है, जो दलित और ओबीसी समुदाय के मत हासिल किए बिना संभव नहीं है।’
संघ ने इसके प्रयास बीजेपी की स्थापना से पहले ही कर दिए थे। 1974 में जब बालासाहेब देवरस संघ के सरसंघचालक थे, संघ ने अपना रवैया बदला। आबेंडकर,पेरियार और महात्मा फुले जैसे महापुरुषों के नामों को अपनी सुबह की प्रार्थना में जोड़ा। इसके अलावा दलितों और आदिवासियों को अपनी तरफ आकर्षित करने के कार्यक्रम चलाएं।
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर परवेश चौधरी तर्क देते हैं कि संघ ने बीजेपी के गठन से पहले ही आबेंडकर को अपना लिया था
दलितों को बीजेपी से जोडऩे की कोशिश
प्रोफेसर परवेश चौधरी कहते हैं, ‘बीजेपी आज से नहीं बल्कि जनसंघ के समय से या उससे पहले से भी दलितों को बढ़ावा देती रही है। बाबा साहेब आंबेडकर के चुनावी एजेंट महाराष्ट्र के प्रचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी थे, बाबा साहेब के प्रति संघ में पहले से ही लगाव रहा है।’
‘1970 के दशक में संघ ने महाराष्ट्र में समरसता गोष्ठी शुरू की, जो बीजेपी के गठन से पहले ही हो गया था। मुंबई में जहां से बीजेपी की शुरुआत हुई, उस जगह का नाम समता नगर रखा गया। दत्ताराव सिंदे ने यहां पहली बुनियाद डाली वो दलित पेंथर मूवमेंट के नेता थे और बाद में कांग्रेस में और फिर बीजेपी में गए। सूरजभान को बीजेपी ने ही राज्यपाल बनाया था। बंगारू लक्ष्मण को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था।’
लेकिन इसके बावजूद सवाल उठता है कि बीजेपी ने दलितों को मुख्यधारा में लाने की ठोस राजनीति की या सांकेतिक राजनीति?
अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘समता और समरसता दोनों अलग चीजें हैं। बीजेपी समरसता की बात तो करती है लेकिन समता की नहीं। समता आंबेडकर का मूल विचार है। चुनावी राजनीति में बहुत से हथकंडे होते हैं, विचारों को अपनाए बिना भी वोट हासिल किए जाते हैं। बीजेपी यही प्रयास कर रही है।’
दुबे कहते हैं, ‘अमित शाह के मुंह से भले ही ये निकल गया हो लेकिन इस पर बहुत हैरान नहीं होना चाहिए। उन्होंने वही बोला है, जो वह महसूस करते होंगे। नरेंद्र मोदी की सरकार ने भीमा कोरेगांव कांड के बाद देशभर के आंबेडकरवादियों का दमन किया। आंबेडकर की विचारधारा नहीं, बीजेपी ने उनकी तस्वीर को बढ़ावा दिया है।’
गैर जाटव जातियों को बढ़ावा
दलितों की सबसे बड़ी जाति जाटव पारंपरिक रूप से बीजेपी से दूर रही है। लेकिन बीजेपी ने गैर जाटव जातियों को अपने साथ जोडऩे की कोशिश की।
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और आबेंडकर पर शोध करने वाले विवेक कुमार कहते हैं, ‘भले ही जाटव बीजेपी से दूर रहे हैं लेकिन बीजेपी शुरुआत से ही गैर जाटव दलित जातियों को अपनी तरफ़ खींचने के प्रयास करती रही है।’
प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, ‘बीजेपी ने वाल्मीकि रचित रामायण को बढ़ावा दिया और वाल्मीकि वर्ग को अपनी तरफ़ खींचा। यूपी में पासी समाज, जिसे परशुराम से जोड़ा जाता है, उसे बीजेपी ने अपनी तरफ आकर्षित किया। बीजेपी ने खटीक समाज और धोबी समाज को भी अपनी तरफ खींचा है। यानी गैर जाटव दलित पहले से ही बीजेपी के साथ रहे हैं। अखिल भारतीय स्तर पर देखा जाए तो महार नेता रामदास अठावले भी बीजेपी के साथ हैं।’
लेकिन ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने जाटव समाज को भी अपनी तरफ खींचने की कोशिश ना की हो।
प्रोफेसर दुबे कहते हैं, ‘बीजेपी ने दलितों को ये आश्वासन दिया है कि आप हमें वोट दीजिये, हम राजनीति में आपको बराबरी की जगह देंगे। दलितों में सबसे बड़ी जाति जाटव है। बहुजन समाज पार्टी ने खासकर अपने साथ जाटवों को जोड़ा।’
‘बीएसपी के उभार ने जाटव जाति को राजनीतिक जगह दी। इसी समय बीजेपी ने ये भांपा कि बाकी अनुसूचित जातियों को राजनीति में जगह नहीं मिल रही है और बीजेपी ने उन्हें जगह देने की कोशिश की और इसका नतीजा ये हुआ कि जाटवों से अलग बाकी दलित जातियां बीजेपी के साथ होती गईं।’
दुबे कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में महार भले ही बीजेपी के साथ ज़्यादा ना हों लेकिन गैर-महार दलित जातियां महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ हैं।’
अभय दुबे कहते हैं, ‘बीजेपी ने दलितों में जातियों के बँटवारे का फायदा उठाकर छोटी दलित जातियों को अपनी तरफ खींचा। पार्टी अब जाटवों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश कर रही है और उसके लिए आंबेडकर को अपनाना और उनके विचारों को बढ़ावा देना जरूरी है। ’
आंबेडकर को अपनाने की राजनीतिक स्पर्धा
इस समय भारतीय राजनीति में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर को अपनाने की एक स्पर्धा नजऱ आती है। कांग्रेस लगातार संविधान, जातिगत जनगणना और आरक्षण की बात कर रही है। कांग्रेस के अध्यक्ष दलित नेता मल्लिकार्जुन खडग़े हैं।
प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, ‘कांग्रेस दलित राजनीति के मामले में बीजेपी से आगे दिखाई दे रही है और लगातार जातीय अस्मिता को बढ़ावा दे रही है।’
हिंदुत्व की राजनीति कर रही बीजेपी के लिए जातीय अस्मिता का सवाल मुश्किल पैदा कर सकता है।
विश्लेषक मानते हैं कि हिंदुत्व के जिस मॉडल को बीजेपी बढ़ावा दे रही है, उसमें जातीय अस्मिता के सवाल की नहीं है।
प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, ‘बीजेपी नहीं चाहेगी की जातीय अस्मिता का सवाल उभरे। कांग्रेस ने लगातार जातीय अस्मिता को बढ़ावा दिया है और अब बीजेपी इसका जवाब देने की जरूरत महसूस कर रही है। आंबेडकर के इर्द-गिर्द विमर्श पैदा कर बीजेपी यही कोशिश कर रही है।’
बीजेपी ने आंबेडकर के पंचतीर्थ की स्थापन की। लंदन में जाकर आंबेडकर का स्मारक बनाया। संविधान दिवस बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही बड़े पैमाने पर मनाया जा रहा है।
प्रोफेसर परवेश चौधरी कहते हैं, ‘बीजेपी ने बाबा साहेब आंबेडकर से जुड़े सभी स्थानों को संरक्षित किया और तीर्थ के रूप में विकसित किया। उनके व्यक्तित्व और विचार को बढ़ाने के लिए बाबा साहेब आंबेडकर सेंटर स्थापित किया।’
‘राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर किताब के लेखक डॉ. परवेश चौधरी कहते हैं, ‘बाबा साहेब आंबेडकर सिर्फ दलितों के नेता नहीं है बल्कि समूचे भारत और विश्व के नेता हैं। बीजेपी ने इस विचार को बढ़ावा दिया है। कांग्रेस ने आंबेडकर को दलित नेता के रूप में छवि गढ़ी लेकिन बीजेपी उन्हें वैश्विक स्तर पर ला रही है। उनके हर पक्ष को बीजेपी ने बढ़ावा दिया है।’
कमजोर होती आत्मनिर्भर दलित राजनीति
अपने दम पर राजनीतिक सत्ता तक पहुंचती रहीं दलित पार्टियां आज हाशिये हैं। बहुजन समाज पार्टी इसका उदाहरण है, जो आज अपने दम पर सांसद नहीं भेज पा रही है।
प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं, ‘वर्तमान समय में बाबा साहेब आंबेडकर की जो स्वीकार्यता आज सभी दलों में है, उसकी वजह एक ये भी है कि आज आत्मनिर्भर दलित राजनीति कमज़ोर हुई है। यूपी में बीएसपी, बिहार में लोक जन शक्ति पार्टी या फिर महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर आत्मनिर्भर दलित राजनीति को थामे हुए थे लेकिन वर्तमान समय में ये दलित राजनीति कमजोर हुई है।’
उत्तर भारत हो, मध्य भारत हो या फिर दक्षिण भारत हो, आत्मनिर्भर दलित राजनीति से आने वाले सांसदों-विधायकों की संख्या कम हुई है।
ऐसे में राजनीतिक दलों को लग रहा है कि दलित राजनीति की ज़मीन खाली है।
प्रोफ़ेसर विवेक कुमार कहते हैं, ‘अब कांग्रेस दलित राजनीति का एजेंडा चला रही है। एक समय बीएसपी कहती थी कि संविधान के सम्मान में, बीएसपी मैदान में। आज कांग्रेस और इंडिया गठबंधन कह रहा है कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी। यही वजह है कि बीजेपी भी दलित राजनीति को लेकर आक्रामक हुई है और दलितों को अपनी तरफ आकर्षित करने के प्रयास कर रही है।’
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में दलितों की आबादी करीब 16.6 प्रतिशत है लेकिन दलित संगठनों का मानना है कि भारत में दलितों की वास्तविक आबादी 20 प्रतिशत से भी अधिक हो सकती है। लोकसभा में 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं।
हालांकि, भारत में जातिगत जनगणना नहीं हुई है और कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं।
विश्लेषक मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता के लिए दलितों को साथ लेकर चलना पार्टियों की राजनीतिक मजबूरी है।
आरक्षण, जातिगत जनगणना और बराबर हिस्सेदारी, ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर दलितों में अब जागरूकता बढ़ी है।
भारतीय जनता पार्टी ने आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान भी किया है, जिसे दलित संगठन और पिछड़ों के लिए तय आरक्षण में सेंध मानते हैं।
प्रोफेसर दुबे कहते हैं, ‘अब धीरे-धीरे फिर से दलितों और पिछड़ा वर्ग के लोगों को लगने लगा है कि बीजेपी मुख्य तौर पर ब्राह्मण-बनिया पार्टी ही है। बीजेपी को ये आशंका है कि अगर दलित और पिछड़ी जातियां उससे अलग हुईं तो उसे राजनीतिक नुकसान हो सकते हैं। आज हर पार्टी ये जानती है कि दलितों का वोट हासिल किए बिना सत्ता तक नहीं पहुँचा जा सकता है। यही वजह है कि बीजेपी दलितों और पिछड़ों को लेकर अति संवेदनशील दिख रही है। सवाल यही है कि यह संवेदनशीलता क्या सिफऱ् वोट हासिल करने तक ही सीमित है या इसका मकसद दलितों का वास्तविक उभार भी है।’
क्या नुकसान दे सकता है अमित शाह का बयान?
अमित शाह के बयान पर राजनीतिक शोरगुल के बीच ये सवाल भी उठा है कि क्या ये बयान बीजेपी को राजनीतिक नुकसान पहुँचा सकता है?
विश्लेषक मानते हैं कि इसका कोई बड़ा राजनीतिक नुक़सान होगा, ऐसा प्रतीत नहीं होता है।
अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘आंबेडकरवाद और दलित समाज एक दूसरे के लिए हैं लेकिन व्यवहारिक रूप से अगर देखा जाए तो आंबेडकरवाद पर चलने वाले दलितों की संख्या बहुत कम है। ये दलित आबादी का एक छोटा हिस्सा हैं। ऐसे में अमित शाह के इस बयान का व्यापक दलित आबादी पर कुछ खास असर होगा, इसकी संभावना कम ही है। आबंडेकर के प्रति श्रद्धा सभी दलितों में है लेकिन उनके नाम पर वोट कितना प्रभावित होते हैं, ये देखने की बात होगी। स्वयं आंबेडकर को अपने जीवन में राजनीतिक सफलता नहीं मिली थी।’
अभय दुबे कहते हैं, ‘कुछ दिनों के राजनीतिक शोरगुल से ये मुद्दा नहीं बनेगा। आंबेडकर के विचारों को व्यापक राजनीतिक मुद्दा बनाने और इस पर बीजेपी को घेरने के लिए और ज़मीनी प्रयास करने होंगे।’ (bbc.com/hindi)
18 दिसंबर को जयंती पर विशेष
-घना राम साहू
भारत ही नहीं दुनिया के सभी समाजों में संस्कृति का मूल्यांकन केवल राजनैतिक सत्ता के हस्तांतरण प्रक्रिया से नहीं वरन सामाजिक मूल्य, आर्थिक व्यवस्था और आध्यात्मिक जागरण से होता है। भारतीय महाद्वीप प्राचीन काल से आध्यात्मिक जागरण का केंद्र रहा है जहां विभिन्न प्रकार के उपासना पद्धतियों का उद्भव एवं विकास हुआ। इन सभी पद्धतियों को मुख्यतः 2 समूह में क्रमशः सगुण-साकार, सगुण-निराकार, निर्गुण-साकार एवं निर्गुण-निराकार में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्गीकरण को अवतारवाद और विकासवाद भी कह सकते हैं। कुछ विद्वान विकासवाद को उतारवाद भी कहते हैं। कपिल, कणाद, महावीर, बुद्ध, नानक, कबीर एवं गुरु घासीदास निर्गुण-साकार एवं निर्गुण-निराकार के महात्मा थे जिनमें सूक्ष्म भेद रहा है।
संत कबीर ने मनुष्य जीवन में पुरुषार्थ के लिए "प्रवृति और निवृति के मध्य बिंदु याने स्वस्थ रहनी के साथ गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ प्रतिपादित किया था"। अध्यात्म के इसी मार्ग को परिमार्जित स्वरूप में गुरु घासीदास ने आंदोलन का रूप दिया था। यहां आंदोलन का भावार्थ राजनीतिक कार्यों के लिए किए जाने वाले धरना, जुलूस, प्रदर्शन, हड़ताल से नहीं वरन मनुष्य के अन्तश्चेतना से है जो मस्तिष्क से संचालित होता है। पूर्व के विद्वान मनुष्य के जीवन के क्रियाकलापों को मस्तिष्क द्वारा संचालित मन, वृति, बुद्धि और अहंकार की प्रतिक्रिया मानते थे लेकिन आधुनिक विद्वान इसमें चिति को भी जोड़ते हैं माने मनुष्य का जीवन मन, वृति, चिति, बुद्धि और अहंकार से व्यवस्थित होता है और इसका संपादन मानव मस्तिष्क ही करता है।
गुरु घासीदास का जन्म उस दौर में हुआ था जब छत्तीसगढ़ का समाज जात-पात और ऊंच-नीच में जकड़ रहा था तथा आर्थिक शोषण चरम की ओर था। गुरु के संदेश का प्रभाव कुछ जाति विशेष तक सीमित न रहकर सभी जातियों पर पड़ा और मानवीय संवेदना से ओतप्रोत बौद्धिक वर्ग को नया नेतृत्व मिल गया। सभी जातियों के कुछ लोग "सतनाम पंथ" के अनुयाई बने। गुरु घासीदास के जन्म के समय की कुछ घटनाएं समाजशास्त्रीय विश्लेषण योग्य हैं। बालक घासीदास मंहगूदास एवं माता अमरौतिन के 5वें संतान थे। माता आयु की अधिकता के कारण प्रसव पीड़ा को सहन न कर सकी और उसके शरीर से दूध नहीं उतरा तथा कुछ दिनों में मृत्यु हो गई। बालक घासीदास भूख से छटपटाने लगे तब करुणा साहू नामक नारी ने उसे गाय का दूध पिलाकर पालन-पोषण किया। इससे संबंधित कुछ अन्य लोककथाएं भी हैं। करुणा साहू के वंशी नामक पुत्र भी था जो बालक घासीदास के बाल सखा हुआ। कहा जाता है कि गुरु घासीदास के आध्यात्मिक जागरण आंदोलन में बड़ी संख्या में साहू, यादव, मरार, लोहार सहित लगभग 75 जातियों के लोग जुड़े थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार "गुरु घासीदास सामाजिक समरसता के अग्रदूत थे और उन्होंने अनेक जातियों को एकरस बना दिया था"।
गुरु घासीदास जयंती पर्व के पावन बेला में उनके श्री चरणों को नमन करते हुए गौरवशाली छत्तीसगढ़ के महान संत के अनुयायियों को शुभकामनाएं देता हूं।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ या ‘एक देश, एक चुनाव’ से जुड़ा विधेयक सरकार लोकसभा में पेश कर सकती है।
न्यूज एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक़, कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल संविधान का 129वां संशोधन विधेयक और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक को सदन में पेश करेंगे।
12 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस विधेयक को मंजूरी दी थी।
अब लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की सोच को आगे बढ़ाने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं।
बता दें कि संविधान संशोधन विधेयक पास करने के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी, जबकि दूसरे विधेयक को सामान्य बहुमत से ही पास किया जा सकता है।
इस लेख में जानते हैं कि अब तक ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर क्या-क्या हुआ है और इसे लेकर क्या विवाद रहे हैं।
एक देश एक चुनाव से होगा चुनाव सुधार?
केंद्र सरकार लंबे समय से यह दावा करती आ रही है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम है।
इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए, सितंबर 2023 में प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की संभावनाएं तलाशने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया।
इस समिति ने मार्च 2024 में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से मुलाकात कर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी।
समिति में शामिल प्रमुख सदस्यों में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस के पूर्व नेता ग़ुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव डॉ. सुभाष कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे और चीफ विजिलेंस कमिश्नर संजय कोठारी थे। इसके अलावा, विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में कानून राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अर्जुन राम मेघवाल और डॉ. नितेन चंद्र भी समिति का हिस्सा थे।
191 दिनों की रिसर्च के बाद इस समिति ने 18,626 पन्नों की विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। सितंबर 2024 में प्रधानमंत्री मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने समिति की सिफारिशों को मंजूरी दी। इसके बाद 12 दिसंबर को ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ से जुड़े विधेयक को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी मंजूरी दे दी है, जो इसे कानून बनाने की दिशा में कदम है।
सिफारिशें क्या है?
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली इस समिति का कहना है कि सभी पक्षों, जानकारों और शोधकर्ताओं से बातचीत के बाद ये रिपोर्ट तैयार की गई है।
रिपोर्ट के मुताबिक, 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए, जिनमें से 32 दल ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के समर्थन में थे।
रिपोर्ट में कहा गया, ‘15 दलों को छोडक़र बाकी 32 दलों ने साथ-साथ चुनाव कराने का समर्थन किया और कहा कि ये तरीका संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को तेजी देने में मदद करेगा।’
रु 1951 से 1967 तक एक साथ चुनाव हुए थे: उस वक्त लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाते थे।
रु 1999 में विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट : इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि हर पांच साल में लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं।
रु 2015 में संसदीय समिति की 79वीं रिपोर्ट : इस रिपोर्ट में चुनाव एक साथ कराने के लिए इसे दो चरणों में करने का तरीका बताया गया।
रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में उच्चस्तरीय समिति: इस समिति ने राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों सहित कई लोगों से चर्चा और सुझाव लिए।
चुनावों पर व्यापक समर्थन: बातचीत और फीडबैक से यह पता चला कि देश में एक साथ चुनाव कराने को लेकर काफी समर्थन है।
समिति की तरफ से दिए गए सुझाव
दो चरणों में लागू करना: चुनाव कराने की योजना दो चरणों में लागू हो।
पहला चरण: लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं।
दूसरा चरण: आम चुनाव के 100 दिनों के भीतर पंचायत और नगर पालिका जैसे स्थानीय चुनाव कराए जाएं।
समान मतदाता सूची: सभी चुनावों के लिए एक ही मतदाता सूची का इस्तेमाल हो।
विस्तृत चर्चा : इस मुद्दे पर देशभर में खुलकर चर्चा हो।
समूह का गठन: चुनाव प्रणाली में बदलाव को लागू करने के लिए एक खास टीम बनाई जाए।
देश में कब-कब हुए एक साथ चुनाव?
आजादी के बाद भारत में पहली बार 1951-52 में आम चुनाव हुए थे। उस वक्त लोकसभा चुनाव के साथ-साथ 22 राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी कराए गए थे। ये पूरी प्रक्रिया करीब 6 महीने तक चली थी।
पहले आम चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए 17 करोड़ मतदाताओं ने वोट डाला था, जबकि आज भारत में वोटरों की संख्या लगभग 100 करोड़ हो चुकी है।
रु1957, 1962 और 1967 के चुनावों में भी लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे।
हालांकि, उस दौरान भी कुछ राज्यों में अलग से चुनाव कराए गए थे, जैसे 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में विधानसभा चुनाव अलग से हुए थे।
रु1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभाएं जल्दी भंग हो गईं और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
इसके अलावा, 1972 में लोकसभा चुनाव समय से पहले कराए गए, जिससे लोकसभा और विधानसभा चुनावों का चक्र अलग हो गया।
रु1983 में भारतीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार को दिया था। हालांकि, यह प्रस्ताव तब लागू नहीं हो पाया।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर पक्ष-विपक्ष
केंद्र सरकार का दावा है कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम साबित होगा।
सरकार का मानना है कि इससे चुनावी खर्च कम होगा, विकास कार्यों में तेज़ी आएगी और सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से छुटकारा मिलेगा।
हालांकि, विपक्षी पार्टियां इसमें कई खामियां गिना रही हैं। उनका कहना है कि ये संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है।
‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के समर्थन में सबसे बड़ा तर्क चुनावी खर्च को बताया जाता है। लेकिन भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी इससे सहमत नहीं हैं।
बीबीसी हिंदी से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘भारत में चुनाव कराने में करीब चार हज़ार करोड़ का खर्च होता है, जो बहुत बड़ा नहीं है। इसके अलावा, राजनीतिक दलों के करीब 60 हजार करोड़ के खर्च की बात है, तो यह अच्छा है, क्योंकि इससे नेताओं और राजनीतिक दलों के पैसे गरीबों तक पहुंचते हैं।’
एसवाई कुरैशी का मानना है कि सरकार को चुनावी खर्च घटाने के लिए दूसरे ठोस कदम उठाने चाहिए, जो वास्तव में असर डालें।
एसवाई क़ुरैशी के अनुसार, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी समिति को 47 राजनीतिक दलों ने अपनी प्रतिक्रिया दी थी। इनमें से 15 दलों ने इसे लोकतंत्र और संविधान के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ बताया था।
इसके अलावा, कई दलों ने सवाल उठाया है कि यह प्रणाली छोटे दलों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है और लोकतंत्र की बहुलता को नुकसान पहुंचा सकती है। (bbc.com/hindi)
-कैरोलिन हॉवली
दमिश्क में ईरानी दूतावास के फर्श पर टूटे शीशे और पैरों तले रौंदे हुए झंडों के बीच ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामेनेई के पोस्टर लगे हुए हैं। इनमें लेबनान के हिज़्बुल्लाह आंदोलन के पूर्व नेता हसन नसरल्लाह की फटी हुई तस्वीरें भी हैं।
हसन नसरल्लाह सितंबर में बेरूत में इसराइली हवाई हमले में मारे गए थे।
दूतावास के बाहर लगी फिरोजी रंग की टाइलें अब भी चमक रही हैं लेकिन ईरान के बेहद प्रभावशाली पूर्व सैन्य रिवोल्यूशनरी गार्ड कमांडर कासिम सोलेमानी के एक बड़े-से बैनर को भी नष्ट किया गया है।
कासिम सोलेमानी को डोनाल्ड ट्रम्प के पहले राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान, उनके आदेश पर मार दिया गया था।
ये सभी चीजें याद दिलाती हैं कि ईरान ने हाल के वर्षों में जो मात खाई है उसकी परिणति रविवार को उसके प्रमुख सहयोगी, सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद के रूस चले जाने के रूप में हुई है।
ईरान अपने घावों को सहला रहा है, साथ ही डोनाल्ड ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति पद बैठने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में क्या वो एक बार फिर पश्चिम के साथ वार्ताएं शुरू करना चाहेगा? क्या इस सारे घटनाक्रम ने ईरान के तंत्र को कमज़ोर कर दिया है?
असद की सत्ता खत्म होने के बाद दिए गए अपने पहले भाषण में ईरान के 85 वर्षीय सुप्रीम लीडर अली खामेनेई ने दावा किया, ‘ईरान मजबूत और शक्तिशाली है - और अब ये और भी मजबूत हो जाएगा।’
साल 1989 के बाद से देश पर राज करने वाले ख़ामेनेई इस वक़्त अपने उत्तराधिकार की चुनौतियों से भी दो चार हैं।
अपने भाषण में उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मध्य पूर्व में ईरान के नेतृत्व वाले गठबंधन के ‘प्रतिरोध का दायरा’ और भी मज़बूत होगा। ईरान के इस गठबंधन में हमास, हिज़्बुल्लाह, यमन के हूथी विद्रोही और इराक़ी शिया मिलिशिया शामिल हैं।
उन्होंने कहा, ‘आप जितना अधिक दबाव डालेंगे, प्रतिरोध उतना ही जोरदार होगा। आप जितना ज़ुल्म करेंगे, ये उतना ही अधिक मजबूत होता जाएगा।’
लेकिन 7 अक्टूबर 2023 को इसराइल में हमास के नरसंहार का ईरान ने स्वागत किया था। लेकिन ताज़ा बदलावों के बाद तेहरान की सत्ता हिली हुई लगती है।
अपने दुश्मनों के खिलाफ इसराइल की जवाबी कार्रवाई ने मध्य पूर्व को बहुत हद तक बदला दिया है। और इसकी वजह से ईरान काफी हद तक बैकफुट पर है।
पूर्व अमेरिकी राजनयिक और उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेम्स जेफरी अब विल्सन सेंटर थिंक-टैंक में काम करते हैं।
उनका कहता है, ‘सभी मोहरे एक के बाद एक गिर रहे हैं। ईरानी प्रतिरोध की धुरी को इसराइल ने तोड़ दिया है। सीरिया की घटनाओं ने तो इसे नष्ट ही कर दिया है। ईरान के पास यमन में हूथी विद्रोहियों के अलावा इस क्षेत्र में कोई वास्तविक प्रतिनिधि नहीं बचा है।’
ईरान अभी भी पड़ोसी देश इराक़ में शक्तिशाली मिलिशिया को पूरा समर्थन देता है। लेकिन जेफरी के अनुसार, ‘यह इस इलाके में काफी प्रभाव रखने वाली एक शक्ति का अभूतपूर्व पतन है।’
सीरिया के अपदस्थ राष्ट्रपति बशर अल-असद को आखिरी बार सार्वजनिक रूप से एक दिसंबर को ईरानी विदेश मंत्री के साथ एक बैठक में देखा गया था। उस वक्त असद ने सीरिया की राजधानी की ओर बढ़ रहे विद्रोहियों को ‘कुचलने’ की कसम खाई थी।
सीरिया में ईरान के राजदूत होसैन अकबरी ने असद को ‘प्रतिरोध की धुरी में सबसे आगे’ खड़ा बताया था। इसके बावजूद जब असद का अचानक पतन हुआ तो ईरान उसकी हिमायत में लडऩे के लिए असमर्थ और अनिच्छुक दिखा।
कुछ ही दिनों के भीतर ‘प्रतिरोध की धुरी’ का एकमात्र देश ईरान के हाथ से फिसल गया।
ईरान ने कैसे बनाया था अपना नेटवर्क
ईरान ने इस क्षेत्र में प्रभाव बनाए रखने के साथ-साथ, संभावित इसराइली हमले से बचने के लिए कई दशक लगाकर हथियारबंद गुटों का एक नेटवर्क तैयार किया है।
इसका इतिहास 1979 की ईरान की इस्लामी क्रांति से शुरू होता है।
इसके बाद इराक़ के साथ हुए युद्ध में बशर अल-असद के पिता हाफिज़़ ने ईरान का समर्थन किया था।
ईरान में शिया मौलवियों और असद के बीच गठबंधन ने, मुख्य रूप से सुन्नी-बहुल मध्य पूर्व में ईरान के पावर बेस को मजबूत करने में मदद की थी।
असद परिवार शिया इस्लाम की एक शाखा, अल्पसंख्यक अलावी संप्रदाय से आता है।
सीरिया ईरान के लिए लेबनान, हिज़्बुल्लाह और अन्य क्षेत्रीय हथियारबंद समूहों तक ईरान हथियार पहुँचाने का एक मुख्य रूट था।
ईरान पहले भी असद की मदद के लिए आया था। 2011 में अरब स्प्रिंग के दौरान हुए विद्रोह के गृह युद्ध में तब्दील हो जाने के बाद जब असद असुरक्षित दिखे, तो उन्हें तेहरान ने अपने लड़ाके, ईंधन और हथियार मुहैया कराए।
इसके अलावा सीरिया में ‘सैन्य सलाहकार’ के रूप में तैनात 2,000 से अधिक ईरानी सैनिक और जनरल भी मारे गए थे।
थिंक टैंक चैटम हाउस में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के निदेशक डॉ। सनम वकील कहते हैं, ‘हमें मालूम है कि ईरान ने सीरिया में 2011 के आसपास से $30 बिलियन से $50 बिलियन तक खर्च किए हैं।’
अब वह रूट जिसके ज़रिए ईरान भविष्य में, लेबनान में हिज़्बुल्लाह और अन्य गुटों को हथियार और मदद भेज सकता था, वो बंद हो गया है।
डॉ. वकील का तर्क है, ‘प्रतिरोध की धुरी एक अवसरवादी नेटवर्क था जो ईरान को एक रणनीतिक बढ़त देता था। ईरान से इसे सीधे हमले से बचने के लिए डिज़ाइन किया था। साफ़ है कि ये एक रणनीति विफल रही है।’
ईरान के भविष्य की दिशा
अब ईरान की प्राथमिकता अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा।
डॉ.वकील कहते हैं, ‘वह खुद को फिर से स्थापित करने, प्रतिरोध की धुरी में जो कुछ बचा है उसे मजबूत करने की कोशिश करेगा।’
डेनिस होराक ने कनाडा के राजनयिक के रूप में ईरान में तीन साल बिताए हैं। वे कहते हैं, ‘ईरानी सरकार में काफी दम है। और वे अब भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।’
उनका तर्क है कि ईरान के पास अब भी गंभीर मारक क्षमता है। और इसराइल के साथ टकराव की स्थिति में वो इसका इस्तेमाल खाड़ी के अरब देशों के ख़िलाफ़ कर सकता है। डेनिस होराक ईरान को कागज़़ी शेर मानने के किसी भी नजरिए के प्रति आगाह करते हैं।
डॉ.वकील कहते हैं, ‘ईरान निश्चित रूप से अपनी रक्षा नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करेगा। अब तक इन नीतियों के केंद्र में प्रतिरोध की धुरी थी।’
‘ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर भी दोबारा सोच सकता है। वो ये तय कर सकता है कि अपनी सुरक्षा के लिए उसे इस कार्यक्रम में और अधिक निवेश करना है।’
परमाणु क्षमता
ईरान इस बात पर ज़ोर देता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम पूरी तरह शांतिपूर्ण है। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प 2015 में पश्चिमी देशों के ईरान के साथ किए गए परमाणु समझौते से पीछे हट गए थे। उसके बाद ईरान की परमाणु गतिविधियां सीमित हो गई थीं।
समझौते के तहत ईरान को 3.67 फीसदी की शुद्धता तक यूरेनियम संवर्धन की अनुमति दी गई थी। कम-संवर्धित यूरेनियम से कॉमर्शियल परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए ईंधन का उत्पादन किया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र की परमाणु निगरानी संस्था, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) का कहना है कि ईरान अब उस दर को बढ़ा रहा है। और अब वो 60 प्रतिशत तक समृद्ध यूरेनियम का उत्पादन कर सकता है।
ईरान ने कहा है कि वह ऐसा उन प्रतिबंधों के जवाब में कर रहा है जिन्हें ट्रम्प ने लगाया था। यूरेनियम से परमाणु हथियार तभी बन सकते हैं जब वो 90त्न या उससे अधिक संवर्धित हो।
आईएईए प्रमुख, राफेल ग्रॉसी को लगता है कि ईरान ऐसा बदलते क्षेत्रीय समीकरणों के कारण कर रहा है।
रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूट थिंक टैंक में परमाणु प्रसार की विशेषज्ञ डारिया डोल्जिक़ोवा कहती हैं, ‘यह वाकई चिंताजनक तस्वीर है। परमाणु कार्यक्रम 2015 में जहां था, उससे बिल्कुल अलग जगह पर पहुंच गया है।’
एक अनुमान के मुताबिक अगर ईरान चाहे तो वो अब लगभग एक हफ्ते में एक परमाणु हथियार बनाने के लिए, पर्याप्त यूरेनियम का संवर्धन कर सकता है।
लेकिन हथियार बनने के बाद उसे टार्गेट तक पहुँचाने के लिए वॉरहेड की जरूरत होगी जिसे बनाने में एक साल तक का समय लग सकता है।
डोल्जिक़ोवा कहती हैं, ‘हम नहीं जानते कि ईरान वे टार्गेट तक पहुँचने योग्य परमाणु हथियार बनाने के कितने करीब हैं। लेकिन इसबीच ईरान ने इन हथियारों के निर्माण के बारे बहुत सारी रिसर्च कर ली है। कोई भी ईरान से रिसर्च के ज़रिए अर्जित ज्ञान को नहीं छीन सकता।’
यही पश्चिमी देशों की चिंता का सबब है।
इसराइली इंस्टीट्यूट फॉर नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज़ और तेल अवीव विश्वविद्यालय के वरिष्ठ शोधकर्ता डॉ। रज़ जि़म्म्ट कहते हैं, ‘ये स्पष्ट है कि ट्रंप ईरान पर अपनी दबाव डालने वाली रणनीति को फिर से लागू करने की कोशिश करेंगे।’
‘लेकिन मुझे लगता है कि वह ईरान को अपनी परमाणु क्षमताओं को सीमित करने के लिए मनाने की कोशिश भी कर सकते हैं। इसके लिए ट्रंप नए सिरे से बातचीत भी शुरू कर सकते हैं।’
डॉ जिम्म्ट के मुताबिक ये देखना होगा कि डोनाल्ड ट्रम्प क्या करते हैं और ईरान उसकी प्रतिक्रिया में क्या करता है। लेकिन इस बात की संभावना नहीं है कि ईरान सैन्य टकराव की राह चुनेगा।
तेहरान विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर नासिर हादियान कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि डोनाल्ड ट्रंप ईरान के साथ बातचीत के बाद और एक समझौता करने की कोशिश करेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ट्रंप अपने ‘अधिकतक दबाव’ वाली रणनीति पर लौटेंगे।’
नासिर हादियान का मानना है कि ‘संघर्ष की तुलना में समझौते की अधिक संभावना’ है।
उनका कहना है, ‘अगर ट्रंप ‘अधिकतम दबाव’ का रास्ता चुनते हैं तो गड़बड़ हो सकती है। नतीजतन जंग भी हो सकती है और ज़ाहिर ये कोई भी पक्ष नहीं चाहेगा।’
व्यापक गुस्सा
ईरान को कई घरेलू चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है। इसकी वजह ये है कि ईरान के सर्वोच्च नेता उत्तराधिकारी की तलाश कर रहा है।
डॉ. वकील के अनुसार, ‘ख़ामेनेई सोते वक्त अपनी विरासत के बारे में चिंता करते हैं। खामेनेई चाहेंगे कि वो ईरान को एक मज़बूत स्थिति में छोडक़र जाएं।’
हिजाब ठीक से न पहनने के आरोप में साल 2022 में महसा जीना अमिनी की मौत के बाद ईरान भर में विरोध प्रदर्शन हुए थे।
अब भी ईरान की हुकुमत के खिलाफ रोष है। लोगों का कहना है कि देश में बेरोजग़ारी और महंगाई है लेकिन देश के संसाधनों को विदेशों में जंग के लिए झोंका जा रहा है।
ईरान की युवा पीढ़ी, 1979 की इस्लामी क्रांति से तेजी से अलग होती जा रही है। कई लोग सरकार के लगाए हुए सामाजिक प्रतिबंधों से चिढ़ते हैं। हर दिन, महिलाएं शासन की अवहेलना करती हैं, अपने बालों को ढके बिना बाहर निकलने पर गिरफ्तारी का जोखिम तक उठाती हैं।
इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सीरिया की तरह ईरान के शासन का भी पतन होगा।
जेफरी कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता कि सीरिया के पतन पर ईरानी लोग सडक़ों पर आएंगे। ’
होराक का मानना है कि ईरान जैसे-जैसे आंतरिक सुरक्षा बढ़ाने की कोशिश करेगा, असहमति के प्रति उसकी सहनशीलता और भी कम हो जाएगी। वहां हिजाब न पहनने वाली महिलाओं को सजा देने वाला एक कानून जल्द ही लागू होने वाला है। लेकिन होराक नहीं मानते कि ईरान की सरकार को फि़लहाल कोई ख़तरा है।
वह कहते हैं, ‘लाखों ईरानी इस हुकुमत का समर्थन नहीं करते, लेकिन लाखों लोग ऐसे भी हैं जो अब भी इसका पूरा समर्थन करते हैं। मुझे नहीं लगता कि निकट भविष्य में इसके गिरने का कोई खतरा है।’
लेकिन घरेलू स्तर पर लोगों का गुस्सा और सीरिया में मिली मात ने ईरान के शासकों का काम थोड़ा मुश्किल तो बना दिया है। (bbc.com/hindi)
जॉर्ज सोरोस भारत में एक चर्चित "कीवर्ड" बने हुए हैं. भारतीय राजनीति की शब्दावली में दाखिल होने से पहले भी वह कई राजनेताओं के निशाने पर रहे हैं. एर्दोआन और ट्रंप इस सूची में हैं. हालांकि, सबसे बड़ा नाम है: विक्टर ओरबान.
डॉयचे वैले पर स्वाति मिश्रा का लिखा
दुनिया के कई देशों के बाद अब भारतीय राजनीति में भी अरबपति जॉर्ज सोरोस का दाखिला हो चुका है। हाल ही में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने विपक्षी दल कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को ‘देशद्रोही’ करार देते हुए आरोप लगाया कि कांग्रेस, भारत को अस्थिर करने के सोरोस के कथित एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। बीजेपी का यह भी आरोप है कि कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी का एक ऐसे भारत विरोधी फाउंडेशन से नाता है, जिसे सोरोस फाउंडेशन से फंडिंग मिलती है।
जवाब में कांग्रेस ने भी आरोप लगाया कि ‘अदाणी को बचाने के लिए बीजेपी और मोदी सरकार, जॉर्ज सोरोस के नाम पर स्वांग रच रही है।’ मोदी सरकार पर ‘जॉर्ज सोरोस को पैसे देने’ का आरोप लगाते हुए कांग्रेस ने पूछा है कि अगर ‘सोरोस नाम का आदमी भारत-विरोधी गतिविधियां कर रहा है, तो आप उसका धंधा-पानी भारत में बंद क्यों नहीं करवाते? सरकार सोरोस के सारे बिजनेस और फंडिंग पर रोक क्यों नहीं लगाती?’
कौन हैं जॉर्ज सोरोस?
93 वर्षीय सोरोस का जन्म हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में रहने वाले एक यहूदी परिवार में हुआ था। यह नाजी दौर था और हंगरी भी नाजियों के कब्जे में था। ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ के मुताबिक, पहले इस परिवार का सरनेम श्वात्र्स था। लेकिन बुडापेस्ट में गहराती यहूदी-विरोधी भावना को देखते हुए जॉर्ज के पिता इवादार ने सरनेम बदलकर सोरोस कर लिया।
‘श्वात्र्स’ की तुलना में ‘सोरोस’ उपनाम से परिवार की यहूदी पहचान जाहिर नहीं होती थी। इवादार ने अपने परिवार को ईसाई बताकर फर्जी पहचान पत्र हासिल किए। इस तरह इवादार का परिवार होलोकॉस्ट से बचने में कामयाब रहा। साल 1947 में जॉर्ज 17 साल के थे, जब वह इंग्लैंड आ गए। यहां उन्होंने कई छोटे-मोटे काम किए और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई की।
साल 1956 में सोरोस अमेरिकाचले गए। यहां उन्होंने वित्तीय बाजार में अपना नाम स्थापित किया, खूब कमाई की। वह हेज फंड के बड़े कारोबारी बन कर उभरे। हेज फंड, निजी निवेशकों के बीच एक सीमित साझेदारी है। इसमें कई लोगों या समूहों से फंड लेकर पेशेवर फंड मैनेजर उसका प्रबंधन करते हैं। वह अमेरिका में सबसे कामयाब निवेशकों में गिने जाते हैं।
क्या है ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशंस’
‘न्यूयॉर्क’ मैगजीन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सन 1985 के आसपास सोरोस ने परोपकारी कामों में पैसा देना शुरू किया। उन्होंने बुडापेस्ट में एक फाउंडेशन शुरू किया, जिसका मकसद था ‘एक उदार और खुले समाज’ से जुड़े लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना। इस फाउंडेशन ने तत्कालीन कम्युनिस्ट सत्ता के दौरान हंगरी में आलोचनाओं और असहमतियों के स्वरों को समर्थन दिया।
यही संस्था आगे चलकर ‘ओपन सोसायटी फाउंडेशंस’ (ओएसएफ) का आधार बनी। शुरुआती दौर में इसका कार्यक्षेत्र विशेष रूप से पूर्वी यूरोप और रूस था, जो कि तब सोवियत ब्लॉक का हिस्सा थे। ओएसएफ के अनुसार, इस दौर में फाउंडेशन जानकारी को पारदर्शी बनाने और लोगों तक पहुंचाने का काम कर रहा था।
आने वाले दशकों में ओएसएफ का काफी विस्तार हुआ। ओएसएफ के अनुसार, आज वह दुनिया में ऐसे स्वतंत्र समूहों का सबसे बड़ा प्राइवेट फंडर है जो न्याय, लोकतांत्रिक शासन और मानवाधिकारों के लिए काम करते हैं। ‘ह्यूमन राइट्स फंडर्स नेटवर्क’ के मुताबिक, साल 2020 में ओएसएफफ मानवाधिकार से जुड़े संगठनों और लोगों को आर्थिक मदद देने वाला दुनिया का सबसे बड़ा फंडर था।
हालांकि, समाचार एजेंसी एपी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 से इस फाउंडेशन ने अपने कई कार्यक्रम बंद कर दिए और कर्मचारियों की संख्या भी घटाई। इसके कारण मानवाधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे कई समूहों को आशंका थी कि उनकी फंडिंग प्रभावित हो सकती है। फाउंडेशन ने अपने ताजा बयान में आश्वासन दिया है कि वह दुनियाभर में मानवाधिकार अभियानों को फंड देना जारी रखेगा।
पहले भी कई राजनेताओं ने सोरोस पर आरोप लगाए हैं
भारत में दलगत राजनीति और आरोपों-प्रत्यारोपों से इतर देखें, तो सोरोस पर पहले भी कई राजनेताओं और राष्ट्राध्यक्षों ने गंभीर आरोप लगाए हैं। इनमें एक प्रमुख नाम है, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान का। हंगरी, सोरोस की पैदाइश का देश है। ओरबान, जो कि दक्षिणपंथी विचारधारा की राजनीति करते हैं, सोरोस के खिलाफ बड़ी मुहिम चलाते रहे हैं। बकौल ओरबान, सोरोस उस अंतरराष्ट्रीय साजिश के केंद्र में हैं, जिसका मकसद माइग्रेशन के माध्यम से हंगरी को तबाह करना है।
सिर्फ हंगरी ही नहीं, अमेरिकी समाचार वेबसाइट ‘बिजनेस इनसाइडर’ के शब्दों में कहें, तो ‘जॉर्ज सोरोस, दक्षिणपंथ के पसंदीदा टारगेटों में से एक हैं।’ वेबसाइट ने अपनी एक खबर में 21 जनवरी 2017 को अमेरिका में हुई एक रैली का जिक्र किया। ट्रंप के पहले कार्यकाल में उनके पदभार संभालने के एक दिन बाद वॉशिंगटन में महिलाओं ने एक विशाल मार्च निकाला। प्रदर्शनकारी महिला अधिकारों पर ट्रंप के नजरिये का विरोध कर रहे थे।
न्यूयॉर्क टाईम्स के मुताबिक, इस रैली में कम-से-कम 4,70,000 लोग शामिल हुए थे। बिजनेस इनसाइडर के मुताबिक, इस रैली के कई आलोचकों का मानना था कि इन सबके पीछे एक शख्स का ‘अदृश्य हाथ है, जो ना केवल लिबरल (विचारधारा) प्रोटेस्टों की फंडिंग कर रहा है, बल्कि दुनिया की संपत्ति पर भी उसका नियंत्रण है और वह एक खास वैश्विक व्यवस्था को आगे बढ़ा रहा है’
अमेरिका में अश्वेतों के अधिकार से जुड़े ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ मुहिम में भी सोरोस का हाथ होने के आरोप लगे। खुद ट्रंप ने सोरोस के खिलाफ बयान दिए। साल 2018 में अपने विरुद्ध हुए एक प्रदर्शन की आलोचना करते हुए ट्रंप ने आरोप लगाया कि प्रदर्शनों में इस्तेमाल हुए पोस्टरों का पैसा सोरोस ने दिया है। साल 2020 में ‘फॉक्स न्यूज’ को दिए एक इंटरव्यू में ट्रंप ने आरोप लगाया कि अमेरिका में हो रहे एंटीफा
(फासिस्ट और नस्लवाद विरोधी अभियान) प्रदर्शनों को जिनसे कथित फंडिंग मिल रही है, उनमें सोरोस भी हैं। बकौल ट्रंप, प्रदर्शनकारियों के कुछ पोस्टरों को देखकर साफ था कि उन्हें ‘हाई क्लास प्रिंटिंग शॉप’ में बनाया गया था।
2017 में यूरोपीय देश रोमानिया में बड़े स्तर पर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए। प्रदर्शनकारियों का आरोप था कि सरकार भ्रष्टाचार विरोधी कानूनों को कमजोर करने की कोशिश कर रही है। इन प्रदर्शनों के पीछे भी सोरोस का हाथ होने के आरोप लगे। कहा गया कि वो प्रदर्शनकारियों को पैसे दे रहे हैं।
साल 2013 में तुर्की में बड़े स्तर पर नागरिक प्रदर्शन हुए। इन्हें ‘गेजी पार्क प्रोटेस्ट’ कहा गया। यहां भी सोरोस का नाम आया। तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोआन ने देश के मानवाधिकार कार्यकर्ता और कारोबारी ओस्मान कवाला को ‘सरकार का दुश्मन’ करार देते हुए आरोप लगाया कि कवाला को सोरोस से मदद मिली। कवाला 2017 से तुर्की की जेल में बंद हैं। एर्दोआन ने दावा किया कि सोरोस देशों को बांटने और बर्बाद करने की कोशिश कर रहे हैं। साल 2018 में सोरोस के 'ओपन सोसायटी फाउंडेशन' ने एर्दोआन के आरोपों को निराधार बताते हुए तुर्की में अपना कामकाज बंद करने की घोषणा की।
हंगरी का उदाहरण, ओरबान के बयान
भारत में सोरोस के एक राजनीतिक संदर्भ बनने से काफी पहले यह नाम यूरोप में चर्चित रहा है। हंगरी के प्रधानमंत्री ओरबान संभवत: सोरोस पर सबसे हमलावर रहे हैं। वह सोरोस को डीप-स्टेट एक्टर बताते हुए ‘अंकल सोरोस’ और ‘सोरोस नेटवर्क’ जैसे कई संबोधन देते आए हैं।
ओरबान, सोरोस को ‘संसार का सबसे भ्रष्ट आदमी‘ बता चुके हैं। वह प्रवासियों और शरणार्थियों समेत हंगरी के कई मसलों के पीछे सोरोस की भूमिका बताते हैं। कई आलोचकों का कहना है कि ओरबान चुनावी फायदों के लिए सोरोस का डर पैदा करते हैं।
मसलन, साल 2017 में ओरबान सरकार ने एक मीडिया अभियान चलाया। इसमें हंगरी के लोगों से कहा गया कि उन्हें सोरोस को जीतने नहीं देना चाहिए। खबरों के मुताबिक, सरकारी खर्च पर राजधानी बुडापेस्ट समेत कई शहरों में बिलबोर्ड लगाए गए, जिनमें सोरोस को ‘पपेट मास्टर’ यानी, परदे के पीछे रहकर कठपुतली नचाने वाला बताया गया।
ओरबान की इस राजनीतिक शैली के ही संदर्भ में ‘बजफीड न्यूज’ ने साल 2019 में अपने एक विस्तृत लेख में लिखा, ‘सोरोस का शैतानीकरण, समानांतर वैश्विक राजनीति के सबसे प्रमुख लक्षणों में से एक है। और यह, कुछ अपवादों को छोडक़र, झूठ का पुलिंदा है।’
कैरोलीन डी ग्रॉयटर, डच अखबार ‘एनआरसी हांडेल्सब्लाट’ में यूरोप की संवाददाता हैं। इस साल यूरोपीय संसद के चुनाव से पहले ग्रॉयटर ने ‘फॉरेन पॉलिसी’ के लिए लिखे एक लेख में लिखा, ‘यह पहली बार नहीं है जब ओरबान ने एक चुनावी अभियान में सोरोस को एक पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल किया हो। वह पहले भी हंगरी में चुनाव जीतने के लिए ऐसा कर चुके हैं।’ ग्रॉयटर लिखती हैं कि कैसे ओरबान ने ‘सोरोस मॉनस्टर’ का इस्तेमाल करते हुए दो बार हंगरी में चुनाव जीते और फिर 2019 में यूरोपीय चुनाव जीतने के लिए भी यही रणनीति इस्तेमाल की।
दिलचस्प यह है कि 1980 और 1990 के दशक में ओरबान खुद भी सोरोस से फंड पा चुके हैं। नवंबर 2019 में ‘गार्डियन’ को दिए एक इंटरव्यू में सोरोस ने इस संदर्भ में कहा था, ‘मैंने ओरबान को मदद इसलिए दी, क्योंकि उस समय वह ओपन सोसायटी के बहुत सक्रिय समर्थकों में थे। लेकिन वह (आगे चलकर) एक शोषक बन गए और माफिया स्टेट के रचनाकार भी।’
क्या लिबरल का उलट है ‘इलिबरल गवर्नेंस’?
इस समूचे मामले में राजनीतिक शैली एक अहम पक्ष है। सोरोस जहां लिबरल डेमोक्रैसी को समर्थन देने की बात करते हैं, वहीं ओरबान सरकार के ऐसे स्वरूप और स्वभाव की पैरोकारी करते हैं जो उन्हीं के शब्दों में ‘इलिबरल’ है। ओरबान के कार्यकाल से आंकें, तो यह शैली प्रेस की आजादी को दबाने, स्वतंत्र शैक्षणिक विमर्श को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने और यहां तक कि न्यायपालिका की भूमिका की भी कांट-छांट में भरोसा रखती नजर आती है।
यह राजनीतिक शैली यह भी मानती है कि दरअसल उदारवाद की खामियां व दोहरापन ही लोगों में असहिष्णुता बढ़ा रही है। अनुदारवादी राजनीति एलजीबीटीक्यू लोगों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील नहीं है, आप्रवासियों को देश की संस्कृति और स्थानीय लोगों के रोजगार के लिए खतरा मानती है और महिलाओं को बहुत हद तक पारपंरिक भूमिकाओं में सीमित करना चाहती है।
अनुदारवादी लोकतंत्र के नाम पर ओरबान चाहते हैं कि मीडिया सरकार की बातों को प्रसारित करने का मंच बने। जब वह यह कहते हैं कि लाखों की संख्या में शरणार्थियों को यूरोप भेजने की एक तथाकथित साजिश ‘सोरोस प्लान’ का मकसद यूरोप को तबाह करना है, तो वह चाहते हैं कि मीडिया इस दावे की पड़ताल करने की जगह तर्क देकर आरोपों की पुष्टि करे।
‘सिविल लिबर्टीज यूनियन फॉर यूरोप’ यूरोपीय संघ में मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में काम कर रहा एक संगठन है। इसके मुताबिक, ‘लिबरल डेमोक्रैसी’ के मूलभूत तत्व हैं, सभी नागरिकों को चुनाव में भाग लेने का अधिकार ताकि वे देश की निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनें। स्वतंत्र, निष्पक्ष और नियमित चुनाव। अभिव्यक्ति व सभा की आजादी। निर्वाचित जनप्रतिनिधि। मीडिया व सूचना की स्वतंत्रता।
अगर इलिबरल गवर्नेंस, लिबरल के उलट होने की बात करता है तो स्वाभाविक ही वो उपरोक्त तत्वों का भी विरोधी है। ‘सिविल लिबर्टीज यूनियन फॉर यूरोप’ के मुताबिक, एक बार अगर ‘इलिबरल’ राजनेता चुनकर आ जाए तो वह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुख्य स्तंभों को हिलाने के लिए कई रणनीतियों का इस्तेमाल कर सकता है। मसलन, ध्रुवीकरण। स्वतंत्र मीडिया पर हमला करना। न्यायपालिका पर नियंत्रण स्थापित करना। राजनीतिक विरोध और विपक्ष को दबाना। नागरिक समाज को ‘बलि का बकरा’ बनाना और निजता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे नागरिक अधिकारों को सीमित करने की कोशिश करना।
ओरबान ने सत्ता में आने पर खुद ही कहा था कि उनकी सरकार हंगरी में एक इलिबरल स्टेट बना रही है। इसके लिए वे सरकार पर निगरानी करने वाली संस्थाओं पर लगातार नियंत्रण बढ़ाते रहे हैं। ‘सिविल लिबर्टीज यूनियन फॉर यूरोप’ के अनुसार, धुर-दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा वाले ओरबान की फिडेश पार्टी ने हंगरी में ‘अनुदार लोकतंत्र का एक आदर्श रूप बनाया है, जिसने दुनियाभर में ऐसे राजनीतिक नकलचियों के लिए रास्ता तैयार किया है।’ (डॉयचेवैले)
-डॉ.रमन सिंह
01 नवम्बर 2000 का दिन जब केवल भारत के मानचित्र पर कुछ नई रेखाएं नहीं खिंची गई बल्कि डॉ. खूबचंद बघेल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, श्री हरि ठाकुर, श्री केयूर भूषण, श्री केशव सिहं ठाकुर और श्री चंदूलाल चंद्राकर जैसे महापुरुषों के दशकों के प्रयासका प्रतिफल रहा कि पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की मांग के लिए मध्यप्रदेश विधान सभा में सर्वप्रथम श्री महेश तिवारी (सदस्य, जनता पार्टी) द्वारा 28 जून सन् 1991 को मध्यप्रदेश राज्य को तीन पृथक प्रदेशों में विभाजित कर छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना हेतु केन्द्र से अनुरोध किये जाने हेतु प्रस्तुत अशासकीय संकल्प अस्वीकृत हो गया। इसके बाद इसके बाद श्री गोपाल परमार ने 18 मार्च 1994 को एक अशासकीय संकल्प प्रस्तुत किया- सदन का यह मत है कि मध्यप्रदेश के विस्तृत क्षेत्र, भाषा, सांस्कृतिक परंपराएँ, कानून व्यवस्था तथा जनता की सुविधा को दृष्टिगत रखते हुए छत्तीसगढ़ क्षेत्र को अलग कर पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनाये जाने की शासन आवश्यक पहल करें। इस पर तीन घंटे की चर्चा उपरांत संकल्प सर्वानुमति से स्वीकृत हुआ। फिर 15 अप्रैल 1998 को मध्यप्रदेश शासन के सामान्य प्रशासन मंत्री श्री राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला ने मध्यप्रदेश विधान सभा में 15 अप्रैल 1998 को छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के निर्णय पर भारत सरकार के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित किये जाने का शासकीय संकल्प प्रस्तुत किया जो पारित हुई।
मुझे आज भी श्रद्धेय श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी का सप्रेशाला मैदान, रायपुर की सभा में वो उद्बोधन याद है, जहाँ उन्होंने जनता से वादा करते हुए कहा था कि ‘आप मुझे 11 सांसद दो और मैं आपको छत्तीसगढ़ दूंगा।’ वर्ष 1998 में बारहवीं लोकसभा चुनाव में भाजपा के घोषणा पत्र में भी पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के प्रति संकल्प लिया गया था और इसी तारतम्य में ‘मध्यप्रदेश पुनर्गठन विधेयक’ लोकसभा में 31 जुलाई 2000 तथा राज्यसभा में भी 09 अगस्त 2000 को पारित हुआ। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर उपरांत 01 नवम्बर 2000 को मध्यप्रदेश से पृथक होकर देश के 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ को एक नई पहचान और छत्तीसगढ़वासियों को आकांक्षाओं को सम्मान मिला।
आजादी के पूर्व से छत्तीसगढ़ प्रान्त के संसदीय ज्ञान और लोकप्रिय नेताओं का सदन में रहा है प्रतिनिधित्व।
छत्तीसगढ़ को भले ही भारत के नक्शे में पहचान सन 2000 में मिली लेकिन छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व आजादी के पूर्व से सीपी एंड बरार में दिखाई देता रहा, जब पहली बार 31 अप्रैल 1937 को दुर्ग के संजारी बालोद से चुनाव जीतकर घनश्याम सिंह गुप्त जी सेंट्रल प्रोविंसेस एंड बरार के अंतर्गत विधानसभा अध्यक्ष चुने गए। श्री गुप्त जी लगातार 3 बार (1937-1952) 15 वर्षों तक विधानसभा अध्यक्ष पद को सुशोभित करते रहे।
इसके साथ ही जब 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार विधानसभा की भाषा आवश्यक रूप से अंग्रेजी थी तब श्री गुप्त जी ने 1937 में विधानसभा की भाषा हिंदी और मराठी कर दी, अपनी मातृभाषा के प्रति तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्री घनश्याम सिंह गुप्त जी का समर्पण और राष्ट्र के प्रति प्रेम ही था, जिसकी वजह से वह न केवल संविधान सभा के सदस्य बने बल्कि विधानसभा के द्वारा उन्हें संविधान के हिंदी ड्राफ्ट कमेटी का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी की इच्छा के अनुरु उन्होंने 2 वर्ष 6 माह के अंतर्गत भारतीय संविधान का हिंदी ड्राफ्ट प्रस्तुत किया।
सेंट्रल प्रोविंसेस एंड बरार के सदन में छत्तीसगढ़ प्रान्त के दिग्गज नेताओं की प्रमुख भूमिका थी। यह अद्भुत संयोग था कि छत्तीसगढ़ अंचल के श्री रविशंकर सदन के नेता (मुख्यमंत्री) के रूप में थे, छत्तीसगढ़ अंचल के ठाकुर प्यारेलाल सिंह मध्यप्रदेश विधान सभा के नेता-प्रतिपक्ष और उसी समय श्री घनश्याम सिंह गुप्त जी विधानसभा अध्यक्ष की आसंदी पर थे। मध्यप्रदेश विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष के रूप में इसी अंचल के दुर्ग से श्री विश्वनाथ यादव राव तामस्कर, श्री श्यामाचरण शुक्ल भी रहे। इनके अलावा छत्तीसगढ़ अंचल के श्री मोतीलाल वोरा दो बार मध्यप्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री हुए। वर्ष 1985-90 में छत्तीसगढ़ के स्व. श्री राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल मध्यप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे।
लेकिन यहां एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर क्यों एक पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की आवश्यकता पड़ी?जब छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व इतना मजबूत था और छत्तीसगढ़ के नेताओं का इतना प्रभाव था तब क्यों इस प्रदेश के लोगों के मन में एक पृथक राज्य की भावना थी। इसके लिए जब हम इतिहास के पन्ने पलट कर देखते हैं तब संयुक्त मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ का क्षेत्र खनिज और अन्य संपदाओं से भरपूर होने के उपरांत भी वंचित और उपेक्षित नजर आता है, क्योंकि भोपाल स्थित विधानसभा तक हमारे क्षेत्र की आवाज को पहुंचाना और जनकल्याणकारी योजनाओं से इस अंचल को जोडऩा बहुत कठिन था। यह एक ऐसा दौर था जब हम अगर कवर्धा के लिए मध्यप्रदेश विधानसभा से 5 लाख रुपए की सडक़ भी स्वीकृत करवा लाते थे तब वह एक बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी। ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ सिर्फ एक नए राज्य का निर्माण नहीं था बल्कि सुकमा से सरगुजा तक निवासरत इस पूरे क्षेत्र के लोगों को नई आवास देने और उनके अधिकारों को प्राथमिकता के साथ उठाने के लिए एक पृथक पटल भी उपलब्ध किया गया।
14 दिसम्बर सन 2000 को नए छत्तीसगढ़ में जन-जन की आवाज को एक मंच प्रदान करने के लिए छत्तीसगढ़ विधानसभा की स्थापना हुई, छत्तीसगढ़ गठन के समय विधानसभा के समक्ष कई गंभीर चुनौतियां थी। उपयुक्त भवन, संसाधनों की कमी एवं संसदीय विद्या के पारंगत अनुभवियों की कमी के बावजूद छत्तीसगढ़ विधानसभा का प्रथम चार दिवसीय ऐतिहासिक सत्र 14 दिसम्बर से 19 दिसम्बर 2000 तक रायपुर स्थित राजकुमार कालेज के जशपुर हॉल में अस्थायी तौर पर निर्मित सभा भवन में संपन्न हुआ। इसके पश्चात् छत्तीसग? विधानसभा को रायपुर बलौदाबाजार मार्ग पर बरोंदा गांव स्थित भारत-सरकार के जल-ग्रहण मिशन संस्थान के लिए बने नवनिर्मित भवन में स्थानांतरित किया गया और जहाँ आज दिनांक तक संचालित है।
जब छत्तीसगढ़ को अपना पृथक राज्य और पृथक विधानसभा मिली तब अन्त्योदय की विचारधारा के अनुरूप छत्तीसगढ़ के कल्याण और प्रदेशवासियों के उत्थान के लिए हमारी विधानसभा ने ऐतिहासिक निर्णय लिए। राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ की छवि एक पिछड़े और वंचित प्रदेश की थी। भूख से लोगों की मौत हो जाना और सीमित अवसरों की वजह से लोगों के छत्तीसगढ़ से बाहर कूच करने ने प्रदेश की छवि एक पलायन करने वाले राज्य की बना दी थी। जिसे परिवर्तित करने में हमारी विधानसभा ने ऐसे कानून बनाये जो इतिहास के सदैव के लिए अंकित हो गए। जब हमारी विधानसभा ने खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत 1 रूपये किलो चावल की योजना को 21 दिसम्बर 2012 सदन में पारित किया तब ‘भोजन का अधिकार’ देने वाला छत्तीसगढ़ देश का पहला राज्य बना। हमारी इस व्यवस्था को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पूरे देश के लिए आदर्श बताया और पीडीएस की सराहना की। इसके साथ ही युवाओं को ‘कौशल उन्नयन का कानूनी अधिकार’ देश में सबसे पहले 21 जुलाई 2013 को हमारी ही विधानसभा में पारित हुआ।
हमारी विधानसभा ने लोककल्याण के साथ ही सांस्कृतिक उत्थान पर भी पूरा जोर दिया और 3 अगस्त 2010 को छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का विधेयक पारित कर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया। हमारी विधायिका की अद्भुत शक्ति है जो न केवल प्रदेशवासियों के विकास को सुनिश्चित करती है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को भी संरक्षित रखकर एक बेहतर संवैधानिक व्यवस्था को स्थापित करती है। हमारी विधानसभा में बजट प्रस्तुत करने की एक बहुत ही सुंदर प्रक्रिया है। कोरोना काल को अपवाद के रूप में छोड़ दें तो हमारे सदन में बजट कभी गिलोटीन (त्रढ्ढरुरुह्रञ्जढ्ढहृश्व) से पारित नहीं हुआ है। हमेशा ही छत्तीसगढ़ विधानसभा ने सभी विभागों के प्रमुख विषयों पर चर्चा करने के बाद बजट को पटल पर रखा जाता है और उसके बाद ही बजट पारित होता है।
छत्तीसगढ़ विधानसभा की एक विशेष प्रक्रिया है, हमारी विधानसभा में यदि कोई सदस्य सत्र के दौरान अपनी कुर्सी से उठकर वेल (गर्भगृह) में प्रवेश करता है तो वह स्वत:ही निलंबित हो जाता है और उसे सदन से बाहर जाना पड़ता है। यह हमारे लोकतंत्र में छत्तीसगढ़ विधानसभा की एक पवित्र प्रक्रिया है जिसका पालन सभी दल करते हैं। यह हमारी विधायिका की ही शक्ति है जो पक्ष और विपक्ष को एक मंच पर लाकर संवाद के दरवाजे खोल देती है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण 26 जुलाई 2007 की वो बैठक है, जिसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहली बार विधानसभा के अंदर पक्ष और विपक्ष के बीच 8 घंटे 40 मिनट तक ‘‘ष्टद्यशह्यद्गस्र ष्ठशशह्म् रूद्गद्गह्लद्बठ्ठद्द’’ हुई। जहां दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सभी ने मिलकर नक्सल जैसी गंभीर समस्या पर खुलकर अपनी बात रखी। संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित रखकर ऐसे अनेकों कीर्तिमान रचते हुए हमारी विधानसभा ने 24 वर्षों की यात्रा पूरी की है।
एक लंबी यात्रा के बाद आज जब हम छत्तीसगढ़ की छठवीं विधानसभा को देखते हैं, तब यह विधानसभा अपने युवावस्था के 25वें वर्ष में प्रवेश कर रही है, आज जब हमारी विधानसभा में एक नई ऊर्जा और नव जनप्रतिनिधियों की प्रबल आवाज है, इस परिपत्र होती हमारी विधानसभा में महिला प्रतिनिधित्व की मामले में भी एक कीर्तिमान स्थापित किया है। कुल 90 सदस्यीय सदन में अब तक सर्वाधिक 19 महिलायें निर्वाचित हो कर आई है जो कुल सदस्यों की 20 प्रतिशत है। 50 नए विधायकों में एक नया जज़्बा है और लगभग 14 प्रतिशत विधायक हमारे सदन में ऐसे हैं, जिनकी आयु 40 वर्ष से कम है, यानी कुल 13 युवा विधायक हमारी विधानसभा के सदस्य हैं।
छत्तीसगढ़ विधान सभा के प्रत्येक विधान सभा के प्रारंभ में नव-निवार्चित सदस्यों को संसदीय कार्य-प्रणाली, प्रक्रिया एवं परम्पराओं से अवगत कराने की दृष्टि से प्रबोधन कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है, जिसमे प्रबोधन के लिए छत्तीसगढ़ और विभिन्न राज्यों के विधान सभा के अध्यक्षों, भूतपूर्व मंत्रियों तथा वरिष्ठ सदस्यों को आमंत्रित किया जाता है। इसी तारतम्य में छत्तीसगढ़ के छठवें विधानसभा में जनवरी 2024 में प्रबोधन के लिए विशेष रूप से लोकसभा के स्पीकर माननीय ओम बिरलाजी, भारत के उपराष्ट्रपति माननीय श्री जगदीप धनखड़ और केंद्र सरकार के गृह मंत्री माननीय श्री अमित शाह, तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ मंत्री माननीय श्री मनसुख एल. मंडाविया, श्री सतीश महानाजी माननीय अध्यक्ष उत्तर प्रदेश विधान सभा को भी आमंत्रित किया गया।
हमारी छत्तीसगढ़ विधानसभा ऐसी अनेकों ऐतिहासिक अवसरों की साक्षी बनी है, जिसने प्रदेश का गौरव बढ़ाया है, द्वितीय विधान सभा की अवधि में 28 जनवरी, 2004 को भारत के राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने छत्तीसगढ़ विधानसभा में सदस्यों को संबोधित किया जो भारत वर्ष के किसी भी राज्य की विधान सभा में राष्ट्रपति के संबोधन का यह पहला कार्यक्रम था। इसके बाद राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने भी जून 2011 में विधानसभा को संबोधित किया।
आज जब हम अपनी विधानसभा के रजत जयंती वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, तब छत्तीसगढ़ के साथ-साथ हमारे विधानसभा की अपनी युवावस्था में पहुंच चुकी है। इस युवावस्था में जब एक नौजवान सशक्त और आत्मनिर्भर होकर मजबूती के साथ आगे बढ़ता है, इसी तरह हमारी विधानसभा भी आत्मनिर्भर होकर एक नए मार्ग पर आगे बढ़ रही है। राजधानी के नवा रायपुर के सेक्टर 19 में महानदी (मंत्रालय) और इन्द्रावती (विभागाध्यक्ष) भवन के पीछे मध्य में नया विधानसभा भवन को 2025 तक पूर्णरूप से तैयार करने का लक्ष्य लेकर हम आगे बढ़ रहे हैं। अभी तक जहाँ हमारी विधानसभा भारत-सरकार के जल-ग्रहण मिशन संस्थान के लिए बने भवन में संचालित थी, वहीं इस नई विधानसभा में हम सशक्तिकरण की नई गाथा लिखने जा रहे हैं।
इस विधानसभा भवन में छत्तीसगढ़ की आत्मनिर्भरता की भावना के साथ ही अत्याधुनिक सुविधाएँ, नई तकनीक और डिजीटलीकरण का विजन भी समाहित है। इसके सदन में 200 सदस्यों की बैठक क्षमता एवं नए विधानसभा भवन में विधानसभा सचिवालय, विधानसभा का सदन, सेंट्रल-हॉल, विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री तथा मंत्रियों के कार्यालय होंगे। यहां 500 दर्शक क्षमता का ऑडिटोरियम भी बनाया जाएगा। नवीन विधानसभा भवन प्रकृति के प्रति भी संवेदनशील है, जिसमें सौर ऊर्जा से संचालन के साथ ही पूरे भवन परिसर में अधिकाधिक वृक्षारोपण, रेन वाटर हार्वेस्टिंग व टेक्नोलॉजी का समावेश और समुचित उपयोग सुनिश्चित करते हुए भवन विकसित किया जा रहा है। इस नए विजन के साथ जब हम एक नई शुरुआत कर रहे हैं तब समस्त प्रदेशवासियों को विधानसभा के 24वें स्थापना दिवस पर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं। हम सभी मिलकर आने वाले समय में अपने छत्तीसगढ़ को संवैधानिक रूप से और अधिक मजबूत बनाएंगे एवं लोकतंत्र को सशक्त करते हुए विधानसभा की गरिमा को आगे अक्षुण्ण बनाए रखेंगे।
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ उपासना स्थल कानून (प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट) की संवैधानिकता से जुड़ी याचिकाओं की सुनवाई करेगी। कोर्ट के समक्ष कम से कम 6 याचिकाएं लंबित हैं।
इन मामलों में अब तक बहस शुरू नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में सरकार को नोटिस जारी किया था।
भारतीय जनता पार्टी के सदस्य और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने 2020 में एक याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि यह कानून संविधान के धर्मनिरपेक्षता और बराबरी जैसे मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। उनके अनुसार, इस कानून से हिंदुओं को अधिक नुकसान पहुंचता है।
इस याचिका का विरोध करते हुए जमियत उलेमा-ए-हिंद, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कि्सस्ट) और कई एक्टिविस्ट्स ने भी अपनी याचिकाएं दाखिल की हैं।
ऐसे में इस लेख में हम उपासना स्थल क़ानून- 1991 के इतिहास, विवाद और इससे जुड़े अहम मामलों के बारे में बड़ी बातें जानेंगे।
साल 1991 का उपासना स्थल कानून क्या है?
उपासना स्थल क़ानून कहता है कि भारत में 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था, उसकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है।
इस कानून के अलग-अलग सेक्शन में ये अहम बातें शामिल हैं:
सेक्शन 3:
इस कानून के तहत, कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक स्थल या किसी समुदाय के पूजास्थल के स्वरूप को बदलने की कोशिश नहीं कर सकता।
सेक्शन 4 (1):
इसमें यह साफ लिखा गया है कि 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थल जिस स्वरूप में था, वह उसी स्वरूप में बना रहेगा।
सेक्शन 4 (2):
अगर किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव को लेकर कोई केस, अपील, या अन्य कार्रवाई 15 अगस्त 1947 के बाद किसी कोर्ट, ट्रिब्यूनल, या प्राधिकरण में लंबित है, तो वह केस रद्द कर दिया जाएगा। इसके अलावा, ऐसे किसी मामले में दोबारा केस या अपील दायर नहीं की जा सकती।
सेक्शन 5:
इस कानून में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को शामिल नहीं किया गया, क्योंकि यह मामला आजादी से पहले ही अदालत में लंबित था।
एक और अपवाद उन धार्मिक स्थलों का है, जो पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग (्रस्ढ्ढ) के अधीन आते हैं। इन स्थलों के रखरखाव और संरक्षण के काम पर कोई रोक नहीं है।
ये कानून ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा की शाही ईदगाह समेत देश के सभी धार्मिक स्थलों पर लागू होता है।
उपासना स्थल कानून किन परिस्थितियों में लाया गया था?
साल 1990 में, बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण आंदोलन के समर्थन में रथयात्रा शुरू की थी।
बिहार में उनकी गिरफ्तारी और उसी साल कार सेवकों पर गोलीबारी की घटनाओं ने पूरे देश, खासकर उत्तर प्रदेश में, साम्प्रदायिक तनाव को चरम पर पहुंचा दिया था।
इसी माहौल में, 1991 में अयोध्या आंदोलन और उससे जुड़े विवाद अपने चरम पर थे। ऐसे समय में, 18 सितंबर 1991 को, केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार ने उपासना स्थल कानून संसद से पारित कराया।
उस वक्त उमा भारती सहित बीजेपी के कई नेताओं ने इस नए कानून का जमकर विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि इस तरह का कानून बनाकर हम ऐसे दूसरे विवादित मामलों की अनदेखी नहीं कर सकते।
उपासना स्थल से जुड़े विवाद कई राज्यों में कोर्ट में हैं
मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक जैसे राज्यों के 10 से ज़्यादा धार्मिक स्थलों और स्मारकों के मामले कोर्ट में लंबित हैं। इनमें उपासना स्थल कानून 1991 की भूमिका अहम हो जाती है।
इन मामलों में मौजूदा मस्जिदों, दरगाहों और स्मारकों को लेकर दावा किया जा रहा है कि इन्हें मंदिर तोडक़र बनाया गया था और इन्हें हिंदू समुदाय को सौंपा जाना चाहिए। दूसरी ओर, मुस्लिम पक्ष का कहना है कि ऐसे मुकदमे उपासना स्थल कानून के खिलाफ हैं।
अहम मामले
ज्ञानवामी मस्जिद : वाराणसी, उत्तरप्रदेश
वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद पर 1991 से मुकदमे चल रहे हैं पर 2021 में एक नए मुकदमे के बाद मामला तेजी से आगे बढ़ रहा है। कई मायनों में सारे लंबित मंदिर-मस्जिद के मामलों में ये केस सबसे आगे बढ़ा हुआ है।
इसमें भगवान विश्वेशर के भक्तों ने 1991 में एक केस दायर किया था। फिर 2021 में पाँच महिलाओं ने एक और याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने मस्जिद में पूजा करने की अनुमति मांगी और ये भी कहा कि मस्जिद में माँ श्रृंगार गौरी, भगवान गणेश और भगवान हनुमान जैसे कई और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं जिन्हें सुरक्षित किया जाए।
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मुगल शासक औरंगजेब ने मंदिर को तोडक़र ये मस्जिद बनाई थी।
वाराणसी की जिला अदालत के फैसले के बाद फरवरी 2024 से मस्जिद के एक तहखाने में इस साल से पूजा भी शुरू हो चुकी है। 2023 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ये कहा कि ये याचिकाएं उपासना स्थल क़ानून के खिलाफ नहीं हैं। अब भी ये सारे मुकदमे अदालतों में लंबित हैं।
शाही ईदगाह मस्जिद- मथुरा, उत्तर प्रदेश
कुछ लोगों का दावा है कि मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद, भगवान कृष्ण के जन्मस्थल पर बनाई गई है। 2020 में छह भक्तों ने अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री की तरफ से एक याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने मस्जिद को हटाने की माँग की। अब इस मामले में 18 याचिकाएं हैं।
अगस्त 2024 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि ये याचिकाएँ भी उपासना स्थल कानून 1991 के खिलाफ नहीं जाती हैं।
2023 में हाई कोर्ट ने एक कोर्ट कमिश्नर को नियुक्त किया था जो मस्जिद का सर्वे कर सके पर जनवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अंतरिम रोक लगा दी थी, जो अब तक लागू है।
अजमेर शरीफ दरगाह, राजस्थान
राजस्थान के अजमेर शहर में सूफी संत ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर इस साल हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने अजमेर की स्थानीय अदालत में एक याचिका दायर की है।
उनका दावा है कि दरगाह के नीचे एक शिव मंदिर है। अपनी याचिका में विष्णु गुप्ता ने वहाँ पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से सर्वे की माँग की है और कहा है कि दरगाह की जगह पर मंदिर फिर से बनना चाहिए।
अजमेर वेस्ट के सिविल जज मनमोहन चंदेल की बेंच ने याचिका पर सुनवाई करते हुए 27 नवंबर को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, दरगाह कमिटी और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को नोटिस जारी किया है। इसकी अगली सुनवाई 20 दिसंबर को है।
जामा मस्जिद- संभल, उत्तर प्रदेश
हाल के कुछ दिनों में ये मुकदमा बहुत चर्चा में रहा है। अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने नवंबर 2024 में एक याचिका में कहा कि संभल की जामा मस्जिद श्री हरिहर मंदिर को तोडक़र बनाई गई है।
इसके बाद कोर्ट ने एक कमिश्नर नियुक्त कर सर्वे करवाया। सर्वे की रिपोर्ट निचली अदालत में जमा हो चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट में भी इसकी अपील अभी लंबित है। 29 नवंबर की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सर्वे के बाद की रिपोर्ट को सीलबंद रखा जाए और हाई कोर्ट की अनुमति के बिना इस केस में आगे कुछ नहीं किया जाए।
इन मामलों के अलावा, जुम्मा मस्जिद (मेंगलुरु, कर्नाटक), बाबा बुदनगिरी दरगाह (चिकमंगलूर, कर्नाटक), कमल मौला मस्जिद (धार, मध्य प्रदेश), टीले वाली मस्जिद (लखनऊ, उत्तर प्रदेश), शम्सी जामा मस्जिद (बदायूं, उत्तर प्रदेश), अटाला मस्जिद (जौनपुर, उत्तर प्रदेश), जामा मस्जिद और शेख़ सलीम चिश्ती की दरगाह (फतेहपुर सीकरी, उत्तर प्रदेश) जैसे मामले भी कोर्ट में हैं।
क्यों बढ़ रहे हैं ऐसे मामले?
ज्ञानवापी मामले की सुनवाई के दौरान तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने एक मौखिक टिप्पणी की थी।
इस टिप्पणी के बाद मस्जिदों के नीचे मंदिरों के अस्तित्व की जांच के लिए सर्वे कराए जाने की मांग की झड़ी सी लग गई है।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि प्लेसेस ऑफ़ वर्शिप एक्ट 1991 (उपासना स्थल कानून) 15 अगस्त 1947 की स्थिति के अनुसार, किसी भी संरचना के धार्मिक चरित्र की ‘जांच करने’ पर रोक नहीं लगाता है। तत्कालीन सीजेआई की इस मौखिक टिप्पणी को ट्रायल कोर्ट और बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कानूनी अधिकार के तौर पर लिया।
इन अदालतों ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम के तहत इस तरह के मामलों पर रोक नहीं है। इसके बाद मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले में भी सुनवाई को जारी रखने की मंजूरी मिली। (bbc.com/hindi)
औद्योगिक विकास नीति 2024-2030
-छगनलाल लोन्हारे
प्रदेश की नई औद्योगिक नीति 1 नवंबर 2024 से लागू हो गई है, जो 31 मार्च 2030 तक प्रभावशील रहेगी। राज्य के औद्योगिक विकास को गति प्रदान करने के लिए राज्य में औद्योगिक नीतियों की परिकल्पना राज्य गठन के उपरान्त लगातार की जा रही है। छत्तीसगढ़ में अब तक पांच औद्योगिक नीतियां क्रमशः - 2001, 2004-09, 2009-14, 2019-24 प्रवाशील रही एवं अब नई औद्योगिक नीति 2024 लागू की गई है। उपरोक्त औद्योगिक नीति को लागू किये जाने के साथ ही इन नीतियों में तत्कालीन आवश्यकताओं को तथा औद्योगिक विकास के निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए नीतियों में यथा आवश्यकता विभिन्न प्रकार के औद्योगिक निवेश प्रोत्साहन यथा- ब्याज अनुदान, राज्य लागत पूंजी अनुदान, (अधोसंरचना लागत पूंजी अनुदान), स्टाम्प शुल्क छूट, विद्युत शुल्क छूट, प्रवेश कर छूट, मूल्य संवर्धित कर प्रतिपूर्ति, मंडी शुल्क छूट, परियोजना लागत पूंजी अनुदान इत्यादि प्रदान की जाती रही है।
मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय का कहना है कि हमने इस नई नीति को रोजगार परक और विजन-2047 के अनुरूप विकसित भारत के निर्माण की परिकल्पना को ध्यान में रखते हुए विकसित छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण का लक्ष्य तय किया है। हमारा राज्य देश के मध्य मेें स्थित है, आने वाले वर्षो में हम अपनी भौगोलिक स्थिति आवागमन के आधुनिक साधनों और आप सबकी भागीदारी से प्रदेश को ‘‘हेल्थ हब‘‘ बनाने मे सफल होंगे। जगदलपुर के नजदीक हम लगभग 118 एकड़ भूमि पर औद्योगिक क्षेत्र का निर्माण प्रारभ करने जा रहे है।
प्रदेश के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री श्री लखन लाल देवांगन का कहना है कि निश्चित तौर पर हमारी सरकार की मंशा है कि प्रदेश में ज्यादा से ज्यादा उद्योग कैसे स्थापित हो इसे ध्यान में रखकर यह उद्योग नीति तैयार की गई है। हमने पहली बार इस नीति के माध्यम से राज्य में पर्यटन एवं स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं में निवेश को भी प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया है। हाल ही में आयोजित केबिनेट बैठक में पर्यटन को उद्योग का दर्जा दिया गया है।
इसमें छत्तीसगढ़ सरकार ने भारत सरकार के विजन 2047 की परिकल्पना को साकार करने तथा राज्य के औद्योगिक विकास को गति देने के उद्देश्य से कई प्रावधान किए हैं। राज्य के प्रशिक्षित व्यक्तियों को औपचारिक रोजगार में परिवर्तित करने के लिए उद्योगों हेतु प्रति व्यक्ति 15 हजार रूपए की प्रशिक्षण वृत्ति प्रतिपूर्ति का प्रावधान किया गया है। यह नीति 31 मार्च 2030 तक के लिए होगी। नई औद्योगिक नीति में निवेश प्रोत्साहन में ब्याज अनुदान, लागत पूंजी अनुदान, स्टाम्प शुल्क छूट, विद्युत शुल्क छूट. मूल्य संवर्धित कर प्रतिपूर्ति का प्रावधान है। नई नीति में मंडी शुल्क छूट, दिव्यांग (निःशक्त) रोजगार अनुदान, पर्यावरणीय प्रोजेक्ट अनुदान, परिवहन अनुदान, नेट राज्य वस्तु एवं सेवा कर की प्रतिपूर्ति के भी प्रावधान किये गये हैं।
इस नीति में राज्य के युवाओं के लिये रोजगार सृजन को लक्ष्य में रखकर एक हजार से अधिक स्थानीय रोजगार सृजन के आधार पर बी-स्पोक पैकेज विशिष्ट क्षेत्र के उद्योगों के लिये प्रावधानित है। राज्य के निवासियों विशेषकर अनुसूचित जाति, जनजाति, महिला उद्यमियों, सेवानिवृत्त अग्निवीर सैनिक, भूतपूर्व सैनिकों, जिनमें पैरामिलिट्री भी शामिल है, को नई औद्योगिक नीति के तहत अधिक प्रोत्साहन दिए जाने का प्रावधान है। नक्सल प्रभावित लोगों, कमजोर वर्ग, तृतीय लिंग के उद्यमियों के लिए नई औद्योगिक पॉलिसी के तहत विशेष प्रोत्साहन दिए जाने का प्रावधान किया गया है। नई औद्योगिक नीति में पहली बार सेवा क्षेत्र अंतर्गत एमएसएमई सेवा उद्यम एवं वृहद सेवा उद्यमों के लिये पृथक-पृथक प्रोत्साहन का प्रावधान किया गया है।
छत्तीसगढ़ संभवतः देश में पहला राज्य है, जिसने युवा अग्निवीरों एवं नक्सल पीड़ित परिवारों को स्वयं के रोजगार धन्धे स्थापित करने पर विशेष अनुदान एवं छूट का प्रावधान किया है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति वर्ग के युवाओं को स्वयं का रोजगार उपलब्ध कराने हेतु भी कटिबद्ध हैं। इसके लिए हम इन वर्गों के उद्यमियों को मात्र 1 रूपये प्रति एकड़ की दर पर औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि दे रहे है। सरकार का प्रयास होगा कि उद्योग स्थापना एवं संचालन में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम हो एवं यथासंभव सेल्फ सर्टिफिकेशन अथवा ऑनलाइन माध्यम से हो ताकि आपके उद्योग हेतु आपको सरकार के पास आने की आवश्यकता ना हो।
औद्योगिक विकास नीति 2024-30 के विशेष प्रावधान
यह नीति उद्योगों को निवेश करने, नये रोजगार सृजन करने और आर्थिक विकास को गति देने के लिये एक मजबूत आधार प्रदान करेगी। इस नीति के माध्यम से राज्य के युवाओं के लिए कौशलयुक्त रोजगारों का सृजन करते हुये अगले 5 वर्षों में 5 लाख नए औपचारिक क्षेत्रों में रोजगार का लक्ष्य रखा गया है। इस नीति मैं स्थानीय श्रमिकों को औपचारिक रोजगार में परिवर्तित करने के लिए प्रशिक्षण कर प्रोत्साहन का प्रावधान करते हुये 1000 से अधिक रोजगार प्रदाय करने वाली इकाइयों को प्रोत्साहन के अतिरिक्त विशेष प्रोत्साहन का प्रावधान किया गया है।
नई औद्योगिक विकास नीति 2024-30 में आर्थिक एवं सामाजिक उत्थान में सहभागिता के लिए अनुसूचित जाति/जनजाति, महिला उद्यमियों, सेवानिवृत्त अग्निवीर, भूतपूर्व सैनिकों (जिनमें पैरा मिलिट्री फोर्स भी सम्मिलित है), नक्सल प्रभावित, आत्मसमर्पित नक्सलियों एवं तृतीय लिंग के उद्यमों का अतिरिक्त प्रोत्साहन दिए जाने का प्रावधान किया गया है। औद्योगिक विकास नीति 2024-30 में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों की परिभाषा को भारत सरकार द्वारा परिभाषित एम.एस.एम.ई. के अनुरूप किया गया है। इसी के अनुसार ही इन उद्यमों को प्राप्त होने वाले प्रोत्साहनों को अन्य राज्यों की तुलना में प्रतिस्पर्धी बनाया गया है।
राज्य सरकार द्वारा देश में सेवा गतिविधियों के बढ़ते हुये। रुझान को दृष्टिगत रखते हुये इस नीति में पहली बार सेवा क्षेत्र अंतर्गत एमएसएमई सेवा उद्यम एवं वृहद सेवा उद्यमों के लिये पृथक-पृथक प्रोत्साहन का प्रावधान किया गया है। सेवा क्षेत्र अंतर्गत इंजीनियरिंग सर्विसेस, रिसर्च एंड डेव्हलपमेंट, स्वास्थ्य सेक्टर, पर्यटन एवं मनोरंजन सेक्टर आदि से संबंधित गतिविधियों को सम्मिलित किया गया है। औद्योगिक विकास नीति 2024-30 में विशिष्ट श्रेणी के उद्योगों जैसे फार्मास्यूटिकल, टेक्सटाईल, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण तथा गैर काष्ठ वनोपज प्रसंस्करण, कम्प्रेस्ड बायोगैस, इलेक्ट्रिकल एवं इलेक्ट्रॉनिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (ए.आई), रोबोटिक्स एंड कम्प्यूटिंग (जी.पी.यू), आई.टी., आई.टी.ई.एस./डेटा सेंटर जैसे नवीन सेक्टरों के लिए विशेष पैकेज का प्रावधान है।
4 दिसम्बर 2024 को नवा रायपुर में स्टेक होल्डर कनेक्ट वर्कशॉप के दौरान राज्य के 27 बड़े औद्योगिक समूहों को नवीन पूंजी निवेश के प्रस्ताव के संबंध में 32 हजार 225 करोड़ रुपए के निवेश के लिए इंटेंट टू इन्वेस्ट लेटर प्रदान किए। इनमें राज्य के कोर सेक्टर के साथ ही नये निवेश क्षेत्रों जैसे आईटी, एआई, डाटा सेंटर, एथेनॉल, इलेक्ट्रॉनिक्स, इलेक्ट्रिकल, कम्प्रेस्ड बायो गैस जैसे क्षेत्रों में निवेश किया जाएगा। इनमें शिवालिक इंजीनियरिंग, मां दुर्गा आयरन एण्ड स्टील, एबीआरईएल ग्रीन एनर्जी, आरएजी फेरो एलायज, रिलायंस बायो एनर्जी, यश फैंस एण्ड एप्लायंसेस, शांति ग्रीन्स बायोफ्यूल, रेक बैंक डाटा सेंटर आदि सम्मिलित हैं।
इसके साथ ही थ्रस्ट सेक्टर के ऐसे उद्योग जहां राज्य का प्रतिस्पर्धात्मक लाभ है और जहां भविष्य के रोजगार आ रहे हैं, उन क्षेत्रों के लिये अतिरिक्त प्रोत्साहन का प्रावधान है। नीति में प्रोत्साहनों की दृष्टि से राज्य के विकासखण्डों को 03 समूहों में रखा गया है। समूह-1 में 10. समूह 2 में 61 एवं समूह 3 में 75 विकासखण्डों को वर्गीकृत किया गया है।
-चंदन कुमार जजवाड़े
विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ ने राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया है।
विपक्ष का आरोप है कि राज्य सभा के सभापति जगदीप धनखड़ पक्षपातपूर्ण तरीके से सदन की कार्यवाही का संचालन करते हैं।
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने सोशल मीडिया एक्स पर लिखा है, ‘राज्य सभा के माननीय सभापति के अत्यंत पक्षपातपूर्ण तरीक़े से उच्च सदन की कार्यवाही का संचालन करने के कारण इंडिया ग्रुप के सभी घटक दलों के पास उनके खिलाफ औपचारिक रूप से अविश्वास प्रस्ताव लाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।’
‘इंडिया गठबंधन के दलों के लिए यह बेहद ही कष्टकारी निर्णय रहा है, लेकिन संसदीय लोकतंत्र के हित में यह अभूतपूर्व कदम उठाना पड़ा है। यह प्रस्ताव अभी राज्यसभा के सेक्रेटरी जनरल को सौंपा गया है।’
क्या है मामला?
जयराम रमेश ने समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत में आरोप लगाया है, ‘कल (सोमवार) संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने ख़ुद चेयरमैन साहब के सामने कहा कि जब तक आप लोकसभा में अदानी का मुद्दा उठाएंगे, हम राज्यसभा को चलाने नहीं देंगे और इसमें चेयरमैन साहब भी शामिल हैं, चेयरमैन साहब को इसमें अडिग रहना चाहिए।’
संसद के मौजूदा सत्र की शुरुआत से ही सदन में भारत के जाने माने कारोबारी गौतम अदानी और अन्य कई मुद्दे को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच गतिरोध जारी है। इस सत्र की शुरुआत से ठीक पहले ही गौतम अदानी पर अमेरिका में धोखाधड़ी के आरोप तय किए जाने की खबर आई थी।
उसके बाद से ही कांग्रेस लगातार सरकार पर हमलावर है। कांग्रेस पार्टी पहले भी कई मुद्दों को लेकर अदानी के मसले पर जेपीसी की मांग करती रही है।
जयराम रमेश ने कहा कि राज्यसभा के गठन हुए 72 साल हो गए हैं और पहली बार राज्यसभा के सभापति के खिलाफ प्रस्ताव सौंपा गया है।
बीजेपी सांसद और संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा है, ‘मैं एक बार फिर से स्पष्ट तौर पर कह रहा हूं कि एक बार जब संसद सुचारू तौर पर चल रही है तो कांग्रेस पार्टी ने किस वजह से ड्रामा शुरू किया? ऐसे मास्क और जैकेट पहनकर आने कि क्या जरूरत है जिसपर स्लोगन लिखे हुए हों...?
रिजिजू ने कहा है, ‘हम यहां देश की सेवा करने के लिए आए हैं, इस तरह का ड्रामा देखने के लिए नहीं आए हैं। जो नोटिस कांग्रेस पार्टी और उसके कुछ सहयोगियों ने दिया है, उसे निश्चित तौर पर नामंज़ूर किया जाना चाहिए और उसे नामंज़ूर किया जाएगा।’
इस बीच भारतीय संविधान में दिए गए प्रावधानों की बात करें तो संविधान में राष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग की प्रक्रिया की विस्तार से चर्चा की गई है। उपराष्ट्रपति जो कि राज्यसभा के सभापति भी होते हैं, उन्हें हटाने की प्रकिया और इसका आधार क्या होता है, इसे जानने के लिए बीबीसी ने कुछ संविधान विशेषज्ञों से बात की है।
कैसे शुरू की जा सकती है प्रक्रिया
लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान के जानकार पीडीटी आचारी के मुताबिक उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए 14 दिन पहले उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया जाना जरूरी है।
उपराष्ट्रपति को पद से हटाने की प्रक्रिया राज्यसभा में ही शुरू की जा सकती है, क्योंकि वो राज्यसभा के सभापति भी होते हैं।
पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘इसके लिए अलग से कोई नियम नहीं बनाया गया है। इस मामले में वही नियम लागू होते हैं जो लोकसभा के अध्यक्ष को हटाने के लिए हैं।’
उनका कहना है, ‘अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए राज्यसभा के सभापति के खिलाफ खास (निश्चित) आरोप होने चाहिए और नोटिस के 14 दिनों के बाद ही इस प्रस्ताव को राज्यसभा में लाया जा सकता है। इस प्रस्ताव को राज्यसभा के मौजूदा सदस्यों के सामान्य बहुमत से पारित कराना ज़रूरी होता है। राज्यसभा से पास होने के बाद इस प्रस्ताव को लोकसभा के भी सामान्य बहुमत से पास कराना ज़रूरी होता है।’
विपक्ष को क्या हासिल होगा
यह पहला मौक़ा है जब भारत के किसी उपराष्ट्रपति को हटाने की प्रक्रिया शुरू करने के लिए राज्यसभा में प्रस्ताव भेजा गया है।
संविधान और क़ानून के जानकार फैजान मुस्तफा कहते हैं कि इस तरह की पहल से विपक्ष को कुछ भी हासिल नहीं होगा, क्योंकि वो इसे पास नहीं करवा पाएंगे।
फैजान मुस्तफा कहते हैं, ‘उपराष्ट्रपति को भी चाहिए कि वो डिबेट होने दें और इसके लिए विपक्ष को भी साथ लेकर चलना चाहिए। उपराष्ट्रपति के खिलाफ इस तरह के प्रस्ताव आना भी सही नहीं है। राज्यसभा के सभापति को हटाने के लिए 14 दिन पहले नोटिस देना जरूरी है, लेकिन संसद का सत्र 20 तारीख को ही खत्म हो रहा है।’
उन्होंने कहा, ‘राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग शुरू करने के लिए ‘संविधान का उल्लंघन करना’ आधार होता है, लेकिन उपराष्ट्रपति के लिए ऐसा कुछ नहीं है, उन्हें केवल सदन का भरोसा खो देने पर भी हटाया जा सकता है।’ (bbc.com/hindi)