विचार / लेख

‘राष्ट्रवादी नपुंसकों की कुतिया’
05-Sep-2020 11:49 AM
‘राष्ट्रवादी नपुंसकों की कुतिया’

हत्या : 5 सितम्बर 2017  

-कनक तिवारी
श्रीराम सेने के प्रमोद मुतालिक ने गौरी लंकेश पर कुत्ते की याद करते फब्ती कसी थी। पहले भी एक हिन्दुत्वपरस्त ने उसे सीधे-सीधे कुतिया कहकर सुर्खियां बटोरी थीं। चार गोलियां मारकर उसकी घर में हत्या की गई।

कुतिया तो एक पशु का नाम है लेकिन उसे सभ्यों ने अपनी हिकारत उगलते विशेषण बना दिया है। इसलिए कुतिया भी चाहती रही होगी कि उसकी आत्मा को नया शरीर मिले। मनुष्य भी महसूस करे कि पशु होकर वह पशु की नस्ल का हो गया है। गौरी लंकेश को पता नहीं था कि वह कुतिया है। वह तो सोचती थी कि जाहिलों, भ्रष्टों, अत्याचारियों और हिंसकों के खिलाफ न्याय और साहस की लड़ाई लड़ रही है। उसे शायद इलहाम रहा भी होगा कि उसे मार दिया जाएगा। लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवक और कई साधारण लोग भी अपनी मौत को लेकर उलझन में नहीं रहते। यह अलग बात है कि उन्हें देशभक्त नहीं कहा जाता, जबकि वे होते हैं। मृत्युंजय होने का अर्थ भगतसिंह, अशफाकउल्ला, चंद्रशेखर आजाद और महात्मा गांधी ने भी सिखाया था। खुद चले गए। मरने के लिए कुछ औलादें छोड़ गए।

नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की गालियों से सजी चैकड़ी है। कई नाम जुड़ भी रहे हैं। मासूम और उम्मीद भरा देश खुद को आश्वस्त करता रहता है। जघन्य हत्याएं हो रही हैं। बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक जनता का नारा लगता है। सीबीआई जांच होनी चाहिए। एस.आई.टी. गठित करें। सीबीआई स्वर्ग से उतरी एजेंसी नहीं है। बकौल सुप्रीम कोर्ट वह केन्द्र सरकार के पिजड़े में कैद तोता है। तोता उतना ही बोलता है जितना सिखाया जाता है। वह मालिक के भोजन से कुछ जूठन खाता हरा-भरा रहता है। पिंजरे से बाहर तयशुदा दूरी तक ही उड़ता है। जनआकाश के नागरिक पक्षियों से घबराकर स्वेच्छा से गुलामी के पिंजरे में भाग आता है। उसकी वफादार मुद्रा से मालिक को मालिक को गर्व महसूस होता है। मुल्जिम नहीं पकड़े जाते। उम्मीदें जिंदगी की अमावस्या के खिलाफ टिमटिमाते दीपों की तरह अलबत्ता होती हैं।

राजधानियों, व्यापारधानियों और हत्यारे कारखानों से मितली करते प्रदूषण को ‘आर्ट ऑफ लाइफ’ कह दिया जाता है। गंगा एक्शन प्लान टाट में मखमली पैबंद है। भारत की संस्कृति, सभ्यता, प्रज्ञा और सोच की गंगा-यमुना-नर्मदा से बेखबर विदेशी ग्रांट लाकर ‘डिजिटल इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बीफ’, ‘बुलेट ट्रेन’, ‘स्टार्ट अप’, ‘जुमला’, ‘जीएसटी’, ‘नोटबंदी’, ‘न्यू इंडिया’, ‘आत्मनिर्भरता’, ‘थाली ताली घंटी बजाओ’ वगैरह के जरिए इतिहास का चरित्रशोधन हो रहा है। पशु और कीड़े-मकोड़े हिंसक होते हैं लेकिन अपने बचाव के लिए। उस पर पैर पड़े तभी सांप तभी काटता है। वनैले पशुओं को छेड़ा नहीं जाए, तो नहीं काटते। मासूम गाय भी बछड़े के बचाव के लिए हिंसक और आक्रामक हो जाती है। बुद्ध, महावीर और गांधी ने भारतीयों में सहनशीलता, विश्व बंधुत्व और भाईचारा के जींस इंजेक्ट किए। अंगरेजों को खदेडऩे हिंसा की तलवार से ज्यादा अहिंसा की ढाल हथियार बनी। जनवादी क्रांति के जनपथ के बरक्स बगल की अंधी अपराधी गली में एक विचारधारा कुंठाओं के हाथ शस्त्र पकड़ाने की हैसियत में पनपती रही। बावडिय़ां, कुएं, गुप्त सुरंगें, बोगदे वगैरह लोगों को तबाह करने खोजे और बनाए गए।

हम अपने मुंह मियांमिट्ठू देश हैं। अफीम के नशे या गांजे की चिलम की सरकारी चुस्कियां लगातार बहला रही हैं। दस-बीस बरस में भारत विश्व गुरु बनेगा। माहौल बनाए रखते बस वोट देते रहिए। खबर छपती है, भारत एशिया का सबसे भ्रष्ट देश है, गरीबी में स्वर्ण पदक पाने ही वाला है। हिंसा, झूठ और फरेब में नए विश्व रिकॉर्ड बना रहा है। इंसानों के बदले मजहब, जातियां, प्रदेश, अछूत, नेता, अफसर, पूंजीपति, वेश्याएं, मच्छर, शक्कर तथा एड्स की बीमारियां, गोदी मीडिया तथा कुछ सिरफिरे देशभक्त एक साथ रहते हैं। कभी कोई घुंधली किरण अंधेरा चीरने की कोशिश कर भी लेती है। उसे उम्मीद के साथ मुगालता भी रहता है कि लोग उसे देखेंगे सुनेंगे। गांधी भगतसिंह तक को किसी ने स्थायी रूप से नहीं सुना। वे लेकिन जानते थे कि लोग नहीं सुनेंगे। फिर भी कहना जरूरी था। वे नया जमाना रचने अपवाद या घटना की तरह आए थे। वैश्य गांधी दूधदाता बकरी के बदले कुतिया पालते युधिष्ठिर के साथ धर्मराज कुत्ते के बदले कुतिया बनकर स्वर्गारोहण करते तो गौरी लंकेश को कुतिया नहीं कहा जाता!

भोपाल गैस त्रासदी के हजारों पीडि़तों के साथ इंसाफ नहीं हुआ। पार्टियों के जनसेवक चोला ओढक़र केंद्र मंत्री भी होते रहे। गोरखपुर और राजस्थान के अस्पताल के बच्चों के साथ इंसाफ तो जयश्रीराम नहीं कर पाये। करोड़ों बच्चों को पालतू कुत्तों, बिल्लियों से भी कम प्यार मिलता है। निर्भया नाम जपने से भी लाखों बच्चियों की अस्मत नहीं बच रही है। दाती महाराज रामपाल, गुरमीत राम रहीम, आसाराम और भी कई शंकर, राम, महमूद, जॉर्ज वगैरहों को हिकारत और गुमनामी की खंदकों में दफ्न क्यों नहीं किया जा सकता। एक वीर हुंकारता रहता है ‘मेरा देश बदल रहा है।’ वह हिंसा को पराक्रम बना रहा है। महान अंग्रेज लेखक Oliver Goldsmith ने एक पागल कुत्ते की मौत पर अमर शोकगीत रचा है। गौरी लंकेश कुतिया तो इन्सान है। मैं लेकिन goldsmith जैसा कवि होने की हैसियत नहीं रखता। उसे अमर कैसे बना सकता हूं। अच्छा है मर गई! उसके साथ कायरों की भी यादें कभी कभी कायम तो रहती हैं।

साहस, साफगोई और पारदर्शी योद्धा बेटी को कुतिया कहा गया है। उसे लाखों लोग ट्रोल भी करते रहे। वे ही धृतराष्ट्र हैं। राजरानी सीता या महारानी द्रौपदी पर भद्दे आक्रमण से ही जनक्रांति हुई। रामायण और महाभारत लिखी गईं। नागरिक समाज ने कुब्जा, मंथरा, अहिल्या, झलकारीबाई, सोनी सोरी, इरोम शर्मिला, आंग सान सू की जैसों को लेकर उतनी जिल्लतें कहां उठाईं। बुद्धिजीवी तबका श्रेष्ठि या सामंती वर्ग की महिलाओं की प्रचारित वेदना से उन्मादित होकर इतिहास बदल देने अभिव्यक्त होता रहता है। गौरी लंकेश! तुम्हारी भी याद तो लोगों को बस धूमिल ही हो रही है। मध्यवर्ग की यह लगातार त्रासदी है। तुम इसमें अपवाद कैसे हो सकती हो? कातिलों के बार बार आगे आकर उनके फिर कुछ करने से ही तो जनता के बयान कलमबद्ध होते रहते हैं।


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