विचार/लेख
ध्रुव गुप्त
अनारकली का नाम मुगलिया सल्तनत की सबसे रोमांचक प्रेम कहानी से जुड़ा हुआ है। सम्राट अकबर के बेटे सलीम की प्रेमिका के तौर पर प्रसिद्ध अनारकली को ज्यादातर लोग एक काल्पनिक पात्र मानते हैं। प्रचलित कथाओं में अनारकली अकबर के दरबार की एक खूबसूरत नर्तकी थी जिसे शहजादा सलीम दिल दे बैठा था और जो शाही अहंकार और गद्दी की सियासत की भेंट चढक़र दीवारों में चिनवा दी गई। वस्तुत: इस प्रेम कहानी की हकीकत कुछ और है। यह एक वर्जित और नाजायज रिश्ता था जिसे हमारे कुछ अदीबों और फिल्मकारों ने लैला-मजनू और शीरी-फरहाद की तजऱ् पर ट्रैजिक प्रेमकथा में तब्दील करने की नीयत से न सिर्फ इतिहास बल्कि नैतिक और पारिवारिक मूल्यों के साथ भी खिलवाड़ किया।
अनारकली के जिक्र इतिहास में कम, विदेशी पर्यटकों की यात्रा विवरणों में ज्यादा आए है। एक वास्तविक व्यक्ति के रूप में उसकी चर्चा ब्रिटिश लेखक सैमुअल परचास द्वारा संपादित 1625 की एक किताब ‘परचास हिज पिलग्रिम्स’ में हुई है। इस किताब में 1611 में लाहौर की यात्रा करने वाले अंग्रेज व्यापारी विलियम फिंच ने बाबा शेख फरीद की मस्जिद के पास अकबर की एक प्रिय बीवी अनारकली की कब्र देखने की बात कही है। उसने अनारकली को अकबर के एक बेटे दानियाल की मां बताया है जिसका शहजादे सलीम के साथ नाजायज़ रिश्ता था। तब अनारकली चवालीस साल की थी और सलीम तीस साल का। इस रिश्ते से नाराज अकबर ने अनारकली को महल की एक दीवार में चिनवा दिया था। सलीम ने बादशाह बनने के बाद अनारकली की याद में एक आलीशान मकबरा तामीर करने का आदेश दिया था जो फिंच की यात्रा के समय अभी निर्माणाधीन था। फिंच के पांच साल बाद ब्रिटेन के एक पादरी एडवर्ड टैरी ने अपनी यात्रा रिपोर्ताज में लिखा है कि अकबर ने अपनी सबसे प्रिय पत्नी नादिरा बेगम उर्फ अनारकली के साथ नाजायज रिश्ते के कारण शहजादे सलीम को उत्तराधिकार से वंचित कर दिया था। वह अनारकली के बेटे दानियाल को उत्तराधिकार सौंपना चाहता था, लेकिन दानियाल की मौत के कारण मृत्युशैया पर उसने अपना आदेश वापस ले लिया था। ‘द लास्ट स्प्रिंग : द लाइव्स एंड टाइम्स ऑफ द ग्रेट मुगलस’ के लेखक अब्राहम एराली ने भी अनारकली को अकबर की बीवी और उसके बेटे दानियाल की मां बताया है। इतिहासकार अब्दुल लतीफ ने ‘तारीख-ए-लाहौर’ में लिखा है कि सलीम से इश्क के चलते अकबर की एक बीवी अनारकली को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी ने भी इस रिश्ते को नाजायज बताया है। कुछ लोग अनारकली को सिर्फ इसीलिए खारिज करते हैं कि अबुल फजल की किताब ‘आईने अकबरी’ में उसका जिक्र नहीं है। उन्हें समझना चाहिए कि अकबर के एक दरबारी इतिहासकार की किताब में ऐसे वर्जित संबंधों का जि़क्र हो भी कैसे सकता था ?
अनारकली अकबर के दरबार की रक्कासा नहीं, अकबर की एक प्रिय पत्नी और सलीम की सौतेली मां थी। उसकी वास्तविकता का सबसे बड़ा सबूत लाहौर में मौज़ूद अनारकली का मक़बरा और कब्र है। जहांगीर द्वारा अपने शासनकाल में बनवाए इस मकबरे को लोग दूसरा ताजमहल कहते हैं। इसी मकबरे के भीतर अनारकली की कब्र है जो उन्हीं दो दीवारों के बीच बनी बताई जाती है जिनमें अनारकली को चिनवा दिया गया था। कब्र पर जहांगीर ने दो मिसरे खुदवाए हैं जिनका अनुवाद देखिए-अगर मैं अपनी प्रिया का चेहरा एक बार फिर अपनी दोनों हथेलियों में थाम सकूं तो मैं कय़ामत के दिन तक ख़ुदा का शुक्रगुजार रहूंगा !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऐसा लग रहा है कि राजस्थान की राजनीति पटरी पर शीघ्र ही आ जाएगी। राज्यपाल कलराज मिश्र का यह बयान स्वागत योग्य है कि वे विधानसभा का सत्र बुलाने के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन उन्होंने जो तीन शर्तें रखी हैं, वे तर्कसम्मत हैं और उन तीनों का संतोषजनक उत्तर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दे ही रहे हैं। यों भी अदालतों के पिछले फैसलों और संविधान की धारा 174 के मुताबिक विधानसभा सत्र को सामान्यतया राज्यपाल आहूत होने से रोक नहीं सकते। मंत्रिमंडल की सलाह मानना उनके लिए जरुरी है।
हालांकि गहलोत ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक गुहार लगा दी है और राजभवन के घेरे जाने की आशंका भी व्यक्त की है लेकिन वे यदि चाहते और उनमें दम होता तो वे खुद ही सारे विधायकों को विधानसभा भवन या किसी अन्य भवन में इक_े करके अपना बहुमत सारे देश को दिखा देते। राजभवन और अदालतें दोनों अपना-सा मुंह लेकर टापते रह जाते। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत ही दुखद बात है कि कोरोना के संकट के दौरान राजस्थान-जैसे राज्य की सरकार अधर में लटकी रहे। कलराजजी यों तो अपनी विवेकशीलता और सज्जनता के लिए जाने जाते हैं लेकिन राज्यपाल का यह पूछना कि आप विधानसभा का सत्र क्यों बुलाना चाहते हैं, बहुत ही आश्चर्यजनक है।
विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए 21 दिन के नोटिस की बात भी समझ के बाहर है। 15 दिन पहले ही बर्बाद हो गए, अब 21 दिन तक जयपुर घोड़ों की मंडी बना रहे, यह क्या बात हुई ? कलराज मिश्रजी को मप्र के स्वर्गीय राज्यपाल लालजी टंडन का उदाहरण अपने सामने रखना चाहिए। उन्होंने 21 दिन नहीं, 21 घंटों की भी देर नहीं लगाई। क्या 21 दिन तक इसे इसीलिए लंबा खींचा जा रहा है कि सचिन पायलट के गिरोह की रक्षा की जा सके ? यदि सचिन-गुट कांग्रेस के पक्ष में वोट करेगा तो जीते-जी मरेगा और विरोध में वोट करेगा तो विधानसभा से बाहर हो जाएगा। जो भी होना है, वह विधानसभा के सदन में हो। राजभवन और अदालतों में नहीं। यदि गहलोत सरकार को गिरना है तो वह विधानसभा में गिर जाए। राज्यपाल खुद को कलंकित क्यों करें ? राज्यपाल का यह पूछना बिल्कुल जायज है कि विधानसभा भवन में विधायकों के बीच शारीरिक दूरी का क्या होगा ? उसका हल निकालना कठिन नहीं है। यदि अयोध्या में 5 अगस्त के जमावड़े को सम्हाला जा सकता है तो यह कोई बड़ी बात नहीं है। यदि इस मुद्दे को बहाना बनाया जाएगा तो लोग यह भी पूछेंगे कि आपने कमलनाथ- सरकार को गिराने के लिए ही तालाबंदी (लॉकडाउन) की घोषणा में देरी की थी या नहीं ? भाजपा और केंद्र सरकार की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए भी यह जरुरी है कि राजस्थान की विधानसभा का सत्र जल्दी से जल्दी बुलाया जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
29 जुलाई : ग्लोबल टाइगर डे
- सत्यप्रकाश पाण्डेय
हर साल पूरे विश्व में 29 जुलाई को विश्व बाघ दिवस मनाया जाता है। बाघ भारत का राष्ट्रीय पशु है। यह देश की शक्ति, शान, सतर्कता, बुद्धि और धीरज का प्रतीक माना जाता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र को छोडक़र पूरे देश में पाया जाता है। शुष्क खुले जंगल, नम और सदाबहार वन से लेकर मैंग्रोव दलदलों तक इसका क्षेत्र फैला हुआ है। चिंता की बात ये है कि बाघ को वन्यजीवों की लुप्त होती प्रजाति की सूची में रखा गया है। लेकिन राहत की बात ये है कि सेव टाइगर जैसे राष्ट्रीय अभियानों की बदौलत देश में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है।
बाघ संरक्षण के काम को प्रोत्साहित करने, उनकी घटती संख्या के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए साल 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में आयोजित एक शिखर सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाने की घोषणा हुई थी। इस सम्मेलन में मौजूद विभिन्न देशों की सरकारों ने 2022 तक बाघों की आबादी को दोगुना करने का लक्ष्य तय किया था।
क्या है इस दिवस का महत्व
बाघों की लुप्त होती प्रजातियों की ओर ध्यान आकर्षित करने, उनकी रक्षा करने और बाघों के पारिस्थितिकीय महत्व बताने के लिए अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाया जाता है। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2017 में 116 और 2018 में 85 बाघों की मौत हुई है। 2018 में हुई गणना के अनुसार बाघों की संख्या 308 है। साल 2016 में 120 बाघों की मौतें हुईं थीं, जो साल 2006 के बाद सबसे ज्यादा थी। वहीं, साल 2015 में 80 बाघों की मौत की पुष्टि की गई थी। इस दिवस के जरिए बाघ के संरक्षण के प्रति जागरूक किया जाता है।
बाघों को लेकर अच्छी खबर क्या है?
बाघों के बारे में यह जानकर आपको खुशी होगी कि देश में बाघों की संख्या बढ़ी है। विश्व बाघ दिवस की पूर्व संध्या पर मंगलवार को ही देश में बाघों की गणना की विस्तृत रिपोर्ट जारी करते हुए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि दुनिया के 70 फीसदी बाघ भारत में मौजूद हैं। मालूम हो कि बाघों की गणना की प्रारंभिक रिपोर्ट पिछले साल ही आ चुकी है। इसमें देश में बाघों की संख्या में भारी बढ़ोतरी का खुलासा हुआ था। साल 2018 की रिपोर्ट के तहत देश में बाघों की संख्या बढक़र 2967 हो गई है। पूर्व में हुई गणना के लिहाज से देखा जाए तो साल 2014 के मुकाबले 741 बाघों की बढ़ोतरी हुई है।
अन्य देशों की भी मदद करेगा भारत
बाघों के संरक्षण को लेकर भारत अब दुनिया के दूसरे देशों की मदद करेगा। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने दुनियाभर में 13 ऐसे देशों की पहचान की है, जहां मौजूदा समय में बाघ पाए जाते हैं, लेकिन संरक्षण के अभाव में इनकी संख्या कम है। ऐसे में भारत इन देशों को बाघों के संरक्षण के लिए बेहतर तकनीक और योजना मुहैया कराएगा।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने वर्ष 2018 में हुई बाघों की गणना की रिपोर्ट जारी कर दी है। इसमें अचानकमार टाइगर रिजर्व में केवल पांच बाघ होने की पुष्टि हुई है। जबकि 2014 की गणना में यहां 12 बाघ थे। एकाएक संख्या घटने से वन विभाग में हडक़ंप मचा हुआ है।
छत्तीसगढ़ की स्थिति बेहद चिंताजनक
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के निर्देश पर चार साल में एक साथ देशभर के टाइगर रिजर्व में बाघों की गणना होती है। इसी के तहत 2018 में अंतिम में गणना हुई थी। ट्रैप कैमरे और पगमार्क के आधार पर टाइगर रिजर्व प्रबंधन ने रिपोर्ट भेजी। इसके आधार पर एनटीसीए ने 29 जुलाई 2019 को राज्यवार आंकड़ा जारी किया था। इसमें छत्तीसगढ़ की स्थिति बेहद चिंताजनक थी।
देशभर में जहां संख्या में 33 प्रतिशत इजाफा हुआ है। वहीं छत्तीसगढ़ में 60 प्रतिशत कमी आई है। रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ में 46 से घटकर बाघों की संख्या 19 पहुंच गई। एनटीसीए ने अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस के एक दिन पहले मंगलवार को आंकड़ा जारी किया। इसमें अचानकमार टाइगर रिजर्व में केवल पांच बाघ होने की पुष्टि की गई है।
-इसरार अहमद शेख़
ग़ाज़ियाबाद/लखनऊ: “कोविड-19 के संक्रमण को बढ़ने से रोकने और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर उसके दुष्प्रभाव को रोकने के लिए ज़रूरी है कि कोविड-19 के बायोमेडिकल कचरे को बाकी के बायोमेडिकल कचरे से अलग किया जाए,” नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के चेयरमैन जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली बैंच ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान 21 जुलाई 2020 को यह बात कही।
एनजीटी ने सुनवाई के दौरान बायोमेडिकल कचरे के प्रबंधन में अनियमितताएं पाईं और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इसका उचित ढंग से निपटारा करने के निर्देश दिए। एनजीटी उस याचिका की सुनवाई कर रही थी जिसमें ऐसे अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों को बंद करने की मांग की गई थी जहां बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के लिए बनी गाइडलाइंस का पालन नहीं होता।
कोविड-19 महामारी के दौरान बायोमेडिकल कचरे का निपटारा एक चुनौती बन गया है। महामारी की वजह से यह कचरा कई गुना बढ़ गया है। बायोमेडिकल कचरा, इलाज और अनुसंधान के दौरान अस्पतालों और प्रयोगशालाओं से निकलता है। हाल ही में एनजीटी में पेश अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कहा था कि देश में लगभग आधे से अधिक अस्पताल, नर्सिंग होम और स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जिन्हें बायोमेडिकल कचरे के निपटारे से संबंधित अनुमति नहीं है।
तेज़ी से बढ़ रहे संक्रमण के मामलों के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी बायोमेडिकल कचरे का निपटारा एक चुनौती बन गया है। हालांकि सरकार का कहना है कि उसके पास इस कचरे के निपटारे के समुचित उपाय मौजूद हैं लेकिन राज्य के अलग-अलग हिस्सों से आ रही मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि कईं जगहों पर यह कचरा ऐसे ही खुले में फेंका जा रहा है, जिससे संक्रमण का ख़तरा और बढ़ गया है।
बायोमेडिकल कचरे से संक्रमण का सबसे ज़्यादा ख़तरा सफ़ाई कर्मचारियों को होता है। कोरोना वार्ड की सफ़ाई का जिम्मा इन्हीं के पास होता है। हालांकि इनके लागातार टेस्ट किए तो जा रहे हैं पर उत्तर प्रदेश की कर्मचारी यूनियन ने इस प्रक्रिया में कई ख़ामियों की शिकायत की है।
इधर उत्तर प्रदेश सरकार ने बिना लक्षणों वाले मरीज़ों के लिए होम आइसोलेसन को मंज़ूरी तो दे दी है लेकिन इस दौरान निकलने वाले बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के लिए कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।
क्या होता है बायोमेडिकल कचरा
बायोमेडिकल वेस्ट नियम.1998 में मनुष्यों और जानवरों की बीमारियों के निदान, इलाज, टीकाकरण, अनुसंधान और जैविक उत्पादन और परीक्षण के दौरान निकलने वाले कचरे को बायोमेडिकल कचरा माना गया है। बायोमेडिकल कचरे के कईं प्रकार होते हैं। अस्पतालों और प्रयोगशालाओं में अलग-अलग तरह के बायोमेडिकल कचरे के लिए अलग-अलग प्रबंधन किया जाता है।
शारीरिक, रासायनिक, गंदे कपड़े, दवाइयों और प्रयोगशाला से संबंधित कचरे के लिए पीले रंग के कूड़ेदान होते हैं। ट्यूबिंग, प्लास्टिक की बोतलों, सीरिंज आदि के लिए लाल कूड़ेदान और कांच की बोतलों, शीशियों आदि के लिए नीला कूड़ेदान होता है।
देश भर में आमतौर पर लगभग 600 मीट्रिक टन बायोमेडिकल कचरा निकलता है, एनजीटी में पेश केंद्रीय प्रदूषण निंयत्रण बोर्ड के अनुसार।
कोविड-19 और बायोमेडिकल कचरा
देश भर में कोविड-19 के तेज़ी से फैल रहे संक्रमण की वजह से बायोमेडिकल कचरे की मात्रा भी तेज़ी से बढ़ती जा रही है। देश में कोविड-19 की वजह से हर रोज़ 101 मीट्रिक टन अतिरिक्त बायोमेडिकल कचरा निकल रहा है, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में पेश केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण की 17 जून 2020 की इस रिपोर्ट में बताया गया।
कोविड-19 की वजह से जो बायोमेडिकल कचरा निकल रहा है उसका आधे से अधिक यानी 50.2% सिर्फ़ चार राज्यों से निकल रहा है। महाराष्ट्र से 17.5, गुजरात से 11.7, दिल्ली से 11.1 और तमिलनाडु से 10.4 टन प्रतिदिन के हिसाब से कचरा निकल रहा है।
जिस तरह से कोरोनावायरस के मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है, आने वाले वक़्त में इस कचरे की मात्रा और बढ़ेगी। अकेले 24 जुलाई को ही देश भर से एक दिन में 49 हज़ार से अधिक नए मामले सामने आए हैं। कोविड-19 से निकले बायोमेडिकल कचरे के लिए हाल ही में जारी संशोधित गाइडलाइंस से भी इस कचरे की मात्रा कईं गुना बढ़ने के आसार हैं। अब कोविड-19 अस्पतालों से निकलने वाला सभी प्रकार का कचरा बायोमेडिकल कचरे की श्रेणी में माना जाएगा, नई गाइडलाइंस के मुताबिक़। अब तक सिर्फ़ पीपीई किट और मास्क आदि ही इस श्रेणी के कचरे में शामिल था।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट और एनजीटी का आदेश
साल 2019 तक देश भर के कुल 2.70 लाख अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों में से 1.1 लाख ने ही बायोमेडिकल कचरे के संबंध में ज़रूरी अनुमति ली है। बाकी के 1.6 लाख अस्पताल/स्वास्थ्य केंद्र बिना अनुमति के अवैध रूप से चल रहे हैं। इसके अलावा 1.1 लाख अस्पतालों/स्वास्थ्य केंद्रों ने इसके लिए आवेदन किया है जबकि लगभग 50 हज़ार अस्पताल/स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जिन्होंने इसके लिए आवेदन तक नहीं किया, एनजीटी में पेश अपनी 17 जून की अपनी रिपोर्ट में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने बताया।
लखनऊ के केजीएमयू में बने आइसोलेशन वार्ड से इकट्ठा किया गया कचरा यहां रखा जाता है। यहीं से कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसेलिटी की टीम कचरे को ले जाती है। फ़ोटोः रणविजय सिंह
देश के 7 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों-अरुणाचल प्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीप समूह, गोवा, लक्षद्वीप, मिज़ोरम, नागालैंड और सिक्किम- में बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के लिए कोई सार्वजनिक सुविधा नहीं है।
ग्रीन ट्रिब्यूनल ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर राज्यों को निर्देश दिया कि वो शीघ्र ही इस संबंध में कार्रवाई कर 31 दिसंबर 2020 तक बोर्ड को अपनी रिपोर्ट जमा करें। एनजीटी ने बायोमेडिकल कचरे के निपटारे की निगरानी के लिए हर ज़िले में एक कमेटी बनाने का भी निर्देश दिया।
उत्तर प्रदेश में भी कई गुना बढ़ा बायोमेडिकल कचरा
एनजीटी में पेश केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश से कोविड-19 की वजह से हर रोज़ 7 टन कचरा निकल रहा है। यह रिपोर्ट 17 जून को एनजीटी में पेश हुई थी, तब से अब तक हालात बहुत बदल गए हैं। राज्य में 17 जून को कोरोनावायरस के कुल मामले 15,181 थे जो 26 जुलाई तक लगभग 4 गुना बढ़कर 66,988 हो गए। संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ने के साथ ही कोविड की वजह से निकले बायोमेडिकल कचरे में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है।
“अभी उत्तर प्रदेश में क़रीब 20 टन कोविड वेस्ट हर दिन निकल रहा है। नॉन कोविड वेस्ट करीब 18 टन हर दिन निकल रहा है। राज्य में कुल 38 टन वेस्ट निकल रहा है और हमारी क्षमता 52 टन की है। यूपी में 18 कॉमन बायोमेडिकल वेस्ट फ़ैसिलिटी हैं जो सुचारू रूप से चल रही हैं,” उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मेंबर सेक्रेटरी आशीष तिवारी ने इंडियास्पेंड को बताया।
“अगर बहुत ज़्यादा मरीज़ बढ़ जाते हैं और 52 टन से भी ज़्यादा वेस्ट निकलता है तो कानपुर देहात में हमारे दो हेज़रडस वेस्ट इंसीनरेटर हैं, जिनकी क्षमता 68 टन प्रतिदिन की है। हमने वहां एक कमेटी बना दी है, जो इसकी तैयारियों में लगी है,” आगे की तैयारियों के बारे में पूछे जाने पर आशीष तिवारी ने बताया।
कोविड संक्रमण की वजह से बड़ी संख्या में राज्य के अस्पतालों और नर्सिंग होम्स में ओपीडी सेवाएं बंद हैं। उनके खुलने से इस कचरे की मात्रा और बढ़ेगी। इसके अलावा राज्य के कुल 15,046 अस्पतालों, नर्सिंग होम और स्वास्थ्य केंद्रों में से 6.573 ने ही बायोमेडिकल कचरे के निपटारे के संबंध में अनुुमति ली है, जैसा कि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की साल 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है।
“हमारे प्लांट पर आने वाले बायोमेडिकल कचरे में करीब 40% का इज़ाफा हुआ है। पहले हर दिन करीब 2 हज़ार किलो कचरा आता था, अब साढ़े तीन से लेकर 4 हज़ार किलो तक आता है। इस कचरे में पीले रंग की थैली वाले कचरे की मात्रा क़रीब 600 से 700 किलो तक होती है,” लखनऊ से 23 किलोमीटर दूर स्थित बायोमेडिकल कचरे का निपटारा करने वाली कंपनी ‘एसएमएस वॉटरग्रेस’ के एक अधिकारी ने अपना नाम ना लिखे जाने की शर्त पर बताया।
“हमें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हमारा प्लांट जहां है उस एरिया के लोगों को डर लगने लगा है। कोरोना से संबंधित कचरा उसी सड़क से होकर जा रहा है जहां से उन्हें भी गुजरना है,” इस अधिकारी ने कहा।
लखनऊ की किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) से 18 जुलाई को पीले रंग की थैली में 392 किलो कचरा निकला। जबकि लाल रंग की थैली में 80 किलो कचरा निकला। इसी तरह 19 जुलाई को पीले रंग की थैली में 494 किलो और लाल रंग की थैली में 66 किलो कचरा निकला था। केजीएमयू में कोरोनावायरस के मरीज़ों के लिए 240 बेड उपलब्ध हैं। साथ ही यहां बड़ी संख्या में कोरोनावायरस की जांच होती है, जिससे बड़ी मात्रा में यहां से बायोमेडिकल कचरा निकल रहा है।
“यह कचरा बेहद संक्रमित होता है। बचाव के सारे उपाय अपनाने के बाद भी संक्रमण का डर तो रहता ही है। हमारे कर्मचारी भी पहले डरे हुए थे, कई काम छोड़कर भी चले गए,” केजीएमयू के एनवायरमेंट डिपार्टमेंट के प्रोफ़ेसर मो. परवेज़ ने इंडियास्पेंड को बाताय।
सफाई कर्मियों पर ख़तरा
कोरोनावायरस से संबंधित बायोमेडिकल कचरा, नष्ट होने से पहले यह अस्पताल से लेकर प्लांट तक कई लोगों के संपर्क में आता है। इसमें सबसे पहला नाम सफाई कर्मियों का है जो कोरोना वार्ड में यह कचरा इकट्ठा करते हैं।
“मेरी ड्यूटी कोरोना वार्ड में लगी थी। मैंने सारे नियमों का पालन किया, लेकिन पता नहीं कैसे कोरोना हो गया। मुझे लगता है जब मैं एक डेड बॉडी को भेज रहा था, तभी कुछ ग़लती हो गई,” राम मनोहर लोहिया में सफ़ाई कर्मचारी के तौर पर काम करने वाले प्रदीप (बदला हुआ नाम) ने बताया। हाल ही में हुई उनकी जांच के दौरान 20 साल के प्रदीप कोरोनावायरस से संक्रमित पाए गए हैं।
हाल ही में राम मनोहर लोहिया अस्पताल के कर्मचारियों ने उनकी अपनी जांच में लापरवाही का आरोप भी लगाया। “कोविड वार्ड में कर्मचारियों की ड्यूटी 14 दिन के लिए लगाई जाती है, लेकिन कर्मचारियों की कोरोनावायरस की जांच 12 दिन पर ही कर देते हैं। ऐसे में जांच के अगले दो दिन कर्मचारी कोविड वार्ड में ही ड्यूटी कर रहे हैं और उनके संक्रमित होने का ख़तरा बना हुआ है,” संविदा कर्मचारी संघ के महामंत्री सच्चितानंद मिश्र ने बताया।
”अब तक केजीएमयू में करीब 20 सफ़ाई कर्मचारी कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं। डॉक्टर कोरोना वार्ड में नहीं जाते, लेकिन सफ़ाई कर्मियों को तो साफ़-सफ़ाई के लिए जाना ही होता है। ऐसे में वह कोरोना मरीज़ों या उनके कचरे के संपर्क में सीधे आ रहे हैं,” संयुक्त स्वास्थ्य आउट सोर्सिंग संविदा कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष रीतेश मल ने इंडियास्पेंड को बताया।
रीतेश मल की बात का समर्थन केजीएमयू के कोरोना वार्ड में काम करने वाले वार्ड बॉय अमित कुमार वाल्मीकि भी करते हैं। “केजीएमयू में करीब 50 स्वास्थ्य कर्मी संक्रमित हुए हैं। इसमें से क़रीब 20 डॉक्टर हैं और बाकी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं, जिसमें वार्ड बॉय, नर्स और सफ़ाई कर्मी शामिल हैं,” अमित ने बताया।
हालांकि, केजीएमयू के प्रवक्ता सुधीर सिंह का कहना है कि “अब तक कुल 28 स्वास्थ्यकर्मी संक्रमित हुए हैं, इसमें से 18 डॉक्टर हैं और 10 अन्य कर्मचारी हैं जिसमें सफ़ाई कर्मी भी शामिल हैं।”
केजीएमयू के अलावा अन्य अस्पतालों में भी बहुतायत में सफ़ाई कर्मचारी संक्रमित हो रहे हैं। 22 जुलाई को लखनऊ के सिविल अस्पताल में एक साथ 12 सफ़ाई कर्मचारी संक्रमित पाए गए। इस अस्पताल में कोरोनावायरस के मरीज़ों का सैंपल लिया जाता है। इसके अलावा लखनऊ के ही राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भी एक सफ़ाई कर्मचारी सहित 9 मेडिकल स्टाफ़ संक्रमित पाए जा चुके हैं।
होम आइसोलेशन के नियम से बढ़ेगी दिक्कत
इन सब के अलावा यूपी में बायोमेडिकल कचरे के प्रबंधन को लेकर चुनौतियां और बढ़ने वाली हैं। यूपी सरकार ने कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों को देखते हुए बिना लक्षणों वाले मरीज़ों को होम आइसोलेशन की मंजूरी दी है। लेकिन सरकार की ओर से जारी आदेश में होम आइसोलेशन के दौरान कोरोनावायरस से संबंधित बायो मेडिकल कचरे पर कुछ नहीं कहा गया है।
हालांकि, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी गाइडलाइंस में इसका जिक्र किया है। गाइडलाइंस के मुताबिक, घरों में साधारण कचरे एवं बायोमेडिकल कचरे के कूड़ेदान अलग होने चाहिए। होम आइसोलेशन की देखरेख करने वाले कर्मचारी को बायोमेडिकल कचरे का ट्रीटमेंट करने वाले कर्मचारियों को समय-समय पर बुलाना है। इन घरों से निकलने वाले बायोमेडिकल कचरे को ‘domestic hazardous waste’ के तौर पर ट्रीट करना है।
लखनऊ के राजाजीपुरम के रहने वाले विजय (बदला हुआ नाम) और उनकी मां कोरोना पॉजिटिव हैं। इन्हें कोई लक्षण नहीं है तो यह लोग होम आइसोलेशन में रह रहे हैं।
“मेरा तीन मंज़िल का मकान है। सबसे नीचे परिवार रह रहा है, दूसरे पर मैंने खुद को आइसोलेट किया है और तीसरी मंज़िल पर मेरी माता जी आइसोलेटेड हैं,” विजय बताते हैं।
विजय के मुताबिक उन्हें अलग से बायोमेडिकल कचरे से संबंधित कोई जानकारी नहीं दी गयी है। “वैसे तो ज़्यादा कचरा निकलता नहीं है क्योंकि मैं कमरे में ही रहता हूं, लेकिन जो भी थोड़ा बहुत कचरा निकल रहा है वो पन्नी में बांध कर कचरा इकट्ठा करने वाले को दे देते हैं,” विजय ने बताया।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की गाइडलाइंस के मुताबिक़, इस्तेमाल किये जा चुके मास्क और दस्तानों को डिस्पोज़ करने से पहले कम से कम 72 घंटे तक काग़ज़ की थैली में रखना है। साथ ही मास्क और दस्तानों को काट देना है जिससे यह फिर से इस्तेमाल करने लायक न रहें। यह नियम सभी पर लागू होता है, चाहे व्यक्ति संक्रमित है या नहीं है।(indiaspend)
- गायत्री यादव
‘एक लड़की को हमेशा अपने पिता के संरक्षण में रहना चाहिए। शादी के बाद पति उसका संरक्षक होना चाहिए और पति की मौत के बाद उसे अपने बच्चों की दया पर निर्भर रहना चाहिए यानी किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।’ यह बात हिंदुओं के पवित्र ग्रन्थ माने जाने वाले ‘मनुस्मृति’ के पांचवे अध्याय के 148वें श्लोक में कही गई है। इस अध्याय में महिलाओं के कर्तव्य, उनकी पवित्रता और अपवित्रता के बारे में भी ‘निर्देश’ दिए गए हैं। हमारे पूरे सामाजिक इतिहास में उत्तर-वैदिक काल से ही धर्म एक ऐसा सामाजिक संस्थान रहा है जिसने मानवीय जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। धार्मिक ग्रंथों में लिखी बातें ही आज सामाजिक आचार संहिता के रूप में काम कर रही हैं। ये सामान्य समझी जाने वाली मान्यताएं भी औरतों की स्वतंत्रता के रास्ते में एक रुकावट की तरह काम करती हैं और हमारे परिवार सामाजिक संस्थान के रूप में महिलाओं के शोषण के ‘हथियार’ के रूप में काम करते हैं।
महिलाओं पर परिवार का सर्विलांस
परिवार एक ऐसी इकाई है जिसके निर्देशन के केंद्र में धार्मिक मान्यताएँ होती हैं। धार्मिक मान्यताओं का आधार धार्मिक ग्रंथों में लिखी गई बातें हैं। इस तरह धर्म और परिवार आपस में मिलकर एक ऐसी संस्कृति का निर्माण करते हैं जो महिलाओं के खिलाफ ‘सर्विलांस’ का काम करती है क्योंकि कई धार्मिक मान्यताओं का कहना है कि किसी भी स्थिति में एक महिला आज़ाद नहीं हो सकती।
इस पूरे सर्विलांस सिस्टम की जड़ें मानवीय सभ्यता के इतिहास से जुड़ी हुई हैं। सभ्यता के शुरुआती दौर में जब आदिम साम्यवादी समाज अस्तित्व में थी तो हर व्यक्ति भोजन के लिए खुद शिकार करता और अपना भरण-पोषण करता था। मगर जैसे-जैसे सामाजिक परिवर्तन हुआ उसके साथ ही संसाधनों का बंटवारा भी हुआ और श्रम विभाजन यानी ‘डिवीज़न ऑफ़’ लेबर अस्तित्व में आया। इसी के तहत महिलाओं को घर के अंदर कैद कर दिया गया।
सामंतवादी दौर आते-आते महिलाओं को घर की इज्ज़त का प्रतीक बना दिया गया और यह धारणा बनाई गई कि महिलाओं का घर से बाहर निकलना पूरे परिवार की इज्ज़त के लिए खतरा है। इसी धारणा के तहत महिलाओं को बाहरी दुनिया से काट दिया गया और पारिवारिक अस्मिता को सर्वोपरि रखते हुए, इसकी खातिर जान न्योछावर कर देने को भी न्यायसंगत बनाया गया। इतिहास में चर्चित ‘जौहर प्रथा’ इसी का एक परिणाम है।
फ़्रांस में ज्ञानोदय और औद्योगिक क्रांति के बाद कुछ सामाजिक परिवर्तन तो हुए मगर सामंती धारणा पूरी तरह खत्म नहीं हुई और इसके परिणामस्वरूप परिवार आज भी एक पितृसत्तात्मक संस्थान बना हुआ है। परिवार के अन्दर पुरुष की बेटी,बहन,पत्नी और मां आदि के रूप में महिलाओं को पुरुष के अधीन रहना सिखाया गया, जो महिलाओं की स्वायत्त पहचान पर एक हमला है। इस संस्कृति जिसके मूल में पितृसत्ता है, का अनुसरण करते हुए परिवार यह भी तय करने लगा कि घर की औरतें क्या पहनकर, किसके साथ और कितने बजे से कितने बजे तक घर से बाहर रहेंगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि चूंकि यह नियम परिवार के मुखिया द्वारा तय किए जाते हैं इसलिए एक तरीके से एक पुरुष ही संस्थान के रूप में महिलाओं की देह को हर तरीके से नियंत्रित कर रहा है।
कामकाजी महिलाओं के खिलाफ पितृसत्ता का नैरेटिव
पितृसत्ता को सही ठहराने और महिलाओं की देह को नियंत्रित करने का काम बॉलीवुड की फ़िल्मों ने भी बखूबी किया है। ‘लस्ट स्टोरी’ का वह भाग याद करिए जिसमें भूमि पेडनेकर को घर के काम करने वाली बाई के रूप में दिखाया गया है। इस भाग में वह घर के मालिक के साथ सेक्स करते हुए दिखाई गईं हैं। हालांकि यह फिल्म महिलाओं की यौन इच्छाओं यानि सेक्शुअल डिज़ायर पर आधारित थी मगर हमें इस भाग को एक अलग सन्दर्भ में भी देखना होगा। महिलाओं की सेक्सुअलिटी को हमेशा से पुरुष ही नियंत्रित करते आये हैं। इसलिए पहले उन्होंने इससे संबंधित पैमाने भी बनाए और इन पैमानों में यह बात स्पष्ट थी कि वह महिला, जो अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाती है, वह चरित्रहीन है।
एक महिला का चरित्र हनन करना पितृसत्ता के मूल स्वाभाव में रहा है। इसी स्वाभाव की अभिव्यक्ति के रूप में फ़िल्मों के ऐसे सीन के ज़रिये एक धारणा बनाने की कोशिश की गई कि घर में काम करने वाली बाई के उस घर के पुरुष से नाजायज़ संबंध होते हैं। चूंकि वो बाई दरअसल कामकाजी औरत का प्रतीक है इसलिए एक प्रतीक के रूप में यह सम्पूर्ण कामकाजी औरतों के नीचा दिखाने के उद्देश्य से बनाया गया तंत्र है। साथ ही यदि इन महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि पर नज़र डाली जाए तो समझ आएगा कि कैसे यह नैरेटिव न सिर्फ महिलाओं बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के भी खिलाफ है।
औद्योगीकरण के बाद महिलाओं का घर से बाहर निकल कर काम करना और खुद के दम पर परिवार का जीवन यापन करना पितृसत्ता पर एक आघात था। यह एक पुरुष की आन के खिलाफ़ था कि वह पत्नी का कमाया हुआ खाए। इसलिए महिलाओं, खासकर शादीशुदा महिलाओं के घर से बाहर निकलकर काम करने के खिलाफ़ नैरेटिव बनाए गढ़े गए। हमारे घर-परिवार में ठिठोली करते हुए ननद द्वारा अक्सर भाभी को यह कहा जाता है कि “भाभी भईया पर नज़र रखना कहीं उनका बाई से चक्कर न चलने लगे।” ठिठोली में कही गई यह बात दरअसल उसी धारणा का प्रतिबिम्ब है कि दूसरे के घरों में काम करने वाली महिलाओं के अपने मालिक से नाजायज़ संबंध होते हैं। असल में यह नैरेटिव पितृसत्ता द्वारा गढ़ा जाता है जिसके तहत महिलाओं को पूंजी से दूर रखने के पूरे प्रयास किए जाते हैं। चूंकि पूंजी ताकत का पर्याय है इसलिए महिलाओं को पूंजी से दूर किया जाना पितृसत्ता के वजूद के लिए आवश्यक है। यही कारण है कि ‘अकबरनामा’ का यह कथन कि ‘अच्छे घरों की महिलाएं घरों से बाहर नहीं निकलतीं’, आज भी पारिवारिक मान्यता का हिस्सा बना हुआ है।
शिक्षण संस्थानों का पितृसत्तात्मक चरित्र
हमारे आस-पास घर से बाहर निकल कर पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या अब भी पुरुषों के मुकाबले बेहद कम है। जो बाहर निकल भी रही हैं उनके परिवार की तरफ से सुरक्षित रहने की शर्त चस्पा कर दी गई है। यह शर्त अकेली नहीं है इसके साथ कुछ निर्देश शामिल हैं, जैसे इतने बजे से उतने बजे तक बाहर रहना है, लड़कों से दूर रहना है, किसी ‘चक्कर’ में नहीं पड़ना है, छोटे कपड़े नहीं पहनने हैं, किसी भी तरह के प्रदर्शन वगैरह में शामिल नहीं होना है आदि।
अभिभावकों के लिए अपनी लड़की की सुरक्षा के लिए सबसे मुफ़ीद जगह कॉलेज-यूनिवर्सिटी के हॉस्टल या फिर सख़्त नियमों वाले प्राइवेट पीजी हैं। खास बात यह है कि ‘घर से बाहर एक घर’ जैसे दावों के साथ स्थापित प्राइवेट पीजी केवल सुविधा के आधार पर ही यह दावा नहीं करते बल्कि ये उन्हीं पाबंदियों का पालन करते हैं जो घर में प्रचलित हैं। यही हाल यूनिवर्सिटी के हॉस्टल का भी है जहां अमूमन 8 से 9 बजे रात का सख्त कर्फ्यू यह सुनिश्चित करता है कि लड़की ज्यादा देर तक बाहर न रहे।
दरअसल जिस तरह के अपराधों का शिकार होने से तथाकथित रूप से बचाने के लिए यह सख़्त नियम बनाए गए हैं उनमें अपराध करने वाले पुरुष होते हैं मगर ताज्जुब की बात यह है कि लड़कियों के हॉस्टल के विपरीत लड़कों के हॉस्टल में अमूमन कोई भी कर्फ्यू टाइमिंग नहीं होती। इस तरह सुरक्षा के नाम पर लड़कियों को कैद करने की जो पितृसत्तात्मक नियम हमारा परिवार बनाता है। आधुनिक शिक्षा देने का दावा करने वाले यह शैक्षणिक संस्थान इस तरह के नियमों के ज़रिए उसे आधिकारिक मान्यता प्रदान कर देते हैं।
हमारे आस-पास जितनी मान्यताएं प्रचलित हैं उनमें से ज़्यादातर की शुरुआत हमारे परिवार से होती है। यह और बात है कि ये मान्यताएं हमारे परिवार में अचानक पैदा नहीं होती, इसके अपने सामाजिक कारण हैं। मगर इनके मूल में वही सामंतवादी सोच निहित होती है जिसका निर्माण इस लेख की शुरुआत में दिए गए श्लोक पर आधारित है। मुक्त व्यापार अस्तित्व में आने के बाद महिलाओं की प्रगति और सशक्तीकरण के अवसर बढ़ने चाहिए थे मगर सामाजिक चरित्र में सामंती सोच हावी होने के कारण इसके विपरीत हर संभव प्रयास किए गए ताकि उन्हें नियंत्रित रखा जाए। ‘अच्छी लड़की’ की परिभाषा ऐसे दी गई की उसका स्वतंत्र अस्तित्व ही ख़त्म हो जाए।
कॉलेज में पढ़ने वाली हर लड़की को यह डर रहता है कि यदि वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ डेट पर जाती है या फिर किसी प्रदर्शन में हिस्सा लेती है तो उसकी पढ़ाई-लिखाई बंद करके उसकी शादी करा दी जाएगी। यह डर इसलिए भी लाज़मी हो जाता है क्योंकि शादी होने के बाद न सिर्फ स्वतंत्रता और भी कम हो जाती है बल्कि शोषण भी बढ़ जाता है। जो परिवार तथाकथित रूप से लिबरल हैं और शादी के बाद भी नौकरी करने की अनुमति देते हैं, वे भी इस बात का ख़ास ख़्याल रखते हैं कि ऑफ़िस ज़्यादा दूर न हो और शाम ढलने से पहले उनकी बहु घर वापस आ जाए। शादी से पहले तक जो पाबन्दी छोटे कपड़े पहनने तक होती है, शादी के बाद वह साड़ी पहनने और घूंघट रखने की अनिवार्यता तक पहुंच जाती है।
इस प्रकार स्वतंत्रता के तमाम पूंजीवादी दावों के बावजूद भी महिलाओं की कैद बरकरार है। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह कैद परिवार जैसा सामाजिक संस्थान है जिससे प्रत्येक व्यक्ति जन्म से ही भावनात्मक जुड़ाव रखता है. पुरुषों के विपरीत यही जुड़ाव महिलाओं के शोषण की धुरी बन जाता है। इसलिए महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए पारिवारिक मान्यताओं का टूटना एक आवश्यक शर्त है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- विकास बहुगुणा
राजस्थान में सत्ताधारी कांग्रेस के भीतर उथल-पुथल जारी है. पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष के साथ-साथ उपमुख्यमंत्री पद से भी हटा दिए गए सचिन पायलट बागी रुख अपनाए हुए हैं. हालांकि कांग्रेस इसे भाजपा की साजिश बता रही है. पार्टी नेता अजय माकन ने बीते दिनों कहा कि यदि चुनी गई किसी सरकार को पैसे की ताकत से अपदस्थ किया जाता है, तो यह जनादेश के साथ धोखा और लोकतंत्र की हत्या है. पार्टी के दूसरे नेता भी कमोबेश ऐसी बातें कई बार कह चुके हैं.
इससे पहले विधायकों की बगावत के बाद कांग्रेस, भाजपा के हाथों कर्नाटक और मध्य प्रदेश की सत्ता गंवा चुकी है. तब भी उसने केंद्र में सत्ताधारी पार्टी पर लोकतंत्र की हत्या करने का आरोप लगाया था. कई विश्लेषक भी इस तरह सत्ता परिवर्तन को लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं बताते. हाल में सत्याग्रह पर ही प्रकाशित अपने एक लेख में चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा का कहना था, ‘अगर विधायक किसी भी समय खरीदे और बेचे जा सकते हैं तो फिर चुनाव करवाने का मतलब ही क्या है? क्या इससे उन भारतीयों की लोकतांत्रिक इच्छा के कुछ मायने रह जाते हैं जिन्होंने इन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में वोट दिया था? अगर पैसे की ताकत का इस्तेमाल करके इतने प्रभावी तरीके से निष्पक्ष और स्वतंत्र कहे जाने वाले किसी चुनाव का नतीजा पलटा जा सकता है तो भारत को सिर्फ चुनाव का लोकतंत्र भी कैसे कहा जाए?’
ऐसे में पूछा जा सकता है कि जिस कांग्रेस पार्टी की सरकारें गिराने या ऐसा करने की कोशिशों के लिए भारतीय लोकतंत्र पर भी सवाल उठाया जा रहा है, उस कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र का क्या हाल है? क्या भाजपा पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगा रही कांग्रेस खुद इस लोकतंत्र को कोई बेहतर विकल्प दे सकती है? क्या खेत की मिट्टी से ही उसमें उगने वाली फसल की गुणवत्ता तय नहीं होती है?
2019 के आम चुनाव में भाजपा की दोबारा प्रचंड जीत के बाद तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया था. इससे एक सदी पहले यानी 1919 में मोतीलाल नेहरू पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे. 1919 से 2019 तक 100 साल के इस सफर के दौरान कांग्रेस में जमीन-आसमान का फर्क आया है. तब कांग्रेस आसमान पर थी और उसके मूल्य भी ऊंचे थे. आज साफ है कि वह दोनों मोर्चों पर घिसट भी नहीं पा रही है.
मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू के वक्त की कांग्रेस परंपरावाद से लेकर आधुनिकता तक कई विरोधाभासी धाराओं को साथ लिए चलती थी. नेतृत्व के फैसलों पर खुलकर बहस होती थी और इसमें आलोचना के लिए भी खूब जगह थी. 1958 के मूंदड़ा घोटाले के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है. यह आजाद भारत का पहला वित्तीय घोटाला था और इसने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बड़ी किरकिरी की थी. इसकी एक वजह यह भी थी कि इसे उजागर करने वाला और कोई नहीं बल्कि उनके ही दामाद और कांग्रेस के सांसद फीरोज गांधी थे. इस घोटाले के चलते तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णमचारी को इस्तीफा देना पड़ा था.
इसी सिलसिले में 1962 का भी एक किस्सा याद किया जा सकता है. चीन के साथ युद्ध को लेकर संसद में बहस गर्म थी. अक्साई चिन, चीन के कब्जे में चले जाने को लेकर विपक्ष ने हंगामा मचाया हुआ था. इसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने संसद में यह बयान दिया कि अक्साई चिन में घास का एक तिनका तक नहीं उगता. कहते हैं कि इस पर उनकी ही पार्टी के सांसद महावीर त्यागी ने अपना गंजा सिर उन्हें दिखाया और कहा, ‘यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं.’
अब 2020 पर आते हैं. क्या आज की कांग्रेस में ऐसी किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है? एक ताजा उदाहरण से ही इसे समझते हैं. कांग्रेस प्रवक्ता रहे संजय झा ने कुछ दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार में एक लेख लिखा. इसमें कहा गया था कि दो लोकसभा चुनावों में इतनी बुरी हार के बाद भी ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि पार्टी खुद को पुनर्जीवित करने के प्रति गंभीर है. उनका यह भी कहना था कि अगर कोई कंपनी किसी एक तिमाही में भी बुरा प्रदर्शन करती है तो उसका कड़ा विश्लेषण होता है और किसी को नहीं बख्शा जाता, खास कर सीईओ और बोर्ड को. संजय झा का कहना था कि कांग्रेस के भीतर ऐसा कोई मंच तक नहीं है जहां पार्टी की बेहतरी के लिए स्वस्थ संवाद हो सके. इसके बाद उन्हें प्रवक्ता पद से हटा दिया गया. इसके कुछ दिन बाद उन्होंने राजस्थान के सियासी घटनाक्रम पर टिप्पणी की. इसमें संजय झा का कहना था कि जब सचिन पायलट के राज्य इकाई का अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में शानदार वापसी की तो उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए था. इसके बाद संजय झा को पार्टी से भी निलंबित कर दिया गया. इसका कारण उनका पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होना और अनुशासन तोड़ना बताया गया.
माना जाता है कि कांग्रेस के भीतर कभी मौजूद रही लोकतंत्र की शानदार इमारत के दरकने की शुरुआत इंदिरा गांधी के जमाने में हुई. वे 1959 में पहली बार कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं. उस समय भी कहा गया था कि जवाहरलाल नेहरू अपनी बेटी को आगे बढ़ाकर गलत परंपरा शुरू कर रहे हैं. इस आलोचना का नेहरू ने जवाब भी दिया था. उनका कहना था कि वे बेटी को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार नहीं कर रहे हैं. प्रथम प्रधानमंत्री के मुताबिक वे कुछ समय तक इस विचार के खिलाफ भी थे कि उनके प्रधानमंत्री रहते हुए उनकी बेटी कांग्रेस की अध्यक्ष बन जाएं.
हालांकि कई ऐसा नहीं मानते. एक साक्षात्कार में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘नेहरू खुद इंदिरा को कांग्रेस के नेतृत्व की कतार में खड़ा करने, बनाए रखने और जिम्मेदारी सौंपने का प्रयास करते रहे. जब नेहरू की तबीयत थोड़ी कमजोर हुई तो उन्होंने इंदिरा को कांग्रेस की कार्यसमिति में रखा.’ यह भी कहा जाता है कि अध्यक्ष पद के लिए पहले दक्षिण भारत से तालुल्क रखने वाले धाकड़ नेता निजलिंगप्पा का नाम प्रस्ताव हुआ था, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इस पर चुप्पी ओढ़ ली और फिर जब इंदिरा गांधी के नाम का प्रस्ताव आया तो उन्होंने हामी भर दी.
महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे कांग्रेसी दिग्गजों ने हमेशा कोशिश की कि उनके बच्चे उनकी राजनीतिक विरासत का फायदा न उठाएं. लेकिन इंदिरा गांधी इससे उलट राह पर गईं. जैसा कि अपने एक लेख में पूर्व नौकरशाह और चर्चित लेखक पवन के वर्मा लिखते हैं, ‘उन्होंने वंशवाद को संस्थागत रूप देने की बड़ी भूल की. अपने छोटे बेटे संजय को वे खुले तौर पर अपना उत्तराधिकारी मानती थीं.’ जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में असमय मौत हुई तो इंदिरा अपने बड़े बेटे और पेशे से पायलट उन राजीव गांधी को पार्टी में ले आईं जिनकी राजनीति में दिलचस्पी ही नहीं थी.
सोनिया गांधी की जीवनी ‘सोनिया : अ बायोग्राफी’ में वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई लिखते हैं, ‘इंदिरा और राजीव गांधी की इस पारिवारिक पकड़ ने पार्टी में नंबर दो का पद भी ढहा दिया था. हमेशा सशंकित रहने वाली इंदिरा गांधी ने राजीव को एक अहम सबक सिखाया - स्थानीय क्षत्रपों पर लगाम रखो और किसी भी ऐसे शख्स को आगे मत बढ़ाओ जो नेहरू-गांधी परिवार का न हो.’
इंदिरा गांधी ने खुद यही किया था. उनके समय में ही कांग्रेस में ‘हाईकमान कल्चर’ का जन्म हुआ और क्षेत्रीय नेता हाशिये पर डाल दिए गए. लंदन के मशहूर किंग्स कॉलेज के निदेशक और चर्चित लेखक सुनील खिलनानी अपने एक लेख में कहते हैं कि ऐसा इंदिरा गांधी ने दो तरीकों से किया - पहले उन्होंने पार्टी का विभाजन किया और फिर ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं कि पार्टी से वफादारी के बजाय इंदिरा गांधी से वफादारी की अहमियत ज्यादा हो गई.
इंदिरा गांधी ने यह बदलाव पैसे का हिसाब-किताब बदलकर किया. पहले पैसे का मामला पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से अलग रखा जाता था. जवाहरलाल नेहरू आदर्शवादी नेता थे लेकिन उन्हें यह भी अहसास था कि कांग्रेस जैसी विशाल पार्टी को चलाने के लिए काफी पैसे की जरूरत होती है, तो उन्होंने यह काम स्थानीय क्षत्रपों पर छोड़ रखा था जो अपने-अपने तरीकों से पैसा जुटाते और इसे अपने इलाकों में चुनाव पर खर्च करते. सुनील खिलनानी लिखते हैं, ‘इंदिरा गांधी ने यह व्यवस्था खत्म कर दी. अब स्थानीय नेताओं को दरकिनार करते हुए नकदी सीधे उनके निजी सचिवों के पास पहुंचाई जाने लगी और उम्मीदवारों को चुनावी खर्च के लिए पैसा देने की व्यवस्था पर इंदिरा गांधी के दफ्तर का नियंत्रण हो गया. पैसा पहले ब्रीफकेस में भरकर आता था. बाद में सूटकेस में भरकर आने लगा.’ सुनील खिलनानी के मुताबिक इस सूटकेस संस्कृति के जरिये इंदिरा गांधी ने अपने चहेते वफादारों का एक समूह खड़ा कर लिया जिसे इस वफादारी का इनाम भी मिलता था. इस सबका दुष्परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस वोट पाने से लेकर विधायक दल का नेता चुनने तक हर मामले में नेहरू-गांधी परिवार का मुंह ताकने लगी.
यही वजह थी कि 1984 में जब अपने अंगरक्षकों के हमले में इंदिरा गांधी की असमय मौत हुई तो राजनीति के मामले में नौसिखिये राजीव गांधी को तुरंत ही पार्टी की कमान दे दी गई. उन्होंने अपनी मां से मिले सबक याद रखे. राशिद किदवई ने अपनी किताब में लिखा है कि शरद पवार, नारायण दत्त तिवारी और अर्जुन सिंह जैसे कई मजबूत क्षत्रपों पर लगाम रखने के लिए राजीव गांधी ने भी नेताओं का एक दरबारी समूह बनाया. कोई खास जनाधार न रखने वाले इन नेताओं को ताकतवर पद दिए गए. बूटा सिंह, गुलाम नबी आजाद और जितेंद्र प्रसाद ऐसे नेताओं में गिने गए. यानी इंदिरा गांधी ने कांग्रेस में लोकतंत्र के खात्मे की जो प्रक्रिया शुरू की थी उसे राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया.
1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद भी वही हुआ जो 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ था. इस घटना के बाद दिल्ली में उनके निवास 10 जनपथ पर कार्यकर्ताओं की भारी भीड़ जमा थी. वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह भी वहां मौजूद थीं. इसी दौरान अपने एक सहयोगी से उन्हें खबर मिली कि कांग्रेस कार्यसमिति की एक बैठक हुई है जिसमें सोनिया गांधी को पार्टी की कमान देने का फैसला हुआ है. यह सुनकर वे हैरान रह गईं. अपनी किताब दरबार में वे लिखती हैं, ‘मैंने कहा कि वे तो विदेशी हैं और हिंदी तक नहीं बोलतीं. वे कभी अखबार नहीं पढ़तीं. ये पागलपन है.’ सोनिया गांधी तब कांग्रेस की सदस्य तक नहीं थीं. अपनी किताब में राशिद किदवई लिखते हैं, ‘सोनिया गांधी में नेतृत्व के गुण हैं या नहीं, उन्हें भारतीय राजनीति की पेचीदगियों का अंदाजा है या नहीं, इन बातों पर जरा भी विचार नहीं किया गया.’
हालांकि सोनिया गांधी ने उस समय यह पद ठुकरा दिया. एक बयान जारी करते हुए उन्होंने कहा कि जो विपदा उन पर आई है उसे और अपने बच्चों को देखते हुए उनके लिए कांग्रेस अध्यक्ष का पद स्वीकार करना संभव नहीं है. परिवार के सूत्रों के मुताबिक सोनिया गांधी को कांग्रेस कार्यसमिति का यह फैसला काफी असंवेदनशील भी लगा क्योंकि तब तक राजीव गांधी का अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ था. राशिद किदवई के मुताबिक उस समय परिवार के काफी करीबी रहे अमिताभ बच्चन ने कहा कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी को भी इसी तरह पार्टी की कमान थामने को मजबूर किया गया था और कब तक गांधी परिवार के सदस्य इस तरह बलिदान देते रहेंगे.
इसके बाद अगले चार साल तक कांग्रेस की कमान तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के पास रही. 1978 में ब्रह्मानंद रेड्डी के बाद से यह पहली बार था जब पार्टी की अगुवाई गांधी परिवार से बाहर का कोई शख्स कर रहा था. हालांकि तब भी गांधी परिवार कांग्रेस के भीतर एक शक्ति केंद्र था ही. कहा जाता है कि नरसिम्हा राव से असंतुष्ट नेता सोनिया गांधी को अपना दुखड़ा सुनाते थे. राव के बाद दो साल पार्टी सीताराम केसरी की अगुवाई में चली.
तब तक 1996 के आम चुनाव आ चुके थे. इन चुनावों में सत्ताधारी कांग्रेस का प्रदर्शन काफी फीका रहा. पांच साल पहले 244 सीटें लाने वाली पार्टी इस बार 144 के आंकड़े पर सिमट गई. उधर, भाजपा का आंकड़ा 120 से उछलकर 161 पर पहुंच गया. कांग्रेस का एक धड़ा सोनिया गांधी को वापस लाने की कोशिशों में जुटा था. पार्टी की बिगड़ती हालत ने उसकी इन कोशिशों को वजन दे दिया. 1997 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में सोनिया गांधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता दिलाई गई और इसके तीन महीने के भीतर ही वे अध्यक्ष बन गईं.
कांग्रेस के अब तक हुए अध्यक्षों की सूची देखें तो सोनिया गांंधी राजनीति के लिहाज से सबसे ज्यादा नातजुर्बेकार थीं लेकिन, उन्होंने सबसे ज्यादा समय तक यह कुर्सी संभाली. वे करीब दो दशक तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं और अब फिर अंतरिम अध्यक्ष के रूप में पार्टी की कमान संभाले हुए हैं.
इसी तरह राहुल गांधी 2004 में सक्रिय राजनीति में आए. तीन साल के भीतर उन्हें पार्टी महासचिव बना दिया गया. 2013 में यानी राजनीति में आने के 10 साल से भी कम वक्त के भीतर राहुल गांधी कांग्रेस उपाध्यक्ष बन गए. 2017 में वे अध्यक्ष बनाए गए. 2019 में उन्होंने पद छोड़ा तो चुनाव नहीं हुए बल्कि सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष बन गईं. इसी तरह कोई चुनाव न जीतने के बाद भी प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव हैं. और परिवार में कथित तौर पर सबसे ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता रखने के बाद भी सिर्फ पारिवारिक समीकरणों के चलते ही वे शायद पार्टी में बड़ी मांग होने पर भी उसके लिए खुलकर राजनीति नहीं कर पा रही हैं.
यानी कि अब भी कांग्रेस उसी तरह चल रही है जैसी राजीव और इंदिरा गांधी के समय चलती थी. इसका मतलब यह है कि पार्टी के भीतर लोकतंत्र पहले की तरह अब भी गायब है. अगर इससे थोड़ा आगे बढ़ें तो यह भी कहा जा सकता है कि जब गांधी परिवार के भीतर ही नेतृत्व का निर्णय लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित नहीं है तो इसकी उम्मीद पार्टी के स्तर पर कैसे की जा सकती है! राजीव-इंदिरा की तरह आज सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द भी नेताओं की एक मंडली जमी रहती है और बाकियों को इसके जरिये ही उन तक अपनी बात पहुंचानी पड़ती है. राज्यों के चुनाव होते हैं तो विधायक दल का नेता चुनने का अधिकार केंद्रीय नेतृत्व को दे दिया जाता है जो अपनी पसंद का नाम तय कर देता है. संसदीय दल का नेता चुनने के मामले में भी ऐसा ही होता है.
2004 के आम चुनाव में तो मामला इससे भी आगे चला गया था. कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें लाई थीं और उसके नेतृत्व में गठबंधन सरकार बननी थी. लेकिन विदेशी मूल का हवाला देकर भाजपा ने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध शुरू कर दिया. इसके बाद सोनिया गांधी खुद प्रधानमंत्री नहीं बनीं लेकिन उनके एक इशारे पर ही मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया गया. लेकिन बात यहीं नहीं रुकी. प्रधानमंत्री को सलाह देने के लिए एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी बन गई जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं. इस तरह का काम भारतीय लोकतंत्र में पहली बार हुआ था और इसके चलते सोनिया गांधी को सुपर पीएम कहा जाने लगा था.
वे दिन अब बीत चुके हैं. बीते साल कांग्रेस को लगातार दूसरे आम चुनाव में भयानक हार का सामना करना पड़ा. 2014 में महज 44 लोकसभा सीटें लाने वाली पार्टी 2019 के आम चुनाव में इस आंकड़े में सिर्फ आठ की बढो़तरी कर सकी. इस तरह देखें तो पार्टी के एक परिवार पर निर्भर होने के लिहाज से भी इस समय एक दिलचस्प स्थिति है. ऐसा पहली बार है जब गांधी परिवार के तीन सदस्य कांग्रेस में तीन सबसे प्रभावशाली भूमिकाओं में हैं और ठीक उसी वक्त पार्टी सबसे कमजोर हालत में है. अभी तक कहा जाता था कि गांधी परिवार एक गोंद की तरह कांग्रेस को जोड़े रखता है क्योंकि इसका करिश्मा चुनाव में वोट दिलवाता है. लेकिन साफ है कि वह करिश्मा अब काम नहीं कर रहा. पवन के वर्मा कहते हैं, ‘सच ये है कि पार्टी एक ऐसे परिवार की बंधक बनी हुई है जो दो आम चुनावों में इसका खाता 44 से सिर्फ 52 तक पहुंचा सका.’ उनके मुताबिक कांग्रेस को नेतृत्व से लेकर संगठन तक बुनियादी बदलाव की जरूरत है और तभी वह एक ऐसा विश्वसनीय विपक्ष बन सकती है जिसकी लोकतंत्र को जरूरत होती है.
दबी जुबान में ही सही, कांग्रेस के भीतर से भी इस तरह के सुर सुनाई दे रहे हैं. कुछ समय पहले पार्टी नेता संदीप दीक्षित का कहना था कि ‘महीनों बाद भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता नया अध्यक्ष नियुक्त नहीं कर सके. वजह ये है कि वे डरते हैं कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे.’ पूर्व सांसद ने यह भी कहा कि कांग्रेस के पास नेताओं की कमी नहीं है और अब भी कांग्रेस में कम से कम छह से आठ नेता हैं जो अध्यक्ष बनकर पार्टी का नेतृत्व कर सकते हैं. उनके इस बयान का पार्टी के वरिष्ठ नेता शशि थरूर ने भी खुला समर्थन किया. उन्होंने कहा, ‘संदीप दीक्षित ने जो कहा है वह देश भर में पार्टी के दर्जनों नेता निजी तौर पर कह रहे हैं.’ शशि थरूर का आगे कहना था, ‘मैं कांग्रेस कार्यसमिति से फिर आग्रह करता हूं कि कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार करने और मतदाताओं को प्रेरित करने के लिए नेतृत्व का चुनाव कराया जाए.’
लेकिन अध्यक्ष पद के लिए चुनाव एक ऐसी बात है जो कांग्रेस में अपवाद और अनोखी बात रही है. आखिर बार ऐसा 2001 में हुआ था जब सोनिया गांधी के सामने जितेंद्र प्रसाद खड़े हुए थे और महज एक फीसदी वोट हासिल कर सके थे. उससे पहले 1997 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ था जिसमें सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को हराया था. और इससे पहले चुनाव की नौबत 1950 में तब आई थी जब जवाहरलाल नेहरू की नापसंदगी के बाद भी पुरुषोत्तम दास टंडन को ज्यादा वोट मिले थे और वे कांग्रेस के मुखिया बन गए थे. बाकी सभी मौकों पर पार्टी अध्यक्ष का चुनाव बंद कमरों में होता रहा है.
कांग्रेस के कई नेताओं के अलावा कुछ विश्लेषक भी मानते हैं कि किसी नए चेहरे का लोकतांत्रिक रूप से चुनाव ही भारत की सबसे पुरानी पार्टी को नया रूप देने का सबसे सही तरीका हो सकता है. अपने एक लेख में रामचंद्र गुहा कहते हैं कि इससे भी आगे बढ़कर वह प्रक्रिया अपनाई जा सकती है जो अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी अपनाती है और जो कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक है. वे लिखते हैं, ‘पार्टी सदस्यों तक सीमित रहने वाले चुनाव से पहले टेलीविजन पर बहसें और टाउन हॉल जैसे आयोजन हो सकते हैं जिनमें उम्मीदवार अपने नजरिये और नेतृत्व की अपनी क्षमता का प्रदर्शन करें. आखिर कांग्रेस इस बारे में क्यों नहीं सोचती?’
रामचंद्र गुहा का मानना है कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव उन लोगों के लिए भी खुला होना चाहिए जो कभी कांग्रेस में थे, लेकिन उसे छोड़कर चले गए. उदाहरण के लिए ममता बनर्जी. इस चर्चित इतिहासकार के मुताबिक ऐसे लोगों को भी उम्मीदवारी पेश करने की छूट दी जा सकती है जो कभी कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं रहे. वे लिखते हैं, ‘मसलन कोई सफल उद्यमी या करिश्माई सामाजिक कार्यकर्ता भी दावेदार हो सकता है जिससे चुनाव कहीं ज्यादा दिलचस्प हो जाएगा.’ उनके मुताबिक उम्मीदवारों को साक्षात्कार-भाषण देने और व्यक्तिगत घोषणा पत्र जारी करने की छूट होनी चाहिए. रामचंद्र गुहा मानते हैं कि अगर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव इतना लोकतांत्रिक और पारदर्शी हो जाए तो तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस जैसी वे पार्टियां उसके साथ आ सकती हैं जिनके नेताओं के बारे में माना जाता है कि वे सिर्फ इसलिए कांग्रेस छोड़कर चले गए कि उन्हें एक हद से आगे नहीं बढ़ने दिया गया.
कई और विश्लेषक भी मानते हैं कि कांग्रेस इस बात को समझ नहीं पा रही कि नेहरू गांधी परिवार को लेकर उसकी जो श्रद्धा है, वही उसके उद्धार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है. अपने एक लेख में राशिद किदवई कहते हैं, ‘जो नए मतदाता हैं या जिसे हम न्यू इंडिया कहते हैं, वे जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से ऊब चुके हैं. वे एक ही परिवार से हटना चाह रहे हैं.’ उनके मुताबिक जिस दिन कांग्रेस को यह समझ में आ जाएगा कि वह नेहरू-गांधी परिवार का इस्तेमाल भले करे, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व किसी और को दे दे, उसी दिन से कांग्रेस में बदलाव शुरू हो जाएगा.’
सवाल उठता है कि क्या ऐसा होगा? अभी तो अध्यक्ष पद छोड़ने के बावजूद कांग्रेस के केंद्र में राहुल गांधी ही दिख रहे हैं. पार्टी से जुड़ी ज्यादातर बड़ी सुर्खियां उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस या ट्वीट पर ही केंद्रित होती हैं. अंदरखाने से आ रही खबरों के मुताबिक कांग्रेस के कई नेता इससे फिक्रमंद हैं. उनकी शिकायत है कि रणनीति तो राहुल गांधी अपने हिसाब से तय कर रहे हैं, लेकिन इस रण को लड़ने वाले संगठन से जुड़ी शिकायतों पर वे यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वे अब पार्टी के अध्यक्ष नहीं हैं.(satyagrah)
ऑस्ट्रेलिया, स्विट्ज़रलैंड में मशहूर हैं इनके मोती
-कुमार देवांशु देव
यदि आपको लगता है कि मोती सिर्फ समुद्री सीपों में हो सकते हैं, तो आप गलत हैं। क्योंकि, केरल के कासरगोड इलाके के एक किसान पिछले दो दशकों से अपने आंगन में बाल्टी में मोती की खेती कर रहे हैं।
जी हां, आपने सही पढ़ा! 65 वर्षीय केजे माथचन अपने तालाब में हर साल 50 बाल्टी से अधिक मोतियों की खेती करते हैं। इनमें से अधिकांश मोतियों को ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, कुवैत और स्विट्जरलैंड निर्यात किया जाता है, जिससे उन्हें हर साल लाखों की कमाई होती है।
सिलसिला कैसे शुरू हुआ?
माथचन सऊदी अरब के ढरान में किंग फ़हद यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेट्रोलियम एंड मिनरल्स में दूरसंचार विभाग में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे, इसी दौरान उन्हें अरामको ऑयल कंपनी की ओर से एक अंग्रेजी अनुवादक के रूप में चीन जाने का अवसर मिला।
इस विषय में माथचन द बेटर इंडिया को बताते हैं, “अपनी चीन यात्रा के दौरान, मैं वूशी स्थित दंशुई मत्स्य अनुसंधान केंद्र गया। मत्स्य पालन एक ऐसा क्षेत्र था, जिसमें मेरी हमेशा रुचि रही थी। इसलिए मैंने उनके कई पाठ्यक्रमों के बारे में जानकारियां इकठ्ठी करनी शुरू की। इसी क्रम में पता चला वे मोती उत्पादन से संबंधित डिप्लोमा कोर्स चला रहे हैं। यह मुझे कुछ नया लगा और मैंने इसमें दाखिला लेने का फैसला किया।“
माथचन ने कुछ हफ्ते बाद अपनी नौकरी छोड़ दी और डिप्लोमा करने के लिए चीन चले गए। उनका पाठ्यक्रम छह महीने में पूरा हुआ और साल 1999 में उन्होंने अपने तालाब में मोती की खेती करनी शुरू कर दी।
इस बारे में वह कहते हैं, “यह जल्दबाजी में लिया गया फैसला था और कई लोगों ने इसकी आलोचना की, लेकिन मुझे अहसास था कि यह कारोबार कमाल का साबित होगा और इसमें आगे बढ़ा सकता है।“
इसके बाद माथचन ने महाराष्ट्र और पश्चिमी घाटों से निकलने वाली नदियों से सीपों को लाया और उन्हें अपने घर में, बाल्टियों में उपचारित करने लगे और पहले 18 महीनों की खेती के फलस्वरूप 50 बाल्टी मोती उत्पादित हुआ।
माथाचन बताते हैं, “मैंने शुरुआत में लगभग 1.5 लाख रुपये खर्च किए थे और लगभग 4.5 लाख के मोतियों का उत्पादन हुआ, इस तरह मुझे 3 लाख रुपए का फायदा हुआ। इसके बाद हमारा कारोबार निरंतर आगे बढ़ रहा है और मैंने उन लोगों के लिए कक्षाएं लेने का लाइसेंस भी प्राप्त कर लिया है, जो मोती की खेती सीखना चाहते हैं।“
कैसे करते हैं मोतियों की खेती
माथचन बताते हैं, “मोती मूलतः तीन प्रकार के होते हैं- कृत्रिम, प्राकृतिक और संवर्धित। मैं पिछले 21 वर्षों से संवर्धित मोतियों की खेती कर रहा हूँ। इसकी खेती करना आसान है, क्योंकि भारत में ताजे पानी के शम्बुक आसानी से उपलब्ध होते हैं।“
वह नदियों से लाए गए सीपों को काफी सावधानी से खोलते हैं और इन्हें एक जीवाणु युक्त मेष कंटेनर में 15-25 डिग्री सेल्सियस गर्म पानी में पूरी तरह डुबो देते हैं। डेढ़ वर्षों में नाभिक, मोती के सीप से कैल्शियम कार्बोनेट जमा करके मोती का एक थैली बनाता है। इस पर कोटिंग की 540 परतें होतीं हैं, तब जाकर एक उत्तम मोती का निर्माण होता है।
माथचन के ज्यादातर मोतियों को ऑस्ट्रेलिया, कुवैत, सऊदी अरब और स्विट्जरलैंड निर्यात किया जाता हैं, जहाँ संवर्धित मोतियों की काफी मांग है।
माथचन इस विषय में बताते हैं, “भारतीय बाजार में अधिकांशतः कृत्रिम मोती उपलब्ध होते हैं और सिंथेटिक कोटिंग के कारण ये असली दिखते हैं। यही कारण है कि ये सस्ते होते हैं। एक असली मोती की कीमत लगभग 360 रुपये / कैरेट और 1800 रुपये प्रति ग्राम होती है।“
माथचन ने अपने बैकयार्ड में मोतियों के थोक उत्पादन के लिए एक कृत्रिम टैंक बनाया है। इसके बारे में यहाँ का दौरा करने वाले एक यूट्यूबर लीटन कुरियन बताते हैं, “टैंक की लंबाई लगभग 30 मीटर, चौड़ाई 15 मीटर और गहराई 6 मीटर है। मैंने इतना अनोखा बिजनेस आइडिया कभी नहीं देखा और जिस कोशिश के साथ सेटअप बनाया गया है, वह वास्तव में उल्लेखनीय है। माथचन अपनी शेष जमीन पर वनीला, नारियल और आम की कई किस्मों की भी खेती करते हैं।“
फिलहाल माथचन स्थानीय किसानों की मदद से खेती कार्यों का प्रबंधन करने के साथ ही कई रुचि रखने वाले लोगों को मोती उत्पादन का प्रशिक्षण भी दे रहे हैं।
लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन कक्षाएं
कोरोना महामारी के कारण पिछले कुछ महीनों से माथचन का कारोबार काफी मंद पड़ा हुआ है, लेकिन उन्होंने अपनी कक्षाओं को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर ले जाने में सफलता हासिल की और अपने अनूठे बिजनेस आइडिया के कारण काफी ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
इस कड़ी में कोच्चि की आशा जॉन कहती हैं, “जब मैंने पहली बार मोती की खेती के बारे में सुना, तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन, जब मैंने उनके फार्म को देखा तो मुझे अहसास हुआ कि यह कितना व्यवहारिक था। फिर, मैंने उनकी कक्षाओं की मदद से प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से समझा और छोटे पैमाने पर खेती शुरू की।“
बी.कॉम अंतिम वर्ष में पढ़ने वाली आर्द्रा सहदेवा का भी कुछ ऐसा ही मानना है, वह कहती हैं, “28 दिनों की अवधि के दौरान माथचन सर कच्चा माल कहाँ से मंगाना है से लेकर खेती के लिए किन मानकों का इस्तेमाल करना चाहिए, हर छोटी प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताते हैं। इसके लिए उनका धन्यवाद, मेरा लॉकडाउन काफी प्रोडक्टिव रहा है।”
इन वर्षों के दौरान, माथचन की खेती ने बहुत लोकप्रियता हासिल की है और यही वजह है कि, केरल के कई विश्वविद्यालयों और यहां तक कि कर्नाटक के मत्स्य विभाग के कई छात्रों ने उनके मोती फार्म का दौरा किया है। उन्होंने कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, बेंगलुरु में इससे संबंधित कई व्याख्यान भी दिए हैं।
“यदि मैं सऊदी अरब में अपनी नौकरी जारी रखता तो अपने शहर के किसी दूसरे इंसान की तरह ही रहता। मैंने कुछ ऐसा करने की कोशिश की, जो अलग था। उस वक्त भारत में मोती की खेती पर कम बातें हुआ करती थी, शुक्र है कि मैंने इसे किया, यह अभी और समृद्ध हो रहा है,“ माथचन अंत में गर्व से कहते हैं।(thebetterindia)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास होनेवाला है, यह एक बड़ी खुश-खबर है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को सभी पक्षों ने मान लिया है, यह भारत के सहिष्णु स्वभाव का परिचायक है लेकिन राम मंदिर बनानेवाला हमारा यह वर्तमान भारत क्या राम चरित का अनुशीलन करता है ? हमारे नेताओं ने राम मंदिर बनाने पर जितना जबर्दस्त जन-जागरण किया, क्या उतना जोर उन्होंने राम की मर्यादा के पालन पर दिया ?
मर्यादा पुरुषोत्तम राम को भगवान बनाकर हमने एक मंदिर में बिठा दिया, वहां जाकर घंटा-घडिय़ाल बजा दिया और प्रसाद खा लिया। बस इतना ही काफी है। हम हो गए रामभक्त ! पूज लिया हमने राम को ! यहां मुझे कबीर का वह दोहा याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘जो पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़।’ राम के चरित्र को अपने आचरण में उतारना ही राम की सच्ची पूजा है।
सीता पर एक धोबी ने उंगली उठा दी तो राम ने सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए मजबूर कर दिया ? क्यों कर दिया? क्योंकि राजा या रानी या राजकुमारों का चरित्र संदेह के परे होना चाहिए। सारे देश या सारी प्रजा या सारी जनता के लिए वे आदर्श होते हैं। यही सच्चा लोकतंत्र है। लेकिन हमारे नेताओं का क्या हाल है ?
धोबी की उंगली नहीं, विरोधी पहलवानों के डंडों का भी उन पर कोई असर नहीं होता। देश के बड़े से बड़े नेता तरह—तरह के सौदों में दलाली खाते हैं, उन पर आरोप लगते हैं, मुकदमे चलते हैं। और वे बरी हो जाते हैं। नेताओं की खाल गेंडों से भी मोटी हो गई है। राम ने दशरथ की वचन-पूर्ति के लिए सिंहासन त्याग दिया और वन चले गए लेकिन आज के राम दशरथों को ताक पर बिठाकर सिंहासनों पर कब्जा करने के लिए किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। वनवासी राम ने किस-किसको गले नहीं लगाया ? उन्होंने जाति-बिरादरी, ऊंच-नीच, मनुष्य और पशु के भी भेदभावों को पीछे छोड़ दिया लेकिन राम नाम की माला जपनेवाले हमारे सभी नेता क्या करते हैं ? इन्हीं भेदभावों को भडक़ाकर वे चुनाव के रथ पर सवार हो जाते हैं। वे कैसे रामभक्त हैं ?
राम ने लंका जीती लेकिन खुद उसके सिंहासन पर नहीं बैठे। न ही उन्होंने लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न को उस पर बिठाया। उन्होंने लंका विभीषण को सौंप दी। लेकिन हमारे यहां तो परिवारवाद का बोलबाला है। सारी पार्टिया—मां-बेटा पार्टी या भाई-भाई पार्टी या बाप-बेटा पार्टी या पति-पत्नी पार्टी बन गई हैं। राम ने राजतंत्र को लोकतंत्र में बदलने की कोशिश की लेकिन हम रामभक्त हिंदुस्तानी लोकतंत्र को परिवारतंत्र में बदलने पर आमादा हैं ! हम कैसे रामभक्त हैं ?
(नया इंडिया की अनुमति से)
हेमंत मालवीय
नेपाल जहां भगवान राम और अयोध्या पर अपना दावा साबित करने के लिए पुरातात्विक अध्ययन की तैयारी कर रहा है, वहीं अब श्रीलंका रावण से जुड़ी अपनी विरासत को खोजने में लग गया है। श्रीलंका के सिविल एविएशन अथॉरिटी ने कहा है कि वह पौराणिक किरदार रावण और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हवाई मार्ग को लेकर एक शोध कराएगा।
सिंहल भाषा में छपे एक विज्ञापन में श्रीलंका के एविएशन अथॉरिटी ने लोगों से राजा रावण और अब लुप्त हो चुके प्राचीन वायु मार्गों को लेकर किसी भी तरह के दस्तावेज या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध कराने के लिए कहा गया है।
एविएशन के एक अधिकारी ने बताया कि राजा रावण के बारे में एक आधिकारिक जानकारी जुटाने के लिए ये शोध किया जा रहा है क्योंकि रावण के बारे में तमाम तरह की कहानियां हैं। अधिकारी ने कहा कि रावण के विमान और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने रास्तों को लेकर भी कई सालों से कहानियां चली आ रही हैं इसलिए हम इस मामले पर स्टडी करना चाहते हैं।
श्रीलंका का टूरिजम सेक्टर भारत से आने वाले पर्यटकों के लिए रामायण ट्रेल को भी प्रोत्साहित कर रहा है। हालांकि, भारत की रामायण के खलनायक रावण को सिंघल-बौद्ध आस्था की नजरों से देखते हैं। श्रीलंका में रावण को देश के एक बहादुर और विद्वान राजा के तौर पर देखा जाता है।
सिंहल-बौद्ध का एक समूह खुद को रावण बल्य कहता है जबकि श्रीलंका ने अपने पहले सेटेलाइट का नाम रावण-1 रखा था। 2016 में कोलंबो में हुए सिविल एविएशन की कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए तत्कालीन उड्डयन मंत्री निर्मला सिरिपाला ने कहा था कि आधुनिक एविएशन का इतिहास राइट ब्रदर्स से शुरू हुआ है लेकिन श्रीलंका में किवंदंती है कि रावण नाम का एक बहादुर राजा था जो दांदु मोनारा नाम का एक विमान उड़ाता था। रावण केवल श्रीलंका ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र में विमान उड़ाता था।
सम्मेलन ने निष्कर्ष निकाला था कि रावण 5,000 साल पहले श्रीलंका से आज के भारत के लिए रवाना हुआ था और वापस आया। हालांकि, इन कहानियों को खारिज कर दिया गया कि रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण किया था। सरकार ने यह दावा किया था कि यह एक भारतीय संस्करण था और इसके विपरीत रावण एक महान राजा था।
श्रीलंका में कई लोग मानते हैं कि रावण एक दयालु राजा और विद्वान था। कुछ भारतीय धर्मग्रंथ भी उन्हें ‘महा ब्राह्मण’ के रूप में वर्णित करते हैं, जिसका अर्थ है एक महान ब्राह्मण या एक महान विद्वान। रामायण के अनुसार, रावण के पास पुष्पक नाम का एक विमान था। इसी विमान पर उसने सीता माता का अपहरण किया था।
इससे पहले, नेपाल के प्रधानमंत्री के। पी। शर्मा ओली ने नेपाल के थोरी गांव को भगवान राम की असली जन्मभूमि बताया था। जिसके बाद अब वहां का पुरातत्व विभाग शोध की योजना बना रहा है। नेपाल का पुरातत्व विभाग बीरगंज के परसा जिले के थोरी गांव में खुदाई करने पर भी विचार कर रहा है।
स्मिता अखिलेश
डहरूराम एक बड़े शहर से प्रवासी मजदूर के रूप में अपने गांव वापिस आता है और उसके पास जमीन का एक छोटा टुकड़ा भी है जिन्हें वह जमानत में रखकर अपना किराना दुकान खोलना चाहता है। तो क्या सरकार द्वारा कोविड संकट से निपटने के लिए घोषित 20 लाख करोड़ का पैकेज उसके लिए कारगर है? इसी के मद्देनजर हमारे बैंक ने भी अपने यहां ऋण नीति की समीक्षा की थी। जिसमें कोरोना लॉकडाउन के बाद उपजी बेरोजगारी से निपटने के लिए 50000 तक रूपये उन वर्गो को मुहैया कराया जाना था जिनके पास जमीन को कोई छोटा टुकड़ा भी हो।
देखने में यह बहुत कारगर लगता है कि लोगों को अपने पैर में खड़े होने के लिए तुरंत बैंक द्वारा राशि मुहैया कराया जा रहा है जिससे ग्रामीण अपना छोटा-मोटा व्यवसाय शुरू करने में सक्षम हो सकेंगे। लेकिन इस योजना को लागू करने के बाद भी लोगों का रूझान उस ओर दिखता नजर नहीं आ रहा है क्योंकि मैदानी स्तर पर जब हितग्राही यह सवाल करता है कि क्या इस ऋण के ब्याज के लिए कोई राहत का प्रावधान है या इसके ईएमआई का भुगतान मोराटोरियम के अधीन है एक बैंकर्स होने के नाते हमारे पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं होता है।
गौरतलब है कि मोराटोरियम शब्द को ईएमआई के जमा करने के लिए अस्थायी राहत या वित्तीय निलंबन के लिए उपयोग किया जाता है । लेकिन बैंकिग स्तर के सॉफ्टवेयर में अभी बदलाव नहीं किए गए है। बैंक आपको ईएमआई के लिए नहीं कह रहे हैं लेकिन ब्याज भी नहीं बढ़ रहा है इसकी कोई गारंटी भी नहीं है। जो लोग वित्तीय रूप से इन तकनीकियों को नहीं समझ रहे है उन्हें बैंक में जाकर अपने ऋणों के ब्याज के संदर्भ में तस्दीक जरूर कर लेनी चाहिए। साथ ही बैंकिग के लिहाज से देखा जाए तो अभी की परिस्थिति में बैंकों द्वारा कर्ज देना भी बहुत जोखिम का काम है और इन कर्जो के बढते एनपीए से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
अगर कर्ज देने वाले ही डूबते कर्ज के बोझ से दबते जाएंगे, तो बैंकिग व्यवस्था कैसे चल पाएगी और बैंक कर्ज देने का जोखिम नहीं लेंगे तो कारोबार कैसे करेंगे। कर्ज देने और वसूली के जोखिम के बीच का रास्ता निकालते हुए संतुलन बनाने के लिए सरकार द्वारा और ठोस कदम उठाया जाना चाहिए। जिस तरह कल रिजर्व बैंक के गर्वनर ने कह भी दिया कि बैंकिग सेक्टर की मजबूती के लिए आवश्यक हुआ तो जरूरी कदम उठाये जायेंगे। लेकिन क्या बैंकों में नगदी प्रवाह ही बढ़ाकर इस समस्या का निराकरण किया जा सकता है।
फिलहाल डहरूराम बीड़ी सुलगाते हुए सोच रहा है कि इस चक्करघिनी में गोल गोल घूमू या नहीं। और मनरेगा की मजदूरी करते अपने सपनों को भी बीड़ी के साथ सुलगते हुए कातर नजरों से देख रहा है।
चैतन्य नागर
इंसान और छाते में एक बड़ी समानता है। अगर बरसात न होती, तो न हम होते, और न ही छाता होता। दोनों का अस्तित्व बहुत करीब से बरसात के साथ, जल के साथ ही जुड़ा है। छाता प्रतीक है सुरक्षा का। बरसात से बचाने का भी काम करता है, और कहीं-कहीं धूप से भी। जब गर्मी सताती है तो हम बड़ी बेसब्री से बारिश का इंतज़ार करते हैं, लेकिन बारिश होते ही छाते का इन्तजाम भी उतनी ही बेचैनी के साथ किया जाता है। बरसात हो रही हो तो छाते की उपस्थति में आश्वासन और चैन का अहसास होता है। लम्बे से छाते की मूठ पकड़ कर चलने में किसी साथी का हाथ पकड़ कर चलने का भान होता है।
छाते का भी एक इतिहास है। प्राचीन मिस्र, ईरान, चीन और भारत में छातों का इस्तेमाल ख़ास तौर पर धूप से बचने के लिए होता था। वे काफी बड़े हुआ करते थे, और छाता लेकर कोई सेवादार चलता था। जिसके सर पर वह छाता तान कर चलता था, उसके लिए छाते और सेवक का होना गर्व का प्रतीक था। वह उसके सम्मान और ताकत का प्रतीक था। प्राचीन यूनान ने यूरोप में छाते का परिचय करवाया। यूरोप में वह पोप और चर्च के बड़े अधिकारियों के लिए सम्मान का प्रतीक था। 18वीं सदी आने तक यूरोप में छाता लेकर चलना एक सामान्य बात हो गयी। स्त्रियों की त्वचा को वह धूप से बचाता था; पुरुषों ने भी 19वीं सदी के आस पास-छाते का उपयोग शुरू कर दिया। उनके छाते अक्सर काले हुआ करते थे। बाद में उन्होंने भी स्त्रियों की तरह रंग-बिरंगे छातों का इस्तेमाल शुरू किया। लन्दन में सिर्फ छाते बेचने वाली दुकान जेम्स स्मिथ एंड संस 1830 में शुरू हुई और अभी तक वह कारोबार कर रही है। पिछले कुछ वर्षों में हॉलैंड की कंपनी सेंज ने एक ऐसा छाता बना डाला है जो 100 कि. करते हैं। इस साल बारिश तो समय से आ गयी है, पर सडक़ पर लोग कम दिख रहे हैं। अभी वे भयभीत और सशंकित हैं। खुले में, खुले दिल से दोस्तों के साथ बरसात का स्वागत नहीं कर पा रहे। नहीं तो हर साल बारिश में सडक़ें खुले हुए छातों से पट जाया करती हैं।
छाते भी बरसात की प्रतीक्षा में रहते हैं। बरसात से पहले और बाद में छाता किसी को याद नहीं आता। उसकी हालत गर्मी के दिनों के स्वेटर की तरह हो जाती है। और जैसे ही बारिश की बूँदें पड़ती हैं, तुरंत छाते का ख्याल आता है। छाते को लेकर हम कितने इस्तेमालवादी हैं! मी. तक की हवाओं को भी झेल जाता है। कम्पनी ने छातों के ऐसे मॉडल भी बनाये हैं जो साइकिल के साथ जोड़े जा सकते हैं, अपने आप ही खुल जाते हैं और बंद भी हो जाते हैं। छाते सदियों से लोकप्रिय हैं, एमेज़ॉन पर करीब 500 मॉडल्स देखे जा सकते हैं और चीन के एक शहर सोंक्जिया में 1000 कारखानों में सिर्फ छाते ही बनते हैं, एक साल में करीब 50 करोड़!
छाते को लादना कइयों के लिए एक बड़ी समस्या है। लोग आजकल अपने साथ बैग, पर्स, लैपटॉप भी रखते हैं, और ऐसे में छाता एक आवश्यक बुराई की तरह साथ लेना पड़ता है, खुद को बचाने के लिए और हाथों में टंगे, या पीठ पर लदे सामान की सुरक्षा के लिए भी। कइयों को छाते से बड़ी शिकायतें हैं। हल्की बूंदा-बांदी के लिए तो वह ठीक है, पर तेज बौछारों से बचाने के लिए काम नहीं आता। क्योंकि वे तो चारों और से भिगोतीं हैं। पहाड़ों की बारिश में भी छाता बड़ी ही मासूमियत के साथ अपने हाथ झाड़ लेता है। वहां तो चारों तरफ बादल ही होते हैं और आपको भिंगोते हुए चलते चले जाते हैं। अब कोई छाता पूरे शरीर की रक्षा के लिए तो बना ही नहीं कि आप पहाड़ों की बारिश से बच जाएँ। मैदानी इलाकों में आप छाता भर धूप और पानी से बच जाते हैं। उसकी मदद से आप बारिश में थोड़ी देर बाहर तो जा सकते हैं और कुछ बूंदें आपका स्पर्श भी कर लेती हैं। यह क्या एक आशीष की तरह नहीं कि बूँदें बादल से निकल कर धरती में समाने से पहले आपको भिगोतीं हैं, थोड़ी सी आप की थकान, मु_ी भर आपका दर्द और दु:ख भी धरती को सौंप देती हैं? कोई अहसान जताए बगैर ही।
छातों से कभी-कभी हादसे भी होते है, अक्सर आँखों को बचाना पड़ता है। अचानक कोई अपना छाता खोले और उसकी तीलियाँ आँखों में धंस न जाएँ, इसकी फिक्र बनी रहती है। कुछ कम्पनियाँ इस खतरे को ध्यान में रखकर नए छाते डिजाइन कर रही हैं, जिसकी तीलियाँ नुकीली न हों और ज्यादा चोट न पहुंचाएं। जापान में एक ऐसा छाता भी बनाया जा रहा है जिसके ऊपर की तरफ कोई अवरोध नहीं, बस उसकी नली से तेज़ी के साथ गर्म हवा निकलेगी और ऊपर से आने वाली बरसात की बूंदों को इधर-उधर बिखेर देगी। भले ही कई तरह के नए डिजाईन आ जाएँ पर लम्बी डंडी वाले और खूबसूरत मूठ वाले काले छाते का अपना ही रोमांस है। लोगों को उससे लगाव हो जाता है, वे उसके प्रेम में पड़ जाते हैं।
छाते के साथ एक बहुत बड़ी समस्या जुड़ी हुई है, और वह है विस्मृति की समस्या। छाता कहीं भी भूल जाना एक आम बीमारी है। कई लोग इस बीमारी से इतने दुखी हो जाते हैं कि वे छाता कहीं ले जाने से ज्यादा भींगना ही पसंद करते हैं। अंग्रेजी के लेखक रॉबर्ट लिंड का मशहूर लेख है विस्मृति के बारे में, जिसमे वह कहते हैं: ‘छाता कहीं खो न जाए, इस भय से मैं उसे कहीं ले ही नहीं जाता। गंभीर से गंभीर छाता-वाहक के नसीब में भी यह उपलब्धि नहीं होगी कि उसने कोई छाता न खोया हो!’ यह अनुभव वास्तव में सभी को हुआ होगा। मैंने तो इतने छाते खोये हैं कि ऐसी भी एक स्थिति आ गयी कि किसी बैठक में जाते ही मैं घोषणा कर देता था कि अपने छाते संभाल कर रखें, मुझे किसी का भी मिलेगा तो मैं लेता जाऊँगा। जिन्होंने मेरी इस स्पष्ट और मासूम घोषणा को गंभीरता से नहीं लिया, उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। एक और दिलचस्प बात है कि पुरुष छाते को भूलने के मामले में स्त्रियों से काफी आगे होते हैं। यह क्यों होता है यह अध्ययन का विषय हो सकता है। क्या ऐसा इसलिए है कि उन्हें अपनी त्वचा की ज्यादा फिक्र होती है, वे धूप और बरसात से खुद को बचाना चाहती हैं, क्योंकि भींगते हुए रास्ते पर चलना उनके लिए ज्यादा असुविधाजनक होता है।
इन दिनों तो ज्यादा एहतियात की जरूरत है। हल्का सर्दी -ज़ुकाम भी हो जाए, तो लोगों के मन में तमाम तरह की दुश्चिंताएं आने लगती हैं। वैसे एक पैकेट प्रभावी एंटी- बायोटिक्स की कीमत भी किसी छाते से कम नहीं होती। इसलिए बेहतर है कि बारिश तेज़ होने से पहले ही अपने पुराने छातों की बढिय़ा से मरम्मत करवा ली जाए और नए छातों को हिफाज़त के साथ रखा जाए। समय खऱाब है और सावधानी आवश्यक है। समय की यही मांग है कि या तो सडक़ों पर निकला ही न जाए, और मजबूरी हो भी कहीं जाने की तो पूरी सजगता बरती जाए। छाता साथ हो, और दूसरी वे चीज़ें भी जिनके बगैर घर से निकलने की मनाही है। पर उन सभी चीज़ों में छाता तो हमेशा ही खास सम्मान और स्नेह के लायक है। सर्वेश्वर जी ने छाते की अहमियत को खूब समझा था और इसीलिए इतनी प्यारी कविता छाते के लिए लिख छोड़ी है। विपदाएँ आते ही, खुलकर तन जाता है/ हटते ही/ चुपचाप सिमट ढीला होता है/ वर्षा से बचकर/ कोने में कहीं टिका दो/ प्यार एक छाता है/ आश्रय देता है गीला होता है।
जेके कर
छत्तीसगढ़ में बिस्तरों की और कमी होगी
जिस तरह से छत्तीसगढ़ में रोज-रोज कोरोना के मरीज बढ़ रहें हैं उससे स्थिति बदतर होती जायेगी। इसे रोज ठीक होने वाले तथा नये मरीजों की संख्या के आधार पर समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ में 24 जुलाई को 338 नये मरीज मिले जबकि 180 मरीज ठीक हुए। इस तरह से अस्पताल में 158 नये बिस्तरों की आवश्यकता होगी। 26 जुलाई को 305 नये मरीज मिले जबकि 261 मरीज ठीक हुए। इसके अनुसार अस्पताल में 44 बिस्तरों की और आवश्यकता होगी। 24 और 26 जुलाई के आंकड़ों के आधार पर ही 202 बिस्तरों की आवश्यकता होगी।
दुनियाभर तथा देश के साथ छत्तीसगढ़ में भी कोरोना संक्रमण अपना विकराल रूप धारण कर रहा है। रोज संक्रमितों की संख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसा कौन सा कारण है कि चंद्रमा और मंगलग्रह पर उपग्रह भेजने वाला मानव समाज कोरोना संक्रमण तथा उससे हो रही मौतों के सामने बेबस नजर आ रहा है। इसकी विवेचना करने के लिए हम तीन प्रस्थान बिन्दु तय कर सकते हैं। जिनके गहराई में जाकर स्थिति को समझने का प्रयास किया जा सकता है। उसके बाद फौरी तौर पर क्या हल निकाला जा सकता है उस पर भी सोचा जा सकता है।
पहली बात यह है कि कोरोना वाइरस से लडऩे के लिये अब तक न ही किसी सटीक दवा का ईजाद किया जा सका है और न ही कोई वैक्सीन अब तक बन पाई है। जो कुछ भी इलाज हो रहा है वह लक्षणों के आधार पर ही किया जा रहा है तथा जीवनरक्षक उपकरणों की मदद से मरीजों की जान बचाई जा रही है। दूसरा, पिछले कई दशकों से देश-दुनिया में गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियां कई गुना बढ़ी है जिस कारण से वैज्ञानिक-चिकित्सक तथा हेल्थ इन्फ्रास्ट्रकचर जीवन शैली के कारण होने वाली बीमारियों से जूझने में लगे हुए हैं। अब, अचानक कोरोना जैसे संक्रमण के महामारी बनने के कारण उससे लडऩे के लिये स्वास्थ्य व्यवस्था नाकाफी साबित हो रही है। तीसरा, केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने कोरोना से लडऩे की जिम्मेदारी खुद ही उठा रखी है जिस कारण से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ बढ़ गया है। हालांकि, बाद में कुछ हद तक निजी अस्पतालों को भी अधिकृत किया गया है लेकिन उससे इस विकराल समस्या का हल नहीं निकल सकता है।
एक बात को हम शुरू में ही साफ कर देना चाहते हैं कि हम जिस कल्याणकारी-राज्य की वकालत करते हैं उसमें स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार पर है तथा वह इसे मुफ्त में उपलब्ध कराये। लेकिन मौजूदा हालात में जब सरकारों ने स्वंय ही निजी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा दिया है तथा उन्हें फलने-फूलने दिया है इस कारण से उनके वजूद को नकारा नहीं जा सकता। ऐसे समय में यदि कहा जाये कि कोरोना से लडऩे की जिम्मेदारी केवल केन्द्र तथा राज्य सरकारों की है तो यह जमीनी हालत को नकारने वाली अराजकतावादी सोच ही होगी। फौरी तौर पर कोरोना संकट से लडऩे निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के चिकित्सकों, स्वास्थ्य कर्मियों तथा अधोसंरचना का उपयोग किया जाना चाहिये।
अब हम कुछ आंकड़ों तथा तथ्यों पर गौर फर्माते हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट "ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड: ॥द्गड्डद्यह्लद्ध शद्घ ह्लद्धद्ग हृड्डह्लद्बशठ्ठ’ह्य स्ह्लड्डह्लद्गह्य" के अनुसार गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियां जहां साल 1990 में 30 प्रतिशत थी वह साल 2016 में बढक़र 55 प्रतिशत हो गई। इसी तरह से साल 1990 में गैर-संक्रमण से होने वाली बीमारियों से 37 प्रतिशत मृत्यु हुई थी वह 2016 में बढक़र 61 प्रतिशत हो गई हैं। इससे यह साबित होता है कि हमारे देश में बीमारियों से जो मौतें हुई उनमें 61 प्रतिशत उच्च रक्तचाप, डाईबिटीज, दमा, कैंसर, किडनी तथा श्वशन रोगों के कारण हुई है। इस कारण से पूरा जोर इन्हीं बीमारियों से लडऩे के लिए रहा है। दूसरी तरफ संक्रामक तथा उससे जुड़े रोग 1990 में 61 प्रतिशत थे जो 2016 में गिरकर 33 प्रतिशत के हो गए।
यदि छत्तीसगढ़ से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो संक्रामक तथा उससे जुड़े रोगों की हिस्सेदारी 37.7 प्रतिशत, गैर-संक्रमण से फैलने वाले रोग 50.4 प्रतिशत तथा चोट व दुर्घटना के कारण हिस्सेदारी 11.9 प्रतिशत की रही है।
ऐसे में अप्रत्याशित रूप से कोरोना वाइरस जब महामारी का रूप ले लेता है तो संपूर्ण स्वास्थ्य सेवायें उससे जूझने के लिए अपने-आप को असमर्थ पाती हैं। इस कारण से चिकित्सक, पैरा-मेडिक स्टाफ, मास्क, सैनिटाइजऱ, पीपीई किट, अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या, ऑक्सीजन एवं वेंटिलेटर कम पड़े हैं अन्यथा अस्पतालों में कभी इनकी कमी महसूस नहीं की गई थी।
अब हम दूसरे (तीसरे) मुख्य मुद्दे पर आते हैं। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि बीमार पडऩे पर कितने फीसदी लोग सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में जाते हैं तथा कितने निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों के पास जाते हैं। देशभर के आंकड़े थोड़े अलग-अलग है। यहां पर हम सरलता से समझने के लिए छत्तीसगढ़ का उदाहरण लेते हैं।
साल 2015-16 में जो नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे किया गया था उससे यह बात उभरकर सामने आई कि छत्तीसगढ़ में भी बड़ी संख्या में लोग बीमार पडऩे पर निजी चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाते हैं। जहां तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बात है तो 50.5 प्रतिशत लोग यहां जाते हैं शहरी क्षेत्र के 37.6 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्र के 54.65 प्रतिशत। वहीं बीमार पडऩे पर शहरों के 59.7 प्रतिशत तथा गांवों के 33,3 प्रतिशत, कुलमिलाकर 39.6 प्रतिशत लोग निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य संस्थानों में जाते हैं। कई ऐसे भी लोग हैं जो सीधे दवा दुकानों से दवा खरीद कर खाते हैं। इनमें शहरों के 2 प्रतिशत तथा गांवों के 11.6 प्रतिशथ, कुल मिलाकर 9.3 प्रतिशत लोग शामिल हैं।
अब आपकों समझ में आ रहा होगा कि कोरोना वाइरस से संक्रमित होने पर क्यों हाहाकार मचा हुआ है। इसका कारण है कि जो लोग पहले निजी क्षेत्र में जाते थे वे भी सरकारी क्षेत्र में जाने के लिये मजबूर हो गए हैं तथा इस अतिरिक्त दबाव के कारण सरकारी स्वास्थ्य संस्थान नाकाफी साबित हो रहें हैं तथा लोगों को त्वरित चिकित्सा नहीं मिल पा रही है। कोरोना वाइरस से संक्रमण हुआ है कि नहीं उसकी जानकारी आने में ही दो-तीन दिन लग जा रहें हैं। उसके बाद कोरोना के लिये जिन सरकारी अस्पतालों को अधिकृत किया गया है वहां बिस्तर कम पड़ रहें हैं।
समाचार-पत्रों के हवाले से खबर है कि छत्तीसगढ़ में तीन निजी क्षेत्र के चिकित्सा संस्थानों को कोरोना के इलाज के लिए अधिकृत किया गया है। इनमें बिलासपुर के एक निजी क्षेत्र के कॉर्पोरेट अस्पताल का भी नाम है।
जब इन पक्तियों के लेखक ने इस अस्पताल से फेसबुक मैसेंजर के तहत जानकारी मांगी तो जवाब दिया गया कि कोविड-19 के इलाज के लिए मात्र 4 बिस्तर ही उपलब्ध हैं। जाहिर है कि निजी क्षेत्र की सुविधाओं का पूरा लाभ नहीं उठाया जा रहा है।
जरूरत इस बात की है कि छत्तीसगढ़ के कई शहरों के निजी-पैथोलैब को कोविड-19 की जांच के लिये अधिकृत किया जाये। हां, महाराष्ट्र सरकार के समान कोविड-19 टेस्ट के दाम जरूर तय कर दिये जाये। इसी तरह से निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों को भी कोविड-19 के ईलाज़ के लिये अधिकृत किया जाये क्योंकि इसके करीब 85 प्रतिशत मरीजों को अस्पतालों में भर्ती करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इससे सरकारी अस्पतालों पर पडऩे वाला बोझ कम होगा। हां, निजी चिकित्सक भी ढ्ढष्टरूक्र के दिशा-निर्देशों के अनुसार तथा सरकार द्वारा तय किये गये फीस के अनुसार ईलाज करेंगे।
केवल स्वास्थ्य सेवाओं पर एस्मा लगाना काफी नहीं है। जरूरत है दबाव न बनाकर निजी क्षेत्र के चिकित्सकों एवं संस्थानों को सरकार द्वारा पीपीई किट तथा दवा उपलब्ध करा के ईलाज़ करने के लिये माहौल बनाया जाए। जब तक कोरोना वाइरस की कोई दवा या वैक्सीन न बन जाए तब तक सरकारी तथा निजी क्षेत्र के चिकित्सकों तथा संस्थानों की मदद से मरीजों की मदद की जाए। हां, इस बात का ख्याल जरूर रखा जाये निजी एवं सरकारी क्षेत्र के सभी चिकित्सकों एवं संस्थानों से कोविड-19 का इलाज न कराया जाए। ज्यादातर को इससे मुक्त रखा जाए ताकि गैर-संक्रामक एवं जीवन-शैली के कारण होने वाले रोगों का इलाज बिना किसी बाधा के चलता रहे।
प्रकाश दुबे
आंध्र प्रदेश का पत्रकारिता में ज़माने से परचम लहरा रहा है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का लेख उनके अखबार में छापने से मना करने वाले संपादक चलपति राव तेलुगुभाषी थे। स्वतंत्रता संग्रामी तेलुगुभाषी पत्रकारों की वर्तमान पीढ़ी को आंध्र प्रदेश अनूठा सम्मान बख्श रहा है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने दर्जन भर से अधिक सलाहकार नियुक्त किए हैं। ज्यादातर सलाहकार पत्रकार हैं। साक्षी अखबार या चैनल में नौकरी करते हैं, करते थे या लिखते-बोलते थे। देवनागरी वर्ण माला में अग्रणी आ यानी आंध्र प्रदेश की लीक पर कई राज्य चले। आंध्र प्रदेश के कीर्तिमानों की बराबरी करना आसान नहीं है। देश के 13 पत्रकारों की मौत का कारण कोरोना रहा। एक तिहाई से अधिक-पांच आंध्र प्रदेश के हैं। बालाजी के शहर तिरुपति के पत्रकार को भी कोरोना ने अपना निवाला बनाया। कडप्पा जिले में तीन पत्रकारों की जान गई। मुख्यमंत्री जगन्मोहन के पिता डा एस वाय राजशेखर रेड्?डी ने तेलुगु दैनिक साक्षी शुरु किया था। कड़प्पा पिता-पुत्र का घर। चुनावक्षेत्र। राजशेखर ने सोनिया गांधी को पहला लोकसभा चुनाव कड़प्पा से लडऩे के लिए आमंत्रित किया था। हालां कि सलाहकारों ने अकस्मात कर्नाटक के बलारी का चयन किया। उस समय बेल्लारी कहलाता था।
अंधेर का विक्रम
कोरोना संकट से जूझ रहे देश की बड़ी कंपनियों से प्रधानमंत्री ने कर्मचारियों के हित का ध्यान रखने का आग्रह किया था। सरकारों ने अनदेखी की। ऐसे में निजी संस्थानों से उम्मीद लगाना बेकार है। इंडियन न्यूजपेपर्स सोसायटी समेत समाचारों के संगठनों ने तो उल्टे राज्यों और केन्द्र सरकार से शिकायत की- विज्ञापन कम मिल रहे हैं। जो मिले उनका भुगतान बाकी है। वेतन बोर्ड के समक्ष पत्रकारों का मज़बूती से पक्ष तैयार करने वाले मनोहर अंधारे जीवन के नवें दशक के पास पहुंच चुके हैं। उनके दिवंगत सहयोगी प्रकाश देशपांडे की याद में सर्वोत्कृष्ट संगठक पुरस्कार दिया जाता है। अंधारे ने सैकड़ों किलोमीटर दूर से देशपांडे को याद किया। यह बात और है कि अब कोई वेतन बोर्ड की बात नहीं करता। नए वेतन बोर्ड की मांग मांग? मज़ाक मत करिए। कटौती और नौकरी से विदाई का संकट है। अंधारे और प्रकाश जिस संगठन के लिए काम करते थे, उसकी आजीवन मालिकी कब्जिया चुके लोग इन दिनों क्या कर रहे हैं? स्वायत्त समाचार संगठनों का विध्वंस करने के लिए उकसा रहे हैं। मनोहारी दृश्य है।
कोरोना-काल में संवाद
किसी पंचायत से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के वेबिनार या ई संगोष्ठी में सबसे अधिक दिखने वाला चेहरा सुरेश प्रभू का है। प्रभू जी-20 आदि के लिए प्रधानमंत्री के शेरपा हैं। यह आप जानते हैं। प्रभु को पीछे छोडऩे वाले हैं-नितीन गडकरी। पांच करोड़ से अधिक लोगों से संवाद करने का कीर्तिमान सडक़ छाप और सूक्ष्म कारोबारी के नाम है। सडक़ और छोटे उद्योग उनके मंत्रालय हैं। गडकरी ने हाल में अमेरिकी व्यवसाय से जुड़े समुदाय से बात की। सरकारी संवाद माध्यमों ने पर्याप्त महत्व नहीं दिया। गडकरी का नाम लेने से शिखर की चमक दमक फीकी नहीं पडऩी चाहिए। संवाद माध्यमों में ई संगोष्ठी का सेहरा के जी सुरेश के सिर पर कायम है। पत्रकारिता से जुड़े विषयों पर विचारों का आदान प्रदान करने में वे अग्रणी हैं। सक्रिय पत्रकारिता के बाद सुरेश भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक बने। उनकी रचनात्मकता शायद नौकरशाहों को अखरी। पत्रकारिता प्रशिक्षण से नौकरशाह उन्हें नहीं रोक पाए।
संपादकी से सामना
पत्रकारों की अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटरनेशनल फेडरेशन आफ जर्नलिस्ट्स ने 19 से 30 जून के बीच सर्वेक्षण कराया। भारत सहित 52 देशों की महिला पत्रकारों का हाल जाना। तीन चौथाई महिला पत्रकारों ने स्वीकार किया कि कोरोना-काल में तनाव बढ़ा। आधी से अधिक महिलाओं को महामारी के दौरान कई मोर्चों पर जूझना पड़ा। सेहत संबंधी परेशानी झेलने वाली महिलाओं में से 75 प्रतिशत की समस्या नींद से जुड़ी थी। साठ प्रतिशत को संस्थानों ने मर्जी के मुताबिक काम करने की छूट दी। 30 फीसदी घर से काम कर रही थीं। 15 प्रतिशत इस दौरान भी मैदानी दायित्व निभाती रहीं। रपट में कष्ट जाने। अब भारतीय महिलाओं से संबंधित खुश खबरी पर ध्यान दें। राजनीतिक दायित्व संभालने वाले नेता ने संपादकी त्याग कर प्रेमिका को संपादक नियुक्त किया। नेता के चरित्र पर शक मत करना। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पत्नी रश्मि कोरोना-काल में सामना की संपादक बनीं। मराठी और हिंदी में निकलने वाला सामना शिवसेना का मुखपत्र है। मुख्यमंत्री यानी पूर्व संपादक का जन्मदिन पर इंटरव्यू कार्यकारी संपादक संजय राऊत ने किया। वर्तमान संपादक ने चाय पिलाई। एक और खबर। अंगरेजी के दि हिंदू की संपादक रह चुकीं मालिनी पार्थसारथी समूह की नई अध्यक्ष होंगी।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दक्षिण एशिया में आतंकी गतिविधियों पर संयुक्तराष्ट्र संघ की जो 26 वीं रपट आई है, उस पर सबसे ज्यादा ध्यान पाकिस्तान की इमरान सरकार का जाना चाहिए, क्योंकि इस रपट से पता चलता है कि दुनिया में आतंकवाद का कोई गढ़ है तो वह पाकिस्तान ही है। पाकिस्तान में अल-कायदा और ‘इस्लामिक स्टेट’ के दफ्तर हैं। पाकिस्तानी तालिबान आंदेालन भी वहीं से चलता है।
पाकिस्तान में जन्मा और पनपा यह आतंकवाद अफगानिस्तान और हिंदुस्तान को तबाह करने पर उतारु है। संयुक्तराष्ट्र की रपट के मुताबिक कम से कम 200 आतंकवादी ऐसे हैं, जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार में हमले की तैयारी कर रहे हैं। आईएसआईएस के ज्यादातर आतंकवादियों ने केरल और कर्नाटक को अपना ठिकाना बना रखा है। ‘विलायते-हिंद’ के नाम से जो नया संगठन पिछले साल बना है, उसका खास निशाना भारत ही है। भारत में भी वह कश्मीर पर ही सबसे ज्यादा अपना जोर आजमाएगा।
2015 में खुरासान के नाम से जो गिरोह खड़ा किया गया था, उसका लक्ष्य भी कश्मीर ही था। अफगानिस्तान में इस समय लगभग 6000 आतंकवादी सक्रिय हैं। अफगानिस्तान के आधे से ज्यादा जिलों पर उनका कब्जा या असर है। वे अपने आप को तहरीके-तालिबान पाकिस्तान कहते हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो यहां तक कहा था कि आतंकियों से खुद पाकिस्तान बहुत त्रस्त है। उनके मुताबिक पाकिस्तान में 40 हजार से ज्यादा आतंकवादी सक्रिय हैं।
पाकिस्तान की जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें खुद इन आतंकियों का विरोध करती हैं, खास तौर से कुछ साल पहले पेशावार में एक सैनिक स्कूल पर हुए हमले के बाद, जिसमें फौजियों के करीब डेढ़ सौ बच्चे मारे गए थे। लेकिन पाकिस्तान की दिक्कत यह है कि उस राष्ट्र की अफगान-नीति और हिंदुस्तान-नीति वहां की फौज बनाती है। यदि पाकिस्तान की फौज अपना हाथ खींच ले तो दक्षिण एशिया के सारे आतंकवादी ढेर हो जाएंगे। इस फौज को कौन समझाए कि आतंकवाद से जितना नुकसान भारत और अफगानिस्तान को होता है, उससे कहीं ज्यादा पाकिस्तान को ही होता है। भारत इतना शक्तिशाली देश है कि तलवार के जोर पर पाकिस्तान उससे हजार साल तक लडक़र भी कश्मीर नहीं ले सकता।
हां, बातचीत से हल जरुर निकल सकता है। जहां तक अफगानिस्तान का सवाल है, पाकिस्तान के कई प्रधानमंत्रियों को मैं यह अच्छी तरह बता चुका हूं कि अफगान तालिबान गिलजई कबीले के हैं। गिलजई पठानों की रगों में आजादी दौड़ती है। वे सत्तारुढ़ हो गए तो वे पाकिस्तान के ‘पंजाबी मुसलमानों’ को ठिकाने लगाने में देर नहीं करेंगे। पाकिस्तान का भला इसी में है कि वह आतंकवाद को बिल्कुल भी सहारा न दे और काबुल और कश्मीर की उलझनों को लोकतांत्रिक तरीकों से हल करे।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित मौर्य
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यदि अगले 10 वर्षों में 19,90,757 करोड़ रुपए (26,600 करोड़ डॉलर) का निवेश वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए किया जाए तो इससे भविष्य में कोरोनावायरस जैसी महामारियों से बचा जा सकता है। इसे कोविड-19 से हुए नुकसान के मुकाबले देखें तो यह केवल उसके 2 फीसदी के ही बराबर है। अनुमान है कि कोरोनावायरस के कारण अब तक 8,60,66,575 करोड़ रुपए (11,50,000) करोड़ डॉलर का नुकसान हो चुका है जिसमें आर्थिक और जीवन क्षति दोनों को शामिल किया गया है। यह जानकारी प्रिंसटन यूनिवर्सिटी द्वारा किये एक शोध में सामने आई है जो अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है।
वहीं इस शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एंड्रयू डॉब्सन के अनुसार “यदि भविष्य में इस तरह की महामारियों से बचने की वार्षिक लागत को देखें, तो वह दुनिया के 10 सबसे अमीर देशों द्वारा सेना पर खर्च की जा रही धनराशि के केवल 1 से 2 फीसदी के बराबर है। ऐसे में यदि हम कोरोना महामारी को यदि एक युद्ध की तरह देखें तो यह निवेश बहुत साधारण है।”
हर साल औसतन 2 वायरस करते हैं इंसानों पर हमला
यदि पिछले 100 वर्षों में देखें तो हर साल करीब 2 वायरस अपने प्राकृतिक आवास से निकलकर इंसानों में फैले हैं। लेकिन जिस तेजी से आज प्रकृति का विनाश हो रहा है, उनके और ज्यादा तेजी से इंसानों में फैलने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इंसान अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए तेजी से जंगलों को नष्ट कर रहा है, जानवरों को मार रहा है या फिर अपना पालतू बना रहा है। इनका व्यापर तेजी से सारी दुनिया में फैलता जा रहा है। ऐसे में इंसानों के इनके संपर्क में आने का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। हम खुद इन वायरसों को फैलने का मौका दे रहे हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार यदि पिछले 50 वर्षों में देखें तो 4 प्रमुख जूनोटिक डिजीज ने इंसानों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है जो कोविड-19, इबोला, सार्स और एड्स हैं। इनमें से दो महामारियां तो जंगलों के विनाश और वन्यजीवों के व्यापार के कारण ही इंसानों में फैली हैं। यदि चमगादड़ों को देखें तो इनसे कोविड-19, सार्स और इबोला जैसे अनेकों वायरस होते हैं। लेकिन अंधेरे जंगलों में रहने वाले यह चमगादड़ आमतौर पर महामारी नहीं फैलाते पर जब इनके आवासों को नष्ट किया गया या इनको प्रभावित किया गया तभी इनसे वो वायरस इंसानों में फैले हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार अब तक जो भी साक्ष्य मिले हैं उनके अनुसार कोविड-19 महामारी के फैलने में चीन की फ़ूड मार्किट का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि यह वायरस भोजन के लिए व्यापार किये जाने वाले चमगादड़ की प्रजाति से ही फैला है। दुनियाभर में जंगली जीवों को भोजन से लेकर कई चीजों के लिए क़ानूनी और गैरक़ानूनी तरीके से ख़रीदा और बेचा जाता रहा है। इन वन्यजीवों को जिन परिस्थितियों में रखा जाता है वो कहीं से भी सुरक्षित नहीं होती है। ऊपर से न ही वहां नियमों का कोई ध्यान रखा जाता है और न ही साफ सफाई का, ऐसे में वायरस के फैलने का खतरा हमेशा बना रहता है।
बीमारियों की निगरानी और रोकथाम के लिए पड़ेगी हर वर्ष 1,856 करोड़ रुपए की जरूरत
चीन में यदि वन्यजीवों के व्यापार को देखें तो यह करीब 149,681करोड़ रुपए (2,000 करोड़ डॉलर) का व्यापार है| यह करीब 1.5 करोड़ लोगों को रोजगार देती है| शोधकर्ताओं के अनुसार चीन में वन्यजीवों के मांस व्यापार को रोकने के लिए हर वर्ष करीब 145,190 करोड़ रुपए (1940 करोड़ डॉलर) की जरूरत पड़ेगी।
शोधकर्ताओं का मानना है कि अवैध तरीके से किए जा रहे वन्यजीवों के व्यापार पर निगरानी रखना जरूरी है। साथ ही इसके लिए कड़े नियम भी जरूरी हैं| अनुमान है कि इस पर हर वर्ष करीब 3,742 करोड़ रुपए (50 करोड़ डॉलर) का खर्च आएगा जो कोविड-19 की तुलना में बहुत कम है। इनसे फैलने वाली बीमारियों की निगरानी और रोकथाम के लिए करीब 1,856 करोड़ रुपए (24.8 करोड़ डॉलर) की जरूरत है।
पिछले कुछ वर्षों में मवेशियों से भी कई वायरस जैसे एच5एन1, एच1एन1, निपाह वायरस और स्वाइन फ्लू इंसानों में फैले हैं, इसलिए इन पर भी ध्यान देना जरूरी है। शोध के अनुसार, इसके लिए हर वर्ष 4,969.4 करोड़ रुपए (66.4 करोड़ डॉलर) की जरूरत पड़ेगी| जंगलों के विनाश के कारण इंसानों तक फैलने वाली इन महामारियों की रोकथाम के लिए जंगलों को भी बचाना जरुरी है। शोध के अनुसार इसके लिए हर वर्ष करीब 41,910.7 करोड़ रुपए (560 करोड़ डॉलर) की जरूरत होगी जिससे 40 फीसदी प्रमुख स्थानों पर जंगलों के विनाश को रोका जा सके।
वन्यजीवों और जंगलों को बचाने पर किया निवेश न केवल हमें इन महामारियों के खतरे से सुरक्षित रखेगा, बल्कि इसके साथ ही इससे पर्यावरण पर बढ़ते दबाव, प्रदूषण को कम करने और जलवायु परिवर्तन के खतरे को सीमित करने में भी मदद मिलेगी। जंगल हमारी धरती के फेफड़े हैं, यदि यह सुरक्षित रहते हैं तो हमारा वातावरण भी सुरक्षित रहेगा। (downtoearth)
राजस्थान, 27 जुलाई। राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच चल रही तनातनी और उसकी वजह से पैदा हुई सियासी उथल-पुथल के बीच प्रदेश की एक क़द्दावर नेता की ख़ामोशी तमाम नेताओं की बयानबाज़ी से भी ज़्यादा सुर्ख़ियों में बनी हुई है. ये नेता हैं प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी का पर्याय मानी जाने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया. वे बीते कई दिनों से केंद्रीय राजधानी दिल्ली या जबरदस्त राजनीतिक उठापटक का सामना कर रहे जयपुर के बजाय धौलपुर में स्थित अपने राजमहल में मौजूद हैं.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी शुरुआत से ही इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती रही है कि राजस्थान में अशोक गहलोत सरकार को अस्थिर करने में वह सचिन पायलट की साझेदार है. लेकिन हाल की कई घटनाएं पार्टी के रुख पर बड़ा सवालिया निशान खड़ा करती हैं. जैसे कांग्रेस की तरफ़ से जारी किए गए एक ऑडियो में कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का विधायकों की ख़रीद-फरोख़्त से जुड़ी बातचीत करना. सचिन पायलट का हाईकोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए मुकुल रोहतगी और हरीश साल्वे जैसे ऐसे वकीलों को ही अपना पैरोकार चुनना जिनका भाजपा के प्रति स्पष्ट झुकाव किसी से नहीं छिपा है. पायलट का अपने समर्थक विधायकों के साथ भाजपा शासित प्रदेश हरियाणा में ही रुके रहना. और बीते कुछ दिनों में मुख्यमंत्री गहलोत के क़रीबियों के यहां अचानक से ईडी और सीबीआई की रेड पड़ना. इसके अलावा राज्यपाल कलराज मिश्र द्वारा गहलोत सरकार को विधानसभा सत्र बुलाने की इजाजत न देना भी ऐसी ही घटनाओं में से एक है.
यदि भारतीय जनता पार्टी के इस दावे को सही मान भी लें कि ये पूरी खींचतान कांग्रेस की अंदरूनी फूट का ही नतीजा है और इसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है. तो भी इतने महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम से वसुंधरा राजे जैसी दिग्गज नेता का दूरी बनाए रखना जानकारों को चौंकाता है. राजे की इस चुप्पी को लेकर सूबे के राजनीतिक विश्लेषक मुख्य तौर पर दो मत रखते हैं.
पहला तो यह कि वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान और खास तौर पर भाजपा में ऐसा कोई भी नया क्षत्रप उभरने नहीं देना चाहती हैं जो आगे चलकर उन्हें चुनौती दे सके. और जब बात सचिन पायलट जैसे युवा, महत्वाकांक्षी और ऊर्जावान नेता की हो तो किसी का भी अतिरिक्त सतर्क होना लाज़मी है. इसके अलावा प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में मुख्यमंत्री गहलोत और वसुंधरा राजे द्वारा अंदरखाने एक दूसरे को समर्थन देते रहने की चर्चा भी आम है. हाल ही में सचिन पायलट ने भी मुख्यमंत्री गहलोत और राजे के बीच गठजोड़ होने के आरोप लगाए थे और लोकसभा में भाजपा की सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी (आरएलपी) के प्रमुख हनुमान बेनीवाल ने भी.
हालांकि इसके बाद वसुंधरा राजे ने एक ट्वीट के ज़रिए कांग्रेस पर हमला बोला था. लेकिन जानकारों ने उसे महज औपचारिकता के तौर पर ही देखा. क्योंकि इसके बाद वे एक बार फिर पूरे परिदृश्य से नदारद हो गई हैं. कुछ जानकार राजे और पायलट परिवार के बीच के असहज रिश्तों के लिए 2003 के विधानसभा चुनाव का भी हवाला देते हैं. तब सचिन पायलट की मां रमा पायलट ने राजे को उनकी पारपंरिक सीट झालरापाटन पर चुनौती दी थी. हालांकि रमा पायलट वह चुनाव जीत पाने में नाकाम रहीं थीं.
इस पूरे मामले में विश्लेषक वसुंधरा राजे की ख़ामोशी की दूसरी बड़ी वजह के तौर पर भाजपा हाईकमान से उनके असहज रिश्तों को भी गिनवाते हैं. भाजपा से जुड़े एक वरिष्ठ नेता इस बारे में इशारों में हमें बताते हैं, ‘इस सब के लिए हाईकमान ने राज्य में अपनी सबसे प्रमुख नेता को विश्वास में ही नहीं लिया. जबकि मैडम ये सब नहीं चाहती थीं.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह से वसुंधरा राजे के असहज रिश्ते ही थे जिनके चलते उनके पिछले कार्यकाल (2013-18) में उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने की चर्चाएं लगभग हर छह महीने में जोर पकड़ने लगती थीं. जानकारों के मुताबिक प्रधानमंत्री मोदी और पूर्व मुख्यमंत्री राजे के बीच की अनबन सबसे पहले 2008 में सामने आयी थी. तब राजस्थान-गुजरात की संयुक्त नर्मदा नहर परियोजना के उद्घाटन के समय एक ही पार्टी से होने के बावजूद इन दोनों नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री एक-दूसरे के कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं लिया था.
हालांकि पांच साल बाद इनके बीच रिश्ते सामान्य होने की खबरें भी खूब सुनने को मिलीं जब दोनों ने एक दूसरे के लिए चुनावों में जमकर प्रचार किया था. मोदी लहर कहें या राजे की मेहनत 2013 में भाजपा ने राजस्थान विधानसभा चुनावों में जबर्दस्त बहुमत हासिल किया और अपनी लय बरकरार रखते हुए पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रदेश की सभी 25 सीटों पर कब्जा कर लिया. लेकिन जब इस जीत का श्रेय लेने की बारी आई तो दोनों एक-दूसरे को एक बार फिर खटकने लगे. प्रदेश में इस जीत पर अपना-अपना दावा करते राजे और मोदी समर्थक कई मौकों पर एक दूसरे को आंखे तरेरते भी नजर आए.
लोकसभा चुनाव में पार्टी के शानदार प्रदर्शन को देखते हुए वसुंधरा राजे को उम्मीद थी कि उनके पुत्र और झालावाड़ से सांसद दुष्यंत सिंह को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह जरूर मिलेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रतिक्रिया के तौर पर वसुंधरा राजे खुद दिल्ली पहुंच गयीं और प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण से पहले राजस्थान से चुने गए सभी सांसदों की मीटिंग बुला ली. खबरें तो यह थीं कि राजे नाराज सांसदों को मनाने के लिए दिल्ली आईं थीं. लेकिन कई जानकारों ने इसे उनके शक्तिप्रदर्शन के तौर पर भी देखा. बताया जाता है कि तभी से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नजरों की किरकिरी बन गईं.
उसके बाद 2014 के विधानसभा उपचुनावों में जब भाजपा को चार में से सिर्फ एक सीट मिली तब एक बार फ़िर कयास लगाए जाने लगे कि प्रदेश में वसुंधरा राजे के दिन लद गए हैं. लेकिन उस समय केंद्र के लिए यह कदम आसान नहीं था. दरअसल उसी समय उत्तर प्रदेश में भी उपचुनाव हुए थे और राजस्थान की तरह वहां भी लोकसभा में जबरदस्त प्रदर्शन के बावजूद भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया था. इसका मतलब था कि मजबूरन केंद्र को दोनों राज्यों में समान कार्रवाई करनी पड़ती. फ़िर दिल्ली के विधानसभा चुनाव भी सर पर थे. लिहाजा भाजपा हाईकमान ने अंतर्कलह से बचने के लिए तब भी राजे को लेकर कोई फैसला नहीं लिया
लेकिन वसुंधरा राजे आसानी से चुप होने वालों में से नहीं थी. उपचुनाव हारने के अगले महीने ही उन्होंने मीडिया के सामने एक चौंकाने वाला बयान दिया कि ‘कोई व्यक्ति इस गुमान में न रहे कि उसकी वजह से पार्टी राजस्थान में लोकसभा की 25 और विधानसभा की 163 सीटें जीती हैं. जनता जिताने निकलती है तो दिल खोलकर और हराने निकलती है तो घर भेज देती है.’ हालांकि इस बयान में उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया था लेकिन जानकारों का मानना था कि उन्हें चुनावों में जीत का सेहरा प्रधानमंत्री के सिर बांधना रास नहीं आया था.
इसके अलावा राजे ने केंद्र के महत्वाकांक्षी स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत भी राजस्थान में देरी से की थी. इसके लिए उनसे दिल्ली से जवाब भी मांगा गया. लेकिन सफाई देने की बजाय उन्होंने किसी विपक्षी मुख्यमंत्री जैसा रुख अपना लिया. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा, ‘ये तो अब कर रहे हैं. हमने अपने बजट में इसका प्रावधान किया है. हमने 2003 में ही झाड़ू लगाकर इसकी शुरुआत कर दी थी.’ हालांकि केंद्र ने राजे के इस बयान को भी दरकिनार करते हुए इस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी.
लेकिन फ़िर 2015 की गर्मियां वसुंधरा राजे के माथे पर पसीना लाने वाली साबित हुईं. ललित मोदी कांड में जब उनका नाम उछला तो सभी को लग रहा था कि इस बार केंद्र उन्हें नहीं बख्शेगा. लंबे समय तक केंद्र ने इस पर चुप्पी बनाए रखी और राजे की चारों तरफ जमकर किरकिरी होने के बाद ही उन्हें क्लीन चिट दी गई. लेकिन अपने विधायकों पर जबरदस्त पकड़ के चलते राजे को हटाया फ़िर भी नहीं जा सका. इसके अलावा पहले ही दिल्ली के चुनावों में करारी हार का सामना कर चुकी भाजपा हाईकमान की नज़र उस समय बिहार के चुनावों पर भी थी. ऐसे में राजस्थान में उठाया गया कोई भी बड़ा कदम बिहार में फूंक-फूंक कर कदम रख रहे पार्टी शीर्ष नेतृत्व का ध्यान विचलित कर सकता था.
फ़िर 2017 में उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में पड़ोसी राज्य की मुख्यमंत्री होने के बावजूद राजे को हाईकमान ने कोई जिम्मेदारी नहीं दी और जब जीत के बाद वे बधाई देने दिल्ली पहुंची तो उन्हें भीड़ में जगह मिली. लेकिन जल्द ही राजे को अपने अपमान का बदला लेने का मौका मिल गिया. दरअसल 2018 में राजस्थान में हुए दो बेहद महत्वपूर्ण लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद राजे के करीबी माने जाने वाले पार्टी प्रदेशाध्यक्ष अशोक परनामी को इस्तीफा देना पड़ा था. सूत्र बताते हैं कि परनामी की जगह अमित शाह ने तत्कालीन केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत का नाम आगे बढ़ाया था. लेकिन राजे ने उनके नाम पर वीटो लगा दिया
इस बार भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने राजे को मनाने की लाख कोशिश की लेकिन उसकी एक न चली. उल्टे राजे के इशारे पर प्रदेश संगठन से जुड़े करीब दो दर्जन कद्दावर मंत्रियों और नेताओं ने अपनी नेता की बात मनवाने के लिए दिल्ली में डेरा डाल दिया. ढाई महीने तक चली इस रस्साकशी में अमित शाह को पीछे हटना पड़ा और गजेंद्र सिंह शेखावत की जगह मदनलाल सैनी ने पार्टी प्रदेशाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली. इसके बाद बारी आई 2018 के विधानसभा चुनावों में टिकट वितरण की. एक बार फ़िर भाजपा आलाकमान ने राजे के पसंद के नेताओं के टिकट काटने और अपनी पसंद के नेताओं को पार्टी की तरफ़ से चुनाव में उतारने लिए ऐड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा दिया. लेकिन हर बार की ही तरह इस बार भी भाजपा हाईकमान को मुंह की ही खानी पड़ी और 200 में से अधिकतर टिकट वसुंधरा राजे की ही पसंद से बांटे गए.
लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद पार्टी आलाकमान ने राजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुला लिया. माना जाता है कि इस फैसले के जरिए पार्टी शीर्ष नेतृत्व राजस्थान से राजे की पकड़ ढीली करवाना चाहता है. इसी क्रम में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा हाईकमान ने राजस्थान के कद्दावर जाट नेता हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन कर वसुंधरा राजे को असहज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. सूबे में बेनीवाल की छवि घोर राजे विरोधी के तौर पर स्थापित है. बाद में केंद्रीय कैबिनेट में जिन गजेंद्र सिंह शेखावत, अर्जुनराम मेघवाल और कैलाश चौधरी को शामिल किया गया, उन्हें भी राजे विरोधियों के तौर पर ही पहचाना जाता है. लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए ओम बिरला से भी पूर्व मुख्यमंत्री की तनातनी की ख़बरें किसी से छिपी नहीं हैं. इसके बाद 2019 में भी सतीश पूनिया को भाजपा प्रदेशाध्यक्ष बनाते समय राजे से कथित तौर पर कोई मशवरा नहीं लिया गया था.
लेकिन भाजपा से जुड़े सूत्रों की मानें तो इन तमाम कवायदों के बावज़ूद वसुंधरा राजे को कमजोर नहीं किया जा सका है. अभी की बात करें तो राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के 72 विधायकों में से तकरीबन 50 विधायक ऐसे माने जाते हैं जिनके लिए ‘वसुंधरा ही भाजपा’ हैं. राजस्थान से आने वाले भाजपा के सभी 25 सांसदों में से कमोबेश आधों की भी यही स्थिति बताई जाती है. इन सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व से नाख़ुश धड़ा अगले लोकसभा चुनाव से पहले उन पर दबाव बनाने के लिए वसुंधरा राजे की मदद ले सकता है.
कहने वाले तो यह तक कहते हैं कि अब तक राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री से नाख़ुश रहने वाले आरएसएस का भी एक धड़ा अंदरखाने उन्हें अपना समर्थन देने लगा है और राजे को यह राहत संघ की राजस्थान इकाई की तरफ़ से नहीं बल्कि सीधे नागपुर से मिली है. इसमें महाराष्ट्र से ही ताल्लुक रखने वाले भारतीय जनता पार्टी के एक केंद्रीय नेता की बड़ी भूमिका बताई जाती है.
इस सबके मद्देनज़र जानकारों का मानना है कि भाजपा हाईकमान न तो राजे को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाकर और ज़्यादा ताकतवर करने का ख़तरा मोल ले सकता है और ना ही मुख्यमंत्री न बनाकर उन्हें नाराज़ करने का. विश्लेषकों के मुताबिक यदि भाजपा ने राजस्थान में वसुंधरा राजे की बजाय किसी और नेता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री बनाने की सोची भी तो पार्टी में उस तरह की तोड़-फोड़ देखने को मिल सकती है जैसी कि कांग्रेस में भी अभी तक नहीं हुई है. दबी आवाज़ में जयपुर के राजनैतिक गलियारों में ऐसी चर्चाएं भी कही-सुनी जा रही हैं कि यदि फ्लोर टेस्ट के वक़्त गहलोत सरकार लड़खड़ाती नज़र आई तो वसुंधरा समर्थक भाजपा के कुछ विधायक उसे संबल देने के लिए क्रॉस वोटिंग तक कर सकते हैं. इसके लिए ये विधायक भाजपानीत भैरोसिंह शेखावत सरकार (1993-98) के समय हुई एक बड़ी राजनीतिक घटना की नैतिक आड़ ले सकते हैं.
उस समय भारतीय जनता पार्टी के विधायक भंवरलाल शर्मा ने कथित तौर पर विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त कर अपनी ही सरकार को गिराने की कोशिश की थी. लेकिन तब कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष पद पर बैठे गहलोत ने विदेश में अपना इलाज करवा रहे शेखावत तक यह सूचना पहुंचवाई और तत्कालीन राज्यपाल बलिराम भगत और प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से मिलकर इस कोशिश का विरोध किया. इसके बाद तुरत-फुरत में शेखावत भारत आए और विरोधियों की कवायद को नाकाम कर दिया. इस समय भंवरलाल शर्मा कांग्रेस में हैं और सचिन पायलट खेमे में शामिल हैं. कथित तौर पर केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के वायरल ऑडियो में एक आवाज़ शर्मा की भी बताई जा रही है. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी के कुछ विधायक दलील दे सकते हैं कि वे अपने नेता को धोखा देने वाले भंवरलाल शर्मा के साथ दिखने के बजाय शेखावत की सरकार बचाने वाले गहलोत का साथ देना ज्यादा पसंद करेंगे.
भारतीय जनता पार्टी की राजस्थान इकाई में वसुंधरा राजे के प्रभाव का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जब सांसद हनुमान बेनीवाल ने उन पर मुख्यमंत्री गहलोत से सांठ-गांठ का आरोप लगाया तो प्रदेश भाजपा में हलचल मच गई. संगठन में राजे विरोधी माने जाने वाले नेताओं ने भी बेनीवाल को उनके बयान के लिए आड़े हाथों लिया और अपनी तरफ़ से लीपापोती की भी कोशिश की. लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में जब राजे के करीबी माने जाने वाले विधायक कैलाश मेघवाल ने अपनी ही पार्टी को कटघरे में खड़े करते हुए बड़ा बयान दिया कि ‘राजस्थान में सरकार को गिराने के लिए जिस तरह का माहौल पिछले दो महीने से बना है, हॉर्स ट्रेडिंग हो रही है, आरोप प्रत्यारोप लग रहे हैं वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. सरकारें बदलती रही हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी द्वारा विपक्षी पार्टियों से मिलकर सरकार गिराने के षडयंत्र जो आज हो रहे हैं, ऐसा कभी नहीं देखा गया.’ इस पर वसुंधरा गुट की तरफ़ से करीब एक सप्ताह गुजरने के बाद भी अब तक कोई सफाई नहीं दी गई है.
वसुंधरा राजे की राजनीति को करीब से देखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार उनके मौजूदा रुख के बारे में कहते हैं, ‘राजे की राजनैतिक समझ बेहद कैल्कुलेटिव है. वे जानती हैं कि भ्रम की स्थिति में खपाई गई ऊर्जा न सिर्फ़ निरर्थक होगी बल्कि नुकसानदायक भी साबित हो सकती है.’ ये पत्रकार राजे और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच एक समानता का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, ‘ये दोनों ही नेता सत्ता से बाहर रहने के दौरान एक सोची-समझी ख़ामोशी ओढ़े रखते हैं. लेकिन हर बार निर्णायक घड़ी में अपने विरोधियों पर इक्कीस साबित होते हैं. गहलोत तो फ़िर भी पर्दे के पीछे रहकर बाजी पलटने में विश्वास रखते हैं. लेकिन राजे आर-पार की लड़ाई लड़ती आई हैं. इसलिए उनकी हालिया चुप्पी का यह मतलब बिल्कुल नहीं निकालना चाहिए कि ज़रूरत पड़ने पर वे कोई बड़ा क़दम उठाने से पहले एक बार भी झिझकेंगी.’(satyagrah)
तीन गुणा बढ़ जाएगा कचरा
अनुमान है कि 2040 तक समुद्र में मौजूद कुल प्लास्टिक वेस्ट बढ़कर करीब 60 करोड़ टन हो जाएगा
-Lalit Maurya
अनुमान है कि 2040 तक समुद्र में मौजूद प्लास्टिक वेस्ट में तीन गुना तक इजाफा हो जाएगा। 2050 तक समुद्र में उतना प्लास्टिक होगा जितनी उसमें मछलियां भी नहीं हैं। यह जानकारी हाल ही में जारी एक नए शोध से सामने आई है। यह शोध द प्यू चैरिटेबल ट्रस्ट और सिस्टेमिक नामक संस्था द्वारा किया गया है। इसमें एलेन मैकआर्थर फाउंडेशन, कॉमन सीस, ऑक्सफोर्ड और लीड्स यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने सहयोग किया है। यह शोध अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है।
शोध के अनुसार, 2016 में करीब 1.1 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंका गया था। यदि दुनियाभर के देश और कंपनियां इसको रोकने में असफल रहती हैं तो यह 2040 तक बढ़कर 2.9 करोड़ टन हो जाएगा। यह दुनिया भर में समुद्र तट के प्रत्येक मीटर पर लगभग 50 किलोग्राम प्लास्टिक के बराबर होगा। चूंकि प्लास्टिक को खत्म होने में कई दशक लग जाते हैं, ऐसे में अनुमान है कि समुद्र में मौजूद कुल प्लास्टिक वेस्ट बढ़कर 60 करोड़ टन के करीब हो जाएगा। इसकी विशालता का अनुमान आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह करीब 30 लाख ब्लू व्हेल मछलियों के वजन से भी ज्यादा होगा।
इससे पहले ओसियन कन्ज़र्वेंसी नामक संस्था द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, हर साल करीब 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा समुद्रों में फेंका जा रहा है। अनुमान था कि करीब 15 करोड़ टन कचरा समुद्रों में मौजूद है। यह पर्यावरण और समुद्री इकोसिस्टम को बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा है।
दुनिया के लिए आसान नहीं है प्लास्टिक कचरे को कम करने की डगर
दुनियाभर में प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं पर इसके बावजूद इस कचरे में लगातार वृद्धि हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार यदि देश प्लास्टिक से बने उत्पादों की बिक्री और उपयोग को सीमित करने में सफल रहते हैं, इसका कोई विकल्प ढूंढ लेते हैं, इसे समुद्रों में पहुंचने से रोक लेते हैं तो प्लास्टिक वेस्ट में आधे से कम की कटौती की जा सकती है। हालांकि दुनियाभर के देशों और कंपनियों ने प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के अनेक उपाय और घोषणाएं की हैं, लेकिन इसके बावजूद इन सब उपायों से प्लास्टिक वेस्ट की मात्रा में केवल 7 फीसदी की कटौती हो सकती है।
शोध के अनुसार यदि आज उपलब्ध तकनीकों का बेहतर ढंग से उपयोग किया जाए तो समुद्रों में बढ़ रहे प्लास्टिक वेस्ट में 80 फीसदी से भी ज्यादा की कटौती की जा सकती है। इसके लिए नीति निर्माताओं को बड़े परिवर्तन करने की जरूरत है। इसके लिए प्लास्टिक के उत्पादन और उपभोग को कम करना होगा। साथ ही प्लास्टिक की जगह पेपर और अन्य सामग्री रीसाइकल हो सकने वाले उत्पादों पर बल देना होगा| साथ ही विकासशील देशों में वेस्ट कलेक्शन और मैनेजमेंट की प्रक्रिया में सुधार करना होगा जबकि अमीर देशों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी और रीसाइक्लिंग पर ध्यान देना होगा। इसके अलावा अपने वेस्ट को विकासशील देशों में भेजना बंद करना होगा।
यदि दुनिया के देशों ने इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया तो आने वाले वक्त में करीब 400 करोड़ लोग वेस्ट कलेक्शन और मैनेजमेंट जैसी सुविधाओं से वंचित होंगे। ऐसे में वेस्ट की मात्रा में कितनी वृद्धि होगी इस बात का अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं। ऊपर से जिस तरह से कोविड-19 महामारी के चलते वेस्ट में इजाफा हो रहा है वह इस समस्या को अधिक बड़ा और खतरनाक बना देगा। दुनिया के कई देशों में समुद्रों में बड़े पैमाने पर पीपीई किट जैसे दस्ताने और मास्क मिले हैं जो समुद्रों में मौजूद वेस्ट की मात्रा में इजाफा कर रहे हैं। साथ ही महामारी के खतरे को और बढ़ा रहे हैं। मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के जरिए यह वेस्ट घूमकर हमारी फ़ूड चेन में पहुंच रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार प्लास्टिक वेस्ट को कम करने के उपाय न केवल समुद्र में हो रहे प्लास्टिक प्रदूषण में 80 फीसदी की कटौती कर देंगे, बल्कि इससे 2040 तक करीब 5,23,862 करोड़ रुपए (7,000 करोड़ डॉलर) की बचत भी होगी। इससे 7,00,000 लोगों को रोजगार भी मिलेगा और प्लास्टिक के कारण हो रहे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी 25 फीसदी की कमी भी आएगी। (downtoearth)
हसदेव अरण्य क्षेत्र की ग्राम सभाओं द्वारा लगाचार चेताया जाता रहा है कि इस अति संवेदनशील जंगल का संरक्षण किया जाना चाहिए न कि इसे चंद पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए बर्बाद किया जाना चाहिए
-सत्यम श्रीवास्तव
वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए कोयले की नीलामी प्रक्रिया से संबंधित एक अहम अधिसूचना कोयला मंत्रालय ने 21 जुलाई को जारी की है जिसमें महाराष्ट्र के टडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व की सीमा में मौजूद बेंडर कोल ब्लॉक को नीलामी प्रक्रिया से बाहर किया गया है।
18 जून 2020 को चार राज्यों की 41 कोयला खदानों को वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए नीलामी प्रक्रिया में शामिल किया गया था। इस नीलामी प्रक्रिया को आधिकारिक व औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में शुरू किया गया था। उस दिन यह तय हुआ कि 18 अगस्त तक निविदाएंं आमंत्रित की जाएंगी।
नीलामी के लिए प्रस्तावित कोयला खदानों की विस्तृत सूची ज़ाहिर हो जाने के बाद बाद से ही बेंडर कोयला खदान को लेकर महाराष्ट्र में विरोध के स्वर मुखर हो गए थे। न केवल पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने बल्कि स्वयं राज्य के पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे ने 1644 वर्ग हेक्टेयर के इस संवेदनशील क्षेत्र को संरक्षित किए जाने और टडोबा अंधारी टाइगर रिज़र्व (टीएआरआर) जैसे ईको-सेंसिटिव ज़ोन में कोयला खदान शुरू न करने के लिए देश के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को पत्र लिखा था।
उल्लेखनीय है कि इस कोयला खदान को 2009 व 2019 में भी खनन के लिए प्रस्तावित किया जाता रहा है। हर बार इसके खिलाफ पर्यावरणविदों ने आपत्तियां दर्ज़ की हैं। सत्ता में रही राज्य की तत्कालीन सरकारों ने भी इस पर्यावरणीय संवेदनशील क्षेत्र को बचाए जाने की भरसक कोशिश की है।
महाराष्ट्र के लिए और देश के तमाम ऐसे लोगों के लिए ये राहत की ख़बर है कि इस ‘ईको सेंसिटिव ज़ोन’ को चंद पूंजीपतियों के मुनाफे से ज़्यादा अहमियत दी गई।
कमर्शियल उद्देश्य के लिए नीलामी प्रक्रिया में शामिल किए गए कॉल ब्लॉक्स को लेकर छत्तीसगढ़ और झारखंड की सरकारों ने भी गंभीर आपत्तियां जताईं थीं। झारखंड सरकार तो इस मामले को लेकर सर्वोच्च न्यायालय भी पहुंची जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से जवाब मांगा है।
ठीक ऐसी ही उम्मीद थी कि छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य के सघन, जैव विविधतता से भरपूर, कितनी ही प्रजातियों के वन्य जीवों के प्राकृतिक पर्यावास, उत्तर भारत में मानसून की दशा दिशा निर्धारित करने वाले प्राकृतिक जंगल और परिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से बेहद संवेदनशील क्षेत्र में मौजूद कोल ब्लॉक्स को भी इस सूची से बाहर किया जाएगा। जहां 2015 से निरंतर इन कोयला खदानों का विरोध हो रहा है।
18 जून 2020 के बाद के घटनाक्रम और बल्कि कमर्शियल कोल माइनिंग की घोषणा के बाद से ही हसदेव अरण्य के क्षेत्र से ग्राम सभाओं और राज्य भर के जन संगठनों की ओर से भारत सरकार को चेताया जाता रहा है कि इस अति संवेदनशील जंगल का संरक्षण किया जाना चाहिए न कि इसे चंद पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए बर्बाद किया जाना चाहिए।
ग्राम सभाओं, हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के विरोध को राज्य की सरकार ने भी समर्थन दिया और 22 जून 2020 को राज्य के वन एवं पर्यावरण मंत्री मोहम्मद अकबर ने केंद्रीय कोयाला मंत्री प्रहलाद जोशी को एक विस्तृत पत्र लिखकर इस बाबत गुजारिश की कि इस जंगल में मौजूद कोयला खदानों को नीलामी प्रक्रिया से बाहर किया जाये।
मोहम्मद अकबर ने देश के वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के मंत्री प्रकाश जावडेकर को भेजा है और इसमें लेमरू हाथी अभयारण्य का क्षेत्रफल बढ़ाने के राज्य सरकार के फैसले से अवगत कराया है।इस पत्र के बाद फायनेंशियल एक्सप्रेस में 1 जुलाई 2020 को अनुपम चटर्जी ने, 2 जुलाई को टाइम्स ऑफ इंडिया में विजय पींजकर ने और पत्रिका रायपुर ने इस संबंध में खबरें दीं जिनमें बताया गया कि हसदेव अरण्य के चार कोल ब्लॉक्स को बाहर करना तय किया गया है।
इसके पीछे के कारणों को अलग-अलग ढंग से बताया गया। फायनेंशियल एक्सप्रेस ने जहां बताया कि इन चार कोल ब्लॉक्स की भंडारण क्षमता कम है इसलिए इनके स्थान पर ज़्यादा क्षमता के कोल ब्लॉक्स शामिल किए जाएंगे ताकि निवेशको की रुचि बढ़े। एक खबर में कारण मोहम्मद अकबर के पत्र और राज्य सरकार कि चिंताओं को तरजीह दिये जाने के भी बताए गए।
हालांकि ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं ने इस खबर को अपुष्ट बताते हुए इस पर कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं दी और आधिकारिक अधिसूचना का इंतज़ार किया।
हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति से नजदीक से जुड़े और छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला ने बताया, “हम अफवाहों के आधार पर या चलते फिरते कोयला मंत्री के किसी बयान के आधार पर यह नहीं मान सकते कि वाकई इन कोल ब्लॉक्स को नीलामी प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है। इसके अलावा हमारी आपत्ति केवल इन कोल ब्लॉक्स को शामिल किए जाने को लेकर नहीं हैं बल्कि कमर्शियल कोल माइनिंग की पूरी अवधारणा को लेकर है। कोयले की जरूरत के बिना उसकी नीलामी की शर्तों को शिथिल करते हुए, राज्यों की शक्तियों को धता बताते हुए केंद्र सरकार ने जो निर्णय लिए हैं, उन्हें लेकर है”।
21 जुलाई की अधिसूचना ने जैसे इन अटकलों और अफवाहों पर कुछ समय के लिए विराम लगा दिया। इस अधिसूचना में हसदेव अरण्य के क्षेत्र में मौजूद कॉल ब्लॉक्स को लेकर कोई बात नहीं हुई है। यह महज़ वेंडर कॉल ब्लॉक के लिए ही जारी हुई।
इसका पूर्वानुमान प्रह्लाद जोशी के 29 जून 2020 के उस पत्र से भी हो रहा था जो उन्होंने मोहम्मद अकबर के पत्र के जबाव में लिखा था। उन्होंने लिखा था कि हम इस विषय में ‘जांच पड़ताल’ कर रहे हैं।
इस नीलामी प्रक्रिया को लेकर जो आपत्तियां आईं हैं उनमें कुछ तर्क प्रमुखता से उभर कर आए हैं मसलन, यह पूरी प्रक्रिया कोयला जैसे राष्ट्रीय संपदा पर केवल केंद्र सरकार ही निर्णय ले रही है जो भारतीय गणराज्य के संघीय ढांचे पर और राज्यों की शक्तियों पर बड़ा सवाल है। दूसरा इसमें राज्यों को भरोसे में नहीं लिया गया है, स्थानीय सरकारों यानी ग्राम सभाओं (विशेष रूप से पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में) को नज़रअंदाज़ किया गया है। पर राज्यों की सरकारों का नियंत्रण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय 2014 के स्पष्ट आदेश का खुला उल्लंघन है भी सतह पर आया।
इसके जवाब में प्रह्लाद जोशी के हवाले से यह भी कहा गया कि कोयला मंत्रालय ने राज्य सरकारों के साथ 8 बैठकें की हैं। इसलिए इन आरोपों में कोई बल नहीं है कि प्रक्रिया का पालन ठीक से नहीं किया गया। हालांकि ऐसी किसी एक भी बैठक का विवरण जन सामान्य के लिए मौजूद नहीं है। स्वयं राज्य सरकारें इस बात से अवगत नहीं हैं। अगर ऐसा वाकई हुआ होता तो झारखंड सरकार स्वयं सुप्रीम कोर्ट में इस नीलामी प्रक्रिया के खिलाफ याचिका दायर क्यों करती?
ऐसे कई अनुत्तरित सवाल हैं जिससे यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार किस तरह से अपारदर्शी ढंग से काम कर रही है।
खबरें यह भी आईं कि छत्तीसगढ़ की सरकार पहले से ही प्रस्तावित लेमरू हाथी अभयारण्य की चौहद्दी बढ़ाने का फैसला ले चुकी है। इसके बावत भी एक पत्र मोहम्मद अकबर ने देश के वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के मंत्री प्रकाश जावडेकर को भेजा है और इसमें लेमरू हाथी अभयारण्य का क्षेत्रफल बढ़ाने के राज्य सरकार के फैसले से अवगत कराया है।
इस पत्र के बावत हालांकि कोई प्रतिक्रिया अभी प्रकाश जावड़ेकर के दफ्तर से सामने नहीं आई है।
महाराष्ट्र के एक कोल ब्लॉक को जिन आधारों पर नीलामी प्रक्रिया से बाहर किया गया है, ठीक उन्हीं आधारों पर छत्तीसगढ़ के कोल ब्लॉक्स को क्यों बाहर नहीं किया गया यह समझ से परे है। क्या मामला एक कोल ब्लॉक और चार कोल ब्लॉक्स की तादाद को लेकर है? या इसके पीछे महाराष्ट्र में अपने से जुदा हुए सबसे पुराने सहयोगी का सार्वजनिक तौर पर मान रखने को लेकर है? कहा तो यह भी जा रहा है कि कोयला खदानों पर भी अंतिम निर्णय अब कोयला मंत्रालय या प्रधानमंत्री कार्यालय की बजाय नागपुर से ही हो रहा है। यह भी आज के न्यू इंडिया में स्थापित तथ्य हो गया है कि छत्तीसगढ़ की कोयला खदानें किस अंतरंगी मित्र को जाने वाली हैं यह पहले से निर्धारित है और उसके खिलाफ केंद्र सरकार अपने पहले कार्यकाल से ही नतमस्तक है जबकि महाराष्ट्र में बेन्डर की खदान किसे जाने वाली थी इसे लेकर बहुत स्पष्टता नहीं थी।
बहरहाल, 18 अगस्त को होने वाली बिडिंग में यह तस्वीर भी साफ हो जाएगी लेकिन इस कदम से छत्तीसगढ़ में एक असंतोष पैदा हुआ है। अब भी राज्य सरकार के पास करने को बहुत कुछ है लेकिन वह अपने समृद्ध जंगल और उसमें निवासरत आदिवासी समुदायों को बचाने के लिए कितनी गंभीर है, यह आने वाले समय में पता लग पाएगा।(downtoearth)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका ने चीन के विरुद्ध अब बाकायदा शीतयुद्ध की घोषणा कर दी है। ह्यूस्टन के चीनी वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया है। चीन ने चेंगदू के अमेरिकी दूतावास का बंद करके ईंट का जवाब पत्थर से दिया है। अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ चीन पर लगातार हमले कर रहे हैं। उन्होंने अपने ताजा बयान में दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों से आग्रह किया है कि वे चीन के विरुद्ध एकजुट हो जाएं। भारत से उनको सबसे ज्यादा आशा है, क्योंकि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और गालवान घाटी के हत्याकांड ने भारत को बहुत परेशान कर रखा है। नेहरु और इंदिरा गांधी के जमाने में यह माना जाता था कि एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के देशों याने तीसरी दुनिया के देशों का नेता भारत है। उन दिनों भारत न तो अमेरिकी गठबंधन में शामिल हुआ और न ही सोवियत गठबंधन में। वह गठबंधन-निरपेक्ष या गुट-निरपेक्ष ही रहा।
अब भी भारत किसी गुट में क्यों शामिल हो? यों भी ट्रंप ने नाटो को इतना कमजोर कर दिया है कि अब अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पहले की तरह कोई गुट-वुट सक्रिय नहीं हैं लेकिन अमेरिका और चीन के बीच इतनी ठन गई है कि अब ट्रंप प्रशासन चीन के खिलाफ मोर्चाबंदी करना चाहता है। उसने आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और आग्नेय एशिया के कुछ राष्ट्रों को तो चीन के विरुद्ध भडक़ा ही दिया है, वह चाहता है कि भारत भी उसका झंडा उठा ले। भारत को पटाने के लिए ट्रंप प्रशासन इस वक्त किसी भी हद तक जा सकता है। वह भारतीयों के लिए वीजा की समस्या सुलझा सकता है, भारतीय छात्रों पर लगाए गए वीज़ा प्रतिबंध उसने वापस कर लिये हैं, वह भारत को व्यापारिक रियायतें देने की भी मुद्रा धारण किए हुए है, अमेरिका के अधुनातन शस्त्रास्त्र भी वह भारत को देना चाह रहा है, गलवान-कांड में अमेरिका ने चीन के विरुद्ध और भारत के समर्थन में जैसा दो-टूक रवैया अपनाया है, किसी देश ने नहीं अपनाया, वह नवंबर में होनेवाले राष्ट्रपति के चुनाव में 30-40 लाख भारतीयों के थोक वोटों पर भी लार टपकाए हुए है। अमेरिका के विदेश मंत्री, रक्षामंत्री, व्यापार मंत्री और अन्य अफसर अपने भारतीस समकक्षों से लगातार संवाद कर रहे हैं। भारत भी पूरे मनोयोग से इस संवाद में जुटा हुआ है। भारत की नीति बहुत व्यावहारिक है। उसने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी गठबंधन में शामिल होने के विरुद्ध है। लेकिन चीन के सामने खम ठोकने में यदि हमें अमेरिका की मदद मिलती है तो उसे भारत सहर्ष स्वीकार क्यों न करे ? भारत को चीन के सामने शीत या उष्णयुद्ध की मुद्रा अपनाने की बजाय एक सशक्त प्रतिद्वंदी के रूप में सामने आना चाहिए। उसने चीन के व्यापारिक और आर्थिक अतिक्रमण के साथ-साथ उसके जमीनी अतिक्रमण के विरुद्ध अभियान शुरू कर दिया है। (nayaindia.com)
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चिंकी सिन्हा
छह साल पहले का वाक़या है. ठंड के दिन थे. बहादुरगढ़ में बस से उतरते ही 17 साल की उस लड़की ने सबसे पहले राह चलते एक शख़्स से नज़दीकी थाने का पता पूछा. सामने ही नजफगढ़ पुलिस थाना था.
9 फ़रवरी 2014 की सुबह लड़की उस थाने में हाज़िर थी. पुलिस को उसने बताया कि रोहतक के राजपाल नाम के एक शख़्स के पास उसके कुछ दस्तावेज़ हैं, उन्हें वह दिलवा दे.
अपने ऊपर हुए ज़ुल्म की सारी कहानी उसने सामने बैठे पुलिस वालों से कह डाली. कैसे उसे क़ैद में रखा गया, यातनाएं दी गईं और किस तरह उसका शोषण किया गया. पुलिस वाला सब कुछ अपनी डायरी में नोट करता रहा.
अपनी आपबीती सुनाते हुए उसने सोनू पंजाबन का नाम लिया और कहा कि उससे जिस्मफ़रोशी करवाने वालों में वो भी शामिल थीं. पुलिस ने लड़की की शिकायत पर एफ़आईआर दर्ज कर ली.
पुलिस जिस वक़्त यह शिकायत दर्ज कर रही थी उस वक़्त दिल्ली की कुख्यात सैक्स रैकेट सरगना सोनू पंजाबन हिरासत में थीं. कुछ महीनों के बाद सोनू की शिकार वह लड़की ग़ायब हो गई. लेकिन 2017 में बड़े ही रहस्यमय तरीक़े से प्रकट हो गई. सोनू पंजाबन फिर गिरफ्तार कर ली गईं.
इसके तीन साल बाद दिल्ली की एक अदालत ने उन्हें फिर दोषी ठहराया और 24 साल की सश्रम क़ैद की सज़ा सुनाई.
लंबे समय से वह पुलिस से बचती रही थीं. 'जघन्य अपराधों' को अंजाम देने वाली एक महिला अपराधी की गिरफ्तारी सुर्खियां बनकर छा गई. सोनू ने जो कुछ भी किया था वह समाज की ओर से तय अच्छी महिला की छवि के बिल्कुल उलट था.
ख़ुद को सताई लड़कियों की रहनुमा बताती
जज के मुताबिक, वह एक सभ्य समज में रहने लायक नहीं थीं. लेकिन दिल्ली में अपना रैकेट चलाने वाली लड़कियों की यह 'दलाल' हमेशा यही दलील देती रही कि वह सताई गई लड़कियों की रहनुमा रही है. उसने हालात की मारी लड़कियों को सहारा दिया है.
सोनू यह भी कहती थीं कि अपने जिस्म पर औरतों का अधिकार है. उन्हें इसे बेचने का हक़ है. वह सिर्फ इस काम में मदद करती थीं. आख़िरकार हम सब भी तो कुछ न कुछ बेच ही रहे हैं- अपना हुनर, शरीर, आत्मा प्यार और न जाने क्या-क्या?
लेकिन इस बार, बेचने और ख़रीदने के इस धंधे की शिकार एक नाबालिग थी.
सोनू पंजाबन को जेल भेजने का फ़ैसला देते हुए जज प्रीतम सिंह ने कहा, " महिला की इज़्ज़त उसकी आत्मा जैसी बेशकीमती होती है. दोषी गीता अरोड़ा उर्फ़ सोनू पंजाबन औरत होने की सारी मर्यादाएं तोड़ चुकी है. क़ानून के तहत वह कड़ी से कड़ी सज़ा की हक़दार है.''
नाबालिग लड़की की शिकायत पर गिरफ़्तारी
सोनू पंजाबन के ख़िलाफ़ दर्ज की गई एफ़आईआर 2015 में ही क्राइम ब्रांच भेज दी गई थी. लेकिन 2017 में जब क्राइम विभाग के डीसीपी भीष्म सिंह ने केस अपने हाथ में लिया तो 2014 में गांधी नगर से घर छोड़ कर निकल चुकी लड़की को ढूंढ निकालने के लिए एक टीम बनाई गई.
पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने के बाद ही यह लड़की ग़ायब हो गई थी. उसके पिता ने उस वक़्त लड़की की गुमशुदा होने की एक और रिपोर्ट लिखाई थी.
नवंबर में पुलिस ने उस लड़की को यमुना विहार में खोज निकाला. वहां वह अपने कुछ दोस्तों के साथ रह रही थी. उस दौरान सोनू पंजाबन 2014 के एक मकोका केस में सबूत के अभाव में छूट चुकी थीं. लेकिन लड़की का पता चलते ही 25 दिसंबर 2017 में सोनू को फिर गिरफ्तार कर लिया गया.
सज़ा सुनाए जाने के दिन सोनू पंजाबन ने एक साथ ढेर सारी पेनकिलर्स खाकर ख़ुदकुशी करने की कोशिश की थी. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया. कुछ घंटों के बाद उनकी हालत स्थिर हो गई.
भीष्म सिंह ने कहा, "हो सकता है उसने कड़ी सज़ा से बचने के लिए यह क़दम उठाया हो. शायद जज को थोड़ी दया आ जाती." लेकिन जज ने कोई दया नहीं दिखाई.
ड्रग्स के इंजेक्शन
मुक़दमे की सुनवाई के दौरान जज ने कहा कि सोनू पंजाबन ने पीड़ित लड़की के स्तनों पर मिर्च पाउडर डाल दिया था ताकि वह ख़ौफ़ से उसके काबू में आ जाए. अपनी गवाही में लड़की ने कहा था उसे ड्रग्स के इंजेक्शन दिए गए.
भीष्म सिंह ने कहा, " यह गाय-भैंसों का दूध उतारने के लिए दिया जाने वाला इंजेक्शन था. यह शरीर को जल्दी तैयार कर देता है."
पुलिस का कहना है सोनू के अनकहे अपराधों की एक लंबी लिस्ट है. ये तो उनकी बेरहमी के चंद नमूने भर हैं. वह इससे भी ज़्यादा बेरहम हो सकती हैं. जिस लड़की की शिकायत पर सोनू पंजाबन को सज़ा हुई, उसको उन्होंने ख़रीदा था.
उनके रैकेट में कई हाउस वाइफ़ और कॉलेज की लड़कियां थीं. उन औरतों की जिस्मफ़रोशी के लिए वह सुविधाएं जुटाती थीं और बदले में कमीशन लेती थीं. ये सब आपसी रज़ामंदी से होता था. लेकिन वह दूसरे दलालों से भी कम उम्र की लड़कियों की ख़रीद कर ग्राहकों को सप्लाई करती थीं.
सोनू पंजाबन इन लड़कियों को बेचे जाने तक क़ैद में रखती थीं. इन लड़कियों को बारी-बारी से ग्राहकों को भेजा जाता था ताकि दलालों को अपने-अपने इलाक़ों में सप्लाई की दिक़्क़त न हो.
जज ने सोनू पंजाबन के मामले में फ़ैसला सुनाते हुए कहा कि उन्होंने औरत होने की सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं. महिला के नाम पर वह कलंक हैं.
डीसीपी सिंह के मुताबिक़, सोनू पंजाबन एक शातिर औरत रही है जिसे न कोई डर है और न कोई अफ़सोस.
वह कहते हैं, "जब मैंने पूछा कि नाबालिग लड़कियों की ख़रीद-फरोख़्त अपराध है तो उसने कहा कि उसे पता नहीं. वह जानबूझ कर ऐसा कह रही थी. उसे पता था कि वह जो कर रही है वो ग़लत है. हमारे समाज में तो लोग यह मानते हैं कि औरतों के ख़िलाफ़ औरतें ही ऐसे अपराधों को अंजाम नहीं दे सकतीं."
सोनू पंजाबन सभ्य समाज के लायक नहीं?
सोनू को 24 साल के सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई. उन्हें आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 328, 342, 366ए, 372, 373 120बी समेत अनैतिक व्यापार रोकथाम क़ानून की धारा 4, 5 और 6 के तहत सज़ा दी गई है.
सोनू बच्चों को यौन अपराधों से बचाने वाले क़ानून पोक्सो के तहत भी दोषी ठहराई गई हैं. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रीतम सिंह ने सोनू के ख़िलाफ़ सज़ा सुनाते हुए उन पर 64 हज़ार रुपये का जुर्माना भी लगाया. अदालत ने सोनू के सह आरोपी संदीप बेडवाल को भी 20 साल जेल की सज़ा सुनाई और कहा कि वह पीड़ित लड़की को सात लाख रुपये मुआवज़ा दें.
पुलिस के मुताबिक़, सोनू पंजाबन की ज़ुल्म की शिकार हुई लड़की ने 2014 में अपनी मर्ज़ी से घर छोड़ा था. वह नशे की आदी थी और यह कलंक वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी. उसकी बहन की शादी होने वाली थी. वह नहीं चाहती थी कि इस रिश्ते में उसका अतीत अड़चन बन जाए.
सुनवाई के बाद फ़ैसला सुनाने के दौरान एलप्रेक्स नाम की दवा का ज़िक्र आया था. पीड़िता डिप्रेशन की शिकार थी और इस दवा का इस्तेमाल करती थी. उसने एफ़आईआर में आरोप लगाया था कि कुछ लोग उसे धमकियां देते थे.
लंबे वक़्त तक ग़ायब रहने के बाद जब वह मिली तो उसकी काउंसिलिंग करवाई. उसे नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करने में मदद की गई. उसकी शादी भी हुई. उसका एक बच्चा है और अब वह अपने मां-बाप के साथ रहती है.
शादी के बाद उसके ससुराल वालों ने उसे छोड़ दिया था. लड़के के मां-बाप उसके अतीत से समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे. वह लड़की फ़ोन पर बात नहीं करती है. लेकिन जांच अधिकारी पंकज नेगी के मुताबिक़ लड़की को लग रहा है कि आख़िरकार उसकी जीत हुई है. वह राहत महसूस कर रही है.
सोनू पंजाबन के ख़िलाफ़ अदालत के आदेश में कहा गया, " औरत की इज़्ज़त उसकी आत्मा की तरह बेशकीमती होती है. कोई महिला कैसे एक नाबालिग लड़की की गरिमा से इस कदर छेड़छाड़ कर सकती है. उसकी इज़्ज़त को वह इतने भयावह तरीक़े से कैसे तार-तार कर सकती है. अपनी शर्मनाक करतूतों की वजह से सोनू पंजाबन किसी भी कोर्ट की ओर से रहम की हकदार नहीं है. चाहे औरत या हो मर्द, इस तरह के ख़ौफ़नाक करतूतों को अंजाम देने वाला शख़्स सभ्य समाज में रहने का हक़दार नहीं है. उसके लिए सबसे अच्छी जगह जेल की चारदीवारी ही है."
सोनू पंजाबन को मैंने पहली बार 2011 में दिल्ली की एक अदालत में देखा था. जज के सामने वह हाथ जोड़े खड़ी थीं. उनके बाल उजड़े हुए थे. वह थकी हुई लग रही थीं. पुलिस का कहना था कि वह नशे की लत छोड़ने का कोर्स कर रही हैं और ज़्यादातर वक़्त तिहाड़ जेल की अपनी कोठरी में सोती रहती हैं.
उस दिन कोर्ट की सुनवाई के बाद देर दोपहर में उन्हें बस से फिर तिहाड़ ले जाया गया. बस की खिड़कियों में ग्रिल लगी थी. सोनू पंजाबन सीधे बस में जाकर पीछे की सीट पर बैठ गईं. मैं पार्किंग के पास खड़ी थी.
जैसे ही उन्होंने मुझे देखा, मैंने उनसे कहा कि वह अपने मिलने आने वालों की लिस्ट में मेरा भी नाम डाल दें. मुझे याद है वह जुलाई महीने का एक गर्म दिन था. उन्होंने मेरा नाम पूछा. फिर कई दिनों तक मैं तिहाड़ फ़ोन कर पूछती रही कि क्या सोनू पंजाबन की विजिटर्स लिस्ट में मेरा नाम है. उधर से वो बताते कि सोनू की लिस्ट में जो छह नाम हैं, उनमें मेरा नाम नहीं है.
गिरफ़्तारी के समय 30 साल उम्र
सोनू पंजाबन के मामले के जांच अधिकारी कैलाश चंद 2011 में सब-इंस्पेक्टर थे. महरौली थाने में बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने सोनू पंजाबन को फंसाने के लिए जाल बुना था.
कैलाश चंद बताते हैं कि हिरासत में वह सोनू से रात-रात भर बात करते थे. पांच दिन तक सोनू को थाने में रखा गया था. कैलाश चंद सोनू के लिए सिगरेट, चाय और खाना लाते थे और वो उन्हें अपनी कहानी बताती थीं.
महरौली में जब कैलाश चंद ने सोनू पंजाबन को पकड़ा था तो उनकी ख़ूबसूरती देख कर दंग रह गए. उन्होंने मोबाइल फ़ोन के कैमरे से उनकी तस्वीर भी ली थी. हालांकि अब वह धुंधली हो चुकी है.
2011 में गिरफ्तारी के बाद सोनू की उम्र 30 साल थी. जिस्मफ़रोशी के काम में पहली बार उतरने के डेढ़ साल बाद ही उन्होंने इसे छोड़ दिया था. तब तक वह अपना सिंडिकेट चलाने के लिए नेटवर्क बना चुकी थीं.
पुलिस के मुताबिक़, उन्होंने एक डायरी भी बरामद की थी जिसमें सोनू के ग्राहकों और संपर्क के लोगों के नाम थे. उनकी मोबाइल फ़ोनबुक भी बरामद हुई थी. सोनू के रैकेट में शहर के इलिट कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियां भी थीं. वे उसके लिए कॉन्ट्रेक्ट पर काम करती थीं.
सोनू ने कैलाश चंद से कहा था कि 'वेश्यावृति जनसेवा है. हम पुरुषों के निवारण का रास्ता मुहैया कराते हैं. हम महिलाओं को उनके सपने पूरे करने में भी मदद करते हैं. अगर आपके पास बेचने के लिए शरीर के सिवा कुछ भी नहीं है तो इसे ज़रूर बेचना चाहिए. लोग हर वक़्त कुछ न कुछ तो बेचते ही रहते हैं. उसकी यह पूरी बातचीत लिखित में दर्ज कर चार्जशीट में नत्थी कर दी गई थी.'
पुलिस से बातचीत में अक्सर वह तर्क देती थीं कि वह समाज को एक ज़रूरी सेवा मुहैया करा रही हैं. अगर वह और उसकी जैसी महिलाएं न हों तो न जाने कितने रेप हों.
वह कहती थीं कि वासना एक बाज़ार है. अगर यह बाज़ार न हो तो समाज में मार-काट मच जाए. नैतिकता का सवाल वह काफ़ी पहले छोड़ आई थीं.
अपनी पुरानी नोटबुक में मुझे पुलिस को सुनाई सोनू पंजाबन की एक कहानी मिली थी. सोनू ने एक ऐसी महिला का ज़िक्र किया था, जिसका पति उसे पीटता था. उसके साथ ज़बरदस्ती सेक्स करता था. वह उसे एक फ़ूटी-कौड़ी नहीं देता था. उसका एक बच्चा था और वह उसे बढ़िया तरीक़े से पढ़ाना-लिखाना चाहती थी.
कैलाश चंद से उन्होंने कहा था, "आख़िर उस महिला का क्या कसूर है. वह शादीशुदा है, इसलिए अपनी सारी इच्छाओं और आकांक्षाओं को दबा दे. वह एक ऐसे शख्स के साथ शादी के रिश्ते में बंधी है जो उस मारता है. इस सबसे बचने के लिए उसके पास उसका शरीर ही एक मात्र जरिया है. जबकि समाज की नज़रों में यह खराब काम है."
पुलिस बताती है, "सोनू पंजाबन तेज़-तर्रार थी. अच्छे कपड़े पहनती थी. अपने ऊपर उसे काफ़ी भरोसा था. 2017 में वह एक बार फिर पकड़ी गई. पुलिस वालों को पता था राज उगलवाना है तो सोनू की अच्छी ख़ातिरदारी करनी होगी. लिहाज़ा उसके लिए रेड बुल ड्रिंक, सैंडविच, बर्गर और पिज़्ज़ा लाया जाता था. कैलाश चंद की तरह ही इस बार भी पुलिस उसके लिए सिगरेट ख़रीद कर लाती थी. उस बार उसने अपनी कहानी सुनाई और वेश्यावृत्ति के समर्थन में अपने पुराने तर्क दिए. उसने इस बात को कबूल करने से इनकार कर दिया था कि वह ग़ायब हुई नाबालिग लड़की को जानती थी. लेकिन इस बार किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया."
सोनू पंजाबन अनैतिक व्यापार रोकथाम क़ानून के तहत 2007 में प्रीत विहार में पकड़ी गई थीं. ज़मानत पर रहने के दौरान 2008 में वह एक बार फिर पुराने अपराध में पकड़ी गई थीं.
2011 में जिस्मफ़रोशी के कारोबार में एक और बार पकड़े जाने के बाद उनके ख़िलाफ़ मकोका के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया था. मकोका गैंगस्टर और आतंकवादियों पर नकेल कसने के लिए लाया गया था. दिल्ली ने 2002 में मकोका का इस्तेमाल शुरू किया.
सोनू की नज़र में जिस्मफ़रोशी जनसेवा
सोनू पंजाबन 2019 में पैरोल पर रिहा हुईं. उस दौरान उन्होंने अपने तमाम टीवी इंटरव्यूज़ में कहा था कि पुलिस उन्हें परेशान कर रही है. किसी भी लड़की ने ऑन-रिकॉर्ड यह नहीं कहा कि वह दलाल हैं. वह लोगों को सिर्फ सुविधाएं मुहैया कराती हैं.
वह ऐसी महिलाओं को सहारा दे रही हैं जो अपनी ख़राब शादियों से बचने का रास्ता तलाश रही हैं. अपने घरों में खट-खट कर बेहाल हो चुकी हैं. वो ऐसी महिलाओं की मदद कर रही हैं जो जीवन का आनंद लेना चाहती हैं. उन्हें पता था कि उनकी कहानी ही ऐसी है जो सुर्खियां बनाएगी.
वह अपराध और पीड़ित दोनों की भूमिकाओं से वाकिफ़ थीं. वह दोनों रह चुकी थीं. 2013 में आई फिल्म 'फ़ुकरे' और 2017 में आई 'फ़ुकरे रिटर्न' में भोली पंजाबन का किरदार उन्हीं की कहानी से प्रेरित था. दोनों किरदारों को ऋचा चड्ढा ने निभाया था.
सोनू पंजाबन जब मकोका में फंसी थीं तो आरएम तुफ़ैल ने उनका केस लड़ा था और बरी भी कराया था. 24 साल की सज़ा का फ़ैसला सुनाए जाने के बाद उन्होंने कहा, यह काफ़ी लंबा वक़्त है. इस केस में उन्होंने सोनू की पैरवी की थी. उन्होंने कहा कि वह इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील दायर करेंगे.
तुफ़ैल कहते हैं, "दुनिया का सबसे पुराना पेशा भीख मांगना और वेश्यावृत्ति है. इस बारे में कोई भी ठीक से कुछ नहीं जानता. सब नैतिकता की बातें करते हैं. इन बातों से अब चिढ़ होती है."
'सोनू को काफ़ी लंबी सज़ा दी गई है'
पूर्वी और दक्षिणी दिल्ली में करोड़ों रुपये का सेक्स रैकेट चलाने वाली सोनू पंजाबन 2011 में मकोका के तहत गिरफ्तारी के बाद से ही ख़बरों में रही हैं. अख़बारों में उनके बारे में जो स्टोरीज़ छपी हैं उनके मुताबिक उनकी आलीशान लाइफ़स्टाइल रही है. उनके कई प्रेमी और कम से कम चार पति रहे हैं. सभी कुख्यात गैंगस्टर रहे हैं. इनमें से कई पुलिस एनकाउंटर में मारे जा चुके हैं.
सोनू ने इन संबंधों को 'शादी' मानने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि पुलिस ने ही उनका नाम 'सोनू पंजाबन' रख दिया था. बचपन में उनके मां-बाप उसे सोनू नाम से पुकारते थे. जबकि, पुलिस का कहना है कि उन्होंने अपने पतियों में से एक हेमंत उर्फ़ सोनू का नाम ले लिया था.
2003 में उनके एक और पति विजय की यूपी में पुलिस एनकाउंटर में मौत हो गई थी. उसके बाद वह अपने दोस्त दीपक के साथ रहने लगी. दीपक गाड़ियां चुराता था. पुलिस ने गुवाहाटी में एक मुठभेड़ में दीपक को मार गिराया था. फिर वह दीपक के भाई हेमंत उर्फ़ सोनू के साथ रहने लगी थीं. हेमंत एक अपराधी था. उसने अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए बहादुरगढ़ में एक शख़्स की हत्या कर दी थी. सोनू के मुताबिक हेमंत भी एक एनकाउंटर में मारा गया था.
कहा जाता है कि सोनू की मौत के बाद वह खुद को बेसहारा महसूस करने लगी थी. उनके दो भाई बेरोज़गार थे. पिता गुज़र चुके थे. अपने बेटे और मां की देखभाल की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी. इसी वक़्त उन्होंने कॉल गर्ल बन कर जिस्मफ़रोशी के कारोबार में क़दम रखा.
सोनू इस बात से इनकार करती हैं कि उन्होंने और भी शादियां की हैं. लेकिन पुलिस और मीडिया के मुताबिक विजय की मौत के बाद सोनू ने चार शादियां कीं. पांचवें पति के अलावा सभी की मौत अलग-अलग पुलिस एनकाउंटर में हो गई.
जांच अधिकारी पंकज नेगी कहते हैं, " सोनू के फोन में इन लोगों के साथ उसकी तस्वीर है. इनमें वह सिंदूर लगाए उनके साथ खड़ी है. इन अंतरंग तस्वीरों से पता चल जाता है कि ये पति-पत्नी हैं."
गीता मग्गू से लेकर सोनू पंजाबन तक का सफ़र
सोनू पंजाबन 1981 में गीता कॉलोनी में पैदा हुई थीं. उनका नाम था गीता मग्गू. उनके दादा पाकिस्तान से एक शरणार्थी के तौर पर आए थे और रोहतक में बस गए थे. उनके पिता ओम प्रकाश दिल्ली चले आए थे और ऑटो रिक्शा चलाते थे.
उनका परिवार पूर्वी दिल्ली की गीता कॉलोनी में रहने लगा था. सोनू के तीन भाई बहन थे- एक बड़ी बहन और दो भाई. सोनू की बड़ी बहन बाला की शादी सतीश उर्फ़ बॉबी से हुई थी. सतीश और उसके छोटे भाई विजय ने उस शख़्स की हत्या कर दी थी, जिससे उनकी बहन निशा का अफ़ेयर था. दोनों इस मामले में जेल चले गए थे. पैरोल पर रिहा होने के बाद 1996 में गीता ने विजय से शादी कर ली.
2011 में जब मैं पहली बार उनके घर गई तो मैंने पहाड़ों के आगे खड़े विजय की एक तस्वीर देखी. प्रेम में पड़ कर उन्होंने विजय से शादी कर ली थी. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 15 साल थी. इसके बाद उनका एक बेटा हुआ. जब मैं उनके घर गई थी तो उनका बेटा पारस नौ साल का था.
उस वक़्त वह अपनी मां का इंतज़ार कर रहा था. वह टॉय कार लेकर आने वाली थीं. उनकी मां ने कहा था कि वह कभी-कभी जेल से फ़ोन करती है. पारस अब 17 साल का है. पुलिस का कहना है कि वह अपनी मां के बारे में जानता है.
सोनू के परिवार ने एक बेटी भी गोद ली थी. लेकिन विजय की मौत के बाद गोद देने वाला परिवार उसे ले गया था. शादी के सात साल बाद विजय की मौत हो गई थी. उस वक्त वह पैरोल पर बाहर आए हुए थे.
सोनू पंजाबन के पिता 2003 में गुज़र गए थे. उसके बाद उन्होंने प्रीत विहार में एक ब्यूटीशियन के तौर पर काम शुरू किया था. वहीं वह अपनी एक सहकर्मी नीतू से मिली थीं, जिसने उन्हें जिस्मफ़रोशी के कारोबार से परिचित कराया.
फिर वह रोहिणी में रहने वाली महिला किरण के लिए सेक्स वर्कर के तौर पर काम करने लगीं.
शुरू में अपने इस कारोबार के लिए उन्होंने पर्यावरण कॉम्प्लेक्स के बी ब्लॉक में कमरा लिया. फिर फ़्रीडम फ़ाइटर कॉलोनी, मालवीय नगर और शिवालिक में किराये पर अपार्टमेंट लिए. दिल्ली के सैदुल्लाजाब के अनुपम एनक्लेव में उन्होंने एक अपार्टमेंट ख़रीदा. यह फ्लैट संजय मखीजा के नाम से खरीदा गया था.
पुलिस रिकार्ड के मुताबिक, संजय मखीजा सोनू पंजाबन का पुराना साथी है. सोनू पंजाबन के पूरे करियर के दौरान यानी पहले सेक्स वर्कर और फिर हाई क्लास दलाल के तौर पर काम करने के दौरान, राजू शर्मा उर्फ़ अजय उनका सहयोगी रहा.
राजू पहले सोनू का रसोइया था और फिर बाद में उनके ड्राइवर के तौर पर काम करने लगा था. वह भी दलाली का काम करता था और सोनू पंजाबन के साथ दो बार गिरफ्तार भी हो चुका था.
यह काफी अच्छे से चलाया जाने वाला कारोबार था. सोनू अपने क्लाइंट्स के लिए कुक और क्लीनर भी रखती थीं.
जैसे-जैसे कारोबार बढ़ता गया उनका सहयोगी राजू आउट स्टेशन क्लाइंट्स का काम देखने लगा. दोनों ने अपने एजेंटों के ज़रिये अलग-अलग शहरों में भी अपना काम फैला लिया.
पुलिस से अपनी बातचीत के दौरान सोनू पंजाबन ने उन दलालों के नाम लिए थे जो अलग-अलग इलाकों के इंचार्ज थे. हालांकि उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा थी लेकिन वे मिलकर काम करते थे. जैसे, अगर किसी इलाके में सोनू पंजाबन का कोई क्लाइंट है और उसे वहां कोई लड़की नहीं मिल रही है तो वह दूसरे से इसका इंतज़ाम करने के लिए कहती थीं. बाकी दलाल भी ज़रूरत पड़ने पर ऐसा ही करते थे. हालांकि उनके बीच ज़बरदस्त कॉम्पीटिशन भी था.
नेगी के मुताबिक जब सोनू पंजाबन ने बिज़नेस संभाला तब सिक्योरिटी मुहैया करने और अपने नेटवर्क के लिए कमाई का लगभग 60 फीसदी कमीशन लेना शुरू किया.
उनकी कार रात को शहर में 500 किलोमीटर तक दौड़ती थी. यह गाड़ी लड़कियों को अपने लोकेशन से बिठाती और 'क्लाइंट सर्विस' के लिए अलग-अलग जगह ड्रॉप करती.
सोनू उन लड़कियों के लिए सबसे ज़्यादा मार्जिन लेती थीं जिन्हें वह अपने कैद में रखती थीं. इन लड़कियों को वह ख़रीद चुकी होती थीं. ऐसी ही एक नाबालिग लड़की ने उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर कराई थी.
दिल्ली के एक और हाई प्रोफ़ाइल दलाल इच्छाधारी बाबा इस वक़्त तिहाड़ जेल में हैं. कहा जाता है कि सोनू ने पुलिस को सुराग देकर तेज़-तर्रार स्वयंभू बाबा इच्छाधारी बाबा को पकड़वाया था.
भीष्म सिंह कहते हैं, " इस तरह के अपराध में जब भी जगह खाली होती कोई न कोई उसे भर देता था. यहां भी ऐसा ही हुआ. इच्छाधारी बाबा की गिरफ्तारी के बाद सोनू ने अपना कारोबार फैला लिया."
सोनू पंजाबन की गिरफ्तारी की ख़बर हेडलाइंस बन चुकी थी. गुलाबी कार्डिगन और ब्लू जीन्स पहने उनकी तस्वीरें मीडिया में छा गई थीं. अपने दूसरे इंटरव्यूज़ में वह लेदर की जैकेट, पीला जंपर और शॉल ओढ़े नजर आईं.
टीवी चैनलों पर उनका चेहरा दिखाया जा रहा था. उनका अपराध बताया जा रहा था और उसे संगठित सेक्स रैकेट की 'मलिका' बताया जा रहा था.
अभी अधूरी है सोनू की कहानी
सोनू पंजाबन की गिरफ्तारी भले ही दूसरे लोगों को ऐसे अपराधों से रोकने का काम करे. लेकिन पुलिस का मानना है कि इस तरह का सेक्स रैकेट चलाने वालों को अदालत तक लाकर सज़ा दिलाना काफ़ी मुश्किल काम है.
भीष्म सिंह कहते हैं अगर उस नाबालिग लड़की ने आगे बढ़ कर सोने के ख़िलाफ़ शिकायत न दर्ज कराई होती तो सोनू पंजाबन को पकड़ना मुश्किल होता.
सोनू पंजाबन से मैं जब मिली थी तो वह 31 साल की थीं. अब 40 साल की हो चुकी हैं. जेल से निकलते वक़्त वह 64 साल की हो चुकी होंगी. किसी को शायद ही वह याद रहेंगी. कुछ दिनों के बाद दुनिया ख़ुद में मसरूफ़ हो जाएगी.
फ़िलहाल सोनू की उसके जघन्य अपराधों के लिए भर्त्सना की गई है और उन्हें सभ्य समाज में रहने लायक नहीं बताया गया है. शायद उस दिन वह अपनी विज़िटर्स लिस्ट में मेरा नाम लिख देतीं तो हो सकता है कि मैं उनसे मिलकर उनका नज़रिया समझ पाती. यह जान पाती कि जिस महिला के बारे में इतनी बातें लिखी जा रही हैं, वह क्या सोचती-समझती है.
बहरहाल जब तक वह अपनी बात नहीं कहतीं तब तक यह कहानी मुकम्मल नहीं बनती. अभी तक पुलिस फ़ाइल में लिखीं बातें, उनके बारे में सुनाए जाने वाले वाक़ये, लोगों की धारणाएं और फ़ैसले ही इस कहानी का प्लॉट बने हुए हैं.
किसी भी सूरत में यह पूरी कहानी नहीं है. जब तक यह कहानी अधूरी है तब तक मुझे अपनी 2011 की नोटबुक में दर्ज उसकी बात याद आती रहेगी. सब-इंस्पेक्टर कैलाश चंद से उन्होंने कहा था, " मैं जो हूं उसका मेरे काम से कोई वास्ता नहीं है. मेरे कारोबार से मुझे नहीं आंका जा सकता." (bbc)
डॉ अजय खेमरिया
जय जय कमलनाथ के उद्घोष के बीच जब मप्र काँग्रेस के विधायकों ने कमलनाथ के नेतृत्व में आस्था व्यक्त की तो लगा कि मप्र की राजनीति में कमलनाथ एक नई ताकत बन बीजेपी का मुकाबला करेंगे। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पार्टी छोडऩे के घटनाक्रम का एक पक्ष यह भी स्थापित करने का प्रयास किया गया कि सिंधिया से मुक्ति के बाद कैडर बेस कांग्रेस खड़ी हो सकेगी। सरकार गिरने के चार महीने बाद भी क्या मप्र में कांग्रेस की हालत बदल पाई है? यह सवाल इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आने वाले मिनी विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस मैदान में कहीं नजर ही नही आ रही है। 22 विधायकों ने कमलनाथ का साथ छोड़ा था यह सिलसिला बीजेपी सरकार बनने के बाद थम जाना चाहिये था लेकिन इस दौरान तीन अन्य विधायक भी कांग्रेस छोडक़र बीजेपी का दामन पकड़ चुके है। खबर है कि मालवा और निमाड़ के करीब आठ से दस विधायक भी आने वाले समय में कांग्रेस छोड़ सकते है। यानी मप्र में कांग्रेस उपचुनाव की चुनौती को स्वीकार करने से पहले खुद के बचे हुए घर को महफूज करने की चुनौती से ज्यादा हलाकान है।
ध्यान से समझा जाये तो मप्र में कांग्रेस की इस हालत के लिए कमलनाथ खुद ही जिम्मेदार हैं। उनकी अपनी क्षमताओं और बढ़ती उम्र भी एक बड़ा कारक है। तथ्य यह है कि कमलनाथ मप्र के स्वाभाविक नेता है ही नही। वह आज भी दिल्ली दरबार के लिए फिट है जबकि राज्य की राजनीति के लिए अशोक गहलोत जैसे चपल और स्थानीय स्वीकार्यता वाले नेता ही सफल हो पाते है। खासकर मप्र जैसे राज्य जहाँ बीजेपी का संगठन देश भर में सबसे मजबूत और विस्तृत है और शिवराज सिंह जैसे ऊर्जावान नेता से किसी का मुकाबला हो तो 73 साल के कमलनाथ नैसर्गिक तौर पर भी मुकाबले में नही टिक सकते है। असल में मप्र कांग्रेस का अब संकट कमलनाथ ही हैं इसे निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा। वे कभी उस स्वरूप में मप्र के नेता रहे ही नही है जैसा दिग्विजय सिंह, सिंधिया, अर्जुन सिंह अंदाज लगा सकते है कि कमलनाथ करीब 3 साल से मप्र कांग्रेस के अध्यक्ष है लेकिन 2018 का चुनाव जीतने तक वह मप्र के आधे जिलों में भी दोरे पर नहीं गए। सिंधिया के प्रभाव वाले आठ जिलों में तो वे एक बार भी नहीं आए। जब 2018 में वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आ गए तब भी पूर्व मुख्यमंत्री होने तक उन्होंने प्रदेश के किसी इलाके में जाने की जहमत नहीं उठाई। उनके बारे में कहा जाने लगा था कि कमलनाथ का प्लेन भोपाल, छिंदवाड़ा, दिल्ली के बीच ही उड़ता है। दूसरी तरफ शिवराज सिंह कुर्सी गंवाने के बाबजूद मप्र के मैदानी दौरों पर डटे रहे। यहां तक कि दिग्विजयसिंह भी पूरे प्रदेश में सरकार रहने तक घूमते रहे।इससे पहले वे नर्मदा परिक्रमा कर प्रदेश के मालवा, महाकौशल, निमाड़ और नर्मदांचल को पैदल नाप चुके थे। मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ शायद शिवराज सिंह की जनता के सीएम की छवि को खत्म करना चाहते थे वे मैदानी सीएम की जगह डीपी मिश्रा की तरह वल्लभ भवन से ही हुकूमत चलाने में भरोसा करने लगे।इसके लिए पार्टी संगठन या जनसंवाद के चैनल की जगह उन्होंने अपने निजी लोगों का सहारा लिया जो अंतत: उनकी सरकार पतन के एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुए। यह भी तथ्य है कि कमलनाथ को मप्र में कांग्रेस के मैदानी कैडर की भी कोई समझ नहीं रहीं है यही कारण है कि सीएम हाउस के नजदीक दिग्विजय सिंह के बंगले पर प्रदेश भर के कांग्रेसीयों का जमघट लगा रहता था और आम कार्यकर्ता मुख्यमंत्री निवास जाने से कतराते थे। दिग्विजय सिंह जब कार्यकर्ताओं को सीएम से मिलने का परामर्श देते तो अधिकतर का जबाब यही होता था कि सीएम उन्हें पहचानते ही नही है। खासकर मालवा, विंध्य, मध्य भारत बैल्ट के लोगों के साथ यह समस्या थी।5 बार के विधायक और अब शिवराज सरकार में खाद्य मंत्री बिसाहूलाल सिंह ने कमलनाथ पर यही आरोप लगाया था कि वे विधायकों से मिलते नही है। चूंकि मप्र में पार्टी के चीफ भी कमलनाथ खुद ही थे इस कारण जनता और पार्टीगत नाराजगी का इनपुट आने का सिस्टम ही 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार ने विकसित ही नही किया। मंत्री विधायक एक दूसरे पर पैसा खाने, काम न करने के खुले आरोप लगाने लगे। यह एक मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ की नाकामी ही थी जो अंतत: उनके पतन का अहम कारण बनी। वैसे भी मप्र में कांग्रेस की सरकार कमलनाथ के चेहरे पर नही बनी थी बल्कि सभी क्षत्रपों ने अपने अपने इलाकों में अपने लोगों को टिकट बांटकर जीत के लिए जो दम लगाई उसका नतीजा थी। दूसरा पक्ष सवर्ण नाराजगी और कर्जमाफी थी जिसने बीजेपी के कोर वोटर को नाराज कर दिया था।
अब मप्र में कमलनाथ सरकार जा चुकी है और 27 सीटों पर उपचुनाव होना है पार्टी कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के कबीलों में बंटती दिख रही है। कमलनाथ बगैर जमीनी पकड़ और मेहनत के केवल अपने पुराने बैकग्राउंड के बल पर मप्र को अपने कब्जे में करना चाहते है। उन्हें अब दिग्विजयसिंह से भी खतरा लगने लगा है इसीलिए उनके विरुद्ध भी राकेश चौधरी जैसे नेताओं को सार्वजनिक रूप आगे किया जा रहा है। नेता विपक्ष का पद भी कमलनाथ खुद संभाल रहे है जबकि स्वाभाविक दावा डॉ गोविंद सिंह और केपी सिंह जैसे 6 बार के विधायकों का है। ये सभी दावेदार दिग्विजय सिंह के समर्थक है। जाहिर है कमलनाथ मप्र में सिंधिया की तरह दिग्विजय सिंह और उनकी लॉबी को मजबूत नही होने देना चाहते है। अनौपचारिक रूप से वह सरकार के पतन के लिए दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार भी बता चुके है लेकिन वह भूल गए कि अपने विधायकों पर नजर रखना और उन्हें सन्तुष्ट करना मुख्यमंत्री का काम होता है।अशोक गेहलोत इसका उदाहरण है। जाहिर कमलनाथ इस मोर्चे पर भी बुरी तरह नाकाम रहे हैं ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि करीब 60 फीसदी विधायकों से कमलनाथ का कोई पूर्व परिचय ही नही था, न टिकट वितरण, न उन्हें जिताने, न उनके लिए स्थानीय प्रबंधन में कमलनाथ की कोई भूमिका रही। मप्र के आधे जिले आज भी ऐसे है जहाँ कमलनाथ जीवन में कभी नहीं गए है। इन परिस्थितियों में अगर कमलनाथ डीपी मिश्रा की तर्ज पर मप्र की सरकार चलाने की कोशिशें कर रहे थे तब उसका पतन अवश्यंभावी ही था। आगामी उपचुनावों में कमलनाथ पार्टी के मुखिया के नाते बीजेपी और सिंधिया की तगड़ी चुनौती को कैसे पार पायेंगे? इस सवाल का जबाब बहुत कठिन नही है उनके मौजूदा वर्क कल्चर से समझा जा सकता है कि काँग्रेस भोपाल से ही मैदानी लड़ाई लडऩे वाली है। बीजेपी जहाँ दो महीने से ग्रासरूट पर फील्डिंग जमाने में जुटी है वहीं पूर्व मुख्यमंत्री और पीसीसी चीफ कांग्रेस के लड़ाकों को भोपाल बंगले पर तलब करते है। वहीं फोटो सेशन होता है और बयान जारी कर दिया जाता है कि बीजेपी केवल एक सीट जीतेगी। सवाल यह है कि भोपाल में बैठकर कमलनाथ कैसे उस सीएम और पार्टी से लड़ेंगे जो हमेशा ही इलेक्शन मोड़ में रहते है।
इसलिए मप्र का संकट तो फिलहाल कांग्रेस के लिए कमलनाथ का कल्चर ही बन गया है।
-प्रीति उपाध्याय
यह बहुत कॉमन है जब लोग हंसी-मज़ाक करने के लिए चुटकुले बनाते हैं पर जब चुटकुले साधारण हंसी मज़ाक जैसे विषयों से निकलकर कुछ गंभीर और दुखद विषयों पर खिसक जाते हैं तो ये न सिर्फ भयावह हो जाते हैं बल्कि दुखदायी भी सकते हैं। आपने अक्सर सुना होगा लोग सिक्खों (सरदारों) पर चुटकुले बनाते हैं| सबसे कॉमन तो पति-पत्नी पर केन्द्रित फ़ूहड़ चुटकुले हैं, जिसमें पत्नी को सारी मुश्किलों का जड़ बताकर उसका मजाक उड़ाया जाता है। पर आपने सुना है आजकल बलात्कार पर भी चुटकुले बन रहे हैं? जी हां यह बहुत कॉमन हो चला है लोग बलात्कार पर भी जोक्स बना रहे हैं।
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है| इसी तर्ज पर इसकी सामाजिक रचना गढ़ी गयी है और इसे तमाम विचारों, कहावतों, सांस्कृतिक गतिविधियों और चुटकुलों के माध्यम से गाहे-बगाहे जिंदा रखा जाता है| अक्सर कहा जाता है कि अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए| वैसे तो हम अक्सर ये मानते हैं कि मज़ाक में इंसान ज्यादा सोचता-समझता नहीं है और मनोरंजन के नामपर कुछ भी कह-कर जाता है| लेकिन वास्तविकता इससे ठीक उलट है, इंसान जो वाकई में सोचता है, जिसे कहने-करने की हसरत हमेशा उसके दिल-दिमाग में दबी रहती है, मज़ाक में वो अपने उसी विचार को सामने लाता है|
पितृसत्तामक व्यवस्था में महिला को हमेशा वस्तु की तरह दिखाकर पुरुष से कमतर आंका जाता है|
इसलिए इस मज़ाक को हल्के में लेना कहीं से भी ठीक नहीं है| अब सवाल ये आता है कि अगर कोई महिला या पुरुष ऐसे मज़ाक करे या चुटकुले सुनाएँ तो हमें क्या करना चाहिए| ध्यान देने वाली बात ये है कि यहाँ हमारी प्रतिक्रिया क्या है या क्या होगी ये उस विचार के भविष्य के लिए बहुत मायने रखता है| विचार का भविष्य माने – उस चुटकुले को आगे भी किसी सामने सुनाया जाएगा या फिर उसका कड़ा विरोध करके उसे वहीं रोका जाएगा|
चूँकि मज़ाक में या चुटकुलों के ज़रिये कही गयी बातें हमारे मन में धीरे-धीरे अपनी पैठ जमाने और विचार बनाने का काम करते है, ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि जब महिला हिंसा, बलात्कार, लैंगिक भेदभाव, धार्मिक द्वेष या किसी भी हिंसा से संबंधित विचार को हम किसी चुटकुले में सुनते हैं तो उसपर अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से अपना विरोध दर्ज करें, वो कैसे? आइये बताती हूँ –
अगर किसी इंसान का व्यक्तित्व परखना होतो उसके मज़ाक को देखना चाहिए|
चेहरे पर ऐसी कोई प्रतिक्रिया न लाएं जो दर्शाए कि यह फ़ूहड़ चुटकुले आपने पसंद किया हो| आपके फेस एक्सप्रेशन से ही सामने वाले को लग जाना चाहिए कि यह टेस्ट आपका या किसी अन्य सभ्य इंसान का नहीं हो सकता।
सामने वाले को समझाएं कि बलात्कार न सिर्फ महिला के शरीर के साथ होता है बल्कि एक बलात्कर उस महिला की आत्मा और अंतर्मन को भी जीवित नहीं छोड़ता। इसलिए आइंदा ऐसे जोक न सुनाएं और जो सुनाए उसे रोकें भी।
ऐसे जोक सुनाने वाले पुरुष को बताएं कि बलात्कार से पीड़ित सिर्फ महिलाएं ही नहीं होती उस महिला से जुड़ा हुआ हर इंसान होता है।
हो सकता है आपको देखने में ये बहुत छोटी पहल लगे, पर यकीन मानिए इन छोटी पहलों का प्रभाव बेहद ज्यादा होता है| क्योंकि हम जब बार-बार किसी बात को कहते हैं तो उसकी पैठ हमारे और सुनने वाले के दिमाग में बैठती जाती है, जिससे दुबारा कभी-भी वो अगर ऐसी बातें करता है या सुनता है तो आपका विरोध उसे हमेशा याद रहेगा और वो ऐसा कहने-सुनने से पहले दो बार सोचेगा| सौ बात की एक बात, जब बात किसी भी तरह की हिंसा से जुड़ी हो तो बिना देर लिए उसपर अपना विरोध दर्ज करवाना बेहद ज़रूरी है, फिर वो कोई विचार हो या | याद रखिये – अभी नहीं तो कभी नहीं| (hindi.feminisminindia)
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
-अजय
एक कहानी है, नहीं हकीकत है। बस, उसके तथ्य ऐसे हैं कि यह किसी परीकथा जैसी लगे, पर है सोलह आने सच।
बेशक थोड़ी लंबी है लेकिन हर प्रकृति प्रेमी के लिए ऐसी है कि वह इसे जीवनभर सहेज के रखना चाहेगा, सुनना और सुनाना चाहेगा। एक वन प्रेमी पदम्श्री जादव मोलाई पायेंग की कहानी है जिन पर बनी डॉक्यूमेंट्री कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई है।
‘ब्रह्मपुत्र’ नदी को ‘पूर्वोत्तर का अभिशाप’ भी कहा जाता है। इसका कारण है कि जब यह असम तक पहुँचती है तो अपने साथ लंबी दूरी से बहाकर लाई हुई मिटटी, रेत और पहाड़ी, पथरीले अवशेष विशाल मलबे के रूप में लाती है, जिससे नदी की गहराई अपेक्षाकृत कम हो चौड़ाई में फैल किनारे के गाँवों को प्रभावित करती है। मानसून में इसके चौड़े पाट हर वर्ष पेड़-पौधों, हरियाली और गाँवों को अपने संग बहा ले जाते हैं। हर बरसात की यही कहानी है।
वर्ष 1979 में जादव 10वीं परीक्षा देने के बाद अपने गाँव में ब्रह्मपुत्र नदी के बाढ़ का पानी उतरने पर इसके बरसाती भीगे रेतीले तट पर घूम रहे थे। तभी उनकी दृष्टि लगभग 100 मृत साँपों के झुंड पर पड़ी। जैसे उन सांपों ने जीवन बचाने का संघर्ष अंत तक किया हो। आगे बढ़ते गए तो पूरा नदी का किनारा मरे हुए जीव-जन्तुओं से अटा पड़ा एक मरघट-सा था। मृत जानवरों के कारण पैर रखने की जगह नहीं थी। इस दर्दनाक दृश्य ने जाधव के किशोर मन को झकझोर दिया। रातों की नींद उड़ गई।
गाँव के ही एक आदमी ने जादव से कहा- जब पेड़-पौधे ही नहीं उग रहे हैं तो नदी के रेतीले तटों पर जानवरों को बाढ़ से बचने आश्रय कहाँ मिले? जंगलों के बिना इन्हें भोजन कैसे मिले?
बात मन में पत्थर की लकीर बन गई कि जानवरों को बचाने के लिये पेड़-पौधे लगाने होंगे। 50 बीज और 25 बाँस के पेड़ लिए 16 वर्ष के जादव पहुँच गए नदी के रेतीले किनारे पर रोपने। ये आज से 35 वर्ष पुरानी बात है। उस दिन का दिन था और आज का दिन। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इन 35 वर्षों में जाधव ने 1360 एकड़ का जंगल बिना किसी सरकारी सहायता के लगा डाला?
क्या आप भरोसा करेंगे के एक अकेले आदमी के लगाये जंगल में 5 बंगाल टाइगर, 100 से ज्यादा हिरन, जंगली सुअर, 150 जंगली हाथियों का झुण्ड, गेंडे और अनेक जंगली पशु घूम रहे हैं? अरे हाँ! वे साँप भी जिन्होंने इस अद्भुत नायक को जन्म दिया।
जंगलों का क्षेत्रफल बढ़ाने सुबह 9 बजे से 5 किलोमीटर साईकल से जाने के बाद, नदी पार करते और दूसरी तरफ वृक्षारोपण कर फिर साँझ ढले नदी पारकर साइकिल 5 किलोमीटर तय कर घर पहुँचते।
इनके लगाए पेड़ों में कटहल, गुलमोहर, अन्नानास, बाँस, साल, सागौन, सीताफल, आम, बरगद, शहतूत, जामुन, आडू और कई औषधीय पौधे हैं। परन्तु सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि इस साधक से 2012 तक देश अनजान था। यह लौहपुरुष अपने धुन में अकेला असम के जंगलों में साईकल में पौधों से भरा एक थैला लिए अपने बनाए जंगल में गुमनाम सफर कर रहा था।
सबसे पहले वर्ष 2010 में देश की दृष्टि में आये जब Wild photographer जीतू कलिता ने इन पर documentary film बनाई The Molai Forest. यह film देश के नामी विश्वविद्यालयों में दिखाई गई। दूसरी फिल्म आरती श्रीवास्तव की 'Foresting Life' जिसमें जाधव के जीवन के अनछुए पहलुओं और परेशानियों को दिखाया। तीसरी फिल्म ‘Forest Man’ जो कान फिल्म महोत्सव में भी काफी सराही गई।
एक अकेला व्यक्ति वन विभाग की सहायता के बिना, किसी सरकारी आर्थिक सहायता के बिना इतने पिछड़े इलाके से कि जिसके पास पहचान पत्र के रूप में राशन कार्ड तक नहीं है, ने हज़ारों एकड़ में फैला पूरा जंगल खड़ा कर दिया। असम के इन जंगलों को ‘मिशिंग जंगल’ कहते हैं (जाधव असम की मिशिंग जनजाति से हैं)।
जीवनयापन करने के लिए इन्होंने गाय पाल रखी हैं। शेरों द्वारा आजीविका के साधन उनके पालतू पशुओं को खा जाने के बाद भी जंगली जानवरों के प्रति इनकी करुणा कम न हुई। शेरों ने मेरा नुकसान किया क्योंकि वो अपनी भूख मिटाने के लिए खेती करना नहीं जानते।
आप जंगल नष्ट करोगे वो आपको नष्ट करेंगे। 2015 में महामहिम राष्ट्रपति ने ‘पद्मश्री’ से अलंकृत होनेवाले जाधव आज भी असम में बाँस के बने एक कमरे के छोटे-से कच्चे झोपड़े में अपनी पुरानी में दिनचर्या लीन हैं। तमाम सरकारी प्रयासों, वृक्षारोपण के नाम पर लाखो रुपये के पौधों की खरीदी करके भी ये पर्यावरण, वन-विभाग वो स्थान प्राप्त न कर पाये जो एक अकेले की इच्छाशक्ति ने कर दिखाया। सायकल पर जंगली पगडण्डियों में पौधों से भरे झोले और कुदाल के साथ हरी-भरी प्रकृति की अनवरत साधना में ये निस्वार्थ पुजारी।
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, कहावत को जादव मोलाई पायेंग जी ने गलत सिद्ध कर दिया। पर्यावरण के लिए असीम स्नेह रखने वाले इस भारत माँ के लाल के से अपने बच्चों, अपने मित्रों को भी परिचित कराने की ज़रूरत है।
है न!
जानकारियां और pics इंटरनेट से निकाले गए हैं जिन्हें क्रॉस चेक किया जा सकता है।
-रेहान फ़ज़ल
21 साल पहले कारगिल की पहाड़ियों पर भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई हुई थी. इस लड़ाई की शुरुआत तब हुई थी जब पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की ऊँची पहाड़ियों पर घुसपैठ करके अपने ठिकाने बना लिए थे.
8 मई, 1999. पाकिस्तान की 6 नॉरदर्न लाइट इंफ़ैंट्री के कैप्टेन इफ़्तेख़ार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आज़म चौकी पर बैठे हुए थे. उन्होंने देखा कि कुछ भारतीय चरवाहे कुछ दूरी पर अपने मवेशियों को चरा रहे थे.
पाकिस्तानी सैनिकों ने आपस में सलाह की कि क्या इन चरवाहों को बंदी बना लिया जाए? किसी ने कहा कि अगर उन्हें बंदी बनाया जाता है, तो वो उनका राशन खा जाएंगे जो कि ख़ुद उनके लिए भी काफ़ी नहीं है. उन्हें वापस जाने दिया गया. क़रीब डेढ़ घंटे बाद ये चरवाहे भारतीय सेना के 6-7 जवानों के साथ वहाँ वापस लौटे.
भारतीय सैनिकों ने अपनी दूरबीनों से इलाक़े का मुआयना किया और वापस चले गए. क़रीब 2 बजे वहाँ एक लामा हेलिकॉप्टर उड़ता हुआ आया.
इतना नीचे कि कैप्टेन इफ़्तेख़ार को पायलट का बैज तक साफ़ दिखाई दे रहा था. ये पहला मौक़ा था जब भारतीय सैनिकों को भनक पड़ी कि बहुत सारे पाकिस्तानी सैनिकों ने कारगिल की पहाड़ियों की ऊँचाइयों पर क़ब्ज़ा जमा लिया है.
कारगिल पर मशहूर किताब 'विटनेस टू ब्लंडर- कारगिल स्टोरी अनफ़ोल्ड्स' लिखने वाले पाकिस्तानी सेना के रिटायर्ड कर्नल अशफ़ाक़ हुसैन ने बीबीसी को बताया, "मेरी ख़ुद कैप्टेन इफ़्तेख़ार से बात हुई है. उन्होंने मुझे बताया कि अगले दिन फिर भारतीय सेना के लामा हेलिकॉप्टर वहाँ पहुंचे और उन्होंने आज़म, तारिक़ और तशफ़ीन चौकियों पर जम कर गोलियाँ चलाईं. कैप्टेन इफ़्तेख़ार ने बटालियन मुख्यालय से भारतीय हेलिकॉप्टरों पर गोली चलाने की अनुमति माँगी लेकिन उन्हें ये इजाज़त नहीं दी गई, क्योंकि इससे भारतीयों के लिए 'सरप्राइज़ एलिमेंट' ख़त्म हो जाएगा."
भारत के राजनीतिक नेतृत्व को भनक नहीं
उधर भारतीय सैनिक अधिकारयों को ये तो आभास हो गया कि पाकिस्तान की तरफ़ से भारतीय क्षेत्र में बड़ी घुसपैठ हुई है लेकिन उन्होंने समझा कि इसे वो अपने स्तर पर सुलझा लेंगे. इसलिए उन्होंने इसे राजनीतिक नेतृत्व को बताने की ज़रूरत नहीं समझी.
कभी इंडियन एक्सप्रेस के रक्षा मामलों के संवाददाता रहे जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह याद करते हैं, "मेरे एक मित्र उस समय सेना मुख्यालय में काम किया करते थे. फ़ोन करके कहा कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं. मैं उनके घर गया. उन्होंने मुझे बताया कि सीमा पर कुछ गड़बड़ है क्योंकि पूरी पलटन को हेलिकॉप्टर के माध्यम से किसी मुश्किल जगह पर भेजा गया है किसी घुसपैठ से निपटने के लिए. सुबह मैंने पापा को उनको सारी बात बताई उन्होंने तब के रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस को फ़ोन किया. वे अगले दिन रूस जाने वाले थे. उन्होंने अपनी यात्रा रद्द की और इस सरकार को घुसपैठ के बारे में पहली बार पता चला."
मक़सद था सियाचिन से भारत को अलग-थलग करना
दिलचस्प बात ये थी कि उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेदप्रकाश मलिक भी पोलैंड और चेक गणराज्य की यात्रा पर गए हुए थे. वहाँ उनको इसकी पहली ख़बर सैनिक अधिकारियों से नहीं, बल्कि वहाँ के भारतीय राजदूत के ज़रिए मिली.
सवाल उठता है कि लाहौर शिखर सम्मेलन के बाद पाकिस्तानी सैनिकों के इस तरह गुपचुप तरीक़े से कारगिल की पहाड़ियों पर जा बैठने का मक़सद क्या था?
इंडियन एक्सप्रेस के एसोसिएट एडिटर सुशांत सिंह कहते हैं, "मक़सद यही था कि भारत की सुदूर उत्तर की जो टिप है जहाँ पर सियाचिन ग्लेशियर की लाइफ़ लाइन एनएच 1 डी को किसी तरह काट कर उस पर नियंत्रण किया जाए. वो उन पहाड़ियों पर आना चाहते थे जहाँ से वो लद्दाख़ की ओर जाने वाली रसद के जाने वाले क़ाफ़िलों की आवाजाही को रोक दें और भारत को मजबूर हो कर सियाचिन छोड़ना पड़े."
सुशांत सिंह का मानना है कि मुशर्रफ़ को ये बात बहुत बुरी लगी थी कि भारत ने 1984 में सियाचिन पर क़ब्ज़ा कर लिया था. उस समय वो पाकिस्तान की कमांडो फ़ोर्स में मेजर हुआ करते थे. उन्होंने कई बार उस जगह को ख़ाली करवाने की कोशिश की थी लेकिन वो सफल नहीं हो पाए थे.
जब दिलीप कुमार ने नवाज़ शरीफ़ को लताड़ा
जब भारतीय नेतृत्व को मामले की गंभीरता का पता चला तो उनके पैरों तले ज़मीन निकल गई. भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को फ़ोन मिलाया.
पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी अपनी आत्मकथा 'नीदर अ हॉक नॉर अ डव' में लिखते हैं, "वाजपेयी ने शरीफ़ से शिकायत की कि आपने मेरे साथ बहुत बुरा सलूक किया है. एक तरफ़ आप लाहौर में मुझसे गले मिल रहे थे, दूसरी तरफ़ आप के लोग कारगिल की पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर रहे थे. नवाज़ शरीफ़ ने कहा कि उन्हें इस बात की बिल्कुल भी जानकारी नहीं है. मैं परवेज़ मुशर्रफ़ से बात कर आपको वापस फ़ोन मिलाता हूँ. तभी वाजपेयी ने कहा आप एक साहब से बात करें जो मेरे बग़ल में बैठे हुए हैं."
नवाज़ शरीफ़ उस समय सकते में आ गए जब उन्होंने फ़ोन पर मशहूर अभिनेता दिलीप कुमार की आवाज़ सुनी. दिलीप कुमार ने उनसे कहा, "मियाँ साहब, हमें आपसे इसकी उम्मीद नहीं थी क्योंकि आपने हमेशा भारत और पाकिस्तान के बीच अमन की बात की है. मैं आपको बता दूँ कि जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है, भारतीय मुसलमान बुरी तरह से असुरक्षित महसूस करने लगते हैं और उनके लिए अपने घर से बाहर निकलना भी मुहाल हो जाता है."
रॉ को दूर-दूर तक हवा नहीं
सबसे ताज्जुब की बात थी कि भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियों को इतने बड़े ऑपरेशन की हवा तक नहीं लगी.
भारत के पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त और बाद में बनाई गई कारगिल जाँच समिति के सदस्य सतीश चंद्रा बताते हैं, "रॉ इसको बिल्कुल भी भांप नहीं पाया. पर सवाल खड़ा होता है कि क्या वो इसे भाँप सकते थे? पाकिस्तानियों ने कोई अतिरिक्त बल नहीं मंगवाया. रॉ को इसका पता तब चलता जब पाकिस्तानी अपने 'फ़ॉरमेशंस' को आगे तैनाती के लिए बढ़ाते."
सामरिक रूप से पाकिस्तान का ज़बरदस्त प्लान
इस स्थिति का जिस तरह से भारतीय सेना ने सामना किया उसकी कई हल्क़ों में आलोचना हुई. पूर्व लेफ़्टिनेंट जनरल हरचरणजीत सिंह पनाग जो बाद में कारगिल में तैनात भी रहे, वे कहते हैं, "मैं कहूँगा कि ये पाकिस्तानियों का बहुत ज़बरदस्त प्लान था कि उन्होंने आगे बढ़कर ख़ाली पड़े बहुत बड़े इलाक़े पर क़ब्ज़ा कर लिया. वो लेह कारगिल सड़क पर पूरी तरह से हावी हो गए. ये उनकी बहुत बड़ी कामयाबी थी."
लेफ़्टिनेंट पनाग कहते हैं, "3 मई से लेकर जून के पहले हफ़्ते तक हमारी सेना का प्रदर्शन 'बिलो पार' यानी सामान्य से नीचे था. मैं तो यहाँ तक कहूंगा कि पहले एक महीने हमारा प्रदर्शन शर्मनाक था. उसके बाद जब 8वीं डिवीजन ने चार्ज लिया और हमें इस बात का एहसास होने लगा कि उस इलाक़े में कैसे काम करना है, तब जाकर हालात सुधरना शुरू हुए. निश्चित रूप से ये बहुत मुश्किल ऑपरेशन था क्योंकि एक तो पहाड़ियों में आप नीचे थे और वो ऊँचाइयों पर थे."
पनाग हालत को कुछ इस तरह समझाते हैं, "ये उसी तरह हुआ कि आदमी सीढ़ियों पर चढ़ा हुआ है और आप नीचे से चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश कर रहे हो. दूसरी दिक़्क़त थी उस ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी. तीसरी बात ये थी कि आक्रामक पर्वतीय लड़ाई में हमारी ट्रेनिंग भी कमज़ोर थी."
क्या कहते हैं जनरल मुशर्रफ़
जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने भी बार-बार दोहराया कि उनकी नज़र में ये बहुत अच्छा प्लान था, जिसने भारतीय सेना को ख़ासी मुश्किल में डाल दिया था.
मुशर्रफ़ ने अपनी आत्मकथा 'इन द लाइन ऑफ़ फ़ायर' में लिखा, "भारत ने इन चौकियों पर पूरी ब्रिगेड से हमले किए, जहाँ हमारे सिर्फ़ आठ या नौ सिपाही तैनात थे. जून के मध्य तक उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. भारतीयों ने ख़ुद माना कि उनके 600 से अधिक सैनिक मारे गए और 1500 से अधिक ज़ख़्मी हुए. हमारी जानकारी ये है कि असली संख्या लगभग इसकी दोगुनी थी. असल में भारत में हताहतों की बहुत बड़ी तादाद के कारण ताबूतों की कमी पड़ गई थी और बाद में ताबूतों का एक घोटाला भी सामने आया था."
तोलोलिंग पर क़ब्ज़े ने पलटी बाज़ी
जून का दूसरा हफ़्ता ख़त्म होते होते चीज़ें भारतीय सेना के नियंत्रण में आने लगी थीं. मैंने उस समय भारतीय सेना के प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक से पूछा कि इस लड़ाई का निर्णायक मोड़ क्या था? मलिक का जवाब था 'तोलोलिंग पर जीत. वो पहला हमला था जिसे हमने को-ऑरडिनेट किया था. ये बहुत बड़ी सफलता थी हमारी. चार-पाँच दिन तक ये लड़ाई चली. ये लड़ाई इतनी नज़दीक से लड़ी गई कि दोनों तरफ़ के सैनिक एक दूसरे को गालियाँ दे रहे थे और वो दोनों पक्षों के सैनिकों को सुनाई भी दे रही थी."
जनरल मलिक कहते हैं, "हमें इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी. हमारी बहुत कैजुएल्टीज़ हुईं. छह दिनों तक हमें भी घबराहट-सी थी कि क्या होने जा रहा है लेकिन जब वहाँ जीत मिली तो हमें अपने सैनिकों और अफ़सरों पर भरोसा हो गया कि हम इन्हें क़ाबू में कर लेंगे."
कारगिल पर एक पाकिस्तानी जवान को हटाने के लिए चाहिए थे 27 जवान
ये लड़ाई क़रीब 100 किलोमीटर के दायरे में लड़ी गई जहाँ क़रीब 1700 पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सीमा के क़रीब 8 या 9 किलोमीटर अंदर घुस आए. इस पूरे ऑपरेशन में भारत के 527 सैनिक मारे गए और 1363 जवान आहत हुए.
वरिष्ठ पत्रकार सुशांत सिंह बताते हैं, "फ़ौज में एक कहावत होती है कि 'माउंटेन ईट्स ट्रूप्स,' यानी पहाड़ सेना को खा जाते हैं. अगर ज़मीन पर लड़ाई हो रही हो तो आक्रामक फ़ौज को रक्षक फ़ौज का कम से कम तीन गुना होना चाहिए. पर पहाड़ों में ये संख्या कम से कम नौ गुनी और कारगिल में तो सत्ताइस गुनी होनी चाहिए. मतलब अगर वहाँ दुश्मन का एक जवान बैठा हुआ है तो उसको हटाने के लिए आपको 27 जवान भेजने होंगे. भारत ने पहले उन्हें हटाने के लिए पूरी डिवीजन लगाई और फिर अतिरिक्त बटालियंस को बहुत कम नोटिस पर इस अभियान में झोंका गया."
पाकिस्तानियों ने गिराए भारत के दो जेट और एक हेलिकॉप्टर
मुशर्रफ़ आख़िर तक कहते रहे कि अगर पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व ने उनका साथ दिया होता तो कहानी कुछ और होती.
उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, "भारत ने अपनी वायु सेना को शामिल कर एक तरह से 'ओवर-रिएक्ट' किया. उसकी कार्रवाई मुजाहिदीनों के ठिकानों तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने सीमा पार कर पाकिस्तानी सेना के ठिकानों पर भी बम गिराने शुरू कर दिए. नतीजा ये हुआ कि हमने पाकिस्तानी ज़मीन पर उनका एक हेलिकॉप्टर और दो जेट विमान मार गिराए."
भारतीय वायु सेना और बोफ़ोर्स तोपों ने बदला लड़ाई का रुख़
ये सही है कि शुरू में भारत को अपने दो मिग विमान और हेलिकॉप्टर खोने पड़े लेकिन भारतीय वायु सेना और बोफ़ोर्स तोपों ने बार-बार और बुरी तरह से पाकिस्तानी ठिकानों को 'हिट' किया.
नसीम ज़ेहरा अपनी किताब 'फ़्रॉम कारगिल टू द कू' में लिखती हैं कि 'ये हमले इतने भयानक और सटीक थे कि उन्होंने पाकिस्तानी चौकियों का 'चूरा' बना दिया. पाकिस्तानी सैनिक बिना किसी रसद के लड़ रहे थे और बंदूक़ों का ढंग से रख-रखाव न होने की वजह से वो बस एक छड़ी बन कर रह गई थीं."
भारतीयों ने ख़ुद स्वीकार किया किया कि एक छोटे-से इलाक़े पर सैकड़ों तोपों की गोलेबारी उसी तरह थी जैसे किसी अख़रोट को किसी बड़े हथौड़े से तोड़ा जा रहा हो.' कारगिल लड़ाई में कमांडर रहे लेफ़्टिनेंट जनरल मोहिंदर पुरी का मानना है कि कारगिल में वायु सेना की सबसे बड़ी भूमिका मनोवैज्ञानिक थी. जैसे ही ऊपर से भारतीय जेटों की आवाज़ सुनाई पड़ती, पाकिस्तानी सैनिक दहल जाते और इधर-उधर भागने लगते.
क्लिन्टन की नवाज़ शरीफ़ से दो टूक
जून के दूसरे सप्ताह से भारतीय सैनिकों को जो 'मोमेनटम' मिला, वो जुलाई के अंत तक जारी रहा. आख़िरकार नवाज़ शरीफ़ को युद्ध विराम के लिए अमरीका की शरण में जाना पड़ा. अमरीका के स्वतंत्रता दिवस यानी 4 जुलाई, 1999 के शरीफ़ के अनुरोध पर क्लिन्टन और उनकी बहुत अप्रिय परिस्थितियों में मुलाक़ात हुई.
उस मुलाक़ात में मौजूद क्लिन्टन के दक्षिण एशियाई मामलों के सहयोगी ब्रूस राइडिल ने अपने एक पेपर 'अमरिकाज़ डिप्लोमेसी एंड 1999 कारगिल समिट' में लिखा, 'एक मौक़ा ऐसा आया जब नवाज़ ने क्लिन्टन से कहा कि वो उनसे अकेले में मिलना चाहते हैं. क्लिन्टन ने रुखेपन से कहा ये संभव नहीं है. ब्रूस यहाँ नोट्स ले रहे हैं. मैं चाहता हूँ कि इस बैठक में हमारे बीच जो बातचीत हो रही है, उसका दस्तावेज़ के तौर पर रिकॉर्ड रखा जाए."
राइडिल ने अपने पेपर में लिखा है, "क्लिन्टन ने कहा मैंने आपसे पहले ही कहा था कि अगर आप बिना शर्त अपने सैनिक नहीं हटाना चाहते, तो यहाँ न आएं. अगर आप ऐसा नहीं करते तो मेरे पास एक बयान का मसौदा पहले से ही तैयार है जिसमें कारगिल संकट के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ पाकिस्तान को ही दोषी ठहराया जाएगा. ये सुनते ही नवाज़ शरीफ़ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं."
उस पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य तारिक फ़ातिमी ने 'फ़्रॉम कारगिल टू कू' पुस्तक की लेखिका नसीम ज़ेहरा को बताया कि 'जब शरीफ़ क्लिन्टन से मिल कर बाहर निकले तो उनका चेहरा निचुड़ चुका था. उनकी बातों से हमें लगा कि उनमें विरोध करने की कोई ताक़त नहीं बची थी.' उधर शरीफ़ क्लिन्टन से बात कर रहे थे, टीवी पर टाइगर हिल पर भारत के क़ब्ज़े की ख़बर 'फ़्लैश' हो रही थी.
ब्रेक के दौरान नवाज़ शरीफ़ ने मुशर्रफ़ को फ़ोन कर पूछा कि क्या ये ख़बर सही है? मुशर्रफ़ ने इसका खंडन नहीं किया.(bbc)
-अनुराग भारद्वाज
कारगिल की जंग देश की सेना के अफ़सरों और जवानों के अदम्य साहस की दास्तां है. एक तरफ यह स्क्वैड्रन लीडर अजय आहूजा, लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया, कैप्टेन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट हनीफउद्दीन, हवलदार अब्दुल करीम, और राइफलमैन संजय कुमार जैसे जाबाज़ सैनिकों के बलिदान की गाथा है तो दूसरी ओर यह राजनैतिक भूल, विश्वासघात और खुफिया व्यवस्था के विफल होने की कीमत भी है.
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह भी कहा जा सकता है कि कारगिल की लड़ाई पूरे सिस्टम की चूक का नतीजा थी. आइए, अलग-अलग स्रोतों के हवाले से इस जंग से जुड़े पूरे घटनाक्रम पर नजर डालते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि स्थितियां यहां तक कैसे पहुंचीं.
शुरुआत
तीन मई, 1999 की बात है. कश्मीर के बटालिक में ताशी नमगयाल और त्सेरिंग मोरूप नाम के दो गड़रियों ने काली सलवार कमीज़ पहने कई लोगों को बर्फीले इलाकों में इस्तेमाल की जाने वाली सफ़ेद जैकेट पहने पहाड़ों पर चढ़ते देखा. लंबी दाढ़ी वाले इन लोगों के हाव-भाव कुछ अलग थे. सेना के मुखबिर दोनों गड़रियों ने जाकर हिंदुस्तानी फौजी अफसरों को खबर पहुंचा दी. अफसरों ने सुना और बात आगे बढ़ा दी.
बात छुपाई गई
इसके दो दिन बाद लेफ्टिनेंट जनरल निर्मल चंद्र विज, जो डायरेक्टर जनरल (मिलिट्री ऑपरेशंस) के महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे थे, कारगिल गए. वे वहां तैनात जनरल ऑफिसर कमांडिंग मेजर जनरल वीएस बधवार और कारगिल ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह से मिले. काले-सलवार कमीज़ पहने लोगों की बात उन्हें नहीं बताई गयी.
सेना प्रमुख वीपी मलिक का विदेशी दौरा
10 मई को तत्कालीन सेनाध्यक्ष वीपी मलिक पोलैंड और चेक गणराज्य के दौरे पर निकल गए. कारण था वहां की कंपनियों के साथ सेना को गोला-बारूद की आपूर्ति के लिए करार. इधर, बटालिक, मुश्कोह और द्रास में हलचल बढ़ गई थी. लेकिन बताते हैं कि जब हर शाम वे खोज-खबर लेने के लिए फ़ोन करते तो उन्हें सब-कुछ ठीक-ठाक होने या छुटपुट वारदात की बात ही बताई जाती.
जब लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और जवान वापस नहीं लौटे
लेफ्टिनेंट सौरभ कालिया और उनकी यूनिट के छह जवान काकसार पहाड़ों पर गश्त करने निकले थे. वे वापस नहीं आये तो खोज-खबर हुई. काफ़ी दिनों तक तो देश को यही बताया गया कि पाकिस्तान की तरफ से छुटपुट गोलाबारी हो रही है और उसका माकूल जवाब दिया जा रहा है. बाद में सौरभ कालिया और जवानों के क्षत-विक्षत शव लौटाए गए.
रक्षा मंत्री का दौरा
तब तक रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस को कुछ-कुछ आभास होने लगा था. वे कारगिल दौरे पर चले गए. इसके बाद उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस करके ऐलान किया, ‘हां, कुछ 100-150 आतंकवादी घुस आये हैं. उन्हें 48 घंटों में बाहर निकाल दिया जाएगा.’
इस पूरी जंग को देखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के गौरव सावंत ने इस पर ‘डेटलाइन कारगिल’ नाम से किताब भी लिखी है. सावंत के मुताबिक उन्होंने कमांड के अफ़सरों से पूछा कि 48 घंटों में आतंकवादियों को निकाल बाहर करने की घोषणा फर्नांडिस साहब ने की थी, उसका क्या हुआ? उन्हें जवाब मिला, ‘हमने फर्नांडिस से ये कहा था कि कारगिल में सही हालात का जायज़ा 48 घंटे बाद ही मिल पायेगा.’
तो सही स्थिति का पता कब चला?
नीचे से बैठकर और ख़राब मौसम की वजह से ऊपर की चोटियों का सही आकलन नहीं हो पा रहा था. 17 मई को चोटियों का पहला हवाई सर्वेक्षण किया गया. 21 मई को जब दूसरा हवाई जहाज द्रास, कारगिल और बटालिक की चोटियों की सही स्थिति जानने के लिए गया तो वहां उस पर स्टिंगर मिसाइल से हमला हुआ. पायलट ए पेरूमल दुर्घटनाग्रस्त जहाज को सकुशल वापस ले आये और आकर उन्होंने वहां के हालात बताए. तब जाकर मालूम हुआ कि वो ‘काली सलवार वाले’ पूरे लाव-लश्कर से साथ एक-एक चोटी पर मजबूती से बैठे हैं और उनकी संख्या 100-150 की नहीं बल्कि पूरी-पूरी आर्मी यूनिट जैसी है!
ऑपरेशन विजय की शुरुआत और जीत के साथ खात्मा
जनरल मलिक 21 मई को भारत वापस आये. वे लाहौर समझौते को अपनी जीत मानने वाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिले. सेना के मुखिया ने प्रधानमंत्री को बताया कि उनकी पीठ पर छुरा घोंप दिया गया है. 26 मई, 1999 को सेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ और एयर फ़ोर्स ने ‘ऑपरेशन सफ़ेद सागर’ शुरू किया. ठीक दो महीने बाद यानी 26 जुलाई को यह भारतीय सेना की जीत के साथ खत्म हुआ.
पहाड़ की लड़ाई में फ़ायदा उसे मिलता है जो ऊपर बैठा होता है, पर कई मौकों पर जीत उसकी होती है जो नीचे है क्योंकि नीचे वाली सेना अपने साज़ो-सामान को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जा सकती है. अंततः जीत भारत की हुई थी, लेकिन नुकसान भी हमारा ज़्यादा हुआ था. कारगिल में सेना के कुल 34 अफसर और 493 जवान शहीद हुए और 1363 घायल. आर्थिक तौर देश को लगभग दो हज़ार करोड़ की चपत लगी थी.
खुफिया तंत्र की विफलता
कारगिल की जंग खुफिया तंत्र की विफलता भी थी. मिलिट्री इंटेलिजेंस यूनिट और रॉ जैसी पेशेवर संस्थाएं पाकिस्तानी हलचल को भांप नहीं पाई थीं.अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने कारगिल पर भारतीय सेना के रिटायर्ड अफ़सर सुरेंद्र राणा और अमेरिका के नौसेना पोस्टग्रेजुएट स्कूल के जेम्स जे विर्त्ज़ द्वारा तैयार एक रिपोर्ट पेश की थी. यह इस बात का इशारा करती है कि कारगिल भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता का नतीजा था. रिपोर्ट में लिखा है कि रॉ जैसी संस्था का भारतीय सेना के प्रति उदासीन रवैया है. यह भी कि जो रिपोर्ट रॉ के अफसर भेजते हैं वह अक्सर स्तरीय नहीं होती और उसके अफसर सेना के अफसरों के साथ तालमेल नहीं रखते. रिपोर्ट में यह भी लिखा गया है कि देश का ख़ुफ़िया तंत्र अपारदर्शिता और आपसी तालमेल की कमी जैसी कई समस्याओं से जूझ रहा है.
रॉ ने कारगिल की जिम्मेदरी से साफ पल्ला झाड़ लिया था. उसके अफ़सरों ने दलील दी थी कि संस्था का काम रणनीतिक जानकारियां देना था और सामरिक जानकारी तो मिलिट्री इंटेलिजेंस को जुटानी थी. जो भी हो, दोनों संस्थाओं की मिली-जुली चूक देश पर भारी पड़ी.
राजनैतिक पहलू
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अप्रैल 1999 की गई लाहौर यात्रा और इस दौरान हुए समझौते की झोंक में राजनेता समझ ही नहीं पाए कि पाकिस्तान उलटी चाल भी चल सकता है. वे इस घुसपैठ को कश्मीरी जेहादियों की समस्या मानकर ही देख रहे थे.
सेना के अफ़सरों की चूक
गड़रियों की खबर को संजीदगी से नहीं लिया गया था. ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह, मेजर जनरल वीएस बधवार और लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल, तीनों के बीच में आपसी तालमेल और विश्वास की कमी भी रही. जिस ब्रिगेडियर की एसीआर में बधवार साहब ने तारीफों के पुल बांधे थे उसी ब्रिगेडियर पर उन्होंने इस हादसे का ठीकरा यह कहकर फोड़ दिया कि उन्होंने सीमा पर गश्त में ढिलाई बरती. उनका यह भी कहना था कि ब्रिगेडियर ने उन्हें गड़रियों वाली कोई जानकारी नहीं दी.
उधर, ब्रिगेडियर सुरिंदर सिंह का कहना था कि उन्होंने कारगिल में पाकिस्तान की बढती गतिविधि की जानकारी मेजर जनरल बधवार को बार-बार दी. और यह भी कि उन्होंने ज़्यादा फ़ोर्स और सीमा पर बेहतर निगरानी के साज़ो-सामान मांगे थे जो कमांड ने नहीं दिए.
पाकिस्तान ने यह दुस्साहस क्यों किया
भारत-पाकिस्तान में एक अलिखित समझौता था कि सर्दियों में पहाड़ों से अपने-अपने सैनिक वापस बुला लिए जाएंगे और जब गर्मियां शुरु होंगी तो फिर अपनी-अपनी चौकी स्थापित कर ली जायेगी. पाकिस्तान ने इसमें वादा खिलाफी की. सर्दियों में जब भारतीय सेना वहां पर नहीं थी, उसने अपने सैनिक भेजकर हर एक चोटी पर कब्ज़ा कर लिया था. चूंकि उन चोटियों से लेह और लद्दाख जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर सीधा हमला बोला जा सकता था, पाकिस्तानी सेना ने प्लान बनाया कि इससे वह देश का लद्दाख से संपर्क तोड़ देगी और फिर इसके ज़रिए कश्मीर मुद्दे पर फ़ायदा उठा लिया जायेगा.
शुरुआत में तो पाकिस्तान कहता रहा कि वे उसके सैनिक नहीं बल्कि कश्मीर की आज़ादी की जंग लड़ने वाले सिपाही हैं. भारतीय सेना के सबूत दिए जाने के बाद भी पाकिस्तान अपने सैनिक होने की बात नकारता रहा.
इस युद्ध के दौरान नवाज़ शरीफ जब अमेरिका गए तो उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस दुस्साहस पर झाड़ लगायी. अपनी किताब ‘कारगिल: फ्रॉम सरप्राइज टू विक्ट्री’ जनरल मलिक लिखते हैं कि लगभग गिड़गिड़ाते हुए शरीफ ने क्लिंटन से यह कहते हुए सहयोग मांगा कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो पाकिस्तान में उनकी जान को खतरा हो जाएगा. लेकिन बिल क्लिंटन ने मना कर दिया और उनके दबाव के बाद शरीफ अपने सैनिकों को वापस बुलाने पर मजबूर हुए.
एक पुराना घाव
कारगिल जंग के बीज 1984 में ही पनपने लग गए थे जब सियाचिन को लेकर हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच तनातनी शुरु हो गयी थी. सियाचन ग्लेशियर काराकोरम पर्वतमाला का हिस्सा है. यह दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध का मैदान है. 1949 में हुए कराची समझौते के तहत सियाचिन हिंदुस्तान का हिस्सा है. यह बात पाकिस्तान को नागवार थी.
1984 में खुफिया विभाग की कुछ रिपोर्टों में इस बात का खुलासा हुआ कि पाकिस्तान सियाचिन ग्लेशियर पर अपने सैनिक भेज कर इसे हथियाना चाहता है. भारतीय सुरक्षा तंत्र तुरंत हरकत में आ गया. अप्रैल 1984 में सेना ने ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया और सियाचिन पर अपने सैनिक भेजकर एक तरह से इसकी घेराबंदी कर ली. इस तरह तकरीबन पूरा ग्लेशियर भारत के पास आ गया.
1987 में पाकिस्तानी सेना ने एक ब्रिगेडियर की अगुवाई में धावा बोलते हुए इसके कुछ हिस्से हथिया लिए. भारतीय सेना ने पलटवार किया और नायब सूबेदार बानासिंह के नेतृत्व में पाकिस्तान की सबसे ऊंची पोस्ट ‘क़ायदे आज़म’ पर फ़तेह पा ली. तब इस हार से बौखलाई बेनजीर भुट्टो ने अपनी ही सेना पर तंज़ कसते हुए कहा था, ‘पाकिस्तानी सेना अपने ही लोगों के खिलाफ़ लड़ सकती है.’ शायद सबसे ज़्यादा बौखलाहट उस पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को हुई थी जो उस जंग को हार गया था. तभी शायद जब वह पाकिस्तान का सेनाध्यक्ष बना तो उसने कारगिल को अंजाम दिया. उस ब्रिगेडियर का नाम था परवेज़ मुशर्रफ.
जनरल मलिक लिखते हैं, ‘पाकिस्तान को सियाचिन की हार आज भी चुभती है. इसका उसकी सेना पर भारी मानसिक दवाब है.’ वे आगे लिखते हैं, ‘ऐसा अक्सर कहा जाता रहा था कि पाकिस्तान के पूर्व जनरल मिर्ज़ा असलम बेग ने अपनी सरकार को 1987 में सियाचिन की हार का बदला लेने के लिए कारगिल में सैन्य ऑपरेशन का सुझाव दिया था.
चलते-चलते
जंग दो जनरलों के रणनीतिक कौशल और अहम का भी टकराव होती है. जब प्रधानमंत्री वाजपेयी लाहौर गए थे तो जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें सैल्यूट करने से इनकार कर दिया था. जब मुशर्रफ़ बतौर पाकिस्तानी राष्ट्रपति भारत आये तो तत्कालीन एयर चीफ मार्शल यशवंत टिपणिस ने उन्हें सैलूट नहीं किया.
जनरल वेद प्रकाश मलिक का जन्म पाकिस्तान के डेरा इस्माइल खां में हुआ था. परवेज़ मुशर्रफ़ का जन्म दिल्ली में!
कारगिल युद्ध 26 जुलाई 1999 को खतम हुआ. ठीक उसी दिन पाकिस्तान की जेल में रॉ के एजेंट रवींद्र कौशिक की मृत्यु हुई. ‘एक था टाइगर’ रवींद्र कौशिक की ही कहानी बताई जाती है.(satyagrah)