विचार/लेख
-भगीरत श्रीवास
महामारी की पृष्ठभूमि में लिखी गई कविताएं इस भीषण दौर की टीस और छटपटाहट को स्वर देती हैं
दुनियाभर में फैली महामारियां या बीमारियां हमेशा से साहित्य की विषयवस्तु रही हैं। इतिहास महामारियों का उतना बारीक और जीवंत चित्रण नहीं करता, जितना साहित्य में मिलता है। उपन्यास, कहानियों, नाटकों और कविताओं के रूप में हमें ऐसी असंख्य रचनाएं मिलती हैं। इस श्रृंखला में वाम प्रकाशन की “कोरोना में कवि” भी शामिल हो गई है। इस काव्य संग्रह में जाने-माने और नवोदित कवियों की कविताएं शामिल की गई हैं। अधिकांश कवियों ने लॉकडाउन से उपजी परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण किया है। ज्यादातर कवियों ने प्रवासी मजदूरों का पीड़ा को स्वर दिया है।
पुस्तक की भूमिका में संपादक संजय कुंदन ने उन महत्वपूर्ण रचनाओं पर रोशनी डाली है जिनके केंद्र में बीमारियां रही हैं। वह लिखते हैं कि रवीन्द्रनाथ टैगोर की काव्य रचना पुरातन भृत्य और उपन्यास चतुरंग में उन्होंने महामारी को लेकर तत्कालीन समाज में धार्मिक दृष्टिकोण की पड़ताल की तो वहीं शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने श्रीकांत में प्लेग की दारुण स्थितियों का चित्रण किया। ओड़िया साहित्य को आधुनिक स्वरूप देने वाले फकीर मोहन सेनापति की कहानी रेबती में हैजे की भयावहता का वर्णन है। निराला के उपन्यास कुल्ली भाट में 1918 में फ्लू से हुई मौतों का दिल दहला देने वाला चित्रण है। िनराला लिखते हैं, “मैं दालमऊ में गंगा के तट पर खड़ा था। जहां तक नजर जाती थी, गंगा के पानी में इंसानी लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं। मेरे ससुराल से खबर आई कि मेरी पत्नी मनोहरा देवी भी चल बसी हैं। मेरी एक साल की बेटी ने भी दम तोड़ दिया था। मेरे परिवार के और भी कई लोग हमेशा के लिए जाते रहे थे। लोगों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गई थीं। पलक झपकते ही मेरा परिवार मेरी आंखों के सामने से गायब हो गया।”
संजय कुंदन आगे लिखते हैं, “हर तरह की तकनीक और उन्नत चिकित्सा प्रणाली एक वायरस के सामने फिलहाल तो असहाय दिख रही है। हालांकि ऐसी ही असहायता के बीच पहले भी रास्ते निकले हैं और निश्चय ही इस बार भी हम इससे उबर जाएंगे। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि सत्ता तंत्र का व्यवहार आज भी वैसा ही है, जैसा सौ साल पहले की किसी महामारी में रहा है।” वह आगे लिखते हैं, “महामारी के बहाने जनतांत्रिक मूल्यों व जनता के अधिकारों पर कुठाराघात की कोशिशें भी देखी जा रही हैं। इतिहास का यह खतरनाक दोहराव चिंतित करने वाला है।”
इसी दोहराव को रेखांकित करते हुए सुभाष राय ने साइकिल पर अपने पिता को बिठाकर गुड़गांव से दरभंगा पहुंचने वाली 15 साल की ज्योति पासवान को लिखी चिट्ठी में कहा है-
ज्योति बेटी! वे तुम्हें साइकिलिंग
का मौका देना चाहते हैं
लेकिन अभी उन्हें भरोसा नहीं है
तुम्हारे साहस पर, तुम्हारे इरादे पर
वे तुम्हारी परीक्षा लेंगे
वे आम बच्चियों को मौका नहीं देते
तुम भी आम होती
पिता की निरुपायता पर रोती
और रोते राेते मर जाती
तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
संजय कुंदन “जा रहे हम” शीर्षक से प्रकाशित कविता में अपने गांव लौट रहे प्रवासी मजदूरों की व्यथा और शहरों के उपेक्षित व्यवहार पर लिखते हैं-
जैसे आए थे वैसे ही जा रहे हम
यही दो-चार पोटलियां साथ थीं तब भी
आज भी हैं
और यह देह
लेकिन अब आत्मा पर खरोंचे कितनी बढ़ गई हैं
कौन देखता है
कोई रोकता तो रुक भी जाते
बस दिखलाता आंख में थोड़ा पानी
इतना ही कहता
-यह शहर तुम्हारा भी तो है
उन्होंने देखा भी नहीं पलटकर
जिनके घरों की दीवारें हमने चमकाईं
उन्होंने भी कुछ नहीं कहा
जिनकी चूड़ियां हमने 1300 डिग्री तापमान में
कांच पिघलाकर बनाईं
किसी ने नहीं देखा एक ब्रश, एक पेचकर
एक रिंच और हथौड़े के पीछे एक हाथ भी है
जिसमें खून दौड़ता है
जिसे किसी और हाथ की ऊष्मा चाहिए।
मदन कश्यप ने 65 साल से अधिक उम्र के व्यक्ति की पीड़ा को स्वर देते हुए लिखा है-
अपने ही घर में कुछ इस तरह छिप गया हूं
कि डरकर भी डरा हुआ नहीं हूं
हो तो गया था
पर एक साल बाद अब जाकर हुआ
65 पार होने का एहसास
जब काल की पनाह से निकलकर
कोरोना के हवाले कर दिया गया
एक ढीठ खामोशी मुझे घूरती रहती है
बंद कारखानों की उदास बत्तियां
मानों संध्या का स्वागत करना भूल गई है
अंधेरे की चुप्पी से कहीं ज्यादा भयावह होती है
रोशनी की नीरवता।
लीलाधर मंडलोई ने सारा डेटा होते हुए भी कुछ न करने पर व्यवस्था पर बेहद तीखा कटाक्ष किया है। “आपको सब मालूम है” कविता में उन्होंने मेहनतकश मजदूरों की जिजीविषा और सरकारी उपेक्षा पर लिखा है-
कितना सच समझा हमें
कितनी सटीक बात की आपने
और कौन समझ सकता है इतना सूक्ष्म
कि आपके पास सारा डेटा है
हमारी हड्डियो, मांस-मज्जा, रक्त में बहते लहू की ताकत
हमारे धैर्य, तप और बल को अकेले
आप जानते हैं
आपको मालूम है कि हम बीच सड़क में
जन सकते हैं अपना बच्चा
और चुपचाप चल सकते हैं
गर्म लू के थपेड़ों में
आपको मालूम है मऊ का रहने वाला मजूर-राहुल
अपने एक बैल को भूख से लड़ने
के लिए बेचकर
बैलगाड़ी में खुद जुतकर ढो सकता है गृहस्थी-परिवार
थकने पर उसकी भाभी जुतकर
खींच सकती है बोझ
चिलचिलाती कड़ी धूप में
आपको मालूम है हैदराबाद से 800 कि.मी.दूर
रामू हाथ से बनी एक गाड़ी में
8 माह की गर्भवती बीवी और बेटी को
बिना किसी सहायता के बाहुबल से
खींच सकता है
आपको यह भी मालूम है साहब
कि अहमदाबाद से रतलाम तक
9 माह का गर्भ लिए एक स्त्री अपने पति
और दो बच्चों के साथ पैदल
196 कि.मी. चल सकती है
आपको सब मालूम है
सिवाय इसके
कि हमें आपकी मनुष्यता के बारे में
जो मालूम न था आज तक
अब सब मालूम हुआ।
काव्य संग्रह में 15 कवियों की कुल 23 कविताओं का संकलन है। ये कविताएं कोरोना काल की पीड़ा और छटपटाहट को स्वर देती हैं। कुछ समय बाद जब देश कोरोनावायरस की जद से बाहर निकल चुका होगा, तब यह काव्य संग्रह इस भयंकर दौर की रह रहकर याद दिलाता रहेगा।(DOWNTOEARTH)
रुबीना अय्याज व संदीप पाण्डेय
देश के ख्यारत वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘सुओ-मोटो’ लगाए गए अवमानना के प्रकरण में फैसला आ गया है। उन्हें एक रुपए का जुर्माना और यह न देने पर तीन महीने की कैद और तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट में वकालत से प्रतिबंधित करने का दंड दिया गया है। प्रशांत ने एक रुपए का जुर्माना देना कुबूल करते हुए आगे लडऩे की मंशा जाहिर की है। सवाल है कि प्रशांत भूषण पर अवमानना की कार्रवाई क्यों महत्वपूर्ण है? क्या हैं, इस समूचे प्रकरण से उठने वाले सवाल? प्रस्तुत है, इसी मसले की पड़ताल करता रूबीना अय्याज और संदीप पाण्डेय का यह लेख। -संपादक
हमारे देश में लाखों मुकदमें सुनवाई के लिए पड़े हैं। बलात्कार, कत्ल, धोखाधड़ी, जमीनों पर कब्जे, लोगों के मौलिक अधिकार एवं समुदायों के जीने के अधिकार से संबंधित मुकदमे, नेताओं एवं प्रभावशाली व्यक्तियों पर मुकदमे सुनवाई की आस जोह रहे हैं। इन सब मुकदमों पर सुनवाई के लिए न न्यायाधीश उपलब्ध हैं, न ही कोई बहस होती है। कुछ मुकदमे तो ऐसे हैं जो फर्जी हैं और पुलिस या जांच एजेंसियों के पास कोई ठोस सबूत भी नहीं हैं, लेकिन उन पर सुनवाई के लिए हमारे देश के न्यायाधीशों के पास समय नहीं है और निर्दोष आरोपी जेल में बिना उनका अपराध साबित हुए सजा काट रहे हैं। इस समय कितने ही बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रोफेसर, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील भारत की जेलों में बंद हैं और आपातकाल में जेल भुगतने वालों से अधिक समय जेलों में बिता चुके हैं। उनकी न तो कोई सुनवाई हो रही है, न ही उनकी जमानत याचिकाएं स्वीकार की जा रही हैं।
आपातकाल को छोडक़र न्यायालय ने कभी इस तरह से अपनी स्वायत्तहता राजनीतिक सत्ता के सामने गिरवी रखी हो, ऐसा भारत में कम ही हुआ है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर न्यायाधीश हरकत में आ गए। न्यायाधीशों का मानना है कि प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स से अदालत की गरिमा को ठेस पहुंची है। त्वरित प्रतिक्रिया के बजाए, न्या्यपालिका ने अपने अंदर भी झांक लिया होता तो न्यायाधीशों पर उंगली न उठती। अदालत के बहुत से फैसले ऐसे हैं जिनसे उसकी गरिमा तार-तार हुई है। कभी उस पर भी चिंतन किया गया होता, तो अच्छा होता।
जब से सरकार ने जम्मू व कश्मीर के संबंध में बड़ा फैसला लिया है तबसे, खासकर न्यायालय के चरित्र में, गुणात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। कश्मीर में कितने ही लोगों को अवैध तरीके से बिना कोई मुकदमा लिखे या लिखित आदेश के नजरबंद कर लिया गया है। बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कार्पस) के मुकदमे दायर किए गए, लेकिन न्यायालय ने लोगों के मौलिक अधिकारों की अवहेलना करते हुए इन मामलों को गम्भीरता से नहीं लिया। भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि वे साल भर से अपने घर में नजरबंद हैं, लेकिन इसे सरकार नकारती है।
हकीकत यह है कि उनके घर के बाहर पुलिस लगी है, जो उन्हें कहीं जाने नहीं देती। पांच अगस्त, 2019 को जब जम्मू व कश्मीर से धारा 370 व 35ए हटाई जा रही थी, सांसद फारुक अब्दुल्लाह, जिनके पिता की जम्मू व कश्मीर को भारत में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, को संसद पहुंचने नहीं दिया गया। उनके घर के बाहर भी पुलिस लगी थी। गृहमंत्री संसद में बता रहे थे कि फारुक अब्दुल्लाह अपनी मर्जी से घर पर हैं।
क्या लोकतंत्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की इस तरह धज्जियां उड़ते हुए देखकर भी न्यायालय को खामोश रहना चाहिए? पत्रकार अनुराधा भसीन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका, जिसमें जम्मू व कश्मीर में इंटरनेट व मोबाइल फोन पर लगे प्रतिबंध हटाने की प्रार्थना की गई थी, में जब न्यायालय ने प्रतिबंध लगाने वाले आदेश की प्रति सरकार से मांगी तो सरकार उसे उपलब्ध कराने में असफल रही। क्या यहां सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही नहीं होनी चाहिए थी?
9 नवम्बर, 2019 को अयोध्या से संबंधित फैसला हमेशा अपने अंतर्विरोध के लिए ही याद किया जाएगा जो बाबरी मस्जिद गिराने की कार्यवाही को तो अवैध मानता है, किंतु उसी भूमि पर राम मंदिर बनाने के लिए सौंपकर एक तरह से अवैध कार्यवाही करने वालों को पुरस्कृत भी करता है। ‘नागरिकता संशोधन अधिनियिम’ (सीएए), संविधान के उस ‘अनुच्छेद-14’ का स्पष्ट उल्लंघन है जो हरेक व्यक्ति को न्याय के सामने बराबरी का अधिकार देता है। देश भर में इसके विरोध में प्रदर्शन के चलते सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षा थी कि वह इसमें हस्तक्षेप करेगा, लेकिन नहीं किया।
कोरोना वायरस के प्रकोप से बचने के लिए लागू की गई तालाबंदी के दौरान प्रवासी मजदूर जिस तरह से परिवार सहित पैदल चल कर अपने घरों को जा रहे थे उससे भी सर्वोच्च न्यायालय का दिल न पिघला। मजदूरों के अधिकारों के हक में सर्वोच्च न्यायालय की एक प्रभावी भूमिका हो सकती थी जिससे करोड़ों लोगों को राहत मिलती, किंतु ऐसे नाजुक मौके पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने देश को मायूस किया। पूरी दुनिया में मजदूरों को ऐसा कष्ट नहीं झेलना पड़ा जैसा भारत में। यह पूरे देश के लिए शर्म की बात होनी चाहिए थी।
हाल ही में ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा किसी परियोजना के शुरू होने से पहले किए जाने वाले ‘पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन’ में उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से तमाम परिवर्तन के सुझाव दिए गए हैं। न्यायालय ने मंत्रालय से प्रस्तावित अध्यादेश को भारत की 22 भाषाओं में अनुवाद कराकर लोगों को उपलब्ध। कराने की अपेक्षा की थी, किंतु मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया और इसके बावजूद मंत्रालय के खिलाफ कोई अवमानना की कार्यवाही नहीं हुई। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की ‘केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूीरो’ (सीबीआई) द्वारा जांच का आदेश पारित करते हुए न्यायालय ने कहा कि उनकी मौत के रहस्य से पर्दा उठना चाहिए। कर्ज के बोझ में दब कर भोजन उपलब्ध कराने वाले तीन लाख से अधिक किसानों की अब तक आत्मनहत्याजएं हो चुकी हैं, लेकिन न्यायालय ने यह संवेदना नहीं दिखाई कि किसानों की आत्महत्या रुके और उनके कर्ज की जांच कराई जाए। कर्ज अदा न कर पाने की दशा में किसान हवालात में बंद हैं, लेकिन उद्योपति अपने आप को दिवालिया घोषित कर बच जाते हैं।
इधर न्यायालय की भूमिका की वजह से देश के बहुत सारे लोग घुटन महसूस कर रहे थे। प्रशांत भूषण तो सिर्फ मुखरित हुए हैं। वे लोगों की आवाज बने, इसीलिए देश में इतने सारे वकील और साधारण लोग प्रशांत भूषण के साथ खड़े हुए। प्रशांत भूषण उस दौर में सच बोलते हैं और सच के साथ खड़े हैं जिस दौर में सच बोलना ही अपराध की श्रेणी में आता है। प्रशांत भूषण एक बेबाक वकील एवं जिम्मेदार नागरिक हैं। वे जानते हैं कि क्या बोलना है, क्या नहीं। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करने वालों में अग्रणी भूमिका में रहे हैं। प्रशांत भूषण भी उन्हीं की राह पर हैं और अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं। यह तो हमेशा से होता आया है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं तो कुछ लोग आपके खिलाफ होंगे, लेकिन आखिर में जीत सच की ही होती है। (सप्रेस)
रुबीना अय्याज सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखिका हैं एवं संदीप पाण्डेय वैज्ञानिक, समाजकर्मी एवं लेखक हैं।
अंकिता
न्यूज़ीलैंड ने जो किया वैसा दुनिया के हर देश को करना चाहिए। पिछले दिनों न्यूज़ीलैंड में एक नया कानून पारित हुआ जिसके बाद अब वहाँ घरेलू हिंसा झेल रही स्त्रियों को दस दिन की पेड लीव यानि कि सैलेरी काटे बिना छुट्टी दी जाएगी। ताकि़ वे उस नरक से निकलने का निर्णय ले सकें, अपने रहने के लिए एक नया सुरक्षित घर ढूँढ सकें। अपने और अपने बच्चों को मानसिक या शारीरिक प्रताडऩा से बचा सकें। ऐसा शायद इसलिए ही हो सका क्योंकि न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री एक महिला है और वहाँ के दूसरे पुरुष नेता भी स्त्रियों के हक़ में सोचते हैं।
लॉकडाउन में बढ़ी घरेलू हिंसा के लिए भी बाहर के कई देशों में अच्छे क़दम उठाए गए। इटली, फ्ऱांस, अमेरिका, से लेकर भारत तक घरेलू हिंसा के मामले इस लॉकडाउन में 60-70त्न तक बढ़े हैं। ढेरों ख़बरें उपलब्ध हैं। लेकिन इन समस्याओं पर सरकारें क्या करती हैं यही बताता है कि वह अपने देश की स्त्रियों के लिए कितना सजग है। फ्रांस सरकार ने ‘मास्क 19’ एक कोडवर्ड चलाया जिसके तहत महिला ग्रोसरी या मेडिकल स्टोर पर दुकानदार से ये कोडवर्ड बोलकर अपने लिए घरेलू हिंसा के खिलाफ़ मदद माँग सकती है। साथ ही 20 हज़ार से ज़्यादा रातें होटल्स में मुफ्त बुक की उन औरतों के लिए जो लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा झेल रही हैं। एक हमारा ही देश हैं जहाँ के नेता चादर ताने सो रहे हैं। उन्हें ये ख़बरें इस लायक़ भी नहीं लगतीं कि इन पर अपने दो शब्द भी ख़र्च कर सकें।
कई दूसरे देशों ने भी स्त्रियों के हित बहुत सारे आवश्यक कानून बनाए हैं। ख़ैर कानून तो हमारे यहाँ भी बहुत हैं बस लोगों ने उनका मज़ाक बना दिया है यह अलग बात है। ना तो हमारे यहाँ क़ानून तेज़ी से काम करता है ना ही कुत्सित मानसिकता के लोगों में उसका डर है। यही कारण है कि आज भी जब आप ख़बर पढ़ते हैं तो हर दिन एक ख़बर बलात्कार की होती ही है। घरेलू हिंसा के कई मामले तो दजऱ् ही नहीं होते। पुरुष छोड़ो यहाँ की स्त्रियाँ तक कहती दिखती हैं, ‘एक थप्पड़ से कोई तलाक़ लेता है क्या?’ कई लोग तो आँख मूँद बैठे होते हैं। देश की महानता में इतने डूबे होते हैं कि मानने को ही तैयार नहीं होते कि देश में स्त्रियों के साथ कुछ ग़लत होता भी है।अपने देश को स्त्रियों के लिए चौतरफ़ा सुरक्षित बनाने के लिए अभी बहुत बदलाव की ज़रूरत है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद का यह वर्षाकालीन सत्र शुरु होगा 14 सितंबर से लेकिन उसे लेकर अभी से विवाद छिड़ गया है। विवाद का मुख्य विषय यह है कि सदन में अब प्रश्नोत्तर काल नहीं होगा। इसके पक्ष में सत्तारुढ़ पार्टी भाजपा का एक तर्क यह है कि लोकसभा और राज्यसभा सिर्फ चार-चार घंटे रोज़ चलेंगी। यदि उनमें एक घंटा सवाल-जवाब में खर्च हो गया तो कानून-निर्माण का काम अधूरा रह जाएगा।
दूसरा तर्क यह है कि सांसदों के जवाब जब मंत्री देते हैं तो उनके मंत्रालय के कई अफसरों को वहां उपस्थित रहना पड़ता है। इस कोरोना-काल में यह शारीरिक दूरी के नियम का उल्लंघन होगा। सरकार के ये तर्क प्रथम दृष्टया ठीक मालूम पड़ते हैं लेकिन वह संसद भी क्या संसद है, जिसमें जवाबदेही न हो। वह लोकतंत्र की संसद है या किसी राजा का दरबार ? संसद की सार्थकता इसी में है कि जनता के प्रतिनिधि जन-सेवकों (मंत्रियों) से सवाल कर सकें, जनता के दुख-दर्दों को आवाज़ दे सकें और सरकार उनके हल सुझा सके। यदि मंत्रिगण सवालों के जवाब ठीक से तैयार करें तो अफसरों को साथ लाने की भी जरुरत नहीं रहेगी।
इस प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया को स्थगित करना लोकतंत्र की हत्या है, ऐसा आरोप विरोधी लगा रहे हैं। यह आरोप अतिरंजित है, क्योंकि इस सत्र में ‘शून्य-काल’ बनाए रखा गया है, जिसमें अचानक ही कोई भी ज्वलंत प्रश्न उठाया जा सकता है। प्रश्नोत्तर प्राय: सुबह 11 से 12 और शून्य काल 12 बजे से शुरु होता है। इसे भी अब आधे घंटे का कर दिया गया है। इसी तरह प्रश्नोत्तर-काल भी आधे घंटे का किया जा सकता है। संसद की कार्रवाई यदि सिर्फ 14-15 दिन ही चलनी है तो उसके सत्रों को रोज 8-10 घंटे तक क्यों नहीं चलाया जाता ? यदि वे शनिवार और रविवार को चल सकते हैं तो 8-10 घंटे रोज़ क्यों नहीं चल सकते ?
यदि जगह कम पड़ रही है तो दिल्ली के विज्ञान भवन जैसे कई भवनों में सांसदों के बैठने की व्यवस्था भी की जा सकती है। भारतीय संसद का प्रश्नोत्तर-काल पिछले 70 वर्ष में सिर्फ चीनी हमले के वक्त स्थगित किया गया था। अब तो कोई युद्ध नहीं हो रहा है। इस कोरोना-काल में प्रश्नोत्तर-काल ज्यादा जरुरी और उपयोगी होगा, क्योंकि सभी सांसद अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं से सरकार को अवगत कराएंगे ताकि वह इस महामारी का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सके।
(नया इंडिया की अनुमति से)
तापमान में हो रही वृद्धि के कारण ठन्डे इलाकों में भी धान की एक से ज्यादा बार फसल प्राप्त की जा सकती है
- Lalit Maurya
चावल दुनिया में सबसे ज्यादा खाया जाने वाला अनाज है। विश्व की आधी से भी ज्यादा आबादी के लिए यह एक मुख्य भोजन है। विशेष रूप से एशिया में यह बहुत आम है। एशिया जोकि पहले ही भुखमरी की समस्या से त्रस्त है वहां यह अनाज पेट भरने का एक प्रमुख साधन है। आंकड़ों के अनुसार दुनिया का करीब 90 फीसदी धान एशिया में ही पैदा किया जाता है।
धान हर साल पैदा की जाने वाली फसल है जिसका मतलब है कि इसे एक मौसम में लगाया जाता है और फसल प्राप्त की जाती है। यदि इनकी ठीक से देखभाल की जाए तो धान में साल दर साल वृद्धि होती रहती है और इससे एक से ज्यादा बार फसल प्राप्त की जा सकती है। कुछ उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इससे एक से ज्यादा बार फसल काटी जाती है।
100 से भी ज्यादा देशों में की जाती है इसकी खेती
दुनिया के 100 से भी ज्यादा देशों में इसकी खेती की जाती है। आपको जानकर हैरानी होगी कि धान की 110,000 से भी ज्यादा किस्मों की खेती की जाती है जो गुणवत्ता और पोषण के मामले में एक दूसरे से अलग होती हैं।
धान का पौधा घास की तरह होता है जब उसे एक बार काटा जाता है तो वो फिर से दोबारा बढ़ जाता है। धान को काटने और फिर से बढ़ने देने की खेती को रटूनिंग कहा जाता है। इस पद्दति में एक ही खेत में धान की कई फसल प्राप्त की जा सकती है इसलिए पारम्परिक खेती की तुलना में इनके लिए फसल के लम्बे उपजाऊ सीजन की जरुरत पड़ती है।
दुनिया के कई देशों में जहां ट्रॉपिकल क्लाइमेट होता है वहां उपजाऊ मौसम समस्या नहीं है। लेकिन जापान जैसे देशों में जहां मौसम सर्द होता है वहां धान की फसल को बार-बार रोपना पड़ता है। हिरोशी नकानो जोकि राष्ट्रीय कृषि और खाद्य अनुसंधान संगठन से जुड़े हैं उन्होंने जापान में इसपर एक शोध किया है। जिसमें उन्होने रटूनिंग की क्षमता के बारे में अधिक जानने का प्रयास किया है। यह शोध एग्रोनोमी जर्नल में प्रकाशित हुआ है।
क्या कहता है शोध
नकानो के अनुसार तापमान में आ रहे बदलावों का असर जापान पर भी पड़ रहा है, जिस कारण वहां का तापमान औसत से अधिक हो गया है। यह धान के किसानों के लिए लाभदायक हो सकता है। इससे उन्हें धान के लिए अधिक वक्त मिल जाता है, और वो एक से ज्यादा फसल प्राप्त कर सकते हैं। उनके अनुसार इसकी मदद से वो बसंत आने से पहले ही धान की रोपाई कर सकते हैं और बाद में उसकी कटाई कर सकते हैं। उनका बताया कि उनका मकसद जलवायु परिवर्तन का लाभ उठाते हुए कृषि के लिए नई रणनीतियां बनाना है जिससे अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके।
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने पहली फसल की दो पैदावार के बीच के समय और कटाई के समय उनकी ऊंचाई की तुलना की है। पहली कटाई के बाद उन्होंने बीज एकत्र किये हैं। जिसमें उन्होंने बीज की गिनती और वजन करके पैदावार को मापा है। इसी तरह दूसरी पैदावार को भी मापा है। जिसमें उन्हें पता चला की दोनों बार पैदावार अलग-अलग थी, क्योंकि फसल का समय और ऊंचाई, उपज को प्रभावित करती है।
अध्ययन से पता चला है कि जब पौधों को ज्यादा ऊंचाई से काटा जाता है तो उनसे ज्यादा पैदावार प्राप्त होती है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब पौधे ऊंचाई से काटे जाते हैं तो उनके तनो और पत्तियों में अधिक ऊर्जा और पोषक तत्त्व होते हैं जो दूसरी फसल के लिए फायदेमंद होते हैं। इसी तरह जब पहली फसल को सामान्य समय पर काटा जाता है तो उनसे अधिक फसल प्राप्त होती है। उनके अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इससे बीजों को बढ़ने के लिए अधिक समय मिल जाता है।
नकानों के अनुसार हमारे शोध के नतीजे दिखाते हैं कि पौधों को सामान्य समय और अधिक ऊंचाई से काटा जाना चाहिए। जिससे धान की अधिक पैदावार प्राप्त की जा सके। उनके अनुसार यह तकनीक ने केवल दक्षिण-पश्चिम जापान के लिए फायदेमंद है बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में जहां इस तरह का मौसम है वहां भी इसकी मदद से एक से अधिक फसलें और अधिक पैदावार प्राप्त की जा सकती है। साथ ही जलवायु परिवर्तन के कारण उन जगहों पर भी इस तकनीक की मदद से अधिक पैदावार मिल सकती है जहां यह पहले नहीं की जाती थी।(downtoearth)
बादल सरोज
मुद्दे पर आने से पहले एक बात साफ है कि प्रशांत भूषण के दोनों ट्वीट्स से हम सहमत हैं। सुनाई गई सजा के हिसाब से 1 रुपए का दण्ड जमा करने के उनके निर्णय को एकदम उचित मानते हैं और यह मानते हैं कि प्रशांतजी ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के खिलाफ, कार्यशैली में सुधार और उसकी जनता के बीच में इज्जत तथा स्वीकार्यता को बचाए रखने के लिए जिस साहस के साथ लड़ाई लड़ी वह एक मिसाल है। देश का लोकतांत्रिक समाज उन्हें सलाम करेगा।
यहां मुद्दा द ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास है जो अब उनमें शिलाजीत बाबा की तलाश कर रहा है। (हालांकि यह एक ऐसा मेटाफर-रूपक है जिसे अमूमन उपयोग में नहीं लाते, किन्तु यहां जिस ग्रेट इण्डियन मिडिल क्लास की बात करना है उसे इसी तरह के रूपक, बिम्ब और उपमाएं भाती और समझ आती हैं।)
इस वर्ग की तीन खासियतें हैं
एक यह हमेशा ही पिटता-पिटाता रहता है मगर पीटने वाले दुष्ट जबर के खिलाफ खुद चूँ तक नहीं करता।
दो उस जबर के खिलाफ दमदारी से लड़ रहे अपने नीचे के वर्ग- मजदूर, किसानों की जद्दोजहद में शामिल नहीं होता, उनके जलसे जुलूसों को, जी-रिपब्लिक-आज तक के चश्मे से, हिकारत से देखता है।
मगर एट द सेम टाईम
तीन अपनी सुप्त आकांक्षा और दमित कुंठा के समाधान के लिए किसी शिलाजीत बाबा का इंतजार करता रहता है।
हाल के दौर में इसके पहले शिलाजीत बाबा थे टीएन शेषन! उनकी फुलझडिय़ों पर ये मार ऐसा फि़दा था कि पूछिए मत। फिर कुछ समय तक रहे लिंगदोह और तो और किरण बेदी तक पर यह निछावर हुआ था। उसके बाद आये परमपूज्य सिरी सिरी 1008 अन्ना हजारे। उन्हें आसमाँ पै है खुदा और जमीं पै अन्ना बनाते बनाते यहां तक पहुँच गया कि 1962 के युद्द में चीन के पीछे हटने की वजह उस वक्त मिलिट्री की रसोई में काम करने वाले अन्ना भाऊ हजारे की भूमिका बताने पर आमादा हो गया। आखिर में आए केजरीवाल जिन पर तो हाय रब्बा मूमेंट में यह एकदम ट्रान्स अवस्था को प्राप्त होता भया।
(बुद्दू नहीं है, चूजी बहुत है। नेताओं में ईमानदारी की तलाश करता है मगर कभी माणिक सरकार या पिनाराई विजयन या ज्योति बाबू के चक्कर में नहीं फँसता!)
यही था जो रामदेव की डंगाडोली में मगन था- यही थे जिसने अच्छे दिनों वाले छप्पन इंची की पालकी ढोई थी। नोटबंदी की हिमायत में फिदायीन बना भी यही घूमा था-परसेंट और परसेंटेज पॉइंट में अंतर न समझने के बावजूद रात 12 बजे जीएसटी के लिए संसद में बजे घंटे को बाद में यही बजाता फिरता रहा था।
यही था जो कोरोना दौर में थाली, लोटा, बाल्टी बजाने, दिए मोमबत्ती जलाने और न जाने कौन से नक्षत्र में पांच मिनट तक थाली बजने से उत्पन्न हुई झंकार से कोरोना के मर जाने की अमिताभ अंकल की अद्भुत वैज्ञानिक खोज को आइंस्टीन के बाद की सबसे बड़ी वैज्ञानिकता साबित करने में लगा था।
कोरोना ने इसके बाजे बजा दिए हैं-
अर्थव्यवस्था रसातल के गहरे घनेरे अँधेरे में पहुँच गई है और ज्योति के कोसों पते चलते नहीं है।
बेटे-बेटियों की रोजगार संभावना तो तेल लेने गयी खुद की नौकरी और काम धंधा आफत में फँसा है। ईएमआई चुकाने के लिए धेला नहीं है। दुकान और मकान के किराए चुकाने और खर्चा निकालने में नानी याद आ रही है।
कोरोना के डर से ज्यादा डर बीमार पड़ गए तो इलाज के पांच लाख कहाँ से लायेगे का है।
आदि, आदि, आदि!
ऐसे में भी अब ये ग्रेट इण्डियन मिडिल क्लास खुद तो लडऩे से रहा। मजदूर किसानों और वैकल्पिक नीतियों के लिए लड़ रहे वाम लोकतांत्रिक जमातों और इंसानों की लड़ाई में जुडऩे से रहा। तो ?
तो ये कि अब उसे एक शिलाजीत बाबा की तलाश है। इनमें से कुछ को प्रशांत भूषण में वे नजर आने लगे हैं।
ठंड रखो वत्स, राजा विचित्रवीर्य का वंश चलाने वेद व्यास और दशरथ की रानियों को खीर खिलाने श्रृंगी ऋषि महाभारत और रामायण में ही आते हैं। असली दुनिया में लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ती है। जब पानी गले-गले तक आ जाता है तो डूबने से बचने के लिए खुद के ही हाथ-पाँव चलाने पड़ते हंै।
चलिए बहुत कहासुनी हो गई। अब राहत इंदौरी साहब की गजल के तीन शेर समाद फरमाइये-
न हम-सफर न किसी हमनशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा ।
बुज़ुर्ग कहते थे इक वक्त आएगा जिस दिन
जहाँ पे डूबेगा सूरज वहीं से निकलेगा ।
गुजिश्ता साल के जख्मों हरे-भरे रहना
जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायाधीश सौमित्रदयाल सिंह को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने डॉ. कफील खान के मामले में दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। सात महीने से जेल में पड़े डॉ. खान को उन्होंने तत्काल रिहा करने का आदेश दे दिया। डॉ. खान को इसलिए गिरफ्तार किया गया था कि उन्होंने 12 दिसंबर 2019 को अलीगढ़ मुस्लिम वि.वि. के गेट पर एक ‘उत्तेजक’ भाषण दे दिया था। उन पर आरोप यह था कि उन्होंने शाहीन बाग, दिल्ली में चल रहे नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन का समर्थन करते हुए नफरत और हिंसा फैलाने का अपराध किया है। उन्हें पहले 19 जनवरी को मुंबई से गिरफ्तार किया गया और जब उन्होंने जमानत पर छूटने की कोशिश की तो उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत फिर से जेल में डाल दिया गया। यदि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इन दो जजों का यह साहसिक फैसला अभी नहीं आता तो पता नहीं कितने वर्षों तक डॉ. कफील खान जेल में सड़ते रहते, क्योंकि रासुका के तहत दो बार उनकी नजरबंदी को बढ़ा दिया गया था।
दोनों जजों ने डॉ. खान के भाषण की ‘रिकार्डिंग’ को ध्यान से सुना और उन्होंने पाया कि वे तो हिंसा के बिल्कुल खिलाफ बोल रहे थे और राष्ट्रीय एकता की अपील कर रहे थे। यह ठीक है कि भारत सरकार द्वारा पड़ोसी देशों के शरणार्थियों को शरण देने के कानून में भेदभाव का वे उग्र विरोध कर रहे थे लेकिन उनका विरोध देश की शांति और एकता के लिए किसी भी प्रकार से खतरनाक नहीं था। जिला-जज और प्रांतीय सरकार ने डॉ. खान के भाषण को ध्यान से नहीं सुना और उसका मनमाना अर्थ लगा लिया। अपनी मनमानी के आधार पर किसी को भी नजरबंद करना और उसको जमानत नहीं देना गैर-कानूनी है। यह ठीक है कि डॉ. खान के भाषण के कुछ वाक्यों को अलग करके आप सुनेंगे तो वे आपको एतराज के लायक लग सकते हैं लेकिन कोई भी कानूनी कदम उठाते समय आपको पूरे भाषण और उसकी भावना को ध्यान में रखना जरूरी है। इलाहाबाद न्यायालय का यह फैसला उन सब लोगों की मदद करेगा, जिन्हें देशद्रोह के फर्जी आरोप लगाकर जेलों में सड़ाया जाता है। इस फैसले से न्यायापालिका की प्रतिष्ठा भी बढ़ती है और यह आरोप भी गलत सिद्ध होता है कि सरकार ने न्यायपालिका को अपना जी-हुजूर बना लिया है। डॉ. कफील खान ने जो सात महीने फिजूल में जेल काटी, उसका हर्जाना भी यदि अदालत वसूल करवाती तो इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना गिरफ्तारियां काफी हतोत्साहित होतीं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
असम विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस उस एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन करने जा रही है जिस पर कभी वह भाजपा की बी-टीम होने का आरोप लगाया करती थी
-अभय शर्मा
असम में साल 2006 में हुए विधानसभा चुनाव की बात है. तत्कालीन मुख्यमंत्री और दिग्गज कांग्रेस नेता तरुण गोगोई से एक पत्रकार ने बदरुद्दीन अजमल के बारे में पूछा, तो उन्होंने पलट कर सवाल किया, ‘यह बदरुद्दीन कौन है?’ 2006 के इस चुनाव से साल भर पहले ही असम में इत्र के मशहूर व्यापारी बदरूदीन अजमल ने अपनी पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) का गठन किया था. यानी तब यह पार्टी पहली बार चुनावी मैदान में थी. इस चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत हुई. एआईयूडीएफ ने भी अपने प्रदर्शन से सभी को चौंकाया और नौ फीसदी वोटों के साथ राज्य की कुल 126 में से दस सीटें हासिल करने में सफल रही. इसके बाद 13 सालों तक तरुण गोगोई यही कहते रहे कि एआईयूडीएफ एक मुस्लिम और सांप्रदायिक पार्टी होने के साथ-साथ भाजपा की बी-टीम भी है जिसे असम में कांग्रेस के वोट काटने के लिए बनाया गया है.
लेकिन, इस साल मार्च में राज्यसभा चुनाव के दौरान एक तस्वीर वायरल हुई जिसने असम की राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत दे दिया. इस तस्वीर में पूर्व
मुख्यमंत्री तरुण गोगोई और बदरुद्दीन अजमल एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर मुस्कराते हुए विधानसभा भवन से बाहर आ रहे हैं. यह राज्यसभा चुनाव असम की तीन सीटों पर हुआ था और इसमें कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों ने ही वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार भुयान को संयुक्त उम्मीदवार बनाया था. यह तस्वीर तब ली गयी थी, जब तरुण गोगोई और बदरुद्दीन अजमल भुयान का नामांकन दाखिल करवाकर वापस लौट रहे थे. इसके बाद यह साफ़ हो गया था कि कांग्रेस और एआईयूडीएफ के बीच के रिश्ते बदल गए हैं. बीते चार महीनों से सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरें भी आ रही थीं कि 2021 की शुरुआत में होने वाले असम विधानसभा चुनाव को लेकर दोनों दलों के नेता बातचीत कर रहे हैं. फिर अगस्त महीने की शुरुआत में कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेताओं ने यह साफ़ कर दिया कि उनकी पार्टियां एक गठबंधन बनाकर आगामी विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. इनके मुताबिक कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की ओर से हरी झंडी मिलते ही गठबंधन की आधिकारिक घोषणा कर दी जायेगी.
सत्याग्रह को दिए साक्षात्कार में असम कांग्रेस के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद रिपुन बोरा ने भी आगामी विधानसभा चुनाव के लिए इस महागठबंधन के होने की पुष्टि की है. उन्होंने कहा, ‘हम एक महागठबंधन बनाने जा रहे हैं, इसमें वे पार्टियां शामिल होंगी जो भाजपा की गलत नीतियों के चलते उसे सत्ता से हटाना चाहती हैं. एआईयूडीएफ के अलावा सीपीआई, सीपीएम और छोटी-छोटी कई क्षेत्रीय पार्टियों से भी महागठबंधन को लेकर बातचीत चल रही है.’ एआईयूडीएफ के महासचिव और मुख्य प्रवक्ता अमीनुल इस्लाम ने भी ऐसी ही बात कही. ‘पहले एक-दूसरे के लिए काफी बातें कही गयीं. लेकिन अब उन बातों को भूलकर कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों आगे बढ़ रही हैं. साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत महागठबंधन बनाने का राज्य कांग्रेस कमेटी फैसला ले चुकी है. उन्होंने हमें इससे अवगत कराया, जिसका हमने स्वागत किया है’ गठबंधन की अन्य पार्टियों के बारे में अमीनुल इस्लाम का कहना था कि ‘इस महागठबंधन में अजित भुयान की पार्टी, वामपंथी पार्टियां और कृषक मुक्ति संग्राम समिति जैसी कुछ क्षेत्रीय पार्टियां भी शामिल हो सकती हैं. हालांकि, इसकी आधिकारिक घोषणा कुछ समय बाद ही होगी क्योंकि चुनाव होने में अभी आठ महीने का समय बाकी है.’
दोनों पार्टियों की राज्य में स्थिति
2005 में जब बदरुद्दीन अजमल ने एआईयूडीएफ का गठन किया था तो उनका कहना था कि असम में अवैध घुसपैठियों की पहचान करने के नाम पर मुसलमानों का उत्पीड़न किया जा रहा है. मुस्लिमों को इससे बचाने के लिए ही उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी का गठन किया है. इसके बाद एआईयूडीएफ ने असम में तेजी से पांव पसारे और कुछ ही सालों के भीतर यहां की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गयी. असम में करीब 35 फीसदी मुस्लिम आबादी है और यही तबका बदरुद्दीन अजमल की पार्टी की सबसे बड़ी ताकत बनकर सामने आया है.
मुस्लिम मतदाताओं के बीच जनाधार के चलते ही एआईयूडीएफ ने 2006 के असम विधानसभा चुनाव में दस सीटें जीतीं. 2011 के विधानसभा चुनाव में 12 फीसदी वोट के साथ उसने राज्य की 126 में से 18 सीटों पर कब्जा जमाया और विधानसभा में प्रमुख विपक्षी पार्टी बन गई. 2016 के चुनाव में एआईयूडीएफ का मत प्रतिशत बढ़कर 13 फीसदी तक पहुंच गया, हालांकि इस बार उसकी सीटें घटकर केवल 13 ही रह गयीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के तीन प्रत्याशी संसद में पहुंचे थे. 2019 में एआईयूडीएफ को राज्य की कुल 14 लोकसभा सीटों में से दो सीटें मिलीं.
कांग्रेस की बात करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव से बाद से असम में उसका राजनीतिक ग्राफ लगातार नीचे गिरा है. 2011 के विधानसभा चुनाव में 78 सीटें पाने वाली कांग्रेस 2016 के विधानसभा चुनाव में महज 26 सीटों पर सिमट कर रह गयी. इसके बाद निकाय और ग्राम पंचायत चुनाव में भी उसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा. 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस को तीन सीटें ही मिलीं, राज्य में अब तक का उसका यह सबसे खराब प्रदर्शन था.
दोनों कैसे करीब आए
असम की राजनीति पर करीब से निगाह रखने वाले कुछ पत्रकार बताते हैं कि एआईयूडीएफ को मुस्लिमों की पार्टी के तौर पर देखा जाता है. इसके कुछ नेता भड़काऊ बयानबाजी के लिए भी चर्चा में रहे हैं. इन लोगों के मुताबिक अब तक कांग्रेस असम में बहुसंख्यक हिंदू वोटों को खोने की चिंता के चलते एआईयूडीएफ से दूर रहा करती थी. लेकिन बीते साल आए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) ने राज्य की राजनीतिक परिस्थितयों को बदल दिया है. राज्य में हुए सीएए के तीखे विरोध ने लगभग सभी विपक्षी पार्टियों को भाजपा के खिलाफ एक छतरी के नीचे ला दिया है. असम कांग्रेस के महासचिव अपूर्व कुमार भट्टाचार्जी भी ऐसा मानते हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं, ‘सीएए का सबसे ज्यादा विरोध कांग्रेस और एआईयूडीएफ ने किया. दोनों पार्टियों ने एक ऐसे शख्स (अजीत कुमार भुयान) को राज्यसभा चुनाव में समर्थन देकर संसद भेजा, जो सीएए के विरोध के चलते चर्चा में रहे थे. कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों असम की जनता की भलाई चाहते हैं. दोनों ही असम समझौते में विश्वास रखते हैं, न कि भाजपा द्वारा लाये गए सीएए कानून में.’
असम समझौता 1985 में हुआ था. इसमें कहा गया था कि 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि के बाद भारत आये विदेशी नागरिकों को असम में ‘अवैध विदेशी नागरिक’ माना जाएगा. हाल के सालों में असम में हुए एनआरसी में भी इसी को आधार माना गया. लेकिन, असम की कई समाजसेवी संस्थाओं और राजनीतिक दलों का कहना है कि मोदी सरकार द्वारा लाया गया सीएए कानून असम समझौते का उल्लंघन करता है. इनके मुताबिक यह कानून 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आए गैर मुस्लिम विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने की वकालत करता है.
कांग्रेस प्रवक्ता रितुपर्णा कोनवार साफ़ तौर पर कहते हैं, ‘सीएए से पहले, स्थिति अलग थी... लेकिन सीएए के बाद स्थिति बदल गई है. हमें ऐसे दलों का एक महागठबंधन बनाने की जरूरत है, जो असम समझौते में विश्वास करते हैं, और जो सीएए और भाजपा के विरोध में हैं.’
कुछ जानकारों की मानें तो कांग्रेस ने एआईयूडीएफ की तरफ हाथ बढ़ने से पहले नफा-नुकसान पर काफी विचार-विमर्श किया है. इनके मुताबिक कांग्रेस ने सीएए की वजह से असमिया भाषी लोगों में भाजपा विरोध का रुख भांपने के बाद ही गठबंधन करने का फैसला किया है. कांग्रेस को लगता है कि एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन अब उतना नुकसानदायक नहीं होगा जितना अतीत में हो सकता था. दरअसल, राज्य में 36 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां असमिया भाषी लोग चुनावी नतीजे तय करते हैं. कांग्रेस नेताओं का मानना है कि इन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी कम होने के चलते एआईयूडीएफ अपनी दावेदारी पेश नहीं करेगा और फिर यहां सीधी लड़ाई कांग्रेस और भाजपा के बीच होगी. 2016 के विधानसभा चुनावों में इन 36 सीटों में से कांग्रेस को महज चार सीटें ही मिली थी. लेकिन, अब कांग्रेस को उम्मीद है कि इन क्षेत्रों में सीएए के कारण नाराज असमिया भाषी लोग भाजपा के बजाय उसे तरजीह देंगे. और यहां के जितने भी मुस्लिम वोट हैं वे भी अब नहीं बटेंगे.
एआईयूडीएफ के अस्तित्व में आने से पहले असम के ज्यादातर मुस्लिम वोट कांग्रेस को ही मिला करते थे. लेकिन बीते कुछ चुनावों से यह साफ़ हो गया है कि असम के 35 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा एआईयूडीएफ की ओर चला गया हैं. इसका सीधा फायदा भाजपा को मिला. कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेताओं की मानें तो अगर अब वे राज्य में मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने में कामयाब रहते हैं तो 33 मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों के साथ-साथ और भी कई सीटों पर उन्हें कामयाबी हासिल होगी और इसके बाद उन्हें सत्ता की चाबी हासिल करने से कोई नहीं रोक पाएगा.
एआईयूडीएफ के महासचिव अमीनुल इस्लाम भी मुस्लिम वोटों के बिखराव की बात मानते हुए कहते हैं, ‘आप 2016 के चुनाव पर गौर कीजिये, करीब 27 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जिन पर कांग्रेस और एआईयूडीएफ दोनों के प्रत्याशी होने के चलते वोटों का जबरदस्त बिखराव हुआ और यहां भाजपा जीत गयी. कुछ सीटों पर लेफ्ट पार्टियों का भी अच्छा जनाधार है. अगर हम सभी साथ आते हैं तो निश्चित तौर पर हमारा फायदा और भाजपा का नुकसान होगा.’
एआईयूडीएफ से समझौते पर भाजपा के आरोप और कांग्रेस का जवाब
कांग्रेस और एआईयूडीएफ के गठबंधन की खबरें आम होने के बाद से भाजपा लगातार कांग्रेस पर निशाना साध रही है. असम भाजपा के कुछ नेता सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं कि कांग्रेस और एआईयूडीएफ का कई सालों से छिपा हुआ गठबंधन था, लेकिन कांग्रेस इसे उजागर इसलिए नहीं करती थी क्योंकि एआईयूडीएफ एक सांप्रदायिक पार्टी है. भाजपा के इन नेताओं की मानें तो बीते साल हुए लोकसभा चुनाव में इस छिपे गठबंधन का पता भी चला था, जब तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई के सामने एआईयूडीएफ ने अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था. इसके अलावा कई अन्य सीटों पर भी बदरुद्दीन अजमल और तरुण गोगोई के बीच सांठ-गांठ थी, हालांकि तब भी भाजपा ने यहां की नौ लोकसभा सीटें जीती थीं.
एआईयूडीएफ कैसे एक सांप्रदायिक पार्टी है, यह पूछने पर असम से भाजपा सांसद दिलीप सैकिया सत्याग्रह से कहते हैं, ‘आप एआईयूडीएफ के बनने की कहानी से इस बात को समझ जाएंगे. 2005 में जब सुप्रीम कोर्ट ने असम में विदेशी घुसपैठियों की सही से पहचान न हो पाने के चलते राज्य में लागू अवैध प्रवासी पहचान ट्रिब्यूनल (आईएमडीटी) कानून को निरस्त किया तो संदिग्ध घुसपैठियों को बचाने के लिए ही एआईयूडीएफ का गठन किया गया था....एआईयूडीएफ के नेताओं का उद्देश्य केवल असम की सत्ता पर कब्ज़ा करना ही नहीं है, बल्कि हमारी संस्कृति और हमारी पहचान को खत्म करना है.. इनका छिपा एजेंडा बहुत बड़ा है.’
असम कांग्रेस के अध्यक्ष रिपुन बोरा सत्याग्रह से बातचीत के दौरान भाजपा के इन आरोपों का जवाब देते हैं. वे कहते हैं, ‘अगर एआईयूडीएफ मुस्लिम पार्टी है तो इसमें गलत क्या है, अगर वे मुसलमानों के विकास की बात करते हैं तो क्या गलत है? अपने लोगों के विकास के लिए बोलने वाला आखिर सांप्रदायिक कैसे हो गया. कोई तब तक सांप्रदायिक नहीं हो सकता जब तक वह दूसरे जाति-संप्रदाय से नफरत नहीं करता... एआईयूडीएफ हिन्दू विरोधी नहीं है.’ लेकिन सिर्फ यही बात नहीं है जिसके आधार पर रिपुन बोरा एआईयूडीएफ और कांग्रेस के साथ आने को गलत नहीं मानते. उनके मुताबिक, ‘अगर, जम्मू-कश्मीर में भाजपा आतंकी अफजल गुरु को शहीद का दर्जा देने वाली पार्टी - पीडीपी से गठबंधन कर सकती है तो कांग्रेस असम में एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन क्यों नहीं कर सकती. एआईयूडीएफ ने कभी आतंकियों का पक्ष तो नहीं लिया.’
एआईयूडीएफ के महासचिव अमीनुल इस्लाम भी भाजपा के आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहते हैं, ‘हम पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं, लेकिन अब एआईयूडीएफ केवल मुसलमानों की पार्टी नहीं रही. हमारी पार्टी में सांसद और कई विधायक हिंदू हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में हमारे कार्यकर्ता और ऊंचे पदों पर मनोनीत किये गए कई नेता हिंदू और अन्य धर्मों से आते हैं.’
असम कांग्रेस के महासचिव अपूर्व कुमार भट्टाचार्जी एआईयूडीएफ पर लग रहे आरोपों को भाजपा की बौखलाहट बताते हैं. उनके मुताबिक, ‘एआईयूडीएफ को भारत के निर्वाचन आयोग ने मान्यता दी है, ऐसे में उसे सांप्रदायिक पार्टी नहीं कह सकते...कांग्रेस और एआईयूडीएफ के साथ आने से भाजपा बौखलाई हुई है, इसलिए उसके नेता ऐसे आरोप लगा रहे हैं, इस गठबंधन से उनकी - बांटो और राज करो - वाली रणनीति फेल होने वाली है, सत्ता खिसकने वाली है इसलिए घबराहट लाजमी है.’
हालांकि, भाजपा नेताओं का कहना है कि उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-एआईयूडीएफ गठबंधन से कोई नुकसान नहीं होगा. भाजपा सांसद दिलीप सैकिया का मनाना है कि कांग्रेस और एआईयूडीएफ का वोट बैंक लगभग एक ही है जबकि भाजपा का वोट बैंक इनसे अलग है, ऐसे में गठबंधन के बाद अगर इन दोनों पार्टियों का वोटर एक हो भी जाता है तो भाजपा को नुकसान नहीं होगा. सैकिया आगे कहते, ‘अगर, कांग्रेस और एआईयूडीएफ के नेता ये सोचते हैं कि वे विधानसभा चुनाव में सीएए का मुद्दा उठाकर फायदा ले लेंगे तो ऐसा भी नहीं होने वाला है. असम के लोग इनके बहकावे में आकर एक बार भावनाओं में बह गए और प्रदर्शन कर दिया, लेकिन अब वही लोग देख रहे हैं कि सीएए कानून लागू होने के बाद से असम में एक भी घुसपैठिया नहीं घुसा है.’
राज्य भाजपा अध्यक्ष रंजीत दास भी आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत को लेकर आश्वस्त दिखते हैं. एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘पूरे असम में भारतीय जनता पार्टी के 42 लाख सदस्य हैं. अगर प्रत्येक सदस्य अपने साथ केवल एक अतिरिक्त व्यक्ति को भी जोड़ता है, तो भी हमारे पास 84 लाख वोट हैं. इसलिए हम चिंतित नहीं हैं. भाजपा एक लोकतांत्रिक पार्टी है और इसलिए हम किसी भी नई राजनीतिक पार्टी या गठन का स्वागत करते हैं.’
रंजीत दास आगे जोड़ते हैं, ‘भाजपा अपनी सरकार द्वारा किए गए विकास कार्यों के दम पर चुनाव लड़ेगी, हम लोगों को यह भी बताएंगे कि हमारे प्रयासों के चलते राज्य में विभिन्न समुदायों के बीच शांति और सद्भाव बना रहा... सरकार का ध्यान एक आत्म निर्भर असम बनाने पर रहा है और इसके केंद्र में कृषि और किसान हैं.’ (satyagrah.scroll.in)
हाल में दो मामलों में न्यायपालिका ने आगे बढ़कर प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा की अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का शानदार निर्वहन किया। पहला तबलीगी जमात के लोगों को फिजूल के आरोपों से मुक्त करना और दूसरा सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम ‘बिंदास बोल’ के प्रसारण पर रोक लगाना।
-राम पुनियानी
प्रतिबद्ध और सत्यनिष्ठ विधिवेत्ता प्रशान्त भूषण ने हाल में न्यायपालिका को आईना दिखलाया। इसके समानांतर दो मामलों में न्यायपालिका ने आगे बढ़कर प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने की अपनी भूमिका और जिम्मेदारी का शानदार निर्वहन किया। इनमें से पहला मामला था अनेक अदालतों द्वारा तबलीगी जमात के सदस्यों को कोरोना फैलाने, कोरोना बम होने और कोरोना जिहाद करने जैसे फिजूल के आरोपों से मुक्त करना। और दूसरा था सुदर्शन टीवी की कार्यक्रमों की श्रृंखाल ‘बिंदास बोल’ के प्रसारण पर रोक लगाना।
सुदर्शन टीवी के संपादक सुरेश चव्हाणके ने ट्वीट कर यह घोषणा की थी कि उनका चैनल मुसलमानों द्वारा किए जा रहे ‘यूपीएससी जिहाद’ का खुलासा करने के लिए कार्यक्रमों की एक श्रृंखला प्रसारित करेगा। उनके अनुसार एक षड़यंत्र के तहत मुसलमान यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा के जरिए नौकरशाही में घुसपैठ कर रहे हैं। इस परीक्षा के जरिए वे आईएएस और आईपीएस अधिकारी बन रहे हैं।
इस श्रृंखला के 45 सेकंड लंबे प्रोमो में यह दावा किया गया था कि ‘जामिया जिहादी’ उच्च पद हासिल करने के लिए जिहाद कर रहे हैं। यह दिलचस्प है कि जामिया मिल्लिया के जिन 30 पूर्व विद्यार्थियों ने सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की है, उनमें से 14 हिन्दू हैं। जामिया के विद्यार्थियों ने अदालत में याचिका दायर कर इस श्रृंखला के प्रसारण पर रोक लगाने की मांग की थी, जिसे न्यायालय ने इस आधार पर स्वीकृत किया कि यह कार्यक्रम समाज में नफरत फैलाने वाला है।
सिविल सेवा के पूर्व अधिकारियों के एक संगठन कांस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप, जो किसी राजनैतिक दल या विचारधारा से संबद्ध नहीं है, ने एक बयान जारी कर कहा कि 'यह कहना विकृत मानसिकता का प्रतीक है कि एक षड़यंत्र के तहत सिविल सेवाओं में मुसलमान घुसपैठ कर रहे हैं’’। उन्होंने कहा कि “इस संदर्भ में यूपीएससी जिहाद और सिविल सर्विसेस जिहाद जैसे शब्दों का प्रयोग निहायत गैर-जिम्मेदाराना और नफरत फैलाने वाला है। इससे एक समुदाय विशेष की गंभीर मानहानि भी होती है।'
देश में इस समय 8,417 आईएएस और आईपीएस अधिकारी हैं। इनमें से मात्र 3.46 प्रतिशत मुसलमान हैं। कुल अधिकारियों में से 5,682 ने यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा पास की है। शेष 2,555 अधिकारी, राज्य पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं से पदोन्नत होकर आईपीएस या आईएएस में आए हैं। कुल 292 मुसलमान आईएएस और आईपीएस अधिकारियों में से 160 सिविल सेवा परीक्षा के जरिए अधिकारी बने हैं। शेष 132 मुस्लिम अधिकारी पदोन्नति से आईएएस या आईपीएस में नियुक्त किए गए हैं।
साल 2019 की सिविल सेवा परीक्षा में चयनित कुल 829 उम्मीदवारों में से 35 अर्थात 4.22 प्रतिशत मुसलमान थे। वहीं, साल 2018 की सिविल सेवा परीक्षा में जो 759 उम्मीदवार सफल घोषित किए गए उनमें से केवल 20 (2.64 प्रतिशत) मुसलमान थे। इसी तरह साल 2017 की सिविल सेवा परीक्षा में 810 सफल उम्मीदवारों में से मात्र 41 (5.06 प्रतिशत) मुसलमान थे। जबकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार मुसलमान देश की कुल आबादी का 14.2 प्रतिशत हैं।
चव्हाणके का आरोप है कि मुस्लिम विद्यार्थी इसलिए इस परीक्षा में सफलता हासिल कर पा रहे हैं क्योंकि उन्हें वैकल्पिक विषय के रूप में अरबी चुनने का अधिकार है, जिसके कारण वे आसानी से उच्च अंक हासिल कर लेते हैं। सुदर्शन टीवी और उसके मुखिया चव्हाणके की यह स्पष्ट मान्यता है कि मुसलमानों को किसी भी स्थिति में ऐसे पद पर नहीं होना चाहिए, जहां उनके हाथों में सत्ता और निर्णय लेने का अधिकार हो। बहुसंख्यकवादी राजनीति का भी यही ख्याल है।
सच तो यह है कि सिविल सेवाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व, उनकी आबादी के अनुपात में बहुत कम है। हमारे देश की नौकरशाही से यह अपेक्षा की जाती है कि वह भारतीय संविधान के मूल्यों और प्रावधानों के अनुरूप काम करे। नौकरशाहों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव न करें। इसलिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की किसी अधिकारी का धर्म क्या है।
सुदर्शन टीवी के चव्हाणके और उनके जैसे अन्य व्यक्ति हमेशा ऐसे मुद्दों की तलाश में रहते हैं जिनसे वे मुसलमानों का दानवीकरण कर, उन्हें खलनायक और देश का दुश्मन सिद्ध कर सकें। दरअसल होना तो यह चाहिए था कि इस श्रृंखला के प्रसारण पर रोक लगाने के साथ-साथ इसके निर्माताओं पर मुकदमा भी चलाया जाता।
सरकारी सेवाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है। सभी श्रेणियों के सरकारी कर्मचारियों में मुसलमानों का प्रतिशत 6 से अधिक नहीं है और उच्च पदों पर 4 के आसपास है। इसका मुख्य कारण मुसलमानों का शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ापन तो है ही इसके अतिरिक्त समय-समय पर इस समुदाय के खिलाफ होने वाली सुनियोजित हिंसा भी उनकी प्रगति में बाधक है। भिवंडी, जलगांव, भागलपुर, मेरठ, मलियाना, मुज्जफ्फरनगर और हाल ही में दिल्ली में जिस तरह की हिंसा हुई क्या उससे पढ़ने-लिखने वाले मुस्लिम युवाओं की शैक्षणिक प्रगति बाधित नहीं हुई होगी?
विभिन्न सरकारी सेवाओं में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर आयोगों और समितियों ने विचार किया है। वे सभी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मुसलमानों का सेवाओं में प्रतिनिधित्व बहुत कम है। गोपाल सिंह और रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर समिति आदि की रपटों से यह साफ है कि जेल ही वे एकमात्र स्थान हैं जहां मुसलमानों का प्रतिशत उनकी आबादी से अधिक है। पिछले कुछ वर्षों में संसद और विधानसभाओं में भी मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में कमी आई है।
कई मुस्लिम नेताओं ने तो यहां तक कहा है कि चूंकि उनके समुदाय को राजनीति और समाज के क्षेत्रों में हाशिए पर धकेल दिया गया है, इसलिए अब मुस्लिम युवाओं को केवल अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देना चाहिए। विदेश में रह रहे भारतीय मुसलमानों के कई संगठन भी देश में मुसलमानों की शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए कार्यक्रम चला रहे हैं।
सईद मिर्जा की शानदार फिल्म ‘सलीम लंगड़े पर मत रोओ’ मुसलमान युवकों को अपनी भविष्य की राह चुनने में पेश आने वाली समस्याओं और उनके असमंजस का अत्यंत सुंदर और मार्मिक चित्रण करती है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसी प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं को चव्हाणके जैसे लोगों द्वारा निशाना बनाया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। चव्हाणके यूपीएससी की प्रतिष्ठा भी धूमिल कर रहे हैं, जिसकी चयन प्रक्रिया पर शायद ही कभी उंगली उठाई गई हो। उनके जैसे लोगों की हरकतों से देश में सामाजिक सौहार्द पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा और मुसलमानों का हाशियाकारण और गंभीर स्वरूप अख्तियार कर लेगा।
सुदर्शन चैनल विचारधारा के स्तर पर संघ के काफी नजदीक है। उसके संपादक को अनेक चित्रों में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के काफी नजदीक खड़े देखा जा सकता है। यह विवाद तबलीगी जमात के मुद्दे पर खड़े किए गए हौव्वे की अगली कड़ी है। मुसलमानों पर अब तक लैंड जिहाद, लव जिहाद, कोरोना जिहाद और यूपीएससी जिहाद करने के आरोप लग चुके हैं। और शायद आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा।
फिलहाल अदालत ने सुदर्शन टीवी की श्रृंखला के प्रसारण पर रोक लगाकर अत्यंत सराहनीय काम किया है। इससे एक बार फिर यह आशा बलवती हुई है कि हमारी न्यायपालिका देश के बहुवादी और प्रजातांत्रिक स्वरूप की रक्षा करने के अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुई है। (navjivanindia.com)
(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
- Ishan Kukreti
जून में जब नए कोयला ब्लॉकाें की नीलामी शुरू हुई, तब प्रधानमंत्री ने कहा कि इससे कोयला क्षेत्र को कई वर्षों के लॉकडाउन से बाहर आने में मदद मिलेगी। लेकिन समस्या यह है कि कोयले के भंडार घने जंगलों में दबे पड़े हैं और इन जंगलों में शताब्दियों से सबसे गरीब आदिवासी बसते हैं। कोयले के लिए नए क्षेत्रों का जब खनन शुरू होगा, तब आदिवासियों और आबाद जंगलों पर अनिश्चितकालीन लॉकडाउन थोप दिया जाएगा। डाउन टू अर्थ ने इसकी पड़ताल की। प्रस्तुत है इस पड़ताल करती रिपोर्ट की पहली कड़ी-
18 जून को,वाणिज्यिक खनन के लिए 41 कोयला ब्लॉकों की नीलामी के एक कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत को ऊर्जा जरूरतों के लिए अपने घरेलू कोयले का उपयोग करने की आवश्यकता है। इस आयोजन ने इस क्षेत्र को निजी निवेशकों के लिए खोल दिया। 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और कोयले के अंतिम उपयोग पर लगे सारे प्रतिबंध हटाकर। अब तक, खनिकों को बाजार में कोयले का व्यापार करने की अनुमति नहीं थी। कोयला का खनन या तो सार्वजनिक क्षेत्र के कोल इंडिया लिमिटेड या अन्य कंपनियों द्वारा खनन आवंटन या नीलामी के जरिए किया जाता था।
कोविड-19 के बाद सरकार के एजेंडे में ऊर्जा सुरक्षा सबसे ऊपर है। प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि यह नीलामी “कोयला क्षेत्र को कई वर्षों के लॉकडाउन से बाहर लाएगी”। उन्होंने कहा, “भारत में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला भंडार है और हम कोयले के दूसरे सबसे बड़े उत्पादक हैं तो फिर हम दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक क्यों नहीं बन सकते?”
कोयले को “हरित” बनाने के लिए सरकार ने 2030 तक 100 मिलियन टन कोयले को गैस में बदलने के लिए चार परियोजनाओं में 20,000 करोड़ का निवेश करने की घोषणा की है। समस्या यह है कि कोयले के भंडार देश के सबसे घने जंगलों में पाए जाते हैं, जहां बहुत गरीब लोग और इनमें भी ज्यादातर आदिवासी रहते हैं। इसका मतलब यह है कि जब अधिक कोयले के लिए नए क्षेत्रों का खनन शुरू होगा तो इन अनछुए जंगलों और उनके निवासियों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा।
सवाल यह है कि भारत को कोयले के लिए अधिक खुदाई करने की आवश्यकता क्यों है? क्या देश की वर्तमान कोयला खदानें अपर्याप्त हैं? या हमें घरेलू कोयले को आयातित कोयले से बदलने की आवश्यकता है? वह आंतरिक तर्क क्या है जो इस नीति को संचालित करता है?
इस परिवर्तन के पीछे की वजह छुपी हुई नहीं है। 2010 में, कोयला मंत्रालय (एमोसी ) और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ), (जिसे अब पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) का नाम दिया गया है) ने एक वृहद अध्ययन के उपरांत भारत के कोयला भंडार को “गो” एवं “नो-गो” क्षेत्रों में वर्गीकृत किया था। अध्ययन ने कहा कि जंगलों को बचाने के लिए नो-गो क्षेत्रों में खनन को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। ये जैव विविधता से भरपूर घने वन क्षेत्र थे और इसलिए, यहां खनन पर प्रतिबंध आवश्यक था। मंत्रालयों ने कुल अध्ययन किए गए क्षेत्रों में से 47 प्रतिशत (222) इलाकों को नो-गो क्षेत्रों के रूप में सीमांकित किया लेकिन 2010 से 2014 के बीच, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के कार्यकाल में यह संख्या 16 प्रतिशत या सिर्फ 35 ब्लॉकों तक सिमटकर रह गई।
मौजूदा नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) के सत्ता में आने के बाद भी यह काट पीट जारी रही। 2015 के बाद कई संरक्षित क्षेत्रों को खनन के लिए खोल दिया गया। इस साल जून में, 41 कोयला ब्लॉकों को नीलामी के लिए डाला गया था।
ध्यान रहे कि इनमें से 12 की पहचान 2010 के अध्ययन में नो-गो क्षेत्र के रूप में की गई थी। लेकिन अगर “गो” क्षेत्र देश की जरूरतों के लिए पर्याप्त हैं तो “नो-गो” क्षेत्रों को बर्बाद क्यों करें ? वैसे भी पिछले एक दशक के दौरान सरकार ने निजी निवेशकों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू ) को 91 कोयला खानें नीलामी या आवंटन के माध्यम से दी हैं। उनमें से 30 “गो” के रूप में सीमांकित क्षेत्रों में हैं। क्या ये सभी खदानें चालू हो गई हैं?
क्या नीलाम की गई खदानें चालू हैं?
इस साल जून में नीलामी के लिए घोषित 41 खदानों का एक बड़ा हिस्सा पहली बार तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा अलग-अलग पीएसयू और निजी निवेशकों को आवंटित किया गया था, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया था। 25 अगस्त और 24 सितंबर 2014 को, सर्वोच्च न्यायालय ने 204 कैप्टिव कोयला खदानों को “अवैध” घोषित कर दिया। एनडीए सरकार ने तब कोल माइंस (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 2015 को पेश किया और इन खानों की नीलामी और आवंटन का कार्य शुरू किया।
डाउन टू अर्थ द्वारा दायर किए गए राइट टू इन्फर्मेशन (आरटीआई) आवेदन के उत्तर में एमओसी ने बताया कि निजी निवेशकों को 33 और पीएसयू को 49 खदानें नीलामी द्वारा दी गईं थीं। हालांकि, मंत्रालय का कहना है कि वर्तमान में केवल 13 निजी और 14 सार्वजनिक क्षेत्र की खदानें चल रही हैं। इसका मतलब यह है कि 55, या लगभग 67 प्रतिशत नीलाम की गई खदानें विभिन्न कारणों से परिचालन में नहीं है, इसका कारण है कि कहीं अधिक लागत और प्रबंधन के मुद्दे तो कहीं वैधानिक वन मंजूरी की अनुपस्थिति।
2015 के बाद से, सरकार ने और नौ खानों की नीलामी की है और उनके संचालन की जानकारी सार्वजनिक डोमेन में नहीं है। एकमात्र जानकारी का स्रोत वन सलाहकार समिति (एफएसी) द्वारा 2015 में आयोजित एक बैठक है। एफएसी मुख्यतः एक “बिना किसी चेहरे मोहरे वाली” संस्था है जो वन मंजूरी का आकलन और सिफारिश करती है। हालांकि, यह खनन पट्टे, खनन योजनाओं और खदानों के संचालन पर कोई विवरण नहीं देता है, लेकिन यह दर्शाता है कि 2015 के बाद से, कुल 49 कोयला खनन परियोजनाओं को जंगलों के उपयोग के लिए चरण एक (24 खदानें) या चरण दो (25 खदानें ) की मंजूरी दी गई है। इन 49 परियोजनाओं में से नौ मूल “नो-गो” क्षेत्रों में हैं। चरण एक के तहत, मंजूरी तो दी जाती है, लेकिन उपयोगकर्ता एजेंसी या निजी कंपनी को नेट वर्तमान मूल्य का भुगतान करना है और स्थानीय समुदायों के अधिकारों एवं शर्तों को पूरा करना है। स्टेज दो के तहत, वनभूमि के इस्तेमाल के लिए अंतिम अनुमति दी जाती है और उपयोगकर्ता एजेंसी या कंपनी को एक वर्ष के भीतर प्रतिपूरक वनीकरण (कटे पेड़ों के बदले में नए पेड़) करना पड़ता है।
सरकार के अपने रिकॉर्ड के अनुसार जिन 49 कोयला परियोजनाओं के लिए वनों के “डायवर्जन” की अनुमति दी गई है, उसके कारण 19,614 हेक्टेयर वनभूमि प्रभावित होगी, 1.02 मिलियन पेड़ों की कटाई और 10,151 परिवार बेदखल होंगे।(downtoearth)
- Richard Mahapatra
केंद्रीय गृह मंत्रालय के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने साल 2019 में हुई आत्महत्याओं का आंकड़ा जारी किया है। रिपोर्ट में पेशे के हिसाब से वर्गीकरण किया गया है, जो बताता है कि दैनिक वेतनभोगी यानी दिहाड़ी मजदूरों का वर्ग सबसे अधिक आत्महत्या करता है।
एनसीआरबी की इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में भारत में 1, 39,123 आत्महत्याओं की सूचना दर्ज की गई। यह 2018 की तुलना में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि है। कुल आत्महत्याओं में से दैनिक वेतन भोगियों की संख्या 23.4 प्रतिशत था।
एनसीआरबी की रिपोर्ट में आत्महत्या के आंकड़ों को पेशे के हिसाब से नौ श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है। 2019 में कुल 97,613 पुरुषों ने आत्महत्या की। इनमें सबसे अधिक 29,092 दैनिक वेतनभोगी श्रेणी से थे। इनमें 14,319 लोग अपना काम करते थे और 11,599 लोग बेरोजगार थे।
2019 में 41,493 महिलाओं ने आत्महत्या की। इनमें सबसे अधिक (21,359) गृहणियां थी, जबकि इसके बाद दूसरे नंबर पर छात्राएं रहीं। 4,772 छात्राओं ने आत्महत्या की, जबकि तीसरे नंबर पर दैनिक वेतनभोगी महिलाएं (3,467) थी।
दैनिक वेतन भोगी मजदूर सबसे कम कमाने वाला समूह है। खेती में भी किसान दैनिक वेतनभोगी मजदूरों से ज्यादा कमाते हैं। इस श्रेणी में खेत मजदूर भी शामिल हैं, जो गैर-कृषि सीजन के दौरान दैनिक मजदूरी का काम करते हैं।
एनसीआरबी का "भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या 2019" एक बहुप्रतीक्षित वार्षिक दस्तावेज है। इस दस्तावेज में किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या पर विशेष नजर रहती है।
एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2019 में, देश में खेती से जुड़े कुल 10,281 लोगों ने आत्महत्या की है। इनमें से 5,957 किसान हैं, जबकि 4,324 खेतिहर मजदूर थे। इस श्रेणी में भारत की सभी आत्महत्याओं का 7.4 प्रतिशत हिस्सा है।
आमतौर पर कुछ राज्य किसानों की आत्महत्या के लिए जाने जाते हैं। जैसे कि महाराष्ट्र, यहां इस बार भी सबसे अधिक (38.2 फीसदी) किसानों ने आत्महत्या की। इसी प्रकार, कर्नाटक दूसरे नंबर पर है, जहां सबसे अधिक (19.4 फीसदी) किसानों की आत्महत्या रिपोर्ट की गई। आंध्र प्रदेश में 10.0 फीसदी और मध्य प्रदेश में 5.3 फीसदी हिस्सेदारी है।
इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि आम तौर पर कम आमदनी वाले लोगों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। 2019 में आत्महत्या करने वालों में दो तिहाई लोग ऐसे थे, जिनकी आमदनी सालाना 1 लाख रुपए या उससे कम थी। यानी, ये लोग महीने में 8,333 रुपए या 278 रुपए रोजाना से कम कमा रहे थे। जो कभी-कभी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम होती है। आत्महत्या करने वालों में 30 फीसदी लोग ऐसे थे, जिनकी आमदनी 1 लाख से 5 लाख रुपए सालाना के बीच थी।
आंकड़े बताते हैं कि 2019 में 1 लाख रुपए सालाना से कम कमाई करने वाले 92,083 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें 29,832 महिलाएं और 62,236 पुरुष शामिल थे। इसी तरह 1 से 5 लाख रुपए सालाना कमाई करने वाले 41,197 लोगों ने आत्महत्या की। जबकि 5 से 10 लाख रुपए सालाना के बीच कमाने वाले 4,824 और 10 लाख से अधिक कमाने वाले 1,019 लोगों ने आत्महत्या की।(downtoearth)
पिछले कुछ वक्त से हमारा समाज और मीडिया जो रिया चक्रवर्ती के साथ कर रहे हैं वह महिलाओं के खिलाफ होने वाले किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है
- शुभम उपाध्याय
एक वक्त था जब टीवी न्यूज मीडिया गुनहगारों को सजा दिलाने के लिए सच की लड़ाई भी लड़ता था. याद आता है कि 1999 में हुए जेसिका लाल मर्डर केस में पहले तहलका और फिर एनडीटीवी ने मनु शर्मा को सजा दिलाने के लिए जेसिका की बहन सबरीना लाल का आखिर तक साथ दिया था. 2006 के आखिर में जब दिल्ली हाई कोर्ट ने मनु शर्मा को उम्र कैद की सजा सुनाई थी तब मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस में एक ताकतवर नेता थे. ये लड़ाई आज भी सत्ता के खिलाफ सच के खड़े रहने के उदाहरण के तौर पर याद रखी जाती है. कोई मीडिया संस्थान अगर पत्रकारिता की सही पढ़ाई करवाए तो ये पूरी लड़ाई मीडिया की ताकत के ‘सही उपयोग’ की केस स्टडी के तौर पर भी पढ़ाई जा सकती है. ये वो दौर था जब ‘मीडिया ट्रायल’ और ‘मीडिया एक्टिविज्म’ अक्सर दोषी को सजा दिलाने के लिए काम करते थे और इनकी बुनियाद ठोस पत्रकारिता हुआ करती थी. आज की तरह चौकीदार से लेकर डिलीवरी बॉय तक के मुंह में माइक ठूंसने वाली पत्रकारिता नहीं.
फिर जब मीडिया का चरित्र बदला और दर्शकों के मुंह से सनसनीखेज टेबलॉयड न्यूज का स्वाद लगा तो मीडिया ट्रायल और मीडिया एक्टिविज्म ने उस दु:स्वप्न का रूप ले लिया जो घोर महिला विरोधी बनता चला गया. वो सत्ता से सवाल करने में डरने लगा, कॉन्सपिरेसी थ्योरीज से प्यार करने लगा, अतिनाटकीयता और आक्रामकता उसके प्रमुख हथियार हो गए, और पत्रकारिता के सिद्धांत अपने काम की बुनियाद बनाने की जगह आम नागरिकों को खोज-खोजकर वो उनके मुंह में माइक और शब्द ठूंसने लगा. इसका पहला शिकार बने आरुषि तलवार मर्डर केस में राजेश और नूपुर तलवार और अब तकरीबन वही मीडिया सर्कस, उसी द्वेष और भयावहता के साथ, रिया चक्रवर्ती को अपना शिकार बना रहा है.
हाल ही में अपना पक्ष रखने के लिए रिया चक्रवर्ती ने भी कुछ इंटरव्यूज दिए. हमारा कानून कहता है कि जब तक आरोप सिद्ध न हो जाए तब तक हर किसी को अपना पक्ष रखने का हक है. तो फिर रिया चक्रवर्ती को ये हक क्यों न दिया जाए? इस मीडिया ट्रायल में, उनके अलावा लगभग सभी ने अपना-अपना पक्ष पिछले कुछ महीनों से टीवी चैनलों के समक्ष रखा है, तो उन्हें ये स्पेस क्यों नहीं मिलना चाहिए? सोशल मीडिया पर कइयों ने कहा कि उनके ये इंटरव्यूज स्क्रिप्टिड थे. कइयों ने कहा कि मुश्किल सवाल नहीं पूछे गए. कइयों ने कहा कि हर इंटरव्यू में शब्दश: एक-से जवाब दिए गए. कइयों ने कहा कि नाटकीयता अधिक थी क्योंकि ‘सुशांत मेरे सपने में आए और अपनी बात रखने को कहा’ जैसी हास्यास्पद बातें रिया ने बोलीं. लेकिन, जो कायदे की बातें रिया ने बोलीं वो ‘तकरीबन’ हर उस सवाल का जवाब देने वाली थीं जो इतने दिनों से लगातार मीडिया ट्रायल का हिस्सा बनते रहे हैं.
एक से लेकर पौने दो घंटे के इंटरव्यूज देना आसान नहीं होता, वो भी तब जब आपसे हर वो संभव सवाल पूछा जाए जो इस केस से जुड़ा हो. एनडीटीवी 24*7 को दिया इंटरव्यू तो एक घंटे का होने के अलावा लाइव भी था और इसमें रिया ने कुछ उन सवालों के जवाब भी दिए जो राजदीप सरदेसाई को पहले दिए इंटरव्यू के बाद सोशल मीडिया पर लगातार पूछे जा रहे थे. जैसे हवाई जहाज में ट्रैवल करने में सुशांत को लगने वाले डर से जुड़ा काउंटर-सवाल. बाद में चलकर 2015 का एक पुराना वीडियो भी सामने आया जिसमें सुशांत क्लॉस्ट्रोफोबिक होने की बात खुद स्वीकार रहे हैं.
यानी कि अगर आप एक तटस्थ दर्शक बनकर देखें, तो रिया चक्रवर्ती के इंटरव्यूज भले ही कुछ सवाल अनुत्तरित छोड़ देते हैं, सत्रह हजार ईएमआई भरने जैसे कुछ अधूरे जवाब भी पेश करते हैं, और कुछ सवाल पूछे भी नहीं जाते. जैसे उन्होंने इतना महंगा वकील कैसे हायर किया. लेकिन फिर भी इन सभी इंटरव्यूज में रिया अपना पक्ष मजबूती से रखते हुए कई सारी बेवजह की कॉन्सपिरेसी थ्योरीज की रीढ़ तोड़ती हुई नजर आती हैं. साथ ही वे कुछ ऐसे सवाल भी उठाती हैं जो लॉजिकल हैं और सीबीआई के लिए आगे की दिशा तय कर सकते हैं. ऐसा ही कुछ उन ऑडियो टेप्स से भी समझ आता है जिसमें सुशांत अपने भविष्य की प्लानिंग करते हुए सुनाई दे रहे हैं और रिया इनमें उनकी मदद ही करती हुई मालूम होती हैं. इस टेप में खुद सुशांत साफ तौर पर कह रहे हैं कि उन्हें बाइपोलर डिसऑर्डर है जिस वजह से वे अपने भविष्य को सुरक्षित करना चाहते हैं.
मगर इन कायदे के इंटरव्यूज को क्यों हमारा समाज और मीडिया पचा नहीं पा रहा? हो सकता है कि रिया चक्रवर्ती गुनहगार हो और उन पर लग रहे सारे इल्जाम और कॉन्सपिरेसी थ्योरीज सही हों. उस सूरत में उन्हें यकीनन सजा होनी चाहिए लेकिन इसका फैसला तो कानून करेगा न. और जब तक वो फैसला नहीं आ जाता क्यों हमारा मीडिया और ऑनलाइन समाज रिया चक्रवर्ती की बातों को एक दूसरा पक्ष मानकर स्वीकार नहीं कर रहा? जिस तरह का ऑनलाइन हेट उन्हें इन इंटरव्यूज और ऑडियो और चैट स्क्रीनशॉट्स के सामने आने से पहले और बाद में लगातार मिल रहा है वो हमारे इस समाज के बारे में आखिर क्या बता रहा है?
आप इस आलेख में ‘मीडिया ट्रायल’ से जुड़े ऊपर वर्णित तीनों उदाहरणों के महिला पात्रों की जिंदगियों पर गौर कीजिए. जेसिका लाल हत्याकांड पर 1999 से लेकर 2006 तक समाज में जो चिंतन होता था उसमें भी जेसिका लाल के कैरेक्टर को लेकर तमाम वाहियात सवाल उछाले जाते थे. एक मॉडल इतनी रात गए लोगों को शराब क्यों सर्व कर रही थी वगैरह वगैरह. वो तो शुक्र है तब सोशल मीडिया और आज के वक्त का उन्मादी टीवी मीडिया नहीं था. वर्ना सोच कर देखिए, कि क्या जेसिका लाल के खिलाफ भी वैसा ही नेरेटिव नहीं खड़ा किया जा सकता था जैसा आज रिया चक्रवर्ती के खिलाफ किया जा रहा है? आज रिया चक्रवर्ती को विषकन्या से लेकर डायन, काला जादू करने वाली बंगालन और अमीर बॉयफ्रेंड का पैसा हड़पने वाली गोल्ड डिगर गर्लफ्रेंड तक बोला जा रहा है, तो क्या ग्लैमरस मॉडल जेसिका लाल को बख्श दिया जाता?
आरुषि तलवार हत्याकांड में भी आप मीडिया की भूमिका पर गौर कीजिए. तब भी सुशांत सिंह राजपूत केस की तरह तलवार दंपति के यहां काम करने वालों से लेकर पड़ोसियों तक पर टीवी मीडिया टूट पड़ा था और रात-दिन हमारे टेलीविजन पर अंजान लोगों के मुंह में माइक ठूंस कर यह नेरेटिव बनाया गया था कि राजेश तलवार और नुपूर तलवार ने ही अपनी बेटी आरुषि की हत्या की है. ये उन्माद इस चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया था कि एक दिन किसी अंजान शख्स ने टीवी मीडिया की बातों को सच मानकर कोर्ट में राजेश तलवार को चाकू से घायल तक कर दिया. लेकिन इसकी पड़ताल करने वाली पुलिस से लेकर सीबीआई तक की भूमिका पर कई सवाल उठते रहे, और 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राजेश और नूपुर तलवार को बरी तक कर दिया. इसके बाद 2018 में सीबीआई ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जिसे कोर्ट ने स्वीकार किया और तब से ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. लेकिन सनद रहे कि 2008 में हुआ ये हत्याकांड आज भी अनसुलझा ही है.
आरुषि तलवार हत्याकांड के दौरान हुए मीडिया ट्रायल ने आरुषि की मां नूपुर तलवार की जिंदगी भी दोजख की थी. आखिर में रिया चक्रवर्ती की तरह उन्हें भी टीवी स्टूडियोज के चक्कर लगा-लगाकर खुद के निर्दोष होने की पैरवी करनी पड़ी थी और तब भी हमारा समाज यही कहता था जो आज रिया चक्रवर्ती के इंटरव्यूज देखकर कह रहा है. देखो तो बिलकुल भी भावुक नहीं हो रही है. देखो तो कैसे रटे-रटाए जबाव दे रही है. देखो तो नेरेटिव चेंज करने की कोशिश कर रही है. देखो तो चेहरे पर कितनी कठोरता है अपनी बेटी के जाने का गम तक नहीं. और उस मीडिया ट्रायल में सिर्फ नूपुर तलवार जलील नहीं हुईं, बल्कि जिस तरह की बातें मीडिया और पुलिस ने भी आरुषि और हेमराज और उनके पिता राजेश तलवार के बीच के रिश्तों पर कहीं, उन बातों ने 14 वर्षीय आरुषि की यादों को भी खराब किया. ठीक वैसे ही जैसे आज का मीडिया ट्रायल सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी यादों का मोंटाज लगातार खराब तस्वीरों से भर रहा है.
पश्चिम का एक कुख्यात मीडिया ट्रायल भी उदाहरण है कि मीडिया और समाज संस्थागत रूप से कितने महिला विरोधी होते हैं. नाम है, अमांडा नॉक्स मीडिया ट्रायल. 21 साल की अमेरिकी छात्र अमांडा नॉक्स जो कि पढाई करने के लिए इटली गई थी, उसे 2007 में अपनी फ्लैटमेट की हत्या का दोषी माना जाता है और 2009 में इटली में ही 26 साल की सजा सुनाई जाती है. इस बीच इटली का मीडिया और उसके पीछे-पीछे वैश्विक मीडिया भी अमांडा नॉक्स को मर्डरर, मैन-ईटर, साइकोपैथ बनाकर दर्शकों के सामने पेश करता है और अदालत में मुकदमा चलने से पहले ही दुनिया भर में वे हत्यारन घोषित कर दी जाती हैं. लेकिन बाद में चलकर इस केस में कई मोड़ आए और आखिरकार 2015 में जाकर इटली की ही अदालत ने उन्हें हमेशा के लिए बरी किया. इस केस पर फिल्म भी बनी और नेटफ्लिकस की एक डॉक्युमेंटरी भी और हर एक माध्यम में इस केस की आलोचना बेसिर-पैर के मीडिया ट्रायल और उसके दुष्परिणामों को लेकर होती रही है.
आज जो 28 वर्षीय रिया चक्रवर्ती के साथ हमारा मीडिया और समाज कर रहा है वो भी उतना ही गलत है जितना ऊपर वर्णित उदाहरणों में दर्ज महिलाओं के साथ समय-समय पर मीडिया और समाज करता रहा है. अगर रिया चक्रवर्ती सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जिम्मेदार हैं भी, तब भी मीडिया ट्रायल का ये तरीका कैसे सही हो सकता है और अगर वे गुनहगार नहीं निकलीं तब तो और भी हमें अपने गिरेबां में झांककर देखने की जरूरत पड़ने वाली है. हमारा उन्मादी मीडिया क्या करेगा अगर सीबीआई ने रिया चक्रवर्ती को सुशांत की हत्या का दोषी नहीं माना तो? क्या वो सरेआम माफी मांगेगा और उसके खुद के पत्रकार वैसे ही अपने एंकरों के मुंह में माइक ठूंसेंगे जैसे वे इन दिनों रोज करते पाए जाते हैं? नहीं! वे सबकुछ भूल कर किसी और झुनझुने को बजाने निकल पड़ेंगे.(styagrah)
- Raju Sajwan
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 सितंबर को यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फोरम को संबोधित करेंगे। उससे पहले वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने साफ कर दिया है कि भारत, अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले या ठीक बाद व्यापारिक समझौता करने को तैयार है। ऐसे में, बहुत हद तक संभावना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अमेरिका के साथ होने वाले व्यापारिक समझौते पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन इस व्यापारिक समझौते को लेकर किसान संगठन बहुत चितिंत हैं। किसान संगठनों का कहना है कि अगर भारत, अमेरिका के साथ होने वाले समझौते में कृषि और डेयरी व्यवसाय को भी शामिल करता है तो इसका भारत के किसानों और पशुपालकों पर बुरा असर पड़ेगा।
सात अगस्त 2020 को राष्ट्रीय किसान महासंघ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल को एक पत्र लिखा था कि भारत-अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की तैयारी कर रहा है। जो किसानों के साथ बहुत नुकसानदायक हो सकता है। इस बारे में संगठन ने 17 फरवरी 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखा था, 4 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने जवाब दिया कि वाणिज्य डिपार्टमेंट द्वारा इस संबंध में सभी पक्षों से राय ली जाएगी, लेकिन अब तक (7 अगस्त) संगठन से संपर्क तक नहीं किया गया।
किसान महासंघ का कहना है कि अगर अमेरिका के साथ समझौता होता है कि भारतीय किसान अमेरिका से आने वाले उत्पादों का सामना नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अमेरिका द्वारा अपने किसानों को बड़ी मात्रा में सब्सिडी दी जाती है। अमेरिका ने फार्म बिल 2014 में 956 बिलियन डॉलर सब्सिडी की घोषणा की थी, जो अब तक की सबसे बड़ी सब्सिडी थी, जब दूसरे देशों ने इसका विरोध किया तो अमेरिका ने कहा था कि यह केवल दस साल के लिए है, परंतु फार्म बिल 2019 में अमेरिका ने फिर से किसानों के लिए 867 बिलियन डॉलर सब्सिडी की घोषणा की है। ऐसे में इतनी ज्यादा सब्सिडी हासिल करने वाले किसानों के उत्पाद जब भारत में आएंगे तो भारत के किसान उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे। अमेरिका द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी के विरोध में विकासशील देशों के एक समूह (जी33) को भारत भी सहयोग करता है, ऐसे में यदि अमेरिका के सब्सिडी युक्त कृषि उत्पाद भारत आते हैं तो भारत को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में अपने स्टैंड से पीछे हटना पड़ेगा।
अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रेन की रिपोर्ट “भारतीय किसानों के लिए भारत-अमेरिा मुक्त व्यापार समझौते के खतरे” में कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रेन की रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों और डेयरी किसानों के दबाव में भारत ने नवबंर 2019 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) में शामिल होने से इंकार कर दिया था, लेकिन अब अमेरिका के साथ जो समझौता भारत करने जा रहा है, वह आरसीईपी से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि भारत के करोड़ों किसानों जिनकी औसतन जोत 1 हेक्टयर या उससे कम है को अमेरिका के किसानों जिनकी औसतन जोन 176 हेक्टेयर या उससे अधिक है के साथ मुकाबला करना होगा। अमेरिका में करीबन 21 लाख खेत हैं, जिसमें वहां की 2 प्रतिशत से भी कम आबादी को रोजगार मिलता है। वहां की औसतन वार्षिक कृषि आय लगभग 18,637 डॉलर ( लगभग 14 लाख रुपए) प्रति परिवार है। यह भी केवल कृषि से होने वाली आय है। दूसरी तरफ, भारत की 130 करोड़ आबादी में आधी से ज्यादा आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। यहां एक किसान परिवार की सब कुछ मिलाकर आय 1000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 75 हजार रुपए) सालाना से अधिक नहीं है।
डेयरी किसानों पर खतरा
पत्र में कहा गया है कि अमेरिका के साथ हो रहे मुक्त व्यापार समझौते से कृषि के साथ-साथ डेयरी उत्पादों पर भी बुरा असर पड़ेगा। अभी भी अमेरिका से मिल्क पाउडर, प्रीमिट पाउडर और पनीर बड़ी मात्रा में आयात हो रहा है, जबकि इन पर 30 से 60 फीसदी आयात शुल्क लगता है। अगर आयात शुल्क हट जाता है तो डेयरी उत्पादों का आयात कई गुणा बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं, अमेरिका से मांसाहारी पनीर का आयात भी एक बड़ा मुद्दा है, जबकि भारतीय कस्टम विभाग किसी तरह से यह जांच भी नहीं कर सकते कि पनीर मांसाहारी है या नहीं, क्योंकि अमेरिका इसके लिए भी तैयार नहीं है कि पनीर के लेबल पर शाकाहारी या मांसाहारी लिखा जाए।
वहीं, ग्रेन की रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका ने भारत के डेयरी बाजार में प्रवेश करने के लिए बड़े तिगड़म लगाए हैं और हमेशा उसे विरोध का सामना पड़ा। 2003 से भारत ने डेयरी आयात पर “सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी” मानक लगा रहा था, जिसके कारण भारत में अमेरिका उत्पादों का प्रवेश पूरी तरह से बंद था, लेकिन दिसंबर 2018 से कुछ कड़े व अनिवार्य प्रमाणीकरण की शर्तों के साथ अमेरिका को डेयरी उत्पादों के निर्यात की स्वीकृति दे दी गई। इस शर्त के अनुसार, अमेरिका के डेयरी उत्पादों का संबंध किसी भी ऐसे पशु से नहीं होना चाहिए, जिनके आहार में रक्त, अतरिक्त अंग या जुगाली करने वाले पशुओं के अधिशेष नहीं हों, क्योंकि ये भारतीयों के लिए सांस्कृतिक एवं धार्मिंक आधार पर अस्वीकार्य है। अभी तक अमेरिका इन शर्तों को मानने के लिए आनाकानी कर रह है। वह इसे वैज्ञानिक रूप से अनुचित ठहरा रहा है।
ग्रेन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 15 करोड़ डेयरी किसान हैं, जो किसी भ दूसरे देश से ज्यादा दूध का उत्पादन करते हैं। इनमें से अधिकांश किसान छोटे हैं, जिनके पास दो या तीन गाय या भैंस हैं। इसलिए डेयरी क्षेत्र को ग्रामीण भारत की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। ये लोग जो भी दुग्ध उत्पादन करते हैं, वह या तो खुद ही इस्तेमाल करते हैं या ग्रामीण क्षेत्रों में दूसरे लोगों, शहरी घरों या सहकारी समितियों के नेटवर्क की मदद से बेचा जाता है। उपभोक्ताओं द्वारा किए गए भुगतान का करीब 70 प्रतिशत उत्पादकों (डेयरी किसानों) को मिल जाता है। लेकिन अमेरिका में इसका बिलकुल उल्टा है। वहां का डेयरी उद्योग कुछ बड़ी कंपनियों के हाथों में है। डेयरी फार्म की संख्या कम हो रही है, लेकिन प्रत्येक फार्म में गायों की औसत संख्या लगातार बढ़ रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका में करीब 35 प्रतिशत दूध उन डेयरी फाम से आता है, जहां 2,500 से ज्यादा गायें हैं और 45 प्रतिशत उन डेयरी फार्म से आता है, जहां 1,000 से कम गायें हैं। कुछ बड़ी डेयरी फार्म के पास 30,000 से भी अधिक गायें हैं। इसके बावजूद वहां कीमत कम है और अमेरिकी सरकार द्वारा डेयरी फार्म मालिकों को भारी सब्सिडी दी जाती है। 2015 में अमेरिकी सरकार ने डेयरी क्षेत्र को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 2,220 करोड़ अमेरिकी डॉलर (लगभग 1.66 लाख करोड़ रुपए) दिए।
इसके अलावा सोयाबीन, चिकन (मुर्गी), मक्का और गेहूं, बादाम और अखरोट, सेब, दाल, चीनी और सिंथेटिक रबर आदि का आयात भी बढ़ने की संभावनाएं हैं। इस तरह और भी कई उत्पाद भी अमेरिका के साथ होने वाले फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स में शामिल हैं।
अमेरिका से होने जा रहे व्यापार समझौते के चलते बीज पर अधिकार को लेकर भी शंका जताई जा रही है। ग्रेन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका के साथ समझौता करने वाले देशों को यूपोव 1991 यानी पौधों की नई किस्मों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय यूनियन की संधि में शामिल होना अनिवार्य है। यूपोव के अंतर्गत बीजों के ऊपर पेटेंट का अधिकार दिया जाता है। हालांकि भारत हमेशा से यूपोव में शामिल होने से इंकार करता रहा है, जिससे वह लाखों छोटे किसानों और गैर कॉरपोरेट पौध प्रजनकों के हितों को सुरक्षित रख सके, लेकिन 2019 में पेप्सिको कंपनी द्वारा अपनी आलू की एक किस्म के बौद्धिक संपदा अधिकार का उल्लंघन करने के आरोप गुजरात के किसानों पर लगाया था और उस मामले में पेप्सिको को दबाव झेलना पड़ा था। ऐसे में, यह पूरी तरह संभव है कि अमेरिकी बीज उद्योग इस प्रस्तावित समझौते के माध्यम से भारत में एक मजबूत बीज एकाधिकार की बात करेंगे और किसानों द्वारा बीज बचाने की संभावनाओं को खत्म करना चाहेंगे।
किसानों की इन शंकाओं को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 सितंबर को क्या कहते हैं, यह देखना बेहद अहम होगा।(downtoearth)
भारत में संसद सत्र शुरू हो, तो एक हेडलाइन बहुत चर्चा में रहती है- 'संसद सत्र के हंगामेदार होने की आशंका."
कई बार हंगामा प्रश्नकाल में होता है तो कई बार किसी विधेयक पर चर्चा के दौरान हंगामा होता है. कई बार संसद परिसर के अंदर अलग-अलग मुद्दों पर विपक्ष का धरना प्रदर्शन भी होता है.
लेकिन इस बार संसद सत्र शुरू होने के पहले ही हंगामा मचा है. कोरोना की वजह से संसद का मॉनसून सत्र इस बार देर से शुरू हो रहा है. इस कारण इस बार संसद सत्र को लेकर कई तरह के बदलाव भी किए गए हैं.
14 सितंबर से शुरू हो रहे इस सत्र में लोक सभा और राज्यसभा की कार्यवाही पहले दिन को छोड़ कर दोपहर 3 बजे से शाम 7 बजे तक होगी. पहले दिन दोनों ही सदन सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक चलेंगे.
इसके अलावा सांसदों के बैठने की जगह में भी बदलाव किए गए हैं, ताकि कोरोना के दौर में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जा सके.
इतना ही नहीं, इस बार का सत्र शनिवार और रविवार को भी चलेगा, ताकि संसद का सत्र जितने घंटे चलना ज़रूरी है, उस समयावधि को पूरा किया जा सके.
इससे पहले भी कई मौक़ों पर छुट्टी के दिन और ज़रूरत पड़ने पर रात के समय संसद का सत्र चला है. जीएसटी बिल भी ऐसे ही एक सत्र में रात को पास किया गया था.
इस सत्र में प्राइवेट मेम्बर बिजनेस की इजाज़त नहीं दी गई है, शून्य काल होगा और सांसद जनता से जुड़े ज़रूरी मुद्दे भी उठा सकेंगे, लेकिन उसकी अवधि घटा कर 30 मिनट कर दी गई है.
संसद का ये सत्र एक अक्तूबर को ख़त्म हो जाएगा.

विपक्ष की नाराज़गी
लेकिन इस बार का संसद पहले के संसद सत्र की तरह हंगामेदार नहीं होगा. इसकी वजह है प्रश्न काल का ना होना.
इस बार सांसदों को प्रश्न काल के दौरान प्रश्न पूछने की इजाज़त नहीं होगी. सरकार के इस फ़ैसले को लेकर विपक्ष के सांसद आपत्ति जता रहे हैं.
टीएमसी के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट किया है, "सांसदों को संसद सत्र में सवाल पूछने के लिए 15 दिन पहले ही सवाल भेजना पड़ता था. सत्र 14 सितंबर से शुरू हो रहा है. प्रश्न काल कैंसल कर दिया गया है? विपक्ष अब सरकार से सवाल भी नहीं पूछ सकता. 1950 के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है? वैसे तो संसद का सत्र जितने घंटे चलना चाहिए उतने ही घंटे चल रहा है, तो फिर प्रश्न काल क्यों कैंसल किया गया. कोरोना का हवाला दे कर लोकतंत्र की हत्या की जा रही है."
MPs required to submit Qs for Question Hour in #Parliament 15 days in advance. Session starts 14 Sept. So Q Hour cancelled ? Oppn MPs lose right to Q govt. A first since 1950 ? Parliament overall working hours remain same so why cancel Q Hour?Pandemic excuse to murder democracy
— Derek O'Brien | ডেরেক ও'ব্রায়েন (@derekobrienmp) September 2, 2020
एक निजी पोर्टल के लिए लिखे लेख में डेरेक ओ ब्रायन ने लिखा है- "संसद सत्र के कुल समय में 50 फ़ीसदी समय सत्ता पक्ष का होता है और 50 फ़ीसदी समय विपक्ष का होता है. लेकिन बीजेपी इस संसद को M&S Private Limited में बदलना चाहती है. संसदीय परंपरा में वेस्टमिंस्टर मॉडल को ही सबके अच्छा मॉडल माना जाता है, उसमें कहा गया है कि संसद विपक्ष के लिए होता है."
वहीं कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर ने भी सोशल मीडिया पर सरकार के इस फ़ैसले की आलोचना की है.
दो ट्वीट के ज़रिए शशि थरूर ने कहा है कि हमें सुरक्षित रखने के नाम पर ये सब किया जा रहा है.
उन्होंने लिखा है, "मैंने चार महीने पहले ही कहा था कि ताक़तवर नेता कोरोना का सहारा लेकर लोकतंत्र और विरोध की आवाज़ दबाने की कोशिश करेंगे. संसद सत्र का जो नोटिफ़िकेशन आया है उसमें लिखा है कि प्रश्न काल नहीं होगा. हमें सुरक्षित रखने के नाम पर इसे सही नहीं ठहराया जा सकता."
1/2 I said four months ago that strongmen leaders would use the excuse of the pandemic to stifle democracy&dissent. The notification for the delayed Parliament session blandly announces there will be no Question Hour. How can this be justified in the name of keeping us safe?
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) September 2, 2020
अपने दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा है कि सरकार से सवाल पूछना, लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ऑक्सीजन के समान होता है. ये सरकार संसद को एक नोटिस बोर्ड में तब्दील कर देना चाहती है. अपने बहुमत को वो एक रबर स्टैम्प की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं, ताकि जो बिल हो वो अपने हिसाब से पास करा सकें. सरकार की जवाबदेही साबित करने के लिए एक ज़रिया था, सरकार ने उसे भी ख़त्म कर दिया है.
CPI MP Binoy Viswam writes to Rajya Sabha Chairman M Venkaiah Naidu. The letter reads, "Given that the duration of time of Parliamentary sittings is the same as it has always been, suspension of Question hour & Private Members business is unjust & must be reinstated immediately." pic.twitter.com/LKzODjXfnK
— ANI (@ANI) September 2, 2020
तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के विरोध को लेफ़्ट पार्टी से भी समर्थन मिला है. सीपीआई के राज्यसभा सांसद विनॉय विश्वम ने राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को चिट्ठी लिख कर अपनी आपत्ति दर्ज कराई है.
चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि प्रश्न काल और प्राइवेट मेम्बर बिजनेस को ख़त्म करना बिल्कुल ग़लत है और इसे दोबारा से संसद की कार्यसूची में शामिल किया जाना चाहिए.
1/2 I said four months ago that strongmen leaders would use the excuse of the pandemic to stifle democracy&dissent. The notification for the delayed Parliament session blandly announces there will be no Question Hour. How can this be justified in the name of keeping us safe?
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) September 2, 2020
ऐसी ही एक चिट्ठी लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने भी लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को लिखी थी.
सरकार का पक्ष
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रश्न काल स्थगित करने को लेकर विपक्ष के नेताओं से बात की है.
कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने सरकार की कोशिश के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि सरकार की तरफ़ से दलील य़े दी गई है कि प्रश्न काल के दौरान जिस भी विभाग से संबंधित प्रश्न पूछे जाएँगे, उनके संबंधित अधिकारी भी सदन में मौजूद होते हैं.
मंत्रियों को ब्रीफ़िंग देने के लिए ये ज़रूरी होता है. इस वजह से सदन में एक समय में तय लोगों की संख्या बढ़ जाएगी, जिससे भीड़ भाड़ बढ़ने का ख़तरा भी रहेगा. उसी को कम करने के लिए सरकार ने ये प्रावधान किया है.
संसद की कार्यवाही प्रश्न काल से ही शुरू होती है, जिसके बाद शून्य काल होता है. हालाँकि सरकार की तरफ़ से विपक्ष को भरोसा दिलाया गया है कि प्रश्न काल की उनकी माँग पर विचार किया जाएगा.
संसद का पिछला सत्र 29 मार्च तक चला था. उस वक्त कुछ सांसदों नें कोरोना के माहौल को देखते हुए संसद सत्र जल्द समाप्त करने की मांग की थी. लेकिन तब उनकी माँग को एक बार ठुकरा दिया था.(bbc)
डॉ. परिवेश मिश्रा बता रहे हैं उसका दुर्ग के जटार क्लब से रिश्ता !
यदि आप स्वाभिमानी हैं, आपकी रीढ़ की हड्डी मज़बूत है, आप उसूलों से समझौता नहीं करते हैं, तो आप किसी न किसी वजह से इतिहास में याद किये जाएं यह संभावना तो बन ही जाती है।
जटार परिवार की तीन पीढ़ियों को ही लीजिए।
महाराष्ट्र के सतारा ज़िले में एक बस्ती है वाई। बात हो रही है उन्नीसवीं शताब्दी की।
यहां रहने वाले महाराष्ट्रियन कराड़ ब्राह्मण भीकाजी जटार का दूसरा विवाह उनके बेटे श्रीराम की प्रताड़ना का कारण बन गया। श्रीराम ने विद्रोह कर दिया और घर त्याग कर पुणे पंहुच गये। परिश्रम कर अपने को खड़ा किया और ऐल्फिन्स्टन काॅलेज में पढ़ कर भारत के शुरुआती ग्रेजुएट्स में से एक हो गये।
देश में अंग्रेज़ों की इच्छा वाली शिक्षा व्यवस्था पैर पसार रही थी और अंग्रेजी जानने वाले अच्छे शिक्षकों की बहुत मांग थी। श्रीराम जटार को न केवल नौकरी मिली बल्कि अपनी योग्यता के दम पर वे शीघ्र ही सी.पी. बरार राज्य के डायरेक्टर पब्लिक इन्स्ट्रक्शन (राज्य में स्कूली शिक्षा विभाग के मुखिया) नियुक्त हो गये। नागपुर में एक शानदार बड़ा बंगला भी मिल गया।
लेकिन पहला वेतन हाथ आते ही श्रीराम जटार का आत्मसम्मान आहत हो गया। वे इस पद पर नियुक्त होने वाले पहले भारतीय थे। उनसे पहले जो अंग्रेज़ इस पद पर थे उन्हें वेतन के रूप में एक हज़ार रुपये दिये जाते थे। श्रीराम जी को कम दिये गये थे। बस क्या था, पत्र में अपने विरोध को बयां किया, सामान बांधा और पूरे परिवार को लेकर श्रीराम जी पुणे आ गये। पूरे एक साल इनके और राज्य के अंग्रेज़ अधिकारियों के बीच मान-मनौवल और पत्राचार चला और अंत में इन्हें एक हज़ार के वेतन पर वापस लाया गया। और किसी ने याद किया हो न हो, इनके बाद इस पद पर नियुक्त होने वाले अधिकारियों ने अवश्य इनका धन्यवाद ज्ञापित किया होगा। इस किस्से के बाद दूसरे विभागों में भारतीयों के वेतन निर्धारण करते समय भी अंग्रेज़ सतर्क रहने लगे।
श्रीराम जटार ने सेवानिवृत्त होने से पहले ही सन् 1890 के आसपास अपनी अर्जित सम्पत्ति से पुणे के नारायण पेठ में एक विशाल भवन खरीद कर नामकरण किया : श्रीराम बाड़ा। तीन मंजिले भवन में अनेक कमरे थे जिन्हें किराये पर दे कर श्रीराम जटार अपने परिवार का पालन पोषण करते थे।
इनमें से एक किरायेदार थे लोकमान्य तिलक। "श्रीराम बाड़ा" अब भी पुणे में सुरक्षित है और तिलक का कक्ष देखने अनेक लोग पंहुचते हैं।
भारत में उन दिनों पढ़े लिखे लोगों के लिए सरकारी नौकरी का विकल्प नहीं था और नौकरियां थीं कम। बड़ा बेटा काशीनाथ काॅलेज में था। उन्ही दिनों नौकरी की स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन आया।
आज के आय.ए.एस. की तरह अंग्रेजों के समय आय.सी.एस. सेवा हुआ करती थी। अक्सर डिस्ट्रिक्ट जज और कभी कभी पुलिस कप्तान की भूमिका भी इनमें समाहित होती थी। 1860 के बाद कुछ भारतीयों को इस सेवा में प्रवेश दे दिया गया था। किन्तु यह कदम सांकेतिक अधिक था। इने गिने भारतीय थे और उन्हें भी महत्वपूर्ण पद नहीं दिया जाता था।
1914 में पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ और स्थिति रातों रात बदल गयी। अंग्रेजों को ICS में भर्ती करने के लिये इंग्लैंड में योग्य कैंडिडेट मिलना लगभग बंद हो गये। अंग्रेज़ युवा फौज में भी जा रहे थे और युद्ध के कारण खड़ी हो रही औद्योगिक इकाइयों में भी।
अंग्रेजों ने तत्काल भारतीयों के लिये ICS के दरवाजे थोड़ा अधिक खोल दिये। सिविल सर्विस में उन दिनों दो स्तर होते थे। पहली थी 'काॅविनेन्टेड सिविल सर्विस'- इसमें सिर्फ अंग्रेज़ अफसरों होते थे। दूसरी 'अन-काॅविनेन्टेड सिविल सर्विस' भारतीयों के लिए थी। ICS के स्थान पर अधिकारी अपने नाम के आगे या तो CCS लिखते थे या UCS.
दुनियादारी में समझदार पिता ने अवसर का महत्व आंका और बेटे काशीनाथ को इक्कीस वर्ष की उम्र में इस UCS सेवा में प्रवेश दिला दिया। हैदराबाद स्टेट के अंग्रेज़ रेसिडेन्ट का दफ्तर अमरावती में था। काशीनाथ की पहली नियुक्ति रेसिडेन्ट के ट्रेनी सहायक के रूप में हुई। यही काशीनाथ श्रीराम जटार U.C.S. थे जो 1925 में छत्तीसगढ़ के कमिश्नर के रूप में रायपुर में पदस्थ हुए।
बीसवीं सदी के प्रारंभ तक छत्तीसगढ़ मोटे तौर पर दो बड़े हिस्सों में बंटा था। पहला हिस्सा अंग्रेज़ों के प्रशासन वाला इलाका था जो खालसा भी कहलाता था। यह रायपुर और बिलासपुर के नाम के दो ज़िलों में फैला था। छत्तीसगढ़ का बाकी सारा हिस्सा राजाओं के अधीन था। अंग्रेज़ों के हिस्से वाले दोनों ज़िलों के मुख्य अधिकारी कहलाते थे डिप्टी कमिश्नर। सन् 1906 में अंग्रेज़ों ने रायपुर और बिलासपुर ज़िलों में से कुछ इलाके निकाल कर एक नया ज़िला बनाया - दुर्ग।
जिन दिनों रायपुर में इन तीनों ज़िलों के कमिश्नर के रूप में काशीनाथ जटार रायपुर में पदस्थ थे उन दिनों दुर्ग में डिप्टी कमिश्नर थे खान बहादुर हाफिज़ मोहम्मद विलायतुल्ला। (इन्हीं के बेटे का आगे चल कर भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे व्यक्ति के रूप में नाम दर्ज हुआ जो अपने जीवनकाल में भारत का मुख्य न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति, तीनों पद पर रहा। यह ज़िक्र मोहम्मद हिदायतुल्ला जी का है)।
ब्रिटिश राज के दिनों में भारत में अफसरों के लिए ज़िलों में पोस्टिंग बहुत खुशदायी नहीं होती थी। एक बड़ी समस्या थी "सोशलाईज़िंग" की। फिल्में, टीवी, बाज़ार जैसे विकल्प नहीं थे। सड़कें नहीं थीं (आय.सी.एस. की परीक्षा में घुड़सवारी का टेस्ट भी पास करना ज़रूरी।होता था)। सर्विस कोड आम जनों से घुलने मिलने से भी रोकता था।
ऐसे में ज़िला मुख्यालयों में क्लबों का प्रचलन शुरू हुआ था। गिने चुने परिवार इकट्ठा होते, ब्रिज, रमी, बैडमिंटन आदि में शामें कट जाया करतीं। इच्छा हुई तो ड्रिंक्स और स्नैक्स भी जुड़ जाते थे। अंग्रेज़ों ने सभी जगह इस तरह के क्लब स्थापित किये थे।
यह पहला अवसर था जब रायपुर और दुर्ग, दोनों स्थानों पर भारतीय अधिकारी नियुक्त हुए थे। इन दो अधिकारियों का दुर्ग में जब भी मिलना होता तो क्लब की ज़रूरत सामने आती। दोनों को एक बात बहुत कष्ट देती थी। दुर्ग के क्लब में, इनके वहां पंहुचने से पहले तक, भारतीयों का प्रवेश मना था। हालांकि अब ये दोनों इलाके के मालिक थे और यह प्रतिबंध अपने मायने खो चुका था।
लेकिन यहाँ फिर एक बार आत्मसम्मान सामने आ गया। अंग्रेज़ रोकटोक करने के लिये मौजूद नहीं हैं इस बात का फायदा उठा कर क्लब का उपयोग करना इन दोनों अधिकारियों को गवारा नहीं था। दोनों अड़ गये। जाएंगे तो अपने क्लब में ही।
बस क्या था। दोनों ने खपरैल वाले एक छोटे से घर में (फोटो देखें) भारतीयों का अपना एक क्लब शुरू कर दिया। कुछ ही दिनों में पास की भूमि पर नये भवन का शिलान्यास कर दिया।
तारीख थी 4 जनवरी 1926.
और तब से दुर्ग में जटार क्लब ज़िले के अधिकारियों के क्लब के रूप में स्थापित है। कालांतर में खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह जी ने एक बिलियर्ड्स की टेबल दान में दे दी। स्विमिंग पूल बन गया। गैर अधिकारी भी अब यहाँ सदस्य बनते हैं। हालांकि क्लब के मुखिया ज़िला कलेक्टर ही होते हैं।
किन्तु काशीनाथ जटार की कहानी यहाँ खत्म नहीं होती। कुछ समय पहले (22 तथा 24 जुलाई 2020 को) मैंने दो हिस्सों में कश्मीर प्रिन्सेज़ नामक विमान की ऐतिहासिक दुर्घटना के बारे में लिखा था। बम विस्फोट के बाद यह विमान डूब कर समुद्र तल पर पंहुच गया था। पायलट का शव अनेक प्रयासों के बाद दुर्घटना के इक्कीसवें दिन मिला था। इतना समय इसलिए लगा क्योंकि पायलट की सीट झटके से टूटकर काॅकपिट के कोने में घुस गयी थी। पायलट का शरीर बेल्ट के साथ सीट से बंधा था। उन्होंने अंतिम समय तक अपनी सीट नहीं छोड़ी थी। उसूल से बंधे ये वीर पायलट थे उसूलों वाले श्रीराम जटार ने पौत्र और काशीनाथ के पुत्र दामोदर काशीनाथ जटार।
उत्तर काण्ड:
* काशीनाथ जटार एक सक्षम अधिकारी के रूप में सी.पी. एन्ड बरार राज्य में अनेक स्थानो में पदस्थ रहे। अकोला (महाराष्ट्र) में एक मोहल्ला उनके नाम से जटार पेठ कहलाता है। 1951 में उनका निधन हुआ। उसके बाद परिवार ने श्रीराम बाड़ा भी बेच दिया।
* आगे चलकर 1971 के भारत-पाक युद्ध में कैप्टन दामोदर जटार जैसा उदाहरण कैप्टन महेन्द्र नाथ मुल्ला ने पेश किया। पाकिस्तानी नौसेना ने भारतीय INS खुखरी को नुकसान पंहुचाया था। जहाज डूबने लगा तो कप्तान ने मौत को गले लगा लिया किन्तु जहाज छोड़ कर भागे नहीं। मरणोपरांत कैप्टन जटार को अशोक चक्र (और आगे चल कर कैप्टन मुल्ला को महावीर चक्र) प्रदान किया गया था।
-डॉ परिवेश मिश्रा,
गिरिविलास पैलेस,
सारंगढ़
राजीव
जेईई में पहले दिन की तय परीक्षा कल संपन्न हुई। छत्तीसगढ़ में करीब 50 प्रतिशत बच्चों ने परीक्षा केंद्रों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और परीक्षा दी। पूरे देश में लगभग यही स्थिति है। पंजीकृत लगभग आधे परीक्षार्थियों ने परीक्षा का बहिष्कार कर दिया।
कोरोना संक्रमण के डर से परीक्षार्थियों ने सार्वजनिक वाहन का उपयोग नहीं किया जिसका इंतजाम राज्य सरकार ने किया था और परीक्षा केंद्र तक पहुँचने के लिए परीक्षार्थियों ने अपने साधनों का ही उपयोग किया। जैसे कि आशंका थी दूरदराज में निवासरत परीक्षा में पंजीकृत और प्रवेश पत्र डाउनलोड कर चुके बच्चों ने इसमें अपनी भागीदारी नहीं दी है।
शिक्षा मंत्री और सरकार की तरफ से बोलने वाले लोगों की सबसे बड़ी दलील कि पहले ही दिन धज्जियां उड़ गई। परीक्षा लेने को लेकर हिमायती लोगों की यही दलील थी कि प्रवेश पत्र डाउनलोड किए जा चुके इसलिए ये मानना चाहिए कि बच्चे परीक्षा देने के इच्छुक हंै। अगर परीक्षार्थियों ने प्रवेश पत्र डाउनलोड किए थे तो परीक्षा देने क्यों नहीं है आए?
सरकार और परीक्षा लेने की हिमायती लोगों की तमाम दलीलें कि परीक्षा केंद्र बढ़ा दिए गए हैं, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जाएगा, सरकार सब तरह से मदद करेगी को परीक्षा देने वाले बच्चों ने ख़ारिज कर दिया।
ऐसे ही तमाम कुतर्क कि यह साल खराब हो जाएगा, अगर जेईई एक साल टल गया तो अगले साल दस लाख नए बच्चे से आपकी प्रतिद्वंदिता होगी, वो ही बच्चे विरोध कर रहे हैं जो परीक्षा की तैयारी नहीं कर पाए हैं, एक साल परीक्षा टालने से कोई सीटें डबल नहीं हो जाएंगी और आपके कैरियर बर्बाद हो जाएंगे को अनुपस्थित बच्चों ने नकार दिया ।
परीक्षा बहिष्कार के पीछे की सोच सरकार को समझनी होगी और छूट गए बच्चों के लिए कोई नई तारीख पर परीक्षा की तैयारी करनी होगी। इसके अलावा नीट की परीक्षा जो इसी महीने की 13 तारीख को है जिसमें छात्राओं की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है उसको सरकार को तुरंत अगली तारीख के लिए बढ़ा देना चाहिए जब यह संक्रमण की ऐसी स्थिति ना हो या कम हो जाए।
जेईई में शामिल परीक्षार्थियों का कोरोना से कितना बचाव हुआ है यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन सरकार ने बच्चों की परीक्षा लेकर बहुत ही गलत, अलोकतांत्रिक और अलोकप्रिय फैसला लिया है। यह सोशल मीडिया तथा अन्य अभिव्यक्ति व्यक्त करने वाले स्थानों पर देखा जा सकता है। सरकार को परीक्षा लेने की जिद छोडक़र कोरोना संक्रमण रोकने पर ध्यान लगाना चाहिए। परीक्षा देने वाले बच्चों ने यह शेर साझा किया है-
इस जुल्म के दौर में जुबा खोलेगा कौन?
हम भी चुप रहेंगे तो बोलेगा कौन।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की अर्थव्यवस्था अब अनर्थ-व्यवस्था बनती जा रही है। इससे बड़ा अनर्थ क्या होगा कि सारी दुनिया में सबसे ज्यादा गिरावट भारत की अर्थव्यवस्था में हुई है। कोरोना की महामारी से दुनिया के महाशक्ति राष्ट्रों के भी होश ठिकाने लगा दिए हैं लेकिन उनके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10-15 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट नहीं आई है।
ब्रिटेन की गिरावट 20 प्रतिशत है लेकिन हमने ब्रिटेन को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। अप्रैल से जून की तिमाही में हमारी गिरावट 23.9 प्रतिशत हो गई है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान ने काफी खोज-बीन के बाद जारी किया है लेकिन जो छोटे-मोटे करोड़ों काम-धंधे गांवों में बंद हो गए हैं, लगभग 10 करोड़ लोग घर बैठ गए हैं और 2 करोड़ नौकरियां चली गई हैं, यदि इन सबको भी जोड़ लिया जाए तो इस संस्थान का आंकड़ा और भी भयावह हो सकता है। गिरावट की यह शुरुआत है। आगे-आगे देखिए कि होता है क्या ?
यह भी हो सकता है कि अन्य देशों के मुकाबले हमारी अर्थ-व्यवस्था तेज रफ्तार पकड़ ले और कुछ महीनों में ही गाड़ी पटरी पर लौट आए। अभी तो इतनी गिरावट है, जितनी कि पिछले 40 साल में कभी नहीं हुई। अर्थसंकट के घने बादल घिर रहे हैं।
संतोष का विषय है कि खेती में इसी अवधि में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यानी भारत को अपनी भूख मिटाने के लिए किसी के आगे हाथ फैलाने की जरुरत नहीं होगी। लेकिन आम लोगों में पैसों की किल्लत इस कदर हो गई है कि उनकी खरीददारी 54.3 प्रतिशत गिर गई है याने लोग ‘आधी और रुखी भली, पूरी सो संताप’ से ही काम चला रहे हैं। बाजार खुल गए हैं लेकिन ग्राहक कहां हैं ? कोरोना के मामले बढ़ते जा रहे हैं। अब वह गांवों में भी फैलने लगा है। डर के मारे लोग घरों में दुबके हुए हैं। बड़े-बड़े कारखाने फिर खुल रहे हैं लेकिन उनकी बनाई चीजें खरीदेगा कौन ? राज्य सरकारें अपनी जीएसटी राशि के लिए चीख रही हैं। केंद्र सरकार ने देश के वंचितों और गरीबों को कुछ राहत जरुर दी है लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। इस वक्त जरुरत तो यह है कि लोगों के हाथ में कुछ पैसा पहुंचे ताकि देश में खरीददारी बढ़े। संकट का यह काफी खतरनाक समय है। सिर्फ लफ्फाजी से काम नहीं चलेगा। सरकार को जो करना है, वह तो वह करेगी ही लेकिन देश में 15-20 करोड़ लोग ऐसे जरुर हैं, जो अपने करोड़ों साथी नागरिकों की मदद कर सकते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- Gayatri Yadav
“ये क्या कर दिया है बालों का, यही एक लड़की है, रीमा, पूनम, प्रीति को देखिए, लड़की होने का मतलब ही है, लंबे बाल, बालों से ही लड़की की सुंदरता है, इसने बाल ही काट दिए। लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए, अब मत काटने देना,दिल्ली जाकर बिगड़ गई है।”
छुट्टियों में घर आने पर मुझे अपनी चाची की तरफ से सबसे पहले यही सुनने को मिला। असल में, इस देश की मुख्यधारा की वैचारिकी में लड़कियों के लिए लंबे बाल उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितना की गोरा रंग। यहां का समाज लड़कियों के गोरे रंग के साथ लंबे बालों को लेकर भी ‘ऑब्सेस्ड’ है। लड़की होने के जितने पैमाने तय किए गए हैं, उसमें शरीर और बाहरी संरचना की श्रेणी में लंबे बालों का विशेष महत्व है। हमेशा से समाज महिलाओं को निर्देशित करता आ रहा है कि उन्हें लंबे बाल रखने चाहिए। लंबे बाल ही सुंदरता के प्रतीक हैं।
महिला के शरीर पर नियंत्रण रखने और उसे अपने हिसाब से संचालित करने की समाज की इस सोच के केंद्र में पितृसत्ता ही निहित है। लंबे बालों को ही सुंदरता और स्त्रीत्व की परिभाषा से जोड़ दिया गया है और यह सोच न केवल पुरुषों बल्कि स्त्रियों के ज़हन में भी बैठ गई है। इसीलिए घर की महिलाएं शुरू से ही खींचकर लड़कियों के बाल बांधने लगती हैं ताकि 17-18 साल की उम्र से पहले ही उनके बाल लंबे और घने हो जाएं। वहीं लड़कों को छोटे और समय-समय पर बाल कटवाते रहने का निर्देश दिया जाता है। लड़कों के बाल थोड़े से भी बड़े हो जाएं तो उनके पौरुष पर सवाल खड़े करते हुए ‘लड़की हो क्या’ जैसे सवाल पूछे जाते हैं और कई बार तो ट्रांस समुदाय से जोड़कर मज़ाक बना दिया जाता है। लड़का ट्रांस समुदाय से खुद को जोड़े जाने को अपनी मर्दानगी के ख़िलाफ़ चुनौती की तरह महसूस करता है और इस तरह बाल बढ़ाना उसकी आदत से ख़त्म हो जाता है।
पुरुषों का समाज और उसकी सुंदरता की परिभाषा
प्राचीन साम्यवादी दौर में महिलाओं और पुरुषों में कोई अंतर नहीं था। दोनों ही अपने लिए शिकार करते और भोजन जुटाते थे। स्त्री का अपने शरीर पर नियंत्रण था और एवोल्यूशन (क्रमागत विकास) की प्रक्रिया में मानव का विकास जिस तरह हो रहा था, उसमें स्त्री पुरूष भेद नहीं था। सामाजिक समझ विकसित होने पर धीरे-धीरे स्त्रियों को घरों तक सीमित कर दिया गया, जिससे बाहरी क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप खत्म हो गया। शरीर का उस प्रकार से इस्तेमाल न होने से शारीरिक शक्ति क्षीण हुई, जिससे महिला के कमज़ोर होने की अवधारणा पेश की गई और पुरुष उसका रक्षक बन बैठा। महिला उसकी संपत्ति बन गई और इस तरह से उसने उसके संपूर्ण शरीर पर नियंत्रण पा लिया। शरीर पर नियंत्रण के बाद औरतों की सुंदरता की परिभाषा गढ़ी गई। भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था और बाद में उपनिवेशवाद ने रंग के आधार पर भेदभाव किया। आज भी रंग को लेकर भारतीय समाज सहज नहीं हो पाया है। इसी तरह, लंबे बाल को लेकर समाज में कोई विशेष चर्चा भी नहीं होती, एक सर्वमान्य बात की तरह यह सिद्ध कर दिया गया है कि औरत वह है, जिसके काले, लंबे घने बाल हो।
समाज लड़कियों के गोरे रंग के साथ लंबे बालों को लेकर भी ‘ऑब्सेस्ड’ है। लड़की होने के जितने पैमाने तय किए गए हैं, उसमें शरीर और बाहरी संरचना की श्रेणी में लंबे बालों का विशेष महत्व है।
मीडिया की भूमिका
मीडिया आम लोगों की चेतना निर्धारित करता है। किसी मुद्दे पर लोग कैसे सोचेंगे और किसी भी स्थिति पर कैसे प्रतिक्रिया करेंगे, यह आजकल मीडिया द्वारा निर्धारित किया जाता है। भारत में मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ लिखे गए जिन्होंने समाज की वैचारिकी तय की। आज के दौर में सिनेमा, टीवी से लेकर विज्ञापनों ने महिला शरीर और सुंदरता को लेकर रूढ़ीवादी और पितृसत्तात्मक पैमाने गढ़े हैं जिसका सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है। फिल्मों में नायिकाओं के बाल लंबे ही होते हैं। कोई भी रोमांटिक सीन नायिका के सीधे-लंबे, रेश्मी बालों के उड़े बिना पूरा नहीं होता। गानों में काले लंबे बालों की कितनी की उपमाएं दी जाती हैं। शायद ही किसी फ़िल्म की मुख्य मायिका के बाल छोटे हो। 90 के दौर की फिल्मों में अक़्सर ही उन महिलाओं के छोटे बाल होते थे, जो क्रूर और घमंडी होती थी। इस तरह से यह निर्धारित करने का प्रयास किया गया कि छोटे बालों वाली महिलाएं पतिव्रता नहीं होती और कोमलता, जो कि स्त्री का ‘अनिवार्य’ गुण है, उनमें नहीं पाया जाता। इसलिए छोटे बालों वाली स्त्री को यह संस्कारी समाज खारिज़ करता है। शैम्पू और कंडीशनर के विज्ञापन लंबे घने बालों के राग अलापते हुए ही चल रहे हैं। टीवी में आदर्श बहुओं के लंबे घने काले बाल होते हैं, जिनपर हमेशा पल्लू से ढके रहने का अतिरिक्त सांस्कारिक दबाव होता है। इस तरह से, मीडिया घर-घर तक लंबे बाल और सुंदरता के मेल को पहुंचाते हुए पूंजीवाद और पितृसत्ता दोनों को पोषित कर रहा है।
लंबे बाल, जिन्हें बांधा जाना चाहिए
भारतीय समाज विरोधाभास से भरा हुआ है। यहां लंबे बाल रखने चाहिए, यह तो निर्देशित किया जाता है, लेकिन लंबे बालों को बांधना भी अनिवार्य है। खुले बालों के साथ घूमती लड़की के चरित्र पर सवाल किया जाता है। ग्रन्थों के माध्यम से भी घरेलूपन होने की परिभाषा बालों के आधार पर तय की गई है। पार्वती और गौरी जिनके बाल गूंथे हुए और सुलझे हों, वे स्त्रीत्व और घरेलूपन से जोड़कर देखी जाती है। वहीं काली और दुर्गा के खुले, उलझे केश उनके जंगलीपन को दर्शाते हैं। स्त्री केवल अपने पति और बच्चे की रक्षा के लिए काली और दुर्गा बनती है, यानी वह हमेशा स्वीकार किया जाने वाला स्वरूप नहीं है। इसीलिए शुरू से ही बाल बांधने की ट्रेनिंग दी जाती है। स्कूल भी जहां लड़कियों के लिए चोटी गूंथकर आने का नियम बनाते हैं, वहीं लड़कों को छोटे बाल करके आना अनिवार्य होता है। कॉर्यस्थलों पर महिलाओं को बाल बांधकर परिष्कृत तरीके से आने का नियम बनाते हैं। यह स्त्री की उन्मुक्तता को सीमित करना हुआ। समाज यह तय करता है कि एक औरत कब कैसे रहेगी और उसके रहने का कौन सा तरीका ‘परिष्कृत और सिविक’ है।
हालांकि धीरे-धीरे औरतें अपनी ‘चॉइस’ के आधार पर निर्णय ले रही हैं और समाज के पैमानों को नकार रही हैं। केवल किसी ख़ास कारण से नहीं बल्कि अपनी इच्छा से महिलाएं छोटे बाल रख रही हैं। अब उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि ‘उनसे कोई शादी करेगा या नहीं’ क्योंकि उनका उद्देश्य शादी करना नहीं है और ‘सेटल’ होने का अर्थ शादी करने से आगे बढ़ चुका है। औरतें ख़ुद अपने सेटल होने की परिभाषा तय कर रही हैं। उन्होंने सुंदर होने की रूढ़ीवादि परिभाषाओं को त्यागकर अपनी नई अवधारणाएं गढ़नी शुरू कर दी हैं। अब काले-घने-लंबे बालों की अवधारणा ‘कर्ल्स आर ब्यूटीफुल’ जैसे ट्रेंड से टूट रही है। लड़कियां पारंपरिक रंगों को छोड़कर अब लाल,नीले रंगों से बालों को डाई कर रही हैं। अपने शरीर पर हक़ जताने का यह उनका तरीका है। ‘टॉमबॉय’ लुक की अवधारणा को ध्वस्त करते हुए लड़कियां यह स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं कि छोटे या बड़े बाल लड़की या लड़की होने की पहचान नहीं है, यानी बाल ‘जेंडर न्यूट्रल’ हैं। छोटे बाल वाली लड़की ‘टॉमबॉय’ नहीं है, न हैं लंबे बालों वाला लड़का ‘गर्ली’। यह बदलाव धीरे-धीरे ही सही भारतीय समाज में आ रहा है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
- गोल्डी एम जार्ज
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मूलनिवासी नेतृत्व और भारतीय मानवशास्त्रियों के विरोध के मद्देनजर, आईयूएईएस ने कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज को वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस की मेजबानी करने के अधिकार से वंचित कर दिया है। परन्तु इससे यह मुद्दा समाप्त नहीं हो जाता कि केआईएसएस एक फैक्ट्री स्कूल है, जो बड़ी खनन कम्पनियों के धन से संचालित होता है। गोल्डी एम. जार्ज की खबर
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड एथनोलॉजिकल साइंसेज (आईयूएईएस) ने घोषणा की है कि वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी (डब्ल्यूसीए) 2023 की मेजबानी में भुवनेश्वर, ओडिशा स्थित कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस) की कोई भूमिका नहीं होगी। आईयूएईएस ने बीते 16 अगस्त, 2020 को यह सूचना संबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दीपक कुमार बेहरा को एक पत्र के ज़रिए दी। इसके पहले, चार भारतीय संस्थाओं को डब्ल्यूसीए का आयोजन और उसकी मेजबानी करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। ये थे : उत्कल विश्वविद्यालय (भुवनेश्वर, ओडिशा), संबलपुर विश्वविद्यालय (संबलपुर, ओडिशा), इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन (दिल्ली) और कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस)। कांग्रेस का आयोजन केआईएसएस के कैंपस में किया जाना था।
आदिवासियों के अधिकारों से सरोकार रखने वाले करीब दो सौ से अधिक नेताओं, शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनांदोलनों के प्रतिनिधियों और विद्यार्थी संगठनों आदि ने केआईएसएस को डब्ल्यूसीए, 2023 की मेजबानी सौंपे जाने का विरोध करते हुए एक अनुरोध पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस पत्र को आईयूएईएस के अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों क्रमशः सौमेंद्र मोहन पटनायक और दीपक कुमार बेहरा को भेजा गया था। हस्ताक्षरकर्ताओं ने केआईएसएस पर गंभीर आरोप लगाते हुए इन तीनों संस्था प्रमुखों से अपील की थी कि वे इस संस्थान से कोई लेना-देना न रखें।
प्रोफेसर डी. के. बेहरा को संबोधित पत्र में आईयूएईएस ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा, “आगामी वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस के आयोजन में केआईएसएस की भूमिका केवल अधोसंरचना, साजो-सामान और अन्य संसाधन उपलब्ध करवाने तक सीमित थी। आयोजन के अकादमिक और मानवशास्त्रीय आयामों के लिए शेष तीन संस्थाएं ज़िम्मेदार थीं। परन्तु, आयोजन में केआईएसएस की भागीदारी को लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विवाद बढ़ता ही जा रहा था। इस मसले पर भारत और दुनिया भर के मानवशास्त्रियों द्वारा व्यक्त विचारों को मद्देनज़र रखते हुए आईयूएईएस की कार्यकारी समिति ने विभिन्न स्तरों पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया है कि 2023 की वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस के आयोजन में वह केआईएसएस से किसी प्रकार का सहयोग नहीं लेगी।”
ध्यातव्य है कि यह वृहद आयोजन 15 से 19 जनवरी 2023 तक होगा और इसमें 150 देशों के 10 हजार से ज्यादा प्रतिभागियों की उपस्थिति अपेक्षित है। आईयूएईएस, दुनिया में मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के अध्येताओं और शोधार्थियों की सबसे बड़ी संस्था है। इस संस्था द्वारा हर पांच वर्ष में आयोजित की जाने वाली कांग्रेस, मानव जाति के वैज्ञानिक अध्ययन में रत विद्वतजनों का सबसे पुराना जमावड़ा है और 45 साल बाद भारत में होने जा रहा है।
आदिवासी और मानवशास्त्री केआईएसएस के विरोध में क्यों?
भारत के मूलनिवासी ‘फैक्ट्री स्कूलिंग’ करने वालीं ऐसे संस्थाओं का विरोध करते आ रहे हैं जो आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने की बजाय उन्हें उनकी जड़ों से, उनके इतिहास और संस्कृति से दूर करती हैं और आदिवासियों के जीने के तरीके को पिछड़ा, आदिम, असभ्य और अशिष्ट बताती हैं। ओडिशा के मंकिर्दिया नामक आदिम आदिवासी समुदाय के बारे में केआईएसएस के संस्थापक व सांसद अच्युत सामंत ने कहा था, “…वे केवल वन उत्पादों से अपना पेट भरते हैं और पत्तों से अपना शरीर ढंकते हैं। ओडिशा में 13 आदिम आदिवासी समुदाय रहते हैं। वे बंदरों की तरह पेड़ों की डालियों पर रहते और सोते हैं। उन्हें मंकिर्दिया – अर्थात बन्दर – कहा जाता है…कई तरह के आदिम समुदाय हैं…वे कुछ समझते ही नहीं हैं।”
केआईएसएस, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित एक आवासीय स्कूल है जो केवल आदिवासी बच्चों के लिए है। इसके संस्थापक अच्युत सामंत, कंधमाल से बीजू जनता दल के सांसद हैं। वर्तमान में केआईएसएस में ओडिशा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मिजोरम, असम और अन्य राज्यों के विभिन्न आदिवासी समुदायों के करीब 30,000 लड़के-लड़कियां रहते हैं। केआईएसएस का इस दावे, कि वह ‘दुनिया का पहला आदिवासी विश्वविद्यालय’ है, से आदिवासी अध्येता कतई सहमत नहीं हैं।
केआईएसएस में प्रार्थना सभा में भाग लेते और टूथ ब्रश का इस्तेमाल करने का अभ्यास करते विद्यार्थी
केआईएसएस जैसी संस्थाएं फैक्ट्री स्कूलिंग के ज़रिये मूलनिवासियों की संस्कृति और परम्पराओं को संरक्षित रखने के मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के प्रयासों को कमज़ोर कर रहे हैं। ये संस्थाएं, दरअसल, आदिवासी बच्चों पर प्रयोग करने वाली प्रयोगशालाएं हैं। आदिवासी अध्येताओं और मानवशास्त्रियों का तर्क है कि केआईएसएस में बच्चों को उड़िया बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जबकि उनमें से अधिकांश की मातृभाषा यह नहीं है। आदिवासी त्योहारों को हतोत्साहित किया जाता है और शायद ही कभी मनाया जाता है। वहां बच्चे सरस्वती और गणेश की पूजा करते हैं और इस प्रकार उच्च जातियों के हिन्दुओं की प्रथाओं और परम्पराओं के प्रभाव में आते हैं।
मानवाधिकार संगठन सर्वाइवल इंटरनेशनल के अनुसार, “पूरी दुनिया में करीब बीस लाख आदिवासी बच्चों को फैक्ट्री स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है, जहां उनकी देशज पहचान धूमिल की जाती है और उनके दिमाग में ऐसी चीज़ें भरी जातीं हैं जिनसे वे वर्चस्वशाली समाज के सांचे में ढल सकें। ये स्कूल बच्चों को उनके घरों, परिवारों, भाषा और संस्कृति से काट देते हैं और वहां उनका भावनात्मक, शारीरिक और यौन शोषण भी किया जाता है। उदाहरण के लिए, अकेले भारत के महाराष्ट्र राज्य में 2001 से 2016 के बीच, आवासीय स्कूलों में अध्यनरत लगभग 1,500 आदिवासी बच्चों की मौत हो गयी, जिनमें से 30 ने आत्महत्या की।” आदिवासी और मूलनिवासी अध्येताओं का कहना है कि शिक्षा पर समुदाय का नियंत्रण होना चाहिए और शिक्षा का लोगों की धरती, भाषा और संस्कृति से जुड़ाव होना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे मूलनिवासी समूहों में उनकी संस्कृति के प्रति अपराधबोध नहीं बल्कि गर्व का भाव उत्पन्न हो।
आईयूएईएस का स्पष्टीकरण
आईयूएईएस अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और महासचिव नोएल बी. सलाज़ार द्वारा हस्ताक्षरित पत्र में स्पष्ट किया गया है कि “यह निर्णय संबंधित संस्था (केआईएसएस) की कार्यपद्धति के प्रति किसी तरह का पूर्वाग्रह रखे बिना लिया गया है। परन्तु आईयूएईएस अपनी स्थापना के लक्ष्य – अर्थात राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और आईयूएईएस और वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजिकल यूनियन (डब्ल्यूएयू) के अन्दर भी मानवशास्त्रियों को एक मंच पर लाने – के प्रति समर्पित बना रहेगा। आईयूएईएस की कार्यकारी समिति का यह निर्णय इस सिद्धांत पर आधारित है कि डब्ल्यूएसी के आयोजन जैसे महत्वपूर्ण मसले में सभी एकमत होने चाहिए।”
आईयूएईएस ने कहा कि वह अगले डब्ल्यूएसी का आयोजन भारत में करने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है और इसलिए उसने भारत और दुनिया के मानवशास्त्रियों और उनके संगठनों और संस्थाओं से अनुरोध किया है कि वे आयोजन के लिए आवश्यक धन और अन्य संसाधन जुटाने में मदद करें। आईयूएईएस ने डब्ल्यूएसी 2023 की मेजबानी करने वाली शेष तीन संस्थाओं – इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों से यह अपील की है कि वे आयोजन की सफलता के लिए काम करते रहें।
आदिवासी बुद्धिजीवियों और नेताओं ने आईयूएईएस के निर्णय का किया स्वागत
आदिवासी बुद्धिजीवियों, अध्येताओं और नेताओं ने आईयूएईएस द्वारा आयोजन से केआईएसएस जैसे फैक्ट्री स्कूल को अलग करने के निर्णय का स्वागत किया है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के गुवाहाटी कैंपस के पूर्व निदेशक वर्जीनियस खाखा, जो सन 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित आदिवासी मामलों पर उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष भी थे, ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा, “इससे सामंत का अपने आप को आदिवासियों का उद्धारक सिद्ध करने के प्रयास की हवा निकल जाएगी। असल में वे मूलनिवासियों के संस्कृति और परम्पराओं का दानवीकरण कर रहे हैं। आज हम विभिन्न समुदायों के बीच समानता की बात करते हैं। विविधता हमारे समकालीन समाज की पहचान है। हमें सभी की संस्कृतियों और परम्पराओं का आदर करने के सचेत प्रयास करने होंगे। जब आप अपनी संस्कृति और परंपरा का सम्मान नहीं करते तो दूसरे आपको नीचा दिखाते हैं, वे आपको ऐसा व्यक्ति बताते हैं, जिसकी कोई कीमत ही नहीं है। फिर, केआईएसएस जैसे फैक्ट्री स्कूलों के साथ अन्य समस्याएं भी हैं, जैसे वहां कितने आदिवासी शिक्षक हैं।”
वर्जीनियस खाखा (बाएं) और छोटूभाई वसावा
मुद्दे और भी हैं। आदिवासी महिला अधिकार कार्यकर्ता एलिन लकरा पूछती हैं कि आखिर इस तरह का आयोजन एक निजी संस्थान में क्यों होन चाहिए – वह भी ऐसे संसथान में जो आदिवासियों को उनकी संस्कृति से विलग करने का प्रयास कर रहा है। लकरा कहतीं हैं, “आखिर क्या कारण है कि आईयूएईएस ने अमरकंटक जैसे आदिवासी विश्वविद्यालयों से संपर्क नहीं किया? जो संस्थान आदिवासियों को गैर-आदिवासी बनाने में रत हैं उनमें किसी तरह की मानवशास्त्रीय गतिविधियां नहीं होनी चाहिए। वर्ना हम इतिहास के औपनिवेशिक दौर में वापस चले जाएंगे।
अन्य आदिवासी नेताओं को आदिवासियों के लिए फैक्ट्री स्कूल चलने वालों के इरादों पर संदेह है। भील समुदाय के एक प्रमुख नेता छोटूभाई वसावा, जो भारतीय ट्राइबल पार्टी के संस्थापक और गुजरात के झागडिया से विधायक हैं, कहते हैं, “वर्चस्वशाली समुदायों के लोग आदिवासियों को धोखा देने के लिए सामाजिक संगठन बनाते हैं। वे अपने राजनैतिक एजेंडा को हासिल करने के लिए उनका बलि के बकरों की तरह इस्तेमाल करते हैं। अगर अच्युत सामंत जैसे लोग समाजसेवा करना चाहते हैं तो वे राजनीति में क्यों आते हैं? इसका अर्थ यही है कि उनका असली एजेंडा आदिवासी अस्मिता को हमेशा के लिए समाप्त कर देना है।”
यहां यह स्मरण दिलाना ज़रूरी है कि ओडिशा सरकार जिन उद्योगों और खनन परियोजनाओं की स्थापना के लिए एमओयू कर रही है उनमें से अधिकांश आदिवासियों के भूमि पर स्थापित होंगी। इस सन्दर्भ में वर्जीनियस खाखा पूछते हैं, “सरकार एक ओर इस तरह के एमओयू पर हस्ताक्षर कर रही है तो दूसरी ओर फैक्ट्री स्कूलों को प्रोत्साहन दे रही है। ओडिशा के आदिवासी इलाके, खनिज सम्पदा से भरपूर हैं परन्तु वहां के निवासी गरीब हैं। एक तरह से यह 17वीं और 18वीं सदी के औपनिवेशिक शासन की वापसी है। अंततः वे हमें बताएंगे कि जो लोग आदिवासी संस्कृति में रचे-बसे हैं वे आदिम, बर्बर, जंगली और असभ्य हैं। केआईएसएस से मेजबानी का अधिकार वापस लेना बहिष्करण की राजनीति को नकारने और विविधता की अवधारणा को मज़बूत करने के दिशा में कदम है।”
आदिवासी मामलों का मंत्रालय, आदिवासी उपयोजना के अंतर्गत आदिवासियों की शिक्षा के लिए धन उपलब्ध करवाता है। इस धन से उपयोजना के नियमों के अनुरूप आदिवासी इलाकों में स्कूल व अन्य शैक्षणिक संस्थान स्थापित कए जाने चाहिए। निजी संस्थाओं द्वारा शिक्षा प्रदान करने के नाम पर छल-कपट किये जाने का विरोध करते हुए वसावा कहते हैं, “बच्चों को अपने अभिवावकों के साथ रहते हुए और बिना अपनी संस्कृति और पहचान खोये शिक्षा दी जानी चाहिए। केआईएसएस जैसे संस्थान एक तरह से बच्चों को कैदी बना लेते हैं। उन्हें उनके त्योहारों और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मौकों पर उनके घर नहीं जाने दिया जाता। हम आईयूएईएस के निर्णय का स्वागत करते हैं और हमारे अनुरोध पर विचार करने के लिए उसे धन्यवाद देते हैं।”
अस्मिता को मिटाने के प्रयास
परन्तु इस निर्णय के बाद भी फैक्ट्री स्कूलों की समस्या बनी रहेगी। जो वुडमैन अपने एक अध्ययन, जिसका शीर्षक है, “जो हमारे बच्चों की शिक्षा को नियंत्रित करता है वही हमारे भविष्य का नियंता होता है,” में कहते हैं कि लाखों मूलनिवासी बच्चों को स्कूलों में उनकी मातृभाषा में बात करने से या तो रोका जाता है या हतोत्साहित किया जाता है। इससे देशज लोगों की भाषाओं का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाता है। किसी भी भाषा के लुप्त होने की शुरुआत तब होती है जब बच्चे वह भाषा बोलना बंद कर देते है जो उनके माता-पिता बोलते हैं। यह एक बहुत बड़ी आपदा है क्योंकि किसी भी समुदाय की भाषा, उसकी संस्कृति, उसके जीवन और उसकी ऐतिहासिक विरासत को समझने के लिए आवश्यक होती है। फैक्ट्री स्कूल आदिवासी और अन्य मूलनिवासी बच्चों – जिनकी अपनी भाषा और संस्कृति है – को भविष्य के आज्ञाकारी श्रमिक बना सकती है। वुडमैन के अनुसार राज्य, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा फैक्ट्री स्कूल है, उन लोगों को, जिन पर कर की राशि खर्च होती है, को करदाता, और देयताओं को आस्तियां बनाता है।”
फैक्ट्री स्कूलों के प्रायोजक अक्सर बड़ी कम्पनियां और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वाले औद्योगिक समूह होते हैं। ये उद्योग आदिवासियों की धरती, उनके संसाधनों और उनके श्रम को अपने लाभ के लिए प्रयुक्त करना चाहते हैं। फैक्ट्री स्कूल इन उद्देश्यों की पूर्ति की दीर्घकालिक योजना का हिस्सा हैं। केआईएसएस, जिसे वेदांता और अदानी सहित कई खनन कम्पनियां धन उपलब्ध करवातीं हैं, भी इसका अपवाद नहीं है। ये कम्पनियां ओडिशा के आदिवासियों की ज़मीन पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। वुडमैन कहते हैं, “भारत और मेक्सिको में प्राकृतिक संसाधनों को चूसने वाले उद्योग, ऐसे स्कूलों को प्रायोजित करते हैं जो बच्चों को खनन को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और उनके अपनी ज़मीनों से जुड़ाव को ‘आदिम’ बताते हैं। राज्य इन स्कूलों का उपयोग मूलनिवासियों के मन में राष्ट्रवाद का भाव भरने और उनके स्वतंत्रता आंदोलनों को कुचलने के लिए करते हैं। इससे दीर्घावधि में, अंततः, मूलनिवासियों के अलग पहचान समाप्त हो जाती है।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)(forwordpress)
फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्डो ने पैग़ंबर मोहम्मद के उन कार्टूनों को फिर से प्रकाशित किया है जिनके कारण साल 2015 में वह ख़तरनाक चरमपंथी हमले का निशाना बनी थी.
इन कार्टूनों को उस समय पुनर्प्रकाशित किया गया है जब एक दिन बाद ही 14 लोगों पर सात जनवरी, 2015 को शार्ली एब्डो के दफ़्तर पर हमला करने वालों की मदद करने के आरोप में मुक़दमा शुरू होने वाला है.
इस हमले में पत्रिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्टों समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी. कुछ दिन बाद पेरिस में इसी सी जुड़े एक अन्य हमले में पांच लोगों की जान चली गई थी.
इन हमलों के बाद फ्रांस में चरमपंथी हमलों का सिलसिला शुरू हो गया था.
पत्रिका के ताज़ा संस्करण के कवर पेज पर पैग़ंबर मोहम्मद के वे 12 कार्टून छापे गए हैं, जिन्हें शार्ली एब्डो में प्रकाशित होने से पहले डेनमार्क के एक अख़बार ने छापा था.

क्या कहती है पत्रिका
अपने संपादकीय में पत्रिका ने लिखा है कि 2015 के हमले के बाद से ही उससे कहा जाता रहा है कि वह पैग़ंबर पर व्यंग्यचित्र छापना जारी रखे.
संपादकीय में लिखा गया है, "हमने ऐसा करने से हमेशा इनकार किया. इसलिए नहीं कि इसपर प्रतिबंध था. क़ानून हमें ऐसा करने की इजाज़त देता है. मगर ऐसा करने के लिए कोई अच्छी वजह होनी चाहिए थी. ऐसी वजह जिसका कोई अर्थ हो और जिससे एक बहस पैदा हो."
"इन कार्टूनों को जनवरी 2015 के हमलों पर सुनवाई शुरू होने वाले हफ़्ते में छापना हमें ज़रूरी लगा."

मुक़दमे में क्या होने वाला है
14 लोगों पर शार्ली एब्डो के पेरिस वाले दफ़्तरों पर हमला करने वाले लोगों के लिए हथियार जुटाने और उनकी मदद करने के अलावा बाद में यहूदी सुपरमार्केट और एक पुलिसकर्मी पर हमला करने में मदद का आरोप लगा है.
तीन लोगों पर उनकी ग़ैरमौजूदगी में मुक़दमा चल रहा है क्योंकि माना जा रहा है कि वे उत्तरी सीरिया या इराक़ भाग गए हैं.
फ्रांस के प्रसारक आरएफ़आई के मुताबिक़, 200 याचिकाकर्ता और हमले में बचे लोग इस मुक़दमे के दौरान गवाही दे सकते हैं.
इस मुक़दमे को मार्च में शुरू होना था मगर कोरोना महामारी के कारण इसे टाल दिया गया था. माना जा रहा है कि सुनवाई नवंबर तक चलेगी.
फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्डो ने फिर छापे पैग़ंबर मोहम्मद पर विवादित कार्टून
फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्डो ने पैग़ंबर मोहम्मद के उन कार्टूनों को फिर से प्रकाशित किया है जिनके कारण साल 2015 में वह ख़तरनाक चरमपंथी हमले का निशाना बनी थी.
इन कार्टूनों को उस समय पुनर्प्रकाशित किया गया है जब एक दिन बाद ही 14 लोगों पर सात जनवरी, 2015 को शार्ली एब्डो के दफ़्तर पर हमला करने वालों की मदद करने के आरोप में मुक़दमा शुरू होने वाला है.
इस हमले में पत्रिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्टों समेत 12 लोगों की मौत हो गई थी. कुछ दिन बाद पेरिस में इसी सी जुड़े एक अन्य हमले में पांच लोगों की जान चली गई थी.
इन हमलों के बाद फ्रांस में चरमपंथी हमलों का सिलसिला शुरू हो गया था.
पत्रिका के ताज़ा संस्करण के कवर पेज पर पैग़ंबर मोहम्मद के वे 12 कार्टून छापे गए हैं, जिन्हें शार्ली एब्डो में प्रकाशित होने से पहले डेनमार्क के एक अख़बार ने छापा था.

पाकिस्तान ने किया विरोध
पैग़ंबर के कार्टून छापने को लेकर पाकिस्तान ने शार्ली एब्डो की निंदा की है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से इस संबंध में दो ट्वीट किए गए हैं. इनमें कहा गया है, "फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्डो द्वारा पैग़ंबर मोहम्मद के बेहद आपत्तिजनक व्यंग्यचित्र फिर से छापने के फ़ैसले की पाकिस्तान कड़ी निंदा करता है."

आगे लिखा गया है, "अरबों मुसलमानों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर किए गए इस काम को प्रेस की आज़ादी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सही नहीं ठहराया जा सकता. इस तरह के काम शांतिपूर्ण वैश्विक सह-अस्तित्व और सामाजिक सौहार्द की भावना को नुक़सान पहुंचाते हैं."(bbc)
- नीतिशा खलखो
अपने बुनियादी मूल्यों के खिलाफ जाकर आदिवासी समाज अन्य जाति, धर्म या बिरादरी में विवाह करने वाली अपनी महिलाओं के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने लगा है। इस प्रवृत्ति के पीछे कौन है? क्या हैं इसके कारण? नीतिशा खलखो इन सवालों को उठा रही हैं
आजकल आदिवासी समाज को अपनी महिलाओं का अन्य जाति, धर्म या बिरादरी में विवाह करना इतना नागवार क्यों गुजर रहा है? इस सोच के पीछे का सच क्या है? क्या आदिवासी समाज शुरू से महिलाओं के प्रति इतना ही क्रूर था? आजकल ऐसी कई घटनाएं हमें अखबारों और सोशल मीडिया के हवाले से आए दिन देखने, सुनने और जानने को मिल रही हैं। क्या यही हमारी प्राचीन संस्कृति व आदिम मान्यताएं हैं?
किसी भी समाज की निर्मिती में स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर सहयोग होता है। फिर क्या वजह है कि पुरुषों द्वारा ब्याह कर लाई गई अन्य समाज की स्त्री को विभिन्न रस्मों-रिवाजों के बहाने अपने समाज का अंग बना लिया जाता है? स्त्रियां यदि अपने समुदाय, जाति, वर्ण व धर्म से बाहर जाकर विवाह करें तो उनके खिलाफ ट्रोलिंग, गाली-गलौज, चरित्र हनन व मानसिक व शारीरिक हिंसा की जाती है। ऐसा क्या केवल आज हो रहा है या पूर्व में भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं? क्या यह संस्कृतिकरण का अदृश्य हमला है जो आपको, आपकी मानसिक संरचनाओं को बहुत अंदर तक लगातार बदल रहा है?
इज्ज़त का बोझ केवल स्त्रियां ही ढोएंगी – बाहरी समाज की यह सोच, यह अवगुण अब हमारे आदिवासी समाज में भी दिखने लगा है। मसलन, 20 अगस्त, 2020 को तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में एक आदिवासी महिला ने एक मुसलमान से शादी की। इस शादी का कार्ड शादी से तीन-चार दिन पहले से सोशल मीडिया पर वायरल था। इसके विरोध में अनेक टिप्पणियां देखने को मिलीं। इसे कई आदिवासियों ने “लव जिहाद” भी कहा। ऐसा करते हुए उन्होंने उस स्त्री के जीवन के बारे में जो बातें सबके सामने रखीं, उनसे एक स्त्री की गरिमा के हनन का मामला बनता है। साथ ही मानहानि का भी।
प्यार और सम्मान आदिवासियत की खासियत
सोशल मीडिया पर बताया गया कि दूसरे समाजों के लड़के, आदिवासी लड़कियों को उनकी नौकरी की वजह से पसंद करते हैं। फिर शादी करके उसके नाम की जमीन हथियाते हैं। फिर अपने बच्चों को मां के सरनेम का इस्तेमाल कर आदिवासी आरक्षण का लाभ दिलवाते हैं। यह सब कितना सही है और कितना गलत इसे तथ्यों के सापेक्ष देखे जाने की जरुरत है।
लेकिन ऐसा नहीं किया जा रहा है। हो यह रहा है कि सोशल मीडिया, जो कि सार्वजनिक अभिव्यक्ति का माध्यम है, के जरिए एक महिला को पंचायत के सामने पेश किया जा रहा है, उसे नंगा किया जा रहा है। अति तो तब होती है जब उसकी जाति प्रमाणपत्र को रद्द करने की बात की जाती है। बात और बढ़ती है और कहा जाता है कि उसकी थाली में गाय परोसी जाएगी लेकिन सूअर नहीं। यह कितना अन्यायपूर्ण है कि यहां तक कहा जाता है कि लात-जूता खाने के लिए आदिवासी महिलाएं गैर-आदिवासी या दिकू पुरुषों के पास जाती हैं।
अपनी स्त्रियों के प्रति इतनी घृणा और द्वेष आखिर क्यों है और यह आदिवासी समाज को कहां ले जा रहा है, इसे समझने की जरुरत है।
स्त्री की यौनिकता के प्रश्न पर आज आदिवासी समाज को भी कट्टरवादी हिन्दू संगठनों के समकक्ष देखा जा सकता है। तो क्या हम समझें कि वनवासी कल्याण केंद्र, सेवा भारती, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद्, आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), सरस्वती शिशु मंदिर आदि का आदिवासी बहुल क्षेत्रों में काम करने का यह प्रभाव है? या बात कुछ और है? पहले एक-दो लोगों को नफरत का प्रवक्ता बनाया जाता था जैसे एक प्रवीण तोगड़िया थे, जिनका काम दलित-बहुजनों में धर्म के नाम पर नफरत का जहर फैलाना था। लेकिन आज हर जगह उन्मादियों की भीड़ है जो देश में बंधुता और भाईचारे की हत्या को उतावले हैं। आज इसी तरह की घृणा और द्वेष आदिवासी पुरुषों में देखने को मिल रहा है।
यहां समझने की आवश्यकता है कि आदिवासी पुरुषों के मन में यह डर घर कर गया है कि महिलाओं का अनुपात गड़बड़ा रहा है और हमारे लिए महिलाएं कम पड़ जाएंगी। जबकि हमारे समाज के अनेक अगुआ नायकों ने भी समाज से बाहर शादी की और उनके द्वारा लाई गई दिकू स्त्रियों को सम्मान भी मिला। फिर चाहें वो जयपाल सिंह मुंडा हों, पद्मश्री रामदयाल मुंडा, हाल में दिवंगत अभय खाखा हों या फिर लब्ध प्रतिष्ठित आदिवासी स्कॉलर् और अगुआ वर्जिनियस खाखा। उनकी तो आदिवासी पुरूषों ने इस प्रकार की ट्रोलिंग कभी नहीं की (होनी भी नहीं चाहिए थी)।
यह बहुत महत्वपूर्ण कालखंड है। पूरे देश में नफरत फैलाई जा रही है। ऐसे में यह आवश्यक है कि आदिवासी समाज के लोग उन्मादी न बनें। यह समझने की आवश्यकता है कि सीएनटी/एसपीटी एक्ट के रहते आदिवासी जमीन की लूट हुई है और गैर-आदिवासी जनता की भीड़ बढ़ी है. इस पर विचार करें। पांचवीं अनुसूची वाले क्षेत्र झारखंड में जहां कोई गैर-आदिवासी, आदिवासियों की जमीन खरीद ही नहीं सकता, वहां मात्र आदिवासी स्त्रियों के कारण बाहरी आबादी झारखण्ड में बस गई है, यह कहना अविवेकपूर्ण और तथ्यों से परे है। सरकार (ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल) और समाज के कुछ अवांछित लोगों द्वारा इस तरह की भ्रामक बातों का खंडन करने के लिए सर्वेक्षण की मांग पहले से की जाती रही है।
बहरहाल, आदिवासी समाज की खासियत उसकी आदिम संस्कृति है जिसकी बुनियाद में प्यार और समानता है। आज यदि कोई समस्या है भी या अस्तित्व पर कोई सवाल हैं भीं तो उनका सुलझाव विवाद से नहीं बल्कि संवाद से किया जाना जरूरी है।
(संपादन: नवल/गोल्डी/अमरीश)(forwordpress)
एक तरफ़ जहां देश में जेईई-नीट की परीक्षाओं को स्थगित करने को लेकर कई विद्यार्थी और राजनीतिक दल केंद्र सरकार पर दबाव बना रहे हैं. वहीं, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों की मांग है कि जो वैकेंसी निकाली जाए उनकी परीक्षाएं जल्द हों और उनके परिणाम जल्दी आएं.
इसी मांग को लेकर मंगलवार को ट्विटर पर #SpeakUpforSSCRailwayStudents ट्रेंड करने लगा. इस हैशटैग से 30 लाख से भी अधिक ट्वीट किए गए.
दरअसल, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों की ख़ास नाराज़गी सर्विस सिलेक्शन कमिशन (एसएससी) की कंबांइड ग्रैजुएट लेवल (सीजीएल) 2018 की टियर-3 परीक्षा के परिणामों को न घोषित करने को लेकर है.
हालाँकि, मंगलवार को ही एसएससी ने अपनी वेबसाइट पर एक अपडेट में लिखा है कि सीजीएल 2018 यानी ग्रैजुएट लेवल की संयुक्त परीक्षा के नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जा सकते हैं.
इसके अलावा विद्यार्थी साल 2019 में आई रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड (आरआरबी) की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटिग्रीज़ (एनटीपीसी) पदों की परीक्षा न आयोजित कराने को लेकर भी अपना ग़ुस्सा जता रहे हैं.

एसएससी ने भी दिया जवाब
एसएससी ने सीजीएल 2018 को लेकर 4 मई 2018 को विज्ञप्ति जारी की थी, जिसके बाद 4 जून 2019 को टियर-1 की परीक्षा और 29 दिसंबर को टियर-3 की परीक्षा हुई थी.
इसके बाद से इस परीक्षा के परिणाम अब तक जारी नहीं किए गए हैं. एसएससी सीजीएल 2018 के ज़रिए विभिन्न सरकारी विभागों की 11,271 रिक्तियों को भरा जाएगा.
इन परिणामों को लेकर एसएससी ने 21 अगस्त को एक नोटिस भी जारी किया था जिसमें उसने कहा था कि वह परिणाम जल्द ही जारी करने की कोशिशें कर रहा है.
एसएससी ने कहा, “आयोग उम्मीदवारों को सूचित करना चाहता है कि हाल में कोविड-19 महामारी के कारण काफ़ी कठिनाइयां आई हैं, उसके बावजूद परीक्षा के परिणाम में तेज़ी लाने के सभी प्रयास किए जा रहे हैं. आयोग यह सुनिश्चित करने का गंभीर प्रयास कर रहा है कि परीक्षा का परिणाम जल्द से जल्द घोषित किया जाए.”
हालांकि, एसएससी के बयान के बाद भी विद्यार्थी खासे ग़ुस्से में नज़र आ रहे हैं. उनका कहना है कि एसएससी सीएचएसएल और एसएससी एमटीएस के परिणाम भी अटके हुए हैं जबकि एसएससी सीजीएल 2020 का कुछ अता-पता नहीं है.
‘850 दिन बाद भी नहीं आया रिज़ल्ट’
#SpeakUpforSSCRailwayStudents हैशटैग से सिर्फ़ विद्यार्थियों ने ही नहीं बल्कि कई राजनेताओं ने भी ट्वीट किए हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, “मोदी सरकार भारत के भविष्य को ख़तरे में डाल रही है. उनका अहंकार जेईई-नीट परीक्षा के छात्रों की वास्तविक चिंताओं और एसएससी एवं दूसरे रेलवे की परीक्षा देने वाले छात्रों की मांगों को नज़रअंदाज़ कर रहा है. खाली नारे नहीं बल्कि नौकरी दीजिए.”
कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने ट्वीट करके सवाल किया कि सरकार कब तक युवाओं के धैर्य की परीक्षा लेगी, युवाओं को भाषण नहीं नौकरी चाहिए.
प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे एक छात्र ऋषभ शर्मा ने कहा कि नोटिफ़िकेशन को निकले 850 दिन हो चुके हैं और अब तक एसएससी के परिणाम नहीं आए हैं.
वहीं, एक यूज़र शुभम जैन ने वीडियो ट्वीट किया कि एसएससी सीजीएल 2017 की परीक्षा के परिणाम के बाद भी उनको जॉइनिंग नहीं मिली.
प्रांजुल पटेल नामक एक ट्विटर अकाउंट ने ट्वीट किया कि अगर चुनावी प्रक्रिया समय पर पूरी हो सकती है तो सरकारी परीक्षाएं समय पर क्यों नहीं पूरी हो सकती.
इसके अलावा कई लोगों ने अपने ट्विटर अकाउंट के नाम के आगे बेरोज़गार भी जोड़ लिया है. एक ऐसे ही ट्विटर अकाउंट से ट्वीट किया गया कि लगातार हर साल पदों की संख्या कम हो रही है लेकिन उन पर भी समय से भर्ती नहीं हो पा रही है.
इसके अलावा इस हैशटैग से काफ़ी मीम्स भी वायरल हो रहे हैं जिसमें छात्र मीडिया को इस मुद्दे को न उठाने और छात्रों से संबंधित मुद्दों के गुम हो जाने जैसी बातों पर मज़ाकिया ट्वीट कर रहे हैं. कई ट्विटर हैंडल का कहना है कि इस हैशटैग से 50 लाख से अधिक ट्वीट होंगे.(bbc)
किरनहार, 01 सितम्बर। पश्चिम बंगाल में वीरभूम जिले के किरनहार से करीब 200 किलोमीटर दूर मिराती गांव में प्रत्येक वर्ष की तरह पारंपरिक दुर्गापूजा तो होगी लेकिन इस बार यह गांव अपने माटीपुत्र और बचपन के मित्रों के बीच ‘पोलटू’ के नाम से लोकप्रिय रहे प्रणव मुखर्जी की कमी महसूस करेगा और यहां के लोग उनकी वाणी में ‘चंडीपाठ’ नहीं सुन पायेंगे।
पूर्व राष्ट्रपति का जन्म इसी मिराती गांव में हुआ था और यह गांव उनके निधन के बाद शोक में डूबा हुआ है। श्री मुखर्जी अपने बचपन के मित्रों के बीच ‘पोलटू’ के नाम से जाने जाते थे। वह यहां अपने पैतृक गृह में दुर्गा पूजा करते थे और स्वयं चंडी पाठ करते थे। श्री मुखर्जी के घर पर हर साल होने वाली दुर्गा पूर्जा गांव का सबसे बड़ा वार्षिक कार्यक्रम होता रहा है।
गांव के एक निवासी ने बताया कि दुर्गा पूजा के दौरान पूरे पांच दिनों तक उनके घर पर दोपहर और रात का भोजन होता था।
एक अन्य व्यक्ति का कहना था कि ‘पोलटू’ को लेकर सिर्फ इसी बात को लेकर गर्व नहीं रहा कि वह देश के पहले नागरिक बने बल्कि तमाम व्यस्तताओं और उच्च सुरक्षा प्रबंधों के बावजूद वह अपनी विनम्रता नहीं भूले और अपने बचपन के दिनों के मित्रों के साथ यहां आकर मिलते रहे।
पूर्व राष्ट्रपति जब बीमार पड़े थे और सारे गांव ने उनके स्वस्थ होने के प्रार्थना की थी और उन्हें उम्मीद थी कि ‘पोलटू ’अगले महीने दुर्गा पूजा में फिर यहां आयेंगे।(UNIVARTA)
रंग-साधना को बेहद पवित्र और ऊंचा दर्जा देने वाले बी.वी. कारंत के लिए अपनी कला के सामने बड़ी से बड़ी हस्ती भी मामूली थी
यह कहानी 1985 की है. तब रामकृष्ण हेगड़े कर्नाटक के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. और उनके अच्छे मित्र तथा देश के जाने-माने रंगकर्मी बी.वी. कारंत भोपाल (मध्य प्रदेश) स्थित भारत भवन के रंगमंडल के निदेशक. उन दिनों कारंत की अगुवाई में भारत भवन के कलाकारों का एक दल बेंगलुरु के दौरे पर गया था. नाटक खेलने के लिए. हेगड़े भी उनका नाटक देखने के लिए पहुंचे. लेकिन अपने मंत्रिमंडल की बैठक के कारण सभागार पहुंचने में उन्हें 10 मिनट की देर हो गई. हेगड़े को कारंत का स्वभाव पता था. इसलिए बिना किसी तामझाम के ही वे चलते नाटक के बीच चुपचाप जाकर दर्शकों में सबसे पीछे बैठ गए. कुछ देर बाद जब इंटरवल हुआ और सभागार की बत्तियां जलीं, तो कारंत की नजर हेगड़े पर पड़ गई. वे वहीं मंच से माइक हाथ में लेकर दर्शकों से बोले, ‘वो देखिए. आपके पीछे आपका मुख्यमंत्री बैठा है. लेट आता है, नाटक देखने.’ हेगड़े के लिए इतना काफी था, जैसे. इसके बाद अगले दिन नाटक शुरू होने का वक्त था, शाम सात बजे. लेकिन इसके एक घंटा पहले से ही सभागार में एक व्यक्ति अकेला दर्शकों की सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठा नजर आ रहा था और वह रामकृष्ण हेगड़े थे.
कारंत के साथ बतौर अभिनेता करीब सात साल तक काम कर चुके मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय (एमपीएसडी) के वरिष्ठ रंगकर्मी आलोक चटर्जी ऐसी ही कुछ और कहानियां भी बताते हैं. साथ ही याद करते हैं, ‘बाबा (कारंत को उनके सहयोगी इसी नाम से बुलाते थे) कहा करते थे- हम कला का प्रदर्शन करते हैं. कोई कोठा नहीं चलाते, जहां कोई कभी भी घुस आए.’
आलोक के मुताबिक, ‘एक मामला 1981-82 का है, अर्जुन सिंह से जुड़ा, जिन्हें भारत भवन बनवाने का श्रेय जाता है. एक बार अशोक वाजपेयी (भारत भवन के पहले न्यासी सचिव) उन्हें रंगमंडल में लेकर आए. अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे, इसलिए उनके सुरक्षाकर्मी भी उनके साथ थे. यह देख बाबा ने उनसे अपनी दक्षिण भारतीय टोन में साफ कह दिया, ‘ठाकुरपंती दिखाते आप. ठाकुर हैं. ये बॉडीगार्ड ले के आते तो मेरा दर्शक डरता. कल से टिकट ले के आइए और बॉडीगार्ड ले के मत आइए.’ आलोक के मुताबिक, ‘एक और वाकया 1996-97 का है. एक शाम रंगमंडल में मेरी अगुवाई में ‘द फादर’ नाटक खेला जा रहा था. बाबा उसे देखने आए थे. सात बजे का टाइम होता था. मध्य प्रदेश के राज्यपाल मोहम्मद शफी कुरैशी उस रोज सात बजकर पांच मिनट पर भारत भवन पहुंचे. बाबा ने उन्हें दरवाजे के बाहर ही रुकवा दिया. उनका सम्मान इतना था कि राज्यपाल भी उल्टे पैर वापस लौट गए और अगले दिन टिकट लेकर तय वक्त पर आए.’
प्रेमिकाओं के पत्र पत्नी की ड्रेसिंग टेबल रख आते थे
कारंत बड़े साफ दिल इंसान थे. कितने? इसकी एक मिसाल कारंत की जीवनी, ‘हेयर आई कान्ट स्टे, देयर आई कान्ट गो’ (यहां मैं रह नहीं सकता, वहां जा नहीं सकता) में मिलती है. इसमें कारंत की पत्नी प्रेमा बताती हैं, ‘कारंत के कई प्रेम संबंध रहे. हर संबंध के बारे में इन्होंने मुझे खुद बताया. ये इतने भोले हैं कि अपनी प्रेमिकाओं के लिखे प्रेम पत्रों को मेरी ड्रेसिंग टेबल पर खुद छोड़कर चले जाते हैं. जैसे छुपाने के लिए इनके पास कुछ हो ही न.’
भरोसा सब पर, ख्याल सबका
आलोक बताते हैं, ‘बाबा सबका ख्याल रखते थे. जब वे एनएसडी (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) के डायरेक्टर थे, तो उन्होंने साक्षात्कार दिया. तब देश की आबादी करीब 100 करोड़ थी. उस साक्षात्कार में उन्होंने कहा था - देश की 100 करोड़ की आबादी में 20 सीटों वाला एनएसडी ऐसा लगता है, जैसे सरकार ने कुत्ते के सामने हड्डी का टुकड़ा फेंका हो. फिर वे लड़कों से बोले कि हड़ताल करो. सीट बढ़ाना है, सुविधाएं बेहतर करनी है, ऐसी मांग करो. संसद में जाकर प्रदर्शन करो. क्यों? क्योंकि वे हर किसी के भले का सोचते थे.’ अपनी बात आगे बढ़ाते हुए आलोक कहते हैं, ‘ऐसे ही एक आदमी था, उसके बारे में बाबा को यकीन था कि ये उनके ग्रुप में गलत आ गया है. इसका यह फील्ड नहीं है, लेकिन आदमी अच्छा है, ईमानदार है. इसलिए वापस भेज नहीं सकते. लिहाजा, उन्होंने उससे कह दिया कि आने-जाने वालों की उपस्थिति का रजिस्टर देखा करो. क्योंकि इससे बेहतर तुम कर नहीं पाओगे.’
एनएसडी के मौजूदा डायरेक्टर वामन केन्द्रे के मुताबिक, ‘बाबा सहज भाव से सब पर भरोसा कर लेते थे. ऐसे ही एक बार जब वे एनएसडी के डायरेक्टर थे, तो अकाउंट विभाग के एक कर्मचारी से बोले- जाओ, वो लाल किताब (हिसाब-किताब वाली) ले आओ. जब वह उस किताब को लेकर उनके पास पहुंचा तो उन्होंने उसके कोरे पन्नों पर दस्तखत करके उसे वापस थमा दी. कहने लगे - हिसाब-किताब पर दस्तखत कराने के लिए अब रोज-रोज इसे लाने की जरूरत नहीं.’

आखिर तक रही टीस - ‘फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे’
कारंत के जीवन पर वह शायद अकेला बदनुमा दाग था, जब मध्य प्रदेश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया था. उन पर अपनी अभिनेत्री विभा मिश्रा के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा था. विभा ने आग लगाकर खुदकुशी की कोशिश की थी. और उसे बचाने की कोशिश में कारंत इस मामले में उलझ गए. कारंत के दोस्त और जाने-माने फिल्म अभिनेता अमोल पालेकर कहते हैं, ‘हम सबको यकीन था कि कारंत ऐसा नहीं कर सकते. और बाद में जब मामले की जांच आगे बढ़ी तो हमारा यह यकीन सोलह आने सच साबित हुआ. विभा ने खुद उनके निर्दोष होने का बयान दिया और कारंत बरी कर दिए गए.’ लेकिन आलोक इससे आगे का वाकया बताते हैं, ‘कानूनन तो जरूर बाबा बरी हो गए, मगर उस हादसे की याद से बरी नहीं हो पाए. आखिरी वक्त में अक्सर उनकी यह टीस उभर आया करती थी. कोमा में जाने से कुछ दिन पहले अस्पताल के पलंग से उठ-उठकर वे बच्चों सी जिद करते थे- मुझे जाने दो, थिएटर करना है. तब डॉक्टर और नर्स उन्हें संभालने के लिए उनके हाथ बांध देते, तो कहने लगते- फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे, फिर बेकसूर मेरे हाथ बांधे.’
कारंत के नजदीकी लोग, वे चाहे अमोल पालेकर हों, आलोक चटर्जी या वामन केन्द्रे. सब मानते हैं कि बी.वी. कारंत सिर्फ थिएटर से बंधे थे और उसी से उनकी आजादी थी. इसलिए रंगमंच के लिए जो, जहां, जिस स्तर पर, जितना योगदान कर सके, करना चाहिए. यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी.(SATYAGRAH)
-राकेश दीवान
आज से ठीक 28 साल पहले, एक जुलाई 1992 को भिलाई रेलवे स्टेशन के पास ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ के विशाल धरने पर पुलिस ने गोली चालन किया था और उसमें 17 मजदूर साथी शहीद हुए थे। लगभग सालभर पहले, 28 सितम्बर 1991 को संगठन के वरिष्ठ साथी और ख्यात मजदूर नेता कॉमरेड शंकरगुहा नियोगी की हत्या हुई थी और ग्यारह महीने बाद संगठन को इस संकट का सामना करना पड रहा था। गोलीकांड के तुरत बाद भिलाई और उसके आसपास कर्फ्यू लगा दिया गया था और संगठन के सभी नेताओं, मित्रों, समर्थकों को गिरफ्तार करने की तैयारी हो रही थी। किसी तरह छिपते-छिपाते बाहर आए ‘छमुमो’ के अघ्यक्ष कॉमरेड जनकलाल ठाकुर ने मुझे फोन पर सारी जानकारी देकर कहा कि मैं तुरंत रायपुर पहुंचूं। तब तक देशभर में इस घटना का प्रतिकार शुरु हो गया था और दिल्ली के कुछ साथियों ने पत्रकार-स्तंभकार प्रफुल्ल बिदवई, साहित्यकार व ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव और वरिष्ठ वकील राजीव धवन की एक जांच समिति का गठन करके भिलाई रवाना किया था।

रायपुर पहुंचने के तुरंत बाद मुझे जो काम करना पड़ा वह इस जांच दल के सचिव/सहायक का था। असल में दिल्ली में लोक-चित्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता अविनाश देशपांडे को, जो ‘छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा’ और उस इलाके को ठीक जानते थे, जांच समूह के सचिव की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन वे किसी गफलत में नहीं आ सके थे। करीब तीन दिन की जांच के दौरान बिदवई और यादव ने तो लोगों से विस्तार से जानकारियां इकट्ठी की थीं, लेकिन राजीव धवन (हाल के मानहानि प्रकरण में प्रशांत भूषण के वकील) बेहद बारीकी से घटना-स्थल से लगाकर धरना-स्थल तक की एक-एक जानकारी की विस्तृत पड़ताल करते रहे। धवन को बड़ी सहजता और तनाव-मुक्ति के साथ काम करते देखना एक अनुभव तो था, लेकिन असल संकट तो तब आया जब इस समिति की रिपोर्ट लिखना पड़ी।
दिल्ली लौटते ही राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका और प्रफुल्ल बिदवई अपने पूर्व-निर्धारित कामकाज में फंस गए और अंत में ‘रिपोर्ट-राइटिंग’ की जिम्मेदारी राजीव धवन के माथे पड़ी। उन दिनों लगभग रोज महारानी बाग स्थित उनके घर में घंटों यादव और बिदवई के नोट्स खंगालकर उनमें अपनी जांच को जोडक़र रिपोर्ट लिखने की मशक्कत करते हुए धवन को देखना भी एक अनुभव था। एक साथी झरना झवेरी के साथ मेरी भूमिका संगठन और उसके कार्यक्षेत्र की जानकारियां उपलब्ध करवाने की रहती थी और इसलिए लगातार उनके साथ जमकर बैठना होता था। धवन को देखकर समझ आया कि एक ठीक संपादक की तरह एक ठीक-ठाक वकील को हरेक नहीं, तो अधिकांश क्षेत्रों का जानकार होना ही पड़ता है। धवन जिस तरह से ठेठ पुलिसवाले की तरह रिपोर्ट के कठोर तथ्य लिखवाते थे, उसी तरह उसमें बेहतरीन साहित्य का पुट भी डालते थे ताकि पढऩे वाला रुचि के साथ उसे पढ़े और निष्कर्ष निकाले।

राजीव धवन ने प्रशांत के मामले में सुप्रीमकोर्ट के सामने फिर अपनी विद्वता और व्यापक समझ का प्रदर्शन किया है। एक जुलाई के ‘शहीद दिवस’ पर कुछ कमाल के सक्षम साथियों को याद करना इसीलिए जरूरी है। और हां, भिलाई की तमाम मेहनत-मशक्कत में पूंजी, अपनी अहमियत साबित करने के लिए सिर्फ टापती भर रही। यह बात हम सभी को आश्वस्त करती है कि देश में अब भी राजीव धवन सरीखे कुछ लोग मौजूद हैं।


