विचार/लेख
-चैतन्य नागर
आपसी मतभेद भले ही कितने गहरे क्यों न हों, इसका समाधान एक-दूसरे का गला काटने में नहीं। भले ही कुछ नेकदिल लोग बार-बार दोहराते रहें कि इस्लाम शांति का मजहब है, पर रैडिकल इस्लाम की ताकत और असर को देख कर नहीं लगता कि उनकी बात को कोई महत्व देता भी है। महातीर मोहम्मद, इमरान खान और तुर्की के एर्दोआन समेत कई लोग फ्रांस में हुई घिनौनी आतंकी घटना के समर्थन में फ्रांस के खिलाफ एकजुट हो गये हैं, क्योंकि उन्हें मालूम है कि उनकी बातें हीं इस्लामिक दुनिया में ज़्यादा सुनी जाती हैं। यह पूरी दुनिया के लिए शर्मनाक है। फ्रांस के लिए लैसिते या धर्मनिरपेक्षता उसकी पहचान का अभिन्न हिस्सा है, और 1905 से उसे इसने अपनाया हुआ है। लैसिते की हार आतंकवादियों के साथ ही उन दक्षिणपंथियों की भी जीत है जो इस्लामोफोबिया के नाम पर समाज को कलह की आग में झोंक देना चाहते हैं।
फ्रांस में बाकी यूरोप के तुलना में सबसे अधिक मुस्लिम रहते हैं। उन्हें अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष सब कुछ तो चाहिए ही, साथ ही लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों पर हमला करने और लोगों की गर्दन काटने की आजादी भी चाहिए। उन देशों से भी ये खुश नहीं जहां इन्हें झोला भर-भर आजादी और अलग पहचान मिली हुई है, क्योंकि वहां इनकी बाकी रुग्ण आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पातीं।
मध्ययुगीन सोच, विकृत धार्मिक व्याख्या और पैने हथियारों से लैस इन आतंकियों को मिटाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उन्ही के मजहब के समझदार लोगों की है जो अपनी बातों को सामने रखकर लोगों को पूरे विश्वास के साथ बता सकें कि उनकी विचारधारा की हकीकत है क्या। लैसिते जैसे सिद्धांत सैकड़ों वर्षों की सोच का, जद्दोजहद का नतीजा हैं। हम एक ही दुनिया में रहें और एक दूसरे को बर्दाश्त न कर सकें, अपने मतों को लेकर खून बहाएं, तो हमारी प्रगति का अर्थ फिर है क्या!
फ्रांस संस्कृति और कला का केंद्र रहा है। नीस का अर्थ ही है खूबसूरत। वहां लोग अपने पेंट और ब्रश लेकर आते हैं, और ठहर जाते हैं अपनी कला को अभिव्यक्ति देने के लिए।
सीपिया फ्रांस पर खून के छींटे आखिरकार वहां के लोगों को उन ताकतों के हाथों में धकेल देंगे जो उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन का सत्यानाश कर डालेंगे। चाहे वे इस्लामी कट्टरपंथी हों, या खून के बदले खून की मांग करने वाले दूसरे धर्म के दक्षिणपंथी।
-सरोज सिंह
भारत में सोशल मीडिया पर सुबह से दो ही ख़बरें छाई रहीं. पहला अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव और दूसरा अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी.
रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी को बुधवार सुबह महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया.
चैनल के मुताबिक़ मुंबई पुलिस की एक टीम सुबह अर्नब गोस्वामी के घर पहुँची और उन्हें पुलिस वैन में बैठाकर अपने साथ ले गई.
पुलिस का कहना है कि अर्नब गोस्वामी को 53 साल के एक इंटीरियर डिज़ाइनर को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है.
समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक़ अर्नब गोस्वामी ने आरोप लगाया है कि मुंबई पुलिस ने उनके, उनकी पत्नी, बेटे और सास-ससुर के साथ हाथापाई की. रिपब्लिक टीवी चैनल ने इस पूरे मामले पर बयान जारी कर अपना पक्ष भी रखा है.
राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया
इस पूरे मामले पर भारत के सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर की तरफ़ से सबसे पहली प्रतिक्रिया सामने आई.
ट्विटर पर उन्होंने लिखा, "हम महाराष्ट्र में प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले की निंदा करते हैं. प्रेस के साथ इस तरह का बर्ताव ठीक नहीं है. ये इमरजेंसी के दिनों की याद दिलाता है, जब प्रेस के साथ ऐसा बर्ताव किया जाता था."
We condemn the attack on press freedom in #Maharashtra. This is not the way to treat the Press. This reminds us of the emergency days when the press was treated like this.@PIB_India @DDNewslive @republic
— Prakash Javadekar (@PrakashJavdekar) November 4, 2020
फिर गृह मंत्री अमित शाह ने भी कांग्रेस और महाराष्ट्र की सत्ता में साझीदारों पर निशाना साधा और उसी अंदाज़ में इमरजेंसी को याद किया.
Congress and its allies have shamed democracy once again.
— Amit Shah (@AmitShah) November 4, 2020
Blatant misuse of state power against Republic TV & Arnab Goswami is an attack on individual freedom and the 4th pillar of democracy.
It reminds us of the Emergency. This attack on free press must be and WILL BE OPPOSED.
बस फिर क्या था मंत्रियों की तरफ़ से अर्नब के समर्थन में ट्वीट्स की झड़ी लग गई.
गृह मंत्री के अलावा रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस जयशंकर और महिला विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने भी ट्वीट कर अर्नब की गिरफ़्तारी की निंदा की और इमरजेंसी की याद दिलाई.
महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने पूरे मामले पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने कहा, "इस पूरे मामले में सरकार का कोई लेना-देना नहीं है. पुलिस अपना काम कर रही है. क़ानून से ऊपर कोई नहीं है. मुंबई पुलिस क़ानून के मुताबिक़ ही काम करेगी."
ग़ौरतलब है कि ख़बर लिखे जाने तक इस पूरे मामले पर ना तो एनसीपी नेता शरद पवार की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया आई और ना ही कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ओर से.
महाराष्ट्र में इस समय सत्ता में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी तीनों ही पार्टियाँ शामिल हैं. केंद्र सरकार की तरफ़ से हुए हमले में निशाना कांग्रेस पर अधिक है.
दिल्ली के पत्रकारों और प्रेस एसोसिएशन की प्रतिक्रिया
पूरे मामले पर एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने अपना बयान जारी कर कहा है कि उन्हें उम्मीद है कि महाराष्ट्र सरकार अपनी सत्ता का ग़लत इस्तेमाल नहीं करेगी और पूरे मामले में निष्पक्ष सुनवाई होगी.
लेकिन उनके इस बयान से देश के कई पत्रकार इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते. राम बहादुर राय भी उन्हीं में से एक हैं.

क्या आज महाराष्ट्र में पत्रकारों पर इमरजेंसी है?
बीबीसी के इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, "अर्नब गोस्वामी के बहाने ही सही, सबसे अच्छी बात है कि हमारे मंत्रियों को इमरजेंसी की बात याद आने लगी है. इससे पहले छत्तीसगढ़ के एक पत्रकार थे विनोद वर्मा. उनको छत्तीसगढ़ की पुलिस रात के अंधेरे में इंदिरापुरम के घर से गिरफ़्तार कर रोड के रास्ते छत्तीसगढ़ ले गई थी. उसके बाद प्रशांत कनौजिया एक पत्रकार हैं, जिनको दिल्ली से गिरफ़्तार कर यूपी पुलिस ले गई थी. कुछ दिन पहले हाथरस की घटना की रिपोर्टिंग के लिए जा रहे केरल के पत्रकार को मथुरा के पास गिरफ़्तार किया गया और उन पर देशद्रोह का चार्ज लगाया गया. इन सभी घटनाओं में किसी मंत्री को इमरजेंसी की याद नहीं आई. भीमा कोरेगाँव के नाम पर सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा जैसे तमाम बुद्धिजीवी को इन्होंने गिरफ़्तार किया. ये सभी घटनाएँ जिनका मैंने ज़िक्र किया ये इमरजेंसी से ज़्यादा ख़तरनाक दौर था. इमरजेंसी का दौर तो घोषित रूप से था. लेकिन ऊपर मैंने जो घटनाएँ गिनाईं हैं, उस समय देश में इमरजेंसी घोषित नहीं थी."

राम बहादुर राय मानते हैं कि अर्नब गोस्वामी का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या फिर प्रेस की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ नहीं है. ये आत्महत्या के लिए मजबूर करने का मामला है. अगर उनकी किसी लिखी बात को लेकर या किसी रिपोर्ट को लेकर कोई एक्शन होता, तो पत्रकार के तौर पर हम विरोध कर सकते हैं.
उनका मानना है कि अगर मुंबई पुलिस ने कोई ज़्यादती की है, जैसे आधी रात को घर में घुस जाना या फिर मार-पीट करना तो ये अर्नब के लिए भी ग़लत है और ये बात विनोद वर्मा के लिए भी लागू होनी चाहिए, प्रशांत कनौजिया के लिए भी, केरल के पत्रकार के लिए भी और भीमा कोरेगाँव के अभियुक्तों के लिए भी.
"पुलिस की ज़्यादती किसी पत्रकार के साथ हो या नागरिक के साथ हो या फिर किसी बुद्धिजीवी के साथ, किसी भी सूरत में इसका समर्थन नहीं किया जा सकता. सिर्फ़ आप प्रेस से हैं, इसलिए आपको कोई अधिकार नहीं मिल जाता."

राम बहादुर इमरजेंसी के दौरान छात्रसंगठन एबीवीपी से जुड़े थे और बाद में पत्रकारिता से जुड़े. वो इमरजेंसी के दौरान जेल भी गए थे.
इस पूरे मामले में महाराष्ट्र सरकार पर ये भी आरोप लग रहे हैं कि राज्य सरकार ने बदले की कार्रवाई की है.
दरअसल, अप्रैल के महीने में महाराष्ट्र के पालघर से सूरत जा रहे दो साधुओं और उनके ड्राइवर की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी थी. इसी मुद्दे पर अर्नब गोस्वामी ने सोनिया गांधी को लेकर टिप्पणी की थी.
अर्नब ने अपने शो कहा था, "अगर किसी मौलवी या पादरी की इस तरह से हत्या हुई होती तो क्या मीडिया, सेक्युलर गैंग और राजनीतिक दल आज शांत होते? अगर पादरियों की हत्या होती तो क्या 'इटली वाली सोनिया गांधी' आज चुप रहतीं?"
उसके बाद मुंबई समेत पूरे देश में कई जगह उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज हुई.

महाराष्ट्र सरकार और अर्नब गोस्वामी के बीच इस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा विवाद हुआ था.
दूसरा विवाद सुशांत सिंह राजपूत मामले को लेकर भी हुआ, जब रिपब्लिक टीवी ने मुंबई पुलिस पर पूरे मामले की ठीक से जाँच ना करने के आरोप लगाए. मुंबई पुलिस ने इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज़ किया था.
सुशांत मामले में महाराष्ट्र सरकार पर भी आरोप लगाए गए और विवाद बढ़ता गया. आज की घटना को कई पत्रकार बदले की कार्रवाई और राजनीति से प्रेरित क़दम भी बता रहे हैं.
कई राष्ट्रीय टीवी चैनल के एडिटरों ने ट्विटर पर अपनी प्रतिक्रिया दी है.
इंडिया टीवी के प्रमुख रजत शर्मा, एनडीटीवी की सोनिया सिंह और टाइम्स नाऊ से जुड़े राहुल शिवशंकर भी इनमें शामिल हैं.
रजत शर्मा न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स एसोशिएसन (एनबीए) के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने ट्विटर पर लिखा है, "मैं आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में अर्नब गोस्वामी की अचानक हुई गिरफ़्तारी की निंदा करता हूँ. मैं उनके स्टूडियो ट्रायल वाली पत्रकारिता स्टाइल से सहमत नहीं हूँ, लेकिन एक पत्रकार को सत्ता में बैठे लोग इस तरह से परेशान करें, ये भी उचित नहीं है. एक मीडिया के एडिटर के साथ ऐसा बर्ताव सही नहीं है."
I condemn the sudden arrest of Arnab Goswami in an abetment to suicide case. While I don’t agree with his style of studio trial, I also don’t approve of misuse of state power to harass a journalist. A media Editor cannot be treated in this manner @PrakashJavdekar
— Rajat Sharma (@RajatSharmaLive) November 4, 2020
मुंबई के पत्रकारों और एसोसिएशन की राय अलग
तो क्या वाक़ई में महाराष्ट्र में सरकार के ख़िलाफ़ बोलने और लिखने की आज़ादी नहीं बची है?
ये जानने के लिए हमने मराठी पत्रकारों से भी बात की.
लोकमत अख़बार में काम करने वाले यदु जोशी महाराष्ट्र में 30 साल से पत्रकारिता कर रहे हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "महाराष्ट्र में इमरजेंसी जैसे हालात है, ऐसा मुझे नहीं लगता. आज भी महाराष्ट्र में पत्रकार सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ लिख रहे हैं, मैं भी लिख रहा हूँ, लेकिन ऐसा अनुभव नहीं हुआ कि पत्रकारों का दमन चल रहा है. अर्नब का मामला अलग है. उसका सभी पार्टियाँ राजनीतिक मुद्दा बना रही है."
"जिस ढंग से अर्नब ने कुछ महीनों से स्टैंड लिया है, उसको आज की घटना के साथ जोड़ कर देखा जा रहा है. जबकि अर्नब को गिरफ़्तार 2018 के एक इंटीरियर डिज़ाइनर की आत्महत्या के मामले में किया गया है. इस मामले में उनकी पत्नी ने शिकायत की थी, ये भी एक पहलू है."
"मुबंई पुलिस को अपनी साफ़ छवि बरक़रार रखने के लिए सुबह का घटनाक्रम टालना चाहिए था. अगर मुंबई पुलिस जिस ढंग से पेश आई, वो नहीं आती, तो ये ज़रूर कहा जाता कि अर्नब को अन्वय नाइक की आत्महत्या मामले में गिरफ़्तार किया गया है. उसमें बदले की भावना नहीं है."
इस मुद्दे पर दिल्ली के पत्रकारों और एडिटरों की राय मुंबई और महाराष्ट्र के जर्नलिस्टों की राय से अलग दिख रही है.
निखिल वागले, स्वतंत्र पत्रकार हैं. इसके पहले उन्होंने टीवी और अख़बार दोनों में काम किया है.
ट्विटर पर एडिटर्स गिल्ड का बयान ट्वीट करते हुए उन्होंने कहा कि अर्नब की गिरफ़्तारी का पत्रकारिता से कोई संबंध नहीं है. ये एक पुराना मामला है जिसमें देवेंद्र फडणवीस सरकार ने जाँच करने से इनकार कर दिया था. पीड़ित परिवार ने पूरे मामले में जाँच की माँग की है.
Arnab Goswami’s arrest has nothing to do with journalism.This is an old case which Devendra Fadnavis government refused to investigate. Victim’s family had demanded this investigation. https://t.co/XAEc6enJeU
— nikhil wagle (@waglenikhil) November 4, 2020
यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि महाराष्ट्र देश का सबसे अकेला राज्य है, जहाँ पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क़ानून है. 2017 में बने इस क़ानून को 2019 में राष्ट्रपति से मंज़ूरी मिली है.
इस क़ानून के मुताबिक़ ड्यूटी पर तैनात किसी पत्रकार या उससे जुड़ी संस्था पर हमला किया जाता है, तो उसे जेल और जुर्माना भरना होगा.
महाराष्ट्र में टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन नाम की एक संस्था भी है. महाराष्ट्र में काम करने वाले पत्रकार इसके सदस्य होते हैं. वर्तमान में इनके 475 सदस्य हैं, जिसमें रिपब्लिक टीवी के कुछ पत्रकार भी शामिल हैं.
अर्नब की गिरफ़्तारी के बाद इन्होंने अपना बयान जारी कर कहा है, "रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी एक व्यक्तिगत मामले को लेकर हुई है. पत्रकारिता से इसका कोई संबंध नहीं है. क़ानून के सामने सभी समान होते हैं. इसलिए क़ानून को अपना काम करने दीजिए. न्याय व्यवस्था से सत्य जनता के सामने आएगा और हम पत्रकार के नाते सच के साथ हैं."यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि महाराष्ट्र देश का सबसे अकेला राज्य है, जहाँ पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क़ानून है. 2017 में बने इस क़ानून को 2019 में राष्ट्रपति से मंज़ूरी मिली है.
इस क़ानून के मुताबिक़ ड्यूटी पर तैनात किसी पत्रकार या उससे जुड़ी संस्था पर हमला किया जाता है, तो उसे जेल और जुर्माना भरना होगा.
महाराष्ट्र में टीवी जर्नलिस्ट एसोसिएशन नाम की एक संस्था भी है. महाराष्ट्र में काम करने वाले पत्रकार इसके सदस्य होते हैं. वर्तमान में इनके 475 सदस्य हैं, जिसमें रिपब्लिक टीवी के कुछ पत्रकार भी शामिल हैं.
अर्नब की गिरफ़्तारी के बाद इन्होंने अपना बयान जारी कर कहा है, "रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ़्तारी एक व्यक्तिगत मामले को लेकर हुई है. पत्रकारिता से इसका कोई संबंध नहीं है. क़ानून के सामने सभी समान होते हैं. इसलिए क़ानून को अपना काम करने दीजिए. न्याय व्यवस्था से सत्य जनता के सामने आएगा और हम पत्रकार के नाते सच के साथ हैं."
महाराष्ट्र सरकार, मुंबई पुलिस और रिपब्लिक टीवी के बीच विवाद की वजहें?
दरअसल महाराष्ट्र सरकार, मुंबई पुलिस और रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़ अर्नब गोस्वामी के बीच तनाव बीते कई महीनों से चल रहा था.
पालघर में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की हत्या के बाद रिपब्लिक टीवी पर एक चर्चा आयोजित की गई थी.
इस चर्चा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया. कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने अर्नब गोस्वामी की भाषा को लेकर सवाल उठाए थे.
अर्नब के बयान पर उनके ख़िलाफ़ मुंबई के अलावा भी कई जगह एफ़आईआर दर्ज कराई गई थी. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा, जहाँ से अर्नब गोस्वामी को अंतरिम राहत मिल गई थी.
इसके बाद 22-23 अप्रैल की मध्य रात्रि में उन पर कुछ लोगों ने कथित तौर पर हमला किया.
इस हमले से जुड़ा एक वीडियो पोस्ट करते हुए अर्नब ने कहा था, ''मैं ऑफ़िस से घर लौट रहा था, तभी रास्ते में बाइक सवार दो गुंडों ने हमला किया. मैं अपनी कार में पत्नी के साथ था. हमलावरों ने खिड़की तोड़ने की कोशिश की. ये कांग्रेस के गुंडे थे.''
इसके बाद मुंबई पुलिस ने दो लोगों को गिरफ़्तार भी कर लिया था.
लेकिन पहले मामले में 28 अप्रैल को मुंबई पुलिस ने अर्नब गोस्वामी से क़रीब 10 घंटे तक पूछताछ की.
इसके बाद फ़िल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में भी रिपब्लिक टीवी पर कई खब़रें दिखाई गईं, जिनमें मुबंई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार पर मामले को ठीक से हैंडल ना करने का आरोप लगाया गया.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और मुंबई पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह पर भी अर्नब ने कई गंभीर आरोप लगाए.
इसके बाद 8 सितंबर को रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र विधानसभा में विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया गया. उस वक़्त भी इंटीरियर डिज़ाइनर को आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले का ज़िक्र विधानसभा में हुआ था.
उसके बाद 8 अक्तूबर को मुंबई पुलिस ने टीआरपी स्कैम का पर्दाफ़ाश करने का दावा किया. दूसरे चैनलों के साथ रिपब्लिक टीवी पर भी पैसे देकर अपने चैनल की टीआरपी (टेलीविज़न रेटिंग प्वाइंट्स) को बढ़ाने के आरोप लगे.
हालाँकि रिपब्लिक टीवी ने इन तमाम आरोपों को ख़ारिज किया.
इसके बाद 23 अक्तूबर को मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के चार पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की. मुंबई पुलिस को कथित तौर पर बदनाम करने के मामले में चैनल के चार पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई गई.
अपने विरोधियों की आवाज़ दबाने का मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार पर ये इकलौता आरोप नहीं है.
कंगना रनौत ने भी सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले में शिवसेना, महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस पर आरोप लगाए थे.
इसके बाद उनके ऑफ़िस में हुई तोड़फोड़ पर भी सवाल उठे. मामला कोर्ट भी पहुँचा. वहीं सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में कंगना और उनकी बहन को भी नोटिस भेजा गया है.
दूसरी ओर शिवसेना के नेता संजय राउत रिपब्लिक टीवी पर मुंबई पुलिस की कार्रवाई को जायज़ ठहरा रहे हैं.
उन्होंने कहा, "सर्वोच्च न्यायालय ने इस चैनल के बारे में कहा था कि आप न्यायालय नहीं हो, जाँच एजेंसी नहीं हो, इसलिए आप किसी के ख़िलाफ़ कुछ भी ग़लत-सलत बोलकर लोगों को बहकावे में नहीं ला सकते."
संजय राउत ने उल्टा सवाल किया कि ये हमारा कहना नहीं है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय का है, तो क्या आप सर्वोच्च न्यायालय से भी कहेंगे कि ये काला दिन है?(https://www.bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मथुरा के एक मंदिर में नमाज़ पढऩे के अपराध में पुलिस चार नौजवानों को गिरफ्तार करने में जुटी हुई है। उन चार में से दो मुसलमान हैं और दो हिंदू हैं। ये चारों नौजवान दिल्ली की खुदाई-खिदमतगार संस्था के सदस्य हैं। इस नाम की संस्था आजादी के पहले सीमांत गांधी बादशाह खान ने स्वराज्य लाने के लिए स्थापित की थी। अब इस संस्था को दिल्ली का गांधी शांति प्रतिष्ठान और नेशनल एलायंस फॉर पीपल्स मूवमेंट चलाते हैं।
इस संस्था के प्रमुख फैजल खान को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है और उसके तीन अन्य साथी अभी फरार हैं। इन चारों नौजवानों के खिलाफ मंदिर के पुजारियों ने पुलिस में यह रपट लिखवाई है कि इन लोगों ने उनसे पूछे बिना मंदिर के प्रांगण में नमाज़ पढ़ी और उसके फोटो इंटरनेट पर प्रसारित कर दिए। इसका उद्देश्य हिंदुओं की भावना को ठेस पहुंचाना और देश में साप्रदायिक तनाव पैदा करना रहा है।
इन चारों नवयुवकों का कहना है कि दोपहर को वे जब मंदिर में थे, नमाज़ का वक्त होने लगा तो उन्होंने पुजारियों से अनुमति लेकर नमाज़ पढ़ ली थी। उस समय वहां कोई भीड़-भाड़ भी नहीं थी। मेरी समझ में नहीं आता कि इन लडक़ें को पुलिस ने गिरफ्तार क्यों किया ? उन्होंने मूर्तियों के सामने जाकर तो नमाज़ नहीं पढ़ी? उन्होंने हिंदू देवताओं के लिए कोई अपमानजनक शब्द नहीं कहे। यदि उन्हें अनुमति नहीं मिली तो उन्होंने नमाज़ कैसे पढ़ ली ? क्या पुजारी लोग उस वक्त खर्राटे खींच रहे थे ?
सबसे बड़ी बात तो यह कि जिस फैसल खान को गिरफ्तार किया गया है, वह रामचरित मानस की चौपाइयां धाराप्रवाह गा कर सुना रहा था। चारों नौजवान मथुरा-वृदांवन किसलिए गए थे ? चौरासी कोस की ब्रज-परिक्रमा करने गए थे। ऐसे मुसलमान युवकों पर आप हिंदूद्रोह का आरोप लगाएंगे तो अमीर खुसरो, रसखान, ताजबीबी, आलम और नज़ीर जैसे कृष्णभक्तों को आप क्या फांसी पर लटकाना चाहेंगे? कृष्ण के घुंघराले बालों के बारे में देखिए ताजबीबी ने क्या कहा है-
लाम के मानिंद हैं, गेसू मेरे घनश्याम के।
काफिऱ है, वे जो बंदे नहीं इस लाम के।।
यदि आप सच्चे हिंदू हैं, सच्चे मुसलमान हैं और सच्चे ईसाई हैं तो आप सबका भगवान क्या एक नहीं है ? भगवान ने आपको बनाया है या आपने कई भगवानों को बनाया है ? मंदिर में बैठकर कोई मुसलमान अरबी भाषा में वही प्रार्थना कर रहा है, जो हम संस्कृत में करते हैं तो इसमें कौनसा अपराध हो गया है ? मैंने लंदन के एक गिरजे में अब से 51 साल पहले आरएसएस की शाखा लगते हुए देखी है।
एक बार न्यूयार्क में कई पठान उद्योगपतियों ने मेरे साथ मिलकर हवन में आहुतियां दी थीं। बगदाद के पीर गैलानी की दरगाह में बैठकर मैंने वेदमंत्रों का पाठ किया है और 1983 में पेशावर की बड़ी मस्जिद में नमाज़े-तरावी पढ़ते हुए बुरहानुद्दीन रब्बानी (जो बाद में अफगान राष्ट्रपति बने) ने मुझे अपने साथ बिठाकर ‘संध्या’ करने दी थी। लंदन के ‘साइनेगॉग’ (यहूदी मंदिर) में भी सभी यहूदियों ने मेरा स्वागत किया था। किसी ने जाकर थाने में मेरे खिलाफ रपट नहीं लिखवाई थी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
एक तरफ जलवायु परिवर्तन को खारिज करने वाले ट्रंप हैं तो दूसरी तरफ बिडेन जिन्होंने जलवायु वैज्ञानिकों को सुनने का वादा किया है।
-विवेक मिश्रा
जैसा कि अमेरिका में चुनाव की रात होता आया है, राष्ट्रपति पद के लिए दो उम्मीदवारों के घोषित रुख पर एक नजर डाला जाता है, जिससे यह भी पता चलता है कि चुनाव बाद वैश्विक जलवायु आंदोलन की क्या स्थिति होगी। वैश्विक जलवायु से संबंधित चुनिंदा मुद्दों पर रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड जॉन ट्रम्प और डेमोक्रेटिक पार्टी के जोसेफ बिडेन में काफी अंतर है। जहां बिडेन एक संतुलित स्वरूप के साथ नजर आते हैं वहीं ट्रंप का दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि वे वैश्विक जलवायु आंदोलन के साथ समझौता नहीं कर रहे हैं।
आइए इन बातों पर एक नजर डालते हैं।
सबसे पहले, जलवायु योजना पर विचार करते हैं। एक तरफ बिडेन ने 2 खरब डॉलर की जलवायु योजना की घोषणा की है, जिसके तहत 2035 तक 100 प्रतिशत स्वच्छ बिजली प्रदान करने का वादा है तो 2050 तक "नेट जीरो" उत्सर्जन परिदृश्य को प्राप्त करने के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। नेट जीरो एक ऐसी स्थिति है जहां कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को संतुलित तरीके से धीरे-धीरे हटाकर या पूरी तरह से खत्म करके शून्य तक पहुंचा दिया जाता है। वहीं, हैरानी है कि ट्रम्प अब तक एक जलवायु योजना के साथ नहीं आए हैं।
अब जीवाश्म ईंधन पर आते हैं। बिडेन चट्टानी गैस निकालने की प्रक्रिया 'फ्रैकिंग' पर प्रतिबंध का समर्थन नहीं करते हैं, जो एक अत्यधिक प्रदूषण फैलाने वाली प्रक्रिया है। जमीन में गहरी ड्रिलिंग की जाती है, जिसके बाद जमीन में उच्च दबाव में पानी के मिश्रण को इंजेक्ट किया जाता है। यह चट्टान में फंसी गैस निकालने के लिए किया जाता है। वहीं, ट्रम्प भी सक्रिय रूप से फ्रैकिंग का समर्थन करते हैं।
बिडेन जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी समाप्त करना भी चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि वह सार्वजनिक भूमि पर नए अपतटीय ड्रिलिंग और नए परमिट पर प्रतिबंध लगाएंगे। ये भूमि अमेरिकी संघीय सरकार द्वारा अमेरिकी लोगों के लिए भरोसे पर रखी जाती है और कई संघीय एजेंसियों द्वारा प्रबंधित की जाती है। दूसरी ओर ट्रम्प, अमेरिकी तेल और गैस उत्पादन को बढ़ावा देना चाहते हैं। उन्होंने अपने आसन्न पतन के बावजूद अपने कार्यकाल के दौरान कोयला उद्योग को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को आगे बढ़ाया है।
दोनों उम्मीदवार अक्षय ऊर्जा पर पर्याप्त रूप से भिन्न हैं। बिडेन ने अमेरिका के लिए 2035 तक स्वच्छ बिजली का वादा किया है। साथ ही घोषणा की है कि वह नवीनीकरण के साथ-साथ नौकरियों पर शोध करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। नवीनीकरण पर ट्रम्प का रुख हालांकि विचित्र है। पवन ऊर्जा उसके अनुसार पक्षियों को मारती है। उन्होंने यह भी कहा है कि सौर ऊर्जा अभी तक काफी नहीं है और कारखानों को बिजली नहीं दे सकते।
फ्रांस की राजधानी में पांच साल पहले हस्ताक्षर किए गए पेरिस समझौते का उद्देश्य विश्व स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को रोकना था। बिडेन, जो उस समय बराक ओबामा राष्ट्रपति पद के उपाध्यक्ष थे, ने 2015 में समझौते में शामिल होने में उसका समर्थन किया था। वहीं, ट्रम्प ने अपनी अध्यक्षता के दौरान अमेरिका को पेरिस समझौते से वापस ले लिया। चुनाव के अगले दिन 4 नवंबर, 2020 अमेरिका के लिए आधिकारिक तौर पर पेरिस समझौते से हटने की निर्धारित तिथि है।
वहीं, ट्रंप से उलट बिडेन ने प्रतिज्ञा की है कि यदि वह चुने जाते हैं तो अमेरिका समझौते को फिर से जारी करेगा।
पर्यावरण नियमों के लिए ट्रम्प का कोई सम्मान नहीं है। ट्रंप ने ऐसे 150 नियमों को वापस लिया। वहीं, बिडेन ईंधन दक्षता मानकों को बहाल करना चाहता है, प्रदूषण कानूनों को मजबूत करना चाहता है और कई क्षेत्रों में सुरक्षा को मजबूत करना चाहता है।
जलवायु न्याय पर, बिडेन ने वंचित समुदायों को 40 प्रतिशत जलवायु निवेश देने के लिए प्रतिबद्ध किया था। दूसरी ओर ट्रम्प ने अब तक जलवायु न्याय की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने जंगल की आग और अन्य जलवायु आपदाओं से पीड़ित राज्यों को राहत निधि से सक्रिय रूप से वंचित कर दिया है।
ट्रम्प जलवायु विज्ञान में भी विश्वास नहीं करते हैं। उन्होंने सरकारी वेबसाइटों से 'जलवायु परिवर्तन' शब्द हटा दिया और कहा गया कि जलवायु परिवर्तन पर कोई सहमति नहीं थी। बिडेन ने हालांकि जलवायु वैज्ञानिकों को सुनने का वादा किया है।
ट्रम्प यूएस ग्रीन न्यू डील में विश्वास नहीं करते हैं और कहते हैं कि यह लाखों अमेरिकी नौकरियों को मार देगा। जबकि बिडेन ने भी पूरी तरह से इसका समर्थन नहीं किया है, फिर भी, उन्होंने इसके कुछ हिस्सों को निकाला है और उन्हें अपनी जलवायु कार्य योजना में इस्तेमाल किया है।
जलवायु मुद्दे बिडेन ट्रंप
जलवायु योजना (क्लाइमेट प्लान)- 2 ट्रिलियन डॉलर जलवायु योजना की घोषणा की, 2035 तक 100% स्वच्छ बिजली का लक्ष्य और 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन कोई क्लाइमेट प्लान नहीं
जीवाश्म ईंधन- फ्रैकिंग प्रतिबंध का समर्थन नहीं है, जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करने की चाहत, नए अपतटीय ड्रिलिंग और सार्वजनिक भूमि पर नए परमिट पर प्रतिबंध लगाने का वादा अमेरिकी तेल और गैस उत्पादन को बढ़ावा देने की बात, अपनी आसन्न गिरावट के बावजूद कोयला उद्योग को वापस करने के लिए नीतियों को आगे बढ़ाया.
नवीकरणीय ऊर्जा- अक्षय ऊर्जा अनुसंधान और नौकरियों में निवेश करने के लिए प्रतिबद्ध, 2035 तक 100% स्वच्छ बिजली का वादा दावा है कि पवन ऊर्जा पक्षियों को मारती है वहीं सौर ऊर्जा नाकाफी है साथ ही कारखानों को बिजली नहीं दे सकती है.
पेरिस समझौता- 2015 में ओबामा का समझौते से जुड़ने का समर्थन, फिर से जुड़ने का वादा समझौते से अमेरिका को वापस ले लिया, वापसी 4 नवंबर को प्रभावी हो सकती है
पर्यावरण विनिमय (रेग्यूलेशन्स)- ईंधन दक्षता मानकों को बहाल करना, प्रदूषण कानूनों को मजबूत करना, कई क्षेत्रों की सुरक्षा बहाल करना चाहता है, 150 से अधिक जलवायु-अनुकूल नियमों को वापस लिया.
जलवायु न्याय- वंचित समुदायों को 40% जलवायु निवेश देने के लिए प्रतिबद्ध कोई मान्यता नहीं, सक्रिय रूप से जंगल और अन्य जलवायु आपदाओं से पीड़ित राज्यों को राहत राशि से वंचित किया है.
जलवायु परिवर्तन- जलवायु वैज्ञानिकों को सुनने का वादा, जलवायु परिवर्तन को कोई मान्यता नहीं, सरकारी वेबसाइट से हटवाया जलवायु परिवर्तन.
ग्रीन न्यू डील- ग्रीन न्यू डील का समर्थन नहीं किया है, लेकिन अपनी जलवायु योजना में इसके तत्वों को शामिल किया है, ग्रीन न्यू डील का समर्थन नहीं किया है, सोचना है कि यह लाखों नौकरियों को मार देगा.
फ्रैकिंग-
(चट्टान से गैस निकालने की प्रक्रिया)
राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध का समर्थन नहीं करता है, नवीकरण के लिए संक्रमण के लिए इसे महत्वपूर्ण मानता है सक्रिय रूप से फ्रैकिंग का समर्थन. (downtoearth.org.in)
दुनिया में सबसे अधिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन करने वाला देश होने के बावजूद अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जलवायु परिवर्तन की जिम्मेवारी से बचते रहे
-अक्षित संगोमला
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हमेशा से सुर्खियों में रहे हैं। जबकि अमेरिका ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप हमेशा इस बात को नकारते रहे।
उदाहरण के लिए, नवंबर 2018 में जब सरकारी वैज्ञानिकों और अधिकारियों के 13 सदस्यीय एजेंसियों ने नेशनल क्लाइमेट असेसमेंट का एक पूरा वॉल्यूम जारी किया था, तब ही ट्रंप ने उसे पूरी तरह खारिज कर दिया था। इस रिपोर्ट में साफ तौर पर लिखा था, “20वीं सदी के मध्य में ग्लोबल वार्मिंग का जो सिलसिला शुरू हुआ था, इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि इसके लिए मानवीय गतिविधियां और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन जिम्मेवार रहा। इसके अलावा कोई ठोस कारण नहीं दिखते हैं।”
तब ट्रंप ने एक अमेरिकी रिपोर्टर से कहा था, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा है। नहीं, नहीं, मुझे इस पर विश्वास नहीं है। ”
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है: "1900 के बाद से वैश्विक औसत समुद्र स्तर लगभग सात-आठ इंच बढ़ चुका है, जो 1993 के बाद से लगभग तीन इंच बढ़ चुका है। इसमें मानवीय गतिविधियों के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन का पर्याप्त योगदान है। यह वृदि्ध पिछले 2800 सालों के मुकाबले काफी अधिक है। समुद्र के स्तर में वृद्धि की वजह से पहले ही अमेरिका काफी प्रभावित रहा है। और यहां की 25 से अधिक अटलांटिक और खाड़ी से सटे शहरों में ज्वारीय बाढ़ आदि की घटनाओं में तेजी हो रही है।”
लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कभी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया। हालांकि उन्होंने हाल ही में एक बहस में माना कि पृथ्वी की जलवायु को बदलने में मनुष्यों की कुछ भूमिका है, लेकिन यह कहने में उन्होंने काफी देर कर दी। चार साल के उनके कार्यकाल के दौरान काफी नुकसान हो चुका है।
शुरुआत से ही, ट्रंप प्रशासन ने कई ऐसे कदम उठाए, जो जलवायु विज्ञान के अनुकूल नहीं थे। इनमें से एक बहुत चर्चित रहा, जब उन्होंने एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) के वैज्ञानिकों और कर्मचारियों के लिए आदेश जारी करते हुए उन्हें किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में शामिल होने से रोक दिया।
तब से, कई वैज्ञानिकों ने शिकायत की कि ट्रंप प्रशासन उन्हें दरकिनार कर रहा है और यहां तक कि बोलने के लिए भी उन्हें पदावनत तक किया गया। इसके बाद, ट्रंप प्रशासन ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को कई सरकारी वैज्ञानिक और नीति रिपोर्टों से ही हटा दिया।
ट्रंप प्रशासन के इस रवैये के लिए अमेरिका के वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र जलवायु डेटा के प्रति प्रेरित किया, क्योंकि वैज्ञानिकों को लगता था कि ट्रंप शासन की वजह से जलवायु डेटा हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा।
पिछले चार वर्षों के दौरान, जलवायु परिवर्तन पर रिसर्च करने वाले संगठनों को काफी नुकसान पहुंचा। उनमें कई कम प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों का दखल बढ़ा और वरिष्ठ वैज्ञानिकों को हटा दिया गया। इनमें से सबसे विवादास्पद एंड्रयू व्हीलर थे, जिन्हें ट्रंप ने ईपीए का प्रशासक नियुक्त किया था।
एंड्रयू ने रेग्युलेटरी साइंस में पारदर्शिता को मजबूत करने वाले नियमों को कमजोर करने का काम किया।
इसके अलावा भी कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पैनल और समितियों को ट्रंप प्रशासन ने काफी नुकसान पहुंचाया।
5 अक्टूबर, 2020 को जर्नल नेचर ने एक बड़ा कदम उठाते हुए एक लेख प्रकाशित किया, जिसमें साफ तौर पर ट्रंप द्वारा विज्ञान को पहुंचाए गए नुकसान का पूरा ब्यौरा दिया गया और कहा गया कि विज्ञान को हुई इस नुकसान की भरपाई में कई दशक लग जाएंगे।
मई 2019 में, ट्रम्प ने आर्कटिक क्षेत्र में तेजी से बर्फ के पिघलने पर एक सांकेतिक हस्ताक्षर करने से तब तक इनकार कर दिया, जब तक कि जलवायु परिवर्तन के संदर्भों को इससे हटा नहीं दिया गया। इससे एक ऐसी स्थिति पैदा हुई, जहां अमेरिका वैज्ञानिक सबूतों के आधार पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भविष्यवाणियों पर काम नहीं कर पाएगा।
अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक रघु मुर्तुगुडे कहते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी ने जीवाश्म ईंधन उद्योग के साथ पक्षपात किया है और मतदाताओं के बीच जलवायु कार्रवाई के व्यापक समर्थन की अनदेखी की। डोनाल्ड ट्रंप ने इस मुद्दे को व्यक्तिगत तौर पर ले ले लिया, क्योंकि इस व्यापार से उनके व्यक्तिगत रिश्ते हैं।
रघु कहते हैं कि इसी सोच के चलते ट्रंप ने जलवायु से संबंधित सभी रिसर्च और कार्ययोजनाओं को रोक दिया, बल्कि कई पर्यावरणीय नियमों को भी रद्द कर दिया है, ताकि उद्योगों के लिए काम करना आसान हो सके। बेशक कोविड-19 के प्रति उनकी प्रतिक्रिया भी विज्ञान पर बड़ा हमला ही है, लेकिन जलवायु विज्ञान को ट्रंप ने सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाया है।
गैर-लाभकारी संस्था क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क द्वारा जारी जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (सीसीआईपी) 2020 के अनुसार, जलवायु परिवर्तन संबंधी नीतियों के मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है।
ऐसे में, यदि ट्रम्प 4 नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव जीतते हैं, तो यह जलवायु विज्ञान अनुसंधान और मानवता के सभी के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकता है। (downtoearth.org.in)
हाथ की हुनरमंदियाँ -1
-सतीश जायसवाल
दो कोटा हैं। एक पश्चिम रेलवे पर। एक दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे पर। इसके साथ करगीरोड जुड़ा हुआ है। दोनों मिलकर हुए करगीरोड-कोटा। रेलवे स्टेशन करगीरोड और बस्ती हुई - कोटा। टीकाराम चक्रधारी इसी कोटा का है। बस्ती से थोड़ा ऊपर, लेकिन नीचे, ढलवान की तरफ उतरती हुई पहाड़ी पर कुम्हारों का मोहल्ला है। बस्ती से नहीं दिखता, थोड़ा आड़ में पड़ जाता है। इसी मोहल्ले में एक घर टीकाराम चक्रधारी का है।
भगवान विष्णु चक्र धारण करते हैं इसलिए चक्रधारी हुए। टीकाराम चक्र चलाता है, मिट्टी में प्राण जगाता है इसलिए चक्रधारी हुआ। वह कुछ इस मनोयोग से अपना चक्र चलाते हुए मिला जैसे योग साधना कर रहा है। प्राण मंत्र का पाठ कर रहा है। प्राण मंत्र पड़ते ही मिट्टी शरीर धारण करने लगी। चाक पर अपनी परिक्रमा पूरी करते ही, रौंदी हुई मिट्टी दीपावली का दिया बन गई।
टीकाराम ने बताया कि चाक पर चढ़ाने से पहले मिट्टी को पाँवों से खूब रौंदना पड़ता है। तब दीपावली पूजन के दिए बनते हैं, भगवान भी बनते हैं। लेकिन आजकल बाजार में भगवान की मांग नहीं रही। इसलिए वह भगवान नहीं बनाता, बस दिये ही बनाता है।
तब हमारा ध्यान गया कि यह दीपावली के बाजार का मौसम है। टीकाराम उसी की तैयारियों में लगा हुआ था। लेकिन अब दियों का बाजार भी सिमटने लगा है। कोटा का बाजार छोटा है, यहां दाम भी छोटा मिलता है। लागत और मजूरी को पूरा नहीं पड़ता। पास में बिलासपुर बड़ा बाजार है, लेकिन एक अकेले के लिए दूर पड़ता है। सामान लाने-ले जाने का खर्च नहीं निकलेगा। और समूह बनाकर बड़े बाजार में पहुँचने के लिए साथी नहीं जुटते। इस कुम्हार मोहल्ले के लोग धीरे-धीरे अपने इस पैतृक रोजगार से दूर होते जा रहे हैं। इसमें परिवार का गुजारा अब नहीं होता। यह दुखद स्थिति है।
फिर भी हम जैसे शौकिया अन्वेषकों के पास एक, बेहूदा और तैय्यारशुदा सवाल होता है -क्या अपने हाथों की यह हुनरमन्दी अपने बच्चों को सौंपेंगे, और अपने इस पैतृक रोजगार को आगे बढ़ाएंगे?
टीकाराम इस बेहूदा सवाल के सामने असहाय होने से बच गया। उसके कोई बेटा नहीं है। तीन बेटियां हैं। शादी-ब्याह के बाद अपने-अपने घर चली जाएँगी। अभी तीनों पढ़ रही हैं। बड़ी वाली आठवीं में है, मझली वाली छठवीं में और छोटी कक्षा चार में है।
ऐसे में डर होता है कि गुजर-बसर की चिन्ताओं के सामने थका और हारा पिता बेटियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़ाकर कहीं कच्ची उम्र में ही उन्हें ना ब्याह दे। लेकिन टीकाराम ने भरोसा दिलाया कि वह ऐसा नहीं करेगा। बच्चियों को उनकी पढ़ाई पूरी करने देगा। उसका तो मन है कि उसकी बेटियां कॉलेज तक तो पढ़ सकें -लेकिन कैसे होगा?
-भगवान कोई न कोई रास्ता बताएंगे। उसने भगवान पर छोड़ दिया।
ऐसे में किसी आस्थावान समाज का एक व्यक्ति जो करता है, टीकाराम ने भी वही किया। उसने भगवान का भरोसा किया। यह उसका अपना भरोसा था। उसका भगवान उसके अपने भरोसे में है। उसका भरोसा अभी जीवित है। इसलिए उसका भगवान भी जीवित है।
एक योरोपीय दार्शनिक, नीत्शे ने तो भगवान की मृत्यु घोषित कर दी थी। कहा था-- भगवान मर गया।
लेकिन टीकाराम चक्रधारी का भगवान अभी जीवित है। उसने अपने भगवान को बचा रखा है। टीकाराम का भगवान उसके चाक में सुरक्षित है।
लेकिन भारत भवन, भोपाल में सिरेमिक्स विभाग के अध्यक्ष देवीलाल पाटीदार को उसके जीवन की चिन्ता है। उसका जीवन रहेगा तभी भगवान रहेगा। अभी थोड़े दिनों पहले, देवीलाल पाटीदार ने उसके लिए चिन्ता जताई थी। और व्यथित होकर कहा था- कुम्हार को जीने दो।
हाथ की हुनरमंदियों को आधुनिक बाजार लील रहा है। बाहर का बाजार घरेलू बाजार को समेट रहा है। कुम्हार से, उसके जीने के हक छीन रहा है। देवीलाल पाटीदार की चिन्ता कुम्हार के जीवन के लिए है। क्योंकि कुम्हार के चाक के साथ हमारी परम्पराओं की पुरातनता का इतिहास शुरू होता है। अपनी पुरातनताओं के अन्वेषण में जुटे हुए पुरा-वैज्ञानिकों के लिए वहाँ मिलने वाले मिटटी के पुराने बर्तन और उनके टुकड़े सबसे बुनियादी ‘टूल’ या उपकरण होते हैं। इनसे पता चलता है कि मिटटी को पकाकर बर्तन बनाने का ज्ञान मनुष्य जाति के पास कब आया? हाथों की हुनरमंदियों की पैतृक परम्परा उतनी ही पुरानी होती है। टीकाराम चक्रधारी उसकी निरंतरता को बनाए हुए हैं।

टीकाराम भी चाक से उतारे हुए मिट्टी के कच्चे दियों को भट्टी में पकाता है। तब लाल रंगों वाले खूबसूरत और चमकदार दिये अपने रूप में आते हैं। और दिवाली के बाजार को गुलजार करते हैं। उसकी भट्ठी में एक साथ एक लाख तक दिए पकाये जा सकते हैं। लेकिन वह अधिक से अधिक 10 हजार दियों की ही भट्ठी लगाता है। उसकी पहुँच के बाजार में इतनी ही खपत हो पाती है। उसकी भट्ठी में तो भगवान भी पकते थे। विष्णु भगवान, लक्ष्मीजी, गणेशजी। सभी। लेकिन बाजार में अब भगवानों की मांग नहीं रही।
बिजली की रंगीन रौशनियों के सामने अब मिट्टी के दियों का बाजार भी सिमटता जा रहा है। कुम्हार भी सिमट रहे हैं। अपने पैतृक रोजगार से दूर हो रहे हैं। यह समय इनके लिए चिन्ता करने का है। इनको वापस लाने का भी, और इनके जीवन को बचाये रखने का भी।
अब यह देवीलाल पाटीदार की अकेली चिन्ता नहीं रही। इस पर छत्तीसगढ़ में एक सक्रिय पहल हुई है। एक आन्दोलन विकसित हो रहा है। दीपावली के बाजार में मिट्टी के दियों की वापसी के लिए एक मजबूत, योजनाबद्ध आंदोलन। इसमें मिट्टी के दिये अकेले नहीं हैं, इसके साथ गाय के गोबर के दिये बनाकर उनको बाजार में पहुँचाने का एक नया प्रयोग भी जुड़ा हुआ है। इस प्रयोग में कुम्हार के साथ मिट्टी पर आश्रित अन्य हुनरमन्द जातियों के भी जीवन की चिन्तायें शामिल हैं। लेकिन टीकाराम इससे अनजान है।
यह आन्दोलन अभी कोटा के टीकाराम और, वहां के कुम्हार मोहल्ले तक नहीं पहुंचा है। ऐसा इसलिए मुमकिन हो सकता है कि यह आन्दोलन समाज से नहीं निकला है। बल्कि एक सरकारी आन्दोलन है। अब सरकार से निकलकर जनता तक पहुंचेगा। फिर भी यह अपने यहाँ के पैतृक कौशल और इनसे जुड़ी हुई हुनरमन्द जातियों का संरक्षण सुनिश्चित करता है। उनके भरोसे की चिन्ता करता है। इसलिए एक जनआंदोलन है।
(लेखक सुपरिचित साहित्यकार हैं, और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में बसे हुए हैं। )
-सैम बेकर
अमेरिका में आम तौर पर राष्ट्रपति चुनाव का फैसला मतदान वाले दिन रात तक हो जाता है. अगले दिन तड़के तक पराजित उम्मीदवार हार स्वीकार कर लेता है. लेकिन इस साल परिस्थितियां अलग लग रही हैं. कोविड-19 को देखते हुए बहुत सारे लोगों ने डाक मतपत्रों के जरिए अपना वोट डाला है. इसलिए वोटों की गिनती में लंबा समय लग सकता है. एक रात में होने वाले फैसले को आने में अब कई दिन और यहां तक कि कई हफ्ते भी लग सकते हैं.
इसके अलावा रिपबल्किन पार्टी के कई नेता तो डाक मत पत्रों की विश्वसनीयता पर ही सवाल उठा रहे हैं. राष्ट्रपति ट्रंप बार बार यह भी कह चुके हैं कि अगर नतीजा उनके हक में नहीं आया तो जरूरी नहीं कि वे इसे मानें. इन सब हालात को देखते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा बहुत ही अगर-मगर से घिरा है.
डाक मतपत्र
यूएस इलेक्शन प्रोजेक्ट के अनुसार कोरोना महामारी के बीच लगभग छह करोड़ अमेरिकियों ने अपना वोट डाक मतपत्रों के जरिए डाला है. कोलेराडो, ओरेगोन, वॉशिंगटन, उटा और हवाई में डाक मतपत्र कोई मुद्दा नहीं हैं क्योंकि वहां के अधिकारियों को इनकी आदत रही है. वहीं दूसरे राज्यों में भी लोगों की सुविधा को देखते हुए इस बार डाक मतपत्रों से वोट डालने पर जोर दिया गया. मार्च से यह काम चल रहा है. लेकिन चुनाव वाले दिन से पहले मतपत्रों को नहीं खोला जा सकता.
बैटलग्राउंड कहे जाने वाले विस्कोन्सिन और पेंसिल्वेनिया जैसे राज्यों में भी बड़ी संख्या में लोगों ने इस बार डाक मतपत्रों का इस्तेमाल किया है. पेंसिल्वेनिया और नॉर्थ केरोलाइना समेत कई राज्यों में तो चुनाव के दिन तक डाक मतपत्रों को स्वीकार करने की अनुमति दी गई है. इसलिए वोटों की गितनी में काफी समय लगने वाला है.
मिशिगन यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एडी गोल्डनबर्ग कहते हैं, "कुछ भी भविष्यवाणी करना थोड़ा मुश्किल है. कुछ राज्यों में पता चल रहा है कि क्या स्थिति होने जा रही है. बाकी राज्यों में कुछ भी कह पाना मुश्किल है."
मतपत्रों पर संदेह
इस साल चुनाव प्रचार के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप और अन्य रिपब्लिकन नेताओं ने डाक मतपत्रों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जबकि इनमें धांधली की संभावना बहुत ही कम है. ऐसा तब है जब खुद राष्ट्रपति डाक मतपत्रों से वोट देते हैं. हालिया मध्यावधि चुनाव और फ्लोरिडा की प्राइमरी में ट्रंप ने डाक मतपत्र से वोट दिया.
President Trump: "I think mail-in voting is horrible, it's corrupt."
— MSNBC (@MSNBC) April 7, 2020
Reporter: "You voted by mail in Florida's election last month, didn't you?"
Trump: "Sure. I can vote by mail"
Reporter: "How do you reconcile with that?"
Trump: "Because I'm allowed to." pic.twitter.com/Es8ZNyB3O1
डाक से आने वाले मतपत्रों में कभी ऐसा नहीं दिखा है कि किसी एक खास पार्टी को ज्यादा समर्थन मिला हो. गोल्डेनबर्ग कहते हैं कि आम तौर पर रिपब्लिकन समर्थक थोड़ा सा ज्यादा डाक मतपत्रों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन चूंकि इस बार रिपब्लिकन पार्टी ने डाक मतपत्रों के खिलाफ बयान दिए हैं इसलिए हो सकता है कि उन्होंने कम डाक मतपत्र इस्तेमाल किए हों.
कानूनी जंग
चुनावों को लेकर लगभग 400 मुकदमे दायर किए गए हैं. दोनों ही उम्मीदवारों की टीम ने अपनी कानूनी टीमों को इस पर लगाया है. येल लॉ स्कूल में प्रोफेसर और संविधान के विशेषज्ञ ब्रूस एकरमन कहते हैं कि ज्यादातर मुकदमे चुनावी प्रक्रिया को लेकर हैं जिनका फैसला राज्यों की अदालतों में होगा.
एकरमन और दूसरे विशेषज्ञ कहते हैं कि इसकी संभावना नहीं है कि फिर से 2000 जैसी परिस्थितियां होंगी जब जॉर्ज बुश और अल गोर के बीच हुए चुनावी मुकाबले का फैसला सुप्रीम कोर्ट में हुआ था. हालांकि राष्ट्रपति ट्रंप इसकी पूरी संभावना जता चुके हैं.
.@POTUS: "I think this will end up in the Supreme Court. & I think it's very important that we have 9 Justices. & I think the system is going to go very quickly. I'll be submitting at 5 o'clock on Saturday, the name of the person I chose for this most important of positions." pic.twitter.com/v1veiqU2Mm
— CSPAN (@cspan) September 23, 2020
संवैधानिक सवाल
अगर चुनाव में मुकाबला बराबर रहा या फिर राज्यों के अनसुझले विवादों के बीच किसी भी उम्मीदवार को बहुमत नहीं मिला तो फिर अमेरिकी संविधान के मुताबिक, अमेरिकी कांग्रेस की नवनिर्वाचित प्रतिनिधि सभा 6 जनवरी तक फैसला करेगी कि कौन राष्ट्रपति होगा. पिछली बार ऐसा 19वीं सदी में हुआ था.
लेकिन स्थिति तब और जटिल हो जाएगी जब राज्य शायद लंबित मुकदमों की वजह से 8 दिसंबर तक अपने प्रतिनिधियों को ना चुन पाएं. फिर कांग्रेस राज्यों के चुनाव नतीजों को मानने के लिए बाध्य नहीं होगी.
अगर 20 जनवरी को राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण तक कोई भी विजेता नहीं चुना गया तो फिर जो भी राष्ट्रपति बनेगा वह कार्यवाहक राष्ट्रपति होगा. यह व्यक्ति या तो निर्वाचित उपराष्ट्रपति होगा या फिर प्रतिनिधि सभा का अध्यक्ष. ऐसा तब होगा जब सीनेट 20 जनवरी तक किसी को उप राष्ट्रपति ना चुन पाए.
नतीजों की स्वीकार्यता
एक संभावना यह है कि हारने पर राष्ट्रपति ट्रंप चुनाव नतीजों को स्वीकार करने से इनकार कर दें. सितंबर में ट्रंप ने कहा था, "हम देखते हैं कि हम क्या करेंगे." इसके जवाब में अमेरिकी सीनेटरों ने एकमत से प्रस्ताव पास किया ताकि सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण हो सके.
The winner of the November 3rd election will be inaugurated on January 20th. There will be an orderly transition just as there has been every four years since 1792.
— Leader McConnell (@senatemajldr) September 24, 2020
चुनावी प्रक्रिया पर नजर रखने वाले बहुत से लोगों को उम्मीद है कि चुनाव के नतीजे इतने स्पष्ट हों कि ऐसे हालात ही ना पैदा हों. गोल्डनबर्ग कहते हैं, "मैं आमतौर पर आशावादी हूं कि नतीजा स्पष्ट होगा क्योंकि इस चुनाव में बहुत कुछ दांव पर लगा है."(DW.COM)
-चारु कार्तिकेय
पिछले कुछ महीनों में महामारी के बीच कंपनियों द्वारा उनके कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिए जाने के कई खबरें मीडिया में आईं. लेकिन अब एक मीडिया संस्थान द्वारा की गई छंटनी की खबर छापने पर उस संस्थान द्वारा एक और मीडिया संस्थान को ही परेशान करने का मामला सामने आया है.
मार्च में ही न्यूजलॉन्ड्री वेबसाइट ने महाराष्ट्र के सकाल मीडिया समूह द्वारा कई पत्रकारों समेत 15 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल देने की खबर छापी थी. यह उस समय की बात है जब पूरे देश में तालाबंदी लागू हुए बस तीन दिन बीते थे. नौकरी से निकाले गए सभी लोग सकाल समूह के दैनिक अखबार सकाल टाइम्स के संपादकीय विभाग में काम करते थे.
इसके ढाई महीने बाद अखबार ने कम से कम 50 और कर्मचारियों को निकाल दिया और अखबार का प्रिंट संस्करण बंद ही कर दिया. 11 जून को यह खबर भी न्यूजलॉन्ड्री ने छापी, लेकिन 16 जून को सकाल ने न्यूजलॉन्ड्री को 65 करोड़ रुपए हर्जाने का मानहानि का नोटिस भेज दिया. नोटिस में सकाल ने आरोप लगाया था कि न्यूजलॉन्ड्री द्वारा छापी गई खबरें झूठी और मानहानिकारक हैं.
Newslaundry correspondent, @tweets_prateekg reported about layoffs at Sakal Times.
— newslaundry (@newslaundry) November 3, 2020
He was slapped with an FIR and Newslaundry with a Rs 65 crore defamation suit.https://t.co/gY6m6WwXKw
न्यूजलॉन्ड्री का कहना है कि सकाल ने नोटिस में यह तक नहीं बताया कि कौन सी जानकारी गलत है और सकाल के हिसाब से सही जानकारी क्या है. लेकिन सकाल ने न्यूजलॉन्ड्री के खिलाफ अपनी कार्रवाई को यहीं तक सीमित नहीं रखा. उसने खबर देने वाले न्यूजलॉन्ड्री के पत्रकार प्रतीक गोयल के खिलाफ पुणे में एक एफआईआर दर्ज करा दी.
पुलिस को की गई शिकायत में सकाल ने प्रतीक पर कंपनी के खिलाफ मानहानिकारक लेख लिखने, लेख छापने से पहले कंपनी की अनुमति ना लेने और कंपनी के लोगो का गलत इस्तेमाल करने का आरोप लगाया. न्यूजलॉन्ड्री के अनुसार पुलिस ने प्रतीक को गिरफ्तार करने की भी कोशिश की जिसके बाद कंपनी ने पुणे जिला कोर्ट में अग्रिम जमानत के लिए अपील की और मुंबई हाई कोर्ट में एफआईआर को ही निरस्त करने की अपील की.
हाई कोर्ट ने फैसला दिया कि पुलिस अपनी जांच तो जारी रख सकती है लेकिन चार्जशीट दायर करने से पहले उसे अदालत की अनुमति लेनी पड़ेगी. प्रतीक को अग्रिम जमानत भी मिल गई लेकिन न्यूजलॉन्ड्री का कहना है कि इसके बावजूद पुलिस ने उन्हें जेल में डालने की धमकी थी. न्यूजलॉन्ड्री का कहना है कि पुलिस अब प्रतीक का लैपटॉप जब्त करना चाह रही है. और भी ज्यादा चिंता की बात यह है न्यूजलॉन्ड्री ने इस पूरे मामले में पुलिस पर राजनीतिक दबाव का भी आरोप लगाया है.
सकाल समूह का महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ एनसीपी के प्रमुख शरद पवार से संबंध है. पवार के भाई प्रताप पवार समूह के निदेशकों के बोर्ड के चेयरमैन हैं, उनके बेटे अभिजीत पवार प्रबंधक निदेशक हैं और खुद शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले भी निदेशकों में से एक हैं. उनके भतीजे अजित पवार इस समय महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री हैं.(DW.COM)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
‘लव जिहाद’ के खिलाफ उप्र और हरियाणा सरकार कानून बनाने की घोषणा कर रही है और ‘लव जिहाद’ के नए-नए मामले सामने आते जा रहे हैं। फरीदाबाद में निकिता तोमर की हत्या इसीलिए की गई बताई जाती है कि उसने हिंदू से मुसलमान बनने से मना कर दिया था। उसका मुसलमान प्रेमी उसे शादी के पहले मुसलमान बनने का आग्रह कर रहा था। यह शब्द लव-जिहाद 2009 में सामने आया, जब केरल और कर्नाटक के कैथोलिक ईसाइयों ने शोर मचाया कि उनकी लगभग 4000 बेटियों को प्रलोभन देकर या डराकर मुसलमान बना लिया गया है।
एक-दो मामले उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में भी चले गए। सरकारी जांच एजेंसियों ने भी तगड़ी छान-बीन की लेकिन हर मामले में लालच या डर या इस्लामिक षडय़ंत्र नहीं पाया गया। किंतु जांच एजेन्सियों को ऐसे ठोस प्रमाण जरुर मिले कि कुछ इस्लामी संगठन बाकायदा धर्म-परिवर्तन (तगय्युर) की मुहिम चलाए हुए हैं और उनकी कोशिश होती है कि वे हिंदू, ईसाई, सिख आदि को इस्लामी जमात में शामिल कर लें। इस तरह की कोशिशें सिर्फ यहूदियों और पारसियों में ही कम से कम देखने में आती हैं, वरना कौनसा मजहब है, जो अपना संख्या-बल बढ़ाने की कोशिश नहीं करता ?
वे ऐसा इसीलिए करते हैं, क्योंकि वे समझते है कि ईश्वर, अल्लाह या यहोवा को प्राप्त करने का उनका मार्ग ही एक मात्र मार्ग है और वही सर्वश्रेष्ठ है सिर्फ हिंदू धर्म के अनुयायी ही सारी दुनिया में एक मात्र ऐसे हैं, जो यह मानते हैं कि ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।’ याने सत्य एक ही है लेकिन विद्वान उसे कई रुप में जानते हैं। इसीलिए भारत के हिंदू या बौद्ध या जैन या सिख लोगों ने धर्म-परिवर्तन के लिए कभी तन, तलवार या तिजोरी का सहारा नहीं लिया।
ईसा मसीह और पैगंबर मोहम्मद के जमाने की बात अदभुत है लेकिन उसके बाद इस्लाम और उससे पहले ईसाई मत का धर्मान्तरण का इतिहास इससे एकदम उल्टा है। यूरोप में लगभग एक हजार साल के इतिहास को अंधकार-युग के नाम से जाना जाता है और यदि आप ईरान, अफगानिस्तान और भारत के मध्ययुगीन इतिहास को ध्यान से पढ़ें तो पता चलेगा कि सूफियों को छोड़ दें तो इस्लाम जिन कारणों से भारत में फैला है, वे उसके श्रेष्ठ सिद्धांतों के कारण नहीं, बल्कि ऐसे कारणों से फैला है, जिन्हें इस्लामी कहना बहुत ही मुश्किल है।
भारत में ईसाइयत और अंग्रेजों की गुलामी एक ही सिक्के के दो पहलू रहे हैं। इसका तोड़ आर्यसमाज ने निकाला था- शुद्धि आंदोलन लेकिन वह भी अधर में ही लटक गया, क्योंकि मजहब पर जात हावी हो गई। ‘घर वापसी’ का भी हाल वही हो रहा है। मैं कहता हूं कि यदि दो युवक और युवती में सच्चा प्रेम है तो मजहब या पैसा या जात या वंश- कुछ भी आड़े नहीं आ सकता।
जहां ‘लव’ है, वहां ‘जिहाद’ का ख्याल ही नहीं उठता। जहां ‘लव’ (प्रेम) की जगह लाभ-हानि का गणित होता है, वहीं धर्म-परिवर्तन जरुरी हो जाता है। मेरे छात्र-काल में मैंने ईरान, तुर्की, यूरोप और अमेरिका में ऐसे कई द्विधर्मी जोड़े देखे, जो स्वधर्म में स्थित रहते हुए या उन्हें हाशिए में रखते हुए मजे से गृहस्थ-धर्म निभाते थे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
पाकिस्तान के सिंध प्रांत में कई लोग अपनी नवजात बच्चियों को अस्पतालों में छोड़ कर जा रहे हैं या फिर ऐसी हालत में घर ले जाते हैं जिनमें उनका ज्यादा दिन बचना मुमकिन नहीं होता. जानकार इसके लिए समाज को जिम्मेदार मानते हैं.
डॉयचे वैले पर अंबरीन फातिमा की रिपोर्ट-
चंद महीने पहले की बात है कि सिर्फ कुछ दिनों की नन्ही सायरा को लाड़काना के शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल में गंभीर हालत में लाया गया. इलाज के बाद वह ठीक हो गई, लेकिन उसके घर वाले उसे अस्पताल में लावारिस छोड़ कर चले गए. अस्पताल प्रशासन को ऐसी कई और बच्चियों के बारे में पता चला.
सायरा इस मामले में खुशकिस्मत रही है कि वह ना सिर्फ पूरी तरह ठीक हो गई, बल्कि उसे अस्पताल की एक नर्स ने गोद भी ले लिया.
पाकिस्तान के दक्षिणी प्रांत सिंध में देहाती इलाकों में रहने वाले लोग अक्सर इलाज के लिए लाड़काना के शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल में ही आते हैं. इसीलिए इस अस्पताल में बच्चियों को छोड़े जाने के सबसे ज्यादा मामले देखने को मिले हैं.
जामिया बेनजीर भुट्टो मेडिकल यूनिवर्सिटी और शेख जायद चिल्ड्रन अस्पातल के प्रमुख प्रोफेसर सैफुल्लाह जामड़ू का कहना है कि इस साल कई माता पिता अपना नाम और पता गलत लिखवा कर नवजात बच्चियों को अस्पताल में छोड़कर लापता हो गए.
वह कहते हैं, "गंभीर हालत के कारण छह में पांच बच्चियां मर गईं, जिन्हें पुलिस और राहत संस्था ईधी सेंटर की मदद से दफना दिया गया. इस साल यहां छोड़ी गईं नवजात बच्चियों में से सिर्फ एक ही बच्ची ऐसी है जिसे ईधी सेंटर की मदद से अस्पताल में एक नर्स ने गोद ले लिया है."
जिम्मेदार कौन
प्रोफेसर सैफुल्लाह कहते हैं कि बच्चियों को लावारिस छोड़ने जाने के दुखद और निदंनीय कदम के पीछे दरअसल समाज में पनपने वाली सोच ही जिम्मेदार है. उनके मुताबिक, "हमारे समाज में लड़कों के मुकाबले लड़कियों को बोझ समझा जाता है. जब लड़की पैदा होती है तो माता पिता सोचते हैं कि इस पर तो हमें खर्चा करना होगा. पहले इसको पालना है, पढ़ाना लिखाना है और फिर उसकी शादी पर खर्च करते हुए उसे दूसरे परिवार को सौंपना है. चूंकि हमारे यहां गरीबी है और स्वास्थ्य सुविधाएं भी महंगी हैं. इसलिए लोग बेटियों पर खर्च करने से बचते हैं."
शेख जायद चिल्ड्रन अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में डॉक्टर अब्दुल्लाह असर चांडियो कहते हैं कि बच्चियों को अस्पताल में सिर्फ लावारिस ही नहीं छोड़ा जाता है, बल्कि ऐसे केस भी सामने आए हैं जिनमें माता पिता यह जानते हैं कि अगर वे बच्ची को अस्पताल से ले गए, तो उसका मरना स्वाभाविक है. फिर भी डॉक्टर की सलाह के खिलाफ जाकर वे उन्हें घर ले जाते हैं.
डॉ अब्दुल्लाह असर कहते हैं कि ऐसे मामले हजारों की तादाद में हैं और ऐसे ज्यादातर मामले बच्चियों से जुड़े होते हैं. वह कहते हैं, "हमारे रिकॉर्ड के मुताबिक 80 फीसदी लड़कियां और 20 फीसदी लड़के होते हैं, जिनके माता पिता डॉक्टर के मना करने के बाजवूद अपने बच्चों को अस्पताल से ले जाते हैं." सिर्फ अगस्त से सितंबर के बीच ऐसे 19 मामले दर्ज किए गए हैं.
डॉक्टर कहते हैं कि लोग अपने बच्चों को इसलिए अस्पताल लेकर आते हैं ताकि समाज में लोगों को दिखा सकें कि वे अपनी बच्ची को इलाज के लिए लेकर गए थे. हालांकि जल्द ही वे आर्थिक हालात के हाथों मजबूर या फिर कभी परेशान होकर बच्चों को घर ले जाते हैं.

लड़कियों की परवाह नहीं
कभी माता पिता ढंके छुपे शब्दों में तो कभी खुलकर यह कहते हुए अपनी बच्चियों को घर ले जाते है कि "लड़की ही तो है, मर भी जाएगी तो क्या हुआ. खुदा ने बचा लिया तो बचा लिया, वरना क्या कर सकते हैं. परिवार में और भी बेटियां हैं. मर गई तो खुदा की मर्जी."
इस बात की पुष्टि अस्पताल की सीनियर मेडिकल ऑफिसर डॉक्टर सुमेरा भी करती हैं. वह बताती हैं कि माता पिता अकसर अपनी बच्चियों को घर ले जाते हैं, जिनके बारे में उनको बता दिया गया होता है कि अगर बच्ची को लगी ऑक्सीजन निकाल दी गई तो वह जिंदा नहीं बचेगी. "लड़कों के बारे में वे फिर भी सोचते हैं लेकिन बच्चियों के मामले में यह बात उनके लिए कोई मायने नहीं रखती."
अस्पताल के डॉक्टरों के मुताबिक देहाती इलाकों में बच्चियों को लेकर जो सोच पाई जाती है, उसे बदलने की जरूरत है. इसके अलावा बच्चियों को लावारिस छोड़े जाने के खिलाफ कानून भी सख्त किए जाने की जरूरत है.(dw.com)
वारसॉ, 13 सितंबर 1939. दो बहनें जमीन में आलू तलाश रही हैं. जर्मन लड़ाकू विमान आते हैं. फायरिंग करते हैं. एक लड़की मारी जाती है. उसकी 12 साल की बहन शव पर विलाप करती है. इस पल को एक अमेरिकी फोटोग्राफर ने कैद कर लिया.
डॉयचे वैले पर माग्देलेना गाबुश पैलोकाट की रिपोर्ट-
तस्वीर में विलाप कर रही लड़की का नाम काजीमिरा "काजिया" मिका है. इस घटना को याद करते हुए उन्होंने 2010 में "कॉरेस्पोंडेंट ब्रायन" फिल्म के निर्देशक यूजिनियस स्टार्की को बताया, "वहां पर एक घर था. विमान आ रहे थे, एंडजिया भागकर आई." 13 सितंबर 1939 को जर्मन विमानों ने उस घर पर बम गिराए. एंडजिया कोस्टेविस और अन्य लोग वहां से भाग गए. खतरे के बावजूद वे उन आलूओं को साथ ले जाने की कोशिश कर रहे थे जो उन्होंने जमा किए थे. निश्चित तौर पर वे सब लोग डरे हुए थे, लेकिन इससे कहीं ज्यादा वे भूखे थे.
काजिया मिका ने 2010 में बताया, "जर्मन पायलट बहुत कम ऊंचाई पर उड़ान भर रहे थे और वे आराम से देख सकते थे कि खेत में एक महिला और लड़कियां हैं. फिर भी उन्होंने गोलियां चलाईं. इतने साल बीत जाने के बावजूद मैं उन लोगों को माफ नहीं कर पाई हूं." एंडजिया की गर्दन में गोली लगी, जिसके छर्रे उसके कंधों में भी घुस गए थे. चंद सेकंडों के भीतर उसकी 12 साल की बहन काजिया अपने घुटनों पर बैठ गई और अपनी बहन के क्षत विक्षत शव पर विलाप करने लगी. उसे कुछ पता नहीं चला कि यह क्या हुआ. उसने पहली बार मौत को करीब से देखा था. कुछ लम्हों पहले एंडजिया जीवित थी और अब उसका शरीर ठंडा पड़ गया था.
जूलियन ब्रायन के साथ 12 साल की काजीमिरा मिका
जब विमान चले गए तो अमेरिकी फोटोग्राफर जूलियन ब्रायन वहां पहुंचे. वह पोलैंड में उन दिनों दूसरे विश्व युद्ध के शुरुआती दिनों को दर्ज कर रहे थे. वहां पहुंच कर ब्रायन ने देखा कि जमीन पर एक महिला का शव पड़ा है और उसके पास एक बच्चा बैठा है, बिल्कुल भावशून्य चेहरे के साथ. पास ही उन्होंने काजिया को देखा जो अपनी मरी हुई बहन से बात कर रही थी. ब्रायन ने इस लम्हे को फिल्म और तस्वीरों में दर्ज कर लिया.
बाद में उन्होंने इस घटना के बारे में लिखा, "उसने हमारी तरफ देखा, बिल्कुल हैरान होकर. मैंने उसे अपनी बाहों में ले लिया. वो रो रही थी. मेरे साथ वहां जो पोलिश अधिकारी थे उनकी आंखों में भी आंसू थे. हमारे पास इस लड़की से कहने के लिए कुछ नहीं था, कोई कह भी क्या सकता था." अपनी फिल्म "सीज" में ब्रायन ने उस घटना को उस समय वारसॉ में ऐसी सबसे त्रासद घटना बताया था जिसे उन्होंने महसूस किया.

वारसॉ में अंतिम संवाददाता
अमेरिकी डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर ब्रायन कुछ दिन पहले ही एक ट्रेन पकड़कर संकट में घिरे पोलैंड की राजधानी वारसॉ पहुंचे थे. जूलियन ब्रायन पोलैंड को अच्छी तरह जानते थे. उन्होंने ग्दिनिया के पोर्ट को बनते देखा था. वह साइलेशिया की कोयले की खदानों में भी गए थे. वह लोविस की मशहूर लोककथाओं के भी दीवाने थे. लेकिन अब वह भूख, कष्ट और मौत को दस्तावेजी फिल्मों में समेट रहे थे.
जर्मन नाजियों ने युद्ध को फिल्म फुटेज में दर्ज करने पर काफी ऊर्जा खर्च की. जैसे कि जब जर्मन सैनिक पोलिश सीमा के पार जा रहे थे, जब उन्होंने श्लेषविग होलस्टाइन की गनबोट्स को फायरिंग का निशाना बनाया, उन सब घटनाओं को दर्ज किया गया, ताकि उसका इस्तेमाल प्रोपेगैंडा के लिए हो सके.
जर्मन नजरिए को फिल्माने के लिए विशेष फिल्म क्रू तैनात किए गए. पोलैंड के राष्ट्रीय स्मृति संस्थान के जॉजेक साविकी कहते हैं, "उन्होंने दिखाया कि पोलिश सैनिक कमतर हैं, उनके पास पर्याप्त उपकरण नहीं हैं. फिल्म की तस्वीरों में पोलिश यहूदियों और पांरपरिक बालों और कपड़ों को दर्ज किया गया. इसे नकारात्मक नजरिए से पेश किया गया. उन्होंने दिखाने की कोशिश की कि जर्मन सैनिकों के आने से वहां सभ्यता आई."
लेकिन ब्रायन की तस्वीरों में हालात का दूसरा रुख था. ज्यादातर चीजें उन्होंने फिल्माई, लेकिन फोटो भी लिए. यहां तक कि उनके पास कलर स्लाइड फिल्में भी थीं. ये ऐसी चीजें थीं जिनके बारे में उस समय ज्यादा लोग नहीं जानते थे. उन्होंने युद्ध को नए नजरिए से दिखाया, पीड़ितों के नजरिए से.

"मेरा नाम ब्रायन है, जूलियन ब्रायन, अमेरिकी फोटोग्राफर"
जिन लोगों को ब्रायन ने फिल्माया, वे उन्हें बेहतर दुनिया की जीवनरेखा के तौर पर देखते थे. हर कोई उनके कैमरे में आत्मविश्वास के साथ देखता था. 1940 की फिल्म सीज में ब्रायन कहते हैं, "जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं अमेरिकी फोटोग्राफर हूं, तो उन्हें लगता था कि मैं उन लोगों की मदद करने के लिए इतनी दूर से चलकर पोलैंड आया हूं. लेकिन उनके चेहरे के भावों को कैमरे में कैद करने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकता था."
लेकिन ब्रायन ने बहुत किया. वह पोलिश लोगों के प्रवक्ता बन गए. 15 सितंबर 1939 को उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट के लिए एक अपील प्रसारित की. उन्होंने अपने संदेश की शुरुआत इस तरह की, "मेरा नाम ब्रायन है, जूलियन ब्रायन, अमेरिकी फोटोग्राफर."
पोलिश रेडियो पर शांत लेकिन सधी हुई आवाज में उन्होंने कहा, "अमेरिका को कुछ करना चाहिए. उसे मौजूदा दौर के सबसे भयानक नरसंहार को रोकना होगा. 13 करोड़ अमेरिकियों से हम कहते हैं, शिष्टाचार, न्याय और ईसाई मूल्यों की खातिर आइए और पोलैंड के साहसी लोगों की मदद करिए."
वापस अमेरिका लौटने के बाद ब्रायन ने अपनी तस्वीरें रूजवेल्ट को दिखाईं. उनकी फिल्म सीज को करोड़ों लोगों ने अमेरिकी सिनेमा घरों में देखा. इसके लिए उन्हें ऑस्कर नोमिनेशन भी मिला और किताब लिखने का करार भी.
पहले विश्व युद्ध में फोटोग्राफी का इस्तेमाल मुख्य तौर पर सेना और प्रचार के लिए होता था. जर्मनी में 1916 में 400 लोगों की भर्ती हवाई तस्वीरें लेने और उनका विश्लेषण करने के लिए की गई थी. निजी स्तर पर भी कईं तस्वीरें ली गईं.
अपनी बहन की मौत पर विलाप करती जिस लड़की का फोटो उन्होंने लिया, वह कई बरसों बाद भी ब्रायन को लेकर आश्चर्यचकित थी. निर्देशक यूजिनियस स्टार्की के साथ 2010 में अपनी बातचीत में काजिया मिका ने कहा, "अपने काम को लेकर उनमें बहुत जुनून था. वह दुनिया को सच और बुराई दिखाना चाहते थे. वह दिखाना चाहते थे कि जर्मनों ने हमारे साथ क्या किया."

जूलियन ब्रायन 1958 में वारसॉ लौटे और उन्होंने काजिया मिका से मुलाकात की. उस वक्त वह 31 साल की हो गई थीं. इसके 16 साल बाद वह फिर से पोलैंड लौटे, अपने बेटे सैम के साथ.
जब मैंने टेलीफोन पर सैम ब्रायन के साथ न्यूयॉर्क में बात की तो लगा कि मैं उनके पिता से बात कर रहा हूं. उनकी आवाज बेहद शांत और सशक्त थी. ठीक वैसे ही जैसे जूलियन ब्रायन ने रेडियो के जरिए अमेरिकी राष्ट्रपति से अपील की थी.
उन्होंने बताया कि उन्हें भी जीवन भर ऐसा ही लगता रहा है कि जैसे वह खुद काजिया मिका को जानते हैं. सैम सिर्फ छह महीने के थे जब उनके पिता वारसॉ से लौटे थे. वह बताते हैं कि जब तक उनके पिता की याददाश्त रही, बिलखती बच्ची की छवियां उनके साथ रहीं.
वह कहते हैं कि जब उन्होंने अपने पिता के साथ पोलैंड की यात्रा की, तो यह उनके लिए "जीवन की सबसे अहम यात्रा" थी. वह कहते हैं, "जब हमने 45 साल पहले वारसॉ की यात्रा की तो हम उन लोगों से मिले, जिनकी तस्वीरें उन्होंने 1939 में ली थीं. काजीमिरा मिका उन्हीं में से एक थीं." इसके बाद सैम 2019 में पोलैंड में जाकर मिका से मिले.
सैम ब्रायन बताते हैं, "मैं उनके लिए बेटा जैसा था. मैंने उनसे अपने पिता के बारे में बहुत सारी अच्छी बातें सुनीं. वह ऐसे बात करती थीं जैसे वो उन्हीं के पिता थे. उन्हें याद आ रहा था कि कैसे उन्होंने उनकी देखभाल की थी. हम उनकी बहन की कब्र पर भी गए थे. बहुत ही भावुक पल थे."
जूलियन ब्रायन का निधन अक्टूबर 1974 में हुआ, पोलैंड यात्रा से लौटने से कुछ महीनों बाद. काजिया मिका ने कहा, "उन्होंने वादा किया था कि मुझे अमेरिका दिखाएंगे. लेकिन दुख की बात है कि मैंने कभी न्यूयॉर्क नहीं देखा.. लेकिन कोई बात नहीं. मैं अब भी उनकी शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने एंडजिया के साथ मेरी तस्वीर ली."
इस साल 28 अगस्त को काजीमिरा मिका का निधन हो गया. उन्हें वारसॉ के पोवाज्की कब्रिस्तान में दफनाया गया. उसी जगह के करीब जहां 81 साल पहले जूलियन ब्रायन ने उनकी तस्वीर ली थी.(dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चुनाव आयोग ने मध्यप्रदेश के भाजपा और कांग्रेस नेताओं को वाणी-संयम के जो निर्देश दिए हैं, वे बहुत सामयिक हैं लेकिन कांग्रेसी नेता कमलनाथ का ‘मुख्य चुनाव-प्रचारक’ का दर्जा छीनकर उसने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब अदालत ही उसका फैसला करेगी। अदालत क्या फैसला करेगी और कब करेगी, यह देखना है लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि चुनाव आयोग को क्या इतनी सख्ती बरतनी चाहिए, जितनी वह बरत रहा है?
कमलनाथ को इसलिए दोषी ठहराया जा रहा है कि उन्होंने अपनी एक महिला पूर्व मंत्री और अब भाजपा उम्मीदवार इमरती देवी को ‘आइटम’ कह दिया था। ‘आइटम’ शब्द के कई अर्थ हैं, कुछ बुरे भी हैं लेकिन ‘इमरती’ शब्द के साथ तुकबंदी करते हुए अगर उन्होंने कह दिया कि इमरती क्या ‘चीज’ है तो इसके पीछे उनकी मानहानि की बजाय हंसी-मजाक का मकसद ज्यादा रहा होगा।कमलनाथ ने बाद में इस बात पर खेद भी प्रकट कर दिया लेकिन इस मामले को भाजपा द्वारा इतना ज्यादा तूल इसलिए दिया जा रहा है कि आजकल चुनाव का दौर है। एक-दूसरे के विरुद्ध जितनी गलतफहमी फैलाई जा सके, उतने ज्यादा वोट मिलने की संभावना बनी रहती है। अब कांग्रेस भी पीछे क्यों रहे ? उसने भी वही पैंतरा अपनाया है। उसने भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय के इस कथन को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है कि कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ‘चुन्नू-मुन्नू’ है। यह व्यंग्य की भाषा है।
चुनाव सभाओं में यदि चिऊंटी न खोड़ी जाए और हंसी-मज़ाक न किया जाए तो उनमें भीड़ टिकेगी कैसे ? इस तरह के बहुत-से किस्से बिहार से भी सुनने में आ रहे हैं। मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया का कहना है कि किसी कांग्रेसी नेता ने उनकी तुलना धोबी के कुत्ते से कर दी है लेकिन इसका बुरा मानने की बजाय सिंधिया ने कुत्ते की स्वामीभक्ति याने जनता के प्रति वफादारी की तारीफ कर दी। उन्होंने नहला पर दहला मार दिया।ऐसे नाजुक वक्तों में चुनाव आयोग यह तो ठीक कर रहा है कि वह नेताओं पर उंगली उठाता है लेकिन उसे सख्त कदम तभी उठाना चाहिए जबकि वाकई कोई नेता बहुत ही आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग करे। वरना चुनाव-प्रचार बिल्कुल उबाऊ और नीरस हो जाएगा।
चुनाव आयोग यदि ज्यादा नज़ाकत दिखाएगा तो उसे आपत्तिजनक शब्दों की इतनी बड़ी सूची तैयार करनी पड़ेगी कि वह किसी भी शब्दकोश से टक्कर लेने लगेगी। क्या चुनाव आयोग को यह तथ्य पता नहीं है कि अमर्यादित अपमानजनक और अश्लील शब्दों का प्रयोग करनेवाले नेताओं को जनता खुद सजा दे देती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
न्यूजीलैंड के लोगों ने यूथेनेसिया यानी इच्छामृत्यु को वैध बनाने के लिए भारी समर्थन दिया है. इस मुद्दे पर 17 अक्टूबर को हुए मतदान के शुरुआती नतीजे बता रहे हैं कि 65 फीसदी से ज्यादा लोग इच्छामृत्यु का अधिकार चाहते हैं.
इच्छामृत्यु के अधिकार का समर्थन करने वाले इसे "इच्छा" और "गरिमा" के साथ जीवन की जीत बता रहे हैं. इच्छामृत्यु पर जनमतसंग्रह देश के आमचुनाव के साथ ही करा लिया गया. इन चुनावों में प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न को भारी जीत मिली. शुक्रवार को वोटों की गिनती से पता चला कि 65.2 फीसदी लोग यूथेनेसिया के पक्ष में हैं, जबकि 33.8 फीसदी लोग इसका विरोध कर रहे हैं. इन नतीजों से साफ है कि न्यूजीलैंड जल्द ही उन मुट्ठी भर देशों में शामिल हो जाएगा जो डॉक्टर की मदद से इच्छामृत्यु की अनुमति देते हैं.
पांच साल से चल रही थी बहस
न्यूजीलैंड के कानून में इस सुधार के लिए अभियान चला रहे डेविड सेमूर ने इसे "जबर्दस्त जीत" बताया और कहा कि यह न्यूजीलैंड को मानवता के लिए ज्यादा दयालु बनाएगा. सेमूर ने कहा, "हजारों न्यूजीलैंडवासी जिन्होंने शायद अति दुखदायी मौत को सहन किया होगा, उनके पास अब इच्छा, गरिमा, नियंत्रण और अपने शरीर पर स्वतंत्रता होगी और कानून का शासन इसकी रक्षा करेगा."
न्यूजीलैंड में इच्छामृत्यु पर बहस लेक्रेटिया सील्स ने शुरू की. 2015 में इस महिला की ब्रेन ट्यूमर के कारण मौत हो गई. मौत उसी दिन हुई जब कोर्ट ने अपनी इच्छा के समय पर मृत्यु की लंबे समय से चली आ रही उसकी मांग को ठुकरा दिया. सील्स के पति मैट विकर्स ने रेडियो न्यूजीलैंड से कहा, "आज मुझे बहुत राहत और कृतज्ञता का अनुभव हो रहा है." हालांकि न्यूजीलैंड में चर्चों के संगठन साल्वेशन आर्मी का कहना है कि कानून में सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं हैं और इसके नतीजे में लोगों को अपनी जीवनलीला खत्म करवाने के लिए बाध्य किया जा सकता है. साल्वेशन आर्मी ने कहा है, "कमजोर लोग जैसे कि बुजुर्ग और ऐसे लोग जो मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं, वो इस कानून के कारण खासतौर से जोखिम में रहेंगे." न्यूजीलैंड के मेडिकल एसोसिएशन ने भी इस सुधार का विरोध किया है और मतदान से पहले ही इसे "अनैतिक" करार दिया.
कई देशों में है इजाजत
इच्छामृत्यु को सबसे पहले नीदरलैंड्स में वैध बनाया गया. यह साल 2002 की बात है. इसके तुरंत बाद उसी साल बेल्जियम में भी इसे कानूनी घोषित कर दिया. 2008 में लग्जमबर्ग, 2015 में कोलंबिया और 2016 में कनाडा ने भी इसे कानूनी रूप दे दिया. यह अमेरिका के भी कई राज्यों में वैध है और साथ ही ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में. इसके अलावा कुछ देशों में "मदद से आत्महत्या" की भी अनुमति है जिसमें मरीज खुद ही किसी घातक दवा का सेवन करता है, बजाय किसी मेडिकल कर्मचारी या फिर किसी तीसरे पक्ष के.
यूथेनेसिया को लेकर पुर्तगाल की संसद में भी बहस चल रही है हालांकि इस हफ्ते जनमतसंग्रह कराने की मांग पिछले हफ्ते संसद ने ठुकरा दी. इसी महीने नीदरलैंड्स में 12 साल से कम उम्र के बच्चों को भी इच्छामृत्यु का अधिकार दे दिया गया. अब तक वहां नाबालिकों के मामले में 12 साल से अधिक उम्र के बच्चों या फिर माता पिता की सहमति से नवजात शिशु को यूथेनेसिया का अधिकार था.
न्यूजीलैंड में पिछले साल मदद से मौत की अनुमति संसद से मिल गई थी लेकिन सांसदों ने इसे लागू करने में जान बूझ कर देरी की ताकि लोगों की राय इस मामले में ली जा सके.
2020 में जर्मनी ने इच्छामृत्यु को ले कर कानून बदला है. लंबे समय से बीमार चल रहे लोग अब डॉक्टर की मदद से अपने जीवन का अंत करने का फैसला खुद ले सकेंगे. हालांकि कानून के अनुसार अगर डॉक्टर इससे सहमत नहीं है तो उसे मरीज का साथ देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता.
यह कानून 2021 से लागू हो जाएगा. इसके तहत मानसिक रूप से स्वस्थ एक व्यस्क अगर ऐसी बीमारी से पीड़ित है जिसमें छह महीने के भीतर उसकी मौत होने की आशंका है और वह अगर "असहनीय पीड़ा" झेल रहा है, तो उसे जहरीली दवा दी जा सकती है. इसके लिए अनुरोध पत्र पर मरीज के डॉक्टर, एक अलग स्वतंत्र डॉक्टर के दस्तखत होने चाहिए और अगर किसी भी तरह से मानसिक समस्या का संदेह हो, तो एक मानसिक चिकित्सक की भी सलाह लेना जरूरी होगा.
न्यूजीलैंड के मौजूदा कानून के मुताबिक अगर कोई किसी को मरने में मदद देता है, तो उस पर आत्महत्या में मदद या विवश करने का आरोप लगेगा. इसके लिए उसे अधिकतम 14 साल की जेल या फिर हत्या का आरोप लग सकता है, जिसमें उम्रकैद की सजा होगी.
वास्तविकता में इस तरह के मामलों में जब भी किसी को अपराधी करार दिया गया है, तो अदालतों ने गैर हिरासती सजाएं सुनाई हैं. देश की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने मृत्यु के अधिकार बिल का समर्थन किया है. उन्होंने कहा कि वे ना चाहते हुए भी जनमतसंग्रह के लिए इसलिए तैयार हुईं क्योंकि विधेयक को आगे बढ़ाने का सिर्फ यही तरीका था.
एनआर/आईबी (एएफपी)(dw.com)
- चिंकी सिन्हा
वारदात के तीसरे दिन, लोगों के बीच से उठ रही आवाज़ बिल्कुल साफ़ सुनाई दे रही थी - 'या तो मुल्ज़िम को फांसी दो, या फिर उसका एनकाउंटर कर दो.'
फ़रीदाबाद के नेहरू कॉलेज में पढ़ने वाली कंचन डागर ने कहा कि, 'हत्यारे के साथ वही होना चाहिए, जैसा योगी के राज में होता है.'
कंचन, दक्षिणपंथी छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ी हुई हैं.
कंचन ने पुरज़ोर आवाज़ में नारा लगाया, 'गोली मारो सा@% को… लव जिहाद मुर्दाबाद.'
कंचन के साथ, हरियाणा के बल्लभगढ़ स्थित अग्रवाल कॉलेज के सामने जमा दूसरे छात्रों ने भी यही नारा दोहराया. वो गुरुवार का दिन था.
सोमवार को इसी अग्रवाल कॉलेज के बाहर 21 बरस की एक छात्रा को सरेआम गोली मार दी गई थी. पुलिस ने हत्या के अभियुक्त को गिरफ़्तार कर लिया था.
लेकिन, कॉलेज के बाहर जमा छात्रों को ना तो पुलिस पर भरोसा है और ना ही न्यायपालिका पर यक़ीन है.
उन्हें इस घटना के इंसाफ़ का एक ही तरीक़ा मंज़ूर है कि दोषी का एनकाउंटर करके ही, मृत छात्रा और उसके परिजनों को इंसाफ़ दिलाया जा सकता था.
कंचन डागर ने सवालिया अंदाज़ में कहा कि, "गोली मारने वाला मुसलमान है. मरने वाली छात्रा हिंदू थी. मुल्ज़िम का परिवार, उस लड़की पर धर्म बदलकर मुसलमान बनने का दबाव बना रहा था. भारत में लव जिहाद के बहुत से मामले सामने आ रहे हैं. अगर कोई लड़की ना कर देती है, तो उसे मार दिया जाता है. अगर वो हाँ करती है, तो फिर उसकी लाश सूटकेस में मिलती है. हमने ऐसे बहुत से मामलों के बारे में पढ़ा है. क्या नियम क़ानून सिर्फ़ हमारे लिए हैं? और उनका क्या?"
'उनका' से कंचन का मतलब था - कांग्रेस पार्टी और मुसलमान.
कंचन के साथ मौजूद एक और छात्रा गायत्री राठौर ने एक और क़दम आगे जाते हुए कहा, "हम चाहते हैं कि उसे दस दिन के अंदर फांसी दे दी जाये. या उसका वैसे ही एनकाउंटर कर दिया जाये, जैसे योगी की सरकार में होता है. भले ही वो ग़ैर-क़ानूनी क्यों ना हो."
पूर्वाग्रहों और ख़ौफ़ का जोड़ जमा
सोमवार की दोपहर को बल्लभगढ़ के अग्रवाल कॉलेज के बाहर जिस छात्रा को गोली मार दी गई थी, उनका नाम निकिता तोमर था.
उस दिन निकिता जैसे ही कॉलेज के बाहर निकलीं, वैसे ही तौसीफ़ नाम के युवक ने उन्हें गोली मार दी.
निकिता, तौसीफ़ को जानती थीं. दोनों फ़रीदाबाद के रावल इंटरेनशनल स्कूल में साथ-साथ पढ़ा करते थे.
उस रोज़, निकिता की माँ उन्हें लेने के लिए कॉलेज जा ही रही थीं कि उनके पिता के पास फ़ोन आया कि उनकी बेटी को गोली मार दी गई है.
इस केस के कुछ तथ्य इस तरह से हैं कि एक युवक ने कॉलेज के बाहर एक छात्रा को देसी कट्टे से गोली मार दी और उसके बाद वो मौक़े से फ़रार हो गया.
इस बात की तस्दीक़, सड़क के उस पार स्थित डीएवी स्कूल में लगे सीसीटीवी कैमरे की तस्वीरों से होती है.
इसके अलावा बाक़ी सभी बातें, लोगों की सोच, उनके पूर्वाग्रहों और ख़ौफ़ का जोड़ जमा हैं जिसमें एक समुदाय के लोग, दूसरे समुदाय के सदस्यों को अपने से अलग बताते हैं. उनके बारे में बुरा भला कहते हैं. उनकी बुरी छवि पेश करते हैं जिससे ये साबित हो कि दूसरा पक्ष, उनसे बिल्कुल अलहदा है.
किसी एक समुदाय को अपने से अलग बताना इस सोच पर आधारित है कि वो समुदाय, दूसरों के अस्तित्व के लिए ख़तरा है. इस सोच को मीडिया और राजनेता ख़ूब बढ़ावा देते हैं.

'लव जिहाद' जिसकी कोई क़ानूनी परिभाषा नहीं
भारत के मौजूदा क़ानूनों में 'लव जिहाद' की कोई परिभाषा नहीं तय की गई है. अब तक किसी भी केंद्रीय एजेंसी ने 'लव जिहाद' जैसी किसी घटना का ज़िक्र भी नहीं किया है.
ये बात ख़ुद केंद्र सरकार ने इस साल फ़रवरी में संसद को बताई थी. और इस बयान के ज़रिए दरअसल, केंद्र सरकार ने आधिकारिक तौर पर ख़ुद को दक्षिणपंथी संगठनों के 'लव जिहाद' वाले दावों से अलग कर लिया था. जबकि, देश के कई दक्षिणपंथी संगठन, मुस्लिम युवकों और हिंदू लड़कियों के संबंधों को 'लव जिहाद' कहकर निशाना बनाते रहे हैं.
भारत के संविधान की धारा-25, देश के हर नागरिक को अपने धर्म को मानने, अपनी आस्था के अनुरूप इबादत करने और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने की आज़ादी देता है.
शर्त बस ये है कि किसी की धार्मिक गतिविधियों से नैतिकता, सामाजिक सौहार्द और किसी की सेहत को नुक़सान ना पहुँचे.
नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (NIA) और दूसरी जाँच एजेंसियों ने केरल में दो अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच शादियों की कई घटनाओं की जाँच की थी. इनमें, साल 2018 में बहुत चर्चित हुआ हादिया के निकाह का मामला भी शामिल था.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि 25 बरस की हादिया, अपने पति के साथ रहने के लिए स्वतंत्र हैं.
भारतीय मूल के अमित और घाना की मिशेल की प्रेम कहानी.
सर्वोच्च अदालत ने इस मामले में केरल हाई कोर्ट के उस फ़ैसले को भी रद्द कर दिया था जिसमें हादिया के पिता की अर्ज़ी पर, एक मुस्लिम युवक के साथ उसके निकाह को क़ानूनी तौर पर अमान्य घोषित कर दिया गया था.
लेकिन, करणी सेना के प्रमुख सूरजपाल अमू जो निकिता तोमर के घर भी पहुँचे थे, उनको इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सरकार इस बारे में क्या कहती है, और 'लव जिहाद' को लेकर अदालत ने क्या फ़ैसला सुनाया. उनके लिए तो ये घटना एक मौक़ा थी.
करणी सेना के नेता उत्तर प्रदेश और हरियाणा के साथ-साथ अन्य इलाक़ों से निकिता तोमर के घर फ़रीदाबाद पहुँचे थे. वो 'मुसलमानों को पाकिस्तान भेजो' के नारे लगा रहे थे और वो इस मामले में अपने तरीक़े से इंसाफ़ करना चाहते हैं.
सूरजपाल अमू ने ऐलान किया कि करणी सेना की अपनी स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (SIT) है और ये टीम देशभर में 'लव जिहाद' के मामलों का पता लगाएगी और अपने अंदाज़ में 'इंसाफ़' करेगी.
सूरजपाल अमू ने कहा, "आप किस क़ानून की बात कर रहे हैं? मुसलमानों के लड़के अपना नाम बदलकर मासूम हिन्दू लड़कियों को फंसा रहे हैं. हम ये बात बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेंगे."

पूरे केस को दिया गया 'लव जिहाद' का एंगल
जहाँ तक निकिता का मामला है, तो कहा जा रहा है कि उन्होंने साल 2018 में तौसीफ़ के ख़िलाफ़ की गई शिक़ायत को वापस ले लिया था. इसमें उन्होंने तौसीफ़ पर निकिता के अपहरण का इल्ज़ाम लगाया था.
बाद में दोनों के परिवारों के बीच एक समझौता हुआ जिसमें तय किया गया कि तौसीफ़ अब निकिता को परेशान नहीं करेगा. मगर, तौसीफ़ की हरकतें बंद नहीं हुईं.
वो निकिता को परेशान करता रहा. इसी वजह से निकिता को कॉलेज छोड़ने के लिए उनकी माँ साथ जाया करती थीं ताकि उनकी बेटी महफ़ूज़ रहे, उसे तौसीफ़ से कोई दिक़्क़त ना हो.
लेकिन, बाद में निकिता की माँ ने बेटी को कॉलेज छोड़ने जाना और वापस ले आना बंद कर दिया. उन्हें लगा कि अब उनकी बेटी को तौसीफ़ तंग नहीं करता.
निकिता के परिजनों ने तौसीफ़ के ख़िलाफ़ की गई शिकायत को वापस ले लिया था.
उसकी एक वजह ये थी कि लड़की वाले होने के कारण उन्हें अपनी बदनामी होने का ज़्यादा डर था. इससे उन्हें बेटी की शादी में अड़चनें आने का अंदेशा था और अब इस केस में छेड़खानी का मामला हटा कर, पूरे केस को 'लव जिहाद' का एंगल दे दिया गया है.
इसी तरह, उत्तर प्रदेश के हाथरस बलात्कार कांड में पीड़ित लड़की के परिवार ने बार-बार ये बात कही थी कि उन्होंने बेटी के साथ बलात्कार की शिक़ायत सिर्फ़ इसलिए नहीं की थी, क्योंकि इससे उन्हें अपनी बेटी की बदनामी का डर था, जिसका दंश उन्हें जीवन भर झेलना पड़ता.
लेकिन, निकिता के मामले पर नाराज़गी जता रही छात्राओं ने सहूलियत के हिसाब से सेलेक्टिव रुख़ अपनाया हुआ था.
उन्होंने पहले ही ये तय कर लिया कि निकिता की हत्या असल में 'लव जिहाद' है. उन्हें ये पता ही नहीं कि इस जुमले का कोई क़ानूनी आधार नहीं है. लेकिन, निकिता के कॉलेज और उसके घर के बाहर ये नारेबाज़ी जारी रही.
हरियाणा के सोहना रोड पर स्थित ये एक मध्यम वर्गीय सोसाइटी है. यहीं पर निकिता, एक छोटे से अपार्टमेंट में अपने परिवार के साथ रहती थीं. उनका मकान ग्राउंड फ़्लोर पर है जिसमें दो कमरे हैं.
घर पर आने-जाने वालों के बैठने के लिए, बाहर एक तंबू लगाकर उसमें गद्दे बिछा दिए गए थे. दूर-दूर से, अलग-अलग संगठनों के लोग निकिता के घर पहुंच रहे थे. निकिता के माँ-बाप से बेटी की हत्या पर अफ़सोस जता रहे थे क्योंकि 'उस लड़की ने अपना मज़हब बचाने के लिए अपनी जान दे दी थी.'
अब निकिता को उसकी मौत के बाद एक नायिका, एक 'क्षत्राणी' के तौर पर पेश किया जा रहा है जिसके 'क़त्ल का बदला राजपूत लेने वाले हैं.'
लगभग 50 बरस की स्वदेशी, उसी सोसाइटी के पड़ोस वाले ब्लॉक में रहती हैं.
वे निकिता को याद करते हुए कहती हैं, "मैं उसे जानती थी. वो बहुत प्यारी लड़की थी. इंसाफ़ ज़रूर होना चाहिए. अभियुक्त को उसी जगह पर खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए. यही इंसाफ़ होगा."
महेंद्र ठाकुर, दिल्ली से निकिता के घर पहुँचे थे. हमदर्दी जताने के लिए महेंद्र ने कहा कि 'वो निकिता की बिरादरी से ही हैं.'
उन्होंने कहा, "अगर क़ानून ने उसे सज़ा नहीं दी, तो हम देंगे. ठाकुरों का कोई भी लड़का उसे मार डालेगा. ये ज़रूर होगा. हम राजपूत हैं. वो ज़िंदा नहीं बचेगा. उसकी मौत होगी."
एक क़ौम से बदला लेने का प्रण
हरी दीवारों वाले उस अपार्टमेंट के लिविंग रूम के भीतर, एक न्यूज़ चैनल की रिपोर्टर ने निकिता की माँ को पकड़ रखा था. कैमरे लगा दिए गए थे और रिपोर्टर ने निकिता की माँ के बाल ठीक किए.
फिर उनके पिता से कहा कि वो उनके बगल में आकर बैठ जाएं. उसके बाद रिपोर्टर ने कैमरे की तरफ़ रुख़ करके कहा कि क्या एक लड़की का बाप बदला नहीं लेगा. इसके बाद वो 'लव जिहाद' पर काफ़ी देर तक अपनी बात कहती रहीं.
उस रिपोर्टर ने कहा कि समय आ गया है जब महिलाएं अपनी इज़्ज़त के लिए खड़ी हों और 'लव जिहाद' का डटकर मुक़ाबला करें.
ये कमरा अब दूसरे समुदाय को निशाना बनाने का अड्डा बन चुका था. वहीं बाहर का माहौल और भी हिंसक हो गया था.
मुस्लिम समुदाय के बहिष्कार की आवाज़ बुलंद की जा रही थी. उन्हें सबक़ सिखाने के लिए पाकिस्तान भेज देने के नारे लगाए जा रहे थे.
मौक़े पर मौजूद पुलिसवाले, थोड़ी दूरी बनाकर खड़े थे. कुछ लोग युवाओं से पूछ रहे थे कि क्या वो एक हिंदू लड़की के क़त्ल का बदला लेने को तैयार हैं? और पुलिसवाले बस तमाशबीन बने हुए थे.
मेज़ पर उन्होंने निकिता की तस्वीर लगा दी थी. जिस पर फूलों की माला चढ़ा दी गई थी. तस्वीर में निकिता नीले रंग के जम्पर में थीं. तस्वीर में उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट थी.
यहीं पर घूंघट काढ़े आ रही महिलाएं जमा होकर, निकिता को श्रद्धा के फूल अर्पित कर रही थीं.
निकिता की माँ विजयवती अक्सर रोने लगती थीं. वो बार-बार ये दोहरा रही थीं कि उनकी बेटी बहुत बहादुर थी. उनके पास अपनी बेटी जैसा साहस नहीं है. अगर कोई उन्हें बंदूक़ की नोंक पर गाड़ी में बैठने को कहता, तो वो ज़रूर बैठ जातीं.
विजयवती की बहन गीता देवी बार-बार ये कह रही थीं कि, "मेरी भांजी ने हिंदू धर्म के लिए अपनी जान दे दी. अगर वो उस दिन कार में बैठ जाती तो फिर उसकी माँ अपनी बेटी की इस कायरता के साथ कैसे ज़िंदगी बिता पाती."
गीता देवी ने विजयवती को ढांढस बंधाते हुए कहा कि, "बहन अब तुम इस फ़ख़्र के साथ जी सकती हो कि तुम्हारी बेटी बड़ी बहादुर थी."
माँ कह रही थीं कि निकिता नेवी लेफ़्टिनेंट बनना चाहती थी. और उसने 15 दिन पहले ही भर्ती की परीक्षा दी थी. इम्तिहान देने के बाद उसे यक़ीन था कि वो चुन ली जाएगी.
मौसी गीता ने कहा कि, "वो अफ़सर बनकर देश की सेवा करना चाहती थी."
माँ ने कहा कि बेटी को स्कूल जाना बहुत अच्छा लगता था. वो रुकती ही नहीं थी.

राज्य सरकार और 'लव जिहाद' के एंगल से जाँच
हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज ने कहा कि 2018 में निकिता के परिवार ने तौसीफ़ के ख़िलाफ़ जो FIR कराई थी, उसकी भी जाँच करने की ज़रूरत है. इस मामले की तफ़्तीश के लिए बनी SIT पुरानी FIR की भी जाँच करेगी.
अनिल विज ने ये भी कहा कि इस मामले की जाँच 'लव जिहाद' के एंगल से भी किए जाने की ज़रूरत है.
विज ने संकेत दिया कि 2018 में कांग्रेस ने निकिता के परिवार पर दबाव बनाकर तौसीफ़ के ख़िलाफ़ अपहरण का वो केस वापस कराया था जिसे फ़रीदाबाद में 1860 के इंडियन पीनल कोड के तहत दर्ज किया गया था.
वो एफ़आईआर 2 अगस्त 2018 को दर्ज कराई गई थी जिसमें निकिता के पिता मूलचंद तोमर ने आरोप लगाया था कि उनकी 18 साल की बेटी को अग्रवाल कॉलेज के बाहर से अगवा कर लिया गया था.
मौत के ख़तरे के बीच अंतरजातीय शादी और प्यार की कहानी
मूलचंद ने अपनी एफ़आईआर में तौसीफ़ को अभियुक्त बनाया था. उन्होंने कहा था कि निकिता की माँ को अभिषेक नाम के एक व्यक्ति का फ़ोन आया था जिसने बताया कि निकिता ने उसे कॉल करके बोला कि तौसीफ़ ने उसे अगवा कर लिया और अभिषेक ये बात निकिता के घरवालों को बता दे.
निकिता के घर पहुँचे जो लोग उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे थे, उन्हें याद करते हुए बार-बार धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ उनकी ज़िद को सलाम कर रहे थे, उनमें कोई ये नहीं कह रहा था कि उसे इकतरफ़ा प्यार करने वाला एक युवक लगातार उसका पीछा करता रहा था.
छेड़खानी और पीछा करना एक अपराध है और देश में बहुत सी महिलाओं को किसी के मुहब्बत के प्रस्ताव को ठुकराने की भारी क़ीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है.
प्रेम प्रस्ताव ठुकराने का ख़मियाज़ा भुगतती औरतें
जनवरी 2020 तक के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के आंकड़े कहते हैं कि साल 2018 में हर 55 मिनट में पीछा करने का एक केस देश में कहीं ना कहीं दर्ज होता है.
उस साल छेड़खानी और पीछा करने के 9 हज़ार, 438 मामले दर्ज किये गए थे जो साल 2014 में दर्ज किये गए ऐसे मामलों से दोगुने अधिक थे.
NCRB का डेटा कहता है कि पीछा करने और छेड़खानी के इन 9438 केस में से महज़ 29.6 प्रतिशत केस में ही सज़ा हुई.
पीछा करने की घटनाओं को अक्सर पीड़िता के यौन अपराधों की दूसरी शिकायतों के साथ जोड़कर देखा जाता है. ये बात हाथरस वाले मामले में भी देखी गई थी, जहाँ लड़की के किरदार को सवालों के घेरे में खड़ा किया गया था.
भारत में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जहाँ महिलाओं को किसी इंसान के प्रेम प्रस्ताव को अस्वीकार करने का ख़मियाज़ा एसिड अटैक जैसे निर्मम अपराध के तौर पर भुगतना पड़ा है क्योंकि मर्द किसी महिला द्वारा रिजेक्ट किये जाने को और अपनी सीमाओं का सम्मान कर पाने में असफल रहे.
ख़बरों के मुताबिक़, निकिता की हत्या का अभियुक्त तौसीफ़ दो दिन पहले कॉलेज गया था. लेकिन तब वो निकिता से नहीं मिल पाया था.
निकिता की हत्या के बाद उसके परिवार ने जो एफ़आईआर दर्ज कराई है, उसमें इस बात का ज़िक्र है कि तौसीफ़ उनकी बेटी को परेशान कर रहा था.
पुलिस का कहना है कि तौसीफ़ ने अपना जुर्म क़बूल कर लिया है. उसका कहना है कि वो निकिता से प्यार करता था, लेकिन जब निकिता ने उसका फ़ोन उठाना बंद कर दिया, तो उसने निकिता को 'सबक़ सिखाने' का फ़ैसला किया.
पुलिस अब निकिता के परिवार के उस आरोप की भी जाँच कर रही है कि तौसीफ़ और उसका परिवार निकिता पर धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनने और निकाह करने का दबाव बना रहे थे. गुरुवार को मूलचंद तोमर ने इन आरोपों को दोहराया.
बीबीसी के पास एफ़आईआर की जो कॉपी मौजूद है, उसमें अब तक तो निकिता पर धर्म परिवर्तन का दबाव बनाने की बात नहीं दर्ज की गई है.
लेकिन अब जो माहौल बनाया जा रहा है, वो यही है कि निकिता अपने धर्म का बचाव कर रही थी, वो एक हिन्दू लड़की थी और इस्लाम क़ुबूल करने को तैयार नहीं थी.
लड़की की मौसी का कहना था कि "निकिता तो तौसीफ़ की धमकियों के बावजूद, अपना मज़हब बदलने को राज़ी नहीं हुई. उसने अपना धर्म बचा लिया. इसीलिए आज उसकी चौखट पर इतने लोग जमा हो रहे हैं."
निकिता की माँ ने भी अपनी कमज़ोर आवाज़ में यही बात दोहराई और कहा कि 'उन्हें इंसाफ़ चाहिए. तौसीफ़ का एनकाउंटर चाहिए.'
'लव जिहाद' की जाँच का हाल
लव जिहाद के जुमले ने पहली बार साल 2009 में देश भर में सुर्ख़ियाँ बटोरी थीं. तब केरल में ज़बरन धर्म परिवर्तन कराने के आरोप लगे थे और उसके बाद कर्नाटक में भी यही आरोप लगाये गए थे.
हालांकि, क़रीब दो साल की जाँच के बाद साल 2012 में केरल पुलिस ने कहा था कि 'लव जिहाद' का शोर बेवजह ही मचाया जा रहा है, शादी के लिए धर्म परिवर्तन करने के आरोपों में कोई दम नहीं है.
सितंबर 2014 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने भी अपनी जाँच में पाया था कि उससे 'लव जिहाद' यानी शादी के लिए धर्म परिवर्तन के जिन छह मामलों की शिक़ायत की गई थी, उनमें से पाँच में कोई दम नहीं है. पर ये महज़ कुछ तथ्य हैं.
मौजूदा माहौल में धर्म परिवर्तन और 'लव जिहाद' के इल्ज़ाम लगाने की नई ज़मीन तैयार हो गई है.
निकिता के पिता मूलचंद तोमर कहते हैं, "जब हम पर पुराना वाला केस वापस लेने का दबाव बनाया गया था, तो उसके बाद हम यहाँ से चले जाना चाहते थे."
मूलचंद ने ये बोला तो रिपोर्टर ने उनसे कहा कि, "आप क्यों ये जगह छोड़ कर जाएंगे? आपके साथ तो पूरा मीडिया है."
इसके बाद उस रिपोर्टर ने अपने दर्शकों से जज़्बाती अपील करते हुए कहा कि 'वो समझें कि निकिता का परिवार यहाँ किस मुश्किल में रह रहा है. हिंदुओं की बहुसंख्यक आबादी वाले देश मे एक हिंदू परिवार ही ख़तरे में है.'
कौन है तौसीफ़
तौसीफ़ का ताल्लुक़ एक सियासी ख़ानदान से है. तौसीफ़ के दादा चौधरी कबीर अहमद, हरियाणा के नूँह से साल 1975 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे.
1982 में भी तौसीफ़ के दादा, कांग्रेस के टिकट पर हरियाणा की तवाड़ू सीट से विधायक चुने गए थे.
हरियाणा के एक कांग्रेस कार्यकर्ता ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा कि तब से तौसीफ़ का ख़ानदान कोई भी चुनाव नहीं हारा है. हालांकि, ये आरोप बेबुनियाद है कि कांग्रेस इस मामले में अभियुक्त की मदद कर रही है.
कांग्रेस की हरियाणा प्रदेश की अध्यक्ष कुमारी शैलजा भी मंगलवार को निकिता के परिवार से मिलने पहुँची थीं. उन्होंने कहा था कि 'इस अपराध से कांग्रेस का क्या संबंध है?'
तौसीफ़ के चाचा जावेद अहमद, पिछले साल हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीएसपी के टिकट पर मैदान में उतरे थे, पर वे चुनाव हार गए थे.
तौसीफ़ की बहन हरियाणा पुलिस में DSP तारिक़ हुसैन से ब्याही हैं.
सोहना में जावेद अहमद का लाल पत्थर से बना विशाल बंगला है. दोपहर के वक़्त जब हम वहाँ पहुंचे, तो कुछ मज़दूर काम में लगे हुए थे. कुछ बन रहा था.
बाद में, जब जावेद अहमद वहाँ पहुँचे तो कहा कि तौसीफ़ की अम्मी बीमार हैं और उसके पिता यहाँ हैं नहीं. पास में ही एक और बड़ा सा मकान था जो लाल बलुआ पत्थरों से ही बना था. जावेद अहमद ने बताया कि ये उनके बड़े भाई का मकान है और वे खेती करते हैं.
तौसीफ़ को बल्लभगढ़ पढ़ने के लिए भेजा गया था क्योंकि हरियाणा के मेवात इलाक़े में अच्छे स्कूल नहीं हैं, और उस समय कोई और विकल्प भी नहीं था. वहीं स्कूल में उसकी मुलाक़ात निकिता से हुई और दोनों में परिचय हो गया.

'तौसीफ़ को उसके किये की सज़ा मिले'
जावेद अहमद ने कहा, "मैं अब इस बारे में और बात नहीं करना चाहता क्योंकि हम पर भला कौन यक़ीन करेगा. हम तो मुसलमान ठहरे. दोनों साथ पढ़ते थे और वो उसे मैसेज करने या फ़ोन करने के लिए भला अपना नाम क्यों बदलेगा? हमें इस घटना पर बहुत अफ़सोस है. हम समझ सकते हैं कि लड़की के माँ-बाप पर क्या बीत रही होगी. जब पुलिस ने हमें फ़ोन किया तो हमने तौसीफ़ को उनके सुपुर्द कर दिया था."
चाचा कहते हैं, "तौसीफ़ एक भला लड़का था. वो ना सिगरेट पीता था और ना ही शराब को कभी हाथ लगाया. लेकिन, अब मैं कुछ और नहीं कहना चाहता. उसे उसके किये की सज़ा मिलनी चाहिए."
हालांकि, जावेद अहमद ने ये ज़रूर कहा कि इसे 'लव जिहाद' का मामला बनाया जा रहा है ताकि पूरे मामले को हिन्दू-मुस्लिम विवाद में तब्दील किया जा सके.
जावेद अहमद पूछते हैं, "लव जिहाद क्या है? क्या आप मुझे बता सकती हैं? बहुत से हिन्दू लड़के भी मुस्लिम लड़कियों से ब्याह करते हैं. दोनों समुदायों में बहुत से संबंध ऐसे हैं. आख़िर दोनों समुदायों के लोग आपस में शादी क्यों नहीं कर सकते?"
जब आप निकिता के घर से बाहर निकलते हैं, तो लड़की की तस्वीर पर लटक रही माला नज़र आती है. वो लड़की जिसे स्कूल जाना और पढ़ना बहुत अच्छा लगता था. जो अपनी माँ के लिए खाना पकाया करती थी और जो बहुत सी दूसरी लड़कियों की तरह कपड़े की गुड़िया अपने पास रखती थी.
वो ऐसी लड़की थी जिसके हज़ारों ख़्वाब थे. जो किसी भी आम लड़की के होते हैं. उस लड़की के साथ भी वही छेड़खानी और पीछा किये जाने की घटना हुई थी, जो बहुत सी लड़कियों की ज़िन्दगी में होता है.
लेकिन अब वो ऐसी लड़की बन गई है, जिसकी ज़िंदगी और मौत पर ऐसे लोग क़ाबिज़ हो गए हैं, जिनका उससे कोई वास्ता नहीं था. ठीक वैसे ही, जैसे किसी और आम लड़की के साथ होता है.(bbc)
मनोरमा सिंह
तो हुआ ये कि एक दिन छेदीलाल ने तंग आकर धर्म बदलने की ठान ली।
असल में बचपन से छे-दी-छे-दी कहकर दोस्त चिढ़ाते। मा बाप ने जाने ऐसा नाम क्यों रख दिया कि ‘नाम में ही छेद है।’ नाम ही नही, किस्मत में भी छेद ही था। जो काम करते बस फुस्स हो जाता। न्यूमेरोलॉजी, सामुद्रिक शास्त्र के पठन पाठन और सडक़ किनारे तोते वाले ज्योतिष ने भी यही बताया। ‘तेरे नाम मे छेद है बेटा..’
छेदीलाल ने मुल्ला जी से सलाह ली। इस्लाम अपनाने को सारे रिचुअल किए। काट पीट कर्म के बाद, मौलवी साहब अस्फुट स्वर में बुदबुदाये। फिर आसमानी किताब खोली। जो पन्ना खुला उसके पहले अक्षर को नाम बना दिया गया।
मौलवी साहब ने गुंजायमान स्वर में घोषणा की- ‘पवित्र धर्म मे तेरा स्वागत है सूराख अली’
सूराख अली, जिनका कुछ देर पहले काफी खून निकला चुका, अब काटो तो खून नही। किस्मत का छेद अब भी मौजूद था। लेकिन भाई भी डिटर्मिन्ड था। नजरें बचाकर खिसका, और पहुँच गया ग्रन्थी साहिब के पास ..
रिचुअल यहां भी हुए। पोशाक बदल दी गयी। पंच ककार से लादा गया। सिर पर पग डलवाकर ग्रन्थी जी ने किताब खोली। अस्फुट स्वर में बुदबुदाये जो पन्ना खुला उसके पहले अक्षर को नाम बना दिया गया।
भाई ‘खड्डा सिंग’ मुंह बिसूरे नई ड्रेस और शक्ल लिए अगले ठिये की ओर भागे। नुक्कड़ पर चर्च था। आखरी उम्मीद..
तो खड्डा सिंग चर्च में घुस पड़े। प्रीस्ट को पकड़ा, हाथ पैर जोड़े, और अपने धर्म दीक्षित करने की रिकवेस्ट की। शर्त यही रखी कि नाम शुद्ध अंग्रेजी रखा जाए। छेदी, खड्डा, सूराख कतई नही हो। परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकम्पा से खड्डा सिंग की रिकवेस्ट मान ली गई।
बपतिस्मा हुआ। तमाम रिचुअल के बाद पवित्र जल इधर उधर फेंकते हुए प्रीस्ट ने किताब खोली। खड्डे का दिल धडक़ रहा था। अस्फुट स्वर में मंत्र पढ़ते प्रीस्ट को देखते हुए, उसे दिन भर के दुख याद आ रहे थे। दिल सांय सांय कर रहा था। अब कष्ट का निवारण होने वाला था। प्रीस्ट के होंठ हिले- चर्च में नाम गूँज उठा।
किस्सा काल्पनिक है। इंसान के अपने काम, परिश्रम, मेहनत, मुस्कान उसकी वकत तय करती है। सोसायटी में फेंका गया सत्कर्म, आदमी के कामों में सोसायटी के सहयोग के रूप में वापस आता है। लौटकर आया हुआ सहयोग ही किस्मत कहलाता है।
इस किस्मत और जुबान का धनी व्यक्ति, जेब मे फूटी कौड़ी न रहे, तो भी मां/अम्मी/बेबे के आशीर्वाद से लाखों की डील कर सकता है। अब उस डील के पेपर पर सिग्नेचर छेदीलाल हो, सूराख अली हो, खड्डा सिंग हो या होल रेड..
तो कर्म सही रखिये। एवरिडे लाइफ में आपका धर्म नहीं, आपका कर्म इज्जत दिलाएगा। इसके अलावे कुछ भी अक बक करते रहिए। न छेदी के अच्छे दिन आएंगे, न सूराख अली के..
वैसे दोनों एक ही हैं, एक जैसे ही हैं- स्टुपिड
शिवप्रसाद जोशी
नालायक, निकम्मे और भ्रष्ट हैं अफसर- कहना है केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी का। अफसरशाही के उदासीन रवैये से जब उनके जैसा मंत्री आहत हैं, तो आम जनता का हाल क्या होगा, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं!
केंद्रीय सडक़, परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का गुस्सा तब फूट पड़ा जब वे पिछले दिनों राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) की दिल्ली स्थित इमारत का उद्घाटन करने गए थे। इस इमारत को पूरा होने में 11 साल लग गए। केंद्र सरकार में संभवत: वे अकेले मंत्री होंगे जो सरकारी कामकाज और अफसरों के रवैये को लेकर अपनी बेलाग टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं और बाज मौकों पर कथित ढिलाई के लिए अफसरों को खरीखोटी सुनाने से नहीं चूकते हैं।
इसी साल जनवरी में नागपुर के एक कार्यक्रम के दौरान समाचार एजेंसी एएनआई के एक वीडियो में गडकरी यह कहते हुए सुने जा सकते हैं, ‘मैं आपको सच बताता हूं, पैसे की कोई कमी नहीं है। जो कुछ कमी है वह सरकार में काम करने वाली जो मानसिकता है, जो नेगेटिव एटीट्यूड है, निर्णय करने में जो हिम्मत चाहिए, वो नहीं है।।’ जब उन जैसा कद्दावर और वरिष्ठ मंत्री अफसरों से खीझा हुआ हो सकता है, तो आम नागरिकों की व्यथा और आक्रोश का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है, जो आए दिन इस अफसरशाही के दुष्चक्र में घिरा हुआ खुद को पाते हैं और नौकरी, पेंशन से लेकर लोन या बीमा रकम हासिल करने जैसी जरूरतों के लिए चपरासी, बाबू, सेक्शन ऑफीसर और बड़े साहबों से ठुंसी हुई अफसरशाही के गलियारों में यहां से वहां भटकते रहने को विवश होते हैं।
हमें क्या पता किसने बनायाआरोग्यसेतुऐप
अफसरशाही की ढिलाई को लेकर कोई सा भी विभाग उठाकर देख लीजिए, धूल का गुबार न मिले, यह हो ही नहीं सकता। सबसे ताजा उदाहरणों में एक आरोग्य सेतु ऐप का है, जिसे लेकर विभागों के बीच ‘हमें नहीं पता’ वाला रवैया देखने में आया। इसका पता केंद्रीय सूचना आयोग की एक जवाबतलबी में चला। आयोग ने पूछा कि किस विभाग ने यह ऐप बनाया है, सभी संबद्ध शीर्ष विभाग एक दूसरे का मुंह ताकने लगे! थोड़ी फजीहत के बाद केंद्र का एक गोलमोल सा बयान जरूर आ गया। करोड़ो लोगों के निजी डाटा का संग्रह एक ऐप के जरिए हो चुका है और सरकार के अधिकारी नहीं जानते कि वह ऐप है किसका?!
एक आम धारणा यह बन गई है कि हर साल 800-900 अफसरों की खेप देने वाली सिविल सेवा भ्रष्टाचार और राजनीतिकीकरण मे धंसी है। वैसे, आंकड़े भी कमोबेश उसी ओर इशारा करते हैं। विश्व बैंक के बनाए सरकार की कार्यकुशलता और प्रभाविता वाले 2014 के सूचकांक में भारत को 100 में से 45 अंक मिले, 1996 में जबकि यह करीब दस फीसदी ज्यादा थे, जब विश्व बैंक ने पहली बार इस तरह का डाटा जुटाना शुरू किया था। सरकार की प्रभाविता में सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता, सिविल सेवा की गुणवत्ता और राजनीतिक दबावों से उसकी स्वतंत्रता का स्तर, नीति निर्धारण और नीति क्रियान्वयन की गुणवत्ता, और ऐसी नीतियों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की विश्वसनीयता को आंका जाता है। 300 से अधिक विकास सूचकांकों के आधार पर तैयार आधिकारिक डाटा का संग्रहण करने वाली ‘द ग्लोबल इकोनमी डॉट कॉम’ वेबसाइट के मुताबिक भारत, सरकार की प्रभाविता के सूचकांक पर 2019 की सूची में 0.17 अंकों के साथ, 193 देशों में से भारत 74वें नंबर पर है। 2018 में उसके 0.28 अंक थे।
सिखाई जाती है बाबूमानसिकता
नवनियुक्त आईएएस अफसरों की ट्रेनिंग कुदरती सौंदर्य से भरपूर मसूरी स्थित भव्य लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी में होती है लेकिन घिरी हुई यह लगती है उसी पेचीदा, उबाऊ, जी मंत्रीजी वाली संरचना से, जो यहां आने वाले प्रशिक्षुओं को अपने आगामी जीवन में यूं भी इफरात में मिलने वाली होती है। क्या ऐसी कोई गतिविधि वहां नहीं होनी चाहिए जिससे यह पता चले कि प्रशिक्षु आईएएस जीवन और समाज में अंतरंग किसी जीवंत अभ्यास में रखे गए हों। एक कन्डिशनिंग मानो हो जाती है कि और एक बाबू मानसिकता बनने लगती है, प्रशिक्षण मानो यथास्थिति को सीखने का दिया जा रहा हो।
राजनीतिक दखल की संस्कृति ने नौकरशाही की गुणवत्ता को प्रभावित किया है। 2010 में सिविल सेवा अधिकारियों पर हुए एक सर्वे के मुताबिक सिर्फ 24 फीसदी अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग मेरिट के आधार पर होती है। (बाकी पेज 8 पर)
हर दो में से एक अधिकारी का मानना है कि बाहरी दखल एक प्रमुख समस्या है। कम अवधि की नियुक्तियां भी एक समस्या है, तबादले तो चुटकियों का खेल बन जाते हैं। अधिकारी ताश के पत्तों की तरह फेंट दिए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि काम करने की स्पेस नहीं है या काम करने वाले अधिकारी नहीं है। वे हैं, उनकी संख्या कम है, वे उदाहरण बनते भी हैं और बनाते भी हैं। सवाल यही है कि ऐसे अधिकारियों से कौन कितना प्रेरित होता है।
नेता-मंत्री-अफसर गठजोड़
क्या चाहता है?
प्रमोशन हो या तबादले-कहने को एक व्यवस्था है, एक चरणबद्ध और सूक्ष्म प्रक्रिया है, वरिष्ठ अधिकारियों का पैनल और सिफारिशें आदि हैं, लेकिन वास्तविकता में होता क्या है? इन तमाम प्रक्रियाओं और निर्देशों की आड़ में होता वही है जो नेता-मंत्री-अफसर गठजोड़ चाहता है। इस गठजोड़ में आप इस सिस्टम से बाहर सक्रिय कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल जैसे दबाव समूहों को भी जोड़ लीजिए। एक अदृश्य और समांतर मशीनरी सक्रिय रहती है, जो नौकरशाही की चक्की को अपने हिसाब से चलाती रहती है। ऐसा नहीं है कि प्रशासनिक सुधारों की कोशिश नहीं की गई। इसके लिए 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया गया था। इसी आयोग ने पहलेपहल लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी। लेकिन सुधारों को लेकर कितनी गंभीरता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दूसरा सुधार आयोग 2005 में जाकर बना। लेकिन इसकी सिफारिशें लागू करने का दम किसी सरकार ने नहीं दिखाया। न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी इस मामले पर दुबकी हुई सी दिखती है।
प्रशासनिक सुधार लागू किए बिना हालात नहीं बदलेंगे। देखा गया है कि सार्वजनिक सेवाओं से जुड़े कार्यों में प्रशासनिक मंजूरियों की तेजी नदारद दिखती है। चाहे वो रोजगार उत्पादन की बात हो या किसान को उसकी पैदावार का उचित मूल्य दिलाने की बात या किसी गरीब और पीडि़त को उसका वाजिब हक दिलाने का दायित्व-जाहिर है जवाबदेही अफसरशाही को नियंत्रित करने वाली और उसे आदेश देने वाली सत्ता राजनीति पर भी आती है। प्रशासनिक तंत्र का सुदृढ़ होना ही नहीं, उसका सजग, मानवीय और तत्पर होना भी निहायत जरूरी है और उतना ही जरूरी है राजनीतिक तंत्र का भी जनता के प्रति समानुभूतिपूर्ण व्यवहार। (dw.com)
गिरीश मालवीय
कोरोना के सारे मॉडल फेल हैं सिर्फ बिहार मॉडल ही सफल है। अब तक कोरोना के भीलवाड़ा मॉडल, धारावी मॉडल, केरल मॉडल, आगरा मॉडल की चर्चा होती आई हैं लेकिन अभी तक इन सबसे अधिक सफल बिहार मॉडल ही सफल रहा है।
बिहार का मॉडल ‘हकूना मटाटा’ मॉडल है, जिसका मतलब ये कि आप सारी चिंताओं और परेशानियों को पोटली में बांधकर एक तरफ पटक दें और मस्त रहें।
बिहार चुनाव के पहले चरण में मतदान का प्रतिशत आप देखिए, पिछले चुनाव जितना ही है न्यूज़ चैनल्स बिहार चुनाव के मद्देनजर लगातार बिहार के गाँव शहरों और कस्बों में घूम रहे हैं और ग्राउंड रिपोर्ट दिखा रहे, नेताओं के अलावा आम आदमी बमुश्किल ही मास्क लगाए दिख रहा है
बिहार में तमाम गाइडलाइन्स का जमकर उल्लंघन हो रहा है, नेताओं की रैलियों में लोगों की भारी भीड़ जमा हो रही है, जबकि कोरोना संक्रमण को लेकर अब तक विशेषज्ञ यह कहते आए हैं कि भीड़भाड़ वाला माहौल इस संक्रमण के फैलने के लिए सबसे मुफीद है। तो फिर बिहार कोरोना कहां गायब हो गया ?
बिहार के बारे में एक बात तो हम सब बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि यहाँ स्वास्थ्य सुविधाएं न के बराबर है इसके बावजूद इतनी संक्रामक बीमारी पांव-पसार पाने में नाकाम है। बिहार में अब तक कोरोना के मात्र ढाई लाख केस आए हैं, इसमें से 95.6 फीसदी लोग ठीक भी हो गए है, बिहार में कोरोना संक्रमण से हुई मौतों का आंकड़ा भी काफी कम है। यहां अब तक 1000 के आसपास लोगों की मौत इस संक्रमण की वजह से हुई है। इसका मतलब यह है कि यहां प्रत्येक 200 संक्रमित मरीजों में से सिर्फ एक व्यक्ति की मौत हो रही है। इतने लोगों पर मौतों का राष्ट्रीय औसत 1.5 प्रतिशत है।
तो इसके क्या कारण है और यह सिर्फ बिहार की ही बात नही है ? अभी तक हम ये देख रहे हैं कि ये बीमारी या विकसित देशों में तेजी से फैली है या विकासशील देशों में जो उन जगहों पर जो वहां व्यापारिक गतिविधियों के केंद्र रहे हैं जैसे भारत मे मुम्बई,दिल्ली पुणे ओर इंदौर जैसे शहर......
अफ्रीका जैसे महाद्वीप में जहाँ बड़े बड़े देश है वहाँ ये बीमारी नही फैली, वहाँ मौतें भी बहुत कम है, अफ्रीका के बारे में तर्क दिया जाता है कि वहाँ आबादी दूर दूर बसी है, लेकिन बिहार में तो ऐसा नही है , बिहार भारत का दूसरा सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है बिहार की आबादी इस वक्त 12.5 करोड़ के आसपास है।प्रत्येक 10 लाख लोगों में से 1800 लोग कोरोना संक्रमित हैं। जबकि राष्ट्रीय औसत 1 मिलियन लोगों में 6,000 लोगों के कोरोना संक्रमित होने का है।
कोई बताए कि ऐसा क्यो है कि अमेरिका ब्रिटेन फ्रांस जहां बेहतरीन स्वास्थ्य सुविधाएं मौजूद हैं वही कोरोना के सबसे ज्यादा मरीज आए हैं और जहाँ बदतरीन स्वास्थ्य सुविधाएं है वहाँ यह बीमारी लगभग एग्जिस्ट ही नही कर रही ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शादी के खातिर किसी वर या वधू का धर्म-परिवर्तन करना क्या कानूनसम्मत है ? इस प्रश्न का उत्तर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह दिया है कि यह ठीक नहीं है। इस मामले में एक हिंदू लडक़े ने एक मुसलमान लडक़ी से शादी की लेकिन शादी के एक माह पहले उसने उस लडक़ी को मुसलमान से हिंदू बना लिया और फिर फेरे पढक़र हिंदू रीति से उसके साथ विवाह कर लिया। अब उसने अदालत में याचिका लगाई कि दोनों के रिश्तेदार उन्हें परेशान कर रहे हैं। अदालत उन पर रोक लगाए। इस पर अदालत का कहना है कि वह इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी, क्योंकि सिर्फ शादी के खातिर धर्म-परिवर्तन कानूनसम्मत नहीं है। इस फैसले का आधार 2014 के एक अन्य फैसले को बनाया गया है, जिसमें एक हिंदू लडक़ी शादी के कुछ समय पहले मुसलमान बन गई थी। उस मामले में अदालत ने कुरान-शरीफ के अध्याय दो और मंत्र 221 को उद्धृत करते हुए कहा था कि इस्लाम को समझे बिना मुसलमान बन जाना गलत है। इसीलिए वह धर्म-परिवर्तन भी गलत था।
दूसरे शब्दों में कोई हिंदू से मुसलमान बने या मुसलमान से हिंदू बने लेकिन बिना समझ और आस्था के बने तो वह अनुचित है। और यदि वह सिर्फ शादी के लिए बने तो वह भी गैर-कानूनी है। अदालत का यह फैसला मोटे तौर पर निष्पक्ष और ठीक मालूम पड़ता है। यह हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक-जैसा है लेकिन इस पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जो किसी धर्म के बारे में सोच-समझकर या पढ़-लिखकर हिंदू या मुसलमान या ईसाई बने हैं ? कितने हिंदुओं ने वेद पढक़र, कितने मुसलमानों ने कुरान पढक़र और कितने ईसाइयों ने बाइबिल पढक़र अपनी धार्मिक दीक्षा ली है ? सारी दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या कुछ लाख भी नहीं होगी। सभी लोग उसी मजहब में ढल जाते हैं, जो उनके माता-पिता का होता है। मजहबों और संप्रदायों में मतभेद जरुर होते हैं लेकिन वे भी उनके अंगों और उपांगों में बदल जाते हैं।
मौलिक सोच हर मजहब का जानी दुश्मन होता है। मौलिक सोच के आधार पर ही नए-नए मजहब, पंथ, आंदोलन, संगठन वगैरह बन जाते हैं लेकिन उनके ज्यादातर अनुयायी भेड़चाल चलते हैं। वे पैसे, पद, रुतबे, यौन-आकर्षण आदि के चलते धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं। तो शादी के खातिर यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो इसमें अजूबा क्या है ? वैसा मेरा सोच है कि सफल शादी के लिए धर्म-परिवर्तन जरुरी नहीं हैं। मैंने सूरिनाम, गयाना, मोरिशस और अपने अंडमान-निकोबार में ऐसे कई सद्गृहस्थों को देखा है, जिनके धर्म अलग-अलग हैं। वे बड़े प्रेम से साथ रहते हैं और समाज में उनकी पूर्ण स्वीकृति भी है। ऐसे जोड़े सिद्ध करते हैं कि इन मजहबों या धर्मों से ज्यादा ऊंची चीज है-इंसानियत।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-वीके सिन्हा
कोरोना वायरस आज भी एक अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट बना हुआ है। दिसंबर, 2019 में यह फैलना शुरू हुआ और देखते-देखते इसने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले लिया। जितनी तेजी से वायरस फैला, उससे तेजी से दुष्प्रचार और उससे भी तेजी से फैली अफवाहें। सोशल मीडिया के इस दौर में अफवाहों ने सच को ढक लिया। ऐसे में यह विचार करना जरूरी हो जाता है कि हमने इन सब से आखिर क्या सीखा।
23 जनवरी, 2020 को चीन ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए पूरे शहर को अन्य इलाकों से पूरी तरह काट दिया। इधर तेजी से बढ़ते वायरस ने जैसे पूरी मानव जाति की समाप्ति की शंका पैदा कर दी। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था और ऐसे में दुनिया ने चीन के मॉडल को अपनाते हुए लॉकडाउन का सहारा लिया और मार्च के अंत तक लगभग पूरी दुनिया लॉकडाउन की स्थिति में आ गई। जिन देशों ने पूर्णबंदी को अमल में लाया, वहां शुरू में वायरस को फैलने से रोकने में जरूर सफलता मिली लेकिन जैसे ही इसमें ढील दी गई, वायरस एक बार फिर तेजी से फैलना शुरू हो गया, यानी हमारे अनुभव से जो पहली सीख मिलती है, वह यह कि लॉकडाउन कुछ काम नहीं करता।
विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में संक्रमण की पैटर्न को देखने से साफ होता है कि इसका ग्राफ एक निश्चित तरीके से चलता है। भौगोलिक आकार और आबादी के घनत्व से यह तय होता है कि ग्राफ में कब पीक आएगा और कब यह नीचे आने लगेगा। बड़े देशों में यह चक्र लंबा होगा तो छोटे देशों में छोटा। यहां तक कि अपेक्षाकृत ठोस उपाय नहीं करने वाले अमेरिका के भी विभिन्न शहरों और राज्यों में भी चढ़ाव और उतार का वैसा ही पैटर्न रहा जैसा अन्य देशों में। अतः दूसरी सीख यह मिलती है कि एक तय समय चक्र के दौरान संक्रमण अपने शीर्ष पर पहुंचेगा और फिर धीरे-धीरे नीचे आने लगेगा चाहे आप कुछ भी कर लें।
अब हमारे सामने संक्रमण का दूसरा दौर है। हमने देखा कि कुछ देशों में तो इस चरण में पहले की तुलना में ज्यादा तेजी से नए मामले बढ़े। लेकिन राहत की बात यह है कि इस दौर में गंभीर मामलों में कमी आई है और इस कारण मौत का आंकड़ा भी पहले चक्र की तुलना में कहीं कम है। पूरी दुनिया में ऐसा ही देखा जा रहा है। इसकी स्वाभाविक वजह प्रतिरोधक क्षमता का विकसित होना है। भले सामुदायिक प्रतिरोधक क्षमता के सिद्धांत पर तमाम लोग अविश्वास करें लेकिन व्यावहारिक हकीकत इसके पक्ष में है, यानी तीसरी सीख यह है कि संक्रमण को लेकर लोगों में प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो रही है।
ऐसे में जब पूरी दुनिया संक्रमण के आगे बेबस है, वैज्ञानिक और उद्योग लगातार इस कोशिश में जुटे हैं कि इसका या तो इलाज खोजा जाए या फिर वैक्सीन। हड़बड़ी में कई उपाय खोजे गए और मुनाफे की आस में उद्योग दवा को बिना सही तरीके से जांचे-परखे खपाने में जुट गया। इस दिशा में पहला प्रयोग रहा हाइड्रॉक्सीक्लोक्वीन। उसके बाद डॉक्सीसाइक्लीन, रेमडेसिविर, प्लाज्माथेरेपी, आइवरमेक्टिन-जैसी तमाम दवाओं की बारी आई। लेकिन फायदा कुछ नहीं। इस तरह चौथी सीख यह है कि बेहतर है कि बेसब्री को छोड़कर उफान के थमने का इंतजार किया जाए।
लब्बो लुबाब यह है कि विज्ञान सवाल करने, परिकल्पना करने, प्रयोग करने और बिना किसी हित के सबूतों और पारदर्शी तरीके से परिणाम को साझा करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का नाम है। इसमें हड़बड़ी की कोई गुंजाइश नहीं होती। लेकिन दिक्कत यह है कि संगठन से लेकर सरकारों तक ने आधी सच्चाई के आधार पर ही आगे बढ़ने को फैसला किया जो विकास के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। पांचवीं सीख यह है कि विज्ञान भरोसे की चीज है लेकिन इसमें भी आंख मूंदकर मान लेने की कोई जगह नहीं।
सीखना एक अनवरत प्रक्रिया है, इसमें संदेह नहीं लेकिन कुछ सवालों के जवाब खोजने की कोशिश तो करनी ही चाहिए। सबसे पहला सवाल तो यही है कि आखिर कोरोना वायरस है क्या बला और इससे होता क्या है। चिकित्सा की दुनिया में एक मजाक चल पड़ा है- प्रिगनेन्सी और फ्रैक्चर को छोड़कर कोरोना वायरस से कुछ भी हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति संक्रमित पाया जाता है और उसकी मौत हो जाती है तो उस स्थिति में इसे कोरोना वायरस से हुई मौत के तौर पर दर्ज किया जाएगा- चाहे जान किसी भी कारण से गई हो। इसलिए हम कभी नहीं जान पाएंगे कि वायरस के कारण हकीकत में कितने लोगों की मौत हुई।
बहरहाल, मौत के आंकड़े सही हों या गलत, यह बात जरूर उलझाने वाली है कि आखिर क्यों कुछ भौगोलिक क्षेत्रों में दूसरे की तुलना में प्रकोप ज्यादा रहा। उदाहरण के लिए, अगर हम प्रतिदस लाख व्यक्तियों पर मौत के आंकड़ों को देखें तो अमेरिकी देशों में यह सात सौ से अधिक मिलेगा तो पश्चिमी यूरोप में पांच से सात सौ के बीच और अपेक्षाकृत कम विकसित चिकित्सीय सुविधाओं के बाद भी एशिया में सौ से भी कम। भारत में भी महाराष्ट्र-जैसे राज्य में मौत का आंकड़ा बीमारू राज्यों से कहीं अधिक है। इस सवाल का तर्क संगत जवाब खोजना अभी बाकी है। हर बुरे वक्त की तरह यह भी गुजर जाएगा और तब देशों, सरकारों और विभिन्न समाजों को बैठकर देखना होगा कि कौन-से फैसले अच्छे रहे जिन्हें आगे अपनाया जाए और कौन-से फैसले वैसे रहे जिन्हें हाशिए पर डाल दिया जाए। लेकिन तब भी आखिर हम गलतियों के लिए भला किसे दोषी ठहराएंगे?(https://www.navjivanindia.com/)
विनोद वर्मा
छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस : 1 नवम्बर
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्द-गिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दी गई।
कोरोना की महामारी न हुई होती तो झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ नवंबर में जोर-शोर से अपनी स्थापना की 20वीं वर्षगांठ मना रहे होते। जब इन राज्यों की मांग हुई तो इसके मूल में क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान थी। विकास का नारा तो बाद में जुड़ा। झारखंड और छत्तीसगढ़ के बारे में कहा गया कि ये आदिवासी बहुल इलाके हैं। लेकिन यह सच नहीं। छत्तीसगढ़ में आदिवासी 30.62 फीसदी और झारखंड में 26.21 फीसदी हैं। दोनों ही राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग की बहुलता है। उत्तराखंड में सवर्ण जातियां अधिक हैं।
बहुत लोगों को लगता था कि विकास के लिए जरूरी है कि राज्य छोटे हों। अब इस बात का आंकलन करना चाहिए कि इन तीन राज्यों का कितना विकास हुआ? छोटे राज्यों को लेकर बहसें होती रही हैं। डॉ बी.आर. आंबेडकर खुद छोटे राज्यों के पक्ष में थे। जब भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तो वे बड़े राज्यों का विरोध कर रहे थे। लेकिन आज यह कहना मुश्किल है कि विकास का कोई एक पैमाना हो सकता है। यदि हरियाणा, पंजाब और केरल-जैसे छोटे राज्यों के उदाहरण हैं तो कर्नाटक और तमिलनाडु-जैसे बड़े राज्यों के भी उदाहरण हमारे सामने हैं।
यह कतई जरूरी नहीं कि छोटे राज्य उन सपनों को पूरा कर सकें जिनको लेकर उनका गठन हुआ। जिस समाज या समूह के विकास को आधार बनाया गया था, उसका इस राह पर चलकर भला ही होगा, यह भी सुनिश्चित नहीं है। तीनों राज्यों के मानव विकास सूचकांक चुगली करते हैं कि छोटे राज्य बनने से उनका भला नहीं हुआ। हालांकि ‘विकास’ के ऐसे ढेर सारे आंकड़े हैं जिससे विकास का भ्रम पैदा हो जाए। उदाहरण के तौर पर, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े। छत्तीसगढ़ जब बना तो प्रति व्यक्ति आय 10,744 रुपए थी जो 2019-20 में बढक़र 92,413 रुपए हो गई थी। ऐसे ही आंकड़े झारखंड और उत्तराखंड के लिए भी उपलब्ध हैं। लेकिन इसका कोई जवाब नहीं है कि यदि प्रति व्यक्ति आय में इतनी बढ़ोतरी हो रही थी तो फिर छत्तीसगढ़ में गरीबी क्यों बढ़ती रही? क्यों छत्तीसगढ़ 39.9 फीसदी गरीबों के साथ देश का सबसे गरीब राज्य है? वहां सबसे अधिक 18 फीसदी लोग झुग्गियों में क्यों रहते हैं? यही हाल झारखंड का है। हालांकि उत्तराखंड ने गरीबी के मामले में अपनी स्थिति सुधार ली है।
आदिवासियों का भी तो भला नहीं हुआ
झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नाम पर बने थे। लेकिन तथ्य बताते हैं कि इन दोनों राज्यों में आदिवासी समुदाय ने ही सबसे अधिक पीड़ा झेली है। झारखंड पिछले दो दशकों में ‘खदानों के नरक’ में बदल गया है। आदिवासी लगातार विस्थापित हुए हैं और अपनी जीवन शैली के साथ उन्हें बहुत समझौता करना पड़ा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पनपने की वजह आदिवासियों का शोषण थी तो अलग राज्य बनने के बाद उनका भला होना चाहिए था और नक्सली गतिविधियां सिमट जानी थीं। लेकिन हुआ इसका एकदम उलट। जब राज्य बना तो तीन विकास खंडों में नक्सली गतिविधियां थीं लेकिन 15 बरस के बीजेपी शासनकाल में राज्य के 14 जिलों में नक्सल समस्या फैल गई।
नक्सलियों से लडऩे के नाम पर सलवा-जुडुम की शुरुआत हुई। लेकिन इसके असर से बस्तर में आदिवासियों का सबसे ज्यादा पलायन हुआ। आदिवासियों के 650 से अधिक गांव खाली करवा दिए गए। लगभग तीन लाख आदिवासियों को पलायन करना पड़ा। फर्जी एनकाउंटर, आदिवासियों की प्रताडऩा और गांव जलाने आदि की अनगिनत घटनाएं हुईं।
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्दगिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दिया गया। जिन मूल निवासियों को राज्य के निर्माण का लाभ मिलना था, वे इस विकास की दौड़ के चलते हाशिये पर चले गए। वे भूल ही गए कि नए राज्य का निर्माण उनके लिए भी हुआ था।
ठोस योजना का अभाव
छोटे राज्य बनाने का चाहे जो तर्क दे दीजिए- क्षेत्रीय विकास का असंतुलन, आंतरिक सुरक्षा और जनभावनाएं आदि, लेकिन सच यह है कि नया राज्य बनाने के साथ अगर उस राज्य के विकास का कोई ब्लू- प्रिंट नहीं बना, कोई रोड मैप नहीं बना तो राज्य का हित संभव ही नहीं है। छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड इसके अप्रतिम उदाहरण हैं।
यह कहना गलत होगा कि कुछ हुआ ही नहीं। कुछ तो होना ही था। केंद्र से पैसा सीधे पहुंचा, फैसले लखनऊ, भोपाल और पटना की जगह देहरादून, रायपुर और रांची में होने लगे, परियोजनाओं के लिए बेहतर संसाधन मिले, खनिजों के लिए रॉयल्टी की राशि सीधे मिलने लगी, कुछ उद्योग लगे, थोड़ा रोजगार बढ़ा। लेकिन ये तीनों ही उन राज्यों में तब्दील नहीं हो सके जिसका सपना दिखाया गया था।
तीनों ही राज्यों के शासकों ने कोई ठोस रणनीति या कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया जिससे राज्य एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सके। एक बार नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने कहा था कि 50 के दशक में केरल सरकार ने जिद पकड़ ली कि वे अपनी योजना का सबसे अधिक पैसा शिक्षा और स्वास्थ्य पर लगाएंगे और उसी जिद का परिणाम है कि केरल आज सबसे संपन्न राज्यों की सूची में है।
झारखंड और उत्तराखंड तो राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझते रहे। छत्तीसगढ़ में राजनीतिक अस्थिरता अब तक नहीं है लेकिन इससे राज्य का भाग्य बदला नहीं है।
छत्तीसगढ़ की दूरगामी सोच
वैसे, छत्तीसगढ़ में अब बदलाव के आसार दिख रहे हैं। नई सरकार ठोस और दूरगामी परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम कर रही है। वह आदिवासियों और किसानों की सुध ले रही है। नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य की सांस्कृतिक विरासत को भी राजनीति का हिस्सा बनाकर लोगों के मन में एक नई आस जगाई है। उन्होंने बस्तर के लोहांडीगुड़ा में उद्योग के नाम पर ली हुई 1,700 आदिवासी किसानों की जमीन लौटा दी। किसानों को प्रति क्विंटल धान के लिए 2500 रुपये मिल रहे हैं।
तेंदूपत्ता मजदूरों को प्रति मानक बोरा 2500 रुपये की जगह 4000 रुपये मिल रहे हैं। सरकार ने वनोपज खरीद की नीति बदली है जिससे आदिवासियों को लाभ मिला है। नई सरकार छत्तीसगढ़ को बिजली बनाने वाले राज्य से बिजली खपत करने वाले राज्य में बदलना चाहती है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ‘नरवा-गरुवा-घुरुवा बारी’ नाम की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की। इसका उद्देश्य वर्षाजल का संचयन कर नदी नालों को पुनर्जीवित करना, गौधन का संवर्धन और घर-घर में पौष्टिक फल सब्जी के उत्पादन को बढ़ावा देना है। इसी के अंतर्गत छत्तीसगढ़ सरकार ने देश में पहली बार गोबर खरीदना शुरू कर दिया है और गांव-गांव में गोशालाएं बन रही हैं। अगर ठीक से अमल हुआ तो छत्तीसगढ़ अगले दशकों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दम पर चलने वाला इकलौता राज्य होगा।
लेकिन, सवाल अकेले छत्तीसगढ़ का नहीं है। यह सवाल झारखंड और उत्तराखंड का भी है। साथ ही देश के उन सभी राज्यों का है जो ठोस और दूरदर्शी योजनाओं के अभाव में पिछड़ रहे हैं। राजनीति चलती रहेगी। चुनाव आते-जाते रहेंगे। सरकारें बनती-बिगड़ती रहेंगीं। लेकिन योजनाएं ऐसी होनी चाहिए जिससे राज्य की जनता का भाग्य बदले, राज्य की अर्थव्यवस्था बदले और इस तरह बदले कि उसका सकारात्मक असर दूर तक दिखाई दे। ये बदलाव हर सूरत में क्रांतिकारी होने चाहिए। तभी बात बनेगी।(लेख अख़बार ‘नवजीवन’ के सौजन्य से)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार रह चुके हैं, और अभी छत्तीसगढ़ सीएम के राजनीतिक सलाहकार हैं)
नवल किशोर कुमार
बिहार के चुनावी दंगल में आरक्षण का मामला नीतीश कुमार ने तब उठाया है जब पहले चरण का मतदान हो चुका है। क्या अब यह मुद्दा चुनाव में कोई नया नैरेटिव बना पाएगा?
बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान का पहला चरण बीते 28 अक्टूबर, 2020 को संपन्न हो गया। कोरोना के खौफ के बीच 54.35 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया, जो वर्ष 2015 में हुए विधानसभा चुनाव की तुलना में करीब डेढ़ फीसदी अधिक है। अगले चरण में 94 विधानसभा क्षेत्रों में 3 नवंबर को मतदान होगा। इस बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पश्चिम चंपारण के वाल्मीकिनगर विधानसभा क्षेत्र में चुनाव सभा को संबोधित करने के दौरान आबादी के अनुसार आरक्षण का मसला उठाया है। इसके पहले यह मुद्दा न तो एनडीए ने उठाया और ना ही राजदनीत महागठबंधन ने। नीतीश कुमार द्वारा अपनी रणनीति में यह बदलाव राजद नेता तेजस्वी यादव द्वारा सरकारी नौकरी का मुद्दा उठाने के बाद किया गया है।
दस लाख नौकरियों और 85 फीसदी बिहारी मूल के लिए आरक्षण का असर
दरअसल, अभी तक इस विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव मुद्दों के मामले में एनडीए पर भारी पड़ रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि उनकी रैलियों में जनसैलाब देखा जा रहा है तो दूसरी ओर एनडीए के नेताओं को निराशा झेलनी पड़ी है। एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब तक हुई छह रैलियों में ही लोग बड़ी संख्या में जुटे। जबकि नीतीश कुमार को एक तरफ भीड़ नहीं जुटने के संकट से जूझना पड़ रहा है तो दूसरी तरफ उनकी सभाओं में लोग तेजस्वी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं।
इस लिहाज से देखें तो तेजस्वी यादव द्वारा पढ़ाई, कमाई, दवाई और सिंचाई का नारा दिए जाने तथा सरकार बनने पर पहली कैबिनेट की बैठक में दस लाख युवाओं को नौकरी देने संबंधी घोषणा का असर दिख रहा है। उन्होंने बिहार की नौकरियों में 85 फीसदी आरक्षण बिहारियों को देने संबंधी वादा भी किया है। उनके इन घोषणाओं के आलोक में एनडीए पहले तो यह कहकर खारिज करता रहा कि दस लाख युवाओं को नौकरी नहीं दी जा सकती है। सूबे के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि इसके लिए प्रत्येक वर्ष करीब 52 हजार करोड़ रुपए राशि की आवश्यकता होगी, जिसका प्रबंध करना बिहार सरकार के बूते के बाहर की बात है। इस क्रम में उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि बिहार सरकार के खजाने में इतना पैसा नहीं है कि इस राशि का अतिरिक्त बोझ उठाया जा सके।
वर्तमान में बिहार में आरक्षण
गौरतलब है कि वर्तमान में बिहार सरकार के अधीन नौकरियों में अनुसूचित जनजाति के लिए एक फीसदी, अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, अति पिछड़ा वर्ग के लिए 21 फीसदी, पिछड़ा वर्ग के लिए 12 फीसदी और गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण है। इनमें 35 फीसदी क्षैतिज आरक्षण महिलाओं के लिए है। इसके अलावा एक फीसदी आरक्षण विकलांगजनों के लिए है।
चुनावी मझधार में नीतीश को आई आरक्षण की याद
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के ठीक पहले भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में 19 लाख युवाओं को रोजगार देने का उल्लेख किया। इससे तेजस्वी यादव के मुद्दे को मजबूती मिली तो दूसरी ओर नीतीश कुमार बैकफुट पर आ गए। उन्होंने भी अपनी सभाओं में तेजस्वी यादव की घोषणा के संदर्भ में वित्त की कमी से जुड़े सवाल उठाए थे। उन्होंने अब आबादी के आधार पर आरक्षण का मामला उठाया है।
कमाई, दवाई, पढ़ाई और सिंचाई का मुद्दा भी सामाजिक न्याय का मुद्दा
बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार व चिंतक प्रेमकुमार मणि बताते हैं कि नीतीश कुमार द्वारा आबादी के आधार पर आरक्षण की बात कहे जाने का मतलब यह है कि वे अब फिर से कोटा की राजनीति करना चाहते हैं। वे मौजूदा राजनीति को फिर से पीछे ले जाना चाहते हैं। अलग-अलग जातियों को उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण मिले, यह लड़ाई पहले से रही है। नीतीश कुमार को बताना चाहिए कि उन्होंने इसके लिए क्या किया। वर्तमान में तेजस्वी यादव ने कमाई, दवाई, सिंचाई और पढ़ाई का सवाल उठाया है। यह सवाल भी सामाजिक न्याय से जुड़े सवाल हैं। जिन 10 लाख नौकरियों की बात तेजस्वी यादव ने की है, उसमें सभी को नौकरियां मिलेंगी। फिर चाहे वे महिलाएं हों, दलित हों, अति पिछड़े हों या फिर ऊंची जातियों के हों। और यह कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान पहले से है तो यदि नौकरियां मिलेंगीं तो सभी को तय कोटे के आधार पर ही दी जाएगी। इसलिए नीतीश कुमार जो अभी कह रहे हैं, वह सबसे बड़े मुद्दे को डिरेल करने का प्रयास है। जो कि अब संभव नहीं है। बिहार की जनता जाग चुकी है।
बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार व चिंतक प्रेमकुमार मणि
दरअसल, 2005 से लेकर 2015 तक हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की सफलता के पीछे जो मुद्दे महत्वपूर्ण रहे, उनमें अधोसंरचनात्मक विकास और विधि-व्यवस्था महत्वपूर्ण रही। यह सवाल अब भी महत्वपूर्ण बना हुआ है और नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में बिहार के फिसड्डी होने की बात सामने आने के बाद नीतीश कुमार इन मुद्दों के बारे में बोलने का अधिकार खोते जा रहे हैं। इस बीच मुंगेर में दशहरा के मौके पर पुलिस की गोलीबारी ने उनकी स्थिति को और विषम बना दिया है। इस घटना में एक 17 वर्षीय किशोर की मौत पुलिस की गोली से हो गई। इसके अलावा एक दर्जन लोग घायल हुए हैं।
के. सी. त्यागी का टिप्पणी से इंकार
तो क्या उपरोक्त कारणों से नीतीश कुमार को आबादी के आधार पर आरक्षण का सवाल उठाना पड़ रहा है? यह पूछने पर जदयू के राष्ट्रीय महासचिव के. सी. त्यागी ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि आबादी के आधार पर आरक्षण संबंधी बयान मुख्यमंत्रीजी द्वारा दिया गया है। इस संबंध में वे कोई टिप्पणी नहीं कर सकते।
पन्द्रह साल में पहल क्यों नहीं की?
इस संबंध में राजद के नेता व नीतीश सरकार में मंत्री रहे श्याम रजक का कहना है कि ‘नीतीश कुमार से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने पहले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि बिहार में आबादी के अनुरूप आरक्षण मिले, इसके लिए बीते 15 वर्षों में उन्होंने कोई पहल क्यों नहीं की। वे तो एनडीए के साथ थे। चाहते तो केंद्र सरकार पर दबाव बना सकते थे कि वह संसद में विधेयक के माध्यम से यह प्रावधान करे। तो जब उनके पास समय था तब उन्होंने कुछ नहीं किया। नीतीश कुमार अब हताश और निराश हो चुके हैं। साथ ही जातिगत जनगणना के सवाल को लेकर नीतीश कुमार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।’
सनद रहे कि जाति-आधारित जनगणना की मांग को लेकर देश भर में बहुजन संगठनों द्वारा आंदोलन चलाए जा रहे हैं। इसके पीछे तर्क यह है कि जातिगत जनगणना के बाद ही यह स्थापित हो सकेगा कि वर्तमान में किस जाति के कितने लोग हैं तथा उनकी शैक्षणिक व सामाजिक स्थिति क्या है। वर्तमान में देश में जो आरक्षण की व्यवस्था है, उसका आधार 1931 में हुए जातिगत जनगणना है।
दरअसल, 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में आरक्षण एक मुख्य मुद्दा बन गया था। तब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण संबंधी कानून की समीक्षा करने की बात कही थी। इसके खिलाफ लालू प्रसाद ने अभियान चलाया था। तब नीतीश कुमार महागठबंधन की ओर से सीएम पद के उम्मीदवार थे। उन्होंने भी अपने संबोधनों में आरक्षण में छेड़छाड़ किए जाने पर एनडीए को चेताया था।
बहरहाल, नीतीश कुमार द्वारा अब आरक्षण का सवाल उठाए जाने का कोई असर होगा, इसके आसार फिलहाल नहीं दिख रहे हैं। वैसे यह देखना दिलचस्प होगा कि यदि यह मुद्दा बनता है तो तेजस्वी यादव की तरफ से क्या पहल होती है। वजह यह कि पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने राज्य में आरक्षण की सीमा 70 फीसदी करने संबंधी बात कही थी। (फारवर्ड प्रेस)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जिन्ना ने पाकिस्तान इसलिए बनवाया था कि वह आदर्श इस्लामी राष्ट्र बने और मुसलमान लोग अपना सिर ऊंचा करके वहां रह सकें लेकिन अब 73 साल बाद भी उसका हाल क्या है? वह एक स्वस्थ और सबल राष्ट्र नहीं, बल्कि एक मज़ाक बन गया है। पाकिस्तान की संसद में उसके एक मंत्री फवाद चौधरी ने अपने ऐंठ दिखाई और बोल दिया कि पिछले साल भारत के पुलवामा में जो आतंकी हमला हुआ था, वह पाकिस्तान ने करवाया था और पाकिस्तानियों ने हिंदुस्तान के अंदर घुसकर उसकी जमीन पर उसको मारा था। उस हमले में भारतीय फौज के 40 जवान मारे गए थे।
चौधरी का यह बयान और इसके साथ इमरान खान का अमेरिका में दिया गया वह बयान कि पाकिस्तान में हजारों आतंकी सक्रिय हैं, क्या सिद्ध करता है ? क्या यह नहीं कि पाकिस्तान, जिसका अर्थ होता है, ‘पवित्र स्थान’, वह घोर अपवित्र कुकर्मों का अड्डा बन गया है। हजारों बेकसूर मुसलमान तो पाकिस्तान में हर साल मारे ही जाते हैं, ये आतंकी भारत और अफगानिस्तान के शांतिप्रिय लोगों को भी नहीं बख्शते ! इन्होंने इस्लाम और आतंक को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया है।
इन्हीं की देखादेखी अब कई सिरफिरे मुस्लिम युवकों ने फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों में भी आतंक फैला दिया है। पता नहीं, पाकिस्तान अब कैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कोश के सामने अपना मुंह छपाएगा ? चौधरी के बयान पर जो प्रतिक्रिया नवाज की मुस्लिम लीग के नेता अयाज सादिक ने संसद में की है, उसे सुनकर क्या इमरान की सरकार शर्म से डूब नहीं मर रही है ? सादिक ने कहा है कि पुलवामा कांड के बाद भारतीय पायलट अभिनंदन की रिहाई की बात जब उठी तो विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और सेनापति क़मर जावेद बाजवा सांसदों के सामने आए। उनके पांव कांप रहे थे और माथे से पसीना चू रहा था।
कुरैशी ने यह भी कहा कि भारतीय पायलट को अल्लाह के खातिर तुरंत रिहा किया जाए, क्योंकि रात 9 बजे भारत का हमला होने वाला है। सादिक के इस बयान पर इमरान सरकार काफी लीपा-पोती कर रही है और फवाद चौधरी भी पलटा खाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तान की जनता से पूछिए कि वह अपने नेताओं पर कितना तरस खा रही है।पाकिस्तान में चल रही इस अंदरुनी और आपसी तू-तू का सबसे बड़ा फायदा किसको मिल रहा है ? नरेंद्र मोदी को। पाकिस्तान की जनता में मोदी का डर फैल रहा है और उसका अपने नेताओं और फौज से मोहभंग भी हो रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Dayanidhi
संयुक्त राष्ट्र के जैव विविधता पैनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य में महामारियां और अधिक बार आएंगी। इन महामारियों से और अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ेगा। ये दुनिया की अर्थव्यवस्था को कोरोनावायरस के मुकाबले और अधिक नुकसान पहुंचाएंगे।
चेतावनी दी गई कि 540,000 से लेकर 850,000 तक ऐसे वायरस हैं, जो नोवल कोरोनवायरस की तरह जानवरों में मौजूद हैं और लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। यह महामारियां मानवता के अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।
जैव विविधता और महामारी पर विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि जानवरों के रहने के आवासों की तबाही और जरूरत से ज्यादा खपत से भविष्य में पशु-जनित रोगों के और अधिक बढ़ने के आसार हैं।
जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतरसरकारी विज्ञान-नीति मंच (आईपीबीईएस) कार्यशाला के अध्यक्ष पीटर दासजक ने कहा कि कोविड-19 महामारी या कोई भी आधुनिक महामारी के पीछे कोई बड़ा रहस्य नहीं है।
वही मानव गतिविधियां जिनकी वजह से जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की हानि होती है, हमारे कृषि पर भी इनके प्रभावों से महामारी के खतरों को बढ़ाती हैं।
पैनल ने कहा कि 1918 के इन्फ्लूएंजा के प्रकोप के बाद कोविड-19 छठी महामारी है, जिसके लिए पूरी तरह से मानवीय गतिविधियां जिम्मेदार हैं। इनमें वनों की कटाई, कृषि विस्तार, जंगली जानवरों का व्यापार और खपत के माध्यम से पर्यावरण का निरंतर शोषण शामिल है। ये सभी लोगों को जंगली और खेती में उपयोग होने वाले जानवरों के साथ संपर्क में रखते हैं और बीमारियों को शरण देते हैं।
उभरती बीमारियों के 70 फीसदी जैसे कि- इबोला, जीका और एचआईवी / एड्स, मूल रूप से जूनोटिक हैं, जिसका अर्थ है कि वे मनुष्यों में फैलने से पहले जानवरों में फैलते हैं। पैनल ने चेतावनी देते हुए बताया कि हर पांच साल में इंसानों में लगभग पांच नई बीमारियां फैलती हैं, जिनमें से किसी एक की महामारी बनने के आसार होते हैं।
कोविड-19 महामारी के लिए अब तक लगभग 8 ट्रिलियन डॉलर से 16 ट्रिलियन डॉलर तक की कीमत चुकानी पड़ी, जिसमें 5.8 ट्रिलियन से 8.8 ट्रिलियन डॉलर 3 से 6 महीने की सामाजिक दूरी और यात्रा प्रतिबंध की वजह से नुकसान हुआ (जो कि वैश्विक जीडीपी का 6.4 से 9.7 फीसदी है)
खराब तरीके से भूमि उपयोग
आईपीबीईएस ने पिछले साल प्रकृति की स्थिति पर अपने सामयिक मूल्यांकन में कहा था कि पृथ्वी पर तीन-चौथाई से अधिक भूमि पहले से ही मानव गतिविधि के कारण गंभीर रूप से खराब (डीग्रेड) हो चुकी है। जमीन की सतह का एक तिहाई और पृथ्वी पर ताजे पानी का तीन-चौथाई हिस्सा वर्तमान में खेती में उपयोग हो रहा है, लोगों के द्वारा संसाधनों का उपयोग केवल तीन दशकों में 80 प्रतिशत तक बढ़ गया है।
आईपीबीईएस ने 22 प्रमुख विशेषज्ञों के साथ एक वर्चुअल कार्यशाला आयोजित की, जिसमें महामारी के खतरों को कम करने तथा निपटने के लिए उपायों की सूची बनाई गई है। अब दुनिया भर की सरकारों से अपेक्षा है कि वे इन्हें लागू करें।
विशेषज्ञों ने कहा हम अभी भी टीके और चिकित्सीय माध्यम से रोगों से उभरने और उन्हें नियंत्रित करने के प्रयासों पर भरोसा करते हैं।
आईपीबीईएस ने जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के समान एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत जैव विविधता के नुकसान को रोकने के लिए, लक्ष्यों पर सहमति के लिए, देशों को एक वैश्विक समन्वय महामारी प्रतिक्रिया (कोऑर्डिनेटेड पान्डेमिक रिस्पांस) का सुझाव दिया है।
नीति-निर्माताओं के लिए भविष्य में कोविड-19 जैसी बीमारियां न हो इसके लिए मांस की खपत, पशुधन उत्पादन आदि जो महामारी के खतरों को बढ़ाने वाली गतिविधियां हैं उन पर अधिक कर लगाने जैसी विकल्प शामिल करने का सुझाव दिया है।
रिपोर्ट के मूल्यांकन में अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव व्यापार के बेहतर नियम और स्वदेशी समुदायों को इस काबिल बनाना कि वे जंगली आवासों को संरक्षित कर सकें आदि का सुझाव भी दिया गया है।
इस शोध में शामिल ओस्ले ने कहा कि हमारा स्वास्थ्य, धन, संपत्ति और भलाई हमारे स्वास्थ्य और हमारे पर्यावरण की भलाई पर निर्भर करती है। इस महामारी की चुनौतियों ने विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण और साझा पर्यावरणीय जीवन-प्रणाली को बचाने और बहाल करने के महत्व को उभारा है। (downtoerth)
-दयाशंकर शुक्ल सागर
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक, बीबीसी हिंदी के लिए
महात्मा गांधी अगर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हस्तक्षेप न करते तो सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वतंत्र पहली भारतीय सरकार के अंतरिम प्रधानमंत्री होते.
जिस समय आज़ादी मिली, पटेल 71 साल के थे जबकि नेहरू सिर्फ 56 साल के. देश उस वक्त बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था.
जिन्ना पाकिस्तान की जिद पर अड़े थे. ब्रितानी हुकूमत ने कांग्रेस को अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था.
कांग्रेस चाहती थी कि देश की कमान पटेल के हाथों में दी जाए क्योंकि वे जिन्ना से बेहतर मोलभाव कर सकते थे, लेकिन गांधी ने नेहरू को चुना.
राजेन्द्र प्रसाद जैसे कुछ कांग्रेस नेताओं ने ज़रूर खुलकर कहा कि 'गांधीजी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया' लेकिन ज्यादातर कांग्रेसी ख़ामोश रहे. बापू ने देश की बागडोर सौंपने के लिए नेहरू को ही क्यों चुना?
आज़ादी के 77 के बाद भी यह सवाल भारत की राजनीति में हमेशा चर्चा में रहा है.
इसका कारण को तलाशने के लिए हमें ब्रिटिश राज के अंतिम वर्षों की राजनीति और गांधी के साथ नेहरू और पटेल के रिश्तों की बारीकियों समझना होगा.

UNIVERSAL HISTORY ARCHIVE
विरोधी से गांधी भक्त बने थे पटेल
वल्लभ भाई पटेल से गांधी की मुलाकात नेहरू से पहले हुई थी. उनके पिता झेवर भाई ने 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया था. तब वे तीन साल तक घर से गायब रहे थे.
1857 के विद्रोह के 12 साल बाद गांधी जी का जन्म हुआ और 18 साल बाद 31 अक्टूबर 1875 में पटेल का यानी पटेल गांधी से केवल छह साल छोटे थे जबकि नेहरू पटेल से 14-15 साल छोटे थे.
उम्र में छह साल का फर्क कोई ज्यादा नहीं होता इसलिए गांधी और पटेल के बीच दोस्ताना बर्ताव था. पटेल लंदन के उसी लॉ कॉलेज मिडिल टेंपल से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे, जहाँ से गांधी, जिन्ना, उनके बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल और नेहरू ने बैरिस्टर की डिग्रियां ली थीं.
उन दिनों वल्लभभाई पटेल गुजरात के सबसे महँगे वकीलों में से एक हुआ करते थे. पटेल ने पहली बार गाँधी को गुजरात क्लब में 1916 में देखा था.
गांधी साउथ अफ़्रीका में झंडे गाड़ने के बाद पहली दफ़ा गुजरात आए थे. देश में जगह-जगह उनका अभिनंदन हो रहा था. उन्हें कुछ लोग 'महात्मा' भी कहने लगे थे लेकिन पटेल गांधी के इस 'महात्मापन' ने जरा भी प्रभावित नहीं थे. वो उनके विचारों से बहुत उत्साहित नहीं थे.
पटेल कहते थे, ''हमारे देश में पहले से महात्माओं की कमी नहीं है. हमें कोई काम करने वाला चाहिए. गांधी क्यों इन बेचारे लोगों से ब्रह्मचर्य की बातें करते हैं? ये ऐसा ही है जैसे भैंस के आगे भागवत गाना.'' (विजयी पटेल, बैजनाथ, पेज 05)
साल 1916 की गर्मियों में गांधी गुजरात क्लब में आए. उस समय पटेल अपने साथी वकील गणेश वासुदेव मावलंकर के साथ ब्रिज खेल रहे थे.
मावलंकर गांधी से बहुत प्रभावित थे. वो गांधी से मिलने को लपके. पटले ने हंसते हुए कहा, ''मैं अभी से बता देता हूं कि वो तुमसे क्या पूछेगा? वो पूछेगा- गेहूं से छोटे कंकड़ निकालना जानते हो कि नहीं? फिर वो बताएगा कि इससे देश को आज़ादी किन तरीकों से मिल सकती है.''
लेकिन बहुत जल्द ही पटेल की गांधी का लेकर धारणा बदल गई.
चंपारण में गांधी के जादू का उन पर जबरदस्त असर हुआ. वो गांधी से जुड़ गए. खेड़ा का आंदोलन हुआ तो पटेल गांधी के और करीब आ गए.
असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो पटेल अपनी दौड़ती हुई वकालत छोड़ कर पक्के गांधी भक्त बन गए और इसके बाद हुआ बारदोली सत्याग्रह जिसमें पटेल पहली बार सारे देश में मशहूर हो गए.
ये 1928 में एक प्रमुख किसान आंदोलन था. प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में 30 फ़ीसदी की बढ़ोतरी कर दी. पटेल इस आंदोलन के नेता बने और ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा.
इसी आंदोलन के बाद पटेल को गुजरात की महिलाओं ने 'सरदार' की उपाधि दी. 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पटेल पहली और आखिरी बार पार्टी के अध्यक्ष चुने गए. पहली बार वह 'गुजरात के सरदार' से 'देश के सरदार' बन गए.

BETTMANN
नेहरू का चुनाव
देश को 15 अगस्त 1947 को आज़ाद होना था लेकिन उससे एक साल पहले ब्रिटेन ने भारतीय हाथों में सत्ता दे दी थी. अंतरिम सरकार बननी थी.
तय हुआ था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा. उस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे. वो पिछले छह साल से इस पद पर थे. अब उनके जाने का वक्त हो गया था.
तब तक गांधी, नेहरू के हाथ में कांग्रेस की कमान देने का मन बना चुके थे. 20 अप्रैल 1946 को उन्होंने मौलाना को पत्र लिखकर कहा कि वे एक वक्तव्य जारी करें कि अब 'वह अध्यक्ष नहीं बने रहना चाहते हैं.'
गांधी ने बिना लागलपेट पर ये भी साफ़ कर दिया कि 'अगर इस बार मुझसे राय मांगी गई तो मैं जवाहरलाल को पसंद करूंगा, इसके कई कारण हैं. उनका मैं ज़िक्र नहीं करना चाहता.' (कलेक्टट वर्क्स खंड 90 पेज 315)
इस पत्र के बाद पूरे कांग्रेस में ख़बर फैल गई कि गांधी नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं. 29 अप्रैल 1946 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी का नया अध्यक्ष चुना जाना था जिसे कुछ महीने बाद ही अंतरिम सरकार में भारत का प्रधानमंत्री बनना था.
इस बैठक में महात्मा गांधी के अलावा नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के साथ कई बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे.
कमरे में बैठा हर शख़्स जानता था कि गांधी नेहरू को अध्यक्ष देखना चाहते हैं.
परपंरा के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियाँ करती थीं और 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था. बची हुई तीन कमेटियों ने आचार्य जेबी कृपलानी और पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया था.
किसी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने अध्यक्ष पद के लिए नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया था जबकि सारी कमेटियाँ अच्छी तरह जानती थी कि गांधी नेहरू को चौथी बार अध्यक्ष बनाना चाहते हैं.
पार्टी के महासचिव कृपलानी ने पीसीसी के चुनाव की पर्ची गांधी की तरफ बढ़ा दी. गांधी ने कृपलानी की तरफ देखा. कृपलानी समझ गए कि गाँधी क्या चाहते हैं. उन्होंने नया प्रस्ताव तैयार कर नेहरू का नाम प्रस्तावित किया. उस पर सबने दस्तख़त किए. पटेल ने भी दस्तख़त किए. अब अध्यक्ष पद के दो उम्मीदवार थे. एक नेहरू और दूसरे पटेल.

नेहरू तभी निर्विरोध अध्यक्ष चुने जा सकते थे जब पटेल अपना नाम वापस लें. कृपलानी ने एक कागज पर उनकी नाम वापसी की अर्जी लिखकर दस्तख़त के लिए पटेल की तरफ बढ़ा दी.
मतलब साफ था-चूंकि गांधी चाहते हैं नेहरू अध्यक्ष बनें इसलिए आप अपना नाम वापस लेने के कागज पर साइन कर दें लेकिन आहत पटेल ने दस्तख़त नहीं किए और उन्होंने ये पुर्जा गांधी की तरफ बढ़ा दिया.
गांधी ने नेहरू की तरफ़ देखा और कहा, ''जवाहर वर्किंग कमेटी के अलावा किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने तुम्हारा नहीं सुझाया है. तुम्हारा क्या कहना है?''
नेहरू ख़ामोश रहे. वहां बैठे सारे लोग ख़ामोश थे. गांधी को शायद उम्मीद थी कि नेहरू कहेंगे, तो ठीक है आप पटेल को ही मौका दें. लेकिन नेहरू ने ऐसा कुछ नहीं कहा. अब अंतिम फैसला गांधी को करना था.
गांधी ने वो कागज फिर पटेल को लौटा दिया. इस बार सरदार ने उस पर दस्तख़त कर दिए. कृपलानी ने ऐलान किया,''तो नेहरू निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाते हैं.''
कृपलानी ने अपनी किताब 'गांधी हिज़ लाइफ एंड थाटॅ्स' में इस पूरी घटना का विस्तार से ज़िक्र किया है.
उन्होंने लिखा है, ''मेरा इस तरह हस्तक्षेप करना पटेल को अच्छा नहीं लगा. पार्टी का महासचिव होने के नाते में गाँधी की मर्ज़ी का काम यंत्रवत कर रहा था और उस वक्त मुझे ये बहुत बड़ी चीज नहीं लगी. आख़िर ये एक अध्यक्ष का ही तो चुनाव था.''
''मुझे लगा अभी बहुत सी लड़ाइयाँ सामने हैं. लेकिन भविष्य कौन जानता है? मालूम होता है ऐसी तुच्छ घटनाओं से ही किसी व्यक्ति या राष्ट्र की किस्मत पर निर्भर होती है.
ये भी पढ़ें: विवेचना: किस तरह पटेल ने बनाया हैदराबाद को भारत का हिस्सा

SARDAR PATEL NATIONAL MEMORIAL, AHMEDABAD.
गांधी ने ऐसा क्यों किया?
ये महात्मा गांधी ही कर सकते थे. कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा, ये फ़ैसला एक ऐसा आदमी कर रहा था जो 12 साल पहले ही कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दे चुका था लेकिन कांग्रेसियों के लिए ये बड़ी बात नहीं थी क्योंकि साल 1929, 1936, 1939 के बाद ये चौथा मौका था जब पटेल ने गाँधीजी के कहने पर अध्यक्ष पद से अपना नामांकन वापस लिया था. सब हक्का-बक्का रह गए.
तब के जाने-माने पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब 'इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू' में लिखा है, ''राजेन्द्र प्रसाद ने मुझसे कहा कि 'गांधीजी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया. और मुझे डर है कि अब नेहरू अंग्रेज़ों के रास्ते पर आगे बढ़ेंगे.''
''राजेन्द्र बाबू की ये प्रतिक्रिया जब मैंने गाँधी जी को बताई तो वे हँसे और उन्होंने राजेन्द्र की सराहना करते हुए कहा कि नेहरू आने वाली ढेर सारी समस्याओं का सामना करने के लिए ख़ुद को तैयार कर चुके हैं.''
तो सवाल है इतने विरोधों के बावजूद गांधी ने पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना?

HULTON ARCHIVES
जैसे कि गांधी ने कहा था कि उनके पास इसकी कई वजहें हैं लेकिन वे वजहें न किसी ने उनसे पूछी न उन्होंने किसी को बताईं. कांग्रेस में तो किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह बापू से पूछे कि सरदार पटेल जैसे योग्य नेता को छोड़कर आपने नेहरू को क्यों चुना?
सब जानते थे कि पटेल के पाँव ज़मीन पर मजबूती से स्थापित हैं. वो जिन्ना जैसे लोगों से उन्हीं की ज़ुबान में मोलभाव कर सकते हैं.
उनसे जब पत्रकार दुर्गादास ने ये सवाल पूछा तो 'गांधी ने माना कि बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पटेल एक बेहतर 'नेगोशिएटर' और 'ऑर्गनाइज़र' हो सकते हैं. लेकिन उन्हें लगता है कि नेहरू को सरकार का नेतृत्व करना चाहिए.''
जब दुर्गादास ने गांधी से पूछा कि आप ये गुण पटेल में क्यों नहीं पाते हैं? तो इस पर गांधी ने हंसते हुए कहा, "जवाहर हमारे कैम्प में अकेला अंग्रेज़ है.''
गांधी को लगा कि दुर्गादास उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हैं तो उन्होंने कहा, ''जवाहर दूसरे नम्बर पर आने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे. वो अंतराष्ट्रीय विषयों को पटेल के मुकाबले अच्छे से समझते हैं. वो इसमें अच्छी भूमिका निभा सकते हैं. ये दोनों सरकारी बेलगाड़ी को खींचने के लिए दो बैल हैं. इसमें अंतरराष्ट्रीय कामों के लिए नेहरू और राष्ट्र के कामों के लिए पटेल होंगे. दोनों गाड़ी अच्छी खींचेंगे."
गांधी के इस प्रेस इंटरव्यू से दो बातें निकल कर आईं. एक ये कि नेहरू नम्बर-2 नहीं होना चाहते थे जबकि गांधी को भरोसा था कि पटेल को नम्बर-2 होने में कोई एतराज़ नहीं होगा और वाकई ऐसा ही हुआ क्योंकि पटेल मुंह फुलाने की बजाए एक हफ्ते के अंदर फिर न केवल सामान्य हो गए बल्कि हंसी-मज़ाक करने लगे.
उनकी बातों पर हँसने वालों में खुद गांधी भी शामिल थे. दूसरी बात ये कि गांधी को लगता कि अपनी अंग्रेज़ियत के कारण सत्ता हस्तांतरण को नेहरू पटेल के मुकाबले ज्यादा बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं.
महात्मा गांधी ने एक और मौके पर भी यही बात कही थी कि 'जिस समय हुकूमत अंग्रेजों के हाथ से ली जा रही हो, उस समय कोई दूसरा आदमी नेहरू की जगह नहीं ले सकता. वे हैरो के विद्यार्थी, कैम्ब्रिज के स्नातक और लंदन के बेरिस्टर होने के नाते अंग्रेज़ों को बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं.' (महात्मा, तेंदुलकर खंड 8 पेज 3)
यहाँ गांधी सही थे. बाहर की दुनिया में नेहरू का नाम आजादी की लड़ाई में गांधी के बाद दूसरे नम्बर पर था. न केवल यूरोपीय लोग बल्कि अमरीकी भी नेहरू को महात्मा गांधी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे जबकि पटेल के बारे ऐसा बिल्कुल नहीं था.
पटेल को शायद ही कोई विदेशी गाँधी का उत्तराधिकारी मानता हो. लंदन के कहवा घरों में बुद्धिजीवियों के बीच नेहरू की चर्चा होती थी. तमाम वायसराय और क्रिप्स समेत कई अंग्रेज अफसर नेहरू के दोस्त थे. उनसे नेहरू की निजी बातचीत होती थी.

HULTON ARCHIVES/PHOTO DIVISION
नेहरू से उलट थे पटेल
दोनों में और भी बड़े अंतर थे जो राजनीति में बहुत मायने रखते हैं. नेहरू एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे. उन्हें अंग्रेज़ी और हिन्दी में बोलने और लिखने की कमाल की महारत हासिल थी. नेहरू उदार थे और उनका खुलापन उन्हें लोकप्रिय बनाता था.
वो भावुक और सौदर्यप्रेमी थे जो किसी को भी रिझा सकते थे. इसके उलट पटेल सख़्त और थोड़े रुखे थे. वो व्यवहार कुशल थे लेकिन उतने ही मुंहफट भी. दिल के ठंडे लेकिन हिसाब-किताब में माहिर.
नेहरू जोड़तोड़ में बिलकुल माहिर नहीं थे. वे कांग्रेस में भी अलग-थलग रहने वाले नेता थे. जेल में बंद रहकर वे अपने साथी कांग्रेसियों से गपशप करने की जगह अपनी कोठरी में अकेले बैठ कर 'डिस्कवरी आफ इंडिया' जैसी किताबें लिखते थे. उनकी अभिजात्य वर्ग की अपनी एक अलग दुनिया थी.
वहीं, पटेल राजनीतिक तंत्र का हर पुर्जा पहचानते थे. जोड़-तोड़ करने में महिर थे. यही वजह थी कि प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी में उन्हें 15 में से 2 कमेटियों का समर्थन मिला.
नेहरू कमाल के वक्ता थे जबकि पटेल को भाषणबाजी से चिढ़ थी. वे दिल से और साफ साफ बोलते थे. ऐसा नहीं था कि मुसलमानों को लेकर उनके मन में आरएसएस जैसी कोई वितृष्णा या पूर्वाग्रह था लेकिन खरा-खरा बोलने के कारण वह देश के मुसलमानों में नापसंद किए जाने लगे.
नेहरू समाजवाद के मसीहा थे तो पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करने वाले पटेल पूंजीवादियों के संरक्षक.
नेहरू आधुनिक हिन्दुस्तान और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखते थे तो पटेल राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते थे. हिंदू और हिंदू परम्परा को लेकर उनके मन में कोमल भावनाएं थीं जो वक्त-बेवक्त उन्हें उत्तेजित कर देती थीं.
नेहरू में एक पैनी राजनीतिक अन्तर्दृष्टि थी, बावजूद इसके वे स्वाभाविक रूप से भावुक और जरूरत से ज्यादा कल्पनाशील थे.

HULTON DEUTSCH
जब नेहरू की चूक से बिगड़ गई बात
नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने साल की ही दो घटनाएं हैं जो नेहरू और पटेल के व्यक्तित्व को बखू़बी उजागर करती हैं.
कांग्रेस और लीग, दोनों कैबिनेट मिशन की योजना तकरीबन कबूल कर चुकी थी. अगले महीने अंतरिम सरकार बननी थी, जिसमें दोनों के प्रतिनिधि शामिल होने वाले थे यानी देश का विभाजन टलता हुआ दिख रहा था.
ये बात अलग थी कि कांग्रेस और लीग दोनों अपने हिसाब से कैबिनेट मिशन की योजना का मतलब निकाल रहे थे. ऐसे माहौल में नेहरू ने सात जुलाई 1946 को कांग्रेस कमेटी की बैठक बुलाई जिसमें उन्होंने साफ़ कर दिया कि कांग्रेस के हिसाब से इस योजना में क्या है.
कांग्रेस मानती थी कि चूँकि प्रांतों को किसी समूह में रहने या न रहने की आज़ादी होगी. इसलिए ज़ाहिर है कि उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और असम, जहाँ कांग्रेस की सरकारें हैं, वो पाकिस्तान के बजाय हिंदुस्तान वाले समूह से जुड़ना चाहेंगे.
जिन्ना कांग्रेस की इस व्याख्या से कतई सहमत नहीं थे. उनके अनुसार कैबिनेट मिशन योजना के तहत पश्चिम के चार और पूर्व के दो राज्यों का दो मुस्लिम-बहुल समूह का हिस्सा बनना बाध्यकारी था. बस यहीं सोच का अंतर था.
अभी समझदारी ये थी कि जैसा जो सोच रहा है, सोचे. पहले कांग्रेस और लीग मिलकर अंतरिम सरकार बनाएं. फिर जो जैसा होगा तब वैसा देखा जाएगा. लेकिन इसके तीन दिन बाद 10 जुलाई 1946 को नेहरू ने मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके कहा कि कांग्रेस ने संविधान सभा में शामिल होने का फैसला तो कर लिया है लेकिन अगर उसे ज़रूरी लगा तो वह कैबिनेट मिशन योजना में फेरबदल भी कर सकती है.
नेहरूने एक बयान देकर कैबिनेट मिशन की सारी योजना को एक मिनट में ध्वस्त कर दिया. इससे अटूट भारत की आख़िरी उम्मीद पर पानी फिर गया.
नाराज़ जिन्ना को मौका मिल गया. उन्होंने भी एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई और साफ़ कह दिया कि कांग्रेस के इरादे नेक नहीं. अब अगर ब्रिटिश राज के रहते मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं दिया गया तो बहुत बुरा होगा.
मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त से डायरेक्ट एक्शन का एलान कर दिया. जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन का नतीजा भारी हिंसा होगी, ये कोई नहीं जानता था. लेकिन सरदार पटेल समझ रहे थे कि नेहरू से बड़ी भारी गलती हो गई. उनकी बात सही थी लेकिन इसका खुला एलान करने की ज़रूरत नहीं थी.
सरदार ने अपने करीबी मित्र और अपने निजी सचिव डीपी मिश्रा को एक ख़त लिखा,"हालांकि नेहरू अब तक चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं. लेकिन उनकी हरकतें मासूमियत से भरी लेकिन बचकानी होती हैं. उनकी ये प्रेस कान्फ्रेंस भावुकता से भरी और मूर्खतापूर्ण थी.''
''लेकिन उनकी इन उनकी तमाम मासूम गलतियों के बावजूद उनके अंदर आज़ादी के लिए गजब का जज़्बा और उत्साह है, जो उन्हें बेसब्र बना देता है जिसके चलते वे अपने आप को भूल जाते हैं. जरा-सा भी विरोध होने पर वे पागल हो जाते हैं क्योंकि वे उतावले हैं."
नेहरू की पहाड़ जैसी भूल का नतीजा बहुत जल्द देश के सामने आ गया. जिन्ना के 'डायरेक्ट एक्शन' से देश में हिंदू- मुस्लिम दंगे भड़क गए. अकेले कलकत्ता शहर में हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हो गए. नोआखली में भी भारी कत्लेआम हुआ. धीरे-धीरे देश को इन दंगों ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया.
इसके बाद गांधी कलकत्ते से लेकर नोआखली और बिहार तक, दंगे में मारे गए हिन्दुओं और मुसलमानों के ख़ून को साफ करने की 24 घंटे की ड्यूटी पर लगे रहे. ये ड्यूटी आज़ादी मिलने के दिन तक जारी रही.

JINNAH MUESUEM ARCHIVES
तलवार के बदले तलवार उठाने की सलाह
जगह-जगह दंगे हो रहे थे. हिन्दू-मुसलमान मारे जा रहे थे. ऐसे में 'पटेल के हिन्दुत्व' ने उछाल मारा और 23 नवंबर 1946 को मेरठ में कांग्रेस के अधिवेशन में अपना आपा खो बैठे.
अधिवेशन में उन्होंने अपने भाषण में कह दिया, "धोखे से पाकिस्तान लेने की बात मत करो. हाँ अगर तलवार से लेना है तो उसका मुकाबला तलवार से किया जा सकता है.''( 54वां मेरठ कांग्रेस अधिवेशन, केपी जैन)
पटेल का बयान सनसनीखेज था. गांधी की अहिंसा नीति के एकदम उलट. गांधी तक शिकायत तुरंत पहुंच गई.
गांधी ने पटेल को लिखा, ''तुम्हारे बारे में बहुत सी शिकायतें सुनने में आई हैं. बहुत में अतिशयोक्ति हो तो वो, अनजाने में है. लेकिन तुम्हारे भाषण लोगों को खु़श करने वाले और उकसाने वाले होते हैं. तुमने हिंसा-अहिंसा का भेद नहीं रखा है. तुम लोगों को तलवार का जवाब तलवार से देना सिखा रहे हो. जब मौका मिलता है, मुस्लिम लीग का अपमान करने से नहीं चूकते.''
''यदि यह सब सच है तो बहुत हानिकारक है. पद से चिपटे रहने की बात करते हो, और यदि करते हो तो वह भी चुभने वाली चीज है. मैंने तुम्हारे बारे में जो सुना, वह विचार करने के लिए तुम्हारे सामने रखा है. यह समय बहुत नाज़ुक है. हम जरा भी पटरी से उतरे कि नाश हुआ समझो. कार्य-समिति में जो समस्वरता होनी, चाहिए वह नहीं है. गंदगी निकालना तुम्हें आता है; उसे निकालो."
इसी पत्र में आगे गांधी ने पटेल को ये भी बता दिया कि वो बूढ़े हो गए हैं.
गांधी ने लिखा, ''मुझे और मेरा काम समझने के लिए किसी विश्वसनीय समझदार आदमी को भेजना चाहो तो भेज देना. तुम्हें दौड़कर आने की बिल्कुल जरूरत नहीं. तुम्हारा शरीर भाग-दौड़ के लायक नहीं रहा. शरीर के प्रति लापरवाह रहते हो, यह बिल्कुल ठीक नहीं है." (बापुना पत्रों 2 : सरदार वल्लभभाई ने, पृ. 341-43)
ये दो घटनाएं नेहरू और पटेल के व्यक्तित्व के बारे में बताने के लिए काफ़ी हैं. सच तो ये है कि गांधी 1942 में उस वक्त नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे जो दोनों के बीच मतभेद चरम पर थे.
तब गांधी ने कहा था, ''हमें अलग करने के लिए व्यक्तिगत भतभेद से कहीं अधिक ताकतवर शक्तियों की जरूरत होगी. कई वर्षों से मैं ये कहता आया हूं और आज भी कहता हूं कि जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे. वे कहते हैं वो मेरी भाषा नहीं समझते और मैं उनकी. फिर भी मैं जानता हूं जब मैं नहीं रहूंगा तब वे मेरी ही भाषा बोलेंगे.'' (इंडियन एनुअल रजिस्टर भाग-1, 1942 पेज 282-283)
लेकिन इसका मतलब ये नहीं था कि गांधी पटेल से कम प्रेम करते थे.
आज न गांधी हैं, न नेहरू और न पटेल. वक्त का पहिया पूरी तरह से घूम गया है. आज नेहरू कटघरे में हैं और गुजरात में लगी लौह पुरुष पटेल की करीब 600 फीट ऊंची दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति इतिहास को पलट कर देख रही है.
कांग्रेस के महान नेता पटेल के 'हिन्दुत्व' पर उस आरएसएस ने कब्जा कर लिया है जिसे पटेल ने कभी प्रतिबंधित किया था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग' के लेखक हैं.) (bbc.com)
राज्य स्थापना दिवस के मौके पर
-विनय शील
छत्तीसगढ़ के शहीद वीर नारायण सिंह से जुड़ी यह घटना कौन भूल सकता है कि किस तरह से सोनाखान रियासत के राजकुमार वीर नारायण सिंह ने 1856 में पड़े भीषण अकाल के दौरान हजारों किसानों को साथ लेकर कसडोल के जमाखोरों के गोदामों पर धावा बोलकर अनाज लूटा और फिर उसे भूखे मर रही जनता में बांट दिया था। मगर उनकी यह दरियादिली अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट को रास नहीं आई और उन्होंने वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार करवा लिया और अंतत: 10 दिसंबर, 1857 को रायपुर में एक चौराहे पर फांसी दे दी।
इस घटना के 164 सालों के बाद आज भी किसान, खेती और खाद्यान्न छत्तीसगढ़ के केंद्र में है। इतना कि, पहली नवंबर को एक पृथक राज्य के रूप में दो दशक पूरे कर रहे इस राज्य की सियासत तक इनसे तय होती रही है। दो साल पहले पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान पर्यावरण संबंधी मुद्दों को समर्पित प्रतिष्ठित वेबसाइट मोंगाबे-इंडिया के मयंक अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ के हालात पर लंबी रिपोर्ट लिखी थी। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के राजनांदगांव क्षेत्र को भी कवर किया था। उनकी इस रिपोर्ट में किसान नेता सुदेश टेकाम को यह कहते हुए दर्ज किया गया था, ‘सरकार का ध्यान सिर्फ माइनिंग और बिजली में है। किसानों के मुद्दों की लगातार उपेक्षा की जा रही है। पिछले चुनावों में रमन सिंह ने धान की फसल के लिए 2100 रुपये न्यूनतम समर्थन मूल्य और तीन सौ रुपये बोनस का वादा किया था। लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कभी भी अपना वादा पूरा नहीं किया। किसानों के भारी आंदोलन के बाद सरकार ने 2017 में धान के लिए सिर्फ 1750 रुपये एमएसपी और तीन सौ रुपये बोनस दिए थे। हम इस बार मूर्ख नहीं बनेंगे।’
इसी रिपोर्ट में टेकाम ने यह भी कहा कि उनके लिए किसानों तथा भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के लिए कर्जमाफी भी बड़ा मुद्दा है, क्योंकि सरकार ने छोटे और मझोले किसानों की उपेक्षा की है। इस चुनाव में डॉ. रमन सिंह खुद तो राजनांदगांव से विजयी हुए, मगर वह अपनी पंद्रह साल पुरानी सरकार नहीं बचा सके थे। हैरत नहीं कि लंबे शासन के दौरान उनकी पहचान 'चाउर वाले बाबा' के रूप में स्थापित हो गई थी,क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पी डी एस ) के जरिए गरीबों को एक रुपए और दो रुपए किलो चावल देने की योजना चलाई थी।
हालांकि पीडीएस के जरिये दो रुपये किलो चावल देने की योजना कोई नया विचार नहीं था। 1980 के दशक में एनटीआर रामाराव ने अविभाजित आंध्र प्रदेश में इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। यूपीए शासन के दौरान 2013 में अस्तित्व में आए खाद्य सुरक्षा कानून का आधार ही राशन की दुकानों के जरिये गरीबों को सस्ता अनाज देने की व्यवस्था है। कोरोना काल में पीडीएस की इस व्यवस्था ने पूरे देश में अपनी सार्थकता साबित की है।
हैरत नहीं होनी चाहिए कि दो साल पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 90 में से मिली 67 सीटों के पीछे किसानों प्रति क्विंटल धान के बदले ढाई हजार रुपये देने का वादा भी एक बड़ी वजह थी। भूपेश बघेल ने नेतृत्व वाली कांग्रेस की इस सरकार ने उस धारणा को ही बदल दिया कि भारत में चुनावी वादे सिर्फ चुनाव जीतने के लिए होते हैं। शपथ ग्रहण के शायद दो घंटे के भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जिन दो फैसलों पर हस्ताक्षर किए उनमें से एक था बस्तर में लोहंडीगुड़ा के आदिवासी किसानों की जमीन वापसी का और दूसरा फैसला किसानों की कर्जमाफी का। लोहंडीगुड़ा में पूर्वर्ती रमन सरकार ने ग्रामीणों के भारी विरोध के बावजूद उनकी ज़मीनें टाटा के लिए अधिग्रहीत कर ली थीं लेकिन टाटा ने प्लांट लगाया नहीं तो आदिवासियों को उनकी ज़मीनें लौटाने के बजाए उसे सरकारी लैंड बैंक में शामिल कर लिया। ये पंद्रह साल के एक मुख्यमंत्री का नितांत अलोकप्रिय और आदिवासी विरोधी फैसला था। दूसरी ओर जब भूपेश बघेल ने इन ज़मीनों को लौटाने की फाइल पीआर दस्तखत किए तो पूरे देश को नजरें अचानक लोहंडीगुड़ा की ओर उठ गईं थीं। ऐसा सम्भवत: पहली बार किसी सरकार ने किया था। ये उस विकास की दिशा का इशारा था जिसका वादा कांग्रेस पार्टी ने किया था। केन्द्र की मोदी सरकार की तमाम अड़चनों के बावजूद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों को धान का समर्थन मूल्य और बोनस मिला कर 25 सौ रुपए प्रति क्विंटल दिया लेकिन अगली बार इस पर केन्द्र की मोदी सरकार ने अड़ंगा डाल दिया। जाहिर है कि यह भूपेश बघेल की लोकप्रियता बढ़ाने वाला कदम था और बीजेपी के लिए यह असुविधाजनक था। लेकिन बोनस को लेकर केंद्र के अड़ंगे के बाद भूपेश सरकार ने समर्थन मूल्य तो दिया पर बाकी राशि के लिए अपने संसाधनों से एक किसानों के लिए राजीव गांधी न्याय योजना लागू कर दी। हालांकि यह सच है कि खेती से जुड़े वृहत संकट का यह स्थायी समाधान नहीं है,लेकिन दुनिया के है बड़े अर्थशास्त्री की नजरों में इस संकट के बीच समाधान का रास्ता इन्हीं गलियों से हो कर गुजरता है।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सस्ते अनाज और सार्वजनिक वितरण प्रणाली और कृषि का क्या महत्व है, यह कुछ सहज उपलब्ध तथ्यों से समझा जा सकता है। पिछली जनगणना के मुताबिक राज्य की 75 फीसदी आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है और धान यहां की मुख्य फसल है। छत्तीसगढ़ की 40 फीसदी से भी अधिक आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर बसर करने को मजबूर है। 32 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और उनमें गरीबी का आंकड़ा तो और भी बुरा है। यह स्थिति तब है, जब छत्तीसगढ़ खनिज संपदा से समृद्ध है और इसका करीब 45 फीसदी भू-भाग जंगलों से घिरा हुआ है।
छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री दिवंगत अजीत जोगी अपने राज्य के बारे में अक्सर कहते थे, ‘अमीर धरती के गरीब लोग।’ यह विडंबना ही है कि सात राज्यों के करीब पच्चीस जिलों से घिरा यह राज्य आगे बढऩे की असीम संभावनाओं और संसाधनों के बावजूद आज भी पिछड़ा हुआ है।लेकिन अजीत जोगी को महाजकाम के लिए तीन साल मिले थे और भाजपा की रमन सरकार ने पंद्रह बरस राज किया पर छत्तीसगढ़ के आम लोगों की बुनियादी जरूरत संबोधित ना हो सकी। लेकिन अब यह उम्मीद तो बंधी है कि एक मुख्यमंत्री ऐसा है जिसे छत्तीसगढ़ की बुनियादी जरूरतों की पहचान है। अभी तो शायद इन दशकों में छत्तीसगढ़ की नौकरशाही भी इन जरूरतों की ठीक से पहचान ना कर सकी थी।
दो दशक का समय किसी राज्य के जीवन में लंबा वक्त नहीं होता, मगर यह तो देखा ही जाना चाहिए कि आखिर छत्तीसगढ़ विकसित प्रदेशों की श्रेणी में क्यों नहीं आ सका। इसके उलट जनवरी, 2019 को आई नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के भुखमरी और कुपोषण जैसे सूचकांकों में निचले क्रम में है। उस दिन यह जानना सुखद था जब भूपेश बघेल ने यह ऐलान किया कि बस्तर जैसे इलाकों में जिला खनिज न्यास की राशि अनुत्पादक निर्माणों के बजाए सुपोषण और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों पर खर्च होगी। बस्तर में कुपोषण में कमी के आंकड़े भूपेश सरकार के इस फैसले की सफलता की कहानी है। ये ऐसे फैसले हैं जिन्हें गवर्नेंस के प्रयोगों के रूप में समझना चाहिए ।
छत्तीसगढ़ के लिए एक बड़ा मुद्दा माओवाद भी है। इस बीच माओवादी हिंसा में कमी जरूर आई है, लेकिन अब भी छत्तीसगढ़ इससे सर्वाधिक पीडि़त है। केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2010 से 2018 के दौरान पूरे देश में माओवादी हिंसा में 3,769 लोग मारे गए थे, जिनमें से सर्वाधिक 1,370 मौतें छत्तीसगढ़ में दर्ज की गई थीं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए सरकार के अपने दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा होने के मौके पर 24 मई, 2010 को प्रेस कांन्फ्रेंस में नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। उनकी इस प्रेस कान्फ्रेंस से करीब डेढ़ महीने पहले ही छह अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा के सबसे बड़े नक्सल हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हो गए थे। बस्तर के दरभा में मई, 2013 में नक्सलियों के भीषण हमले में कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के अनेक नेता मारे गए थे।
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि नया राज्य बनने के बाद माओवादी या नक्सली हिंसा में कमी के बजाए बढ़ोतरी होती गई? इसका जवाब तलाशने के लिए दिल्ली के नजरिये की नहीं, बस्तर के नजरिये की जरूरत है। बस्तर के सातों जिले आज भी विकास की मुख्यधारा से दूर हैं, तो इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ आर्थिक दूरदृष्टि का न होना भी वजह है। समावेशी विकास की जिस अवधारणा की बात इन दिनों काफी सुनी जाती है, उसका विलोम बस्तर में देखा जा सकता है। वहां खनिज और वन संपदा के असली मालिक आदिवासी ही हाशिये पर ही रहे हैं। माओवाद से निपटने के लिए उन मुद्दों को संबोधित करना ज़रूरी है जो माओवाद के लिए खाद पानी का काम करते रहे हैं। आदिवासियों की ज़मीन वापसी से लेकर वनोपज संग्रहण की राशि में बड़ी वृद्धि या जिला खनिज न्यास (डीएमएफ) का बुनियादी मानवीय जरूरतों में खर्च होना एक सकारात्मक संकेत है।
बस्तर में बड़े उद्योग हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में एनएमडीसी की देश के विकास में बड़ी भूमिका है लेकिन अब इसके निजीकरण का खतरा है। प्रदेश सरकार इसका विरोध कर रही है। औद्योगिक विकास एक अलग तरह के संघर्ष से गुजर रहा है।एक तरफ केवल मुनाफा और दोहन है, दूसरी तरफ है तरह के विकास की कोशिशों के सामने खड़े अवरोध हैं और तीसरी तरफ जनाकक्षाएं हैं।छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे इलाकों की चुनौती इनके बीच अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक सरकार को पहुंचाना है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में बस्तर में नए इस्पात संयंत्र स्थापित करने पर सहमति जताई है। यह मौका है, जब वह ऐसे संयंत्रों में आदिवासियों को मुनाफे का हिस्सेदार बनाकर विकास का एक नया मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं। यह हिस्सेदारी वन और कृषि संपदा को लेकर भी हो सकती है। एक उदाहरण से इसे समझते हैं। बस्तर की इमली न केवल मशहूर है, बल्कि इसका करीब सालाना पांच सौ करोड़ रुपये का कारोबार है। मगर ऐसी लघुवनोपज को जैसे बाजार की जरूरत है, वह नहीं मिला। आखिर बस्तर की इमली की ब्रांडिंग क्यों नहीं की जा सकती? यही बात छत्तीसगढ़ में पाए जाने वाली चावल की विविध किस्मों को लेकर कही जा सकती हैं कि उनकी पेशेवर तरीके से ब्रांडिंग और मार्केटिंग क्यों नहीं की जा सकती। हालांकि हाल के दिनों में भूपेश सरकार ने इस दिशा में भी काम शुरू किया है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सकारात्मक परिणाम भी नजर आएंगे। वन अधिकार पत्र और सामुदायिक वन अधिकार पत्र जैसे कदम और इसके बाद जैव विविधता के संरक्षण की जो योजना बताई जा रही है वो अगर दावे के अनुरूप ही लागू हुई तो निश्चित ही तस्वीर बदलेगी।
दरअसल स्थानीय संसाधनों और संपदा के बेहतर इस्तेमाल और स्थानीय लोगों की साझेदारी से ही छत्तीसगढ़ के विकास की कहानी बदली जा सकती है।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)


