विचार / लेख
हाथ की हुनरमंदियाँ -1
-सतीश जायसवाल
दो कोटा हैं। एक पश्चिम रेलवे पर। एक दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे पर। इसके साथ करगीरोड जुड़ा हुआ है। दोनों मिलकर हुए करगीरोड-कोटा। रेलवे स्टेशन करगीरोड और बस्ती हुई - कोटा। टीकाराम चक्रधारी इसी कोटा का है। बस्ती से थोड़ा ऊपर, लेकिन नीचे, ढलवान की तरफ उतरती हुई पहाड़ी पर कुम्हारों का मोहल्ला है। बस्ती से नहीं दिखता, थोड़ा आड़ में पड़ जाता है। इसी मोहल्ले में एक घर टीकाराम चक्रधारी का है।
भगवान विष्णु चक्र धारण करते हैं इसलिए चक्रधारी हुए। टीकाराम चक्र चलाता है, मिट्टी में प्राण जगाता है इसलिए चक्रधारी हुआ। वह कुछ इस मनोयोग से अपना चक्र चलाते हुए मिला जैसे योग साधना कर रहा है। प्राण मंत्र का पाठ कर रहा है। प्राण मंत्र पड़ते ही मिट्टी शरीर धारण करने लगी। चाक पर अपनी परिक्रमा पूरी करते ही, रौंदी हुई मिट्टी दीपावली का दिया बन गई।
टीकाराम ने बताया कि चाक पर चढ़ाने से पहले मिट्टी को पाँवों से खूब रौंदना पड़ता है। तब दीपावली पूजन के दिए बनते हैं, भगवान भी बनते हैं। लेकिन आजकल बाजार में भगवान की मांग नहीं रही। इसलिए वह भगवान नहीं बनाता, बस दिये ही बनाता है।
तब हमारा ध्यान गया कि यह दीपावली के बाजार का मौसम है। टीकाराम उसी की तैयारियों में लगा हुआ था। लेकिन अब दियों का बाजार भी सिमटने लगा है। कोटा का बाजार छोटा है, यहां दाम भी छोटा मिलता है। लागत और मजूरी को पूरा नहीं पड़ता। पास में बिलासपुर बड़ा बाजार है, लेकिन एक अकेले के लिए दूर पड़ता है। सामान लाने-ले जाने का खर्च नहीं निकलेगा। और समूह बनाकर बड़े बाजार में पहुँचने के लिए साथी नहीं जुटते। इस कुम्हार मोहल्ले के लोग धीरे-धीरे अपने इस पैतृक रोजगार से दूर होते जा रहे हैं। इसमें परिवार का गुजारा अब नहीं होता। यह दुखद स्थिति है।
फिर भी हम जैसे शौकिया अन्वेषकों के पास एक, बेहूदा और तैय्यारशुदा सवाल होता है -क्या अपने हाथों की यह हुनरमन्दी अपने बच्चों को सौंपेंगे, और अपने इस पैतृक रोजगार को आगे बढ़ाएंगे?
टीकाराम इस बेहूदा सवाल के सामने असहाय होने से बच गया। उसके कोई बेटा नहीं है। तीन बेटियां हैं। शादी-ब्याह के बाद अपने-अपने घर चली जाएँगी। अभी तीनों पढ़ रही हैं। बड़ी वाली आठवीं में है, मझली वाली छठवीं में और छोटी कक्षा चार में है।
ऐसे में डर होता है कि गुजर-बसर की चिन्ताओं के सामने थका और हारा पिता बेटियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़ाकर कहीं कच्ची उम्र में ही उन्हें ना ब्याह दे। लेकिन टीकाराम ने भरोसा दिलाया कि वह ऐसा नहीं करेगा। बच्चियों को उनकी पढ़ाई पूरी करने देगा। उसका तो मन है कि उसकी बेटियां कॉलेज तक तो पढ़ सकें -लेकिन कैसे होगा?
-भगवान कोई न कोई रास्ता बताएंगे। उसने भगवान पर छोड़ दिया।
ऐसे में किसी आस्थावान समाज का एक व्यक्ति जो करता है, टीकाराम ने भी वही किया। उसने भगवान का भरोसा किया। यह उसका अपना भरोसा था। उसका भगवान उसके अपने भरोसे में है। उसका भरोसा अभी जीवित है। इसलिए उसका भगवान भी जीवित है।
एक योरोपीय दार्शनिक, नीत्शे ने तो भगवान की मृत्यु घोषित कर दी थी। कहा था-- भगवान मर गया।
लेकिन टीकाराम चक्रधारी का भगवान अभी जीवित है। उसने अपने भगवान को बचा रखा है। टीकाराम का भगवान उसके चाक में सुरक्षित है।
लेकिन भारत भवन, भोपाल में सिरेमिक्स विभाग के अध्यक्ष देवीलाल पाटीदार को उसके जीवन की चिन्ता है। उसका जीवन रहेगा तभी भगवान रहेगा। अभी थोड़े दिनों पहले, देवीलाल पाटीदार ने उसके लिए चिन्ता जताई थी। और व्यथित होकर कहा था- कुम्हार को जीने दो।
हाथ की हुनरमंदियों को आधुनिक बाजार लील रहा है। बाहर का बाजार घरेलू बाजार को समेट रहा है। कुम्हार से, उसके जीने के हक छीन रहा है। देवीलाल पाटीदार की चिन्ता कुम्हार के जीवन के लिए है। क्योंकि कुम्हार के चाक के साथ हमारी परम्पराओं की पुरातनता का इतिहास शुरू होता है। अपनी पुरातनताओं के अन्वेषण में जुटे हुए पुरा-वैज्ञानिकों के लिए वहाँ मिलने वाले मिटटी के पुराने बर्तन और उनके टुकड़े सबसे बुनियादी ‘टूल’ या उपकरण होते हैं। इनसे पता चलता है कि मिटटी को पकाकर बर्तन बनाने का ज्ञान मनुष्य जाति के पास कब आया? हाथों की हुनरमंदियों की पैतृक परम्परा उतनी ही पुरानी होती है। टीकाराम चक्रधारी उसकी निरंतरता को बनाए हुए हैं।

टीकाराम भी चाक से उतारे हुए मिट्टी के कच्चे दियों को भट्टी में पकाता है। तब लाल रंगों वाले खूबसूरत और चमकदार दिये अपने रूप में आते हैं। और दिवाली के बाजार को गुलजार करते हैं। उसकी भट्ठी में एक साथ एक लाख तक दिए पकाये जा सकते हैं। लेकिन वह अधिक से अधिक 10 हजार दियों की ही भट्ठी लगाता है। उसकी पहुँच के बाजार में इतनी ही खपत हो पाती है। उसकी भट्ठी में तो भगवान भी पकते थे। विष्णु भगवान, लक्ष्मीजी, गणेशजी। सभी। लेकिन बाजार में अब भगवानों की मांग नहीं रही।
बिजली की रंगीन रौशनियों के सामने अब मिट्टी के दियों का बाजार भी सिमटता जा रहा है। कुम्हार भी सिमट रहे हैं। अपने पैतृक रोजगार से दूर हो रहे हैं। यह समय इनके लिए चिन्ता करने का है। इनको वापस लाने का भी, और इनके जीवन को बचाये रखने का भी।
अब यह देवीलाल पाटीदार की अकेली चिन्ता नहीं रही। इस पर छत्तीसगढ़ में एक सक्रिय पहल हुई है। एक आन्दोलन विकसित हो रहा है। दीपावली के बाजार में मिट्टी के दियों की वापसी के लिए एक मजबूत, योजनाबद्ध आंदोलन। इसमें मिट्टी के दिये अकेले नहीं हैं, इसके साथ गाय के गोबर के दिये बनाकर उनको बाजार में पहुँचाने का एक नया प्रयोग भी जुड़ा हुआ है। इस प्रयोग में कुम्हार के साथ मिट्टी पर आश्रित अन्य हुनरमन्द जातियों के भी जीवन की चिन्तायें शामिल हैं। लेकिन टीकाराम इससे अनजान है।
यह आन्दोलन अभी कोटा के टीकाराम और, वहां के कुम्हार मोहल्ले तक नहीं पहुंचा है। ऐसा इसलिए मुमकिन हो सकता है कि यह आन्दोलन समाज से नहीं निकला है। बल्कि एक सरकारी आन्दोलन है। अब सरकार से निकलकर जनता तक पहुंचेगा। फिर भी यह अपने यहाँ के पैतृक कौशल और इनसे जुड़ी हुई हुनरमन्द जातियों का संरक्षण सुनिश्चित करता है। उनके भरोसे की चिन्ता करता है। इसलिए एक जनआंदोलन है।
(लेखक सुपरिचित साहित्यकार हैं, और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में बसे हुए हैं। )


