विचार/लेख
विनोद वर्मा
छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस : 1 नवम्बर
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्द-गिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दी गई।
कोरोना की महामारी न हुई होती तो झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ नवंबर में जोर-शोर से अपनी स्थापना की 20वीं वर्षगांठ मना रहे होते। जब इन राज्यों की मांग हुई तो इसके मूल में क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान थी। विकास का नारा तो बाद में जुड़ा। झारखंड और छत्तीसगढ़ के बारे में कहा गया कि ये आदिवासी बहुल इलाके हैं। लेकिन यह सच नहीं। छत्तीसगढ़ में आदिवासी 30.62 फीसदी और झारखंड में 26.21 फीसदी हैं। दोनों ही राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग की बहुलता है। उत्तराखंड में सवर्ण जातियां अधिक हैं।
बहुत लोगों को लगता था कि विकास के लिए जरूरी है कि राज्य छोटे हों। अब इस बात का आंकलन करना चाहिए कि इन तीन राज्यों का कितना विकास हुआ? छोटे राज्यों को लेकर बहसें होती रही हैं। डॉ बी.आर. आंबेडकर खुद छोटे राज्यों के पक्ष में थे। जब भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तो वे बड़े राज्यों का विरोध कर रहे थे। लेकिन आज यह कहना मुश्किल है कि विकास का कोई एक पैमाना हो सकता है। यदि हरियाणा, पंजाब और केरल-जैसे छोटे राज्यों के उदाहरण हैं तो कर्नाटक और तमिलनाडु-जैसे बड़े राज्यों के भी उदाहरण हमारे सामने हैं।
यह कतई जरूरी नहीं कि छोटे राज्य उन सपनों को पूरा कर सकें जिनको लेकर उनका गठन हुआ। जिस समाज या समूह के विकास को आधार बनाया गया था, उसका इस राह पर चलकर भला ही होगा, यह भी सुनिश्चित नहीं है। तीनों राज्यों के मानव विकास सूचकांक चुगली करते हैं कि छोटे राज्य बनने से उनका भला नहीं हुआ। हालांकि ‘विकास’ के ऐसे ढेर सारे आंकड़े हैं जिससे विकास का भ्रम पैदा हो जाए। उदाहरण के तौर पर, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े। छत्तीसगढ़ जब बना तो प्रति व्यक्ति आय 10,744 रुपए थी जो 2019-20 में बढक़र 92,413 रुपए हो गई थी। ऐसे ही आंकड़े झारखंड और उत्तराखंड के लिए भी उपलब्ध हैं। लेकिन इसका कोई जवाब नहीं है कि यदि प्रति व्यक्ति आय में इतनी बढ़ोतरी हो रही थी तो फिर छत्तीसगढ़ में गरीबी क्यों बढ़ती रही? क्यों छत्तीसगढ़ 39.9 फीसदी गरीबों के साथ देश का सबसे गरीब राज्य है? वहां सबसे अधिक 18 फीसदी लोग झुग्गियों में क्यों रहते हैं? यही हाल झारखंड का है। हालांकि उत्तराखंड ने गरीबी के मामले में अपनी स्थिति सुधार ली है।
आदिवासियों का भी तो भला नहीं हुआ
झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नाम पर बने थे। लेकिन तथ्य बताते हैं कि इन दोनों राज्यों में आदिवासी समुदाय ने ही सबसे अधिक पीड़ा झेली है। झारखंड पिछले दो दशकों में ‘खदानों के नरक’ में बदल गया है। आदिवासी लगातार विस्थापित हुए हैं और अपनी जीवन शैली के साथ उन्हें बहुत समझौता करना पड़ा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पनपने की वजह आदिवासियों का शोषण थी तो अलग राज्य बनने के बाद उनका भला होना चाहिए था और नक्सली गतिविधियां सिमट जानी थीं। लेकिन हुआ इसका एकदम उलट। जब राज्य बना तो तीन विकास खंडों में नक्सली गतिविधियां थीं लेकिन 15 बरस के बीजेपी शासनकाल में राज्य के 14 जिलों में नक्सल समस्या फैल गई।
नक्सलियों से लडऩे के नाम पर सलवा-जुडुम की शुरुआत हुई। लेकिन इसके असर से बस्तर में आदिवासियों का सबसे ज्यादा पलायन हुआ। आदिवासियों के 650 से अधिक गांव खाली करवा दिए गए। लगभग तीन लाख आदिवासियों को पलायन करना पड़ा। फर्जी एनकाउंटर, आदिवासियों की प्रताडऩा और गांव जलाने आदि की अनगिनत घटनाएं हुईं।
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्दगिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दिया गया। जिन मूल निवासियों को राज्य के निर्माण का लाभ मिलना था, वे इस विकास की दौड़ के चलते हाशिये पर चले गए। वे भूल ही गए कि नए राज्य का निर्माण उनके लिए भी हुआ था।
ठोस योजना का अभाव
छोटे राज्य बनाने का चाहे जो तर्क दे दीजिए- क्षेत्रीय विकास का असंतुलन, आंतरिक सुरक्षा और जनभावनाएं आदि, लेकिन सच यह है कि नया राज्य बनाने के साथ अगर उस राज्य के विकास का कोई ब्लू- प्रिंट नहीं बना, कोई रोड मैप नहीं बना तो राज्य का हित संभव ही नहीं है। छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड इसके अप्रतिम उदाहरण हैं।
यह कहना गलत होगा कि कुछ हुआ ही नहीं। कुछ तो होना ही था। केंद्र से पैसा सीधे पहुंचा, फैसले लखनऊ, भोपाल और पटना की जगह देहरादून, रायपुर और रांची में होने लगे, परियोजनाओं के लिए बेहतर संसाधन मिले, खनिजों के लिए रॉयल्टी की राशि सीधे मिलने लगी, कुछ उद्योग लगे, थोड़ा रोजगार बढ़ा। लेकिन ये तीनों ही उन राज्यों में तब्दील नहीं हो सके जिसका सपना दिखाया गया था।
तीनों ही राज्यों के शासकों ने कोई ठोस रणनीति या कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया जिससे राज्य एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सके। एक बार नोबेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने कहा था कि 50 के दशक में केरल सरकार ने जिद पकड़ ली कि वे अपनी योजना का सबसे अधिक पैसा शिक्षा और स्वास्थ्य पर लगाएंगे और उसी जिद का परिणाम है कि केरल आज सबसे संपन्न राज्यों की सूची में है।
झारखंड और उत्तराखंड तो राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझते रहे। छत्तीसगढ़ में राजनीतिक अस्थिरता अब तक नहीं है लेकिन इससे राज्य का भाग्य बदला नहीं है।
छत्तीसगढ़ की दूरगामी सोच
वैसे, छत्तीसगढ़ में अब बदलाव के आसार दिख रहे हैं। नई सरकार ठोस और दूरगामी परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम कर रही है। वह आदिवासियों और किसानों की सुध ले रही है। नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य की सांस्कृतिक विरासत को भी राजनीति का हिस्सा बनाकर लोगों के मन में एक नई आस जगाई है। उन्होंने बस्तर के लोहांडीगुड़ा में उद्योग के नाम पर ली हुई 1,700 आदिवासी किसानों की जमीन लौटा दी। किसानों को प्रति क्विंटल धान के लिए 2500 रुपये मिल रहे हैं।
तेंदूपत्ता मजदूरों को प्रति मानक बोरा 2500 रुपये की जगह 4000 रुपये मिल रहे हैं। सरकार ने वनोपज खरीद की नीति बदली है जिससे आदिवासियों को लाभ मिला है। नई सरकार छत्तीसगढ़ को बिजली बनाने वाले राज्य से बिजली खपत करने वाले राज्य में बदलना चाहती है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ‘नरवा-गरुवा-घुरुवा बारी’ नाम की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की। इसका उद्देश्य वर्षाजल का संचयन कर नदी नालों को पुनर्जीवित करना, गौधन का संवर्धन और घर-घर में पौष्टिक फल सब्जी के उत्पादन को बढ़ावा देना है। इसी के अंतर्गत छत्तीसगढ़ सरकार ने देश में पहली बार गोबर खरीदना शुरू कर दिया है और गांव-गांव में गोशालाएं बन रही हैं। अगर ठीक से अमल हुआ तो छत्तीसगढ़ अगले दशकों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दम पर चलने वाला इकलौता राज्य होगा।
लेकिन, सवाल अकेले छत्तीसगढ़ का नहीं है। यह सवाल झारखंड और उत्तराखंड का भी है। साथ ही देश के उन सभी राज्यों का है जो ठोस और दूरदर्शी योजनाओं के अभाव में पिछड़ रहे हैं। राजनीति चलती रहेगी। चुनाव आते-जाते रहेंगे। सरकारें बनती-बिगड़ती रहेंगीं। लेकिन योजनाएं ऐसी होनी चाहिए जिससे राज्य की जनता का भाग्य बदले, राज्य की अर्थव्यवस्था बदले और इस तरह बदले कि उसका सकारात्मक असर दूर तक दिखाई दे। ये बदलाव हर सूरत में क्रांतिकारी होने चाहिए। तभी बात बनेगी।(लेख अख़बार ‘नवजीवन’ के सौजन्य से)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार रह चुके हैं, और अभी छत्तीसगढ़ सीएम के राजनीतिक सलाहकार हैं)
नवल किशोर कुमार
बिहार के चुनावी दंगल में आरक्षण का मामला नीतीश कुमार ने तब उठाया है जब पहले चरण का मतदान हो चुका है। क्या अब यह मुद्दा चुनाव में कोई नया नैरेटिव बना पाएगा?
बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान का पहला चरण बीते 28 अक्टूबर, 2020 को संपन्न हो गया। कोरोना के खौफ के बीच 54.35 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया, जो वर्ष 2015 में हुए विधानसभा चुनाव की तुलना में करीब डेढ़ फीसदी अधिक है। अगले चरण में 94 विधानसभा क्षेत्रों में 3 नवंबर को मतदान होगा। इस बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पश्चिम चंपारण के वाल्मीकिनगर विधानसभा क्षेत्र में चुनाव सभा को संबोधित करने के दौरान आबादी के अनुसार आरक्षण का मसला उठाया है। इसके पहले यह मुद्दा न तो एनडीए ने उठाया और ना ही राजदनीत महागठबंधन ने। नीतीश कुमार द्वारा अपनी रणनीति में यह बदलाव राजद नेता तेजस्वी यादव द्वारा सरकारी नौकरी का मुद्दा उठाने के बाद किया गया है।
दस लाख नौकरियों और 85 फीसदी बिहारी मूल के लिए आरक्षण का असर
दरअसल, अभी तक इस विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव मुद्दों के मामले में एनडीए पर भारी पड़ रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि उनकी रैलियों में जनसैलाब देखा जा रहा है तो दूसरी ओर एनडीए के नेताओं को निराशा झेलनी पड़ी है। एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब तक हुई छह रैलियों में ही लोग बड़ी संख्या में जुटे। जबकि नीतीश कुमार को एक तरफ भीड़ नहीं जुटने के संकट से जूझना पड़ रहा है तो दूसरी तरफ उनकी सभाओं में लोग तेजस्वी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं।
इस लिहाज से देखें तो तेजस्वी यादव द्वारा पढ़ाई, कमाई, दवाई और सिंचाई का नारा दिए जाने तथा सरकार बनने पर पहली कैबिनेट की बैठक में दस लाख युवाओं को नौकरी देने संबंधी घोषणा का असर दिख रहा है। उन्होंने बिहार की नौकरियों में 85 फीसदी आरक्षण बिहारियों को देने संबंधी वादा भी किया है। उनके इन घोषणाओं के आलोक में एनडीए पहले तो यह कहकर खारिज करता रहा कि दस लाख युवाओं को नौकरी नहीं दी जा सकती है। सूबे के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि इसके लिए प्रत्येक वर्ष करीब 52 हजार करोड़ रुपए राशि की आवश्यकता होगी, जिसका प्रबंध करना बिहार सरकार के बूते के बाहर की बात है। इस क्रम में उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि बिहार सरकार के खजाने में इतना पैसा नहीं है कि इस राशि का अतिरिक्त बोझ उठाया जा सके।
वर्तमान में बिहार में आरक्षण
गौरतलब है कि वर्तमान में बिहार सरकार के अधीन नौकरियों में अनुसूचित जनजाति के लिए एक फीसदी, अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, अति पिछड़ा वर्ग के लिए 21 फीसदी, पिछड़ा वर्ग के लिए 12 फीसदी और गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण है। इनमें 35 फीसदी क्षैतिज आरक्षण महिलाओं के लिए है। इसके अलावा एक फीसदी आरक्षण विकलांगजनों के लिए है।
चुनावी मझधार में नीतीश को आई आरक्षण की याद
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के ठीक पहले भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में 19 लाख युवाओं को रोजगार देने का उल्लेख किया। इससे तेजस्वी यादव के मुद्दे को मजबूती मिली तो दूसरी ओर नीतीश कुमार बैकफुट पर आ गए। उन्होंने भी अपनी सभाओं में तेजस्वी यादव की घोषणा के संदर्भ में वित्त की कमी से जुड़े सवाल उठाए थे। उन्होंने अब आबादी के आधार पर आरक्षण का मामला उठाया है।
कमाई, दवाई, पढ़ाई और सिंचाई का मुद्दा भी सामाजिक न्याय का मुद्दा
बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार व चिंतक प्रेमकुमार मणि बताते हैं कि नीतीश कुमार द्वारा आबादी के आधार पर आरक्षण की बात कहे जाने का मतलब यह है कि वे अब फिर से कोटा की राजनीति करना चाहते हैं। वे मौजूदा राजनीति को फिर से पीछे ले जाना चाहते हैं। अलग-अलग जातियों को उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण मिले, यह लड़ाई पहले से रही है। नीतीश कुमार को बताना चाहिए कि उन्होंने इसके लिए क्या किया। वर्तमान में तेजस्वी यादव ने कमाई, दवाई, सिंचाई और पढ़ाई का सवाल उठाया है। यह सवाल भी सामाजिक न्याय से जुड़े सवाल हैं। जिन 10 लाख नौकरियों की बात तेजस्वी यादव ने की है, उसमें सभी को नौकरियां मिलेंगी। फिर चाहे वे महिलाएं हों, दलित हों, अति पिछड़े हों या फिर ऊंची जातियों के हों। और यह कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान पहले से है तो यदि नौकरियां मिलेंगीं तो सभी को तय कोटे के आधार पर ही दी जाएगी। इसलिए नीतीश कुमार जो अभी कह रहे हैं, वह सबसे बड़े मुद्दे को डिरेल करने का प्रयास है। जो कि अब संभव नहीं है। बिहार की जनता जाग चुकी है।
बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार व चिंतक प्रेमकुमार मणि
दरअसल, 2005 से लेकर 2015 तक हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की सफलता के पीछे जो मुद्दे महत्वपूर्ण रहे, उनमें अधोसंरचनात्मक विकास और विधि-व्यवस्था महत्वपूर्ण रही। यह सवाल अब भी महत्वपूर्ण बना हुआ है और नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में बिहार के फिसड्डी होने की बात सामने आने के बाद नीतीश कुमार इन मुद्दों के बारे में बोलने का अधिकार खोते जा रहे हैं। इस बीच मुंगेर में दशहरा के मौके पर पुलिस की गोलीबारी ने उनकी स्थिति को और विषम बना दिया है। इस घटना में एक 17 वर्षीय किशोर की मौत पुलिस की गोली से हो गई। इसके अलावा एक दर्जन लोग घायल हुए हैं।
के. सी. त्यागी का टिप्पणी से इंकार
तो क्या उपरोक्त कारणों से नीतीश कुमार को आबादी के आधार पर आरक्षण का सवाल उठाना पड़ रहा है? यह पूछने पर जदयू के राष्ट्रीय महासचिव के. सी. त्यागी ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि आबादी के आधार पर आरक्षण संबंधी बयान मुख्यमंत्रीजी द्वारा दिया गया है। इस संबंध में वे कोई टिप्पणी नहीं कर सकते।
पन्द्रह साल में पहल क्यों नहीं की?
इस संबंध में राजद के नेता व नीतीश सरकार में मंत्री रहे श्याम रजक का कहना है कि ‘नीतीश कुमार से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने पहले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि बिहार में आबादी के अनुरूप आरक्षण मिले, इसके लिए बीते 15 वर्षों में उन्होंने कोई पहल क्यों नहीं की। वे तो एनडीए के साथ थे। चाहते तो केंद्र सरकार पर दबाव बना सकते थे कि वह संसद में विधेयक के माध्यम से यह प्रावधान करे। तो जब उनके पास समय था तब उन्होंने कुछ नहीं किया। नीतीश कुमार अब हताश और निराश हो चुके हैं। साथ ही जातिगत जनगणना के सवाल को लेकर नीतीश कुमार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।’
सनद रहे कि जाति-आधारित जनगणना की मांग को लेकर देश भर में बहुजन संगठनों द्वारा आंदोलन चलाए जा रहे हैं। इसके पीछे तर्क यह है कि जातिगत जनगणना के बाद ही यह स्थापित हो सकेगा कि वर्तमान में किस जाति के कितने लोग हैं तथा उनकी शैक्षणिक व सामाजिक स्थिति क्या है। वर्तमान में देश में जो आरक्षण की व्यवस्था है, उसका आधार 1931 में हुए जातिगत जनगणना है।
दरअसल, 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में आरक्षण एक मुख्य मुद्दा बन गया था। तब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण संबंधी कानून की समीक्षा करने की बात कही थी। इसके खिलाफ लालू प्रसाद ने अभियान चलाया था। तब नीतीश कुमार महागठबंधन की ओर से सीएम पद के उम्मीदवार थे। उन्होंने भी अपने संबोधनों में आरक्षण में छेड़छाड़ किए जाने पर एनडीए को चेताया था।
बहरहाल, नीतीश कुमार द्वारा अब आरक्षण का सवाल उठाए जाने का कोई असर होगा, इसके आसार फिलहाल नहीं दिख रहे हैं। वैसे यह देखना दिलचस्प होगा कि यदि यह मुद्दा बनता है तो तेजस्वी यादव की तरफ से क्या पहल होती है। वजह यह कि पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने राज्य में आरक्षण की सीमा 70 फीसदी करने संबंधी बात कही थी। (फारवर्ड प्रेस)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जिन्ना ने पाकिस्तान इसलिए बनवाया था कि वह आदर्श इस्लामी राष्ट्र बने और मुसलमान लोग अपना सिर ऊंचा करके वहां रह सकें लेकिन अब 73 साल बाद भी उसका हाल क्या है? वह एक स्वस्थ और सबल राष्ट्र नहीं, बल्कि एक मज़ाक बन गया है। पाकिस्तान की संसद में उसके एक मंत्री फवाद चौधरी ने अपने ऐंठ दिखाई और बोल दिया कि पिछले साल भारत के पुलवामा में जो आतंकी हमला हुआ था, वह पाकिस्तान ने करवाया था और पाकिस्तानियों ने हिंदुस्तान के अंदर घुसकर उसकी जमीन पर उसको मारा था। उस हमले में भारतीय फौज के 40 जवान मारे गए थे।
चौधरी का यह बयान और इसके साथ इमरान खान का अमेरिका में दिया गया वह बयान कि पाकिस्तान में हजारों आतंकी सक्रिय हैं, क्या सिद्ध करता है ? क्या यह नहीं कि पाकिस्तान, जिसका अर्थ होता है, ‘पवित्र स्थान’, वह घोर अपवित्र कुकर्मों का अड्डा बन गया है। हजारों बेकसूर मुसलमान तो पाकिस्तान में हर साल मारे ही जाते हैं, ये आतंकी भारत और अफगानिस्तान के शांतिप्रिय लोगों को भी नहीं बख्शते ! इन्होंने इस्लाम और आतंक को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया है।
इन्हीं की देखादेखी अब कई सिरफिरे मुस्लिम युवकों ने फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों में भी आतंक फैला दिया है। पता नहीं, पाकिस्तान अब कैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय कोश के सामने अपना मुंह छपाएगा ? चौधरी के बयान पर जो प्रतिक्रिया नवाज की मुस्लिम लीग के नेता अयाज सादिक ने संसद में की है, उसे सुनकर क्या इमरान की सरकार शर्म से डूब नहीं मर रही है ? सादिक ने कहा है कि पुलवामा कांड के बाद भारतीय पायलट अभिनंदन की रिहाई की बात जब उठी तो विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी और सेनापति क़मर जावेद बाजवा सांसदों के सामने आए। उनके पांव कांप रहे थे और माथे से पसीना चू रहा था।
कुरैशी ने यह भी कहा कि भारतीय पायलट को अल्लाह के खातिर तुरंत रिहा किया जाए, क्योंकि रात 9 बजे भारत का हमला होने वाला है। सादिक के इस बयान पर इमरान सरकार काफी लीपा-पोती कर रही है और फवाद चौधरी भी पलटा खाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तान की जनता से पूछिए कि वह अपने नेताओं पर कितना तरस खा रही है।पाकिस्तान में चल रही इस अंदरुनी और आपसी तू-तू का सबसे बड़ा फायदा किसको मिल रहा है ? नरेंद्र मोदी को। पाकिस्तान की जनता में मोदी का डर फैल रहा है और उसका अपने नेताओं और फौज से मोहभंग भी हो रहा है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-Dayanidhi
संयुक्त राष्ट्र के जैव विविधता पैनल की रिपोर्ट में कहा गया है कि भविष्य में महामारियां और अधिक बार आएंगी। इन महामारियों से और अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ेगा। ये दुनिया की अर्थव्यवस्था को कोरोनावायरस के मुकाबले और अधिक नुकसान पहुंचाएंगे।
चेतावनी दी गई कि 540,000 से लेकर 850,000 तक ऐसे वायरस हैं, जो नोवल कोरोनवायरस की तरह जानवरों में मौजूद हैं और लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। यह महामारियां मानवता के अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।
जैव विविधता और महामारी पर विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि जानवरों के रहने के आवासों की तबाही और जरूरत से ज्यादा खपत से भविष्य में पशु-जनित रोगों के और अधिक बढ़ने के आसार हैं।
जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतरसरकारी विज्ञान-नीति मंच (आईपीबीईएस) कार्यशाला के अध्यक्ष पीटर दासजक ने कहा कि कोविड-19 महामारी या कोई भी आधुनिक महामारी के पीछे कोई बड़ा रहस्य नहीं है।
वही मानव गतिविधियां जिनकी वजह से जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की हानि होती है, हमारे कृषि पर भी इनके प्रभावों से महामारी के खतरों को बढ़ाती हैं।
पैनल ने कहा कि 1918 के इन्फ्लूएंजा के प्रकोप के बाद कोविड-19 छठी महामारी है, जिसके लिए पूरी तरह से मानवीय गतिविधियां जिम्मेदार हैं। इनमें वनों की कटाई, कृषि विस्तार, जंगली जानवरों का व्यापार और खपत के माध्यम से पर्यावरण का निरंतर शोषण शामिल है। ये सभी लोगों को जंगली और खेती में उपयोग होने वाले जानवरों के साथ संपर्क में रखते हैं और बीमारियों को शरण देते हैं।
उभरती बीमारियों के 70 फीसदी जैसे कि- इबोला, जीका और एचआईवी / एड्स, मूल रूप से जूनोटिक हैं, जिसका अर्थ है कि वे मनुष्यों में फैलने से पहले जानवरों में फैलते हैं। पैनल ने चेतावनी देते हुए बताया कि हर पांच साल में इंसानों में लगभग पांच नई बीमारियां फैलती हैं, जिनमें से किसी एक की महामारी बनने के आसार होते हैं।
कोविड-19 महामारी के लिए अब तक लगभग 8 ट्रिलियन डॉलर से 16 ट्रिलियन डॉलर तक की कीमत चुकानी पड़ी, जिसमें 5.8 ट्रिलियन से 8.8 ट्रिलियन डॉलर 3 से 6 महीने की सामाजिक दूरी और यात्रा प्रतिबंध की वजह से नुकसान हुआ (जो कि वैश्विक जीडीपी का 6.4 से 9.7 फीसदी है)
खराब तरीके से भूमि उपयोग
आईपीबीईएस ने पिछले साल प्रकृति की स्थिति पर अपने सामयिक मूल्यांकन में कहा था कि पृथ्वी पर तीन-चौथाई से अधिक भूमि पहले से ही मानव गतिविधि के कारण गंभीर रूप से खराब (डीग्रेड) हो चुकी है। जमीन की सतह का एक तिहाई और पृथ्वी पर ताजे पानी का तीन-चौथाई हिस्सा वर्तमान में खेती में उपयोग हो रहा है, लोगों के द्वारा संसाधनों का उपयोग केवल तीन दशकों में 80 प्रतिशत तक बढ़ गया है।
आईपीबीईएस ने 22 प्रमुख विशेषज्ञों के साथ एक वर्चुअल कार्यशाला आयोजित की, जिसमें महामारी के खतरों को कम करने तथा निपटने के लिए उपायों की सूची बनाई गई है। अब दुनिया भर की सरकारों से अपेक्षा है कि वे इन्हें लागू करें।
विशेषज्ञों ने कहा हम अभी भी टीके और चिकित्सीय माध्यम से रोगों से उभरने और उन्हें नियंत्रित करने के प्रयासों पर भरोसा करते हैं।
आईपीबीईएस ने जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के समान एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत जैव विविधता के नुकसान को रोकने के लिए, लक्ष्यों पर सहमति के लिए, देशों को एक वैश्विक समन्वय महामारी प्रतिक्रिया (कोऑर्डिनेटेड पान्डेमिक रिस्पांस) का सुझाव दिया है।
नीति-निर्माताओं के लिए भविष्य में कोविड-19 जैसी बीमारियां न हो इसके लिए मांस की खपत, पशुधन उत्पादन आदि जो महामारी के खतरों को बढ़ाने वाली गतिविधियां हैं उन पर अधिक कर लगाने जैसी विकल्प शामिल करने का सुझाव दिया है।
रिपोर्ट के मूल्यांकन में अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव व्यापार के बेहतर नियम और स्वदेशी समुदायों को इस काबिल बनाना कि वे जंगली आवासों को संरक्षित कर सकें आदि का सुझाव भी दिया गया है।
इस शोध में शामिल ओस्ले ने कहा कि हमारा स्वास्थ्य, धन, संपत्ति और भलाई हमारे स्वास्थ्य और हमारे पर्यावरण की भलाई पर निर्भर करती है। इस महामारी की चुनौतियों ने विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण और साझा पर्यावरणीय जीवन-प्रणाली को बचाने और बहाल करने के महत्व को उभारा है। (downtoerth)
-दयाशंकर शुक्ल सागर
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक, बीबीसी हिंदी के लिए
महात्मा गांधी अगर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में हस्तक्षेप न करते तो सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वतंत्र पहली भारतीय सरकार के अंतरिम प्रधानमंत्री होते.
जिस समय आज़ादी मिली, पटेल 71 साल के थे जबकि नेहरू सिर्फ 56 साल के. देश उस वक्त बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था.
जिन्ना पाकिस्तान की जिद पर अड़े थे. ब्रितानी हुकूमत ने कांग्रेस को अंतरिम सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था.
कांग्रेस चाहती थी कि देश की कमान पटेल के हाथों में दी जाए क्योंकि वे जिन्ना से बेहतर मोलभाव कर सकते थे, लेकिन गांधी ने नेहरू को चुना.
राजेन्द्र प्रसाद जैसे कुछ कांग्रेस नेताओं ने ज़रूर खुलकर कहा कि 'गांधीजी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया' लेकिन ज्यादातर कांग्रेसी ख़ामोश रहे. बापू ने देश की बागडोर सौंपने के लिए नेहरू को ही क्यों चुना?
आज़ादी के 77 के बाद भी यह सवाल भारत की राजनीति में हमेशा चर्चा में रहा है.
इसका कारण को तलाशने के लिए हमें ब्रिटिश राज के अंतिम वर्षों की राजनीति और गांधी के साथ नेहरू और पटेल के रिश्तों की बारीकियों समझना होगा.

UNIVERSAL HISTORY ARCHIVE
विरोधी से गांधी भक्त बने थे पटेल
वल्लभ भाई पटेल से गांधी की मुलाकात नेहरू से पहले हुई थी. उनके पिता झेवर भाई ने 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया था. तब वे तीन साल तक घर से गायब रहे थे.
1857 के विद्रोह के 12 साल बाद गांधी जी का जन्म हुआ और 18 साल बाद 31 अक्टूबर 1875 में पटेल का यानी पटेल गांधी से केवल छह साल छोटे थे जबकि नेहरू पटेल से 14-15 साल छोटे थे.
उम्र में छह साल का फर्क कोई ज्यादा नहीं होता इसलिए गांधी और पटेल के बीच दोस्ताना बर्ताव था. पटेल लंदन के उसी लॉ कॉलेज मिडिल टेंपल से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे, जहाँ से गांधी, जिन्ना, उनके बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल और नेहरू ने बैरिस्टर की डिग्रियां ली थीं.
उन दिनों वल्लभभाई पटेल गुजरात के सबसे महँगे वकीलों में से एक हुआ करते थे. पटेल ने पहली बार गाँधी को गुजरात क्लब में 1916 में देखा था.
गांधी साउथ अफ़्रीका में झंडे गाड़ने के बाद पहली दफ़ा गुजरात आए थे. देश में जगह-जगह उनका अभिनंदन हो रहा था. उन्हें कुछ लोग 'महात्मा' भी कहने लगे थे लेकिन पटेल गांधी के इस 'महात्मापन' ने जरा भी प्रभावित नहीं थे. वो उनके विचारों से बहुत उत्साहित नहीं थे.
पटेल कहते थे, ''हमारे देश में पहले से महात्माओं की कमी नहीं है. हमें कोई काम करने वाला चाहिए. गांधी क्यों इन बेचारे लोगों से ब्रह्मचर्य की बातें करते हैं? ये ऐसा ही है जैसे भैंस के आगे भागवत गाना.'' (विजयी पटेल, बैजनाथ, पेज 05)
साल 1916 की गर्मियों में गांधी गुजरात क्लब में आए. उस समय पटेल अपने साथी वकील गणेश वासुदेव मावलंकर के साथ ब्रिज खेल रहे थे.
मावलंकर गांधी से बहुत प्रभावित थे. वो गांधी से मिलने को लपके. पटले ने हंसते हुए कहा, ''मैं अभी से बता देता हूं कि वो तुमसे क्या पूछेगा? वो पूछेगा- गेहूं से छोटे कंकड़ निकालना जानते हो कि नहीं? फिर वो बताएगा कि इससे देश को आज़ादी किन तरीकों से मिल सकती है.''
लेकिन बहुत जल्द ही पटेल की गांधी का लेकर धारणा बदल गई.
चंपारण में गांधी के जादू का उन पर जबरदस्त असर हुआ. वो गांधी से जुड़ गए. खेड़ा का आंदोलन हुआ तो पटेल गांधी के और करीब आ गए.
असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो पटेल अपनी दौड़ती हुई वकालत छोड़ कर पक्के गांधी भक्त बन गए और इसके बाद हुआ बारदोली सत्याग्रह जिसमें पटेल पहली बार सारे देश में मशहूर हो गए.
ये 1928 में एक प्रमुख किसान आंदोलन था. प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में 30 फ़ीसदी की बढ़ोतरी कर दी. पटेल इस आंदोलन के नेता बने और ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा.
इसी आंदोलन के बाद पटेल को गुजरात की महिलाओं ने 'सरदार' की उपाधि दी. 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में पटेल पहली और आखिरी बार पार्टी के अध्यक्ष चुने गए. पहली बार वह 'गुजरात के सरदार' से 'देश के सरदार' बन गए.

BETTMANN
नेहरू का चुनाव
देश को 15 अगस्त 1947 को आज़ाद होना था लेकिन उससे एक साल पहले ब्रिटेन ने भारतीय हाथों में सत्ता दे दी थी. अंतरिम सरकार बननी थी.
तय हुआ था कि कांग्रेस का अध्यक्ष ही प्रधानमंत्री बनेगा. उस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे. वो पिछले छह साल से इस पद पर थे. अब उनके जाने का वक्त हो गया था.
तब तक गांधी, नेहरू के हाथ में कांग्रेस की कमान देने का मन बना चुके थे. 20 अप्रैल 1946 को उन्होंने मौलाना को पत्र लिखकर कहा कि वे एक वक्तव्य जारी करें कि अब 'वह अध्यक्ष नहीं बने रहना चाहते हैं.'
गांधी ने बिना लागलपेट पर ये भी साफ़ कर दिया कि 'अगर इस बार मुझसे राय मांगी गई तो मैं जवाहरलाल को पसंद करूंगा, इसके कई कारण हैं. उनका मैं ज़िक्र नहीं करना चाहता.' (कलेक्टट वर्क्स खंड 90 पेज 315)
इस पत्र के बाद पूरे कांग्रेस में ख़बर फैल गई कि गांधी नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं. 29 अप्रैल 1946 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी का नया अध्यक्ष चुना जाना था जिसे कुछ महीने बाद ही अंतरिम सरकार में भारत का प्रधानमंत्री बनना था.
इस बैठक में महात्मा गांधी के अलावा नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान के साथ कई बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे.
कमरे में बैठा हर शख़्स जानता था कि गांधी नेहरू को अध्यक्ष देखना चाहते हैं.
परपंरा के मुताबिक कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियाँ करती थीं और 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया था. बची हुई तीन कमेटियों ने आचार्य जेबी कृपलानी और पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया था.
किसी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने अध्यक्ष पद के लिए नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं किया था जबकि सारी कमेटियाँ अच्छी तरह जानती थी कि गांधी नेहरू को चौथी बार अध्यक्ष बनाना चाहते हैं.
पार्टी के महासचिव कृपलानी ने पीसीसी के चुनाव की पर्ची गांधी की तरफ बढ़ा दी. गांधी ने कृपलानी की तरफ देखा. कृपलानी समझ गए कि गाँधी क्या चाहते हैं. उन्होंने नया प्रस्ताव तैयार कर नेहरू का नाम प्रस्तावित किया. उस पर सबने दस्तख़त किए. पटेल ने भी दस्तख़त किए. अब अध्यक्ष पद के दो उम्मीदवार थे. एक नेहरू और दूसरे पटेल.

नेहरू तभी निर्विरोध अध्यक्ष चुने जा सकते थे जब पटेल अपना नाम वापस लें. कृपलानी ने एक कागज पर उनकी नाम वापसी की अर्जी लिखकर दस्तख़त के लिए पटेल की तरफ बढ़ा दी.
मतलब साफ था-चूंकि गांधी चाहते हैं नेहरू अध्यक्ष बनें इसलिए आप अपना नाम वापस लेने के कागज पर साइन कर दें लेकिन आहत पटेल ने दस्तख़त नहीं किए और उन्होंने ये पुर्जा गांधी की तरफ बढ़ा दिया.
गांधी ने नेहरू की तरफ़ देखा और कहा, ''जवाहर वर्किंग कमेटी के अलावा किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने तुम्हारा नहीं सुझाया है. तुम्हारा क्या कहना है?''
नेहरू ख़ामोश रहे. वहां बैठे सारे लोग ख़ामोश थे. गांधी को शायद उम्मीद थी कि नेहरू कहेंगे, तो ठीक है आप पटेल को ही मौका दें. लेकिन नेहरू ने ऐसा कुछ नहीं कहा. अब अंतिम फैसला गांधी को करना था.
गांधी ने वो कागज फिर पटेल को लौटा दिया. इस बार सरदार ने उस पर दस्तख़त कर दिए. कृपलानी ने ऐलान किया,''तो नेहरू निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाते हैं.''
कृपलानी ने अपनी किताब 'गांधी हिज़ लाइफ एंड थाटॅ्स' में इस पूरी घटना का विस्तार से ज़िक्र किया है.
उन्होंने लिखा है, ''मेरा इस तरह हस्तक्षेप करना पटेल को अच्छा नहीं लगा. पार्टी का महासचिव होने के नाते में गाँधी की मर्ज़ी का काम यंत्रवत कर रहा था और उस वक्त मुझे ये बहुत बड़ी चीज नहीं लगी. आख़िर ये एक अध्यक्ष का ही तो चुनाव था.''
''मुझे लगा अभी बहुत सी लड़ाइयाँ सामने हैं. लेकिन भविष्य कौन जानता है? मालूम होता है ऐसी तुच्छ घटनाओं से ही किसी व्यक्ति या राष्ट्र की किस्मत पर निर्भर होती है.
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SARDAR PATEL NATIONAL MEMORIAL, AHMEDABAD.
गांधी ने ऐसा क्यों किया?
ये महात्मा गांधी ही कर सकते थे. कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बनेगा, ये फ़ैसला एक ऐसा आदमी कर रहा था जो 12 साल पहले ही कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफ़ा दे चुका था लेकिन कांग्रेसियों के लिए ये बड़ी बात नहीं थी क्योंकि साल 1929, 1936, 1939 के बाद ये चौथा मौका था जब पटेल ने गाँधीजी के कहने पर अध्यक्ष पद से अपना नामांकन वापस लिया था. सब हक्का-बक्का रह गए.
तब के जाने-माने पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब 'इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू' में लिखा है, ''राजेन्द्र प्रसाद ने मुझसे कहा कि 'गांधीजी ने ग्लैमरस नेहरू के लिए अपने विश्वसनीय साथी का बलिदान कर दिया. और मुझे डर है कि अब नेहरू अंग्रेज़ों के रास्ते पर आगे बढ़ेंगे.''
''राजेन्द्र बाबू की ये प्रतिक्रिया जब मैंने गाँधी जी को बताई तो वे हँसे और उन्होंने राजेन्द्र की सराहना करते हुए कहा कि नेहरू आने वाली ढेर सारी समस्याओं का सामना करने के लिए ख़ुद को तैयार कर चुके हैं.''
तो सवाल है इतने विरोधों के बावजूद गांधी ने पटेल की जगह नेहरू को क्यों चुना?

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जैसे कि गांधी ने कहा था कि उनके पास इसकी कई वजहें हैं लेकिन वे वजहें न किसी ने उनसे पूछी न उन्होंने किसी को बताईं. कांग्रेस में तो किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह बापू से पूछे कि सरदार पटेल जैसे योग्य नेता को छोड़कर आपने नेहरू को क्यों चुना?
सब जानते थे कि पटेल के पाँव ज़मीन पर मजबूती से स्थापित हैं. वो जिन्ना जैसे लोगों से उन्हीं की ज़ुबान में मोलभाव कर सकते हैं.
उनसे जब पत्रकार दुर्गादास ने ये सवाल पूछा तो 'गांधी ने माना कि बतौर कांग्रेस अध्यक्ष पटेल एक बेहतर 'नेगोशिएटर' और 'ऑर्गनाइज़र' हो सकते हैं. लेकिन उन्हें लगता है कि नेहरू को सरकार का नेतृत्व करना चाहिए.''
जब दुर्गादास ने गांधी से पूछा कि आप ये गुण पटेल में क्यों नहीं पाते हैं? तो इस पर गांधी ने हंसते हुए कहा, "जवाहर हमारे कैम्प में अकेला अंग्रेज़ है.''
गांधी को लगा कि दुर्गादास उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हैं तो उन्होंने कहा, ''जवाहर दूसरे नम्बर पर आने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे. वो अंतराष्ट्रीय विषयों को पटेल के मुकाबले अच्छे से समझते हैं. वो इसमें अच्छी भूमिका निभा सकते हैं. ये दोनों सरकारी बेलगाड़ी को खींचने के लिए दो बैल हैं. इसमें अंतरराष्ट्रीय कामों के लिए नेहरू और राष्ट्र के कामों के लिए पटेल होंगे. दोनों गाड़ी अच्छी खींचेंगे."
गांधी के इस प्रेस इंटरव्यू से दो बातें निकल कर आईं. एक ये कि नेहरू नम्बर-2 नहीं होना चाहते थे जबकि गांधी को भरोसा था कि पटेल को नम्बर-2 होने में कोई एतराज़ नहीं होगा और वाकई ऐसा ही हुआ क्योंकि पटेल मुंह फुलाने की बजाए एक हफ्ते के अंदर फिर न केवल सामान्य हो गए बल्कि हंसी-मज़ाक करने लगे.
उनकी बातों पर हँसने वालों में खुद गांधी भी शामिल थे. दूसरी बात ये कि गांधी को लगता कि अपनी अंग्रेज़ियत के कारण सत्ता हस्तांतरण को नेहरू पटेल के मुकाबले ज्यादा बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं.
महात्मा गांधी ने एक और मौके पर भी यही बात कही थी कि 'जिस समय हुकूमत अंग्रेजों के हाथ से ली जा रही हो, उस समय कोई दूसरा आदमी नेहरू की जगह नहीं ले सकता. वे हैरो के विद्यार्थी, कैम्ब्रिज के स्नातक और लंदन के बेरिस्टर होने के नाते अंग्रेज़ों को बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं.' (महात्मा, तेंदुलकर खंड 8 पेज 3)
यहाँ गांधी सही थे. बाहर की दुनिया में नेहरू का नाम आजादी की लड़ाई में गांधी के बाद दूसरे नम्बर पर था. न केवल यूरोपीय लोग बल्कि अमरीकी भी नेहरू को महात्मा गांधी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानते थे जबकि पटेल के बारे ऐसा बिल्कुल नहीं था.
पटेल को शायद ही कोई विदेशी गाँधी का उत्तराधिकारी मानता हो. लंदन के कहवा घरों में बुद्धिजीवियों के बीच नेहरू की चर्चा होती थी. तमाम वायसराय और क्रिप्स समेत कई अंग्रेज अफसर नेहरू के दोस्त थे. उनसे नेहरू की निजी बातचीत होती थी.

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नेहरू से उलट थे पटेल
दोनों में और भी बड़े अंतर थे जो राजनीति में बहुत मायने रखते हैं. नेहरू एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी थे. उन्हें अंग्रेज़ी और हिन्दी में बोलने और लिखने की कमाल की महारत हासिल थी. नेहरू उदार थे और उनका खुलापन उन्हें लोकप्रिय बनाता था.
वो भावुक और सौदर्यप्रेमी थे जो किसी को भी रिझा सकते थे. इसके उलट पटेल सख़्त और थोड़े रुखे थे. वो व्यवहार कुशल थे लेकिन उतने ही मुंहफट भी. दिल के ठंडे लेकिन हिसाब-किताब में माहिर.
नेहरू जोड़तोड़ में बिलकुल माहिर नहीं थे. वे कांग्रेस में भी अलग-थलग रहने वाले नेता थे. जेल में बंद रहकर वे अपने साथी कांग्रेसियों से गपशप करने की जगह अपनी कोठरी में अकेले बैठ कर 'डिस्कवरी आफ इंडिया' जैसी किताबें लिखते थे. उनकी अभिजात्य वर्ग की अपनी एक अलग दुनिया थी.
वहीं, पटेल राजनीतिक तंत्र का हर पुर्जा पहचानते थे. जोड़-तोड़ करने में महिर थे. यही वजह थी कि प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी में उन्हें 15 में से 2 कमेटियों का समर्थन मिला.
नेहरू कमाल के वक्ता थे जबकि पटेल को भाषणबाजी से चिढ़ थी. वे दिल से और साफ साफ बोलते थे. ऐसा नहीं था कि मुसलमानों को लेकर उनके मन में आरएसएस जैसी कोई वितृष्णा या पूर्वाग्रह था लेकिन खरा-खरा बोलने के कारण वह देश के मुसलमानों में नापसंद किए जाने लगे.
नेहरू समाजवाद के मसीहा थे तो पार्टी के लिए चंदा इकट्ठा करने वाले पटेल पूंजीवादियों के संरक्षक.
नेहरू आधुनिक हिन्दुस्तान और धर्मनिरपेक्ष भारत का सपना देखते थे तो पटेल राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखते थे. हिंदू और हिंदू परम्परा को लेकर उनके मन में कोमल भावनाएं थीं जो वक्त-बेवक्त उन्हें उत्तेजित कर देती थीं.
नेहरू में एक पैनी राजनीतिक अन्तर्दृष्टि थी, बावजूद इसके वे स्वाभाविक रूप से भावुक और जरूरत से ज्यादा कल्पनाशील थे.

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जब नेहरू की चूक से बिगड़ गई बात
नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने साल की ही दो घटनाएं हैं जो नेहरू और पटेल के व्यक्तित्व को बखू़बी उजागर करती हैं.
कांग्रेस और लीग, दोनों कैबिनेट मिशन की योजना तकरीबन कबूल कर चुकी थी. अगले महीने अंतरिम सरकार बननी थी, जिसमें दोनों के प्रतिनिधि शामिल होने वाले थे यानी देश का विभाजन टलता हुआ दिख रहा था.
ये बात अलग थी कि कांग्रेस और लीग दोनों अपने हिसाब से कैबिनेट मिशन की योजना का मतलब निकाल रहे थे. ऐसे माहौल में नेहरू ने सात जुलाई 1946 को कांग्रेस कमेटी की बैठक बुलाई जिसमें उन्होंने साफ़ कर दिया कि कांग्रेस के हिसाब से इस योजना में क्या है.
कांग्रेस मानती थी कि चूँकि प्रांतों को किसी समूह में रहने या न रहने की आज़ादी होगी. इसलिए ज़ाहिर है कि उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और असम, जहाँ कांग्रेस की सरकारें हैं, वो पाकिस्तान के बजाय हिंदुस्तान वाले समूह से जुड़ना चाहेंगे.
जिन्ना कांग्रेस की इस व्याख्या से कतई सहमत नहीं थे. उनके अनुसार कैबिनेट मिशन योजना के तहत पश्चिम के चार और पूर्व के दो राज्यों का दो मुस्लिम-बहुल समूह का हिस्सा बनना बाध्यकारी था. बस यहीं सोच का अंतर था.
अभी समझदारी ये थी कि जैसा जो सोच रहा है, सोचे. पहले कांग्रेस और लीग मिलकर अंतरिम सरकार बनाएं. फिर जो जैसा होगा तब वैसा देखा जाएगा. लेकिन इसके तीन दिन बाद 10 जुलाई 1946 को नेहरू ने मुंबई में एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके कहा कि कांग्रेस ने संविधान सभा में शामिल होने का फैसला तो कर लिया है लेकिन अगर उसे ज़रूरी लगा तो वह कैबिनेट मिशन योजना में फेरबदल भी कर सकती है.
नेहरूने एक बयान देकर कैबिनेट मिशन की सारी योजना को एक मिनट में ध्वस्त कर दिया. इससे अटूट भारत की आख़िरी उम्मीद पर पानी फिर गया.
नाराज़ जिन्ना को मौका मिल गया. उन्होंने भी एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई और साफ़ कह दिया कि कांग्रेस के इरादे नेक नहीं. अब अगर ब्रिटिश राज के रहते मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं दिया गया तो बहुत बुरा होगा.
मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त से डायरेक्ट एक्शन का एलान कर दिया. जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन का नतीजा भारी हिंसा होगी, ये कोई नहीं जानता था. लेकिन सरदार पटेल समझ रहे थे कि नेहरू से बड़ी भारी गलती हो गई. उनकी बात सही थी लेकिन इसका खुला एलान करने की ज़रूरत नहीं थी.
सरदार ने अपने करीबी मित्र और अपने निजी सचिव डीपी मिश्रा को एक ख़त लिखा,"हालांकि नेहरू अब तक चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं. लेकिन उनकी हरकतें मासूमियत से भरी लेकिन बचकानी होती हैं. उनकी ये प्रेस कान्फ्रेंस भावुकता से भरी और मूर्खतापूर्ण थी.''
''लेकिन उनकी इन उनकी तमाम मासूम गलतियों के बावजूद उनके अंदर आज़ादी के लिए गजब का जज़्बा और उत्साह है, जो उन्हें बेसब्र बना देता है जिसके चलते वे अपने आप को भूल जाते हैं. जरा-सा भी विरोध होने पर वे पागल हो जाते हैं क्योंकि वे उतावले हैं."
नेहरू की पहाड़ जैसी भूल का नतीजा बहुत जल्द देश के सामने आ गया. जिन्ना के 'डायरेक्ट एक्शन' से देश में हिंदू- मुस्लिम दंगे भड़क गए. अकेले कलकत्ता शहर में हजारों लोग मारे गए, लाखों लोग बेघर हो गए. नोआखली में भी भारी कत्लेआम हुआ. धीरे-धीरे देश को इन दंगों ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया.
इसके बाद गांधी कलकत्ते से लेकर नोआखली और बिहार तक, दंगे में मारे गए हिन्दुओं और मुसलमानों के ख़ून को साफ करने की 24 घंटे की ड्यूटी पर लगे रहे. ये ड्यूटी आज़ादी मिलने के दिन तक जारी रही.

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तलवार के बदले तलवार उठाने की सलाह
जगह-जगह दंगे हो रहे थे. हिन्दू-मुसलमान मारे जा रहे थे. ऐसे में 'पटेल के हिन्दुत्व' ने उछाल मारा और 23 नवंबर 1946 को मेरठ में कांग्रेस के अधिवेशन में अपना आपा खो बैठे.
अधिवेशन में उन्होंने अपने भाषण में कह दिया, "धोखे से पाकिस्तान लेने की बात मत करो. हाँ अगर तलवार से लेना है तो उसका मुकाबला तलवार से किया जा सकता है.''( 54वां मेरठ कांग्रेस अधिवेशन, केपी जैन)
पटेल का बयान सनसनीखेज था. गांधी की अहिंसा नीति के एकदम उलट. गांधी तक शिकायत तुरंत पहुंच गई.
गांधी ने पटेल को लिखा, ''तुम्हारे बारे में बहुत सी शिकायतें सुनने में आई हैं. बहुत में अतिशयोक्ति हो तो वो, अनजाने में है. लेकिन तुम्हारे भाषण लोगों को खु़श करने वाले और उकसाने वाले होते हैं. तुमने हिंसा-अहिंसा का भेद नहीं रखा है. तुम लोगों को तलवार का जवाब तलवार से देना सिखा रहे हो. जब मौका मिलता है, मुस्लिम लीग का अपमान करने से नहीं चूकते.''
''यदि यह सब सच है तो बहुत हानिकारक है. पद से चिपटे रहने की बात करते हो, और यदि करते हो तो वह भी चुभने वाली चीज है. मैंने तुम्हारे बारे में जो सुना, वह विचार करने के लिए तुम्हारे सामने रखा है. यह समय बहुत नाज़ुक है. हम जरा भी पटरी से उतरे कि नाश हुआ समझो. कार्य-समिति में जो समस्वरता होनी, चाहिए वह नहीं है. गंदगी निकालना तुम्हें आता है; उसे निकालो."
इसी पत्र में आगे गांधी ने पटेल को ये भी बता दिया कि वो बूढ़े हो गए हैं.
गांधी ने लिखा, ''मुझे और मेरा काम समझने के लिए किसी विश्वसनीय समझदार आदमी को भेजना चाहो तो भेज देना. तुम्हें दौड़कर आने की बिल्कुल जरूरत नहीं. तुम्हारा शरीर भाग-दौड़ के लायक नहीं रहा. शरीर के प्रति लापरवाह रहते हो, यह बिल्कुल ठीक नहीं है." (बापुना पत्रों 2 : सरदार वल्लभभाई ने, पृ. 341-43)
ये दो घटनाएं नेहरू और पटेल के व्यक्तित्व के बारे में बताने के लिए काफ़ी हैं. सच तो ये है कि गांधी 1942 में उस वक्त नेहरू को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे जो दोनों के बीच मतभेद चरम पर थे.
तब गांधी ने कहा था, ''हमें अलग करने के लिए व्यक्तिगत भतभेद से कहीं अधिक ताकतवर शक्तियों की जरूरत होगी. कई वर्षों से मैं ये कहता आया हूं और आज भी कहता हूं कि जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे. वे कहते हैं वो मेरी भाषा नहीं समझते और मैं उनकी. फिर भी मैं जानता हूं जब मैं नहीं रहूंगा तब वे मेरी ही भाषा बोलेंगे.'' (इंडियन एनुअल रजिस्टर भाग-1, 1942 पेज 282-283)
लेकिन इसका मतलब ये नहीं था कि गांधी पटेल से कम प्रेम करते थे.
आज न गांधी हैं, न नेहरू और न पटेल. वक्त का पहिया पूरी तरह से घूम गया है. आज नेहरू कटघरे में हैं और गुजरात में लगी लौह पुरुष पटेल की करीब 600 फीट ऊंची दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति इतिहास को पलट कर देख रही है.
कांग्रेस के महान नेता पटेल के 'हिन्दुत्व' पर उस आरएसएस ने कब्जा कर लिया है जिसे पटेल ने कभी प्रतिबंधित किया था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग' के लेखक हैं.) (bbc.com)
राज्य स्थापना दिवस के मौके पर
-विनय शील
छत्तीसगढ़ के शहीद वीर नारायण सिंह से जुड़ी यह घटना कौन भूल सकता है कि किस तरह से सोनाखान रियासत के राजकुमार वीर नारायण सिंह ने 1856 में पड़े भीषण अकाल के दौरान हजारों किसानों को साथ लेकर कसडोल के जमाखोरों के गोदामों पर धावा बोलकर अनाज लूटा और फिर उसे भूखे मर रही जनता में बांट दिया था। मगर उनकी यह दरियादिली अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट को रास नहीं आई और उन्होंने वीर नारायण सिंह को गिरफ्तार करवा लिया और अंतत: 10 दिसंबर, 1857 को रायपुर में एक चौराहे पर फांसी दे दी।
इस घटना के 164 सालों के बाद आज भी किसान, खेती और खाद्यान्न छत्तीसगढ़ के केंद्र में है। इतना कि, पहली नवंबर को एक पृथक राज्य के रूप में दो दशक पूरे कर रहे इस राज्य की सियासत तक इनसे तय होती रही है। दो साल पहले पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान पर्यावरण संबंधी मुद्दों को समर्पित प्रतिष्ठित वेबसाइट मोंगाबे-इंडिया के मयंक अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ के हालात पर लंबी रिपोर्ट लिखी थी। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के राजनांदगांव क्षेत्र को भी कवर किया था। उनकी इस रिपोर्ट में किसान नेता सुदेश टेकाम को यह कहते हुए दर्ज किया गया था, ‘सरकार का ध्यान सिर्फ माइनिंग और बिजली में है। किसानों के मुद्दों की लगातार उपेक्षा की जा रही है। पिछले चुनावों में रमन सिंह ने धान की फसल के लिए 2100 रुपये न्यूनतम समर्थन मूल्य और तीन सौ रुपये बोनस का वादा किया था। लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कभी भी अपना वादा पूरा नहीं किया। किसानों के भारी आंदोलन के बाद सरकार ने 2017 में धान के लिए सिर्फ 1750 रुपये एमएसपी और तीन सौ रुपये बोनस दिए थे। हम इस बार मूर्ख नहीं बनेंगे।’
इसी रिपोर्ट में टेकाम ने यह भी कहा कि उनके लिए किसानों तथा भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के लिए कर्जमाफी भी बड़ा मुद्दा है, क्योंकि सरकार ने छोटे और मझोले किसानों की उपेक्षा की है। इस चुनाव में डॉ. रमन सिंह खुद तो राजनांदगांव से विजयी हुए, मगर वह अपनी पंद्रह साल पुरानी सरकार नहीं बचा सके थे। हैरत नहीं कि लंबे शासन के दौरान उनकी पहचान 'चाउर वाले बाबा' के रूप में स्थापित हो गई थी,क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली(पी डी एस ) के जरिए गरीबों को एक रुपए और दो रुपए किलो चावल देने की योजना चलाई थी।
हालांकि पीडीएस के जरिये दो रुपये किलो चावल देने की योजना कोई नया विचार नहीं था। 1980 के दशक में एनटीआर रामाराव ने अविभाजित आंध्र प्रदेश में इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। यूपीए शासन के दौरान 2013 में अस्तित्व में आए खाद्य सुरक्षा कानून का आधार ही राशन की दुकानों के जरिये गरीबों को सस्ता अनाज देने की व्यवस्था है। कोरोना काल में पीडीएस की इस व्यवस्था ने पूरे देश में अपनी सार्थकता साबित की है।
हैरत नहीं होनी चाहिए कि दो साल पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 90 में से मिली 67 सीटों के पीछे किसानों प्रति क्विंटल धान के बदले ढाई हजार रुपये देने का वादा भी एक बड़ी वजह थी। भूपेश बघेल ने नेतृत्व वाली कांग्रेस की इस सरकार ने उस धारणा को ही बदल दिया कि भारत में चुनावी वादे सिर्फ चुनाव जीतने के लिए होते हैं। शपथ ग्रहण के शायद दो घंटे के भीतर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जिन दो फैसलों पर हस्ताक्षर किए उनमें से एक था बस्तर में लोहंडीगुड़ा के आदिवासी किसानों की जमीन वापसी का और दूसरा फैसला किसानों की कर्जमाफी का। लोहंडीगुड़ा में पूर्वर्ती रमन सरकार ने ग्रामीणों के भारी विरोध के बावजूद उनकी ज़मीनें टाटा के लिए अधिग्रहीत कर ली थीं लेकिन टाटा ने प्लांट लगाया नहीं तो आदिवासियों को उनकी ज़मीनें लौटाने के बजाए उसे सरकारी लैंड बैंक में शामिल कर लिया। ये पंद्रह साल के एक मुख्यमंत्री का नितांत अलोकप्रिय और आदिवासी विरोधी फैसला था। दूसरी ओर जब भूपेश बघेल ने इन ज़मीनों को लौटाने की फाइल पीआर दस्तखत किए तो पूरे देश को नजरें अचानक लोहंडीगुड़ा की ओर उठ गईं थीं। ऐसा सम्भवत: पहली बार किसी सरकार ने किया था। ये उस विकास की दिशा का इशारा था जिसका वादा कांग्रेस पार्टी ने किया था। केन्द्र की मोदी सरकार की तमाम अड़चनों के बावजूद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों को धान का समर्थन मूल्य और बोनस मिला कर 25 सौ रुपए प्रति क्विंटल दिया लेकिन अगली बार इस पर केन्द्र की मोदी सरकार ने अड़ंगा डाल दिया। जाहिर है कि यह भूपेश बघेल की लोकप्रियता बढ़ाने वाला कदम था और बीजेपी के लिए यह असुविधाजनक था। लेकिन बोनस को लेकर केंद्र के अड़ंगे के बाद भूपेश सरकार ने समर्थन मूल्य तो दिया पर बाकी राशि के लिए अपने संसाधनों से एक किसानों के लिए राजीव गांधी न्याय योजना लागू कर दी। हालांकि यह सच है कि खेती से जुड़े वृहत संकट का यह स्थायी समाधान नहीं है,लेकिन दुनिया के है बड़े अर्थशास्त्री की नजरों में इस संकट के बीच समाधान का रास्ता इन्हीं गलियों से हो कर गुजरता है।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में सस्ते अनाज और सार्वजनिक वितरण प्रणाली और कृषि का क्या महत्व है, यह कुछ सहज उपलब्ध तथ्यों से समझा जा सकता है। पिछली जनगणना के मुताबिक राज्य की 75 फीसदी आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है और धान यहां की मुख्य फसल है। छत्तीसगढ़ की 40 फीसदी से भी अधिक आबादी गरीबी की रेखा से नीचे गुजर बसर करने को मजबूर है। 32 फीसदी आबादी आदिवासियों की है और उनमें गरीबी का आंकड़ा तो और भी बुरा है। यह स्थिति तब है, जब छत्तीसगढ़ खनिज संपदा से समृद्ध है और इसका करीब 45 फीसदी भू-भाग जंगलों से घिरा हुआ है।
छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री दिवंगत अजीत जोगी अपने राज्य के बारे में अक्सर कहते थे, ‘अमीर धरती के गरीब लोग।’ यह विडंबना ही है कि सात राज्यों के करीब पच्चीस जिलों से घिरा यह राज्य आगे बढऩे की असीम संभावनाओं और संसाधनों के बावजूद आज भी पिछड़ा हुआ है।लेकिन अजीत जोगी को महाजकाम के लिए तीन साल मिले थे और भाजपा की रमन सरकार ने पंद्रह बरस राज किया पर छत्तीसगढ़ के आम लोगों की बुनियादी जरूरत संबोधित ना हो सकी। लेकिन अब यह उम्मीद तो बंधी है कि एक मुख्यमंत्री ऐसा है जिसे छत्तीसगढ़ की बुनियादी जरूरतों की पहचान है। अभी तो शायद इन दशकों में छत्तीसगढ़ की नौकरशाही भी इन जरूरतों की ठीक से पहचान ना कर सकी थी।
दो दशक का समय किसी राज्य के जीवन में लंबा वक्त नहीं होता, मगर यह तो देखा ही जाना चाहिए कि आखिर छत्तीसगढ़ विकसित प्रदेशों की श्रेणी में क्यों नहीं आ सका। इसके उलट जनवरी, 2019 को आई नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक छत्तीसगढ़ संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) के भुखमरी और कुपोषण जैसे सूचकांकों में निचले क्रम में है। उस दिन यह जानना सुखद था जब भूपेश बघेल ने यह ऐलान किया कि बस्तर जैसे इलाकों में जिला खनिज न्यास की राशि अनुत्पादक निर्माणों के बजाए सुपोषण और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों पर खर्च होगी। बस्तर में कुपोषण में कमी के आंकड़े भूपेश सरकार के इस फैसले की सफलता की कहानी है। ये ऐसे फैसले हैं जिन्हें गवर्नेंस के प्रयोगों के रूप में समझना चाहिए ।
छत्तीसगढ़ के लिए एक बड़ा मुद्दा माओवाद भी है। इस बीच माओवादी हिंसा में कमी जरूर आई है, लेकिन अब भी छत्तीसगढ़ इससे सर्वाधिक पीडि़त है। केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक 2010 से 2018 के दौरान पूरे देश में माओवादी हिंसा में 3,769 लोग मारे गए थे, जिनमें से सर्वाधिक 1,370 मौतें छत्तीसगढ़ में दर्ज की गई थीं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए सरकार के अपने दूसरे कार्यकाल का पहला साल पूरा होने के मौके पर 24 मई, 2010 को प्रेस कांन्फ्रेंस में नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। उनकी इस प्रेस कान्फ्रेंस से करीब डेढ़ महीने पहले ही छह अप्रैल, 2010 को दंतेवाड़ा के सबसे बड़े नक्सल हमले में सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हो गए थे। बस्तर के दरभा में मई, 2013 में नक्सलियों के भीषण हमले में कांग्रेस के अग्रिम पंक्ति के अनेक नेता मारे गए थे।
आखिर ऐसा क्यों हुआ कि नया राज्य बनने के बाद माओवादी या नक्सली हिंसा में कमी के बजाए बढ़ोतरी होती गई? इसका जवाब तलाशने के लिए दिल्ली के नजरिये की नहीं, बस्तर के नजरिये की जरूरत है। बस्तर के सातों जिले आज भी विकास की मुख्यधारा से दूर हैं, तो इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ आर्थिक दूरदृष्टि का न होना भी वजह है। समावेशी विकास की जिस अवधारणा की बात इन दिनों काफी सुनी जाती है, उसका विलोम बस्तर में देखा जा सकता है। वहां खनिज और वन संपदा के असली मालिक आदिवासी ही हाशिये पर ही रहे हैं। माओवाद से निपटने के लिए उन मुद्दों को संबोधित करना ज़रूरी है जो माओवाद के लिए खाद पानी का काम करते रहे हैं। आदिवासियों की ज़मीन वापसी से लेकर वनोपज संग्रहण की राशि में बड़ी वृद्धि या जिला खनिज न्यास (डीएमएफ) का बुनियादी मानवीय जरूरतों में खर्च होना एक सकारात्मक संकेत है।
बस्तर में बड़े उद्योग हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में एनएमडीसी की देश के विकास में बड़ी भूमिका है लेकिन अब इसके निजीकरण का खतरा है। प्रदेश सरकार इसका विरोध कर रही है। औद्योगिक विकास एक अलग तरह के संघर्ष से गुजर रहा है।एक तरफ केवल मुनाफा और दोहन है, दूसरी तरफ है तरह के विकास की कोशिशों के सामने खड़े अवरोध हैं और तीसरी तरफ जनाकक्षाएं हैं।छत्तीसगढ़ के बस्तर जैसे इलाकों की चुनौती इनके बीच अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक सरकार को पहुंचाना है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने हाल ही में बस्तर में नए इस्पात संयंत्र स्थापित करने पर सहमति जताई है। यह मौका है, जब वह ऐसे संयंत्रों में आदिवासियों को मुनाफे का हिस्सेदार बनाकर विकास का एक नया मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं। यह हिस्सेदारी वन और कृषि संपदा को लेकर भी हो सकती है। एक उदाहरण से इसे समझते हैं। बस्तर की इमली न केवल मशहूर है, बल्कि इसका करीब सालाना पांच सौ करोड़ रुपये का कारोबार है। मगर ऐसी लघुवनोपज को जैसे बाजार की जरूरत है, वह नहीं मिला। आखिर बस्तर की इमली की ब्रांडिंग क्यों नहीं की जा सकती? यही बात छत्तीसगढ़ में पाए जाने वाली चावल की विविध किस्मों को लेकर कही जा सकती हैं कि उनकी पेशेवर तरीके से ब्रांडिंग और मार्केटिंग क्यों नहीं की जा सकती। हालांकि हाल के दिनों में भूपेश सरकार ने इस दिशा में भी काम शुरू किया है और उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके सकारात्मक परिणाम भी नजर आएंगे। वन अधिकार पत्र और सामुदायिक वन अधिकार पत्र जैसे कदम और इसके बाद जैव विविधता के संरक्षण की जो योजना बताई जा रही है वो अगर दावे के अनुरूप ही लागू हुई तो निश्चित ही तस्वीर बदलेगी।
दरअसल स्थानीय संसाधनों और संपदा के बेहतर इस्तेमाल और स्थानीय लोगों की साझेदारी से ही छत्तीसगढ़ के विकास की कहानी बदली जा सकती है।
(लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
बिहार के मुंगेर शहर में दशहरा के दिन प्रतिमा विसर्जित करने के दौरान अहिंसक भीड़ पर पुलिसकर्मियों द्वारा लाठीचार्ज व फायरिंग में एक युवक की मौत के बाद राजनीति गर्म हो गई है. बात जनरल डायर से तालिबानी शासन तक पहुंच गई.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार में तीन नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण को देखते हुए राजनीतिक दल रोटियां सेंकने में जुट गए हैं. आरोप-प्रत्यारोप के जरिए चुनावी लाभ लेने की कोशिशों के बीच मुंगेर शहर गुरुवार को फिर सुलग उठा. विसर्जन जुलूस पर फायरिंग की घटना का यहां 28 अक्टूबर को हुए मतदान पर भी खासा असर रहा. मुंगेर के तीन विधानसभा क्षेत्रों में औसतन 46-47 प्रतिशत मतदान हुआ जबकि इसके पड़ोसी जिलों में औसतन यहां से करीब दस फीसद अधिक वोटिंग हुई. चुनाव आयोग ने गुरुवार की घटना के बाद जिलाधिकारी राजेश मीणा तथा पुलिस अधीक्षक लिपि सिंह को हटा दिया है. रचना पाटिल मुंगेर की डीएम तथा मानवजीत सिंह ढिल्लो नए एसपी बनाए गए हैं.
परंपरा तोड़ने से इनकार पर हुई भिड़ंत
दरअसल, 26 अक्टूबर को विजयादशमी के दिन मुंगेर शहर में मां दुर्गा की प्रतिमाओं का विसर्जन हो रहा था. परंपरा के अनुसार बड़ी दुर्गा की प्रतिमा को विसर्जित करने के लिए डोली पर ले जाया जाता है जिसे 32 लोग उठाकर चलते हैं. बड़ी दुर्गा की मूर्ति के विसर्जित होने के बाद ही किसी अन्य प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है. जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था, जबकि पुलिस शंकरपुर दुर्गा पूजा समिति की प्रतिमा को आगे निकाल कर विसर्जन करवाना चाह रही थी. आदेश नहीं मानने पर पुलिस व पूजा समिति के सदस्यों के बीच झड़प हो गई. इसी बीच पुलिस के जवानों ने शहर के दीनदयाल उपाध्याय चौक के पास विसर्जन जुलूस में शामिल लोगों पर लाठीचार्ज कर दिया. लाठीचार्ज होते ही आक्रोशित भीड़ ने पुलिस पर पथराव कर दिया. इस बीच फायरिंग होने लगी.
गोली लगने से अमरनाथ पोद्दार नामक व्यवसायी के 18 वर्षीय पुत्र अनुराग पोद्दार की मौत हो गई. पुलिस ने निहत्थे लोगों पर जमकर लाठियां भांजीं. घटना के बाद वायरल वीडियो पुलिस की बर्बरता बयां करने को काफी है. सात अन्य लोगों को भी गोली लगने की सूचना है. इस संबंध में 30 लोगों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया. इधर पुलिस का कहना था कि गोली भीड़ में से किसी ने चलाई, पुलिस ने फायरिंग नहीं की. मुंगेर की तत्कालीन एसपी लिपि सिंह के अनुसार "विसर्जन के दौरान असामाजिक तत्वों ने निशाना साधकर पुलिसकर्मियों पर पथराव किया. उपद्रवियों की ओर से चली गोली से एक व्यक्ति की मौत हुई. बीस से अधिक जवान भी घायल हुए हैं." मुंगेर चैंबर ऑफ कामर्स ने इस घटना का विरोध करते हुए दोषी पुलिस-प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की तथा अनिश्चितकाल तक मुंगेर बाजार बंद करने का निर्णय लिया.
कार्रवाई न होने से हिंसा पर उतरे लोग
पुलिस बार-बार अपना बचाव करने में जुटी रही. सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो व लोगों के आक्रोश पर आला अधिकारियों ने ध्यान नहीं दिया. अंतत: दो दिन बाद गुरुवार को लोगों का आक्रोश फूट पड़ा. जैसे ही शहर में चुनाव के मौके पर तैनात किए गए अर्द्धसैनिक बलों के दस्ते रवाना हुए, एक और के मौत की अफवाह फैली. उस समय जस्टिस फॉर अनुराग के सदस्य धरना दे रहे थे. इन सदस्यों के साथ ही और कुछ युवा सड़क पर उतर आए. देखते ही देखते भीड़ में सैकड़ों लोग खासकर युवा शामिल हो गए. क्रुद्ध भीड़ ने तीन थानों को फूंक दिया. पुलिस के कई वाहनों तथा थाने के पास जब्त कर रखे गए वाहनों में आग लगा दी.
कई घंटे तक शहर रणक्षेत्र में तब्दील रहा, भीड़ घूम-घूमकर उत्पात मचाती रही. वे शहर की सड़कों पर मुंगेर पुलिस हाय-हाय और मुंगेर एसपी मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए आगजनी करते रहे. आक्रोश का आलम यह था कि नए डीएम-एसपी के आगमन की सूचना मिलने पर भीड़ साफियाबाद हवाई अड्डे पर पहुंच गई और वहां हेलीकॉप्टर को क्षतिग्रस्त कर दिया. इस दौरान अफवाहों ने आग में घी का काम किया. बेकाबू हालात देख डीआइजी मनु महाराज सड़क पर उतरे और स्थिति को नियंत्रित किया. स्थानीय लोगों का कहना था कि फायरिंग व लाठीचार्ज की घटना के बाद से ही पुलिस-प्रशासन के प्रति लोगों में काफी आक्रोश था. दोषी थानेदारों के खिलाफ कार्रवाई न होने से लोग उद्वेलित हो उठे थे. भीड़ ने उन्हीं थानों पर हमला किया जहां के थानेदारों को वे इस घटना के लिए जिम्मेदार मान रहे थे.
सीआईएसफ की रिपोर्ट में पुलिस पर आरोप
हालांकि चुनाव आयोग द्वारा हटाए जाने से पहले डीएम राजेश मीणा व एसपी लिपि सिंह ने दो थानेदारों को लाइन हाजिर करते हुए एसडीओ के नेतृत्व में एसआइटी का गठन करते हुए उन्हें जांच रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दे दिया था. लोगों का कहना था कि यदि दोषी थानेदारों को पहले ही हटा दिया जाता तो मुंगेर शहर गुरुवार को नहीं उबलता. वैसे केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआइएसएफ) की इंटरनल रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है कि 26 अक्टूबर की रात फायरिंग की शुरुआत मुंगेर पुलिस ने ही की थी.
यह रिपोर्ट सीआइएसएफ के एक डीआईजी ने तैयार कर मुख्यालय को भेजी है. इसमें कहा गया है कि रात्रि 11.45 बजे विसर्जन जुलूस में स्थानीय पुलिस व लोगों के बीच विवाद हुआ. उसके बाद लोगों ने पथराव किया. हालात को नियंत्रित करने के लिए स्थानीय पुलिस ने सबसे पहले हवाई फायरिंग की. इसके बाद भीड़ और उग्र हो गई. हालात बेकाबू होते देख विसर्जन जुलूस की सुरक्षा ड्यूटी में तैनात सीआइएसएफ के हेड कांस्टेबल एम गंगैया ने अपनी राइफल से करीब एक दर्जन गोलियां हवा में दागी थी.
मुद्दा बनाने में जुटे राजनीतिक दल
26 अक्टूबर को निहत्थे लोगों पर लाठीचार्ज और फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत को राजनीतिक दल विधानसभा चुनाव के अगले दो चरण को देखते हुए मुद्दा बनाने में जुट गए. मुंगेर के समीपवर्ती कोसी व सीमांचल के इलाके में तीसरे चरण में चुनाव होना है. इस घटना के तुरंत बाद विपक्ष हमलावर हो उठा. राजद व लोजपा ने एसपी लिपि सिंह को बर्खास्त करने तथा घटना की सीबीआई जांच की मांग की. लालू प्रसाद यादव के पुत्र व महागठबंधन में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव ने कहा, "मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जवाब देना चाहिए कि आखिर किसके इशारे पर जनरल डायर बने. इसकी अनुमति उन्हें किसने दी." उन्होंने उपमुख्यमंत्री पर निशाना साधते हुए पूछा कि ट्वीट करने के अलावा उन्होंने इस घटना पर क्या किया? कांग्रेस महासचिव रणदीप सिंह सूरजेवाला ने कहा कि बिहार में निर्दयी कुमार व निर्मम मोदी का शासन है. आश्चर्य है, कोई ऐसा मुख्यमंत्री भी हो सकता है जो मां दुर्गे के भक्तों की हत्या का आदेश देता है. जिन भक्तों के सिर पर माता की लाल चुनरी होनी चाहिए थी उनके सिर पुलिस की लाठियों से लहूलुहान कर दिए गए. कई लोग जो मां दुर्गे की प्रतिमा के पास बैठ गए थे, उन निहत्थे लोगों पर भी बेरहमी से निर्ममतापूर्वक लाठियां बरसाईं गईं. उन्होंने पूछा कि क्या प्रधानमंत्री मोदी नीतीश सरकार को बर्खास्त करने का साहस दिखाएंगे.
मुख्यमंत्री से नाराज चल रहे लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख चिराग पासवान ने भी मुख्यमंत्री की तुलना जनरल डायर से करते हुए कहा कि नीतीश कुमार इन दिनों जनरल डायर की भूमिका में हैं, जिसने जालियांवाला बाग जैसे नरसंहार का आदेश दिया था. मुंगेर की इस घटना के लिए सीधे मुख्यमंत्री जिम्मेदार हैं. श्रद्धालुओं को गोली मारना नीतीश कुमार के तालिबानी शासन का द्योतक है. मुंगेर एसपी को तत्काल निलंबित कर उस पर धारा-302 के तहत मुकदमा दर्ज होना चाहिए. चिराग के आरोपों पर जदयू नेता संजय झा कहते हैं, "अब प्रूव हो गया, ये तेजस्वी की बी टीम है. उसी की मदद के लिए ये सारा खेल खेल रहे हैं." वहीं जदयू के मुख्य प्रवक्ता संजय सिंह विपक्षियों के आरोपों को बेबुनियाद बताते हुए कहते हैं, "राजद नेता तेजस्वी यादव जातीय उन्माद के कंधे पर सवार होकर बिहार फतह करने निकले हैं. उन्हें और कुछ दिखाई नहीं दे रहा." केंद्रीय मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता गिरिराज सिंह ने भी कहा है कि बर्बरता का यह कृत्य दुर्भाग्यपूर्ण है. दोषी चाहे कितना बड़ा भी अधिकारी क्यों न हो, जांच के बाद उसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए.
पहले भी विवादों से घिरी हैं लिपि सिंह
चुनाव का मौसम तो है ही, किंतु दरअसल मुंगेर की तत्कालीन एसपी लिपि सिंह के जदयू नेता व राज्यसभा सदस्य आरसीपी सिंह की पुत्री होने के कारण राजनीतिक दलों ने उन्हें निशाने पर लेते हुए एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है. कांग्रेस नेता रणदीप सिंह सूरजेवाला ने तो मुंगेर में दोबारा हुई घटना के बाद साफ कहा, "मुंगेर की एसपी जदयू के एक बड़े नेता की बेटी है और वहां के डीएम नीतीश कुमार के चहेते." दरअसल लिपि सिंह पहले भी विवादों से घिरी हैं. भारतीय पुलिस सेवा की 2016 बैच की बिहार कैडर की अधिकारी लिपि सिंह पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भी चुनाव कार्य से हटाई गईं थीं. बाहुबली नेता अनंत सिंह की पत्नी व 2019 के लोकसभा चुनाव में बाढ़ से कांग्रेस प्रत्याशी नीलम देवी ने चुनाव आयोग से उनकी शिकायत की थी. उस समय लिपि बाढ़ की एएसपी थीं. नीलम देवी ने आरोप लगाया था कि जदयू नेता आरसीपी सिंह की पुत्री होने के कारण वे चुनाव में गड़बड़ी कर सकतीं हैं तथा वे अनंत सिंह को करीबियों को जान-बूझकर परेशान कर रहीं हैं.
हालांकि चुनाव संपन्न होने के बाद वह फिर से बाढ़ में पुराने पद पर तैनात की गईं तथा बाद में उन्हें प्रोन्नत कर मुंगेर का एसपी बनाया गया. 23 अगस्त, 2019 को वे एकबार फिर चर्चा में आईं जब आर्म्स एक्ट में दिल्ली की साकेत कोर्ट में सरेंडर करने के बाद बाहुबली अनंत सिंह को लाने वे दिल्ली गईं थीं. उस समय उन पर आरोप लगा था कि जिस गाड़ी से वे उन्हें लाने गईं थीं उस पर राज्यसभा का स्टीकर लगा था. विरोधी उनपर यह भी आरोप लगाते रहे हैं कि राजनीतिक रसूख के कारण वे अपने वरीय अधिकारियों की भी नहीं सुनती थीं. हालांकि ऐसा नहीं है कि लिपि सिंह जहां रहीं वहां अपराध नियंत्रण में कमजोर रहीं. उन्होंने भारी मात्रा में आग्नेयास्त्र पकड़े तथा नक्सलियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की. वे कड़क व ईमानदार अधिकारी के रूप में भी चर्चित रहीं हैं. निर्वाचन आयोग ने डीएम-एसपी को हटाकर सख्ती दिखाते हुए पूरे प्रकरण की जांच की जिम्मेदारी मगध के प्रमंडलीय आयुक्त असंगबा चुबा को सौंपी है.(dw.com)
छत्तीसगढ़ स्थापना दिवस : 1 नवम्बर
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्दगिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दी गई।
कोरोना की महामारी न हुई होती तो झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ नवंबर में जोरशोर से अपनी स्थापना की 20वीं वर्षगांठ मना रहे होते। जब इन राज्यों की मांग हुई तो इसके मूल में क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान थी। विकास का नारा तो बाद में जुड़ा। झारखंड और छत्तीसगढ़ के बारे में कहा गया कि ये आदिवासी बहुल इलाके हैं। लेकिन यह सच नहीं। छत्तीसगढ़ में आदिवासी 30.62% और झारखंड में 26.21% हैं। दोनों ही राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग की बहुलता है। उत्तराखंड में सवर्ण जातियां अधिक हैं।
बहुत लोगों को लगता था कि विकास के लिए ज़रूरी है कि राज्य छोटे हों। अब इस बात का आकलन करना चाहिए कि इन तीन राज्यों का कितना विकास हुआ? छोटे राज्यों को लेकर बहसें होती रही हैं। डॉ बी आर आंबेडकर खुद छोटे राज्यों के पक्ष में थे। जब भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तो वे बड़े राज्यों का विरोध कर रहे थे। लेकिन आज यह कहना मुश्किल है कि विकास का कोई एक पैमाना हो सकता है। यदि हरियाणा, पंजाब और केरल-जैसे छोटे राज्यों के उदाहरण हैं तो कर्नाटक और तमिलनाडु-जैसे बड़े राज्यों के भी उदाहरण हमारे सामने हैं।
यह कतई जरूरी नहीं कि छोटे राज्य उन सपनों को पूरा कर सकें जिनको लेकर उनका गठन हुआ। जिस समाज या समूह के विकास को आधार बनाया गया था, उसका इस राह पर चलकर भला ही होगा, यह भी सुनिश्चित नहीं है। तीनों राज्यों के मानव विकास सूचकांक चुगली करते हैं कि छोटे राज्य बनने से उनका भला नहीं हुआ। हालांकि ‘विकास’ के ऐसे ढेर सारे आंकड़े हैं जिससे विकास का भ्रम पैदा हो जाए। उदाहरण के तौर पर, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े। छत्तीसगढ़ जब बना तो प्रति व्यक्ति आय 10,744 रुपये थी जो 2019-20 में बढ़कर 92,413 रुपये हो गई थी। ऐसे ही आंकड़े झारखंड और उत्तराखंड के लिए भी उपलब्ध हैं। लेकिन इसका कोई जवाब नहीं है कि यदि प्रति व्यक्ति आय में इतनी बढ़ोतरी हो रही थी तो फिर छत्तीसगढ़ में गरीबी क्यों बढ़ती रही? क्यों छत्तीसगढ़ 39.9% गरीबों के साथ देश का सबसे गरीब राज्य है? वहां सबसे अधिक 18% लोग झुग्गियों में क्यों रहते हैं? यही हाल झारखंड का है। हालांकि उत्तराखंड ने गरीबी के मामले में अपनी स्थिति सुधार ली है।
आदिवासियों का भी तो भला नहीं हुआ
झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नाम पर बने थे। लेकिन तथ्य बताते हैं कि इन दोनों राज्यों में आदिवासी समुदाय ने ही सबसे अधिक पीड़ा झेली है। झारखंड पिछले दो दशकों में ‘खदानों के नरक’ में बदल गया है। आदिवासी लगातार विस्थापित हुए हैं और अपनी जीवन शैली के साथ उन्हें बहुत समझौता करना पड़ा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पनपने की वजह आदिवासियों का शोषण थी तो अलग राज्य बनने के बाद उनका भला होना चाहिए था और नक्सली गतिविधियां सिमट जानी थीं। लेकिन हुआ इसका एकदम उलट। जब राज्य बना तो तीन विकास खंडों में नक्सली गतिविधियां थीं लेकिन 15 बरस के बीजेपी शासनकाल में राज्य के 14 जिलों में नक्सल समस्या फैल गई।
नक्सलियों से लड़ने के नाम पर सलवा जुडुम की शुरुआत हुई। लेकिन इसके असर से बस्तर में आदिवासियों का सबसे ज्यादा पलायन हुआ। आदिवासियों के 650 से अधिक गांव खाली करवा दिए गए। लगभग तीन लाख आदिवासियों को पलायन करना पड़ा। फर्जी एनकाउंटर, आदिवासियों की प्रताड़ना और गांव जलाने आदि की अनगिनत घटनाएं हुईं।
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्दगिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दिया गया। जिन मूल निवासियों को राज्य के निर्माण का लाभ मिलना था, वे इस विकास की दौड़ के चलते हाशिये पर चले गए। वे भूल ही गए कि नए राज्य का निर्माण उनके लिए भी हुआ था।
ठोस योजना का अभाव
छोटे राज्य बनाने का चाहे जो तर्क दे दीजिए- क्षेत्रीय विकास का असंतुलन, आंतरिक सुरक्षा और जनभावनाएं आदि, लेकिन सच यह है कि नया राज्य बनाने के साथ अगर उस राज्य के विकास का कोई ब्लू- प्रिंट नहीं बना, कोई रोड मैप नहीं बना तो राज्य का हित संभव ही नहीं है। छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड इसके अप्रतिम उदाहरण हैं।
यह कहना गलत होगा कि कुछ हुआ ही नहीं। कुछ तो होना ही था। केंद्र से पैसा सीधे पहुंचा, फैसले लखनऊ, भोपाल और पटना की जगह देहरादून, रायपुर और रांची में होने लगे, परियोजनाओं के लिए बेहतर संसाधन मिले, खनिजों के लिए रॉयल्टी की राशि सीधे मिलने लगी, कुछ उद्योग लगे, थोड़ा रोजगार बढ़ा। लेकिन ये तीनों ही उन राज्यों में तब्दील नहीं हो सके जिसका सपना दिखाया गया था।
तीनों ही राज्यों के शासकों ने कोई ठोस रणनीति या कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया जिससे राज्य एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सके। एक बार नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा था कि 50 के दशक में केरल सरकार ने जिद पकड़ ली कि वे अपनी योजना का सबसे अधिक पैसा शिक्षा और स्वास्थ्य पर लगाएंगे और उसी जिद का परिणाम है कि केरल आज सबसे संपन्न राज्यों की सूची में है।
झारखंड और उत्तराखंड तो राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझते रहे। छत्तीसगढ़ में राजनीतिक अस्थिरता अब तक नहीं है लेकिन इससे राज्य का भाग्य बदला नहीं है।
छत्तीसगढ़ की दूरगामी सोच
वैसे, छत्तीसगढ़ में अब बदलाव के आसार दिख रहे हैं। नई सरकार ठोस और दूरगामी परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम कर रही है। वह आदिवासियों और किसानों की सुधले रही है। नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य की सांस्कृतिक विरासत को भी राजनीति का हिस्सा बनाकर लोगों के मन में एक नई आस जगाई है। उन्होंने बस्तर के लोहांडीगुड़ा में उद्योग के नाम पर ली हुई 1,700 आदिवासी किसानों की जमीन लौटा दी। किसानों को प्रति क्विंटल धान के लिए 2500 रुपये मिल रहे हैं।
तेंदूपत्ता मजदूरों को प्रति मानक बोरा 2500 रुपये की जगह 4000 रुपये मिल रहे हैं। सरकार ने वनोपज खरीद की नीति बदली है जिससे आदिवासियों को लाभ मिला है। नई सरकार छत्तीसगढ़ को बिजली बनाने वाले राज्य से बिजली खपत करने वाले राज्य में बदलना चाहती है।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ‘नरवा गरुवा घुरुवा बारी’ नाम की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की। इसका उद्देश्य वर्षाजल का संचयन कर नदी नालों को पुनर्जीवित करना, गौधन का संवर्धन और घर-घर में पौष्टिक फल सब्जी के उत्पादन को बढ़ावा देना है। इसी के अंतर्गत छत्तीसगढ़ सरकार ने देश में पहली बार गोबर खरीदना शुरू कर दिया है और गांव-गांव में गोशालाएं बन रही हैं। अगर ठीक से अमल हुआ तो छत्तीसगढ़ अगले दशकों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दम पर चलने वाला इकलौता राज्य होगा।
लेकिन, सवाल अकेले छत्तीसगढ़ का नहीं है। यह सवाल झारखंड और उत्तराखंड का भी है। साथ ही देश के उन सभी राज्यों का है जो ठोस और दूरदर्शी योजनाओं के अभाव में पिछड़ रहे हैं। राजनीति चलती रहेगी। चुनाव आते-जाते रहेंगे। सरकारें बनती-बिगड़ती रहेंगीं। लेकिन योजनाएं ऐसी होनी चाहिए जिससे राज्य की जनता का भाग्य बदले, राज्य की अर्थव्यवस्था बदले और इस तरह बदले कि उसका सकारात्मक असर दूर तक दिखाई दे। ये बदलाव हर सूरत में क्रांतिकारी होने चाहिए। तभी बात बनेगी।(लेख अख़बार 'नवजीवन' के सौजन्य से)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार रह चुके हैं, और अभी छत्तीसगढ़ सीएम के राजनीतिक सलाहकार हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर भारतीय विदेश मंत्रालय ने विशेष कूटनीतिक साहस और स्पष्टवादिता का परिचय दिया है। उसने एक बयान जारी करके तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को आड़े हाथों लिया है। भारत सरकार ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुअल मेक्रो का खुलकर समर्थन किया है। मेक्रो ने इधर इस्लामी अतिवाद के खिलाफ अपने देश में जो अभियान चलाया है, उसका समर्थन सभी यूरोपीय देश कर रहे हैं। फ्रांस के एक अध्यापक की हत्या एक मुस्लिम युवक ने इसलिए कर दी थी कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मोहम्मद के कुछ कार्टून दिखा दिए थे। यहां असली सवाल यह है कि फ्रांस या यूरोप की घटनाओं से भारत का क्या लेना-देना? वहां के अंदरुनी मामलों में भारत टांग क्यों अड़ा रहा है ? इसके कई कारण है। पहला यह कि भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला आज ही फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन की यात्रा पर जा रहे हैं। इन तीनों देशों से भारत के घनिष्ट संबंध हैं और ये तीनों देश इस्लामी आतंकवाद की मार भुगत चुके हैं। इन देशों में पूछा जाएगा कि आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार भारत है और वह इस मामले पर चुप क्यों है ?
दूसरा, तुर्की और पाकिस्तान दोनों ही मिलकर कश्मीर के सवाल पर भारत पर कीचड़ उछालने से बाज नहीं आते तो भारत भी उनकी टांग खींचने का मौका क्यों चूके ? तीसरा, यह यूरोप का आंतरिक मामला भर नहीं है। इस्लामी उग्रवाद ने दुनिया के किसी महाद्वीप को अछूता नहीं छोड़ा है। यदि भारत में आतंकवाद की कोई घटना होती है तो यूरोपीय राष्ट्र हमारे पक्ष में बयान जारी करते हैं तो अब मौका आने पर भारत भी अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है। 2015 में फ्रांसीसी पत्रिका ‘चार्ली हेब्दो’ के 12 पत्रकारों की हत्या की गई थी, तब भी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस्लामी आतंकवाद की खुली भत्र्सना की थी। ‘इस्लामी’ शब्द का प्रयोग न तब किया गया था और न ही अब किया गया है। भारत सरकार का यह रवैया राष्ट्रहित और तर्क की दृष्टि से ठीक मालूम पड़ता है लेकिन मुझे यह अधूरा भी लगता है। भारत जैसे महान सांस्कृतिक राष्ट्र से यह आशा की जाती है कि वह यह सीख उन्हें दे कि वे दूसरों की भावना का भी सम्मान करें। यदि पैगंबर मोहम्मद के चित्र या कार्टून से मुसलमानों को पीड़ा होती है तो ऐसे काम को टालने में कौनसी बुराई है या हानि है ? कौनसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इससे खत्म होगी ? दूसरों का दिल दुखाना ही क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ?
किसी भी संप्रदाय या मजहब के गुण-दोषों पर आलोचनात्मक बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन उसका लक्ष्य उनका अपमान करना नहीं होना चाहिए। तुलसीदास का यह कथन ध्यातव्य है— ‘परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।’ यह सही समय है जबकि यूरोपीय राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र अतिवाद को छोड़ें और मध्यम मार्ग अपनाएं। ईसा मसीह और पैगंबर मोहम्मद के प्रति सच्ची भक्ति इसी मार्ग में है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले साल जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और 35 ए हटी तो अब उसके तार्किक परिणाम सामने आए बिना कैसे रह सकते हैं। अब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में अन्य प्रांतों के लोगों को ज़मीन खरीदने और मकान बनाकर रहने का अधिकार दे दिया है। इस संबंध में कश्मीर के मूल निवासी होने की शर्त को हटा लिया गया है। सरकार का मानना है कि इस नए प्रावधान की वजह से कश्मीरियों को रोजगार के अपूर्व अवसर मिलेंगे, उन्हें अपने प्रदेश में रहते हुए प्रचुर नौकरियां मिलेंगी, देश-विदेश के बड़े-बड़े उद्योग वहां फले-फूलेंगे और यदि ऐसा होगा तो इसमें मैं यह जोड़ दूं कि कश्मीर को केंद्र सरकार के आगे हर साल हाथ फैलाने की जरुरत नहीं होगी। कश्मीरी नेताओं ने इस नए प्रावधान को बहुत घातक बताया है।
उनका कहना है कि भारत सरकार ने कश्मीर को नीलाम करने की अब ठान ली है। अब कश्मीर पूंजीपतियों के हाथ बिक जाएगा। कश्मीरी नेता अब शायद इस आशंका से भी ग्रस्त होंगे कि जब कश्मीर की अपनी आमदनी बहुत बड़ी हो जाएगी तो केंद्र से करोड़ों-अरबों की मदद घट जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो नेतागण अपना हाथ कैसे साफ करेंगे ? कश्मीरी नेताओं को यह डर भी सता सकता है कि कश्मीर की सुंदरता पर फिदा देश के मालदार और दिलदार नागरिक इतनी बड़ी संख्या में वहां आ बसेंगे कि कहीं कश्मीरी मुसलमान अल्पमत में न चले जाएं। चीन के शिनच्यांग और सोवियत संघ के पांचों मुस्लिम गणतंत्रों की मिसाल उनके सामने है। उनका डर जायज है। इसीलिए बेहतर हो कि केंद्र सरकार गैर-कश्मीरियों के वहां बसने पर कड़ा नियंत्रण रखे, जैसा कि नागालैंड और मणिपुर- जैसे पूर्वी सीमांत के प्रांतों में है।
वैसे केंद्र सरकार ने अभी से यह प्रावधान तो कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर की खेतिहर जमीन को कोई गैर-कश्मीरी नहीं खरीद सकेगा और वहां मकान या दफ्तर या कल-कारखाने नहीं लगा सकेगा। हां, अस्पतालों और स्कूलों के लिए कृषि-भूमि दी जा सकती है लेकिन उसके लिए सरकारी अनुमति जरुरी होगी। कश्मीर में बसे बाहरी किसान एक-दूसरे की जमीन अब खरीद-बेच सकेंगे। जमीन की खरीद-फरोख्त संबंधित पुराने 12 कानून निरस्त कर दिए गए हैं। अब जैसे कश्मीरी नागरिक भारत में कहीं भी ज़मीन खरीद-बेच सकता है, लगभग वैसा ही अब किसी अन्य प्रांत का नागरिक कश्मीर में कर सकता है। फिलहाल, कश्मीरियों को यह प्रावधान बुरा जरुर लगेगा लेकिन उनकी पहचान, उनकी अस्मिता, उनके गौरव को दिल्ली की कोई भी सरकार कभी नष्ट नहीं होने देगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिव्या आर्य
2014 की गर्मियाँ थीं. दिल्ली में चलती बस में सामूहिक बलात्कार के बाद 'निर्भया' की मौत और उसके बाद यौन हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानूनों को कड़ा किए जाने को एक साल से ज़्यादा हो गया था.
इसी दौरान उत्तर प्रदेश के बदायूं में एक पेड़ पर दो चचेरी बहनों के शव लटके पाए गए और ये भी आरोप लगे कि उनके साथ बलात्कार हुआ था.
दिल्ली से बदायूं के कटरा शहादतगंज गाँव का क़रीब आठ घंटे का सफ़र तय कर वहाँ पहुँचने वाले पहले पत्रकारों में मैं भी थी.
उसी पेड़ के नीचे उन लड़कियों में से एक के पिता ने मुझसे कहा था कि पिछड़ी जाति का होने की वजह से उनकी सुनवाई नहीं हुई, पुलिस ने समय रहते मदद नहीं की और बेटियों की जान चली गई.
यौन हिंसा के ख़िलाफ़ आम लोगों में ख़ूब ग़ुस्सा था. मीडिया का जमावड़ा हुआ, सरकार से सवाल पूछे गए और बलात्कार के मामले में कड़े क़ानूनों और जल्द इंसाफ़ के लिए आवाज़ उठी.
लापरवाही और आपराधिक षडयंत्र के आरोप में दो पुलिसकर्मी और सामूहिक बलात्कार और हत्या के आरोप में उसी गाँव के तीन भाई गिरफ़्तार कर लिए गए. सीबीआई को जाँच सौंपी गई और सुनवाई विशेष पॉक्सो अदालत में हुई.
लेकिन छह साल से ज़्यादा वक़्त बीतने के बाद भी बदायूं की इन बहनों का ये मुक़दमा जारी है.
लड़कियों के पिता को फ़ोन लगाया तो उन्होंने कहा, "न्याय का पता नहीं... अब देखो, क्या बताएँ. हर तारीख़ पर जाते हैं, जाना मजबूरी है. जब तक साँस चलेगी, तब तक जाते रहेंगे. मैं भीख मांगूँ चाहे जो हो, मन में है कि सच की विजय होगी."
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक़ अदालतों में बलात्कार के लंबित मुक़दमों की संख़्या साल 2013 से लगातार बढ़ी है. साल 2019 के अंत में क़रीब डेढ़ लाख मुक़दमे लंबित थे.
लेकिन बदायूं का मुक़दमा इनमें शामिल ही नहीं है. क्योंकि न्यायिक प्रक्रिया के दौरान उसमें से बलात्कार और हत्या की धाराएँ ही हटा दी गईं हैं.
छह साल का बदायूं केस का सफ़र, भारत में बलात्कार के मामलों में इसांफ़ की लंबी, रेंगती लड़ाई की कहानी बताता है.
बलात्कार के पेंडिंग मामले

कैसे हटी बलात्कार की धारा?
लड़कियों के परिवार के स्थानीय पुलिस पर जातिगत भेदभाव और लापरवाही का आरोप लगाने और निष्पक्ष जाँच की मांग करने पर बदायूं केस जून 2014 में ही सीबीआई को सौंप दिया गया था.
सीबीआई ने पीड़िता के परिवारवालों का ही लाई-डिटेक्टर टेस्ट करवाया.
पहले पोस्टमार्टम में बलात्कार और हत्या के साक्ष्य मिलने की बात कही गई थी. लेकिन उसे रात में और कम अनुभवी डॉक्टर द्वारा किए जाने का दावा करते हुए जुलाई में सीबीआई ने दूसरे पोस्टमार्टम की मांग की.
इसके लिए क़ब्र से शव निकलवाने के लिए परिवार से सहमति नहीं ली गई थी. उस समय सीबीआई प्रवक्ता कंचन प्रसाद ने बीबीसी से कहा था कि इसकी ज़रूरत नहीं है.
लेकिन लड़कियों को जहाँ दफ़नाया गया था, उस घाट पर बाढ़ का पानी भर जाने से शव नहीं निकाले जा सके और दोबारा पोस्टमार्टम नहीं हो पाया.
छह महीने से कम समय में अपनी तहक़ीक़ात पूरी करने के बाद दिसंबर 2014 में सीबीआई ने इसे 'आत्महत्या' का मामला बता कर और बलात्कार की पुष्टि ना होने की वजह से 'क्लोज़र रिपोर्ट' दाख़िल कर दी.
पीड़िता के पिता के मन में ग़ुस्सा और दुख दोनों हैं. वो कहते हैं, "हाथरस वाला परिवार भी सीबीआई जाँच से आस लगाए बैठा है, वो कुछ नहीं होने देंगे, हमारा कुछ नहीं किया, बल्कि हत्या को आत्महत्या बता दिया."

वो पेड़ जिस पर दो चचेरी बहनों का शव लटकता पाया गया था.
पीड़ित परिवार ने बदायूं की पॉक्सो अदालत में 'क्लोज़र रिपोर्ट' को ख़ारिज किए जाने की याचिका दाख़िल की.
नौ महीने बाद अदालत ने परिवार के हक़ में फ़ैसला देते हुए अक्तूबर 2015 में सीबीआई की 'क्लोज़र रिपोर्ट' ख़ारिज कर दी और मुख़्य अभियुक्त पप्पू यादव को तलब किया.
लेकिन अब केस काफ़ी कमज़ोर हो गया था. अदालत ने केस चलाने का फ़ैसला तो किया, लेकिन सीबीआई की बात मानते हुए बलात्कार और हत्या की धाराएँ हटा दीं. बाक़ी चार अभियुक्तों के ख़िलाफ़ पर्याप्त साक्ष्य ना होने की वजह से सिर्फ़ पप्पू यादव को बुलाया. कुछ दिन की क़ैद के बाद पप्पू को भी ज़मानत मिल गई.
पीड़ित परिवार के वकील ज्ञान सिंह ने बताया, "अब केस से बलात्कार, हत्या और आपराधिक षडयंत्र की धाराएँ हटा दी गई हैं, सिर्फ़ आईपीसी की 354, 363, 366 और पॉक्सो ऐक्ट की धारा 7 और 8 बची हैं, इसीलिए परिवार ने इस फ़ैसले को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट में एक और मुक़दमा दायर किया."

बदायूं की पीड़िता में से एक की दादी
शुरू हुआ एक और मुक़दमा
साल 2016 में पीड़िता के परिवार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर कर बदायूं केस में धाराएँ बढ़ाने और सभी पाँच अभियुक्तों को दोबारा तलब किए जाने की मांग की.
धाराएँ बदलने का सीधा संबंध सज़ा की मियाद से है. भारतीय दंड संहिता की धारा 376 यानी बलात्कार के लिए कम से कम सात साल की सज़ा से लेकर अधिकतम उम्र क़ैद का प्रावधान है.
हत्या का आरोप सिद्ध होने पर धारा 302 के तहत अधिकतम मौत की सज़ा का प्रावधान है. वहीं महिला की मर्यादा भंग करने के इरादे से किए हमले की धारा 354 में दो साल, पॉक्सो ऐक्ट की धारा 7 और 8 के तहत तीन से पाँच साल, और अगवा करने से संबंधित धारा 363 और 366 में अधिकतम 10 साल की सज़ा का प्रावधान है.
उधर पप्पू के परिवार ने भी एक याचिका दायर की और कहा कि जब बाक़ी चार अभियुक्तों को छोड़ दिया गया है, तो उन्हें भी बरी कर दिया जाए.
दोनों मामलों को जोड़कर सुनवाई शुरू हुई और चार साल के बाद सुनवाई अब भी चल ही रही है. इस साल कोरोना महामारी के कारण लगे लॉकडाउन ने केस की गति और धीमी कर दी.
हाई कोर्ट में केस की पैरवी कर रहे वकील अमर बहादुर मौर्य ने बताया, "अब हाई कोर्ट में 'अर्जेंट' मामलों की सुनवाई शुरू हुई है लेकिन इस केस के लिए अगली तारीख़ मिलने का इंतज़ार है."
उधर पॉक्सो कोर्ट की कार्रवाई, हाई कोर्ट के फ़ैसले के इंतज़ार में रुक गई.

पोक्सो कोर्ट का आदेश
गाँव में क्या बदला?
पीड़िता के ही बराबर का उनका एक भाई, जिनकी उम्र तब 16 साल थी, वो अब 22 साल के हो गए हैं. एक बड़े शहर में नौकरी करने लगे हैं.
उनसे मिली, तो उन्होंने बताया कि इस पूरे मामले ने उनकी शख़्सियत पर बड़ा असर डाला है और अब वो किसी से डरते नहीं है.
उन्होंने कहा, "मुझे लगता था कि न्याय जल्दी मिलेगा, अब लगता है कि ना जाने कब मिलेगा. बस हासिल ये हुआ कि मुझे किसी चीज़ का डर नहीं है. पढ़ लिख गया हूँ और अनुभव भी हो गए हैं. कहीं भी जा सकता हूं. कचहरी, पुलिस, मीडिया के सामने कहीं भी खड़ा कर दो. मैं नहीं घबराता."
साल 2015 में, सीबीआई की क्लोज़र रिपोर्ट दाख़िल होने को बाद, मैं उनके गाँव कटरा शहादतगंज गई थी. तब वहाँ एक और बदलाव देखने को मिला था.
गाँव के एक-चौथाई घरों में शौचालय बन गए थे. साल 2014 में लड़कियों पर हमले के बारे में कहा गया था कि ये तब हुआ जब वो खेत में शौच करने गईं थीं. उसके बाद सुरक्षा के मद्देनज़र शौचालय बनवाने की मांग उठी.
पीड़िता के भाई के मुताबिक़ बीते सालों में और शौचालय नहीं बने, "बस एक नियम बन गया है कि लड़की घर से बाहर किसी परिवारवाले के बिना नहीं निकलेगी".
जैसा अक़्सर होता है, सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी लड़कियों पर निगरानी रखकर निभाई जाती है. लड़कों के आने-जाने पर रोक-टोक लगाने का कोई चलन नहीं है.
भाई की शादी अब तक नहीं हुई है. वो बताते हैं कि गाँव में अब बाहर से लोग अपनी बेटियाँ देने में कतराते हैं.
वो कहते हैं, "यहाँ लड़कियों की इज़्ज़त नहीं है, उन्हें मार दिया जाता है."

गांव के घरों में अब शौचालय बन गए हैं.
कड़े क़ानून से फ़ायदा मिला?
दिल्ली गैंगरेप से पहले ही साल 2012 में सरकार ने बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के लिए ख़ास क़ानून पॉक्सो ऐक्ट पारित किया था.
इसके तहत दर्ज किए जानेवाले मामलों के लिए विशेष अदालतों का प्रावधान बनाया गया था और अपराध के कॉग्निज़ेबल यानी संज्ञेय तय होने के बाद, सुनवाई जहाँ तक हो सके, एक साल में पूरी किए जाने की हिदायत दी गई थी.
वकील ज्ञान सिंह से जब मैंने पूछा कि पॉक्सो कोर्ट में अलग क्या होता है तो उन्होंने कहा, "कुछ ख़ास नहीं, ये भी आम कोर्ट की ही तरह होते हैं, वही जज होते हैं, वही वकील. बस अन्य कोर्ट की तुलना में केस थोड़ा जल्दी चलता है."
इस 'थोड़ा' को उन्होंने परिभाषित नहीं किया.
सरकार ने औरतों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के मामलों में न्यायिक प्रक्रिया को तेज़ करने के मक़सद से उनकी सुनवाई के लिए 'फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट' चिन्हित किए हैं.
मानवाधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मामलों पर काम करनेवाली संस्था 'लॉयर्स कलेक्टिव' में वकील अमृता नंदा कहती हैं, "इस योजना के तहत कोई नई अदालतें नहीं बनाई गईं, ना ही कोई मूलभूत सुविधाओं में तब्दीली आई है, बस पहले से काम कर रहीं अदालतों को विशेष ज़िम्मेदारी दे दी गई है."
साल 2014-15 में 'पार्टनर्स फ़ॉर लॉ इन डेवलपमेंट' के भारत सरकार के साथ किए गए एक शोध के मुताबिक़ फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के बेहतर काम करने के लिए जाँच प्रक्रिया के कई ढाँचों को बेहतर करने की ज़रूरत है.
मसलन टेस्टिंग की रिपोर्ट जल्दी आएँ, उसके लिए फ़ॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरीज़ की संख्या और स्टाफ़ बढ़ाए जाएँ, जिन सबके बिना सुनवाई की मियाद कम करना मुश्किल है.
अमृता नंदा के मुताबिक़ बलात्कार के सभी मामले फ़ास्ट ट्रैक या पॉक्सो अदालत में भेजे जाएँ, ये ज़रूरी भी नहीं है.
जिन मामलों में हुई सज़ा

इंसाफ़ का इंतज़ार
पिछले साल, जून 2019 में संसद में दिए एक जवाब में क़ानून मंत्रालय ने बताया था कि 20 राज्यों और केंद्र शासित राज्यों में एक भी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट नहीं था.
इसके बाद मंत्रालय ने 1,023 नए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए जाने की योजना का ऐलान किया. इसमें 389 सिर्फ़ पॉक्सो मामलों के लिए और 634 बलात्कार और पॉक्सो दोनों तरह के मामलों के लिए चिन्हित किए गए.
बदायूं में भी मुक़दमों की संख्या ज़्यादा होने की वजह से पॉक्सो अदालत की संख़्या एक से बढ़ाकर तीन कर दी गई है.
लेकिन फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट से न्याय मिल जाए, ये ज़रूरी नहीं.
'सेंटर फ़ॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च' ने साल 2013-14 में कर्नाटक के 10 फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में तय हुए 107 और एक पॉक्सो कोर्ट में तय हुए 51 फ़ैसलों का अध्ययन किया है.
उन्हें फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में 'कन्विक्शन रेट' 17 फ़ीसदी और पॉक्सो कोर्ट में 7 फ़ीसदी मिला. एनसीआरबी के मुताबिक़ साल 2014 में बलात्कार के मामलों में 'कन्विक्शन रेट' की राष्ट्रीय औसत 28 फ़ीसदी थी.
रिपोर्ट ने पाया कि गवाहों का पलटना और पर्याप्त मेडिकल सबूत ना मिल पाना इसकी एक बड़ी वजह रही.
बदायूं की चचेरी बहनों के मामले में भी पोस्टमॉर्टम और एफ़एसएल रिपोर्ट में पर्याप्त सबूत ना मिलने और उनके सही तरीक़े से इकट्ठा ना किए जाने के सवाल पर ही बलात्कार की धारा को हटाया गया है.
छह साल से ज़्यादा वक्त से विशेष पॉक्सो कोर्ट के चक्कर लगा रहे पीड़िता के भाई ने कहा, "क़ानून तो बना दिए जाते हैं, लेकिन केस को फिर भी 10-10 साल लग जाते हैं."
"लेकिन हम निर्भया का मामला देखते हैं. वहाँ भी वक़्त लगा, लेकिन न्याय मिला. न्याय पर मेरी उम्मीद भी अब तक क़ायम है." (bbc.com/hindi)
-मनीष सिंह
मुम्बई की बांद्रा कुर्ला कॉम्लेक्स की ये इमारत.. ये आईसीआईसीआई बैंक का मुख्यालय है।
क्या आप बता सकते हैं कि इसका मालिक कौन है? अगर नहीं, तो नीचे इस बैंक के मालिकाना हक का पैटर्न देखिये। कुछ पता चला ?
एंटीलिया की फोटो नहीं लगाई। लेकिन उसके मालिक का नाम आप जानते हैं। रिलायंस का शेयर होल्डिंग पैटर्न देखिये। प्रमोटर, पचास फीसदी का मालिक मिलेगा।
इन दो उदाहरण से समझिये की भारत वैश्विक पटल पर छाने की तमाम योग्यता के बावजूद, हम हिंदुस्तानियों के किस कुटैव के कारण पिछड़ा हुआ है।
पहले बात आईसीआईसीआई की, जिसे आप 15-20 साल पुराना एक प्राइवेट बैंक, समझते हैं। इसकी शुरुआत नेहरू दौर में हुई।
जी हां, नेहरु का विजन समझिये। आजादी के बाद 400 से ऊपर छोटे बड़े बैंक थे, जिनकी पूंजी और रिस्क ढोने की क्षमता कम थी। तब भारत में उद्योग नहीं थे, न उद्यमियों उद्योग के लिए बैंक क्रेडिट मिल पाता तब सरकार ने एक वित्तीय संस्था बनाई- इंडस्ट्रियल क्रेडिट एन्ड इन्वेस्टमेंट कारपोरेशन ऑफ इंडिया- आईसीआईसीआई इसमें विश्व बैंक और कुछ बैंकों ने प्रारम्भिक पूंजी दी। कारपोरेशन ने बड़े उद्योगों को फाइनांस देना शुरू किया। जैसे आजकल माइक्रोफाइनेंस वाले घूम-घूमकर लोगों को कर्ज देते हैं, उसी तरह इसने बड़े उद्योगों को आसान फाइनेंस देना शुरू किया। यह एक पीएसयू ही समझिये। दूसरी सरकारी पीएसयू की तरह इसने भी मुनाफा कमाया।
फिर लिब्रेलाइजेशन का दौर आया। इसमें सरकार ने प्रॉपर बैंक का दर्जा दिया। फिर अपनी हिस्सेदारी बेच दी। तमाम म्युचुअल फंड, आम जनता और संस्थागत क्रेताओं ने हिस्सेदारी खरीदी। प्रोफेशनल मैनेजमेंट हायर किया। टेक्नोलॉजी और आईटी को सबसे पहले अपनाया।
नतीजा आईसीआईसीआई सबके लिए मुनाफे का सौदा रहा। यह देश का सबसे बड़ा प्राइवेट बैंक है। पर इसका माई-बाप कोई एक आदमी नहीं, कोई परिवार नहीं। यह सही मायनों में एक कारपोरेशन है। दुनिया भर में इसकी शाखाएं हैं, वित्त (सेविंग, इन्वेस्टमेंट, क्रेडिट, इंश्योरेंस, रेमिटेंस) के हर क्षेत्र में दखल है।
इसके प्रोफेशनल लोग चलाते हैं। सैलरी लेते हैं, बात खत्म। चन्दा कोचर जैसे लोग भी इसके शीर्ष पर आए। 400-500 करोड़ के कर्ज में लफड़ा किया। कान पकडक़र निकाल दिया शेयरहोल्डर्स ने .. कभी सोचा है कि वक्त रहते अनिल अम्बानी, विजय माल्या, नरेश गोयल (जेट) के कान पकडक़र बाहर कर दिया गया होता, तो क्या उनकी कम्पनी डूबती।
मगर यह वंशवादी कारपोरेट में सम्भव नहीं। यहाँ ही मालिक जिएगा, कम्पनी ही मरेगी।
जॉन डी रॉकफेलर शून्य से शिखर पर पहुंचने वाले ऐसे उद्योगपति रहे जिनकी दौलत आज के चालीस-पचास बिल गेट्स के बराबर रही होगी। स्टेंडर्ड आयल नाम की कम्पनी थी। परिवार के लिए मोटा इंतजाम किया और बाकी एक फाउंडेशन में डाल दिया।
उस ब्याज के पैसे से आज भी रॉकफेलर का नाम जिंदा है। पर उस फाउंडेशन के बोर्ड में कोई रॉकफेलर नहीं। फोर्ड मोटर्स में कोई फोर्ड नहीं। फेरारी में कोई फेरारी नहीं। हैरॉड्स का मालिक हैरोड नहीं।
ब्रांड बनते हैं, कम्पनी चढ़ती है। जब कम्पनी एक व्यक्ति की सक्षमता से ऊपर हो जाती है, मालिक ‘लेट इट गो’ करते हैं। कम्पनी समाज की, इन्वेस्टर की, बोर्ड की हो जाती है। यह योरोपियन/अमेरिकन पैटर्न है। इसलिए कम्पनी 100 बरस जीती है। मालिक के शेयर उसकी प्रोपर्टी होते हैं, कम्पनी लेगेसी होती है।
मालिक, शेयरहोल्डर बदलते रहते हैं। ओरिजिनल या परिवर्तित रूपों में.. लेगेसी चलती रहती है।
हमारे यहां कम्पनी के शेयर नहीं, कम्पनी इटसेल्फ एक प्रॉपर्टी समझी जाती है। जिसे 100 बरसों में 100 गुना बढक़र दुनिया पर छा जाना चाहिए, वह चार पीढ़ी में चालीस टुकड़ों में बंट जाती है। रिलायन्स का ही देखिये। दो भाइयों में बंटी, एक भाई का हिस्सा डूब चुका।
दूसरे भाई के भी दो बच्चे हैं। आगे उनके भी 2-2 तो होंगे। तो फिर कम्पनी भी बटेगी, देहात में जमीन के बंटवारे की तरह,100 एकड़ खेती, पीढ़ी दर पीढ़ी 50-25-12 ... कम्पनी को घटना है, बढऩा नहीं। बंटे हुए में कुछ हिस्से अनिल की तरह डूबेंगे भी। आखिर गलत निर्णय के कारण उन्हें चन्दा कोचर या स्टीव जॉब्स की तरह कम्पनी से निकाला तो जा नहीं सकता।
तो भारत में 100 साल से पुरानी कम्पनियों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती है। उनमें भी इतनी लंबी उम्र का फायदा उठाकर विश्वव्यापी बनने वाली सिर्फ टाटा है। वह रॉकफेलर मॉडल पर चलती है। परिवार, पीढ़ी दर पीढ़ी शेयर बांट लेता है, मगर कम्पनी नहीं। नतीजा ढाई परसेंट शेयर का मालिक रतन टाटा अनडिस्प्यूटेड चेयरमैन है।
गूगल से लेकर माइक्रोसॉफ्ट तक कम्पनियों को चलाने वाले भारतीय सीईओ, निपोटिज्म के इस कीड़े की वजह से भारत में कोई मल्टीनेशनल कारपोरेशन और वैश्विक ब्रांड खड़ा करने का मौका नहीं पाते।
सावर्जनिक/ सरकारी पृष्ठभूमि से उपजा आईसीआईसीआई एक ग्लोबल कारपोरेशन बन रहा है। शायद एयर इंडिया भी संवर जाए, क्योंकि उसे खरीदने की हिम्मत इंडियन ‘बाप-बेटा कार्पोरेट्स’ नहीं करेंगे। पर वो सेटिंग से, दुधारू गाय यानी भारत पेट्रोलियम खरीदने को सारे घोड़े खोल देंगे।
जरा सोचिए, कितना मजेदार विरोधाभास है। यह काम एक ऐसे दल की सरकार जबरन करेगी, जिसके शीर्ष पद पर परिवारवाद नहीं है। पर तब भी
आईसीआईसीआई की यह इमारत बुलन्द खड़ी रहेगी, जिसे बनाया और फिर लिब्रेलाइजेशन के नारे के साथ जनता के नाम किया था, एक ऐसे दल ने, जिसके शीर्ष पद पर एक परिवार का राज चलता है।
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
दिल्ली एनसीआर के फरीदाबाद में दिन दहाड़े एक 21 वर्षीय छात्रा को गोली मार देने की घटना से महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े कई प्रश्न एक बार फिर खड़े हो गए हैं. हमलावर ने 2018 में उसी महिला का अपहरण भी किया था.
निकिता तोमर को फरीदाबाद जिले के बल्लबगढ़ में उन्ही के कॉलेज के बाहर गोली मारी गई. घटना में तौसीफ और रिहान नामक दो लड़के शामिल थे और दोनों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है.
सोशल मीडिया पर वायरल हुए घटना के वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि दोनों युवक निकिता को जबरदस्ती एक गाड़ी के अंदर डालने का प्रयास करते हैं, निकिता खुद को उनसे छुड़ा कर भागती है और दोनों युवक फिर उसे गोली मार कर गाड़ी में सवार होकर फरार हो जाते हैं. निकिता की बाद में एक अस्पताल में मौत हो गई.
Correction: The prime accused's name is Tauseef. He has been arrested. His associate, Rehan, seen in cctv too, arrested as well. https://t.co/FamS1Jx39V
— Raj Shekhar Jha (@rajshekharTOI) October 27, 2020
दोनों लड़कों की गिरफ्तारी के बाद पता चला कि तौसीफ को 2018 में निकिता के ही अपहरण के जुर्म में जेल हुई थी. निकिता के परिवार के अनुसार तौसीफ उस से शादी करना चाहता था और उसे जबरदस्ती मनाने के उद्देश्य से उसने उसका अपहरण कर लिया था.
परिवार ने उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत भी की लेकिन बाद में निकिता की बदनामी के डर से शिकायत वापस ले ली. महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के आंकड़े भी यह दिखाते हैं कि बड़ी संख्या में इन मामलों में हमलावर महिला का जानकार ही होता है. पीड़िता और उसका परिवार अक्सर समाज के डर से या दबाव में आ कर पुलिस के पास नहीं जाते.
जानकारों का कहना है कि यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक बार अपहरण कर लेने के बावजूद तौसीफ को दोबारा अपराध को अंजाम देने का मौका मिला और उसने महिला की जान ही ले ली. इससे पुलिस, तौसीफ के परिवार और निकिता के परिवार को लेकर भी कई प्रश्न खड़े होते हैं.
जैसे एक बार अपराध कर लेने के बाद भी तौसीफ पुलिस की नजर में क्यों नहीं आया और उसके परिवार ने भी यह कैसे नहीं जाना कि वो अपराध की तरफ बढ़ रहा है. निकिता के परिवार के लिए भी यह अफसोस करने की बात है कि अगर उन्होंने तौसीफ के खिलाफ 2018 में की गई अपनी शिकायत वापस ना ली होती तो शायद आज हालात कुछ और होते.(dw.com)
- राम पुनियानी
रूसी मूल के 18 साल के मुस्लिम किशोर द्वारा फ्रांस के स्कूल शिक्षक सेम्युअल पेटी की हत्या ने एक अंतर्राष्ट्रीय विवाद को जन्म दे दिया है। एक ओर फ्रांस के राष्ट्रपति ने मृत शिक्षक का समर्थन करते हुए राजनैतिक इस्लाम का मुकाबला करने की घोषणा की है, तो दूसरी ओर तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन ने फ्रांस के राष्ट्रपति के बारे में अत्यधिक अपमानजनक टिप्पणी की है। प्रतिक्रिया स्वरूप, फ्रांस ने तुर्की से अपने राजदूत को वापस बुला लिया है।
इस बीच अनेक मुस्लिम देशों ने फ्रांस के उत्पादों का बहिष्कार करना प्रारंभ कर दिया है। इसके साथ ही अनेक मुस्लिम देशों ने फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों के खिलाफ अपना आक्रोश व्यक्त किया है। पाकिस्तान, बांग्लादेश समेत कई मुस्लिम देशों में विरोध प्रकट करने के लिए लोग सड़कों पर भी उतरे। बांग्लादेश की राजधानी ढाका में तो मंगलवार को विरोध प्रदर्शन में सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा।
फ्रांस के स्कूल शिक्षक सेम्युअल पेटी अपनी कक्षा में अभिव्यक्ति की आजादी का महत्व समझा रहे थे और अपने तर्कों के समर्थन में उन्होंने ‘शार्ली हेब्दो’ में प्रकाशित कार्टून बच्चों को दिखाए। इसके पहले उन्होंने कक्षा के मुस्लिम विद्यार्थियों से कहा कि अगर वे चाहें तो क्लास से बाहर जा सकते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि शार्ली हेब्दो के कार्टूनिस्टों की 2015 में हुई हत्या का मुकदमा अदालत में प्रारंभ होने वाला है।
इस संदर्भ में यह जिक्र करना भी उचित होगा कि शार्ली हेब्दो ने पैगम्बर का उपहास करने वाले कार्टूनों का पुनर्प्रकाशन किया था। ये कार्टून इस्लाम और पैगम्बर मोहम्मद को आतंकवाद से जोड़ते हैं। इन कार्टूनों की पृष्ठभूमि में 9/11 का आतंकी हमला है, जिसके बाद अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द गढ़ा और यह शब्द जल्दी ही काफी प्रचलित हो गया। शार्ली हेब्दो में इन कार्टूनों के प्रकाशन के बाद पत्रिका के कार्यालय पर हमला हुआ, जिसमें उसके 12 कार्टूनिस्ट मारे गए। इस हिंसक हमले की जिम्मेदारी अलकायदा ने ली थी।
यहां यह उल्लेखनीय है कि अलकायदा को पाकिस्तान स्थित कुछ मदरसों में बढ़ावा दिया गया। इन मदरसों में इस्लाम के सलाफी संस्करण का उपयोग, मुस्लिम युवकों के वैचारिक प्रशिक्षण के लिए किया जाता था। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इन मदरसों का पाठ्यक्रम वाशिंगटन में तैयार हुआ था। अलकायदा में शामिल हुए व्यक्तियों के प्रशिक्षण के लिए अमेरिका ने आठ अरब डॉलर की सहायता दी और सात हजार टन असलहा मुहैया करवाया।
इसके नतीजे में पिछले कुछ दशकों से अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच, विशेषकर पश्चिम एशिया पर आतंकवाद छाया हुआ है। मुसलमानों में अतिवाद दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस बीच अनेक देशों ने ईशनिंदा कानून बनाए और कुछ मुस्लिम देशों ने ईशनिंदा के लिए मृत्युदंड तक का प्रावधान किया। इन देशों में पाकिस्तान, सोमालिया, अफगानिस्तान, ईरान, सऊदी अरब और नाईजीरिया शामिल हैं।
हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक के शासनकाल में ईशनिंदा के लिए सजा-ए-मौत का प्रावधान किया गया था। इसके साथ ही वहां इस्लामीकरण की प्रवृत्तियां भी तेज हो गईं। इसका एक नतीजा यह हुआ कि इन देशों में इस्लाम का अतिवादी संस्करण लोकप्रिय होने लगा। इसका जीता-जागता उदाहरण आसिया बीबी हैं, जिन्हें ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था। पाकिस्तानी पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर की निर्मम हत्या कर दी गई, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ इस कानून का विरोध किया वरन् जेल जाकर आसिया बीबी से मुलाकात भी की। इसके बाद तासीर के हत्यारे का एक नायक के समान अभिनंदन किया गया।
इस्लाम के इतिहासकार बताते हैं कि पैगम्बर मोहम्मद साहब के दो सौ साल बाद तक इस्लाम में ईशनिंदा संबंधी कोई कानून नहीं था। यह कानून 9वीं शताब्दि में अबासिद शासनकाल में पहली बार बना। इसका मुख्य उद्देश्य सत्ताधारियों की सत्ता पर पकड़ मजबूत करना था। इसी तरह, पाकिस्तान में जिया उल हक ने अपने फौजी शासन को पुख्ता करने के लिए यह कानून लागू किया। इसका लक्ष्य इस्लामी राष्ट्र के बहाने अपनी सत्ता को वैधता प्रदान करना था।
सच पूछा जाए तो फौजी तानाशाह, समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना चाहते थे। इसके साथ ही गैर-मुसलमानों और उन मुसलमानों, जो सत्ताधारियों से असहमत थे, को काफिर घोषित कर उनकी जान लेने का सिलसिला शुरू हो गया। पाकिस्तान में अहमदिया और शिया मुसलमानों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। ईसाई और हिन्दू तो इस कानून के निशाने पर रहते ही हैं।
अभी हाल में (25 अक्टूबर) एक विचारोत्तेजक वेबिनार का आयोजन किया गया। इसका आयोजन मुस्लिम्स फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी नामक संस्था ने किया था। वेबिनार में बोलते हुए इस्लामिक विद्वान जीनत शौकत अली ने कुरान के अनेक उद्वरण देते हुए यह दावा किया कि पवित्र ग्रंथ में इस्लाम में विश्वास न करने वालों के विरूद्ध हिंसा करने की बात कहीं नहीं कही गई है (कुरान में कहा गया है ‘तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए, मेरा दीन मेरे लिए’)।
इस वेबिनार का संचालन करते हुए जावेद आनंद ने कहा कि ‘‘हम इस अवसर पर स्पष्ट शब्दों में, बिना किंतु-परंतु के, न केवल उनकी निंदा करते हैं जो इस बर्बर हत्या के लिए जिम्मेदार हैं, वरन् उनकी भी जो इस तरह के अपराधों को प्रोत्साहन देते हैं और उन्हें उचित बताते हैं। हम श्री पेटी की हत्या की निंदा करते हैं और साथ ही यह मांग करते हैं कि दुनिया में जहां भी ईशनिंदा संबंधी कानून हैं, वहां उन्हें सदा के लिए समाप्त किया जाए।’’
इस वेबिनार में जो कुछ कहा गया वह महान चिंतक असगर अली इंजीनियर की इस्लाम की विवेचना के अनुरूप है। असगर अली कहते थे कि पैगम्बर इस हद तक आध्यात्मिक थे कि वे उन्हें भी दंडित करने के विरोधी थे जो व्यक्तिगत रूप से उनका अपमान करते थे। इंजीनियर, पैगम्बर के जीवन की एक मार्मिक घटना का अक्सर उल्लेख करते थे। पैगम्बर जिस रास्ते से निकलते थे उस पर एक वृद्ध महिला उन पर कचरा फेंकती थी। एक दिन वह महिला उन्हें नजर नहीं आई। इस पर पैगम्बर तुरंत उसका हालचाल जानने उसके घर गए। यह देखकर वह महिला बहुत शर्मिंदा हुई और उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया।
यहां यह समझना जरूरी है कि आज के समय में इस्लाम पर असहिष्णु प्रवृत्तियां क्यों हावी हो रही हैं? इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब मुस्लिम शासकों ने इन प्रवृत्तियों का उपयोग सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए किया। वर्तमान में इस प्रवृत्ति में नए आयाम जुड़ गए हैं। सन् 1953 में ईरान में चुनी हुई मोसादिक सरकार को इसलिए उखाड़ फेंका गया, क्योंकि वह तेल कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करने वाली थी। यह सर्वविदित है कि इन कंपनियों से अमेरिका और ब्रिटेन के हित जुड़े हुए थे। समय के साथ इसके नतीजे में कट्टरपंथी अयातुल्लाह खौमेनी ने सत्ता पर कब्जा कर लिया।
वहीं दूसरी ओर अफगानिस्तान पर सोवियत रूस के कब्जे के बाद अमेरिका ने कट्टरवादी इस्लामिक समूहों को प्रोत्साहन दिया। इसके साथ ही मुजाहिदीन, तालिबान और अलकायदा से जुड़े आतंकवादियों को प्रशिक्षण देना भी प्रारंभ किया। नतीजे में पश्चिमी एशिया में अमेरिका की दखल बढ़ती गई, जिसके चलते अफगानिस्तान, ईराक आदि पर हमले हुए और असहनशील तत्व हावी होते गए, जिसके चलते पेटी की हत्या जैसी घटनाएं होने लगीं।
ईशनिंदा और ‘काफिर का कत्ल करो’ जैसी प्रवृत्तियों को कैसे समाप्त किया जाए, इस पर बहस और चर्चा आज के समय की आवश्यकता है।
(लेख का हिंदी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)(navjivan)
तुर्की के अधिकारियों ने बुधवार को फ़्रांस की मशहूर व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के कवर पेज पर तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन के कार्टून के ख़िलाफ़ हमला किया और मैग्ज़ीन पर 'नफ़रत और दुश्मनी का बीज' बोने का आरोप लगाया.
इसके साथ ही तुर्की ने कहा कि वो इस कार्टून के ख़िलाफ़ क़ानूनी और कूटनीतिक क़दम उठाएगा. यह कार्टून तुर्की और फ़्रांस के बीच तनाव को और बढ़ा सकता है. हालांकि इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भी एक ख़त लिखा है, जिसमें उन्होंने मुस्लिम देशों से पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ एकजुट होने की अपील की है.
इन बयानों के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने भी अपनी प्रतिक्रिया दे दी है. बुधवार को भारतीय विदेश मंत्रालय ने फ़्रांसीसी राष्ट्रपति का समर्थन किया है.

भारतीय विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया है, "अंतरराष्ट्रीय वाद-विवाद के सबसे बुनियादी मानकों के उल्लंघन के मामले में राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के ख़िलाफ़ अस्वीकार्य भाषा में व्यक्तिगत हमलों की हम निंदा करते हैं. हम साथ ही भयानक तरीक़े से क्रूर आतंकवादी हमले में फ़्रांसीसी शिक्षक की जान लिए जाने की भी निंदा करते हैं. हम उनके परिवार और फ्रांस के लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं. किसी भी कारण से या किसी भी परिस्थिति में आतंकवाद के समर्थन का कोई औचित्य नहीं है."
भारतीय विदेश मंत्रालय के बयान को भारत में फ़्रांस के राजदूत इमैनुएल लीनैन ने ट्वीट किया है. भारतीय विदेश मंत्रालय का शुक्रिया अदा करते हुए उन्होंने कहा है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में फ़्रांस और भारत हमेशा एक-दूसरे पर भरोसा कर सकते हैं.
तुर्की अब क्यों ग़ुस्से में
सबसे पहले बात शार्ली एब्दो पत्रिका के कार्टून की जिसके प्रकाशन के बाद एर्दोआन के प्रवक्ता इब्राहिम कालिन ने ट्वीट किया, "हम फ़्रांसीसी पत्रिका में हमारे राष्ट्रपति के बारे में प्रकाशन की कड़ी निंदा करते हैं, इसमें विश्वास, आस्था और मूल्यों का कोई सम्मान नहीं है."
कालिन ने कहा, "नैतिकता और शालीनता रहित इन प्रकाशनों का उद्देश्य नफ़रत और वैमनस्य का बीज बोना है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को धर्म और आस्था के ख़िलाफ़ शत्रुता में बदलना एक बीमार मानसिकता की उपज ही हो सकती है."
वहीं तुर्की के उपराष्ट्रपति फ़ुआट ऑक्टे ने ट्विटर पर लिखा, "मैं नैतिकता के आधार पर इस घृणा के ख़िलाफ़ बोलने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय का आह्वान करता हूं."
क्या है कार्टून में?
फ़्रांसीसी व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो ने तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन का मज़ाक़ उड़ाते हुए एक कार्टून प्रकाशित किया है जिसके बाद तुर्की ने फ़्रांस के ख़िलाफ़ क़ानूनी और कूटनीतिक कार्रवाई की धमकी दे डाली है.
कार्टून में टी-शर्ट और अंडरपैंट में दिख रहे अर्दोआन कुर्सी पर बैठे हैं. उनके दाएं हाथ में बीयर है जबकि बाएं हाथ से वो हिजाब पहने एक महिला की स्कर्ट को पीछे से उठाते दिखाए गए हैं.

पूर्व भूमध्य सागर में तुर्की के प्रतिद्वंद्वी ग्रीस को फ़्रांस से मिल रहे समर्थन पर दोनों देश पहले से ही आपस में उलझे हुए हैं. जब राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इस्लामी अलगाववाद पर शिकंजा कसने के लिए नए क़दम उठाने की घोषणा की तो तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने कहा कि मैक्रों के मानसिक स्वास्थ्य की जाँच होनी चाहिए.
क्या है ताज़ा मामला?
यह ताज़ा प्रकरण पैग़ंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाने वाले सैमुअल पेटी से शुरू हुआ. 16 अक्तूबर को 18 साल के अब्दुल्लाह अंज़ोरोफ़ ने सैमुअल पेटी नामक इस शिक्षक का सिर क़लम कर दिया था.
पेटी के पैग़ंबर मोहम्द के कार्टून को दिखाए जाने के बाद से फ़्रांस में इस्लाम को लेकर जो ताज़ा विवाद शुरू हुआ वो उनकी हत्या के बाद और बढ़ गया.
पेटी पर हमले से दो हफ़्ते पहले राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा था कि इस्लाम ऐसा धर्म है जो संकट में है. उन्होंने इस्लामी अलगाववाद से निबटने के लिए नए क़दम उठाने की घोषणा भी की थी.
सैमुअल पेटी की मौत के बाद फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि वो कट्टरवादी इस्लाम से सख़्ती से निबटेंगे और देश की धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करेंगे.
हालांकि पैग़ंबर के कार्टून वाले मामले पर समूचे मुस्लिम देशों में नाराज़गी है लेकिन तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने फ़्रांस का खुलकर विरोध किया.
अर्दोआन ने फ़्रांस के सख़्त रुख़ का विरोध करते हुए लोगों से फ़्रांसीसी उत्पाद नहीं ख़रीदने की अपील की थी. उन्होंने कहा, 'फ़्रांसीसी लेबल वाले सामान ना ख़रीदें, उन्हें भाव ना दें.'
टीवी पर प्रसारित अपने संदेश में अर्दोआन ने कहा कि फ़्रांस में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ऐसा ही अभियान चलाया जा रहा है जैसा दूसरे विश्व युद्ध से पहले यहूदियों के ख़िलाफ़ चलाया गया था.
उन्होंने कहा कि यूरोपीय देशों के नेताओं को फ़्रांस के राष्ट्रपति से कहना चाहिए कि वो अपना नफ़रत भरा अभियान बंद करें. अर्दोआन इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने मैक्रों को निशाने पर लेते हुए यहां तक कहा कि उनके (मैक्रों के) मानसिक स्वास्थ्य की जाँच होनी चाहिए.
तुर्की को यूरोपीय कमीशन की चेतावनी
फ़्रांस के लिए राहत की बात यह रही कि यूरोपीय कमीशन ने खुल कर तुर्की को चेतावनी दी है. कमीशन का कहना है कि तुर्की ने फ़्रांस के सामानों के बहिष्कार का जो आह्वान किया है उससे वो यूरोपीय संघ से अपनी दूरी को ही बढ़ाएगा.
कमीशन के प्रवक्ता ने कहा कि राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन का बयान तुर्की के लंबे समय से संघ में शामिल होने की महत्वाकांक्षा को एक और झटका है. तुर्की बीते कई सालों से यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की कोशिश में लगा है और माना जा रहा है कि बीते 15 सालों में वह इसके बहुत क़रीब पहुँच गया है.
"कट्टरपंथी इस्लामवाद के ख़िलाफ़, मुसलमानों के नहीं"
अर्दोआन के मैक्रों पर 'मानसिक स्वास्थ्य की जाँच' वाले बयान के बाद फ़्रांस के गृह मंत्री जेराल्ड डार्मानिन ने पेरिस में एक रेडियो इंटरव्यू में कहा कि अन्य देशों को फ़्रांस के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
जेराल्ड डार्मानिन ने कहा, "विदेशी ताक़तें यह सोचती हैं कि फ़्रांस के मुसलमानों का उनसे जुड़ाव है. फ़्रांस के घरेलू मामलों में विदेशी ताक़तों को दख़ल देने का अधिकार किसने दिया?"
जब प्रस्तोता ने उनसे पूछा कि किस 'विदेशी ताक़त' के बारे में आप बात कर रहे हैं?
इस पर डार्मानिन ने कहा, "तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन के बयान से हम सभी अचंभित हैं, लेकिन और भी देश हैं. उदाहरण के लिए, मैं पाकिस्तान की बात कर रहा हूं जिसने ख़तरे की आशंका जताई है."
फ़्रांस के श्रम मंत्री इलिजाबेथ बोर्ने ने कहा कि फ़्रांस अपने सामानों को बहिष्कार से बचने के लिए अपने मूल्यों को नहीं छोड़ेगा.
उन्होंने कहा, "तथ्य यह है कि सबकुछ बहुत गड़बड़ तरीक़े से पेश किया गया है जो निश्चित ही बहुत अफ़सोसजनक और निंदनीय है. बेशक, हम इन बहिष्कारों को रोकने के लिए वैल्यूज़ को नहीं छोड़ सकते. जो महत्वपूर्ण हैं और जिसे इस देश के लोगों को समझना चाहिए वो यह है कि हम कट्टरपंथी इस्लामवाद के ख़िलाफ़ लड़ना चाहते हैं. लेकिन हम यह मुसलमानों के साथ मिलकर कर रहे हैं उनके ख़िलाफ़ नहीं."
ट्विटर पर भी इस मुद्दे को लेकर कई प्रतिक्रियाएं हैं. एक ट्विटर यूज़र ने लिखा कि अर्दोआन कार्टून पर तो चीख़ रहे हैं लेकिन सैमुअल पेटी के सिर कलम करने पर वो चुप हैं?
इमरान ख़ान ने मुस्लिम देशों को क्या कहा?
इस सब के बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने भी मुस्लिम नेताओं को एक पत्र लिखा है. इसमें उन्होंने इस्लामोफ़ोबिया के ख़िलाफ़ मुस्लिम नेताओं से तत्काल कार्रवाई करने का आग्रह किया है.
दो पन्ने के अपने पत्र को ट्वीट करते हुए इमरान ने लिखा, "मुस्लिम देशों के नेताओं को सामूहिक रूप से ग़ैर-मुस्लिम देशों ख़ासकर पश्चिमी देशों में बढ़ते इस्लामोफ़ोबिया का सामूहिक मुक़ाबला करने के लिए मेरा पत्र. यह दुनिया भर के मुसलमानों में बढ़ती चिंता का कारण बन गया है."
अपने पत्र में उन्होंने लिखा, "आज हम अपने उम्मा (समुदाय) में एक बढ़ती चिंता और बेचैनी का सामना कर रहे हैं क्योंकि वे पश्चिमी देशों में हमारे प्रिय पैग़ंबर पर उपहास और मज़ाक़ के ज़रिए बढ़ते इस्लामोफ़ोबिया और हमलों को देख रहे हैं."
इमरान ने कहा, "इस्लाम, ईसाई धर्म या यहूदी धर्म के किसी भी पैग़ंबर की निंदा हमारे आस्था में अस्वीकार्य थी."
उन्होंने लिखा, "अब समय आ गया है कि मुस्लिम देशों के हमारे नेता इस संदेश को दुनिया के बाक़ी हिस्सों ख़ास कर पश्चिमी दुनिया में एकजुट होकर स्पष्टता के साथ पहुँचाएं ताकि इस्लामोफ़ोबिया, इस्लाम और हमारे पैग़ंबर पर हमले को समाप्त किया जा सके."(bbc)
गिरीश मालवीय
सबसे पहले रिलायन्स की एजीएम में नीता अम्बानी वेक्सीनेशन प्रोग्राम में जियो की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलासा करती है फिर भारत के स्वास्थ्य मंत्री हाथ पर लगाने वाले एक स्किन बॉडी सेंसर टैटू का अपने ट्वीट में जिक्र करते हैं फिर किरण मजूमदार शॉ टीकाकरण में क्यूआर कोड को जोडऩे की बात करती है और आज यह बात सामने आ रही है कि वैक्सीन का क्यूआर कोड एक हकीकत है।
कोरोना वैक्सीन को लेकर एक बहुत महत्वपूर्ण खबर आई है। मोदी सरकार जब लोगो को कोरोना वैक्सीन लगाएगी तो उन्हें क्यूआर कोड के रूप में सर्टिफिकेट भी जारी करेगी। संडे एक्सप्रेस को मिली जानकारी के मुताबिक, कोरोना टीकाकरण अभियान का ब्लूप्रिंट तैयार हो चुका है और एक नया ट्रैकिंग प्रोग्राम बनाया गया है जिसे ‘इलेक्ट्रॉनिक वैक्सीन इंटेलिजेंस नेटवर्क’ कहा जा रहा गया है। घरेलू स्तर पर विकसित इस तकनीक से वैक्सीन के स्टॉक की डिजिटल तरीके से निगरानी भी होगी साथ ही इससे वैक्सीन पाने वाले लोगों की भी ट्रैकिंग हो सकेगी। इसके लिए व्यक्ति को वैक्सीन लगने के बाद उसे क्यूआर आधारित डिजिटल सर्टिफिकेट जारी किया जाएगा, जो कि सिस्टम जेनरेटेड होगा
आप ही बताइये कि कोरोना वैक्सीन पाए हुए लोगों की ट्रेकिंग किए जाने का क्या औचित्य है?
कोरोना काल की शुरुआत से ही बता रहा हूँ कि ये वैक्सीन सिर्फ एक वैक्सीन नहीं है यह एक इम्युनिटी पासपोर्ट है जो हमारे कहीं भी मूव करने के लिए एक बेहद जरूरी पंजीकरण है। दरअसल कोरोना के टीके का डिजिटलीकरण करना वैश्विक आईडी 202 के प्रोग्राम का हिस्सा है
क्यूआर कोड के जरिए वेक्सिनाइजेशन सर्टिफिकेट का डिजिटलीकरण करना यह बता रहा है कि यह एक वृहद अंतरराष्ट्रीय षडय़ंत्र है। एक बार यह क्यू आर कोड हमारे पास आ गया तो लोग इसे एक तमगे के बतौर लेकर घूमेंगे.....ओर समाज मे एक नया डिस्क्रिमिनेशन आ जाएगा, जिनके पास यह कोड नही होगा उन्हें मॉल एयरपोर्ट रेलवे स्टेशन जैसी सार्वजनिक जगहों में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी। एक तरह से वे अछूत बना दिए जाएंगे।
15 अगस्त को नरेंद्र मोदी ने नागरिकों के लिए डिजिटल स्वास्थ्य मिशन शुरू करने की घोषणा की थी डिजिटल स्वास्थ्य मिशन के तहत प्रत्येक नागरिक को एक विशिष्ट स्वास्थ्य पहचान नंबर दिया जाएगा। प्रत्येक नागरिक को जो आईडी कार्ड मिलेगा, उसमें उसकी मेडिकल कंडिशन्स की सारी जानकारी होगी। इसमे भी एक क्यूआर कोड की ही बात की गईं थी।
जब इस मिशन का मसौदा रिलीज किया गया तो उसमे बताया गया कि हैल्थ कार्ड के जरिए कलेक्ट किए जाने वाला यह डेटा कैसे ‘व्यक्तिगत और संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा’ को कवर करता है !
‘संवेदनशील व्यक्तिगत डेटा’ के रूप में वर्गीकृत किए गए डेटा बिंदुओं में एक व्यक्ति के वित्तीय विवरण, उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, यौन जीवन, चिकित्सा रिकॉर्ड, लिंग और कामुकता, जाति, धार्मिक और राजनीतिक मान्यताओं के साथ-साथ आनुवंशिक और बायोमेट्रिक रिकॉर्ड शामिल हैं।
अब आप स्वयं इस बात का जवाब खोजिए कि हैल्थ डाटा में व्यक्ति के वित्तीय विवरण, यौन जीवन लिंग और कामुकता, जाति, धार्मिक और राजनीतिक मान्यताओं के बारे में जानकारी लेने का क्या मतलब है ?
सबसे पहले रिलायन्स की एजीएम में नीता अम्बानी वेक्सीनेशन प्रोग्राम में जियो की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलासा करती है फिर भारत के स्वास्थ्य मंत्री हाथ पर लगाने वाले एक स्किन बॉडी सेंसर टैटू का अपने ट्वीट में जिक्र करते हैं फिर किरण मजूमदार शॉ टीकाकरण में क्यूआर कोड को जोडऩे की बात करती है और आज यह बात सामने आ रही है कि वैक्सीन का क्यूआर कोड एक हकीकत है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस में पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों को लेकर जो हत्याकांड पिछले दिनों हुआ, उसका धुंआ अब सारी दुनिया में फैल रहा है। सेमुएल पेटी नामक एक फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या अब्दुल्ला अजारोव नामक युवक ने इसलिए कर दी थी कि उस अध्यापक ने अपनी कक्षा में छात्रों को मोहम्मद साहब के कार्टून दिखा दिए थे।
अब्दुल्ला की भी फ्रांसीसी पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी। अब यह मामला इतना तूल पकड़ रहा है कि फ्रांस समेत यूरोपीय राष्ट्रों में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारी-भरकम प्रदर्शन हो रहे हैं और इस्लामी उग्रवादियों पर तरह-तरह के प्रतिबंधों की मांग की जा रही है। उधर दुनिया के कई इस्लामी राष्ट्र हैं, जो फ्रांस पर बुरी तरह से बरस रहे हैं और अभिव्यक्ति की इस स्वच्छंदता की भर्त्सना कर रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति तय्यब एरदोगन ने कहा है कि फ्रांस के राष्ट्रपति अपनी दिमागी जांच कराएं। (कहीं वे पागल तो नहीं हो गए हैं) क्योंकि वे कहते हैं कि इस्लाम फ्रांस के भविष्य को चौपट करने वाला है।
उन्होंने फ्रांसीसी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील कर दी है। ऐसी ही अपीलें मलेशिया-जैसे अन्य मुस्लिम राष्ट्र भी कर रहे हैं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने जरा बेहतर प्रतिक्रिया की है। उन्होंने फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमेनुएल मेक्रो से कहा है कि उन्हें इस्लाम-द्रोह फैलाने की बजाय इस दुखद मौके पर ऐसी वाणी बोलनी चाहिए थी, जिससे लोगों के घावों पर मरहम लगता और आतंकवादी कोई भी होता, चाहे वह मुस्लिम या गोरा नस्लवादी या नाजी होता, भडक़ता नहीं। उनके बयान आग में तेल का काम कर रहे हैं। एक तरफ मुस्लिम नेताओं और संगठनों के ऐसे बयान आ रहे हैं और दूसरी तरफ यूरोप के शहरों में पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों के पोस्टर बना-बनाकर दीवारों पर चिपकाए जा रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ देशों के फ्रांसीसी नागरिकों पर भी जानलेवा हमले शीघ्र ही सुनने में आएं। ये दोनों तेवर मुझे अतिवादी लगते हैं। यदि मुसलमान लोग पैगंबर के चित्र या कार्टून बनाने के विरुद्ध हैं तो उनका सम्मान करने में आपका क्या बिगड़ रहा है ? पैगंबर के कार्टून बनाने से क्या यूरोपीय लोगों को मोक्ष मिल रहा है ?
यही सवाल उन मुसलमानों से पूछा जा सकता है जो हिंदू मूर्तियों और मंदिरों को तोड़ते हैं ? आप बुतपरस्ती मत कीजिए लेकिन क्या बुतशिकन होना जरुरी है ? मुसलमान भाइयों से मैं यह भी कहता हूं कि यदि कुछ उग्रवादी लोग कुछ कार्टून या चित्र बना देते हैं तो उससे क्या इस्लाम का पौधा मुरझा जाएगा ? क्या इस्लाम छुई-मुई का पेड़ है? इस्लाम ने अंधकार में डूबे अरब जगत में क्रांतिकारी प्रकाश फैलाया है। उसे ठंडा न पडऩे दें। (नया इंडिया की अनुमति से)
छह महीने अगर जेल में बिताने पड़ें तो अपने निजी अंगों को किसी को दिखाने का सारा नशा गायब हो जाएगा. फिनलैंड के सांसद देश के यौन दुर्व्यवहार से जुड़े कानूनों में सुधार पर बहस कर रहे हैं. इस दौरान विचार किया जा रहा है कि क्या बिना किसी की अनुमति लिए सेक्स मैसेज भेजने को अवांछित शारीरिक संपर्क की तरह अपराध माना जा सकता है. फिलहाल अवांछित शारीरिक संपर्क के लिए जुर्माने और जेल की सजा का प्रावधान है.
कानून में इस प्रस्तावित बदलाव का मुख्य लक्ष्य बिना मांगे यौन अंगों की तस्वीर भेजने वालों को सबक सिखाना है. डेटिंग साइटों पर बने संपर्क के अलावा भी लोग अपने यौन अंगों की सेल्फी बिना मांगे भेज कर दूसरों को प्रताड़ित करते हैं.
फिनलैंड की सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी के सांसद मातियास मैकिनेन ने डीडब्ल्यू से कहा कि कानून बदलने का फैसला कोई मुश्किल काम नहीं है, "यौन दुर्व्यवहार यौन दुर्व्यवहार है, चाहे आप किसी को गलत तरीके से पकड़ें, या फिर गलत बात करें और या फिर गलत तस्वीरें भेजें. इससे फॉर्मेट का कोई लेना देना नहीं है कि आप ने कैसे दुर्व्यवहार किया, आपने इस तरह से व्यहवहार किया जिससे लोगों को पीड़ा हुई."
#Me Too का असर
मैकीमैन संसद की कानून मामलों की समिति में हैं और उनका कहना है कि कानून को तकनीक के साथ विकसित होना चाहिए. उन्होंने कहा कि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने लोगों के साथ दुर्व्यवहार के तरीके को बदल दिया और इसे भी कि लोग अलग अलग तरीके के अपराधों के पीड़ित कैसे हो सकते हैं. यह कुछ हद तक 'Me Too' पर हुई चर्चा का नतीजा है. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बीते सालों में इस पर बहुत चर्चा होती रही है. उम्मीद की जा रही है कि विचार विमर्श की प्रक्रिया का नतीजा सरकार के सामने अगले कुछ महीनों में पेश किया जाएगा और फिर इसके लिए संसद की मंजूरी ली जाएगी.
जर्मन सांसदों ने हाल ही में उन लोगों के लिए सजा का प्रावधान किया है जो बिना सहमति के महिलाओं की क्लीवेज या फिर स्कर्ट के अंदर की तस्वीर लेते हैं. जर्मन संसद के निचले सदन की तरफ से पारित कानून में इस अपराध के लिए जुर्माना या फिर दो साल की सजा देने का प्रावधान किया गया है.
अंतरंग तस्वीरों को अपराध बनाने से क्या बदलेगा?
मेडिकल छात्रा किया किविसिल्ता ने हेलसिंकी के स्कूलों में किशोरियों के लिए कई साल काउंसलिंग की है. वे ऐसे कानून का स्वागत करते हुए कहती हैं कि सजा का प्रावधान करने से ज्यादा सुरक्षा मिलेगी. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "यह होना चाहिए - निश्चित रूप से और जितनी जल्दी संभव हो सके उतना जल्दी. मै किसी ऐसे को नहीं जानती जिसे (अनुचित तस्वीरें) ना मिली हों, वास्तव में हर किसी को कम से कम एक बार तो यह मिला ही है. तो यह थोड़ा डरावना है." 24 साल की किया ने बताया कि उन्होंने अवांछित तस्वीर भेजने वाले का सामना किया था लेकिन वो जानती हैं कि वो अपवाद हैं, "कोई लड़की जो 12 या 15 साल की है, वो यह कभी नहीं करेगी क्योंकि उनके पास इतना साहस नहीं होता."
मैकीनेन की तरह किया भी मानती हैं कि सोशल मीडिया पर दुर्व्यवहार को अवांछित शारीरिक संपर्क के बराबर माना जाना चाहिए, उन्होंने खुद भी सिटी बस में एक बार इसका समाना किया. हालांकि उनकी चिंता यह है कि उनकी उम्र के या उनसे छोटे लोग अकसर इसे सामान्य बात मान लेते हैं. हालांकि फिनलैंड के स्कूलों में यह छात्रों को नहीं सिखाया जाता. उन्होंने कहा, "अगर इसे अपराध बना दिया गया तो फिर बच्चों को ज्यादा असरदार तरीके से बताया जा सकेगा कि यह उचित नहीं है."
किया का कहना है कि उन्हें नहीं लगता कि जिन महिलाओं को वे जानती हैं, वे उन्हें गंदी तस्वीरें भेजने वालों के खिलाफ अभियोग लगाने का फैसला करेंगी, बल्कि वे बस उन तस्वीरों को डिलीट कर देंगी. उनका मानना है कि किशोरियों को इस बात का डर रहेगा कि गैरजरूरी ध्यान खींचने के लिए उन पर आरोप लगाए जाएंगे.
किया के पार्टनर तिमोथी कोलैंजेलो एक आइटी एक्सपर्ट हैं और उन्होंने फिनलैंड में कई विदेशी छात्रों को काउंसलिंग में मदद दी है. उन्हें भी उम्मीद है कि कड़े कानून गलत काम करने वालों को रोकेंगे क्योंकि वे लोग फिलहाल, "खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं क्योंकि वे गुमनाम हैं और कानून कुछ नहीं कर सकता क्योंकि यह निजता का मामला है."
रास्ते और भी हैं
हालांकि कानून से बाहर रह कर भी लोगों के पास यह ताकत है कि वे दूसरों की गलतियां सामने लाएं. 2017 में स्वीडिश ऐप डेवलपर पेर एक्सबॉम ने लिखा था, "बहुत हो चुका, मैंने इसे जिन लोगों के पास अश्लील तस्वीरें आ रही हैं, उन्हें सशक्त बनाने के मौके के रूप में देखा और अलग अलग पक्षों के बीच शक्ति का संतुलन बनाना चाहा." उन्होंने डिक पिक लोकेटर ऐप बनाया जो तस्वीरों की मेटाडाटा निकाल सकता है. जिन लोगों को अश्लील तस्वीरें भेजी जाती हैं, वे उसे सार्वजनिक करना चाहें तो यह ऐप इसमें मददगार है. एक्सबॉम का कहना है, "मैं किसी के गुमनाम रहने की संभावना को बचाए रखने के कई अहम कारण देखता हूं, लेकिन यह उनमें शामिल नहीं है."
मैकिनेन ने बताया कि आम लोगों के इस प्रस्तावित कानून का विरोध करने पर मांगी गई राय की समय सीमा खत्म हो चुकी है और किसी ने दुर्व्यवहार के कानून में सुधार का विरोध नहीं किया है, "मैं ऐसा कोई कारण नहीं देख रहा हूं जिससे कि यह नहीं होगा." उन्हें उम्मीद है कि बाकी यूरोपीय देश भी फिनलैंड की राह पर चलेंगे.(DW.COM)
रिपोर्ट: टेरी शुल्त्स/एनआर
- प्रमोद जोशी
हाल में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के स्तंभकार बेन स्मिथ ने अपने ही अखबार की स्टार रिपोर्टर रुक्मिणी कैलीमाची की रिपोर्टों की कड़ी आलोचना की, तो पत्रकारिता की साख से जुड़े कई सवाल एक साथ सामने आए। अप्रैल, 2018 में जब ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में रुक्मिणी कैलीमाची और एंडी मिल्स की ‘कैलीफैट’ शीर्षक से दस अंकों की प्रसिद्ध पॉडकास्ट सीरीज शुरू हुई थी, अमेरिका के कई पत्रकारों ने संदेह व्यक्त किया था कि यह कहानी फर्जी भी हो सकती है। संदेह व्यक्त करने वालों में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के पत्रकार भी थे। इन संदेहों को व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता और ईर्ष्या-प्रेरित मान लिया गया। अब वही अखबार इस बात की जांच कर रहा है कि कहां पर चूक हो गई।
इस विवाद के उभरने के बाद ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अपने मीडिया रिपोर्टर बेन स्मिथ को पड़ताल का जिम्मा दिया है। बेन स्मिथ मशहूर बाइलाइनों की धुलाई करने वाले रिपोर्टर-स्तंभकार माने जाते हैं। विवाद की खबर आने के बाद इसी अखबार के इराक ब्यूरो की पूर्व प्रमुख मार्गरेट कोकर ने ट्वीट किया कि इस सीरीज का नाम अब बदलकर ‘होक्स’ (झूठ) रख देना चाहिए। यह उनके मन की भड़ास थी। पड़ताल के दिनों में कैलीमाची के साथ मतभेद होने पर उन्होंने इस्तीफा दिया था। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने अब वरिष्ठ संपादकों को इस प्रकरण की जांच का जिम्मा दिया है।
विवाद की शुरुआत
संयोग से जिन दिनों यह सीरीज प्रसारित हो रही थी, उन्हीं दिनों डोनाल्ड ट्रंप ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ समेत अमेरिका के तमाम अखबारों पर फेक न्यूज़ फैलाने का आरोप लगा रहे थे। वह आरोप राजनीतिक खबरों को लेकर था। इस विवाद से पत्रकारिता की साख को धक्का तो लगेगा। इस सीरीज के प्रसारण के समय से ही विवाद खड़े होने लगे थे। इस खबर ने कनाडा की पुलिस के कान खड़े कर दिए। दो साल की तफ्तीश के बाद पुलिस ने 25 सितंबर को शहरोज चौधरी उर्फ अबू हुजैफा अल-कनाडी को गिरफ्तार किया, तो सवालों की झड़ी लग गई है। कैलीमाची की सीरीज में शहरोज चौधरी केंद्रीय पात्र था। अबू हुजैफा उसका जेहादी नाम था। पश्चिम एशिया के आतंकवाद में शामिल होने वाले लोगों के नाम किसी ऐतिहासिक योद्धा के नाम पर रख दिए जाते हैं। बहरहाल उसकी गिरफ्तारी जेहादी गतिविधियों में शामिल होने या किसी की गर्दन काटने की वजह से नहीं हुई, बल्कि इसलिए हुई कि उसका यह दावा गलत साबित हुआ कि वह आइसिस का जल्लाद था। उसे होक्स लॉ या झूठी बातें फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। यह वैसा ही है जैसे पुलिस को किसी विमान में बम रखा होने की झूठी जानकारी देना। इस आदमी ने कई मीडिया हाउसों को बताया था कि वह 2016 में सीरिया गया था, जहां आईसिस में शामिल होकर जेहादी गतिविधियों में शामिल हुआ। जिस वक्त कैलीमाची की स्टोरी की जांच चल रही थी, तब इंटरनेशनल एडिटर माइकल स्लैकमैन और एक और संपादक मैट पडी ने टिप्पणी भी की थी कि अबू हुफैजा का विवरण बहुत भयानक है, पर पुष्ट नहीं है।
संदेह तब भी थे
इस अंदरूनी जांच की वजह से पॉडकास्ट टीम के संवाददाताओं से कहा गया कि वे इस बात की पुष्टि करें कि अबू हुजैफा का विवरण सही है। शायद इसी वजह से एपिसोड-6 के सब-टाइटल में लिखा गया ‘समथिंग वॉज ऑफ’, यानी कुछ गड़बड़ है। छठे एपिसोड में संवाददाताओं ने कहा कि अबू हुजैफा ने घटनाओं की जो सूची दी है, वह सही नहीं है। उसने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को बताया कि उसने दो हत्याएं कीं और ‘सीबीसी न्यूज’ बताया कि वह तो मामूली पुलिसवाला था, उसने कोई हत्या नहीं की।
‘सीबीसी’ के रिपोर्टर से उसने कैलीमाची से बात करने के एक साल पहले बात की थी। बहरहाल बावजूद इसके स्टोरी जारी रही। पर ‘सीबीसी’ के रिपोर्टर ने जब बाद में उससे पूछा कि दोनों रिपोर्टों में यह फर्क है, तो उसने कहा कि मैंने ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को गलत जानकारी दी। अब इस प्रकरण की पड़ताल करते हुए ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के रिपोर्टर बेन स्मिथ ने लिखा है कि वे संदेह कैलीमाची या पॉडकास्ट टीम की ओर से नहीं आए थे बल्कि दूसरे आंतरिक संपादकों ने व्यक्त किए थे। अगस्त, 2018 में अमेरिकी पत्रिका ‘द बैफलर’ में रफिया जकारिया ने लिखा कि इस पॉडकास्ट सीरीज को इतना महत्व नहीं मिलना चाहिए। जकारिया ने यह भी लिखा कि ‘आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई’ ने शिकारी पत्रकारिता को जन्म दे दिया है। पॉडकास्ट सीरीज के बाद कैलीमाची ने ‘आइसिस फाइल्स’ शीर्षक से एक सीरीज ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में लिखी। कैलीमाची और उनके साथियों ने इस सीरीज के लिए इराकी सेना के साथ मिलकर काम किया था और 15,000 फाइलें तैयार कीं जिन्हें ‘आइसिस फाइल्स’ कहा जाता है। इनका डिजिटाइजेशन, अनुवाद और विश्लेषण किया गया। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ और जॉर्ज वॉशिंगटन विश्वविद्यालय ने इनका इसी साल ऑनलाइन प्रकाशन भी किया है। अब कहा जा रहा है कि कैलीमाची ने इराक सरकार से इन दस्तावेजों को हासिल करने की अनुमति नहीं ली थी। आलोचकों का कहना है कि कुल मिलाकर यह पड़ताल से ज्यादा व्यक्ति केंद्रित पत्रकारिता है। उनका कहना है कि इस सीरीज में अबू हुजैफा की जगह कैलीमाची केंद्रीय पात्र बन गई हैं जो अनुचित है। इस विवाद के बाद अब उनकी दूसरी रिपोर्टों पर भी सवाल उठ रहे हैं। उन पर आरोप है कि उन्होंने अमेरिकी पत्रकार जेम्स फोले के साथ दुर्व्यवहार किया था। फोले की सन 2014 में आईसिस ने हत्या की थी। इन दिनों अमेरिकी पत्रकार कैलीमाची की आलोचना करते हुए कॉलम लिख रहे हैं। कुछ साल पहले तक ऐसा संभव नहीं था क्योंकि तब कैलीमाची का सितारा बुलंद था।
स्टार पत्रकारिता के जोखिम
रुक्मिणी कैलीमाची को अल कायदा और इस्लामिक स्टेट की जबर्दस्त रिपोर्टिंग के कारण ख्याति मिली है। उनकी इन रिपोर्टों को पॉडकास्टिंग पत्रकारिता के मील का पत्थर बताया गया था। इन रिपोर्टों को पिछले एक दशक के सबसे उल्लेखनीय पत्रकारीय कर्म में शामिल किया गया है। साथ ही उनकी साख बेहद विश्वसनीय स्टार रिपोर्टर के रूप में स्थापित हो गई थी। फिलहाल दोनों पर सवालिया निशान हैं और अब इस बात की पड़ताल हो रही है कि ऐसा हो कैसे गया।
रुक्मिणी मारिया कैलीमाची रोमानिया मूल की अमेरिकी पत्रकार हैं जो ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ के लिए काम करती हैं। उनका नाम रुक्मिणी इसलिए है क्योंकि उनका परिवार भारत में थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ा था जिसकी नींव भारत में श्रीमती एनी बेसेंट ने रखी थीं। इसी सोसायटी से श्रीमती रुक्मिणी देवी अरुंडेल जुड़ी थीं जिन्होंने चेन्नई में कला क्षेत्र की स्थापना की थी। श्रीमती अरुंडेल के नाम पर उनका नाम रुक्मिणी मारिया कैलीमाची रखा गया था।
इनका परिवार रोमानिया में कम्युनिस्ट शासन के दौरान भागकर अमेरिका आ गया था। पत्रकार के रूप में उन्होंने दिल्ली में भी कुछ समय के लिए काम किया। पर उनका सबसे उल्लेखनीय काम पश्चिम एशिया में आतंकवाद से जुड़ी रिपोर्टिंग का है, खासतौर से अल कायदा और इस्लामिक स्टेट की अंदरूनी जानकारियों को दुनिया के सामने लाने का श्रेय उन्हें जाता है। इसके लिए उन्हें दो बार पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
कैलीमाची को सन 2014 में ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने इस्लामी आतंकवाद को कवर करने का जिम्मा दिया। रुक्मिणी न केवल इस इलाके से अच्छी तरह परिचित थीं बल्कि यहां की भाषा का भी उन्हें अच्छा ज्ञान है। इस रिपोर्टिंग के कारण ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ को पुलित्जर पुरस्कार मिला। उनके पॉडकास्ट, यानी ऑडियो रिपोर्टिंग ने पत्रकारिता के नए आयाम स्थापित किए। अप्रैल, 2018 में ‘कैलीफैट’, यानी खिलाफत शीर्षक से उनकी पहली ऑडियो डॉक्यूमेंट्री जारी हुई, जिसमें उन्होंने इस्लामिक स्टेट की गतिविधियों को उजागर किया।
हमारे लिए सबक
खिलाफत वैश्विक इस्लामी साम्राज्य की प्राचीन अवधारणा है जिसे लेकर इस्लामिक स्टेट ने सिर उठाया था। इराक और सीरिया के एक बड़े इलाके पर इस गिरोह ने कब्जा कर लिया था। अपहृत व्यक्तियों और दुश्मनों की हिंसक तरीके से हत्याएं करने के वीडियो यह संगठन जारी करता था। आईएस से कथित रूप से जुड़े अबू हुजैफा अल-कनाडी (द कैनेडियन) का दावा था कि उसने आईएस की ओर से लड़ते हुए तमाम लोगों की हत्या की थी। मई, 2018 में ‘सीबीसी न्यूज’ की टीवी पत्रकार डायना स्वेन ने संदेह व्यक्त किया था कि यह आदमी ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ से झूठ बोल रहा है। और अब सितंबर, 2020 में कनाडा पुलिसने उसी अबू हुजैफा को गिरफ्तार कर लिया है।
इस आदमी का असली नाम है शहरोज चौधरी। पाकिस्तानी मूल के इस व्यक्ति पर होक्स (झूठ) गढ़ने का आरोप है। इस गिरफ्तारी के बाद से ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने इस खबर की पड़ताल फिर से कराने का फैसला किया है। और अब ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ और ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ से लेकर कोलम्बिया जर्नलिज्म रिव्यू तक उनकी सीरीज की फिर से समीक्षा कर रहे हैं। भारत की पत्रकारिता के लिए भी इसमें कुछ सबक हैं, पर शायद अभी हम जानते नहीं कि कैलीमाची कौन है और उसका विवाद क्या है।(https://www.navjivanindia.com/)
ज़ुबैर अहमद
'धर्म विहीन राज्य' ही फ़्रांस का सरकारी धर्म है. ये आपको भले ही चौंका देने वाला लगे, लेकिन सच ये है कि 'laicite' या लैसिते या 'धर्म से मुक्ति' ही इसकी राष्ट्रीय विचारधारा है.
फ़्रांसी की राजनीति पर गहरी नज़र रखने वाले डॉमिनिक मोइसी ने लैसिते पर टिप्पणी करते हुए एक बार कहा था कि ये ऊपर से थोपी गई एक प्रथा है. उन्होंने कहा था, "लैसिते गणतंत्र का पहला धर्म बन गया है."
'लैसिते' शब्द फ़्रांस में इस समय सबसे अधिक चर्चा में है. हाल ही में फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के इस्लाम पर दिए गए बयान को इसी पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है. उन्होंने पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून दिखाने के एक फ़्रांसीसी शिक्षक के फ़ैसले का समर्थन किया था और शिक्षक की हत्या के बाद कहा था कि इस्लाम संकट में है.
उन्होंने फ़्रांस में इस्लाम को फ़्रांस के हिसाब से ढालने की बात भी कही थी. उसके बाद से उनके और मुस्लिम देशों के कई नेताओं के बीच ठन गई है. कई मुस्लिम देशों में फ़्रांस में बनी चीज़ों के बहिष्कार की मांग की जा रही है.
फ़्रांस में 16 अक्तूबर की घटना ने वहाँ के लोगों को झकझोर कर रख दिया है. पैग़ंबर मोहम्मद का कार्टून दिखाने वाले शिक्षक की 18 साल के एक मुस्लिम लड़के ने दिनदहाड़े हत्या कर दी.
इस हत्या के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन भी हुए थे. राष्ट्रपति के बयान ने मुस्लिम देशों के नेताओं और समाज को नाराज़ तो किया ही, साथ ही लैसिते में परिवर्तन को लेकर भी बहस छिड़ गई है.
कट्टर धर्मनिरपेक्षता या लैसिते क्या है?
Laicite फ़्रांसीसी शब्द laity से निकला है, जिसका अर्थ है- आम आदमी या ऐसा शख़्स, जो पादरी नहीं है.
लैसिते सार्वजनिक मामलों में फ़्रांस की धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य धर्म से मुक्त समाज को बढ़ावा देना है.
इस सोच का विकास फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान शुरू हो गया था.
इस विचारधारा को अमलीजामा पहनाने के लिए इसे 1905 में एक क़ानून के तहत सुरक्षित और सुनिश्चित कर दिया गया.
इस क़ानून में धर्म और राज्य को अलग-अलग कर दिया गया. मोटे तौर पर ये विचार संगठित धर्म के प्रभाव से नागरिकों और सार्वजनिक संस्थानों की स्वतंत्रता को दर्शाता है.
सदियों तक यूरोप के दूसरे देशों की तरह फ़्रांस में भी रोमन कैथोलिक चर्च का ज़ोर रहा है.
इस संदर्भ में धर्म से मुक्त समाज का विकास सराहनीय था. 20वीं शताब्दी के शुरू में लैसिते एक क्रांतिकारी सोच थी. लेकिन इसे राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाने में दशकों लग गए. इसे लोगों तक पहुँचाने के लिए राज्य ने एक संस्था बनाई, जिसे फ़्रांसीसी भाषा में 'ऑब्ज़र्वेटॉइर डे लैसिते' या 'धर्मनिरपेक्षता की संस्था' कहा जाता है.
इस संस्था की वेबसाइट पर लैसिते की परिभाषा कुछ इस तरह है- लैसिते अंतरात्मा की स्वतंत्रता की गारंटी देता है.
धर्म का कहाँ है स्थान
इसका मतलब हुआ कि हर किसी को अपने धर्म का अपने तरीक़े से पालन करने की इजाज़त होगी, लेकिन ये क़ानून से बड़ा नहीं होगा, बल्कि उसके दायरे में ही रहेगा.
लैसिते के अंतर्गत धर्म के मामले में राज्य तटस्थ होता है और धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव किए बिना क़ानून के समक्ष सभी की समानता के सिद्धांत को लागू करता है.
ये संस्था आगे कहती है, "धर्मनिरपेक्षता आस्तिक और नास्तिक दोनों ही लोगों को उनकी मान्यताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समान अधिकार की गारंटी देती है. ये धर्म को मानने या ना मानने या धर्म परिवर्तन के अधिकार को भी सुनिश्चित करता है. ये उपासना के तौर-तरीक़े की आज़ादी देता है, लेकिन साथ ही धर्म से मुक्ति की भी."
यहाँ ये समझना ज़रूरी है कि लैसिते या 'धर्म विहीन होने की सोच' को फ़्रांस के दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों तरह के नेताओं ने अपनाया है और ये अब फ़्रांस की राष्ट्रीय पहचान है.
पिउ रिसर्च के मुताबिक़, 2050 तक फ़्रांस में 'धर्म विहीन होने की सोच' पर यक़ीन रखने वाले लोगों का समूह सारे मजहबी समूहों से ज़्यादा बड़ा बन जाएगा.
फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सर्कोज़ी ने एक बार कहा था कि लैसिते के साथ कोई सौदा या समझौता नहीं किया जा सकता है.
धर्मनिरपेक्षता को और भी मज़बूत बनाने के लिए फ़्रांस ने 2004 में स्कूलों में हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया था और छह साल बाद सार्वजनिक स्थानों पर चेहरे को ढँकने वाले नक़ाब को प्रतिबंधित कर दिया.
फ़्रांस में इससे भी कड़े क़दम उठाने की मांग की जा रही है और उनकी माँगें जल्द ही पूरी हो सकती हैं.
दो अक्तूबर को राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने एक क़ानून लाने की घोषणा की थी, जिसके तहत 'इस्लामी कट्टरपंथ' का मुक़ाबला करने के लिए फ़्रांस के लैसिते या धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को और भी मज़बूत बनाने की बात कही.
मैक्रों ने इसी भाषण में कहा कि 'इस्लाम संकट में है', जिसका मुस्लिम देशों ने विरोध किया.
धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत करने की मांग की वजह
फ़्रांस के मार्से शहर में मोरक्को मूल के एक युवा आईटी प्रोफ़ेशनल यूसुफ़ अल-अज़ीज़ कहते हैं, "मेरे विचार में लैसिते (धर्मनिरपेक्ष मूल्यों) के बचाव और इसे और भी दृढ़ बनाने का प्रयास हवा में नहीं किया जा रहा है. इसका मुख्य कारण फ़्रांस और यूरोप में कट्टर इस्लाम का पनपना है. मैड्रिड या लंदन में आतंकवादी हमले हों या फिर डच फ़िल्म निर्माता थियो वैन गॉग की हत्या या हाल ही में पैग़ंबर मोहम्मद के कार्टून को नापसंद करने पर हिंसा और विरोध. इन घटनाओं को फ़्रांस के धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर हमले की तरह से देखा गया. जब सार्वजनिक जगहों पर हिजाब और बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाए गए, तो फ़्रांस के मुसलमानों ने इसे इस्लाम और उनके धर्म पर अंकुश लगाने की तरह से देखा, जिससे मामला और भी उलझ गया."
युसूफ़ अल-अज़ीज़ी कहते हैं, "फ़्रांस के मुसलमानों को लगता है कि लैसिते की आड़ में उन्हें टारगेट किया जाता है. देखिए, ज़रा ग़ौर कीजिए कि फ़्रांस में ईसाइयों के बाद मुसलमान सबसे अधिक संख्या में हैं. हम फ़्रांस की आबादी के 10 प्रतिशत हिस्से से अधिक हैं. वो लगभग सभी अपने मजहब पर चलने वाले हैं. मैं लिबरल हूँ, लेकिन अपने मजहब को मानता हूँ. देश की बाक़ी 90 प्रतिशत आबादी में से बहुमत उनका है, जो किसी धर्म को नहीं मानते. तो ज़ाहिर है कि धर्म को लेकर कोई भी नया क़ानून बनेगा, तो मुस्लिम ये समझेंगे कि ये उनके ख़िलाफ़ है."
यूसुफ़ फ़्रांस में ही पैदा हुए और वहीं पले-बढ़े. उनकी पत्नी गोरी नस्ल की हैं. वो कहते हैं, "मैं फ़्रांस की मुख्यधारा का अटूट हिस्सा हूँ, लेकिन मुझे भी समाज में अरब की तरह से देखा जाता है." उनका तर्क है कि मुसलमानों को शांतिपूर्ण तरीक़ों से अपने धार्मिक विश्वास को व्यक्त करने की अधिक स्वतंत्रता देने से वो फ़्रांस को अपने घर की तरह, अपने वतन की तरह अधिक अपनाएँगे.
ख़ुद फ़्रांस में आज ये चर्चा हो रही है कि लैसिते काम नहीं कर रहा है.
हाई स्कूल शिक्षिका मार्टिन ज़िबलेट के अनुसार, "अगर एक तरफ़ इस्लामी कट्टरपंथ में उछाल आया है, तो दूसरी तरफ़ मेरे समाज में (गोरी नस्ल के फ़्रांसीसी समाज में) इस्लाम विरोधी विचार बढ़ा है." उनके अनुसार इस्लामी कट्टरपंथ को रोकने के उपाय तो किए जा रहे हैं, लेकिन इस्लामोफ़ोबिया को रोकने के लिए कोई क़ानून नहीं बनाया गया है.
यूसुफ़ इनसे सहमत हैं. वो कहते हैं कि उनके समाज में ये बात आमतौर से महसूस की जाती है कि लैसिते का सहारा लेकर राज्य उनके साथ भेदभाव करता है.
फ़्रांस के एक पूर्व मंत्री बुनुआ अपारु को आपत्ति इस बात पर है कि जिस मजहबी कट्टरपंथ के ख़िलाफ़ लैसिते को आगे बढ़ाया गया है, वो कट्टरपंथ ख़ुद सेक्युलर लोगों में मौजूद है. उन्होंने हाल में एक इंटरव्यू में लैसिते को धर्मनिरपेक्ष अधिनायकवाद कहा था.
बुनुआ अपारु का कहना है,"सहिष्णुता (दमन नहीं) एक ऐसी नीति है, जो एक बहुसांस्कृतिक समाज के साथ वास्तव में तालमेल बिठाती है."
फ़्रांसीसी संस्कृति और समाज में लैसिते की गहरी जड़ों को देखते हुए, ये काम आसान नहीं होगा. जैसा कि राष्ट्रपति मैक्रों कहते हैं, "लैसिते गणतंत्र का एक मूलभूत सिद्धांत है."
दक्षिणपंथी नेशनल फ़्रंट पार्टी, जो मरीन ले पेन के नेतृत्व में हाल के चुनावों में फली-फूली है, बड़े पैमाने पर ख़ुद को लैसिते के रक्षक के रूप में पेश करके सफल हुई है.
इसी देश के कुछ सियासी विशेषज्ञ इस्लाम पर राष्ट्रपति के बयान को एक सियासी बयान मानते हैं, क्योंकि राष्ट्रपति का चुनाव डेढ़ साल में होने वाला है और मरीन ले पेन की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. मरीन ले पेन के आलोचक मानते हैं कि उनका लैसिते 'इस्लामोफ़ोबिया के विरुद्ध केवल एक मखौटा है', लेकिन उनकी बढ़ती लोकप्रियता सत्ता में आने का रास्ता खोल सकती है. (bbc.com/hindi)
-बादल सरोज
और जरा सी गर्मी पकड़ते ही मध्यप्रदेश का अभियान भी घसीटकर अपनी पसंदीदा पिच पर ले आया गया। आमफहम भाषा में कहें, तो दोनों प्रतिद्वंदी दलों की राजनीति अपनी औकात पर आ गई और निशाना स्त्री बन गई।
पूर्व मुख्यमंत्री 73 वर्षीय कमलनाथ को कल तक उन्हीं के मंत्रिमंडल की सदस्य रही, अब दलबदल कर फिर से मंत्री बन चुनाव लड़ रही डबरा की महिला उम्मीदवार ‘आइटम’ नजर आने लगी, तो इस पर कुछ घंटों का मौनव्रत रखकर नौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली भाजपा भी हज के लिए निकल पड़ी। स्त्री सम्मान के लिए सज-धजकर उतरी भाजपा और शिवराज सिंह सहित उसके नेताओं के मौन-पाखण्ड वाली नौटंकी के शामियाने भी नहीं खुले थे कि उन्हीं की पार्टी के चिन्ह से उपचुनाव लड़ रहे दलबदल कर मंत्री बने बिसाहू लाल सिंह ने बाकायदा कैमरों और मीडिया के सामने अपने प्रतिद्वंद्वी की पत्नी के खिलाफ निहायत आपत्तिजनक और भद्दी टिप्पणी कर दी।
इन दोनों ही मामलों में दो उजागर अंतर थे और वो ये कि कमलनाथ के बयान की उनकी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने निंदा की, मगर बिसाहूलाल सिंह के कहे की भत्र्सना करने के लिए राष्ट्रीय तो छोडिय़े, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष या मुख्यमंत्री तक ने जुबान नहीं खोली। दूसरा फर्क यह था कि इन अमर्यादित कथनों पर पर्याप्त थुक्का-फजीहत होने के बाद भी दोनों में से एक ने भी अपने कहे को वापस नहीं लिया। कमलनाथ ने जहां ‘अगर किसी को बुरा लगा हो तो’ कहकर इतिश्री मान ली, तो बिसाहूलाल अपने कहे को दोहराकर उसे सही साबित करने की कोशिश में आज तक हैं।
नारियों के लिए बेहूदा और अक्सर अश्लील टिप्पणियां करने के मामले में भारत के राजनेताओं-पूंजीवादी-भूस्वामी राजनीति के पुरोधाओं का कलुषित और कलंकित रिकॉर्ड भरापूरा है। इनका दस्तावेजीकरण किया जाए, तो यह इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अब तक के सारे खण्डों से ज्यादा बड़े आकार का ग्रन्थ बन सकता है।
नरेंद्र मोदी के शीर्ष पर आने के बाद इसे और समृद्ध बनाने में खुद उन्होंने भी विकट योगदान दिया है। बुंदेली कहावत ‘जैसे जाके नदी नाखुरे तैसे ताके भरिका-जैसे जाके बाप महताई तैसे ताके लरिका’ की तर्ज पर उनकी पार्टी के कारकूनों और भक्तों ने भी इस मामले में जमकर गंदगी फैलाई है। सारे का सारा राजनीतिक बतकहाव स्त्री को लज्जित करने वाले रूपकों, मुहावरों, बिम्बों और उपमाओं की कीच में सना और लिथड़ा हुआ है। सोनिया गांधी से सफूरा जरगर तक, बृन्दा करात से सुभाषिणी अली तक, मायावती से ममता बनर्जी तक आलोचनाएं और विमर्श उनकी नीति या राजनीति पर नहीं, उनके स्त्रीत्व पर केंद्रित रहे हैं।
भाजपा ने उसे नई नीचाई दी है। उसने अपने इस अभियान से उन स्त्रियों को भी नहीं बख्शा, जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं। वे चाहें इंदिरा गांधी हों या 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड बताई गई सुनन्दा पुष्कर हों या हाल में हाथरस में सामूहिक बलात्कार के बाद मार डाली गई मनीषा वाल्मीकि हो। भाजपाई इस महिला धिक्कार और तिरस्कार के मामले में पूरी तरह दलनिरपेक्ष हैं। उन्होंने इस तरह के दुष्प्रचार में अपनी ही नेता रही (और तनिक व्यवधान के बाद अब फिर उनकी ही नेता) उमा भारती से लेकर अपनी ही बाकी नेत्रियों की निजता को भी नहीं छोड़ा।
भारत की राजनीति में जाति श्रेष्ठता हो या राजनीति, विजय का ध्वजारोहण हमेशा स्त्री देह में गाड़ कर ही किया जाता है। जीते कोई भी, हराई हमेशा औरत ही जाती है।
यह सिर्फ यौनकुंठा का मनोरोग नहीं है। यह पोलियो के साथ जन्मे, गर्भनाल से ही कुपोषित और हमेशा वेंटीलेटर पर रहे राजनीतिक लोकतंत्र और कभी साँस न ले पाए सामाजिक लोकतंत्र की मौजूदा अवस्था की एक्सरे और पैथोलॉजी रिपोर्ट है। यह पितृसत्तात्मकता (सही शब्द होगा पुरुष सत्तात्मकता) की गलाजत का दलदल है-जिन्हें कथित धर्मग्रंथों ने खूब महिमामण्डित किया है, मनु जैसों की स्मृतियों ने संहिताबद्ध किया है और देश-प्रदेश के सर्वोच्च पदों पर डटे नेताओं और संवैधानिक कहे जाने वाले व्यक्तियों ने अपने मुखारबिन्द से दोहरा दोहरा कर गौरवान्वित किया है।
नतीजे में यह इतनी संक्रामक है कि जनता के बड़े हिस्से खासकर पुरुषों के विराट बहुमत हिस्से को बिल्कुल भी खराब या गलत नहीं लगती। उनकी खुद की समझदानी के आकार में इतनी फिट बैठती है कि वे इसे सहज और सच्चा मान लेते हैं। इसका रस लेते हैं। यही वजह है कि राहुल गांधी के क्षोभ जताने की टिप्पणी को कमलनाथ ‘यह उनकी निजी राय है’ कहकर टाल देते हैं। भाजपा अपने नेताओं की इस तरह की बातों का संज्ञान तक नहीं लेती। उन्हें पता है कि ‘उनकी जनता’ इस तरह की बातों का बुरा नहीं मानती। इसलिए असली समस्या ये बदजुबानदराज नेता या इस तरह की बातें करने वाले ‘बड़े’ नहीं है।
सारी समस्या है जनता की वह चेतना, जिसे ये ‘अपनी’ कहते-मानते हैं और उसे अपनी तरह का बनाये रखने में जी-जान से भिड़े रहते हैं। असल सवाल है उस सामाजिक लोकतांत्रिक चेतना की कायमी का, जिसमें एक ऐसी मानवीय चेतना पल्लवित की जाए कि खार और काँटों के लिए जगह ही नहीं बचे। यह अपने आप में होने वाला काम नहीं है। आसान काम तो बिलकुल भी नहीं है।
इसके लिए सदियों पुराने कूड़े और करकट को झाड़-बुहार-समेट कर आग के हवाले करना होगा, बंजर बना दिए गए सोच-विचार की जमीन को उर्वरा बनाना होगा, अंधविश्वासों और कुरीतियों की झाड़-झंखाड़ साफ करके वैज्ञानिक मानवीय रुझानों के खाद-बीज रोपने होंगे। बोलने-सोचने-समझने की पूरी वर्तनी, उसमे लिखी गई कथा-कहानियाँ, मुहावरे-लोकोक्तियाँ बदलनी होंगी। स्त्री और सामाजिक शोषितों के साथ हुए ऐतिहासिक धतकरम अन्याय थे, यह स्वीकारना होगा।
जो वर्तमान, इतिहास की गलतियों के लिए हाथ जोडक़र माफी मांगता है, वही अपने पाँवों से अच्छे भविष्य की ओर सरपट दौड़ लगाने की क्षमता से परिपूर्ण होता है। और ठीक यही काम है, जो आजादी के बाद भारत की सत्ता में आया शासक वर्ग नहीं कर सका/नहीं कर सकता।
कम्युनिस्टों को छोड़ दें, जिन्होंने हमेशा पितृसत्ता और मनुवाद के सांड़ को सींगों से पकडऩे की कोशिश की है, तो उनके अलावा भारत की राजनीतिक धारा में सिर्फ बाबा साहेब आंबेडकर थे, जिन्होंने लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की दिशा में महिला प्रश्न को जरूरी तवज्जोह दी और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा। यह बात अलग है कि खुद को उनका अनुयायी मानने वालों ने ही वोट की तराजू का पलड़ा भारी रखने के लिए महिलाओं से जुड़े प्रश्नो की तलवार उठाने वाले अम्बेडकर को गहरे में दफना दिया और स्त्री को शूद्रातिशूद्र बताने वाले मनु का तिलक लगा लिया।
जाहिर है, यह काम अब लोकतंत्र और संविधान बचाने की लड़ाई लडऩे वालों को अपने हाथ में लेना होगा। कारपोरेट की लूट, जाति-श्रेणीक्रम आधारित सामाजिक शोषण के विरुद्ध लड़ते-लड़ते महिला मुक्ति के सवाल पर भी लडऩा होगा। स्त्री को हेय और दोयम समझने की मानसिकता को झाड़ बाहर करना होगा। अपने अंदर भी और बाहर भी!
(लेखक सीपीएम के मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ नेता हैं, पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
-डॉ. संजय शुक्ला
सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक के भारत के पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर आंखी दास के फेसबुक से इस्तीफा देने की खबर आज के अखबारों की सुर्खियां बनींं। गौरतलब है कि आंखी दास पिछले कुछ दिनों से देश के विपक्षी सियासी दलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के निशाने पर थीं। इनका आरोप था कि फेसबुक भाजपा नेताओं के हेट स्पीच, आपत्तिजनक सामग्रियों को प्लेटफार्म से हटाने में पक्षपात और कोताही बरत रही है और इसमें आंखी की भूमिका है। इस मामले में वे हाल ही में संसदीय समिति के सामने पेश भी हुई थीं।
बहरहाल वैश्विक महामारी कोरोना के मौजूदा दौर में जब आम लोगों तक पारंपरिक मीडिया की पहुँच सीमित है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पक्षपातपूर्ण और अतिरंजित हैतब सोशल मीडिया की भूमिका एक बार फिर सवालों के घेरे में है। आम आदमी का संसद माने जाने वाली सोशल मीडिया अब देश के राजनीतिक, सांप्रदायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सौहार्द्र के लिए अनेक मुसीबतें खड़ी कर रही है।
हाल ही मेंं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट मेंं कहा है कि डिजिटल मीडिया जिसकी पहुंच सोशल मीडिया मेंं काफी तेज है अपने आपत्तिजनक और अश्लील वेब सीरिज, सांप्रदायिक और जातिगत आरक्षण पर केंद्रित कार्यक्रमों के कारण अनियंत्रित है। दूसरी ओर सोशल मीडिया प्लेटफार्म मेंं वायरल हो रहे अनेक आपत्तिजनक और अश्लील कंटेंट्स , फोटो व मीम, फेक न्यूज, हिंसात्मक गतिविधियों को उकसाने व अशिष्ट आचरण के कारण देश का राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सौहार्द्र बिगड़ रहा है।
बहरहाल यह पहला अवसर नहीं है जब सोशल मीडिया के निरंंकुशता पर सरकार और अदालतों ने चिंता जाहिर की हो पहले भी इस मीडिया पर नकेल कसने की कवायद हुई थी लेकिन नतीजा सिफर रहा है। सोशल मीडिया से जुड़े शीर्षस्थ अधिकारी की मानें तो यह मीडिया किसी सुचारू रूप से चल रहे लोकतांत्रिक ढांचे को बहुत हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि देश में घटित कुछ सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा और राजनीतिक घटनाओं में सोशल मीडिया की भूमिका से होती है।
गौरतलब है कि इंटरनेट क्रांति के वर्तमान दौर में सोशल मीडिया का वर्चस्व बड़ी तेजी से बढ़ते जा रहा है, आज हर आयु वर्ग के महिला और पुरुष इस मीडिया से जुड़े हैं लेकिन युवाओं की तदाद काफी ज्यादा है। साल २०१४ की तुलना में अब देश में इंटरनेट यूजर्स की संख्या में १०८ फीसदी और सोशल मीडिया यूजर्स में १५५ फीसदी का इजाफा हुआ है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसने दशकों पुराने पारंपरिक मीडिया को पीछे छोड़ दिया है परंतु अब इस मीडिया का नकारात्मक स्वरूप सामने आने लगा है।
देश की अनेक विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने पहले भी यह आरोप लगाया था कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक और व्हाट्सऐप पर आरोप लगा रहीं हैं कि ये प्लेटफार्म सरकार नियंत्रित और पक्षपाती हैं तथा फेक न्यूज और नफरत फैला रहे हैं। गौरतलब है कि देश में ३४ करोड़ फेसबुक और ४० करोड़ व्हाट्सऐप यूजर्स है, भारत फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार है।
गौरतलब है कि कोरोना लॉकडाउन के दौर में जब लोग घरों में कैद थे और सोशल मीडिया में अपना ज्यादातर समय बीता रहे हैं तब यह प्लेटफार्म असहनशील और संवेदनहीन समाज की तस्वीर पेश कर नफरत बांट रहा था। बानगी यह कि मार्च महीने में जब देश में कोरोना ने दस्तक दी और तबलीगी जमात के मरकज के आपराधिक गलती की वजह से देश के विभिन्न हिस्सों में संक्रमण फैला तब कतिपय सोशल मीडिया यूजर्स ने समूचे मुस्लिम समुदाय को अपने निशाने में ले लिया। प्रतिवाद स्वरूप मुस्लिम समाज के कुछ सिरफिरों ने देश के कई शहरों मेंं डॉक्टरों व मेडिकल स्टॉफ के साथ पथराव और बदसलूकी किया। इस घटना को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता।
इन घटनाओं से देश की सांप्रदायिक सद्भाव पर प्रभाव पड़ा जबकि देश का एक बड़ा अमन और तरक्की पसंद मुस्लिम तबका इस प्रकार के गतिविधियों और जमात से इत्तेफाक नहीं रखता। लॉकडाउन के बाद हजारों प्रवासी मजदूरों के भूखे-प्यासे पैदल घर वापसी के दौरान सडक़ हादसों में कई मजदूरोंं के दर्दनाक मौत के बाद सोशल मीडिया में अनेक यूजर्स के संवेदनहीन प्रतिक्रिया और इस मौत के लिए मजदूरों को ही जिम्मेदार ठहराने की वाकये ने निष्ठुरता की पराकाष्ठा ही पार कर दी।
सोशल मीडिया में असंवेदनशीलता मशहूर फिल्म अभिनेताओं ऋषिकपूर, इरफान खान, सुशांत राजपूत के मौत पर भी देखने को मिली, अनेक यूजर्स द्वारा संवेदना की जगह ऋषिकपूर को बीफ खाने तो इरफान को मुस्लिम होने की वजह से लानत और उलाहना के शब्द परोसा गए। युवा अभिनेता सुशांत राजपूत के खुदकुशी पर कई यूजर्स ने इसे कायरता पूर्ण हरकत बताते हुए उनके लिए ओछी टिप्पणियां भी पोस्ट की थी।
मौत और बीमारी पर हर्ष मिश्रित पोस्ट का दौर यहीं नहीं थमा बल्कि सप्रसिद्ध शायर डॉ. राहत इंदौरी और सोशल एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश के मौत के बाद भी इस प्रकार के पोस्ट सोशल मीडिया में देखी गई। सोशल मीडिया में शब्दों और विचारों के मर्यादा राजनेताओं के बीमारी और मौत पर भी टूट रही हैं आलम यह है कि अनेक राजनेताओं के गंभीर रूप से बीमार होने पर विपरीत राजनीतिक विचारधारा के कतिपय यूजर्स द्वारा संवेदना और स्वास्थ्य लाभ के कामना की जगह अशिष्टतापूर्ण व नफरत वाले संवेदनहीन कमेंट्स पोस्ट किए जाते हैं।
गौरतलब है कि हाल के दिनों सोशल मीडिया में महिलाओं के प्रति असहनशीलता और आपत्तिजनक कन्टेंट में काफी बढ़ोतरी हुई है। सुशांत राजपूत के खुदकुशी के बाद अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और कंगना रनौत के राजनीतिक मोहरा बनने के बाद इनके साथ-साथ अन्य अभिनेत्रियों के ड्रग्स के नाम पर जिस तरह सोशल मीडिया पर चरित्र हनन जारी है वह महिलाओं के निजता और मर्यादा को भी तार-तार कर रहा है ।
गौरतलब है कि सोशल मीडिया के इसी दुरूपयोग के मद्देनजर डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू. के खोजकर्ता टिम बर्नर्स ने कहा था कि च्इंटरनेट नफरत फैलाने वालों का अड्डा बन गया है।
बहरहाल सोशल मीडिया मेंं महापुरूषों, राजनेताओं और अन्य विशिष्ट क्षेत्रों से जुड़े लोगों के बारे मेंं आपत्तिजनक और मिथ्या खबरें फैलाने, परस्पर भला-बुरा कहने व गालीगलौज करने, धर्म विशेष को बदनाम करने, महिलाओं के खिलाफ अशिष्टता की घटनाओं ने अभिव्यक्ति की आजादी पर भी सवाल खड़ा किया है आखिरकार बुनियादी मुद्दा व्यक्तिगत निजता और मर्यादा का भी है।
कोरोनाकाल मेंं सोशल मीडिया केवल असहनशीलता और नफरत को ही बढ़ावा नहीं दे रहा बल्कि यह कोरोना संक्रमण और उपचार से संबंधित गलत जानकारियां भी परोस रहा है जो महामारी के इस दौर में परेशानियां पैदा कर रहा है। यह आभाषी मीडिया पारिवारिक और मित्रता के रिश्तों में भी खलल डाल रहा है, इस मीडिया की बढ़ती लत दांपत्य जीवन पर प्रतिकूल असर डाल रहा है अथवा विवाहेत्तर संबंधों को बढ़ावा दे रहा है जिसकी परिणति तलाक, खुदकुशी, हत्या, अवसाद और नशाखोरी के रूप मेंं सामने आ रहा है।
विडंबना है कि जो तकनीक हमें दशकों से बिछड़े यार से मिलाती है, नये दोस्त बनाती है आखिरकार वह अपनों से क्यों जुदा कर रही है? इस त्रासदीकाल में बेंगलुरू में घटित सांप्रदायिक हिंसा और आगजनी के लिए सोशल मीडिया पोस्ट ही जवाबदेह रहा है। बहरहाल सोशल मीडिया जब मानव समाज के लिए वरदान की जगह अभिशाप साबित हो रहा है तब इस प्लेटफार्म मेंं टूटती मर्यादा और बढ़ती असहिष्णुता पर विचार आवश्यक है।
दरअसल इसके पृष्ठभूमि मेंं मानवीय और कानूनी परिस्थितियां जिम्मेदार है, राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लोग अपनी प्रतिक्रिया में इतने अमर्यादित हो जाते हैं कि वे शिष्टता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं वह इसे व्यक्तिगत चुुुनौती मानकर असभ्यता और गाली-गलौज तक पहुंच जाते है जिसकी परिणति एकाउंट से अनफ्रेंड होती है। देश मे सोशल मीडिया और इंटरनेट कानून दशकों पुराने हैं जिसमें बदलाव की दरकार है। सोशल मीडिया कंपनियों को यूजर्स के वेरिफिकेशन, निजता, आपत्तिजनक और गाली-गलौज रोकने संबंधी नियमों को सख्त और पारदर्शी बनाना होगा तभी सोशल मीडिया का स्वरूप सोशल होगा।
( लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज ,रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं। )
- हर्षल अकुर्डे
कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर स्कूली बच्चों के लिए कोडिंग कोर्स का विज्ञापन दिख रहा था. व्हाइट हैट नाम की कंपनी के इन विज्ञापनों में 6 से 14 साल के बच्चों के लिए कोडिंग के फ़ायदों को लेकर कुछ दावे किए गए हैं. इसमें यह भी दावा किया गया है कि सरकार ने छठी क्लास और उससे ऊपर के बच्चों के लिए कोडिंग सीखना अनिवार्य कर दिया है.
ये विज्ञापन मां-बाप और अभिभावकों में भ्रम की स्थिति पैदा कर रहा है इसलिए महाराष्ट्र की शिक्षा मंत्री वर्षा गायकवाड़ से इसे लेकर सवाल पूछे गए हैं. उन्होंने भी इस विज्ञापन का संज्ञान लिया है और लोगों से अपील की है कि वे इस तरह के दावों में ना फंसे.
इसे लेकर विवाद पैदा होने के बाद 'कोडिंग को अनिवार्य बताने वाले' विज्ञापन पर रोक लग गई है लेकिन इसे लेकर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. मसलन कोडिंग क्या है? क्या सिर्फ़ छह साल के बच्चों को कोडिंग सिखाना अनुचित है? क्या इससे इतनी कम उम्र के बच्चों पर कोडिंग जैसे जटिल विषय को सीखने का अतिरिक्त दबाव नहीं पड़ेगा? ऐसे तमाम सवाल पूछे जा रहे हैं.
कोडिंग क्या है?
जब हम कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं तो सिर्फ़ उसके बाहरी प्रोसेस से ही अवगत होते हैं लेकिन इस प्रोसेस के पीछे एक सिस्टम काम कर रहा होता है जिसे 'कोडिंग' कहते हैं. हम इसे बाहरी तौर पर नहीं देख सकते हैं.
कोडिंग को हम प्रोग्रामिंग भी कह सकते हैं या इसे सरल भाषा में कंप्यूटर की भाषा भी कह सकते हैं. जो कुछ भी हम कंप्यूटर पर करते हैं वो सब कोडिंग के माध्यम से ही होता है. कोडिंग का इस्तेमाल कर कोई वेबसाइट, गेम या फिर ऐप तैयार कर सकता है. कोडिंग का इस्तेमाल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स में भी किया जा सकता है.
कोडिंग की कई भाषाएँ होती है जैसे C, C++, जावा, एचटीएमएल, पाइथॉन वगैरह. इनमें से कुछ भाषाओं का इस्तेमाल वेबसाइट और एंड्रॉयड ऐप डिज़ाइन करने में किया जाता है. अगर हमारे पास इन भाषाओं की जानकारी है तो हम एक ऐप या गेम को डिजाइन करने की प्रक्रिया को समझ सकते हैं.
कंपनी का दावा और अभिभावकों में पैदा हुआ भ्रम
कंपनी ने दावा किया कि बच्चों को अगर कोडिंग कम उम्र में सिखाई जाए तो उनके मस्तिष्क का विकास तेज़ी से होगा. ये एकाग्रता को भी बढ़ाता है. कोडिंग भविष्य में सुनहरे मौके मुहैया कराने की कुंजी है. हम अपने बच्चों को इस कोर्स की मदद से सफल उद्यमी और व्यापारी बना सकते हैं.
विज्ञापन में यह भी दावा किया गया है कि भविष्य में 60 से 80 फ़ीसद मौजूदा नौकरियाँ नहीं रहने वाली है इसलिए बच्चों को अभी कोडिंग सिखा कर उन्हें तेज़ बनाना चाहिए. इसके अलावा यह दावा भी किया गया कि भारत सरकार ने अपनी नई शिक्षा नीति में छठी क्लास और उससे ऊपर के बच्चों के लिए कोडिंग सीखना अनिवार्य कर दिया है.
वीरेंद्र सहवाग, शिखर धवन, माधुरी दीक्षित और सोनू सूद जैसे कई सेलेब्रिटी इस विज्ञापन में अपने बच्चों के साथ दिखाई देते हैं लेकिन इस विज्ञापन को लेकर आरोप लगाया गया है कि इसमें आपत्तिजनक चीजें दिखाई गई हैं. कंपनी पर लोगों को दिग्भ्रमित करने का भी आरोप लगाया गया है.
लेकिन इससे लोगों में भ्रम की स्थिति बनी है. इतनी कम उम्र में कोडिंग की पढ़ाई कितनी उचित है इसे लेकर बहस शुरू हो गई है. लोग सवाल खड़ा कर रहे हैं कि कैसे इसे अनिवार्य कर दिया गया. मामले को बढ़ता देख महाराष्ट्र की शिक्षा मंत्री ने दखल दिया.
शिक्षा विभाग ने साफ़ किया- कोडिंग अनिवार्य नहीं
कोरोना को लेकर छह महीनों से स्कूल बंद पड़े हुए थे. इस बीच कई स्कूलों ने ऑनलाइन कक्षाएँ शुरू कीं. अभिभावकों को इस बात को लेकर भ्रम हुआ कि कहीं कोडिंग 'ऑनलाइन एजुकेशन' का हिस्सा तो नहीं.
इस बीच विज्ञापन की वजह से और भ्रम की स्थिति बन गई. एक ट्विटर यूज़र रीमा कथाले ट्वीट कर पूछती हैं, "फेसबुक पर हर रोज विज्ञापन दिख रहा है. आज वो एक और कदम आगे बढ़ गए हैं. वे दावा कर रहे हैं कि कोडिंग छठी क्लास और उससे ऊपर के क्लास के बच्चों के लिए अनिवार्य कर दिया गया है? ये कब हुआ? किसने इसे अनिवार्य कर दिया? या तो मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती या फिर ये विज्ञापन ग़लत है. वे माता-पिता को क्यों दिग्भ्रमित कर रहे हैं?"
सूचना और तकनीकी मंत्री सतेज पाटिल ने रीमा कथाले की इस पोस्ट पर ध्यान दिया और उन्होंने इसे रीट्वीट कर शिक्षा मंत्री वर्षा गायकवाड़ को टैग कर स्पष्टीकरण का अनुरोध किया.
वर्षा गायकवाड़ ने साफ़ किया कि, "नई शिक्षा नीति के मुताबिक राष्ट्रीय और राजकीय स्तर पर अभी पाठ्यक्रम तैयार नहीं हुआ है. इसलिए राज्य सरकार या महाराष्ट्र स्टेट काउंसिल फॉर एजुकेशनल रीसर्च एंड ट्रेनिंग (एसीईआरटी) ने अब तक कोई ऐसा फ़ैसला नहीं लिया है."
उन्होंने छात्रों और उनके माता-पिता से ऐसे विज्ञापनों के झांसे में नहीं आने की भी अपील की.
नई शिक्षा नीति में सिर्फ़ ज़िक्र भर
इस साल तैयार हुई नई शिक्षा नीति में सिर्फ़ इस बात का ज़िक्र है कि कोडिंग स्कूल स्तर पर पढ़ाया जा सकता है. स्कूली शिक्षा विभाग की सचिव अनीता करवाल ने कहा है कि इस बात का ख्याल रखते हुए कि एक कौशल के तौर पर 21वीं सदी की यह जरूरत है, छठी क्लास से बच्चों को कोडिंग पढ़ाया जा सकता है.
लेकिन अभिभावकों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि शिक्षा नीति में कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि कोडिंग पढ़ाना अनिवार्य है.
'यह सिर्फ़ मार्केटिंग है'
यूट्यूब और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर कोडिंग से जुड़े इस विज्ञापन को खूब दिखाया गया. इसलिए इसने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा. प्राइवेट ट्यूशन के इस तरह की मार्केटिंग पर भी सवाल खड़े किए गए.
बाल मनोचिकित्सक डॉक्टर भीषण शुक्ल कहते हैं, "मुझे लगता है कि यह चतुर मार्केटिंग विशेषज्ञों के द्वारा आकर्षक बातों की मदद से फालतू चीज़ें बेचने और उसमें लोगों के फंसने का मामला है."
पुणे में क्रिएटिव पेरेंट्स एसोसिएशन चलाने वाले चेतन एरांडे का कहना है, "हमारे समाज में एक आम अवधारणा है कि बच्चे अगर कम उम्र में कोडिंग सीखना शुरू कर देंगे तो आगे चल कर वो बड़े प्रोग्रामर बनेंगे और फिर वो बहुत पैसे कमाएंगे. कोडिंग क्लास चलाने वालों से जानबूझ कर इस धारणा को और बढ़ावा दिया है."
बीबीसी मराठी ने व्हाइट हैट जूनियर कंपनी से इस मामले में उनका पक्ष जानने के लिए भी संपर्क किया.
व्हाइट हैट कंपनी के मीडिया प्रतिनिधि सुरेश थापा ने बातचीत में कहा, "हमने वो विज्ञापन वापस ले लिया है इसलिए इस बारे में बात करना सही नहीं होगा."
लेकिन सुरेश थापा कहते हैं कि आने वाले वक्त में कोडिंग बहुत अहम होने जा रहा है.
वो कहते हैं, "हालांकि अभी कोडिंग एक अनिवार्य विषय नहीं है. लेकिन यह आने वाले वक्त में निश्चित तौर पर पाठ्यक्रम में शामिल होगा. दुनिया भर में बच्चों को कम उम्र में कोडिंग सिखाई जा रही है. हम भविष्य को देखते हुए लोगों में इसे लेकर जागरूकता फैला रहे है."
कम उम्र के बच्चों पर 'कोडिंग' का दबाव
भूषण शुक्ल कहते हैं कि, "जिन बच्चों को अपनी ख़ुद की साफ़-सफ़ाई के लिए अपनी मां की मदद की ज़रूरत पड़ती है, वो कोडिंग कैसे समझ पाएंगे? यह संभव है कि इससे उनके ऊपर नकारात्मक ही असर पड़े. कंपनी का दावा है कि कोडिंग मस्तिष्क के विकास को बढ़ाता है. लेकिन कोडिंग तो हाल ही में ईजाद हुआ है. मुझे नहीं लगता कि इसका मानव के विकास या फिर बौद्धिक विकास में कोई भूमिका है."
डॉक्टर समीर दलवई भी इस बात से सहमत नज़र आते हैं. वो मुंबई में न्यू हॉरिजन्स चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर में बाल रोग विशेषज्ञ हैं.
वो कहते हैं, "बच्चे पहले से ही कई तरह की तकनीक की मार से घिरे हुए हैं. कोडिंग कोर्स से यह और बढ़ेगा ही. कोई निवेशक आपके दरवाज़े पर कोडिंग सीखाने के बाद सात साल के बच्चे के तैयार किए गए ऐप को खरीदने नहीं आ रहा है. कोडिंग सीखने के लिए दबाव बनाने के बजाए उन्हें खेल-कूद में हिस्सा लेने दें."
इस कोर्स की फ़ीस को लेकर भी सवाल उठे हैं.
चेतन एरांडे कहते हैं, "अगर कुछ हज़ार रुपये फीस देने के बाद बच्चा क्लास करने से मना करता है तो मां-बाप को दुखी नहीं होना चाहिए. उन्हें कुछ हज़ार रुपयों के लिए बच्चों पर दबाव नहीं बनाना चाहिए. अगर बच्चों को समझने में दिक्कत हो रही है तो उन्हें आसानी से कोर्स छोड़ने देना चाहिए."
हालाँकि, व्हाइट हैट के सुरेश थापा क्लास करने के लिए बच्चों पर दबाव डालने की संभावना से इंकार करते हैं.
वो कहते हैं, "कोडिंग क्लास बच्चों को प्रेरित करता है. कोर्स के दौरान बच्चे कई तरह की गतिविधियाँ करते हैं. उनका ध्यान सिर्फ क्लास में ही होता है. इससे एकाग्रता बढ़ाने में मदद मिलती है. क्लास एक घंटे से ज्यादा की नहीं होती है. इसलिए बच्चे आनंदपूर्वक सीख सकते हैं."
आगे वो कहते हैं,"कोडिंग सीखाने का तरीका जो बच्चे पहली क्लास में है और जो बच्चे दसवीं क्लास में हैं उन दोनों के लिए अलग-अलग होता है. हर किसी को उसकी उम्र के हिसाब से सिखाया जाता है. हम किसी बच्चे पर अपनी क्लास में दबाव नहीं डालते हैं. "
अब सवाल उठता है कि क्या कम उम्र के बच्चों को कोडिंग सीखना चाहिए?
चेतन इसका जवाब देते हुए कहते हैं, "उन्हें ज़रूर सीखना चाहिए लेकिन जिस तरह से कोडिंग सिखाया जाता वो अलग होना चाहिए. प्रोग्रामिंग लैंग्वेज की तकनीक तेज़ी से बदल रही है. अगर बच्चे कोई चीज़ कम उम्र में सीखते हैं तो कोई ज़रूरी नहीं कि भविष्य में किसी काम आए. लेकिन बच्चों के लिए कोडिंग सीखना सिर्फ़ प्रोग्रामिंग की भाषा सीखने से ज्यादा महत्वपूर्ण है. हमें यह भी जानने की जरूरत है कि हमारे बच्चों की वाकई इसमें रुचि है कि नहीं."
व्हाइट हैट का कहना है कि, "हम ये नहीं कह रहे हैं कि लोगों को हमारा क्लास ज्वाइन ही करना चाहिए. जिन्हें इसमें दिलचस्पी है वो इसे अभी सीख सकते हैं."
बच्चों की दिलचस्पी कैसे पता करें?
अभिभावक अपने बच्चों के करियर को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते हैं. इसके लिए वो हज़ारों या लाखों रुपये तक खर्च करने को तैयार रहते हैं. लेकिन बाद में बता चलता है कि उनके बच्चे का किसी दूसरे क्षेत्र के प्रति रुझान है.
पीएनएच टेक्नॉलॉजी के निदेशक प्रदीप नरायणकार एक रास्ता बताते हैं कि कैसे इससे बचा जा सकता है. उनकी कंपनी सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट और रोबोटिक्स ट्रेनिंग के क्षेत्र में काम करती है.
वो कहते हैं, "लोग अपने बच्चों को लेकर आते हैं जो टीवी रिमोट या फिर बिगड़ गए उपकरणों को हैंडल करने में दिलचस्पी लेते हैं. लेकिन वाकई में उन बच्चों को कोडिंग में दिलचस्पी नहीं होती है. कुछ बच्चे ये काम जिज्ञासावश भी कर सकते हैं."
वो आगे कहते हैं, "अभिभावकों को सबसे पहले बच्चों के अंदर किसी खास विषय में रुचि है कि नहीं ये देखना चाहिए. अमरीका की संस्था एमआईटी बुनियादी कोर्स करवाती है. गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, इडेक्स और कोर्सेरा जैसी कंपनियाँ भी मुफ्त में ये कोर्स करवाती है. पहले बच्चों से ये कोर्स करवाने चाहिए और देखना चाहिए कि उन्हें कितनी कामयाबी मिलती है. हम विशेषज्ञों से भी इस बाबत राय ले सकते हैं बजाए कि विज्ञापन देख कर महंगे कोर्स के झांसे में फंसने के."(bbc)
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार में किसी भी चुनाव में जीत-हार का निर्णायक फैसला देने में सक्षम महिलाओं को आखिरकार विधान सभा में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा? राजनीतिक दल उन्हें उम्मीदवारों की सूची में भी यथोचित हिस्सेदारी नहीं दे रहे.
महिलाओं को पंचायतों और नगरपालिकाओं में 50 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान के बावजूद बिहार की राजनीति में उन्हें बराबरी की हिस्सेदारी नहीं मिली हैं. स्थानीय निकायों में आरक्षण की व्यवस्था के तहत 2006 से अबतक करीब 200000 महिलाएं चुनीं गईं जो राज्य की करीब 8000 स्थानीय निकायों में आज आधे से अधिक का सफल संचालन कर रही हैं. लेकिन विधान सभा के संदर्भ में इनकी स्थिति ठीक इसके विपरीत है. 28 अक्टूबर, 2020 से शुरू होने वाले विधानसभा चुनाव को देखें तो साफ है कि राजनीतिक दलों द्वारा महिलाओं को 30 प्रतिशत उम्मीदवारी भी नहीं दी गई है. 243 सीटों पर होने वाले चुनाव के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का नारा देने वाली राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने अपने हिस्से की 108 सीटों में से महज 13 सीट पर महिलाओं को प्रत्याशी बनाया है जबकि भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रही जनता दल यूनाइटेड ने अपने हिस्से की 115 सीटों में से 22 सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े किए हैं.
प्रमुख विपक्षी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 144 में 16 सीटों पर तथा इनकी सहयोगी कांग्रेस ने अपने कोटे की 70 सीट में महज सात पर महिलाओं को टिकट दिया है. वहीं 134 सीट पर लड़ रही लोक जनशक्ति पार्टी ने 23 और सीपीआई ने 19 में महज एक सीट पर महिलाओं पर भरोसा जताया है. जाहिर है, महिलाओं को 30 फीसद सीट किसी पार्टी ने नहीं दी है. इससे पहले 2015 में भाजपा ने 157 सीटों में 14, जदयू ने 101 में 10, राजद ने 101 में 10, लोजपा ने 42 में चार, कांग्रेस ने 38 में चार, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने 228 में 17, वामपंथी दलों ने 239 में 12 सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़े किए थे. रही बात 2015 के विधानसभा चुनाव में महिलाओं की जीत की तो 28 महिलाएं चुनाव जीतने में सफल हुई थीं. इनमें जदयू की नौ, राजद की 10, भाजपा की चार, कांग्रेस की चार व एक निर्दलीय थीं. जबकि चुनाव मैदान में कुल 278 महिलाएं जोर-आजमाइश के लिए उतरीं थीं. वहीं अगर विधानसभा में महिला सदस्यों की संख्या देखी जाए तो 2010 में यह 34 थी जो 2015 में घटकर 28 हो गई. जो क्रमश: 14 व 11.5 फीसद रहा.
महिला वोटरों का टर्नआउट पुरुषों से अधिक
वाकई, ये आंकड़े चिंताजनक हैं. वह भी उस परिस्थिति में जब राज्य में महिला वोटरों का टर्न आउट पुरुषों की तुलना में अधिक है. 2010 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 54.49 था जबकि पुरुषों का 51.12 रहा. इसी तरह 2015 में 60 फीसदी से ज्यादा महिलाओं ने वोटिंग में भाग लिया जबकि पुरुषों का मतदान प्रतिशत सिर्फ 53 रहा. जबकि 2010 में मतदान का प्रतिशत 52.67 तथा 2015 में 56.66 था. वोटिंग प्रतिशत में इतने अंतर पर समाजशास्त्र के व्याख्याता वीके सिंह कहते हैं, "कहीं न कहीं सरकारी योजनाओं से मिलने वाला लाभ इसका एक प्रमुख कारण है. नीतीश सरकार ने महिलाओं के हित में कई फैसले लिए हैं. शराबबंदी की भी इसमें अहम भागीदारी है. इससे सरकार व महिलाओं, दोनों ने एक-दूसरे की ताकत को पहचाना. वहीं पुरुषों के बढ़ते पलायन से भी यह गैप ज्यादा हुआ है और पलायन की क्या स्थिति है, यह तो लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों की वापसी से जाहिर है." नीतीश सरकार की छात्राओं को साइकिल-पोशाक देने की घोषणा तो अहम थी ही, 2015 में जब उन्होंने शराबबंदी को लागू करने का वादा किया तो महिलाओं ने उनकी झोली में जमकर वोट डाले. इसका ही नतीजा था कि नीतीश की अगुवाई वाले महागठबंधन को 2015 में 243 में 178 सीटें मिलीं.
समाजशास्त्री रमेश रोहतगी कहते हैं, "महिलाएं अब यह समझने लगीं हैं कि उन्हें किसे वोट देना है और किसे नहीं. स्थानीय निकायों में मिले 50 प्रतिशत आरक्षण से राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़ी है. इन निकायों में महिलाएं अच्छी-खासी संख्या में काबिज हैं. इसी आरक्षण ने उत्प्रेरक का काम करते हुए चुनाव लड़ने और जीतने की संख्या में खासा इजाफा किया है." स्थानीय निकाय महिलाओं के लिए राजनीति में ट्रेनिंग का काम कर रहे हैं. यही वजह है कि इस बार भी कई महिला मुखिया विधानसभा चुनाव लड़ रहीं हैं. भोजपुर जिले के जगदीशपुर विधानसभा क्षेत्र से बतौर जदयू उम्मीदवार चुनाव लड़ रहीं दावन पंचायत की मुखिया सुषुमलता कुशवाहा कहती हैं, "मुखिया रहते मैंने बहुत कुछ सीखा है. अगर आप जमीनी स्तर पर काम कर चुके होते हैं तो आपको ऊपरी स्तर पर काम करने में काफी सहूलियत होती है. आपका विजन क्लियर होता है." वहीं मधुबनी जिले की पीरोखर पंचायत की मुखिया मंदाकिनी चौधरी का कहना है, "मुखिया के चुनाव में जीत ने मुझे गरीबों-पिछड़ों के लिए और काम करने को प्रोत्साहित किया है. मैं प्रचार में विश्वास नहीं करती, मेरा काम बोलेगा."
आधी हिस्सेदारी की मांग हुई तेज
जाहिर है, महिलाएं सजग हो रहीं हैं. जागरूकता का आलम यह है कि शक्ति नामक एक स्वयंसेवी संगठन के बैनर तले महिलाओं ने पंचायत चुनाव के बाद अब राजनीतिक दलों से विधानसभा चुनाव में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग शुरू कर दी है. इनका कहना है कि जब 50 फीसद महिला वोटर हैं तो 11 प्रतिशत महिला विधायक क्यों? इसी कड़ी में बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर बीते सितंबर माह में सेल्फी विद अस कैंपेन के तहत 25 पार्टियों को आंकड़ों के साथ मांग पत्र भेजा गया. दावा है कि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े करीब 35 लाख लोगों ने इस अभियान को अपना समर्थन दिया है. जानकार बताते हैं कि बिहार में बीते 68 साल में महज 277 महिलाएं ही विधायक बन पाईं हैं. 90 प्रतिशत सीट पर पुरुषों का कब्जा रहा है.
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2016 के बीच संपन्न लोकसभा, विधानसभा या विधानपरिषद के चुनावों में कुल 8163 प्रत्याशियों में केवल 610 यानि सात फीसद ही महिलाएं थीं. एक राजनीतिक दल के नेता नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर कहते हैं, "महिला उम्मीदवारों की जीत की संभावना एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. इसी वजह से पार्टियां इन्हें प्रत्याशी बनाने से हिचकतीं हैं. समान परिस्थितियों में भी महिलाओं के विजयी होने की संभावना पुरुषों के मुकाबले कम ही रहती है." वहीं लोजपा की संगीता तिवारी कहती हैं, "चुनाव में महिलाओं का वोट तो सभी पार्टियों को चाहिए, लेकिन आधी आबादी को उनकी संख्या के अनुपात में टिकट देने में सभी कंजूसी करते हैं." राजनीति शास्त्र की रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वंदना कहतीं हैं, "पितृ सत्तात्मक समाज कहीं न कहीं इसमें बड़ी रुकावट है. पुरुष इतनी आसानी से अपने हाथों से नियंत्रण जाने देना पसंद नहीं करेंगे. इसलिए वाजिब भागीदारी मिलने में समय तो लगेगा ही."
60 फीसद युवा व महिला वोटर
1957 में अविभाजित बिहार में हुए चुनाव में 30 महिलाएं विधानसभा पहुंची थीं. 1962 में यह संख्या 25 और 1967 में छह हो गई और फिर इसके बाद 2000 तक आंकड़ा 20 से कम ही रहा. जबकि विभाजन के बाद 2005 के चुनाव में मात्र तीन महिलाएं ही जीत सकीं. फिर 2010 में 25 और 2015 में 28 महिलाएं विधायक बनने में सफल रहीं. इस बार होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 7.29 करोड़ है जिनमें महिला वोटरों की संख्या 3.44 करोड़ तथा पुरुष वोटरों की संख्या 3.85 करोड़ है. इन वोटरों की कुल संख्या में युवाओं व महिलाओं की संख्या 60 प्रतिशत से ज्यादा है. जाहिर है, जिनकी ओर इनका रुझान होगा, उसका पलड़ा भारी हो जाएगा. यही वजह है कि इस बार भी हरेक राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में युवाओं व महिलाओं के कुछ न कुछ खास है और सभी इन्हें लुभाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. किंतु टिकट के बंटवारे से यह स्पष्ट है कि जिन महिलाओं पर पार्टियों ने भरोसा किया है, वह जीत की संभावनाओं को देखते हुए ही.
इस बार भाजपा ने जमुई से पूर्व केंद्रीय मंत्री दिग्विजय सिंह की पुत्री व मशहूर निशानेबाज श्रेयसी सिंह, बेतिया से रेणु देवी व नरकटियागंज से रश्मि वर्मा को टिकट दिया है वहीं राजद ने सीतामढ़ी के परिहार से सिंहवाहिनी पंचायत की चर्चित मुखिया रीतू जायसवाल, सहरसा से पूर्व सांसद लवली आनंद, जबकि जदयू ने गया के अतरी से मनोरमा देवी, खगड़िया से पूनम यादव व कांग्रेस ने मधेपुरा जिले के बिहारीगंज से दिग्गज नेता शरद यादव की पुत्री सुभाषिणी यादव को चुनाव मैदान में उतारा है. जाहिर है इन सबों की जीत की संभावना प्रबल है.
महिला वोटरों की संख्या और इनके वोट प्रतिशत की तुलना में इस बार भी महिलाएं आखिरकार ठगी ही गईं. सामाजिक कार्यकर्ता रूबीना बेगम कहतीं हैं, "महिला, दलित, मुस्लिम व पिछड़े सभी दलों के घोषणा पत्र का अहम हिस्सा होते हैं, किंतु चुनाव के बाद सब इसे भूल जाते हैं. जब तक नीति निर्धारकों में महिलाओं की संख्या नहीं बढ़ेगी तबतक स्थिति में सुधार की कल्पना करना बेमानी है." धीरे-धीरे ही सही चुनावों में महिला प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी है जो एक सकारात्मक संकेत है. .(dw.com)
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए होने वाले पहले चरण के लिए मतदान बुधवार को शुरू हो रहा है. 28 अक्टूबर को 16 जिलों में 243 सदस्यीय विधानसभा की 71 सीटों के लिए वोट डाले जा रहे हैं.
कोरोना संकट के दौरान देश में पहली बार बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 1066 उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला होना है, जिनमें 952 पुरुष तथा 114 महिलाएं हैं. इस चरण में कुल 1354 उम्मीदवारों ने नामांकन का पर्चा भरा था. चुनाव मैदान में सबसे कम प्रत्याशी बांका जिले के कटोरिया सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र में हैं जबकि सबसे ज्यादा उम्मीदवारों की संख्या गया टाउन में है. 28 अक्टूबर को होने वाली वोटिंग में 31,371 मतदान केंद्रों पर 2,14,84,787 वोटर अपने मताधिकार का उपयोग करेंगे जिनमें एक करोड़ 12 लाख 76 हजार 396 पुरुष तथा एक करोड़ 12 लाख नौ हजार 101 महिलाएं एवं 599 ट्रांसजेंडर हैं. 71 में नक्सल प्रभावित 35 सीटों पर शाम चार बजे तक ही मतदान होगा जबकि अन्य जगहों पर सुबह सात बजे से सायं छह बजे तक वोट डाले जा सकेंगे.
आयोग ने वोट डालने के लिए मतदाता पहचान पत्र के अलावा आधार कार्ड, पैन कार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस समेत 11 विकल्प दिए हैं, जिनके आधार पर वोट डाले जा सकेंगे. इस चरण के चुनाव प्रचार में सभी पार्टियों के दिग्गज नेताओं व स्टार प्रचारकों ने मतदाताओं को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन सभाएं कीं जबकि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दो जगहों पर चुनावी सभा को संबोधित किया. इधर, कोरोना संक्रमण में भी तेजी आई है. बीते बीस दिनों में उन छह जिलों में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ी है जहां पहले चरण में चुनाव होना है.
आठ मंत्रियों की प्रतिष्ठा दांव पर
16 जिलों में 71 सीटों पर होने वाले इस चुनाव में भाजपा नीत गठबंधन के नीतीश सरकार के आठ मंत्रियों की प्रतिष्ठा दांव पर है. इन मंत्रियों में जहानाबाद विधानसभा क्षेत्र से शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन वर्मा, गया टाउन से कृषि मंत्री डॉ. प्रेम कुमार, जमालपुर से ग्रामीण कार्य मंत्री शैलेश कुमार, दिनारा से विज्ञान व प्रावैधिकी मंत्री जयकुमार सिंह, बांका से राजस्व मंत्री रामनारायण मंडल, चैनपुर से खनन मंत्री बृजकिशोर बिंद, लखीसराय से श्रम संसाधन मंत्री विजय कुमार सिंह तथा राजपुर से परिवहन मंत्री संतोष कुमार निराला शामिल हैं, जिनके भाग्य का फैसला पहले चरण के चुनाव में ही हो जाएगा. इनके अलावा जो प्रमुख हस्तियां पहले चरण के चुनाव में अपना भाग्य आजमा रहीं हैं उनमें पूर्व मुख्यमंत्री व हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) प्रमुख जीतनराम मांझी, ख्यात निशानेबाज श्रेयसी सिंह (भाजपा), बाहुबली अनंत सिंह (कांग्रेस), बागी भाजपा नेता रामेश्वर चौरसिया (लोजपा) तथा बागी भाजपा नेता राजेंद्र सिंह (लोजपा) शामिल हैं.
बहुकोणीय मकाबलों में मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश
पहले चरण के लिए अलग-अलग गठबंधनों के तहत राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के 42, जनता दल यू के 35, भारतीय जनता पार्टी के 29, कांग्रेस के 21, माले के आठ, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के छह, विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) के एक,, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के 43, लोक जनशक्ति पार्टी के 42, बहुजन समाज पार्टी के 27 प्रत्याशी मैदान में हैं. वर्तमान में 25 सीट पर राजद, 23 पर जदयू, 13 पर भाजपा, आठ पर कांग्रेस, एक पर हम तथा एक-एक सीट पर माले व निर्दलीय का कब्जा है. जातिगत तौर पर देखें तो इन 71 सीटों में से 22 पर यादव, सात-सात पर राजपूत,कुशवाहा व भूमिहार जाति के विधायकों का कब्जा है. पार्टियों ने जिस तरह की रणनीति अपनाई है इस बार भी जीत-हार में जाति निर्णायक फैक्टर होगा. पार्टियों ने भी इसी हिसाब से उम्मीदवार उतारे हैं और इसे ही ध्यान में रख गोलबंदी भी की जा रही है.
नीतीश की खिलाफत कर रही लोजपा
लोजपा ने जिन 42 उम्मीदवारों को उतारा है उनमें 35 जनता दल यू, छह हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा, एक वीआइपी के खिलाफ खड़े हैं. तात्पर्य यह कि लोजपा प्रमुख व पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान ने अपनी घोषणा के अनुसार भाजपा के खिलाफ एक भी उम्मीदवार नहीं दिया है, किंतु मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उनके सहयोगियों के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
मुख्यमंत्री पर सत्ता बचाने का दबाव
इस चरण में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) या महागठबंधन के दलों ने जितने भी उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, उनमें पांच सीटें ऐसी हैं जहां दोनों ओर से महिला प्रत्याशी ही आमने-सामने हैं. इनमें कटोरिया सुरक्षित सीट पर राजद की स्वीटी सीमा हेम्ब्रम भाजपा की निक्की हेम्ब्रम से, मसौढ़ी सीट पर राजद की रेखा देवी जदयू की नूतन पासवान से, बाराचट्टी सीट पर राजद की समता मांझी हम की ज्योति देवी से, कोढ़ा सुरक्षित सीट पर कांग्रेस की पूनम पासवान भाजपा की कविता पासवान से तथा परिहार सीट पर राजद की रितु जायसवाल भाजपा की गायत्री देवी से लोहा लेंगी. लोगों की नजर बाहुबली अनंत सिंह और जदयू के बागी प्रत्याशी ददन पहलवान पर भी है. अनंत पटना जिले के मोकामा से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं तो वहीं बक्सर जिले की डुमरांव विधानसभा सीट से जदयू विधायक ददन पहलवान इस बार पार्टी द्वारा बेटिकट किए जाने से निर्दलीय ही ताल ठोंक रहे हैं. जदयू ने ददन की जगह पार्टी की प्रवक्ता अंजुम आरा को उम्मीदवार बनाया है.
319 प्रत्याशियों का है क्रिमिनल रिकॉर्ड
प्रथम चरण में होने वाले चुनाव में जो 1066 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमाने उतरे हैं, उनमें 319 यानी करीब 30 प्रतिशत प्रत्याशियों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं. इनमें सबसे अधिक दस आपराधिक मामले वाले प्रत्याशी गया जिले की गुरुआ विधानसभा सीट से हैं. पार्टीवार देखें तो राजद ने 73 प्रतिशत तथा भाजपा ने 72 फीसद ऐसे लोगों को प्रत्याशी बनाया है जिनका क्रिमिनल रिकॉर्ड है.
अपराध के मुद्दे पर दिन-रात राजद को कोसने वाली भाजपा भी पाक साफ नहीं है. हालांकि भाजपा के नेता इसे ‘लोहे का काट लोहे से' की संज्ञा देते हैं. प्रथम चरण के चुनाव प्रचार की प्रक्रिया समाप्त होने से पहले शिवहर जिले से जनता दल राष्ट्रवादी पार्टी के उम्मीदवार तथा उनके एक समर्थक की जनसंपर्क के दौरान हत्या कर दी गई तथा उन्हें गोली मारने वाले अपराधियों में एक को पकड़ कर लोगों ने पीटकर मार डाला.
कई करोड़पति हैं मैदान में
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिकॉर्ड्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार प्रथम चरण के चुनाव में मैदान में उतरे एक तिहाई उम्मीदवार करोड़पति हैं जिनकी संपत्ति एक करोड़ से ज्यादा है. 1066 प्रत्याशियों में ऐसे उम्मीदवारों की संख्या 375 है. जिनकी संपत्ति औसतन करीब दो करोड़ है. इनमें सबसे अधिक अमीर कांग्रेस के टिकट पर पटना जिले के मोकामा से चुनाव मैदान में उतरे बाहुबली अनंत सिंह हैं जिनकी संपत्ति 68 करोड़ है. इनके अलावा गया जिले की अतरी सीट से जदयू उम्मीदवार मनोरमा देवी व कुटुम्बा से कांग्रेस प्रत्याशी राजेश कुमार हैं जिन्होंने हलफनामे में अपनी संपत्ति क्रमश: 53 व 33 करोड़ घोषित की है. आंकड़ों के मुताबिक इस चरण में राजद में सर्वाधिक 98 फीसद, जदयू में 89, भाजपा में 83, लोजपा में 73, बहुजन समाज पार्टी में 46 प्रतिशत करोड़पति उम्मीदवार हैं.
पहले चरण में सबसे कम उम्र की प्रत्याशी मुंगेर जिले के तारापुर विधानसभा क्षेत्र से राजद की दिव्या प्रकाश हैं, जिनकी आयु महज 28 साल है. दिव्या पूर्व केंद्रीय मंत्री जयप्रकाश यादव की बेटी हैं. जमुई से भाजपा की उम्मीदवार श्रेयसी सिंह उम्र में इनसे दो साल बड़ी हैं. वहीं सिकंदरा सुरक्षित सीट से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे 79 वर्षीय रामेश्वर पासवान सबसे उम्रदराज हैं. पत्रकार राजीव रंजन कहते हैं, "इतना तो साफ है कि 2005 तथा 2010 में लालू राज के खिलाफ व सुशासन के मुद्दे पर तथा 2015 में भाजपा को हराने के मुद्दे पर चुनाव लड़ा गया, किंतु इस बार किसी एक मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ा जा रहा. इस बार क्षेत्रवार मुद्दे हावी रहेंगे जिन्हें आप एंटी इन्कमबैंसी की संज्ञा भी दे सकते हैं." इसके अलावा कोरोना संकट भी है. कहीं न कहीं यह एक हद तक मतदान प्रतिशत को तो प्रभावित करेगा ही. वैसे इस बार भी युवाओं व महिलाओं की भूमिका ही निर्णायक रहेगी.(dw.com)


