संपादकीय
चीन, जापान, और दक्षिण कोरिया की अलग-अलग खबरें हैं कि वहां महिलाओं ने कामकाज की जगह पर सिर्फ महिलाओं के लिए बनाए गए कई किस्म के कपड़ों, जूतों, या मेकअप के पैमानों का विरोध करना शुरू किया है। बहुत से दफ्तरों में महिलाओं को आकर्षक और खूबसूरत दिखाने के लिए उनकी कद-काठी के नाप से लेकर बालों और मेकअप तक, उनके जूते-सैंडलों की एड़ी तक बहुत सी चीजों को लादा जाता है। जापान में अभी महिलाएं जो आंदोलन कर रही हैं उसमें नामी-गिरामी अभिनेत्री और लेखिका ने भी दस्तखत किए हैं, और इसे ऊंची एड़ी के विरोध का आंदोलन कहा जा रहा है। महिलाएं सोशल मीडिया पर लगातार ऐसी शर्तों के खिलाफ लिख रही हैं। जापान में यह आम बात है कि वहां ग्राहकों से बात करने वाली दुकानों की लड़कियों और महिलाओं को चश्मा पहनने से मना किया जाता है, और कांटैक्ट लैंस लगाने कहा जाता है क्योंकि चश्में को खूबसूरती के खिलाफ मान लिया गया है। दूसरी तरफ मर्दों के चश्मा पहनने पर कोई रोक नहीं है, और उनके जूतों पर भी किसी तरह के प्रतिबंध नहीं है। महिलाओं ने वहां नारा दिया है कि वे क्या पहनें, इसे कोई और तय न करें।
अब दूसरे देशों में शुरू हुए ऐसे आंदोलनों को छोड़ें, और हिन्दुस्तान की देखें, तो यहां भी सैकड़ों बरस से महिलाओं की पोशाक पर ही रोक-टोक चली आ रही है। सम्मान से लेकर सौंदर्य तक के सारे पैमाने उन्हीं पर लादे जाते हैं। एक वक्त महिलाओं को चेहरा घूंघट से ढांककर रखना पड़ता था, और अब भी वह राजस्थान के कई इलाकों में प्रचलित है, हो सकता है कुछ और प्रदेशों में भी यह चल रहा हो। महिलाओं के कपड़े, उनके गहने, उनके शादीशुदा होने, कुंवारी होने, या पति खो चुकी विधवा होने के हिसाब से अलग-अलग किस्म से तय होते हैं। महिलाओं के साथ पोशाक को लेकर शायद सबसे हिंसक और भयानक बात केरल के त्रावणकोर राज में थी, जहां पर 1859 तक दलित महिलाओं के सीना ढांकने पर टैक्स लगाया गया था, ताकि दलित महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर भी सीना न ढांक सकें। इस इतिहास का एक भयानक तथ्य यह है कि इसके खिलाफ विरोध करते हुए एक दलित महिला ने टैक्स वसूलने आए आदमी को अपने वक्ष काटकर पत्ते पर रखकर दे दिए थे। इसके खिलाफ महिलाओं को आंदोलन करना पड़ा था। मर्दों की चलाई गई सत्ता का महिलाओं के लिए ऐसा रूख था। यह आंदोलन इसी महिला नांगेली के नाम से जाना जाता है। उसने टैक्स के लिए चावल देने की बजाय हंसिए से अपना सीना काटा, और पत्ते पर रखकर सरकारी कर्मचारी को दे दिया। इसमें इतना खून बहा कि वह मर गई, लेकिन उसने एक आंदोलन को जन्म दिया।
हिन्दुस्तान की संस्कृति में महिलाओं के लिए कपड़ों और गहनों के सारे पैमाने मर्दों के लादे हुए हैं, बहुत समय तक उसके गहनों की आवाज उसके चलने-फिरने से आती रहती थी, ताकि सबको उसकी हलचल का पता लगता रहे। और हिन्दुस्तान से परे भी पूरी दुनिया में अगर खूबसूरती के पैमानों को देखा जाए तो उनको महिलाओं पर ही लादा गया है जिसे निभाने के लिए उन्हें खासा वक्त लगाना पड़ता है, खर्च करना पड़ता है, और इसमें कमी रह जाने पर वे हीनभावना में डूब जाती हैं। समाज में महिलाओं का सम्मान उनके रूप-रंग के रख-रखाव, उनके हुलिए, गहनों-कपड़ों और उनके मेकअप जैसी चीजों से तय होता है। जो मर्द चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ रखकर ऐंठते हैं, वे महिला के हाथ-पैर पर रोएं भी देखना नहीं चाहते। इस काम में मर्दों का अपना स्वार्थ था कि वे महिलाओं को बेहतर दिखने वाली बनाए रखना चाहते थे, दूसरी तरफ इसमें बाजार व्यवस्था का स्वार्थ भी था जो कि तरह-तरह की चीजें महिलाओं को बेचती थीं, और महिलाएं फैशन के सैलाब में अधिक से अधिक चीजों की तरफ दौड़ती रहती थीं, आज पहले के मुकाबले और अधिक दौड़ती हैं।
बाजार और कामकाज की जगहों पर रूप-रंग को, कद-काठी, और पहरावे की समझ को इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया है कि कामकाज के हुनर को भी अधिक महत्व नहीं मिलता। और तो और टीवी समाचारों की दुनिया में आज लड़कियों और महिलाओं को इन्हीं पैमानों की वजह से सबसे पहले छांटा जाता है।
चीन, जापान, या दक्षिण कोरिया में जो महिला आंदोलन शुरू हुए हैं इस पर बाकी दुनिया को भी सोचना चाहिए। वे मर्द जो कि मातहत, या साथ में काम करने वाली महिलाओं को नयनसुख, या आईकैंडी मानते हैं, वे तो कभी नहीं चाहेंगे कि महिलाओं के रूप-रंग के पैमानों को नर्म किया जाए। वे अपने आसपास कामकाजी महिलाओं को भी तितलियों की तरह देखना चाहेंगे। लेकिन महिलाओं को इसके खिलाफ अदालत तक भी जाना चाहिए, और रूप-रंग, मेकअप, और पोशाक के नियमों को औरत-मर्द के लिए बराबरी का बनाने की मांग करनी चाहिए। अगर मर्द की दाढ़ी-मूंछ से उनका कामकाज प्रभावित नहीं होता है, तो महिला के हाथों पर रोएं आ जाने से यह काम कैसे प्रभावित हो जाएगा? जहां तक ऊंची एड़ी के सैंडलों का सवाल है, तो मेडिकल साईंस इस बात का गवाह है कि इनसे महिलाओं की रीढ़ की हड्डी पर एक नाजायज जोर पड़ता है, और उन्हें हमेशा के लिए नुकसान हो सकता है, आमतौर पर नुकसान होता ही है। इसी तरह लड़कियों के खेलने के लिए बनाई गई आधुनिक गुडिय़ा, बार्वी के छरहरे बदन को देखकर लड़कियां उसे ही जिंदगी का असल पैमाना बना लेती हैं, और वैसी ही छरहरी बनने के लिए, बनी रहने के लिए भूखों मरने लगती हैं। आज दुनिया में दसियों लाख लड़कियां और महिलाएं बार्वी जैसा बदन पाने के संघर्ष में लगी हुई हैं, और वैसा न होने पर वे हीनभावना की शिकार हो जाती हैं, मानसिक अवसाद से घिर जाती हैं। प्रकृति ने अलग-अलग लोगों की कद-काठी अलग-अलग किस्म की बनाई है, और उनके सामने फैशन की दुनिया, ग्लैमर की दुनिया, मर्दों की उम्मीदों की फेहरिस्त ऐसे पैमाने पेश कर देती हैं कि महिलाएं उसी जाल में फंसी रह जाती हैं। अपने आसपास महिलाओं पर लादे गए खूबसूरती और फैशन के पैमानों के बारे में सभी को सोचना चाहिए, और उन्हें मर्दों पर लादे गए पैमानों के बराबर लाना चाहिए, ताकि लैंगिक असमानता खत्म हो सके। तमाम लोगों को इन बातों पर चर्चा करनी चाहिए क्योंकि कोई भी संघर्ष चर्चा से उपजी जागरूकता के बाद ही शुरू हो सकता है।
मोबाइल फोन ऐप के मार्फत मिनटों में लोन देने वाले एप्लीकेशन इसके तुरंत बाद कर्जदार से वसूली के लिए उनसे जुर्म की हद तक जाकर वसूली और उगाही करने वाले मुजरिमों के गिरोहों का पर्दाफाश बीबीसी की एक खोजी रिपोर्ट में हुआ है। यह रिपोर्ट बताती है कि कर्ज वसूली और उगाही करने के नाम पर लोगों को जिस तरह ब्लैकमेल किया जाता है, उसकी वजह से हिन्दुस्तान में कम से कम 60 लोग खुदकुशी कर चुके हैं। और ऐसे अनगिनत लोग होंगे जो चारों तरफ से और कर्ज लेकर ब्लैकमेलरों को पैसा देते हैं। ऐसे साहूकार-ऐप लोगों को कर्ज देने के साथ-साथ उनके फोन पर अपने एप्लीकेशन इंस्टाल करते हैं, और उसके साथ ही उनकी फोनबुक उनके सारे फोटो और निजी जानकारियों पर कब्जा कर लेते हैं। इसके बाद दिए गए कर्ज से कई गुना अधिक वसूली करते हुए वे लोगों की तस्वीरों को छेड़छाड़ करके उन्हें नग्न और अश्लील बनाकर, उनके फोनबुक के संपर्कों को भेजकर तरह-तरह से उन्हें ब्लैकमेल करते हैं, उनका जीना हराम कर देते हैं, इन कंपनियों के कॉलसेंटर चौबीस घंटे कर्जदारों को फोन करते हैं, गालियां बकते हैं, और दी गई रकम और ब्याज से कई गुना अधिक वसूल करते हैं। बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि यह दुनिया के कम से कम 14 देशों में फैला हुआ जुर्म का ऐसा कारोबार है जो टेलीफोन पर ही आसान कर्ज देने के नाम पर लोगों को फंसा लेता है, और फिर उन्हें बेइज्जत करके जायज वसूली से कई गुना अधिक वसूली करता है। बीबीसी ने छानबीन में पाया है कि भारत में जिन 60 लोगों ने परेशान होकर डर और दहशत में खुदकुशी की है उसमें से आधे लोग तेलंगाना और आन्ध्र में थे। कर्ज लेकर शर्मिंदगी में खुदकुशी करने वालों में 4 किशोर भी थे।
अब इस रिपोर्ट से भारत सरकार की आंखें खुल जानी चाहिए कि हिन्दुस्तानी लोगों को ऑनलाईन मुजरिम किस तरह लूट रहे हैं और मरने को मजबूर कर रहे हैं। वैसे तो राज्य सरकारों के पास भी इस तरह की ब्लैकमेलिंग पर कार्रवाई करने के लिए बहुत से अधिकार हैं, लेकिन जब कई देशों तक फैला हुआ अंतरराष्ट्रीय मुजरिमों का कारोबार पकडऩा हो, तो उसके लिए भारत सरकार के अधिकार अधिक काम आते हैं। आज अगर टेलीफोन कॉल और इंटरनेट पर जुर्म को पकडऩे के लिए सरकारों के पास काफी अधिकार हैं, तो उनका इस्तेमाल होना चाहिए, और बेकसूरों की जिंदगी बचानी चाहिए। इसके अलावा भी लोगों से अगर उनकी देनदारी से अधिक वसूली की जा रही है, ब्लैकमेल किया जा रहा है, तो ऐसे आर्थिक अपराध पर भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय पुलिस संस्थानों के साथ मिलकर कार्रवाई करनी चाहिए।
अब सरकार को उसकी जिम्मेदारी गिना देने के बाद लोगों को भी यह समझाना जरूरी है कि वे आसान कर्ज के चक्कर में न पड़ें। दुनिया में ऐसे कोई साहूकार नहीं हो सकते जो बिना किसी गारंटी के, घर बैठे मोबाइल फोन पर ही कर्ज मंजूर करने जैसी समाजसेवा करें। जिंदगी में जब भी कुछ बहुत आसानी से हासिल होने लगे, बहुत जल्दी हासिल होने लगे, बहुत आकर्षक दिखता हो, तो लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं हो सकता है। इसलिए देश के भीतर भी और आसपास कहीं किसी के दफ्तर भी खुले हुए हों तो भी ऐसे लालच में नहीं पडऩा चाहिए कि आसानी से कर्ज मिल जाए, या कि आसानी से मोटी कमाई हो जाए। हमने पिछले बरसों में छत्तीसगढ़ में देखा है कि किस रफ्तार से चिटफंड कंपनियों ने कारोबार खोला, लोगों ने उसमें अपनी पूंजी लगाई, और कंपनियों ने मोटी कमाई की गारंटी दी, और हजारों करोड़ रूपए लेकर भाग गईं। बाजार का तरीका यही है। और हर दशक में अलग-अलग किस्म के तरीकों की जालसाजी का फैशन आता है। अभी कुछ बरस पहले तक एक जालसाजी बड़ी लोकप्रिय और कामयाब थी जिसमें लोग किसी कंपनी में रोज एक रकम जमा कराते थे, और कुछ महीने बाद वह रकम दुगुनी होकर मिल जाती थी। जब शुरुआती लोगों को मोटे मुनाफे के साथ रकम मिलती थी, तो वे दुगुने उत्साह से खुद भी अपना पैसा इसमें डालने लगते थे, और अपने आसपास के लोगों का भी पैसा जमा करवाते थे। यह सौ बरस से भी पुरानी जालसाजी की एक ऐसी विदेशी तकनीक है जिसमें यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक आगे और बेवकूफ लोग मिलते रहते हैं। उनसे मिले हुए पैसों से पिछले लोगों का पैसा भुगतान किया जाता है। लेकिन अगर यह सिलसिला चलता ही रहे, तो भी दुनिया के आखिरी इंसान के पूंजीनिवेश के बाद रकम कहां से आएगी? यह एक ऐसा सिलसिलेवार धोखा रहता है जिसमें बहुत से लोग पैसा लगाते हैं। लोगों को याद होगा पहले इस तरह की दूसरी घरेलू योजनाएं चलती थीं जिनमें लोग कुछ कूपन खरीदते थे, और जब वे कूपन दूसरों को बेचते थे, तो कंपनी उनका अपना पैसा वापिस कर देती थी। मतलब यह कि जो मूर्ख चार नए मूर्ख ढूंढकर लाएगा, उसे उसका पैसा वापिस मिल जाएगा, और अब यह नए चार मूर्खों पर निर्भर करेगा कि वे 16 और मूर्ख ढंूढकर लाएं।
मीडिया और सोशल मीडिया पर लगातार ऐसी धोखेबाजी और जालसाजी की खबरें आती रहती हैं, और इसके बाद भी अगर लोग सावधान नहीं होते हैं, तो सरकार और समाज दोनों को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। लोगों में जागरूकता फैलाने की जरूरत है ताकि वे इस तरह धोखा खाने से बचें।
पिछले करीब एक सदी में नोबेल पुरस्कार कमेटी ने 93 लोगों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया है, इनमें से कल यह पुरस्कार पाने वाली क्लॉडिया गोल्डिन तीसरी महिला हैं। और एक दूसरे नजरिए से देखें तो अर्थशास्त्र में किसी पुरुष के साथ संयुक्त रूप से यह पुरस्कार पहले दो महिलाओं को मिला है लेकिन अकेले यह पुरस्कार जीतने वाली क्लॉडिया पहली महिला हैं। 1901 से शुरू हुए नोबेल पुरस्कारों में इकॉनामिक्स का पुरस्कार 1969 से शुरू हुआ, और कभी दो, कभी तीन लोगों को मिलते हुए वह अब तक 93 लोगों को मिला है। खैर, नोबेल पुरस्कार या अर्थशास्त्र के नोबेल के इतिहास को बताना आज का मकसद नहीं है बल्कि क्लॉडिया को उनके जिस अध्ययन के लिए यह सम्मान मिला है, वह चर्चा के लायक है। उन्होंने पिछले दो सौ बरसों में कामकाजी महिलाओं की भागीदारी का अध्ययन किया है, और इससे पता लगता है कि लगातार आर्थिक विकास के बाद भी, और कामकाज में हिस्सेदारी के बाद भी समान काम के लिए महिलाओं का वेतन पुरूषों के बराबर नहीं है। महिलाएं जहां अधिक पढ़ी-लिखी हैं, वहां भी उन्हें बराबरी की तनख्वाह नहीं मिलती।
अब इस अर्थशास्त्री के निष्कर्षों से परे हम अपने स्तर पर इस मुद्दे को देखें तो कामकाजी महिला को समान काम के लिए समान वेतन या मजदूरी मिले, ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता है। उन्हें काम मिलने की संभावना कम रहती है, जब कहीं छंटनी होती है, तो सबसे पहले उनकी बारी आती है, अधिकतर संस्थानों में महिलाओं के छुट्टी और इलाज के हक को अनदेखा किया जाता है, काम की जगहों पर उनके शोषण की शिकायतों के निपटारे की कानूनी जरूरतें पूरी नहीं की जाती हैं, और उनकी मेहनत और उत्पादकता का मूल्यांकन पुरूषों के बराबर नहीं होता है। और यह बात कोई नई नहीं है, जब लोकतंत्र नहीं था, कानून नहीं थे, तब भी ऐसा ही हाल था, और आज भी ऐसा ही हाल है। हिन्दुस्तान की आजादी के पहले आंदोलन 1857 की क्रांति को देखें, तो लखनऊ की एक तवायफ की बेटी, और खुद भी तवायफ, अजीजन बाई के कोठे पर आजादी की लड़ाई की योजना बनती थी। वे नाना साहब, तात्या टोपे, जैसे क्रांतिकारियों के साथ बैठकों में शामिल होती थीं, और जेएनयू की एक प्रोफेसर ने भारत की आजादी की लड़ाई मेें तवायफों के योगदान पर एक रिसर्च पेपर लिखा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि विनायक दामोदर सावरकर ने भी अपने लेखों में अजीजन बाई के बारे में लिखा है। एक दूसरी तवायफ रसूलन बाई ने गांधी से प्रेरित होकर गहने पहनने छोड़ दिए थे, और अपनी महफिल में मिले पैसे क्रांतिकारियों को दे देती थीं। ऐसी बहुत सी तवायफें थीं जिन्होंने अपना सब कुछ आजादी की लड़ाई को दिया, और दूसरी तरफ इस देश ने उन्हें तवायफ नाम की बेइज्जती से अधिक कुछ नहीं दिया। ऐसा ही एक दूसरा इतिहास धर्म के इतिहासकार देवदत्त पटनायक बताते हैं कि किस तरह कई तवायफों ने मठ बनाने के लिए, मंदिर के लिए, धर्म और सन्यासियों के लिए बहुत कुछ दान दिया। लेकिन समाज ने उन्हें अपमान के अलावा कुछ नहीं दिया।
एक महिला की नजर से देखें, या कि एक इंसाफपसंद की नजर से देखें तो औरतों ने अपनी कमाई धर्म के लिए दान दी, और धर्म ने उन्हें देवदासी बनाकर छोड़ा। इन दोनों सच्चाईयों को एक साथ अगर रखकर देखें तो महिलाओं से होने वाली बेइंसाफी समझ आती है। हिन्दुस्तान जिस तरह मां के त्याग की महिमा गाते थकता नहीं है, उसकी कोई भी नीयत मां का सम्मान करने की नहीं रहती, बल्कि लड़कियों को यह प्रेरित करने की रहती है कि उन्हें आगे चलकर अपनी जिंदगी की तमाम जरूरतों और खुशियों को भूलकर कैसा त्यागी बनना है, किस तरह देवी की प्रतिमा के आठ हाथों की तरह उन्हें दूसरे इंसानों के मुकाबले चार गुना अधिक काम करना है, और एक मां या गृहिणी किस तरह मल्टीटास्किंग कर सकती है, यानी एक साथ कई किस्म के काम कर सकती है। महिला के लिए मन में सचमुच सम्मान रहता तो घर के मर्द और लडक़े उसका हाथ बंटाते, उसका बोझ कम करते। लेकिन नीयत जब उसे बरगलाकर और अधिक त्यागी बनाने की रहती है, तो फिर उसकी महिमा का गान होता है, और उसे झोंक दिया जाता है।
हिन्दुस्तान जैसे देश में जिस महिला पर घर की पूरी जिम्मेदारी रहती है, और जो बाहर काम करने नहीं जा पाती, उसकी उत्पादकता को तो कुछ गिना ही नहीं जाता है। आम हिन्दुस्तानी बातचीत में घर पर ही काम करने वाली महिला का जिक्र करते हुए यही कहा जाता है कि वह कुछ काम नहीं करती, घरेलू महिला है, घर पर रहती है। घर पर इतने काम करने के लिए, इतनी ईमानदारी और निष्ठा से करने के लिए परिवार को कितनी मजदूरी चुकानी पड़ती, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जाता है। कुल मिलाकर मतलब यह है कि महिलाएं हर किस्म की गैरबराबरी की शिकार हैं, और अभी इस बरस का अर्थशास्त्र का जो नोबेल एक अकेली महिला को पहली बार मिला है, वह महिलाओं के मुद्दों की तरफ, उन पर थोपी गई गैरबराबरी की तरफ दुनिया का ध्यान कुछ वक्त के लिए तो खींच सकता है। अगर कोई सभ्य और समझदार समाज है, तो उसे चाहिए कि ऐसे हर मौके पर पुरस्कृत या सम्मानित लोगों के अध्ययन, उनके शोध, उनके लिखे या कहे हुए मुद्दों को अपने आसपास के माहौल पर भी लागू करके देखे। कामकाजी महिलाओं के साथ जो गैरबराबरी होती है, उसमें क्लॉडिया गोल्डिन ने हिन्दुस्तान आकर तो काम शायद नहीं किया होगा, लेकिन उनके निष्कर्ष ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान पर भी लागू होते हैं। हिन्दुस्तान के सामाजिक संगठनों को भी चाहिए कि उनके काम की तकनीकी जटिलताओं से परे, उनके निष्कर्षों को लेकर देश भर में जगह-जगह चर्चा हो, और उन्हें हिन्दुस्तानी संदर्भों से जोड़ा जाए। ऐसा करने पर हम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एक अर्थशास्त्री के काम का स्थानीय उपयोग भी कर सकेंगे।
इजराइल पर हमास के हमले के जवाब में इजराइल के गाजापट्टी पर इजराइल का हमला भयानक है। हमास तो फिलीस्तीन में बसा हुआ एक आतंकी संगठन है, जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है, और जिसे दुनिया आतंकी संगठन ही मानती है, लेकिन इजराइल तो संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य देश है, जो कि दुनिया के बाकी देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों वाला भी है। इसलिए उसकी कार्रवाई एक देश की कार्रवाई की तरह होनी चाहिए। आज वह हमास के आतंकी ठिकानों पर हवाई हमलों के नाम पर गाजा के 20 लाख से अधिक आम नागरिकों की रिहायशी बस्तियों पर भी अंधाधुंध हमले कर रहा है, और मुस्लिम अरब देशों के खिलाफ जो पश्चिमी देश कई वजहों से एक रणनीति पर चलते हैं, वे आज इजराइल के साथ हैं जिसने हमास के आतंकी हमले में हजार-पांच सौ मौतें झेली हैं। उसने इसे अपने पर हमास की थोपी हुई जंग माना है, और हमास को तबाह करने का बीड़ा उठाया है। बार-बार पश्चिमी दुनिया इसकी 11 सितंबर के उस आतंकी हमले की मिसाल देते हुए चर्चा कर रही है जिसमें ओसामा-बिन-लादेन के विमानों ने न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारत में विमान घुसाकर उसे ध्वस्त कर दिया था। वह किसी देश पर आतंकी हमले के इतिहास की सबसे बड़ी मिसाल बना हुआ है, और इजराइल इसे अपने पर उसी किस्म का हमला मान रहा है।
लेकिन हमास के इस आतंकी हमले के पीछे की वजहों को अनदेखा करके दुनिया किसी सुख-चैन के मुकाम पर नहीं पहुंच सकती। इजराइल की रोज की फौजी हुकूमत अगर फिलीस्तीन के लोगों को आए दिन मारती है, उन्हें अपनी ही जमीन पर इंसानों से गया-बीता बनाकर रखा है, तो उसकी हिंसक और आतंकी प्रतिक्रिया तो किसी न किसी दिन होनी ही थी। लेकिन एक देश के रूप में इजराइल की प्रतिक्रिया मुस्लिम अरब देशों के बीच यह फिक्र खड़ी करेगी कि एक मुस्लिम देश के बेकसूर नागरिकों पर दशकों से चली आ रही इजराइली आतंकी हिंसा को देखते हुए बाकी मुस्लिम देश चुप बैठे रहें कि फिलीस्तीन सरीखे गरीब और कमजोर मुस्लिम देश का साथ दें? इसलिए हमास का यह ताजा हमला सैकड़ों जिंदगियों को खत्म करने वाला तो है, लेकिन साथ-साथ यह दुनिया को एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि क्या फिलीस्तीनियों पर इजराइलियों का दशकों का रोजाना का हमला आगे भी अनदेखा किया जाना चाहिए?
दुनिया के जो देश आज इजराइली मौतों को लेकर उसके साथ खड़े हैं, जिनमें हिन्दुस्तान भी एक है, उनकी प्रतिक्रिया बेकसूर फिलीस्तीनियों को हवाई हमले में मारने पर क्या होगी, यह भी देखना होगा। क्या ऐसा कोई फौजी हमला जायज हो सकता है जो आतंकी ठिकानों को खत्म करने के लिए किया बताया जा रहा हो, और जो आतंकियों और बेकसूर नागरिकों में कोई फर्क न करता हो? लोगों को याद होगा कि भारत ने भारत में एक आतंकी हमला करने के आरोप में पाकिस्तान पर एक सर्जिकल स्ट्राईक करने की बात कही थी, और कहा था कि यह आतंकियों के प्रशिक्षण केन्द्र पर किया गया हवाई हमला था। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने बताया था कि वहां पर कोई आतंकी प्रशिक्षण केन्द्र नहीं था, और हिन्दुस्तानी हवाई हमले में कोई मौत नहीं हुई, सिर्फ एक कौंवा मरा था। अब अगर हिन्दुस्तानी हवाई हमले में पाकिस्तान की किसी रिहायशी बस्ती के सैकड़ों लोग मारे गए होते, तो क्या वे मौतें जायज कही जातीं? 11 सितंबर के हमले के बाद अमरीका ने जिस तरह कई देशों पर हवाई हमले किए, अपनी फौज भेजी, वहां सत्ता पलट करवाया, उनसे किसका भला हुआ, खुद अमरीका का भी कोई फायदा उससे नहीं हुआ, और इन तमाम देशों से अमरीकी फौजों को पूरी नाकामयाबी के साथ छोडक़र जाना पड़ा। इसलिए किसी आतंकी हमले का बदला लेने के नाम पर जख्मी देश अगर दूसरे देश के बेकसूर लोगों पर हवाई हमला करता है, और आतंकियों को मारने के नाम पर सैकड़ों बेकसूर नागरिकों को मारता है, तो आज तो दुनिया के कई देश इजराइल को पूरी छूट देकर खड़े हुए हैं, लेकिन यह कौन से सभ्य लोकतंत्र का सुबूत है कि एक गरीब और लाचार देश में एक गुंडे देश के हवाई हमले से बेकसूर लाशें गिर रही हैं? अमरीका ने जब म्यांमार पर हुए आतंकी हमले का बदला लिया, तो उसने कई देशों में मरने वाले बेकसूर दसियों हजार लोगों के बारे में यही तर्क दिया था कि यह कोलैटरल डैमेज है, यानी गेहूं के साथ घुन पिस जाने की तरह। आज इजराइली हमलों में जो कोलैटरल मौतें हो रही हैं, वे फिर एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करेंगी, जो अपने जीते-जी इजराइल से दुश्मनी भूल नहीं पाएगी।
कुछ अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि यह सही मौका है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिलीस्तीन और इजराइल के झगड़े पर सोच-विचार होना चाहिए, और उसका एक शांतिपूर्ण समाधान निकालना चाहिए। फिलीस्तीनी लोग अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बने हुए हैं, और उन्हें हर दिन बेदखल करके वहां इजराइली कॉलोनियां बनाने से दुनिया का यह हिस्सा कभी भी अमन-चैन नहीं देख पाएगा। पश्चिमी देश इजराइल के साथ खड़े हैं, लेकिन इस नौबत के पीछे इजराइल की जो हमलावर नीति दशकों से चली आ रही है, और जो लगातार फिलीस्तीनियों से जिंदा रहने का हक छीन रही है, उस बारे में इन देशों ने कभी कुछ नहीं किया, और फिलीस्तीनियों को इजराइली गुंडागर्दी और आतंक के रहम पर छोड़ रखा था।
इजराइल जैसे महफूज और ताकतवर देश पर हुआ यह आतंकी हमला यह साफ करता है कि आतंक के लिए किसी देश की फौज जितनी ताकत नहीं लगती, बहुत कम ताकत से भी आतंकी हमले हो सकते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि अधिकतर आतंकियों को दुनिया में कहीं न कहीं से मददगार भी हासिल हो सकते हैं। इसलिए तमाम देशों को अपनी-अपनी जमीन पर, या अपने पड़ोसियों के साथ कोई भी जुल्म करने के पहले याद रखना चाहिए कि जुल्म का जवाब बेकाबू और खतरनाक हो सकता है क्योंकि फौजें तो आत्मघाती नहीं होतीं, आतंकी आत्मघाती हो सकते हैं, अक्सर होते हैं। आज भी जो ताकतें इजराइल को खुली छूट देने की हिमायती हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि उनकी सारी ताकत सिर्फ फौजों के बदौलत हैं, वह ताकत आतंकी हमलों के मुकाबले नहीं हैं, और इजराइल में अभी-अभी यह साबित हुआ है। पूरी दुनिया में खुफिया निगरानी, सुरक्षा, और फौजी कार्रवाई की हर तरह की टेक्नालॉजी बेचने वाला दुनिया का यह बड़ा कारोबारी आज जिस तरह जख्मी पड़ा है, उससे उसकी बाजारू साख भी चौपट हुई होगी। इजराइल अपने शोकेस में ही नंगा हो गया है। फिलीस्तीनी जनता के रिहायशी इलाकों में उसका हमला यही बताता है कि वह बचाव में नाकामयाबी के बाद अब हमले की साख बचाकर रखना चाहता है। दुनिया को ऐसी तमाम बातों को समझना चाहिए, और मौके की नजाकत को समझते हुए फिलीस्तीनी मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए। वरना दूसरे देशों के शोक संदेशों का कोई मतलब नहीं है। हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिजली की रफ्तार से इजराइल को अपनी हमदर्दी भेजी है। इससे अधिक लाशें मणिपुर में गिर जाने के बाद भी 75 दिनों तक उनका मुंह भी नहीं खुला था। इसलिए दुनिया की प्रतिक्रिया के शब्दों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिसे रेवड़ी कहा है, और जिसे अलग-अलग राजनीतिक दल अपने-अपने कब्जे वाले राज्यों में जनकल्याणकारी कार्यक्रम कह रहे हैं, उस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एक चर्चित वकील अश्विनी उपाध्याय बहुत से मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाते रहते हैं, और उन्होंने चुनावी घोषणाओं के तहत राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त में दिए जाने वाले तोहफों के खिलाफ रोक लगाने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की है। अदालत ने इसे लेकर राज्य सरकारों से पूछा है कि वे कर्ज लेकर चुनावी तोहफे क्यों बांट रहे हैं? अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें से मध्यप्रदेश, और राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबे हुए हैं। एमपी पर कर्ज 4 लाख करोड़ रूपए से अधिक हो गया है, और शिवराज सरकार ने अभी-अभी चार बार कर्ज लिया है। दूसरी तरफ राजस्थान में भी कर्ज 5.37 लाख करोड़ से अधिक हो गया है। आरबीआई की जानकारी के मुताबिक देश में पंजाब के बाद राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबा हुआ राज्य है। और ये दोनों राज्य अपनी जनता को क्या-क्या मुफ्त में दे रहे हैं, उसके दो-दो पेज के इश्तहार हर दिन छत्तीसगढ़ के अखबारों में भी छप रहे हैं जहां के लोग इन दोनों प्रदेशों के लिए वोट डालने वाले नहीं हैं।
अब सवाल यह उठता है कि अंग्रेजी में जिसे फ्रीबीज कहा जा रहा है, यह हिन्दी में रेवड़ी, मतदाताओं को सीधे फायदा पहुंचाने की इन घोषणाओं की सीमा क्या रहे? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद चाहे इसे रेवड़ी कहते रहें, उनकी सरकार की तरफ से भी लगातार ऐसी रियायतों और सहूलियतों की घोषणा की जा रही है। उनका शायद ही कोई बड़ा कार्यक्रम चुनावी राज्यों में ऐसा हो रहा हो जहां पर ये घोषणाएं न हों। आखिर भारत जैसे संघीय ढांचे में राज्यों के इस किस्म के फैसलों पर क्या कोई रोक लग सकती है? क्या यह रोक केन्द्र और राज्यों के किसी मिलेजुले फोरम पर तय हो सकती है? या क्या पार्टियों के आपसी संबंध इस हद तक कड़वे हो चुके हैं कि अब कोई भी सहमति सिर्फ किसी अदालती हुक्म से ही हो सकती है? लोगों को याद होगा कि मनमोहन सरकार के समय तक देश में एक योजना आयोग था जिसमें राज्य सरकारें जाकर अपने राज्य के हक और अपनी योजनाओं की चर्चा करती थीं, और देश के जाने-माने अर्थशास्त्री उन पर विचार-विमर्श करते थे। वह एक ऐसा मंच था जहां पर प्रदेशों को केन्द्र से किसी योजना को मंजूर करवाने के लिए, रकम पाने के लिए अपने मौजूदा फैसलों के बारे में जवाब भी देना होता था। आज हालत यह है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार केन्द्र सरकार की किसी सार्वजनिक परियोजना में अपना हिस्सा देने से मना कर रही है कि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट को केजरीवाल सरकार से हिसाब मांगना पड़ रहा है कि उसने विज्ञापनों पर कितना खर्च किया है।
क्या आज मध्यप्रदेश और राजस्थान सरीखे जो राज्य चार-पांच लाख करोड़ रूपए के कर्ज में डूब गए हैं, उनसे भी देश में कोई यह हिसाब ले सकते हैं कि वे दूसरे राज्यों के आम मतदाताओं के सामने अपने राज्य के छोटे-छोटे फैसलों के महंगे इश्तहार क्यों कर रहे हैं? इससे मध्यप्रदेश या राजस्थान की जनता का क्या भला हो रहा है? या फिर चुनाव के बाद सरकार बना लेने वाले नेताओं को तमाम किस्म की मनमानी करने का हक मिल जाता है? राज्य की अर्थव्यवस्था को देखते हुए उसके बजट का कितना हिस्सा सरकारी अमले पर (स्थापना व्यय) करना चाहिए, कितना खर्च जनता को सीधे फायदे पहुंचाने वाले कामों पर, और कितना खर्च दीर्घकालीन ढांचागत योजनाओं पर करना चाहिए? क्या अब यह अनुपात भी अदालतें तय करेंगी? क्योंकि योजना आयोग जैसी संस्था को मोदी सरकार ने खत्म करके नीति आयोग नाम का एक छोटा सा दफ्तर छोड़ दिया है, जो कि राज्यों को कुछ समझाने की, उन्हें राय देने की कोई ताकत नहीं रखता।
अब अगर देश में कुछ राज्य बंदरगाहों की वजह से, या खदानों की वजह से दूसरे राज्यों के मुकाबले अधिक संपन्न रहेंगे, तो क्या इन राज्यों को अपनी जनता को बेहिसाब सीधे फायदे पहुंचाने का हक रहेगा? या फिर जिस तरह कर्ज लेकर आज कुछ राज्य वोटरों को खुश करने में जुटे हुए हैं, क्या उसकी बेहिसाब आजादी राज्य सरकारों और राज्य की पार्टियों को होनी चाहिए? आखिर इसकी सीमा क्या होगी? क्या देश के अमीर और गरीब राज्यों के बीच बहुत बड़ा फासला राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह नहीं होगा? क्या प्रदेशों में दस-बीस साल में पूरी होने वाली किसी बड़ी जनकल्याणकारी योजना पर कोई काम ही नहीं किया जाएगा कि उसके एवज में पांच बरस के भीतर होने वाले चुनावों में तो कोई फायदा मिल नहीं सकेगा? ऐसी कई बातें हैं। दिक्कत यह है कि आज देश में किसी भी तरह से चुनाव जीत लेना सबसे बड़ी चुनौती मान ली गई है। गरीबी से जीतना, अभाव से जीतना, बेरोजगारी और महंगाई से जीतना अहमियत नहीं रखता, सिर्फ चुनाव जीतना मायने रखता है। यह नौबत हिन्दुस्तान को गड्ढे में डाल रही है। जब सत्तारूढ़ पार्टियां अपने-अपने राज्य में जनता के खजाने का आखिरी सिक्का भी लुटा देने के बाद कर्ज लेकर जनता के तलुवे सहलाने में लग गई हैं, और यूपी-पंजाब की ऐसी सरकारी योजनाओं के इश्तहार दूर-दूर के प्रदेशों में छप रहे हैं, तो लोकतंत्र के नाम पर क्या इसकी आजादी भी दी जा सकती है, दी जानी चाहिए?
एक बहुत बड़ा फैसला जिसे लुभाने वाला भी कहा जा सकता है, और रिटायर्ड सरकारी कर्मचारियों की भलाई का भी कहा जा सकता है, वह ओल्ड पेंशन स्कीम का है। हिमाचल चुनाव के पहले कांग्रेस ने इसकी घोषणा की थी, और चुनावी वायदा किया था, इस पहाड़ी राज्य में नौकरीपेशा लोग बहुत हैं, और कांग्रेस को इसका फायदा हुआ। इसके पहले वह अपने दूसरे राज्यों में इसकी घोषणा कर चुकी थी, और बाद में भी यह घोषणा जारी है। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार मोंतेक सिंह अहलूवालिया ने ओल्ड पेंशन स्कीम के खतरे बताए थे, और कहा था कि इसमें देश डूब जाएगा। मनमोहन सिंह के समय नई पेंशन योजना लागू हुई, और उन्हीं की पार्टी की राज्य सरकारों ने इसे खारिज करते हुए कर्मचारियों को खुश करने के लिए पुरानी योजना को लागू किया है जिसका बोझ कोई भी अर्थव्यवस्था ढो नहीं पाएगी।
हिन्दुस्तान और इसके प्रदेशों में बहुत सी पार्टियां और उनकी सरकारें चुनावों को ध्यान में रखकर इतने बुरे फैसले ले रही हैं कि इतने लोकतांत्रिक हक देश की अर्थव्यवस्था की नाकामयाबी की गारंटी सरीखे लग रहे हैं। देखते हैं सब कुछ बर्बाद होने में और कितने चुनाव लगेंगे।
नोबल शांति पुरस्कार के लिए ईरान की एक महिला आंदोलनकारी नर्गिस मोहम्मदी का नाम घोषित किया गया है। वे वहां पर बरसों से जेल में बंद हैं क्योंकि सरकार उनके मुद्दे पसंद नहीं करती है। महिलाओं पर जुल्म के खिलाफ वे लड़ते रहती हैं, और अभी जो खबर आई है उसके मुताबिक ईरान की सरकार उन्हें 13 बार गिरफ्तार कर चुकी है, 5 बार उन्हें सजा सुनाई गई है, और 31 बरस की कैद से वे गुजर रही हैं। उनके दो बच्चे अपने पिता के साथ फ्रांस में रह रहे हैं, और मां 8 बरस से उनसे दूर जेल में बंद है, और वे बेटे-बेटियों से मिली भी नहीं हैं। ईरान में महिलाओं के हक की लड़ाई आसान नहीं है, क्योंकि वहां अपने आपको क्रांतिकारी कहने वाली इस्लामिक सरकार इस्लाम के एक कट्टर तौर-तरीकों से चलती है जिनमें महिलाओं के लिए हिजाब बांधकर रखना अनिवार्य है, और ऐसा न करने पर उनकी गिरफ्तारी हो सकती है, उन्हें जेल होती है, और ऐसी ही एक युवती की पिछले बरस कैद में संदिग्ध मौत हो गई थी, और उसके बाद से ईरान में आंदोलन भडक़ उठे थे। अभी भी ईरान की महिलाएं हिजाब के नियमों को तोड़ते हुए सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही हैं, और सरकार पर यह तोहमत लग रही है कि उसने लड़कियों के बीच दहशत फैलाने के लिए लड़कियों के स्कूलों में रहस्यमय तरीके से गैस छोड़ी थी जिससे बहुत सी लड़कियां बीमार भी हुई थीं। ऐसी घटनाएं दर्जनों स्कूलों में अलग-अलग शहरों में हुई थीं, और यह माना जा रहा है कि सरकार के अलावा इसे और कोई नहीं करवा सकता था।
आज नर्गिस मोहम्मदी को नोबल शांति पुरस्कार मिलना ईरान की तमाम आंदोलनकारी महिलाओं का सम्मान है। इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए भी नर्गिस ने जेल में और कैदियों से बातचीत को दर्ज किया है, और उनकी लिखी एक किताब भी सामने आई है। वे ईरान में एक मानवाधिकार संगठन में काम कर रही थीं, और जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों की मदद करने के आरोप में उन्हें एक से अधिक बार सजा हुई है। फिलहाल वे 12 बरस की कैद काट रही हैं, और दूसरी कई सजाएं भी उन्हें सुनाई जा चुकी हैं। नर्गिस को मिला यह पुरस्कार दुनिया में महिलाओं की आजादी और उनके हक की लड़ाई का एक प्रतीकात्मक सम्मान है। ईरान और उसके समर्थक देश नोबल शांति पुरस्कार को पश्चिमी देशों के प्रभाव वाला पुरस्कार कह सकते हैं, लेकिन उससे इस सच्चाई पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि नोबल पुरस्कार कई बार दुनिया के कुछ बड़े शांतिपूर्ण संघर्षों और सामाजिक न्याय की लड़ाईयों की तरफ सबका ध्यान खींचते रहता है।
यह भी कुछ अजीब सी बात है कि एक तरफ तो गांधी का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिए बार-बार लिस्ट में आया, लेकिन उन्हें कभी दिया नहीं गया। जब गांधी की हत्या हुई तो उसके बाद का नोबल शांति पुरस्कार किसी को भी नहीं दिया गया, क्योंकि बार-बार गांधी का नाम खारिज करने वाली नोबल शांति पुरस्कार कमेटी गांधी की हत्या से हिली हुई थी। दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को बिना किसी चर्चा के, बिना किसी न्यायसंगत आधार के नोबल शांति पुरस्कार दे दिया गया था, जिससे वे खुद भी चौंक गए थे। और यह तथ्य तो इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है जिस वक्त उन्हें 2009 का नोबल शांति पुरस्कार मिला, उस वक्त उन्हीं के आदेशों से सात अलग-अलग देशों पर बम बरसाए गए थे। इनमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, लीबिया, यमन, सोमालिया, इराक, और सीरिया थे। एक सबसे अधिक बमबारी करने वाले अमरीकी राष्ट्रपति को भी शांति के लिए किसी योगदान के बिना नोबल शांति पुरस्कार दिया गया था। इससे परे भी कुछ और मौके रहे जब नोबल शांति पुरस्कार विवादों से घिरा रहा, लेकिन आज ईरान की महिला आंदोलनकारी को इसे देने की घोषणा दुनिया में संघर्षरत महिलाओं का सम्मान है, और उनके हक पर इस सम्मान से एक बार फिर चर्चा हो सकेगी, होगी।
ईरान में महिलाओं की लड़ाई सिर्फ उस देश में महिलाओं के हक का मुद्दा नहीं है, बल्कि इस्लाम के नाम पर महिलाओं पर एक गैरबराबरी लादने वाले बहुत से देशों में महिलाओं पर चल रहे जुल्म की तरफ भी इससे ध्यान जाएगा। ऐसे देश अपने आपको कहीं लोकतांत्रिक कहते हैं, तो कहीं वे तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान की तरह के हैं, जहां लड़कियों से स्कूल जाने का हक भी छीन लिया गया है, और महिलाओं को काम करने की इजाजत भी नहीं है। आज अफगानिस्तान दुनिया के अधिकतर देशों के लिए इसी महिला-नीति की वजह से अछूत बना हुआ है, लेकिन अड़ा हुआ है। आज दुनिया के अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन चाहकर भी अफगानिस्तान के जरूरतमंद लोगों की मदद नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि अफगानिस्तान महिलाओं को कोई अधिकार देना नहीं चाह रहा है, और इसके बिना दुनिया के देश उसे किसी तरह की मान्यता नहीं दे रहे, और अंतरराष्ट्रीय संगठन वहां काम नहीं कर पा रहे।
ईरान की महिला आंदोलनकारी को कल घोषित नोबल शांति पुरस्कार दुनिया भर की महिलाओं के मुद्दों को उठाने वाला साबित होगा। दुनिया के इतिहास में ऐसी कुछ और महिलाएं भी रही हैं, और उनसे दुनिया भर की महिलाओं को हौसला मिला है। आज मोटेतौर पर महिलाओं के संघर्ष का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम महिलाओं तक सीमित है, और दुनिया को इस पर गौर करना चाहिए।
बिहार की जातीय जनगणना ने देश की हजारों बरस से चली आ रही व्यवस्था की चर्बी पर जोर डाला है। वे लोग भी अब जातीय व्यवस्था पर बात कर रहे हैं जो कि हजारों बरस से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था के तहत फायदे की जगह पर थे, सवर्ण थे, दूसरों को कुचलने वाले तबकों के थे, और उस व्यवस्था से बहुत संतुष्ट भी थे। अब एकाएक उन्हें विशेषाधिकारों का यह फौलादी ढांचा चरमराते दिख रहा है, इसलिए उनकी बेचैनी बहुत अधिक है। वी.पी.सिंह के शब्दों में कहें तो जिन पैरों में चमड़े के तल्ले वाले जूते थे, और जिनके तले दूसरे कुचलते रहते थे, अब एकाएक उनके पैरों से जूते उतर गए हैं, और जूते गांठने वाले तबके जूते पहनने का हक मानने लगे हैं, तो एकाएक दहशत सरीखी हो गई है। इसका सबसे बड़ा नजारा सोशल मीडिया पर देखने मिल रहा है।
कल तक के ट्विटर, और आज के एक्स नाम के माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म पर अंधाधुंध बहस चल रही है, और मनु के वंशज अपने तर्क दे रहे हैं, और मनु से जख्मी हुए तबके अपने तर्क। बिहार के जाति के आंकड़ों ने सोए हुए लोगों को जगा दिया है, और सबको अपने हक सूझ रहे हैं। जो लोग अब तक नाजायज हकों पर कब्जा करके बैठे हुए थे, वे अपनी आने वाली पीढिय़ों को सामाजिक न्याय मिलने की आशंका से भर गए हैं। लेकिन यह सिलसिला थमना अब उसी तरह मुश्किल है जिस तरह केदारनाथ, उत्तराखंड, हिमाचल, या अभी सिक्किम में पहाड़ी नदी उफान पर रहती है, ढलान की तरफ दौड़ती है, और उसे थामना नामुमकिन होता है। आज जाति व्यवस्था की इस पहाड़ी नदी के जंगली उफान से सबसे अधिक परेशान वे तबके हैं जिन्होंने इन नदियों के किनारे सवर्णों के मंदिर बनाए हुए थे, और दलित-आदिवासी के बाद अब ओबीसी जनजागरण से ये मंदिर ही सबसे पहले बह रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित बहुत से लोग इसे देश को बांटने वाला काम कह रहे हैं। और सोशल मीडिया पर उनके दसियों लाख भक्तजन भी इसी सोच को चारों तरफ फैला रहे हैं कि यह एक भारतविरोधी काम है। देश में जातीय जनगणना उसे टुकड़ों में बांट डालेगी। चूंकि राहुल गांधी ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बनाया है, और पूरे देश में इसे करवाने की घोषणा की है, इसलिए यह हमला मोदी खेमे की तरफ से राहुल और इंडिया गठबंधन पर है। लेकिन जो हकीकत हजारों बरस के जुल्मों के बाद भी जमीन पर बनी हुई है, वह अगर अब तक खतरा नहीं बनी थी, अब तक वह गुलामी की हीनभावना की शिकार थी, तो आज महज गिनती हो जाने से वह कैसे खतरनाक हो सकती है? और मनुवादी व्यवस्था के तहत जिन दलितों को सबसे अधिक कुचला गया था, जिन आदिवासियों को रामकथाओं में बंदर बना दिया गया था, वे लोग अगर सवर्ण तबकों के लिए आज तक खतरा नहीं बने, तो आज एकाएक ओबीसी जनजागरण कैसे खतरा बन सकता है? लेकिन जिन लोगों को ये नए आंकड़े खतरा लग रहे हैं, उनकी आशंकाओं में भी झांका जा सकता है।
दलित और आदिवासी आरक्षण देश की आजादी के आसपास से चले आ रहा था, और वे तबके सवर्ण तबकों से बहुत दूर भी थे, सवर्ण-बेइंसाफी के शिकार होकर कमजोर भी थे, और उनके लिए तय किए गए आरक्षण से भी उनका बहुत भला नहीं हो रहा था। लेकिन ओबीसी तबका तो दलित और आदिवासी के ठीक ऊपर है, और सवर्णों के ठीक नीचे है। इसलिए ओबीसी से सवर्ण सोच को खतरा पड़ोसी से खतरे सरीखा हो रहा है। और दलित-
आदिवासी से खतरा दूर की चमार बस्ती या जंगल में बसे लोगों से खतरे सरीखा दूर का था। अब ओबीसी तबका आरक्षण के मौजूदा, और आगे हो सकने वाले आरक्षणों का फायदा उठाने के लिए अधिक ताकतवर रहेगा, और वह हर किस्म से सवर्णों को टक्कर देने के करीब रहेगा। इसलिए जाति आधारित यह जनगणना सवर्ण-बेचैनी की एक बड़ी वजह है। दलित और आदिवासी आरक्षण तो चले आ रहा था, यह ओबीसी तबका देश का सबसे बड़ा बवाल रहेगा, और संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की बात जब होगी, तो यह ओबीसी तबका ही अब तक के अनारक्षित चले आ रहे बहुत बड़े उस हिस्से में सबसे बड़ा हिस्सा मांगेगा जिस पर अब तक अनुपातहीन तरीके से सवर्णों का कब्जा चले आ रहा है। यह नौबत, या इस तरह की नौबत पूरी दुनिया में कहीं भी हमेशा नहीं चलती है, और वंचित तबके कभी न कभी अपने हक पाते हैं। इसलिए भारत में आज मनुवाद की सवर्ण व्यवस्था के सबसे बड़े संरक्षक, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत को भी अब यह लग रहा है कि आरक्षण और सौ-दो सौ बरस जारी रह जाए तो सवर्णों को उससे बर्दाश्त करना चाहिए। हालांकि मोहन भागवत का यह ताजा चर्चित बयान बिहार की जातीय जनगणना के पहले का है, और वह मोटेतौर पर ओबीसी से जुड़ा हुआ नहीं है, लेकिन अब जब ओबीसी के दानवाकार आंकड़े एक हकीकत बनकर सामने आए हैं, तो मोहन भागवत का बयान शायद उस पर भी लागू होना चाहिए।
देश में सवर्ण तबके की हड़बड़ाहट और दहशत नाजायज और गैरजरूरी है। अवसरों पर उनका एकाधिकार ही नाजायज था, और अब अगर वह टूट रहा है, तो उसे लेकर सच्चाई को मानने की कोशिश करनी चाहिए, और यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र में आज एक नई सामाजिक चेतना आई है, और सदियों से चले आ रही सामाजिक बेइंसाफी के दिन अब लद गए हैं। आने वाला वक्त एक-एक करके तमाम प्रदेशों, या पूरे देश में जातीय जनगणना का रहेगा, और अब तक के सवर्ण-कुलीन तबकों को, अपने लिए अवसरों के खुले मैदान का बड़ा हिस्सा छोडऩा पड़ेगा। स्कूल-कॉलेज से लेकर नौकरियों और संसद-विधानसभा तक सभी जगहों पर कुछ तबकों को कुर्सियां खाली करनी पड़ेंगी, और सदियों से खड़े हुए कुछ लोगों को बैठने की जगह मिलेगी। फिलहाल यह भी एक अच्छी बात है कि जातियों के आंकड़ों को लेकर लोगों के बीच सामाजिक हकीकत की लंबी और आक्रामक बहस चल रही है, और इससे अन्याय का इतिहास सामने आने का मौका मिलेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत की एक समाचार-विचार वेबसाइट, न्यूजक्लिक को लेकर सरकार पिछले कई महीनों से एक जांच चला रही थी। सरकार का कहना है कि इसमें विदेशी पूंजीनिवेश के नियमों को तोड़ा गया है। यह मामला वैसे ही जांच एजेंसियों और अदालत तक पहुंचा हुआ था, लेकिन दो दिन पहले दिल्ली में इससे जुड़े हुए वेतनभोगी, और बाहरी पत्रकारों पर पुलिस के जो छापे पड़े वे हक्का-बक्का करने वाले हैं। करीब 30 लोगों पर सुबह-सुबह छापे पड़े, और उनके लैपटॉप, मोबाइल फोन जब्त कर लिए गए, उनसे सुबह से शाम तक पूछताछ चलती रही। पत्रकारों को तो शाम तक छोड़ दिया गया, लेकिन इस वेबसाइट के संचालक एक दूसरे बड़े अफसर को पुलिस ने शाम तक गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी आतंकविरोधी एक कड़े कानून, यूएपीए के तहत की गई है जिसमें जमानत होने में महीनों और बरसों तक लग जाते हैं। यूएपीए कानून का पहले भी बेजा इस्तेमाल होने का आरोप लगाते हुए पत्रकार इसे हटाने की मांग कर रहे थे, और मानवाधिकार आंदोलनकारी इसे कुचलने का एक अधिकार मान रहे थे। मोदी सरकार का रूख मीडिया को लेकर, खासकर असहमत मीडिया को लेकर कुछ अधिक ही कड़ा है, और आज देश का मीडिया दो खेमों में बंट गया है, सरकार, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रशंसकों का मीडिया देश में गोदी मीडिया कहा जाता है, और बाकी बचा छोटा सा हिस्सा मीडिया कहा जा सकता है जिस पर तरह-तरह की जांच एजेंसियां अभी टूट पड़ी हैं, और लंबे समय से यही सिलसिला चल रहा है।
लेकिन अभी न्यूजक्लिक के मामले को लेकर पत्रकारों की जो प्रतिक्रिया सामने आई है वह लोकतंत्र के लिए खतरे के सुबूत सरीखा है। बहुत से मीडिया संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को कल एक लंबी चिट्ठी लिखकर मीडिया पर हो रहे सरकारी हमलों की तरफ उनका ध्यान खींचा है, और उनसे दखल देने की उम्मीद की है। मीडिया से जुड़े हुए तमाम प्रतिष्ठित संगठनों ने इन छापों को सरकारी आतंक करार दिया है, और कहा है कि किसी संस्थान के दर्जनों पत्रकारों पर आतंक में शामिल होने का आरोप लगाना बहुत ही नाजायज बात है, और यह मीडिया को कुचलने के अलावा और कुछ नहीं है। दो दिन पहले के इन छापों को बड़ी मनमानी का एक बड़ा सुबूत करार दिया गया है, और याद दिलाया गया है कि दुनिया में प्रेस की आजादी की 180 देशों की लिस्ट में भारत 161वीं जगह पर पहुंच गया है। 2002 में भारत इस लिस्ट में 150वीं जगह पर था। मीडिया संगठनों ने पिछले दो दिनों में इस बात को उठाया है कि पिछले कुछ बरसों में लगातार ऐसे मीडिया संस्थानों पर सरकारी एजेंसियों की छापेमारी हुई है जिन्होंने जायज वजहों से भी केन्द्र सरकार की आलोचना की थी।
किसी लोकतंत्र में मीडिया आजाद नहीं रह सकता अगर देश के कुछ सबसे बड़े कारोबारी हजारों करोड़ रूपए डालकर रातोंरात मीडिया कारोबारी बन जाते हैं। इसके बाद केन्द्र या राज्य सरकारों के लिए यह आसान हो जाता है कि वे अपने-अपने प्रभाव और अधिकार क्षेत्र में बाकी मीडिया संस्थानों को खरीदकर, या कुचलकर काबू में कर लें। यह नौबत देश के कुछ प्रदेशों में भी है, लेकिन केन्द्र सरकार इस पैमाने पर बहुत ऊपर साबित हो रही है। दरअसल कोई भी सरकार जब चुनावों में अपार बहुमत पाकर सत्ता पर आती है, वह लगातार सत्ता पर बनी रहती है, तो उसे आलोचना, जरा सी भी आलोचना बहुत खटकने लगती है। उसे लगता है कि यह आलोचना उसे मिले जनसमर्थन का नोटिस नहीं ले रही है। एक बड़े टीवी समाचार चैनल के पिछले दिनों भोपाल में हुए कार्यक्रम में एक लोकगायिका नेहा सिंह राठौर से मंच पर ही चैनल की एंकर बहस कर रही थी कि जो नेता लाखों वोटों की लीड से जीतकर आते हैं, उनकी आलोचना कैसे की जा सकती है? सफलता चाहे वह किसी भी तरीके से, किसी भी कीमत पर पाई गई हो, वह सिर चढ़ती ही है। और फिर जब गोदी मीडिया, भक्त मीडिया, चापलूस मीडिया की बड़ी मौजूदगी आसपास हो, तो फिर सत्ता को यह बात और खटकती है कि कुछ गिने-चुने बचे हुए लोग किस तरह उसके खिलाफ हो सकते हैं?
जब देश में लोकतंत्र इतना कमजोर हो जाए कि जनधारणा की किसी सरकार को परवाह न रह जाए, जब नेता अपने आपमें आत्ममोहन के शिकार हों, जब चापलूसों और दरबारियों की भीड़ हो, तो फिर आलोचना करने वाले मीडिया को कुचलना आसान हो जाता है। और ऐसे वक्त समझ आता है कि देश में अलोकतांत्रिक कानूनों की मौजूदगी सबसे पहले आजादी के हिमायती लोगों को कुचलने के काम ही आती है। इसलिए यह भी समझने की जरूरत है कि ऐसी नौबत आने के पहले भी देश में आतंक के नाम पर चलाए जा रहे उन अलोकतांत्रिक कानूनों को खत्म करवाना चाहिए जो लोगों को बिना किसी सुनवाई बरसों तक कैद रखने के लिए लगातार इस्तेमाल किए जाते हैं। कुछ बहुत चर्चित मामले हों, जिनमें कुछ बड़े वकील बिना फीस लिए शामिल हो जाएं, तो भी जमानत होने में बरसों लग जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने अभी कुछ अरसा पहले लोकतंत्र में मीडिया की आजादी की अहमियत पर काफी कुछ कहा था। अभी कल मीडिया संगठनों ने मुख्य न्यायाधीश को लिखी खुली चिट्ठी में उनकी कही हुई बातें याद दिलाई हैं। सुप्रीम कोर्ट की दखल से कम, और किसी चीज से सरकारी मनमानी कार्रवाई पर कोई रोक लगते दिख नहीं रही है। यह ऐसा मौका है जब अदालत को हालात को असाधारण मानते हुए कुछ असाधारण कार्रवाई करनी चाहिए, सरकार से जवाब-तलब करना चाहिए।
महाराष्ट्र के नांदेड़ के सरकारी अस्पताल में पिछले 48 घंटों में 31 मरीजों की मौत हुई है जिनमें 16 बच्चे हैं, इनके अलावा 71 मरीजों की हालत गंभीर बताई जा रही है। अस्पताल ने यह कहा है कि वहां डॉक्टरों या दवा की कोई कमी नहीं है, और इस बात पर जोर दिया है कि मरीजों पर इलाज का असर नहीं हुआ। मामले की जांच के लिए कमेटी बनाई गई है, और इसे लेकर सभी तबकों में बड़ी फिक्र हो रही है। अलग-अलग पार्टियों के नेता महाराष्ट्र की सरकार के प्रति अपने रूख के मुताबिक बयान दे रहे हैं, लेकिन उन सबसे परे यह समझने की जरूरत है कि अस्पताल जिन नवजात शिशुओं को बहुत कम वजन के साथ पैदा होने वाला बता रहा है, वे भी तो कुपोषण की शिकार माताओं के बच्चे रहे होंगे।
इन बातों के बीच एक दूसरी खबर पर भी ध्यान देने की जरूरत है। देश में मेडिकल शिक्षा, और सरकारी अस्पतालों में इलाज इन दोनों का हाल भयानक है। अभी कुछ दिन पहले इस अखबार के यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर इस बारे में एक रिपोर्ट भी थी कि किस तरह दक्षिण भारत में नई मेडिकल सीटों पर नेशनल मेडिकल कमीशन ने रोक लगा रखी है कि उत्तर भारत के प्रदेश दक्षिण की बराबरी नहीं कर पा रहे हैं। अब इसके साथ एक दूसरी खबर आई है कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने 2022-23 में मूल्यांकन के दौरान अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में फैकल्टी (शिक्षक) और सीनियर रेजीडेंट डॉक्टरों को सिर्फ कागजों पर पाया है। मतलब यह कि वे असल में काम नहीं कर रहे थे, और कमीशन की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें नौकरी पर दिखाया जा रहा था। कमीशन ने यह भी पाया कि ऐसे चिकित्सा शिक्षकों और चिकित्सकों की हाजिरी कम से कम 50 फीसदी होने की शर्त कहीं भी पूरी नहीं हो रही है। यह हाल मेडिकल कॉलेज और उनके अस्पतालों का है, तो बाकी सरकारी अस्पतालों के हाल को और आसानी से समझा जा सकता है।
आज जब देश में चिकित्सा शिक्षा की यह हालत है, और हमने एक जानकार डॉ.सजल सेन से इस बारे में बात की थी तो उनका कहना था कि दक्षिण भारत के मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ाने पर रोक लगाना नाजायज है क्योंकि वहां पर चिकित्सा शिक्षा की हालत उत्तर भारत से बेहतर है। अब अगर देश के कॉलेजों में पढ़ाने के लिए डॉक्टरों की कमी है, वे आधे भी नहीं हैं, उनसे जुड़े हुए अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है, देश भर के ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए सरकारी डॉक्टर नहीं हैं, और ऐसे में मेडिकल कमीशन इस बात पर जुटा हुआ है कि दक्षिण में चिकित्सा शिक्षा, और चिकित्सा सेवा दोनों राष्ट्रीय औसत से अधिक क्यों हैं, उत्तर भारत से बहुत अधिक क्यों हैं, तो यह बड़ी खराब नौबत है। अगर उत्तर भारत में जरूरत के मुताबिक मेडिकल कॉलेज नहीं खुल पाए हैं, और राष्ट्रीय स्तर, 10 लाख की आबादी पर सौ एमबीबीएस सीटों से चिकित्सा शिक्षा बहुत पीछे चल रही है, तो ऐसी घिसटती हुई नौबत की वजह से दक्षिण भारत का आगे बढऩा भी रोक देना निहायत बेवकूफी की बात है। उत्तर भारत में अगर मेडिकल कॉलेज बढ़ाने हैं, तो वहां काम करने के लिए डॉक्टर भी दक्षिण भारत से ही तो मिलेंगे।
दूसरी बात यह कि महाराष्ट्र में अभी जो मौतें हो रही हैं, उनको देखते हुए ऐसा लगता है कि चिकित्सकों, अस्पताल की दूसरी सहूलियतों, और बाकी इंतजामों में भी कहीं न कहीं कमी बनी हुई है जो कि थोक में ऐसी मौतें हो रही हैं। अगर मौतें एक साथ इतनी बड़ी संख्या में नहीं हुई रहतीं, तो यह पता भी नहीं चला होता। इसलिए आज देश को एक मानकर, जहां से भी जितने चिकित्सक तैयार हो सकते हैं, उनके लिए कोशिश करनी चाहिए। आज तो यूक्रेन, रूस, चीन, बांग्लादेश, और नेपाल जैसे देशों से भी डॉक्टरी की पढ़ाई करके हिन्दुस्तानी लौटते हैं, और यहां पर काम करते हैं। अब अगर हिन्दुस्तानी छात्र-छात्राओं को चिकित्सा शिक्षा के लिए दूसरे देश भी जाना पड़ता है, तो इससे बेहतर तो यही है कि वे बाकी प्रदेशों से दक्षिण भारत ही चले जाएं। क्योंकि उत्तर भारत कॉलेज नहीं बना पा रहा है, मेडिकल सीटें नहीं बढ़ा पा रहा है, इसलिए देश के अधिक सक्षम राज्य भी आगे न बढ़ सकें, यह तो बहुत ही खराब सोच है, और इससे राष्ट्रीय एकता भी कमजोर होगी। वैसे भी उत्तर और दक्षिण के बीच एक अघोषित विभाजन रेखा खिंची हुई है, और आने वाले लोकसभा डी-लिमिटेशन में भी उत्तर-दक्षिण का विभाजन और अधिक गहरा होने वाला है क्योंकि दक्षिण में आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटें घटेंगी, और उत्तर भारत में गैरजिम्मेदार जनसंख्या बढ़ोत्तरी के चलते सीटें बढ़ेंगी। ऐसे में दक्षिण की बेहतर शिक्षा व्यवस्था की भी एक सीमा बांध देना बहुत समझदारी की बात नहीं है।
आज हालत यह है कि देश के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी डॉक्टर और प्राध्यापक फर्जी दिखाए जाते हैं। यह हालत भी तब है जब चिकित्सा शिक्षकों को 70 बरस की उम्र तक काम करने की छूट मिली हुई है। सरकारी इंतजाम में डॉक्टर अपने लिए तय घंटों तक भी काम नहीं करते हैं, और अधिकतर जगहों पर प्राइवेट प्रैक्टिस में लगे रहते हैं। इसलिए सरकारी कागजों में दिखने वाली चिकित्सा-क्षमता सच्चाई से बहुत दूर रहती है। केन्द्र सरकार को खुद राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के आंकड़ों को देखते हुए तुरंत ऐसी नीति बनानी चाहिए कि अगले 20-25 बरस में उत्तर भारत अपनी क्षमता बढ़ा सके, और आबादी के अनुपात में मेडिकल सीटों को ला सके। लेकिन तब तक तो देश को दक्षिण भारत की तरफ देखना ही होगा, और इससे परहेज करना दक्षिण के तो कम नुकसान का होगा, उत्तर भारत के, और बाकी भारत के अधिक नुकसान का होगा।
बिहार ने 23 बरस बाद देश में एक बार फिर जाति के मुद्दे को जिंदा कर दिया है। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके ओबीसी आरक्षण की राह खोली थी, और बिहार के ओबीसी राजनीति करने वाले नीतीश-लालू के गठबंधन ने जातीय जनगणना करवाकर देश में हडक़म्प मचा दिया है। इसके आंकड़े लोगों को चौंकाने वाले हैं, ओबीसी की गिनती जितनी मानी जाती थी, उससे काफी ज्यादा निकली है, और अनारक्षित वर्ग जितना बड़ा माना जाता था, उससे काफी छोटा निकला है। इससे आने वाले वक्त में कई किस्म के फैसले बदलेंगे। इस रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण का फॉर्मूला, और उसकी अधिकतम सीमा को एक बार फिर बदलने की बात होगी। राजनीतिक दलों के सामने भी यह मजबूरी रहेगी कि उम्मीदवारी तय करते हुए वे अलग-अलग जाति और धर्म के अनुपात का ख्याल रखें। हमारा ख्याल है कि जिन पांच राज्यों में अभी विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें उम्मीदवारी तय करते हुए पार्टियों को कम से कम बिहार की इस रिपोर्ट को देखना तो होगा, फिर चाहे इन पांच राज्यों में अभी ऐसी कोई जनगणना न हुई हो।
भारत बड़ी विविधताओं वाला देश है, और इसके कोई दो राज्य बिल्कुल एक सरीखी जातीय आबादी वाले नहीं हैं। लेकिन बिहार की मिसाल अब बाकी प्रदेशों में कम से कम ओबीसी आबादी के लिए एक उत्साह की वजह रहेगी क्योंकि पढ़ाई और नौकरी में मिलने वाला, पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव में मिलने वाला ओबीसी आरक्षण अभी संसद और विधानसभाओं में लागू नहीं है, जो कि सत्ता का मुख्य केन्द्र हैं। ऐसे में ओबीसी अपनी आबादी दिखाकर अलग-अलग प्रदेशों में उसके अनुपात में राजनीतिक हक भी मांग सकता है, और आरक्षण का अनुपात भी बदल सकता है। यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि इंडिया-गठबंधन के एक प्रमुख नेता राहुल गांधी, और कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी ने संसद के भीतर जातीय जनगणना कराने की मांग की थी। बाद में राहुल ने संसद के बाहर भी लगातार इस बात को दुहराया है, और सार्वजनिक वायदा किया है कि इंडिया-गठबंधन की सरकार बनते ही पूरे देश में जातीय जनगणना करवाई जाएगी।
अभी बिहार की जनगणना के आंकड़े देखें तो 63 फीसदी ओबीसी के अलावा दलित-आदिवासी आरक्षित आबादी को देख लें, तो उसके बाद कुल साढ़े 15 फीसदी अनारक्षित तबका बचता है। अलग-अलग राज्यों में ये आंकड़े अलग-अलग रहेंगे, लेकिन बिहार की इस जनगणना से पूरे देश में ओबीसी राजनीतिक-आरक्षण का रास्ता शुरू हो गया है। कुछ लोगों ने यह भी लिखना शुरू किया है कि आबादी के अनुपात में बिहार में अभी के अनारक्षित तबके को साढ़े 15 फीसदी आरक्षण दे दिया जाए, और बाकी आरक्षित तबकों के लोगों को जैसे बांटना हो, बांट लें। ऐसी नौबत आ भी सकती है क्योंकि आज तो तमाम ताकतवर कुर्सियों पर आज के अनारक्षित तबके हावी हैं। राहुल गांधी ने पिछले दिनों संसद और बाहर एक बात जोर-शोर से सामने रखी थी कि भारत सरकार के 90 सचिवों में से कुल 3 ओबीसी हैं। ये सचिव ही देश का बजट तय करते हैं, सरकार की बहुत सी नीतियां बनाते हैं, कार्यक्रम बनाते हैं, और देश पर राज करते हैं। अब अगर इनमें ओबीसी समुदाय का यह अनुपात है, तो यह फिक्र की बात तो है ही।
जिन लोगों को ऊंची जातियों के लोगों में ही प्रतिभा दिखती है, उन्हें अपनी सोच कुछ सुधारनी चाहिए। न अंबेडकर ऊंची जाति के थे, और न ही तमिलनाडु के सबसे महान मुख्यमंत्री कामराज। इस देश में नेताओं से परे भी हर किस्म के काम में हर किस्म की जाति और धर्म के लोग अपनी खूबियों को साबित कर चुके हैं। इसलिए जातियों का दंभ अब खत्म कर देने की जरूरत आ गई है। जिस तरह भारत में नीची कही जाने वाली जातियों को हिकारत से देखा जाता है, उसी तरह अमरीका जैसे देश में काले रंग को हिकारत से देखते हैं। वैसे देश में बराक ओबामा दो-दो बार राष्ट्रपति चुने गए, और अभी वहां एक भारतवंशी और अश्वेत मां-बाप की संतान कमला हैरिस उपराष्ट्रपति हैं। इसलिए किसी नस्ल से किसी प्रतिभा का कोई लेना-देना नहीं रहता है। दूसरी तरफ हमने देखा है कि हिन्दुस्तान के अधिकतर सबसे बड़े मुजरिम ऊंची कही जाने वाली जातियों के रहे हैं। ऐसी ही एक जाति का जिक्र करके राहुल गांधी अदालत से सजा पाए हुए हैं, इसलिए हम किसी खास जाति का जिक्र करना नहीं चाहते हैं। लेकिन हाल के बरसों में सबने देखा है कि उत्तरप्रदेश के कुछ सबसे कुख्यात मुजरिम सबसे ऊंची कही जाने वाली जाति के रहे हैं। इसलिए अब वक्त आ गया है कि मनुस्मृति में किए गए जातियों के बखान से उबरकर वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक तरीके से चीजों को देखा जाए।
दूसरी बात यह भी है कि जातीय जनगणना को अगर हाल के बरसों में सामने आए डीएनए निष्कर्षों से जोडक़र देखें, तो भारत की जातियों की जड़ों की जानकारी बहुत से लोगों को हैरान कर सकती हैं, सदमा पहुंचा सकती हैं। भारत में ऊंची समझी जाने वाली कुछ जातियों का डीएनए दूसरे देशों का मिला है, और इससे हो सकता है कि उनका जाति-दंभ कुछ खतरे में भी पड़ जाए। इस बारे में बहुत सी वैज्ञानिक रिपोर्ट किताबों की शक्ल में सामने आ चुकी हैं, इसलिए यहां पर उसके बारे में अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। लेकिन बिहार की जातीय जनगणना को लेकर आज देश में जो बहस छिड़ी है, वह एक ही तरफ जाते हुए दिखती है कि जिस जाति की जितनी आबादी है, उसका उतना ही हक होना चाहिए। लोकतंत्र में हर व्यक्ति का बराबर एक-एक वोट ही होता है, और हर व्यक्ति के अवसर भी बराबर होने चाहिए। आबादी के अनुपात में आरक्षण से आज की ऊंची कही जाने वाली जातियों को अपना बड़ा नुकसान होते दिखेगा, क्योंकि आज वे अधिक अवसरों पर काबिज हैं, लेकिन बढ़ती हुई सामाजिक-राजनीतिक चेतना के चलते यह अनुपातहीन व्यवस्था अंतहीन तो चलनी भी नहीं थी, और बिहार ने शायद इस व्यवस्था के खात्मे को एक फास्टट्रैक पर डाल दिया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज गांधी जयंती पर गांधी के नाम की सबसे अधिक चर्चा सरकार और राजनीति के लोग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने आपको गांधीवादी या गांधी का अनुयायी-प्रशंसक साबित करना जरूरी सा रहता है। इस देश में आज लोगों की सोच चाहे कितनी ही बेईमान क्यों न हो गई हो, दिखावे और पाखंड के लिए पूजा तो गांधी की ही करनी पड़ती है। जब दुनिया भर के मेहमान भारत आते हैं तो सरकार को भी उन्हें राजघाट ही ले जाना पड़ता है, गोडसे या सावरकर के स्मारकों पर उन्हें नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए आज जैसे-जैसे गांधी के नाम की चर्चा हो रही है, वैसे-वैसे यह भी याद पड़ता है कि गांधी के नामलेवा लोग किस हद तक गांधी से दूर हो चुके हैं। तमाम मौके विसंगतियों और विरोधाभासों को उजागर करते हैं, गांधी जयंती और आजादी की सालगिरह, या संविधान लागू करने के गणतंत्र दिवस के मौके ऐसे ही हैं जो कि जलसों और हकीकतों में विरोधाभास को बढ़-चढक़र बताते हैं।
आज प्रधानमंत्री सहित देश के दूसरे बहुत से नेता राजघाट जा चुके होंगे, या अपनी-अपनी तरह से गांधी को श्रद्धांजलि दे चुके होंगे। लेकिन इस गरीब देश के लिए गांधी ने जो सादगी और किफायत की राह दिखाई थी, उस राह को मानो सत्ता ने उसके सामने दीवार खड़ी करके छुपा दिया है कि वह आईने की तरह सत्ता के ऐशोआराम को उसका चेहरा न दिखाती रहे। गांधी की तस्वीरें, उसके इश्तहार और वीडियो, और गांधी की तारीफ में बड़ी-बड़ी बातें लोगों के ढकोसले को और अधिक हद तक उजागर करती हैं। जिस गांधी ने मन, वचन, और कर्म, इन सबकी ईमानदारी पर जोर दिया, आज उसके नाम की रोटी खाने वाले लोग इनमें से किसी एक के प्रति भी ईमानदार नहीं दिखते। यह बात बहुत सालती है कि यह देश हर किस्म के पाखंडों का इतना आदी हो चुका है कि बहुत से लोगों को तो गांधी के स्मरण के नाम पर मक्कार लोगों की बातों में कुछ भी अटपटा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि जिस तरह रिश्वत लेने-देने में गांधी की तस्वीर वाले नोटों का इस्तेमाल होता है, और ऐसे नोटों को गांधी का अपमान नहीं माना जाता, उसी तरह गांधी के नाम पर बड़े-बड़े पाखंडों की सालाना परंपरा भी लोगों को अटपटी नहीं लगती।
आज जब गांधी की सोच के ठीक खिलाफ जाकर सत्ता और राजनीति लोगों के साथ भेदभाव करती हैं, धार्मिक नफरत और साम्प्रदायिकता फैलाती हैं, हिंसा को बढ़ावा देती हैं, और धर्म के नाम पर आतंक फैलाती हैं, तो वह बात भी अब 21वीं सदी के दूसरे दशक में नवसामान्य हो चुकी है, यही अब भारतीय सोच और भारतीय जीवनशैली रह गई है। कुछ अरसा पहले इस अखबार को दिए एक इंटरव्यू में गांधी के पड़पोते तुषार गांधी ने कहा था कि नोटों पर से गांधी की फोटो हटा देनी चाहिए। हमें लगता है कि गांधी के नाम पर साल में दो बार जन्म और मृत्यु का दिन मनाना भी बंद हो जाना चाहिए, क्योंकि जो गांधी का नाम लेने के हकदार अब भी बचे हैं, वे सबसे गरीब, सबसे बेबस लोग ऐसे हैं जिनका गांधी के नाम के जलसों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। जो सबसे कमजोर तबका है, जिसे गांधी ने एक वक्त हरिजन कहा था, और जिसने बाद में इस नाम पर आपत्ति की थी, और अपने आपको दलित कहता है, उस तबके, उस किस्म के दूसरे कमजोर तबके, अल्पसंख्यक धर्मों के लोग आज सत्ता और राजनीति के जितने बुरे निशाने पर हैं, वह देखकर दिल बैठने लगता है। ऐसे में इस देश को बार-बार गांधी का वारिस होने का नाटक करना भी क्यों चाहिए? आज यह देश जिस परले दर्जे का कलंकित हो चुका है, आज संविधान की शपथ लेने वाले बड़े-बड़े लोग जिस तरह संसद के भीतर साम्प्रदायिक और हिंसक गालियां बक रहे हैं, बड़े-बड़े मुजरिम सरकार, राजनीति, और संसद में ऊंचे ओहदों पर हैं, उसे देखते हुए सरकारी दफ्तरों में गांधी की तस्वीर भी क्यों लगानी चाहिए?
और सरकारी दफ्तरों से याद आया कि आज देश की बड़ी अदालतें सरकारी दफ्तरों की साजिशों, वहां के जुर्म के खिलाफ ही जूझती रहती हैं, सरकारें रात-दिन अदालत को अपने झूठ से बरगलाने में लगी रहती हैं, ऐसे सरकारी दफ्तरों में गांधी की फोटो क्यों लगानी चाहिए? जब देश-प्रदेश की सरकारें लगातार मुजरिमों की तरह काम करती हैं, और दिखावा जनकल्याण का करती हैं, तो फिर वे चाहे गांधी के हत्यारों की तस्वीरें टांग लें, गांधी की तस्वीर को सरकारी दफ्तरों में टांगना तो गांधी को मरने के बाद भी सलीब पर टांगने सरीखा है, कम से कम मर चुके गांधी पर इतनी तो रहम करनी चाहिए कि हर बरस दो-चार बार यह याद न दिलाया जाए कि देश गांधी की सोच के कितने खिलाफ चल रहा है।
हमारा यह भी मानना है कि आज देश की राजनीतिक ताकतें इस बात की हकदार नहीं हैं कि विदेशों से आने वाले मेहमानों को वे राजघाट ले जाकर गांधी के नाम पर बेवकूफ बनाएं। यह कुछ उसी किस्म का है कि एक परिवार के नौजवान बेटे बूढ़े मां-बाप को वैसे तो भूखे मारें, प्रताडि़त करें, लेकिन जब बाहर से मेहमान आएं तो मां-बाप को ठीक-ठाक कपड़े पहनाकर मेहमानों को ले जाकर मां-बाप के पांव छुआएं। आज इस देश में कितनी सरकारें ऐसी हैं जो कि अपनी चाल-चलन के चलते, अपनी सोच के चलते गांधी का नाम भी लेने की हकदार हैं? जो सरकारें लगातार नफरती एजेंडे पर चल रही हैं, जिन्होंने अभी दस बरस पहले तक बड़ी मुश्किल से देश में धर्म के ताने-बाने से कपड़े को बुना था, उसे इन दस बरसों में तार-तार कर दिया गया है। इस देश को एक धर्मराज्य की तरह बना दिया गया है, और अपने धर्म, और सौतेले धर्म या दुश्मन धर्म के बीच ऐसी नफरत खड़ी करने वाले लोगों को राजघाट का रणनीतिक इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए। गांधी को जो करना था वो करते-करते, उसी वजह से गोली खाकर चले गए। अब उनकी हत्या करने वाली सोच को उनका कफन बेचकर राजनीति नहीं करने देनी चाहिए।
केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अभी कहा है कि वे आने वाले लोकसभा चुनाव में न तो पोस्टर-बैनर लगवाएंगे, न किसी को चाय पिलाएंगे, जिसे वोट देना है दे, जिसे न देना है वो न दें। उन्होंने कहा कि वे चुनावों में रिश्वत नहीं लेते, और न किसी को कुछ देते हैं। उन्होंने पहले एक वक्त यह भी कहा था कि वोटर खाता सबका है, लेकिन वोट उसी को देता है जिसे देना होता है। उन्होंने बताया था कि एक बार उन्होंने एक-एक किलो मटन बांटा था, लेकिन चुनाव हार गए थे। आज की इस खबर पर सोचने की जरूरत इसलिए है कि आज देश के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव काले बादलों की तरह मंडरा रहे हैं। सरकारी स्तर पर योजनाओं और कार्यक्रमों की बौछार चल रही है कि वोटरों के दिल का कोई कोना सूखा न रह जाए। नेताओं के अपने होर्डिंग और पोस्टर जिधर नजर जाए, उधर बदसूरती फैलाते दिख रहे हैं। तमाम संपन्न पार्टियों के वे नेता अपने चेहरों से सडक़ों को पाट दे रहे हैं जो कि अपनी पार्टी की टिकट पाने के लिए उम्मीद से हैं। जाहिर है कि टिकट पाने वाले लोगों का सार्वजनिक जगहों पर हमला इससे कई गुना अधिक होगा। इन दिनों जो चर्चा सुनाई पड़ती है उसके मुताबिक टिकट दिलवाने के लिए पार्टी के कुछ बड़े नेता करोड़ों रूपए उगाही भी कर रहे हैं, और टिकट चाहने वाले लोग उन्हें लाखों रूपए के तोहफे भी दे रहे हैं। कुल मिलाकर माहौल दो नंबर से लेकर दस नंबर तक के पैसों की अश्लील और फूहड़ नुमाइश का होकर रह गया है, और अभी पार्टियों के उम्मीदवार भी आने बाकी हैं, चुनाव प्रचार शुरू होना भी बाकी है।
नेताओं और उनकी पार्टियों के बीच मचा हुआ यह घमासान बताता है कि जिन्होंने पांच बरस काम किया हो उनमें, और जिन्होंने कुछ न किया हो, उनमें भी हड़बड़ी एक सरीखी है, दोनों ही किस्म के लोग बदहवास हैं क्योंकि बड़ी पार्टी की टिकट और मौत का कोई भरोसा नहीं रहता है कि वह कब किसके ऊपर आकर गिरे। ऐसे में बहुत से नेताओं को यही ठीक लगता है कि मतदान के 15-20 दिन पहले मिलने वाली टिकट के बाद हर पल वे इतना अंधाधुंध खर्च करें कि वोटर उसी के सैलाब में बह जाए। खुद सरकारों की, यानी सत्तारूढ़ पार्टियों की ऐसी ही हड़बड़ी दिख रही है। कई पार्टियां तो अपनी राज्य सरकारों की कामयाबी के कई-कई पन्नों के इश्तहार दूसरे प्रदेशों के अखबारों में छपवा रही हैं मानो वहां से भी वोटर वोट देने आएंगे। और यह सब कुछ जनता के पैसों से हो रहा है। प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपने प्रदेशों में तो बड़े अखबारों को इश्तहारों से पाट चुकी हैं, मानो यह अपने खिलाफ कुछ न छपने की गारंटी सी हो। और इस हड़बड़ी में सरकारों को यह भी नहीं दिख रहा है कि एक पाठक की एक दिन में कामयाबी की कहानियां पढऩे और बर्दाश्त करने की क्षमता कितनी है, किसी एक की जिंदगी में इनके लिए जगह कितनी है। इन सबसे लगता है कि पांच बरस का कार्यकाल सरकारों ने कामयाबी से पूरा नहीं किया है, और आखिरी के एक-दो महीनों की हड़बड़ी कुछ इस तरह की है कि देर रात की आखिरी ट्रेन पकड़ रहे हों।
यह सिलसिला दो किस्म के पैसों को उजागर करता है। एक तो निजी कालेधन को जिससे कि सडक़ किनारे खम्भों पर पोस्टर और होर्डिंग लगाकर लोगों की नजरों को उनसे ढांक दिया जाता है। दूसरा यह कि किसी एक पार्टी के राज वाले राज्य के सरकारी इश्तहारों के पैसों से दूसरे प्रदेशों में भी इश्तहार दिए जा रहे हैं क्योंकि वहां पार्टी विपक्ष में है, और वहां उस पार्टी के राज वाले प्रदेश की कामयाबी दिखाकर वोटरों को प्रभावित किया जा रहा है। खुद अपने-अपने प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी सरकारों के खर्चों से अंधाधुंध चुनावी प्रचार करने में लगी हैं, और लोकतंत्र में यह सत्ता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, इस पर न चुनाव आयोग, न किसी और का कोई काबू है। यह पूरा सिलसिला वोटरों और मीडिया को सत्ता के असर के सैलाब में बहा देने का है। साथ ही इस हड़बड़ी का सुबूत भी है कि पांच बरस के किए-कराए पर सरकार को खुद ही अधिक भरोसा नहीं है, और आज वह जनता के पैसों को इस तरह, इस हद तक झोंक रही है।
ऐसे में नितिन गडकरी जैसे नेता की बात मायने रखती है कि वे न पोस्टर छपवाएंगे, न लोगों को कुछ खिलाएंगे-पिलाएंगे। कम से कम एक बड़े नेता ने तो ऐसा नैतिक साहस दिखाया है, कि उसके अपने चेहरे को कदम-कदम पर चिपकाने के बजाय काम ऐसा करके दिखाए कि जिसे पूरा देश देखे, जिसकी पूरे देश में तारीफ हो। और जो बात उन्होंने पहले कही थी वह भी एकदम सही है कि वोटर पैसे और सामान तो सबसे ले लेते हैं, लेकिन वोट उसी को देते हैं जिसे देना चाहिए। इस बात को बाकी लोगों को भी याद रखना चाहिए कि अगर आपके काम कामयाब हैं, तो फिर आपको कदम-कदम पर अपने पोस्टर लगाने की जरूरत नहीं है, हर टीवी चैनल पर दिन भर छाए रहने, हर अखबार में अपने कई पन्ने छपवाने की जरूरत नहीं है। लेकिन जहां काम में कमजोरी रहती है, वहां पर फिर लोग अंधाधुंध सहारा ढूंढने लगते हैं, और अभी तो चुनाव कई हफ्ते दूर है, और बदहवासी का यह आलम चारों तरफ छा चुका है।
केन्द्र और राज्य सरकारों के इश्तहार देने, प्रचार करने की मर्जी पर कोई कानूनी काबू नहीं है। दिल्ली में जब केजरीवाल सरकार ने एक सार्वजनिक योजना में केन्द्र सरकार के साथ राज्य की तरफ से रकम देने से मना कर दिया, तो अभी कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से उसके दिए जा रहे विज्ञापनों का हिसाब मांगा। अब ऐसा लगता है कि चुनाव के वक्त सरकारों के विज्ञापनों के खर्च को लेकर किसी तरह के कोई नियम बनने चाहिए ताकि अखबार और टीवी चैनलों में से जो लोग अपनी आत्मा बेचना न चाहें, वे भी मुकाबले में कहीं टिक सकें। चुनाव प्रचार के दौरान उम्मीदवारों के खर्च पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग कहने को तो देश भर से बड़े-बड़े अफसरों को खर्च-पर्यवेक्षक बनाकर भेजता है, लेकिन पूरे प्रदेश को पता रहता है कि किस-किस बड़े नेता की सीट पर सीमा से सौ-सौ गुना अधिक खर्च होने जा रहा है। यह खर्च अगर किसी को नहीं दिखता है, तो वह सिर्फ चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक को नहीं दिखता। यह नौबत भी बदलनी चाहिए क्योंकि खर्च की ऐसी सुनामी के सामने किसी ईमानदार उम्मीदवार के पांव नहीं टिक सकते। चुनाव का वक्त लोगों की जुबानी हिंसा का भी रहता है, और इसके साथ-साथ सरकारी पैसों, और निजी कालेधन के हिंसक इस्तेमाल का भी रहता है। इसका क्या इलाज निकाला जा सकता है जनता को भी सोचना चाहिए, क्योंकि चुनाव आयोग तो अब सरकार के किसी विभाग की तरह हो गए हैं, जो कि नेता के मातहत उसकी मर्जी का काम करते हैं।
कनाडा की संसद के स्पीकर को अभी इस्तीफा देना पड़ा। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की पिछले हफ्ते वहां पहुंचे थे, और उनके स्वागत में स्पीकर एंथनी रोटा ने अपने शहर से एक यूक्रेनी अप्रवासी को आमंत्रित किया था, और उसे संसद में सबके सामने द्वितीय विश्वयुद्ध के एक हीरो की तरह पेश किया। स्पीकर के इस फैसले पर कनाडा के प्रधानमंत्री सहित तमाम सांसदों ने खड़े होकर तालियां बजाई थीं, और बाद में स्पीकर को पता लगा कि उस युद्ध में यह आदमी हिटलर की नाजी फौजों से जुड़ा हुआ था। हिटलर की फौजों से जुड़े हुए किसी भी तरह के लोग आज पूरी दुनिया में अछूत बने हुए हैं, और उन्हें युद्ध अपराधों के इतिहास से जोडक़र देखा जाता है। इस बात को लेकर कनाडा में इतना बवाल हुआ कि प्रधानमंत्री ने माफी मांगी और स्पीकर ने इस्तीफा दिया।
दरअसल दुनिया में जितने विकसित और सभ्य लोकतंत्र हैं, उनमें लोकतांत्रिक परंपराएं मजबूत रहती हैं, और उन्हीं की बुनियाद पर लोकतंत्र खड़ा होता है। वहां पर किसी तरह की नैतिक चूक होने पर लोग तुरंत ही इस्तीफा देते हैं। हिन्दुस्तान की तरह नहीं होता कि दर्जन भर लड़कियों के बलात्कार का आरोपी अदालत के कटघरे में भी खड़ा है, और संसद की कुर्सी पर भी बैठा है। इस देश की संसद में तो अभी हाल में एक धर्म के खिलाफ जिस तरह की गंदी नफरती, हिंसक गालियां दी गई हैं, उन पर पूरी संसद को शर्मिंदा होना था, लेकिन ऐसे सांसद का बाल भी बांका नहीं हुआ, और उसे उसकी पार्टी, केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने राजस्थान चुनाव में एक जिले का प्रभारी भी बनाकर भेजा है जहां 11 फीसदी मुस्लिम आबादी हैं। जाहिर है कि ऐसे आदमी को जिसके वीडियो देश भर में घूम रहे हैं, वह अगर ऐसे जिले में चुनाव प्रभारी बनाया जा रहा है, तो यह वहां पर वोटों के ध्रुवीकरण की एक कोशिश अधिक दिखती है। अब यह तो संसद चलाने वाले लोगों के अपने विवेक पर रहता है कि अपनी संसद पर लग रही कालिख से उन्हें शर्मिंदगी होती है, या वे संसद के कैमरों के सामने मुस्कुराते बैठे रहते हैं। यह नौबत लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है, और आज जो कनाडा भारत के साथ खालिस्तानियों के मुद्दे पर टकराव लेकर चल रहा है, उस कनाडा की संसद में अपनी चूक पता लगते ही बिना किसी मांग के उसके स्पीकर ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने बिना जानकारी गलती से एक ऐसे आदमी का सम्मान कर दिया था जो कि नस्लवादी फौज के साथ जुड़ा हुआ था। हिन्दुस्तान की संसद में हाल ही में जितनी घटिया नस्लवादी गालियां सुनी हैं, उससे तो किसी को भी शर्म आई हो, ऐसा नहीं लगता है।
लोकतंत्र सिर्फ नियमों से बंधा हुआ नहीं चलता, नियम तो चोरों के बचने के काम आते हैं, अदालतों में मुजरिम उनमें छेद ढूंढकर बचते हैं, लेकिन अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं के बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोग पेशेवर गवाहों और मुजरिमों की तरह यह कोशिश करते रहें कि नियम-कानून से बचा कैसे जा सकता है, तो ऐसा लोकतंत्र कभी विकसित नहीं हो सकता। विकसित और सभ्य लोकतंत्रों का हाल तो यह है कि एक अनैतिक संबंध का आरोप सामने आते ही पश्चिम के कई देशों में लोग इस्तीफा दे देते हैं। जरा से दूसरे आरोप लगते हैं, और लोग सार्वजनिक माफी मांगते हुए ओहदे से हट जाते हैं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान है जहां बलात्कार में पकड़ाए गए लोग भी चौड़ी मुस्कुराहट चेहरे पर लिए हुए, सिर पर पगड़ी डटाए हुए शान से घूमते हैं, और यह भविष्यवाणी भी करते हैं कि उनके बिना हिन्दुस्तान में यह खेल पिछड़ जाएगा, और टीम कोई मैडल लेकर नहीं आएगी। यह परले दर्जे का घटिया लोकतंत्र हो गया है जहां लोगों को देश के लोगों के अधिकार की कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं रह गई है, और महज अपने कानूनी बचाव की कोशिश ही उनके लिए सब कुछ हो गई है।
आज हालत यह है कि देश में जगह-जगह शर्मिंदगी की वारदातें हो रही हैं, लेकिन देश-प्रदेश में जो लोग इनके लिए जिम्मेदार हैं, उनके माथे पर शिकन भी नहीं है, वे पहले की तरह ही मंचों पर विराजमान हैं, मालाओं से लदे हुए हैं, और माईक पर देश के लिए प्रेरणा की बातें करते रहते हैं। दरअसल इस पूरे देश में नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को इतना पतन हो चुका है कि बड़े से बड़े मुजरिम भी महज चुनाव जीत पाने, और वोट दिलवाने की ताकत के दम पर सत्ता और संगठन में इज्जतदार और वजनदार बने रहते हैं। जाहिर है कि ऐसा देश कभी सुरक्षित नहीं रह सकता। आम लोगों के परिवार तभी तक हिफाजत में हैं, जब तक ऐसे किसी ताकतवर की नीयत उन पर नहीं डोलती। मुजरिमों को बचाने के लिए देश-प्रदेश की सरकारें जितनी मेहनत करती हैं, उतनी मेहनत अगर वे जनकल्याण के काम करने में करतीं, तो देश का नक्शा बदल गया रहता। लेकिन अपने चहेते और पसंदीदा मुजरिमों को बचाने में लगे हुए हिन्दुस्तान के तथाकथित नेता और अफसर देश को बर्बाद कर चुके हैं। इनमें संसद का हाल आज सबसे ही भयानक दिख रहा है जहां पर कोई व्यक्ति नफरत की ऐसी बातें कहकर, ऐसी हिंसक धमकियां देकर बचा हुआ है जिन पर उसे दुनिया में कड़ी सजा मिल चुकी होती। आज भी अगर हिन्दुस्तान का यह सांसद किसी पश्चिमी विकसित देश में जाने का वीजा मांगे, तो उसे पता लग जाएगा कि वह सभ्य दुनिया के लिए किस हद तक अछूत है। कनाडा की घटना की चर्चा हमने इसलिए की है कि हिन्दुस्तान में जिन लोगों में संसद में रहते हुए भी जरा सी भी शर्म नहीं रह गई है, वे लोग अपनी इस नौबत को देख लें, और इसके बाद कनाडा की संसद को देखकर उससे कुछ सबक ले लें।
सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट को एक सजायाफ्ता बुजुर्ग वकील के मामले को दूसरे मामलों से अलग तेज रफ्तार से निपटाने का निर्देश दिया है। अदालत ने कहा है कि वह आमतौर पर दूसरी संवैधानिक अदालतों को किसी केस की तारीखें तय करने को नहीं कहता है, लेकिन यह मामला बहुत अलग है। इसमें सजायाफ्ता वकील जिसने हाईकोर्ट में निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील की है, उस पर अपनी भांजी से बलात्कार और हत्या का जुर्म लगा था, और उसमें उसे सजा हुई है। सजा के खिलाफ उसने हाईकोर्ट में अपील की है, लेकिन वहां से उसे मामले के निपटारे तक जमानत से मना कर दिया गया था। इसी के खिलाफ यह वकील सुप्रीम कोर्ट गया था, और सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 1983 के इस मामले में फैसला 2023 में हुआ है, और 40 बरस तक मुकदमा चलने के असाधारण तथ्य को देखते हुए अदालत यह निर्देश दे रही है कि हाईकोर्ट इसकी आऊट ऑफ टर्न सुनवाई करे, और कड़ी शर्तें लगाकर इस वकील को जमानत दे। सुप्रीम कोर्ट 40 बरस लंबी चली सुनवाई की वजह से इसमें दखल दे रहा है, और उसने अपील करने वाले सजायाफ्ता वकील को कहा है कि वह अब हाईकोर्ट में तेज रफ्तार सुनवाई में सहयोग करे, और किसी तरह की बहानेबाजी से इसकी रफ्तार कम न करे।
अब भांजी से बलात्कार और उसके कत्ल के सीधे सपाट मामले में निचली अदालत को ही सजा सुनाने में 40 बरस कैसे लगे, यह हैरान करने वाली बात है। यह भी सोचने की बात है कि क्या आरोपी के वकील रहने से ऐसी अदालती तिकड़मे चलती रहीं जिनकी वजह से फैसला नहीं हो पाया, और आरोपी जमानत पर बाहर रहा। अधिकतर ऐसे मामलों में जिनमें मुजरिम को सजा का पुख्ता अंदाज रहता है, उनमें वे कम से कम इतनी कोशिश तो करते ही हैं कि सजा का फैसला होने में अधिक से अधिक देर लगे। इसके बाद वे ऊपरी अदालतों में इस फैसले के खिलाफ और वक्त लगाते हैं। हो सकता है कि इस वकील के मामले में भी ऐसा ही हो रहा हो, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह केस तेजी से निपटाने के लिए कहा है, तो उम्मीद की जा सकती है कि जुर्म और गुनहगार का फैसला तेजी से हो पाएगा।
हिन्दुस्तानी अदालतों की रफ्तार के बारे में भी अगर सुप्रीम कोर्ट अपने इस आदेश में कुछ कहता तो बेहतर लगता। इस मामले में तो जुर्म की शिकार लडक़ी बलात्कार के बाद मार दी गई थी, इसलिए फैसले से अब उसका तो कोई भला नहीं होना है, लेकिन अगर उसकी जगह किसी जिंदा गरीब की बात होती, तो फैसले से उसे कोई भी राहत मिलने की बात तो 40 बरस खिसक ही गई रहती। ऐसे में हमें इसी जगह पर अपनी कई बार की लिखी गई एक बात याद आती है कि किसी भी तरह के जुर्म में अगर मुजरिम संपन्न हैं, तो बलात्कार की शिकार, या किसी और जुर्म के शिकार परिवार को मुजरिम की दौलत का एक हिस्सा मिलना चाहिए। यह हिस्सा बलात्कार के मामलों में उस मुजरिम की बीवी या उसके बच्चों के कानूनी हक के बराबर का हो सकता है। भारतीय कानून में ऐसे एक फेरबदल की जरूरत है कि संपन्नता या किसी तरह की सत्ता की ताकत से लैस मुजरिम अगर किसी कमजोर को शिकार बनाते हैं, तो ऐसे कमजोर को मुजरिम की क्षमता के अनुपात में भरपाई मिलनी चाहिए। जिस दिन बलात्कारी की जायदाद का आधा हिस्सा बलात्कार की शिकार को मिल जाएगा, बलात्कारी को कैद के बाद अपने परिवार में भी असली सजा मिलेगी।
भारतीय समाज में ताकतवर और कमजोर के बीच जुर्म की गुंजाइश बहुत बड़ी रहती है। दलित और आदिवासी तबकों को अपने तबके के बाहर के लोगों के जुल्म से बचाने के लिए अलग कानून बनाया गया है, लेकिन जाति व्यवस्था की ताकत से परे ओहदे या संपन्नता की ताकत के लिए भी अलग कानून रहना चाहिए। आज कोई बड़ा अफसर अपनी मातहत से बलात्कार करे, तो उस पर सजा तय हो जाने पर उस अफसर की बकाया तनख्वाह, सरकार में जमा बाकी रकम, और उसकी दौलत से पत्नी के बराबर का हिस्सा बलात्कार की शिकार को मिलना चाहिए। अदालत का आज के कानूनों के तहत न्याय, सामाजिक न्याय नहीं है। सामाजिक न्याय के लिए जाति व्यवस्था, संपन्नता या ताकत का फर्क, शारीरिक ताकत का फर्क, इन सबका ध्यान रखना जरूरी है।
एक बार फिर से कलकत्ता हाईकोर्ट के इस मामले पर लौटें, तो कानून के शोधकर्ता असाधारण देर होने वाले ऐसे मामलों का अध्ययन कर सकते हैं कि किस तरह की तिकड़म लगाकर सजा से 40 बरस बचा गया था। इस मामले में यह जाहिर है कि बलात्कारी-हत्यारे को सजा मिलने की ही आशंका थी, और इसलिए सुनवाई में जितनी देर हुई होगी, उसमें शायद उसी का बड़ा योगदान रहा होगा। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट को कुछ किस्म के मामलों के लिए देश के अलग-अलग विधि विश्वविद्यालयों से बात करनी चाहिए कि असाधारण किस्म के मामलों पर वहां के प्राध्यापक और छात्र शोध करके सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने निष्कर्ष रखें, ताकि बाकी मामलों को उस किस्म की साजिश से बचाया जा सके। आज देश में जाने कितने ही विधि विश्वविद्यालय हैं, और दुनिया भर में मशहूर आईआईएम हैं, टेक्नालॉजी के मामले में आईआईटी हैं, लेकिन इनका फायदा अमरीका की बड़ी-बड़ी कंपनियों को मिलते दिखता है, खुद भारत की सरकारी व्यवस्था या न्याय व्यवस्था को इनका फायदा नहीं दिखता। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि देश के अदालती कामकाज में सुधार के लिए इन संस्थानों के विशेषज्ञों को मिलाकर एक ऐसी टीम बनाए जो कि निचली अदालतों के कामकाज को देख-समझकर उनमें सुधार के तरीके बताए। जहां इंसाफ में इस तरह की अंधाधुंध देर लगती है, वहां पर अदालत को कुछ कल्पनाशील और असाधारण तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए। देश के तीन किस्म के प्रमुख संस्थानों को इसमें झोंकना चाहिए, और इससे देश के दसियों करोड़ लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी।
मणिपुर में हिंसा की ताजा घटनाएं बड़ी फिक्र खड़ी करती हैं। एक तरफ तो देश के बहुत से तबकों से यह मांग आ रही है कि वहां के भाजपा के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को हटाया जाए। मांग तो राष्ट्रपति शासन की भी आ रही है, लेकिन केन्द्र सरकार की मुखिया भाजपा है, और मणिपुर में भी भाजपा का राज है, इसलिए शायद राजनीतिक असुविधा का ऐसा कोई फैसला लेने से केन्द्र सरकार कतरा रही है। तीन मई से शुरू हुए मैतेई और कुकी जनजाति के बीच हिंसक संघर्ष में अब तक 175 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, और आधा लाख से अधिक लोग अपने घरों से बेदखल हो चुके हैं। केन्द्र सरकार ने वहां सेना भी तैनात कर दी है, लेकिन राज्य की पुलिस सेना के साथ कई मोर्चों पर टकराव लेते दिख रही है। ऐसे कई वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें राज्य की पुलिस फौज को चले जाने को कह रही है। हफ्ते भर में मणिपुर में हिंसा शुरू हुए डेढ़ सौ दिन हो जाएंगे, और ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि वहां हिंसक तनातनी में कोई भी कमी आई हो, या शांति की कोई संभावना बनी हो। फौज और सुरक्षाबलों की असाधारण मौजूदगी की वजह से नए टकराव कम हो रहे हैं, लेकिन आज भी इतने टकराव तो जारी हैं कि राजधानी इम्फाल में पुलिस के गिरफ्तार किए हुए लोगों को छुड़ाने के लिए महिलाओं की भीड़ लेकर लोगों ने थानों पर पत्थरों से हमले किए। यह कार्रवाई उन लोगों को छुड़ाने के लिए की जा रही थी जिन्हें पुलिस की वर्दी में अवैध हथियार लेकर चलते हुए गिरफ्तार किया गया था। और हालत यह है कि मणिपुर की अदालत ने ऐसे तनावभरे राज्य में पुलिसवर्दी में अवैध हथियार लेकर चलते लोगों को आनन-फानन जमानत भी दे दी। ऐसी खबरें हैं कि ये लोग वहां की सत्ता के करीबी और पसंदीदा मैतेई समुदाय के लोग थे और थाने को भीड़ के हमले से बचने के लिए आंसू गैस के गोले भी दागने पड़े, कुछ पुलिसवाले जख्मी भी हुए। ऐसा भी कहा जा रहा है कि पुलिस की वर्दी में हथियार लेकर चलने वाले ऐसे लोगों को वहां पर पुलिस कमांडो कहा जाता है, और वे कुकी आदिवासी समुदाय पर हमला करने वाली भीड़ का हिस्सा रहते हैं।
इस बात को ठीक से समझने की जरूरत है कि मणिपुर में गैरआदिवासी, शहरी मैतेई समुदाय को आदिवासी-आरक्षित तबके में शामिल करने की हाईकोर्ट की एक सिफारिश के तुरंत बाद से वहां हिंसा शुरू हो गई थी, क्योंकि ऐसी कोई सिफारिश लागू होने पर आदिवासी-आरक्षित तबके के सारे हक मारे जाते। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी यह पाया कि हाईकोर्ट की सिफारिश सही नहीं थी, और उसे ऐसा करने का कोई हक भी नहीं था, यह उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात थी। लेकिन इसके तुरंत बाद से जो तनाव वहां चल रहा है उसमें एक बात साफ है कि कुकी आदिवासी तबका, जो कि ईसाई है, उसका कोई भी भरोसा राज्य की बीरेन सिंह सरकार पर नहीं है। कुकी नेता बार-बार यह बोल चुके हैं कि बीरेन सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए किसी तरह की शांति नहीं आ सकती। यह मामला आदिवासी और गैरआदिवासी से शुरू हुआ, लेकिन यह सवर्ण-हिन्दू और ईसाई-आदिवासी तबकों के बीच टकराव में तब्दील हो गया। मई के महीने में ही केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह तीन दिन मणिपुर रहकर लौटे, लेकिन उससे कोई समाधान नहीं निकल सका। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 75 से अधिक दिनों तक जुबान पर मणिपुर शब्द भी लेकर नहीं आए, और संसद के बाहर मीडिया के कैमरों पर उन्होंने पहली बार मणिपुर तब कहा जब सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को इस पर नोटिस जारी किया, और सत्र शुरू हो रहा था।
ऐसे हालात वाले मणिपुर में ताजा खबर यह है कि वहां सेना को खास हिफाजत देने वाले एक कानून आफस्पा को चुनिंदा इलाकों में छह महीनों के लिए बढ़ा दिया गया है। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के इतिहास में महिलाओं के नग्न प्रदर्शन की अकेली घटना मणिपुर में ही इसी एक कानून के खिलाफ बरसों से चली आ रही है, और कुछ महीने पहले मणिपुर के कई इलाकों से इसे हटा भी दिया गया था। लेकिन अभी ताजा तनाव को देखते हुए यह कानून राज्य के मैतेई बहुल इलाकों के 19 थाना-क्षेत्रों को छोडक़र बाकी जगहों पर लागू किया गया है। जबकि राज्य में मारे गए पौने दो सौ लोगों में से 80 फीसदी मौतें इन्हीं इलाकों में हुई हैं। जिन लोगों को इस कानून की जानकारी नहीं है उनके लिए यह बताना काम का होगा कि जिन इलाकों में यह लागू किया जाता है वहां पर भारतीय सेना के सैनिकों को बिना वारंट कहीं भी जांच करने और किसी को भी गिरफ्तार करने का हक मिल जाता है, इसके अलावा किसी भी सैनिक पर केन्द्र सरकार की मंजूरी के बिना कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। एक किस्म से यह लोकतंत्र की साधारण संवैधानिक व्यवस्था से ऊपर एक असाधारण व्यवस्था रहती है जिसमें राज्य के नागरिकों और वहां की सरकार या पुलिस के सामान्य अधिकार निलंबित रहते हैं। वे किसी भी फौजी ज्यादती के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। अब हैरानी की बात यह है कि मणिपुर में जिस तरह तनाव पूरे राज्य में फैला हुआ है, उसमें सिर्फ मैतेई बहुल इलाकों में आफस्पा लागू न करना, और कुकी-आदिवासी बहुल इलाकों में इसे लागू करना एक हैरान करने वाली बात है। ऐसी खबरें हैं कि प्रदेश के बहुत सारे प्रतिबंधित संगठन जो कि म्यांमार से हथियार पा रहे हैं, उनमें अधिकतर लोग मैतेई समुदाय के हैं, और वे घाटी के उन्हीं इलाकों से काम कर रहे हैं जहां पर आफस्पा नहीं लगाया गया है। अभी आई खबर बताती है कि इन इम्फाल में भाजपा ऑफिस को आग लगा दी गई है, भाजपा अध्यक्ष के घर पर हमला किया गया है, एक डिप्टी कलेक्टर के घर पर गाडिय़ां जला दी गई हैं, लेकिन इन इलाकों को शांतिपूर्ण घोषित किया गया है, और आफस्पा कानून से बाहर रखा गया है। मतलब यह कि चीन और म्यांमार से जुड़े हुए संगठन और उनके लोग जिस इलाके से काम कर रहे हैं, उसे फौजी ताकत वाले इस कानून से बाहर रखा गया है। यह फैसला बहुत हैरान करता है, और आने वाले वक्त में अधिक जानकार लोग इसका बेहतर विश्लेषण कर सकेंगे।
फिलहाल जो बात बिना किसी विवाद के साफ दिखती है, वह यह कि डेढ़ सौ दिनों में भी मणिपुर के भाजपा मुख्यमंत्री कुछ भी नहीं सुधार पाए हैं, और जनता के एक बड़े तबके का उन पर कोई विश्वास नहीं है। केन्द्र सरकार अपने तमाम सुरक्षाबलों और अपनी फौज के साथ मिलकर भी वहां हिंसा रोक नहीं पा रही है। और भारत म्यांमार सरहद पर बसा हुआ, रणनीतिक महत्व का यह राज्य एक अभूतपूर्व हिंसा और तनाव झेल रहा है। देखना होगा कि आने वाले दिनों में इतिहास वहां क्या दर्ज करता है।
इन दिनों हिन्दुस्तान के गांव-गांव, और घर-घर तक पहुंचने वाले पैकेट बंद खाने के सामान में नमक, शक्कर, और घी-तेल की मात्रा निर्धारित मात्रा से बहुत अधिक पाई गई है। इस मामले में काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन न्यूट्रीशन एडवोकेसी इन पब्लिक इंट्रेस ने ऐसे कई दर्जन अलग-अलग पैकेट-फूड का रासायनिक विश्लेषण किया जिनमें से एक तिहाई में ये सारी चीजें निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा निकलीं। हिन्दुस्तान वैसे भी सेहत के लिए निर्धारित नमक की अधिकतम सीमा से अधिक खाता है, और उसके बाद इस तरह के पैकेट वाले खानों से लोगों की सेहत को खतरा पहुंचाने की हद तक ये चीजें बढ़ जा रही हैं। एक समय था जब हिन्दुस्तान में सिगरेट और शराब-तम्बाकू के इश्तहार भी छपते थे। बाद में उन्हें सेहत के लिए नुकसानदेह मानकर बंद किया गया। पहले सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीने की मनाही भी नहीं थी, लेकिन जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी, उस पर भी रोक लगी। आज वक्त आ गया है कि खानपान के सामानों को लेकर सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि बच्चों से लेकर बड़ों तक उनका इस्तेमाल न बढ़े।
आज भारत में खानपान के नियम बनाने वाली सरकारी संस्थाएं, या सरकारी विभाग न सिर्फ लापरवाह हैं, बल्कि ऐसी आशंका भी रहती है कि वे कारोबारी दुनिया की रिश्वत के दबाव में नियमों को कभी भी पर्याप्त कड़ा नहीं बनाते, और न ही उसे लागू करते। खानपान के पैकेट, डिब्बे, और बोतलों पर स्वास्थ्य से संबंधित चेतावनी न तो पर्याप्त प्रमुखता से रहती है, न ही वह स्थानीय लोगों को समझ आने वाली भाषा में रहती है। उसे इस तरह दबाकर, छुपाकर, छोटे अक्षरों में, कहीं पीछे, नीचे डाल दिया जाता है कि उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। बार-बार यह बात उठती है कि कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल में कितने चम्मच शक्कर रहती है, और किस उम्र या वजन के व्यक्ति को एक दिन में अधिकतम कितनी शक्कर लेनी चाहिए। ऐसी किसी चेतावनी के बिना बोतलबंद तरह-तरह के ड्रिंक बाजार में बिकते हैं, और हर पीढ़ी के लोग उसके आदी हो चुके हैं। जो अंतरराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के दूसरे देशों में वहां की कानूनी जागरूकता के चलते अपने ऐसे ही सामानों पर कानूनी चेतावनी, सेहत के बारे में खतरे साफ-साफ छापती हैं, वे हिन्दुस्तान में इससे कतराती हैं, और भ्रष्ट सरकारी विभागों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता। सेहत के लिए अधिक जागरूक देश बरसों से जो करते आ रहे हैं, वह भी हिन्दुस्तानी अफसरों को नहीं दिखता। यहां तो लंबे समय तक सिगरेट कंपनियां इसी बात पर सरकार से उलझती रहीं कि सिगरेट से कैंसर होने के खतरे की चेतावनी पैकेट पर न छापी जाए, या जब छापी भी गई तो वह कितनी छोटी छापी जाए। नतीजा यह है कि आज हिन्दुस्तान में तम्बाकू से होने वाले मुंह के कैंसर के आंकड़े लाखों में पहुंचे हुए हैं, और सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि यह पुरूषों में सभी तरह के कैंसरों में सबसे अधिक जिम्मेदार है, और करीब 12 फीसदी कैंसर मरीज मुंह के कैंसर के ही हैं। मुंह का कैंसर पांच बरस की जिंदगी ही छोड़ता है। लेकिन सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी छापने में कंपनियों ने बरसों तक अड़ंगे लगाए थे।
आज हिन्दुस्तान में मजदूरों के बच्चों के हाथ भी तरह-तरह के चिप्स और दूसरे खानपान के पैकेट दिखते हैं। मां-बाप के पास पकाने का वक्त नहीं रहता, तो भूखे बच्चों के लिए आसपास की दुकान में टंगे पैकेट में से ही कुछ ला दिया जाता है। नतीजा यह होता है कि जरा-जरा से बच्चे कई तरह के पैकेट के आदी होते जा रहे हैं, घर के बाहर निकलते ही वे इन्हीं चीजों की जिद करने लगते हैं, और अधिक नमक-शक्कर, तेल-घी, और स्वाद के लिए डाले गए तरह-तरह के केमिकल्स की आदत उन्हें पडऩे लगती है। भारत में सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार में भी अब लोगों को इन चीजों को पेश करने की आदत पडऩे लगी है, और मेहमानों के साथ-साथ खुद भी इन्हें खाते हुए लोगों की रोजाना की इन चीजों की खपत बढ़ती जा रही है। यह सिलसिला देश की सेहत के लिए खतरनाक है क्योंकि भारत को दुनिया की डायबिटीज की राजधानी भी कहा जाने लगा है।
देश में आज ऐसे गैरसरकारी संगठनों को बढ़ावा देने की जरूरत है जो कि सरकार और कारोबार की इस मिलीजुली साजिश के खिलाफ वैज्ञानिक तथ्यों को लोगों के सामने रखते हैं। इनसे विश्वसनीय और वैज्ञानिक जानकारी लेकर समाज के अलग-अलग किस्म के संगठनों को भी अपने लोगों के सामने इन बातों को उठाना चाहिए, और धीरे-धीरे लोगों तक जागरूकता पहुंच सकती है। आज सोशल मीडिया और यूट्यूब, मैसेंजर सर्विसों और मैसेंजर-चैनलों के युग में यह आसान भी है कि कोई सामाजिक संगठन जागरूकता की ऐसी छोटी-छोटी फिल्में बनाएं, या पावर पाइंट प्रेजेंटेशन तैयार करें, और उन्हें चारों तरफ फैलाएं। इनका पूरी तरह वैज्ञानिक तथ्यों पर होना इसलिए जरूरी रहेगा कि ऐसी जागरूकता के खिलाफ बाजार की ताकतें अदालतों तक दौड़ लगा सकती हैं। इसीलिए हम वैज्ञानिक अनुसंधान पर काम करने वाली प्रतिष्ठित संस्थाओं से जानकारी लेने की बात कर रहे हैं।
सरकारों को भी चाहिए कि आज वे जिस तरह जनता के इलाज के लिए उन्हें मुफ्त इलाज-बीमा दे रही हैं, उन्हें इसके साथ-साथ लोगों को सेहतमंद रहने के लिए जागरूक भी करना चाहिए। सरकार को अपनी तमाम संचार-ताकत का इस्तेमाल करके लोगों तक उनके समझ आने लायक भाषा में खानपान से सेहत को होने वाले खतरे की बात पहुंचानी चाहिए। आज बाजार में खाने-पीने के चीजों का जिस आक्रामक तरीके से हमला हुआ है, उसकी मार से बचना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि अब घरों में भी बाजार से पका-पकाया खाना भी आने लगा है, और स्वाद को चटोरा बनाने के लिए बाजार के खाने में जिस तरह केमिकल्स मिलाए जाते हैं, उससे भी लोगों की आदत बढ़ती चल रही है। हमने यहां पर टुकड़ा-टुकड़ा कई बातों का जिक्र किया है, और इस बारे में लोगों को खुद भी सोचना चाहिए क्योंकि खानपान की गड़बड़ी से होने वाली कई किस्म की बीमारियां लोग अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में भी देते हैं। इसलिए विरासत में सिर्फ मकान-दुकान छोडक़र जाना काफी नहीं है, अगली पीढ़ी को स्वस्थ जींस और डीएनए मिले, यह उससे अधिक जरूरी है। इसकी शुरूआत सेहतमंद खानपान से ही हो सकती है।
यूक्रेन में रूस के फौजी हमले के बाद चल रही जंग में बहुत बड़ी रूसी सेना छोटे से यूक्रेन पर जिस तरह ज्यादती कर रही है, उसे संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बहुत अच्छी तरह दर्ज किया है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में कल यह कहा गया है कि किस तरह रूस यूक्रेन के दसियों हजार बच्चों को उठाकर ले गया है, और वह अंतरराष्ट्रीय नियमों के मुताबिक जंग की ज्यादती है। बच्चों को उनके मां-बाप से दूर करना, हिफाजत के नाम पर रूस ले जाना, इन सबका संयुक्त राष्ट्र ने जमकर विरोध किया है। यह भी कहा है कि यूक्रेन के जिन इलाकों पर रूस ने कब्जा जमाया है वहां आम नागरिकों पर उसका बड़ा जुल्म चल रहा है, और महिलाओं के साथ रूसी सैनिकों के बलात्कार की बहुत सी घटनाएं हो रही हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अधिकारी ने ऐसे तथ्य सामने रखे थे कि रूसी महिलाओं ने अपने फौजी पतियों को बिदा करते हुए कहा था कि वे चाहें तो यूक्रेन की महिलाओं से बलात्कार करके लौटें, बस कंडोम का इस्तेमाल करना ना भूलें। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से ऐसी बात हाल के बरसों में शायद किसी और फौजी मोर्चे के बारे में नहीं कही गई थी।
लेकिन आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का एक दूसरा मकसद है। संयुक्त राष्ट्र ने यूक्रेन से जंग के इस दौर में रूसी मीडिया का बारीकी से अध्ययन किया है, और यह पाया है कि रूस में सरकार के नियंत्रण और प्रभाव वाले मीडिया ने युद्धोन्माद के इस दौर में जो छापा और दिखाया है, वह यूक्रेन में रूसी फौजों को जनसंहार के लिए उकसाने और भडक़ाने का काम रहा।
जब माहौल जंग और नफरत का रहता है, जब राष्ट्रवाद सिर चढक़र बोलता है, तो सबसे पहली लाश हमेशा ही सच की गिरती है। फौज के एक दस्ते की तरह ही राष्ट्रवाद में डूबा हुआ मीडिया सरकारी प्रोपेगंडा करने में लग जाता है, और देश के लोगों को यह लगता है कि उनके फौजी जितने किस्म की ज्यादतियां कर रहे हैं, वह सब जायज है, क्योंकि दुश्मन सचमुच ही बहुत बुरा है। रूस में आज सरकारी और सरकार नियंत्रित मीडिया का ठीक यही काम रूसी फौजियों को यूक्रेन के कब्जे वाले इलाकों में तरह-तरह की ज्यादतियों के लिए एक नैतिक साहस भी दे रहा है, और उकसावा भी दे रहा है। वहां पर जिस तरह बेकसूर नागरिकों को मारा जा रहा है, और कल की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि कम से कम एक बुजुर्ग महिला भी बलात्कार की शिकार हुई है, जो कि 83 बरस उम्र की थी। जब फौज के दिमाग में हिंसा इतने ऊपर चली जाती है, तब युद्ध के अंतरराष्ट्रीय नियम भला किस काम के रह जाते हैं।
लेकिन कुछ देर के लिए रूस और यूक्रेन के इस मोर्चे से अलग हटकर देखें, तो दुनिया में कई और ऐसे देश मिलेंगे जहां पर किसी पड़ोसी देश के खिलाफ नफरत का एजेंडा मीडिया ढोकर चलता है। कुछ ऐसे देश भी मिलेंगे जहां पर अपनी ही जमीन के, अपने ही नागरिकों को धर्म और जाति के नाम पर छांट-छांटकर मारा जाता है, और मीडिया का एक छोटा या बड़ा हिस्सा उस पर तालियां बजाते हुए, किसी मैच के स्टेडियम के चीयरलीडर्स की तरह नाचते हुए जुल्म को बढ़ावा देता है। हिन्दुस्तान में अभी कुछ दिन पहले 28 विपक्षी पार्टियों ने एकजुट होकर देश के 14 ऐसे टीवी एंकरों के बहिष्कार की घोषणा की जिन पर विपक्ष के खिलाफ अभियान चलाने, देश में नफरत और हिंसा फैलाने की तोहमतें चली ही आ रही थीं। और हमारा खुद का देखा हुआ है कि इनमें से जितने लोगों को हमने कभी-कभी टीवी स्क्रीन पर देखा था, उन पर यह तोहमत बिल्कुल सही समझ आती है। इनमें से कई टीवी एंकर पेट्रोल का कनस्तर और माचिस लेकर बैठते हैं, और अपने पसंदीदा निशानों पर उन्हें छिडक़कर आग लगाने में लगे रहते हैं। इसके लिए उन्हें भाड़े पर पंडित और मौलवी मिल जाते हैं जो कि चैनल के नफरती एजेंडा में लिखे गए किरदारों को निभाने में लग जाते हैं। देश का सुप्रीम कोर्ट टीवी समाचार-चैनल कहे जाने वाले इन आग भडक़ाओ केन्द्रों को लेकर कई बार फिक्र और नाराजगी जाहिर कर चुका है लेकिन उसका कोई असर नहीं होता है। सरकार की खास मेहरबानी ऐसे कई चैनलों और एंकरों पर दिखती है, और वहां जाकर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके नफरती एजेंडा में मददगार बनने के मुकाबले विपक्ष का यह फैसला बेहतर है कि वह इन एंकरों का बहिष्कार करे। इसके बाद जरूरत हो तो इन चैनलों का भी बहिष्कार करना चाहिए। दूसरी तरफ रूस की मिसाल को हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र को याद रखना चाहिए कि वहां पर किस तरह रूसी फौजियों को यूक्रेनियों के जनसंहार के लिए भडक़ाने में रूसी मीडिया लगा हुआ है, उस मिसाल से क्या सबक लिया जा सकता है।
लोकतंत्र में अखबारों का काम सरकार की कठपुतली बने रहने से परे का था। मीडिया एक वक्त अपने आपको लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता था, जिसका मतलब यह था कि वह सरकार, संसद, और न्यायपालिका इन तीनों से परे का एक स्वतंत्र स्तंभ है। अब अखबारों के अधिकतर हिस्सों को देखें, और अधिकतर टीवी समाचार-चैनलों को देखें तो यह साफ दिखाई पड़ता है कि यह स्तंभ एक कालीन बनकर सत्ता के पैरोंतले से तलुओं को सहलाने का काम करता है। जाहिर है कि ऐसे में सत्ता जिस देश या जिस समुदाय, धर्म या जाति को कुचलना चाहेगी, मीडिया चारण और भाट की तरह सरकार के उस फैसले को राष्ट्रवाद करार देते हुए चीयरलीडर्स की तरह डांस करेगा। रूस की यह मिसाल दुनिया के बाकी लोकतंत्रों को एक सबक और समझ दे सकती है कि जहां कहीं मीडिया सरकार का गुलाम रहता है, वह सरकार की चापलूसी करते हुए, उसे भडक़ाने की हद तक चले जाता है, और उसके जुल्म पर भी वीर रस की कविताएं गाने लगता है।
हिन्दुस्तान में किस धर्म, किन जातियों, किन प्रदेशों के लोगों के साथ जुल्म पर देश के मीडिया का ऐसा रूख जाना-पहचाना सा लगता है, उस बारे में सोचकर देखना चाहिए।
आबादी में सैकड़ा पार लोगों के अनुपात में जापान दुनिया में सबसे आगे है। ताजा खबर बताती है कि हर दस जापानियों में से एक 80 बरस या उससे अधिक उम्र के हैं। करीब 30 फीसदी आबादी 65 बरस या उससे ऊपर की है, और दुनिया में जन्म दर के मामले में जापान सबसे नीचे के देशों में से है, और आज वहां यह खतरा खड़ा हो गया है कि कामकाजी आबादी के मुकाबले रिटायर्ड आबादी अधिक हो गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ का अध्ययन बताता है कि जापान में दुनिया की सबसे बूढ़ी आबादी है, और यह अनुपात बढ़ते ही चले जाना है। हालत यह है कि लोगों की देखभाल करने वाली उनकी अगली पीढ़ी नहीं है, इसलिए वे रिटायर हो जाने की उम्र के बाद भी, 65 बरस के बाद भी काम कर रहे हैं। पिछले सवा दो सौ सालों में, जब से वहां जन्म रजिस्टर बना हुआ है, पिछले बरस सबसे कम, 8 लाख से भी कम बच्चे पैदा हुए हैं। 1970 के दशक में यह संख्या 20 लाख से अधिक थी। प्रधानमंत्री का यह बयान इसी बरस आया है कि उनका देश गिरते हुए जन्म दर की वजह से अब एक समाज की तरह काम करने लायक नहीं रह गया है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि जापान के अलावा दक्षिण कोरिया, ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन, बल्गारिया जैसे बहुत से ऐसे देश हैं जहां के गिरते हुए जन्म दर की वजह से वहां की आबादी अब लगातार घटती ही चली जानी है, और कितनी भी कोशिशें क्यों न हो जाएं, शायद आधी-एक सदी के पहले वहां आबादी का संतुलन नहीं बन पाएगा।
ऐसे में भारत को देखना दिलचस्प होता है जहां पर आबादी प्रति महिला 2.05 तक आ गई है। आबादी को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रति महिला औसत 2.1 बच्चे पैदा करने वाली होनी चाहिए। भारत के 2019 तक के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 25-30 बरस में जैन समुदाय को छोडक़र सभी की आबादी बढऩा रूका है। लेकिन हिन्दुस्तान की आबादी चीन की आबादी के आसपास चल रही है, और चीनी आबादी गिरने का अंदाज है, भारत की आबादी अभी कुछ वक्त तक बढ़ती रह सकती है। अब दुनिया के अलग-अलग देशों में आबादी के बिगड़े हुए संतुलन को अगर देखें, और दुनिया के कुछ देश अगर समझदारी और कल्पनाशीलता दिखाएं, तो दूसरों की परेशानी में भी वे अपने लोगों के लिए एक संभावना ढूंढ सकते हैं। अब जैसे जापान में बुजुर्गों की देखभाल के लिए लोग कम पडऩे वाले हैं, तो ऐसे में अगर दुनिया के भारत सरीखे कुछ दूसरे देश अपने बेरोजगारों के लिए ऐसे कोर्स चलाएं जिनमें बुजुर्गों की देखभाल ही सिखाई जाए, और इसके साथ-साथ जापानी भाषा और संस्कृति सिखाई जाए, वहां की सरकार और कारोबार के साथ बातचीत करके ऐसे लोगों को वहां रोजगार दिलाया जाए। आज भी ब्रिटेन सरीखे देश में स्वास्थ्य सेवाएं भारत जैसे कई देशों से गई हुई नर्सों की बदौलत ही चल रही हैं। वहां हर बरस हजारों भारतीय नर्सों के लिए नौकरी निकाली जाती है, और दुनिया के बाकी देशों से प्रशिक्षित नर्सें पूरी तरह देश छोडक़र ब्रिटेन न चली जाएं, इसलिए वहां अलग-अलग देशों से नर्सों को लेने का एक अधिकतम कोटा तय किया गया है। मतलब यह कि भारत में प्रशिक्षण प्राप्त नर्सों की अंतरराष्ट्रीय संभावनाएं कई जगह बनी हुई है। जापान जैसी बूढ़ी आबादी के बीच भी नर्सों या घरेलू सहायकों की जरूरत आज भी है, और आगे भी बनी रहेगी। अब ऐसे में अगर हिन्दुस्तान के कुछ खास तरह के लोगों को जापान में काम करने के हिसाब से प्रशिक्षण दिया जाए, बूढ़े लोगों के साथ काम करने की जरूरतों को समझाया जाए, जापानी खाना पकाना, वहां की भाषा, संस्कृति सिखाई जाए, तो हर बरस हजारों लोगों का रोजगार पैदा हो सकता है। भारत सरकार को चाहिए कि दुनिया के देशों के अगले 25-50 बरस की ऐसी संभावनाओं का हिसाब लगाकर उसके हिसाब से एक वर्कफोर्स तैयार की जाए जो कि भारत के लिए एक विदेशी कमाई का जरिया भी बनेगी, और भारतवंशी लोग नई जगहों पर पहुंच भी पाएंगे। आज कनाडा के साथ एक तनाव के संदर्भ में ही बात सामने आ रही है, लेकिन ये आंकड़े हैरान करने वाले हैं कि वहां पर सिक्खों की आबादी इतनी है कि राजनीतिक दल उन्हें सांसद भी बनाते हैं, और आज शायद भारत के मुकाबले कनाडा में अधिक सिक्ख सांसद हैं। सिक्ख वहां पर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में भी हैं, कारोबार में आगे हैं, वहां उनकी भाषा, उनकी संस्कृति को समाज में जगह मिली हुई है। चूंकि भारत पर एक वक्त अंग्रेजों का राज था इसलिए अंग्रेजी भाषा सीखना यहां के लोगों के लिए आसान था, और वे अंग्रेजी बोलने वाले देशों में अधिक गए। लेकिन किसी देश में कामकाज की भाषा सीखना एक-दो बरस से अधिक का काम नहीं रहता, और दूसरे जरूरतमंद हुनर के साथ-साथ ऐसी भाषा सीखकर हिन्दुस्तानी लोग कई देशों में रोजगार पा सकते हैं, जहां पर उनकी अपनी आबादी गिर रही है, और बुजुर्गों की आबादी बढ़ती चली जा रही है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़ों के अंदाज 2050 तक के हैं, और जापान, दक्षिण कोरिया, हांगकांग जैसे कई देशों में 65 बरस से ऊपर वाले लोगों की आबादी का अनुपात लगातार बढऩा है। जो विकसित अर्थव्यवस्थाएं हैं वे तो बुजुर्गों की देखरेख का बोझ उठा लेंगी लेकिन समाज में बुजुर्ग आबादी की देखरेख एक अलग किस्म की चुनौती रहेगी, और वह पूरी दुनिया के लिए एक नई संभावना भी रहेगी। जापान सरीखे देश में नौजवान आबादी शादी से कतरा रही है, और अधिक से अधिक अकेले रह रही है। दूसरी तरफ चीन जैसे देश हैं जहां पर नौजवान आबादी एक से अधिक बच्चे पैदा करने पर तैयार नहीं हो रही है, और वहां भी आबादी गिरते चले जाना तय सरीखा है। भारत में आज बेरोजगारी सिर चढक़र बोल रही है, और बहुत से ऐसे नौजवान हैं जो पढ़े-लिखे निठल्ले बैठे हैं, और कोई काम ढूंढ भी नहीं रहे हैं। ऐसे में स्कूली पढ़ाई के बाद दुनिया की अलग-अलग भाषाओं को सिखाने के संस्थान होने चाहिए, और दुनिया भर में जैसे हुनर की जरूरत है, वैसे हुनर होने चाहिए। देखें भारत में सत्ता की कोई कल्पनाशीलता नौजवानों को धर्मान्धता में झोंकने के बजाय अंतरराष्ट्रीय संभावनाओं की तरफ भी ले जा पाती है या नहीं।
छत्तीसगढ़ के बस्तर के दंतेवाड़ा से खबर है कि 12वीं क्लास में पढऩे वाले 18 साल के लडक़े और सहपाठी 17 साल की लडक़ी में प्रेम था। घरवालों ने इन्हें एक-दूसरे से बात करने के लिए मना किया और पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा। नतीजा यह हुआ कि बीती सुबह उनकी लाशें मिलीं, उन्होंने खुदकुशी कर ली थी। गांव के लोगों ने इन दोनों का अंतिम संस्कार एक साथ कर दिया है। दोनों एक गांव के थे, बचपन से एक-दूसरे को जानते थे, साथ में खेलते-कूदते बड़े हुए थे, और बरसों से एक-दूसरे को चाहते थे। यह भी खबर है कि दोनों के घरवाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं थे, और ये लडक़े-लडक़ी कुछ और लोगों को ऐसा बोल भी चुके थे कि मरकर तो एक हो सकते हैं। और हुआ भी यही कि दोनों परिवारों ने इनका अंतिम संस्कार एक चीता पर किया।
इसके साथ ही एक दूसरी खबर यह है कि भाटापारा कॉलेज से पढ़ाई करके लौटते हुए एक छात्र-छात्रा ने शिवनाथ नदी के पुल पर से बहती नदी में छलांग लगा दी, और इन दिनों नदी में जितना पानी है, जैसा बहाव है, उनके भी बचने की उम्मीद नहीं दिख रही है। इस तरह के मामले हर हफ्ते-दो हफ्ते में इसी राज्य में सुनाई दे जाते हैं, और शायद देश में कोई तारीख ऐसी नहीं गुजरती होगी जब कोई प्रेमीजोड़ा खुदकुशी न करे।
हम इस तकलीफदेह नौबत के बारे में पहले भी कई बार इसी जगह पर लिख चुके हैं कि कुछ लडक़े-लड़कियां बालिग होने के पहले ही प्रेमसंबंधों में पड़ जाते हैं, और जब उन्हें साथ जीने की कोई संभावना नहीं दिखती, तो वे साथ मर जाना तय करते हैं। कुछ तो भारत के महानगरों से परे के तमाम शहर-कस्बों में लडक़े-लड़कियों के मिलने और अपनी शारीरिक-मानसिक जरूरतों को पूरा करने की सामाजिक गुंजाइश बड़ी कम रहती है। उन्हें छुप-छुपकर मिलना पड़ता है, मां-बाप आमतौर पर धर्म और जाति पर अड़ जाते हैं, जाति एक रहने पर कभी गोत्र आड़े आ जाते हैं, तो कभी गरीबी-अमीरी। कुल मिलाकर भारत की नई पीढ़ी की हसरतों और सामाजिक हकीकत के बीच कोई मेल नहीं बैठता है। दुनिया के दूसरे विकसित और सभ्य देशों को देखकर हिन्दुस्तान के लडक़े-लड़कियों के मन में भी प्रेम और देहसंबंध की बात आती है, उन्हें लगता है कि जिंदगी में उन्हें अपनी पसंद के साथी चुनने का हक मिलना चाहिए। दूसरी तरफ उनसे एक पीढ़ी पहले के उनके मां-बाप, अपने से एक पीढ़ी पहले के संयुक्त परिवार के अपने लोगों की सोच और दबाव में नई पीढ़ी को मर्जी की सांस भी लेने देना नहीं चाहते। नतीजा यह होता है कि जो नई पीढ़ी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं रहती, वह अपने भविष्य और अपनी उम्मीदों को एक अंधेरी सुरंग में पाती है, और उसे लगता है कि ऐसे जीने से तो मर जाना बेहतर है। लोगों को याद होगा कि 50 बरस पहले हिन्दी में आई फिल्म बॉबी में इसी तरह के टीनेजर लडक़े-लडक़ी को परिवार मंजूर नहीं करता है, और दोनों जान देने के लिए पहाड़ से नदी में कूद जाते हैं। अभी इस फिल्म के आने की तारीख देखते हुए यह देखकर हैरानी हो रही है कि कुल चार दिन बाद इसकी रिलीज को आधी सदी पूरी हो रही है। और इस आधी सदी में हिन्दुस्तान का हाल जरा भी नहीं बदला है, मां-बाप अभी भी जमींदाराना, सामंती, और शहंशाह अकबरी सोच रखते हैं, और जिस अंदाज में वे बच्चों की कॉलेज की पढ़ाई की ब्रांच तय करते हैं, उसी तरह वे उनके लिए जीवनसाथी तय करना चाहते हैं।
ऐसा लगता है कि पिछले दो-तीन दशक में पीढिय़ों का यह टकराव कुछ अधिक तेज हुआ है क्योंकि दुपहिया का चलन बढ़ा, मोबाइल फोन आए, सोशल मीडिया पर लडक़े-लड़कियों का मिलना-जुलना बढ़ा, और बढ़ते शहरीकरण के साथ बाहर पढऩे-लिखने वाले लडक़े-लड़कियों के मिलने की गुंजाइश बढ़ी। नतीजा यह हुआ कि नई पीढ़ी अपने साथी खुद तय करने लगी, और मां-बाप को ऐसा लगा कि बच्चों के भविष्य तय करने का उनका एकाधिकार छिन गया। हिन्दुस्तान और दुनिया के कई अलग-अलग हिस्सों में हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी जैसी सोच रखने वाले मां-बाप ने मर्जी के खिलाफ जाने वाले बच्चों को मरवाना भी जारी रखा है, और जगह-जगह इसे ऑनरकिलिंग कहा जाता है, जाने किस तरह का ऑनर (सम्मान) है यह? बहुत सी जगहों पर तो दूसरे धर्म में शादी करने वाली लड़कियों को उनके मां-बाप किसी भी कीमत पर शादी तुड़ाकर भी वापिस लाना चाहते हैं, फिर चाहे उसके बाद ऐसे विवाद की वजह से उन्हें अपनी लडक़ी की शादी किसी कम काबिल स्वजातीय से ही क्यों न करनी पड़े।
यह देश कई तरह के विरोधाभासों से भरा हुआ है। यहां पर लोग एक साथ कई सदियों में जीते हैं। एक तरफ तो वे हिन्दुस्तान से बाहर जाकर लगातार कामयाबी पाने वाले लोगों की तारीफ करते नहीं थकते, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को अपना दामाद कहते नहीं थकते, यह एक अलग बात है कि ऋषि सुनक की शादी अंतरजातीय विवाह थी, और दक्षिण भारत के नारायण मूर्ति की बेटी अक्षरा से उनकी शादी हुई थी। लेकिन गर्व करने के लिए हिन्दुस्तानी हमेशा तैयार रहते हैं, वहां पर धर्म और जाति इसलिए आड़े नहीं आते कि वह दूसरों के परिवार की बात रहती है, लेकिन जब अपने बच्चों की बात आती है, तो वे ऑनरकिलिंग पर उतर आते हैं। जिस तरह कुछ नौबतों के बारे में यह कहा जाता है कि लगता है कि पूरे कुएं में भांग घोल दी गई है, और पूरा गांव नशे में झूम रहा है, ठीक उसी तरह हिन्दुस्तानी मां-बाप मुगल-ए-आजम के वक्त में जीते हैं, और अपने शहजादे या शहजादी पर राज करना चाहते हैं। नतीजा यह होता है कि जो नई पीढ़ी ऐसी मुगलिया सल्तनत की गुलाम बनना नहीं चाहती है, वह खुद होकर अपने को दीवार में चुन लेती है। यह नौबत हिन्दुस्तान में कैसे बदल सकती है इसका कोई आसान तरीका हमारे पास नहीं है। लेकिन समाज के जिम्मेदार लोगों को अलग-अलग सामाजिक मंचों पर इस बारे में बात जरूर करना चाहिए क्योंकि जो प्रेमीजोड़े खुदकुशी नहीं कर रहे हैं, वे भी जिस तरह की कुंठाओं में जीते होंगे, वह आसान जिंदगी तो नहीं रहती, और वैसी जिंदगी में समाज और दुनिया को उनका वह योगदान नहीं मिल सकता जो कि एक खुशहाल दिल-दिमाग से मिल सकता है। भारत में जाति व्यवस्था को तेजी से तोडऩे की जरूरत है, धर्मों के बीच नफरत खत्म करने की जरूरत है, मर्जी से शादी करने वाले बालिग लोगों के लिए एक सुरक्षित कानूनी वातावरण मुहैया कराना जरूरी है, और पारिवारिक या सामाजिक तनाव खड़ा होने पर आसपास के लोगों को दखल देने की हिम्मत होना जरूरी है। इतनी तमाम उम्मीदें कई चंद्रयानों को चांद तक पहुंचा सकती है, लेकिन हम यह चर्चा करना अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, और तकलीफ की बात यह है कि हर कुछ हफ्तों में ऐसी नौबत आती है कि हम इस कॉलम में, या हमारे यूट्यूब चैनल पर हम इस बारे में बोलने को मजबूर होते हैं। फिल्म बॉबी की आधी सदी के इस मौके पर कल ही ऐसी दो घटनाएं हुई हैं, और देश को अपनी इस आधी सदी के मानसिक विकास के बारे में सोचना चाहिए।
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भारत की संसद में भाजपा के एक सांसद ने जिस तरह बसपा के मुस्लिम सांसद को मजहब को लेकर गालियां बकीं, उसे आतंकवादी कहा, उसके धर्म को गालियां बकीं, उससे हिन्दुस्तान का सभ्य समाज हक्का-बक्का है, दहशत में है। दहशत में इसलिए भी है कि सदन के मुखिया और भाजपा के सबसे बड़े नेता नरेन्द्र मोदी ने अब तक इस पर मुंह भी नहीं खोला है, मानो उन्हें अपनी सांसद की कही बातों से कोई दिक्कत नहीं है, उन्होंने इतना भी नहीं कहा कि वे उसे कभी दिल से माफ नहीं कर पाएंगे। सदन में भाजपा के उपनेता राजनाथ सिंह ने किंतु-परंतु, और अगर-मगर की भाषा में जिस तरह खेद व्यक्त किया है, उससे यह जाहिर है कि वे भी मजहबी गाली-गलौज करने वाले अपने सांसद के खिलाफ कुछ करने की ताकत नहीं रखते हैं। लेकिन यह तो पार्टी की राजनीतिक बातें हैं, जब बसपा सांसद दानिश अली ने तमाम गालियों का जिक्र करते हुए लोकसभा अध्यक्ष को शिकायत लिखी, तो भाजपा से आए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने भाजपा सांसद को इतनी चेतावनी भर जारी की कि अगली बार ऐसा कुछ करने पर उन पर कार्रवाई की जाएगी। जाहिर है कि भारतीय संसद अध्यक्ष को जिस तरह के अंधे अधिकार देती है, उसके तहत वे हजार खून माफ कर सकते हैं, और किसी बेकसूर को सूली पर भी चढ़ा सकते हैं, और उनसे कोई सवाल नहीं किया जा सकता। इस मामले में उन्होंने ठीक यही किया है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की जुबान में देश की सबसे हिंसक हेट-स्पीच करने वाले के गुनाह को माफ कर दिया है जो कि सदन के बाहर एक बड़ी सजा का हकदार होता। अब अगर ओम बिड़ला की मिसाल देकर अदालतें इंसाफ करने लगें, तो पहले कत्ल और पहले बलात्कार पर भी चेतावनी देकर छोड़ दिया जाएगा कि अगली बार ऐसा करने पर उसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
सवाल यह उठता है कि क्या तानाशाह सरीखे अधिकारों वाले लोकसभा अध्यक्ष के ओहदे पर बैठा व्यक्ति जब इतने बड़े जुर्म पर कोई भी कार्रवाई करने से इंकार कर दे, तो लोकतंत्र में इंसाफ कैसे हो सकता है? हो सकता है कि जिस वक्त संविधान में सदन के भीतर की कार्रवाई के लिए लोकसभा अध्यक्ष को ऐसे अधिकार दिए गए थे, उस वक्त संविधान निर्माताओं ने ऐसा दु:स्वप्न भी नहीं देखा होगा कि किसी दिन सदन के अध्यक्ष का बर्ताव ऐसा हो सकता है, वरना वे लोकसभा या विधानसभा के अध्यक्षों के फैसलों पर अधिक कड़ा अदालती शिकंजा रखते। अब आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट के साफ आदेश के बावजूद महाराष्ट्र के विधानसभा अध्यक्ष चार महीने में एकनाथ शिंदे और उनके साथियों की सदस्यता-अपात्रता के मुद्दे पर कोई फैसला नहीं ले रहे हैं, बल्कि कोई कार्रवाई भी नहीं कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट इस बात पर हैरान और परेशान है, लेकिन सदन के अध्यक्ष अपनी पिछली पार्टी के साथ वफादारी निभाते हुए अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को धता बता रहे हैं। यह नौबत इसलिए भयानक है कि ऐसी ही नौबत से देश की दूसरी संवैधानिक में अदालत दखल का रास्ता खुलता है। हमारा ख्याल है कि जो बात सडक़ पर सुप्रीम कोर्ट की परिभाषा में हेट-स्पीच कहलाती है, वह बात अगर सदन के भीतर अपनी सबसे हिंसक शक्ल के साथ भी माफी पाती है, तो फिर ऐसी संसदीय व्यवस्था किस काम की? ऐसी संसदीय व्यवस्था पर से जनता का विश्वास पूरी तरह खत्म हो जाता है, और लोगों को यह भी समझ पड़ता है कि यह व्यवस्था किसी इज्जत के लायक नहीं है।
एक अकेले मुस्लिम सांसद के खिलाफ भाजपा के सांसद ने जितनी गंदी, हिंसक, साम्प्रदायिक गालियां बकी हैं, और जिस तरह उसके बगल में बैठे भाजपा के दो-दो भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री पूरे वक्त जोर-जोर से हॅंसे जा रहे थे, वह नौबत भी भयानक थी। इसके खिलाफ भी संसद की विशेषाधिकार समिति में जाने की जरूरत है। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी संसदीय जिम्मेदारी निभाने वाले पहले व्यक्ति रहे जो तुरंत ही बसपा सांसद दानिश अली के घर पहुंचे, उनके साथ एकजुटता बताई, और कहा देश में लोकतंत्र चाहने वाले तमाम लोग उनके साथ हैं। यह बात छोटी नहीं थी, खासकर उस वक्त जब कुछ किलोमीटर पर ही विराजमान बसपा की तथाकथित सुप्रीमो मायावती ने भी यह जहमत नहीं उठाई कि वे अपने सांसद का हौसला बंधाने उसके घर जातीं। यह देखना हैरानी की बात है कि किस तरह भाजपा के एक और भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने दानिश अली के खिलाफ सबसे घटिया जुबान में बयान दिए हैं। अगर भाजपा के एक नेता ने परले दर्जे का हिंसक बयान मुस्लिमों के खिलाफ दिया है, तो उस पर इस तरह कूद-कूदकर तालियां बजाकर नकवी यही साबित कर रहे हैं कि भाजपा में उनकी उपयोगिता क्या है, किस तरह वे केवल मुस्लिम-विरोध के लिए वहां पर पाले गए हैं।
देश में यह सिलसिला बहुत ही तकलीफ का है, और जिस संसद को लेकर प्रधानमंत्री ने अभी संविधान की कॉपी थामकर पुराने से नए भवन तक शोभायात्रा निकाली थी, उसी संसद भवन में, उसकी नई मयूरपंखी इमारत में जिस तरह की कालिख उन्हीं के सांसद ने पोती है, वह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज होने वाली बात है। जिस तरह कल भाजपा सांसद ने सदन के पौन सदी के इतिहास में सबसे गंदी गालियां बकी हैं, उस पर भी प्रधानमंत्री का मुंह अब तक न खुलना, उस जुर्म को कई गुना अधिक गंभीर बना देता है। भारतीय लोकतंत्र सदन के मुखिया की हैसियत से मोदी से अधिक जिम्मेदारी की उम्मीद करता है, जिसे दिखाने से उन्होंने साफ-साफ कन्नी काट ली है। जिस तरह उन्होंने 9 बरस पहले संसद भवन की सीढ़ी पर माथा टिकाकर भीतर पहला कदम रखा था, वह माथा टिकना आज कहीं नहीं दिख रहा है। वे सीढिय़ां तो मानो अब खत्म हो गई हैं, और झुका हुआ वह सिर इस नए भवन में इतना तन गया है कि वह अब अपने साथी की इतिहास की सबसे शर्मनाक हरकत पर भी झुकने से मना कर दे रहा है।
हमें नहीं मालूम कि सांसद और उसके अध्यक्ष की ऐसी बेरहमी और बेइंसाफी के खिलाफ कोई अदालती रास्ता निकल सकता है या नहीं, लेकिन अगर आज के कानूनों में ऐसा कोई रास्ता नहीं भी है, तो भी जिस दिन संसदीय बाहुबल जिम्मेदार-समझदार हाथों में रहे, उस दिन उन्हें ऐसा रास्ता निकालना चाहिए, ताकि संसद की गैरजिम्मेदारी का ऐसा काला दिन इस लोकतंत्र को दुबारा न देखना पड़े।
विधानसभा चुनाव सामने है और राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के तरीके ढूंढते ही रहते हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर विपक्ष को एक कल्पनाशीलता का मौका दे रही है, लेकिन ध्रुवीकरण की राजनीति, और नफरत के मुद्दों ने कल्पनाशीलता को खत्म कर दिया है। राजधानी में कांग्रेस का महापौर है, और शहर की सडक़ों पर गड्ढों को लेकर भाजपा ने कल विरोध दर्ज कराया है। कहने के लिए यह राजधानी आए दिन प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, और देशी-विदेशी मेहमानों की आवाजाही से घिरी हुई है, लेकिन सडक़ों का हाल इतना भयानक है जितना कि पिछले 50 बरस में कभी नहीं था। तकरीबन हर सडक़ खुदी पड़ी है, कहीं पाईप तो कहीं केबल के लिए सडक़ों को खोदा गया है, और बाकी जगहों पर गड्ढे पड़े हुए हैं। नतीजा यह है कि हड्डी-पसली की किसी तकलीफ वाले मरीज को लेकर कहीं से कहीं नहीं जाया जा सकता। इन गड्ढों में गाडिय़ां रोज पलट रही हैं, कांक्रीट की सडक़ें बनाई जाती हैं, और कुछ महीनों के भीतर उन्हें खोद दिया जाता है। जाहिर है कि यह कंस्ट्रक्शन-माफिया की मर्जी से चलने वाला काम है जो कि कभी खत्म ही नहीं होता। लेकिन इस बार जो हालत है, वह आधी सदी में इस राजधानी में कभी नहीं रही।
अब दो महीने के भीतर यहां चुनाव होने हैं, और भाजपा को विरोध करने के बजाय अपने कार्यकर्ताओं को दुपहियों पर राजधानी की चार सीटों के वोटरों को शहर घुमाने ले जाना चाहिए, और घंटे भर अगर कोई दुपहिए या चौपहिए पर इन सडक़ों पर घूम ले, तो वे न सिर्फ इस चुनाव बल्कि अगले कुछ चुनाव भी सत्तारूढ़ पार्टी को वोट न दे। भाजपा के पास पर्याप्त कार्यकर्ता हैं, और वे अभी अपने-अपने इलाके के वोटरों को गणेशोत्सव दिखाने के लिए ले जा सकते हैं। बिना भाजपा या कमल छाप का नाम लिए यह सबसे बड़ा प्रचार हो सकता है कि कांग्रेस के राज वाली म्युनिसिपल ने शहर का क्या हाल कर रखा है। यह त्यौहारों और बाजार की खरीददारी का मौसम है, और इस वक्त कदम-कदम पर जिस तरह गड्ढे हैं, जिनमें लोग रात-दिन गिर रहे हैं, वह देखना भी भयानक है।
भाजपा के सामने प्रचार का एक और मौका हो सकता है। शहर के कई इलाकों में जिस अंदाज में दुकानों के बाहर सडक़ों पर अवैध कब्जे करके कारोबार किया जा रहा है, भाजपा को राजधानी की चारों सीटों के वोटरों को इन बस्तियों का दौरा भी करवाना चाहिए ताकि वे देख लें कि शहर के कुछ हिस्सों का क्या हाल है और वहां किस तरह कोई भी कानून लागू नहीं होता है। लेकिन बात घूम-फिरकर फिर इसी पर आती है कि जब तक भाजपा किसी को उम्मीदवार घोषित न करे, रोज दसियों हजार रूपए का पेट्रोल ऐसे मतदाता पर्यटन पर कौन खर्च करे? और जब उम्मीदवार घोषित हो जाएंगे, तो उस वक्त ऐसे काम के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं के पास वक्त नहीं रहेगा। भाजपा को चाहिए कि वह परंपरागत बयानबाजी के बेअसर धंधे को छोड़े, और वोटरों को उन्हीं के शहर की बदहाली दिखाने का ठोस काम शुरू करे। प्रदेश में अलग-अलग जगहों से निकली हुई भाजपा की परिवर्तन यात्रा चार दिन बाद राजधानी रायपुर पहुंचने वाली है, और उसकी सबसे बड़ी तैयारी यही हो सकती है कि तब तक इन चारों विधानसभा सीटों के अधिक से अधिक वोटरों को सडक़ों के धक्के खिला दिए जाएं, और कुछ चुनिंदा बाजारों और बस्तियों की अराजकता शाम से देर रात तक कभी भी ले जाकर दिखा दी जाए। इससे अधिक मजबूत चुनाव प्रचार भाजपा के लिए और कुछ नहीं हो सकता है।
छत्तीसगढ़ में ऐसा लगता है कि दोनों बड़ी पार्टियों के बीच अभी कोई मुकाबला ही नहीं है। कांग्रेस रात-दिन हर मिनट चुनाव प्रचार में लगी है, वह जनधारणा गढऩे में लगी है, और जनधारणा प्रबंधन में भी। दूसरी तरफ भाजपा दिल्ली की तरफ देखते हुए बैठी है कि वहां से आकाशवाणी पर कौन सा आदेश आता है, कब आता है। छत्तीसगढ़ के भाजपा नेताओं में खुद पहल करके कुछ करने का उत्साह दिख नहीं रहा है, और जिस तरह केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का आना दो-दो बार रद्द हो चुका है, उससे भी राज्य के भाजपा नेता और अधिक दुविधा में आ गए हैं कि उन्हें कुछ करना चाहिए या चुप घर बैठना चाहिए। हर गुजरता हुआ दिन भाजपा की इस दुविधा के साथ उसे किसी भी संभावना से दूर धकेल रहा है। पर्दे के पीछे और जमीन के नीचे इस पार्टी की तैयारियों की बड़ी-बड़ी कहानियां सुनाई पड़ती हैं, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं दिखता।
चुनाव तैयारी के मामले में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी भाजपा से कोसों आगे चल रही है, वह सत्ता पर भी है, इसलिए उसका बहुत सा चुनाव प्रचार तो सरकारी कार्यक्रमों से भी होते रहता है। पिछले विधानसभा चुनाव में, और उसके बाद के उपचुनावों में कांग्रेस और भाजपा के बीच जिस तरह का फासला हो चुका है, उसे पाट पाना वैसे भी बड़ा मुश्किल काम है। ऐसे में दिल्ली से नियंत्रित होती छत्तीसगढ़ भाजपा जिस तरह टूटे मनोबल के साथ हिचकती और झिझकती हुई दिख रही है, वह जंग के मुहाने पर खड़ी सेना जैसी बिल्कुल नहीं है। किसी पार्टी की जीत या हार से हमारा कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन अगर किसी शहर या प्रदेश की बदहाली महीनों से चली आ रही है, तो उसका इस्तेमाल विपक्ष को इसलिए भी करना चाहिए कि हो सकता है कि जनता की दिक्कतें उसे एक आक्रामक चुनावी मुद्दा बनाने से दूर हो सकें।
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भारत और कनाडा के रिश्तों पर मानो गाज गिर गई। कनाडा भारतवंशी लोगों से भरा हुआ है, और दोनों देशों के बीच बड़े कारोबारी रिश्ते हैं। इनकी वजह से दोनों के बीच संबंध ठीक रहने थे, लेकिन हिन्दुस्तान के एक आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे, खालिस्तान को लेकर दोनों देशों के रिश्ते फिलहाल तो तबाह दिखते हैं। मोदी सरकार के 9 बरसों में यह पहली बार दिख रहा है कि कोई बड़ा पश्चिमी देश भारत पर कत्ल का इल्जाम लगाते हुए उसके एक राजनयिक को देश से निकाल दे। जवाब में भारत ने भी ऐसा ही किया है, लेकिन इस जवाबी कार्रवाई से यह तनातनी खत्म नहीं हो जाती क्योंकि कनाडा के प्रधानमंत्री ने वहां की संसद में औपचारिक घोषणा करते हुए यह साफ-साफ कहा है कि कनाडा की जमीन पर, एक कनाडाई नागरिक का कत्ल किया गया, और जांच में ऐसे तथ्य मिल रहे हैं कि इसके पीछे भारत है। यह बात साफ है कि कनाडा में खालिस्तानी आंदोलन को बड़ी छूट मिली हुई है, और कुछ महीने पहले लोग यह देखकर हक्का-बक्का रह गए थे कि सिक्खों के एक बड़े कार्यक्रम में इंदिरा गांधी की हत्या की एक झांकी निकाली गई थी। भारत में उस मौके पर भी, और उसके पहले भी दर्जनों बार कनाडा से खालिस्तानी आंदोलन के मुद्दे पर विरोध दर्ज किया था, और कहा था कि भारत में आतंकी और अलगाववादी कार्रवाई करने वाले खालिस्तानी आंदोलनकारी कनाडा की जमीन पर बढ़ावा पा रहे हैं।
भारत के कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि खलिस्तानी आंदोलन का हिन्दुस्तान में कोई अस्तित्व नहीं है, और ऐसे नामौजूद आंदोलन में अपनी भागीदारी बताकर भारत के कई सिक्ख पश्चिमी देशों में राजनीतिक शरण मांगते हैं कि भारत में उन पर खतरा है। दूसरी तरफ भारत ने अभी यह कहा है कि कनाडा में खालिस्तानी आंदोलनकारियों को बढ़ावा देकर वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अपनी कमजोर स्थिति को मजबूत करना चाहते हैं। लेकिन दूसरी तरफ यह भी एक हकीकत है कि पश्चिमी देशों में राजनीतिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाकी दुनिया के लिए परेशानी या असहमति का सबब रहती है। इस मामले में भी कुछ हद तक ऐसा ही है कि कनाडा वहां की सिक्ख आबादी के खालिस्तानी-जनमतसंग्रह करते हैं, और पश्चिम के देश ऐसे आंदोलनों को तब तक गैरकानूनी करार नहीं देते, जब तक कि वे हिंसक न हो जाएं। हालांकि कनाडा में खालिस्तानी आंदोलनकारियों में से कुछ ने बड़ी हिंसा भी की है, और लोगों को याद होगा कि कनाडा के इतिहास का सबसे बुरा आतंकी हमला 1985 में एयर इंडिया के एक प्लेन को बम लगाकर उड़ा देने का था, और 1985 के इस खालिस्तानी हमले में सवा तीन सौ से ज्यादा लोग मारे गए थे जिनमें से अधिकतर कनाडा के थे। इसके बाद भी वहां बसी हुई सिक्ख आबादी संख्या में बहुत बड़ी है, राजनीति में सक्रिय है, और वहां मंत्रिमंडल में ऐसे सिक्ख भी रहते आए हैं जो कि खालिस्तानी आंदोलन के आरोपी रहे हैं।
लेकिन इनमें से कोई भी बात बिल्कुल ताजा नहीं है, ये अधिकतर तनाव काफी अरसे से चले आ रहे थे, और ऐसे में जब भारत और कनाडा के प्रधानमंत्री अभी-अभी जी-20 के दौरान रूबरू मिले थे, तब भी कनाडा में हुई इस हत्या की बात ट्रूडो ने मोदी से की थी, लेकिन बात किसी किनारे पहुंची नहीं। एक अभूतपूर्व तनातनी के बीच ट्रूडो कनाडा लौटे, और उन्होंने वहां संसद में भारत पर यह खुला आरोप लगाया और उसके खिलाफ राजनयिक निष्कासन की कार्रवाई की। इस तनातनी में पश्चिम के कई विकसित और ताकतवर देशों के सामने एक परेशानी खड़ी कर दी है कि आज जब वे एक तरफ तो यूक्रेन के मोर्चे पर उलझे हुए हैं, चीन के साथ अंतरराष्ट्रीय मुकाबला चल ही रहा है, ऐसे में इन दोनों ही मुद्दों पर भारत के साथ के जरूरी होने पर वे किस तरह कनाडा का भी साथ दें? अमरीका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से कनाडा ने अपनी कार्रवाई का खुलासा किया है कि वह अपनी जमीन पर अपने नागरिक का कत्ल बर्दाश्त नहीं कर सकता, और उसने इन देशों को अपनी नजर में कत्ल के सुबूत पेश भी किए हैं। आज ये तमाम देश कनाडा के साथ भी बने रहना चाहेंगे, और भारत को भी साथ रखना चाहेंगे। इसलिए भारत और कनाडा दोनों के लिए यह नौबत अंतरराष्ट्रीय असुविधा खड़ी करने की भी है।
फिर कनाडा में लाखों भारतीय छात्र-छात्राएं पढ़ रहे हैं, लाखों लोग काम कर रहे हैं, और भारतीय मूल के लाखों लोग वहां बसे हुए हैं। ऐसे में बड़े कारोबारी रिश्तों के अलावा भारतीयों और भारतवंशियों की हिफाजत भी एक बड़ी बात है, और इस मोर्चे पर कोई भी नया तनाव खड़ा होने पर वह भारत के लिए एक परेशानी रहेगी। इन दोनों ही देशों के लिए आज यह माना जा रहा है कि यह कूटनीतिक असफलता है जब दोनों देशों के पीएम दिल्ली में मिल-बैठकर भी इस मुद्दे को नहीं सुलझा पाए, तो फिर अब नीचे के स्तर पर इसका कोई आसान समाधान जल्द हो जाए ऐसा दिखता नहीं है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि खालिस्तानी मुद्दे पर अगर भारत को यह साख मिल रही है कि उसने कनाडा में एक खालिस्तानी को मार गिराया है, तो उससे हिन्दुस्तान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थकों और प्रशंसकों के बीच उनके लिए तारीफ के सिवाय कुछ नहीं होगा। राष्ट्रवादी सोच आतंकियों से सरहद पर या विदेशों में कड़ाई से निपटने की वकालत करती है। दुनिया के कुछ और देश भी अपने विरोधियों के साथ इस किस्म की ‘कार्रवाई’ करने के लिए जाने जाते हैं। यह अलग बात है कि देशों से उम्मीद की जाती है कि वे रंगे हाथों न पकड़ाएं। अब कनाडा हिन्दुस्तान के खिलाफ जिन सुबूतों का हवाला दे रहा है, उनके सामने आने पर ही कोई बात साबित हो सकती है, लेकिन उससे मोदी को भारत के भीतर आबादी के एक बड़े हिस्से में एक मजबूत नेता की शोहरत मिलेगी, जिसे इसमें भी मोदी है तो मुमकिन है ही देखने मिलेगा।
फिलहाल हम इसे दोनों देशों के सर्वोच्च स्तर पर कूटनीतिक नाकामयाबी मानते हैं, और कनाडा इस हद तक पहुंचा, या उसे इस हद तक जाना पड़ा कि वह संसद में भारत को औपचारिक रूप से हत्या का जिम्मेदार कहे, तो यह किसी भी तरह की बातचीत की पूरी ही असफलता है। इस नौबत से पश्चिम के देशों में बसे हुए खालिस्तान-समर्थकों को एक नई ताकत मिलेगी कि कम से कम कनाडा की सरकार इस हद तक उसके लिए और उसके साथ खड़ी है। आने वाला वक्त बताएगा कि इन दोनों बड़े और ताकतवर देशों के रिश्ते किस तरफ बढ़ते हैं क्योंकि दोनों के आपसी हित बहुत व्यापक हैं, और दोनों के साझा दोस्त भी इस तनाव से परेशान हैं। फिलहाल तो यह लगता है कि इस ताजा तनाव से भारत और कनाडा दोनों के प्रधानमंत्रियों को अपनी-अपनी जमीन पर, अपने-अपने लोगों के बीच एक नई ताकत मिली है, और अपने-अपने विपक्षियों का समर्थन भी मिला है।
अगले कुछ दिन दुनिया में कोई बहुत बड़ी अनहोनी न हो जाए, तो हिन्दुस्तान के भीतर चर्चा और बहस के लिए महिला आरक्षण अकेला मुद्दा होना चाहिए। चौथाई सदी से चली आ रही कोशिशों को कल मोदी सरकार ने एक बार फिर एक विधेयक की शक्ल में संसद में पेश किया है, और इस बार सत्तारूढ़ पार्टियों से परे भी देश का प्रमुख विपक्षी दल, कांग्रेस इसके साथ है, और कई और पार्टियां भी यूपीए-2 के शासन काल के मुकाबले अब महिला आरक्षण का साथ देंगी। कांग्रेस की एक मुखिया सोनिया गांधी ने अभी कुछ मिनट पहले लोकसभा में इस बिल पर अपनी बात शुरू करते हुए पहला ही वाक्य इसका समर्थन करने का कहा है। उसके साथ ही उन्होंने दो-तीन और बातें कही हैं जिस पर गौर करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि यह बात कही जा रही है कि और छह-आठ बरस भारतीय महिला अपने हक का इंतजार करे। उन्होंने मांग की कि इस बिल को तुरंत ही अमल में लाया जाए, और उसके बाद जाति जनगणना करवाकर अनुसूचित जाति, जनजाति, और ओबीसी की महिलाओं के हक सुनिश्चित किए जाएं। जाहिर है कि वे लोकसभा की मौजूदा सीटों के भीतर आज के दलित और आदिवासी आरक्षण के तहत ही महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने की वकालत कर रही हैं, और हमारा मानना है कि संसद के मौजूदा आरक्षण के तहत एक बड़ा सीधा-सरल आरक्षण आज लागू हो सकता है, जो कि आने वाले पांच विधानसभा चुनावों के पहले भी किया जा सकता है। आज संसद में अनारक्षित, और दलित, आदिवासी, ऐसी तीन किस्म की सीटें हैं। इन तीनों तबकों के भीतर 33 फीसदी आरक्षण तुरंत ही लागू हो सकता है, और एनडीए और कांग्रेस मिलकर ही देश के आधे राज्यों में ऐसे संशोधन को पास करने के लिए काफी हैं।
भारत की जनगणना, और लोकसभा, विधानसभा सीटों के डी-लिमिटेशन का काम बड़ा जटिल है। कुछ लोगों का हिसाब है कि कल के विधेयक के बाद खबरों में आई यह जानकारी सही नहीं है कि महिला आरक्षण 2029 में लागू हो जाएगा। राजनीति और चुनावों के एक जानकार योगेन्द्र यादव ने लिखा है कि 2001 में संशोधित आर्टिकल 82 इस बात की स्पष्ट मनाही करता है कि 2026 के बाद होने वाली पहली जनगणना के पहले डी-लिमिटेशन किया जाए। इसका मतलब यह है कि डी-लिमिटेशन 2031 में ही हो सकेगा। योगेन्द्र यादव का कहना है कि डी-लिमिटेशन कमीशन आमतौर पर तीन से चार साल लेता है, पिछले आयोग ने तो पांच बरस लिए थे। इसके अलावा आने वाला डी-लिमिटेशन का काम बड़े बखेड़े वाला हो सकता है क्योंकि (उत्तर और दक्षिण) की आबादी के अनुपात में बड़ा फेरबदल हुआ है। इसलिए हम 2037 या उसके बाद ही इस आरक्षण की संभावना देखते हैं जो कि 2039 में ही लागू हो पाएगा। कई और लोगों ने भी इसी तरह का हिसाब-किताब सामने रखा है।
इसीलिए हम यहां सोनिया गांधी की बात से एकदम ही सहमत हैं कि इस बिल को बिना वैसी किसी देरी के तुरंत ही लागू करना चाहिए, और इस संविधान संशोधन को दो हिस्सों में भी किया जा सकता है। सोनिया ने इसे तुरंत लागू करने कहा है, और वे इस बात को जानती है कि पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव अभी सामने हैं। जब वे संसद में कुछ बोल रही हैं, तो उनके कहे हुए ‘तुरंत’ का मतलब उनकी पार्टी भी अच्छी तरह समझती है जिसकी कि चार राज्यों में खुद की सरकार है। और ये सरकारें एनडीए की सरकारों के साथ मिलकर आधे राज्यों से संविधान संशोधन पास करवाने की जरूरत पूरी कर सकती हैं। अभी भी अगर कांग्रेस आज इस बात की जिद करे, और अपने राज्यों से इसे पास करवाने का जिम्मा ले, तो 15 दिन बाद की चुनाव घोषणा के पहले शायद यह काम हो सकता है। राज्यों में मौजूदा विधानसभा सीटों का लॉटरी से आरक्षण निकालना भी कुल एक दिन का काम है, और महिला आरक्षण लागू होते ही चुनाव आयोग उसे भी कर सकता है। यह याद रखने की जरूरत है कि सोनिया गांधी की कांग्रेस ने ही यूपी चुनाव में 40 फीसदी टिकटें महिलाओं को दी थीं। अब उसे अपने उस वैचारिक फैसले के साथ ईमानदारी से डटकर खड़े रहना चाहिए। आज देश में जो माहौल बन रहा है कि अगले दस-पन्द्रह बरस के बाद ही महिला आरक्षण लागू हो सकेगा, उस माहौल के बीच सोनिया की यह मांग बड़ी अहमियत रखती है, और डी-लिमिटेशन के बाद के आरक्षण तक मौजूदा सीटों पर एक तिहाई आरक्षण महिलाओं को एक बड़ी संभावना तुरंत ही दे सकता है। मोदी सरकार ने जो विधेयक रखा है, उसे सैद्धांतिक रूप से पहले कदम के रूप में अभी तुरंत लागू करना चाहिए। फिर ऐसे आरक्षण से चाहे जिस पार्टी को, चाहे जिस प्रदेश में फायदा मिलना हो, वह मिलता रहे। वह फायदा आखिर उन पार्टियों की महिलाओं को भी तो मिलेगा, जो पहले तो उम्मीदवार बन सकेंगी, और फिर जीत भी सकेंगी।
महिला आरक्षण चौथाई सदी से ज्यादा समय से बार-बार संसद के दरवाजे खटखटा रहा था, और कम से कम चार अलग-अलग प्रधानमंत्रियों के वक्त इसे लेकर कोशिश हुई थी। आखिर में जाकर मामला महिला आरक्षण के भीतर अलग से ओबीसी आरक्षण पर आकर रूक गया था, जो कि एक फिजूल का तर्क था। ओबीसी आरक्षण तो आज संसद और विधानसभाओं में किसी भी जगह पर नहीं है, तो जब पुरूषों को ही ओबीसी आरक्षण नहीं है, और संसद और विधानसभाएं चल रही हैं, तो इसी व्यवस्था में महिलाओं के जुड़ जाने से कौन सी नई बेइंसाफी होने जा रही थी? ऐसा लगता है कि कुछ पार्टियां, जिनमें लालू-मुलायम की पार्टियां आगे थीं, वे किसी भी तरह महिला आरक्षण को रोकना चाहते थे, उन्होंने संसद और विधानसभाओं में ओबीसी आरक्षण के बिना ही सिर्फ महिलाओं के भीतर ओबीसी की मांग करके 2010 में विधेयक को पटरी से उतार दिया था। अब सोनिया गांधी की यह बात सही है कि पहले इसे तुरंत लागू किया जाए, और उसके बाद फिर जातीय जनगणना करवाकर उसे दलित, आदिवासी, और ओबीसी सभी के लिए लागू किया जाए। उन्होंने साफ-साफ कहा कि इस बिल को लागू करने में देरी भारतीय महिला के साथ बेइंसाफी होगी।
यह एक बात विवाद की हो सकती है कि जनगणना करवाई जाए, या कि जातीय जनगणना करवाई जाए जिसके कि भाजपा खिलाफ रही है। फिर यह भी एक नया विवाद हो सकता है कि ओबीसी को आरक्षण दिया जाए या नहीं। फिर यह भी आरक्षण हो सकता है कि उत्तर भारत में आबादी अंधाधुंध बढऩे की वजह से वहां डी-लिमिटेशन में सीटें बढ़ जाएंगी, और दक्षिण के जिम्मेदार राज्यों ने आबादी पर काबू रखा, तो उनकी सीटें घट जाएंगी। ऐसे कई विवाद आगे जनगणना, जातीय जनगणना, डी-लिमिटेशन को लेकर आएंगे। इसलिए आज यही सबसे समझदारी की बात है कि बिना किसी अगले विवाद में उलझे हुए जो तुरंत आसानी से मुमकिन है, वह हक महिला को अभी दे दिया जाए, ताकि दो महीने बाद के चुनाव में वह एक तिहाई सीटों पर जीतकर विधानसभाओं में पहुंच सके, 2024 में संसद की शक्ल भी बदल सके।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जो लोग बारीकी से देखते आ रहे हैं उन्हें मालूम है कि मोदी का मिजाज एक जादूगर किस्म का है, और वे बार-बार अपने हैट में हाथ डालकर खरगोश निकालकर दिखाते हैं। उनके कई फैसले नोटबंदी दर्जे के आत्मघाती रहे, लेकिन उनके कुछ फैसले ऐतिहासिक महत्व के भी रहे। और ऐसा ही एक फैसला महिला आरक्षण को दुबारा लाने का है। यह फैसला कांग्रेस सरकार के लाए हुए एक विधेयक का किसी तरह का विस्तार होगा जिसे कि यूपीए सरकार खुद पास नहीं कर पाई थी, लेकिन मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की बिल को बहुमत से पारित करा लिया था। उस वक्त यूपीए का समर्थन करने वाले लालू-मुलायम ने सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी दी थी, और बिल को लोकसभा में पेश नहीं किया गया था। ये दोनों पार्टियां महिला आरक्षण के भीतर ओबीसी के लिए अलग से कोटे की मांग कर रही थीं, क्योंकि उनका मानना था कि इससे संसद में सिर्फ शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा।
अब पुराने इतिहास बहुत ज्यादा चर्चा की जरूरत नहीं है, और यह माना जाना चाहिए कि नये संसद भवन में लोकसभा के हॉल में बढ़ी हुई सीटों के साथ अब महिला आरक्षण कई तरह से होना मुमकिन है, जिनमें मौजूदा सीटों में एक तिहाई पर आरक्षण तो एक जरिया हो सकता है, दूसरा यह भी हो सकता है कि लोकसभा की मौजूदा सीटों में एक तिहाई अतिरिक्त सीटें जोड़ दी जाएं। कल इसे मोदी मंत्रिमंडल ने मंजूरी दे दी है, और आज-कल में संसद के इस चार दिनों के सत्र में इस विधेयक के विवरण सामने आ जाएंगे। यह जाहिर है कि महिला आरक्षण पर काफी हद तक काम कर चुकी कांग्रेस पार्टी इस विधेयक के इतिहास को लेकर अपना योगदान गिनाएगी, और मोदी सरकार भी नई पैकिंग में पुराना माल पेश करने के बजाय कुछ नया तरीका ईजाद कर सकती है कि महिला आरक्षण को सिर्फ मोदी के नाम से याद रखा जाए।
अब जिस वक्त हम यह बात लिख रहे हैं उस वक्त तक यह विधेयक पेश नहीं हुआ है, इसलिए इसकी अलग-अलग कई किस्म की संभावनाओं पर ही लिखा जा सकता है। हम उन बारीकियों पर जाना नहीं चाहते जो कि इस विधेयक में चौंकाने के अंदाज में आ सकती हैं, लेकिन कुल मिलाकर इससे देश में जो फर्क पड़ेगा, हम अभी इस पल उसी पर लिख रहे हैं। आज किसी समय संसद में यह विधेयक रख दिया जाएगा, और ऐसा अंदाज है कि एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी, 33 फीसदी आरक्षण की पुरानी कोशिश अब कामयाब होगी, चौथाई फीसदी बाद जाकर महिलाओं को उनके हक से काफी कम मिलने की बात किसी किनारे पहुंच पाएगी। महिलाओं की आधी आबादी है, और यह आरक्षण भी एक अहसान की तरह उन्हें एक तिहाई सीटें देने वाला हो सकता है। आज देश में संसद और विधानसभाओं में महिलाएं बहुत कम हैं, और 33 फीसदी आरक्षण से भी यह संख्या दुगुनी हो सकती है।
अब अगर ‘इंडिया’ गठबंधन में पार्टियों के बीच इसे लेकर मतभेद बढ़ता है, तो उससे गठबंधन की मजबूती पर आंच आ सकती है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी अपनी सत्तारूढ़ चतुराई से इस गठबंधन पर तरह-तरह के दबाव खड़े कर रहे हैं, पहला दबाव वन-नेशन-वन इलेक्शन को लेकर हुआ, जिसे लेकर ‘इंडिया’ गठबंधन के दलों के बीच मतभेद सामने आए, और एक पखवाड़े के भीतर ही यह दूसरा मामला उन्होंने पेश कर दिया है। यह भी हो सकता है कि संसद में पार्टियों के मौजूदा रूख और उनके सदस्यों की गिनती लगाकर लालू-मुलायम की पार्टियों को यह समझ आ जाए कि उनका विरोध कारगर नहीं होगा, और वे शहादत के अंदाज में इसका विरोध न करें। लेकिन उससे भी फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अगर संसद में विधेयक पास करने जितना बहुमत मोदी सरकार जुटा लेती है, तो भी वाहवाही तो मोदी सरकार की ही होगी। यूपीए सरकार के पास भी महिला आरक्षण करने के लिए पूरे दस बरस थे, और वह अगर अपने साथी दलों को इसके लिए सहमत नहीं करा पाई थी, तो यह उसकी नाकामयाबी थी।
खैर, हम अगर आज की हकीकत पर आएं, तो ऐसा लगता है कि पंचायत और म्युनिसिपलों में महिला आरक्षण से अगर कोई सबक इस संसद-विधानसभा महिला आरक्षण को मिलेगा, तो ऐसा लगता है कि महिला आरक्षित सीटें हर पांच या दस बरस में रोटेशन से बदलती रहेंगी। और ऐसा होने पर देश की हर विधानसभा और लोकसभा सीट पर पार्टियों को महिला लीडरशिप तलाशनी होगी, उन्हें तैयार करना पड़ेगा, और अगर वे खुद होकर तैयार हैं, तो उनके मौके बढ़ते रहेंगे। हमारा तो यह भी मानना है कि इस देश में इस कानून को ऐसा गतिशील बनाना चाहिए कि हर पांच बरस में महिला आरक्षण पांच फीसदी बढक़र 50 फीसदी तक पहुंचाया जाए, और वही सामाजिक न्याय होगा। इतना लंबा वक्त मर्द नेताओं को मिलने से वे भी धीरे-धीरे अपनी मर्दानगी के दूसरे तरह के गैरचुनावी इस्तेमाल सोच सकेंगे, और एक पीढ़ी गुजरने तक, अगले 20 बरस में यह सामाजिक न्याय पूरी तरह शक्ल ले सकेगा।
अब इस विधेयक की जानकारियां कुछ घंटों में सामने रहेंगी, और ऐसा लगता है कि इसे खारिज करने का खतरा आमतौर पर कोई भी पार्टी नहीं उठाएगी, क्योंकि उसे अपनी महिला समर्थकों को यह समझाना मुमकिन नहीं होगा कि उसने महिला आरक्षण का विरोध क्यों किया। तथाकथित समाजवादी, कुनबापरस्त हिन्दीभाषी इलाकों की पार्टियों के लिए भी शायद इसे खारिज करना मुश्किल होगा, और महिला आरक्षण के भीतर ओबीसी आरक्षण का उनका तर्क इसलिए निहायत खोखला और फिजूल है कि आज तो संसद और विधानसभाओं में किसी तरह का ओबीसी आरक्षण नहीं है, और जब ओबीसी के मर्द ऐसे आरक्षण के बिना चल सकते हैं, तो महिला आरक्षण बिना ओबीसी आरक्षण के क्यों नहीं हो सकता?
आज एक दूसरा बड़ा सवाल यह है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव एकदम सामने है, और क्या इन तीन दिनों में संसद में पास हो जाने पर यह विधेयक मौजूदा सीटों पर सीधे-सीधे लागू हो जाएगा, और इसी चुनाव को प्रभावित करेगा, या फिर यह आगे की किसी तारीख पर लागू होगा? अभी जो खबरें आ रही हैं उनसे ऐसा नहीं लगता है, ऐसा लगता है कि यह लोकसभा और विधानसभा की सीटों के डीलिमिटेशन से भी जोड़ा जाएगा, और अगली जनगणना से भी। ऐसा कुछ भी होने पर यह विधेयक अभी सैद्धांतिक रूप से पारित होगा, और इस पर अमल आने वाली तारीखों से बाकी पहलुओं के हिसाब से होगा।
अभी हम विधेयक को देखे बिना यह चर्चा कर रहे हैं, महिला आरक्षण के कई अलग-अलग तरीके मुमकिन हैं, उन पर चर्चा भी चल रही है, लेकिन जादूगर मोदी पिटारे से क्या निकालेंगे, यह अभी इस पल तो हमारे सामने नहीं है। फिर भी देश में महिला लीडरशिप के विकास में इससे जमीन-आसमान का एक फर्क आएगा, जो कि चौथाई सदी पहले से संसद में इंतजार कर रहा था, और भारतीय राजनीति से मर्दों का दबदबा भी इससे कुछ हद तक घटेगा, हालांकि सरपंच पति या पार्षद पति की तरह विधायक पति और सांसद पति का खतरा भी कुछ चुनावों तक रह सकता है, लेकिन यह सोच भी कौन सकते हैं कि हिन्दुस्तानी महिला को उसका कोई भी हक आसानी से मिल जाएगा। यह बिना अधिक जानकारी लिखी गई एक प्रारंभिक बात है, और हम कल इसी जगह शायद इसी मुद्दे के बाकी नए सामने आने वाले पहलुओं पर फिर से लिखेंगे।
कांग्रेस को शायद काफी देर से यह बात समझ आई, लेकिन हैदराबाद में हुई पार्टी की कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी सहित दिग्विजय सिंह और भूपेश बघेल जैसे नेताओं ने कहा कि तमिलनाडु के डीएमके नेता के बयान से शुरू हुए सनातन के बयानबाजी से पार्टी को बचना चाहिए। वहां से निकली खबरें बताती हैं कि कांग्रेस के बहुत से नेताओं का यह कहना था कि पार्टी को बीजेपी के एजेंडा में नहीं फंसना चाहिए। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने नेताओं को पार्टी लाईन से परे निजी बयान देने से कड़ाई से मना किया है। कुल मिलाकर पांच राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को कई हिसाब से चौकन्ना कर दिया है, और वह जो परंपरागत चूक करती है, अब उसका नुकसान पार्टी को समझ आ रहा है। लेकिन औपचारिक चर्चाओं से परे अभी भी बहुत सी बातें हैं जो कि इन खबरों में नहीं आई हैं, और हो सकता है कि उन पर कार्यसमिति की बैठक में चर्चा हुई हो, या न भी हुई हो।
कांग्रेस एक बड़ी पुरानी पार्टी है, और इसका धर्मनिरपेक्षता का इतिहास रहा है। लेकिन हाल के बरसों में इसने यह बात समझ ली कि मुस्लिमों, दलितों, आदिवासियों, या दूसरे अल्पसंख्यकों के मुद्दों को उठाने का नुकसान शायद उसे झेलना पड़ता है। पता नहीं यह बात सच है, या फिर कांग्रेस के भीतर के कुछ कम धर्मनिरपेक्ष, कुछ अधिक हिन्दू लोगों का ऐसा सोचना है। जो भी हो, हाल के बरसों में कांग्रेस ने बड़ी खुलकर हिन्दुत्व की राजनीति की है, और शायद उसने यह भी मान लिया है कि मुस्लिमों के पास भाजपा के खिलाफ अगर कांग्रेस को जिताने का स्पष्ट विकल्प होगा, तो वह कांग्रेस को छोडक़र कहीं जा नहीं सकती, और अगर उसके पास कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा ऐसा विकल्प है जो कि भाजपा के खिलाफ जीत की संभावना वाला है, तो वह कांग्रेस से लगाव खत्म भी कर चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस के काफी नेता अल्पसंख्यकों की अनदेखी की राजनीति कर रहे हैं, ताकि बहुसंख्यक हिन्दुओं को पार्टी हिन्दू-विरोधी, या मुस्लिमपरस्त न लगे। पता नहीं यह कांग्रेस का सोचा-विचारा फैसला है, या इसके क्षेत्रीय छत्रप अपने स्तर पर ऐसी राजनीति कर रहे हैं, लेकिन यह तो बहुत जाहिर है कि एक-एक करके बहुत से प्रदेशों में कांग्रेस हिन्दुत्व बी टीम के रूप में अपनी पहचान बना रही है, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में वह भाजपा को पीछे छोड़ चुकी बताई जाती है।
जब देश के मतदाताओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा धर्मनिरपेक्षता की लंबी परंपरा और राजनीतिक चेतना को पूरी तरह खोकर धार्मिक ध्रुवीकरण में गर्व पाने लगा है, तो वैसे में चुनावी राजनीति में किस पार्टी को क्या करना चाहिए, इस बारे में हमारे पास कोई समाधान नहीं है। हम अपनी परंपरागत सोच के मुताबिक इतना ही कह सकते हैं कि हर पार्टी को धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए, और वैसा ही दिखना भी चाहिए। लेकिन सत्ता की राजनीति में यह हर पार्टी की अपने प्रति जिम्मेदारी बनती है, और उसका हक बनता है कि वह साम्प्रदायिकता फैलाए बिना, धर्मान्धता को अपनाए बिना, बहुसंख्यकों के धर्म को बढ़ावा देकर अपनी जमीन तैयार करे। पता नहीं मोदी की अगुवाई में भाजपा के रहते हुए ऐसा हिन्दुत्व कांग्रेस को किसी किनारे पहुंचा पाएगा या नहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी अलग-अलग कुछ प्रदेशों मेें ऐसा ही करते दिख रही है। अभी कांग्रेस कार्यसमिति के कुछ नेताओं के जो बयान बाहर आए हैं, उनमें भाजपा जैसी हिन्दूवादी पार्टी के जाल में फंसने के खिलाफ पार्टी के नेताओं को आगाह किया गया है। ऐसा लगता है कि सनातन धर्म के मुद्दे पर डीएमके नेताओं ने अपना जो परंपरागत रूख सामने रखा है, उसमें नया कुछ नहीं है, सिवाय भाजपा के उसे दुहने के। भाजपा ने तुरंत ही देश के चुनावी माहौल के बीच इसे सनातन धर्म और हिन्दू धर्म पर हमला करार दिया है, और इंडिया-गठबंधन में डीएमके के साथ रहने पर कांग्रेस को भी इस हमले में शामिल बताया है। चुनावी राजनीति में इतनी तोहमत बहुत हैरान करने वाली नहीं है, लेकिन वोटरों की कमअक्ली के बीच कांग्रेस के किसी भी बड़बोले नेता का बयान पार्टी के लिए बड़ी फजीहत बन सकता है, और हैदराबाद में यही फिक्र सामने आई है, और इसकी तरफ से सावधान रहने की बात कही गई है।
लेकिन कांग्रेस में नासमझी कई अलग-अलग स्तरों पर होती है। जब हिन्दू धर्म से जुड़े हुए कोई मुद्दा या विवाद खबरों में आते हैं, तो कई बार कांग्रेस के कोई मुस्लिम प्रवक्ता उस पर बयान देते दिखते हैं। यह लापरवाही आत्मघाती है, और भारत में हिन्दू-मुस्लिम तनातनी की हकीकत को अनदेखा करना भी समझदारी नहीं है। जब पार्टी के पास आधा दर्जन बड़े-बड़े हिन्दू प्रवक्ता भी हैं, तो पार्टी के मुस्लिम प्रवक्ता या नेता का उस पर कुछ कहना जरूरी तो नहीं रहता। लेकिन कांग्रेस में ऐसा कई बार होते आया है। अब जाकर अगर पार्टी को धार्मिक संवेदनशीलता समझ में आ रही है, तो उसे सबसे पहले अपने नेताओं को उनके धर्म से परे के धर्मों पर बयानबाजी से दूर रहने को कहना चाहिए। लेकिन एक दूसरी बात यह भी है कि हाल के बरसों में कुछ प्रदेशों में कांग्रेस ने जिस आक्रामक अंदाज में हिन्दुत्व के मुद्दे पर लीड लेने की कोशिश की है, उससे जनता के बीच हिन्दुत्व को लेकर भावनात्मक उभार आया है। उसका नतीजा यह निकल रहा है कि आज हिन्दू-मुस्लिम, या हिन्दू-ईसाई जैसे किसी भी छोटे से तनाव के खड़े होने पर भी बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का एक तबका तुरंत ही झंडा-डंडा लेकर सडक़ों पर रहता है। हम छत्तीसगढ़ में कई घटनाओं के बाद ऐसा तनाव देख चुके हैं। चूंकि हिन्दुओं को हिन्दुत्व के मुद्दे पर जगाने के काम में भाजपा के अलावा कांग्रेस भी पूरी ताकत से लगी हुई है, इसलिए अब ‘जागे हुए’ जरा से भी किसी गैरहिन्दू मुद्दे पर तुरंत ही उत्तेजित हो जाते हैं। इसलिए हिन्दूवादी पार्टियों और संगठनों की दशकों से फैलाई गई ‘हिन्दू चेतना’ को जब कांग्रेस ने भी बढ़ावा दिया है, तो अब इस नई बढ़ी हुई चेतना के चलते ध्रुवीकरण और अधिक रफ्तार से होने का एक नया खतरा सामने आया है। अब बहुसंख्यक धर्म के लोगों को भी अपने धर्म का अहसास पहले से बहुत अधिक होने लगा है, क्योंकि कांग्रेस भी रात-दिन राम-राम कर रही है।
देश में यह नई धार्मिक उत्तेजना चुनाव में किस पार्टी के कितने काम आएगी इसका कोई अंदाज हमें नहीं है, लेकिन ऐसी उत्तेजना से कौन से नए खतरे खड़े हो रहे हैं, उसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। ऐसा लगता है कि हिन्दुत्व को लेकर कांग्रेस कार्यसमिति के भीतर एक सावधानी की बात तो हुई है, भाजपा के जाल में फंसने से बचने की बात तो हुई है, लेकिन पार्टी के अपने आक्रामक हिन्दुत्व के लिए किसी लक्ष्मणरेखा की बात हुई हो ऐसा कम से कम खबरों में नहीं आया है, और अधिक संभावना इस बात की है कि ऐसी कोई चर्चा भी नहीं हुई होगी। यह बात इस देश की गौरवशाली धर्मनिरपेक्ष परंपराओं का हौसला पस्त करने वाली हो सकती है, लेकिन कांग्रेस शायद यह मान रही है कि धर्मनिरपेक्षता की अधिक चर्चा करना उसके लिए नुकसान की बात है। हम देश के राजनीतिक माहौल के बारे में कई तरह की सलाह दे सकते हैं, लेकिन जब बात कांग्रेस के चुनावी नफे-नुकसान की आती है, तो कांग्रेस पार्टी उसके लिए हमसे अधिक समझदार है, और जिस देश में मुकाबला भाजपा जैसी पार्टी से हो, मोदी जैसे नेता से हो, वहां पर हमारी राय कांग्रेस या किसी और पार्टी के चुनावी फायदे की हो नहीं सकती। इसलिए क्या सही है और क्या गलत, इस पर चर्चा तो हम कर सकते हैं, अपने इस कॉलम में अक्सर ही करते हैं, लेकिन कौन सी बात किस पार्टी के फायदे की हो सकती है, उस पर चर्चा करना हमारे बस से परे की बात है। ऐसे में हम जनता से ही सीधे बात कर सकते हैं, कई राजनीतिक दलों को कहने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।