संपादकीय
छत्तीसगढ़ में हफ्ते भर पहले अग्निवीर भर्ती की दौड़ में हिस्सा ले रहे एक बेरोजगार नौजवान की मौत हो गई थी। उस पर मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की ओर से दस लाख रूपए मुआवजे की घोषणा हुई थी। यह तेजी से शायद इसलिए भी हो पाया था कि राज्य के वित्तमंत्री ओ.पी.चौधरी के विधानसभा क्षेत्र रायगढ़ में यह घटना हुई थी। इसके बाद पिछले पांच-छह दिनों में दो अलग-अलग जगहों पर वनरक्षक भर्ती की शारीरिक परीक्षा के लिए दौड़ते हुए बेरोजगारों में से दो की मौत हुई। मुख्यमंत्री ने इनके लिए भी दस-दस लाख रूपए की राहत घोषित की है। टैक्स देने वाले लोगों को यह रकम बड़ी लग सकती है, लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि अगर एक बेरोजगार शर्तों को पूरा करते हुए एक नौकरी पाने के लिए मुकाबले में शामिल हुआ था, और इसी दौरान उसकी मौत हुई थी, तो उसके परिवार का ऐसे किसी मुआवजे या राहत का हक तो बनता है। और यह बात भी ठीक है कि चाहे देश में चर्चित अग्निवीर के लिए भर्ती हो, या प्रदेश के वनरक्षक के लिए, या प्रदेश में पुलिस भर्ती के लिए हो, अगर मुकाबले के दौरान बेरोजगार के साथ ऐसा हादसा होता है तो सरकार को उसके परिवार को मदद करनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि राज्य को ऐसा एक पैमाना तय कर देना चाहिए कि भर्ती के दौरान ऐसा तकलीफदेह हादसा सामने आने पर बिना किसी अतिरिक्त मंजूरी के सरकार परिवार के साथ खड़ी रहे।
बहुत से नौजवान ऐसे मुकाबलों के लायक शारीरिक रूप से चुस्त नहीं रहते हैं, इतने दौडऩे की आदत नहीं रहती है, और कभी-कभी ऐसी मौतें सुनाई पड़ती हैं। सरकार या सेना, जो भी भर्ती कर रहे हों, उन्हें बहुत लंबी दौड़ करवाने के पहले कुछ छोटी दौड़ करवाकर लोगों की क्षमता बढ़वाने की कोशिश भी करनी चाहिए, ताकि ऐसे हादसे कम हो सकें। जिस तरह कई प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए सरकारें कोचिंग और प्रशिक्षण का इंतजाम करती हैं, ऐसे कड़े शारीरिक मुकाबले के लिए भी सरकार को अलग-अलग शहरों में खिलाडिय़ों, या खेल शिक्षकों की अगुवाई में ऐसी तैयारी करवानी चाहिए। कुछ बड़े शहरों में कुछ कोचिंग सेंटर ऐसे शारीरिक इम्तिहानों के लिए नौजवानों को तैयार करवाते दिखते भी हैं, लेकिन जो लोग उनकी फीस न उठा सकें, उनके लिए भी सरकार या खेल संगठनों को क्षमता विकास की कोशिश करनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ में भाजपा की विष्णुदेव साय सरकार का पहला बरस कल पार्टी और सरकार ने जनादेश परब के नाम से मनाया। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, और पहले पार्टी के छत्तीसगढ़ प्रभारी रह चुके केन्द्रीय मंत्री जे.पी.नड्डा इस मौके पर समारोह में आए, और उन्होंने पिछली कांग्रेस सरकार पर खासे हमले भी किए। और दरअसल सच्चाई भी यही है कि पिछली कांग्रेस सरकार की पृष्ठभूमि में जब मौजूदा भाजपा सरकार को देखा जाता है, तो राज्य के लोकतंत्र के लिए यही एक राहत की पहली बात दिखती है कि अब राज्य शासन के नाम से संविधानेत्तर सत्ता काम नहीं कर रही है, और जो घोषित और निर्वाचित सरकार है, वही सरकार के एक नियमित ढांचे के भीतर काम कर रही है। यह कम राहत की बात नहीं है कि अब सरकार में कोई मनमाने फैसले लिए जाते नहीं दिखते जो कि पिछली कांग्रेस सरकार के पूरे कार्यकाल की एक खास पहचान रही। कुछ लोगों को लग सकता है कि विष्णुदेव साय की सरकार सत्ता के भीतर, और सत्ता के बाहर संगठन या संघ के स्तर पर कई जगह बंटे हुए अधिकारों की सरकार है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि नेहरू के वक्त भी सत्ता और संगठन से बाहर के गांधी अपने कड़े फैसलों, और जिद के साथ सरकार पर हावी रहते थे, और सरकार उनके अनकहे दबाव में भी फैसले लेती थी। नेहरू बहुत विचलित होते थे, लेकिन गांधी के सामने बेबस थे। बाद की कई सरकारों में भी सरकार से परे सत्ता के केन्द्र रहते थे। लोगों को याद होगा कि इंदिरा के राजनीतिक जीवन में संजय गांधी संगठन और सरकार पर किस हद तक हावी रहते थे, और एक दुर्घटना में उनकी अकाल-मौत की वजह से उनके एक बेहतर भाई, राजीव गांधी को मौका मिला, या उन्हें मजबूरी में राजनीति में आना पड़ा, और संजय गांधी का बदनाम युग खत्म हुआ। लोगों को याद होगा कि जब-जब देश-प्रदेश में भाजपा की सरकारें रहीं, संघ का उन पर एक बड़ा वैचारिक दबाव रहा, और यह बात पूरी तरह से लुकी-छिपी भी नहीं रही। मनमोहन सिंह के दस बरस के कार्यकाल में सोनिया गांधी की अगुवाई में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनी थी, जिसका एक सरकारी दर्जा भी था, और इसमें तमाम गैरराजनीतिक सदस्य थे जो कि जनसंगठनों से, या जनसरोकारों से आए हुए थे, और सरकार के बहुत से फैसले इसी परिषद के लिए हुए थे। हम मनमोहन सिंह सरकार का वह एक दिन देखें जब दिल्ली प्रेस क्लब में राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह कैबिनेट के मंजूर किए गए एक विधेयक के मसौदे को फाडक़र फेंक दिया था, और उनका यह फैसला कैबिनेट को मानना पड़ा था। इसलिए आज अगर छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार में अलग-अलग मंत्रियों की कुछ मजबूती दिखती है, अगर भाजपा-संगठन या संघ परिवार की पकड़ दिखती है, तो यह किसी मजबूरी में सत्ता का बंटवारा नहीं है, किसी भी जिम्मेदार संगठन को अपनी सरकार के अलग-अलग स्तरों पर अपनी पकड़ या दखल रखनी चाहिए। इसलिए विष्णुदेव साय सरकार के बारे में यह धारणा निराधार है कि इसमें सत्ता के बहुत से केन्द्र हैं। सच तो यह है कि पार्टी ने बिना मुनादी किए हुए कुछ कड़े फैसले लिए, और मुख्यमंत्री साय की स्थिति को अधिक मजबूत करके सबको एक संदेश दिया। मंत्रिमंडल में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के बारे में जब यह लगने लगा कि वे मुख्यमंत्री के समानांतर एक प्रभामंडल बना रहे हैं, तो पार्टी ने उन्हें राज्य की राजनीति से अलग करके सांसद बना दिया, और गृहमंत्री विजय शर्मा जिस तरह नक्सल मोर्चे को अपना विभागीय मामला मानकर नीतियां तय कर रहे थे, घोषणाएं कर रहे थे, उन्हें किसी अदृश्य ताकत ने बंद कर दिया। इन दो बातों से दूसरे लोगों तक यह साफ संदेश चले गया कि पार्टी विष्णुदेव साय के मुख्यमंत्री के विशेषाधिकारों के साथ किसी दूसरे मंत्री या नेता की दखल नहीं चाहती। यह एक अलग बात है कि किसी भी जिम्मेदार पार्टी को अपनी सरकार के राजनीतिक फैसलों और कामकाज पर नजर भी रखनी चाहिए, और उसे मार्गदर्शन भी देते रहना चाहिए। इसलिए हम सरकार पर संगठन की पकड़ को संविधानेत्तर नहीं मानते, अगर वह कामकाज में सीधी दखल नहीं है, और निर्वाचित-सत्तारूढ़ नेताओं के माध्यम से पार्टी की रीति-नीति में अमल करवाना है। इसी बात की कमी ने पिछले कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को तबाह किया, और उन्हें एक तानाशाह मिजाज पाने का मौका दिया। कोई भी जिम्मेदार पार्टी होती, तो वह कांग्रेस सरकार की भयानक गलतियों, गलत कामों, और अपराधों को बर्दाश्त नहीं करती। लेकिन कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन के कमजोर हो जाने, और गिने-चुने राज्यों में सरकार रह जाने का नतीजा यह था कि कांग्रेस एक किस्म से छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के पास गिरवी रख दी गई थी, और भाजपा ऐसे किसी भी दबाव से मुक्त है।
अब हम साय सरकार के पहले बरस के प्रदर्शन को देखें, तो विधानसभा चुनाव में पार्टी जिन चुनावी वायदों के साथ सत्ता में आई थी, उनमें से अधिकतर प्रमुख वायदों पर अमल हो चुका है। बड़े-बड़े आर्थिक कार्यक्रम ठीक से चल रहे हैं। चूंकि छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार बनने के बाद साल भर में लोकसभा और म्युनिसिपल-पंचायत चुनाव होते हैं, इसलिए सरकार का यह पहला साल किसी ठोस काम को करने का नहीं रहता है, बल्कि चुनावी वायदों पर अमल करने का रहता है ताकि सत्ता पर आने के बाद अगले ये दो चुनाव हारने की नौबत न आ जाए। जब खजाने से किसी बड़े काम को करने के बजाय लोगों को सीधा फायदा पहुंचाने वाले रियायत और अनुदान के आर्थिक कार्यक्रम लागू किए जाएं, तो इनकी वजह से लोकप्रियता और वाहवाही मिलना आसान भी रहता है। अब पंचायत-म्युनिसिपल चुनावों के बाद इस सरकार की असली और कड़ी चुनौतियां सामने आएंगी कि राज्य के दीर्घकालीन हितों के लिए क्या किया जा सकता है? राज्य के औद्योगिक विकास, ढांचागत विस्तार, जीडीपी में बढ़ोत्तरी, बेरोजगारी में कमी, और राज्य की नौजवान पीढ़ी की हुनर में इजाफा, इन मोर्चों पर सरकार की सफलता या विफलता पहले बरस में सामने नहीं आती है, इसलिए आने वाले बरस इसका सुबूत बनेंगे। फिलहाल यह पहला बरस भ्रष्टाचार के किसी स्कैंडल के बिना गुजरा है, जो कि पिछले पांच बरस की तुलना में कोई छोटी कामयाबी नहीं है।
सरकार ने अपना जो रिपोर्ट कार्ड पेश किया है, उसकी कुछ बातों की चर्चा करें, तो कांग्रेस के पांच बरसों में कुल जितने नक्सली मारे गए थे, उससे अधिक नक्सली इस एक बरस में भाजपा सरकार के राज में उन्हीं सुरक्षाबलों ने मारे हैं। यह हैरानी की बात है कि कांग्रेस राज में 2023 में कुल 20 नक्सली मारे गए थे, और 2024 में भाजपा राज में इसके दस गुना से अधिक! चूंकि हथियारबंद आंदोलनों को खत्म करना सरकार की जिम्मेदारी है इसलिए यह एक बड़ा काम हुआ है, लेकिन सरकार के पहले दिन से गृहमंत्री विजय शर्मा नक्सलियों से शांतिवार्ता की बात करते आ रहे थे, और सरकार अब तक किसी शांतिवार्ता की जमीन तैयार नहीं कर पाई है। सुरक्षाबलों की इतनी बड़ी तैनाती की बहुत बड़ी लागत रहती है, इसलिए भी, और बेकसूर आदिवासियों की मौतें रोकने के लिए भी शांतिवार्ता की जरूरत है। सरकार को इसकी कोशिश करनी चाहिए। पिछली सरकार के समय प्रधानमंत्री आवास योजना में इतने अड़ंगे लगे थे कि चुनाव हो गए, और लाखों मकान बनना रह गए थे। इस बार केन्द्र से कोई टकराव न होने से डबल इंजन की सरकार के चलते 18 लाख से अधिक प्रधानमंत्री आवास बनने जा रहे हैं जो कि 70 लाख से अधिक नागरिकों की बसाहट बनेंगे। लोगों को याद होगा कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के मोदी सरकार से टकराव के चलते ये मकान न बनने पर इसी के विरोध में पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री टी.एस.सिंहदेव ने यह विभाग छोड़ दिया था।
हम यहां पर एक-एक कार्यक्रम और उपलब्धि के आंकड़ों पर चर्चा करना नहीं चाहते, लेकिन हम मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय सरकार के एक बरस की चर्चा को पिछली सरकार से कुछ बातों पर तुलना किए बिना पूरा नहीं कर पा रहे हैं, और आज की इस कॉलम की जगह इसी में खत्म हो गई। बाकी फिर कभी।
देश में मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिर ढूंढने के सिलसिले पर सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल रोक लगा दी है। 1991 के उपासना स्थल अधिनियम की वैधता को दी गई चुनौती पर देश की सबसे बड़ी अदालत में सुनवाई चल रही है, और कल उसी दौरान मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली तीन जजों की विशेष बेंच ने यह आदेश दिया कि देश भर में धर्मस्थलों या तीर्थस्थलों के बारे में किसी अदालत में कोई नया मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा। अदालत ने यह भी आदेश दिया कि अलग-अलग अदालतों में जो मामले पहले से चल रहे हैं उनमें भी सर्वेक्षण या कोई आदेश पारित नहीं किया जाएगा। और यह रोक तब तक लागू रहेगी जब तक सुप्रीम कोर्ट इस मौजूदा मामले की सुनवाई का निपटारा नहीं कर देता। यहां यह समझने की जरूरत है कि राम मंदिर आंदोलन के दौर में नरसिंह राव सरकार ने 1991 में उपासना स्थल कानून बनाया था जिसके मुताबिक देश के सभी धर्मस्थल 15 अगस्त 1947 की धार्मिक मान्यता की स्थिति में रखे गए थे, और सिर्फ अयोध्या के राम मंदिर को इससे बाहर किया गया था। अब देश भर में जगह-जगह मस्जिदों और दरगाहों के नीचे मंदिर होने का दावा करते हुए हिन्दू संगठन अदालतों में जा रहे हैं, और अदालतों ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को कुछ जगहों के सर्वे के आदेश भी दिए हैं। ऐसे ही सर्वे के दौरान उत्तरप्रदेश के संभल में जब जयश्रीराम के नारे लगाते लोग सर्वे टीम के साथ एक मस्जिद में घुसे, तो उसके बाद हुए तनाव और हिंसा में कुछ मौतें भी हुई थीं। इसलिए अब जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी तमाम अदालती कार्रवाईयों पर रोक लगाई है, तो हिन्दू संगठनों की तरफ से इस पर आपत्ति की गई, और अदालत ने यह साफ किया कि क्या वे यह मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट जिस मुद्दे पर सुनवाई कर रहा है, जिला अदालतें उस पर आदेश देती रहें?
सुप्रीम कोर्ट ने एकदम सही आदेश दिया है, और हम भी अपने अखबार में लगातार यही लिखते आए हैं, और यूट्यूब चैनल पर भी हमने इसी बात की वकालत की थी कि ऐसी खुदाई तो हिन्दू धर्मस्थलों के नीचे भी बौद्ध या जैन धर्मस्थल निकाल देगी, और भारत का मौजूदा लोकतंत्र पाषाण युग के चकमक पत्थर तक चले जाएगा, जिन्हें रगडक़र गुफा मानव आग जलाते थे। हैरानी की बात यह है कि जिन हिन्दू संगठनों के लोग देश भर में जगह-जगह हर मस्जिद और दरगाह के पीछे लग गए हैं, उन्हीं हिन्दू संगठनों में सबसे प्रमुख, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत कुछ अरसा पहले बोल चुके हैं कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने की जरूरत नहीं है। भला दुनिया का कौन सा ऐसा देश हो सकता है जो अपनी आबादी के करीब 15 फीसदी लोगों (2011 की जनगणना के मुताबिक 17.22 करोड़ मुस्लिम) लोगों के साथ एक अंतहीन टकराव चलाते ही रहे। देश में हिन्दू आबादी मुस्लिमों से पांच गुना से जरा अधिक है, ऐसे में उसे असुरक्षित मानने का मतलब देश-प्रदेश की सरकारों पर अविश्वास करना है, एक तरफ तो कहा जाता है कि देश बहुत मजबूत हाथों में है, और फिर कहा जाता है कि हिन्दू खतरे में हैं। तो इस विरोधाभासी बयानबाजी की नीयत को समझने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने देश की कई छोटी अदालतों की धर्मनिरपेक्षता की संदिग्ध समझ पर फिलहाल जो रोक लगाई है, और 1991 के कानून की व्याख्या शुरू की है, वह आज के मौजूदा, और सायास खड़े किए गए तनाव को रोकने की बात है। यह जरूरी इसलिए भी है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज का ताजा बयान अभी सामने है जिसमें उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के मंच और माईक से खुलकर यह कहा है कि भारत बहुसंख्यकों का देश है, और उन्हीं के हिसाब से चलेगा। उन्होंने मुस्लिमों के लिए नफरती गाली-गलौज का इस्तेमाल भी किया है, और हो सकता है कि राज्यसभा में उनके खिलाफ एक महाभियोग आ भी जाए। जब देश में हाईकोर्ट जज की बुनियादी समझ में इतनी खोट घुस गई है, तो सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी को समझना ही होगा।
अब हम इससे बिल्कुल ही अलग एक मुद्दे पर आना चाहते हैं। विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री इन्द्र मीत गिल ने भारतीय उद्योग संगठन सीआईआई के एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक रिपोर्ट पेश की है जिसमें उनका कहना है कि भारत एक तरफ तो 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में खड़े होने का दावा कर रहा है, लेकिन उसकी प्रति व्यक्ति आय इतनी कम है कि उसे अमरीका की आज की अर्थव्यवस्था का एक चौथाई बनने में ही 75 साल लग जाएंगे। उसने कहा है कि भारत में कुशलता और क्षमता की कमजोरी देश को विकसित बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। उन्होंने कहा कि दुनिया में कम आय वाले देशों के लिए आर्थिक प्रगति लगातार चुनौतीपूर्ण होती जा रही है, कारोबार के संरक्षण पर विकसित देशों का रूख कड़ा होता जा रहा है, ब्याज दर ज्यादा है, और प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती चली जा रही है। ऐसे में भारत आज कम-मध्यम आय वाले देशों में बना हुआ है। विश्व बैंक की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में प्रति व्यक्ति आय 37 हजार 683 डॉलर है, जबकि उसी वर्ष भारत में यह आय 2393 डॉलर थी। अगर भारत में बड़े सुधार नहीं किए गए तो अमरीकी आय का एक चौथाई पाने में भी भारत को 75 साल लगेंगे। उन्होंने कहा है कि जिस तरह अमरीका ने 60-70 के दशक में सभी को बराबरी का अवसर दिया, भारत को वैसा ही करना पड़ेगा।
अब हम यह देखकर हैरान होते हैं कि जिन पार्टियों पर देश और इसके प्रदेशों को चलाने की जिम्मेदारी है, उनका, और उनके लोगों का कितना बड़ा ध्यान धार्मिक और पुरातात्विक विवादों को खड़ा करने में लगा हुआ है। देश की 15 फीसदी आबादी को लगातार तनाव, हीनभावना, असुरक्षा, और भड़ास से भरकर रखने से किसी अर्थव्यवस्था का क्या भला हो सकता है? इससे यह जरूर हो सकता है कि जिन नौजवानों के पास रोजगार नहीं है, उन्हें एक झूठे धार्मिक गौरव में डुबा दिया जाए, उन्हें अपना दिन गुजारने के लिए नफरत का ईंधन दे दिया जाए, और उम्मीद की जाए कि वे एक झूठे स्वाभिमान में जीते हुए इतिहास में डूबे रहें, और वर्तमान और भविष्य की चर्चा न करें। लेकिन क्या इससे भारत दुनिया में तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, एक महाशक्ति, और विश्वगुरू बन जाएगा? अपने की तख्ती पर नाम के सामने विश्वगुरू लिखाकर कोई भी व्यक्ति अपने घर के सामने टांग सकते हैं, उस पर कोई कानूनी रोक नहीं है। रजनीश कभी अपने को आचार्य लिखते रहे, फिर भगवान लिखते रहे, और फिर ओशो हो गए। उसी तरह हिन्दुस्तान की आबादी को इस झूठे आत्मगौरव में रखा जा सकता है कि वह विश्वगुरू है। ऐसा करने पर वर्तमान और भविष्य को लेकर उसके मन में सवाल उठ नहीं पाएंगे, और वह महज इतिहास में डूबा रहेगा। जो लोग सडक़ पर किसी भी तरह की गाड़ी चलाते हैं, वे जानते हैं कि पीछे का दिखाने वाले शीशे, बैक व्यू मिरर में देखते हुए आगे का सफर नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल इस मामले में पर अपने फैसले तक देश के जजों पर बैक व्यू मिरर ड्राइविंग पर रोक लगा दी है, जो कि समझदारी का काम है, और देश के संविधान के मुताबिक इसे किया ही जाना चाहिए था। पिछले मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चन्द्रचूड़ को 1991 के कानून के बारे में दो बरस पहले एक टिप्पणी कर दी थी, और उसी को मिसाल मानकर देश भर में नीचे की अदालतों ने यह मान लिया था कि अब उपासना स्थल कानून को मानने की जरूरत नहीं है। हमें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस लोकतंत्र को खुदाईतंत्र में बदलने से रोक सकेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
धरती पर जब भूकम्प आता है तो उसके पीछे धरती के नीचे की टेक्टॉनिक प्लेट खिसकने की वजह रहती है। धरती की ऊपर की सतह बहुत मोटी नहीं रहती, और उसके नीचे ये प्लेट्स किसी पहेली के टुकड़ों की तरह एक-दूसरे पर टिकी रहती हैं, लेकिन वो बीच-बीच में खिसकती भी हैं, और उनकी वजह से भूकम्प आते हैं। ये प्लेट्स अरबों-खरबों बरस से खिसक रही हैं, लेकिन वे जितनी अधिक खिसकती हैं, भूकम्प उतना ही अधिक तगड़ा होता है। कभी-कभी प्लेट्स ऐसी खिसकने की वजह से आए भूकम्प से समंदर में हलचल होती है तो वह सुनामी तक पहुंच सकती है। लेकिन अभी हम भू-गर्भ शास्त्र पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, बल्कि मध्य-पूर्व के देशों में आए भूकम्प पर चर्चा करना चाहते हैं। सीरिया का मामला इतना जटिल है कि उस पर चर्चा शुरू करते समय हमें यह आशंका है कि इसके तमाम पहलुओं को आज इस जगह शायद छू पाना मुमकिन नहीं होगा।
गृहयुद्ध से गुजर रहे सीरिया के घरेलू पहलू भी किसी हीरे की अलग-अलग फलकों की तरह अनगिनत हैं। आधी सदी से वहां एक ही परिवार की तानाशाही चली आ रही थी, और पिछले करीब डेढ़ दशक से वहां हथियारबंद विद्रोह करने वाले कई अलग-अलग समूह अलग-अलग इलाकों में काम कर रहे थे। इसके साथ-साथ पड़ोस के अलग-अलग देश भी सीरिया में या तो वहां की सरकार को बढ़ावा दे रहे थे, या किसी हथियारबंद समूह को। इसके साथ-साथ सीरिया उन इस्लामिक आतंकियों का अड्डा भी बन रहा था जिन्हें 11 सितंबर के बाद से अमरीका मारने पर उतारू था। चूंकि अमरीका सीरिया में आतंकी ठिकानों के नाम पर कई तरह के हवाई हमले कर रहा था, इसलिए रूस सीरिया की सरकार के साथ था। और पड़ोस का ईरान इसलिए सीरिया के साथ था कि इजराइल को परेशान करने के लिए लेबनान में बसे हुए एक और हथियारबंद संगठन हिजबुल्ला को फौजी रसद भेजने के लिए सीरिया जरूरी था। इस तरह सीरिया एक ऐसा मंच बना हुआ था जिस पर कई अलग-अलग देशों के किरदार अपनी-अपनी हरकतें और करतब दिखा रहे थे। ऐसे में वहां के एक सबसे बड़े हथियारबंद विद्रोही संगठन ने पिछले कुछ महीनों में अपनी पकड़ अधिक मजबूत कर ली जब यूक्रेन में जंग छेड़े हुए रूस ने सीरिया से अपनी फौजें वापिस बुला लीं। दूसरी तरफ अमरीका और उसके कई पश्चिमी साथी देश सीरिया की सरकार के खिलाफ फौजी हवाई हमलों को जारी रखे हुए थे। ऐसे में एचटीएस नाम के इस विद्रोही संगठन ने फिलहाल राजधानी दमिश्क से राष्ट्रपति असद को खदेड़ दिया, वे भागकर रूस में शरण ले चुके हैं, और एचटीएस का मुखिया मोहम्मद अल जुलानी आज सीरिया का अघोषित मुखिया बन गया है जिसे असद के प्रधानमंत्री रहे सत्तारूढ़ नेता ने सत्ता का हस्तांतरण कर लिया है। दिलचस्प बात यह है कि अमरीका और उसके साथी देश राष्ट्रपति असद के खिलाफ थे क्योंकि वे ईरान और रूस के दोस्त थे। और अब सीरिया पर काबिज जुलानी के सिर पर अमरीका ने एक करोड़ डॉलर का ईनाम रखा हुआ है, उसका जाने क्या होगा। कुछ लोगों का मानना है कि यह मध्य-पूर्व में अमरीका की दखल की समाप्ति सरीखी है। सीरिया के बगल के इजराइल का मानना है कि सीरिया में आज जो इस्लामिक विद्रोही काबिज हुए उनके हाथ अगर असद की सरकार के हथियार लग जाते हैं, तो वह इजराइल के लिए फौजी खतरा हो सकता है, इसलिए उसने अभी एक हफ्ते में पांच सौ से अधिक हवाई हमले करके सीरिया की नौसेना को खत्म कर दिया, सीरिया के बाकी फौजी ठिकानों के चिथड़े उड़ा दिए।
अब लगे हाथों यह भी समझ लेना जरूरी है कि फिलीस्तीन के गाजा पर मनमाने हमलों से इजराइल ने 45 हजार लोगों को तो मार ही डाला, वहां के हथियारबंद संगठन हमास की भी कमर तोड़ दी है, जिसे ईरान से मदद मिलने की बात कही जाती है। इसके साथ-साथ लेबनान के हथियारबंद संगठन हिजबुल्ला पर हवाई हमलों से इजराइल ने उसकी सारी लीडरशिप खत्म कर दी, और अब इन दोनों के बीच एक युद्धविराम स्थापित हुआ है। इस बीच इजराइल ने ईरान पर बड़े हमले किए, और यह जाहिर है कि ईरान कोई जवाबी कार्रवाई नहीं कर पाया है। कुल मिलाकर पिछले दो-चार हफ्तों के भीतर ही मध्य-पूर्व का शक्ति संतुलन पूरी तरह से इजराइल के पक्ष में हो गया है, और उसके सारे विरोधी बुरी शिकस्त पाकर बैठे हैं। रूस की मौजूदगी यूक्रेन मोर्चे की वजह से इस इलाके से खत्म हो गई है, और ईरान अब तक सीरिया में राष्ट्रपति असद के साथ था, इसलिए रातों-रात इस्लामी विद्रोहियों से उसका भाईचारा होना भी आसान नहीं दिख रहा है। एक दिलचस्प उत्सुकता यह भी हवा में है कि क्या इजराइल सीरिया के आज के शासक बन रहे एचटीएस-विद्रोहियों के साथ संपर्क या संबंध रखकर ईरान के खिलाफ अपनी स्थिति और मजबूत करना चाहेगा? लेकिन ऐसी ही उत्सुकता आसपास के कई देशों के साथ है कि वे सीरिया के साथ अपनी कैसी नीति रखेंगे। और सबसे बड़ी उत्सुकता तो यह है कि खुद सीरिया की नई एचटीएस सरकार की नीतियां क्या होंगी? अफगानिस्तान के तालिबान के महिला विरोधी रूख से परे सीरिया के एचटीएस के विद्रोही नेता अपने आपको उदारवादी दिखा तो रहे हैं, और उन्होंने साफ-साफ कहा है कि महिलाओं के लिए वे किसी तरह की पोशाक लादने नहीं जा रहे हैं, साथ ही यह भी कहा है कि वे देश में हर तबके को साथ लेकर चलेंगे, और उनकी सरकार जनता की प्रतिनिधि सरकार रहेगी। लेकिन लोगों को अभी तालिबान का तजुर्बा भूला नहीं है जिन्होंने तीन बरस पहले अफगानिस्तान में अमरीका के छोडक़र भाग जाने के बाद कई तरह की उदार बातें कही थीं, और वे पहले से भी अधिक कट्टर सरकार चला रहे हैं। आने वाला वक्त यह भी बताएगा कि तालिबान सीरिया के एचटीएस को कुछ सिखाएगा, या उससे कुछ सीखेगा।
देश-विदेश की नीतियों से परे एक बड़ा मुद्दा सीरिया में यह है कि वहां पिछले बरसों के गृह युद्ध के चलते करीब सवा करोड़ लोग बेदखल हुए हैं जो कि देश के दूसरे हिस्सों में, पड़ोसी देशों में, और दूर-दूर के देशों में पड़े हैं। नब्बे फीसदी से अधिक सीरियाई लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं। पूरा देश भारी बेरोजगारी, महंगाई, और आर्थिक संकट से जूझ रहा है। सडक़, पुल, स्कूल, अस्पताल तबाह हो चुके हैं। स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत खराब हालत में और बंद सरीखी हैं। सीरिया दुनिया के दस सबसे भुखमरी से शिकार देशों में से एक है। देश में महिलाओं और ट्रांसजेंडरों पर अनगिनत हमले होते हैं, और बच्चों के जुल्म के मामले में सीरिया सबसे भयानक देशों में से एक है। और ऐसी हालत में इस देश की लीडरशिप कल तक के ऐसे विद्रोहियों के हाथ में है जिन्हें सरकार का कोई तर्जुबा नहीं है। साथ-साथ ऐसी नई सरकार के प्रति संयुक्त राष्ट्र और बाकी अंतरराष्ट्रीय संगठनों का रूख इसकी अपनी नीतियों से तय होगा, और तब तक इसके हाथ में जिंदा रहने लायक भी कुछ नहीं है। अफगानिस्तान में तालिबान की नीतियों की वजह से अंतरराष्ट्रीय रूख सबका देखा हुआ है।
मध्य-पूर्व की धरती के नीचे तो नहीं, धरती के ऊपर ही टेक्टॉनिक प्लेट्स इस रफ्तार से खिसकी हैं, और खिसकना जारी है कि अभी किसी को समझ नहीं पड़ रहा है कि सीरिया किन देशों से कैसे रिश्ते रखेगा, और कौन से देश सीरिया से कैसे रिश्ते रखेंगे। इसके साथ-साथ यह भी साफ नहीं है कि सीरिया के भीतर पड़ोस के अलग-अलग देशों के समर्थन से चलने वाले अलग-अलग विद्रोही समूहों का अब क्या होगा? इस भूकम्प के थम जाने के बाद समझ आएगा कि मध्य-पूर्व को लेकर रूस, अमरीका, और इस इलाके के देशों में से कौन कहां खड़े हैं।
विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकीलों का एक कार्यक्रम अदालत के परिसर में ही हुआ, और उसमें हाईकोर्ट के दो मौजूदा जज भी शामिल हुए। एक जज तो सिर्फ कार्यक्रम का उद्घाटन करके चुप रह गए, उन्होंने कुछ कहा नहीं, लेकिन जस्टिस शेखर यादव ने वहां भारत में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बारे में जो कहा, उसके बारे में उन्होंने खुद ही यह भी कहा कि मीडिया को इसमें से जो छापना रहे छाप ले, और अब उनके भाषण के वीडियो सार्वजनिक होने के बाद सुप्रीम कोर्ट तक सनसनी फैली हुई है। एक संगठन, द कैम्पेन फॉर ज्युडिशियल अकाऊंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को चिट्ठी लिखकर एक हाईकोर्ट जज के भयानक बयान की जांच करने कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रेसनोट में यह कहा है कि उसने जस्टिस शेखर यादव के भाषण का संज्ञान लिया है, और इस पर जानकारी मांगी है।
इस पर आगे चर्चा के पहले यह जान लेना जरूरी है कि जस्टिस शेखर यादव ने आखिर कहा क्या है। उन्होंने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) पर कहा कि हिन्दुस्तान में रहने वाले बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा। एक से ज्यादा पत्नी रखने, तीन तलाक, और हलाला के लिए कोई बहाना नहीं है, और अब ये प्रथाएं नहीं चलेंगीं। उन्होंने कहा कि भारत में जिस नारी को हमारे यहां देवी का दर्जा दिया जाता है, उसके बारे में आप नहीं कह सकते कि आपके यहां चार पत्नियां रखने का अधिकार है, आपके हलाला का अधिकार है, ये सब नहीं चलने वाला है। उन्होंने कहा कि उन्हें यह कहने में जरा भी झिझक नहीं है कि ये हिन्दुस्तान है, और यहां के बहुसंख्यकों के अनुसार ही देश चलेगा, यही कानून है। कानून तो बहुसंख्यक से ही चलता है, परिवार में भी देखिए, समाज में भी देखिए, जहां पर अधिक लोग होते हैं, जो कहते हैं उसी को माना जाता है। उन्होंने कहा कि कठमुल्ले देश के लिए घातक हैं। उन्होंने कहा कि यह शब्द गलत है लेकिन उन्हें यह कहने में कोई गुरेज नहीं हैं, क्योंकि वो देश के लिए घातक हैं, जनता को बहकाने वाले लोग हैं, देश आगे न बढ़े इस प्रकार के लोग हैं, उनसे सावधान रहने की जरूरत है।
देश के बहुत से लोगों ने हाईकोर्ट के एक मौजूदा जज के ऐसे बयान पर गंभीर आपत्ति की है, और उन्हें बर्खास्त करने की मांग की है। अलग-अलग बहुत सी पार्टियों के लोगों ने जस्टिस शेखर यादव के विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम में जाने, और वहां भाषण देने को न्यायपालिका की संवैधानिक निष्पक्षता के खिलाफ करार दिया है। एक प्रमुख मुस्लिम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने 1997 के एक कानून, न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनस्र्थापन, का हवाला देते हुए कहा है कि उसके मुताबिक कोई जज ऐसी सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं होगा जो अदालत में लंबित मामलों पर है, या जिनके अदालत में आने की संभावना है। कुछ लोगों ने याद दिलाया है कि जस्टिस शेखर यादव इसके पहले भी धर्मान्धता की बातें अदालत में कह चुके हैं, उन्होंने एक मामले में कहा था कि गाय की सुरक्षा को हिन्दू समाज का मूलभूत अधिकार बना देना चाहिए, और गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि गाय एकमात्र पशु है जो ऑक्सीजन छोड़ती है।
इस देश में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में हमेशा ही धार्मिक मामलों को लेकर कोई न कोई केस चलते ही रहते हंै। ऐसे में जाहिर तौर पर साम्प्रदायिक बात करने वाली विश्व हिन्दू परिषद के कार्यक्रम का हाईकोर्ट परिसर में होना भी भयानक है, और जजों का उसमें जाना भी। फिर इससे भी भयानक यह है कि एक जज ने उसमें घोर साम्प्रदायिकता की बातें कहीं, और मुस्लिमों के लिए नफरत की जुबान का इस्तेमाल किया। सीजेएआर ने मुख्य न्यायाधीश को लिखी चिट्ठी में इस जज के बारे में जो लिखा है वह गौर करने लायक है कि इनका भाषण संविधान की धारा 14, 21, 25, और 26 के खिलाफ है, और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत को खत्म करता है। इससे जनता के बीच न्यायपालिका की निष्पक्षता की छवि खत्म होती है। और यह भाषण एक जज की संविधान की शपथ के भी ठीक खिलाफ है। इस चिट्ठी में लिखा गया है कि जस्टिस यादव ने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अक्षम्य भाषा का इस्तेमाल किया है, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज की कुर्सी को शर्मिंदा किया है। इस जज ने मुस्लिम समुदाय के बच्चों के बारे में खतरनाक और खराब टिप्पणी की है। इस संगठन ने लिखा है कि इससे उनके जज बनने की काबिलीयत पर गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं, खासकर एक संवैधानिक कोर्ट (हाईकोर्ट का जज बनने के लिए) मुख्य न्यायाधीश से मांग की गई है कि जब तक इस मामले की जांच न हो जाए, तब तक जस्टिस यादव को सभी मामलों की सुनवाई से अलग कर दिया जाए।
चूंकि अदालती कामकाज से जुड़े हुए एक प्रमुख संगठन ने ही इन मुद्दों को उठाया है, इसलिए हमें इनसे सहमत होते हुए इन्हें दुहराने की जरूरत नहीं है। देश में आज बहुत से जज अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग फैसलों में, या सुनवाई के दौरान जुबानी जमा-खर्च में ऐसी साम्प्रदायिक बातें करते हैं। दिक्कत यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी हाईकोर्ट जज की साम्प्रदायिकता के खिलाफ कार्रवाई की कोई मिसाल पेश नहीं की है। अगर हाईकोर्ट के किसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलटा भी है, तो भी किसी जज के खिलाफ कार्रवाई की कोई सिफारिश याद नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जज को हटाना एक नामुमकिन सा काम है क्योंकि उसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई के बहुमत से एक प्रस्ताव पारित करना होगा, और फिर संसद राष्ट्रपति से ऐसे जज को हटाने का अनुरोध करेगा। अब सवाल यह उठता है कि जब लोकसभा में सत्तारूढ़ भाजपा का सांसद बसपा के एक मुस्लिम विधायक को साम्प्रदायिक गालियां देता है, आतंकवादी और दलाल कहता है, और उस पर उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता वहीं बैठे हँसते रहते हैं, तो फिर ऐसी संसद में एक साम्प्रदायिक जज के खिलाफ महाभियोग की क्या गुंजाइश रह जाती है? लोकसभा के इस भाषण पर कश्मीर के उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि भारत में मुसलमानों के खिलाफ नफरत आज इस तरह मुख्यधारा में आ गई है जैसी पहले कभी नहीं थी। उन्होंने लिखा कि इस सांसद की जुबान से एक मुस्लिम सांसद के खिलाफ किस आसानी से गालियां निकल रही हैं।
हमारी नजर में यह मामला बिल्कुल साफ है। अगर इस देश में लोकतंत्र है, और सुप्रीम कोर्ट को अपने आपको अदालत मानने की जरूरत है, तो जस्टिस यादव को तुरंत ही बर्खास्त किया जाना चाहिए। इसकी महाभियोग से परे क्या तरकीब हो सकती है? और अगर बर्खास्तगी मुमकिन न हो, तो क्या सुप्रीम कोर्ट किसी जज को सारे काम से अलग कर सकता है? इस बारे में सोचना चाहिए। फिलहाल देश के जनसंगठन इस मुद्दे को लेकर संसद से भी खुली अपील कर सकते हैं, और अदालत में भी एक जनहित याचिका लगा सकते हैं। इस तरह के बढ़ते हुए मामले एक असाधारण कार्रवाई की जरूरत बताते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस बात हैरानी और फिक्र जाहिर की है कि केन्द्र सरकार की तरफ से देश की 81 करोड़ जनता को मुफ्त राशन कब तक दिया जाता रहेगा? अदालत कोरोना-लॉकडाउन के दौर में प्रवासी मजदूरों की हालत को लेकर खुद ही शुरू किए गए एक मामले की सुनवाई के दौरान देश के एक प्रमुख और चर्चित वकील प्रशांत भूषण के तर्क सुन रही थी, और जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस मनमोहन ने यह सवाल उठाते हुए कहा कि मुफ्त कब तक दिया जा सकता है? इन प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार की संभावनाएं, नौकरियां, और उनकी क्षमता बढ़ाने का काम क्यों नहीं किया जाता। अदालत ने कहा कि 81 करोड़ को मुफ्त राशन का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ करदाताओं को छोड़ दिया गया है, और उनके टैक्स के पैसों से यह किया जा रहा है। एक एनजीओ की तरफ से खड़े हुए प्रशांत भूषण ने इसे जारी रखने की वकालत की, और कहा कि प्रवासी मजदूरों को ई-श्रम पोर्टल पर दर्ज होने के बाद वे जहां रहें वहां राशन मिलना चाहिए। केन्द्र सरकार के वकील और प्रशांत भूषण के बीच इसे लेकर नोंकझोंक होती रही, और केन्द्र के वकील ने कहा कि प्रशांत भूषण सरकार की छवि खराब करने में लगे हैं।
हम इस अदालती मामले को लेकर और अधिक चर्चा करना नहीं चाहते, लेकिन दो और खबरों को इससे जोडक़र एक तस्वीर बताना चाहते हैं। आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने इसी पखवाड़े यह कहा है कि जोड़ों को कम से कम तीन बच्चे पैदा करना चाहिए क्योंकि अभी जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 से नीचे जा रही है, और इस दर पर आबादी घटती चली जाती है। आज की जनसंख्या नीति 25 बरस पहले की है, लेकिन अब समाज को जीवित रखने के लिए तीन बच्चे पैदा करने की जरूरत है। एक दूसरी खबर एक लेख की शक्ल में सामने आई है जो पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मुखिया पूनम मटरेजा ने लिखा है। उन्होंने इस सोच को ही गलत बताया कि 2.1 प्रतिशत से कम प्रजनन वाले समाज धरती से गायब हो सकता है। दरअसल भागवत की बात भारत में मुस्लिमों की हिन्दुओं से अधिक जनसंख्या वृद्धि दर होने से उपजी हुई है, और अक्सर ही हिन्दुत्ववादी ऐसे आंकड़े गिनाते हैं कि कितने दशकों या सदियों में मुस्लिम आबादी हिन्दू आबादी से अधिक हो जाएगी। पूनम मटरेजा ने लिखा है कि 2060 के दशक तक भारत की आबादी 170 करोड़ तक पहुंच सकती है, और फिर धीरे-धीरे सदी के अंत तक वह 150 करोड़ तक आ जाएगी। वे पहले भी इस बात को लिख चुकी हैं कि मुस्लिम आबादी बढऩे की ऐसी आशंका बेबुनियाद है कि वह कभी हिन्दू आबादी को पार कर लेगी।
अब हम भागवत के हिन्दू-मुस्लिम आबादी के अनुपात को छोडक़र अगर सुप्रीम कोर्ट की फिक्र की तरफ लौटें, तो यह बात साफ है कि देश में अगर 81 करोड़ लोगों को सरकार की तरफ से राशन मिलने पर ही वे भरपेट खा पा रहे हैं, तो फिर इन 81 करोड़ लोगों की अपनी क्षमता क्या है? क्या आजादी की पौन सदी गुजरने पर भी केन्द्र और राज्य की सरकारें मिलकर भी आबादी को अपना खाना जुटाने लायक नहीं बना पा रही हैं? लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले आंध्र के मुख्यमंत्री एन.चन्द्राबाबू नायडू ने प्रदेश के लोगों से अपील की थी कि वे दो से अधिक बच्चे पैदा करें क्योंकि राज्य में आबादी बुजुर्ग होती जा रही है, और गांव के गांव जवान लोगों से खाली होते जा रहे हैं। उनका तर्क यह है कि तेलुगु लोग पढ़-लिखकर देश-विदेश में काम के लिए बाहर चले जाते हैं, और राज्य में जवान आबादी नहीं रह जा रही है। अब अगर पूरा देश आंध्र की तरह का हो जाए, तो 81 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन नहीं देना पड़ेगा, और भागवत के मुताबिक अगर तीन-तीन बच्चे भी पैदा किए जाएंगे, तो भी वे देश पर बोझ नहीं रहेंगे। अगर आंध्र-तेलंगाना के औसत कामगार को देखें जो कि पूरी दुनिया में जाकर काम कर रहे हैं, तो वे देश के लिए कमाऊ हैं, देश पर बोझ नहीं हैं। दूसरी तरफ देश की औसत कमाई को ही गरीबों की भी कमाई मान लेना नाजायज बात है। अडानी-अंबानी की कमाई को जोडक़र औसत कमाई निकालना मूढ़ अर्थशास्त्रियों के पैमाने हैं, सामाजिक और जमीनी हकीकत यह है कि देश की नीचे की आधी गरीब आबादी की हालत खराब है, वह एक बच्चे का बोझ भी नहीं उठा पा रही है, और यह आबादी अगर भागवत या तोगडिय़ा जैसे लोगों की बात सुनकर तीसरा बच्चा पैदा करने लगेंगी, तो वही एक कटोरी दूध दो के बजाय तीन बच्चों में बंटने लगेगा, और देश में कुपोषण बढ़ते चले जाएगा। बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाएगा, उनका इलाज नहीं हो पाएगा, और इंसानी सहूलियतें उनकी पहुंच से दूर रहेंगी। दो बच्चों को काबिल बनाना, उन्हेें सेहतमंद रखना किसी भी धर्म, जाति, या समाज के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, बेहतर है, बजाय तीन-चार बच्चे पैदा करके उन्हें भूखे मारना।
अब इस पूरी बहस में हम इसके सबसे बड़े पहलू पर आते हैं। जिस भारतीय महिला के लिए देश के मर्द तय कर रहे हैं कि उसे दो के बजाय तीन बच्चे पैदा करना चाहिए, वह तो पति और दो बच्चों को खाना खिलाते हुए भी कई बार भूखी सोती है, वह खुद लगातार खून की कमी का शिकार रहती है, और किसी तरह बंधुआ मजदूर की जिंदगी जीते हुए बच्चों, पति, और पति के परिवार को ढोती है। तीसरे बच्चे का मतलब यह होगा कि वह दूर-दूर तक जाकर जो पानी ढोकर लाती है, उसे एक और सदस्य के लिए पानी लाना पड़ेगा, एक और को खिलाने के बाद अगर कुछ बचेगा तो खाना नसीब होगा। और तीसरे बच्चे को पैदा करते हुए उसके गरीब, कमजोर, और जर्जर बदन का क्या हाल होगा इसे पूछे बिना अपने-अपने धर्म के लोगों की गिनती बढ़ाने पर आमादा नेता आबादी बढ़ाने के फतवे देते हैं। सबसे पहले हिन्दुस्तान को अपने नागरिकों को काम देने, रोजगार से लगाने, और उन्हें उत्पादक बनाने की क्षमता विकसित करनी होगी, इसके बाद ही किसी को बच्चे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। 140 में से 81 करोड़ आबादी जहां मुफ्त सरकारी राशन की वजह से जिंदा है, वहां भूखों की भीड़ बढ़ाने के फतवे गैरजिम्मेदारी की बात हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के लोग दे रहे हों। इस देश में सबसे कम लोग पारसी धर्म के हैं, लेकिन सबसे अधिक संपन्नता और आर्थिक ताकत उसी समाज के हाथ है। आबादी बढ़ाने के बजाय क्षमता बढ़ाने की सोचें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चारों तरफ साइबर-फ्रॉड की खबरें चल रही हैं, और इस बीच एक मामला ऐसा आया जिसमें एक रिटायर्ड कर्मचारी से उसकी पत्नी और पत्नी के भाई ने ही 80 लाख रूपए ठग लिए। एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह एक नौजवान ने अपने रिश्तेदार के नवजात बच्चे की किडनी खराब होने की झूठी मेडिकल रिपोर्ट बनवाकर दिखा दी, और उसके बाद डेढ़ लाख रूपए का बताकर हर महीने एक-एक इंजेक्शन लगवाने के नाम पर ठगी की, और मोबाइल पर फर्जी मैसेज भेजकर एक करोड़ 80 लाख रूपए झटक लिए। अब राजस्थान पुलिस ने छत्तीसगढ़ आकर इस नौजवान को गिरफ्तार किया है। बहुत सारे मामलों में लोग परिवार के भीतर सेक्स-क्राईम करते हैं, कत्ल कर देते हैं, और बाकी तमाम किस्म के जुर्म भी करते हैं।
लोगों के बीच यह आम सोच रहती है कि खून का रिश्ता, या पारिवारिक रिश्ता ही सबसे मजबूत होता है। हमने घरों के भीतर ही इतने किस्म की साजिशें देखी हैं, और इतने किस्म के जुर्म देखे हैं कि लगता है कि दुश्मन पाने के लिए घर के बाहर जाने की जरूरत भी नहीं है। फिर एक बात यह भी रहती है कि घर के भीतर, जहां धोखे का खतरा बड़ा कम लगता है, वहां पर जब धोखा होता है, तो लोग उसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं रहते हैं। हर कुछ हफ्तों में कोई न कोई ऐसा मामला आता है जिसमें पति, पत्नी, और प्रेमी या प्रेमिका के बीच के प्रेम-त्रिकोण में से कोई दो कोने तीसरे कोने का कत्ल करते हैं। और लोग इसकी जरा भी उम्मीद नहीं रखते, कोई आशंका नहीं रहती, इसलिए उन्हें निपटाना बड़ा आसान भी रहता है। निजी पारिवारिक संबंधों से परे भरोसे के कारोबारी रिश्तों में भी लोग इतना गहरा धोखा देते हैं कि भागीदार को सडक़ पर ला देते हैं।
अब चारों तरफ से जब ऐसी खबरें आती हैं, उसके बाद भी अगर लोगों का भरोसा खून के रिश्तों पर अधिक रहता है, या निजी प्रेमसंबंध, या निजी दोस्ती पर अधिक रहता है, तो क्या कहा जा सकता है। हर किसी को अपने आसपास हर किस्म के रिश्ते में धोखाधड़ी दिखाई देती है, बस लोग यह मानकर चलते हैं कि उनके आसपास के लोग कभी ऐसा नहीं करेंगे। लोगों को अपने खुद के मन की ऐसी गारंटी पर कुछ काबू पाना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि उनके आज के करीबी लोग भी वैसे ही हाड़-मांस के इंसान हैं जैसे इंसान दूसरों को धोखा देने वाले भी रहते हैं। अगर लोग धोखा खाने के खतरे की तरफ से थोड़ी सी सावधानी बरतेंगे, तो हो सकता है कि असीमित विश्वास न रहने से धोखा देने की नीयत रखने वाले को भी पीठ में छुरा उतना गहरा भोंकने का मौका न मिले। थोड़ी सी सावधानी हर किस्म के रिश्ते में जरूरी रहती है, इसे हम अविश्वास नहीं कहेंगे, महज सावधानी कहेंगे।
जिस तरह कुछ लोग धर्म के मामले में, आध्यात्म या गुरू के मामले में, जादू-टोने, पूजा-पाठ, या तांत्रिक क्रिया के मामले में अंधविश्वासी रहते हैं, और उनका अंधविश्वास उनकी तर्कशक्ति, और उनकी न्यायशक्ति दोनों को खत्म कर देता है। नतीजा यह होता है कि वे धोखा देने वाले बाबाओं या तांत्रिकों को भी इतना अतिआत्मविश्वासी बना देते हैं कि उनका अंत जेल पहुंचकर होता है। अंधविश्वास सिर्फ भक्त के लिए घातक नहीं होता, वह आगे चलकर गुरू को भी डुबाकर छोड़ता है। इसलिए अंधविश्वास न तो ऊपर की लाईनों में लिखे गए लोगों पर होना चाहिए, न ही परिवार के भीतर। हर किस्म के रिश्ते में एक प्राकृतिक सावधानी बरतना जरूरी रहता है, ताकि किसी के दिमाग में धोखा देना आसान काम न लगे, और न कोई अपने आपको धोखा पाने के लिए आसान निशाना बनाकर पेश करे।
यह बात लोगों को अटपटी लगेगी क्योंकि लोग बहुत करीबी रिश्तों में अंधविश्वास को एक स्वाभाविक बात मानते हैं। लेकिन सच तो यह है कि दुनिया में दूसरे लोगों को लगी ठोकरों से बाकी लोगों को भी समझना चाहिए। दूसरों के तजुर्बों से अगर बाकी लोग सावधानी बरतना सीखें, तो यह उनके आसपास के लोगों के लिए भी भली बात होगी। लोगों को अपने बहुत ही मजबूत रिश्तों में बंधे हुए परिवार के लिए भी साफ-साफ वसीयत करके जाना चाहिए, और यह वसीयत जाते-जाते नहीं हो सकती, क्योंकि भला किसको पता रहता है कि उन्हें कब रवाना होना है। आजकल तो किसी भी उम्र के लोग सडक़ हादसों में, या खेल के मैदान में जवान मौत मरते दिखते हैं। इसलिए वसीयत को बुढ़ापे से जोडक़र नहीं देखना चाहिए, वसीयत को संपत्ति से जोडक़र देखना चाहिए कि जैसे ही कोई संपत्ति जुड़े, उसके लिए वसीयत तय कर दी जाए। फिर चाहे वह वसीयत अपनी जिंदगी खत्म होने के बाद लागू होने वाली हो। जिस तरह हमने सुझाया है कि अंधविश्वास से बचना अपने गुरू को भी खतरे से बचाना होता है, उसी तरह परिवार के भीतर वसीयत परिवार के लोगों के बीच मुकदमेबाजी के खतरे को भी खत्म करती है। एक वक्त ऐसा रहता है जब परिवार के भीतर सबको एक-दूसरे से खूब प्रेम रहता है, लेकिन जब भाईयों के बीच दीवार उठती है, तो जरूरत से खासी अधिक ऊंची उठती है। जिन लोगों में किसी वक्त इतना प्रेम रहता है कि एक खाए दूसरे का पेट भरने लगे, उनके बीच किसी तरह गोलीबारी होती है, इसे उत्तर भारत के सबसे बड़े शराब कारोबारी पोंटी चड्ढा के परिवार में देखा गया था जिसमें दसियों हजार करोड़ की दौलत रहते हुए भी दो सगे भाईयों के बीच ऐसी गोलीबारी हुई कि उन दोनों के साथ-साथ कई और लोग भी मारे गए। पैसा कुछ न बचा पाया, और घर के भीतर इतना खून-खराबा हो गया। दौलत और कमाई इतनी थी कि अगली सैकड़ों पीढिय़ों तक कुछ और कमाने की जरूरत नहीं थी, लेकिन मौजूदा पीढ़ी ही उसे भोग नहीं पाई, और आपसी गोलियों ने उन्हें खत्म कर दिया।
हमारी आज की बात कुछ लोगों को पढऩे में खराब लग सकती है, लेकिन हम जिंदगी की कड़वी हकीकत को अनदेखा करना नहीं चाहते, और लोगों को भी अपने रिश्ते अधिक अच्छे बनाने के लिए, बनाए रखने के लिए सावधानी बरतनी चाहिए, और अंधविश्वास से बचना चाहिए। दुनिया के तजुर्बे, और अपनी तर्कशक्ति पर टिके हुए रिश्ते अधिक मजबूत और महफूज होंगे।
जाते हुए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने गंभीर मामलों में गुनहगार पाए गए, और सजा सुनने का इंतजार कर रहे अपने बेटे हंटर बाइडन को सारे मामलों में जिस तरह से राष्ट्रपति के विशेषाधिकार से माफी दे दी है, उससे अमरीकी राष्ट्रपति की कुर्सी देश के भीतर भी एक बड़ी नैतिक शर्मिंदगी से घिर गई है। इसके पहले पिछले ही राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने अपने दामाद को सभी तरह की माफी दे दी थी, और कुछ अरसा पहले नैतिकता के बड़े दावे करने वाले बाइडन ने भी वही काम किया है। अमरीका देश के बाहर तो दुनिया का सबसे अलोकतांत्रिक देश है, लेकिन राष्ट्रपति के ऐसे विशेषाधिकार और उनके ऐसे बेशर्म इस्तेमाल से अब अमरीकी राष्ट्रपति की कुर्सी देश के भीतर भी बड़ी अलोकतांत्रिक साबित हो रही है। अब एक बड़े अमरीकी अखबार की रिपोर्ट है कि जो बाइडन अपने आखिरी छह हफ्तों में अपने समर्थकों और अपनी सरकार का हिस्सा रहे ऐसे लोगों की लिस्ट बना रहे हैं जिन पर अगले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प बदले की कार्रवाई कर सकते हैं। इनमें ऐसे लोग भी हैं जिन पर अभी कोई जुर्म के मामले नहीं चल रहे, जिन्हें कोई सजा नहीं हुई है, लेकिन जिन पर आगे कोई मुकदमे चलाए जा सकते हैं, ऐसे लोगों को भी जो बाइडन आशंका के तहत जुर्म के पहले माफी दे सकते हैं। यह बड़ी ही अजीब बात है, और भारतीय संदर्भ में न तो हम शासन प्रमुख के ऐसे अधिकारों की कल्पना कर सकते, न ही जुर्म सामने आने के पहले महज उसकी आशंका या अटकल से उसकी माफी की सोच सकते। अमरीका में जो भी आंतरिक लोकतंत्र हो, उसके भीतर यह तानाशाही से भी बढक़र माफी का विशेषाधिकार अमरीकी राष्ट्रपति के पास है, और पता नहीं उस देश की जनता की स्वतंत्रता की धारणा के साथ यह विशेषाधिकार किस तरह एक ही संविधान के तहत चल सकता है?
खबरें बताती हैं कि 1977 में उस वक्त के अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भी मुकदमों के पहले ही एक तबके को सामूहिक माफी दी थी। उन्होंने वियतनाम युद्ध में गए अमरीकी सैनिकों पर लगे आरोपों को लेकर उन भूतपूर्व सैनिकों को अपराध पूर्व सामूहिक आम माफी दी थी। अब अगर जो बाइडन अपनी सरकार और पार्टी के लोगों को आशंका-आधारित आम माफी देते हैं, तो क्या खुद अमरीका के भीतर इसके खिलाफ कोई जागरूकता नहीं बची है? बाइडन की डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी के मुकाबले अधिक लोकतांत्रिक मानी जाती है। लेकिन महज आशंका से ऐसी आम माफी तो उसकी लोकतांत्रिक छवि को पूरी तरह खत्म कर देगी। ऐसी भी चर्चा है कि खुद उनकी पार्टी के बहुत से लोग ऐसी कार्रवाई के खिलाफ हैं। यह बड़ी अजीब बात रहेगी कि अब तक जिन लोगों पर कोई तोहमत भी नहीं लगी है, उन्हें ऐसी एडवांस माफी दी जाए कि अगर कभी उन पर कोई मुकदमा चले, और अगर उन्हें सजा हो, तो यह एडवांस माफी उन्हें बचा ले, या शायद इसके चलते उनके खिलाफ कोई मुकदमे भी दर्ज न हो सकें। तो क्या कोई अमरीकी राष्ट्रपति वहां के किसी भी नागरिक को, या दूसरे देश के अमरीका में बसे नागरिक को ऐसी एडवांस-माफी दे सकता है जो उस देश के कानून को इन लोगों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने से रोक दे? इस लिस्ट में ऐसे लोगों के नामों की अटकल लगाई जा रही है जिन्होंने डोनल्ड ट्रम्प के कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद उनके खिलाफ, या उनके समर्थकों के खिलाफ कोई जांच की थी, अमरीकी संसद पर हुए हमले की जांच की थी, या कोरोना के उनके फैसलों को लेकर उन पर ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में किसी कार्रवाई की आशंका है। ट्रम्प इस बात को कई बार बोल चुके हैं, और उनके मनोनीत एफबीआई के अगले संभावित डायरेक्टर (भारतवंशी) कश पटेल भी 2020 के चुनावों को लेकर कब्रें खोदने की बात कहते आए हैं। ऐसे में जिन लोगों पर ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में खतरा दिख रहा है, उन्हें बचाने के लिए जो बाइडन इस तरह की एडवांस आम माफी की बात सोच रहे हैं।
हम अमरीकी राजनीति और संवैधानिक व्यवस्थाओं को लेकर आमतौर पर यह मानते हैं कि वहां दुश्मनी निकालने की गुंजाइश कुछ कम है, और सरकार से असहमत रहने पर भी लोग वहां महफूज रह सकते हैं। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि अगर शासन-प्रमुख ट्रम्प सरीखा हो, तो वह ठीक उसी तरह राजनीतिक बदला निकाल सकता है जिस तरह भारत-पाकिस्तान, बांग्लादेश, या इस तरह के कई और देशों में आमतौर पर निकाला जाता है। अमरीकी लोकतंत्र में इस तरह की बदले की कार्रवाई, और इस तरह की एडवांस माफी, दोनों ही वहां के लोकतंत्र की कुछ बुनियादी कमियों और खामियों के सुबूत हैं। इस देश को कुछ बेहतर लोकतांत्रिक परंपराओं से सीखना चाहिए। इस बात की जरूरत आज इसलिए भी लग रही है कि निर्वाचित राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने अपनी अगली सरकार के लिए जिस तरह के मंत्री और सहयोगी घोषित किए हैं, वे बदले की अपनी भावना के लिए अधिक जाने जा रहे हैं, और उनके बेसब्र उत्साह को लेकर भी अमरीका में तरह-तरह की आशंकाएं हैं। यह भी लगता है कि अमरीका में एक बार किसी के राष्ट्रपति उम्मीदवार मनोनीत हो जाने के बाद से लेकर उसकी जीत जाने, और उसका कार्यकाल खत्म हो जाने तक पार्टी का कोई दखल नहीं रह जाता है। अमरीकी राष्ट्रपति के इस पूरे चुनाव में, और अब ट्रम्प द्वारा लोगों को छांटने के मनमानी फैसलों में पार्टी कहीं नहीं रह गई है। हमें नेता और पार्टी के जटिल संबंधों की अधिक समझ नहीं है, लेकिन अमरीका में ऐसा लगता है कि उम्मीदवार तय होने के बाद से पार्टी घर बैठती है, और उम्मीदवार अपने मिजाज के मुताबिक मनमानी से लेकर तानाशाही तक, जहां तक चाहे पहुंच सकता है। जानकार या जिज्ञासु लोगों को इस बारे में भी सोचना चाहिए, और दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों के साथ इसकी तुलना करके देखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राज्यसभा में कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी को आबंटित सीट के नीचे पांच सौ रूपए के नोटों का एक बंडल सुरक्षा जांच के दौरान मिला। और इसे लेकर वहां ऐसा हंगामा हुआ मानो किसी नशीले सामान, या प्रतिबंधित हथियार की बरामदगी हो गई हो। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने इसकी जांच के आदेश दिए हैं। सदन के भीतर हर दिन सुरक्षा जांच होती है, और जाहिर है कि यह गड्डी वहां बहुत पुरानी नहीं हो सकती। और पिछले दिन अभिषेक मनु सिंघवी ने समय देखकर बताया है कि वे सदन में कुल तीन मिनट थे, और जेब में कुल पांच सौ रूपए लेकर आए थे। उन्हें भी इस गड्डी को लेकर हैरानी है, और ऐसी घटना हो जाने पर उन्होंने कहा है कि क्या सदस्यों की सीट के नीचे कोई कुछ डाल न सके इसलिए ताला-चाबी जैसा कोई इंतजाम करना चाहिए? सिंघवी की कांग्रेस पार्टी के साथ सत्तारूढ़ एनडीए का बड़ा टकराव चल रहा है, और इस मामले को भी एक बहुत बड़ी घटना बताते हुए भाजपा सांसदों ने कई तरह के बयान दिए हैं, और शक जाहिर किए हैं। और अभी संसद के दोनों सदनों में जिस तरह से विपक्ष सरकार पर हमले कर रहा है, उसमें विपक्ष को चुप करने या घेरने का अगर किसी का मकसद हो सकता है, तो वह मकसद भी कम से कम घंटे दो घंटे के लिए तो पांच सौ के नोटों की एक गड्डी के पचास हजार रूपयों ने पूरा करवा दिया है।
अब इस मामले को तथ्यों के आधार पर देखें, तो अभी सदन में कोई मत विभाजन भी नहीं हो रहा था कि कोई सांसद खरीदने के लिए वहां नोट लेकर आए। दूसरी बात यह कि सदन और सांसदों को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है कि देश में आज पचास हजार रूपए में पंच और पार्षद भी नहीं बिकते, सांसद तो क्या बिकेंगे? तीसरी बात यह कि सिंघवी की पार्टी को या सिंघवी को आज किसी को राज्यसभा के भीतर कोई भुगतान करना हो, ऐसा भी नहीं लगता। यह भी नहीं लगता कि इन्हें सदन के बाहर किसी राज्यसभा सदस्य को भुगतान करना हो। फिर पचास हजार रूपए की रकम इतनी बड़ी भी नहीं है कि सिंघवी की सीट के नीचे से उसकी बरामदगी सिंघवी पर काली कमाई की तोहमत लगा सके। वे सुप्रीम कोर्ट के एक सबसे काबिल और व्यस्त वकील हैं, और उनके एक बार खड़े होने की फीस ही लाखों रूपए है। इसलिए पचास हजार रूपए की बरामदगी कुछ साबित नहीं करती। यह रकम इतनी बड़ी भी नहीं है कि इसे काला धन मानकर इंकम टैक्स या ईडी किसी की जांच की बारी आए। यह भी मुमकिन नहीं लगता कि सिंघवी किसी मुवक्किल से राज्यसभा में राह चलते पचास हजार रूपए की फीस नगद लेंगे, और फिर उस बंडल को सीट के नीचे छोडक़र जाएंगे। यह बात यहां तक तो समझ आती है कि राज्यसभा के सभापति सदन को इस बारे में सूचित करें और इसकी जांच करवाएं, लेकिन ज्यादा बड़ा सवाल तो राज्यसभा की सुरक्षा व्यवस्था का है कि क्या किसी ने राज्यसभा का समय बर्बाद करने के लिए, असल मुद्दों से ध्यान बंटाने के लिए ऐसा कुछ किया? राज्यसभा में चप्पे-चप्पे पर कैमरों से निगरानी रहती है, और सुरक्षा व्यवस्था के लिए सभापति ही जिम्मेदार और जवाबदेह हैं। इसकी जांच में जाहिर तौर पर तमाम किस्म की रिकॉर्डिंग देखी जानी चाहिए कि सिंघवी की सीट के नीचे पचास हजार रूपए का यह बवाल कहां से आया, किससे गिरा, या किसने वहां प्लांट किया।
दिक्कत यह है कि भारतीय संसदीय राजनीति में सडक़ से संसद तक सत्ता और विपक्ष के खेमों के बीच अविश्वास, हिकारत, और नफरत इतनी गहरी हो चुकी है कि ऐसी असाधारण घटना के तथ्यों की पड़ताल के बजाय कुछ सांसद इसे कांग्रेस के सत्तर बरस के भ्रष्टाचार से जोडक़र बयान दे रहे हैं। क्या कांग्रेस का सत्तर बरस का भ्रष्टाचार पांच सौ के नोटों की एक गड्डी में समा सकता है? अगर सचमुच ही ऐसा है तो इस पार्टी को देश की सबसे ईमानदार पार्टी का दर्जा देना चाहिए। हम इस घटना को अधिक से अधिक एक अटपटी घटना, या साजिश करार दे सकते हैं। इसने कुल मिलाकर सदन का समय बर्बाद करने, वहां बहस के लिए आने वाले किसी जरूरी मुद्दे को हाशिए पर धकेलने का काम ही किया है। इससे न सिंघवी की साख बिगड़ती, न ही कांग्रेस की। बल्कि अब इस घटना के हो जाने के बाद ऐसा लगता है कि साख तो राज्यसभा की सुरक्षा व्यवस्था और वहां लगे कैमरों की दांव पर लग गई है क्योंकि सिंघवी भी अगर वहां बंडल गिराकर जाते हैं, तो भी इस पर किसी न किसी कैमरे की नजर तो रहनी ही चाहिए थी।
जहां तक सिंघवी के सदन में पचास हजार रूपए लेकर आने की बात है, और इसे लेकर आरोप लगाए जा रहे हैं, तो क्या संसद का कोई नियम-कानून सांसदों के वहां निजी रकम लेकर आने के खिलाफ है? वहां कई सांसद बड़ी-बड़ी जेबों वाले कपड़े और जैकेट पहनकर आते हैं, और क्या उनकी तलाशी होती है कि वे कितने रूपए लेकर आए हैं? और किसी सांसद को आते-आते कहीं से कुछ पैसे मिले, तो क्या वे उसे सदन के बाहर कहीं जमा कराकर भीतर आएंगे? या सदन की कार्रवाई के बाद उन्हें कहीं भुगतान करने जाना है, तो क्या वे पैसे लेकर सदन न आएं? ऐसा लगता है कि राजनीतिक तनातनी, और असहिष्णुता ने लोगों के दिमाग से तर्क और न्याय की समझ को बाहर धकेल दिया है। जब देश के सामने, और हर पार्टी के सामने असल मुद्दों की भरमार हो, उस वक्त पचास हजार रूपयों की बरामदगी को लेकर इस तरह का हलकट बवाल चल रहा है कि मानो ये देश के सुरक्षा राज बेचकर पाए गए पचास हजार रूपए हों। यह विवाद यह भी बताता है कि संसदीय और नैतिक रूप से भारतीय सांसद कितने खोखले हो गए हैं कि उन्हें बहस और बवाल के लिए यही एक मुद्दा मिल रहा है।
जब देश की जनता चटपटी और सनसनीखेज बातों को ही अपनी अक्ल की खुराक बना लेती है, तो उसे इसी तरह के फूहड़ बवाल परोसे जाते हैं। देश की जनता को इतना जागरूक छोड़ा नहीं गया है कि वह संसद से कुछ सवाल कर सके। फिर भारत में संसद और विधानसभाओं ने अपने आपको इस तरह के सुरक्षा कवच से घेर रखा है कि जनता उनसे कोई सवाल नहीं कर सकती, उनकी कार्रवाई के बारे में अवमानना झेलने के खतरे के बिना कुछ बोल नहीं सकती। ऐसे में भारत की एक वक्त की गौरवशाली संसद आज बिना किसी सार्थक बहस के महज खेमेबाजी का अखाड़ा बनकर रह गई है, और इसके एक दिन के वक्त का दाम पांच सौ के नोटों की एक गड्डी जितना मान लिया गया है, इससे अधिक राष्ट्रीय-नुकसान और क्या हो सकता है?
राज्यों के अखबार इन खबरों से पटे रहते हैं कि कहां पर करोड़ों लगाकर लगाए गए फौव्वारे कुछ हफ्ते भी नहीं चले, किस तरह दसियों लाख से बनाए गए महंगे हाईटेक सार्वजनिक शौचालय जरा भी काम नहीं आ पाए, किस तरह सरकारी अस्पतालों में करोड़ों की मशीनें बरसों से बक्सों से ही नहीं निकलीं, और उनकी गारंटी-वारंटी सब खत्म हो गई, किस तरह किसी अस्पताल में मशीनें हैं, तो उनमें लगने वाले रसायन नहीं हैं, और जहां मशीनें नहीं हैं वहां ऐसे रसायन पड़े-पड़े खत्म हो गए। ये खबरें भी रहती हैं कि कहां कितनी किताबें सीधे कागज कारखाने में बेच दी गईं, कहां पर खेती के उपकरण ऐसे खरीदे गए कि वे चार दिन नहीं चले। इन खबरों का कोई अंत ही नहीं है। और हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को देखें, तो यहां पिछले 25 बरस की सरकारों में पहली सरकार तो महज तीन साल के कार्यकाल की थी, इसलिए उसके पास ऐसी बर्बादी की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन उसके बाद की तमाम सरकारों का यही सिलसिला चले आ रहा है कि कभी स्मार्टसिटी के बजट से, तो कभी मुआवजा-वृक्षारोपण के लिए बनाए गए कैम्पा फंड से, तो कभी डीएमएफ और उद्योगों के सीएसआर फंड से भयानक दर्जे की बर्बादी की गई। चूंकि इस तरह का पैसा अक्सर ही राज्य के बजट के बाहर का रहता है, इसलिए सरकार में मानो किसी को कोई दर्द ही नहीं रहता।
अब सवाल यह उठता है कि अब तक जो हो चुका है उससे सबक लेना कब शुरू किया जाएगा? या फिर पिछली मिसालों को आगे की राह मानकर पहले से अधिक ऊंचे दर्जे की बर्बादी की जाएगी? और यह बर्बादी किसी लापरवाही से नहीं होती है, यह पूरी तरह सोच-समझकर, साजिश तैयार करके कमीशन और रिश्वत खाने की नीयत से की जाती है, और मंत्रियों के इर्द-गिर्द कुछ ऐसे पेशेवर जालसाज किस्म के निजी सहायक रहते हैं जो हर सरकार में किसी न किसी मंत्री-पद से जोंक की तरह चिपक जाते हैं, और जनता के लहू की बूंद-बूंद चूसने के लिए ओवरटाइम करते हैं। ऐसे लोग एक संगठित गिरोहबंद भ्रष्टाचार का सिलसिला चलाते हैं, जो कबाड़ किस्म की मशीनें खरीदता है, तोता-मैना किस्म की कहानियों की किताबें स्कूल-लाइब्रेरी के लिए खरीदता है, और तमाम किस्म की गैरजरूरी चीजें मनचाहे सप्लायरों से लेता है, और ठेकेदारों से बनवाता है। बिना जरूरत करोड़ों की पार्किंग बना ली जाती है, जिसका इस्तेमाल नहीं रहता, और बाद में वहां दूसरे सरकारी काम किए जाते हैं। कई जगहों पर तो कुछ महीनों के भीतर जो टेक्नॉलॉजी खत्म होने वाली है, उसके सामान करोड़ों के खरीद लिए जाते हैं।
अभी छत्तीसगढ़ सरकार ने यहां स्थित आईआईएम के साथ मिलकर गुड गवर्नेंस का एक कोर्स शुरू करवाया है जिसमें पढऩे वाले लोगों की फीस राज्य सरकार ही देगी। इसके छात्र-छात्राओं को हफ्ते में पांच दिन सरकार के साथ काम करना होगा, और इस तजुर्बे के साथ हफ्ते में दो दिन आईआईएम में पढ़ाई होगी। हमारा ख्याल है कि इस कोर्स का नतीजा आने में तो वक्त लगेगा, राज्य सरकार को आईआईएम के साथ मिलकर प्रदेश सरकार के साधन-सुविधाओं की उत्पादकता-ऑडिट भी करवानी चाहिए। वैसे तो प्रदेश में कंट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल, सीएजी की तरफ से वित्तीय ऑडिट होती है, लेकिन हम सरकारी खर्च से खरीदे गए सामानों, और बनाए गए निर्माणों की उत्पादकता की एक अलग ऑडिट की सिफारिश कर रहे हैं। ऐसा कोई प्रोजेक्ट खुद आईआईएम के लिए अच्छा होगा जहां के छात्र-छात्राओं को मैनेजमेंट सीखना होता है, और राज्य सरकार के विभागों के इतने बड़े मैनेजमेंट से सीखने का मौका इन छात्र-छात्राओं को किसी बड़ी कंपनी में भी नहीं मिलेगा। छत्तीसगढ़ सरकार डेढ़ लाख करोड़ सालाना के बजट तक पहुंच गई है, और सरकार की बहुत सी योजनाओं पर पांच-दस हजार करोड़ एक-एक पर खर्च होता है। डीएमएफ, सीएसआर, कैम्पा जैसे फंड, और अब बंद होने जा रहे स्मार्टसिटी प्रोजेक्ट के तहत जितने किस्म के काम हुए हैं, उनकी उत्पादकता-ऑडिट से खुद सरकारी अमले को यह समझ में आएगा कि भ्रष्टाचार में कितना पैसा डूब रहा है, और किस तरह करोड़ों से खरीदी या बनाई गई सहूलियत कूड़ा-करकट साबित हो रही है। हमें पूरा यकीन है कि आईआईएम जैसे विश्वविख्यात संस्थान के प्राध्यापक ऐसे अध्ययन और ऐसे ऑडिट को एक बड़ा दिलचस्प प्रोजेक्ट मानेंगे, और राज्य की बर्बादी, उसके भ्रष्टाचार के एक फीसदी से भी कम लागत से आईआईएम ऐसी रिपोर्ट बना सकती है।
वैसे सच तो यह है कि ऐसे विश्लेषण के लिए किसी बाहर विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है क्योंकि सरकार में बच्चे-बच्चे को यह मालूम है कि संगठित भ्रष्टाचार किस तरह होता है। लेकिन फिर भी अगर घर के भीतर ही हर सुधार मुमकिन होता, तो सीएजी या दूसरे ऑडिटर की जरूरत क्या रहती। आईआईएम जैसी एक बाहरी संस्था से एक ईमानदार विश्लेषण की उम्मीद की जा सकती है, और प्रदेश में हर बरस हजारों करोड़ रूपए डूबने से बच सकते हैं। हो सकता है कि सरकार में बैठे हुए बहुत से लोगों को यह सलाह न सुहाए क्योंकि जब भ्रष्टाचार का कद्दू कटता है, तो ही सबमें बंटता है। फिर भी हम अपनी जिम्मेदारी मानते हैं कि हम जनता के खून-पसीने की कमाई की बर्बादी रोकने की बात उठाते रहें। आगे तो फिर किसी भी देश-प्रदेश की निर्वाचित सरकार का यह विशेषाधिकार और एकाधिकार होता है कि वह जितना चाहे उतना भ्रष्टाचार जारी रखे, और चाहे तो पिछली सरकारों के भ्रष्ट तजुर्बों को पहली सीढ़ी मानकर और भी आगे बढ़े, और भी ऊपर चढ़े। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक शादी समारोह में एक नाबालिग लडक़ा खाना परोस रहे अपने ही परिचित या दोस्त से बार-बार रसगुल्ला मांग रहा था, और न मिलने उसने समारोह के बाहर चाकू से गोदकर उसे मार डाला, और जाकर पुलिस में अपने सहयोगी-साथी के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। यह भी बताया जा रहा है कि हत्यारोपी नाबालिग और मृत बालिग के बीच पहले से कुछ झगड़ा भी चल रहा था। कुछ लोगों को यह बात हैरान कर सकती है कि महज रसगुल्ले पर बात इतनी बढ़ गई कि कत्ल हो गया। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि झगड़े के तो बहुत से बहाने रहते हैं, रसगुल्ला नहीं रहता तो पानी हो सकता था, समोसा हो सकता था। जिसका मिजाज ही झगड़े का है, जिसने झगड़ा करना तय कर रखा है, उसने यह भी परवाह नहीं की कि दूसरे की जान गई, और वह तो जिंदगी की तकलीफों से मुक्त हो गया, लेकिन जिसने मारा है उसके तो कई बरस बाल सुधार गृह या जेल में गुजरेंगे, और आगे की जिंदगी भी तबाह सरीखी ही रहेगी। बालिग हो या नाबालिग, जिसने एक बार कत्ल कर दिया हो, उसे समाज तो दुबारा आसानी से जगह देगा नहीं। फिर ऐसे तमाम खतरों के साथ भी लोग ऐसी हिंसा पर कैसे उतारू हो जाते हैं?
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की इस घटना के बारे में खबरें बताती हैं कि इस हत्यारोपी लडक़े के मां-बाप का भी आपराधिक रिकॉर्ड है, और खुद यह लडक़ा भी कुछ इसी किस्म का था। जाहिर है कि जो चाकू लेकर घूमता हो, और समारोह के बाहर गली में खड़े होकर कत्ल करने के लिए राह तकता हो, वह सीधा-सरल तो होगा नहीं। अब नाबालिग लडक़ा इतनी हिंसा पाता कहां से है? और हिंसा तो पा ली, लेकिन यह जागरूकता बिल्कुल नहीं पाई कि इस हिंसा का नतीजा क्या होगा? सोच की यह हालत बहुत खतरनाक है। यह पीढ़ी लगातार तैश में, या साजिश बनाकर कई तरह के जुर्म कर रही है। हमने बहुत से नाबालिग लडक़ों को इकट्ठा होकर नाबालिग लडक़ी से गैंगरेप करते देखा है, किसी का कत्ल करते देखा है, या दूसरे किस्म के बड़े जुर्म करते हुए। आमतौर पर किसी विकसित और सभ्य समाज में जिस उम्र के लडक़ों को स्कूल-कॉलेज में व्यस्त रहना चाहिए, आगे के दाखिला इम्तिहानों की तैयारी के बाद जिनके पास वक्त नहीं बचना चाहिए, उनके पास स्कूल या कॉलेज कुछ भी नहीं हैं, वे आवारा हैं, फुटपाथी हैं, बेघर हैं, नशेड़ी हैं, और ऐसे ही किसी खतरनाक अंत की तरफ बढ़ रहे हैं। यह नाबालिग उम्र न तो परिवार से समर्थन पा रही है क्योंकि उनका खुद का मुजरिम होने का जीवन है, और न ही समाज या सरकार को यह पड़ी है कि वे ऐसे आवारा तबके को पटरी पर लाने के लिए कुछ करें। हालत यह है कि बाल सुधार गृह में एक जुर्म के बाद पहुंचने वाले बच्चे वहां से कई और किस्म के जुर्म सीखकर निकलते हैं। इसलिए सरकार और समाज का जिम्मा यह बनता है कि ऐसी खतरनाक जिंदगी जी रहे ऐसे तबके के लिए कुछ योजना बनाएं क्योंकि इनके हर जुर्म की लागत समाज और सरकार को अधिक महंगी पड़ेगी।
अब हम ऐसे नाबालिग मुजरिमों की पहली जिम्मेदारी उनके परिवारों की मानते हैं कि उन्हें अपनी औलाद को नशे में पडऩे से बचाना चाहिए, निठल्ला बैठने नहीं देना चाहिए, पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग, या किसी कामकाज से लगाना चाहिए, और यह सोचकर उन्हें अपनी छाती पर मूंग नहीं दलने चाहिए कि कम से कम वे जिंदा तो हैं, कम से कम वे आंखों के सामने तो हैं। सही राह से उतरकर उनकी ऐसी औलादें कब किसी को मार डालेंगी, या कब मर जाएंगी, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है। इसलिए औलाद का महज जिंदा रहना काफी नहीं है, उसका सही राह पर रहना भी खुद उसके लिए, और बाकी समाज के लिए जरूरी है। आज समाज में ऐसे कौन हो सकते हैं जो किसी न किसी छोटी-मोटी बहस से भी बच सकें, सडक़ पर भी चलते किसी से मामूली टक्कर हो सकती है, और अगर इनमें से कोई नाबालिग या बालिग चाकूबाज हो, तो एक मौत और दूसरे को उम्रकैद तो हो ही सकती है। इसलिए परिवारों को अपने बच्चों को संभालना आना चाहिए, और उसकी कोशिश करनी चाहिए। दूसरी बात यह समझ लेना बेहतर होगा कि बच्चे किसी के कहे नहीं सीखते, मिसालों से सीखते हैं। जिन परिवारों में मां-बाप शराबी हैं, या किसी जुर्म से जुड़े हुए हैं, उनके बच्चों के भी उसी राह पर चलने का खतरा बहुत अधिक रहता है। जहां मां-बाप शराबी रहते हैं, बच्चों के नशे में पड़ जाने का पूरा-पूरा खतरा रहता है। जहां मां-बाप सिगरेट, बीड़ी, या तम्बाकू जैसा कोई नशा करते हैं, उनके बच्चे घर से ही इसे सीखते हैं। इसलिए मां-बाप और घर के बाकी बड़ों को बच्चों के सामने अपनी मिसाल के बारे में सावधान रहना चाहिए।
हम एक बार फिर समाज और सरकार की बात पर लौटें, तो यह एक बड़ी जिम्मेदारी है कि नाबालिग लोगों के सामने जिंदगी को लेकर कोई सकारात्मक संभावना रहनी चाहिए। जब आगे की जिंदगी बेरोजगारी की गारंटी वाली हो, जब समाज की हवा में दर्जन भर किस्म की अलग-अलग नफरत का जहर तैर रहा हो, जब देश की बड़ी-बड़ी मिसालें, एक से बढक़र एक हिंसक बातें कर रही हों, तो उसका भी असर नई पीढ़ी पर हिंसक ही होता है, और उन्हें हिंसक बनाकर छोड़ता है। इसलिए देश-प्रदेश को भी अपने आपको एक स्वस्थ राज्य साबित करना होगा, ऐसा नहीं हो सकता कि बाकी तमाम पीढिय़ों के बड़े-बड़े बकवासी लगातार हिंसा के फतवे देते रहें, और उनके साफ-साफ शब्दों, या दोहरी मतलब वाली बातों का हिंसक मतलब नई पीढ़ी न निकाले। नाबालिगों को हिंसा से दूर रखना एक बहुत ही जटिल मुद्दा है, और किसी भी जटिल मुद्दे का समाधान बहुत सरल नहीं हो सकता। किसी भी गंभीर कैंसर के मरीज को इलाज के लिए कीमोथैरेपी, रेडियेशन थैरेपी, या सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है, वही हाल किशोरावस्था के अपराधियों का भी है, जिन्हें सुधारने और बचाने का कोई आसान फॉर्मूला नहीं है। यहां इस कॉलम में इससे अधिक खुलासे की गुंजाइश भी नहीं है, लेकिन समाज को अपने आपको नई पीढ़ी के ऐसे जुर्म से बचाना है, तो उसे इस पीढ़ी के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। किसी देश-प्रदेश की तमाम पुलिस मिलकर भी पूरी नई पीढ़ी के हाथों हो सकने वाले जुर्म को नहीं रोक पाएंगी। इसके लिए उस पीढ़ी का ही ख्याल रखना पड़ेगा। चलते-चलते हम यह भी याद दिलाना चाहेंगे कि धर्म और आध्यात्म के भरोसे, प्रवचनकर्ताओं और कर्मकांडों के भरोसे कोई पीढ़ी न सुधर सकेगी, न बच सकेगी। इसके लिए सरकार, समाज, और परिवार को पूरी मेहनत करनी पड़ेगी, तभी यह नई पीढ़ी देश के सामने एक खतरनाक बोझ और खतरे के बजाय एक उत्पादक संभावना बन सकेगी। देश को अपनी नई पीढ़ी को देश के विकास में योगदान के लायक तैयार करना चाहिए, न कि जेलों के लायक। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बांग्लादेश की आबादी में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर वहां जो हमले चल रहे हैं, उसके खिलाफ भारत के बहुत से शहरों में कल प्रदर्शन हुए हैं। भारत की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों ने सरकार से तुरंत ही बांग्लादेश से पहल करने की अपील की है। और जैसा कि किसी भी घटना की प्रतिक्रिया होती है, बांग्लादेश में हिन्दुस्तानियों पर हो रहे हमले, और हिन्दू धर्म से जुड़े लोगों को निशाना बनाने की प्रतिक्रिया भी भारत में हुई है, और यहां त्रिपुरा में बांग्लादेश के उपउच्चायोग पर हमला हुआ है, जिसमें कुछ गिरफ्तारियां हुई हैं, कुछ पुलिस अधिकारी निलंबित किए गए हैं, और भारत सरकार ने बांग्लादेश से इसे लेकर अफसोस जाहिर किया है। लेकिन दोनों देशों के बीच तनातनी बांग्लादेश के जन्म के बाद से आज तक की सबसे अधिक गंभीर है। बांग्लादेश ने औपचारिक रूप से बार-बार यह बात कही है कि भारत का सत्ताधारी वर्ग बांग्लादेश विरोधी राजनीति में उलझा है। तनाव की एक बड़ी वजह यह भी है कि वहां की पिछली, जनआक्रोश से हटा दी गई प्रधानमंत्री शेख हसीना भारत में शरण पाकर रह रही हैं, और बांग्लादेश की नई हुकूमत का यह मानना है कि भारत ने बांग्लादेश से अपने संबंध सिर्फ शेख हसीना तक सीमित कर रखे थे। बांग्लादेश के बहुत से लोग भारत सरकार को यह भी याद दिला रहे हैं कि उसे इस हकीकत का अहसास होना चाहिए कि अब बांग्लादेश में शेख हसीना का राज नहीं है। दोनों तरफ से तनातनी के बहुत से बयानों के बीच जमीनी हकीकत यह है कि बांग्लादेश में हिन्दू और हिन्दुस्तानियों का सुरक्षित रहना फिलहाल मुश्किल दिख रहा है, और भारत सरकार की कोशिशें अब तक बेअसर दिख रही हैं।
तनाव का यह माहौल इसलिए बड़ी फिक्र का सामान है कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में बांग्लादेश से अलग-अलग वक्त पर आकर बसे हुए लोगों की बड़ी मौजूदगी है, और इस देश के और भी राज्यों में वैध या अवैध बांग्लादेशी करोड़ों की संख्या में बसे हुए हैं जो कि बांग्लादेश के ताजा घरेलू तनाव के पहले भी भारत में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहते आए हैं। अधिकतर बांग्लादेशी भारत में भाजपा के लिए राजनीतिक नुकसान के माने जाते हैं क्योंकि उनमें तकरीबन तमाम लोग मुस्लिम हैं, और भाजपा को लगता है कि उनके नाम अगर वोटर लिस्ट में जुड़ते हैं, तो यह भाजपा का बड़ा चुनावी नुकसान रहेगा। ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ के नाम से जिन करोड़ों लोगों को देश से निकालने की चर्चा चलती है, वह कम गंभीर नहीं हैं, और मोदी सरकार ने कई कानून बनाकर भी भारत से इन लोगों को हटाने की कोशिश जारी रखी हुई है। यह नौबत दोनों ही देशों के लिए तनावपूर्ण चली ही आ रही थी, और इस बीच शेख हसीना की सरकार के वक्त भी बांग्लादेश में हिन्दू मंदिरों पर बड़े हमले होते रहते थे। भारत में शासन-प्रशासन अभी किसी भी पड़ोसी देश के मुकाबले बेहतर है, इसलिए बांग्लादेश में हिन्दुओं पर चलते आ रहे हमलों की कोई हिंसक प्रतिक्रिया भारत में नहीं हो रही है। वरना करोड़ों बांग्लादेशियों के खिलाफ हिंसक माहौल बनने पर भारत के भीतर एक बड़ी खराब नौबत आ सकती थी, या आ सकती है। बांग्लादेश सरकार की तरफ से अभी कहा गया है कि शेख हसीना की सरकार में अल्पसंख्यकों से सबसे अधिक नाइंसाफी हुई थी, और भारत बिना शर्त हसीना का समर्थन करता रहा। बांग्लादेश के कई लोगों ने बड़े खुलासे से यह कहा है कि भारत में मुस्लिमों के साथ जैसा बर्ताव हो रहा है, उसकी भी प्रतिक्रिया बांग्लादेश में हो रही है।
तनातनी के इस माहौल में बांग्लादेश भारत का अब तक का एक सबसे बड़ा पड़ोसी और भागीदार देश रहा है, और फौजी-रणनीति के मुताबिक चीन के करीब जाने से रोकने के लिए बांग्लादेश को भारत कई तरह से रियायत भी देते रहा, जिसके तहत भारत में बांग्लादेशियों की बेरोकटोक आवाजाही, और बसाहट शामिल रही। अब एकाएक बांग्लादेश में बगावत के बाद आई नई सरकार ने एक तरफ तो पाकिस्तान के साथ रिश्ते शुरू किए हैं, जो कि रफ्तार से गहरे होते चल रहे हैं, दूसरी तरफ उसने चीन के साथ बेहतर रिश्ते बनाना और बताना भी शुरू किया है। ये दोनों ही घटनाक्रम भारत के लिए बड़ी फिक्र का सामान हैं क्योंकि इन दोनों के साथ भारत की खुली दुश्मनी सरीखी नौबत बरसों से बनी हुई है। और अगर बांग्लादेश भारत के दुश्मन का दोस्त बनता है, तो यह भारत की एक और घेराबंदी हो सकती है। बांग्लादेश बनने के बाद से आज तक कभी नहीं हुआ था कि पाकिस्तान के साथ उसके रिश्ते बने हों, क्योंकि एक जंग के बाद ही बांग्लादेश का जन्म हुआ था, और पाकिस्तान से अलग होकर यह देश बना था। ऐसे में भारत बांग्लादेश से चार हजार किलोमीटर से अधिक लंबी सरहद पर किसी भी तनाव को किस तरह झेल पाएगा? असम, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, और पश्चिम बंगाल, इतने राज्यों की सरहद बांग्लादेश से लगती है, और इन सभी में करोड़ों बांग्लादेशी पीढिय़ों से बसे हुए हैं। दोनों देशों के बीच तनातनी के अनुपात में ही भारत में बसे बांग्लादेशियों के खिलाफ एक तनाव हो सकता है, और आज भारत के हिन्दू संगठन जिस तरह विचलित हैं, उसे देखते हुए भी भारत सरकार को बांग्लादेश के साथ ठोस पहल करनी चाहिए। इसमें कोई देर होने, या नौबत बिगडऩे से इस देश के भीतर भी हालात खराब हो सकते हैं। कुल मिलाकर बांग्लादेश भारत के लिए एक बहुत बड़ी आर्थिक, सामाजिक, और सामरिक-रणनीतिक समस्या बन गया है, और बांग्लादेश की अस्थाई और तात्कालिक कामचलाऊ सरकार से भारत किस तरह के रिश्ते बना और चला सकता है, यह भारत की विदेश नीति के लिए, और उसकी समझबूझ के लिए एक बड़ी चुनौती है, और हालात अधिक खराब होने के पहले उसे काबू में करना जरूरी है।
म्युनिसिपल जैसी शहरी स्थानीय संस्थाओं में महापौर या अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों के माध्यम से हो, या सीधे वोटर ही उन्हें चुनें, इसे लेकर अलग-अलग पार्टियों, और अलग-अलग नेताओं के बीच मतभेद बना रहता है। इन दोनों ही तरीकों में जानकार लोग नफा और नुकसान गिनाते रहते हैं। छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल ने कल यह तय किया है कि नगर निगम, नगर पालिका, और नगर पंचायत के मुखिया का चुनाव मतदाता सीधे करेंगे। पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य बनने के बाद से चली आ रही व्यवस्था को बदलकर पार्षदों के मार्फत महापौर या अध्यक्ष चुनने की व्यवस्था की थी, नई भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की अध्यक्षता में कल मंत्रिमंडल में इसे पलट दिया। जब वोटर सीधे अपने शहर का प्रथम नागरिक चुनेंगे, तो यह बात जाहिर रहेगी कि पार्टी को एक लोकप्रिय उम्मीदवार मैदान में उतारना होगा। वरना अपनी पार्टी के, कुछ खरीदे हुए, और कुछ निर्दलीय, कुछ बागी पार्षदों के दम पर कोई पार्टी ऐसे भी महापौर/अध्यक्ष बना सकती हैं जो कि अपने दम पर जीतने की ताकत न रखते हों। ऐसी भी चर्चा थी कि भूपेश बघेल ने अपनी पसंद के, लेकिन जनता को कम पसंद कुछ लोगों को महापौर बनवाने के लिए सीधे निर्वाचन को खत्म किया था, और अब एक बार फिर हर वोटर बिना पार्षद सीधे अपने महापौर चुन सकेंगे।
अमरीका में राष्ट्रपति (भारत के प्रधानमंत्री की तरह के शासन प्रमुख) को जनता सीधे चुनती है, उन्हें संसद सदस्यों के मार्फत नहीं चुना जाता। इसलिए भारत में भी ऐसी व्यवस्था को राष्ट्रपति शासन प्रणाली कहते हैं। और बीच-बीच में देश में ऐसी सुगबुगाहट भी होती है कि क्या कभी कोई पार्टी अपने अपार लोकप्रिय नेता के चेहरे के दम पर देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की सोच सकती है? और क्या संविधान में ऐसी गुंजाइश निकाली जा सकती है? इंदिरा गांधी के बहुत लोकप्रिय दौर से लेकर नरेन्द्र मोदी तक कुछ मौकों पर उनकी बहुत लोकप्रियता की वजह से यह चर्चा शुरू होती थी, और फिर लस्सी के झाग की तरह बैठ जाती थी। देश में जनता सीधे प्रधानमंत्री चुने, राज्य में जनता सीधे मुख्यमंत्री चुने, तो उससे क्या नफा और क्या नुकसान हो सकता है? हम महाराष्ट्र जैसे राज्य को देखें जहां कुछ पार्टियों को दो फांक करके, और तरह-तरह के गठबंधन बनाकर, कम विधायकों वाले नेता को भी मुख्यमंत्री बना दिया गया था, या झारखंड से बड़ी मिसाल और क्या होगी जहां एक अकेले विधायक मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बना दिया गया था, अगर ऐसे राज्यों में राष्ट्रपति शासन प्रणाली रहती तो क्या होता? क्या भारतीय लोकतंत्र को प्रदेश और देश के स्तर पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरफ ले जाने से व्यक्तिवादी राजनीति दलीय और सैद्धांतिक राजनीति के ऊपर हावी नहीं हो जाएगी? क्या उसमें सांसदों या विधायकों की मदद के बिना प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बने लोगों के मिजाज में तानाशाही नहीं आ जाएगी? फिर अगर हम देखें तो एक प्रणाली के रूप में जो देश या प्रदेश के लिए सही नहीं है, वह शहर के लिए कैसे सही हो सकती है? किन तर्कों के आधार पर हो सकती है?
लेकिन हम सैद्धांतिक रूप से महापौर/अध्यक्ष को सीधे चुनने के खिलाफ भी नहीं हैं। उसे देश-प्रदेश की मिसाल से परे अगर देखें, तो यह समझ पड़ता है कि सीधे निर्वाचित मुखिया पार्षदों की ब्लैकमेलिंग या सौदेबाजी से ऊपर रहेंगे, और सीधे निर्वाचित नेता को हटाना भी उतना आसान नहीं रहेगा। कुछ लोगों का मानना है कि मतदाता के वोट से सीधे चुने जाने वाले मुखिया अधिक मनमानी करेंगे, और पार्षदों के काबू के बाहर के रहेंगे। लोगों के चेहरों के बारे में सोचे बिना ऐसा विश्लेषण आसान नहीं है। लोगों का यह भी मानना है कि स्थानीय निकायों के काम का दायरा, और काम की प्रकृति, ये दोनों राज्य या केन्द्र शासन से बिल्कुल अलग किस्म के रहते हैं, और स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मेयर सीधे बनना बेहतर होता है। हमारा ख्याल है कि पार्टी की नीतियों और स्थानीय शासन की जरूरतों के बजाय अधिक बड़ा तर्क यह रहता है कि किस पार्टी के पास लोकप्रिय चेहरे अधिक हैं। जिन लोगों को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा अधिक होगा, वे लोग ऐसे फैसले के हिमायती होंगे। यह बात कुछ हद तक सही लगती है कि बहुत छोटे-छोटे वार्ड होने से कुछ दर्जन वोटों से भी जीत-हार होती है, और अलग-अलग तरह के विधायकों में जोड़तोड़ करके, खरीद-फरोख्त की ताकत रखने वाले किसी माफिया के मेयर-अध्यक्ष बन जाने से बेहतर यह है कि एक-एक वोटर के वोट से शहर के प्रथम नागरिक चुने जाएं।
कुछ अधिक निराशा के नजरिए से अगर भारत के किसी भी चुनाव को देखें तो लगता है कि अब चुनाव लोकतांत्रिक मूल्यों पर, लोकप्रियता या पार्टी के नीति-कार्यक्रम पर कम जीते जाते हैं, वोटरों को सीधे फायदे पहुंचाने के पार्टी के वायदों, या रेवडिय़ों से अधिक जीते जाते हैं। यह बात हर चुनाव पर लागू होती है। इसके साथ-साथ प्रदेश या देश स्तर के चुनावों में जाति और साम्प्रदायिकता के मुद्दे लगातार हावी होते जा रहे हैं। फिर मानो यह भी अधिक न हो, वोटरों को शराब या नगदी से खरीदना भी बढ़ते चले जा रहा है। फिर किसी जाति या धर्म के वोटरों को वोट डालने से रोकने के लिए चुनाव के एक दिन पहले उन्हें भुगतान करके उनकी उंगलियों पर स्याही लगा देने जैसी बातें भी हो रही हैं। या उत्तरप्रदेश के ताजा उपचुनावों को देखें, तो जगह-जगह जिस तरह पुलिस मुस्लिम वोटरों को भगाते और वापिस भेजते दिखी है, उसके बाद उन नतीजों को क्या कहा जाए? इस तरह कुल मिलाकर इतने सारे अलोकतांत्रिक पहलू भारत के चुनावों पर हावी होने लगे हैं कि कोई भी चुनाव अपने आपमें पाखंड लगने लगे हैं। ऐसे में अब छत्तीसगढ़ में म्युनिसिपल चुनाव में शहर के मुखिया को सीधे चुनने से क्या नफा, क्या नुकसान होगा, नेताओं और पार्टियों को क्या-क्या सहूलियतें और दिक्कतें होंगी, यह तो हर चुनाव का तजुर्बा ही साबित कर सकता है। क्या ऐसा भी हो सकता है कि करोड़ों खर्च करने की ताकत रखने वाले व्यक्ति को ही उम्मीदवार बनाना पार्टी का एक पैमाना हो सकता है? क्या अब चुनावों में सिर्फ ऐसे ही धन-बल वाले नेताओं की गुंजाइश रह जाएगी? या फिर शहर में माफिया अंदाज में कारोबार करने वाले लोग उन्हें हिफाजत देने वाले नेताओं को जिताने के लिए करोड़ों खर्च करेंगे? और क्या आज भी माफिया कारोबारी अपने कारोबार के वार्डों में पार्षदों को जिताने के लिए दसियों लाख खर्च नहीं करते होंगे? शहरी निकायों के चुनावों को जितनी बारीकी से देखें, उतना ही अधिक यह लगता है कि ये चुनाव भ्रष्ट व्यवस्था के साये तले होते हैं, और भ्रष्ट व्यवस्था जारी रखने के लिए भी। लेकिन क्या किसी भी तरह का भ्रष्टाचार लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार की व्यवस्था को खारिज करने का तर्क हो सकता है? ऐसे कई सवाल चुनाव व्यवस्था पर चर्चा के दौरान दिल-दिमाग में उठते हैं, जैसे कि अभी शहर-मुखिया के सीधे निर्वाचन के फैसले से उठ रहे हैं। वोटरों को भी ऐसी संभावनाओं और आशंकाओं के बीच अपनी बेहतर पसंद के बारे में सोचना चाहिए कि सीमित संभावनाओं के बीच कम बुरा विकल्प क्या रहेगा?
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल जिले एमसीबी (मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-बैकुंठपुर) की खबर है कि वहां जनकपुर सरकारी स्कूल में एक शिक्षक 19 बच्चियों से गंदी बातें और अश्लील हरकत करते आ रहा था। बच्चियों ने यह बात महिला प्रधान पाठक को बताई लेकिन वह इसे दबाती रही। अब जब बच्चियों ने बाल संरक्षण अधिकारियों से टोल फ्री नंबर पर इसकी जानकारी दी तो जांच कमेटी बनी, और जांच में शिकायत सही मिलने पर शिक्षक और प्रधान पाठक के खिलाफ जुर्म दर्ज किया गया, और दोनों फरार हो गए हैं। शिक्षक सुमन कुमार रवि और प्रधान पाठक अनिता बेक को जांच कमेटी ने लंबे समय से ऐसी हरकत और उसे बचाने का दोषी पाया है। स्कूल में कुछ अरसा पहले जिला बाल संरक्षण अधिकारी ने एक जागरूकता शिविर लगाया था जिसमें बच्चियों को अच्छे और बुरे स्पर्श की जानकारी दी थी, और उसी के बाद बच्चियों ने सहायता नंबर पर फोन लगाकर शिकायत दर्ज कराई थी। अभी हफ्ता भर भी नहीं गुजरा है छत्तीसगढ़ में ही एक दूसरे स्कूल के प्रिंसिपल, हेडमास्टर और शिक्षक ने एक दूसरी स्कूल की नाबालिग आदिवासी छात्रा के साथ गैंगरेप किया था। इन्होंने इस छात्रा का कोई अश्लील वीडियो बना लिया था, और उसे ब्लैकमेल करके वीडियो फैला देने की धमकी देकर कई दिन तक बलात्कार करते रहे। एक हफ्ते के भीतर यह दूसरा मामला बताता है कि प्रदेश के आदिवासी इलाकों में छात्राएं स्कूलों में बहुत सुरक्षित नहीं हैं। यह समझने की जरूरत है कि जब 19 छात्राएं शिक्षक की अश्लील हरकत के बारे में शिकायत कर रही हैं, तो फिर 18 लोगों से ऐसी हरकत तक तो सब लड़कियां बर्दाश्त ही कर रही थीं।
इस मामले में इस बात की तरफ ध्यान देने की जरूरत है कि बाल संरक्षण के लिए तय किए गए टोल फ्री नंबर पर फोन करने से इन बच्चियों को मदद मिली, और इस मामले का भांडाफोड़ हुआ। सरकार का स्कूल चलाने वाला विभाग अगर इस नौबत को आने से रोक नहीं पाया था, तो सरकार का दूसरा विभाग बच्चों के अधिकारों को बचाने में कुछ हद तक कामयाब हुआ। हम ऐसे मामलों को बहुत खुलासे से इसलिए लिखते हैं कि सरकार में बैठे लोगों को अपनी खामियों, और अपनी खूबियों को बारीकी से समझना चाहिए। हफ्ते भर में स्कूलों की इन दो घटनाओं में गिरफ्तारी हो जाना ही काफी नहीं होगा, इनसे सबक लेकर सरकारी अमले को पूरे प्रदेश में संवेदनशील बनाना पड़ेगा, सरकारी इंतजाम की जो खामियां हैं, उन्हें दूर करना होगा, और जो खूबियां हैं उन्हें बाकी जगहों पर भी अमल में लाना पड़ेगा। प्रदेश में स्कूलें चलाने वाले दो सरकारी विभाग हैं, स्कूल शिक्षा विभाग तो है ही, आदिवासी इलाकों में आदिम जाति कल्याण विभाग भी स्कूल और छात्रावास चलाता है। ये घटनाएं आदिवासी इलाकों से अधिक आ रही हैं, अब वहां पर ये किस विभाग के तहत की स्कूलों में हो रही हैं, इसे सरकार को देखना चाहिए। अब छत्तीसगढ़ में बहुत छोटे-छोटे जिले बन गए हैं, और हर जिले में अधिकारी बढ़ते चले गए हैं। इसलिए अब लापरवाही और जुर्म की अनदेखी की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। वैसे भी प्रदेश में सरकारी नौकरी के लिए नौजवानों की कतारें इतनी लंबी हैं कि जरा भी गड़बड़ी करने वाले कर्मचारियों-अधिकारियों की नौकरी खत्म करनी चाहिए, और उनकी जगह नए लोगों को मौका मिलना चाहिए। आज जब आम जनता को सरकारी राशन के अनाज की वजह से दो वक्त का खाना नसीब होता है, तब अगर सरकारी नौकरी मिलने के बाद अगर लोगों को रिश्वत लेने, बदसलूकी करने, अश्लील हरकत करने, या दारू पीकर स्कूल में पड़े रहने से फुर्सत नहीं है, तो ऐसे सरकारी कर्मचारियों को अधिक वक्त तक नहीं ढोना चाहिए। सरकार का कार्रवाई न करना बहुत से जुर्म करने वाले लोगों के लिए हौसला अफजाई हो जाता है। और ऐसे मामलों में बच्चों के यौन शोषण के आरोपों से घिरे लोगों को तो पहली जांच रिपोर्ट मिलते ही नौकरी से हटाना चाहिए, अदालती फैसले तो जब आते हैं तब आते हैं।
बच्चियों के यौन शोषण के मामले खतरनाक इसलिए हैं कि ऐसी हर घटना के बाद बाकी बच्चियों के मां-बाप भी उन्हें स्कूल या कहीं और भेजने से हिचकने लगते हैं। किसी भी सभ्य समाज में लड़कियों को लडक़ों के बराबर ही मौके और हिफाजत मिलने चाहिए। संस्थानों में शोषण की एक घटना संस्थानों की साख भी खत्म करती है, चाहे वह स्कूल रहे, चाहे वह कुश्ती संघ रहे, और वहां पढऩे या खेलने वाली सभी बच्चियों के सामने साख का संकट आता है। देश का सबसे भयानक मामला, अजमेर सेक्सकांड जिसमें सैकड़ों लड़कियों के साथ संगठित रूप से सिलसिलेवार और लगातार बलात्कार होते रहा, उससे एक वक्त ऐसा आ गया था कि अजमेर की उस पीढ़ी की लड़कियों की शादी में दिक्कत होने लगी थी। इसलिए स्कूल, खेलकूद, एनसीसी, या ऐसी किसी भी गतिविधि और जगह की साख को बनाए रखना महिला सशक्तिकरण के लिए भी जरूरी है।
इस ताजा घटना से पता लगता है कि लड़कियों का हौसला बढ़ाया जाए तो वे शिकायत दर्ज कराती हैं। शिकायत के ऐसे नंबरों की जानकारी और अधिक फैलानी चाहिए, और स्कूलों में लडक़े-लड़कियों को अच्छे और बुरे स्पर्श की बेहतर समझ देनी चाहिए। इन दिनों नाबालिग लडक़े बलात्कार के मामलों में चारों तरफ पकड़ा रहे हैं, स्कूल-कॉलेज के लडक़ों को भी यह समझाने की जरूरत है कि वे लड़कियों के साथ कैसा बर्ताव नहीं कर सकते, और कैसा बर्ताव करने पर कितनी कैद होती है, जिंदगी किस तरह बर्बाद हो जाती है। स्कूलों में यौन शोषण के मामलों को सिर्फ पुलिस और अदालत के लायक मान लेना गलत होगा। समाज के स्तर पर भी लडक़े-लड़कियों के बीच एक बेहतर जागरूकता जरूरी है। एक स्कूल के एक शिक्षक की 19 छात्राओं से अश्लील हरकतों पर भी वहां की प्रधान पाठिका ने महिला होते हुए भी सब कुछ दबाने की जो कोशिश की, वह बहुत निराश करती है। बहुत सी जगहों पर तो महिला अधिकारी और कर्मचारी को रखा इसीलिए जाता है कि वे बच्चों और लड़कियों के मामलों में कुछ अधिक संवेदनशील रहेंगी। ऐसा लगता है कि सरकारी कामकाज इस महिला की संवेदनशीलता खत्म कर गया था, सरकार को इस बारे में भी सोचना चाहिए। बल्कि लगे हाथों हम यह भी सलाह देंगे कि सरकार को अपने तमाम अमले को धर्म और जाति के आधार पर, औरत-मर्द के आधार पर, लडक़े-लडक़ी के आधार पर, विकलांगता के आधार पर, गरीबी के आधार पर भेदभाव के खिलाफ जागरूक करना चाहिए, और संवेदनशील बनाना चाहिए, इससे भी कई किस्म के जुर्म कम होंगे, और लोगों को बुनियादी हक मिलेंगे।
सोशल मीडिया पर लोग अपने मन की अराजकता, और हिंसा खुलकर उजागर करते हैं। हम लगातार लोगों के मन की जातीय, या साम्प्रदायिक नफरत की मिसालों के खिलाफ लिखते हैं, जिसका कि सिलसिला खत्म ही नहीं होता है। लेकिन इसके अलावा राजस्थान के उपमुख्यमंत्री के बेटे सहित देश भर के बहुत से ताकतवर, और आम-मामूली लोग भी कभी अपना जन्मदिन मनाते हुए, तो कभी सडक़ों पर गाडिय़ों की कलाबाजी दिखाते हुए अपने वीडियो बनाते हैं, और पोस्ट करते हैं। बहुत से लोग सडक़ों पर अपने जन्मदिन का केक काटते हैं, और कुछ अधिक उत्साही लोग तलवार से केक काटते हुए, पिस्तौल-बंदूक से हर्ष-फायरिंग करते हुए वीडियो भी पोस्ट करते हैं। सोशल मीडिया ऐसे लोगों से भरा हुआ है जो कि असली या नकली चाकू-पिस्तौल लिए हुए अपनी फोटो और वीडियो पोस्ट करते हैं, और अभी पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों की शिनाख्त करके उन्हें गिरफ्तार करके छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की पुलिस उनसे माफी के वीडियो बनवा रही है, और जारी कर रही है।
लेकिन यह सिलसिला आगे कैसे और क्यों बढ़ रहा है? एक प्रमुख वेबसाइट, द वायर, पर भारत में पनप रही गैंगस्टर संस्कृति और बच्चों पर उसके बुरे असर पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह लगातार खबरों में आए हुए लॉरेंस बिश्नोई सरीखे गैंगस्टर देश के बहुत से बच्चों के लिए आदर्श बन रहे हैं, और ऑनलाईन शॉपिंग की बहुत सी वेबसाइटों पर ऐसे खतरनाक गैंगस्टर की फोटो और नाम वाले कपड़े और दीगर सामान बिकना शुरू होने पर मुम्बई की पुलिस ने इनके खिलाफ जुर्म भी दर्ज किया है। वायर की यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह इस गैंगस्टर की शोहरत को आगे बढ़ाने में संगीत वाली वेबसाइटें, और पॉडकास्ट भी मदद कर रहे हैं जहां इनकी ‘बहादुरी’ के गाने पटे हुए हैं, और लाखों लोग इन गानों को देख रहे हैं।
हमारा मानना है कि हिन्दुस्तान में जिस तरह लॉरेंस बिश्नोई को न सिर्फ बिश्नोई समाज के एक हीरो की तरह पेश किया जा रहा है, बल्कि उसे हिन्दू नौजवानों के नायक की तरह भी बताया जा रहा है जो कि एक मुस्लिम, सलमान खान को मार डालने में लगा हुआ है। देश की हवा में साम्प्रदायिकता का जो जहर है वह लॉरेंस बिश्नोई को एक गैंगस्टर के बजाय मुस्लिम को मारने की ताकत रखने वाला हिन्दू-नायक साबित कर रहा है। जब जुर्म और साम्प्रदायिकता मिलकर लोगों की धार्मिकता की जगह ले लेती हैं, तो फिर ऐसे भयानक मुजरिम भी नौजवानों के रोल मॉडल बन जाते हैं, और उनकी ‘वीरता’ के गुणगान में गीतकार, और गायक-संगीतकार चारण और भाट की तरह लग जाते हैं। लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा और खतरनाक गुंडा, दाऊद इब्राहिम, दुबई में अपनी सालगिरह का जश्न करता है, और उसमें फिल्म इंडस्ट्री के बहुत से गायक, संगीतकार, अभिनेता-अभिनेत्री नाचते-गाते हैं। लोगों को याद होगा कि किस तरह अनु मलिक जैसे गायक-संगीतकार ने दाऊद की दावत में नाच-नाचकर गाया था- अमीरों को किसने अमीरी सिखाई, गरीबों की जिसने कुटिया सजाई, घर अपना छोड़ा खुशियां गंवाईं, पूछो तो पूछो वो कौन है, सबका भाई दाऊद भाई।
यह गाना अनु मलिक ने ही लिखा था, और गाया था। इसका वीडियो चारों तरफ फैला था, और हिन्दुस्तानी जनता इतनी महान हैं कि ढाई सौ से अधिक लोगों को मुम्बई धमाकों में मार डालने का मुजरिम, दाऊद इब्राहिम, दुबई में जन्मदिन मनाता है, और उसमें नाचने-गाने वाले, बाकी नए गायकों को ले जाने वाले अनु मलिक को यह देश अब तक संगीत के रियलिटी शो में जज बने देखता है। देश की सामूहिक चेतना नाम का शब्द इस देश के चरित्र से ही गायब है। देश के सबसे बड़े कातिल और मुजरिम के भाट यहां सिर पर बिठाए जाते हैं, और वे बच्चों की गायिकी के जज बनकर बैठते हैं। ऐसे में कोई हैरानी नहीं है कि बच्चों की पीढ़ी से लेकर उनके मां-बाप की पीढ़ी तक मुजरिमों के जुर्म के प्रति संवेदनशील नहीं रह जातीं।
लोगों को याद होगा कि एक समय इस देश में खालिस्तान के लिए, सिक्ख धर्म की आड़ में भिंडरावाले ने सैकड़ों हत्याएं करवाई थीं, और उसकी तस्वीर छपे टी-शर्ट पहनने वाले भी बहुत नौजवान अभी हाल के बरसों तक दिखते थे, और कारों के पीछे उसके बड़े-बड़े स्टिकर चिपके रहते थे। जब लोगों के दिमाग में धर्म छाया रहता है, तो कातिल भी उसे हीरो लगने लगते हैं। आज भी हिन्दुस्तान में अलग-अलग प्रदेशों में दूसरे धर्म के लोगों का कत्ल करने वाले, दूसरे धर्म की बच्चियों से बलात्कार करने वाले लोगों को समाज के नायक बनाने वाले लोग कम नहीं हैं। जगह-जगह हत्यारों और बलात्कारियों का माला पहनाकर अभिनंदन होता है, और ऐसे हर अभिनंदन को देखने, और उसके बारे में सुनने वाली पीढ़ी के मन से मुजरिमों के लिए नापसंदगी खत्म होती जाती है। जिस देश में हिन्दू नौजवान पीढ़ी को लॉरेंस बिश्नोई इसलिए अच्छा लगने लगता है कि उसने एक मुस्लिम फिल्म स्टार को खत्म करने की कसम खाई हुई है, तो ऐसी पीढ़ी की चेतना की हत्या तो पहले ही हो चुकी है, सलमान की कभी हो पाए या नहीं।
एक समाज के रूप में हिन्दुस्तान आज परले दर्जे का गैरजिम्मेदार और मूढ़ समाज हो चुका है। इसे अपने व्यापक हित की समझ नहीं रह गई है, और यह अपनी साम्प्रदायिकता को, जातीय नफरत को अपनी ताकत मानकर बैठा है। जब देश के लोगों की वैज्ञानिक चेतना को, लोकतांत्रिक समझ और मानवीय मूल्यों को सिलसिलेवार और लगातार खत्म किया जाता है, तो फिर इससे होने वाली बर्बादी महज एक पीढ़ी में खत्म नहीं हो जाती। और अभी तो बर्बादी का यह सिलसिला जारी ही है, यह तो थमने के बाद जब समाज में सुधार होना चालू होगा तब जाकर इसमें बरसों लगेंगे, फिलहाल तो सभ्यता का उजडऩा जारी है, और ऐसे में एक मुस्लिम को मारने की कसम हिन्दू हृदय सम्राट बनने के लिए काफी मानी जा रही है, और नौजवान उसके छापे वाले टी-शर्ट पहनने पर आमादा हैं, और वह अनगिनत नौजवानों का रोल मॉडल बन ही चुका है। यह हिंसक सिलसिला समाज में जाने कब थमेगा, लोगों को अपनी पीढिय़ों की फिक्र करनी चाहिए, और अपने बच्चों को धर्म और जुर्म में फर्क करना सिखाना चाहिए, न कि धर्म के नाम पर जुर्म करना।
उत्तरप्रदेश के संभल में एक स्थानीय अदालत के आदेश पर वहां की शाही जामा मस्जिद का सर्वेक्षण किया गया, और इस दौरान वहां हुए तनाव और हिंसा में कुछ मौतें हुई हैं। अब स्थानीय अदालत के ऐसे आदेश के बाद एक दिन के भीतर सर्वेक्षण करने, और उसे अचानक दो दिनों बाद फिर से दुहराने पर सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जाहिर की है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थानीय अदालत की कार्रवाई पर रोक लगा दी है, और प्रशासन को हिदायत दी है कि उसे तटस्थ रहना है। यह उत्तरप्रदेश के पुलिस और प्रशासन को सुप्रीम कोर्ट से बार-बार मिलने वाली हिदायतों के लंबे सिलसिले की ताजा कड़ी है। सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद कमेटी को हाईकोर्ट जाने कहा है, और हाईकोर्ट को कहा है कि वह इनकी याचिका पर तीन दिन में सुनवाई करे। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि जिला अदालत के जज के आदेश पर उसे भी संदेह है, और आपत्ति है, लेकिन वह चाहती है कि मस्जिद कमेटी पहले हाईकोर्ट जाए, तब तक सुप्रीम कोर्ट इस मामले को अपने पास रख रही है, और मस्जिद का जो सर्वे जिला अदालत के आदेश पर हुआ है उस रिपोर्ट को बंद रखने को भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा है। इस मामले को अजमेर की एक स्थानीय अदालत के आदेश के साथ जोडक़र देखा जाना चाहिए जिसमें वहां की आठ सौ बरस पुरानी और विश्वविख्यात दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने का दावा सुनवाई के लिए मंजूर किया गया है, और दरगाह सहित सभी पक्षों को नोटिस दिया गया है। इस मामले को देश के करीब डेढ़ दर्जन वरिष्ठ रिटायर्ड अफसरों द्वारा प्रधानमंत्री को लिखी गई एक चिट्ठी से भी जोडक़र देखना चाहिए जो देश में साम्प्रदायिकता खड़ी करने की कोशिशों के बारे में लिखी गई है।
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देश के सबसे प्रमुख कुछ ओहदों पर रहे हुए करीब डेढ़ दर्जन लोगों ने प्रधानमंत्री को लिखा है कि यह अकल्पनीय है कि एक स्थानीय अदालत सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की 12वीं सदी की दरगाह पर सर्वेक्षण का आदेश दे। यह भिक्षुक संत सूफी/भक्ति आंदोलन का अविभाज्य अंग था, और प्रधानमंत्री खुद हर बरस इस दरगाह के उर्स पर चादर भेजते आए हैं। इन लोगों ने प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा है ताकि देश में साम्प्रदायिकता को घटाने के बारे में कुछ सोचा और किया जा सके।
अब हम भारत के पड़ोस के बांग्लादेश की बात करना चाहते हैं जहां पर कई हिन्दू मंदिरों के खिलाफ हिंसा की खबरें आ रही हैं, और इस्कॉन संगठन के एक प्रमुख स्वामी को वहां राजद्रोह के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है। भारत सरकार ने इस पर बांग्लादेश की मौजूदा कार्यवाहक सरकार से विरोध दर्ज किया है, और इस पर ढाका का कहना है कि देशविरोधी गतिविधियों के कारण यह गिरफ्तारी हुई है। सडक़ों पर भी इस्कॉन को प्रतिबंधित करने के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं। शेख हसीना सरकार को जनाक्रोश से बेदखल करने के बाद अब वहां भारत विरोधी माहौल भी बना हुआ है, और भारत में मुस्लिमों के खिलाफ जो हिंसक माहौल चल रहा है, उसका भी असर शायद बांग्लादेश पर पड़ रहा हो।
भारत में 787 जिले हैं, इनमें से तकरीबन हर किसी में अदालतें हैं। और आज देश का जैसा माहौल है, उसमें किसी भी किस्म के ओहदों पर बैठे हुए लोगों के बीच भी साम्प्रदायिकता उसी तरह घुसपैठ कर गई है जिस तरह समाज के दूसरे तबकों में। वरना सुप्रीम कोर्ट को यूपी के संभल के प्रशासन को यह हिदायत क्यों देनी पड़ती कि उसे निष्पक्ष रहना है, और कल ही यूपी की पुलिस को एक दूसरे मामले में चेतावनी देनी पड़ी कि अगर उसने अदालती आदेश के खिलाफ काम किया, तो उसे ऐसी सजा दी जाएगी कि सब याद रखेंगे। यूपी में मुस्लिमों के मकान-दुकान पर बुलडोजर चलाने को लेकर कितनी ही अदालती चेतावनियां आ चुकी हैं, और देश के कुछ दूसरे प्रदेशों में भी अदालतों को सरकार को ऐसी चेतावनी देनी पड़ी है। हमने बांग्लादेश में हिन्दुओं और बाकी भारतीयों के खिलाफ सत्ता पलट के तुरंत बाद हिंसा के वक्त बांग्लादेशियों को यह याद दिलाया था कि ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया भारत में उन लाखों बांग्लादेशियों के खिलाफ हो सकती है जो कि भारत में वैध या अवैध रूप से बसे हुए, और जिन्हें भारत ने 1971 की जंग के दौरान शरण दी थी। ठीक वैसी ही सलाह हम दुनिया के उन तमाम देशों में बसे लोगों को देना चाहते हैं कि वे वहां दूसरे समुदाय के साथ जैसा बर्ताव करेंगे, वह दुनिया के किसी दूसरे कोने में उनके समुदाय के दूसरे लोगों के साथ कोई और करेंगे। साल भर से अधिक से इजराइल फिलीस्तीनियों पर जो कहर ढा रहा है, उसी का नतीजा है कि अभी योरप में एमस्टरडम में इजराइलियों और यहूदियों पर एक फुटबॉल टूर्नामेंट के बाद हमला हुआ। योरप के एक विशेषज्ञ-जानकार के मुताबिक फिलीस्तीन पर इजराइली हमले शुरू होने के बाद से पूरी दुनिया में जगह-जगह यहूदी विरोधी हिंसा या हमले की नौबत आ रही हैं। कई जगहों पर जहां हिंसा तो नहीं होती, वहां भी सामाजिक बहिष्कार होता है, और उसकी गिनती पुलिस के आंकड़ों में नहीं हो पाती।
भारत में आज चारों तरफ जिस तरह एक मुस्लिम लहर पैदा की जा रही है, और उसे बढ़ाया जा रहा है, उसके नतीजे न तो देश के भीतर अच्छे होंगे, और न देश के बाहर उन देशों में जहां पर कि भारतवंशी बसे हुए हैं। जिन लोगों ने दुनिया देखी नहीं है, सिर्फ वही लोग यह मानकर चल सकते हैं कि वे अपने देश में जिससे जैसा चाहे बर्ताव करें, और उसकी दुनिया में कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी। अब यह ताजा प्रतिक्रिया तो बांग्लादेश में ही देखने मिल रही है। हर देश में किसी न किसी धर्म या जाति के लोग अल्पसंख्यक हो सकते हैं, जैसे कि बांग्लादेश में हिन्दू हैं।
देश के जिन प्रमुख, और जागरूक भूतपूर्व अफसरों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। हालांकि इस चिट्ठी में ही उन्होंने यह लिखा है कि उन्हें इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री मौजूदा परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। भारत में अगर कुछ मुस्लिमों को बरसों तक बिना सुनवाई, बिना जमानत जेलों में बंद रखा गया है, देश की सुप्रीम कोर्ट भी न उनका मामला एक इंच आगे बढ़वा पाई, न उन्हें जमानत दे पाई, तो किसी के ऐसे पांच बरस दुनिया के बाकी लोग भी देखते हैं, और ऐसी बातों का भी असर भारत के बाहर बसे हिन्दू और हिन्दुस्तानियों को झेलना पड़ता है। आज भारत की कुछ जिला अदालतों के छोटे-छोटे जज जिस अंदाज में इस देश के उपासना स्थलों को लेकर बने कानून की अनदेखी कर रहे हैं, वह हैरान कर देने वाली बात है। दो दिन पहले ही हमने अपने यूट्यूब चैनल पर यह कहा था कि अगर हर पूजा स्थल की खुदाई करके मौजूदा धर्म के कब्जे को खारिज करना, और पिछले कब्जे को स्थापित करना है, तो फिर इस देश में हजारों हिन्दू मंदिरों के नीचे से बौद्ध मठ निकल आएंगे, और धर्मान्ध-साम्प्रदायिक लोग खुदाई करते-करते गुफा मानव तक पहुंच जाएंगे, और तब तक देश इस लायक ही रह जाएगा कि वह चकमक पत्थर से आग जलाएगा। कुछ उसी किस्म की बात कल भूतपूर्व अफसरों की चिट्ठी में भी है। देखते हैं प्रधानमंत्री क्या करते हैं।
हिन्दुस्तान के अधिकतर शहरों के साथ यह एक आम दिक्कत है कि वहां जमकर अवैध निर्माण होता है, कुछ या अधिक हद तक सार्वजनिक जगह पर अवैध कब्जा होता है, और उसके साथ-साथ अपने दायरे से बाहर जाकर सामान फैलाकर कारोबार होता है। दूसरी तरफ सडक़ों पर जमकर ट्रैफिक जाम भी रहता है। जिन जगहों से गाडिय़ां निकलनी चाहिए वहां दुकानदारों का सामान पटे रहता है, नुमाइशी पुतले सजाकर खड़े कर दिए जाते हैं, और फुटपाथी कारोबारी भी सडक़ की चौड़ाई को खत्म कर देते हैं। जिनको बड़ी दुकान हासिल है, उनकी नीयत भी सामने सडक़ को दस-पन्द्रह फीट तक घेरने की रहती है। अभी कल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पुलिस, प्रशासन, और म्युनिसिपल की मिलीजुली टीम ने एक-दो जगह से ऐसे अवैध कब्जे हटाए, तो लोगों का तर्क था कि वे 20-25 बरस से वहां कारोबार कर रहे हैं। इसका मतलब यही है कि 20-25 बरस में अवैध कब्जा करने वालों को हटाने की कार्रवाई की नहीं गई थी।
हिन्दुस्तान के अधिकतर शहर किसी योजनाबद्ध कॉलोनी की तरह नहीं हैं, और वे धीरे-धीरे फैलते हुए मनमाने बने हुए हैं, लेकिन किसी भी तरह का अवैध काम अगर वह सडक़ किनारे के निर्माण का है तो वह छुप तो नहीं सकता, और वह जब कभी बनना शुरू होता है, तब से ही वह म्युनिसिपल के अधिकारियों और कर्मचारियों को दिखता ही है, हर इलाके के चुने हुए वार्ड मेम्बर रहते हैं, और ऐसे पार्षदों की मर्जी के बिना तो उनके वार्ड में एक गुमटी भी नहीं लग सकती। इसलिए ऐसे कब्जे चाहे दस बरस से हों, चाहे पच्चीस बरस से, ये इन तमाम जिम्मेदार लोगों की नजरों में रहते हैं, और वे लोग ऐसे अवैध कब्जे या अवैध निर्माण के लिए जिम्मेदार भी रहते हैं। प्रमुख सडक़ों के किनारे कई मंजिलों की इमारत अगर अवैध बन जाती है, तो इसमें जब तक तमाम जिम्मेदार लोगों की कम या अधिक हिस्सेदारी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। स्थानीय संस्थाओं में तकरीबन सौ फीसदी कर्मचारी और मझले अधिकारी स्थानीय ही होते हैं, और गलत निर्माण, गलत कब्जा करने वाले लोगों के साथ उनके पुराने रिश्ते रहते हैं, इसलिए इन पर कार्रवाई आसान नहीं रहती है। गिने-चुने बड़े अफसर म्युनिसिपल के बाहर से आते हैं, और वे अकेले कुछ अधिक कर नहीं पाते।
स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के अपने कई किस्म के स्वार्थ रहते हैं। अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वालों से उन्हें मोटी कमाई होती है, और इसलिए वे कई जगहों पर तो अवैध कामों को बढ़ावा देने में लगे रहते हैं। अगर सब कुछ नियम से बने, तो न कोई चुने हुए नेताओं को पैसे दे, और न ही म्युनिसिपल के कर्मचारियों-अधिकारियों को। जहां से गैरकानूनी काम शुरू होते हैं, वहीं से ऊपरी कमाई की संभावना भी शुरू होती है। इसलिए अभी जब 20-25 बरस से किसी जगह पर काबिज लोगों को हटाया गया, तो यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं था कि आम जनता की सहूलियत खत्म करने वाले ऐसे कब्जों को इतने बरस किसकी मेहरबानी से रहने दिया गया था।
कुछ लोगों को यह लग रहा है कि राजधानी रायपुर में पुलिस, प्रशासन, और म्युनिसिपल ने मिलकर पहली बार ऐसी कार्रवाई की है। आज से 40 बरस पहले भी इस शहर में एक सीएसपी, और एक एडीएम, म्युनिसिपल कमिश्नर के साथ सडक़ों पर निकलते थे, और तमाम अवैध कब्जे कुछ घंटों में ही अपने आप हट जाते थे, सडक़ तक रखे गए सामान जब्त हो जाते थे। यह तो बाद के बरसों में वोटरों से डरे हुए सांसदों, विधायकों, और म्युनिसिपल नेताओं ने गैरकानूनी कामों को अनदेखा करना शुरू किया, और जब अनदेखा ही करना था, तो फिर जिस-जिससे बन पड़ता था, उन्होंने वसूली और उगाही भी शुरू कर दी। बहुत से नेता तो अपने समर्थकों से ही कब्जा करवा देते हैं ताकि उनकी कमाई चलती रहे तो वे नेता के उपकार के बदले उनका काम करते रहें।
यह तो भारत में पंचायती राज व्यवस्था के तहत म्युनिसिपल और पंचायत के चुनाव अनिवार्य हो गए हैं, और हर इलाके को स्थानीय संस्थाओं में प्रतिनिधित्व मिलना जरूरी है। वरना इसके पहले बीच-बीच में चुनाव न होने पर राज्य शासन किसी म्युनिसिपल में प्रशासक बिठा देती थी। और वैसे प्रशासक कभी-कभी निर्वाचित नेताओं के मुकाबले ज्यादा अच्छा काम करते थे क्योंकि उन पर स्थानीय दबाव नहीं रहता था। कुछ लोग प्रशासक की व्यवस्था को ही बेहतर मान लेते थे, लेकिन अगर इसी पैमाने पर देखें, तो फिर राज्य शासन ठीक न चलने पर मुख्य सचिव को उसका प्रशासक बना देना चाहिए, और प्रधानमंत्री का काम ठीक न रहने पर कैबिनेट सचिव को देश का प्रशासक बना देना चाहिए। लोकतंत्र की भावना को देखते हुए स्थानीय संस्थाएं चाहे कितनी ही भ्रष्ट हो जाएं, चाहे कितना ही खराब काम करें, उन्हें निर्वाचित लोगों के तहत ही काम करना है। इसलिए चुनाव होते रहेंगे, और अच्छे या बुरे जैसे भी हों, नेता उन पर काबिज रहेंगे।
स्थानीय संस्थाओं की व्यवस्था इस किस्म की रहती है कि वहां म्युनिसिपल कमिश्नर राज्य शासन की तरफ से तैनात होते हैं, जो कि शासन के लिए ही जवाबदेह रहते हैं, और निर्वाचित नेताओं के मनमाने फैसलों पर काफी हद तक रोक-टोक करने का हक उनको रहता है। अगर वे ही ईमानदारी और सख्ती से काम करें, तो वे बहुत सारे गलत काम रोक सकते हैं। हमें इस सिलसिले में नागपुर में एक वक्त तैनात म्युनिसिपल कमिश्नर याद पड़ते हैं जो कि वहां के एक आईएएस अफसर थे, और उन्हें राज्य सरकार ने शहर को सुधारने की खुली छूट दी थी। एक अकेले अफसर ने पूरे शहर की सडक़ों से अवैध कब्जे हटवा दिए थे, सारे रास्ते चौड़े हो गए थे, और शहर एक बार फिर जिम्मेदार शहर लगने लगा था, खूबसूरत भी, और सहूलियतों वाला भी। इसलिए शहरों को सुधारने का काम उन नेताओं पर नहीं छोड़ा जा सकता जिन्हें उसी शहर से वोट पाकर म्युनिसिपल, या विधानसभा-लोकसभा तक जाने की हसरत रहती है। इसके लिए एक संतुलन बनाकर राज्य सरकार को काबिल अफसरों को म्युनिसिपल भेजना चाहिए, और इस तैनाती को कम से कम दो बरस का रखना चाहिए ताकि ये अफसर शहर को समझ भी सकें।
बरसों बाद जब किसी शहर में कार्रवाई शुरू होती है, तो लोग इंतजार इसी बात का करते हैं कि कब राजनीतिक दबाव इसे रोक देगा। सरकार को प्रदेश के हित में ऐसी राजनीतिक दखल से बचना चाहिए, और अफसरों को कड़ाई से सुधार करने का जिम्मा देना चाहिए। कोई शहर कितना व्यवस्थित है, उससे न सिर्फ उस शहर की साख बनती है, बल्कि उस प्रदेश की भी इज्जत बनती या बिगड़ती है। अब तो टेक्नॉलॉजी बड़ी सस्ती हो गई, इसलिए म्युनिसिपल को अपने पूरे इलाके की हर बरस वीडियो रिकॉर्डिंग करानी चाहिए ताकि यह अच्छी तरह दर्ज रहे कि कहां पर नए कब्जे हो रहे हैं, या नए अवैध निर्माण हो रहे हैं। एक तरफ गैरकानूनी काम करने वाले सडक़ों पर कब्जा करें, और दूसरी तरफ आम लोग सडक़ों से गुजर न पाएं, यह बहुत शर्मनाक नौबत है। यह सारा काम सरकार और स्थानीय संस्थाओं की बुनियादी जिम्मेदारी है, इसलिए इसके लिए अदालत तक जाने की नौबत लाना ठीक नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण फैसला आया है कि महज आरक्षण का फायदा पाने के लिए किसी का धर्म परिवर्तन करना जायज नहीं है। इस मकसद से किए गए धर्म परिवर्तन पर ऐसा कोई फायदा नहीं दिया जा सकता। मद्रास हाईकोर्ट ने इसी साल जनवरी में ऐसा ही फैसला दिया था जिसके खिलाफ अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे जारी रखा है। एक हिन्दू, अनुसूचित जाति के पिता और ईसाई माता की बेटी को जन्म के बाद जल्द ही ईसाई धर्म की दीक्षा दी गई थी। बाद में बड़े होने पर उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए एससी प्रमाण पत्र मांगा, लेकिन उसे देने से मना कर दिया गया क्योंकि परिवार ईसाई परंपरा पर चल रहा था, ईसाई हो भी चुका था, और नियमित चर्च जाता था। यहां याद रखने की बात यह है कि अनुसूचित जनजाति के लोग, आदिवासी अगर ईसाई बनते भी हैं, तो भी उनका आरक्षित दर्जा कायम रहता है। लेकिन अगर अनुसूचित जाति, एससी के लोग ईसाई बनते हैं, तो चूंकि ईसाई समाज में जाति व्यवस्था नहीं है, इसलिए वे ईसाई होकर अछूत नहीं रह जाते, और इसी आधार पर उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना बंद हो जाता है। इस पुरानी संवैधानिक व्यवस्था को लेकर लोगों के बीच जानकारी थोड़ी सी कम इसलिए रहती है कि एसटी-एससी आरक्षित तबकों को लोग आमतौर पर एक साथ गिनते हैं, लेकिन दोनों तबकों के लिए धर्म बदलने पर व्यवस्था अलग-अलग है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कहा है कि ईसाई बने दलित अपनी जातिगत पहचान खो देते हैं, और अगर वे दलित होने की वजह से आरक्षण दुबारा चाहते हैं, तो इसके लिए उन्हें दुबारा हिन्दू होने, और अपनी आरक्षित दलित जाति में जाने, वहां मंजूर किए जाने के ठोस सुबूत देने होंगे। और यह सहूलियत भी उन लोगों को हासिल नहीं होगी जो कि ईसाई परिवार में ही पैदा हुए हैं। जो लोग जन्म से हिन्दू-दलित रहे हों, और बाद में ईसाई बने हों, वे कई तरह की कानूनी और सामाजिक औपचारिकताओं को पूरा करके, अपनी पिछली जाति में शामिल होने के बाद आरक्षण का दावा कर सकते हैं।
भारत में आरक्षण हमेशा से एक दिलचस्प बहस का मुद्दा रहा है क्योंकि संविधान के तहत अलग-अलग तबकों को दी गई रियायत का समाज के अनारक्षित तबके बड़ा विरोध करते हैं, और लोगों को लगता है कि आरक्षण से बाकी लोगों की संभावनाएं सीमित होती चली जाती हैं। फिर शुरूआत से ही चले आ रहे एसटी-एससी आरक्षण से परे बाद के दशकों में जोड़े गए ओबीसी आरक्षण, उसके बाद महिला आरक्षण, उसके बाद अनारक्षित तबके के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण भी विवाद का सामान बने रहे। फिर यह भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेशों में सरकारी नौकरियों में तो ओबीसी आरक्षण है, स्कूल-कॉलेज के दाखिले में भी है, लेकिन संसद और विधानसभा के चुनावों में ओबीसी आरक्षण नहीं है। अब अगली जनगणना के बाद होने वाले डी-लिमिटेशन के बाद महिला आरक्षण लागू होगा, और वह संसद और विधानसभाओं की पूरी तस्वीर बदल देने वाला होगा। ऐसे देश में जब धर्म में जाना, या धर्म को बदलना भी दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था बदल देता है, तो फिर इस मुद्दे पर अभी सुप्रीम कोर्ट के इस लंबे फैसले को बारीकी से समझना जरूरी हो जाता है, और इसीलिए आज हम इस पर यहां लिख रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने इस फैसले में यह साफ किया है कि जाति व्यवस्था का नुकसान तभी तक ध्यान में रखा जा सकता है जब तक कोई व्यक्ति जाति आधारित धर्म का पालन कर रहे हों। जब वे जातिविहीन धर्म में चले जाते हैं, तो फिर वहां वे अपने पिछले धर्म के तहत अपनी पिछली जाति के आरक्षण-नफे का दावा नहीं कर सकते। इस सिलसिले में यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में डी-लिस्टिंग नाम से आंदोलन का एक पुराना इतिहास है। आदिवासी समाज के जो लोग ईसाई बन जाते हैं, लेकिन उसके बाद भी आरक्षण का फायदा पाते हैं, उनके खिलाफ बाकी आदिवासी समाज की तरफ से एक डी-लिस्टिंग आंदोलन दशकों पहले झारखंड में शुरू हुआ था, और कांग्रेस के एक बड़े नेता उसके पीछे थे, और हाल के बरसों में छत्तीसगढ़ में यह आंदोलन जोर पकड़ रहा है। इसमें राज्य सरकार से अपील जरूर की जा रही है, लेकिन यह केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात है। कुछ लोग इसे आदिवासी जनजागरण का दौर भी मान रहे हैं कि ईसाई बने आदिवासियों से आरक्षण का लाभ वापिस ले लेना चाहिए। लेकिन दलितों के विपरीत आदिवासियों के ईसाई बनने पर भी यह व्यवस्था इसलिए जारी रहती है कि दलित तो अछूत से छूत हुए मान लिए जाते हैं, लेकिन ईसाई बनने के बाद भी आदिवासी अपनी आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को जारी रखते हैं। फिलहाल देश में जहां-जहां आदिवासियों के ईसाई बनने के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं, उन्हें इससे रोका जा रहा है, वहां पर डी-लिस्टिंग का मुद्दा एक बड़े हथियार की तरह हवा में लहराया जा रहा है।
भारत में स्कूल-कॉलेज के दाखिलों से लेकर नौकरी और चुनाव आरक्षण तक जातियों की जागरूकता का एक नवजागरण का दौर चल रहा है। सभी समुदायों के लोग अपने-अपने हक के लिए उठ खड़े हुए हैं, और अगले कुछ दशक तक यह एक बड़ा चुनावी, राजनीतिक, और सामाजिक मुद्दा बने रहेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ का एक ताजा जुर्म स्तब्ध कर देने वाला है। सरगुजा इलाके के एक नए जिले मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर (एमसीबी) में एक स्कूल के शिक्षक ने छात्रा का अश्लील वीडियो बना लिया, और उसे इसे उजागर करने की धमकी देकर स्कूल के प्रिंसिपल, दो शिक्षकों, और बलात्कार के लिए घर मुहैया कराने वाले एक डिप्टी रेंजर ने इस नाबालिग छात्रा के साथ कई दिन तक बलात्कार किया। उसे अलग-अलग जगहों पर ले जाकर बलात्कार किया, सामूहिक बलात्कार किया। अब छात्रा की मां की शिकायत पर पुलिस ने इन लोगों को गिरफ्तार किया है। इस छात्रा को यह बात उजागर करने पर जान से मारने की धमकी भी दी जा रही थी, और उसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर देने की भी। 55 बरस का प्रिंसिपल, और 50 बरस का व्याख्याता, 48 बरस का हेडमास्टर गिरोह बनाकर स्कूल की एक नाबालिग और आदिवासी छात्रा को ब्लैकमेल करके, मारने की धमकी देकर हफ्ते भर लगातार सामूहिक बलात्कार करें, तो लोग किस भरोसे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढऩे भेजेंगे? अगर वे दूसरे स्कूल की छात्रा के साथ ऐसा कर सकते हैं तो अपने स्कूल की छात्राओं से भी ऐसा कर सकते हैं।
छत्तीसगढ़ का एक तजुर्बा यह भी है कि आदिवासी इलाकों में जगह-जगह आश्रम-छात्रावास जैसी स्कूलें रहती हैं जहां गरीब-आदिवासी बच्चे मां-बाप से दूर आश्रम और स्कूल के कर्मचारियों और अधिकारियों के मोहताज हुए पड़े रहते हैं, और दूर-दूर के गांवों में रहने वाले मां-बाप बच्चों से लगातार संपर्क में भी नहीं रहते। बस्तर के इलाके में दसियों हजार बच्चे आश्रम-छात्रावासों में रह रहे हैं। आदिवासी इलाकों से देह-शोषण की शिकायतें तो निकलकर बाहर आ भी नहीं पातीं, और जब कभी बड़े पैमाने पर यौन-शोषण होता है तो विस्फोट की तरह वह घटना सामने आती है, इक्का-दुक्का घटनाएं बाहर पता भी नहीं लगतीं। कुछ मामलों में तो छात्राएं गर्भवती हो जाती हैं, और संतान को जन्म देती हैं, तब पता लगता है कि उनके साथ किसी ने ज्यादती की थी। बस्तर में इलाका बहुत बड़ा है, और स्कूलें या आश्रम-छात्रावास बहुत दूर-दूर के इलाकों में हैं, इसलिए वहां तक शासन-प्रशासन की नजर भी अधिक नहीं जाती है। लेकिन सरगुजा के जिस जिले में यह मामला हुआ है वह तो नया बना हुआ छोटा जिला है जहां पर कलेक्टर और एसपी तैनात हैं। इसके बाद भी अगर इस किस्म का संगठित और गिरोहबंदी का भयानक जुर्म वहां हुआ है, तो पुलिस और प्रशासन पर कई सवाल भी खड़े होते हैं। क्या जिलों को छोटा-छोटा करने के बाद भी वहां अफसरों की निगरानी इतनी कमजोर रहती है?
एक दूसरा मुद्दा यह है कि प्रदेश में होने वाले बलात्कारों में उनकी शिकार लड़कियों में आदिवासियों का अनुपात बहुत अधिक है। क्या समाज के लोग आदिवासियों को इतना कमजोर पाते हैं कि उनसे बलात्कार करते हुए उन्हें फंसने का डर नहीं रहता? क्या बलात्कारियों को यह लगता है कि आदिवासी लडक़ी की तो जुबान ही नहीं होती है, और उसकी बात सुनने के लिए पुलिस-प्रशासन के कान नहीं होते? जो भी हो, बलात्कार के बहुत से मामलों में आदिवासी लड़कियों का शिकार होना बहुत फिक्र की बात है, और यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि आदिवासी इलाकों की बहुत सी स्कूलें, और छात्रावास शिक्षा विभाग के न होकर आदिम जाति कल्याण विभाग के होते हैं, और यह किस तरह का कल्याण हो रहा है इस पर सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह भी रहना चाहिए।
हमारा यह भी मानना है कि सामने आने वाले ऐसे हर मामले के मुकाबले दर्जनों मामले तो उजागर ही नहीं होते होंगे। हर किसी का इतना हौसला नहीं होता है कि वे पुलिस तक जा सकें , क्योंकि पुलिस और अदालत आमतौर पर संवेदनाशून्य रहती हैं, और बलात्कार की शिकार होकर वहां पहुंचना हिकारत और शोषण के एक नए जाल में लड़कियों को फंसा देता है। चाहे शिक्षा विभाग हो, चाहे आदिम जाति कल्याण विभाग हो, राज्य में सरकारी स्कूलों की हालत खराब है। शिक्षक जगह-जगह दारू पिये पड़े रहते हैं, यहां तक कि राजधानी रायपुर की एक सबसे प्रमुख स्कूल में वहां का शिक्षक छात्रा को अश्लील संदेश भेज-भेजकर परेशान करता रहा, और आखिर में जाकर गिरफ्तार हुआ। ऐसा लगता है कि छात्र-छात्राओं में जागरूकता और हौसला बढ़ाने के लिए पूरे प्रदेश में एक अभियान छेडऩे की जरूरत है, और स्कूलों में अनिवार्य रूप से शिकायत पेटी लगाने, उसे स्कूल के बाहर के लोगों द्वारा खोलने का इंतजाम करना चाहिए, और इन तमाम शिकायतों को गंभीरता से लेना चाहिए। किसी शिक्षक या कर्मचारी की यौन शोषण की हिम्मत रातों-रात नहीं होती, पहले वे कई किस्म की हरकतें करके छात्राओं की कमजोरी को तौल चुके रहते हैं, और तब जाकर वे देह-शोषण या बलात्कार पर उतरते हैं। अगर सरकार की निगरानी व्यवस्था चौकस रहे, अगर लड़कियों से स्कूल के बाहर की कोई दूसरी संवेदनशील महिला समय-समय पर बात करती रहे, तो हो सकता है कि लड़कियां वक्त रहते अपनी शिकायत दर्ज करा सकें, और बलात्कार की नौबत के पहले बच सकें। यह पूरा का पूरा मामला सरकार के जिम्मे का है, और समाज की लड़कियों पर यह खतरा बहुत नया भी नहीं है। राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी के समय से लेकर अब तक हर दौर में ऐसे मामले सामने आए हैं, लेकिन इसी आधार पर इसकी गंभीरता को अनदेखा करना बहुत बड़ी गैरजिम्मेदारी होगी। छात्राओं के प्रति, और आदिवासियों के प्रति सरकार को अतिरिक्त संवेदनशील होना चाहिए। इस तरह का शोषण समाज में दूसरी हजारों लड़कियों के आगे बढऩे की राह में रोड़ा बन जाता है। ऐसे एक हादसे के बाद हजारों मां-बाप अपनी बच्चियों को पढऩे, खेलने, या किसी और मुकाबले के लिए बाहर भेजने से कतराने लगते हैं। इसलिए महज बलात्कार की शिकार लड़कियां ही इस जुर्म का शिकार नहीं होतीं, ऐसी हर घटना के बाद हजारों दूसरी लड़कियों से उनकी संभावनाएं छीन ली जाती हैं, और उन्हें घर पर सुरक्षित रहने को कह दिया जाता है। सरकार को छात्राओं के मामले में अपने निगरानी तंत्र को मजबूत करना पड़ेगा। हमारा यह भी ख्याल है कि लड़कियों और महिलाओं की जिम्मेदारी जिन पर रहती है, वे ही अगर बलात्कार जैसे जुर्म करने लगते हैं, तो उनके लिए राज्य को एक अलग कड़ी सजा बनानी चाहिए। अभी एक डीएफओ पर उसकी मातहत आदिवासी अधिकारी ने धमकी देकर लगातार यौन-शोषण की रिपोर्ट दर्ज कराई है। छात्रा से बलात्कार करने वाले शिक्षक अगर उसी की स्कूल के हैं, तो उनको भी आम बलात्कार के मुकाबले अधिक सजा मिलनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
संविधान के 75 बरस होने का मौका किसी भी देश के लिए बड़ी अहमियत रखता है, 75वां बरस शुरू होने का मौका भी। यह साल हिन्दुस्तान में संविधान की पौन सदी पूरी होने के जलसों से भरा रहेगा। लेकिन जब कभी ऐसी सालगिरह या ऐसे जलसों की बात आती है तो वैसे में यह भी सूझता है कि क्या जलसों से परे संविधान का सम्मान भी हो रहा है, उस पर अमल भी हो रही है? इसके साथ ही यह भी याद पड़ता है कि संविधान निर्माताओं में जो प्रमुख नाम डॉ.भीमराव अंबेडकर का है, उन्होंने इस संविधान को लेकर कैसी कल्पनाएं की थी, उन्होंने कौन सी सावधानियां गिनाई थी। फिर हमारा मानना है कि संविधान अपने शब्दों को लेकर बहुत हद तक एक स्थिर दस्तावेज रहता है, तब तक, जब तक कि उसमें किसी फेरबदल की जरूरत न लगे। लेकिन संविधान के गिने-चुने शब्दों से कई गुना अधिक मायने उसकी भावना रखती है, और वह भावना बुनियादी तौर पर तो नहीं बदलती, लेकिन वह समय के साथ-साथ देश, काल, और परिस्थितियों के मुताबिक अपने मायने बदलती है। शब्द स्थिर और जड़ होते हैं, लेकिन भावना वक्त-जरूरत के साथ, बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल बदल सकती है। संविधान को एक मुर्दा दस्तावेज मानना ठीक नहीं होगा। उसके शब्द लिखे गए हैं, लेकिन उसकी भावना उसकी आत्मा से निकलती है।
अब हम एक छोटे से मुद्दे की चर्चा जरूरी समझते हैं जो कि अंबेडकर ने बतौर चेतावनी देश के सामने रखा था। उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में जब तक संवैधानिक रास्ते खुले हैं, तब तक उन चीजों के लिए आंदोलन नहीं होना चाहिए। उनकी दूसरी बात यह थी कि राजनीतिक लोकतंत्र पा लेने से ही सामाजिक असमानता खत्म नहीं हो जाती। अगर समाज लंबे समय तक समानता से वंचित रहा, तो वह देश राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल देता है, इसलिए लोगों को महज इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए कि देश आजाद हो गया। उनकी कही तीसरी बात यह है कि राजनीति में भक्ति, या नायक की पूजा तानाशाही की राह खोलती है। हम अंबेडकर की चेतावनियों को भी ऐसा स्थिर नहीं मानते कि पौन सदी बाद भी उसकी व्याख्या दुबारा न कर सकें। हमारा मानना है कि उनकी पहली बात कि जब तक संवैधानिक रास्ते खुले हैं आंदोलन जैसे तरीके अख्तियार नहीं करने चाहिए, यह आज प्रासंगिक और अमल में लाने लायक बात नहीं है। इसके बजाय हमें लोहिया की कही हुई वह बात अधिक माकूल लगती है कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। संवैधानिक रास्ते खुले रहने के कई मतलब निकलते हैं, एक मतलब तो यह निकलता है कि लोग हाईकोर्ट से होकर सुप्रीम कोर्ट तक किसी मुद्दे को लेकर लड़ते रहें, और फिर सुप्रीम कोर्ट से संतुष्ट न होने पर पुनर्विचार याचिका लगाएं, और फिर सुप्रीम कोर्ट किसी बड़ी बेंच में उसकी सुनवाई करे, और इन सबमें कुछ दशक भी लग सकते हैं। तो क्या एक जीवंत लोकतंत्र में संवैधानिक विकल्प की राह देखते हुए दशकों तक कोई आंदोलन ही न किया जाए? हम अंबेडकर की बात को पूरे के पूरे संदर्भ में पढक़र यहां नहीं लिख रहे, इसलिए अगर उनकी बात का संदर्भ कुछ और होगा, तो हम महज एक बात पर अपनी टिप्पणी कर रहे हैं कि लोकतंत्र कभी संवैधानिक विकल्पों का इंतजार करते हुए अपने आपको आंदोलनों से परे नहीं रखता। आंदोलन लोकतंत्र का एक अविभाज्य अंग है, और उसके बिना जीवंत लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। फिर चाहे सत्ता को आंदोलनों के नाम से भी परहेज क्यों न हो। इस देश के इतिहास में लोकतंत्र का विकास अनिवार्य रूप से आंदोलनों के कंधों पर चढक़र आगे बढ़ा है, और संवैधानिक विकल्प का एक हिस्सा हम लोकतांत्रिक विकल्पों को भी मानते हैं क्योंकि संविधान और लोकतंत्र को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। अंबेडकर की दूसरी बात हमें बहुत प्रासंगिक और जरूरी लगती है कि जो लोग देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद पाकर संतुष्ट हैं, और जिन्हें समाज की असमानता फिक्र में नहीं डालती, वे लोग संविधान को ही, भारत के लोकतंत्र को ही खतरे में डालने का खतरा उठा रहे हैं। सामाजिक असमानता गुलामी का एक बड़ा प्रतीक है, सुबूत भी। यह असमानता मर्द और औरत के बीच की हो, सवर्ण और गैरसवर्ण के बीच की हो, संपन्न और विपन्न के बीच की हो, ताकतवर और कमजोर के बीच की हो, किसी भी तरह की हो, असमानता स्वतंत्रता न होने का सुबूत है, शोषित तबकों के परतंत्र होने का। इस मुद्दे पर हिन्दुस्तान में लगातार काम करने की जरूरत इसलिए है कि एक तरफ एक तबका अपनी गाड़ी के हॉर्सपॉवर, या अपने ओहदे और संपन्नता की ताकत, या अपनी मर्दानगी के अहंकार से हर किस्म की स्वतंत्रता भोग रहा है, और उसके शोषण के शिकार तबके परतंत्रता के शिकार हैं। संविधान सभा का काम पूरा होने पर अंबेडकर ने एक भाषण में इस बात का खुलासा भी किया था कि जो लोग असमानता से पीडि़त हैं, वे उस लोकतांत्रिक ढांचे को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं, जिसे संविधान सभा ने बड़ी ही मेहनत से खड़ा किया है।
अब अंबेडकर की कही हुई एक तीसरी बात को देखें, तो उन्होंने कहा था कि राजनीति में भक्ति, या नायक की पूजा तानाशाही की राह प्रशस्त करती हैं। इस बात को उन्होंने 1950 के वक्त गांधी को लेकर कहा हो, या हिटलर को लेकर, या किसी और को लेकर, या फिर उन्होंने दुनिया के दूसरे देशों की मिसालें देखकर इसे कहा हो, या फिर किसी भविष्यवक्ता की तरह उन्होंने अंदाज लगाया हो, उनकी यह बात पूरी दुनिया में कारगर साबित हो रही है, और जहां-जहां लोग हीरो-वारशिप करते हैं, जीते-जागते लोगों की पूजा करते हैं, वहां-वहां तानाशाही आने लगती है। तानाशाही जरूरी नहीं है कि संविधान को कुचलकर आए, वह संविधान के ढांचे के भीतर अपने आपको न्यायोचित ठहराने के लिए कई तरह के छेद ढूंढकर घुस जाती है, और लोकतंत्र का घर संभाल बैठती है। दुनिया का इतिहास इस बात को साबित करता है, और ऐसा लगता है कि अंबेडकर के सामने उस वक्त भी कई मिसालें थीं, और उनकी आशंकाएं भी बहुत गलत साबित नहीं हुई हैं।
हमने अंबेडकर से सहमति और असहमति के साथ संविधान को लेकर आज इस मौके पर अपनी सोच का एक कतरा पेश किया है। इस व्यापक मुद्दे पर एकमुश्त तो सब कुछ लिख पाना मुमकिन नहीं है, लेकिन यह जरूरी है कि संविधान को लेकर होने वाले जलसों के इस साल में इस बात को ध्यान रखा जाए कि संविधान की उस वक्त की भावनाएं, और आज बदले हुए वक्त-जरूरत में उन भावनाओं की नई व्याख्या को शब्दोंतले दम न तोडऩे दिया जाए। जब कभी संविधान के शब्दों पर चर्चा हो, उसकी भावना पर भी चर्चा होनी चाहिए। और आज इस देश के माहौल में जब संविधान के शब्दों को लेकर भी कोई सम्मान नहीं रह गया है, तो इस बात की अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती कि उसकी भावना को लेकर कोई सम्मान होगा। जलसा जरूर हो सकता है। दुनिया में जलसा होना सबसे आसान है, क्योंकि वह सरकारी खर्च से भी हो सकता है, और समाज के किसी तबके की दीवानगी को ठीक लगे, तो जनता भी अपनी जेब का खर्च ऐसे जलसे पर कर सकती है। जिस तरह हर दीवाली समाज के उन गरीबों की याद भी दिलाती है जो अगली सुबह बूझे हुए दियों से तेल निकालने जगह-जगह घूमते हैं, उसी तरह संविधान की हर चर्चा उन कमजोर लोगों की याद दिलाती है जिन्हें संविधान उनका हक नहीं दिला पाया है। संविधान के शब्दों पर इस बरस बड़े-बड़े व्याख्यान होंगे, लेख लिखे जाएंगे, बहसें होंगी, और हो सकता है कि किताबें भी छपेंगी, लेकिन संविधान की भावना को याद करके उसकी शेष-स्मृतियों की तस्वीर पर चंदन की माला चढ़ाने जितनी जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए।
पिछले चार दिनों में छत्तीसगढ़ की सडक़ों पर जितने किस्म के हादसे हुए हैं उनसे सरकार को सबक लेने की जरूरत है। दो अलग-अलग सडक़ दुर्घटनाओं में दो मंत्रियों की कारें हादसे की शिकार हुईं, और वे कम-अधिक जख्मी हुए। दूसरा एक हादसा बस्तर में हुआ जहां सडक़ पर चल रही पुलिस जांच से बचने के लिए दो मोटरसाइकिल सवार नौजवान रेलवे पटरी पर भाग निकले, और उसी पटरी पर आती हुई ट्रेन से बचने के लिए कूदे, या पुल से गिरे, और बुरी तरह जख्मी हुए। राजधानी रायपुर की खबरें है कि किस तरह यहां पर दो आवारा नौजवान अपने दुपहियों की नंबर प्लेट पर कोई संख्या बदलकर ट्रैफिक नियम तोड़ते थे, और चालान दूसरे लोगों तक पहुंचता था। इसी तरह की नंबर प्लेट छेडख़ानी का एक अलग मामला भी सामने आया है। इनसे परे हर दिन इस प्रदेश में सडक़ों पर कई मौतें हो रही हैं। मालवाहक गाडिय़ों में मजदूर या गरीब परिवार के लोग सामान की तरह लदकर जाते हैं, और गाड़ी पलटने से थोक में एक साथ जख्मी होते हैं। बिना हेलमेट हर दिन एक से अधिक दुपहिया वाले मारे जा रहे हैं। और न सिर्फ मौजूदा सरकार का, बल्कि पिछली सरकारों का भी रूख इसी तरह का रहता है कि यह तो चलते ही रहता है।
छत्तीसगढ़ में हैरानी की बात यह है कि एक-एक करके कई मुद्दों पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट सरकार से जवाब-तलब कर रहा है कि सडक़ों पर से जानवर क्यों नहीं हटाए जा रहे, सडक़ों की मरम्मत क्यों नहीं हो रही, या ट्रैफिक लाईटें कितनी जगह काम कर रही हैं, और कितनी जगह खराब हैं। यह देखकर हैरानी होती है कि जो सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी होनी चाहिए, उसके लिए हाईकोर्ट को लाठी लेकर सरकार के पीछे पडऩा पड़ रहा है। देश भर में हर प्रदेश की सरकारों में केन्द्र सरकार के चुने हुए अखिल भारतीय सेवाओं के अफसर काम करते हैं, जिन्हें देश की सबसे महत्वपूर्ण सरकारी सेवाएं माना जाता है। इसके बाद भी अगर छोटी-छोटी सी बुनियादी जिम्मेदारियां भी पूरी नहीं होती हैं, तो किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? इन नामी-गिरामी अफसरों को, या इनके राजनीतिक बॉस निर्वाचित नेताओं को? आखिर रोजमर्रा की जिंदगी को सुरक्षित बनाने की एकदम ही जरूरी जिम्मेदारी से शासन-प्रशासन में बैठे हुए नेता और अफसर इस हद तक कैसे कतरा सकते हैं? और फिर मानो हाईकोर्ट की तो कोई कदर ही नहीं है, जजों की आवाज तो डीजे की आवाज में खत्म हो जाती है, और नेताओं-अफसरों के कान तक पहुंच ही नहीं पाती है। नतीजा यह होता है कि आम जनता भयानक शोरगुल में अपना सुख-चैन, और अब तो जिंदगी भी, खोती रहती हैं, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज उसकी फिक्र करते रहते हैं, और जनता के वोटों से बनी हुई सरकारें अदालत को अनसुना करने में मानो पीएचडी कर चुकी है।
और यह हाल सिर्फ हाईकोर्ट और किसी प्रदेश की सरकार का नहीं है, अब तो सुप्रीम कोर्ट भी बहुत से मामलों में यह रोना रोते बैठे रहता है कि सरकारें और उनके अफसर अदालत की बात नहीं सुन रहे। क्या लोकतंत्र में सरकारों के लिए यह शर्मिंदगी की बात नहीं होनी चाहिए? क्या सडक़ से जानवर हटाने, और लाउडस्पीकर का गैरकानूनी शोरगुल रूकवाने का काम भी हाईकोर्ट का होना चाहिए? और अदालत की बात अनसुनी करने का यह नतीजा है कि छत्तीसगढ़ की सडक़ें इतनी असुरक्षित हो चुकी हैं कि दो दिनों में दो मंत्रियों की गाडिय़ों का सडक़ हादसा हो रहा है, और राजधानी में गुंडे-मवाली बेफिक्री से नंबर प्लेट बदल-बदलकर घूम रहे हैं, और पुलिस बेवकूफ बन रही है।
हम सडक़ पर अराजकता को सिर्फ वहीं तक नहीं देखते। हमारा मानना है कि अधिकतर लोगों की जिंदगी में कानून पहली बार सडक़ पर ही तोड़ा जाता है, बिना लाइसेंस, बिना उम्र हुए बच्चे गाडिय़ां दौड़ाते हैं, स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्रा तीन-तीन, चार-चार लदकर दुपहिए दौड़ाते हैं, पुलिस हेलमेट को लागू करने से कतराती है, हर कोई गाड़ी चलाते हुए मोबाइल या तो हाथ में थामे रहते हैं, या फिर गर्दन मोडक़र सिर और कंधे के बीच दबाए रखते हैं। और यह अराजकता लोगों को अगला कानून तोडऩे का हौसला देती है। तमाम अधिक गंभीर जुर्म सडक़ों से ही शुरू होते हैं, और ट्रैफिक नियम तोडऩे के बाद वे अधिक बड़े अपराधों की तरफ बढ़ते हैं। सरकारों के साथ दिक्कत यह है कि वे पिछली सरकारों की परंपराओं से परे कुछ नया सोचने के लिए अपने को मजबूर नहीं पाती हैं। लीक से हटकर कुछ सोचना और करना दिमागी मेहनत मांगता है, और सरकार चलाने वाले अफसर बाबुओं से पिछले फैसले पूछते हैं, और अधिक से अधिक कोशिश करते हैं कि उन घिसे-पिटे फैसलों से परे कहीं खिसका न जाए। नतीजा यह होता है कि टेक्नॉलॉजी और जिंदगी की जरूरतें अंधाधुंध बढ़ चुकी होती हैं, सडक़ों पर सब कुछ बदल गया रहता है, और सरकार का रूख वही पुराना चलते रहता है। जो सरकारें अपनी सडक़ों पर ट्रैफिक और सडक़ सुरक्षा के बाकी नियम कड़ाई से लागू नहीं करती हैं, वे अपने राज्य में अराजकता को बढ़ावा देती हैं।
दो-दो मंत्रियों के सडक़ हादसों के बाद तो सरकार को पूरे प्रदेश के स्तर पर ट्रैफिक सुधारने के लिए, और सडक़ों को सुरक्षित बनाने के लिए गंभीरता से कोई फैसला लेना था। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय पूरे प्रदेश में संभाग स्तर पर यातायात सुधार समिति रहती थी जिसमें कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को रखा जाता था, और बाजार-कारोबार के कुछ प्रतिनिधि भी उसमें अफसरों के साथ रहते थे। अब वह परंपरा खत्म हो चुकी है। अब सरकारें फैसले लेने, और लागू करने के अपने एकाधिकार का कोई हिस्सा दूसरों के साथ बांटने को तैयार नहीं रहती। और सरकार खुद सडक़ों को सुरक्षित नहीं रख पा रही है, हाईकोर्ट को आए दिन सरकार के सबसे बड़े अफसरों से हलफनामे लेने पड़ रहे हैं। सत्ता का ऐसा रूख सडक़ों पर और अधिक मौतों को तो बढ़ाएगा ही, वह नौजवानों को और भी तरह-तरह के जुर्म करने का हौसला देगा जिसकी शुरूआत ट्रैफिक नियमों को तोडक़र होती है।
क्रिकेट खिलाड़ी, राजनेता, और कॉमेडियन नवजोत सिंह सिद्धू ने अभी एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि उनकी पत्नी नवजोत कौर का कैंसर एक खास घरेलू डाईट से ठीक हुआ है। उन्होंने कहा था कि शक्कर, और दूध के सामानों से परहेज करने, और हल्दी और नीम के सेवन से उनकी पत्नी के कैंसर ठीक होने में कामयाबी मिली। सिद्धू ने कहा था कि नवजोत स्टेज-4 के कैंसर से जूझ रही थी, डॉक्टरों ने उनके बचने की उम्मीद सिर्फ पांच फीसदी बताई थी, लेकिन हल्दी, नीम का पानी, सेव का सिरका, और नींबू पानी के नियमित सेवन से, शक्कर और कार्बोहाइडे्रट से सख्त परहेज, और इंटरमिटेंट फॉस्टिंग की मदद से वे सिर्फ 40 दिनों में अस्पताल से डिस्चार्ज हो गईं।
इस पर देश के एक सबसे बड़े कैंसर अस्पताल टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल के डायरेक्टर ने कहा है कि ऐसे दावों के पीछे कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। टाटा मेमोरियल के मौजूदा और भूतपूर्व 262 कैंसर विशेषज्ञों ने दस्तखत किया हुआ एक बयान जारी किया हुआ है कि इस तरह हल्दी और नीम वगैरह से कैंसर ठीक होने का कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है, और इन डॉक्टरों ने कैंसर मरीजों से अपील की है कि ऐसी गंभीर बीमारी के मामले में वे ऐसे अप्रमाणित उपचार पर बिल्कुल भरोसा न करें। टाटा मेमोरियल के डायरेक्टर डॉ.सी.एस. प्रमेश ने डॉक्टरों का बयान एक्स पर पोस्ट करते हुए सिद्धू के वीडियो को भी पोस्ट किया है, और लिखा है- ऐसी बातें सुनकर किसी को मूर्ख नहीं बनना चाहिए, इस तरह के दावे गैरवैज्ञानिक, और निराधार होते हैं, नवजोत कौर की सर्जरी और कीमोथैरेपी हुई थी, यही कारण है कि आज उन्हें कैंसर से मुक्ति मिली है, इसमें हल्दी, नीम, या किसी भी गैरचिकित्सकीय चीज के मददगार होने का दावा गैरवैज्ञानिक है।
किसी एक व्यक्ति के ऐसे बयान और दावे पर सैकड़ों विशेषज्ञों के ऐसे खंडन की पहले की कभी कोई याद नहीं पड़ती। हाल के बरसों में अपने आपको स्वामी और योगी कहने वाला रामदेव नाम का एक भगवाधारी कारोबारी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के खिलाफ अंतहीन नाजायज बकवास करते रहा, और उसे सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगनी पड़ी, और माफी के ईश्तहार छपवाने पड़े। लेकिन तब तक कोरोना काल के प्रभावित हिन्दुस्तानी लोगों में से करोड़ों लोग इस कारोबारी के झांसे में आकर अपनी सेहत बर्बाद कर चुके रहे होंगे। अब हर किसी मामले में तो लोग सुप्रीम कोर्ट जा नहीं सकते, और अदालत हर किसी को कटघरे में ला नहीं सकती। इसलिए सिद्धू जैसे मशहूर इंसान के इस तरह के नाजायज दावे का भांडाफोड़ करने के लिए डॉक्टरों ने सामने आकर ठीक ही किया है। इस देश के 262 कैंसर विशेषज्ञ अगर एक साथ ऐसा बयान जारी करते हैं, तो देश के आम लोगों को नीमहकीमी सुझाने वाले लोगों की असलियत समझना चाहिए।
दरअसल सोशल मीडिया पर हर किसी को लिखने की जिस किस्म की आजादी हासिल है, उसके चलते हुए बहुत से लोग बेसिर पैर के इलाज सुझाने लगते हैं। सोशल मीडिया पर किसी को भी किसी वैज्ञानिक स्रोत को देने की मजबूरी नहीं रहती है, और यह बात सिर्फ हिन्दुस्तान में नहीं, पश्चिम के पढ़े-लिखे और वैज्ञानिक रूप से विकसित देशों में भी धड़ल्ले से चलती है। नवजोत सिंह सिद्धू ने तो जो बात कही है वह घरेलू नुस्खों की बात है, लेकिन रामदेव जैसे लोगों ने कोरोना को रोकने के दावे के साथ अपनी कंपनी की बनाई हुई जिन दवाईयों का बाजार खड़ा किया, वह तो और भयानक था। फिर केन्द्र सरकार का हाथ रामदेव की पीठ पर था, और रामदेव की दवा लाँच करने के लिए केन्द्र सरकार के मंत्री मौजूद थे, और सरकार के बड़े-बड़े लोगों ने इस बेबुनियाद दवा को बढ़ावा देने का काम किया था। अगर सुप्रीम कोर्ट की दखल नहीं आई होती, तो अब तक रामदेव और भी बहुत सी बीमारियों को ठीक करने का दावा करते रहता, और देश की जनता का भरोसा ऐलोपैथी जैसी आधुनिक चिकित्सा से खत्म करता रहता।
लोगों को लिखने और बोलने की आजादी का ऐसा बेजा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए कि वे सोशल मीडिया पर बड़ी-बड़ी बीमारियों को ठीक करने के सरल और आसान इलाज के दावे करते रहें। कुछ लोग तो इससे भी आगे बढक़र अपने घर पर तैयार की हुई किसी तरह की तथाकथित दवाई बांटने में लगे रहते हैं, और यह मानकर चलते हैं कि वे समाजसेवा कर रहे हैं। ऐसे उत्साह, और ऐसी अवैज्ञानिक सनक पर कानूनी रोक भी लगनी चाहिए। देश में जगह-जगह किसी खास दिन पर अस्थमा ठीक करने के लिए कई लोग तरह-तरह की दवाई बांटते हैं, और इन दवाईयों में क्या है इसे एक रहस्य की तरह रखते हैं, उसकी कोई जानकारी किसी को नहीं देते, और लाईलाज लगती बीमारियों के ठीक हो जाने की उम्मीद के साथ अस्थमा के मरीज इन जगहों पर पहुंचते रहते हैं। देश में ऐलोपैथी के डॉक्टरों के ही ऐसे संगठन हैं जो कि अवैज्ञानिक दावों पर सवाल खड़े करते हैं, और ऐसे ही संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में रामदेव को उजागर किया था, और माफी छपवाने पर मजबूर किया था। हमारा ख्याल है कि सेहत से जुड़े हुए अवैज्ञानिक दावों के खिलाफ न सिर्फ डॉक्टरों को, बल्कि वैज्ञानिक चेतना रखने वाले नागरिकों को भी सरकार और अदालत तक जाना चाहिए। देश में शिक्षा की कमी है, वैज्ञानिक चेतना की कमी है, और इलाज की भी कमी है। ऐसे में न सिर्फ गरीब और बेबस लोग, बल्कि किसी भी तरह के सनसनीखेज दावों पर आसानी से भरोसा कर लेने वाले कमअक्ल लोग भी सोशल मीडिया पर सुझाए गए इलाज पर अमल करने लगते हैं। नतीजा यह होता है कि कैंसर जैसी गंभीर बीमारी के इलाज में देर होती है, और वह बीमारी फैलते हुए जानलेवा हो जाती है। कायदे से तो केन्द्र और राज्य सरकारों की यह जिम्मेदारी है कि वे अवैज्ञानिक चिकित्सकीय दावे करने वाले लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करें, लेकिन चूंकि ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द भीड़ जुटी रहती हैं, और तमाम भीड़ वोटरों की रहती है, इसलिए सत्ता चलाने वाले नेता ऐसे लोगों पर कार्रवाई नहीं करते हैं। हमारा ख्याल है कि समाज के जो लोग अपने आपको जिम्मेदार मानते हैं, उन लोगों को भी इलाज के नाम पर बकवास फैलाने से बचना चाहिए। सिद्धू जैसे लोगों को भी चिकित्सा विज्ञान की तरफ से आए इतने बड़े खंडन के बाद अब अक्ल आनी चाहिए, लेकिन लोकतंत्र में ऐसा कोई कानून भी नहीं है जो लोगों को अक्ल के इस्तेमाल पर मजबूर कर सके।
दो राज्यों में विधानसभा के चुनाव के नतीजे, और कई राज्यों में बिखरे हुए विधानसभा उपचुनावों के नतीजे भाजपा के लिए बड़ी खुशी लेकर आए हैं। महाराष्ट्र में भाजपा, शिंदे सेना, और अजीत पवार का गठबंधन भारी बढ़ोत्तरी के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन बना रहेगा। एनडीए गठबंधन को 38 सीटें अधिक मिल रही हैं, जो कि कांग्रेस-उद्धव-शरद पवार गठबंधन की 19 सीटों, और अन्य की 19 सीटों की कीमत पर हासिल हो रही हैं। महाराष्ट्र में भाजपा शिंदे-सेना से दोगुने से अधिक सीटें पाते दिख रही है, और इसका जाहिर मतलब यह है कि वहां अगला मुख्यमंत्री भाजपा का ही रहेगा। लगे हाथों महाराष्ट्र के नतीजों का एक शुरूआती विश्लेषण करें, तो दो कुनबों के बंटवारे में कुनबों के मुखिया नुकसान में रहे, शरद पवार और उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी के बचे-खुचे हिस्से के साथ बहुत सी सीटें विभाजित हिस्से के हाथों गंवा चुके हैं, फिर भी दिलचस्प बात यह है कि अभी दोपहर की लीड के मुताबिक महाराष्ट्र में सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस का हुआ है जिसने पिछली बार के मुकाबले 26 सीटें खोई हैं, और भाजपा ने महाराष्ट्र में 22 सीटें अधिक पाई हैं। इस तरह पूरे देश में कांग्रेस और भाजपा को आमने-सामने रखकर तुलना करने की जो आम बात है, वह महाराष्ट्र में साफ दिख रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ गठबंधन में उद्धव ठाकरे और शरद पवार की सीटें दोपहर 12 बजे मामूली बढ़ते दिख रही हैं।
महाराष्ट्र की सत्ता जिस गठबंधन के हाथ थी उसी के हाथ बनी हुई है। दूसरी तरफ झारखंड को देखें तो वहां इंडिया-गठबंधन की सरकार जारी रहने के आसार दिख रहे हैं। वहां इसके 51 सीटों पर बढ़त के आंकड़े आ रहे हैं, और इस पल एनडीए 22 सीटों पर पीछे है। कुल 81 सीटों की विधानसभा में यह रूख झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस गठबंधन की सत्ता जारी रहने का रूख दिखा रहा है। दोनों ही राज्य जिन गठबंधनों के हाथ थे, उन्हीं गठबंधनों के हाथ रहते हुए दिख रहे हैं। दूसरी बात यह कि भाजपा की सीटें इन दोनों ही राज्यों में बढ़ रही हैं। दोनों ही राज्यों में इन दोनों गठबंधनों से परे की सीटें कम होते दिख रही हैं, और वे गठबंधनों में जा रही हैं। मतलब साफ है कि गठबंधनों के बाहर स्वतंत्र रूप से लडऩे वाली छोटी पार्टियां इस बार मतदाताओं ने किनारे कर दी हैं, और दो ध्रुवों के बीच चुनाव हुआ है। दो छोटी-छोटी और बातें चर्चा के लायक हैं, झारखंड में लालू की पार्टी आरजेडी छह सीटों पर लड़ी थी, और वह पांच पर जीतते दिख रही है। दूसरी तरफ बंगाल के उपचुनावों में सभी छह सीटें सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस जीत रही है। मतलब यह कि कम से कम इन तीन राज्यों में वोटर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के साथ है।
दोनों ही राज्यों में विधानसभा के चुनाव बहुत किस्म की अदालती कार्रवाई के साये में हुए हैं। केन्द्रीय जांच एजेंसियां लगातार चुनिंदा लोगों को निशाना बनाते हुए लगी हुई थीं, और महाराष्ट्र और झारखंड दोनों जगह एनडीए विरोधी नेता जेल भी आते-जाते रहे हैं। खासकर महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी में जिस तरह से विभाजन हुआ उसने राज्य की राजनीति को छिन्न-भिन्न कर दिया, और केन्द्र और राज्य दोनों जगह सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन मजबूत होता चले गया। चुनावी नतीजे पहली नजर में मतदाताओं का यह रूख भी बताते हैं कि उसने एक स्थिर सरकार बनाने के लिए महाराष्ट्र में एनडीए को वोट दिया है क्योंकि एनडीए से परे किसी गठबंधन की सरकार महाराष्ट्र में स्थिर और स्थाई नहीं रह पाती।
महाराष्ट्र में एनडीए छलांग लगाकर आगे बढ़ा है, और विपक्षी राज वाले झारखंड में भी उसकी लीड अभी पिछली बार से अधिक सीटों पर दिख रही है। भाजपा इन चुनावों में सबसे बड़ी विजेता बनकर सामने आई है। दोनों ही राज्यों में एनडीए के भीतर कमल छाप की सीटें भी बढऩे का रूझान है। कांग्रेस के लिए राहत की एक छोटी सी बात यह हो सकती है कि विधानसभा चुनावों से परे केरल के वायनाड में हुए लोकसभा उपचुनाव में राहुल की खाली की हुई सीट पर प्रियंका तीन लाख से अधिक वोटों की लीड से आगे हैं, और यहां पर सीपीआई को डेढ़ लाख वोट, और भाजपा को 84 हजार वोट अब तक मिले हैं। गांधी परिवार के लिए यह एक निजी खुशी और राहत की बात है कि उत्तर भारत में अपनी कुछ जड़ें खो चुका यह परिवार दक्षिण के एकदम किनारे के केरल में अभी लाखों वोट से जीत रहा है। कांग्रेस के लिए यह भी एक फायदे की बात होगी कि लोकसभा में भाई उत्तर भारत की तरफ से खड़ा होगा, तो बहन दक्षिण भारत की तरफ से। इससे कांग्रेस की उत्तर, दक्षिण दोनों तरफ मौजूदगी बनी रहेगी, और हो सकता है कि शायद मजबूत भी हो।
वोट बढऩे और सीट बढऩे से परे ये चुनाव यथास्थिति को जारी रखने वाले दिखते हैं। दोनों राज्यों में मौजूदा सरकारें जारी रहेंगी, केरल की लोकसभा सीट गांधी परिवार में बनी रहेगी, बंगाल की सीटें टीएमसी के पास बनी रहेंगी, और छत्तीसगढ़ के अकेले विधानसभा उपचुनाव में भी भाजपा की सीट भाजपा के पास आ चुकी है। कर्नाटक में भी सभी तीन उपचुनावों में सत्तारूढ़ कांग्रेस की जीत हुई है। यूपी में भी आधा दर्जन सीटें सत्तारूढ़ बीजेपी को मिली हैं। आने वाले दिनों में अलग-अलग प्रदेशों के राजनीतिक विश्लेषण से यह बात साफ होगी कि बारीक मुद्दे क्या रहे। लेकिन अभी हम आसमान पर उड़ते पंछी की नजरों से देश के नक्शे को एक नजर देख रहे हैं, तो यह भाजपा-एनडीए की बढ़ोत्तरी, और काफी हद तक यथास्थिति जारी रहने की नौबत है। दोनों ही पक्षों के पास खुशी मनाने को कुछ-कुछ है, और कुछ-कुछ गम गलत करने को भी है। शाम को बैठने वाले इन दोनों ही गठबंधनों के लोगों के मूड और मर्जी पर यह निर्भर करेगा कि वे खुशी मनाएंगे, या गम गलत करेंगे, वैसे मतदाता ने दोनों ही बातों के लिए गुंजाइश छोड़ी है।
भारत की कारोबारी दुनिया में गजब का भूचाल आया हुआ है। जब देश में कोई भी एक कारोबारी इतना बड़ा हो जाता है कि उसके अकेले के धंधों से देश की अर्थव्यवस्था तय होने लगती है, जो इतने अलग-अलग किस्म के धंधों में इतना बड़ा बन चुका रहता है कि उसका कोई मुकाबला नहीं रहता, और जिसे बचाने के लिए कारोबार से जुड़ी संवैधानिक और नियामक संस्थाएं एक पैर पर खड़ी रहती हैं, तो उसकी गिरफ्तारी के लिए अमरीका में वारंट निकल जाना इस देश में भूचाल तो ला ही देता है। फिर अडानी की साख हिन्दुस्तान में कुछ इस किस्म की है कि वह मोदी सरकार की सबसे पसंदीदा, और सबसे चहेती कंपनी है, इसलिए अगर वह अमरीका में धोखाधड़ी और जालसाजी, और दूसरे देश में सरकार को रिश्वत देने वाली अमरीका में रजिस्टर्ड कंपनी है, तो यह भी भारत सरकार की साख पर आंच आने की बात है क्योंकि विपक्ष तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और अडानी के संबंधों को लेकर बरसों से हमलावर चले ही आ रहा है। देश में ऐसा भी माहौल है कि केन्द्र सरकार इस कंपनी पर बेतहाशा मेहरबान है, और यह कंपनी सरकार में जो चाहे करवा सकती है।
अब अगर हम अमरीकी अदालत में पेश इस ताजा मामले को देखें जिसमें वहां के न्याय विभाग ने गौतम अडानी, उनके भतीजे, और आधा दर्जन दीगर लोगों के खिलाफ जालसाजी, धोखाधड़ी, और रिश्वत देने का मुकदमा चलाना शुरू किया है, और इन तमाम लोगों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी निकल गए हैं, तो यह हिन्दुस्तान के लिए बहुत फिक्र की बात है। जब किसी एक कारोबारी का आकार इतना दानवाकार हो चुका है, तो फिर उसके जेल जाने के खतरे से देश के बैंक, बाकी वित्तीय संस्थान, शेयर बाजार, और बहुत सी सरकारें हिलने की नौबत आ गई है। केन्द्र की मोदी सरकार से परे देश के दर्जन भर राज्यों में अडानी का राज्य सरकारों से भी कारोबार है, और भारत में सरकारी लोगों को 22 सौ करोड़ रूपए की रिश्वत देने की जो चार्जशीट अमरीकी अदालत में पेश की गई है, उसमें भारत के आन्ध्र, ओडिशा, छत्तीसगढ़, और तमिलनाडु की सरकारों, और सरकारी लोगों पर भी आंच आ रही है। कहने के लिए अब कुछ प्रदेशों के नेता यह कह रहे हैं कि उन्होंने केन्द्र सरकार की एक कंपनी से समझौते किए थे, और सीधे अडानी से समझौता नहीं किया था। लेकिन यह कुछ उसी तरह का मामला है कि छत्तीसगढ़ के हसदेव में कोयला खदान की लीज तो राजस्थान सरकार को अपने बिजलीघर के मिली है, लेकिन उसे खोदने, और कोयला पहुंचाने का काम राजस्थान की तरफ से अडानी को दिया गया है। और अब अडानी हसदेव में जो कुछ कर रहा है, वह यह तकनीकी आड़़ ले सकता है कि खदान की लीज तो राजस्थान सरकार की है, वह तो वहां सिर्फ मजदूरी कर रहा है, सिर्फ पेड़ों पर कुल्हाड़ी चला रहा है, राजस्थान सरकार के लिए।
पहली नजर में अडानी पर जो तोहमतें लगी हैं वे यह हैं कि चार साल से अडानी भारत में रिश्वत देकर सोलर प्रोजेक्ट के लिए समझौते कर रहा था, और अमरीकी पूंजी बाजार में उसने इन सोलर प्रोजेक्ट का हवाला देकर, मोटी कमाई का भरोसा दिलाकर 24 हजार करोड़ रूपए जुटाए थे, जो पूरी तरह धोखाधड़ी, और जालसाजी से किया गया काम बताया जा रहा है। अमरीकी न्याय विभाग ने अदालत में कहा है कि पूंजी बाजार में अडानी ने अपने खिलाफ चल रही जांच और कानूनी कार्रवाई को पूरी तरह से छुपा लिया था, और एक झूठी तस्वीर पेश करके इतना पैसा इकट्ठा किया। अमरीकी जांच एजेंसी एफबीआई ने गौतम अडानी के भतीजे सागर अडानी की जांच में यह पाया कि अमरीकी निवेशकों और वित्तीय संस्थानों को झूठी जानकारी दी गई। इस जांच में अडानी के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण भी जब्त किए जा चुके थे। 2020 से 2023 के बीच इन सभी आरोपियों के बीच घूसखोरी की चर्चा वाले ई-मेल आए-गए, और इन लोगों ने मिलकर भी इस पर चर्चा की। जांच एजेंसी ने अदालत को बताया है कि गौतम अडानी और उनके बड़े अधिकारियों ने 2022 में दिल्ली में घूस की साजिश रचने के लिए बैठक भी की थी।
लेकिन अमरीका में जांच एजेंसियों ने, और वहां के पूंजी बाजार के नियामक आयोग ने अडानी को जिस धोखाधड़ी और जालसाजी का आरोपी ठहराया है, वह बड़ा गंभीर मामला है। अमरीका का कानून वहां की सरकार को यह अधिकार और जिम्मेदारी देता है कि वहां कारोबार करने वाली कंपनी अगर दुनिया के किसी भी देश में रिश्वत देती है, तो उस पर अमरीका में मुकदमा चलाया जा सकता है। यह बड़ा अजीब नौबत है कि भारत में केन्द्र सरकार और आधा दर्जन राज्य सरकारों के लोगों को रिश्वत देने की तोहमत लगी है, उसके सुबूत अदालत में पेश कर दिए गए हैं, अमरीका में मुकदमा चल रहा है, वहां गिरफ्तारी वारंट निकला है, लेकिन भारत में देश या किसी प्रदेश की सरकारों के माथों पर कोई बल नहीं पड़ा है। अमरीका का यह मामला अडानी के लिए इसलिए खतरनाक है कि जिन धाराओं में खुलासे से सुबूत पेश किए गए हैं, उनमें अडानी चाचा-भतीजे के अलावा उनकी कंपनी के आधा दर्जन और लोगों को पांच साल तक की सजा मुमकिन है। इसके साथ-साथ यह भी है कि भारत और अमरीका के बीच प्रत्यर्पण संधि की नौबत और जरूरत उस वक्त आ सकती है जब इन लोगों को भारत में रहते हुए ही अमरीका में सजा हो जाए। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि भारत सरकार ने अपनी पूरी ताकत लगाकर अमरीकी राष्ट्रपति के एक विशेषाधिकार का अनुरोध किया है जिसके तहत वे किसी भी मुजरिम की सजा माफ कर सकते हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जाते हुए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन से उनके बचे हुए हफ्तों में ऐसी कोई अपील कर सकते हैं, और क्या अमरीकी कानून में किसी मुकदमे में मुजरिम साबित होने के पहले भी राष्ट्रपति माफी दे सकते हैं? और क्या अगले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप अपने कार्यकाल में भारत सरकार की ऐसी किसी संभावित अपील पर भारत से बहुत बड़ा मोलभाव किए बिना ऐसी कोई माफी दे सकते हैं? लेकिन ये तमाम बातें आगे की हैं, फिलहाल तो ऐसा लगता है कि अडानी भारत में रहकर अमरीका में दिग्गज वकीलों के मार्फत अदालती मुकदमा लड़ेंगे।
भारत में राहुल गांधी पिछले कई बरस से अडानी और मोदी के रिश्तों को लेकर असाधारण स्तर के हमलावर बने हुए हैं। अब कांग्रेस पार्टी ने इस पर अडानी की गिरफ्तारी भी मांगी है, और संयुक्त संसदीय समिति की जांच भी। यह केन्द्र सरकार से इतने करीबी रिश्तों वाली, देश के इतने अधिक राज्यों में कारोबार करने वाली, और ऐसी दानवाकार कंपनी है, कि इसकी और कोई मिसाल नहीं हो सकती थी। यह तो अच्छा है कि यह मामला अमरीकी जांच एजेंसियां जांच रही हैं, और अमरीकी अदालत में यह चल रहा है। क्योंकि भारत में ऐसा कुछ भी मुमकिन नहीं था। देखना यह है कि अमरीका में पहली नजर में इस कंपनी के किए हुए जो जुर्म सरीखे काम दिख रहे हैं, वे अगर वहां जुर्म साबित होते हैं, तो फिर अमरीकी एजेंसियों के जुटाए गए सुबूतों पर भारत सरकार, और इसकी प्रदेश सरकारें क्या करेंगी? हमारा तो यह मानना है कि भारत सरकार को तुरंत ही अमरीका सरकार को लिखकर इस मामले के अधिक से अधिक सुबूत मांगने चाहिए क्योंकि भारत सरकार ने संविधान की शपथ ली है, और अगर उसकी जानकारी में यह बात आ रही है कि भारत की किसी कंपनी ने भारत की सरकारों को 22 सौ करोड़ रूपए रिश्वत दी है, तो मोदी सरकार को तुरंत ही इस पर जांच करनी ही चाहिए, संविधान की शपथ सरकार पर यह जिम्मेदारी डालती है कि वह इसे अनदेखा न करे। अडानी का अमरीकी अदालत में जो होना है सो हो, लेकिन भारत ने अगर अमरीका से तुरंत सुबूत नहीं मांगे, और उन सुबूतों पर इस देश में अगर कोई कानूनी कार्रवाई बनती है, उसे शुरू नहीं किया, तो भारत सरकार खुद शक के बादलों तले रहेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिमाचल हाईकोर्ट से एक ऐसा फैसला निकलकर आया है जिसे पहली नजर में कोई सरकार के कामकाज में दखल करार दे सकते हैं, लेकिन यह पूरे देश पर लागू होने वाला मामला दिखता है। वहां हाईकोर्ट ने राज्य के पर्यटन विकास निगम के लगातार घाटा दे रहे 18 होटलों को बंद करने का फैसला दिया है। उन्होंने इसके लिए 25 नवंबर की तारीख दे दी है, और कहा है कि निगम के एमडी इसके लिए व्यक्तिगत रूप से जवाबदेह रहेंगे। हालांकि राज्य सरकार की तरफ से मुख्यमंत्री ने कहा है कि वे इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे, लेकिन जज की जुबान में, इन सफेद हाथियों, के घाटे को सरकार कैसे निपटाएगी इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है। सरकारी वकील ने कहा है कि यह फैसला बड़ा रूटीन है, और इसकी खबर इसलिए बन रही है क्योंकि अदालत ने इन होटलों की नीलामी का जिक्र किया है। ये तमाम होटलें बड़ी खास जगहों पर बनाई गई हैं, फिर भी घाटे में चल रही हैं। अदालत ने कहा कि इन सफेद हाथियों के रखरखाव पर जनता का पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए।
अब सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण का मामला हमेशा से विवादों में घिरा हुआ रहा है। आज मोदी सरकार पूरे देश में अधिक से अधिक सार्वजनिक उपक्रमों को बेचते चल रही है। इनमें एयर इंडिया सरीखे पुराने संस्थान भी हैं जो हजारों करोड़ के घाटे में चल रहे थे, और जिनका घाटा सरकार पूरा करते चल रही थी। अभी जब टाटा ने इसे खरीदा तो एयर इंडिया पर 61 हजार करोड़ रूपए की देनदारी थी, और उसे मोदी सरकार ने ही चुकता किया। दिलचस्प बात यह है कि टाटा की ही 1932 में शुरू की हुई एयर इंडिया के 49 फीसदी शेयर भारत सरकार ने आजादी के तुरंत बाद 1948 में ले लिए थे, और 1953 में एक कानून बनाकर और भी शेयर ले लिए। बाद में यह पूरी तरह से सरकारी एयरलाईंस हो गई, और घाटे में डूबती चली गई। जब देश में दूसरी निजी एयरलाईंस को इजाजत दी गई, तो एयर इंडिया का भविष्य खत्म हो गया। अब मोदी सरकार ने इसे बेचा तो एक बार फिर टाटा इसे लेकर घाटे से उबारने की कोशिश कर रहा है।
अब हम हिमाचल के फैसले के आसपास की दूसरी मिसाल देखें तो छत्तीसगढ़ में भी राज्य बनने के बाद प्रदेश भर में कई टूरिस्ट मोटल बनाए गए, और वे तकरीबन सारे के सारे घाटे में चलते रहे। कुछ जगहों पर तो हालत यह रही कि नेताओं ने अपने विधानसभा क्षेत्र में कुछ काम दिखाने के लिए ऐसी जगहों पर ये मोटल बनवाए जहां पर्यटकों के जाने का कोई काम ही नहीं था। नतीजा यह निकला कि उन्हें चलाने के लिए जिस तरह के किराए पर देना पड़ा, वैसा किराया देकर निर्माण कंपनियों ने ऐसे मोटल को अपना गोदाम बना लिया, और वहां मजदूर ठहरा लिए। सरकारी कारोबार की ऐसी बदहाली देखकर लगता है कि सरकार को कारोबार करना नहीं चाहिए, बल्कि कारोबार पर नियंत्रण करना चाहिए। डॉ.रमन सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ आए थे, और मुख्यमंत्री निवास पर संपादकों के साथ खाने पर उनकी चर्चा हुई थी। उन्होंने छत्तीसगढ़ के पहले के एक सरकारी उपक्रम बालको के बारे में पूछे गए सवाल पर कहा था कि उनकी पार्टी घाटा झेलकर सरकारी कारोबार चलाना नहीं चाहती, इसलिए अटलजी के प्रधानमंत्री रहते हुए बालको का विनिवेश किया गया था। उन्होंने बालको के बिक्री के दिन के शेयर का दाम और इस चर्चा के दिन का शेयर का दाम बताया था, और कहा था कि सरकार ने करीब आधी हिस्सेदारी बेचकर मोटी कमाई पाना शुरू कर दिया है, और बालको की कमाई पर सरकार को टैक्स भी मिलता है। उन्होंने गुजरात के एक-एक बस स्टैंड पर निजी भागीदारी से बनाए गए बड़े-बड़े मॉल का जिक्र भी किया था कि जहां दूसरे प्रदेशों में बस स्टैंड गंदी जगह रहती है, गुजरात के बस स्टैंड पर लोग पिकनिक मनाने जाते हैं।
अब निजीकरण के साथ जुड़ी हुई कई दूसरी बातों को भी समझना जरूरी है कि सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति निजी कारोबारियों को किस दाम पर, और किन शर्तों पर दी जा रही है। खानदानी सोने के गहने कहीं चांदी के दाम पर तो चुनिंदा कारोबारियों को नहीं बेच दिए जा रहे हैं? अगर पूरी पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक उपक्रम बेचे जाते हैं, और निजी कारोबारी उन्हें बेहतर तरीके से चलाते हैं, सरकार को हिस्सेदारी या टैक्स भी मिलता है, तो निजीकरण को महज सरकारी नौकरियों को बनाए रखने के लिए रोकना ठीक नहीं है। कई कारोबार ऐसे रहते हैं जो सरकारी अमले के मिजाज से ही मेल नहीं खाते, जिनमें होटल या रेस्त्रां चलाना भी है। और जहां कहीं सरकारी संस्थान जनता के पैसों से घाटा पूरा कर रहे हैं, उन्हें लीज पर देने, या बेच देने के बारे में इसलिए सोचना चाहिए कि सरकारी नालायकी का दाम करदाता क्यों चुकाएं? एयर इंडिया के मामले में देश ने यह देखा हुआ है कि किस तरह बिना तली वाले एक अंधेरे कुएं में सरकार अपनी मदद डालती जा रही थी, और घाटा कभी पटने का नाम ही नहीं ले रहा था।
दूसरी तरफ कुछ ऐसे मामले हैं जहां पर सरकार की मौजूदगी हट जाने से बाजार बुरी तरह शोषण पर उतर जाता है। जिन राज्यों में सरकारी बसें बंद हो गई हैं, वहां पर निजी बसें सिर्फ प्रमुख रास्तों पर चलती हैं, और मनमानी वसूली करती हैं। छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य हैं जहां अब फिर से सरकारी बसें शुरू करने की मांग उठ रही है। भारत में मोबाइल-इंटरनेट कंपनियों ने शुरूआती रियायत के बाद जिस अंदाज में ग्राहकों से उगाही चालू की, उससे भी अब दसियों लाख ग्राहक सरकारी कंपनी बीएसएनएल की तरफ लौट रहे हैं। इसलिए सरकारी धंधों का सौ फीसदी निजीकरण भी ठीक नहीं है, और हर कारोबार को देख-समझकर चलाना, बेचना, या बंद करना चाहिए। हम हिमाचल हाईकोर्ट के फैसले को आज की इस चर्चा की शुरूआत के लिए एक मुद्दा मानकर आगे बढ़े हैं, लेकिन हर प्रदेश को अपने सरकारी कारोबार के बारे में सोचना-विचारना चाहिए कि वे घाटे में न चलें, और उनकी फायदे की संभावनाएं अछूती न रह जाएं। आज अमरीका में अगले राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनल्ड ट्रम्प ने जिस तरह सरकारी अमले की नालायकी और निकम्मेपन को घटाने के लिए एक छंटनीमास्टर कारोबारी एलन मस्क को जिम्मा दिया है, उसी तरह भारत की देश-प्रदेश की सरकारों को अपनी-अपनी चर्बी छांटने का काम करना चाहिए।