संपादकीय

राजस्थान की खबर है कि वहां सरकारी स्वास्थ्य योजना में एआई के इस्तेमाल से सरकारी डॉक्टरों और दवा दुकान संचालकों का किया हुआ करोड़ों का गबन पकड़ाया है। एआई से की गई जांच-पड़ताल से निकला कि एक सरकारी डॉक्टर ने कुछ चुनिंदा परिवारों के मरीजों को बार-बार एक जैसी महंगी दवाई लिखीं, जिन्हें इंसानी नजर से पकडऩा मुमकिन नहीं था, लेकिन एआई ने यह निकाल दिया कि एक डॉक्टर ने 416 बार एक जैसी दवाईयां लिखीं। कुछ दूसरे डॉक्टरों ने एक ही सिटी स्कैन पर आधा दर्जन बार बिल बना दिया। इस सब गोरखधंधे में दवा दुकानदार भी शामिल थे, क्योंकि असल में तो इन दवाईयों की जरूरत थी नहीं। मध्यप्रदेश से एक दूसरा समाचार है कि एक ब्रिटिश डॉक्टर के नाम पर फर्जी कागज लगाकर एक आदमी एक ईसाई मिशन अस्पताल में काम करते रहा, और वहां उसने मरीजों की हार्ट सर्जरी कर डाली जिनमें सात की मौत हो गई। अब वह ‘डॉक्टर’ फरार है, और पता लग रहा है कि उसने हैदराबाद में भी इसी तरह का काम किया था। यह मिशन अस्पताल केन्द्र सरकार की स्वास्थ्य योजना से भुगतान भी पाता था। कुछ महीने पहले ही गुजरात की एक खबर थी कि गुजरात के सूरत में कुछ फर्जी डॉक्टरों ने एक मल्टी सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल खोल दिया था, जिसमें बिना डॉक्टरी की पढ़ाई या जानकारी वाले लोग इलाज कर रहे थे। इसमें 14 फर्जी डॉक्टर गिरफ्तार हुए थे, 8वीं पास आदमी भी इलाज कर रहा था, और एक ऐसे गिरोह का भांडाफोड़ हुआ था जो 70 हजार रूपए में डॉक्टरी की फर्जी डिग्री बनाकर दे रहा था। इस गिरोह के पास सैकड़ों एप्लीकेशन और सर्टिफिकेट मिले हैं, और अब तक यह 12 सौ फर्जी डॉक्टरी-सर्टिफिकेट बेच चुका है। इसके बाद अभी पिछले ही महीने की खबर है कि गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में एक फर्जी थ्रीस्टार हॉस्पिटल पकड़ाया जिसमें आईसीयू और ट्रामा सेंटर भी चलाया जा रहा था, और इसके लिए म्युनिसिपल प्रमाणपत्र नकली सील-मुहर से बनाया गया था। अलग-अलग डॉक्टरों के नाम और रजिस्ट्रेशन नंबर जुटाकर कागजों पर उनका जाली इस्तेमाल हो रहा था। गुजरात में ही कच्छ के इलाके में एक नकली स्त्रीरोग विशेषज्ञ पकड़ाया जो कि बिहार से आकर बिना किसी मेडिकल जानकारी के जचकी अस्पताल चला रहा था।
एक तरफ तो केन्द्र सरकार ने 2025 वित्तीय वर्ष के लिए 9 हजार 4 सौ करोड़ रूपए अकेले आयुष्मान भारत योजना में रखे हैं। पिछले बरस प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में 68 सौ करोड़ रूपए खर्च हुए थे। इसके अलावा हर राज्य में राज्य सरकारों का अपना एक इलाज का ढांचा है जिस पर सैकड़ों या हजारों करोड़ रूपए एक-एक राज्य में खर्च होते हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की योजनाएं और उनकी नीयत ऐसी दिखती हैं कि तकरीबन हर मरीज को हर बीमारी का इलाज सरकारी खर्च पर मिल जाए। इसके बाद अगर देश में इलाज के नाम पर जालसाजी और धोखाधड़ी इस बड़े पैमाने पर चल रहे हैं, तो इसे आम भ्रष्टाचार, और आम जालसाजी के मुकाबले अधिक बड़ा जुर्म माना जाना चाहिए। और जब हम इन दूसरे प्रदेशों की चर्चा कर रहे हैं, तो इसी वक्त छत्तीसगढ़ लगातार इन खबरों से भरा हुआ है कि यहां पिछले पांच बरस कांग्रेस सरकार में किस बड़े पैमाने पर चिकित्सा-खरीदी घोटाला हुआ है। सैकड़ों करोड़ के घोटाले में कई अफसर और सप्लायर बिना बेल जेल में पड़े हुए हैं, और कई बड़े अफसरों का अभी जेल जाना बाकी है।
वैसे तो सरकार का एक-एक पैसा जनता पर खर्च होता है, लेकिन कुछ विभागों का काम ऐसा रहता है जो दूसरों के मुकाबले अधिक संवेदनशील रहता है। जैसे बच्चों और महिलाओं के खानपान और सेहत से जुड़े विभाग, दलित और आदिवासी कल्याण से जुड़े विभाग, वृद्धावस्था और बीमारी में आर्थिक मदद करने वाले विभाग, और इलाज से जुड़े विभाग। जब इन विभागों में भ्रष्टाचार होता है, तो उसकी मार समाज के सबसे कमजोर और जरूरतमंद तबकों पर अधिक पड़ती है। जब ऐसे मामलों में भ्रष्टाचार हो, तो उसके लिए सजा कुछ अधिक तय होनी चाहिए, और ऐसी लूट की रकम वापिसी के लिए भी अधिक कड़े नियम बनाए जाने चाहिए। आज होता यह है कि सडक़ घोटाला, या फर्नीचर घोटाला जैसे मामलों की सुनवाई के अंदाज में ही इलाज घोटाला की सुनवाई होती है, या पोषण आहार घोटाले की सजा भी खेती के पम्प खरीदने में भ्रष्टाचार की सजा की तरह सुनाई जाती है। यह फर्क करना बहुत जरूरी है कि जुर्म एक सरीखा होने पर भी किस जुर्म के शिकार अधिक कमजोर होते हैं, अधिक बड़ा नुकसान पाते हैं। अब अगर टीबी या एड्स के इलाज में कोई भ्रष्टाचार किया जाए, तो मरीजों का इलाज लगातार ठीक से न होने पर उनकी बीमारी लाइलाज और जानलेवा हो सकती है, यह नौबत जंगल में पेड़ लगाने में भ्रष्टाचार के मुकाबले अधिक नुकसानदेह रहती है। ऐसे मामलों में सुनवाई भी तेजी से होना चाहिए, और सजा भी बड़ी और कड़ी होनी चाहिए। यह सरकार और न्यायपालिका दोनों को देखना चाहिए कि ऐसा कैसे हो सकता है। आज भी कुछ खास किस्म के मामलों की सुनवाई के लिए अलग-अलग अदालतें तय हैं, कुछ फास्ट ट्रैक अदालतें भी रहती हैं, ऐसे में यह सोचना चाहिए कि जीवनरक्षक मामलों की कोई ऐसी लिस्ट बन सकती है क्या जिनकी सुनवाई अलग से की जा सके, तेजी से हो, और भ्रष्टाचारियों की सम्पत्ति तेजी से कुर्क हो सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)