संपादकीय

देश में एक बार फिर यह बहस चल रही है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को अपनी संपत्ति घोषित करनी चाहिए या नहीं? आज हालत यह है कि 25 हाईकोर्ट में काम कर रहे 769 जजों में से सिर्फ 95, यानी 13 फीसदी से कम ने अपनी संपत्ति और देनदारी की जानकारी अदालती वेबसाइट पर सार्वजनिक की है। एक भरोसेमंद अखबार द हिन्दू, में प्रकाशित आंकड़ों को देखें तो छत्तीसगढ़ के 16 जजों में से सिर्फ एक ने ऐसा किया है, मद्रास हाईकोर्ट के 65 में से 5 ने, लेकिन केरल के 44 में से 41 जजों ने, और हिमाचल के 12 में से 11 जजों ने संपत्ति की घोषणा की है। दिल्ली हाईकोर्ट में 2018 में 29 जजों ने संपत्ति घोषित की थी, जबकि आज कुल 7 जजों ने संपत्ति घोषित की है। सुप्रीम कोर्ट के 33 में से 30 जजों ने यह घोषणा की है, और अभी पिछले हफ्ते की बैठक में सभी 33 ने इस जानकारी को सार्वजनिक करने पर सहमति जताई है। संसद की एक कमेटी ने पहले ही न्यायिक सुधार पर अपनी एक रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के सभी जजों को हर साल संपत्ति की घोषणा अनिवार्य रूप से करनी चाहिए। रिपोर्ट में कहा था कि जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों की संपत्ति की जानकारी पाने का हक जनता को है, तो यह तर्कहीन है कि जजों को इससे छूट मिले।
केन्द्र और राज्य सरकारों के छोटे-छोटे से अधिकारी-कर्मचारी को अपनी संपत्ति की घोषणा करनी पड़ती है, और कई राज्य सेवाओं में तो कोई चल-अचल संपत्ति खरीदने के पहले सरकार से इजाजत भी लेनी पड़ती है। ऐसे में जब दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के बंगले से जले हुए नोटों की बोरियां मिली हैं, तो लोगों के मन में यह शक जायज है कि एक जज के घर इतना पैसा आया कहां से? हाईकोर्ट जज के बजाय कोई और रहता तो अब तक ईडी और आईटी की दखल हो चुकी रहती, लेकिन जस्टिस यशवंत वर्मा का महज दिल्ली से इलाहाबाद हाईकोर्ट तबादला किया गया है। लेकिन न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोप नए नहीं है, और शांतिभूषण-प्रशांत भूषण नाम के दो दिग्गज वकील पिता-पुत्र सुप्रीम कोर्ट पर ऐसे खुले आरोप लगाकर अदालत के कटघरे तक जा चुके हैं, और सुप्रीम कोर्ट के बहुत कहने पर भी उन्होंने अपने आरोप वापिस नहीं लिए। चूंकि अदालती फैसलों में जजों के विवेक का बहुत बड़ा अधिकार रहता है, और यह बात कई फैसलों में सामने आती है जिनमें जज एकमत नहीं रहते, और कोई जज असहमति का फैसला भी लिखते हैं, ऐसे में बहुमत से फैसला माना जाता है। तो जहां विवेक का ऐसा अधिकार मिला हुआ हो, वहां पर अगर जजों से एक आम सरकारी अफसर या विधायक-उम्मीदवार जितनी पारदर्शिता की उम्मीद की जाती है, तो उसमें अटपटा क्या है? ऐसे बहुत से मामले रहते हैं जिनमें सुप्रीम कोर्ट का फैसला हाईकोर्ट जज के फैसले के खिलाफ रहता है, जहां पर इतनी बड़ी असहमति की गुंजाइश रहती है, वहां पर भ्रष्टाचार की भी एक आशंका की जगह बनती है। इसलिए संपत्ति की घोषणा तो एक बुनियादी जरूरत है। कई मामलों में अफसरों, नेताओं, और जजों की संपत्ति की घोषणा से यह भी पता लगता है कि उनका पूंजनिवेश कहां है, उनके प्लॉट या मकान किस बिल्डर की योजना में है, और इससे यह भी साफ होता है कि उन्हें किन मामलों की सुनवाई नहीं करनी चाहिए। कई ऐसे मामले समय-समय पर आते हैं जिनमें वकील ही इस बात की आपत्ति करते हैं कि फलां जज को फलां मामले की सुनवाई उस वजह से नहीं करनी चाहिए।
सरकारी अफसरों से अलग, जज अपने आपको अवमानना के विशेषाधिकार के सुरक्षाचक्र में भी रखते हैं। अफसरों को उनके कामकाज को लेकर उन पर कोई तोहमत लगने पर सरकार की इजाजत लेकर मानहानि का मुकदमा दायर करना पड़ता है। दूसरी तरफ अदालतों के जज उनके कामकाज को लेकर कोई तोहमत लगने पर अपनी ही अदालत में सीधे अवमानना का मामला चलाने लगते हैं। आर्थिक भ्रष्टाचार से परे कई दूसरे तरह के भ्रष्टाचार भारत की बड़ी अदालतों के जज करते हैं, जिनमें साम्प्रदायिक बातें करना, अदालत की निष्पक्षता की छवि को नुकसान पहुंचाने वाली राजनीतिक बातें करना, नेताओं से गलबहियां करना, ऐसे बहुत से मामले हैं जो जजों की निष्पक्षता पर संदेह खड़े करते हैं, और हम तो भारत की बड़ी अदालतों में इसका कोई इलाज देख भी नहीं रहे हैं। जिस तरह के अमानवीय फैसले लिखने पर जजों को हटा दिया जाना चाहिए, उन जजों के ऐसे फैसलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी पर ही बात खत्म हो जाती है। इसलिए आज जरूरत अदालतों में कई तरह के सुधार की है, और जजों की संपत्ति की घोषणा महज एक शुरुआत है। वैसे तो आज इस देश में भ्रष्ट लोगों को अपना कालाधन अपने नाम पर रखने की कोई मजबूरी भी नहीं है, दूर के रिश्तेदार, या यार-दोस्त, या बेनामी कंपनियों के नाम पर पैसा रखना एक आम चलन है, और देश की टैक्स एजेंसियां, जांच एजेंसियां बहुत गिने-चुने मामलों में ही इन पर कार्रवाई करती हैं।
आज जजों की संपत्ति का यह मामला उस वक्त चर्चा में है जिस वक्त केन्द्र सरकार लगातार इस मुद्दे को उठा रही है कि जजों की नियुक्ति का जो अधिकार सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने अपने हाथ में ले रखा है, वह जायज नहीं है, और जजों की नियुक्ति के लिए एक अधिक निष्पक्ष संस्था बननी चाहिए। आज देश में कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जजों की साख पर जितने किस्म के सवाल उठ खड़े हो रहे हैं, वे चाहे खुद होकर उठे हों, सौ फीसदी जायज हों, लेकिन उनका एक असर यह भी हो रहा है कि देश में विपक्ष भी जजों की छवि और साख से असंतुष्ट है, और सरकार विपक्ष के सामने यह चुनौती भी रख रही है कि जजों की नियुक्ति के लिए अलग से एक संस्था बनाने में वह सहयोग करे, ताकि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम का एक अधिक पारदर्शी, और लोकतांत्रिक विकल्प तैयार हो सके। कुछ लोगों का मानना है कि न्यायपालिका की साख गड़बड़ाने पर सरकार की ऐसी हसरत को पूरा होने का बड़ा मौका मिल रहा है, देखना होगा कि आगे जाकर राजनीतिक दल संसद में इस मुद्दे पर एक हो पाते हैं, या नहीं। यह तो तय है कि जजों ने जिस तरह से अपने आपको रहस्य के एक लबादे में छुपा रखा है, उसके मुकाबले उन्होंने सांसदों और विधायकों को पारदर्शी तौलिया पहनने पर मजबूर किया हुआ है। इससे भी सांसद और विधायक बेचैन हैं, और देश में जजों के भ्रष्टाचार या अमानवीय फैसलों के दो-चार और मामले आ जाएंगे, तो संसद जनभावनाओं को देखते हुए जजों की नियुक्ति की नई व्यवस्था पर सोचने भी लगेगी। देखते हैं आगे क्या होता है।