संपादकीय

देश के एक सबसे महंगे अस्पताल, देश की राजधानी के गुरूग्राम के मेदांता में वेंटिलेटर पर पड़ी एक मरीज का अस्पताल के एक पुरूष कर्मचारी ने यौन उत्पीडऩ किया, और उस वक्त वहां अस्पताल की दो महिला कर्मचारी सब देखते हुए भी चुप थीं। मरीज चूंकि वेंटिलेटर पर थी, इसलिए वह विरोध नहीं कर पाई, और अस्पताल से निकलने के बाद उसने पुलिस को शिकायत की है। यह महिला एक एयरलाईंस में काम कर रही एयरहोस्टेस है, और गुरूग्राम पुलिस ने मजिस्ट्रेट के सामने बयान दर्ज कराकर अस्पताल की सीसीटीवी रिकॉर्डिंग की जांच शुरू कर दी है। यह मामला भारत में महिलाओं पर छाए हुए खतरे का एक और सुबूत दिख रहा है। छोटी-छोटी तीन-चार बरस की बच्चियों से भी बलात्कार हो रहा है, दस-बारह बरस के लडक़े भी बलात्कार करना सीख रहे हैं, और परिवार के बुजुर्ग लोग भी घर की छोटी लड़कियों से बलात्कार कर रहे हैं। मेदांता अस्पताल के इस मामले से याद पड़ता है कि देश के बहुत से चीरघरों में महिला-लाशों से बलात्कार की भी बातें समय-समय पर सामने आती हैं, और देश के कानून के मुताबिक वह बलात्कार भी नहीं है।
हम महिलाओं के यौन शोषण के बारे में लिखते-लिखते थक जाते हैं, बहुत से मामलों पर जब हमारे यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर हम बोलते हैं तो यूट्यूब उसे सिर्फ वयस्कों के लिए कर देता है, उस पर से विज्ञापन हटा देता है, और उसकी पहुंच सीमित कर देता है। उसकी अपनी नीतियां हैं, लेकिन बलात्कार और दूसरे किस्म के यौन शोषण भारत में एक इतनी बड़ी हकीकत बन गए हैं कि उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस बारे में अगर चर्चा न हो तो हो सकता है कि बहुत सी लड़कियां और महिलाएं इस खतरे से अनजान रहकर लापरवाह भी हो सकती हैं, और कुछ खतरनाक स्थितियों पर भरोसा भी कर सकती हैं। इसलिए इस मुद्दे पर चर्चा तो जरूरी है, और इतनी कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार हो रहे हैं जो कि इस गंभीर विचार को पढऩा तो दूर रहा, कुछ भी पढऩा नहीं सीख पाई हैं, और उनकी हिफाजत के लिए उनके मां-बाप को ही चौकन्ना होना पड़ेगा।
बलात्कार को सिर्फ एक घटना न मानें, और उसे देश के लोगों का मिजाज मानें, तो वह सच्चाई के अधिक करीब होगा। इसके बाद ही यह विश्लेषण हो सकेगा कि हिन्दुस्तानियों के इस मिजाज का इलाज क्या है। हिन्दुस्तान को अगर महिलाओं और लड़कियों पर यौन हिंसा रोकनी है, तो उसे समाज में इन पर किसी भी तरह की हिंसा रोकने की कोशिश करनी होगी। जब परिवारों में लडक़े यह देखते हुए बड़े होते हैं कि उनके पिता, चाचा-ताऊ, या दादा, और बहुत से मामलों में तो परिवार की बड़ी महिलाएं भी, परिवार की कम उम्र की महिलाओं और लड़कियों के प्रति हिकारत रखते हैं, उनके साथ हिंसक बर्ताव करते हैं, तो फिर ऐसे परिवारों के बच्चे भी इसी सोच के साथ बड़े होते हैं कि लड़कियां और महिलाएं ऐसे ही बर्ताव के लायक हैं, और परिवार की यही परंपरा है। दहेज प्रताडऩा के बहुत से मामलों में ससुराल की महिलाएं भी जुल्म करने में शामिल हो जाती हैं, क्योंकि वे भी अपने बचपन से यही देखते आई हैं कि महिलाएं जुल्म के लायक हैं। अब इस बात को हम अगर मेदांता अस्पताल के इस ताजा मामले से जोडक़र देखें, तो वेंटिलेटर पर रखी गई महिला मरीज यह देख रही थी कि एक पुरूष कर्मचारी उससे यौन-छेडख़ानी कर रहा था, और दो महिला कर्मचारी इसे देख रही थीं। अब इन महिला कर्मचारियों ने इसका विरोध अगर नहीं किया, तो उसके पीछे एक वजह यह भी हो सकती है कि उनके दिमाग में महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव आम बात की तरह दर्ज होगा।
हम सार्वजनिक जीवन में बहुत सी महिलाओं को देखते हैं जो कि किसी बच्ची से हुए बलात्कार को भी राजनीतिक साजिश कहने लगती हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने वहां की एक बच्ची से हुए बलात्कार को अपनी सरकार को बदनाम करने की राजनीतिक साजिश कहा था। किसी दफ्तर या दूसरे कार्यस्थल पर महिलाओं से यौन-बदसलूकी होने पर अधिकतर लोगों की कोई हमदर्दी महिला के प्रति नहीं रहती, और लोग यह मानकर चलते हैं कि महिला ने ही ऐसा मौका दिया होगा, उसी ने छूट दी होगी। जब तक समाज में महिलाओं के प्रति यह रवैया और यह रूख नहीं बदलेगा, तब तक महिलाओं और लड़कियों के साथ हिंसा कम होने का कोई आसार नहीं है। जब लडक़ों, और आदमियों के दिल-दिमाग में लड़कियों और महिलाओं के प्रति हिकारत बैठी रहेगी, तो वे इनके खिलाफ और दूसरे किस्म की हिंसा के साथ-साथ यौन-हिंसा भी करते रहेंगे, और उन्हें इनके बीच कोई फर्क भी नहीं लगेगा।
भारतीय समाज में लड़कियों और महिलाओं की स्थिति को सम्मानजनक बनाना जरूरी है, और इसके लिए भाषा से लेकर राजनीति तक, स्कूली किताबों से लेकर सोशल मीडिया तक, सडक़ों की गालियों से लेकर कहानियों तक, हर कहीं औरत-मर्द की बराबरी स्थापित करनी पड़ेगी। आज हालत यह है कि अगर हिन्दी का लोकोक्ति कोश उठाकर देखें, तो हिन्दीभाषी इलाके की ऐसी कोई भी बोली नहीं है जिसमें महिलाओं के प्रति हिकारत, और उनके खिलाफ हिंसा की सौ-पचास कहावतें न हों। पूरी किताब महिलाओं के प्रति गंदी जुबान से भरी हुई मिलेगी, और वही हकीकत भी है। हालत यह है कि खुद महिलाएं जब किसी लड़ाई में पड़ती हैं, तो उनके मुंह से भी दूसरों के लिए मां-बहन की गालियां ही निकलती हैं, ऐसा करते हुए उन्हें यह अहसास भी नहीं रहता कि वे महिलाओं के खिलाफ ही हिंसक बात कर रही हैं। समाज में किसी बदलाव को लाने के लिए कानून हर कदम पर काम नहीं आता, वह सतीप्रथा को रोकने, दहेज-हत्या रोकने, और कन्या-भ्रूण हत्या रोकने के काम तो आता है, लेकिन गालियों में से महिलाओं को हटाने के लिए कानून न तो बन सकता है, और बने भी तो भी लागू नहीं हो सकता। इसके लिए तो समाज को ही अपने आपको सुधारना होगा।
हम बलात्कार की एक घटना की जड़ तक जाने की कोशिश में समाज को सिरे से सुधारने पर चले गए हैं, लेकिन इस विशाल पेड़ के पत्तों पर दवा छिडक़कर उसकी जड़ों तक फैली हुई बीमारी को ठीक नहीं किया जा सकता। समाज को लडक़े और लडक़ी के बीच के फर्क को खत्म करना ही होगा, तभी दस-बारह बरस के लडक़े तीन-चार बरस की लडक़ी को बलात्कार के लायक मानना बंद कर सकेंगे, इसके बिना टुकड़े-टुकड़े में सुधार नहीं हो सकता, और लड़कियों-महिलाओं को हिफाजत नहीं दी जा सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)