संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ट्रम्प से जख्मी अमरीका से ब्रेन-ड्रेन से दुनिया के किन देशों को होगा नफा?
17-Apr-2025 4:39 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ट्रम्प से जख्मी अमरीका से ब्रेन-ड्रेन से दुनिया के किन देशों को होगा नफा?

अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प खबरों से टस से मस नहीं होते। और लोगों के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि वे हर दिन खबरों में रहते हैं, लेकिन ट्रम्प तो इस बार राष्ट्रपति बनने के बाद हर घंटे एक नई खबर में रहते हैं। पूरी दुनिया में ट्रम्प के नए व्यापार-प्रतिबंधों के लगने, हटने, और फिर लगने की आशंकाओं के बीच जो तबाही चल रही है, वैसी इस दुनिया में सुनामी से बर्बाद समुद्रतटों पर भी नहीं देखी थी। अब ट्रम्प के बारे में ताजा कई सौ खबरों में से एक, हार्वर्ड विश्वविद्यालय को लेकर है जिस पर ट्रम्प कई शर्तें थोपना चाहते थे, और हार्वर्ड ने जब उसे मानने से इंकार कर दिया, तो अमरीकी सरकार की तरफ से इस विश्वविद्यालय को मिलने वाली दो लाख करोड़ रूपए की फंडिंग रोक दी गई है। अमरीकी राष्ट्रपति कार्यालय ने दुनिया के इस एक सबसे मशहूर विश्वविद्यालय को एक लिस्ट भेजी थी कि उसे क्या-क्या करना है। इसमें विश्वविद्यालय में यहूदी छात्रों की हिफाजत बढ़ाने, उनके खिलाफ किसी तरह के प्रदर्शन न होने, और अधिकतर मांगें हार्वर्ड पर सरकारी शिकंजा कसने की थी, और विश्वविद्यालय ने इसे मानने से इंकार कर दिया। इन मांगों में विश्वविद्यालय में विविधता, समानता, और समावेशन को खत्म करने की मांग भी थी। आज न सिर्फ हार्वर्ड बल्कि बहुत से अमरीकी विश्वविद्यालय राष्ट्रीयता, नस्ल, जेंडर, जाति, जैसी विविधता के लिए आरक्षण रखते हैं, और ट्रम्प इसे भी खत्म करवाने पर आमादा हैं। इस तरह की शर्तें बहुत से विश्वविद्यालयों को भेजी गई हैं जिन्हें अमरीकी सरकार की फंडिंग के लिए अनिवार्य बताया गया है, और कुछ विश्वविद्यालय इसे मान रहे हैं, कुछ नहीं मान रहे। हार्वर्ड एक ऐसा विख्यात विश्वविद्यालय है जहां के 161 प्राध्यापकों को नोबल पुरस्कार मिल चुके हैं। और दिलचस्प बात यह है कि ट्रम्प के एक सलाहकार ने ट्रम्प के दूसरे सलाहकार पर यह तोहमत लगाई है कि वे हार्वर्ड से पढक़र निकले हुए एक बेवकूफ हैं, और सब कुछ बर्बाद कर रहे हैं। 

लेकिन हम अमरीकी उच्च शिक्षा व्यवस्था पर अपनी बात खत्म करना नहीं चाहते। आज अमरीका की हालत यह हो गई है कि अधिकतर विश्वविद्यालयों ने विदेशी छात्रों के लिए स्कॉलरशिप की गिनती एकदम से कम कर दी है क्योंकि उन्हें अब देश की सरकार से पहले जैसी ग्रांट नहीं मिल रही। आज की ही एक खबर है कि अमरीकी विश्वविद्यालयों में भारत के दस हजार छात्र इस बार नहीं जा पाएंगे क्योंकि उन्हें स्कॉलरशिप नहीं मिल पा रही है। लेकिन दुनिया के जो देश उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता में अंतरराष्ट्रीय पैमानों पर ऊपर हैं, उनमें अब यह सोच चल रही है कि किस तरह अमरीका में आई इस ताजा उठापटक से वहां से निकलने वाले होनहार छात्रों, और काबिल प्राध्यापकों, और महत्वपूर्ण शोधकर्ताओं को वे अपने देश में या  विश्वविद्यालय में ला सकते हैं। यह मौका छोटा नहीं है, क्योंकि अभी तक उच्च शिक्षा की उत्कृष्टता में, और अधिकतर किस्म की रिसर्च में अमरीका दुनिया में अव्वल बना हुआ था। लेकिन अब ऐसा लगता है कि अमरीका से ब्रेन-ड्रेन की एक ऐसी नौबत आ रही है जिससे दुनिया के कई देशों का फायदा हो सकता है। अमरीका के ठीक बगल में कनाडा को ट्रम्प ने खास निशाना बनाया हुआ है, और एक स्वतंत्र देश को नीचा दिखाते हुए ट्रम्प हिकारत के साथ यह कहते आया है कि कनाडा को अमरीका का राष्ट्र बन जाना चाहिए, और उसमें वहां के लोग अधिक सुखी रहेंगे। ट्रम्प कनाडा के प्रधानमंत्री को अमरीकी राज्य के गवर्नर की तरह गवर्नर कहता है। ऐसे कनाडा में अभी अमरीका से निकलकर बड़ी संख्या में छात्र और प्राध्यापक जा रहे हैं। 

दरअसल, महत्वाकांक्षी छात्रों, प्राध्यापकों, और शोधकर्ताओं के लिए एक बहुत बड़ी कसौटी उन्हें मिलने वाली सहूलियतें रहती हैं। अगर उन्हें पढ़ाई और काम की जगह पर ऊंचे दर्जे की सुविधाएं नहीं रहतीं, वहां पर दूसरे बहुत से शोधकर्ता, वैज्ञानिक, और विशेषज्ञ नहीं रहते, वहां विश्वविद्यालयों के पास अगर खासा बड़ा बजट नहीं रहता, तो वहां कोई जाना नहीं चाहते। यही वजह है कि आज योरप के अधिकतर विश्वविद्यालय अमरीका से प्रतिभा खींच नहीं पा रहे हैं, और अब सारे विकसित देश यह सोच रहे हैं कि किस तरह वे अपने देश में स्थितियां बेहतर करें, ताकि अमरीका छोडऩे पर मजबूर होने वाली प्रतिभाएं वे अपने देशों में आकर्षित कर सकें। हम ट्रम्प जैसे सनकी, बेदिमाग तानाशाह की हरकतों से अमरीका के कई अलग-अलग पहलुओं को बर्बाद होते देख रहे हैं, जिनमें से उच्च शिक्षा भी एक है। इस घटिया इंसान के दिमाग में शैक्षणिक संस्थाओं की आजादी इसलिए खटक रही है कि खुले दिमाग के शैक्षणिक संस्थान लोगों में लोकतांत्रिक नजरिया भरते हैं, जो कि सत्ता को, खासकर तानाशाह को खटकता है। 

आज कोई गंभीरता से कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, और योरप के प्रमुख देशों को देखे तो वहां प्रतिभाओं को आकर्षित करने की अघोषित होड़ सी चल रही है, और अमरीका में आया हुआ बवाल इन सारे देशों को अपने लिए एक संभावना लग रहा है। इस बीच भारत का एक वीडियो बड़ा परेशान करता है, देश की राजधानी दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में वहां की प्रिंसिपल खुद टेबिलों पर चढक़र क्लासरूम की पूरी दीवारों पर गोबर लीप रही है कि इससे कमरा ठंडा रहेगा। इस हरकत पर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति ने हैरानी जाहिर की है। बहुत से लोगों का कहना है कि गोबर के लिए ऐसा प्रेम उच्च शिक्षा से वैज्ञानिक सोच को खत्म भी करेगा। आज भारत की राजनीति में वैज्ञानिक चेतना को खत्म करने वाली ऐसी कई बातें चल रही हैं, और इसके नुकसान भी समझ लेने चाहिए। एक धर्म की विचारधारा को खुश रखने के लिए अगर उच्च शिक्षण संस्थानों का यह हाल किया जाएगा, तो धीरे-धीरे होनहार और काबिल छात्र-छात्राओं की दिलचस्पी यहां घटने लगेगी, और वे पश्चिम की, या दूसरे विकसित देशों की उच्च शिक्षा में अपना भविष्य देखने लगेंगे। कोई देश असली या काल्पनिक इतिहास के गौरवगान में इतना संतुष्ट होने लगे कि उसे और गर्व करने के लिए न वर्तमान लगे, न भविष्य, तो वह खासे खतरे में रहता है। आज अमरीका से हो रहा ब्रेन-ड्रेन अमरीकी विश्वविद्यालयों में विचारों की स्वतंत्रता, विविधता, और उदारता पर मंडराते खतरे की वजह से है, लेकिन ऐसी ही नौबत दूसरे देशों में भी आ सकती है, जहां आज उच्च शिक्षा न उल्लेखनीय है, और न चर्चित है।

दुनिया के देशों को एक-दूसरे की हलचल से बहुत कुछ सीखना चाहिए। आज वैचारिक रूप से उदार, और उच्च शिक्षा के ढांचे से संपन्न देश अगर अमरीका से निकलने वाली प्रतिभाओं को पाने के लिए अघोषित मुकाबला कर रहे हैं, तो ऐसे देश उन प्रतिभाओं से बड़े लंबे भविष्य तक फायदा भी पाएंगे। दुनिया के समझदार देशों को उच्च शिक्षा की बुनियादी जरूरतों, और उसके बुनियादी मकसद के बारे में सोचना चाहिए, और उसे किसी राजनीतिक एजेंडे का बैनर-पोस्टर नहीं बनाना चाहिए। खैर, फिलहाल तो अमरीका से निकलने वाली प्रतिभाओं को पाने की होड़ में भारत जैसे देश किसी कतार में भी नहीं है, इसलिए भारत के लिए इस अंतरराष्ट्रीय हलचल में न संभावना है, और न ही कोई आशंका।      

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