संपादकीय

देश की आजादी के समय से ही पुलिस, फौज, और केन्द्रीय सुरक्षाबल के जवान लोहे के संदूक लेकर चलते दिखते हैं। इन पर उनका नाम लिखे रहता है, और उनकी यूनिट का नाम-नंबर भी। ये इतने मजबूत रहते हैं कि वक्त-जरूरत इस पर खासे कद-काठी के लोग ट्रेन का इंतजार करते बैठ भी सकते हैं। अब पहली बार फाइबर का ऐसा सूटकेस सीआरपीएफ, और आईटीबीपी के लोगों को दिया जाने वाला है जिस पर पांच साल की वारंटी भी रहेगी। पांच बरस बाद इन्हें अपनी एजेंसी से ही दूसरा सूटकेस मिलेगा। अब कई लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है कि हम इतनी मामूली सी बात पर क्यों लिख रहे हैं? लेकिन यह बात मामूली हो सकती है, और साथ ही ऐसे सिपाहियों, या जवानों के लिए महत्वपूर्ण भी हो सकती है जो कि गैरजरूरी फौलादी नियमों के चलते कई तरह की दिक्कतों को ढोकर चलते हैं, जिनमें लोहे के संदूक भी शामिल हैं।
हम पुलिस या किसी भी सुरक्षाबल के जवानों के कामकाज देखें, तो वे दौड़-भाग के, मुश्किल और लंबी ड्यूटी के, घंटों खड़े रहने, या बहुत लंबा चलने के रहते हैं। लेकिन अंग्रेजों के समय से उनकी पोशाक के जो नियम चले आ रहे हैं, उसके तहत वे चमड़े के कड़े जूते पहनते हैं, मामूली कपड़ों के पैंट-शर्ट पहनते हैं जिनमें जरा भी लचीलापन नहीं रहता है, भरी गर्मी में भी ऊनी टोपी या टोप पहनते हैं। पूरे-पूरे दिन धूल, धूप, और धुएं के बीच खड़े पुलिसवालों के लिए उनकी वर्दी ही एक तकलीफदेह बोझ रहती है, और अंग्रेजों के समय तो मामूली सिपाहियों को, या हिन्दुस्तानी अफसरों को भी तकलीफ देने की कोई परवाह नहीं रहती थी, लेकिन जिन्हें अपने कामकाज का पूरा ही वक्त, दिन में 8 या अधिक घंटे ऐसी ही यूनिफॉर्म में रहना होता है, उनके लिए गैरजरूरी दिक्कतें क्यों खड़ी की जाती हैं?
अब हम जूते जैसी मामूली लगने वाली चीज की बात करें, तो आज न सिर्फ खिलाड़ी, बल्कि प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्रियों तक, और रिपोर्टरों से लेकर दूसरे सरकारी अफसरों तक, सबको खेलकूद वाले जूतों में देखा जाता है जो कि आरामदेह भी रहते हैं, और दौड़-भाग के लिए भी बेहतर रहते हैं। अब यूनिफॉर्म के नाम पर पुलिस को चमड़े के जूतों में कैद करके रखना एक गैरजरूरी तकलीफ देना है। इन्हें चमकाने में भी हर दिन मेहनत लगती है, वक्त लगता है। और बाहर के लोगों को नहीं पता होगा कि पुलिस और दूसरे सुरक्षाबलों में जूते पॉलिश करने को अर्दली रखे जाते हैं, जो अफसरों के घरों में घूम-घूमकर भी जूते पॉलिश करते हैं। इसकी जगह अगर स्पोटर््स शूज पहनने दिए जाएं, तो विभाग उन्हें किसी खास रंग का रख सकती है, और गीला कपड़ा फेरते ही वे चमक जाते हैं। चमड़े के जूतों पर पॉलिश करने जैसी कवायद इसके लिए नहीं लगती। इसी तरह यूनिफॉर्म में लगने वाले साधारण कपड़ों की जगह उसी दाम पर खेलकूद के कपड़ों सरीखे ऐसे लचीले कपड़े लगाए जा सकते हैं जो कि दौड़-भाग के लिए भी आसान हो, और दस-बारह घंटे की ड्यूटी करते हुए भी वे बदन को परेशान न करें। हिन्दुस्तान का अधिकतर हिस्सा खासा गर्म रहता है, और साल में आठ-आठ महीने तक गर्मी रहती है, और ऐसे में ऊनी कपड़े की बनी हुई कैप जुल्म से कम नहीं रहती है, अंग्रेजों के छोड़े गए पखाने का टोकरा सिर पर ढोने की परंपरा ठीक नहीं है, भारत की सरकारों को अपने लोगों को इंसान की तरह मानना चाहिए, और उनकी पोशाक का आरामदेह रहना पहली शर्त रहनी चाहिए।
हम पोशाक को लेकर कुछ दूसरी बातों पर पहले कई बार लिख चुके हैं। आज राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, या कि तथाकथित वीवीआईपी के आने पर जिले के अफसरों को 45-46 डिग्री की चिलचिलाती धूप में, खुले एयरपोर्ट पर कोट पहनकर ड्यूटी देनी होती है क्योंकि अंग्रेजों की छोड़ी गई यह पोशाक सरकारी नौकरों के लिए एक नियम बना दी गई है। जब ऐसे तथाकथित वीवीआईपी धूप का चश्मा लगाए रखते हैं, तब भी अफसरों को इसकी इजाजत नहीं है, चाहे चिकित्सा विज्ञान आंखों को यूवी किरणों से बचाने की सलाह क्यों न देता हो। विमान के पायलट, प्रमुख लोगों के सुरक्षा अधिकारी, ये सभी धूप के चश्मे लगाए रखते हैं, लेकिन ड्यूटी करने वाले जिले के अफसर अपनी आंखों की हिफाजत नहीं कर सकते। छत्तीसगढ़ में एक जिला कलेक्टर ने ऐसा किया था, तो मुख्य सचिव ने तुरंत ही उसे नोटिस जारी करके याद दिला दिया था कि अंग्रेज भले जा चुके हैं, उनका पखाना ढोना जारी रखना है।
कुछ ऐसा ही हाल सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट का है जहां भरी गर्मी में भी काला कोट और काला लबादा पहनकर ही जज और वकील काम करते हैं। जाहिर है कि अदालतों को ऐसे कपड़ों की वजह से अधिक ठंडा रखना पड़ता है, और इसके लिए एसी, और उसकी बिजली उस आम जनता के पैसों से ही आती है जिसे दशकों तक यहां से इंसाफ नहीं मिल पाता। यह कहां की समझदारी है कि गर्म देश में इस किस्म से अंग्रेजों के वक्त की परंपरा को ढोया जाए? भारत में तो आजादी के पहले तक बड़ी अदालतों के जज सफेद रंग की ऊनी विग पहनकर बैठते थे, जो कि अंग्रेजों के अपने देश में ठंड की वजह से एक जरूरत रही होगी, लेकिन हिन्दुस्तान में भी आंख मूंदकर, अक्ल को ताक पर धरकर जज उसे पहनकर बैठते थे। आजादी के बाद किसी तरह यह विग खत्म हुई, लेकिन अंग्रेजों का बाकी मैला अब तक भारत की अदालतों में, यहां तक कि उबलती, और तपती हुई रेलगाडिय़ों में ड्यूटी कर रहे टिकट-निरीक्षकों में जारी है।
हम एक बार फिर पुलिस, फौज, और सुरक्षा कर्मचारियों की बात पर लौटें, तो किसी जनहित याचिका से भी अदालत से ऐसा हुक्म करवाया जा सकता है कि यूनिफॉर्म को बिना किसी जरूरत तकलीफदेह बनाने का यह सिलसिला खत्म किया जाए। जब कर्मचारी-अधिकारी लगातार तकलीफ में पूरी ड्यूटी गुजारेंगे, तो जाहिर है कि उनकी उत्पादकता कम रहेगी, उनका काम कमजोर रहेगा, और यह गैरजरूरी सिलसिला खत्म करना चाहिए। केन्द्रीय सुरक्षाबलों ने लोहे की पेटी की जगह सूटकेस से जो शुरुआत की है, उसे आगे बढ़ाना चाहिए। आज दुनिया के किसी भी विकसित देश की पुलिस और वहां के सुरक्षाबलों को देखें, तो वे आरामदेह और लचीले जूते-कपड़ों में ही दिखते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)