संपादकीय
पुलिस के रोज के प्रेसनोट हत्या या बलात्कार के जुर्म में पकड़े गए लोगों से लेकर मामूली उठाईगिरी तक के मामलों में पकड़ाए आरोपियों की तस्वीरों सहित रहते हैं। कुछ मामले तो सुबूतों सहित पकड़ाते हैं, और पहली नजर में आरोपियों के गुनहगार होने की बात सही लगती है, लेकिन बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जो सिर्फ किसी के लगाए गए आरोपों पर टिके रहते हैं। और कई मामलों में तो यह भी सामने आता है कि बलात्कार का आरोप लगाने वाली लडक़ी या महिला ने बाद में आरोप वापिस ले लिए, और ब्लैकमेल करने की कोशिश भी की। अभी-अभी ऐसी ही एक महिला को उसके तीन-चार साथियों सहित गिरफ्तार किया गया है जो कि एक कारोबारी पर बलात्कार का आरोप लगाने के बाद, उसके जेल जाने के बाद शिकायत वापिस लेने के लिए मोटी वसूली कर रही थी। ऐसे में क्या पहली शिकायत के बाद ही आरोपियों की तस्वीर जारी करना ठीक है? भारत की अदालतों में हाईकोर्ट तक पहुंचते हुए शायद आधे से अधिक मामलों में लोग बरी हो जाते हैं। ऐसे में उनकी तस्वीर, या उनकी शिनाख्त की खबर से उन्हें हुए नुकसान की कोई भरपाई हो सकती है क्या? और भारतीय कानून क्या अदालती सजा से परे सामाजिक प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने की किसी और सजा सुझाता है?
अभी उत्तरप्रदेश के झांसी में पुलिस ने गश्त के दौरान एक ऐसे आदमी को पकड़ा जिसकी बिहार में 17 बरस पहले हत्या दर्ज हो चुकी है, और उसका कत्ल करने के आरोप में चार लोगों को जेल भी हो चुकी है जिनमें से तीन अभी जमानत पर छूटे हुए हैं, और एक व्यक्ति कत्ल की तोहमत झेलते हुए मर भी चुका है। जब इसने झांसी पुलिस को अपनी शिनाख्त बताई, तो उसने बिहार पुलिस को बुलाकर इस आदमी को उनके हवाले किया, और तब पूरा मामला पता लगा कि वह 2008 से बिहार के अपने गांव से निकल गया था, और फिर कभी गांव लौटा नहीं। इसके बाद जिन लोगों के खिलाफ शक के आधार पर अपहरण और हत्या की रिपोर्ट लिखाई गई, उन्हें गिरफ्तार करके उनके खिलाफ मुकदमा चलाया गया, और 8-8 महीने जेल में रहने के बाद वे जमानत पर छूटे, और हिन्दुस्तानी अदालती रफ्तार की मेहरबानी से 17 बरस बाद भी जो रिश्तेदार हत्या की तोहमत झेल रहे थे, उन्हें कोई सजा नहीं हो पाई थी, वरना पता लगता कि कुछ लोग फांसी पर टंग चुके रहते। पारिवारिक रिश्तेदारी में ही 17 बरस से कत्ल की तोहमत झेल रहे इन लोगों पर क्या गुजर रही होगी, उसे वे ही जानते हैं।
अब अगर आज की तरह ही उस वक्त पुलिस ने प्रेसनोट में इन चारों आरोपियों की तस्वीरें जारी की होंगी, तो उनके चेहरों के साथ उनकी बदनामी कदमताल करते हुए चलती होगी। वैसे भी नाम तो उनका जारी हो ही चुका होगा। अब अगर अखबारों से इस बारे में पूछा जाए तो वे तो बिना ऐसे चेहरे और ऐसी तस्वीरों के खबर ही नहीं बना सकते। उन्हें लगेगा कि मामले का फैसला सुप्रीम कोर्ट से होने के पहले तक तो कोई भी व्यक्ति अंतिम रूप से मुजरिम साबित नहीं होता, तो फिर क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले, या वहां पर अपील करने का वक्त निकल जाने के बाद ही समाचार बनाया जाए? खबरों के पेशे के लिए तो यह सवाल जायज है, लेकिन जब कानून किसी को मुजरिम नहीं मानता, और महज आरोपी या अभियुक्त मानता है, और मुकदमा चलाते रहता है जो कि 25-30 बरस तक चलना भी हो सकता है, तो फिर बेकसूर साबित होने पर ऐसी बदनामी की क्या भरपाई हो सकती है?
दुनिया में जो अधिक संवेदनशील लोकतंत्र हैं, वहां पर भी आरोपियों के मुजरिम साबित होने के पहले भी उनकी फोटो और जानकारी छापना आम बात है। लेकिन एक बुनियादी सवाल बचे रहता है कि कानून बदनामी करने की सजा तो देता नहीं है, किसी के मुजरिम साबित होने के पहले तक तो उसे बेगुनाह साबित होने का पूरा हक रहता है, जो कि खबरों में आई बदनामी से खत्म होता है। ऐसे में किसी मामले में झूठी शिकायत, गलतफहमी, या सुबूतों की गफलत से पकड़ में आए लोगों के साथ इंसाफ कैसे हो सकता है? भारत जैसे कानून में सिर्फ कुछ लोगों को इससे छूट हासिल है, जो नाबालिग किसी भी किस्म के जुर्म के मामलों में फंसते हैं, उनका नाम, या किसी भी तरह की शिनाख्त उजागर नहीं हो सकते। इसी तरह सेक्स अपराधों की शिकार लडक़ी या महिला की पहचान उजागर नहीं की जा सकती। लेकिन इससे परे तो सभी तरह के लोग बदनामी पाने से शुरूआत करते हैं, और असल सजा होने तक तो वे सामाजिक प्रताडऩा की सजा पूरी तरह झेल चुके रहते हैं, और उनका परिवार भी इसका नुकसान पा चुका रहता है।
इसी से जुड़ा हुआ एक दूसरा मुद्दा बेकसूर लोगों का है जो कि लंबी बदनामी, और लंबी कैद, सुनवाई के बाद सब कुछ खोकर बेकसूर साबित होते हैं, और उसके बाद उनकी जिंदगी वापिस कभी पटरी पर आ भी नहीं पाती। भारत में आतंक जैसे गंभीर आरोपों में जेलों में कैद लोग 20-25 बरस बाद भी छूटे हैं, तो उसके बाद बाहर की दुनिया मानो उनके लायक रह ही नहीं जाती। यह मामला आरोपियों के मीडिया कवरेज से कुछ परे का है, लेकिन बेइंसाफी तकरीबन एक किस्म की है। एक मामले पर गौर करना जरूरी है कि हिन्दुस्तान में बच्चों से बलात्कार, उनका कत्ल, और उनकी लाश के टुकड़े पकाकर खाना जैसे भयानक आरोपों वाले सबसे चर्चित 2006 के निठारी हत्याकांड के आरोपियों को अभी 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सारे जुर्मों से बरी कर दिया है। इस मामले की जांच सीबीआई ने की थी, और हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सीबीआई सुप्रीम कोर्ट भी गई है जहां अभी उस पर सुनवाई होनी है। अब सवाल यह उठता है कि इतने बरस तक जिन लोगों को हैवान और पिशाच कहा जाता रहा, और अब हाईकोर्ट अगर उनको बेकसूर मान चुका है, सुप्रीम कोर्ट अगर बेकसूर करार दे देता है, तो इतने बरस की बदनामी, या जितने भी बरस की कैद रही हो, उसकी क्या भरपाई हो सकती है?
अब हमारे सवालों के जवाब में हमारे पास कहने को कुछ भी नहीं है कि लोकतंत्र में जनता को अपने बीच के जुर्म के आरोपियों के बारे में जानने का कितना हक होना चाहिए, और उन आरोपियों को अपनी निजता का, और सामाजिक प्रतिष्ठा का कितना हक होना चाहिए? बदनामी करने का पुलिस और मीडिया का कितना हक हो, और वह कब से शुरू हो? ये मुश्किल सवाल हैं, और लाजवाब भी हैं। देखें क्या किसी के पास इस दिक्कत का कोई इलाज निकल सकता है?
फेसबुक की मालिक कंपनी मेटा ने अमरीका में फैक्ट चेकिंग प्रोग्राम बंद करने का ऐलान किया है। अब तक भारी सार्वजनिक और अमरीकी-संसदीय दबाव के तहत दुनिया की यह सबसे चर्चित कंपनी अपने प्लेटफॉर्म पर आने वाली सामग्री में सच-झूठ, अफवाह, और नफरत, इसकी सच्चाई की कुछ जांच-पड़ताल करती थी। जबकि हिन्दुस्तान में हमारे सरीखे लोगों का यह तजुर्बा रहा कि इस पर लगातार नफरती फोटो-वीडियो, या दूसरी सामग्री पोस्ट होती रहती थी, होती रहती है, और यहां कंपनी कोई जवाबदेही भी नहीं मानती। और तो और फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर लगातार पूरी तरह से फर्जी और धोखेबाज विज्ञापन आते रहते हैं, और कंपनी उनको रोकने की जहमत भी नहीं उठाती, जबकि उन विज्ञापनों का पैसा लेते हुए कंपनी की नजर में वे अलग से आते ही हैं, वे लोगों की निजी फोटो, कविता, या किसी टिप्पणी से परे की ठोस बात रहते हैं, और सबसे बड़ी बात यह कि फेसबुक को उनसे कमाई होती है।
लोगों को मुफ्त में सोशल मीडिया की सहूलियत मुहैया कराने के बाद ये कंपनी उनकी मौजूदगी का नगदीकरण करती हैं। अमरीका और योरप, जहां पर कि कानून कड़े हैं, उन पर अमल अधिक सख्त है, वहां पर तो फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कुछ जिम्मेदारी दिखाते भी हैं क्योंकि अमरीकी संसद की समिति की सुनवाई में मार्क जुकरबर्ग को खुद पेश होकर सांसदों के हर सवालों का जवाब देना पड़ा था, और सांसदों ने मानो बंदूक की नोंक पर जुकरबर्ग को खड़ा करके उन लोगों से माफी मंगवाई थी जिनके बच्चों ने फेसबुक और इंस्टाग्राम सरीखे प्लेटफॉर्म की वजह से खुदकुशी कर ली थी। इस सुनवाई का जीवंत प्रसारण भी हुआ था, और यह देखना बड़ा दिलचस्प था कि दुनिया के एक सबसे ताकतवर आदमी को अमरीकी संसद की कमेटी किस तरह बांह मरोडक़र दुखी मां-बाप के सामने खड़े होकर माफी मांगने को मजबूर करती है। यूरोपीय संघ जैसे ताकतवर संगठन भी फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने नियम, और अपनी शर्तें लागू करते हैं, और ऐसे विकसित, सभ्य, ताकतवर, और जागरूक देशों के सामने मेटा जैसी कंपनियां भीगी बिल्ली की तरह सहमी हुई खड़ी रहती हैं।
अभी अमरीका में फैक्ट चेक बंद करने के पीछे मार्क जुकरबर्ग ने तर्क दिया है कि कंपनी के बाहर के फैक्ट चेकर्स ने राजनीतिक पक्षपात किया था, उससे फेसबुक इस्तेमाल करने वालों का भरोसा टूटा है। उनका तर्क यह है कि तथ्यों की जांच करने से जितना भरोसा बनना था, उससे अधिक टूट गया है। हकीकत तो यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में जिस तरह से डोनल्ड ट्रम्प जीतकर आए हैं, और जिस तरह से एक बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स के मालिक एलन मस्क ट्रम्प के सबसे बड़े सलाहकार और मददगार बनकर साथ खड़े हुए हैं, इन दोनों की जोड़ी को देखकर अमरीकी कारोबारी रंग बदल रहे हैं। अभी-अभी मेटा ने ट्रम्प के एक बहुत करीबी व्यक्ति को अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में मनोनीत भी कर लिया है। और सच के लिए न ट्रम्प के मन में कोई भरोसा रहा, न एलन मस्क के। जब मस्क ने ट्विटर खरीदा था, तब से लेकर उसे एक्स बनाने तक मस्क लगातार किसी भी तरह की जांच-पड़ताल के खिलाफ रहे, और अराजकता की हद तक लोगों के पोस्ट करने के हिमायती रहे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एलन मस्क ने किसी भी तरह के झूठ को, नफरत, और हिंसा को ट्विटर से हटाने से मना कर दिया था। यह सारा सिलसिला उनके पसंदीदा राष्ट्रपति पद प्रत्याशी डोनल्ड ट्रम्प की सहूलियत का था जो कि अमरीकी वोटरों के सामने तरह-तरह से झूठ परोसकर, उन्हें बरगलाकर चुनाव जीतने की तरफ बढ़ रहे थे। अब मेटा के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने यह साबित कर दिया है कि अमरीकी कारोबारी दुनिया में जिधर बम, उधर हम की नीति ही काम करती है। आज पूरी दुनिया देख रही है कि किस तरह एक निर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति काम संभालने के महीनों पहले से दुनिया के सबसे रईस आदमी, और अमरीका के एक सबसे बड़े कारोबारी एलन मस्क की तय की हुई राह पर चल रहा है, मस्क के लिए हुए फैसलों पर हामी भरने से परे उसका कोई काम नहीं है। ऐसे में ट्रम्प और मस्क को सख्त नापसंद, झूठ और सच की जांच-पड़ताल को मेटा ने कचरे के ढेर पर डाल दिया है। अब दिखावे के लिए वहां कोई और तरीका ईजाद करने की बात कही जा रही है, लेकिन अब वहां झूठ को रोकने का एक योजनाबद्ध और संगठित तरीका खत्म कर दिया गया है।
हिन्दुस्तान जैसे देश को यह सोचना चाहिए कि क्या फेसबुक का ऐसा मॉडल भारत को भी मंजूर रहेगा, या फिर भारत अपनी कुछ शर्तें भी फेसबुक पर लगा सकता है? हम ऐसी सलाह तो नहीं दे रहे हैं, क्योंकि किसी भी तरह की रोकटोक का हक सरकार को तानाशाही की तरफ बढ़ाता है, और सरकारों को अधिक अधिकार दिए नहीं जाने चाहिए। फिर भी अगर कोई सर्वदलीय संसदीय समिति ऐसी बन सकती है जो कि आज जिंदगी पर सबसे अधिक असर डालने वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की जवाबदेही तय कर सके, तो वैसी कोशिश जरूर करनी चाहिए। भारत की पहले से लदी हुई अदालतों पर सोशल मीडिया के झूठ और नफरत का बोझ और नहीं लादा जा सकता। इसके बारे में संसद को ही सोचना होगा, और किसी तरह की सेंसरशिप के बजाय संसदशिप जैसा एक अधिकार लागू करना होगा, ताकि देश किसी एक राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक काबू लागू न करे, और जनहित में विचारधाराओं का एक अधिक विविध मंच सोशल मीडिया की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करे।
छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक बड़े नक्सल हमले में सडक़ पर लगाए गए विस्फोटक से पुलिस की गाड़ी उड़ा दी गई, और 8 जवानों के साथ एक गैरपुलिस ड्राइवर की जान चली गई। सुरक्षाबलों की ऐसी शहादत करीब दो बरस बाद हुई है, उसकी एक वजह शायद यह भी है कि इस बीच विधानसभा और लोकसभा चुनावों के चलते महीनों तक बस्तर में बाहर से भेजे गए अतिरिक्त सुरक्षा कर्मचारियों की तैनाती थी, और चौकसी भी अधिक थी। एक तरफ तो पिछले 12 महीनों में छत्तीसगढ़ की भाजपा की विष्णुदेव साय सरकार ने लगातार नक्सल मोर्चे पर अभूतपूर्व और असाधारण कामयाबी पाई है, और 287 नक्सली एक कैलेंडर वर्ष 2024 में ही मारे गए, जिनमें से कुछ के आम आदिवासी ग्रामीण होने के आरोप भी लगे थे, लेकिन उनकी गिनती हाथ की उंगलियों से अधिक नहीं थी। इस एक बरस में नक्सल हिंसा से घिरे बस्तर में मानवाधिकार हनन के मामले भी बीते बरसों के मुकाबले बहुत कम हुए थे। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस सरकार ने अपने पहले बरस में ही पिछली कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार के आखिरी बरस के 20 नक्सलियों को मारने की संख्या से 12-14 गुना अधिक का एक रिकॉर्ड भी बनाया। लेकिन नए साल के पहले हफ्ते में ही पुलिस का यह एक बड़ा नुकसान हुआ है जब सडक़ पर लगाए गए किसी बहुत बड़े विस्फोटक से पुलिस गाड़ी को उड़ाया गया, उसके चिथड़े उड़ गए, और टुकड़े-टुकड़े दूर-दूर तक पेड़ों पर टंगे हुए मिले।
इसे सुरक्षाबलों की बहुत बड़ी शिकस्त की तरह नहीं देखना चाहिए, बल्कि एक बड़े नुकसान की तरह देखना चाहिए। जिस तरह 50-60 हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी बस्तर के नक्सल मोर्चे पर तैनात हैं, और उनके 10 फीसदी से भी कम नक्सली वहां लगातार नुकसान झेल रहे हैं, वह कुल मिलाकर तो सुरक्षाबलों की कामयाबी का एक बड़ा रिकॉर्ड है। लेकिन हथियारबंद टकराव और फौजी कार्रवाई के किसी भी इलाके में अलग-अलग वक्त पर इस तरह का कोई अकेला हमला दूसरे खेमे की कई जिंदगियां ले सकता है। जब तक हथियारबंद संघर्ष जारी रहता है तब तक दोनों तरफ की वर्दियों की जिंदगियों की कोई गारंटी नहीं रहती है। प्रदेश की भाजपा सरकार के गृहमंत्री विजय शर्मा ने साल भर पहले से जिस जोर-शोर से नक्सलियों से बातचीत की घोषणा की थी, वह शुरू होने की कोई सुगबुगाहट भी नहीं दिख रही है। ऐसे में बस्तर में जिंदगियां हमेशा ही खतरे में बनी रहेंगी। यह जरूर है कि पिछले एक साल में लगातार बढ़ी हुई सुरक्षाबलों की मौजूदगी, और उनके कामयाब ऑपरेशनों के चलते नक्सली बहुत कमजोर हुए हैं, उनके बहुत से लोग मारे गए हैं, लेकिन इसके लिए जितनी बड़ी संख्या में सुरक्षा कर्मचारियों की तैनाती करनी पड़ी है, उस पर जो दानवाकार खर्च हमेशा से होते आया है, उन सबको देखते हुए, और कल का जिंदगियों का यह नुकसान देखते हुए एक बार फिर लगता है कि गोलियों के अलावा बातचीत की कोशिश भी करनी चाहिए। यह तो ठीक है कि सुरक्षा कर्मचारी सरकार के हुक्म पर कितने भी खतरे उठाने के लिए तैयार या मजबूर रहते हैं, लेकिन इन खतरों को किसी तरह से अगर कम किया जा सके, तो उसकी कोशिश भी कम अहमियत नहीं रखती है। पिछले एक साल में अगर बातचीत शुरू होकर किसी भी कामयाबी तक पहुंचती, तो इंसानी जिंदगी का बहुत बड़ा नुकसान टल सकता था। नक्सली भी इसी देश के नागरिक हैं, और अगर उन्हें समझाकर हिंसा से दूर किया जा सकता, तो दोनों तरफ की करीब तीन सौ जिंदगियां बच सकती थीं। लोकतंत्र में ऐसे बागियों, विद्रोहियों, या उग्रवादियों, आतंकवादियों को भी कानून के तहत जीने को तैयार करना लोकतांत्रिक ताकतों की कामयाबी भी होती है, और जिम्मेदारी भी होती है। हथियारबंद समूह तो लोकतंत्र पर भरोसा करते नहीं हैं, इसलिए वे लोकतंत्र से परे रहते हैं, उनसे संविधान पर भरोसे की उम्मीद नहीं की जा सकती, उन्हें इसके लिए सहमत जरूर कराया जा सकता है, और पूरी दुनिया में हथियारबंद उग्रवाद से निपटने में बिना बातचीत कामयाबी मिली भी नहीं है। खुद हिन्दुस्तान में पंजाब से लेकर उत्तर-पूर्वी प्रदेशों तक बहुत सी ऐसी मिसालें हैं कि बातचीत से सशस्त्र संघर्ष खत्म हुए हैं, और कल के उग्रवादी आज लोकतांत्रिक चुनावों की मूलधारा में आकर कानून के तहत काम कर रहे हैं, मुख्यमंत्री बन रहे हैं।
दरअसल देश-प्रदेश की राजधानियों में बसे हुए शहरी लोगों को अक्सर ऐसा लगता है कि गोली का जवाब गोली होना चाहिए। लेकिन ऐसा जवाब देते हुए बेकसूर सुरक्षाकर्मियों की शहादत भी होती है। यह मानकर चलना ठीक नहीं है कि राज्य पुलिस या केन्द्रीय सुरक्षाबलों में जो लोग नौकरी पर आते हैं, उन्हें जान और शहादत देने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। ऐसे नुकसान को हमेशा एक आखिरी और तकलीफदेह विकल्प की तरह मानना चाहिए, और उससे बचने की हर कोशिश करनी चाहिए। बातचीत का महत्व हम इसलिए भी अधिक आंकते हैं कि बंदूकों की कार्रवाई के शहरी और राजधानीनिवासी लोगों की अपनी जिंदगी इन जंगलों में दांव पर नहीं लगी रहती है। नक्सलियों की तरह के जो लोग भारत के संविधान के खिलाफ बंदूक का राज चाहते हैं, उन्हें बंदूक से जवाब देना तो ठीक है, लेकिन वह लोकतंत्र की सबसे अच्छी किस्म की कामयाबी नहीं है।
बस्तर का कल का नक्सल हमला यही साबित करता है कि एक बरस में उनका नुकसान चाहे जितना हो गया हो, वे गिनती में चाहे कितने ही कम क्यों न रह गए हों, सुरक्षाबल चाहे कितने ही बढ़ क्यों न गए हों, जब तक नक्सल हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होती है, सुरक्षा कर्मचारियों और बस्तर के आम नागरिकों पर ऐसा खतरा बने ही रहेगा। सरकार कानूनसम्मत जो भी कार्रवाई करे वह तो ठीक है, लेकिन बातचीत के महत्व को पूरी तरह भुला देना ठीक नहीं है। यह भी हो सकता है कि बातचीत की सलाह को कई लोग एक अर्बन-नक्सल सलाह मान लें, लेकिन उसी गलतफहमी को दूर करने के लिए हम याद दिलाना चाहेंगे कि अभी साल भर के भीतर ही प्रदेश के गृहमंत्री ने बार-बार बातचीत पर जोर दिया था, और यह तक कहा था कि उनसे वीडियो कॉल करके भी नक्सली शांतिवार्ता कर सकते हैं। सरकार को ऐसी बातचीत का कोई रास्ता निकालना चाहिए, प्रदेश के भीतर या बाहर कुछ ऐसे मध्यस्थ हो सकते हैं जो कि नक्सलियों को बातचीत के लिए सहमत कर सकें। प्रदेश और देश से नक्सलियों को खत्म करने के लिए उन सबकी लाशें गिराने से बेहतर रास्ता उन्हें हिंसा और बंदूक छोडऩे के लिए तैयार करने का होगा। जब तक वे रहेंगे, बीच-बीच में अगर इसी तरह के हमलों में कई जिंदगियां चली जाएंगी, तो इससे राजधानियों का तो नुकसान नहीं होगा, देश-प्रदेश के अलग-अलग गांव-कस्बों में बसे हुए उन दुखी परिवारों का बहुत बड़ा नुकसान होगा। ऐसे परिवारों की तकलीफ देखकर सरकार को शांतिवार्ता की अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी भी पूरी करनी चाहिए, ताकि जिंदगियां बचाई जा सकें। हम कल की घटना के पीछे सुरक्षाबलों की किसी चूक या लापरवाही की बात करना नहीं चाहते, लड़ाई के मैदान में कभी न कभी ऐसी चूक होती है, और कभी न कभी कमजोर पक्ष को भी वार करने का मौका मिल जाता है। इससे सबक जरूर लिया जा सकता है, लेकिन हिंसा पूरी तरह से खत्म तो राजधानियों में बातचीत की टेबिलों पर ही होगी।
महाकुंभ मेले को नासर पठान नाम की एक आईडी से सोशल मीडिया पर धमकी दी गई कि कुंभ में एक विस्फोट से कम से कम हजार लोगों को मार डाला जाएगा। इस आईडी को नासर कट्टर मियां भी लिखा गया, और इससे होने वाली पोस्ट में इंशा अल्लाह और अल्लाह इज ग्रेट जैसे शब्दों के साथ विस्फोट में हजार से अधिक को मारने की बात लिखकर सनसनी फैला दी गई। कुंभ को लेकर यूपी पुलिस कुछ चौकन्ना चल रही है क्योंकि कनाडा में बसे खालिस्तानी गुरपतवंत सिंह पन्नू ने भी कुंभ पर कुछ खास पर्वों के दिन खालिस्तानी हमले की धमकी दी है। अब वह धमकी तो चाहे जैसी भी रही हो, भारत में आज हिन्दू-मुस्लिम तनाव एक बड़ा मुद्दा है, और इसलिए यूपी पुलिस ने बहुत तेजी से इस सोशल मीडिया अकाउंट की तह तक पहुंचकर धमकी पोस्ट करने वाले को गिरफ्तार किया। हजार लोगों को मार डालने की धमकी नासर पठान के नाम से पोस्ट करने वाला बिहार का नौजवान आयुष कुमार जायसवाल निकला। उसने एक मुस्लिम नाम से फर्जी आईडी बनाई थी, और यह सनसनी, नफरत, और साम्प्रदायिकता फैलाने का काम किया था। 31 दिसंबर को यह पोस्ट करने के बाद आयुष नेपाल चले गया था, और अब पुलिस उसके नेपाल कनेक्शन भी तलाश रही है।
अब कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला होने जा रहा है, जिसमें डेढ़ महीने में 40 करोड़ लोगों के पहुंचने की उम्मीद है। हिन्दू आस्था का यह प्रदर्शन केन्द्र और राज्य सरकार की तरह-तरह की आर्थिक मदद से हो रहा है, और सरकार ही इसमें मेजबान भी है। देश भर के हिन्दुओं को इसके लिए न्यौता दिया जा रहा है, और कुछ खास दिनों पर तो यहां एक दिन में एक करोड़ से अधिक लोगों के भी आने की उम्मीद है। जहां धार्मिक वातावरण में इतने लोग एकजुट होने हों, उस आयोजन को लेकर वहां पहुंचने वाले लोगों के बीच एक मुस्लिम के नाम से विस्फोट से कम से कम हजार लोगों को मार डालने की धमकी देने की कई तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है। इतनी भीड़ के बीच किसी फेरीवाले मुस्लिम को लेकर अगर लोगों को कोई शक हुआ, और उसे घेरकर मार डाला गया, तो वैसे तनाव के पीछे इस फर्जी पोस्ट से शुरू साम्प्रदायिकता भी जिम्मेदार रहेगी। आज देश भर में जगह-जगह धर्मान्ध भीड़ किसी को भी घेरकर मार रही है, और वैसे में कुंभ को लेकर इस तरह की साम्प्रदायिक धमकी देना देश में दंगा फैलाने की हरकत से कम कुछ नहीं है।
अब सोशल मीडिया और मैसेंजर सर्विसों की मेहरबानी से लोगों को सुबह चाय का पहला कप मिलता है, उसके पहले वे हजार-पांच सौ लोगों के बीच नफरत बांट चुके रहते हैं। फिर जिन्हें नफरत के ऐसे झूठे वीडियो और गढ़े हुए पोस्ट मिलते हैं, वे इसे अपनी सार्वजनिक, राजनीतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी मानते हुए और लोगों को आगे बढ़ा देते हैं। यह देश ऐसी सोच पर खड़ा हुआ है जिसमें किसी देवी से लेकर सांई बाबा तक के पर्चों को बांटने के काम में लोग जुट जाते हैं, क्योंकि 21 लोगों तक वैसा पर्चा लिखकर न बांटने से बड़ा अशुभ हो सकता है, ऐसी मजबूत सोच इस देश के लोगों की है। इसलिए खासे पढ़े-लिखे और वैज्ञानिक जानकारी के लोग नफरत फैलाने के लिए मानो सुबह अलार्म लगाकर जल्दी उठते हैं कि मुर्गा लोगों को जगा सके उसके पहले वे लोगों के भीतर नफरत को जगाने में कामयाब हो चुके रहें। ऐसे लोगों के हाथ जब नासर पठान के नाम से जारी ऐसी धमकी मिलती है जो कि हिन्दुओं के सबसे बड़े आस्था-मेले में आतंकी हमले की बात करती है, तो जाहिर है कि इसे भी आगे बढ़ाया जाएगा, बढ़ाया जा चुका होगा। और पुलिस ने जांच में नासर पठान की जगह आयुष जायसवाल को पाया है, इस बात को नफरतियों की दस फीसदी भीड़ भी आगे नहीं बढ़ाएगी। इसलिए झूठ जब चारों तरफ आग लगा चुका रहता है, सच एक बाल्टी रेत लेकर सोचता है कि बुझाना कहां से शुरू किया जाए।
हमारा मानना है कि बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने की ऐसी साजिश करने वाले लोगों को किसी स्पेशल कोर्ट के तहत तेजी से सजा मिले, और बाकी लोगों को सबक मिले। अभी तो हम नफरत फैलाने वालों को कोई सजा मिलना तो दूर, कोई समन मिलते भी नहीं देखते। जाहिर है कि ऐसे में सबके हौसले बढ़ते चलते हैं, और देश के अधिकतर हिस्सों में बहुसंख्यक धर्म के लोगों को अल्पसंख्यक धर्म के लोगों के हक पर आपत्ति होने लगी है। यह पहला ऐसा मौका नहीं है कि यूपी-बिहार जैसे हिन्दीभाषी, हिन्दू बहुतायत वाले प्रदेशों में ऐसी हरकत की गई हो। पिछले बरस यूपी में एक थानेदार का तबादला करवाने के लिए उस इलाके के कुछ हिन्दू गुंडों ने गाय कटवाकर कुछ जगहों पर फेंक दी, और उसके पास एक मुस्लिम का परिचय पत्र डाल दिया था ताकि साम्प्रदायिक दंगा हो जाए तो थानेदार का तबादला हो जाएगा। बाद में सीएम योगी की पुलिस के एक हिन्दू आईजी के मातहत एक हिन्दू एसपी के मातहत कई दूसरे हिन्दू अफसरों ने मिलकर गाय कटवाने वाले इन हिन्दुओं को गिरफ्तार किया था। अब यह कल्पना की जा सकती है कि अगर कोई साम्प्रदायिक दंगा हो गया रहता तो वह कहां-कहां तक फैलता, और बाकी देश में भी उसकी चिंगारियां पहुंचतीं।
हिन्दुस्तान के बहुत से लोगों की धार्मिक भावनाओं को बड़ी कोशिश करके बारूद के ढेर पर बिठाकर रखा गया है। सुप्रीम कोर्ट कभी इस साजिश को समझने का दिखावा करता है, और पूरे देश के लिए बार-बार कड़े हुक्म देता है कि हेट स्पीच पर अफसर तुरंत खुद ही जुर्म दर्ज करें, किसी शिकायत का इंतजार न करें, वरना उन्हें सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का दोषी पाया जाएगा। लेकिन इस पर अमल कहीं भी नहीं दिखता है। नफरत के ऐसे माहौल में, बारूद के ऐसे ढेरों के इर्द-गिर्द नफरती आतिशबाजी करने में लगे हुए लोगों को मामूली कानून में सजा देना काफी नहीं होगा। इन्हें देश की एकता और अखंडता को खत्म करने की साजिश के तहत देशद्रोह की सजा मिलनी चाहिए क्योंकि ये देश के भीतर हिंसक दंगे भडक़ाने की कोशिश कर रहे हैं। देश की सबसे बड़ी अदालतों के जज जुबानी जमाखर्च को काफी मान लेते हैं, और अपने लिखित आदेशों को दीमक का लंच-डिनर बनते देखने में भी उन्हें कुछ बुरा नहीं लगता। ऐसे देश में ऐसे खतरे कब तक टलेंगे, यह अंदाज लगाना बड़ा मुश्किल है।
दिल्ली विधानसभा के चुनाव सामने खड़े हैं, और जाहिर है कि पिछले कुछ चुनावों से लगातार वहां जीतकर आ रही आम आदमी पार्टी को कई किस्म के सवालों के लिए तैयार रहनी चाहिए। इस पार्टी के पिछले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, जो कि अभी कथित शराब घोटाले में जमानत पर छूटे हुए हैं, और एक बार फिर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं, उनका अपने सरकारी घर पर खर्च फिर खबरों में हैं। 2020 में मुख्यमंत्री के सरकारी निवास पर साज-सज्जा और दीगर कामों के लिए 7.9 करोड़ का अनुमान लगाया गया था, और 8.6 करोड़ में वह काम दिया गया था। लेकिन दो बरस बाद जब वह काम पूरा हुआ तो उसकी लागत 33.66 करोड़ रूपए हो चुकी थी। ये भाजपा के लगाए गए आरोपों के आंकड़े नहीं हैं, ये आंकड़े सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट के आधार पर सामने आए हैं, और इन्हें केजरीवाल के विरोधी पहले दिन से ही बादशाह के शीश महल पर खर्च करार दे रहे थे। अभी कल केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने यह आरोप लगाया कि केजरीवाल ने सीएम हाऊस में सरकारी खर्च पर कई ऐसी बहुत महंगी चीजें लगवाईं जिनका उन्होंने तो कभी नाम भी नहीं सुना था। उन्होंने याद दिलाया कि जब केजरीवाल राजनीति में आए थे, तो उन्होंने कसम खाई थी कि सरकारी कार या बंगला नहीं लेंगे, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल ने एक के बाद बंगले लिए, और बाद में 45 करोड़ रूपए से कई एकड़ पर शीशमहल बनवाया। अमित शाह ने कहा कि केजरीवाल ने दिल्ली में पानी की सप्लाई के लिए इंतजाम तो नहीं किया, लेकिन चार सदस्यों के अपने परिवार के लिए 15 करोड़ रूपए का पानी का संयंत्र लगाया। उन्होंने कहा कि केजरीवाल ने अपने बंगले पर डिजाइनर मार्बल पर 6 करोड़ रूपए, आधुनिक पर्दों पर 6 करोड़ रूपए, ऑटोमेटिक दरवाजों पर 70 लाख रूपए, कालीनों पर 50 लाख रूपए, और स्मार्टटीवी पर 64 लाख रूपए खर्च किए। केन्द्रीय गृहमंत्री शायद सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट से ही आंकड़े गिना रहे थे। इस रिपोर्ट में सीएजी ने बंगले पर किए गए खर्च के आधे से अधिक हिस्सा कलात्मक, ऐशोआराम के सामान, सजावटी सामान गिनाए थे जिन्हें पीडब्ल्यूडी ने एक्स्ट्रा आइटम बताते हुए वह खर्च किया था।
हम यहां पर कोई समाचार नहीं बना रहे हैं जिसमें एक-एक जानकारी और एक-एक आंकड़े देना जरूरी हो। हम तो महज इस पूरे विवाद पर अपनी सोच सामने रख रहे हैं कि किस तरह गांधी टोपी और खादी को खाल की तरह ओढक़र अन्ना हजारे नाम का एक आदमी यूपीए सरकार को हटाने की नीयत से एक वक्त आमरण अनशन पर बैठ गया था, और उस वक्त इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल केजरीवाल और उनके साथी तरह-तरह की सादगी की बातें करते हुए मनमोहन सरकार को खत्म करने की मुहिम छेड़े हुए थे। उस वक्त केजरीवाल ऐसे ढीले कपड़े पहनकर जनता के सामने रहते थे कि एक वक्त के खाते-पीते इंसान के अब भूखे मरने के दिन आ गए हैं, और मानो ये कपड़े बता रहे हों कि यूपीए सरकार के राज में केजरीवाल खा भी नहीं पा रहे हैं। वहां से लेकर आम आदमी पार्टी नाम का राजनीतिक दल बनाना, चुनाव लडऩा और कई बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनना केजरीवाल का राजनीति के आसमान पर सूरज की तरह दमकना था। लेकिन गांधीवादी सादगी और आमरण अनशन के बीच से नेता बना यह नौजवान कब ऐसे ऐशोआराम का हिमायती हो गया वह पता ही नहीं लगा। कहां तो वह सरकारी बंगला और गाड़ी नहीं लेने वाला था, और अब जब बंगलों का शौक सिर चढक़र बोलने लगा, तो अपनी पार्टी के नाम के ठीक खिलाफ जाकर केजरीवाल नाम के स्वघोषित आम आदमी ने अपने आप पर आधा अरब रूपया खर्च करके अपने आपको दिल्ली का सबसे खास आदमी साबित किया, जनता के पैसों से।
हो सकता है कि केन्द्र सरकार, और दूसरी राज्य सरकारों में भी मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के खर्च इसी दर्जे के होते हों, लेकिन हमें ऐसे दूसरे नेता याद नहीं पड़ते जिन्होंने सत्ता पर आने के लिए केजरीवाल की टक्कर के सादगी के नारे उछाले रहे हों। हमें यह जरूर याद पड़ता है कि त्रिपुरा में सीपीएम के एक से अधिक मुख्यमंत्री ऐसे रहे जो परले दर्जे की सादगी की जिंदगी जीते रहे, और एक अकेले मुख्यमंत्री अपने चीफ सेक्रेटरी के साथ एक ही कमरे में रह लेते थे, अपने-अपने कपड़े धो लेते थे, और एक ही कार में बैठकर ऑफिस जाना-आना कर लेते थे। एक दूसरे मुख्यमंत्री की पत्नी केन्द्र सरकार के किसी दफ्तर में काम करती थी, और मुख्यमंत्री निवास से ऑटोरिक्शा में अपने दफ्तर आने-जाने का इंतजाम खुद करती थीं। इसलिए ऐसा भी नहीं है कि इस देश ने कभी सादगी और ईमानदारी देखी नहीं है। और लोगों ने केजरीवाल पर भरोसा कर लिया था कि वे स्वघोषित गांधीवादी और खादी ओढ़े हुए, आमरण अनशन पर बैठे हुए अन्ना हजारे के सबसे करीबी साथी बने हुए महीनों तक मीडिया में छाए रहे थे, और आम आदमी के नाम पर पार्टी बनाने के बाद सादगी का नारा देकर वे सत्ता पर पहुंचे थे।
हमारा यह मानना है कि देश की किसी भी सरकार को अपने नेताओं और अफसरों के लिए, जजों, और दूसरे ओहदों पर बैठे लोगों के लिए बंगले बनवाना बंद कर देना चाहिए। कई-कई एकड़ पर दर्जनों या सैकड़ों करोड़ की लागत से बनने वाले ऐसे बंगलों का रख-रखाव भी दसियों लाख रूपए महीने बैठता है, फिर चाहे इसे किसी एक सरकारी मद में एक साथ न दिखाया जाता हो। यह विकराल खर्च उस जनता के खून-पसीने की कमाई से निकाला जाता है जिसका पेट भरने के लिए उसे हर महीने पांच किलो चावल देने की नौबत देश में बनी हुई है। सरकारों को हर ओहदे का एक भत्ता तय करना चाहिए, उतने में वे जैसा चाहे वैसा मकान लें, चाहे तो अपने ही घर में रहते हुए उतना मकान भत्ता ले लें, और एक सीमित रकम उन्हें रख-रखाव के लिए मिलनी चाहिए। हालांकि हमारा पूरा भरोसा है कि ऐसा कोई सुझाव जनहित याचिका की शक्ल में भी अगर किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेगा, तो शायद ही कोई जज इसे जनहित के नजरिए से देख पाएंगे, क्योंकि अनुपातहीन ऐशोआराम पाने वाले लोगों में बड़े जज भी तो सबसे आगे हैं। हमें छत्तीसगढ़ का हाईकोर्ट बनने का दौर याद है जब राज्य सरकार के रखे गए बजट से असंतुष्ट जजों ने सरकार से और भारी-भरकम मंजूरी करवाई थी, और सरकार ने न चाहते हुए भी वह मंजूरी दी थी।
भारतीय लोकतंत्र अभी तक एक राजतंत्र और सामंती व्यवस्था के मुताबिक चलता है। यहां सत्ता पर काबिज तमाम राजा प्रजा के खून-पसीने पर बंगलों को महल में बदलने पर उतारू रहते हैं, और जब तक सत्ता शाही सहूलियतों में सांस लेगी, वह गरीब रियाया की तकलीफों से अनजान बनी रहेगी। इस सिलसिले को तोडऩा चाहिए, आज अमित शाह ने केजरीवाल पर हमला बोला है, और इसी तथ्य और तर्क का विस्तार करते हुए किसी जनसंगठन को पूरे देश में जनता के पैसों पर चलने और पलने वाली सरकारों के खुद पर खर्च का सोशल ऑडिट करना चाहिए।
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छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक पत्रकार मुकेश चंद्राकर का कत्ल राज्य के मीडिया को हिला गया है। मुकेश नौजवान और बहुत सक्रिय पत्रकार थे, वे एनडीटीवी से भी जुड़े हुए थे, और उनका अपना यूट्यूब चैनल भी खासा लोकप्रिय था। इसके अलावा बस्तर के कुछ दूसरे पत्रकारों की तरह वे पत्रकारिता से परे भी सक्रिय रहते थे, और एक वक्त सरकारी कर्मचारी के नक्सल अपहरण के बाद उसकी रिहाई में भी उनका योगदान था। उनका कत्ल एक ठेकेदार के अहाते में ठेकेदार के भाई के हाथों हुआ बताया जा रहा है, और आज कुछ घंटों बाद पुलिस इसका खुलासा करने जा रही है। इस बीच जो जानकारी सामने आई है वह बस्तर में पत्रकारिता को लेकर कई बुनियादी सवाल खड़े करती है जिन पर सोचना-विचारना चाहिए।
जिस ठेेकेदार से यह मामला जुड़ा हुआ है, वह ठेकेदार सौ-पचास करोड़ के सडक़ ठेके वाला है, और बस्तर में ऐसे कई बड़े ठेकेदार अपनी कल तक की आर्थिक क्षमता से एकदम आगे बढक़र अचानक बड़े-बड़े काम करने लगते हैं, और इनमें से कुछ के बारे में यह जानकारी आम रहती है कि उनके नाम से पुलिस के कौन से बड़े अफसर ठेके लेते हैं। बस्तर में नक्सल हिंसा और खतरे के चलते कोई निर्माण ठेका ले लेने के बाद भी उसे पूरा करना तब तक नहीं हो सकता, जब तक पुलिस की खास मेहरबानी और हिफाजत उसे हासिल न हो। एक वक्त तो ऐसा था कि बस्तर के एक बड़े आईजी के बंगले पर ही पड़ोसी राज्य से आए हुए बड़े ठेकेदार रहते थे, और वहीं पर सारे ठेके तय कर दिए जाते थे। ऐसे सरकारी और कारोबारी माहौल में जो पत्रकार काम करते हैं, वे एक तरफ तो नक्सल खतरा झेलते हैं, और दूसरी तरफ अपने मीडिया-दफ्तर के दबाव भी झेलते हैं कि वहां से विज्ञापन वसूल करके भेजे जाएं, या सीधे-सीधे उगाही की जाए। छोटी जगहों पर काम करने वाले किसी भी दर्जे के संवाददाता तकरीबन बिना तनख्वाह के ही काम करते हैं, उन्हें कोई विज्ञापन कमीशन मिल जाता है, या फिर उनका संस्थान यह मान लेता है कि एक परिचय पत्र या एक माइक्रोफोन-आईडी के बाद संवाददाता खुद सारा इंतजाम कर सकते हैं, और अपने मुख्यालय को भी इश्तहार या उगाही भेज सकते हैं। ऐसे खतरनाक कारोबारी इंतजाम के साथ-साथ नक्सल खतरे के बीच बस्तर के अधिकतर पत्रकार काम करते हैं, और धीरे-धीरे वहां पत्रकारिता का वातावरण कारोबारी दबाव तले दम तोडऩे लगता है। फिर भी बहुत विपरीत परिस्थितियों में कुछ अच्छे पत्रकार लगातार हथियारबंद संघर्ष वाले इलाकों में काम करते हैं, और उन्हीं की वजह से जमीनी हकीकत सामने आती है। अभी मुकेश चंद्राकर के गुजर जाने पर कुछ लोगों ने इस बात को उठाया भी है कि किस तरह राजधानियों से बस्तर पहुंचने वाले पत्रकार वहां के स्थानीय पत्रकारों का इस्तेमाल करके अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं, और स्थानीय पत्रकार हर तरह के दबाव, और खतरे झेलते हुए भी एक अच्छे आदिवासी मेजबान की तरह बाहरी प्रवासी पत्रकारों का साथ देने के लिए अपनी कई-कई दिन झोंक देते हैं।
हमने यह तमाम बातें नक्सल प्रभावित इलाकों में जर्नलिज्म का माहौल बताने के लिए लिखी हैं, और अब इनमें यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म की वजह से शुरू हुई एक स्वतंत्र पत्रकारिता और जुड़ गई है, जिसमें मुकेश चंद्राकर और ऐसे कुछ नौजवानों ने खासा नाम कमाया है। लेकिन लगातार संघर्ष के इलाके में भारी भ्रष्टाचार के बीच काम करते हुए पत्रकार कई दूसरे तरह के प्रभावों से भी प्रभावित होते हैं। ऐसे में कब नक्सली, कब कारोबारी, कब पुलिस, कब नेता, और कब मीडिया का मैनेजमेंट उनका इस्तेमाल करते हैं, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता है। फिर किसी भी ऐसे पेशे में जहां पर नियमित आय की कोई गारंटी नहीं रहती है, लोगों को अपनी जिंदगी चलाने के लिए कई किस्म के जायज और नाजायज इंतजाम करने पड़ते हैं, और ऐसे में बस्तर के कई पत्रकार बड़े ठेकेदार भी बन जाते हैं, या ठेकेदारों के आपसी मुकाबलों में मोहरे बन जाते हैं। जब कभी बस्तर में रिपोर्टर किसी भी तरह फंसते हैं, या ठेकेदार, नेता, और अफसर अकेले या मिलकर उन्हें फंसा देते हैं, तो उनके संस्थान उनसे सबसे पहले हाथ धो लेते हैं, वे यह मानने से भी इंकार कर देते हैं कि ये संवाददाता कभी उनके लिए काम करते थे, या कर रहे हैं।
मुकेश चंद्राकर का कत्ल जिस बड़े ताकतवर और खाकी-मेहरबानी से लैस ठेकेदार के परिवार का किया गया बताया जा रहा है, उसके खिलाफ हाल ही में एक टीवी चैनल पर एक रिपोर्ट आई थी, और सौ-पचास करोड़ के इस ठेके की गड़बड़ी पर सरकार ने जांच के आदेश दिए थे। इस रिपोर्ट में मुकेश चंद्राकर का भी योगदान बताया जा रहा है, और पारिवारिक संबंधों के बावजूद ऐसी रिपोर्ट पर ठेकेदार की निराशा थी, और वही कत्ल तक पहुंची दिख रही है। अब अगर इतने बड़े-बड़े ठेकों में गड़बड़ी की रिपोर्ट पर रिपोर्टर का कत्ल होने लगे, तो बड़े भ्रष्टाचार को भला कौन उजागर कर सकेंगे? और बस्तर जैसे इलाके में तो बड़े ठेकेदारों का ऐसा भ्रष्ट कारोबार आम है, और इसमें नेताओं और अफसरों की मेहरबानी और भागीदारी भी आम है। एक पत्रकार की हत्या को लेकर राज्य में लोकतंत्र के सभी पहलू विचलित हैं, और सरकार के पास भी अपने-आपको साफ साबित करने का एक मौका है क्योंकि हत्यारोपी परिवार कांग्रेस का करीबी, और पदाधिकारी बताया जा रहा है। बस्तर के पत्रकारों पर खतरा आज के इन कातिलों को सजा से खत्म नहीं होगा, और यह प्रकाशन और प्रसारण कारोबार की बाजारू रणनीतियों और तौर-तरीकों की वजह से पैदा चुनौती और खतरा भी है। मीडिया के लोगों को इस व्यापक मुद्दे पर सोचना-विचारना चाहिए, और सरकार को भी देखना चाहिए कि नक्सल इलाकों में उसके अफसर संविधानेतर सत्ता की तरह काम तो नहीं कर रहे हंै। इसके अलावा राजनीतिक दलों को भी कारोबारियों से कम से कम सार्वजनिक रूप से तो एक दूरी बनाकर रखना चाहिए। मुकेश चंद्राकर अच्छी टीवी रिपोर्टिंग करने वाले नौजवान थे, और उनके इस कत्ल के बाद इसे महज एक जुर्म की तरह जांच-परखकर और मामले को अदालत से फैसले तक पहुंचाने से परे भी सभी पहलुओं को सोचना चाहिए कि स्थितियों को कैसे सुधारा जा सकता है, और एक अच्छी पत्रकारिता को बस्तर में मौका कैसे दिया जा सकता है।
इन दिनों पूरे हिन्दुस्तान में जिस बड़े पैमाने पर साइबर-ठगी और जालसाजी चल रही है, और जिस तरह से गांव-गांव तक घुसकर कहीं चिटफंड, कहीं फाइनेंस कंपनी, कहीं क्रिप्टोकरेंसी, कहीं चेन मार्केटिंग का जाल बिछाया जा रहा है, वह भयानक है। अब ऐसा लगता है कि डकैती और लूट करने की किसी को जरूरत नहीं रह गई है, और बिना हथियार, बिना खून बहाए लोग करोड़पति और अरबपति हो रहे हैं। नमूने के लिए हम छत्तीसगढ़ की घटनाओं को लेते हैं जो कि बरसों से अखबारों में सुर्खियां बनी हुई हैं, और इनमें कोई भी ऐसी बात नहीं है जो कि देश के दूसरे प्रदेशों में न हो रही हों। गांव-गांव तक जालसाजों के जाल फैल गए हैं, और सरकारी स्कूलों के शिक्षक भी फर्जी फाइनेंस योजनाओं की मार्केटिंग में जुट गए हैं क्योंकि उसमें कमाई अधिक है। राज्य सरकार के बहुत से दूसरे कर्मचारी, और कई अधिकारी अपने परिवार के दूसरे लोगों के नाम से कुछ नामी-गिरामी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के सामानों की मार्केटिंग का नेटवर्क बढ़ाने में लगे हैं, और सरकार के पास पूरी जानकारी होने के बावजूद ऐसे लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। नेटवर्क मार्केटिंग तो सरकारी कुर्सी के असर का इस्तेमाल करके कमाई का एक जाल फैलाने का काम है, लेकिन बहुत तरह के ऐसे चिटफंड और फर्जी योजनाओं की खबरें लगातार आती हैं जिनमें एक-एक में हजारों लोग जिंदगी भर की कमाई डूबा चुके हैं, और कर्ज लेकर भी शेयर बाजार या क्रिप्टोकरेंसी के झांसे में पैसे लगा रहे हैं। ऐसी फर्जी योजनाओं में पैसा लगाने के लिए लोग ऑनलाईन कर्ज देने वाले देसी-विदेशी साहूकारों से पैसे ले रहे हैं, और वहां पर अलग लुट रहे हैं। आज इस तरह की साजिश का चमकता हुआ रंगीन बुलबुला जब फूटता है, तो इनमें पैसे फंसा चुके लोगों की आंखों में मानो बुलबुले के साबुन के छींटों से आंसू निकलने लगते हैं। उनका पैसा पंख लगाकर कई बैंक खातों से उड़ते हुए जाने कहां पहुंच चुका रहता है।
चूंकि राज्यों में केन्द्र सरकार की जांच और निगरानी एजेंसियों से कई गुना अधिक बड़ी मशीनरी अपनी खुद की है, इसलिए अगर राज्य सरकारें जागरूक रहें, तो वे समय रहते जालसाजी की ऐसी योजनाओं, उनकी कंपनियों, और उनके एजेंटों को पकड़ सकती हैं। हमने पहले भी इस बात का सुझाव दिया था कि राज्य सरकार को एक आर्थिक अपराध निगरानी ब्यूरो बनाना चाहिए। आज सरकार के पास आर्थिक अपराधों की जांच के लिए तो ब्यूरो है, सरकारी विभागों के भीतर भ्रष्टाचार पकडऩे के लिए भी छापामार दस्ते हैं, राज्य सरकार का अपना खुफिया विभाग भी है जो कि मोटेतौर पर राजनीतिक और सामाजिक हलचलों पर नजर रखता है, और इससे परे नक्सल इलाकों में खुफिया निगरानी के लिए सरकारी मशीनरी है। लेकिन सरकारी कामकाज से परे खुले बाजार में अगर फाइनेंस कंपनियां, चिटफंड कंपनियां, वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर पूंजीनिवेश के लिए फैलाए गए जाल काम कर रहे हैं, तो सरकार के पास इन पर खुफिया निगरानी रखने के लिए और समय रहते इनको दबोचने के लिए आज कोई ढांचा नहीं है, कोई एजेंसी नहीं है। इनमें सरकार का पैसा तो सीधे-सीधे नहीं डूब रहा है, लेकिन राज्य की जनता का जितना भी पैसा धोखाधड़ी और जालसाजी में डूब जाता है, वह पैसा तो राज्य की अर्थव्यवस्था से बाहर चले जाता है, और पुलिस रिपोर्ट होने के बाद इन पर कार्रवाई करने का भारी-भरकम काम राज्य सरकार पर ही आता है। इसलिए राज्य सरकार को अपने नागरिकों को बचाने के लिए, और अपने खुद पर भविष्य में आने वाले विकराल बोझ को टालने के लिए एक आर्थिक अपराध निगरानी ब्यूरो बनाना चाहिए।
हमारा मानना है कि जितने भी किस्म की आर्थिक धोखाधड़ी की योजनाएं बाजार में फैलाई जाती हैं, वे किसी अंधेरी गली में बिकने वाले नशे की तरह नहीं रहतीं। इन योजनाओं को लोगों के बीच फैलाना पड़ता है, तभी जाकर लोग इसके झांसे में आते हैं। इस धोखाधड़ी को फुटपाथ पर किसी ताबीज बेचने वाले की तरह सपने दिखाकर ही कामयाब किया जा सकता है, और इसी वजह से यह एक संभावना बनती है कि अगर सरकार का कोई निगरानीतंत्र जनता के बीच लगातार काम करता रहे, तो बाजार में ऐसी बिछाई गई योजनाओं के बारे में समय रहते खबर लग जाएगी, और अधिक लोग डूबने से बच जाएंगे। आज तो हालत यह हो रही है कि धोखा खाए हुए लोगों में से कुछ लोग खुदकुशी कर चुके हैं, कई लोग जिंदगी भर की कमाई गंवा चुके हैं, और कई लोग कर्ज ले-लेकर ऐसी धोखाधड़ी में पूंजीनिवेश कर चुके हैं।
देश-प्रदेश में जुर्म किसी भी तरह का हो, उस पर कार्रवाई करने की जिम्मेदारी पुलिस या किसी सरकारी एजेंसी की आती है, और उसका कुल जमा कानूनी बोझ अदालत तक भी पहुंचता है। इन दोनों चीजों पर जनता का पैसा खर्च होता है, और यह बात जाहिर है कि देश की अदालतों पर करोड़ों मुकदमों का बोझ लदा हुआ है, और पुलिस की गिनती बढ़ती चली जाने के बावजूद बड़े पैमाने पर हो रही ऐसी जालसाजी और ठगी के लिए पुलिस हमेशा कम ही साबित होगी। आज नई टेक्नॉलॉजी की वजह से पुलिस और दूसरी जांच या निगरानी एजेंसियों के लिए यह बात कुछ आसान हो गई है कि समय पर जालसाजों की शिनाख्त होने से उनके फोन निगरानी में रखे जा सकते हैं, और उनके बैंक खातों को खाली होने के पहले जब्त किया जा सकता है। इन दिनों लगातार यह लग रहा है कि ठगी और जालसाजी भारत में एक सबसे बड़ा कारोबार बन चुके हैं, और लोगों को इससे कोई झिझक भी नहीं दिखती। जब आसपास के लोग ही अपने परिचित, दोस्त, और रिश्तेदारों को झांसा देने में लग जाते हैं, तो फिर ठगी-जालसाजी से लोगों का बचना बड़ा मुश्किल हो जाता है।
राज्य सरकारों को अपने बंधे-बंधाए दायरे से परे भी कुछ सोचने की जरूरत है। अंग्रेजी में कहा जाता है कि सोच के बक्से से बाहर निकलकर कुछ सोचना चाहिए। ऐसी आऊट ऑफ बॉक्स थिंकिंग से ही कोई राज्य सरकार एक निगरानी तंत्र विकसित कर सकती है जो कि डूब जाने के पहले जनता को बचा सके। यह एजेंसी एक लाईफ बेल्ट की तरह रहेगी जो कि किसी मोटरबोट के मुसाफिरों के लिए जरूरी रहती है, और डूबने से बचाती है। अगर यह न रहे तो सरकार को डूब चुकी लाशों को निकालने में सैकड़ों गुना अधिक मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए हमारी यह कड़ी सिफारिश है कि सरकार को एक नई एजेंसी बनाकर जनता के बीच आर्थिक ठगी और जालसाजी पर निगरानी रखने, और समय रहते उसे पकडक़र सरकार की दूसरी एजेंसियों को कार्रवाई के लिए दे देने का काम करना चाहिए। यह एजेंसी तरह-तरह की साइबर-क्षमता वाली भी होनी चाहिए, जो कि जनता तक पहुंचने वाले झांसों को ऑनलाईन भी पकड़ सके। देखते हैं कि किस प्रदेश की सरकार ऐसी पहल करती है, और यह भी हो सकता है कि देश के किसी प्रदेश में ऐसा किया भी गया हो।
बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में एक छात्रावासी स्कूल के आठवीं के लडक़े ने कुछ दिन पहले वहीं पर खुदकुशी कर ली। लाश की कलाई पर हर-हर महादेव, ओम नम: शिवाय, लिखा हुआ था, और उसके पास के कुछ कागजों में भगवान से शिकायतें लिखी हुई थीं, और गायत्री मंत्र लिखे हुए थे। यह लडक़ा क्लास का मॉनीटर भी था, और धर्म में इस तरह डूबे हुए उसकी खुदकुशी हैरान भी करती है क्योंकि आदिवासी इलाकों में लोगों की एक अलग किस्म की संस्कृति रहते आई है। एक दूसरा मामला छत्तीसगढ़ के ही सक्ती में सामने आया है जिसमें ग्यारहवीं की एक छात्रा ने अपनी जीभ काटकर एक मंदिर में भगवान शिव को चढ़ा दी, और चारों तरफ खून फैला हुआ था, जीभ काटने के बाद छात्रा ने अपने को मंदिर में बंद कर लिया, और साधना करने की बात कहती रही। गांव वाले भी आसपास बाहर इकट्ठा हो गए। इस छात्रा के घरवालों का भी कहना था कि वह दो दिनों तक साधना करती रहेगी, और छात्रा ने एक कागज पर लिख छोड़ा था कि अगर वह साधना से उठ जाएगी तो उसकी हत्या हो जाएगी। इसे देखकर गांव वालों ने पुलिस को भी मंदिर तक नहीं जाने दिया था, और पुलिस और डॉक्टरों के समझाने पर भी लडक़ी को अस्पताल नहीं ले जाने दिया।
दोनों घटनाएं अलग-अलग भी, और मिलकर भी बहुत परेशान करती हैं। दस-पन्द्रह बरस की उम्र के बच्चों को पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद, और जिंदगी की बाकी चीजों में व्यस्त रहना चाहिए। लेकिन इस उम्र के बच्चों को जब धार्मिक रीति-रिवाजों से लेकर धार्मिक अंधविश्वास तक में झोंक दिया जाता है, जब उन्हें कोई प्रवचनकर्ता यह समझा जाता है कि बेलपत्री पर चंदन या शहद लगाकर शिवलिंग पर चढ़ा देने के बाद दुनिया की कोई भी इम्तिहान बिना पढ़े बच्चे को भी फेल नहीं कर सकती, तो वह अंधविश्वास कई तरह की शक्ल लेने लगता है। जिस तरह बदन के भीतर कैंसर जब फैलना शुरू होता है, तो वह किस तरफ कितनी दूर तक चलता है, कहां-कहां फैल जाता है, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता, और ठीक यही हाल अंधविश्वास का भी रहता है, बच्चों के भीतर उनके नर्म दिल पर अंधविश्वास मानो गर्म लोहे से दाग लगा जाता है। यह सिलसिला बहुत बड़े पैमाने पर बहुत खतरनाक है, और इसका सही-सही अंदाज इसलिए नहीं लग पाता कि सिर्फ मौत के ही आंकड़े सामने आते हैं, अंधविश्वास में डूबे हुए, मानसिक विकास रूक जाने वाले बच्चों का अंदाज नहीं लग पाता कि वे कितने हैं, और उनका मानसिक विकास किस हद तक प्रभावित हुआ है।
जाहिर है कि आज दुनिया में सबसे अधिक असर डालने वाला सामान धर्म ही है। लोगों को संविधान, लोकतंत्र, कानून, मानवाधिकार, महिला-अधिकार से लेकर सामाजिक न्याय तक सब कुछ धर्म के नीचे ही लगते हैं। धर्म और धर्मान्धता के बीच कोई सीमा रेखा नहीं रह गई है। गांधी और विवेकानंद के धर्म सरीखा धर्म आज नहीं रह गया है, वह बहुत आक्रामक हो चुका है, और उसकी धार बढ़ती ही चली जा रही है। बच्चे भी चारों तरफ सडक़ों पर, कानों में रात-दिन पहुंचने वाले धार्मिक शोरगुल के मार्फत धर्म के सबसे ही आक्रामक तेवरों तले दब रहे हैं। एक निजी आस्था की तरह न रहकर धर्म सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन हो चुका है, और बहुत सारे मामलों में यह दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ नफरत का सामान भी बन चुका है। बच्चे अपने आसपास के लोगों को जिस तरह की हिंसक बातचीत करते देखते हैं, धर्म की बुनियादी कुछ बातें अगर भली भी होंगी, तो भी उनसे परे उसके हिंसक और नफरती तेवरों से वे अधिक प्रभावित हो रहे हैं, और उन्हें धर्म शांति पाने के एक जरिए के बजाय एक हथियार की तरह लगने लगा है। ऐसी दिमागी हालत में अंधविश्वास को जगह बनाना आसान हो जाता है, और बच्चों से लेकर बड़ों तक कई पीढिय़ों में ऐसा अंधविश्वास साथ-साथ चल रहा है।
किसी समाज में बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए कलात्मकता, रचनात्मकता, कल्पनाशीलता की बड़ी जरूरत रहती है। सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता भी विकास में मददगार होती है। बच्चों में एक जिज्ञासा जरूरी होती है, और सवाल पूछने का उनमें उत्साह जरूरी होता है। अब अगर हम धर्म के कारोबार को देखें, तो उसमें इनमें से किसी भी बात की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। धर्म हजारों बरस से एक ही धारणा पर चल रहा, बिना किसी फेरबदल की गुंजाइश वाला, और लगातार कट्टरता की तरफ बढ़ता हुआ एक ऐसा माध्यम है जिसमें किसी उत्सुकता, जिज्ञासा, और सवालों की गुंजाइश नहीं है। छत्तीसगढ़ में कुछ ही दिनों के फासले में एक आत्महत्या, और एक जीभ काटकर चढ़ा देने की घटना बहुत हैरान तो नहीं करती है, क्योंकि बच्चों के बीच भी धर्मान्धता और अंधविश्वास की जड़ें कैंसर की तरह फैल चुकी हैं, लेकिन ये दो घटनाएं दुखी बहुत करती हैं कि आज की नई पीढ़ी को धर्म के नाम पर यह किस गड्ढे में डाला जा रहा है! इतना गहरा गड्ढा कि किसी अंधेरे गहरे कुएं की तरह, और जिससे निकल पाना मुमकिन नहीं है। इस खतरे को भी समझने की जरूरत है कि आज का जो बचपन धार्मिक अंधविश्वास में इस हद तक डूब गया है, उसकी तो जिंदगी अभी अगर बची है, तो वह 90-100 साल तक भी चल सकती है, और अगली कम से कम दो-तीन पीढिय़ों को यह अंधविश्वास दे ही सकती है। जो बच्चे इस तरह जान खो रहे हैं, वे तो गिनती के हैं, लेकिन उन्हीं की बराबरी से अंधविश्वास में डूबे हुए बच्चे उनके मुकाबले लाखों की संख्या में हैं, और वह पूरी पीढ़ी समाज को योगदान तो नहीं के बराबर दे पाएगी, लेकिन इन दिनों धर्म में प्रचलित आम हिंसा में इजाफा जरूर कर जाएगी। इम्तिहान के पर्चों में सवालों के जवाब लिखने के बजाय जिन बच्चों को धार्मिक अपील लिखना सूझ रहा है, जिन्हें समाज में यह दिख रहा है कि धर्म ही सब कुछ है, और कर्म से कुछ हासिल नहीं होना है, तो उनके आगे बढऩे की संभावना वैसे भी खत्म हो जाती है।
आज दुनिया में बहुत से देश ऐसे हैं जो बच्चों के वैज्ञानिक सोच देकर आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे में अपने बच्चों के गले में धर्म नाम की चट्टान को बांध देने से वे उसी के इर्द-गिर्द बंधे जरूर रह जाएंगे, लेकिन वो आगे नहीं जा पाएंगे। जिनको अंधविश्वासी बच्चे अच्छे लग रहे हैं, उन्हें जीवन में धर्म की भूमिका के लिए गांधी और विवेकानंद सरीखे कुछ लोगों को भी पढऩा चाहिए, धर्म को अफीम बताकर चले जाने वाले कार्ल माक्र्स, और भगत सिंह सरीखों को पढऩा तो उनके लिए मुमकिन नहीं होगा।
दिल्ली में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के पहले एक बार फिर रेवड़ी, लॉलीपॉप दिखाने का काम शुरू हो गया है। पिछले सीएम और अब जमानत पर छूटे हुए, आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने एक पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना की घोषणा की है, और हर पुजारी और गुरूद्वारा ग्रंथी को 18 हजार रूपए महीने दिए जाएंगे, अगर आम आदमी पार्टी की सरकार फिर आएगी। केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि पुजारी एक ऐसा तबका है जिसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्मकांड को आगे बढ़ाया है, और कभी अपने परिवार पर ध्यान नहीं दिया, और हमने कभी उन पर ध्यान नहीं दिया। केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस में दावा किया कि ऐसी योजना देश में पहली बार लागू होगी। इससे पहले वे महिलाओं और बुजुर्गों के बारे में कुछ अलग योजनाओं की चुनावी घोषणा कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि दिल्ली (प्रदेश) के हर मंदिर और गुरूद्वारों में पुजारियों और ग्रंथियों का पंजीयन किया जाएगा।
दिल्ली में केजरीवाल के विरोधियों ने याद दिलाया है कि आम आदमी पार्टी की सरकार दस बरस से मस्जिदों के इमामों को हर महीने 18 हजार रूपए देते आई है, और अगर पुजारी-ग्रंथी को बराबरी का हक देना है, तो फिर इमामों की तरह इतने बरसों का एरियर्स भी पुजारी-ग्रंथी को मिलना चाहिए। लेकिन कुछ दूसरे लोगों ने यह याद दिलाया है कि मौलवियों-इमामों को तनख्वाह पहले कांग्रेस और भाजपा की सरकारें भी देती आई हैं। खुद इमाम सडक़ों पर उतरे हुए हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने तीन बरस से उन्हें यह तनख्वाह नहीं दी है, और जब उन्हें पहले से मिलती आ रही तनख्वाह नहीं दी जा रही है, तो पुजारी-ग्रंथी को यह कहां से मिल जाएगी?
ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट फ्रीबीज या रेवड़ी के मामले में वहां चल रहे एक जनहित मामले की सुनवाई को भूल ही गया है। कुछ बरस हो चुके हैं, इस जनहित याचिका पर सुनवाई चल ही रही है, और सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग से लेकर केन्द्र, राज्य सरकारों को, और राजनीतिक दलों को नोटिस भेज चुका है। यह नोटिस गए भी लंबा वक्त हो गया है, और राजनीतिक दल और सरकारें चला रहीं पार्टियां उसके बाद के चुनावों में घोषणाएं करने में लगी हुई हैं। कोई राजनीतिक दल चुनावी तोहफे बांटने की सामंती प्रथा को छोडऩा नहीं चाहते, जबकि 16 जनवरी 2022 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक जनसभा में कहा था कि मुफ्त रेवड़ी बांटकर वोट पाने की कोशिशें की जा रही हैं, और यह रेवड़ी संस्कृति देश के विकास के लिए बहुत खतरनाक है। इसके बाद मोदी की पार्टी से जुड़े हुए एक वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने जनवरी 2022 में जनहित याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई किसी किनारे पहुंची नहीं है। बल्कि अगस्त 2022 में आम आदमी पार्टी ने इस जनहित याचिका के खिलाफ एक पीटीशन लगाई थी, और कहा था कि जनता को पानी, बिजली, या सार्वजनिक परिवहन, जैसी सहूलियतें मुफ्त में उपलब्ध कराना रेवड़ी नहीं है। अदालत के जोर देने पर चुनाव आयोग ने अप्रैल 2022 में जवाब दाखिल करके कहा कि वह चुनाव अभियानों में फ्रीबीज के वायदों को नियंत्रित करना नहीं चाहता। आयोग का कहना था कि यह एक नीतिगत निर्णय रहता है, और राजनीतिक दलों पर चुनाव आयोग का किसी भी तरह का रोक-टोक करना जरूरत से अधिक प्रतिक्रिया रहेगा। चुनाव आयोग का कहना था कि यह मतदाताओं को ही तय करना चाहिए कि किस पार्टी के कौन से वायदे कितने व्यवहारिक और मुमकिन है। अगस्त 2022 में तीन जजों की बेंच ने एक विशेषज्ञ कमेटी बनाने का सुझाव दिया जो कि रेवड़ी-संस्कृति कहे जाने वाले इन तौर-तरीकों का अध्ययन करे। अभी तक यह मामला निपटारे के कहीं आसपास भी नहीं है।
हम बुनियादी सहूलियतों की बातों पर तो नहीं जाते, क्योंकि कोई भी पार्टी या सरकार गंभीरता से भी यह मान सकती है कि बिजली, पानी, और मेट्रो-बस जैसी सुविधाएं जरूरतमंद तबकों को मुफ्त मिलनी चाहिए। लेकिन केजरीवाल ने अभी जो नया डोरा डाला है, वह कुछ अधिक ही है। मंदिरों के पुजारी, और गुरूद्वारों के ग्रंथी न तो गरीब रहते हैं, और न ही भूखे। आज तक किसी भी धर्मस्थल से ऐसी मांग भी नहीं आई कि सरकार से उन्हें वेतन-भत्ता मिले। इनके मुकाबले मस्जिदों के इमाम कुछ गरीब हो सकते हैं, क्योंकि मुस्लिमों में गरीबी अधिक है, लेकिन वे भी भूखे मरते हों, ऐसा नहीं लगता। धर्मस्थल कोई बुनियादी जरूरत नहीं है, और वहां पर किसी पुजारी को पूरे वक्त कोई काम नहीं करना पड़ता। इन्हें आस्थावानों की ओर से कुछ न कुछ मिलते भी रहता है। धर्म को मानने वाले लोग इनका ख्याल रखते हैं। और ये लोग आमतौर पर मंदिर या गुरूद्वारे में ही कहीं रह लेते हैं, और मर्जी से धर्म का काम करते हैं, कमाई करते हैं, और अपना परिवार चलाते हैं। केजरीवाल का यह कहना कि इनकी तरफ कभी ध्यान नहीं दिया गया, निहायत बकवास बात है। धर्मस्थलों पर सरकार को किसी तरह का खर्च नहीं करना चाहिए, और अगर कोई धर्म इतना गरीब है कि उसे सरकारी मदद की जरूरत है, तो पहले तो उसे मानने वाले लोगों से पूछना चाहिए कि वे अपने उपासना स्थलों को क्यों नहीं चला पा रहे हैं? अधिकांश धर्मस्थल सरकारी और सार्वजनिक जमीनों पर कब्जा करके बनते हैं, या कि दानदाताओं की दी हुई मुफ्त की जमीनों पर। इनमें से सभी जगहों पर दानपेटियां रखी रहती हैं, और जितने भक्त वहां पहुंचते हैं, उनके मुताबिक वहां कमाई भी होती है। इसके अलावा धर्मस्थल अपने सामने और आसपास, सडक़ किनारे, और सार्वजनिक जगहों पर कई किस्म की पूजा सामग्री की बिक्री का कारोबार भी करते हैं, त्यौहारों पर उनकी अतिरिक्त कमाई होती है, और लोग नई गाडिय़ां खरीदने पर भी मंदिर जाकर पुजारी से पूजा करवाते हैं, और उन्हें कुछ सौ रूपए देते हैं। लोग अपनी खास पारिवारिक तिथियों पर भी मंदिर जाकर वहां चढ़ावा देते हैं। इन सबके चलते हुए किसी पुजारी के भूखे रहने की कोई नौबत नहीं रहती, और इन्हें वेतन या भत्ता देना धार्मिक कामकाज में गरीब जनता के पैसे की फिजूलखर्ची के अलावा कुछ नहीं होगा। कोई भी गुरूद्वारा इतना गरीब नहीं रहता कि वह अपने ग्रंथी की देखभाल न कर सके। इसलिए केजरीवाल का यह नया शिगूफा वोटों के लिए किया जा रहा एक पाखंडी नाटक है, और इससे देश में फिजूलखर्ची और हरामखोरी की एक नई संस्कृति पैदा होगी, और पहले से चली आ रही ऐसी संस्कृति आगे बढ़ेगी। यह सिलसिला बिल्कुल नहीं चलना चाहिए, क्योंकि यह चुनाव में धर्म का इस्तेमाल भी है। एक तरफ तो चुनाव आयोग चुनाव प्रचार में धर्म के इस्तेमाल के खिलाफ बात करते आया है, और दूसरी तरफ यह नया शिगूफा उसके ठीक खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी धीमी रफ्तार को छोडक़र इस मामले की सुनवाई करना चाहिए, और देश में अगर कोई धर्मनिरपेक्ष संगठन अदालत तक जाने की ताकत रखते हैं, तो उन्हें भी केजरीवाल की इस घोषणा के खिलाफ हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंचना चाहिए। हमारा तो यह मानना है कि धार्मिक संगठनों को खुद होकर सामने आना चाहिए, और राजनीति के केजरीवालों से कहना चाहिए कि उन्हें इस तरह के टुकड़ों की जरूरत नहीं है, और धर्मालु जनता अपने धर्मस्थलों पर काम करने वाले इमामों, पुजारियों और ग्रंथियों का ख्याल रखने में पर्याप्त सक्षम हैं।
छत्तीसगढ़ के बहुचर्चित शराब घोटाले में अब आखिरी में जाकर ईडी ने पिछली भूपेश सरकार के आबकारी मंत्री रहे कवासी लखमा और उनके करीबी लोगों पर छापे मारे। दो हजार करोड़ से अधिक का शराब घोटाला बताते हुए ईडी ने मामला अदालत में पेश कर दिया है, और इस मामले में गिरफ्तार कई दिग्गजों को जमानत भी नहीं मिल रही है। इनमें अखिल भारतीय सेवाओं के कुछ ऐसे चर्चित अफसर भी हैं जिनके भ्रष्ट और गुनहगार होने पर उनके मां-बाप को भी कोई शक नहीं था, यह अलग बात है कि अब भी तमाम पकड़ाए और घेरे गए लोग अपने को मासूम बता रहे हैं। कवासी लखमा ने अपने खुद के, बेटे, और सहयोगियों के ठिकानों पर पड़े छापों पर कहा कि वे बेकसूर हैं, और उन्हें आबकारी विभाग हांकने वाले अफसर अरूणपति त्रिपाठी जहां कहते थे, वहां वे दस्तखत कर देते थे। यह बात जगजाहिर है कि कवासी लखमा की कभी बचपन में मामूली प्रायमरी स्कूल पढ़ाई हुई होगी, लेकिन वे लिखना-पढऩा नहीं जानते, और दस्तखत करना भर जानते हैं। उनके आसपास उठने-बैठने वाले लोग भी यह बात बताते हैं कि त्रिपाठी जब फाइलों पर दस्तखत करवाने जाते थे, तो वे जहां-जहां कहते थे, वहां-वहां कवासी लखमा दस्तखत कर देते थे। यह एक अलग बात है कि कुछ देखने वालों का यह भी कहना है कि कवासी लखमा फाइलों की संख्या गिनना जानते थे, और साथ में टेबिल पर रखे गए उतनी ही संख्या के लिफाफों को भी गिन लेते थे। यह जो भी इंतजाम था, पूरी सरकार की जानकारी में था, और ऐसा कोई दूसरा मंत्री हमें अविभाजित मध्यप्रदेश से अब तक याद नहीं पड़ता जिसके विभाग के बारे में पूछे गए जवाब स्थाई रूप से एक दूसरा मंत्री देता था। तकरीबन तमाम वक्त भूपेश के एक विश्वस्त मंत्री रहे मो.अकबर ही विधानसभा में कवासी लखमा के विभागों की तरफ से जवाब देते थे। आबकारी जैसा विभाग जिससे राज्य सरकार की हर बरस की सबसे अधिक कमाई जुड़ी हुई है, उसे एक तकरीबन अनपढ़ मंत्री को देकर मुख्यमंत्री और कांग्रेस पार्टी ने कौन सी नीयत दिखाई थी, इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। ईडी अदालत में यह कहा भी है कि मुख्यमंत्री के करीबी, और रायपुर के मेयर के बड़े भाई अनवर ढेबर ही छत्तीसगढ़ के आबकारी मंत्री की तरह काम करते थे। प्रदेश के शराब कारखाने वाले भी इस बात को कसम खाकर बताते हैं कि ढेबर ही शराब का पूरा कारोबार चलाता था, और अब जब छापा पड़ रहा है, तो एक अनपढ़ मंत्री भी इसकी लपेट में आ रहा है। ईडी ने 21 सौ करोड़ रूपए से अधिक का शराब घोटाला स्थापित करने के सुबूत अदालत में लगाए हैं, और यह कहा है कि कवासी लखमा को हर महीने 50 लाख रूपए दिए जाते थे। यह कैसा भयानक मजाक है कि पांच बार के विधायक रहे एक बहुत ही लोकप्रिय आदिवासी नेता के दस्तखत को 50 लाख रूपए महीने के किराए पर ले लिया गया था, और अखिल भारतीय सेवाओं का अफसर त्रिपाठी मनचाही फाइलों पर दस्तखत कराते रहता था। अब ढेबर और त्रिपाठी सरीखे तमाम लोग जेल में हैं, और कवासी लखमा ईडी के छापे के बाद ईडी के दफ्तर में बैठे हैं।
किसी आदिवासी नेता की समझ पर कोई शक नहीं किया जा सकता लेकिन उसकी पढऩे-लिखने की क्षमता अगर बहुत सीमित है तो उसे सरकारी या संवैधानिक फाइलों की जिम्मेदारी देने वाले लोगों से सवाल तो बनते हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, और कांग्रेस पार्टी के उस वक्त के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को ये तमाम बातें अच्छी तरह मालूम थीं, और उसके बाद भी ऐसा खतरनाक विभाग अगर एक सीधे-सरल आदिवासी नेता के कंधे पर बंदूक की तरह रखकर चलाया जा रहा था, तो पूरी की पूरी पार्टी इसके लिए जिम्मेदार है, उस वक्त के मुख्यमंत्री तो जिम्मेदार हैं ही। हमको यह भी लगता है कि क्या मंत्रिमंडल को शपथ दिलाने वाले राज्यपाल किसी व्यक्ति की क्षमता को लेकर यह सवाल नहीं कर सकते थे, या कि जब विधानसभा में यह मंत्री कोई भी जवाब नहीं दे पा रहा था, और लगातार दूसरा मंत्री ही जवाब दे रहा था, तो फिर आबकारी मंत्री अपने पद और गोपनीयता की शपथ को कैसे पूरा कर रहा था? ये बुनियादी सवाल पांच बरस की कांग्रेस सरकार के दौरान ईडी और आईटी के तमाम छापों के बावजूद, तमाम मामले-मुकदमों के बावजूद कभी कांग्रेस पार्टी ने नहीं पूछे। छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार किसी क्षेत्रीय पार्टी की सरकार नहीं थी कि मानो ममता बैनर्जी या हेमंत सोरेन, चन्द्राबाबू नायडू से कौन सवाल पूछ सकते हैं? चाहे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के लिए एटीएम ही क्यों न रहा हो, पार्टी अपनी नैतिक जिम्मेदारी से, और मुख्यमंत्री अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते। आज अगर कवासी लखमा भ्रष्टाचार के मामले में, और दारू के एक असाधारण, अद्वितीय काले कारोबार में फंसे दिख रहे हैं, तो एक आदिवासी को ऐसी मुसीबत में डालने की जवाबदेही औरों की भी आनी चाहिए। यह बात हर कोई अच्छी तरह जानते थे कि त्रिपाठी और अनवर ढेबर जैसे लोग जहां चाहे वहां कवासी लखमा का अंगूठा लगवा लेते थे, और उन्होंने जिस बड़े पैमाने पर दारू का संगठित अवैध साम्राज्य खड़ा किया, उसके बारे में सुनते हैं कि इटली से कुछ माफिया डॉन भी अपने बच्चों को ट्रेनिंग लेने भेज रहे हैं।
सार्वजनिक रूप से इस पर बहस होनी चाहिए कि कम पढ़े-लिखे, कम जानकार, या कवासी लखमा की तरह के लगभग अनपढ़ लोगों के कंधे पर जुर्म की बंदूक रखकर चलाना क्या जायज है? यह बात इसलिए भी अधिक चर्चा के लायक है कि आने वाली किसी सरकार में हो सकता है कि फिर किसी अनपढ़ नेता को इसी तरह ठेके पर रखा जाए, और जेल जाने के वक्त उसे जेल भेजा जाए। आदिवासी समाज के साथ ऐसा बर्ताव ठीक नहीं है। कवासी लखमा को आबकारी जैसे विभाग का मंत्री बनाना आदिवासी समाज का सम्मान नहीं था, बल्कि आदिवासी को खतरे और बदनामी में डालने का काम तो यह शर्तिया था। कवासी लखमा से अदालत यह सवाल जरूर कर सकती है कि वे जब पढ़-लिख नहीं सकते थे तो फाइलों पर दस्तखत क्यों करते थे, लेकिन कोई मंत्री अपने मुख्यमंत्री और अपनी पार्टी पर इतना भरोसा तो रखेंगे ही कि वे उन्हें गड्ढे मेें नहीं डालेंगे। फिलहाल कवासी लखमा गहरे गड्ढे में गिराए गए हैं, और इस देश में हमने मंत्री रहे हुए कुछ लोगों को कैद काटते भी देखा है, अदालती फैसला चाहे जो हो, जनता की अदालत में कांग्रेस सरकार और भूपेश बघेल को कवासी लखमा मामले पर जवाब देना चाहिए।
महाराष्ट्र की परभनी जिले की खबर है, एक आदमी ने तीसरी बेटी का जन्म होने पर पत्नी को पेट्रोल डालकर जिंदा जला डाला। यह हिंसा सीसीटीवी कैमरे पर कैद भी हुई है, और लोग इसके गवाह भी हैं। कुंडलिक उत्तम काले नाम के व्यक्ति ने अपनी मैना नाम की 34 बरस की पत्नी से लगातार हिंसा का सिलसिला चला रखा था, और एक के बाद एक बेटियां पैदा होने पर उसकी हिंसा बढ़ती जा रही थी जो कि अब इस तरह के भयानक कत्ल में तब्दील हुई।
यह मामला हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक तबके में लडक़ों की चाह का एक बड़ा सुबूत है। अजन्मी बच्चियों की भ्रूण-हत्या रोकने के लिए भ्रूण की मेडिकल जांच से लडक़े-लडक़ी का पता लगाना गैरकानूनी कर दिया गया है, लेकिन फिर भी वह लुके-छिपे चलते रहता है, और उससे अजन्मी बच्चियों को मारना भी जारी है। गिनती में जरूर कम होंगे, लेकिन अधिक संपन्न तबकों के लोग ऐसी जांच के लिए दुनिया के उन देशों में चले जाते हैं जहां पर कि भ्रूण-लिंग परीक्षण गैरकानूनी नहीं है, क्योंकि उन देशों में किसी को ऐसा अंदाज भी नहीं होगा कि हिन्दुस्तानी अजन्मी लड़कियों को छांट-छांटकर मारते हैं। हमने यहां पर बहुसंख्यक हिन्दू तबके का खास जिक्र इसलिए किया है कि इसकी कई धार्मिक मान्यताओं के साथ-साथ इसके सामाजिक रिवाजों में भी बेटे का होना एक किस्म से जरूरी मान लिया जाता है क्योंकि उसके बिना न अंतिम संस्कार हो सकता, और न ही स्वर्ग प्राप्त हो सकता, जिसका कि कोई सुबूत भी नहीं है। दूसरी तरफ लडक़ी है जिसे जन्म से शादी तक ‘पराए घर की अमानत’ माना जाता है, और फिर शादी से लेकर मरने तक ‘पराए घर से आई हुई’। हिन्दू लडक़ी एक किस्म से फिलीस्तीन होती है, जो बेघर रहती है, जिसका अपना कोई घर होता ही नहीं, शायद वृंदावन का विधवाश्रम उनका पहला और आखिरी घर होता है।
हमें मालूम है कि कई लोग हमारे इस विश्लेषण और निष्कर्ष को अन्यायपूर्ण मानेंगे, और इस तस्वीर को हिन्दू समाज की अधिक बड़ी हकीकत नहीं मानेंगे, लेकिन हिन्दुओं में लड़कियों और महिलाओं की हालत ऐसी ही है। इस धर्म से जुड़े कुछ पुराने मार्गदर्शक ग्रंथ इस बात की वकालत करते हैं कि लडक़ी को पहले पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, फिर पति के नियंत्रण में, और पति के जाने के बाद पुत्र के नियंत्रण में। ऐसे में यही लगता है कि वृंदावन के विधवाश्रम में पहुंचने के बाद ही वह इन तीनों किस्मों के नियंत्रण से जिंदगी में पहली बार बाहर हो पाती है। लोगों को याद होगा कि हर बरस हिन्दुस्तान में दर्जनों या सैकड़ों ऑनरकिलिंग होती हैं, जो कि मोटेतौर पर लडक़ी के परिवार द्वारा लडक़ी की की गई हत्या रहती है क्योंकि उसने अपनी मर्जी से शादी की है। बालिग लडक़ी की शादी को भी परिवार अपने फैसले का सामान मानता है, और यह सोच हिन्दू विवाह की एक रस्म से उपजी और मजबूत हुई है कि शादी के लिए लडक़ी का कन्यादान किया जाता है। यह तो जाहिर है कि दान किसी सामान का होता है, या किसी जानवर का। ऐसे में जब इसे समारोहपूर्वक की जाने वाली एक रस्म बनाकर रखा गया है, तो जाहिर है कि कन्या को सामान मान लेने की हिन्दुस्तानी सोच में कुछ भी अटपटा नहीं है।
पहले भी कुछ मौकों पर हम इस मिसाल को लिख चुके हैं कि किस तरह देश के सबसे बड़े कैंसर अस्पताल, मुम्बई के टाटा मेमोरियल कैंसर हॉस्पिटल ने वहां पहुंचने वाले मरीजों का एक सर्वे करने पर यह पाया था कि कैंसर की शिनाख्त होने पर लोग बेटों को तो इलाज के लिए लेकर आते हैं, लेकिन बेटियों को लाने वाले बहुत कम रहते हैं। जाहिर है कि लोग यह मान लेते हैं कि बेटी तो पराया सामान है, किसी दूसरे परिवार की अमानत है, और उस पर खर्च क्यों किया जाए? हो सकता है कि बहुत संपन्न तबकों के लिए बेटों और बेटियों दोनों के इलाज का बोझ उतना बड़ा न रहता हो, लेकिन जिन परिवारों में इलाज का खर्च मायने रखता है, खर्च से परे भी बहुत किस्म की मेहनत लगती है, वहां बेटों को इलाज के लायक माना जाता है, और बेटियों को उनके हाल पर छोड़ देने के लायक। अगली पीढ़ी के लडक़े और लड़कियों में भेदभाव से परे भी भारत के आम समाज में महिला की हालत बहुत खराब है। कहीं खाना न पकने पर, या गर्म खाना न मिलने पर पति पत्नी को मार डाल रहा है, तो कहीं मामूली से झगड़े में उसे ऊपरी मंजिल से नीचे फेंक दे रहा है। कुल्हाड़े से काटकर फेंक देने के भी कई मामले सामने आते हैं, और भूले-भटके ही ऐसी खबर आती है कि पत्नी ने पति को मार डाला। शायद ऐसे मामले पांच-दस फीसदी भी नहीं होते होंगे।
दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में कामकाजी महिला के देह-शोषण को लेकर बने कानूनों पर अमल बहुत ही कमजोर है, और यह देश सुप्रीम कोर्ट के एक मुख्य न्यायाधीश को देख चुका है जिस पर उसकी मातहत कर्मचारी ने यौन-शोषण का आरोप लगाया था, और यह चीफ जस्टिस को शिकायत की सुनवाई के लिए खुद ही जजों की बेंच का मुखिया बनकर बैठ गया था। ऐसे रंजन गोगोई को आज यह देश राज्यसभा में भी देख रहा है। जाहिर है कि ऐसी मिसालों के चलते देश में लडक़ी और औरत की अधिक इज्जत भी मुमकिन नहीं है। जिस रंजन गोगोई के लिए हमने महाभियोग चलाने की सिफारिश इसी कॉलम में की थी, उस रंजन गोगोई को रिटायर होते ही राज्यसभा भेजा गया था। देश में लैंगिक न्याय की सोच का जैसा कत्ल इस जज ने किया था, उसकी कोई दूसरी मिसाल शायद पूरी दुनिया की किसी सुप्रीम कोर्ट में देखने नहीं मिलेगी। और ऐसी मिसाल देश के भीतर दसियों करोड़ मर्दों का हौसला तो बढ़ाती ही है जिनके लिए रंजन गोगोई एक आदर्श से कम नहीं। कोई हैरानी नहीं है कि इस देश के बड़े-बड़े नेता जब कभी किसी कैमरे पर गालियां बकते हुए कैद होते हैं, तो वे गालियां मां और बहन की ही होती हैं, बाप और भाई की नहीं। सामाजिक संस्कृति का असर इतना है कि जब इस देश की महिलाएं भी गंदी गालियां देने पर उतारू होती हैं, तो वे गालियां मां और बहन की ही होती है। इसलिए आज प्रताडि़त होने वाली बहू कल खुद सास बनने पर अपनी बहू की प्रताडऩा की हिंसक परंपरा जारी रखती है। अगर सास ही बहू के साथ होती हिंसा का विरोध करे, तो भला किस परिवार में बहू के साथ ज्यादती हो सकती है?
ऐसे बहुत से कतरा-कतरा पहलू हैं जो बताते हैं कि लडक़ी को किस तरह बोझ मान लिया जाता है, और लडक़े की चाह पूरी न होने पर किस तरह पति अपनी पत्नी को जिंदा जला डालता है। जिंदगी के अनगिनत पहलू लैंगिक-असमानता के शिकार हैं, और हर जिम्मेदार व्यक्ति को लगातार यह कोशिश करनी चाहिए कि यह बेइंसाफी खत्म हो, क्योंकि ऐसा न होने पर उनको आज अगर अपनी बेटी प्यारी भी है, तो भी वह ससुराल जाकर तीसरी बेटी को जन्म देने पर जलाकर मार डालने के लायक मान ली जाएगी।
मध्यप्रदेश में जबलपुर के एक हिन्दू वकील, एडवोकेट ओ.पी.यादव ने हाईकोर्ट में एक याचिका लगाकर प्रदेश के पुलिस थानों में मंदिरों के निर्माण को चुनौती दी थी, और कहा था कि ऐसे मंदिर बनाना सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के ठीक खिलाफ है जिसमें सार्वजनिक जगहों पर धार्मिक निर्माण को रोका गया है। हाईकोर्ट ने इस याचिका पर पूरे प्रदेश के थानों में मंदिर बनाना रोक दिया था। यह फैसला अभी-अभी का है, और इस आदेश से कुछ खलबली इसलिए मची हुई है कि प्रदेश में 20 बरस से तकरीबन पूरे ही वक्त भाजपा का राज है, और पुलिस थानों में सिर्फ हिन्दू मंदिर बनाने की परंपरा है, और किसी धर्म का निर्माण किसी थाने में हुआ हो ऐसा कभी सुनाई भी नहीं पड़ा है। अब इस मामले के बाद एक दूसरा मामला यह आ गया है कि एमपी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत ने अपने सरकारी आवास में स्थित हनुमान मंदिर को हटवा दिया है। इस पर वहां के वकीलों के संगठन ने देश के मुख्य न्यायाधीश को लिखकर शिकायत की है और कहा है कि मुख्य न्यायाधीश के बंगले के इस मंदिर में एमपी हाईकोर्ट के पिछले कई न्यायाधीश पूजा-अर्चना करते आए हैं, और इस बंगले पर काम करने वाले कर्मचारियों को भी पूजा के लिए दूर जाकर कीमती समय बर्बाद नहीं करना पड़ता, इसलिए यह मंदिर जीवन को सुखी, शांतिपूर्ण, और सुंदर बनाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। चिट्ठी में कहा गया कि अब तक मुस्लिम जजों ने भी कभी इस पर आपत्ति नहीं जताई थी इसलिए इसे इस तरह से हटाना सनातन धर्म का अपमान है। वकीलों ने इसे जस्टिस कैत के बौद्ध होने से जोड़ा है, और कहा है कि वह भी एक कारण हो सकता है। वकीलों ने पुलिस थानों वाली याचिका की सुनवाई से जस्टिस कैत को अलग करने की अपील भी की है।
सुप्रीम कोर्ट ने बरसों पहले एक महत्वपूर्ण फैसले में यह कहा था कि सार्वजनिक जगहों पर किसी तरह के धार्मिक निर्माण नहीं होने चाहिए। अदालत ने इसके लिए जिले के अफसरों को जिम्मेदार भी ठहराया था कि ऐसा कोई भी निर्माण होने पर कलेक्टर-एसपी जिम्मेदार रहेंगे। बरसों पुराने इस आदेश के बाद अभी एक अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने फिर एक फैसले में यह कहा है कि सडक़ों और रेल पटरियों के किनारे के धार्मिक निर्माण, चाहे वो मंदिर हों, या दरगाह, उन्हें हटाना चाहिए क्योंकि जनता की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, और यह अदालती आदेश किसी भी धर्म से भेदभाव के बिना बराबरी से अमल में लाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा आदेश सुप्रीम कोर्ट के ही बरसों पुराने फैसले से अलग है, और इन दोनों में कोई टकराव भी नहीं है। सार्वजनिक जगह का मतलब हर सरकारी जगह से होता है चाहे वह कोई सरकारी बंगला हो, या पुलिस थाना।
मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश ने सरकारी बंगले में चली आ रही पुरानी खराब परंपरा को तोडक़र एक हौसलामंद रूख दिखाया है, और हम उसकी तारीफ करते हैं। सरकारी बंगले, दफ्तर, इमारतें, सार्वजनिक जगहें, और सार्वजनिक गाडिय़ां, इन सबका पूरा चरित्र धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। इनमें रहने या चलने वाले लोग अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं के, या नास्तिक हो सकते हैं, लेकिन किसी को अपने धार्मिक प्रतीकों को सार्वजनिक या शासकीय सम्पत्ति पर लादना नहीं चाहिए। जो लोग सरकारी या संवैधानिक ओहदों पर काबिज रहते हैं, उन्हें तो इसलिए भी अधिक सावधान रहना चाहिए कि वे हर तरह के धर्म को मानने वाली जनता के बीच काम करते हैं, और उनकी कोई निजी पसंद या नापसंद उनके सरकारी या अदालती फैसलों में नहीं झलकना चाहिए। हम तो एक आदर्श स्थिति इस बात को मानते कि सरकारी और संवैधानिक, संसदीय, और दूसरे जनसेवक ओहदों पर बैठे लोग अपने कार्यकाल में अपने को धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शनों से दूर रखते, लेकिन आज के वक्त में ऐसी उम्मीद करना भगत सिंह के वक्त की क्रांति की उम्मीद करने सरीखा हो जाएगा। लेकिन एमपी के मुख्य न्यायाधीश ने जो रूख दिखाया है, वह पूरी तरह कानूनसम्मत है, और इसे एक नजीर बनना चाहिए। भारत के मुख्य न्यायाधीश के सामने भी यह एक अच्छी चुनौती है कि देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को साफ-साफ बखान करने का मौका उन्हें मिला है, और उन्हें देश में बढ़ते हुए धार्मिक उन्माद पर रोक लगाने का काम भी करना चाहिए। एक बौद्ध जज अगर बंगले से हिन्दू मंदिर हटाकर कोई बौद्ध मंदिर बनवा देते, तो वह उतना ही गलत काम होता, लेकिन जस्टिस कैत ने ऐसा तो कुछ किया नहीं है।
इसी मध्यप्रदेश में लोगों को याद होगा कि जब उमा भारती मुख्यमंत्री बनी थीं, तो अपने परंपरागत भगवा धार्मिक कपड़ों के अलावा उन्होंने मुख्यमंत्री की सरकारी मेज पर भी एक प्रतिमा और पूजा सामग्री के साथ एक मंदिर सा बनवा लिया था। अब ऐसे मुख्यमंत्री के सामने किसी दूसरे धर्म के लोग किस भरोसे के साथ किसी धार्मिक विवाद के मामले लेकर पहुंच सकते थे? तमाम लोकसेवकों को पानी की तरह रहना चाहिए कि उन्हें जिस चीज में मिलाया जाए, वे अपना कोई स्वाद जोड़े बिना घुल-मिल जाएं। देश ने अपना धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहुसंख्यकवाद में पूरी तरह खो दिया है, और अब तो हाईकोर्ट के एक मौजूदा जज ने मुस्लिमों को गंदी गालियां बकते हुए बहुसंख्यकवाद की मर्जी से देश चलने का सार्वजनिक दावा भी किया है। अभी अगले कुछ वक्त के लिए देश में लोकतंत्र बाकी है, और भारत को एक धार्मिक राष्ट्र होने में थोड़ा सा वक्त बचा है। उत्साही जजों और वकीलों को, देश के बाकी उत्साही धर्मान्ध या साम्प्रदायिक लोगों को भी थोड़ा सा सब्र करना चाहिए जब तक कि यह राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र घोषित न हो जाए। जिस रफ्तार और अंदाज से देश इस मंजिल की तरफ बढ़ रहा है, यह इंतजार बहुत लंबा नहीं रहेगा, और उतने वक्त के लिए सरकारी बंगलों, और सरकारी पुलिस थानों में, सडक़ों के किनारे, और रेल पटरियों की चौड़ाई में, बगीचों और तालाब किनारे मंदिर और दूसरे धार्मिक निर्माण बनाना रोक रखना चाहिए। एक बार जब देश के नाम से धर्म निरपेक्ष शब्द हट जाएगा, और संशोधित संविधान में भारत हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा, तब सभी जज भी अपनी टेबिलों पर हिन्दू प्रतिमाएं सजाकर बैठ सकेंगे, ताकि उनसे वे बीच-बीच में फैसलों के लिए तो प्रेरणा ले ही सकें, वकील से क्या सवाल करने हैं, इसकी प्रेरणा भी वे देवी-देवताओं से ले सकें। ऐसे काम में कोई जज अगर आड़े आएं, तो उनकी नींव खुदवाकर भी कुछ कंकाल निकाले जा सकते हैं।
इस देश ने अपने नागरिकों में जिस रफ्तार से धर्मनिरपेक्षता को एक गाली की तरह स्थापित कर दिया है, वह देखने लायक है। सेक्युलर शब्द को जिस तरह सिकुलर (सिक, यानी बीमार) से बदल दिया गया है, वह एक गजब का सनातनी भाषा शास्त्र है। बीते कुछ बरसों में ही इस देश ने यह भी साबित किया है कि हजारों बरस का सभ्यता का विकास, और पौन सदी का लोकतंत्र का विकास लोगों की समझ में बस चमड़ी जितनी मोटी सतह के ठीक नीचे था, जिसे जरा सा खुजाकर या नोंचकर हटाया जा सकता है, हटाया जा रहा है। अभी तो हालत यह है कि आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने देश में साम्प्रदायिक सद्भाव को लेकर, उसके पक्ष में, मंदिर-मस्जिद पर एक बयान दिया, तो आरएसएस के ही मुखपत्र में मानो उसके खिलाफ एक लेख लिखा गया है। सद्भाव की बातें करने पर क्या भागवत को उनके ही घर में किनारे किया जा रहा है? हम ऐसी तस्वीर को बहुत स्वाभाविक नहीं मान रहे, लेकिन सतह पर फिलहाल ऐसा ही कुछ दिख रहा है। देश की सभ्यता के बदन पर चर्बी ऐंठ रही है, देखना है कि वह कहां पर छंटती है, और कहां पर चढ़ती है। हिन्दुस्तानियों के बहुसंख्यक तबके के कुछ लोगों ने जिस तरह धर्मनिरपेक्षता को एक नाजायज औलाद करार दिया है, वह देखना भी तकलीफदेह तो है ही, इतिहास लेखन के हिसाब से वह बहुत दिलचस्प भी है।
अभी छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक अखबार की खबर पर खुद होकर सुनवाई शुरू कर दी है, और राज्य सरकार को नोटिस दिया है। बस्तर के करीब दो सौ गांवों में बिना किसी टेंडर, और बिना किसी सरकारी आदेश के 18 करोड़ रूपए के सोलर लाईट लगा दिए गए, और जैसा कि हमेशा होता है इसका भी भुगतान बाद में होते रहता, लेकिन अखबारी खबर पर अदालत के सरकार से मांगे गए हलफनामे की वजह से मामला गड़बड़ा गया। लोगों को याद होगा कि प्रदेश में सरकार चाहे जो भी रहे, सरकारी विभागों का इस किस्म का भ्रष्टाचार चलते ही रहता है। सडक़ बन जाती है, इमारत बन जाती है, और टेंडर भी नहीं हुआ रहता। स्वास्थ्य विभाग ने लाखों की मशीनें हर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर एक वक्त ले जाकर फेंक दी गई थीं, और प्रदेश स्तर पर उसका भुगतान किया गया था। यह डॉ. रमन सिंह के मुख्यमंत्री रहते स्वास्थ्य मंत्री डॉ.कृष्णमूर्ति बांधी, और स्वास्थ्य सचिव बाबूलाल अग्रवाल के वक्त का मामला था जब नकली सोनोग्राफी मशीनें सप्लाई की गई थीं। बाद में भी कहीं डीएमएफ फंड से, तो कहीं सीएसआर फंड से असली-नकली सामान सप्लाई कर दिए जाते हैं, निर्माण हो जाता है, और उसके बाद कागजी खानापूरी पूरी होती है। प्रदेश में पिछली भूपेश-सरकार के दौरान राजधानी रायपुर में ही एक सडक़ पर डिवाइडर को करोड़ों के खर्च से सजाया गया था, और बाद में जब हंगामा हुआ कि इसका तो कोई टेंडर ही नहीं हुआ, तो नगर निगम और राज्य सरकार ने मिलकर लीपापोती की थी कि उनकी जानकारी के बिना यह किसी कारोबारी संगठन ने करवाया था। जबकि इसके गवाह मौजूद थे कि यह म्युनिसिपल ने ही करवाया था। स्वास्थ्य विभाग से लगातार ये खबरें आ रही हैं कि बिना डिमांड के जिला अस्पतालों में या पीएचसी में दवाएं और उपकरण सप्लाई किए जाते रहे हैं, जो कि बर्बाद होते ही हैं।
एक तरफ तो सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार रोकने के लिए, या उसकी जांच के लिए आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो जैसी एजेंसी है, और दूसरी तरफ सरकार के भीतर के संगठित भ्रष्टाचार को बचाने के लिए नेता, अफसर, और ठेकेदार सब एक हो जाते हैं। पुरानी तारीखों पर कागज बना लिए जाते हैं, नीचे के दफ्तरों से डिलीवरी चालान दस्तखत करवा लिए जाते हैं, और भुगतान हो जाता है। यही सब करते हुए सप्लायर इतनी कमाई कर चुके रहते हैं कि कभी एक बार कुछ करोड़ रूपए डूब जाने पर भी वे नहीं डूब जाते, वे अगली सप्लाई के लिए फिर तैयार रहते हैं। इसके अलावा हर किस्म के सामान की सरकारी सप्लाई के साथ दो बातें जुड़ी रहती हैं, एक तो यह कि इस काम के लिए अतिरिक्त घटिया क्वालिटी के सामान बनाए जाते हैं, और दूसरी बात यह कि उन्हें बाजार से कई गुना अधिक दाम पर खरीदा जाता है। एक मुर्दे के लिए कफन सरकारी खरीदी में इतना महंगा पड़ता है कि उतनी रकम में खुले बाजार से दर्जन भर मुर्दों के लिए कफन आ सकते हैं, और बेहतर क्वालिटी के आएंगे इसकी भी गारंटी रहती है। भारत में सामान बनाने वाले कारखानों में गवर्नमेंट-सप्लाई नाम की एक अलग क्वालिटी रहती है जिसके बारे में बनाने वाले, सप्लाई करने वाले, और सरकारी दफ्तरों में डिलीवरी लेने वाले सभी को मालूम रहता है कि ये सामान कुछ ही दिनों के मेहमान हैं।
हम बरसों से इस बात को उठाते आए हैं कि सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार को पकडऩे के लिए एक ऐसी मशीनरी बनानी चाहिए जो कि विभागों के इर्द-गिर्द हवा में तैरती खबरों की जांच करती रहे, और भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, घटिया खरीदी जैसी चीजों पर समय रहते कार्रवाई कर सके। सरकार का, हकीकत में तो जनता का, अधिकतर पैसा या तो सरकार अपने ऊपर स्थापना व्यय के नाम पर खर्च कर लेती है, और बचे हुए एक चौथाई पैसों में तीन चौथाई हिस्सा शायद भ्रष्टाचार में चले जाता है। एक वक्त राजीव गांधी के नाम से यह बात प्रचलित हुई थी कि दिल्ली से निकलने वाला एक रूपया गांव तक पहुंचते हुए सत्रह पैसे रह जाता है, कुछ उसी किस्म की हालत राज्य के अपने बजट की भी रहती है, आधे से लेकर तीन चौथाई तक बजट सरकार अपने ऊपर खर्च करती है, और बची हुई रकम में से खासा पैसा भ्रष्टाचार में चले जाता है, और घटिया क्वालिटी का निर्माण या सामान बहुत जल्द दम तोड़ देता है, और लागत की कोई भरपाई नहीं होती।
हाईकोर्ट ने इस बार राज्य सरकार के आम ढर्रे से हो रहे कुछ मामलों को पकड़ लिया है, और इन्हें हांडी के चांवल के नमूने के एक दाने की तरह परखना चाहिए। ऐसी कौन सी दानदाता कंपनी हो सकती है जो कि दो सौ गांवों में करोड़ों के सोलर लाईट लगा दे? इस पूरे मामले की अदालत को बारीकी से जांच करवानी चाहिए, और जिम्मेदार अफसरों को पूछना चाहिए कि ‘दानदाता’ सप्लायर उन्होंने जुटाए कैसे हैं? और ऐसे ‘दानदाताओं’से बाकी प्रदेश में भी लाईट लगवानी चाहिए ताकि समाजसेवा की उनकी भावना का बेहतर सम्मान हो सके। अगर सरकारें अखबारों में आने वाली भ्रष्टाचार की खबरों पर बारीकी से कार्रवाई करती रहें, तो ऐसी नौबत घटती भी जाएगी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है। कहीं पर बीज निगम, तो कहीं हार्टिकल्चर सोसायटी, तो कहीं सीएसआईडीसी से अंधाधुंध रेट कांट्रेक्ट होते हैं, एक से बढक़र एक नकली और घटिया सामान सप्लाई होते हैं, उसमें भी गिनती में कम सप्लाई होते हैं, और सरकार का काम यूं ही चलते रहता है। जो बात सरकारों को खुद होकर देखनी चाहिए, उसके लिए हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की जरूरत पड़ती है, तो फिर संविधान की शपथ लेकर काम करने की सरकार की औपचारिकता की क्या जरूरत है?
हिंदुस्तान में चारों तरफ से खबरेें आती हैं कि किस तरह मोबाइल फोन को लेकर परिवार में विवाद इतना हुआ कि कहीं पति ने पत्नी को मार डाला, तो कहीं पत्नी ने पति को। मोबाइल फोन का अंधाधुंध इस्तेमाल रोकने पर बहुत से छोटे-छोटे बच्चे खुदकुशी कर रहे हैं। एक टेक्नालॉजी और उसका औजार जिंदगी का इतना बड़ा हिस्सा बन गए हैं कि सार्वजनिक जगहों पर बैठे हुए लोग अपने मोबाइल फोन में डूबे रहते हैं, और दुपहिया चलाने वाले अनगिनत लोग एक हाथ में मोबाइल थामे, उस पर कुछ पढ़ते या टाईप करते, उस पर बात करते, एक हाथ से दुपहिया चलाते रहते हैं। सुबह-शाम पैदल घूमने वाले न तो आसपास के तालाब को देखते, न बगीचे को, और न ही पेड़ों को, लोग मोबाइल को देखते हुए पैदल चलते हंै। अभी बीस-पच्चीस बरस पहले तक इस देश में मोबाइल फोन का इस्तेमाल सिर्फ कॉल और एसएमएस के लिए होता था। लेकिन इन दिनों कैमरे से लेकर ई-मेल तक, इंटरनेट से लेकर खरीदी का भुगतान करने तक दर्जनों किस्म के काम एक स्मार्टफोन से होने लगे हैं, और लोगों के पास इसके बिना जी पाने का विकल्प मानो रह नहीं गया है। अब तो तरह-तरह की पहचान और शिनाख्त भी इसी फोन के रास्ते होने लगी है, और एक स्मार्टफोन न होने से जाने कितने तरह के काम हो ही नहीं सकते।
लेकिन स्मार्ट फोन एक औजार की तरह जितने काम का है, उतना ही वह एक आत्मघाती हथियार भी है जब वह इंटरनेट और सोशल मीडिया के साथ जुडक़र लोगों के लिए नशे के सामान की तरह हो जाता है। लोग तरह-तरह के खतरे उठाकर भी अपनी अनोखी और असाधारण रील बनाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के दबाव में रहते हैं। ऐसा न कर पाने पर उनके दायरे के दूसरे लोगों से पिछड़ जाने का एक तनाव उन पर मंडराते रहता है, और अब तो किशोरावस्था में पहुंचने से पहले भी भारत जैसे देश में बच्चे किसी रोक-टोक के अपने सोशल मीडिया अकाउंट खोल सकते हंै, और उसके बाद उन पर आसपास के हमउम्र लोगों का यह दबाव शुरू हो जाता है कि तरह-तरह की पोस्ट की जाए, तरह-तरह के संदेश भेजे जाएं। और यह सिलसिला तब तक आगे बढ़ता रहता है, जब तक बहुत से नाबालिग बच्चे सोशल मीडिया पर शिकार ढूंढते हुए पेशवर मुजरिमों के जाल में नहीं फँस जाते। बहुत से देहशोषण के मामले सोशल मीडिया से ही शुरू होते हैं और फिर वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विसों पर आगे बढ़ते हैं।
इन निजी संबंधों से परे भी इन दिनों लोग मोबाइल फोन पर हजार किस्म की धोखाधड़ी और जालसाजी के शिकार हो रहे हैं, और अपनी जिंदगी भर की कमाई को कुछ दिनों, घंटों, या मिनटों में गंवा दे रहे हैं। अमरीका जैसे कई पश्चिमी देश मोबाइल फोन पर स्कूली बच्चों को फंसाकर उनसे उगाही के सेक्सटॉर्शन के शिकार हैं, और हर बरस हजारों बच्चे ब्लैकमेल होते-होते थककर खुदकुशी कर रहे हैं। यही सब देखकर अभी ऑस्ट्रेलिया ने नया कानून बनाया है कि नाबालिग बच्चे किसी भी तरह से सोशल मीडिया का खाता नहीं खोल सकते। जो सोशल मीडिया कंपनी ऐसा करेगी, उस पर एक आसमान छूते जुर्माने का इंतजाम भी किया गया है। अगर मोबाइल फोन सिर्फ बातचीत और संदेश का औजार रहता, तो उससे कोई खूनखराबा नहीं होता। लेकिन अब वह असल जिंदगी से परे एक आभासी जिंदगी का मंच बन गया है, और बहुत से लोग अपनी असल निजी जिंदगी से कहीं अधिक घंटे इस आभासी जिंदगी में गुजारने लगे हैं। यह सिलसिला बहुत भयानक है। दसियों हजार बरसों से इंसान एक व्यक्ति से परे पारिवारिक और सामाजिक प्राणी रहते आए हैं। पिछले कुछ हजार बरसों से आधुनिक सभ्यता धीरे-धीरे लेकिन लगातार विकसित होती रही है। लेकिन पिछली चौथाई सदी में सोशल मीडिया और उसके इस्तेमाल के औजार इस रफ्तार से जिंदगी को ढांक चुके हैं कि असल जिंदगी के लोगों को इस धुंध के बीच कम दिखने लगे हैं। ऐसे में नई और अधेड़ पीढ़ी, दोनों ही मोबाइल फोन और सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में इस तरह डूब रही हैं कि आसपास के जीते-जागते करीबी लोगों से उनकी तनातनी और टकराव का खतरा रहना ही है। जिस तरह किसी का नशा छुड़ाने पर उनकी बेचैनी उन्हें खुदकुशी की कगार तक ले जाती है, उसी तरह मोबाइल फोन और सोशल मीडिया छीन लेने पर बहुत से बच्चे और बड़े खुदकुशी पर उतारू हो जाते हैं।
हमने इस बारे में एक मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता से पूछा तो उनका कहना है कि जब मां-बाप अपने बच्चों से मोबाइल फोन या सोशल मीडिया एकदम से छीन लेते हैं, तो ऐसा खतरा खड़ा होता है। वे बच्चों को सीमित समय के लिए मोबाइल दे सकते हैं, और इसके अलावा उन्हें खेलकूद, योग, या बच्चों की दिलचस्पी के पेंटिंग, डांस, संगीत, जैसे किसी शौक में शामिल करके व्यस्त रख सकते हैं। और एक सबसे जरूरी बात यह भी है कि परिवार के बड़े लोग खुद भी मोबाइल की लत छोडक़र एक साथ बैठने, और कुछ मनोरंजक करने जैसे काम कर सकते हैं जिसमें मोबाइल के आदी हो गए बच्चों का कुछ वक्त लग सके। यह सलाह बच्चों पर तो लागू होती है, लेकिन जब बालिग और अधेड़ लोग फोन पर कई किस्म के रिश्ते बनाने लगते हैं, कई किस्म के वयस्क मनोरंजन के खतरे भी उठाने लगते हैं, तो उनसे ऐसी लत, और ऐसे नशे को छुड़ाना एक अलग किस्म की समस्या है। चौथाई सदी में असल जिंदगी को बेदखल करके काबिज हो गई इस आभासी जिंदगी से छुटकारा पाना आसान नहीं है। लेकिन इससे जो पारिवारिक रिश्ते बिगड़ रहे हैं, परिवार टूट रहे हैं, उन्हें बचाना आज की समाज-व्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती है।
छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के एक गांव की स्कूल में एक महिला शिक्षिका के खिलाफ छात्राओं की बड़ी गंभीर शिकायतों के बाद शिक्षिका को निलंबित कर दिया गया है। स्कूल की लड़कियों ने 22 किलोमीटर दूर कलेक्टर के पास जाकर कई तरह की शिकायतें की थीं जिनमें यह भी था कि शायद प्रधानपाठिका का काम देख रही यह शिक्षिका छात्राओं से मोबाइल पर वीडियो बनवाने में लगी रहती थी, उन्हें सज-धजकर आकर सोशल मीडिया के लिए रील बनाने दबाती थी। छात्राओं का कहना है कि मना करने पर शिक्षिका उन्हें टीसी दे देने की धमकी देती थी, हाथ-पैर तुड़वा देने की बात कहती थी, और गालियां देती थी। छात्राओं का यह भी कहना है कि स्कूल में शौचालय भी नहीं बनाया गया है, और माहवारी के दौरान उन्हें बड़ी दिक्कत होती है। विभाग की जांच में आरोप सही मिले, और कलेक्टर ने शिक्षिका को निलंबित कर दिया है। हम इस एक मामले की खबरों पर पहले इसलिए नहीं लिख रहे थे कि जांच रिपोर्ट सामने नहीं आई थी, और सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की थी। इन दोनों के बाद अब यह जाहिर है कि मामले में शिक्षिका की कुछ गलतियां तो निकली होंगी।
राज्य की स्कूलों में कई तरह की घटनाएं हो रही हैं। छेडख़ानी से लेकर बलात्कार तक, और नाबालिग स्कूल छात्रों के किए हुए कई और किस्म के जुर्म तक। पहली नजर में ऐसा लगता है कि सरकारी स्कूलों का, छात्रावासों का हाल बेकाबू है। और इनमें छात्र-छात्राओं की संख्या भी काफी अधिक है। 30 लाख या उससे भी अधिक छात्र-छात्राओं का इंतजाम आसान भी नहीं है क्योंकि शाला भवनों और फर्नीचर से लेकर स्कूल ड्रेस और किताब-साइकिल तक, मिड-डे-मील से लेकर स्कॉलरशिप तक हर किस्म के काम स्कूलों से होते हैं। फिर यह भी है कि सरकार के बहुत किस्म के गैरस्कूली काम भी स्कूल शिक्षकों के मत्थे आते हैं। स्कूलों में बड़े पैमाने पर बदअमनी की घटनाएं सामने आती हैं, और बहुत सी जगहों पर, खासकर आदिवासी इलाकों में बहुत से शिक्षक नशे में धुत्त स्कूल पहुंचते हैं। बहुत सी जगहों पर एक-एक शिक्षक कई कक्षाओं को पढ़ा रहे हैं, और किसी जगह शिक्षक की मांग करते हुए, तो किसी जगह शाला भवन की दिक्कतों को लेकर छात्र-छात्राओं को सडक़ों पर देखा जाता है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने खुद होकर स्कूलों के बुरे हाल पर सुनवाई चालू की है, और सरकार को कटघरे में खड़ा किया है।
किसी भी जनकल्याणकारी शासन में स्कूल शिक्षा, और चिकित्सा, ये दो विभाग सबसे अधिक प्राथमिकता के रहते हैं, और छत्तीसगढ़ में इन्हीं दोनों की हालत सबसे खराब दिखती है। सच तो यह है कि खराब हालत की स्कूलों से निकले बच्चे किसी भी राष्ट्रीय दाखिला इम्तिहान के लायक तैयार नहीं हो पाते। दूसरी तरफ अगर स्कूलों के वक्त ही जुर्म से उनका सामना होने लगता है, तो स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के पहले ही वे नाबालिग मुजरिम बनने लगते हैं। स्कूलों को सिर्फ पढ़ाई की जगह मानना ठीक नहीं होगा, यहां पर बचपन से लेकर किशोरावस्था तक का व्यक्तित्व विकास भी होता है, और ऐसे में अगर कहीं शिक्षक नहीं, कहीं इमारत नहीं, और कहीं शौचालय तक नहीं, तो ऐसे में बच्चे लोकतंत्र और सरकार के बारे में किस तरह की धारणा के साथ बड़े होंगे? और स्कूल की पढ़ाई पूरी होने, या पढ़ाई छोड़ देने के तुरंत बाद ही ये बच्चे वोटर भी बनते हैं, और एक गैरजिम्मेदार व्यक्तित्व विकास उनसे किस तरह के उम्मीदवार या पार्टी को छांटने का काम करवाता होगा, यह सोचना अधिक मुश्किल नहीं है। फिर यह भी है कि स्कूल की पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों के जुर्म में दाखिल हो जाने का एक बहुत बड़ा खतरा रहता है। इसलिए स्कूलों को पढ़ाने के साथ-साथ, बच्चों और किशोरों को पटरी पर बनाए रखने की जगह भी मानना चाहिए। आज स्कूलों की जो हालत दिख रही है, उसके चलते हुए हम खेलों में बहुत आगे बढऩे, या किसी और किस्म की प्रतिभा के विकसित होने की बात सोच भी नहीं पा रहे हैं। और छत्तीसगढ़ की आम सरकारी स्कूल के बच्चों की शायद ही कोई और कामयाबी हो। इसलिए इस विभाग को बहुत मेहनत और काबिलीयत के साथ चलाने की जरूरत है। स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल कुछ महीने काम करने के बाद ही सांसद बनाकर दिल्ली भेज दिए गए, और तब से इस विभाग का अतिरिक्त कार्यभार मुख्यमंत्री के पास चले आ रहा है, मंत्रिमंडल का विस्तार उसके बाद से हुआ नहीं है, और पूर्णकालिक मंत्री के बिना किसी को इसकी जिम्मेदारी देनी भी नहीं चाहिए।
केन्द्र सरकार के कई तरह के सर्वे में बरसों से यह बात सामने आती है कि छत्तीसगढ़ की सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर कितना कमजोर है। पिछली भूपेश बघेल सरकार ने सरकारी स्कूलों के बीच कुछ सौ चुनिंदा बेहतर स्कूलों को छांटकर उन्हें अंग्रेजी माध्यम की आत्मानंद स्कूलें बना दिया था। अब वे स्कूलें भी तिरस्कृत सी पड़ी दिखती हैं, और जगह-जगह से खबरें आती हैं कि पिछले पांच बरस आम सरकारी स्कूलों का पेट काटकर भी जो आत्मानंद स्कूलें लाड़ले बच्चों की तरह शानदार बनाई गई थीं, अब उन्हें भी खर्च का टोटा पड़ रहा है, और उनकी हालत भी खराब है। हम बदहाल स्कूलों के समंदर में आत्मानंद नाम के ऐसे सुविधा-संपन्न टापुओं के खिलाफ थे, और भूपेश सरकार के वक्त भी हमने ऐसी अनुपातहीन उत्कृष्टता की सोच का विरोध किया था। अब आज की सरकार के सामने यह दुविधा की नौबत है कि भूपेश सरकार की इस महंगी और खर्चीली योजना को आगे बढ़ाए, या फिर इस पर कोई और फैसला ले।
छत्तीसगढ़ में सरकारी स्कूलों को एक मिशन और मुहिम की तरह मेहनत करके सुधारने की जरूरत है। इन्हें भ्रष्टाचार से भी बचाने की भी जरूरत है। पता नहीं इतनी उम्मीद आज के वक्त में किसी सरकार से करना जायज होगा या नहीं, लेकिन हमारी सोच इससे कम पर रूक नहीं पाती है। जब तक कोई स्कूल शिक्षा मंत्री न बने, तब तक मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को चाहिए कि इसके लिए अलग से कोई इंतजाम करें क्योंकि मुख्यमंत्री के बहुत से अपने विभागों के बाद स्कूल शिक्षा जैसे दसियों लाख बच्चों, और शायद लाखों शिक्षकों-कर्मचारियों वाले इस विभाग को पूरी तरह देख पाना मुमकिन नहीं है। किसी भी सरकारी या राजनीतिक वजह से स्कूल शिक्षा में ऐसा नुकसान नहीं होना चाहिए क्योंकि इसकी भरपाई बाद में नहीं हो पाएगी। खासकर प्रदेश के आदिवासी इलाकों में सरकारी स्कूलों और छात्रावासों में जैसी गंभीर घटनाएं हो रही हैं, और शिक्षकों के बीच जैसी अराजकता की स्थिति है, उसमें नई पीढ़ी का किसी भी तरह से अच्छा बन पाना मुमकिन नहीं है।
कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में एक गांव के भूतपूर्व उपसरपंच को गांव की ही एक भीड़ ने उसी के घर में जिंदा जला दिया क्योंकि उन्हें शक था कि गांव के एक व्यक्ति की सरहदी मध्यप्रदेश में लाश टंगी हुई मिली थी, और वह आत्महत्या न होकर इस भूतपूर्व उपसरपंच की करवाई हुई हत्या थी। भीड़ ने उपसरपंच को उसी के घर के भीतर घेरकर, बांधकर घर सहित जिंदा जला दिया था, घर की कुछ महिलाओं को किसी तरह बचाकर निकाला गया था। अब छत्तीसगढ़ की ही दो और खबरें दो दिनों में दहलाने वाली आई हैं। रायगढ़ जिले के एक गांव में धान चोरी के शक में आरोप लगाते हुए एक आदमी को खंभे से बांधकर इतना पीटा गया कि उसकी मौत हो गई। और धमतरी जिले के एक गांव में एक नौजवान के घर आदमी-औरत आधी रात के बाद लाठी-डंडों से लैस होकर पहुंचे, और उसे उस पर धान चोरी का आरोप लगाया, और उसे बाहर ले जाकर सुबह तक पीटा गया। मरने वाले नौजवान का बाप गिड़गिड़ाते रहा, कोटवार ने भी उसे छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उसे भी भगा दिया गया। इस मामले में सामने आया है कि सरपंच की मौजूदगी में इस युुवक को पीट-पीटकर मारा गया। जब जी-भरकर मारकर यह टोली चली गई, तब पिता और दूसरे लोग इस जख्मी युवक को अस्पताल ले गए, अस्पताल के रास्ते उसकी मौत हो गई।
जिन लोगों को ये घटनाएं मामूली हिंसा लगती हैं, उन्हें अपनी खैरियत की फिक्र करनी चाहिए। इन तीनों ही मामलों में मारने वाले लोग पेशेवर मुजरिम न होकर आम लोग थे, और उन्होंने यह सोचते-समझते यह हिंसा की कि इसमें मौत हो सकती है, या मार डालने के लिए ही उन्होंने इस हद तक पीटा। दोनों ही मामलों में धान चोरी का आरोप था, और यह जाहिर है कि कोई एक इंसान भला कितनी धान चोरी कर सकता है। और इतनी सी बात को लेकर अगर खुली जगह पर सबके सामने ऐसी भीड़त्या की जाती है, तो यह मामला एक जान जाने से अधिक फिक्र का इसलिए है कि गैरमुजरिम लोगों के मुंह ऐसे कत्ल का खून लग चुका है। मुजरिम अगर कत्ल करें, सुपारी लेकर किसी को मारें, या आपसी गैंगवार में किसी को खत्म करें, तो भी वह उतनी बड़ी फिक्र की वजह नहीं रहती है क्योंकि ऐसे मुजरिम या गुंडे-बदमाश पहले से लोगों और पुलिस की नजरों में रहते हैं। लेकिन जब आम लोग कत्ल करने लगें, तो वह अधिक फिक्र की बात रहती है।
किसी देश या समाज में जब धर्म या जाति के नाम पर, या राजनीतिक मुकाबले और दुश्मनी में लोगों का कत्ल करना शुरू हो जाता है, तो जहां-जहां तक ऐसी खबरें पहुंचती हैं लोगों के भीतर वह आदिम हिंसा जागने लगती है जिसे कि हजारों बरस के सभ्यता के विकास ने, और पौन सदी के लोकतंत्र ने कुछ हद तक सुलाया हुआ था। लोकतंत्र के पहले भी अलग-अलग युगों में अलग-अलग किस्म की राज व्यवस्था, और न्याय व्यवस्था थी, और लोगों का खुद सजा दे देना, कत्ल कर देना, सभ्यता के विकास के साथ घटता चला गया था। अलग-अलग शासन व्यवस्थाओं में भी लोगों का सीधे हिसाब चुकता करना बंद या खत्म हो चुका था, और उन्हें राजा के पास शिकायत लेकर जाना पड़ता था, और वहां सजा होती थी। भारत में पिछली पौन सदी में एक बहुत साफ-साफ लोकतांत्रिक न्याय व्यवस्था विकसित और स्थापित हुई है जिसमें जनता या भीड़ को इंसाफ करने की कोई भूमिका नहीं दी गई है। ऐसे में अगर मामूली से धान की चोरी के आरोप में गैरमुजरिम लोगों की भीड़ भी पीट-पीटकर किसी को मार डाल रही है, तो लोगों के बीच यह देश के कानून के लिए, प्रदेश की पुलिस व्यवस्था के लिए एक बड़ी गहरी हिकारत के अलावा और कुछ नहीं है।
लोगों को इस बात का अच्छी तरह अंदाज और अहसास है कि कत्ल करने पर क्या होता है। आज के वक्त तकरीबन तमाम कातिल पकड़ लिए जाते हैं, फिर चाहे वे दूसरे प्रदेशों से आए हुए पेशेवर शूटर ही क्यों न हों। ऐसे में अपने इलाके में सार्वजनिक रूप से लोगों के बीच की गई सामूहिक हत्या के बारे में लोगों को अच्छी तरह अंदाज होगा कि इससे जेल जाने का बहुत बड़ा खतरा रहेगा, और उम्रकैद जैसी सजा भी हो सकेगी। इसके बाद भी अगर भीड़ इस तरह की हिंसा करती है, और एक मामले में तो घरेलू महिलाएं भी इस हिंसा में शामिल थीं, तो यह साधारण लोगों के इस बुरी तरह हिंसक हो जाने का एक खतरनाक सुबूत है। जब घर-परिवार के भीतर लोग बलात्कार करने लगें, जब स्कूल के शिक्षक, हेडमास्टर, और प्रिंसिपल ही छात्रा से बलात्कार करने लगें, जब बेटियां ही अपने प्रेमी के साथ मिलकर मां-बाप का कत्ल करवाने लगें, जब बीवी प्रेमी के साथ मिलकर पति का कत्ल करवाने लगें, तो यह समाज में कानून के राज के लिए बड़ी हिकारत, और सजा के डर से आजादी का साफ मामला है।
जब देश में कुछ ताकतें धार्मिक आधार पर इस तरह की भीड़त्या का अभिनंदन करती हैं, कुछ ताकतें जातियों के आधार पर ऐसे कत्ल को जायज ठहराती हैं, तो फिर कातिल सोच का संक्रमण खबरों के साथ-साथ दूर-दूर तक फैलता है, और बाकी आम लोगों को भी ऐसे कत्ल का हौसला देता है, उकसावा देता है। यह भी याद रखने की जरूरत है कि हर समाज में नाबालिगों की पीढ़ी को भी अपने आसपास के बालिग लोगों के ऐसे सार्वजनिक और सामूहिक जुर्म से एक राह सूझती है, और हमने देखा है कि आसपास चारों तरफ नाबालिग लडक़े रेप और गैंगरेप कर रहे हैं, कत्ल कर रहे हैं। हिंसा का संक्रमण कानून के सम्मान को पूरी तरह खत्म करते चल रहा है। नतीजा यह निकल रहा है कि समाज में जो लोग आसपास के लोगों को गलत काम करने से रोक सकते थे, रोकते थे, वे भी अब दूसरों के हाथों में चाकू, या जेब में पिस्तौल की कल्पना करते हुए अपनी अतडिय़ों पर हाथ रखते हुए सहमे हुए चुप रह जाते हैं, और समाज में रोक-टोक की सामूहिक जिम्मेदारी भी खत्म हो रही है। अब कम ही लोगों का हौसला बीच-बचाव करने का, या गुंडागर्दी को रोकने का रह गया है।
इस नौबत को सुधारना तो तुरंत मुमकिन नहीं है, लेकिन इसे और अधिक बिगडऩे देने से रोकने के लिए यह जरूरी है कि समाज में धर्म, राजनीति, जाति, किसी भी आधार पर हिंसा को मान्यता देना बंद किया जाए। अभी चार दिन पहले ही बीबीसी पर एक रिपोर्ट आई थी कि किस तरह बंगाल में राजनीतिक पार्टियों के बीच टकराव में इस्तेमाल होने वाले घरों में बने हुए बम टकराव के बाद खुले में पड़े रह जाते हैं, और वहां पिछले तीन दशकों में इनसे खेलते हुए या इनसे टकराकर 565 बच्चे या तो मारे गए हैं, या घायल हुए हैं। बंगाल की राजनीति में बमबारी की ऐसी हिंसा बढ़ते-बढ़ते अब आम हो चुकी है। देश में भीड़त्या को इसी तरह आम नहीं होने देना चाहिए।
एक तो चर्चित अभिनेत्री सनी लियोनी का नाम वैसे भी हिन्दुस्तानियों में सनसनी पैदा करता है क्योंकि वे हिन्दुस्तान आने के पहले कनाडा में वयस्क मनोरंजन की फिल्मों में काम कर चुकी हैं। यहां हिन्दुस्तान में भी सेक्स के मामले में दमित कुंठाओं से भरे हुए समाज में वयस्क मनोरंजन शब्द भी लोगों को उत्तेजित कर देते हैं। इसलिए छत्तीसगढ़ में जब यह पता लगा कि गरीब महिलाओं को फायदा देने के लिए हजार रूपए महीने वाली महतारी वंदन योजना का फायदा पाने वालों में सनी लियोनी का नाम भी है, तो सरकारी योजना में लापरवाही, या भ्रष्टाचार कम लोगों को सूझा, सनी लियोनी की देह तुरंत लोगों की कल्पनाओं को भर गई। जांच में पता लगा है कि आदिवासी इलाके बस्तर में किसी छोटी जगह सनी लियोनी के नाम से एक बैंक खाता खुलवाकर एक व्यक्ति ने महतारी वंदन योजना के हजार रूपए महीने की रकम इस खाते में हासिल कर ली, और अब पुलिस ने इस आदमी को गिरफ्तार भी कर लिया है। दो दिनों से खबरें महतारी वंदन योजना के बेजा इस्तेमाल से कहीं अधिक सनी लियोनी पर केन्द्रित हैं, और इस अभिनेत्री की तस्वीरों के साथ खबरें बनती जा रही हैं। महतारी वंदन योजना में और बैंक खाते में ‘इस’ सनी लियोनी के पति का नाम कुछ और है, जो कि अभिनेत्री सनी लियोनी के पति का नाम नहीं है। इस बारे में एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता वेदमती जोशी और एक व्यक्ति वीरेन्द्र जोशी का नाम सामने आया है, और खाते पर रोक लगाकर वीरेन्द्र जोशी को गिरफ्तार भी कर लिया गया है। वीरेन्द्र जोशी की पत्नी भी महतारी वंदन योजना की हितग्राही है।
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छत्तीसगढ़ में हर शादीशुदा, या अकेली रह गई भूतपूर्व शादीशुदा महिला को महतारी वंदन योजना के तहत सरकार हजार रूपए महीने देती है, और करीब 70 लाख महिलाओं को इसका फायदा मिल रहा है। सबसे गरीब महिलाओं के लिए यह रकम बहुत मायने रखती है, क्योंकि ये सीधे उनके नाम के बैंक खाते में पहुंचती है, और घर के मर्द इस रकम को सीधे छू नहीं सकते। सरकारी कर्मचारी महिलाओं और आयकरदाता महिलाओं को ही इसका फायदा नहीं मिल पाता। किसी नागरिक तक सीधे नगद राहत पहुंचाने की यह प्रदेश के इतिहास की सबसे बड़ी योजना है, और इसे विधानसभा चुनाव में भाजपा की सरकार आने के बाद जल्द ही लागू कर दिया गया था। जिन महिलाओं ने इस योजना के फॉर्म भरे थे, उन्हें भी सरकार की यह घोषणा मालूम थी कि अगर अपात्र लोग इसका फायदा लेने लगेंगे तो बाद में उनसे वसूली की जाएगी। प्रदेश की आबादी की करीब 20 फीसदी को अगर इतना व्यापक फायदा पहुंचाया जा रहा है, तो जाहिर है कि इसमें कुछ गड़बड़ी तो होगी ही। और यह गड़बड़ी इसलिए भी होगी क्योंकि सरकार ने लोगों के आवेदनों और घोषणा पत्रों पर भरोसा करके भी उन्हें यह राहत देना शुरू किया है।
लोगों को याद होगा कि 2013 के वक्त प्रदेश की तीन करोड़ की आबादी में आधा-पौन करोड़ राशन कार्ड बन गए थे, और बाद में बारीकी से जांच करने पर 10 लाख से अधिक राशन कार्ड रद्द भी हुए थे। सुप्रीम कोर्ट ने भोजन की सुरक्षा पर चल रहे एक मामले में अदालत को जनहित याचिकाकर्ताओं ने इस बात के लिए सहमत कराया था कि गरीबों की सौ फीसदी शिनाख्त के बाद राशन शुरू करने से बहुत जरूरतमंद दसियों लाख लोग तब तक भूखे रह जाएंगे, इसलिए पहले तो ऐसे हर व्यक्ति को राशन शुरू कर दिया जाए जो बीपीएल की किसी भी लिस्ट में दर्ज है, और उसके बाद भी सरकार इनकी छंटनी करती रहे। इसी तरह महतारी वंदन योजना में 70 लाख महिलाओं को फायदा पहले मिलने लगा है, और एक-एक महिला की जांच अब चल ही रही है। जनकल्याण की, और सबसे गरीब लोगों की जरूरत की योजनाओं में कई बार ऐसी छोटी-मोटी गड़बडिय़ों को रोकने के लिए सारी की सारी योजना को नहीं रोका जाता।
अब अगर छत्तीसगढ़ में 70 लाख महिलाओं को महतारी वंदन की मदद मिल रही है, तो उसमें कुछ लाख अपात्र महिलाओं का होना बड़ी मामूली बात होगी। हिन्दुस्तान में भला सौ लोगों का भी कोई ऐसा हितग्राही-समूह बनाया जा सकता है जिसमें कुछ अपात्र लोग न हों? सडक़ किनारे हर फुटपाथी खाने-पीने के कारोबारी के पास घरेलू गैस सिलेंडर दिखते हैं, और जाहिर तौर पर ऐसा हर सिलेंडर सरकार को चूना लगाता है। हिन्दुस्तानियों की आम नीयत सरकार से टैक्स चोरी की रहती है, रियायत का नाजायज फायदा उठाने की रहती है। इसलिए 70 लाख महिलाओं में कुछ गिने-चुने नाम लेकर इस तरह का बवाल खड़ा करना कुछ वैसा ही है कि ऐसा कहने और लिखने वाले लोग हिन्दुस्तानियों के आम चरित्र को नहीं जानते हैं। यहां तो एक संयुक्त परिवार में अगर सात लोग भी रहते हैं, तो अधिक गुंजाइश यह है कि उनमें से कम से कम एक-दो टैक्स चोरी के हिमायती निकल आएंगे। इस योजना से क्या व्यापक नफा और नुकसान हो रहा है, उसका आंकलन बड़ा मुश्किल काम होगा, और किसी और पति की पत्नी बताई जा रही कोई सनी लियोनी एक सनसनीखेज कल्पना पैदा करती है, और प्रदेश में मानो महतारी वंदन योजना का यही एक हासिल है। लोगों को याद रहना चाहिए कि देश में शायद एक अरब लोगों के आधार कार्ड बने होंगे, और उसमें से कुछ हजार आधार कार्ड कुत्ते-बिल्ली के नाम के भी बनवा लिए गए थे। उनसे खबरें तो निकली थीं, लेकिन उनकी वजह से आधार कार्ड का महत्व, और उसकी उपयोगिता कम हो गए थे?
किसी भी व्यापक जनहित की ऐसी विस्तृत योजना के बारे में लापरवाह टिप्पणियों के साथ-साथ यह भी सोचना चाहिए कि गड़बड़ी का अनुपात क्या है, और कितने जरूरतमंद गरीबों का कितना फायदा हुआ है। गरीब तबके के लिए बड़ी अहमियत रखने वाली इस योजना को मसखरी का सामान बनाना बहुत से गरीब लोगों को आहत भी कर सकता है। शहरी, शिक्षित, संपन्न, और सवर्ण अहंकार को गरीबों के आहत होने से कोई फर्क पड़ता नहीं है, लेकिन समाज के जो जिम्मेदार लोग हैं उन्हें ऐसी व्यापक योजना को समग्र रूप में भी देखना चाहिए। किसी सॉफ्टड्रिंक की बोतल से निकलते बुलबुलों, या बीयर की गिलास से उठते झाग की तरह की सनसनी वहीं तक सीमित रखनी चाहिए, जनकल्याण के कामों में एक मादक और उत्तेजक नाम से हुई गड़बड़ी मिल जाने से आधा करोड़ से अधिक जायज जरूरतमंदों के हक को कम आंकना नाजायज होगा।
इधर इजराइल और फिलीस्तीन की खबर अभी आ ही रही है कि उनके बीच युद्धविराम पर सहमति तकरीबन पूरी हो गई है, और अब उसकी घोषणा ही बची हुई है। कुछ हफ्ते पहले इजराइल और हिजबुल्ला नाम के एक दूसरे हथियारबंद संगठन के बीच ऐसी सहमति हुई, और लेबनान में बसे हुए हिजबुल्ला के साथ इजराइल की जंग थम गई। बड़े खूनी संघर्ष के बाद ये दो युद्धविराम मध्य-पूर्व के इस इलाके के लिए बड़ी कामयाबी होंगे, या कि तकरीबन हो चुके हैं। लोग ऐसा भी मान रहे हैं कि 20 जनवरी को अमरीकी राष्ट्रपति का पद संभालने के बाद डोनल्ड ट्रम्प किसी तरह के दबाव का इस्तेमाल करके रूस और यूक्रेन के बीच की जंग को भी शांत कर सकते हैं। ऐसे में भारत और बांग्लादेश के बीच छिड़ा हुआ तनाव कम न होना फिक्र की बात है।
बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार को जनआक्रोश और जनआंदोलन की वजह से खुद होकर कुर्सी छोडऩी पड़ी, और प्रधानमंत्री हसीना जान बचाकर भारत में शरण लेकर रह रही हैं। आज बांग्लादेश पर काबिज अंतरिम सरकार शेख हसीना के कट्टर विरोधियों की है, और उसे भारत से इस बात की शिकायत भी है कि भारत ने बांग्लादेश के अंदरुनी मामलों में दखल देने की हद तक हसीना सरकार का समर्थन किया था। इस शिकायत के साथ बांग्लादेश के मौजूदा शासक, और उनके सलाहकार भारत के खिलाफ इस हद तक हैं कि बांग्लादेश में हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएं बढ़ती चल रही हैं। भारतवंशी हिन्दू और ईसाई बांग्लादेश में निशाना बनाए जा रहे हैं, और दोनों देशों के बीच बड़ी तल्खी के बयान भी हवा में तैर रहे हैं। चूंकि बांग्लादेश की मौजूदा सरकार के लोगों को सरकार चलाने का तजुर्बा बहुत कम है, या नहीं है, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया कुछ अधिक आक्रामक बनी हुई है। लेकिन बीच-बीच में भारत की तरफ से भी कुछ ऐसे बयान आते हैं जो कि बांग्लादेश को माकूल नहीं बैठते, और दोनों देशों के बीच सोशल मीडिया और खबरों के मार्फत तनातनी बढ़ती जाती है।
हम दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में कहीं तनातनी बढऩे, और कहीं कम होने की चर्चा एक साथ इसलिए कर रहे हैं कि जहां दो पक्षों में कोई शक्ति संतुलन नहीं रहता, कोई बराबरी नहीं रहती, वहां पर भी एक हद तक जंग चल जाने के बाद किसी समझौते की बात से ही रास्ता निकलता है। न तो फिलीस्तीन के हमास की ताकत की इजराइल से कोई बराबरी थी, और न ही लेबनान की जमीन पर काम करने वाले हिजबुल्ला की ताकत इजराइल के आसपास भी थी, लेकिन इजराइल ने एक सीमा तक इन दोनों को कमजोर करने के बाद उनसे युद्धविराम करने, शांतिवार्ता करने को ही बेहतर समझा। इसलिए दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी तनातनी को कम करने की इस ताजा मिसाल पर गौर करना चाहिए। अपने से ताकत में बहुत कमजोर संगठनों से समझौता करके इजराइल छोटा साबित नहीं हुआ, उसने अपनी ताकत को फिजूल में बर्बाद करना रोका, और शायद वह अपने देश की हिफाजत की फिक्र भी कर रहा है जो कि अड़ोस-पड़ोस पर बम बरसाते हुए हमेशा के लिए कायम नहीं रह पाएगी।
कोई देश कितना ही ताकतवर क्यों न हो, आज की वैश्विक राजनीति में, उसे किसी पड़ोसी को दुश्मन बनाकर रखने की बददिमागी नहीं करनी चाहिए। रूस इसकी सबसे बड़ी मिसाल है जिसने यूक्रेन पर हमला करते हुए इसे एक हफ्ते की फौजी कार्रवाई करार दिया था। आज हालत यह है कि छोटे से यूक्रेन ने नाटो की मदद से रूस की नाक में दम कर दिया है, और जंग हजार दिन से अधिक लंबी हो चुकी है। रूस की फौजी साज-सामान बनाने की जितनी क्षमता है, उससे कहीं अधिक उसकी रोज यूक्रेन में खपत हो रही है। पश्चिमी देशों को शायद इसी में मजा आ रहा है कि यूक्रेनी जिंदगियों की कीमत पर, उनके कंधों पर बंदूक रखकर पश्चिम रूस को खोखला कर रहा है, और आज परमाणु हथियारों को छोड़ दें, तो परंपरागत हथियारों के मामले में नाटो रूस को शिकस्त दे सकता है। इसलिए पड़ोस के यूक्रेन को गुपचुप की तरह उठाकर मुंह में भर लेने की रूसी चाह उसे बड़ी महंगी पड़ रही है। ठीक उसी तरह इजराइल को भी अड़ोस-पड़ोस पर कब्जा करने की चाह एक किस्म से भारी पड़ी, और उसे अपनी आबादी को सुरक्षित रखने के लिए चाहे-अनचाहे ये युद्धविराम करने पड़ रहे हैं।
भारत की बांग्लादेश से मौजूदा तनातनी दो गैरबराबरी के देशों के बीच की तनातनी तो है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि श्रीलंका हो, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, या बांग्लादेश, जिस किसी की भारत के साथ तनातनी होगी, चीन वहां पर अपनी रणनीतिक संभावनाएं देखने लगेगा। एक किस्म से चीन की नीयत भारत के इर्द-गिर्द मोतियों की माला की तरह बेचैनी की एक माला बनाने की है, और वह किसी भी तरह के टकराव और असंतोष का फायदा उठाने की ताक में रहता है जो कि फौजी टकराव वाले किन्हीं भी दो देशों के बीच एक स्वाभाविक और आम बात रहती ही है। ऐसे में भारत को बांग्लादेश के आकार और उसकी ताकत से अपनी तुलना करके संतुष्ट हो जाने की चूक नहीं करनी चाहिए। पड़ोसी कितना भी छोटा हो, उससे दुश्मनी तकलीफदेह रहती है। और खासकर उस वक्त तो एक अधिक नाजुक हालत है जब भारत के बगल का उससे अधिक सैनिक ताकत वाला चीन भारत के हर पड़ोसी का हमदर्द और मददगार बनने के लिए एक पैर पर खड़ा हुआ है।
बांग्लादेश के साथ जंग और तनाव के फतवों से बचना चाहिए। दोनों ही देशों में कुछ बेदिमाग और बददिमाग लोग इस तरह की बात सोच सकते हैं, लेकिन दोनों तरफ सरकारों में बैठे लोगों को अधिक समझदारी दिखानी चाहिए। खासकर बांग्लादेश के लिए यह बात अधिक जरूरी इसलिए है कि भारत जितने बड़े पड़ोसी, और एक बड़ी आर्थिक ताकत से बिना वजह कड़वाहट और दुश्मनी से बांग्लादेश का सीधा-सीधा नुकसान अधिक होगा, और उस पूरे नुकसान की भरपाई चीन भी नहीं करेगा।
आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने अभी एक कार्यक्रम में सार्वजनिक रूप से मंदिर-मस्जिद विवादों के फिर से उठने को लेकर फिक्र जाहिर की है। उन्होंने कहा कि मंदिर-मस्जिद के रोज नए विवाद निकालकर कोई नेता बनना चाहते हैं, तो ऐसा नहीं होना चाहिए, हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं। उन्होंने कहा- हमारे यहां हमारी ही बातें सही, बाकी गलत, यह चलेगा नहीं..., अलग-अलग मुद्दे रहे तब भी हम सब मिलजुलकर रहेंगे। हमारी वजह से दूसरों को तकलीफ न हो, इस बात का ख्याल रखेंगे। जितनी श्रद्धा मेरी खुद की बातों में है, उतनी श्रद्धा मेरी दूसरों की बातों में भी रहनी चाहिए। हर धर्म और दूसरों के आराध्य का सम्मान करना चाहिए। मोहन भागवत ने पुणे में एक व्याख्यानमाला में कहा- हर दिन एक नया विवाद उठाया जा रहा है, इसकी इजाजत कैसे दी जा सकती है। हाल के दिनों में मंदिरों का पता लगाने के लिए मस्जिदों की सर्वेक्षण की मांगें अदालतों में पहुंची हैं। उन्होंने कहा कि दूसरे देशों में अल्पसंख्यकों के साथ क्या हो रहा है? अक्सर भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर चर्चा की जाती है, अब दूसरे देशों में अल्पसंख्यक समुदायों को किस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।
इसके दो-चार दिन पहले ही दिन मोहन भागवत ने कहा था कि व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए, नहीं तो वह गड्ढे में गिर सकता है। उन्होंने कहा था कि हर व्यक्ति में एक सर्वशक्तिमान ईश्वर होता है जो समाज की सेवा करने की प्रेरणा देता है, लेकिन अहंकार भी होता है। उन्होंने कहा था कि राष्ट्र की प्रगति केवल सेवा तक सीमित नहीं है, सेवा का उद्देश्य नागरिकों को विकास में योगदान देने में सक्षम बनाना होना चाहिए। यहां यह भी चर्चा के लायक है कि मोहन भागवत ने कुछ महीने पहले एक ऐसा बयान दिया था जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर निशाना माना जा रहा था। मोदी ने अपने आपको एक खास मकसद पूरा करने के लिए ईश्वर का भेजा हुआ बताया था, और इसके बाद आए भागवत के एक बयान में उन्होंने कहा था कि इंसान पहले सुपरमैन फिर भगवान बनना चाहता है। उन्होंने एक और बयान में मणिपुर के बारे में कहा था कि मणिपुर जल रहा है उस पर कौन ध्यान देगा? प्राथमिकता देकर उसका विचार करना कर्तव्य है।
मोहन भागवत हिन्दुओं के सबसे पुराने और सबसे बड़े संगठन, आरएसएस के मुखिया हैं। और उनके बयान कई बार परस्पर विरोधाभासी भी रहते हैं, और कई बार उनसे गैरजरूरी विवाद भी खड़े होते हैं। लेकिन इस बार के उनके बयान को हम एक हिन्दू नेता, और एक हिन्दुस्तानी की एक जायज फिक्र से उपजे हुए मानते हैं। कुछ अरसा पहले भी उन्होंने कहा था कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढने की कोशिश गलत है, यह नहीं होना चाहिए, और अभी फिर उन्होंने जगह-जगह मस्जिद के नीचे मंदिर विवाद पर साफ-साफ आपत्ति जाहिर की है। ऐसा लगता है कि भागवत पिछले कुछ अरसे में आत्ममंथन और आत्मविश्लेषण करके, चाहे अस्थाई और तात्कालिक रूप से ही सही, इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि अधिकतर हिन्दू आबादी वाले देश में एक हिन्दूवादी सरकार के रहते अगर हिन्दुओं को लगातार खतरे में बताया जाता रहेगा, और लगातार साम्प्रदायिक तनाव खड़े किए जाते रहेंगे, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दुओं को ही होगा, और हो भी रहा है। देश की अर्थव्यवस्था के सबसे बड़े हिस्से पर हिन्दू ही काबिज हैं, और देश में किसी भी तरह के तनाव की वजह से जब कानून व्यवस्था बिगड़ती है, उत्पादकता मार खाती है, तो इसका सबसे बड़ा नुकसान हिन्दू समाज को होता है, और इससे दुनिया भर में साख हिन्दूवादी सरकार की खराब हो रही है। दुनिया भर में यह माना जा रहा है कि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं। और अभी भागवत ने बांग्लादेश के हिन्दुओं पर हमले की जो चर्चा की है, उसके बारे में भी यह समझने की जरूरत है कि उसे मुद्दा बनाने का भारत का, और हिन्दू समाज का नैतिक अधिकार भारत में जगह-जगह खड़े किए जा रहे, और स्थाई बनाए जा रहे साम्प्रदायिक तनावों से कमजोर हो जा रहा है। पड़ोस का छोटा सा बांग्लादेश भी वहां चल रहे साम्प्रदायिक तनाव के जवाब में भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को गिना रहा है।
संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान के पीछे की उनकी नीयत पर हम जाना नहीं चाहते, उनके जो शब्द हैं, उनकी साफगोई की हम आज के इस वक्त में तारीफ करते हैं। उनका यह कहना कि हमें दुनिया को दिखाना है कि हम एक साथ रह सकते हैं, यह देश संविधान के मुताबिक चलता है, और पुरानी लड़ाईयों को भूलकर हमें सबको संभालना चाहिए, सबको एक साथ रहना चाहिए, ये बातें मायने रखती हैं। इसके बाद आरएसएस से जुड़े हुए राजनीतिक दल भाजपा, और संघ परिवार के दूसरे दर्जनों अलग-अलग संगठन मस्जिदों की नींव खोदने के फतवों से हो सकता है कुछ अरसा परे रहें। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने इस धंधे पर पूरी ही रोक लगा दी है, और धर्मस्थल उपासना कानून पर व्यापक विचार-विमर्श कर रहा है, लेकिन देश भर जो माहौल खराब किया जा रहा है, उस पर हो सकता है कि भागवत के बयान के बाद कुछ रोक लगे।
हमारा वैसे भी यह मानना है कि देश में अगर नरेन्द्र मोदी की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार के रहते अगर हिन्दुत्व पर खतरा बार-बार कहा जाता है, अगर हिन्दू को असुरक्षित बताया जाता है, तो इससे सरकार की साख खराब होती है, और ऐसा लगता है कि क्या 80 फीसदी हिन्दू आबादी के सौ करोड़ लोग भी इतने कमजोर हैं कि वे अपने को बचा नहीं पा रहे हैं? अंतरराष्ट्रीय समुदाय में भारत की साख में सबसे बड़ा बट्टा भारत के साम्प्रदायिक तनाव को लेकर ही लगता है। और मोहन भागवत जिस विचारधारा के अगुवा हैं, उन्हें भी यह बात शायद अच्छी नहीं लगेगी कि हिन्दुओं की बहुतायत वाले देश की साख अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खराब हो। कांग्रेस सांसद शशि थरूर से लेकर बहुत से मुस्लिम नेताओं ने भी मोहन भागवत के इस ताजा बयान और रूख का गर्मजोशी से स्वागत किया है। हमारा भी यही मानना है कि संघ के इतिहास की नींव खोदने के बजाय उसके इस ताजा रूख का सार्वजनिक समर्थन किया जाना चाहिए, और पुरानी बातों का हवाला देकर भागवत को नीचा दिखाने के बजाय उनके इस ताजा रूख को आगे बढ़ाना चाहिए ताकि देश में फैलाई जा रही साम्प्रदायिक हिंसा को भागवत के असर से रोका जा सके। देश और कई प्रदेशों की सरकारों के साथ-साथ हिन्दुओं का कई हिस्से भागवत के बयानों से सहमत होते हैं, ऐसे में उनकी अभी कही गई बातों का देश के हित में फायदा उठाना चाहिए।
संसद सत्र के दौरान कल जिस तरह कांग्रेस और भाजपा के सांसदों पर दूसरे पक्षों से धक्का-मुक्की करने के आरोप लगे हैं, और भाजपा के दो सांसद घायल होने की बात कहते हुए, या घायल होने पर अस्पताल में भर्ती हुए हैं, वह पूरा सिलसिला लोकतंत्र को बड़ा निराश करता है। भाजपा ने प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने भाजपा सांसदों को धक्का देकर गिराया जिससे वे जख्मी हुए। दूसरी तरफ कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी ने कहा है कि उनके सामने ही राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे को धक्का दिया गया, और वे गिर पड़े, इसके बाद एक सीपीएम सांसद को धक्का दिया गया, और वे खरगे पर गिर पड़े। उन्होंने कहा कि राहुल अंबेडकर की तस्वीर लेकर जय भीम के नारे लगाते हुए संसद में जा रहे थे, और उन्होंने (भाजपा सांसदों ने) विरोध किया, धक्का-मुक्की की, और यह गुंडागर्दी हुई। उसके बाद यह साजिश फैलाना शुरू किया गया कि राहुल ने किसी को धक्का दिया है। यह संसद भवन के एक प्रवेश द्वार पर भाजपा सांसदों द्वारा इंडिया-गठबंधन के सांसदों का दाखिला रोकने के दौरान हुई घटना बताई जा रही है। इसके बाद लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने निर्देश जारी किए हैं कि संसद के किसी भी गेट पर कोई भी सदस्य, उनके समूह, या राजनीतिक दल के सदस्य धरना-प्रदर्शन नहीं करेंगे।
हम न तो इस घटना को लेकर लोगों और पार्टियों के चाल-चलन पर किसी पूर्वाग्रह को काम में लाना चाहते, न ही कोई अटकल लगाना चाहते कि क्या हुआ होगा। अगर कोई ईमानदार जांच होगी, तो यह साफ हो जाएगा कि किसने किसे रोका, और किसने किसे धक्का दिया। हम इस बात पर भी जाना नहीं चाहते कि आज जख्मी होने की बात जिस सांसद के बारे में की जा रही है वह एक वक्त ओडिशा में ग्राह्म स्टेंस और उनके बच्चों को जिंदा जला देने के मामले से किस तरह जुड़ा हुआ था। वह इतिहास कल की घटना में प्रासंगिक नहीं है, और हम इसमें भी जाना नहीं चाहते कि राहुल गांधी को किसी भी कीमत पर घेरने की कैसी कोशिशें चल रही हैं। इन सबसे परे हम भारत के संसदीय लोकतंत्र की कुछ बुनियादी बातों पर आना चाहते हैं कि क्या 140 करोड़ जनता के बीच से चुने गए जनप्रतिनिधियों से देश की जनता ऐसे ही संसदीय आचरण की उम्मीद करती है? क्या संसद का कुख्यात रियायती खाना, सांसदों पर होने वाला बड़ा खर्च, और उन्हें मिले हुए असाधारण विशेषाधिकार क्या इसीलिए हैं कि वे छात्र संघ चुनाव की तरह की धक्का-मुक्की करें? हम कल की घटना के किसी जिम्मेदार के नाम पर अटकल लगाने का काम नहीं करना चाहते, बल्कि देश के संसदीय माहौल पर अपनी निराशा दिखाना चाहते हैं कि संसद की इमारत ही नई नहीं बनी है, इसके चाल-चलन में गिरावट के नए रिकॉर्ड भी बन रहे हैं।
किसी इमारत से किसी संस्था की इज्जत नहीं बढ़ती। अनाथाश्रम या अस्पताल की इमारतें जर्जर हो सकती हैं, लेकिन वे सम्मान का प्रतीक रहती हैं। दूसरी तरफ जुआघर या शराबखाने आलीशान हो सकते हैं, लेकिन वे कलंक ही रहते हैं, उन पर किसी को सम्मान नहीं हो सकता। इसलिए हजारों करोड़ रूपए लगाकर भारतीय संसद की इमारत को आलीशान बनाना, और वहां की परंपराओं को शर्मनाक बनाना, इस पर जाने किसे गर्व हो सकता है। सत्ता और विपक्ष के बीच असहमति एक स्वस्थ लोकतंत्र का सुबूत रहती है, लेकिन जब असहमति बढक़र हिकारत और नफरत में, हिंसा में तब्दील हो जाती है, तो जनता क्या करे? कल की धक्का-मुक्की को लेकर अभी दोनों तरफ की तोहमतें हवा में तैर रही हैं, लेकिन इसी नई आलीशान इमारत के भीतर वह गाली-गलौज याद पड़ती है जो कि सत्तारूढ़ भाजपा के एक सांसद ने बसपा के एक मुस्लिम सांसद को दी थी, तरह-तरह की गंदी साम्प्रदायिक गालियां दी थीं, देश का गद्दार कहा था, और उस पर क्या हुआ, यह याद भी नहीं पड़ता। देश की राजधानी की एक सीट, दक्षिण दिल्ली के भाजपा सांसद रमेश विधुड़ी ने संसद के बाहर के अपने तेवरों की निरंतरता में जिस तरह संसद के भीतर अश्लील और हिंसक, साम्प्रदायिक और राष्ट्रविरोधी जुबान में बसपा के सांसद दानिश अली को गालियां दी थीं, और ऐसी गाली देने वाले के पीछे बैठे बड़े-बड़े नेता जिस अंदाज में हँस रहे थे, वह संसद की नई इमारत पर कालिख पोतने का काम था। अब कल की जिसकी भी जिससे धक्का-मुक्की हुई, उससे यह कालिख कुछ और फैल गई।
यह बात भी कुछ अजीब है कि संसद में जब-जब कुछ जलते-सुलगते मुद्दों पर चर्चा का दौर शुरू होने को रहता है, किसी न किसी तरह का एक असंसदीय बवाल खड़ा हो जाता है, और सदन का पूरा ध्यान उस पर चले जाता है, और जलता-सुलगता मुद्दा हाशिए पर। लोगों को याद होगा कि किस तरह कभी एक चुम्बन-चर्चा शुरू हो जाती है, तो किस तरह कभी एक अरबपति वकील-सांसद की सीट के नीचे 50 हजार रूपए मिलने को लेकर दिन खराब हो जाता है। क्या देश की संसद ऐसे ही निहायत गैरजरूरी और नाजायज विवादों के लिए बनी है? क्या पांच किलो राशन पर जिंदा 80 करोड़ आबादी के साथ अब ऊंची बना दी गई दुकान के इस फीके संसदीय पकवान को इंसाफ कहा जाएगा? ऐसा लगता है कि हम किसी दूसरे ग्रह पर बैठे हुए भारतीय संसद को यह सलाह देते रहते हैं कि एक वक्त यह देश से परे भी पूरी दुनिया के मुद्दों पर चर्चा करती थी, और बहुत से ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय दौर और घटनाएं भारत की राय से प्रभावित रहते थे। आज तो ऐसा लगता है कि किसी मतदान केन्द्र पर दो प्रमुख पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच हो रहा हिंसक टकराव, और उनके बीच चलती गाली-गलौज संसद के भीतर तक पहुंच चुके हैं। क्या ऐसे सांसदों को, और ऐसे सदन को किसी भी विशेषाधिकार का हक होना चाहिए? क्या इसकी अवमानना करने को बाहर के किसी व्यक्ति की जरूरत है? क्या इसके अपने लोग इसकी इतनी अवमानना नहीं कर रहे हैं जितनी कि बाहर के लोगों के लिए मुमकिन भी हो?
संसद की इस नई और ऐतिहासिक खर्चीली, महंगी इमारत के ढांचे के आकार को लेकर कई लोग इसे ताबूत सरीखी बताते हैं। हमें आकार की तो अधिक समझ नहीं है, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्य, संसदीय परंपराएं, और बुनियादी इंसानियत जरूर यहां दफन होते दिख रही हैं। आज सांसद जिस किस्म की खेमेबाजी का शिकार हो चुकी है, उसके प्रति जनता के मन में शायद ही कोई विश्वास बचा हो। और यह भी हो सकता है कि हम ही कुछ अधिक बारीकी से और उम्मीद से इस ऊंची दुकान के फीके पकवानों से मिठास की उम्मीद करते हैं, और हमारी निराशा आम जनता की निराशा से कुछ अधिक है, लेकिन लोकतंत्र को लेकर हमारी जो बुनियादी समझ है, उसमें हम इससे कम कोई उम्मीद रख नहीं सकते, फिर चाहे यह लोकतंत्र हमें, बार-बार, कितनी ही बार, हर बार ही निराश क्यों न करता चले। बाहुबल और बहुमत लोकतंत्र नहीं होता, और अल्पमत लोकतंत्र में कम मायने नहीं रखता। संसद भवन से निकलती लोकतांत्रिक और संसदीय निराशा दिल्ली के धुंध और धुएं के मुकाबले अधिक गहरी है, और अधिक दमघोंटू भी।
हिन्दुस्तान में गरीबों के इलाज के लिए केन्द्र सरकार, और राज्य सरकारों के अलग-अलग कई तरह के कार्यक्रम हैं। इलाज का बीमा इनमें सबसे बड़ा कार्यक्रम है, और हर प्रदेश में हजारों रूपए सालाना इस बीमे के एवज में सरकार अस्पतालों को देती है। चूंकि इलाज के लिए निजी अस्पतालों में जाने की छूट रहती है, इसलिए सरकारी अस्पतालों पर लोगों की निर्भरता कुछ मामलों में घटी है। नतीजा यह भी है कि सरकार खुद अपने अस्पतालों के लिए कुछ या अधिक हद तक लापरवाह हो गई हैं। नई बाजार व्यवस्था के तहत बड़े निजी अस्पताल, और स्वास्थ्य बीमा का चलन बढ़ गया है। लेकिन बीमे की रकम तो सरकारों को ही देनी होती है। और यह सब तो केवल खर्च की बात हुई, असल बात सेहत की है जो कि किसी भी दाम से ऊपर है, और एक बार सेहत अधिक बिगडऩे पर पूरी तरह सुधरती भी नहीं है।
अभी छत्तीसगढ़ के एक छोटे जिले बैकुंठपुर के जिला अस्पताल में राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (चिरायु) के तहत बच्चों की सेहत परखी गई। राजधानी रायपुर से गए हृदय रोग विशेषज्ञों ने बच्चों की जांच की, और प्रारंभिक जांच के बाद 49 बच्चों में से 23 में हृदय रोग के लक्षण पाए गए। और इनमें से 18 बच्चों को दिल की गंभीर बीमारी निकली। अब इनको राजधानी लाकर यहां बड़े अस्पताल में इनका इलाज करवाया जाएगा। यह तो एक बात हुई, अब एक दूसरी खबर गैरसंक्रामक रोगों की जांच, और उनके इलाज के लिए भी सरकार कर रही है, और 30 साल की उम्र के लोगों की हाई बीपी, डायबिटीज, स्तन कैंसर, और गर्भाशय के कैंसर की जांच करने का सरकारी अभियान चलाया जा रहा है। सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने अपने अमले को कहा है कि अस्पताल में किसी भी बीमारी के इलाज के लिए आने वाले इस उम्र के लोगों की ब्लड प्रेशर और डायबिटीज की जांच अनिवार्य रूप से की जाए। लोगों को ध्यान होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही हमने एक कैंसर विशेषज्ञ का साक्षात्कार अपने यूट्यूब चैनल, इंडिया-आजकल, के लिए किया था, और उन्होंने कहा था कि कैंसर विशेषज्ञ तक 80 फीसदी मरीज बहुत देर से आते हैं, और उनके पूरी तरह ठीक होने की संभावना तब तक बहुत घट चुकी रहती है। दूसरी तरफ जल्दी आने वाले मरीजों के पूरी तरह ठीक हो जाने की पूरी-पूरी संभावना रहती है।
हम सरकार के स्तर पर होने वाली जांच को इलाज के खर्च, या बीमे के खर्च से परे और ऊपर मानते हैं। अब देश भर में अधिकतर गरीबों का काफी कुछ इलाज सरकारी योजनाओं में होता है। और ऐसे में अगर समय रहते बीमारी का पता लग जाए, तो उनके ठीक होने, और देश में एक उत्पादक नागरिक की तरह योगदान देने की संभावना बढ़ जाती है। इसलिए एक जिले में ही अगर इतने बच्चे हृदयरोगी मिल रहे हैं, तो पूरे प्रदेश में ऐसे हजारों बच्चों की शिनाख्त हो सकती है जिन्हें दिल के गंभीर इलाज की जरूरत हो। इसी तरह दूसरी बीमारियों का हाल भी देश में खतरनाक स्तर पर पहुंचा हुआ है। डायबिटीज का हाल यह है कि इस देश को दुनिया की डायबिटीज-राजधानी कहा जाता है। अब शहरों से निकलकर यह बीमारी गांव के गरीबों तक पहुंचने लगी है, और बहुत कम उम्र के बच्चे भी डायबिटीज के शिकार मिलने लगे हैं। अगर इसकी शिनाख्त में देर होती है तो यह बहुत जाहिर बात है कि इससे आंखों और किडनी सहित शरीर के दूसरे कई अंगों पर बुरा असर पड़ते रहता है। इसलिए जितनी जल्दी इसकी पहचान हो जाए, इलाज शुरू हो जाए, बीमारी का नुकसान उतनी जल्दी थम सकता है। कुछ इसी तरह का हाल महिलाओं के स्तन कैंसर, और गर्भाशय के कैंसर का है। भारत की आम महिलाएं परिवार की फिक्र में अपने आपको इस हद तक झोंक देती हैं, कि खुद की बीमारी का कोई अहसास होने पर भी उसकी चर्चा नहीं करतीं कि परिवार का ध्यान उनकी तरफ बंटेगा। नतीजा यह होता है कि कैंसर जैसी बीमारी बढक़र जब जानलेवा हो चुकी रहती है, तब जाकर इलाज शुरू होता है, और उस वक्त डॉक्टरों के हाथ में भी करने का बहुत कम रह जाता है।
केन्द्र और राज्य सरकारों के स्वास्थ्य जांच के कार्यक्रम इलाज के मुकाबले कहीं भी कम अहमियत नहीं रखते। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे अलग-अलग शहरों में अलग-अलग संगठनों को जोडक़र उनके बैनरतले जांच के ऐसे कार्यक्रम करवाए ताकि लोगों की जल्द शिनाख्त हो सके। सरकार का अपना ढांचा ऐसे जांच कार्यक्रम के लिए नाकाफी होता है, और महंगा भी पड़ता है। इसमें सामाजिक भागीदारी बड़े पैमाने पर की जा सकती है। अगर जरूरत हो तो एनसीसी और राष्ट्रीय सेवा योजना के छात्रों को भी ऐसे शिविरों से जोड़ा जा सकता है ताकि वे कम उम्र से ही बीमारियों की जांच के प्रति जागरूक भी होते चलें। आज एनएसएस के छात्र-छात्राओं को कहीं पर झाडिय़ां और कचरा साफ करते देखा जा सकता है, इनके मुकाबले स्वास्थ्य जांच शिविर अधिक बड़ा योगदान हो सकते हैं।
सरकार के लोगों को भी लोगों की जागरूकता के लिए अलग-अलग मंचों पर जाकर जांच की जरूरत बखान करनी चाहिए। लोगों को याद होगा कि रोटरी इंटरनेशनल नाम के संगठन ने पूरे हिन्दुस्तान में पोलियो ड्रॉप्स के अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, और देश भर में रोटरी के लाखों सदस्यों ने बच्चों को पोलियो ड्रॉप्स पिलाने में संगठित रूप से सरकार का साथ दिया था। देश भर में भी कुछ ऐसे संगठनों को अलग-अलग बीमारियों की जांच के इंतजाम से जोड़ा जा सकता है। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकार जब तक ऐसा कुछ न करे, तब तक स्वास्थ्य विभाग या जिला प्रशासन के उत्साही लोग भी सेहत की जांच के कैम्प लगा सकते हैं, और जल्द शिनाख्त ही सबसे बड़ा बचाव हो सकती है। यह बात भी समझने की जरूरत है कि समाज में जागरूकता जैसे-जैसे बढ़ेगी, वैसे-वैसे लोग अपने आसपास के दूसरे लोगों को भी जांच के लिए भेजने की कोशिश करेंगे। इसकी शुरूआत अधिक महत्वपूर्ण है, और एक सीमा के बाद लोग खुद होकर जांच के लिए आने लगेंगे।
ब्रिटेन का शाही परिवार एक बार फिर एक विवाद में फंस गया है। वहां के किंग चार्ल्स के छोटे भाई प्रिंस एंड्रयू के एक करीबी चीनी कारोबारी को लेकर अब यह दावा किया जा रहा है कि वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का करीबी था, और वह ब्रिटिश राजमहल में आना-जाना करता था। अब ब्रिटिश सरकार ने इस पर रोक लगाई है, और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए ब्रिटेन आने से रोक दिया गया है। ऐसा कहा जा रहा है कि चीन से अंग्रेजी पढऩे के नाम पर ब्रिटेन आए हुए इस कारोबारी ने चीन के संभावित पूंजीनिवेशकों की ओर से ब्रिटेन के शाही परिवार को प्रभावित करने की कोशिश की होगी। अब अधिक बारीकियों तक जाना जरूरी नहीं है, सिवाय इसके कि अलग-अलग जिस देश में जैसी सत्ता रहती है, उसमें सत्तारूढ़ परिवार के आसपास दुनिया भर के दलाल मंडराते ही हैं, और उनसे बचना कैसे चाहिए?
इसमें अनोखा कुछ भी नहीं है। सत्ता के इर्द-गिर्द दलालों और कारोबारियों के मंडराने का बड़ा पुराना इतिहास है। भारत के भी कई प्रधानमंत्रियों के आसपास इस किस्म के लोगों की चर्चा हमेशा से रहती आई है। आज देश के जो सबसे बड़े कारोबारी घराने हैं, उनमें से कुछ प्रधानमंत्री के स्तर पर देश की आयात-निर्यात नीतियों को प्रभावित करने, और फिर उनसे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की तोहमत आधी सदी पहले भी झेल चुके हैं। एक वक्त सरकार और कारोबार में कम से कम जनता को दिखाने के लिए कुछ फासला रहता था। अब तो दुनिया के अधिकतर देशों में कारोबार ही सरकार पर हावी दिखते हैं, और शायद यह भी एक वजह है कि एक वक्त जो हिन्दुस्तान फिलीस्तीन का दोस्त और मददगार था, उस हिन्दुस्तान में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए ही अपना रूख पूरी तरह इजराइल की तरफ मोड़ दिया था। शायद इसलिए कि इजराइल से भारत की खरबों डॉलर की खरीदी होती थी, और उस वक्त ही इजराइल के निर्यात का आधे से अधिक आयात अकेले भारत में होता था। आज भी अगले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने जिस तरह भारत से लेकर ब्राजील तक, और कनाडा के भी सामानों पर अमरीका में एक अतिरिक्त टैरिफ लगाने की बात कही है, तो उससे भी हो सकता है कि इन देशों के कारोबारियों के कुछ एजेंट ट्रम्प परिवार को प्रभावित करने में लग चुके हों। वहां पर दलाली की जगह लॉबिंग शब्द का इस्तेमाल होता है, और उसे अधिक औपचारिक रूप से, थोड़ी सी अधिक इज्जत के साथ किया जाता है। ट्रम्प परिवार के कई लोग दुनिया के कारोबारियों से संबंध रखने के लिए जाने जाते हैं, और अब तो ट्रम्प के पास एलन मस्क सरीखे कारोबारी सहायक भी हैं, और दुनिया के अलग-अलग देशों के लिए, कारोबारियों के लिए अमरीकी सरकार की नीतियों को तय करने में मस्क सरीखे लोगों की भी भूमिका रहेगी।
आज अमरीका और चीन इन दो ध्रुवों के बीच कुछ या अधिक हद तक खेमों में बंटे हुए देशों को दुनिया भर के देशों में सत्ता के दलालों का भी ख्याल रखना पड़ता है। भारत में एक वक्त प्रधानमंत्री निवास में सत्ता के दलाल प्रधानमंत्री परिवार के एक सदस्य को मोटी रकम देकर पीएम से मुलाकात का इंतजाम करते थे, ऐसी चर्चा रहती थी। राज्यों में भी कई जगहों पर ब्रिटिश राजघराने की तरह के राज्यों के राजभवनों से दलाली और भ्रष्टाचार का सिलसिला चलता रहा है। कई जगहों पर सत्तारूढ़ नेता के परिवार खुलकर राजपाट में दखल और अपनी पहुंच बेचते दिखते हैं। ऐसे सिलसिले रोकने के लिए देश में संवैधानिक संस्थाओं का मजबूत होना जरूरी रहता है। जब सत्ता पर निगरानी रखने के लिए बनी संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र और स्वायत्त रहती हैं, जिन पर मनोनीत लोग महज सत्ता के पसंदीदा नहीं रहते, वहीं पर शासन या संविधान प्रमुख लोगों के कुकर्मों पर निगरानी रखी जा सकती है। और जहां पर ऐसी निगरानी की कुर्सियां चहेतों को दी जाती हैं, वहां पर जांच एजेंसियों से लेकर संवैधानिक संस्थाओं तक का काम संदेह के घेरे में रहता है। आज अमरीका में ट्रम्प अपने एकदम चहेते लोगों को ऐसी तमाम नाजुक कुर्सियों पर बिठाने पर आमादा हैं, और उसका नतीजा एकदम साफ रहेगा। जब रोकने-टोकने वाले तमाम लोगों की जगह पर सिर्फ अपने चापलूस और दरबारी बिठा दिए जाते हैं, तो फिर मुखिया की गलतियों और गलत कामों की कोई सीमा नहीं रह जाती। जब आसपास के तमाम लोग ट्रम्प के यस मैन (वीमेन भी) रहेंगे, तो फिर कार्यकाल के अंत में वे बहुत से कलंक छोडक़र जाएंगे।
हमने ब्रिटिश राजघराने के एक प्रमुख सदस्य तक चीनी घुसपैठिए की शिनाख्त से यह बात शुरू की थी, और उसी पर अगर लौटें तो यह साफ दिखता है कि सरकार या संविधान प्रमुख परिवारों को अपने आपको सत्ता के दलालों से दूर रखना चाहिए। सत्ता तक पहुंच चुके नेताओं के सफल और महान होने के बीच में बहुत बड़ा फर्क रहता है। सत्ता पर काबिज होना एक सफलता रहती है, लेकिन महानता की राह वहां से शुरू भर होती है। हिन्दुस्तान में ही कई ऐसे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री रहे, राष्ट्रपति और राज्यपाल रहे, जो कि किसी भी किस्म के विवाद से पूरी तरह दूर रहे, और उनमें से कोई एक पुरानी कार का कर्ज छोडक़र मरा, तो किसी ने विरासत में एक झोपड़ा की अपने कुनबे को दिया। एक राष्ट्रपति ऐसे भी रहे जिनके शपथ ग्रहण में उनके परिवार के कुछ लोग ट्रेन के साधारण दर्जे में सफर करके पहुंचे, और उसके बाद दुबारा कभी नहीं आए। कुछ ऐसे प्रधानमंत्री भी रहे जिन्होंने किसी भी कारोबारी से अकेले मिलने से मना कर दिया, और वे व्यापारिक प्रतिनिधि मंडलों से ही मिलने को तैयार हुए। अब यह तो अलग-अलग लोगों के अपने मिजाज पर भी निर्भर करता है कि वे नैतिकता को कितना ओढऩा चाहते हैं, या उसे कचरे की टोकरी में डाल देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश में चारों तरफ से अंधविश्वास की खबरें आती हैं कि किस तरह किसी तांत्रिक के कहे लोग किसी बच्चे की बलि दे देते हैं, या टोनही कहते हुए किसी महिला को मार डालते हैं। कुछ जगहों पर जादू-टोने के शक में किसी बुुजुर्ग का भी कत्ल हुआ है। और अब ताजा मामला छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके का है जहां पर 35 बरस के एक गैरआदिवासी आदमी को शादी के 15 बरस बाद बेटा हुआ, और किसी तांत्रिक के चक्कर में मनौती मानने के लिए पांच महीने के बेटे के मुंडन के दिन ही एक जिंदा चूजा निगल लिया, और गले की नली में इसके फंस जाने से वह मर गया। मुंडन के जश्न के लिए घर पर इकट्ठा रिश्तेदारों के बीच उसके अंतिम संस्कार की तैयारियां होती रहीं। जिस बेटे के लिए 15 बरस कोशिश और मनौतियां चलीं, उसके साथ कुल 5 महीने जीना हो पाया। खबरें बताती हैं कि यह आदमी नियमित रूप से किसी तांत्रिक के संपर्क और चक्कर में रहता था। और मनौती भी मानी तो ऐसी भयानक कि जिंदा चूजे को निगल लेने की!
अंधविश्वास को सिर्फ अशिक्षा और आर्थिक पिछड़ेपन से जोडक़र देखना भी गलत होगा। बड़े-बड़े लोग तरह-तरह के धार्मिक और आध्यात्मिक पाखंडों में पड़े रहते हैं, बड़े-बड़े नेता, बड़े-बड़े अफसर जाने कितने किस्म के तांत्रिक अनुष्ठान करवाते हैं। छत्तीसगढ़ में अभी ऐसी ही तंत्र साधना से जुड़े एक तांत्रिक की फरारी चल रही है जिसने राज्य की पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान सत्ता के राजतंत्र को भी तंत्र साधना की तरह चलाया था, और जिसकी पेशाब से उन दिनों सत्ता के गलियारों में चिराग जला करते थे। इसलिए अंधविश्वास के शिकार होने की बात महज अनपढ़ या गरीब लोगों पर लागू नहीं होती, सत्ता और संपन्नता के आसमान पर पहुंचे हुए लोग भी परले दर्जे के अंधविश्वासी रहते हैं। हिन्दुस्तान में अंधविश्वासों का कोई अंत ही नहीं होता, जिन लोगों को दस अंधविश्वासों पर भरोसा होने लगता है, उनके सामने लोग और बीस अंधविश्वास पेश कर देते हैं क्योंकि उन्हें एक बेवकूफ ग्राहक मिल जाता है।
धर्म के नाम पर हिन्दुस्तान में किस-किस किस्म का पाखंड नहीं चलता! अगर कोई व्यक्ति चंगाई सभा के नाम पर किसी बड़ी सभा के मंच पर यह दावा करे कि उसकी प्रार्थना से अंधे देखने लगेंगे, और लंगड़े चलने लगेंगे, लोगों का लकवा ठीक हो जाएगा, तो इस पर भी भरोसा करने वाले दसियों हजार लोग रहते हैं। कोई व्यक्ति यह तरकीब सिखाए कि बेलपत्री पर शहद या चंदन लगाकर उसे शिवलिंग पर चढ़ा दिया जाए, तो बिल्कुल भी पढ़ाई न करने वाला बच्चा भी शर्तिया पास हो जाएगा, और इस पर न सिर्फ अंधभक्तों की भीड़ भरोसा करती है, बल्कि सत्ता के तमाम लोग भी ऐसे प्रवचनकर्ताओं की महिमा बढ़ाने का काम करते हैं, उन्हें स्थापित करते हैं। हिन्दुस्तान में हर सौ-पचास किलोमीटर पर कोई न कोई पाखंडी अंधविश्वास की दुकान चलाते मिल जाते हैं।
कहने के लिए देश में अंधविश्वास फैलाने और चमत्कार दिखाने, गंभीर बीमारियां ठीक करने के दावों के खिलाफ बड़ा कड़ा कानून बना हुआ है। लेकिन फर्जी बाबाओं की शोहरत से वोट दुह लेने की नीयत के चलते सत्ता पर बैठे नेता ऐसे जुर्म पर कोई कार्रवाई नहीं होने देते। नतीजा यह होता है कि आसाराम नाम के पाखंडी संत से लेकर गांव-कस्बे के अघोरी-तांत्रिक होने का दावा करने वाले लोग भी अंधविश्वासी भक्तजनों से बलात्कार करते रहते हैं, और उनके कैद काटने के दौरान भी उनके भक्त उनकी पूजा करते रहते हैं। देश में जनता की वैज्ञानिक चेतना को मिट्टी में मिला दिया गया है। भयानक गर्मी की लू को देखते हुए जब शासन-प्रशासन लोगों को घर से न निकलने की सलाह देते हैं, तब लाखों की भीड़ का दावा करने वाले प्रवचनकर्ताओं को प्रवचन की इजाजत दी जाती है, फिर चाहे उसमें पहुंचे लोगों की मौत ही क्यों न हो जाए। लोग विज्ञान की जुटाई गई सहूलियतों का इस्तेमाल करते हुए धर्म और आध्यात्म के नाम पर किए जा रहे तमाम पाखंड को बढ़ावा देते हैं। प्लेन से लेकर कार तक, और लाउडस्पीकर से लेकर टीवी चैनलों तक, सब कुछ मुहैया तो विज्ञान की वजह से हुआ है, लेकिन वैज्ञानिक समझ को नाली में बहाकर लोग बाबाओं के कहे कहीं किसी का सिर काट रहे हैं, तो कहीं पर जिंदा चूजा निगलकर जान दे रहे हैं।
भारत का संविधान सरकारों और नागरिकों से भी यह उम्मीद करता है कि वे वैज्ञानिक सोच, मानवता, और सवाल व सुधार की भावना का विकास करेंगे। संविधान की धारा 51-ए (एच) इस बात को हर नागरिक का दायित्व मानती है। लेकिन बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोग इसके खिलाफ कामकाज करते हैं। देश में एक बहुत बड़ा तबका धर्म की मान्यताओं को विज्ञान से मिली समझ, और संविधान से दिए गए अधिकारों से ऊपर मानता है। इस बारे में विज्ञान के एक प्रोफेसर तेजल कानिटकर ने कुछ बरस पहले एक लेख में लिखा था कि देश के प्रतिष्ठित लोग अपने बयानों और कामों के जरिए संविधान की बातों का उल्लंघन कर रहे हैं, और यह देश के लिए बहुत नुकसानदेह है। अब हालत यह है कि धर्म और अंधविश्वास के बीच की सीमा रेखा खत्म हो चुकी है। धर्म और धर्मान्धता में कोई बड़ा फर्क नहीं रह गया, धर्मन्धता और साम्प्रदायिकता भाई-भाई हो गए हैं, और नफरत को एक धार्मिक काम मान लिया गया है। जब देश के लोगों की न्याय की समझ को इतना कमजोर कर दिया जाता है, विज्ञान के ऊपर अंधविश्वास को स्थापित कर दिया जाता है, तो फिर लोग 15 बरस की मनौती, या मेहनत से पैदा बच्चे के साथ खेलना छोडक़र, उसे प्यार करना छोडक़र, जिंदा चूजा खाकर मनौती पूरी कर रहे हैं, और मर जा रहे हैं। वैज्ञानिक चेतना लोगों में टुकड़े-टुकड़े में नहीं आ पाती, वह या तो आती है, या नहीं आती है। आज हिन्दुस्तान में जिस अंदाज में अंधविश्वास और कट्टरता को बढ़ाया जा रहा है, लोगों के दिमाग में अपने बच्चों को गोद में खिलाने के मुकाबले चूजा निगलकर जान देने में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।
हिन्द महासागर के एक छोटे टापू मायोट में सदी का सबसे ताकतवर चक्रवाती तूफान टकराया है। कुल सवा तीन लाख आबादी वाले इस टापू पर फ्रांस का कब्जा है, और अभी वहां सैकड़ों लोगों के मारे जाने की आशंका है। फ्रांस सरकार की ओर से कहा गया है कि मौतों की गिनती हजार तक जा सकती है, और हजारों भी हो सकती है। यहां के एक नागरिक ने टेलीफोन पर बताया है कि वहां तबाही का मंजर किसी परमाणु युद्ध के बाद जैसा लग रहा है, और उसके बगल की पूरी बस्ती ही गायब हो गई है। अफ्रीका के करीब का यह टापू कभी ऐसी तबाही से नहीं गुजरा था। लेकिन हम इसी एक घटना को लेकर कुछ लिखना नहीं चाहते, पूरी दुनिया के लिए मौसम की अधिकतम बुरी मार इतनी जल्दी-जल्दी आ रही है, इतनी नई-नई जगहों पर नए किस्म की मार पड़ रही है कि तबाही का कोई अंदाज लगा पाना मुमकिन ही नहीं है।
हम यहां पर प्राकृतिक विपदाओं की बढ़ती भयावहता की लिस्ट गिनाना नहीं चाहते, उसे बड़ी आसानी से तलाशा जा सकता है। लेकिन मौसम के बदलाव के चलते बहुत सी ऐसी जगहों पर सूखा पड़ रहा है जहां बाढ़ आती थी, और जहां पर बाढ़ आती थी, वहां अब सूखा पड़ रहा है। बारिश के महीने बदल जा रहे हैं, और फसलों को पकने का भी वक्त कहीं-कहीं पर नहीं मिल रहा है। तमाम आशंकाओं से अधिक बर्फ गिर रही है, और कई इलाके बर्फबारी में पट जा रहे हैं, कोई देश बाढ़ से तबाह हो जा रहा है, और अफ्रीकी महाद्वीप के बहुत से देशों में पानी की कमी से ऐसा विस्थापन हो रहा है कि पूरा देश ही शरणार्थी की जिंदगी जी रहा है, और उनमें से बड़ी संख्या में लोग मौत के करीब हैं। इन सबके ऊपर फिक्र की बात यह है कि दुनिया के जिन संपन्न देशों की समान और साधन की खपत के चलते धरती पर मौसम का बदलाव हो रहा है, उनके बीच इस बदलाव को धीमा करने, इसके नुकसान की भरपाई करने, और आगे अपनी जीवनशैली को पर्यावरण के मुताबिक ढालने की कोई इच्छा नहीं है। अब एक खतरनाक घटना और हो गई है, अमरीकी राष्ट्रपति पद के लिए डोनल्ड ट्रंप चुन लिया गया है, और वह महज 25 दिन दूर रह गया है काम संभालने के। लोगों को याद होगा कि पिछली बार जब ट्रंप राष्ट्रपति बना था, तो उसने पर्यावरण बचाने और जलवायु परिवर्तन को धीमा करने की तमाम कोशिशों को दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन फ्रॉड कहा था, और जलवायु-समझौते को छोड़ भी दिया था। अब ट्रंप फिर अमरीका को संभालने के साथ-साथ पर्यावरण के लिए विनाशकारी बहुत से विकसित, संपन्न, और पश्चिमी देशों की अगुवाई करने जा रहा है, और उसके चार बरस के कार्यकाल में धरती की किसी बेहतरी की उम्मीद करना मुश्किल होगा।
जलवायु परिवर्तन से बहुत से लोग अपने आपको सुरक्षित मानकर चलते हैं क्योंकि उन्हें उनकी संपन्नता की वजह से इस बात का भरोसा है कि धरती पर किसी सहूलियत के आखिरी दौर में भी वे सरकारी खर्च से, या अपनी गोरी या बुरी कमाई से उसे अपने लिए तो जुटा ही लेंगे। इसलिए उन्हें इस बात की फिक्र नहीं है कि धरती के ध्रुवों पर बर्फ किस रफ्तार से पिघल रही है, समंदर का पानी कितना ऊंचा जा रहा है, कितने शहर या देश अगले कुछ दशकों में डूबने वाले हैं, कहां पर सूखे की वजह से फसल खत्म होने वाली है, कहां पर बाढ़ की वजह से शहर खत्म हो रहे हैं, और कहां-कहां तूफान तबाही ला रहे हैं। अपनी खुद की सहूलियत की अगले कुछ दशकों की गारंटी लोगों को जिम्मेदार बनने ही नहीं दे रही है, और ऐसे लोग अपने देश के साथ-साथ दुनिया को बचाने के भी जिम्मेदार हैं। ऐसे में दुनिया के कमजोर देश, और उनके कमजोर लोग उम्मीद भी क्या कर सकते हैं? संपन्न का पैदा किया गया प्रदूषण विपन्न पर कहर बनकर टूटे पड़ रहा है, और विपन्न के हाथ उसे झेलने के अलावा और कुछ भी नहीं है।
दुनिया के लोगों को अपनी खपत की हवस को काबू में रखने के लिए कहना आसान इसलिए भी नहीं है कि बाजार इस हवस को कोंच-कोंचकर आगे बढ़ाते चलने में लगे रहता है। और चूंकि दुनिया की बहुत सी सरकारें अब कारोबार के हाथों काबू में हैं, सरकार के लोग कारोबार के पैसों से सत्ता में आते हैं, कारोबार के अघोषित भागीदार रहते हैं, और देश की कमाई के आंकड़ों को अधिक दिखाने में कारोबार काम भी आते हैं, इसलिए सरकारों की नीतियां कारोबार को बढ़ाने की रहती हैं, और इसका मतलब खपत बढ़ाना भी रहता है। कहीं डीजल-पेट्रोल की खपत बढ़ाना, कहीं बिजली, तो कहीं खनिजों से बनने वाले सामान की खपत बढ़ावा। और यह सब कुछ धरती पर कार्बन बढ़ाए बिना, प्रदूषण बढ़ाए बिना मुमकिन नहीं होता, एक जगह की खपत दूसरी जगह के लिए कहर में तब्दील हो जाती है। जिन गरीब देशों में पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के कोई काम नहीं हैं, वहां भी मौसम की ऐसी बुरी मार पड़ रही है कि क्या पूछें।
दिक्कत यह है कि धरती एक है, उसकी जलवायु मिलीजुली और साझा सामान है, लेकिन जलवायु को बर्बाद करने का हक धरती पर नक्शों की सरहदों में बंटा हुआ है। और सबसे ताकतवर के हाथों सबसे अधिक तबाही हो रही है। ताकतवर देशों में सरकारों को बनाने और बिगाडऩे का काम कारोबार करते हैं, और पर्यावरण उनकी लागत में कहीं जगह नहीं पाता। यह सिलसिला इतना खतरनाक होते चल रहा है कि भारत में सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार की आपसी सहमति से जो नदी जोड़ परियोजना चल रही है, उसके बारे में भी एक आशंका खड़ी होती है कि आज जिन इलाकों से अधिक बाढ़ के पानी को देश के जिन सूखे इलाकों की नदियों में ले जाने के लिए देश का सबसे बड़ी लागत का प्रोजेक्ट चलाया जा रहा है, उसका क्या इस्तेमाल रह जाएगा, अगर आज के बाढ़ वाले इलाके कल सूखे हो जाएंगे, और आज के सूखे इलाकों में कल बाढ़ आने लगेगी? मौसम का बदलाव किसी भी भविष्यवाणी से परे हो रहा है, और मौसम विज्ञानी भी तबाही के कुछ दिन पहले ही खतरे की सूचना दे पाते हैं, कई मामलों में महज कुछ घंटे पहले। ऐसे में कुदरत का कोड़ा तो पडऩा ही पडऩा है, संपन्न देश अपनी बीमा व्यवस्था की वजह से, और सरकार की आर्थिक ताकत की वजह से इसके बाद भी जिंदा रह लेंगे, लेकिन गरीब देशों की तो मौत है। दिक्कत यह है कि कहीं चार, और कहीं पांच बरस के लिए चुनी जाने वाली सरकारों के सामने जब अगली आधी-एक सदी की परवाह करने की चुनौती रहती है, तो वह बहुत आकर्षक चुनावी समीकरण नहीं रहती। आम जनता की जागरूकता कोशिश करके कमजोर और नीची रखी जाती है ताकि वह जिंदगी के असल मुद्दों को समझ न ले। और यह भी एक वजह है कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण, और मौसम की मार जैसी बातों से अधिकतर दुनिया के तकरीबन तमाम आम लोग नावाकिफ और बेफिक्र रहते हैं। ऐसे में न सिर्फ तूफान से तबाही वाले इलाकों में बिजली चौपट हो जाने से अंधेरा है, बल्कि धरती का भविष्य ही अंधकारमय है। कम से कम नई पीढ़ी को पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाना जरूरी है, क्योंकि उसके सामने पहाड़ सी बाकी जिंदगी बाकी है, आज के नेताओं, और कारोबारियों की अधेड़ और बूढ़ी हो चली पीढ़ी को तो आधी सदी बाद के खतरे दिखने की कोई गुंजाइश है नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल ने अभी यह फैसला लिया है कि 15 जनवरी से 15 फरवरी तक रायपुर में एक ऑटो एक्सपो लगेगा, और उसमें बिकने वाले तमाम वाहनों को 15 बरस के लिए लगने वाले रजिस्ट्रेशन शुल्क में 50 फीसदी की छूट दी जाएगी। यह आरटीओ टैक्स छोटा नहीं होता है, और प्रदेश में जितनी गाडिय़ां बिकती हैं, उनके मुताबिक इसकी रकम बहुत बड़ी होती है। हमारे सामने आरटीओ के आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 23-24 में नई दुपहिया गाडिय़ों की संख्या साढ़े 4 लाख से अधिक रही, और इनसे सरकार को 365 करोड़ से अधिक आरटीओ टैक्स मिला। इसी दौर में चारपहिया गाडिय़ों की संख्या 60 हजार के करीब रही, और इनसे 629 करोड़ रूपए से अधिक आरटीओ टैक्स मिला। मतलब यह कि दुपहिया संख्या में 8 गुना से अधिक थे, लेकिन उनसे टैक्स चौपहियों के मुकाबले आधे के करीब मिला।
आज हमारा मकसद सरकार की कमाई के आंकड़े गिनाना नहीं है, बल्कि जनता को मिलने वाली रियायत को तर्कसंगत बनाने पर चर्चा है। प्रदेश में अधिकतर दुपहिए एक-दो लाख दाम के भीतर ही रहते हैं, और कारें पांच लाख से लेकर एक-दो करोड़ तक की रहती हैं। अब अगर इन सबको रोड टैक्स में आधी छूट मिल रही है, तो इसका मतलब एक करोड़ की गाड़ी पर भी तीन फीसदी की छूट, और एक लाख की स्कूटर या मोपेड पर भी तीन फीसदी की छूट। जबकि दुपहिया सडक़ों पर कम जगह घेरते हैं, प्रदूषण कम फैलाते हैं, पार्किंग की जगह कम मांगते हैं, और आमतौर पर मध्यम वर्ग और उसके ऊपर-नीचे के लोग ही इसका इस्तेमाल करते हैं। दूसरी तरफ कारों का इस्तेमाल मध्यम वर्ग के ऊपर शुरू होता है, जो कि अतिसंपन्न तबके तक चले जाता है। एक-दो करोड़ की कारों पर मोपेड की अनुपात में ही रियायत न तर्कसंगत है, न न्यायसंगत है। कायदे से तो इन दो किस्मों की गाडिय़ों के लिए ईंधन का दाम भी अलग-अलग होना चाहिए, लेकिन उसे लागू करना आसान नहीं होगा। दूसरी तरफ रोड टैक्स को लागू करना तो बड़ा ही आसान है। हमारा ख्याल है कि रोड टैक्स को दुपहियों पर अधिक घटाना चाहिए, और महंगी होती जाती कारों पर यह कटौती कम होनी चाहिए। लाख रूपए से लेकर करोड़ रूपए तक के वाहनों पर उनके दाम पर अनुपात में ही छूट मिलनी चाहिए, कम दाम को अधिक छूट, और अधिक दाम को कम। सरकार अपनी सालाना कमाई में जितना भी घाटा झेलने को तैयार है, उसे उस रकम को इसी फॉर्मूले के तहत बांटना चाहिए। अब कोई यह कहे कि कूलर पर जितना टैक्स लगता है, उतना ही टैक्स एसी पर भी लगना चाहिए, तो यह तर्क सही नहीं होगा। राज्य सरकार को गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों के दुपहियों को अधिक छूट देनी चाहिए, और एक सीमा के ऊपर की कारों को कोई भी छूट नहीं देनी चाहिए। एक सीमा के बाद कारें सुविधा की नहीं, ऐशोआराम की चीज बन जाती हैं, और किसी रियायत का हक खो बैठती हैं।