संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’का संपादकीय : फिजूलखर्ची और हरामखोरी बढ़ाने की केजरीचाल...
31-Dec-2024 6:36 PM
‘छत्तीसगढ़’का संपादकीय : फिजूलखर्ची और हरामखोरी बढ़ाने की केजरीचाल...

दिल्ली में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के पहले एक बार फिर रेवड़ी, लॉलीपॉप दिखाने का काम शुरू हो गया है। पिछले सीएम और अब जमानत पर छूटे हुए, आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने एक पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना की घोषणा की है, और हर पुजारी और गुरूद्वारा ग्रंथी को 18 हजार रूपए महीने दिए जाएंगे, अगर आम आदमी पार्टी की सरकार फिर आएगी। केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि पुजारी एक ऐसा तबका है जिसमें पीढ़ी-दर-पीढ़ी कर्मकांड को आगे बढ़ाया है, और कभी अपने परिवार पर ध्यान नहीं दिया, और हमने कभी उन पर ध्यान नहीं दिया। केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस में दावा किया कि ऐसी योजना देश में पहली बार लागू होगी। इससे पहले वे महिलाओं और बुजुर्गों के बारे में कुछ अलग योजनाओं की चुनावी घोषणा कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि दिल्ली (प्रदेश) के हर मंदिर और गुरूद्वारों में पुजारियों और ग्रंथियों का पंजीयन किया जाएगा।

दिल्ली में केजरीवाल के विरोधियों ने याद दिलाया है कि आम आदमी पार्टी की सरकार दस बरस से मस्जिदों के इमामों को हर महीने 18 हजार रूपए देते आई है, और अगर पुजारी-ग्रंथी को बराबरी का हक देना है, तो फिर इमामों की तरह इतने बरसों का एरियर्स भी पुजारी-ग्रंथी को मिलना चाहिए। लेकिन कुछ दूसरे लोगों ने यह याद दिलाया है कि मौलवियों-इमामों को तनख्वाह पहले कांग्रेस और भाजपा की सरकारें भी देती आई हैं। खुद इमाम सडक़ों पर उतरे हुए हैं कि आम आदमी पार्टी की सरकार ने तीन बरस से उन्हें यह तनख्वाह नहीं दी है, और जब उन्हें पहले से मिलती आ रही तनख्वाह नहीं दी जा रही है, तो पुजारी-ग्रंथी को यह कहां से मिल जाएगी?

ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट फ्रीबीज या रेवड़ी के मामले में वहां चल रहे एक जनहित मामले की सुनवाई को भूल ही गया है। कुछ बरस हो चुके हैं, इस जनहित याचिका पर सुनवाई चल ही रही है, और सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग से लेकर केन्द्र, राज्य सरकारों को, और राजनीतिक दलों को नोटिस भेज चुका है। यह नोटिस गए भी लंबा वक्त हो गया है, और राजनीतिक दल और सरकारें चला रहीं पार्टियां उसके बाद के चुनावों में घोषणाएं करने में लगी हुई हैं। कोई राजनीतिक दल चुनावी तोहफे बांटने की सामंती प्रथा को छोडऩा नहीं चाहते, जबकि 16 जनवरी 2022 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक जनसभा में कहा था कि मुफ्त रेवड़ी बांटकर वोट पाने की कोशिशें की जा रही हैं, और यह रेवड़ी संस्कृति देश के विकास के लिए बहुत खतरनाक है। इसके बाद मोदी की पार्टी से जुड़े हुए एक वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने जनवरी 2022 में जनहित याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई किसी किनारे पहुंची नहीं है। बल्कि अगस्त 2022 में आम आदमी पार्टी ने इस जनहित याचिका के खिलाफ एक पीटीशन लगाई थी, और कहा था कि जनता को पानी, बिजली, या सार्वजनिक परिवहन, जैसी सहूलियतें मुफ्त में उपलब्ध कराना रेवड़ी नहीं है। अदालत के जोर देने पर चुनाव आयोग ने अप्रैल 2022 में जवाब दाखिल करके कहा कि वह चुनाव अभियानों में फ्रीबीज के वायदों को नियंत्रित करना नहीं चाहता। आयोग का कहना था कि यह एक नीतिगत निर्णय रहता है, और राजनीतिक दलों पर चुनाव आयोग का किसी भी तरह का रोक-टोक करना जरूरत से अधिक प्रतिक्रिया रहेगा। चुनाव आयोग का कहना था कि यह मतदाताओं को ही तय करना चाहिए कि किस पार्टी के कौन से वायदे कितने व्यवहारिक और मुमकिन है। अगस्त 2022 में तीन जजों की बेंच ने एक विशेषज्ञ कमेटी बनाने का सुझाव दिया जो कि रेवड़ी-संस्कृति कहे जाने वाले इन तौर-तरीकों का अध्ययन करे। अभी तक यह मामला निपटारे के कहीं आसपास भी नहीं है।

हम बुनियादी सहूलियतों की बातों पर तो नहीं जाते, क्योंकि कोई भी पार्टी या सरकार गंभीरता से भी यह मान सकती है कि बिजली, पानी, और मेट्रो-बस जैसी सुविधाएं जरूरतमंद तबकों को मुफ्त मिलनी चाहिए। लेकिन केजरीवाल ने अभी जो नया डोरा डाला है, वह कुछ अधिक ही है। मंदिरों के पुजारी, और गुरूद्वारों के ग्रंथी न तो गरीब रहते हैं, और न ही भूखे। आज तक किसी भी धर्मस्थल से ऐसी मांग भी नहीं आई कि सरकार से उन्हें वेतन-भत्ता मिले। इनके मुकाबले मस्जिदों के इमाम कुछ गरीब हो सकते हैं, क्योंकि मुस्लिमों में गरीबी अधिक है, लेकिन वे भी भूखे मरते हों, ऐसा नहीं लगता। धर्मस्थल कोई बुनियादी जरूरत नहीं है, और वहां पर किसी पुजारी को पूरे वक्त कोई काम नहीं करना पड़ता। इन्हें आस्थावानों की ओर से कुछ न कुछ मिलते भी रहता है। धर्म को मानने वाले लोग इनका ख्याल रखते हैं। और ये लोग आमतौर पर मंदिर या गुरूद्वारे में ही कहीं रह लेते हैं, और मर्जी से धर्म का काम करते हैं, कमाई करते हैं, और अपना परिवार चलाते हैं। केजरीवाल का यह कहना कि इनकी तरफ कभी ध्यान नहीं दिया गया, निहायत बकवास बात है। धर्मस्थलों पर सरकार को किसी तरह का खर्च नहीं करना चाहिए, और अगर कोई धर्म इतना गरीब है कि उसे सरकारी मदद की जरूरत है, तो पहले तो उसे मानने वाले लोगों से पूछना चाहिए कि वे अपने उपासना स्थलों को क्यों नहीं चला पा रहे हैं? अधिकांश धर्मस्थल सरकारी और सार्वजनिक जमीनों पर कब्जा करके बनते हैं, या कि दानदाताओं की दी हुई मुफ्त की जमीनों पर। इनमें से सभी जगहों पर दानपेटियां रखी रहती हैं, और जितने भक्त वहां पहुंचते हैं, उनके मुताबिक वहां कमाई भी होती है। इसके अलावा धर्मस्थल अपने सामने और आसपास, सडक़ किनारे, और सार्वजनिक जगहों पर कई किस्म की पूजा सामग्री की बिक्री का कारोबार भी करते हैं, त्यौहारों पर उनकी अतिरिक्त कमाई होती है, और लोग नई गाडिय़ां खरीदने पर भी मंदिर जाकर पुजारी से पूजा करवाते हैं, और उन्हें कुछ सौ रूपए देते हैं। लोग अपनी खास पारिवारिक तिथियों पर भी मंदिर जाकर वहां चढ़ावा देते हैं। इन सबके चलते हुए किसी पुजारी के भूखे रहने की कोई नौबत नहीं रहती, और इन्हें वेतन या भत्ता देना धार्मिक कामकाज में गरीब जनता के पैसे की फिजूलखर्ची के अलावा कुछ नहीं होगा। कोई भी गुरूद्वारा इतना गरीब नहीं रहता कि वह अपने ग्रंथी की देखभाल न कर सके। इसलिए केजरीवाल का यह नया शिगूफा वोटों के लिए किया जा रहा एक पाखंडी नाटक है, और इससे देश में फिजूलखर्ची और हरामखोरी की एक नई संस्कृति पैदा होगी, और पहले से चली आ रही ऐसी संस्कृति आगे बढ़ेगी। यह सिलसिला बिल्कुल नहीं चलना चाहिए, क्योंकि यह चुनाव में धर्म का इस्तेमाल भी है। एक तरफ तो चुनाव आयोग चुनाव प्रचार में धर्म के इस्तेमाल के खिलाफ बात करते आया है, और दूसरी तरफ यह नया शिगूफा उसके ठीक खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी धीमी रफ्तार को छोडक़र इस मामले की सुनवाई करना चाहिए, और देश में अगर कोई धर्मनिरपेक्ष संगठन अदालत तक जाने की ताकत रखते हैं, तो उन्हें भी केजरीवाल की इस घोषणा के खिलाफ हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंचना चाहिए। हमारा तो यह मानना है कि धार्मिक संगठनों को खुद होकर सामने आना चाहिए, और राजनीति के केजरीवालों से कहना चाहिए कि उन्हें इस तरह के टुकड़ों की जरूरत नहीं है, और धर्मालु जनता अपने धर्मस्थलों पर काम करने वाले इमामों, पुजारियों और ग्रंथियों का ख्याल रखने में पर्याप्त सक्षम हैं।

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