संपादकीय

छत्तीसगढ़ के बहुचर्चित शराब घोटाले में अब आखिरी में जाकर ईडी ने पिछली भूपेश सरकार के आबकारी मंत्री रहे कवासी लखमा और उनके करीबी लोगों पर छापे मारे। दो हजार करोड़ से अधिक का शराब घोटाला बताते हुए ईडी ने मामला अदालत में पेश कर दिया है, और इस मामले में गिरफ्तार कई दिग्गजों को जमानत भी नहीं मिल रही है। इनमें अखिल भारतीय सेवाओं के कुछ ऐसे चर्चित अफसर भी हैं जिनके भ्रष्ट और गुनहगार होने पर उनके मां-बाप को भी कोई शक नहीं था, यह अलग बात है कि अब भी तमाम पकड़ाए और घेरे गए लोग अपने को मासूम बता रहे हैं। कवासी लखमा ने अपने खुद के, बेटे, और सहयोगियों के ठिकानों पर पड़े छापों पर कहा कि वे बेकसूर हैं, और उन्हें आबकारी विभाग हांकने वाले अफसर अरूणपति त्रिपाठी जहां कहते थे, वहां वे दस्तखत कर देते थे। यह बात जगजाहिर है कि कवासी लखमा की कभी बचपन में मामूली प्रायमरी स्कूल पढ़ाई हुई होगी, लेकिन वे लिखना-पढऩा नहीं जानते, और दस्तखत करना भर जानते हैं। उनके आसपास उठने-बैठने वाले लोग भी यह बात बताते हैं कि त्रिपाठी जब फाइलों पर दस्तखत करवाने जाते थे, तो वे जहां-जहां कहते थे, वहां-वहां कवासी लखमा दस्तखत कर देते थे। यह एक अलग बात है कि कुछ देखने वालों का यह भी कहना है कि कवासी लखमा फाइलों की संख्या गिनना जानते थे, और साथ में टेबिल पर रखे गए उतनी ही संख्या के लिफाफों को भी गिन लेते थे। यह जो भी इंतजाम था, पूरी सरकार की जानकारी में था, और ऐसा कोई दूसरा मंत्री हमें अविभाजित मध्यप्रदेश से अब तक याद नहीं पड़ता जिसके विभाग के बारे में पूछे गए जवाब स्थाई रूप से एक दूसरा मंत्री देता था। तकरीबन तमाम वक्त भूपेश के एक विश्वस्त मंत्री रहे मो.अकबर ही विधानसभा में कवासी लखमा के विभागों की तरफ से जवाब देते थे। आबकारी जैसा विभाग जिससे राज्य सरकार की हर बरस की सबसे अधिक कमाई जुड़ी हुई है, उसे एक तकरीबन अनपढ़ मंत्री को देकर मुख्यमंत्री और कांग्रेस पार्टी ने कौन सी नीयत दिखाई थी, इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्किल भी नहीं है। ईडी अदालत में यह कहा भी है कि मुख्यमंत्री के करीबी, और रायपुर के मेयर के बड़े भाई अनवर ढेबर ही छत्तीसगढ़ के आबकारी मंत्री की तरह काम करते थे। प्रदेश के शराब कारखाने वाले भी इस बात को कसम खाकर बताते हैं कि ढेबर ही शराब का पूरा कारोबार चलाता था, और अब जब छापा पड़ रहा है, तो एक अनपढ़ मंत्री भी इसकी लपेट में आ रहा है। ईडी ने 21 सौ करोड़ रूपए से अधिक का शराब घोटाला स्थापित करने के सुबूत अदालत में लगाए हैं, और यह कहा है कि कवासी लखमा को हर महीने 50 लाख रूपए दिए जाते थे। यह कैसा भयानक मजाक है कि पांच बार के विधायक रहे एक बहुत ही लोकप्रिय आदिवासी नेता के दस्तखत को 50 लाख रूपए महीने के किराए पर ले लिया गया था, और अखिल भारतीय सेवाओं का अफसर त्रिपाठी मनचाही फाइलों पर दस्तखत कराते रहता था। अब ढेबर और त्रिपाठी सरीखे तमाम लोग जेल में हैं, और कवासी लखमा ईडी के छापे के बाद ईडी के दफ्तर में बैठे हैं।
किसी आदिवासी नेता की समझ पर कोई शक नहीं किया जा सकता लेकिन उसकी पढऩे-लिखने की क्षमता अगर बहुत सीमित है तो उसे सरकारी या संवैधानिक फाइलों की जिम्मेदारी देने वाले लोगों से सवाल तो बनते हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, और कांग्रेस पार्टी के उस वक्त के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को ये तमाम बातें अच्छी तरह मालूम थीं, और उसके बाद भी ऐसा खतरनाक विभाग अगर एक सीधे-सरल आदिवासी नेता के कंधे पर बंदूक की तरह रखकर चलाया जा रहा था, तो पूरी की पूरी पार्टी इसके लिए जिम्मेदार है, उस वक्त के मुख्यमंत्री तो जिम्मेदार हैं ही। हमको यह भी लगता है कि क्या मंत्रिमंडल को शपथ दिलाने वाले राज्यपाल किसी व्यक्ति की क्षमता को लेकर यह सवाल नहीं कर सकते थे, या कि जब विधानसभा में यह मंत्री कोई भी जवाब नहीं दे पा रहा था, और लगातार दूसरा मंत्री ही जवाब दे रहा था, तो फिर आबकारी मंत्री अपने पद और गोपनीयता की शपथ को कैसे पूरा कर रहा था? ये बुनियादी सवाल पांच बरस की कांग्रेस सरकार के दौरान ईडी और आईटी के तमाम छापों के बावजूद, तमाम मामले-मुकदमों के बावजूद कभी कांग्रेस पार्टी ने नहीं पूछे। छत्तीसगढ़ में भूपेश सरकार किसी क्षेत्रीय पार्टी की सरकार नहीं थी कि मानो ममता बैनर्जी या हेमंत सोरेन, चन्द्राबाबू नायडू से कौन सवाल पूछ सकते हैं? चाहे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के लिए एटीएम ही क्यों न रहा हो, पार्टी अपनी नैतिक जिम्मेदारी से, और मुख्यमंत्री अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते। आज अगर कवासी लखमा भ्रष्टाचार के मामले में, और दारू के एक असाधारण, अद्वितीय काले कारोबार में फंसे दिख रहे हैं, तो एक आदिवासी को ऐसी मुसीबत में डालने की जवाबदेही औरों की भी आनी चाहिए। यह बात हर कोई अच्छी तरह जानते थे कि त्रिपाठी और अनवर ढेबर जैसे लोग जहां चाहे वहां कवासी लखमा का अंगूठा लगवा लेते थे, और उन्होंने जिस बड़े पैमाने पर दारू का संगठित अवैध साम्राज्य खड़ा किया, उसके बारे में सुनते हैं कि इटली से कुछ माफिया डॉन भी अपने बच्चों को ट्रेनिंग लेने भेज रहे हैं।
सार्वजनिक रूप से इस पर बहस होनी चाहिए कि कम पढ़े-लिखे, कम जानकार, या कवासी लखमा की तरह के लगभग अनपढ़ लोगों के कंधे पर जुर्म की बंदूक रखकर चलाना क्या जायज है? यह बात इसलिए भी अधिक चर्चा के लायक है कि आने वाली किसी सरकार में हो सकता है कि फिर किसी अनपढ़ नेता को इसी तरह ठेके पर रखा जाए, और जेल जाने के वक्त उसे जेल भेजा जाए। आदिवासी समाज के साथ ऐसा बर्ताव ठीक नहीं है। कवासी लखमा को आबकारी जैसे विभाग का मंत्री बनाना आदिवासी समाज का सम्मान नहीं था, बल्कि आदिवासी को खतरे और बदनामी में डालने का काम तो यह शर्तिया था। कवासी लखमा से अदालत यह सवाल जरूर कर सकती है कि वे जब पढ़-लिख नहीं सकते थे तो फाइलों पर दस्तखत क्यों करते थे, लेकिन कोई मंत्री अपने मुख्यमंत्री और अपनी पार्टी पर इतना भरोसा तो रखेंगे ही कि वे उन्हें गड्ढे मेें नहीं डालेंगे। फिलहाल कवासी लखमा गहरे गड्ढे में गिराए गए हैं, और इस देश में हमने मंत्री रहे हुए कुछ लोगों को कैद काटते भी देखा है, अदालती फैसला चाहे जो हो, जनता की अदालत में कांग्रेस सरकार और भूपेश बघेल को कवासी लखमा मामले पर जवाब देना चाहिए।