संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सीजेआई के सामने चुनौती, देश का चरित्र बखान करें..
28-Dec-2024 1:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सीजेआई के सामने चुनौती, देश का चरित्र बखान करें..

मध्यप्रदेश में जबलपुर के एक हिन्दू वकील, एडवोकेट ओ.पी.यादव ने हाईकोर्ट में एक याचिका लगाकर प्रदेश के पुलिस थानों में मंदिरों के निर्माण को चुनौती दी थी, और कहा था कि ऐसे मंदिर बनाना सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के ठीक खिलाफ है जिसमें सार्वजनिक जगहों पर धार्मिक निर्माण को रोका गया है। हाईकोर्ट ने इस याचिका पर पूरे प्रदेश के थानों में मंदिर बनाना रोक दिया था। यह फैसला अभी-अभी का है, और इस आदेश से कुछ खलबली इसलिए मची हुई है कि प्रदेश में 20 बरस से तकरीबन पूरे ही वक्त भाजपा का राज है, और पुलिस थानों में सिर्फ हिन्दू मंदिर बनाने की परंपरा है, और किसी धर्म का निर्माण किसी थाने में हुआ हो ऐसा कभी सुनाई भी नहीं पड़ा है। अब इस मामले के बाद एक दूसरा मामला यह आ गया है कि एमपी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत ने अपने सरकारी आवास में स्थित हनुमान मंदिर को हटवा दिया है। इस पर वहां के वकीलों के संगठन ने देश के मुख्य न्यायाधीश को लिखकर शिकायत की है और कहा है कि मुख्य न्यायाधीश के बंगले के इस मंदिर में एमपी हाईकोर्ट के पिछले कई न्यायाधीश पूजा-अर्चना करते आए हैं, और इस बंगले पर काम करने वाले कर्मचारियों को भी पूजा के लिए दूर जाकर कीमती समय बर्बाद नहीं करना पड़ता, इसलिए यह मंदिर जीवन को सुखी, शांतिपूर्ण, और सुंदर बनाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। चिट्ठी में कहा गया कि अब तक मुस्लिम जजों ने भी कभी इस पर आपत्ति नहीं जताई थी इसलिए इसे इस तरह से हटाना सनातन धर्म का अपमान है। वकीलों ने इसे जस्टिस कैत के बौद्ध होने से जोड़ा है, और कहा है कि वह भी एक कारण हो सकता है। वकीलों ने पुलिस थानों वाली याचिका की सुनवाई से जस्टिस कैत को अलग करने की अपील भी की है।

सुप्रीम कोर्ट ने बरसों पहले एक महत्वपूर्ण फैसले में यह कहा था कि सार्वजनिक जगहों पर किसी तरह के धार्मिक निर्माण नहीं होने चाहिए। अदालत ने इसके लिए जिले के अफसरों को जिम्मेदार भी ठहराया था कि ऐसा कोई भी निर्माण होने पर कलेक्टर-एसपी जिम्मेदार रहेंगे। बरसों पुराने इस आदेश के बाद अभी एक अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने फिर एक फैसले में यह कहा है कि सडक़ों और रेल पटरियों के किनारे के धार्मिक निर्माण, चाहे वो मंदिर हों, या दरगाह, उन्हें हटाना चाहिए क्योंकि जनता की सुरक्षा के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता। अदालत ने कहा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, और यह अदालती आदेश किसी भी धर्म से भेदभाव के बिना बराबरी से अमल में लाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा आदेश सुप्रीम कोर्ट के ही बरसों पुराने फैसले से अलग है, और इन दोनों में कोई टकराव भी नहीं है। सार्वजनिक जगह का मतलब हर सरकारी जगह से होता है चाहे वह कोई सरकारी बंगला हो, या पुलिस थाना।

मध्यप्रदेश के मुख्य न्यायाधीश ने सरकारी बंगले में चली आ रही पुरानी खराब परंपरा को तोडक़र एक हौसलामंद रूख दिखाया है, और हम उसकी तारीफ करते हैं। सरकारी बंगले, दफ्तर, इमारतें, सार्वजनिक जगहें, और सार्वजनिक गाडिय़ां, इन सबका पूरा चरित्र धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। इनमें रहने या चलने वाले लोग अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं के, या नास्तिक हो सकते हैं, लेकिन किसी को अपने धार्मिक प्रतीकों को सार्वजनिक या शासकीय सम्पत्ति पर लादना नहीं चाहिए। जो लोग सरकारी या संवैधानिक ओहदों पर काबिज रहते हैं, उन्हें तो इसलिए भी अधिक सावधान रहना चाहिए कि वे हर तरह के धर्म को मानने वाली जनता के बीच काम करते हैं, और उनकी कोई निजी पसंद या नापसंद उनके सरकारी या अदालती फैसलों में नहीं झलकना चाहिए। हम तो एक आदर्श स्थिति इस बात को मानते कि सरकारी और संवैधानिक, संसदीय, और दूसरे जनसेवक ओहदों पर बैठे लोग अपने कार्यकाल में अपने को धर्म के सार्वजनिक प्रदर्शनों से दूर रखते, लेकिन आज के वक्त में ऐसी उम्मीद करना भगत सिंह के वक्त की क्रांति की उम्मीद करने सरीखा हो जाएगा। लेकिन एमपी के मुख्य न्यायाधीश ने जो रूख दिखाया है, वह पूरी तरह कानूनसम्मत है, और इसे एक नजीर बनना चाहिए। भारत के मुख्य न्यायाधीश के सामने भी यह एक अच्छी चुनौती है कि देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को साफ-साफ बखान करने का मौका उन्हें मिला है, और उन्हें देश में बढ़ते हुए धार्मिक उन्माद पर रोक लगाने का काम भी करना चाहिए। एक बौद्ध जज अगर बंगले से हिन्दू मंदिर हटाकर कोई बौद्ध मंदिर बनवा देते, तो वह उतना ही गलत काम होता, लेकिन जस्टिस कैत ने ऐसा तो कुछ किया नहीं है।

इसी मध्यप्रदेश में लोगों को याद होगा कि जब उमा भारती मुख्यमंत्री बनी थीं, तो अपने परंपरागत भगवा धार्मिक कपड़ों के अलावा उन्होंने मुख्यमंत्री की सरकारी मेज पर भी एक प्रतिमा और पूजा सामग्री के साथ एक मंदिर सा बनवा लिया था। अब ऐसे मुख्यमंत्री के सामने किसी दूसरे धर्म के लोग किस भरोसे के साथ किसी धार्मिक विवाद के मामले लेकर पहुंच सकते थे? तमाम लोकसेवकों को पानी की तरह रहना चाहिए कि उन्हें जिस चीज में मिलाया जाए, वे अपना कोई स्वाद जोड़े बिना घुल-मिल जाएं। देश ने अपना धर्मनिरपेक्ष चरित्र बहुसंख्यकवाद में पूरी तरह खो दिया है, और अब तो हाईकोर्ट के एक मौजूदा जज ने मुस्लिमों को गंदी गालियां बकते हुए बहुसंख्यकवाद की मर्जी से देश चलने का सार्वजनिक दावा भी किया है। अभी अगले कुछ वक्त के लिए देश में लोकतंत्र बाकी है, और भारत को एक धार्मिक राष्ट्र होने में थोड़ा सा वक्त बचा है। उत्साही जजों और वकीलों को, देश के बाकी उत्साही धर्मान्ध या साम्प्रदायिक लोगों को भी थोड़ा सा सब्र करना चाहिए जब तक कि यह राष्ट्र हिन्दू राष्ट्र घोषित न हो जाए। जिस रफ्तार और अंदाज से देश इस मंजिल की तरफ बढ़ रहा है, यह इंतजार बहुत लंबा नहीं रहेगा, और उतने वक्त के लिए सरकारी बंगलों, और सरकारी पुलिस थानों में, सडक़ों के किनारे, और रेल पटरियों की चौड़ाई में, बगीचों और तालाब किनारे मंदिर और दूसरे धार्मिक निर्माण बनाना रोक रखना चाहिए। एक बार जब देश के नाम से धर्म निरपेक्ष शब्द हट जाएगा, और संशोधित संविधान में भारत हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा, तब सभी जज भी अपनी टेबिलों पर हिन्दू प्रतिमाएं सजाकर बैठ सकेंगे, ताकि उनसे वे बीच-बीच में फैसलों के लिए तो प्रेरणा ले ही सकें, वकील से क्या सवाल करने हैं, इसकी प्रेरणा भी वे देवी-देवताओं से ले सकें। ऐसे काम में कोई जज अगर आड़े आएं, तो उनकी नींव खुदवाकर भी कुछ कंकाल निकाले जा सकते हैं।

इस देश ने अपने नागरिकों में जिस रफ्तार से धर्मनिरपेक्षता को एक गाली की तरह स्थापित कर दिया है, वह देखने लायक है। सेक्युलर शब्द को जिस तरह सिकुलर (सिक, यानी बीमार) से बदल दिया गया है, वह एक गजब का सनातनी भाषा शास्त्र है। बीते कुछ बरसों में ही इस देश ने यह भी साबित किया है कि हजारों बरस का सभ्यता का विकास, और पौन सदी का लोकतंत्र का विकास लोगों की समझ में बस चमड़ी जितनी मोटी सतह के ठीक नीचे था, जिसे जरा सा खुजाकर या नोंचकर हटाया जा सकता है, हटाया जा रहा है। अभी तो हालत यह है कि आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने देश में साम्प्रदायिक सद्भाव को लेकर, उसके पक्ष में, मंदिर-मस्जिद पर एक बयान दिया, तो आरएसएस के ही मुखपत्र में मानो उसके खिलाफ एक लेख लिखा गया है। सद्भाव की बातें करने पर क्या भागवत को उनके ही घर में किनारे किया जा रहा है? हम ऐसी तस्वीर को बहुत स्वाभाविक नहीं मान रहे, लेकिन सतह पर फिलहाल ऐसा ही कुछ दिख रहा है। देश की सभ्यता के बदन पर चर्बी ऐंठ रही है, देखना है कि वह कहां पर छंटती है, और कहां पर चढ़ती है। हिन्दुस्तानियों के बहुसंख्यक तबके के कुछ लोगों ने जिस तरह धर्मनिरपेक्षता को एक नाजायज औलाद करार दिया है, वह देखना भी तकलीफदेह तो है ही, इतिहास लेखन के हिसाब से वह बहुत दिलचस्प भी है।

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