संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लंबे वक्त बाद नक्सलियों को मिला वार का मौका, पुलिस का बड़ा नुकसान
07-Jan-2025 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : लंबे वक्त बाद नक्सलियों  को मिला वार का मौका, पुलिस का बड़ा नुकसान

छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक बड़े नक्सल हमले में सडक़ पर लगाए गए विस्फोटक से पुलिस की गाड़ी उड़ा दी गई, और 8 जवानों के साथ एक गैरपुलिस ड्राइवर की जान चली गई। सुरक्षाबलों की ऐसी शहादत करीब दो बरस बाद हुई है, उसकी एक वजह शायद यह भी है कि इस बीच विधानसभा और लोकसभा चुनावों के चलते महीनों तक बस्तर में बाहर से भेजे गए अतिरिक्त सुरक्षा कर्मचारियों की तैनाती थी, और चौकसी भी अधिक थी। एक तरफ तो पिछले 12 महीनों में छत्तीसगढ़ की भाजपा की विष्णुदेव साय सरकार ने लगातार नक्सल मोर्चे पर अभूतपूर्व और असाधारण कामयाबी पाई है, और 287 नक्सली एक कैलेंडर वर्ष 2024 में ही मारे गए, जिनमें से कुछ के आम आदिवासी ग्रामीण होने के आरोप भी लगे थे, लेकिन उनकी गिनती हाथ की उंगलियों से अधिक नहीं थी। इस एक बरस में नक्सल हिंसा से घिरे बस्तर में मानवाधिकार हनन के मामले भी बीते बरसों के मुकाबले बहुत कम हुए थे। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इस सरकार ने अपने पहले बरस में ही पिछली कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार के आखिरी बरस के 20 नक्सलियों को मारने की संख्या से 12-14 गुना अधिक का एक रिकॉर्ड भी बनाया। लेकिन नए साल के पहले हफ्ते में ही पुलिस का यह एक बड़ा नुकसान हुआ है जब सडक़ पर लगाए गए किसी बहुत बड़े विस्फोटक से पुलिस गाड़ी को उड़ाया गया, उसके चिथड़े उड़ गए, और टुकड़े-टुकड़े दूर-दूर तक पेड़ों पर टंगे हुए मिले।

इसे सुरक्षाबलों की बहुत बड़ी शिकस्त की तरह नहीं देखना चाहिए, बल्कि एक बड़े नुकसान की तरह देखना चाहिए। जिस तरह 50-60 हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी बस्तर के नक्सल मोर्चे पर तैनात हैं, और उनके 10 फीसदी से भी कम नक्सली वहां लगातार नुकसान झेल रहे हैं, वह कुल मिलाकर तो सुरक्षाबलों की कामयाबी का एक बड़ा रिकॉर्ड है। लेकिन हथियारबंद टकराव और फौजी कार्रवाई के किसी भी इलाके में अलग-अलग वक्त पर इस तरह का कोई अकेला हमला दूसरे खेमे की कई जिंदगियां ले सकता है। जब तक हथियारबंद संघर्ष जारी रहता है तब तक दोनों तरफ की वर्दियों की जिंदगियों की कोई गारंटी नहीं रहती है। प्रदेश की भाजपा सरकार के गृहमंत्री विजय शर्मा ने साल भर पहले से जिस जोर-शोर से नक्सलियों से बातचीत की घोषणा की थी, वह शुरू होने की कोई सुगबुगाहट भी नहीं दिख रही है। ऐसे में बस्तर में जिंदगियां हमेशा ही खतरे में बनी रहेंगी। यह जरूर है कि पिछले एक साल में लगातार बढ़ी हुई सुरक्षाबलों की मौजूदगी, और उनके कामयाब ऑपरेशनों के चलते नक्सली बहुत कमजोर हुए हैं, उनके बहुत से लोग मारे गए हैं, लेकिन इसके लिए जितनी बड़ी संख्या में सुरक्षा कर्मचारियों की तैनाती करनी पड़ी है, उस पर जो दानवाकार खर्च हमेशा से होते आया है, उन सबको देखते हुए, और कल का जिंदगियों का यह नुकसान देखते हुए एक बार फिर लगता है कि गोलियों के अलावा बातचीत की कोशिश भी करनी चाहिए। यह तो ठीक है कि सुरक्षा कर्मचारी सरकार के हुक्म पर कितने भी खतरे उठाने के लिए तैयार या मजबूर रहते हैं, लेकिन इन खतरों को किसी तरह से अगर कम किया जा सके, तो उसकी कोशिश भी कम अहमियत नहीं रखती है। पिछले एक साल में अगर बातचीत शुरू होकर किसी भी कामयाबी तक पहुंचती, तो इंसानी जिंदगी का बहुत बड़ा नुकसान टल सकता था। नक्सली भी इसी देश के नागरिक हैं, और अगर उन्हें समझाकर हिंसा से दूर किया जा सकता, तो दोनों तरफ की करीब तीन सौ जिंदगियां बच सकती थीं। लोकतंत्र में ऐसे बागियों, विद्रोहियों, या उग्रवादियों, आतंकवादियों को भी कानून के तहत जीने को तैयार करना लोकतांत्रिक ताकतों की कामयाबी भी होती है, और जिम्मेदारी भी होती है। हथियारबंद समूह तो लोकतंत्र पर भरोसा करते नहीं हैं, इसलिए वे लोकतंत्र से परे रहते हैं, उनसे संविधान पर भरोसे की उम्मीद नहीं की जा सकती, उन्हें इसके लिए सहमत जरूर कराया जा सकता है, और पूरी दुनिया में हथियारबंद उग्रवाद से निपटने में बिना बातचीत कामयाबी मिली भी नहीं है। खुद हिन्दुस्तान में पंजाब से लेकर उत्तर-पूर्वी प्रदेशों तक बहुत सी ऐसी मिसालें हैं कि बातचीत से सशस्त्र संघर्ष खत्म हुए हैं, और कल के उग्रवादी आज लोकतांत्रिक चुनावों की मूलधारा में आकर कानून के तहत काम कर रहे हैं, मुख्यमंत्री बन रहे हैं।

दरअसल देश-प्रदेश की राजधानियों में बसे हुए शहरी लोगों को अक्सर ऐसा लगता है कि गोली का जवाब गोली होना चाहिए। लेकिन ऐसा जवाब देते हुए बेकसूर सुरक्षाकर्मियों की शहादत भी होती है। यह मानकर चलना ठीक नहीं है कि राज्य पुलिस या केन्द्रीय सुरक्षाबलों में जो लोग नौकरी पर आते हैं, उन्हें जान और शहादत देने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। ऐसे नुकसान को हमेशा एक आखिरी और तकलीफदेह विकल्प की तरह मानना चाहिए, और उससे बचने की हर कोशिश करनी चाहिए। बातचीत का महत्व हम इसलिए भी अधिक आंकते हैं कि बंदूकों की कार्रवाई के शहरी और राजधानीनिवासी लोगों की अपनी जिंदगी इन जंगलों में दांव पर नहीं लगी रहती है। नक्सलियों की तरह के जो लोग भारत के संविधान के खिलाफ बंदूक का राज चाहते हैं, उन्हें बंदूक से जवाब देना तो ठीक है, लेकिन वह लोकतंत्र की सबसे अच्छी किस्म की कामयाबी नहीं है।

बस्तर का कल का नक्सल हमला यही साबित करता है कि एक बरस में उनका नुकसान चाहे जितना हो गया हो, वे गिनती में चाहे कितने ही कम क्यों न रह गए हों, सुरक्षाबल चाहे कितने ही बढ़ क्यों न गए हों, जब तक नक्सल हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं होती है, सुरक्षा कर्मचारियों और बस्तर के आम नागरिकों पर ऐसा खतरा बने ही रहेगा। सरकार कानूनसम्मत जो भी कार्रवाई करे वह तो ठीक है, लेकिन बातचीत के महत्व को पूरी तरह भुला देना ठीक नहीं है। यह भी हो सकता है कि बातचीत की सलाह को कई लोग एक अर्बन-नक्सल सलाह मान लें, लेकिन उसी गलतफहमी को दूर करने के लिए हम याद दिलाना चाहेंगे कि अभी साल भर के भीतर ही प्रदेश के गृहमंत्री ने बार-बार बातचीत पर जोर दिया था, और यह तक कहा था कि उनसे वीडियो कॉल करके भी नक्सली शांतिवार्ता कर सकते हैं। सरकार को ऐसी बातचीत का कोई रास्ता निकालना चाहिए, प्रदेश के भीतर या बाहर कुछ ऐसे मध्यस्थ हो सकते हैं जो कि नक्सलियों को बातचीत के लिए सहमत कर सकें। प्रदेश और देश से नक्सलियों को खत्म करने के लिए उन सबकी लाशें गिराने से बेहतर रास्ता उन्हें हिंसा और बंदूक छोडऩे के लिए तैयार करने का होगा। जब तक वे रहेंगे, बीच-बीच में अगर इसी तरह के हमलों में कई जिंदगियां चली जाएंगी, तो इससे राजधानियों का तो नुकसान नहीं होगा, देश-प्रदेश के अलग-अलग गांव-कस्बों में बसे हुए उन दुखी परिवारों का बहुत बड़ा नुकसान होगा। ऐसे परिवारों की तकलीफ देखकर सरकार को शांतिवार्ता की अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी भी पूरी करनी चाहिए, ताकि जिंदगियां बचाई जा सकें। हम कल की घटना के पीछे सुरक्षाबलों की किसी चूक या लापरवाही की बात करना नहीं चाहते, लड़ाई के मैदान में कभी न कभी ऐसी चूक होती है, और कभी न कभी कमजोर पक्ष को भी वार करने का मौका मिल जाता है। इससे सबक जरूर लिया जा सकता है, लेकिन हिंसा पूरी तरह से खत्म तो राजधानियों में बातचीत की टेबिलों पर ही होगी।

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