संपादकीय

आंध्र के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू ने कुछ समय पहले कही अपनी बात फिर दोहराई है कि दो से कम बच्चों वाले मां-बाप को स्थानीय संस्थाओं के चुनाव लडऩे न मिले। वे पिछले कुछ समय से लगातार यह तर्क दे रहे हैं कि दक्षिण भारत के राज्य अपनी आबादी लगातार खो रहे हैं, और लोग बच्चे पैदा करने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। आज भी आंध्र की आबादी बढऩा रूक गया है, और घटना शुरू हो गया है। भारत बहुत से अलग-अलग देशों का एक संघ सरीखा है जिसमें कुछ राज्यों की आबादी अभी भी बहुत बढ़ रही है, और कुछ राज्यों की बढऩा थम गई है। दिलचस्प बात यह है कि 1994 में अविभाजित आंध्र के मुख्यमंत्री की हैसियत से चन्द्राबाबू नायडू ने ही आबादी घटाने के लिए एक अलग नीति बनाई थी। अभी नायडू ने अपनी 1994 की एक नीति को बदला है जब वे आंध्र के मुख्यमंत्री थे, और उन्होंने पंचायत-म्युनिसिपल चुनावों में दो से अधिक बच्चों वालों के चुनाव लडऩे पर रोक लगा दी थी। 1990 का दशक कुछ उसी किस्म का था, और भारत सरकार की राष्ट्रीय विकास समिति की एक कमेटी ने उस वक्त यह सिफारिश की थी कि पंचायतों से लेकर केन्द्र सरकार की नौकरियों तक, तमाम सरकारी ओहदों पर दो या दो से कम बच्चों की सीमा लगानी चाहिए, और एक-एक करके देश के बहुत से राज्यों ने इसे लागू भी कर दिया था जिनमें मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भी शामिल थे। बाद के बरसों में कुछ राज्यों ने इस शर्त को ढीला किया था, वरना इसके चलते पंच-सरपंच के निर्वाचित पद खत्म हुए जा रहे थे, अगर उन्हें तीसरा बच्चा होता था तो। इसे लेकर कई किस्म के पारिवारिक और सामाजिक तनाव भी हो रहे थे। अब चन्द्राबाबू नायडू ने 30 बरस बाद अपनी ही इस पुरानी नीति को खत्म किया है, तो इसके पीछे उनकी कही गई वजहों से परे भी कुछ दूसरी वजहें हो सकती हैं।
चन्द्राबाबू नायडू ने अभी कहा है कि आंध्र की आबादी बूढ़ी होती जा रही है, जवान कामकाजी लोग प्रदेश और देश छोडक़र बाहर चले जा रहे हैं। यह बात बहुत हद तक सही है, और आंध्र के साथ-साथ यह दक्षिण के अन्य राज्यों पर भी लागू होती है। आज दुनिया भर में हिन्दुस्तान से गए हुए जितने भी लोग जहां बसे हैं, उनमें दक्षिण भारतीय लोगों की बहुतायत है। इसके अलावा बहुत किस्म के तकनीकी कामों के लिए हिन्दुस्तान में देश भर में इंजीनियर और टेक्नीशियन दक्षिण भारत से आए हुए मिलते हैं। इस वजह से भी वहां की आबादी कम हो रही है, और अधिक शिक्षित और जागरूक लोग कम बच्चों का बेहतर भविष्य बनाने में अधिक भरोसा रखते हैं। उत्तर भारत और हिन्दीभाषी राज्य इसके ठीक उल्टे चलते हैं, वहां पर कम लोगों को ही भविष्य और वर्तमान की अधिक फिक्र है, वहां से बहुत कम कामगार बाहर के पढ़े-लिखे और टेक्निकल कामों के लिए जाते हैं। उत्तर भारत से अधिक से अधिक मजदूर ही दूसरे प्रदेशों में जाते हैं जो कि राज्य की अर्थव्यवस्था में कुछ अधिक जोडऩे की हालत में नहीं रहते। इसलिए अगर आंध्र में कामकाजी आबादी बाहर चली जा रही है, बुजुर्गों की देखभाल करने को लोग कम हैं, तो नायडू का तर्क सही है।
हमारा यह भी मानना है कि जो राज्य अपने नागरिकों पर सरकारी लागत से अधिक कमाई उन लोगों की दीगर कमाई से करता है, उसे अपनी आबादी बढ़ाने का एक नैतिक अधिकार रहता है। भारत में कुछ राज्य अपने लोगों को अनुदान देकर जिंदा रखते हैं, और कुछ दूसरे राज्य अपने लोगों की कमाई से स्थानीय अर्थव्यवस्था को विकसित होते देखते हैं, और उनसे टैक्स भी पाते हैं। इसलिए नायडू के प्रदेश में बढ़ती आबादी उन पर बोझ न होकर उनके लिए दुधारू गाय, या फलदार वृक्ष जैसी हो सकती है, जिसे बढ़ाने में उनकी दिलचस्पी हो। यह किसी सरकार की कामयाबी या नाकामी रहती है कि उसके लोग कितने उत्पादक बन पाते हैं। यह लोगों की अपनी खुद की परख का पैमाना नहीं रहता, यह सरकार की दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता, और उसकी योजनाओं का सुबूत रहता है। दुनिया के कई देश आज सबसे अधिक विकसित होने के बाद भी आबादी लगातार खोते जा रहे हैं क्योंकि वहां लोग कमाने में ऐसे डूबे कि उन्होंने परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी को बोझ की तरह पाया। ऐसे देशों की मिसाल देकर नायडू ने कहा है कि अगर प्रति जोड़े 2.1 से कम बच्चे होते हैं, तो वहां की आबादी गिरती चली जाना तय है। और दक्षिण कोरिया, जापान, इटली, जैसे बहुत से देश आज इस खतरे में घिर गए हैं।
आबादी के साथ एक बड़ी बात यह भी रहती है कि इसे लेकर जो नीतियां बनाई जाती हैं, उसका पहले तो समाज पर असर पडऩा शुरू होने में एक-दो पीढ़ी का वक्त लगता है, और फिर जब असर पडऩा शुरू होता है, तो लडख़ड़ाए कदमों को संभलने में फिर एक-दो पीढ़ी लग जाती है। इसलिए आबादी में फेरबदल बिजली की बटन दबाने की रफ्तार से नहीं हो पाता। किसी भी देश या प्रदेश को ऐसी नीतियां बनाने के पहले बहुत दूर की सोचनी चाहिए, वरना एक बच्चे की नीति पर चलते हुए चीन की आज लाख कोशिश के बावजूद लोग दो बच्चों पर भी नहीं आ पा रहे हैं, और अभी लगातार तीसरे साल उसकी आबादी में गिरावट दर्ज हुई है।
एक और बात को ध्यान में रखने की जरूरत है कि जब कभी आबादी को दो बच्चों तक सीमित रखा जाता है, तो आज भी गर्भ परीक्षण के कई गैरकानूनी तरीकों की वजह से पहले-दूसरे बच्चे के बेटे होने की संभावना अधिक रहती है, और पहले बच्चे के बेटी होने की नौबत कुछ कम आती है। इसकी वजह से भी समाज में लड़कियों का अनुपात गिर रहा था, अभी भी गिर रहा है। और कुछ विशेषज्ञों का यह मानना है कि जब कभी जनसंख्या की नीतियां अधिक कड़ाई से लागू की जाती हैं, और दो बच्चों का नियम बनाया जाता है, तो लोग जांच की अपनी तरकीबें निकाल लेते हैं, और ऐसे बच्चों में लड़कियों का अनुपात कम रहता है। फिर भी हम आंध्र सीएम की बात को उसी राज्य के लिए ठीक मानते हैं क्योंकि वहां पर लोगों के पास रोजगार है, ऐसा हुनर पाने का जरिया है कि वे दुनिया भर में जाकर काम कर रहे हैं। आज अमरीका में कोई छोटा सा शहर भी ऐसा नहीं होगा जिसमें कोई तेलुगु न बसे हुए हों। लेकिन बाकी देश जहां पर अधिकतर आबादी खेत और खदान मजदूर है, जहां पर सरकार का जनता पर खर्च अधिक होता है, और जनता से उतनी उत्पादकता नहीं मिलती है, उन प्रदेशों को आबादी बढ़ाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए, और कोई सोच भी नहीं रहे हैं।
अब आखिरी में एक मुद्दा रह जाता है जिसकी वजह से भी चन्द्राबाबू नायडू या दक्षिण के कुछ दूसरे नेता अधिक आबादी के हिमायती हैं। देश में जनगणना के बाद संसदीय और विधानसभा सीटों का डीलिमिटेशन होना है। विधानसभा सीटों से तो प्रदेश को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर लोकसभा की सीटें आबादी के अनुपात में कम रह जाएंगी, तो दक्षिण भारत से सांसद घटेंगे, और देश की सरकार और संसद में दक्षिण की आवाज कमजोर होगी। इसलिए भी दक्षिण के नेता अब इस फिक्र में हैं कि देश की जनसंख्या नीति के मुताबिक आबादी को काबू में रखना उनके लिए आत्मघाती साबित हो रहा है, और संसद में उनकी गिनती घटने का खतरा आ खड़ा हुआ है। इसलिए नायडू की इस नई सोच के बहुत से अलग-अलग आयाम हैं, और देश के तमाम सोचने वाले लोगों को इन पहलुओं पर बात करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)