राजपथ - जनपथ
हार और सन्नाटा
हमेशा से भाजपा का चुनाव-कार्यक्रम प्रबंधन बाकी दलों से काफी बेहतर रही है। मगर छत्तीसगढ़ में सत्ता से बेदखल होने के बाद हर मामले में कमी दिखाई दे रही है। लोकसभा चुनाव में तो खराब चुनाव प्रबंधन के बाद भी मोदी के नाम पर जीत हासिल हो गई, लेकिन म्युनिसिपल और पंचायत चुनाव में तो बुरा हाल रहा है। म्युनिसिपल चुनाव में बुरी हार से भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा। पंचायत चुनाव में स्थिति और बुरी होने जा रही है। जो भाजपा चुनाव को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील और सक्रिय रही है, वहां पर्यवेक्षकों की सूची जनपद चुनाव के दो दिन पहले जारी की गई।
सुनते हैं कि पर्यवेक्षक अपने प्रभार वाले जिले की बैठक ले पाते, इससे पहले ही कांग्रेस के लोगों ने ज्यादातर जिलों के जनपदों में नवनिर्वाचित सदस्यों को अपने पाले में कर लिया था। ऐसे में पर्यवेक्षकों के लिए ज्यादा कुछ करने के लिए नहीं रह गया है। यही हाल जिला पंचायतों का भी हो गया है। बस्तर-जशपुर और कवर्धा को छोड़ दें, तो ज्यादातर जिलों में कांग्रेस का कब्जा होना तय है। भाजपा का एक बड़ा खेमा इसके लिए हाईकमान को जिम्मेदार ठहरा रहा है।
नाराज भाजपा नेताओं का तर्क है कि हाईकमान प्रदेश अध्यक्ष को लेकर अब तक स्थिति साफ नहीं कर पाया है। हाल यह है कि संगठन की गतिविधियां सिमटकर रह गई हैं। मौजूदा अध्यक्ष विक्रम उसेंडी सिर्फ अपने गृह जिले कांकेर तक ही सीमित रह गए हैं। वहां भी कई स्थानीय नेता उसेंडी के खिलाफ खड़े हो गए हैं। ऐसे में चुनाव पर ध्यान दे पाना मुश्किल हैं। फिलहाल पार्टी कार्यकर्ता खामोश हैं और नए अध्यक्ष की नियुक्ति का इंतजार कर रहे हैं। फिर भी कार्यकर्ताओं की खामोशी का असर चुनाव में तो पड़ता ही है। ([email protected])