राजपथ - जनपथ
विधायक क्या चीज है?
रायपुर के बड़े जमीन कारोबारी बसंत अग्रवाल का एक वीडियो वायरल हो रहा है। जिसमें वो खुले तौर पर ये कह रहे हैं कि विधायक भी उनके आगे कही नहीं लगते हैं। बसंत भाजपा से जुड़े हैं, और रायपुर जिले में सबसे ज्यादा 15 हजार सदस्य बनवाए हैं।
वो धार्मिक आयोजनों को लेकर सुर्खियों में रहे हैं। उन्होंने गुढिय़ारी में पंडित प्रदीप मिश्रा के शिवमहापुराण कथा का आयोजन कराया था जिसमें लाखों की संख्या में जुटे थे। इसी तरह कृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर दही हांडी प्रतियोगिता का आयोजन कराया था जिसमें सीएम, और अन्य विशिष्ट लोग मौजूद थे।
बसंत अग्रवाल, बागेश्वर धाम के महाराज धीरेन्द्र शास्त्री का कार्यक्रम कराने जा रहे हैं। इस मौके पर वो प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कह रहे हैं कि बिना भगवा चोला पहने बसंत अग्रवाल धर्म का वो काम कर रहे हैं, जो कोई और नहीं कर रहा है। विधायक भी उनके सामने कहीं नहीं लगते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि बसंत अग्रवाल की स्थानीय विधायक राजेश मूणत से छत्तीस का आंकड़ा है। वो धार्मिक आयोजनों के बहाने मूणत को चुनौती देते नजर आते हैं। बसंत अपने कारोबारी विवाद को लेकर चर्चा में रहे हैं। उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत भी हुई थी। उनके परिजनों की कंपनी के अवैध प्लाटिंग पर जिला प्रशासन ने सख्ती से कार्रवाई की थी। एक गिराई गई कॉलोनी का तो नाम ही बसंत विहार है। अब मूणत का नाम लिए बिना जिस अंदाज में चुनौती दी है उससे भाजपा और मूणत समर्थकों में नाराजगी देखी जा रही है। अब पार्टी क्या करती है यह देखना है।
एक चुनाव प्रचार जारी
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संसद से लेकर पंचायत तक के चुनावों की तडक़ भडक़ का असर जन संगठनों के चुनावों पर भी देखा जाता है। मतदाताओं को रिझाने और वोट के लिए बार होटलों में वीकेंड पार्टी आम हो चले हैं। ऐसे माहौल में मंत्रालय कर्मचारी संघ के चुनाव बिना किसी खर्च पानी के होने जा रहे हैं। पूछो तो कहते हैं चार वर्ष डीए का एरियर्स नहीं मिला, नए वेतन आयोग का पता नहीं, इंक्रीमेंट लगा नहीं..नहाएं क्या, निचोड़े क्या?
ऐसी हालत में महानदी भवन के गेट पर रोजाना सभी 27 प्रत्याशी हाथ जोड़े खड़े हो कर और वाट्सएप पर मैसेज कर वोट मांग रहे हैं। तो कुछ प्रत्याशी अपने चुनाव चिन्ह हाथों में लिए घूमते देखे जा सकते हैं। मंत्रालय की पुराने शहर के मीडिया से दूरी की वजह से भी चुनाव में वो हाइप नहीं बन पाया है और दो दिन बाद मतदान के साथ नतीजे भी घोषित कर दिए जाएंगे। बहरहाल इन त्रिवार्षिक चुनाव में घमासान प्रचार अभियान जारी है। सभी पदों पर बहुकोणीय मुकाबला है। कुछ प्रत्याशी अपनी उपलब्धियों का पांपलेट बांट रहे हैं तो नए लोग वादे कर रहे हैं।
इस चुनाव में तीन पैनल हमर संगवारी, नव जागृत और समाधान पैनल और एक स्वतंत्र पैनल से नए पुराने प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इस चुनाव के लिए 772 मतदाताओं में से 193 वोट 4 प्रत्याशी में से जिस किसी ने भी पाया वो अध्यक्ष होगा।
मध्यप्रदेश से फिर बाघ लाने की तैयारी मगर...

ताजा सर्वे के मुताबिक छत्तीसगढ़ में बाघों की संख्या 2022 में 17 थी, जो अप्रैल 2025 में बढक़र 35 तक पहुंच गई है। इनमें सबसे अधिक 18 बाघ अब बिलासपुर के अचानकमार टाइगर रिजर्व (एटीआर) में हैं। यानी बाघों के लिहाज से अचानकमार एकाएक समृद्ध हो गया है। हालांकि पर्यटक अक्सर निराश होते हैं कि भ्रमण के दौरान उन्हें बाघ दिखाई नहीं देते। कई लोग सवाल उठाते हैं कि क्या सचमुच यहां इतने बाघ मौजूद हैं? मगर मानक तकनीक से की गई गिनती पर संदेह नहीं किया जा सकता। प्रकृति प्रेमियों का दावा है कि यहां की गिनती में वे बाघ भी शामिल हो जाते हैं, जो मध्यप्रदेश के कान्हा या बांधवगढ़ से कुछ दिनों के लिए यहां आते हैं और फिर लौट जाते हैं। ऐसे दो-चार मामले बीते वर्षों में सामने भी आए हैं। आंकड़ों के अनुसार तमोर पिंगला में 7, इंद्रावती में 6, भोरमदेव में 3 और उदंती-सीतानदी में केवल 1 बाघ है।
अरसे बाद बाघों को लेकर आई इस अच्छी ख़बर के बाद वन अफसरों ने हाल ही में पत्राचार शुरू किया है कि बांधवगढ़ से 3 और कान्हा से 3 बाघ मिल जाएं। इन्हें उदंती-सीतानदी और गुरु घासीदास टाइगर रिज़र्व-तमोर पिंगला में शिफ्ट किया जाए। इसके लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार से पहल की है और साथ ही नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) से भी परामर्श लिया है। उद्देश्य यह है कि तीन सालों में दोगुनी हुई संख्या अब कम न हो और कम से कम स्थिर तो बनी रहे। लेकिन इसके लिए देहरादून स्थित वाइल्डलाइफ़ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया का मूल्यांकन आवश्यक है, जिसके बिना यह स्थानांतरण संभव नहीं होगा।
सवाल यह है कि जब दो जोड़ी बाघ लाने की तीन-चार साल से कोशिश हो रही है और अब तक धरातल पर नहीं उतरी, तो नए प्रस्ताव पर अमल कब होगा? अगर पीछे देखें तो राज्य वन्यजीव बोर्ड की योजना थी कि प्रोजेक्ट बघवा के तहत मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ को दो बाघ और दो बाघिन मिलें, जिनमें से एक जोड़े को अचानकमार अभयारण्य में छोड़ा जाना था। यह प्रस्ताव कांग्रेस सरकार के समय आया था, लेकिन अब तक लागू नहीं हुआ। हालांकि, अचानकमार में मध्यप्रदेश की सीमाओं से बाघों का स्वाभाविक आना जारी है।

एटीआर में वर्षों से यहां गाँवों के विस्थापन की प्रक्रिया अधूरी है क्योंकि बजट आवंटन नहीं हुआ। यहां बड़े पैमाने पर अवैध दैहान मौजूद हैं, जिन्हें हटाने की कार्रवाई नहीं हो रही। गांवों और दैहानों को हटाने का विरोध राजनीतिक स्तर पर भी है। घास के मैदानों की कमी के कारण शिकार योग्य जानवर कम हैं और यही वजह है कि बाघों के लिए भोजन की उपलब्धता चुनौती बनी हुई है।
पर्यावरण प्रेमियों का मानना है कि बाघों की संख्या बढऩे के बाद वन विभाग के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वे मौजूदा बाघों की वंशवृद्धि के लिए आवश्यक संसाधन बढ़ाएं। मध्यप्रदेश से नए बाघ लाने से पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मौजूदा बाघों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर और संसाधन विकसित हों। हकीकत क्या है, इसे लेकर- बारनवापारा का उदाहरण दिया जाता है, जहां महीनों तक एक नर बाघ बाघिन की तलाश में भटकता रहा और बाद में कसडोल क्षेत्र में भटकता रहा।
सरहद के दोनों तरफ के रिश्ते

बस्तर के बाद जशपुर में भी होम स्टे की शुरुआत हुई है। पांच गांवों में देश विदेश के पर्यटक स्थानीय आदिवासी परंपराओं से रूबरू हो पाएंगे। जशपुर में सीएम विष्णुदेव साय ने होम स्टे की शुरुआत के मौके पर मंचासीन झारखंड के पूर्व सीएम अर्जुन मुंडा की तारीफ की, और याद दिलाया कि किस तरह मुंडा जी ने केन्द्रीय मंत्री रहते कंवर आदिवासियों से जुड़ी समस्याओं को सुलझाया था।
साय ने बताया कि वो कंवर समाज से आते हैं। उनकी माता झारखंड की रहवासी हंै। छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे झारखंड के 18-20 गांवों में कंवर समाज के लोग रहते हैं। झारखंड में कंवर समाज को आदिवासी नहीं माना जाता था। जिसके कारण झारखंड के कंवर समाज के लोगों को आरक्षण और अन्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिल रहा था। साय ने बताया कि एनडीए की वाजपेयी सरकार में अर्जुन मुंडा जी आदिम जाति विकास मंत्री थे। मैंने उनके सामने झारखंड के कंवर आदिवासियों की दिक्कतों का जिक्र किया।
मुंडा ने चार महीने समय मांगा, और फिर समय सीमा के भीतर कंवर समाज को आदिवासी होने मान्यता दिलवाई। साय की बात सुनकर मंच पर अर्जुन मुंडा जी मंद-मंद मुस्कुराते दिखे।


