संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने कल सोमवार को पहले महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाली यौन हिंसा के मामले में अदालतों की संवेदनशून्यता पर फिक्र जाहिर करते हुए कहा कि वह सभी अदालतों के लिए संवेदनशीलता की गाइड लाइन तैयार करने जा रहा है। यह मामला एक महिला अधिकार संगठन की तरफ से अलग-अलग हाईकोर्ट जजों द्वारा की गई आपत्तिजनक टिप्पणियों के खिलाफ दायर किया गया है। मामले की सुनवाई में जजों द्वारा यह भी कहा गया-बदकिस्मती से ऐसा कोई एक फैसला नहीं है, इलाहाबाद हाईकोर्ट की अन्य बेंच ने भी ऐसे ही फैसले दिए हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट, राजस्थान हाईकोर्ट के भी फैसलों इसी तरह की बात कही गई है जिनमें कुछ मामलों में तो बलात्कार-पीडि़ता को ही दोषी ठहराया गया है। अदालत को एक वकील ने यह भी बताया कि केरल की जिला अदालत में सेक्स-अपराध के एक मामले की बंद कमरे में हुई सुनवाई में कई लोग मौजूद थे जिन्होंने पीडि़ता को परेशान किया था।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने इसी साल मार्च के महीने में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज की टिप्पणी के खिलाफ अपने अखबार के यू-ट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर कड़ी भत्र्सना की थी। जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने एक नाबालिग लडक़ी को पकडक़र एक पुल ने नीचे खींचकर ले जाने, उसके स्तन पकडऩे, और उसके पायजामे के नाड़े को तोडऩे को बलात्कार, बलात्कार की कोशिश नहीं माना था। हमने इस फैसले के अगले ही दिन इसकी कड़ी निंदा करते हुए उम्मीद की थी कि सुप्रीम कोर्ट इसे पलटेगा। कुछ दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने फैसले के इस हिस्से पर रोक भी लगाई थी, लेकिन आधा-पौन साल गुजर जाने पर भी देश में सेक्स-हिंसा के शिकार लोगों पर अदालती हिंसा जारी है। सुप्रीम कोर्ट खासकर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक के बाद दूसरे जज द्वारा ऐसी ही संवेदनशील टिप्पणियों को पढक़र हैरान था। एक दूसरे मामले में वहां के एक दूसरे जज संजय कुमार सिंह ने बलात्कार के एक आरोपी को जमानत देते हुए यह लिखा था कि पीडि़ता ने खुद ही मुसीबत को न्यौता दिया था, और वह खुद जिम्मेदार है। लोगों को यह भी याद होगा कि बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की एक एडिशनल जज पुष्पा गनेरीवाल ने एक बालिका के साथ यौन हिंसा के आरोपी को यह कहकर बरी कर दिया था कि कपड़े के ऊपर से स्तन दबाना यौन अपराध में नहीं आता, और आरोपी के ऊपर पॉक्सो एक्ट नहीं लगाया जा सकता। हमने उस वक्त भी अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट से इस फैसले को खारिज करने की मांग की थी।
आज इस पर एक बार फिर लिखने की जरूरत इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट जब अदालती संवेदनशीलता के लिए कुछ निर्देशक सिद्धांत बनाना चाहता है, तो उसे सबसे पहले यह तय करना चाहिए कि इस तरह की हिंसक, पुरूषवादी, महिला विरोधी, और संवेदनाशून्य टिप्पणियां करने वाले जजों को उनकी बाकी नौकरी तक इस किस्म के मामलों से अलग रखा जाए। जो सदियों का पूर्वाग्रह ढोते हुए हिंसक बने हुए हैं, उन्हें ऐसे किसी भी मामले की सुनवाई का हक नहीं है। जो धर्म या जाति के पूर्वाग्रह से सने हुए रहते हैं, उस किस्म के मामलों से परे ही रखना चाहिए। हम जजों से यह तो उम्मीद नहीं करते किए पुरखों से मिली हिंसा की विरासत से पूरी तरह मुक्त हो सकेंगे, लेकिन उन्हें महिलाओं और बच्चों के मामलों से परे रखना चाहिए।
ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट देश के जजों के लिए निर्देश तैयार करने में बहुत देर कर रहा है, और इसका नुकसान जिला अदालतों से लेकर हाईकोर्ट तक जगह-जगह यौन हिंसा की शिकार लड़कियों और महिलाओं को झेलना पड़ रहा है। यह सिलसिला तुरंत ही खत्म करने की जरूरत है। जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस खुद ही इस अदालत-हिंसा से परेशान हैं, तो उन्हें एक अंतरिम मार्गदर्शन जारी करना चाहिए, और जो बात हम सुझा रहे हैं, उसे लागू करने के लिए तो अधिक तैयारी की जरूरत भी नहीं है। जब किसी जज की अदालत में ऐसा कोई मामला जाए, तो उसके पहले के उस जज के फैसलों, आदेशों, और टिप्पणियों को देख लिया जाना चाहिए। अदालत के लिए यह कोई अनोखी बात नहीं होगी जब तक वह कोई औपचारिक और आखिरी फैसला लिखे, एक पूरी गाइड लाइन बनाए, तब तक वह एक अंतरिम आदेश जारी करके पॉक्सो अदालतों, और यौन हिंसा के दूसरे मामलों की अदालतों के जजों से ही यह हलफनामा ले कि उन्होंने ऐसे दूसरे पिछले मामलों में क्या-क्या लिखा है। हर प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश को यह लिखा जा सकता है कि वे इस किस्म के जजों को ऐसे मामलों से तुरंत ही अलग कर दें। अब जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा की संवेदनशून्य और हिंसक टिप्पणियों को देखें, तो उनके नाम को लेकर भी हैरानी होती है जिसमें तीन-तीन भगवान के नाम हैं, और उसके बावजूद उनका फैसला इस तरह का हिंसक फैसला रहा है। सुप्रीम कोर्ट को अदालतों की हिंसा पर रोक का अंतरिम आदेश बिना देर किए जारी करना चाहिए।


