संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राज्यपाल-राष्ट्रपति पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बुरा सदमा पहुंचाता है..
सुनील कुमार ने लिखा है
22-Nov-2025 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : राज्यपाल-राष्ट्रपति पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला बुरा सदमा पहुंचाता है..

सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के एक फैसले को पलटते हुए अभी एक बड़ी बेंच ने राष्ट्रपति के भेजे हुए एक संदर्भ पर अपनी राय सुनाई कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के पास गए हुए विधेयकों पर उनके लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। इसके पहले दो जजों की एक बेंच ने यह फैसला दिया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को विधेयक उनके पास पहुंचने के बाद तीन महीने के भीतर उस पर अपना फैसला देना चाहिए। केन्द्र सरकार इस फैसले के बहुत खिलाफ थी, और उसने जजों को याद दिलाया था कि संविधान में इन दो संवैधानिक पदों के लिए समय सीमा तय करना अदालत के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। ऐसे मामले अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग राज्यों में उठते ही रहते हैं जहां सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन से केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के राजनीतिक विरोध रहते हैं। ऐसी नौबत रहने पर राज्यपाल या राष्ट्रपति केन्द्र सरकार की मर्जी से राज्य विधानसभाओं से पास किए गए विधेयकों को मंजूरी देने के बजाय उन्हें गद्दे के नीचे दबाकर उस पर सो जाते हैं। कुछ राज्यों में तो कई साल पहले से विधेयक राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास पड़े हुए हैं, और जनता द्वारा निर्वाचित विधायकों वाली विधानसभा सिवाय इंतजार करने के और कुछ नहीं कर सकती है। ऐसे में जब कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय की थी, तब हमने उस फैसले की तारीफ करते हुए यह लिखा था कि यह इन दो संवैधानिक पदों की जनता के प्रति जवाबदेही भी तय करने वाला फैसला है, और इन पदों को सरकार के असर से परे का मानना इसलिए ठीक नहीं है कि राज्यपाल तो केन्द्र सरकार के मनोनीत किए हुए होते हैं, और राष्ट्रपति भी केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिशों के मुताबिक काम करने को मजबूर रहते हैं। ऐसे में केन्द्र का गठबंधन उसे नापसंद किसी भी राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में पास करवाए गए विधेयक को अंतहीन रोक सकता है, और सामने ही दिख रहा है कि रोकते आया है।

सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला मुख्य न्यायाधीश बी.आर.गवई की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच का है, और उसने साफ कर दिया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल को बिलों को मंजूरी देने के लिए कोई निश्चित समय सीमा तय नहीं की जा सकती। 111 पेज का यह बहुत ही निराशाजनक फैसला घोर अलोकतांत्रिक है, और केन्द्र सरकार को तानाशाही के सारे अधिकार देता है। ये दोनों ही पद पूरी तरह से केन्द्र सरकार के काबू के, और उसके मातहत सरीखे पद हैं। राज्यपाल और राष्ट्रपति को बेमुद्दत हक देना केन्द्र सरकार के हाथ में केन्द्र सरकार को तानाशाह बना देने के अलावा और कुछ भी नहीं है। आज की बात आज केन्द्र पर सवार गठबंधन को लेकर नहीं है, यह बात जनता द्वारा निर्वाचित विधानसभाओं के पारित विधेयकों के कानून बनने के जनता के परोक्ष अधिकार की बात है। जनता किसी विधेयक के लिए सीधे वोट नहीं देती, लेकिन उसके निर्वाचित विधायकों का एक बहुमत ऐसे विधेयक के साथ जब होता है, तभी वह पास होकर मंजूरी के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास जाता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संविधान के लिखे हुए शब्दों की व्याख्या हो सकता है, लेकिन यह लोकतंत्र की भावना के ठीक खिलाफ है। जस्टिस गवई रिटायर होते-होते ऐसा फैसला क्यों कर गए हैं, इसे वे ही जाने। इस बेंच में उनके ठीक बाद जस्टिस बनने वाले जज भी हैं। सुप्रीम कोर्ट तो देश की सबसे बड़ी संवैधानिक अदालत है, और इसका हक संविधान की व्याख्या करना भी रहता है। कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट अगर संविधान के प्रावधानों को छू नहीं पाता, तो भी फैसले में उनके खिलाफ टिप्पणी जरूर करता है। ऐसा करने के लिए जजों में कुछ हौसले की भी जरूरत पड़ती है, और उन्हें रिटायर होने के बाद के लिए मोह-माया से मुक्त भी रहना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट का दो दिन पहले का यह फैसला बहुत ही निराश करता है। संविधान एक मुर्दा दस्तावेज नहीं रहता, वह शब्दों के साथ-साथ भावनाओं का पुलिंदा भी रहता है, और इसीलिए उस पर आधारित बातों के लिए कहा भी जाता है कि इन लैटर, एंड स्पिरिट। ऐसा लगता है कि पांच जजों की इस बेंच ने राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार के वकीलों के संविधान के दिए गए संदर्भों के शब्द ही पढ़े हैं, लोकतंत्र की भावना का इस्तेमाल नहीं किया है।

सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच की यह व्याख्या हक्का-बक्का करती है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की जा सकती। अपने फैसले की इज्जत बचाने के लिए इस फैसले में लिखा गया है कि राज्यपाल विधेयक को रोक सकते हैं, लेकिन अनावश्यक देरी का कारण स्पष्ट न हो, तो कोर्ट हस्तक्षेप कर सकता है। राष्ट्रपति के उठाए गए सवालों में से अधिकांश पर कोर्ट ने कहा है कि न्यायपालिका विधायी प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकती। लोकतंत्र में किस तरह एक राजनीतिक सरकार के तहत काम करने वाले दो लोगों को ऐसे असीमित अधिकार दिए जा सकते हैं? आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट की कोई और बड़ी बेंच इस फैसले पर पुनर्विचार करेगी, और उसमें जज कड़ा और खरा बोलने और लिखने वाले रहेंगे, तो यह फैसला पलट दिया जाएगा। हम कानून और संविधान की बारीकियों में उलझे बिना यह सोचते हैं कि किसी राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास विधानसभा से पारित विधेयक पहुंचने के बाद उन्हें तीन महीने से अधिक का वक्त क्यों लगना चाहिए? राज्यपाल के पास कानूनी सलाहकार रहते हैं, वे केन्द्र सरकार के वकीलों से भी सलाह ले सकते हैं। जनता की निर्वाचित विधानसभा के पारित विधेयक पर अगर राज्यपाल 90 दिन में भी फैसला नहीं ले सकते, तो वे जनता के पैसों की बर्बादी करते हुए इस कुर्सी पर क्यों बैठे हैं? कानूनी और संवैधानिक सलाह-मशविरा तो कुछ दिनों के भीतर ही हो सकता है, तीन महीने के और बाद जाकर तो महज राजनीति हो सकती है, जो कि हो रही है। एक आदिवासी समुदाय से आई हुई राष्ट्रपति ने जब यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट को भेजा, और उससे संवैधानिक राय मांगी, तो भी यह बड़ी हैरानी की बात इसलिए थी कि क्या वे निर्वाचित विधानसभा के अधिकारों को केन्द्र सरकार के इशारे पर नीचा दिखाने की हिमायती हो गई हैं? जनता के पैसों पर जो राज्यपाल और राष्ट्रपति राजसी ठाठ से जीते हैं, उस जनता के जीवन को प्रभावित करने वाले विधेयकों को क्या ये सामंती सहूलियतों वाले लोग बिस्तर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं?

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बारे में दो दिनों से हमने जितनी भी बार सोचा है, न्यायपालिका को लेकर हमारी शर्मिंदगी बढ़ती चली जा रही है। यह किसी मुजरिम को बचाने के लिए उसके वकील द्वारा निकाले गए कानूनी दांव-पेच सरीखा फैसला लगता है, यह जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान करने वाला तो किसी कोने से नहीं लगता। राज्यपाल तो केन्द्र सरकार के मनोनीत रहते हैं, और उसी के राजनीतिक एजेंट की तरह राजभवनों को चलाते हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रपति भी केन्द्र और राज्यों के सांसदों और विधायकों के बहुमत से बनकर आते हैं, और बनने के तुरंत बाद वे पूरे कार्यकाल केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर काम करते हैं। ऐसे व्यक्ति आम जनता की निर्वाचित विधानसभा के फैसलों को अंतहीन पड़े रहने दें, तो फिर उन्हें तनख्वाह किस बात की मिलती है? हर किसी को काम करना चाहिए, कल के दिन किसी सरकारी दफ्तर के बाबू कहें कि उन्हें भी तीन या छह महीने में जब समय मिलेगा, तब वे काम करेंगे, तो कैसा लगेगा? जनता के पैसों से तनख्वाह और सहूलियतें पाने वाले राज्यपाल और राष्ट्रपति का आचरण मन, वचन, और कर्म से लोकतांत्रिक रहना चाहिए, उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाकर संविधान के मोटे-मोटे शब्दों की आड़ में लुका-छिपी नहीं खेलनी चाहिए। लोकतंत्र की बुनियादी बात यह है कि किसी को भी अलोकतांत्रिक अधिकार नहीं होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट अपने इस खराब फैसले के लिए इतिहास में अच्छी तरह दर्ज होगा। 

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