संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सडक़ों के खराब होने की एक नहीं, कई वजहें हैं...
सुनील कुमार ने लिखा है
15-Oct-2025 4:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सडक़ों के खराब होने की एक नहीं, कई वजहें हैं...

महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई में सडक़ों की बदहाली को लेकर अभी बाम्बे हाईकोर्ट ने सख्त तेवर दिखाए हैं, और यह कहा है कि सडक़ों के गड्ढों की वजह से अगर किसी की मौत होती है, तो उसे सडक़ ठेकेदार और म्युनिसिपल के पैसों से मुआवजा दिया जाएगा। ऐसी मौत पर परिवार को 6 लाख रूपए मुआवजा दिया जाए, और जख्मी होने पर 50 हजार रूपए से लेकर ढाई लाख रूपए तक का। हाईकोर्ट के दों जजों की बेंच ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है कि बिना गड्ढों वाली अच्छी हालत की सडक़ पाना नागरिकों का अधिकार है, और ऐसा मुहैया न करा पाना संविधान में दिए गए जीवन के अधिकार का उल्लंघन होगा। इस फैसले के साथ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के पिछले बरसों के रूख को देखें तो यह समझ पड़ता है कि देश में जगह-जगह इसी तरह की हालत चल रही है। बहुत से राज्यों में सडक़ें नामौजूद सरीखी हैं। अब बाम्बे हाईकोर्ट का यह ताजा आदेश वैसे तो मुम्बई महानगरपालिका के इलाके को लेकर है, लेकिन इससे परे गैरशहरी इलाकों में भी सडक़ों की बहुत खराब हालत है। छत्तीसगढ़ में जगह-जगह ट्रकों और बसों के मिट्टी और दलदल के बीच से किसी तरह रेंगते हुए निकलने के वीडियो देखकर लगता है कि इन ड्राइवरों के हौसले, और ट्रकों के इंजन में ऐसी कितनी ताकत रहती है कि वे यह जगह पार कर पा रहे हैं, जो कि सडक़ है, और मौके पर नहीं है!

आज देश में केन्द्र सरकार की तरफ से बड़ी-बड़ी सडक़ परियोजनाओं का खूब प्रचार होता है, कहीं उसे कोई स्वर्णिम नाम दिया जाता है, तो कहीं भारतमाला नाम, और बहुत भारी बजट से बहुत अच्छे किस्म की ये सडक़ें महानगरों को जोडऩे वाली रहती हैं, जिनके आसपास रहने वाले लोग भी तरह-तरह के टोलटैक्स की वजह से उसके इस्तेमाल से बचते हैं। लेकिन केन्द्र की ऐसी नामी-गिरामी परियोजनाओं से परे जब बात राज्यों के भीतर की दूसरी सडक़ों की आती है, तो राष्ट्रीय राजमार्ग हो, या प्रादेशिक राजमार्ग, उनकी हालत खराब दिखती है। सिर्फ टोल सडक़ों की हालत जरा बेहतर रहती है क्योंकि निजी ठेकेदार उन्हें बनाते हैं, और बाद में 25-30 बरस तक वहां वसूली करते हैं। छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट ने केन्द्र और राज्य दोनों के अफसरों को कटघरे में खड़ा कर रखा है, क्योंकि टोल सडक़ों की हालत भी बहुत खराब है, ठेकेदार रखरखाव की शर्त को पूरा नहीं करते, और सिर्फ वसूली-उगाही करते रहते हैं। देश में कई बड़ी अदालतें ऐसी टोल वसूली के खिलाफ आदेश कर चुकी हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है।

अब टोल सडक़ों से परे राज्यों के भीतर की सडक़ों को देखें, तो अधिकतर राज्यों के पास उन्हें बेहतर तरीके से बनाने के बजट नहीं रह गए हैं। अभी बिहार चुनाव ताजा मिसाल है जहां पर ताजा चुनावी वायदों में ही राज्य का 60 फीसदी बजट चले जाने का अंदाज है। मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके साथ के भाजपा वाले गठबंधन ने जितने चुनावी वायदे किए हैं, उसे लेकर यह फिक्र जाहिर की जा रही है कि बहुत बुरी तरह कमजोर अर्थव्यवस्था किस तरह यह बोझ उठा सकेगी? इसके बाद वहां पर तनख्वाह भी बंट पाएगी या नहीं, और ऐसे में सडक़ सुधारने की फिक्र भला कौन पूरी कर पाएंगे? और बात सिर्फ बिहार की नहीं है, आगे-पीछे बहुत से राज्यों का यही हाल है। मतदाताओं तक सीधा फायदा पहुंचाने की चुनावी रणनीति अगले पांच बरस तक सरकारों के पास विकास कार्य और ढांचागत विकास के लिए बहुत कम गुंजाइश छोड़ती है। ऐसा लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टियां सरकार चलाने के बजाय चुनाव लडऩे को ही पांच बरस की अपनी जिम्मेदारी मान लेती हैं, और जिस तरह दाखिला इम्तिहानों में कामयाबी को ही पढ़ाई मान लिया जाता है, स्कूल-कॉलेज के कोर्स को कोई महत्व नहीं दिया जाता है, उसी तरह वोटरों को रिझाने पर ही पूरी मेहनत लगा दी जाती है, और राज्यों का विकास थम जाता है, या बहुत धीमा हो जाता है।

लेकिन जब बात सडक़ों की होती है, तो यह भी समझने की जरूरत है कि भारत की आज की औद्योगिक और खनिज जरूरतों के लिए बहुत बड़ी-बड़़ी मालवाहक गाडिय़ां चलती हैं, और खदानों से लेकर कारखानों या निर्माण की जगहों तक इन गाडिय़ों के आने-जाने के लिए सडक़ें इतने वजन के लायक बिल्कुल तैयार नहीं हैं। सडक़ों की क्षमता कागज पर ही कम रहती है, जमीन पर घटिया निर्माण की वजह से और भी कम रहती है। दूसरी तरफ रेत, कोयला, मुरम, लौह अयस्क जैसे खनिज लेकर जाने वाली ट्रकें बुरी तरह ओवरलोड चलती हैं, और जाहिर है कि वे सडक़ों को खत्म करते जाती हैं। ओवरलोड गाडिय़ों पर निगरानी का सरकार का ढांचा बुरी तरह भ्रष्ट रहता है, और गाडिय़ां अधिक से अधिक कमाई की नीयत से बुरी तरह ओवरलोड चलती हैं। अब ऐसी बर्बाद सडक़ों को सुधारने के लिए किसी भी तरह का कोई बजट तो हो नहीं सकता, क्योंकि सरकारी रिकॉर्ड में तो वे सडक़ें वहां पर चलने वाली गाडिय़ों के वजन की क्षमता की ही बनती हैं।

देश की बड़ी अदालतें सडक़ों के कुछ पहलुओं को देख रही हैं, सुप्रीम कोर्ट चुनावी वायदों पर बड़े खर्च के जायज या नाजायज होने को लेकर एक अलग मामले की सुनवाई कर रहा है, लेकिन प्रदेशों के भीतर ओवरलोड गाडिय़ों के अघोषित मामलों की सुनवाई तो अब तक कोई अदालत कर भी नहीं रह है, और संगठित भ्रष्टाचार ऐसी ओवरलोडिंग को रूकने भी नहीं देगा। केन्द्र और राज्य को मिलकर भी यह देखना होगा कि देश का सडक़ों का ढांचा बर्बाद होने से कैसे बचाया जाए? बहुत सी सडक़ें हमेशा ही अलग-अलग वजहों से खराब होती रहेंगी, और अदालत से यह उम्मीद नाजायज होगी कि वह सरकार के इस नियमित और जरूरी कामकाज को लेकर उसके पीछे लाठी लेकर पड़ी रहे, और अपनी निगरानी में चीजों को सुधारे, सरकार को अपना काम खुद करना चाहिए।

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