संपादकीय
हरियाणा के एक सीनियर आईपीएस अफसर ने दर्जनभर आईएएस-आईपीएस अफसरों पर प्रताडऩा का आरोप लगाते हुए खुदकुशी कर ली। उनकी पत्नी भी आईएएस हैं, और इस वक्त वे मुख्यमंत्री के साथ विदेश दौरे पर गई हुई थीं, और लौटकर उन्होंने भी कई अफसरों के खिलाफ उनके पति को प्रताडि़त करने, और आत्महत्या के लिए उकसाने की रिपोर्ट दर्ज कराई है। वाई.पूरन कुमार नाम का यह एडीजी किसी भी राज्य के पुलिस ढांचे में सबसे ऊपर से ठीक नीचे रहता है, और वे पिछले कई बरस से उनके साथ जाति आधारित भेदभाव की शिकायत करते आए थे। उन्हें सरकारी मकान, गाड़ी, पोस्टिंग में भी भेदभाव झेलना पड़ता था, ऐसा उनका आरोप था। वे लगातार सरकार के भीतर इन बातों को उठाते रहते थे, लेकिन यह वही हरियाणा है जहां अशोक खेमका नाम के एक आईएएस अफसर को इसी राज्य में नौकरी करते-करते तकरीबन हर बरस दो बार ट्रांसफर किया गया था। तीस साल में 55 से ज्यादा ट्रांसफर। अब आईएएस-आईपीएस की नौकरियां केन्द्र सरकार के मातहत रहती हैं, और इन्हें अलग-अलग राज्यों में भेजा जाता है, जहां से असंतुष्ट रहने पर ये केन्द्र सरकार को भी लिख सकते हैं। अशोक खेमका को सौ फीसदी ईमानदार अफसर माना जाता था, और देश में सबसे भ्रष्ट प्रदेशों में से एक हरियाणा में उन्होंने अपने इन्हीं ईमानदार तेवरों की वजह से सत्ता की नाराजगी झेली। हर छह-सात महीने में उनका तबादला कर दिया जाता था, और इसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों की सरकारें बराबरी से शामिल रही। 2012 में उन्होंने रॉबर्ट वाड्रा-डीएलएफ जमीन सौदे को रद्द कर दिया था, और फिर उन्हें इतना प्रताडि़त किया गया कि वे कई बार सार्वजनिक रूप से बोल चुके थे कि ईमानदारी भारत की शासन व्यवस्था में जुर्म बन चुकी है। लेकिन अशोक खेमका लगातार लड़ते रहे, और उन्होंने कभी खुदकुशी सरीखी बात भी नहीं की।
हम खुदकुशी जैसे नाजुक मामले पर बात करते हुए किन्हीं भी दो इंसानों की तुलना नहीं करते, लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि आईएएस-आईपीएस जैसी बड़ी सेवाओं के लोग भी खुदकुशी करते हैं, इसलिए इस पर चर्चा जरूरी है। एक दलित अफसर, कर्मचारी, या इंसान को हिन्दुस्तान में कई तरह के सामाजिक भेदभाव झेलने पड़ते हैं, अभी दो दिन पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा है कि किस तरह यूपी के रायबरेली में एक दलित को भीड़ ने चोरी के आरोप में पीट-पीटकर मार डाला, और योगी की पुलिस इस भीड़ का चक्कर लगाकर उस अकेले कमजोर गरीब दलित को उसी हिंसक भीड़ के बीच छोडक़र चली गई थी। नतीजा साफ था कि यह भीड़ क्या करने वाली थी, और पुलिस का भी नजरिया साफ था कि उसे इस भीड़त्या को रोकने के लिए कुछ नहीं करना है। उसी दिन सुप्रीम कोर्ट में एक दलित मुख्य न्यायाधीश को जूता फेंककर मारा गया, और उसके पीछे सनातनी, और हिन्दू धार्मिक तर्क के नारे लगाए गए, इंटरव्यू दिए गए। दलितों की प्रताडऩा कोई नई बात नहीं है, यह एक सामाजिक हकीकत है कि जाति व्यवस्था की नफरत आरक्षण से किसी जगह पर पहुंचे हुए लोगों के लिए खत्म नहीं होती है, बढ़ जाती है। लेकिन हम कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा जरूरी समझते हैं।
24-25 बरस की नौकरी वाले पति-पत्नी के इस जोड़े की स्थिति सरकार के भीतर कमजोर नहीं थी। उन्हें पूरी तनख्वाह मिलने से कोई रोक नहीं सकते थे, और दोनों की तनख्वाह मिलाकर 5-6 लाख रूपए महीने बनती रही होगी। अब अगर उन्हें दूसरे अफसरों से शिकायत थी, तो आमतौर पर ऐसे मामलों में अफसर किसी प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में जाते हैं, उसके भी पहले सरकार के भीतर लिखकर देते हैं, ट्रिब्यूनल के बाद अदालत तक जाते हैं, और हक की लड़ाई लड़ते हैं। ऐसी अखिल भारतीय सेवाओं में काम करने वाले लोग वक्त के साथ-साथ सभी तरह के कानून समझ चुके रहते हैं, और अनौपचारिक रूप से उन्हें दूसरे अफसरों से, या सरकारी वकील से राय भी आसानी से मिल जाती है। अब अगर पति-पत्नी दोनों अफसर रहते हुए एक कानूनी लड़ाई लडऩे के बजाय अगर प्रताडऩा से दुखी और परेशान होकर इस तरह जान दे दें, तो यह बड़ी खराब नौबत है। हम उम्मीद करते हैं कि अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों को समाज के वंचित तबकों के हक के लिए कार्रवाई करने का जिम्मा भी मिलता है, और अधिकार भी। उन्हें चाहे जिस ओहदे पर रखा जाता है, उनके मातहत लोगों के ही प्रताडऩा के प्रकरण कभी न कभी उनके सामने आते हैं, और उन्हें न्यायसंगत कार्रवाई करनी पड़ती है। अब अगर इतने सीनियर अफसर रहते हुए भी वे अपने साथ हो रही ऐसी कथित प्रताडऩा को नहीं झेल पाए, और खुदकुशी कर ली, तो इससे यह जाहिर है कि उन्हें अपनी ताकत और क्षमता पर कुछ कम भरोसा था। जिस परिवार में लाखों रूपए महीने तनख्वाह के आते हैं, वे ट्रिब्यूनल और अदालत का खर्च आसानी से उठा सकते हैं, और न सिर्फ अपने हक के लिए, बल्कि अपने दलित-तबके के व्यापक हितों और हकों के लिए भी उन्हें लडऩा चाहिए। हमारा तो मानना है कि आरक्षित वर्गों से आने वाले, और बड़े ओहदों पर पहुंचने वाले लोगों की कुछ जिम्मेदारी अपने वर्गों के लिए भी रहती है। ऐसे में यह आत्महत्या हमें बहुत निराश करती है।
पति-पत्नी दोनों अपने अधिकारों के बारे में अच्छी तरह जानकार रहे होंगे। और उन्हें यह भी पता रहा होगा कि यह कानूनी लड़ाई लड़ी कैसे जाती है। ऐसी लड़ाई से एक मिसाल कायम करने की जरूरत और महत्व भी उन्हें अच्छी तरह मालूम रही होगी। आज देश में आरक्षित वर्ग, और उससे परे के भी वंचित तबकों के करोड़ों लोगों की हालत बहुत कमजोर है, वे बहुत गरीब हैं, और वे जाति व्यवस्था के जुल्म से लडऩे की हालत में भी नहीं हैं। ऐसे में इन तबकों की हालत बेहतर बनाने के लिए लडऩे का जिम्मा उन तबकों के ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हुए लोगों पर कुछ अधिक रहता है, ताकि मिसाल पेश हो सके, और हक के लिए नजीर बन सके। कोई भी आत्महत्या बहुत ही तकलीफदेह रहती है, लेकिन हमें ऐसे सीनियर अफसर-जोड़े से सामाजिक लड़ाई में भी योगदान की उम्मीद थी, लेकिन वे अपनी निजी प्रताडऩा को नहीं झेल पाए, और पति ने खुदकुशी कर ली। किसी भी अफसर-कर्मचारी को ऐसा नहीं करना चाहिए, और भारतीय लोकतंत्र में कम से कम कुछ मामलों में तो अभी भी समय पर फैसले हो जाते हैं, अगर वहां भी निराशा मिलती तो भी इस अफसर के हाथ में था कि 20 साल की नौकरी के बाद इस्तीफा देकर वह तमाम रिटायरमेंट-बेनीफिट पा जाते, और फिर लड़ाई को अदालतों में जारी रखते। समाज में, परिवार के भीतर, लोगों को एक-दूसरे का हौसला बढ़ाकर रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


