संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संस्कृतियों और सभ्यताओं के टकराव के नतीजे...
26-Sep-2025 7:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : संस्कृतियों और सभ्यताओं के टकराव के नतीजे...

दुनिया के गोले पर अलग-अलग इलाकों की संस्कृतियां अलग-अलग हैं। संस्कृतियों के अलावा कुदरत के मुताबिक इन इलाकों की संपन्नता, विपन्नता, या इनकी जिंदगी के दूसरे हाल-बेहाल भी अलग-अलग हैं। योरप जैसे इलाके में आने वाले दर्जनों देशों की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वे हमेशा से अफ्रीका जैसे सूखे और अकाल के शिकार देशों के मुकाबले बेहतर हालत में रहते हैं। अभी हम दुनिया के इतिहास में अधिक गहराई और खुलासे से जाना नहीं चाहते, लेकिन जिन इलाकों में विज्ञान और टेक्नॉलॉजी ने अधिक तरक्की की, औद्योगीकरण यहां बढ़ा, और यहां आर्थिक सफलता भी अधिक रही। दूसरी तरफ खाड़ी के कुछ ऐसे देश रहे जो जमीन के नीचे पेट्रोलियम भंडारों की वजह से दुनिया में अनुपातहीन तरीके से अधिक संपन्न रहे। अब इसके अलावा धर्म भी एक बड़ा मुद्दा रहा, खाड़ी के देशों सहित कुछ अफ्रीकी देशों में इस्लाम का बड़ा प्रचार रहा, और योरप सहित बहुत से इलाके ईसाइयत के प्रभाव वाले रहे। भारत और नेपाल दो ही देश हिन्दू धर्म के प्रभाव में रहे, और संख्या में इनसे कई गुना अधिक देश बौद्ध धर्मावलंबी रहे।

इस लंबी पृष्ठभूमि के बाद हम असल मुद्दे पर आना चाहते हैं कि मध्य-पूर्व और खाड़ी के देशों से गृहयुद्ध और जंग की वजह से बड़ी संख्या में शरणार्थी योरप के देशों में पहुंचे। इनके अलावा अफ्रीकी देशों से भी शरणार्थी योरप में घुसते ही हैं क्योंकि जान की बाजी लगाकर भी वे एक बेहतर जिंदगी चाहते हैं। योरप के कई देश बांहें फैलाकर बाहर से आने वाले शरणार्थियों को अपने यहां बसाते रहे हैं, लेकिन हाल के बरसों में वहां माहौल कुछ बदल गया है। एक तो मुस्लिम शरणार्थियों के धार्मिक रीति-रिवाजों को लेकर, उनके पोशाक जैसे सामाजिक मुद्दों को लेकर योरप के बहुत से देशों के स्थानीय लोगों में एक बेचैनी चली आ रही थी। और उसका नतीजा फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्स, और इटली जैसे कई देशों में शरणार्थी, और प्रवासी विरोधी दक्षिणपंथी पार्टियों के उभार के रूप में सामने आया है। अब शरणार्थियों, जो कि मोटेतौर पर मुस्लिम हैं, उनके खिलाफ स्थानीयता का दावा करने वाले तबकों में एक प्रतिरोध विकसित होते चले गया, और यह महज रोजगार और आर्थिक अवसरों के टकराव तक सीमित नहीं रहा, यह बढ़ते-बढ़ते संस्कृतियों और सभ्यता के टकराव तक चले गया है। ये टकराव बहुत से देशों के चुनावों को इस तरह प्रभावित कर रहे हैं, जैसा कि इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। योरप से परे इजराइल तक में आज वहां की सरकार में एक ऐसी संकीर्णतावादी पार्टी गठबंधन की भागीदार है, जितनी संकीर्णता इजराइल की सरकार में पहले कभी नहीं थी। जब राष्ट्रीयता का उभार उन्माद तक पहुंच जाता है, तब अपने देश के बहुसंख्यक धर्म से परे के धर्मों को दुश्मन के पुतले की तरह खड़ा कर देना बड़ा आसान रहता है, और योरप के कई देशों में अभी लगातार यही चल रहा है। फिर मानो स्थानीय लोगों का प्रतिरोध काफी नहीं था, बाहर से पहुंचे हुए लोगों ने अपनी संस्कृति को लेकर जो कट्टरता जारी रखी, और योरप के उदार, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष माहौल में घुलने-मिलने से परहेज किया, उसने भी स्थानीयता के समर्थकों को प्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ कर दिया। आज योरप के आधा दर्जन ऐसे देशों में वहां की उदारवादी पार्टियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो रहा है क्योंकि वे नस्लवादी, दक्षिणपंथी, और प्रवासी विरोधी पार्टियों के धार्मिक उन्माद की धार का मुकाबला नहीं कर पा रही हैं।

भारत में भी कई तरह के चुनावी-राजनीतिक कारणों से, धार्मिक और साम्प्रदायिक वजहों से अड़ोस-पड़ोस के देशों से आकर वैध-अवैध तरीके से बसे हुए बांग्लादेशी मुस्लिमों, और म्यांमार के मुस्लिम रोहिंग्या लोगों के खिलाफ भावना एक बड़ा चुनावी-राजनीतिक मुद्दा बन चुका है। विदेशी और घुसपैठिया होना उसका एक पहलू है, और उसका दूसरा पहलू स्थानीय बहुसंख्यक हिन्दू समाज के मुकाबले इन दोनों देशों से आए घुसपैठिया या शरणार्थियों का मुस्लिम होना भी है। जिस तरह योरप के देशों में दक्षिणपंथी पार्टियों का इस मुद्दे पर बड़ा उभार हुआ है, और करीब आधा दर्जन देशों में चुनावी नतीजों में उन्हें बड़ी कामयाबी मिली है, कुछ उसी किस्म का माहौल हिन्दुस्तान में भी बना हुआ है, और भाजपा की असाधारण चुनावी कामयाबी के पीछे ऐसे ध्रुवीकरण का योगदान भी गिना जाता है।

अब हम योरप की बात पर फिर लौटें, तो वहां ईसाई संस्कृति, और मुस्लिम संस्कृति के बीच सामाजिक और धार्मिक टकराव एक बड़ी वजह रही है, और दुनिया में अलग-अलग कई जगहों पर आतंकी घटनाओं में कुछ मुस्लिम संगठनों का घोषित रूप से शामिल होना भी संस्कृतियों के इस टकराव में एक बड़ा मुद्दा रहा है। आज अगर हम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में उदारवादी तबके की रहमदिली से शरणार्थियों को मिली जगह के बारे में सोचें, तो कुछ गिने-चुने इस्लामी-आतंकी संगठनों के पश्चिम के देशों में किए गए आतंकी-हमलों की वजह से हर मुस्लिम की साख इन देशों में शक के दायरे में आई है, और इस नौबत को सुधारने का कोई आसान तरीका किसी के पास नहीं है। भारत में ऐसी घटनाएं तो अधिक नहीं हुई हैं, फिर भी एक नारा सा चला हुआ है कि हर मुस्लिम चाहे आतंकी न हो, हर आतंकी मुस्लिम क्यों होता है? यह बात तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह सही न हो, लेकिन जनधारणा में खपत के लिए यह बात मजबूत तरीके से लोगों के बीच बैठी हुई है।

हम योरप और हिन्दुस्तान के दो बिल्कुल ही अलग-अलग नौबतों वाले मॉडलों की चर्चा एक साथ इसलिए कर रहे हैं कि दुनिया के देशों को, अलग-अलग संस्कृतियों और सभ्यताओं को, एक-दूसरे से सीखना चाहिए। आज जो नुकसान शरणार्थियों का योरप में हो रहा है, उसी तरह का नुकसान हिन्दुस्तान में भी हो रहा है। इन दोनों ही जगहों पर अनुदारवादी राजनीति का उभार हो रहा है, उसे अभूतपूर्व सफलता मिल रही है। ऐसे में जिस धर्म, और राष्ट्रीयता के लोगों को अपनी जमीन छोडक़र दूसरी जगह जाकर रहना-खाना है, उन्हें अपनी धार्मिक-संस्कृति के बारे में भी सोचना चाहिए, और उस दूसरी जमीन की लोकतांत्रिक-सभ्यता के बारे में भी। कुछ लोगों का हाल के महीनों में यह भी मानना है कि पश्चिम के देशों में भारतीयों पर कई जगह हमले इसलिए हो रहे हैं कि वहां पर वैध-अवैध तरीके से गए और बसे हुए भारतीय वहां की स्थानीय संस्कृति और सभ्यता में घुलने-मिलने के बजाय अपनी अलग पहचान कायम रखने को गौरव की बात मान रहे हैं। अपनी जड़ों पर गौरव तो ठीक है, लेकिन पेड़ के पत्ते जिस हवा में लहलहा रहे हैं, उस हवा के साथ घुल-मिलकर रहना भी उतना ही जरूरी होता है। शायद इसीलिए बड़े बुजुर्ग यह कह गए थे- जैसा देस, वैसा भेस। 

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