संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : तानों से थके नौजवान ने मारा परिवार के बच्चे को
13-Oct-2024 4:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : तानों से थके नौजवान ने मारा परिवार के बच्चे को

अभी तीन बरस के एक बच्चे के कत्ल का मामला जब पुलिस ने सुलझाया तो पता लगा कि उसी का 19 बरस का चचेरा भाई हत्यारा था। परिवार के भीतर यह तनातनी थी कि इस बच्चे के पिता ने कुछ अरसा पहले अपने भतीजे के खिलाफ चोरी की रिपोर्ट लिखाई थी, और इसके बाद से आसपास के दूसरे लोग भी चाचा की देखादेखी इस नौजवान को चोर कहते थे। यह सुनकर थका हुआ यह नौजवान लगातार तनाव में रहता था, और उसने रिश्ते के चाचा से बदला लेने के लिए उसके छोटे बच्चे को मार डाला। इस घटना से कुछ बरस पहले की एक केन्द्रीय सुरक्षा बल के कैम्प की गोलीबारी याद आती है जिसमें साथी जवान किसी एक को नामर्द कहते हुए तरह-तरह के ताने देते थे, और उसने इसी तनाव में एक दिन कई साथियों को एक साथ गोली चलाकर मार डाला था। अमरीका में स्कूल-कॉलेज में गोलीबारी करके सामूहिक हत्या के कई मामले हर बरस सामने आते हैं, और उनमें एक वजह यह सामने आती है कि उस जगह पढ़ते हुए हत्यारे को लोगों के फिकरों का सामना करना पड़ता था, और उसी का बदला निकालने के लिए बाद में हथियारबंद होकर, जाकर हत्यारे ने बहुत से लोगों को मार डाला था। हिन्दुस्तान में हत्याओं के और भी बहुत से मामले ऐसे रहते हैं जिनमें लोगों के तानों से, या उनके खिल्ली उड़ाए जाने से थककर लोग किसी को मार डालते हैं। दूसरी तरफ यह हिंसा आत्मघाती भी हो जाती है, और स्कूल-कॉलेज के हॉस्टलों में कई ऐसी खुदकुशी होती हैं जिनमें सहपाठियों और साथियों के तानों और खिल्ली उड़ाने से थके हुए छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी की होती है।

दरअसल लोगों में मानवीय कहे जाने वाले मूल्यों की बुनियाद ही कमजोर होती चल रही है। लोगों को अब आसपास के किसी तकलीफ से गुजर रहे इंसान के साथ हमदर्दी की बात नहीं सूझती। लोगों को किसी कमजोर को घेरकर परेशान करते हुए भी कुछ नहीं लगता। और अगर हम बोलचाल की भाषा को देखें, तो लोगों के मन में किसी कमजोर, बीमार, विकलांग, गरीब, और कुरूप समझे जाने वाले लोगों के लिए परले दर्जे की हिकारत रहती है। बहुत से कहावत और मुहावरे ऐसे तमाम लोगों की खिल्ली उड़ाने वाले रहते हैं, और इनके रूप-रंग को गाली की तरह इस्तेमाल भी करते हैं। कहीं मोटापा मखौल का सामान बन जाता है, तो कहीं गोरे रंग की चाह वाले हिन्दुस्तानियों के बीच काला रंग। ये बातें भारतीय फिल्मों में कई दशकों से चले आ रहे किरदारों से और मजबूत होती चलती हैं। किसी का काला रंग या उसका मोटापा कॉमेडी का सामान फिल्मों में भी माना जाता था, और अब कपिल शर्मा जैसे मशहूर कॉमेडी शो में भी वैसी ही गैरजिम्मेदारी दिखाई जाती है। अगर सही और गलत का फर्क करके फिल्म और ऐसे टीवी शो देखे जाएं, तो इनमें से अधिकतर को देखना मुमकिन नहीं रहता। पूरी तरह से गैरजिम्मेदार होकर ही इनका आनंद उठाया जा सकता है।

जो समाज अपने भीतर के किसी नाबालिग लडक़े पर चोरी का आरोप लगने पर उसे चोर कहते हुए उसे हिकारत से देखता है, वह समाज एक और मुजरिम पाने का ही हकदार रहता है। लेकिन हम मरने और मारने के जो आंकड़े सामने आते हैं उनसे परे जब देखते हैं, तो समझ पड़ता है कि साथियों और समाज के ओछे शब्दों की वजह से जाने कितने ही बच्चे और बड़े, महिलाएं या गरीब, बीमार या विकलांग हीनभावना का शिकार होकर जीते होंगे। चूंकि यह हीनभावना पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक हत्या-आत्महत्या जैसी नौबत में तब्दील नहीं होती है, इसलिए उससे परेशान लोगों की गिनती नहीं लगाई जा सकती। लेकिन सच तो यह है कि जो समाज अपने ही लोगों को परेशान और प्रताडि़त करने का शौक रखता है, वह समाज अपनी पूरी संभावनाओं तक कभी नहीं पहुंच पाता। अवसाद के शिकार लोग समाज के अच्छे, और उत्पादक सदस्य नहीं बन पाते। और किसी देश का कानून लोगों में मानवीय मूल्यों को नहीं जगा पाता, इसके लिए समाज के लोगों के बीच एक सकारात्मक सोच जरूरी रहती है जो कि किसी स्कूल-कॉलेज के कोर्स का हिस्सा नहीं हो सकती। इसे परिवार, पड़ोस, समाज, और स्कूल, इन सभी जगहों पर सकारात्मकता के लिए सक्रिय लोग ही पैदा कर सकते हैं, और बढ़ावा दे सकते हैं। लोगों को इसकी शुरूआत अपने घर से, खुद से, अपने बच्चों से, और परिवार के बाकी लोगों से करनी चाहिए। इसके लिए लोगों के मन में लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रति सम्मान होना चाहिए, प्राकृतिक न्याय की एक समझ विकसित की जानी चाहिए, और कमजोर की मदद करने जितनी रहम दिल में रहनी चाहिए। आज परिवार और उसके सदस्य जितने आत्मकेन्द्रित हो गए हैं, जितने मतलबपरस्त हो गए हैं, और जिंदगी में कामयाबी की परिभाषा इम्तिहानों के नंबर, और नौकरी की तनख्वाह तक जिस तरह सीमित रह गई है, उसमें लोगों का रहमदिल होना कोई खूबी नहीं गिनी जाती। समाज में जब तक महीन मानवीय मूल्यों का महत्व दुबारा कायम नहीं होगा, तब तक ऐसी नौबत आती रहेगी कि औरों के तानों से तनाव में आए लोग दूसरों के खिलाफ हिंसा करते रहेंगे, या आत्मघाती काम करेंगे, या मानसिक रूप से बीमार इंसान की तरह जिएंगे। हम जिस समाधान को सुझा रहे हैं, उसके लिए पूरे समाज का संवेदनशील होना जरूरी है, उसके लिए हर तरह से लोगों का बेहतर इंसान होना जरूरी है, उसका कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता।

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