संपादकीय
बिहार में एक अजीब सी नौबत आ गई है कि वहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जाति-आधारित जनगणना करवाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई और उसमें सत्तारूढ़ गठबंधन के भागीदार भाजपा सहित सभी 9 प्रमुख पार्टियों ने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया। यह काम करने के लिए बिहार, और खासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लंबे समय से केन्द्र सरकार से मांग करते आ रहे थे, और अब बिहार सरकार ने खुद ही इसे करवाने का फैसला लिया है। केन्द्र सरकार इससे सहमत नहीं है, और बरसों से इस मांग पर वह कोई फैसला नहीं ले रही है, लेकिन बिहार के इस प्रदेश स्तरीय फैसले का वहां की बीजेपी ने भी साथ दिया है, अगर खुलकर साथ नहीं भी दिया है तो भी इसका विरोध भी नहीं किया है, क्योंकि जातियों को नाराज करके चुनाव लडऩा नामुमकिन हो जाएगा। बिहार की सभी पार्टियों का यह कहना है कि जाति-आधारित जनगणना से सत्ता में कमजोर जातियों की भागीदारी बढ़ाने में मदद मिलेगी।
उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे दो बड़े हिन्दीभाषी उत्तर भारतीय राज्य जाति की राजनीति करते हैं। पंचायत और वार्ड के चुनाव से लेकर संसद और मुख्यमंत्री के चुनाव तक में जाति को अनदेखा नहीं किया जा सकता। तमाम बड़ी पार्टियां या तो खुलकर जाति की बात करती हैं, या फिर टिकटें बांटते हुए जाति के आधार पर जीत की संभावना देखकर ही उम्मीदवार तय करती हैं। सरकारी नौकरियों में भी ताकत की किसी कुर्सी पर तैनाती जाति के आधार पर होती है, और लोग खुलकर इसकी चर्चा करते हैं, इसका असर सरकारी कामकाज और फैसलों पर भी देखने मिलता है। लेकिन इस जाति-आधारित जनगणना से दलितों और आदिवासियों का अधिक लेना-देना इसलिए नहीं है कि उनके तबके पहले से अच्छी तरह पहचाने हुए हैं, उनकी गिनती भी साफ है, और उनके लिए सीटों का आरक्षण भी बिल्कुल साफ है। इससे मोटेतौर पर पिछड़ों का लेना-देना है जिनमें पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच अनुपात और संभावना की खींचतान चलती रहती है।
अभी तो लंबे समय से चली आ रही मांग के बाद राज्य सरकार ने केन्द्र की किसी सहमति-अनुमति की परवाह किए बिना अपने अधिकार क्षेत्र में इस जनगणना का फैसला लिया है। लेकिन एक बार इसके आंकड़े सामने आ जाने के बाद जाहिर तौर पर पिछड़ा वर्ग आरक्षण के भीतर अलग-अलग तबके बनाने की मांग होगी ही। इस जनगणना का घोषित या अघोषित मकसद भी वही है कि ओबीसी के भीतर परिवार की सालान कमाई के आधार पर विभाजन के अलावा यह एक विभाजन भी किया जाना चाहिए कि जाति के आधार पर अतिपिछड़े लोग कौन हैं? इससे यह एक अलग सवाल खड़ा हो सकता है कि आज ओबीसी के भीतर आय-आधारित दो तबके हैं, तो क्या इस नई जनगणना के बाद आय-आधारित चार तबके हो जाएंगे, जिनमें से ओबीसी में दो, और अतिओबीसी में दो तबके रहेंगे? क्या इस जनगणना से पढ़ाई और नौकरी के आरक्षण दुबारा तय होंगे, चुनाव में आरक्षण दुबारा तय होगा, या फिर उसके लिए वंचित तबकों को अलग से एक संघर्ष करना पड़ेगा? क्योंकि अब जो जनगणना होने जा रही है, वह किसी धर्म के भीतर जाति, और उपजाति की अलग-अलग आबादी दिखाएगी। उसके बाद यह सवाल खड़ा होगा कि क्या पढ़ाई, सरकारी और राजनीतिक बंटवारा सिर्फ जाति के आधार पर उस अनुपात में हो, या वंचित तबकों को उसमें अधिक हक मिले ताकि वे आधी-एक सदी में कुछ ऊपर आ सकें, या फिर कुछ जातियों के भीतर ही यह संघर्ष होगा, अभी कुछ साफ नहीं है। यह जरूर है कि ऐसे किसी भी वर्ग और वर्ण संघर्ष के लिए एक जमीन इस जाति-आधारित जनगणना से बनेगी जिस पर हक की लड़ाई लड़ी जा सकेगी।
बिहार की राजनीति में यह भी माना जाता है कि हिन्दू धर्म के तहत आने वाली जातियों के बीच जब कभी विभाजन की बात आती है, तो वह भाजपा की हिन्दू पहचान को नुकसान पहुंचाती है। जब सवर्ण और ओबीसी, दलित और आदिवासी जैसे तबके खड़े होते हैं, तो उनके भीतर अपने स्थानीय लीडर तैयार होते हैं, और वे भाजपा को एक साथ हासिल होने वाले हिन्दू तबके की तरह काम नहीं करते। इसलिए जब कभी हिन्दुओं के बीच जाति और गरीबी के आधार पर अलग-अलग तबके बनेंगे, तो वे व्यापक हिन्दू समाज की धारणा को कमजोर करेंगे। इसलिए भाजपा अपनी चुनावी राजनीति के हिसाब से, हिन्दू समाज को अलग-अलग तबकों में देखना नहीं चाहती है। देश के जो प्रदेश जाति की इतनी तंग सरहदों से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें दूर बैठकर यूपी-बिहार के जातिवाद का अंदाज नहीं लग सकता है। लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि बिहार की यह जाति-आधारित जनगणना धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में भी मांग पैदा करेगी, और वहां भी खासकर ओबीसी पर आधारित पार्टियां इसकी मांग कर सकती हैं। आने वाला वक्त यह बताएगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार किस तरह जाति-आधारित जनगणना के इस फैसले की पहल करके इसका राजनीतिक फायदा पाने वाले नेता बनते हैं, फिलहाल उन्होंने पहल नाम की यह जीत तो हासिल कर ही ली है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)