संपादकीय
देश के चुनावी राज्यों में कांग्रेस पार्टी बड़ी रफ्तार से काम करते दिख रही है। पहले छत्तीसगढ़ के सबसे बेचैन चल रहे कांग्रेस नेता टी.एस. सिंहदेव को उपमुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने विधानसभा चुनाव के पहले एक बड़ा असंतोष खत्म किया। दूसरी तरफ मानो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के साथ एक संतुलन बनाए रखने के लिए कल शाम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोहन मरकाम को हटाकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की पसंद बस्तर के सांसद दीपक बैज को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। देखने में ये दो फैसले अलग-अलग लगते हैं, लेकिन एक किस्म से ये एक पैकेज का हिस्सा भी लगते हैं। ऐसा लगता है कि सीएम के कंधों पर एक डिप्टी बिठाकर उनके महत्व को जो कम किया गया था, उसकी भरपाई सीएम को नापसंद प्रदेश अध्यक्ष को हटाकर पार्टी ने कर दी है। अब यह भी समझा जा रहा है कि हटाए गए अध्यक्ष मोहन मरकाम को मंत्री बना दिया जाएगा, ताकि उनकी भी भरपाई हो सके। एक पखवाड़े में इस प्रदेश में दो बड़े फैसले लेकर कांग्रेस हाईकमान ने एक बार फिर अपना अस्तित्व साबित किया है, जो कि अभी तक अनिर्णय का शिकार दिखता था।
अब छत्तीसगढ़ की राजनीति के हिसाब से देखें तो बस्तर के विधायक मोहन मरकाम पार्टी अध्यक्ष थे, और उन्हें हटाकर बस्तर के ही सांसद दीपक बैज को प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया है, जिसकी चर्चा पिछले कुछ महीनों से चल ही रही थी। ऐसा माना जाता है कि यह फैसला कुछ समय पहले ही लिया जा चुका था, जिस पर अमल अभी हुआ है। अब यह माना जा रहा है कि प्रदेश मंत्रिमंडल में इस कार्यकाल का एक आखिरी फेरबदल जल्द ही होगा जिसमें उपमुख्यमंत्री बने टी.एस. सिंहदेव को कुछ और विभाग दिए जा सकते हैं, और मरकाम को शामिल किया जा सकता है। कुछ मंत्रियों की सेहत और साख को देखते हुए, उनका काम हल्का भी किया जा सकता है। कांग्रेस संगठन के स्तर पर शायद यह आखिरी बड़ा फैसला रहेगा, और उसके बाद पार्टी चाहेगी कि छत्तीसगढ़ के सभी नेता संतुष्ट होकर चुनावी तैयारियों में लगें। पार्टी शायद यह भी देखती है कि एक प्रदेश का कांग्रेस का असंतोष दूसरे प्रदेश में भी पार्टी की घरेलू आग को हवा देता है, और एक-एक करके सभी जगह युद्धविराम की नौबत पार्टी को हिमाचल और कर्नाटक की तरह फतह दिला सकती है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासी बस्तर की दर्जनभर विधानसभा सीटों का पिछले दो चुनावों में कांग्रेस को बड़ा सहारा रहा, लेकिन इस बार हवा यह बनी हुई है कि बस्तर में कांग्रेस की हालत खराब है। मरकाम बस्तर के ही आदिवासी विधायक हैं, और उन्हें विधानसभा चुनाव भी लडऩा है। इसलिए खुद लडऩे वाले व्यक्ति को प्रदेश अध्यक्ष के पद पर बनाए रखने का कोई मतलब नहीं था, और सीएम की मर्जी से परे भी मरकाम को बदलना पार्टी का एक सही फैसला था। दीपक बैज प्रदेश के 11 लोकसभा सदस्यों में से कांग्रेस के 2 लोगों में से 1 हैं। इसके पहले भी वे दो बार विधायक रहे हुए हैं, और उनके नाम पर किसी चुनाव में हार दर्ज नहीं है। वे कमउम्र हैं, और इतने नए हैं कि उनके नाम से कोई विवाद अभी खड़ा नहीं है। यह एक अलग बात है कि उन्होंने छत्तीसगढ़ पूरा देखा भी नहीं है। उनके करीबी बताते हैं कि अपने शहर जगदलपुर से राजधानी रायपुर के रास्ते में आने वाले जिलों के अलावा वे प्रदेश के किसी भी जिले में शायद ही गए हों। ऐसा प्रदेश अध्यक्ष रहने पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का काम आसान भी हो जाता है कि सत्ता और संगठन में किसी टकराव की नौबत से उबरकर अब वे अपनी मर्जी से इन दोनों को चला सकेंगे, और यह चुनाव के वक्त कम से कम उनके लिए सहूलियत की एक बात होगी। जहां तक कांग्रेस पार्टी का सवाल है, तो उसने सिंहदेव को महत्व देकर, डिप्टी सीएम बनाकर छत्तीसगढ़ में एक संतुलन बनाने की कोशिश की है। और इसी संतुलन के चलते दीपक बैज एक ऐसे प्रदेश अध्यक्ष हैं जिनको शायद विधानसभा अध्यक्ष चरणदास महंत का भी आशीर्वाद प्राप्त है, और सिंहदेव सरगुजा से बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष चाहते थे, तो वह बात भी इससे पूरी हो जा रही है। सिंहदेव की दिक्कत यह थी कि दीपक बैज के पहले सरगुजा के अमरजीत भगत का नाम प्रदेश अध्यक्ष के लिए सोचा गया था, जो कि सिंहदेव के खिलाफ चलते हैं, और उन्होंने खुद भी मंत्री पद छोडक़र संगठन संभालने से नाखुशी जता दी थी। कुल मिलाकर दीपक बैज में कांग्रेस के तीन ताकतवर और वरिष्ठ नेताओं की सहमति साबित हो रही है, और ऐसी भी चर्चा है कि दीपक बैज को विधानसभा का टिकट नौजवान कोटे से राहुल गांधी के अध्यक्ष रहते दिया गया था। तो कांग्रेस हाईकमान से लेकर छत्तीसगढ़ के नेताओं तक ने सबने अपनी मर्जी साध ली है, और अंग्रेजी में इसे विन-विन सिचुएशन कहा जाता है। मंत्रिमंडल में पहुंचने तक मरकाम का कद कुछ छोटा दिख सकता है लेकिन यह शायद दो-चार दिनों की ही बात हो।
विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस हाईकमान ने छत्तीसगढ़ में अपना घर एकदम ठीक कर लिया है। सत्ता के भीतर सिंहदेव की शक्ल में एक समानांतर महत्व खड़ा किया है, लेकिन संगठन सीएम के हवाले सरीखा कर दिया है। नौबत कुछ वैसी ही है कि एक कारोबारी ने अपने परिवार के लिए बहुत बड़ा मकान बनवाया, हर लडक़े के बीवी-बच्चों के लिए पर्याप्त इंतजाम किया, और फिर लोगों से कहा कि उसने मकान तो जरूरत से अधिक बड़ा बनवा दिया है, अब लडक़े साथ में रहें तो ठीक है, और न रहें तो...। उस कारोबारी की कही गई भाषा दुहराना यहां ठीक नहीं है, लेकिन जिन लोगों को कल शाम का छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेसाध्यक्ष हटाया जाना पार्टी में अस्थिरता दिख रहा है, उन्हें शायद एक अलग नजरिए से इसे देखने की जरूरत है कि यह स्थिरता आई है, बिगड़ी नहीं है। साथ ही छत्तीसगढ़ में कामयाबी से घरेलू बर्तनों की टकराहट रोक लेने का असर मध्यप्रदेश और राजस्थान पर भी होगा, और कांग्रेस हाईकमान की आवाज वहां पर अधिक मायने रखेगी।
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रूस और यूक्रेन में चल रही जंग आज दुनिया की सबसे बड़ी खबर है। आज जब नाटो देशों की बैठक हो रही है, और उसमें यूक्रेन अपनी सदस्यता के लिए बड़े कड़े शब्दों में फैसला लेने वाले तमाम देशों को याद दिला रहा है कि अगर उसे रूस के हाथों और अधिक बर्बाद होने दिया गया, तो उससे रूस के आतंकी हौसले बढ़ते जाएंगे। नाटो की अपनी मजबूरी यह है कि वह सारे सदस्यों की सहमति के बिना तेजी से ऐसा कोई फैसला नहीं ले सकता, और उसके कुछ वजनदार और ताकतवर सदस्य ऐसे भी हैं जो कि तेज रफ्तार से यूक्रेन को नाटो का सदस्य बनाने के इसलिए खिलाफ हैं कि यह रफ्तार रूस को भडक़ा सकती है, और वह एक परमाणु हथियार संपन्न देश होने की वजह से कई और देशों पर खतरा बन सकता है। आज यूक्रेन का साथ दे रहे नाटो देश और खासकर अमरीका जैसी ताकतें बहुत संभल-संभलकर आगे बढ़ रही हैं, और यूक्रेन की फौजी मदद भी उन हथियारों से ही की जा रही है जिन्हें आत्मरक्षा के लिए जरूरी साबित किया जा सके। यूक्रेन को ऐसे हथियार नहीं दिए जा रहे जो कि रूस पर हमला करने के लिए की गई मदद करार दिए जा सकें।
ऐसे माहौल में एक दूसरी खबर रूस की तरफ ध्यान खींचती है कि पिछले पखवाड़े रूस के भीतर उसकी भाड़े की फौज के बगावत करने की जो खबरें आई थीं, उनकी हकीकत क्या थी? यह सवाल ऊपर लिखे गए नाटो की दुविधा के मुद्दे से कुछ परे का भी दिख सकता है, लेकिन यह उससे जुड़ा हुआ भी है क्योंकि यूक्रेन की इस जंग में जो भी हालत होती है, वह नाटो देशों के लिए एक गंभीर फौजी नौबत भी रहेगी। अब रूस के भीतर की ताजा खबर यह है कि रूस में भाड़े की जो फौज वाग्नर ग्रुप के नाम से काम करती है, और रूसी सरकार की मर्जी के मुताबिक वह दुनिया के कई देशों में जाकर फौजी कार्रवाई करती है, उसके बगावत करने वाले नेता प्रिगोझिन रूस में ही है, और उसकी रूसी राष्ट्रपति पुतिन से मुलाकात भी हुई है। इस बात को खुद रूसी सरकार ने बताया है और कहा है कि वाग्नर की उस कार्रवाई के हफ्ते भर बाद इन दोनों में तीन घंटे बैठक हुई। वाग्नर ग्रुप यूक्रेन में रूसी सेना की ओर से फौजी कार्रवाई भी कर रहा था, लेकिन वाग्नर के मुखिया प्रिगोझिन का रूसी फौजी जनरलों के साथ लगातार टकराव भी चल रहा था जो कि बताया जाता है कि बगावत की नौबत तक पहुंचा था। अब रूसी सरकार ने जितने खुलासे से इस बैठक की जानकारी दी है, वह भी बड़ी अटपटी लग रही है।
जंग के ऐसे माहौल में किसी भी सरकार के भीतर बहुत सी बातें गोपनीय रहती हैं, और ऐसे में वाग्नर मुखिया के साथ राष्ट्रपति की दूसरे फौजी अफसरों को बिठाकर की गई यह बैठक क्यों प्रचार के लायक समझी गई, इसे भी समझना मुश्किल है। साथ-साथ यह समझना भी मुश्किल है कि वाग्नर ग्रुप ने जिस तरह से रूसी सरकार के खिलाफ बगावत शुरू की, और कुछ घंटों या एक दिन के भीतर ही जिस तरह से वह झाग के बुलबुलों सरीखे शांत हो गई, उसके पीछे मकसद क्या था? यही वह मुद्दा है जिस पर हम आज आगे लिखना चाहते हैं। दरअसल बहुत सी चीजें जो जाहिर तौर पर कुछ दिखती हैं, वे हकीकत में कुछ और भी रहती हैं। और रूस जैसी महाशक्ति एक जंग के बीच में कई तरह के झूठ भी फैला सकती है। वाग्नर की रूस के खिलाफ बगावत जिस तरह रॉकेट की तरह उठी, और बीयर के झाग की तरह बैठ गई, उससे लोगों की यह अटकल तेजी से ठंडी पड़ गई कि अमरीका सहित कुछ पश्चिमी ताकतों ने वाग्नर को पुतिन के खिलाफ मोर्चा खोलने के लिए तैयार किया था। अगर ऐसा होता तो वाग्नर एक दिन में ही शांत न हो गया होता, और इस एक दिन में भी उसने रूस का कोई असल नुकसान नहीं किया था। दूसरी बात यह भी मानी जा रही है कि वाग्नर से एक नकली बगावत पुतिन ने ही करवाई, ताकि पुतिन को यह पता चल सके कि रूसी फौजी जनरलों में कौन उनके खिलाफ हैं। यह कुछ उस किस्म की बात हो सकती है कि भारत में आज चुनावों के कुछ महीने पहले कोई पार्टी या नेता अपने किसी समर्थक को बागी बताते हुए दूसरी पार्टी में भेजने का नाटक करवाए, और फिर चुनाव तक वहां की खबर लेते रहे। बहुत से लोगों का यह मानना था कि पुतिन ने वाग्नर के मुखिया से बगावत का यह नाटक इसीलिए करवाया था कि उस वक्त कोई और रूसी नेता या फौजी जनरल पुतिन के खिलाफ हो, तो उसकी नीयत भी उजागर हो सके।
इस पूरी बात को इतने खुलासे से लिखने का मकसद रूस के भीतर की बारीकियों को लिखना नहीं है, बल्कि दुनिया में कहीं भी इस किस्म की साजिश से सावधान रखना है। किसी भी देश में, किसी भी पार्टी में कोई ऐसा झूठा बागी खड़ा किया जा सकता है जो दूसरे खेमे में, दूसरी पार्टी में जाकर पहले तो वहां की हमदर्दी हासिल करे, और फिर यह पता लगाए कि वहां के कौन-कौन से नेता उसके अपने पुराने नेता के खिलाफ हैं, और उनकी क्या तैयारियां हैं। आज किसी पार्टी में शामिल होने वाले लोगों को लेकर यह सावधानी बरतनी चाहिए कि वे एक जासूस की तरह भी भेजे जा रहे हो सकते हैं, और वे कुछ अरसा नई पार्टी में काम करने के बाद फिर कोई बहाना बनाकर पुरानी पार्टी मेें लौट जाएं, जैसा कि बहुत से नेता करते हैं। इसलिए लोगों को सावधान भी रहना चाहिए कि ताजा-ताजा आए हुए लोग राजदार न बना लिए जाएं। इस बात को लिखना इसलिए भी जरूरी है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में वामपंथियों को छोडक़र तमाम पार्टियां किसी भी गंदगी को वापिस लेने के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हैं, और फिर अगर कोई जासूसी के ऐसे मकसद से दूसरी पार्टी में भेजे जाएं, तो उनकी घरवापिसी का रास्ता तो हमेशा ही खुले रहता है। इसलिए नए-नए आने वाले लोगों को उनका सम्मान करने के नाम पर इस तरह भीतर तक नहीं ले जाना चाहिए कि वे तबाही का सामान बन सकें।
बात शुरू तो हुई थी यूक्रेन से, फिर वह रूस चली गई, और वहां से हिन्दुस्तान के लिए एक सबक लेकर पहुंची है। जिनको इससे सावधानी सीखनी हो वे सीख सकते हैं, बाकी धोखा खाना तो हर किसी का जन्मसिद्ध अधिकार रहता ही है।
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मध्यप्रदेश में अभी छेडख़ानी से तंग एक लडक़ी ने खुदकुशी की, और उसके बाद पुलिस कार्रवाई न होने से निराश उसके पिता ने खुदकुशी की। अब उस लडक़ी की रोती हुई मां छेडऩे वालों के घर पर बुलडोजर चलाने की मांग कर रही है। यह नौबत मध्यप्रदेश में ही नहीं है, बल्कि कई दूसरे प्रदेशों में भी है। कॉलेज में पढऩे वाली छात्रा, रक्षा गोस्वामी ने गांव के लोगों की छेडख़ानी से थककर आत्महत्या कर ली थी, और उसने सुसाइड नोट में छह लोगों के नाम भी लिखे थे। पुलिस ने इनमें से सिर्फ एक को गिरफ्तार किया था, और जमानत पर छूटने के बाद वह आरोपी खुदकुशी वाली लडक़ी के पिता को धमका रहा था। डरे हुए पिता ने भी आत्महत्या कर ली, और जब उसकी लाश सडक़ पर रखकर लोगों ने चक्काजाम किया, तब कहीं जाकर पुलिस ने सुसाइड नोट में लिखे नामों पर जुर्म दर्ज किया। परिवार का झोपड़े से भी गया-बीता छोटा सा घर जर्जर हो चुका है। और मध्यप्रदेश के सर्वाधिक बड़बोले गृहमंत्री अब जाकर कुछ पुलिसवालों को निलंबित कर रहे हैं, किसी बड़े अफसर को जांच की जिम्मेदारी दे रहे हैं।
मध्यप्रदेश के बारे में यह समझने की जरूरत है कि वहां इस किस्म की अराजक घटनाएं लगातार हो रही हैं, और अब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए मुख्यमंत्री निवास पर बुलाकर पांव धोने को इस परिवार की अकेली रह गई महिला एकदम सही व्यक्ति होगी जिसे वे मां या ताई जो चाहे कहें, चाहें तो बहन कहें, और चाहें तो मरने वाली लडक़ी को भांजी कहें। मुख्यमंत्री निवास पर एक बड़े हॉल में कई परातें सजा देनी चाहिए जहां वे बारी-बारी से लोगों के पैर धोते रहें। एक सरकार जिसे कि कानून का राज लागू करना चाहिए, वह कहीं किसी फिल्मी सितारे के पीछे बावलों की तरह पड़ी रहती थी, तो कहीं किसी लेखक या व्यंग्यकार को एफआईआर की धमकी देती रहती थी, तब तक जब तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से अपने एक प्रदेश के गृहमंत्री की ऐसी हरकतों पर नाखुशी जाहिर नहीं कर दी थी।
खैर, कोई पार्टी अगर अपने ही मुख्यमंत्री, बाकी मंत्रियों से बेहतर कामकाज की उम्मीद करती है, तो उसे खुद भी कुछ मिसालें पेश करनी पड़ती हैं। आज तो देश में एक मिसाल बड़ी साफ-साफ है कि ओलंपिक से गोल्ड मैडल लेकर आने वाली पहलवान लड़कियों की छेडख़ानी और यौन शोषण की दर्जनों घटनाओं की शिकायत के बाद भी भाजपा ने अपने एक बाहुबली सांसद बृजभूषण सिंह को आज तक पार्टी से निलंबित भी नहीं किया है, उनको कोई नोटिस भी नहीं दिया है। महीनों तक ये लड़कियां सडक़ों पर प्रदर्शन करती रहीं, भाजपा के समर्थक सोशल मीडिया पर इन लड़कियों पर बदचलनी के साथ-साथ साजिश जैसी तोहमतें लगाते रहे, इनको देशद्रोही करार दिया गया, और कांग्रेस का हथियार बताया गया, लेकिन भाजपा ने अपने इस सांसद को छुआ भी नहीं। मतलब यह कि उसकी मिसाल अपने बाकी मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों के लिए साफ थी कि अगर कोई पार्टी में बहुत बड़ा ताकतवर है तो फिर चाहे सुप्रीम कोर्ट ही उसके कुकर्मों पर पुलिस रिपोर्ट लिखने क्यों न कहे, पार्टी उस पर कुछ नहीं कहेगी। और ऐसी मिसाल के बाद अगर मध्यप्रदेश या दूसरे प्रदेश अपने बलात्कारियों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं, तो वह किसी तरह से भी पार्टी अनुशासन के खिलाफ नहीं है।
न सिर्फ राजनीतिक दल, बल्कि सरकारें और पुलिस जैसे महकमे भी एक-दूसरे को देखकर सबक लेते रहते हैं, और ऐसा सबक ईमानदार और कड़ी कार्रवाई के लिए तो कम ही लिया जाता है, आमतौर पर कुकर्मों के लिए अधिक लिया जाता है। यही वजह है कि गरीब लडक़ी खुदकुशी कर रही है, उसका पिता खुदकुशी कर रहा है, पुलिस कार्रवाई न होने की वजह से दो जिंदगियां बेबसी में खत्म हो रही हैं, और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने मंत्रियों के साथ, सपत्नीक पूल लंच या डिनर कर रहे हैं, ऐसा सरकारी वीडियो विदिशा के इस परिवार की मौतों की दशगात्र या तेरहवीं का पूल-भोज लग रहा है।
अभी दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट की कड़ी निगरानी की वजह से, बहुत ही अनमने होने के बावजूद निचली अदालत में भाजपा सांसद और भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दायर चार्जशीट में लिखा है कि अब तक की जांच के आधार पर बृजभूषण पर यौन उत्पीडऩ, छेड़छाड़, और पीछा करने के अपराधों के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है, और दंडित किया जा सकता है। इन धाराओं के तहत अपराध सिद्ध होने पर पांच साल तक की जेल हो सकती है। पुलिस ने जिन गवाहों से बात की है, उनमें से पन्द्रह ने पहलवान लड़कियों के आरोपों को सही बताया है। इस भाजपा सांसद पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में जा चुकीं महिला पहलवानों के यौन उत्पीडऩ के पन्द्रह आरोप लगे हैं।
देखना यह है कि भाजपा अब भी अपने इस सांसद के खिलाफ पार्टी की कोई कार्रवाई करती है या नहीं? ऐसा बताया जाता है कि यह सांसद अपने इलाके में कई सीटों पर भाजपा का भविष्य प्रभावित करने की ताकत रखता है, और इसीलिए पार्टी उसे छू नहीं रही है। इसके पहले भी वह बहुत बड़े-बड़े आरोपों में फंसे रहा, और यह साफ करना बेहतर होगा कि इसके पहले वह समाजवादी पार्टी से भी सांसद बन चुका है। उसके खिलाफ बड़े-बड़े जुर्मों के 38 मामले दर्ज हैं और एक वीडियो इंटरव्यू में उसने खुद यह मंजूर किया था कि वह पहले एक कत्ल कर चुका है। उसने कैमरे के सामने कहा था कि उसने अपने एक दोस्त के हत्यारे की हत्या की थी। देश के राजनीतिक दलों में चुनाव जीतने की संभावना रखने वाले तमाम मवालियों के लिए अपार मोहब्बत पैदा हो जाती है। बहुत कम राजनीतिक दल ऐसे होंगे जिन्हें जीतने की संभावना वाले हत्यारों और बलात्कारियों से परहेज हो, अगर उनके मामले उन्हें चुनाव आयोग के नियमों में अपात्र न बनाते हैं।
हमारा ख्याल है कि देश भर के इंसानों को हर उस पार्टी का जमकर विरोध करना चाहिए जो कि हत्या और बलात्कार जैसे, यौन शोषण और अपहरण जैसे जुर्म में फंसे दिख रहे लोगों को उम्मीदवार बना रही हैं। ऐसी पार्टियों से सार्वजनिक सवाल होने चाहिए, उन्हें सार्वजनिक रूप से धिक्कारना चाहिए, और अगर उन्हीं की सरकारों के मातहत ऐसा हो रहा है, और कार्रवाई नहीं हो रही है, तो सोशल मीडिया पर भी उनके खिलाफ जमकर लिखा जाना चाहिए। ऐसी पार्टियां जहां-जहां सरकार बनाएंगी, वहां-वहां अपने बलात्कारियों को इसी तरह बचाएंगी, ऐसी पार्टियां चाहे वे कोई भी हों, उन्हें पूरी तरह खारिज करना चाहिए, तभी लोगों की बहन-बेटियां हिफाजत से रह सकेंगी। बृजभूषण शरण सिंह का मामला यह बताता है कि कोई पार्टी किस हद तक बेशर्म हो सकती है, और किस हद तक अपने पसंदीदा मुजरिम के साथ खड़े रह सकती है।
हिन्दुस्तान के लोग पिछले दो-तीन दिनों से हिमालय पहाड़ी क्षेत्र में हो रही तबाही के वीडियो देखकर दहले हुए हैं। इनमें जम्मू और श्रीनगर के बीच के हाईवे पर एक सुरंग के मुहाने पर बहकर खत्म हो गई पहाड़ी सडक़ का वीडियो सबसे ही भयानक दिखता है, लेकिन हिमाचल से ऐसे और कई वीडियो आए हैं जिनमें नदियां तबाही फैलाते हुए बस्तियों के भीतर घुस रही हैं, और साथ वे लकडिय़ों के इतने लट्ठे और इतना कीचड़ लेकर आ रही हैं कि पूरा गांव उससे पट जा रहा है। कुछ पुलों पर खड़े हुए लोग बहती हुई कारों के वीडियो बना रहे हैं, और किनारे खड़े कुछ लोग लोहे के बहते हुए पुलों को भी कैमरों पर कैद कर रहे हैं। अभी तो बारिश का पूरा विकराल दौर शुरू भी नहीं हुआ है, और तबाही इस हद तक पहुंची दिख रही है, आगे जाने क्या होगा। और जिस तरह जम्मू-श्रीनगर हाईवे बह गया है, उसकी तो अगले लंबे वक्त तक मरम्मत भी मुमकिन नहीं दिख रही है क्योंकि उसके नीचे की पूरी पहाड़ी ही धसक गई है।
Video which I just got from kasol.#HimachalPradesh #Himachal #kasol #flooding #monsoon pic.twitter.com/6ouluUBl5n
— Sidharth Shukla (@sidhshuk) July 9, 2023
हिन्दुस्तान में हिमालय पर्वतमाला के बहुत से हिस्सों में इतना बेतरतीब विकास हो रहा है कि ऐसी और इससे भी बुरी तबाही का खतरा खड़े ही रहेगा। लोगों को याद होगा कि दस बरस पहले केदारनाथ में जो विकराल बाढ़ आई थी, उसकी भविष्यवाणी भी किसी ने नहीं की थी, और उससे हुई तबाही का ठीक-ठीक अंदाज तो आज तक नहीं लग पाया है, क्योंकि बहुत से बेघर लोग उसके मलबे में कहीं-कहीं दबे पड़े होंगे, और उनकी खबर भी किसी को नहीं होगी। किसी भी धर्म के तीर्थस्थानों के आसपास ऐसे बहुत से गरीब, बेघर, बीमार, बूढ़े रहते हैं जो कि श्रद्धालुओं से मिली भीख पर जिंदा रहते हैं, और जिनके न रहने पर उनके नाम पर रोने वाले लोग नहीं रहते। ऐसे कितने ही लोग केदारनाथ की बाढ़ में मरे होंगे, और उनका हिसाब भी नहीं रहा होगा।
कश्मीर से लेकर हिमाचल और उत्तराखंड तक केन्द्र और राज्य सरकारें मिलकर और अलग-अलग जितने किस्म के प्रोजेक्ट चला रही हैं, और उनसे जो खतरे खड़े हो रहे हैं, उनके बारे में कुछ दिन पहले इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर एक पर्यावरण-पत्रकार हृदयेश जोशी का एक इंटरव्यू पोस्ट किया गया था जिन्होंने केदारनाथ की दस बरस पहले की तबाही के बाद सबसे पहले वहां पहुंचकर रिपोर्टिंग की थी, और किताब लिखी थी। उन्होंने भी पहाड़ी इलाकों के नाजुक पर्यावरण और वहां की जमीन की सीमित क्षमता के बारे में बहुत कुछ कहा था, जिसे अलग से देखा-सुना जा सकता है। ऐसे कई जानकार लोगों का कहना यही है कि नेता, अफसर, और ठेकेदार मिलकर अंधाधुंध प्रोजेक्ट बना रहे हैं जिसमें उनके हाथ मोटा कमीशन लगे, लेकिन प्राकृतिक विपदा का खतरा चाहे कितना ही बढ़ता क्यों न चले। अभी जिस तरह एक मामूली बारिश, जो कि इस मौसम की शुरूआत ही है, वही दिल दहलाने वाले जैसे नजारे दिखा रही है, उससे किसी विकराल बारिश की नौबत में हालत का अंदाज लगाया जा सकता है। जिस तरह सडक़ों को चौड़ा करने, सुरंगें बनाने, नदियों पर बांध बनाने, नदियों के किनारे किसी भी तरह के निर्माण और खुदाई का मलबा पटक देने का काम चल रहा है, वह अभी दो दिनों के वीडियो में दिख रहा है कि पानी कितना कीचड़ और मलबा लेकर आ रहा है। पानी अगर सिर्फ पानी रहता, तो वह अधिक तबाही किए बिना निकल गया रहता, लेकिन जब पानी किनारों पर डाल दिए गए मलबों को बहाकर ला रहा है तो वह नदियों को उससे पाट भी रहा है, और उथली रह गई नदियां बाढ़ का पानी समा नहीं पा रही हैं, और पानी किनारों पर और दूर तक बढ़ रहा है, वह और अधिक मलबा और किनारे का सामान बहाकर ला रहा है। नदियों में गाद का जो भराव हो रहा है, उससे नदियों की पानी ढोने की क्षमता घटती जा रही है, और बाढ़ की नौबत में पानी किनारों पर अधिक दूर तक जाता है, और वहां से अधिक मलबा लाकर नदियों को और पाट देता है। यह सिलसिला बढ़ते ही चल रहा है।
Early Morning Scene Of Kullu manali pic.twitter.com/fRy18nvi7O
— Go Himachal (@GoHimachal_) July 9, 2023
हमने उस यूट्यूब इंटरव्यू पर भी इस खतरनाक नौबत को सामने रखा था, और पर्यावरण के जानकार लोग हमेशा से ही पहाड़ी इलाकों से ऐसा खिलवाड़ करने के खिलाफ चेतावनी देते आए हैं। पहाड़ों का भूगोल, वहां की जमीन के नीचे का ढांचा इस तरह का नहीं रहता है कि उससे ऐसे भयानक और गंभीर खिलवाड़ करने के लिए छूट ली जाए। फिर यह पूरा इलाका जिस तरह भूकंप के खतरे पर भी बैठा हुआ है, उसका भी ध्यान रखना चाहिए। लेकिन कहीं तीर्थयात्रा के लिए अधिक गाडिय़ों को तेजी से पहुंचाने के लिए चौड़े-चौड़े राजमार्ग बनाने पहाड़ों को काटा जा रहा है, तो कहीं पर्यटकों को अधिक ढोने के लिए पेड़ों को काटकर जमीन बनाई जा रही है। इन दोनों तबकों की बेतहाशा ढुलाई के लिए पहाड़ों के भविष्य को दांव पर लगा दिया जा रहा है, और यह भविष्य बहुत दूर का भी नहीं है, यह प्रोजेक्ट बनते-बनते ही तबाही लाने वाला भविष्य है जो कि पांच-दस साल के भीतर ही नतीजे दिखा रहा है। लंबे वक्त में पहाड़ों की ऐसी तबाही से और कितनी बर्बादी होगी, इसका अंदाज अगर लोगों को लग भी रहा है, तो भी वे इसे अनदेखा करने में ही मुनाफा देख रहे हैं। नतीजा यह है कि पहाड़ों पर परे से आने वाले तीर्थयात्रियों और सैलानियों की सहूलियतों के लिए वहां की कुदरत को, वहां के ढांचे को जितना तबाह किया जा रहा है, उसकी भरपाई कोई भी नहीं कर पाएंगे। लोगों को यह मान लेना चाहिए कि पहाड़ों की लोगों और ढांचों को ढोने की एक क्षमता है, और उससे अधिक छूट की उम्मीद करना इंसानों की खुद की तबाही होगी। धरती की सेहत पर पर्यावरण की ऐसी बर्बादी का कोई खास असर नहीं होना है क्योंकि इससे जितने इंसान तबाह होंगे, उससे धरती का पर्यावरण तबाह होना घटेगा भी। इसलिए कुदरत का एक संतुलन तो बने रहेगा।
पहाड़ों पर सडक़ों, सुरंगों, और पुलों को मुम्बई-पुणे एक्सप्रेस हाईवे की तरह का बनाने की जिद ऐसी बहुत सी तबाही ला रही है। फिर सैलानियों के लिए अधिक बिजली, अधिक पानी के लिए जो पनबिजली योजनाएं बनाई जा रही हैं, उनसे एक अलग तबाही आ रही है, और उससे भी बहुत बड़ी तबाही का खतरा खड़ा होते चल रहा है। चूंकि हिन्दुस्तान के बाकी अधिकतर हिस्सों के लोग अच्छे मौसम में पर्यटक-कस्बों को देखने चले जाते हैं, पहाड़ पर वक्त गुजारने चले जाते हैं, या तीर्थयात्रा के लिए चले जाते हैं, इसलिए उन्हें उस इलाके पर हमेशा के लिए खड़ा किया जा रहा खतरा दिखता नहीं है। बाकी देश का रिश्ता पहाड़ों से जिंदगी में कुछ बार बस कुछ-कुछ दिनों के लिए बनता है, इसलिए उन्हें उससे अधिक फिक्र हो भी नहीं सकती। लेकिन ऐसा लगता है कि इन पहाड़ी राज्यों की किसी भी योजना का काम पर्यावरण के बड़े जानकार लोगों की मदद से, बहुत ही तंगदिली से करना चाहिए, जो कि आज ठेकेदारों के नजरिए से, सत्ता की दरियादिली से, और अफसरों के भ्रष्टाचार से किया जा रहा है।
हिन्दुस्तान इंटरनेट बंद करने वाले दुनिया के देशों में सबसे आगे है। जहां कहीं साम्प्रदायिक या किसी दूसरे किस्म का दंगा होता है, वहां तो अफवाहें या हकीकत न फैलें, इसलिए भी इंटरनेट बंद कर दिया जाता है ताकि सोशल मीडिया पर भडक़ाने का काम न हो सके। यह तो समझ आता है। राजस्थान जैसे प्रदेश का इंटरनेट बंद करना भी समझ में आता है, यहां इम्तिहानों में पेपर आऊट करने और नकल करवाने को रोकने का और कोई जरिया नहीं दिखता। लेकिन देश के राष्ट्रपति भवन में इंटरनेट और टीवी के सिग्नल बंद होने की तो कोई वजह नहीं दिखती है। ऐसा भी नहीं लगता है कि राष्ट्रपति को अखबार देखने नहीं मिलते होंगे। फिर राष्ट्रपति हैं कहां? आज देश में पहली बार एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति है, और देश के एक आदिवासी बहुल राज्य में जिस तरह से आदिवासियों के साथ हिंसा हो रही है, जिस तरह वे एक राज्य के घरेलू मोर्चे पर हिंसा में आमने-सामने हैं, उन्हें देखकर लगता है कि क्या आदिवासी महिला राष्ट्रपति को इसकी खबर नहीं लग रही है? मणिपुर के हालात समझने के लिए न मैतेई जुबान जरूरी है, न कुकी या नगा जुबान, हिन्दी और अंग्रेजी में भी इस प्रदेश की हर जानकारी मौजूद है, बस यही लगता है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में आज राष्ट्रपति ही नामौजूद है जिसे कि सशस्त्र सेनाओं का सुप्रीम कमांडर होने का दर्जा भी हासिल है। जिस तरह राजकीय समारोहों में भाले लिए हुए घुड़सवारों के अंगरक्षक दस्ते से घिरी हुई राष्ट्रपति की बग्गी चलती है, उससे याद करने पर ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति की संवैधानिक जिम्मेदारी क्या महज अपने आपको बचाकर रखने की है? और यह भी लगता है कि राष्ट्रपति के ओहदे के भीतर एक इंसान की गुंजाइश तो हमेशा ही बची रहती है, ओहदे का मोह और उसका आतंक कभी भी इतना अधिक तो नहीं हो सकता कि राष्ट्रपति के भीतर के इंसान की पूरी तरह ही मौत हो जाए। अगर किसी राष्ट्रपति को एक और कार्यकाल का भी मोह है, तो भी सच्ची बात करने लायक इंसान तो भीतर फिर भी बचा होना चाहिए।
हम यह नहीं मानते कि राष्ट्रपति किसी एक तबके के होते हैं, उन्हें राजनीतिक वजहों से किसी एक तबके से लाकर राष्ट्रपति बनाया तो जा सकता है, लेकिन एक बार राष्ट्रपति बन जाने पर देश के तमाम तबकों के प्रति उनका नजरिया एक सरीखा रहना चाहिए। खासकर जो दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, और महिलाओं सरीखे कमजोर तबके हैं, उनका तो खास ख्याल रखना हर राष्ट्रपति की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत के संविधान में भी कई जगहों पर देश के आदिवासी बहुल चुनिंदा इलाकों के लिए राज्यपालों की एक अतिरिक्त संवैधानिक जिम्मेदारी गिनाई गई है, और उन्हें इसके लिए खास हक भी दिए गए हैं। राज्यपाल जिन अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर एक किस्म से राष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व करते हुए करते हैं। इसलिए राष्ट्रपति की तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती ही है। आज हिन्दुस्तान में हम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के आदिवासी होने की बात न भी करें, तो अगर कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, या वैश्य राष्ट्रपति भी होते, तो भी हमारा लिखना यही होता कि देश के अल्पसंख्यक और कमजोर तबकों के हक का खास ख्याल रखना उनकी पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर देश और प्रदेशों की सरकारें पर्याप्त करते हुए नहीं दिख रही हैं, तो राष्ट्रपति को सरकार से इस बारे में पूछताछ करना चाहिए जिसका हक उन्हें संविधान में साफ-साफ दिया गया है, और यह बात साफ है कि संविधान जब कोई हक देता है, तो उसके साथ उसी वाक्य या पैराग्राफ में लिखित या अलिखित कई किस्म की जिम्मेदारियां भी देता है। लोकतंत्र अधिकार और जिम्मेदारी एक-दूसरे के साथ ही चलते हैं। इसलिए आज अगर द्रौपदी मुर्मू के हाथ देश के संवैधानिक प्रमुख होने का अधिकार है, तो उन पर देश में सवैधानिक व्यवस्था लागू होने की जिम्मेदारी भी है। भारत की संसदीय शासन प्रणाली के मुताबिक राष्ट्रपति बहुत से मामलों में सरकार के ऊपर जाकर कोई कार्रवाई नहीं कर सकतीं, लेकिन वे सरकार से जवाब-तलब कर सकती हैं, सरकार को सुझाव दे सकती हैं, और सरकार से अपनी नाखुशी जाहिर कर सकती हैं। राष्ट्रपति की ड्यूटी में लिखा हुआ है कि उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी देश के संविधान और देश में कानून की रक्षा और बचाव करना है, जिसकी कि वे शपथ लेते हैं। उन्हें सिफारिश करने और निगरानी रखने (सुपरवाइजरी अधिकार) दिए गए हैं, और संविधान को बनाए रखने के लिए उनसे इनके इस्तेमाल की उम्मीद की जाती है। संविधान में लिखा हुआ है कि राष्ट्रपति का एक प्रमुख काम केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा, संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा लिए जाने वाले असंवैधानिक फैसलों को रोकना है, ताकि वे कानून न बन सकें। राष्ट्रपति संविधान के प्रमुख रक्षक हैं जो कि सरकारों और सदनों के असंवैधानिक कामों को रोक सकते/सकती हैं।
ऐसी संवैधानिक व्यवस्था से परे भी राष्ट्रपति को कई किस्म के संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं जिससे वे सरकार के प्रति अपनी नाराजगी बता सकते हैं, असहमति दर्ज कर सकते हैं, और सरकार के कई फैसलों को अपनी मेज पर आने पर खासे अरसे के लिए रोक सकते हैं। कुल मिलाकर राष्ट्रपति जिस दिन चाहें, उस दिन प्रधानमंत्री को खबर भेज सकते हैं कि वे आकर मिलें, और फिर प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे जल्द से जल्द जाकर राष्ट्रपति से मिलें, उनके सवालों के जवाब दें, उनकी मांगी गई जानकारियां दें, और उनकी जिज्ञासाओं को शांत भी करें। केन्द्र सरकार, मणिपुर सरकार, मणिपुर के राज्यपाल जैसी कई संस्थाएं हैं जिनसे राज्यपाल सीधे या केन्द्रीय मंत्रिमंडल के माध्यम से जानकारी मांग सकती हैं, या सुझाव भी दे सकती हैं। लेकिन राष्ट्रपति की चुप्पी भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है। अगर राष्ट्रपति ने केन्द्र सरकार से या प्रधानमंत्री से कोई जानकारी मांगी भी है, तो देश को भी उसका पता चलना चाहिए कि सरकार के ऊपर भी एक संवैधानिक व्यवस्था ऐसी है जिसके प्रति केन्द्र सरकार जवाबदेह है। आज ऐसा लगता है कि अगर केन्द्र सरकार ने मणिपुर की तरफ से अपनी आंखें बंद कर ली हैं, तो कोई भी उससे जवाब मांगने की हालत में नहीं हैं। जबकि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी नहीं हैं। उसमें सरकार, संसद, अदालत, और राष्ट्रपति इनके एक जटिल अंतरसंबंधों की व्यवस्था है। राष्ट्रपति का आज न सिर्फ यह हक है, बल्कि उनकी बहुत बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है कि वे प्रधानमंत्री को बुलाकर मणिपुर पर चर्चा करें, उस पर जानकारी लें, और अगर जरूरत पड़े तो अपने सवालों की शक्ल में भी वे प्रधानमंत्री को सलाह दे सकती हैं। केन्द्र सरकार अगर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी नहीं कर रही हैं, या पूरी करते हुए नहीं दिख रही है, तो यह राष्ट्रपति की बारी है।
अगर राष्ट्रपति को लगता है कि उन्हें इस कुर्सी पर बिठाने वाली सरकार उनके किसी सवाल से नाराज हो जाएगी, तो उन्हें प्रेमचंद के पंच परमेश्वर को पढऩा चाहिए जिसमें लेखक ने यह सवाल लिखा था- क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?
उत्तर भारत में सरकार के एक किसी सबसे निचले ओहदे पर काम करने वाले आदमी और उसकी अब अफसर बन गई बीवी के बीच का झगड़ा खबरों में छाया हुआ है। इन खबरों की सुर्खियां पढक़र जो समझ आता है वह यह है कि इस नौजवान ने अपने बीवी को शादी के बाद पढ़ा-लिखाकर, या उसकी मदद करके, या उस महिला ने खुद अपनी मेहनत से राज्य की प्रशासनिक सेवा में जगह पाई, और उसके बाद शायद उसे पता लगा कि पति जो अपने को छोटा अफसर बताता है, वह सफाई कर्मचारी है। इसके बाद खबरें बताती हैं कि इस महिला को उसके साथ रहना नहीं जमा, उसका कहना है कि उसे धोखा दिया गया था, पति का कहना है कि अब अफसर बनने के बाद पत्नी का किसी दूसरे अफसर से संबंध हो गया है, और इसलिए यह शादी टूट रही है। मामला सरकारी विभागीय जांच तक भी पहुंच गया है। अब जैसा कि पति-पत्नी के बीच ऐसे किसी विवाद में होता है, दोनों तरफ से जानकारी गलत देने के कई आरोप भी लग रहे हैं, और मामला पुलिस तक भी गया है।
हिन्दुस्तान का खबरों का मीडिया, और सोशल मीडिया, दोनों ही इस खबर पर टूट पड़े हैं। फिर इन दोनों जगहों पर इस मामले को चटपटा बनाने के लिए कुछ घरेलू वीडियो भी आए हैं जिसमें गालियां दी जा रही हैं, और झगड़ा चल रहा है। इस जोड़े की दो बेटियां भी हैं, और जाहिर है कि मां-बाप के बीच के इतने झगड़े, इतने तनाव का बुरा असर उन पर भी पड़ रहा होगा। हर किस्म के मीडिया पर लोगों का यह रूख सामने आ रहा है कि एक गरीब पति ने पत्नी की मदद करके उसे बढ़ावा दिया, और उसने अफसर बनते ही उसे दुत्कार दिया। यह एक निहायत ही निजी मामला था, जिसने सार्वजनिक शक्ल अख्तियार कर ली है। पति-पत्नी के बीच शादी के वक्त किसी जानकारी को छुपाना भी कोई बड़ी बात नहीं है, और पति का पत्नी को आगे बढ़ाना भी बहुत अनहोनी नहीं है। इसके साथ-साथ जब दोनों में से कोई एक खासा ऊपर चले जाए, तो उन्हें दूसरे का बोझ लगना या अपने लायक न लगना भी बहुत अनोखी बात नहीं है। अखिल भारतीय सेवाओं के बहुत से ऐसे अफसर रहते हैं जो अपनी जाति-परंपरा के मुताबिक, गांवों के रिवाजों के मुताबिक कम उम्र में ही शादीशुदा हो चुके रहते हैं, और बाद में जब वे बड़े अफसर बन जाते हैं, तो उन्हें गांव की वह बीवी ठीक नहीं लगती है, और उनमें से बहुत से लोग उसे गांव में छोडक़र एक शहरी बीवी भी ले आते हैं। ऐसा ही बहुत से नेताओं ने भी किया है जिनके नामों की चर्चा की जरूरत नहीं है। इसे जिंदगी का एक हिस्सा ही मानना चाहिए कि शादी के बाद अगर जोड़ीदारों के बीच कोई ऐसा बड़ा फासला आ जाता है, या उनमें से किसी एक की जिंदगी में कोई बहुत बड़ा बदलाव आता है, कोई दूसरे बहुत ताकतवर लोग उनकी जिंदगी में आ जाते हैं, तो उन्हें अपने जीवनसाथी फीके लगने लग सकते हैं। यह किसी और के आए बिना भी होता है, शादियां भी कई वजहों से टूटती हैं, बहुत सी शादियां इस वजहों से टूटती हैं कि लडक़े या लडक़ी की कोई शारीरिक या मानसिक दिक्कत छुपाकर रखी गई थी जो कि शादी के बाद सामने आई। इसलिए इस शादी का टूटना बहुत सी तोहमतों के साथ जरूर हो रहा है, लेकिन तोहमतों से परे बहुत सी शादियां टूटती ही रहती हैं।
अब कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इससे लोगों का हौसला पस्त होगा, और वे अपने बीवी को आगे बढ़ाने से हिचकेंगे। हिन्दुस्तानी समाज को देखें, तो औरत का हौसला बढ़ाने में आदमी का हौसला हमेशा से ही पस्त रहते आया है। और यह जरूरी भी नहीं है कि किसी औरत को गुलाम की तरह रखा जाए, और वह छोडक़र न जा सके। आज सामाजिक और कानूनी माहौल बदला हुआ है, अब पहले के मुकाबले अधिक लड़कियां और महिलाएं जुल्म के खिलाफ उठ खड़ी हो रही हैं। ऐसे में बिना धोखाधड़ी वाले रिश्ते भी टूट रहे हैं। और रिश्तों के टूटने को हमेशा बुरा भी नहीं मानना चाहिए। कुछ रिश्ते जब ऐसे हो जाते हैं कि वे कैंसर की तरह स्थाई तकलीफ देने वाले बन जाते हैं, तो उन्हें सर्जरी से अलग कर देना ही जिंदगी को बचाने के लिए जरूरी होता है। रिश्तों को बड़ी तकलीफों के साथ अंतहीन ढोते रहना कोई अच्छी बात नहीं होती है, और जब दो जीवनसाथियों के बीच एक दर्जा गुलाम सरीखा हो जाए, तो उसे ऐसे रिश्ते से बाहर आ जाना चाहिए। जब किसी को यह लगे कि बच्चों पर इस रिश्ते का अब सिर्फ बुरा असर पड़ रहा है, तब भी उन्हें ऐसे रिश्तों से बाहर आ जाना चाहिए। शादी के बारे में पंडितों और धर्म की कही हुई यह बात निहायत फिजूल रहती है कि रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं, और सात जनम के लिए होते हैं। रिश्ते आधी या तीन चौथाई जिंदगी के लिए ही बनते हैं, और अगर उनको निभाना मुश्किल पड़ रहा है, तो एक-दूसरे को ढोने के बजाय हल्के बदन अलग-अलग रास्तों पर निकल जाना ठीक रहता है।
उत्तर भारत की जिस शादी को लेकर खबरों और सोशल मीडिया पर दुनिया जहान की बहस चल रही है, उसमें बस महिला के अधिकार का मुद्दा काम का है, और यह भी काम का है कि एक सफाई कर्मचारी के काम के लिए एक महिला के मन में अफसर बनने के बाद अगर कोई हिकारत आई है, तो वह कैसी है। बाकी इस मामले पर अधिक लोग इसलिए अधिक उबले हुए हैं क्योंकि इसमें आदमी बेइंसाफी का शिकार दिख रहा है या दिखाया जा रहा है। तकरीबन तमाम मामलों में बेइंसाफी का शिकार होने पर महिला का मानो एकाधिकार रहता है। इस एक मामले के बहुत व्यापक मतलब नहीं निकालने चाहिए। मामले का अधिकांश हिस्सा दो पक्षों की जुबानी बातचीत पर टिका हुआ है, और दोनों में से कोई भी सही या गलत हो सकते हैं। फिर दुनिया में जिन्हें महिलाओं के हक का सम्मान करना है, उन्हें बराबरी का दर्जा देना है, उन्हें बढ़ावा देना है, उन लोगों का हौसला इस मामले से पस्त नहीं होने वाला है। बहस के लिए यह मान भी लें कि इस मामले में बीवी की गलती है जो कि अफसर बनने के बाद अपने पति से हिकारत करने लगी है, तो भी यह बात बहुत अटपटी नहीं है, और उसने मर्दों के दबदबे वाली समाज व्यवस्था में मर्दों की सोच देख-देखकर ही ऐसा सीखा होगा। इस एक घटना से इंसाफपसंद लोगों की सोच पर फर्क नहीं पड़ेगा। जिन लोगों को इस मुद्दे पर और भी बहस करनी है, उससे भी किसी का नुकसान नहीं है क्योंकि बहस से कई मुद्दे सामने भी आते हैं, और तर्क सामने रखने वाले लोगों की दबी-छुपी भावनाएं भी बाहर निकलती हैं। हम इस मामले में इस जोड़े में से किसी के बेकसूर होने के बारे में अटकल लगाना नहीं चाहते। हमारा यही मानना है कि इंसानों के बीच के रिश्ते ऐसे ही रहते हैं, वे कभी भी खराब हो सकते हैं, एक-दूसरे के लिए हिकारत पैदा कर सकते हैं, और इनके टूट जाने को कोई नुकसान नहीं मानना चाहिए। बाकी जो लोग इस पर बहस जारी रखना चाहते हैं, उनके सोशल मीडिया एक मुफ्त की जगह है ही।
नेपाल में प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने अभी बयान दिया कि नेपाल में रहने वाले भारतीय मूल के एक कारोबारी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए भारत से बात की थी। उसके इस बयान के बाद नेपाली विपक्ष ने उनसे इस्तीफे की मांग की है, और उनका कहना है कि भारत की ओर से नियुक्त किए गए प्रधानमंत्री को इस पद पर बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। संसद में भी इसे लेकर हंगामा चल रहा है, और सत्तारूढ़ गठबंधन की एक पार्टी ने भी इस पर नाराजगी जताई है। इस्तीफे की मांग पर कई दल एक हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि प्रचंड ने एक कारोबारी प्रीतम सिंह पर लिखी किताब के विमोचन के मौके पर कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रीतम सिंह कई बार दिल्ली गए थे, और कई बार काठमांडू में कई पार्टियों से चर्चा की थी। उन्होंने इस कारोबारी से अपने पारिवारिक संबंधों की चर्चा भी की थी। विपक्ष के विरोध में यह तर्क मजबूत है कि नेपाली प्रधानमंत्री तय करने में भारत की कोई भूमिका क्यों होनी चाहिए?
इस पूरे मामले को देखकर लगता है कि बात सिर्फ भारतीय मूल के कारोबारी की भारत सरकार से बातचीत की नहीं है, यह उस कारोबारी की नेपाली पार्टियों से बातचीत की भी है जो कि खुद नेपाली प्रधानमंत्री ने बताई है। यह बात दबी-छुपी नहीं है कि बहुत से देशों में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, या मंत्री बनाने के पीछे बड़े कारोबारियों का हाथ रहता है जो एक पूंजीनिवेश की तरह यह काम करते हैं, और बाद में उसकी कई गुना फसल काटते हैं। हिन्दुस्तान में भी आज केन्द्र सरकार देश के एक सबसे बड़े कारोबारी का साथ देने की तोहमत झेल रही है, और वह कारोबारी मौजूदा सरकार का एक सबसे बड़ा हिमायती है ही। और यह एकदम अनोखी और नई बात भी नहीं है, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, और प्रणब मुखर्जी मंत्री होने के अलावा देश के उद्योगपतियों से संबंध रखने के एक बड़े मध्यस्थ माने जाते थे, उस वक्त भी रिलायंस के धीरूभाई अंबानी के साथ उनके जरूरत से अधिक घरोबे की चर्चा होते रहती थी, और ऐसा माना जाता रहा कि धीरूभाई के आगे बढऩे में इंदिरा सरकार की नीतियों का बड़ा हाथ रहा। तो हाथ और साथ की ऐसी जोड़ी राजनीति और कारोबार में बहुत नई नहीं है, और सिर्फ हिन्दुस्तान में नहीं हैं। लोगों को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब खाड़ी के किसी देश से हिन्दुस्तान लौटते हुए अचानक ही पाकिस्तान उतरे, और नवाज शरीफ के परिवार पहुंचे, उनकी मां के लिए तोहफे लेकर गए, उनका आशीर्वाद लिया, परिवार में जन्मदिन और शादी के जलसों में शामिल हुए, तो उस वक्त कहा जाता है कि इस फैसले में देश के एक बड़े इस्पात उद्योगपति सजन जिंदल का बड़ा हाथ था जो कि नवाज शरीफ के परिवार से दो पीढिय़ों से जुड़े हुए थे। सजन जिंदल शायद उस वक्त पाकिस्तान में मौजूद भी थे। इसलिए सत्ता और कारोबारियों का करीबी रिश्ता नया नहीं है, और अब तो इसका विस्तार होकर सत्ता और मुजरिमों के बीच भी करीब रिश्ते तक पहुंच गया है। ऐसे में नेपाल में पीएम प्रचंड ने अगर सरला से कोई बात कह दी है, तो वह कोई बहुत बड़ा रहस्य नहीं है, लेकिन किसी आजाद मुल्क में प्रधानमंत्री की कही हुई यह एक अटपटी बात है, और बड़ी राजनीतिक चूक है। सरकार, राजनीति, और सार्वजनिक जीवन में बहुत किस्म के पाखंड मुखौटे लगाकर खप जाते हैं, लेकिन वे औपचारिक रूप से मंजूर करने वाले नहीं रहते हैं।
हिन्दुस्तानी राजनीति में लाखों-करोड़ों लोग शराब पीते होंगे, लेकिन नेता-कार्यकर्ता सार्वजनिक रूप से इसे मंजूर करने में हिचकिचाते होंगे। कर्नाटक के हेगड़े या उत्तर-पूर्व के संगमा सरीखे नेता कम रहते हैं। लेकिन ऐसी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से परे जब सत्ता की राजनीति में कारोबारियों की बात आती है, तो न तो वह बोलने लायक रहती है, और न ही उजागर होने देने लायक। जब कभी कारोबारियों से ऐसे रिश्तों का भांडाफोड़ होता है, नेताओं की ही बदनामी होती है। इसके बाद अगर कारोबारी की तरक्की का कुछ हिस्सा सत्ता की मेहरबानी के बिना भी हुआ होगा, तो भी वह सत्ता की मेहरबानी से हासिल गिनाया जाता है। लोगों के बीच भी सब मालूम रहते हुए भी ऐसे घरोबे को अच्छा नहीं माना जाता। सार्वजनिक जीवन में पुराने वक्त के राजाओं के लिए नैतिकता का जो पैमाना बनाया गया था कि राजा को न सिर्फ निष्पक्ष रहना चाहिए, बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। नेपाल में तो प्रचंड माओवादियों के बीच से निकलकर आए हैं, और उनके बीच तो बाजार व्यवस्था को लेकर एक अलग हिकारत रहती है। ऐसे में प्रचंड का सार्वजनिक रूप से यह कहना अटपटा भी रहा, और नेपाल के एक देश के रूप में अपमानजनक भी रहा कि नेपाली प्रधानमंत्री तय होने में भारत सरकार का कोई हाथ रहता है।
भारत जैसे देश में संसद और विधानसभा चुनावों में पार्टियों की टिकट तय होते वक्त बहुत से उद्योगपति अपनी दखल रखते हैं, और जो नेता उनके कर्मचारियों और दलालों की तरह काम करते हैं, उन्हें उम्मीदवार बनवाने का काम करते हैं। चूंकि वे पार्टियों को चंदा भी देते हैं, टिकट तय करने वाले बड़े नेताओं के घर नगदी भी पहुंचाते रहते हैं, इसलिए कारोबारियों की पसंद उम्मीदवारी के वक्त से ही काम आने लगती है। ऐसा माना जाता है कि भारत जैसे देश में भी संसद और विधानसभाओं में बड़े कारोबारी घरानों के अघोषित प्रवक्ता मौजूद रहते हैं, जो उनके हितों की बात करते हैं, और जो मंत्रियों और बाकी सरकार से उनके काम करवाने में लगे रहते हैं। कभी-कभी मंत्री और मुख्यमंत्री बनवाने में भी बड़े कारोबारी दखल रखते हैं, और महत्वपूर्ण मंत्रालयों की अफसरों की कुर्सियों पर लोगों को बिठवाने में तो उनका दखल रहता ही है ताकि उनका काम आराम से और तेज रफ्तार से चलता रहे।
क्रोनी कैपिटलिज्म कहे जाने वाले इस तौरे-तरीके से बचना मुश्किल रहता है क्योंकि नेताओं और कारोबारियों ने मिलकर कालेधन से चुनाव लडऩे की व्यवस्था को मजबूत और स्थाई बना दिया है। ऐसे में अगर नेपाल में एक कारोबारी किसी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भारत की राजधानी में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करता है, तो उसमें भी कुछ अटपटा नहीं है। अटपटा बस यही है कि पीएम प्रचंड ने इस बात को खुलकर मंजूर कर लिया है। सार्वजनिक जीवन में मुखौटा उतारने के अपने खतरे रहते हैं, अब देखना है कि प्रचंड इससे कैसे उबरते हैं।
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बाजार व्यवस्था का दुनिया के वामपंथी, समाजवादी, और भी कई तबके विरोध करते हैं, लेकिन उसकी कुछ खूबियों में से एक यह भी है कि जब कारोबारी किसी गिरोहबंदी को नहीं कर पाते, और वे एक-दूसरे के मुकाबले में उतरते हैं, तो उससे कम से कम कुछ समय तक तो फायदा ग्राहकों का होता है। सोशल मीडिया के जितने प्लेटफॉर्म हैं, वे एक-दूसरे से मुकाबला करते ही हैं, लेकिन अब ट्विटर ने अपने इस्तेमाल करने वालों को जिस किस्म की कारोबारी बंदिशों में बांधना शुरू किया था, तो कल ही फेसबुक की कंपनी मेटा ने थ्रेड्स नाम का एक नया प्लेटफॉर्म लांच किया है, जिसमें ट्विटर जैसी अधिकतर खूबियां तो रहेंगी ही, वह इससे कई मायनों में आगे भी रहेगा। दरअसल जब सामने कोई एक मॉडल हो, तो फिर उससे आगे निकलना आसान हो जाता है। और मेटा के तीन प्लेटफॉर्म हैं, फेसबुक, इंस्टाग्राम, और वॉट्सऐप? इसलिए इन तीनों के साथ जोडक़र अगर ट्विटर का कोई विकल्प पेश किया जाएगा, तो उसके इस्तेमाल और उसकी कामयाबी की संभावना भी अधिक रहेगी। इससे ट्विटर का अपने किस्म के प्लेटफॉर्म का एकाधिकार तो टूटता है, लेकिन मेटा का लोगों के सोचने, लिखने, संपर्क करने, इन सब कामों पर एकाधिकार बढ़ जाता है। यह एक अलग किस्म का खतरा है, और दुनिया के कुछ विकसित लोकतंत्रों में फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग सरकारी और अदालती रोक-टोक झेल भी रहे हैं।
अब तक ट्विटर मेटा से अलग एक कंपनी है, लेकिन अगर ट्विटर का एक विकल्प मेटा के पास आ जाता है, तो दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे मेटा का मानसिक गुलाम हो सकता है। उसका स्वतंत्र सोचना-विचारना, अभिव्यक्त करना, यह सब कुछ खत्म हो सकता है। विचारों के प्रवाह की पहाड़ी नदियों को मानो एक जल सुरंग बनाकर एक खास तरफ मोड़ देना, ऐसी कंपनी के लिए बड़ा आसान हो जाएगा, और एक सदी पहले जिन विज्ञान कथा लेखकों ने ब्रेनवॉश करने जैसी बात लिखी थी, वह हकीकत के एकदम करीब पहुंच जाएगी। आज वैसे भी दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा वही पढ़ता और देखता-सुनता है जो कि मार्क जुकरबर्ग दिखाना चाहता है। इसलिए पहली नजर में आज ट्विटर का मुफ्त या सस्ता विकल्प लोगों को अच्छा लग सकता है, हमें भी एलन मस्क जैसे सनकी मालिक की रोजाना लादी जा रही नई-नई शर्तों से परे कोई दूसरा वैसा या उससे अच्छा प्लेटफॉर्म सुहा रहा है, लेकिन सूचना से लेकर निजी जानकारियों तक का जितना बड़ा जमावड़ा मेटा कंपनी के मातहत हो गया है, वह भयानक है। अब एक ही कंपनी के कम्प्यूटर आपके निजी संदेशों की बातों से इश्तहारी मतलब के शब्द निकाल लेंगे, इसके कम्प्यूटर आपकी निजी पसंद-नापसंद जान लेंगे, यह भी जान लेंगे कि आप किन दोस्तों के साथ उठते-बैठते हैं, और उनकी पसंद क्या है, और कारोबार एक नए हमलावर तेवरों के साथ आप पर टूट पड़ेगा। आपको न सिर्फ अपनी पसंद और जरूरत के सामानों के इश्तहार दिखने लगेंगे, बल्कि आपको आपकी अब तक की खरीदी की ताकत के मुताबिक उस दाम के आसपास के सामान दिखेंगे, आपके नंबर के जूते अगर हैं, तो वही दिखेंगे, पसंद का रंग दिखेगा, पास के रेस्त्रां दिखेंगे, और अगर आपका उपवास है, तो आसपास की ऐसी उपवासी थाली का इश्तहार दिखेगा जो कि जोमैटो जैसे घर पहुंच सेवा वाले लोग कुछ मिनटों में पहुंचा देंगे। मतलब यह कि आपकी पसंद और जरूरत के मुताबिक बाजार आपको इस पूरी तरह जकड़ लेगा कि आपकी उससे परे सोचने की ताकत घट जाएगी।
आज भी होता यह है कि लोग जैसे-जैसे अपने मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर, इंटरनेट और तरह-तरह के एप्लीकेशन का इस्तेमाल करते हुए जितने किस्म की इजाजत उनको देते हैं, उनके कम्प्यूटर यह तक दर्ज करते जाते हैं कि आप तीन महीनों के बाद किस दिन खून की जांच कराने जाते हैं, और किस लैब में जाते हैं, इसलिए उसके दो दिन पहले हो सकता है कि किसी और पैथोलॉजी लैब का इश्तहार आपको दिखने लगे। इसका एक बड़ा अच्छा लतीफा काफी समय से इंटरनेट पर घूमता है जिसमें अलग-अलग कारोबार के कम्प्यूटर लोगों की निजी जानकारी का इस्तेमाल करते हुए उन्हें सुझाते रहते हैं कि उनके लिए क्या खाना ठीक है, और क्या खराब है, क्योंकि उनकी ब्लड शूगर पिछली रिपोर्ट में बढ़ी निकली थी, और कपड़ों का नाप भी पिछले दो बरस में बढ़ गया है, इसलिए उन्हें डबल चीज वाला पित्जा नहीं खाना चाहिए।
आज भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर के एल्गोरिद्म यह तय करते हैं कि आपके किन दोस्तों की पोस्ट आपको दिखे, और किसकी नहीं, आपकी पोस्ट किनको दिखे, और किनको नहीं। कुल मिलाकर वे आपका दायरा तय करने लगते हैं कि आपका संपर्क किन लोगों से होना चाहिए, और कौन लोग आपके आसपास दिखाने लायक नहीं हैं। एक तो हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर अधिक आक्रामक हो रहे हैं, वे अधिक घुसपैठ कर रहे हैं, अधिक ताक-झांक कर रहे हैं। और अब जब ऐसे कई प्लेटफॉर्म एक होकर एक मालिक के तहत आ रहे हैं, तो यह एक किस्म का जाल बन जा रहा है, जिसमें फंसे बिना कोई मछली या मगरमच्छ बच नहीं सकते। हम सोशल मीडिया को लेकर कुछ अधिक बार लिखते हैं क्योंकि लोगों की जिंदगी में इनकी दखल बहुत बढ़ती जा रही है, इसके अलावा दुनिया भर के देशों में लोकतंत्र पर इसका हमला भी बढ़ते जा रहा है। लोगों को याद रहना चाहिए कि कुछ महीने पहले दुनिया के एक सबसे प्रतिष्ठित अखबार गॉर्डियन ने कई दूसरे मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर एक भांडाफोड़ किया था कि किस तरह एक इजराइली कंपनी दुनिया भर के लोगों और संस्थानों के ईमेल हैक कर सकती है, किस तरह उनके पक्ष में, और उनके विरोधियों के खिलाफ सोशल मीडिया पर जनमत तैयार कर सकती है। जैसे-जैसे सोशल मीडिया अधिक ताकतवर होते चलेगा, वैसे-वैसे उसके मुकाबले लोकतंत्र की हिफाजत कमजोर होते चलेगी। लोगों को अब सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने से तो नहीं रोका जा सकता, लेकिन लोकतांत्रिक सोच को, उसकी विविधता को ऐसे संगठित, कारोबारी, और षडय़ंत्रकारी हमलों से कैसे बचाया जा सकता है इस बारे में जरूर सोचना चाहिए। हिन्दुस्तान में हम देखते ही हैं कि किस तरह आज कुछ ताकतें नफरत और हिंसा फैलाने के लिए, या किसी के महिमामंडन के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही हैं। यह तो सामने दिख रहा है, लेकिन पर्दे के पीछे और भी क्या-क्या हो रहा होगा यह सोचना मुश्किल है। फिर यह है कि ताकतवर लोगों से असहमत जो लोग हैं, उन पर हमलों के लिए भी इसका इस्तेमाल बड़ा आम हो चुका है। ऐसे में लोगों को यह सोचना चाहिए कि जब गूगल जैसी कंपनी उनकी हर सर्च, हर आवाजाही का पल-पल का हिसाब रखती है, जब मेटा जैसी कंपनी उनके हर निजी संदेश, उनके तमाम संपर्क, और विचारों का, पसंद का हिसाब रखती है, तो फिर वे कारोबार के हाथों शोषण के जाल में फंसे हुए हैं, और ये गिने-चुने कारोबार उन्हें जब चाहें तब कठपुतली की तरह धागों से बांधकर चला सकते हैं। यह तस्वीर आज लोगों को भयानक नहीं लगेगी, लेकिन यह कम भयानक नहीं है, और अधिक दूर भी नहीं है।
वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर ऐप जो कि अब सोशल मीडिया की तरह भी गिना जाने लगा है क्योंकि उस पर लोगों के ग्रुप बन रहे हैं जो मुद्दों पर चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, और तरह-तरह के फोटो, वीडियो, और लिंक एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं। ऐसे प्लेटफॉर्म पर लोग रात-दिन एक-दूसरे से ऐसे वीडियो पोस्ट करते हैं जिसके साथ गुमनाम अपील भी लिखी रहती है कि कृपया-कृपया-कृपया आखिर तक देखें, और अधिक से अधिक लोगों को बढ़ाएं। नतीजा यह होता है कि बहुत से लोग ऐसे वीडियो या फोटो-लिंक बिना सोचे-समझे आगे बढ़ा देते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह हाईवे पर किसी ट्रक के पीछे हॉर्न प्लीज लिखा देखकर पीछे से आ रही गाड़ी के ड्राइवर हॉर्न बजा देते हैं। ऐसे ही वॉट्सऐप पर पिछले दिनों कई नामी-गिरामी पत्रकारों के ट्वीट फैले थे जिनमें वे कह रहे थे कि किस तरह फ्रांस में चल रही हिंसा को देखते हुए लोगों ने यह अपील की है कि यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को फ्रांस भेजना चाहिए जहां वे एक दिन में हिंसा रोक देंगे। इसकी शुरूआत एक विदेशी दिखते हुए नाम के वेरीफाईड ट्विटर हैंडल से हुई थी जिस पर प्रो.एन.जॉन कैम ने ऐसी अपील की थी, और इस पर योगी आदित्यनाथ के ऑफिस ने लिखा था कि दुनिया में जहां कहीं भी साम्प्रदायिक दंगे भडक़ते हैं, और कानून व्यवस्था बिगड़ती है तो दुनिया उत्तरप्रदेश में महाराजजी द्वारा स्थापित योगी मॉडल की तरफ देखती है। सीएम के दफ्तर द्वारा किया गया री-ट्वीट वजन की बात होती है। बाद में कुछ फैक्ट चेकर्स ने कहा कि यह अकाऊंट ही फर्जी है, और इसके पीछे एक ऐसा हिन्दू-हिन्दुस्तानी है जिसे हैदराबाद की पुलिस अपने कर्मचारियों से धोखा करने के जुर्म में गिरफ्तार कर चुकी है। विदेशी लगते नाम वाले इस अकाऊंट को देखें तो यह जाहिर है कि यह मुसलमानों के खिलाफ हिन्दुस्तान में एक अभियान छेड़़े हुए है, और आक्रामक हिन्दुत्व को फैलाने का काम कर रहा है।
एक दूसरा वीडियो हिन्दुस्तान में चारों तरफ घूम रहा है जिसमें बिना कपड़ों की एक महिला लाठी लेकर पुलिस पर हमला करते दिख रही है, और पुलिस वाले कुछ प्रतिरोध करने के बाद मौका छोडक़र भाग रहे हैं। इसके साथ लिखा गया है कि मणिपुर में आंदोलनकारियों ने नंगी औरतों की एक ब्रिगेड बना ली है जो कि पुलिस और सुरक्षा बलों को मारकर भगा रही है। इसे लेकर तरह-तरह की बातें लिखी गईं कि भारत का यह क्या हाल हो गया है, और भारत में ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं। जब एक बड़े प्रकाशन के फैक्ट चेकर ने इस वीडियो की जांच की तो पता लगा कि इसका मणिपुर से कोई संबंध नहीं है, और यह अभी 2023 में उत्तरप्रदेश के म्युनिसिपल चुनावों के दौरान चंदौली में चुनाव लड़ रहे एक ट्रांसजेंडर के समर्थकों का है जो कि धांधली का आरोप लगाते हुए पुलिस से भिड़ गए थे, और वीडियो में महिला दिख रही वैसी ही एक ट्रांसजेंडर है।
किन्नरों के इस भारी विरोध-प्रदर्शन के बाद जब पुनर्गणना की गई, तो किन्नर-प्रत्याशी की जीत घोषित हुई, और पहले जीते घोषित किए गए भाजपा उम्मीदवार की हार हुई। इस वीडियो की जांच करने पर इसमें सोनू किन्नर जिंदाबाद के नारों की आवाज भी आ रही है, और इस फैक्ट चेकर ने पाया कि इसका मणिपुर से कुछ भी लेना-देना नहीं है।
अब सवाल यह उठता है कि वॉट्सऐप जैसे मैसेंजर और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर तैरती बेबुनियाद चीजों को अगर किसी मुख्यमंत्री का कार्यालय अपनी तारीफ मानकर बढ़ाता है, और इस बात को गंभीरता से लेता है कि पूरी दुनिया में जहां-कहीं भी हिंसा भडक़ती है, वहां लोग योगी की तरफ देखते हैं, तो फिर बाकी अफवाहबाजों को क्या कहा जा सकता है? यूपी के सीएम के दफ्तर को शोहरत की इतनी हड़बड़ी भी क्यों होनी चाहिए कि वे ट्विटर पर विदेशी नाम वाले दिख रहे किसी व्यक्ति की लिखी गई बात को एक सर्टिफिकेट की तरह लेकर अपने मुख्यमंत्री का ढिंढोरा पीटें? फिर एक बात यह भी है कि बड़े-बड़े प्रकाशनों के, या मीडिया समूह के नामी-गिरामी पत्रकारों को अनजान नामों वाले फिरंगियों की लिखी बातों को लेकर अपने देश के किसी एक मुख्यमंत्री को महानता का दर्जा देने की इतनी हड़बड़ी क्यों है? कल ही देश के एक साइबर विशेषज्ञ ने एक लेख में लिखा है कि किस तरह इस देश की सरकारें सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों को भुगतान करके अपना प्रचार करवाने के फेर में हैं। मतलब यह कि अब जाने-माने और ईमानदार पत्रकारों की जरूरत किसी को नहीं रह गई है, और जो पेशेवर चारण और भाट की तरह स्तुति-वंदना कर सकते हों, उन्हीं की जरूरत सबको है।
हिन्दुस्तान के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जो मालिकान और नामी लोग आज चुनिंदा नेताओं के गुणगान करके फूले नहीं समाते, उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि एक-एक ट्वीट करने पर आज उन्हें जो भुगतान हो रहा है, कल वह सीधे-सीधे सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर नाम की एक नई नस्ल के पास जाने लगेगा, जो कि नेताओं को अधिक काम के दिखेंगे, सरकारों और पार्टियों के लिए अधिक असरदार ढिंढोरची साबित होंगे। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में जहां आजादी की लड़ाई की शुरुआत से ही समर्पित और ईमानदार अखबारों की एक लंबी परंपरा रही है, वहां पर आज मामला पत्रकारिता से टीवी और डिजिटल होते हुए अब सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों तक पहुंच गया है, जिनके लिए न किसी ईमान की जरूरत है, न जिसके लिए पेशे के कोई उसूल हैं, बस उनकी पहुंच अधिक लोगों तक है, और नेताओं के लिए यही काफी है।
लेकिन जिस तरह रूस की तरफ से यूक्रेन जाकर मोर्चे पर लड़ाई लडऩे का काम वाग्नर नाम की भाड़े की फौज कर रही थी, कुछ उसी किस्म से मेहनताना पाकर किसी भी बात को आगे बढ़ाने का काम आज हिन्दुस्तान में लोग कर रहे हैं, और यह सिलसिला बढ़ते जा रहा है, और वाग्नर-लड़ाकों की तरह यहां भी अब कुछ लोग औरों के मुकाबले भी अधिक असरदार झूठ फैलाने वाले साबित हो रहे हैं। ये लोग फ्रांस में योगी की मांग खड़ी कर सकते हैं, और ये लोग उसी सांस में योगीराज की मतगणना की बेईमानी को मणिपुरी लोगों की बेशर्म संस्कृति बता सकते हैं। अपनी नालायकी या अपने जुर्म को किस आसानी से किसी और का जुर्म ठहराया जा सकता है, इसे हिन्दुस्तानी सोशल मीडिया पर भाड़े के सैनिकों में देखा जा सकता है।
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दिल्ली से लगे हुए उत्तरप्रदेश के नोएडा की खबर है कि वहां एक हिन्दुस्तानी युवक के साथ अवैध रूप से रह रही एक पाकिस्तानी महिला और उसके चार बच्चों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है। सचिन नाम के इस आदमी से इस महिला की ऑनलाईन मुलाकात पबजी नाम के खेल के मार्फत हुई, और वह मोहब्बत में बदल गई। यह युवक किराने की एक दुकान पर नौकरी करता है, और पाकिस्तान की यह महिला 30 साल से कम की है, और चार बच्चों सहित वह पाकिस्तान से पहले नेपाल पहुंची, और वहां से गैरकानूनी तरीके से भारत आकर इस युवक के साथ अपने बच्चों सहित रह रही थी। इसके पीछे जासूसी वगैरह की कोई अधिक साजिश का अंदाज नहीं लगता है क्योंकि कोई महिला जासूस चार बच्चों संग ऐसे काम में क्यों लगेगी, और वह किराना दुकान के एक मामूली नौकर से हिन्दुस्तान की कौन सी जानकारी हासिल कर लेगी? यह सब तो अटकल है जब तक कि पुलिस जांच में पूरी बात सामने नहीं आती है। और हम आज जो तथ्य सामने हैं उन्हीं के आधार पर आगे लिख रहे हैं।
दुनिया के बहुत से समाजों में महिलाओं को सोशल मीडिया की वजह से पहली बार एक इंसान की तरह कई किस्म के हक मिले। उनको घर बैठे ही अपने फोन से फेसबुक दोस्त मिले, इंस्टाग्राम पर वीडियो लेने-देने का हक मिला, और दुनिया के तमाम औरत-मर्द जो कि अपने प्रेमी-प्रेमिका या जीवनसाथी के साथ खुश नहीं थे, उन्हें एक विकल्प भी मिला। खासकर इससे महिलाओं के हक बहुत बढ़े क्योंकि वे ही सबसे अधिक दबी-कुचली रहती थीं, और समाज या परिवार में कैदी की तरह भी रहती थीं। महिलाओं की दबी-कुचली भावनाओं को एक रास्ता मिला, और आज जगह-जगह यह सुनने मिलता है कि लड़कियां अपनी मर्जी से मोहब्बत कर रही हैं, और शादीशुदा महिलाएं भी विवाहेत्तर संबंधों में पड़ रही हैं। यह नैतिक और कानूनी रूप से चाहे कितना ही गलत हो, यह समाज के भीतर लैंगिक समानता का एक दावा भी है, क्योंकि पुरूष तो हमेशा से ही चारों तरफ मुंह मारते रहने के लिए जाने जाते रहे हैं, और महिलाओं के लिए यह उस किस्म की बराबरी की यह एक नई शुुरूआत है।
लेकिन सोशल मीडिया और इस तरह के ऑनलाईन गेम, या किसी दूसरे संपर्क के तरीकों की मेहरबानी से जो नए रिश्ते बन रहे हैं, वे परंपरागत सावधानियों से परे के रहते हैं। पहले जब लोग एक-दूसरे से मिलजुलकर, उनको देखकर, परिवारों के बारे में जानकर संबंध बनाते थे, तो वे अधिक मजबूत बुनियाद पर रहते थे, और सोचे-समझे रहते थे। अब ऑनलाईन पहचान जब बढक़र मोहब्बत तक पहुंच जाती है, तब तक ऐसे साथी एक-दूसरे की कोई हकीकत नहीं जानते, और उन्हें सिर्फ उन्हीं तस्वीरों और जानकारियों की खबर रहती है जो कि उन्हें बताई जाती है। यह सिलसिला एक नए किस्म के खतरे लेकर आ रहा है, और बहुत से लोगों को रिश्तों में दूर तक चले जाने के बाद पता लगता है कि उन्हें जो बताया गया था, उसमें से बहुत सारी बातें झूठ थीं। लेकिन तब तक इतने किस्म के फोटो-वीडियो लेना-देना हो चुका रहता है कि नुकसान की भरपाई आसान नहीं रहती। यह सिलसिला बताता है कि ऑनलाईन दुनिया हकीकत की कड़ी जमीन से बिल्कुल अलग और परे की रहती है, और असल जिंदगी की सीमित समझ से ऑनलाईन रिश्तों के असीमित झूठ को पकड़ पाना आसान नहीं रहता।
अब जिस घटना से हम इस बात को लिख रहे हैं उसी को एक नजर देखें, तो पाकिस्तान जैसे तंगनजरिए वाले समाज में, पुराने खयालों वाले मुस्लिम परिवार की यह महिला अगर अपने चार बच्चों सहित किसी प्रेम में पडक़र हिन्दुस्तान के एक मामूली हैसियत वाले नौजवान के पास आ गई है, पाकिस्तान का अपना घर-परिवार छोडक़र आ गई है, तो आज उसका और उसके बच्चों का क्या भविष्य है? एक तो भारत के कानून के मुताबिक वह मुजरिम भी है क्योंकि वह गैरकानूनी तरीके से यहां पहुंची है, और यहां बसी हुई है। दूसरी बात यह कि उसके बच्चों की हिन्दुस्तान के कानून में कोई हैसियत नहीं है, और सरकार अधिक से अधिक उन बच्चों को सरहद पर ले जाकर पाकिस्तान के हवाले कर सकती है। किसी तरह यह महिला कोई सजा काटकर पाकिस्तान लौटेगी, तो भी उसका वहां परिवार और समाज में क्या भविष्य बचेगा? और यहां किराना दुकान में नौकरी करने वाले नौजवान के साथ उसके चार बच्चों का क्या भविष्य हो सकेगा? ऑनलाईन संबंधों ने लोगों की सामान्य समझबूझ को छीन लिया है। लोग उसे एक हकीकत मानकर, असली दुनिया मानकर उसमें डूब जाते हैं, और जिस तरह बादलों पर चलने पर कंकड़-कांटे नहीं लगते, उसी तरह ऑनलाईन संबंधों में असल जिंदगी की दिक्कतों और खतरों का अहसास नहीं होता। दोनों ही तरफ के लोग अपने को एक खूबसूरत मुखौटे के पीछे पेश करते हैं, और धोखा देते हैं, धोखा खाते हैं।
हिन्दुस्तान में हर दिन ऐसी कई खबरें आती हैं कि किस तरह किसी नाबालिग को भी ऑनलाईन फंसाकर, या किसी शादीशुदा, बच्चों वाली महिला को ऑनलाईन फंसाकर कोई धोखेबाज ले गया। अब बहुत से लोग अपनी पारिवारिक स्थिति के भीतर बेचैन हो सकते हैं, लेकिन उस बेचैनी का ऐसा इलाज ढूंढना बहुत ही खतरनाक है। यह किसी के बताए सट्टा नंबर पर अपनी पूरी जिंदगी लगा देने सरीखा है। लोगों को ऐसी आत्मघाती गलतियां करने से बचना चाहिए क्योंकि यह उनके अपने खिलाफ जाने वाली बात रहती है, और जब वे ऐसी गलती की तात्कालिक सजा को भुगतकर निकलते हैं, तो भी बाकी जिंदगी वे इसकी तोहमत से नहीं उबर पाते। पाकिस्तानी महिला का यह मामला हमें इस बात को लोगों को समझाने के लिए एक अच्छी मिसाल की तरह मिला है, और लोगों को अपने आसपास इस मामले की चर्चा करनी चाहिए, इसके खतरों पर बात करनी चाहिए, ताकि सावधानी का एक सिलसिला शुरू हो सके।
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फ्रांस में 17 साल के एक नौजवान को पुलिस ने सडक़ पर रूकने कहा लेकिन उसने गाड़ी नहीं रोकी, इस पर चौराहे पर जब गाड़ी रूकी, तो पुलिस ने उसे गोली मार दी। इसे लेकर पिछले पांच दिनों से फ्रांस बुरी तरह जल रहा है। चूंकि राष्ट्रपति से लेकर बाकी तमाम लोगों ने पुलिस की इस हड़बड़ कार्रवाई की आलोचना की है, इसलिए पुलिस अभी चारों तरफ चल रही आगजनी पर भी अपने पर काबू रख रही है। यह एक अलग बात है कि देश के विपक्ष से लेकर पुलिसकर्मियों के संगठन तक राष्ट्रपति से कह रहे हैं कि ऐसी भयानक हिंसा के खिलाफ आपात कार्रवाई के कानून का इस्तेमाल करना चाहिए। अफ्रीकी मूल के इस लडक़े को पुलिस ने जिस अंदाज में मारा है उससे लोगों को याद पड़ रहा है कि पिछले बरस भी एक दर्जन से ज्यादा लोगों को पुलिस ने इसी तरह रेडलाईट पर थमी कार में मार डाला था। पुलिस को कड़ी कार्रवाई करने के लिए जो अधिकार दिए गए हैं, उनका जाहिर तौर पर बेजा इस्तेमाल माना जा रहा है। अल्पसंख्यक लोगों पर पुलिस की कार्रवाई को लेकर पहले से रंगभेद और पूर्वाग्रह के आरोप लग रहे थे। अब फ्रांस के अलग-अलग कई शहरों में भारी आगजनी चल रही है, सडक़ों पर गाडिय़ां जल रही हैं, सरकारी इमारतों को जलाया जा रहा है। यह पूरा आंदोलन सिर्फ काले लोग नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसमें और समुदायों के लोग भी शामिल हैं जो कि पुलिस की कार्रवाई से असहमति रखते हैं। राष्ट्रपति ने पुलिस की इस कार्रवाई की जमकर आलोचना की है, और पुलिस संगठन ने कहा है कि राष्ट्रपति को जांच के पहले इस तरह का बयान नहीं देना चाहिए था।
योरप के देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अलग पैमाने हैं, और पुलिस या समाज में किसी की रंगभेदी-नस्लभेदी दिखने वाली कार्रवाई के खिलाफ कड़े कानून हैं। समाज में नागरिकों, और शरण पाए हुए शरणार्थियों के अधिकार भी बहुत अधिक हैं, और समाज के एक बड़े तबके में यह जागरूकता भी है कि अल्पसंख्यकों और शरणार्थियों को भी हिफाजत और बराबरी का हक है। वहां पुलिस और सरकार अपनी छोटी-छोटी कार्रवाई के लिए भी जनता और कानून के प्रति जवाबदेह रहती हैं। लोगों को याद होगा कि अभी किस तरह लॉकडाउन और कोरोना नियमों के दौरान ब्रिटेन में प्रधानमंत्री निवास पर काम कर रहे लोगों ने एक जगह इकट्ठा होकर एक छोटी पार्टी कर ली, तो वह मामला बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ा कि लंदन की पुलिस ने जाकर प्रधानमंत्री निवास पर जांच की, बयान लिए, और पेनाल्टी के चालान जारी किए। दूसरी तरफ इस विवाद के दौरान ही प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन को पहले प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, और फिर इस बारे में संसद में झूठ बोलने के आरोप में अब संसद से इस्तीफा देना पड़ा है।
दुनिया के सभ्य लोकतंत्रों में जवाबदेही बड़ी होती है, लोगों को अपनी एक-एक सार्वजनिक और निजी हरकत के लिए जनता, कानून, और संसद के प्रति जवाबदेह होना पड़ता है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान जैसे देश हैं जहां लोकतंत्र एक ऐसी बदहाली में पहुंच चुका है कि सत्ता पर बैठे हुए लोग, संविधान की शपथ लिए हुए लगातार नफरत फैलाने का काम करते हैं, और कई किस्म के जुर्म करते हैं, लेकिन बिना किसी जवाबदेही के देश की आखिरी अदालत तक लड़ते भी जाते हैं, और सत्ता पर काबिज भी रहते हैं। किसी तरह की कोई शर्म या झिझक अब भारतीय लोकतंत्र में अपने कुकर्मों को लेकर नहीं रह गई है। यह देखकर लगता है कि जहां एक शरणार्थी, या अफ्रीकी मूल के लडक़े की पुलिस के हाथों मौत पर पूरा देश जल उठा है, वहां पर हिन्दुस्तान में सत्ता की मेहरबानी से हिंसा करते हुए लोग सडक़ों पर खुलेआम कैमरों के सामने भीड़त्या करते हैं, और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। लोग अपनी ऐसी हिंसा के वीडियो बनाकर फैलाते हैं, ईश्वर के नाम के नारे लगाते हैं, देश के तिरंगे झंडे का इस्तेमाल करते हैं, परले दर्जे की साम्प्रदायिक और नफरती हिंसा करते हैं, और उनका कुछ भी नहीं बिगड़ता। सभ्य समाज वही होता है जो कि अपने सबसे कमजोर तबके के लोगों के हक का भी सम्मान करता है, उनके हक के लिए लड़ता है। आज फ्रांस में सडक़ों पर चल रही आगजनी और तोडफ़ोड़ खराब बात है, हम उसको लोकतंत्र नहीं कह रहे हैं, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि जिस लोकतांत्रिक जागरूकता के चलते हुए फ्रांसीसी जनता सडक़ों पर उतर आई, कानून अपने हाथ में ले रही है, पुलिस के अधिकारों में कटौती की मांग कर रही है, वह सब कुछ एक जिंदा देश होने का सुबूत है। यह एक अलग बात है कि लोगों का गुस्सा इतना अधिक है कि वे लोकतंत्र के तहत मिले हुए अधिकारों का हिंसक इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन यह बात भी है कि इस आक्रोश को देखकर देशों की सरकारें और संसद यह सोचने पर मजबूर होती हैं कि कानून और व्यवस्था में फेरबदल की जरूरत है।
दुनिया के बाकी लोकतंत्रों को भी यह समझना चाहिए कि उनके भीतर के सबसे कमजोर तबके, चाहे वे किसी देश की संस्कृति में दलित और आदिवासी हों, अल्पसंख्यक और गरीब हों, या किसी देश की संस्कृति में वे शरणार्थी हों, या गैरकानूनी रूप से आकर वहां ठहरे हुए हों, उनके बुनियादी मानवाधिकारों का जितना सम्मान जो समाज करता है, वही लोकतांत्रिक समाज के रूप में सम्मान का हकदार होता है। आज हिन्दुस्तान जैसे देशों में जिस तरह का बहुसंख्यकवाद चल रहा है उसमें देश की सबसे बड़ी धार्मिक आबादी वाले समुदाय से परे किसी के कोई हक नहीं माने जा रहे हैं। बाकी तमाम लोगों को चुनावों में खारिज करवाने का काम आसान लगता है क्योंकि जब चुनाव धार्मिक जनमत संग्रह में तब्दील कर दिया जाए, तो अल्पसंख्यक तबकों का कोई भी हक नहीं रह जाता। लेकिन लोगों को याद रखना चाहिए कि लोग धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर समाज के छोटे या कमजोर तबकों को आमतौर पर तो कुचल सकते हैं, लेकिन जब ऐसी हिंसा के खिलाफ वे छोटे तबके एक अलग किस्म की हिंसा पर उतारू होंगे, तो फिर बहुसंख्यक तबका भी अपने को बचा पाना मुश्किल पाएगा। फ्रांस से कई किस्म के सबक भी लेने की जरूरत है।
पहले तो दिल्ली के मंडावली इलाके में एक मंदिर का अवैध निर्माण तोड़ा गया, और अब एक दूसरे इलाके में सडक़ पर रोड़ा बने हुए एक मंदिर और एक मजार को बुलडोजर से हटा दिया गया है। इस दौरान पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बलों की बड़ी तैनाती रखी गई, और अफसरों का कहना है कि लोगों से बात करके उन्हें सहमत कराकर यह काम किया गया है। अब जब किसी बखेड़े या हिंसा की खबर नहीं है तो यह माना जा सकता है कि अफसरों और लोगों ने मिलकर समझदारी का यह काम किया है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने कई बरस पहले एक फैसले में कड़ा आदेश दिया था कि देश में कहीं भी किसी सार्वजनिक जगह पर कोई धार्मिक अवैध कब्जा या अवैध निर्माण नहीं होना चाहिए, और ऐसा होने पर जिला प्रशासन को सीधा जिम्मेदार ठहराया जाएगा, लेकिन हम अपने आसपास देखते हैं तो कहीं भी इस पर अमल नहीं दिखता है। न सिर्फ सरकारी और सार्वजनिक जगहों पर बल्कि आमतौर पर सडक़ों की चौड़ाई को घेरते हुए, सार्वजनिक बगीचों और तालाब-तीर को घेरते हुए धार्मिक अवैध निर्माण होते हैं। तमाम नदियों के किनारे यही हाल रहता है, और सुप्रीम कोर्ट का हुक्म एक किस्म से कागज के टुकड़े से लुग्दी बनकर दुबारा इस्तेमाल हो रहा है, और अब जिला कलेक्टरों को यह याद भी नहीं होगा कि अदालत ने ऐसा कोई हुक्म दिया था। यह नौबत अदालती फैसला न होने से भी खराब है।
आज देश में धार्मिक मुद्दे जिस तरह हिंसा की वजह बन रहे हैं, साम्प्रदायिक तनाव किसी न किसी धर्म की जगह से शुरू होता है, या धर्म की जगह पर पहुंच जाता है, इन सबको देखते हुए आज की यह एक बड़ी जरूरत है कि धर्मस्थानों का अवैध कब्जा और उनका अवैध निर्माण कड़ाई से रोका जाए ताकि तनाव की वजह कम हो सके। लेकिन किसी धर्म या सम्प्रदाय के वोटरों से राजनीतिक दल इतने डरे रहते हैं कि उस धर्म का कोई मुखिया या गुरू अगर सरकार या पार्टी के खिलाफ कोई फतवा जारी कर दे तो चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे डरे-सहमे नेताओं की वजह से उनके मातहत काम करने वाले अफसर भी चुप बैठे रहते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों में फैसले आने के बाद भी धार्मिक अवैध निर्माण तोड़े नहीं जाते। होना तो यह चाहिए कि लोगों को अपने धर्म का सम्मान करते हुए धर्म के नाम पर गैरकानूनी काम करने से बचना चाहिए, लेकिन तमाम धर्मालु लोगों को यह बात मालूम है कि धर्म का इस्तेमाल ही नाजायज और गैरकानूनी कामों के लिए किया जाना है, और वे इस मकसद को पूरा करने में जी-जान से लगे रहते हैं।
आज देश में धर्म, धर्मान्धता, और सांप्रदायिकता जैसे नफरती जहर की शक्ल ले चुके हैं, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को धर्मस्थलों के अवैध कब्जे और अवैध निर्माण के अपने ही फैसले पर अमल की एक रिपोर्ट मंगवानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में ऐसा करने के लिए किसी बड़े वकील को अदालत का न्यायमित्र नियुक्त करता है जो कि जानकारी जुटाकर उस पर अपनी राय देकर अदालत को बताते हैं। कुछ व्यापक महत्व के मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट जांच कमिश्नर भी बनाता है जो कि देश भर से जानकारी मांगकर अदालत को रिपोर्ट देते हैं। लोगों को याद होगा कि पीयूसीएल की एक जनहित याचिका पर देश के लोगों के राशन के हक पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही जांच कमिश्नर बनाए थे, और वे बरसों तक देश में पीडीएस पर अमल की नीति बनाकर अदालत को देते थे, और तमाम राज्यों में उसके अमल पर निगरानी भी रखते थे। हमारा मानना है कि आज हिन्दुस्तान में धर्मान्धता से मुकाबले का काम कोई राजनीतिक दल करना नहीं चाहते, कोई एक वामपंथी दल अगर ऐसा चाहता भी होगा, तो उनका प्रभाव क्षेत्र अब तकरीबन खत्म हो चुका है। इसलिए अदालत को ही यह पहल करनी चाहिए, और देश भर में धर्मान्धता को कम करने के लिए जो-जो जानकारी आनी चाहिए, जांच होनी चाहिए, उसके लिए अदालत एक अलग कमिश्नर बनाए। यह बात हमने कुछ महीने पहले अदालत के हेट-स्पीच के खिलाफ दिए गए फैसले और कई आदेशों के बारे में भी लिखी थी कि देश में उस पर अमल कहीं नहीं हो रहा है, और अदालत को चाहिए कि मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते ऐसे अमल के लिए वह एक जांच आयुक्त बनाए। जांच आयुक्त के वैसे ही दफ्तर से धार्मिक अवैध निर्माणों की भी जांच हो सकती है, कुल मिलाकर धर्मान्धता और सांप्रदायिकता, नफरत से जुड़े हुए ऐसे दो-चार पहलुओं को एक साथ देखने की जरूरत है। अदालत से कम और कोई भी संवैधानिक संस्था आज देश को इस जहर से बचाने की ताकत नहीं रखती।
महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले से बंधुआ मजदूरों के आजाद होने की एक ऐसी रिपोर्ट आई है जिसे देखकर भरोसा नहीं होता कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे इस देश में आज भी एक ताकतवर इंसान दूसरे कमजोर इंसानों के साथ ऐसा बर्ताव कर सकता है। वहां एक कुआं खोदने के लिए ठेकेदार ने कुछ मजदूर रखे, और फिर उन्हें जंजीरों में बांधकर ताला डालकर गुलाम बना लिया। फिर ऐसे बंधुआ मजदूरों को पीट-पीटकर, नशा कराकर कुआं खुदवाया जाता था, और भूख, प्यास से बदहाल इन लोगों में भागने की भी ताकत या हिम्मत नहीं रहती थी। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक एक रात इनमें से कुछ लोगों ने जंजीरों के तालों को खोला, और वहां से भागकर खेतों और रेलवे पटरियों से होते हुए किसी तरह अपने गांव पहुंचे। वहां पुलिस को खबर की तो उसने आकर ऐसे 11 और बंधुआ मजदूरों को छुड़वाया। पुलिस का कहना है कि उन्हें पहले तो मजदूरों की बात पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन जब जाकर देखा तो हक्का-बक्का रह गए कि उनसे 12-14 घंटे तक कुआं खुदवाया जाता था, और फिर उन्हें जंजीरों से बांधकर शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा दी जाती थी। शरीर पर गहरी चोटें आ चुकी थीं। अब इन लोगों पर मानव तस्करी, अपहरण, बंधुआ मजदूरी जैसे जुर्म का मुकदमा चलाया जा रहा है। एक मजदूर-दलाल ने इन लोगों को ठेकेदारों को बेच दिया था जो दो-तीन महीने इनसे काम करवाकर इन्हें एक रूपया भी दिए बिना भगा देते थे। ठेकेदार इन्हें कुओं में जल्दी सुबह छोड़ देते थे, और देर रात निकालते थे।
ऐसे बहुत से मामले अलग-अलग राज्यों में सामने आते हैं, लेकिन यह उन सबमें भी बहुत भयानक है। अब सवाल यह उठता है कि जिस देश में हर जिले में दर्जन-आधा दर्जन थाने हैं, वहां पर इस तरह के जुल्म करने की हिम्मत लोगों की कैसे होती है? बच्चों को बंधुआ मजदूरी से छुड़ाने वाले कैलाश सत्यार्थी को संयुक्त नोबल शांति पुरस्कार मिला है, वे भी भारत के कालीन उद्योग से लेकर कई दूसरे किस्म के उद्योगों में बंधुआ मजदूरी में जोत दिए गए बच्चों की रिहाई करवाते आए हैं। मजदूरी किस्म की मजदूरी से परे देश के बच्चों और महिलाओं को देह के धंधे में धकेलना भी एक आम बात है, और भारत के अलग-अलग शहरों के रेड लाईट एरिया नाबालिग लडक़े-लड़कियों से भरे रहते हैं। कारखानों और खदानों को देखें तो उनमें बहुत खतरनाक किस्म के कामकाज में बच्चों को लगा दिया जाता है, और वे बंधुआ मजदूर ही रहते हैं, उनके पास छोडक़र जाने का कोई रास्ता नहीं रहता है, कभी मां-बाप ही उन्हें वहां बेच जाते हैं, या उन्हें किसी सामान की तरह गिरवी रख जाते हैं, और वे बरसों तक वहां गुलामी करते हैं।
जब देश में कानून इतने सख्त हैं तो इतने किस्म के जुर्म करने का हौसला लोगों के पास आता कहां से है। लोगों को तो यह तो मालूम है कि कभी वे पकड़ में आ सकते हैं, और अदालत से उन्हें सजा भी हो सकती है लेकिन उन्हें पुलिस से लेकर अदालत तक के भ्रष्टाचार पर पुख्ता भरोसा रहता है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ सकता और वे पुलिस, गवाह, सुबूत, और अदालत, सरकारी वकील में से किसी न किसी को खरीदकर बच ही जाएंगे। लोकतंत्र की भ्रष्ट व्यवस्था पर ऐसे अपार भरोसे के बिना लोग इतने जुर्म नहीं कर पाते, लेकिन हिन्दुस्तान ऐसे तमाम लोगों को एक हिफाजत देता है। यहां अदालतों में जाने वाले लोगों का कहना है कि वहां का माहौल किसी मुजरिम के लिए सबसे दोस्ताना रहता है, और शिकायतकर्ता की नौबत वहां सबसे दीन-हीन रहती है। कुछ ऐसा ही हाल गुंडों और मुजरिमों का थानों में भी रहता है जहां पुलिस पेशेवर और संगठित मुजरिमों से दोस्ताना रिश्ता रखती है, और उनके खिलाफ आई शिकायत पर पुलिस का बर्ताव ऐसा रहता है कि जैसे पुलिस के भागीदार के खिलाफ शिकायत आई है।
महाराष्ट्र की जिस घटना को लेकर हम आज यहां लिख रहे हैं, उससे छूटे हुए मजदूरों का कहना है कि आसपास के गांवों के लोग कुआं खुदते देखने आते भी थे, उनकी हालत भी देखते थे, लेकिन बिना कुछ किए चले जाते थे। जिन लोगों को यह लगता है कि हिन्दुस्तान की कोई सामूहिक चेतना है, उनको यह बात समझ लेना चाहिए कि अभी कुछ हफ्ते पहले जब दिल्ली की एक बस्ती की तंग गलियों में एक लडक़ा एक लडक़ी को खुलेआम चाकू से गोद रहा था, तो वह दर्जनों बार वार करते रहा, दो-चार फीट की दूरी से लोग निकलते रहे, देखते रहे, लेकिन किसी ने भी उसे रोकने की कोशिश नहीं की। आमतौर पर हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों की सामूहिक चेतना का यही हाल है। हम आम लोगों को एकदम से तोहमत नहीं देते क्योंकि वे अगर जागरूक होकर हिंसा को रोकने की कोशिश भी करेंगे, तो भी मुसीबत में उनको कौन बचाएगा? इलाके के मवाली और मुजरिम पुलिस के लिए सगे जैसे होते हैं, और जब तक पुलिस की कोई मजबूरी न हो जाए, तब तक इलाके के रंगदारों के साथ उनकी भागीदारी रहती है। ऐसे में कौन आम लोग इन लोगों के मददगार हो सकते हैं, जिनके हाथ दोस्ताना पुलिस के गले में डले रहते हैं?
देश का यह बुरा हाल इसलिए भी है कि नेताओं और अफसरों के जैसे मधुर संबंध मुजरिमों से हैं, उसके चलते लोग जुर्म रोकने की कोई कोशिश नहीं करते, और ऐसी कोशिशें अगर होती भी हैं, तो अदालत तक पहुंचते हुए उनका दम निकल चुका रहता है। यही वजह है कि लोग सरेआम बलात्कार की हिम्मत जुटा लेते हैं, खुलकर हत्या कर देते हैं, अपनी राजनीतिक पार्टी का नाम लेकर वीडियो-कैमरों के सामने गुंडागर्दी करते हैं, और आजाद भी रहते हैं। यह देश सत्ता की ताकत और उसकी जुर्म से भागीदारी के चलते हुए अराजकता का शिकार है, और इस अराजकता से घायल लोगों का भरोसा लोकतंत्र पर से उठते चले जा रहा है। जिस लोकतंत्र का इस्तेमाल करके लोग सत्ता तक पहुंचते हैं, वे उस सत्ता का इस्तेमाल करते हुए लोकतंत्र को कुचलकर रख देते हैं। इस लोकतंत्र ने मवालियों के निर्वाचित होने का जो रास्ता खोल रखा है, वह लोकतंत्र के लिए ही आत्मघाती साबित हो रहा है, लेकिन इससे बच निकलने का कोई रास्ता शायद ही हो।
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अमरीका के सुप्रीम कोर्ट की खबर है कि उसने वहां 1960 के दशक से यूनिवर्सिटी दाखिलों में चल रहे सकारात्मक पक्षपात की व्यवस्था को खत्म किया है। इसे वहां अफरमेटिव एक्शन कहा जाता था जिसके तहत वंचित नस्लों के बच्चों को उनकी विविधता के आधार पर विश्वविद्यालयों में कुछ प्राथमिकता दी जाती थी। इसके तहत काले लोगों और सामाजिक तौर पर पिछड़े लोगों को एक किस्म से आरक्षण दिया जाता था, जैसा कि भारत में दलित-आदिवासी, और ओबीसी बच्चों को मिलता है। पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इसे एक शानदार फैसला कहा है, और वहां का जो गोरा समुदाय मोटेतौर पर ट्रंप का हिमायती रहता है, उसके लोग भी खुशी मना रहे हैं क्योंकि इससे उनके बच्चों के लिए अवसर बढ़ेंगे। राष्ट्रपति जो बाइडन ने इससे पूरी तरह असहमति जताई है और कहा है कि इस फैसले का 9 जजों में से 6 ने समर्थन किया है जो कि कंजरवेटिव हैं, और 3 ने विरोध किया है जो कि लिबरल हैं। अमरीकी न्याय व्यवस्था में राष्ट्रपति के मनोनीत उम्मीदवार संसद की कमेटी की लंबी सुनवाई के बाद जज बनते हैं, और उनकी राजनीतिक विचारधारा, उनकी सामाजिक सोच, देश के विवादास्पद मुद्दों पर उनके पूर्वाग्रह ऐसी सुनवाई में खुलकर सामने आते हैं, इसलिए कोई अदालती फैसला आने के पहले अमरीका खुलकर चर्चा करता है कि कौन से जज अपनी राजनीतिक सोच के चलते किस किस्म का फैसला देंगे, इसे वहां पर अदालत की अवमानना में नहीं गिना जाता, और न ही अदालत को प्रभावित करने की कोशिश कहा जाता। वहां जज और लोकतांत्रिक व्यवस्था में इतनी परिपक्वता है कि वे ऐसे छोटे-मोटे प्रभावों से ऊपर रहते हैं।
अब अमरीका में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सरकार के लोग खुलकर बोल रहे हैं, और सरकार यह बतला रही है कि इस फैसले के बावजूद वह किस तरीके से विश्वविद्यालयों में विविधता बनाए रखने का काम कर सकती है, यह देखना इसलिए सुखद है कि अदालत अगर संकीर्णतावादी है, तो सरकार खुलकर समाज के वंचितों के पक्ष में कुछ करने की बात कर रही है। अदालत ने दाखिले के मामले में रंग के आधार पर कोई भी भेदभाव करने को गैरकानूनी करार दिया है, चाहे यह भेदभाव एक नीति के आधार पर सामाजिक-वंचितों को मौका देने के लिए ही क्यों न हो। इसे अगर देखें तो यह बात समझ आती है कि जिस अदालत में एक-एक करके कई जज किसी संकीर्णतावादी राष्ट्रपति के बनाए हुए हो जाते हैं, तो उसके फैसले भी वंचित तबकों के खिलाफ होने लगते हैं, बड़ी संवैधानिक बेंच का बहुमत भी वंचितों पर वार करने वाला होने लगता है। हिन्दुस्तान में भी इस बात को समझने की जरूरत है कि धर्म और जाति के आधार पर नहीं, बल्कि विचारधारा और सोच के आधार पर ऐसे जज अगर भर दिए जाएंगे जो कि कमजोर तबकों के खिलाफ होंगे, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के खिलाफ होंगे, तो फिर वे उसी तरह मनुस्मृति का हवाला देते रहेंगे जैसा कि पिछले दिनों गुजरात के एक जज ने दिया था, और बलात्कार की शिकार नाबालिग के वकील को मनुस्मृति पढऩे की सलाह दी थी। आज भी हिन्दुस्तान के बहुत से हाईकोर्ट के बहुत से जज बहुत ही दकियानूसी किस्म की सोच सामने रखते हैं, और यह डर लगता है कि ऐसे लोग अगर सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाएंगे, तो वहां तो उनके दिए हुए हर फैसले पर पुनर्विचार भी मुमकिन नहीं रह जाएगा। जहां तक जजों की अपनी जाति और उनके धर्म का सवाल है, तो कुछ लोगों का मानना है कि यह बात मायने रखती है, और कुछ दूसरे लोगों का यह मानना रहता है कि अयोध्या में मंदिर के पक्ष में फैसला देने वाले एक जज मुस्लिम थे, और एक दलित मुख्य न्यायाधीश ऐसे भी हुए हैं जिनके फैसलों में वंचितों की कोई हिमायत नहीं लिखी। इसलिए जजों के अपने जाति और धर्म की बात सामाजिक प्रतिनिधित्व के लिए जरूरी हो सकती है जैसा कि सामाजिक मुद्दों पर लिखने वाले कुछ लेखकों का कहना है। और दूसरी तरफ वह बेअसर भी हो सकती है क्योंकि हमने न सिर्फ जजों में, बल्कि नेताओं में भी कई ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने खुद ऊंची कही जाने वाली जातियों के होते हुए भी, सामंती पृष्ठभूमि से आने के बावजूद समाज के सबसे वंचित लोगों के लिए सबसे अधिक किया। इसलिए दोनों ही स्तरों पर यह बात जरूरी है कि देश की सबसे बड़ी अदालतों में ऐसे जज ही रहें जिनके मन में वंचित तबकों के लिए सामाजिक सरोकार हो, जो लोकतंत्र बनने के पहले के अलोकतांत्रिक इतिहास के आभामंडल से मुक्त हों, और जो संवैधानिक व्यवस्था को पौराणिक व्यवस्था के ऊपर समझते हों। चूंकि जजों की कुर्सियां गिनी-चुनी रहती हैं, और 140 करोड़ आबादी पर सुप्रीम कोर्ट के तीन दर्जन से कम ही जज रहते हैं, इसलिए जाति और धर्म की विविधता के साथ-साथ न्यायिक क्षमता, न्यायप्रियता, और सामाजिक सरोकार इन सबको निभाने वाले जज ढूंढना बहुत मुश्किल भी नहीं होगा, अगर हाईकोर्ट के स्तर पर भी इन्हीं तमाम पैमानों का ध्यान रखा जाएगा। आज हालत यह है कि हाईकोर्ट में अगर दकियानूसी सोच के जज दाखिल हो जाते हैं, तो वरिष्ठता के आधार पर सुप्रीम कोर्ट पहुंचने की एक बड़ी संभावना रखते हैं, और एक बार ऐसे लोग सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए तो वहां पर जजों को छांटने वाला जो कॉलेजियम सिस्टम है, उसमें पहुंचे दकियानूसी लोग दूसरे दकियानूसी को हाईकोर्ट के लिए छांटते रहेंगे, और फिर ऐसे ही जजों का बहुमत संविधानपीठ पर भी रहेगा, और एक दिन वह अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा, विवादास्पद, और अन्यायपूर्ण फैसले की तरह सकारात्मक-भेदभाव नाम की आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने जैसा काम करेगा। लोगों को अदालतें इंसाफ देने वाली दिखती हैं, लेकिन इंसाफ कई रूप-रंगों में, कई किस्म के पूर्वाग्रहों पर सवार होकर, कई तरह के बाहरी प्रभावों से प्रभावित होकर आता है, और देश के इतिहास को बदलकर रख देता है। इसलिए देश की सत्ता की ताकत, धर्म और जाति के असर, इन सबके बीच जजों में, अदालतों में, देश के वंचितों के हक को प्राथमिकता देने की सोच को जिंदा रखना होगा, वरना ये तकनीकी फैसले इंसाफ कहे जाएंगे, और वे हकीकत में बेइंसाफ होंगे।
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जिस फिल्म आदिपुरूष को लेकर देश भर में विवाद चल रहा है, और बहस हो रही है कि उसमें धार्मिक पात्रों को बहुत घटिया तरीका से दिखाया गया है, और उनके मुंह से घटिया जुबान में बातें कहलाई गई हैं, इन्हें लेकर लोग अदालतों तक गए, और सोशल मीडिया पर तो फिल्म की धज्जियां उड़ ही रही हैं। चूंकि हमने वह फिल्म देखी नहीं है, इसलिए उसकी बारीकियों के बारे में कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन मुद्दे की बात यह है कि जिस तरह के लेखक इसके पीछे हैं, उनकी अपनी साख और राजनीतिक प्रतिबद्धता की वजह से यह लग रहा है कि ऐसी फिल्म लिखना और बनाना कोई मासूम बात नहीं है। यह भी समझने की जरूरत है कि पिछले बरसों में हिन्दुस्तान में फौजी मोर्चों से लेकर कश्मीर से लेकर केरल तक पर जिस तरह की एजेंडा-फिल्में बनी हैं, उन्हें एक विचारधारा के विस्तार के लिए पहले औजार की तरह, और फिर हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्हें चुनावों के साथ जोडक़र सुर-ताल के मुताबिक चुनाव प्रचार के साथ एक नकारात्मक और नफरती माहौल खड़ा करने के लिए बनाया और दिखाया जा रहा है। इसमें से कोई भी बात मासूम नहीं है, खासकर इसलिए कि जब एक राजनीतिक दल के नेता देश भर में किसी फिल्म को बढ़ावा देने के लिए एकमुश्त टिकटें खरीदकर अपने समर्थकों सहित सिनेमाघर जाते हैं, तो यह जाहिर हो जाता है कि उन फिल्मों से उनका और उनकी पार्टी का क्या लेना-देना है। ऐसे में आज जब आदिपुरूष नाम की एक फिल्म एक धार्मिक एजेंडा सेट करने के हिसाब से सामने आई, और जब अपने घटियापन को लेकर वह निशाना बनी, तो उस पर थोड़ी सी चर्चा एक अदालती बहस को लेकर होनी चाहिए।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में जस्टिस राजेश सिंह चौहान, और जस्टिस प्रकाश सिंह की वेकेशन बेंच ने आदिपुरूष के निर्माताओं को यह कहते हुए फटकारा कि इसमें रामायण के पात्रों को बड़े शर्मनाक तरीके से दिखाया गया है। इस फिल्म पर रोक लगाने की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जजों ने यह जुबानी टिप्पणी की कि रामायण, कुरान, या बाइबिल पर विवादित फिल्में बनाई ही क्यों जाती हैं जो लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाती हैं? बेंच ने कहा- मान लीजिए कुरान पर एक छोटी डॉक्यूमेंट्री बनाई जाती, तो क्या आप सोच सकते हैं कि उससे कानून व्यवस्था की किस तरह गंभीर समस्या खड़ी हो जाती? लेकिन हिन्दुओं की सहिष्णुता के कारण ही फिल्मकारों की भयंकर भूलों के बाद भी हालात बुरे नहीं होते। उन्होंने कहा कि एक फिल्म में भगवान शंकर को त्रिशूल लेकर दौड़ते दिखाया गया है, अब इस फिल्म में भगवान राम और रामायण के अन्य पात्रों को बड़े शर्मनाक ढंग से दिखाया गया है, क्या यह रूकना नहीं चाहिए? इस फिल्म के लेखक मनोज मुंतसिर शुक्ला सहित फिल्म सेंसर बोर्ड और सूचना प्रसारण मंत्रालय को भी अदालत ने नोटिस जारी किया है।
लोगों को याद होगा कि दशकों पहले रामानंद सागर ने रामायण नाम का सीरियल बनाया था, जिसे देखने के लिए ट्रेन ड्राइवर ट्रेन रोक देते थे, देश के बड़े हिस्से में कफ्र्यू की तरह सन्नाटा छा जाता था, और जिसके लेखक एक मुस्लिम, राही मासूम रजा थे। वह सीरियल अभी लॉकडाउन को कामयाब बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने एक बार फिर दिखाया था, ताकि लोग घर पर बंधे भी रहें, और उनका वक्त भी गुजर सके। लेकिन एक मुस्लिम के लिखे इस धारावाहिक और उसके एक-एक संवाद को लोग याद रखते हैं, और एक शब्द पर भी कोई विवाद आज तक नहीं हुआ। दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर घटिया बातें लिखने और मंचों से उतनी ही घटिया बातें बोलने वाले लोगों के आज लिखे गए ऐसे धार्मिक सीरियल या फिल्मों से लगातार विवाद खड़ा हो रहा है, और वह विवाद ही असली मकसद है।
बहुत से लोगों का यह भी मानना है कि इस देश में लोगों की धार्मिक भावनाएं बड़ी नाजुक रहती हैं, और बड़ी जल्दी आहत हो जाती हैं, और इसलिए धार्मिक मुद्दों पर संभलकर काम करना चाहिए। लेकिन हमारा देखा हुआ यह है कि इन्हीं नाजुक भावनाओं को भडक़ाने के हिसाब से बहुत से काम किए जाते हैं, और कई किस्म के झूठों पर कश्मीर फाईल्स से लेकर केरल स्टोरी तक बनाई जाती हैं, जिनका मकसद ही समाज में नफरत फैलाना रहता है, और जो इस मकसद को ठीक चुनाव के पहले बखूबी पूरा भी करती हैं। दुनिया के जो परिपक्व लोकतंत्र हैं, वहां पर धार्मिक भडक़ावा इतना आसान नहीं रहता है, वहां धर्म का मखौल उड़ाने वाले लोगों को भी समाज में पर्याप्त और बराबरी का हक मिला होता है, और उस आजादी के चलते हुए वहां किसी कलाकृति में धर्म का इस्तेमाल कलाकार के लिए हिफाजत का भी रहता है, और देखने वाले भी उसे देखकर सडक़ों पर आग लगाने नहीं उतरते। लेकिन हिन्दुस्तान अब बारूद के ढेर पर बिठाया जा चुका है, और धार्मिक भडक़ावा यहां दीवारों पर नारे लिखने के लिए इस्तेमाल होने वाले गेरू की तरह का ही एक सामान हो गया है। इसलिए यहां पर कट्टरता फैलाने के लिए कभी कोई फिल्म बनती है, कभी किसी फिल्म का विरोध करवाकर किसी धर्म के लोगों को यह समझाया जाता है कि कोई दूसरा धर्म उनके खिलाफ है। यह पूरा सिलसिला देश में बढ़ी हुई साम्प्रदायिकता का एक संकेत और सुबूत है। हम अभी भी आदिपुरूष नाम की इस फिल्म के बारे में टिप्पणी नहीं कर रहे हैं क्योंकि उसको देखा नहीं है, लेकिन लोकतंत्र के लचीलेपन का बेजा इस्तेमाल करके, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा करके देश में जितने किस्म से फिल्म, कला, साहित्य का बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है, उसके खतरों को हर बार अदालत जाकर रोकना मुमकिन नहीं है, लेकिन इस देश के लोग अगर ऐसे खतरनाक हथियारों से किए जा रहे जुर्म को पहचानना नहीं सीखेंगे, तो किसी लोकतंत्र का कोई कानून भी उन्हें नहीं बचा पाएगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कल मध्यप्रदेश के अपने राजनीतिक-चुनाव पूर्व कार्यक्रम में मंच और माईक से समान नागरिक संहिता का मुद्दा छेड़ा है। उन्होंने धीरे-धीरे, एक-एक शब्द को जोर देकर यह कहा है कि एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते, ऐसे दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा? वे भाजपा कार्यकर्ताओं के बूथ स्तर के कार्यक्रम में बोल रहे थे, लेकिन उन्हें मालूम था कि उनकी कही बातें देश के तमाम टीवी चैनलों पर लाईव टेलीकास्ट हो रही हैं। उन्होंने कहा यूनिफॉर्म सिविल कोड के नाम पर लोगों को भडक़ाने का काम हो रहा है। उन्होंने कहा एक घर में परिवार के एक सदस्य के लिए एक कानून हो, और दूसरे सदस्य के लिए दूसरा कानून हो, तो क्या वो घर चल पाएगा? कभी भी चल पाएगा? ऐसी दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा? उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग मुसलमानों के हिमायती बनते हैं वे अगर सचमुच ही हिमायती होते तो अधिकतर मुस्लिम परिवार पढ़ाई और रोजगार में पीछे नहीं रहते, मुसीबत की जिंदगी जीने को मजबूर नहीं रहते। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है, वह डंडा मारती है, कहती है कॉमन सिविल कोड लाओ, लेकिन वोट बैंक के भूखे ये लोग इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं।
प्रधानमंत्री की ये बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि एक कॉमन सिविल कोड से देश के मुस्लिमों, आदिवासियों, और हिन्दुओं के कई अलग-अलग तबकों में प्रचलित अलग-अलग धार्मिक-सामाजिक नियम-कायदे बदलकर एक होंगे। आज भारत में शादी, तलाक, विरासत, और गोद लेने के मामले में अलग-अलग समुदायों में उनकी धार्मिक आस्था और रीति-रिवाजों के आधार पर अलग-अलग कानून है। समान नागरिक संहिता के तहत इन सभी को एक सरीखा बनाया जाएगा। इसमें आदिवासियों के रीति-रिवाजों पर क्या फर्क पड़ेगा इस बारे में सोचे बिना देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं का एक तबका प्रधानमंत्री की इस बात पर इसलिए खुश है कि इससे सडक़ किनारे पंक्चर बनाने वाले अब्दुल के हक बदलेंगे। मोदी ने 2024 के चुनाव के पहले संसद के अपने अभूतपूर्व बाहुबल के चलते ऐसा लगता है कि इसकी तैयारी कर रखी है, और वे मध्यप्रदेश सहित पांच राज्यों के चुनावों के पहले इस चर्चा को छेडक़र हिन्दुओं के उस तबके के वोटों की गारंटी कर रहे हैं जिन्हें मुस्लिमों पर वार या मार करने वाले हर फैसले सुहाते हैं। हम यहां पर यूनिफॉर्म सिविल कोड के गुण-दोष का विश्लेषण नहीं कर रहे हैं, वह एक लंबा, जटिल, और तकनीकी-कानूनी मामला है, उस पर हम अलग से बात करेंगे, लेकिन जो बात प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से कही है, एक परिवार वाली उस बात पर आज बात करना जरूरी है।
पूर्व केन्द्रीय वित्तमंत्री और कांग्रेस नेता पी.चिदम्बरम ने प्रधानमंत्री के बयान को पूरी तरह गलत बताया है। उन्होंने ट्विटर पर लिखा है कि समान नागरिक संहिता को सही ठहराने के लिए एक परिवार और राष्ट्र के बीच तुलना गलत है। उन्होंने कहा कि एक परिवार जहां खून के रिश्तों से बंधा होता है, वहीं एक देश संविधान के सूत्र में बंधा होता है, जो कि एक राजनीतिक-कानूनी दस्तावेज है। उन्होंने कहा कि एक परिवार के भीतर भी विविधता होती है, और भारत के संविधान में भी विविधता और बहुलता को मान्यता दी है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री को पिछले विधि आयोग की रिपोर्ट पढऩा चाहिए जिसमें बताया गया था कि इस समय इसे लागू करना संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि बीजेपी के कारण आज देश बंटा हुआ है, और लोगों पर थोपा गया कॉमन सिविल कोड इस विभाजन को बढ़ाएगा। चिदम्बरम ने कहा कि समान नागरिक संहिता के लिए प्रधानमंत्री की इस तगड़ी वकालत का मकसद महंगाई, बेरोजगारी, नफरती जुर्म, भेदभाव, और राज्यों के अधिकार नकारने जैसे मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए है, लोगों को सावधान रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार चलाने में नाकामयाब होने के बाद भाजपा वोटरों का ध्रुवीकरण करने को लेकर समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठा रही है।
हिन्दुस्तान में मुस्लिम समुदाय के लोगों पर टिकी राजनीति करने वाले एआईएमआईएम के सांसद और मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने मोदी से सवाल किया है कि क्या आप हिन्दू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) को खत्म करेंगे जिसकी वजह से देश को हर साल तीन हजार करोड़ से अधिक का टैक्स नुकसान हो रहा है? आरजेडी सांसद मनोज झा संसद में अपने गंभीर बयानों के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने कहा कि मोदी आजकल कुछ बेचैन हो रहे हैं, उन्हें यूनिफॉर्म सिविल कोड पर 21वें विधि आयोग की रिपोर्ट पढऩी चाहिए, उन्हें संविधान सभा की बहस भी पढऩी चाहिए।
समान नागरिक संहिता की मांग बहुत पुरानी है, और यह देश में उस विविधता के लिए एक चुनौती भी रहेगी जिसके लिए भारत जाना जाता है। फिर मोदी के भाषण को लेकर, देश को एक परिवार बताने को लेकर एक सवाल यह भी उठता है कि अगर नागरिक संहिता के लिए देश एक परिवार है, तो ऐसे में नाजुक और भडक़ाऊ मुद्दों पर इस परिवार के अलग-अलग लोगों को उनकी पोशाक के आधार पर कैसे पहचाना जा सकता है? एक घर में रहने वाले लोग तो अपनी मर्जी और पसंद से अलग-अलग पोशाक पहनते हैं, महज पोशाक के आधार पर जब कुछ सदस्यों को परिवार के बाकी सदस्य हिंसा का शिकार बनाएं, तो वह किस तरह का परिवार हो सकता है? भारत सरीखे विविधता वाले लोकतांत्रिक देश को एक परिवार कहना अपने आपमें परिवार के सबसे ताकतवर तबके के फायदे की चतुराई दिखती है। जिसका सबसे अधिक दबदबा हो वह अपने से दबे-कुचले लोगों को परिवार बताए, तो उस परिभाषा का कोई मतलब नहीं रहता। दुनिया में जो सबसे चतुर मालिक होते हैं, वे अपने कर्मचारियों को अपने परिवार का सदस्य बताते हैं, और वह उनके शोषण करने का एक मासूम दिखता तरीका होता है। इसलिए भारत को उसके विविधतावादी रूप में ही मंजूर करना ठीक है, और एक देश के लिए एक परिवार की मिसाल देना निहायत ही गलत बात है, और इसकी ठीक-ठीक व्याख्या चिदम्बरम ने की है। और अगर किसी का परिवार की मिसाल दिए बिना मन नहीं मान रहा है तो उसे याद रखना चाहिए कि एक परिवार के भीतर भी अलग-अलग लोग अलग-अलग किस्म का खाना-पीना पसंद करते हैं, अपने मर्जी के कपड़े पहनते हैं, अपनी मर्जी के जीवन-साथी को छांटकर शादी करते हैं, एक परिवार के भीतर अलग-अलग धार्मिक आस्था के लोग भी हो सकते हैं, और आस्थाहीन लोग भी रह सकते हैं। परिवार किसी एक दादा के तहत गुलामों के एक झुंड का नाम नहीं होता, परिवार अलग-अलग महत्वाकांक्षाओं और जीवनशैली के लोगों का भी होता है, जो कि किसी नियम से बंधे नहीं होते हैं, जो जहां तक मुमकिन हो सके एक-दूसरे के हिसाब से तालमेल बिठाकर चलते हैं, वरना एक परिवार के लोग भी एक परिवार के रहते हुए भी, अलग-अलग घरों में भी रहते हैं, और एक परिवार भी बने रहते हैं। इसलिए परिवार की मिसाल को एक मुखिया के गुलामों के परिवार की तरह नहीं देखना चाहिए। प्रधानमंत्री ने भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच इस मुद्दे का अतिसरलीकरण करके उसे मंच से दिए गए नारों की जुबान में कहा है, उसका असल जिंदगी में कोई महत्व नहीं है, एक देश को उसके संवैधानिक स्वरूप में देखा जा सकता है, एक परंपरागत भारतीय-हिन्दू परिवार की तरह उसे देखना जायज नहीं है, देश ऐसी तंगदिल परिभाषा से बहुत अधिक व्यापक होता है।
पहली नजर में सनसनीखेज, या हक्का-बक्का करने वाली तस्वीरें अपने आपमें सच होते हुए भी सच बखान करती हों, ऐसा जरूरी नहीं होता। एक तस्वीर अपने आपमें खरी हो सकती है, लेकिन उस तस्वीर से संदर्भ निकालने में चूक भी हो सकती है। अभी सोशल मीडिया पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की एक तस्वीर छाई हुई है जिसमें वे रथयात्रा के दिन दिल्ली में भगवान जगन्नाथ के मंदिर में गई हुई हैं, और वहां पर प्रतिमाओं के कमरे के बाहर वे रेलिंग के बाहर खड़ी हैं। चूंकि यह तस्वीर राष्ट्रपति भवन ने ट्वीट की है, इसलिए इसमें किसी छेडख़ानी की गुंजाइश नहीं है। दूसरी तरफ इसी मंदिर की एक और तस्वीर सोशल मीडिया पर है जिसमें केन्द्रीय रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव प्रतिमाओं के करीब जाकर पूजा कर रहे हैं। दोनों ही तस्वीरें बारीकी से देखने पर एक ही पूजागृह की हैं, उसी किस्म के कपड़ों में पुजारी हैं, और दीवारों की टाईल्स तक एक सरीखी है। दोनों तस्वीरें सरकारी ट्विटर हैंडल से पोस्ट की गई हैं, इसलिए उनमें कोई फेरबदल नहीं हुआ है। अब दलितों के कुछ ट्विटर हैंडल से यह बात लिखी गई कि एक आदिवासी होने के नाते राष्ट्रपति को बाहर खड़ा किया गया, और अश्विनी वैष्णव भीतर प्रतिमाओं तक ले जाकर पूजा करवाई गई। यह बात तस्वीरों से बिल्कुल साफ-साफ दिखती है, इसे लेकर बहुत से और लोगों ने कई और किस्म की बातें भी लिखी हैं, और एक आदिवासी के साथ ऐसा सुलूक बहुत से लोगों को खटक गया है। लेकिन इस बारे में चारों तरफ से नाराजगी आने के बाद जब बीबीसी ने मंदिर से उसका पक्ष पूछा तो उनका कहना था कि तस्वीरों को लेकर ऐसा विवाद करना निंदनीय है। मंदिर के पूजक ने कहा कि वहां पूजा का प्रोटोकाल होता है, मंदिर के गर्भगृह में वही पूजा कर सकते हैं जिसको हम महाराजा के रूप में आमंत्रित करते हैं। उन्होंने कहा कि जिन्हें आमंत्रित किया गया है वो अंदर आकर भगवान के सामने प्रार्थना और पूजा करेंगे, और फिर झाड़ू लगाकर वापिस जाएंगे। राष्ट्रपति व्यक्तिगत तौर पर भगवान का आशीर्वाद लेने आई थीं तो वे अंदर कैसे जाएंगी? उन्होंने कहा कि जिसको हम आमंत्रित करेंगे, बस वे ही अंदर जाएंगी।
अब सवाल यह उठता है कि देश की राजधानी का मंदिर राष्ट्रपति के वहां पहुंचने की खबर का जानकार तो रहा ही होगा, और अगर आमंत्रित करने की ऐसी कोई रस्म है, तो राष्ट्रपति को भी आमंत्रित किया जा सकता था। जब अश्विनी वैष्णव और धर्मेन्द्र प्रधान जैसे केन्द्रीय मंत्रियों को आमंत्रित किया गया था, तो फिर राष्ट्रपति के वहां आने की खबर आने के बाद उन्हें आमंत्रित क्यों नहीं किया गया ताकि वे भी प्रतिमाओं के करीब जाकर पूजा करने का महत्व पा सकें? इस मौके पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि 2018 में उस वक्त के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद सपत्निक ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर गए थे, और वहां पर जब वे जगन्नाथ भगवान के रत्न सिंहासन पर माथा टेकने पहुंचे तो वहां मौजूद पुजारियों और मंदिर सेवकों ने उनके लिए रास्ता नहीं छोड़ा, और वे उनकी पत्नी के भी सामने आ गए। जाहिर है कि एक दलित राष्ट्रपति के प्रतिमा तक पहुंचने की वजह इसके पीछे रही होगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि राष्ट्रपति ने पुरी से वापिसी से पहले कलेक्टर अरविंद अग्रवाल से अपनी नाखुशी जाहिर कर दी थी, और बाद में इसे लेकर राष्ट्रपति भवन की ओर से भी असंतोष व्यक्त किया गया था लेकिन इसके बावजूद मंदिर कमेटी की बैठक में चर्चा के बाद भी इस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई।
हम अकेली इस घटना को लेकर कुछ लिखना नहीं चाहते, लेकिन देश के मंदिरों में दलितों और आदिवासियों के साथ ऐसे सुलूक में हैरानी की कोई बात नहीं है। इसका इतिहास बहुत पुराना रहा है, यही वर्तमान की हकीकत है, और यही धर्म का भविष्य भी रहेगा क्योंकि धर्म का मानवीय कहे जाने वाले मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। धर्म का मिजाज हमेशा से हिंसक और बेइंसाफ रहा है, उसमें कमजोर लोगों, गरीबों, महिलाओं, बीमारों, और नीची कही जाने वाली जातियों के प्रति हिकारत और हिंसा दोनों लबालब रही हैं। दिक्कत सिर्फ यही है कि जिस मंदिर के पुजारी देश की राजधानी में 50 केन्द्रीय मंत्रियों में से दो का वरण कर रहे हैं, उन्हें पूजा के लिए आमंत्रित कर रहे हैं, उसी मंदिर में उसी दिन राष्ट्रपति के पहुंचने पर उन्हें पूजागृह के बाहर रखा जा रहा है। यह छोटी बात नहीं है, ऐसा भी नहीं है कि मंदिर ट्रस्ट के लोगों और पुजारियों को राष्ट्रपति के ओहदे की अहमियत का पता न हो, लेकिन यह भी तय है कि उन्हें राष्ट्रपति की जाति का पता होगा, और ऐसा लगता है कि जाति ही अकेली वजह होगी कि देश की राष्ट्रपति होने के बावजूद पुजारी उन्हें वहां आने पर भी पूजा के लिए आमंत्रित नहीं कर रहे हैं, और लकड़ी की एक रेलिंग के पीछे उन्हें खड़ा रख रहे हैं। यह बात इस देश के लोकतंत्र के खिलाफ है, और जिस धर्म के लोग ऐसा कर रहे हैं, उस धर्म के सम्मान के भी खिलाफ है। 21वीं सदी में आकर भी अगर कोई धर्म लोकतंत्र की संवैधानिक सत्ता में अपने हिंसक भेदभाव को छोडऩे से मना करता है, तो वह धर्म सम्मान के लायक नहीं है।
लेकिन इससे परे की एक दूसरी बात यह है कि देश के दलितों का हिन्दू धर्म के प्रति जो रूख रहता है, उसे भी समझना चाहिए। दलितों ने हिन्दू धर्म की ऐसी ही हिंसा के चलते उसे छोडक़र दूसरे धर्म अपनाए, और एक हिंसक भेदभाव से बाहर हो गए। हिन्दुओं के भीतर की जाति व्यवस्था उसमें इंसानियत कही जाने वाली बातों की जगह ही नहीं बनने देती। इस बात को वे लोग नहीं समझेंगे जो जातियों के इस ढांचे में ऊपर हैं, इस बात को वे ही लोग समझ पाएंगे जो कि मनु के बनाए हुए इस पिरामिड में सबसे नीचे नींव के पत्थरों की तरह कुचले जा रहे हैं। ऐसे में जरूरी यह भी है कि दलितों और आदिवासियों को संगठित हिन्दू धर्म के भेदभाव वाले रूख से परे अपना भविष्य देखना चाहिए। जहां किसी को हिकारत से देखा जाता है वहां पर उन्हें अपनी जगह क्यों तलाशनी चाहिए? राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तो अब किसी भी निर्वाचन से परे हो चुकी हैं, इसलिए उन्हें बहुसंख्यक वोटरों के बहुमत की परवाह नहीं करनी चाहिए। देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति के रूप में उन्हें आदिवासी मुद्दों को खुलकर सामने रखना चाहिए, उन्होंने पिछले दिनों देश के मुख्य न्यायाधीश के सामने न्याय व्यवस्था को लेकर कुछ खुली-खुली बातें साफ-साफ रखी भी थीं। अगर पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पुरी मंदिर के पुजारियों को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की थी, तो द्रौपदी मुर्मू को भी उनके साथ हुए इस भेदभाव को इतिहास में अच्छी तरह दर्ज करना चाहिए, हो सकता है कि उनकी इस पहल से देश के बाकी आदिवासियों की हालत के बारे में लोगों का ध्यान जाए।
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5 मिनट खबर : इस देश के मंदिरों को दलित और आदिवासी राष्ट्रपतियों से भी परहेज?
पटना में विपक्षी दलों की बैठक में नीतीश की मेहमाननवाजी में खाया गया खाना अभी बदन से पूरी तरह निकला भी नहीं होगा कि लोगों में सार्वजनिक बवाल शुरू हो गया है। एक किस्म से इसकी शुरुआत कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच हुई है, और कांग्रेस के महासचिव अजय माकन ने केजरीवाल पर विपक्षी एकता तोडऩे का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा है कि केजरीवाल की भाजपा से सांठगांठ है, वे भ्रष्टाचार में शामिल हैं, उनके दो दोस्त पहले से ही जेल में हैं, और अब केजरीवाल भी बस गिरफ्तार होने वाले हैं, और वे जेल नहीं जाना चाहते। अजय माकन ने यह भी गिनाया कि एक तरफ तो आम आदमी पार्टी कांग्रेस से (मोदी के अध्यादेश के खिलाफ) समर्थन चाहती है, दूसरी तरफ वह लगातार कांग्रेस पर हमले कर रही है। उन्होंने कहा कि केजरीवाल ने अभी राजस्थान जाकर कांग्रेस के तीन बार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ हमला बोला है। दूसरी तरफ कांग्रेस के साथ जिस दिन केजरीवाल और बाकी विपक्षी दलों की बैठक होनी थी, उस दिन सुबह भी आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने कांग्रेस के खिलाफ कहा, ऐसा कहते हुए अजय माकन ने कहा कि जेल न जाने के लिए केजरीवाल भाजपा से समझौता करके विपक्ष की एकता को खंडित करने के लिए इस बैठक में पहुंचे थे। उन्होंने कहा कि केजरीवाल विपक्षी पार्टियों की बैठक में इसी नीयत से जाते हैं। उन्होंने कहा कि अगर किसी भी मुद्दे पर केजरीवाल कांग्रेस का समर्थन चाहते हैं तो इस तरह कांग्रेस के खिलाफ बयान थोड़े ही दिए जाते हैं। इस पर आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के कुछ नेताओं के बयान गिनाए हैं कि वे भी आम आदमी पार्टी के खिलाफ बोलते रहे हैं। आप प्रवक्ता ने यह भी गिनाया कि कांग्रेस आप के चुनाव लडऩे पर आपत्ति जताती है कि उससे भाजपा को मदद होती है, तो कांग्रेस बताए कि पिछले तीस साल में कांग्रेस गुजरात में भाजपा को क्यों नहीं हरा पाई, क्या इसका दोष भी केजरीवाल को देंगे? असम, नगालैंड, पुदुचेरी, त्रिपुरा, मेघालय, सिक्किम, मणिपुर, अरूणाचल में तो आप चुनाव नहीं लड़ी, फिर वहां कांग्रेस क्यों हारी?
विपक्ष की एकता की कोशिशों के चलते हुए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच का यह विवाद सिर्फ दिल्ली की स्थानीय राजनीति का है जहां कांग्रेस की लंबी सत्ता को आम आदमी पार्टी ने खत्म किया, और कांग्रेस अब तक उस दर्द से उबर नहीं पाई है। केजरीवाल भाजपा के मोहरे हैं या नहीं, यह एक अलग मुद्दा है, लेकिन जब व्यापक विपक्षी एकता की बात हो रही है, तो सबसे पहले कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की इस तूतू-मैंमैं को अलग रखवाना चाहिए, वरना केजरीवाल सचमुच ही भाजपा के मोहरे साबित होने में देर नहीं लगाएंगे। किसी बड़ी बैठक को कामयाब करने में वहां मौजूद हर किसी की ईमानदार भागीदारी की जरूरत रहती है, लेकिन किसी बैठक को बर्बाद करने के लिए वहां मौजूद एक लापरवाह, गैरजिम्मेदार, या मक्कार काफी हो सकते हैं। देश की राजधानी का स्थानीय राजनीति को पूरे देश की विपक्षी एकता की संभावनाओं को तबाह नहीं करने देना चाहिए।
न सिर्फ कांग्रेस के साथ, बल्कि देश की बहुत सी पार्टियों के साथ एक दिक्कत यह भी है कि वह किसी राज्य के मुद्दों पर बोलने के लिए अपने उसी राज्य के प्रवक्ता को झोंक देती है। भाजपा को जब बिहार के बारे में कुछ कहना रहता है, वह रविशंकर प्रसाद को लगाती है, ऐसा ही दूसरे राज्यों के बारे में दूसरी पार्टियों का भी होता है। दिक्कत यह होती है कि ऐसे प्रवक्ता स्थानीय राजनीति के अपने जख्मों को सहलाते हुए भी कोई बात करते हैं, और जरूरत से अधिक बात करते हैं। पार्टियों को किसी मुद्दे पर उन्हीं प्रवक्ताओं को लगाना चाहिए जिनके निजी स्थानीय राजनीतिक हित उन मुद्दों से जुड़े हुए न रहें। कांग्रेस और भाजपा जैसी बड़ी पार्टियों के पास तो बहुत से प्रवक्ता हो सकते हैं, और एक नीतिगत फैसला लिया जाना चाहिए कि प्रवक्ताओं की निजी राजनीति को उनके उठाए जा रहे मुद्दों पर असर नहीं डालने देना चाहिए। यह कुछ उसी तरह की बात है कि किसी राज्य के व्यक्ति को उसी राज्य में राज्यपाल बनाकर नहीं भेजा जाता। सार्वजनिक और व्यापक हितों को किनारे रखकर ऐसे प्रवक्ता अपने पुराने हिसाब चुकता करते हैं।
अब चूंकि हम पार्टी प्रवक्ताओं की बात कर ही रहे हैं, तो लगे हाथों इसके एक दूसरे पहलू पर भी बोलना जरूरी है। देश की बहुत सी बड़ी पार्टियां वकीलों को अपना प्रवक्ता बनाती हैं क्योंकि वे अदालत में किसी बात को तर्कपूर्ण ढंग से साबित करने के पेशे से आते हैं। इससे भी पार्टी की बात धरी रह जाती है, उसकी मूल भावना धरी रह जाती है, और वकालत के अंदाज में वकील-प्रवक्ता तर्कों में उलझकर रह जाते हैं। इनके मुकाबले गैरवकील प्रवक्ता बेहतर होते हैं, जो कि अदालती जिरह के अंदाज में नहीं फंसते, और आम लोगों को समझ आने वाली भाषा में बात करते हैं।
अब अगर कांग्रेस और आप के आपसी झगड़ों पर लौटें, तो इन दोनों पार्टियों से संपर्क वाले दूसरे नेताओं को चाहिए कि इन दोनों से अलग-अलग बात करके इन्हें सडक़ों पर मारपीट से रोकें। सार्वजनिक जगहों पर, सार्वजनिक माध्यम से जिस तरह से ये दोनों पार्टियां उलझ रही हैं, उससे विपक्षी एकता की संभावनाएं तो खराब हो ही रही हैं, ऐसी संभावनाओं के लिए जो वरिष्ठ नेता लगातार कोशिश कर रहे हैं उनके लिए भी शर्मिंदगी का सामान खड़ा हो रहा है। केजरीवाल और कांग्रेस का झगड़ा दिल्ली की स्थानीय राजनीति का झगड़ा है, और ये दोनों ही पार्टियां बहुत खराब मिसाल पेश कर रही हैं। किसी एक का बयान आने पर दूसरी पार्टी अगर इतना ही कह देती कि उसे इस पर कुछ नहीं कहना है तो भी उस पार्टी की इज्जत बढ़ जाती, और पहले वाले की बात का वजन खत्म हो जाता, लेकिन प्रवक्ताओं का पेशा चूंकि बोलना रहता है, मीडिया के सामने चेहरा और आवाज रखना होता है, इसलिए वे बिना जरूरत भी बोलते हैं, जरूरत से अधिक भी बोलते हैं, यह कुछ इसी किस्म का होता है जिस तरह कि किसी शादी की दावत में रखे गए ऑर्केस्ट्रा को बहुत ऊंची आवाज में गाना-बजाना अच्छा लगता है ताकि उसकी मौजूदगी का अहसास होता रहे, प्रवक्ताओं को भी बोलना इसी तरह अच्छा लगता है। इस निहायत गैरजरूरी बकबक पर काबू पाना विपक्षी एकता के लिए जरूरी है।
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पटना में बहुत सी विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने मिलकर बात की, और अपने मतभेदों को कुछ घंटों के लिए किनारे खिसकाकर अगले आम चुनाव में साथ खड़े होने की एक संभावना टटोली है। आज की तारीख में यह छोटी बात नहीं है कि एक नाव पर ऐसे लोग सवार हो जाएं जो आमतौर पर एक-दूसरे के डूबने की कामना करते हैं। हिन्दुस्तानी विपक्ष को यह बात समझ आ रही है कि 2024 के लोकसभा चुनाव नाम के इस नाव पर वे सब एक साथ सवार हैं, और किसी दूसरे के डूबने की कामना खुद को भी डुबाकर छोड़ेगी। इसलिए इस चुनावी नदी को पार करने के लिए मोदी के मुकाबले बाकी बहुत सी पार्टियों के नेता जब तक हाथ में हाथ नहीं डालेंगे, तब तक वे किसी किनारे नहीं पहुंच पाएंगे।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि विपक्ष की कोई एकता, उसका गठबंधन, तब तक कामयाब नहीं हो सकता, जब तक उसमें कोई वैचारिक एकता नहीं हो जाती। भारत का संसदीय लोकतंत्र एक ऐसी चुनाव व्यवस्था पर टिका हुआ है जिसमें वोटरों के सामने पेश किए गए विकल्पों में से ही बेहतर को चुनने का हक उसे रहता है, यह बेहतर हो सकता है कि अच्छा भी न हो, लेकिन वह बाकी के मुकाबले बेहतर हो सकता है। इसलिए हिन्दुस्तानी चुनाव लोगों के सामने बुरे के मुकाबले बेहतर विकल्प पेश करने का नाम है, और यह विकल्प आदर्श हो, अच्छा हो, ऐसा जरूरी भी नहीं है। कुछ और चलताऊ भाषा में कहें तो गब्बर के मुकाबले सांभा, या सांप के मुकाबले बिच्छू पेश करने जैसी बात भी रहती है जहां पर लोग कम बुरे को चुनते हैं। ऐसे में बहुत बड़ी वैचारिक एकता की जरूरत नहीं है जो कि किसी पार्टी के भीतर भी हो जाए वह भी जरूरी नहीं रहता। बहुत सी पार्टियों में आंतरिक विरोधाभास, विसंगतियां, और मतभेद बने रहते हैं, और कई बार ऐसे मतभेद उन पार्टियों को आत्मविश्लेषण का मौका देते हैं, और ऐसे आत्ममंथन से उन्हें मजबूत भी करते हैं। इसलिए अगर विपक्ष का कोई एक ढीलाढाला गठबंधन भी होता है, तो भी कोई बुराई नहीं है, बहुत से चुनावों में यह देखने में आया है कि पार्टियां कुछ सीटों का आपसा में बंटवारा कर लेती हैं, और कुछ सीटों पर वे ही पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ एक दोस्ताना मुकाबला भी करती हैं। एक-दूसरे के खिलाफ बदजुबानी नहीं करतीं, लेकिन लड़ती हैं। इसलिए भारतीय चुनाव में पूरी वैचारिक एकता एक आदर्श और काल्पनिक स्थिति ही हो सकती है, उसका हकीकत से कुछ लेना-देना नहीं है।
इसलिए पटना में जितने विपक्षी लोग बैठे, वह अपने आपमें एक कामयाबी है। हो सकता है कि इससे 2024 का कोई विपक्षी गठबंधन कोसों दूर हो, और यह भी हो सकता है कि यह बैठक वैसे किसी गठबंधन में तब्दील भी न हो पाए, फिर भी आपसी तालमेल, आपसी सहमति छोटी बात नहीं होती है। जो दो लोग एक कमरे में सांस लेने के आदी नहीं रहते, वे लोग अगर बैठकर बात कर रहे हैं, एक-दूसरे की सांस को बर्दाश्त कर रहे हैं, तो लोकतंत्र के लिए यह अपने आपमें एक कामयाबी है। दुनिया के परिपक्व और सभ्य लोकतंत्रों में तो सत्ता और विपक्ष भी एक-दूसरे से बात करते हैं, संसद के भीतर भी एक-दूसरे को सुनते हैं, और संसद के बाहर भी। एक वक्त जब मोतीलाल वोरा उत्तरप्रदेश के राज्यपाल थे, और वहां राष्ट्रपति शासन चल रहा था, तो लखनऊ में ही बसे हुए अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर चाय पीने राजभवन चले जाते थे, और उनके बताए हुए हर सार्वजनिक काम मोतीलाल वोरा प्राथमिकता से पूरे करते थे। अब वक्त वैसी सज्जनता का नहीं रह गया, और अब सत्ता और विपक्ष के नेताओं के बीच की मुलाकात शिवाजी की एक कहानी में एक मुलाकात और बघनखे से विरोधी को चीर देने सरीखी रहती है, और लोगों के बीच सार्वजनिक जीवन और लोकतंत्र का शिष्टाचार भी खत्म हो चुका है। लोग एक-दूसरे के प्रति शक से घिरे रहते हैं, और यह खतरा रहता है कि कौन क्या रिकॉर्डिंग कर रहे हैं, किन बातों का कैसा बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए आज अगर आधा-एक दर्जन पार्टियों के नेता अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं, और शिकायतों-मतभेदों के बावजूद एक साथ बैठे हैं, तो सीटों का लेन-देन चाहे न हो, कम से कम सोच का लेन-देन तो हो ही सकता है।
हमारा ख्याल है कि 2024 को लेकर मोदी की चुनौती को अगर छोड़ भी दिया जाए, तो भी यह बात याद रखना चाहिए कि राज्यों के चुनावों के लिए भी इन पार्टियों का साथ उठना-बैठना लोकतंत्र के लिए अच्छा है। और किसी भी चुनाव से परे एक जनमत के लिए, जनहित के मुद्दों के लिए, संसदीय रणनीति के लिए भी इनका उठना-बैठना एक बेहतर नौबत है। यह भी मानकर नहीं चलना चाहिए कि सारे के सारे विपक्षी दल एक साथ आना जरूरी है। हो सकता है कि विपक्ष के ऐसे एक से अधिक गठबंधन तैयार हों, और बाद में ऐसे दो गठबंधनों के बीच भी किसी तरह का चुनावी तालमेल हो सकता है। भारतीय लोकतंत्र में मोदी अपनी पार्टी के साथ देश के किसी भी गठबंधन से अधिक ताकतवर हो चुके हैं। वे अपनी सोच और अपनी रणनीति के तहत देश में एक बहुत व्यापक ध्रुवीकरण भी कर चुके हैं जो कि धर्म के आधार पर है, जातियों के आधार पर है, खानपान और पहरावे के आधार पर है, सामुदायिक रीति-रिवाज और संस्कारों के आधार पर है। किसी भी लोकतंत्र में इन मुद्दों पर इतने ताकतवर ध्रुवीकरण से कई किस्म के खतरे ही खड़े होते हैं। फिर यह बात याद रखना चाहिए कि अपार ताकत किसी भी सत्ता को तानाशाह बनाकर ही छोड़ती है, उससे परे और कोई रास्ता नहीं रहता। इसलिए लोकतंत्र में ताकत का एक संतुलन जरूरी रहता है, और भारतीय चुनावी राजनीति में अब ऐसा कोई भी संतुलन बिना विपक्षी एकता, एकजुटता, गठबंधन, या तालमेल के मुमकिन नहीं है। जरूरी नहीं है कि 1977 की तरह इस देश का विपक्ष एक-दूसरे में विलीन होकर जनता पार्टी बना ले, लेकिन यह तो हो ही सकता है कि सीटों का तालमेल किया जा सके, और भाजपा-एनडीए के मुकाबले हर सीट पर एक-एक मजबूत उम्मीदवार की संभावना तलाशी जा सके। लोगों को इतनी जल्दी बहुत अधिक हासिल कर लेने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, अभी 2024 के चुनावों को खासा वक्त है, और विपक्ष को आपसी समझ विकसित करने का एक मौका देना चाहिए, उसकी हर बैठक से लोकतंत्र का भविष्य तय हो जाने की उम्मीद जागती होगी।
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एक भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पिछले दो-तीन दिनों में अपनी बातों से लगातार लोगों का ध्यान खींचा है। वे बहुत कमउम्र में राष्ट्रपति बन गए थे, और दो कार्यकाल की सीमा पूरी कर लेने के बाद अब वे किसी सरकारी ओहदे पर नहीं रह सकते, इसलिए वे एक स्वतंत्र नागरिक की हैसियत से अपनी सोच अधिक खुलकर रखते हैं। कल ही उनका वह बयान सामने आया था जिसमें उन्होंने कहा था कि अमरीकी राष्ट्रपति को मोदी से बातचीत में भारत में धार्मिक भेदभाव का मुद्दा उठाना चाहिए। अब उन्होंने एक अलग कार्यक्रम में पश्चिमी मीडिया के पाखंड पर हमला बोला है। और कहा है कि अभी ग्रीक के पास एक शरणार्थी बोट डूब जाने से 82 लोगों की मौत और सैकड़ों के डूबने की आशंका पर पश्चिमी मीडिया की खबरों में इसे ठीक से जगह नहीं मिली, दूसरी तरफ डूबे हुए टाइटेनिक को देखने गए पांच पर्यटकों की मौत से पश्चिमी मीडिया लदे रहा। ओबामा ने कहा कि ग्रीक में सैकड़ों लोगों के डूबने की आशंका ठीक से खबर नहीं बन पाई, और टाइटेनिक पर्यटन वाली पनडुब्बी टाइटन में फंसे पांच लोगों को बचाने की खबरें पूरे वक्त चलती रहीं।
बात सही है क्योंकि ग्रीक के पास जिस बोट को बचाने के लिए वहां की सरकार को संयुक्त राष्ट्र के शरणार्थी संस्थान ने खबर दी थी, उसे बचाने के लिए ग्रीक सरकार ने कुछ नहीं किया, और इस बोट पर सवार करीब सात सौ लोग मदद के लिए गुहार लगाते रहे लेकिन वहां तक पहुंचा ग्रीक जहाज उन पर कुछ पानी की बोतलें और खाने का कुछ सामान फेंककर चले आया। इस जहाज पर पाकिस्तान के भी करीब साढ़े तीन सौ लोग थे जो कि बेहतर भविष्य के लिए ग्रीक या इटली की तरफ जा रहे थे। इसमें और लोग लीविया और सीरिया के भी थे जहां पर जीना मुहाल हो गया है, और लोग डूबकर मर जाने की कीमत पर भी किसी ऐसे देश पहुंच जाना चाहते हैं जहां पर जिंदगी बेहतर हो। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले इसी तरह अमरीका में दाखिल होने की कोशिश करते हुए हिन्दुस्तान के गुजरात के एक परिवार के चार लोग मारे गए थे।
हिन्दुस्तान में ऐसी खबरें हर बरस कुछ बार आती हैं कि देश के कितने अरबपति, खरबपति बीते बरसों में यह देश छोडक़र गए हैं। अब तो ऐसा अनुमान भी आने लगा है कि अगले बरस कितने लोग छोडक़र जाएंगे। अतिसंपन्न लोगों का हजारों की संख्या में हर बरस देश छोडक़र जाना एक अलग मामला है। लेकिन काम की तलाश में, जिंदा रहने की कोशिश में जब लोग अपना देश छोडक़र समंदर के रास्ते या बिजली की तारों वाली बाड़ से निकलकर किसी दूसरे देश पहुंचते हैं, तो उनकी अपनी मजबूरियां रहती हैं। यह बात सही है कि किसी भी देश के पास शरणार्थियों को जगह देने की क्षमता सीमित रहती है, लेकिन पश्चिम के बर्ताव से एक बात साफ समझ आती है कि वहां की सरकारों या वहां के नागरिकों में से कुछ में एक रंगभेद दिखाई पड़ता है। यह रंगभेद अफ्रीकी और एशियाई लोगों के खिलाफ अधिक दिखता है, और इन्हीं देशों में यूक्रेन से निकले हुए लाखों लोगों के लिए घर-घर में जगह बन गई, तो यूरोपीय लोगों के लिए देशों और लोगों के दिल में कुछ अधिक जगह दिखती है। ऐसा भी नहीं है कि यह सिर्फ योरप के साथ है, हिन्दुस्तान में भी पाकिस्तान से आए हुए हिन्दू सिन्धियों के लिए लोगों और सरकारों के दिल में जगह रहती है, लेकिन म्यांमार से निकाले गए मुस्लिम रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए कोई जगह नहीं रहती। ऐसा शायद हिन्दुस्तान में धर्म की वजह से भी होता है, और योरप में भी यूक्रेन के लोगों के धर्म और पाकिस्तान, लीविया, सीरिया के लोगों के धर्म को लेकर एक फर्क दिखता है।
आज दुनिया के कई देश गिरती हुई आबादी के शिकार हैं, वहां बूढ़ी आबादी बढ़ती चली जा रही है, और कामकाजी पीढ़ी सिकुड़ती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान को एक टिकाऊ शरण योजना पर काम करना चाहिए कि जिन देशों में कामकाजी लोग घट गए हैं, बुजुर्गों की देखभाल के लिए लोग आज भी कम हैं, और कल और अधिक कम पड़ेंगे, उन देशों में कामों के लिए दूसरे देशों के लोगों को कैसे तैयार किया जा सकता है। भाषा, संस्कृति, तौर-तरीके और रीति-रिवाज, अलग-अलग कामों के हुनर सिखाकर लोगों को नई जगहों के लायक तैयार किया जा सकता है, जहां वे महज रहम से जगह पाने वाले शरणार्थी न रहें, जहां वे कामगार रहें, और उनकी हालत बेहतर रहे। इसके साथ-साथ उन्हें इन नए देशों में उत्पादकता जोडऩे के लायक भी बनाया जाना चाहिए। यह बात हम इसलिए भी सुझा रहे हैं कि दुनिया के कई देशों में लोगों की संपन्नता काफी अधिक है, और वे बहुत कम काम करते हैं, और भी कम करना चाहते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह आसानी से मुमकिन हो सकता है कि वे बाहर से आए हुए लोगों को मामूली मेहनताने के काम पर रख सकें, और खुद अधिक कमाई के बेहतर काम कर सकें। एक-एक बोट को बचाना तो जरूरी है ही, लेकिन यह स्थाई समाधान नहीं है। आज बहुत सारे ऐसे अंतरराष्ट्रीय मंच हैं जिन पर देश छोडक़र जाने वाले लोगों और लोगों की जरूरत वाले देशों के बीच एक तालमेल बिठाया जा सकता है। अभी ऐसी कोई पहल हो रही हो, यह हमें पढ़ा हुआ याद नहीं पड़ता है। दुनिया की आबादी को जरूरत के मुताबिक इस तरह दुबारा एडजस्ट करने के बारे में सोचना चाहिए, और इससे एक टिकाऊ इंतजाम हो सकेगा, जो कि दान और मदद पर नहीं टिका रहेगा, मेहनत और जरूरत के आधार पर होगा।
बराक ओबामा ने एक जलता-सुलगता सवाल खड़ा किया है, और न सिर्फ पश्चिमी मीडिया बल्कि हिन्दुस्तानी मीडिया का भी रूख ऐसा ही रहता है, और हिन्दुस्तान के लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि यहां की जिंदगी के असल मुद्दों को किस तरह किनारे धकेलकर फर्जी भडक़ाऊ मुद्दे देश की बहस पर लादे जाते हैं, किस तरह सबसे संपन्न तबकों की दिलचस्पी के मुद्दे लादे जाते हैं। हिन्दुस्तान में भी एक विमान दुर्घटना में हुई मौतें, ट्रेन दुर्घटना में हुई मौतों के मुकाबले सैकड़ों गुना अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। जिस मौत के बाद जितना बड़ा इश्तहार मिलने की उम्मीद होती है, वह मौत खबरों में उतनी ही बड़ी अहमियत पाती है।
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अमरीका प्रवास पर गए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने वहां के राष्ट्रपति की डेमोक्रेटिक पार्टी के 75 नेताओं की लिखी एक चिट्ठी भी थी जिसमें उन्होंने अपने राष्ट्रपति जो बाइडन से यह अपील की थी कि मोदी के साथ बातचीत में उन्हें भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर जुल्म की बात भी उठानी चाहिए। यह बात और कई लोगों ने भी उठाई थी, और भारत में अल्पसंख्यकों के हिमायती एक अमरीकी तबके ने मोदी के स्वागत में वहां की सडक़ों पर ऐसी इलेक्ट्रॉनिक वैन भी दौड़ाई थीं जिनमें तीनों तरफ बड़े-बड़े पर्दों पर भारत के कई धार्मिक अल्पसंख्यक सवाल लिखे हुए थे। इनमें मोदी के लिए शर्मिंदगी पैदा करने वाले कुछ नारे भी थे, और यह अमरीकी लोकतंत्र में एक आम व्यवस्था है जिसे भारत की तरह रोका नहीं जा सकता। लेकिन यह एक बड़ा संयोग था कि एक पिछले डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी इसी मौके पर मोदी के लिए भारत में अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर कुछ बातें कहीं। यह एक अधिक बड़ा संयोग इसलिए था कि ओबामा से अमरीका के एक प्रमुख टीवी समाचार चैनल सीएनएन पर उसकी एक सबसे सीनियर रिपोर्टर-एंकर इंटरव्यू कर रही थी, और उसने ओबामा से पूछा- दुनिया में लोकतंत्र खतरे में हैं, इसे तानाशाहों और तानाशाही से चुनौती मिल रही है, बाइडन इस वक्त अमरीका में मोदी का स्वागत कर रहे हैं जिन्हें ऑटोक्रेटिक या फिर अनुदान डेमोक्रेट माना जाता है, किसी राष्ट्रपति को ऐसे नेताओं से किस तरह पेश आना चाहिए? इस सवाल के जवाब में बराक ओबामा ने कहा कि अगर वह मोदी से बात कर रहे होते तो आज हिन्दू बहुसंख्यक भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की हिफाजत चर्चा के लायक है, मेरा तर्क होता कि अगर आप अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा नहीं करते हैं तो मुमकिन है कि भविष्य में भारत में विभाजन बढ़े, ये भारत के हितों के विपरीत होगा।
उल्लेखनीय है कि 2015 में ओबामा ने कहा था कि भारत तब तक सफलता की सीढिय़ां चढ़ता रहेगा जब तक वह एक देश के रूप में एकजुट रहे, और धार्मिकता या किसी अन्य आधार पर अलग-थलग न हो। ओबामा ने दिल्ली में एक भाषण में कहा था कि एक अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की कामयाबी उसकी एकता पर निर्भर करती है, और दुनिया में हम जिस शांति की उम्मीद करते हैं, वह लोगों के दिलों से शुरू होती है, और हिन्दुस्तान से अधिक महत्वपूर्ण यह और कहीं नहीं है। भारत तब तक कामयाब रहेगा जब तक यह धार्मिक आस्था के आधार पर विभाजित न बंटे। यह बात भी याद रखी जानी चाहिए कि ओबामा के राष्ट्रपति रहते मोदी तीन बार अमरीका गए थे, और एक बार ओबामा को भारतीय गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बनाया गया था। मोदी परंपरागत कूटनीति के तौर-तरीकों से अलग हटकर ओबामा को अपना दोस्त बराक बताते रहे हैं, इसलिए आज उस बराक की कही हुई बात चर्चा के लायक है।
अमरीका के एक और सबसे प्रमुख डेमोक्रेट नेता बर्नी सेंडर्स अमरीकी राष्ट्रपति की दौड़ में एक बार शामिल हो चुके हैं, उन्हें अमरीका में बड़ी गंभीरता से सुना जाता है, उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि मोदी के साथ बैठक के दौरान बाइडन को धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में बात करनी चाहिए। उन्होंने लिखा कि मोदी सरकार ने प्रेस और सिविल सोसाइटी पर कड़ा प्रहार किया है, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया है, और आक्रामक हिन्दू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया है जिसकी वजह से भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कम जगह बची है। उन्होंने लिखा कि राष्ट्रपति को मोदी के साथ बैठक में ये तथ्य रखने चाहिए।
डेमोक्रेटिक पार्टी के 75 नेताओं ने भारत में मोदी के कार्यकाल में हुए मानवाधिकार उल्लंघनों को विस्तार से बताते हुए राष्ट्रपति बाइडन को लिखा है- हम चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच दोस्ती सिर्फ साझा हितों पर न टिकी हो, बल्कि साझा मूल्यों पर भी टिकी हो। इनमें से कुछ नेताओं ने अमरीकी संसद में मोदी के भाषण के बहिष्कार की घोषणा भी की है। कुछ नेताओं ने लिखा है कि मोदी सरकार ने धार्मिक अल्पसंख्यकों का दमन किया है, और आक्रामक हिन्दू राष्ट्रवादी समूहों का मनोबल बढ़ाया है। एक नेता ने लिखा कि मोदी सरकार ने पत्रकारों और मानवाधिकार के बात करने वालों को बिना किसी परवाह के निशाना बनाया है, और वे मोदी का भाषण सुनने नहीं जाएंगे। दूसरी तरफ पिछले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी की अगली राष्ट्रपति-उम्मीदवारी की दावेदार निकी हेली ने मोदी के प्रवास का स्वागत किया।
मोदी से अमरीकी राष्ट्रपति भवन में हुई प्रेस कांफ्रेंस में भारत में मुस्लिमों के हक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में एक प्रतिष्ठित अखबार की पत्रकार ने सवाल किया। इस पर मोदी ने कहा- लोकतंत्र हमारी स्पिरिट है, लोकतंत्र हमारी रगों में है, लोकतंत्र को हमारे पूर्वजों ने शब्दों में ढाला है, संविधान के रूप में। हमारी सरकार लोकतंत्र के मूलभूत मूल्यों को आधार बनाकर बने हुए संविधान के आधार पर चलती है। यहां जाति, पंथ, धर्म, या लैंगिक स्तर पर किसी भेदभाव की जगह नहीं होती। उन्होंने कहा जब हम डेमोक्रेसी को लेकर जीते हैं, तो भेदभाव का कोई सवाल ही नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत में सरकार की ओर से मिलने वाले फायदे सबको हासिल हैं, यहां लोकतांत्रिक मूल्यों में कोई भेदभाव नहीं है, न धर्म के आधार पर, न जाति के आधार पर। अमरीकी पत्रकार के इस सवाल को भारत में बहुत से लोग, खासकर पत्रकार ट्विटर पर पोस्ट कर रहे हैं कि सवाल ऐसे पूछे जाते हैं।
कुल मिलाकर इस बात को समझने की जरूरत है कि भारत में आज अल्पसंख्यकों के साथ जो सुलूक किया जा रहा है, वह लोगों की नजरों में हैं, और दुनिया भर में लोकतांत्रिक लोग इसे इतिहास में अपने बयानों से अच्छी तरह दर्ज कर रहे हैं। यह एक अलग बात है कि अमरीकी राष्ट्रपति के सामने अपने देश के कारोबार की मजबूरियां हैं, और अमरीकी सामान हिन्दुस्तान को बेचने के चक्कर में बाइडन को एक लोकतांत्रिक राष्ट्रपति के बजाय एक काबिल सेल्समैन की तरह बर्ताव अधिक करना पड़ रहा है। लेकिन उससे फर्क नहीं पड़ता, जब उनकी पार्टी के 75 सांसद और बड़े नेता इस मुद्दे को सार्वजनिक रूप से उठा रहे हैं, तो वह अमरीकी लोकतंत्र में तो ठीक तरह से दर्ज हो ही रहा है। हम पहले भी इस बात को लिख चुके हैं कि आज की दुनिया में कोई भी देश अपने आपको बाहरी टिप्पणियों से परे का एक फौलादी कैप्सूल साबित नहीं कर सकता, आज पूरी दुनिया एक गांव है, और इसके लोगों की एक-दूसरे के मामलों में दखल रहेगी ही। इसलिए भारत अपने ऐसे मामलों को घरेलू मुद्दा और निजी मामला नहीं बता सकता जिसे पूरी दुनिया एक लोकतांत्रिक दिलचस्पी और जिम्मेदारी का मामला मानती है। आज विश्व की जिम्मेदारी देशों की सरहद के भी आरपार है, और कोई भी देश अपने ऐसे मामलों को लेकर बाहरी प्रतिक्रिया को अपने घरेलू मामलों में दखल नहीं बता सकता।
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गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार देकर देश की मोदी सरकार ने जनता का बर्दाश्त एक बार और परखने का प्रयोग किया है। बहुत से साम्प्रदायिक, जातीय, ऐतिहासिक मुद्दों पर, रीति-रिवाजों और संस्कारों पर यह सरकार ठीक उसी तरह प्रयोग करते आ रही है जिस तरह लोगों में प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के लिए कुछ किस्म की चिकित्सा प्रणाली में धीरे-धीरे दवा देकर यह काम किया जाता है। सरकार लोगों में बर्दाश्त बढ़ा रही है। इस अखबार ने अपने यूट्यूब चैनल के लिए कल देश के एक चर्चित लेखक अक्षय मुकुल को इंटरव्यू किया जिन्होंने गीता प्रेस के इतिहास और उसके प्रभाव पर बरसों तक रिसर्च करके एक महत्वपूर्ण किताब, गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इंडिया, लिखी है। अक्षय मुकुल ने इस किताब से परे कई लेख भी ऐसे लिखे हैं जो कि गीता प्रेस को गांधी के नाम वाला राष्ट्रीय पुरस्कार देने के सरकार के फैसले को कटघरे में खड़ा करता है। लेकिन ‘छत्तीसगढ़’ को दिए इंटरव्यू में अक्षय मुकुल कहते हैं अब इन 9 बरसों में मोदी सरकार के फैसलों ने चौंकाना बंद कर दिया है। वे इसे नवसामान्य स्थिति मानते हैं। गीता प्रेस को ऐतिहासिक तथ्यों और संदर्भों में समझने के लिए यह किताब मददगार है, और आज यहां इस मुद्दे पर लिखने के लिए भी हमें इससे समझ मिल रही है।
गीता प्रेस के संस्थापकों में से एक, हनुमान प्रसाद पोद्दार गांधी के लगातार संपर्क में रहे, गांधी उन्हें पसंद भी करते थे, गांधी से गीता प्रेस की पत्रिका, कल्याण, के लिए कभी-कभी लिखवा भी लिया जाता था, लेकिन पोद्दार पूरी तरह से एक सवर्ण, बनिया, ब्राम्हणवादी, जातिवादी, महिलाविरोधी, दलितविरोधी, अल्पसंख्यकविरोधी, और धार्मिक कट्टरता वाले व्यक्ति थे। गांधी के रहते हुए ही वे गांधी से सीधे संपर्कों के बावजूद गांधी के हरिजन प्रेम के खिलाफ रहे, साथ खाने के खिलाफ रहे, शुद्धता के लिए अड़े रहे, दलितों के मंदिर प्रवेश के खिलाफ रहे, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमेशा एक मोर्चा चलाते रहे, लगातार नफरत फैलाते रहे, और हिन्दू समाज के भीतर भी वे एक ब्राम्हणवादी व्यवस्था को बढ़ावा देकर उसे भी कायम रखने का काम करते रहे। गौरक्षा के नाम पर इंसानों को थोक में मारने वालों के खिलाफ भी गीता प्रेस के पास कुछ नहीं था, और वह गाय पर अपने विशेषांक निकाल-निकालकर हिन्दू समाज को गाय के प्रति अतिसंवेदनशील उत्तेजना से भरने का काम करती रही। आरएसएस और हिन्दू महासभा से गीता प्रेस का इतना घरोबा रहा कि गांधी-हत्या के बाद हनुमान प्रसाद पोद्दार को भी हजारों दूसरे लोगों के साथ गिरफ्तार किया गया था। यह शायद दुनिया के इतिहास का अकेला ऐसा मौका रहा होगा कि गांधी ने पोद्दार को अपना जितना करीबी माना था, अपने साम्प्रदायिक कट्टरता के संबंधों की वजह से उन पोद्दार को गांधी-हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया था। कल्याण ने हिन्दू समाज के भीतर जातियों को लेकर चल रहे जुल्म के खिलाफ कोई आंदोलन शुरू नहीं होने दिया, और वह लगातार दलितों को पिछले जन्म के कुकर्मों की सजा बताता रहा, उन्हें संघर्ष के लायक चेतना से दूर रखने की साजिश चलाता रहा। वह महिलाओं के लिए खासकर इतना दमनकारी रहा कि उन्हें परिवार के पुरूषों का गुलाम बनाकर रखने के अलावा उसने कोई भूमिका नहीं दी।
लेकिन हिन्दुस्तान का वह दौर ऐसा था कि उसने गांधी की छाया भी जिस पर पड़ जाए उसे भी एक विश्वसनीयता मिल जाती थी, फिर गांधी तो गीता प्रेस की पत्रिका के लिए लिख भी देते थे, और गीता प्रेस दूसरी जगहों पर गांधी के लिए हुए का वह हिस्सा छाप लेता था, जो उसे धर्म के अनुकूल लगता था। इस तरह गांधी के समग्र से परे गांधी के लेखन के कतरों का इस्तेमाल करके गीता प्रेस एक अलग किस्म की साख पा लेता था। लेकिन वह हिन्दू धर्म के प्रकाशक का काम करते हुए, मुस्लिमों से नफरत, दलितों को अछूत रखने, औरतों को कुचलने जैसे काम में लगे रहा।
लोकतंत्र में कई तरह की चीजों की छूट रहती है, इनमें से इस बात की भी छूट हो सकती है कि लोग औरत के खिलाफ दकियानूसी बातें फैलाएं, उसे गुलाम की तरह रखें, और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सोच बढ़ाते चलें। लेकिन ये सारी की सारी सोच गांधी की जिंदगी में ही गांधी के खिलाफ थी, गीता प्रेस ने गांधी के खिलाफ खुलकर लिखने का काम भी किया था, उनकी खुलकर आलोचना की थी। ऐसे में भारत सरकार का यह फैसला कि गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिया जाए, जले पर नमक छिडक़ने की तरह का है। इस देश में आज गांधी को प्रिय तमाम सिद्धांत और तमाम तबके कुचले जा रहे हैं। हरिजनों पर जुल्म हो रहा है, अल्पसंख्यकों को मारा जा रहा है, और जातिवाद इस देश को तबाह कर रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाले निर्णायक मंडल ने आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान अगर गीता प्रेस को गांधी के नाम का शांति पुरस्कार दिया है, तो यह गांधी का मखौल बनाना, और गांधी के मूल्यों से नफरत करने वालों को गांधी की साख देना है। इस पुरस्कार को देते हुए सरकारी बयान कहता है कि मोदी ने शांति और सामाजिक सद्भाव के गांधीवादी आदर्शों को बढ़ावा देने में गीता प्रेस के योगदान का स्मरण किया। उन्होंने कहा कि मानवता के सामूहिक उत्थान में योगदान देने के लिए गीता प्रेस के महत्वपूर्ण और अद्वितीय योगदान को यह पुरस्कार दिया जा रहा है जो सच्चे अर्थों में गांधीवादी जीवनशैली की प्रतीक संस्था है।
अब गीता प्रेस के योगदान को देखें, तो देश की आधी औरत-आबादी के वह खिलाफ है, देश के दलितों के वह खिलाफ है, वह अल्पसंख्यकों के खिलाफ है, उसने समाज में विभाजन पैदा करने, और चौड़ा करने के लिए पूरी जिंदगी कोशिश की है, और ऐसी संस्था को केन्द्र सरकार का यह सम्मान गांधी के अपमान के अलावा कुछ नहीं है। अगर इस संस्था में ईमानदारी होती, तो उसे इस मौके पर गांधीवादी मूल्यों से अपनी कट्टर असहमति गिनाते हुए गांधी के नाम का पुरस्कार लेने से मना कर देना था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। इस संस्था ने महज इस पुरस्कार की नगद रकम लेने से मना कर दिया है, और पुरस्कार मंजूर कर लिया है।
गांधी का दिल तो बहुत बड़ा था, वे तो ऊपर जहां कहीं भी होंगे, वे ऊपर जहां कहीं भी हनुमान प्रसाद पोद्दार होंगे, उनसे बात-मुलाकात होने पर कोई नाराजगी नहीं दिखाते होंगे। गांधी ने तो जीते जी भी किसी से नफरत नहीं की, लेकिन हनुमान प्रसाद पोद्दार गांधी की संतान की तरह उनके करीब भी रहे, और उनके जीते जी ही लगातार गांधी के मूल्यों के खिलाफ अभियान चलाते रहे। भारत सरकार का यह फैसला शर्मनाक है, और यह बेईमानी भी है कि किसी सोच के एक विरोधी को इस तरह उसके नाम का सम्मान दे दिया जाए। भारत सरकार को मनुस्मृति में कोई पुरस्कार स्थापित करके उसे गीता प्रेस को देना था, उसे मुस्लिमों को कुचलने वाले अभियान के नाम पर एक पुरस्कार स्थापित करके उसे भी गीता प्रेस को दे देना था। यह गीता प्रेस के भी हित में नहीं है कि उसके दफ्तर में लाठी लिए एक ऐसा बूढ़ा खड़ा रहे जिसे कलम की लाठी से गीता प्रेस पीटते रहा।
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ट्विटर को लेकर हिन्दुस्तानी सरकार का जो रूख रहा है उस पर उसके एक भूतपूर्व मुखिया जैक डोर्सी और मौजूदा मुखिया एलन मस्क के अलग-अलग बयान देखने लायक हैं। जैक डोर्सी ने कुछ दिन पहले एक यूट्यूब चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि किसान आंदोलन के दौरान भारत सरकार ने ट्विटर को बंद करने की धमकी तक दी थी। उनसे पूछा गया था कि दुनिया भर के ताकतवर लोग आपके पास आते हैं, और कई तरह की मांगें करते हैं, आप अगर नैतिक सिद्धांतों वाले हैं तो ऐसी नौबत से कैसे निकलते हैं? इसके जवाब में जैक डोर्सी ने कहा था कि मिसाल के तौर पर भारत ऐसा देश है जहां किसान आंदोलन के दौरान सरकार बहुत किस्म की मांगें कर रही थीं। सरकार के आलोचक कुछ खास पत्रकारों के बारे में (उनके अकाउंट बंद करने) के बारे में कहा गया था। उन्होंने कहा कि भारत सरकार की ओर से कहा गया था कि भारत में ट्विटर को बंद कर देंगे, कर्मचारियों के घरों पर छापे मार देंगे, जो कि सरकार ने किया भी। उन्होंने कहा कि सरकार ने कहा कि अगर आप हमारी बात नहीं मानेंगे तो हम आपके ऑफिस बंद कर देंगे। उन्होंने कहा कि यह उस भारत में हो रहा था जो लोकतांत्रिक देश है। दूसरी तरफ ट्विटर के आज मालिक और मुखिया एलन मस्क ने अमरीका गए हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात के बाद भारत में ट्विटर को दी गई चेतावनी के बारे में मीडिया के पूछे गए सवालों के जवाब में कहा कि ट्विटर के पास स्थानीय सरकारों की बातों को मानने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। अगर हम स्थानीय सरकार के कानूनों का पालन नहीं करते हैं तो हम बंद हो जाएंगे, इसलिए हम जो सबसे अच्छा कर सकते हैं, वह किसी भी देश में कानून के करीब रहकर काम करना है, हमारे लिए इससे अधिक कुछ करना असंभव है नहीं तो हम ब्लॉक या गिरफ्तार हो जाएंगे। उन्होंने कहा कि वे पूरी दुनिया में अमरीका के अंदाज में काम नहीं कर सकते क्योंकि हर देश के अलग कानून है।
अब भारत में किसान आंदोलन के दौरान मोदी सरकार का ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के प्रति क्या रूख था, वह तो ट्विटर के भूतपूर्व सीईओ के इस इंटरव्यू से समझ पड़ता है, और यह भी दिखता है कि जैक डोर्सी ने सरकार के सामने कम से कम कुछ हद तक टिके रहने की कोशिश की थी क्योंकि उनके बताए मुताबिक वहां छापे पडऩे की नौबत आई थी, लेकिन कारोबार का पिछला मुखिया आज कारोबार की अधिक परवाह किए बिना कई बातें कह सकता है जो कि आज का मुखिया नहीं कह सकता। दूसरी बात यह भी है कि एलन मस्क अकेले एक कारोबार वाले नहीं हैं, उन्होंने मोदी से हिन्दुस्तान में अपनी इलेक्ट्रिक कार टेस्ला के कारोबार की भी बात की है जो कि एशिया के इस हिस्से में उनकी चीन की फैक्ट्रियों का एक विकल्प बन सकता है। ऐसा माना जा रहा है कि जिस दिन चीन ताइवान पर आर्थिक या फौजी हमला करने को सोचेगा, तो वह उसकी इंटरनेट केबलें भी काट सकता है, और उस वक्त निचले अंतरिक्ष में मंडरा रहे एलन मस्क के इंटरनेट उपग्रह ताइवान के काम आ सकते हैं, लेकिन ऐसा करने पर टेस्ला के चीन में चल रहे कारखानों की सेहत पर असर पड़ सकता है। इसलिए भी चीन में कारखाना चला रहीं दुनिया की दूसरी कंपनियां भारत को उसमें जोडऩा चाहती हैं, और यहां पर भी कारखाने डालना चाहती हैं। इसलिए एलन मस्क अगर मोदी के साथ मिलकर टेस्ला की बात कर रहा है, तो यह तो हो नहीं सकता कि वह ट्विटर की बात न करे। इसलिए ट्विटर के इन दो मुखिया लोगों ने जो कहा है उसे उनके कारोबारी हितों से परे भारतीय लोकतंत्र के संदर्भ में समझा जाना चाहिए।
भारत में सरकार अमरीकी प्लेटफॉर्म पर प्रतिबंध नहीं लगा रही थी, वह उसे भारत के लोगों के, या विदेशों के भी, अकाउंट बंद करने को कह रही थी, और इसके लिए हो सकता है कि वह भारत का कोई कानून गिना रही हो, या बिना कानून गिनाए भी ऐसा कर रही हो। अब यह ट्विटर के हाथ में था कि वह भारतीय अदालत में जाकर सरकार के ऐसे दबाव, सुझाव, या प्रतिबंध के खिलाफ अपील करती। जब कोई प्लेटफॉर्म इतना बड़ा हो जाता है, तो वह लोगों के विचारों को मौका देने के लिए लोकतांत्रिक दिखता जरूर है, लेकिन वह रहता तो कारोबार ही है। और कोई कारोबारी किसी देश की सरकार से कितना लड़े या कितना न लड़े, यह उस कारोबारी की अपनी हिम्मत पर भी रहता है, और अगर उसके कोई नीति-सिद्धांत हों, तो उस पर भी रहता है। फिर यह भी है कि जैक डोर्सी का हिन्दुस्तान में कोई और कारोबारी मामला नहीं था, और अब ऐसा लग रहा है कि भारत सरकार या एलन मस्क, या दोनों की दिलचस्पी से भारत मेें टेस्ला कारों का एक बड़ा कारखाना शुरू होने की संभावना टटोली जा रही है, और ऐसे में एक कारोबारी अपनी अधिक कमाई के कारोबार के भले के लिए कम कमाई के सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर समझौता भी कर सकता है। इसीलिए पूरी दुनिया में यह एक आदर्श स्थिति मानी जाती है कि मीडिया जैसे नाजुक कारोबार करने वाले लोगों के और अधिक दूसरे कारोबारी हित नहीं रहने चाहिए। हितों का अधिक टकराव मीडिया की अपनी अंदरुनी आजादी को भी खत्म कर सकता है जैसा कि अखबारों और टीवी में देखने मिलता है। और दूसरी तरफ ऐसा टकराव आज सोशल मीडिया प्लेटफॉम्र्स के कम्प्यूटरों के इस्तेमाल से होने वाली पसंद-नापसंद पर भी हावी हो सकता है।
यह भारतीय लोकतंत्र में सरकार से परे की लोकतांत्रिक संस्थाओं के भी सोचने की बात है कि किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सरकार के दबाव की ऐसी बात सामने आती है, तो अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था में उस पर क्या किया जाए? ऐसा दबाव न तो मोदी सरकार ने पहली बार इस्तेमाल किया है, और न ही आखिरी बार। फिर यह भी है कि ऐसा इस्तेमाल करने वाली वह अकेली सरकार भी नहीं है, राज्यों में जहां-जहां जिसका बस चलता है, घोषित और अघोषित रूप से अभिव्यक्ति के सभी तरीकों पर दबाव का इस्तेमाल करने का लालच शायद ही कोई छोड़ पाते हैं। ऐसी नौबत उन सभ्य और विकसित, परिपक्व और गरिमामय लोकतंत्रों में ही काबू में रह सकती है, जहां लोकतांत्रिक आजादी का सम्मान होता है। हिन्दुस्तान अभी ऐसी फिक्र से कोसों दूर है, या कोसों दूर चले गया है। इसलिए यहां पर इन बातों की अब कोई परवाह नहीं है, और ट्विटर के कारोबारी-मालिक से हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की फिक्र की उम्मीद नाजायज होगी, यहां के लोकतांत्रिक संस्थान खुद यह सोचें कि अपने घर को कैसे सुधारें।
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राजनीतिक की खबरें अकसर ही मुंह का स्वाद खराब करने वाली होती हैं, कभी-कभी ही उन्हें पढक़र चेहरे पर मुस्कुराहट आ पाती है। ऐसी ही एक खबर आज सामने है। महाराष्ट्र में शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट के प्रमुख नेता संजय राउत ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव को चिट्ठी लिखकर बीस जून को विश्व गद्दार दिवस घोषित करने की मांग की है। उन्होंने कहा है कि महाराष्ट्र के लाखों लोग दस्तखत करके संयुक्त राष्ट्र भेजने वाले हैं कि इस प्रदेश में शिवसेना के शिंदे गुट ने पार्टी तोडक़र जिस तरह भाजपा के साथ सरकार बनाई थी, इसे संयुक्त राष्ट्र विश्व गद्दार दिवस के रूप में मान्यता दे जिस तरह 21 जून के विश्व योग दिवस मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीका गए हुए हैं और ऐसी खबर है कि वे कल 21 जून को संयुक्त राष्ट्र संघ में योगाभ्यास करेंगे। मोदी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र ने कुछ बरस पहले इस दिन अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाना शुरू किया है, और ऐसा लगता है कि संजय राउत का संयुक्त राष्ट्र महासचिव को भेजा गया खत इस मौके पर ही मोदी की पार्टी, और उनके राज्यपाल के असंवैधानिक कामकाज पर तंज कसने के लिए लिखा गया है। सुप्रीम कोर्ट ने बहुत साफ-साफ फैसला दिया है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल ने असंवैधानिक फैसला लेकर उद्धव ठाकरे की सरकार गिराने का काम किया था। संजय राउत ने मोदी के संयुक्त राष्ट्र में रहते हुए गद्दार दिवस का यह प्रस्ताव एक बड़े ही मौलिक और अनोखे अंदाज के व्यंग्य के रूप में भेजा है।
लेकिन व्यंग्य से बाहर आएं, तो जो संजय राउत ने लिखा है उसे हम व्यापक संदर्भ में बरसों से लिखते चले आ रहे हैं कि दलबदल करने वाले लोगों के नई पार्टी से चुनाव लडऩे पर कुछ बरसों के लिए रोक लगनी चाहिए। शिवसेना सहित बहुत सी पार्टियों में यह आम बात है कि सांसद और विधायक नई पार्टी में चले जाते हैं, और रातोंरात वहां के उम्मीदवार हो जाते हैं। पिछले एक दशक में भाजपा से अधिक शायद ही किसी दूसरी पार्टी में ऐसा हुआ हो कि बाहर से लोगों को लाकर, पीढिय़ों से अपनी पार्टी में बने हुए लोगों के सिर पर बिठा दिया जाए। कांग्रेस से जाने कितने ही लोगों को लाकर भाजपा ने ऐसा किया है, और लोग मजाक में भाजपा के बारे में कहते हैं कि भाजपा कांग्रेसमुक्त भारत के अपने नारे को इस हद तक पूरा कर रही है कि वह खुद कांग्रेसयुक्त पार्टी हो गई है। ताजा मिसाल मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं, जिनके खिलाफ पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के सारे नारे गढ़े गए थे, और उसी महाराज को लाकर भाजपा के सिर पर ताज की तरह बिठा दिया गया है, और भाजपा के बहुत से पुराने लोग अपने को जूतों की तरह तिरस्कृत पा रहे हैं। भाजपा ने महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार को गिराने के लिए शिवसेना को भी इसी तरह तोड़ा था, और राज्यपाल और विधानसभाध्यक्ष के नाजायज और असंवैधानिक फैसलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के बाद अब कहने को क्या रह जाता है। इसलिए आज संजय राउत की चिट्ठी एक जख्मी शेर की कराह है, जो मोदी के न्यूयॉर्क में रहते उनके मेजबान यूएन को भेजी गई है, ताकि उन्हें याद दिलाया जा सके कि उनका मेहमान 21 जून के योग दिवस के पहले 20 जून को एक और अंतरराष्ट्रीय दिवस का हकदार बनाया जाना चाहिए।
हम फिर से अपनी बात पर लौटें, तो यह समझने की जरूरत है कि दलबदल कानून के तहत अब किसी पार्टी के संसदीय दल के दो तिहाई लोग जब पार्टी बदलते हैं, तभी वे दलबदल कानून से बचते हैं। इसलिए दो तिहाई जैसी बड़ी संख्या को एकदम से खारिज करना तो ठीक नहीं है, उसे तो दल विभाजन मानना ही होगा, लेकिन जो इक्का-दुक्का लोग अपने कार्यकाल के बीच में दलबदल करते हैं, और नई पार्टी में जाकर उसके उम्मीदवार हो जाते हैं उस पर कम से कम छह बरस के लिए अपात्रता लगानी चाहिए। दलबदल के बाद वे नई पार्टी में एक कार्यकाल के फासले से ही चुनाव लड़ सकें। ऐसा अगर नहीं किया जाएगा तो हिंदुस्तानी लोकतंत्र सैकड़ों बरस पहले की गुलामों और औरतों की मंडी की तरह होकर रह जाएगा कि मोटे बटुए वाले लोग मनमानी खरीददारी करके घर लौटेंगे। चूंकि संसदीय लोकतंत्र में आमतौर पर काम आने वाली गौरवशाली परपंराएं हिंदुस्तान में आमतौर पर पेनिसिलिन से भी कम असरदार रह गई हैं, और बेशर्मी ने अपार प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है, इसलिए यहां पर कड़े कानून बनाना जरूरी है। गरिमा भारतीय राजनीति को छोडक़र कबकी जा चुकी है, और अब कड़े कानूनों से नीचे और किसी बात का असर नहीं हो सकता। इसलिए दलबदलू सांसदों और विधायकों को संसद या विधानसभा का नामांकन दुबारा भरने के पहले छह बरस का फासला रखना चाहिए ताकि यह गंदगी कुछ घट सके। आज तो पंजाब की एक पुरानी कहावत की तरह आग लेने आई, और घर संभाल बैठी जैसा हाल हो गया है कि पूरी जिंदगी किसी पार्टी के खिलाफ काम करने वाले इम्पोर्ट किए जाते हैं, और पूरी जिंदगी पार्टी का काम करने वाले लोगों के बाप बनाकर बिठा दिए जाते हैं। ऐसे पार्टीपिता की ताजपोशी संगठन में तो ठीक है, लेकिन संसद और विधानसभाओं को इस गंदगी से बचाना जरूरी है।
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मणिपुर के हालात बहुत ही खराब दिख रहे हैं। अभी घंटे भर पहले तक की खबरें बता रही हैं कि वहां हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है, अब तक मैतेई और कुकी समुदायों के बीच की हिंसा में सौ से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और डेढ़ महीने का वक्त गुजर चुका है। दोनों तरफ के घरों में आग लग रही है, गोलीबारी चल रही है, और राज्य की पुलिस के अलावा देश की फौज और तरह-तरह की पैरामिलिट्री मिलकर भी हिंसा को रोक नहीं पा रही हैं। दोनों तरफ से की जा रही हिंसा में पुलिस और दूसरे सैनिक भी मारे जा रहे हैं। एक केन्द्रीय मंत्री के घर को भी आग लगा दी गई है, और इसके बाद उनका कहना था कि राज्य में कोई सरकार नहीं रह गई है, जबकि राज्य में उन्हीं की भाजपा की सरकार है, और भाजपा के मुख्यमंत्री हैं। इस छोटे से राज्य के 16 में से 11 जिलों में कफ्र्यू चल रहा है, इंटरनेट बंद है, दूसरे प्रदेशों से पढऩे आए छात्र-छात्राओं को वापिस भेज दिया गया है, कुकी आदिवासियों में से 50-60 हजार बेदखल होकर राहत शिविरों में हैं, और हाल के बरसों के हिन्दुस्तान की एक सबसे भयानक हिंसा यहां सामने आई है जब गोली से जख्मी छोटे बच्चे को लेकर अस्पताल जाती उसकी मां को एम्बुलेंस सहित जलाकर राख कर दिया गया। मणिपुर हाईकोर्ट के एक फैसले से तीन मई से यह हिंसा शुरू हुई है, इस फैसले में राज्य सरकार को कहा गया था कि वह राज्य के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को आदिवासी आरक्षण की लिस्ट में जोडऩे की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजे। इससे राज्य में कुकी आदिवासी आरक्षित तबके के भीतर सबसे कमजोर तबका हो जाते, और उनके हाथों से आरक्षण की हिफाजत खत्म ही हो जाती। उसी एक मुद्दे को लेकर यह ताजा हिंसा चल रही है, और अब वहां के कुकी समुदाय का यह मानना और कहना है कि मौजूदा भाजपा मुख्यमंत्री के तहत उनके इस राज्य मेें रहने की कोई संभावना नहीं है, और उनके लिए केन्द्र सरकार एक अलग केन्द्र प्रशासित प्रदेश बनाए, या कोई और व्यवस्था करे।
हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों का उत्तर-पूर्वी लोगों से कोई वास्ता नहीं रहता है, रिश्ता तो रहता ही नहीं है, बाकी हिन्दुस्तान की उनमें दिलचस्पी भी नहीं रहती है। ऐसे में हम जब-जब मणिपुर के मुद्दे को उठाते हैं, तो वह तकरीबन अनदेखा, अनसुना रह जाता है। खैर, किसी मुद्दे का महत्व इससे तय नहीं होना चाहिए कि उसे कितने लोग देखते या सुनते हैं। हिन्दुस्तान के लोगों की दिलचस्पी की गिनती लगाई जाए, तो सबसे अधिक दिलचस्पी एक किसी ग्लैमरस युवती, उर्फी जावेद के बदन पर हथेली जितने बड़े कपड़ों के तीन टुकड़ों में सबसे अधिक है, और डिजिटल मीडिया पर उसी दिलचस्पी की गिनती लगाकर इस देश की सरकारें मीडिया को इश्तहार देती हैं। जाहिर है कि सरकारें भी नहीं चाहतीं कि देश में किसी गंभीर मुद्दे पर बात हो, इसलिए सनसनी के झाग का हर बुलबुला अपने मीडिया संस्थान के लिए बाजार और सरकार दोनों से कमाई की ताकत रखता है, फिर चाहे उसका सामाजिक सरोकार शून्य ही क्यों न हो। ऐसे देश में मणिपुर की चर्चा करना फायदे का काम नहीं है, लेकिन वह लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का काम जरूर है जिसे पूरा करने पर सरकार या बाजार किसी का साथ नहीं मिलता है। फिर भी इस, और ऐसे मुद्दों पर बार-बार लिखना जरूरी है ताकि बाकी हिन्दुस्तान के लोगों को भी लगे कि मणिपुर कोई मुद्दा है।
केन्द्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी को अगर मणिपुर की आज की नौबत में कुछ और अधिक करने की जरूरत नहीं लग रही है, तो वहां से सामने आया एक ताजा वीडियो मोदी-शुभचिंतकों को प्रधानमंत्री की जानकारी में लाना चाहिए। हो सकता है कि यह एक वजह मणिपुर की कुछ और फिक्र करने का सामान जुटा सके। वहां पर इम्फाल ईस्ट जिले के मैतेई समुदाय के कुछ लोगों ने इतवार को मोदी के मन की बात के प्रसारण का बहिष्कार किया। वे जिले के एक केन्द्र में इक_ा हुए और अपने ट्रांजिस्टर पटक-पटककर तोड़ डाले और इस वीडियो में दिखता है कि उन्होंने ट्रांजिस्टर के टुकड़ों को रौंदकर भी अपना गुस्सा निकाला। वहां के एक प्रमुख सामाजिक नेता ने एक वेबसाइट से कहा कि मणिपुर के निवासियों के लिए प्रधानमंत्री के मन की बात गैरजरूरी है, उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने (हिंसा रोकने के लिए) कुछ नहीं किया, वे आज तक चुप्पी साधे हुए क्यों है? उन्होंने कहा कि यह विरोध-प्रदर्शन हिंसा शुरू होने के 46 दिन बाद भी उनकी चुप्पी के खिलाफ है। दिल्ली की खबरें बताती हैं कि कर्नाटक चुनाव के वक्त से ही मणिपुर की हिंसा पर मोदी का ध्यान खींचते हुए देश की कई विपक्षी पार्टियों ने प्रधानमंत्री को इस पर गौर करने को कहा था, और 12 जून से 10 पार्टियों का एक प्रतिनिधिमंडल मणिपुर पर प्रधानमंत्री से मुलाकात के लिए वक्त मांगते खड़ा है। इस प्रतिनिधिमंडल में कांग्रेस, जेडीयू, सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक, तृणमूल, शिवसेना (उद्धव), आप, और एनसीपी शामिल हैं। लेकिन इन्हें अब तक मोदी से वक्त नहीं मिल पाया है।
देश-विदेश के कई राजनीतिक टिप्पणीकारों ने यह सवाल उठाया है कि मोदी जिस तरह चीन पर बोलने से बचते रहे, चीन का नाम भी नहीं लिया, उसी तरह वे अब मणिपुर पर चुप्पी साधे हुए हैं, जबकि इस हिंसाग्रस्त मणिपुर में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, और यह शायद के इतिहास में पहला मौका होगा कि ऐसे हिंसाग्रस्त प्रदेश में केन्द्र सरकार और दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा अपनी जिम्मेदारी सीधे निभाने के बजाय एक दूसरे उत्तर-पूर्वी राज्य असम के भाजपा मुख्यमंत्री को मणिपुर भेजती है, मानो वे तमाम उत्तर-पूर्वी राज्यों के प्रभारी मुख्यमंत्री भी हैं। मणिपुर तो जिस तरह जल रहा है, वहां जितनी लाशें गिर चुकी हैं, वहां नफरत जितनी फैल गई है, और शांति की संभावना कमजोर हो गई है, वह सब एक तरफ है, इस देश में मोदी के शुभचिंतकों को जिनकी उन तक पहुंच हो, उन्हें मोदी को यह समझाना चाहिए कि इतिहास में देश के खतरों के वक्त इस्तेमाल की गई चुप्पी सबसे अधिक बड़े अक्षरों में दर्ज होती है, और मोदी के नाम ऐसी कई चुप्पियां दर्ज हो चुकी हैं, होती जा रही हैं। यह सिलसिला भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है, देश के प्रधानमंत्री को ऐसी चुप्पी का हक नहीं दिया जा सकता। लोगों को याद है कि इतिहास में बाबरी मस्जिद को गिरते देखते हुए घर पर चुप बैठे प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव का नाम इतिहास में मस्जिद गिराने देने के लिए जिम्मेदार की तरह दर्ज है। प्रधानमंत्री को मणिपुर की फिक्र चाहे न हो, उन्हें कम से कम अपनी साख, और इतिहास में अपनी दर्ज हो रही, और दर्ज होने वाली जगह की फिक्र जरूर करनी चाहिए।