संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...मणिपुर पर राष्ट्रपति को क्या करना चाहिए, इसका जवाब प्रेमचंद लिख गए थे
09-Jul-2023 5:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ...मणिपुर पर राष्ट्रपति को क्या करना चाहिए, इसका जवाब प्रेमचंद लिख गए थे

हिन्दुस्तान इंटरनेट बंद करने वाले दुनिया के देशों में सबसे आगे है। जहां कहीं साम्प्रदायिक या किसी दूसरे किस्म का दंगा होता है, वहां तो अफवाहें या हकीकत न फैलें, इसलिए भी इंटरनेट बंद कर दिया जाता है ताकि सोशल मीडिया पर भडक़ाने का काम न हो सके। यह तो समझ आता है। राजस्थान जैसे प्रदेश का इंटरनेट बंद करना भी समझ में आता है, यहां इम्तिहानों में पेपर आऊट करने और नकल करवाने को रोकने का और कोई जरिया नहीं दिखता। लेकिन देश के राष्ट्रपति भवन में इंटरनेट और टीवी के सिग्नल बंद होने की तो कोई वजह नहीं दिखती है। ऐसा भी नहीं लगता है कि राष्ट्रपति को अखबार देखने नहीं मिलते होंगे। फिर राष्ट्रपति हैं कहां? आज देश में पहली बार एक आदिवासी महिला राष्ट्रपति है, और देश के एक आदिवासी बहुल राज्य में जिस तरह से आदिवासियों के साथ हिंसा हो रही है, जिस तरह वे एक राज्य के घरेलू मोर्चे पर हिंसा में आमने-सामने हैं, उन्हें देखकर लगता है कि क्या आदिवासी महिला राष्ट्रपति को इसकी खबर नहीं लग रही है? मणिपुर के हालात समझने के लिए न मैतेई जुबान जरूरी है, न कुकी या नगा जुबान, हिन्दी और अंग्रेजी में भी इस प्रदेश की हर जानकारी मौजूद है, बस यही लगता है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में आज राष्ट्रपति ही नामौजूद है जिसे कि सशस्त्र सेनाओं का सुप्रीम कमांडर होने का दर्जा भी हासिल है। जिस तरह राजकीय समारोहों में भाले लिए हुए घुड़सवारों के अंगरक्षक दस्ते से घिरी हुई राष्ट्रपति की बग्गी चलती है, उससे याद करने पर ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति की संवैधानिक जिम्मेदारी क्या महज अपने आपको बचाकर रखने की है? और यह भी लगता है कि राष्ट्रपति के ओहदे के भीतर एक इंसान की गुंजाइश तो हमेशा ही बची रहती है, ओहदे का मोह और उसका आतंक कभी भी इतना अधिक तो नहीं हो सकता कि राष्ट्रपति के भीतर के इंसान की पूरी तरह ही मौत हो जाए। अगर किसी राष्ट्रपति को एक और कार्यकाल का भी मोह है, तो भी सच्ची बात करने लायक इंसान तो भीतर फिर भी बचा होना चाहिए। 

हम यह नहीं मानते कि राष्ट्रपति किसी एक तबके के होते हैं, उन्हें राजनीतिक वजहों से किसी एक तबके से लाकर राष्ट्रपति बनाया तो जा सकता है, लेकिन एक बार राष्ट्रपति बन जाने पर देश के तमाम तबकों के प्रति उनका नजरिया एक सरीखा रहना चाहिए। खासकर जो दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, और महिलाओं सरीखे कमजोर तबके हैं, उनका तो खास ख्याल रखना हर राष्ट्रपति की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारत के संविधान में भी कई जगहों पर देश के आदिवासी बहुल चुनिंदा इलाकों के लिए राज्यपालों की एक अतिरिक्त संवैधानिक जिम्मेदारी गिनाई गई है, और उन्हें इसके लिए खास हक भी दिए गए हैं। राज्यपाल जिन अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर एक किस्म से राष्ट्रपति का प्रतिनिधित्व करते हुए करते हैं। इसलिए राष्ट्रपति की तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती ही है। आज हिन्दुस्तान में हम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के आदिवासी होने की बात न भी करें, तो अगर कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, या वैश्य राष्ट्रपति भी होते, तो भी हमारा लिखना यही होता कि देश के अल्पसंख्यक और कमजोर तबकों के हक का खास ख्याल रखना उनकी पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर देश और प्रदेशों की सरकारें पर्याप्त करते हुए नहीं दिख रही हैं, तो राष्ट्रपति को सरकार से इस बारे में पूछताछ करना चाहिए जिसका हक उन्हें संविधान में साफ-साफ दिया गया है, और यह बात साफ है कि संविधान जब कोई हक देता है, तो उसके साथ उसी वाक्य या पैराग्राफ में लिखित या अलिखित कई किस्म की जिम्मेदारियां भी देता है। लोकतंत्र अधिकार और जिम्मेदारी एक-दूसरे के साथ ही चलते हैं। इसलिए आज अगर द्रौपदी मुर्मू के हाथ देश के संवैधानिक प्रमुख होने का अधिकार है, तो उन पर देश में सवैधानिक व्यवस्था लागू होने की जिम्मेदारी भी है। भारत की संसदीय शासन प्रणाली के मुताबिक राष्ट्रपति बहुत से मामलों में सरकार के ऊपर जाकर कोई कार्रवाई नहीं कर सकतीं, लेकिन वे सरकार से जवाब-तलब कर सकती हैं, सरकार को सुझाव दे सकती हैं, और सरकार से अपनी नाखुशी जाहिर कर सकती हैं। राष्ट्रपति की ड्यूटी में लिखा हुआ है कि उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी देश के संविधान और देश में कानून की रक्षा और बचाव करना है, जिसकी कि वे शपथ लेते हैं। उन्हें सिफारिश करने और निगरानी रखने (सुपरवाइजरी अधिकार) दिए गए हैं, और संविधान को बनाए रखने के लिए उनसे इनके इस्तेमाल की उम्मीद की जाती है। संविधान में लिखा हुआ है कि राष्ट्रपति का एक प्रमुख काम केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा, संसद या राज्य विधानसभाओं द्वारा लिए जाने वाले असंवैधानिक फैसलों को रोकना है, ताकि वे कानून न बन सकें। राष्ट्रपति संविधान के प्रमुख रक्षक हैं जो कि सरकारों और सदनों के असंवैधानिक कामों को रोक सकते/सकती हैं। 

ऐसी संवैधानिक व्यवस्था से परे भी राष्ट्रपति को कई किस्म के संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं जिससे वे सरकार के प्रति अपनी नाराजगी बता सकते हैं, असहमति दर्ज कर सकते हैं, और सरकार के कई फैसलों को अपनी मेज पर आने पर खासे अरसे के लिए रोक सकते हैं। कुल मिलाकर राष्ट्रपति जिस दिन चाहें, उस दिन प्रधानमंत्री को खबर भेज सकते हैं कि वे आकर मिलें, और फिर प्रधानमंत्री की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे जल्द से जल्द जाकर राष्ट्रपति से मिलें, उनके सवालों के जवाब दें, उनकी मांगी गई जानकारियां दें, और उनकी जिज्ञासाओं को शांत भी करें। केन्द्र सरकार, मणिपुर सरकार, मणिपुर के राज्यपाल जैसी कई संस्थाएं हैं जिनसे राज्यपाल सीधे या केन्द्रीय मंत्रिमंडल के माध्यम से जानकारी मांग सकती हैं, या सुझाव भी दे सकती हैं। लेकिन राष्ट्रपति की चुप्पी भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है। अगर राष्ट्रपति ने केन्द्र सरकार से या प्रधानमंत्री से कोई जानकारी मांगी भी है, तो देश को भी उसका पता चलना चाहिए कि सरकार के ऊपर भी एक संवैधानिक व्यवस्था ऐसी है जिसके प्रति केन्द्र सरकार जवाबदेह है। आज ऐसा लगता है कि अगर केन्द्र सरकार ने मणिपुर की तरफ से अपनी आंखें बंद कर ली हैं, तो कोई भी उससे जवाब मांगने की हालत में नहीं हैं। जबकि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी नहीं हैं। उसमें सरकार, संसद, अदालत, और राष्ट्रपति इनके एक जटिल अंतरसंबंधों की व्यवस्था है। राष्ट्रपति का आज न सिर्फ यह हक है, बल्कि उनकी बहुत बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेदारी भी है कि वे प्रधानमंत्री को बुलाकर मणिपुर पर चर्चा करें, उस पर जानकारी लें, और अगर जरूरत पड़े तो अपने सवालों की शक्ल में भी वे प्रधानमंत्री को सलाह दे सकती हैं। केन्द्र सरकार अगर अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी नहीं कर रही हैं, या पूरी करते हुए नहीं दिख रही है, तो यह राष्ट्रपति की बारी है। 

अगर राष्ट्रपति को लगता है कि उन्हें इस कुर्सी पर बिठाने वाली सरकार उनके किसी सवाल से नाराज हो जाएगी, तो उन्हें प्रेमचंद के पंच परमेश्वर को पढऩा चाहिए जिसमें लेखक ने यह सवाल लिखा था- क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? 

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