संपादकीय
देश के इतिहास में नेताओं पर हुए सबसे बड़े नक्सल हमले, झीरम घाटी, में छत्तीसगढ़ के दो दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे, जिनमें कांग्रेस के कुछ सबसे बड़े नेता थे, कुछ उनके साथ के लोग थे। आज उसके दस बरस पूरे हो रहे हैं, और इस पर जितनी जांच और अदालती कार्रवाई हुई है, उससे कहीं अधिक राजनीति चल रही है, वह जारी ही है। लोकतंत्र में नक्सलियों के इलाके में घुसकर राजनीतिक कार्यक्रम करना खतरे से खाली नहीं था, लेकिन उसमें उस वक्त के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, कांग्रेस के एक और सबसे बड़े नेता विद्याचरण शुक्ल, बस्तर के सबसे बड़े नक्सल-विरोधी नेता और कांग्रेस पार्टी के महेन्द्र कर्मा, विधायक उदय मुदलियार जैसे बड़े-बड़े नेता उस हमले में शहीद हुए। राज्य में भाजपा की सरकार थी, रमन सिंह मुख्यमंत्री थे, केन्द्र में यूपीए के मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, उस वक्त से जांच, जांच आयोग, सरकारों के बीच टकराव, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक तरह-तरह की पिटीशन का जो सिलसिला चल रहा है, वह आज भी थमा नहीं है, वह बस अदालती स्थगन से रोका गया है, वरना कार्रवाई जारी है।
यह मामला भारत में अलग-अलग राजनीतिक दलों वाले संघीय ढांचे का है, जांच एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र के टकराव का भी है, और राज्य की सत्ता पर, केन्द्र की सत्ता पर अलग-अलग पार्टियों के आने-जाने से बदले हुए हालात, और अदालतों की दखल का भी है। छत्तीसगढ़ में घटना के समय भाजपा की सरकार थी, और मारे गए लोग कांग्रेस के थे। उस वक्त से ही झीरम को लेकर एक राजनीतिक टकराव ऐसा चले आ रहा है कि इस मामले की जांच और अदालती फैसला किसी किनारे नहीं पहुंच पा रहे। जांच आयोग के काम करने के तरीके से असहमति, आयोग में नई नियुक्ति, नए मुद्दे तो चल ही रहे हैं, वे खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं, बल्कि मौजूदा कांग्रेस सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है, और अदालती स्थगन से उसके हाथ बंधे हुए हैं। दस बरस बाद भी देश की सबसे बड़े जांच एजेंसी एनआईए का मामला एनआईए कोर्ट में चल ही रहा है, और वह किसी किनारे पहुंचते नहीं दिख रहा है। यह हालत न्यायपालिका की भी है कि ऐसे खुले हमले के दस बरस बाद भी पहली अदालत से भी कोई फैसला अभी तक नहीं हो पाया है, जाहिर है कि इसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रास्ता सभी के लिए खुला रहेगा, और शायद अगले दस बरस भी आखिरी इंसाफ न हो सके।
नक्सल संगठनों के भीतर इस हमले को लेकर असहमति भी सामने आई थी, और नक्सल नेताओं ने यह माना था कि स्थानीय नक्सलियों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर यह अराजकता दिखाई थी, ऐसा हमला किया था, और इसमें नंदकुमार पटेल के बेटे दिनेश पटेल को भी मारा गया था जिनका कि किसी नक्सल-विरोधी अभियान से कोई लेना-देना नहीं था। लेना-देना तो विद्याचरण शुक्ल का भी नहीं था जिन्होंने अपने लंबे राजनीतिक जीवन में कभी राज्य की राजनीति नहीं की थी, और आखिरी दौर में जब वे 2003 का विधानसभा चुनाव एनसीपी में जाकर लड़ रहे थे, तब भी किसी नक्सल मुद्दे से उनका कोई लेना-देना नहीं था। इस तरह नक्सलियों ने उस हमले में जिस तरह की मनमानी की थी, बेकसूर लोगों को छांट-छांटकर मारा था, उससे नक्सल आंदोलन भी बदनाम हुआ था, और उनके नेताओं को भी सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी जाहिर करनी पड़ी थी।
अब आज इस बरसी पर जब हम झीरम में मरने वाले लोगों के परिवारों के साथ इंसाफ के बारे में सोचते हैं तो लगता है कि पार्टियों की राजनीति, केन्द्र और राज्य की एजेंसियों में टकराहट के चलते इंसाफ अभी दूर कहीं मृगतृष्णा बना हुआ बैठा है। हिन्दुस्तानी अदालती रिवाज के मुताबिक कभी न कभी इस पर फैसला जरूर आएगा, और अपीलों से गुजरते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जरूर पहुंचेगा, लेकिन इस दौरान जितनी बयानबाजी और जितनी कड़वाहट सामने आ रही है, उससे लगता है कि हर कुछ महीनों में सामने आती ऐसी टकराहट से मृतकों के परिवारों की तकलीफ बढ़ती ही होगी। खैर, जब अधिकतर मृतक या शहीद कांग्रेस से जुड़े हुए थे, तो जाहिर है कि यह मामला राजनीति से परे का रह भी नहीं सकता। अब एक दिक्कत यह है कि कांग्रेस और भाजपा से जुड़े हुए नेता हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पिटीशनर बने हुए हैं, और अदालतें अपने मिजाज के मुताबिक बरसों तक सुनवाई कर रही हैं, हर किस्म की जांच पर स्थगन आया हुआ है, तो फिर इंसाफ का सिलसिला आगे बढ़े तो कैसे बढ़े? हम यहां किसी पार्टी को कुसूरवार ठहराने का काम नहीं कर रहे, लेकिन इतना जरूर सोच रहे हैं कि यह मामला जांच, राजनीति, और अदालती प्रक्रिया की उलझनों की एक इतनी बड़ी मिसाल है कि उसे कई किस्म के कोर्स में पढ़ाया जा सकता है। इसमें केन्द्र-राज्य संबंध भी हैं, नक्सली-लोकतांत्रिक टकराव भी है, राजनीतिक दलों के बीच की कटुता भी है, केन्द्र और राज्य की एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र की बहस भी इसमें है, और केन्द्र और राज्य में सत्तारूढ़ पार्टियां बदल जाने से जांच और अदालती कार्रवाई में आने वाला फर्क भी इसमें है। यह समझना मुश्किल है कि चुनावी लोकतंत्र में ऐसी उलझन को कम कैसे किया जा सकता है? झीरम की बरसी के इस मौके पर श्रद्धांजलि देकर फिर अगले बरस तक उसे अनदेखा करना बड़ी गैरजिम्मेदारी का काम होगा, लोकतंत्र में ऐसी जटिलताओं पर कुछ बेहतर सोच-विचार करना चाहिए।
दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग परंपराएं रहती हैं। और देशों के भीतर ही हर इलाके के अपने रिवाज रहते हैं। लोग उन्हें बहुत गंभीरता से लेते हैं, और कई इलाकों में पीढिय़ों तक ये रिवाज चले आते हैं। अभी आन्ध्र के एक गांव वेमना इंडलू पर बीबीसी की एक रिपोर्ट आई है। इसके मुताबिक इस गांव में सभी लोग नंगे पैर रहते हैं, कोई जूते नहीं पहनते, और गांव के बाहर से अगर कोई बड़े अफसर भी वहां आ जाएं, तो उन्हें गांव के बाहर ही जूते उतारकर भीतर आना पड़ता है। इस गांव के लोग बीमार पडऩे पर इलाज नहीं कराते, और मंदिर की परिक्रमा करके ठीक हो जाने की मान्यता रखते हैं। सांप काट ले तो भी इलाज को नहीं ले जाते कि ईश्वर ठीक कर देंगे। गांव के बाहर का न तो कुछ खाते, न बाहर का पानी पीते। घर से ही पानी लेकर निकलते हैं, और उसी पर जिंदा रहते हैं। कुल 80 लोगों की आबादी है, 25 घर हैं, कुछ लोग ही ग्रेजुएट हुए हैं, लेकिन बाकी लोग गांव की ही खेती-बाड़ी पर चल रहे हैं। माहवारी के दौरान महिलाओं के रहने के लिए गांव के बाहर एक कमरा बना दिया गया है, और पांच दिन उन्हें वहीं रहना पड़ता है। यह जाति ओबीसी में आती है, और इसके बच्चे स्कूल जाते हैं तो वहां दोपहर का भोजन नहीं करते, खाना खाने घर आते हैं। किसी को छूते हैं तो नहाने के बाद ही घर में घुसते हैं। महिलाओं को प्रसव के लिए अस्पताल नहीं ले जाया जाता। इस गांव में दलितों का दाखिला नहीं है, और लोग दलितों से बात भी नहीं करते। इस रिपोर्ट के मुताबिक यह गांव तिरुपति से 50 किलोमीटर दूर है, और अफसरों का कहना है कि वे लोगों का अंधविश्वास करने की कोशिश करेंगे।
हिन्दुस्तान परंपराओं से लदा हुआ देश है, और ये परंपराएं लोगों की जिंदगी को जकडक़र रख देती हैं। लोग समाज की परंपराओं से भी लदे रहते हैं, गांव या कस्बे की बातों को भी मानने को मजबूर रहते हैं, और परिवार के रीति-रिवाज को तो मानना ही होता है। इस देश में इस बात को बहुत बड़ा माना जाता है कि कहां किस संयुक्त परिवार के कितने दर्जन लोग एक छत के नीचे रहते हैं, एक रसोई में बना हुआ खाते हैं। जाहिर है कि इन दर्जनों लोगों में कम से कम तीन पीढिय़ों के लोग तो रहते ही होंगे, और ऐसी संयुक्त परिवार व्यवस्था में सबसे बुजुर्ग की बात का सबसे अधिक वजन रहता है। और जाहिर है कि यह बुजुर्ग पीढ़ी नौजवान पीढ़ी से आधी सदी बूढ़ी रहती है, उसकी सोच पुरानी रहती है, बदलती हुई दुनिया का न उन्हें अंदाज रहता है, और न परवाह। ऐसे बरगदों के नीचे जीने वाले लोगों की नई पीढ़ी अपनी हसरतों और महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखकर एक चूल्हे का खाने का फख्र हासिल करती रहती है। जिस गांव की कहानी इस रिपोर्ट में है, वह ऐसे ही एक बड़े परिवार की तरह का है, उसमें कई दर्जन लोग हैं, एक ही जाति के हैं, और जिंदगी के बहुत से गैरजरूरी और महत्वहीन पहलुओं को ढोकर चलने वाले हैं। वे रोजमर्रा की व्यवहारिकता से अछूते रहकर एक अलोकतांत्रिक तौर-तरीके से चल रहे हैं। न महिलाओं को बराबरी का हक है, न दलितों को घुसने का हक है, और न लोगों को बाहर की दुनिया में जाकर खाने-पीने का हक है। और तो और बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन करने का हक नहीं है क्योंकि गांव की परंपरा उसके खिलाफ है। यह पूरा सिलसिला इतिहास के एक पन्ने की तरह लगता है, जिसे इतिहास बन जाना चाहिए था, लेकिन वह वर्तमान बना हुआ है, और भविष्य की छाती पर मूंग दल रहा है।
लोकतंत्र और संविधान दोनों का तकाजा यह है कि ऐसे समाज बदले जाने चाहिए, चूंकि वहां पीढिय़ां रह रही हैं, इसलिए सबसे पुरानी पीढ़ी के सामने और किसी का कुछ चलना नहीं है, कोई समाज सुधार हो नहीं सकता, इसलिए कानून दखल देना चाहिए। घर के भीतर के रीति-रिवाजों में तो कानून की जगह नहीं निकल सकती, लेकिन गांव में जूते-चप्पल पहनकर न घुसने के नियम को तो सरकार तोड़ ही सकती है, दलितों का गांव में दाखिला करवाना ही चाहिए। जब तक सरकारी दखल नहीं होगी, तब तक यह गांव एक किस्म से कुएं में जीता रहेगा, इसके लोगों को कुएं से बाहर लाकर दुनिया दिखाने के लिए जहां-जहां कानून की भूमिका हो सकती है, उसका इस्तेमाल करना चाहिए।
न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि दुनिया भर में जगह-जगह धर्म, आध्यात्म, और सम्प्रदायों के नाम पर कई किस्म के पाखंड, कई किस्म की हिंसक परंपराएं चलती रहती हैं। तमाम विकसित और सभ्य लोकतंत्रों में इनको तोडऩे के लिए सरकारें दखल देती ही हैं। अमरीका में एक वक्त एक किसी स्वघोषित गुरू के मातहत हजारों लोगों का एक ऐसा कम्यून बना हुआ था जो कि सरकारी सैनिकों से भी टकराव ले रहा था, और सरकार ने फौजी मदद से ही उसे तोड़ा था। हिन्दुस्तान में राम-रहीम से लेकर बहुत से दूसरे ऐसे गुरू रहे हैं जिन्होंने कानून के खिलाफ जाकर, अलोकतांत्रिक तरीके से अपने सम्प्रदाय चलाए, और फिर आखिर में जेल पहुंचे। लोकतंत्र में सरकार देश-प्रदेश के किसी भी हिस्से को कानून से ऊपर रखने की इजाजत नहीं दे सकती, यह उसकी बुनियादी जिम्मेदारी रहती है कि लोग अगर कानून के खिलाफ चल रहे हैं तो उन्हें पटरी पर लेकर आए। अभी जिस गांव की चर्चा चल रही है वह शारीरिक हिंसा तो नहीं कर रहा है, लेकिन दलितों का बहिष्कार करके, अपनी महिलाओं को अछूत मानकर वह सामाजिक हिंसा कर रहा है, इसलिए अफसरों को जरूरत पडऩे पर लड़ाई का इस्तेमाल करके भी इस सिलसिले को खत्म करवाना चाहिए।
मोदी सरकार को देश की जनता ने पांच बरस के लिए चुना है, उसमें अभी साल भर बाकी है, इसलिए मोदी को तो जनता ने एक किस्म से देश की सरकार लीज पर दे दी है, लेकिन जनता विपक्ष लीज पर नहीं देती, वह तो बिखरा हुआ रहता है, और उसे समेटना उसका अपना काम रहता है। आज हिन्दुस्तान में विपक्ष के सामने संभावनाएं मोदी सरकार के मुकाबले अधिक हैं। सत्तारूढ़ पार्टी अपने दसवें बरस में खोने का खतरा अधिक रखती है, लेकिन विपक्ष उसके खिलाफ अनगिनत मुद्दों पर आपसी तालमेल से, और एकजुट होकर सरकार को बड़ी चुनौती दे सकता है। और आज देश की जनता इसी का इंतजार कर रही है। देश भर में मोदी सरकार के खिलाफ मुद्दे इतने बिखरे हुए हैं, और इतने अधिक हैं कि उन पर देश की अलग-अलग गैरएनडीए पार्टियों में एकता हो सकती है, लेकिन इन पार्टियों की प्राथमिकताएं पहले अपने मतभेदों का हिसाब चुकता करना है, उसके बाद ही वे मोदी के बारे में कुछ सोचने की सोचेंगी।
देश की राजनीति के जानकार बहुत से लोगों को मोदी के खिलाफ किसी विपक्षी एकता को लेकर अधिक उम्मीद नहीं है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि ऐसी उम्मीद तो इमरजेंसी के दौरान भी नहीं दिखती थी, लेकिन बाद में विपक्षी न सिर्फ एक हुए, बल्कि उन्होंने अपनी पार्टियों का अस्तित्व भी मिटा दिया, और सब मिलकर जनता पार्टी बनीं, और देश का इतिहास बदल डाला। अब इस तर्क पर सोचने की बहुत सारी बातें हैं, क्या इमरजेंसी के दौरान देश में लोकतंत्र की जो हालत थी, और जिसकी वजह से अस्तित्व पर खतरा झेल रहीं पार्टियां, और नेता एक हुए, क्या आज हालात उस तरह के दबाव वाले हैं? दूसरी बात यह कि उस वक्त बहुत से प्रदेशों में कांग्रेस की ही सरकार थी जो कि संजय गांधी की इमरजेंसी का विस्तार करने में उसी खूंखार उत्साह से लगी हुई थीं, और आज देश के प्रदेशों में हालात उस कदर खराब नहीं हैं कि लोकतंत्र में एक बगावत की नौबत आए। इमरजेंसी में नेताओं को जेलों में बंद रहते हुए एकता की मजबूरी भी समझ आई थी, और एकता के लिए बातचीत का मौका भी जुटा था। आज विपक्षी एकता के लिए मायने रखने वाले अधिकतर नेता अपने-अपने प्रदेशों में मुख्यमंत्री हैं, उनके सामने एकता न कोई बेबसी है, और न ही दूसरों के साथ बैठना उनकी मजबूरी है। ऐसे में अलग-अलग कोई पहल कहीं चल रही है, तो उनकी वजह से चल रही है जो कि ऐसे किसी संभावित विपक्षी गठबंधन के मुखिया बनने की हसरत रखते हैं। उससे परे एक साथ बैठकर आधा दर्जन नेता भी कोई बात कर रहे हों, ऐसा नहीं दिखता है। चीटियां भी जब एक साथ जुटती हैं, तो वे अपने बदन से सौ गुना वजनी पत्ते या कीड़े को ढोकर ले जाते दिखती हैं, लेकिन उसके लिए उनका एकजुट होना जरूरी रहता है, और तालमेल से चलना जरूरी रहता है।
अब दिल्ली की ही खबर है कि वहां सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को अधिकारियों पर नियंत्रण के अधिकार देने का जो फैसला सुनाया है, उसे बेअसर करने के लिए केन्द्र सरकार एक अध्यादेश लाई है ताकि केजरीवाल के पंख बंधे ही रहें। अब इस मामले पर केजरीवाल सारी विपक्षी पार्टियों से अपील कर रहे हैं कि जब संसद में इसे पेश किया जाए, तब तमाम पार्टियां एक होकर इसका विरोध करें। इसे लेकर ऐसी खबर भी आ गई थी कि कांग्रेस इस मुद्दे पर अध्यादेश का विरोध करेगी। लेकिन अधिक देर नहीं लगी, कांग्रेस ने इन खबरों का खंडन किया, और कहा कि अभी इस पर पार्टी ने कोई फैसला नहीं लिया है, और पार्टी अपने राज्य संगठन, और दूसरे हमखयाल राजनीतिक दलों के साथ इस पर सलाह करेगी। जबकि कांग्रेस के साथ ठीकठाक तालमेल रख रहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर केजरीवाल का साथ दिया है, और खुलकर कहा है कि निर्वाचित सरकार को दी गई ताकतें कैसे छीनीं जा सकती हैं, यह संविधान के खिलाफ है, और वे केजरीवाल के साथ हैं, और सभी विपक्षी दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं। लोगों को याद होगा कि जिस वक्त राहुल गांधी के खिलाफ गुजरात की एक अदालत का फैसला आया, और उनकी संसद सदस्यता अगले दिन खत्म कर दी गई तब केजरीवाल ने खुलकर उसके खिलाफ बयान दिए थे। अगर विपक्ष में एकता की कोई संभावनाएं देखनी हैं, तो उसके लिए लोगों को एक-दूसरे की मुसीबत में साथ देने के बारे में सोचना पड़ता है। मतभेद तो विपक्षी पार्टियों में भी हमेशा ही बने रहेंगे, लेकिन चीटियों को कोई बड़ा सामान उठाकर ले जाना है, तो उन्हें जरूरत के वक्त एकजुट होकर कदमताल करनी पड़ती है, और अपने निजी अस्तित्व को कुछ वक्त के लिए भूलना भी पड़ता है।
चूंकि हमने इमरजेंसी के दौर की विपक्षी एकता से आज की एक तुलना करने का खतरा उठाया है, तो यह भी समझना पड़ेगा कि नेहरू की बेटी को हराने के लिए पार्टियों ने अपने अस्तित्व को भी खत्म कर दिया था, आज की जो भाजपा देश की सरकार पर काबिज है, वह भाजपा भी जनसंघ की शक्ल में जनता पार्टी में विलीन हुई थी, और जनता पार्टी खत्म होने के बाद वह भाजपा बनकर फिर अस्तित्व में आई थी। नाजुक वक्त के ऐसे बहुत से तकाजे रहते हैं जब लोगों को निजी महत्वाकांक्षा, निजी अस्तित्व भूलकर भी एक-दूसरे के साथ हाथ में हाथ थामकर खड़े होना पड़ता है। इमरजेंसी और आज की दूसरी कई किस्म की अलग बातों से परे एक और बात अलग है कि उस वक्त प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से पूरी तरह मुक्त जयप्रकाश नारायण अगुवाई करने को मौजूद थे, और आज बारात में चलने को तैयार हर कोई घोड़ी चढ़े दूल्हा बने दिख रहे हैं। अब ऐसे में बारात आगे बढ़े तो कैसे बढ़े? फिलहाल पूरी तरह निराश होने की जरूरत भी नहीं है क्योंकि कोई विपक्षी गठबंधन आखिरी के महीनों में भी हो सकता है, लेकिन एक बात गौर करने लायक यह है कि देश में ऐसी एक सुगबुगाहट चल रही है कि क्या मोदी सरकार संसद के कार्यकाल के पहले छह महीने बाद के कुछ विधानसभा चुनावों के साथ आम चुनाव भी करवा सकती है? अगर ऐसी नौबत आती है, तो अपने-अपने टापुओं पर राज कर रहे विपक्षी नेताओं के पैर सम्हल नहीं पाएंगे।
बिहार से बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि वहां मुस्लिमों के शेरशाहबादी तबके में एक रिवाज के चलते लड़कियां बूढ़ी हो जाती हैं, लेकिन उनकी शादी नहीं हो पाती। छोटे-छोटे गांव-कस्बों में भी ऐसी दर्जनों लड़कियां हैं जिनकी शादी की उम्र निकलती चली गई, और अब उम्र बढ़ जाने से शादी की गुंजाइश नहीं सरीखी रह गई। यह रिपोर्ट इस समुदाय के एक रिवाज को बताती है कि शेरशाहबादी मुस्लिम अपनी लड़कियों का रिश्ता करने की पहल खुद नहीं करते, बल्कि लडक़ों की तरफ से शादी के लिए पैगाम आता है, या मध्यस्थता करने वाले अगुवा आते हैं। समाज में यह माना जाता है कि अगर लड़कियों के मां-बाप पहल कर रहे हैं, तो उनमें कोई खोट होगी। अब इस सामाजिक धारणा के तहत जीते हुए लड़कियों के परिवार अपनी लड़कियों को बूढ़ा होते देखते हैं, खुद मर जाते हैं, और लड़कियों को अकेले मरने के लिए छोड़ देते हैं। जैसे ही शादी की उम्र थोड़ी सी पार होती है, संभावनाएं तेजी से फिसलती चली जाती हैं। अब हाल यह है कि कमउम्र से ही बच्चियों पर यह डर मंडराते रहता है कि कहीं वे बिना शादी के न रह जाएं। एक और चलन यह है कि यह समाज सिर्फ गोरी लडक़ी ढूंढता है, इसलिए जो लड़कियां गोरी नहीं हैं, वे भी घर बैठे रह जाती हैं। ऐसे में परिवार किसी बूढ़े से भी अपनी जवान लडक़ी की शादी कर देते हैं, ताकि शादी हो तो सही।
यह रिपोर्ट कई सवाल खड़े करती है। और बुनियादी तौर पर तो मुस्लिमों के इस समुदाय के लिए करती है, लेकिन मुस्लिमों के बाकी समुदायों में भी कमउम्र की नाबालिग गरीब लडक़ी को किसी बूढ़े पैसे वाले के साथ शादी करके भेज देने के मामले हैदराबाद से बहुत सुनाई देते थे। सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें समाज का मखौल बनाते रहती हैं जिनमें किसी बहुत बूढ़े के साथ कोई कमउम्र लडक़ी दिखती है। एक तो गरीबी, दूसरी अशिक्षा, तीसरी बात किसी तरह की आत्मनिर्भरता की क्षमता न होना, और फिर समाज के तंगनजरिये का कैदी रहना, इन सब वजहों से न सिर्फ मुस्लिमों, बल्कि कई समाजों में लड़कियों की संभावनाएं शुरू होने के पहले ही खत्म हो जाती हैं। मुस्लिमों में खासकर इसलिए कि कमउम्र में शादी कानूनी है, इसलिए गरीब परिवार लडक़ी की पढ़ाई बिना, उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना कोई लडक़ा, आदमी, या बूढ़ा देखकर शादी कर देते हैं, और फिर उस लडक़ी की जिंदगी का रूख हमेशा के लिए एक खाई की तरफ तय हो जाता है। इसलिए जब हिन्दुस्तान के किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री अपनी सारी साम्प्रदायिकता के साथ भी एक से अधिक शादियों पर रोक लगाने की बात करता है, तो हम उसका समर्थन करते हैं। जब देश में ऐसा कानून बना कि तीन बार तलाक शब्द कहकर मुस्लिम पति पत्नी को छोड़ न सके, तो हमने उसका भी समर्थन किया। जब हिजाब पर कर्नाटक में रोक की बात आई, तो हमने व्यक्तिगत पसंद की वकालत करते हुए मुस्लिम लडक़ी के हिजाब के हक का तो समर्थन किया, लेकिन उसे हिजाब से मुक्ति दिलाने के समाज के भीतर माहौल बनाने की भी वकालत की। आज बुर्के और हिजाब की वजह से, और बहुत से गैरमुस्लिम समाजों में तरह-तरह के पर्दों की वजह से लड़कियों और महिलाओं के बराबरी से आगे बढऩे की संभावनाएं खत्म होती हैं। ये चीजें व्यक्तिगत पसंद की हद तक तो ठीक हैं, इन्हें कोई स्कूल-कॉलेज या सरकारी दफ्तर जबर्दस्ती रोके, हम उसके खिलाफ हैं, लेकिन हम ऐसी पोशाक के खिलाफ हैं जो कि महज महिलाओं पर लादी जाती है, चाहे वह मुस्लिम महिला का हिजाब-बुर्का हो, चाहे वह राजस्थानी महिला का घूंघट हो।
बिहार के जिस मुस्लिम समुदाय में लड़कियों की हालत देखकर यह बात लिखी जा रही है, उसे सरकार के स्तर पर भी देखने की जरूरत है। सरकार को ऐसी सामाजिक जागरूकता की कोशिश भी करनी चाहिए कि अलग-अलग समुदाय अपने पुराने पड़ चुके रिवाजों से निकल सकें, वहां महिलाओं को बराबरी के हक मिल सकें, और बेइंसाफी खत्म हो सके। बहुत से समाजों में पर्दे से परे की भी कई तरह की पुरानी परंपराएं चली आ रही हैं, वे नई पीढ़ी की महत्वाकांक्षाओं को खत्म करती हैं, उनकी संभावनाओं का गला घोंटती हैं, और समाज के मठाधीश उन्हें जारी रखने में अपनी कामयाबी मानते हैं। धर्म और समाज के अधिकतर मुखियाओं का राज पाखंड के जारी रहने से आसानी से जिंदा रहता है, और आगे बढ़ता है। शहरीकरण तो खुद होकर कुछ हद तक इस सिलसिले को तोड़ता है, लेकिन कहीं कानून बनाकर, कहीं सामाजिक जागरूकता लाकर यह सिलसिला खत्म भी करना चाहिए।
जब हम किसी धर्म की परंपराओं और उस धर्म में महिलाओं के हक के बीच टकराव देखते हैं, तो हम महिलाओं के हक के हिमायती रहते हैं। धर्म तो ताजा-ताजा है, लेकिन महिलाओं का अस्तित्व तो धरती पर इंसानों के अस्तित्व से चले आ रहा है, उनका हक धर्म के ऊपर रहना चाहिए। इसलिए किसी धर्म के रिवाज अगर महिलाओं के हक को छीनते हैं, कुचलते हैं, तो ऐसे रिवाज बदलने की जरूरत है। इसके लिए लोकतंत्र अगर कानून भी बदलना पड़े, तो वह भी करना चाहिए। धार्मिक कट्टरता से लादे जा रहे पाखंडी रीति-रिवाजों को लोकतंत्र और मानवाधिकार से ऊपर दर्जा नहीं देना चाहिए। एक वक्त हिन्दुस्तान में सती बनाने की भी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी, बाल विवाह धड़ल्ले से होते थे, अब कानून बनाकर इनको रोका गया। कुछ लोग कह सकते हैं कि ये कानून किसी धर्म के रिवाज को खत्म कर रहे हैं, लेकिन धर्म को इंसान के बुनियादी हकों से ऊपर जगह देना नाजायज है। इसलिए जहां समाज खुद होकर सुधार नहीं ला पाता है, वहां लोकतांत्रिक सरकार को दखल देनी ही चाहिए।
अभी बलात्कार के आरोप का एक ऐसा मामला सामने आया है जो बहुत से उलझे हुए सवाल खड़े करता है। यह जांच एजेंसी पुलिस और अदालत के सामने तो एक जटिल मुद्दा रहेगा ही, यह अखबारों के लिए भी एक मुश्किल मामला है कि इसकी खबर कैसे बनाई जाए। क्या दो पक्षों की तरफ से पुलिस में लिखाई गई रिपोर्ट के तथ्यों को ज्यों का त्यों ले लिया जाए, या फिर अपनी अक्ल का भी इस्तेमाल किया जाए? रिपोर्टिंग करते हुए आमतौर पर यह बात आसान रहती है कि बिना जज बने हुए पुलिस या अदालत में दर्ज तथ्यों को ज्यों का त्यों पाठकों के सामने रख दिया जाए, लेकिन क्या इस तरह का मशीनी बर्ताव पाठकों या दर्शकों को सचमुच का सच बता पाता है? यह सवाल आसान नहीं है क्योंकि दर्ज तथ्यों का अधिक विश्लेषण करना, और फिर सोच-समझकर तथ्यों को सामने रखना एक किस्म से अदालत के पहले मीडिया की अदालत में, या रिपोर्टर की समझ में इंसाफ करने जैसा काम हो जाता है। कल से ऐसा ही एक मामला परेशान कर रहा है।
हम जानबूझकर इसमें हिन्दुस्तान के इस प्रदेश और उसके शहर का नाम नहीं दे रहे हैं क्योंकि यह मामला कहीं भी हो सकता है। एक गरीब परिवार की नाबालिग लडक़ी पुलिस को रोती-बिलखती मिली, और उससे पता लगा कि पिछले कुछ बरस से दूसरे धर्म का एक लडक़ा उससे प्यार की बातें करते हुए देह-संबंध बना रहा था। यह सिलसिला लगातार चलते रहा। जब यह लडक़ी मारपीट झेलकर पुलिस को मिली तो पुलिस ने इस लडक़े को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद लडक़े के परिवार के दस बरस के बच्चे की ओर से पुलिस में रिपोर्ट लिखाई गई कि बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने वाली लडक़ी की विधवा मां उस बच्चे को लालच देकर अपने घर ले गई, और उसके निजी अंगों से छेडख़ानी की। इस रिपोर्ट के आधार पर पॉक्सो एक्ट के तहत केस दर्ज करके इस महिला को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया, और जेल भेज दिया गया। बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने वाली नाबालिग लडक़ी का कहना है कि पुलिस बलात्कारी के साथ मिलकर समझौता करने, और शिकायत वापिस लेने के लिए धमका रही थी, पैसों का लालच दिया जा रहा था, और जब यह गरीब परिवार उसके लिए तैयार नहीं हुआ, तो उसकी मां के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट लिखाकर उसे आनन-फानन गिरफ्तार करवाया गया। बलात्कार की शिकार लडक़ी हिन्दू है, और आरोपी गिरफ्तार युवक मुस्लिम है, और उसके परिवार के छोटे बच्चे की तरफ से हिन्दू लडक़ी की मां के खिलाफ यौन शोषण की रिपोर्ट दर्ज कराई गई है जिस पर गिरफ्तारी हुई है। इस मामले में एक और पेंच यह भी है कि मुस्लिम युवक को भाजपा से जुड़ा हुआ बताया जा रहा है। अब कुछ हिन्दू संगठन इस मामले को लेकर पहली रिपोर्ट करने वाली लडक़ी के पक्ष में खड़े हो रहे हैं, आंदोलन की बात कर रहे हैं, दूसरी तरफ पहली रिपोर्ट पर गिरफ्तार मुस्लिम युवक भाजपा से जुड़ा होने के बाद भी भाजपा की तरफ से कोई बयान नहीं आया है।
अब सोचने की कई बातें उठती हैं। एक गरीब परिवार की लडक़ी जो कि विधवा मां के साथ रह रही है, वह बलात्कार की रिपोर्ट लिखाती है, और लडक़े की गिरफ्तारी के बाद उसके परिवार का एक बच्चा इस विधवा महिला के खिलाफ यौन शोषण की रिपोर्ट लिखाता है, और पुलिस उस महिला को भी तुरंत गिरफ्तार कर लेती है। बिना किसी की नीयत पर शक किए हुए पहली नजर में देखा जाए तो ऐसा लगता है कि पहली रिपोर्ट के मुकाबले यह दूसरी रिपोर्ट हुई है, और इन दोनों के बीच पुलिस पर यह आरोप भी लगा है कि वह दबाव डालकर लडक़ी से शिकायत वापिस करवाने की कोशिश कर रही थी। अब इस मामले में पुलिस चाहे जैसा मामला बनाए, अदालत जिसे चाहे उसे गुनहगार ठहराए, लेकिन हमारे सामने एक दुविधा और दिक्कत यह है कि इस पूरे मामले की रिपोर्ट कैसे की जाए? अखबार में तथ्यों को बिना जज बने हुए कैसे रखा जाए? इतनी दुविधा कम मामलों में सामने आती है। देश के कुछ हिस्सों में ऐसा जरूर हुआ है कि एक परिवार की बलात्कार की रिपोर्ट के मुकाबले दूसरे परिवार की महिलाओं ने भी बलात्कार की रिपोर्ट लिखा दी। लेकिन एक छोटे बच्चे की तरफ से ऐसी शिकायत का यह मामला बड़ा अजीब है। न तो हम उस लडक़ी की नीयत पर कोई शक कर रहे, न ही इस बच्चे की नीयत पर, लेकिन यह इतना नाजुक मामला हो गया है कि पुलिस को अपनी साख बचाने के लिए, और इंसाफ के लिए भी ईमानदारी और संवेदनशीलता से इसकी जांच करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट बता रही है कि 18 साल की उम्र तक यौन संबंध बना लेने वाले लोगों में लड़कियों की संख्या लडक़ों से ज्यादा है। चूंकि यह भारत सरकार का किया हुआ सर्वे है, और आज की सरकार कमउम्र में सेक्स को बढ़ावा देने वाली तो है नहीं, इसलिए यह मानने की कोई वजह नहीं हो सकती कि यह सर्वे गलत होगा। दूसरी बात, इस सर्वे में ही यह लिखा गया है कि ये आंकड़े पूरी तरह से लोगों से बातचीत पर आधारित हैं, और भारत में महिलाएं और लड़कियां इस तरह के रिश्ते पर बात करने में हिचकिचाती हैं, इसलिए हो सकता है कि जितने आंकड़े बताए गए हैं, उनमें आधे छुपा लिए गए हों। रिपोर्ट यह भी कहती है कि गांव की लड़कियां शहर की लड़कियों के मुकाबले कमउम्र में सेक्स-संबंध बनाती हैं। यहां यह समझने की जरूरत है कि यह सर्वे शादीशुदा और बिना शादी वाली, सभी किस्म की लड़कियों और महिलाओं के बारे में हैं, और इसका एक तथ्य यह भी बताता है कि युवकों में 6 फीसदी ने सेक्स वर्कर से देह-संबंध की शुरुआत बताई है, लेकिन महिलाओं के एक हिस्से का कहना है कि उन्होंने अपने परिचितों के साथ सेक्स की शुरुआत की थी। यह राष्ट्रीय सर्वे कई किस्म के मकसद को लेकर किया गया है जिसमें सहमति से सेक्स की उम्र को घटाने की की जा रही मांग पर विचार करने के लिए भी एक जमीन तैयार होगी, और भी कई किस्म के कानूनों में इसके बाद सोचने-विचारने की जानकारी सामने आएगी। अभी माना जा रहा है कि परिवार की सोच, किशोरों और युवाओं के बदन की जरूरत, नौजवानों के आपसी रिश्ते, और कानून, इनके बीच कोई ठीक-ठाक तालमेल नहीं है। हो सकता है कि ऐसे सर्वे के बाद अगर इस पर कोई गंभीर विचार-विमर्श हो, तो कुछ कानून बदल सकते हैं जो कि नौजवान पीढ़ी की जिंदगी को कुछ आसान कर सकते हैं।
इसके साथ-साथ हम यह भी कहना चाहते हैं कि जब लडक़े-लड़कियों का एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा 15 बरस की उम्र में सेक्स-संबंध बनाने की बात खुद होकर मंजूर कर रहा है, तो इस पीढ़ी की सेक्स की जानकारी में इजाफा करने, उन्हें वैज्ञानिक बातों को समझाने, और पहले सेक्स के पहले उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से परिपक्व बनाने की जरूरत दिख रही है। भारत के स्कूलों और कॉलेजों में देह-शिक्षा या सेक्स-शिक्षा की बात आधी सदी से चल रही है, लेकिन लोगों का एक हिस्सा ऐसा है जो इसे पश्चिमी संस्कृति बताता है, और इसका विरोध करने के लिए झंडे-डंडे लेकर टूट पड़ता है। इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ, हिन्दू धर्म के खिलाफ बता दिया जाता है, जबकि भारतीय संस्कृति में सैकड़ों बरस पहले से खजुराहो जैसे अनगिनत मंदिरों की दीवारों पर सेक्स की प्रतिमाएं बनी हुई हैं जो बताती हैं कि इस देश में मुगलों और अंग्रेजों के आने के सैकड़ों बरस पहले से सेक्स पर खुलकर चर्चा होती थी। वात्सायन ने कामसूत्र जैसा विश्वविख्यात ग्रंथ तीसरी शताब्दी के बीच में किसी समय तैयार किया था जो कि सेक्स के आनंद के पहलू पर दुनिया का एक सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। इतिहास गवाह है कि हिन्दुस्तान ने अपने बेहतर वक्त में सेक्स को गंदा नहीं माना, और इसे जिंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना। हाल की सदियों में धर्म ने अपने पाखंड का प्रचार करते हुए सेक्स की भावना के लिए तरह-तरह के अपराधबोध वाले शब्द गढ़े, और लोगों के मन में इसके लिए वैराग्य और हिकारत पैदा करने की कोशिश की। ऐसे ही कुछ तथाकथित शुद्धतावादियों ने जिंदगी से सेक्स को बाहर करने की कोशिश की, और एक चर्चित तथाकथित आध्यात्मिक संगठन तो पति-पत्नी को भाई-बहन की तरह रहने को कहता है। जाहिर है कि ऐसे दाम्पत्य जीवन से पति-पत्नी कहीं न कहीं अलग-अलग सेक्स ढूंढने लगेंगे, और उससे समाज में बवाल बढ़ेगा ही, सेक्स कहीं कम नहीं होगा।
कभी धर्म का नाम लेकर, कभी तथाकथित सांस्कृतिक मूल्यों का नाम लेकर हिन्दुस्तान में एक कट्टर तबका लोगों को, खासकर नौजवानों को सेक्स से दूर रहने की नसीहत देता है। नौजवान तन और मन अपनी जरूरतों को पूरा करने के रास्ते ठीक उसी तरह ढंूढ लेते हैं जिस तरह किसी पहाड़ी नदी का पानी अपने लिए रास्ता ढूंढ लेता है, इस रोक पाना मुमकिन नहीं होता, असल इंसानी जिंदगी में कांक्रीट के बांध तो बनाए नहीं जा सकते कि नौजवान तन-मन की जरूरतों को रोक दिया जाए। नतीजा यह होता है कि समाज नई पीढ़ी को सेक्स की जानकारी देना नहीं चाहता, और यह पीढ़ी बिना वैज्ञानिक समझ के, अपनी सामान्य समझबूझ से, या फिर हाल के दशकों में इंटरनेट की मेहरबानी से हासिल पोर्नोग्राफी को ही सेक्स-शिक्षा मानकर आगे बढ़ जाती है। नतीजा यह होता है कि बदन के प्राकृतिक और स्वाभाविक काम को यह पीढ़ी पोर्नोग्राफी के नजरिये से देखती है, और उसकी वजह से उसका बड़ा नुकसान भी होता है, उसमें एक अलग और अजीब किस्म की हिंसा भी आ जाती है, इस पीढ़ी को यह लगने लगता है कि पोर्नोग्राफी में दिखाए गए तरीके ही सेक्स के स्वाभाविक तरीके हैं।
भारत सरकार के इस ताजा सर्वे की जानकारी से यह बात साफ होती है कि लड़कियों को घर में दबाकर रखना, और लडक़ों को बिना किसी जानकारी और समझ के खुला छोड़ देना कामयाब नहीं हो पा रहा है। इससे सेक्स रूक नहीं रहा है, यह एक अलग बात है कि ऐसे अपरिपक्व उम्र और दिमाग के, और परिपक्व बदन के सेक्स में कोई सावधानी शायद न बरती जा रही हो। इसके बहुत किस्म के खतरे हैं, लड़कियों के गर्भवती हो जाने से लेकर दोनों ही जोड़ीदार के किसी सेक्स-बीमारी को पा लेने तक कई चीजें हो सकती हैं। आज जब अदालतों में यह बहस चल रही है कि सहमति से सेक्स की उम्र घटानी चाहिए, तो यह बात जाहिर है कि ऐसी घटी हुई उम्र के साथ सेक्स की जानकारी भी देनी चाहिए, उसकी समझ भी देनी चाहिए, और खतरों से बचने की नसीहत भी इसी के साथ दी जा सकती है। अपने आपको ऐसा पाखंडी बनाए रखना कि इस देश में शादी के पहले कोई सेक्स नहीं होता, एक झूठे सांस्कृतिक-अहंकार को तो सहला सकता है, लेकिन नई पीढ़ी को वह शर्तिया खतरे में धकेलता है। किसी भी जिम्मेदार और समझदार समाज को एक ऐसे इतिहास में जीने की कोशिश नहीं करना चाहिए जो कि कभी हुआ ही नहीं है। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना सत्तारूढ़ राजनीतिक दल अपनी पहल से किसी सेक्स-शिक्षा को शुरू कभी नहीं करेंगे, उन्हें उन वोटरों की नाराजगी की आशंका होगी, जिन्हें खुद राजनीतिक दलों ने पाखंडी बना रखा है। इसलिए जरूरत पड़े तो कोई जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगाना चाहिए, और बताना चाहिए कि वोटरों के मोहताज राजनीतिक दल कभी अपनी सरकार रहते यह काम नहीं करेंगे, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ही वैज्ञानिक समझ रखने वाले मनोचिकित्सकों और शिक्षाशास्त्रियों की एक विशेषज्ञ कमेटी बनाकर देश में देह या सेक्स-शिक्षा लागू करे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी एक पश्चिमी देश से एक घटना सामने आई। आदमी-औरत का एक जोड़ा 18 महीने से साथ रह रहा था, और उनका रिश्ता ठीक-ठाक ही चल रहा था। अचानक महिला की नजर अपने जोड़ीदार के लैपटॉप पर पड़ी जो कि खुला हुआ था, और उस पर कुत्ते के एक खूबसूरत पिल्ले की तस्वीर देखकर उसने उसे क्लिक किया। वह देखकर सदमे में आ गई कि उसका 57 बरस का जोड़ीदार उसकी (महिला की) तस्वीरें छुपे हुए कैमरों से ले रहा था, और नहाते, कपड़े बदलते उसकी नग्न तस्वीरों को पोर्नो वेबसाइटों पर पोस्ट कर रहा था। इसके साथ-साथ वह इस महिला के फेसबुक की प्रोफाइल फोटो को भी डाल रहा था ताकि लोगों को पता लग जाए कि ये नग्न तस्वीरें किसकी हैं। यह बदला लेने के लिए किसी भूतपूर्व प्रेमी का किया हुआ काम नहीं था, बल्कि वर्तमान प्रेमी, लिव इन पार्टनर, 57 बरस के कारोबारी आदमी ने जगह-जगह कैमरे लगाकर अपनी साथी की ऐसी तस्वीरें खिंचीं थीं, और उनके नीचे गंदे कमेंट भी पोस्ट किए थे।
बदला लेने के लिए तो दुनिया में प्रेम के वक्त के अंतरंग वीडियो का नाजायज इस्तेमाल बहुत मामलों में दिखता है, लेकिन साथ जीते हुए भी लोग ऐसा कर सकते हैं, यह हक्का-बक्का करने वाली बात है। परिवार के भीतर किस तरह जुर्म होते हैं, इस बारे में अभी हफ्ते भर पहले ही हमने इसी जगह पर लिखा था, लेकिन अभी दो दिन पहले एक और मामला सामने आया है कि हमारे ही इलाके में एक नौजवान ने मां-बाप और दादी को मारकर घर के आंगन में ही जला डाला, वह इनकी दौलत पर काबिज होना चाहता था, और पिता की जगह सरकारी नौकरी पाना चाहता था। अब लगता है कि लोग आखिर किस किस्म की औलादों की उम्मीद करते हुए उनके लिए अपनी जिंदगी भर की कमाई छोडक़र जाते हैं, उन्हें वारिस बनाकर जाते हैं। इसी महिला के मामले को देखें जो भरोसे के साथ अपने प्रेमी के साथ रह रही थी, और अब उसके खुफिया कैमरों से खिंची अपनी तस्वीरें पोर्नो वेबसाइटों को देखकर वह उसके खिलाफ अदालत तक पहुंची है।
आज इस मामले पर लिखने का मकसद यही है कि लोग परिवार और प्रेम को लेकर जरूरत से अधिक भरोसे में जी रहे हों, तो वे जाग जाएं। कितना ही गहरा प्रेम हो, कितना ही करीबी रिश्ता हो, बहुत से मामलों में इंसान जिंदगी के तमाम मूल्यों और सिद्धांतों को खोकर, छोडक़र, महज अपने बदन की भूख पर उतर आते हैं, यह परले दर्जे के मतलबपरस्त होकर दूसरे सबको मारकर भी उनकी दौलत पर काबिज होना चाहते हैं। वे कुछ मिनटों के अपने देहसुख के लिए घर के बच्चों से बलात्कार पर उतारू हो जाते हैं, या आसपास के बच्चों को चॉकलेट का लालच देकर उनसे बलात्कार करते हैं। दिक्कत यही हो जाती है कि समाज में तथाकथित इंसानियत के साथ जितने किस्म के मूल्य जोड़ दिए गए हैं, उन मूल्यों को लोग समाज में आम इस्तेमाल हो रहे मान लेते हैं। होता यह है कि इंसान के भीतर वह हैवानियत भी बराबरी से काबिज रहती है जिसे लोग इंसान के बाहर की कोई चीज बताना चाहते हैं। वह इंसानियत का ही एक हिस्सा है, और बेहतर बन चुके इंसान उस हैवानियत पर काबू रखते हैं। यह काबू भी कब तक रह पाता है, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता। इसलिए एक आदमी अपनी लिव इन पार्टनर, प्रेमिका की नग्न तस्वीरें खुफिया कैमरों से खींचकर उसे पोर्नो वेबसाइट पर पोस्ट करता है, और उसका मजा लेता है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि यह आदमी किसी मानसिक बीमारी का शिकार था, लेकिन हकीकत तो यह है कि अधिकतर लोगों के बीच किसी न किसी किस्म की कोई मानसिक खूबी या खामी रहती है, वह अक्सर छुपी रहती है, और कभी मौका मिलने पर बाहर निकलती है।
आज का वक्त ऐसा है कि टेक्नालॉजी ने हर हाथ में एक कैमरा और रिकॉर्डर थमा दिया है, जो आपको बहुत पसंद हैं, वे अपने मन में आपके लिए कैसी भावना रखते हैं, उसका भी कोई अंदाज नहीं लग सकता। लोगों को याद होगा कि चाल्र्स शोभराज नाम का एक चर्चित हत्यारा बहुत सी लड़कियों को प्रेमिका बनाते रहता था, और उनके कत्ल भी करते रहता था। वह दिखने में आकर्षक था, और लड़कियों को लुभाता भी रहा होगा, तभी वह अनगिनत लड़कियों को प्रेम का झांसा देकर उन्हें कत्ल कर पाया। लोगों को अपनी जिंदगी में दिल पर भरोसे से अधिक अक्ल पर भरोसा करना चाहिए। अक्ल यही कहती है कि अपने बहुत करीबी लोगों से प्रेम रखते हुए भी इतनी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए कि वे आपको तबाह न कर सकें। किसी के भी हाथ में इतनी ताकत नहीं देना चाहिए कि वह आपकी जीने की ताकत को पल भर में खत्म कर सकें। किसी को भी किसी दूसरे पर इतना भरोसा करने के पहले अपने तन-मन के प्रति, अपने जीवन के प्रति, अपनी जिम्मेदारी के बारे में पहले सोचना चाहिए। कोई भी जिंदगी हर दर्जे का धोखा खाकर जी नहीं सकती, छोटे धोखों से तो वह उबर सकती है, लेकिन बहुत बड़े धोखों से वह बाकी सांसों के खत्म हो जाने तक भी नहीं उबर पाती। किसी समझदार ने एक वक्त कहा था कि अपनी बहुत गोपनीय बात, अपने रहस्य, अपने सबसे करीबी इंसान को भी न बताएं, क्योंकि आप अगर इन बातों को बताए बिना नहीं रह पाए, तो वे करीबी लोग किसी और को बताए बिना कैसे रह लेंगे? और यह बात तो याद रखना ही चाहिए कि आज जो सबसे करीबी दोस्त हैं, वे किसी दिन दुश्मन भी बन सकते हैं, और आज उनसे बांटा गया अपने दिल का बोझ उस दिन उनके हाथ इतना बड़ा हथियार रहेगा जिससे कि वे आपको तबाह कर सकें।
पश्चिम के इस ताजा मामले से तमाम लोगों को सबक लेना चाहिए, किसी भी और के प्रति भरोसे से पहले अपने प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करें, क्योंकि आप अगर लापरवाह रहेंगे, तो दुनिया में किसी और पर उसके लिए सावधान रहने की जिम्मेदारी नहीं बनती।
केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू को चर्चित कानून मंत्रालय से हटाकर एक ऐसे मंत्रालय में भेजा गया है जिसका नाम और काम भी लोगों को ठीक से समझ नहीं आ रहा है। उन्हें अब पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय दिया गया है। दूसरी तरफ कानून मंत्रालय राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल को स्वतंत्र प्रभार के रूप में दे दिया गया है। आज केवल यही एक फेरबदल सामने आया है, और इसे लेकर देश के प्रमुख वकील, और भूतपूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने ट्वीट करके मजा लिया है। उन्होंने लिखा है- किरेन रिजिजू, कानून नहीं, अब पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, कानूनों के पीछे का विज्ञान समझना आसान नहीं होता, अब विज्ञान के कानूनों के साथ भिडऩा, गुड लक माई फ्रेंड।
दरअसल किरेन रिजिजू पिछले एक-दो बरस से लगातार सुप्रीम कोर्ट के साथ टकराव के अंदाज में एंग्री यंग मैन बनकर खड़े हुए थे। कोई सार्वजनिक मंच ऐसा नहीं रहता था जहां से वे सुप्रीम कोर्ट को कोंचने से बाज आते हों। नतीजा यह था कि सार्वजनिक जीवन में, मीडिया और सोशल मीडिया पर केन्द्र सरकार लगातार सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ हमलावर दिख रही थी। किरेन रिजिजू का मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों से जुड़े हुए मामलों को समय पर निपटा नहीं रहा था, और यह भी हो सकता है कि उन्हें समय पर निपटाना पूरी केन्द्र सरकार का एक फैसला ही रहा हो, जो भी हो, मामलों से लदी हुई अदालतों की खाली कुर्सियों पर फैसले के बजाय कानून मंत्रालय बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था, और सुप्रीम कोर्ट से जुबान लड़ा रहा था। यह एक बहुत ही शर्मनाक नौबत चल रही थी, और जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा संवेदनशील जज ऐसे सरकारी रूख को लेकर आहत भी थे, और नाराज तो रहे ही होंगे। ऐसे में जब पहले बाम्बे हाईकोर्ट, और फिर सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की तरफ से उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और किरेन रिजिजू के बयानों को लेकर एक जनहित याचिका लगाई गई कि इनके बयान अदालतों के लिए अपमानजनक हैं, और संविधान के खिलाफ भी हैं, तो पहले बाम्बे हाईकोर्ट ने उसे खारिज किया, और फिर उसके खिलाफ अपील को सुप्रीम कोर्ट ने भी खारिज किया। अदालत ने दरियादिली दिखाते हुए यह कहा कि हाईकोर्ट का नजरिया ठीक है, अगर किसी जिम्मेदार पद पर बैठे हुए लोग कोई नाजायज बयान देते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट उसे सही नजरिये से देखने में सक्षम है। अदालत ने इस याचिका को खारिज करते हुए कोई कड़ी टिप्पणी भी नहीं की।
लोगों को याद होगा, और इस जगह पर हमने पहले कई बार लिखा भी है कि कानून मंत्री की हैसियत से किरेन रिजिजू एक निहायत ही गैरजरूरी और नाजायज टकराव खड़ा कर रहे थे। वे सुप्रीम कोर्ट को एक किस्म से उसकी औकात समझाने पर आमादा थे, जो भी औकात वे सुप्रीम कोर्ट की समझते थे। वे मौजूदा और रिटायर्ड जजों के खिलाफ अपनी बयानबाजी को दुहराते रहते थे, और कुछ रिटायर्ड जजों के बारे में उन्होंने कहा था कि वे एंटी इंडिया ग्रुप का हिस्सा बन गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम सिस्टम को लेकर भी उन्होंने अपमानजनक और हिकारत वाले बयान दिए थे, और जजों को नीचा दिखाने की उनकी नीयत बार-बार उनकी जुबान पर आती थी। यह बात सही है कि आज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और कई दूसरे जज केन्द्र सरकार को उतनी सहूलियत के नहीं लग रहे होंगे जितने कि बाकी जज पिछले बरसों में लगते आए हैं। लेकिन एक ईमानदार अदालत किसी भी देश-प्रदेश में सत्ता के गलत कामों के खिलाफ जब ईमानदार फैसले देगी, तो वह सत्ताविरोधी तो लगने लगेगी। जब सत्ता बेइंसाफ हो जाए, और अदालत महज संवैधानिक इंसाफ करे, तो भी वह टकराव की मुद्रा में देखी जा सकती है। अभी सुप्रीम कोर्ट के साथ केन्द्र सरकार के रिश्ते कुछ इसी तरह के चल रहे थे। अदालत और सरकार के रिश्ते मधुर भी नहीं रहने चाहिए, लेकिन उनमें मुकाबले की कड़वाहट नहीं रहनी चाहिए। संविधान में इन दोनों की बिल्कुल अलग-अलग भूमिकाएं तय हैं, और जब सरकार वक्त पर अपना काम न करने के लिए बदनाम हो, और वह सुप्रीम कोर्ट पर हमले करती रहे, तो उससे लोगों की नजर में सरकार खलनायक की तरह दिख रही थी। अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते हुए उनका कोई अदना सा मंत्री सुप्रीम कोर्ट से इतना बड़ा टकराव लेने का फैसला खुद करता हो। इसलिए हटाया चाहे किरेन रिजिजू को हो, यह नौबत सरकार पर भी झलकती है।
इसी किस्म की बड़बोली बातें उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ लगातार कर रहे थे, और वे बिना किसी औपचारिक भूमिका के हर मंच और माइक से अवांछित बातें बोल रहे थे, जो कि न सिर्फ अदालत को नीचा दिखा रही थीं, बल्कि हिन्दुस्तान के संविधान के सबसे बड़े अदालती फैसले पर भी सवाल उठा रही थीं। केशवानंद भारती नाम से चर्चित देश के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़ा अदालती फैसला देश के संविधान की अब तक की सबसे बड़ी व्याख्या माना जाता है, और धनखड़ लगातार उस फैसले के खिलाफ बोल रहे थे। मोदी सरकार चाहे जिस वजह से इस फेरबदल पर पहुंची हो, यह मानना ठीक होगा कि इससे देश की हवा में एक गंदगी घुलना बंद होगा, और उपराष्ट्रपति को भी शायद यह समझ आएगा कि नाजायज बातें करने का क्या नतीजा निकला है। जैसा कि कपिल सिब्बल ने कहा है किरेन रिजिजू अब विज्ञान के सिद्धांतों से टक्कर ले सकते हैं, और डार्विन के सिद्धांतों को स्कूली किताबों से खारिज करके केन्द्र सरकार ने उनके लिए एक संभावना खड़ी की हुई है। वे वहां जोर आजमाईश करें क्योंकि डार्विन की अदालत में केन्द्र सरकार के मुकदमे नहीं खड़े हैं।
झारखंड के पलामू जिले में बीस बरस की एक लडक़ी शादी करना नहीं चाहती थी, लेकिन मां-बाप मर चुके थे, और वह चचेरे भाई और भाभी के हवाले थी। वे उसकी शादी करवाना चाहते थे जिसके लिए लडक़ी मना कर चुकी थी। भाई ने रिश्ता तय करके बारात बुला ली, लेकिन लडक़ी घर छोडक़र चली गई। दो दिन बाद वह जब लौटी तो पंचायत जुटी और उसके खिलाफ तालिबानी फैसला सुनाया, भाई-भाभी ने ही उसके बाल काट दिए, चेहरे पर कालिख पोती, और जूते-चप्पल की माला पहनाकर उसे जंगल में छोड़ दिया। अगले दिन जब पुलिस को वह लडक़ी मिली, तो उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया, और उसका कहना है कि चचेरा भाई उसके माता-पिता की छोड़ी हुई संपत्ति को हड़पना चाहता है, इसलिए जबर्दस्ती उसकी शादी करवाना चाहता है।
अभी कुछ ही दिन पहले महाराष्ट्र की एक दूसरी खबर आई थी, और उस पर इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर एक रिपोर्ट भी बनाई गई थी कि बारह बरस की एक बच्ची मां-बाप खोने के बाद भाई-भाभी के पास रह गई थी, और उस बच्ची को पहली बार माहवारी आई तो उसके कपड़ों पर खून देखकर भाई को उस पर शक हुआ, भाभी ने भाई को और भडक़ाया, और भाई ने पीट-पीटकर उस बच्ची को मार डाला। इन दोनों ही मामलों में भाई की की हुई हिंसा में भाभी बराबरी की हिस्सेदार रही, और एक महिला से दूसरी महिला के लिए जिस हमदर्दी की उम्मीद की जा रही थी, वह कहीं नजर नहीं आई। ऐसे तमाम मामले देख लें तो उनमें हिंसा का हमला लड़कियों और महिलाओं पर ही होता है। जिस झारखंड की घटना से आज की यह बात शुरू की गई है उस झारखंड में महिलाओं को टोनही कहकर मारने की बड़ी पुरानी परंपरा है, और काला जादू करने के आरोप में मर्दों को शायद ही कहीं मारा जाता है, महिलाएं ही मारी जाती हैं।
महिलाओं पर हिंसा के मामले में हिन्दुस्तान बहुत आगे है। गर्भ में पलती लडक़ी की शिनाख्त भी अगर सोनोग्राफी से हो जाती है, तो उस लडक़ी को हिन्दुस्तान में अहिंसक तबके भी जिस आसानी से मार डालते हैं, वैसा तालिबानों के राज में भी कन्या भ्रूण के साथ नहीं होता। वहां पर लड़कियों और महिलाओं के पैदा होने के बाद उनके साथ तरह-तरह के हिंसक भेदभाव किए जाते हैं, लेकिन कन्या भ्रूण हत्या शायद भारत की ही बड़ी मौलिक हिंसा है जिसकी मिसाल कम ही जगहों पर होगी। जानकार लोगों का यह मानना है कि परिवार में लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव देखते हुए ही जो बच्चे बड़े होते हैं, और जो अपनी मां-बहनों के साथ परिवार के दूसरे लोगों की हिंसा देखते हुए उससे सीखते रहते हैं, वे बड़े होकर प्रेमिका, पत्नी, और बेटियों के साथ हिंसा करते हैं। लेकिन इससे भी अधिक खतरनाक बात यह होती है कि बचपन से ही अपने खिलाफ हिंसा झेलते हुए, और परिवार की दूसरी लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा देखते हुए बड़ी होने वाली लड़कियां खुद भी वक्त आने पर दूसरी लड़कियों और महिलाओं के साथ हिंसा करने लगती हैं। यह सांस्कृतिक सोच अपने तजुर्बों से बनती है, और पुख्ता होते चलती है।
समाज की ऐसी हिंसक सोच कानूनी कार्रवाई से कुछ कम की जा सकती है, लेकिन इसके लिए सामाजिक सुधार की भी बहुत जरूरत है। दिक्कत यह है कि समाज जिन लोगों को सुनता है, वे धर्मगुरू, और प्रवचनकर्ता, धर्म की अपनी बुनियादी सीख के चलते हुए महिलाओं के साथ भेदभाव बढ़ाते चलते हैं, कभी भी उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दे पाते, और उनके साथ होने वाली व्यापक हिंसा के खिलाफ मुंह नहीं खोलते। जिन समाजों में कन्या भ्रूण हत्या सबसे आम हैं, उन समाजों के प्रवचनों में भी उसके खिलाफ कुछ नहीं कहा जाता। नतीजा यह निकलता है कि इस किस्म की चुप्पी एक किस्म से ऐसी हिंसा को मौन सहमति दे देती है, और हिंसक मुजरिमों को लगता है कि वे समाज में किसी तरह का अपमान नहीं झेल रहे, धर्म उन्हें गलत करार नहीं दे रहा।
समाज में ऐसे मामलों पर निगरानी रखने के लिए दूसरे लोग असरदार हो तो सकते हैं, लेकिन वे भी परिवारों में फैसले लेने वाले मुखिया से ही संबंध निभाते हैं, और मुसीबत में फंसी लडक़ी या महिला का साथ देने समाज से भी कोई नहीं आते। अगर उस इलाके में काम कर रहे महिला अधिकार संगठन सक्रिय हैं, तो जरूर कभी-कभी किसी लडक़ी या महिला को मदद मिल जाती है, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। फिर यह भी है कि मुसीबत में पड़ी लडक़ी हिंसा के खिलाफ अगर पुलिस में जाए, तो उसके लिए नारी निकेतन जैसी जगह रहती है जहां उसके लिए कोई भविष्य नहीं रह जाता। न सिर्फ मुसीबत में फंसी और हिंसा झेल रही लड़कियां, बल्कि तमाम किस्म की लड़कियां और महिलाएं तरह-तरह के समझौते करके जिंदा रहती हैं, और यह जाहिर है कि ऐसे तनाव, ऐसी कुंठाओं में जीते हुए उनकी संभावनाएं एकदम खत्म हो जाती हैं। आज दुनिया में आर्थिक रूप से वही देश तरक्की करते हैं जहां महिलाओं का कामकाज में बड़ा हिस्सा है, जहां वे बराबरी से शामिल हैं। हिन्दुस्तान इस मामले में एकदम ही नीचे है, और यहां के कामगारों में 20 फीसदी से कम महिलाएं हैं, उनका घर के बाहर आर्थिक क्षेत्र में उत्पादक योगदान बहुत कम हो पाता है, और घर के भीतर के उनके योगदान को तो सामाजिक भाषा में उत्पादक गिना ही नहीं जाता है। देश में लड़कियों और महिलाओं पर हिंसा के जुर्म के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जरूरत है, लेकिन इसके लिए पुलिस में खुद महिलाओं की सोच महिलाओं के खिलाफ हिंसक रहती है, हिकारत की रहती है। ऐसी ही सोच पुलिस की तरफ से अदालत में खड़ी होने वाली महिला वकील की भी रहती है, और बहुत से मामलों में महिला जज की सोच भी महिलाविरोधी रहती है। इसलिए किसी तरह का सुधार आसान नहीं है। यह एक लंबी लड़ाई है, लेकिन लड़ाई लड़े बिना इस देश में सतीप्रथा बंद नहीं हुई थी, बालविवाह कम नहीं हुए थे, और विधवा विवाह शुरू नहीं हुए थे। इसलिए लगातार संघर्ष करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
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सुनील से सुनें : हार्दिक पांड्या को सौ खून माफ, बच्ची को माहवारी का खून भी नहीं!
बारह बरस की बिन मां-बाप की एक बच्ची की माहवारी आई तो कपड़ों पर खून देखकर भाई को कुछ और शक हुआ, और बहन को पीट-पीटकर मार डाला। लड़कियों के साथ भेदभाव से लदे हुए हिन्दुस्तानी समाज में लडक़ों और मर्दों की हिंसा बचपन से शुरू होती है, और पचपन के बाद भी चलती रहती है। इस तकलीफदेह खूनी हिंसा पर इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को न्यूजरूम से सुनें।
झारखंड के मुख्यमंत्री कल जब दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े से मिले, तो उसमें कोई अटपटी बात नहीं थी क्योंकि झारखंड की सरकार में कांग्रेस एक भागीदार भी है, और कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस एक मजबूत मोदी विरोधी ताकत बनकर उभरी है, इसलिए एनडीए विरोधी पार्टियों का कांग्रेस के आसपास आना अब स्वाभाविक ही है। लेकिन इसके साथ-साथ 2024 के आम चुनाव को देखते हुए यह भी देखना होगा कि आने वाले महीनों में देश का माहौल क्या रहता है? छह महीने बाद जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें कांग्रेस एक बार फिर एक ताकतवर पार्टी बनकर उभरने की संभावना रखती है। उसकी तेलंगाना और मिजोरम में तो संभावना नहीं है, लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ में उसकी अच्छी संभावना हो सकती है, जहां तक बाद में आम चुनाव में लोकसभा में भी काफी सीटें रहेंगी। यह एक अलग बात है कि इन तीनों ही राज्यों में उसे दूसरी पार्टियों से किसी तालमेल की जरूरत नहीं है, और कांग्रेस अपने दम पर वहां सत्ता में आने की संभावना रखती है। इसलिए 2024 की विपक्षी तस्वीर को छह महीने बाद के इन चुनावों के बाद देखने की जरूरत है जब कांग्रेस और ताकतवर दिख सकती है। आज मोदी और एनडीए विरोधी गठबंधन में कांग्रेस के अलावा ऐसी कोई राष्ट्रीय पार्टी नहीं है, जिसकी कि पूरे देश में मौजूदगी हो। विपक्षी गठबंधन के नेता और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की हसरत कई दूसरे नेताओं में हो सकती है, और अब तक नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी, केसीआर जैसे कुछ लोग खुलकर सामने आ भी चुके हैं, लेकिन जरा सी मजबूत हो जाने के बाद कांग्रेस अब एक स्वाभाविक पसंद हो सकती है। कल की ही एक खबर है कि कर्नाटक के नतीजों के बाद ममता बैनर्जी का रूख कांगे्रस के प्रति कुछ बदला हुआ दिख रहा है, अभी तक वे कांग्रेस से खासा परहेज कर रही थीं, लेकिन कर्नाटक के बाद अब वे तालमेल की बात कर रही हैं।
यह बात समझने की जरूरत है कि मोदी के खिलाफ विपक्ष जब तक बंटा रहेगा, तब तक मोदी राज करते रहेंगे। दूसरी तरफ अगर विपक्षी पार्टियों में एक जायज तालमेल के साथ अगर एकता कायम हो सकती है, हर कोई अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा थोड़ी-थोड़ी छोडक़र, थोड़ी-थोड़ी नरमी बरतकर साथ आने को तैयार हों, तो 2024 मोदी के लिए खासा मुश्किल भी हो सकता है। विपक्ष की राह बहुत आसान इसलिए भी नहीं है कि क्षेत्रीय स्तर पर भी परस्पर विरोधी क्षेत्रीय पार्टियों के हित आपस में बहुत बुरी तरह टकराते हैं, और विपक्ष का कोई भी गठबंधन इन सबको साथ में नहीं ला सकता। मिसाल के तौर पर बंगाल में ममता और वामपंथी किसी तालमेल में नहीं आ सकते, यूपी में सपा और बसपा में खासी कड़वाहट है, और इन दोनों को ही कांग्रेस से बड़ा परहेज है। ऐसा हाल जगह-जगह है, पंजाब और दिल्ली में आप भी है, भाजपा और कांग्रेस भी हैं, और अकाली भी हैं, जिनकी कि बसपा के साथ अभी-अभी दोस्ती हुई है। अब इनमें से मोदी विरोधी गठबंधन में कौन रह सकते हैं यह साफ नहीं है, लेकिन सारे के सारे लोग तो रह नहीं सकते। लोगों को लोकसभा के आम चुनाव में मोदी का विरोध तो करना है, लेकिन अपने प्रदेश में अपने अस्तित्व को भी बचाकर रखना है। अब अगर घोड़ा घास से दोस्ती करेगा, तो खाएगा क्या? इसी हिसाब से हर प्रदेश की स्थानीय राजनीति वहां की क्षेत्रीय पार्टियों की राष्ट्रीय जिम्मेदारी पर बहुत बुरी तरह हावी रहेंगी। यह भी एक वजह है कि राष्ट्रीय स्तर का गठबंधन चाहे वह एनडीए हो, चाहे वह यूपीए का कोई नया संस्करण हो, उसे किसी राष्ट्रीय पार्टी की लीडरशिप में होना चाहिए। अब आज कांग्रेस के अलावा बाकी सारे नेता जो राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के दिख रहे हैं, वे क्षेत्रीय पार्टियों के हैं।
कांग्रेस के साथ एक खतरा यह दिख रहा है कि कर्नाटक की जीत उसके कुछ नेताओं के दिमाग पर चढ़ सकती है, और वे किसी संभावित राष्ट्रीय गठबंधन को लेकर बेदिमाग और बददिमाग बातें कर सकते हैं। आज का वक्त सबसे बड़ी पार्टी के दिल सबसे बड़े रखने का है। कांग्रेस को सबसे समझदारी से बात करना चाहिए, बल्कि जरूरत हो तो पार्टी को अपने नेताओं में से कुछ को छांटकर अधिकृत करना चाहिए कि वे लीडरशिप से चर्चा करके ही विपक्षी एकता की संभावनाओं के बारे में कुछ बोलें। गैरजरूरी जुबान जमाखर्च से बनती हुई बात भी बिगड़ जाती है, और कांग्रेस ऐसी चूक पहले भी कई बार करते आई है। आज सबसे अधिक संभावनाएं कांग्रेस की लीडरशिप की है, और उसे ही सबसे बड़ा दिल दिखाना चाहिए, सबसे कम बोलना चाहिए।
अमरीका में टीवी और फिल्म लेखकों की हड़ताल को आज दस दिन पूरे हो गए हैं, और वे बेहतर भुगतान के लिए एक एसोसिएशन के बैनरतले हड़ताल पर हैं। अमरीकी स्टूडियो 15 बरस के बाद लेखकों की ऐसी हड़ताल देख रहे हैं। लेखकों का यह भी कहना है कि सिनेमाघरों और टीवी चैनलों से परे ओटीटी प्लेटफॉम्र्स पर उनके काम का इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन उन्हें उसका कोई भुगतान नहीं मिल रहा है। फिल्मों और टीवी की जो ग्लैमरस दिखती है, वह बहुत से लेखकों को जिंदा रहने जितना भी मेहनताना नहीं देती। साढ़े 11 हजार लेखकों की राइटर्स गिल्ड ऑफ अमरीका ने 15 बरस बाद ऐसी हड़ताल की है, और बहुत से मशहूर टीवी कार्यक्रमों के नए एपिसोड की जगह उनके कोई पुराने एपिसोड दिखाना शुरू हो गया है। लेकिन इसमें बाकी तमाम बातों के साथ-साथ लेखकों के अस्तित्व पर एक बड़ा खतरा ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित लिखने वाली वेबसाइटें हैं जो कि लिखने के काम को हल्का कर रही हैं। हड़ताल कर रहे लेखक यह नारे भी लगा रहे हैं कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उनकी जगह नहीं ले सकता।
हॉलीवुड के लेखकों की हड़ताल से हमारा सीधा कुछ लेना-देना नहीं है क्योंकि हिन्दुस्तान में भी बहुत से तबके हड़ताल की नौबत पर चल रहे हैं, लेकिन हड़ताल इसलिए नहीं कर रहे कि मौजूदा मजदूर कानूनों और सरकारी रवैये के चलते उन्हें कोई कामयाबी मिलनी नहीं है। हड़ताल की नौबत वहीं मजदूरों के काम आ सकती है जहां कानून तक उनकी पहुंच हो, और जहां कानून अंधा न हो। लेकिन अमरीका की इस हड़ताल से ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का खतरा दुनिया में पहली बार हड़ताल तक पहुंचा है, और आने वाला वक्त इसी किस्म की हड़तालों से भरा हुआ दिख रहा है। टेक्नालॉजी लोगों की जगह लेने जा रही है, कम से कम बहुत से मौजूदा रोजगार खाने जा रही है, और लोगों को दूसरे कोई ऐसे रोजगार देखने पड़ेंगे जिन्हें ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस न कर सके। अब फिल्म और टीवी लेखकों की तरह के ही काम मीडिया के हैं, अखबारों, टीवी, और वेबसाइटों पर लिखने का बहुत सारा काम रहता है, और चैटजीपीटी जैसी ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस वेबसाइट ने यह साबित कर दिया है कि मामूली गलतियों के साथ वह बहुत सारा कामचलाऊ लेखन कर सकती है जिससे कि कॉलेज और यूनिवर्सिटी के इम्तिहान भी पास किए जा सकते हैं। अब मीडिया में लिखने का काम अगर चैटजीपीटी और उसी किस्म का गूगल का बार्ड नाम का ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस साफ्टवेयर करने लगेंगे, तो जाहिर है कि काम कम्प्यूटरों से होने लगेगा, रोजगार घटने लगेंगे। एक सीधा खतरा ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के साथ मौजूदा संचार टेक्नालॉजी और टीवी स्क्रीन मिलाकर दिख रहा है कि अब बहुत से स्कूल पढ़ाई-लिखाई के कोर्स ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से गिने-चुने टीचर्स से वीडियो-कैमरों पर करवाकर बाकी स्कूलों को भी बेच सकेंगे, और क्लासरूम में एक बड़ी सी स्क्रीन टीचर की जगह ले सकती है। शुरू में टेक्नालॉजी कुछ महंगी पड़ सकती है, लेकिन आगे जाकर वह टीचरों की तनख्वाह से सस्ती पडऩे लगेगी, और चुनिंदा सबसे अच्छे टीचर्स के वीडियो लेक्चर पूरे देश में बिक सकते हैं, और टीचर्स को घटा सकते हैं।
यह पूरा सिलसिला इतनी तेजी से बढ़ सकता है कि लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि कब वे नौकरी खो बैठे। चैटजीपीटी के मुकाबले गूगल का बार्ड बहुत से और फीचर्स लेकर आया है, और लोग इन पर बोल-बोलकर तस्वीरें भी बना सकते हैं, और भी कई किस्म के काम कर सकते हैं, और यह तो सिर्फ शुरुआत है। अभी दो दिन पहले हिन्दुस्तान के एक अखबार ने यह रिपोर्ट छापी है कि उसने गूगल के बार्ड से उसका यह अंदाज निकलवाया कि हिन्दुस्तान की किसी एक खास कंपनी के शेयर के दाम कितने होने चाहिए, और उसने आंकड़ों में अपना अंदाज बतला दिया। अब तक चैटजीपीटी इससे परहेज करता है, लेकिन गूगल को चूंकि उससे आगे निकलना था, शायद इसलिए उसने यह परहेज छोड़ दिया, और वित्तीय भविष्यवाणी भी करने लगा।
दुनिया में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आगे रिसर्च रोकने की मांग उठ रही है, और यह इसलिए उठ रही है कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जाने किस पल इंसानी अक्ल से आगे निकल जाएगी, शायद निकल चुकी है, और उस पर किसी नैतिकता का बोझ नहीं है, परंपराओं और सामाजिक मूल्यों का बोझ नहीं है। ऐसे किसी भी बोझ से मुक्त ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस दुनिया के लिए तबाही का सामान पल भर में बना सकता है, क्योंकि वह किसी अपराधबोध, प्रायश्चित, और झिझक से पूरी तरह मुक्त भी है। चूंकि दुनिया को आपसी सहमति से ऐसा कोई कानून बनाते बरसों लग जाएंगे कि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को आगे बढ़ाने का रिसर्च रोका जाए। तब तक दुनिया की कंपनियां इतनी रफ्तार से एक-दूसरे के मुकाबले इसे बढ़ाते चलेंगी कि बरसों बाद अगर ऐसे कानून बनते भी हैं तो वे किसी काम के नहीं रह जाएंगे, विज्ञान का इतिहास मुगल शासन काल की तरह मिटाया नहीं जा सकता।
लोगों को आज के अपने कामकाज, आज के अपने रोजगार के बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए क्योंकि इन सबका भविष्य कैसा रहेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। एक तरफ ड्रोन सरीखी टेक्नालॉजी, और दूसरी तरफ ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसी तकनीक, इन दोनों का मेल दुनिया के लिए जानलेवा साबित हो सकता है, कामगारों के लिए बेरोजगारी ला सकता है, और दुनिया के लोगों के पास महज इसे देखते रहने के सिवाय और कुछ नहीं है क्योंकि सरकारें रफ्तार से इस सुनामी को रोक नहीं सकतीं। हम तो इसकी सिर्फ चर्चा कर रहे हैं क्योंकि लोगों को ऐसे किसी खतरे की तरफ से सावधान रहना चाहिए, तैयार रहना चाहिए।
कर्नाटक के विधानसभा चुनाव के साथ-साथ कुछ और राज्यों में उपचुनाव भी हुए हैं। चुनाव आयोग इसी तरह करता है कि उपचुनावों को किसी दूसरे बड़े चुनाव के साथ जोड़ देता है। ऐसे में पंजाब के जलंधर में लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो वहां आम आदमी पार्टी के सुशील रिंकू ने कांग्रेस की करमजीत कौर चौधरी को 58 हजार से अधिक वोटों से हराया। राज्य में आम आदमी पार्टी की ही सरकार है, और उपचुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी की ताकत कुछ तो काम आती है। लेकिन इसमें देखने की बात यही है कि आप प्रत्याशी सुशील रिंकू चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस छोडक़र आप में आए थे। यह कोई अकेला और अनोखा मामला नहीं है, दलबदल कर आने वाले लोगों को आनन-फानन टिकट देने में किसी पार्टी को परहेज नहीं रहता है, और कुछ पार्टियां तो बाहर से आने वाले लोगों को मंत्री और मुख्यमंत्री भी बना देती हैं।
लेकिन लोकतंत्र के हिसाब से अगर देखें तो क्या चुनाव सुधारों में यह बात शामिल नहीं होनी चाहिए कि दलबदलुओं को रातों-रात दूसरी पार्टी का उम्मीदवार बनने का हक न रहे? एक वक्त कई किस्म के लोगों को चुनाव लडऩे का हक था, फिर चुनाव सुधारों से नए नियम बने, और कई किस्म के जुर्म वाले नेताओं को चुनाव लडऩे का हक नहीं रहा। इसलिए लोकतंत्र में सुधार तो लगातार चलते रहने चाहिए, और दलबदल करके संसद और विधानसभाओं में पहुंचना जो लोग जारी रखते हैं, उस पर रोक लगनी चाहिए। हमने पहले भी इस बारे में लिखा है कि जब लोग कोई पार्टी छोड़ते हैं, तो नई पार्टी से कुछ बरस के लिए उनके लोकसभा या विधानसभा के चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। जिस तरह सरकारी अफसर रिटायर होने के बाद कुछ बरस कोई निजी नौकरी नहीं कर सकते, जज रिटायर होने के बाद कुछ वक्त के लिए वकालत नहीं कर सकते, उसी तरह की रोक दलबदल वालों पर भी लगनी चाहिए। रातों-रात पार्टी बदल दें, और उसी विधानसभा में या अगली विधानसभा में नए पार्टी निशान पर पहुंच जाएं, यह सिलसिला ठीक नहीं है, यह लोकतंत्र में ईमानदारी की बात नहीं है। चूंकि नेता और पार्टी को इस सिलसिले से कोई परहेज नहीं है, इसलिए देश में कानून ही ऐसा बनाना चाहिए कि लोग दलबदल के बाद सत्ता पर काबिज रहने की मौकापरस्ती न दिखा सकें। साफ-साफ शब्दों में कहें तो लोगों के पार्टी छोडऩे के बाद कुछ बरस के लिए नए निशान पर उनके चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। वे नई पार्टी में भी उसके तौर-तरीकों को सीखें, उसकी कुछ सेवा करें, तब जाकर उसके हिस्से का मेवा खाएं।
चुनाव सुधारों में कई और बातों को जोडऩा ठीक है। अब ऐसे सुधार महज आयोग के दायरे के नहीं हैं, इनके लिए संसद और सुप्रीम कोर्ट की भी जरूरत पड़ सकती है। देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सियों पर लोगों के कार्यकाल तय होने चाहिए। अमरीकी राष्ट्रपति चार बरसों के दो कार्यकाल के बाद भरी जवानी में बाकी पूरी जिंदगी बिना किसी सरकारी ओहदे के रहते हैं, और वे इन आठ बरसों में अपना सबसे अच्छा काम करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि इसके बाद उनके पास कुछ कर दिखाने का मौका नहीं रहेगा। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान जैसे देश में लोग मरने तक 15-20 बरस भी पीएम-सीएम बने रहते हैं, वे अपना सबसे अच्छा काम कर चुके रहते हैं, उनके पास कोई कल्पनाशीलता बाकी नहीं रहती, कोई उत्साह नहीं रहता, और आखिरी के बरसों में कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं रहती। ऐसा सिलसिला देश के लिए ठीक नहीं है। लोगों के कार्यकाल सीमित रहने चाहिए ताकि उन्हें अपने सरकारी भविष्य की आखिरी तारीख मालूम रहे। इसी तरह चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के पदों पर रहने वाले लोगों का कार्यकाल भी तय रहना चाहिए कि लोग पूरी जिंदगी एक पार्टी के मुखिया न बने रहें। आज हिन्दुस्तान में हर क्षेत्रीय राजनीतिक दल किसी एक सुप्रीमो के तहत उसके मरने तक मातहत काम करते रहते हैं, और अधिकतर मामलों में उनके बाद उनकी आल-औलाद संगठन संभालने को तैयार रहती हैं। ऐसी कुनबापरस्ती और तमाम जिंदगी के कार्यकाल के खिलाफ भी कुछ करने की जरूरत है, अब पता नहीं इसके लिए संसद, अदालत, या चुनाव आयोग कुछ कर सकते हैं, या नहीं।
भारतीय लोकतंत्र में कुछ बातों का इलाज बिल्कुल नहीं है। देश की संसद और विधानसभाएं लगातार पैसे वालों से भरती चल रही हैं, और वहां पर गरीब इसलिए भी नहीं पहुंच पाते कि अब पार्टियां भी गरीब को टिकट देने से कतराती हैं कि उनका चुनाव जीतना मुश्किल रहेगा। नतीजा यह होता है कि जो लोग सांसद या विधायक बन रहे हैं, उन्हें गरीबों के मामलों की समझ बहुत कम है, और गरीबों के मुद्दे सदन में उठ ही नहीं पाते। इस सिलसिले को कैसे सुधारा जाए यह राजनीतिक ताकतें तो कभी नहीं करेंगी, क्योंकि वहां पर तो करोड़पतियों और अरबपतियों का कब्जा हो गया है, वे भला अपने हितों के खिलाफ कुछ क्यों करेंगे, लेकिन किसी न किसी को इस बारे में सोचना चाहिए। एक क्रांतिकारी सोच तो यह भी हो सकती है कि संसद या विधानसभा का चुनाव लडऩे वालों पर एक सीमा से अधिक दौलत देश के लिए देने का नियम बना दिया जाए, फिर देखें कि कितने लोगों के मन में देश सेवा का जज्बा बचता है।
एक आखिर बात इस सिलसिले में महिला आरक्षण की है। संसद में महिला आरक्षण विधेयक कई बार पहुंचा और कई बार दम तोड़ चुका है। अब सार्वजनिक दबाव राजनीतिक दलों पर पडऩा चाहिए, हर सांसद को, हर विधायक को सार्वजनिक रूप से घेरना चाहिए, और अभी से एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि अगर महिला आरक्षण लागू नहीं होता है, तो देश की महिलाएं, और तमाम महिला समर्थक आदमी भी, मौजूदा सांसदों को पूरी तरह खारिज कर देंगे, और उनके खिलाफ वोट देंगे। ऐसा एक आंदोलन पूरी तरह लोकतांत्रिक हो सकता है, और इसे छेडऩा चाहिए। यह अपने आपमें एक लंबी चर्चा का मुद्दा हो सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी चुनाव कैसे बेहतर बनाए जा सकते हैं, उस चर्चा में बाकी मुद्दों के साथ-साथ इस पर इतनी ही चर्चा हो सकती है। लोगों को चाहिए कि यहां उठाए गए हर मुद्दों पर आसपास के लोगों के साथ विचार-विमर्श करें, और सोचें कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है।
कर्नाटक के चुनावी नतीजे एक्जिट पोल वाले ही रूख के रहे। अधिकतर एक्जिट पोल कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी बता रहे थे, और वैसा ही हुआ। इसकी उम्मीद इसलिए भी की जा रही थी कि यह राज्य हर पांच बरस में सत्तारूढ़ पार्टी को तवे पर पराठे की तरह पलट देता है। लेकिन इसके साथ-साथ कुछ दूसरे मुद्दे भी थे जो छोटे नहीं थे। राज्य में भाजपा की सरकार बड़ी भयानक भ्रष्ट कही जा रही थी। लोगों का कहना था कि ठेकेदारों से 40 फीसदी कमीशन लिया जाता है। कुछ दूसरे मुद्दे भी थे जिनमें से एक यह था कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को भाजपा ने कार्यकाल के बीच बिना किसी वजह हटाया था, और एक नया मुख्यमंत्री तैनात किया था, जैसा कि उसने गुजरात में भी किया था। लेकिन गुजरात में हटाए जाने वाले मुख्यमंत्री येदियुरप्पा जैसी ताकत वाले नहीं थे, और कर्नाटक में तो लिंगायत स्वामियों ने येदियुरप्पा के पक्ष में प्रदर्शन भी किया था। इस समुदाय में राज्य की 16 फीसदी आबादी है, और यह 224 सीटों में से सौ सीटों पर प्रभामंडल रखता है। तो इस बार भाजपा की हार के पीछे येदियुरप्पा को हटाने से नाखुश उनका समुदाय भी हो सकता है।
लेकिन भाजपा ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं रखी थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बाकी पूरे देश को छोडक़र कर्नाटक चुनाव पर ही ध्यान लगाकर बैठे थे, और किसी राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री का इतना लंबा-चौड़ा चुनाव प्रचार कम ही देखने में आता है। भाजपा ने अपने पसंदीदा मुद्दों को चुनाव से पहले से शुरू कर दिया था, और मुस्लिमों को मिलने वाले 4 फीसदी ओबीसी आरक्षण को खत्म कर दिया था। इसे राज्य की ताकतवर हिन्दू जातियों में बांटने की बात कही गई थी। राज्य में उन्होंने 19 अलग-अलग बड़ी आमसभाओं में आक्रामक भाषण दिए थे। कांग्रेस के खिलाफ उनके हमले सच से कुछ दूर-दूर भी चलते रहे, लेकिन चुनाव आयोग से उस पर गौर करने की उम्मीद नहीं की जा सकती थी। उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में पीएफआई और बजरंग दल जैसे मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबंध की बात की बांह मरोडक़र उसे बजरंग बली को ताले में बंद करने की बात में बदल दिया। यह उस प्रदेश में खासी गंभीर बात थी जो कि बजरंग बली को अपने प्रदेश का बेटा मानता है, कर्नाटक को उनकी जन्मस्थली मानता है। ऐसी और भी बहुत सी तिकड़में हुईं, लेकिन कोई काम नहीं आईं। लोगों ने राज्य की परंपरा के मुताबिक पांच बरस में सत्ता पलट दी, भ्रष्टाचार से खफा होकर सत्ता पलट दी, येदियुरप्पा के समुदाय ने नाराजगी में वोट नहीं दिया या भाजपा के खिलाफ वोट दिया, ऐसी दर्जन भर वजहें हो सकती हैं, और चुनाव में इनके योगदान को अलग-अलग काटकर देख पाना मुमकिन नहीं होता। इनमें से कम से कम भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है जो कि देश के तमाम प्रदेशों पर लागू होता है कि अगर सरकार की साख खराब हो, तो सत्तारूढ़ पार्टी को उसका भुगतान करना पड़ सकता है।
कांग्रेस पार्टी के लिए यह जीत एक बहुत बड़ी राहत की बात इसलिए है कि यह हिमाचल में चुनाव जीतने के तुरंत बाद सामने आई है। लगातार देश भर में प्रदेश खोने के बाद अब कांग्रेस ने लगातार दो राज्य पाए हैं, और यह छोटी बात नहीं है। सोनिया, राहुल, और प्रियंका, इन तीनों ने चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया था। दूसरी तरफ देश और प्रदेश में अपनी सत्ता रहने के बाद भी भाजपा जिस तरह यह चुनाव हारी है उससे उसकी यह प्रतिमा भी टूटी है कि वह अजीत है, जिससे जीता नहीं जा सकता। कर्नाटक के दूसरे मुद्दों का भी देश भर में बाकी चुनावों पर असर पड़ेगा, लेकिन छह महीने बाद पांच राज्यों के चुनाव में तो इसका असर पड़ेगा ही क्योंकि इनमें से तीन बड़े राज्य, मध्यप्रदेश, राजस्थान, और छत्तीसगढ़ कांग्रेस की संभावनाओं वाले राज्य हैं, और इनसे वहां एक माहौल बनेगा। कांग्रेस के राज्यों में संगठन के भीतर लीडरशिप को लेकर जो संघर्ष चलता है, वह कर्नाटक में भी था, लेकिन उसका असर इस जीत पर नहीं पड़ा है, गुटबाजी में कुछ वोट और सीट का नुकसान हुआ हो तो अलग बात है।
अभी इस पल, दोपहर 2.15 पर, चुनावी रूझान 138 सीटों पर कांग्रेस की लीड बता रहा है जो कि 58 सीटों का नफा है। भाजपा की 64 सीटों पर बढ़त दिख रही है जो कि पिछली बार से 40 सीटें कम हैं। भूतपूर्व प्रधानमंत्री एच.डी.देवेगौड़ा की पार्टी जेडीएस 19 सीटों पर आगे है जो कि पिछले बार से 18 सीटों का नुकसान है। जहां तक वोटों की बात है तो भाजपा अपने वोट शेयर बनाए रखने में कामयाब रही है, कांग्रेस का वोट शेयर छह फीसदी बढ़ा है, और जेडीएस का वोट शेयर पांच फीसदी घटा है, ये आंकड़े थोड़े-बहुत आगे-पीछे होते चलेंगे, लेकिन ऐसा आसार है यह रूझान अब ऐसा नहीं बदल सकता कि कांग्रेस की सरकार न बने। आज वोटों की गिनती शुरू होने के पहले ही दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में ढोल बजने शुरू हो गए थे जिनमें बाद में भांगड़ा भी जुड़ गया, हालांकि उस वक्त तक रूझान जरा भी साफ नहीं थे, लेकिन पार्टी एक्जिट पोल से ही एक उत्साह से भरी हुई थी, और देश में एक मजबूत विपक्ष होने के नाते, आज कांग्रेस का थोड़ा सा मजबूत हो जाना एक अच्छी बात ही है, खतरा सिर्फ यही है कि इससे छह महीने बाद के पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस कहीं बददिमाग न हो जाए। यह चुनाव हो सकता है कि कांग्रेस को जिताने वाला चुनाव न रहा हो, और यह भ्रष्ट सरकार को हराने का चुनाव रहा हो।
फिलहाल यह मौका कांग्रेस के खुशी मनाने का है, और भाजपा के लिए यह सोचने का है कि बजरंग दल से बजरंग बली की तुलना क्या धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली हो गई, या बजरंग बली उससे नाखुश हो गए?
रांची का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक बच्चा अपनी मां के इलाज के लिए किडनी बेचना चाहता है। पिता गुजर चुके हैं, घर पर मां-बहन हैं, मां का पैर टूटा, इलाज में बड़ा खर्च होना है, तो वह झारखंड की इस राजधानी में एक निजी अस्पताल में किडनी बेचने पहुंचा। वहां लोग हड़बड़ा गए, और वहां के कर्मचारी ने सरकारी मेडिकल कॉलेज रिम्स के एक डॉक्टर को यह वाकिया बताया। उन्होंने उस लडक़े को बुलाकर समझाया, और उसकी मां को इलाज के लिए लाने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री और पुलिस प्रशासन को टैग करते हुए इस लडक़े का वीडियो पोस्ट किया ताकि उसकी बेबसी का कोई फायदा न उठा ले। अब इस तरह की खबरें कई बार कुछ दिन बाद जाकर गलत भी साबित होती हैं, इसलिए हम आज यहां जो लिख रहे हैं वह इस समझ पर टिकी हुई बात है कि यह मामला सही है। अगर यह खबर झूठी साबित होगी, तो बिना इस मिसाल के भी हमारे तर्क और हमारी सोच तो अपनी जगह बने ही रहेंगे।
यह लडक़ा किसी होटल में मजदूरी करता है, और खबरों के मुताबिक यह बात मदर्स डे पर सामने आई है। अधिकतर अखबारों में यह खबर डॉ. विकास कुमार नाम के न्यूरोसर्जन की एक ट्वीट से बनी है, और यह ट्विटर अकाउंट सही लग रहा है। अब सवाल यह उठता है कि सरकार की बहुत सी योजनाओं के रहते हुए यह नौबत क्यों आ रही है? केन्द्र सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारों की कई तरह की इलाज-बीमा योजनाएं हैं, बड़े-बड़े सरकारी अस्पताल हैं। उनके रहते हुए अगर किसी को कोई दुर्लभ बीमारी हो, जिसके इंजेक्शन ही करोड़ों के हों, तो उनकी खबर बनना तो समझ पड़ता है, लेकिन टूटे पैर के ऑपरेशन जैसी मामूली और साधारण तकलीफ का इलाज भी अगर नहीं हो पा रहा है तो यह सरकारों के लिए फिक्र की बात होनी चाहिए। जिस परिवार का नाबालिग लडक़ा किडनी बेचने को मजबूर हो रहा हो, वहां ऐसे तनाव और ऐसी निराशा में कोई खुदकुशी भी हो सकती है। इस सिलसिले को सुधारने की जरूरत है।
हम केन्द्र और राज्य की अलग-अलग योजनाओं की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की तस्वीरों वाले इलाज और इलाज बीमा के इश्तहार तो जगह-जगह दिखते हैं। या तो लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नहीं जमता, या कम पढ़े-लिखे और गरीब, कमजोर लोगों को सरकारी योजनाओं तक पहुंचना मुश्किल रहता है, इसे एक नमूना मानकर सरकारों को अपनी योजनाओं का मूल्यांकन करना चाहिए। वैसे भी हमारा तजुर्बा यह रहा है कि प्रदेशों की राजधानियों में सबसे बड़े सरकारी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भी स्ट्रेचर और व्हीलचेयर जैसी मामूली चीजें भी आसानी से हासिल नहीं हो पाती हैं, दवा, जांच, और ऑपरेशन तो आगे की बात है। इन अस्पतालों में इस कदर भीड़ रहती है कि कम पढ़े-लिखे, गांव से आए हुए गरीब लोग तो उस भीड़ में खो से जाते हैं। और जब किसी तरह शहर तक पहुंचने का इंतजाम करके ग्रामीण गरीब वहां पहुंचते हैं तो उन्हें महंगी जांच के लिए महीनों बाद की तारीख मिलती है, फिर ऑपरेशन की बारी की एक और लंबी कतार रहती है। थक-हारकर बहुत से लोग घरबार बेचकर भी निजी अस्पतालों में जाने को बेबस रहते हैं। सरकार का ढांचा इस हद तक नाकाफी रहता है कि मरीज सामने बैठे रहते हैं, और डॉक्टरों का वक्त खत्म हो जाता है, वे उठकर चले जाते हैं, अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस के लिए।
ऐसा लगता है कि देश में इलाज की जरूरत और इलाज के ढांचे के बीच कोई तालमेल नहीं है। जहां सरकार हर गरीब के इलाज का दावा करती है, वहां भी सरकारी स्वास्थ्य सेवा की क्षमता बिल्कुल आधी-अधूरी रहती है। और यह सिलसिला दशकों से चले आ रहा है, शायद आजादी के वक्त से भी। शुरू में तो निजी मेडिकल कॉलेज अधिक नहीं रहे होंगे, लेकिन अब तो हर किस्म के कारोबारियों के लिए मेडिकल कॉलेज का कारोबार खुला हुआ है, और उसके बाद भी न मेडिकल कॉलेजों में सीट हैं, न वहां पढ़ाने वाले हैं, और न वहां से निकलकर इलाज करने के लिए सरकारी अस्पतालों का पर्याप्त ढांचा ही है। इस जगह पर और अधिक खुलासे से लिखना मुश्किल है लेकिन यह बात तय है कि सरकारी योजनाओं में दस-बीस बरस बाद की नौबत सोचकर कुछ किया गया हो, ऐसा लगता नहीं है।
हिन्दुस्तान से यूक्रेन जैसे देशों में जाकर मेडिकल की पढ़ाई करके लोग लौटते हैं, और उसके बाद यहां के इम्तिहान पास करके वे यहां इलाज करने का हक पाते हैं। अब सहज बुद्धि तो यह कहती है कि अगर यूक्रेन जैसे देश ऐसी पढ़ाई करवाकर लोगों से कमाई कर सकते हैं, तो यह काम इस देश के भीतर क्यों नहीं किया जा सकता? डॉक्टरों की डिमांड और सप्लाई का फर्क इस देश में इतना बड़ा है कि सरकारी तनख्वाह बहुत से डॉक्टरों को आकर्षित नहीं कर पाती, क्योंकि अब बढ़ते चल रहे महंगे निजी अस्पतालों में उन्हीं डॉक्टरों को खासी अधिक तनख्वाह मिलने लगती है, और वहां अधिक जांच, अधिक इलाज पर अधिक कमीशन भी मिलता है। ऐसी बाजार व्यवस्था में सरकारी ढांचे में हमेशा ही कमी बनी रहेगी क्योंकि सरकार में किसी को दूसरे विभागों से बहुत अधिक तनख्वाह देना किसी नौकरशाह को नहीं सुहाता है।
रांची के जिस बच्चे की मां के इलाज को लेकर यह सब लिखना हुआ है, उसका इलाज तो इतना महंगा और जटिल भी नहीं था कि ऐसी नौबत आई होती। लेकिन सरकारों को सोचना चाहिए कि गरीबों को किस तरह जिंदा रहने की बेहतर सहूलियतें दी जा सकती हैं। निजी अस्पताल बड़े-बड़े बन जरूर रहे हैं, लेकिन वे कभी भी गरीबों के लिए नहीं रहेंगे, और अगर गरीब वहां जाने को मजबूर भी होंगे, तो उनकी पूरी दुनिया बिकने के बाद ही ऐसा हो पाएगा।
लोगों के मन में अपने परिवार के लिए एक असाधारण जगह रहती है। लोग दूसरों के साथ बेइंसाफी करके भी अपने परिवार के फायदे के काम करने के लिए एक पैर पर खड़े रहते हैं। कहावत और मुहावरे देखें तो अपने खून को लेकर कितने ही किस्म की बातें लिखी गई हैं, और हिन्दी फिल्में देखें तो एक वक्त रगों के खून को लेकर कैसे-कैसे डायलॉग नहीं लिखे जाते थे। लेकिन खबरों को देखें तो समझ पड़ता है कि अपने लहू की तमाम बातें हमेशा ही सच नहीं होतीं। हो सकता है कि अधिकतर मामलों में सही होती हों, लेकिन बहुत से मामलों में वे गलत भी साबित होती हैं। हिन्दुस्तान में ही जाने कितने ही मामले परिवार के भीतर की तरह-तरह की हिंसा और ज्यादती के सामने आते हैं। अब एक खबर इंग्लैंड से आई है कि 54 बरस की एक महिला सारा, जब छोटी थीं तो पिता और भाई ने उनके साथ बार-बार रेप किया, और बड़े होने के बाद उन्हें इस बारे में ज्यादा कुछ याद नहीं रहा। लेकिन अभी दो बरस पहले जब सारा ने अपने मेडिकल रिकॉर्ड देखे, तो उसमें यह था कि साढ़े तीन साल की उम्र में उन्हें अस्पताल ले जाया गया था, और उनके शरीर को भीतर से बड़ा नुकसान पहुंचा था, बचाने के लिए सर्जरी करनी पड़ी थी, और सब कुछ हॉस्पिटल के रिकॉर्ड पर आया था। उसे हल्का-हल्का से याद है कि किस तरह बाप लगातार बलात्कार करते रहा, और मां-बाप अलग हो गए तो बड़े भाई ने बलात्कार करना शुरू किया। इसी मानसिक यातना की वजह से सारा की पहली शादी टूटी, और बाद में जब 2021 में उन्हें मेडिकल रिकॉर्ड देखने मिले, तो उसमें बलात्कार से उनके शरीर को पहुंचे नुकसान और सर्जरी का जिक्र था। इसके बाद सारा ने अपने बाप और भाई के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखाई, एक बरस में ही अदालत से बाप को 20 साल, और भाई को 12 साल की कैद सुनाई गई। बाप अभी 73 साल का है, और भाई 54 साल का।
ऐसे मामले बहुत से परिवारों में होते हैं लेकिन वे इस हद तक शायद नहीं पहुंचते, और घर के बाकी लोग बच्ची की शिकायत को दबाने में कामयाब हो जाते हैं। अभी जब इस महिला सारा ने अपने बाप और भाई को सजा दिलवाई, तो उसके पीछे भी उसका तर्क यही था कि अब उसे लग रहा है कि वे सलाखों के पीछे हैं, और बाकी लड़कियां उनसे महफूज हैं। जब कोई परिवार अपने भीतर ऐसे मामले को छुपा लेता है, तो वह सबसे खराब और हिंसक दर्जे के एक बलात्कारी को बचा भी लेता है जो कि बाहर या घर के भीतर दूसरे बच्चों के लिए, दूसरे लोगों के लिए खतरा बने ही रहेगा। इसलिए कानून से परे जाकर लोगों को ऐसी किसी माफी के बारे में नहीं सोचना चाहिए जिससे कि कोई हिंसक मुजरिम दूसरों के लिए खतरा बना आजाद घूमता रहे।
इस किस्म के मामले पर लिखने की आज इसलिए भी सूझी कि एक दूसरी खबर मध्यप्रदेश के सागर से आई है। वहां एक परिवार में मां-बाप और एक बेटे का कत्ल हो गया। 2020 के बाद जांच चलती रही, लेकिन बाद में पता लगा कि घर के ही नाबालिग बेटे ने रिटायर्ड फौजी, गार्ड पिता की बंदूक से पहले मां-बाप को गोली मारी, फिर छोटे भाई की गला घोंटकर हत्या की। यह लडक़ा 12वीं क्लास में पढ़ता था, और बिगड़ी हुई आदतों की वजह से घर से और पैसे चाहता था जो न मिलने पर उसने कत्ल किए, लाशों के बीच में ही दो दिन सोते रहा, वहीं खाना पकाकर खाते रहा, और इस बीच वह नया महंगा सूट पहनकर स्कूल की फेयरवेल पार्टी में गया। बाद में जांच में पुलिस को यह पता लगा तो इस नाबालिग आरोपी को सजा सुनाई गई।
इन दो मामलों की चर्चा का मकसद यही है कि परिवार को लेकर जो धारणा है, वह सौ फीसदी मजबूत नहीं रहती है, वह जगह-जगह तनाव झेलती है, और कई मामलों में जवाब दे जाती है। लोगों को परिवार को मजबूत बनाए रखने के लिए लगातार मेहनत भी करनी चाहिए। परिवार के भीतर गलत काम न हो, इसके लिए निगरानी भी रखनी चाहिए, सावधानी भी बरतनी चाहिए। पुराने वक्त से सयाने लोग यह कहते आए हैं कि आग और पेट्रोल को आसपास नहीं रखना चाहिए। बहुत से समाजों में वर्जित संबंधों वाले औरत-मर्द का अकेले साथ रहना भी रोका जाता है ताकि किसी सेक्स-संबंध की नौबत ही न आए। और समाज में ऐसे वर्जित संबंध बहुत पहले से बहुत सोच-समझकर तय किए गए थे, जो धीरे-धीरे कई जगहों पर लापरवाही के शिकार भी हो गए। सेक्स-संबंधों से परे यह भी समझने की जरूरत है कि घर के बच्चों को खर्च के मामले में, उनके शौक और उनकी जिद के मामले में इतना अधिक बिगाडक़र नहीं रखना चाहिए कि वे सागर के इस लडक़े की तरह पूरे परिवार को ही मार डाले। पिछले हफ्ते-दस दिन में ही परिवार के भीतर हिंसा के आधा दर्जन मामले छत्तीसगढ़ में सामने आए हैं जिनमें मां-बाप, बेटे ने ही एक-दूसरे को मार डाला। परिवार को अगर परिवार की मजबूती का फायदा पाना है तो उसे उतना ही सावधान भी रहना होगा। सावधान न रहने से परिवार के लोग इस धोखे में रहते हैं कि वे परिवार के लोगों के बीच सुरक्षित हैं, और उन्हें धोखा होने का खतरा अधिक रहता है क्योंकि वे अपनों के बीच अधिक चौकन्ना होने की जरूरत महसूस नहीं करते।
कुल मिलाकर परिवार एक अच्छी और कामयाब व्यवस्था है, लेकिन इसे अच्छा बनाए रखने के लिए मेहनत, सावधानी, और निगरानी सबकी जरूरत रहती है। परिवार के भीतर भी एक-दूसरे के प्रति भरोसे को लेकर कोई अंधविश्वास नहीं होना चाहिए, एक साधारण सावधानी को अविश्वास नहीं मानना चाहिए।
उत्तर-पूर्व का मणिपुर अभी हिंसा के जिस दौर से गुजरा है, बल्कि बेहतर तो यह कहना होगा कि गुजर रहा है क्योंकि हिंसा खत्म तो हुई नहीं है, जरा सी कम हुई है, और जरा सी थमी है, यह पूरा दौर भारतीय लोकतंत्र के कई हिस्सों को जगाने के लिए काफी है। लेकिन जगाया उसी को जा सकता है जो कि जागने के लिए तैयार हों, जो लोग सोच-समझकर जागना नहीं चाहते हैं, जो घर की कॉलबेल की बटन बंद कर चुके हों, फोन का अलार्म बंद कर चुके हों, और घरवालों को बोलकर सोए हों कि उन्हें न जगाया जाए, उन्हें भला कोई कैसे जगा सकते हैं? हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के कई हिस्से इसी तरह सोए हुए हैं। मणिपुर ने बड़ी तल्खी के साथ यह हकीकत सामने रखी है कि केन्द्र और राज्य सरकारें किस तरह एक सबसे संवेदनशील और नाजुक मुद्दे की अनदेखी कर सकती हैं, मणिपुर का हाईकोर्ट किस तरह सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों की अनदेखी कर सकता है, और देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकतें आदिवासियों के हितों की किस तरह अनदेखी कर सकती हैं। एक प्रदेश के इस एक मामले से उठने वाले मुद्दों को समझने की जरूरत है।
मणिपुर में हाईकोर्ट ने अभी सरकार को यह आदेश दिया कि राज्य की अनारक्षित मैतेई जाति को आदिवासी आरक्षण में शामिल करने की सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजी जाए। यह खबर आते ही राज्य में आदिवासी तबका भडक़ उठा क्योंकि वह पहाड़ों में बसा हुआ पिछड़ा तबका है, और मैतेई जाति के लोग आबादी में आधे से अधिक हैं, और वे संपन्न, शिक्षित, ताकतवर, और मैदानी इलाकों के कारोबार सम्हाले हुए लोग हैं। उन्हें जाहिर तौर पर आदिवासियों के मुकाबले तुलना करने पर आरक्षण की जरूरत नहीं है, लेकिन वे आदिवासी आरक्षण में हिस्सेदारी चाहते हैं, और अगर वे इसमें शामिल किए गए, तो आज की अपनी बहुत मजबूत सामाजिक परिस्थिति की वजह से वे ही आरक्षण का पूरा फायदा उठाने की हालत में रहेंगे। राज्य की विधानसभा में मैतेई आदिवासियों का हमेशा से बहुमत रहता है, तीन चौथाई सीटें उन्हीं के पास हैं, और अधिकतर मुख्यमंत्री भी इसी समुदाय के बनते आए हैं। एक किस्म से यह मुद्दा आदिवासी और गैरआदिवासी तबकों के बीच टकराव का मुद्दा भी है, और चूंकि तकरीबन तमाम आदिवासी तबका ईसाई भी है, और तकरीबन तमाम मैतेई तबका हिन्दू है, इसलिए यह तनाव और टकराव एक किस्म से ईसाई और हिन्दू टकराव की तरह भी देखा जा सकता है। यह नौबत किसी भी देश के लिए सरहद पर बसे हुए किसी राज्य में आना बड़ी फिक्र और खतरे की बात होगी, लेकिन अभी तक 50 से अधिक मौतों के बाद भी सोशल मीडिया यही कह रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन मौतों पर कोई अफसोस जाहिर नहीं किया है। कुछ लोगों को यह बात भी खटक रही है कि आज मतदान वाले कर्नाटक में कल एक हिन्दू धार्मिक समारोह में लंबे समय से हर बरस इस्तेमाल होने वाले हाथी के गुजरने पर भी प्रधानमंत्री ने उसकी बड़ी सी तस्वीर के साथ ट्विटर पर अफसोस जाहिर किया है, लेकिन मणिपुर की हिंसा में 50 मौतों के बाद भी उन्होंने कुछ नहीं कहा है। हम लोकतंत्र की अलग-अलग संस्थाओं के लिए मणिपुर से जो सीखने की बात कर रहे हैं, उसमें प्रधानमंत्री और केन्द्र सरकार के लिए भी सीखने की बात है, राज्य सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के लिए भी इसमें एक नसीहत है। लेकिन अदालतों के लिए भी यह एक गंभीर और दिलचस्प मामला है।
मणिपुर हाईकोर्ट ने 27 मार्च को राज्य सरकार को निर्देश दिया था कि वो मैतेई जाति को अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में शामिल करने के लिए चार हफ्ते में अपनी सिफारिश दे। यह सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजने की बात थी। और राज्य की 34 अनुसूचित जनजातियों ने इसका विरोध किया जिनकी आबादी 41 फीसदी है। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का एक मौखिक बयान एक विश्वसनीय अंग्रेजी अखबार, द हिन्दू, में छपा है जिसमें जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने कहा है कि मणिपुर हाईकोर्ट को इस संबंध में 23 साल पुराना संवैधानिक पीठ का फैसला क्यों नहीं दिखाया गया? इस फैसले में कहा गया था कि किसी भी अदालत या सरकार को अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में कुछ जोडऩे, घटाने, या उसे संशोधित करने का अधिकार नहीं है। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कहा कि हाईकोर्ट के पास अनुसूचित जाति की लिस्ट में संशोधन का अधिकार नहीं है, ये अधिकार राष्ट्रपति के पास है कि वो किसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा दे।
आज जब मणिपुर में इस तनाव को लेकर दसियों हजार लोगों को अलग-अलग मिलिट्री कैम्पों में रखा गया है, हजारों परिवारों ने दूसरे पड़ोसी राज्यों में जाकर शरण ली है, तो ऐसे तनाव की साफ-साफ आशंका के रहते हुए भी मणिपुर हाईकोर्ट ने यह फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पुराने फैसले को क्यों नहीं देखा? हो सकता है कि किसी एक पक्ष या दोनों पक्षों के वकीलों ने सोच-समझकर या लापरवाही से इस फैसले की जानकारी अदालत को न दी हो, लेकिन अदालत को खुद भी ऐसी जानकारी लेना था, और उस फैसले को देखकर शायद अदालत ऐसा फैसला देना खुद ही ठीक नहीं समझती। अब देश के मुख्य न्यायाधीश ने जो कहा है उससे ऐसा लग रहा है कि मणिपुर हाईकोर्ट के फैसले का कोई भविष्य नहीं है, लेकिन इससे उपजी हिंसा में 60 से अधिक जिंदा लोग इतिहास बन गए हैं। लोगों को यह समझना चाहिए कि देश में चुनाव तो चलते ही रहेंगे, लेकिन प्रधानमंत्री के ओहदे पर बैठे लोगों को किसी चुनावी आमसभा के मुकाबले देश के एक प्रदेश में लगी हुई आग को प्राथमिकता देनी थी। उनकी जिस शोहरत के चलते चुनावी सभाओं में भीड़ उमड़ती है, उसी शोहरत के चलते यह उम्मीद भी की जानी चाहिए कि उनकी अपील पर हिंसा शायद कुछ थम सके। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। इसलिए आज हमने यहां जो चर्चा की है, उसमें लोकतंत्र के जिन-जिन पहलुओं पर आंच आ रही है, वे खुद अपने बारे में सोचें, हमने तो बस चर्चा कर दी है, और उससे अधिक किसी नसीहत देने की कोई जरूरत नहीं है। यहां पर हमें कुछ पानठेलों पर लिखी हुई यह बात याद आती है कि यहां सभी ज्ञानी हैं, यहां ज्ञान न बघारें। यह बात वहां होने वाली गैरजरूरी और नाजायज राजनीतिक बहस को लेकर लिखी गई होगी, हमें भी अपनी लिखी गई बातों के बाद कोई सुझाव उसी दर्जे का लगता, इसलिए हम केवल तथ्यों को सामने रख दे रहे हैं, बाकी तो सभी संबंधित तबके ज्ञानी हैं ही।
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बिहार की नीतीश सरकार जिस कुख्यात सजायाफ्ता अपराधी भूतपूर्व सांसद आनंद मोहन को उम्रकैद से नाजायज तरीके से बरी करने की तोहमत झेल रही है, उसकी रिहाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका मंजूर की है, और बिहार सरकार से दो हफ्ते में जवाब-तलब किया है। यह याचिका उस मृत कलेक्टर जी.कृष्णैय्या की पत्नी ने की है जिसकी हत्या करने के जुर्म में आनंद मोहन को उम्रकैद हुई थी, और फिर नीतीश कुमार ने जेल नियमों को बदलकर उसे वक्त के पहले रिहा किया। इसे लेकर देश के आईएएस एसोसिएशन ने भी विरोध किया था, और बहुत से राजनीतिक दलों ने भी, जिनकी राजनीति नीतीश कुमार के साथ मिलकर चलने की मोहताज नहीं थी। सोशल मीडिया पर भी लोगों ने यह तोहमत लगाई थी कि राजपूत वोटों के लालच में नीतीश ने यह रिहाई की है क्योंकि आनंद मोहन और उसकी पत्नी लवली मोहन दबदबे वाले निर्वाचित नेता रहे हैं, और जातिवाद में डूबे हुए बिहार में एक बाहुबली राजपूत को साथ रखना नीतीश के लिए चुनावी फायदे का समीकरण दिखता है।
यह बहुत अच्छा मामला है, और याद रखने की बात यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट एक दूसरे मामले में भी सुनवाई कर रहा है जिसमें गुजरात सरकार ने बिल्किस बानो के सामूहिक बलात्कारियों, और हत्यारों के एक पूरे गिरोह को सजा में छूट देकर वक्त के पहले रिहा किया था क्योंकि गुजरात में चुनाव सामने था। दिलचस्प बात यह भी है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने अदालत में खड़े गुजरात और केन्द्र के वकीलों से इन रिहाई के कागजात मांगे, तो दोनों ही सरकारों ने इससे साफ इंकार कर दिया था, और कहा था कि वे अदालत की इस मांग के खिलाफ अलग से पिटीशन दाखिल कर रहे हैं। लेकिन इसके बाद किसी वजह से इन दोनों सरकारों का हृदय परिवर्तन हुआ है, और दोनों ने अदालत को कहा है कि वे ये फाईलें दिखाने को तैयार हैं। हाल के बरसों में यह लगातार हो रहा है कि केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट को बहुत से मामलों की फाईल दिखाने या जानकारी देने से इंकार कर रही है, इनमें पेगासस जैसे घुसपैठिया फौजी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल पर खुलासे की बात भी शामिल थी, और जजों की नियुक्ति में खुफिया रिपोर्ट की आड़ लेकर बचने की बात भी थी जिसमें केन्द्र सरकार ने इस बात पर गहरी असहमति जताई थी कि सुप्रीम कोर्ट ने खुफिया रिपोर्ट उजागर कर दी। आज के माहौल में एक तरफ तो सुप्रीम कोर्ट अधिक से अधिक पारदर्शिता की बात कर रहा है, और बंद लिफाफे में कोई भी जानकारी लेने की संस्कृति के खिलाफ लगातार बोल रहा है, दूसरी तरफ सरकार अधिक से अधिक जानकारी को छुपाने की कोशिश कर रही है। ऐसे माहौल में पहले गुजरात में सत्ता के पसंदीदा बलात्कारियों और हत्यारों को रियायत देने के खिलाफ बिल्किस बानो सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी, और अब बिहार के कत्ल के शिकार एक दलित और ईमानदार कहे जाने वाले आईएएस की पत्नी पहुंची है।
यह बहुत शर्मनाक नौबत है कि देश की अदालत को ऐसे मामले देखने पड़ रहे हैं जिनमें सरकारें अपने हक का परले दर्जे का बेजा इस्तेमाल करते हुए जनता के खिलाफ फैसले ले रही है, अपने पसंदीदा मुजरिमों को रियायत दे रही है। बिहार का यह मामला तो उस सुशासन बाबू कहे जाने वाले मुख्यमंत्री के मुंह पर कालिख सरीखा है क्योंकि एक अफसर को माफिया की भीड़ ने मार डाला था, और सरकार ने जेल नियमों में फेरबदल करके यह शर्त हटाई कि सरकारी कर्मचारी को मारने वाले को सजा में कोई छूट नहीं मिल पाएगी। सरकार ने जिस दिन जेल नियमों में यह तब्दीली की, उसके पहले से ऐसी खबरें आ चुकी थीं कि आनंद मोहन के घर शादी के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पहले ही यह कह दिया था कि जल्दी ही उसकी रिहाई हो जाएगी। नियम बदलने के पहले मुख्यमंत्री का ऐसा जुबानी वायदा उस सरकार की विश्वसनीयता को मिट्टी में मिला देता है, फिर चाहे विपक्षी समीकरणों के चलते अधिकतर पार्टियों ने इसके खिलाफ मुंह नहीं खोला। जिस दिन नीतीश सरकार ने आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता खोला, उसी दिन हमने इसी जगह लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट में इसके खिलाफ आईएएस एसोसिएशन को जाना चाहिए, और अदालत से यह सरकारी फैसला खारिज होगा। अभी भी हमारा मानना है कि गुजरात के बलात्कारी-हत्यारों से लेकर बिहार के इस हत्यारे तक तमाम लोगों की समय पूर्व रिहाई सुप्रीम कोर्ट से खारिज होगी। लोकतंत्र में किसी सरकार को ऐसी मनमानी की गुंडागर्दी करने की छूट नहीं रहनी चाहिए जिससे कि सरकार के पसंदीदा, और सरकार के नापसंद लोगों के बीच इतना बड़ा फर्क किया जा सके। यह बात लोकतंत्र के लिए बहुत ही शर्मनाक है, और सुप्रीम कोर्ट को दो-चार सुनवाई से अधिक नहीं लगना चाहिए, और उसके बाद हमारी उम्मीद यही है कि ये तमाम लोग वापिस जेल जाएंगे, और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ अगर केन्द्र सरकार कोई संविधान संशोधन करेगी, या नया कानून बनाएगी, तो उसका नाम भी इतिहास में काले पन्नों पर दर्ज होगा। यह बात न सिर्फ लोकतंत्र के खिलाफ है, हिन्दुस्तानी संविधान के खिलाफ है, बल्कि इंसानियत कही जाने वाली उस सोच के भी खिलाफ है जिसके तहत हत्यारों के हक, हत्या के शिकार लोगों के ऊपर नहीं हो सकते। सत्ता की गुंडागर्दी का यह सिलसिला चाहे वह किसी भी राज्य में हो, केन्द्र सरकार का हो, साम्प्रदायिक सरकार का हो, या धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करने वाली सरकार का हो, खत्म होना चाहिए।
पहले पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने, और फिर इस्तीफा वापिस लेने से कुछ दिन लगातार खबरों में बने रहे एनसीपी के शरद पवार ने अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में हैरानी जाहिर की है कि उन्होंने कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान धार्मिक नारे लगाए। उन्होने कहा कि भारत धर्मनिरपेक्ष देश है, और जब किसी चुनाव में किसी धर्म या धार्मिक मुद्दे को उठाया जाता है तो इससे एक अलग तरह का माहौल बनता है, और यह अच्छी बात नहीं है। उन्होंने कहा चुनाव लडऩे के समय हम लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता की शपथ लेते हैं। शरद पवार ने इस चुनाव और प्रधानमंत्री के बयान से परे भी कुछ बातें कहीं जिनका आज राजनीतिक वजन अधिक इसलिए है कि पिछले कुछ दिनों से उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी टूटने और उनके भतीजे अजीत पवार के भाजपा के साथ जाने की अफवाहें बनी हुई थीं जो कि अभी भी खत्म नहीं हुई हैं। ऐसे में उन्होंने प्रधानमंत्री की आलोचना करके अपना रूख साफ किया है, और उन्होंने भाजपा के खिलाफ और कांग्रेस के पक्ष में कुछ और बातें भी कही हैं जो कि उनका रूख बताती हैं।
एक क्षेत्रीय समाचार चैनल से बात करते हुए पवार ने कहा कि भाजपा कुल पांच-छह राज्यों में सत्ता में है, जबकि बाकी राज्यों में गैरभाजपा सरकारें हैं। जहां तक पूरे देश की बात है तो बीजेपी कहां है? न केरल में, न तमिलनाडु में, न तेलंगाना में, न आन्ध्र में। राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, उत्तराखंड, और बंगाल में भाजपा नहीं है। और महाराष्ट्र में भी सिर्फ एकनाथ शिंदे के पाला बदलने की वजह से वह सत्ता में है। उन्होंने कहा कि उन्हें जानकारी मिली है कि कर्नाटक में कांग्रेस जीतेगी। उन्होंने याद दिलाया कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस के कमलनाथ के मुख्यमंत्री रहते हुए कुछ विधायकों की खरीद-फरोख्त करके बीजेपी ने सत्ता हथियाई।
आज जब पांच राज्यों में चुनाव को कुछ महीने बाकी हैं, तब देश के विपक्ष की एक बड़ी पार्टी, और एक सबसे बड़े नेता का रूख साफ रहना जरूरी है। पवार के इस्तीफे ने देश में एक असमंजस पैदा कर दिया था कि अजीत पवार अगर पिछली बार की तरह किसी सुबह पांच बजे भाजपा के साथ राजभवन चले जाएंगे, तो पवार की एनसीपी का क्या होगा? ऐसे में उन्होंने लोगों के सामने अपना रूख रखा है तो उससे विपक्ष की बाकी पार्टियां राहत की सांस ले सकती हैं। अब यह हिसाब लगाना कुछ मुश्किल है कि उनके इस बयान के बाद भी क्या अजीत पवार एनसीपी के भीतर कोई ऐसी फूट डाल सकते हैं जैसी कि एकनाथ शिंदे ने किले की तरह मजबूत दिखने वाली शिवसेना में डाल दी, और पार्टी पर काबिज हो गए, सरकार पर भी। लोगों को सत्ता में रहते हुए मजबूती की जितनी जरूरत रहती है, उससे अधिक जरूरत विपक्ष में रहते हुए चुनाव के पहले के गठबंधन में रहती है, जहां दांव पर सब कुछ लगे रहता है, लेकिन हाथ में कुछ नहीं रहता। सत्ता में तो कमाई और सहूलियतें इतनी रहती हैं कि लोग उसके मोह में एक-दूसरे से बंधे रहते हैं, लेकिन विपक्ष पर अधिक संघर्ष का वक्त रहता है, और ऐसे में शरद पवार और उनके भतीजे के बीच लंबे समय से चर्चा में चले आ रहा सत्ता संघर्ष महाराष्ट्र और देश की विपक्षी राजनीति को विचलित कर रहा था। फिलहाल अगले किसी बागी तेवर तक पवार परिवार में पावर संघर्ष थमा दिखता है।
शरद पवार ने अपनी जिस उम्र का तकाजा देकर, और शायद जिस सेहत की वजह से पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ा था, उसे देखें तो ये दोनों बातें उन्हें प्रधानमंत्री पद का अगला दावेदार नहीं बना पाती हैं। उनसे परे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव ने पिछले एक बरस में कई राजनीतिक हलचल ऐसी पैदा की हैं जो कि कांग्रेस से परे के विपक्षी गठबंधन के लिए कोशिश दिखती हैं। उनसे भी अलग बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को छुपाए बिना कांग्रेस से परे-परे चल रही हैं। उत्तरप्रदेश की एक बड़ी पार्टी, सपा भी कांग्रेस से अलग दिख रही है। दो राज्यों में सरकार चलाने वाली एक ताजा-ताजा राष्ट्रीय पार्टी बनी आम आदमी पार्टी कांग्रेस से परले दर्जे के परहेज वाली है। लेकिन बिहार के नीतीश कुमार और महाराष्ट्र के शरद पवार कांग्रेस के साथ तालमेल करते दिख रहे हैं। पवार तो महाराष्ट्र में गठबंधन में साथ ही हैं। इस तरह गैरभाजपा-गैरएनडीए विपक्ष आज तो कई खेमों में बंटा हुआ दिख रहा है जिसके बहुत से लोगों को एक-दूसरे से गंभीर परहेज भी है। ऐसे में विपक्ष का भविष्य और अंधेरे में डूब जाता अगर एनसीपी में फूट पड़ जाती, और अजीत पवार पार्टी विधायकों का बहुमत लेकर भाजपा के साथ सरकार में शामिल हो जाते।
जहां तक कांग्रेस की बात है, तो हम पहले भी एक बात लिख चुके हैं कि राजनीति बहुत सन्यास जैसा काम नहीं हो सकती, इसलिए यह लिखना फिजूल है कि कांग्रेस प्रधानमंत्री पद पर दावा किए बिना सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने का काम करे। लेकिन विपक्ष की एकजुटता किए और हुए बिना अगर लोग अपनी पीएम-उम्मीदवारी पर अड़े रहेंगे, तो वह विपक्ष को किसी किनारे नहीं पहुंचा पाएगा। इसलिए विपक्ष के कम से कम कुछ लोगों को अपनी निजी महत्वाकांक्षा, और निजी संभावना को किनारे रखकर मोदी का विकल्प बनने के बारे में सोचना चाहिए जिसमें त्याग तो कई लोगों का लगेगा ही। किसी बड़े काम के पहले बलि देने की परंपरा पहले रहती थी, और उस वक्त मानव बलि दी जाती थी, बाद में वह पशुओं की बलि पर आ गई, और अब वह भी घटती चल रही है। लेकिन किसी बड़े काम के लिए महत्वाकांक्षा की बलि अब भी लग सकती है, और लोगों को उस बारे में सोचना चाहिए। अगर पवार का घर का खतरा टल गया हो, तो वे विपक्षी एकता के बारे में अधिक कोशिश कर सकते हैं। उन्हें इसके लिए पूरा देश भटकने की जरूरत नहीं होगी, उनका कद ऐसा है कि तमाम विपक्षी नेता मुम्बई आकर उनसे मिल सकते हैं, और कांग्रेस में भी सोनिया गांधी के स्तर पर उनकी बात का खासा वजन है, देखें कि वे क्या कर पाते हैं, क्या करना चाहते हैं।
अमरीकी सरकार के स्वास्थ्य सेवा प्रमुख, सर्जन जनरल डॉ.विवेक मूर्ति ने देश को आगाह किया है कि अमरीकी आबादी अकेलेपन और एकांतवास की ऐसी बुरी शिकार हो गई है कि यह जनस्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। एक सरकारी रिपोर्ट जारी करते हुए उन्होंने कहा कि तकरीबन आधे अमरीकी बालिग लोग रोजाना की जिंदगी में अकेलेपन को झेलते हैं। उन्होंने कहा कि सामाजिक संबंधों की कमी सेहत के लिए बहुत बड़ा खतरा है, और अकेलेपन से समय पूर्व मौत का खतरा 26 फीसदी अधिक दिखता है, और एकांतवास से 29 फीसदी अधिक मौतों के खतरे का अनुमान है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि नाकाफी सामाजिक रिश्तों से दिल की बीमारी, दिल के दौरे, बेचैनी, डिप्रेशन, और याददाश्त खत्म होने की बीमारियां भी जुड़ी हुई हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अकेलेपन की वजह से अपने आपको नुकसान पहुंचाने की हिंसा बढऩे के भी संकेत हैं। कुल मिलाकर डॉ.विवेक मूर्ति ने यह हालत सामने रखी है कि अकेलेपन और एकांतवास की वजह से नौबत जितनी खतरनाक हो गई है कि जिस तरह तम्बाखू और मोटापे के खिलाफ एक अभियान चलाया जाता है, उसी तरह लोगों के अकेलेपन को खत्म करने के लिए भी समाज और सरकार को कुछ करने की जरूरत है।
यह बात चूंकि अमरीकी सरकार के सबसे ऊंचे स्तर से आई है, इसलिए इसमें तो कुछ तो वजन माना ही जाना चाहिए। अब पिछले एक-दो दशक में ही जिस तरह जिंदगी ऑनलाईन बढ़ी है, उससे लोगों के संबंध भी असल जिंदगी की जमीन पर होने के बजाय ऑनलाईन होने लगे हैं, और उससे लोगों को एक किस्म की भावनात्मक हिफाजत भी लगने लगी है, क्योंकि उनमें रिश्ते टूटने की जटिलताएं कम रहती हैं, खतरे कम रहते हैं। लोग ऑनलाईन दोस्ती और संबंध में अपना सबसे अच्छा चेहरा सामने रखते हैं, और उनमें बिगाड़ का खतरा कम रहता है। दूसरी तरफ असल जिंदगी में लोगों की रोजमर्रा की दिक्कतें इतनी रहती हैं कि घरों के भीतर या काम की जगह पर, स्कूल-कॉलेज में, या दोस्तों के बीच कई किस्म के नकारात्मक मुकाबले हो जाते हैं, तनाव होता है, और हिन्दुस्तान जैसे देश में तो राजनीतिक और सामाजिक कारणों से इतना टकराव आपस के लोगों के बीच भी होने लगा है कि रिश्ते टूटने लगे हैं। अभी-अभी इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर देश के एक सबसे धारदार कार्टूनिस्ट राजेन्द्र धोड़पकर का एक इंटरव्यू पोस्ट हुआ था जिसमें उन्होंने बड़ी तकलीफ के साथ कहा था कि आसपास के इतने लोग इतने साम्प्रदायिक हो गए हैं कि अब घर-परिवार के भीतर भी किसी से सद्भाव की बात करना आसान नहीं रह गया है, और उनके आसपास के लोगों से भी उनकी तनातनी होने लगी है। वे एक हौसलामंद कार्टूनिस्ट हैं, इसलिए उन्होंने अपनी इस हकीकत को खुलकर सामने रखा, जो कि बहुत से और लोगों की भी नौबत है, यह एक अलग बात है कि बाकी लोगों में उसे कहने की हिम्मत नहीं है।
आज वक्त ऐसा आ गया है कि यह समझ नहीं पड़ता कि लोगों से अधिक वास्ता रखना अपने दिल-दिमाग की सेहत के लिए बेहतर है, या कि असल जिंदगी में अलग-थलग रहना, और सोशल मीडिया पर हमख्याल लोगों के सुरक्षित दायरे में रहना। सोशल मीडिया पर भी अनचाहे लोगों के हमले कम नहीं रहते, लेकिन उनको रोक देना आसान रहता है। असल जिंदगी में आप चाहें न चाहें, आपको आसपास के लोगों को झेलना ही पड़ता है। इसलिए ऐसा लगता है कि करीबी लोगों की सांस की बदबू से बचने की तरह लोग उनकी सोच से भी बचना बेहतर समझते हैं, और इसलिए भी कई लोग असल जिंदगी में अलग-थलग रहते होंगे। लेकिन यह अकेली बात नहीं है। आज इंटरनेट, और ऑनलाईन शॉपिंग ने, घर तक सामानों की डिलीवरी ने एक ऐसी सहूलियत दे दी है कि लोग घर के बाहर निकले बिना भी महीनों गुजार सकते हैं। और यह रिपोर्ट तो अमरीकी लोगों के बारे में है, जापान में तो अकेलेपन की आदत पिछले कुछ दशकों में लगातार दर्ज की जा रही है, और वहां लोग अब शादी भी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते क्योंकि इंटरनेट और ऑनलाईन जिंदगी में जो सुरक्षा हासिल है, वह असल जिंदगी में तो हो नहीं सकती, जहां हजार किस्म के टकराव हो सकते हैं, तनातनी हो सकती है। इसलिए लोग शादियां नहीं कर रहे, असल जिंदगी में दोस्ती नहीं कर रहे, और तो और जिंदगी से सेक्स घटते जा रहा है, आबादी घटती चली जा रही है। लोग जापान में ऐसे मशीनी पंछी और पालतू जानवर पालने लगे हैं जो कि असल जिंदगी के लोगों की कमी को कुछ हद तक दूर करते हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़े देखें तो जापान की आबादी लगातार गिरती चली जा रही है, और लोगों ने अकेले रहने की आदत ऐसी डाल ली है कि अब यह आबादी बढ़ते नहीं दिख रही।
हिन्दुस्तान जैसा देश अभी अकेलेपन के खतरों से तो बहुत दूर है, क्योंकि अभी वह सामूहिक हिंसा और नफरत के शगल में लगा हुआ है। लेकिन दुनिया के दूसरे देशों के तजुर्बों को देखकर लोगों को अपने बारे में भी सोचना चाहिए कि क्या आगे ऐसी कोई नौबत आ सकती है, और ऐसी नौबत से बचने के लिए क्या किया जा सकता है? अगर अमरीका जैसा विकसित, कामयाब, और संपन्न देश जहां लोगों के सामाजिक संबंध बहुत दिखते हैं, वहां भी अगर लोगों में इतना अकेलापन है, तो बाकी देश भी अपनी तरफ एक नजर डाल सकते हैं कि वहां नारे लगाते लोग भी किसी अकेलेपन के शिकार तो नहीं हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत से जुर्म पुलिस के रोकने लायक रहते हैं, जिनका होना बताता है कि पुलिस के काम में कोई कमी या कमजोरी है। लेकिन बहुत से जुर्म पुलिस के दायरे के बाहर के होते हैं, उनमें उनके हो जाने के बाद लोगों को पकड़ पाना ही पुलिस के बस में होता है, और वहां पता लगता है कि वह अपना काम दिलचस्पी से कर रही है या नहीं। अब कोरबा की खबर है कि वहां एक नौजवान ने नशे की अपनी लत के चलते हुए शराब पी हुई हालत में मां से और पैसे मांगे, और न मिलने पर उसने चाकू से मां को मार डाला। खबर में यह भी है कि मां भी शराब पीने की आदी थी, और बड़ा बेटा पॉक्सो एक्ट में जेल में है। नशे में इस तरह की हत्याओं की खबरें थमने का नाम नहीं लेती हैं। हर दिन ऐसे कई कत्ल हो रहे हैं जो कि घर के भीतर हैं, और जिनमें पुलिस को खबर मिलने के बाद ही उसका काम शुरू होता है। छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले के एसपी संतोष सिंह जिस जिले में रहते हैं, वहां लगातार नशे के खिलाफ अभियान चलाते हैं, लेकिन जाहिर है कि यह अभियान गैरकानूनी नशे के खिलाफ ही हो सकता है, जब प्रदेश की सरकार ही प्रदेश में नशे की सबसे बड़ी कारोबारी है, तो सरकारी अफसर सरकारी दुकानों से शराब की बिक्री तो रूकवा नहीं सकते। दूसरे किस्म का नशा ही वे रोक सकते हैं, या गैरकानूनी शराब। इन दोनों ही किस्म की रोकथाम से सरकारी शराब की बिक्री बढ़ती है, और सरकार को भी किसी अफसर का ऐसा अभियान माकूल बैठता है क्योंकि बिकी हुई सरकारी शराब पर सरकार को टैक्स भी बहुत मिलता है। छत्तीसगढ़ में गैरकानूनी शराब अंधाधुंध बिकने की खबरें आती हैं, लेकिन जो टैक्स वाली शराब है, उसके मुताबिक ही यह देश में प्रति व्यक्ति सबसे अधिक शराब खपत वाले राज्यों में से एक हो गया है। यह एक अलग बात है कि साढ़े चार बरस पहले जब कांग्रेस सत्ता में आई, तो उसने सरकार बनते ही शराबबंदी की बात घोषणापत्र में जोड़ी थी, लेकिन गंगाजल वाला वह घोषणापत्र गंगाजल में बह गया दिखता है, कम से कम यह एक बात। भाजपा और दूसरी पार्टियां लगातार याद दिलाती हैं कि कांग्रेस वादाखिलाफी कर रही है, लेकिन कांग्रेस ने शराबबंदी के लिए अपने एक बुजुर्ग विधायक सत्यनारायण शर्मा की अगुवाई में एक कमेटी बनाई, और चार बरस से वह कमेटी बस एक कागजी कमेटी बनी हुई है। सरकार के बयान भी बताते हैं कि शराबबंदी का उसका कोई इरादा नहीं है, और यह मुद्दा कुछ महीने बाद के विधानसभा चुनाव में भाजपा उठा सकेगी, या नहीं, यह तो पता नहीं।
शराब की खपत, शराब में होने वाली सेहत और पैसों की बर्बादी को देखें तो छत्तीसगढ़ एक भयानक नौबत में है। शराबबंदी लागू न करने के लिए कांग्रेस पार्टी और सरकार लगातार यह तर्क देते हैं कि लोग शराब पीना छोड़ दें तो शराबबंदी कर दी जाएगी, या भाजपा के नेता शराब पीना छोड़ दें तो शराबबंदी कर दी जाएगी। लेकिन हकीकत यही है कि साफ-साफ चुनावी घोषणा के बाद भी कांग्रेस सरकार ने शराबबंदी नहीं की, और अब अगर अगले कुछ महीनों में चुनाव के कुछ महीने पहले सरकार ऐसा करती भी है, तो उस पर जनता का कोई भरोसा नहीं रहेगा, उसे महज चुनावी कार्रवाई मान लिया जाएगा। दरअसल सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने कर्जमाफी और धान बोनस जैसे जो बड़े फैसले किए, उनका बोझ भी सरकारी खजाने पर पड़ा, और जाहिर है कि दारू से मिलने वाला मोटा टैक्स छोड़ पाना सरकार के लिए आसान नहीं था। इसलिए जिस तरह रमन सिंह सरकार आदिवासी इलाकों में गाय बांटने की, हर आदिवासी परिवार को एक गाय देने की अपनी हिन्दूवादी योजना को बड़ी सहूलियत के साथ भूल गई थी, उसी तरह कांग्रेस सरकार शराबबंदी को मोदी के 15 लाख के जुमले की तरह भूल गई। फिर दारू के धंधे से सत्तारूढ़ पार्टी को भी पर्दे के पीछे मोटी कमाई हर प्रदेश में होती ही है, और जिन प्रदेशों में शराबबंदी है, वहां भी दारू-तस्करों से सत्ता फलती-फूलती है। गुजरात और बिहार जैसे शराबबंदी वाले प्रदेशों में घर पहुंच सेवा बिना संगठित हुए और सत्ता की हिफाजत के तो हो नहीं सकती। इसलिए आधा दर्जन शराबी राज्यों से घिरे हुए छत्तीसगढ़ में शराबबंदी मुमकिन थी या नहीं, सरकार की नीयत थी या नहीं, यह अलग ही बात है। फिलहाल सरकार का कार्यकाल पूरा होने जा रहा है, और जनता के सामने शराब से हुई सामाजिक बर्बादी का एक बड़ा मुद्दा खड़ा रह सकता है।
देश के अलग-अलग राज्यों में शराब की अलग-अलग नीतियां हैं, कहीं निजी कारोबारी शराब बेचते हैं, तो कहीं सरकार शराब बेचती है। यह धंधा सत्तारूढ़ लोगों की मोटी कमाई का कारोबार भी माना जाता है, और कोई भी प्रदेश इससे अछूता नहीं रहता। ऐसे में शराबबंदी आसान और सहूलियत का फैसला नहीं रहता, लेकिन जब कोई पार्टी खुद होकर इसकी घोषणा करती है, तो उससे इसकी उम्मीद भी की जाती है। छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में कोरोना-लॉकडाउन का वक्त ऐसा था जब महीनों तक सारा ही बाजार बंद था, और शराब भी बंद थी। दुनिया में शायद यह दौर इस बात को परखने का सबसे अच्छा मौका था कि जनता बिना शराब के रह सकती है या नहीं। लोग बहुत अच्छे से जी लिए, पूरे लॉकडाउन के महीनों में कोई इक्का-ृदुक्का मौत हुई हो तो हुई हो, शराब के आदी लोगों ने नशे के बिना खुदकुशी कर ली हो, ऐसा भी नहीं हुआ। रोजगार भी नहीं था, कारोबार भी नहीं था, दारू के लिए पैसे भी नहीं थे, और दारू भी नहीं थी। लेकिन लोगों की सेहत इस दौरान बेहतर रही, और लोगों ने बिना दारू जीना सीख लिया था। अब हालत बहुत खराब है क्योंकि गली-गली में सरकारी अमले की निगरानी में ही दो-नंबर की दारू बिक रही है, और लोग मुफ्त का राशन पाकर बिना महत्वाकांक्षा जीते हुए थोड़ी-बहुत कमाई को भी दारू में बहा रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में दो ही पार्टियों के दबदबे की राजनीति है। भाजपा भी शराबबंदी की चुनावी घोषणा को याद दिलाते हुए कांग्रेस के खिलाफ बयानबाजी करते रहती है, लेकिन उसमें भी यह दम नहीं दिखता कि वह अगले चुनाव के बाद अपनी सरकार बनने पर तुरंत शराबबंदी की घोषणा करे। उसके पास तो गुजरात की शराबबंदी का, अच्छा या बुरा जैसा भी हो, तजुर्बा भी है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, और शायद इस धंधे से होने वाली एक-नंबर और दो-नंबर की कमाई का लालच भी है। भाजपा अगर शराबबंदी लागू करने की बात बार-बार कांग्रेस को याद दिला रही है, तो उसे अभी से इसकी घोषणा करनी चाहिए, और हो सकता है कि महिला वोटरों के बीच उसे इसका फायदा भी मिले। जो पार्टी शराबबंदी के मुद्दे पर चुनाव लड़ती है, उसे इसका फायदा मिलता है। अब यह एक अलग बात है कि अपना वायदा पूरा न करने वाली पार्टी को अगले चुनाव में क्या मिलेगा? फिलहाल देखना है कि अगले कुछ महीने छत्तीसगढ़ में हर दिन दारू-हिंसा की मौतें देखते हैं, या फिर किसी पार्टी में इसे सचमुच ही बंद करने की हिम्मत दिखती है।
उत्तर-पूर्व का मणिपुर इस बुरी तरह हिंसा से घिर गया है कि केन्द्र सरकार ने वहां धारा 355 लागू की है, जिसका सरल मतलब यह होता है कि वहां की कानून व्यवस्था अब केन्द्र सरकार के हाथ में है। यह राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने वाली धारा 356 के ठीक पहले की नौबत है। यह एक अलग बात है कि केन्द्र और मणिपुर में दोनों जगह भाजपा सरकार है, और इसलिए 356 की नौबत शायद न आए जो कि पूरी पार्टी के लिए शर्मिंदगी की बात होगी, और मोदी सरकार के लिए भी। लेकिन अभी वहां हिंसा का जो हाल है उसमें हिंसा करते लोगों को देखते ही गोली मारने के हुक्म दिए गए हैं, और सेना, अर्धसैनिक बल तैनात किए गए हैं, राज्य के 16 में से 8 जिलों में कफ्र्यू लगा दिया गया है, पांच दिनों के लिए मोबाइल और इंटरनेट बंद हैं। इसके साथ-साथ पूरा राज्य आदिवासी और गैरआदिवासी समुदायों के बीच हथियारबंद संघर्ष देख रहा है। इसे देखने का एक दूसरा नजरिया यह हो सकता है कि ईसाई आदिवासियों और हिन्दू गैरआदिवासियों के बीच यह संघर्ष चल रहा है। दो दिन पहले मणिपुर की ओलंपिक विजेता और पूर्व राज्यसभा सदस्य मैरी कॉम ने ट्वीट किया था कि मेरा राज्य मणिपुर जल रहा है, और उसने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को टैग करके मदद मांगी थी। उनका कहना है कि हालात बहुत भयानक हैं, और केन्द्र और राज्य सरकारों को नौबत सुधारने के लिए जल्दी कुछ करना चाहिए। देश के दक्षिणपंथी प्रकाशनों ने इसे सीधे-सीधे चर्च का हिन्दुओं पर हमला करार दिया है, जिसके बारे में लोगों का कहना है कि इससे आग और भडक़ेगी।
अब मणिपुर की इस जटिल समस्या को आसान शब्दों में समझने की कोशिश करें तो वहां पर पहाड़ों में बसे हुए आदिवासी हैं, और घाटी में बसे हुए मैतेई बहुसंख्यक समुदाय के लोग हैं, जिनमें से अधिकतर हिन्दू हैं, उनमें बहुत थोड़े से मुस्लिम बने हैं। इस 50 फीसदी से अधिक मैतेई समुदाय को गैरआदिवासी होने की वजह से आरक्षण हासिल नहीं हैं। इनमें से कुछ लोग हाईकोर्ट गए, और हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को इस पर विचार करने को कहा कि मैतेई समुदाय को आदिवासी घोषित किया जाए। इससे वहां के वास्तविक आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण का लाभ बहुत ही कम हो जाएगा क्योंकि न सिर्फ उसके दावेदार दुगुने हो जाएंगे, बल्कि मैतेई समुदाय आदिवासियों के मुकाबले बहुत सक्षम और ताकतवर समुदाय भी है, और वह आरक्षण के फायदे उठाने में असली आदिवासियों से बहुत आगे भी रहेगा। आदिवासियों का भी यह डर है कि मैतेई अगर आदिवासी दर्जा पा जाएंगे तो वे आदिवासी इलाकों में भी जमीनें खरीदने लगेंगे, और आदिवासी बेजमीन, बेघर हो जाएंगे। राज्य विधानसभा की 60 सीटों में से 40 सीटें अकेली इम्फाल घाटी में हैं, जहां पर कि मैतेई बसे हुए हैं, और इसलिए विधानसभा में इसी समुदाय के लोग सबसे अधिक रहते हैं, और राज्य के इतिहास में तकरीबन तमाम मुख्यमंत्री इसी समुदाय से बने हैं। अभी विधानसभा में 40 मैतेई विधायक हैं, और 20 आदिवासी विधायक। अभी दो हफ्ते पहले मणिपुर हाईकोर्ट में मैतेई ट्राईब यूनियन नाम के एक संगठन की याचिका पर राज्य सरकार को कहा गया कि वह 10 साल पहले की केन्द्रीय जनजाति मामलों के मंत्रालय की सिफारिश पेश करे। इस सिफारिश में मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा देने की बात कही गई थी। अदालत में मैतेई तर्क यह है कि 1949 में जब मणिपुर भारत में मिला तब मैतेई लोगों को जनजाति का दर्जा मिला हुआ था।
क्लिक करें और देखें वीडियो : सुनील से सुनें : मणिपुर के आदिवासी-आरक्षण पर डाके की कोशिश
हम लगातार देश में जगह-जगह आदिवासी बेचैनी की बात करते हैं, और अब ऐसे तनाव में मणिपुर सबसे अधिक तनावग्रस्त राज्य बनकर सामने आया है, और 8 बरस की मोदी सरकार की सबसे कड़ी संवैधानिक कार्रवाई अपनी ही पार्टी के राज पर हुई है। लेकिन यह बात साफ है कि देश में आदिवासियों, दलितों के आरक्षण पर गैरदलित-आदिवासी लोगों का हमला किसी न किसी शक्ल में जारी है। उनकी जमीनों पर हमला हो रहा है, उनके जंगल और जल पर कब्जा हो रहा है, उनकी संस्कृति पर शहरी धार्मिक मूल्य लादे जा रहे हैं, और वे अपने ही घर में अजनबी बना दिए जा रहे हैं। मणिपुर देश की सरहद का एक प्रदेश है, और वहां पर बाहरी ताकतों की दखल का एक खतरा हमेशा ही रहता है। यह इलाका हथियारों और नशे की तस्करी का इलाका भी है। यहां पर अगर आदिवासियों के हक से छेडख़ानी की अदालती या सरकारी कोशिश होगी, तो उसका असर उत्तर-पूर्व के कुछ दूसरे राज्यों पर भी हो सकता है क्योंकि यहां की आदिवासी जातियों के लोग और जगहों पर भी बसे हुए हैं। हाईकोर्ट में गए हुए सत्तारूढ़ जाति के लोग केन्द्र और राज्य की जानकारी में थे, अदालत का कोई फैसला आरक्षण में फेरबदल का नहीं है, बल्कि वह विचार करने के बारे में है। अभी सब कुछ सरकार के हाथ में ही था, और केन्द्र और मणिपुर दोनों जगह भाजपा की ही सरकारें हैं। ऐसे में नौबत एकदम से काबू के बाहर हो जाना, हिंसा इस हद तक भडक़ जाना, यह ेएक बड़ी नाकामयाबी है। यह भी समझने की जरूरत है कि देश में किसी एक जगह आदिवासियों के हक छीनने की कोशिश अगर होगी, तो बाकी प्रदेशों में भी आदिवासी इसे गौर से देखेंगे। हो सकता है कि मणिपुर में सत्ता संतुलन के लिए और मैतेई हिन्दू लोगों को खुश करने के लिए भाजपा सरकारों को यह एक रास्ता सूझा हो, लेकिन आदिवासियों का आरक्षण अगर इस हमलावर अंदाज में बेअसर कर दिया जाएगा, तो वे किसी भी जगह हथियार उठाएंगे। मणिपुर की राजनीतिक और सामाजिक जटिलताएं पूरी तरह से हमारी समझ में नहीं हैं, इसलिए एक सीमित चर्चा के साथ आज हम यह विस्तृत सलाह दे सकते हैं कि देश में दलितों और आदिवासियों को तरह-तरह से बागी बनाने की नौबत लाना समझदारी नहीं है। उत्तर-पूर्व पहले भी तरह-तरह के उग्रवाद का शिकार रहा है, उसे भडक़ाने की कीमत पर वहां के आदिवासियों के हक खत्म नहीं करने चाहिए। वैसे भी आंकड़े बताते हैं कि वहां की आधी से अधिक आबादी वाला मैतेई समुदाय पढ़ाई-लिखाई, संपन्नता, राजनीतिक ताकत, इन सबमें सबसे आगे है, ऐसे में आदिवासियों के आरक्षण पर इस समुदाय को लाद देना सामाजिक न्याय भी नहीं दिखता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट की दखल के बावजूद दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय मैडल लाने वाले पहलवान युवक-युवतियों के साथ पुलिस जो सुलूक कर रही है, वह हैरान करने वाला है। कुश्ती संघ के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण के गंभीर आरोप कई महिला पहलवानों ने लगाए हैं, और उनकी लिखित शिकायत के बावजूद महीनों से इस पर पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई थी। अब सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से और मुख्य न्यायाधीश के कड़े रूख से किसी तरह रिपोर्ट तो दर्ज हुई है, लेकिन बृजभूषण सिंह के इस्तीफे की मांग करते हुए शिकायकर्ता पहलवान युवतियां और उनके साथ खड़े हुए पहलवान युवक सभी जंतर-मंतर पर आंदोलन कर रहे हैं। एफआईआर के बावजूद न तो आज तक भाजपा सांसद से कोई पूछताछ हुई है, और गिरफ्तारी तो दूर की बात है। यह तब है जब मुख्य न्यायाधीश ने साफ-साफ यह कहा है कि वे देखेंगे कि पुलिस क्या कार्रवाई करती है। बीती आधी रात इस आंदोलन को खत्म करवाने के लिए दिल्ली पुलिस ने जिस तरह पहलवानों को हटाने की कोशिश की, महिला पहलवानों से धक्का-मुक्की की, और वहां पहुंची दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष को जिस तरह हिरासत में लेकर थाने ले जाया गया, वह सब बहुत खराब तस्वीर बना रहा है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्नाटक के चुनाव प्रचार में कल ही महिलाओं के सम्मान में कई तरह की बातें बोले हैं जिनके ट्वीट चल ही रहे हैं, और उसी दिन देश की राजधानी में अंतरराष्ट्रीय और ओलंपिक मैडल लाने वाले पहलवानों के साथ ऐसा बुरा सुलूक हो रहा है कि देश का झंडा रौशन करने वाली लड़कियां वहां रोते हुए दिख रही हैं।
कल से जो वीडियो आए हैं, और महिला खिलाडिय़ों के जो बयान हैं वे बताते हैं कि दिल्ली पुलिस और उसे चलाने वाली केन्द्र सरकार का रूख किसी भी तरह हमदर्दी का नहीं है, और उनकी तमाम नीयत भाजपा सांसद को बचाने की दिख रही है। कल आधी रात को जिस तरह के वीडियो संदेश रिकॉर्ड करके हरियाणा के लोगों को आने की अपील की गई, और बार-बार कहा गया कि उनकी बेटियों की इज्जत खतरे में है, तो वह देखना तकलीफदेह था। पहले तो इन पहलवानों के खिलाफ बड़ा आक्रामक बयान देने वाली भारतीय ओलंपिक संघ की अध्यक्ष पी.टी.ऊषा वहां आकर पहलवानों से मिलकर गई थी, और फिर रात में पुलिस ने यह कार्रवाई की। केन्द्र सरकार की पुलिस ने जो बर्ताव दिल्ली सरकार के महिला आयोग की अध्यक्ष के साथ किया है वह भी हैरान और हक्का-बक्का करने वाला है। किसी भी राज्य में किसी संवैधानिक संस्था से जुड़े हुए लोगों के साथ ऐसा बर्ताव कहीं देखा नहीं गया है, और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल को आंदोलन कर रहीं खिलाडिय़ों से मिलने न देकर उठाकर थाने ले जाना लोकतंत्र में बिल्कुल भी मंजूर नहीं किया जा सकता, लेकिन हालत यही है कि सरकार के ऐसे रूख को अब नवसामान्य बना दिया गया है।
यह कुछ अधिक हैरानी की बात इसलिए हो जाती है कि कर्नाटक में चुनाव है, और वहां की महिला वोटर औसत हिन्दुस्तानी महिला के मुकाबले अधिक पढ़ी-लिखी हैं, कामकाजी हैं, और जाहिर है कि दिल्ली की खबरें उनको प्रभावित करेंगी। ऐसे में यौन शोषण के आरोपी सांसद की इस हद तक हिमायती दिखकर या बनकर भाजपा पता नहीं कौन सा फायदा पाएगी। अब आंदोलन में हालत यह हो गई है कि एक मैडल विजेता पहलवान बजरंग पुनिया ने कहा कि लड़कियों ने जो आरोप लगाए हैं उन्हें राजनीति से क्यों जोड़ा जा रहा है? जनता को गुमराह किया जा रहा है, हर चीज में राजनीति घुसाई जा रही है। उन्होंने कहा कि जैसे ही एफआईआर हुई, ये लोग खिलाडिय़ों को गाली देने लगे। अगर महिलाओं को न्याय मिल रहा है तो राजनीति अच्छी ही है। उन्होंने कहा कि सरकार चाहती है कि खिलाडिय़ों को धरने से हटाकर किसी तरह बृजभूषण को बचा लें। उन्होंने कहा अगर मैडल का ऐसा ही सम्मान है तो उस मैडल का हम क्या करेंगे, उसे भारत सरकार को लौटा देंगे। उन्होंने कहा कि जब पुलिस धक्का-मुक्की कर रही है तब नहीं दिख रहा है कि ये पद्मश्री भी हैं। स्वाति मालीवाल का कहना है कि जिन खिलाडिय़ों ने देश का नाम रौशन किया है वो यहां सडक़ पर बैठे हैं, और बृजभूषण शरण सिंह एसी कमरे में बैठे हैं, दिल्ली पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर रही, लेकिन मैं यहां खिलाडिय़ों से मिलने आई तो मिलने नहीं दिया गया, और मुझे घसीटकर पुलिस थाने ले गए। उन्होंने कहा कि ये गुंडे को बचाने के लिए पुलिस को लगाया गया है, और लड़कियों के बयान दर्ज नहीं किए जा रहे हैं।
यह पूरा सिलसिला बड़ा खराब है। इससे देश में खेलों को जितना नुकसान हो रहा है, उससे कहीं अधिक नुकसान भाजपा और सरकार का हो रहा है। अब देश के मां-बाप अपनी लड़कियों को किस भरोसे के साथ खेलों में भेजेंगे, अगर उन्हें यह साफ दिख रहा है कि महीनों की शिकायतों के बाद भी यौन शोषण पर कार्रवाई के बजाय आरोपी को बचाने में सरकार ने पूरी पुलिस झोंक दी है, सुप्रीम कोर्ट तक में सरकार शिकायती लड़कियों का विरोध कर रही है। इससे दुनिया में भी हिन्दुस्तान की इज्जत गिर रही है। और पी.टी.ऊषा जैसी बेवकूफ खिलाड़ी शायद ही कोई और होगी जो कि दूसरी खिलाडिय़ों की यौन शोषण की शिकायत को दुनिया में भारत की बदनामी की वजह बतला रही है। पी.टी.ऊषा के लिए यौन शोषण बदनामी की वजह नहीं है, उसकी शिकायत बदनामी की वजह है। भारतीय ओलंपिक संघ की ऐसी अध्यक्ष से क्या उम्मीद की जा सकती है। इस पूरे सिलसिले ने केन्द्र सरकार के लिए बड़ी शर्मिंदगी खड़ी की है, और उस भाजपा के लिए भी जिसका सांसद बृजभूषण शरण सिंह है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
क्लिक करें और देखें वीडियो: सुनील का सवाल: ओलंपिक विजेताओं का पुलिस कैसा सशक्तिकरण कर रही है मोदीजी?
आने वाले दिन इस सरकार की साख की बर्बादी थाम सकेंगे, या यह और अधिक दूरी तक जारी रहेगी, वह पता लगेगा। फिलहाल सबको याद रखना चाहिए कि आज इंटरनेट पर हर किसी का हर रूख अच्छी तरह दर्ज हो जाता है, और आने वाला वक्त अपनी ही देश की होनहार लड़कियों के खिलाफ इस सरकारी रूख को काले अक्षरों में दर्ज करेगा।
जिन लोगों को यह लग रहा था कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से इंसानों के रोजगार पर कोई अधिक खतरा तुरंत नहीं आएगा, उनके लिए एक खबर है। एक अमरीकी कंपनी चेग के शेयरों के दाम कल 51 फीसदी तक गिर गए, और कंपनी को एक अरब डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ। एक ब्रिटिश कंपनी पियर्सन के दाम 15 फीसदी से अधिक गिर गए। ऑनलाईन ट्यूशन देने वाली और किताबें छापने वाली कई बड़ी कंपनियों के शेयर तेजी से गिर रहे हैं। और इसका अकेला जिम्मा चैटजीपीटी नाम की एक वेबसाइट है जो लोगों के मनचाहे मुद्दों पर पलक झपकते जानकारी ढूंढकर, जरूरत के मुताबिक शक्ल में ढालकर सामने रख देती है। इसमें कुछ गलतियां भी हैं, लेकिन वह बहुत तेजी से अपने को सुधारती जा रही है। जब घर बैठे मुफ्त में पल भर में पढऩे-लिखने वालों को उनकी मर्जी का माल तैयार मिलने लगेगा, तो वे क्यों तो उसे किताबों में ढूंढेंगे, और क्यों किसी कोचिंग या ट्यूशन वेबसाइट को उसके लिए पैसा देंगे। इसी का असर है कि पश्चिमी दुनिया में शिक्षा का कारोबार करने वाले लोगों का धंधा एकदम से गिरा है, और यह बड़ी जाहिर बात है कि जब कारोबार टूटते हैं, तो उसकी पहली मार कर्मचारियों पर होती है, और जिस तरह आज दुनिया की बड़ी-बड़ी टेक्नालॉजी कंपनियां कर्मचारियों को हजारों की संख्या में निकाल रही हैं, किताब और कोचिंग कारोबार के कर्मचारियों की बारी आई हुई दिखती है।
यहां पर यह समझना जरूरी है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के खतरे सिर्फ नौकरियां जाने तक सीमित नहीं हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बरसाती पहाड़ी नदी की तरह अंधाधुंध ताकत और रफ्तार वाले आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से दुनिया में मुजरिमों के हाथ बहुत मजबूत हो सकते हैं, आतंकियों के हाथ एक नया औजार लग सकता है, और इनके मुकाबले बचाव के कोई औजार अभी बने नहीं है। यह भी माना जा सकता है कि विज्ञान के कई किस्म के कामों में, लोकतंत्रों में जनमत प्रभावित करने में, दुनिया में झूठ फैलाने और सच छिपाने में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और कारोबार मिलकर इतना कुछ कर सकते हैं कि उससे दुनिया में असला लोकतंत्र ही खत्म हो जाए। यह के तानाशाह और धर्मांध लोग अपनी सोच को फैलाने के लिए, और बाकी तमाम सोच को खत्म करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का मनमाना इस्तेमाल कर सकते हैं, और आज के विज्ञान और टेक्नालॉजी के पास इस असीमित ताकत के हमले को रोकने की कोई ताकत ही नहीं है।
यही वजह है कि दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी, और चैटजीपीटी बनाने वाली आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कंपनी के प्रमोटरों में से एक, एलन मस्क ने दुनिया के बहुत से कारोबारियों के साथ मिलकर यह सार्वजनिक अपील की है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर चल रही तमाम किस्म की रिसर्च रोक दी जाए क्योंकि यह किस तरह के खतरे पैदा करेगी यह साफ नहीं है। इसे एक दूसरे विशेषज्ञ की जुबान में समझें तो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उसे विकसित करने वाले ह्यूमन इंटेलीजेंस को कब पार कर जाएगी वह पता ही नहीं लगेगा। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि इंसानी बुद्धि जीवविज्ञान की क्षमता से काम करती है, और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस डिजिटल क्षमता से। इंसानी सोच कई तरह की सामाजिकता, नैतिकता, मानवीयता, और नीति-सिद्धांतों से प्रभावित रहती है, उनसे बंधी रहती है, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इन सबसे पूरी तरह मुक्त रहेगी, और उसे एक आतंकी या मुजरिम की तरह सोचने में कोई हिचक नहीं होगी, कोई वक्त नहीं लगेगा।
एक अपराधकथा की तरह सोचें, तो अगर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के दिमाग में यह बात आ जाएगी कि इंसान धरती पर बोझ बढ़ा रहे हैं, और उन्हें कम करना चाहिए, तो वह भरी सर्दियों में दुनिया के बर्फ जमे देशों में बिजलीघरों को पल भर में तबाह कर देगी, और दसियों लाख लोग जमकर खत्म हो जाएंगे। उसे लगेगा कि आबादी को घटाना है, तो हो सकता है कि वह पानी साफ करने के कारखानों में कोई रसायन घोल दे, दवा कारखानों में रसायनों का अनुपात कम-ज्यादा कर दे, या दुनिया की चुनिंदा प्रयोगशालाओं से वायरस रिलीज कर दे, कहीं कारखानों से यूनियन कार्बाइड की तरह जहरीली गैस छोड़ दे। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से लैस आतंकी या धर्मांध लोग ऐसा काम मिनटों में करने की हालत में रहेंगे क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को इंसानी सोच के तौर-तरीके मालूम रहेंगे, और इंसानों को उसकी सोच के तरीकों का पता भी नहीं रहेगा जो कि वह खुद विकसित कर लेगी। एक आशंका यह भी है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में सीखने की जो अपार क्षमता विकसित हो रही है, वह बहुत जल्दी इंसानी काबू से परे पहुंच जाएगी, और उसके साथ-साथ यह भी चल रहा है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में भावनाएं भी विकसित हो सकती हैं। यह कल्पना की जाए कि ऐसी भावनाओं में किसी धर्म, राष्ट्रीयता, नस्ल, लिंग, या पेशे के खिलाफ नफरत पैदा कर दी जाए, तो वह खुद उस तबके को तबाह और खत्म करने के तरीके पल भर में ईजाद कर सकेगी, दुनिया भर के कम्प्यूटरों में घुसपैठ कर सकेगी, और मनचाहे लोगों को पल भर में खत्म कर सकेगी। यह कल्पना करने के लिए एक तस्वीर सोचें कि अगर इस हथियार से लैस कोई व्यक्ति यह तय कर ले कि दुनिया के तमाम कैंसर मरीजों को खत्म करना है क्योंकि वे इलाज के ढांचे पर बोझ हैं, तो ऐसे मरीजों की जांच रिपोर्ट प्रभावित करने, रेडियेशन की मशीनों से दिए जाने वाले डोज को बदलने, कैंसर की दवाओं में मिलावट कर देने जैसी अनगिनत योजनाएं भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस खुद बना सकती है, और ऐसे मरीजों को बेमौत मार सकती है। आज हम अमरीका में एक अकेले बंदूकबाज को दर्जनों लोगों को मार डालते देख रहे हैं, लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसा औजार हथियार में तब्दील होकर बिना लहू बहाए पल भर में लाखों लोगों को मार सकेगा।
आज ये बातें कुछ लोगों को फिल्मी कहानी सरीखी लग सकती हैं, लेकिन याद रखना चाहिए कि अभी कुछ महीने पहले तक किसी ने चैटजीपीटी जैसे किसी मुफ्त औजार की आने की बात की होती, तो लोग उसे विज्ञान कल्पना ही करार देते। ऐसी चर्चा है कि कुछ दिनों के भीतर यूरोपीय यूनियन इस रिसर्च पर कोई रोक लगाने जा रही है, लेकिन लोगों का यह मानना है कि ऐसे फैसले पर कानून बनने, और उस पर अमल होने में बरसों लग जाएंगे, और तब तक यह औजार इंसानों को लाखों मील पीछे छोड़ चुका होगा। आज शायद यह सब लिखने में भी बहुत देर हो चुकी है, और अब तक शायद यह दानव अमर हो चुका है, आगे देखें क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कर्नाटक चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के घोषणापत्र आ गए हैं। कल पहले भाजपा का घोषणापत्र आया जिसमें गरीबी रेखा के नीचे के सभी परिवारों को साल में तीन मुफ्त रसोई गैस सिलेंडर देने का वायदा किया गया है। इसके अलावा पड़ोस के तमिलनाडु से जयललिता के शुरू किए हुए अम्मा किचन की तर्ज पर हर नगर निगम के हर वार्ड में सस्ते गुणवत्तापूर्ण, और स्वास्थ्यवर्धक भोजन उपलब्ध कराने के लिए अटल आहार केन्द्र स्थापित किए जाएंगे। पोषण आहार योजना के तहत हर बीपीएल परिवार को पांच किलो गेहूं, और पांच किलो मोटे अनाज मिलेंगे, और हर दिन आधा लीटर दूध मिलेगा। कांग्रेस का घोषणापत्र इसके बाद आया, और उसमें हर परिवार को दो सौ यूनिट मुफ्त बिजली का वादा किया गया है, इस तरह की व्यवस्था छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पहले से कर चुकी है, और आम आदमी पार्टी की सरकार ने पंजाब में इसे किया है। कर्नाटक के घोषणापत्र में कांग्रेस ने हर परिवार की महिला मुखिया को दो हजार रूपए महीने देने की घोषणा की है, हर बेरोजगार ग्रेजुएट को दो साल तक तीन हजार रूपए महीने, और डिप्लोमा होल्डर बेरोजगार को दो साल तक पन्द्रह सौ रूपए महीने दिए जाएंगे। कांग्रेस ने कहा है कि उसकी सरकार आने पर दस किलो अनाज मुफ्त दिया जाएगा, और सरकारी बसों में महिलाएं मुफ्त सफर कर सकेंगी।
इन दोनों घोषणापत्रों को इस बात को याद रखते हुए देखना चाहिए कि पिछले कुछ बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोगों को मुफ्त या रियायती सामान देने के खिलाफ कई बार कहा है, और पिछले बरस उन्होंने इसे रेवड़ी कल्चर करार दिया था, तब केजरीवाल सरीखे कई नेताओं ने उनकी सोच और उनके बयान की खासी आलोचना की थी। अभी पांच दिन पहले इसी कर्नाटक में चुनाव प्रचार की आमसभा में मोदी ने फिर देश के कई राजनीतिक दलों के ‘रेवड़ी कल्चर’ पर हमला किया था, और कहा था कि देश के विकास के लिए लोगों को मुफ्त रेवड़ी बांटना बंद करना होगा। अब सवाल यह है कि चुनावी घोषणापत्र में भाजपा भी जगह-जगह कई तरह की मुफ्त चीजों की घोषणा करती है, अब फर्क यही रह जाता है कि किस तरह किस रंग की रेवडिय़ां मोदी को नहीं खटकती हैं, और किस रंग की खटकती हैं। जनता को जो कुछ भी मुफ्त या रियायती देने की घोषणा होती है, उसे देखने का अपना-अपना नजरिया होता है, और कोई भी उसे रेवड़ी करार दे सकते हैं। चुनावी मुकाबलों में तेरी रेवड़ी मेरी रेवड़ी से अधिक जायज कैसे, यह सवाल तो खड़े ही रहता है। धीरे-धीरे जनता हर छूट या रियायत की आदी हो जाती है, और उसे अगले चुनावों में कुछ और नया देने की जरूरत पड़ती है। और यह सिलसिला बढ़ते-बढ़ते आबादी के एक बड़े हिस्से को फायदा देने लगता है, लेकिन इससे आबादी का कोई स्थाई भला नहीं होता, केवल रोज की जिंदगी बेहतर होती है, खानपान मिलने से कुपोषण खत्म होता है, लेकिन इससे रोजगार नहीं बनता।
भारत जैसे देश में यह एक मुश्किल फैसला होता है कि रियायतों को कहां रोका जाए, और लोगों को काम करने के लिए कब आगे बढ़ाया जाए। बहुत सी पार्टियों ने समय-समय पर गरीबों के खानपान की सहूलियत के लिए बहुत रियायती इंतजाम अलग-अलग राज्यों में किए, इनमें शायद तमिलनाडु सबसे पहला भी रहा, और सबसे कामयाब भी रहा। स्कूलों में दोपहर का भोजन, फिर सुबह का नाश्ता, यह सब इंतजाम करने में भी तमिलनाडु ने ही बाकी हिन्दुस्तान को राह दिखाई है। और अब वहां पर हालत यह हो गई है कि जनता इसे अपना हक मानने लगी है, और कोई भी सरकार इसे खत्म नहीं कर सकती। जिस देश में आधी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे हो, उस देश में रियायतें, और जिंदा रहने के लिए मुफ्त की कुछ चीजें रोकी नहीं जा सकतीं। इसलिए पूरे देश में केन्द्र और राज्य सरकारें तरह-तरह की योजनाओं के तहत गरीब लोगों को अनाज तकरीबन मुफ्त देती हैं। कुछ राज्यों में एक दिन की मजदूरी से परिवार का एक महीने का राशन आ सकता है। इन्हीं बातों से हिन्दुस्तान में अब भुखमरी से मौत जैसी खबरें आना बंद हो गई हैं। और कुछ भी हो जाए, लोगों के पास खाने का इंतजाम अब रहने लगा है। लेकिन यह इंतजाम तो जंगलों या शहरों में रहने वाले जानवरों के पास भी रहता है, इंसानों को इससे ऊपर उठने की जरूरत है।
जिस तरह बेरोजगारी भत्ता कुछ सीमित बरसों के लिए देने की योजना छत्तीसगढ़ ने शुरू की है, कुछ और राज्यों में है, और कर्नाटक में अभी इसकी घोषणा हो रही है, उसी तरह बहुत सी रियायतें सीमित बरसों के लिए होनी चाहिए, और रोजगार की योजनाएं इस तरह लागू की जानी चाहिए कि लोग खुद कमाना शुरू कर सकें, और मुफ्त का सामान लेने की उनकी जरूरत न रहे। यह बात कहना आसान है, करना तकरीबन नामुमकिन है, क्योंकि जिस देश में सबसे बड़े खरबपति भी कोई टैक्स रियायत छोडऩा नहीं चाहते हैं, हर तरह की छूट को पाने के लिए अपने खाते-बही बदलते रहते हैं, उस देश में गरीबी की रेखा से जरा से ऊपर आए किसी को ईमानदारी से रियायतें छोड़ देने को कहना इस देश की संस्कृति के खिलाफ भी जाएगा। फिर भी एक सोच तो विकसित होनी ही चाहिए, फिर चाहे वह तुरंत अमल के लायक न भी हो। हिन्दुस्तान ने राजनीतिक दलों और सरकारों को रोजगार के मौके बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए जिससे लोग रियायतें अगर पाते भी रहें, तो भी उनके परिवार की दूसरी जरूरतें रोजगार से पूरी हों, और जिंदगी हमेशा गरीबी की रेखा के नीचे न रहे। आज हिन्दुस्तान में इंसानी सहूलियतें किसी भी विकसित देश के मुकाबले बहुत कमजोर हैं, और हिन्दुस्तान अपने आपको अब विकासशील देश नहीं गिनता है, विकसित देश गिनता है। जबकि विकसित के साथ जो तस्वीर दिमाग में उभरती है, वह हिन्दुस्तान की आम जिंदगी में कहीं नहीं है। चुनावी जीतने के लिए राजनीतिक दल घोषणापत्रों में चाहे जो लिखें, असल रोजगार पैदा करने वाली सरकार अलग ही दिखेगी, और आंकड़ों का वायदा करने वाली पार्टियां भी उजागर हो रही हैं। छह महीने बाद कुछ राज्यों में चुनाव हैं, और साल भर बाद देश में संसद के आम चुनाव। देखते हैं इन चुनावों में और कैसे-कैसे वायदे किए जाते हैं, और पिछले घोषणापत्रों के वायदों पर अब तक क्या हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुनील से सुनें : कर्नाटक से उठा सवाल, ‘रेवड़ी’ बांटने से परहेज किसे?
कर्नाटक चुनाव में इन दो दिनों में भाजपा और कांग्रेस के घोषणापत्र आए हैं जिनमें गरीबों, महिलाओं, बेरोजगारों के लिए तरह-तरह की घोषणाएं हैं। बेरोजगारी भत्ते से लेकर हिन्दू त्यौहारों पर साल में तीन गैस सिलेंडर तक। इसके चार दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कर्नाटक की आमसभा में रेवड़ी-संस्कृति के खिलाफ बोल गए थे। लेकिन भाजपा का घोषणापत्र कांग्रेस के मुकाबले अधिक रेवडिय़ों से भरा है। इस पर हमने एक तीसरी पार्टी, सीपीएम के एक नेता बादल सरोज से भी बात की कि ‘रेवडिय़ां’ बंटनी चाहिए या नहीं? इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को सुनें न्यूजरूम से।
छत्तीसगढ़ भाजपा के सबसे बड़े नेता नंदकुमार साय ने बीती रात जब भाजपा से इस्तीफा दिया तो उनकी कई तरह की संभावनाएं दिख रही थीं। पहली बात तो यह लग रही थी कि भाजपा नुकसान को सीमित करने के लिए उन्हें मनाएगी, और हाशिए पर पड़े हुए साय को किसी भूमिका में रखा जाएगा। दूसरी संभावना यह लग रही थी कि वे आम आदमी पार्टी में जा सकते हैं। एक तीसरी संभावना यह थी कि वे कुछ इंतजार करके सर्वआदिवासी समाज नाम के संगठन से जुड़ सकते हैं। लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ, और वे इस वक्त प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। वे तीन बार के लोकसभा सदस्य, एक बार के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं, और विधायक होने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता रह चुके हैं, और राष्ट्रीय जनजातीय आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे एक खासे पढ़े-लिखे आदिवासी नेता हैं, और जनसंघ के जमाने से वे लगातार एक ही पार्टी में बने रहे। उनका निजी चाल-चलन विवाद से परे बने रहा, और वे एक सिद्धांतवादी नेता माने जाते हैं, और इसके चलते वे अपनी पार्टी की सरकार से भी कई बार मतभेद रखते दिखते थे। अब उनके कांग्रेस में शामिल होने से छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग के सबसे बड़े आदिवासी नेता इस पार्टी में पहुंच जाएंगे, और जाहिर तौर पर आने वाले कई चुनावों में कांग्रेस को इसका फायदा मिल सकता है।
भाजपा का छत्तीसगढ़ के प्रति रवैया बड़ा अजीब चल रहा है। एक आदिवासी नेता विष्णुदेव साय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे, जिन्हें हटाकर आदिवासी दिवस के दिन पिछले बरस एक ओबीसी सांसद अरूण साव को भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। यह काम दो-चार दिन आगे-पीछे भी हो सकता था, इनमें से कोई पार्टी छोड़ भी नहीं रहा था, लेकिन आदिवासी दिवस के दिन आदिवासी अध्यक्ष को हटाना लोगों को हक्का-बक्का करने वाला फैसला था। लेकिन छत्तीसगढ़ भाजपा की कोई जुबान राष्ट्रीय संगठन और मोदी-शाह के सामने रह नहीं गई है क्योंकि 65 सीटों के दावे के बाद कुल 15 सीटें मिली थीं, और तब से इन साढ़े चार बरसों में राज्य भाजपा के उस वक्त के किसी नेता को कुछ नहीं गिना गया। पिछले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह सहित उस वक्त संगठन और सरकार के तमाम नेता मानो बर्फ में जमाकर रख दिए गए हैं कि कभी जरूरत पड़ेगी तो उन्हें वापिस जीवित किया जाएगा। पार्टी का यह फैसला भी बहुत अटपटा था कि विष्णुदेव साय को हटाने के बाद किसी आदिवासी नेता को कोई अहमियत नहीं दी गई, बल्कि एक ओबीसी नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक को हटाकर उन्हीं के संभाग के एक दूसरे ओबीसी विधायक नारायण चंदेल को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया। पार्टी के प्रवक्ता के रूप में एक तीसरे ओबीसी नेता अजय चंद्राकर को बढ़ावा दिया गया, मानो प्रदेश में और किसी जाति के नेता की कोई जरूरत ही नहीं है।
विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बाद से अब तक लगातार छत्तीसगढ़ में भाजपा पर दिल्ली में ही तमाम फैसले लिए जा रहे हैं, और छत्तीसगढ़ के भाजपा नेताओं को यह भी नहीं मालूम है कि उन्हें अगले विधानसभा चुनाव में टिकट मिलेगी या नहीं, या उन्हें प्रचार में भी इस्तेमाल किया जाएगा या नहीं। इस नौबत ने इस राज्य में भाजपा के नेताओं को अनिश्चितता और अनिर्णय का शिकार बनाकर रख छोड़ा है। साथ-साथ ऐसा लगता है कि पूरे देश में ही भाजपा की कोई आदिवासी-नीति नहीं है, आदिवासी बहुल राज्यों में उसकी सरकार भी नहीं है, और न ही कोई बड़े नेता उसके संगठन में, उसकी सरकार में निर्णायक दिख रहे हैं। कहने के लिए भाजपा यह कह सकती है कि उसने राष्ट्रपति एक आदिवासी महिला को बनाया है, और इससे अधिक कोई पार्टी क्या कर सकती है, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि राष्ट्रपति का देश की रोजाना की राजनीति से कोई लेना-देना रहता नहीं है, वह एक प्रतीकात्मक महत्व देना तो है, लेकिन देश भर में आदिवासी इलाकों में केन्द्र सरकार, और कई राज्य सरकारों की नीतियों से जो बेचैनी बनी हुई है, उसे कम करने के बारे में केन्द्र सरकार ने सोचा ही नहीं है, बल्कि उसकी जंगल और खदान की जितनी नीतियां हैं, वे सब आदिवासियों के खिलाफ बनते दिख रही हैं। ऐसी कई वजहों से हो सकता है कि नंदकुमार साय जैसे नेता निजी उपेक्षा के अलावा भी आहत रहे हों, और इस वजह से भी आज साय कांग्रेस में जा रहे हैं। हो सकता है कि यह दल-बदल पूरी तरह से सिद्धांतवादी फैसला न होकर निजी हित में लिया गया फैसला हो, लेकिन राजनीति में किसी के भी फैसले इस तरह के मिलेजुले रहते हैं, और अक्सर ही न कोई फैसला सौ फीसदी सिद्धांतवादी होता, न सौ फीसदी निजी।
छत्तीसगढ़ कांग्रेस के मौजूदा आदिवासी अध्यक्ष मोहन मरकाम को हटाने के लिए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ओर से लगातार एक अभियान चलाने की खबरें आती ही रहती हैं। लेकिन साय के आने से मरकाम की सेहत पर तुरंत कोई फर्क पड़ते इसलिए नहीं दिखता कि दोनों छत्तीसगढ़ के दो अलग-अलग इलाकों के हैं, और पार्टी में आते ही साय को किसी तरह का बड़ा ओहदा और काबू नहीं दिया जा सकता। लेकिन छह महीने के बाद के चुनाव तक प्रदेश कांग्रेस में आदिवासी समीकरण कई तरह से बदलेंगे, और उस वक्त यह पार्टी भाजपा के मुकाबले बेहतर हालत में रह सकती है क्योंकि इसमें आदिवासी नेता लगातार महत्व पा रहे हैं, और भाजपा में आदिवासी नेता हाशिए पर भी नहीं रखे गए हैं। इस ताजा दल-बदल ने छत्तीसगढ़ की राजनीति को बड़ा दिलचस्प कर दिया है। इसका कर्नाटक पर कोई असर पड़ेगा ऐसी संभावना नहीं दिखती, लेकिन पार्टी का हौसला इससे जरूर बढ़ेगा, और इस नाटकीय घटना से भूपेश बघेल का वजन भी कांग्रेस संगठन के भीतर और छत्तीसगढ़ की राजनीति में बढ़ रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)