संपादकीय
सोशल मीडिया राखी के मौके पर भाई-बहनों की फोटो से भरा हुआ है। छोटे-छोटे बच्चों की तस्वीरें देखना तो अच्छा लगता है, लेकिन बड़े लोगों की तस्वीरें देखते हुए कुछ हैरानी होती है कि क्या बालिग हो चुके भाई जिन सगी बहनों से राखी बंधवा रहे हैं, क्या उन्हें बाप की जायदाद में बराबरी का हक दे रहे होंगे? और राखी का तो पारंपरिक मतलब ही यही है कि बहन की रक्षा करना। बहन-भाई को राखी बांधती है ताकि वह हर हालत में उसकी रक्षा करे। अभी हम कुछ देर के लिए इस परंपरागत मतलब की लैंगिक असमानता को किनारे रख रहे हैं, और यह मान रहे हैं कि भारतीय समाज में हिफाजत की जरूरत एक लडक़ी और महिला को ही अधिक है, और इसके लिए राखी की यह परंपरा शुरू हुई होगी, जो अब तक चल रही है। एक छोटा हिस्सा ऐसे भाई-बहन का भी हो सकता है जिसमें भाई कमजोर हालत में हो, और बहन उसकी मददगार हो, वैसे मामलों में यह भी कहा जा सकता है कि उस भाई को अपनी बहन को राखी बांधनी चाहिए ताकि वह भाई की रक्षा कर सके। अभी दो दिन पहले राखी के मौके पर एक खबर आई थी कि किस तरह दोनों खराब किडनी वाले एक आदमी को उसकी बहन अपनी किडनी दे रही है। हमारे पास इसके कोई आंकड़े तो नहीं हैं, लेकिन ऐसा अंदाज जरूर है कि अंगदान करने वाले लोगों में महिलाएं ही अधिक रहती होंगी, फिर वे चाहे पति, भाई, पिता, या पुत्र को अंग देती हों। जाहिर तौर पर भाई-बहनों के बीच बहन ही अधिक काम आती होगी, और भाई की जिंदगी बचाने की सोच और जिम्मेदारी उसी पर रहती होगी।
लेकिन आमतौर पर बिना मेडिकल-जरूरत के जिन परिवारों में भाई-बहन के बीच रिश्ते तभी तक बहुत अच्छे रहते हैं जब तक बहन बाप की दौलत में अपना हक नहीं मांगती। भारत के कानून में लडक़ी को बराबरी का हक दिया गया है, और आमतौर पर लड़कियां भाई, और उसके पास रहने वाले बूढ़े माता-पिता के दिमागी सुख-चैन के लिए अपने हक को छोडक़र चुप रहती हैं, और संपत्ति पर दावा नहीं करती हैं। भारतीय, कम से कम हिन्दू समाज में उससे यही उम्मीद भी की जाती है, और समाज खुद होकर यह मान लेता है कि चूंकि लडक़ी की शादी में खर्च किया गया था, दहेज दिया गया था, इसलिए उसे अब आगे और कुछ देने की जरूरत नहीं है। यह बात पूरी तरह फर्जी रहती है क्योंकि शादी का खर्च और दहेज इन दोनों को परिवार अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए करते हैं, न कि लडक़ी के हक की तरह। कानून और अदालतों ने बार-बार यह साफ किया है कि इन चीजों को लडक़ी का हक मानकर आगे हाथ खींच लेना कानूनी नहीं है। लेकिन हिन्दू समाज ने इसका एक तोड़ निकाल लिया है, और पैसे वाले परिवारों की बेटियां जब शादी होकर बाहर जाती हैं, तो उनसे यह लिखवा लिया जाता है कि उसे पिता की संपत्ति में से कुछ नहीं चाहिए। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए, और लडक़ी को ऐसे हित त्याग करने का कोई हक नहीं रहना चाहिए क्योंकि उस लडक़ी की शादी के बाद भी उसे मां-बाप की दौलत में से जो मिलना है उस पर उसके बच्चों का भी हक रहता है, और उन बच्चों के हक त्याग करने का उसे कोई हक नहीं है।
राखी के मौके पर हम इसकी चर्चा इसलिए करना चाहते हैं कि साड़ी, लिफाफा, घड़ी, मोबाइल फोन, या कोई छोटा-मोटा गहना देकर भाई-भाभी इस बात की गारंटी चाहते हैं कि बहन बाप की दौलत में हक का बखेड़ा खड़ा न करे। आज राखी की प्रथा या परंपरा का कोई भी मतलब अगर है, तो वह यही है कि भाई बहन की हर तरह की हिफाजत करे। यह हिफाजत बाहर के गुंडों से बहन को बचाने तक सीमित नहीं है, यह उसके कानूनी हक पर डाका डालने वाले भाई पर भी लागू होती है, जिससे बहन को बचाने की जिम्मेदारी उसी डकैत भाई पर आती है। आज हालत यह है कि हिन्दू समाज में कोई भी लडक़ी अगर कानूनी हक की बात करेगी, तो भाई-भाभी तो दूर की बात रहे, मां-बाप भी उसके भावनात्मक शोषण में जुट जाएंगे, और उसे मरने-मारने की धमकी देने लगेंगे। मां-बाप जान देने पर उतारू दिखें, तो तमाम लड़कियां अपने हक छोडऩे के लिए तैयार हो जाएंगी। इसलिए इस बारे में कानून को ही कुछ करना होगा।
हमारा यह मानना है कि देश में ऐसा कानून बनना चाहिए कि कम से कम आयकरदाता परिवार के लिए यह बंदिश हो जाए कि लडक़ी की शादी के साथ ही अगले बरस के इंकम टैक्स रिटर्न, या किसी और टैक्स कागजात में उस परिवार को लडक़ी के हक देने की जानकारी देना जरूरी हो जाए, जमीन-जायदाद का ट्रांसफर एक या दो बरस के भीतर हो जाए, और ऐसे तमाम कागजात सरकार के किसी विभाग में दाखिल करने की मजबूरी हर परिवार पर लाद दी जाए। समाज में कई किस्म के सुधार बिना कड़े कानूनों के लागू नहीं हो सकते। समाज और परिवार तो बाल विवाह करवाने पर उतारू रहते थे, और हिन्दू समाज कन्या भ्रूण हत्या के लिए भी कुख्यात रहा है। जब तक पूरे के पूरे ससुराल को जेल भेजने के कानून पर कड़ाई से अमल नहीं होने लगा, तब तक दहेज-हत्याएं आए दिन की बात थीं, और कड़े कानून के साथ-साथ उस पर कड़े अमल की कानूनी बंदिश की वजह से परिवारों ने बहू को जलाकर मारना, या प्रताडि़त करके आत्महत्या को मजबूर करना बंद किया है। ऐसा ही कड़ा कानून लडक़ी के हक को लेकर बनाने की जरूरत है।
आज सोशल मीडिया पर जितने लोग रक्त संबंध वाली सगी बहन से राखी बंधवाते हुए तस्वीरें पोस्ट करते हैं, उनसे यह भी पूछना चाहिए कि बालिग और शादीशुदा बहन के हक तो उन्होंने जरूर ही दे दिए होंगे, और अगर नहीं दिए होंगे तो राखी की जिम्मेदारी का यह तकाजा है कि वे जल्द से जल्द बहन को यह हक दिलवाएं, मां-बाप न भी चाहें, तो भी वे उनसे लडक़र बहन को जायदाद में बराबरी का हक दिलवाएं। भारत की अदालतों का जो हाल है, उसमें यह साफ है कि लडक़ी मां-बाप और भाई के खिलाफ अदालत पहुंचकर इंसाफ पाने की लड़ाई आसानी से नहीं लड़ सकती। उस पर सामाजिक दबाव भी रहेगा। इसलिए कानून के साथ-साथ सामाजिक दबाव की नौबत भी बदलनी होगी, और जिस समाज में जो सुधार की बात करने वाले लोग हैं, उन्हें लड़कियों के कानूनी हक की बात भी उठानी चाहिए।
कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने एक बार फिर मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है। उन्होंने अपनी आत्मकथा के पहले हिस्से के विमोचन समारोह में यह कहकर खलबली मचा दी कि अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के पहले प्रधानमंत्री नहीं थे, उन्होंने कहा कि भाजपा के पहले पीएम पी.वी.नरसिम्हाराव थे। अब इतिहास तो नरसिम्हाराव को कांग्रेस पीएम के रूप में दर्ज करता है, लेकिन मणिशंकर अय्यर का मंच और माईक से यह कहना लोगों को हैरान कर गया। उन्होंने कहा कि यह बात वे पहले अपनी एक दूसरी किताब में लिख चुके हैं, और इस ताजा किताब में उन्होंने यह नहीं लिखा है, लेकिन वे उस बात पर आज भी अटल हैं कि नरसिम्हाराव भाजपा के पहले प्रधानमंत्री थे। अपनी बात के पीछे का तर्क बताते हुए उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद गिराने के वक्त पीएम नरसिम्हाराव जिस शांति से अपने कमरे में पूजा कर रहे थे, उससे जाहिर था कि वे भाजपा के पीएम थे। उन्होंने याद किया कि कैसे जब वे (मणिशंकर) राम-रहीम यात्रा निकाल रहे थे तो नरसिम्हाराव ने उन्हें फोन किया था और कहा था कि उन्हें इस यात्रा पर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वे धर्मनिरपेक्षता की मणिशंकर की परिभाषा से असहमत थे। राव का यह कहना था कि मणिशंकर इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि यह हिन्दू देश है। मणिशंकर अय्यर ने इस घटना के बारे में विमोचन समारोह में कहा कि भाजपा बिल्कुल यही कहती है (कि यह हिन्दू देश है), इसलिए भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी नहीं नरसिम्हाराव थे।
मणिशंकर अय्यर लिखने-पढऩे वाले हैं, और राजनीति के हिसाब से कुछ असुविधाजनक और तीखी जुबान बोलते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते हुए उन्होंने कई मौकों पर इतने तीखे विशेषणों का इस्तेमाल किया कि कांग्रेस पार्टी ने उनसे पल्ला झाड़ लिया, और उनके खिलाफ कार्रवाई भी की। अभी भी नरसिम्हाराव के बारे में मणिशंकर अय्यर के बयान के खिलाफ भाजपा ने उन्हें गांधी परिवार का चापलूस करार दिया है कि वे इस परिवार को खुश करने के लिए नरसिम्हाराव की आलोचना कर रहे हैं। यह बात पहले भी चर्चा में रही है कि नरसिम्हाराव के गुजरने पर किस तरह उस वक्त कांग्रेस पार्टी ने उनके शव को श्रद्धांजलि और दिल्ली में अंतिम संस्कार से परिवार को रोका था। ऐसा भी माना जाता है कि सोनिया गांधी नरसिम्हाराव को अधिक पसंद नहीं करती थीं, और नरसिम्हाराव ने विद्याचरण शुक्ल के मार्फत बोफोर्स के मामले को कुरेदने का काम किया था ताकि वह मीडिया में बने रहे, और सोनिया गांधी को शर्मिंदग झेलती रहनी पड़े। खैर, वह बात पार्टी के भीतर की थी जिस पर नरसिम्हराव के परिवार का कोई औपचारिक बयान अभी याद नहीं पड़ रहा है, लेकिन मणिशंकर अय्यर जो बात कहते हैं वह बात तो कांग्रेस पार्टी के भीतर बहुत से दूसरे नेता भी मानते हैं कि बाबरी मस्जिद गिराए जाने को प्रधानमंत्री की मौन सहमति थी जिन्होंने तथाकथित साधू-संतों और यूपी के उस वक्त कट्टर हिन्दू सीएम कल्याण सिंह के तथाकथित वायदों पर भरोसा किया। उस वक्त भी अर्जुन सिंह सरीखे भाजपा-संघ के विरोधी, और कुछ वामपंथी रूझान वाले नेताओं ने नरसिम्हाराव को आगाह किया था कि वे गलत लोगों पर भरोसा कर रहे हैं, और ऐसे लोग खतरा बन सकते हैं। फिर भी नरसिम्हाराव ने हिन्दू संगठनों और ताकतों की बात सुनी थी जिसका नतीजा बाबरी विध्वंस की शक्ल में सामने आया था। अब उस दौर का कांग्रेस पार्टी और केन्द्र सरकार का इतिहास देखा जाए, तो कुछ लोगों ने भीतर से भी नरसिम्हाराव का विरोध किया था, लेकिन वह बहुत दूर तक जा नहीं पाया था। खुद अर्जुन सिंह बाबरी मस्जिद गिराए जाने में नरसिम्हाराव की संदिग्ध भूमिका के खिलाफ इस्तीफा देने का हौसला नहीं जुटा पाए थे।
लेकिन अब ऐसा लगता है कि मणिशंकर अय्यर जो बात नरसिम्हाराव के बारे में बोल रहे हैं, वह आज भी कांग्रेस के बहुत से नेताओं पर लागू हो रही है। वैसे भी कांग्रेस का इतिहास बताता है कि उसके भीतर हिन्दूवादी ताकतों का एक बड़ा जमावड़ा सर्वोच्च स्तर पर था, और मदन मोहन मालवीय से लेकर राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद तक बहुत से लोग नेहरू की असहमति के बावजूद हिन्दू रीति-रिवाजों को औपचारिक बढ़ावा देते रहते थे। आजादी के तुरंत बाद का वह दौर कुछ अलग इसलिए था कि उस वक्त नए भारत के निर्माण की चुनौती थी, और लोग तरह-तरह की विचारधाराओं के साथ भी तालमेल बिठाने के आदी थे। गांधी और नेहरू कांग्रेस के भीतर भी कई किस्म की असहमति और विरोध झेलते थे, जिसमें कट्टर हिन्दूवादी नेता भी थे।
1992 में प्रधानमंत्री पी.वी.नरसिम्हाराव पर यह तोहमत लगी थी कि उन्होंने बाबरी मस्जिद गिराने को मौन सहमति दी थी। आज भारत के कई प्रदेशों में कांग्रेस के नेता जिस हद तक हिन्दुत्ववादी हो गए हैं, आज अगर 6 दिसंबर 1992 का दिन आए, तो कांग्रेस नेता घर नहीं बैठे रहेंगे, उनमें से बहुत से अयोध्या में सब्बल-कुदाली लिए हुए दिखेंगे। देश की राजनीति में भाजपा जिस फौलादी पकड़ से हिन्दुत्व को जकडक़र रखना चाहती हैं, वैसे ही फौलादी हाथों से बहुत से कांग्रेस नेता धर्मनिरपेक्षता को दूर धकेल भी रहे हैं। देश के कई बड़े कांग्रेस नेता इस बात में भी कामयाब हो गए हैं कि वे प्रियंका गांधी सरीखी प्रमुख कांग्रेस नेता को पूरी तरह से हिन्दुत्व की छत्रछाया में ले जा चुके हैं। अब भाजपा से चुनावी मुकाबले की यह हिन्दूवादी रणनीति कितनी कामयाब होती है, यह आने वाले चुनावों के नतीजों के विश्लेषण से पता चलेगा, लेकिन आज मणिशंकर अय्यर कांग्रेस के भीतर गिने-चुने नेताओं में से रह गए हैं जो कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ खुलकर बात करने से परहेज नहीं करते। हो सकता है कि भाजपा के लिए वे कांग्रेसी कैम्प में एक पसंदीदा काम कर रहे हों, लेकिन हमारा यह भी मानना है कि चुनावी जीत-हार से परे बुनियादी मुद्दों पर नेताओं और पार्टियों की सोच सार्वजनिक रहनी चाहिए, और पारदर्शी रहनी चाहिए। अगर वोट पाने के लिए झूठ बोलना और सच को छुपाना जरूरी हो, तो हम उसके हिमायती नहीं हैं। मणिशंकर अय्यर आज 1992 के कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के बारे में जो बोल रहे हैं, वो आज के किन कांग्रेस नेताओं के बारे में 25 बरस बाद बोला जाएगा, यह सोचने की बात है।
राजस्थान के कोटा में बड़े कॉलेजों में दाखिले की तैयारी करते बच्चों में से इस बरस अब तक रिकॉर्ड संख्या में बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं। राजस्थान सरकार पिछले कुछ वक्त से इस खतरे को देखते आ रही थी, और अभी हफ्ते-दस दिन पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कोचिंग सेंटरों को चेतावनी भी दी थी कि वे इतना तनाव खड़ा न करें कि बच्चे थककर जिंदगी दे दें। उन्होंने यह भी कहा था कि कोचिंग सेंटर खुद ही फर्जी किस्म की स्कूलें चलाते हैं जहां बिना पढ़ाई के बच्चों को हाजिरी दे दी जाती है ताकि वे स्कूली इम्तिहान किसी तरह से पास कर लें, और पूरा ध्यान आईआईटी या नीट जैसी दाखिला-इम्तिहान को पास करने में लगाएं। पिछले चौबीस घंटे में कोटा में दो और आत्महत्याएं हो गईं, और साल की शुरुआत से अभी तक ये बीस हो चुकी हैं। देश का कोचिंग अड्डा कहा जाने वाला राजस्थान का कोटा एक भयानक जगह हो गया है जहां पर आत्महत्याएं तो खबरों में आ जाती हैं लेकिन डिप्रेशन के शिकार होने वाले और बच्चों की गिनती किसी पैमाने पर नहीं हो पाती है। मां-बाप अपनी महत्वाकांक्षा के चलते, या बच्चों के कहे हुए भी उन्हें कोटा भेज देते हैं जहां कोचिंग का ऐसा कारखाना चलता है जिसकी शोहरत बच्चों को मेडिकल या इंजीनियरिंग में पहुंचा देने की है, और इसके लिए बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर जितने किस्म के जुल्म ढाने रहते हैं, उनमें से किसी से भी परहेज नहीं किया जाता। राजस्थान के कोटा नाम के कोचिंग-उद्योग का डरावना सच यह है कि पिछले दस बरस में 160 से अधिक बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं, पिछले एक साल में 29 बच्चे जो कि 10 बरस के औसत से बहुत ज्यादा है, और पिछले 8 महीने में 22 बच्चे, और पिछले 11 दिनों में 4 बच्चे खुदकुशी कर चुके हैं। इस तरह कोटा कोचिंग सेंटर नहीं, सुसाइड केपिटल बन गया है।
अभी हमने कुछ अरसा पहले ही, तमिलनाडु के एक ऐसे पिता-पुत्र की आत्महत्या पर इसी जगह पर लिखा था जिसमें बेटे को नीट की लिस्ट में जगह नहीं मिल पाई थी, बाप ने एक और कोचिंग सेंटर में उसकी फीस जमा कर दी थी, लेकिन लडक़े ने खुदकुशी कर ली, और उसके अँतिम संस्कार के बाद बाप ने भी खुदकुशी कर ली। हिन्दुस्तान में स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई किनारे धर दी जाती है क्योंकि उसके नंबरों से कहीं दाखिला नहीं मिलता। अब तो इंजीनियरिंग और मेडिकल, कानून और मैनेजमेंट हर बड़े कोर्स के लिए अलग से दाखिला-इम्तिहान होते हैं, और स्कूल-कॉलेज की नियमित पढ़ाई सिर्फ वहां की परीक्षा पास करने के लिए है जिससे आगे कुछ नहीं मिलता। नतीजा यह हुआ है कि पढ़ाई खत्म हो गई है, और दाखिले के मुकाबले की तैयारी ही सब कुछ रह गई है। अभी कोटा में इन दो आत्महत्याओं के तुरंत बाद राजस्थान के कुछ मंत्रियों ने भी कोचिंग के खिलाफ बयान दिए हैं। एक मंत्री ने तो कहा है कि पूरे देश में कोचिंग बैन होनी चाहिए, और प्रधानमंत्री को ऐसी एक नीति लागू करनी चाहिए कि देश में कोई कोचिंग न हों। कुछ दूसरे मंत्रियों ने जोर डाला है कि राज्य सरकार ने जैसा कहा है उसके मुताबिक कोटा में अगले दो महीने कोई टेस्ट नहीं होने चाहिए। मुख्यमंत्री ने कोचिंग सेंटरों से कहा था कि वे 9वीं और 10वीं के बच्चों की भी कोचिंग शुरू कर देते हैं जिसकी वजह से उनके ऊपर अंधाधुंध अतिरिक्त दबाव पड़ता है। उन्हें बोर्ड की परीक्षा भी देनी होती है, और कोचिंग की तैयारी भी। उन्होंने कहा कि कोचिंग में आते ही छात्रों का फर्जी स्कूलों में दाखिला दिया जाता है, और तैयारी ऐसी करवाई जाती है कि मानो आईआईटी कोई ईश्वर हो। राजस्थान प्रशासन ने कोटा में रहने वाले बच्चों के कमरों में लगे हुए छत के पंखों में ऐसे स्प्रिंग लगवाए हैं कि कोई उस पर फांसी लगाने की कोशिश करे तो पंखा ही नीचे आ जाए, वहां ऊंची इमारतों में जहां बच्चे रहते हैं, वहां बाल्कनी में जालियां लगवाई जा रही हैं।
वह देश बहुत मूढ़ और मूर्ख है जो कि किसी दाखिला-इम्तिहान के मुकाबले को बुनियादी पढ़ाई से अधिक महत्व देता है। भारत में स्कूल-कॉलेज में बच्चों को अपने विषय की पढ़ाई की फिक्र नहीं रहती, आगे की एंट्रेंस-एग्जाम की तैयारी में उन्हें झोंक दिया जाता है। बचपन से ही मां-बाप गिने-चुने चार-छह किस्म के कोर्स अपने दिमाग में बिठाकर रखते हैं, और बच्चों के दिमाग पर यह दबाव बनाकर चलते हैं कि उन्हें आगे चलकर क्या बनना है। नतीजा यह होता है कि मां-बाप के सपनों को पूरा करने के लिए, या कुछ मामलों में बच्चे अपनी हसरत से भी ऐसे कोर्स में जाने की कोशिश करते हैं, या पहुंच जाते हैं, जो कि न तो उनके मिजाज का होता, न ही उनकी क्षमता का। ऐसे में दाखिला-इम्तिहान की तैयारी में, या पढ़ाई के दौरान वे खुदकुशी करने लगते हैं। यह भी मानकर चलना चाहिए कि खुदकुशी करने वाले एक बच्चे के मुकाबले ऐसे हजारों बच्चे और रहते होंगे जो कि बहुत बुरी तरह के डिप्रेशन के शिकार हो जाते होंगे या हीनभावना के शिकार हो जाते होंगे। ऐसा होने पर उनकी जो स्वाभाविक क्षमता है, वह भी धरी रह जाती होगी, और वे समाज के लिए, परिवार के लिए उतने उत्पादक भी नहीं रह जाते होंगे।
अभी कुछ दिन पहले ही इसी विषय पर लिखते हुए यह सुझाया था कि देश में शिक्षा नीति ऐसी रहनी चाहिए जो कि स्कूल की न्यूनतम जरूरी पढ़ाई के बाद बच्चों का रूझान और उनकी क्षमता देखकर उन्हें ऐसे प्रशिक्षण मुहैया कराए जो कि उन्हें जिंदगी में उत्पादक काम करने का हुनर दें। हर किसी को किताबी पढ़ाई देना भी उनकी जिंदगी के लिए एक बोझ हो जाता है क्योंकि उसके बाद वे मेहनत-मजदूरी के, या मशीन-औजार के कोई काम करने लायक नहीं रह जाते। इसलिए इस देश में हर किसी को किताबी पढ़ाई देना जरूरी नहीं है। स्कूल के बाद बहुत से लोगों को सीधे कामकाज के प्रशिक्षण में ले जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि पूरे देश से कोचिंग की व्यवस्था ही खत्म करनी चाहिए क्योंकि यह समाज में गैरबराबरी पैदा करती है, और इससे गरीब बच्चों के आगे बढऩे की संभावनाएं खत्म हो जाती हैं, और महंगी कोचिंग पा सकने वाले बच्चे बड़े संस्थानों में दाखिला पाने की अधिक संभावना पा जाते हैं। कोटा की ताजा आत्महत्याएं देश को सोचने का एक मौका दे रही हैं कि वह एक सभ्य और समझदार देश की तरह अपने बच्चों को कोचिंग के कारखानों में भेजना बंद करे, और स्कूल-कॉलेज को मुकाबले की जगह बनाने के बजाय ज्ञान और समझ की जगह बनाएं।
यूक्रेन पर हमला करने के बाद अब रूस बड़ी अजीब नौबतों से गुजर रहा है। यूक्रेन पर फतह कुछ हफ्तों का मामला लग रही थी, लेकिन अब उसे सवा साल हो चुका है, और रूसी सेना ने बहुत जख्म खाए हैं, और बड़ी शिकस्त भी झेली है। दुनिया की एक महाशक्ति पड़ोस के छोटे से देश को निपटा नहीं पाई, और रूस के खिलाफ यूक्रेन के साथ सैनिक गठबंधन नाटो के देश जिस हद तक एक हो गए हैं, उसने रूस के साथ-साथ खुद नाटो देशों को भी चौंका दिया है। लोगों को यह लग रहा है कि यूक्रेन के बाद अगली बारी किसी भी नाटो देश की हो सकती है, और उस हालत में गठबंधन के संविधान के मुताबिक तमाम देशों को रूस के खिलाफ टूट पडऩा होगा। इसलिए आज लोग यूक्रेन का साथ देकर रूस के खिलाफ एक प्रॉक्सी लड़ाई भी लड़ रहे हैं, ताकि रूस खोखला होते चले, और नाटो देशों में ताबूत न लौटें। ऐसी नौबत के बीच अभी कुछ अरसा पहले जब रूस के लिए यूक्रेन में जंग लड़ता भाड़े पर सैनिक तैनात करने वाला एक संगठन वाग्नर ग्रुप रूसी फौजी जनरलों के रवैये के खिलाफ बगावत पर उतर आया, और उसने एक रूसी शहर पर कब्जा कर लिया, और राजधानी मास्को की तरफ फौजी कूच कर दिया, तो यह रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के लिए बड़ी शर्मिंदगी की बात थी। कुछ रहस्यमय वजहों से वाग्नर की बगावत एक दिन से ज्यादा नहीं चली, और उसी दिन से यह माना जाने लगा था कि अब इस मिलिट्री ग्रुप का मुखिया येवेगनी प्रिगोझिन एक चलती-फिरती लाश है। वह जिंदा जरूर था, लेकिन पुतिन के विरोधियों की तरह उसकी जिंदगी के दिन भी बहुत गिने-चुने माने जा रहे थे। और हुआ भी वही, अभी वह एक निजी विमान में अपने फौजी गिरोह के और लीडरों के साथ मास्को आ रहा था, और पहुंचने के ठीक पहले एक विस्फोट में विमान के तमाम दस लोग खत्म हो गए। रूस और बाकी दुनिया में जानकार लोग इसे पुतिन स्टाइल की सजा करार दे रहे हैं। लेकिन अभी एक सवाल उठ खड़ा हुआ है कि वाग्नर ग्रुप के सैनिक न सिर्फ यूक्रेन के मोर्चे पर हैं, बल्कि वे अफ्रीका के कई देशों में वहां की सरकारों की फौज को मदद करने के लिए और बागियों के खिलाफ लडऩे के लिए भाड़े पर चल रहे हैं, और खदानों का कारोबार भी कर रहे हैं। अब खबर है कि पुतिन ने वाग्नर ग्रुप के सभी सैनिकों को रूस के प्रति वफादारी के हलफनामे पर दस्तखत करने कहा है, क्योंकि इनमें से बहुत से लोग अपने मुखिया प्रिगोझिन की संदिग्ध मौत का बदला लेने की धमकी दे रहे थे।
हमारी रूस के घरेलू मामलों में इतनी दिलचस्पी नहीं हैं कि हम उस पर यहां लिखते, लेकिन हमारा हमेशा यह मानना रहता है कि दुनिया के देशों को एक-दूसरे से सीखना चाहिए। हर देश के हालात अलग हो सकते हैं, लेकिन बहुत से देशों के सबक दूसरों के लिए काम आ सकते हैं। ऐसा ही कुछ रूसी राष्ट्रपति और भाड़े की इस फौज के बीच की खतरनाक नौबत को लेकर है। पुतिन ने अपने करीबी समझे जाने वाले प्रिगोझिन को रूसी सरकार के इतने कारोबार दिए थे कि उसे पुतिन का एक सबसे करीबी व्यक्ति माना जा रहा था। लेकिन रूस की जमीन पर काम करते हुए, रूस की जमीन से परे दूसरे देशों में फौजी और मवाली सर्विस देते हुए वाग्नर अपने आपमें एक अलग किस्म का कानून बन गया था, और वह पुतिन के काबू से परे भी बहुत सी चीजों में शामिल था। ऐसे में यूक्रेन के मोर्चे पर जब उसका रूसी फौजी जनरलों से जंग की रसद और सामानों को लेकर झगड़ा हुआ, तो वह रूसी सरकार पर ही चढ़ बैठा था। यह बात लोगों को याद रखनी चाहिए कि संविधान से परे जब लोग गैरकानूनी संगठन खड़े करते हैं, तो वे संगठन किसी दिन बनाने वाले के लिए आत्मघाती भी साबित हो सकते हैं। ऐसे संगठन चाहे फौजी हों, चाहे साम्प्रदायिक हों, चाहे एक वक्त के उत्तर भारत के जातिवादी संगठन हों जो कि अलग-अलग वर्गों की सेनाओं की तरह काम करते थे, और परले दर्जे का खूनखराबा करते थे। जो लोग कानून से परे जाकर ऐसी ताकतें खड़ी करते हैं, वे ऐसी ताकतों के हाथ मरने का खतरा भी उठाते हैं। हमने बगल के पाकिस्तान में भी देखा है कि वहां जिस तरह से हिन्दुस्तान के खिलाफ खड़ा करने के लिए फौज को अरातकता की हद तक बढ़ावा दिया गया, उससे पाकिस्तान में कई बार फौजी तानाशाही आई, और आज भी माना जाता है कि वहां की निर्वाचित नागरिक सरकार फौज की पसंद-नापसंद पर आती-जाती है। दुनिया के अलग-अलग देशों में संविधान से परे के ऐसे हथियारबंद संगठन कब अपने ही बनाने वाले लोगों के खिलाफ खड़े हो जाते हैं, इसका अंदाज भी नहीं लगता। अमरीका का तजुर्बा यह है कि जिस सीआईए को अमरीका ने दुनिया के दूसरे देशों में गैरकानूनी तरीके से सरकारें पलटने के लिए खड़ा किया, और इस्तेमाल किया, उस सीआईए ने घरेलू राजनीति में भी दखल देना शुरू कर दिया था। हमने भारत में, और यहां के कई राज्यों में देखा है कि जब किसी एजेंसी को, या कुछ अफसरों को संविधान से परे के अघोषित हक देकर इस्तेमाल करना शुरू किया जाता है, तो ये संगठन और अफसर अराजक होने लगते हैं, और अपने को ताकत देने वाले हाथों को ही कैद करने की हद तक चले जाते हैं। इसलिए संविधान के तहत काम करने वाली संस्थाएं, और कानूनी दायरे में रखे गए अफसर हमेशा ही अधिक महफूज होते हैं क्योंकि वे जवाबदेह होते हैं।
आज हिन्दुस्तान में जिस तरह हिंसक साम्प्रदायिक संगठनों को सत्ता की राजनीति में गैरकानूनी हद तक बढ़ावा दिया जा रहा है, उससे लोकतंत्र तो खतरे में आ ही चुका है, उनके आज के आका भी कब उनके निशाने पर आ जाएंगे, यह साफ नहीं है। हिन्दुस्तान में ही मिजोरम एक ऐसा राज्य था जहां तकरीबन तमाम आबादी ईसाई है, और वहां पर यंग मिजो एसोसिएशन नाम का एक संगठन धार्मिक आधार पर बना था, और वह राज्य में नशाबंदी लागू करने जैसे कई कामों में सरकार की मदद करता था। लेकिन वह कानून के प्रति जवाबदेह नहीं था क्योंकि उसका कोई कानूनी दर्जा नहीं था, नतीजा यह हुआ था कि वह चर्च के मातहत काम करते हुए पूरी तरह अराजक हो गया था, और सार्वजनिक हिंसा के काम करने लगा था, नैतिकता के पैमाने लागू करने लगा था, और चौराहों के खम्भों पर लोगों को बांधकर पीटने भी लगा था। उससे सरकार खुश थी कि उसकी वजह से राज्य में नशाबंदी कामयाबी से लागू हो रही है, लेकिन ऐसे अराजक संगठन खुद अपनी सरकार के लिए सरदर्द और खतरा बन जाते हैं।
पुतिन और वाग्नर ग्रुप का यह तजुर्बा यह साफ करता है कि सरकारों को अराजक और असंवैधानिक तौर-तरीकों से बचना चाहिए, चाहे यह रूस की तरह की तानाशाही वाली व्यवस्था हो, या फिर पश्चिमी लोकतंत्र हों, या फिर एक धर्मराज की तरफ बढ़ता हुआ हिन्दुस्तान हो।
बहुत से काम अच्छी नीयत से किए जाते हैं, या कम से कम वे अच्छी नीयत से किए हुए कहे जा सकते हैं, बताए जा सकते हैं। लेकिन इनमें से कुछ काम अपने मकसद से ठीक उल्टा भी कर सकते हैं। अब कल जैसे मुजफ्फरनगर में स्कूल में मुस्लिम बच्चे को टीचर के कहे हुए पीटने वाले हिन्दू बच्चों को किसान नेता नरेश टिकैत ने वहां जाकर पीटने वाले के गले लगवाया, और यह कहा कि बच्चों के मन में एक-दूसरे के लिए नफरत नहीं रहनी चाहिए। पहली नजर में उनका यह काम बड़ा सद्भावना का लगता है कि दोनों समुदायों में कोई नफरत न फैले। लेकिन दूसरी तरफ इसे एक अलग नजरिए से भी देखने की जरूरत है। देश में मुस्लिम राजनीति करने वाले सबसे चर्चित सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने कल से ही मुजफ्फरनगर की क्लासरूम हिंसा को लेकर बयान देना शुरू किया था, अब उन्होंने टिकैत पर भी निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि नरेश टिकैत तो इस प्रिंसिपल के खिलाफ एफआईआर खत्म करने की बात कर रहे हैं, वह नरेश टिकैत की क्या लगती है, बहन, या कोई करीबी दोस्त? उन्होंने पूछा कि अगर टिकैत के बेटे या पोते को स्कूल में इस तरह पीटा जाता तो वह क्या करते? उन्होंने टिकैत से पूछा- अगर आप किसानों की लड़ाई लड़ते हैं, तो क्या इंसानियत की लड़ाई नहीं लड़ेंगे? भारत के संविधान में गरिमा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। इसके पहले ओवैसी ने कल ही लिखा था कि भारतीय मुसलमानों को उसी उत्पीडऩ और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है जैसा कि 1930 के दशक में जर्मनी में हिटलर के हाथों यहूदियों को झेलना पड़ा था। ओवैसी ने मोदी से भी यह सवाल किया था कि इस मुस्लिम बच्चे के पिता को मालूम है कि योगीराज में इंसाफ नहीं मिलेगा, इसलिए वह रिपोर्ट नहीं लिखा रहा था। उन्होंने सीएम योगी आदित्यनाथ से सवाल किया था कि अब उनकी बुलडोजर और ठोक दो नीति का क्या हुआ?
अब कुछ दूसरी खबरें फिक्र पैदा करती हैं कि सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के हुक्म के बाद भी किसी देश की सरकार किस तरह उसे धता बता सकती है। यूपी में योगी की पुलिस ने इस स्कूल संचालिका के खिलाफ जो मुकदमा दर्ज किया है उसमें किसी धर्म के खिलाफ कुछ करने का कोई जिक्र नहीं है। और यह बात भी तब है जबकि उसके वीडियो चारों तरफ फैले हुए हैं जिन्हें कि सुप्रीम कोर्ट अब तक देख चुका होगा। देश की सबसे बड़ी अदालत की नजरों के सामने अगर उसके हुक्म के खिलाफ पुलिस इतने धड़ल्ले से काम करती है, तो उन तमाम नौबतों की तो कल्पना ही की जा सकती है जो जहां तक अदालत की नजरें पहुंचती नहीं हैं, और जो मामले वीडियो-कैमरों से परे होते हैं। नफरती हिंसा के मामले में कार्रवाई के लिए मुजफ्फरनगर का यह मामला एक मिसाल बन सकता था, लेकिन अगर टिकैत के बीच-बचाव की कोई पहल इस कार्रवाई को खत्म करवाने की शर्त के साथ हो रही है, तो यह इंसाफ के खिलाफ बात है। नफरती और साम्प्रदायिक आतंकी हिंसा का यह मामला किसी समझौते या माफी के लायक नहीं है। यह तो एक ऐसी मिसाल है जिस पर अदालत की सबसे सख्त कार्रवाई एक नजीर पेश कर सकती है जो कि बाकी देश के लिए भी एक सबक और नसीहत हो सकती है। हमारा ख्याल है कि सद्भावना के लिए ऐसा कोई बीच-बचाव जायज नहीं है जो कि ऐसी नफरती हिंसा को माफी दिलवा दे। हमने कल भी इस जगह लिखा था कि शिक्षिका का काम कर रही यह औरत वहां मौजूद हर एक बच्चे के दिल-दिमाग पर एक हिंसक छाप छोडऩे के जुर्म में बाकी तमाम जिंदगी जेल में रखने के लायक है, और उसके लिए खुली दुनिया में कोई जगह नहीं होना चाहिए।
यह शर्मनाक बात है कि जो खबर पूरे हिन्दुस्तान में यूपी सरकार को धिक्कार रही है, उस पर अब तक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मुंह भी नहीं खोला है। आमतौर पर वे ठोक दो, और बुलडोजर की जुबान बोलते हैं, उनकी बात से यह साफ हो जाता है कि वे किस धर्म का राज चाहते हैं, लेकिन लोकतंत्र का लचीलापन यह है कि इसमें उनकी साम्प्रदायिकता पर कोई रोक नहीं लग पा रही है। उत्तरप्रदेश में साम्प्रदायिक भेदभाव का यह पहला और अकेला मामला नहीं है, यह सिलसिला वहां चलते ही आ रहा है। इसलिए अब सुप्रीम कोर्ट में जरूरत इस बात की है कि यूपी पुलिस को कटघरे में लाया जाए कि उसने इतने साफ-साफ वीडियो और बयानों के बाद भी साम्प्रदायिकता की कोई धारा इस केस में क्यों नहीं लगाई है। हेट-स्पीच के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने इतने कड़े निर्देश दिए हैं, लेकिन उनकी भी कोई परवाह न यूपी पुलिस को दिख रही है, और न ही देश के बहुत से और राज्यों की पुलिस को। छत्तीसगढ़ में साम्प्रदायिक हत्याओं के बाद बस्तर में खुलेआम विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा के नेताओं ने सडक़ पर लाउडस्पीकर पर राम की कसम खाकर तमाम मुस्लिम कारोबारियों का बहिष्कार करने की कसम खाई, और छत्तीसगढ़ पुलिस ने आज तक उस पर कोई जुर्म कायम नहीं किया क्योंकि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के लिए वह हिन्दू बहुल प्रदेश में मतदाताओं के बीच घाटे का काम हो सकता था।
अब सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि हेट-स्पीच पर अपने जुबानी जमा-खर्च से परे अपना एक कमिश्नर नियुक्त करे जो कि देश के जाने-माने, साख वाले धर्मनिरपेक्ष लोगों की मदद से पूरे देश से हर दिन ऐसी जानकारी इकट्ठी करे जो कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के खिलाफ है। और हर महीने अदालत को ऐसी रिपोर्ट पर कार्रवाई करनी चाहिए। अब जब देश की दोनों बड़ी पार्टियां, भाजपा और कांग्रेस, हिन्दू वोटों की राजनीति कर रही हैं, तो अदालत से ही उम्मीद रह जाती है। सुप्रीम कोर्ट को देश की धर्मनिरपेक्षता के लिए न सही, कम से कम अपने अनगिनत आदेशों की इज्जत के लिए ऐसा एक जांच कमिश्नर तुरंत बनाना चाहिए, जिसके पास देश भर से सुबूतों सहित शिकायतें आ सकें, और सरकारों से जवाब-तलब हो सके।
फिलहाल मुजफ्फरनगर का यह मामला किसी भी किस्म के समझौते का मामला नहीं है, यह एक शिक्षिका और एक बच्चे के बीच का मामला भी नहीं है, यह देश की धर्मनिरपेक्षता का मामला है, और उसे बेचकर समझौता करने का हक न तो इन दोनों पक्षों को है, और न ही टिकैत सरीखे किसी सद्भावना वाले मध्यस्थ को। इस मामले को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए कि एक गरीब मुस्लिम परिवार उत्तरप्रदेश में हिन्दू-साम्प्रदायिकता के खिलाफ भला कितनी शिकायत करने का हौसला दिखा सकता है?
उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले की एक निजी स्कूल का वीडियो इस देश के लिए शर्म से डूब मरने का पर्याप्त सामान हैं। इस लोकतंत्र में साम्प्रदायिक हिंसा का जो नया पैमाना तय हुआ है, वह देखने लायक है। जहां तक देश-प्रदेश की सरकारों का सवाल है, तो यह एक नया नवसामान्य है कि अल्पसंख्यकों को किस हद तक मारा जा सकता है, किस हद तक उनका मनोबल तोड़ा जा सकता है। इस वीडियो में स्कूल चलाने वाली उसकी मालकिन, एक हिन्दू टीचर एक मुस्लिम बच्चे की पिटाई करवाती है, क्लास में मौजूद बाकी तमाम हिन्दू बच्चों से। साथ-साथ वह मुस्लिम समाज के लिए आपत्तिजनक और अपमानजनक बातें कहती जाती हैं, और वीडियो से आती आवाज से यह भी समझ आता है कि वहां पर कोई एक पुरूष भी मौजूद है। यह शिक्षिका मुस्लिम बच्चे को खड़ा रखती है, और हिन्दू बच्चों को बुला-बुलाकर उनसे इसे पिटवाती हैं। मुस्लिमों के लिए उसकी नफरत इस हरकत से और परे उसकी जुबान से भी जहर की तरह बरसती रहती है। उत्तरप्रदेश की इस स्कूल के बारे में जिले के अफसर बतलाते हैं कि बच्चे का पिता शिकायत करेगा उसके बाद ही एफआईआर दर्ज हो सकेगी। बाद में अभी दोपहर के करीब खबर आ रही है कि पुलिस ने इस मामले में एफआईआर दर्ज की है। दूसरी तरफ बच्चे का मुसलमान पिता कहता है कि न तो वो बच्चे को उस स्कूल भेजना चाहता, और न ही टीचर के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाना चाहता, वह कहीं शिकायत नहीं करेगा। जाहिर है कि योगी आदित्यनाथ के उत्तरप्रदेश में किसी मुसलमान की इतनी हिम्मत हो भी नहीं सकती कि वह एक हिन्दू के खिलाफ मुस्लिम बच्चे को प्रताडि़त करने की रिपोर्ट दर्ज करा सके, क्योंकि उसके बाद उसका जो हाल होगा, वह उसने कई दूसरे लोगों के मामलों में देखा-सुना होगा।
अब सवाल यह उठता है कि सुप्रीम कोर्ट जिस हेट-स्पीच पर अफसरों को मुकदमा दर्ज करने के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार ठहरा रहा है, वह जिम्मेदारी इस मामले में कहां गई है? यह न सिर्फ साम्प्रदायिक नफरत फैलाने की बात है, बल्कि एक बच्चे के खिलाफ टीचर और दर्जनों बच्चों का आतंक भी है, और यह साफ-साफ एक साम्प्रदायिक आतंकी घटना है। साम्प्रदायिक आतंकी हिंसा के लिए बंदूकें और फौजी वर्दियां नहीं लगतीं, क्लास के तमाम बच्चों के बीच साम्प्रदायिक नफरत फैलाकर, अपनी निगरानी में अपने हुक्म से बच्चों से हिंसा करवाना, किसी एक बच्चे को अकेला करके उसे धार्मिक आधार पर पिटवाना, यह साम्प्रदायिक आतंकी हिंसा के अलावा और कुछ नहीं है। तृप्ता त्यागी नाम की यह टीचर बच्चों को फटकारती है कि वे पर्याप्त जोर से नहीं मार रहे हैं, और अधिक जोर से मारें। अकेला खड़ा मुस्लिम बच्चा मार खा-खाकर रो रहा है। इस टीचर पर इसके तहत लगने वाले तमाम कानून तो इस्तेमाल होने ही चाहिए, इनके अलावा क्लास के दर्जनों बच्चों को नफरत सिखाना, उनसे हिंसा करवाना, इसके भी अलग-अलग मामले उस पर चलने चाहिए, और हमारा ख्याल है कि एक-एक बच्चे को साम्प्रदायिक हिंसा में उतारने के जुर्म में उसे अलग-अलग सजा होनी चाहिए जो कुल मिलाकर उसकी पूरी जिंदगी जेल में खत्म करे। जिसे नफरत की हिंसा को इस हद तक फैलाना है, उसे समाज में खुला छोडऩा ठीक नहीं है।
अब बात जरा उन लोगों की की जाए जिन्होंने संविधान के तहत शपथ ली है, और जिन पर देश में लोकतंत्र, इंसाफ, और नागरिक समानता को जिम्मेदारी है। कल से यह वीडियो सामने है, हमारे हिसाब से सुप्रीम कोर्ट अगर संवेदनशील होता तो कम से कम उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट के एक जज को वहां भेजता जो कि इस बात का प्रतीक होता कि सरकार, और उसकी पिट्ठू पुलिस इंसाफ के अकेले ठेकेदार नहीं हैं, और अगर वे मुजरिमों के गिरोह की तरह काम करते हैं, तो अदालत अभी तक इस मुल्क में जिंदा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चाहते, तो अब तक यूपी सरकार से इस बारे में जवाब-तलब कर चुके रहते। अगर यूपी के मुख्यमंत्री, भगवा कपड़ों में रहने वाले अपने को संन्यासी बताने वाले योगी आदित्यनाथ अगर संवैधनिक जिम्मेदारी और इंसानियत निभाते रहते, तो वे अब तक इस पर मुंह खोल चुके रहते, और अपने किसी मंत्री को भेज चुके रहते, लेकिन उस प्रदेश में सरकार की नीतियों यह महिला शिक्षिका शायद माकूल बैठती है, इसलिए किसी जायज कार्रवाई की कोई गुंजाइश नहीं दिखती। अभी दोपहर तक की खबरों के मुताबिक देश की बाल कल्याण परिषद ने इस पर नोटिस जारी किया है, लेकिन उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट, उत्तरप्रदेश मानवाधिकार आयोग, उत्तरप्रदेश बाल आयोग या कल्याण परिषद, अल्पसंख्यक आयोग की कोई खबर नहीं है। संसद में एक तथाकथित हवाई चुम्बन के आरोप को लेकर जो केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद सिर पर उठा लिया था, वे भी अपने चुनाव क्षेत्र वाले उत्तरप्रदेश की इस खबर पर ठीक उसी तरह से आंख, कान, और मुंह बंद करके बैठी हैं जिस तरह से वे मणिपुर में महिलाओं से सार्वजनिक सामूहिक बलात्कार की तस्वीरों, वीडियो, और खबरों पर चुप बैठी थीं। संसद की हवा में उछले एक तथाकथित हवाई चुम्बन के आरोप के साथ स्मृति ईरानी का रौद्र रूप सामने आया था, लेकिन एक मुस्लिम बच्चे को पूरी क्लास से इस तरह पिटवाने को लेकर उनका कोई भी रूप अभी सामने नहीं आया है।
आज राहुल गांधी से इस बारे में उन्होंने लिखा कि भाजपा का फैलाया केरोसीन है। मासूम बच्चों के मन में भेदभाव का जहर घोलना, स्कूल जैसे पवित्र स्थान को नफरत का बाजार बनाना, एक शिक्षक देश के लिए इससे बुरा कुछ नहीं कर सकता। ये भाजपा का फैलाया वही केरोसीन है जिसने भारत के कोने-कोने में आग लगा रखी है। बच्चे भारत का भविष्य हैं, उनको नफरत नहीं, हम सबको मिलकर मोहब्बत सिखानी है।
जिन लोगों को देश भर में जगह-जगह यह लग रहा है कि मुस्लिमों को सबक सिखाना है, उन्हें देश में मुस्लिम आबादी के आंकड़े देखने चाहिए। यह समुदाय आबादी के 14 फीसदी से कुछ अधिक है, यानी 20 करोड़ के करीब। 140 करोड़ की आबादी में आज अगर 20 करोड़ मुस्लिम हैं, तो उन मुस्लिमों को सडक़ों पर, स्कूलों में, गांव-देहात में पीट-पीटकर खत्म नहीं किया जा सकता। पल भर के लिए मान भी लें कि सुप्रीम कोर्ट भी इनको बचाने में नाकामयाब है, तो भी देश की करीब सौ करोड़ हिन्दू आबादी के दस-बीस फीसदी हिंसक लोग मिलकर भी 20 करोड़ मुस्लिमों को इतिहास नहीं बना सकते। अगर किसी समाज के छोटे-छोटे बच्चे को इस तरह मारा जाएगा, उसके बूढ़ों को पीट-पीटकर उनकी दाढ़ी मूंडकर उनसे जयश्रीराम कहलवाया जाएगा, तो उससे वह आबादी खत्म नहीं होगी, उसके भीतर एक जवाबी नफरत, और जवाबी बगावत खड़ी होगी, जिसका नतीजा इस देश में गृहयुद्ध की शक्ल में हो सकता है। यह सौ करोड़ आबादी के एक छोटे हिस्से, और 20 करोड़ जख्मी आबादी के बीच अगर नफरती और जहरीले टकराव की नौबत आएगी, तो उससे पूरा देश जल जाएगा, और ऐसे जले हुए देश में सरकारों के पसंदीदा कारोबारियों के कारोबार भी जल जाएंगे। जब सब कुछ जलना शुरू होगा तो वह आज कनाडा और अमरीका के जंगलों की आग की तरह रहेगा। सुप्रीम कोर्ट के सौ-सौ बार कहने के बाद देश की किसी सरकार को उसकी कोई फिक्र नहीं है, आज वक्त आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट सौ-पचास आईएएस-आईपीएस लोगों को जेल भेजे, तो ही इस देश में नफरत फैलना कुछ धीमा हो सकता है। राजनीतिक दलों में, खासकर कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े राजनीतिक दलों में साम्प्रदायिकता को रोकने की, उसके खिलाफ कार्रवाई करने की कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं रह गई है। खुद राहुल गांधी जो बड़बड़ाते हैं, वह शायद अपनी पार्टी के अधिकतर बड़े और सत्तारूढ़ नेताओं की मर्जी के खिलाफ बोलते हैं। उन्हीं की पार्टी के अधिकतर नेताओं की सोच और उनका चाल-चलन राहुल की धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है, भाजपा के बारे में तो कोई चर्चा करने की। अभी तक सुप्रीम कोर्ट या यूपी हाईकोर्ट की कोई ऐसी पहल खबरों में नहीं दिख रही है कि उनके माथे पर मुजफ्फरनगर की इस साम्प्रदायिक आतंकी हिंसा से कोई शिकन आई हो। इस देश का लोकतंत्र एक गृहयुद्ध की खतरे की तरह बढ़ रहा है। आज जिन साम्प्रदायिक ताकतों को ऐसी हिंसा में बहुत मजा आ रहा है, वे भी जलते हुए देश में सुरक्षित नहीं रहेंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया के कई देशों में बच्चों के साथ खिलवाड़ करते हुए उनके कान पकड़े, फोटो खिंचाते दिखते हैं, उस बारे में उनके लोगों ने कहा है कि यह बच्चों की एकाग्रता और स्मरणशक्ति बढ़ाने की एक तरकीब है, जिसे दक्षिण के पुराने ग्रंथों में थोप्पुकरणम कहते हैं, इसलिए मोदी ऐसा करते हैं। आज उनका कोई शुभचिंतक उन्हें यह सलाह दे कि यूपी के बच्चे के साथ यह सुलूक देखकर उन्हें अपने कान पकडक़र इसी तरह का थोप्पुकरणम करना चाहिए ताकि उन्हें खुद यह याद रहे कि उन पर देश के तमाम धर्मों के लोगों की जिम्मेदारी है, और लोकतंत्र पर उनकी एकाग्रता बनी रहे।
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सुनील से सुनें : मुस्लिम बड़े-बूढ़ों के बाद अब बच्चे की भी घेरकर पिटाई..
देश में साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा को जिस तरह बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके चलते उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर के एक स्कूल में वहां की मालकिन-टीचर ने मुस्लिमों के खिलाफ नफरत की बातें करते हुए एक मुस्लिम छात्र को खड़ा करके बारी-बारी से दूसरे छात्रों से पिटवाया। वहीं बैठे एक दूसरे टीचर ने इसका वीडियो बनाया, और इसके सामने आने पर भी यूपी पुलिस साम्प्रदायिकता का जुर्म दर्ज करने से कतरा रही हैं। देश का सुप्रीम कोर्ट हेट-स्पीच के खिलाफ जुबानी जमाखर्च बहुत कर रहा है, लेकिन चारों तरफ फैलाई जा रही नफरत के वीडियो पर भी अब तक अदालत अपनी कोई अवमानना दर्ज नहीं कर रही है। आज देश और प्रदेशों की सरकारों का जो रूख है, वह मुस्लिम समुदाय को जिस हद तक जख्मी कर रहा है, उसके चलते एक दिन ऐसा आ सकता है कि कोई भी सुरक्षित न रह जाए। इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार की यह न्यूज रिपोर्ट।
हिन्दुस्तानी खेलों की दुनिया के लिए एक बुरी खबर है कि कुश्ती की वर्ल्ड चैंपियनशिप में भारतीय पहलवान भारतीय झंडे के साथ नहीं खेल सकेंगे। भारत में कुश्ती महासंघ के चुनाव न होने की वजह से इस खेल की दुनिया की सर्वोच्च संस्था यूनाईटेड वर्ल्ड रेसलिंग ने भारतीय कुश्ती महासंघ की सदस्यता निलंबित कर दी है। इसके चुनाव लगातार स्थगित होते चले गए, और 7 मई को चुनाव होने थे लेकिन खेल मंत्रालय ने उसे रोक दिया था।
ऐसा भी नहीं है कि यह बात आसमानी बिजली की तरह आकर गिरी है। अंतरराष्ट्रीय संगठन बार-बार इसके लिए नोटिस देते चल रहा था, और जिस तरह भारतीय कुश्ती महासंघ का अध्यक्ष, भाजपा सांसद, बृजभूषण शरण सिंह महिला खिलाडिय़ों के यौन शोषण के कई मामलों में अदालती कटघरे में हैं, उसे लेकर भी कुश्ती की दुनिया में बेचैनी चल रही थी। यह एक अलग बात है कि पूरी की पूरी केन्द्र सरकार इस भाजपा सांसद को बचाने पर आमादा दिख रही थी, और पहलवान लड़कियां सडक़ों पर पुलिस के हाथ पिट रही थीं। पूरा देश धिक्कार रहा था लेकिन केन्द्र सरकार इस सांसद को बचाने पर अड़ी हुई थी, और सारे संबंधित मंत्रालय, विभाग, और खेल संगठन इतनी सारी खिलाड़ी लड़कियों के आंसुओं को अनदेखा करते हुए इस बाहुबली खेल पदाधिकारी की क्रूर हॅंसी को बढ़ावा दे रहे थे।
जिन लोगों को देश के गौरव का गुणगान करते हुए हर अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर भारत की शान का झंडा फहराना रहता है, उन्होंने भी अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों से ओलंपिक से मैडल लेकर आने वाली अपनी लड़कियों की यौन शोषण की शिकायतों को कुचलने के अलावा कुछ नहीं किया। आज हालत यह है कि इस खेल से देश का झंडा छिन गया है, बृजभूषण शरण सिंह की गाड़ी पर तिरंगा जरूर लहरा रहा है। देश भर से न सिर्फ राजनीतिक दलों ने, न सिर्फ महिला संगठनों ने, न सिर्फ खेल संगठनों ने, बल्कि बड़े-बड़े नामी-गिरामी लोगों ने खुलकर इस बात पर केन्द्र सरकार को लानत भेजी थी, लेकिन केन्द्र पर सत्तारूढ़ भाजपा ने आज तक इस पसंदीदा बाहुबली को एक नोटिस भी नहीं भेजा है। ऐसे में लगता है कि कोई भी खिलाड़ी, कोई भी लडक़ी या महिला इस देश में तभी तक महफूज हैं जब तक उन पर किसी सत्तारूढ़ की नीयत नहीं डोलती, वरना उसके बाद इस देश में कोई ताकत उन्हें नहीं बचा सकती। उत्तरप्रदेश के एक और भाजपा नेता, उन्नाव के भाजपा विधायक कुलदीप सेंगर का मामला भी सामने है जिसके खिलाफ 2017 में एक नाबालिग से बलात्कार करने का मामला चल रहा था, जिस पर उसे बाद में उम्रकैद हुई, लेकिन वह इस जुर्म के महीनों बाद तक हॅंसता-मुस्कुराता घूमते रहा, और बलात्कार की शिकार लडक़ी के पिता को भी पुलिस हिरासत में मार डाला गया था। इसे भी सेंगर के कहे हुए ही गिरफ्तार किया गया था, और उत्तरप्रदेश में भाजपा सरकार के मातहत इस बलात्कारी भाजपा विधायक की ताकत ऐसी थी कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को उत्तरप्रदेश की जिला अदालत से दिल्ली ट्रांसफर किया था।
सत्ता के पसंदीदा बलात्कारियों का हिन्दुस्तान में जो सम्मान है उसे देखते हुए इस देश के लोगों से किसी भी देवी की पूजा का अधिकार छिन लेना चाहिए। अभी सुप्रीम कोर्ट में यह मामला चल ही रहा है जिसमें गुजरात की बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके परिवार के हत्यारों को गुजरात सरकार द्वारा समय से पहले जेल से रियायती रिहाई दी गई है। और कल तो सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई में एक नई जानकारी आई कि छूटे हुए बलात्कारी-हत्यारों में से एक ने वकालत का अपना पेशा फिर शुरू कर दिया है। अदालत ने इस पर पूछा है कि क्या मुजरिम ठहराए जाने के बाद किसी सजायाफ्ता को क्या फिर से वकालत करने का लाइसेंस दिया जा सकता है। अदालत ने कहा कि कानून को एक महान पेशा माना जाता है, और बार काउंसिल ऑफ इंडिया को यह बताना चाहिए कि क्या कोई मुजरिम वकालत कर सकता है? लोगों को याद होगा कि बिलकिस बानो को गुजरात दंगों के दौरान उस वक्त 11 हिन्दुओं ने गैंगरेप का शिकार बनाया, जब वह गर्भवती थी, इन लोगों ने उसकी छोटी सी बच्ची को पटक-पटककर मार डाला था, बिलकिस बानो की मां को मार डाला था, और परिवार के आधा दर्जन लोगों सहित कुल 14 लोगों की हत्या की थी। इन्हें गुजरात सरकार ने केन्द्र की मोदी सरकार की सहमति से समय से पहले जेल से रिहा किया, और उसके लिए यह झूठा तर्क दिया गया कि इनका आचरण अच्छा है इसलिए इन्हें समय-पूर्व रिहाई दी गई, जबकि इनमें से कुछ लोगों के खिलाफ पैरोल पर बाहर आने पर लोगों को धमकाने की शिकायतें पहले से थीं। अब बिलकिस बानो सुप्रीम कोर्ट में खड़ी है, और अदालत ने गुजरात सरकार से पूछा है कि ऐसी रियायत और कितने मुजरिमों को दी गई है, किन्हें दी गई है।
केन्द्र हो या कोई राज्य, सरकारों का यह रवैया मुजरिमों सरीखा है कि देश के लिए ओलंपिक से मैडल लेकर आने वाली खिलाडिय़ों की यौन शोषण की शिकायतों को अनदेखा करके अपने बाहुबली सांसद को सिर पर बिठाकर रखना। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, यह तो सुप्रीम कोर्ट का दखल था कि दिल्ली पुलिस को मजबूरी में मन मारकर बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ जुर्म दर्ज करना पड़ा, यह एक और बात है कि पुलिस ने इस सांसद की गिरफ्तारी तक नहीं की जबकि उसके खिलाफ आधा दर्जन लड़कियों की रिपोर्ट थी। इस देश की संसद में, और संसद के बाहर सत्तारूढ़ महिला सांसदों का मुंह भी न खिलाडिय़ों के यौन शोषण पर खुला, न मणिपुर में वीभत्स सामूहिक बलात्कार और हत्या पर खुला। यह गजब का पार्टी अनुशासन है कि लोग अपनी इंसानियत भी छोडक़र चुप्पी साधे रखें। इस देश की महिलाओं को मुजरिमों की पार्टी की महिला उम्मीदवारों को घेरकर यह सवाल करना चाहिए कि ये मामले उनकी नजरों के सामने होते रहे, और उन्होंने आंख-कान बंद रखना बेहतर समझा था, तो उन्हें अब वोट क्यों दिया जाए? उनके चुनाव क्षेत्र की किसी महिला से उनकी पार्टी का कोई नेता बलात्कार करेगा, तो उसके खिलाफ भी ये महिला सांसद या विधायक कुछ नहीं करेंगी। जब तक आम लोगों की भीड़ घेरकर ऐसे सवाल नहीं करेगी, तब तक सत्ता पर काबिज लोगों के ऐसे बलात्कार जारी ही रहेंगे। जब तक ऐसे नेताओं, उनकी पार्टियों, और उनके समर्थकों को चुनावों में हराया नहीं जाएगा, तब तक कोई लडक़ी या महिला सुरक्षित नहीं रहेगी।
त्रिपुरा की राजधानी अगरतला का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक महिला और उसके नाबालिग बेटे को बाजार के बीच सबके सामने कपड़े उतारकर पीटा गया क्योंकि बेटे पर एक दुकान से पैसे चुराने का आरोप लगा था। इसके बाद मां-बेटे को तथाकथित पंचायत में बुलाया गया, और वे जब वहां पहुंचे तो पंचायत के एक सदस्य ने महिला के कपड़े उतारने के लिए भीड़ को उकसाया था, और फिर भीड़ ने उनके कपड़े उतारे, बेटे का सिर मुंड दिया, और दोनों की जमकर पिटाई की। कुछ लोगों ने इसके वीडियो बनाए थे, पुलिस को खबर लगी तो उसने आकर भीड़ से मां-बेटे को बचाया।
ऐसी घटना जगह-जगह सामने आती है, कहीं गाय को बचाने के नाम पर, तो कहीं अकेले हाथ लग गए किसी मुस्लिम से जयश्रीराम कहलवाने के लिए, तो कहीं किसी दलित से खफा सवर्ण थूककर उससे चटवाने पर उतारू दिखते हैं। इनमें से अधिकतर ऐसे मामले रहते हैं जिनमें हिंसा करते लोगों को यह पता रहता है कि उनके वीडियो बन रहे हैं, लेकिन उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं दिखती है। कहीं सत्ता तो कहीं जाति, कहीं धर्म तो कहीं संपन्नता की ताकत लोगों में एक अजीब किस्म का दुस्साहस ला देते हैं। फिर पुलिस और अदालत का कोई अधिक डर किसी को दिखता नहीं है। लोग धड़ल्ले से ब्लैकमेल करते हैं, हत्या करते हैं, खुदकुशी को मजबूर करते हैं, और इस भरोसे से रहते हैं कि उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं। यह बात काफी हद तक सही भी है क्योंकि हिन्दुस्तान में पुलिस और अदालत के बेअसर होने का भरोसा अधिकतर आबादी को रहता है, इसलिए लोग उन्हें कोई शिकायत रहने पर भी मन मसोसकर बैठ जाते हैं कि इंसाफ मिलना इतना आसान तो है नहीं। यह भी एक वजह रहती है कि बहुत से लोग गुंडो और मुजरिमों को ठेका देते हैं कि वे उनके जमीन-मकान खाली करा दें, किसी के पास डूब रहा पैसा वापिस दिला दें। कानून एक तो कमजोर बहुत है, दूसरा उसे लागू करने का पूरा ढांचा बुरी तरह से भ्रष्ट है, और बहुत ही कमजोर है। जांच एजेंसियां अदालतों में कुछ साबित नहीं कर पातीं, और सिर्फ मुजरिमों को अदालतों पर भरोसा रहता है कि वहां से उनके खिलाफ कोई फैसला नहीं हो सकेगा।
ऐसे में देश में अराजकता का एक माहौल बढ़ते चल रहा है। लोग बेधडक़ होकर सडक़ों पर भीड़ की शक्ल में हिंसा कर रहे हैं, और अभी हाल में कानून में जो फेरबदल केन्द्र सरकार ने संसद में पेश किया है उसमें यह बात जोड़ी गई है कि भीड़ अगर किसी वजह से किसी की हत्या करती है तो उस पर सजा और कड़ी कैसे की जाए। ऐसा भी नहीं कि अब तक ऐसी भीड़त्या पर कोई सजा नहीं थी, लेकिन यह तो था ही कि उसका कोई असर नहीं दिखता था, और सरकार की खूबी यह है कि वह पहले से मौजूद और ठीक से इस्तेमाल नहीं हो रहे कानूनों को और कड़ा करके यह तसल्ली कर लेती है कि उसने जुर्म कम करने का इंतजाम कर लिया है। आज अगर भीड़त्या पर सजा बढ़ा दी गई है, तो पहले भी इस पर काफी सजा तो थी ही, और जिन मुजरिमों पर दस बरस की कैद का डर नहीं रहता है, उनसे यह उम्मीद करना कि वे कैद को पन्द्रह बरस कर देने से डर जाएंगे, और जुर्म नहीं करेंगे, यह वोटरों का दिल बहलाने का तरीका हो सकता है। पूरी दुनिया का इतिहास बताता है कि कमजोर अमल और कड़ी सजा का मिलाजुला मेल कहीं भी जुर्म कम नहीं कर पाता। अगर अमल सही हो तो दो बरस की कैद भी लोगों को डरा सकती है, और अगर हिन्दुस्तानी पुलिस और अदालतों जैसा ढीलाढाला रवैया हो, जांच के कमजोर होने, सुबूत और गवाह के बिक जाने से तकरीबन हर मुजरिम के छूट जाने की नौबत हो, तो भी इससे शरीफों का हौसला पस्त होता है, और मुजरिमों का भरोसा बढ़ जाता है। आज हिन्दुस्तान में जगह-जगह भीड़ की जो हिंसा सामने आती है, उसके पीछे देश की पुलिस और अदालत का यह मिलाजुला हाल सबसे अधिक जिम्मेदार है।
लेकिन देश में धर्म और जाति की व्यवस्था, संपन्नता और राजनीतिक ताकत की व्यवस्था का हाल यह है कि जो गरीब अधिक संख्या में रहते हैं, वे भी कभी घेरकर किसी अमीर को पीटते नहीं दिखते। बल्कि सौ गरीबों के बीच पांच अमीर या राजनीतिक सत्ता संपन्न लोग दो गरीबों को पीटते दिख जाते हैं। देश में बहुसंख्यक धर्म, सवर्ण जातियों, संपन्न तबकों, और राजनीतिक ताकत से लैस लोगों की गुंडागर्दी देखते ही बनती है। ऐस जितने भी सार्वजनिक हिंसा के मामले रहते हैं, उनमें तकरीबन सौ फीसदी अल्पसंख्यकों को, नीची कही जाने वाली जातियों, गरीबों, महिलाओं को पीटने के रहते हैं। कहने के लिए दलित-आदिवासियों की हिफाजत को अधिक कड़े कानून बने हैं, लेकिन उन पर हिंसा से लेकर उन पर बलात्कार तक, और उनकी हत्या तक जगह-जगह सामने आते ही रहते हैं। ऐसे मामलों में कानून को और कड़े करते चलना सिर्फ एक खुशफहमी की बात होगी, हकीकत में मौजूदा कानूनों पर अमल को बेहतर बनाना जरूरी है जो कि काफी भी होगा।
हमारा ख्याल है कि जिस तरह दलित-आदिवासी पर अत्याचार के मामलों में अलग अदालत रहती है, ठीक उसी तरह महिलाओं, बच्चों, और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों पर बाहुबल के अत्याचार के खिलाफ भी अलग अदालत रहना चाहिए, जहां तेजी से फैसला हो, और फैसले तक जमानत मुश्किल हो क्योंकि ऐसे बाहुबली बाहर आकर फिर कमजोर तबकों की जिंदगी खतरे में डालेंगे। देश की सामाजिक हकीकत को समझे बिना अगर कागजी कानूनों को काफी मान लिया जाएगा, तो वह कभी कामयाब नहीं होगा। आज देश में ताकतवर और कमजोर के बीच फासला ठीक वैसा ही है जैसा कि सवर्ण और दलित के बीच रहते आया है। इसलिए पैसों या ओहदों की ताकत जब गरीब-कमजोर पर जुल्म ढहाती है, तो उसके लिए एक अलग कानून की जरूरत है, तभी ताकत की बददिमागी घट सकेगी।
पाकिस्तान में अभी दो पहाडिय़ों के बीच केबल कार से जा रहे आठ लोग एक केबल टूटने से फंस गए। केबल कार तार से टंगी हुई तो थी, लेकिन वह नीचे खाई से नौ सौ फीट की ऊंचाई पर थी, यानी करीब 90 मंजिल ऊंची इमारत जितनी। और नीचे गहरी नदी थी जिसमें बाढ़ भी थी। यहां तक हेलीकॉप्टर से जाना भी आसान नहीं था क्योंकि उसके पंखों से इतनी तेज हवा पैदा होती है कि उसके झोंकों में यह केबल कार गिर सकती थी। प्रधानमंत्री और खैबर राज्य की सरकार के साथ फौज भी लगातार इस पर निगरानी रख रही थी, और इसमें फंसे लोगों में छह बच्चे और दो टीचर थे। एक लडक़ा ऐसा भी था जिसकी सेहत बहुत खराब थी, और वह बेहोश हो गया था। बड़ी मुश्किल से लोगों को एक-एक करके निकाला गया, और यह बहुत खतरनाक हालत थी। इस बचाव को एक असंभव किस्म का काम माना जा रहा था, और फौज की इसे लेकर तारीफ हो रही है। पाकिस्तान के इस हिस्से में सडक़ और पुल की कमी है, और नदी पर पुल न होने से सैकड़ों बच्चे और दूसरे लोग रोज इसी केबल कार से स्कूल आते-जाते हैं। एक रिपोर्ट बताती है कि यह केबल कार कोई निजी कारोबारी चलाता था, और उसने स्थानीय जुगाड़ से यह सब बनाया हुआ था, जिसकी क्वालिटी का कोई ठिकाना नहीं था। यह एक बड़ा संयोग है कि सारे के सारे लोग बचाए जा सके, वरना कुछ भी हो सकता था।
अब पाकिस्तान हो या हिन्दुस्तान, एशिया के इस हिस्से में गरीबी की वजह से बहुत किस्म की जुगाड़ टेक्नालॉजी काम करती है। पंजाब-हरियाणा के इलाके में मारूति कार की तर्ज पर नाम रखकर मारूटा बनाया गया है जिसमें किसी एक इंजन के पीछे फसल ढोने सरीखी एक ट्रॉली लगा दी जाती है, और उस पर दर्जनों लोग एक साथ सफर करते हैं। न ऐसी किसी गाड़ी की इजाजत सडक़ कानूनों में है, और न ही यह सुरक्षित रहती है, लेकिन स्थानीय स्तर पर यह धड़ल्ले से चलती है। हर प्रदेश और शहर में अपने-अपने किस्म की ऐसी जुगाड़ तकनीक आम दिखती है, और कानून लागू करने वाली पुलिस इस तरफ से आंखें बंद रखती है, किस वजह से, इसे आसानी से समझा जा सकता है। हम अपने आसपास ही देखते हैं कि पहले हाथठेलों पर लंबे-लंबे पाईप और लोहे की छड़ें ले जाई जाती थीं जिन्हें एक-दो ठेले वाले मिलकर मुश्किल से धीरे-धीरे धकेलकर चलते थे। अब एक मोटरसाइकिल के पीछे के चक्के की जगह एक ट्रॉली जोड़ दी जाती है, और उस पर वैसे ही लंबे पाईप या छड़ लादकर बहुत रफ्तार से सडक़ों पर उसे ले जाया जाता है। हाथठेलों की धीमी रफ्तार से यह लंबाई भी कम खतरनाक रहती थी, लेकिन अब वैसी ही खतरनाक लंबाई के सामान तेज रफ्तार से दौड़ते हैं, और किसी भी दिन कोई बड़ा हादसा हो सकता है। हर मुसाफिर ऑटोरिक्शा में कई तरह की सीट जोड़ दी जाती है, और तीन मुसाफिरों की कानूनी सीमा के कई गुना अधिक लोग लादकर ले जाए जाते हैं, और इनके एक-एक हादसे में आधा-एक दर्जन लोग भी मारे जाते हैं। गरीब मजदूरों से लेकर तीर्थयात्रियों तक, और गरीब या गांव की बारातों तक को मालवाहक गाडिय़ों पर ले जाया जाता है जिसकी किसी तरह की हिफाजत नहीं रहती, और न उनके ऊपर कोई रोक है। हर बरस ऐसे हादसों में हजारों मौतें एक छोटे राज्य में हो जाती हैं, लेकिन सरकारों की नींद नहीं टूटती। ऐसे जुर्म को रोकने के जिम्मेदार विभाग परले दर्जे के भ्रष्ट भी हो जाते हैं, और सत्ता के चहेते बने रहते हैं। इसलिए पुलिस और आरटीओ महकमे के साथ सभी तरह के नियम तोडऩे वालों की गिरोहबंदी जिंदगियों को रात-दिन बेचती है।
अब सरकारों के जिम्मेदारी न निभाने के खिलाफ कोई कब तक अदालत जाए? ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानी अदालतों का बुनियादी काम सरकार के खिलाफ लडऩा ही रह गया है, सरकार के किए जा रहे गलत कामों को रोकने में अदालतों का खासा वक्त लगता है। ऐसा लगता है कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अदालतों पर है जो कि रात-दिन सरकार को रोकने-टोकने का काम करती हैं, गलत कामों से रोकती हैं, जवाब-तलब करती हैं, और किसी किनारे नहीं पहुंचती हैं। पाकिस्तान में अगर स्थानीय सरकार जुगाड़ तकनीक से बनी ऐसी केबल कार को पहले ही रोकती, या उस पर हिफाजत का जिम्मा डालती, तो ऐसी खतरनाक नौबत नहीं आती जिसमें इतने लोग मौत के मुंह में जाकर वापिस लौटे हैं। अब तो हिन्दुस्तान में हमें इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं रहती कि देश या परदेस में किसी तरह का हादसा देखने के बाद यहां के अफसर, यहां की सरकारें, अपनी-अपनी जिम्मेदारी के दायरे में जांच कर लें, सुधार कर लें। अभी तो हाल यह है कि जिस शहर में ओवरलोड ऑटोरिक्शा के हादसे में ढेरों मौतें हो जाती हैं, वहां उस दिन भी बाकी ऑटोरिक्शा का ओवरलोड नहीं जांचा जाता। दरअसल सरकार के निकम्मेपन पर कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती, और यही वजह है कि सरकार की कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। हम अधिकतर प्रदेशों में देखते हैं कि चाहे किसी पार्टी की सरकार रहे, उसका ढर्रा यही रहता है, और जब सभी पार्टियां बराबरी से भ्रष्ट हैं, तो वोटर के सामने पसंद रह क्या जाती है?
हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में देखते हैं कि सडक़ों पर मौत इस रफ्तार से दौड़ती है, कदम-कदम पर रहती है, लेकिन उसे रोकने में किसी की दिलचस्पी नहीं है। पिछले बीस बरस में जिस पार्टी का भी राज रहा हो, उसने सडक़ों को वसूली और उगाही का जरिया बनाकर रखा, और इस बारे में कांग्रेस और भाजपा की नीति और विचार बिल्कुल एक सरीखे हैं। यह सिलसिला टूटना चाहिए, लोगों को खुद इकट्ठे होकर सडक़ों पर आना चाहिए। कानून तोड़ती गाडिय़ों को घेरकर पुलिस को आने पर मजबूर करना चाहिए, और कार्रवाई करवानी चाहिए। जागरूक लोगों के संगठन सोशल मीडिया पर ऐसे पेज बना सकते हैं जो कि सडक़ों पर तोड़े जाते कानून के फोटो-वीडियो पोस्ट करें, और सरकारों को मजबूर करें कि वे उन पर कार्रवाई करें। मैदानी प्रदेशों में केबल कार जैसी जरूरत कम रहती है, लेकिन कुछ जगहों पर तीर्थयात्रा के लिए, या सैलानियों के लिए केबल कार अगर है, तो जागरूक नागरिकों को जाकर उसकी सुरक्षा के सर्टिफिकेट देखने चाहिए, और गड़बड़ मिलने पर तुरंत ही उसकी शिकायत करनी चाहिए।
इन सबकी कोई जरूरत न रहे, अगर सरकारें अपना काम जिम्मेदारी से करें। लेकिन जनता को वैसी ही सरकारें मिलती हैं जिनकी वह हकदार रहती है। मुर्दा जनता को मरघट के चौकीदार किस्म की सरकार ही मिलती है। अगर अच्छा काम करने वाली सरकार चाहिए, तो उसके लिए जनता का अपना जागरूक होना भी जरूरी है। लोगों को नेताओं और अफसरों से सार्वजनिक रूप से सवाल करना सीखना चाहिए, और अब तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से यह काम मुमकिन भी है। हर शहर को जागरूक नागरिकों के संगठन बनाने चाहिए, और उन्हें अपने हक के लिए सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ लडऩा चाहिए। अदालतें भी तभी लोगों के काम आ सकती हैं जब लोग खुद आवाज उठाएं। लोकतंत्र में यह भी है कि जनआंदोलनों का अदालतों पर भी असर पड़ता है क्योंकि जज अखबार भी पड़ते हैं, टीवी भी देखते हैं, और हो सकता है कि बहुत से बड़े जज सोशल मीडिया पर जनमुद्दे देखते हों।
जबलपुर में अभी प्रगतिशील लेखक संघ का 18वां राष्ट्रीय अधिवेशन चल रहा है। यह सम्मेलन वामपंथी विचारधारा के लेखकों का है, और जबलपुर के हरिशंकर परसाई देश के सबसे बड़े व्यंग्यकार भी थे, और इस संगठन से जुड़े हुए भी थे। परसाई के लिखे हुए पर बहुत कुछ लिखा गया है। और आलोचकों के लिखे बिना भी अखबारों के मार्फत आम पाठकों ने परसाई को खूब पढ़ा है। वे अपनी सरल और सहज जुबान के साथ राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक सरोकार से लदे हुए थे। इसलिए यह सम्मेलन उनकी स्मृति के साये में हो रहा है, और सोशल मीडिया पर पिछले कुछ हफ्तों में परसाई पर जितना लिखा गया है, उतना पहले कभी नहीं लिखा गया था। परसाई अपनी जिंदगी में कई अखबारों में लगातार नियमित कॉलम लिखते थे, और देश की किसी भी भाषा के व्यंग्यकार के मुकाबले शायद उनके पाठक भी अधिक थे, और वे किताबों से परे भी एक हस्ती थे। अभी जबलपुर का यह आयोजन हरिशंकर परसाई की स्मृति, उनकी लेखन पर खूब चर्चा कर रहा है। और यह चर्चा दूसरे किसी गुजर चुके लेखक पर चर्चा से अलग इसलिए है कि चले जाने के बाद भी परसाई किसी भी दूसरे हिन्दी लेखक के मुकाबले आज अधिक प्रासंगिक इसलिए हैं कि जिन बातों पर उन्होंने लिखा, वे तमाम आज भी मौजूद हैं, और यह जरूरत है कि उन बातों पर परसाई से आगे बढक़र भी लिखा जाए।
हम स्मृतियों में बहुत ज्यादा जीने के खिलाफ हैं। इधर-उधर लिखते भी रहते हैं कि जो लोग आज हौसले से लिख नहीं पाते, वे पुराने हौसलामंद लेखकों की स्मृतियों के जलसे करके उसकी भरपाई करने की कोशिश करते हैं। आज का वक्त जब आज के लिखे जा रहे, और न लिखे जा सक रहे पर चर्चा का होना चाहिए था, बहुत से सरकारी और गैरसरकारी कार्यक्रम इतिहास के कुछ बड़े लेखकों या पत्रकारों की स्मृतियों से शुरू होते हैं, और उन्हीं पर खत्म भी हो जाते हैं। ऐसे में आज ही सुबह जबलपुर के एक लेखक ने इस सम्मेलन में एक लेखक की कही हुई एक बात को लिखा है कि लेखकों को लिखना बंद कर देना चाहिए, नाटककारों को नाटक बंद कर देना चाहिए, और जनता से सीधे जुडऩा चाहिए। उनके कहे का मतलब शायद यह है कि लेखक और रंगकर्मी अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता से जुड़ नहीं पा रहे हैं, ऐसे में रचना से अधिक महत्वपूर्ण जुडऩा है, और लोगों को आम लोगों से जुडऩा चाहिए।
यह एक बड़ी दिलचस्प सोच है, और चाहे जिस किसी ने सामने रखी हो, इस पर सोच-विचार होना चाहिए। क्या लेखक और दूसरे किस्म के रचनाकार, कलाकार जनता से सचमुच कट गए हैं? क्या वे जो लिख रहे हैं, वह भी जनता तक जाता है या नहीं जाता है, इसकी परवाह उन्हें नहीं रह गई है? हाल के बरसों में जिस तरह साहित्य पर चर्चा के पर्यटन से होने लगे हैं, कहीं जयपुर तो कहीं किसी और शहर में अब साहित्य महोत्सव होते हैं जो कि पांच सितारा भव्य आयोजन सरीखे दिखते हैं, जिनमें बड़े नामी-गिरामी लेखक, कलाकार, और पत्रकार पहुंचते हैं, पहले से चर्चित और पहले से जिनके बारे में बहुत कुछ छपा हुआ है, वैसे लोग मंचों पर एक-दूसरे से बात करते हैं, कुल मिलाकर लेखकों और उनके सरीखे कुछ छोटे-छोटे दूसरे तबकों के लोगों का यह जमावड़ा आपस में ही एक-दूसरे में मगन दिखता है, और फिर अगले जलसे तक ये तमाम लोग सोशल मीडिया पर ऐसे पिछले जलसे के बारे में लिखते रहते हैं।
आज यह सवाल पहले के मुकाबले कुछ अधिक परेशान करता है कि लेखक किसके लिए लिखते हैं? हरिशंकर परसाई का लिखा हुआ तकरीबन तमाम, अखबारों में छपते रहा, और चौबीस घंटे के भीतर रद्दी में जाते रहा। बाद में उनकी किताबें भी छपीं, लेकिन किताबों के पाठक उनके अखबारी पाठकों के मुकाबले गिनती के ही थे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आज सजिल्द छपने वाली महंगी किताबों पर फिदा लेखकों को क्या पाठकों तक पहुंचने की परवाह नहीं रह गई है, चुनिंदा हजार-पांच सौ लोगों के बीच महंगी छपी किताब पहुंच जाना ही सब कुछ हो गया है? क्या लिखना पाठक के पढऩे के लिए होता है, या आलमारियों में हार्डबाउंड किताबों की शक्ल में महफूज हो जाने के लिए? ऐसे बड़े से सवाल हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि खुद लेखक भी इनके जवाब नहीं चाहते, वे किसी नामी-गिरामी प्रकाशक से अपनी अगली किताब की शानदार छपाई चाहते हैं। यह किताब जाहिर है कि महंगी होने की वजह से भी कम लोगों तक पहुंचती है, और आम पाठकों का रिश्ता इस महंगेपन की वजह से किताबों से टूट सा गया है। अब मोटेतौर पर लेखक ही पाठक रह गए हैं, और जैसा कि जबलपुर में अभी एक लेखक ने लिखा कि लेखक आलोचकों को ध्यान में रखकर भी लिखने लगे हैं।
यह पूरा सिलसिला निराश करता है कि जिस परसाई पर इतनी चर्चा हो रही है उनका तो सब कुछ लुग्दी वाले अखबारी कागज पर, अखबारों में ही छपा, और वे लुग्दी पर ही एक महान लेखक बने। किताबें तो शायद उनके पूरी स्थापित हो जाने के बाद आई होंगी, लेकिन तब तक वे दसियों लाख पाठकों तक पहुंच चुके थे। यह बात हमें हैरान करती है कि आज अधिकतर लेखक अधिक पाठकों तक पहुंचने की कोशिश को अहमियत नहीं देते, और अपनी किताब की शानदार छपाई उनके लिए अधिक मायने रखती है। यह सोच, अगर सचमुच है, तो फिर यह अपने लिखे हुए को महत्व देने के बजाय उसकी छपाई को महत्व देने की बात है। लिखे हुए की सार्थकता तो अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने में होनी चाहिए, ताकि उसका मकसद पूरा हो सके। महंगी किताब छापकर कमाई करना एक प्रकाशक की नीयत तो हो सकती है, लेकिन पाठकों के लिए लिखने वाले लेखक के लिए यह महंगा काम अटपटा लगता है।
हालांकि इन बरसों में सोशल मीडिया ने छपे हुए शब्द की महत्ता को सीमित कर दिया है, अब बिना छपे भी लोग अधिक लोगों तक पहुंच सकते हैं, और हालत यह है कि छपने वाले नामी-गिरामी लोग भी सोशल मीडिया पर अपनी किताबों को उसी तरह बढ़ावा देते दिखते हैं, जिस तरह फिल्मी सितारे अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिए शहर-शहर घूमकर मंचों पर जाते हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन जिस बात से हमने लिखना शुरू किया उस पर भी अब आ जाना चाहिए कि लेखकों को जनता से जुडऩा चाहिए। एक लेखक ने तो लिखना बंद करके जुडऩे को कहा है, लेकिन हमारा हमेशा से यह मानना है कि लेखक को लिखने के पहले भी लोगों से जुडऩा चाहिए। समाज के अलग-अलग तबके, उनकी अलग-अलग दिक्कतें, उन पर मंडराते खतरे, लोकतंत्र और राजनीति के मौजूदा हाल, मजदूरों, और दूसरे वंचित तबकों के बदहाल से सामना किए बिना किसी लेखक की अपनी सोच का संसार कैसे पूरा हो सकता है? जरूरी नहीं है कि हर लेखक इन मुद्दों पर लिखे लेकिन लेखकों को इन मुद्दों का सामना तो करना ही चाहिए, और उस तजुर्बे के साथ वे फिर जिस चीज पर चाहें उस पर लिखें। जिंदगी की असली हकीकत से रूबरू होने के बाद उन्हें यह भी समझ आएगा कि उनका लिखा कितने तबकों तक पहुंचेगा, वे लोग क्या सोचेंगे, उनके कितने काम का यह लिखा हुआ रहेगा? कुल मिलाकर एक लेखक के मानसिक और बौद्धिक विकास के लिए असल दुनिया से उसका जितना साबका पडऩा चाहिए, उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता। दुनिया की अधिकतर महान साहित्य-कृतियां असल जिंदगी को देखने के बाद ही शायद बनी होंगी। परसाई से अधिक बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि लोगों से जुड़े रहने का उनके लेखन पर कैसा असर पड़ा, और महानता तक का उनका सफर किस तरह जिंदगी की हकीकतों से होते हुए गुजरा। अब आज के लेखक लोगों से जुडऩे के लिए लिखना बंद करके जुड़ें, यह भी बहुत देर हो जाएगी। हमारा मानना है कि लेखकों को लिखना शुरू करने के पहले ही लोगों से जुडऩा चाहिए, इससे जितना भला लोगों का होगा, उससे अधिक भला लेखकों का होगा।
पाकिस्तान के हालात बड़े ही दर्दनाक हैं। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान पौन सदी पहले एक ही साथ आजाद हुए थे, और आज वहां हालत यह है कि नए बने एक कानून के बारे में राष्ट्रपति डॉ. आरिफ अल्वी ने एक बयान जारी करके कहा है कि उन्होंने ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट, और आर्मी एक्ट पर दस्तखत नहीं किए हैं, दूसरी तरफ देश के कानून मंत्री ने कहा है कि ये दोनों कानून सरकारी गजट में छप भी चुके हैं। राष्ट्रपति ने अल्लाह को हाजिर नाजिर मानकर कहा है कि वे इन कानूनों से सहमत नहीं थे, और उन्होंने अपने अफसरों को इन्हें सरकार को वक्त रहते लौटा देने का आदेश दिया था। राष्ट्रपति ने अपने बयान में कहा है कि उन्होंने अफसरों से कई बार पूछा, और उन्होंने भरोसा दिलाया कि फाईल सरकार को वापिस भेज दी है, लेकिन उन्हें धोखा दिया गया, और उनके ही अफसरों ने उनकी मर्जी के खिलाफ काम किया। दूसरी तरफ शायद राष्ट्रपति के अफसरों ने समय सीमा में इसे नहीं लौटाया, और सरकार ने इसे मंजूरी मानकर इसे कानून बना दिया और इसकी गजट छपाई भी करा दी। सरकार का कहना है कि अगर राष्ट्रपति दस दिन में उन्हें भेजे गए किसी बिल पर कोई फैसला नहीं लेते हैं, तो वह अपने आप ही कानून बन जाता है। सरकार ने राष्ट्रपति के किए गए ट्वीट पर इतना ही कहा कि यह उनकी अपनी मर्जी है।
किसी भी लोकतंत्र में यह एक भयानक नौबत है कि राष्ट्रपति के अफसर उनके हुक्म न मानें। अब कोई भी राष्ट्रपति अपने अफसरों की कही हुई बात को जांचने के लिए फाईल को बुलाकर खुद तो देख नहीं सकते कि वह सरकार को किस तारीख को मिल चुकी है। और कार्यवाहक प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के बीच इस तरह की नौबत बताती है कि पाकिस्तान एक नाकामयाब जम्हूरियत बन गया है। लोगों को यह सोचना चाहिए कि ऐसी नौबत क्यों आई है? हिन्दुस्तान अपनी बहुत सारी खामियों के बावजूद कई मायनों में एक कामयाब लोकतंत्र है। इस देश में लोकतंत्र को खत्म करने की कोशिशें लगातार चल रही हैं, संवैधानिक संस्थाओं को चौपट और बेअसर किया जा रहा है, लेकिन फिर भी अभी कुछ हद तक तो लोकतंत्र बचा हुआ दिखता है। ऐसे में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की तुलना बार-बार इसलिए की जाती है कि एक ही जमीन के दो टुकड़े करके एक साथ ये दो देश बने थे, और पाकिस्तान जिन खामियों को आज भुगत रहा है, वे सामने हैं कि हिन्दुस्तान उनसे बहुत हद तक बचा रहा, इसीलिए लोकतंत्र रहा।
भारत और पाकिस्तान की तुलना करना दोनों देशों के लिए जरूरी है कि किससे क्या गड़बड़ी हुई है, और किसे वैसी गड़बड़ी से बचना चाहिए। पाकिस्तान ने पहले ही दिन से एक चूक की थी कि उसने अपने देश को धर्म आधारित बना लिया, और उस दिन से ही वहां पर धर्मान्ध कट्टरपंथियों का राज शुरू हो गया। धर्म कब बढक़र धर्मान्धता में तब्दील हो जाता है, और कब वह दो कदम आगे बढक़र साम्प्रदायिकता हो जाता है, इसका पता भी नहीं चलता। पाकिस्तान इस हद तक साम्प्रदायिक हो गया कि मुस्लिम मजहब के भीतर के अलग-अलग सम्प्रदायों में खून-खराबा होने लगा। राजनीतिक दल धार्मिक आधार पर बनने और चलने लगे, देश का एक धर्म कानूनी रूप से बना ही दिया गया था, इसलिए फौज से लेकर क्रिकेट टीम तक वही धर्म दिखता था। धर्म जब देश की सोच पर हावी हो जाता है, तो वहां लोकतांत्रिक सोच की गुंजाइश नहीं बचती। यह कुछ उसी किस्म का होता है कि किसी तालाब के पानी पर पूरी तरह जलकुंभी छा जाए, तो उस पानी तक सूरज की रौशनी पहुंचना बंद हो जाता है, और वहां की हर किस्म की जिंदगी पर असर पडऩे लगता है। पाकिस्तान के लोकतंत्र पर धर्म ऐसा हावी हुआ कि उससे परे कुछ देखना ईशनिंदा माना जाने लगा, और धर्म के नाम पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान तक अपनी तीसरी या चौथी बीवी की धार्मिक नसीहतों से घिरे रहने लगे, और वह बीवी धर्म के नाम पर प्रधानमंत्री निवास से राज सा करने लगी थी। जब लोकतंत्र कमजोर होता है, तो फौज हावी होती है। पाकिस्तान में शुरुआती दिनों से ही फौज हावी रहने लगी, कई बार निर्वाचित सरकार को हटाकर फौजी तानाशाही ने खुद काम सम्हाला, और आज भी यह पाकिस्तान में एक खुला राज है कि फौज वहां तय करती है कि किसे प्रधानमंत्री बनाना है, और किसे उस कुर्सी से हटाना है। इस बीच कमजोर लोकतंत्र में सेना, सरकार, और अदालतें सब कुछ भ्रष्ट होने लगे, और अभी तो वहां का ऐसा दिलचस्प और सनसनीखेज नजारा है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और उनके परिवार के भ्रष्टाचार के ऑडियो तैरते रहते हैं। जब अदालतें इस दर्जे की भ्रष्ट हो जाएं, प्रधानमंत्री फौज की मर्जी से बने और हटे, तो फिर चारों तरफ भ्रष्टाचार मजबूत होने लगता है। पाकिस्तान आज जिस गरीबी और बदइंतजामी को झेल रहा है, उसके पीछे भ्रष्टाचार है, उसके पीछे धार्मिक आतंकी हिंसा है, और उसके पीछे धर्म है।
हिन्दुस्तान ने पिछले दस बरसों में धर्म का जैसा कब्जा देखा है, वह पूरी तरह अभूतपूर्व है। भारत की लोकतांत्रिक सोच, और संवैधानिक जिम्मेदारी पर, लोगों की सामाजिक समझ, और राजनीतिक चेतना पर धर्म जलकुंभी की तरह छा गया है, और सूरज की रौशनी के बिना नीचे का पानी सडऩे लगा है, जिंदगी खत्म होने लगी है। यह तो इस देश की आधी सदी से अधिक की गौरवशाली परंपरा थी जिसने फौज को पूरी तरह काबू में रखा था, और अदालतों को काबू से बाहर रखा था। इन बरसों में फौज का राजनीतिक और चुनावी इस्तेमाल जिस तरह से दिख रहा है, उसमें फौज की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जागना बहुत नामुमकिन नहीं है, यह एक अलग बात है कि देश में पाकिस्तान की तरह की फौजी बगावत मुमकिन नहीं है, फिर भी फौज को गैरफौजी मकसदों से कैसा इस्तेमाल किया जा रहा है, यह पिछले दिनों सतपाल मलिक के कई बयानों में सामने आया है। दूसरी तरफ सरकार जिस तरह और जिस हद तक अदालतों पर काबू चाहती है, चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं पर काबू कर चुकी है, वह लोकतंत्र खत्म करने की तरफ बढ़ा हुआ कदम है। ऐसी नौबत कुल मिलाकर देश में लोकतंत्र को कमजोर कर रही है, और यहां हावी किया जा रहा धर्म साम्प्रदायिकता की हद तक तो पहुंच ही चुका है, वह किस दिन आतंकी हिंसा में तब्दील हो जाएगा, वह पता भी नहीं लगेगा। फिर यह भी होगा कि बहुसंख्यक तबके की धार्मिक हिंसा के मुकाबले अल्पसंख्यक तबकों की धार्मिक हिंसा जागेगी, और सब कुछ बेकाबू हो जाएगा। हमारी यह चेतावनी आज कई लोगों को बेबुनियाद लगेगी, लेकिन याद रखना चाहिए कि अभी कुछ बरस पहले तक उत्तराखंड और हिमाचल में हर इमारत, सडक़ और पुल की बुनियाद मजबूत लगती थी, और आज वह पूरी तरह खोखली साबित हो रही है। जिनको हमारी बात आज खोखली लग रही है, उन्हें लोकतंत्र की बुनियाद कमजोर हो जाने का पता तब चलेगा जब बिना खून बहे लोगों के लोकतांत्रिक हकों का कत्ल होने लगेगा।
पाकिस्तान को देखकर हिन्दुस्तान यह नसीहत और सबक तो ले ही सकता है कि एक लोकतंत्र को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। और अगर यह सबक नहीं लिया जाता है, तो फिर खुली आंखों से दूध में गिरी छिपकली देखते हुए भी उसे पीने सरीखा हो जाएगा। हिन्दुस्तानी संवैधानिक समझ पर धर्म नाम की जो जलकुंभी छा गई है, वह कुछ लोगों को पसंद आ सकती है, लेकिन वह कितनी जानलेवा है यह अंदाज अभी नहीं लग रहा है, और जिस दिन लगेगा उस दिन बड़ी देर हो चुकी रहेगी।
अभी दो दिन पहले ही हमने हमारे यूट्यूब चैनल पर जेनेरिक दवाओं के बारे में एक प्रमुख डॉक्टर से बातचीत की थी, और उसी के तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट की खबर आई है कि एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र और राज्य सरकारों से जवाब मांगा है कि डॉक्टर जेनेरिक दवाएं क्यों नहीं लिख रहे हैं। अदालत इस बात पर नाराजगी जाहिर की है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह उन दवा कंपनियों के प्रभाव में काम कर रहे डॉक्टरों की वजह से अमल में नहीं आने वाली बात है जो कि जेनेरिक दवाओं की अनिवार्यता को लागू ही नहीं होने देना चाहते। डॉक्टरों के बहुत से तर्क जेनेरिक दवाओं के खिलाफ हमेशा ही खड़े रहते हैं जिनमें एक यह भी है कि जेनेरिक दवाओं की क्वालिटी की कोई गारंटी नहीं रहती। उनकी इस बात में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन अगर आजादी के 75 बरस बाद भी इस देश में दवा कारोबार जायज दामों से चार गुना पर दवा बेचता है, और सस्ती जेनेरिक दवाओं तक गरीबों की पहुंच को रोकने में सरकार भी साजिश में शामिल होती है, तो फिर अदालत के अलावा और रास्ता ही क्या है? कहने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें बार-बार डॉक्टरों की कहती हैं कि वे जेनेरिक दवाएं ही लिखें, लेकिन ऐसा न होने पर किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती। अब सुप्रीम कोर्ट में दाखिल पीआईएल में यह बात गिनाई गई है कि भारतीय चिकित्सा परिषद विनियम-2002 के तहत डॉक्टरों को जेनेरिक दवा लिखना अनिवार्य है, लेकिन डॉक्टर केवल महंगी ब्रांडेड दवाओं को ही बढ़ावा देते हैं। ब्रांडेड दवाएं लोगों को पांच-दस गुना अधिक दाम पर मिलती हैं, और औसतन रियायत 75-80 फीसदी रहती है जो कि बहुत सी भरोसेमंद और साख वाली कंपनियों की जेनेरिक दवाओं पर उपलब्ध भी है, लेकिन न डॉक्टर इन दवाओं को लिखते, और न आम मेडिकल स्टोर इन्हें रखते। दुकानों का इन्हें न रखने का सीधा-सीधा तर्क है कि बिल अधिक बनता है तो उनका मुनाफा भी अधिक होता है।
अब इतने गरीब देश में लोगों के पास खाने को नहीं है, और अगर केन्द्र और राज्य सरकारों की कई योजनाओं के तहत उन्हें रियायती या मुफ्त राशन न मिले, तो देश में एक बार फिर भुखमरी की नौबत आ जाए। ऐसे में कुछ प्रदेशों में सरकारी इलाज लोगों को ठीक से हासिल है, लेकिन अधिकतर प्रदेशों में सरकारी अस्पताल जरूरत से बहुत कम हैं, वहां पर वक्त पर जांच नहीं हो पाती, दवा ठीक से नहीं मिल पाती, और ऑपरेशन वक्त पर नहीं हो पाते। सरकारी अस्पतालों में भी दवाओं की खरीदी में घटिया दवाओं के चलन की चर्चा हमेशा ही रहती है। देश की 90 फीसदी आबादी इलाज के लिए सरकार पर निर्भर रहती है, और सरकार से निराश होने पर लोग निजी अस्पतालों तक जाते हैं। लेकिन जहां तक जेनेरिक दवाओं की बात है, तो न सरकारी डॉक्टर, और न ही निजी डॉक्टर जेनेरिक दवाईयां लिखते। कई डॉक्टरों का यह मानना है कि उन्हें जो दवा कंपनी भरोसेमंद लगती है, वे उस ब्रांड की दवा लिखते हैं, और अगर वे जेनेरिक दवा लिखेंगे तो मरीज दवा दुकानदार के रहमोकरम पर आ टिकेंगे, जो कि अपने मुनाफे के लिए सबसे घटिया कंपनी की दवा भी टिकाने लगेंगे, और मरीजों की तो इस बारे में कोई समझ रहेगी नहीं। यह तर्क सरकार के कामकाज पर एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा करता है कि दवा जैसी जीवनरक्षक चीज को बनाने वाली कंपनियां घटिया कैसे हो सकती हैं, उनका दवा निर्माण का तरीका घटिया कैसे हो सकता है? देश में हर उद्योग केन्द्र और राज्य सरकारों के बहुत से नियमों से बंधे रहते हैं, और ऐसे में अगर कोई उद्योग स्तरहीन तरीके से, स्तरहीन दवा बना रहे हैं, तो यह सरकारों की नालायकी का एक बड़ा सुबूत है, जिसके दाम गरीब मरीज चुकाए यह बहुत बड़ी बेइंसाफी है।
भारत के पड़ोस का बांग्लादेश जो कि 1971 में ही आजाद हुआ, वहां पिछले 30 बरस से जेनेरिक दवाओं का काम बड़ी कामयाबी से चल रहा है। वहां एक नई सरकार थी जिसने दवा उद्योगों के जाल में फंसने से इँकार कर दिया, और पहले ही दिन से जेनेरिक दवाओं को लागू किया, जो कि गरीबों के लिए बड़ी राहत की बात है। हिन्दुस्तान में सरकारों की नालायकी अगर घटिया दवाई बनाने का मौका कारखानेदारों को दे रही है, तो यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, फिर चाहे इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को ही लाठी क्यों न चलानी पड़े। यह ऐसे सौ-पचास दूसरे मामलों में शामिल हो जाएगा जिनमें सरकारों की नालायकी या साजिश की वजह से सुप्रीम कोर्ट को सरकारी काम में दखल देना पड़ता है, और सरकारों को बताना पड़ता है कि उनकी जिम्मेदारी क्या है।
भारत में इस सिलसिले को तोडऩा पड़ेगा कि पहले अच्छी क्वालिटी की जेनेरिक दवा बनें, फिर डॉक्टर उन्हें लिखें, या पहले डॉक्टर जेनेरिक दवा लिखें, और फिर कंपनियां उन्हें बनाने लगें। बाजार की इस साजिश में अगर सरकार हिस्सेदार नहीं होती, तो यह मामला कब का सुलझ गया रहता। हम अभी इस बात पर जाना नहीं चाह रहे कि दवा उद्योग का डॉक्टरों के साथ किस तरह का मिलाजुला कारोबार रहता है, और सरकार को नियम बना-बनाकर इस भ्रष्टाचार को रोकना पड़ता है। यह गिरोहबंदी भी देश में सस्ती जेनेरिक दवाओं की संभावनाओं को खत्म करती है, और अंधाधुंध मुनाफा कमाने वाली दवा कंपनियों की लूट को जारी रखती है। अच्छा है अगर सुप्रीम कोर्ट तमाम लोगों से जवाब मांग रहा है, केन्द्र और राज्य सरकारों के बाद दवा उद्योग और डॉक्टरों के संगठन भी इस सुनवाई में शामिल हो सकते हैं, और एक बार इस पर फैसला हो ही जाए कि इस लोकतंत्र में गरीब जनता के इलाज का हक अधिक है, या कि दवा कंपनियों के भ्रष्टाचार की सरकार के ऊपर ताकत अधिक है। डॉक्टर-अस्पताल, दवा कंपनियां, और सरकार, ये तीनों मिलकर एक ऐसा बरमूडा त्रिकोण बना रहे हैं जिसमें फंसकर गरीब मरीज का डूबना तय रहता है, इस सिलसिले को तोडऩा चाहिए। अभी हमें जो जानकारी मिली है उसमें कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में सरकार ने जगह-जगह सैकड़ों मेडिकल स्टोर खोले हैं जहां पर अच्छी कंपनियों की बनाई हुई जेनेरिक दवाएं 75 फीसदी तक रियायत पर मिलती हैं। अब ये दवाएं कितनी अच्छी हैं, यह परखना सरकारों का काम है, हम उसे नहीं समझ सकते, लेकिन अगर अपनी दवाओं के प्रति जवाबदेह कुछ चुनिंदा अच्छी कंपनियां इतनी सस्ती दवा बना सकती हैं, तो सरकारें दवा उद्योगों की निगरानी करके देश की तमाम सस्ती दवाओं को भरोसेमंद बनाने की गारंटी क्यों नहीं कर सकतीं? और जहां तक घटिया दवाई बनाने की बात है तो जो दवाएं जेनेरिक नहीं भी हैं, वे भी दुनिया भर में एक्सपोर्ट होती हैं, और भारतीय दवाओं से हाल के महीनों में कई देशों में सैकड़ों बच्चों के मरने की खबर भी आई है। अब दुनिया का सबसे बड़ा दवा निर्माता देश अगर अपने इस उद्योग में क्वालिटी की गारंटी नहीं करेगा, तो उसका एक्सपोर्ट का बाजार भी चौपट हो जाएगा। इसलिए भी सरकार को दवा उद्योग पर क्वालिटी के पैमाने कड़ाई से लागू करने चाहिए, और उसी से देश में सस्ती जेनेरिक दवाओं में भी क्वालिटी आ सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कनाडा के जंगलों की आग डराने वाली है। एक अकेले यलोनाईफ नाम के शहर की तमाम 20 हजार आबादी को शहर खाली करने के लिए कह दिया गया है, और लोगों को तेजी से बाहर निकालने की कोशिश चल रही है। संकरी सडक़ से बाहर जा रही ट्रैफिक भी इस कदर अनुशासन में चल रही है कि अभी तक गाडिय़ां नहीं टकराई हैं, और लोग एक अकेले पेट्रोल पंप से काम चलाते हुए शहर छोडक़र जा रहे हैं। इस साल कनाडा के ढाई सौ से अधिक अलग-अलग इलाकों में इस वक्त एक हजार से अधिक जगहों पर जंगल की आग चल रही है, और कई जगहों से लोगों को विमानों से निकाला जा रहा है क्योंकि रास्तों में कई जगहों पर जंगल जल रहे हैं। एक अंदाज बताता है कि सवा लाख स्क्वेयर मीटर से अधिक जंगल इस बरस जला है जो कि आधी सदी में जले जंगलों से अधिक हो चुका है। इसी बरस जंगलों की आग की वजह से दो लाख से अधिक लोगों को अलग-अलग वक्त पर कम या अधिक वक्त के लिए घर छोडऩा पड़ा है। सरकार शहरों को बचाने के लिए उनके इर्द-गिर्द के जंगलों के पेड़ काट रही है ताकि आग शहरों तक नहीं पहुंचे। आपात सेवाओं के अफसर खाली हो चुके शहरों में एक-एक घर जाकर देख रहे हैं कि कोई बीमार, बुजुर्ग या असहाय वहां छूट तो नहीं गए हैं।
अभी पिछले कुछ दिनों से अमरीका के हवाई में पूरे के पूरे शहर के आग से जल जाने की खबरें अखबारों से हटी भी नहीं हैं क्योंकि सौ से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और पूरा शहर जलकर राख हो गया है। असाधारण रूप से सूखे मौसम के साथ जब आंधी चली, तो ऐसी आग लगी और वह फैल गई। हवाई द्वीप पर दो हजार से ज्यादा इमारतें राख हो चुकी हैं, जो कि रिहायशी आबादी के 86 फीसदी से अधिक का घर था। ऐसा माना जा रहा है कि तेज आंधी में बिजली के तार टकराए और नीचे घास जलना शुरू हुई तो फिर वह बेकाबू हो गई। वहां भी अभी तक जली इमारतों में और उजड़े मकानों में लोगों की तलाश जारी है। अभी कुछ अरसा पहले की ही बात है कि कनाडा के एक हिस्से में लगी आग से अमरीका के न्यूयॉर्क में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था।
इस तरह लगे हुए देशों के जंगल खुद जलने पर सरहद के पार दूसरे देशों को भी प्रभावित कर रहे हैं। अब अगर कनाडा और अमरीका की बात को पल भर के लिए अलग रखें, तो एक दूसरी बात यह भी है कि पूरी दुनिया में मौसम में जो बदलाव आ रहा है, उसमें अंधाधुंध बारिश और बाढ़, अभूतपूर्व बर्फबारी, ऐतिहासिक गर्मी जैसे चरम-मौसम की गिनती बढ़ती जा रही है। ये अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं, बार-बार आ रहे हैं, और हर बार इनकी तबाही बढ़ती ही चली जा रही है। इनसे परे भूमिस्खलन जैसी मार हिमाचल और उत्तराखंड में अभी लगातार देखने मिल रही है, जहां पर सैकड़ों सडक़ें धंस गई हैं, बस्तियां धंसती चली जा रही हैं, और ऐसा लग रहा है कि पहाड़ बैठते जा रहे हैं। इनमें से भूकम्प, ज्वालामुखी जैसी कुछ चीजों को छोडक़र हर किस्म की मौसम की मार इंसानों की बनाई हुई दिखती है, और इनकी नजरों में सरहद की कोई इज्जत भी नहीं है। अपनी गरीबी की वजह से जो पाकिस्तान कम प्रदूषण करता है, वह भी अभी कुछ महीने पहले बाढ़ में इस बुरी तरह डूबा कि सरकार के पास किसी राहत या मदद का कोई जरिया ही नहीं बचा। पाकिस्तान का कहना है कि पूरी दुनिया के प्रदूषण से जो मौसमी मार बढ़ रही है, पाकिस्तान उसी का शिकार हुआ है, और दुनिया के संपन्न देशों को क्लाइमेट चेंज में अपने योगदान की वजह से पाकिस्तान जैसे तबाह हो रहे देशों की मदद करनी चाहिए। उत्तराखंड और हिमाचल जैसे प्रदेश हिन्दुस्तान की सरकारों की भ्रष्ट नीयत से चलने वाली योजनाओं के शिकार हैं, और अब वहां किसी किस्म का बचाव काबू से बाहर हो गया दिख रहा है। पर्यटन स्थलों और तीर्थस्थानों पर अधिक से अधिक लोगों को ले जाने के लिए अधिक से अधिक चौड़ी सडक़ें, पुल, और सुरंगों की वजह से पहाड़ के अपने ढांचे को खोखला कर दिया गया है, उसे हिलाकर रख दिया गया है। नतीजा यह है कि बारिश में जिस तरह मिट्टी बहती है, उस तरह अब पूरे पुल और गांव बहने लगे हैं, पहाड़ दरकने लगे हैं, और वे बहकर नदियों को रोक रहे हैं, और पानी चारों तरफ फैल रहा है, और सबकुछ बहाकर ले जा रहा है।
दुनिया में मौसम की वजह से कई किस्म के बेकाबू हादसे हो रहे हैं, कनाडा और अमरीका के जंगल और शहर जलना उनमें से एक नमूना है, पिछले बरस योरप में जिस किस्म की अनसुनी और अनदेखी बाढ़ आई, वह एक दूसरा नमूना था, और अफ्रीका में पानी की कमी से इंसान और जानवर जिस तरह मारे जा रहे हैं, वह सूखा एक तीसरा नमूना है। पूरी धरती ऐसे अलग-अलग नमूनों से भर गई है, और ऐसा लग रहा है कि सबकुछ इंसान के लिए बेकाबू हो चुका है। इनमें से अधिकतर चीजों को इंसान ने ही खड़ा किया है, और उसने पिछले दो-ढाई सौ बरसों में टेक्नालॉजी जितनी विकसित की है, उसका इस्तेमाल जितना बढ़ाया है, और सहूलियतों को अंधाधुंध बढ़ाते हुए उसने जिस तरह बिजली और दूसरे ईंधन का इस्तेमाल बढ़ा लिया है, उससे भी प्रदूषण अंधाधुंध बढ़ा है, और अब जानलेवा साबित हो रहा है। दुनिया के देश मिलकर भी इस पर काबू पाना तय करते हैं, तो वह किसी के लिए भी आसान साबित नहीं हो रहा है। बिजलीघरों में कोयले का इस्तेमाल घट नहीं रहा है, हर किसी के पास आ चुकी बड़ी-बड़ी गाडिय़ां प्रदूषण फैलाए जा रही हैं, और लोगों की संपन्नता उनके प्रदूषण फैलाने की एक सबसे बड़ी वजह बन गई है। कुदरत और इंसान की यह मिलीजुली मार दोनों पर ही पड़ रही है, धरती के कई हिस्से तबाह हो रहे हैं, और अनगिनत देशों की आबादी तरह-तरह से मौसम की मार झेल रही है।
आज इस पर चर्चा करते हुए हमारे पास सलाह कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर दुनिया भर में लंबी चर्चा चल ही रही है। दिक्कत यह है कि वैसी चर्चा सरकार और कारोबार दोनों को अमल में लाने की प्रेरणा नहीं दे पा रही है। दुनिया के उद्योग-धंधे अपनी तात्कालिक कमाई के लिए मौसम को किसी भी हद तक तबाह करने के लिए तैयार हैं, हवा और पानी में जहर घोलते ही जा रहे हैं, समंदरों को प्रदूषण से पाट रहे हैं। दूसरी तरफ इंसानों की ईंधन की जरूरत बढ़ती ही जा रही है क्योंकि सार्वजनिक सहूलियतों के बजाय संपन्न तबके निजी गाडिय़ों और निजी सहूलियतों की तरफ दौड़ते चल रहे हैं। जो भी हो, इंसान की दौडऩे की रफ्तार जंगल की आग की दौडऩे की रफ्तार का मुकाबला नहीं कर पाएगी, और न ही सुनामी की लहरों की रफ्तार से इंसान दौड़ पाएंगे, केदारनाथ हादसे ने दिखा दिया है कि गाडिय़ां भी पहाड़ी बाढ़ से अधिक रफ्तार से नहीं दौड़ सकतीं, और इंसान ज्वालामुखी की उड़ती राख, और बहते लावे से दूर भी नहीं भाग सकते। ऐसे में मौसम बचाने सरकार और कारोबार पर ही जनता का दबाव जरूरी होगा, तभी कुछ हो पाएगा, वरना अगली पीढ़ी तो दूर की बात है, लोग अपनी पूरी जिंदगी भी सेहत की हिफाजत के साथ नहीं गुजार सकेंगे।
पाकिस्तान के फैसलाबाद में ईसाई समुदाय आक्रामक मुस्लिमों के निशाने पर है। मुस्लिम समुदाय का आरोप है कि ईसाईयों की बस्ती ईसानगरी में कुछ नौजवानों ने कुरान का अपमान किया है, और इसे लेकर वहां ईसाईयों पर हमले हो रहे हैं, कुछ चर्च जला दिए गए हैं, और घरों में भी तोडफ़ोड़ की गई है। पाकिस्तान में ईशनिंदा का आरोप लगाते हुए गैरमुस्लिमों पर हमलों का लंबा इतिहास रहा है। पहले तो ऐसी घटनाएं भी हुई हैं कि भीड़ ने किसी आरोपी को पुलिस से छुड़ाकर मार डाला। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के पंजाब में भी कुछ अरसा पहले धार्मिक बेअदबी का आरोप लगाते हुए एक विचलित नौजवान को गुरुद्वारे के लोगों ने घेर लिया था, और पीट-पीटकर मार डाला था। पाकिस्तान में ऐसा कई मामलों में हुआ है, और कुछ बरस पहले अल्पसंख्यक मामलों के केन्द्रीय मंत्री शहबाज भट्टी को ईशनिंदा कानून खत्म करने की कोशिश के आरोप में मार डाला गया था, जो कि एक ईसाई थे, जो कि पाकिस्तान के मंत्रिमंडल में अकेले ईसाई थे। इसके अलावा पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर का भी कत्ल ईशनिंदा कानून में सुधार के आरोप में किया गया था।
अभी चल रहे तनाव पर लौटें तो फैसलाबाद में कई जगह आगजनी की गई है, बहुत से हमले हुए हैं, और बाइबिल को नष्ट किया गया है। ईसाई धर्मगुरुओं का कहना है कि यह आरोप पूरी तरह गलत है कि किसी ईसाई ने कुरान जलाई है। जिस ईसाई पर ईशनिंदा का यह आरोप लगा है उसका घर भी गिरा दिया गया है। हालांकि पाकिस्तान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री अनवार-उल-हक काकड़ ने कहा है कि सरकार सभी नागरिकों को बराबरी से देखती है, और अल्पसंख्यकों पर हमला करने वालों पर कार्रवाई की जाएगी। अभी तक पुलिस ने मुस्लिम समुदाय के हाथ किसी आरोपी को लगने नहीं दिया है, इसलिए जान बची हुई है।
हालांकि पाकिस्तान में लंबे समय से इस्लामी कट्टरपंथी अपनी खुद की सोच के चलते, और पड़ोस के अफगान-तालिबानियों के असर में भी ईशनिंदा को एक मुद्दा बनाकर गैरमुस्लिमों पर हमले करते आए हैं। खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर के अहमदिया मुस्लिमों को पाकिस्तान के बाकी मुसलमान मुस्लिम नहीं मानते, और उन पर हमले करते रहते हैं। धार्मिक कट्टरता इतनी बढ़ी हुई है कि पाकिस्तानी फौज भी ऐसे कट्टरपंथियों की ताकत और उनके असर को अनदेखा नहीं कर सकती। इस तरह पूरा का पूरा पाकिस्तानी लोकतंत्र धर्म के हिंसक असर से लदा हुआ है। चुनावों में यह एक मुद्दा रहता है, देश तो इस्लामिक घोषित किया हुआ ही है, और सरकार के हर काम में इस्लाम से ही बात शुरू होती है, और उसी पर खत्म होती है। नतीजा यह है कि देश में गैरमुस्लिमों की हिफाजत मुमकिन नहीं रह गई है, और उन्हें जिंदा रहने का हक तभी तक है जब तक कि उनके ऊपर कोई ईशनिंदा का आरोप न लगा दे।
लेकिन इससे परे कुछ दूसरी बातों को भी देखने की जरूरत है। पश्चिम के देशों में, योरप से लेकर अमरीका तक, जगह-जगह वहां की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चलते किसी भी व्यक्ति को कोई भी धर्मग्रंथ फाडक़र फेंकने या सार्वजनिक रूप से जलाने की इजाजत मिली हुई है। पिछले कई बरस से किसी न किसी पश्चिमी देश में, जहां पर कि ईसाई आबादी अधिक है, वहां कोई न कोई व्यक्ति कुरान फाड़ते या जलाते दिख जाते हैं, और फिर उसे लेकर पश्चिमी लोगों के खिलाफ, और ईसाईयों के खिलाफ एक तनाव मुस्लिम देशों में खड़ा होता है, और जहां भी वह बेकाबू होता है, वहां कत्ल होने लगते हैं, ईसाई धर्मस्थान जलाए जाने लगते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि यह बात महज पश्चिम के साथ है, या कि ईसाईयों के साथ है। जब कभी भी भारत में मुस्लिमों के साथ हिंसा होती है, बहुत से मुस्लिम देशों में हिन्दुस्तानियों को तरह-तरह के तनाव और नुकसान झेलने पड़ते हैं। लेकिन चूंकि हिन्दुस्तानी वहां से कमाते-खाते हैं, इसलिए वे सार्वजनिक रूप से इस मुद्दे को नहीं उठाते कि कुछ हिंसा के अलावा बाकी कामकाज तो उनका वहीं से चलता है। ऐसे में जो लोग अपने-अपने देश में लोकतांत्रिक अधिकारों के चलते, या देश में सरकार द्वारा दी गई अराजकता की छूट की वजह से किसी एक धर्म पर हमले करते हैं, तो यह मानकर चलना चाहिए कि उस धर्म की आबादी वाले देशों में उसकी हिंसक प्रतिक्रिया भी होती है। भारत में वे लोग ही मुस्लिमों के खिलाफ हिंसक फतवे देते हैं जिनके परिवारों के लोग मुस्लिम देशों में बसे हुए नहीं हैं, या जिनके घरवालों का मुस्लिम देशों से कारोबार नहीं है। इसलिए आज पाकिस्तान में जो लोग ईसाईयों पर हमले कर रहे हैं, वे जाहिर तौर पर न तो पश्चिम के किसी ईसाई-बहुल देश में आते-जाते हैं, और न ही वहां उनका कोई कारोबार है। एक कबीले जैसी जिंदगी जीने वाले तंगनजरिए के लोग ही इस तरह की हिंसा कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें इसकी प्रतिक्रिया झेलने का खतरा नहीं रहता है।
अब दुनिया में एक सवाल यह उठता है कि अलग-अलग देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैमानों में इतना फर्क है कि कुछ लोगों को अपना अधिकार दूसरों की धार्मिक भावनाओं से अधिक ऊपर लग सकता है। दूसरी तरफ तकरीबन तमाम धर्मों की भावनाएं अपने को दुनिया के किसी भी कानून से ऊपर समझती हैं, और बात-बात पर हिंसक हो जाने को उतारू रहती हैं। ऐसे में इस किस्म के टकराव चलते ही रहेंगे, कहीं मो.पैगंबर पर कार्टून बनाने वाली पत्रिका के दफ्तर पर इस्लामी आतंकी हमला करके दर्जनों लोगों को मार डालेंगे, तो कहीं इसके जवाब में कई देशों में लोग कुरान के खिलाफ प्रदर्शन करने लगेंगे। यह नौबत अधिक आसान नहीं है। लेकिन दुनिया के जिन देशों में अभी तक नौबत इतनी खराब नहीं हुई है, उन्हें याद रखना चाहिए कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, और जरूरी नहीं है कि वह उस देश के भीतर ही हो, वह कहीं भी हो सकती है, और हिंसक स्थानीय लोग हो सकता है कि ऐसी प्रतिक्रिया से बच भी जाएं, लेकिन उनके देश के दूसरे लोग, उनके धर्म के दूसरे लोग दूसरे देशों में फंस जाएं, मारे जाएं। इसलिए तमाम जिम्मेदार देशों को अपनी जमीन पर धार्मिक हिंसा पर काबू रखना चाहिए, फिर चाहे वह चुनाव जीतने के लिए एक आसान हथियार क्यों न हों।
तमिलनाडु में भारत सरकार के शुरू किए हुए मेडिकल दाखिला इम्तिहान, राष्ट्रीय पात्रता व प्रवेश परीक्षा (नीट) को लेकर तमिलनाडु ने शुरू से विरोध किया है। उसका कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई इम्तिहान नहीं होना चाहिए। वहां पर सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट न मिलने पर बहुत से छात्रों ने आत्महत्या कर ली है, और आज यह मुद्दा एक बार फिर खबर में इसलिए भी है कि आत्महत्या करने वाले ऐसे एक छात्र के साथ-साथ, उसके बाद सदमे में आए उसके पिता ने भी खुदकुशी कर ली। एक रिपोर्ट कहती है कि बाप-बेटे को यह उम्मीद थी कि राज्य के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने कहा था कि वे नीट को खत्म कर देंगे, और अगर वह इम्तिहान खत्म हो गई रहती तो बहुत से लोगों की जान बचती। अभी का खुदकुशी वाला यह छात्र अपने पिता के किसी तरह कोचिंग सेंटर को किए गए भुगतान के बोझ से वाकिफ था, और पिता ने बेटे की हौसला अफजाई के लिए नीट में न चुने जाने पर कोचिंग सेंटर में दुबारा फीस जमा कर दी थी, लेकिन निराश छात्र ने खुदकुशी कर ली, और बाद में पिता ने। अब तक वहां 16 से अधिक लोग आत्महत्या कर चुके हैं। तमिलनाडु में विधानसभा में नीट के खिलाफ विधेयक पास किया था, और इसे राज्यपाल के लौटाने के बाद राष्ट्रपति को भेजा हुआ था, लेकिन उसे मंजूरी मिल नहीं रही है, और आत्महत्याएं जारी हैं।
हम किसी इम्तिहान के तरीके को ऐसी आत्महत्याओं के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार नहीं कहते, फिर चाहे वे इम्तिहान अपने आपमें गलत ही क्यों न हों। परिवार और समाज को अपने बच्चों को इस तरह से तैयार करना चाहिए कि वे किसी कोर्स में दाखिले को जिंदगी का अंत ही न मान लें। हर कॉलेज में हर किसी को तो दाखिला मिल भी नहीं सकता, और बेहतर यही है कि प्राथमिक शिक्षा के बाद से धीरे-धीरे बच्चों को उनके रूझान, और उनकी क्षमता के मुताबिक आगे बढ़ाना चाहिए। आज जिस तरह से छोटे-छोटे कस्बों में भी कॉलेज खुल गए हैं, छात्र-छात्राएं वहां से बीए, बीकॉम करके बेरोजगार बनते चले जा रहे हैं, उससे एक बड़ी पीढ़ी के सामने भविष्य का खतरा खड़ा हो गया है। गरीब या किसान परिवार, या किसी छोटे कस्बाई कारोबारी के बच्चे भी जब कॉलेज की पढ़ाई कर लेते हैं, तो वे नौकरी के अलावा कोई और काम करना नहीं चाहते हैं। वे पढ़े-लिखे, सफेद कपड़ों वाले काम करना चाहते हैं, जो कि गिनती के रहते हैं। अनगिनत बेरोजगार, और गिनती के रोजगार। यह नौबत कुछ उसी तरह की रहती है कि कुछ हजार मेडिकल सीटों के लिए दसियों लाख छात्र-छात्राएं मुकाबला करते हैं, और निराश होने पर उनमें से कई लोग खुदकुशी कर लेते हैं, और अनगिनत लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं।
सरकार और समाज को यह भी सोचना चाहिए कि जिस तरह दाखिला इम्तिहानों को ही जिंदगी का मकसद बना दिया गया है, उसकी वजह से बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी घटती जा रही है, और महज कोचिंग में दिलचस्पी बनी हुई है। देश के शिक्षाशास्त्रियों को यह भी सोचना चाहिए कि प्राइमरी स्कूल से लेकर 12वीं के बाद की किसी दाखिला इम्तिहान तक हर बरस के इम्तिहान के नंबरों को किसी बड़े कॉलेज में दाखिले के वक्त क्यों नहीं जोड़ा जाना चाहिए? अगर ऐसा करना मुमकिन न भी हो, तो भी 12वीं तक की तीन-चार बोर्ड इम्तिहानों के नंबरों का हिसाब आगे के दाखिला इम्तिहान के साथ लगाना ही चाहिए। इसके बिना बच्चों और उनके मां-बाप की भी दिलचस्पी सिर्फ कोचिंग में रहती है, और स्कूली पढ़ाई किनारे धरी रह जाती है। इससे बच्चों को बड़ी अधूरी पढ़ाई मिल रही है जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी असर पडऩे लगेगा।
यह भी सोचने की जरूरत है कि मिडिल स्कूल के वक्त से ही किस तरह पढ़ाई में कमजोर रूझान वाले बच्चों को रोजगार से जुड़ी हुई पढ़ाई की तरफ मोडऩा चाहिए, ताकि वे आगे जाकर किसी काम के तो रहें। आज अधिक से अधिक बच्चों को पास कर दिया जाता है, और बाद में इनमें से हर कोई बहुत औसत दर्जे की डिग्री पाकर नौकरी के सपने देखते हैं, और अपने मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हैं। यह सिलसिला ठीक नहीं है। स्कूल के भी आखिरी तीन-चार बरसों में रोजगार से जुड़े प्रशिक्षण को जोडऩा चाहिए, और जिंदगी के लिए जरूरी मामूली पढ़ाई के बाद, पढ़ाई में कमजोर बच्चों को दूसरे हुुनर सिखाने चाहिए। आज तमाम बच्चों को हर दाखिला इम्तिहान में शामिल होने का हक है, और नतीजा यह होता है कि जो स्कूल में भी बहुत कमजोर रहे हैं, वे भी बड़े कठिन इम्तिहानों में नाकामयाब होने की पूरी आशंका के साथ शामिल होते हैं, मां-बाप बहुत खर्च करते हैं, बच्चे तैयारी के दौरान भी खुदकुशी करते हैं, और सेलेक्शन न होने पर भी।
आज देश में जितने किस्म के हुनर के जानकार और प्रशिक्षित लोगों की जरूरत है, वह पूरी नहीं हो पा रही है। अधिकतर कामों के लिए नौसिखिया, अर्धसिखिया, लोग मौजूद रहते हैं, जो कि काम की क्वालिटी भी खराब रखते हैं। ऐसे में अगर हुनरमंद लोगों को तैयार किया जाए, तो वे गिनी-चुनी सरकारी नौकरियों के लिए मीलों लंबी कतार में लगने के बजाय स्वरोजगार से कमाई करने लगेंगे। हिन्दुस्तान की शिक्षा नीति में कई किस्म के प्रयोग तो हुए हैं, लेकिन अब भी कोई सरकार छात्र-छात्राओं को मुंह पर यह कहने का हौसला नहीं रखती कि आगे किताबी पढ़ाई के मुकाबले में उनका भविष्य बहुत अच्छा नहीं रहेगा, और उन्हें कोई दूसरा रास्ता छांटना चाहिए। देश और प्रदेशों की जरूरत के मुताबिक अंदाज 25-30 बरस बाद का भी लगाना होगा तभी जाकर कुछ खास किस्म कॉलेज बढ़ाए या घटाए जा सकेंगे। एक तरफ तो मेडिकल सीट न मिलने पर आत्महत्याएं हो रही हैं, दूसरी तरफ मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने के लिए डॉक्टर नहीं मिल रहे हैं, गांवों में काम करने के लिए डॉक्टर नहीं हैं। डिमांड और सप्लाई का यह बड़ा फासला देश का नुकसान कर रहा है, और यहां से हर बरस दसियों हजार छात्र-छात्राएं यूक्रेन से लेकर चीन तक मेडिकल पढ़ाई के लिए जाते हैं। देश में आईआईएम जैसे दुनिया के विख्यात मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हैं, फिर भी जाने क्यों डॉक्टरों की जरूरत और मेडिकल पढ़ाई की क्षमता के बीच कोई तालमेल नहीं बैठाया जा सका है।
हमने यहां कई अलग-अलग मुद्दों को छुआ है। जिसमें से एक सबसे व्यापक मुद्दा स्कूली बरसों में ही किताबों से परे के प्रशिक्षण का है। देश के लोगों को यह बात समझाना भी आसान नहीं होगा कि उनके बच्चे डिग्री पाकर बेरोजगार बनने लायक ही नंबर लाते दिख रहे हैं, और उससे बेहतर होगा कि वे कोई हुनर सीखकर तकनीकी क्षमता विकसित कर लें। देखें, कि सरकार और समाज अगली पीढ़ी को कड़वी बात कहने की कितनी हिम्मत जुटा पाते हैं।
तमिलनाडु में भारत सरकार के शुरू किए हुए मेडिकल दाखिला इम्तिहान, राष्ट्रीय पात्रता व प्रवेश परीक्षा (नीट) को लेकर तमिलनाडु ने शुरू से विरोध किया है। उसका कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई इम्तिहान नहीं होना चाहिए। वहां पर सरकारी मेडिकल कॉलेज में सीट न मिलने पर बहुत से छात्रों ने आत्महत्या कर ली है, और आज यह मुद्दा एक बार फिर खबर में इसलिए भी है कि आत्महत्या करने वाले ऐसे एक छात्र के साथ-साथ, उसके बाद सदमे में आए उसके पिता ने भी खुदकुशी कर ली। एक रिपोर्ट कहती है कि बाप-बेटे को यह उम्मीद थी कि राज्य के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने कहा था कि वे नीट को खत्म कर देंगे, और अगर वह इम्तिहान खत्म हो गई रहती तो बहुत से लोगों की जान बचती। अभी का खुदकुशी वाला यह छात्र अपने पिता के किसी तरह कोचिंग सेंटर को किए गए भुगतान के बोझ से वाकिफ था, और पिता ने बेटे की हौसला अफजाई के लिए नीट में न चुने जाने पर कोचिंग सेंटर में दुबारा फीस जमा कर दी थी, लेकिन निराश छात्र ने खुदकुशी कर ली, और बाद में पिता ने। अब तक वहां 16 से अधिक लोग आत्महत्या कर चुके हैं। तमिलनाडु में विधानसभा में नीट के खिलाफ विधेयक पास किया था, और इसे राज्यपाल के लौटाने के बाद राष्ट्रपति को भेजा हुआ था, लेकिन उसे मंजूरी मिल नहीं रही है, और आत्महत्याएं जारी हैं।
हम किसी इम्तिहान के तरीके को ऐसी आत्महत्याओं के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार नहीं कहते, फिर चाहे वे इम्तिहान अपने आपमें गलत ही क्यों न हों। परिवार और समाज को अपने बच्चों को इस तरह से तैयार करना चाहिए कि वे किसी कोर्स में दाखिले को जिंदगी का अंत ही न मान लें। हर कॉलेज में हर किसी को तो दाखिला मिल भी नहीं सकता, और बेहतर यही है कि प्राथमिक शिक्षा के बाद से धीरे-धीरे बच्चों को उनके रूझान, और उनकी क्षमता के मुताबिक आगे बढ़ाना चाहिए। आज जिस तरह से छोटे-छोटे कस्बों में भी कॉलेज खुल गए हैं, छात्र-छात्राएं वहां से बीए, बीकॉम करके बेरोजगार बनते चले जा रहे हैं, उससे एक बड़ी पीढ़ी के सामने भविष्य का खतरा खड़ा हो गया है। गरीब या किसान परिवार, या किसी छोटे कस्बाई कारोबारी के बच्चे भी जब कॉलेज की पढ़ाई कर लेते हैं, तो वे नौकरी के अलावा कोई और काम करना नहीं चाहते हैं। वे पढ़े-लिखे, सफेद कपड़ों वाले काम करना चाहते हैं, जो कि गिनती के रहते हैं। अनगिनत बेरोजगार, और गिनती के रोजगार। यह नौबत कुछ उसी तरह की रहती है कि कुछ हजार मेडिकल सीटों के लिए दसियों लाख छात्र-छात्राएं मुकाबला करते हैं, और निराश होने पर उनमें से कई लोग खुदकुशी कर लेते हैं, और अनगिनत लोग डिप्रेशन में चले जाते हैं।
सरकार और समाज को यह भी सोचना चाहिए कि जिस तरह दाखिला इम्तिहानों को ही जिंदगी का मकसद बना दिया गया है, उसकी वजह से बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी घटती जा रही है, और महज कोचिंग में दिलचस्पी बनी हुई है। देश के शिक्षाशास्त्रियों को यह भी सोचना चाहिए कि प्राइमरी स्कूल से लेकर 12वीं के बाद की किसी दाखिला इम्तिहान तक हर बरस के इम्तिहान के नंबरों को किसी बड़े कॉलेज में दाखिले के वक्त क्यों नहीं जोड़ा जाना चाहिए? अगर ऐसा करना मुमकिन न भी हो, तो भी 12वीं तक की तीन-चार बोर्ड इम्तिहानों के नंबरों का हिसाब आगे के दाखिला इम्तिहान के साथ लगाना ही चाहिए। इसके बिना बच्चों और उनके मां-बाप की भी दिलचस्पी सिर्फ कोचिंग में रहती है, और स्कूली पढ़ाई किनारे धरी रह जाती है। इससे बच्चों को बड़ी अधूरी पढ़ाई मिल रही है जिससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी असर पडऩे लगेगा।
यह भी सोचने की जरूरत है कि मिडिल स्कूल के वक्त से ही किस तरह पढ़ाई में कमजोर रूझान वाले बच्चों को रोजगार से जुड़ी हुई पढ़ाई की तरफ मोडऩा चाहिए, ताकि वे आगे जाकर किसी काम के तो रहें। आज अधिक से अधिक बच्चों को पास कर दिया जाता है, और बाद में इनमें से हर कोई बहुत औसत दर्जे की डिग्री पाकर नौकरी के सपने देखते हैं, और अपने मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हैं। यह सिलसिला ठीक नहीं है। स्कूल के भी आखिरी तीन-चार बरसों में रोजगार से जुड़े प्रशिक्षण को जोडऩा चाहिए, और जिंदगी के लिए जरूरी मामूली पढ़ाई के बाद, पढ़ाई में कमजोर बच्चों को दूसरे हुुनर सिखाने चाहिए। आज तमाम बच्चों को हर दाखिला इम्तिहान में शामिल होने का हक है, और नतीजा यह होता है कि जो स्कूल में भी बहुत कमजोर रहे हैं, वे भी बड़े कठिन इम्तिहानों में नाकामयाब होने की पूरी आशंका के साथ शामिल होते हैं, मां-बाप बहुत खर्च करते हैं, बच्चे तैयारी के दौरान भी खुदकुशी करते हैं, और सेलेक्शन न होने पर भी।
आज देश में जितने किस्म के हुनर के जानकार और प्रशिक्षित लोगों की जरूरत है, वह पूरी नहीं हो पा रही है। अधिकतर कामों के लिए नौसिखिया, अर्धसिखिया, लोग मौजूद रहते हैं, जो कि काम की क्वालिटी भी खराब रखते हैं। ऐसे में अगर हुनरमंद लोगों को तैयार किया जाए, तो वे गिनी-चुनी सरकारी नौकरियों के लिए मीलों लंबी कतार में लगने के बजाय स्वरोजगार से कमाई करने लगेंगे। हिन्दुस्तान की शिक्षा नीति में कई किस्म के प्रयोग तो हुए हैं, लेकिन अब भी कोई सरकार छात्र-छात्राओं को मुंह पर यह कहने का हौसला नहीं रखती कि आगे किताबी पढ़ाई के मुकाबले में उनका भविष्य बहुत अच्छा नहीं रहेगा, और उन्हें कोई दूसरा रास्ता छांटना चाहिए। देश और प्रदेशों की जरूरत के मुताबिक अंदाज 25-30 बरस बाद का भी लगाना होगा तभी जाकर कुछ खास किस्म कॉलेज बढ़ाए या घटाए जा सकेंगे। एक तरफ तो मेडिकल सीट न मिलने पर आत्महत्याएं हो रही हैं, दूसरी तरफ मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाने के लिए डॉक्टर नहीं मिल रहे हैं, गांवों में काम करने के लिए डॉक्टर नहीं हैं। डिमांड और सप्लाई का यह बड़ा फासला देश का नुकसान कर रहा है, और यहां से हर बरस दसियों हजार छात्र-छात्राएं यूक्रेन से लेकर चीन तक मेडिकल पढ़ाई के लिए जाते हैं। देश में आईआईएम जैसे दुनिया के विख्यात मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हैं, फिर भी जाने क्यों डॉक्टरों की जरूरत और मेडिकल पढ़ाई की क्षमता के बीच कोई तालमेल नहीं बैठाया जा सका है।
हमने यहां कई अलग-अलग मुद्दों को छुआ है। जिसमें से एक सबसे व्यापक मुद्दा स्कूली बरसों में ही किताबों से परे के प्रशिक्षण का है। देश के लोगों को यह बात समझाना भी आसान नहीं होगा कि उनके बच्चे डिग्री पाकर बेरोजगार बनने लायक ही नंबर लाते दिख रहे हैं, और उससे बेहतर होगा कि वे कोई हुनर सीखकर तकनीकी क्षमता विकसित कर लें। देखें, कि सरकार और समाज अगली पीढ़ी को कड़वी बात कहने की कितनी हिम्मत जुटा पाते हैं।
हिन्दुस्तानी आजादी की एक और सालगिरह आकर चली गई। सरकार, बाजार, और तमाम संगठनों ने, रिहायशी कॉलोनियों और गरीब बस्तियों ने, गांव-गांव में पंचायतों ने आजादी का जलसा मनाया, और पूरा देश एक किस्म से इस दिन देशप्रेम के गानों वाले लाउडस्पीकरों से गूंजते रहा। इस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर जो विभाजन विभीषिका दिवस मनाया गया, हम उस बारे में आज यहां कुछ नहीं कह रहे, क्योंकि दो दिन पहले ही इस पर हमने लिखा, और कहा है। आज यहां पर इसका जिक्र न होना अटपटा न लगे, इसलिए यह बात कही जा रही है।
सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने तिरंगे झंडे और देश के सुनहरे इतिहास, और यहां की सोने की चिडिय़ा के बारे में बहुत कुछ लिखा है, बहुत से लोगों ने इस मौके को अखंड भारत की अपनी हसरत, अपने सपने के जिक्र के लिए भी इस्तेमाल किया है। अखंड भारत की हसरतों को केलकुलेटर लेकर हिसाब लगाना चाहिए कि अब अखंड भारत बनने पर उसमें मुस्लिम आबादी कितनी फीसदी बढ़ जाएगी, और आज के 20 करोड़ मुस्लिम 50 करोड़ से भी अधिक हो जाएंगे, और ऐसे तमाम लोगों का बराबरी का हक अखंड भारत के साधनों पर रहेगा। भूखों मरते अफगानिस्तान, और बाढ़ में डूबे पाकिस्तान के करोड़ों मुसलमानों को इस अखंड भारत में लाकर आज के हिन्दुस्तानी नक्शे के बाशिंदों का हक कितना मारा जाएगा, और नई जुड़ी आबादी को बराबरी की जरूरत देने के लिए पेट्रोल तीन सौ रूपए लीटर करना पड़ेगा, लोगों को टैक्स आज से दुगुना देना पड़ेगा, और सरकार की योजनाएं आज के हिन्दुस्तान वाले हिस्से में एक चौथाई रह जाएंगी क्योंकि अखंड भारत के नए जुड़े हिस्सों को सहूलियतों में बराबरी का हक तो देना ही पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ही सरकार से पूछ लेगी कि अफगान गरीबों को यूपी के गरीबों के बराबरी का हक क्यों नहीं मिल रहा है। इसलिए जो कोई अखंड भारत की बात करे, उन्हें कुछ देर के लिए इंटरनेट पर इन देशों के आबादी और धर्म के आंकड़े देने चाहिए, केलकुलेटर और कागज देकर हिसाब निकालने कहना चाहिए, और देखना चाहिए कि पिछले 8-10 बरस में अचानक जो हिन्दू खतरे में आ गए हैं, वे अखंड भारत में ढाई गुना होने जा रही मुस्लिम आबादी के बीच और कितने खतरे में आ जाएंगे। जितने हसरती-फतवेबाज हैं उन्हें ये आंकड़े देना चाहिए, और उनकी हसरतों के उबाल पर हकीकत के कुछ छींटे डालने चाहिए।
लेकिन इससे परे भी कुछ और बातों को सोचने की जरूरत है जिन्हें अलग-अलग लोगों ने सोशल मीडिया पर उठाया है। अगर आप फेसबुक और ट्विटर पर सिर्फ नफरतजीवियों से दोस्ती नहीं रखते हैं, और कुछ इंसान भी आपके दोस्त हैं, तो ये तमाम बातें किसी एक ने, या अलग-अलग लोगों ने लिखी होंगी कि आज आजादी के जश्न के बीच यह सोचने की जरूरत है कि क्या मुल्क की हकीकत को अनदेखा करके जश्न मनाना लोकतंत्र है? कुछ लोगों ने याद दिलाया है कि मणिपुर आज भी राज्य सरकार की साजिशों को झेल रहा है, और आदिवासी कुकी समुदाय और मैतेई समुदाय को एक-दूसरे से टकराने से रोकने के लिए भारतीय फौज की जो असम रायफल्स वहां तैनात है, किस तरह वहां की राज्य सरकार उसके ही खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर रही है क्योंकि उसने भाजपा के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह के हुक्म पर कुकी समुदाय पर हमले के लिए जा रहे कमांडो दस्ते को रोकने की कोशिश की थी। देश के एक बहुत बड़े रिटायर्ड फौजी ने अपने नाम से इसका खुलासा करते हुए लिखा है कि विश्वयुद्धों में जो असम रायफल्स हिस्सा ले चुकी है, उसे आज मणिपुर की भाजपा सरकार किस तरह बदनाम कर रही है, क्योंकि वह कुकी आदिवासी ईसाई समुदाय पर हमले रोक रही है। मणिपुर का हाल इस पूरे लोकतंत्र को शर्मिंदगी दे रहा है, क्योंकि इस लोकतंत्र के जो सबसे जिम्मेदार लोग हैं, उन्होंने इसकी जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया है, और देश के 140 करोड़ लोगों को सामूहिक जिम्मेदार ठहरा दिया है। क्या ऐसे देश को आज आजादी का जश्न मनाने का हक है? या फिर इस रंगारंग जश्न के देशभक्ति के गाने लोगों को मणिपुर को और अधिक भुला देने की मदद कर रहे हैं? यह सोचने की जरूरत है कि हरियाणा के मेवात में वहां के ऐतिहासिक भारतप्रेमी मुस्लिमों को जिस तरह मारा, कुचला, बेघर, बेरोजगार किया जा रहा है, क्या वह आजादी का जश्न मनाने का मौका है? जहां पर एक समुदाय की बसाहट, उसकी रोजी-रोटी बुलडोजरों से गिराई जा चुकी है, क्या उस बुलडोजर पर भी तिरंगा फहराना देश में आजादी का प्रतीक रहेगा? क्या इस हिन्दुस्तान के छत्तीसगढ़ के बस्तर में ईसाई बने आदिवासी की दफन की गई लाश को साम्प्रदायिक ताकतें उखाडक़र गांव के बाहर फेंक रही हैं, और सरकार स्टेडियम में बैठी मानो एक मैच देख रही है, तो क्या ऐसे में आजादी का जलसा जायज है? जब इस देश की संसद को देश की पंचायत की तरह सोचने का हक न हो, क्योंकि इसमें बहुतायत एक खास सोच के लोगों की हो गई है, तो क्या यह आजादी का मौका है? और बहुमत वाले दल के भीतर प्रेमचंद के सवाल का कोई जवाब नहीं रह गया है कि बिगाड़ के डर से क्या सच नहीं कहोगे? तो क्या यह जश्न का मौका है? आज जब कई राज्यों की सरकारें अपने प्रदेश के भीतर जुबान से निकले हर लफ्ज में एक धर्म की हिमायती दिखती हैं, और दूसरे धर्म के खिलाफ हमलावर, और ऐसी सरकारें निर्वाचित हैं, संवैधानिक हैं, और अदालती दखल से ऊपर हैं, तो क्या यह लोकतंत्र के लिए जलसे का वक्त है? ऐसे सैकड़ों मुद्दे हैं, देश के दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आज बहुसंख्यक सवर्ण, संपन्न तबके की सोच की तोप के निशाने पर हैं, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हैं, क्या यह नौबत किसी जश्न की है?
आजादी की सालगिरह कई लोगों के लिए सुनहरे और मीठे गाने लेकर आती है। कांक्रीट के जंगल के बीच बैठे कल दिन भर हम लाउडस्पीकरों पर लगातार यह गाना सुनते रहे- जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा, वो भारत देश है मेरा। इस गाने पर मुग्ध, और फख्र करके लोगों को यह भी नहीं सूझ रहा कि आज न डाल बची है, और न किसी भी किस्म की चिडिय़ा, आज तमाम शहरों में गौरैय्या दिखना भी बंद हो चुका है, लेकिन ऐसे में 25-50 बरस से चले आ रहा यह गाना लोगों के राष्ट्रीय अहंकार को सहला देता है, और इसलिए चले भी आ रहा है। खुद ही के बजाए ऐसे गानों के झांसे में आए हुए लोग अब न डाल के हकदार रह गए हैं, न किसी किस्म की चिडिय़ा के, वे सिर्फ गौरव के झूठे या गुजर चुके प्रतीकों का जश्न मनाने के हकदार हैं, और चूंकि यह काफी नहीं है, इसलिए नेहरू और गांधी को गालियां देने को इस जश्न में जोड़ा ही जा रहा है।
देश की आज की हालत को देखकर अदम गोंडवी के शब्द याद आते हैं-
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशादरु हैं,
दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेआर को मत आंकिए,
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
(रुनाशाद का मतलब नाखुश, अभागे, बदनसीब)
हरियाणा की खबरें बहुत परेशान करने वाली हैं। आज एक पखवाड़ा हो गया है जब वहां एक अभूतपूर्व साम्प्रदायिक तनाव खड़ा हुआ, और जिससे निपटने के नाम पर प्रदेश की भाजपा सरकार ने ऐसी कार्रवाई की जिसे वहां के हाईकोर्ट ने खुद नोटिस लेकर एक नस्लीय-सफाया करार दिया, और बुलडोजरों से मुस्लिमों के मकान-दुकान गिराना रोका। हालांकि सरकार ने अदालत में अपने जवाब में कहा है कि वह किसी धर्म के आधार पर तोडफ़ोड़ नहीं कर रही है। इस बीच हरियाणा से वहां छाए हुए तनाव के बीच से यह खबर भी आ रही है कि वहां हिन्दू संगठनों की कोई महापंचायत हुई है जिसमें फतवा दिया गया है कि हिन्दू हथियार खरीदें, और 28 अगस्त को एक धार्मिक जुलूस निकालने की बात भी कही गई है। यह जिक्र जरूरी है कि एक पखवाड़े पहले साम्प्रदायिक हिंसा एक धार्मिक जुलूस के दौरान ही शुरू हुई थी जिसमें आधा दर्जन मौतें हुईं, और बहुत से इलाकों में आगजनी और दीगर हिंसा हुई। वैसे हरियाणा में अब फिर से एक धार्मिक जुलूस के लिए हथियारबंद होने की ऐसी बैठक होना, और ऐसी तैयारी होना परेशान करने वाली बात तो है ही।
लेकिन आज की एक लंबी-चौड़ी खबर है कि इस हरियाणा के फतेहाबाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के घोषित एक कार्यक्रम के तहत विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाया जाने वाला है जिसे कि सरकारी स्तर पर किया जा रहा है, और जो सरकार की अपनी घोषणा के मुताबिक भारत-पाकिस्तान विभाजन की दुख-दर्द भरी यादों को ताजा करने का एक काम है। यह बात जाहिर है कि 1947 के विभाजन के उस दौर में भारत और पाकिस्तान की नई सरहद के आरपार एक-दो करोड़ लोगों की बेदखली हुई थी, और पांच-दस लाख लोग साम्प्रदायिक हिंसा में मारे गए थे। इनमें हिन्दू, मुस्लिम, और सिक्ख सभी समुदायों के लोग थे। ऐसे में सरहद के दोनों तरफ की सरकारों, और लोगों की गिनती और हिसाब अलग-अलग हो सकते हैं, उनके लाशों के ढेर अलग-अलग हो सकते हैं। आज उस विभाजन की पौन सदी बाद अगर उन जख्मों को सरकार देश भर में ताजा करना चाहती है, तो यह निहायत गैरजरूरी है, और अगर नई पीढ़ी को इतिहास के नाम पर इन जख्मों को देकर, और इन्हें छीलने का काम होना है, तो उससे सरहद के दूसरी तरफ चाहे जो हो, सरहद के हिन्दुस्तान की तरफ इससे एक अनावश्यक साम्प्रदायिक नफरत फैलेगी, जो कि किसी के हित में नहीं हैं। विभाजन के उस पूरे दौर को दुनिया भर के इतिहासकारों ने अपने-अपने नजरिए से लिखा है, और उनमें से कोई भी किताब प्रतिबंधित नहीं है। इतिहास के उस जटिल दौर को समझने के लिए इतिहास की एक व्यापक पढ़ाई और समझ जरूरी है। लेकिन महज तस्वीरों की प्रदर्शनी के मार्फत अगर लोगों को विभाजन के जख्म साझा करने कहा जा रहा है, तो यह समझ साझा करने का काम नहीं है, यह अज्ञान साझा करने का काम है, नासमझी साझा करने का काम है।
हैरानी की बात यह है कि मोदी सरकार अभी पिछले दो-तीन बरस में ही भारत की स्कूली किताबों से गुजरात दंगों को हटा चुकी है, गांधी हत्या को हटा दिया गया है, या कम कर दिया गया है, और इस तरह के कई फेरबदल किए गए हैं। दूसरी तरफ देश भर की स्कूलों में 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने का जो हुक्म केन्द्र सरकार ने दिया है, वह एक किस्म से स्कूली किताबों के बाहर एक भयानक पाठ्यक्रम जोडऩे का काम है। और हरियाणा की सरकार सार्वजनिक रूप से पहले से धार्मिक उत्तेजना से गुजर रहे बालिग लोगों के बीच सरकारी-सार्वजनिक कार्यक्रम करके इन्हीं जख्मों को बांटने का काम कर रही है। हो सकता है कि भाजपा के राज वाले कुछ और प्रदेशों में भी ऐसा किया जा रहा हो, जिसकी खबरें अब तक हमारी नजर में नहीं आई हैं। यह समझने की जरूरत है कि विभाजन के वक्त देश का जो नुकसान हुआ है, और उसी किस्म का जो नुकसान पड़ोसी देश पाकिस्तान का हुआ है, उसे पौन सदी हो चुकी है, और अब उससे उबरकर आगे बढऩे की जरूरत है। वैसे भी इन दोनों देशों के बीच फैला हुआ तनाव कम नहीं है, और चूंकि पाकिस्तान एक मुस्लिम देश है, और हिन्दुस्तान की बड़ी मुस्लिम आबादी उस वक्त पाकिस्तान गई थीं, इसलिए हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले लोग बड़ी आसानी से इस देश के मुस्लिमों को इशारे-इशारे में पाकिस्तान से जोड़ते रहते हैं, और आज जब विभाजन के जख्मों को सरकारी कार्यक्रमों के रास्ते लोगों के सामने रखा जा रहा है, तो वह एक किस्म से हिन्दुस्तान के भीतर बसे हुए मुस्लिमों के खिलाफ एक नापसंदगी, नाराजगी, या नफरत पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं है।
हिन्दुस्तान को अपने देश और अपने नागरिकों की फिक्र पहले करनी चाहिए, अपने लोगों के भविष्य की फिक्र पहले करने चाहिए, बजाय एक गुजर चुके इतिहास को इस्तेमाल करके आज देश में तनाव खड़ा करने के। ऐसा तनाव किसी चुनाव में एक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तो शर्तियां पैदा कर सकता है, लेकिन क्या देश की कीमत पर, यहां के साम्प्रदायिक सद्भाव की कीमत पर किसी चुनाव जीतने की नीयत से ऐसा करना जायज भी है? अब ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में ऐसी तमाम कोशिशों के लिए कुछ राजनीतिक दलों में किसी भी किस्म की झिझक खत्म हो चुकी है। और यह भी एक खतरनाक नौबत है कि आबादी के बहुसंख्यक तबके के एक बड़े हिस्से का इतना मानसिक साम्प्रदायिक ब्रेनवॉश हो चुका है कि उन्हें मुस्लिम-विरोध की हर बात हिन्दुत्व लगती है, राष्ट्रवाद लगती है, और राष्ट्रहित लगती है। बड़ी कोशिशों से हाल के बरसों में लोगों की लोकतांत्रिक सभ्यता को खत्म किया गया है ताकि उनके बीच मानवीय मूल्यों और लोकतांत्रिक मूल्यों की जगह खत्म हो जाए, और साम्प्रदायिकता आसानी से उनके खाली दिमागों में भर सके। आज हिन्दुस्तान ऐसे बहुत बड़े खतरे से गुजर रहा है, और मानो इसी को बढ़ाने के लिए विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाया जा रहा है ताकि लोगों में भाईचारे की कोई जड़़ अगर बाकी रह भी गई हो, तो भी उसे उखाडक़र फेंका जा सके। जिस देश को वर्तमान और भविष्य की फिक्र करनी चाहिए, वह महज इतिहास को खोदकर, उसके पसंदीदा हिस्सों को छांटकर, उन्हें अपनी तैयार की गई कहानी के साथ पेश कर रहा है। स्कूलों में ऐसी प्रदर्शनी देखने वाली नई पीढ़ी हो सकता है कि उसी दिन से एक नई नफरत का शिकार हो जाए।
संसद की स्थाई समिति ने कहा है कि देश के सुप्रीम कोर्ट और प्रदेशों के हाईकोर्ट के जजों ने कमजोर तबकों के लोग बहुत कम है। इस समिति ने पिछले पांच बरस में हाईकोर्ट में हुई नियुक्तियों पर गौर करते हुए यह नतीजा निकाला है। अपने निष्कर्ष के लिए समिति ने जो आंकड़े सामने रखे हैं वे सचमुच ही सदमा पहुंचाते हैं। इनके मुताबिक हाईकोर्ट में 76 फीसदी नियुक्तियां सामान्य अनारक्षित वर्ग से हुई है। और यह संख्या बहुत छोटी नहीं है कि कोई गलत तस्वीर बनती हो। पांच बरस में छह सौ से अधिक हाईकोर्ट जज बने हैं जिनमें कुल तीन फीसदी दलित, डेढ़ फीसदी आदिवासी, बारह फीसदी ओबीसी, पांच फीसदी अल्पसंख्यक जज बने। सभी तबकों में मिलाकर कुल 15 फीसदी महिलाएं जज बनी हैं। संसदीय समिति ने यह कहा है कि अदालतों के प्रति तमाम जनता का भरोसा तभी बढ़ सकेगा जब इसमें हाशिए पर रहने वाले तबकों को भी जगह मिले। एक दिलचस्प बात यह भी है कि कमेटी ने यह जानकारी चाही है कि आज हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में काम करने वाले जजों का निजी सामाजिक दर्जा क्या है, शायद इसका मतलब उनकी आर्थिक हैसियत से होगा। कमेटी ने सिफारिश की है कि अगर कोई कानून बदलना पड़े, तो भी उसे बदलकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में कमजोर तबकों, महिलाओं का हिस्सा बढऩा चाहिए। आज इन अदालतों के जजों को छांटने और नियुक्त करने में कोई आरक्षण नहीं है।
यह बात देश के कई समाजशास्त्री, एक्टिविस्ट-जर्नलिस्ट, और बड़े वकील उठाते आए हैं कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जज बनाने की कॉलेजियम प्रणाली सामाजिक न्याय नहीं कर पा रही है। जिस तरह किसी कारोबार में पैसा पैसे को खींचता है, उसी तरह सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम बड़े सीमित दायरे के लोगों से बना है, और वह उसी सीमित दायरे के लोगों को छांटता है, ऐसा कई लोगों का मानना है। वरना क्या वजह हो सकती है कि जब देश और प्रदेश की बड़ी अदालतों में हर जाति और धर्म के वकील सबसे प्रमुख वकीलों में शामिल हैं, जब कई महिला वकील देश की सबसे चर्चित हैं, और जागरूक वकील साबित हो चुकी हैं, तब इन तबकों के लोगों को जजों के लिए क्यों नहीं छांटा जा सकता? जब किसी के दिल या दिमाग का ऑपरेशन करने वाले सर्जन भी आरक्षित तबके से आ सकते हैं, और लोग अल्पसंख्यक सर्जनों के हाथ में भी अपनी जिंदगी देते हैं, तो फिर ऐसे तबकों से जज क्यों नहीं आ सकते? किसी नाजुक सर्जरी के बाद तो अदालती पुनर्विचार याचिका जैसी कोई गुंजाइश भी नहीं रहती है, सर्जन सर्जरी के दौरान पहले और आखिरी जान बचाने वाले हो सकते हैं, लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने भी कभी डॉक्टरी की पढ़ाई में आरक्षण का विरोध नहीं किया। जब अपने साथी जजों को चुनने की बारी आती है, तो सुप्रीम कोर्ट के जज आरक्षण के खिलाफ हो जाते हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि देश का प्रशासन चलाने वाले लोग, बड़े पुलिस अफसर, आईआईटी से निकलने वाले बड़े इंजीनियरों के हाथों में जिस तरह लाखों लोगों की जिंदगी रहती है, वैसे में अदालती कामकाज में ऐसा और क्या खतरा रहता है कि जजों में आरक्षण नहीं किया जा सकता? आज भी बहुत से अदालतों के जज जिस किस्म के फैसले देते हैं, उन्हें देखते हुए समझ आता है कि वे कितने इंसाफपसंद हैं। राहुल गांधी की अपील खारिज करने वाले गुजरात हाईकोर्ट के जज के बाकी फैसलों को भी देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने अभी-अभी हैरानी जाहिर की थी, और अभी कई अदालतों के कई जजों के जो ट्रांसफर हुए हैं, उनमें गुजरात हाईकोर्ट का यह जज भी शामिल है। इसलिए बिना आरक्षण अधिकतर अनारक्षित और सामान्य वर्ग के जो जज अदालतों पर काबिज हैं, उनकी सोच और समझ, दोनों के सुबूत बीच-बीच में सामने आते रहते हैं।
अब हम संसदीय समिति के उठाए हुए एक और मुद्दे पर आना चाहते हैं कि बड़ी अदालतों के इन जजों की अपनी सामाजिक स्थिति क्या है। पहली बात तो यह जाहिर है कि अपनी तनख्वाह और बाकी सहूलियतों की वजह से ये जज देश में सबसे ऊपर के एक फीसदी लोगों में आते हैं, और उनके और नीचे के पचास फीसदी लोगों के बीच समंदर सा चौड़ा फासला रहता है। शायद यह भी एक वजह है कि जब साम्प्रदायिक पैमानों पर सरकारी बुलडोजर गरीब अल्पसंख्यक तबके के जीने-खाने के जरिए को गिराते चलते हैं, तो उसकी तकलीफ सुप्रीम कोर्ट जजों को दिखाई नहीं पड़ती। शायद उनके बंगलों से अदालत तक के रास्तों पर ऐसी बस्तियां पड़ती भी नहीं होंगी, और इन जजों में से किसी ने ऐसे रोज कमाने-खाने वाले इंसानों के घर और दुकान नाम के टपरे देखे भी नहीं होंगे। ऐसा भी नहीं कि जज अकेले हैं, संसद और विधानसभाओं का हाल भी यही है कि वहां पहुंचे हुए लोगों में अरबपति और करोड़पति बढ़ते जा रहे हैं, वे सहूलियतों में जी रहे हैं, और गरीबी से कुछ हद तक कट रहे हैं, फिर भी पांच बरस में एक बार वोटों के चक्कर में उन्हें गरीब बस्तियों को देखना होता है जो कि जजों के साथ नहीं होता। हमारा तो यह भी ख्याल है कि जिस तरह आईएएस बनने पर प्रशिक्षण के दौरान ही नौजवान अफसरों को भारत दर्शन के लिए ले जाया जाता है, किसी को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने पर उन्हें भी देश के सबसे कमजोर तबकों की हकीकत तक सैलानी बनाकर ले जाना चाहिए, ताकि अदालती सुनवाई और फैसले के वक्त उन्हें देश की जमीनी हकीकत का अंदाज रहे।
हम जजों से लेकर सांसदों तक कुछ और बातों को भी देखते आए हैं जो कि परेशान करती हैं। इन लोगों ने अलग-अलग ऐसे फैसले लिए हैं जिनसे देश में दलित और आदिवासी आरक्षित तबकों के भीतर क्रीमीलेयर लागू नहीं हो पाई। आज इन तबकों के सबसे कमजोर लोगों तक आरक्षण का फायदा पहुंचाना है, तो वह तभी मुमकिन है जब सांसद और विधायक बने हुए, जज और आईएएस-आईपीएस बने हुए, एक सीमा से अधिक संपन्न हो चुके दलित-आदिवासी परिवारों को आरक्षण के फायदों से बाहर किया जाए। ऐसा न होने पर इस आरक्षण के हर अवसर को, हर संभावना को यही मलाईदार तबका बार-बार पाते रहता है, और इस तबके के मुकाबले इनकी बिरादरी के नीचे के लोगों की कोई गुंजाइश ही कभी नहीं निकलती। चूंकि दलित-आदिवासियों के बीच मलाईदार तबके को आरक्षण से बाहर करने पर इन आरक्षित तबकों के तमाम सांसदों, नौकरशाहों, और जजों के बच्चे बाहर हो जाएंगे, इसलिए इनका एक संकुचित स्वार्थ है कि ओबीसी जैसी मलाईदार तबके की सीमा इन पर लागू न हों। हकीकत यह है कि इन तबकों की आबादी के मुकाबले पढ़ाई और नौकरी के मौके एक फीसदी भी नहीं रहते, और 99 फीसदी लोग तो कभी भी स्कूल-कॉलेज या नौकरी नहीं पाते। ऐसे में जो लोग एक बार बड़ा फायदा पा चुके हैं, ताकतवर हो चुके हैं, उनके परिवारों को बाहर करने पर भी दलित और आदिवासी समुदाय से बेइंसाफी नहीं होती, बल्कि उन्हीं समुदायों के अधिक कमजोर और अधिक जरूरतमंद लोगों के लिए भी एक मौका मिलता है। लेकिन फैसला लेने की कुर्सियों पर बैठे लोग अपने वर्गहित के खिलाफ जाना नहीं चाहते, इसलिए वे अपने वर्णहित के खिलाफ काम करते हैं, और गरीब दलित-आदिवासी को मौकों से दूर रखते हैं।
इस हिसाब से हम संसदीय समिति की इस बात से सहमत हैं कि बड़े जजों की निजी सामाजिक हैसियत का एक अध्ययन होना चाहिए। आज हालत यह है कि सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम अगर बाबा साहब अंबेडकर को भी जज न बनाना तय कर लेता, तो वे किसी तरह से अपनी काबिलीयत साबित नहीं कर पाते। 140 करोड़ की आबादी में अगर सुप्रीम कोर्ट को अपने तीन दर्जन से कम जजों, और 1200 से कम हाईकोर्ट जजों में से आरक्षण की गिनती के लायक भी वकील आरक्षित तबकों से नहीं मिलते हैं, तो यह कोई मासूम नौबत नहीं है। हमारा मानना है कि महिला आरक्षण सहित बाकी तमाम किस्म के आरक्षण अनिवार्य रूप से लागू होने चाहिए, तो उससे सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम भी देश की हकीकत के मुताबिक बनेगा।
भारत सरकार ने डेढ़ सौ बरस पुराने कुछ कानून बदल कर उनकी जगह नए कानून पेश किए हैं, इनमें अदालतों में पेश होने वाले मामलों से जुड़े हुए 3 बड़े कानून, इंडियन पीनल कोड, कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, और एविडेंस एक्ट, इन तीनों की जगह भारतीय नाम वाले तीन नए कानून पेश किए गए हैं। अब ऐसा लगता है कि जहां कहीं इंडियन नाम था उन्हें बदलकर भारतीय किया जाएगा, और केंद्र सरकार की नीयत चाहे जो हो, सबसे पहले तमिलनाडु ने इन कानूनों में इस्तेमाल हिंदी शब्दों का विरोध किया है और इसे हिंदी तो थोपने की हरकत कहा है। केंद्र सरकार ने सफाई दी है कि ये शब्द हिंदी के नहीं हैं, बल्कि संस्कृत के हैं जिन्हें कि तमिलनाडु अपनी एक भाषा मानता है।
लेकिन भाषा से परे अगर देखें तो इन 3 कानूनों में जो फेरबदल प्रस्तावित हैं उनमें से कुछ अदालत और जेल में फंसे हुए लोगों के लिए एक बड़ी राहत साबित हो सकते हैं। अभी हम यह बात सिर्फ खबरों में दिख रही जानकारी को देखकर कह रहे हैं। कानून और अदालती प्रक्रिया के अधिक जानकार लोग बाद में हो सकता है कि इन प्रस्तावित कानूनों की बारीकियों को देखकर इनकी खामियां भी निकाल सकें, क्योंकि अंग्रेजी में कहा जाता है कि डेविल इज इन द डिटेल्स, यानी जो खतरनाक बात रहती है, वह बीच के हिस्से में, कहीं बारीक शब्दों में, दूसरी बातों के बीच में छुपाकर रखी जाती है, जो पहली नजर में आसानी से समझ नहीं आती, फिर भी पहली नजर में जो दिख रहा है, हम उन्हीं को लेकर आज यहां पर अपनी राय रख रहे हैं।
इसमें मॉब लिंचिंग पर 7 साल से लेकर मौत की सजा तक का प्रावधान किया गया है और मॉब की परिभाषा में 5 या 5 से अधिक लोगों के समूह के नस्ल जाति या समुदाय, लिंग, जन्मस्थान, भाषा, व्यक्तिगत विश्वास या किसी अन्य आधार पर की गई हत्या से उसे जोड़ा गया है। ऐसी भीड़ के हर सदस्य को कम से कम 7 बरस तक की कैद या फिर मौत की सजा भी दी जा सकती है। यह कानून महत्वपूर्ण इसलिए हो सकता है कि हिंदुस्तान में हर कुछ महीनों में कहीं न कहीं ऐसी भीड़ हत्या (हम इसके लिए भीड़त्या लिखने लगे हैं) सुनाई देती है। दूसरा महत्वपूर्ण फेरबदल यह दिख रहा है कि नाबालिग से गैंगरेप पर मौत की सजा का प्रावधान किया गया है और बलात्कार के मामलों में जो न्यूनतम सजा 7 साल थी उसे बढ़ाकर 10 साल कर दिया गया है। नाबालिग के साथ बलात्कार पर 20 वर्ष तक की कैद है। अब जब ऐसे कड़े क़ानून की चर्चा होती है तो याद पड़ता है कि देश और प्रदेश की सरकारें अपने पसंदीदा और चहेते बलात्कारियों को अदालती फ़ैसले के ठीक पहले तक किस तरह गोद में बिठाकर रखती हैं। कड़े क़ानून भी अगर लागू करने के लिए ज़िम्मेदार सरकारों की चुनिंदा नरमी के कैदी रहेंगे, तो फिर उनका कोई मतलब नहीं है। हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया का इतिहास गवाह है कि अमल और इस्तेमाल कमजोर रहे, तो क़ानूनों को महज़ अधिक कड़ा बनाते जाने का कोई फ़ायदा नहीं होता। आज संसद में पेश इस क़ानून को पास करने में ऐसे लोगों का भी वोट होगा जो दर्जन भर बलात्कार के आरोप झेलते हुए भी सरकार की आँखों के तारे हैं।
इसके अलावा एक दूसरा नया कानून हेट स्पीच और धार्मिक भड़काऊ भाषणों के बारे में प्रस्तावित है। अगर कोई व्यक्ति हेट स्पीच दे तो उस पर तीन बरस तक की कैद, और अगर धार्मिक आयोजन करके किसी वर्ग, तबके या धर्म के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया जाता है, तो इस पर 5 बरस तक की कैद का प्रावधान होगा। यह एक अलग बात है कि आज हिंदुस्तान में ऐसे अधिकतर भाषण राज्य सरकारों की मेहरबानी से ही, उनकी रहमदिली और उनके संरक्षण से ही दिए जाते हैं, तो वैसे में पुलिस भला ऐसे मामलों को कितना मजबूत बनाएगी, और सबूत को कितना बर्बाद किया जाएगा इसका ठिकाना नहीं है, लेकिन इन दिनों वीडियो कैमरों की मेहरबानी से हर मोबाइल पर जिस तरह सबूत जुटाए जा सकते हैं उसे ऐसा लगता है कि इस कानून के तहत कुछ अधिक लोगों को सजा मिल सकेगी और उसकी वजह से इस तरह की नफरत को फैलाना घटेगा। अगला एक कानून जो महत्वपूर्ण दिख रहा है, और फिर इसके बारे में यह कहना जरूरी है कि राज्य सरकारों की राजनीतिक विचारधारा के चलते इसका बड़ा बेजा इस्तेमाल होने का खतरा है, यह कानून गलत पहचान बताकर महिला के साथ यौन संबंध बनाने को लेकर है। अगर शादी, रोजगार, प्रमोशन का झांसा देकर झूठी पहचान के साथ, झूठे वादे करके, महिलाओं से शादी का वादा करके संबंध बनाए जाते हैं, तो उस पर 10 बरस तक की कैद हो सकती है। आज बहुत से ऐसे मामले दर्ज हो रहे हैं जिनमें किसी एक धर्म का व्यक्ति अपने आपको दूसरे धर्म का बताकर किसी से संबंध बना रहा है, या फिर उसके ख़िलाफ़ दर्ज रिपोर्ट में इसे एक मुद्दा बनाया जा रहा है, और उसके लिए इस धार्मिक आधार पर अलग से किसी सजा का प्रावधान नहीं है। यह नया कानून इस मामले को और अधिक गंभीर बनाता है, अगर यह आरोप लगता है कि धार्मिक पहचान छुपाई गई थी, और अगर ऐसा आरोप साबित हो सकता है।
इन सबसे ऊपर एक फेरबदल यह आया है कि 3 साल तक की सजा वाली सभी धाराओं की, अदालती सुनवाई तेजी से होगी। यह तय किया गया है कि चार्ज फ्रेम होने के बाद एक महीने में ही जज को फैसला देना होगा। यह भी तय किया गया है कि सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ अगर कोई मामला दर्ज है तो 4 महीने के भीतर केस चलाने की अनुमति देना जरूरी है। आज तो सरकार अपने चहेते सरकारी अमले के ख़िलाफ़ दस बरस भी मुक़दमे की इजाज़त नहीं देती। इससे जुड़ा हुआ एक दूसरा फेरबदल यह किया जा रहा है कि मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदला जा सकेगा लेकिन पूरी तरह बरी नहीं किया जा सकेगा। सरकार ने इन कानून को पेश करते हुए यह उम्मीद भी जताई है कि इससे भारत की जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में से करीब 40 फ़ीसदी लोग रिहाई पा जाएंगे। अभी हम ऐसे किसी दावे का मूल्यांकन करने की हालत में नहीं हैं, लेकिन यह जरूर लगता है कि अगर अदालती सुनवाई तेजी से हो सकेगी, तो वैसे भी बहुत से विचाराधीन क़ैदी बेकसूर साबित होने पर घर लौट सकेंगे, और यह छोटी बात नहीं होगी, यह बहुत बड़ी बात होगी।
इन तीनों कानून में इतने व्यापक फेरबदल किए गए हैं कि हम अभी उनका समग्र मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं, जैसे राजद्रोह के कानून को खत्म करके देशद्रोह का कानून बनाया गया है। अब उसे पूरे कानून की भाषा क्या है, उसमें कहां बेजा इस्तेमाल की गुंजाइश छोड़ी गई है, यह कानून के जानकार लोग आने वाले दिनों में विश्लेषण करके बताएंगे। हम अभी खबरों में आई हुई जानकारी से उतना नहीं समझ पा रहे हैं कि क्या सरकार कानून का बेजा इस्तेमाल करने की गुंजाइश इसमें रखकर चल रही है, या बेजा इस्तेमाल की आज की गुंजाइश कुछ घटेगी। यह बात सही है कि यह कानून अंग्रेजों के जाने के 75 वर्ष बाद तक चले आ रहे थे और इनमें से बहुत सारे कानून तो उस वक्त के अंग्रेजों के आज के अपने देश में भी इस्तेमाल नहीं होते हैं, इसलिए इनको बदला जाना तो बहुत समय से जरूरी था, और आज सरकार ने सैकड़ों कानून को हटाने की बात कही है, सैकड़ों क़ानूनों में फेरबदल की बात कही है, और हो सकता है कि सरकार का यह फैसला बहुत से बेकसूर लोगों को मदद करे।
इसके साथ-साथ कल संसद से जो खबरें निकली है उनके मुताबिक पिछले पिछली चौथाई सदी में जितने किस्म के इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ा है उन्हें देखते हुए इलेक्ट्रॉनिक सबूत को लेकर और अदालत की सुनवाई जैसी कार्रवाई के ऑनलाइन करने को लेकर जो फेरबदल हैं, वे अदालती बोझ को घटाने वाले हो सकते हैं। आज पहले ही दिन हम सीमित जानकारी के आधार पर इससे अधिक विश्लेषण करना ठीक नहीं समझते, और यह उम्मीद करते हैं कि जैसा कि सरकार का दावा है, अदालती फैसले तेजी से होंगे, विचाराधीन कैदियों को राहत मिलेगी, और मुजरिमों को सजा मिलना बढ़ सकेगा, अगर ऐसा है तो यह एक अच्छी बात होगी।
लेकिन सरकार की असली नीयत पर कुछ कहना इन पर बहस के बाद, इनके विशेषज्ञ-विश्लेषण के बाद ही ठीक होगा।
साम्प्रदायिक आग से निकले हुए, और अभी भी सुलगती हुई राख पर बसे हरियाणा से एक अलग किस्म की खबर है, वहां कई किसान संघों और खाप पंचायतों ने शांति की अपील की है, और स्वघोषित, तथाकथित गौरक्षक मोनू मानेसर की गिरफ्तारी की मांग की है। अभी खाप पंचायतों, किसान संघों, और धार्मिक नेताओं की एक बड़ी सभा ने ताजा साम्प्रदायिक हिंसा की निंदा करने के लिए हिसार में एक महापंचायत बुलाई। देश में किसान कानून पलटाने वाले भारतीय किसान मजदूर संघ ने इसका आयोजन किया, और इसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख सभी धर्मों के लोग शामिल हुए। इस आयोजन ने यह मांग की कि इसी बरस दो मुस्लिम लोगों को उनकी गाड़ी में जलाकर मार डालने के फरार आरोपी मोनू मानेसर को गिरफ्तार किया जाए। उल्लेखनीय है कि इस गौ-गुंडे मोनू मानेसर के खिलाफ राजस्थान में इन दो हत्याओं का जुर्म दर्ज है, लेकिन वह हरियाणा के नूंह में इस ताजा साम्प्रदायिक हिंसा के ठीक पहले वहां पहुंचने के वीडियो फैला रहा था, और उसी वजह से तनाव भी हुआ था। ऐसे व्यक्ति के बारे में हरियाणा के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की नर्म जुबान देखते ही बनती है।
हिंसा के सैलाब के बाद जिस तरह से हरियाणा की सरकार ने घोर साम्प्रदायिक रूख के साथ मुस्लिमों के नस्लीय सफाए का काम शुरू किया, उसे उनके घर-दुकान से शुरू किया गया जिन्हें बुलडोजर से गिराया गया। यह नौबत ऐसी सरकारी-हिंसा की थी कि जिसके बारे में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने खुद होकर अखबारी खबरों का नोटिस लिया, और राज्य सरकार को कटघरे में बुलाया, बुलडोजर से मकान-दुकान गिराना बंद करवाया, और सरकार से पूछा कि क्या यह नस्लीय सफाया नहीं है? हाईकोर्ट की यह बड़ी कड़ी भाषा थी, लेकिन देश के जिम्मेदार मीडिया में से कुछ लोग सरकार के इस रूख के बारे में लिखते आ रहे थे, और जो खबरें सामने थीं, वे अपने आपमें सरकार के इस साम्प्रदायिक रूख का सुबूत थी, इसलिए हाईकोर्ट ने लीक से बहुत हटकर न कुछ किया, न कुछ कहा, उसने जो कुछ किया वह लोकतंत्र में उसकी जिम्मेदारी थी क्योंकि राज्य सरकार अगर अपनी ही जमीन पर अपने ही नागरिकों के एक तबके को छांटकर उसे तबाह करने के लिए अपनी संवैधानिक ताकत का हिंसक और बेजा इस्तेमाल करने पर उतारू है, किए चले जा रही है, तो उसे किसी को तो रोकना ही था, और भारतीय संविधान में यह जिम्मा अदालत को दिया गया है कि अगर सरकार गुंडागर्दी पर उतारू हो जाए या वह मुजरिम बन जाए, तो अदालत खुद होकर भी कोई मुकदमा शुरू कर सकती है। यूपी और एमपी में सरकारों के ठीक ऐसे ही नस्लीय सफाए और बुलडोजरी-इंसाफ के खिलाफ हमने इसी जगह पर बार-बार सुप्रीम कोर्ट से दखल देने की मांग की थी, लेकिन अदालत ने कुछ किया नहीं था। अब यह बात साफ है कि पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट को भी आईना दिखाया है कि उसे पहले ही भाजपा के कई प्रदेशों में चल रहे ऐसे नस्लीय सफाए के खिलाफ कार्रवाई करनी थी, अगर वह हो चुकी रहती, तो इस हाईकोर्ट को आज आगे बढक़र बुलडोजर नहीं रोकने पड़ते।
फिलहाल हम उस बात पर लौटें जिससे आज यहां लिखना शुरू किया है, तो यह बात साफ है कि हिन्दुओं की बहुतायत वाली हरियाणा की खाप पंचायतों, और पंजाब-हरियाणा की किसान यूनियनों ने अगर गौ-गुंडे मोनू मानेसर की गिरफ्तारी की मांग की है, और हरियाणा के नूंह में शांति की अपील की है, तो यह बात खाप पंचायतों और किसान संगठनों के परंपरागत दायरे से बाहर की है। आज भी हरियाणा की कुछ खाप पंचायतें मुस्लिम व्यापारियों के बहिष्कार के फतवे का समर्थन कर रही हैं, लेकिन बाकी खाप पंचायतें साम्प्रदायिक गुंडे की गिरफ्तारी की मांग कर रही हैं। एक खबर बताती है कि जाट समुदाय से जुड़ी खाप पंचायतें साम्प्रदायिक शांति और इस गुंडे की गिरफ्तारी की मांग कर रही है। किसान और जातीय संगठनों का यह रूख देश में जागरूकता का एक नया संकेत है। किसान अपने परंपरागत दायरे से बाहर आकर एक व्यापक सामाजिक मुद्दे पर देश में अमन-चैन की वकालत कर रहे हैं, जो कि किसी भी जिम्मेदार संगठन की ताकत का एक बड़ा जिम्मेदार विस्तार है। जब किसी बैनरतले कोई ताकत जुटती है, तो उसका समाज के व्यापक भले के लिए भी इस्तेमाल होना चाहिए, और किसान संगठनों का यह रूख इसी जिम्मेदारी को बता भी रहा है।
हरियाणा या किसी प्रदेश को मुस्लिमों से मुक्त करा लेने का सपना कुछ साम्प्रदायिक लोगों का हो सकता है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में यह हकीकत नहीं हो सकता, और हो यह रहा है कि ऐसा सपना हर चुनाव के वक्त कई अलग-अलग किस्म की पैकिंग में बेचकर लोग वोट पाने की कोशिश करते हैं, और हिन्दुस्तान की कई गैरजिम्मेदार संवैधानिक संस्थाएं न सिर्फ इसे अनदेखा करती हैं, बल्कि इसे हिफाजत भी देती हैं। यह नौबत इस लोकतंत्र को लगातार एक धर्मराज की तरफ धकेलने की कोशिश कर रही है जो कि हकीकत में कभी होना नहीं है, बस यही होना है कि एक स्थाई नफरत और तनाव इस देश के लोगों के जहन में बैठ जा रही है। देश के लोगों की समझ में लोकतंत्र के अलग-अलग दायरों को लगातार कुचलकर उनकी सोच को अलोकतांत्रिक बनाना जारी है। इसमें दिलचस्पी रखने वाली देश-प्रदेश की सरकारें ओवरटाइम कर रही हैं, और बहुत सी अदालतों मामलों को देखकर ऐसा लग रहा है कि इस देश में न्यायपालिका सरकारों के कुकर्म रोकने के लिए ही बनाई गई हैं। लोकतंत्र के लिए यह नौबत निराशा की भी है, और बहुत खतरनाक भी है। ऐसे में अगर सामाजिक और दूसरे किस्म के संगठन अपने सीमित एजेंडा से बाहर जाकर व्यापक जनहित के मुद्दों में शामिल होते हैं, तो अलोकतांत्रिक सरकारों पर एक नैतिक दबाव पड़ सकता है, और देश-प्रदेश की कुछ सहमती-झिझकती अदालतें भी जागकर कुछ कार्रवाई कर सकती हैं।
हिन्दुस्तान में कुछ लोगों को यह लग रहा है कि मणिपुर का महत्व संसद में एक हवाई चुम्बन के आरोप से कम है, उनकी लोकतांत्रिक और संसदीय समझ पर लानत है। हम किसी महिला के आरोप को कम नहीं आंकते, लेकिन एक सवाल फिर भी खड़ा होता है कि मणिपुर में महिलाओं से बलात्कार, बेकसूरों के कत्ल, और आधा लाख से अधिक लोगों की बेदखली पर भी देश की जिन महिला सांसदों का मुंह नहीं खुला था, जब तक मणिपुर से बाहर निकले, महिलाओं से सेक्स-हिंसा के वीडियो पर प्रधानमंत्री का मुंह नहीं खुला, तब तक जिन महिला सांसदों को मणिपुर की महिलाएं इंसान नहीं दिखीं, वे आज एक कथित हवाई चुम्बन से ऐसी जख्मी हो गई हैं कि उन्होंने मानो अपने लहू से शिकायत लिखी हो। ऐसे कथित चुम्बन की जांच के बाद उसके लिए राहुल गांधी को संसद अगर फांसी देना तय करे, तो वह संसद का अधिकार होगा, लेकिन मणिपुर में नस्लीय सफाया, धार्मिक कत्ल, आदिवासी समुदाय के खात्मे पर भी जिन लोगों के मुंह नहीं खुले थे, उनकी चुप्पी के लिए फिर इसी संसद को उन्हें हर हफ्ते की चुप्पी पर एक-एक बार फांसी देनी होगी। देश की इस सबसे बड़ी पंचायत में लोग नाहक ही जगह नहीं पाते हैं, और मुफ्त में विशेषाधिकार नहीं पाते हैं, लोकतंत्र का तकाजा होता है कि वे देश और दुनिया को देखें, और उस पर बात करें। कोई यूपी या एमपी, राजस्थान से सांसद या महिला सांसद हो, तो क्या मणिपुर के किसी दौरे पर उनसे कोई बदसलूकी होने पर वे विशेषाधिकार भंग होने का दावा नहीं करेंगे, या करेंगी? जब संसद किसी को देश के किसी भी हिस्से के मुद्दे को उठाने का हक देती है, तो देश के हर हिस्से के मुद्दे को उठाने की जिम्मेदारी भी देती है। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र संसद के बाहर भी सांसदों को सांसद की हैसियत से जीने और बोलने का हक देता है, और किसी भी सभ्य समाज में, लोकतंत्र में, कोई भी हक बिना जिम्मेदारी के नहीं मिलता। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने मणिपुर का वीडियो फैलने के बाद हिन्दुस्तान के 140 करोड़ लोगों का सर अपने हाथों से पकडक़र शर्म से झुका दिया था, तो इसका मतलब है कि देश के हर आम नागरिक, यहां तक कि बच्चों पर भी मणिपुर को लेकर शर्मिंदगी की जिम्मेदारी थी। और वह जिम्मेदारी उन लोगों पर कितनी अधिक होनी चाहिए जो कि देश में हजार से भी कम सांसद हैं, और जिनमें से एक-एक दसियों लाख लोगों के प्रतिनिधि हैं। ऐसे में इन सांसदों के सिर अपने इलाके के हर नागरिक की तरफ से एक-एक बार, यानी इन महीनों में दसियों लाख बार शर्म से झुक जाने थे, लेकिन ये सिर एक ऐसे गर्व और उन्माद से तने हुए दिखते रहे कि मानो मणिपुर म्यांमार का हिस्सा है।
यह बात महज कल ही संसद में सामने आई हो, ऐसा भी नहीं, हम तीन मई से लगातार प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक, तमाम लोगों से मणिपुर पर मुंह खोलने की अपील करते रहे, और इसी जगह पर हमारे नियमित पाठक हो सकता है कि उसे पढ़-पढक़र थक भी गए हों, क्योंकि सत्तारूढ़ सांसदों से परे भी बहुत से लोग मणिपुर को अपना हिस्सा नहीं मानते। इस दौरान देश के सैकड़ों सांसद हजार दूसरी बातों पर फख्र करते रहे, और उन्हें पहली बार तब पता लगा कि मणिपुर शर्मिंदगी की वजह है, जब 79 दिनों के बाद मोदी ने स्कूल के पाठ्यक्रम में मणिपुर का म शामिल किया। इस दौरान प्रधानमंत्री की चुप्पी लोकतंत्र के इतिहास के सबसे बड़े लाउडस्पीकरों पर चीखती रही, लेकिन देश की दर्जनों महिला सांसदों को प्रायमरी स्कूल की अपनी बाल भारती में मणिपुर का म न दिखा। ऐसे में कल देश की संसद में जब मणिपुर पर एक गंभीर चर्चा चल रही थी, तो एक हवाई चुम्बन के आरोप ने मणिपुर को पीछे धकेल दिया, मानो सडक़ किनारे किसी बार डांसर के लिए जुटी भीड़ वहां से जख्मियों को ले जा रही एम्बुलेंस को पीछे धकेल दे।
हमारी पूरी हमदर्दी उन महिलाओं के साथ हैं जिन्हें संसद में राहुल गांधी के एक हुए, या न हुए, इशारे या भावभंगिमा से चोट पहुंची है। हम उनकी शिकायत को कम नहीं आंक रहे हैं, लेकिन जब हरियाणा जल रहा हो, उस वक्त सडक़ किनारे पानठेले पर पान में चूना ज्यादा लग जाने की एफआईआर दर्ज कराने थाने पर बवाल कर रहा हो, तो उसकी बात आसानी से गले नहीं उतरती। जाहिर तौर पर चूना अधिक लगाने वाले पानठेले वाले को मुल्क के कानून के मुताबिक जो सजा हो सकती हो, वह होनी चाहिए, लेकिन क्या जलते हुए प्रदेश के बीच ग्राहक की यह शिकायत पुलिस को दंगाईयों की तरफ से मोडक़र पानठेले पर ले जाए?
हमने कल भी इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर साफ-साफ यह बात कही थी कि लोकसभा अध्यक्ष को इस मामले की जांच कैमरों की रिकॉर्डिंग से तुरंत करवानी चाहिए, और सदन के नियमों के मुताबिक कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन जो लोकसभा अध्यक्ष एक तना हुआ चेहरा लेकर, लोकसभा चैनल के टीवी प्रसारण में राहुल के भाषण के वक्त भी उसे दिखाते रहते हैं, उन्हें देश के लोकतंत्र और मणिपुर के साथ इंसाफ के लिए संसद की बहस को मणिपुर पर केन्द्रित रखना चाहिए, या अविश्वास प्रस्ताव के दूसरे गंभीर मुद्दों पर। जिस मामले में लोकसभा के कैमरों की रिकॉर्डिंग अध्यक्ष के अपने कब्जे में हैं, उसे लेकर आज की संसद का आज का वक्त चुम्बन-चर्चा पर खर्च नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस पर सुनवाई और सजा तो संसद का विशेषाधिकार है ही। राहुल गांधी ने अगर कोई अशोभनीय काम किया है, तो वे उसके लिए संसद के प्रति जवाबदेह हैं, और संसद उस पर सजा सुनाने के लिए जरूरत से अधिक हक रखती है। फिलहाल इस देश के लोकतंत्र को मणिपुर जैसे मुद्दे पर बहुत देर से टूटी अपनी नींद के बाद अब बात करनी चाहिए। मणिपुर में सामूहिक बलात्कार की शिकार आदिवासी महिलाओं को कल विश्व आदिवासी दिवस पर भारतीय संसद में उन पर होती हुई चर्चा के बीच एक हवाई चुम्बन के शक से जख्मी और लहूलुहान हो गई महिलाओं को देखकर हैरानी हो रही होगी। एक कथित हवाई चुम्बन का आरोप अगर मणिपुर की बलात्कार-पीडि़त महिलाओं को पीछे धकेलकर संसद में सामने की सीट पर कब्जा कर सकता है, तो फिर ऐसी महिला सांसदों के लिए ही किसी शायर ने बहुत पहले लिक्खा था- हाकिम को इक खत लिक्खो, और उसमें लिक्खो लानत है।
और इस खत को भेजने का पता तो बड़ा आसान है, संसद भवन, नई दिल्ली।
एक बड़ा अजीब सा संयोग है कि कल 8 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की सालगिरह थी, और आज 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस है। आज मुम्बई में सुबह भारत छोड़ो को याद करते हुए कुछ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हर बरस की तरह महानगर के अगस्त क्रांति मैदान से एक शांति यात्रा निकालना तय किया था, और हर बरस की तरह इसमें शामिल होने के लिए रवाना लोगों को जगह-जगह मुम्बई पुलिस ने रोका, और पुलिस थानों में ले जाकर बिठा दिया। हर बरस की तरह इस पदयात्रा में मुम्बई के जी.जी. पारिख भी शामिल होने निकले थे जो कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में एक नौजवान छात्र की हैसियत से शामिल हुए थे, और आज 99 बरस की उम्र में वे हक्का-बक्का हैं कि इस सालगिरह पर एक छोटे से शांति मार्च को खतरा माना जा रहा है! इस अखबार ने मुम्बई के एक पुलिस स्टेशन पर बिठाए गए गांधी के एक पड़पोते तुषार गांधी से बात की, जिनके घर के बाहर बीती रात से ही पुलिस तैनात कर दी गई थी ताकि वे जा न सकें, उन्होंने कहा कि बहुत थोड़े से लोग इस शांति मार्च में हर बरस शामिल होते हैं, और आज की इस हिरासत से उन्हें गर्व हो रहा है कि आज ही के दिन 1942 में बापू को गिरफ्तार किया गया था, और आज उन्हें पुलिस हिरासत का यह मौका मिला है।
8-9 अगस्त के इन दो मौकों को हम जोडक़र देखना चाहते हैं कि 8 अगस्त की याद में आज सुबह मुम्बई के अलग-अलग इलाकों से निकल रहे करीब 50 सामाजिक कार्यकर्ताओं को थानों में बिठा लिया गया है, और उन्हें तब छोड़ा जाएगा जब भारत छोड़ो का सरकारी कार्यक्रम पूरा हो चुका रहेगा। हर बरस भारत छोड़ो आंदोलन का बैनर लेकर यह पदयात्रा गिरगाम चौपाटी की तिलक प्रतिमा से रवाना होगा अगस्त क्रांति मैदान तक पहुंचती है, लेकिन इस बार प्रदेश की भाजपा-शिंदे-पवार सरकार को कुछ दर्जन लोगों की ऐसी यात्रा खतरनाक लगी। आज देश में गांधी के नाम पर जो हिकारत फैलाई जा रही है, उसके चलते हुए इस बात को भी शायद गर्व का सामान मान लिया जाएगा कि तुषार गांधी को थाने में बिठा दिया गया, इस दिन हिरासत में लिया गया। जाहिर है कि इससे उन कलेजों पर बड़ी ठंडक पहुंचेगी जो आज भी गांधी की तस्वीर पर गोलियां चलाते हुए अपने वीडियो फैलाते हैं, और गोडसे की प्रतिमाएं स्थापित करके उसका महिमामंडन करते हैं। लेकिन हम लगे हाथों विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर आदिवासियों की हालत पर भी चर्चा करना चाहते हैं जिनके लिए आज देश भर में किस्म-किस्म के जलसे होंगे, और पूरी दुनिया में आदिवासियों, मूल निवासियों को महत्व देने का एक नाटक किया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने आज के दिन को विश्व आदिवासी दिवस बनाया है, इसलिए लोगों को, आदिवासी विरोधियों को भी इस दिन उनके लिए अपनी फिक्र दिखाने का एक बड़ा सुनहरा मौका मिल रहा है। मुम्बई से परे आदिवासी इलाकों की भी कुछ बात कर ली जाए।
जिस तरह 8 अगस्त अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन की ऐतिहासिक सालगिरह है, उसी तरह आदिवासी इलाके भी शहरियों से यह उम्मीद कर रहे हैं कि वे जंगल छोड़ें। आजादी के पहले हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का जिस किस्म का राज था, आज आदिवासी इलाकों में शहरी सरकार, शहरी अदालत, शहरी धर्म, और शहरी कारोबारियों का बिल्कुल वैसा ही राज है। जिस तरह हिन्दुस्तानियों के भले से अंग्रेजों का कुछ लेना-देना नहीं था, उसी तरह आदिवासियों के भले से इन तमाम तबकों का कोई लेना-देना नहीं है, हालांकि ये सब आदिवासी-कल्याण की चादर लपेटकर आदिवासी इलाकों में मंडराते रहते हैं, और उनकी नीयत पेड़ों के नीचे बसे आदिवासियों के पांवतले के खनिज पर रहती है। आज दुनिया भर में आदिवासियों और मूल निवासियों पर अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है क्योंकि उन्होंने कुदरत को लाखों बरस से सम्हालकर रखा हुआ है, और आज लोकतंत्रों से लेकर कारोबार तक सबकी नीयत उसी कुदरती दौलत पर है, और आधुनिक शहरी धर्मों की नीयत आदिवासी आबादी पर है, कोई उसे ईसाई बनाने के फेर में मंडरा रहे हैं, तो कोई उसे हिन्दू बनाने के फेर में। सरकारों से लेकर अदालतों तक का रूख देखें तो छत्तीसगढ़ का बस्तर एक आदर्श मिसाल है जहां पर बीते 20 बरसों में आदिवासियों पर हर किस्म का जुल्म हुआ, उन्हें थोक में मारा गया, उनके साथ थोक में बलात्कार हुए, और अब छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट से इन मामलों को लेकर लगाई गई पिटीशनें थोक में खारिज कर दी गईं। किसी सरकार या राजनीतिक दल को भला क्या परवाह हो सकती है कि इन आदिवासियों के इन मामलों को बड़ी अदालत में ले जाकर इंसाफ की एक कोशिश की जाए। सरकारों पर काबिज राजनीतिक दल बदलते रहते हैं लेकिन आदिवासियों के लिए सत्ता के चरित्र में बहुत बुनियादी फर्क आ जाता हो, ऐसा नहीं लगता है। हिन्दुस्तान के आदिवासियों के बारे में देश की सरकारों का क्या सोचना है इसका एक संकेत या सुबूत महाराष्ट्र के एक आदिवासी आंदोलनकारी सतीश पेंदाम के इस अखबार के यूट्यूब चैनल को दिए गए इंटरव्यू में उजागर होता है जिसमें वे कहते हैं कि आज हिन्दुस्तान की 60 फीसदी पैरामिलिट्री आदिवासी इलाकों में, आदिवासियों पर बंदूकें लिए हुए तैनात हैं। आदिवासी दिवस के जश्न के बीच इस हकीकत को समझने की जरूरत है कि कारोबार और सरकार की भागीदारी फर्म की सौ फीसदी नीयत आदिवासी इलाकों पर है, और इसीलिए वहां पर सरकार की 60 फीसदी बंदूकें तनी हुई हैं।
आज विश्व आदिवासी दिवस पर आदिवासियों का सम्मान करते, और जश्न मनाते हिन्दुस्तान में तो सिर्फ मणिपुर पर श्रद्धांजलि होनी चाहिए थी, देश भर में इस दिन मौन रखा जाना चाहिए था, शर्मिंदगी जाहिर की जानी चाहिए थी। लेकिन यह दिन देश भर में सरकारी जश्न का दिन है, मानो जश्न के साये तले मणिपुर दिखना बंद हो जाएगा। आज अगर मुम्बई में भारत छोड़ो के कार्यक्रम के साथ पुलिस की ऐसी गुंडागर्दी न हुई होती, तो शायद अंग्रेजों भारत छोड़ो, और शहरियों जंगल छोड़ो के बीच ऐसा रिश्ता जोडऩे की बात नहीं सूझती। लेकिन ऐसा लगता है कि 1942 में जितनी जरूरत अंग्रेजों के भारत छोडऩे की थी, आज 2023 में उतनी ही जरूरत शहरियों के जंगल छोडऩे की लग रही है। उधर दूर धरती के दूसरे हिस्से में अमेजान के जंगलों से शहरियों को निकालने की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत मणिपुर, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, और ओडिशा जैसे दर्जन भर राज्यों के आदिवासी इलाकों से शहरियों को निकालने की भी है। कहने के लिए आज गोरे अंग्रेज हिन्दुस्तान छोड़ गए हैं, हालांकि उनके पखाने के टोकरे की तरह छोड़े गए अलोकतांत्रिक कानूनों को आज भी हिन्दुस्तानी लोकतंत्र सिर पर ढोकर फख्र हासिल कर रहा है, और उसी तरह देश के जंगलों में आदिवासियों से सौ किस्म के बलात्कार करते हुए इस लोकतंत्र के शहरी झंडाबरदार अपने को आदिवासियों का रहनुमा साबित कर रहे हैं। आज विश्व आदिवासी दिवस पर यह समझने की जरूरत है कि आदिवासी तो शहरी लोकतंत्र के बिना उसी तरह जी लेंगे, जिस तरह वे लाखों बरस से जीते आए हैं, लेकिन शहरी कारोबारी-लोकतंत्र के लिए आदिवासी इलाकों की कुदरती दौलत के बिना जीना शायद उतना आसान नहीं रहेगा। आज विश्व आदिवासी दिवस पर शहरी-लोकतंत्र को यह सोचना चाहिए कि क्या वह आदिवासियों को जिंदा रहने की आजादी भी दे सकता है? 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के पांच बरस बाद अंग्रेज भारत छोडक़र चले गए थे, लेकिन भारत के आदिवासी इलाकों में शहरी-देसी अंग्रेज हर दिन कुछ और अधिक घुसपैठ करते चले जा रहे हैं। 8-9 अगस्त के दिन हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में और कुछ मुमकिन हो न हो, कम से कम इन मुद्दों पर सोचा तो जाए।
मध्यप्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्री, वर्तमान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, और कांग्रेस की सरकार बनने पर भावी मुख्यमंत्री कहे या समझे जा रहे कमलनाथ ने देश के एक सबसे विवादास्पद धर्म-प्रचारक नौजवान धीरेन्द्र शास्त्री का आयोजन करवाकर कांग्रेस का एक नया ही रंग सामने रखा है। कांग्रेस का भगवाकरण काफी अरसे से चल रहा था, लेकिन अब अपने चुनाव क्षेत्र में, अपने घर पर, अपने खर्च से, अपने निजी विमान से, और अपने परिवार से इस आयोजन को करवाकर कमलनाथ ने हिन्दू वोटरों को साधने की एक बड़ी फूहड़ कोशिश की है, और अगर हिन्दू वोटरों में समझ होगी तो उन्हें ऐसे झांसे में नहीं आना चाहिए। देश भर में बागेश्वर धाम, बागेश्वर बाबा, या बागेश्वर सरकार ऐसे कई नामों से खबरों में बने हुए धीरेन्द्र शास्त्री नाम के एक नौजवान को मुसलमानों के खिलाफ भडक़ाऊ बयान देते हुए कैमरों पर रिकॉर्ड किया जाता है, यह नौजवान लगातार भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का फतवा भी देता है, और महिलाओं के बारे में तो इस नौजवान की गंदी और ओछी सोच ने बहुत से धर्मालु हिन्दुओं को भी हक्का-बक्का कर दिया है। इस बारे में हम कुछ कहें, उसके साथ-साथ उत्तरप्रदेश के कांग्रेस के एक नेता, आचार्य प्रमोद कृष्णम ने ट्वीट किया है- मुसलमानों के ऊपर बुलडोजर चढ़ाने, आरएसएस का एजेंडा हिन्दू राष्ट्र की खुल्लम-खुल्ला वकालत करने, और संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले भाजपा के स्टार प्रचारक की आरती उतारना, कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को शोभा नहीं देता। आज रो रही होगी गांधी की आत्मा, और तड़प रहे होंगे पं.नेहरू और भगतसिंह, लेकिन सेक्युलरिज्म के ध्वजवाहक जयराम रमेश, दिग्विजय सिंह, और मल्लिकार्जुन खडग़े, सब खामोश हैं।
मध्यप्रदेश से आने वाली खबरें बताती हैं कि कांग्रेस पार्टी एक पार्टी के रूप में कमलनाथ के इस आयोजन पर कुछ कहने से बच रही है, और इसे उनका व्यक्तिगत मामला बता रही है, पार्टी का नहीं। इसके पहले भी पिछले कुछ बरसों से कमलनाथ मध्यप्रदेश कांग्रेस को सम्हालने के साथ-साथ तरह-तरह से हिन्दू कर्मकाण्डों में घुसपैठ कर रहे हैं, और उन्होंने पार्टी को भी, पार्टी की कुछ वक्त की सरकार को भी इसमें झोंक दिया है। कमलनाथ कहीं बजरंगबली के नाम पर तरह-तरह के आयोजन कर रहे हैं, और अभी कुछ अरसा पहले ही उन्होंने बजरंग सेना के कार्यकर्ताओं को हनुमान चालीसा के पाठ सहित कांग्रेस में शामिल करवाया है। प्रियंका गांधी के मध्यप्रदेश आने पर भी बड़े पैमाने पर धार्मिक कर्मकाण्ड किए गए, और ऐसा लगता है कि पार्टी ने एक किस्म से हिन्दुत्व को अकेला विकल्प मान लिया है। कम से कम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, इन दो जगहों पर तो यह दिख ही रहा है।
मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह जैसे मुखर धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति, और अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए खुलकर बोलने वाले नेता भी हैं, और ऐसा माना जाता है कि कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनवाने में सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का था। ऐसे दिग्विजय सिंह अमूमन अपने धर्म को अपनी निजी आस्था तक सीमित रखते आए हैं, लेकिन आज मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में धर्म का सरकारी या संगठन स्तर पर जिस तरह का आक्रामक आयोजन चल रहा है, उसमें दिग्विजय का हिन्दू धर्म भी किनारे फुटपाथ पर बैठकर नजारा देख रहा है। इन दोनों ही प्रदेशों में अल्पसंख्यकों पर खुले जुल्म हो रहे हैं, वे दहशत में जी रहे हैं, लेकिन आक्रामक हिन्दुत्व के मामले में भाजपा को पीछे छोडऩे के लिए कमलनाथ, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जिन तेवरों के साथ काम कर रहे हैं, वे कांग्रेस में अभूतपूर्व हैं। हो सकता है कि ये नेता पार्टी को यह कहकर सहमत करा रहे हों कि एक साम्प्रदायिक हिन्दुत्व का मुकाबला एक धर्मनिरपेक्ष हिन्दुत्व के बिना नहीं किया जा सकता। लेकिन हमारा प्रत्यक्ष अनुभव यह है कि आज देश में अल्पसंख्यक जिस असुरक्षा के शिकार हैं, वे जिस दहशत में जी रहे हैं, बहुसंख्यक तबके के कुछ लोग अपने धर्म के नाम पर जिस तरह की हिंसा फैलाए हुए हैं, उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि इस देश की हर जिम्मेदार लोकतांत्रिक पार्टी को अपना धर्मनिरपेक्ष चरित्र बचाकर रखना चाहिए, महज नाम में धर्मनिरपेक्ष जोड़ लेना काफी नहीं होता, पार्टी और नेताओं को अपना चाल-चलन भी सभी धर्मों के प्रति बराबरी के नजरिए का रखना चाहिए। आज कांग्रेस के नेताओं में भाजपा के मुकाबले अपने को अधिक गहरे रंग का भगवा साबित करने की जो होड़ लगी हुई है, उससे अल्पसंख्यक तबकों को, दलितों और आदिवासियों को जो निराशा हो रही है, उसे समझने के लिए कांग्रेस के आज के नेताओं को नेहरू और गांधी को फोन लगाना होगा। ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी में आज नाम के लिए भी धर्मनिरपेक्षता की समझ नहीं रह गई है। ऐसा भी लगता है कि राहुल गांधी जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वह उनकी अपनी पार्टी की भाषा नहीं रह गई है। राहुल का कहना धर्मनिरपेक्षता के करीब लगता है, और उनकी पार्टी का करना उसके ठीक खिलाफ लगता है। किसी एक चुनाव को हार जाने का डर, और जीत जाने का लालच अगर नेहरू और गांधी की कांग्रेस को न सिर्फ हिन्दुत्व की, बल्कि साम्प्रदायिकता की भी, बी, सी, या डी टीम बनने को मजबूर कर रही है, तो ऐसे मजबूर लोग उस ऐतिहासिक कांग्रेस के नेता नहीं हो सकते, जिसके नेहरू और गांधी ने अपनी निजी अनास्था या आस्था के बाद भी देश के किसी धर्म के इंसान को कभी अकेला महसूस नहीं होने दिया था। अपनी सारी आस्था के साथ भी गांधी की जिंदगी का एक-एक कतरा उनके धर्म से परे दूसरे धर्म के लोगों को बचाने के लिए धरती पर लहू की शक्ल में बिखर गया था। हिन्दू साम्प्रदायिकता से मुस्लिमों को बचाने के लिए गांधी ने क्या नहीं किया था, नेहरू ने देश में धर्मनिरपेक्षता की मजबूत जड़ें फैलाने के लिए क्या नहीं किया था, और आज उनकी पार्टी के नेता बेकसूर मुस्लिम लाशों को सुपुर्दे-खाक करने के वक्त एक मुट्ठी मिट्टी डालने से भी कांप रहे हैं, भाग रहे हैं।
अगर हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में चुनाव जीतने की यही एक शर्त बाकी रह गई है, तो कांग्रेस पार्टी को ऐसा धर्मान्ध और साम्प्रदायिक होने के बजाय कुछ और चुनाव हार बर्दाश्त कर लेना चाहिए, आज उसने धर्मनिरपेक्षता के मोर्चे पर जो हार बड़ी मेहनत से हासिल की है, गांधी-नेहरू ने कांग्रेस को इस दिन के लिए नहीं बनाया था। देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भी अगर अल्पसंख्यकों पर जुल्म और जुर्म अनदेखे करके देश की पहली सबसे बड़ी पार्टी के साथ हिन्दुत्व की पंजा-कुश्ती में लगना अधिक महत्वपूर्ण समझ रही है, तो हो सकता है कि हिन्दुत्व की ठेकेदारी उसे नसीब हो जाए, लेकिन इतिहास इस बात को दर्ज करेगा कि नेहरू और गांधी की कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए सूली पर चढ़ाए जा रहे ईसाईयों, जिंदा दफन किए जा रहे मुस्लिमों, जुल्म के शिकार आदिवासियों, और इंसान का दर्जा खो चुके दलितों को अनदेखा किया है। इस लोकतंत्र में जो ताकतें साम्प्रदायिकता की बुनियाद पर कामयाब होते आई हैं, उन ताकतों का इतिहास अच्छी तरह दर्ज है, लेकिन कांग्रेस से धर्मनिरपेक्षता की रवानगी, और साम्प्रदायिकता की अनदेखी हाल के बरसों की बातें हैं, और ऐसा भी नहीं है कि समकालीन इतिहास इसको दर्ज नहीं कर रहा है। साम्प्रदायिक ताकतों को चुनाव में हराने के लिए अगर साम्प्रदायिक हो जाना ही एक रास्ता है, तो कम से कम असली और खालिस धर्मनिरपेक्ष ताकतें चुनावी शिकस्त को बेहतर समझेंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकसभा में बिना देर किए राहुल गांधी की सदस्यता बहाल कर दी। शनिवार-इतवार की छुट्टी के बाद आज काम शुरू होते ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जिक्र करते हुए राहुल गांधी की सदस्यता खत्म करने के आदेश को रोक दिया गया, और राहुल गांधी लोकसभा पहुंच भी गए। जिस तरह से गुजरात के एक भाजपा विधायक ने सूरत के एक मजिस्ट्रेट कोर्ट में मामला दायर किया था, और फिर उसे जिस तरह खुद ही कभी रोका, खुद ही कभी आगे बढ़ाया, उससे एक राजनीतिक कटुता का माहौल बना हुआ था। फिर जो कुछ हुआ उस पर हम कई बार लिख चुके हैं, इसलिए आज उससे आगे बढऩे की जरूरत है। राहुल गांधी एक विजेता की तरह लोकसभा में लौटे हैं, और इसके महत्व को कम नहीं आंकना चाहिए।
पिछले एक बरस में राहुल गांधी जिस तरह न सिर्फ कांग्रेस, बल्कि विपक्ष के भी एक बहुत ही असरदार और लोकप्रिय नेता की तरह उभरे हैं, और उसे देखना बड़ा दिलचस्प है। उन्होंने जिस तरह भारत जोड़ो यात्रा निकाली, और जिस तरह वे देश की लंबाई में एक सिरे से दूसरे सिरे तक पैदल पहुंचे, वह भी एक अनोखा राजनीतिक अभियान था। वह चुनावी अभियान नहीं था, लेकिन देश को जोडऩे का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अभियान था जिसने लोगों पर असर डाला, जिसने लोगों को जोड़ा, विपक्ष की कई पार्टियों और बहुत सी नेताओं को भी इस अभियान से जोड़ा, और लोकतंत्र में भारतीय मीडिया के सामने यह साबित किया कि अगर कोई नेता जमीन से जुड़े हुए हैं, तो उन्हें अंतरिक्ष तक होकर वापिस आने वाली तरंगों के रास्ते टीवी के पर्दे का मोहताज होने की जरूरत नहीं रहती। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा ने मीडिया के एक बड़े हिस्से को उसकी औकात दिखा दी कि वह कितना गैरजरूरी है, और वह कितना अप्रासंगिक हो गया है। टीवी और अखबारों के एक बड़े हिस्से ने भारत जोड़ो यात्रा को अनदेखा किया, और नतीजा यह निकला कि अब वे खुद अप्रासंगिक हो गए हैं। कन्याकुमारी से कश्मीर पहुंचते हुए राहुल गांधी का जो नया अवतार सामने आया, उसने खुद कांग्रेस के लोगों को हक्का-बक्का कर दिया कि उनके पास आग में तपकर निकलने वाला ऐसा सोना है, और वे उसे सिर्फ एक परिवार का एक गहना मानकर चल रहे थे। राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा से ही यह साबित कर दिया था कि वे कांग्रेस पार्टी की लाइबिलिटी नहीं हैं, उसकी सबसे बड़ी एसेट हैं, पार्टी पर बोझ नहीं हैं, पार्टी की सबसे बड़ी ताकत हैं। दुनिया की राजनीति के इतिहास में छह महीने में इससे अधिक फर्क कम ही लोगों में पड़ा होगा।
लेकिन आज बात कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी की नहीं है, वे निर्विवाद रूप से कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं, पर्याप्त परिपक्व हैं, और देश में नफरत के फैले हुए जहर के बीच मोहब्बत की बात करते हुए वे विपक्ष के भी सबसे बड़े नेता बन गए हैं। अब भारत में विपक्ष की राजनीति राहुल के इर्द-गिर्द जुट रही है, और उन्हें कोई भी भाजपा की पसंदीदा भाषा के तहत पप्पू कहने का हकदार नहीं रह गया है। ऐसे माहौल में जब संसद में राहुल की वापिसी हो रही है, और देश का विपक्ष इंडिया नाम के गठबंधन की छतरीतले पिछले 9 बरस में सबसे अधिक संगठित दिख रहा है, तो ऐसे में राहुल गांधी की एक बड़ी ऐतिहासिक भूमिका बनती है। कांग्रेस और राहुल, इन दोनों को इस बात को बहुत गंभीरता से लेना होगा कि कांग्रेस पर आज देश के विपक्ष को एक करने, और एक रखने की एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है, और इसमें किसी भी तरह की चूक या तंगदिली से पार्टी समकालीन इतिहास में बुरे लफ्जों में दर्ज होगी। आज उसे एक आत्मकेन्द्रित पार्टी की तरह बर्ताव करने का कोई हक नहीं है, आज उसे एक ऐतिहासिक-लोकतांत्रिक जिम्मेदारी का सामना करती पार्टी की तरह ही रहना होगा, और इसके लिए जरूरी त्याग भी करना होगा।
हम यह बात पहली बार नहीं लिख रहे हैं कि विपक्ष की बाकी पार्टियों के साथ-साथ कांग्रेस के नेताओं को भी बड़ी सावधानी बरतनी होगी क्योंकि विरोधी कैम्प से लगातार ऐसी कोशिश होगी कि इस गठबंधन में फूट पड़े, और ऐसी कोई भी फूट देश में एक बेहतर और सेहतमंद लोकतंत्र की संभावना का खात्मा होगी। आज इंडिया नाम का गठबंधन शंकर की बारात की तरह है, जिसमें तरह-तरह के लोग जुट गए हैं, जुड़े हुए साथ चल रहे हैं। इनमें से बहुतों के मिजाज भी आपस में नहीं मिलते हैं, उनकी संस्कृतियां अलग हैं, उनका चाल-चलन अलग है, उनका राजनीतिक एजेंडा अलग है, और वे शंकर की बारात के बारातियों की तरह ही विविधता वाले हैं। अब ऐसी बारात को साल भर चलना है, और ऐसे में बारातियों में सिर-फुटव्वल की पूरी गुंजाइश भी रहती है। ऐसा लगता है कि जिस तरह दस बरस सोनिया गांधी ने यूपीए सरकार के दौरान गठबंधन दलों को साथ रखा था, और उनकी वजह से सरकार कभी नहीं गिरी, बल्कि सरकार से बाहर के दलों का समर्थन भी जारी रहा, उसी तरह आज राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को विपक्ष के दस महीनों में इंडिया को साथ रखना होगा। सोनिया के दस बरस के मुकाबले राहुल के इन दस महीनों की चुनौती छोटी नहीं है, क्योंकि इस बार कांग्रेस गठबंधन के भीतर भी उस तरह के बहुमत में नहीं है, गठबंधन सत्ता पर नहीं है, और राहुल बहुत से नेताओं के बीच अब भी, कल का छोकरा जैसा है। इसलिए सोनिया गांधी की तरह की सर्वमान्य नेता बनने के लिए राहुल गांधी को सहयोगी दलों और नेताओं के साथ परस्पर सम्मान का एक रिश्ता रखना होगा, मतभेद के मुद्दों को किनारे रखना होगा, और एक न्यूनतम साझा वैचारिक कार्यक्रम तय करके उस पर टिके रहना होगा। अगर वे बिना किसी जरूरत के सावरकर के खिलाफ बोलते रहेंगे, तो वे शिवसेना के लिए असुविधा पैदा करेंगे, और गठबंधन को कमजोर करेंगे। इसलिए गठबंधन का अपना एक धर्म होता है कि उसे एक न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर जुड़ा होना चाहिए, उस पर टिका होना चाहिए, और बाकी पार्टियों से कुछ अधिक कांग्रेस पर यह जिम्मेदारी आएगी, राहुल पर आएगी, क्योंकि ये गठबंधन की धुरी बन चुके हैं।
जिस तरह राजधर्म होता है, उसी तरह एक गठबंधन धर्म भी होता है। गठबंधन के अपने सीमित मकसद होते हैं, और इस मकसद से परे गठबंधन के अलग-अलग भागीदार अपने अलग-अलग अस्तित्व को बनाए रखते हैं। किसी गठबंधन में होने का यह मतलब बिल्कुल ही नहीं रहता कि लोग अपने चरित्र को खो दें, अपने व्यापक मकसद को छोड़ दें। अभी का यह गठबंधन 2024 के आम चुनाव तक के लिए, मोदी, भाजपा, और एनडीए के चुनावी मुकाबले के लिए बना है, इसलिए इस गठबंधन को इस सीमित मकसद से परे बहुत कुछ सोचना भी नहीं चाहिए। यह बात बड़ी साफ है कि इसके घटक दलों के बीच वैचारिक मतभेद भी हैं, और वैचारिक विरोधाभास भी हैं, इनके साथ-साथ किस तरह पार्टियां का साथ निभ सकता है, इसकी ट्रेनिंग लेने के लिए राहुल गांधी के पास सोनिया नाम की एक अनुभवी टीचर भी हैं। आज का हमारा लिखना सिर्फ राहुल और विपक्षी गठबंधन तक सीमित है, और हम इसकी मजबूती को भारतीय लोकतंत्र की मजबूती की एक शर्त की तरह देखते हैं, और इसीलिए फिक्र के साथ इसे लिख रहे हैं। आज इस गठबंधन के विरोधियों की सबसे बड़ी कोशिश होगी कि कांग्रेस से कुछ पार्टियों और कुछ नेताओं की तनातनी खड़ी की जाए, और ऐसी कोशिश को नाकामयाब करना गठबंधन और राहुल की, कांग्रेस की कामयाबी होगी।