संपादकीय
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नेपाल में प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने अभी बयान दिया कि नेपाल में रहने वाले भारतीय मूल के एक कारोबारी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए भारत से बात की थी। उसके इस बयान के बाद नेपाली विपक्ष ने उनसे इस्तीफे की मांग की है, और उनका कहना है कि भारत की ओर से नियुक्त किए गए प्रधानमंत्री को इस पद पर बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। संसद में भी इसे लेकर हंगामा चल रहा है, और सत्तारूढ़ गठबंधन की एक पार्टी ने भी इस पर नाराजगी जताई है। इस्तीफे की मांग पर कई दल एक हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि प्रचंड ने एक कारोबारी प्रीतम सिंह पर लिखी किताब के विमोचन के मौके पर कहा था कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए प्रीतम सिंह कई बार दिल्ली गए थे, और कई बार काठमांडू में कई पार्टियों से चर्चा की थी। उन्होंने इस कारोबारी से अपने पारिवारिक संबंधों की चर्चा भी की थी। विपक्ष के विरोध में यह तर्क मजबूत है कि नेपाली प्रधानमंत्री तय करने में भारत की कोई भूमिका क्यों होनी चाहिए?
इस पूरे मामले को देखकर लगता है कि बात सिर्फ भारतीय मूल के कारोबारी की भारत सरकार से बातचीत की नहीं है, यह उस कारोबारी की नेपाली पार्टियों से बातचीत की भी है जो कि खुद नेपाली प्रधानमंत्री ने बताई है। यह बात दबी-छुपी नहीं है कि बहुत से देशों में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, या मंत्री बनाने के पीछे बड़े कारोबारियों का हाथ रहता है जो एक पूंजीनिवेश की तरह यह काम करते हैं, और बाद में उसकी कई गुना फसल काटते हैं। हिन्दुस्तान में भी आज केन्द्र सरकार देश के एक सबसे बड़े कारोबारी का साथ देने की तोहमत झेल रही है, और वह कारोबारी मौजूदा सरकार का एक सबसे बड़ा हिमायती है ही। और यह एकदम अनोखी और नई बात भी नहीं है, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं, और प्रणब मुखर्जी मंत्री होने के अलावा देश के उद्योगपतियों से संबंध रखने के एक बड़े मध्यस्थ माने जाते थे, उस वक्त भी रिलायंस के धीरूभाई अंबानी के साथ उनके जरूरत से अधिक घरोबे की चर्चा होते रहती थी, और ऐसा माना जाता रहा कि धीरूभाई के आगे बढऩे में इंदिरा सरकार की नीतियों का बड़ा हाथ रहा। तो हाथ और साथ की ऐसी जोड़ी राजनीति और कारोबार में बहुत नई नहीं है, और सिर्फ हिन्दुस्तान में नहीं हैं। लोगों को याद होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब खाड़ी के किसी देश से हिन्दुस्तान लौटते हुए अचानक ही पाकिस्तान उतरे, और नवाज शरीफ के परिवार पहुंचे, उनकी मां के लिए तोहफे लेकर गए, उनका आशीर्वाद लिया, परिवार में जन्मदिन और शादी के जलसों में शामिल हुए, तो उस वक्त कहा जाता है कि इस फैसले में देश के एक बड़े इस्पात उद्योगपति सजन जिंदल का बड़ा हाथ था जो कि नवाज शरीफ के परिवार से दो पीढिय़ों से जुड़े हुए थे। सजन जिंदल शायद उस वक्त पाकिस्तान में मौजूद भी थे। इसलिए सत्ता और कारोबारियों का करीबी रिश्ता नया नहीं है, और अब तो इसका विस्तार होकर सत्ता और मुजरिमों के बीच भी करीब रिश्ते तक पहुंच गया है। ऐसे में नेपाल में पीएम प्रचंड ने अगर सरला से कोई बात कह दी है, तो वह कोई बहुत बड़ा रहस्य नहीं है, लेकिन किसी आजाद मुल्क में प्रधानमंत्री की कही हुई यह एक अटपटी बात है, और बड़ी राजनीतिक चूक है। सरकार, राजनीति, और सार्वजनिक जीवन में बहुत किस्म के पाखंड मुखौटे लगाकर खप जाते हैं, लेकिन वे औपचारिक रूप से मंजूर करने वाले नहीं रहते हैं।
हिन्दुस्तानी राजनीति में लाखों-करोड़ों लोग शराब पीते होंगे, लेकिन नेता-कार्यकर्ता सार्वजनिक रूप से इसे मंजूर करने में हिचकिचाते होंगे। कर्नाटक के हेगड़े या उत्तर-पूर्व के संगमा सरीखे नेता कम रहते हैं। लेकिन ऐसी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से परे जब सत्ता की राजनीति में कारोबारियों की बात आती है, तो न तो वह बोलने लायक रहती है, और न ही उजागर होने देने लायक। जब कभी कारोबारियों से ऐसे रिश्तों का भांडाफोड़ होता है, नेताओं की ही बदनामी होती है। इसके बाद अगर कारोबारी की तरक्की का कुछ हिस्सा सत्ता की मेहरबानी के बिना भी हुआ होगा, तो भी वह सत्ता की मेहरबानी से हासिल गिनाया जाता है। लोगों के बीच भी सब मालूम रहते हुए भी ऐसे घरोबे को अच्छा नहीं माना जाता। सार्वजनिक जीवन में पुराने वक्त के राजाओं के लिए नैतिकता का जो पैमाना बनाया गया था कि राजा को न सिर्फ निष्पक्ष रहना चाहिए, बल्कि निष्पक्ष दिखना भी चाहिए। नेपाल में तो प्रचंड माओवादियों के बीच से निकलकर आए हैं, और उनके बीच तो बाजार व्यवस्था को लेकर एक अलग हिकारत रहती है। ऐसे में प्रचंड का सार्वजनिक रूप से यह कहना अटपटा भी रहा, और नेपाल के एक देश के रूप में अपमानजनक भी रहा कि नेपाली प्रधानमंत्री तय होने में भारत सरकार का कोई हाथ रहता है।
भारत जैसे देश में संसद और विधानसभा चुनावों में पार्टियों की टिकट तय होते वक्त बहुत से उद्योगपति अपनी दखल रखते हैं, और जो नेता उनके कर्मचारियों और दलालों की तरह काम करते हैं, उन्हें उम्मीदवार बनवाने का काम करते हैं। चूंकि वे पार्टियों को चंदा भी देते हैं, टिकट तय करने वाले बड़े नेताओं के घर नगदी भी पहुंचाते रहते हैं, इसलिए कारोबारियों की पसंद उम्मीदवारी के वक्त से ही काम आने लगती है। ऐसा माना जाता है कि भारत जैसे देश में भी संसद और विधानसभाओं में बड़े कारोबारी घरानों के अघोषित प्रवक्ता मौजूद रहते हैं, जो उनके हितों की बात करते हैं, और जो मंत्रियों और बाकी सरकार से उनके काम करवाने में लगे रहते हैं। कभी-कभी मंत्री और मुख्यमंत्री बनवाने में भी बड़े कारोबारी दखल रखते हैं, और महत्वपूर्ण मंत्रालयों की अफसरों की कुर्सियों पर लोगों को बिठवाने में तो उनका दखल रहता ही है ताकि उनका काम आराम से और तेज रफ्तार से चलता रहे।
क्रोनी कैपिटलिज्म कहे जाने वाले इस तौरे-तरीके से बचना मुश्किल रहता है क्योंकि नेताओं और कारोबारियों ने मिलकर कालेधन से चुनाव लडऩे की व्यवस्था को मजबूत और स्थाई बना दिया है। ऐसे में अगर नेपाल में एक कारोबारी किसी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भारत की राजधानी में अपने संपर्कों का इस्तेमाल करता है, तो उसमें भी कुछ अटपटा नहीं है। अटपटा बस यही है कि पीएम प्रचंड ने इस बात को खुलकर मंजूर कर लिया है। सार्वजनिक जीवन में मुखौटा उतारने के अपने खतरे रहते हैं, अब देखना है कि प्रचंड इससे कैसे उबरते हैं।
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