संपादकीय
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पहले तो दिल्ली के मंडावली इलाके में एक मंदिर का अवैध निर्माण तोड़ा गया, और अब एक दूसरे इलाके में सडक़ पर रोड़ा बने हुए एक मंदिर और एक मजार को बुलडोजर से हटा दिया गया है। इस दौरान पुलिस और केन्द्रीय सुरक्षा बलों की बड़ी तैनाती रखी गई, और अफसरों का कहना है कि लोगों से बात करके उन्हें सहमत कराकर यह काम किया गया है। अब जब किसी बखेड़े या हिंसा की खबर नहीं है तो यह माना जा सकता है कि अफसरों और लोगों ने मिलकर समझदारी का यह काम किया है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट ने कई बरस पहले एक फैसले में कड़ा आदेश दिया था कि देश में कहीं भी किसी सार्वजनिक जगह पर कोई धार्मिक अवैध कब्जा या अवैध निर्माण नहीं होना चाहिए, और ऐसा होने पर जिला प्रशासन को सीधा जिम्मेदार ठहराया जाएगा, लेकिन हम अपने आसपास देखते हैं तो कहीं भी इस पर अमल नहीं दिखता है। न सिर्फ सरकारी और सार्वजनिक जगहों पर बल्कि आमतौर पर सडक़ों की चौड़ाई को घेरते हुए, सार्वजनिक बगीचों और तालाब-तीर को घेरते हुए धार्मिक अवैध निर्माण होते हैं। तमाम नदियों के किनारे यही हाल रहता है, और सुप्रीम कोर्ट का हुक्म एक किस्म से कागज के टुकड़े से लुग्दी बनकर दुबारा इस्तेमाल हो रहा है, और अब जिला कलेक्टरों को यह याद भी नहीं होगा कि अदालत ने ऐसा कोई हुक्म दिया था। यह नौबत अदालती फैसला न होने से भी खराब है।
आज देश में धार्मिक मुद्दे जिस तरह हिंसा की वजह बन रहे हैं, साम्प्रदायिक तनाव किसी न किसी धर्म की जगह से शुरू होता है, या धर्म की जगह पर पहुंच जाता है, इन सबको देखते हुए आज की यह एक बड़ी जरूरत है कि धर्मस्थानों का अवैध कब्जा और उनका अवैध निर्माण कड़ाई से रोका जाए ताकि तनाव की वजह कम हो सके। लेकिन किसी धर्म या सम्प्रदाय के वोटरों से राजनीतिक दल इतने डरे रहते हैं कि उस धर्म का कोई मुखिया या गुरू अगर सरकार या पार्टी के खिलाफ कोई फतवा जारी कर दे तो चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे डरे-सहमे नेताओं की वजह से उनके मातहत काम करने वाले अफसर भी चुप बैठे रहते हैं, और सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों में फैसले आने के बाद भी धार्मिक अवैध निर्माण तोड़े नहीं जाते। होना तो यह चाहिए कि लोगों को अपने धर्म का सम्मान करते हुए धर्म के नाम पर गैरकानूनी काम करने से बचना चाहिए, लेकिन तमाम धर्मालु लोगों को यह बात मालूम है कि धर्म का इस्तेमाल ही नाजायज और गैरकानूनी कामों के लिए किया जाना है, और वे इस मकसद को पूरा करने में जी-जान से लगे रहते हैं।
आज देश में धर्म, धर्मान्धता, और सांप्रदायिकता जैसे नफरती जहर की शक्ल ले चुके हैं, उसे देखते हुए सुप्रीम कोर्ट को धर्मस्थलों के अवैध कब्जे और अवैध निर्माण के अपने ही फैसले पर अमल की एक रिपोर्ट मंगवानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में ऐसा करने के लिए किसी बड़े वकील को अदालत का न्यायमित्र नियुक्त करता है जो कि जानकारी जुटाकर उस पर अपनी राय देकर अदालत को बताते हैं। कुछ व्यापक महत्व के मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट जांच कमिश्नर भी बनाता है जो कि देश भर से जानकारी मांगकर अदालत को रिपोर्ट देते हैं। लोगों को याद होगा कि पीयूसीएल की एक जनहित याचिका पर देश के लोगों के राशन के हक पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे ही जांच कमिश्नर बनाए थे, और वे बरसों तक देश में पीडीएस पर अमल की नीति बनाकर अदालत को देते थे, और तमाम राज्यों में उसके अमल पर निगरानी भी रखते थे। हमारा मानना है कि आज हिन्दुस्तान में धर्मान्धता से मुकाबले का काम कोई राजनीतिक दल करना नहीं चाहते, कोई एक वामपंथी दल अगर ऐसा चाहता भी होगा, तो उनका प्रभाव क्षेत्र अब तकरीबन खत्म हो चुका है। इसलिए अदालत को ही यह पहल करनी चाहिए, और देश भर में धर्मान्धता को कम करने के लिए जो-जो जानकारी आनी चाहिए, जांच होनी चाहिए, उसके लिए अदालत एक अलग कमिश्नर बनाए। यह बात हमने कुछ महीने पहले अदालत के हेट-स्पीच के खिलाफ दिए गए फैसले और कई आदेशों के बारे में भी लिखी थी कि देश में उस पर अमल कहीं नहीं हो रहा है, और अदालत को चाहिए कि मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते ऐसे अमल के लिए वह एक जांच आयुक्त बनाए। जांच आयुक्त के वैसे ही दफ्तर से धार्मिक अवैध निर्माणों की भी जांच हो सकती है, कुल मिलाकर धर्मान्धता और सांप्रदायिकता, नफरत से जुड़े हुए ऐसे दो-चार पहलुओं को एक साथ देखने की जरूरत है। अदालत से कम और कोई भी संवैधानिक संस्था आज देश को इस जहर से बचाने की ताकत नहीं रखती।