संपादकीय
दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ कई कदम आगे बढ़ गई है। जिन लोगों को यह लग रहा था कि यूक्रेन पर रूस का हमला जल्द खत्म हो जाएगा, उन्होंने इस जंग का एक बरस पूरा हो जाते देखा, और आज अधिकतर लोगों को यह भरोसा होगा कि ऐसा एक बरस और भी निकल सकता है। जंग धीमा पडऩे का नाम नहीं ले रहा, चीन जैसे दोस्त रूस के साथ जमकर खड़े हैं, ईरान रूस को हथियार भेज रहा है, हिन्दुस्तान जैसा बड़ा देश तमाशबीन बना हुआ है, और एक बहुत ही समझदार खरीददार की तरह वह रूस से सस्ते में जो-जो हासिल हो सकता है, उसे पा रहा है। यह भी उस वक्त हो रहा है जब अफ्रीकी देशों के मुखिया कल इन दोनों देशों में बीच-बचाव करने के लिए और अमन कायम करने के लिए यूक्रेन पहुंचे हुए थे, और आज वे रूस पहुंच गए होंगे। दोनों ही राष्ट्रपतियों से बात करके अफ्रीकी राष्ट्रप्रमुख शांति की पहल कर रहे हैं, और दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा इस प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई कर रहे हैं। आज सुबह की खबर है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ बैठक में इस प्रतिनिधिमंडल ने यूक्रेन से रूस लाए गए बच्चों को वापिस भेजने कहा है, और कहा है कि यह जंग खत्म होनी चाहिए। उन्होंने दोनों देशों पर पर्याप्त दबाव डाला है कि वे जंग खत्म करें। इन देशों का यह भी कहना है कि इस जंग का सबसे बुरा असर अफ्रीकी देशों पर पड़ रहा है उनमें से जो अनाज खरीदने की हालत में हैं, उन्हें यूक्रेन से अनाज खरीदने नहीं मिल रहा, और जो अफ्रीकी देश अंतरराष्ट्रीय मदद पर जिंदा हैं, वहां भी मदद में अनाज नहीं जा पा रहा।
आज दुनिया के तमाम देशों के लोगों को अपने-अपने देश के अंतरराष्ट्रीय रूख को भी देखना और समझना चाहिए। नाटो के तहत तमाम योरप और अमरीका का रूख साफ है। चूंकि जंग में गिरने वाली लाशें सिर्फ यूक्रेन और रूस की हैं, इसलिए नाटो देशों के लिए यह आसान है कि वे फौजी सामान से यूक्रेन की मदद करते रहें, और इस जंग में रूस की ताकत जितनी चुक जाए, उतना ही अच्छा है। बहुत से लोग इस बात को लिख भी चुके हैं कि पश्चिमी देश यूक्रेन में एक प्रॉक्सी-वॉर लड़ रहे हैं, यानी बिना वहां गए हुए अपनी मर्जी का जंग चला रहे हैं। संपन्न देशों में जब तक ताबूत नहीं लौटते, तब तक जनता में हाय-तौबा नहीं होता। यूक्रेन-रूस में आज यही हो रहा है। यूक्रेन से दसियों लाख शरणार्थी दूसरे देशों में जा रहे हैं, और लाशें यूक्रेन में ही थम जा रही हैं। दूसरी तरफ गोपनीयता के कानून से अपनी जनता के आंख-कान में पिघला सीसा डालकर रखने वाले रूसी राष्ट्रपति पुतिन लोगों को यही पता नहीं लगने दे रहे कि जंग में कितने रूसी मारे गए हैं। और इस जंग में रूस वाग्नर नाम की एक निजी भाड़े की फौज का भी व्यापक इस्तेमाल कर रहे हैं जिसके लोगों की मौत होने पर रूस को उनकी गिनती भी नहीं करनी पड़ती। इस तरह एक बददिमाग, अहंकारी, और आत्मकेन्द्रित रूसी तानाशाह इस जंग को यूक्रेन पर थोपकर हर कीमत पर इसे चला रहा है, और दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनियों के कंधों पर बंदूक रखकर खुद घर बैठे यह जंग लड़ रहे हैं। दोनों देशों के बीच बातचीत का कोई माहौल नहीं है, और इक्का-दुक्का कुछ देशों ने दोनों से पहल जरूर की है, लेकिन वजन पड़े ऐसी कोई कोशिशें अब तक हुई नहीं हैं। अफ्रीकी नेताओं का यह प्रतिनिधिमंडल ऐसा पहला बड़ा प्रयास है, और इसके महत्व का सम्मान करना चाहिए।
जहां तक हिन्दुस्तान का सवाल है, तो विदेश गए हुए राहुल गांधी से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी का रूख इस मुद्दे पर ठीक वही है जो कि भाजपा (मोदी सरकार) का रूख है। मतलब साफ है कि भारत की ये दोनों बड़ी पार्टियां भारत के रूस से बहुत पुराने, बहुत व्यापक, और बहुत परखे हुए रिश्तों को लेकर एक ही किस्म की समझ रखती हैं, दोनों ही पार्टियां हिन्दुस्तान के हित में रूस को नाराज करने वाली कोई बात भी करना नहीं चाहती हैं। लेकिन इससे एक नुकसान हो रहा है। हाल ही में सउदी अरब और ईरान के बीच ऐतिहासिक तनावों के बाद अभी एक ऐतिहासिक समझौता चीन ने कराया, और इससे लोग हक्का-बक्का भी रह गए, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि चीन ने एक बड़े अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी दखल और कामयाबी साबित कर दिखाई है। इसके बाद चीन के प्रतिनिधि यूक्रेन और रूस भी हो आए। अपने देश के हितों को ध्यान में रखकर तनातनी में चुप रहना एक बात है, लेकिन ऐसे बड़े अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर कुछ भी न कहना भारत के महत्व का घट जाना भी है। कोई तटस्थता ऐसी नहीं हो सकती जो कि पूरी दुनिया को प्रभावित कर रही इस जंग पर पूरी तरह चुप रहे, जिस जंग से अफ्रीका के सवा सौ अरब लोगों का खाना-पीना मुहाल हो रहा हो, उसे देखते हुए भी चुप रहे। यह हिन्दुस्तान की तटस्थता नहीं है, यह हिन्दुस्तान की जरूरत से अधिक सावधानी है। दुनिया में जिसे बड़े नेता बनना होता है, उसे अपने देश के तात्कालिक हितों से परे जाकर भी कई कड़वे फैसले लेने पड़ते हैं, और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में तो यह बात भी रहती है कि आप फैसले चाहे न ले सकें, अपनी दखल और दिलचस्पी रखते तो दिखना ही चाहिए, जैसा कि चीन कर रहा है।
देश के आम लोगों का विदेश नीति में अधिक काम नहीं रहता है, वह पूरी तरह से सरकार का मोर्चा रहता है, लेकिन लोगों को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की समझ रहनी चाहिए, और सार्वजनिक मंचों पर, सोशल मीडिया पर लोगों को अपने देश को लेकर उन्हें अपनी सोच उजागर करते रहना चाहिए।
गुजरात के जूनागढ़ में दो दिन पहले एक दरगाह के अवैध निर्माण को लेकर भारी हिंसा हुई। स्थानीय प्रशासन ने इस दरगाह को अवैध निर्माण के खिलाफ नोटिस दिया था, और पांच दिन बाद उसे तोडऩे का नोटिस लगाने म्युनिसिपल के लोग पहुंचे थे जिसके विरोध में बड़ी भीड़ जुट गई, पुलिस पर पथराव शुरू हो गया, और गाडिय़ों को तोडक़र आग लगा दी गई। मोदी के गुजरात में इतने बवाल की हिम्मत होनी नहीं चाहिए थी जहां अभी पिछले विधानसभा चुनाव में ही केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपने प्रचार में 2002 में सिखाए गए सबक के असर की चर्चा करके आए थे। लेकिन तनाव हुआ, और लाठीचार्ज, आंसू गैस, पथराव, बड़ी पुलिस तैनाती सभी कुछ वहां देखने मिल रही है। यह भी हो सकता है कि इस अवैध सामुदायिक निर्माण को लेकर अब प्रशासन वहां पहले के मुकाबले कुछ अधिक कड़ी कार्रवाई कर सके क्योंकि हिंसा की शुरुआत इस तबके ने की है, इसलिए अब अगर वह किसी बुरे निशाने पर आता है, तो उसके साथ हमदर्दी कम रहेगी।
लेकिन हम किसी एक राज्य, और किसी एक धर्म पर गए बिना एक सामान्य चर्चा करना चाहते हैं कि हिन्दुस्तान में किस तरह धर्म के नाम पर गुंडागर्दी चलती है, और एक धर्म के देखादेखी अधिकतर बाकी धर्म भी उसी राह पर चल निकलते हैं, और फिर इनमें से किसी को भी काबू करना नामुमकिन इसलिए हो जाता है कि हर एक के पास गिनाने के लिए दूसरों की मिसालें रहती हैं। अक्सर यह भी होता है कि सत्तारूढ़ पार्टियां अगर किसी धर्म के लोगों के थोड़े-बहुत भी समर्थन की उम्मीद करती हैं, तो वे भी उस धर्म के लोगों को एक समूह या समुदाय के रूप में नाराज करना नहीं चाहतीं। सत्तारूढ़ पार्टी बेफिक्र होकर तब फैसले ले सकती है जब वह भाजपा जैसी पार्टी हो, और जिसे यह पुख्ता मालूम हो कि मुस्लिम मतदाता उसके लिए वोट नहीं डालेंगे, इसलिए उन्हें खुश रखने की कोई जरूरत नहीं है, या उसे नाराज करने में कोई दिक्कत नहीं है। जब तक पार्टी और वोटर के रिश्ते इस तरह के साफ न हों, तब तक सत्ता की दुविधा दिखती ही है, और इसी दुविधा का फायदा उठाकर धार्मिक गुंडागर्दी अपने पांव जमाती है, और फिर अपनी मसल्स बढ़ाती है।
सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ फैसले हैं जिनमें जिला कलेक्टरों पर यह जिम्मेदारी डाली गई है कि देश में कहीं भी किसी सार्वजनिक जगह पर कोई भी धार्मिक अवैध निर्माण नहीं होना चाहिए, वरना इन अफसरों को सीधा जिम्मेदार ठहराया जाएगा। लेकिन ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी अगर सरकारी कुर्सियों के लिए होते हैं, और किसी अफसर के नाम से नहीं होते, तो वे बेअसर होते हैं। हम अपने आसपास चारों तरफ सरकारी जमीन, सडक़ों की चौड़ाई, बगीचों और मैदानों पर, तालाबों के किनारे पाटकर, नदियों से सटकर इतने धार्मिक अवैध निर्माण देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को देश के तमाम जिला प्रशासन सस्पेंड कर देने पड़ेंगे। यह भी लगता है कि अदालतें हुक्म सुनाकर फिर आंखें बंद कर लेती हैं, क्योंकि अपने हुक्म की आखिर कितनी बेइज्जती वे बर्दाश्त कर सकती हैं? जनता के बीच के लोग एक तो जागरूक कम हैं, दूसरा यह कि धार्मिक आतंक से तमाम लोग इतने डरे-सहमे रहते हैं कि वे हिंसक धार्मिक, और अक्सर ही साम्प्रदायिक भीड़ से अकेले लडऩा नहीं चाहते, क्योंकि किसी इलाके में वहां के बहुसंख्यक लोगों को दुश्मन बनाकर जीना ही दुश्वार हो जाता है, वह आसान तो बिल्कुल ही नहीं रहता।
तो ऐसे में किया क्या जाए? हिन्दुस्तान में कभी भी यह सुनने में नहीं आएगा कि किसी जाति और धर्म की भीड़ ने एकजुट होकर किसी अस्पताल या स्कूल के लिए सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर अवैध कब्जा किया, उनके लिए कोई इमारत बनाई। ऐसी सारी गुंडागर्दी सिर्फ धर्म के नाम पर, सिर्फ धर्म के लिए होती है, और वह जंगल की आग की तरह ऐसे जुर्म को दूसरों में भी बढ़ाते चलती है। गुजरात में तो खैर पक्के इरादों वाली एक मजबूत सरकार है, और वहां पर उसका रूख बड़ा साफ है, इसलिए वहां तो वह इस घटना से निपट लेगी, लेकिन बाकी देश में बहुत से प्रदेश ऐसे हैं जहां पर किसी एक या दूसरे धर्म, किसी एक या दूसरी जाति को खुश रखने के लिए सत्तारूढ़ और विपक्षी राजनीतिक दल बड़ी मेहनत करते हैं, और वहां धार्मिक या सामुदायिक अवैध निर्माणों को छूना भी अफसरों के लिए आसान नहीं होता है। ऐसा लगता है कि वक्त आ गया है कि किसी जनसंगठन या सामाजिक कार्यकर्ता को इस मुद्दे को लेकर एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को देश के तमाम इंजीनियरिंग कॉलेजों के प्राध्यापकों-छात्रों से उनके शहरों का सर्वे कराना चाहिए कि उसके कई बरस पहले के फैसले के बाद सार्वजनिक जगहों पर कितने धार्मिक अवैध निर्माण हुए हैं, और उस दौरान जितने कलेक्टर रहे हों, या सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जिन अफसरों के ओहदों का जिक्र हो, उन सबके सीआर में इस गैरजिम्मेदार अनदेखी का जिक्र करवाना चाहिए, और उन्हें सजा के बतौर उनकी तनख्वाह काटनी चाहिए। जब तक जनता पहल नहीं करेगी, तब तक शासन-प्रशासन तो बेपरवाह बने ही रहेंगे, सुप्रीम कोर्ट भी खुद होकर शायद ही अपनी इज्जत की फिक्र करे। भारत की व्यवस्था यही है कि लोगों को जाकर सुप्रीम कोर्ट को हिलाना पड़ता है कि कहां उसकी बेइज्जती हुई है, फिर सुबूतों से उसे साबित करना पड़ता है कि सचमुच ही बेइज्जती हुई है, तब जाकर जज सरकारों को नोटिस देते हैं कि उन पर अदालत की अवमानना का मुकदमा क्यों न चलाया जाए। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में अगर कुछ मुद्दों पर एक साथ सैकड़ों या हजारों अफसरों को सजा दी जानी चाहिए, तो वह धार्मिक अवैध निर्माणों को लेकर, और हेट-स्पीच को लेकर दी जानी चाहिए, ताकि वह बाकी फैसलों को लेकर भी अफसरों को, और नेताओं को चौकन्ना करे। सुप्रीम कोर्ट को दो जांच कमिश्नर नियुक्त करने चाहिए जो कि देश भर में इंजीनियरिंग छात्र-शिक्षकों से धार्मिक अवैध निर्माण का सर्वे करवाए, और मीडिया मॉनिटरिंग करके यह तय करे कि कहां-कहां हेट-स्पीच दी जा रही है, और कोई मामला दर्ज नहीं हो रहा है। इससे कम में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और आदेशों पर किसी अमल की संभावना नहीं दिखती है।
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लोगों को जब अपने घर में कोई चीज मनपसंद नहीं मिलती है, तो वे बाहर उसे तलाशते हैं। इसमें शादीशुदा जोड़ों के देह-सुख से लेकर खाने-पीने की चीजों तक बहुत सी चीजें रहती हैं कि लोग बाहर जाकर क्यों मुंह मारते हैं। अब ऐसे में जब लोगों को अपने मुल्क में मीडिया की आजादी न दिखे, तो दूसरे बेहतर लोकतंत्रों में आजाद मीडिया देख लेना चाहिए कि कहीं तो मीडिया आजाद है, और उस मुल्क की मीडिया की आजादी पर खुश हो लेना चाहिए, क्योंकि अपने घर पर वह आजादी नसीब नहीं है। इसी तरह जब नेताओं को लेकर यह निराशा होती है कि उनके खिलाफ कुछ भी तोहमत लग जाए, वे कितने ही बड़े जुर्म में क्यों न फंस जाएं, उनके चेहरे पर न शर्म दिखती न शिकन, तो फिर इन दोनों श को देखने के लिए कुछ दूसरे बेहतर लोकतंत्रों की तरफ झांक लेना चाहिए। ऐसा ही एक मामला ब्रिटेन का है कि तोहमत लगने पर नेताओं को कैसी मिसाल पेश करनी चाहिए, हिन्दुस्तान में तो ऐसा देखने का सुख नसीब नहीं हो सकता, इसलिए उस ब्रिटेन को चलें जिसने हिन्दुस्तान को गुलाम बना रखा था।
कोरोना महामारी के दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने प्रधानमंत्री आवास पर एक पार्टी दी थी, जिसमें कई लोग शामिल हुए थे जो कि वहां काम करने वाले थे, उस पार्टी में ब्रिटेन के प्रचलन के मुताबिक कुछ दारू-शारू भी पी गई थी। बाद में जब यह बात लीक हुई और लोगों को पता लगा कि देश के आम लोगों पर तो कोरोना-प्रतिबंधों के चलते आवाजाही पर भी रोक थी, पार्टी करना तो दूर की बात थी, उस वक्त उनका प्रधानमंत्री ऐसी पार्टी कर रहा था, तो इस पार्टीगेट-कांड की वजह से बोरिस जॉनसन को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। खुद उनकी पार्टी के लोग खुलकर उनके खिलाफ खड़े हो गए थे, और संसद में इस पार्टी को लेकर झूठ बोलने की तोहमत भी उन पर लगी थी। लंदन की पुलिस ने भी इस मामले की जांच की थी, और प्रधानमंत्री को इस पार्टी के लिए पेनाल्टी नोटिस जारी किए थे। हिन्दुस्तान के लोगों को पुलिस की ऐसी आजादी की खुशी मनाने के लिए भी ब्रिटेन की तरफ देखना चाहिए कि कोरोना के बीच ऐसी पार्टी की जांच करके पुलिस ने प्रधानमंत्री और उनके उस वक्त के वित्तमंत्री ऋषि सुनक दोनों को पेनाल्टी नोटिस जारी किए थे। अब संसदीय कमेटी की रिपोर्ट पर संसद में चर्चा होगी, और आगे की फजीहत को देखते हुए बोरिस जॉनसन ने संसद से तुरंत प्रभाव से इस्तीफा दे दिया है। वे संसदीय जांच कमेटी के नतीजों से असहमत थे, और अपने को बेकसूर भी मानते हैं, लेकिन संसद में और शर्मिंदगी झेलने के बजाय उन्होंने उसे छोड़ देना बेहतर समझा।
अब जिन देशों में लोग संसद और विधानसभाओं में बलात्कार के मामले झेलते हुए, बलात्कार की शिकार लड़कियों और महिलाओं की खुली तोहमतें झेलते हुए बाकी तमाम जिंदगी भी सदन में बने रहना चाहते हैं, उनके देश-प्रदेश के लोगों को खुशी पाने के लिए गोरी संसद की तरफ देखना चाहिए, जो कि एक वक्त हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले गोरों की संसद है, लेकिन जिसमें थोड़ी सी शर्म बाकी भी है। हिन्दुस्तान के बारे में अक्सर कहा जाता है कि इसने अपनी संसदीय प्रणाली ब्रिटेन से सीखी है, उसने वहां से संसदीय परंपराएं, और शर्म नहीं सीखी है। और अगर थोड़ी-बहुत सीखी भी रही होगी, तो वह नेहरू और शास्त्री के साथ चल बसी होंगी। बाद के वक्त में संसदीय परंपराओं को कूट-कूटकर खत्म करने का जो सिलसिला चला, वह हाल के बरसों में तो एकदम ही फास्ट फार्वर्ड तरीके से आगे बढ़ रहा है, और संसद के धार्मिक अनुष्ठान के वक्त दर्जन भर बलात्कार और यौन शोषण का आरोपी सांसद वहां मुस्कुरा रहा था, और उसकी शिकार लड़कियां सडक़ों पर पीटी जा रही थीं। गौरवशाली परंपराएं यहां इतिहास बन चुकी हैं, और जहां के इतिहास से यहां की संसदीय व्यवस्था बनाई गई थी, वहां पर अब भी एक थानेदार जाकर प्रधानमंत्री निवास में हुई दारू पार्टी की जांच कर सकता है, करता है, नोटिस जारी करता है।
बोरिस जॉनसन के इस्तीफे को लेकर यह भी सोचने की जरूरत है कि उनका संसद भवन तो सैकड़ों बरस पुराना है, एक बार तो आगजनी में जल भी चुका है, लेकिन उसमें संसदीय-आत्मा जिंदा है। वहां प्रधानमंत्री की पार्टी के लोग भी प्रधानमंत्री के आचरण के खिलाफ खुलकर बोल सकते हैं, बोलते हैं। वहां प्रधानमंत्री की एक गलती पर उसकी पार्टी के सांसद उसके खिलाफ वोट डालने को तैयार रहते हैं, और उसे इस्तीफा देना पड़ता है। हिन्दुस्तान में गौरव के लिए हजार करोड़ से संसद का नया भवन बना है, उस इमारत पर गर्व किया जा सकता है, हालांकि कई लोगों का यह मानना है कि वह योरप के कई नस्लवादी देशों की इमारतों से बिल्कुल ही मिलती-जुलती इमारत बनाई गई है, और उस नस्लवादी इतिहास की याद दिलाती है। लेकिन हिन्दुस्तानी संसद भवन किस वजह से उन फासिस्ट डिजाइनों पर बनी है, यह आर्किटेक्चर के छात्रों के लिए शोध का एक विषय हो सकता है, और वे गुजरात जाकर इसके आर्किटेक्ट से बात कर सकते हंै, हम तो इमारत के भीतर की आत्मा पर बात करना चाहते हैं, जिसे हजार करोड़ के बजट में नहीं बनाया जा सकता, नहीं बचाया जा सकता।
प्रधानमंत्री निवास पर कोरोना के बीच काम कर रहे सरकारी लोगों के बीच हुई पार्टी को लेकर पहले प्रधानमंत्री पद से, और फिर संसद से इस्तीफा देना पड़ा। अब ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में सरकारों और संसद-विधानसभाओं के लोग ब्रिटिश खबरों पर रोक लगाना बेहतर समझेंगे कि हिन्दुस्तानी लोग वहां की मिसालें न गिनाने लगें। लोकतंत्र कांक्रीट के ढांचों का नाम नहीं होता, वह शर्म, गरिमा, नीति-सिद्धांतों जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों का नाम होता है। संसद की इमारत और दस-बीस बरस नहीं बनती, लेकिन पुरानी इमारत में ही एक आजाद बहस हो पाती, देश की फिक्र हो पाती, लोकतंत्र और इंसानियत के सिद्धांतों पर फैसले लिए जा सकते, तो उस देश की संसदीय व्यवस्था गौरवशाली होती। इमारत सिर्फ डिजाइनर और ठेकेदार के लिए गौरव की बात हो सकती है, उस इमारत की आत्मा के बिना वहां चल रहे संस्थान के लिए वह गौरव की बात नहीं हो सकती। हिन्दुस्तान की हजार करोड़ की इस ताजा इमारत के भीतर बृजभूषण शरण सिंह की आत्मा बैठी हुई है, और जिन लोगों को भारतीय संसदीय व्यवस्था पर गर्व करने की हसरत है, उन्हें ऐसी आत्मा से छुटकारा पहले पाना होगा, उसके बाद सोचना होगा कि गर्व के लिए और क्या-क्या जरूरी है। फिलहाल कुछ दावतों के लिए ब्रिटेन में प्रधानमंत्री गिर गया, और कई बलात्कारों के बावजूद भारतीय संसद अपने सेंगोल को थामे हुए गर्व से फूले नहीं समा रही है। इस पाखंड को समझने की जरूरत है, और उस समझ का नाम ही लोकतंत्र है।
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एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अभी एक दिलचस्प बात लिखकर पोस्ट की है कि आज दुनिया के एक सबसे विकसित इलाके, योरप ने अपनी महिलाओं को दिन में दो-तीन बार रोटी बनाने से आजादी पहले दे दी थी। वहां बाजार में बेकरी की बनी हुई डबलरोटी का चलन है, और वह हिन्दुस्तानी घरेलू रोटी का विकल्प है। जिन सामाजिक कार्यकर्ता ने यह बात याद दिलाई है, उनका अंदाज है कि भारत में एक महिला पूरी उम्र में पांच-छह लाख रोटियां बनाती है। उनका यह भी मानना है कि अमूमन हर मर्द गर्मागरम रोटी चाहते हैं। उन्होंने यह बात महिलाओं के हक को लेकर की है, लेकिन योरप से परे जिन मुस्लिमों देशों में महिलाओं के हक बड़े कम दिखते हैं, वहां की हालत भी इस मामले में दिलचस्प है कि महिलाओं को वहां घरों में रोटी नहीं बनानी पड़ती। अधिकतर देशों में बाजार में तंदुरवाले रहते हैं और वहां बड़ी-बड़ी रोटियां बनी हुई बिकती हैं जिन्हें खरीदकर ले जाने का चलन है। गरीब लोग भी बाजार से रोटी खरीद लेते हैं। कम से कम महिलाओं के मत्थे रोटी बनाना नहीं आता है।
अब हिन्दुस्तानी महिलाओं के हक और उनकी जिम्मेदारियों की बात करें, तो गरीब महिला को बाहर भी काम करना होता है, और घर भी संभालना होता है। मध्यवर्गीय महिलाओं की हालत भी तकरीबन ऐसी ही रहती है। और संपन्न तबके की महिलाओं से भी घरबार की देखभाल, सामाजिक संबंधों को निभाना, ऐसी कई उम्मीदें की जाती हैं। उनमें कामकाजी महिलाएं शायद कम होती होंगी, लेकिन उनके जिम्मे भी परिवार के रिश्तों और परंपराओं को निभाना, सामाजिक मौजूदगी दिखाना जैसे कई काम आते हैं, जिसे उनकी किसी तरह की उत्पादकता में नहीं गिना जाता। आज इस चर्चा का मकसद यह है कि भारतीय महिला के पारिवारिक और आर्थिक योगदान को कम दिखाने वाली कौन-कौन सी परंपराएं हैं जो कि उसे गैरकामकाजी साबित करती हैं। बातचीत में देखें तो जो महिलाएं बाहर काम नहीं करती हैं, उनका जिक्र इसी तरह होता है कि वे कोई काम नहीं करती हैं, वे घरेलू महिला हैं। जबकि घर के कामकाज को देखना, बच्चों को पैदा करना और बड़ा करना, यह किसी मर्द के बाहर किए जाने वाले, और कमाऊ लगने वाले काम से अधिक मेहनत का काम रहता है, लेकिन उस महिला को कामकाजी भी नहीं गिना जाता। जब देश की वर्कफोर्स की चर्चा होती है, तो उसमें महिलाओं की हिस्सेदारी हिन्दुस्तान में 20 फीसदी के करीब गिनी जाती है। जबकि हकीकत यह है कि मर्द काम करें या न करें, हिन्दुस्तानी महिलाएं तो तकरीबन सौ फीसदी कामकाजी रहती हैं, और जो सबसे संपन्न तबका है वह आबादी में किसी प्रतिशत में नहीं आता।
इससे दो नुकसान होते हैं, एक तो समाज में महिलाओं की स्थिति कभी सम्मानजनक नहीं बन पाती क्योंकि उसे बस घर बैठी हुई मान लिया जाता है। जो 20 फीसदी महिलाएं कामकाजी हैं उनको लोग जरूर कामकाजी मानते हैं, और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता उन्हें समाज में एक अलग किस्म का दर्जा दिलाती है, और वे अपने अधिकारों को कुछ अधिक हद तक हासिल कर पाती हैं। दूसरी तरफ जो घर के बाहर के औपचारिक कामों में नहीं लगी रहती हैं, या घर के भीतर से कुटीर उद्योग या गृहउद्योग किस्म की जाहिर तौर पर कमाऊ गतिविधि में शामिल नहीं रहती हैं, उन्हें बस बच्चे पैदा करने वाली, और घर चलाने वाली मान लिया जाता है।
यह नौबत बदलने की जरूरत इसलिए है कि कोई भी महिला उसके योगदान की अनदेखी के साथ न तो आगे बढऩे के लिए कोई हौसला पा सकती है, और न ही देश को उसका कोई महत्वपूर्ण योगदान मिल सकता है। दुनिया में बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर महिलाएं क्रेन चलाती हैं, बुलडोजर चलाती हैं, खेतों में बड़ी मशीनें चलाती हैं, और यह साबित करती हैं कि एक भी ऐसा काम नहीं है जो उनके लिए मुश्किल हो। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में बहुत से कामों में महिला को कमजोर मान लिया जाता है, उसे मौके ही नहीं दिए जाते, और एक महिला की खास जरूरतों के मुताबिक काम का माहौल नहीं बनाया जाता। मर्द तो किसी भी दीवार के किनारे खड़े होकर पेशाब कर लेते हैं, लेकिन हिन्दुस्तान की सार्वजनिक जगहों पर, कामकाज की जगहों पर महिला के लिए ऐसी कोई सहूलियत अनिवार्य रूप से नहीं बनती है, और उन्हें किसी भी तरह की आड़ ढूंढकर अपना काम चलाना पड़ता है। गांव-देहात में स्कूलों में भी लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं होते, और यह भी एक वजह रहती है कि कई लड़कियां लगातार पढ़ाई नहीं कर पातीं।
दिक्कत यह है कि हिन्दुस्तान जैसे देश में ऐसी सलाह को महिला अधिकार के लिए कही गई बात मान लिया जाता है, और इस पर अगर कहीं अमल होता भी है तो उसे महिला पर अहसान की तरह किया जाता है। यह समझने की जरूरत है कि महिला को देश के लिए एक उत्पादक कामगार अगर माना जाएगा, और उसी हिसाब से उसके हक दिए जाएंगे, उसके लिए संभावनाएं और सहूलियतें खड़ी की जाएंगी, तो वह देश की अर्थव्यवस्था में मर्द के बराबर, या उससे अधिक जोड़ पाएँगी। महिलाओं के लिए यह सब जेंडर-जस्टिस की तरह करने की जरूरत नहीं है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को एक नई ताकत देने के लिए, अब तक किनारे पड़ी हुई संभावना पर काम करने के लिए जरूरी है।
राजस्थान की बाड़मेर की एक खबर है कि पुलिस ने एक ऐसे नौजवान को पकड़ा है जो लड़कियों और महिलाओं के अश्लील वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करता था। उसके पास से जो सुबूत मिले हैं उनसे पता चलता है कि अब तक वह 40 से अधिक नाबालिगों और महिलाओं के अश्लील फोटो, और वीडियो बनाकर उनका यौन शोषण कर चुका था, और ब्लैकमेल कर चुका था। पुलिस के मुताबिक उसने अपनी होने वाली सास का भी अश्लील फोटो-वीडियो बनाकर फैला दिया था, और यह बात फैलने के बाद उसका रिश्ता भी टूट गया। ऐसी ही परेशान एक नाबालिग लड़क़ी और उसकी मां ने आत्महत्या कर ली थी जिसकी वजह से यह जांच शुरू हुई, और मुकेश दमामी नाम का यह नौजवान गिरफ्तार हुआ। ऐसे मामले चारों तरफ से आ रहे हैं जिनमें लोग किसी का भरोसा जीतकर उनके कुछ फोटो-वीडियो हासिल कर लेते हैं, और फिर उनका बेजा इस्तेमाल करते हैं। आज सोशल मीडिया और इंटरनेट की मेहरबानी से लोगों के लिए यह बड़ा आसान हो गया है कि जिसे ब्लैकमेल या बदनाम करना हो उनके सच्चे या गढ़े हुए फोटो और वीडियो पोर्नो वेबसाइटों पर अपलोड कर दें। बहुत से लोग बदला निकालते हुए इनके साथ-साथ उन लोगों के फेसबुक और इंस्टाग्राम के अकाऊंट के लिंक भी जोड़ देते हैं, और उनके नाम-नंबर भी डाल देते हैं। बहुत सी आत्महत्याएं ऐसे ही मामलों में फंसी हुई लड़कियों और महिलाओं की होती हैं, और कई मामलों में तो वीडियो कॉल करके बिना कपड़ों के वीडियो बनाने में लोगों को फंसा लिया जाता है, और फिर उन्हें ब्लैकमेल किया जाता है। बहुत से लोग तो ऐसे मामलों में फंसने के बाद अपनी दौलत का एक बड़ा हिस्सा गंवाने के बाद भी आत्महत्या करने को मजबूर हो जाते हैं।
टेक्नालॉजी से लैस यह वक्त ऐसा आ गया है कि लोगों को अपने आसपास के सबसे भरोसेमंद लोगों से भी सावधान रहने की जरूरत है, और खुद अपने शौक के लिए भी अपनी किसी चूक से बचना चाहिए। लोग अपने निजी पलों के फोटो और वीडियो इस भरोसे के साथ बना लेते हैं कि वे उन्हीं के मोबाइल फोन या कम्प्यूटर पर हैं। लेकिन इन दिनों हजार ऐसी वजहें हैं जिनकी वजह से आपके फोन और मोबाइल तक कभी दूसरे लोगों की, कभी मैकेनिक और सर्विस सेंटर की, कभी परिवार और दफ्तर के लोगों की पहुंच हो जाती है। और आसपास अगर अधिक धूर्त लोग हैं, अगर आप महत्वपूर्ण हैं और किसी सरकार के निशाने पर हैं, तो फिर आपके फोन-कम्प्यूटर पर तरह-तरह से घुसपैठ भी की जा सकती है। इसलिए उसमें एक बार दर्ज हो चुकी कोई चीज किस तरह बाद में भी कभी निकाली जा सकती है इसका सुबूत देखना हो तो छत्तीसगढ़ में इन दिनों ईडी और आईटी के जब्त किए गए मोबाइल फोन और कम्प्यूटर से निकाली गई जानकारी को देखना चाहिए जिसे लोगों ने सोचा भी नहीं रहा होगा कि उन्हें उनके ही खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन आज एक-एक मोबाइल फोन की जानकारी मानो कफन फाडक़र सामने आ रही है, और अपने मालिकों का मुंह चिढ़ा रही है, उन्हें जेल तो भेज ही रही है।
जो आज दोस्त रहते हैं, वे कल दोस्त भी बने रह सकते हैं, और दुश्मन में भी तब्दील हो सकते हैं, इसलिए किसी पर भी इतना भरोसा नहीं करना चाहिए कि अपने लिए शर्मिंदगी और खतरे वाली बातें उनके हाथ दे दी जाएं। इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि पीठ में गहरा छुरा वही लोग भोंक सकते हैं जो कि सबसे करीब होते हैं, दूर के लोग तो पत्थर चला सकते हैं, या गोली चला सकते हैं, जिनसे बचा भी जा सकता है, लेकिन करीब से पीठ में भोंके गए छुरे से बचना मुश्किल रहता है। इंसान की दिक्कत यह रहती है कि उनके भीतर बुनियादी रूप से एक अच्छी इंसानियत रहती ही है, और वह किसी पल भरोसेमंद लग रहे लोगों को जिंदगी भर के लिए भरोसे के लायक मानने की गलती करवा देती है। नतीजा यह होता है कि लोग अपने आपसे भी अधिक भरोसेमंद मानकर उनके साथ तमाम राज और अंतरंग पल बांट लेते हैं। लोगों को याद रखना चाहिए कि अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ एक वक्त गर्मजोशी का अफेयर रखने वाली मोनिका लेविंस्की ने संसद में महाभियोग के दौरान क्लिंटन के दाग-धब्बों वाले अपने संभालकर रखे गए कपड़े भी सुबूत के बतौर पेश कर दिए थे। और इसके भी पहले उसने किसी और से यह राज खोला भी था। अभी हम मातहत के यौन शोषण के क्लिंटन के काम पर चर्चा नहीं कर रहे हैं, उसे अनदेखा भी नहीं कर रहे हैं, लेकिन आज की इस चर्चा में इस मामले के उस पहलू का महत्व है कि कोई बात राज नहीं रह जाती है, बंद कमरे में क्लिंटन और मोनिका के बीच जो हुआ था, उसके पल-पल का बखान सार्वजनिक दस्तावेजों में दर्ज है।
सरकारों को भी चाहिए कि इस किस्म के अपराधों का बोझ घटाने के लिए, या बढऩे से रोकने के लिए उन्हें जनता के बीच जागरूकता की कोशिश करनी चाहिए। यह मानकर चलना गलत होगा कि इतनी समझदारी तो हर किसी में होती ही है। सरकारों को सार्वजनिक मंचों पर, और स्कूल-कॉलेज में, जनसंगठनों और लोगों की भीड़ के बीच ऐसे अभियान चलाने चाहिए जिससे लोग खतरों से रूबरू हो सकें, और कुछ सीख सकें। हमारा मानना है कि समाज की जो बर्बादी बेवकूफी में हो रही है, और कुल मिलाकर हर चीज का बोझ सरकार पर ही जांच और मुआवजे के लिए आता है, इसलिए ऐसे जुर्म से लोगों को वक्त रहते सावधान करना चाहिए।
देश में सामाजिक आंदोलनों के एक बड़े प्रतीक बने हुए नौजवान आंदोलनकारी उमर खालिद को बिना सजा जेल में एक हजार दिन हो गए हैं। दिल्ली पुलिस ने जेएनयू के इस छात्रनेता को 2020 के दिल्ली दंगों के सिलसिले में यूएपीए जैसे कड़े कानून के तहत गिरफ्तार किया था, और उसे दिल्ली दंगों का मास्टर माइंड बताया था। दिल्ली के इन प्रदर्शनों में उमर के पिता मौजूद थे, और उनका बयान था कि जब दंगे हुए उनका बेटा दिल्ली में ही नहीं था। अब उनका कहना है कि हजार दिनों की कैद भी उमर के आत्मविश्वास को नहीं तोड़ पाई है, और जब वे देखते हैं कि उसकी अदालती पेशी के दौरान जितने और जैसे-जैसे लोग वहां मौजूद रहते हैं, जो कि जेल में बंद रखे गए हैं, तो उनके चेहरों पर लिखा आत्मविश्वास बताता है कि वे जानते हैं कि वे एक मकसद के लिए जेल में हैं। अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में कल हुई एक सभा में बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं, पत्रकारों ने इस मामले पर अपनी बात रखी। जेएनयू के एक प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने कहा कि यह सिर्फ खालिद की निजी त्रासदी नहीं है, यह एक प्रतिभा की सामाजिक बर्बादी भी है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के वक्त भी गांधी को कभी दो बरस से अधिक कैद में नहीं रखा गया, नेहरू जरूर एक बार में ही 1041 दिन जेल में थे, और खालिद उनसे 41 दिन पीछे है। पत्रकार रवीश कुमार ने कहा कि खालिद जैसे लोगों के लिए इंसाफ की राह बहुत अधिक लंबी कर दी गई है। उन्होंने कहा कि हजार दिन गुजर गए हैं, और ये हजार दिन सिर्फ खालिद की तकलीफ के नहीं हैं, बल्कि ये भारतीय न्याय व्यवस्था की शर्मिंदगी के हजार दिन भी है।
लोकतंत्र मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों को तकनीकी बातों में उलझाकर अपने ही नागरिकों की प्रताडऩा का नाम नहीं है। हिन्दुस्तान में पिछले कुछ बरसों में यह लगातार चल रहा है। और यह बहुत नया भी नहीं है, जब केन्द्र में यूपीए की सरकार थी, और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार थी, उस वक्त भी नक्सलियों की मदद के आरोप में विनायक सेन को बरसों तक बिना जमानत रखा गया था। शायद आजाद हिन्दुस्तान में कई कानून इतने कड़े हैं कि भीमा कोरेगांव केस में जमानत पाए बिना फादर स्टेन स्वामी जैसे सामाजिक कार्यकर्ता विचाराधीन कैदी के रूप में बरसों गुजारकर मर गए, और भी लोगों को बिना जमानत कई बरस जेल में गुजारने पड़े। ऐसा बहुत से मामलों में हो रहा है। आज के हिन्दुस्तान में अगर कोई पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता मुस्लिम है, तो कई प्रदेशों में बिना सुनवाई उसकी बरसों की कैद एक किस्म से तय हो जाती है। देश में कुछ ऐसे कानून है जो सरकारों को अंधा कानून बनकर मदद करते हैं, और इनको खत्म करने की लोकतांत्रिक मांग लंबे समय से चली आ रही है। जिन अंग्रेजों के वक्त ऐसे कानून हिन्दुस्तान में बने थे, खुद उनके देश में आज ऐसे कानून खत्म कर दिए गए हैं क्योंकि वहां लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान करना लोकतांत्रिक परंपरा के तहत मजबूरी हो गई है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में सरकारें ऐसे कड़े और अंधे कानूनों को खत्म करना नहीं चाहतीं जो कि अदालती फैसले के पहले ही कई बरस तक लोगों को कैद रखने का हथियार रहते हैं। आज बहुत से मामलों में ऐसा ही हो रहा है।
दिक्कत यह है कि कांग्रेस हो या भाजपा, जो बड़ी पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया रहती है, उसे कड़े कानून सुहाने लगते हैं क्योंकि उनमें बिना किसी इंसाफ के लोगों को असीमित सजा दी जा सकती है। लेकिन इमरजेंसी में ऐसे कानून समझ में आते थे क्योंकि सरकार लोकतंत्र को छोड़ चुकी थी, आज तो देश में लोकतंत्र होने का दावा किया जाता है, और ऐसे में अगर ये कानून इस तरह लादे जा रहे हैं, उनका भरपूर बेजा इस्तेमाल हो रहा है, तो उसमें सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी चाहिए। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे बहुत से मामलों को देख चुके हैं जिनमें किसी बेकसूर को बरसों तक कैद में रखा गया है। अदालतें कड़ी टिप्पणी करके कुछ लोगों को छोड़ भी चुकी हैं। लेकिन ऐसा सिलसिला जगह-जगह जारी है। सुप्रीम कोर्ट को ऐसे किसी मामले की सुनवाई में सरकारी पुलिसिया कार्रवाई को पारदर्शी बनाने के लिए, उसकी न्यायिक समीक्षा करने के लिए एक इंतजाम करना चाहिए। आज तो नेता-अफसर मिलकर किसी राजनीतिक विचारधारा के विरोधियों को कुचलकर खत्म कर देने के लिए ऐसे काम में लगे हुए हैं। यह सिलसिला इंसाफ की सोच के ठीक खिलाफ है। जिन सरकारों को पारदर्शी रहना चाहिए, वे सरकारें अदालतों में ऐसे मामलों में घिर जाने पर किसी पेशेवर मुजरिम की तरह बर्ताव करने लगती हैं, और अपनी नाजायज कार्रवाई को जायज ठहराने के लिए तरह-तरह के झूठे बहाने बनाने लगती हैं। कई मामलों में बड़ी अदालतों में सरकारी बदनीयत को पकड़ा है, सरकारों को लताड़ लगाई है, लेकिन जिस तरह पेशेवर बेशर्म लोग रोजाना लताड़ खाकर भी उसी किस्म के काम हर अगले दिन करते रहते हैं, उसी तरह सरकार यहां करते रहती है। सरकारों की ऐसी मनमानी और गुंडागर्दी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर भी दखल देनी चाहिए, और यह तय करना चाहिए कि किसी भी कानून के तहत एक सीमा से अधिक दिन गुजरने पर कौन सी बड़ी अदालत उसके पीछे का तर्क तौलेगी, और जमानत पर फैसला करेगी। आज की अदालती व्यवस्था, जैसा कि रवीश कुमार ने कहा है, यह हजार दिन की शर्मिंदगी की न्याय व्यवस्था है।
जब न्याय की प्रक्रिया ही सजा हो जाए, तो वह न्याय किसी तरह का न्याय नहीं रह जाता। अदालतों को न सिर्फ इंसाफ करना चाहिए, बल्कि इंसाफ का दिन आने तक सरकारें गुंडागर्दी से नाइंसाफी न लादती रहें, इसका भी ध्यान रखना चाहिए।
अमेजान के जंगलों के बीच के देश कोलंबिया में एक विमान गिरा। इसमें चार बच्चे अपनी मां और दो दूसरे बालिग लोगों के साथ सफर कर रहे थे। छोटा सा विमान था, और अमेजान के सबसे घने जंगलों में गिरकर विमान चकनाचूर हो गया, इसमें सवार सभी बालिग लोगों की मौत हो गई, लेकिन इस आदिवासी परिवार के चार बच्चे अभी 40 दिन बाद जंगल में जिंदा मिले हैं। यह दुनिया का सबसे अलग-थलग, सबसे घना, और सबसे कम पहुंच वाला जंगल है, और इन बच्चों में 14,9,4, और एक साल की उम्र के बच्चे ही बचे थे, और अब एक लंबी खोज के बाद सेना ने इन्हें जंगल के बीच से ढूंढ निकाला। यह विशाल जंगल 20 हजार किलोमीटर में फैला हुआ था, और फौज के साथ-साथ स्थानीय आदिवासी भी सैकड़ों की संख्या में इस तलाश में जुट गए थे। इस हादसे की खबर लगातार आते रहती थी, और जिम्मेदार लोग यह बताते रहते थे कि इनके बचने की संभावना अधिक इसलिए है कि ये आदिवासी बच्चे हैं, जंगल के पेड़ों और फलों को पहचानते हैं, और जंगल में जिंदा रहना उन्हें आता होगा। यह एक अलग बात है कि इतने घने जंगल में जानवरों से भी इन्हें खतरा था, लेकिन वे उनसे बचना भी जानते हैं, और उनके खाए गए फलों को देखकर वे समझ सकते हैं कि कौन से फल खाने लायक हैं। अमेजान के जंगलों का यह हिस्सा बहुत खतरनाक है क्योंकि यहां तरह-तरह के हिंसक जानवर, अजगर, और बहुत जहरीले सांप भी हैं। ऐसे में इन बच्चों के 14 बरस के मुखिया ने तीन छोटे बच्चों, जिनमें से एक तो एक बरस का था, उसने किस तरह सबको बचाया होगा, यह बाकी दुनिया के लिए एक करिश्मे सरीखे बात होगी।
इस घटना से यह समझने मिलता है कि जिंदगी की हकीकत को बच्चों को सिखाना कितना जरूरी है। आदिवासी बच्चे कुदरत के करीब रहते हैं, वे जंगल के खतरों को जानते हैं, नदियों के बहाव को पहचानते हैं, अलग-अलग मौसम में कब अंधेरा हो जाता है, दिशाएं कैसे पहचानी जाती हैं, ऐसे बहुत से ज्ञान और समझ से वे वाकिफ रहते हैं। दूसरी तरफ शहरी बच्चे अपना अधिक वक्त मोबाइल फोन, कम्प्यूटर, और टीवी पर लगाते हैं, वे वीडियो कॉल लगाने में माहिर हो जाते हैं, वे मोबाइल फोन के कैमरे से रील बनाकर पोस्ट करने लगते हैं, लेकिन शहरी जिंदगी की ही चुनौतियों से कैसे जूझा जाए, इसकी समझ उन्हें बहुत कम रहती है। बहुत ही कम ऐसे बच्चे रहते हैं जिन्हें उनका परिवार किसी मुसीबत में पडऩे पर क्या किया जाए, यह सिखाता होगा। और तो और, अधिकतर बच्चों को पुलिस या फायरब्रिगेड, या एम्बुलेंस के नंबर भी नहीं मालूम रहते, अनजाने लोगों से किस तरह सावधानी बरतनी चाहिए, यह भी नहीं मालूम रहता। उन्हें अलग-अलग मॉल्स में कहां कौन सा प्ले-जोन है यह तो मालूम रहता है, किस मोबाइल में कौन सा नया फीचर आया है, यह भी मालूम रहता है, लेकिन किसी मुसीबत से बचने का उन्हें कोई अंदाज नहीं रहता है।
कोलंबिया की यह खबर बड़ी उम्मीद जगाती है कि ऐसे विपरीत हालात में भी ऐसे छोटे-छोटे बच्चे 40 दिन खुद होकर गुजार रहे हैं। जानकार-विशेषज्ञ लोगों का यह कहना है कि प्राकृतिक पर्यावरण की समझ और उसके साथ रिश्ते के चलते ये बच्चे बच सके। प्लेन में किसी एक किस्म का आटा था, उसे भी उन्होंने खाया, खोजी हेलीकॉप्टरों से गिराया सामान भी खाया, और बीज, फल, जड़ों और पौधों को भी खाया। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम अपने अखबार में, और यूट्यूब चैनल पर भी लगातार लोगों को यह बात सुझाते आए हैं कि लोगों को अपने बच्चों को आसपास की प्रकृति और पर्यावरण से वाकिफ करवाना चाहिए। उन्हें पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-तालाब, और जंगलों की खूबियां बतानी चाहिए। यह सब न सिर्फ कोलंबिया की इस ताजा मुसीबत जैसी नौबत में बचने के लिए काम की बात होगी, बल्कि जिंदगी की उनकी बेहतर समझ भी कुदरत के करीब रहकर विकसित होगी। प्रकृति से मिली जानकारी सिर्फ सूचना या ज्ञान नहीं रहती, वह एक समझ भी विकसित करती है। प्रकृति का अपना एक दर्शन होता है, और इस दर्शन से संपन्न बच्चे जिंदगी में बहुत किस्म की दिक्कतों से बचने और उबरने की खूबी हासिल करते हैं।
आज किसी के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल हो सकता है कि 14 बरस और उससे कम उम्र के तीन बच्चे एक बरस के अपने भाई-बहन को लिए हुए जंगली जानवरों वाले ऐसे जंगल में 40 दिन जिंदा रह सकते हैं। लेकिन इस घटना से लोगों को यह समझना चाहिए कि कुदरत की जानकारी और समझ कितनी जरूरी है। और यह कुदरत जरूरी नहीं है कि सिर्फ जंगलों की हो, शहरी बच्चों के लिए यह कुदरत उनके आसपास के माहौल की हो सकती है। किसी भी जगह बच्चों को स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ उनके माहौल की रोजाना की जानकारी और जरूरत से भी परिचित कराते चलना चाहिए। शहरी बच्चे शहरी सार्वजनिक जगहों के खतरों को समझ सकते हैं, और ऐसे खतरों से जूझने का रास्ता सीख सकते हैं। यह पूरी घटना एक फिल्मी कहानी की तरह लगती है, और कोई हैरानी नहीं होगी कि इनके जिंदा बच जाने के बाद अब तक कहीं कोई फिल्म-लेखक इस पर लिखना शुरू भी कर चुके हों। लोगों को अपने बच्चों के साथ यह कहानी साझा करनी चाहिए कि असल जिंदगी में बच्चे कितने किस्म के खतरों से उबर सकते हैं।
अभी एक किसी टीवी चैनल के स्टूडियो में मुस्लिमों के बीच प्रचलित 72 हूरों की धारणा को लेकर एक बहस हुई जिसमें कुछ मुस्लिम मुल्ला अपनी धार्मिक शिनाख्त के साथ वहां मौजूद थे, और कुछ मुस्लिम महिलाएं भी थीं। जैसा कि ऐसे किसी भी धार्मिक बहस के दौरान होता है, धर्म का प्रतिनिधित्व कर रहे मान लिए गए लोग अधिक से अधिक कट्टरता की बातें करने में लगे थे, और उनके बीच आपस में भी कट्टरता की बारीकियों को लेकर बहस चल रही थी। दूसरी तरफ महिलाएं जब इन बातों से असहमत होने लगीं, तो एक महिला और एक आदमी के बीच बहस इतनी बढ़ गई कि दोनों के बीच हाथापाई होने लगी, गालियां दी जाने लगीं, और धक्का-मुक्की से एक-दूसरे को बाहर निकालने का काम होने लगा। स्टूडियो की यह रिकॉर्डिंग बताती है कि वहां मौजूद तमाम चैनल कर्मचारी इनको गुत्थम-गुत्था होने से रोकने में लगे रहे, और मारपीट अधिक ऊंचे दर्जे की हिंसक नहीं हो पाई। गनीमत यही है कि यह बहस मुस्लिमों के बीच ही थी, वरना अलग-अलग धर्मों के लोग रहते, तो वह साम्प्रदायिक हो जाती।
अब सवाल यह उठता है कि टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में जहां बड़े जटिल मामलों पर कुछ बोलने के लिए मिनट-दो-मिनट से अधिक एक बार में वक्त नहीं मिलता, वहां पर पुराने धार्मिक ग्रंथों का जिक्र करके ऐसी बहस करवाने के पीछे क्या नीयत रहती है? खासकर यह बात इसलिए भी बड़ी तल्खी के साथ लगती है कि धर्म के ठेकेदार के किरदार में जैसे कट्टरपंथी कठमुल्लाओं को वहां बुलाया जाता है, उनसे दकियानूसी बातों के अलावा और कुछ निकलना नहीं रहता है। फिर दूसरी बात यह भी रहती है कि अगर खुले विचारों की उन्हीं धर्मों की कुछ महिलाओं को वहां रखा जाएगा, तो बहस में कड़वाहट होना तय है, और यह पहला मौका नहीं है कि किसी चैनल के कार्यक्रम में ऐसा हिंसक माहौल बना हो। इसके पहले भी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान में कई ऐसे कार्यक्रम हुए हैं जिनमें जूते तक चले हैं, और जूते मारने के साथ-साथ एक-दूसरे की मां-बहन से रिश्ते भी कायम किए गए हैं। और यह बात सिर्फ इस्लाम और मुसलमानों तक सीमित नहीं है, हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म से जुड़े हुए लोगों के बीच भी इस किस्म का कुकुरहाव करवाया जाता है, और कई भगवे वहां बैठकर एक-दूसरे से तकरीबन हिंसक असहमति जाहिर करते हैं।
धर्म जिसके मुद्दों पर लंबा शास्त्रार्थ ही किसी बात को साफ कर सकता है, उस पर एक-एक मिनट के टुकड़ों में इस किस्म की मुर्गा लड़ाई सिवाय बदनीयत के और किसी वजह से नहीं करवाई जा सकती। इससे कुछ भी हासिल नहीं होता। जिस तरह किसी नेता के भाषण में से कोई तीन शब्द निकालकर कुछ भी साबित नहीं किया जा सकता, उसी तरह टीवी की ऐसी मुर्गा लड़ाई में धार्मिक मामलों पर बहस में जाने वाले धर्म-प्रतिनिधियों के बारे में ऐसी धारणा रहती है कि कुछ चैनल उनमें से कई लोगों को भाड़े पर बुलाते हैं ताकि एक गैरजरूरी तनातनी खड़ी की जा सके, और चैनल के दर्शक संख्या बढ़ाई जा सके। इसके कोई सुबूत तो होते नहीं हैं, लेकिन चैनलों का ऐसा ही रूख आम होते चल रहा है। अब सवाल यह उठता है कि सडक़ों पर कुत्तों की टोली में जिस तरह की छीनाझपटी होती है, वे लोग एक-दूसरे को काटने के लिए दौड़ते और उलझते हैं, उसी तरह की हरकतें भाड़ा लेकर अगर इंसान कर रहे हैं, तो क्या इससे उनका और उनके धर्म का सम्मान बढ़ रहा है? इससे भी बड़ी बात यह है कि जो दर्शक ऐसे टीवी चैनल देखते हैं, वे इन्हीं हरकतों को बढ़ावा भी देते हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि यह टीआरपी नहीं रहेगी, तो चैनल अगले दिन से कुछ और दिखाने लगेंगे। लेकिन जब तक लोग मनोहर कहानियां जैसी अपराधकथाओं वाली पत्रिकाएं खरीदेंगे, तब तक वह पत्रिका छपती रहेगी।
जब एक से अधिक धर्मों के लोग टीवी पर आपस में उलझते हैं, और बदनाम एंकर उनके बीच नफरत का सैलाब फैलाने की कोशिश करते हैं, तो उस बारे में सुप्रीम कोर्ट भी कई बार कह चुका है कि केन्द्र सरकार ऐसे चैनलों पर क्या कार्रवाई कर रही है, या कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है। कुछ चैनलों के कुछ अधिक जहरीले एंकर-एंकरानियां ऐसे भी रहते हैं जिन्हें हवा में जहर घोलने के लिए भाड़े पर किसी धर्म के हुलिए के लोगों को नहीं बुलाना पड़ता, और जो खुद अकेले भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने की जहरीली गैस फैला सकते हैं, फैलाते रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हेट-स्पीच रोकने और उस पर कार्रवाई करने के लिए एक से अधिक बार जो कड़े हुक्म दिए हैं, उनको टीवी चैनलों, सोशल मीडिया, और मीडिया की बाकी तमाम शक्लों पर भी लागू करना चाहिए। जो लोग किसी धर्म को मानते हैं, उन्हें भी अपने धर्म का चोगा पहनकर चैनलों पर जाने वाले, और मुर्गा लड़ाई करने वाले किरदारों को कोसना चाहिए, और इस बारे में सोशल मीडिया पर खुलकर लिखना चाहिए। एक वक्त अखबारों में पाठकों के पत्र नाम का कॉलम रहता था, और उस वक्त कोई सोशल मीडिया नहीं रहता था, इसलिए उस कॉलम में लोग गंभीरता और ईमानदारी से लिखा करते थे। आज हर किसी के मोबाइल फोन पर कई किस्म सोशल मीडिया अकाऊंट खुले रहते हैं, और बहुत ही कम लोग किसी गंभीरता और ईमानदारी से उस पर लिखते हैं। अगर किसी धर्म के लाखों लोग ऐसे किसी धार्मिक बहुरूपिये के खिलाफ लिखने लगेंगे, तो उन्हें भी समझ आएगा कि भाड़े के बकवासी बनकर चैनलों पर जाना, और एक-दूसरे पर झपटना ठीक नहीं है। इसके अलावा हम यह भी सुझाना चाहते हैं कि जो सामाजिक आंदोलनकारी ऐसे चैनलों पर चाहे कट्टरता पर हमले की नीयत से जाते हों, उन्हें ऐसे चैनलों को साख देना बंद करना चाहिए। जब तक हवा से जहर घटाने के काम में जिम्मेदार लोग नहीं जुटेंगे, तब तक गैरजिम्मेदार लोग सनसनी, उत्तेजना, धर्मान्धता, और कट्टरता फैलाने के लिए यह सिलसिला जारी रखेंगे। (आज यहां पर कुत्तों और मुर्गों की जो मिसाल दी गई है, उसके लिए इन दोनों प्राणियों से क्षमायाचना)
ऑस्ट्रेलिया के एक प्रमुख अखबार ने अपनी एक खबर के लिए ऐतिहासिक माफी मांगी है। इसमें खास बात यह भी है कि यह पौने दो सदी पुरानी खबर है, 1838 की। ऑस्ट्रेलिया में हुआ यह था कि मयाल क्रीक नाम की जगह पर स्थानीय आदिवासी समुदाय के 28 लोगों की बहुत क्रूरता से हत्या कर दी गई थी जिनमें अधिकतर औरत और बच्चे थे। यह अकेला मामला था जिसमें उस वक्त के गोरे शासकों ने आदिवासियों की सामूहिक हत्या पर मुकदमा दर्ज किया था। उस घटना की खबर इस अखबार, द सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड, में भी छपी थी, और अभी इस अखबार ने यह मंजूर किया है कि इसने नस्लवादी विचार रखे थे, और हत्यारों को सजा से बचाने के लिए एक मुहिम चलाई थी जिसमें गलत सूचनाओं का भी इस्तेमाल किया था। यह ऑस्ट्रेलिया का एक सबसे पुराना अखबार है। अब लंबे माफीनामे में इस अखबार ने लिखा है कि उस वक्त उसकी रिपोर्टिंग के वक्त न तो सुबूतों की कमी थी, न ही कोई ठोस शक की गुंजाइश थी, लेकिन अखबार ने ऐसा इसलिए किया था कि हत्यारे गोरे थे और मारे जाने वाले काले थे। शुक्रवार को एक संपादकीय में इस अखबार ने यह कहा कि सच्चाई बताने का उसका लंबा इतिहास है लेकिन मयाल क्रीक के मामले में सच बताने में वह नाकामयाब रहा। उसने इस बात के लिए भी माफी मांगी कि उसने ऐसे लेख भी छापे थे जो लोगों को प्रोत्साहित करते थे कि अगर स्थानीय आदिवासी लोगों से उन्हें खतरा लगे, तो वे उन्हें मार डाले। अखबार ने लिखा कि उस वक्त उसके लिखे हुए से हिंसा को बढ़ावा मिला क्योंकि अखबार ने ऐसी हिंसा को जायज ठहराया था। अभी, 10 जून को मयाल क्रीक नाम के इस जनसंहार की 185वीं बरसी है, इस मौके पर अखबार ने यह माफीनामा छापा है।
ब्रिटेन के एक प्रमुख और प्रतिष्ठित अखबार, द गार्डियन ने हाल ही में इस बात के लिए माफी मांगी थी कि इस अखबार के संस्थापकों के कारोबार में गुलामों का इस्तेमाल होता था, और उनके पूंजीनिवेश से यह अखबार शुरू हुआ था। इसके अलावा भी अमरीका में बड़े-बड़े अखबारों ने पिछले बरसों में सार्वजनिक माफी मांगी है कि नस्लवादी मामलों की रिपोर्टिंग करने में उन्होंने गलतियां की थीं, और वे नाकामयाब रहे थे।
अब इतनी पुरानी गलती या गलत काम पर आज के मालिकों और संपादकों का माफी मांगना कुछ अटपटा भी है क्योंकि हिन्दुस्तान में तो तथाकथित मीडिया में यह मुकाबला ही चल रहा है कि किस तरह अधिक से अधिक नफरत फैलाई जाए। दुनिया के बड़े अखबार डेढ़-दो सौ साल पहले के नस्लभेद को लेकर आज भी माफी मांग रहे हैं, और हिन्दुस्तानी टीवी चैनल और कुछ अखबार लगातार आज साम्प्रदायिक नफरत फैलाने में लगे हैं जो कि भारतीय संदर्भों में पश्चिम के नस्लभेद किस्म की ही चीज है। धर्म के आधार पर बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के लिए भडक़ाना, और नफरत फैलाना आज हिन्दुस्तान के मीडिया के एक बड़े हिस्से का पसंदीदा शगल हो गया है। कल ही एक किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम का एक वीडियो चारों तरफ फैला है कि किस तरह उसके मंच पर आमंत्रित दर्शकों के सामने इस बात पर मुसलमान औरत-मर्दों के बीच बहस करवाई जा रही थी कि मरने के बाद बख्शीश में मिलने वाली 72 हूरों का मामला क्या है। कुरान के अलग-अलग हिस्सों की अलग-अलग व्याख्या करते हुए कई मुल्ला एक-दूसरे से भिड़ रहे थे, और आखिर में बात ऐसी बढ़ गई कि एक वीडियो क्लिप में एक महिला एक मुल्ला को गालियां बकते हुए धक्के मारकर निकाल रही थी। यह भी हो सकता है कि आज से दो सौ बरस बाद हिन्दुस्तान के ऐसे टीवी चैनलों और कुछ अखबारों के मालिकों की 8वीं पीढ़ी अपने पुरखों की करतूतों पर माफी मांगे कि उन्होंने अपनी कमाई बढ़ाने के लिए लोगों के बीच नफरत पैदा की थी, अपनी आत्मा बेच खाई थी। और आज नफरत फैलाने का यह मुकाबला टीवी चैनलों की टीआरपी का मुकाबला बन गया है, और अखबारों का भी एक हिस्सा एक रहस्यमय तरीके से नफरती एजेंडे को बढ़ाने में लग गया है। बहुत से लोगों को इससे हो सकता है कि व्यक्तिगत फायदा भी हो रहा हो, और बहुत से लोगों को यह भी लग रहा होगा कि हिन्दुस्तान में धर्मनिरपेक्षता, सद्भावना, और लोकतंत्र अब इतिहास बन चुके हैं, और आज नदी के बहाव के खिलाफ तैरने के बजाय एक मुर्दे की तरह उसके बहाव के साथ बहना बेहतर है।
हिन्दुस्तान में अखबारनवीसी में आने वाली नई पीढ़ी को देश की सरहद की अधिक फिक्र नहीं करनी चाहिए, और अखबारों के नीति-सिद्धांत की अच्छी मिसालें दुनिया में जहां दिखें, वहां से उनसे सबक लेना चाहिए। कोई-कोई दौर ऐसे भी आते हैं कि लोगों को अपने इर्द-गिर्द अंधेरा ही अंधेरा दिखता है, निराशा ही निराशा दिखती है, ऐसे में लोगों को दुनिया के किसी दूसरे हिस्से में अगर उम्मीद दिख रही है, तो उसे देखकर भी अपनी हिम्मत बढ़ानी चाहिए कि अब दुनिया एक गांव हो गया है, और सरहदें बेमायने हो गई हैं।
अभी ओडिशा में रेल दुर्घटना हुई जिसे लेकर मौजूदा रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव से पिछली एक रेलमंत्री ममता बैनर्जी उलझ गईं। खैर, हादसे का मौका सबसे पहले जिंदगियां बचाने का रहता है, न कि इस बहस को छेडऩे का कि ममता के कार्यकाल में रेलवे में कौन से काम हुए थे जो कि आज तक पूरे नहीं हो पाए, या लागू नहीं हो पाए। दरअसल ममता बैनर्जी की मजबूरी यह भी थी कि वे आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं, और बंगाल के लोग बड़ी संख्या में इस ट्रेन हादसे में मारे गए थे, और जख्मी हुए थे। उन्हें देखने ही ममता ओडिशा के बालासोर में इस हादसे की जगह पहुंची हुई थीं। इसके बाद उन्होंने अपने प्रदेश के लोगों की तसल्ली के लिए यह भी कहा कि इस हादसे में जान गंवाने वाले लोगों के परिवार के सदस्य को सरकारी नौकरी दी जाएगी, और जिन्होंने अपने कोई अंग खो दिए हैं, उन्हें भी सरकारी नौकरी दी जाएगी। सरकारें कई किस्म के हादसों में सरकारी नौकरियां देने की घोषणा करती हैं। दिक्कत यह रहती है कि ये नौकरियां बहुत गिनी-चुनी हैं, और एक-एक नौकरी के लिए लाख-पचास हजार बेरोजगार कतार में लगे हुए हैं, ऐसे में उन्हें समान अवसर मिले बिना जब मुकाबले से परे किसी को नौकरी दी जाती है, तो बेरोजगारों की बारी मार खाती है। फिर यह भी होता है कि किसी खुले मुकाबले में सरकार को सबसे अच्छे लोगों के मिलने की संभावना रहती है, वह भी मुआवजा-नियुक्ति में खत्म हो जाती है।
सरकारें मुआवजों की मुनादी को एक लोक-लुभावनी रणनीति की तरह इस्तेमाल करती हैं। जब परिवारों के सिर पर लाशें पड़ी हैं, अंतिम संस्कार हुआ नहीं है, जख्मियों को सरकार ही अस्पतालों में भर्ती करा रही है, उस वक्त मुआवजे की घोषणा बाकी दुनिया को बताने के लिए रहती है। और खतरनाक बात यह है कि भारत जैसे देश में राष्ट्रीय स्तर की बड़ी दुर्घटना में केन्द्र सरकार अलग मुआवजे की घोषणा करती है, और राज्य सरकारें अपने खजाने से अपनी मर्जी से। नतीजा यह होता है कि अलग-अलग राज्य सरकारें अलग-अलग और समानांतर मुआवजों की घोषणा करती हैं। कई बार राज्यों के विपक्ष सत्ता को चुनौती देते हैं कि एक-एक करोड़ रूपये मुआवजा एक-एक मौत के लिए दिया जाए। इन दिनों करोड़ रूपये के ऐसे नोट की फरमाईश इतनी बढ़ चली है कि सत्ता के लिए कभी-कभी दिक्कत होने लगती है, और फिर जिस तरह चुनावी घोषणापत्रों में मुफ्त या तोहफे देने का मुकाबला होता है, उसी तरह लाशों और बदन के कटे हुए हिस्सों के दाम तय करने का मुकाबला भी होने लगता है। अधिक मुआवजा या राहत राशि देकर सरकार अपने को अधिक बड़ा हमदर्द साबित करती है।
हमारा बड़ा साफ मानना है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मुआवजा और राहत नीति तय होनी चाहिए, और सत्तारूढ़ नेताओं को अपनी मर्जी से इसे कम-ज्यादा करके बुरी मिसालें कायम करने का मौका नहीं देना चाहिए। जो भी खर्च होता है वह जनता के पैसों से ही जाता है, चाहे वह केन्द्र सरकार के खजाने से हो, चाहे वह राज्यों के खजाने से हो, जाता तो दोनों ही जनता की जेब से है। इसलिए मुआवजे और राहत के बारे में वजह और जरूरत इन दो पैमानों पर एक नीति बन जानी चाहिए। किस तरह के हादसों के शिकार किन लोगों को उनकी आय वर्ग के मुताबिक कितनी राहत दी जाए, इसके साफ-साफ पैमाने रहने चाहिए। आज ओलंपिक मैडल से लेकर दूसरी खेल-कामयाबी तक अलग-अलग राज्य अलग-अलग तरह से नगद पुरस्कार की घोषणा करते हैं, और उससे भी कई राज्यों के खिलाडिय़ों में बड़ी निराशा होती है। चूंकि पुरस्कार से लेकर मुआवजा देने तक, या मदद करने तक का हक राज्य और केन्द्र दोनों का है, इसलिए ऐसे बुरे मुकाबले खत्म करने चाहिए, और कम से कम लाशों और जख्मों पर तो एक आम नीति पर सहमति होनी चाहिए।
इससे परे हमारा यह भी मानना है कि सिवाय शहादत के मामलों के, किसी भी और हादसे पर सरकारी नौकरी देने का सिलसिला खत्म होना चाहिए। देश के बेरोजगार वैसे भी निराशा और कुंठा से गुजर रहे हैं, और मुआवजे-राहत के लिए सरकारी नौकरियां देना एक नाजायज काम है। कहीं कोई फौज में, या नक्सल मोर्चे पर, या किसी और हिंसा में ड्यूटी के दौरान शहीद हों, तो एक अलग बात है, वरना सरकारी नौकरियों को अपने जेब के बटुए की नगदी की तरह नहीं बांटना चाहिए।
केन्द्र और राज्य सरकारों को यह भी सोचना चाहिए कि क्या कोई राष्ट्रीय मुआवजा-राहत बीमा योजना लागू हो सकती है जिसके तहत प्राकृतिक विपदाओं से लेकर हादसों तक में किन-किन बातों पर कितनी रकम दी जाए, और उसके लिए क्या कोई बीमा योजना लागू की जा सकती है? आज हिन्दुस्तान में हालत यह है कि वोटरों के जो मजबूत तबके हैं, उनमें से किसी के हादसे के शिकार होने पर आनन-फानन नौकरी या रकम मंजूर हो जाती है, लेकिन जो लोग संगठित नहीं हैं, उन्हें देने की दरियादिली नहीं दिखती। दूसरी बात यह है कि हादसों के शिकार भी अगर संपन्न लोग हो रहे हैं, तो उन्हें सरकार से कोई मुआवजा क्यों मिलना चाहिए जो कि गरीबों के भी हक का रहता है? ऐसी नौबत हर सरकार के सामने हर महीने कई बार आती है, और चूंकि राज्यों की सत्तारूढ़ पार्टियां अलग-अलग हैं, केन्द्र और राज्य के मंत्रियों के विवेक से मंजूर होने वाली मदद अलग-अलग है, इसलिए व्यक्तिगत लगाव या पूर्वाग्रह से भी फैसले होते हैं। यह पूरा सिलसिला गैरबराबरी का है, और जरा भी न्यायसंगत नहीं है। चूंकि हर नेता या सरकार को अपनी मर्जी के फैसले लेना सुहाता है, इसलिए यह सिलसिला खत्म भी नहीं होता। लेकिन जनता के बीच से ऐसी आवाज उठनी चाहिए जो कि नेताओं की मनमानी के खिलाफ हों।
किसी भी देश या अर्थव्यवस्था में महिलाओं के सशक्तिकरण का एक पैमाना उनका कामकाजी होना भी होता है। वैसे तो हर महिला कामकाजी होती है, और घर का काम उसके ही कंधों पर होता है, लेकिन घर के बाहर के कामकाज में महिला की भागीदारी न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था मजबूत करती है, बल्कि वह महिलाओं को अधिक आत्मनिर्भर बनाती है, और उसे जिंदगी के बेहतर फैसले लेने की ताकत देती है। अब इन दिनों एक और सामाजिक पैमाना ऐसा सामने आ रहा है जो महिला सशक्तिकरण का एक अलग किस्म का सुबूत है। हालांकि जुर्म से जुड़े हुए ऐसे पैमाने को कई लोग महिलाओं का अपमान भी मान सकते हैं, लेकिन हमारी ऐसी कोई नीयत नहीं है।
इन दिनों लगातार बहुत सी ऐसी खबरें आती हैं जो बताती हैं कि कोई लडक़ी या महिला किस तरह किसी पुरूष के खिलाफ हिंसा या जुर्म कर सकती है। एक वक्त था जब यह कल्पना नहीं की जाती थी कि भारत जैसे समाज में पत्नी या प्रेमिका अपने साथी पुरूष का कत्ल कर सकती हैं, लेकिन हाल के बरसों में लगातार ऐसी वारदातें बढ़ रही हैं। कई पत्नियां किसी प्रेमी के साथ मिलकर या भाड़े के हत्यारे जुटाकर पति की हत्या कर रही हैं, या पति के साथ मिलकर उस प्रेमी की हत्या कर रही हैं जो उसे ब्लैकमेल कर रहा है, या परेशान करने लगा है। अभी ओडिशा के रेल हादसे के बाद एक अजीब सा मामला सामने आया जिसमें एक महिला अपने पति को ढूंढते पहुंची, और फिर एक लाश की पहचान करके उससे लिपटकर रोती रही। बाद में पुलिस ने जांच की तो उस महिला का दावा झूठा निकला। ऐसा समझ आया कि वह महिला मुआवजा पाने के लिए ऐसा नाटक कर रही थी। उसे पुलिस ने समझा-बुझाकर घर भेज दिया, लेकिन उसकी असली परेशानी तब शुरू हुई जब पिछले तेरह बरस से उससे अलग रह रहे पति को यह पता लगा, और उसने जाकर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि उससे अलग रह रही पत्नी उसे मरा हुआ बताकर 17 लाख रूपए मुआवजा रेलवे से पाने की कोशिश कर रही है।
महिलाओं की अपराध करवाने की क्षमता, उनका हौसला, और आत्मविश्वास भी एक किस्म से उनके सशक्तिकरण का सुबूत है। आज महिलाएं पढ़ाई के लिए, कामकाज के लिए घर के बाहर निकलती हैं, सफर करती हैं, सोशल मीडिया पर लोगों से मिलती हैं, और उनके संपर्क बढ़ते हैं। मोबाइल और दुपहिया के चलते ऐसे संपर्क जिंदा रह पाते हैं, और वे अच्छे कामों के लिए, या बुरे कामों के लिए इनका इस्तेमाल कर सकती हैं। पहले महिला को घर से निकलने, बाहर काम करने, लोगों से दोस्ती रखने की छूट नहीं रहती थी, और आज बदले हुए माहौल ने उसे यह आजादी दी है जिससे उसे अच्छे और बुरे, दोनों किस्म के काम करने की नई ताकत मिली है। पहले जुर्म पर मर्दों का तकरीबन एकाधिकार रहता था, लेकिन अब वह टूट रहा है, और हर किस्म के जुर्म करते हुए महिलाएं भी मिल जाती हैं, जो कि कत्ल जैसे जुर्म के लिए दूसरे लोगों को भी जुटा लेती हैं। इसके लिए जो आत्मविश्वास जरूरी होता है, जितनी संगठन-क्षमता लगती है, वह सब भी एक नई बात है, और हाल के दशकों में वह धीरे-धीरे बढ़ी है। जिस तरह विवाहेत्तर संबंधों में, नशा करने में, कुछ समाजों की कुछ महिलाएं अब मर्दों की बराबरी करने लगी हैं, वैसा ही जुर्म के मामले में भी होने लगा है, और यह महिला के आर्थिक विकास, आत्मनिर्भरता, और आत्मविश्वास से जुड़ा हुआ मामला है।
हिन्दुस्तान में कामकाजी कामगारों में महिलाओं का अनुपात बहुत ही कम है। यह शायद 20 फीसदी के आसपास है। लेकिन पहले अधिकतर कामकाजी महिलाएं अपने खेतों और अपने कुटीर उद्योगों में काम करने वाली रहती थीं, अब वे अधिक नए किस्म के काम भी करने लगी हैं। शहरों में ऑटोरिक्शा और टैक्सी चलाने वाली महिलाएं दिखती ही रहती हैं। खासकर बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा चलाना अधिक आसान काम है, और कई शहरों में महिलाएं बड़ी संख्या में यह काम करते दिख रही हैं। लेकिन महिलाओं के कामकाजी होने से परे, उनमें आत्मविश्वास आना एक अलग किस्म का सामाजिक विकास है जिसे कि न तो आंखों से देखा जा सकता, और न ही जिसे रोजगार या कारोबार के आम पैमानों पर नापा जा सकता। महिलाएं अब पहले की तरह जुल्मों को सहते हुए पड़ी नहीं रहती हैं, वे अब पहले से अधिक मामलों में हिंसा और प्रताडऩा का विरोध करने लगी हैं, वे अब पुलिस तक जाने लगी हैं, अदालत तक पहुंचने लगी हैं, और अत्याचारी पति से परे भी एक भविष्य और जिंदगी देखने लगी हैं। समाज में जब कभी कोई महिला ऐसा आत्मविश्वास दिखाती है, तो वह दूसरी प्रताडि़त महिलाओं में भी एक विश्वास पैदा करती है, बिना कहे महज अपनी मिसाल से। इसलिए महिला का आत्मविश्वास, खासकर जुल्म और जुर्म का विरोध करने का आत्मविश्वास, फिर चाहे वह अहिंसक तरीके से सामने आए, या हिंसक तरीके से, वह बहुत से मर्दों का अहंकार तोड़ता है, और बहुत सी महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा करता है। महिलाएं अगर कोई गलत काम करके भी, एक गलत मिसाल बनकर भी अगर दहशत पैदा कर सकती हैं, तो उससे बहुत से जुल्मी मर्द सहम जाते हैं। इस सिलसिले में फूलन देवी जैसी डकैत ने जो जवाबी हिंसा की थी, और जिस हिंसा के जवाब में उसने बंदूक उठाई थी, उसे भी याद रखना चाहिए।
वैसे तो हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्से में लोगों की सेहत पर इस बात से अधिक फर्क नहीं पड़ता है कि उत्तर-पूर्व में क्या हो रहा है। वहां मणिपुर में कई हफ्तों से जो भयानक हिंसा चल रही है, उसके बारे में जानने में भी देश के बाकी हिस्से के लोगों में दिलचस्पी बहुत कम है। पहले कर्नाटक चुनाव चल रहा था, इसलिए जलते हुए मणिपुर में मौतों की परवाह और तो और, केन्द्र सरकार तक को नहीं थी, लेकिन अभी केन्द्रीय मंत्री अमित शाह मणिपुर जाकर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री के साथ बैठकर वहां तैनात फौज से लंबी बैठकें करके आए हैं, उन्होंने वहां दूसरे तबकों से भी बात की है, लेकिन हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। अब तक सौ से अधिक मौतें हो चुकी हैं।
अमित शाह खुद ही इस बात को मान चुके हैं कि मणिपुर हाईकोर्ट का यह फैसला इस तनाव के लिए जिम्मेदार है कि राज्य सरकार प्रदेश के सवर्ण मैतेई जाति के लोगों को आदिवासी आरक्षण में शामिल करने के लिए सिफारिश केन्द्र सरकार को भेजे। ऐसा कोई फैसला होने से राज्य के आदिवासियों के हक एकदम से मारे जाएंगे क्योंकि अधिक संपन्न, अधिक शिक्षित, शहरी और राजनीतिक ताकतवर मैतेई लोग आरक्षण के सभी फायदों पर काबिज हो जाएंगे। इसके खिलाफ मणिपुर के आदिवासी विरोध पर उतरे हैं, दूसरी तरफ उनके मुकाबले मैदानी इलाकों में बसे मैतेई जुट गए हैं, दोनों तरफ से हिंसा हो रही है, तकरीबन सभी मैतेई हिन्दू हैं, अधिकतर आदिवासी ईसाई हैं, इसलिए इस संघर्ष ने हिन्दू-ईसाई टकराव की शक्ल भी अख्तियार कर ली है। यह मामला आदिवासी-गैरआदिवासी, पहाड़ी-शहरी, और ईसाई-हिन्दू सभी किस्म का हो गया है। बीस हजार सैनिक-सिपाही तैनात हैं, लेकिन जो ताजा हिंसा वहां पर हुई है, वह भयानक नौबत का एक सुबूत है। ताजा खबर बताती है कि वहां विमानों से बीएसएफ के एक हजार और जवान भेजे गए हैं।
आज जिस वजह से महीने भर में तीसरी बार हम मणिपुर पर लिख रहे हैं वह घटना दिल दहलाने वाली है। जिन कुकी आदिवासियों के चर्च-घर जला दिए गए हैं, और जो असम रायफल्स के राहत शिविर में शरण लिए हुए हैं, उन पर मैतेई समाज की भीड़ ने हिंसक हमला किया। इस हमले में एक बच्चा गोली से घायल हो गया था, उसे लेकर एम्बुलेंस पुलिस के घेरे में राजधानी इम्फाल के बड़े अस्पताल जा रही थी। इस दौरान रास्ते में मैतेई समुदाय के करीब दो हजार लोगों की भीड़ ने एम्बुलेंस को घेर लिया और उस पर हमला किया। भीड़ ने एम्बुलेंस को जलाकर राख कर दिया, और उसमें सात बरस का जख्मी बच्चा, उसकी मैतेई-ईसाई मां जिसकी शादी एक कुर्की आदिवासी से हुई थी, और उनके एक मैतेई ईसाई की जलकर मौत हो गई। एम्बुलेंस में कुछ हड्डियां बची मिली हैं। यह घटना ओडिशा में एक ईसाई धर्मप्रचारक ग्राहम स्टेंस को उनके बच्चों सहित कार में जिंदा जला देने की घटना याद दिलाती है। पहले तो असम रायफल्स के कैम्प पर बंदूकों से हमला किया गया जिसमें यह बच्चा गोलियों से घायल हुआ, और उसके बाद अस्पताल ले जाते हुए एम्बुलेंस को घेरा गया, और लोगों सहित जिंदा जला दिया गया। पुलिस ने यह सावधानी बरती थी कि घायल बच्चे के साथ सिर्फ मैतेई समुदाय की उसकी मां और एक रिश्तेदार को ले जाया जाए, क्योंकि उसके कुकी पिता-परिवार के किसी को ले जाना खतरनाक हो सकता था। लेकिन यह सावधानी भी काम नहीं आई, और इस बच्चे को जो कि आधा मैतेई, आधा कुकी था, उसे उसकी मैतेई मां सहित जलाकर मार डाला गया।
यह घटना लाशों की गिनती को तो कुल तीन बढ़ा रही है, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि वहां नफरत कितनी बढ़ चुकी है, लोग किस हद तक हिंसक हो चुके हैं, पुलिस की हिफाजत किस कदर बेअसर हो चुकी है। असम रायफल्स फौज का हिस्सा है, और उसके कैम्प पर हथियारबंद हमला बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की ताकत भी बता रहा है, और उनका हमलावर रूख भी। जाने कितने दिन पहले, शायद हफ्तों पहले यह खबर आई थी कि मणिपुर में दंगाईयों को देखते ही गोली मारने का हुक्म दिया गया है, लेकिन उससे भी हिंसा थमते दिख नहीं रही है। यह मौका केन्द्र सरकार के लिए फिक्र का है, और उसे बहुत कुछ सोचने की जरूरत भी है क्योंकि अमित शाह की भाजपा के ही मुख्यमंत्री मणिपुर पर राज कर रहे हैं, और वहां के आदिवासी समुदाय का यह मानना है कि मुख्यमंत्री ही हिंसा भडक़ा रहे हैं, वे लगातार पिछले बरसों से आदिवासियों के खिलाफ एक अभियान चला रहे थे, और कुछ दिन पहले का एक इंटरव्यू देखें, तो वहां के कुकी आदिवासियों के एक सबसे बड़े नेता ने यह साफ-साफ कहा था कि अब मणिपुर में आदिवासी किसी भी तरह इस राज्य सरकार के मातहत नहीं रह सकते, उन्हें या तो एक अलग केन्द्र प्रशासित प्रदेश बनाया जाए, या किसी और तरह का स्वशासन का दर्जा दिया जाए। यह निराशा इस राज्य के लिए बहुत भारी हो सकती है कि वहां के लोग राज्य सरकार के मातहत रहना नहीं चाहते। यह बात भी समझने की जरूरत है कि मणिपुर की स्थिति देश के नक्शे पर बहुत नाजुक है क्योंकि इसकी लंबी सरहद म्यांमार से मिलती है, और वहां से हथियार और नशे की तस्करी आम बात बताई जाती है। खुद मणिपुर के भीतर आदिवासियों वाले तमाम पहाड़ी इलाकों का अधिकांश हिस्सा न रहने लायक है, न वहां आसानी से पहुंचने के लायक है। ऐसे में आदिवासियों के खिलाफ कोई कार्रवाई अगर केन्द्र और राज्य सरकारें तय करती हैं, तो वे हालात गुरिल्ला युद्ध के होंगे, और वे अंतहीन चल सकते हंै।
फिलहाल हम यहां इसलिए लिख रहे हैं कि बाकी देश भी उत्तर-पूर्व को अपने देश का हिस्सा माने, और उस बारे में फिक्र भी करे।
छत्तीसगढ़ के कांकेर में सरकारी मदद से चलने वाले एक अनाथाश्रम का एक वीडियो सामने आया जिसमें वहां काम करने वाली युवती दो बहुत छोटी बच्चियों को पटक-पटककर मार रही थी। वीडियो पिछले बरस का बताया जा रहा है, और वहां लगे सीसीटीवी कैमरे की इस रिकॉर्डिंग पर राज्य सरकार का महिला और बाल विकास विभाग जांच करके इस मामले को अच्छी तरह दफन कर चुका था, अब फिर यह कब्र फाडक़र निकला है तो हंगामा मचा है। नीचे से ऊपर तक भ्रष्ट इस विभाग के लोगों ने निजी संस्थाओं को ऐसे सेंटर चलाने के लिए अनुदान देने का धंधा बना रखा है, और जिस तरह गौशाला के अनुदान में हिस्सा खाया जाता है, उसी तरह बच्चों से जुड़े हुए अधिकतर ऐसे केन्द्रों में यही तरीका चलता है। यह तो एक वीडियो सुबूत मौजूद है, वरना इसके रहते हुए भी पिछले बरस तो सबने मिलकर यह मामला दफन कर ही दिया था। बच्चों पर हिंसा करने वाली इस युवती पर एफआईआर हुई है, और उसकी गिरफ्तारी हुई है।
छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में कांकेर जिला हाईवे पर है, और यहां जिला मुख्यालय में यह मामला सामने आया है। इससे यह अंदाज लगाया जा सकता है कि प्रमुख सडक़ों से दूर के जो इलाके हैं, वहां पर हालत इसके मुकाबले अधिक बुरी होना तय है क्योंकि वहां मीडिया का भी ऐसा फोकस नहीं रहता है।
अब अगर पुरानी घटनाओं को याद करें तो यही कांकेर है जहां पर दस बरस पहले झलियामारी आदिवासी छात्रावास में 15 नाबालिग बच्चियों के साथ संगठित तरीके से लंबे समय तक बलात्कार का सिलसिला चला। इसमें एक शिक्षाकर्मी और चौकीदार हॉस्टल की महिला वार्डन के साथ मिलकर बच्चियों से बलात्कार करते थे। अदालत से इन तीनों को उम्रकैद हुई थी। अदालत ने इन बच्चियों को एक करोड़ रूपये से अधिक का कुल मुआवजा देने का भी फैसला दिया था। इसके साथ ही शिक्षा विभाग के कुछ और अधिकारियों को पांच-पांच बरस की कैद हुई थी। छत्तीसगढ़ की ही एक दूसरी घटना जो सामने आती है वह उत्तर छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में जशपुर जिले की है, और वहां अभी दो-तीन बरस पहले मूकबधिर बच्चों के एक सरकारी आश्रय केन्द्र में नशे में धुत्त चौकीदार और इंचार्ज ने लड़कियों का पीछा कर-करके, दौड़ा-दौड़ाकर उन्हें दबोचा था। वहां की महिला इंचार्ज ने जब रोकने की कोशिश की, तो इन लोगों ने उसे कमरे में बंद कर दिया था। यह थाने से सौ मीटर की घटना थी, और यौन शोषण की शिकार इन बच्चियों में से एक नाबालिग के साथ बलात्कार भी हुआ था। इस मामले में भी विभाग के लोगों ने सब कुछ दबाने की पूरी कोशिश की थी, लेकिन फिर एक कर्मचारी से यह बात बाहर निकली थी। और उसके बाद एफआईआर हुई।
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जहां पर मीडिया की बड़ी मौजूदगी है वहां भी अगर खुद सरकार के या सरकारी अनुदान से चलने वाले केन्द्रों का यह हाल है, जिला मुख्यालयों में ऐसा हाल है जहां कि कलेक्टर-एसपी बसते हैं, तो फिर बाकी जगहों का हाल तो इससे बहुत अधिक खतरनाक और नाजुक होता होगा। अभी कल छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के एक जज जो कि विधिक सेवा प्राधिकरण के प्रभारी भी हैं, उन्होंने, जस्टिस गौतम भादुड़ी ने पूरे प्रदेश के ऐसे केन्द्रों की जांच करने और उनकी रिपोर्ट भेजने को कहा है। किसी घटना के हो जाने के बाद यही उसका सबसे सही तरीका हो सकता है कि उस तरह के खतरे वाले दूसरे तमाम केन्द्रों की तुरंत जांच करवाई जाए। किसी दुर्घटना या जुर्म को रोकना हर बार मुमकिन नहीं हो पाता, लेकिन उनसे सबक लेना तो किसी भी मामूली समझदार के भी बस की बात रहती है।
हमारा यह भी ख्याल है कि बच्चों के खिलाफ होने वाले किसी भी तरह के जुर्म में बेहतर अफसरों को जांच में लगाना चाहिए, रिपोर्ट पर तुरंत कड़ी अदालती कार्रवाई शुरू होनी चाहिए, और ऐसे लोगों की जमानत आसानी से नहीं होनी चाहिए क्योंकि दिल्ली में अभी बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ्तारी न होने का, और उसके खुले रहने का असर यह देखने मिल रहा है कि शायद वहां नाबालिग महिला पहलवान ने अपनी शिकायत वापिस ले ली है। सरकारी भ्रष्टाचार की कमाई से संपन्न लोग मामले को इसी तरह प्रभावित कर सकते हैं, इसलिए बच्चों के खिलाफ जुर्म के मामलों में जमानत नहीं होनी चाहिए।
हमारा यह भी मानना है कि सिर्फ सरकारी अमला और उसके अनुदान से चलने वाली संस्थाओं के बीच अगर बात सीमित रहेगी, तो वह भ्रष्टाचार की वजह से हर जुर्म को दबा देगी। ऐसे तमाम केन्द्रों में, अनाथाश्रम से लेकर हॉस्टल तक में निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों को भी रखना चाहिए, और वकीलों के संगठन जैसे कुछ संगठनों के पदाधिकारियों को भी रखना चाहिए जो कि कानून का टूटना समझ सकें। छत्तीसगढ़ के लिए यह घटना जिस तरह खबरों में आई है, वह ऐसा मौका लेकर आई है कि राज्य के बाकी सभी केन्द्रों के इंतजाम को सुधार लिया जाए। हाईकोर्ट जज का यह आदेश भी ऐसा मौका दे रहा है, और राज्य में अगर बाकी कलेक्टर-एसपी जिम्मेदार होंगे, बाकी विभागों के प्रमुख और दीगर अफसर जिम्मेदार होंगे, तो वे अपना-अपना घर सुधारने में लग जाएंगे।
आज 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है, और लोग तरह-तरह से इस दिन पर्यावरण के महत्व को याद कर रहे हैं। ऐसे सालाना दिनों पर नसीहत तो तमाम लोग पोस्ट करते हैं, लेकिन उस पर अमल मुश्किल भी होता है, और तकरीबन न के बराबर होता है। सुबह से लोग याद दिला रहे हैं कि किस तरह छत्तीसगढ़ में कोयले की खदानों को और बढ़ाने का काम चल रहा है, किस तरह जंगल खतरे में हैं, और किस तरह तालाब सिमटते जा रहे हैं। दूसरी तरफ कुछ व्यापक पैमानों पर एक अलग फिक्र भी चल रही है कि पर्यावरण को बचाए रखने के लिए जो नई तकनीक इस्तेमाल हो रही है, वह खुद आगे जाकर किस तरह की तकलीफ में बदल जाएगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि इन दिनों बिजली बनाने के एक सबसे अच्छे साधन, सोलर पैनल का इस्तेमाल लगातार बढ़ते चल रहा है, लेकिन इसकी जिंदगी 25 साल या उससे कम है, और जब ये अपनी उम्र पूरी कर चुके रहेंगे, तो इनका क्या होगा? इनमें लगी हुई धातुओं को कैसे री-साइकिल किया जा सकेगा? अच्छी बात यह है कि री-साइकिल करने की टेक्नालॉजी इस्तेमाल होने लगी है, और फ्रांस में ऐसी पहली फैक्ट्री की उम्मीद है कि वह सोलर पैनर के 99 फीसदी हिस्से को फिर से इस्तेमाल के लायक बना सकेगी। इसी किस्म की बात बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों को लेकर है कि कुछ बरस इस्तेमाल के बाद जब वे बैटरियां गाडिय़ों से निकालना पड़ेगा, तब उनका क्या किया जाएगा? उनका एक पहाड़ खड़ा हो जाएगा, और क्या वैसी ही नौबत नहीं आ जाएगी जैसी कि आज बढ़ती हुई गाडिय़ों के टायरों को लेकर आ गई है जिनके पहाड़ खड़े हो रहे हैं। लेकिन इसमें भी एक अच्छी बात यह है कि विज्ञान और टेक्नालॉजी ने खराब हो चुके टायरों के रबर का इस्तेमाल सडक़ बनाने में शुरू कर दिया है, और उससे काफी कुछ निपटारा हो सकता है, या यह भी हो सकता है कि सारे के सारे खराब टायर सडक़ बनाने में खप जाएं। आज की टेक्नालॉजी प्लास्टिक के कचरे का भी सीमेंट प्लांट में, सडक़ बनाने में कर रही है, और इससे भी धरती पर कचरा कुछ घट सकेगा।
विज्ञान और टेक्नालॉजी की कई तरह की खोज, और उनका इस्तेमाल बड़ी उम्मीद भी जगाते हैं। बाजार व्यवस्था बढऩे के साथ-साथ लोगों की खपत भी बढ़ रही है, और कचरा भी बढ़ते चल रहा है। ऐसे में आज पर्यावरण दिवस पर यह सोचने की जरूरत है कि कचरा कम कैसे हो सकता है, और उसका निपटारा कैसे हो सकता है ताकि उसके अधिकतर हिस्से को री-साइकिल किया जा सके। यह काम बहुत उच्च तकनीक की जरूरत का भी नहीं है। जहां कहीं भी स्थानीय संस्थाओं, म्युनिसिपलों को चलाने वाले लोग जागरूक और कल्पनाशील हैं, वहां पर कचरे को उठाने के पहले ही घरों और कारोबारों को नसीहत दी जाती है कि वे अलग-अलग किस्म का कचरा, अलग-अलग करके रखें। और यहीं से भविष्य का बचना शुरू होता है। हमने बड़ी-बड़ी राजधानियों में म्युनिसिपलों की अतिसंपन्नता की वजहों से कचरे को इकट्ठा करने और उसके निपटारे में परले दर्जे की लापरवाही देखी है। नतीजा यह होता है कि कचरे का एक बड़ा हिस्सा कभी निपटाया नहीं जा सकता। दूसरी तरफ छोटे-छोटे शहर भी अगर काबिल और मेहनती अफसरों के हवाले हैं, तो वे वहां नागरिकों को जिम्मेदारी सिखाते हैं, और लोगों के घर-दुकान से अलग-अलग किया हुआ कचरा ही उठाते हैं। दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपल कचरे के निपटारे पर एक रूपया भी खर्च नहीं करते, दूसरी तरफ वे छांटे हुए कचरे को बेचकर कमा भी लेते हैं। बात महज बचत और कमाई की नहीं है, यह धरती की बर्बादी की बचत भी है, और बेहतर पर्यावरण की कमाई की भी है।
सरकारों और स्थानीय संस्थाओं की संपन्नता प्रतिउत्पादक (काउंटर-प्रोडक्टिव) साबित हो रही है। लोगों को अलाल बनाया जा रहा है, लापरवाह बनाया जा रहा है, और अधिक से अधिक सफाई कर्मचारियों और गाडिय़ों को जोतकर यह संस्कृति विकसित की जा रही है कि म्युनिसिपल का काम लोगों को बेहिसाब सहूलियत देना है। इस सिलसिले को तुरंत ही बंद करना चाहिए। भारत सरकार को चाहिए कि ऐसे किसी म्युनिसिपल को कोई भी फंड देना बंद कर दे जो कि कचरा पैदा करने वाले लोगों से ही उसे अलग-अलग जमा करने का काम न करवा रहे हों। यह बड़ा आसान काम है, और प्लास्टिक कचरा अलग, और सडऩे वाला जैविक कचरा अलग करना कोई मुश्किल बात नहीं है। आज चूंकि यह जिम्मेदारी सिखाई नहीं जा रही है, इसलिए लोग लापरवाह होकर तमाम कचरे को एक कर दे रहे हैं, और दुनिया की कोई भी ताकत इसका किफायती निपटारा नहीं कर सकती। पूरे देश में इसके निपटारे को लेकर जिम्मेदारी सिखाना युद्धस्तर पर शुरू होना चाहिए ताकि धरती पर बोझ बढऩा धीमा हो।
दुनिया के विकसित और सभ्य देशों में आधी सदी से कचरे को अलग-अलग डिब्बों में रखने का काम चल रहा है, और लोग ऐसे नियम को मानना पीढिय़ों पहले सीख चुके हैं। हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में लोगों के मिजाज में अराजकता है, और मामूली नियम तोड़े बिना उन्हें खाना नहीं पचता है। यह सिलसिला खत्म करना चाहिए। भारत में ठोस कचरे के निपटारे के बहुत से कामयाब तजुर्बे हैं, भारत सरकार को अलग-अलग शहरों के ऐसे कामयाब अफसरों या निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को इकट्ठा करके उनसे बाकी देश को भी राह दिखलानी चाहिए। पर्यावरण को बचाने और बेहतर बनाने के लिए सौ किस्म की बातें हो सकती हैं, लेकिन जब आम लोगों को जिम्मेदारी सिखाई जाएगी, तो फिर जिम्मेदारी की वह भावना बाकी कई किस्म के सुधार खुद ही कर लेगी।
हिन्दुस्तान में पेशेवर दिखते सोशल मीडिया एक्टिविस्ट लोगों की एक बड़ी फौज ऐसी है जो रात-दिन सिर्फ नफरत फैलाने में लगी है। यह काम करते हुए उसे यह परवाह भी नहीं है कि वह लगातार सुबूत छोड़ते चल रही है, और किसी दिन देश-प्रदेश की सरकार ईमानदारी से कार्रवाई करेगी तो ऐसे लोग लंबी कैद पाएंगे। ताजा मामला परसों रात ओडिशा के बालासोर में हुए ट्रेन हादसे का है। कल जब लाशों की गिनती बढ़ती चल रही थी, उस वक्त भी समर्पित और पेशेवर नफरतियों की यह फौज यह फैलाने में लगी थी कि जहां यह भयानक एक्सीडेंट हुआ है उसके पास एक मस्जिद है, और परसों का दिन शुक्रवार का था, और यह एक्सीडेंट मासूम नहीं था। बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया पर हादसे की तस्वीर के साथ एक इमारत की तरफ तीर का निशान दिखाकर लिखा कि शुक्रवार का दिन है और पड़ोस में मस्जिद है जेहाद करने को ही हाईवे और रेलवे ट्रैक से लगते हुए मुस्लिम कॉलोनी और मस्जिद उगाई जा रही हैं। कुछ ऐसी तस्वीरें भी गढक़र या कहीं से काटकर लगाई गई हैं जिनमें पटरियों पर टायर पड़े दिख रहे हैं, और मस्जिद और जुम्मे का जिक्र करके लिखा जा रहा है कि यह साजिश के तहत किया गया है। बात भयानक है, और जब प्रधानमंत्री कल उस जगह पर जाकर आए हैं, और रेलमंत्री 24 घंटों से वहां डेरा डाले हुए हैं, तो ऐसे आरोपों की जांच होनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा है कि इसके पीछे जो भी जिम्मेदार हैं उन्हें बहुत कड़ी सजा दी जाएगी, इसलिए भी यह जरूरी है कि सोशल मीडिया पर लगे इन आरोपों की जांच की जाए, और अगर ये आरोप सच न निकलें, तो इन्हें लगाने वाले लोगों को सुप्रीम कोर्ट के हुक्म के मुताबिक जेल भेजा जाए। ये आरोप छोटे नहीं है, ये एक धर्मस्थल और एक समुदाय को इतने बड़े हादसे के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
अब हिन्दुस्तान में एक-एक करके बहुत सी ऐसी वेबसाइटें हो गई हैं जो कि फैक्ट चेक का काम करती हैं। जिनका सारा काम ही झूठ को पकडऩे, और साजिश का भांडाफोड़ करने का है। इसमें देश में सबसे आगे ऑल्टन्यूज नाम की वेबसाइट है, और उसकी एक हिन्दू रिपोर्टर ने इन आरोपों की जांच की। उसने एक-एक करके बहुत से ऐसे सोशल मीडिया पोस्ट निकाले जिनमें यह आरोप लगाया गया है कि यह मुसलमानों द्वारा किया गया एक हमला था। बाद में ऑल्टन्यूज ने कुछ दूसरे एंगल से ली गई तस्वीरों को देखा तो उनमें यह ढांचा मस्जिद की जगह मंदिर दिख रहा था। उसके बाद इस वेबसाइट ने दुर्घटना स्थल पर मौजूद एक पत्रकार से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि यह बाहानगा का इस्कॉन मंदिर है, और पांच महीने पहले इसका एक यूट्यूब वीडियो भी पोस्ट किया गया था। इस पत्रकार ने मंदिर तक जाकर वहां से इसी इमारत की बोर्ड सहित एक तस्वीर खींची, और उसे भेजा। जिस ढांचे को नफरतियों ने मस्जिद बताकर मुसलमानों को इस साजिश का जिम्मेदार बताया था, वह ढांचा कई तरह की तस्वीरों और वीडियो से इस्कॉन का मंदिर निकला, और मंदिर के लोगों से संपर्क करने पर उन्होंने भी बताया कि वह मंदिर उसी जगह है जहां बगल की पटरी पर एक्सीडेंट हुआ है, उन्होंने यह भी बताया कि हादसे की जो तस्वीरें चारों तरफ फैली हैं, उनमें जो ढांचा दिख रहा है वह इसी मंदिर का है। ऑल्टन्यूज ने यह भी पाया है कि रेलवे के सूत्रों ने पहली नजर में इसे सिग्नल की एक गलती माना है, और जिस लाईन में मालगाड़ी खड़ी थी, उसी लाईन में कोरोमंडल एक्सप्रेस छोड़ दी गई थी।
अब अगर यह वेबसाइट नफरत की इस साजिश का भांडाफोड़ करने के लिए नहीं रहती, तो जाहिर है कि इस रेल हादसे को मुस्लिमों की साजिश करार दिया गया रहता। आज भी जरूरी नहीं है कि इस झूठ और नफरती साजिश का भांडाफोड़ हो जाने के बाद भी बाकी नफरती लोग चुप बैठ जाएंगे, वे हो सकता है कि इस झूठ को और बढ़ाते चलें, क्योंकि इसके झूठ साबित हो जाने के बाद भी इसे आगे बढ़ाने वाले समर्पित लोग रहेंगे ही। अभी इस पल जब हम इस झूठ के बारे में लिख रहे हैं तब भी लगातार लोग इसे आगे बढ़ा ही रहे होंगे क्योंकि उन्हें मुस्लिमों को बदनाम करना अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा मकसद लग रहा होगा।
चूंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वहां कुछ घंटे गुजारकर आए हैं, और उन्होंने कहा है कि इस दुर्घटना के जो भी जिम्मेदार होंगे, उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी, ऐसे में यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि इस दुर्घटना की झूठी खबरें गढक़र देश में साम्प्रदायिकता और नफरत फैलाने की एक बड़ी साजिश पर भी उन्हें कार्रवाई करनी चाहिए, और सजा दिलवानी चाहिए। इसके बिना हो सकता है कि इस ट्रेन हादसे की तीन सौ के करीब मौतों से कहीं ज्यादा मौतें किसी साम्प्रदायिक घटना में हो जाएं। जिस तरह रेलवे को ट्रेनों की टक्कर रोकने के लिए कवच नाम की एक तकनीक की जरूरत बताई जाती है, उसी तरह देश में समुदायों के बीच जानलेवा टकराव रोकने के लिए भी सद्भाव के एक कवच की जरूरत है, और हिंसक-नफरती लोगों को सजा दिलवाने की जरूरत है। अगर प्रधानमंत्री के स्तर पर एक बार ऐसी कार्रवाई हो जाएगी, तो पूरा देश सुधर जाएगा क्योंकि उन्हें अपने जुर्म के बचाव का भरोसा नहीं रह जाएगा। इससे कम कुछ भी होने पर हिंसा और नफरत का यह सिलसिला चलते ही रहेगा। जिस सुप्रीम कोर्ट ने हेटस्पीच पर पुलिस को खुद होकर जुर्म दर्ज करने कहा है, उसे रोज सुबह ऑल्टन्यूज जैसी दर्जन भर वेबसाइटें देखने के लिए हमारे किस्म का कोई न्यायमित्र नियुक्त कर देना चाहिए जो कि रोज सुप्रीम कोर्ट की तरफ से राज्य सरकारों से जवाब मांगते रहें।
हिन्दुस्तान के ताजा इतिहास का सबसे बुरा रेल हादसा बीती शाम हुआ जब ओडिशा से गुजर रही एक ट्रेन के कई डिब्बे पटरी से उतरे, और वे बगल की पटरी पर जा रही एक दूसरी ट्रेन से जा टकराए, और एक मालगाड़ी इन दोनों से टकराई। नतीजा बहुत ही तकलीफदेह रहा, अब तक 238 मौतों की जानकारी पुख्ता है, और करीब हजार लोग जख्मी हुए हैं। पिछला ऐसा बड़ा हादसा पिछली सदी में 1999 में हुआ था जिसमें 285 लोग मारे गए थे। तब से अब तक इन 25 बरसों में भारत की रेल टेक्नालॉजी में हिफाजत लगातार बढऩे की बात की जाती रही है, और मौजूदा रेलमंत्री ने एक मंच से यह दावा किया था कि भारत की कवच नाम की सुरक्षा तकनीक दुनिया की सबसे अच्छी सुरक्षा तकनीकों के टक्कर की है, और आमने-सामने आती हुई ट्रेनें भी खुद चार सौ मीटर दूर ठहर जाएंगी। उसका वीडियो लोगों ने आज पोस्ट किया है, और रेलमंत्री का यह दावा कल शायद सही साबित नहीं हुआ है।
हम किसी हादसे की प्रारंभिक जांच के भी पहले उसकी जवाबदेही तय करना नहीं चाहते, लेकिन रेलों का जो हाल है वह आम हिन्दुस्तानी के लिए बहुत बड़ी फिक्र का सामान है। लोगों का जीना मुहाल हो गया है, और गरीब ट्रेनों से भी बाहर हो रहे हैं, और रोजगार से भी। कल की दुर्घटना के सिलसिले में इस अखबार ने जनहित के मुद्दों को लेकर अदालत पहुंचने वाले एक प्रमुख वकील सुदीप श्रीवास्तव से बात की, तो उनका कहना था कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से पटरियों का ढांचा कमजोर हो रहा है, और रेल सुरक्षा बहुत बुरी तरह खतरे में आ चुकी है। उनका कहना है कि कई इंजन जोडक़र बड़ी-बड़ी रेलगाडिय़ां एक साथ चलाई जा रही हैं, जो कि पटरियों की क्षमता से अधिक है, और उनमें वक्त के पहले दरार आ रही है। उनसे हुई बातचीत इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर आज हम पोस्ट करेंगे, लेकिन यह बात तो अपनी जगह महीनों से लिखी जा रही है कि किस तरह आम मुसाफिरों को लूटकर सरकार अधिक से अधिक मुनाफाखोरी कर रही है, और छोटे-छोटे स्टेशनों पर रेलगाडिय़ों का रूकना बंद करने से वहां से मजदूरी और रोजगार के लिए आने वाले लोगों की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई है, पढऩे के लिए आने वाले छात्र-छात्राओं को शहरों में ही रहना पड़ रहा है, और वहां पर किराया बढ़ रहा है। रेलगाडिय़ों के बारे में भी लगातार यह छपते रहा है कि मोदी सरकार ने किस तरह भाड़ा बढ़ाया है, तत्काल जैसे नियमों को इस तरह बदला है कि ट्रेन के खाली डिब्बों में भी तत्काल से ही टिकट मिल रही है। अलग-अलग सौ किस्मों से लोगों को लूटा जा रहा है, और इस अंदाज में निजीकरण किया जा रहा है कि स्टेशन, ट्रेन, और कमाई की बाकी सुविधाएं सभी कारोबारियों के हाथ चली जाएं।
हम रेलवे की टेक्नालॉजी के इतने बड़े जानकार नहीं हैं कि हम कल की दुर्घटना के बारे में अधिक अटकल लगा पाएं, लेकिन यह मौका भारत की रेल व्यवस्था के बारे में सोचने का है जहां पर सरकार ने कोयले की आवाजाही को ऐसी प्राथमिकता दे रखी है कि मुसाफिर गाडिय़ां दस-दस, बारह-बारह घंटे लेट होती हैं, स्टेशनों के बाहर खड़ी रहती हैं। ट्रेनों की जगह बताने वाले मोबाइल ऐप ट्रेन शुरू होते ही यह बता देते हैं कि आखिरी स्टेशन तक ट्रेन कितनी लेट होगी, किन स्टेशनों के बीच कितनी लेट होगी। हमें अपनी पूरी याद में पिछले कई दशकों में ट्रेनों की ऐसी बदहाली याद नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ ट्रेनों को ही केन्द्र सरकार ने प्रचार का डिंडोरा पीटने का एक जरिया बना रखा है। प्रधानमंत्री खुद आए दिन कहीं न कहीं वंदे भारत नाम के एक नए ट्रेन-ब्रांड को झंडी दिखाते दिखते हैं। अब आम गाडिय़ों को रद्द कर दिया गया, हजारों स्टेशनों पर रूकना बंद कर दिया गया, आम मुसाफिर डिब्बे घटा दिए गए, कमाई देने वाले एसी डिब्बे बढ़ा दिए गए, और मानो इन तमाम तकलीफों को वंदे भारत नाम की एक दीवार उठाकर ट्रंप विजिट के वक्त अहमदाबाद की गरीब बस्तियों की तरह छुपा दिया गया।
हिन्दुस्तानी रेलगाडिय़ां चौथाई सदी से अधिक से कामयाबी से चल रही थीं, वे बहुत कुछ समय पर चल रही थीं, बिना किसी तामझाम और हंगामे के नई गाडिय़ां समय-समय पर शुरू होती थीं, लेकिन उनके लिए मौजूदा गाडिय़ों को किनारे खड़ा नहीं किया जाता था। आज एशिया का यह सबसे बड़ा उद्योग बहुत बदहाली का शिकार है, और चूंकि यह केन्द्र सरकार का मोनोपोली कारोबार है, इसलिए इसकी बदहाली का कोई इलाज भी नहीं है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, लेकिन यह समझ नहीं पड़ता है कि पहले यह सिलसिला खत्म होगा, या रेलवे पर सरकारी मालिकाना हक। एक-एक करके तमाम चीजों का जब निजीकरण हो जाएगा, तब कारोबारी जनता से और भी मनमानी उगाही करेंगे। सरकार ने जनकल्याण की अपनी जिम्मेदारी वैसे भी छोड़ दी है, ट्रेनों को मुनाफे का जरिया बनाने के लिए तमाम फैसले लिए जा रहे हैं। बुजुर्गों को मिलने वाली रियायत पहले तो लॉकडाउन और कोरोना के खतरे को गिनाकर रोकी गई थी, और फिर उसे पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इसी तरह छोटे स्टेशन, सस्ते डिब्बों के मुसाफिर, छोटी सफर के लोग, इन सबको किस तरह खत्म किया जा सकता है, इस पर सरकार लगी हुई है क्योंकि निजीकरण के लिए सिर्फ मुनाफे वाला हिस्सा बचाकर रखना है। लोगों को इस बारे में हमसे अधिक जानकार लोगों का लिखा हुआ भी पढऩा चाहिए, और अपने अखबार वालों से, अपने निर्वाचित नेताओं से पूछना चाहिए कि वे इन मुद्दों को कितना उठा रहे हैं। लोगों का मानना है कि मायने रखने वाले तमाम लोग अब सिर्फ हवाई सफर करते हैं, इसलिए ट्रेन मुसाफिरों की तकलीफों से सब अपनी नजरें दूर रखते हैं।
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सुनील से सुनें : रेलवे किस तरह, किस हद तक जनविरोधी...
हिन्दुस्तान के रेल हादसों के इतिहास में यह पहला मौका नहीं है कि इतने अधिक लोग मरे हैं, यह एक अलग बात है कि इस सदी में यह सबसे ही बड़ी दुर्घटना है, अब तक 261 मौतों की खबर है। हादसे की खबर के साथ-साथ वे वीडियो भी तैर रहे हैं कि किस तरह रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने यह दावा किया था कि भारतीय रेलवे के पास टक्कर रोकने के लिए कवच नाम की एक ऐसी सुरक्षा प्रणाली है जो कि ट्रेनों को चार सौ मीटर दूर ही रोक देती है। हकीकत यह है कि यह कवच कुल दो फीसदी जगहों पर ही अमल में है, और कल जहां हादसा हुआ वह जगह बिना कवच की थी। इस हादसे के अलावा भी भारतीय रेलवे कौन सी खामियों से गुजर रही है उस पर अदालत में पीआईएल लगाने वाले एक वकील सुदीप श्रीवास्तव से बातचीत में बहुत से मुद्दे सामने आए हैं जिनको सुनना और समझना जरूरी है। इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को सुनें न्यूजरूम से।
गुजरात की खबर है कि एक दलित आदमी को ऊंची कही जाने वाली जाति के कुछ लोगों ने बनासकांठा जिले में पीटा जो कि इस दलित व्यक्ति के अच्छे कपड़े पहनने और धूप का चश्मा लगाने से खफा थे। पुलिस में इस व्यक्ति ने रिपोर्ट लिखाई है कि उसे और उसकी मां को पीटा गया। यह कहा गया कि वह इन दिनों बहुत ऊंचा उड़ रहा है, और उसे कत्ल की धमकी दी। उसी रात राजपूत समुदाय के आधा दर्जन लोगों ने लाठियों से लैस होकर कपड़ों और चश्मे को लेकर उसे गालियां बकीं और उसे पीटा। जब उसकी मां उसे बचाने आई तो उसे भी मारा गया और उसके कपड़े फाड़ दिए गए। अभी तक इसमें कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। दलितों के खिलाफ यह रूख पूरी तरह अनदेखा-अनसुना नहीं है। देश भर में जगह-जगह आज भी दलितों को प्रताडऩा के लायक माना जाता है। सोशल मीडिया पर उत्तरप्रदेश का कहा जा रहा एक ऐसा वीडियो भी तैर रहा है जिसमें किसी सरकारी सर्वे के लिए एक हेडमास्टर किसी घर पहुंचे हैं, और वहां पर ब्राम्हण गृहस्वामी उनके कपड़ों से धोखा खाकर उन्हें पानी के लिए पूछ लेते हैं, और पानी देने पर हेडमास्टर उसे गिलास से पी लेते हैं। इसके बाद जैसे ही ब्राम्हण देवता को पता लगता है कि हेडमास्टर हरिजन है, तो उसे चीख-चिल्लाकर, फटकारकर भगा देता है कि गिलास से पानी पीने की हिम्मत कैसे हुई। अब इस वीडियो की सच्चाई तो अभी सामने नहीं आई है, लेकिन हर कुछ महीनों में कहीं न कहीं से दलितों के खिलाफ जुल्म की खबरें आती ही हैं।
एक तरफ तो हिन्दू समाज अपनी आबादी को बढ़ा-चढ़ाकर बताने पर आमादा रहता है, और गिनती लगाते समय दलितों और आदिवासियों को हिन्दुओं में गिना जाता है, दूसरी तरफ दलितों से बर्ताव ऐसा होता है कि वे हिन्दू धर्म छोडक़र दूसरे धर्मों में जा रहे हैं, हर बरस दसियों लाख लोग हिन्दू धर्म छोड़ रहे हैं, लेकिन यह धर्म अपने शूद्रों के साथ बर्ताव नहीं सुधार रहा। अब तो देश का कानून इतना कड़ा हो गया है, और जगह-जगह एसटी-एससी एक्ट के तहत कार्रवाई भी हो जाती है, इसलिए दलितों पर हिंसा अब उतनी खुलकर नहीं होती, लेकिन दलित अपने ध्रुवीकरण को खो भी बैठे हैं। अब दलितों की किसी पार्टी के रूप में मायावती की बसपा अपनी ताकत खो बैठी है, मायावती जुबान खो बैठी हैं, और जिस उत्तर भारत में एक वक्त बसपा का सिक्का चलता था, आज दलितों के पास वहां कोई राजनीतिक पसंद नहीं रह गई है। मायावती अपने ही कई किस्म के गलत कामों में उलझकर रह गई हैं, और पिछले चुनावों में उन्होंने तकरीबन घर बैठने का काम किया है। लेकिन उनकी कुनबापरस्त पार्टी किसी और दलित पार्टी के लिए जगह भी खाली नहीं कर रही है। लोगों को याद होगा कि एक वक्त कांग्रेस दलितों की पसंदीदा पार्टी होती थी, लेकिन फिर जब दलितों की अपनी पार्टी बन गई, उसने जोर पकड़ लिया, तो दलितों ने हाथ का हाथ छोड़ दिया।
हिन्दुस्तानी राजनीति में जिस जाति के संगठनों की ताकत है, सरकारों की नजरों में उन्हीं का महत्व है। दलित जब कई पार्टियों के बीच बंट जाते हैं, तो वे एक जाति या समुदाय के रूप में अपना वजन खो बैठते हैं। आज हिन्दुस्तान में नौबत यही है। और तो और जिस महाराष्ट्र में अंबेडकरवादी दलित लोगों की बड़ी संख्या है, वहां भी उनके वोट बाकी चार प्रमुख पार्टियों के बीच भी बंटते हैं, और इसीलिए दलितों को वहां जायज राजनीतिक हक नहीं मिल पाता। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही देखने मिलता है। हिन्दीभाषी प्रदेशों और पंजाब जैसे कुछ दूसरे राज्यों में भी बसपा की एक संभावना थी, लेकिन वह अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है। अब बसपा का अस्तित्व बहुत तेजी से खत्म होना जरूरी है ताकि उसका कोई विकल्प सामने आ सके, और यह काम भी बड़ी तेज रफ्तार से होने का नहीं है, इसमें भी कुछ चुनाव निकल जाएंगे।
हिन्दुस्तान की चुनावी राजनीति में जातियों का दबदबा ऐसा है कि आज तमाम प्रदेशों में ओबीसी सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है क्योंकि इनका आबादी में अनुपात भी काफी है, और ये बड़ी तेजी से राजनीतिक ध्रुवीकरण करते हैं। यूपी-बिहार के अलावा छत्तीसगढ़ भी इसकी एक बड़ी मिसाल है कि अब यहां कांग्रेस और भाजपा दोनों बड़ी पार्टियां ओबीसी के अलावा कुछ नहीं सोच पा रही हैं। किसी पार्टी पदाधिकारी या सत्ता के किसी को हटाने की बात हो, तो ओबीसी की जगह सिर्फ ओबीसी नाम पर चर्चा होती है, और वैसा ही मनोनयन होता है। बिहार में जाति जनगणना के पीछे ओबीसी ही सबसे बड़ा मुद्दा है, और आज भारत की चुनावी राजनीति का पूरी तरह से ओबीसीकरण हो गया है। एक वक्त था जब दलितों पर जुल्म के मामले सामने आते थे तो सरकारें हिल जाती थीं। अब वह सिलसिला खत्म हो गया है। अब दलित हो या आदिवासी उन पर जुल्म से सरकारों की सेहत पर पहले सरीखा फर्क नहीं पड़ता। कई जगहों पर तो यह भी देखने में मिलता है कि प्रदेश में ताकतवर दो या तीन बड़ी पार्टियां, सभी के रूख इन तबकों के लिए एक सरीखे रहते हैं, और सभी बेफिक्र रहती हैं कि दलित-आदिवासी जाएंगे तो जाएंगे कहां?
इसलिए भारत में दलितों पर जुल्म की घटनाओं को सिर्फ पुलिस के नजरिये से नहीं देखा जा सकता, और न ही इन्हें सिर्फ पुरानी वर्ण व्यवस्था के आधार पर देखा जा सकता है। आज जब तक किसी राजनीतिक दल को दलितों के ध्रुवीकरण का खतरा नहीं दिखेगा, सत्ता या प्रतिपक्ष इनके मुद्दों के प्रति बेपरवाह बने रहेंगे। आज देश में दलितों का किसी बैनरतले एक होना जरूरी है, और ऐसा होते ही सरकारों और पार्टियों का रूख उनके प्रति बदल जाएगा।
कश्मीर और केरल पर फिल्में आ जाने के बाद देश के इतिहास और वर्तमान को तोड़-मरोडक़र पेश करने का सिलसिला थमा नहीं है। गांधी और गोडसे पर बदनीयत से कुछ फिल्में बनाई गई हैं, कुछ बनाई जा रही हैं। ताजा मामला सावरकर पर बनी एक फिल्म का है जिसमें बॉलीवुड के एक चर्चित कलाकार ने सावरकर का किरदार किया है। इस कलाकार ने फिल्म के प्रचार के लिए ट्विटर पर लिखा कि सावरकर अंग्रेजी राज के सबसे अधिक तलाशे जाने वाले हिंदुस्तानी थे, और वे नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, और खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों की प्रेरणा थे। अब भगत सिंह और खुदीराम बोस के कोई संबंधी शायद इस झूठ के खिलाफ बोलने मौजूद न हों, लेकिन नेताजी के पड़पोते ने इस बात को झूठ करार दिया है और कहा है कि उनके परदाता सावरकर से नहीं, विवेकानंद से प्रेरित थे। चंद्रकुमार बोस ने इस बात को भी गलत बताया कि सावरकर पर बन रही फिल्म में दूसरे क्रांतिकारियों की कहानी बताई जा रही है, और उन्हें सावरकर से प्रेरित बताया जा रहा है। चंद्रकुमार बोस ने कहा कि सावरकर की सोच और उनके विचार सभी से अलग थे, सावरकर हिंदुत्ववादी सोच के समर्थक थे, और हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे, लेकिन नेताजी हिंदू महासभा के खिलाफ थे। उन्होंने कहा कि नेताजी धर्मनिरपेक्षता पर भरोसा रखते थे, और उन्होंने विवेकानंद को अपना गुरू माना था। उन्होंने कहा कि अगर सावरकर की इज्जत करनी है, तो उसके लिए इतिहास के साथ खिलवाड़ मत कीजिए। उन्होंने यह भी लिखा कि अंग्रेज सरकार की नजर में नेताजी मोस्ट वांटेड थे, और वे अकेले ऐसे प्रमुख नेता थे जिनके खिलाफ अंग्रेज सरकार ने देखते ही गोली मारने का हुक्म जारी किया था।
दरअसल आज हिंदुस्तान जिस दौर से गुजर रहा है उसमें फिल्में तो दूर रहीं, स्कूल-कॉलेज की किताबों को भी बदला जा रहा है, और इतिहास के बहुत से अध्याय मिटाए जा रहे हैं। हमने कुछ समय पहले लिखा भी था कि जो लोग कोई इतिहास लिखने लायक नहीं रहते हैं, वे असल इतिहास को मिटाने का काम तो कर ही सकते हैं। ऐसे लोग पेंसिल की तो नोंक भी नहीं करते, और पीछे लगे रबर से दूसरों का लिखा मिटाते जरूर हैं। आज हिंदुस्तान में हकीकत को झूठ के साथ मिलाकर फिल्में बनाई जा रही हैं, जिनमें अदालती दखल के बाद जोड़ा जा रहा है कि वे हकीकत नहीं हैं, काल्पनिक कहानी हैं, लेकिन देश का एक बड़ा राजनीतिक तबका ऐसी कहानी को असल इतिहास साबित करने के लिए झोंक दिया जा रहा है। जब लाखों लोग रात-दिन इसे सच साबित करने पर उतारू हो जाते हैं, तो करोड़ों लोगों को वह सच ही लगने लगता है, उसमें काल्पनिक कुछ नहीं रह जाता। एक के बाद एक फिल्मों को बनाकर, उनका चुनावी, राजनीतिक, साम्प्रदायिक, और नफरती-हिंसक इस्तेमाल करके इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जहर घोला जा रहा है। सावरकर क्या थे, इसे अगर इतिहास के एक छोटे हिस्से को ही दिखाकर, और बाकी की हकीकत को छुपाकर कोई उन्हें हीरो दिखाना चाहते हैं, तो भी ठीक है, लेकिन जिस भगत सिंह ने सबसे बहादूरी से फांसी के फंदे को चूमा, उस भगत सिंह को माफी मांगने वाले सावरकर का प्रेरणास्रोत बताया जा रहा है, तो यह केंद्र सरकार के लिए कानूनी कार्रवाई करने का सामान है। भगत सिंह के नाम के साथ सावरकर का नाम लेना भी एक खराब बात होगी, और अगर सावरकर को भगत सिंह का प्रेरणास्रोत बताया जा रहा है तो केंद्र सरकार तुरंत इस पर कार्रवाई करे। यह मांग उठाने के साथ ही हम जानते हैं कि यह कचरे की टोकरी के लायक मानी जाएगी क्योंकि आज की केंद्र सरकार ऐसी तमाम राजनीतिक कोशिशों की हिमायती दिख रही है, और तरह-तरह से हिंदुत्व के प्रतीकों को हर किस्म के क्रांतिकारियों के ऊपर दिखाया जा रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। इस देश के आम लोग भी ऐसी हरकत के खिलाफ जनहित याचिका लेकर अदालत जा सकते हैं। भगत सिंह के इतिहासकार प्रोफेसर चमन लाल अभी जिंदा हैं, और हम इंतजार कर रहे हैं कि वे इस फिल्म के इस दावे के खिलाफ ऐतिहासिक तथ्य सामने रखेंगे। नेताजी की तरफ से उनका परिवार सामने आया है, और उन्हें भी अदालत जाना चाहिए।
वकीलों के एक संगठन, बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है कि किसी भी रिटायर्ड जज को कार्यकाल खत्म होने के दो साल बाद तक किसी तरह की राजनीतिक नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। यह याचिका कुछ मिसालों के साथ लगाई गई है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे हुए मोहम्मद हिदायतुल्ला ने रिटायरमेंट के दस साल बाद उपराष्ट्रपति बनना मंजूर किया, इसके पहले तक वे तमाम प्रस्तावों को मना करते रहे। वकीलों के संगठन ने कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ऐसी रोक लगाना जरूरी है क्योंकि अगर कम से कम से दो साल का ऐसा प्रतिबंध नहीं रहेगा तो कोई भी जज सरकारी ओहदे की चाह में सरकार की पसंद के फैसले देने से नहीं हिचकेंगे। यह पिटीशन ऐसे वक्त आई है जब एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राममंदिर के फैसले के चार महीने बाद ही राज्यसभा भेज दिए गए, और इसी बेंच के एक दूसरे जज को रिटायर होने के एक माह बाद ही आंध्र का राज्यपाल बना दिया गया। ये दूसरे जज, जस्टिस एस अब्दुल नजीर नोटबंदी के खिलाफ दायर तमाम याचिकाओं को खारिज करने वाली बेंच में भी थे। मोदी सरकार ने इनके अलावा भी रिटायर्ड जजों को राज्यपाल बनाया और दूसरी जगह भेजा।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से हितों के ऐसे टकराव के खिलाफ लिखते चले आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने अपने स्तर पर भी ऐसे इंतजाम कर रखे हैं कि देश के बहुत से संवैधानिक पदों पर, और कानूनी जरूरतों वाले दूसरे पदों पर रिटायर्ड जजों को ही रखा जा सकता है। ऐसे दर्जनों ओहदे हैं, और अधिकतर जज रिटायर होने के बाद भी इन कुर्सियों पर कानूनी जानकारी वाले कामों पर रखे जाते हैं। लेकिन उपराष्ट्रपति बनाना, राज्यपाल या राज्यसभा सदस्य बनाना इसके लिए किसी का रिटायर्ड जज होना जरूरी नहीं रहता, और ऐसे में जजों को इन जगहों पर लेकर आना एक खतरनाक सिलसिला है।
यह बात सिर्फ रिटायर्ड जजों पर लागू नहीं होती है। रिटायर्ड अफसरों पर भी लागू होती है जो कि अपने राज्यों में सरकार को खुश रखते हैं, और कार्यकाल पूरा होने के बाद वृद्धावस्था पुनर्वास की तरह कोई न कोई ओहदा पा जाते हैं, और भारी महत्व, भारी मेहनताने, और भारी सहूलियतों के कई साल गुजारते हैं। ऐसे अफसर अपनी नौकरी के आखिरी बरसों में सत्ता को खुश करने में लगे रहते हैं ताकि उन्हें रिटायर होते ही कोई न कोई काम मिले। कई अफसर तो सत्ता के ऐसे चहेते बन जाते हैं कि वे वृद्धावस्था पुनर्वास भी एक के बाद एक कई तरह के पाते रहते हैं। यह एक सीधे-सीधे लेनदेन का मामला रहता है, और हम इसका विरोध लंबे समय से कर रहे हैं। अगर प्रदेश के कुछ संवैधानिक ओहदों पर कुछ खास किस्म के तजुर्बे वाले रिटायर्ड जजों और अफसरों को रखना ही है, तो उन्हें दूसरे प्रदेशों से लाना चाहिए, न कि ठकुरसुहाती के फैसले देने वाले, काम करने वाले उसी प्रदेश के जजों और अफसरों को रखना चाहिए। इसके लिए जरूरत हो तो पूरे देश में एक टेलेंटपूल बनाया जा सकता है, और राज्य उसमें से बाहरी लोगों को छांट सकते हैं। आज सत्ता की मेहरबानी इस तरह हावी रहती है कि ऐसे ओहदों पर आने के बाद भी ये लोग सत्ता की पसंद के खिलाफ का कोई काम नहीं करते। हितों के टकराव का यह मामला भ्रष्ट आचरण से कम कुछ नहीं है। इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। हम लगातार यह मांग उठाते रहे हैं, और अब जजों तक सीमित ऐसी एक याचिका वकीलों के संगठन ने लगाई है, जिसे जनहित में मंजूर किया जाना चाहिए।
बहुत किस्म की ऐसी सरकारी नौकरियां रहती हैं जिनमें रिटायर होने के कुछ बरस बाद तक कोई दूसरी नौकरी नहीं की जा सकती। यह तो एक सामान्य समझबूझ की बात है कि रिटायर्ड फौजी अगले ही दिन से किसी हथियार कंपनी की नौकरी करने लगे, तो उसमें एक सीधा खतरा यह रहेगा कि फौज में रहते हुए उसने इस कंपनी के लिए कारोबार की जगह बनाकर छोड़ी होगी। चूंकि न्यायपालिका एक अलग किस्म का सम्मान चाहती है, और अपने-आपको अवमानना के सामंती कानूनों के घेरे में महफूज भी रखती है, इसलिए उसे तो संदेहों से और भी परे रहना चाहिए। पूरे देश में हितों के टकराव पर एक व्यापक फैसला आना चाहिए जो कि जजों और अफसरों पर बराबरी से लागू होता हो, और सार्वजनिक जीवन से भ्रष्ट आचरण और संदेह दोनों को खत्म कर सके।
दिल्ली में अभी एक बस्ती की गली में लोगों की आवाजाही के बीच एक नौजवान ने नाबालिग दोस्त लडक़ी की जिस तरह चाकू भोंक-भोंककर हत्या कर दी, उसका सीसीटीवी वीडियो बहुत भयानक है। अपनी प्रेमिका को इस अंदाज में मारना, और मारते ही चले जाना, और चाकुओं के वार से परे बड़ा सा पत्थर उठाकर उसके सिर पर और पटक देना हिंसा के दर्जे को बताता है। लेकिन अपनी प्रेमिका के लिए यह नौजवान जितना हिंसक था, उतने ही बेअसर अगल-बगल खड़े हुए लोग, बगल से गुजर रहे लोग भी थे। इस तरह की हिंसा हो रही थी कि बदन से चाकू निकाल-निकालकर यह लडक़ा वापिस घोंप रहा था, और दो-चार फीट की दूरी से लोग गुजर रहे थे, खड़े होकर देख रहे थे, और दूर हट जा रहे थे। जाहिर है कि उस जगह पर बड़े-बड़े कई पत्थर पड़े थे, और नहीं तो कम से कम कोई पत्थर उठाकर इस हत्यारे को मार सकता था, जख्मी कर सकता था, लेकिन एक भी व्यक्ति ने यह जहमत नहीं उठाई। यह देश की राजधानी दिल्ली में दिनदहाड़े खुली सडक़ का हाल है तो दूरदराज देश में दूसरी जगहों पर कानून के राज और लोगों की सामाजिक जवाबदेही का क्या हाल होगा यह अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। एक सिरफिरे और हिंसक नौजवान की प्रेम में निराशा से उपजी हिंसा तो समझ में आती है, लेकिन ऐसी हिंसा के गवाह बने हुए बाकी लोगों की उदासीनता समझ नहीं आती है। आबादी का ऐसा ही हिस्सा मोहब्बत के खिलाफ झंडे-डंडे लेकर वेलेंटाइन डे पर निकल पड़ता है, बाग-बगीचों में लडक़े-लड़कियों को पकडक़र पीटने लगता है, उन्हें धमकी देने लगता है, और राखी बंधवाने लगता है, लेकिन जब उनकी आंखों के सामने, कुछ फीट दूरी पर इतने भयानक तरीके से कत्ल होते रहता है, तो किसी की सामाजिक जागरूकता जागती नहीं रहती है, वह मौके से हट जाने में ही अपनी हिफाजत देखती है। समाज नाम की यह व्यवस्था एकदम से गायब हो जाती है, और एक कमउम्र लडक़ी को एक हिंसक हत्यारे के हाथ अकेले छोड़ देती है।
अब इस घटना के कुछ दूसरे पहलुओं पर भी सोचना जरूरी है। हत्यारा लडक़ा 20 बरस का एक मुसलमान मैकेनिक है, और लडक़ी 16 बरस की एक हिन्दू राजमिस्त्री की बेटी है जो पढ़-लिखकर वकील बनना चाहती थी। लडक़ी के परिवार का कहना है कि उन्हें इस प्रेम-संबंध के बारे में कुछ नहीं मालूम था। लडक़े ने बयान दिया है कि लडक़ी दो साल से उसके साथ प्रेम में थी, और अब उसे छोडक़र अपने पुराने प्रेमी के पास लौटना चाहती थी, इसलिए उसने उसे मार डाला, और उसे इसका कोई अफसोस भी नहीं है। अब सोचने की बहुत सारी बातों में एक यह भी है कि अगर 14 बरस की उम्र के पहले भी इस लडक़ी का कोई प्रेमी था, तो परिवार और समाज ने लड़कियों को प्रेम-संबंधों में जिम्मेदारी रखने की सीख नहीं दी थी। दूसरी बात यह भी है कि इस उम्र के प्रेम-संबंध न धर्म देखते न जाति देखते, न खानपान देखते। लेकिन अगर प्रेम-संबंधों को आगे बढक़र शादी में तब्दील होना है, तो उस वक्त ये सारी बातें मायने रखती हैं। धर्म और जाति के साथ पारिवारिक रहन-सहन, रीति-रिवाज, और संस्कार जुड़े रहते हैं, खानपान जुड़े रहता है, उस धर्म या जाति से जुड़े हुए कानून जुड़े रहते हैं। बात सिर्फ हिन्दू और मुस्लिम धर्मों की नहीं है, हिन्दू धर्म के भीतर भी अलग-अलग जातियों के अलग-अलग कानूनी दर्जे हैं, और ऐसे प्रेम-संबंधों में कई बार उनसे जुड़े हुए कानूनों का भी इस्तेमाल होता है। लडक़े-लड़कियां इस देश में प्रेम और देह-संबंध की उम्र और हालत में पहुंच जाते हैं, लेकिन वे दिमागी रूप से इसके लिए तैयार नहीं किए जाते कि ऐसी नौबत में उन्हें कैसी समझ का इस्तेमाल करना चाहिए। न सिर्फ देह-संबंधों में, बल्कि भावनाओं के मामले में भी, और भविष्य के लिए फैसले लेने में भी उन्हें तैयार नहीं किया जाता। न मां-बाप कुछ सिखाते, और न ही स्कूल-कॉलेज में इसकी कोई गुंजाइश रहती। इन सबसे परे जो सीख बाजार में मौजूद रहती है, वह बहुत ही घटिया किस्म की रहती है। सेक्स शिक्षा के नाम पर पोर्नो, प्रेम के नाम पर सतही कहानियां, और भविष्य के नाम पर पूरी तरह अनजान नौबत रहती है।
दूसरी तरफ ऐसी हिंसा में लडक़ों के दिमाग में अपने बचपन से छाई हुई एक मर्दानगी रहती है जो कि घर पर मां और बहन को दूसरे दर्जे की नागरिक की तरह देखते हुए पनपी रहती है। जब घर की महिलाओं को कभी बराबरी का दर्जा मिलते नहीं दिखता, तब मर्दानगी की यही सोच इन लडक़ों के दिमाग में गहरे पैठ जाती है, और हिंसा की तरफ ले जाती है। वे किसी लडक़ी या महिला से ना सुनने के आदी नहीं रहते, और ऐसी नौबत आने पर वे तेजी से हिंसक हो जाते हैं। उन्हें अपने तौर-तरीके कुछ नहीं लगते, लेकिन वे लडक़ी या महिला से वफादारी की हर उम्मीद रखते हैं, उनसे एक गुलाम की तरह रहने की उम्मीद भी करते हैं। इसलिए जगह-जगह होने वाली हिंसा में अधिकतर ऐसी रहती हैं जिनमें हिन्दुस्तानी मर्द या लडक़े ही औरत या लडक़ी पर ज्यादती करते दिखते हैं।
हिन्दुस्तान में औरत-मर्द के बीच सामाजिक दर्जे में इतनी गहरी और चौड़ी खाई खुदी हुई है कि छोटे-छोटे लडक़े भी लड़कियों को बराबरी देने के बारे में नहीं सोच पाते, और संसद चलाने वाले बड़े-बड़े बुजुर्ग नेता तो कभी भी महिला आरक्षण के बारे में सोचना नहीं चाहते। देश की पूरी सोच मर्दानगी की शिकार है, मर्द इस सोच के शिकार हैं, और महिलाएं इसकी हिंसा की शिकार हैं। आज लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ होने वाले अधिकतर हिंसक जुर्म रोके जाने लायक इसलिए नहीं हैं कि देश की मानसिकता को रातों-रात बदलना मुमकिन नहीं है। और रातों-रात की बात क्यों करें, इसे बदलने के बारे में सोचा भी नहीं जा रहा है। कुछ महिला संगठन, और कुछ राजनीतिक चेतनासंपन्न लोग जरूर महिलाओं के हक की बात करते हैं, लेकिन असल जमीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता है। यह हिंसा बर्ताव में तो बहुत बाद में आती है, लेकिन औरत-मर्द की गैरबराबरी की शक्ल में वह बचपन से ही दिमाग में बैठी रहती है, और इस हिंसा का खात्मा उस उम्र से ही सोच बदलने से ही हो सकता है।
ब्राजील में महीने भर से एक वीडियो गेम चल रहा था जो 17वीं सदी में वहां प्रचलित गुलाम प्रथा पर बना हुआ था। गूगल प्ले पर मौजूद यह गेम स्लेवरी-सिमुलेटर नाम का था जो खेलने वालों को यह छूट देता था कि वे खेल में गुलाम खरीदें, बेचें, उनको सजा दें, या उनके साथ सेक्स करें। यह खिलाडिय़ों को दो में से एक रास्ता चुनने का मौका देता था कि वे या तो गुलामी को खत्म करने वाले बनें, या फिर पैसे वाले, गुलामों के मालिक बनें। इसके खिलाफ चारों तरफ से शिकायतें हुई थीं और लोगों ने कहा था कि यह उस देश में अकल्पनीय है जहां पर कि रंगभेद एक जुर्म है, और जो देश गुलामी के जख्मों से गुजरा है वहां पर कोई डिजिटल प्लेटफार्म इस तरह का भयानक हिंसक और अमानवीय खेल बना सकता है! वहां की संसद में बहस के दौरान एक सांसद ने कहा कि नौजवान और किशोर ही आमतौर पर खेल खेलते हैं, और उनके बीच गुलामी की हिंसा पर आधारित ऐसे खेल को रखने की बात सोची भी कैसे गई होगी? गूगल के खिलाफ यह शिकायत भी हुई कि उसने ब्राजील के एक कानून को तोड़ा है जो कि किसी भी तरह के रंगभेद के खिलाफ है, और यह खेल काले गुलामों को खरीदने-बेचने और उन्हें सेक्स जैसी कई किस्म की सजा देने का खेल था। इस सांसद ने सरकारी एजेंसियों को इस बात की जांच करने के लिए भी कहा है कि गूगल प्ले पर जिन लोगों ने इस गेम के रिव्यू में लिखा है कि वे असल जिंदगी में भी ऐसा करना चाहेंगे, उन लोगों की जांच होनी चाहिए। एक व्यक्ति ने तो यह तक लिखा था कि यह वक्त गुजारने के लिए शानदार खेल है, लेकिन इसमें और अधिक प्रताडऩा देने के विकल्प जोडऩे चाहिए, जैसे किसी गुलाम को कोड़ों से मारना। ब्राजील की सरकार ने इस गेम की जांच शुरू कर दी है, लेकिन इसे हटाए जाने के पहले तक इसे हजारों लोग डाउनलोड कर चुके थे। यह खेल खिलाडिय़ों को सुरक्षा कर्मचारी रखकर गुलामों को भागने से रोकने का विकल्प भी देता था। इसमें गुलामों के मालिक गोरे दिखाए गए थे, और काले गुलामों को सलाखों के पीछे या जंजीरों में कैद दिखाया गया था।
दुनिया की बड़ी-बड़ी डिजिटल कंपनियों पर विकसित देशों की सरकारें और संसद अपने कामकाज को सुधारने के लिए, उन पर से हिंसा और नफरत को दूर करने के लिए तरह-तरह के प्रतिबंध लगा रही हैं, फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग को अमरीकी संसद की सुनवाई में कई बार पेश होना पड़ा है, और सांसदों ने उनसे यह साफ कर दिया है कि फेसबुक से आपत्तिजनक सामग्री हटाने के लिए वो जो कर रहे हैं, वह काफी नहीं है। दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जुर्माने लग रहे हैं, और गूगल या माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों को बहुत सी जगहों पर तरह-तरह के प्रतिबंध झेलने पड़ रहे हैं। लेकिन अधिक जागरूक सरकारों का यह मानना है कि ये कंपनियां मुनाफा कमाने में इतनी डूबी हुई हैं कि ये अपने प्लेटफॉर्म से नफरत और हिंसा, झूठ और धमकियों को हटाने के लिए पर्याप्त कोशिशें नहीं कर रही हैं। हिन्दुस्तान में तो हम रात-दिन यही देखते हैं कि फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर बेकाबू हिंसा बेकसूरों के खिलाफ अभियान चलाती रहती है, और ऐसे हिंसक लोगों पर कोई रोक-टोक नहीं है। हिन्दुस्तान का आईटी कानून वैसे तो जरूरत से अधिक मजबूत है, लेकिन सरकारें इसका इस्तेमाल अपनी राजनीतिक सोच के मुताबित करती हैं, और सरकार को नापसंद लोगों के खिलाफ हिंसा का सैलाब भी अनदेखा किया जाता है, और बेकसूर लोगों को किस तरह प्रताडि़त किया जाता है यह अभी-अभी ऑल्टन्यूज के मोहम्मद जुबैर के केस में दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने साफ किया है।
लेकिन आज 21वीं सदी में अगर दुनिया की कोई गेम कंपनी ऐसा गेम बनाने का सोचती भी है जो गुलामों को खरीदने-बेचने और उनसे हिंसा करने, उनसे सेक्स करने, उन्हें प्रताडि़त करने का खेल है, तो इस पर महज प्रतिबंध लगाना काफी नहीं है बल्कि ऐसी कंपनी पर अंतरराष्ट्रीय अदालतों में मुकदमा भी चलना चाहिए, और उनका दीवाला निकल जाने की हद तक उन पर जुर्माना भी लगना चाहिए। 20-25 बरस पहले तक दुनिया की सबसे मशहूर ईमेल वाली कंपनियों ने अपने प्लेटफॉर्म पर ऐसे चैटरूम को भी धड़ल्ले से छूट दे रखी थी जो बच्चों से सेक्स की चर्चा करते थे, उसे बढ़ावा देते थे, और एक-दूसरे के लिए उसका इंतजाम करते थे। यह अधिक पुरानी बात नहीं है, एक चौथाई सदी के भीतर की ही है, लेकिन दुनिया के लोगों ने तेजी से उसका विरोध किया, तो आज इस तरह की हिम्मत कोई कर नहीं सकते हैं।
लेकिन इस बात को भी समझने की जरूरत है कि रंगभेद और जातिभेद जिन देशों और समाजों में जुर्म है, वहां भी वह मौजूद तो है ही। अभी अमरीका और कनाडा में एक-एक करके अलग-अलग शहरों में, शिक्षा-बोर्ड में ऐसे कानून बनते जा रहे हैं जो कि जातिभेद को जुर्म करार दे रहे हैं। इसकी शुरूआत अमरीका में बसे हुए दलितों को बचाने के लिए की गई जो कि वहां बसे हुए गैरदलित, सवर्ण हिन्दुओं के हाथों जातिभेद के शिकार हैं। अमरीका जाने के बाद भी लोगों को हिन्दुस्तान की जाति व्यवस्था भुलाए नहीं भूल रही है, और अब वहां दलित आंदोलनकारी जगह-जगह इसकी पहल कर रहे हैं, और जाति व्यवस्था की हिंसा को जानकर, समझकर अमरीका और कनाडा के लोग इसके खिलाफ कानून बनाते जा रहे हैं। जाति व्यवस्था एक किस्म से रंगभेद भी है, और एक किस्म से वह गुलामी प्रथा का विस्तार भी है। हिन्दुस्तान में जिन लोगों को यह लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है, उन्हें अमरीका में हिन्दुस्तानियों के बीच हकीकत देखनी चाहिए कि वे खुद तो गोरे अमरीकियों के बीच पूरे हक का दावा रखते हैं, लेकिन यहां से गए हुए नीची समझी जाने वाली जातियों के लोगों के साथ भेदभाव करते हैं। अब वहां का कड़ा कानून हिन्दुस्तानी जाति व्यवस्था को भी खत्म करेगा।
हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट और अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट में चल रहे मामलों को देखें तो उनका एक बड़ा हिस्सा सरकारों के ही खिलाफ है। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जो इस लोकतंत्र में सरकारों को तानाशाह के अंदाज में काम करने वाला बताते हैं। कल ही इस अखबार के यूट्यब चैनल पर एक वीडियो में हमने यह सवाल उठाया था कि किस तरह एक फैक्टचेकर मोहम्मद जुबैर को दिल्ली की पुलिस एक फर्जी मामले में फंसाते रही, और दिल्ली हाईकोर्ट ने जब पुलिस को घेर लिया कि उसके पास जुबैर के खिलाफ कोई केस ही नहीं है, तो पुलिस ने यह मामला खत्म करने की अपील की। हाईकोर्ट ने याद दिलाया कि सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि नफरत की बातें करने वालों के खिलाफ खुद होकर केस दर्ज करना पुलिस का खुद का काम है, इसके लिए उसे किसी शिकायत का इंतजार नहीं करना है, और अगर ऐसे मामले दर्ज नहीं किए गए तो इसे सुप्रीम कोर्ट की अवमानना माना जाएगा। इसके बाद भी देश में कहीं पुलिस को नफरत के खिलाफ जुर्म दर्ज करने की कोई हड़बड़ी नहीं है। बल्कि कई प्रदेशों में, और केन्द्र सरकार के मातहत दिल्ली में पुलिस नफरत फैलाने वालों के साथ खड़ी दिख रही है, और नफरत के खिलाफ लड़ रहे लोगों को देशद्रोही बताकर जेल भेजने में उसकी हड़बड़ी देखने लायक है। जो लोकतंत्र सरकारों को तकरीबन बेहद हक देता है, वे सरकारें उन हकों का तकरीबन बेजा इस्तेमाल करने की हड़बड़ी में दिखती हैं। सरकारों के खिलाफ अदालतों में चल रहे मुकदमों को देखें तो यह समझ नहीं पड़ता कि वे जनता के लिए सरकार चला रहे हैं, या जनता के खिलाफ।
ऐसा लोकतंत्र जिसके तीन हिस्सों में से सबसे अधिक असर और इस्तेमाल वाली सरकार गलत काम करने में जुटी हो, जनता का खजाना लूटने में जुटी हो, अपने ही ईमानदार कर्मचारियों के खिलाफ ज्यादती करने में लगी हो, अपने भ्रष्ट और दुष्ट लोगों को बचाने में लगी हो, वैसी सरकारों को लोकतंत्र के तहत मिले गए हक देने का क्या फायदा? एक तरफ तो ये सरकारें जनकल्याणकारी और धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और जवाबदेह होने का ढकोसला भी करती हैं, और दूसरी तरफ उनका बर्ताव इसके ठीक खिलाफ रहता है। अगर सरकारों के कुकर्मों से अदालतें लदी हुई न रहें, तो लोगों के बाकी मामले-मुकदमे जल्दी निपट सकेंगे। किसी भी लोकतंत्र में अदालती ढांचा इतना बड़ा और इतना मजबूत तो बनाया नहीं जा सकता कि वह सरकार के ही गलत कामों से निपटने में थककर चूर हो जाए।
जिस तरह किसी मामूली जुर्म के मुकदमे में कटघरे में खड़े हुए छोटे से मुजरिम का छोटा सा वकील बड़े-बड़े तर्क देकर अपने मुवक्किल के खिलाफ मुकदमे को गलत साबित करने में लगे रहता है, यह साबित करता है कि उसके मुवक्किल की उंगलियों में खुजली हो रही थी, इसलिए उसने सामने वाले की जेब में उंगलियां डाल दी थीं, कुछ उसी तरह जब देश-प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी वकील अपनी सरकार के लिए बहस करते दिखते हैं तो दिल शर्म से भर जाता है कि क्या ऐसे ही लोकतंत्र के लिए इन सरकारों को चुना गया था? बड़ी-बड़ी सरकारें अपने नामी-गिरामी मुखिया के साथ जिस तरह कटघरे में खड़े होकर अपने जुर्म छुपाने के लिए तरह-तरह के खोखले तर्क सामने रखती हैं, वे शर्मनाक रहते हैं, लेकिन यह आए दिन की बात हो गई है। दरअसल संविधान बनाने वाले लोगों ने बहुत से प्रावधान बनाते समय यह सोचा भी नहीं था कि एक दिन सरकारें मुजरिम चलाएंगे। वे गौरवशाली लोकतंत्र के दिन थे जब संविधान सभा में भविष्य के संविधान पर चर्चा हुई थी। अब उसमें से कुछ भी बाकी नहीं रह गया है, न लोगों में गरिमा रह गई है, न परंपराओं का कोई सम्मान रह गया है, और न ही अगली पीढ़ी के लिए एक इज्जतदार लोकतंत्र छोडक़र जाने की जिम्मेदारी का अहसास रह गया है।
दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में एक बेहतर कल आने की गुंजाइश नहीं रह गई है, क्योंकि न तो पार्टियां बेहतर बनते दिख रहीं, न ही उन पार्टियों में बेहतर नेताओं के आने की संभावना दिख रही है। सैद्धांतिक रूप से जो पार्टियां ईमानदार दिखती हैं, वे निर्वाचित लोकतंत्र में हाशिए पर जा चुकी हैं। जो पार्टियां हर किस्म के साम्प्रदायिक और जाति आधारित समझौते करने पर आमादा हैं, जिनके पास चुनाव लडऩे के लिए भ्रष्टाचार की अपार दौलत है, उन्हीं पार्टियों का भविष्य दिख रहा है। कुल मिलाकर देश और प्रदेशों में राजनीति लोकतंत्र से पर्याप्त परे जा चुकी दिख रही है। कुछ लोग कमसमझ हैं, उन्हें यह लग सकता है कि हर पांच बरस में होने वाले चुनाव किसी किस्म का लोकतंत्र हैं। हिन्दुस्तानी चुनाव अब सबसे अधिक खर्च करने वाले, सबसे अधिक समझौते करने वाले, सबसे अधिक धार्मिक उन्माद बढ़ाने वाले दलों का खेल रह गया है, जिसकी चर्चा करने के लिए लोकतंत्र जैसे शब्द को बदनाम नहीं करना चाहिए। यह लोकतंत्र फिलहाल पटरी से इंजन और तमाम डिब्बों सहित उतरा हुआ दिख रहा है। अब यह कब वापिस पटरी पर आ सकेगा, कब पटरियों की उतनी मरम्मत हो सकेगी, यह कल्पना करना आज आसान नहीं है। बिना कोई नशा किए हुए जिन लोगों को आज इस लोकतंत्र के भविष्य को लेकर भरोसा है, उन्हें देखकर हमें रश्क भर होता है।
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जिस वक्त अलग-अलग कई राज्यों में सरकारी नौकरियों के लिए इम्तिहान करने वाले राज्य के लोकसेवा आयोग या दूसरे संस्थान तरह-तरह के भ्रष्टाचार में उलझे हुए दिखते हैं, केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली संस्था यूपीएससी ऐसे विवादों से परे दिखती है। सत्तारूढ़ पार्टी कोई भी रहे, देश के लिए सबसे ऊंचे अफसर छांटने वाली संघ लोकसेवा आयोग का काम ठीक चलते रहता है। इसलिए अभी जब यूपीएससी के नतीजों ने दिल्ली पुलिस के हवलदार रामभजन को चुना है, तो यह इस इम्तिहान की आम साख के मुताबिक ही बात है। रामभजन एक गरीब मजदूर परिवार से आए हैं, और खुद भी मजदूरी करते थे। राजस्थान से आकर दिल्ली पुलिस में नौकरी मिली, उन्होंने एक दूसरे पुलिस अफसर को देखा जो पहले दिल्ली पुलिस में सिपाही थे, और फिर यूपीएससी पास करके आईपीएस बने, तब से वे लगातार यूपीएससी की तैयारी कर रहे थे। उनकी जिंदगी की इस असल कहानी पे हम यहां इसलिए लिख रहे हैं कि अगर नौकरियां और कॉलेजों में दाखिला देने वाले इम्तिहानों में ईमानदारी हो, तो कुछ ऐसे गरीब लोगों को भी मौका मिल सकता है। रामभजन की कहानी गांव के सरकारी स्कूल से शुरू, और फिर 12वीं के बाद पुलिस सिपाही बनने की है। नौकरी करते हुए ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन, रोज ड्यूटी के बाद सात-आठ घंटे यूपीएससी की तैयारी, और इम्तिहान के एक महीने पहले छुट्टी लेकर पूरे वक्त तैयारी। कई बार की कोशिशों के बाद उन्हें यह कामयाबी मिली है।
अब सरकारी नौकरी के लिए छांटने वाले संस्थानों की बात अलग है, हम लोगों के सपनों के बारे में भी लिखना चाहते हैं। भ्रष्ट व्यवस्था को तो लोग बदल नहीं सकते, लेकिन उनके बीच ही जहां-जहां गुंजाइश निकल सकती है, उसके लिए तैयारी और कोशिश जरूर कर सकते हैं। हर बरस यूपीएससी और कई राज्यों के इम्तिहानों की खबरें आती हैं कि किस तरह किसी ऑटोरिक्शा ड्राइवर की बेटी ने कामयाबी पाई, या किसी मजदूर के बेटे ने। जिन लोगों को यह लगता है कि सब कुछ भ्रष्ट है, सब कुछ बिका हुआ है, ईमानदार मेहनत से कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि भ्रष्ट व्यवस्था के भीतर भी छोटी-मोटी ऐसी संभावना शायद हर जगह बची ही रहती है। और इन संभावनाओं तक वही गरीब पहुंच पाते हैं जो जमकर मेहनत करते हैं। जिन लोगों को यह लगता है कि भ्रष्ट व्यवस्था में मेहनत बेकार है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि जब तक वोटों के बहुमत से ऐसी सरकार न आए जो कि भ्रष्टाचार को खत्म करे, तब तक अपनी मेहनत और अपनी कोशिश के अलावा और कोई रास्ता तो है नहीं। एक भ्रष्ट परीक्षा या प्रतियोगिता तंत्र के भीतर मेहनत करते हुए भी लोग चाहे वहां कामयाबी न पा सकें, लेकिन अपने आपको तो मांज ही सकते हैं, अपने को पहले से बेहतर बना सकते हैं, और जिंदगी के दूसरे गैरसरकारी मुकाबलों के लिए भी तैयार कर सकते हैं। पाया हुआ ज्ञान, सीखा हुआ हुनर, और हासिल की हुई समझ कहीं नहीं जाते, किसी न किसी वक्त वे काम आते हैं, और उसी को ध्यान में रखते हुए लोगों को अपनी तैयारी तो जारी रखनी ही चाहिए, फिर चाहे वे भ्रष्ट तंत्र के भीतर कुछ पा सकें या नहीं।
दूसरी बात यह भी है कि सरकारी नौकरियां बहुत बुरी तरह से घटती चल रही हैं। केन्द्र सरकार हर सार्वजनिक प्रतिष्ठान को बेचने के फेर में हैं, और उसके बाद तो नौकरियां सिर्फ निजी कंपनियों के हाथ रह जाएंगी, सरकार का अपना आकार घट जाएगा। इसलिए घटती हुई नौकरियों और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से अधिक उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, लोगों को अपने आपको अधिक काबिल, अधिक बेहतर बनाना चाहिए, और यह मानकर चलना चाहिए कि इम्तिहानों से परे ऐसे इंटरव्यू का सामना भी करना पड़ सकता है जहां पर उनका व्यक्तित्व भी काम आ सकता है, भाषा, बोलने का लहजा, सामान्य ज्ञान, और सहज-समझ सबकी कीमत हो सकती है। हिन्दुस्तान में आज दिक्कत यह लगती है कि बेरोजगार इतने हताश हैं, और सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत का इंतजाम करते लगे रहते हैं कि वे सही तैयारी नहीं करते। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि सरकारी नौकरियों से परे निजी क्षेत्र में न तो उस तरह की रिश्वत चलती, न ही सलेक्शन में वैसा भ्रष्टाचार रहता। इसलिए असल तैयारी रिश्वत के बाद भी सरकारी नौकरी पाने में मदद कर सकती है, और बिना रिश्वत के निजी नौकरी पाने में भी।
जिस मिसाल से हमने आज की यह बात शुरू की है उस पर लौटें, तो एक तकरीबन अनपढ़ मजदूर परिवार से निकलकर रामभजन 12वीं के बाद से दिल्ली पुलिस की मुश्किल नौकरी भी कर रहा है, और इम्तिहान की तैयारी भी। अपने ही दम पर, बिना किसी महंगी कोचिंग के, वो यहां तक पहुंचा, साथ-साथ 8वीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुकी पत्नी की भी पढ़ाई शुरू करवाई, और गांव के स्कूल में उसका जाना शुरू करवाया। यह पूरा मामला उन तमाम लोगों के लिए एक बहुत बड़ी मिसाल है जो लोग मेहनत न करने के हजार किस्म के बहाने तलाशकर बैठे रहते हैं। बहुत से लोगों को बेहतर सहूलियते हासिल रहती हैं, और उन्हें यह भी देखना चाहिए कि वंचित तबके का एक लडक़ा किस तरह की अभावग्रस्त जिंदगी में कामयाबी हासिल करता है। आज इस मुद्दे पर लिखना सिर्फ इसीलिए है कि चारों तरफ भ्रष्टाचार का अंधेरा दिखता है, लेकिन ऐसी ही अंधेरी सुरंग के आखिर में इस किस्म की एक रौशन मिसाल भी दिखती है जिसे देखकर हर किसी को मेहनत करनी चाहिए।
राजस्थान में होने जा रहे एक सामूहिक विवाह की दावत के इंतजाम की खबर आई है, इसमें पांच लाख मेहमानों के आने का अंदाज है, और हजार रसोईये सात दिनों से पकवान बनाने में लगे हैं, समारोह स्थल पर ट्रैक्टरों से खाना सप्लाई होगा, और गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स वाले इस रिकॉर्ड को दर्ज करने के लिए डेरा डाले हुए हैं। इसमें 22 सौ जोड़ों की शादी होने जा रही है, जिनमें 111 जोड़े मुस्लिम हैं, और बाकी हिन्दू समाज की अलग-अलग जातियों के हैं। एक सामाजिक संस्था इसे करीब सौ करोड़ रूपये की लागत से करवा रही है।
इस खबर पर आज लिखने की जरूरत कुछ अलग-अलग वजहों से लगती है, पहली बात तो यह कि न सिर्फ अलग-अलग जातियों के जोड़ों की शादी एक साथ हो रही है, बल्कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग भी इसमें शामिल हैं। हर जोड़े पर औसत करीब डेढ़ लाख रूपये खर्च होने का अंदाज है जो कि आज किसी भी आम शादी के खर्च से कम ही है। इसलिए इसे बहुत खर्चीला आयोजन नहीं कहा जा सकता क्योंकि गरीबों में भी कुछ खर्च तो होता ही है। इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि समाज से सौ करोड़ रूपये का यह खर्च निकल रहा है, और किसी धार्मिक आयोजन के बिना, एक सामाजिक मकसद से लोग पैसे दे रहे हैं। भारत में धर्म और आध्यात्म के नाम पर तो लोगों की जेब से पैसे निकल जाते हैं, लेकिन अन्य किसी किस्म की मदद के लिए कम निकलते हैं। इसलिए सामूहिक विवाह जो कि इस किस्म से धर्म और जातियों को एक साथ जगह दे रहा है, गरीबों को भी धूमधाम से शादी का एक मौका दे रहा है, और जिस तरह 22 सौ जोड़ों पर पांच लाख मेहमानों का अंदाज है, तो हर जोड़े के पीछे दो सौ मेहमानों को जगह मिलने वाली है, और यह धूमधाम से हो रही शादी दिखती है। फिर यह भी है कि बिना खर्च, बराबरी से, और विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली ये शादियां मामूली या गरीब आय वर्ग के लोगों को हमेशा याद भी रहेंगी।
यह मुद्दा केवल इसी एक वजह से लिखने के लिए काफी नहीं है इसलिए इसके कुछ दूसरे पहलुओं पर भी कुछ अलग बातें लिखनी हैं। एक तो यह कि अलग-अलग शादियों में साधन और सुविधाओं की इतनी बर्बादी होती है, फिजूलखर्ची होती है, हर किसी को असुविधा होती है, इसलिए भी सामूहिक विवाहों का चलन बढऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि शादियों में जिसे हम फिजूलखर्ची कह रहे हैं, वह करोड़ों लोगों के लिए रोजगार भी है, अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा भी है, लेकिन राजस्थान की इस मिसाल को देखकर, या हमारी सलाह को पढक़र रातों-रात तो शादियां खत्म होनी नहीं हैं, और न ही इससे जुड़े कारोबार खत्म होने हैं। अपने से अधिक संपन्नता वाले समाज की देखादेखी लोगों के बीच शादियों पर अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च करने की परंपरा बनी हुई है, और उसका सामाजिक दबाव भी बना रहता है। ऐसे सामाजिक दबाव को खत्म करने के लिए सामूहिक विवाह एक अच्छा जरिया है, और इससे खासकर कमजोर तबकों और मध्यम वर्ग को बड़ी राहत मिल सकती है। ऐसे आयोजनों से समाज के कुछ सबसे रईस लोगों को भी जुडऩा चाहिए जो अपने परिवार की शादियां यहां पर करें, और उससे ऐसे आयोजनों को एक अधिक सामाजिक मान्यता मिल सके। अभी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकारी खर्च पर ऐसी शादियां होती हैं, लेकिन वे सरकारी मदद से होती हैं, इसलिए शायद उनमें समाज के संपन्न तबकों के लोग शामिल नहीं होते। इसकी बजाय, या इसके साथ-साथ अलग से अगर सामाजिक स्तर पर ऐसी पहल होगी, संपन्न और मशहूर लोग भी अपने परिवारों की शादियां सामूहिक विवाह में करेंगे, तो बाकी लोगों के बीच भी उसे एक अधिक प्रतिष्ठा मिलेगी, और गरीब-मध्यमवर्गीय परिवारों पर पडऩे वाला अंधाधुंध दबाव खत्म होगा।
राजस्थान के इस आयोजन का जो बड़ा पैमाना है, वह भीड़भरे कार्यक्रमों के मैनेजमेंट के अध्ययन का एक दिलचस्प केस भी है। हमें भरोसा है कि कुछ बड़े मैनेजमेंट संस्थानों के छात्र और प्राध्यापक इसे देखने, और इससे सीखने को जरूर पहुंचे होंगे, लेकिन इनके साथ-साथ उन राज्यों को भी अपने अफसरों को भेजना चाहिए जहां पर छोटे पैमाने पर ही सही इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। तमाम राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं को ऐसे बड़े आयोजनों का अनुभव अपने अमले को करवाना चाहिए। हो तो यह भी सकता था कि आईएएस जैसी नौकरी के प्रशिक्षण संस्थान भी अपने नए अफसरों को ऐसी जगह भेज सकें, और हो सकता है कि उन्होंने भेजा भी हो। हमें तो इतने बड़े पैमाने की और कोई दूसरी खबर याद नहीं पड़ रही है, इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि सीखने और सिखाने के ऐसे अधिक मौके बार-बार नहीं आते हैं।
भारत जैसे परंपराओं वाले देश में राज्य सरकारों को अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत ऐसे आयोजनों को बढ़ावा देना चाहिए, और अपने खर्च का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में डुबाने के बजाय सामाजिक संस्थाओं को ऐसे आयोजन करने में मदद करनी चाहिए। भारत एक गरीब देश है, और यहां के कमजोर तबके भी बहुत सी परंपराओं को ढोते हैं, सामाजिक रीति-रिवाज उन पर लदे रहते हैं, इसलिए सरकारों को सामाजिक सरलता और किफायत को बढ़ावा देने की ऐसी सामूहिक कोशिशों को बढ़ावा देना चाहिए।
राजस्थान में होने जा रहे एक सामूहिक विवाह की दावत के इंतजाम की खबर आई है, इसमें पांच लाख मेहमानों के आने का अंदाज है, और हजार रसोईये सात दिनों से पकवान बनाने में लगे हैं, समारोह स्थल पर ट्रैक्टरों से खाना सप्लाई होगा, और गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स वाले इस रिकॉर्ड को दर्ज करने के लिए डेरा डाले हुए हैं। इसमें 22 सौ जोड़ों की शादी होने जा रही है, जिनमें 111 जोड़े मुस्लिम हैं, और बाकी हिन्दू समाज की अलग-अलग जातियों के हैं। एक सामाजिक संस्था इसे करीब सौ करोड़ रूपये की लागत से करवा रही है।
इस खबर पर आज लिखने की जरूरत कुछ अलग-अलग वजहों से लगती है, पहली बात तो यह कि न सिर्फ अलग-अलग जातियों के जोड़ों की शादी एक साथ हो रही है, बल्कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग भी इसमें शामिल हैं। हर जोड़े पर औसत करीब डेढ़ लाख रूपये खर्च होने का अंदाज है जो कि आज किसी भी आम शादी के खर्च से कम ही है। इसलिए इसे बहुत खर्चीला आयोजन नहीं कहा जा सकता क्योंकि गरीबों में भी कुछ खर्च तो होता ही है। इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि समाज से सौ करोड़ रूपये का यह खर्च निकल रहा है, और किसी धार्मिक आयोजन के बिना, एक सामाजिक मकसद से लोग पैसे दे रहे हैं। भारत में धर्म और आध्यात्म के नाम पर तो लोगों की जेब से पैसे निकल जाते हैं, लेकिन अन्य किसी किस्म की मदद के लिए कम निकलते हैं। इसलिए सामूहिक विवाह जो कि इस किस्म से धर्म और जातियों को एक साथ जगह दे रहा है, गरीबों को भी धूमधाम से शादी का एक मौका दे रहा है, और जिस तरह 22 सौ जोड़ों पर पांच लाख मेहमानों का अंदाज है, तो हर जोड़े के पीछे दो सौ मेहमानों को जगह मिलने वाली है, और यह धूमधाम से हो रही शादी दिखती है। फिर यह भी है कि बिना खर्च, बराबरी से, और विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली ये शादियां मामूली या गरीब आय वर्ग के लोगों को हमेशा याद भी रहेंगी।
यह मुद्दा केवल इसी एक वजह से लिखने के लिए काफी नहीं है इसलिए इसके कुछ दूसरे पहलुओं पर भी कुछ अलग बातें लिखनी हैं। एक तो यह कि अलग-अलग शादियों में साधन और सुविधाओं की इतनी बर्बादी होती है, फिजूलखर्ची होती है, हर किसी को असुविधा होती है, इसलिए भी सामूहिक विवाहों का चलन बढऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि शादियों में जिसे हम फिजूलखर्ची कह रहे हैं, वह करोड़ों लोगों के लिए रोजगार भी है, अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा भी है, लेकिन राजस्थान की इस मिसाल को देखकर, या हमारी सलाह को पढक़र रातों-रात तो शादियां खत्म होनी नहीं हैं, और न ही इससे जुड़े कारोबार खत्म होने हैं। अपने से अधिक संपन्नता वाले समाज की देखादेखी लोगों के बीच शादियों पर अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च करने की परंपरा बनी हुई है, और उसका सामाजिक दबाव भी बना रहता है। ऐसे सामाजिक दबाव को खत्म करने के लिए सामूहिक विवाह एक अच्छा जरिया है, और इससे खासकर कमजोर तबकों और मध्यम वर्ग को बड़ी राहत मिल सकती है। ऐसे आयोजनों से समाज के कुछ सबसे रईस लोगों को भी जुडऩा चाहिए जो अपने परिवार की शादियां यहां पर करें, और उससे ऐसे आयोजनों को एक अधिक सामाजिक मान्यता मिल सके। अभी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकारी खर्च पर ऐसी शादियां होती हैं, लेकिन वे सरकारी मदद से होती हैं, इसलिए शायद उनमें समाज के संपन्न तबकों के लोग शामिल नहीं होते। इसकी बजाय, या इसके साथ-साथ अलग से अगर सामाजिक स्तर पर ऐसी पहल होगी, संपन्न और मशहूर लोग भी अपने परिवारों की शादियां सामूहिक विवाह में करेंगे, तो बाकी लोगों के बीच भी उसे एक अधिक प्रतिष्ठा मिलेगी, और गरीब-मध्यमवर्गीय परिवारों पर पडऩे वाला अंधाधुंध दबाव खत्म होगा।
राजस्थान के इस आयोजन का जो बड़ा पैमाना है, वह भीड़भरे कार्यक्रमों के मैनेजमेंट के अध्ययन का एक दिलचस्प केस भी है। हमें भरोसा है कि कुछ बड़े मैनेजमेंट संस्थानों के छात्र और प्राध्यापक इसे देखने, और इससे सीखने को जरूर पहुंचे होंगे, लेकिन इनके साथ-साथ उन राज्यों को भी अपने अफसरों को भेजना चाहिए जहां पर छोटे पैमाने पर ही सही इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। तमाम राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं को ऐसे बड़े आयोजनों का अनुभव अपने अमले को करवाना चाहिए। हो तो यह भी सकता था कि आईएएस जैसी नौकरी के प्रशिक्षण संस्थान भी अपने नए अफसरों को ऐसी जगह भेज सकें, और हो सकता है कि उन्होंने भेजा भी हो। हमें तो इतने बड़े पैमाने की और कोई दूसरी खबर याद नहीं पड़ रही है, इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि सीखने और सिखाने के ऐसे अधिक मौके बार-बार नहीं आते हैं।
भारत जैसे परंपराओं वाले देश में राज्य सरकारों को अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत ऐसे आयोजनों को बढ़ावा देना चाहिए, और अपने खर्च का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में डुबाने के बजाय सामाजिक संस्थाओं को ऐसे आयोजन करने में मदद करनी चाहिए। भारत एक गरीब देश है, और यहां के कमजोर तबके भी बहुत सी परंपराओं को ढोते हैं, सामाजिक रीति-रिवाज उन पर लदे रहते हैं, इसलिए सरकारों को सामाजिक सरलता और किफायत को बढ़ावा देने की ऐसी सामूहिक कोशिशों को बढ़ावा देना चाहिए।