संपादकीय
पारिवारिक तनाव किस हद तक जानलेवा हो सकते हैं इसका एक मामला किसी अपराध कथा या क्राइम थ्रिलर फिल्म की तरह सामने आया है। छत्तीसगढ़ से लगे हुए महाराष्ट्र के विदर्भ में एक बहू ने ससुराल वालों से परेशान होकर ऐसा जहर ढूंढा जिसका असर एकदम से न दिखे, और फिर उसने पति सहित ससुराल के कुछ लोगों को रोजाना वह धीमा जहर देना शुरू किया, और पहले तो लोगों की तबियत बिगड़ी और फिर अस्पताल में उन्होंने कुछ दिनों के फासले में ही एक-एक करके दम तोड़ दिया। बच्चे-बड़े मिलाकर तीन हफ्तों में ऐसे पांच लोग गुजर गए, और अब पुलिस ने उस बहू को गिरफ्तार कर लिया है जो कि कृषि विज्ञान की डिग्री वाली है, और ससुराल के तानों से परेशान होकर उसने यह काम किया था। यह हाल उस बहू के प्रेम विवाह के बाद हुआ था जिससे निराश उसके पिता ने कुछ महीने पहले ही खुदकुशी कर ली थी। मौतों वाले इस परिवार की एक और बहू भी कत्ल के इस सिलसिले में साथ थी।
परिवारों के भीतर हिंसा बहुत अनोखी बात भी नहीं है, लेकिन घर की बहू इस दर्जे की हिंसा करे, इतने सारे लोग मारे जाएं, ऐसी खबर रोज-रोज नहीं आती है। अब पहली नजर में जो जानकारी है उसके मुताबिक ससुराल वाले ताना देते थे, और बहू ने हिसाब चुकता कर दिया। ससुराल वालों का ताना देना कोई बहुत अनोखी बात नहीं है, और आमतौर पर हिन्दुस्तान में प्रताडि़त बहू ही खुदकुशी करती है, वह ऐसी हिंसा नहीं करती। लेकिन अब वक्त बदला हुआ दिख रहा है, वह खुदकुशी करने या ससुराल छोडक़र जाने के बजाय इस तरह की और इस दर्जे की हिंसा करे, यह बात चौंकाती है, लेकिन इस सामाजिक हकीकत को समझने की जरूरत है। अब लोग इस बात को अपना हक मानकर नहीं चल सकते कि दूसरे परिवार से आई, या लाई गई बहू के साथ वे जैसा चाहे वैसा बर्ताव कर सकते हैं। एक तो कानून की तरफ से नवविवाहिता को कुछ खास किस्म की हिफाजत हासिल है, और शादी कुछ बरस बाद तक अगर उसके साथ कोई हादसा होता है तो उसकी अलग से जांच होती है। दूसरी बात यह कि अब मोबाइल और इंटरनेट की मेहरबानी से परिवार की बहू भी बाकी दुनिया के संपर्क में रह सकती है, और वह भी अच्छे या बुरे कई तरह विकल्पों पर काम कर सकती हैं। महिला की शिक्षा, आर्थिक-आत्मनिर्भरता, उसका कामकाजी होना, सोशल मीडिया पर दुनिया के लोगों से उसके संपर्क होना, इन सबसे भी उसके विकल्प बढ़ते हैं, और वह कल तक की छुई-मुई, घूंघट वाली घरेलू महिला नहीं रह गई है, और यही वजह है कि कई ऐसे जुर्म सामने आ रहे हैं जिनमें वह पति के साथ मिलकर किसी परेशान कर रहे प्रेमी का कत्ल करती है, या प्रेमी के साथ मिलकर पति को मार डालती है, या भाड़े के कातिल ढूंढकर इनमें से किसी एक का कत्ल करवा देती है। अब भारतीय नारी को अबला समझकर तबला की तरह पीटना ठीक नहीं है, क्योंकि अब वह हिसाब चुकता भी कर सकती है। कल तक उसे गिनती नहीं आती थी, लेकिन अब वह किसी कत्ल की सुपारी देने का हिसाब भी जानती है। ऐसी ही ताकत से लैस महाराष्ट्र की इस बहू ने धीमे जहर का इंतजाम किया, और एक-एक करके पांच लोगों को मार डाला।
इससे एक बात यह भी समझ आती है कि परिवार के भीतर तनाव ठीक बात नहीं है। अगर लोगों का सुख-चैन से साथ नहीं निभता, तो उन्हें अपने अलग-अलग घर बना लेने चाहिए। महाराष्ट्र में अलग घर बनाना आम बात है, पता नहीं इस मामले में तनाव इतना बढऩे तक भी परिवार क्यों इस बारे में नहीं सोच पाया। आज के वक्त किसी को भी न पारिवारिक संबंधों में, न प्रेम या यारी-दोस्ती में तनाव इस हद तक बढऩे देना चाहिए। अब हिन्दुस्तान में भाड़े के हत्यारे इतने सस्ते में मिलने लगे हैं, और लोगों को यह भरोसा रहता है कि वे पकड़ाएंगे नहीं, इसलिए ऐसे जुर्म आए दिन हो रहे हैं। इनकी खबरों के बाद भी जुर्म करने वालों को डर नहीं लगता, और खतरा उठाने वाले को बचना नहीं सूझता। और यह तो बात परिवार के भीतर इस असाधारण दर्जे की हिंसा की है, लेकिन इससे परे छोटे-छोटे तनाव किस तरह किसी परिवार के सुख-चैन को खत्म करते हैं, और बड़े होते बच्चों के मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं, उसके बारे में भी सोचना चाहिए। मामले जब तक पुलिस या अदालत तक नहीं जाते, खबरों में नहीं आते, तब तक उनकी चर्चा नहीं होती। लेकिन हमारा मानना है कि कत्ल या खुदकुशी तक पहुंचे हर मामले की तुलना में कम से कम हजार मामले पारिवारिक और मानसिक तनाव के रहते हैं, और उन्हें किसी हिंसा तक पहुंचने के पहले सुलझा लेने में ही समझदारी है। कोई भी एक हिंसा परिवार के कई लोगों को कई बरस, या पूरी उम्र की कैद दिला सकती है, और ऐसी नौबत से बचना चाहिए।
दुनिया के जिन पश्चिमी देशों को तथाकथित भारतीय संस्कृति के प्रशंसक खराब मानते हैं, वहां पर बच्चे जवान होने के बाद शादी के पहले भी मां-बाप से अलग रहने लगते हैं, और ससुराल के हाथों प्रताडि़त जैसी नौबत शायद वहां आती ही नहीं है। हिन्दुस्तान में बहू की शिकायत पर ससुराल के कई-कई लोगों की एक साथ गिरफ्तारी की खबर भी हर कुछ दिनों में आती है, लेकिन ससुराल के लोग हैं कि वे सुधरने का नाम नहीं लेते। अब देश के हर तनाव में तो परामर्शदाता हासिल नहीं हो सकते, लेकिन पारिवारिक तनाव घटाने की मामूली समझबूझ की बातें तो समाज के अलग-अलग मंचों पर हो ही सकती है। यह बात याद रखने की जरूरत है कि धर्म और जाति के आधार पर बने संगठन अमूमन दकियानूसी रहते हैं, और वहां पर पाखंडियों का राज रहता है, इसलिए धर्म और जाति के संगठन कभी बदलते हुए वक्त के मुताबिक बदलाव नहीं सुझा सकते। इसके लिए धर्म और जाति से परे के साधारण मंच अधिक कारगर हो सकते हैं जो कि ससुराल और बहू को बेहतर तरीके से साथ, या अलग-अलग रहने के तरीके सुझा सकें, या एक परिवार के भीतर भी दूसरे रिश्तों को भी साथ रहने का बेहतर रास्ता बता सकें।
यह भी याद रखने की जरूरत है कि पारिवारिक तनाव से घिरे हुए लोगों की जिंदगी की उत्पादकता घट जाती है। वे बेहतर पढ़ नहीं पाते, और न ही बेहतर काम कर पाते। उनके दिल-दिमाग का एक हिस्सा तमाम वक्त परिवार के गैरजरूरी तनाव में उलझा रहता है। इसलिए पारिवारिक तनाव को घटाने और खत्म करने का हर मुमकिन रास्ता तलाशना चाहिए।
हालांकि चुनावी राज्यों के लोग चुनाव से परे अभी शायद ही कुछ देखने-पढऩे में अधिक दिलचस्पी रखते हों। जिंदगी में राजनीति और चुनाव से परे भी बहुत सी बातों की अहमियत है। कुछ अलग-अलग खबरें मिलकर पिछले दो-तीन दिनों से हमें यह सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि हिन्दुस्तान एक देश के भीतर अलग-अलग संस्कृतियों के कई योरप की तरह है, जहां प्रदेशों से कई गुना अधिक संस्कृतियां हैं। अब मुम्बई की एक खबर है कि वहां प्रेमविवाह करने वाले एक जोड़े का कत्ल कर दिया गया था। एक मुस्लिम लडक़ी ने हिन्दू लडक़े से शादी की थी। लडक़ी के मां-बाप अधिक खफा थे, और यह जोड़ा यूपी के बांदा जिले से आकर मुम्बई में रह रहा था। अब मुम्बई पुलिस ने इस लडक़ी के बाप-भाई, परिवार के दोस्त, और तीन और मुस्लिम नाबालिगों को गिरफ्तार किया है। बाप-भाई ने मुम्बई में एक रिश्तेदार के घर इस बेटी-दामाद को मिलने बुलाया, और उन्हें मारकर लाश ठिकाने लगा दी। दूसरी तरफ एक खबर यह है कि कर्नाटक से खबर है कि एक रोजी-मजदूर की बेटी ने बैंगलोर विश्वविद्यालय से आठ गोल्ड मैडल के साथ केमेस्ट्री में एम.एस.सी. किया है, और तीन नगद पुरस्कार भी जीते हैं। बाप ने हमेशा बेटी को आगे बढ़ाया, और बेटी आसमान पर पहुंच गई। वह बेंगलुरू से 50 किलोमीटर दूर रहती थी, और रोज बस से कॉलेज आती-जाती थी। बस का सफर वह पढऩे में लगाती थी, और पिता की इस हसरत को पूरा करना चाहती है कि उसे टीचर बनना है। एक दूसरी खबर है कि यूपी के प्रयागराज में एक बहुत व्यस्त न्यूरोसर्जन ने अपनी बेटी का नीट इम्तिहान के लिए हौसला बढ़ाने को खुद भी 30 साल बाद मेडिकल दाखिले का इम्तिहान दिया, और उन्हें 89 फीसदी और बेटी को 90 फीसदी नंबर मिले। लेकिन आज हम जिस मामले को लेकर यहां लिखना शुरू कर रहे हैं, वह बिल्कुल ही अलग मामला है। झारखंड में एक पिता ने बेटी की शादी धूमधाम से की थी, और जब उन्हें पता लगा कि दामाद पहले से दो-दो शादियां किया हुआ था, अपनी इस तीसरी बीवी के साथ रहता नहीं था, और उसके साथ बुरा सुलूक करता था, तो पिता बैंडबाजा बारात लेकर बेटी के ससुराल पहुंचे, और अपनी बेटी को धूमधाम से अपने घर लेकर आए।
ये सारी ही खबरें पिछले तीन दिनों की हैं, और हिन्दुस्तान की ही हैं। इनसे पता लगता है कि यह देश किस तरह धर्म, जाति, और मां-बाप की निजी पसंद या परहेज से बंधा हुआ देश है, कहां तो एक मजदूर बाप अपनी बेटी को एम.एस.सी. तक पहुंचाता है, जिसका गला गोल्ड मैडलों से भर जाता है, और कहां दूसरा बूढ़ा बाप बेटी के दूसरे धर्म में शादी करने पर अपने कुनबे के साथ मिलकर उसका गला काट देता है, और बाकी पूरी जिंदगी जेल में गुजारने को तैयार रहता है। यह हैरानी होती है कि किसी लडक़ी के आगे बढऩे की संभावनाएं किस हद तक उसके परिवार से मिले हौसले पर टिकी रहती हैं, और खासकर भारतीय समाज में मुखिया माने जाने वाले बाप के रूख पर बेटी का भविष्य कुछ या अधिक हद तक निर्भर करता ही है। ऐसा लगता है कि आगे बढऩे वाली बहुत सी लड़कियां बाप की वजह से आगे बढ़ती हैं, या फिर बाप के बावजूद आगे बढ़ जाती हैं। हमने हॉलीवुड के कुछ सबसे मशहूर और कामयाब फिल्म अभिनेताओं की तस्वीरें देखी हैं कि किस तरह वे अपनी बेटियों को अपने चेहरों पर अंधाधुंध पेंटिंग करने देते हैं, नेलपॉलिश लगाने देते हैं। ऐसे भी पिता देखे हैं जो बच्चों को कैंसर हो जाने पर उनके गिर गए बालों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए खुद भी सिर मुंडाकर रखते हैं। हिन्दुस्तान में भी ऐसी कमी नहीं है, और बनिया समुदाय का एक बाप जिस तरह झारखंड में बारात ले जाकर बैंडबाजे के साथ अपनी बेटी को ससुराल की प्रताडऩा से निकालकर लाता है, वह देखने लायक बात है, उससे सीखने लायक बात है।
सोशल मीडिया पर कई लोगों ने इसे लेकर भारत की एक प्रचलित बात को याद भी दिलाया है कि बेटी को बिदा करते हुए मां-बाप कहते हैं कि डोली तो मायके से उठ रही है, अब अर्थी ससुराल से उठनी चाहिए। इस दकियानूसी और पाखंडी सोच के चलते उस लडक़ी के भाई तो खुश हो सकते हैं कि उन्हें जायदाद में हिस्सा नहीं देना पड़ेगा, या लौटी हुई बहन को पूरी जिंदगी घर में नहीं रखना होगा। लेकिन यह अकेली बात एक लडक़ी को ससुराल नाम की एक हिंसक दुनिया में पूरी तरह अकेला बनाकर छोड़ती है, और बहुत से मामलों में तो वह जवानी में ही पति के घर से अर्थी चढ़ जाती है, हिंसा झेलती है, कभी मारी जाती है, और कभी खुद को मार डालती है। यह सिलसिला हिन्दुस्तानी समाज को हिंसक बनाते चलता है क्योंकि इसमें मान लिया जाता है कि एक बार शादी हो जाने के बाद कोई भी लडक़ी अपने पति और ससुराल के रहमोकरम पर रहती है, उसी के लायक रहती है। मां-बाप की जमीन-जायदाद से परे भी यह सिलसिला मानसिक रूप से एक शादीशुदा लडक़ी को तोड़ देता है, उसे गहरे अवसाद का शिकार बना देता है, और जीने की उसकी चाह खत्म हो जाती है। एक इंसान के रूप में उसकी संभावनाओं को किनारे भी रख दें, तो भी समाज के एक उत्पादक सदस्य के रूप में उसका योगदान शून्य हो जाता है, और वह कुछ मायनों में समाज पर बोझ भी बन सकती है, मानसिक रोगों की शिकार हो सकती है।
इसलिए झारखंड के एक पिता की यह बहादुर पहल हमें आज खुलकर उसकी तारीफ के लायक लग रही है कि उसने अपनी बेटी की घरवापिसी को भी जश्न की शक्ल दे दी। अपनी बच्ची को प्रताडऩा में मरने के लिए छोड़ देना पारिवारिक जिम्मेदारी से दूर भागने के अलावा और कुछ नहीं होता, ऐसे में धूमधाम से लडक़ी को उसके घर वापिस लाकर इस पिता ने एक मिसाल पेश की है, और इस पर अलग-अलग समाजों में चर्चा भी होनी चाहिए। देश का कोई कानून किसी लडक़ी को मां-बाप की जायदाद में बरसों की अदालती कार्रवाई के बाद हक तो दिला सकता है, लेकिन कोई भी कानून मां-बाप को मजबूर नहीं कर सकता कि वे मुसीबतजदा अपनी बेटी को वापिस घर लेकर आएं। और आज तक प्रचलित सामाजिक व्यवस्था को कभी ऐसे हौसले की गवाह नहीं रही है कि बेटी को इस तरह वापिस लाया जाए। इसलिए हम इस पारंपरिक रीति-रिवाज के बिल्कुल नए और मौलिक किस्म के इस्तेमाल की तारीफ करते हैं कि इससे समाज के और लोगों को भी एक राह दिखेगी, एक हौसला दिखेगा।
इस पिता की पहल, कर्नाटक के रोजी-मजदूर का बेटी को आसमान पर पहुंचाना, प्रयागराज के न्यूरोसर्जन पिता का बेटी के साथ इम्तिहान देना, जब इन बातों को हम यूपी से मुम्बई आकर बेटी-दामाद का कत्ल करने वाले कुनबे की खबर के साथ रखकर देखते हैं तो लगता है कि हिन्दुस्तान एक साथ कई सदियों को जी रहा है। कुछ लोग 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं, और कुछ लोग 18वीं सदी में जी रहे हैं। शायद ही कभी इस देश में समाज में बराबरी की, इंसाफ की सोच एक सरीखी बिखर सकेगी।
छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव सामने खड़े हैं। चुनाव कार्यक्रम आ चुका है, पार्टियों के उम्मीदवार घोषित होते चल रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो मतदाता वोट डालने नहीं निकलते हैं, उनका क्या किया जाए? दुनिया के कुछ देशों में वोट डालने को अनिवार्य भी किया गया है ताकि नागरिकों अगर अधिकार चाहिए तो उन्हें कुछ जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। लेकिन कई लोगों का यह भी मानना है कि वोट डालने की अनिवार्यता भी अलोकतांत्रिक होती है। लोगों के पास यह भी पसंद रहना चाहिए कि वे वोट न डालें। शायद ऐसी ही सोच के बाद भारत के वोट में नोटा नाम का एक प्रावधान जोड़ा गया था जिसका मतलब था, नन ऑफ द अबव, यानी इनमें से कोई नहीं। नोटा किसी बैलेट पेपर या ईवीएम मशीन पर सबसे आखिर में रहता है, और जो मतदाता पोलिंग बूथ तक पहुंचते हैं, लेकिन जिन्हें वहां जाकर कोई भी नाम पसंद नहीं आते, वे नोटा में वोट डाल सकते हैं। नोटा के विकल्प ने उन लोगों को पोलिंग बूथ तक जाने का उत्साह दिया जो हर उम्मीदवार और पार्टी से निराश हैं। यह इंतजाम कई और देशों की चुनाव प्रणाली में भी है, और यह लोगों को सबको खारिज करने के लिए भी मतदान केन्द्र तक जाने का उत्साह देता है जो कि चुनाव में शामिल होने के बराबर रहता है।
अब हम यह देखें कि वोट डालने न जाने वाले लोगों से क्या फर्क पड़ता है। मिसाल के तौर पर छत्तीसगढ़ को देखें जहां 2003 से विधानसभा चुनाव शुरू हुए हैं, और अब तक चार चुनाव हो चुके हैं, यह पांचवां चुनाव होने जा रहा है। इस बीच दो सबसे प्रमुख दलों, कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फर्क दस फीसदी से लेकर 0.75 फीसदी तक रहा है। कभी सत्ता पर आने वाली पार्टी 10 फीसदी वोटों से आगे रही, तो कभी महज पौन फीसदी वोटों से। अब यह कल्पना करें कि 2013 में कुल पौन फीसदी के फर्क से भाजपा को 49 सीटें मिली थीं, और कांग्रेस को 39! कुल पौन फीसदी के फासले ने एक पार्टी को 10 सीटें दिलवाकर उसकी सरकार बनवा दी थी। अब अगर उस चुनाव में कांग्रेस को भाजपा से एक फीसदी वोट अधिक मिले रहते, तो हो सकता है कि उसकी सरकार बन गई होती। 2013 के छत्तीसगढ़ के आंकड़े देखें तो ऐसा भी नहीं था कि कांग्रेस या भाजपा के वोट नहीं बढ़े थे। दोनों ही पार्टियों के वोट अपने पिछले चुनावों के वोट से बढ़े थे, उसके बावजूद पौन फीसदी आगे रहकर भाजपा 10 सीटें ज्यादा पाकर सरकार बनाने वाली साबित हुई। जबकि इस चुनाव में पहले के मुकाबले 6.79 फीसदी वोट अधिक गिरे थे, और छत्तीसगढ़ के चार चुनावों का रिकॉर्ड मतदान, 77.45 फीसदी उसी चुनाव में हुआ था।
किसी खास पार्टी के नफे और नुकसान से परे जब यह देखें कि एक फीसदी के फासले से किस तरह दस सीटों का अंतर हो सकता है, और कई प्रदेशों में तो एक-दो सीटों के फासले से भी सरकारें बनती हैं, या बनने से रह जाती हैं। मतलब यह कि किसी पार्टी के वोटर अगर सौ के बजाय 101 रहते, तो हो सकता है वह पांच बरस विपक्ष के बजाय पांच बरस सत्ता पर रहती। यह तो बात हुई पार्टियों के नजरिए से इन आंकड़ों को देखने की। लेकिन इससे परे जनता की नजर से भी इन्हें देखने की जरूरत है। वह यह है कि कई सीटों पर चार-पांच सौ वोटों से भी विधायक जीत या हार जाते हैं, कभी-कभी यह आंकड़ा सौ-पचास से नीचे भी चले जाता है। और अगर ऐसे में वहां पर कोई दुष्ट या भ्रष्ट जीत जाए, तो उसके लिए घर बैठे हुए वे कुछ सौ वोटर जिम्मेदार रहते हैं जो अगर वोट डालने गए रहते तो हो सकता है कि तस्वीर बदल गई रहती।
आज राजनीतिक दलों के तमाम चुनाव सर्वे और विश्लेषण देखें, तो वे पूरी तरह पिछले कुछ चुनावों के आंकड़ों को लेकर किए जाते हैं। अब अगर छत्तीसगढ़ के 2013 के आंकड़ों को 2018 के विधानसभा चुनाव से मिलाकर देखें, तो कांग्रेस और भाजपा के बीच वोटों का फर्क 10 फीसदी हो गया था, और सीटें कांग्रेस की 68, और भाजपा की 15 रह गई थी। इस चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले करीब आधा फीसदी कम मतदान हुआ था, लेकिन दोनों पार्टियों के बीच वोटों का फर्क जमीन-आसमान जैसा हो गया था। अब इस बात को देखा जाए कि 77 फीसदी से कम वोटों के बाद भी 20 फीसदी से अधिक तो ऐसे वोटर थे ही जो कि जिंदा होंगे, चुनाव क्षेत्र में होंगे, और वोट डालने नहीं गए। अगर वे भी गए होते तो छत्तीसगढ़ के इन दोनों चुनावों, खासकर 2013, और 2018 का भी, नतीजा कुछ का कुछ हो सकता था। 10 फीसदी का फर्क तो शायद नहीं पटता, लेकिन 2013 का पौन फीसदी का फर्क तो बिल्कुल गायब हो सकता था।
इसलिए घर बैठे आलसी, लापरवाह, गैरजिम्मेदार वोटरों को यह सोचना चाहिए कि अगर उनके इलाके से गलत और बुरे सांसद, विधायक, महापौर-पार्षद, सरपंच-पंच चुने जाते हैं, तो वे घर बैठे रहने के नाते इस बर्बादी के जिम्मेदार रहते हैं। आज ही यह कल्पना करें कि 2013 के चुनाव में अगर 10 फीसदी और लोग निकलकर वोट डालते, तो न सिर्फ सरकार कोई और बन सकती थी, बल्कि नेताओं और पार्टियों के होश उड़ गए रहते। अभी 2023 के चुनाव में भी अगर 20 फीसदी से अधिक वोटर हाथ-पैर चलते हुए भी, घर बैठे हुए भी अगर वोट डालने नहीं जाते हैं, तो उन्हीं के सरीखे मुर्दों की वजह से यह लोकतंत्र मरघट और कब्रिस्तान में तब्दील हो रहा है। हिन्दुस्तान में वोट डालना अकेला ऐसा काम है जो कि महंगाई से बेअसर है, जिस पर कोई जीएसटी नहीं है, मनोरंजन तो है पर कोई मनोरंजन टैक्स भी नहीं है, जिसके लिए इलाके के बड़े-बड़े नेता हाथजोड़े गिड़गिड़ाते खड़े रहते हैं, और गरीब से गरीब आम वोटर भी शान के साथ जाकर करोड़पतियों के साथ कतार में लगकर वोट डाल सकते हैं। अपने इलाके, प्रदेश और देश के भविष्य को तय करने का जो बड़ा मौका लोकतंत्र लोगों के हाथ देता है, उसकी अहमियत खासी बड़ी है। हिन्दुस्तान में यही अकेला ऐसा हक है जो जेंडर, जाति, धर्म, संपन्नता या विपन्नता, इन सबसे पूरी तरह आजाद है। आज देश में यही एक हक सबसे गरीब और सबसे कमजोर तबके को भी सबसे अमीर और सबसे मजबूत तबके के बराबर हासिल है। ऐसे में जो कोई भी इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं, वे लोहिया के शब्दों में मुर्दा लोगों से भी गए-गुजरे हैं, क्योंकि लोहिया का कहना था कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करती। हिन्दुस्तान के गैरजिम्मेदार घर बैठे वोटर तो ऐसे कई पांच बरस निकाल देते हैं, इसलिए वे मुर्दों से भी गए-गुजरे हैं। लोगों को लोकतंत्र में अपने जिंदा रहने का सुबूत देना चाहिए, और वोट डालने जरूर जाना चाहिए। लोगों को अपने आसपास के लोगों को भी तैयार करना चाहिए, और दोपहर-शाम तक किसी काम में फंसने के बजाय सुबह-सुबह किसी बुरे को निपटाने के इरादे से, या किसी भले को बनाने के हिसाब से वोट डालने चले जाना चाहिए।
फिलीस्तीन के गाजा में बीती रात जनसंहार का जो मंजर पेश हुआ, उससे दुनिया के सबसे हिंसक दिल भी शायद हिल जाएंगे। पांच सौ से अधिक मरीजों और जख्मियों वाले इस अस्पताल में हजारों ऐसे नागरिकों ने भी शरण ले रखी थी जो अपाहिज थे, घायल या बूढ़े थे जो बिना मदद गाजा छोडक़र नहीं जा सकते। यह अस्पताल एक बाहरी ईसाई चर्च चला रहा था, जिसका फिलीस्तीन के किसी भी गुट से कोई लेना-देना नहीं था। इस अस्पताल के बारे में इजराइल की फौज को भी खबर थी। इसके बावजूद कल वहां जो हवाई हमला हुआ है उसमें पांच सौ से अधिक लोगों के मारे जाने की खबर है, और इतने ही लोगों के जख्मी होने की। मरीजों का ऑपरेशन चल रहा था, और अस्पताल की इमारत के कई हिस्से बमबारी में गिर गए। एक ब्रिटिश मूल के प्रोफेसर हमले के वक्त अस्पताल के करीब थे, और उन्होंने बताया कि फाइटर विमानों से दो रॉकेट नीचे गिरे, और उन्होंने अस्पताल को तबाह किया। उन्होंने आंखों देखा हाल बताया कि धमाके के बाद आग लगी, और मदद करने पहुंचे लोगों के पास आग बुझाने को कुछ नहीं था। इजराइल ने इस हमले से हाथ झाड़ लिए हैं, और कहा है कि यह उसका काम नहीं है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के राजदूत ने कहा है कि इजराइल और वहां के प्रधानमंत्री झूठ बोल रहे हैं। राजदूत ने कहा कि इजराइली प्रधानमंत्री के डिजिटल प्रवक्ता ने ट्वीट किया था कि इजराइल ने ये हमला यह सोचते हुए किया कि अस्पताल के आसपास हमास का बेस है। और इसके बाद वो ट्वीट डिलीट कर दिया गया। फिलीस्तीनी अधिकारी ने कहा कि उनके पास उस ट्वीट की कॉपी मौजूद है, और बाद में इजराइल फिलीस्तीनियों पर आरोप लगाने के लिए कह रहा है कि यह हमला इस्लामी संगठनों की मिसाइल बैकफायर होने से हुआ है। उल्लेखनीय है कि इजराइली सेना के प्रवक्ता ने एक बयान दिया था कि फिलीस्तीन के इस अस्पताल को खाली करने के लिए कहा जा चुका है। इस माहौल के बीच जब पूरी दुनिया में इजराइल को इस हमले के लिए धिक्कारा जा रहा है, हमास के हमले से जख्मी हुए इजराइल के साथ एकजुटता दिखाने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन इजराइल रवाना हो चुके हैं, और इन शब्दों के छपने तक वे वहां पहुंच चुके रहेंगे। इस बीच पड़ोसी देश जॉर्डन में अमरीकी राष्ट्रपति, फिलीस्तीनी राष्ट्रपति, और मिस्र की राष्ट्रपति की होने वाली बैठक को जॉर्डन ने रद्द कर दिया है। फिलीस्तीनी अस्पताल पर इस भयानक हमले ने किसी भी तरह की शांति की संभावनाओं को पूरी तरह खत्म कर दिया है। अब दुनिया भर के देशों में फिलीस्तीनियों के समर्थन में, और इजराइल के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं, और मुस्लिमों और अरब लोगों को सडक़ों पर उतरने के लिए कहा जा रहा है।
इजराइल पर हुए हमास के आतंकी हमले के तुरंत बाद से फिलीस्तीन के गाजा के आम लोगों पर जिस तरह अंधाधुंध हवाई हमले हो रहे हैं, उसमें इजराइल अब तक हजारों बेकसूरों को मार चुका है। इसी शहर में जगह-जगह हमास के लोगों और दफ्तरों, हथियारबंद ठिकानों का आरोप लगाते हुए इजराइल वहां अंधाधुंध हवाई हमले कर रहा है, और उसे इस शहर में बसे 20-25 लाख फिलीस्तीनियों को शहर छोडक़र चले जाने की चेतावनी दी है। आज फिलीस्तीन के हजारों बेकसूर मुस्लिमों के इस तरह मारे जाने, और दसियों लाख के बेघर होने से उन पर दशकों से चले आ रही इजराइली गुंडागर्दी, और फौजी ज्यादतियों का मुद्दा एक बार फिर उठ खड़ा हुआ है, और अब मुस्लिम और इस्लामिक देश एक अभूतपूर्व तनाव में हैं कि क्या वे फिलीस्तीन के दसियों लाख मुस्लिमों को इस तरह इजराइल के हमलों से मरने के लिए छोड़ सकते हैं, और उसके बाद भी इस्लामिक दुनिया के नेता बने रह सकते हैं? यह दुविधा आज बहुत से देशों को परेशान कर रही है। हिन्दुस्तान के कांग्रेसशासित राज्य कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू की खबर है कि वहां पर एक प्रमुख बस्ती में फिलीस्तीन के पक्ष में बहुत्व कर्नाटक संगठन के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे थे, पुलिस ने उनके खिलाफ जुर्म दर्ज किया है कि वे बिना इजाजत प्रदर्शन कर रहे थे। लोगों ने इस पर कहा है कि कांग्रेस एक तरफ तो फिलीस्तीनियों के साथ का दावा करती है, दूसरी तरफ उसकी सरकार फिलीस्तीनियों के हक के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर जुर्म दर्ज कर रही है।
आज संयुक्त राष्ट्र से लेकर रेडक्रॉस तक तमाम अंतरराष्ट्रीय संगठन बहुत तकलीफ के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं, और इसे एक भयानक जनसंहार बतला रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस बात का भी विरोध कर रहा है कि इजराइल ने जिस तरह गाजा की फौजी नाकाबंदी करके वहां पानी, बिजली, खाना, दवा कुछ भी जाना बंद कर दिया है, वह अपने आपमें एक युद्ध अपराध है। जहां पर दसियों लाख आम नागरिक बसे हुए हैं, वहां पर इस तरह की फौजी नाकाबंदी मानवता के खिलाफ अपराध है। लेकिन मानवता के खिलाफ अपराध का यह इजराइली और अमरीकी जुर्म नया नहीं है। वे दशकों से यही करते आ रहे हैं, और इजराइली फौजों के किए गए जनसंहार को बचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में अमरीका वीटो का इस्तेमाल करके इजराइल को हर कार्रवाई से बचाते रहा है। इस तरह हिटलर के बाद दुनिया के इस एक सबसे बड़े जुर्म में अमरीका इजराइल का भागीदार है।
बीती रात के इस अस्पताल पर हमले पर भी अगर दुनिया नहीं जागती है, तो यह कई मुस्लिम देशों में अमरीका के किए हुए हमलों का इजराइली विस्तार होगा। और यह मुस्लिम और अरब देशों के लिए डूब मरने की बात भी होगी कि वे अपने पड़ोस के फिलीस्तीनी, मुस्लिमों को बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर रहे हैं, और महज तेल की कमाई खाते हुए अय्याशी में डूबे हुए हैं। इतिहास उन तमाम मुल्कों को याद रखेगा जिन्होंने इस दौर में बेकसूर और गरीब, बेबस और कमजोर फिलीस्तीनियों को उनके हाल पर छोड़ दिया था।
दिल्ली के करीब नोएडा में 2006 में बच्चों से सिलसिलेवार बलात्कार और उनके कत्ल का एक ऐसा मामला सामने आया था जिसने सबको हिलाकर रख दिया था। निठारी कांड नाम से कुख्यात इस मामले में दर्जन भर अलग-अलग कत्ल के लिए एक मकान के मालिक और नौकर को फांसी की सजा हुई थी, और अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत के इन फैसलों को पूरी तरह खारिज कर दिया है। मकान मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर को तो हाईकोर्ट ने फांसी की दर्जन भर सजाओं से बरी करते हुए कहा है कि सीबीआई सुबूतों के आधार पर संदेह से परे यह साबित नहीं कर पाई कि ये दो लोग मुजरिम थे। 2006 में एक नाले से 8 बच्चों के कंकाल मिले थे, और इन दो आरोपियों से एक के तथाकथित बयान पर पुलिस ने पूरा केस खड़ा किया था कि किस तरह बच्चों से बलात्कार के बाद मालिक और नौकर उनके टुकड़े करते थे, उन्हें नाले में बहा देते थे, और उस वक्त शायद ऐसा भी बयान सामने आया था कि कुछ बच्चों के टुकड़े पकाकर खा भी लेते थे। अब हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने कहा है कि जांच एजेंसी ने परले दर्जे की लापरवाही से सुबूत जुटाए, ढंग से बयान भी दर्ज नहीं किया, कोई कानूनी औपचारिकताएं नहीं निभाईं, और गरीब नौकर को दैत्य बनाकर उसे इस मामले में फंसा दिया। अदालत ने यह भी माना है कि जांच की गंभीर खामियों के कारण निचली अदालत से सजा के बाद भी ये अपीलकर्ता चतुराई से निष्पक्ष सुनवाई से बच गए हैं। 2017 में इन्हें मिली सजा को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया है।
पंढेर नाम के मालिक और कोली नाम के नौकर पर 2006 में कत्ल, रेप, मानव तस्करी, और सुबूत मिटाने के आरोप थे। जब पंढेर के बंगले के पीछे से बच्चों के कंकाल मिलने शुरू हुए, तो उन खबरों से देश हिल गया था। बहुत से गरीब मां-बाप ने अपने बच्चे इस मामले में खोए थे, और वे इस मामले की सुनवाई में अपनी जमीन बेचकर भी इंसाफ की तलाश में लगे हुए थे। यह मामला खबरों में इतना अधिक आया था कि इसे सीबीआई को दे दिया गया था, और यूपी पुलिस की प्रारंभिक जांच के बाद आगे का काम सीबीआई ने किया था। अब हाईकोर्ट ने पूरी की पूरी जांच को घटिया, और खामियों भरी बताते हुए उसकी वजह से दोनों अभियुक्तों को बरी किया है। हम न तो निचली अदालत के फैसले पर कोई टिप्पणी करना चाहते, और न ही अब हाईकोर्ट से इन दो लोगों की रिहाई पर। लेकिन यह सवाल जरूर उठाना चाहते हैं कि पहली नजर में जो मामला इतना आसान लग रहा था, उस मामले की जांच अगर इतनी कमजोर की गई कि हाईकोर्ट के पास इन्हें छोडऩे के अलावा कोई विकल्प नहीं था, तो यह शर्मिंदगी की बात है, खासकर जांच एजेंसी के लिए, या उसके पहले सुबूत जब्त करने वाली यूपी पुलिस के लिए। बहुत से मामलों में सीबीआई के दाखिले के पहले राज्य पुलिस ही सुबूत जब्त करती है, और अगर उसमें कानून बारीकियों का ख्याल नहीं रखा जाता, तो फिर पूरा मामला ही कमजोर हो जाने का खतरा रहता है। अभियुक्तों के वकील, बचाव पक्ष के पास कानूनी नुक्तों के आधार पर सुबूतों को खारिज करवाने का हक रहता है, और एक ही सुबूत खामियों सहित जब्त करने के बाद उन्हें दुबारा बिना खामियों के जब्त करने की कोई गुंजाइश तो रहती नहीं है, नतीजा यह होता है कि पुलिस, या सीबीआई की जांच की लापरवाही बचाव पक्ष का हथियार बन जाती है, और फिर मुजरिमों के छूट जाने की बड़ी गुंजाइश खड़ी हो जाती है। इस मामले में इतने सारे कत्ल के बाद भी, निचली अदालत से इतनी-इतनी फांसियों की सजा पाने के बाद भी अगर हाईकोर्ट में लोग पूरी तरह छूट जा रहे हैं, तो यह देश की जांच और न्याय व्यवस्था के लिए शर्मिंदगी और फिक्र दोनों की बात है।
और यह बात तो आज हम इसलिए कर रहे हैं कि निठारी कांड देश का अपने किस्म का सबसे कुख्यात मामला था, और उसने देश को हिलाकर रख दिया था। ऐसा माना जा रहा था कि इंसानों की शक्ल में ये दो लोग हैवान थे, जो छोटे बच्चों से बलात्कार के बाद उन्हें काटकर, पकाकर खाते भी थे, और नाले में फेंक देते थे। अब ऐसा मामला भी अदालत में बिना कलफ, बिना नाड़े के पैजामे की तरह गिर पड़ा। देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी, सीबीआई की जांच के बाद अगर यह नतीजा निकला है, और अदालत की ऐसी टिप्पणी एजेंसी के खिलाफ आई है, तो इस बारे में जांच की बारीकियों पर सीबीआई और राज्य पुलिस दोनों को काम करना चाहिए।
हम इस मामले को जोडक़र तो यह बात नहीं बोल रहे, लेकिन देश भर में राज्य की पुलिस के तैयार किए गए बहुत से मामले अदालतों में रेत के महलों की तरह ढह जाते हैं क्योंकि जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों का न तो प्रशिक्षण ठीक होता है, न उन्हें लापरवाही से बचने की फिक्र रहती है। छत्तीसगढ़ में बेमेतरा की जिला अदालत से अभी एक फैसला हुआ जिसमें बिरनपुर गांव में एक झोपड़े में लगाई गई आग के मामले में जिम्मेदार बताए गए 8 लोगों को अदालत ने बरी कर दिया कि इन्हें बिना किसी भी सुबूत के गलत तरीके से पकड़ा गया था, पुलिस के पास कोई सुबूत नहीं थे, और जिले के तत्कालीन एसपी और एडिशनल एसपी ने अपनी निगरानी में एक छोटे पुलिस अफसर से जांच करवाई थी। बेमेतरा जिला अदालत के एक जज पंकज कुमार सिन्हा ने जिले के एसपी और एडिशनल एसपी के खिलाफ जांच करने के निर्देश पुलिस महानिदेशक और दुर्ग आईजी को दिए हैं। पुलिस ने एक झोपड़ेनुमा मकान में लगाई गई आग के वक्त आसपास खड़े 8 लोगों को गिरफ्तार करके उन पर मुकदमा चलाया था। यह घटना 10 अप्रैल की थी, और 6 महीने के भीतर ये सारे लोग छूट गए क्योंकि पुलिस कोई सुबूत पेश नहीं कर सकी।
जब राज्य की पुलिस अपने निकम्मेपन, समझ की कमी, या भ्रष्टाचार की वजह से जांच सही नहीं करती है, गवाही और सुबूत दर्ज करने में ही कानूनी खामियां छोड़ती है, तो मुजरिमों के बच निकलने की गुंजाइश बहुत रहती है क्योंकि अदालत किसी पर भी आरोप संदेह से परे साबित करने की उम्मीद रखती है। निठारी कांड पर यूपी पुलिस और सीबीआई की इस ताजा नाकामयाबी का देश के सभी राज्यों के पुलिस को अध्ययन करना चाहिए, अपने प्रदेश के ऐसे दूसरे मामलों का भी अध्ययन करना चाहिए, और अपने जांच अधिकारियों का कानूनी प्रशिक्षण भी करवाना चाहिए ताकि जांच की कमजोरी या खामी से मुजरिम बच न निकलें। जो सच में ही मुजरिम रहते हैं, उनका रिहा होकर समाज में खुला घूमना समाज के लिए खतरा भी रहता है।
जब लोगों के पास अपनी कोई समझ नहीं रह जाती, तो फिर धर्म उनके बहुत काम आता है। किसी धर्म की आराधना के संगीत में लोगों को जोडऩे की जितनी ताकत रहती है, उससे हजार गुना ताकत किसी धर्म के लोगों से नफरत करने में विधर्मी-धर्मान्ध लोगों के बीच रहती है। एक धर्म से नफरत दूसरे धर्म के लोगों को तुरंत एकजुट कर देती है। जिस गुजरात के जय शाह बीसीसीआई के सचिव हैं, उनके ही गुजरात में जब नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में पाकिस्तान की टीम खेलने उतरी तो उनका स्वागत करने के लिए दर्शकों के पास सिर्फ आक्रामक नारों के साथ हवा में मुट्ठी लहराते जयश्रीराम के नारे थे। एक मेहमान टीम से नफरत पैदा करने के लिए मेजबान दर्शकों में अपने धर्म के प्रति धर्मान्ध होना जरूरी था, और वही काफी भी था। लोगों ने सोशल मीडिया पर इस बर्ताव के बारे में लिखा भी, और अफसोस भी जाहिर किया। लेकिन ऐसी समझ रखने वाले लोग जहरीली धर्मान्धता वाले लोगों के मुकाबले कम मुखर रहते हैं, और इसीलिए कम दिखते हैं। हवा में नफरत घोलने वाले लोग चाहे गिनती में कम रहते हों, वे दिखते अधिक हैं। धर्मान्धता का ऐसा ही असर आज हिन्दुस्तान के उन लोगों में दिख रहा है जो बेकसूर फिलीस्तीनी नागरिकों को मार रहे इजराइल पर फिदा हैं, क्योंकि वह मुस्लिमों को मार रहा है। पूरी दुनिया में जो भी मुस्लिमों के खिलाफ बात करे, वैसे ट्रम्पों को चुनाव में जितवाने के लिए हिन्दुस्तान में एक तबका यज्ञ और हवन करने लगता है। जब कोई मुस्लिम देशों पर बम बरसाए तो उसकी लंबी उम्र की कामना करने लगता है। और आज जब इजराइल एक जंग के नाम पर बेकसूर फिलीस्तीनियों को मारकर अपनी घरेलू एकता कायम कर रहा है, तो उस पर भी हिन्दुस्तान का एक धर्मान्ध तबका फिदा है कि वह मुस्लिमों को मार रहा है।
किसी भी देश या समाज के आगे बढऩे की क्षमता उस वक्त खत्म होने लगती है जब उसकी सोच इतनी तंगदिल और तंगनजरिए की हो जाती है कि किसी दूसरे की बर्बादी उसे अपनी कामयाबी लगने लगती है। किसी और को आए जख्म, उनकी गिरी लाशें जिन्हें सुहाने लगती हैं, वे खुद जिंदगी में कुछ और हासिल करना नहीं चाहते क्योंकि खुद की मेहनत के बिना दूसरों की लाशें देखकर उन्हें खुशी और गर्व दोनों हासिल हो रहे हैं। ऐसा समाज आगे बढऩा बंद कर देता है, और हिन्दुस्तान के एक बड़े तबके के साथ आज यही हो रहा है कि उसे पाकिस्तान में आटे की कतार में लगे लोगों की भगदड़ में दर्जन भर मौतें हो जाने से तसल्ली हो रही है, जिसे पाकिस्तान में तीन-चार सौ रूपए लीटर पेट्रोल होने पर हिन्दुस्तानी पेट्रोल महंगा लगना बंद हो गया है, जबकि दोनों देशों के रूपयों के दाम में ये रेट बराबर ही है। धार्मिक नफरत समझ को खोखला और कमजोर कर देती है।
लोगों के तर्कपूर्ण और न्यायसंगत होने का एक बड़ा रिश्ता उनकी वैज्ञानिक समझ से जुड़ा रहता है। और वैज्ञानिक समझ का मतलब कहीं भी धर्मविरोधी होना नहीं होता है। दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक धर्म पर अपनी निजी आस्था रखते आए हैं, लेकिन उन्होंने अपनी आस्था को अपनी वैज्ञानिक समझ पर हावी नहीं होने दिया, इसीलिए वो वैज्ञानिक बन पाए। अगर इंसानी पुरखों को महज ईश्वर के भरोसे बैठना होता, तो वे आसमानी बिजली गिरने पर लगने वाली आग की राह तकते, वे चकमक पत्थर का आविष्कार नहीं करते। वे पत्थर को तराशकर गोल चक्का नहीं बनाते, और वे न पकाना सीखते, न कपड़े पहनना। ये तमाम चीजें एक वैज्ञानिक सोच के साथ आईं, धर्म ने अगर कुछ किया, तो वह इस वैज्ञानिक सोच की धार को भोथरा करने का काम ही किया, विज्ञान की रफ्तार को घटाने का काम किया। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि जिस वक्त योरप विज्ञान और तकनीक से हो रही औद्योगिक क्रांति से गुजर रहा था, उस वक्त हिन्दुस्तान में बादशाह रास-रंग में डूबे हुए किले और महल बनवा रहे थे। ऐसी ही वजहें थी कि विज्ञान और तकनीक की अहमियत समझने वाले देश आगे बढ़ते चले गए, और धर्म को ही सब कुछ समझने वाले देश पीछे रह गए, गुलाम भी बन गए। हिन्दुस्तान में एक तबके का अपार भरोसा इस बात पर है कि इस देश के किसी खालिस हिन्दू इतिहास में देश के पास ब्रम्हास्त्र थे। लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जब अंग्रेज बंदूकें लेकर आए, तो वे सारे ब्रम्हास्त्र कहां चले गए थे?
इसलिए झूठे गौरव में डूबा समाज कभी अपनी सारी संभावनाओं को नहीं छू पाता। आज पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को हिन्दुस्तानी क्रिकेट टीम अगर बुरी तरह से हरा रही है, तो वह किसी धर्म या मजहब की वजह से नहीं है, खेल की वजह से है। लेकिन खेलभावना को कुचलकर अगर सिर्फ धार्मिक नफरत से किसी टीम को खारिज करना है, हिन्दुस्तान की तथाकथित अतिथि सत्कार की परंपरा को कचरे की टोकरी में डाल देना है, तो इतनी ताकत महज धर्म में है, इतनी नफरत महज धर्म सिखा सकता है। और यही नफरत आज हिन्दुस्तान के एक तबके को फिलीस्तीन के साथ हो रही ऐतिहासिक बेइंसाफी समझने से परे रखती है, यही नफरत एक जुल्मी और हमलावर इजराइल की तारीफ करवाती है। और ऐसी नफरत ही मणिपुर में बड़ी संख्या में मारे जाते ईसाई-आदिवासियों के लिए किसी भी तरह की हमदर्दी रोकती है। यही नफरत हिन्दुस्तान को हिन्दू राष्ट्र बनाने पर आमादा है, और यही नफरत हिन्दुस्तान को एक अखंड भारत बनाने पर भी आमादा है, फिर चाहे एक साधारण सा गणित बता देगा कि ऐसे अखंड भारत में मुस्लिम आबादी कितना गुना बढ़ जाएगी। धर्मान्धता, और धार्मिक नफरत ये लोगों से अंकगणित की बुनियादी समझ भी छीन लेते हैं।
आज जिन लोगों को इजराइल सुहा रहा है, उन्हें याद रखना चाहिए कि जिस दिन उसके पड़ोसी इजराइल की तरह उनके घरों को धराशायी करेंगे, उन्हें बेदखल करके उनकी जमीन पर अपना घर बना लेंगे, उनके बच्चों को बेघर कर देंगे, उस दिन उन्हें पता लगेगा कि बेघर फिलीस्तीनियों का दर्द क्या होता है।
अभी बस इतना लिखना हुआ ही था कि अमरीका से एक खबर आई है, वहां पर एक 71 बरस के ईसाई मकान मालिक ने अपनी एक फिलीस्तीनी मुस्लिम महिला किराएदार और उसके 6 बरस के बेटे को उनके घर में घुसकर दर्जनों बार चाकू घोंपा, और चीखते रहा कि तुम मुस्लिमों को मार डाला जाना चाहिए। यह इजराइल-फिलीस्तीन मुद्दे को लेकर अमरीका में हुआ एक नफरती अपराध है जिसमें छोटा सा बेकसूर बच्चा इस तरह मार डाला गया। किसी धर्म से नफरत लोगों को 71 बरस की उम्र में भी हत्यारा बनाकर बाकी जिंदगी जेल भेज सकती है, इसकी यह एक जलती-सुलगती मिसाल है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने इस बच्चे की हत्या को नफरत का भयानक जुर्म बताया है, लेकिन यह कहते हुए वे अपनी उस मुनादी को भूल गए हैं जिसमें उन्होंने इसी हफ्ते इजराइल को फिलीस्तीनी नागरिकों पर हमले की खुली छूट दी थी, खुला उकसावा दिया था। हमास के लड़ाकों पर हमले के नाम पर इजराइल ने फिलीस्तीन के नागरिक इलाकों पर जो बमबारी की है उसमें ढाई हजार से अधिक लोग मारे गए हैं, जिनमें से अधिकतर आम नागरिक हैं। अमरीकी राष्ट्रपति का ऐसा खुला उकसावा अमरीका के कुछ धर्मान्ध नागरिकों को भी उसी तरह प्रभावित कर रहा है जिस तरह भारत के अहमदाबाद के क्रिकेट दर्शकों को।
वैसे तो कम्प्यूटर तकनीक और मशीनों को इंसान ने बनाया है, लेकिन यह जरूरी नहीं होता कि खुद ने जो बनाया है उससे हमेशा सबक भी लिया जा सके। कम्प्यूटर की जितनी खूबियां हैं, उनसे इंसानी दिल-दिमाग बहुत सी चीजें सीख सकते हैं, और इंसान का दिमाग जिस हद तक लचीला है, उसके लिए अपने आपको ऐसा ढालना नामुमकिन तो बिल्कुल नहीं है।
अब कम्प्यूटर की एक खूबी तो यह है कि उसकी याददाश्त से चीजों को हटाया जा सकता है। जैसे-जैसे कंप्यूटर की हार्डडिस्क या किसी और किस्म की मेमोरी भरती जाती है, उसका काम धीमा होते जाता है। जब वह पूरी तरह भरने लगती है, तो कंप्यूटर जटिल हिसाब-किताब नहीं कर पाता, और उसकी मेमोरी खाली करनी होती है। ऐसा ही मोबाइल फोन के साथ भी होता है जो कि एक छोटा कम्प्यूटर ही है, और जब उसमें फोटो और वीडियो भरते-भरते गले तक भर जाते हैं, वह काम करना लगभग बंद कर देता है।
लोगों की याददाश्त पर काम करने वाले वैज्ञानिकों का यह मानना है कि अगर किसी नए विचार पर काम करना है, तो दिमाग में पहले से चल रहे बहुत से विचारों को रोकना या कम करना जरूरी होता है। ऐसा करने से बहुत सी तकलीफों से भी बचा जा सकता है, और कुछ बातों को भूले बिना आगे बढऩा मुमकिन नहीं है। यह बात कुछ उसी तरह की है कि कार को चलाते हुए अगर आगे ले जाना है, तो पीछे का दिखाने वाले आईने में झांकना बंद करना पड़ता है। यह मुमकिन नहीं होता कि पूरे वक्त पीछे देखते चलें, और आगे बढ़ते चलें। यह कुछ इस किस्म का भी है कि क्लासरूम का ब्लैकबोर्ड, या स्कूल के बच्चे की स्लेट-पट्टी, इन पर लिखे हुए को जब तक मिटाया नहीं जाता, तब तक इन पर आगे कुछ लिखा भी नहीं जा सकता। कम्प्यूटरों की चर्चा के बिना भी यह बात कही जाती है कि कोई नया काम करना हो तो क्लीन स्लेट से शुरुआत करनी चाहिए। पुराने जमाने की एक कहावत भी है, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले।
बीते वक्त की यादों की भारी-भरकम टोकरी को सिर पर लादे हुए आगे का बड़ा और लंबा सफर मुमकिन नहीं होता। लोगों को पुराने रिश्तों या रंजिशों के बोझ से छुटकारा पाकर ही अपने को आगे के सफर के लिए तैयार होने का मौका मिलता है। वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि दिमाग की याददाश्त की क्षमता और सोचने की क्षमता दोनों का कोई मुकाबला कम्प्यूटर नहीं कर सकते, लेकिन जिस तरह कंप्यूटर में अलग-अलग बिखरी हुई बातों को एक साथ करने से भी उसकी क्षमता बढ़ती है, ठीक उसी तरह इंसानी दिमाग को डीफ्रेगमेंट करना सबके लिए तो मुमकिन नहीं है, लेकिन योग-ध्यान करने वाले, प्राणायाम करने वाले अपने सोचने पर कुछ या अधिक हद तक काबू कर पाते हैं।
प्राणायाम में जिस तरह बाहरी दुनिया से धीरे-धीरे अपने को अलग करते हुए अपनी ही सांसों के साथ, उसी पर ध्यान देते हुए कुछ वक्त रहने का काम होता है, वह दिमाग पर एक किस्म से काबू पाने की एक तकनीक भी है। और बाकी सबको भूलकर कुछ वक्त के लिए अपने में जीना, महज अपने साथ जीना, यह भी उतने वक्त के लिए बाकी यादों से परे जीने का काम होता है। जिस तरह कम्प्यूटर की मेमोरी खाली करने पर उसका प्रदर्शन बेहतर होने लगता है, वैसा ही इंसानों के साथ भी होता है, फिर चाहे वे उसे मानें, या न मानें। होता यही है कि यादों में बहुत उलझे हुए लोग, बीती जिंदगी की गलियों में ही भटकते हुए लोग बहुत आगे नहीं बढ़ पाते।
अपने ही बनाए हुए कंप्यूटर से सीखने की बहुत सी बातें इंसानों को और भी मिलती हैं। गैरजरूरी पन्नों को बंद करना, गैरजरूरी एप्लीकेशन बंद करना बेहतर कामकाज के लिए कितना जरूरी है, यह भी कंप्यूटर से सीखने की जरूरत रहती है। लोग मल्टीटास्किंग करते हुए बहुत सारे काम शुरू कर देते हैं जिन्हें वे साथ-साथ करते चलते हैं, लेकिन कम्प्यूटर की भी ऐसा करने की एक सीमा रहती है। लोग कई बार अपनी सीमाओं को नहीं पहचान पाते, और एक साथ बहुत से काम छेड़ देते हैं, और फिर उनमें से कोई भी काम किसी किनारे नहीं पहुंच पाता। अपनी खुद की क्षमता की सीमाओं को पहचानना, और फिर उसके भीतर-भीतर काम करना, यह कामयाब होने की कई शर्तों में से एक शर्त रहती है।
जिस तरह इंसान बाकी कुदरत से, जंगलों और पेड़ों से, नदियों के बहाव से, समंदर के फैलाव से, आसमान और पंछियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, उसी तरह अपनी बनाई मशीनों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर प्रेरणा का एक पोस्टर पोस्ट किया था जिसमें सीढिय़ों के सामने खड़े एक इंसान के सामने पहली सीढ़ी बाकी के मुकाबले चार-छह गुना अधिक ऊंचाई की थी, और लिखा था कि पहला कदम ही सबसे भारी होता है। इस बात को लोगों ने कई अलग-अलग तरह से लिखा है, और कुछ ने हौसला बढ़ाने वाली यह बात भी लिखी है कि हजार मील का सफर भी पहला कदम बढ़ाने के बाद ही शुरू होता है। किसी भी बड़े और कड़े काम की शुरुआत कुछ मुश्किल होती है। जो लोग किसी भी तरह की कार या मोटरसाइकिल चलाते हैं, वे जानते हैं कि खड़ी गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए जो पहला गियर लगता है, वही इंजन की सबसे अधिक ताकत होती है, और फिर जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती है, अगले गियर कम ताकत के रहते हैं। जब गाड़ी पूरी रफ्तार पर आ जाती है, तो टॉप गियर सबसे ही कम ताकत का रहता है। असल जिंदगी में भी इंसान अगर देखे तो किसी भी चुनौती का शुरुआती वक्त सबसे कठिन होता है, और इसके बाद धीरे-धीरे कठिनाई कम होते चलती है, जब लोग मंजिल की तरफ अपने सफर पर कुछ आगे बढ़ निकलते हैं, तो जिंदगी का गियर भी कम ताकत वाला टॉप गियर लगता है।
ये तमाम चीजें बनाई हुई तो इंसानों की हैं, लेकिन इन सबकी जो सीमाएं या खूबियां हैं, उनको देखकर सभी लोग पहले की देखी-भाली बातों को भी एक नए नजरिए से देख सकते हैं, और सीख सकते हैं। यहां पर हम कुल दो-तीन चीजों की मिसाल दे रहे हैं, लेकिन लोग अपने-अपने दायरे में अपने काम आने वाली बाकी मशीनों, बाकी चीजों को याद करके उनसे बहुत कुछ सीख भी सकते हैं। फिलहाल जिस बात से शुरू किया था, उसी पर लौटें तो वह यह है कि लोगों को गैरजरूरी यादों से छुटकारा पाना सीखना चाहिए। लोगों को सुबह उठने के बाद रात के सपनों के बारे में सोचने के बजाय दिन में क्या-क्या करना है इस बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के बहुत से दार्शनिकों ने दुश्मनी को भुला देने, दर्द को भुला देने की नसीहत भी हजारों बरस से दी है। जहां से निकलकर आगे बढ़ चुके हैं उसे भी भुला देने को कहा है। और मशीनें भी कुछ-कुछ वैसा ही सुझाती हैं और हमारे सामने अधिक ठोस तरीके से यह सामने रखती हैं कि ऐसा करने से काम कैसे आसान हो जाता है।
इजराइल और फिलीस्तीन के मुद्दे ने दुनिया को इनमें से किसी एक के पक्ष में उलझा दिया है। यह उलझन धर्म की वजह से है, या लोगों के अपने देश की विदेश नीति की वजह से है, या जिन लोगों ने इतिहास को बेहतर जाना और समझा है, उनके लिए इंसाफ के तर्कों की वजह से वे इनमें से किसी एक के साथ हैं। इंसाफ की बात करने वाले अधिकतर लोग फिलीस्तीन के साथ हैं, लेकिन दुनिया के कामयाब कारोबारी इजराइल को बेहतर समझते हैं क्योंकि वह दुनिया का एक सबसे कामयाब कारोबारी मुल्क है। अंतरराष्ट्रीय संगठन अपनी जिम्मेदारी समझते हैं, और उन्होंने इस मौके पर बेकसूर इजराइली नागरिकों पर हुए फिलीस्तीनी आतंकी संगठन हमास के हमले की निंदा की है, और साथ-साथ अगले ही वाक्य में बेकसूर फिलीस्तीनी आबादी पर इजराइली बमबारी की भी निंदा की है, जिसमें मारे जाने वाले अधिकतर लोग हमास से परे के आम फिलीस्तीनी हैं।
फिलीस्तीन और इजराइल के बीच विवाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि गांधी अपने अखबार हरिजन और यंग इंडिया में फिलीस्तीनियों के हक की वकालत करते थे। पौन सदी पहले से भी इजराइलियों का यह जुल्म चले आ रहा था, और पूरी दुनिया में जो बेघर शरणार्थी रहते हैं, उनके लिए फिलीस्तीनी शब्द एक विशेषण की तरह इस्तेमाल होता है। अपने ही घर में बेघर, अपने ही देश में एक खुली जेल के कैदी की तरह रहते फिलीस्तीनियों को इजराइली हिंसा और जुल्म से संयुक्त राष्ट्र संघ भी नहीं बचा पाया जबकि उसने दर्जनों प्रस्ताव इजराइल के खिलाफ पास किए हुए हैं। ऐसी नौबत में इस जटिल मुद्दे को लेकर एक बेहतर समझ की जरूरत है क्योंकि यह मुद्दा खबरों में बने रहेगा, और लोग अपने धर्म के पूर्वाग्रहों की वजह से बेइंसाफी का साथ देते रहेंगे। ऐसे में न सिर्फ इस मुद्दे को, बल्कि इस किस्म के दूसरे जटिल मुद्दों को समझने के लिए एक तर्कपूर्ण नजरिए की जरूरत रहती है, और आज हम इस प्रसंग में बात करते हुए इस तरह की दूसरी नौबतों की भी चर्चा करना चाहते हैं।
जिस तरह हमास ने अपनी ताकत और औकात के बाहर जाकर इजराइल जैसी बड़ी फौजी ताकत पर इतना कड़ा हमला किया, और सोच-समझकर सैकड़ों नागरिकों को मारा, दर्जनों या सैकड़ों का अपहरण भी किया, उससे यह तो साफ था कि इजराइल की प्रतिक्रिया क्या होगी, लेकिन यह अभी तक साफ नहीं है कि उतनी भयानक प्रतिक्रिया का अंदाज रहते हुए भी हमास ने यह हमला क्यों किया? हमास तो एक आतंकी संगठन है जो कि गाजा पट्टी जैसे छोटे से इलाके पर काबिज है, वह न तो फौज है, और न ही निर्वाचित सरकार है, यह एक अलग बात है कि उसे ईरान जैसे ताकतवर मुल्क का साथ हासिल है, लेकिन हमास के हमले के जवाब में इजराइल जिस तरह से गाजा पर फौजी हमला कर रहा है, उसका अंदाज तो कोई फिलीस्तीनी बच्चे भी लगा सकते थे। यह भी जाहिर था कि इजराइल अपने हजार-दो हजार नागरिकों की मौत का हिसाब चुकता करने के लिए उससे अधिक संख्या में फिलीस्तीनियों को मारेगा, ताकि अपने सहमे हुए नागरिकों को वह चेहरा दिखा सके। हुआ भी वही। और यह भी हुआ कि फिलीस्तीन पर हवाई हमलों में हमास के कब्जे वाली कुछ इमारतों से परे सैकड़ों या हजारों आम फिलीस्तीनी मारे जा रहे हैं, जिन पर संयुक्त राष्ट्र से लेकर इजराइल के सबसे बड़े मददगार अमरीका तक को मुंह खोलना पड़ रहा है। ऐसे में सैकड़ों की संख्या में मारे जा रहे बेकसूर फिलीस्तीनियों के पक्ष में कई अरब मुस्लिम देशों के बीच एक हमदर्दी पैदा हो रही है, और इजराइली हमले के खिलाफ इन देशों से आवाजें उठ रही हैं।
अब हमास के हमले से जो नौबत उठ खड़ी हुई है उसे देखें, तो जो इजराइल अपने नागरिकों के एक बड़े तबके के इतिहास के सबसे बड़े विद्रोह को झेल रहा था, वह पल भर में खत्म हो गया। इजराइली जनता अपनी भ्रष्ट और दकियानूसी सरकार के खिलाफ सडक़ों पर थी, आंदोलन कर रही थी, और रिजर्व फौजी ड्यूटी का भी बहिष्कार कर रही थी, वह सब कुछ पल भर में खत्म हो गया, और दूसरे देशों में बसे इजराइली भी अपने देश की फौज में शामिल होने के लिए लौट रहे हैं। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री नेतन्याहू अपनी जिंदगी की सबसे बुरी घरेलू चुनौती झेल रहे थे, और अब वे मुसीबत की इस घड़ी में अपने देश के सबसे बड़े दुश्मन से जंग में उतरे हुए सेनापति की तरह हो गए हैं, और तमाम नागरिक उनसे मतभेद भूलकर उनके साथ खड़े हैं, फौज की ड्यूटी की कतार में लगे हैं। जब कभी कोई देश आतंकी हमला या किसी देश की जंग झेलता है, तो उसके मौजूदा नेता पूरे देश का समर्थन पाते हैं। इसलिए हमास के इस हमले का पहला सबसे बड़ा फायदा इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को हुआ है कि उनके सारे घरेलू संकट खत्म हो गए हैं, और जंग में अपने देश की अगुवाई करने वाले नेता की तरह वे अब तमाम मजबूती पा चुके हैं। पूरी दुनिया का इतिहास बताता है कि जंग से जीतकर लौटे मुखिया अपनी पार्टी को अगला चुनाव जिता देते हैं। लोगों को भारत का 1971 का युद्ध याद रखना चाहिए जिसके बाद विपक्षियों ने भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से की थी।
अब नेतन्याहू को इस नौबत से नुकसान भी बहुत हुआ है क्योंकि इजराइल अपनी सारी खुफिया निगरानी की साख खो बैठा है। लेकिन वह साख कारोबार के काम की थी, और नेतन्याहू को राजनीतिक मुसीबत से बचाने के काम की नहीं थी। दूसरी तरफ फिलीस्तानी में हमास है जो कि फिलीस्तीनियों के मुद्दों पर दुनिया का ध्यान खींचना चाहता है, लेकिन वैसा हो नहीं पा रहा था। अब इजराइल पर हमले के बाद हमास की निंदा चाहे जितनी हुई हो, दो-चार दिन के भीतर ही इजराइली फौजी प्रतिक्रिया ने हमास को खलनायक दिखाना बंद कर दिया है, और अब इजराइल खलनायक दिखने लगा है। यह नौबत फिलीस्तीनियों के बुनियादी मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय चर्चा के केन्द्र में ला चुकी है। और इससे कुछ हजार मौतें जरूर हुई हैं, लेकिन इतने बेकसूर मुस्लिम-फिलीस्तीनियों के मारे जाने से अब मुस्लिम-अरब देशों के लिए भी यह मजबूरी हो गई है कि वे इस मुद्दे पर साथ बैठें और कुछ सोचें।
हम हमास के हमले और इजराइल की प्रतिक्रिया इन दोनों को किसी एक, या अलग-अलग साजिश का हिस्सा नहीं कह रहे हैं, लेकिन इन दोनों कार्रवाईयों के बाद क्या होगा, इसका अंदाज लगाना मुश्किल नहीं था। हमले से जख्मी इजराइल की मौजूदा सरकार का जनविरोध खत्म हो जाना तय था, और इजराइली हमले से जख्मी फिलीस्तीन का अरब और मुस्लिम हमदर्दी पाना भी तय था। अब सोचने की बात यह है कि हमारे सरीखे दूर बैठे लोगों को अपनी सीमित रणनीतिक और कूटनीतिक समझ के साथ अगर इन दो हमलों के ऐसे असर सूझ रहे हैं, जो कि पहले से सोचे जा सकते थे, तो फिर यह समझने की भी जरूरत है कि क्या इन दोनों ताकतों ने पहले यह अंदाज नहीं लगाया होगा? इजराइल के साथ हमास की छोटी-मोटी लड़ाई उसे किसी किनारे नहीं पहुंचा रही थी, और अपने नागरिकों से जूझते हुए इजराइल की सरकार किनारे लग गई थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इजराइल की आज की सरकार में वहां के इतिहास की एक सबसे ही कट्टरपंथी पार्टी सत्ता में भागीदार है। तो क्या इनमें से कोई भी कार्रवाई उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया का अंदाज लगाकर की गई थी? ऐसे बहुत से रहस्यमय सवाल हैं, और दुनिया के दूसरे देशों में भी ऐसे रहस्यमय सवाल वक्त-वक्त पर उठते रहते हैं। कोई भी आतंकी या फौजी हमला उसे झेलने वाले देश की मौजूदा सरकार को मजबूत करता है, और अपने कुछ फौजी या नागरिक मारे जाएं, तो उससे भी आम जनता की हमदर्दी बढ़ जाती है। दुनिया की कई घटनाओं को इस रौशनी में देखने-समझने की जरूरत है।
एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगठन द्वारा हर बरस तैयार की जाने वाली ग्लोबल हंगर इंडेक्स में लगातार भारत की जगह गिरती चली जा रही है। देश में लोगों के कुपोषण और भूखे रहने की हालत लगातार खराब मिल रही है। 125 देशों में किए गए इस सर्वे में भारत पिछले साल 107वीं जगह पर था, इस साल वह 111वीं जगह पर आ गया है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के किए जाने वाले इस सर्वे को भारत सरकार भरोसेमंद नहीं मानती, और पिछले दो बरस से वह इसे खारिज करते आ रही है। भारत सरकार का कहना है कि सर्वे का आधार एक ऐसा गलत पैमाना है जो भारत की वास्तविक स्थिति नहीं बताता। सरकार कहती है कि देश में भूख का आंकलन करने के इस सर्वे के चार पैमानों में से तीन बच्चों से संबंधित हैं। और सिर्फ बच्चों के स्वास्थ्य के पैमानों से पूरी आबादी की भूख का अनुमान लगाया जाना गलत है। इस सर्वे के मुताबिक भारत में भूख का स्कोर 28.7 फीसदी है जो कि भूख और भुखमरी की एक बेहद गंभीर स्थिति बताता है।
किसी भी अंतरराष्ट्रीय सर्वे में अगर भारत में प्रेस की स्वतंत्रता, यहां धार्मिक आजादी, महिलाओं के हक, या भूख और कुपोषण के पैमानों पर भारत को कमजोर बताया जाता है तो भारत सरकार तुरंत ही उन्हें खारिज कर देती है। अब अगर भारत यह कहता है कि भूख नापने के चार पैमानों में से तीन बच्चों से संबंधित हैं, तो यह भी समझने की जरूरत है कि किसी भी परिवार में अगर सबसे पहले कोई खाना नसीब होता है, तो वह बच्चों को ही होता है। ऐसा शायद ही किसी घर में होता हो कि बच्चों को भूखा रखकर पहले बड़े खा लें। इसलिए सरकार की यह बात पहली नजर में हमारे गले नहीं उतरती है कि बच्चों की सेहत के पैमाने पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। बच्चों की सेहत उनकी माताओं की सेहत का प्रतिनिधित्व तो सीधे-सीधे करती है क्योंकि मां तो भूखे रहकर भी बच्चों को पहले खिलाती है। देश में अगर गरीबी और कुपोषण का बेहाल नहीं होता, तो भारत सरकार या प्रदेश सरकारें गरीबों को बिना दाम के राशन, या बहुत ही रियायती राशन क्यों देती होतीं? यह जाहिर है कि लोगों के पास खाने का इंतजाम नहीं है, इसीलिए स्कूलों में दोपहर के भोजन का इंतजाम किया गया, गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए पोषण आहार का इंतजाम किया गया। अगर हर घर में खाना-पीना होता, तो सरकार को ये इंतजाम करने ही नहीं पड़े होते। इसलिए किसी सर्वे के पैमानों को गलत करार देने के पहले देश की इस हकीकत को भी देख लेना चाहिए कि आबादी को किस तरह खाना देने के लिए सरकारों को कई तरह की योजनाएं चलानी पड़ रही हैं, और बच्चों को, गर्भवती महिलाओं को कुपोषण से बचाने के लिए सरकारी केन्द्र चलाने पड़ रहे हैं। जाहिर है कि लोगों के अपने घरों में इंतजाम पर्याप्त नहीं है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लंबे समय से इस बात की वकालत कर रहे हैं कि स्कूलों में दोपहर के भोजन की तरह सुबह के नाश्ते का इंतजाम करना चाहिए क्योंकि सबसे गरीब परिवारों के बच्चे पिछली शाम के खाने के बाद से अगले दिन स्कूल के मिड-डे-मील के बीच कुछ खाए हुए नहीं रहते हैं। बहुत गरीब घरों में नाश्ते का इंतजाम नहीं रहता है, और मजदूर मां-बाप सुबह जल्दी काम पर भी निकल जाते हैं। देश में तमिलनाडु ने सबसे पहले मिड-डे-मील शुरू किया था, और उसी ने स्कूलों में नाश्ता भी शुरू किया है। उसके बाद तेलंगाना में भी अभी इसकी घोषणा हुई है। छत्तीसगढ़ सरकार के पास सरकारी स्कूलों के अनुमानित 30 लाख बच्चों के लिए नाश्ते की योजना पर सालाना तीन सौ करोड़ के खर्च का प्रस्ताव रखा हुआ है, लेकिन सरकार की प्राथमिकताओं में उसे अब तक जगह नहीं मिली है। हो सकता है कि इस विधानसभा चुनाव में किसी राजनीतिक दल को अपने घोषणापत्र में इसे जोडऩे की सूझे, और उस पार्टी की सरकार भी आ जाए, तो हो सकता है कि अगले बरस के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत की हालत थोड़ी सी बेहतर हो जाए। वैसे तो यह योजना पूरे देश में भारत सरकार को ही लागू करनी चाहिए, और प्रदेश अपने स्तर पर उसमें कुछ जोड़ सकते हैं जिस तरह की आज केन्द्र के मिड-डे-मील कार्यक्रम में राज्य अपनी तरफ से भी कुछ जोड़ते हैं। भारत सरकार को यह लग रहा है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स के चार पैमानों में से तीन बच्चों के स्वास्थ्य पर केन्द्रित हैं, इसलिए हम बच्चों से जुड़ी इस योजना की वकालत कर रहे हैं।
भारत में सरकारी सेवाओं की कागज पर स्थिति, और जमीन पर उनकी असलियत के बीच एक बड़ा फासला है। सरकारें आमतौर पर अपनी योजनाओं के आंकड़ों को ही अमल और असर के आंकड़े मान बैठती हैं, जो कि सही बात नहीं है। अमल और कामयाबी के आंकड़े फाइलों में दर्ज किए जाने वाले सरकारी आंकड़ों के मुकाबले खासे कम रहते हैं। सरकारी योजनाओं की उत्पादकता हैरान करने की हद तक कम रहती है। इसलिए दूसरे देशों की तटस्थ एजेंसियों के किए गए बेहतर और ईमानदार सर्वे भारत सरकार को खटकते हैं। आईना देखने से इतना परहेज भी नहीं करना चाहिए, अपनी शक्ल जैसी भी है, उसे बिना मेकअप भी कभी-कभी देख लेना चाहिए, ताकि अचानक खुद को देखना पड़े तो पहचान सकें।
चीन, जापान, और दक्षिण कोरिया की अलग-अलग खबरें हैं कि वहां महिलाओं ने कामकाज की जगह पर सिर्फ महिलाओं के लिए बनाए गए कई किस्म के कपड़ों, जूतों, या मेकअप के पैमानों का विरोध करना शुरू किया है। बहुत से दफ्तरों में महिलाओं को आकर्षक और खूबसूरत दिखाने के लिए उनकी कद-काठी के नाप से लेकर बालों और मेकअप तक, उनके जूते-सैंडलों की एड़ी तक बहुत सी चीजों को लादा जाता है। जापान में अभी महिलाएं जो आंदोलन कर रही हैं उसमें नामी-गिरामी अभिनेत्री और लेखिका ने भी दस्तखत किए हैं, और इसे ऊंची एड़ी के विरोध का आंदोलन कहा जा रहा है। महिलाएं सोशल मीडिया पर लगातार ऐसी शर्तों के खिलाफ लिख रही हैं। जापान में यह आम बात है कि वहां ग्राहकों से बात करने वाली दुकानों की लड़कियों और महिलाओं को चश्मा पहनने से मना किया जाता है, और कांटैक्ट लैंस लगाने कहा जाता है क्योंकि चश्में को खूबसूरती के खिलाफ मान लिया गया है। दूसरी तरफ मर्दों के चश्मा पहनने पर कोई रोक नहीं है, और उनके जूतों पर भी किसी तरह के प्रतिबंध नहीं है। महिलाओं ने वहां नारा दिया है कि वे क्या पहनें, इसे कोई और तय न करें।
अब दूसरे देशों में शुरू हुए ऐसे आंदोलनों को छोड़ें, और हिन्दुस्तान की देखें, तो यहां भी सैकड़ों बरस से महिलाओं की पोशाक पर ही रोक-टोक चली आ रही है। सम्मान से लेकर सौंदर्य तक के सारे पैमाने उन्हीं पर लादे जाते हैं। एक वक्त महिलाओं को चेहरा घूंघट से ढांककर रखना पड़ता था, और अब भी वह राजस्थान के कई इलाकों में प्रचलित है, हो सकता है कुछ और प्रदेशों में भी यह चल रहा हो। महिलाओं के कपड़े, उनके गहने, उनके शादीशुदा होने, कुंवारी होने, या पति खो चुकी विधवा होने के हिसाब से अलग-अलग किस्म से तय होते हैं। महिलाओं के साथ पोशाक को लेकर शायद सबसे हिंसक और भयानक बात केरल के त्रावणकोर राज में थी, जहां पर 1859 तक दलित महिलाओं के सीना ढांकने पर टैक्स लगाया गया था, ताकि दलित महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर भी सीना न ढांक सकें। इस इतिहास का एक भयानक तथ्य यह है कि इसके खिलाफ विरोध करते हुए एक दलित महिला ने टैक्स वसूलने आए आदमी को अपने वक्ष काटकर पत्ते पर रखकर दे दिए थे। इसके खिलाफ महिलाओं को आंदोलन करना पड़ा था। मर्दों की चलाई गई सत्ता का महिलाओं के लिए ऐसा रूख था। यह आंदोलन इसी महिला नांगेली के नाम से जाना जाता है। उसने टैक्स के लिए चावल देने की बजाय हंसिए से अपना सीना काटा, और पत्ते पर रखकर सरकारी कर्मचारी को दे दिया। इसमें इतना खून बहा कि वह मर गई, लेकिन उसने एक आंदोलन को जन्म दिया।
हिन्दुस्तान की संस्कृति में महिलाओं के लिए कपड़ों और गहनों के सारे पैमाने मर्दों के लादे हुए हैं, बहुत समय तक उसके गहनों की आवाज उसके चलने-फिरने से आती रहती थी, ताकि सबको उसकी हलचल का पता लगता रहे। और हिन्दुस्तान से परे भी पूरी दुनिया में अगर खूबसूरती के पैमानों को देखा जाए तो उनको महिलाओं पर ही लादा गया है जिसे निभाने के लिए उन्हें खासा वक्त लगाना पड़ता है, खर्च करना पड़ता है, और इसमें कमी रह जाने पर वे हीनभावना में डूब जाती हैं। समाज में महिलाओं का सम्मान उनके रूप-रंग के रख-रखाव, उनके हुलिए, गहनों-कपड़ों और उनके मेकअप जैसी चीजों से तय होता है। जो मर्द चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ रखकर ऐंठते हैं, वे महिला के हाथ-पैर पर रोएं भी देखना नहीं चाहते। इस काम में मर्दों का अपना स्वार्थ था कि वे महिलाओं को बेहतर दिखने वाली बनाए रखना चाहते थे, दूसरी तरफ इसमें बाजार व्यवस्था का स्वार्थ भी था जो कि तरह-तरह की चीजें महिलाओं को बेचती थीं, और महिलाएं फैशन के सैलाब में अधिक से अधिक चीजों की तरफ दौड़ती रहती थीं, आज पहले के मुकाबले और अधिक दौड़ती हैं।
बाजार और कामकाज की जगहों पर रूप-रंग को, कद-काठी, और पहरावे की समझ को इतना महत्वपूर्ण मान लिया गया है कि कामकाज के हुनर को भी अधिक महत्व नहीं मिलता। और तो और टीवी समाचारों की दुनिया में आज लड़कियों और महिलाओं को इन्हीं पैमानों की वजह से सबसे पहले छांटा जाता है।
चीन, जापान, या दक्षिण कोरिया में जो महिला आंदोलन शुरू हुए हैं इस पर बाकी दुनिया को भी सोचना चाहिए। वे मर्द जो कि मातहत, या साथ में काम करने वाली महिलाओं को नयनसुख, या आईकैंडी मानते हैं, वे तो कभी नहीं चाहेंगे कि महिलाओं के रूप-रंग के पैमानों को नर्म किया जाए। वे अपने आसपास कामकाजी महिलाओं को भी तितलियों की तरह देखना चाहेंगे। लेकिन महिलाओं को इसके खिलाफ अदालत तक भी जाना चाहिए, और रूप-रंग, मेकअप, और पोशाक के नियमों को औरत-मर्द के लिए बराबरी का बनाने की मांग करनी चाहिए। अगर मर्द की दाढ़ी-मूंछ से उनका कामकाज प्रभावित नहीं होता है, तो महिला के हाथों पर रोएं आ जाने से यह काम कैसे प्रभावित हो जाएगा? जहां तक ऊंची एड़ी के सैंडलों का सवाल है, तो मेडिकल साईंस इस बात का गवाह है कि इनसे महिलाओं की रीढ़ की हड्डी पर एक नाजायज जोर पड़ता है, और उन्हें हमेशा के लिए नुकसान हो सकता है, आमतौर पर नुकसान होता ही है। इसी तरह लड़कियों के खेलने के लिए बनाई गई आधुनिक गुडिय़ा, बार्वी के छरहरे बदन को देखकर लड़कियां उसे ही जिंदगी का असल पैमाना बना लेती हैं, और वैसी ही छरहरी बनने के लिए, बनी रहने के लिए भूखों मरने लगती हैं। आज दुनिया में दसियों लाख लड़कियां और महिलाएं बार्वी जैसा बदन पाने के संघर्ष में लगी हुई हैं, और वैसा न होने पर वे हीनभावना की शिकार हो जाती हैं, मानसिक अवसाद से घिर जाती हैं। प्रकृति ने अलग-अलग लोगों की कद-काठी अलग-अलग किस्म की बनाई है, और उनके सामने फैशन की दुनिया, ग्लैमर की दुनिया, मर्दों की उम्मीदों की फेहरिस्त ऐसे पैमाने पेश कर देती हैं कि महिलाएं उसी जाल में फंसी रह जाती हैं। अपने आसपास महिलाओं पर लादे गए खूबसूरती और फैशन के पैमानों के बारे में सभी को सोचना चाहिए, और उन्हें मर्दों पर लादे गए पैमानों के बराबर लाना चाहिए, ताकि लैंगिक असमानता खत्म हो सके। तमाम लोगों को इन बातों पर चर्चा करनी चाहिए क्योंकि कोई भी संघर्ष चर्चा से उपजी जागरूकता के बाद ही शुरू हो सकता है।
मोबाइल फोन ऐप के मार्फत मिनटों में लोन देने वाले एप्लीकेशन इसके तुरंत बाद कर्जदार से वसूली के लिए उनसे जुर्म की हद तक जाकर वसूली और उगाही करने वाले मुजरिमों के गिरोहों का पर्दाफाश बीबीसी की एक खोजी रिपोर्ट में हुआ है। यह रिपोर्ट बताती है कि कर्ज वसूली और उगाही करने के नाम पर लोगों को जिस तरह ब्लैकमेल किया जाता है, उसकी वजह से हिन्दुस्तान में कम से कम 60 लोग खुदकुशी कर चुके हैं। और ऐसे अनगिनत लोग होंगे जो चारों तरफ से और कर्ज लेकर ब्लैकमेलरों को पैसा देते हैं। ऐसे साहूकार-ऐप लोगों को कर्ज देने के साथ-साथ उनके फोन पर अपने एप्लीकेशन इंस्टाल करते हैं, और उसके साथ ही उनकी फोनबुक उनके सारे फोटो और निजी जानकारियों पर कब्जा कर लेते हैं। इसके बाद दिए गए कर्ज से कई गुना अधिक वसूली करते हुए वे लोगों की तस्वीरों को छेड़छाड़ करके उन्हें नग्न और अश्लील बनाकर, उनके फोनबुक के संपर्कों को भेजकर तरह-तरह से उन्हें ब्लैकमेल करते हैं, उनका जीना हराम कर देते हैं, इन कंपनियों के कॉलसेंटर चौबीस घंटे कर्जदारों को फोन करते हैं, गालियां बकते हैं, और दी गई रकम और ब्याज से कई गुना अधिक वसूल करते हैं। बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि यह दुनिया के कम से कम 14 देशों में फैला हुआ जुर्म का ऐसा कारोबार है जो टेलीफोन पर ही आसान कर्ज देने के नाम पर लोगों को फंसा लेता है, और फिर उन्हें बेइज्जत करके जायज वसूली से कई गुना अधिक वसूली करता है। बीबीसी ने छानबीन में पाया है कि भारत में जिन 60 लोगों ने परेशान होकर डर और दहशत में खुदकुशी की है उसमें से आधे लोग तेलंगाना और आन्ध्र में थे। कर्ज लेकर शर्मिंदगी में खुदकुशी करने वालों में 4 किशोर भी थे।
अब इस रिपोर्ट से भारत सरकार की आंखें खुल जानी चाहिए कि हिन्दुस्तानी लोगों को ऑनलाईन मुजरिम किस तरह लूट रहे हैं और मरने को मजबूर कर रहे हैं। वैसे तो राज्य सरकारों के पास भी इस तरह की ब्लैकमेलिंग पर कार्रवाई करने के लिए बहुत से अधिकार हैं, लेकिन जब कई देशों तक फैला हुआ अंतरराष्ट्रीय मुजरिमों का कारोबार पकडऩा हो, तो उसके लिए भारत सरकार के अधिकार अधिक काम आते हैं। आज अगर टेलीफोन कॉल और इंटरनेट पर जुर्म को पकडऩे के लिए सरकारों के पास काफी अधिकार हैं, तो उनका इस्तेमाल होना चाहिए, और बेकसूरों की जिंदगी बचानी चाहिए। इसके अलावा भी लोगों से अगर उनकी देनदारी से अधिक वसूली की जा रही है, ब्लैकमेल किया जा रहा है, तो ऐसे आर्थिक अपराध पर भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय पुलिस संस्थानों के साथ मिलकर कार्रवाई करनी चाहिए।
अब सरकार को उसकी जिम्मेदारी गिना देने के बाद लोगों को भी यह समझाना जरूरी है कि वे आसान कर्ज के चक्कर में न पड़ें। दुनिया में ऐसे कोई साहूकार नहीं हो सकते जो बिना किसी गारंटी के, घर बैठे मोबाइल फोन पर ही कर्ज मंजूर करने जैसी समाजसेवा करें। जिंदगी में जब भी कुछ बहुत आसानी से हासिल होने लगे, बहुत जल्दी हासिल होने लगे, बहुत आकर्षक दिखता हो, तो लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं हो सकता है। इसलिए देश के भीतर भी और आसपास कहीं किसी के दफ्तर भी खुले हुए हों तो भी ऐसे लालच में नहीं पडऩा चाहिए कि आसानी से कर्ज मिल जाए, या कि आसानी से मोटी कमाई हो जाए। हमने पिछले बरसों में छत्तीसगढ़ में देखा है कि किस रफ्तार से चिटफंड कंपनियों ने कारोबार खोला, लोगों ने उसमें अपनी पूंजी लगाई, और कंपनियों ने मोटी कमाई की गारंटी दी, और हजारों करोड़ रूपए लेकर भाग गईं। बाजार का तरीका यही है। और हर दशक में अलग-अलग किस्म के तरीकों की जालसाजी का फैशन आता है। अभी कुछ बरस पहले तक एक जालसाजी बड़ी लोकप्रिय और कामयाब थी जिसमें लोग किसी कंपनी में रोज एक रकम जमा कराते थे, और कुछ महीने बाद वह रकम दुगुनी होकर मिल जाती थी। जब शुरुआती लोगों को मोटे मुनाफे के साथ रकम मिलती थी, तो वे दुगुने उत्साह से खुद भी अपना पैसा इसमें डालने लगते थे, और अपने आसपास के लोगों का भी पैसा जमा करवाते थे। यह सौ बरस से भी पुरानी जालसाजी की एक ऐसी विदेशी तकनीक है जिसमें यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक आगे और बेवकूफ लोग मिलते रहते हैं। उनसे मिले हुए पैसों से पिछले लोगों का पैसा भुगतान किया जाता है। लेकिन अगर यह सिलसिला चलता ही रहे, तो भी दुनिया के आखिरी इंसान के पूंजीनिवेश के बाद रकम कहां से आएगी? यह एक ऐसा सिलसिलेवार धोखा रहता है जिसमें बहुत से लोग पैसा लगाते हैं। लोगों को याद होगा पहले इस तरह की दूसरी घरेलू योजनाएं चलती थीं जिनमें लोग कुछ कूपन खरीदते थे, और जब वे कूपन दूसरों को बेचते थे, तो कंपनी उनका अपना पैसा वापिस कर देती थी। मतलब यह कि जो मूर्ख चार नए मूर्ख ढूंढकर लाएगा, उसे उसका पैसा वापिस मिल जाएगा, और अब यह नए चार मूर्खों पर निर्भर करेगा कि वे 16 और मूर्ख ढंूढकर लाएं।
मीडिया और सोशल मीडिया पर लगातार ऐसी धोखेबाजी और जालसाजी की खबरें आती रहती हैं, और इसके बाद भी अगर लोग सावधान नहीं होते हैं, तो सरकार और समाज दोनों को अपनी जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। लोगों में जागरूकता फैलाने की जरूरत है ताकि वे इस तरह धोखा खाने से बचें।
पिछले करीब एक सदी में नोबेल पुरस्कार कमेटी ने 93 लोगों को अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया है, इनमें से कल यह पुरस्कार पाने वाली क्लॉडिया गोल्डिन तीसरी महिला हैं। और एक दूसरे नजरिए से देखें तो अर्थशास्त्र में किसी पुरुष के साथ संयुक्त रूप से यह पुरस्कार पहले दो महिलाओं को मिला है लेकिन अकेले यह पुरस्कार जीतने वाली क्लॉडिया पहली महिला हैं। 1901 से शुरू हुए नोबेल पुरस्कारों में इकॉनामिक्स का पुरस्कार 1969 से शुरू हुआ, और कभी दो, कभी तीन लोगों को मिलते हुए वह अब तक 93 लोगों को मिला है। खैर, नोबेल पुरस्कार या अर्थशास्त्र के नोबेल के इतिहास को बताना आज का मकसद नहीं है बल्कि क्लॉडिया को उनके जिस अध्ययन के लिए यह सम्मान मिला है, वह चर्चा के लायक है। उन्होंने पिछले दो सौ बरसों में कामकाजी महिलाओं की भागीदारी का अध्ययन किया है, और इससे पता लगता है कि लगातार आर्थिक विकास के बाद भी, और कामकाज में हिस्सेदारी के बाद भी समान काम के लिए महिलाओं का वेतन पुरूषों के बराबर नहीं है। महिलाएं जहां अधिक पढ़ी-लिखी हैं, वहां भी उन्हें बराबरी की तनख्वाह नहीं मिलती।
अब इस अर्थशास्त्री के निष्कर्षों से परे हम अपने स्तर पर इस मुद्दे को देखें तो कामकाजी महिला को समान काम के लिए समान वेतन या मजदूरी मिले, ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता है। उन्हें काम मिलने की संभावना कम रहती है, जब कहीं छंटनी होती है, तो सबसे पहले उनकी बारी आती है, अधिकतर संस्थानों में महिलाओं के छुट्टी और इलाज के हक को अनदेखा किया जाता है, काम की जगहों पर उनके शोषण की शिकायतों के निपटारे की कानूनी जरूरतें पूरी नहीं की जाती हैं, और उनकी मेहनत और उत्पादकता का मूल्यांकन पुरूषों के बराबर नहीं होता है। और यह बात कोई नई नहीं है, जब लोकतंत्र नहीं था, कानून नहीं थे, तब भी ऐसा ही हाल था, और आज भी ऐसा ही हाल है। हिन्दुस्तान की आजादी के पहले आंदोलन 1857 की क्रांति को देखें, तो लखनऊ की एक तवायफ की बेटी, और खुद भी तवायफ, अजीजन बाई के कोठे पर आजादी की लड़ाई की योजना बनती थी। वे नाना साहब, तात्या टोपे, जैसे क्रांतिकारियों के साथ बैठकों में शामिल होती थीं, और जेएनयू की एक प्रोफेसर ने भारत की आजादी की लड़ाई मेें तवायफों के योगदान पर एक रिसर्च पेपर लिखा है। उन्होंने यह भी लिखा है कि विनायक दामोदर सावरकर ने भी अपने लेखों में अजीजन बाई के बारे में लिखा है। एक दूसरी तवायफ रसूलन बाई ने गांधी से प्रेरित होकर गहने पहनने छोड़ दिए थे, और अपनी महफिल में मिले पैसे क्रांतिकारियों को दे देती थीं। ऐसी बहुत सी तवायफें थीं जिन्होंने अपना सब कुछ आजादी की लड़ाई को दिया, और दूसरी तरफ इस देश ने उन्हें तवायफ नाम की बेइज्जती से अधिक कुछ नहीं दिया। ऐसा ही एक दूसरा इतिहास धर्म के इतिहासकार देवदत्त पटनायक बताते हैं कि किस तरह कई तवायफों ने मठ बनाने के लिए, मंदिर के लिए, धर्म और सन्यासियों के लिए बहुत कुछ दान दिया। लेकिन समाज ने उन्हें अपमान के अलावा कुछ नहीं दिया।
एक महिला की नजर से देखें, या कि एक इंसाफपसंद की नजर से देखें तो औरतों ने अपनी कमाई धर्म के लिए दान दी, और धर्म ने उन्हें देवदासी बनाकर छोड़ा। इन दोनों सच्चाईयों को एक साथ अगर रखकर देखें तो महिलाओं से होने वाली बेइंसाफी समझ आती है। हिन्दुस्तान जिस तरह मां के त्याग की महिमा गाते थकता नहीं है, उसकी कोई भी नीयत मां का सम्मान करने की नहीं रहती, बल्कि लड़कियों को यह प्रेरित करने की रहती है कि उन्हें आगे चलकर अपनी जिंदगी की तमाम जरूरतों और खुशियों को भूलकर कैसा त्यागी बनना है, किस तरह देवी की प्रतिमा के आठ हाथों की तरह उन्हें दूसरे इंसानों के मुकाबले चार गुना अधिक काम करना है, और एक मां या गृहिणी किस तरह मल्टीटास्किंग कर सकती है, यानी एक साथ कई किस्म के काम कर सकती है। महिला के लिए मन में सचमुच सम्मान रहता तो घर के मर्द और लडक़े उसका हाथ बंटाते, उसका बोझ कम करते। लेकिन नीयत जब उसे बरगलाकर और अधिक त्यागी बनाने की रहती है, तो फिर उसकी महिमा का गान होता है, और उसे झोंक दिया जाता है।
हिन्दुस्तान जैसे देश में जिस महिला पर घर की पूरी जिम्मेदारी रहती है, और जो बाहर काम करने नहीं जा पाती, उसकी उत्पादकता को तो कुछ गिना ही नहीं जाता है। आम हिन्दुस्तानी बातचीत में घर पर ही काम करने वाली महिला का जिक्र करते हुए यही कहा जाता है कि वह कुछ काम नहीं करती, घरेलू महिला है, घर पर रहती है। घर पर इतने काम करने के लिए, इतनी ईमानदारी और निष्ठा से करने के लिए परिवार को कितनी मजदूरी चुकानी पड़ती, इसका कोई हिसाब नहीं लगाया जाता है। कुल मिलाकर मतलब यह है कि महिलाएं हर किस्म की गैरबराबरी की शिकार हैं, और अभी इस बरस का अर्थशास्त्र का जो नोबेल एक अकेली महिला को पहली बार मिला है, वह महिलाओं के मुद्दों की तरफ, उन पर थोपी गई गैरबराबरी की तरफ दुनिया का ध्यान कुछ वक्त के लिए तो खींच सकता है। अगर कोई सभ्य और समझदार समाज है, तो उसे चाहिए कि ऐसे हर मौके पर पुरस्कृत या सम्मानित लोगों के अध्ययन, उनके शोध, उनके लिखे या कहे हुए मुद्दों को अपने आसपास के माहौल पर भी लागू करके देखे। कामकाजी महिलाओं के साथ जो गैरबराबरी होती है, उसमें क्लॉडिया गोल्डिन ने हिन्दुस्तान आकर तो काम शायद नहीं किया होगा, लेकिन उनके निष्कर्ष ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान पर भी लागू होते हैं। हिन्दुस्तान के सामाजिक संगठनों को भी चाहिए कि उनके काम की तकनीकी जटिलताओं से परे, उनके निष्कर्षों को लेकर देश भर में जगह-जगह चर्चा हो, और उन्हें हिन्दुस्तानी संदर्भों से जोड़ा जाए। ऐसा करने पर हम नोबेल पुरस्कार से सम्मानित एक अर्थशास्त्री के काम का स्थानीय उपयोग भी कर सकेंगे।
इजराइल पर हमास के हमले के जवाब में इजराइल के गाजापट्टी पर इजराइल का हमला भयानक है। हमास तो फिलीस्तीन में बसा हुआ एक आतंकी संगठन है, जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है, और जिसे दुनिया आतंकी संगठन ही मानती है, लेकिन इजराइल तो संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य देश है, जो कि दुनिया के बाकी देशों के साथ कूटनीतिक संबंधों वाला भी है। इसलिए उसकी कार्रवाई एक देश की कार्रवाई की तरह होनी चाहिए। आज वह हमास के आतंकी ठिकानों पर हवाई हमलों के नाम पर गाजा के 20 लाख से अधिक आम नागरिकों की रिहायशी बस्तियों पर भी अंधाधुंध हमले कर रहा है, और मुस्लिम अरब देशों के खिलाफ जो पश्चिमी देश कई वजहों से एक रणनीति पर चलते हैं, वे आज इजराइल के साथ हैं जिसने हमास के आतंकी हमले में हजार-पांच सौ मौतें झेली हैं। उसने इसे अपने पर हमास की थोपी हुई जंग माना है, और हमास को तबाह करने का बीड़ा उठाया है। बार-बार पश्चिमी दुनिया इसकी 11 सितंबर के उस आतंकी हमले की मिसाल देते हुए चर्चा कर रही है जिसमें ओसामा-बिन-लादेन के विमानों ने न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारत में विमान घुसाकर उसे ध्वस्त कर दिया था। वह किसी देश पर आतंकी हमले के इतिहास की सबसे बड़ी मिसाल बना हुआ है, और इजराइल इसे अपने पर उसी किस्म का हमला मान रहा है।
लेकिन हमास के इस आतंकी हमले के पीछे की वजहों को अनदेखा करके दुनिया किसी सुख-चैन के मुकाम पर नहीं पहुंच सकती। इजराइल की रोज की फौजी हुकूमत अगर फिलीस्तीन के लोगों को आए दिन मारती है, उन्हें अपनी ही जमीन पर इंसानों से गया-बीता बनाकर रखा है, तो उसकी हिंसक और आतंकी प्रतिक्रिया तो किसी न किसी दिन होनी ही थी। लेकिन एक देश के रूप में इजराइल की प्रतिक्रिया मुस्लिम अरब देशों के बीच यह फिक्र खड़ी करेगी कि एक मुस्लिम देश के बेकसूर नागरिकों पर दशकों से चली आ रही इजराइली आतंकी हिंसा को देखते हुए बाकी मुस्लिम देश चुप बैठे रहें कि फिलीस्तीन सरीखे गरीब और कमजोर मुस्लिम देश का साथ दें? इसलिए हमास का यह ताजा हमला सैकड़ों जिंदगियों को खत्म करने वाला तो है, लेकिन साथ-साथ यह दुनिया को एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर कर सकता है कि क्या फिलीस्तीनियों पर इजराइलियों का दशकों का रोजाना का हमला आगे भी अनदेखा किया जाना चाहिए?
दुनिया के जो देश आज इजराइली मौतों को लेकर उसके साथ खड़े हैं, जिनमें हिन्दुस्तान भी एक है, उनकी प्रतिक्रिया बेकसूर फिलीस्तीनियों को हवाई हमले में मारने पर क्या होगी, यह भी देखना होगा। क्या ऐसा कोई फौजी हमला जायज हो सकता है जो आतंकी ठिकानों को खत्म करने के लिए किया बताया जा रहा हो, और जो आतंकियों और बेकसूर नागरिकों में कोई फर्क न करता हो? लोगों को याद होगा कि भारत ने भारत में एक आतंकी हमला करने के आरोप में पाकिस्तान पर एक सर्जिकल स्ट्राईक करने की बात कही थी, और कहा था कि यह आतंकियों के प्रशिक्षण केन्द्र पर किया गया हवाई हमला था। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने बताया था कि वहां पर कोई आतंकी प्रशिक्षण केन्द्र नहीं था, और हिन्दुस्तानी हवाई हमले में कोई मौत नहीं हुई, सिर्फ एक कौंवा मरा था। अब अगर हिन्दुस्तानी हवाई हमले में पाकिस्तान की किसी रिहायशी बस्ती के सैकड़ों लोग मारे गए होते, तो क्या वे मौतें जायज कही जातीं? 11 सितंबर के हमले के बाद अमरीका ने जिस तरह कई देशों पर हवाई हमले किए, अपनी फौज भेजी, वहां सत्ता पलट करवाया, उनसे किसका भला हुआ, खुद अमरीका का भी कोई फायदा उससे नहीं हुआ, और इन तमाम देशों से अमरीकी फौजों को पूरी नाकामयाबी के साथ छोडक़र जाना पड़ा। इसलिए किसी आतंकी हमले का बदला लेने के नाम पर जख्मी देश अगर दूसरे देश के बेकसूर लोगों पर हवाई हमला करता है, और आतंकियों को मारने के नाम पर सैकड़ों बेकसूर नागरिकों को मारता है, तो आज तो दुनिया के कई देश इजराइल को पूरी छूट देकर खड़े हुए हैं, लेकिन यह कौन से सभ्य लोकतंत्र का सुबूत है कि एक गरीब और लाचार देश में एक गुंडे देश के हवाई हमले से बेकसूर लाशें गिर रही हैं? अमरीका ने जब म्यांमार पर हुए आतंकी हमले का बदला लिया, तो उसने कई देशों में मरने वाले बेकसूर दसियों हजार लोगों के बारे में यही तर्क दिया था कि यह कोलैटरल डैमेज है, यानी गेहूं के साथ घुन पिस जाने की तरह। आज इजराइली हमलों में जो कोलैटरल मौतें हो रही हैं, वे फिर एक ऐसी पीढ़ी खड़ी करेंगी, जो अपने जीते-जी इजराइल से दुश्मनी भूल नहीं पाएगी।
कुछ अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों का मानना है कि यह सही मौका है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फिलीस्तीन और इजराइल के झगड़े पर सोच-विचार होना चाहिए, और उसका एक शांतिपूर्ण समाधान निकालना चाहिए। फिलीस्तीनी लोग अपनी ही जमीन पर शरणार्थी बने हुए हैं, और उन्हें हर दिन बेदखल करके वहां इजराइली कॉलोनियां बनाने से दुनिया का यह हिस्सा कभी भी अमन-चैन नहीं देख पाएगा। पश्चिमी देश इजराइल के साथ खड़े हैं, लेकिन इस नौबत के पीछे इजराइल की जो हमलावर नीति दशकों से चली आ रही है, और जो लगातार फिलीस्तीनियों से जिंदा रहने का हक छीन रही है, उस बारे में इन देशों ने कभी कुछ नहीं किया, और फिलीस्तीनियों को इजराइली गुंडागर्दी और आतंक के रहम पर छोड़ रखा था।
इजराइल जैसे महफूज और ताकतवर देश पर हुआ यह आतंकी हमला यह साफ करता है कि आतंक के लिए किसी देश की फौज जितनी ताकत नहीं लगती, बहुत कम ताकत से भी आतंकी हमले हो सकते हैं। इससे यह भी साबित होता है कि अधिकतर आतंकियों को दुनिया में कहीं न कहीं से मददगार भी हासिल हो सकते हैं। इसलिए तमाम देशों को अपनी-अपनी जमीन पर, या अपने पड़ोसियों के साथ कोई भी जुल्म करने के पहले याद रखना चाहिए कि जुल्म का जवाब बेकाबू और खतरनाक हो सकता है क्योंकि फौजें तो आत्मघाती नहीं होतीं, आतंकी आत्मघाती हो सकते हैं, अक्सर होते हैं। आज भी जो ताकतें इजराइल को खुली छूट देने की हिमायती हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि उनकी सारी ताकत सिर्फ फौजों के बदौलत हैं, वह ताकत आतंकी हमलों के मुकाबले नहीं हैं, और इजराइल में अभी-अभी यह साबित हुआ है। पूरी दुनिया में खुफिया निगरानी, सुरक्षा, और फौजी कार्रवाई की हर तरह की टेक्नालॉजी बेचने वाला दुनिया का यह बड़ा कारोबारी आज जिस तरह जख्मी पड़ा है, उससे उसकी बाजारू साख भी चौपट हुई होगी। इजराइल अपने शोकेस में ही नंगा हो गया है। फिलीस्तीनी जनता के रिहायशी इलाकों में उसका हमला यही बताता है कि वह बचाव में नाकामयाबी के बाद अब हमले की साख बचाकर रखना चाहता है। दुनिया को ऐसी तमाम बातों को समझना चाहिए, और मौके की नजाकत को समझते हुए फिलीस्तीनी मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए। वरना दूसरे देशों के शोक संदेशों का कोई मतलब नहीं है। हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिजली की रफ्तार से इजराइल को अपनी हमदर्दी भेजी है। इससे अधिक लाशें मणिपुर में गिर जाने के बाद भी 75 दिनों तक उनका मुंह भी नहीं खुला था। इसलिए दुनिया की प्रतिक्रिया के शब्दों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिसे रेवड़ी कहा है, और जिसे अलग-अलग राजनीतिक दल अपने-अपने कब्जे वाले राज्यों में जनकल्याणकारी कार्यक्रम कह रहे हैं, उस पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। एक चर्चित वकील अश्विनी उपाध्याय बहुत से मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाते रहते हैं, और उन्होंने चुनावी घोषणाओं के तहत राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त में दिए जाने वाले तोहफों के खिलाफ रोक लगाने की मांग सुप्रीम कोर्ट से की है। अदालत ने इसे लेकर राज्य सरकारों से पूछा है कि वे कर्ज लेकर चुनावी तोहफे क्यों बांट रहे हैं? अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें से मध्यप्रदेश, और राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबे हुए हैं। एमपी पर कर्ज 4 लाख करोड़ रूपए से अधिक हो गया है, और शिवराज सरकार ने अभी-अभी चार बार कर्ज लिया है। दूसरी तरफ राजस्थान में भी कर्ज 5.37 लाख करोड़ से अधिक हो गया है। आरबीआई की जानकारी के मुताबिक देश में पंजाब के बाद राजस्थान सबसे अधिक कर्ज में डूबा हुआ राज्य है। और ये दोनों राज्य अपनी जनता को क्या-क्या मुफ्त में दे रहे हैं, उसके दो-दो पेज के इश्तहार हर दिन छत्तीसगढ़ के अखबारों में भी छप रहे हैं जहां के लोग इन दोनों प्रदेशों के लिए वोट डालने वाले नहीं हैं।
अब सवाल यह उठता है कि अंग्रेजी में जिसे फ्रीबीज कहा जा रहा है, यह हिन्दी में रेवड़ी, मतदाताओं को सीधे फायदा पहुंचाने की इन घोषणाओं की सीमा क्या रहे? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद चाहे इसे रेवड़ी कहते रहें, उनकी सरकार की तरफ से भी लगातार ऐसी रियायतों और सहूलियतों की घोषणा की जा रही है। उनका शायद ही कोई बड़ा कार्यक्रम चुनावी राज्यों में ऐसा हो रहा हो जहां पर ये घोषणाएं न हों। आखिर भारत जैसे संघीय ढांचे में राज्यों के इस किस्म के फैसलों पर क्या कोई रोक लग सकती है? क्या यह रोक केन्द्र और राज्यों के किसी मिलेजुले फोरम पर तय हो सकती है? या क्या पार्टियों के आपसी संबंध इस हद तक कड़वे हो चुके हैं कि अब कोई भी सहमति सिर्फ किसी अदालती हुक्म से ही हो सकती है? लोगों को याद होगा कि मनमोहन सरकार के समय तक देश में एक योजना आयोग था जिसमें राज्य सरकारें जाकर अपने राज्य के हक और अपनी योजनाओं की चर्चा करती थीं, और देश के जाने-माने अर्थशास्त्री उन पर विचार-विमर्श करते थे। वह एक ऐसा मंच था जहां पर प्रदेशों को केन्द्र से किसी योजना को मंजूर करवाने के लिए, रकम पाने के लिए अपने मौजूदा फैसलों के बारे में जवाब भी देना होता था। आज हालत यह है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार केन्द्र सरकार की किसी सार्वजनिक परियोजना में अपना हिस्सा देने से मना कर रही है कि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट को केजरीवाल सरकार से हिसाब मांगना पड़ रहा है कि उसने विज्ञापनों पर कितना खर्च किया है।
क्या आज मध्यप्रदेश और राजस्थान सरीखे जो राज्य चार-पांच लाख करोड़ रूपए के कर्ज में डूब गए हैं, उनसे भी देश में कोई यह हिसाब ले सकते हैं कि वे दूसरे राज्यों के आम मतदाताओं के सामने अपने राज्य के छोटे-छोटे फैसलों के महंगे इश्तहार क्यों कर रहे हैं? इससे मध्यप्रदेश या राजस्थान की जनता का क्या भला हो रहा है? या फिर चुनाव के बाद सरकार बना लेने वाले नेताओं को तमाम किस्म की मनमानी करने का हक मिल जाता है? राज्य की अर्थव्यवस्था को देखते हुए उसके बजट का कितना हिस्सा सरकारी अमले पर (स्थापना व्यय) करना चाहिए, कितना खर्च जनता को सीधे फायदे पहुंचाने वाले कामों पर, और कितना खर्च दीर्घकालीन ढांचागत योजनाओं पर करना चाहिए? क्या अब यह अनुपात भी अदालतें तय करेंगी? क्योंकि योजना आयोग जैसी संस्था को मोदी सरकार ने खत्म करके नीति आयोग नाम का एक छोटा सा दफ्तर छोड़ दिया है, जो कि राज्यों को कुछ समझाने की, उन्हें राय देने की कोई ताकत नहीं रखता।
अब अगर देश में कुछ राज्य बंदरगाहों की वजह से, या खदानों की वजह से दूसरे राज्यों के मुकाबले अधिक संपन्न रहेंगे, तो क्या इन राज्यों को अपनी जनता को बेहिसाब सीधे फायदे पहुंचाने का हक रहेगा? या फिर जिस तरह कर्ज लेकर आज कुछ राज्य वोटरों को खुश करने में जुटे हुए हैं, क्या उसकी बेहिसाब आजादी राज्य सरकारों और राज्य की पार्टियों को होनी चाहिए? आखिर इसकी सीमा क्या होगी? क्या देश के अमीर और गरीब राज्यों के बीच बहुत बड़ा फासला राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह नहीं होगा? क्या प्रदेशों में दस-बीस साल में पूरी होने वाली किसी बड़ी जनकल्याणकारी योजना पर कोई काम ही नहीं किया जाएगा कि उसके एवज में पांच बरस के भीतर होने वाले चुनावों में तो कोई फायदा मिल नहीं सकेगा? ऐसी कई बातें हैं। दिक्कत यह है कि आज देश में किसी भी तरह से चुनाव जीत लेना सबसे बड़ी चुनौती मान ली गई है। गरीबी से जीतना, अभाव से जीतना, बेरोजगारी और महंगाई से जीतना अहमियत नहीं रखता, सिर्फ चुनाव जीतना मायने रखता है। यह नौबत हिन्दुस्तान को गड्ढे में डाल रही है। जब सत्तारूढ़ पार्टियां अपने-अपने राज्य में जनता के खजाने का आखिरी सिक्का भी लुटा देने के बाद कर्ज लेकर जनता के तलुवे सहलाने में लग गई हैं, और यूपी-पंजाब की ऐसी सरकारी योजनाओं के इश्तहार दूर-दूर के प्रदेशों में छप रहे हैं, तो लोकतंत्र के नाम पर क्या इसकी आजादी भी दी जा सकती है, दी जानी चाहिए?
एक बहुत बड़ा फैसला जिसे लुभाने वाला भी कहा जा सकता है, और रिटायर्ड सरकारी कर्मचारियों की भलाई का भी कहा जा सकता है, वह ओल्ड पेंशन स्कीम का है। हिमाचल चुनाव के पहले कांग्रेस ने इसकी घोषणा की थी, और चुनावी वायदा किया था, इस पहाड़ी राज्य में नौकरीपेशा लोग बहुत हैं, और कांग्रेस को इसका फायदा हुआ। इसके पहले वह अपने दूसरे राज्यों में इसकी घोषणा कर चुकी थी, और बाद में भी यह घोषणा जारी है। यहां यह याद रखने की जरूरत है कि कांग्रेस के ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आर्थिक सलाहकार मोंतेक सिंह अहलूवालिया ने ओल्ड पेंशन स्कीम के खतरे बताए थे, और कहा था कि इसमें देश डूब जाएगा। मनमोहन सिंह के समय नई पेंशन योजना लागू हुई, और उन्हीं की पार्टी की राज्य सरकारों ने इसे खारिज करते हुए कर्मचारियों को खुश करने के लिए पुरानी योजना को लागू किया है जिसका बोझ कोई भी अर्थव्यवस्था ढो नहीं पाएगी।
हिन्दुस्तान और इसके प्रदेशों में बहुत सी पार्टियां और उनकी सरकारें चुनावों को ध्यान में रखकर इतने बुरे फैसले ले रही हैं कि इतने लोकतांत्रिक हक देश की अर्थव्यवस्था की नाकामयाबी की गारंटी सरीखे लग रहे हैं। देखते हैं सब कुछ बर्बाद होने में और कितने चुनाव लगेंगे।
नोबल शांति पुरस्कार के लिए ईरान की एक महिला आंदोलनकारी नर्गिस मोहम्मदी का नाम घोषित किया गया है। वे वहां पर बरसों से जेल में बंद हैं क्योंकि सरकार उनके मुद्दे पसंद नहीं करती है। महिलाओं पर जुल्म के खिलाफ वे लड़ते रहती हैं, और अभी जो खबर आई है उसके मुताबिक ईरान की सरकार उन्हें 13 बार गिरफ्तार कर चुकी है, 5 बार उन्हें सजा सुनाई गई है, और 31 बरस की कैद से वे गुजर रही हैं। उनके दो बच्चे अपने पिता के साथ फ्रांस में रह रहे हैं, और मां 8 बरस से उनसे दूर जेल में बंद है, और वे बेटे-बेटियों से मिली भी नहीं हैं। ईरान में महिलाओं के हक की लड़ाई आसान नहीं है, क्योंकि वहां अपने आपको क्रांतिकारी कहने वाली इस्लामिक सरकार इस्लाम के एक कट्टर तौर-तरीकों से चलती है जिनमें महिलाओं के लिए हिजाब बांधकर रखना अनिवार्य है, और ऐसा न करने पर उनकी गिरफ्तारी हो सकती है, उन्हें जेल होती है, और ऐसी ही एक युवती की पिछले बरस कैद में संदिग्ध मौत हो गई थी, और उसके बाद से ईरान में आंदोलन भडक़ उठे थे। अभी भी ईरान की महिलाएं हिजाब के नियमों को तोड़ते हुए सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही हैं, और सरकार पर यह तोहमत लग रही है कि उसने लड़कियों के बीच दहशत फैलाने के लिए लड़कियों के स्कूलों में रहस्यमय तरीके से गैस छोड़ी थी जिससे बहुत सी लड़कियां बीमार भी हुई थीं। ऐसी घटनाएं दर्जनों स्कूलों में अलग-अलग शहरों में हुई थीं, और यह माना जा रहा है कि सरकार के अलावा इसे और कोई नहीं करवा सकता था।
आज नर्गिस मोहम्मदी को नोबल शांति पुरस्कार मिलना ईरान की तमाम आंदोलनकारी महिलाओं का सम्मान है। इतनी विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए भी नर्गिस ने जेल में और कैदियों से बातचीत को दर्ज किया है, और उनकी लिखी एक किताब भी सामने आई है। वे ईरान में एक मानवाधिकार संगठन में काम कर रही थीं, और जेल में बंद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और उनके परिवारों की मदद करने के आरोप में उन्हें एक से अधिक बार सजा हुई है। फिलहाल वे 12 बरस की कैद काट रही हैं, और दूसरी कई सजाएं भी उन्हें सुनाई जा चुकी हैं। नर्गिस को मिला यह पुरस्कार दुनिया में महिलाओं की आजादी और उनके हक की लड़ाई का एक प्रतीकात्मक सम्मान है। ईरान और उसके समर्थक देश नोबल शांति पुरस्कार को पश्चिमी देशों के प्रभाव वाला पुरस्कार कह सकते हैं, लेकिन उससे इस सच्चाई पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि नोबल पुरस्कार कई बार दुनिया के कुछ बड़े शांतिपूर्ण संघर्षों और सामाजिक न्याय की लड़ाईयों की तरफ सबका ध्यान खींचते रहता है।
यह भी कुछ अजीब सी बात है कि एक तरफ तो गांधी का नाम नोबल शांति पुरस्कार के लिए बार-बार लिस्ट में आया, लेकिन उन्हें कभी दिया नहीं गया। जब गांधी की हत्या हुई तो उसके बाद का नोबल शांति पुरस्कार किसी को भी नहीं दिया गया, क्योंकि बार-बार गांधी का नाम खारिज करने वाली नोबल शांति पुरस्कार कमेटी गांधी की हत्या से हिली हुई थी। दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को बिना किसी चर्चा के, बिना किसी न्यायसंगत आधार के नोबल शांति पुरस्कार दे दिया गया था, जिससे वे खुद भी चौंक गए थे। और यह तथ्य तो इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है जिस वक्त उन्हें 2009 का नोबल शांति पुरस्कार मिला, उस वक्त उन्हीं के आदेशों से सात अलग-अलग देशों पर बम बरसाए गए थे। इनमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, लीबिया, यमन, सोमालिया, इराक, और सीरिया थे। एक सबसे अधिक बमबारी करने वाले अमरीकी राष्ट्रपति को भी शांति के लिए किसी योगदान के बिना नोबल शांति पुरस्कार दिया गया था। इससे परे भी कुछ और मौके रहे जब नोबल शांति पुरस्कार विवादों से घिरा रहा, लेकिन आज ईरान की महिला आंदोलनकारी को इसे देने की घोषणा दुनिया में संघर्षरत महिलाओं का सम्मान है, और उनके हक पर इस सम्मान से एक बार फिर चर्चा हो सकेगी, होगी।
ईरान में महिलाओं की लड़ाई सिर्फ उस देश में महिलाओं के हक का मुद्दा नहीं है, बल्कि इस्लाम के नाम पर महिलाओं पर एक गैरबराबरी लादने वाले बहुत से देशों में महिलाओं पर चल रहे जुल्म की तरफ भी इससे ध्यान जाएगा। ऐसे देश अपने आपको कहीं लोकतांत्रिक कहते हैं, तो कहीं वे तालिबान के कब्जे वाले अफगानिस्तान की तरह के हैं, जहां लड़कियों से स्कूल जाने का हक भी छीन लिया गया है, और महिलाओं को काम करने की इजाजत भी नहीं है। आज अफगानिस्तान दुनिया के अधिकतर देशों के लिए इसी महिला-नीति की वजह से अछूत बना हुआ है, लेकिन अड़ा हुआ है। आज दुनिया के अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन चाहकर भी अफगानिस्तान के जरूरतमंद लोगों की मदद नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि अफगानिस्तान महिलाओं को कोई अधिकार देना नहीं चाह रहा है, और इसके बिना दुनिया के देश उसे किसी तरह की मान्यता नहीं दे रहे, और अंतरराष्ट्रीय संगठन वहां काम नहीं कर पा रहे।
ईरान की महिला आंदोलनकारी को कल घोषित नोबल शांति पुरस्कार दुनिया भर की महिलाओं के मुद्दों को उठाने वाला साबित होगा। दुनिया के इतिहास में ऐसी कुछ और महिलाएं भी रही हैं, और उनसे दुनिया भर की महिलाओं को हौसला मिला है। आज मोटेतौर पर महिलाओं के संघर्ष का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम महिलाओं तक सीमित है, और दुनिया को इस पर गौर करना चाहिए।
बिहार की जातीय जनगणना ने देश की हजारों बरस से चली आ रही व्यवस्था की चर्बी पर जोर डाला है। वे लोग भी अब जातीय व्यवस्था पर बात कर रहे हैं जो कि हजारों बरस से चली आ रही मनुवादी व्यवस्था के तहत फायदे की जगह पर थे, सवर्ण थे, दूसरों को कुचलने वाले तबकों के थे, और उस व्यवस्था से बहुत संतुष्ट भी थे। अब एकाएक उन्हें विशेषाधिकारों का यह फौलादी ढांचा चरमराते दिख रहा है, इसलिए उनकी बेचैनी बहुत अधिक है। वी.पी.सिंह के शब्दों में कहें तो जिन पैरों में चमड़े के तल्ले वाले जूते थे, और जिनके तले दूसरे कुचलते रहते थे, अब एकाएक उनके पैरों से जूते उतर गए हैं, और जूते गांठने वाले तबके जूते पहनने का हक मानने लगे हैं, तो एकाएक दहशत सरीखी हो गई है। इसका सबसे बड़ा नजारा सोशल मीडिया पर देखने मिल रहा है।
कल तक के ट्विटर, और आज के एक्स नाम के माइक्रोब्लॉगिंग प्लेटफॉर्म पर अंधाधुंध बहस चल रही है, और मनु के वंशज अपने तर्क दे रहे हैं, और मनु से जख्मी हुए तबके अपने तर्क। बिहार के जाति के आंकड़ों ने सोए हुए लोगों को जगा दिया है, और सबको अपने हक सूझ रहे हैं। जो लोग अब तक नाजायज हकों पर कब्जा करके बैठे हुए थे, वे अपनी आने वाली पीढिय़ों को सामाजिक न्याय मिलने की आशंका से भर गए हैं। लेकिन यह सिलसिला थमना अब उसी तरह मुश्किल है जिस तरह केदारनाथ, उत्तराखंड, हिमाचल, या अभी सिक्किम में पहाड़ी नदी उफान पर रहती है, ढलान की तरफ दौड़ती है, और उसे थामना नामुमकिन होता है। आज जाति व्यवस्था की इस पहाड़ी नदी के जंगली उफान से सबसे अधिक परेशान वे तबके हैं जिन्होंने इन नदियों के किनारे सवर्णों के मंदिर बनाए हुए थे, और दलित-आदिवासी के बाद अब ओबीसी जनजागरण से ये मंदिर ही सबसे पहले बह रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित बहुत से लोग इसे देश को बांटने वाला काम कह रहे हैं। और सोशल मीडिया पर उनके दसियों लाख भक्तजन भी इसी सोच को चारों तरफ फैला रहे हैं कि यह एक भारतविरोधी काम है। देश में जातीय जनगणना उसे टुकड़ों में बांट डालेगी। चूंकि राहुल गांधी ने इसे सबसे बड़ा मुद्दा बनाया है, और पूरे देश में इसे करवाने की घोषणा की है, इसलिए यह हमला मोदी खेमे की तरफ से राहुल और इंडिया गठबंधन पर है। लेकिन जो हकीकत हजारों बरस के जुल्मों के बाद भी जमीन पर बनी हुई है, वह अगर अब तक खतरा नहीं बनी थी, अब तक वह गुलामी की हीनभावना की शिकार थी, तो आज महज गिनती हो जाने से वह कैसे खतरनाक हो सकती है? और मनुवादी व्यवस्था के तहत जिन दलितों को सबसे अधिक कुचला गया था, जिन आदिवासियों को रामकथाओं में बंदर बना दिया गया था, वे लोग अगर सवर्ण तबकों के लिए आज तक खतरा नहीं बने, तो आज एकाएक ओबीसी जनजागरण कैसे खतरा बन सकता है? लेकिन जिन लोगों को ये नए आंकड़े खतरा लग रहे हैं, उनकी आशंकाओं में भी झांका जा सकता है।
दलित और आदिवासी आरक्षण देश की आजादी के आसपास से चले आ रहा था, और वे तबके सवर्ण तबकों से बहुत दूर भी थे, सवर्ण-बेइंसाफी के शिकार होकर कमजोर भी थे, और उनके लिए तय किए गए आरक्षण से भी उनका बहुत भला नहीं हो रहा था। लेकिन ओबीसी तबका तो दलित और आदिवासी के ठीक ऊपर है, और सवर्णों के ठीक नीचे है। इसलिए ओबीसी से सवर्ण सोच को खतरा पड़ोसी से खतरे सरीखा हो रहा है। और दलित-
आदिवासी से खतरा दूर की चमार बस्ती या जंगल में बसे लोगों से खतरे सरीखा दूर का था। अब ओबीसी तबका आरक्षण के मौजूदा, और आगे हो सकने वाले आरक्षणों का फायदा उठाने के लिए अधिक ताकतवर रहेगा, और वह हर किस्म से सवर्णों को टक्कर देने के करीब रहेगा। इसलिए जाति आधारित यह जनगणना सवर्ण-बेचैनी की एक बड़ी वजह है। दलित और आदिवासी आरक्षण तो चले आ रहा था, यह ओबीसी तबका देश का सबसे बड़ा बवाल रहेगा, और संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की बात जब होगी, तो यह ओबीसी तबका ही अब तक के अनारक्षित चले आ रहे बहुत बड़े उस हिस्से में सबसे बड़ा हिस्सा मांगेगा जिस पर अब तक अनुपातहीन तरीके से सवर्णों का कब्जा चले आ रहा है। यह नौबत, या इस तरह की नौबत पूरी दुनिया में कहीं भी हमेशा नहीं चलती है, और वंचित तबके कभी न कभी अपने हक पाते हैं। इसलिए भारत में आज मनुवाद की सवर्ण व्यवस्था के सबसे बड़े संरक्षक, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत को भी अब यह लग रहा है कि आरक्षण और सौ-दो सौ बरस जारी रह जाए तो सवर्णों को उससे बर्दाश्त करना चाहिए। हालांकि मोहन भागवत का यह ताजा चर्चित बयान बिहार की जातीय जनगणना के पहले का है, और वह मोटेतौर पर ओबीसी से जुड़ा हुआ नहीं है, लेकिन अब जब ओबीसी के दानवाकार आंकड़े एक हकीकत बनकर सामने आए हैं, तो मोहन भागवत का बयान शायद उस पर भी लागू होना चाहिए।
देश में सवर्ण तबके की हड़बड़ाहट और दहशत नाजायज और गैरजरूरी है। अवसरों पर उनका एकाधिकार ही नाजायज था, और अब अगर वह टूट रहा है, तो उसे लेकर सच्चाई को मानने की कोशिश करनी चाहिए, और यह मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र में आज एक नई सामाजिक चेतना आई है, और सदियों से चले आ रही सामाजिक बेइंसाफी के दिन अब लद गए हैं। आने वाला वक्त एक-एक करके तमाम प्रदेशों, या पूरे देश में जातीय जनगणना का रहेगा, और अब तक के सवर्ण-कुलीन तबकों को, अपने लिए अवसरों के खुले मैदान का बड़ा हिस्सा छोडऩा पड़ेगा। स्कूल-कॉलेज से लेकर नौकरियों और संसद-विधानसभा तक सभी जगहों पर कुछ तबकों को कुर्सियां खाली करनी पड़ेंगी, और सदियों से खड़े हुए कुछ लोगों को बैठने की जगह मिलेगी। फिलहाल यह भी एक अच्छी बात है कि जातियों के आंकड़ों को लेकर लोगों के बीच सामाजिक हकीकत की लंबी और आक्रामक बहस चल रही है, और इससे अन्याय का इतिहास सामने आने का मौका मिलेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत की एक समाचार-विचार वेबसाइट, न्यूजक्लिक को लेकर सरकार पिछले कई महीनों से एक जांच चला रही थी। सरकार का कहना है कि इसमें विदेशी पूंजीनिवेश के नियमों को तोड़ा गया है। यह मामला वैसे ही जांच एजेंसियों और अदालत तक पहुंचा हुआ था, लेकिन दो दिन पहले दिल्ली में इससे जुड़े हुए वेतनभोगी, और बाहरी पत्रकारों पर पुलिस के जो छापे पड़े वे हक्का-बक्का करने वाले हैं। करीब 30 लोगों पर सुबह-सुबह छापे पड़े, और उनके लैपटॉप, मोबाइल फोन जब्त कर लिए गए, उनसे सुबह से शाम तक पूछताछ चलती रही। पत्रकारों को तो शाम तक छोड़ दिया गया, लेकिन इस वेबसाइट के संचालक एक दूसरे बड़े अफसर को पुलिस ने शाम तक गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी आतंकविरोधी एक कड़े कानून, यूएपीए के तहत की गई है जिसमें जमानत होने में महीनों और बरसों तक लग जाते हैं। यूएपीए कानून का पहले भी बेजा इस्तेमाल होने का आरोप लगाते हुए पत्रकार इसे हटाने की मांग कर रहे थे, और मानवाधिकार आंदोलनकारी इसे कुचलने का एक अधिकार मान रहे थे। मोदी सरकार का रूख मीडिया को लेकर, खासकर असहमत मीडिया को लेकर कुछ अधिक ही कड़ा है, और आज देश का मीडिया दो खेमों में बंट गया है, सरकार, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रशंसकों का मीडिया देश में गोदी मीडिया कहा जाता है, और बाकी बचा छोटा सा हिस्सा मीडिया कहा जा सकता है जिस पर तरह-तरह की जांच एजेंसियां अभी टूट पड़ी हैं, और लंबे समय से यही सिलसिला चल रहा है।
लेकिन अभी न्यूजक्लिक के मामले को लेकर पत्रकारों की जो प्रतिक्रिया सामने आई है वह लोकतंत्र के लिए खतरे के सुबूत सरीखा है। बहुत से मीडिया संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को कल एक लंबी चिट्ठी लिखकर मीडिया पर हो रहे सरकारी हमलों की तरफ उनका ध्यान खींचा है, और उनसे दखल देने की उम्मीद की है। मीडिया से जुड़े हुए तमाम प्रतिष्ठित संगठनों ने इन छापों को सरकारी आतंक करार दिया है, और कहा है कि किसी संस्थान के दर्जनों पत्रकारों पर आतंक में शामिल होने का आरोप लगाना बहुत ही नाजायज बात है, और यह मीडिया को कुचलने के अलावा और कुछ नहीं है। दो दिन पहले के इन छापों को बड़ी मनमानी का एक बड़ा सुबूत करार दिया गया है, और याद दिलाया गया है कि दुनिया में प्रेस की आजादी की 180 देशों की लिस्ट में भारत 161वीं जगह पर पहुंच गया है। 2002 में भारत इस लिस्ट में 150वीं जगह पर था। मीडिया संगठनों ने पिछले दो दिनों में इस बात को उठाया है कि पिछले कुछ बरसों में लगातार ऐसे मीडिया संस्थानों पर सरकारी एजेंसियों की छापेमारी हुई है जिन्होंने जायज वजहों से भी केन्द्र सरकार की आलोचना की थी।
किसी लोकतंत्र में मीडिया आजाद नहीं रह सकता अगर देश के कुछ सबसे बड़े कारोबारी हजारों करोड़ रूपए डालकर रातोंरात मीडिया कारोबारी बन जाते हैं। इसके बाद केन्द्र या राज्य सरकारों के लिए यह आसान हो जाता है कि वे अपने-अपने प्रभाव और अधिकार क्षेत्र में बाकी मीडिया संस्थानों को खरीदकर, या कुचलकर काबू में कर लें। यह नौबत देश के कुछ प्रदेशों में भी है, लेकिन केन्द्र सरकार इस पैमाने पर बहुत ऊपर साबित हो रही है। दरअसल कोई भी सरकार जब चुनावों में अपार बहुमत पाकर सत्ता पर आती है, वह लगातार सत्ता पर बनी रहती है, तो उसे आलोचना, जरा सी भी आलोचना बहुत खटकने लगती है। उसे लगता है कि यह आलोचना उसे मिले जनसमर्थन का नोटिस नहीं ले रही है। एक बड़े टीवी समाचार चैनल के पिछले दिनों भोपाल में हुए कार्यक्रम में एक लोकगायिका नेहा सिंह राठौर से मंच पर ही चैनल की एंकर बहस कर रही थी कि जो नेता लाखों वोटों की लीड से जीतकर आते हैं, उनकी आलोचना कैसे की जा सकती है? सफलता चाहे वह किसी भी तरीके से, किसी भी कीमत पर पाई गई हो, वह सिर चढ़ती ही है। और फिर जब गोदी मीडिया, भक्त मीडिया, चापलूस मीडिया की बड़ी मौजूदगी आसपास हो, तो फिर सत्ता को यह बात और खटकती है कि कुछ गिने-चुने बचे हुए लोग किस तरह उसके खिलाफ हो सकते हैं?
जब देश में लोकतंत्र इतना कमजोर हो जाए कि जनधारणा की किसी सरकार को परवाह न रह जाए, जब नेता अपने आपमें आत्ममोहन के शिकार हों, जब चापलूसों और दरबारियों की भीड़ हो, तो फिर आलोचना करने वाले मीडिया को कुचलना आसान हो जाता है। और ऐसे वक्त समझ आता है कि देश में अलोकतांत्रिक कानूनों की मौजूदगी सबसे पहले आजादी के हिमायती लोगों को कुचलने के काम ही आती है। इसलिए यह भी समझने की जरूरत है कि ऐसी नौबत आने के पहले भी देश में आतंक के नाम पर चलाए जा रहे उन अलोकतांत्रिक कानूनों को खत्म करवाना चाहिए जो लोगों को बिना किसी सुनवाई बरसों तक कैद रखने के लिए लगातार इस्तेमाल किए जाते हैं। कुछ बहुत चर्चित मामले हों, जिनमें कुछ बड़े वकील बिना फीस लिए शामिल हो जाएं, तो भी जमानत होने में बरसों लग जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने अभी कुछ अरसा पहले लोकतंत्र में मीडिया की आजादी की अहमियत पर काफी कुछ कहा था। अभी कल मीडिया संगठनों ने मुख्य न्यायाधीश को लिखी खुली चिट्ठी में उनकी कही हुई बातें याद दिलाई हैं। सुप्रीम कोर्ट की दखल से कम, और किसी चीज से सरकारी मनमानी कार्रवाई पर कोई रोक लगते दिख नहीं रही है। यह ऐसा मौका है जब अदालत को हालात को असाधारण मानते हुए कुछ असाधारण कार्रवाई करनी चाहिए, सरकार से जवाब-तलब करना चाहिए।
महाराष्ट्र के नांदेड़ के सरकारी अस्पताल में पिछले 48 घंटों में 31 मरीजों की मौत हुई है जिनमें 16 बच्चे हैं, इनके अलावा 71 मरीजों की हालत गंभीर बताई जा रही है। अस्पताल ने यह कहा है कि वहां डॉक्टरों या दवा की कोई कमी नहीं है, और इस बात पर जोर दिया है कि मरीजों पर इलाज का असर नहीं हुआ। मामले की जांच के लिए कमेटी बनाई गई है, और इसे लेकर सभी तबकों में बड़ी फिक्र हो रही है। अलग-अलग पार्टियों के नेता महाराष्ट्र की सरकार के प्रति अपने रूख के मुताबिक बयान दे रहे हैं, लेकिन उन सबसे परे यह समझने की जरूरत है कि अस्पताल जिन नवजात शिशुओं को बहुत कम वजन के साथ पैदा होने वाला बता रहा है, वे भी तो कुपोषण की शिकार माताओं के बच्चे रहे होंगे।
इन बातों के बीच एक दूसरी खबर पर भी ध्यान देने की जरूरत है। देश में मेडिकल शिक्षा, और सरकारी अस्पतालों में इलाज इन दोनों का हाल भयानक है। अभी कुछ दिन पहले इस अखबार के यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर इस बारे में एक रिपोर्ट भी थी कि किस तरह दक्षिण भारत में नई मेडिकल सीटों पर नेशनल मेडिकल कमीशन ने रोक लगा रखी है कि उत्तर भारत के प्रदेश दक्षिण की बराबरी नहीं कर पा रहे हैं। अब इसके साथ एक दूसरी खबर आई है कि राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने 2022-23 में मूल्यांकन के दौरान अधिकतर मेडिकल कॉलेजों में फैकल्टी (शिक्षक) और सीनियर रेजीडेंट डॉक्टरों को सिर्फ कागजों पर पाया है। मतलब यह कि वे असल में काम नहीं कर रहे थे, और कमीशन की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें नौकरी पर दिखाया जा रहा था। कमीशन ने यह भी पाया कि ऐसे चिकित्सा शिक्षकों और चिकित्सकों की हाजिरी कम से कम 50 फीसदी होने की शर्त कहीं भी पूरी नहीं हो रही है। यह हाल मेडिकल कॉलेज और उनके अस्पतालों का है, तो बाकी सरकारी अस्पतालों के हाल को और आसानी से समझा जा सकता है।
आज जब देश में चिकित्सा शिक्षा की यह हालत है, और हमने एक जानकार डॉ.सजल सेन से इस बारे में बात की थी तो उनका कहना था कि दक्षिण भारत के मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ाने पर रोक लगाना नाजायज है क्योंकि वहां पर चिकित्सा शिक्षा की हालत उत्तर भारत से बेहतर है। अब अगर देश के कॉलेजों में पढ़ाने के लिए डॉक्टरों की कमी है, वे आधे भी नहीं हैं, उनसे जुड़े हुए अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी है, देश भर के ग्रामीण इलाकों में काम करने के लिए सरकारी डॉक्टर नहीं हैं, और ऐसे में मेडिकल कमीशन इस बात पर जुटा हुआ है कि दक्षिण में चिकित्सा शिक्षा, और चिकित्सा सेवा दोनों राष्ट्रीय औसत से अधिक क्यों हैं, उत्तर भारत से बहुत अधिक क्यों हैं, तो यह बड़ी खराब नौबत है। अगर उत्तर भारत में जरूरत के मुताबिक मेडिकल कॉलेज नहीं खुल पाए हैं, और राष्ट्रीय स्तर, 10 लाख की आबादी पर सौ एमबीबीएस सीटों से चिकित्सा शिक्षा बहुत पीछे चल रही है, तो ऐसी घिसटती हुई नौबत की वजह से दक्षिण भारत का आगे बढऩा भी रोक देना निहायत बेवकूफी की बात है। उत्तर भारत में अगर मेडिकल कॉलेज बढ़ाने हैं, तो वहां काम करने के लिए डॉक्टर भी दक्षिण भारत से ही तो मिलेंगे।
दूसरी बात यह कि महाराष्ट्र में अभी जो मौतें हो रही हैं, उनको देखते हुए ऐसा लगता है कि चिकित्सकों, अस्पताल की दूसरी सहूलियतों, और बाकी इंतजामों में भी कहीं न कहीं कमी बनी हुई है जो कि थोक में ऐसी मौतें हो रही हैं। अगर मौतें एक साथ इतनी बड़ी संख्या में नहीं हुई रहतीं, तो यह पता भी नहीं चला होता। इसलिए आज देश को एक मानकर, जहां से भी जितने चिकित्सक तैयार हो सकते हैं, उनके लिए कोशिश करनी चाहिए। आज तो यूक्रेन, रूस, चीन, बांग्लादेश, और नेपाल जैसे देशों से भी डॉक्टरी की पढ़ाई करके हिन्दुस्तानी लौटते हैं, और यहां पर काम करते हैं। अब अगर हिन्दुस्तानी छात्र-छात्राओं को चिकित्सा शिक्षा के लिए दूसरे देश भी जाना पड़ता है, तो इससे बेहतर तो यही है कि वे बाकी प्रदेशों से दक्षिण भारत ही चले जाएं। क्योंकि उत्तर भारत कॉलेज नहीं बना पा रहा है, मेडिकल सीटें नहीं बढ़ा पा रहा है, इसलिए देश के अधिक सक्षम राज्य भी आगे न बढ़ सकें, यह तो बहुत ही खराब सोच है, और इससे राष्ट्रीय एकता भी कमजोर होगी। वैसे भी उत्तर और दक्षिण के बीच एक अघोषित विभाजन रेखा खिंची हुई है, और आने वाले लोकसभा डी-लिमिटेशन में भी उत्तर-दक्षिण का विभाजन और अधिक गहरा होने वाला है क्योंकि दक्षिण में आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटें घटेंगी, और उत्तर भारत में गैरजिम्मेदार जनसंख्या बढ़ोत्तरी के चलते सीटें बढ़ेंगी। ऐसे में दक्षिण की बेहतर शिक्षा व्यवस्था की भी एक सीमा बांध देना बहुत समझदारी की बात नहीं है।
आज हालत यह है कि देश के सरकारी मेडिकल कॉलेजों में भी डॉक्टर और प्राध्यापक फर्जी दिखाए जाते हैं। यह हालत भी तब है जब चिकित्सा शिक्षकों को 70 बरस की उम्र तक काम करने की छूट मिली हुई है। सरकारी इंतजाम में डॉक्टर अपने लिए तय घंटों तक भी काम नहीं करते हैं, और अधिकतर जगहों पर प्राइवेट प्रैक्टिस में लगे रहते हैं। इसलिए सरकारी कागजों में दिखने वाली चिकित्सा-क्षमता सच्चाई से बहुत दूर रहती है। केन्द्र सरकार को खुद राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के आंकड़ों को देखते हुए तुरंत ऐसी नीति बनानी चाहिए कि अगले 20-25 बरस में उत्तर भारत अपनी क्षमता बढ़ा सके, और आबादी के अनुपात में मेडिकल सीटों को ला सके। लेकिन तब तक तो देश को दक्षिण भारत की तरफ देखना ही होगा, और इससे परहेज करना दक्षिण के तो कम नुकसान का होगा, उत्तर भारत के, और बाकी भारत के अधिक नुकसान का होगा।
बिहार ने 23 बरस बाद देश में एक बार फिर जाति के मुद्दे को जिंदा कर दिया है। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके ओबीसी आरक्षण की राह खोली थी, और बिहार के ओबीसी राजनीति करने वाले नीतीश-लालू के गठबंधन ने जातीय जनगणना करवाकर देश में हडक़म्प मचा दिया है। इसके आंकड़े लोगों को चौंकाने वाले हैं, ओबीसी की गिनती जितनी मानी जाती थी, उससे काफी ज्यादा निकली है, और अनारक्षित वर्ग जितना बड़ा माना जाता था, उससे काफी छोटा निकला है। इससे आने वाले वक्त में कई किस्म के फैसले बदलेंगे। इस रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण का फॉर्मूला, और उसकी अधिकतम सीमा को एक बार फिर बदलने की बात होगी। राजनीतिक दलों के सामने भी यह मजबूरी रहेगी कि उम्मीदवारी तय करते हुए वे अलग-अलग जाति और धर्म के अनुपात का ख्याल रखें। हमारा ख्याल है कि जिन पांच राज्यों में अभी विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें उम्मीदवारी तय करते हुए पार्टियों को कम से कम बिहार की इस रिपोर्ट को देखना तो होगा, फिर चाहे इन पांच राज्यों में अभी ऐसी कोई जनगणना न हुई हो।
भारत बड़ी विविधताओं वाला देश है, और इसके कोई दो राज्य बिल्कुल एक सरीखी जातीय आबादी वाले नहीं हैं। लेकिन बिहार की मिसाल अब बाकी प्रदेशों में कम से कम ओबीसी आबादी के लिए एक उत्साह की वजह रहेगी क्योंकि पढ़ाई और नौकरी में मिलने वाला, पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव में मिलने वाला ओबीसी आरक्षण अभी संसद और विधानसभाओं में लागू नहीं है, जो कि सत्ता का मुख्य केन्द्र हैं। ऐसे में ओबीसी अपनी आबादी दिखाकर अलग-अलग प्रदेशों में उसके अनुपात में राजनीतिक हक भी मांग सकता है, और आरक्षण का अनुपात भी बदल सकता है। यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि इंडिया-गठबंधन के एक प्रमुख नेता राहुल गांधी, और कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता सोनिया गांधी ने संसद के भीतर जातीय जनगणना कराने की मांग की थी। बाद में राहुल ने संसद के बाहर भी लगातार इस बात को दुहराया है, और सार्वजनिक वायदा किया है कि इंडिया-गठबंधन की सरकार बनते ही पूरे देश में जातीय जनगणना करवाई जाएगी।
अभी बिहार की जनगणना के आंकड़े देखें तो 63 फीसदी ओबीसी के अलावा दलित-आदिवासी आरक्षित आबादी को देख लें, तो उसके बाद कुल साढ़े 15 फीसदी अनारक्षित तबका बचता है। अलग-अलग राज्यों में ये आंकड़े अलग-अलग रहेंगे, लेकिन बिहार की इस जनगणना से पूरे देश में ओबीसी राजनीतिक-आरक्षण का रास्ता शुरू हो गया है। कुछ लोगों ने यह भी लिखना शुरू किया है कि आबादी के अनुपात में बिहार में अभी के अनारक्षित तबके को साढ़े 15 फीसदी आरक्षण दे दिया जाए, और बाकी आरक्षित तबकों के लोगों को जैसे बांटना हो, बांट लें। ऐसी नौबत आ भी सकती है क्योंकि आज तो तमाम ताकतवर कुर्सियों पर आज के अनारक्षित तबके हावी हैं। राहुल गांधी ने पिछले दिनों संसद और बाहर एक बात जोर-शोर से सामने रखी थी कि भारत सरकार के 90 सचिवों में से कुल 3 ओबीसी हैं। ये सचिव ही देश का बजट तय करते हैं, सरकार की बहुत सी नीतियां बनाते हैं, कार्यक्रम बनाते हैं, और देश पर राज करते हैं। अब अगर इनमें ओबीसी समुदाय का यह अनुपात है, तो यह फिक्र की बात तो है ही।
जिन लोगों को ऊंची जातियों के लोगों में ही प्रतिभा दिखती है, उन्हें अपनी सोच कुछ सुधारनी चाहिए। न अंबेडकर ऊंची जाति के थे, और न ही तमिलनाडु के सबसे महान मुख्यमंत्री कामराज। इस देश में नेताओं से परे भी हर किस्म के काम में हर किस्म की जाति और धर्म के लोग अपनी खूबियों को साबित कर चुके हैं। इसलिए जातियों का दंभ अब खत्म कर देने की जरूरत आ गई है। जिस तरह भारत में नीची कही जाने वाली जातियों को हिकारत से देखा जाता है, उसी तरह अमरीका जैसे देश में काले रंग को हिकारत से देखते हैं। वैसे देश में बराक ओबामा दो-दो बार राष्ट्रपति चुने गए, और अभी वहां एक भारतवंशी और अश्वेत मां-बाप की संतान कमला हैरिस उपराष्ट्रपति हैं। इसलिए किसी नस्ल से किसी प्रतिभा का कोई लेना-देना नहीं रहता है। दूसरी तरफ हमने देखा है कि हिन्दुस्तान के अधिकतर सबसे बड़े मुजरिम ऊंची कही जाने वाली जातियों के रहे हैं। ऐसी ही एक जाति का जिक्र करके राहुल गांधी अदालत से सजा पाए हुए हैं, इसलिए हम किसी खास जाति का जिक्र करना नहीं चाहते हैं। लेकिन हाल के बरसों में सबने देखा है कि उत्तरप्रदेश के कुछ सबसे कुख्यात मुजरिम सबसे ऊंची कही जाने वाली जाति के रहे हैं। इसलिए अब वक्त आ गया है कि मनुस्मृति में किए गए जातियों के बखान से उबरकर वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक तरीके से चीजों को देखा जाए।
दूसरी बात यह भी है कि जातीय जनगणना को अगर हाल के बरसों में सामने आए डीएनए निष्कर्षों से जोडक़र देखें, तो भारत की जातियों की जड़ों की जानकारी बहुत से लोगों को हैरान कर सकती हैं, सदमा पहुंचा सकती हैं। भारत में ऊंची समझी जाने वाली कुछ जातियों का डीएनए दूसरे देशों का मिला है, और इससे हो सकता है कि उनका जाति-दंभ कुछ खतरे में भी पड़ जाए। इस बारे में बहुत सी वैज्ञानिक रिपोर्ट किताबों की शक्ल में सामने आ चुकी हैं, इसलिए यहां पर उसके बारे में अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। लेकिन बिहार की जातीय जनगणना को लेकर आज देश में जो बहस छिड़ी है, वह एक ही तरफ जाते हुए दिखती है कि जिस जाति की जितनी आबादी है, उसका उतना ही हक होना चाहिए। लोकतंत्र में हर व्यक्ति का बराबर एक-एक वोट ही होता है, और हर व्यक्ति के अवसर भी बराबर होने चाहिए। आबादी के अनुपात में आरक्षण से आज की ऊंची कही जाने वाली जातियों को अपना बड़ा नुकसान होते दिखेगा, क्योंकि आज वे अधिक अवसरों पर काबिज हैं, लेकिन बढ़ती हुई सामाजिक-राजनीतिक चेतना के चलते यह अनुपातहीन व्यवस्था अंतहीन तो चलनी भी नहीं थी, और बिहार ने शायद इस व्यवस्था के खात्मे को एक फास्टट्रैक पर डाल दिया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज गांधी जयंती पर गांधी के नाम की सबसे अधिक चर्चा सरकार और राजनीति के लोग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने आपको गांधीवादी या गांधी का अनुयायी-प्रशंसक साबित करना जरूरी सा रहता है। इस देश में आज लोगों की सोच चाहे कितनी ही बेईमान क्यों न हो गई हो, दिखावे और पाखंड के लिए पूजा तो गांधी की ही करनी पड़ती है। जब दुनिया भर के मेहमान भारत आते हैं तो सरकार को भी उन्हें राजघाट ही ले जाना पड़ता है, गोडसे या सावरकर के स्मारकों पर उन्हें नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए आज जैसे-जैसे गांधी के नाम की चर्चा हो रही है, वैसे-वैसे यह भी याद पड़ता है कि गांधी के नामलेवा लोग किस हद तक गांधी से दूर हो चुके हैं। तमाम मौके विसंगतियों और विरोधाभासों को उजागर करते हैं, गांधी जयंती और आजादी की सालगिरह, या संविधान लागू करने के गणतंत्र दिवस के मौके ऐसे ही हैं जो कि जलसों और हकीकतों में विरोधाभास को बढ़-चढक़र बताते हैं।
आज प्रधानमंत्री सहित देश के दूसरे बहुत से नेता राजघाट जा चुके होंगे, या अपनी-अपनी तरह से गांधी को श्रद्धांजलि दे चुके होंगे। लेकिन इस गरीब देश के लिए गांधी ने जो सादगी और किफायत की राह दिखाई थी, उस राह को मानो सत्ता ने उसके सामने दीवार खड़ी करके छुपा दिया है कि वह आईने की तरह सत्ता के ऐशोआराम को उसका चेहरा न दिखाती रहे। गांधी की तस्वीरें, उसके इश्तहार और वीडियो, और गांधी की तारीफ में बड़ी-बड़ी बातें लोगों के ढकोसले को और अधिक हद तक उजागर करती हैं। जिस गांधी ने मन, वचन, और कर्म, इन सबकी ईमानदारी पर जोर दिया, आज उसके नाम की रोटी खाने वाले लोग इनमें से किसी एक के प्रति भी ईमानदार नहीं दिखते। यह बात बहुत सालती है कि यह देश हर किस्म के पाखंडों का इतना आदी हो चुका है कि बहुत से लोगों को तो गांधी के स्मरण के नाम पर मक्कार लोगों की बातों में कुछ भी अटपटा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि जिस तरह रिश्वत लेने-देने में गांधी की तस्वीर वाले नोटों का इस्तेमाल होता है, और ऐसे नोटों को गांधी का अपमान नहीं माना जाता, उसी तरह गांधी के नाम पर बड़े-बड़े पाखंडों की सालाना परंपरा भी लोगों को अटपटी नहीं लगती।
आज जब गांधी की सोच के ठीक खिलाफ जाकर सत्ता और राजनीति लोगों के साथ भेदभाव करती हैं, धार्मिक नफरत और साम्प्रदायिकता फैलाती हैं, हिंसा को बढ़ावा देती हैं, और धर्म के नाम पर आतंक फैलाती हैं, तो वह बात भी अब 21वीं सदी के दूसरे दशक में नवसामान्य हो चुकी है, यही अब भारतीय सोच और भारतीय जीवनशैली रह गई है। कुछ अरसा पहले इस अखबार को दिए एक इंटरव्यू में गांधी के पड़पोते तुषार गांधी ने कहा था कि नोटों पर से गांधी की फोटो हटा देनी चाहिए। हमें लगता है कि गांधी के नाम पर साल में दो बार जन्म और मृत्यु का दिन मनाना भी बंद हो जाना चाहिए, क्योंकि जो गांधी का नाम लेने के हकदार अब भी बचे हैं, वे सबसे गरीब, सबसे बेबस लोग ऐसे हैं जिनका गांधी के नाम के जलसों से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता। जो सबसे कमजोर तबका है, जिसे गांधी ने एक वक्त हरिजन कहा था, और जिसने बाद में इस नाम पर आपत्ति की थी, और अपने आपको दलित कहता है, उस तबके, उस किस्म के दूसरे कमजोर तबके, अल्पसंख्यक धर्मों के लोग आज सत्ता और राजनीति के जितने बुरे निशाने पर हैं, वह देखकर दिल बैठने लगता है। ऐसे में इस देश को बार-बार गांधी का वारिस होने का नाटक करना भी क्यों चाहिए? आज यह देश जिस परले दर्जे का कलंकित हो चुका है, आज संविधान की शपथ लेने वाले बड़े-बड़े लोग जिस तरह संसद के भीतर साम्प्रदायिक और हिंसक गालियां बक रहे हैं, बड़े-बड़े मुजरिम सरकार, राजनीति, और संसद में ऊंचे ओहदों पर हैं, उसे देखते हुए सरकारी दफ्तरों में गांधी की तस्वीर भी क्यों लगानी चाहिए?
और सरकारी दफ्तरों से याद आया कि आज देश की बड़ी अदालतें सरकारी दफ्तरों की साजिशों, वहां के जुर्म के खिलाफ ही जूझती रहती हैं, सरकारें रात-दिन अदालत को अपने झूठ से बरगलाने में लगी रहती हैं, ऐसे सरकारी दफ्तरों में गांधी की फोटो क्यों लगानी चाहिए? जब देश-प्रदेश की सरकारें लगातार मुजरिमों की तरह काम करती हैं, और दिखावा जनकल्याण का करती हैं, तो फिर वे चाहे गांधी के हत्यारों की तस्वीरें टांग लें, गांधी की तस्वीर को सरकारी दफ्तरों में टांगना तो गांधी को मरने के बाद भी सलीब पर टांगने सरीखा है, कम से कम मर चुके गांधी पर इतनी तो रहम करनी चाहिए कि हर बरस दो-चार बार यह याद न दिलाया जाए कि देश गांधी की सोच के कितने खिलाफ चल रहा है।
हमारा यह भी मानना है कि आज देश की राजनीतिक ताकतें इस बात की हकदार नहीं हैं कि विदेशों से आने वाले मेहमानों को वे राजघाट ले जाकर गांधी के नाम पर बेवकूफ बनाएं। यह कुछ उसी किस्म का है कि एक परिवार के नौजवान बेटे बूढ़े मां-बाप को वैसे तो भूखे मारें, प्रताडि़त करें, लेकिन जब बाहर से मेहमान आएं तो मां-बाप को ठीक-ठाक कपड़े पहनाकर मेहमानों को ले जाकर मां-बाप के पांव छुआएं। आज इस देश में कितनी सरकारें ऐसी हैं जो कि अपनी चाल-चलन के चलते, अपनी सोच के चलते गांधी का नाम भी लेने की हकदार हैं? जो सरकारें लगातार नफरती एजेंडे पर चल रही हैं, जिन्होंने अभी दस बरस पहले तक बड़ी मुश्किल से देश में धर्म के ताने-बाने से कपड़े को बुना था, उसे इन दस बरसों में तार-तार कर दिया गया है। इस देश को एक धर्मराज्य की तरह बना दिया गया है, और अपने धर्म, और सौतेले धर्म या दुश्मन धर्म के बीच ऐसी नफरत खड़ी करने वाले लोगों को राजघाट का रणनीतिक इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए। गांधी को जो करना था वो करते-करते, उसी वजह से गोली खाकर चले गए। अब उनकी हत्या करने वाली सोच को उनका कफन बेचकर राजनीति नहीं करने देनी चाहिए।
केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने अभी कहा है कि वे आने वाले लोकसभा चुनाव में न तो पोस्टर-बैनर लगवाएंगे, न किसी को चाय पिलाएंगे, जिसे वोट देना है दे, जिसे न देना है वो न दें। उन्होंने कहा कि वे चुनावों में रिश्वत नहीं लेते, और न किसी को कुछ देते हैं। उन्होंने पहले एक वक्त यह भी कहा था कि वोटर खाता सबका है, लेकिन वोट उसी को देता है जिसे देना होता है। उन्होंने बताया था कि एक बार उन्होंने एक-एक किलो मटन बांटा था, लेकिन चुनाव हार गए थे। आज की इस खबर पर सोचने की जरूरत इसलिए है कि आज देश के पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव काले बादलों की तरह मंडरा रहे हैं। सरकारी स्तर पर योजनाओं और कार्यक्रमों की बौछार चल रही है कि वोटरों के दिल का कोई कोना सूखा न रह जाए। नेताओं के अपने होर्डिंग और पोस्टर जिधर नजर जाए, उधर बदसूरती फैलाते दिख रहे हैं। तमाम संपन्न पार्टियों के वे नेता अपने चेहरों से सडक़ों को पाट दे रहे हैं जो कि अपनी पार्टी की टिकट पाने के लिए उम्मीद से हैं। जाहिर है कि टिकट पाने वाले लोगों का सार्वजनिक जगहों पर हमला इससे कई गुना अधिक होगा। इन दिनों जो चर्चा सुनाई पड़ती है उसके मुताबिक टिकट दिलवाने के लिए पार्टी के कुछ बड़े नेता करोड़ों रूपए उगाही भी कर रहे हैं, और टिकट चाहने वाले लोग उन्हें लाखों रूपए के तोहफे भी दे रहे हैं। कुल मिलाकर माहौल दो नंबर से लेकर दस नंबर तक के पैसों की अश्लील और फूहड़ नुमाइश का होकर रह गया है, और अभी पार्टियों के उम्मीदवार भी आने बाकी हैं, चुनाव प्रचार शुरू होना भी बाकी है।
नेताओं और उनकी पार्टियों के बीच मचा हुआ यह घमासान बताता है कि जिन्होंने पांच बरस काम किया हो उनमें, और जिन्होंने कुछ न किया हो, उनमें भी हड़बड़ी एक सरीखी है, दोनों ही किस्म के लोग बदहवास हैं क्योंकि बड़ी पार्टी की टिकट और मौत का कोई भरोसा नहीं रहता है कि वह कब किसके ऊपर आकर गिरे। ऐसे में बहुत से नेताओं को यही ठीक लगता है कि मतदान के 15-20 दिन पहले मिलने वाली टिकट के बाद हर पल वे इतना अंधाधुंध खर्च करें कि वोटर उसी के सैलाब में बह जाए। खुद सरकारों की, यानी सत्तारूढ़ पार्टियों की ऐसी ही हड़बड़ी दिख रही है। कई पार्टियां तो अपनी राज्य सरकारों की कामयाबी के कई-कई पन्नों के इश्तहार दूसरे प्रदेशों के अखबारों में छपवा रही हैं मानो वहां से भी वोटर वोट देने आएंगे। और यह सब कुछ जनता के पैसों से हो रहा है। प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपने प्रदेशों में तो बड़े अखबारों को इश्तहारों से पाट चुकी हैं, मानो यह अपने खिलाफ कुछ न छपने की गारंटी सी हो। और इस हड़बड़ी में सरकारों को यह भी नहीं दिख रहा है कि एक पाठक की एक दिन में कामयाबी की कहानियां पढऩे और बर्दाश्त करने की क्षमता कितनी है, किसी एक की जिंदगी में इनके लिए जगह कितनी है। इन सबसे लगता है कि पांच बरस का कार्यकाल सरकारों ने कामयाबी से पूरा नहीं किया है, और आखिरी के एक-दो महीनों की हड़बड़ी कुछ इस तरह की है कि देर रात की आखिरी ट्रेन पकड़ रहे हों।
यह सिलसिला दो किस्म के पैसों को उजागर करता है। एक तो निजी कालेधन को जिससे कि सडक़ किनारे खम्भों पर पोस्टर और होर्डिंग लगाकर लोगों की नजरों को उनसे ढांक दिया जाता है। दूसरा यह कि किसी एक पार्टी के राज वाले राज्य के सरकारी इश्तहारों के पैसों से दूसरे प्रदेशों में भी इश्तहार दिए जा रहे हैं क्योंकि वहां पार्टी विपक्ष में है, और वहां उस पार्टी के राज वाले प्रदेश की कामयाबी दिखाकर वोटरों को प्रभावित किया जा रहा है। खुद अपने-अपने प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां अपनी सरकारों के खर्चों से अंधाधुंध चुनावी प्रचार करने में लगी हैं, और लोकतंत्र में यह सत्ता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, इस पर न चुनाव आयोग, न किसी और का कोई काबू है। यह पूरा सिलसिला वोटरों और मीडिया को सत्ता के असर के सैलाब में बहा देने का है। साथ ही इस हड़बड़ी का सुबूत भी है कि पांच बरस के किए-कराए पर सरकार को खुद ही अधिक भरोसा नहीं है, और आज वह जनता के पैसों को इस तरह, इस हद तक झोंक रही है।
ऐसे में नितिन गडकरी जैसे नेता की बात मायने रखती है कि वे न पोस्टर छपवाएंगे, न लोगों को कुछ खिलाएंगे-पिलाएंगे। कम से कम एक बड़े नेता ने तो ऐसा नैतिक साहस दिखाया है, कि उसके अपने चेहरे को कदम-कदम पर चिपकाने के बजाय काम ऐसा करके दिखाए कि जिसे पूरा देश देखे, जिसकी पूरे देश में तारीफ हो। और जो बात उन्होंने पहले कही थी वह भी एकदम सही है कि वोटर पैसे और सामान तो सबसे ले लेते हैं, लेकिन वोट उसी को देते हैं जिसे देना चाहिए। इस बात को बाकी लोगों को भी याद रखना चाहिए कि अगर आपके काम कामयाब हैं, तो फिर आपको कदम-कदम पर अपने पोस्टर लगाने की जरूरत नहीं है, हर टीवी चैनल पर दिन भर छाए रहने, हर अखबार में अपने कई पन्ने छपवाने की जरूरत नहीं है। लेकिन जहां काम में कमजोरी रहती है, वहां पर फिर लोग अंधाधुंध सहारा ढूंढने लगते हैं, और अभी तो चुनाव कई हफ्ते दूर है, और बदहवासी का यह आलम चारों तरफ छा चुका है।
केन्द्र और राज्य सरकारों के इश्तहार देने, प्रचार करने की मर्जी पर कोई कानूनी काबू नहीं है। दिल्ली में जब केजरीवाल सरकार ने एक सार्वजनिक योजना में केन्द्र सरकार के साथ राज्य की तरफ से रकम देने से मना कर दिया, तो अभी कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से उसके दिए जा रहे विज्ञापनों का हिसाब मांगा। अब ऐसा लगता है कि चुनाव के वक्त सरकारों के विज्ञापनों के खर्च को लेकर किसी तरह के कोई नियम बनने चाहिए ताकि अखबार और टीवी चैनलों में से जो लोग अपनी आत्मा बेचना न चाहें, वे भी मुकाबले में कहीं टिक सकें। चुनाव प्रचार के दौरान उम्मीदवारों के खर्च पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग कहने को तो देश भर से बड़े-बड़े अफसरों को खर्च-पर्यवेक्षक बनाकर भेजता है, लेकिन पूरे प्रदेश को पता रहता है कि किस-किस बड़े नेता की सीट पर सीमा से सौ-सौ गुना अधिक खर्च होने जा रहा है। यह खर्च अगर किसी को नहीं दिखता है, तो वह सिर्फ चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक को नहीं दिखता। यह नौबत भी बदलनी चाहिए क्योंकि खर्च की ऐसी सुनामी के सामने किसी ईमानदार उम्मीदवार के पांव नहीं टिक सकते। चुनाव का वक्त लोगों की जुबानी हिंसा का भी रहता है, और इसके साथ-साथ सरकारी पैसों, और निजी कालेधन के हिंसक इस्तेमाल का भी रहता है। इसका क्या इलाज निकाला जा सकता है जनता को भी सोचना चाहिए, क्योंकि चुनाव आयोग तो अब सरकार के किसी विभाग की तरह हो गए हैं, जो कि नेता के मातहत उसकी मर्जी का काम करते हैं।
कनाडा की संसद के स्पीकर को अभी इस्तीफा देना पड़ा। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की पिछले हफ्ते वहां पहुंचे थे, और उनके स्वागत में स्पीकर एंथनी रोटा ने अपने शहर से एक यूक्रेनी अप्रवासी को आमंत्रित किया था, और उसे संसद में सबके सामने द्वितीय विश्वयुद्ध के एक हीरो की तरह पेश किया। स्पीकर के इस फैसले पर कनाडा के प्रधानमंत्री सहित तमाम सांसदों ने खड़े होकर तालियां बजाई थीं, और बाद में स्पीकर को पता लगा कि उस युद्ध में यह आदमी हिटलर की नाजी फौजों से जुड़ा हुआ था। हिटलर की फौजों से जुड़े हुए किसी भी तरह के लोग आज पूरी दुनिया में अछूत बने हुए हैं, और उन्हें युद्ध अपराधों के इतिहास से जोडक़र देखा जाता है। इस बात को लेकर कनाडा में इतना बवाल हुआ कि प्रधानमंत्री ने माफी मांगी और स्पीकर ने इस्तीफा दिया।
दरअसल दुनिया में जितने विकसित और सभ्य लोकतंत्र हैं, उनमें लोकतांत्रिक परंपराएं मजबूत रहती हैं, और उन्हीं की बुनियाद पर लोकतंत्र खड़ा होता है। वहां पर किसी तरह की नैतिक चूक होने पर लोग तुरंत ही इस्तीफा देते हैं। हिन्दुस्तान की तरह नहीं होता कि दर्जन भर लड़कियों के बलात्कार का आरोपी अदालत के कटघरे में भी खड़ा है, और संसद की कुर्सी पर भी बैठा है। इस देश की संसद में तो अभी हाल में एक धर्म के खिलाफ जिस तरह की गंदी नफरती, हिंसक गालियां दी गई हैं, उन पर पूरी संसद को शर्मिंदा होना था, लेकिन ऐसे सांसद का बाल भी बांका नहीं हुआ, और उसे उसकी पार्टी, केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने राजस्थान चुनाव में एक जिले का प्रभारी भी बनाकर भेजा है जहां 11 फीसदी मुस्लिम आबादी हैं। जाहिर है कि ऐसे आदमी को जिसके वीडियो देश भर में घूम रहे हैं, वह अगर ऐसे जिले में चुनाव प्रभारी बनाया जा रहा है, तो यह वहां पर वोटों के ध्रुवीकरण की एक कोशिश अधिक दिखती है। अब यह तो संसद चलाने वाले लोगों के अपने विवेक पर रहता है कि अपनी संसद पर लग रही कालिख से उन्हें शर्मिंदगी होती है, या वे संसद के कैमरों के सामने मुस्कुराते बैठे रहते हैं। यह नौबत लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है, और आज जो कनाडा भारत के साथ खालिस्तानियों के मुद्दे पर टकराव लेकर चल रहा है, उस कनाडा की संसद में अपनी चूक पता लगते ही बिना किसी मांग के उसके स्पीकर ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने बिना जानकारी गलती से एक ऐसे आदमी का सम्मान कर दिया था जो कि नस्लवादी फौज के साथ जुड़ा हुआ था। हिन्दुस्तान की संसद में हाल ही में जितनी घटिया नस्लवादी गालियां सुनी हैं, उससे तो किसी को भी शर्म आई हो, ऐसा नहीं लगता है।
लोकतंत्र सिर्फ नियमों से बंधा हुआ नहीं चलता, नियम तो चोरों के बचने के काम आते हैं, अदालतों में मुजरिम उनमें छेद ढूंढकर बचते हैं, लेकिन अगर लोकतांत्रिक संस्थाओं के बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे हुए लोग पेशेवर गवाहों और मुजरिमों की तरह यह कोशिश करते रहें कि नियम-कानून से बचा कैसे जा सकता है, तो ऐसा लोकतंत्र कभी विकसित नहीं हो सकता। विकसित और सभ्य लोकतंत्रों का हाल तो यह है कि एक अनैतिक संबंध का आरोप सामने आते ही पश्चिम के कई देशों में लोग इस्तीफा दे देते हैं। जरा से दूसरे आरोप लगते हैं, और लोग सार्वजनिक माफी मांगते हुए ओहदे से हट जाते हैं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान है जहां बलात्कार में पकड़ाए गए लोग भी चौड़ी मुस्कुराहट चेहरे पर लिए हुए, सिर पर पगड़ी डटाए हुए शान से घूमते हैं, और यह भविष्यवाणी भी करते हैं कि उनके बिना हिन्दुस्तान में यह खेल पिछड़ जाएगा, और टीम कोई मैडल लेकर नहीं आएगी। यह परले दर्जे का घटिया लोकतंत्र हो गया है जहां लोगों को देश के लोगों के अधिकार की कोई फिक्र करने की जरूरत नहीं रह गई है, और महज अपने कानूनी बचाव की कोशिश ही उनके लिए सब कुछ हो गई है।
आज हालत यह है कि देश में जगह-जगह शर्मिंदगी की वारदातें हो रही हैं, लेकिन देश-प्रदेश में जो लोग इनके लिए जिम्मेदार हैं, उनके माथे पर शिकन भी नहीं है, वे पहले की तरह ही मंचों पर विराजमान हैं, मालाओं से लदे हुए हैं, और माईक पर देश के लिए प्रेरणा की बातें करते रहते हैं। दरअसल इस पूरे देश में नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को इतना पतन हो चुका है कि बड़े से बड़े मुजरिम भी महज चुनाव जीत पाने, और वोट दिलवाने की ताकत के दम पर सत्ता और संगठन में इज्जतदार और वजनदार बने रहते हैं। जाहिर है कि ऐसा देश कभी सुरक्षित नहीं रह सकता। आम लोगों के परिवार तभी तक हिफाजत में हैं, जब तक ऐसे किसी ताकतवर की नीयत उन पर नहीं डोलती। मुजरिमों को बचाने के लिए देश-प्रदेश की सरकारें जितनी मेहनत करती हैं, उतनी मेहनत अगर वे जनकल्याण के काम करने में करतीं, तो देश का नक्शा बदल गया रहता। लेकिन अपने चहेते और पसंदीदा मुजरिमों को बचाने में लगे हुए हिन्दुस्तान के तथाकथित नेता और अफसर देश को बर्बाद कर चुके हैं। इनमें संसद का हाल आज सबसे ही भयानक दिख रहा है जहां पर कोई व्यक्ति नफरत की ऐसी बातें कहकर, ऐसी हिंसक धमकियां देकर बचा हुआ है जिन पर उसे दुनिया में कड़ी सजा मिल चुकी होती। आज भी अगर हिन्दुस्तान का यह सांसद किसी पश्चिमी विकसित देश में जाने का वीजा मांगे, तो उसे पता लग जाएगा कि वह सभ्य दुनिया के लिए किस हद तक अछूत है। कनाडा की घटना की चर्चा हमने इसलिए की है कि हिन्दुस्तान में जिन लोगों में संसद में रहते हुए भी जरा सी भी शर्म नहीं रह गई है, वे लोग अपनी इस नौबत को देख लें, और इसके बाद कनाडा की संसद को देखकर उससे कुछ सबक ले लें।
सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट को एक सजायाफ्ता बुजुर्ग वकील के मामले को दूसरे मामलों से अलग तेज रफ्तार से निपटाने का निर्देश दिया है। अदालत ने कहा है कि वह आमतौर पर दूसरी संवैधानिक अदालतों को किसी केस की तारीखें तय करने को नहीं कहता है, लेकिन यह मामला बहुत अलग है। इसमें सजायाफ्ता वकील जिसने हाईकोर्ट में निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील की है, उस पर अपनी भांजी से बलात्कार और हत्या का जुर्म लगा था, और उसमें उसे सजा हुई है। सजा के खिलाफ उसने हाईकोर्ट में अपील की है, लेकिन वहां से उसे मामले के निपटारे तक जमानत से मना कर दिया गया था। इसी के खिलाफ यह वकील सुप्रीम कोर्ट गया था, और सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि 1983 के इस मामले में फैसला 2023 में हुआ है, और 40 बरस तक मुकदमा चलने के असाधारण तथ्य को देखते हुए अदालत यह निर्देश दे रही है कि हाईकोर्ट इसकी आऊट ऑफ टर्न सुनवाई करे, और कड़ी शर्तें लगाकर इस वकील को जमानत दे। सुप्रीम कोर्ट 40 बरस लंबी चली सुनवाई की वजह से इसमें दखल दे रहा है, और उसने अपील करने वाले सजायाफ्ता वकील को कहा है कि वह अब हाईकोर्ट में तेज रफ्तार सुनवाई में सहयोग करे, और किसी तरह की बहानेबाजी से इसकी रफ्तार कम न करे।
अब भांजी से बलात्कार और उसके कत्ल के सीधे सपाट मामले में निचली अदालत को ही सजा सुनाने में 40 बरस कैसे लगे, यह हैरान करने वाली बात है। यह भी सोचने की बात है कि क्या आरोपी के वकील रहने से ऐसी अदालती तिकड़मे चलती रहीं जिनकी वजह से फैसला नहीं हो पाया, और आरोपी जमानत पर बाहर रहा। अधिकतर ऐसे मामलों में जिनमें मुजरिम को सजा का पुख्ता अंदाज रहता है, उनमें वे कम से कम इतनी कोशिश तो करते ही हैं कि सजा का फैसला होने में अधिक से अधिक देर लगे। इसके बाद वे ऊपरी अदालतों में इस फैसले के खिलाफ और वक्त लगाते हैं। हो सकता है कि इस वकील के मामले में भी ऐसा ही हो रहा हो, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को यह केस तेजी से निपटाने के लिए कहा है, तो उम्मीद की जा सकती है कि जुर्म और गुनहगार का फैसला तेजी से हो पाएगा।
हिन्दुस्तानी अदालतों की रफ्तार के बारे में भी अगर सुप्रीम कोर्ट अपने इस आदेश में कुछ कहता तो बेहतर लगता। इस मामले में तो जुर्म की शिकार लडक़ी बलात्कार के बाद मार दी गई थी, इसलिए फैसले से अब उसका तो कोई भला नहीं होना है, लेकिन अगर उसकी जगह किसी जिंदा गरीब की बात होती, तो फैसले से उसे कोई भी राहत मिलने की बात तो 40 बरस खिसक ही गई रहती। ऐसे में हमें इसी जगह पर अपनी कई बार की लिखी गई एक बात याद आती है कि किसी भी तरह के जुर्म में अगर मुजरिम संपन्न हैं, तो बलात्कार की शिकार, या किसी और जुर्म के शिकार परिवार को मुजरिम की दौलत का एक हिस्सा मिलना चाहिए। यह हिस्सा बलात्कार के मामलों में उस मुजरिम की बीवी या उसके बच्चों के कानूनी हक के बराबर का हो सकता है। भारतीय कानून में ऐसे एक फेरबदल की जरूरत है कि संपन्नता या किसी तरह की सत्ता की ताकत से लैस मुजरिम अगर किसी कमजोर को शिकार बनाते हैं, तो ऐसे कमजोर को मुजरिम की क्षमता के अनुपात में भरपाई मिलनी चाहिए। जिस दिन बलात्कारी की जायदाद का आधा हिस्सा बलात्कार की शिकार को मिल जाएगा, बलात्कारी को कैद के बाद अपने परिवार में भी असली सजा मिलेगी।
भारतीय समाज में ताकतवर और कमजोर के बीच जुर्म की गुंजाइश बहुत बड़ी रहती है। दलित और आदिवासी तबकों को अपने तबके के बाहर के लोगों के जुल्म से बचाने के लिए अलग कानून बनाया गया है, लेकिन जाति व्यवस्था की ताकत से परे ओहदे या संपन्नता की ताकत के लिए भी अलग कानून रहना चाहिए। आज कोई बड़ा अफसर अपनी मातहत से बलात्कार करे, तो उस पर सजा तय हो जाने पर उस अफसर की बकाया तनख्वाह, सरकार में जमा बाकी रकम, और उसकी दौलत से पत्नी के बराबर का हिस्सा बलात्कार की शिकार को मिलना चाहिए। अदालत का आज के कानूनों के तहत न्याय, सामाजिक न्याय नहीं है। सामाजिक न्याय के लिए जाति व्यवस्था, संपन्नता या ताकत का फर्क, शारीरिक ताकत का फर्क, इन सबका ध्यान रखना जरूरी है।
एक बार फिर से कलकत्ता हाईकोर्ट के इस मामले पर लौटें, तो कानून के शोधकर्ता असाधारण देर होने वाले ऐसे मामलों का अध्ययन कर सकते हैं कि किस तरह की तिकड़म लगाकर सजा से 40 बरस बचा गया था। इस मामले में यह जाहिर है कि बलात्कारी-हत्यारे को सजा मिलने की ही आशंका थी, और इसलिए सुनवाई में जितनी देर हुई होगी, उसमें शायद उसी का बड़ा योगदान रहा होगा। जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट को कुछ किस्म के मामलों के लिए देश के अलग-अलग विधि विश्वविद्यालयों से बात करनी चाहिए कि असाधारण किस्म के मामलों पर वहां के प्राध्यापक और छात्र शोध करके सुप्रीम कोर्ट के सामने अपने निष्कर्ष रखें, ताकि बाकी मामलों को उस किस्म की साजिश से बचाया जा सके। आज देश में जाने कितने ही विधि विश्वविद्यालय हैं, और दुनिया भर में मशहूर आईआईएम हैं, टेक्नालॉजी के मामले में आईआईटी हैं, लेकिन इनका फायदा अमरीका की बड़ी-बड़ी कंपनियों को मिलते दिखता है, खुद भारत की सरकारी व्यवस्था या न्याय व्यवस्था को इनका फायदा नहीं दिखता। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि देश के अदालती कामकाज में सुधार के लिए इन संस्थानों के विशेषज्ञों को मिलाकर एक ऐसी टीम बनाए जो कि निचली अदालतों के कामकाज को देख-समझकर उनमें सुधार के तरीके बताए। जहां इंसाफ में इस तरह की अंधाधुंध देर लगती है, वहां पर अदालत को कुछ कल्पनाशील और असाधारण तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए। देश के तीन किस्म के प्रमुख संस्थानों को इसमें झोंकना चाहिए, और इससे देश के दसियों करोड़ लोगों की जिंदगी आसान हो सकेगी।
मणिपुर में हिंसा की ताजा घटनाएं बड़ी फिक्र खड़ी करती हैं। एक तरफ तो देश के बहुत से तबकों से यह मांग आ रही है कि वहां के भाजपा के मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को हटाया जाए। मांग तो राष्ट्रपति शासन की भी आ रही है, लेकिन केन्द्र सरकार की मुखिया भाजपा है, और मणिपुर में भी भाजपा का राज है, इसलिए शायद राजनीतिक असुविधा का ऐसा कोई फैसला लेने से केन्द्र सरकार कतरा रही है। तीन मई से शुरू हुए मैतेई और कुकी जनजाति के बीच हिंसक संघर्ष में अब तक 175 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, और आधा लाख से अधिक लोग अपने घरों से बेदखल हो चुके हैं। केन्द्र सरकार ने वहां सेना भी तैनात कर दी है, लेकिन राज्य की पुलिस सेना के साथ कई मोर्चों पर टकराव लेते दिख रही है। ऐसे कई वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें राज्य की पुलिस फौज को चले जाने को कह रही है। हफ्ते भर में मणिपुर में हिंसा शुरू हुए डेढ़ सौ दिन हो जाएंगे, और ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि वहां हिंसक तनातनी में कोई भी कमी आई हो, या शांति की कोई संभावना बनी हो। फौज और सुरक्षाबलों की असाधारण मौजूदगी की वजह से नए टकराव कम हो रहे हैं, लेकिन आज भी इतने टकराव तो जारी हैं कि राजधानी इम्फाल में पुलिस के गिरफ्तार किए हुए लोगों को छुड़ाने के लिए महिलाओं की भीड़ लेकर लोगों ने थानों पर पत्थरों से हमले किए। यह कार्रवाई उन लोगों को छुड़ाने के लिए की जा रही थी जिन्हें पुलिस की वर्दी में अवैध हथियार लेकर चलते हुए गिरफ्तार किया गया था। और हालत यह है कि मणिपुर की अदालत ने ऐसे तनावभरे राज्य में पुलिसवर्दी में अवैध हथियार लेकर चलते लोगों को आनन-फानन जमानत भी दे दी। ऐसी खबरें हैं कि ये लोग वहां की सत्ता के करीबी और पसंदीदा मैतेई समुदाय के लोग थे और थाने को भीड़ के हमले से बचने के लिए आंसू गैस के गोले भी दागने पड़े, कुछ पुलिसवाले जख्मी भी हुए। ऐसा भी कहा जा रहा है कि पुलिस की वर्दी में हथियार लेकर चलने वाले ऐसे लोगों को वहां पर पुलिस कमांडो कहा जाता है, और वे कुकी आदिवासी समुदाय पर हमला करने वाली भीड़ का हिस्सा रहते हैं।
इस बात को ठीक से समझने की जरूरत है कि मणिपुर में गैरआदिवासी, शहरी मैतेई समुदाय को आदिवासी-आरक्षित तबके में शामिल करने की हाईकोर्ट की एक सिफारिश के तुरंत बाद से वहां हिंसा शुरू हो गई थी, क्योंकि ऐसी कोई सिफारिश लागू होने पर आदिवासी-आरक्षित तबके के सारे हक मारे जाते। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी यह पाया कि हाईकोर्ट की सिफारिश सही नहीं थी, और उसे ऐसा करने का कोई हक भी नहीं था, यह उसके अधिकार क्षेत्र के बाहर की बात थी। लेकिन इसके तुरंत बाद से जो तनाव वहां चल रहा है उसमें एक बात साफ है कि कुकी आदिवासी तबका, जो कि ईसाई है, उसका कोई भी भरोसा राज्य की बीरेन सिंह सरकार पर नहीं है। कुकी नेता बार-बार यह बोल चुके हैं कि बीरेन सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए किसी तरह की शांति नहीं आ सकती। यह मामला आदिवासी और गैरआदिवासी से शुरू हुआ, लेकिन यह सवर्ण-हिन्दू और ईसाई-आदिवासी तबकों के बीच टकराव में तब्दील हो गया। मई के महीने में ही केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह तीन दिन मणिपुर रहकर लौटे, लेकिन उससे कोई समाधान नहीं निकल सका। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 75 से अधिक दिनों तक जुबान पर मणिपुर शब्द भी लेकर नहीं आए, और संसद के बाहर मीडिया के कैमरों पर उन्होंने पहली बार मणिपुर तब कहा जब सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को इस पर नोटिस जारी किया, और सत्र शुरू हो रहा था।
ऐसे हालात वाले मणिपुर में ताजा खबर यह है कि वहां सेना को खास हिफाजत देने वाले एक कानून आफस्पा को चुनिंदा इलाकों में छह महीनों के लिए बढ़ा दिया गया है। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान के इतिहास में महिलाओं के नग्न प्रदर्शन की अकेली घटना मणिपुर में ही इसी एक कानून के खिलाफ बरसों से चली आ रही है, और कुछ महीने पहले मणिपुर के कई इलाकों से इसे हटा भी दिया गया था। लेकिन अभी ताजा तनाव को देखते हुए यह कानून राज्य के मैतेई बहुल इलाकों के 19 थाना-क्षेत्रों को छोडक़र बाकी जगहों पर लागू किया गया है। जबकि राज्य में मारे गए पौने दो सौ लोगों में से 80 फीसदी मौतें इन्हीं इलाकों में हुई हैं। जिन लोगों को इस कानून की जानकारी नहीं है उनके लिए यह बताना काम का होगा कि जिन इलाकों में यह लागू किया जाता है वहां पर भारतीय सेना के सैनिकों को बिना वारंट कहीं भी जांच करने और किसी को भी गिरफ्तार करने का हक मिल जाता है, इसके अलावा किसी भी सैनिक पर केन्द्र सरकार की मंजूरी के बिना कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। एक किस्म से यह लोकतंत्र की साधारण संवैधानिक व्यवस्था से ऊपर एक असाधारण व्यवस्था रहती है जिसमें राज्य के नागरिकों और वहां की सरकार या पुलिस के सामान्य अधिकार निलंबित रहते हैं। वे किसी भी फौजी ज्यादती के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते। अब हैरानी की बात यह है कि मणिपुर में जिस तरह तनाव पूरे राज्य में फैला हुआ है, उसमें सिर्फ मैतेई बहुल इलाकों में आफस्पा लागू न करना, और कुकी-आदिवासी बहुल इलाकों में इसे लागू करना एक हैरान करने वाली बात है। ऐसी खबरें हैं कि प्रदेश के बहुत सारे प्रतिबंधित संगठन जो कि म्यांमार से हथियार पा रहे हैं, उनमें अधिकतर लोग मैतेई समुदाय के हैं, और वे घाटी के उन्हीं इलाकों से काम कर रहे हैं जहां पर आफस्पा नहीं लगाया गया है। अभी आई खबर बताती है कि इन इम्फाल में भाजपा ऑफिस को आग लगा दी गई है, भाजपा अध्यक्ष के घर पर हमला किया गया है, एक डिप्टी कलेक्टर के घर पर गाडिय़ां जला दी गई हैं, लेकिन इन इलाकों को शांतिपूर्ण घोषित किया गया है, और आफस्पा कानून से बाहर रखा गया है। मतलब यह कि चीन और म्यांमार से जुड़े हुए संगठन और उनके लोग जिस इलाके से काम कर रहे हैं, उसे फौजी ताकत वाले इस कानून से बाहर रखा गया है। यह फैसला बहुत हैरान करता है, और आने वाले वक्त में अधिक जानकार लोग इसका बेहतर विश्लेषण कर सकेंगे।
फिलहाल जो बात बिना किसी विवाद के साफ दिखती है, वह यह कि डेढ़ सौ दिनों में भी मणिपुर के भाजपा मुख्यमंत्री कुछ भी नहीं सुधार पाए हैं, और जनता के एक बड़े तबके का उन पर कोई विश्वास नहीं है। केन्द्र सरकार अपने तमाम सुरक्षाबलों और अपनी फौज के साथ मिलकर भी वहां हिंसा रोक नहीं पा रही है। और भारत म्यांमार सरहद पर बसा हुआ, रणनीतिक महत्व का यह राज्य एक अभूतपूर्व हिंसा और तनाव झेल रहा है। देखना होगा कि आने वाले दिनों में इतिहास वहां क्या दर्ज करता है।
इन दिनों हिन्दुस्तान के गांव-गांव, और घर-घर तक पहुंचने वाले पैकेट बंद खाने के सामान में नमक, शक्कर, और घी-तेल की मात्रा निर्धारित मात्रा से बहुत अधिक पाई गई है। इस मामले में काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन न्यूट्रीशन एडवोकेसी इन पब्लिक इंट्रेस ने ऐसे कई दर्जन अलग-अलग पैकेट-फूड का रासायनिक विश्लेषण किया जिनमें से एक तिहाई में ये सारी चीजें निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा निकलीं। हिन्दुस्तान वैसे भी सेहत के लिए निर्धारित नमक की अधिकतम सीमा से अधिक खाता है, और उसके बाद इस तरह के पैकेट वाले खानों से लोगों की सेहत को खतरा पहुंचाने की हद तक ये चीजें बढ़ जा रही हैं। एक समय था जब हिन्दुस्तान में सिगरेट और शराब-तम्बाकू के इश्तहार भी छपते थे। बाद में उन्हें सेहत के लिए नुकसानदेह मानकर बंद किया गया। पहले सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट पीने की मनाही भी नहीं थी, लेकिन जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी, उस पर भी रोक लगी। आज वक्त आ गया है कि खानपान के सामानों को लेकर सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए कि बच्चों से लेकर बड़ों तक उनका इस्तेमाल न बढ़े।
आज भारत में खानपान के नियम बनाने वाली सरकारी संस्थाएं, या सरकारी विभाग न सिर्फ लापरवाह हैं, बल्कि ऐसी आशंका भी रहती है कि वे कारोबारी दुनिया की रिश्वत के दबाव में नियमों को कभी भी पर्याप्त कड़ा नहीं बनाते, और न ही उसे लागू करते। खानपान के पैकेट, डिब्बे, और बोतलों पर स्वास्थ्य से संबंधित चेतावनी न तो पर्याप्त प्रमुखता से रहती है, न ही वह स्थानीय लोगों को समझ आने वाली भाषा में रहती है। उसे इस तरह दबाकर, छुपाकर, छोटे अक्षरों में, कहीं पीछे, नीचे डाल दिया जाता है कि उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। बार-बार यह बात उठती है कि कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल में कितने चम्मच शक्कर रहती है, और किस उम्र या वजन के व्यक्ति को एक दिन में अधिकतम कितनी शक्कर लेनी चाहिए। ऐसी किसी चेतावनी के बिना बोतलबंद तरह-तरह के ड्रिंक बाजार में बिकते हैं, और हर पीढ़ी के लोग उसके आदी हो चुके हैं। जो अंतरराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के दूसरे देशों में वहां की कानूनी जागरूकता के चलते अपने ऐसे ही सामानों पर कानूनी चेतावनी, सेहत के बारे में खतरे साफ-साफ छापती हैं, वे हिन्दुस्तान में इससे कतराती हैं, और भ्रष्ट सरकारी विभागों को इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता। सेहत के लिए अधिक जागरूक देश बरसों से जो करते आ रहे हैं, वह भी हिन्दुस्तानी अफसरों को नहीं दिखता। यहां तो लंबे समय तक सिगरेट कंपनियां इसी बात पर सरकार से उलझती रहीं कि सिगरेट से कैंसर होने के खतरे की चेतावनी पैकेट पर न छापी जाए, या जब छापी भी गई तो वह कितनी छोटी छापी जाए। नतीजा यह है कि आज हिन्दुस्तान में तम्बाकू से होने वाले मुंह के कैंसर के आंकड़े लाखों में पहुंचे हुए हैं, और सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि यह पुरूषों में सभी तरह के कैंसरों में सबसे अधिक जिम्मेदार है, और करीब 12 फीसदी कैंसर मरीज मुंह के कैंसर के ही हैं। मुंह का कैंसर पांच बरस की जिंदगी ही छोड़ता है। लेकिन सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी छापने में कंपनियों ने बरसों तक अड़ंगे लगाए थे।
आज हिन्दुस्तान में मजदूरों के बच्चों के हाथ भी तरह-तरह के चिप्स और दूसरे खानपान के पैकेट दिखते हैं। मां-बाप के पास पकाने का वक्त नहीं रहता, तो भूखे बच्चों के लिए आसपास की दुकान में टंगे पैकेट में से ही कुछ ला दिया जाता है। नतीजा यह होता है कि जरा-जरा से बच्चे कई तरह के पैकेट के आदी होते जा रहे हैं, घर के बाहर निकलते ही वे इन्हीं चीजों की जिद करने लगते हैं, और अधिक नमक-शक्कर, तेल-घी, और स्वाद के लिए डाले गए तरह-तरह के केमिकल्स की आदत उन्हें पडऩे लगती है। भारत में सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार में भी अब लोगों को इन चीजों को पेश करने की आदत पडऩे लगी है, और मेहमानों के साथ-साथ खुद भी इन्हें खाते हुए लोगों की रोजाना की इन चीजों की खपत बढ़ती जा रही है। यह सिलसिला देश की सेहत के लिए खतरनाक है क्योंकि भारत को दुनिया की डायबिटीज की राजधानी भी कहा जाने लगा है।
देश में आज ऐसे गैरसरकारी संगठनों को बढ़ावा देने की जरूरत है जो कि सरकार और कारोबार की इस मिलीजुली साजिश के खिलाफ वैज्ञानिक तथ्यों को लोगों के सामने रखते हैं। इनसे विश्वसनीय और वैज्ञानिक जानकारी लेकर समाज के अलग-अलग किस्म के संगठनों को भी अपने लोगों के सामने इन बातों को उठाना चाहिए, और धीरे-धीरे लोगों तक जागरूकता पहुंच सकती है। आज सोशल मीडिया और यूट्यूब, मैसेंजर सर्विसों और मैसेंजर-चैनलों के युग में यह आसान भी है कि कोई सामाजिक संगठन जागरूकता की ऐसी छोटी-छोटी फिल्में बनाएं, या पावर पाइंट प्रेजेंटेशन तैयार करें, और उन्हें चारों तरफ फैलाएं। इनका पूरी तरह वैज्ञानिक तथ्यों पर होना इसलिए जरूरी रहेगा कि ऐसी जागरूकता के खिलाफ बाजार की ताकतें अदालतों तक दौड़ लगा सकती हैं। इसीलिए हम वैज्ञानिक अनुसंधान पर काम करने वाली प्रतिष्ठित संस्थाओं से जानकारी लेने की बात कर रहे हैं।
सरकारों को भी चाहिए कि आज वे जिस तरह जनता के इलाज के लिए उन्हें मुफ्त इलाज-बीमा दे रही हैं, उन्हें इसके साथ-साथ लोगों को सेहतमंद रहने के लिए जागरूक भी करना चाहिए। सरकार को अपनी तमाम संचार-ताकत का इस्तेमाल करके लोगों तक उनके समझ आने लायक भाषा में खानपान से सेहत को होने वाले खतरे की बात पहुंचानी चाहिए। आज बाजार में खाने-पीने के चीजों का जिस आक्रामक तरीके से हमला हुआ है, उसकी मार से बचना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि अब घरों में भी बाजार से पका-पकाया खाना भी आने लगा है, और स्वाद को चटोरा बनाने के लिए बाजार के खाने में जिस तरह केमिकल्स मिलाए जाते हैं, उससे भी लोगों की आदत बढ़ती चल रही है। हमने यहां पर टुकड़ा-टुकड़ा कई बातों का जिक्र किया है, और इस बारे में लोगों को खुद भी सोचना चाहिए क्योंकि खानपान की गड़बड़ी से होने वाली कई किस्म की बीमारियां लोग अपनी अगली पीढ़ी को विरासत में भी देते हैं। इसलिए विरासत में सिर्फ मकान-दुकान छोडक़र जाना काफी नहीं है, अगली पीढ़ी को स्वस्थ जींस और डीएनए मिले, यह उससे अधिक जरूरी है। इसकी शुरूआत सेहतमंद खानपान से ही हो सकती है।


