विचार/लेख
-अजय ब्रहमात्मज
फि़ल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया ने इस साल आमिर ख़ान प्रोडक्शन की किरण राव निर्देशित ‘लापता लेडीज’ को भारत की ओर से ऑस्कर में भेजने की घोषणा की है।
इस घोषणा के साथ ही विवाद शुरू हो गया।
ऐसा कहा जा रहा है कि पायल कपाडिय़ा की फि़ल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ ज़्यादा बेहतर होती।
इस साल भारत में निर्मित विभिन्न भाषाओं की 29 फि़ल्मों पर विचार किया गया।
इनमें ‘कल्कि 2898 एडी’, ‘एनिमल’, ‘चंदू चैंपियन’, ‘सैम बहादुर’, ‘केट्टूकल्ली’, ‘आर्टिकल 370’ भी विचार के लिए आई थीं।
फि़ल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया की 13 सदस्यों की निर्णायक मंडली ने परस्पर सहमति से किरण राव की ‘लापता लेडीज’ को भेजने की सिफ़ारिश की।
यह फि़ल्म पिछले साल टोरंटो इंटरनेशनल फि़ल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की गई थी, लेकिन भारतीय दर्शकों के लिए ये इस साल एक मार्च को सिनेमाघर में रिलीज़ हुई। उसके ठीक 8 हफ़्तों के बाद यह फि़ल्म ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म नेटफ़्िलक्स पर आ गई।
दावा किया जा रहा है कि नेटफ़्िलक्स पर यह सबसे ज़्यादा देखी जाने वाली फि़ल्म हो गई है।
भारत की ‘लापता लेडीज़’ के साथ 50-52 देशों की फि़ल्में इस श्रेणी में भेजी गई हैं।
ऑस्कर एंट्री के लिए ‘लापता लेडीज़’ के चुने जाने के बाद निर्देशक किरण राव ने कहा, ''यह पहचान हमारी पूरी टीम के अथक कार्य का साक्ष्य है। टीम के समर्पण और पैशन से यह कहानी जीवंत हुई।''
राव ने कहा, ‘सिनेमा हमेशा से दिलों को जोडऩे, सीमाओं को तोडऩे और सार्थक विमर्श आरंभ करने का शक्तिशाली माध्यम रहा है। मुझे उम्मीद है कि यह फि़ल्म भारतीय दर्शकों की तरह ही पूरे संसार के दर्शकों को झंकृत करेगी। मैं आमिर ख़ान प्रोडक्शन और जिओ स्टूडियो के अविचल सहयोग और भरोसे के लिए उन्हें धन्यवाद देती हूँ। यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे साथ एक प्रतिभाशाली टीम थी, जिसने इस कहानी को कहने की मेरी प्रतिबद्धता को शेयर किया।’
आमिर ख़ान के अनुभव का मिलेगा लाभ
‘लापता लेडीज़’ के निर्माता आमिर ख़ान हैं और उनकी प्रोडक्शन की फि़ल्में ‘लगान’ और ‘तारे ज़मीन पर’ पहले इस श्रेणी के लिए भेजी जा चुकी हैं।
इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अपने पिछले अनुभवों का उपयोग करते हुए आमिर ख़ान ‘लापता लेडीज़’ की ऑस्कर एंट्री को ख़ास मुकाम तक पहुंचा सकेंगे।
इस श्रेणी के लिए भेजी गई दुनिया भर की फि़ल्मों को परखने के लिए ऑस्कर की एक निर्णायक मंडली होती है। उनके संज्ञान में लाने के लिए भेजी गई फि़ल्मों के निर्माताओं को ज़बरदस्त प्रचार और अनेक प्रयोजनों की व्यवस्था करनी पड़ती है।
इस अभियान में भारी रकम ख़र्च होती है। अगर चुनी गई फि़ल्म के पीछे कोई मज़बूत निर्माता नहीं हो तो देखा गया है कि इस प्रचार और ज़रूरी ख़र्च के लिए धनउगाही का अभियान भी चलता है।
प्रतिभाओं की ऊर्जा और मेधा ख़र्च होती है। पांच-छह महीने का पूरा समय भी जाता है। इसके बाद फि़ल्म नमांकित भी न हो पाए तो देश के दर्शकों और फि़ल्म प्रेमियों को काफ़ी निराशा होती है।
ऑस्कर पुरस्कारों के जानकारों के मुताबिक फि़ल्मों को परखने, सराहने और पुरस्कार के योग्य मानने का ख़ास तरीक़ा होता है। इस तरीक़े में भारत समेत कई देशों की फि़ल्में पीछे रह जाती हैं।
मुंबई की हिंदी फि़ल्म इंडस्ट्री और अन्य भाषाओं की फि़ल्म इंडस्ट्री के अनेक फि़ल्मकार इस सालाना ‘ऑस्कर अभियान’ को भारतीय फि़ल्मों के लिए ग़ैरज़रूरी मानते हैं।
कुछ तो यह भी कहते हैं कि भारतीय फि़ल्मों की श्रेष्ठता के लिए ऑस्कर मुहर की क्या ज़रूरत है?
कला, संस्कृति और सिनेमा के भूमंडलीकरण के इस दौर में हम सभी जानते हैं कि हमारी फि़ल्में किस स्तर की बनती हैं और अंतरराष्ट्रीय मंच पर होने कैसी तवज्जो मिलती है?
लापता लेडीज़ की विशेषता
किरण राव की ‘लापता लेडीज़’ आज से 23 साल पहले 2001 की कहानी है। किरण राव ने किसी भी संभावित विवाद और आरोप से बचने के लिए ‘निर्मल प्रदेश’ नामक काल्पनिक राज्य की कहानी चुनी है। यह उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश नहीं है।
फिर भी यह तय है कि पर्दे पर आया यह काल्पनिक प्रदेश (संभवत: बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश) हिंदी भाषी प्रदेश ही है, जिसे राजनीतिक लेखों और अध्ययन में ‘बीमारू प्रदेश’ तक कहा जाता है।
किरण राव ने इस निर्मल प्रदेश की सामाजिक धडक़न को पेश करते हुए समाज में सदियों से मौजूद पुरुष प्रधान सोच को उजागर किया है।
फि़ल्म के लेखकों और निर्देशक ने पैनी दृष्टि से समाज में व्याप्त लैंगिक भेदभाव और रूढिगत परंपराओं की एक मामूली कहानी को दो महिला चरित्रों के ज़रिए ख़ूबसूरती से पेश किया है।
हिंदी प्रदेश के गंवई-समाज के इन चरित्रों को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने उन्हें उनकी कमज़ोरियों की वजह से हास्यास्पद (कॉमिकल) नहीं होने दिया है।
अच्छी बात है कि फि़ल्म में कोई नारेबाज़ी नहीं है और ना ही आक्रामक स्त्रीवादी सोच का सहारा लिया गया है।
लेखक-निर्देशक ने परतदार हिंदी समाज में महिलाओं की स्थिति और संभावनाओं को संवेदनशील तरीक़े से रोज़मर्रा जि़ंदगी के मामूली प्रसंगों और घटनाओं से बुना है।
यह फि़ल्म समाज में लापता जि़ंदगी जी रही महिलाओं के चित्रण के बहाने विकास और विकसित भारत का दम भरने वाली सत्तारूढ़ राजनीति की वास्तविकता ज़ाहिर करती है।
फि़ल्म की मूल कहानी के साथ टिप्पणियों, दृश्यों और कहकहों में वर्तमान समय में मौजूद अनेक सामाजिक विसंगतियों भी प्रकट हुई हैं।
लंबे समय के बाद किसी हिंदी फि़ल्म में गांव-देहात दिखाई पड़ा है। खेत-खलिहान और गांव की पगडंडियों के साथ रोज़मर्रा जि़ंदगी में उपयोगी साधन-सुविधाओं का दर्शन हुआ है। असुविधाएं भी प्रकट हुई है।
हमें (शहरी दर्शकों) दिखता और पता चलता है कि भारतीय गांव-देहात विकास की होड़ में कहीं पीछे छूट गए हैं।
खुलेपन और आधुनिकता की लहर अभी तक वहां नहीं पहुंची है। इस समाज में अधिकांश गतिविधियां शिथिल हैं।
धीमी रफ़्तार की जि़ंदगी की कहानी
हालांकि धीमी रफ़्तार की जि़ंदगी में क्लेश नहीं है, लेकिन उनके परिवेश और जीवन को देखकर आश्चर्य भी होता है कि क्यों विकास की धारा इन इलाक़ों तक नहीं पहुंची?
क्यों उनकी जि़ंदगी जटिल हो गई? फि़ल्म में दृश्यमान परिवेश पर निर्देशक की चौकस नजऱ है, जबकि उन्हें फूल और जया की कहानी कहनी है। भाषा, वेशभूषा, संवाद और माहौल में गंवई सहजता है।
किसी भी प्रकार की कृत्रिमता का एहसास नहीं होता, जबकि फि़ल्म निर्माण में नैसर्गिक माहौल में दृश्य विधान के लिए अनुकूल तब्दीली करनी पड़ती है।
थोड़ी भी चूक हो तो दृश्य, परिवेश, सेट और कॉस्ट्यूम नकली लगने लगते हैं। ‘लापता लेडीज़’ की क्रिएटिव और टेक्निकल टीम के संयुक्त प्रयास से सब कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है।
फूल और जया दो दुल्हनें हैं। शादी के बाद वे एक ही ट्रेन से यात्रा कर रही है। लगन का समय है। ट्रेन के डब्बे में और भी दुल्हनें बैठी हैं।
लगभग सभी ने नाक तक घूंघट काढ़ रखी है। यह घूंघट उन दुल्हनों की वास्तविकता के साथ एक सामाजिक रूपक भी है। हड़बड़ी और बेख्याली में दुल्हनें बदल जाती हैं।
फेरबदल के इस संयोग पर हंसी आती है, लेकिन चरित्रों के साथ आगे बढऩे पर हमें स्थिति की जटिलता समझ में आती है।
बतौर दर्शक चरित्रों के साथ हम भी चिंतित होते हैं कि फूल और जया कैसे सही ठिकानों तक पहुँचेंगी?
कहीं उनके साथ कुछ अप्रिय तो ना हो जाएगा? फूल और जया की परिस्थितियां अलग होने के बावजूद एक सी हैं। दोनों का वर्तमान अनिश्चय के घेरे में है।
फूल अपनी सादगी और जया अपनी होशियारी के बावजूद पुरुष प्रधान समाज के संजाल में फंस चुकी है।
दोनों के पति स्वभाव में अलग है। दीपक अपनी सोच में प्रगतिशील है, लेकिन प्रदीप रूढि़वादी और पुरुषवादी समझदारी रखता है।
फूल, जया, दीपक और प्रदीप इन चारों चरित्रों के ताने-बाने में महिलाओं की अस्मिता, पहचान और प्रतिष्ठा के सवाल उठते हैं। किरण राव ने अत्यंत सरल तरीक़े से इन सवालों को प्रस्तुत करते हुए कुछ महत्वपूर्ण बातें कह दी हैं।
कलाकारों ने दिखाया दम
बिप्लव गोस्वामी, स्नेहा देसाई और दिव्यनिधि शर्मा के लेखन में नवीनता है। ऊपर से उनके गढ़े किरदारों में आए नए कलाकारों से दर्शकों की कोई पूर्व धारणा नहीं बनती।
उनके अपने और व्यवहार में नयापन है। परिचित कलाकार नए किरदारों में भी घिसे-पिटे आचरण से नीरस लगने लगते हैं, क्योंकि दर्शकों को उनकी प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान हो जाता है।
‘लापता लेडीज़’ में किरण राव ने एक रवि किशन के अलावा किसी लोकप्रिय कलाकार को नहीं चुना है।
रवि किशन भी अपनी प्रचलित छवि से भिन्न एक मामूली किरदार में है। वह अपने अनोखे अंदाज़, अदाकारी और भाव-भंगिमा से मिले किरदार को आत्मीय बना देते हैं।
और फिर उनके किरदार में जो ट्विस्ट और शिफ़्ट आता है, वह उन्हें दर्शकों का प्रिय भी बना देता है।
‘लापता लेडीज़’ के आलोचकों का मानना है कि दशकों से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर गऱीबी, दुर्दशा और कमियों पर केंद्रित फि़ल्में भेजते रहे हैं।
‘लापता लेडीज़’ नई कोशिश है। बहुभाषी भारतीय फि़ल्म इंडस्ट्री में हर साल फि़ल्मों के चुनाव को लेकर विवाद होता ही है। चूंकि फि़ल्म फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया मुंबई में स्थित है।
क्या क्या हैं सवाल?
सबसे ज़्यादा हिंदी फि़ल्में ही विचार के लिए आती हैं और निर्णायक मंडली में भी मुंबई फि़ल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि रहते हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि हिंदी फि़ल्में ही मोटे तौर पर चुनी जाती हैं।
इस साल भी विचार के लिए आई 29 फि़ल्मों में से 14 फि़ल्में हिंदी की रही हैं।
सवाल तो निर्णायक मंडली के सदस्यों की योग्यता पर भी होते हैं। एक सुझाव भी आया था कि राष्ट्रीय फि़ल्म पुरस्कार से सम्मानित सर्वश्रेष्ठ फि़ल्म को ही ऑस्कर एंट्री के लिए भेजा जाए।
पिछले सालों में विचार के लिए भेजी जाने वाली फि़ल्म के साथ जमा किए जाने वाले आवश्यक भारी शुल्क की भी आलोचना हुई है।
अनेक फि़ल्मकार शिकायत करते हैं कि उन्हें फि़ल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया कि इस गतिविधि की जानकारी समय पर नहीं मिल पाती है।
इसके अलावा अनेक निर्माता अपनी फि़ल्मों को विचार के लिए भेजते ही नहीं हैं। वहीं दूसरी तरफ़ समर्थ निर्माता अपनी साधारण फि़ल्मों की भी एंट्री कर देते हैं।
ऑस्कर के सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फि़ल्म की श्रेणी में भेजी जाने वाली फि़ल्मों के साथ एक जिज्ञासा तो बनती ही है कि आखऱि हमारी फि़ल्मों का प्रदर्शन कैसा रहा? छन कर आई कुछ ख़बरों और तस्वीरों से हम ख़ुश होते रहते हैं।
बहरहाल, हर साल भारतीय फि़ल्म इंडस्ट्री में सितंबर से फरवरी के बीच ‘ऑस्कर अभियान’ चलता है।
इस अभियान की सच्चाई से भी हमलोग वाकिफ़ हैं। 2001 में आमिर ख़ान प्रोडक्शन की आशुतोष गोवारिकर निर्देशित फि़ल्म ‘लगान’ नामांकन सूची तक पहुँच पाई थी। उसके पहले और बाद हर साल एक फि़ल्म भेजी जाती है, लेकिन अभी तक सिफऱ् तीन बार भारतीय फि़ल्मों को नामांकन मिल पाया है।
रिकॉर्ड के मुताबिक़ 1957 से हर साल एक भारतीय फि़ल्म इस श्रेणी के लिए भेजी जाती है, किंतु अभी तक सिफऱ् ‘मदर इंडिया’(1957), ‘सलाम बॉम्बे’(1988) और ‘लगान’(2001) ही नामांकन तक पहुँच पाई हैं। (बीबीसी) (ये लेखक के निजी विचार हैं) (www.bbc.com/hindi)
-अभय कुमार सिंह
इस साल फऱवरी महीने में अनुरा कुमारा दिसानायके जब भारत आए थे, तो किसी ने शायद ही सोचा था कि कऱीब सात महीने बाद वो श्रीलंका के राष्ट्रपति बनेंगे।
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस मुलाक़ात पर ख़ुशी जताते हुए अपने एक्स पोस्ट में लिखा था कि दोनों के बीच द्विपक्षीय संबंधों और इसे गहरा करने पर अच्छी बातचीत हुई है।
अब 22 सितंबर को आए नतीजों में वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में जीत दर्ज की है।
वो जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता हैं और नेशनल पीपल्स पावर (एनपीपी) गठबंधन से चुनाव लड़ रहे थे।
साल 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में दिसानायके को महज़ 3त्न वोट मिले थे। इस बार के चुनाव में पहले राउंड में दिसानायके को 42।31त्न और उनके प्रतिद्वंद्वी रहे सजीथ प्रेमदासा को 32।76त्न वोट मिले।
जीत के एलान के कुछ ही घंटों बाद रविवार रात को श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त संतोष झा ने अनुरा कुमारा दिसानायके से मुलाक़ात की और उन्हें जीत की बधाई दी।
प्रधानमंत्री मोदी ने भी एक्स पोस्ट में दिसानायके को जीत की बधाई दी और कहा, ‘भारत की नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी और विजन में श्रीलंका का ख़ास स्थान है।’
पीएम मोदी की बधाई के जवाब में अनुरा ने लिखा, ''प्रधानमंत्री मोदी आपके समर्थन और सहयोग के लिए बहुत धन्यवाद। दोनों देशों में सहयोग को और मज़बूत करने के लिए हम आपकी प्रतिबद्धता के साथ हैं। हमारा साथ दोनों देशों के नागरिकों और इस पूरे इलाक़े के हित में है।''
साल 2022 में जब श्रीलंका भयंकर आर्थिक संकट से जूझ रहा था, उस वक़्त दिसानायके तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के मुखर विरोधी माने जाते थे।
उन्होंने ख़ुद को भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लडऩे वाले नेता के तौर पर पेश किया था। इससे छात्र, कर्मचारी वर्ग समेत एक बड़ा तबका उनके साथ आता गया।
अब राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अनुरा कुमारा दिसानायके के सामने आर्थिक संकट, भ्रष्टाचार और जातीय तनाव जैसी घरेलू चुनौतियां तो हैं ही, साथ ही ये भी देखना होगा कि वो श्रीलंका की विदेश नीति को किस दिशा में आगे ले जाते हैं और भारत के साथ संबंध कैसे होते हैं।
भारत में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को दक्षिणपंथी विचारधारा का माना जाता है जबकि अनुरा कुमारा दिसानायके वामपंथी विचारधारा से हैं। अक्सर वामपंथी सरकारों को वैचारिक रूप से चीन के कऱीब माना जाता है। ऐसे में क्या भारत के लिए दिसानायके चुनौती बनेंगे?
प्रोफेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष हैं।
उनका मानना है कि भले ही दिसानायके और जेवीपी का रुख़ पहले थोड़ा ''भारत विरोधी'' रहा हो लेकिन हाल के सालों में बदलाव दिखा है।
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ‘उनकी पार्टी जेवीपी (जनता विमुक्ति पेरामुना) परंपरागत रूप से भारत विरोधी रही है। इसका शुरू से ही भारत के प्रभाव के ख़िलाफ़ रुझान रहा है। अगर आप उनके इतिहास को देखेंगे, तो पाएंगे कि उन्होंने भारत के ख़िलाफ़ कई बार हिंसक विरोध किया है।’
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ‘ाीलंका में भारत के प्रभाव को कम करने का उनका एक बड़ा एजेंडा रहा है। लेकिन मुझे लगता है कि पिछले कुछ सालों में दिसानायके के बयान थोड़ा संतुलित और सोच के साथ रहे हैं। उन्होंने सुशासन, संतुलन और गुट-निरपेक्ष विदेश नीति पर ज़ोर दिया है। मुझे लगता है कि उनकी सरकार का ध्यान भी इसी पर रहेगा। खासकर, आईएमएफ़ पैकेज के बाद के प्रभावों और समाज पर पड़े असर को ध्यान में रखकर। यही मुद्दे उनके चुनाव में जीत के कारण बने हैं।''
प्रोफ़ेसर पंत का कहना है कि साल 2022 में जिस तरह से राजपक्षे की सरकार गई और विक्रमसिंघे आए, उस दौरान भारत ने जिस तरह श्रीलंका की मदद की थी, उसे ध्यान में रखकर श्रीलंका की नई सरकार को काम करना होगा।
चेन्नई के लोयोला कॉलेज के प्रोफ़ेसर ग्लैडसन ज़ेवियर भी इस बात को मानते हैं कि भारत की तरफ़ से की गई आर्थिक मदद को नए राष्ट्रपति ध्यान में रखेंगे।
बीबीसी तमिल सेवा के संवाददाता मुरलीधरन काशी विश्वनाथन से बातचीत में वो कहते हैं, ‘जहाँ तक अनुरा का सवाल है, वो कुछ भारतीय परियोजनाओं की आलोचना करते हैं। लेकिन उन्होंने चीन की कभी आलोचना नहीं की, तो चलिए ये मान लेते हैं कि उनमें एक तरह का पूर्वाग्रह है।’
‘हालांकि, श्रीलंका अब भी आर्थिक संकट में है। देश को भारत से वित्तीय सहायत की ज़रूरत पड़ती रहेगी। जब श्रीलंका में आर्थिक संकट गहराया था तो भारत ने तुरंत वित्तीय सहायता दी थी। मुझे लगता है कि नए राष्ट्रपति इन बातों को ध्यान में रखेंगे। मुझे नहीं लगता कि वो भारत को बाहर करके देश को कठिन हालात में ले जाएंगे।’
जाफना यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर डॉ अहिलन कदिरगामर मानते हैं कि जेवीपी फिलहाल किसी भी देश के बहुत कऱीब या दूर नहीं होगी।
बीबीसी तमिल सेवा के संवाददाता मुरलीधरन काशी विश्वनाथन से बातचीत में वो कहते हैं, ‘जहाँ तक सवाल जनता विमुक्ति पेरामुना का है तो ये पुरानी जेवीपी नहीं है। ये एक मध्यमार्गी पार्टी बन गई है। लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि भारत के लिए वो इतने अनुकूल होंगे, जितना रानिल विक्रमसिंघे थे। मुझे लगता है कि किसी भी देश के लिए वो न तो बहुत कऱीबी का या न तो दुश्मनी का रिश्ता रखेंगे। उन्हें समझना होगा कि ये समय अभी कट्टर रुख़ अपनाने का नहीं है।’
भारत और चीन के बीच संतुलन
भारत और चीन दोनों ही एक लंबे समय से श्रीलंका के साथ अपने कूटनीतिक और व्यापारिक संबंधों को तरजीह देते आए हैं।
पिछले कई सालों से आर्थिक संकट से जूझ रहे श्रीलंका को दोनों ही देशों ने सहायता भी पहुँचाई है।
इसकी बड़ी एक वजह है, श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति। श्रीलंका के साथ बेहतर संबंध व्यापार के अलावा समुद्री सीमा में सामरिक दृष्टिकोण से भी बेहद अहम है।
अब इस लिहाज़ से श्रीलंका में आई नई सरकार का भारत और चीन के बीच संतुलन कैसा होगा?
इस सवाल के जवाब में प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ‘जो राजपक्षे की सरकार थी, वो चीन की तरफ़ बहुत झुकी थी और उसका नतीजा श्रीलंका को भुगतना पड़ा। जब आर्थिक संकट आया, तब चीन कहीं नजऱ नहीं आया समर्थन के लिए जबकि भारत ने समर्थन दिया। तो मुझे लगता है कि ये एक तरह से बेंचमार्क भी बन गया है। संतुलन तो सभी करेंगे, ये भी करेंगे लेकिन क्या ये एक तरफ़ ज़्यादा झुकाव बनाएंगे? ये तो उनकी आने वाली नीतियों से ही पता चलेगा।’
प्रोफ़ेसर पंत का कहना है, ‘अगर आप हिंद-प्रशांत में हैं तो भारत और चीन दोनों ही ऐसे देश हैं, जिन्हें आप नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते हैं। साथ ही आप भारत को उस नज़रिये से नहीं देख सकते, जिस नज़रिये से इनकी पार्टी पहले देखा करती थी। भारत अब सक्षम है, विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आँकड़ों के अनुसार जल्द ही तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। तो अगर आपको भारत को अपनी विकास यात्रा में शामिल करना है, तो ये ध्यान में रखकर आगे बढऩा पड़ेगा।’
प्रोफ़ेसर पंत और प्रोफ़ेसर ज़ेवियर दोनों ही अनुरा कुमारा दिसानायके के भारत दौरे का भी जि़क्र भी करते हैं।
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं कि जब दिसानायके इसी साल फऱवरी महीने में भारत आए थे तो उन्होंने क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर बातें की थीं और कहा था कि भारत की संवेदनशीलता का ध्यान रखना चाहिए।
‘ये देखना होगा कि वो अब वो इसे कैसे कार्यान्वित करते हैं। आखऱिकार, आपको दोनों के साथ संतुलन बनाकर रखना होगा।’
प्रोफ़ेसर जेवियर कहते हैं कि फऱवरी, 2024 में दिसानायके को भारत ने बुलाया था और उन्हें पूरी तरह से नजऱअंदाज़ नहीं किया गया था। ''उन्होंने प्रमुख नेताओं से मुलाक़ात की। ये पहली बार था, जब भारतीय पक्ष, जेवीपी के संपर्क में आया था।''
मालदीव है सबक
भारत और चीन के बीच संतुलन का एक ऐसा ही उदाहरण प्रोफ़ेसर पंत मालदीव को भी बताते हैं।
उनका कहना है कि पहले मालदीव के साथ भारत के संबंध कुछ ख़ास अच्छे नहीं लग रहे थे लेकिन बाद में भाषा बिल्कुल बदल गई।
वो कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि ऐसा ही नज़ारा हमें यहां भी देखने को मिलेगा। मुझे ऐसा नहीं लगता कि आज की स्थिति में आप भारत को नाराज़ करके श्रीलंका में काम कर सकते हैं।’
मालदीव में राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्जू ने अपने चुनावी अभियान के दौरान ही 'इंडिया आउट' का नारा दिया था। मुइज़्ज़ू को चीन के प्रति झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है।
लेकिन हाल-फि़लहाल में मालदीव से भारत के रिश्ते दुरुस्त होने के संकेत मिले हैं।
अभी कुछ दिन पहले ही मालदीव के राष्ट्रपति कार्यालय की प्रमुख प्रवक्ता हीना वलीद ने बताया था कि राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज़्जू बहुत जल्द भारत की आधिकारिक यात्रा पर आएंगे।
मुइज़्ज़ू ने भारत से वापस मालदीव
जाने के बाद क्या कहा?
हालांकि, जिस तरह से दिसानायके ने चुनाव से पहले अदाणी ग्रुप की तरफ़ से संचालित एक एनर्जी प्रोजेक्ट का विरोध किया था, विश्लेषक इसे भी पार्टी के भारत विरोधी रुख़ के तौर पर आंकते हैं।
सितंबर, 2023 में एक राजनीतिक बहस के दौरान, दिसानायके ने अदाणी ग्रुप के विंड एनर्जी प्रोजेक्ट को रद्द करने का वादा किया था और इसे श्रीलंका की संप्रुभता को कम करने वाला बताया था।
इस पर जाफना यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर डॉ अहिलन कदिरगामर, बीबीसी तमिल सेवा के संवाददाता मुरलीधरन काशी विश्वनाथन से कहते हैं कि सिफऱ् इस मुद्दे के आधार पर भारत से संबंधों के निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते।
वो कहते हैं, ‘जहां तक बात अदाणी के विंड पावर प्रोजेक्ट की है, विरोध इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि ये भारत का प्रोजेक्ट है। न केवल जेवीपी बल्कि दूसरे भी इस प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं। इस प्रोजेक्ट को लेकर कई इकोलॉजिकल और इकनॉमिक आलोचनाएं हैं।’
नई सरकार में भारत क्या देखेगा?
प्रोफ़ेसर पंत मानते हैं कि भारत को पहले ये समझना पड़ेगा कि श्रीलंका की नई सरकार की आर्थिक नीतियां क्या हैं और ये कैसे सरकार चलाते हैं।
प्रोफ़ेसर पंत कहते हैं, ''अगर वो ऐसी आर्थिक नीतियां लाते हैं, जिसमें श्रीलंका में स्थिरता बनी रहती है, तो वो भारत के लिए अपने आप में अच्छी बात होगी। भारत के लिए परेशानी तब होती है, जब इस तरह की स्थिति आ जाती है, जहां हमारे पड़ोसी देश आर्थिक बदहाली की कगार पर खड़े हो जाते हैं और फिर उसके बाद भारत को समर्थन करना पड़ता है, वहां जाकर उन्हें संभालना पड़ता है, समाधान देना पड़ता है, आपको मदद देनी पड़ती है।''
वो कहते हैं कि इसके साथ ही भारत इस बात पर भी नजऱ रखेगा कि उसकी जो संवेदशीलताएं हैं, उनका ध्यान श्रीलंका की नई सरकार रख रही है या नहीं।
श्रीलंका की बहुत महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति है। वहाँ चीन काफ़ी समय से नजऱ गड़ाए खड़ा है। वहाँ के जो इंफ्रास्ट्रक्चर और पोर्ट्स हैं, उनमें श्रीलंका का कितना हिस्सा है और चीन का कितना हिस्सा है, ये सारे मुद्दे हैं जिन पर भारत नजऱ रखेगा और देखेगा कि यह नई सरकार किस तरह से इन बातों में संतुलन बैठाती है।’ ((bbc.com/hindi)
-गेविन बटलर, अर्चना शुक्ला
अभूतपूर्व आर्थिक संकट के चलते साल 2022 में बड़े पैमाने पर उथल पुथल और राष्ट्रपति के सत्ता से हटने के बाद श्रीलंका में पहला राष्ट्रपति चुनाव हो रहा है।
शनिवार को हो रहे मतदान को एक तरह से देश को पटरी पर लाने के लिए किए गए आर्थिक सुधारों पर जनमत संग्रह के रूप में देखा जा रहा है।
लेकिन टैक्स बढऩे, सब्सिडी और कल्याणकारी खर्चों में कटौती के कारण अभी भी अधिकांश श्रीलंकाई मुश्किल का सामना कर रहे हैं।
कई विश्लेषकों का अनुमान है कि इस कांटे के चुनाव में मतदाताओं के ज़ेहन में आर्थिक संकट सबसे प्रमुख होगा। भारत के थिंकटैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो सौम्या भौमिक ने बीबीसी से कहा, ‘देश में बढ़ती महंगाई, जीवनयापन की आसमान छूती क़ीमतें और गरीबी ने मतदाताओं के अंदर कीमतों को स्थिर करने का हल निकालने और जीवनयापन में सुधार को लेकर बेचैनी अधिक है।’
उनके मुताबिक, ‘एक ऐसा देश जो आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश में है, वहां यह चुनाव श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने और सरकार में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय भरोसे को पैदा करने के लिए बहुत ही अहम साबित होने वाला है।’
श्रीलंका को आर्थिक संकट से निकालने का भारी भरकम कार्यभार राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे को मिला था। वो दोबारा कार्यकाल पाने के लिए रेस में हैं।
जब पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को सत्ता छोडऩी पड़ी थी, तो उसके एक सप्ताह बाद ही संसद ने 75 साल के विक्रमसिंघे को नियुक्त किया था।
कार्यकाल संभालने के कुछ दिनों बाद ही विक्रमसिंघे ने जो बचा खुचा प्रदर्शन था, उसे बलपूर्वक ख़त्म किया था। उन पर राजपक्षे परिवार को बचाने और फिर से ताकत हासिल करने देने के आरोप लगते रहे हैं, हालांकि वे इन आरोपों से इंकार करते हैं।
राष्ट्रपति पद की दौड़ में एक और मज़बूत उम्मीदवार हैं और वो हैं वामपंथी राजनेता अरुना कुमारा दिसानायके। उनके भ्रष्टाचार विरोधी प्लेटफॉर्म को लगातार अच्छा खासा जनता का समर्थन हासिल हो रहा है।
शनिवार के इस चुनाव में श्रीलंका के इतिहास के सबसे अधिक उम्मीदवार मैदान में हैं। लेकिन तीन दर्जन उम्मीदवारों में से चार सुर्खियों में हैं।
विक्रमसिंघे और दिसानायके के अलावा प्रतिपक्ष के नेता सजित प्रेमदासा और बेदखल किए गए राष्ट्रपति के भतीजे और पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के 38 साल के बेटे नमल राजपक्षे हैं।
स्थानीय समय के अनुसार शाम चार बजे मतदान समाप्त हो जाएगा और रविवार को नतीजे आएंगे।
बढ़तीं आर्थिक चुनौतियां
जब देश में आर्थिक संकट गहरा गया था तो एक आंदोलन ‘अरागालया’ (संघर्ष) उठ खड़ा हुआ है जिसने पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को गद्दी से उतरने को मजबूर कर दिया।
सालों तक कम टैक्स, कमजोर निर्यात और बड़ी बड़ी नीतिगत गलतियों ने कोविड-19 की महामारी के बाद मिलकर ऐसा विकराल रूप धारण किया कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया। सार्वजनिक कर्ज 83 अरब डॉलर से भी अधिक हो गया और महंगाई 70 फीसदी तक पहुंच गई।
हालांकि इस गहरे संकट से देश के सामाजिक और राजनीतिक रूप से रसूखदार आमतौर पर अछूते रहे लेकिन आम लोगों के लिए राशन, गैस सिलेंडर और दवाएं पाना मुश्किल हो गया, जिसने असंतोष और अशांति में घी का काम किया।
उस समय राष्ट्रपति रहे राजपक्षे और उनकी सरकार को इस संकट के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और उनके इस्तीफे की मांग के लिए महीने भर तक प्रदर्शन हुए।
13 जुलाई 2022 को एक नाटकीय घटनाक्रम में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति भवन पर धावा बोल दिया। ये घटना पूरी दुनिया में प्रसारित हुई और लोगों ने देखा कि प्रदर्शनकारी स्विमिंग पूल में छलांग लगा रहे थे और घर में तोडफ़ोड़ कर रहे थे।
राजपक्षे के देश छोडक़र जाने के बाद राष्ट्रपति विक्रमसिंघे की अंतरिम सरकार ने आर्थिक संकट को कम करने के लिए बहुत कड़ी खर्च कटौती को लागू किया।
राजपक्षे 50 दिनों तक देश से बाहर निर्वासित थे।
आर्थिक संकट का असर
हालांकि आर्थिक सुधार महंगाई को सफलतापूर्वक नीचे लाने में कामयाब रहा और श्रीलंकाई रुपये को मजबूत भी किया। लेकिन हर श्रीलंकाई इन सुधारों के असर का दर्द महसूस करता है।
32 साल के येशान जयालथ कहते हैं, ‘नौकरी पाना सबसे मुश्किल है। अकाउंटिंग डिग्री होने के बाद भी मैं एक परमानेंट नौकरी नहीं पा सकता।’ वो पार्ट टाइम या अस्थाई नौकरी कर रहे हैं।
पूरे देश में अधिकांश छोटे व्यवसाय उस संकट से अभी भी उबर नहीं पाए हैं।
उत्तरी कोलंबो में नॉर्बेट फर्नांडो की रूफ टाइल फैक्ट्री थी, जिसे उन्हें 2022 में बंद करना पड़ा था।
उन्होंने बीबीसी को बताया कि मिट्टी, लकड़ी और केरोसिन जैसे कच्चे माल दो साल पहले के मुकाबले आज तीन गुना महंगे हैं। बहुत कम लोग घर बना रहे हैं या रूफ़ टाइल्स खरीद रहे हैं।
उन्होंने बीबीसी को बताया, ‘35 सालों बाद, फैक्ट्री का बंद होना तकलीफ देता है।’ उन्होंने ये भी बताया कि उस इलाके में 800 टाइल फैक्ट्रियां थीं। लेकिन 2022 के बाद सिर्फ 42 ही बची हैं।
व्यवसाय के माहौल को लेकर केंद्रीय बैंक के आंकड़े दिखाते हैं कि 2022-23 में मांग में काफ़ी गिरावट आई और 2024 में हालात थोड़े सुधरे लेकिन यह संकट से पहले वाली स्थिति में फिर भी नहीं आ पाया है।
इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप (आईसीजी) में श्रीलंका को लेकर काम करने वाले सीनियर कंसल्टेंट एलन कीनान ने बीबीसी को बताया, ‘श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था अब अपने पैरों पर फिर से खड़ी हो सकती है लेकिन बहुत सारे नागरिकों को ये समझाने की ज़रूरत है कि जो कीमत वे अदा कर रहे हैं उसकी अपनी अहमियत है।’
मुख्य उम्मीदवार कौन कौन हैं?
रानिल विक्रमसिंघे: पहले के दो राष्ट्रपति चुनावों में इन्हें हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन संसद की बजाय श्रीलंकाई जनता द्वारा चुने जाने के लिए उनके पास यह तीसरा मौका है।
अरुना कुमारा दिसानायके: वामपंथी नेशनल पीपुल्स पार्टी अलायंस के उम्मीदवार ने भ्रष्टाचार विरोधी कड़े उपायों और गुड गवर्नेंस का वादा किया है।
सजित प्रेमदासा: विपक्षी नेता प्रेमदासा अपनी समागी जन बलावेगाया पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पिता 1993 में हत्या किए जाने से पहले तक श्रीलंका के दूसरे कार्यकारी राष्ट्रपति थे।
नमल राजपक्षे: 2005 और 2015 में देश की अगुवाई करने वाले महिंदा राजपक्षे के बेटे हैं नमल राजपक्षे। वो एक ताकतवर राजनीतिक परिवार से आते हैं, लेकिन उन्हें मतदाताओं का मन जीतना होगा, जो आर्थिक संकट के लिए इसी परिवार को जिम्मेदार मानते हैं।
विजेता कैसे तय होगा?
श्रीलंका में मतदाता वरीयताक्रम में तीन उम्मीदवारों में से रैंकिंग के आधार पर एक विजेता को चुनते हैं।
अगर एक उम्मीदवार को पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो उसे विजेता घोषित कर दिया जाएगा।
अगर ऐसा नहीं हुआ तो दूसरे दौर की मतगणना कराई जाएगी, इसके बाद दूसरी और तीसरी वरीयता के वोटों की गिनती की जाएगी।
श्रीलंका में अभी तक दूसरी और तीसरी वरीयता वाले वोटों की गिनती तक नहीं जाना पड़ा है, क्योंकि पहले वरीयता वोटों के आधार पर एक अकेला उम्मीदवार हमेशा ही स्पष्ट विजेता के रूप में उभरा है।
लेकिन इस साल कुछ अलग हो सकता है।
आईसीजी के कीनान ने कहा, ‘ओपिनियन पोल्स और शुरुआती चुनाव प्रचार अभियानों से पता चलता है कि पहली बार ऐसा हो सकता है कि पहली बार कोई उम्मीदवार पूर्ण बहुमत न हासिल कर सके।’
उनके मुताबिक़, ‘उम्मीदवार, पार्टी नेता और चुनाव अधिकारी को किसी भी संभावित विवाद को शांतिपूर्वक और स्थापित प्रक्रियाओं के तहत हल करने के लिए तैयार रहना चाहिए।’
- चंदन कुमार जजवाड़े
केंद्रीय कैबिनेट ने बुधवार को ‘एक देश, एक चुनाव’ पर बनाई उच्च स्तरीय कमेटी की सिफ़ारिशों को मंज़ूर कर लिया है। यह कमेटी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनाई गई थी।
केंद्र सरकार का दावा है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम है।
कमेटी के प्रस्तावों के मुताबिक भारत में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को लागू करने के लिए दो बड़े संविधान संशोधन की ज़रूरत होगी। इसके तहत पहले संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना होगा।
लेकिन मौजूदा लोकसभा में बीजेपी के पास 240 सीटें ही हैं और मोदी सरकार को बहुमत के लिए सहयोगी दलों के समर्थन की ज़रूरत है और ये सरकार के लिए बहुत आसान नहीं दिखता है।
हालांकि मोदी सरकार को इस मुद्दे पर ज़्यादातर सहयोगियों के अलावा कुछ अन्य दलों का समर्थन भी हासिल है, लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने इसका विरोध किया है। इसके अलावा कई क्षेत्रीय दल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का खुलकर विरोध करते हैं।
जानकार मानते हैं कि सरकार के सामने चुनौती ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को लागू कराने के लिए जरूरी विधेयक पास कराने की ही नहीं बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी कई मुश्किलें हैं।
‘एक देश एक चुनाव’ लागू करने से क्या भारत में संवैधानिक संकट खड़ा होगा?
संविधान संशोधन कितना आसान
भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराने का मुद्दा साल 1983 में भी उठा था, लेकिन उस वक़्त केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार ने इसे कोई महत्व नहीं दिया था।
उसके बाद साल 1999 में भारत में ‘लॉ कमीशन’ ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था। उस वक्त केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही थी।
साल 2014 में बीजेपी ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से दिए अपने भाषण में भी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का जिक्र किया था।
हालांकि इस मुद्दे पर विपक्षी दल और राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी और केंद्र सरकार पर सवाल उठाते रहे हैं। फिलहाल महाराष्ट्र और हरियाणा का जिक्र किया जा रहा है, जहाँ पिछली बार विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे।
जबकि इस साल इन दोनों राज्यों के चुनाव भी अलग-अलग हो रहे हैं। इसके अलावा भी कई चुनावों का जिक्र किया जाता है जो ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के सिद्धांत से मेल नहीं खाता है।
वरिष्ठ वकील और संविधान के जानकार संजय हेगड़े कहते हैं, ‘इसे लागू करने के लिए सरकार को कई संविधान संशोधन कराने होंगे और इसके लिए उनके सहयोगी साथ देंगे या नहीं यह भी निश्चित नहीं है। अगर यह पारित हो भी जाता है तो मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा, क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे को बदलने वाला होगा।’
एक देश एक चुनाव
संजय हेगड़े के मुताबिक एक साथ चुनाव कराने का मतलब है कि एक तरह का प्रेसीडेंशियल फॉर्म ऑफ डेमोक्रेसी हो जाएगा, यानी चुनाव कुछ इस तरह का हो जाएगा कि ‘आपको नरेंद्र मोदी पसंद हैं या नहीं हैं, आपको राहुल गांधी पसंद हैं या नहीं हैं।’
लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान के जानकार पीडीटी आचारी के मुताबिक़, ‘वन नेशन वन इलेक्शन को लागू करने के लिए संविधान संशोधन के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी। भारत के संवैधानिक ढांचे में वन नेशन वन इलेक्शन कराना संभव ही नहीं है क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे के खिलाफ है।’
पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘राज्य विधानसभा का चुनाव संविधान की सातवीं अनुसूची में ‘स्टेट लिस्ट’ में आता है। राज्य विधानसभा को समय से पहले भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है। लेकिन 'वन नेशन वन इलेक्शन' के लिए राज्य विधानसभाओं से यह अधिकार छीन लिया जाएगा, जो संविधान के मूलभूत ढांचे के ख़िलाफ़ है। इसलिए यह कभी नहीं हो सकता है।’
मसलन लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए उन राज्यों की विधानसभा को भी भंग करना होगा, जिनका कार्यकाल पूरा नहीं हुआ होगा।
विधानसभा भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास नहीं रह जाएगा और इसका नियंत्रण केंद्र सरकार के पास चला जाएगा।
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बीबीसी संवाददाता संदीप राय से कहा था कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ कोई आज की बात नहीं है। इसकी कोशिश 1983 से ही शुरू हो गई थी और तब इंदिरा गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया था।
प्रदीप सिंह ने बीबीसी को बताया था, ‘चुनावों में ब्लैक मनी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है और अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो इसमें काफ़ी कमी आएगी। दूसरे चुनाव ख़र्च का बोझ कम होगा, समय कम ज़ाया होगा और पार्टियों और उम्मीदवारों पर ख़र्च का दबाव भी कम होगा।’
उनका तर्क था, ‘पार्टियों पर सबसे बड़ा बोझ इलेक्शन फंड का होता है। ऐसे में छोटी पार्टियों को इसका फायदा मिल सकता है क्योंकि विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग चुनाव प्रचार नहीं करना पड़ेगा।’
एक देश और एक चुनाव
भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची अलग-अलग मुद्दों पर राज्य और केंद्र के बीच अधिकार के बंटवारे की बात करता है।
इसमें सेंटर लिस्ट के विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है, जबकि स्टेट लिस्ट राज्य सरकार के अधीन है। कॉन्करेंट लिस्ट यानी समवर्ती सूची के विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को अधिकार दिए गए हैं।
पीडीटी आचारी कहते हैं, ‘केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि आप संविधान में कोई भी संशोधन कर सकते हैं, लेकिन इसके मूलभूत ढांचे में फेरबदल नहीं कर सकते हैं।’
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई क़ुरैशी के मुताबिक इस वन नेशन वन इलेक्शन के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी को 47 राजनीतिक दलों ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी थी, जिनमें 15 दलों ने इसे लोकतंत्र और संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ बताया था।
इस मामले में एक और संकट स्थानीय निकायों के चुनावों से जुड़ा है। सरकार ने जिन प्रस्तावों को मंजूरी दी है, उनमें स्थानीय निकायों यानी ग्राम पंचायत और नगर पंचायत के चुनाव लोकसभा विधानसभा चुनावों के 100 दिनों के अंदर कराने का जिक्र किया गया है।
वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों पर नजऱ रखने वाले अरविंद सिंह कहते हैं, ‘यह सही है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद बहुत सारे काम पर रोक लग जाती है। इसके समाधान के लिए साल 2013 में संसद की एक समीति ने कहा था कि ‘आचार संहिता’ मुद्दे पर विचार होना चाहिए।’
‘लेकिन मौजूदा सरकार स्थानीय निकायों के चुनाव 100 दिनों में कराने की बात कर रही है। इसके अलावा जिस राज्य की सरकार समय से पहले गिर जाएगी वहां दोबारा बचे हुए कार्यकाल के लिए विधानसभा चुनाव होंगे।’
‘यानी यह जीएसटी की तरह होगा, ‘जिसे वन नेशन वन टैक्स’ कहा तो जाता है, लेकिन फिर भी हम टोल टैक्स, इनकम टैक्स जैसे कई तरह के टैक्स भरते ही हैं।’
सरकार की दलील
भारत में आज़ादी और संविधान के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार साल 1951-52 में आम चुनाव हुए थे। पहली बार चुनाव होने से उस वक़्त 22 राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी साथ कराए गए थे। यह प्रक्रिया करीब 6 महीने तक चली थी।
भारत में हुए पहले आम चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए करीब 17 करोड़ मतदाताओं को वोटिंग करनी थी, जबकि मौजूदा समय में भारत में वोटरों संख्या करीब 100 करोड़ है।
भारत में 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और कई राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे।
हालांकि तब भी 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में अलग से चुनाव हुए थे। साल 1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, इसके अलावा साल 1972 में होने वाले लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराए गए थे।
1983 में भारतीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराए जाने का प्रस्ताव तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को दिया था। लेकिन यह तब प्रस्ताव से आगे नहीं बढ़ पाया था।
दावा किया जाता है कि देश में एक साथ चुनाव कराने से देश के विकास कार्यों में तेजी आएगी।
दरअसल चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है। आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है।
यह भी तर्क दिया जाता है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ से चुनावों पर होने वाले खर्च भी कम होगा। इससे सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा।
भारत में चुनाव पर खर्च
‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के पीछे बड़े चुनावी खर्च की दलील भी कई बार दी जाती है।
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत इसके बारे में बीबीसी को बताया था कि भारत का चुनाव दुनियाभर में सबसे सस्ता चुनाव है। भारत में चुनावों में कऱीब एक अमेरिकी डॉलर (आज की तारीख में करीब 84 रुपये) प्रति वोटर के हिसाब से ख़र्च होता है।
इसमें चुनाव की व्यवस्था, सुरक्षा, कर्मचारियों का तैनाती, ईवीएम और वीवीपीएटी पर होने वाला ख़र्च शामिल है। भारत के ही पड़ोसी देश पाकिस्तान में पिछले आम चुनाव में करीब 1.75 डॉलर प्रति वोटर खर्च हुआ था।
ओपी रावत के मुताबिक जिन देशों के चुनावी ख़र्च के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनमें केन्या में यह ख़र्च 25 डॉलर प्रति वोटर होता है, जो दुनिया में सबसे महंगे आम चुनावों में से शामिल है।
भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं, ‘भारत में चुनाव कराने में करीब चार हजार करोड़ का ख़र्च होता है, जो कि बहुत बड़ा नहीं है।
‘इसके अलावा राजनीतिक दलों के करीब 60 हजार करोड़ के ख़र्च की बात है तो यह अच्छा है। इससे नेताओं और राजनीतिक दलों के पैसे गरीबों के पास पहुंचते हैं।’
भारत में बदलते समय में चुनावों में तकनीक का इस्तेमाल भी बढ़ा है। इसके बावजूद भी चुनावों के दौरान बैनर-पोस्टर और प्रचार सामग्री बनाने, चिपकाने वालों से लेकर ऑटो और रिक्शेवाले तक को काम मिलता है।
इस तरह से आम लोगों और उनकी अर्थव्यवस्था के लिए चुनाव कई मायनों में अच्छा भी माना जाता है।
एसवाई क़ुरैशी के मुताबिक़ अगर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इसके लिए मौजूदा संख्या से तीन गुना ज़्यादा ईवीएम की जरूरत पड़ेगी।
भारत में इस्तेमाल होने वाले एक ईवीएम की कीमत करीब 17 हजार रुपये और एक वीवीपीएटी की कीमत भी करीब इतनी ही है। ऐसे में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के लिए करीब 15 लाख नए ईवीएम और वीवीपीएटी खरीदने की जरूरत पड़ सकती है। (www.bbc.com/hindi)
-कनुप्रिया
बाबाओं द्वारा अंधविश्वास फैलाने वाले वीडियोज/रील्स तो बहुत देखी होंगी, जिसमें वो तर्क ही नहीं सहज-बुद्धि की भी धज्जियाँ उड़ा देते हैं, और अपने जीवन से परेशान धर्म में अपनी तकलीफों का उपाय ढूँढने वाले लोग इन बाबाओं की उल्टी सीधी जाहिलियत भरी बातें भी भक्ति भाव से सुनते हैं क्योंकि उन्होंने उस धर्म का चोला पहन रखा है जिसके प्रति लोग सम्मान से भरे हैं, जो उनके अस्तित्व का आधार बन चुका है, इसलिये भले उस चोले के पीछे कितना ही बड़ा मूर्ख, मक्कार, ढोंगी, धोखेबाज, ठग ही क्यों न छुपा है, वो उसे सर माथे बिठाएँगे।
मगर इसी बीच जब ऐसे वीडियोज/रील्स दिखाई देती हैं जहाँ फि़जि़क्स को बहुत ही छोटे छोटे प्रयोग के साथ सिखाया जा रहा हो तो सुकून मिलता है। विज्ञान भी चमत्कार से भरा है बस उसके नियम पता होने की देर है। हम लोगों ने फिजिक्स को महज किताबों से जाना, उसकी प्रयोगशालाओं में गिने-चुने निर्धारित प्रयोग होते थे, विज्ञान नम्बर लाने की चीज़ होता था। मगर यहाँ रोजमर्रा की छोटी-छोटी चीजें क्यों और किस तरह काम करती हैं, जऱा सा दबाव बदल कर, जरा से पृष्ठ तनाव से, जऱा सा तापमान ऊपर नीचे करके, द्घह्म्द्बष्ह्लद्बशठ्ठ और ड्डठ्ठद्दह्वद्यड्डह्म् द्वश1द्वद्गठ्ठह्ल को काम मे लेकर, शिक्षक बच्चों की कक्षाओं में उन्हें छोटे छोटे प्रयोगों से सिखा रहे हैं, और विज्ञान मानो जादू जैसा लगता है, कठिन लगकर उसके प्रति भीतर दुराव नही पैदा होता।
टीवी, पर मीडिया पर दूसरे ग्रह के प्राणियों की झूठी कहानियाँ, जादुई गुफा, भूतों वाली हवेलियाँ , नागलोक की सीढिय़ों, बर्फानी बाबा जैसी चीजें दिखाने की जगह प्राकृतिक चमत्कारों के पीछे की फिजिक्स, केमिस्ट्री और गणित दिखाई जाती तो बेहतर होता।
मगर नहीं, लोगों को तार्किक सोच वाला जागरूक व्यक्ति बनाने की जगह अंधविश्वासी मूर्ख और महज पैसे कमाने वाली मशीन में बदला जा रहा है। जब विज्ञान और तकनीक नित नई ऊँचाइयाँ छू रहे हैं तो कौन हैं वो लोग जो नहीं चाहते कि आम लोगों में सामान्य बुद्धि भी बची रहे?
जब हम लगातार दकियानूसी समाज बनते जा रहे हों तो ऐसी पहल करने वाले जो नई पीढ़ी को दिलचस्प तरीकों से विज्ञान से अवगत करा रहे हों, देखकर ख़ुशी होती है।
आंध्र प्रदेश के मशहूर तिरुपति मंदिर के प्रसाद में मिलने वाले लड्डू को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है।
दावा किया जा रहा है कि प्रसाद के लड्डू में जानवरों की चर्बी मिली हुई है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी गुरुवार को कहा, ‘पिछली सरकार के दौरान तिरुमला लड्डू को बनाने में शुद्ध घी की बजाय जानवरों की चर्बी वाला घी इस्तेमाल किया जाता था।’
जगन मोहन रेड्डी की पार्टी ने नायडू की टिप्पणी पर विरोध जताया है और इन आरोपों को ख़ारिज किया है। इस मामले पर बीजेपी समेत कई राजनीतिक दल अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
सत्ताधारी तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी जिस रिपोर्ट के हवाले से ये दावा कर रही है, बीबीसी उस रिपोर्ट की पुष्टि नहीं करता है। इस मामले में कौन क्या कह रहा है और प्रसाद का ये लड्डू कौन सा है, जो पहले भी विवादों में रहा है।
जिस रिपोर्ट के हवाले आरोप लगाए गए, उसमें क्या है
आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु जाते हैं। मंदिर जाने वाले लोगों को प्रसाद में लड्डू दिया जाता है।
टीडीपी गुजरात की नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड यानी एनडीडीबी के हवाले से बता रही है कि लड्डू में जानवरों की चर्बी होने की पुष्टि हुई है।
हालांकि एनडीडीबी ने इस पूरे विवाद पर कोई टिप्पणी ख़बर लिखे जाने तक नहीं की है। न ही इस बारे में कोई बयान आया है कि जिस सैंपल पर विवाद हो रहा है, वो क्या वाक़ई तिरुपति मंदिर से लिया गया है।
जो रिपोर्ट शेयर की जा रही है, उसमें भी इस बात का जि़क्र नहीं दिखा है कि सैंपल तिरुपति मंदिर का है।
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से कहा, ‘लड्डू और दूसरे प्रसाद बनाने के लिए जो घी इस्तेमाल होता है, वो वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के दौर में कई एजेंसियों से लिया गया था।’
टीडीपी की ओर से जो रिपोर्ट पेश की जा रही है, उसमें कई चीज़ों का जिक्र है।
इसमें सोया बीन, सूरजमुखी, कपास का बीज, नारियल जैसी चीजें लिखी हैं। मगर जिन चीज़ों पर आपत्ति जताई जा रही है, वो हैं- लार्ड, बीफ टेलो और फिश ऑयल।
लार्ड यानी किसी चरबी को पिघलाने पर निकलने वाला सफेद सा पदार्थ। फिश ऑयल यानी मछली का तेल और बीफ टेलो यानी बीफ की चर्बी को गर्म करके निकाले जाने वाला तेल।
साथ ही ये भी दावा गया है कि इनमें तय अनुपात के हिसाब से चीजें नहीं थीं। इसे एस वैल्यू कहा गया है। यानी अगर ऊपर लिखी चीज़ों का एस वैल्यू सही नहीं है तो ये गड़बड़ बात है।
चंद्रबाबू नायडू ने और क्या कहा
चंद्रबाबू नायडू ने कहा, ‘कोई ये सोच भी नहीं सकता कि तिरुमला लड्डू को इस तरह अपवित्र किया जाएगा। पिछले पाँच सालों में वाईएसआर ने तिरुमला की पवित्रता को अपवित्र कर दिया है।’
नायडू ने दावा किया, ‘इस बात की पुष्टि हो गई है कि तिरुमला लड्डू के घी में जानवर की चर्बी का इस्तेमाल किया गया। इस मामले में जांच चल रही है। इसके लिए जो भी दोषी होंगे, उन्हें सज़ा दी जाएगी।’
टीडीपी के महासचिव नारा लोकेश ने दावा किया, ‘पिछली सरकार में प्रसाद के लड्डू के घी में जानवरों की चर्बी और मछली के तेल का इस्तेमाल हुआ। प्रसाद के नमूनों के परीक्षण में पाया गया है कि इन लड्डुओं में मछली का तेल और बीफ़ चर्बी का इस्तेमाल हुआ है।’
नायडू ने कहा, ‘हम सबकी जि़म्मेदारी है कि वेंकटेश्वर भगवान की पवित्रता की रक्षा करें।’
वाईएसआर ने क्या कहा
आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर ने भी इस मामले पर प्रतिक्रिया दी है और नायडू के आरोपों को ख़ारिज किया है। वाईएसआर नेता और तिरुमला तिरुपति देवस्थानम ट्रस्ट के चेयरमैन रहे वाई वी सुब्बारेड्डी ने सोशल मीडिया पर लिखा, ''नायडू ने तिरुमला मंदिर की पवित्रता को नुक़सान पहुंचाकर और करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाकर पाप किया है। कोई भी व्यक्ति ऐसे आरोप नहीं लगा सकता।’
सुब्बारेड्डी ने, ‘ये एक बार फिर साबित हो गया है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए नायडू हिचकेंगे नहीं। तिरुमला प्रसाद के मामले में मैं और मेरा परिवार ईश्वर की कसम खाने के लिए तैयार हैं। क्या चंद्रबाबू नायडू अपने परिवार के साथ कसम खाकर ये बात कहेंगे?’
वाईएसआर के सोशल मीडिया हैंडल्स पर वाईएसआर नेता सुब्बारेडी ने कहा, ‘भगवान के प्रसाद के लिए बीते तीन साल से घी समेत जो सामग्री इस्तेमाल होती है, वो सब ऑर्गेनिक हैं।’
सुब्बारेड्डी ने कहा, ‘ये आरोप लोगों को गुमराह करने के मक़सद से लगाए जा रहे हैं।’
बीजेपी और कांग्रेस ने क्या कहा
आंध्र प्रदेश में कांग्रेस नेता शर्मिला ने इस मामले पर टीडीपी और वाईएसआर पर राजनीति करने के आरोप लगाए हैं और सीबीआई जांच की मांग की है।
शर्मिला ने कहा, ‘हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई। चंद्रबाबू नायडू की टिप्पणी परेशान करने वाली है।’
बीजेपी सांसद लक्ष्मण ने कहा, ''लड्डुओं में जानवर की चर्बी का इस्तेमाल दुर्भाग्यपूर्ण है। पूरा हिंदू समाज इस घटना की निंदा कर रहा है।’
लक्ष्मण ने चंद्रबाबू नायडू सरकार से उन अधिकारियों पर कार्रवाई करने के लिए कहा, जो कथित तौर पर इसमें शामिल थे।
चंद्रबाबू नायडू ने लड्डू को लेकर ये भी कहा, ‘हमारी सरकार में पवित्र लड्डू बनाए जा रहे हैं।’
आंध्र प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री पवन कल्याण ने सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया दी है।
पवन कल्याण ने लिखा, ‘तिरुपति बालाजी के प्रसाद में जानवर की चर्बी (मछली का तेल, पोर्क और बीफ़ फ़ैट) मिले होने की पुष्टि से हम सभी बहुत परेशान हैं। तत्कालीन वाईसीपी सरकार की ओर से गठित टीटीडी बोर्ड को कई सवालों के जवाब देने होंगे।’
बोर्ड की भूमिका और जवाब
तिरुपति मंदिर से जुड़ा ट्रस्ट 'तिरुमला तिरुपति देवस्थानम' यानी टीटीडी के नाम से जाना जाता है। ये ट्रस्ट मंदिर से जुड़े कामों में शामिल रहता है। इस ट्रस्ट से जुड़े लेबर यूनियन के कंदारपु मुरली ने सीएम नायडू के बयान की आलोचना की है और इसे टीटीडी कर्मचारियों का अपमान बताया है।
मुरली ने कहा, ‘टीटीडी में पारदर्शी प्रक्रिया है। टीटीडी के अंदर ही लैब है, जहाँ प्रसाद में डलने वाली चीज़ों की जांच की जा सकती है। जांच परख के बाद ही प्रसाद का इस्तेमाल होता है।’
मुरली ने कहा, ‘टीटीडी को जो प्रसाद मिलता है, वो रोज सर्टिफाइड होने के बाद ही मिलता है।’
फैक्ट चेकर मोहम्मद ज़ुबैर ने टीटीडी के एक पुराने ट्वीट को साझा किया है।
इस ट्वीट की तस्वीरों में जून 2024 में टीटीडी के एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बने श्यामला राव दिख रहे हैं।
21 जून को टीटीडी के एक्स हैंडल से तस्वीरों को साझा कर लिखा गया- शुद्ध घी से बने सैंपल लड्डू ट्राई किए।
इस पोस्ट में लड्डुओं के अच्छे शुद्ध घी से बनने और बेसन इस्तेमाल किए जाने की बात बताई गई।
मोहम्मद ज़ुबैर ने इन तस्वीरों के साथ लिखा, ‘टीडीपी सरकार ने 14 जून 2024 को श्यामला राव को नियुक्त किया था। वो 21 जून को अच्छे घी से प्रसाद बनने की बात इस ट्वीट में कह रहे हैं।’
लड्डू पहले भी विवाद में रहे
सितंबर 2024 की शुरुआत में लड्डू पाने के लिए टोकन दिखाने की व्यवस्था की गई है।
एक लड्डू सबको फ्री में दिया जाता है। हां, अगर आपको एक लड्डू और हासिल करना है तो 50 रुपये चुकाने होंगे।
श्रद्धालुओं के लिए आधार कार्ड दिखाने की भी व्यवस्था की गई। जिन लोगों ने दर्शन नहीं किए, वो आधार कार्ड दिखाकर लड्डू हासिल कर सकते हैं।
मंदिर में श्रद्धालुओं के लिए 7500 बड़े लड्डू और 3500 वड़ा बनाए जाते थे।
2008 तक एक लड्डू के अलावा अगर किसी को प्रसाद चाहिए होता तो 25 रुपये में दो लड्डू दिए जाते थे। इसके बाद क़ीमत बढ़ाकर 50 रुपये कर दी गई।
2023 में इन लड्डुओं को ब्राह्मणों से बनवाए जाने से जुड़े एक नोटिफिकेशन पर भी विवाद हुआ था।
इतिहासकार गोपी कृष्णा रेड्डी ने बीबीसी से कहा था, ‘शुरू से ही ऐसा कोई जि़क्र नहीं मिलता है कि लड्डू किस जाति के लोगों को बनाना चाहिए और किसे नहीं। शुरू में ईसाई और मुसलमान भी टीटीडी में थे। अब भी हो सकते हैं। सब तरह के लोगों को शामिल करना चाहिए।’
तिरुमला मंदिर और लड्डू
भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित तिरुमला तिरुपति मंदिर भारत के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है।
यहाँ सोने के चढ़ावे को लेकर अक्सर ख़बरें आती रहती हैं। मंदिर में रोज़ाना औसतन एक लाख से ज़्यादा श्रद्धालु न केवल प्रार्थना करते हैं बल्कि दान भी देते हैं।
मंदिर की दानपेटियों में लाखों रुपए तो पड़ते ही हैं, ज़ेवरात चढ़ाने वालों की भी कमी नहीं है।
तिरुपति मंदिर देश का सबसे अमीर मंदिर प्राचीन मान्यता है कि भगवान वेंकटेश्वर जब पद्मावती से अपना विवाह रचा रहे थे तो उन्हें पैसे की कमी पड़ गई, इसलिए वो धन के देवता कुबेर के पास गए और उनसे एक करोड़ रुपये और एक करोड़ सोने की गिन्नियां मांगी।
मान्यता है कि भगवान वेंकटेश्वर पर अब भी वो कजऱ् है और श्रद्धालु इस कजऱ् का ब्याज चुकाने में उनकी मदद करने के लिए दिल खोलकर दान देते हैं।
तिरुमाला मंदिर को हर साल लगभग एक टन सोना दान में मिलता है। मुख्य मंदिर परिसर मज़बूत दीवारों से घिरा है और मंदिर के अंदर किसी तरह की फोटोग्राफ़ी की इजाज़त नहीं है।
अब जो लड्डू चर्चा में हैं, उसे मंदिर के गुप्त रसोईघर में तैयार किया जाता है। ये रसोईघर पोटू कहलाता है।
माना जाता है कि यहां हर रोज़ हज़ारों लड्डू तैयार किए जाते हैं।
साल 2009 में तिरुपति के लड्डू को भौगोलिक संकेत या जियोग्राफिकल इंडिकेटर दे दिया गया था।
लड्डू को चने के बेसन, मक्खन, चीनी, काजू, किशमिश और इलायची से बनाया जाता है।
कहा जाता है कि इस लड्डू को बनाने का तरीक़ा 300 साल पुराना है। (www.bbc.com/hindi)
- डॉ. आर.के. पालीवाल
अंतत: अरविंद केजरीवाल को लगभग छह महीने जेल में रहने के बाद जमानत मिल गई और उन्होंने मुख्यमंत्री पद भी छोड़ दिया। प्रवर्तन निदेशालय के मामले में कड़े कानून के बावजूद उन्हें जमानत मिलने से यह तो स्पष्ट हो गया था कि उसी मामले में सी बी आई के केस में भी उन्हें जमानत मिल जाएगी। वैसे भी एक मामले में अलग अलग एजेंसियों द्वारा बार बार किसी व्यक्ति को जेल में रखने का कोई औचित्य नहीं है। और जब मामला काफ़ी पुराना है तो उसमें यह भी तर्क नहीं दिया जा सकता कि अभियुक्त बाहर रहकर सबूत नष्ट कर सकता है क्योंकि कोई चतुर व्यक्ति सालों तक अपने खिलाफ सबूत सुरक्षित नहीं रखेगा।
बहरहाल उसी शर्त पर दस लाख के मुचलके पर केजरीवाल जेल से बाहर आए थे जो शर्त प्रवर्तन निदेशालय के केस में थी, मसलन वे सी एम दफ्तर नहीं जाएंगे , फाइलों पर दस्तखत नहीं करेंगे आदि। न्यायालय ने सी बी आई की गिरफ़्तारी के समय को लेकर भी प्रतिकूल टिप्पणी की है और माना है कि जांच शुरू होने के सालों बाद गिरफ्तारी का औचित्य नहीं है। दूसरे क्योंकि अभी कोर्ट में सुनवाई शुरू नही हुई है और मामला काफ़ी लम्बा चलने की उम्मीद है इसलिए इतने लंबे समय तक उन्हें जेल में रखना उचित नहीं है। तीसरे उन्हें प्रवर्तन निदेशालय के मामले में ज्यादा कड़े प्रावधान के चलते भी जमानत मिल चुकी है इसलिए सी बी आई के मामले में जमानत स्वीकार्य है। न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां ने पूर्व न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा की उस टिप्पणी, जिसमें सी बी आई को पिंजरे का तोता कहा गया था, को आगे बढ़ाते हुए उम्मीद जताई है कि सी बी आई अपनी पिंजरे के तोते की छवि तोडक़र स्वतंत्र जांच करेगी। यह टिप्पणी जांच एजेंसी से ज्यादा केंद्र सरकार के खिलाफ है।
जहां तक अरविंद केजरीवाल का प्रश्न है उनके लिए अभूतपूर्व स्थिती है। केजरीवाल ने चौतरफा दबाव से अंतत: भारी मन से मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडऩा ही उचित समझा। हालांकि वे बिहार में जीतनराम मांझी को नीतीश द्वारा सौंपी गई कुर्सी और हेमंत सोरेन द्वारा अपने साथी चंपई सोरेन को अपनी कुर्सी पर बैठाने की फजीहत देख चुके हैं।
मुख्यमंत्री पद पर तो केजरीवाल ने अपनी पसंदीदा मंत्री आतिशी मार्लेना को बिठा दिया लेकिन अब अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री आवास और उससे जुड़ी तमाम सुविधाएं भी छोडऩी होंगी । मुख्यमंत्री की हैसियत से वे अन्य प्रदेशों में घूमते रहते थे अब उन्हें उन सब सुविधाओं से भी वंचित होना पड़ेगा। वे भले ही राजनिति में खुद को सादगी पसंद व्यक्ति घोषित करते रहे हैं लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद मुख्यमंत्री के भव्य आवास को और भव्य बनाने में उन्होंने भी जनता का खूब धन खर्च किया था।यदि वे अभी भी पद पर बने रहने की जिद पर अड़े रहते तो उनके साथ पद लोलुपता हमेशा के लिए बुरी तरह चिपक जाती। उनके पद पर बने रहने से जन कल्याण के वे सब मामले भी अटक जाते जिन पर मुख्यमंत्री के हस्ताक्षर जरुरी हैं। चुनावी वर्ष में इतना रिस्क लेना संभव नहीं था।
यदि अरविंद केजरीवाल दिल्ली की जनता की सही अर्थ में सेवा करना चाहते हैं तो उन्हें जनता से सीधा संवाद स्थापित करना चाहिए । सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें केवल जमानत दी है दोषमुक्त नहीं किया। उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से भी यह सिफारिश करनी चाहिए कि उनके मामले को तय समय सीमा में त्वरित जांच और प्रतिदिन सुनवाई कर शीघ्र निबटाया जाए। यदि वे कथित शराब घौटाले में दोषमुक्त हो जाते हैं तब वे फिर से जोशो खरोस से मुख्यमंत्री पद संभाल सकते हैं।फिलहाल मुख्यमंत्री पद आतिशी मार्लेना को सौंपकर केजरीवाल का कद अपनी पार्टी और राजनीतिक जमात में थोडा तो बढ़ ही गया। अब वे भार मुक्त होकर आगामी विधानसभा चुनावों में अपने दल और गठबंधन दोनों को मज़बूत करने में बेहतर भूमिका निभा सकते हैं।
-शंभूनाथ
सोशल मीडिया एक बिल्कुल मध्यवर्गीय मामला है। इसपर न अमीर होते हैं और न गरीब। लाखों- करोड़ों की मासिक आमदनी वाले लोग फेसबुक आदि पर कभी नहीं होते!
कई बार सोशल मीडिया आभास कराता है कि वही सभी कला- साहित्यिक रूपों का वैकल्पिक मीडिया है। हम लेखक-बुद्धिजीवी उसमें अपनी गुमटी बना कर बैठे होते हैं। फेसबुक , व्हाट्सएप, ब्लॉग आदि हमें सहयोग देते हुए दिखते हैं। वे हमें स्वतंत्रता का आभास कराते हैं, जो चाहे पोस्ट करो। लेकिन वस्तुत: वे हमारी क्षमताएं छीन रहे होते हैं, हमारी चिंताओं को संकुचित कर रहे होते हैं। हमारी दिमागी गैस निकल जाती है। हम घर बैठे ही दिग्विजय कर लेते हैं। इसके अलावा, सोशल मीडिया प्रसूति- गृह है और तत्क्षण कब्रगाह भी !
यह मीडिया आत्म सम्मोहन की प्रवृत्ति को उकसाता है, नार्सिस्टिक बनाता है। ग्रीक नायक नार्सिसस को अपने चेहरे से इतना प्यार हो गया कि वह हर तरफ सिर्फ अपना चेहरा देखना चाहता था।
सोशल मीडिया पर टिड्डियों की तरह पोस्ट आते हैं। क्या करे पाठक, ‘यूजर’ ? ऑनलाइन पर सक्रिय कुछ संपादक और लेखक दावा करते हैं कि उनके 10 हजार फॉलोवर हैं, एक लाख फॉलोवर हैं। फॉलोवर के संबंध में यह सोचना कि वे लंबी रचनाएं पढ़ते हैं, एक बहुत बड़ा भ्रम है। 20- 30 लाइनों की छोटी रचनाएं जरूर कुछ ज्यादा पढ़ी जाती हैं, अन्यथा 5-7 लाइनों के बाद आमतौर पर दम उखड़ जाता है। कई हैं जो खुद पढऩे की जगह पढ़ाने में ज्यादा तत्पर दिखते हैं! वस्तुत: ऑनलाइन पर दावे की तुलना में बहुत थोड़े धैर्यवान पाठक होते हैं।
डिजिटल मंच पर हमें आभास होता है कि हम एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं। खासकर किसी की मृत्यु पर तुरंत सूचना मिल जाती है, एकमात्र इस मामले में एका झलकता है। कहना न होगा कि डिजिटल मंच अपरिहार्य हैं, पर उनपर निर्भरता एक बड़े साहित्यिक पाठक वर्ग की संभावना से हमें काट देगी। ऐसे भी सोशल मीडिया पुस्तकें, पत्रिकाएं और लंबी रचनाएं पढऩे की संस्कृति का बड़े पैमाने पर नाश कर रहा है। नौजवानों की पीढ़ी इस सम्मोहक बाढ़ में तबाह है! उनके दिमाग में फेसबुक कई बार जोंक की तरह होता है, इसी में डूबे रहते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि सोशल मीडिया के इलाकों पर मुख्यत: बड़ी सूचना- फैक्टरियों का कब्जा है। ये निर्मित और कई बार झूठी सूचनाएं प्रसारित करती हैं। पोस्ट को लाइक और आंख मूंदकर फारवर्ड करते- करते नागरिक या उपयोगकर्ता खुद सोचने और कल्पना करने की अपनी ताकत खो देता है।
कई चीजें मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं, डिजिटल मनोरुग्णता बढ़ाती हैं। कई बार किसी को अभिमन्यु की तरह घेर कर महारथियों का वीरता- प्रदर्शन भी देखने को मिला है। ऐसी घटनाओं से, यदि व्यक्ति कठकरेजी न हुआ तो अवसाद का शिकार हो जाता है।
मुझे लगता है कि सोशल मीडिया को सुबह- शाम चाय पीने से ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिए। हम सोशल मीडिया का उपयोग करते हुए इसे स्वतंत्रता का महाद्वार न समझ लें, इसकी सीमाओं को जानें। इसकी लगाम अदृश्य हाथों में होती है।
यह भी महसूस किया जा सकता है कि साहित्य अगर प्रिंट में नहीं बचेगा तो वह ऑनलाइन में भी नहीं बचेगा। इससे समझा जा सकता है कि ऑनलाइन कभी भी प्रिंट का विकल्प नहीं है, जिस तरह कोकोकोला पानी का विकल्प नहीं है।
मेरा यह सब लिखना सोशल मीडिया पर अपने से ही युद्ध है!
-हिमांशु दुबे
एक तरफ ‘वीराना’, ‘तहखाना’, ‘बंद दरवाज़ा’ या ‘पुराना मंदिर’ जैसी पुरानी फिल्में हैं तो दूसरी तरफ ‘भूत’, ‘स्त्री’, ‘भेडिय़ा’ जैसी नए जमाने की फिल्में हैं।
लेकिन इन सभी फि़ल्मों में एक बात कॉमन है। वो है- डर से भरपूर माहौल।
इसी की तलाश में भारतीय सिनेमा की हॉरर फिल्मों का प्रशंसक थिएटर तक पहुंचता है।
70 और 80 के दशक में रामसे ब्रदर्स हॉरर फिल्मों का पर्याय बनकर उभरे थे। उन्होंने लगभग 45 फिल्में बनाईं और ज़्यादातर फिल्में कमाई के लिहाज से फायदे का सौदा साबित हुईं।
फिर एक लंबा अंतराल आया, जब बड़े परदे से हॉरर फिल्में लगभग गायब हो गईं। इस दौरान फिल्म मेकर राम गोपाल वर्मा ने कुछ फिल्में बनाईं, लेकिन वैसा माहौल नहीं बन पाया, जैसा रामसे ब्रदर्स के समय था।
राम गोपाल वर्मा ने ‘कौन’, ‘रात’, ‘भूत’, ‘फूंक’, ‘डरना मना है’, ‘भूत रिटर्न’ और ‘ये कैसी अनहोनी’ जैसी फिल्में बनाईं।
मगर, दर्शकों के बीच ‘रात’ और ‘भूत’ जैसी फि़ल्मों को ही पसंद किया गया।
इसके बाद पिछले कुछ सालों में ‘1920’, ‘स्त्री’, ‘शैतान’, ‘भेडिय़ा’, ‘मुंज्या’, ‘स्त्री-2’ और ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्में रिलीज हुईं, जिन्हें दर्शकों ने ख़ूब पसंद किया। यह क्रम अभी भी जारी है।
ऐसे में सवाल उठा कि क्या भारतीय सिनेमा में हॉरर फिल्मों का दौर फिर लौट आया है? या इस बदलाव की वजह ओटीटी प्लेटफॉम्र्स मात्र ही हैं।
ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी हिंदी ने सिनेमा से जुड़े विशेषज्ञों से बात की, जिन्होंने इस ट्रेंड की कुछ खास संभावित वजहें बताई हैं।
‘अगर हॉरर के साथ कॉमेडी भी हो,
तो डबल मजा आता है’
जाने-माने फिल्म समीक्षक कोमल नाहटा कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि पहले के ज़माने में हॉरर फिल्में ‘सी’ कैटेगरी की मानी जाती थीं, तो फिल्म मेकिंग भी कमज़ोर रहती थी। फिल्म स्टार्स ऐसी फिल्में करने के लिए राजी नहीं होते थे। इसलिए, सामान्य तौर पर ऐसी फिल्मों में स्टार्स नहीं होते थे।’
‘जब से फिल्म स्टार्स ने ऐसी फिल्मों को महत्व देना शुरू किया, तब से इन फिल्मों का बजट भी बढ़ गया, क्योंकि, फिल्म स्टार्स पैसा लेते हैं।’
कोमल नाहटा मानते हैं कि भारतीय सिनेमा में हॉरर के बढ़ते क्रेज का क्रेडिट दर्शकों को भी जाता है।
वो कहते हैं, ‘ऑडियंस का मिजाज़ भी विकसित हुआ है। क्योंकि, इतने सालों तक हॉरर जॉनर आगे ही नहीं आया था।’
‘इसलिए, अचानक ऑडियंस को भी लगा कि हॉरर में भी मज़ा आता है और अगर हॉरर के साथ कॉमेडी भी हो, तो डबल मजा आता है।’
कोमल नाहटा कहते हैं, ‘इसलिए, आप देखेंगे कि फि़ल्म ‘स्त्री’ भी चली, ‘स्त्री-2’ भी चली। पहले ‘मुंज्या’ चली। कुछ साल पहले आई ‘गोलमाल अगेन’ भी चली थी, जो हॉरर कॉमेडी थी। ये एक नया पॉपुलर जॉनर ऑडियंस के बीच आ गया है।’’
तो फिल्म ‘तुम्बाड’ को थिएटर में मिल रही प्रतिक्रिया किस बात का इशारा है?
इस सवाल पर कोमल नाहटा कहते हैं, ‘जब ‘तुम्बाड’ रिलीज हुई थी, तब अच्छी नहीं गई थी। बिजनेस अच्छा नहीं हुआ था। लेकिन, इसकी चर्चा ख़ूब हुई थी। क्लास ऑडियंस को यह बहुत पसंद आई थी।’
‘मुझे लगता है कि इस बार इसका बिजनेस पहले से ज़्यादा होगा। कई बार दिमाग में होता है कि यह हमने ओटीटी पर देखी थी। चलो, अब थिएटर में देखते हैं।’
‘स्त्री-2’ और ‘तुम्बाड’ की कमाई
बॉक्स ऑफिस पर ‘स्त्री-2’ और ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्मों की कमाई इस बात का संकेत देती दिखती हैं कि दर्शकों की पसंद में बदलाव तो आ रहा है।
जाने-माने फिल्म क्रिटिक तरण आदर्श ने सोशल मीडिया पर लिखा- ‘फिल्म ‘स्त्री-2’ ने रिलीज होने के पांचवें हफ्ते में सोमवार (16 सितंबर 2024) को 3.17 करोड़ रुपये की कमाई की। यह फिल्म अब तक बॉक्स ऑफिस पर कऱीब 583 करोड़ रुपये की कमाई कर चुकी है और 600 करोड़ रुपये की कमाई के आंकड़े को पार कर सकती है।’
उन्होंने दूसरे ट्वीट में लिखा- ‘फिल्म ‘तुम्बाड’ साल 2018 में जब पहली बार थिएटर में रिलीज़ हुई थी, तब इस फिल्म ने दो हफ्ते में करीब नौ करोड़ रुपए कमाए थे। इसने पहले हफ़्ते में 5.85 करोड़ रुपए और दूसरे हफ़्ते में 3.14 करोड़ रुपए थे।’
‘मगर, जब फिर से इस फि़ल्म को थिएटर में रिलीज किया गया, तो अब इस फि़ल्म ने केवल 4 दिन में करीब नौ करोड़ रुपए कमा लिए हैं। फिल्म ने शुक्रवार को 1.65 करोड़ रुपए, शनिवार को 2.65 करोड़ रुपए, रविवार को 3.04 करोड़ रुपए और सोमवार को 1.69 करोड़ रुपए कमाए। इस फि़ल्म ने सोमवार को शुक्रवार से ज़्यादा कमाई की।’
वैसे बॉक्स ऑफिस पर ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्मों के कमाई को लेकर वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज एक नया पहलू जोड़ते हैं।
वह कहते हैं, ‘फिल्म ‘तुम्बाड’ को थिएटर में मिल रहे रिस्पांस में एक मजेदार पक्ष जुड़ा है। इसे आपको केवल हॉरर फिल्म को मिल रहे रिस्पांस तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए। दरअसल, आजकल फिल्मों को फिर से थिएटर में रिलीज़ करने का मौका मिल रहा है। इसकी शुरुआत हुई थी ‘लव स्टोरी’ से। ’
उन्होंने कहा, ‘जब ऐसा होता है तो फिल्म को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बातें होती हैं। दर्शकों के बीच फिल्म को लेकर एक जुड़ाव पैदा हो जाता है, जो दर्शकों को थिएटर तक खींच लाता है। ‘तुम्बाड’ के साथ भी ऐसा ही हो रहा है।’
अजय ब्रह्मात्मज इसमें ओटीटी प्लेटफॉर्म्स की एक बड़ी भूमिका मानते हैं।
वो कहते हैं, ‘इसमें ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने भी रोल प्ले किया है। इसके ज़रिए फि़ल्म का कनेक्शन दर्शकों के साथ पहले ही बन चुका था। अब दर्शक थिएटर में पहुंच रहे हैं।’
‘दरअसल, घर पर आपको थिएटर वाला अनुभव नहीं मिल पाता है। थिएटर में आप लोगों के साथ फि़ल्म देखते हैं। घर पर आप अकेले भी देखेंगे, तो एकाग्रता से नहीं देख पाएंगे। मगर, थिएटर में यह संभव हो जाता है।’
हॉरर फिल्मों का ट्रेंड किस ओर जा रहा है?
क्या हिंदी सिनेमा में हॉरर फिल्मों का दौर ऐसी फिल्मों से लौट पाएगा?
इस सवाल पर कोमल नाहटा कहते हैं, ‘नहीं। ‘तुम्बाड’ जैसी फिल्म से तो नहीं लौटकर आएगा। यह ट्रेंड सेट हो रहा है। ‘स्त्री-2 जैसी फिल्म से। वैसे तो ‘स्त्री’ के बाद ही यह ट्रेंड सेट हो गया था। ‘गोलमाल अगेन’ जैसी फि़ल्म भी चली थी।’
उन्होंने कहा, ‘हालांकि ऐसी फि़ल्मों की संख्या अब भी कम है। अभी भी फ़ैमिली ड्रामा और रोमांस ज़्यादा है। मगर, हां। अब ऐसी फि़ल्मों को लेकर माहौल बन रहा है।’
दक्षिण भारत से एक्टर ममूटी की ‘ब्रह्मयुगम’ जैसी फिल्में भी हैं, जिसने सिनेमाघरों में अच्छी कमाई की थी और अब ओटीटी पर काफी पसंद की जा रही हैं।
तो क्या भारतीय सिनेमा में हॉरर फि़ल्मों का ट्रेंड लौट रहा है?
इस पर वरिष्ठ पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं, ‘नहीं। मैं ऐसा नहीं मानता हूं। मुश्किल से एक या दो फिल्में सफल हुई हैं। एक ‘मुंज्या’ और दूसरी ‘स्त्री-2’। इसलिए, हम इसे ट्रेंड नहीं कहेंगे।’
वो कहते हैं, ‘तुम्बाड’ तो पुरानी फि़ल्म थी। लोगों का उससे जुड़ाव था। इसलिए उसे अच्छा रिस्पांस मिल रहा। बीच में ‘भूल भुलैया’ भी अच्छी चली है। अब ‘भूल भुलैया-3’ भी आ रही है।’
वो कहते हैं, ‘दरअसल, हॉरर और कॉमेडी का मिक्स लोगों को बहुत पसंद आ रहा है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है और बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा है, यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, पब्लिक का ट्रेंड समझ पाना मुश्किल काम है।’
उन्होंने ख़ुद का उदाहरण देते हुए कहा, ‘जैसे मुझे ‘स्त्री-2’ अच्छी नहीं लगी। ‘स्त्री’ ज़्यादा बेहतर फि़ल्म थी। उसमें एक विचार था, जिसका इस्तेमाल फिल्ममेकर्स ने किया था। हालांकि, ‘स्त्री-2’ को देखने दर्शक पहुंच रहे हैं। नंबर्स यह बता रहे हैं।’
अजय कहते हैं, ‘मगर, क्या यह एक ट्रेंड बन गया है। मैं ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हूं। अभी भी दो-तीन फिल्में और बन रही हैं। उनमें पॉपुलर स्टार्स भी काम कर रहे हैं। तो यह एक सिलसिला है।’
बॉलीवुड में कैसा रहा है फि़ल्मों का ट्रेंड?
इसके इतर, बॉलीवुड में फि़ल्मों के ट्रेंड को लेकर वरिष्ठ पत्रकार सुदीप मिश्रा कहते हैं, ‘बॉलीवुड में शुरू से ही एक ट्रेंड रहा है। वो ये कि कुछ प्रोडक्शन हाउस एक जैसी फि़ल्में बनाते रहे हैं।’
उन्होंने कहा, ‘जैसे पहले के समय में रामसे ब्रदर्स हॉरर फि़ल्में बना रहे थे। उनकी ज़्यादातर फि़ल्मों को दर्शकों ने पसंद किया। अब ‘भेडिय़ा’, ‘मुंज्या’ या ‘स्त्री-2’ जैसी फि़ल्मों की बात करें तो इन्हें मैडॉक फिल्म्स बना रहा है। अभी भी ज़्यादा प्रोडक्शन हाउस ऐसी फिल्में नहीं बना रहे हैं।’
तो क्या यह माना जाए कि हॉरर फि़ल्मों की संख्या में कोई इजाफ़ा नहीं होने वाला है?
इस पर सुदीप कहते हैं, ‘देखिए, हॉरर फि़ल्में बॉलीवुड के लिए विक्रम भट्ट ने भी ख़ूब बनाई हैं। ‘1920’, ‘1920 रिटन्र्स’, ‘राज’ फ्रेंचाइजी की फि़ल्में उसी कड़ी में आती हैं। ये सभी सफल भी रही हैं।’
‘मगर, इसमें ऐसी फिल्मों के दौर लौटने वाली कोई बात नहीं है। कुछ सफल हो जाती हैं, तो कुछ असफल होती हैं। इसलिए, यशराज या धर्मा जैसे बड़े प्रोडक्शन हाउस ने हॉरर फिल्मों में ज़्यादा रुचि कभी नहीं दिखाई।’ (www.bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव को यूं तो पूरा विश्व ध्यान से देखता है इधर पिछले कुछ वर्षों से भारत के लोग भी अमेरिकी चुनाव में काफी रुचि लेने लगे हैं क्योंकि भारत के उच्च मध्यम वर्ग के बहुत सारे युवाओं के लिए अमेरिका पहली पसन्द बन गया है। वैसे इधर सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र में काफी समानताएं भी दिखाई दे रही हैं।
विशेष रूप से रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बातें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषणों से काफी मेल खाती हैं। भास्कर अखबार ने भी हाल में शायद इसी दृष्टि से ट्रंप का इंटरव्यू लिया है क्योंकि एन आर आई सहित काफी भारतीय अमेरिका के चुनाव पर नजर रखते हैं। भास्कर मे प्रकाशित इस इंटरव्यू के कुछ खास तथ्य ध्यान देने योग्य हैं, मसलन यदि कमला हैरिस जीत गई तो वे अमेरिकियों की जेब से धन निकालेंगी और मैं जीता तो सबकी जेब में डॉलर आएंगे। याद आता है हमारे प्रधानमंत्री का वह बयान जिसमें उन्होंने कहा था कि कांग्रेस के राज में स्विस बैंकों में भारत से अकूत काला धन विदेशों में गया था हम उसे वापस लाकर सबके खाते में पंद्रह लाख रूपये डालेंगे। दूसरे, ट्रंप कहते हैं कमला हैरिस यहूदियों से नफरत करती हैं और वे हमास समर्थक हैं, वे जीत गई तो यहूदियों का खात्मा तय है। हमारे प्रधानमंत्री और उनका दल भी ऐसी कई बात हिंदुओं और मुस्लिमों के संदर्भ में कहते रहे हैं। ट्रंप यह भी कहते हैं कि डेमोक्रेट्स के राज में अपराधी किस्म के घुसपैठियों ने अमेरिका में आफत मचा दी, हम जीतते ही उन्हें बाहर भगा देंगे। भारत में यह बात रोहिंग्या और बांग्लादेशियों के लिए कही जाती रही है।
ट्रंप ने इस इंटरव्यू में भारत और भारतवंशी समुदाय के लिए भी स्पष्ट संदेश दिया है कि व्हाइट हाउस में भारत के लिए उनसे बेहतर कोई उम्मीदवार नहीं हो सकता।
ट्रंप के चुनाव अभियान में धर्म और राष्ट्रीयता का जबरदस्त छौंक लगा है। उन्होंने अपने ऊपर हुए हालिया हमलों को भी चुनावी मुद्दा बनाया है।उनकी तुलना में कमला हैरिस के बयानों में उस तरह का बड़बोलापन नहीं है जिसके लिए ट्रंप जाने जाते हैं। डेमोक्रेट्स के चुनाव अभियान की तुलना अपने यहां कांग्रेस से की जा सकती है। हम भारतीय और अमेरिका में बसे भारतवंशी इस बात के लिए खुश या दुखी हो सकते हैं कि अमेरिका के लोकतंत्र में भी भारतीय लोकतंत्र की कई विकृतियों का प्रवेश हो गया है। कम से कम यही संतोष किया जा सकता है कि एक हम ही खराब नहीं हैं दुनिया के बड़े मुल्क भी खराब हो रहे हैं। बहरहाल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का असर केवल अमेरिका ही नहीं कम या अधिक, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरी दुनिया पर पड़ता है।जो देश शक्ति और संपन्नता में जितना बड़ा है उस पर अमेरिका का उतना ही ज्यादा असर होता है क्योंकि वर्तमान भौतिकतावादी दुनियां में संपन्नता ही शक्ति का सबसे बड़ा प्रतीक बन गई है। यही कारण है कि चाहे रूस यूक्रेन युद्ध हो या इजराइल फिलिस्तीन युद्ध या फिर पड़ोसी बांग्लादेश की ताजा अस्थिरता, अमेरिका के चुनाव के बाद जो भी राष्ट्रपति बनेगा वह इन सब मुद्दों को अगले कुछ साल तक अपने हिसाब से निबटाने की कोशिश करेगा। जहां तक भारत का प्रश्न है उसके बारे में रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप ने जहां खुलेआम भारत के पक्ष की घोषणा की है वहीं इस मामले में भारतीय मूल से जुड़ी डेमोक्रेट प्रत्याशी कमला हैरिस अभी खुलकर भारत अमेरिका संबंधों पर बोलने से बचती दिख रही हैं। अमेरिकी चुनाव में जीत हार चाहे जिसकी हो शायद अमेरिकी भारत वंशियों के लिए इस बार के चुनाव बड़ी दुविधा में डालने वाले हैं। एक तरफ भारवंशी का टैग लगी कमला हैरिश मे उन्हें अपनापन लग रहा है और दूसरी तरफ डोनाल्ड ट्रंप की खुलेआम भारत समर्थन की घोषणा उन्हें उनके पक्ष में आकर्षित कर रही होगी। इसके पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में भारतीय अमेरिकियों के लिए ऐसी दुविधा कभी नहीं रही। देखते हैं कांटे की टक्कर दिखते इस चुनाव में अमेरिकी जनमत किसे अपनी कमान सौंपता है!
-डॉ. संजय शुक्ला
भारत के लोग सदियों से उत्सवधर्मी रहे हैं जहां हर धर्म, जाति और संप्रदायों की अपनी धार्मिक और सामाजिक परंपराएं और हैं जिन्हें वे बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं। हालांकि कभी-कभी इन उत्सवों के उमंग और तरंग में कुछ वजहों से भंग भी पड़ जाता है जो समाज के एक हिस्से को नागवार गुजरता है फलस्वरूप शासन और प्रशासन को दखल देना पड़ता है। हाल ही में छत्तीसगढ़ के पर्यावरण एवं पर्यावरण विभाग द्वारा राज्य के सभी जिलों के कलेक्टर और पुलिस अधीक्षकों पत्र लिखकर ध्वनि प्रदूषण (नियमन और नियंत्रण) नियम 2000 तथा छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आदेश के परिप्रेक्ष्य में वाहनों पर साउंड बाक्स रखकर डीजे बजाने पर साउंड बाक्स जब्त व वाहन का परमिट निरस्त करने को कहा है। पत्र में यह भी कहा गया है कि वे शादियों, जन्मदिन, धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों में निर्धारित मानकों से अधिक ध्वनि प्रदूषण पर आयोजकों के खिलाफ उच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना का मामला दर्ज करते हुए ध्वनि प्रदूषण यंत्र, टेन्ट , डीजे आदि को जप्त किया जाए। इस पत्र में प्रेशर हार्न, मल्टीटोन हार्न को निकालने तथा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, कोर्ट और कार्यालयों के 100 मीटर दायरे में लाउड स्पीकर बजाने को प्रतिबंधित करते हुए इसे जप्त करने का निर्देश दिया गया है। सरकार के इस आदेश के बाद राज्य के डीजे और धुमाल संचालकों में हडक़ंप मच गया है और वे विरोध प्रदर्शन की राह पर हैं।
अलबत्ता सरकार के इस फैसले का आम नागरिक स्वागत और समर्थन कर रहे हैं तथा इस पर सख्ती से अमल की मांग कर रहे हैं। गौरतलब है कि राज्य के अनेक नागरिक संगठन और आम नागरिक काफी दिनों से राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक आयोजनों,जूलूस, विसर्जन झांकियों , वैवाहिक एवं अन्य प्रसंगों के दौरान बजने वाले डीजे एवं धुमाल पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे थे। नागरिक संगठनों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने राज्य में ध्वनि प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए हाईकोर्ट में याचिका भी दायर किया था जिस पर अदालत ने राज्य सरकार को जनहित में ध्वनि प्रदूषण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने का निर्देश दिया था। बिलाशक छत्तीसगढ़ सरकार का डीजे सहित तमाम ध्वनि प्रदूषण फैलाने वाले माध्यमों पर रोक लगाने का फैसला जनस्वास्थ्य तथा कानून और व्यवस्था के लिहाज से सामयिक और सार्थक कदम है बशर्ते इसका मुस्तैदी के साथ क्रियान्वयन संभव हो सके।
गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न राज्यों में डीजे बजाने के नाम पर उपजे हिंसक घटनाओं में जहां अनेक लोगों की मौत हुई है वहीं इसके तेज आवाज की वजह से भी बुजुर्गों और युवाओं की मौत हो रही है। छत्तीसगढ़ में इस गणेश उत्सव के दौरान डीजे की वजह से पांच लोगों की मौत हो चुकी है। दुर्ग के नंदिनी गांव में डीजे पर डांस के नाम पर दो गुटों में हुए झड़प के बाद तीन युवकों की हत्या हो गई तो बलरामपुर में डीजे की तेज आवाज से एक युवक के मस्तिष्क की नस फटने से मौत हो गई। एक दुखदाई घटना पुरानी भिलाई थानांतर्गत हथखोज में हुई जहां एक हृदयरोगी बुजुर्ग ने गणेश पंडाल में तेज आवाज में डीजे बजाए जाने पर आत्महत्या कर ली। मृतक ने सुसाइड नोट में गणेशोत्सव समिति के अध्यक्ष पर मनमानी करने और प्रताडऩा का आरोप लगाया है। छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्यों में भी इस प्रकार की घटनाएं घटित हुई है। मध्यप्रदेश के सागर जिले के शाहपुर नगर में डीजे की तेज आवाज के चलते एक पुरानी इमारत की दीवार ढहने के कारण 9 बच्चों की मौत मलबे में दबने से हो गई। इसी प्रकार ओडिशा में वैवाहिक समारोह में एक 50 वर्षीय व्यक्ति की मौत डीजे के तेज आवाज की चलते दिल का दौरा पडऩे से हो गई।
गौरतलब है कि डीजे केवल धार्मिक आयोजनों और विसर्जन जुलूसों के दौरान ही लोगों के लिए परेशानी का सबब नहीं बन रहा है अपितु रिहायशी इलाकों से लेकर होटलों में वैवाहिक समारोहों के दौरान इसके प्रचलन ने लोगों का जीवन मुहाल कर दिया है। कोलाहल अधिनियम और ध्वनि प्रदूषण कानूनों की खुलेआम धज्जियां कैसे उड़ रही है? इसका उदाहरण अस्पतालों, स्कूलों और कॉलेजों के आसपास डीजे के तेज आवाज के साथ निकलने वाले विसर्जन जुलूस और रैलियां हैं लेकिन आयोजक और प्रशासन इस दिशा में बेपरवाह नजर आते हैं। जिला प्रशासन द्वारा हर साल स्कूलों और कॉलेजों के परीक्षा के दौरान ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर बंदिश लगाने का फरमान जारी किया जाता है लेकिन इस दौरान भी डीजे सहित तमाम ध्वनि विस्तारक यंत्रों की तेज आवाज छात्रों के पढ़ाई में खलल डालने से बाज नहीं आती।अलबत्ता धुमाल और डीजे का शोर सिर्फ मानव स्वास्थ्य पर ही असर नहीं डाल रहा है बल्कि इसका दुष्प्रभाव पशु-पक्षियों पर उनके स्वभावगत परिवर्तन के तौर पर देखा जा रहा है।
विचारणीय है कि नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल, ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण और नियम अधिनियम 2000 तथा अनेक अदालतों द्वारा डीजे व धुमाल को प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद प्रशासनिक अमला दिखावे की कार्रवाई कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान लेती है। कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने वाहनों में डीजे या धुमाल रखकर इसके उपयोग को मोटर व्हीकल एक्ट के विरुद्ध मानते हुए जिला प्रशासन को इसके लिए लिए जिम्मेदार मानते हुए संबंधित वाहन को जब्त करने और जुर्माना लगाने का आदेश दिया है । केंद्र सरकार के ध्वनि प्रदूषण नियमन एवं नियंत्रण नियम 2000 , पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के तहत निर्धारित डेसीबल से ज्यादा ध्वनि विस्तारकों को प्रतिबंधित किया गया है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ शासन के परिवहन विभाग द्वारा 25 अक्टूबर 2021 को जारी परिपत्र में मोटर व्हीकल एक्ट 1988 की धारा 182 ए (1) के तहत वाहन पर आल्टर या साउंड सिस्टम रखकर बजाने पर वाहन जब्ती और 1 लाख जुर्माना का प्रावधान है।
आश्चर्यजनक तौर पर इन प्रावधानों और आदेशों का पालन अभी तक संभव नहीं हो पाया था। गौरतलब है कि एक आम व्यक्ति के लिए सामान्य तौर पर 65 डेसीबल तक का आवाज सुरक्षित रहता है। इससे अधिक आवाज पर व्यक्ति के सेहत और सुनने की क्षमता पर दुष्प्रभाव डालता है। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक डीजे और धुमाल के तेज आवाज की वजह से व्यक्ति के सुनने की क्षमता या तो कमजोर हो सकती है अथवा खत्म हो सकती है। इसी प्रकार तेज आवाज का असर मस्तिष्क के नसों पर पड़ सकता है, हृदयगति असमान्य होने और हार्ट अटैक का की संभावना रहती है। मनोरोग विशेषज्ञों के अनुसार डीजे जैसे ध्वनि विस्तारकों के काफी तेज आवाज का असर बच्चों से लेकर सभी उम्र के व्यक्तियों के दिमाग पर पड़ता है जिससे अनिद्रा, डर, एंजायटी और तनाव जैसे मानसिक रोग हो सकते हैं। डीजे का तेज आवाज उच्च रक्तचाप व मानसिक रोगियों तथा गर्भवती महिलाओं के लिए घातक हो सकता है। इसके अलावा डीजे के तेज आवाज से होने वाले कंपन की वजह से पुरानी इमारतों और पुलों के गिरने की वजह से जनहानि की संभावना भी रहती है।
ध्वनि प्रदूषण अधिनियम और नियम 2000 में कमर्शियल, इंडस्ट्रियल और रेसिडेंशियल इलाके के लिए आवाज की सीमा तय है। इसके मुताबिक इंडस्ट्रियल एरिया में दिन में आवाज 75 डेसीबल और रात में 70 डेसीबल होना चाहिए। इसी तरह कमर्शियल इलाकों के लिए दिन में आवाज 65 डेसीबल और रात में 55 डेसीबल तथा रेसिडेंशियल इलाकों के लिए दिन में 50 डेसीबल और रात में 40 डेसीबल तय है। बहरहाल वास्तविकता इन अधिनियमों और नियमों में तय मानकों से अलग होती है। आश्चर्यजनक तौर पर रेसिडेंशियल इलाकों में अनेक सार्वजनिक भवनों, होटलों में वैवाहिक एवं अन्य समारोहों में देर रात तक तेज आवाज में डीजे और आर्केस्ट्रा की आवाज ने रहवासियों का नींद हराम कर रखा है। रिहायशी इलाकों में गोदामों और फैक्ट्रियों की अनुमति किस तरह से मिलती है? यह किसी से छिपी नहीं है लेकिन इनसे होने वाले शोरगुल का असर आम नागरिकों पर ही देखा जा रहा है।
बहरहाल डीजे सहित तमाम ध्वनि प्रदूषकों के उपयोग पर प्रभावी प्रतिबंध नहीं लग पाने की मुख्य वजह प्रशासन तंत्र पर राजनीतिक हस्तक्षेप या दबाव ही है। दरअसल आज देश की राजनीति धर्म और जाति पर केंद्रित हो चुकी है हर राजनीतिक दल इन मुद्दों को उभार देने में पीछे नहीं है। धार्मिक आयोजनों या विसर्जन जूलूसों के दौरान डीजे और धुमाल के बेजा उपयोग पर बंदिश में कोताही के लिए धार्मिक संवेदनशीलता जैसे कारण जिम्मेदार हैं। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो हमारे राजनीतिक और धार्मिक संगठन किसी भी धर्म के आयोजन में प्रशासनिक दखल को धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए मुद्दे को विस्फोटक बनाने से नहीं हिचक रहे हैं। देश में जब भी दीपावली के दौरान भारी शोर वाले पटाखों या चीन निर्मित पटाखों पर बंदिश लगाने या डीजे को प्रतिबंधित करने की बात होती है संबंधित पक्ष अल्पसंख्यक समुदाय के धर्म स्थलों पर इबादत के दौरान बजने वाले लाउडस्पीकर की दुहाई या उलाहना देने से नहीं चूकते।आखिरकार डीजे और पटाखों की पैरवी करने वालों को कौन समझाए कि लाउडस्पीकर और डीजे व पटाखों के ध्वनि तीव्रता और अवधि में काफी अंतर होता है?
बहरहाल केवल धार्मिक भावना या धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अनुचित परंपराओं को उचित ठहराने की प्रवृत्ति के चलते ही समाज में विसंगतियों को बढ़ावा मिल रहा है। विसर्जन जुलूस के दौरान तेज आवाज वाले डीजे के अश्लील गाने पर नशे में मदमस्त युवाओं की भीड़ समाज के सामने बड़ी चुनौती बन रही है। डीजे और नशे का डबल तडक़ा हमारे धार्मिक आस्था पर लगातार चोट कर रही है लेकिन हमारे धर्मगुरु, धार्मिक संगठनों के अगुआ और प्रबुद्ध वर्ग ऐसी भक्ति को देखकर मौन रहने में ही अपनी भलाई समझ रहा है। हमारे सामने अनेक ऐसे धर्मों और पंथों के उदाहरण हैं जिसमें उनके धार्मिक आयोजनों के दौरान भारी शोरगुल वाले ध्वनि विस्तारक यंत्रों और शराब जैसे सभी नशीले पदार्थों का पूरी तरह से निषेध है। हर धर्म और जाति के लोगों को किसी दूसरे समुदाय के ऐसे अनुकरणीय फैसलों को जरूर स्वीकार किया जाना चाहिए ताकि धर्म और जाति में प्रगतिशीलता का भाव पैदा हो सके। बहरहाल देश के युवाओं का धर्म के प्रति आस्थावान होना राष्ट्र और समाज के लिए साकारात्मक संदेश है धार्मिक आयोजनों में युवाओं के बढ़-चढक़र हिस्सा लेने में भी कोई बुराई नहीं है अलबत्ता उन्हें ऐसे आयोजनों के दौरान नशा, डीजे जैसे ध्वनि प्रदूषकों और अश्लीलता के खिलाफ खुद लामबंद होना चाहिए ताकि हर वर्ग इन उत्सवों का हिस्सा बन सकें और उनका जान सलामत रहे। बिलाशक कोई भी उत्सव बिना गीत और संगीत अधूरा है लिहाजा हर धार्मिक और सामाजिक उत्सवों में उन परंपरागत गीतों और वाद्ययंत्रों के संगीत को एक बार फिर से अपनाने की दरकार है जो आधुनिकता की भीड़ में गुम हो चुकी है आखिरकार सुकून भी उन्हीं में है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल में एक मुकदमा दायर किया गया है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पिछले 20 साल में वन घटे हैं और परिभाषा बदलकर उनमें वृद्धि दिखाई जा रही है.
भारत की पर्यावरण अदालत इस बात की जांच कर रही है कि क्या देश के प्राकृतिक जंगल तेजी से घट रहे हैं, जबकि सरकार का दावा है कि पिछले दो दशकों में भारत के हरित क्षेत्र में भारी वृद्धि हुई है।
इस मामले में भारत की वह प्रतिबद्धता दांव पर है जिसमें उसने 2070 तक शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए अपने वनों के आकार को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ाने का वादा किया है। इस विशाल वन क्षेत्र से भारत भविष्य में कार्बन ट्रेडिंग बाजार में अपने पेड़ों का लाभ उठाना चाहता है।
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने मई में एक मामला दर्ज किया था, जिसमें कहा गया कि भारत सरकार का हरित क्षेत्र बढऩे का दावा गलत है। याचिका में कहा गया है कि इस सदी में, यानी पिछले 24 साल में भारत ने अब तक 23,000 वर्ग किलोमीटर पेड़ों का आवरण खो दिया है।
क्या है दावे का आधार?
यह आंकड़ा ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच (जीएफडब्ल्यू) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र संगठन है और उपग्रह से ली गई तस्वीरों से विश्व भर के जंगलों के वास्तविक समय में आंकड़े प्रकाशित करता है। हाल की तस्वीरों से पता चला है कि 2013 से 2023 के बीच भारत में 95 फीसदी पेड़ों का नुकसान प्राकृतिक जंगलों में हुआ है, यानी जंगलों की सेहत ठीक नहीं है।
लेकिन जीएफडब्ल्यू का यह शोध सरकारी आंकड़ों से काफी अलग है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि 1999 से भारत का वन क्षेत्र बढ़ा है। सरकार की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2021 के बीच वन और वृक्ष आवरण में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है।
भारत के जंगल दुनिया के सबसे अधिक जैव विविधता वाले आवासों में से एक हैं। लेकिन बाजार की मांगों के कारण उन पर दबाव लगातार बढ़ा है। देश में बुनियादी ढांचे और खनिज संसाधनों के लिए बड़ी मात्रा में जंगलों की कानूनी रूप से कटाई की जा रही है, जबकि सरकार ने शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने भूमि क्षेत्र के एक तिहाई हिस्से को वनों से ढकने का वादा किया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक फिलहाल भारत का एक चौथाई हिस्सा वन क्षेत्र है।
परिभाषा में बदलाव
सरकारी आंकड़ों का विश्लेषण करने वाले पर्यावरणविदों का कहना है कि आंकड़ों में यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि 2001 में भारत ने वनों के वर्गीकरण के नियमों में बदलाव कर दिया था।
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के सह-संस्थापक एमडी मधुसूदन ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, ‘इन आंकड़ों में दिखाई देने वाली वृद्धि मुख्य रूप से भारतीय सरकार द्वारा 'वन' की परिभाषा को बदलने के कारण है, जिसमें वनों के बाहर के हरे क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है।’
जीएफडब्ल्यू की परिभाषा दो कारकों पर आधारित है: जैवभौतिक, जिसमें ऊंचाई, छत्र आवरण और पेड़ों की संख्या शामिल है; और भूमि उपयोग, जिसमें भूमि को आधिकारिक या कानूनी रूप से वन उपयोग के लिए नामित किया जाना जरूरी है।
मधुसूदन कहते हैं कि भारत अपने वन आंकड़ों में उन सभी हरे क्षेत्रों को शामिल करता है जो कोई भी जैवभौतिक मानदंड को पूरा करते हैं, चाहे उस भूमि की कानूनी स्थिति, स्वामित्व या इस्तेमाल कुछ भी हो। इनमें चाय के बागान, नारियल के खेत, शहरी क्षेत्र, घास के मैदान और यहां तक कि बिना पेड़ों वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है।
वह कहते हैं, ‘अगर एक हेक्टेयर भूमि में केवल 10 फीसदी पेड़ थे, तो उसे भी वन माना गया।’
आंकड़ों में झोल
मधुसूदन ने 1987 से अब तक हर दो साल पर जारी होने वाली वन सर्वेक्षण की 17 रिपोर्टों की जांच की है। इन रिपोर्टों के मुताबिक 1997 तक भारत के वन क्षेत्र में कमी आई थी। उसके बाद से, इन रिपोर्टों के अनुसार, 2021 तक भारत ने 45,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जोड़ा है, जो डेनमार्क के आकार से भी ज्यादा है।
रिपोर्ट तैयार करने वाली संस्था एफएसआई (वन सर्वेक्षण) ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की ईमेल और फोन पर कई अनुरोधों का जवाब नहीं दिया।
स्वतंत्र और सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा पहले किए गए अध्ययनों में भी भारत के वन क्षेत्र के आधिकारिक अनुमान में झोल पाए गए हैं।
अमेरिकी वैज्ञानिक मैथ्यू हैन्सन के नेतृत्व में 2013 में वैश्विक अध्ययन हुआ था जिसमें बताया गया कि 2000 से 2012 के बीच भारत के वन क्षेत्र में लगभग 4,300 वर्ग किलोमीटर की कमी आई। इसी तरह 2016 में सरकारी संस्था नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी) के वैज्ञानिकों ने दिखाया कि 1995 से 2013 के बीच भारत ने लगभग 31,858 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र खो दिया।
इसके उलट, भारत के सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 से 2022 के बीच केवल लगभग 3,000 वर्ग किलोमीटर वन काटे गए हैं।
नए नियम
स्वतंत्र कानून और नीति शोधकर्ता कांची कोहली कहते हैं कि वनों को नियंत्रित करने वाले कानूनों और नियमों में हुए बदलावों ने पर्यावरण की सुरक्षा को कमजोर कर दिया है।
कोहली कहते हैं, ‘वन भारतीय सरकार के लिए एक संवेदनशील मुद्दा है। भारत के जलवायु लक्ष्य और पर्यावरणीय जिम्मेदारियां वैश्विक स्तर पर इसके वनों की सफलता की कहानी से गहरे जुड़े हुए हैं। यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में भारत में वनों को उनकी कार्बन सोखने की क्षमता और व्यापार मूल्य के लिए देखा जाता है, न कि जैव विविधता, आजीविका अधिकार या सांस्कृतिक संबंधों के लिए।’
मधुसूदन कहते हैं कि ऊर्जा और उद्योग के लिए वनों का इस्तेमाल सिर्फ भारत में नहीं हो रहा है लेकिन सरकारें वनों की वैश्विक कार्बन व्यापार में संभावनाएं भी देख सकती हैं, जिसमें वन क्षेत्र देशों को अन्य देशों के उत्सर्जन की भरपाई के लिए पैसा कमाने का अवसर दे सकते हैं।
नवंबर में होने वाले अगले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में देशों से अंतरराष्ट्रीय कार्बन क्रेडिट व्यापार के विवरणों पर बातचीत की संभावना है। भारत और अन्य देशों ने तर्क दिया है कि वनों को इस रूप में क्रेडिट मिलना चाहिए जिसका इस्तेमाल अन्य देशों या निजी क्षेत्र के साथ व्यापार में किया जा सके।
एनजीटी ने एफएसआई और अन्य केंद्रीय विभागों से इस बारे में सफाई मांगी है कि वे अपने वन आंकड़े कैसे प्राप्त करते हैं और वन बढ़े हैं या नहीं। इस मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर को है। कोहली ने कहा कि जीएफडब्ल्यू की कार्यप्रणाली की भी इस मामले में जांच हो सकती है। इस मामले का असर इस बात पर भी पड़ेगा कि भारत पर्यावरण की सुरक्षा के अपने दावों को कितनी ईमानदारी और सच्चाई से पेश कर रहा है।
कोहली कहते हैं, ‘भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपने वनों के बारे में एक अच्छी कहानी पेश करे।’ (dw.com/hi)
आतिशी दिल्ली की नई मुख्यमंत्री होंगी। इस बारे में आम आदमी पार्टी के नेता गोपाल राय ने मंगलवार को मीडिया को जानकारी दी।
गोपाल राय ने कहा कि आतिशी मुश्किल हालात में दिल्ली की सीएम बन रही हैं।
गोपाल राय ने आरोप लगाया, ‘बीजेपी ने आम आदमी पार्टी को तोडऩे और सरकार को गिराने की कोशिश की। लेकिन हमने उनकी हर कोशिश को नाकाम कर दिया।’
अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे के बाद आतिशी को नया मुख्यमंत्री बनाए जाने पर पार्टी के विधायक दल की बैठक में सहमति बनी।
विधायक दल की बैठक में खुद अरविंद केजरीवाल ने आतिशी के नाम का प्रस्ताव रखा।
रविवार को जब अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि वह दो दिन बाद इस्तीफा दे देंगे, तभी से इस पद की दौड़ में आतिशी का नाम भी शामिल था।
हालांकि, उनके अलावा गोपाल राय और कैलाश गहलोत के साथ ही अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल के नामों पर भी चर्चा थी। लेकिन अब 43 साल की आतिशी के नाम पर मोहर लग गई है। विधानसभा चुनावों तक आतिशी दिल्ली की मुख्यमंत्री रहेंगी।
आतिशी के हक में गईं ये बातें?
दरअसल, सोमवार को हुई बैठक के बाद आतिशी को इस दौड़ में सबसे आगे माना जा रहा था। केजरीवाल के जेल में रहते हुए आतिशी के पास सर्वाधिक मंत्रालय और विभाग रहे हैं।
उन्होंने मनीष सिसोदिया के शिक्षा मंत्री रहते, शिक्षा क्षेत्र में भी कई अहम काम किए थे और मनीष सिसोदिया की ग़ैर मौजूदगी में शिक्षा विभाग भी संभाला।
माना जाता है कि आतिशी केजरीवाल की विश्वासपात्र हैं। पार्टी से जुड़े कई सूत्रों ने भी बीबीसी से बातचीत में ये संकेत दिए थे कि मौजूदा परिस्थिति में वो ही सबसे आगे हैं।
जब आतिशी को नहीं मिला था मंत्री पद
2020 विधानसभा चुनाव के बाद केजरीवाल की कैबिनेट में आतिशी समेत किसी भी महिला को जगह नहीं मिली थी।
तब आतिशी को कैबिनेट में जगह ना दिए जाने को लेकर पार्टी के ही कुछ नेताओं ने इस कदम की आलोचना की थी।
ये वह चुनाव था जब आम आदमी पार्टी को 70 में से 62 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी। इनमें से आठ महिला विधायक थीं।
लेकिन इसके बाद भी अरविंद केजरीवाल ने अपनी कैबिनेट में एक भी महिला नेता को जगह नहीं दी थी।
लेकिन वक्त के साथ-साथ दिल्ली के राजनीतिक हालात भी बदले।
मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और फिर खुद अरविंद केजरीवाल के जेल जाने के बाद आतिशी सरकार से लेकर पार्टी तक के मसले पर मोर्चा संभालते दिखीं।
आतिशी साल 2023 में पहली बार केजरीवाल सरकार में शिक्षा मंत्री बनीं।
‘आप’ के संपर्क में आतिशी कैसे आईं
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़, आतिशी दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विजय कुमार सिंह और तृप्ता वाही की बेटी हैं।
आतिशी ने दिल्ली के स्प्रिंगडेल्स स्कूल से पढ़ाई की थी। आतिशी ने सेंट स्टीफेंस कॉलेस से इतिहास की पढ़ाई की है।
आतिशी ने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से मास्टर्स डिग्री हासिल की। बाद में आतिशी को चिवनिंग स्कॉलरशिप भी मिली।
बाद में आतिशी ने आंध्र प्रदेश के ऋषि वैली स्कूल में बच्चों को पढ़ाया। वो ऑर्गेनेकि फार्मिंग और शिक्षा व्यवस्था से जुड़े कामों में सक्रिय रहीं।
बाद में आतिशी भोपाल आ गईं। यहां वो कई एनजीओ के साथ काम करने लगीं। इसी दौरान वो आम आदमी पार्टी और प्रशांत भूषण के संपर्क में आईं।
अन्ना आंदोलन के समय से ही आतिशी संगठन में सक्रिय रही हैं और अब आम आदमी पार्टी के प्रमुख चेहरों में शुमार हैं।
आतिशी साल 2013 में आम आदमी पार्टी से जुड़ीं।
वह साल 2015 से लेकर 2018 तक दिल्ली के तत्कालीन शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया की सलाहकार के तौर पर काम कर रही थीं।
आम आदमी पार्टी की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार- मनीष सिसोदिया की सलाहकार रहते हुए उन्होंने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने, स्कूल मैनेजमेंट कमिटियों के गठन और निजी स्कूलों को बेहिसाब फ़ीस बढ़ोतरी करने से रोकने के लिए कड़े नियम बनाने जैसे कामों में अहम भूमिका निभाई।
आतिशी पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति की भी सदस्य हैं।
आतिशी के पास फिलहाल दिल्ली सरकार में जो विभाग हैं उनमें शिक्षा, उच्च शिक्षा, टेक्निकल ट्रेनिंग एंड एजुकेशन (टीटीई), पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (पीडब्ल्यूडी), ऊर्जा, राजस्व, योजना, वित्त, विजिलेंस, जल, पब्लिक रिलेशंस और कानून-न्याय जैसे डिपार्टमेंट शामिल हैं।
वह दिल्ली के कालकाजी इलाके से विधायक हैं।
जब आतिशी ने हटाया था अपना उपनाम
आतिशी को पहली बार साल 2019 के लोकसभा चुनाव में ‘आप’ ने उनको पूर्वी दिल्ली सीट से उम्मीदवार बनाया था। उस वक्त वह आतिशी मार्लेना के तौर पर जानी जाती थीं।
इससे पहले आतिशी आम तौर पर पर्दे के पीछे सक्रिय नेताओं में गिनी जाती थीं।
2019 में आम चुनावों के दौरान अचानक आम लोगों की भीड़ के सामने आतिशी के हाथ में माइक देखकर इसका अंदाजा होने लगा था कि वो चुनावी राजनीति में ‘आप’ की एक अहम महिला चेहरा बन सकती हैं।
उसी चुनाव में प्रचार के दौरान आतिशी ने पार्टी के सभी रिकॉर्ड और चुनाव अभियान से जुड़े सभी कागज़ातों से अपना उपनाम यानी ‘मार्लेना’ हटा दिया था।
उस समय भारतीय जनता पार्टी ने आतिशी के सरनेम की वजह से उन्हें विदेशी और ईसाई बताकर घेरना शुरू कर दिया था।
हालांकि, आतिशी ने कहा था कि वह अपना सरनेम इसलिए हटा रही हैं क्योंकि वह अपनी पहचान साबित करने में समय बर्बाद नहीं करना चाहतीं।
दरअसल, आतिशी के माता-पिता को वामपंथी झुकाव वाला माना जाता है और कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन के नामों के अक्षरों को जोडक़र आतिशी को ‘मार्लेना’ सरनेम दिया गया था।
आतिशी के सरनेम पर छिड़े विवाद के बीच उस समय मनीष सिसोदिया उनके बचाव में उतरे और उन्हें ‘राजपूतानी’ बताया था।
सिसोदिया ने एक ट्वीट में लिखा था, ‘मुझे दुख है कि बीजेपी और कांग्रेस मिलकर हमारी पूर्वी दिल्ली की प्रत्याशी आतिशी के धर्म को लेकर झूठ फैला रहे हैं। बीजेपी और कांग्रेस वालों! जान लोग- आतिशी सिंह है उसका पूरा नाम। राजपूतानी है। पक्की क्षत्राणी। झांसी की रानी है। बच के रहना। जीतेगी भी और इतिहास भी बनाएगी।’
2019 चुनाव में आतिशी तीसरे नंबर पर रही थीं और बीजेपी की टिकट पर गौतम गंभीर चुनाव जीते थे।
हालांकि, इसके बाद आतिशी ने अपने एक्स हैंडल पर भी अपना सरनेम हटा दिया। (bbc.com/hindi)
बीते कुछ दिनों में बीजेपी के बड़े नेताओं की ओर से ख़ुद के शीर्ष पद पर देखे जाने से जुड़े कई बयान दिए गए। हरियाणा से सांसद और केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह और राज्य के पूर्व गृह मंत्री अनिल विज ने मुख्यमंत्री बनने की ख़्वाहिश जाहिर की।
वहीं पिछले हफ्ते केंद्रीय सडक़ एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने दावा किया, मुझसे किसी नेता ने कहा कि अगर आप प्रधानमंत्री बनते हैं तो हम लोग आपको समर्थन करेंगे।
कई बार विपक्षी नेता नितिन गडकरी को बीजेपी के एक ऐसे नेता के रूप में पेश करते रहे हैं, जिनके पीएम नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से संबंध अच्छे नहीं हैं।
ऐसी अटकलों को हवा कई बार गडकरी के कुछ बयानों से भी मिली। इन बयानों को जानकारों ने संकेत की तरह देखा। इसी कड़ी में गडकरी का ताजा बयान भी शामिल है।
नितिन गडकरी ने क्या कहा?
14 सितंबर 2024 को केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने नागपुर में एक कार्यक्रम में शिरकत की।
इस कार्यक्रम में गडकरी ने कहा, मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता लेकिन एक बार किसी ने कहा था कि अगर आप प्रधानमंत्री बनने जा रहे हो तो हम आपका समर्थन करेंगे।
गडकरी ने कहा, मैंने पूछा कि आप मेरा समर्थन क्यों करेंगे और मैं आपका समर्थन क्यों लूं? प्रधानमंत्री बनना मेरी जि़ंदगी का लक्ष्य नहीं है। मैं अपने संगठन और प्रतिबद्धता के प्रति ईमानदार हूँ। मैं किसी पद के लिए इससे समझौता नहीं करूंगा। मेरे लिए दृढ़ता सर्वोपरि है।
गडकरी कहते हैं- कभी न कभी मुझे लगता है कि ये दृढ़ता ही भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताक़त है।
गडकरी के बारे में कहा जाता है कि वह विपक्षी पार्टियों में भी अच्छी पैठ रखते हैं।
हाल ही में अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस के कार्यक्रम ‘आइडिया एक्सचेंज’ में गडकरी से इसे लेकर सवाल पूछा गया।
गडकरी से पूछा गया, आप उन कुछ बीजेपी नेताओं में से हैं, जो विपक्ष को दुश्मन या देश विरोधी नहीं मानते हैं। इस संदर्भ में क्या मज़बूत विपक्ष राजनीति के लिए बेहतर है या तब ठीक था जब सदन में बीजेपी बहुमत में थी?
गडकरी ने जवाब दिया, हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं कि हम मदर ऑफ डेमोक्रेसी हैं। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्षी दल होते हैं। ये कार या ट्रेन के पहियों की तरह अहम होते हैं और संतुलन जरूरी होता है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हम विपक्ष में थे और अब सरकार में भी हैं। सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास। हमारी भावना यही होनी चाहिए।
गडकरी के बयान पर प्रतिक्रियाएं
नितिन गडकरी के इस बयान पर विपक्षी दलों के नेता प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
शिव सेना (यूटी) की सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने सोशल मीडिया पर लिखा, नितिन गडकरी जी शीर्ष की कुर्सी के लिए अपनी दिली ख़्वाहिश व्यक्त कर रहे हैं। वो इसके लिए विपक्षी दलों के बहाने मोदी जी को संदेश भेज रहे हैं। इंडिया गठबंधन में कई काबिल नेता हैं जो देश का नेतृत्व कर सकते हैं। हमें बीजेपी से नेता उधार लेने की ज़रूरत नहीं है। बढिय़ा खेले...नितिन जी।
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, आरजेडी नेता मनोज कुमार झा ने कहा- बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के लिए लड़ाई शुरू हो गई है। आने वाले महीनों में आपको इसके नतीजे देखने को मिल सकते हैं। क्या इस बार बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुना था? टाइमलाइन चेक कीजिए। एनडीए ने चुना था।
दरअसल 2024 के लोकसभा चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी संसदीय दल की बैठक नहीं हुई थी बल्कि एनडीए की बैठक हुई थी।
बीजेपी की वेबसाइट पर भी 2024 के चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी संसदीय दल नहीं, एनडीए की बैठक से जुड़ी प्रेस रिलीज जारी की गई।
वहीं, 2019 में 303 सीटें जीतने के बाद चुनावी नतीजों के अगले दिन 24 मई को बीजेपी संसदीय दल की बैठक हुई थी न कि एनडीए की बैठक।
संसद के सेंट्रल हॉल में सात जून को नीतीश कुमार ने मोदी को संसदीय दल का नेता बताया था।
चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार के सहारे बीजेपी
बीजेपी के लोकसभा में 240 सांसद हैं। जेडीयू और टीडीपी के सहारे नरेंद्र मोदी सरकार बनाने और प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे।
राज्यसभा के पूर्व सांसद और राजनीतिक विश्लेषक कुमार केतकर से सवाल पूछा गया था कि क्या गडकरी बीजेपी में नरेंद्र मोदी की जगह ले सकते हैं?
केतकर ने कहा कि अगर मोदी विश्वास प्रस्ताव हारते हैं तो दूसरे उम्मीदवार की मांग होगी, ऐसे में नितिन गडकरी उभर सकते हैं।
केतकर ने कहा था, पत्रकार होने के नाते मैं आपको बता सकता हूँ कि गडकरी को आगे करने को लेकर बीजेपी और संघ दोनों में माहौल तैयार होने लगा था। क्या मोदी की जगह कोई और ले सकता है? इस सवाल के जवाब में ज़रूरी ये है कि संकट की कोई स्थिति पैदा हो और मोदी विश्वासमत खो दें।
आम बजट में इस बार आंध्र प्रदेश और बिहार को लेकर अलग से एलान किए गए थे।
जानकारों का मानना था कि ये बजट सरकार के सहयोगी दलों को संतुष्ट करने और सरकार बचाए रखने वाला वाला बजट था।
नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की भूमिका के बारे में केतकर ने कहा था, मुझे लगता है कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू नरेंद्र मोदी पर ज़्यादा निर्भर हैं न कि मोदी उन पर। दोनों नेताओं में से कोई एक चला जाए, तब भी मोदी पीएम बने रहेंगे। मोदी ये जानते हैं कि नीतीश, चंद्रबाबू को इंडिया गठबंधन में जाकर कुछ नहीं मिलेगा। ऐसे में मोदी सरकार बची रहेगी।
किसी सियासी संकट आने पर पीएम मोदी के विकल्प की स्थिति में गडकरी के नाम का जिक्र करते हुए केतकर ने कहा- वो बीजेपी में भी पसंद किए जाते हैं और संघ में भी।
गडकरी के बयान और अटकलें
ये पहला मौका नहीं है, जब नितिन गडकरी ने ऐसा कोई बयान दिया हो, जिससे बीजेपी के अंदर और बाहर चर्चा छिड़ गई हो।
जनवरी 2019 में मुंबई में गडकरी ने कहा था, सपने दिखाने वाले नेता लोगों को अच्छे लगते हैं पर दिखाए हुए सपने अगर पूरे नहीं किए तो जनता उनकी पिटाई भी करती है। इसलिए सपने वही दिखाओ जो पूरे हो सकें। मैं सपने दिखाने वालों में से नहीं हूं। मैं जो बोलता हूँ, वो 100 फीसदी डंके की चोट पर पूरा होता है।
इंदिरा गांधी की बीजेपी अक्सर आलोचना करती रही है। वहीं 2019 में गडकरी ने इंदिरा गांधी की तारीफ की थी।
मई 2019 में गडकरी ने कहा था, बीजेपी एक वैचारिक पार्टी है। बीजेपी न कभी सिफऱ् अटल-आडवाणी की पार्टी थी और न अब मोदी-शाह की।
साल 2019 में लोकसभा की कार्यवाही के दौरान नितिन गडकरी ने कहा था, ये मेरा सौभाग्य है कि सभी पार्टी के सांसद मानते हैं कि मैंने अच्छा काम किया हैं।
गडकरी के इस बयान पर सोनिया गांधी ने भी अपनी टेबल थपथपाई थी और सहमति जताई थी।
2018 में सोनिया गांधी ने गडकरी को ख़त लिखा था और इस ख़त में रायबरेली में उनके मंत्रालय के काम की तारीफ की थी।
मार्च 2022 में गडकरी ने कहा था, एक लोकतंत्र में विपक्षी पार्टी की भूमिका काफ़ी अहम है। मैं दिल से कामना करता हूं कि कांग्रेस मजबूत बनी रहे। आज जो कांग्रेस में हैं, उन्हें पार्टी के लिए प्रतिबद्धता दिखाते हुए पार्टी में बने रहना चाहिए। उन्हें हार से निराश न होते हुए काम करना जारी रखना चाहिए।’
जुलाई 2022 में नितिन गडकरी ने कहा था, अक्सर राजनीति को अलविदा कह देने का मन करता है क्योंकि लगता है कि राजनीति के अलावा भी जीवन में करने के लिए बहुत कुछ है।
जुलाई 2022 में गडकरी ने कहा था कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वाले सोचते हैं कि वो जो भी मांग रखें, उन्हें मान लिया जाए।
ऐसे ही कुछ बयानों के तीन हफ्ते बाद गडकरी को बीजेपी संसदीय बोर्ड से हटा दिया गया था। गडकरी को बीजेपी ने केंद्रीय चुनाव समिति से भी हटा दिया था जबकि देवेंद्र फडणवीस को शामिल कर लिया गया था।
2024 के चुनाव से पहले उद्धव ठाकरे ने कहा था, अगर नितिन गडकरी को लगता है कि बीजेपी में उनकी ‘बेइज्ज़ती’ हो रही है तो उन्हें हमारे पास आना चाहिए। हम सुनिश्चित करेंगे कि वो 2024 का चुनाव जीतें।
इस पर जवाब देते हुए गडकरी ने कहा था, उद्धव ठाकरे को बीजेपी नेताओं को लेकर परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।
जब गडकरी बने थे बीजेपी अध्यक्ष
नितिन गडकरी को आरएसएस के पसंदीदा नेताओं में से एक माना जाता है। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह से गडकरी के संबंधों को लेकर कई बातें कही जाती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बीबीसी से कहा था, जब नितिन गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे तब अमित शाह को अदालत के आदेश के चलते गुजरात राज्य छोडऩा पड़ा और गडकरी से मुलाक़ात करने के लिए उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता था। ऐसे में जब पार्टी पर मोदी और शाह का प्रभुत्व बढ़ा तो धीरे-धीरे गडकरी के पर कटने शुरू हो गए।
नितिन गडकरी को 2013 के बाद भी बीजेपी का अध्यक्ष बनाए रखने की बात कही गई थी। इसके लिए पार्टी के संविधान में संशोधन तक किया गया था।
लेकिन उसी दौरान नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। इस्तीफ़े के बाद गडकरी पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप की चर्चा एकदम से बंद हो गई थी। गडकरी के इस्तीफे के बाद राजनाथ सिंह को पार्टी कमान मिली थी।
राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में ही नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाया गया था।
कहा जाता है कि अगर पार्टी की कमान नितिन गडकरी के पास होती तो नरेंद्र मोदी शायद ही बीजेपी की ओर से पीएम चेहरा बन पाते। (www.bbc.com/hindi)
-अभय कुमार सिंह
14 फरवरी 2014- वो तारीख जब अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर पहली बार इस्तीफा दिया था।
बारिश के बीच केजरीवाल ने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था, ‘दोस्तों, मैं बहुत छोटा आदमी हूं। मैं यहां कुर्सी के लिए नहीं आया हूं। मैं यहां जनलोकपाल बिल के लिए आया हूं। आज लोकपाल बिल गिर गया है और हमारी सरकार इस्तीफा देती है। लोकपाल बिल के लिए सौ बार मुख्यमंत्री की कुर्सी न्योछावर करने के लिए तैयार हैं। मैं इस बिल के लिए जान भी देने के लिए तैयार हूं।’
उस वक्त अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी नई-नई अस्तित्व में आई थी। कार्यकर्ता उनके इस एलान से उत्साहित थे। उन्हें भरोसा था कि वो दोबारा चुनाव में जाएंगे और जीत दजऱ् करेंगे। हुआ भी यही।
अब एक दशक से ज़्यादा समय हो चुका है, अरविंद केजरीवाल तीन बार दिल्ली के मुख्यमंत्री चुने गए हैं और पार्टी भी तमाम राजनीतिक जोर-आज़माइश में पहले से कहीं ज़्यादा अनुभवी हो गई है।
15 सितंबर 2024 को एक बार फिर अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा देने की तारीख का ऐलान किया है और इस बार भी वो दोबारा चुनाव में जाने और सत्ता हासिल करने का भरोसा जता रहे हैं।
उनका कहना है कि जब तक जनता उनको इस पद पर बैठने के लिए नहीं कहेगी, तब तक वो फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे।
रविवार को पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘जब तक दिल्ली में चुनाव नहीं होंगे तब तक कोई अन्य नेता दिल्ली का मुख्यमंत्री होगा।’
इसके लिए दो दिनों के भीतर आम आदमी पार्टी के विधायक दल की बैठक होगी, उसी में नए मुख्यमंत्री का नाम तय होगा।
केजरीवाल ने कहा, ‘मैं जनता के बीच में जाऊंगा, गली-गली में जाऊंगा, घर-घर जाऊंगा और जब तक जनता अपना फैसला न सुना दे कि केजरीवाल ईमानदार है तब तक मैं सीएम की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा।’
उनकी इस घोषणा को बीजेपी ने पीआर स्टंट करार दिया है। लेकिन उनके इस एलान के बाद कई सवाल उठ रहे हैं। बीबीसी हिंदी ने ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब जानने की कोशिश की है।
पहला ये कि इस्तीफे का एलान इस वक्त क्यों, इसका हरियाणा चुनाव से कोई कनेक्शन तो नहीं?
दूसरा ये कि पहले चुनाव कराने की मांग का आधार क्या है? तीसरा ये कि, अगला मुख्यमंत्री चुनने का आधार क्या होगा, और क्या दिल्ली बीजेपी की रणनीति पर इसका असर होगा?
एक अहम सवाल ये भी कि 2014 के केजरीवाल के इस्तीफे से 2024 के इस्तीफे तक आम आदमी पार्टी कितनी बदली?
इस्तीफे का ऐलान अभी क्यों?
कऱीब पांच महीने जेल में रहने और जेल के अंदर से ही सरकार चलाने के बाद, अरविंद केजरीवाल 13 सितंबर देर शाम ज़मानत मिलने के बाद बाहर आए। इसके दो दिन बाद ही उन्होंने दो दिन बाद इस्तीफ़ा देने की घोषणा कर दी। आखऱि अभी ही इस्तीफ़े की पेशकश क्यों की गई?
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी कहते हैं कि अचानक लिए गए इस फ़ैसले को अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक शैली से जोडक़र देखना चाहिए।
वो कहते हैं, ‘अगर आप 10-12 साल के केजरीवाल के राजनीतिक इतिहास को देखें तो उनके फैसलों में कुछ न कुछ नाटकीयता होती है। नाटकीयता ऐसी कि जिसमें ‘आदर्श’ भी दिख जाए और उसके पीछे कोई रणनीति भी छिपी हो, वो बतौर राजनेता इतने सरल व्यक्ति नहीं हैं।’
प्रमोद जोशी का मानना है, ‘केजरीवाल इस अचानक लिए फ़ैसले से संदेश देना चाहते हैं, ‘मैं इन सब चीज़ों से ऊपर हूं और मैं साधारण व्यक्ति हूं’।’
प्रमोद जोशी का मानना है कि केजरीवाल जिस समय गिरफ़्तार हुए थे तभी इस्तीफ़ा दे सकते थे, क्योंकि इससे पहले भी जो नेता ऐसे गिरफ़्तार हुए उन्होंने इस्तीफ़ा दिया। लेकिन अब जेल से बाहर आने के बाद इस्तीफ़ा देने के कारणों के पीछे प्रमोद जोशी मानते हैं, ‘हो सकता है कि वो ये भी साबित करना चाहते हों तो उन्होंने कानूनी लड़ाई लड़ी और सिद्धांतों की वजह से इस्तीफा नहीं दिया। आज वो मान रहे हैं कि वो दूसरे सिद्धांत की बात कर रहे हैं कि वो जनता के फ़ैसलों पर ही मुख्यमंत्री की गद्दी लेंगे।’
‘टू लेट, टू लिटिल’
वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष, केजरीवाल के इस फ़ैसले को ‘टू लेट, टू लिटिल’ बताते हैं।
उन्होंने कहा, ‘केजरीवाल ने इस फ़ैसले को लेने में देरी कर दी है। ये डेस्परेट लगता है, लोगों के बीच गिरती छवि को बचाने वाले कदम जैसा लगता है। जिस दिन गिरफ़्तारी वाली बात सामने आई थी तभी उन्हें ऐसा करना चाहिए था।’
आशुतोष भी प्रमोद जोशी की राय से सहमत हैं कि ये एलान नाटकीयता भरा दिखता है। उनका कहना है, ‘दो दिन पहले इस तरह का एलान करना ‘रहस्य’जैसा है और उन्हें इस ‘नाटक’ से बचना चाहिए था।’
बता दें कि दिल्ली की मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल अगले साल फऱवरी में समाप्त हो रहा है। इसके बाद यहां चुनाव होना है। मतलब ये है कि चुनाव में अब कऱीब 5 महीने का ही वक्त बचा है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता इसे हालिया चुनाव और कानूनी बंदिशों से जोडक़र देखते हैं।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘कोर्ट से बाहर आने के बाद भी उनके हाथ में कुछ नहीं है। वो कोई फ़ैसला नहीं ले सकते, कैबिनेट की मीटिंग में भाग नहीं ले सकते। बाहर आने के बाद लोग उन पर काम करने और वादे पूरा करने का दबाव बनाते, अब उनके पास ये कहने के लिए हो जाएगा कि ‘मैं मुख्यमंत्री नहीं हूं, कुछ नहीं कर सकता, लेकिन हमारी पार्टी कर सकती है’।’
शरद गुप्ता यह भी कहते हैं, ‘इस फैसले का दूसरा पहलू हरियाणा और दिल्ली चुनाव भी हो सकता है। बतौर मुख्यमंत्री बंदिशें खत्म होने के बाद वो हरियाणा चुनाव में ज़ोर लगाएंगे। अगले कुछ महीनों में दिल्ली चुनाव आने वाले हैं। तीन बार जीतने के बाद चौथा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए इतना आसान नहीं होगा।''
2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी 46 सीटों पर लड़ी थी। मगर पार्टी का प्रदर्शन काफ़ी निराशाजनक रहा था और वो एक भी सीट नहीं जीत सकी थी। इस बार पार्टी सभी 90 सीटों पर चुनाव लड़ रही है।
इस्तीफे से दो दिन पहले इसकी घोषणा को वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता ‘हेडलाइन मैनेजमेंट’ की तरकीब बताते हैं।
उनका कहना है कि ऐसा कर के पार्टी ख़बरों में बने रहना चाहती है। वो कहते हैं, ‘जब इस्तीफ़ा देना चाहिए घोषणा उसी दिन करनी चाहिए, पहले करने का मतलब क्या है? या, ये हो सकता है कि केजरीवाल को इस बात का डर था कि कहीं ये ख़बर लीक न हो जाए। इसके अलावा अब तक बीजेपी हैडलाइन मैनेजमेंट की मास्टर मानी जाती रही है, लेकिन अब आम आदमी पार्टी भी इसमें आगे है।’
हालांकि, इस्तीफ़े के लिए दो दिन की मोहलत मांगने के सवाल पर दिल्ली सरकार में मंत्री आतिशी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘इसका सीधा सा कारण है। आज रविवार है और कल सोमवार को ईद की छुट्टी है। इसलिए अगले वर्किंग डे यानी मंगलवार को केजरीवाल इस्तीफ़ा देंगे।’
आबकारी नीति में कथित घोटाले के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अरविंद केजरीवाल को जमानत तो दे दी है लेकिन उन पर कई शर्तें लागू हैं। कोर्ट ने कहा है कि ईडी मामले में लगाई गई शर्तें इस मामले में भी लागू होंगी।
उन पर लगी शर्तों के अनुसार केजरीवाल मुख्यमंत्री कार्यालय और दिल्ली सचिवालय नहीं जाएंगे, वो अदालत में विचाराधीन अपने मामले को लेकर कोई सार्वजनिक बयान नहीं देंगे। वो किसी भी सरकारी फाइल पर तब तक हस्ताक्षर नहीं करेंगे जब तक कि ऐसा करना आवश्यक न हो और दिल्ली के उपराज्यपाल की मंजूरी लेने के लिए ये जरूरी न हो।
इसके अलावा वो मामले में अपनी भूमिका के संबंध में सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। वो न तो किसी गवाह से बात करेंगे और न ही मामले से जुड़ी किसी भी आधिकारिक फाइल तक पहुंच बनाएंगे।
नए चुनाव पर ‘कॉन्फिडेंस’ में है
आम आदमी पार्टी?
मुख्यमंत्री केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के तकरीबन सभी चेहरे इस बात को कहते नजऱ आ रहे हैं कि पार्टी चुनाव में जाने के लिए तैयार है। इसके बावजूद केजरीवाल की तरफ से विधानसभा भंग करने की बात नहीं की गई और कहा गया है कि अब कोई नया चेहरा मुख्यमंत्री बनेगा।
आशुतोष और प्रमोद जोशी दोनों ही इसे ‘कॉन्फिडेंस’ के तौर पर नहीं देखते हैं।
आशुतोष कहते हैं, ‘अगर ऐसा कुछ होता तो पार्टी को विधानसभा भंग करनी चाहिए थी। ऐसा नहीं किया गया और नए मुख्यमंत्री की बात की जा रही है। मतलब ये है कि चुनाव के लिए पार्टी को वक्त चाहिए। हालांकि, पार्टी की तरफ से महाराष्ट्र के साथ दिल्ली में चुनाव कराए जाने की बात कही जा रही है लेकिन ऐसा भी था तो कैबिनेट को इस्तीफा देना चाहिए था।’
हालांकि, प्रमोद जोशी ये भी कहते हैं कि पिछले कुछ महीनों में जिस तरह की परिस्थितियां बनी हैं, उससे पार्टी को ऐसा लग रहा है कि अगर चुनाव जल्दी हो जाते हैं तो उसे उसका फायदा मिलेगा।
वो कहते हैं, ‘अगर 6 महीने बाद या 8 महीने बाद चुनाव हो, या 10 महीने बाद हो, तो वो पार्टी के लिए उतना प्रभावी नहीं होगा। ऐसे में पार्टी का बनाया गया गुब्बारा फूट सकता है। इसलिए यहां से वो यह चाह रहे होंगे कि चुनाव पहले हो जाएं। ऐसा है तो उन्हें विधानसभा भंग करनी चाहिए और जल्दी चुनाव कराने की बात रखनी चाहिए।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता इसे आम आदमी पार्टी के कई नेताओं के जेल में रहने और उसके बाद पैदा हुई सहानुभूति से जोडक़र देखते हैं। उनका कहना है कि पार्टी इस सहानुभूति को भुनाना चाहती है।
वो कहते हैं, ‘इतने दिन केजरीवाल, सिसोदिया और संजय सिंह जेल में थे, तो अब पार्टी को लग रहा है कि इस सहानुभूति को बटोर लेना चाहिए। क्योंकि समय के साथ-साथ लोग इसे भूल भी सकते हैं, इसलिए पार्टी चाहती होगी कि चुनाव जल्द से जल्द हो जाएं।’
हालांकि रविवार को हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में विधानसभा भंग करने के सवाल पर आतिशि ने कहा दिल्ली विधानसभा को भंग करने की जरूरत नहीं है।
उन्होंने कहा, ‘किसी भी विधानसभा का अगर छह महीने से कम का कार्यकाल रह जाता है तो केंद्र सरकार और चुनाव आयोग कभी भी चुनाव करवा सकता है। इसके लिए विधानसभा भंग करने की जरूरत नहीं है।’
नए मुख्यमंत्री के लिए कौन लेगा फैसला?
केजरीवाल के इस्तीफ़े की घोषणा के बाद ये कयास लगाए जा रहे हैं कि दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री कौन हो सकता है।
कई नामों की चर्चा भी हो रही है। इनमें अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल, सरकार में मंत्री आतिशि, मंत्री सौरभ भारद्वाज, मंत्री कैलाश गहलोत समेत कुछ और नामों पर कयास लगाए जा रहे हैं।
लेकिन ये किस आधार पर तय किया जाएगा?
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘ये जो नए मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला है, इसका कोई मतलब नहीं लगता। क्योंकि सब जानते हैं कि मुख्यमंत्री जो भी बने वो बस दिखावे के लिए होगा, जैसा जयललिता के केस में या लालू यादव के केस में हुआ था। इसके बहाने थोड़ा माहौल बनाने की कोशिश रहेगी।’
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ये मानते हैं कि सिद्धांत चाहें कुछ भी हों लेकिन नया मुख्यमंत्री चुनने में मुख्य भूमिका अरविंद केजरीवाल की होगी।
प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘जो भी चेहरा होगा, वो उनका वफादार होगा, इसमें दोराय नहीं है। जैसे आतिशी का नाम आ रहा है, क्योंकि उन्होंने सरकार का काम अच्छे से किया है। लेकिन जैसा सरप्राइज केजरीवाल ने इस्तीफे़ में दिया, वैसा सरप्राइज़ अगर नए मुख्यमंत्री के तौर पर मिल जाए, तो इसकी भी संभावना है।’
सुनीता केजरीवाल की दावेदारी पर वो कहते हैं, ‘वो भी बन सकती हैं, इसमें हैरानी नहीं होगी। ये थोड़ा अजीब तो होगा, लेकिन अब इस पार्टी में इस तरह की कोई हिचक बची नहीं है।’
शरद गुप्ता भी कहते हैं कि इस चेहरे की पहली योग्यता यही होगी कि वो अरविंद केजरीवाल का बेहद वफ़ादार होना चाहिए।
वो इसे ‘यस मिनिस्टर’ का नाम देते हैं। वो कहते हैं, ‘इसे, चेहरा चुने जाने की पहली योग्यता के तौर पर देखा जाएगा। आप सोचिए कि अरविंद केजरीवाल ने जेल में रहकर झंडा फहराने के लिए किसे आगे भेजा था?’
शरद यहां आतिशि की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, हालांकि आतिशि ने अब तक इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है। उनका कहना है कि ये फ़ैसला विधायक दल की बैठक में होगा।
बीजेपी और कांग्रेस के नजरिए से फ़ैसला कैसा है?
बीजेपी केजरीवाल के इस कदम को ‘नाटक’ बता रही है। दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा का कहना है कि लोकसभा चुनाव में ही दिल्ली की जनता ने अपना फैसला सुना दिया था।
वो कहते हैं, ‘केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने तीन महीने पहले ही अपना फै़सला सुना दिया है। आप दिल्ली की सडक़ों पर खुद घूमे थे और आपने कहा था कि जेल के बदले वोट दीजिए और दिल्ली की जनता ने आपको माकूल जवाब दिया।’
रविवार को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीजेपी प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने 48 घंटे पहले इस्तीफे के एलान पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा, ‘जब केजरीवाल जी ने इस्तीफे की बात की तो हम ये कह सकते हैं कि उनके जुर्म का ये इकबालिया बयान हो गया। यानी, आपने मान लिया कि आप पर जो आरोप हैं वो इस लायक है कि आप इस पद पर नहीं रह सकते।’
हालांकि प्रमोद जोशी मानते हैं कि दिल्ली बीजेपी के लिए ये फैसला चौंकाने वाला और अप्रत्याशित होगा। वो कहते हैं, ‘बीजेपी दिल्ली में विधानसभा के लिए उतनी आश्वस्त अभी नहीं होगी क्योंकि पहला, बीजेपी का दिल्ली का संगठन बहुत मजबूत नहीं है,
इसमें आंतरिक लेवल पर भी कोई बहुत ताकत नहीं है। दूसरा, ये कि शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर दिल्ली को लेकर बीजेपी के अंदर असमंजस रहता है।’ ‘इसका तीसरा कारण भी है। हरियाणा में चुनाव होने जा रहे हैं, तो इसका कुछ न कुछ असर दिल्ली के परिणामों पर पड़ेगा। मतलब बीजेपी को इन्होंने एक बार चौंका तो दिया है, इसमें कोई दोराय नहीं है।’
हालांकि, आशुतोष इस राय से इत्तेफ़ाक नहीं रखते हैं, उनका मानना है कि इसका बीजेपी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
वो कहते हैं, ‘दिल्ली चुनाव में कुछ महीनों का ही वक्त है और बीजेपी इसके लिए मानसिक तौर पर तैयार है। मुझे नहीं लगता कि केजरीवाल के इस क़दम का बीजेपी की रणनीति या राजनीति पर कोई ख़ास फर्क पड़ेगा।’
वहीं वरिष्ठ पत्रकार शरद गुप्ता मानते हैं कि केजरीवाल का ये कदम बीजेपी के लिए एक तरह से हैरानी भरा है, जो कि किसी भी तरह से बीजेपी के पक्ष में नहीं है।
वो कहते हैं, ‘बीजेपी चाहती थी कि केजरीवाल मुख्यमंत्री बने रहें और उन पर कीचड़ उछलता रहे। अब केजरीवाल ये कह सकते हैं कि कोर्ट ने उन्हें छोड़ दिया और छूटते ही उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया, वो कह सकते हैं कि उन्हें सत्ता का कोई लालच नहीं है।’
जहां तक कांग्रेस की बात है तो दिल्ली में पहली बार चुनाव लडऩे के बाद केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाई थी। इसके लिए भी वो कई इलाक़ों में दिल्ली की आम जनता के बीच गए थे।
इस बार लोकसभा चुनाव में भी दोनों पार्टियां साथ चुनाव लड़ी थीं। लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए दोनों के बीच गठबंधन नहीं हुआ है।
शरद गुप्ता कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में गठबंधन से कमोबेश कांग्रेस को फ़ायदा मिला था। लेकिन आम आदमी पार्टी को कोई फ़ायदा नहीं मिला। अब वो हरियाणा में साथ नहीं लड़ रही हैं। ऐसे में ज़ाहिर है कि कांग्रेस कि प्रतिक्रिया केजरीवाल के खिलाफ एक विपक्षी पार्टी की जैसी होगी।’
वो कहते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ही दिल्ली में अपने नेतृत्व को मजबूत नहीं किया। वो कहते हैं, ‘प्रदेश संगठन में कोई भी ऐसा नेता नहीं दिखता, जो केजरीवाल जैसी शख़्सियत रखता हो। इसका ख़ामियाज़ा कांग्रेस को चुनाव में भुगतना में पड़ सकता है।’
कांग्रेस की तरफ़ से प्रतिक्रिया की बात करें तो कांग्रेस नेता संदीप दीक्षित ने केजरीवाल के इस्तीफे को ‘नाटक’ कहा है और कहा है कि उन्हें बहुत पहले सीएम पद को छोड़ देना चाहिए था।
उन्होंने कहा, ‘जब उन्हें जेल हो गई थी तभी उन्हें सीएम पद छोड़ देना चाहिए था, लेकिन उसक वक्त उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब बचा क्या है, अब ये घोषणा करने का क्या मतलब है।’
2014 के इस्तीफे से लेकर अब के इस्तीफे तक कितनी बदली पार्टी? इस सवाल पर आशुतोष कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी अब आंदोलन से जन्मी वो पार्टी नहीं रही। वो अलग दौर था जब देश बदलने का सपना था, आदर्शवाद था, नई तरह की राजनीति की उम्मीदें थीं। लेकिन 10 साल में चीज़ें बहुत बदल गई हैं। अब संगठन भी वैसा नहीं रहा, जैसा पहले था और इससे जुडऩे वाले लोग भी अब अलग तरह के हैं।’
आशुतोष कहते हैं कि इस बार दिल्ली की जनता भी ‘फ्री बिजली या फ्री पानी’ जैसे नारों पर जाने वाली नहीं है, अब तो तकऱीबन हर पार्टी ऐसा ही नारा दे रही है।
साल 2014 के इस्तीफ़े पर प्रमोद जोशी कहते हैं, ‘उस वक्त आम आदमी पार्टी आंदोलन से जन्मी हुई पार्टी थी और कार्यकर्ताओं में एक अलग तरह का उत्साह था। पार्टी ने जगह-जगह सभाएं की थीं, लोगों से पूछा था कि हमें सरकार बनानी चाहिए या हमें समर्थन लेना चाहिए। इस बार स्थिति अलग है। इन 10 सालों में पार्टी बहुत हद तक बदल चुकी है। अब पार्टी एक सामान्य राजनीतिक दल बन गई है।’
‘मुझे नहीं लगता कि कार्यकर्ताओं में अब उतनी एनर्जी है। पार्टी में अब कई लोग शामिल हो गए हैं, जो अपने लिए अलग-अलग तरह के फ़ायदे देखते हैं। आपने देखा कि राज्यसभा में मेंबर बनाने के लिए बाहर के लोग लाए गए, कार्यकर्ताओं की जगह नहीं दी गई। अब कार्यकर्ता वही नहीं रहे, जो शुरुआती दौर में थे।’ (www.bbc.com/hindi)
-जन्नतुल तन्वी
बीते कई दिनों से बड़े पैमाने पर लोडशेडिंग यानी बिजली कटौती से बांग्लादेश के लोग परेशान हैं।
डॉलर के संकट की वजह से ईंधन की सप्लाई नहीं होने के कारण बिजली केंद्रों में उत्पादन में गिरावट आई है।
इसके साथ ही ईंधन के आयात पर निर्भर रहने के कारण सरकार पर निजी बिजली कंपनियों का बकाया भी बढ़ रहा है। इसके कारण मांग के अनुरूप बिजली का उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
देश की मौजूदा बिजली उत्पादन क्षमता 27 हजार मेगावाट से ज्यादा होने के बावजूद इसकी घरेलू मांग 16 हजार मेगावाट से भी कम है।
शेख़ हसीना सरकार ने बीते 15 वर्षो में एक के बाद एक कई बिजली उत्पादन संयंत्रों का निर्माण किया है। आरोप है कि इन बिजली संयंत्रों का निर्माण ईंधन की आपूर्ति सुनिश्चित किए बिना अनियोजित तरीके से किया गया है। कई मामलों में तो निर्माण से पहले घरेलू मांग पर भी विचार नहीं किया गया।
ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि शेख़ हसीना की सरकार अपने पीछे जो आर्थिक तबाही छोड़ गई है उसकी वजह से ही पूरा बिजली उद्योग गंभीर खतरे में पड़ गया है।
मौजूदा परिस्थिति में अंतरिम सरकार को इस मद में प्राथमिकता के आधार पर धन आवंटित करना होगा। अगर पूरा भुगतान संभव नहीं हो तो भी बिना किसी रुकावट के बिजली की सप्लाई बनाए रखने के लिए जरूरी रकम आवंटित करनी होगी।
इस बीच, बिजली और ऊर्जा सलाहकार मोहम्मद फ़ौज़ुल कबीर खान ने बताया है कि इस संकट के समाधान के लिए सामयिक उपाय किए गए हैं। ईंधन के आयात के लिए डॉलर में भुगतान किया जा रहा है।
इस उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि डॉलर संकट ही बांग्लादेश में बिजली की कमी की मूल वजह है। दूसरी तमाम समस्याएं भी इसी वजह से पैदा हुई हैं।
आम लोगों को पिछली सरकार की ओर से बिना सोचे-समझे शुरू की गई बिजली परियोजनाओं का ख़मियाजा भुगतना पड़ रहा है।
डॉलर का संकट
देश में गैस-आधारित बिजली परियोजनाओं से ही सबसे ज्यादा बिजली की सप्लाई की जाती है। ऐसी परियोजनाओं की उत्पादन क्षमता करीब 12 हजार मेगावाट है।
पहले इन परियोजनाओं से साढ़े छह हजार मेगावाट तक बिजली का उत्पादन किया जा चुका है। लेकिन अब पांच हजार मेगावाट से ज्यादा उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
बिजली उत्पादन के लिए रोजाना 120 से 130 करोड़ घन फुट (क्यूबिक फीट) तक गैस की सप्लाई की गई है। लेकिन पावर डेवलपमेंट बांग्लादेश (पीडीबी) ने बताया है कि फिलहाल यह सप्लाई 80 से 85 करोड़ घन फुट तक रह गई है।
कॉक्स बाजार के महेशखाली स्थित दो फ्लोटिंग एलएनजी टर्मिनलों के जरिए रोजाना करीब 110 करोड़ घन फुट गैस की सप्लाई होती है।
लेकिन समिट का एलएनजी टर्मिनल बीती दस मई से ही बंद है। इसकी वजह से फिलहाल 60 करोड़ घन फुट गैस की ही सप्लाई हो रही है।
यांत्रिक गड़बड़ी के कारण बड़ोपुकुरिया बिजली संयंत्र की सभी यूनिट बंद हो गई हैं। इसी वजह से मंगलवार को करीब तीन हजार मेगावाट बिजली की कमी पैदा हो गई थी और बड़े पैमाने पर लोडशेडिंग हुई।
भारत में झारखंड स्थित अदानी के बिजली उत्पादन केंद्र से सबसे ज्यादा बिजली की सप्लाई की जाती है। वहां से रोजाना डेढ़ हजार मेगावाट तक बिजली मिलती थी।
लेकिन पता चला है कि बकाया रकम का भुगतान नहीं होने के कारण कंपनी फिलहाल एक हजार मेगावाट बिजली की सप्लाई ही कर रही है।
शेख हसीना सरकार ने बैंक से बॉन्ड जारी कर निजी मद में बकाया बिजली के बिल को कुछ कम करने का प्रयास किया था।
गैस बिल, सरकारी और निजी बिजली उत्पादन केंद्रों और भारतीय बिजली उत्पादन केंद्रों की कुल बकाया रकम 33 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा हो गई है।
इस बीच, भारत के अदानी समूह के चेयरमैन गौतम अडानी ने अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस को एक पत्र भेजा है।
कैब (कंज्यूमर्स एसोसिएशन ऑफ़ बांग्लादेश) के ऊर्जा सलाहकार शमसुल आलम कहते हैं, ‘फिलहाल वित्तीय संकट ही सबसे गंभीर समस्या है। दूसरे मद में खर्च की कटौती कर यहां गैस की सप्लाई बढ़ानी होगी। तेल-आधारित बिजली उत्पादन केंद्रों का संचालन बढ़ाना होगा। इसके साथ ही डॉलर का इंतजाम कर बिजली का उत्पादन बढ़ाना जरूरी है। बिजली उत्पादन में 15 फीसदी की वृद्धि के लिए गैस की राशनिंग करनी होगी। ऐसा होने की स्थिति में ही लोडशेडिंग की समस्या का समाधान किया जा सकता है।’
आयात पर निर्भरता
ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में जो सबसे बड़ी नीतिगत गलती हुई है वह यह है कि मजबूत अर्थव्यवस्था को देखते हुए पूरी बिजली व्यवस्था को आयात पर निर्भर बना दिया गया था।
शेख हसीना की सरकार अर्थशास्त्र की दोषपूर्ण अवधारणा के आधार पर एक के बाद एक बिजली संयंत्र स्थापित करती रही।
इन सभी केंद्रों में बिजली के उत्पादन के लिए गैस के साथ ही तेल और कोयले का इस्तेमाल भी बढ़ा है।
इस ईंधन का ज्यादातर हिस्सा विदेशों से आयात किया जाता है। सरकार ने इससे पहले कभी प्राथमिक ईंधन के बारे में कोई फैसला नहीं किया था।
साथ ही वैकल्पिक ईंधन के रूप में नवीकरणीय (रिन्यूएबल) ऊर्जा स्रोतों पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया।
विश्लेषकों का कहना है कि ईंधन के लिए आयात पर निर्भरता की वजह से बिजली उत्पादन की लागत बढ़ी है। इससे डॉलर पर दबाव बढ़ा है।
विश्लेषक आयात पर निर्भर होने के खतरे के तौर पर वर्ष 2022-23 का जिक्र कर रहे हैं। उस साल ईंधन के आयात पर 13 अरब डॉलर का अतिरिक्त खर्च आया था।
ऊर्जा विशेषज्ञ प्रोफेसर शमसुल आलम कहते हैं, ‘निजी बिजली केंद्र उधार पर बिजली की सप्लाई कर रहे हैं। वो अपने खर्च पर ईंधन खरीद रहे हैं। लेकिन बाकी ज़रूरी चीजों और बिजली उत्पादन का खर्च तो बकाया रह रहा है।’
आलम का कहना है कि इस क्षेत्र में मौजूदा संकट को दूर करने के लिए सरकार को प्राथमिकता के आधार पर धन का आबंटन करना होगा।
कम से कम उतनी रकम जारी करनी होगी जिससे सप्लाई बिना किसी बाधा के बरकरार रह सके।
बांग्लादेश में बिजली संयंत्र और सप्लाई की हालत
ऊर्जा विशेषज्ञ बिजली क्षेत्र को चरम अव्यवस्था का शिकार बताते हैं।
अवामी लीग के सत्ता में आने के बाद नए बिजली केन्द्रों की स्थापना पर काफी जोर दिया गया।
बिजली और ईंधन की आपूर्ति में तीव्र वृद्धि अधिनियम पारित करके उन्हें छूट दी गई।
इस कानून के तहत बिना किसी टेंडर के ही एक के बाद कई बिजली उत्पादन केंद्रों का निर्माण किया गया। व्यापारियों के अलावा अवामी लीग के कई नेताओं ने भी बिजली उत्पादन केंद्रों का मालिकाना हक हासिल कर लिया।
विशेषज्ञों का कहना है कि कई बिजली उत्पादन केंद्रों की स्थापना के बावजूद उनसे उम्मीद के मुताबिक फायदा नहीं हो रहा है।
इसकी वजह यह है कि पैसों की कमी के कारण तेल और गैस खरीदने में दिक्कत हो रही है।
देश में कोयला आधारित चार बड़े बिजली उत्पादन केंद्र हैं। इनके नाम क्रमश: पायरा, रामपाल, एस। आलम और मातारबाड़ी बिजली केंद्र हैं।
इन चारों की कुल उत्पादन क्षमता पांच हजार मेगावाट है। लेकिन सप्लाई लाइन नहीं होने के कारण वहां पैदा होने वाली बिजली को ढाका तक लाना संभव नहीं हो रहा है।
बावजूद इसके उनको कैपेसिटी चार्ज का भुगतान करना पड़ता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि देश में कैपेसिटी यानी क्षमता की दिक्कत नहीं है। लेकिन सप्लाई लाइन पर्याप्त नहीं होने की वजह से उत्पादन क्षमता के बावजूद बिजली की सप्लाई नहीं हो पा रही है।
ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि 60 फीसदी ईंधन के आयात के कारण यह क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित है।
एक ऊर्जा विशेषज्ञ नाम नहीं छापने की शर्त पर बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, ‘अदानी के साथ हुए समझौते के बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है। लेकिन इस समय अगर अदानी के संयंत्र से मिलने वाली बिजली की सप्लाई बंद हो गई तो परिस्थिति और भयावह हो जाएगी।’
उन्होंने कहा, ‘अदानी को जो 80 करोड़ डॉलर मिलने हैं वह तो समझौते के मुताबिक उनका अधिकार है। लेकिन अगर इस समय हम उनको पैसे नहीं दे सकते तो वो लोग कब तक उधारी में बिजली की सप्लाई करते रहेंगे?’
उनका कहना था, ‘अदानी समूह का कहना है कि बकाए की रकम 50 करोड़ डॉलर से ज्यादा होने की स्थिति में यह सस्टेनेबल यानी टिकाऊ नहीं होगा। कंपनी 50 करोड़ डॉलर तक बकाया देने को तैयार है।’
वो कहते हैं, ‘दरअसल, समझौते के मुताबिक उसके लिए ऐसा करना जरूरी नहीं है। लेकिन अदानी समूह ने इस पर सहमति दे दी है। लेकिन सवाल है कि बकाए की रकम 50 करोड़ डॉलर से ज्यादा होने की स्थिति में क्या होगा?...उनको भी तो कोयले का आयात करना पड़ता है। उसके अलावा लॉजिस्टिक और मेंटेनेंस पर होने वाला खर्च भी है।’
ऊर्जा सलाहकार क्या कहते हैं
तकनीकी गड़बड़ी के कारण बड़ोपुकुरिया बिजली केंद्र फिलहाल बंद है। इसके साथ ही अदानी के बिजली उत्पादन केंद्र से भी सप्लाई कम कर दी गई है।
ऊर्जा सलाहकार मोहम्मद फौज़ुल कबीर खान ने पत्रकारों से कहा है, ‘बड़ोपुकुरिया में एक बिजली संयंत्र है। वहां एक तकनीकी समस्या पैदा हो गई है। उम्मीद है कि 18 तारीख तक उसे दूर कर लिया जाएगा और बिजली का उत्पादन शुरू हो जाएगी। इसके अलावा हम अदानी से जो बिजली खरीदते हैं वहां भी सप्लाई कुछ कम हो गई थी। हमने उनसे संपर्क किया है। उसके बाद सप्लाई दोबारा बढ़ गई है। यही वजह है कि स्थिति में कुछ सुधार आया है।’
गैस की कमी को बिजली की सप्लाई में गिरावट की मुख्य वजह बताते हुए खान का कहना था, ‘समिट स्थित एफएसआरयू बीते करीब साढ़े तीन महीनों से बंद था। वह अब ठीक हो गया है।’
वो कहते हैं, ‘हमने गैस का नया ऑर्डर दे दिया है। इसके लिए निविदा मांगी गई है। यह प्रक्रिया पूरी होने पर तीन सप्ताह के भीतर गैस यहां पहुंच जाएगी। इससे पांच सौ एमसीएफडी को गैस से जोड़ा जा सकेगा। उसके बाद बिजली के लिए आनुपातिक रूप से ज्यादा गैस मिलने लगी।’
उन्होंने उम्मीद जताई कि उसके बाद लोडशेडिंग की स्थिति में सुधार होगा।
ख़ान ने बताया है कि बीते तीन दिनों में जिस स्तर पर लोडशेडिंग हुई है वैसा आगे नहीं होगा। इस सामयिक संकट को दूर करने के लिए जरूरी उपाय किए गए हैं।
ऊर्जा सलाहकार खान कहते हैं, ‘परिस्थिति में सर्वांगीण सुधार के लिए 10 तारीख से एफआरएसयू को शुरू किया गया है। यह नहीं होता तो हम गैस नहीं ले आ सकते थे। इसके लिए मैंने क्रय समिति से विचार विमर्श किया है। आज ही निविदा बुलाई गई है।’
खान के मुताबिक, इस प्रक्रिया के पूरी होने में सात दिनों का समय लगेगा। वह कहते हैं, ‘प्रक्रिया पूरा होने के बाद शिपमेंट आने में और दस दिनों का समय लगेगा। उसके आने के बाद तीन सप्ताह के भीतर पांच सौ एमसीएफडी को गैस से जोड़ा जा सकेगा। उसके बाद हमें ज्यादा गैस मिलने लगेगी। तब बिजली का संकट और कम हो जाएगा।’
डॉलर का संकट के करण बकाया बकाया बिलों का भुगतान संभव नहीं हो पा रहा है। इससे निजी क्षेत्र में उत्पादन प्रभावित हो रहा है। अदानी के बिजली केंद्र ने भी सप्लाई कम कर दी है।
डॉलर संकट का जिक्र करते हुए खान कहते हैं, ‘हम डॉलर में भुगतान कर रहे हैं। इसकी उपलब्धता कुछ बढ़ी है। हम लगातार परिस्थिति की निगरानी कर रहे हैं।’ (www.bbc.com/hindi)
अमेरिकी वोटरों को राष्ट्रपति चुनाव के दिन डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस या रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप में किसी एक को चुनना होगा।
आइए देखते हैं कि वो किन चीजों का समर्थन करते हैं और अलग-अलग मुद्दों पर उनकी नीतियां क्या हैं।
अर्थव्यवस्था
उप राष्ट्रपति और डेमोक्रेटिक पार्टी की राष्ट्रपति उम्मीदवार कमला हैरिस ने कहा है कि उनकी पहले दिन से ये प्राथमिकता होगी कि वो कामकाजी परिवारों के लिए खाने-पीने की चीजों और मकान की कीमतों को कम करने की कोशिश करेंगी।
उन्होंने कहा है कि वो ग्रॉसरी की कीमतें गैर वाजिब ढंग से बढ़ाने पर प्रतिबंध लगाएंगी और पहली बार घर खरीद रहे लोगों की मदद के लिए क़दम उठाएंगी। वो ये सुनिश्चित करेंगी कि अधिक से अधिक मकान बनाए जाएं। इसके लिए वो इन्सेंटिव देने की व्यवस्था करेंगी।
वहीं ट्रंप ने महंगाई को खत्म करने का वादा किया है। उन्होंने अमेरिका को एक बार फिर से वैसा देश बनाने का वादा किया है जहां लोग सस्ती चीजें खरीद सकें।
ट्रंप ने ब्याज दरों को कम करने का वादा किया है। हालांकि ब्याज दरें सरकार के नियंत्रण में नहीं होतीं। उन्होंने कहा है कि जिन आप्रवासियों के पास अमेरिका में रहने के दस्तावेज़ नहीं हैं, उन्हें वापस भेजने से हाउसिंग पर बोझ कम होगा और लोगों को मकान मिल पाएंगे।
गर्भपात
कमला हैरिस ने गर्भपात के अधिकार को अपने चुनावी अभियान के केंद्र में रखा है। वो ऐसे कानून का समर्थन कर रही हैं जो पूरे देश में लोगों के लिए एक जैसे प्रजनन अधिकारों का रास्ता साफ करेगा।
जबकि हाल के कुछ हफ्तों में गर्भपात विरोधी रुख़ के समर्थन के मामले में ट्रंप संघर्ष करते दिखे हैं।
ट्रंप ने अपने कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में जिन तीन जजों को नियुक्त किया था उन्होंने 1973 के ‘रो बनाम वेड केस’ में दिए गए उस फैसले को पलट दिया था जिसमें गर्भपात को संवैधानिक अधिकार बना दिया गया था।
कमला हैरिस को देश की दक्षिणी सीमा पर आप्रवासियों की भीड़ को नियंत्रित करने का जि़म्मा दिया गया था। उन्होंने वहां उन इलाकों में अरबों डॉलर का निजी निवेश कराया ताकि लोगों को उत्तर की ओर आने से रोका जाएगा।
2023 के आखऱि में मैक्सिको से रिकॉर्ड संख्या से आप्रवासी सीमा पार कर अमेरिका में घुसे। लेकिन अब ये तादाद कम हुई है।
मौजूदा प्रचार अभियान के दौरान हैरिस ने दक्षिण अमेरिकी देशों से अमेरिका में आने वाले आप्रवासियों के मामले में कड़ा रुख़ अपनाया है।
उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग को रोकने में कैलिफोर्निया का उनका अभियोजक का बैकग्राउंड काफी काम आएगा।
जबकि ट्रंप ने कथित अवैध आप्रवासियों को रोकने के लिए बॉर्डर को सील करने का वादा किया है और सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ाने की वकालत की है। लेकिन उन्होंने रिपब्लिकन समर्थकों से हैरिस समर्थित कड़े और क्रॉस-पार्टी बॉर्डर बिल को समर्थन न देने की अपील की है।
उन्होंने कहा कि वो जीते तो अमेरिका के इतिहास में बगैर दस्तावेज़ों वाली अब तक की सबसे बड़ी आप्रवासी आबादी को वापस भेजा जाएगा।
हालांकि विशेषज्ञों ने बीबीसी को बताया कि अगर ट्रंप ने ऐसा किया तो इसे अदालत में चुनौती मिल सकती है।
टैक्स
कमला हैरिस बड़ी कंपनियों, उद्योगों और साल भर में चार लाख डॉलर कमाने वाले अमेरिकियों पर टैक्स बढ़ाना चाहती हैं।
लेकिन उन्होंने मतदाताओं से ऐसे कई क़दम उठाने का वादा किया है जिनसे अमेरिकी परिवारों पर टैक्स का बोझ कम होगा।
इनमें चाइल्ड टैक्स क्रेडिट का दायरा बढ़ाने जैसा क़दम भी शामिल है।
दूसरी ओर ट्रंप ने खरबों डॉलर की टैक्स कटौती के कई प्रस्ताव रखे हैं।
ट्रंप के मुताबिक़ 2017 में उनकी सरकार ने जो टैक्स कटौतियां की थीं उन्हें विस्तार दिया गया था। इन कटौतियों से ज्यादातर अमीरों को ही मदद मिली थी।
विश्लेषकों का कहना है कि हैरिस और ट्रंप दोनों के टैक्स प्लान से राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।
लेकिन सरकारी खजाने पर ट्रंप की योजना हैरिस की योजना से ज़्यादा बोझ डालेगी।
विदेश नीति
हैरिस ने कहा है कि रूस के साथ युद्ध में यूक्रेन को दी जाने वाली उनकी मदद जारी रहेगी।
उन्होंने ये भी कहा कि अगर वो जीतीं तो ये सुनिश्चित करेंगी कि 21वीं सदी अमेरिका की हो चीन की नहीं।
हैरिस इसराइल-फिलस्तीन मुद्दे पर लंबे समय से दो देशों के सिद्धांत की समर्थक रही हैं। उन्होंने कहा कि गाजा में जल्द से जल्द युद्ध ख़त्म हो।
जबकि ट्रंप अलग-थलग विदेश नीति के पैरोकार हैं। वो चाहते हैं कि अमेरिका दुनिया में कहीं भी होने वाले संघर्षों से खुद को दूर रखे।
उन्होंने कहा है कि वह रूस से सौदेबाजी कर यूक्रेन युद्ध को 24 घंटे में खत्म करा देंगे।
जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी का कहना है कि इससे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और मजबूत होंगे।
ट्रंप ने खुद को इसराइल के कट्टर समर्थक के तौर पर पेश किया है
लेकिन इस बारे में बहुत कम बताया है कि वो गज़़ा युद्ध को कैसे ख़त्म कराएंगे।
व्यापार
हैरिस ने हर आयात पर टैरिफ लगाने की ट्रंप की नीति की आलोचना की है। उन्होंने उसे एक नेशनल टैक्स करार दिया है, जिसका देश के परिवार पर सालाना चार हजार रुपये का बोझ पड़ेगा।
हैरिस भी आयात पर टैरिफ लगा सकती हैं लेकिन वो इस मामले में चुनिंदा चीजों पर ये टैक्स लागू करना चाहेंगी।
ट्रंप ने टैरिफ को अपने चुनाव प्रचार अभियान का प्रमुख नारा बनाया है। उन्होंने कहा है कि वो विदेश से आने वाली चीजों पर 10 से 20 फीसदी टैरिफ लगाएंगे। जबकि चीन से आने वाले सामान पर इससे भी ज्यादा टैरिफ लगाया जाएगा।
जलवायु परिवर्तन
बतौर उप राष्ट्रपति कमला हैरिस ने महंगाई घटाने वाला कानून पारित कराने में मदद की। इन्फ्लेशन रिडक्शन एक्ट की वजह से सैकड़ों अरब डॉलर रिन्युबल एनर्जी सेक्टर, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स टैक्स क्रेडिट और रिबेट प्रोग्राम के मद में दिए गए।
लेकिन उन्होंने फ्रैकिंग का विरोध छोड़ दिया है। फ्रैकिंग गैस और तेल निकालने की तकनीक है, जिसका पर्यावरणवादी विरोध कर रहे हैं।
जबकि राष्ट्रपति रहते हुए ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण के सैकड़ों नियमों को वापस ले लिया था। इनमें बिजली संयंत्रों और वाहनों से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में कटौती का क़ानून भी शामिल था।
अपने मौजूदा प्रचार अभियान में उन्होंने आर्कटिक में ड्रिलिंग बढ़ाने का वादा किया है। उन्होंने इलेक्ट्रिक कारों को निशाना बनाया है।
हेल्थकेयर
हैरिस उस व्हाइट हाउस प्रशासन का हिस्सा रही हैं जिसने डॉक्टरों की लिखी दवाइयों के दाम घटा दिए थे और इंसुलिन की कीमत 35 डॉलर तय कर दी थी।
जबकि ट्रंप ने कहा है कि अपने राष्ट्रपति रहते उन्होंने जिस अफोर्डेबल केयर एक्ट को खत्म किया था उसे दोबारा बहाल नहीं करेंगे। इस कानून से लाखों लोगों का मेडिकल इंश्योरेंस होता था।
उन्होंने कहा कि फर्टिलिटी ट्रीटमेंट के लिए टैक्स पेयर का पैसा खर्च होगा। लेकिन संसद में इस तरह की योजना का रिपब्लिकन ही विरोध करेंगे।
अपराध
हैरिस ने अपने अभियोजक होने के अनुभव की तुलना ट्रंप के एक अपराध के लिए दोषी पाए जाने के तथ्य से करने की कोशिश की।
जबकि ट्रंप ने ड्रग्स कार्टेल को खत्म करने और गैंग्स के बीच होने वाली हिंसा को कुचलने की कसम खाई है।
उनका कहना है कि वो डेमोक्रेटिक पार्टी के शासन वाले शहरों को नई शक्ल देंगे। ट्रंप मानते हैं कि इन शहरों में जमकर अपराध होते हैं। (www.bbc.com/hindi)
- हेमलता शाक्यवल
हमारे देश में लडक़ा और लडक़ी के बीच अंतर आज भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। वैसे तो यह अंतर सभी जगह नजऱ आता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी स्लम बस्तियों के सामाजिक परिवेश में किशोर और किशोरियों के बीच किया जाने वाला भेदभाव अपेक्षाकृत अधिक होता है। बात चाहे शिक्षा की हो या स्वास्थ्य की, प्रत्येक क्षेत्र में लडक़ा और लडक़ी के बीच किया जाने वाला भेदभाव स्पष्ट तौर पर नजऱ आता है। एक ओर जहां उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता है तो वहीं दूसरी ओर लडक़ों की तुलना में लड़कियों को पोषणयुक्त आहार कम उपलब्ध हो पाता है। जिसके कारण किशोरावस्था में ही उनमें कुपोषण और एनीमिया के बहुत अधिक लक्षण पाए जाते हैं।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में किशोरियों और महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) का होना बहुत आम है। एनएफएचएस-5 डेटा के अनुसार भारत में प्रजनन आयु वर्ग की 57 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीडि़त होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत, दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां लगभग 20 प्रतिशत किशोर आबादी निवास करती है। जिनकी आयु 10 से 19 वर्ष के बीच है। इनमें लगभग 12 करोड़ किशोरियां हैं। इनमें से 10 करोड़ से अधिक किशोरियां एनीमिया से पीडि़त हैं। जो उनमें विकास को पूरी तरह से प्रभावित करता है। उनमें जीवन जीने की क्षमता को सीमित कर देता है। किशोरियों में कुपोषण के कई कारण होते हैं। जिनमें गरीबी, सही पोषण न मिलना, पराया धन समझना, लडक़ी को बोझ समझना, उन्हें शिक्षा से वंचित रखना, बाल विवाह होना और कम उम्र में मां बनना ऐसे प्रमुख कारक हैं जो उनके विकास की क्षमता को प्रभावित करता है।
ग्रामीण क्षेत्रों के साथ साथ बाबा रामदेव नगर जैसे देश के शहरी स्लम बस्तियों की किशोरियों का भविष्य भी इन्हीं कारकों से जुड़ा हुआ है। राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित इस स्लम बस्ती की आबादी लगभग 500 से अधिक है। न्यू आतिश मार्केट मेट्रो स्टेशन से 500 मीटर की दूरी पर आबाद इस बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े समुदायों की बहुलता है। जिसमें लोहार, जोगी, कालबेलिया, मिरासी, रद्दी का काम करने वाले, फक़ीर, ढोल बजाने और दिहाड़ी मज़दूरी करने वालों की संख्या अधिक है। यहां रहने वाले सभी परिवार बेहतर रोजग़ार की तलाश में करीब 20 से 12 वर्ष पहले राजस्थान के विभिन्न दूर दराज़ के ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास करके आये हैं। इनमें से कुछ परिवार स्थाई रूप से यहां आबाद हो गया है तो कुछ मौसम के अनुरूप पलायन करता रहता है। इसका सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव किशोरियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर होता है। वहीं उन्हें बोझ और पराया धन समझने की प्रवृत्ति भी उनके समग्र विकास में बाधा बन रही है।
इस संबंध में बस्ती की 16 वर्षीय किशोरी सांची बताती है कि उसके माता-पिता दोनों दैनिक मज़दूरी करते हैं। घर की देखभाल के नाम पर पांचवीं के बाद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई। अब वह घर में छोटी बहन और भाइयों की देखभाल करती है। उनके लिए खाना पकाती है और कपड़े धोती है। हालांकि उसे पढ़ लिख कर डॉक्टर बनने का शौक था। वह पांचवीं तक सभी क्लास में अच्छे नंबर लाती रही है। इसके बावजूद उसकी पढ़ाई छुड़वा दी गई। वह कहती है कि ‘उसके पिता अक्सर उसे पराया धन कहते हैं और पढऩे से अधिक घर का कामकाज सीखने पर ज़ोर देते हैं। उसकी जल्द शादी कर देने की बात करते रहते हैं। सांची कहती है कि इस बस्ती में 14 से 16 वर्ष की आयु में लड़कियों की शादी हो जाना आम बात है। दुबला पतला शरीर और आंखों में पीलापन के कारण सांची स्वयं कुपोषण से ग्रसित नजऱ आ रही थी।
वहीं 55 वर्षीय गीता बाई राणा कहती हैं कि बाबा रामदेव नगर में बालिकाओं के प्रति बहुत अधिक नकारात्मक सोच विधमान है। अभिभावक उन्हें पढ़ाने से अधिक उनकी शादी की चिंता करते हैं। इसलिए उन्हें बहुत अधिक नहीं पढ़ाया जाता है। इस बस्ती की कोई भी लडक़ी अभी तक 10वीं तक भी नहीं पढ़ सकी है। पढ़ाई छुड़वा कर उन्हें घर के कामों में लगा दिया जाता है। लडक़ों की तुलना में उन्हें बहुत अच्छा खाना भी खाने को नहीं मिलता है। इसलिए यहां की लगभग सभी किशोरियां एनीमिया से पीडि़त नजऱ आती हैं। जो आगे चल कर उनकी गर्भावस्था में कठिनाइयां उत्पन्न करता है और मृत्यु दर को बढ़ाता है। गीता बाई कहती हैं कि इस बस्ती की कई लड़कियों को उन्होंने प्रसव के दौरान कठिनाइयों से गुजऱते देखा है। यह उनकी कम उम्र में शादी और खून की कमी के कारण होता है। वह कहती हैं कि चूंकि इस बस्ती में बहुत ही गरीब परिवार रहता है। घर की आर्थिक स्थिति का नकारात्मक प्रभाव लडक़ों की तुलना में लड़कियों के भविष्य पर पड़ता है। इससे न केवल उनकी शिक्षा बल्कि शारीरिक और मानसिक विकास भी रुक जाता है। इस तरह सबसे पहले वह शिक्षा से वंचित कर दी जाती हैं।
इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019-21 में किए गए पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के मुताबिक, देश में 10-19 उम्र की हर पांच किशोरियों में से तीन एनीमिया की शिकार हैं जबकि लडक़ों के मामले में यह आंकड़ा 28त्न है। वहीं लडक़ों की तुलना में लड़कियों में मानसिक तनाव के शिकार होने की घटनाएं ज्यादा पाई गई है। वहीं शिक्षा की अगर बात करें तो अभी भी बड़ी संख्या में किशोरियां स्कूल से बाहर हैं।
साल 2021-22 में जहां देश में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोडऩे की दर 1.35त्न है, वहीं माध्यमिक स्तर पर यह बढक़र 12.25त्न हो गई है। कोरोना महामारी के बाद भारत की किशोरियों की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित हुई है। लड़कियों की एक बड़ी संख्या न केवल शिक्षा से वंचित हुई है बल्कि बाल विवाह में भी बढ़ोतरी देखी गई थी। हालांकि अब इसमें कुछ कमी आई है लेकिन बाबा रामदेव नगर जैसी बस्तियों में रहने वाली किशोरियों का भविष्य अभी भी उज्जवल होने की राह तक रहा है। शहर में होने के बावजूद इस बस्ती की किशोरियों का भविष्य स्कूल से दूर है। (चरखा फीचर्स)
-अमिताभ पाराशर
दाई सीरो देवी रोते हुए मोनिका थट्टे से लिपट गईं। 30 की उम्र के करीब पहुंच रहीं मोनिका उस जगह लौटी हैं, जहां वो पैदा हुई थीं।
उस भारतीय शहर में, जहां सीरो देवी ने सैकड़ों बच्चे पैदा करवाए थे। लेकिन ये कोई सहज पुनर्मिलन नहीं था। सीरो के आंसुओं के पीछे दर्द भरा इतिहास है।
मोनिका के जन्म के कुछ समय पहले तक सीरो देवी और उनकी जैसी कई दाइयों पर इस बात का लगातार दबाव रहता था कि वो नवजात बच्चियों को मार डालें।
सबूत बताते हैं कि मोनिका उन बच्चियों में शामिल थीं, जिन्हें उन्होंने बचाया था।
मैं सीरो देवी की कहानी को पिछले 30 सालों से फॉलो कर रहा हूं। ये 1996 की बात है जब मैंने बिहार जाकर सीरो देवी और उनकी जैसी ग्रामीण इलाकों में काम करने वाली चार और दाइयों का इंटरव्यू किया था।
एक एनजीओ ने इस बात का पता लगाया था कि बिहार के कटिहार जि़ले में नवजात बच्चियों की मौत में इन दाइयों का हाथ था। ये दाइयां माता-पिता के दबाव में आकर उनकी नवजात बच्चियों की हत्या कर रही थीं।
अमूमन उन्हें केमिकल चटा कर या फिर उनकी गर्दन मरोड़ कर मारा जा रहा था।
मैंने जिन दाइयों का इंटरव्यू किया था, उनमें सबसे उम्रदराज़ थीं हकिया देवी। उन्होंने मुझे उस समय बताया था कि उन्होंने 12-13 बच्चियों को मार दिया था।
एक और दाई धरमी देवी ने यह स्वीकार किया था कि उन्होंने इससे ज़्यादा यानी कम से कम 15-20 बच्चियों को मारा है।
हालांकि जिस तरह से आंकड़े जुटाए गए थे, उससे ये बताना मुश्किल है कि आखिर ऐसी कितनी बच्चियों को मारा गया होगा।
मगर 1995 में एक एनजीओ की रिपोर्ट में उनकी और उनकी जैसी 30 दाइयों के इंटरव्यू के आधार पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई। अगर इस रिपोर्ट का आकलन सटीक माना जाए तो सिर्फ 35 दाइयां ही हर साल एक जिले में एक हजार से अधिक बच्चियों को मार रही थीं।
उस रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में उस समय 5 लाख से ज़्यादा दाइयां काम करती थीं और शिशु हत्या सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं थी।
हकिया देवी ने बताया था किसी भी दाई के लिए नवजात बच्ची को मार देने का आदेश मानने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। (बाकी पेज 8 पर)
हकिया देवी ने बताया, ‘परिवार कमरा बंद कर हमारे पीछे डंडे लेकर खड़ा हो जाता था। फिर वो कहते हमारी पहले से चार-पांच बेटियां हैं। हमारी सारी जमा-पूंजी इन्हीं पर खत्म हो जाएगी। चार लड़कियों को दहेज देने के बाद हमारे सामने भूखों मरने की नौबत आ जाएगी। अब एक और लडक़ी पैदा हो गई है। मार दो इसे।’
उन्होंने मुझे बताया, ‘हम किससे शिकायत करते? हमें डर था। अगर हम पुलिस के पास जाते तो फँस जाते। और अगर हम इसके खिलाफ आवाज़ उठाते तो हमें गांव के लोग धमकाते।’
वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ पाराशर 1990 के दशक में दाइयों से किए गए उस असाधारण इंटरव्यूज को देखते हुए। कमरे में अंधेरा था और उनके चेहरे पर स्क्रीन की रोशनी थी।
इमेज कैप्शन,अमिताभ 1990 के दशक में दाइयों से किए गए उन असाधारण इंटरव्यूज़ को देखते हुए।
ग्रामीण भारत में दाइयों की भूमिका परंपरा की जड़ में है। ये गरीबी और जाति की कठोर सच्चाइयों के बोझ से दबी है। मैंने जिन दाइयों के इंटरव्यू किए वो भारत की जाति व्यवस्था में निचली जातियों से आती हैं।
ये दाइयां बच्चे पैदा करवाने का ये काम अपनी मां और दादी-नानी से सीखती थीं। वे एक ऐसी दुनिया में रहती थीं, जहां ताक़तवर और ऊंची जाति के परिवारों के आदेश का पालन न करने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी।
एक दाई को किसी बच्ची को मारने के एवज में एक साड़ी, एक बोरी अनाज या फिर कुछ पैसे देने का वादा किया जाता था। लेकिन कभी-कभी ये भी नहीं मिलता था। लडक़ा पैदा होने पर एक हजार रुपये दिए जाते थे, जबकि लडक़ी पैदा होने पर 500 रुपये।
उन्होंने बताया कि इस असंतुलन की जड़ें भारत में दहेज लेने-देने की परंपरा में है। हालांकि दहेज लेन-देन की प्रथा को 1961 में गैर-क़ानूनी बना दिया गया।
मगर 1990 के दशक में भी दहेज लेने-देने की प्रथा मजबूत बनी हुई थी और आज भी ये बदस्तूर जारी है।
दहेज के तौर पर कुछ भी हो सकता है। जैसे- नकदी, गहने, बर्तन वगैरह। लेकिन कई परिवारों के लिए चाहे वो अमीर हो या गऱीब, दहेज शादी की शर्त होती है।
यही वो वजह है कि कइयों के लिए आज भी बेटे का जन्म उत्सव है और बेटी का जन्म एक आर्थिक बोझ।
जिन दाइयों का मैंने इंटरव्यू किया, उनमें सीरो देवी अभी भी जीवित हैं। उन्होंने लडक़ी और लडक़े के बीच इस असमानता को समझाने के लिए एक उदाहरण का सहारा लिया।
उन्होंने कहा, ‘लडक़े का दर्जा ऊपर है। लडक़ी का नीचा। बेटा भले ही अपने मां-बाप का ख़्याल न रखे लेकिन सब बेटा ही चाहते हैं।’
भारत में राष्ट्रीय स्तर के आंकड़ों में बेटे को दी जाने वाली तवज्जो दिख सकती है।
सबसे हालिया, 2011 की जनगणना में देश में प्रति 1000 पुरुषों में 943 महिलाओं का अनुपात था।
1990 के दशक यानी 1991 की जनगणना के मुकाबले यह फिर भी ठीक था। तब यह अनुपात एक हजार पुरुषों के मुकाबले 927 महिलाओं का था।
1996 तक जब मैंने इन दाइयों के सबूतों को फिल्माना ख़त्म किया, तब तक एक मौन बदलाव शुरू हो गया था। पहले बच्चियों को मारने का आदेश चुपचाप सुन लेने वाली दाइयों ने अब इसका प्रतिरोध करना शुरू कर दिया था।
इस बदलाव के लिए उन्हें अनिला कुमारी ने प्रेरित किया था। वो एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जो उन दिनों कटिहार के आसपास की महिलाओं की मदद कर रही थीं। अनिला कुमारी नवजात बच्चियों की हत्या की असल वजहों को ख़त्म करने के लिए समर्पित थीं।
अनिला का तरीका आसान था। वो इन दाइयों से पूछतीं- क्या तुम अपनी बेटी के साथ भी यही करती?
सालों से जिन चीज़ों को स्वीकार कर लिया गया था, इस सवाल से उस सोच को झटका लगा।
इन दाइयों को सामुदायिक समूहों के जरिए कुछ वित्तीय मदद मिली। फिर धीरे-धीरे हिंसा का ये चक्र बाधित हो गया था।
सीरो देवी ने 2007 में बात करते हुए मुझे इस बदलाव के बारे में समझाया था।
उन्होंने बताया था, ‘अब कोई मुझसे बच्ची को मारने को कहता है तो मैं उनको कहती हूं कि देखो, बच्ची मुझे दे दो। मैं उसको अनिला मैडम के पास ले जाऊंगी।’
उन दाइयों ने उन परिवारों के कम से पांच नवजात बच्चियों को बचाया था जो या तो उन्हें मरवाना चाहते थे या फिर उन्होंने उन्हें छोड़ दिया था।
एक बच्ची तो बच नहीं पाई। लेकिन अनिला ने चार बच्चियों को पटना के एक एनजीओ को भिजवा दिया। वहां उस एनजीओ ने उन बच्चियों को गोद देने की व्यवस्था कर दी।
यह कहानी यहीं खत्म हो सकती थी। मगर, मैं जानना चाहता था कि उन बच्चियों का क्या हुआ, जिन्हें बचा कर गोद दे दिया गया था। जिंदगी उनको कहां ले कर चली गई थी।
अनिला के रिकॉर्ड बड़ी ही सावधानी और तफसील से बने थे। लेकिन गोद दिए गए बच्चों की बाद की जिंदगी के बारे के बारे में ब्योरे कम थे।
बाद में मेरा परिचय मेधा शेखर नाम की एक महिला से हुआ। वो नब्बे के दशक में बिहार में भ्रूण हत्या पर रिसर्च कर रही थीं। ये वही वक्त था जब अनिला और दाइयों की बचाई गई बच्चियां एनजीओ पहुंचाई जा रही थीं।
आश्चर्यजनक रूप से मेधा अभी भी एक युवा महिला के संपर्क में थीं, जिनके बारे में उन्हें विश्वास था कि वो उन बचाई गई बच्चियों में से एक हैं।
अनिला ने मुझे बताया कि दाइयों की ओर से बचाई गई सभी बच्चियों को नाम दिए जाने से पहले ही उन्होंने उनके नाम के आगे कोसी जोड़ दिया था। ये बिहार की नदी कोसी को दी गई उनकी श्रद्धांजलि थी।
मेधा को याद है कि मोनिका के नाम के आगे भी ‘कोसी’ उपनाम जोड़ा गया था। यह उसको गोद लिए जाने से पहले की बात है।
गोद देने वाली एजेंसी हमें मोनिका के रिकॉर्ड नहीं देखने देती। लिहाजा हमारे पास उनकी असली पहचान जानने को कोई ज़रिया नहीं हो सकता था।
लेकिन उनके मूल स्थान पटना, उनकी जन्मतिथि की नजदीक की तारीखों और नाम से पहले ‘कोसी’ का जुड़ा होना- हमें उसी समान निष्कर्ष की ओर से ले गया। और वो ये कि वो संभवत: उन पांच बच्चियों में से एक हैं जिसे अनिला और दाइयों ने बचाया था।
जब मैं उनसे (मोनिका) मिलने 2000 किलोमीटर दूर पुणे पहुंचा था तो उन्होंने कहा था कि वो खुशकिस्मत हैं कि एक प्यारे परिवार ने उन्हें गोद लिया।
लाल और सफेद कुर्ते में बैठी मोनिका अपने पिता की ओर झुकी हुईं। क्रीम रंग की शर्ट पहने इसी शख़्स ने उन्हें गोद लिया था।
उन्होंने कहा, ‘एक सामान्य खुशहाल जिंदगी की मेरी परिभाषा यही है और मैं ये जि़ंदगी जी रही हूं।’
मोनिका जानती थीं कि उन्हें बिहार से गोद लिया गया था। लेकिन हम मोनिका को उन्हें गोद दिए जाने की परिस्थितियों के बारे में ज्यादा ब्योरे दे पाए थे।
इस साल की शुरुआत में मोनिका ने अनिला और सीरो देवी से मुलाकात करने के लिए बिहार की यात्रा की।
मोनिका ख़ुद को अनिला और उन दाइयों जैसी महिलाओं के कठिन परिश्रम की परिणति के तौर पर देख रही थीं।
मोनिका ने कहा, ‘इम्तिहान में अच्छा करने के लिए जैसे कोई काफी तैयारी करता है, मैं वैसा ही महसूस कर रही थी। उन्होंने कड़ी मेहनत की थी और नतीज़ा देखने के लिए इतनी उत्सुक थीं। निश्चित तौर पर मैं उन लोगों से मिलना चाहती थी।’
मोनिका से मिलने के वक्त अनिला की आंखों में खुशी के आंसू थे। लेकिन सीरो की प्रतिक्रिया कुछ अलग तरह की थी।
उन्होंने मोनिका को गले लगाया और जोर-जोर से सुबकने लगीं। वो मोनिका के बालों में कंघी करने लगीं।
उन्होंने कहा, ‘तुम्हारी जिंदगी बचाने के लिए मैं तुम्हें एक अनाथालय ले गई थीज् अब मेरी आत्मा को शांति मिली है।’ लेकिन ये बात अभी ख़त्म नहीं हुई है। अभी भी कुछ लोगों के मन में बच्चियों के लिए पूर्वाग्रह है।
शिशु हत्या की ख़बरें तुलनात्मक तौर पर अब दुर्लभ हैं। लेकिन लिंग के आधार पर भ्रूण हत्या के मामले अब भी देखने को मिल जाते हैं, इसके बावजूद कि सरकार ने 1994 में ही इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया था
उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में बच्चों के जन्म के समय गाए जाने वाले लोक गीत सोहर को कोई सुने तो पता चलेगा जन्म की खुशियां सिफऱ् लडक़ों के लिए सुरक्षित रखी गई हैं।
साल 2024 में भी स्थानीय गायकों को गानों के बोल बदलवाने की कोशिश करनी पड़ती है ताकि बच्चियों के पैदा होने की खुशी झलके।
जब हम अपनी डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग कर रहे थे, तब कटिहार में दो नवजात बच्चियां मिली थीं।
इनमें से एक बच्ची को झाडिय़ों में जबकि दूसरी को सडक़ किनारे छोड़ दिया गया था। दोनों बच्चियों को जन्म लिए कुछ घंटे हुए थे। बाद में उनमें से एक की मौत हो गई थी, जबकि दूसरी को गोद लिए जाने के लिए भेज दिया गया था।
मोनिका ने बिहार छोडऩे से पहले कटिहार के स्पेशल अडॉप्शन सेंटर में इस बच्ची को जाकर देखा।
उसने बताया कि वह इस अहसास से ही डर गई थीं कि शिशु हत्या भले ही कम हो गई हो लेकिन अभी भी बच्चियों को जन्म के बाद छोड़ दिया जाना जारी है।
‘यह एक चक्र है। मैं देख सकती हूं कि कुछ साल पहले मैं जिस जगह थी, आज कोई और लडक़ी मेरी जैसी स्थिति में है।’
मगर, कुछ ऐसी समानताएं भी थीं, जिन्हें लेकर खुश हुआ जा सकता है।
उस बच्ची को उत्तर-पूर्वी राज्य असम के एक दंपति ने गोद लिया था। उन्होंने उसे ईधा नाम दिया था। जिसका मतलब है खुशी।
उसे गोद लेने वाले पिता गौरव ने बताया, '' हमने उसकी फोटो देखी और हमने तय कर लिया कि एक बच्ची को एक बार छोड़ दिया गया। उसे दूसरी बार नहीं छोड़ा जा सकता है।''
गौरव भारतीय वायु सेना में एक अधिकारी हैं।
हर कुछ हफ्तों में गौरव मुझे उस बच्ची का नया वीडियो भेजते हैं। कुछ मौकों पर मैं उन वीडियो को मोनिका के साथ भी साझा करता हूं।
पीछे मुडक़र देखता हूं तो लगता है कि इस कहानी पर 30 साल खर्च करना सिर्फ अतीत का आख्यान नहीं है।
ये परेशान करने वाली सच्चाइयों से रूबरू होना था। अतीत की गलतियों को मिटाया नहीं जा सकता। लेकिन अब बदलाव संभव है। इस बदलाव में ही उम्मीद है। (www.bbc.com/hindi)
-नीरजा चौधरी
आधी सदी तक कम्युनिस्ट रहने के बावजूद सीताराम येचुरी के बारे में कुछ भी सिद्धांतवादी या हठधर्मी नहीं था। वे हमेशा एक मिलनसार व्यक्तित्व वाले शख्स थे।
उन्होंने 1975 में कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन की। इसी साल देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की और येचुरी को जेल जाना पड़ा।
वहां से शुरू हुआ सियासी सफर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनने तक पहुँचा। वे 2015 से पार्टी की अगुवाई कर रहे थे।
सीताराम 1992 से पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य थे। कम्युनिस्ट होते हुए भी वो एक सेंटरिस्ट नेता की तरह थे जिन्हें थोड़ा उदारवादी और बीच का रास्ता अपनाने वाला माना जाता था।
गुरुवार को 72 वर्ष की आयु में दिल्ली के एम्स अस्पताल में एक लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया है।
जब मैं सीताराम येचुरी के बारे में सोचती हूँ तो मेरे मन कई ख़्याल आते हैं। वह एक विद्वान, विचारशील, पढ़े-लिखे, लेखक थे जो लगातार विचारों से जूझते रहते थे।
जब 1977 में उन्होंने दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र संघ का चुनाव जीता तो कैंपस में काफ़ी उथल-पुथल मची हुई थी। उन दिनों में वो जनरल बॉडी मीटिंग बुलाते और भोर तक चर्चाओं का दौर चलता।
एक मंझे हुए स्पीकर की हैसियत से वे अपने सुनने वालों का मूड भांप लेते थे और लगातार ये समझने की कोशिश करते थे कि लोगों को अपने विचारों से सहमत करवाने के लिए उन्हें क्या कहना है।
जब येचुरी जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष थे, तब सी राजा मोहन महासचिव हुआ करते थे।
वह कहते हैं, ‘वो जटिल मुद्दों को संभालने की काबिलियत रखते थे और बहुत अच्छें संयोजक थे लेकिन सबसे पहले वो एक ऐसे शख़्स थे जो लोगों का दिल जीतना जानते थे।’
भारत जैसे गरीब और विकासशील देश में उनकी पार्टी कभी भी मुख्यधारा की ताकत नहीं बन पाई। उनकी पार्टी मुख्य रूप से तीन राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा को छोडक़र बाकी राज्यों में सफल क्यों नहीं हुई ये अभी तक जारी एक बहस का हिस्सा है। इसके बावजूद येचुरी को केवल समावेशी भारत के लिए प्रतिबद्ध एक प्रमुख वामपंथी नेता के तौर पर ही याद नहीं किया जाएगा।
उन्हें इस देश की राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले लीडर के तौर पर भी याद किए जाएगा। ख़ास तौर पर बीजेपी का विकल्प गढऩे के लिए 1989-2014 के बीच बने कई गठबंधनों में उनकी भूमिका थी।
दोस्तों के बीच ‘सीता’ कहकर पुकारे जाते थे येचुरी
दूसरे सियासी दलों से मतभेद के बावजूद अलग-अलग राजनीतिक दलों से दोस्ती करने में माहिर सीताराम येचुरी को कभी-कभी ‘एक और हरकिशन सिंह सुरजीत’ के रूप में जाना जाता था।
पंजाब से आने वाले सुरजीत 1992 से 2005 तक सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी थे। उनके राजनीतिक कौशल और पर्दे के पीछे के कदमों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को 1989 में कांग्रेस के एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खड़ा किया था।
सुरजीत ने साल 1996 में तीसरे मोर्चे की सरकार को सत्ता में लाने में मदद की और साल 2004 में एक बार फिर भाजपा को सत्ता से दूर रखने में भूमिका निभाई।
येचुरी अपने दोस्तों और सहयोगियों के बीच में ‘सीता’ नाम से पुकारे जाते थे।
सुरजीत की ही तरह इन्होंने भी 1996 में संयुक्त मोर्चा के बनने में अहम भूमिका निभाई थी। साथ ही 2004 में यूपीए गठबंधन और 2023 में बनने वाले इंडिया गठबंधन को तैयार करने में मदद की।
वो इंडिया गठबंधन जिसने 2024 के चुनाव में बीजेपी को अपने बूते बहुमत तक पहुँचने से रोका।
जब येचुरी ने सुनाया सीपीएम की ऐतिहासिक गलती वाला कि़स्सा
सीताराम येचुरी ने साल 1996 और 2004 में यूनाइटेड फ्रंड और यूपीए सरकारों के लिए साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करने में मदद की।
बाद के सालों में उन्होंने सीपीआई (एम) की उस ‘ऐतिहासिक गलती’ की कहानी सुनाई जो साल 1996 में की गई थी।
उन्होंने याद दिलाया कि आखिर कैसे और क्यों पार्टी ने साल 1996 में कैसे भारत का पहला माक्र्सवादी प्रधानमंत्री बनने देने का मौका गंवा दिया।
उस दौर में बीजेपी संसद में बहुमत हासिल करने में नाकाम रही थी और संयुक्त मोर्चा के नेता सरकार बनाने के लिए तैयार थे और उन्होंने सीपीआई (एम) नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के तौर पर नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन पार्टी की शीर्ष केंद्रीय समिति ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, जिसे बाद में बसु ने एक ‘ऐतिहासिक गलती’ के रूप में बताया था।
येचुरी उन तीन चौथाई सदस्यों में शामिल थे जिन्होंने इस कदम का विरोध किया था, लेकिन ये पता नहीं है कि उन्होंने बाद के सालों में अपनी राय बदली थी या नहीं।
लेकिन वो सुरजीत, ज्योति बसु के साथ कर्नाटक भवन पहुंचे थे, जहां पर संयुक्त मोर्चा के नेता जैसे देवगौड़ा, चंद्रबाबू नायडू, लालू यादव बेचैनी से जवाब का इंतजार कर रहे थे।
असहमतियों के बावजूद पार्टी के साथ चले
सीताराम येचुरी ने संसद में भी अपनी छाप छोड़ी। वह 12 सालों तक राज्यसभा में रहे, उन्हें उनके बेहतरीन भाषणों के लिए याद किया जाता है, ऐसे में उन्हें न केवल एक कुशल सांसद के तौर याद किया जाता है, बल्कि बीजेपी के ख़िलाफ़ पार्टियों के बीच फ्लोर पर समन्वय बनाने के लिए भी वो याद किए जाते हैं।
उन्हें वो नियम पता थे, जिनके तहत वे मुद्दा उठाए जा सकते थे, जिन्हें वह उठाना चाहते थे।
जब उनका दूसरा कार्यकाल ख़त्म हुआ तो अलग-अलग दलों के कई सांसदों ने एकजुट होकर चाहा कि उनकी पार्टी उन्हें फिर से नामित कर दे।
पार्टी के एक अनुशासित सिपाही के तौर पर कई बार वह असहमतियों को बावजूद पार्टी के फैसलों के साथ चलते थे। मसलन वे भारत-अमेरिका के बीच परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह की सरकार से वामपंथी दलों का समर्थन वापस लेने के ख़िलाफ़ थे। ये ऐसा मुद्दा था जिसपर तत्कालीन प्रधानमंत्री अपनी सरकार को ख़तरे में डालने के जोखिम के बावजूद भी आगे बढऩा चाहते थे। अपने सहयोगी और तत्कालीन सीपीएम महासचिव प्रकाश करात से येचुरी के मतभेद भी जगज़ाहिर थे।
करात और येचुरी प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी एक-दूसरे के सहयोगी थे। ये दोनों देश की आज़ादी के बाद देखी गई उन कई राजनीतिक जोडिय़ों में से एक थे, जिन्होंने भारत को एक तरह से आकार देने में मदद की। जैसे नेहरू-पटेल, और वाजपेयी-आडवाणी या फिर मोदी और शाह की तरह।
मुश्किल दौर में बने सीपीएम महासचिव
पहले सोनिया और फिर राहुल गांधी से उनका रिश्ता एक दोस्त और मार्गदर्शक जैसा था। राहुल गांधी ने तो येचुरी के साथ घंटों तक देश के भविष्य के लिहाज से गंभीर मुद्दों पर हुई चर्चाओं को याद भी किया।
साल 2004 से लेकर 2014 तक कांग्रेस ने यूपीए सरकार की अगुवाई की और उस दौरान जब भी कांग्रेस और वाम दलों के संबंधों में किसी गतिरोध की आशंका होती, तब सोनिया गांधी येचुरी की ओर मुड़तीं।
सीताराम येचुरी को सीपीआईएम के महासचिव पद की जि़म्मेदारी उस समय सौंपी गईं जब बीजेपी एक ताकतवर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश पर शासन करने आई थी और देश की राजनीति में बदलाव ला रही थी।
ये ऐसा समय था जब सीपीएम प्रासंगिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रही थी। लेकिन सीताराम येचुरी तेज़ी से बीजेपी को चुनौती दे सकने वाले सभी राजनीतिक ताकतों को इंडिया गठबंधन के तौर पर एक साझा मंच पर ला रहे थे।
येचुरी को भारत में विपक्ष को अहम क्षणों में एकजुट करने में उनकी भूमिका के लिए याद किया जाएगा। हालांकि, उनकी भूमिका पर्दे के पीछे अधिक रही।
इसलिए ऐसे समय में जब सीपीएम लंबे समय तक अपना साथ देने वाले कॉमरेड को अंतिम विदाई दे रही है, तब देश भी भारत के इस बेटे को ज़रूर याद करेगा।
एक ऐसी शख़्सियत जिसने देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को बनाए रखने और इस देश के गरीबों को एक नई सुबह देने के लिए काम किया। (www.bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
विवाह-परंपरा की शुरुआत कैसे हुई, इस बारे में एक दिलचस्प उडिय़ा आदिवासी लोककथा पढऩे को मिली। इस कथा के मुताबिक़ पुराने ज़माने में विवाह नाम की कोई संस्था नही थी। आपस में प्रेम करने वाले लडक़े-लडकियां स्वेच्छा से साथ रहने को स्वतंत्र थे। यह व्यवस्था कबीले के मुखिया और ओझा को नागवार गुजऱती थी। इससे उन्हें न कोई आर्थिक लाभ था और न दारू-मुर्गा की प्राप्ति होती थी। एक दिन दोनों ने मंत्रणा कर यह फैसला सुनाया कि कबीले के युवक-युवती अपनी मर्जी से साथ नहीं रह सकते। लडक़े को लडक़ी के साथ ओझा की देखरेख में ब्याह कर स्थायी रूप से साथ रहना होगा। और यह ब्याह भी तब होगा जब लडक़ा अपने भावी ससुर, मुखिया और ओझा को मदिरा और मुर्गे का भरपूर उपहार देकर खुश कर देगा। गांव के एक युवा ने इस आदेश का विरोध किया तो मुखिया ने उसका ब्याह अपनी बेटी से करने का आदेश सुना दिया।
एक दूसरी युवती को प्रेम करने वाला वह युवक ब्याह से बचने के लिए बरगद के एक खोखले पेड़ के भीतर जा छिपा। ओझा ने वधु के परिवार की औरतों से कहा कि इस खोखले वृक्ष में खूब हल्दी लगाओ, उसमें बहुत सारा पानी डालो और देर तक पंखा झलो। हल्दी, पानी और हवा के मिले-जुले असर से बेचारे लडक़े को इस कदर ठंढ लगी कि उसे बाहर आकर मुखिया का आदेश मान लेना पड़ा। ओझा ने मंत्र पढ़े और दोनों की शादी हो गई। तभी से शादी और शादी से पहले लडक़े और लडक़ी को हल्दी लगाने, नहलाने और पंखा झलने की प्रथा की शुरूआत हुई जो धीरे-धीरे लगभग समूचे देश में फैल गई।
उस उडिय़ा मुखिया और ओझा की कृपा थी कि हम सब ब्याह करने और हल्दी लगवाने के सुख-दुख आजतक भोग रहे हैं।
-मोहर सिंह मीणा
‘मैं उस समय 18 साल की थी और गाने की कैसेट लेने बाज़ार गई थी। मुझे याद है कि उस समय दोपहर के 12 बज रहे थे। वो मेरा पड़ोसी था और मुझे जानता था। उसने मेरे हाथ से दोनों कैसेट छीन लिए और भागने लगा। भागते-भागते हम खंडहर तक जा पहुंचे।
इस खंडहर में सात-आठ लोग पहले से मौजूद थे। उन्होंने मेरा मुंह, दोनों हाथ बांध दिए।
उन सभी ने मेरे साथ रेप किया और मेरी नग्न तस्वीरें खींची। रेप करने के बाद उन्होंने मुझे दो सौ रुपये देकर कहा कि लिपस्टिक-पाउडर खरीद लेना। मैंने पैसे लेने से इनकार कर दिया।
उस खंडहर में दो रास्ते थे, उन्होंने मुझे दूसरे दरवाज़े से बाहर निकाल दिया। उस समय शाम के चार बज चुके थे।’
इस बारे में बताते हुए संजना (बदला हुआ नाम) की आंखें नम हो गईं। संजना के हाथ कांप रहे थे और नजऱें झुकी हुई थीं।
संजना उन 16 सर्वाइवर में से एक हैं, जिनका राजस्थान के अजमेर में 1992 में रेप किया गया था।
रेप करने वालों ने इन लड़कियों को कई दिनों तक ब्लैकमेल किया। शहर में लड़कियों की नग्न तस्वीरों को बाँटा जाने लगा।
इन तस्वीरों का प्रिंट लैब से निकाला गया था। तस्वीरें यहीं से लीक हुईं।
मामले का पता कैसे चला
1992 के अप्रैल-मई महीने में दैनिक नवज्योति नाम के अख़बार ने इस मामले को उजागर किया और ख़बरें प्रकाशित करनी शुरू की।
इसी अख़बार में काम करने वाले पत्रकार संतोष गुप्ता बीबीसी हिंदी से कहते हैं, ‘ख़बर से कई महीने पहले से यह ब्लैकमेल करने का खेल चल रहा था। जिसकी जानकारी जि़ला पुलिस तंत्र से लेकर ख़ुफिय़ा विभाग और राज्य सरकार तक पहुंच चुकी थी, लेकिन सभी मौन थे।’
राज्य की तत्कालीन भैरो सिंह शेखावत सरकार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए जांच सीआईडी-क्राइम ब्रांच को सौंपी।
हाल ही में अजमेर की स्पेशल पॉक्सो कोर्ट ने इस मामले में नफ़ीस चिश्ती, नसीम उफऱ् टाजऱ्न, सलीम चिश्ती, इक़बाल भाटी, सोहेल गनी और सैयद ज़मीर हुसैन को दोषी मानते हुए उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई और पांच-पांच लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया।
इस मामले के 18 अभियुक्तों में से कुछ फऱार हैं। एक ने सुसाइड कर लिया, एक पर रेप का केस है। बाकी, सजा पूरी कर चुके हैं और कुछ जेल में हैं।
जो पड़ोसी संजना को खंडहर तक लेकर गया था उसका नाम कैलाश सोनी था और कोर्ट ने इस मामले में उन्हें भी उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी।
इस मामले में सरकारी वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ बताते हैं, ‘कैलाश सोनी को निचली कोर्ट से उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई थी और वो कऱीब आठ साल तक जेल में भी रहे। लेकिन, हाई कोर्ट ने कैलाश सोनी को दोषमुक्त कर दिया था।’
संजना कहती हैं कि वे एक गऱीब परिवार से थीं और वो लोग काफ़ी रसूख़ वाले थे। ये एक लंबी लड़ाई थी, न्याय मिला लेकिन देरी से।
इसके बाद संजना फूट-फूट कर रोने लगीं। इस बीच संजना के माता-पिता, भाई-भाभी की मौत हो चुकी है।
उन्होंने अपने परिवार को इस घटना के बारे में नहीं बताया था।
वे सहमी आवाज़ में कहती हैं, ‘उन्होंने मुझे ख़ूब डराया, धमकाया और कहा कि अगर अपने भाइयों को बताया तो उन्हें कटार से ख़त्म कर देंगे।’
लेकिन परिवार तक ये जानकारी पहुंच ही गई।
संजना कहती हैं, ‘धमकियों से डर गई थी। कभी किसी से जि़क्र नहीं किया। लेकिन, घटना के कऱीब तीन साल बाद पुलिस वाले पूछते हुए घर आ गए। तब परिवार को पहली बार जानकारी हुई।’
ख़ुद की और परिवार की पीड़ा बताते हुए उनका चेहरा बिल्कुल फ़ीका सा पड़ गया था।
उनका परिवार ख़ामोश रहा क्योंकि रसूख़दारों को सामने खड़े होने की हमारी हिम्मत नहीं थी। न्याय की तो उम्मीद ही नहीं थी।
लेकिन फिर स्वयंसेवी संस्थाओं और कुछ पुलिसकर्मियों ने समझाया कि इस मामले में अभियुक्तों को सज़ा दिलवाने के लिए उन्हें गवाही देनी चाहिए।
सरकारी वकील वीरेंद्र सिंह राठौड़ कहते हैं, ‘32 साल चले इस मामले में न्याय दिलाने के लिए संजना ने अहम भूमिका निभाई। इस मामले में तीन सर्वाइवर गवाह बनी थीं जिसमें से वो एक हैं।’
जब पति ने दिया तलाक़
इस बीच संजना की जि़ंदगी चलती रही।
घटना के कऱीब चार साल बाद उनकी शादी हुई।
संजना इस रिश्ते की शुरुआत पूरे विश्वास और सच्चाई से करना चाहती थीं और पति से घटना के बारे में छिपाना नहीं चाहती थीं।
वे बताती हैं, ‘शहर के नज़दीक ही मेरी शादी हो गई थी। चार ही दिन हुए थे और हाथों की मेहंदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा था। उन्होंने सब सुनने के बाद कुछ नहीं कहा। लेकिन, अगली सुबह मुझसे कहा कि चलो तुम्हें मायके घुमाकर लाता हूं। धोखे से वह मुझे मेरे घर ले आए और तलाक़ दे दिया। ऐसा लगा जैसे फिर एक बार मेरी बसी हुई दुनिया लूट ली गई हो।’
संजना ने भी समय के साथ ख़ुद को संभाला और अगले चार साल भी गुज़ार दिए। इस मामले में कोर्ट की कार्रवाई भी साथ चलने लगी थी।
संजना से जहां हमारी बातचीत हो रही थी, उस कमरे की दीवार पर कई तस्वीरें लगी हुई थीं।
एक तस्वीर की ओर इशारा करते हुए संजना कहती हैं, ‘जब मैं 28 साल की हुई तो परिवार ने इनके साथ मेरी दूसरी शादी करा दी, मैं उनकी तीसरी पत्नी थी।’
‘कुछ समय बाद मैंने एक बेटे को जन्म दिया। यूं लगा मानो जीवन तो शुरू ही अब हुआ है।’
वो कहती हैं, ‘बाहर कहीं से मेरे दूसरे पति को मेरे साथ हुई उस घटना का पता चल गया। इसके बाद उन्होंने मुझे तलाक़ दे दिया और मेरा दूध पीता दस महीने का बच्चा भी मुझसे छीन लिया।’ कमरे में रखी अपने बच्चे की तस्वीर पर हाथ फेरते हुए वो कहती हैं, ‘अब वह 22 साल का है। भारत से बाहर एक देश में रहता है। सिफऱ् नाम का ही है बेटा मेरा।’
‘मुफ़्त राशन से दिन कट रहे हैं’
संजना फिलहाल किराए के कमरे में रहती हैं और सीमित संसाधनों में जीवन जी रही हैं।
वो कहती हैं, ‘पेंशन और निशुल्क मिलने वाले राशन से दिन कट रहे हैं।’
उनके पास पैसे कमा सकने के लिए काम नहीं है। बाहर ज़्यादा निकलती नहीं हैं और बढ़ती उम्र के साथ बीमारियां भी घेरने लगी हैं। उस घटना के बाद से मन में क्या रहता है? यह सवाल जैसे उनके लिए 32 साल की कहानी बताने जैसा ही था।
वो कहती हैं, ‘मैं तो बहुत छोटी थी, मुझे कुछ समझ नहीं थी। उस समय मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ है। हमेशा जेहन में ज़रूर रहता है कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ।’
वह बड़े उदास मन से बताती हैं, ''32 साल में किसी ने मेरी मदद नहीं की। कोर्ट में गवाही के लिए जाना होता था तो मेरे चाचा ले जाते थे, पहली पेशी पर वही मुझे लेकर कोर्ट गए थे। लेकिन फिर उनकी भी मौत हो गई।’
‘साल 2015 में मुझे कोर्ट में बयानों के लिए बुलाया। कोर्ट का कागज़़ लेकर आए पुलिस वाले को मैंने कहा कि मैं किसके साथ आऊं, कोई नहीं है लाने वाला।’
‘तब वो पुलिस वाला भाई ही मुझे कोर्ट में बयानों के लिए लेकर गया था।’
अचानक से फिर भावुक होकर वो कहती हैं, ‘बहुत दुख देखे हैं इतने बरस में, अपनों को बिछड़ते और मरते देखा है। अब बचा जीवन भी यूं ही कट जाएगा। क्या कर सकते हैं भैया, जो किस्मत में लिखा है।’
इतनी लंबी लड़ाई लडऩे के लिए हौसला कहां से आया?
इस सवाल पर संजना कहती हैं, ‘मीडिया ने लड़ाई लड़ी है। उन्ही से हौसला मिला तो मैं कोर्ट जाती थी, वहां मुझसे बहुत से सवाल पूछे जाते थे और मैं जवाब देती थी।’ (बीबीसी)
एक प्रस्तावित कोयला खनन योजना के लिए बीते दिनों हसदेव में करीब 11 हजार पेड़ काटे गए. स्थानीय आदिवासियों ने इसका भारी विरोध किया. कार्यकर्ताओं के मुताबिक, अब तक खनन के लिए यहां एक लाख से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा की रिपोर्ट-
छत्तीसगढ़ के वन विभाग की वेबसाइट खोलते ही सबसे पहले एक बैनर दिखाई देता है, जिसपर लिखा है- "एक पेड़ मां के नाम." इस बैनर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और वन मंत्री केदार कश्यप के मुस्कुराते हुए चेहरे भी नजर आते हैं.
वहीं दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़ के वन विभाग ने बीते दिनों 'परसा ईस्ट केते बासेन' खनन परियोजना के दूसरे चरण के लिए हसदेव जंगल में हजारों पेड़ काटने की अनुमति दे दी. स्थानीय लोगों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इसका जमकर विरोध किया.
हसदेव में पांच कोयला खदानें आवंटित हो चुकी हैं
हसदेव जंगल, छत्तीसगढ़ के तीन जिलों- सरगुजा, कोरबा और सूरजपुर में फैला है. करीब 1,70,000 हेक्टेयर में फैला हसदेव अरण्य जैव विविधता से भरपूर है. प्रकृति और पर्यावरण के लिए इसका महत्व रेखांकित करते हुए अक्सर इसे "मध्य भारत का फेफड़ा" कहा जाता है.
हसदेव जंगल के गर्भ में कोयले का अकूत भंडार भी है. भारतीय खान ब्यूरो के मुताबिक, यहां लगभग 5,500 मिलियन टन कोयले का भंडार होने का अनुमान है. स्थानीय निवासियों और पर्यावरण कार्यकर्ता कहते हैं कि यही कोयला अब हसदेव की सबसे बड़ी मुसीबत बन गया है. सरकारें और उद्योगपति पेड़ों को काटकर जंगल के नीचे दबे कोयले को निकालना चाहते हैं. वहीं, पर्यावरण कार्यकर्ता और स्थानीय आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं. टकराव की यह स्थिति बीते कई सालों से बनी हुई है.
मार्च 2023 में तत्कालीन कोयला एवं खान मंत्री प्रह्लाद जोशी ने राज्यसभा में जानकारी दी थी कि हसदेव जंगल के क्षेत्र में कुल पांच कोयला खदानें आवंटित की गई हैं. इनमें से तीन कोयला खदानें राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड, या कहें कि राजस्थान सरकार को दी गई हैं. ये तीनों कोयला खदानें हैं- परसा ईस्ट एवं केते बासेन (पीईकेबी), परसा और केते एक्सटेंशन. इनमें से फिलहाल पीईकेबी खदान में ही खनन हो रहा है.
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, राजस्थान सरकार ने पीईकेबी खदान के प्रबंधन और खनन का काम अदाणी समूह को सौंपा है. इस खदान से दो चरणों में कोयले का खनन होना है. छत्तीसगढ़ वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, पहले चरण में 762 हेक्टेयर वन भूमि से कोयला निकाला जा चुका है. इस खनन परियोजना के लिए करीब 80 हजार पेड़ काटे गए थे. दूसरे चरण में 1,136 हेक्टेयर भूमि पर खनन होना प्रस्तावित है, जिसके लिए चरणबद्ध तरीके से पेड़ काटे जा रहे हैं.
स्थानीय आदिवासी जंगल बचाने की मुहिम चला रहे हैं
दूसरे चरण के अंतर्गत सितंबर 2022 में पहली बार करीब 8,000 पेड़ काटे गए थे. फिर दिसंबर 2023 में 12,000 हजार से ज्यादा पेड़ गिराए गए. अब बीते 30 अगस्त को तीसरी बार पेड़ों की कटाई शुरू हुई है. 'छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन' के संयोजक और पर्यावरण कार्यकर्ता आलोक शुक्ला ने डीडब्ल्यू हिंदी से बातचीत में बताया, "तीन दिन तक चले कटाई अभियान में 74 हेक्टेयर वन भूमि से करीब 11 हजार पेड़ काटे गए. स्थानीय आदिवासियों ने शांतिपूर्वक ढंग से इसका काफी विरोध किया, लेकिन पुलिस बल की भारी मौजूदगी के बीच कटाई पूरी कर ली गई."
अब तक हसदेव में हुई कटाई पर आलोक बताते हैं, "दूसरे चरण के लिए लगभग दो लाख 46 हजार पेड़ काटे जाने की योजना है. अब तक तीन चरणों के तहत इनमें से लगभग 30,000 पेड़ काटे जा चुके हैं. इससे 206 हेक्टेयर जंगल साफ हो गया है."
आलोक शुक्ला 'हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति' नाम की एक सामूहिक मुहिम के भी सदस्य हैं. वह लंबे समय से हसदेव जंगल को बचाने के अभियान के साथ जुड़े हुए हैं. इसी साल उन्हें प्रतिष्ठित 'गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार' भी दिया गया है, जो पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम कर रहे जमीनी कार्यकर्ताओं को मिलता है.
काटे जा चुके एक लाख से ज्यादा पेड़
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, हसदेव जंगल में पीईकेबी खनन परियोजना के दोनों चरणों के लिए अब तक एक लाख से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं. पर्यावरण कार्यकर्ताओं को आशंका है कि दूसरे चरण के लिए अभी दो लाख से ज्यादा पेड़ और काटे जाएंगे. वे चिंता जताते हुए कहते हैं कि इस तरह तो धीरे-धीरे पूरा जंगल ही खत्म हो जाएगा.
आलोक शुक्ला भी ऐसी ही आशंका जताते हैं, "हसदेव में खनन होने पर समृद्ध जैव विविधता और वन्य प्राणियों का रहवास खत्म हो जाएगा. छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं बढ़ जाएंगी. इसके अलावा बांगो बांध के अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा, जिसके पानी से जांजगीर जिले में चार लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है." वह आगे कहते हैं कि स्थानीय लोगों की पहचान और संस्कृति, उनके गांव और जंगल के साथ जुड़ी हुई है. हसदेव के कटने से यह पूरी तरह खत्म हो जाएगी.
डीडब्ल्यू हिंदी की टीम मई 2024 में ग्राउंड रिपोर्टिंग के लिए हसदेव जंगल गई थी. उस समय स्थानीय आदिवासियों ने हसदेव के प्रति अपनी आस्था जताते हुए बताया था कि वे इस जंगल को अपना देवता मानते हैं. हसदेव अरण्य में बसे एक गांव हरिहरपुर में स्थानीय निवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता रामलाल करियाम ने मूलनिवासियों की वन आधारित जीवनशैली को रेखांकित करते हुए कहा था, "हम अपनी आजीविका के लिए जंगल पर ही निर्भर रहते हैं. यह हमारे लिए बैंक की तरह है. जब तक जंगल है, हमारे सामने कभी भी खाने-पीने का संकट नहीं आएगा. जंगल कटने से हम सब खतरे में आ जाएंगे."
जंगल काटकर कोयला निकालने से पर्यावरण को दोहरा नुकसान होता है. जंगल कटने से वन क्षेत्र कम होता है और पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है. कार्बन सिंक घटता है और पेड़ों में मौजूद कार्बन, सीओटू के रूप में वायुमंडल में चला जाता है. दूसरा, कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जिसका ज्यादातर इस्तेमाल बिजली बनाने के लिए होता है. जब पावर प्लांट में बिजली उत्पादन के लिए कोयला जलाया जाता है तो बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है.
नियमों का पालन ना करने के आरोप
हसदेव जंगल के मामले में प्रशासन पर नियमों का पालन नहीं करने के आरोप लगते रहे हैं. आलोक शुक्ला आरोप लगाते हैं कि अदाणी कंपनी के मुनाफे के लिए सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर हसदेव का विनाश किया जा रहा है. वह बताते हैं, "हसदेव अरण्य का क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है. पेसा कानून (1996) और जमीन अधिग्रहण कानून (2013) के अनुसार, इस इलाके में जमीन का अधिग्रहण करने से पहले ग्रामसभा की सहमति लेना जरूरी होता है."
आलोक शुक्ला आगे कहते हैं, "इस साल जून में जमीन अधिग्रहण की सहमति लेने के लिए घाटबर्रा गांव में ग्रामसभा हुई थी, लेकिन उसमें प्रक्रिया का ठीक ढंग से पालन नहीं किया गया. लोगों के विरोध को दरकिनार कर खाली रजिस्टर में लोगों के हस्ताक्षर करवा लिए गए. बाद में उसमें प्रस्ताव लिख दिया गया. नियम कहते हैं कि ग्रामसभा में एक भी व्यक्ति के विरोध करने पर वोटिंग करवानी चाहिए, लेकिन प्रशासन ने वोटिंग नहीं करवाई."
राजनीतिक दलों पर भी सवाल
इस मामले में स्थानीय लोग राजनीतिक दलों के रवैये पर भी सवाल उठाते हैं और पार्टियों पर पक्ष-विपक्ष की राजनीति में अलग-अलग रुख अपनाने का आरोप लगाते हैं. पूर्ववर्ती भूपेश बघेल सरकार के कार्यकाल के दौरान जुलाई 2022 में सर्वसम्मति से प्रदेश विधानसभा में एक संकल्प पारित हुआ. इसके जरिए केंद्र सरकार से हसदेव अरण्य क्षेत्र में आवंटित सभी कोयला खदानों को निरस्त करने का अनुरोध किया गया. इसके दो महीने बाद ही खनन के लिए 8,000 पेड़ काट दिए गए. तब इस मुद्दे पर विपक्षी पार्टी बीजेपी ने सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार का विरोध किया था. हालांकि, पिछले साल राज्य में सत्ता परिवर्तन होने के बाद भी स्थिति नहीं बदली.
बीजेपी के आदिवासी नेता विष्णुदेव साय दिसंबर 2023 में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने. इसके करीब हफ्ते भर बाद ही हसदेव में फिर पेड़ों की कटाई शुरू हो गई. जब इस पर सवाल उठे, तो मुख्यमंत्री साय ने इसे पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार का फैसला बताया. उन्होंने कहा कि हसदेव में पेड़ काटने का फैसला कांग्रेस सरकार के दौरान लिया गया था, उसी आधार पर पेड़ों की कटाई की गई है.
स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि भाजपा-कांग्रेस में से जो भी पार्टी राज्य में विपक्ष में होती है, वह हसदेव में पेड़ काटे जाने का विरोध करती है. जैसे ही वह पार्टी सत्ता में आती है, उसका रुख बदल जाता है. (dw.com)
-अपूर्व गर्ग
पिछले बीस सालों में धीरे-धीरे रोमन हिंदी कहीं देव नागरी से ज़्यादा तो नहीं लिखी जा रही ?
हिंदी भाषी और देव नागरी में जो टाइप कर सकते हैं उनके मुकाबले सोचिये और कल्पना करिये घर की गृहणियों से लेकर बच्चे, युवा जो एक दूसरे से खटाखट स्मार्ट फ़ोन पर चैट करते हैं, इनकी संख्या कितनी है?
जरा सोचिये, आज जब चि_ियों से संवाद बंद हो चुका और पूरा संवाद मोबाइल से हो रहा कितने प्रतिशत लोग नागरी लिपि का इस्तेमाल कर रहे हैं?
जरा सोचिये , हिंदी भाषी और उर्दू भाषी इसमें पाकिस्तान को भी शामिल करिये कितने प्रतिशत लोग देवनागरी या अरबी लिपि का सॉफ्टवेयर रख टाइप करते हैं?
क्या हिंदुस्तान के उर्दूभाषी देवनागरी में टाइप कर संदेश भेजते हैं?
बात यही है कि आज जब कलम-कागज़ का प्रयोग कम हो चुका और डिवाइस से सम्प्रेषण हो रहा तो लिपि कौन सी है ?
अभिजात्य वर्ग तो मुख्यत: अंग्रेजी में करता है . हिंदी भाषी देवनागरी में और उर्दू भाषी भी उर्दू को देवनागरी में टाइप करते हैं पर एक सचाई है नयी पीढ़ी बड़ी तादाद में रोमन की तरफ मुड़ चुकी है। जबकि उसे स्कूल में रोमन सिखाया नहीं जाता। रोमन की कोई परीक्षा नहीं होती।
हिंदी अखबार रोमन में नहीं आते पर ‘ऑन लाइन वल्र्ड’ की लिपि रोमन बनती जा रही जरा गौर करिये !
मैं देवनागरी-अरबी या रोमन के इतिहास या भविष्य पर कुछ न कह कर सिर्फ यही रेखांकित कर रहा हूँ कि जिस रोमन लिपि को कल तक हमें समझने में तकलीफ होती थी .हम सब नापसंद करते रहे उसका प्रयोग कितना बढ़ चुका, सोचिये .एक समय 1935 से पहले जब नागरी तार प्रणाली विकसित नहीं हो पायी थी .लोग रोमन को समझते नहीं थे ऐसे समय एक दिन हिन्दी के साहित्यकार एवं सुप्रसिद्ध व्याकरणाचार्य आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने एक तार रोमन लिपि में देखा lekh vapais bhejiye, sanshodhnarth इसकी देखा-देखी उन्होंने बधाई का तार भेजा अपने भतीजे के विवाह पर रोमन में ‘Badhai’ लिखकर।
अब वाजपेयी जी के भाई साहब के परिवार को ‘Badhai’ समझ न आई। उन्होंने अंग्रेजी की डिक्शनरी छान मारी पर अर्थ न मिला।
इसके बाद इन लोगों ने वाजपेयी जी को तार देकर पूछा क्या हुआ? क्या बात है ? तार समझ में न आया।
तब एक ‘Badhai’ शब्द समझ न आया और आज तो पूरी स्क्रिप्ट, लेख, संदेश रोमन में भेजे जा रहे ,अंग्रेजी की चटनी लगा के सोचिये लोग कितने अभ्यस्त हो गए ?
- विजुअल जर्नलिज्म और डेटा टीमें
पांच नवंबर को अमेरिका में मतदाता अपने अगले राष्ट्रपति का चुनाव करने के लिए मतदान में हिस्सा लेंगे।
पहले ये चुनाव 2020 की पुनरावृत्ति होने वाले थे यानी मुक़ाबला पिछले चुनावों की तरह ट्रंप और जो बाइडन में ही होने वाला था लेकिन बाइडन के रेस से हटने के बाद उप राष्ट्रपति कमला हैरिस मैदान में हैं।
अब सबसे बड़ा सवाल यही है- क्या डोनाल्ड ट्रंप को दूसरा कार्यकाल मिलेगा या अमेरिका को पहली महिला राष्ट्रपति?
जैसे-जैसे चुनाव का दिन निकट आता जाएगा हम आपके लिए सर्वेक्षणों पर नजर रखेंगे। साथ ही मंगलवार को ट्रंप और हैरिस के बीच होने वाली डिबेट जैसे कार्यक्रमों का असर पर भी रोशनी डालते रहेंगे।
सर्वेक्षणों में कौन आगे?
सर्वे में बाइडन के राष्ट्रपति पद की दौड़ से अपना हाथ खींचने से पहले, उन्हें ट्रंप से पिछड़ता दिखाया जा रहा था। हालांकि उस समय ये सिर्फ कोरी कल्पना ही थी लेकिन कुछ जानकार उस वक्त कह रहे थे कि अगर रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस होतीं तो उनका हाल भी ऐसा ही होता।
लेकिन जैसे ही कमला हैरिस चुनाव अभियान में कूदीं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वी पर एक छोटी सी बढ़त बना ली।
दोनों उम्मीदवारों के ताजा नेशनल सर्वेक्षणों का औसत नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया जा रहा है।
नीचे दिए गए पोल ट्रेकर में दिखाया गया है कि कैसे हैरिस के चुनाव में कूदने के बाद ट्रेंड बदलने लगा है। ग्राफ़ में दिख रहे डॉट्स विभिन्न सर्वेक्षणों के नतीजों को दर्शा रहे हैं।
हैरिस शिकागो में चली चार दिनों की पार्टी कनवेंशन के दौरान 47 फीसदी तक पहुँच गई थीं। इसके बाद 22 अगस्त को सभी अमेरिकी लोगों के लिए ‘एक नई राह’ वाली स्पीच के बाद भी आगे बढ़ीं। लेकिन इसके बाद से उनकी लोकप्रियता में कोई विशेष परिवर्तन दर्ज नहीं किया गया है।
ट्रंप की औसत भी लगभग एक जैसी ही रही है। सर्वेक्षणों में उनकी लोकप्रियता 44 फीसदी के आस-पास रही है। 23 अगस्त को जब रॉबर्ट एफ कैनेडी ने आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडऩे से अपने हाथ पीछे खींचे उसके बाद भी ट्रंप की लोकप्रियता में कोई बदलाव दर्ज नहीं किया गया।
अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में होने वाले ये चुनाव पूर्व सर्वेक्षण उम्मीदवारों की लोकप्रियता की ओर इशारा तो करते हैं लेकिन ये ज़रूरी नहीं है कि राष्ट्रपति चुनावों के नतीजों के पूर्वानुमान का ये सटीक तरीका हो।
इसकी एक बड़ी वजह है। अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में इलेक्टोरल कॉलेज सिस्टम का प्रयोग होता है। इसलिए अधिक मतदान से ज़्यादा ये ज़रूरी है कि आप किन राज्यों में जीत दर्ज कर रहे हैं।
अमेरिका में 50 राज्य हैं। लेकिन इन राज्यों में अधिकतर वोटर हमेशा एक ही पार्टी को वोट देते हैं। तो हकीकत में ऐसे बहुत कम राज्य हैं जहां दोनों उम्मीदवार जीत की उम्मीद लगा सकते हैं। और यही राज्य हैं जहाँ चुनाव जीता या हारा जाता है। इन्हें अमेरिका में बैटलग्राउंड स्टेट्स कहा जाता है।
बैटलग्राउंड स्टेट्स में कौन जीत रहा है?
फि़लहाल सात बैकग्राउंड राज्यों में टक्कर कांटे की है। यही वजह है रेस में कौन आगे है ये बताना मुश्किल है।
राज्यों में, राष्ट्रीय स्तर की तुलना में चुनाव पूर्व कम सर्वेक्षण हो रहे हैं। इसलिए राज्यों की रुझान के बारे में अधिक डेटा उपलब्ध नहीं है। इसके अलावा हर पोल में एक ‘मार्जिन ऑफ एरर’ होता और संभव है कि आंकड़े कुछ प्रतिशत ऊपर या नीचे हो सकते हैं।
ताजा सर्वेक्षणों के अनुसार इस वक्त कई राज्यों में दोनों उम्मीदवारों के बीच एक या उससे भी कम प्रतिशत का अंतर है।
इनमें पेनसिल्वेनिया राज्य भी शामिल है। ये राज्य काफी अहम है क्योंकि यहाँ इलेक्टोरल कॉलेज के सर्वाधिक वोट हैं। और यहां मिली जीत के सहारे कोई भी उम्मीदवार अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के लिए आवश्यक 270 इलेक्टोरल कॉलेज के वोटों का जादुई आंकड़ा छू सकता है।
नेतन्याहू से क्या चाहते हैं बाइडन?
पेनसिल्वेनिया, मिशिगन और विस्कॉनसिन 2016 में ट्रंप के राष्ट्रपति पद के चुनाव जीतने से पहले डेमोक्रेटिक पार्टी का गढ़ था। बाइडन ने 2020 के चुनावों में इसे वापस हासिल कर लिया। अगर हैरिस इस साल भी वही प्रदर्शन दोहरा पाएंगी तो वो चुनाव जीत जाएंगी।
हैरिस के डेमोक्रेटिक पार्टी का उम्मीदवार बनने के बाद राष्ट्रपति पद की दौड़ में बदलाव के संकेत दिख रहे हैं, क्योंकि जो बाइडन ने जिस दिन इस दौड़ से बाहर होने का फैसला लिया उसी दिन वो इन सात बैटलग्राउंड स्टेट्स में ट्रंप से तकऱीबन पांच फ़ीसदी पॉइंट से पीछे थे।
ये औसत कैसे तैयार होते हैं?
हमने ग्राफि़क्स में जिन आंकड़ों का इस्तेमाल किया है उनका औसत सर्वेक्षण विश्लेषण वेबसाइट 538 ने तैयार किया है जो अमेरिकी न्यूज़ नेटवर्क एबीसी न्यूज़ का हिस्सा है। इन औसत को 538 उन आंकड़ों को इक_ा करके बनाती है जो राष्ट्रीय स्तर पर और बैटलग्राउंड स्टेट्स में कई सर्वेक्षण कंपनियां लाती हैं।
गुणवत्ता नियंत्रण के लिए 538 केवल उन कंपनियों के सर्वे लेती है जो कुछ निश्चित मानदंडों को पूरा करती हैं, जैसे कि इस बारे में पारदर्शी होना कि उन्होंने कितने लोगों को सर्वे में शामिल किया, सर्वे कब हुआ और इसे किस तरह से किया गया (मसलन टेलीफोन कॉल्स, टेक्स्ट मैसेज, ऑनलाइन आदि)।
आप 538 की कार्य पद्धति के बारे में यहां पढ़ सकते हैं।
क्या हम सर्वे पर भरोसा कर सकते हैं?
इस समय सर्वे बताते हैं कि कमला हैरिस और डोनाल्ड ट्रंप बैटलग्राउंड स्टेट्स और राष्ट्रीय स्तर पर कुछ ही औसत के अंतर से आगे-पीछे हैं, और जब दौड़ बेहद कऱीबी है तो ये अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है कि कौन जीतेगा।
2016 और 2020 के राष्ट्रपति चुनावों से पहले हुए सर्वेक्षणों में डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक को कम करके आंका गया था। अब सर्वे करवाने वाली कंपनियां कई तरीकों से इस समस्या से निपटेंगी। इन तरीकों में सर्वे करते वक्त मतदान करने वाली आबादी की संरचना को ध्यान में रखना शामिल है।
उन बदलावों को सही करना मुश्किल है। सर्वेक्षणकर्ताओं को अभी भी अन्य कारणों के बारे में ‘शिक्षित अनुमान’ लगाना होगा, मिसाल की तौर पर कि कैसे पाँच नवंबर को कौन या कितने लोग मतदान करने आएंगे।
माइक हिल्स और लिबी रोजर्स द्वारा लिखित और प्रोड्यूस। जॉय रॉक्सस का डिज़ाइन। (www.bbc.com/hindi)


