विचार/लेख
-अशोक पांडे
करीब ढाई सौ बरस पहले आगरे के ताजगंज में रहने वाले दिग्गज शायर नज़ीर अकबराबादी ने कृष्ण के जन्म का वर्णन यूं किया है –
फिर आया वां एक वक़्त ऐसा जो आये गरभ में मनमोहन
गोपाल, मनोहर, मुरलीधर, श्रीकिशन, किशोरन कंवल नयन
घनश्याम, मुरारी, बनवारी, गिरधारी, सुन्दर स्याम बरन
प्रभुनाथ, बिहारी, कान्ह लला, सुखदाई जग के दुःख भंजन
जब साअत परगट होने की, वां आई मुकुट धरैया की
अब आगे बात जनम की है, जै बोलो किशन कन्हैया की
था नेक महीना भादों का, और दिन बुध, गिनती आठन की
फिर आधी रात हुई जिस दम और हुआ नछत्तर रोहिनी भी
सुभ साअत नेक महूरत से, वां जनमे आकर किशन जभी
उस मन्दिर की अंधियारी में, जो और उजाली आन भरी
नज़ीर के यहाँ कृष्ण भक्ति के मीठे रस की सदानीरा बहती है. एक नज़्म में वे श्रीकृष्ण से यूं मुखातिब होते हैं -
कहता नज़ीर तेरे जो दासों का दास है
दिन रात उसको तेरे ही चरनों की आस है
यूं उनके रचनाकर्म में गणेश जी भी आते हैं और भैरों भी, गुरु नानक जी भी और हरि भी, लेकिन कृष्ण के प्रति उनका अनुराग किसी स्फटिक की ठोस पारदर्शी चमक जैसा जादुई है. नज़ीर अकबराबादी के काव्य में कृष्ण का जीवनवृत्त कितने ही विवरणों और रूप-सरूपों में नज़र आता है और वे घोषणा करते हैं -
दिलदार गवालों बालों का, और सारे दुनियादारों का
सूरत में नबी, सीरत में खुदा या सल्ले अला
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
हे कृष्ण कन्हैया नन्द लला, अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
भक्ति से सराबोर उनके काव्य का जो हिस्सा कृष्ण की बाल-लीलाओं को समर्पित है, उसकी ज़ुबान का संगीत और निश्छल-निर्बाध पोयटिक प्रवाह मिल कर नज़ीर को हमारी पूरी सांकृतिक विरासत के एक बड़े प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करते हैं.
यूँ बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या
क्या जाने अपने खेलने आए थे क्या कला
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन
क्या-क्या कहूँ मैं किशन कन्हैया का बालपन
एक कविता उनके ब्याह को लेकर है, एक उनके बचपन के खेलों के बारे में. एक में नज़ीर बताते हैं कि नरसी मेहता के मन में कृष्ण की लगन कैसे उपजी तो एक में कृष्ण और सुदामा की विख्यात कथा का दिलचस्प बयान है.
हर जन्माष्टमी को मुझे बाबा नज़ीर की पुरानी किताब निकाल कर उनके कृष्ण-काव्य में डूब जाना होता है -
सब ब्रज बासिन के हिरदै में आनंद खुशी उस दम छाई
उस रोज़ उन्होंने ये भी नज़ीर इक लीला अपनी दिखलाई
ये लीला है उस नन्द ललन मन मोहन जसुमति छैया की
रख ध्यान सुनो दंडौत करो, जै बोलो किशन कन्हैया की
नज़ीर के कृष्ण हम सब के हैं!
- डॉ. आर.के. पालीवाल
आजकल सरकार और सरकारी उडऩखटौलों और रथों में बैठे मंत्री और उसमें बैठे अधिकांश बड़े नौकरशाहों ने मिलकर एक ऐसा संगठित गिरोह सा बना लिया है जिसके आसपास जाना तो दूर अपनी समस्या या व्यथा पहुंचाना आम आदमी के लिए असंभव है। जब शासन के ऊंचे शिखरों तक जनता की पहुंच ही नहीं है तब उसके छोटे-छोटे काम संपन्न कराने के लिए दलालों का भ्रष्टाचार पथ ही एकमात्र विकल्प बचता है। पंचायत में बैठे पटवारी,थाने, पुलिस चौकी से लेकर हर विभाग के निचले स्तर के अधिकारी और कर्मचारी जानते हैं कि उनके जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक से लेकर चीफ सेक्रेटरी और डी जी पुलिस तक के उच्च अधिकारियों का अधिकांश वक्त राजनीतिक आकाओं की इच्छापूर्ति और जी हुजूरी में ही बीतता है, इसीलिए उन्हें ऊपर शिकायत होने का कोई डर नहीं है।
इधर निम्न श्रेणी के बहुतेरे अधिकारियों और कर्मचारियों ने भी अपने इलाके के मंत्री, सांसद और विधायक का संरक्षण हासिल कर लिया जिससे न किसी की शिकायत पर उनका तबादला हो सकता और न उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही संभव है। इसी सब के चलते जो बेहद असंवेदनशील वातावरण तैयार हुआ है उसी ने सरकार और शासन को अंधे बहरे की नकारात्मक उपाधि दी है।
शासन के उच्च अधिकारियों का व्यवहार भी नेताओं की अत्यधिक संगत में रहकर एक तरफा हो गया। वे भी जूनियर अधिकारियों की बैठक लेते वक्त केवल और केवल बोलते हैं नीचे वालों की फीडबैक और परेशानियां नहीं सुनते। बोलने के लिए शासन के शिखर पर सवार मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के कई कई मुंह हैं, मसलन उनका एक मुंह वह है जिससे वे कहीं न कहीं भाषण देते रहते हैं या अपने मातहदों को आदेश देते हैं, एक मुंह ट्विटर (जिसका नया नाम एक्स हो गया) है जिस पर वे घड़ी घड़ी विकास की फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं, एक मुंह फेसबुक अकाउंट और विभागीय वेबसाइट है और एक मुंह मीडिया को जारी किए जाने वाले विज्ञापन हैं जिनमें जमकर बड़े बड़े झूठ आकर्षक बनाकर परोसे जाते हैं।आप इन्हें किसी भी वक्त फोन कीजिए, इनके व्हाट्स ऐप नंबर पर मैसेज कीजिए , मेल भेजिए या चि_ी लिखिए या बारी बारी संवाद के यह सब साधन अपनाकर देख लीजिए वे आपके पत्र, मेल या मैसेज पर कोई संतोषजनक कार्यवाही तो दूर उसकी प्राप्ति की स्वीकृति तक नहीं देते।
मंत्रियों और उच्च अधिकारियों का फील्ड में उतरकर जनता की समस्याओं का देखना तो पूरी तरह बंद ही हो गया। जिन मंत्रियों को जिले की जिम्मेदारी दी जाती है वे जब तब सरकारी दौरे पर आते हैं और सर्किट हाउस के बंद कमरों में अपने चेले चपाटों से मिलकर कब निकल जाते हैं इसका पता अगले दिन के अखबार से मिलता है। मुख्यमंत्री और मंत्री राजधानी के बाहर निकलते हैं तो अपने परिचितों और रिश्तेदारों के निजी कार्यक्रमों में ज्यादा समय देते हैं जनता की समस्याओं पर नहीं के बराबर। लोकतंत्र विकृत होते होते राजशाही की तरह दो ध्रुवीय हो गया। जन प्रतिनिधि राजा और वजीर बन गए और प्रजा गुलाम बन गई। नौकरशाही का काम राजा और उनके वजीरों की बादशाहत बरकरार रखना और प्रजा को डरा धमकाकर भेड़ बकरी की तरह आज्ञाकारी बनाना हो गया।
आजादी के अठहत्तर साल से केवल दो बार आधी अधूरी बदलाव की लहर उठी है लेकिन दोनों बार यह लहर ज्वार में नहीं बदल पाई। आपातकाल के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तत्कालीन केंद्र सरकार की तानाशाही के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा हुआ था।
इस अहिंसक आंदोलन के पीछे जय प्रकाश नारायण के विराट व्यक्तित्व और जनता में उनके प्रति विश्वास का भाव था क्योंकि उन्होने न केवल आजादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की थी अपितु विनोबा भावे के साथ मिलकर गांधी की सर्वोदय सेवा परंपरा को आगे बढ़ाया था। दूसरा छोटा आंदोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुआ था लेकिन वह दिल्ली तक सीमित रहा। उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में कोई बड़ा जन आंदोलन हो जिससे अंधी बहरी सरकारों का अंधा और बहरापन हमेशा के लिए दूर हो।
-श्रवण गर्ग
पत्रकार-मित्र सुनील कुमार ने फ़ेसबुक पर डिजिटली-निर्मित अथवा रंगों से उकेरा गया एक चित्र शेयर किया था। चित्र में ‘मोनालिसा’ जैसी दिखने वाली एक महिला आकृति को किसी पुरुष से प्रेम करते हुए प्रस्तुत किया गया है। पुरुष की छवि ‘मोनालिसा’ के रचनाकार लियोनार्डो दा’ विंची की भी मानी जा सकती है। आकर्षण का केंद्र चित्र के साथ दिया गया वर्णन था जिसने इस आलेख के लिए प्रेरित किया। चित्र के एक पंक्ति के कैप्शन या वर्णन में इस आलेख की समूची कहानी बसी हुई है। चित्र के साथ अंग्रेज़ी में दिये गए कैप्शन मेंकहा गया है :’ This is what happens when the museum gets empty.’’
चित्र को देखते ही मैं साल 1982 के जून महीने में पहुँच गया जब लंदन में ढाई महीने गुजरने के बाद पेरिस और उसके निकट बसे ऐतिहासिक शहर ‘वर्साई’ में बिताए गए दस दिनों में न जाने कितनी बार तो ‘एफ़िल टावर’ को देखा होगा और न जाने कितनी देर तक ‘मोनालिसा’ की अद्भुत कृति को ‘लूवर म्यूज़ियम’ में निहारा होगा ! इसी के साथ 2004 में पढ़ा गया Dan Brown का प्रसिद्ध उपन्यास ‘The Da Vinci Code’ भी स्मृतियों में जीवंत हो उठा । इस पर एक चर्चित फ़िल्म भी बन चुकी है जिसमें टॉम हैंक्स ने अद्भुत अभिनय किया है।उपन्यास ‘मोनालिसा’ के रचनाकार Da Vinci और उसी म्यूजियम पर केंद्रित है जिसमें उनकी ख्यात पेंटिंग प्रदर्शित है।
पेरिस और ‘मोनालिसा’ की बात तो सिर्फ़ 42 साल पुरानी हुई। ‘मोनालिसा’ के बहाने मैं साठ साल पहले की गई मथुरा-वृंदावन-नंदगाँव-बरसाना की यात्राओं की स्मृतियों में भी टहलने लगा। बात यात्राओं की नहीं उनके बहाने कुछ अलग कहने की है !
विचार यह आया कि जिस तरह पेड़-पौधों में प्राण होने और उनके आपस में संवाद करने के आख्यान सुनने में आते हैं ,संग्रहालयों में टंगी पेंटिंग्स (जो ख्यात पेंटरों ने जीवित पात्रों को सामने बैठाकर बनाई होंगीं) वे भी सब कुछ बंद हो जाने के बाद रात के सन्नाटों में अपनी फ़्रेम्स की चौखटों से बाहर निकलकर आपस में प्रेम करती होंगी, अपने दुख-दर्द आपस में बाँटती होंगी ? ‘मोनालिसा’ दा विंची के सांसारिक जीवन का पात्र रहीं हैं। उनका असली नाम Lisa Gerardini था।
ऐसा ही संवाद विभिन्न कालखंडों में तराशी गई प्राचीन मूर्तियों और गुफाओं की चट्टानों के बीच भी होता होगा ? कहा नहीं जा सकता कि सूने जंगलों में पेड़ों के आपस में टकराने से धधकने वाली आग और उसकी लपटों के बस्तियों तक पहुँचने के पीछे क्या रहस्य छुपे हुए होंगे !
बहुत सारे लोग शायद साठ साल पहले के वृंदावन की कल्पना नहीं भी कर पाएँ ! मैं यहाँ सिर्फ़ उस ‘कुंज’ या ‘निधि वन’ की चर्चा करना चाहता हूँ जो कई छोटे-छोटे पेड़ों, लताओं से अच्छादित था।निश्चित ही आज भी वैसा ही होगा। ‘कुंज’ में भ्रमण के दौरान मुझे बताया गया था कि भगवान कृष्ण आज भी रात्रि के प्रहरों में राधारानी और गोपियों के साथ रास रचाने अवतरित होते हैं और वहाँ बने महल में विश्राम करते हैं। गाइड ने मुझे चेताया था कि रात्रि के दौरान कोई भी बाहरी व्यक्ति ‘निधि वन’ में प्रवेश नहीं कर पाता है !
सोचता हूँ कि ‘मोनालिसा’ अगर रात के सन्नाटे में पेंटिंग की चौखट से बाहर निकलकर प्रेम करती है, पेड़-पौधे आपस में बातचीत करते हैं, मूर्तियाँ और चट्टानें एक-दूसरे से संवाद करती हैं तो फिर कृष्ण भी रास रचाने अवश्य ही वृंदावन के ‘निधि वन’ में आते होंगे !
अरविंद दास
लेखक-पत्रकार
गुलजार ने एक बार कहा था कि ‘साहित्य वाले मुझे सिनेमा का आदमी समझते हैं और सिनेमा वाले साहित्य का।’ हो सकता है कि इस कथन में सच्चाई हो पर, हम जैसे साहित्य और सिनेमा प्रेमियों के लिए दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है।
हाल ही में 90 साल पूरे करने वाले गुलजार 60 साल के अपने रचनात्मक जीवन में विभिन्न रूपों मसलन, कवि-लेखक, गीतकार, फिल्म निर्देशक, बच्चों के रचनाकार के रूप में अपनी सतत मौजूदगी के कारण नाम से आगे बढ़ कर एक विशेषण बन चुके हैं। गुलजार के ये ‘अपरूप रूप’ विभिन्न जबानों में छंद और अलंकार बन कर हमारे सामने आते रहे, जिनमें हम अपने जीवन का अर्थ ढूंढ़ते रहे।
जीवन भी तो एक वाक्य ही है-- कभी अधूरा तो कभी पूरा। उन्हीं के शब्दों में-‘दो नैना एक कहानी, थोड़ा सा बादल, थोड़ा सा पानी’। उनके नज्मों की खूबसूरती उनके अल्फाज में हैं। कभी हमें वे हंसाते हैं, तो कभी रुलाते हैं और कभी बस एक फरियाद बन कर हमसे गुफ्तगू करते हैं।
प्रसंगवश, यह उसी मासूम (1983) फिल्म का गाना है, जिसके किरदारों के लिए गुलजार ने ‘लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा’ अमर गीत लिखा है। उत्तर भारत के घरों में पिछले चालीस सालों में यह गीत बड़े-बूढ़ों की तरह मौजूद रहता आया है।
आजाद भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के बीच गुलजार की मौजूदगी एक बुर्जुग की तरह हमारे लिए आश्विस्तिपरक है। यदि हम गुलजार के गीतों को ध्यान से सुनें तो उनमें सामाजिक-राजनीतिक बदलावों की अनुगूंज सुनाई देगी। उनकी फिल्मों आँधी, माचिस, हू तू तू आदि में यह और भी मुखर होकर सामने आया है। उनकी राजनीतिक चेतना नेहरू युग के आदर्शों से बनी है। यहाँ सांप्रदायिकता का विरोध है और सामासिकता का आग्रह।
बहरहाल, हम यहाँ उनके गीतकार रूप की ही बात करते हैं क्योंकि विभिन्न पीढ़ी के युवाओं के लिए उनके गीतों का रोमांस सबसे ज्यादा है। प्रेम उनके गीतों का स्थायी भाव है।
हम जानते हैं कि गुलजार ने ‘बंदिनी (1963)’ फिल्म में एसडी बर्मन के संगीत निर्देशन में ‘मोरा गोरा अंग लइ ले/मोहे शाम रंग दइ दे/छुप जाऊँगी रात ही में/ मोहे पी का संग दइ दे’ गीत रच कर अपनी सिनेमाई यात्रा शुरू की, लेकिन पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक में आरडी बर्मन के संग मिलकर उन्होंने जो रचा है वह देश-काल की सीमा के पार जा कर आज भी कानों में मिसरी घोलता रहता है और आंखों में ख्वाब के दिए जलाता रहता है।
खुसरो, गालिब और मीर की बातें करते-करते न जाने चुपके से कब वे कह देते हैं कि ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं, तेरे बिना जिंदगी भी लेकिन जिंदगी तो नहीं’। इस गाने में जो रोमांस है वह गुलजार आगे बयां करते हैं यह कह कर कि ‘रात को रोक लो, रात की बात है और जिंदगी बाकी तो नहीं।’ याद कीजिए कि कवि घनानंद ने कविता के बारे में क्या कहा था। उन्होंने कहा था कि ‘लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’। बाकी लोगों के लिए कविता बनाने की चीज है, पर घनानंद की तरह ही गुलजार के लिए कविता (गीत) ही जीवन है।
इस गीतमय जीवन में बच्चों की निश्छलता है। तभी उम्र के इस पड़ाव पर भी बच्चों के लिए किताब में वे लिख सकते हैं- ‘थोड़े से तो पुराने हैं, लगते क़दीम हैं/ कहते हैं पर अण्टा गफ़़ील अच्छे हकीम हैं।’ बच्चों के लिए ही नहीं, जब वे युवाओं के लिए भी लिखते हैं तब उसी सहजता से जिसके लिए कबीर ने कहा है- ‘सहज सहज सब कोई कहै, सहज न चीन्हैं कोय।’ ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है/ सावन के कुछ भीगे-भीगे दिन रखे हैं/ और मेरे इक खत में लिपटी रात पड़ी है/ वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो’, वे ही लिख सकते हैं। मनोभावों की सहज अभिव्यक्ति है यहाँ।
इस गाने को जब उन्होंने अपने मित्र आरडी बर्मन को संगीतबद्ध करने कहा तब उन्होंने झुंझला कर कहा था कि क्या वे अखबार की सुर्खियों पर अब उनको गीत कंपोज करने कहेंगे! यह असल में दो प्रगाढ़ मित्रों का आपसी नोंक-झोंक थी, जो वर्षों से चला आ रही थी। इसे आप गीत कहें, कविता या सुर्खियाँ पर इसे गाने के लिए आशा भोंसले को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
गीत-संगीत और उनका परदे पर फिल्मांकन हिंदी सिनेमा को विशिष्ट बनाता है। जाहिर है गीत सिनेमा की कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं और किरदारों की पहचान बन कर आते हैं। हिंदी सिनेमा का सौभाग्य है कि उसे शैलेंद्र के बाद गुलजार जैसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी सर्जक ने अपने शब्दों से ‘गुलजार’ किया है। उनके लिखे गीतों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है।
बात आजाद भारत में जवान होने वाली पीढ़ी की ही नही है, बल्कि ‘मिलेनियल’ की भी है जो कभी ‘छैंया, छैंया’ गाने पर तो कभी ‘कजरा रे कजरा रे’ गाने पर झूमती मिलती है। और हां, जब बात ‘जय हो’ की हो तो फिर ‘कहना ही क्या!’ कभी-कभी वे ‘पर्सनल से सवाल भी करती है’, लेकिन सवालों के जवाब भी हमें गुलजार ही देते हैं यह कहते हुए कि ‘पीली धूप पहन के तुम देखो बाग में मत जाना’।
गुलजार के गीत विभिन्न पीढिय़ों के बीच संवाद करती है। संवादधर्मिता गुलजार की सबसे बड़ी विशेषता है।
- स्नेहा
श्वेता को डांस करना काफी पसंद है और वो अपना छोटा-छोटा वीडियो इंस्टाग्राम पर डालती हैं। उनका कहना है कि ये एक ऐसी चीज है, जिससे उन्हें सबसे ज़्यादा खुशी मिलती है।
लेकिन एक दिन जब उन्होंने अपनी तस्वीर के साथ इंस्टाग्राम पर कुछ अश्लील बातें लिखी देखीं तो वो हक्की-बक्की रह गईं।
पोस्ट हटने में भी कई दिन लग गए। इस घटना ने उन्हें अंदर से हिला दिया। वो अब डिजिटल स्पेस में सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं।
महिलाओं की बराबरी की राह में डिजिटल बराबरी और सुरक्षित स्पेस को अहम माना गया है लेकिन डिजिटल हिंसा ने इस राह की मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
26 अगस्त को वीमेन्स इक्वालिटी डे (महिला समानता दिवस) के तौर पर मनाया जाता है। अमेरिका में 26 अगस्त 1920 को संविधान में संशोधन कर महिलाओं को भी वोट डालने का अधिकार देने की घोषणा हुई थी।
आइए जानते हैं क्या है डिजिटल हिंसा और इसका सामना करने की स्थिति में कौन से कदम उठाने चाहिए।
डिजिटल हिंसा क्या है?
भारत में डिजिटल क्रांति के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के पास मोबाइल और इंटरनेट पहुंचा। इसने लोगों को बेशक जागरूक और सशक्त किया लेकिन इस डिजिटल दुनिया में भी हिंसा का वो रूप रिस-रिसकर पहुंचा जिसका सामना वर्षों से असल दुनिया में महिलाएं कर रही थीं।
यूएन पॉपुलेशन फंड के मुताबिक़ महिलाओं और लड़कियों के मामले में ये सीधा बदनामी से जुड़ जाता है। मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव के साथ ही वो ऑफलाइन और ऑनलाइन दुनिया में अलग-थलग पडऩे लगती हैं। इसका कार्यस्थल, स्कूल या लीडरशिप पॉजिशन पर उनकी हिस्सेदारी में असर पड़ता है।
ऑनलाइन हैरेसमेंट, हेट स्पीच, तस्वीरों से छेड़छाड़, ब्लैकमेल, ऑनलाइन स्टॉकिंग, अभद्र सामग्रियां भेजना समेत कई चीजें डिजिटल वॉयलेंस का हिस्सा हैं। एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के साथ इसके ख़तरे और भी बढ़ गए हैं।
यूएन के अनुसार, एक या एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा की गई वैसी हिंसा जिसकी जड़ें लैंगिक असमानता और लैंगिक भेदभाव में धंसी हुई हों और जिसे अंजाम देने में या बढ़ावा देने में डिजिटल मीडिया या कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया हो, वो इसके दायरे में हैं।
द इकोनॉमिस्ट की इंटेलिजेंस यूनिट के एक सर्वे के अनुसार, दुनिया भर में 85 प्रतिशत महिलाओं ने किसी न किसी फॉर्म में ऑनलाइन हिंसा का सामना किया।
भारत में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराध के मामले कोविड के बाद ज़्यादा दर्ज हुए हैं। इस अपराध में ब्लैकमेलिंग/बदनाम करना/तस्वीरों के साथ छेड़छाड़/अभद्र सामग्री भेजना/फेक प्रोफाइल जैसी चीजें शामिल हैं।
श्वेता के मामले में उनकी तस्वीरें अपलोड करनेवाले को वो नहीं जानती थीं। उन्होंने पोस्ट को रिपोर्ट किया, जिसके बाद वो हट गया। लेकिन रिमझिम के केस में ऐसा नहीं था।
रिमझिम का कहना है कि उनके साथ जो हुआ, अगर उसमें उनके परिवारवालों का साथ नहीं मिला हुआ होता तो वो ये कानूनी लड़ाई कभी लड़ ही नहीं पातीं।
उनका दावा है कि उनके एक जानने वाले ने ही उनकी तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ कर सोशल मीडिया पर डालना शुरू किया, जब उन्होंने आईडी रिपोर्ट की तो उसने कई आईडी बनाकर उन्हें परेशान और ब्लैकमेल करना शुरू किया।
रिमझिम कहती हैं कि एक बात गौर करने वाली थी कि अभियुक्त को इस बात का पूरा भरोसा था कि उसका कुछ नहीं होगा और इनकी (रिमझिम) की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।
रिमझिम और श्वेता के मामले में एक चीज कॉमन है कि उनके दिलो-दिमाग में इसकी छाप लंबे समय तक बनी रही। उन्हें लंबा वक़्त इससे उबरने में लगा।
कानून में इसके लिए क्या हैं प्रावधान?
बीबीसी ने जब इस बारे में पेशे से वकील सोनाली कड़वासरा से बातचीत की तो उनका कहना था कि भारत में इसके लिए कानून हैं लेकिन दिक्कत मामलों का लंबा चलना है।
वो कहती हैं कि डिजिटल हिंसा से निपटने के लिए भारतीय कानून में कई प्रावधान हैं। सबसे पहले तो ये दो चीजें करनी चाहिए।
आप जिस भी सोशल मीडिया पर हों वहां संबंधित आईडी को ब्लॉक करने का ऑप्शन आपके पास होता है, आप वहां इसे रिपोर्ट भी कर सकती हैं।
ये अपराध ‘साइबर क्राइम’ के दायरे में आते हैं, आप राष्ट्रीय साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल पर ऑनलाइन मामला दर्ज करा सकती हैं।
सोनाली कड़वासरा के अनुसार, ‘कानून में कई सारे प्रावधान हैं। ये नए नहीं हैं, पहले से हैं। आईटी एक्ट में सेक्शन 66, 67, 71 ये सभी हैं, जो आपको डिजिटल हिंसा के खिलाफ सुरक्षा देते हैं। अगर किसी ने अपने असली नाम से आईडी बनाई है, जिससे वो आपको स्टॉक कर रहा है, आपकी तस्वीर के साथ छेड़छाड़ कर रहा है या आपको गंदे मैसेज कर रहा है या कुछ ऐसा है जो आपको डिफेम कर रहा हो तो आईटी एक्ट के साथ आप शिकायत दर्ज करा सकती हैं।’ अनजान व्यक्ति के केस में आप उस व्यक्ति की आईडी बताकर भी शिकायत दर्ज कर सकती हैं।
सोनाली कड़वासरा कहती हैं, ‘भारत में इस मामले में प्रावधान की दिक्कत नहीं है। मेरा मानना है कि दिक्कत मामलों के निपटारे में है। इसके लिए कुछ नया लाने की जरूरत है। जैसे अभी के समय में अपनी पहचान छिपाकर एक आईडी बना लेना और उससे किसी को परेशान करना बहुत ही आसान है। बिना पहचान जाहिर किए आईडी बनाने को थोड़ा मुश्किल किया जाए। ताकि उस व्यक्ति तक जल्दी पहुंचने में आसानी हो।’
‘पुलिस को ऐसे मामलों में ज़्यादा से ज़्यादा संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। जरूरी नहीं है कि सिर्फ रेप हो या मर्डर हो तभी उनकी आंखें खुले। छोटी चिंगारी को भी उन्हें उतनी ही गंभीरता से लेने ज़रूरत है। छोटी-छोटी चीजें ही बड़े क्राइम का रूप ले लेती हैं। ’
मानसिक सेहत पर असर
रिमझिम कहती हैं, ‘मैं घंटों रोती रहती थी, हमेशा ये सोचती रहती थी कि जिसकी नजर भी उस पोस्ट पर पड़ी होगी, वो मेरे बारे में क्या सोचता होगा। मैं सोचती थी कि क्या कोई रास्ता है कि मैं इस ब्लैकमेलिंग से बाहर निकल सकूं, मुझे बस अंधेरा ही अंधेरा दिखता था। मुझे पुलिस के पास भी जाने से डर लगता था कि कंप्लेन की बात एक दिन की तो है नहीं। मैं पढ़ाई करूं, नौकरी के बारे में सोचूं, मेरी शादी फिक्स हो रही थी, उस पर ध्यान दूं।’
रिमझिम ने एक दिन साहस कर जब परिवारवालों को बताया और उनके कहने पर वो पुलिस के पास गईं। (बाकी पेज 8 पर)
लेकिन इन सब के बीच वो मानसिक तनाव में डूबती गईं। वो कहती हैं, ‘पहले मुझे लगता था कि ये मामला ज़्यादा से ज़्यादा साल भर लंबा चलेगा लेकिन साल दर साल ये लंबा खिंचता गया और मैं मानसिक तौर पर परेशान होती गई।’
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर पूजाशिवम जेटली कहती हैं कि पितृसत्तात्मक समाज में जिस तरीके का पावर बाहरी दुनिया में दिखता है, वही ऑनलाइन स्पेस में भी मिलता है। ऑनलाइन स्पेस में लोग ये भी महसूस करते हैं कि वो कुछ भी बोल और किसी को कुछ भी कह सकते हैं।
‘अगर कोई महिला अपने काम के बारे में भी वहां बता रही हो तो आप देखोगे कि उस पर सेक्सुअल कमेंट्स, बॉडी शेमिंग की जाती है। खासतौर पर टीएनजर्स (किशोरी) लड़कियां इसका ज्यादा शिकार हो रही हैं।’
पूजाशिवम जेटली कहती हैं, ‘मेरे पास इस तरह के मामलों में मदद के लिए ज़्यादातर किशोरी लड़कियां आती हैं। उनके लिए डिजिटल दुनिया एक ऐसी दुनिया होती है, जहां वो अपना काफी समय बिताती हैं, अगर वो वहां हैरेसमेंट, बुलिंग की समस्या का सामना करती हैं तो वो काफी उहापोह की स्थिति में आ जाती हैं कि हेल्प किससे मांगें, क्या करें और उन्हें लगता है कि अगर यहां से हटे तो एक तरह से अपने दोस्तों और अपने ग्रुप से कट आउट हो जाएंगे।’
इससे कैसे निपटें, वो बताती हैं-
ब्लॉक करना, इग्नोर करना-अच्छा उपाय है
एक उपाय ये भी है कि उस कमेंट्स को आप शेयर करें, इससे आपको अपने सपोर्ट ग्रुप का समर्थन मिलता है।
कभी-कभी कुछ लोगों को डिजिटल स्पेस में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है, ऐसे में वहां से कुछ समय के लिए स्विच ऑफ़ होना भी एक उपाय है ताकि मानसिक शांति रह सके।
वही चीजें शेयर करें, जिसमें आप कंफर्टेबल हों।
अकाउंट को प्राइवेट रखना भी एक बेहतर विकल्प है
सीमित इस्तेमाल
कोई चीज जो हमें लगातार परेशान कर रही है तो उस स्थिति में वहां से बाहर निकल जाना चाहिए, जब हम किसी चीज को बार-बार देखते हैं तो उसका और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
जहां जरूरत लगे प्रोफेशनल हेल्प लेनी चाहिए।(bbc.com/hindi)
-भाग्यश्री राउत
हाल के वक्त में कोलकाता में महिला डॉक्टर से बलात्कार और हत्या का मामला सामने आया जिसने लोगों को झकझोर कर रख दिया।
ये मामला थमा ही नहीं था कि महाराष्ट्र के बदलापुर के एक स्कूल में दो नाबालिग़ों के साथ यौन शोषण और अकोला में स्कूली छात्राओं के साथ छेड़छाड़ की ख़बर आई।
आम जनता ने सडक़ों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया। लोगों ने दोषियों के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ अपनाया और उनके लिए फांसी की मांग की।
इसी माहौल के बीच बुधवार को एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट सामने आई है जिसके अनुसार 151 मौजूदा विधायकों और सांसदों के ख़िलाफ़ महिला उत्पीडऩ के मामले दर्ज हैं।
300 पन्नों की इस रिपोर्ट में कितने सांसदों, विधायकों पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध, बलात्कार के आरोप लगे हैं इसकी जानकारी है। साथ ही ये भी जानकारी दी गई है कि कितने विधायक और सांसद किस पार्टी से हैं।
इस रिपोर्ट के लिए एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच ने संयुक्त रूप से देश के कुल 4,809 मौजूदा सांसदों और विधायकों में से 4,693 के चुनाव आयोग को सौंपे गए हलफऩामों का अध्ययन किया है।
इन हलफऩामों से विधायकों और सांसदों ने अपने ख़िलाफ़ दर्ज किए गए अपराधों की जानकारी दी है। इसमें 776 मौजूदा सांसदों में से 755 और 4,033 विधायकों में से 3,938 के हलफऩामे शामिल हैं।
एडीआर और इलेक्शन वॉच ने ये जानकारी 2019 से 2024 के बीच हुए उप-चुनावों समेत सभी चुनावों के दौरान दर्ज किए गए हलफऩामों से जुटाई है।
कौन से अपराध शामिल हैं?
इस रिपोर्ट में विस्तार से जानकारी दी गई है कि किन सांसदों और विधायकों पर महिला उत्पीडऩ के अपराध दर्ज किए गए हैं।
इनमें महिला पर एसिड अटैक, बलात्कार, यौन उत्पीडऩ, छेड़छाड़, किसी महिला को निर्वस्त्र करने के उद्देश्य से उस पर हमला करना, किसी महिला का पीछा करना, वेश्यावृत्ति के लिए नाबालिग़ लड़कियों को खरीदना और बेचना, पति या ससुराल के रिश्तेदारों के हाथों महिला का उत्पीडऩ, इरादतन किसी शादीशुदा महिला को जबरन रोकना या अगवा करना, महिला की सहमति के बिना जबरन उसके साथ रहना, पहली पत्नी के रहते अन्य महिला से शादी करना और दहेज हत्या शामिल है।
कितने विधायकों, सांसदों पर महिला उत्पीडऩ के मामले दर्ज हैं?
755 सांसदों और 3,938 विधायकों में से 151 विधायकों और सांसदों ने अपने हलफऩामे में महिला उत्पीडऩ से जुड़े दर्ज अपराधों की जानकारी दी है।
इसमें 16 मौजूदा सांसद और 135 मौजूदा विधायक शामिल हैं।
हलफऩामे में जिन अपराधों की बात की गई है उनमें बलात्कार, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, छेड़छाड़, वेश्यावृत्ति के लिए नाबालिग़ लड़कियों की खरीद-फरोख्त, घरेलू हिंसा जैसे अपराध शामिल हैं।
किस पार्टी के कितने जनप्रतिनिधियों पर हैं मुक़दमे?
कुल 151 जन प्रतिनिधि जिनपर महिला हिंसा से जुड़े अपराध के मामले चल हैं उनमें से किस पार्टी के कितने प्रतिनिधि हैं इसकी भी जानकारी एडीआर और इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट में दी गई है।
इसमें 135 विधायक हैं जबकि 16 सांसद हैं जिनके ख़िलाफ महिला अपराध के मामले चल रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो इसमें सबसे ज़्यादा 54 बीजेपी के जन प्रतिनिधि हैं। वहीं कांग्रेस के 23, तेलुगु देशम पार्टी के 17, आम आदमी पार्टी के 13, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस के 10, पांच राष्ट्रीय जनता दल के नेता हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि बीजेपी के ज़्यादातर जन प्रतिनिधियों पर (44 विधायक और 10 सांसद) महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के आरोप लगे हैं।
लेकिन, इस वक्त देश में बीजेपी विधायकों-सांसदों की संख्या अधिक है। इसलिए बीजेपी नेताओं को लगता है कि इस वजह से ये संख्या ज़्यादा हो सकती है।
बीजेपी विधायक देवयानी फरांदे ने बीबीसी से कहा, ‘कई बार राजनीतिक द्वेष के कारण नेता के ख़िलाफ़ अपराध दर्ज कराए जाते हैं। लेकिन महिला उत्पीडऩ की घटना बेहद अफ़सोसजनक है। महिलाओं पर अत्याचार का का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए।’
वो कहती हैं कि ‘महिला उत्पीडऩ को लेकर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के नामांकन के समय उनके व्यक्तित्व की जांच की जानी चाहिए जिसके बाद ही उम्मीदवारी की अनुमति दी जानी चाहिए।’
किस राज्य में सबसे अधिक सांसदों पर महिला अपराध के आरोप
एडीआर और नेशनल इलेक्शन वॉच ने अपनी रिपोर्ट में विधायकों और सांसदों की संख्या राज्यवार जानकारी दी है। इसके अनुसार पश्चिम बंगाल और उसके बाद आंध्र प्रदेश में ऐसे जन प्रतिनिधियों की संख्या सबसे अधिक जिन पर महिलाओं के साथ अपराध के आरोप लगे हैं।
पश्चिम बंगाल में यह संख्या 25 (21 विधायक, 4 सांसद), आंध्र प्रदेश में 21 (21 विधायक), ओडिशा में 17 (16 विधायक, सांसद 1), दिल्ली और महाराष्ट्र में 13 (दिल्ली में 13 विधायक, महाराष्ट्र में 12 विधायक और 1 सांसद) शामिल हैं।
इसके अलावा बिहार में 9, कर्नाटक में 7, राजस्थान में 6, मध्य प्रदेश, केरल और तेलंगाना में 5-5, गुजरात, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में 4-4, झारखंड और पंजाब में 3-2, असम और गोवा में 2-2 और हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, दादरा नगर हवेली और दमन दीव में एक-एक जन प्रतिनिधि पर महिला उत्पीडऩ के मामले हैं।
कितने जन प्रतिनिधियों पर बलात्कार के मामले दर्ज हैं?
एडीआर और इलेक्शन वॉच ने चुनाव आयोग को दिए गए उम्मीदवारों के हलफऩामों के विश्लेषण से पाया कि जिन 151 जन प्रतिनिधियों के ख़िलाफ महिला उत्पीडऩ के आरोप हैं, उनमें से 16 के ख़िलाफ बलात्कार के मामले हैं। इनमें 2 सांसद और 14 विधायक हैं।
राज्यवार देखा जाए तो इसमें मध्य प्रदेश सबसे ऊपर है। प्रदेश के दो जनप्रतिनिधियों पर बलात्कार के अपराध दर्ज हैं। वहीं पश्चिम बंगाल के एक सांसद पर इस तरह का आरोप दर्ज है।
इसके अलावा आंध्र प्रदेश, असम, दिल्ली, गोवा, गुजरात, झारखंड, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा और तमिलनाडु के एक-एक जनप्रतिनिधि पर बलात्कार का आरोप लगा है। वहीं तेलंगाना के एक सांसद पर बलात्कार पर अपराध दर्ज है।
पार्टी के हिसाब से देखा जाए तो जिन जनप्रतिनिधियों पर बलात्कार के मामले दर्ज हैं उनमें सबसे अधिक बीजेपी के 5 (3 विधायक, 2 सांसद) और कांग्रेस के 5 विधायक शामिल हैं।
इसके अलावा आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ़), भारत आदिवासी पार्टी और बीजू जनता दल (बीजेडी) के एक-एक विधायक के ख़िलाफ़ बलात्कार का मामला है।
रिपोर्ट में उन नेताओं के नाम भी दिए गए हैं जिनके खिलाफ यौन हिंसा के मामले दर्ज है। इनमें से कई नेताओं पर आरोप लगने के बाद मामला दर्ज किया गया, लेकिन रिपोर्ट बनाए जाने तक आरोप तय नहीं हुए। कुछ मामलों की सुनवाई अभी भी जारी है।
इनमें से हर नेता ने उस समय अपने ख़िलाफ़ लगे आरोपों से इनकार किया है। हालांकि नेताओं ने चुनाव आयोग को दिए हलफऩामे में अपराधों की जानकारी दी है।
‘जब क़ानून बनाने वाले ही अपराधी, तो न्याय की उम्मीद किससे करें?’
एक तरफ जब देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाएं रुक नहीं रहीं और महिला सुरक्षा को लेकर बहस चल रही है, ऐसे में देश के चुने हुए नेताओं के बारे में इस तरह की रिपोर्ट के बारे में महिला राजनीतिक विश्लेषक क्या सोचती हैं?
वरिष्ठ पत्रकार प्रतिमा जोशी ने बीबीसी से कहा, ‘ऐसा नहीं है कि ऐसे जन प्रतिनिधि हाल ही में राजनीति में आए हैं। ये धीरे-धीरे बढ़ता गया है। हम सत्ता में रहते हुए आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों से न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।’
वो कहती हैं, ‘बिलकिस बानो के मामले में अभियुक्तों को समयसीमा ख़त्म होने से पहले आज़ाद कर दिया गया। यह बेशर्मी की पराकाष्ठा है। ऐसा लगता है कि शासक वर्ग ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति वालों को पनाह दे रहा है।’
‘आम महिलाएं किससे न्याय की उम्मीद करें? इस प्रवृत्ति ने राजनीति से महिलाओं की संख्या कम कर दी है।’ वहीं वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी का मानना है कि ऐसे नेताओं को टिकट देना सभी राजनीतिक दलों का पाखंड है।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘जिन विधायकों और सांसदों के ख़िलाफ़ महिला उत्पीडऩ अपराध हैं उनकी संख्या काफी बड़ी है। राजनीतिक दल पार्टी के बड़े नेताओं को चुनाव के लिए टिकट देते हैं। हालांकि, उनके ख़िलाफ़ जो अपराध दर्ज होते हैं उन्हें नजऱअंदाज कर दिया जाता है।’
‘ये चिंता का विषय है कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध दर्ज होने पर भी चुनाव लडऩे के लिए टिकट देना कितना उचित है?’
नीरजा कहती हैं ‘एक तरफ राजनीतिक दल खुद न्याय की बात करते हैं, हकों के लिए आवाज़ उठाते हैं और दूसरी तरफ आपराधिक प्रवृत्ति वाले लोगों को मैदान में उतारते हैं। यह सभी राजनीतिक दलों का पाखंड है। उन्हें शर्म आनी चाहिए कि 2024 के भारत में भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं।’
विदेशों में नौकरी की तलाश करने वाले नेपाली पारंपरिक रूप से एशिया के नजदीकी देशों के साथ-साथ कतर या दुबई जैसे अरब देशों में जाते रहे हैं. यह रुझान बदलता हुआ दिख रहा है. अब यूरोप उनका पसंदीदा ठिकाना बनता जा रहा है.
डॉयचे वैले पर स्वेच्छा राउत का लिखा-
दक्षिण एशिया के नेपाल के पंचथर जिले के नरेंद्र भट्टाराई 2007 में बेहतर अवसर की तलाश में कतर चले गए थे। इससे पहले वह अपने देश में एक लेखक, कवि और महत्वाकांक्षी फिल्म निर्माता के तौर पर आजीविका चला रहे थे। भट्टाराई ने कतर जाने की योजना सावधानी से बनाई। उन्होंने एक एजेंट को काफी पैसे दिए, ताकि उन्हें ज्यादा वेतन वाली ड्राइवर की नौकरी मिल सके।
हालांकि, वहां पहुंचने पर उन्हें निर्माण कार्य में श्रमिक के तौर पर काम करने को मजबूर किया गया। विदेश जाने से पहले उन्हें हर महीने 900 कतरी रियाल, यानी करीब 247 डॉलर मिलने की गारंटी दी गई थी, लेकिन सिर्फ 600 रियाल ही मिले। भट्टाराई ने डीडब्ल्यू को बताया, मैंने अपने परिवार को बेहतर जीवन देने का सपना देखा था, लेकिन मैं शोषण का शिकार हो गया।
भट्टाराई को अपना कर्ज चुकाने के लिए कतर में कई सालों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। इसके बाद वह फिर से नेपाल लौट आए। कविता और फिल्म निर्माण के क्षेत्र में काम करना शुरू किया और पैसे कमाने का उनका संघर्ष जारी रहा।
भारत के लोगों का नया ठिकाना बन रहा है पुर्तगाल
2019 में वह एक फिल्म स्क्रीनिंग के लिए पुर्तगाल की यात्रा कर रहे थे। इस दौरान उन्हें पता चला कि वह वहां रहने के लिए आवेदन कर सकते हैं और यूरोपीय संघ के देश में कानूनी रूप से काम कर सकते हैं। इसके बाद उन्होंने वहीं रहने का फैसला किया। भट्टाराई ने डीडब्ल्यू से कहा, यूरोप में लंबे समय तक रहने का मतलब है कि मेरे और मेरे परिवार का भविष्य बेहतर हो सकता है।
पुर्तगाल ने बाहरी लोगों के लिए अपना दरवाजा खोला
भट्टाराई उन सैकड़ों नेपालियों में से एक थे, जिन्हें 2019 में पुर्तगाल में काम मिला। नेपाल सरकार के आधिकारिक डेटा से पता चलता है कि 2018 में केवल 25 लोगों को पुर्तगाली वर्क परमिट मिला था, लेकिन अगले वर्ष यह संख्या बढक़र 461 हो गई।
यूरोपीय अध्ययन 'रीथिंकिंग अप्रोच टू लेबर माइग्रेशन - फुल केस स्टडी पुर्तगाल' के अनुसार, पुर्तगाल को कम कौशल वाले कामगारों की जरूरत थी और वह उन्हें 'विशेष रूप से कृषि और पर्यटन' क्षेत्र में नौकरी करने की अनुमति दे रहा था। 2019 से 2024 के बीच, कई यूरोपीय देशों ने बताया कि उनके यहां नेपाली कामगारों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई है। रोमानिया में नेपाली कामगारों की संख्या सबसे ज्यादा 640 फीसदी बढ़ी।
यूरोप क्यों हो रहा ज्यादा लोकप्रिय
कुवैत जैसे देशों में भी इस अवधि में नेपाली कामगारों की संख्या में बढ़ोतरी देखी गई है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल के कामगारों के प्रवासन का ढर्रा बदल रहा है। एशिया और फारस की खाड़ी के आसपास के पारंपरिक ठिकानों को छोडक़र कई कामगार पोलैंड, रोमानिया, पुर्तगाल, माल्टा, हंगरी, क्रोएशिया और अन्य यूरोपीय देश जा रहे हैं।
कुशल कामगारों के लिए जर्मनी आना हुआ और आसान
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यहां उन्हें कमाई के बेहतर अवसर मिल रहे हैं और आसानी से नौकरियां भी मिल रही हैं। समाजशास्त्री टीकाराम गौतम ने डीडब्ल्यू को बताया, हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे ने भविष्य के लिए बचत करने की हमारी मानसिकता को बढ़ावा दिया है। वैश्वीकरण की वजह से कामगारों को कई तरह के विकल्प मिल रहे हैं। इसलिए वे ऐसे देश में जाना चाहते हैं, जहां अधिक कमाई कर सकें। हालांकि, सामाजिक प्रतिष्ठा और साथियों का दबाव भी एक बड़ी वजह है।
पुर्तगाल के ओदेमिरा नाम की जगह पर सडक़ किनारे एक बेंच पर बैठे कुछ एशियाई प्रवासी। यह इलाका खेती का एक अहम केंद्र है। बसंत का मौसम आते-आते भारत और नेपाल से हजारों की संख्या में कामगार यहां कृषि क्षेत्र में काम करने आते हैं। पुर्तगाल के ओदेमिरा नाम की जगह पर सडक़ किनारे एक बेंच पर बैठे कुछ एशियाई प्रवासी। यह इलाका खेती का एक अहम केंद्र है। बसंत का मौसम आते-आते भारत और नेपाल से हजारों की संख्या में कामगार यहां कृषि क्षेत्र में काम करने आते हैं।
नेपाल में जन्मे दीपक गौतम पिछले एक दशक से दुबई में सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम कर रहे हैं। वह इतना कमा लेते हैं कि अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा घर भेज पाते हैं। हालांकि, उनका कहना है कि यूरोप में काम न करने के कारण उन्हें नीची नजरों से देखा जाता है। यानी, समाज में उन्हें ज्यादा प्रतिष्ठा नहीं मिलती है।
उन्होंने बताया, नेपाली समाज में यूरोप में काम करना प्रतिष्ठित माना जाता है, जबकि खाड़ी में काम करने वाले हम लोगों को असफल माना जाता है। नेपाली समाज यह मानता है कि यूरोप में काम करने के हालात बेहतर हैं, वहां ज्यादा वेतन मिलता है और काम के ज्यादा अवसर उपलब्ध हैं। दीपक कहते हैं कि उन्होंने पोलैंड के वर्किंग वीजा के लिए आवेदन करने की कोशिश की, लेकिन दो बार उन्हें अस्वीकार कर दिया गया।
नेपाल क्यों छोड़ रहे हैं युवा कामगार
अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष (आईएफएडी) के मुताबिक, नेपाल की जीडीपी में 26।6 फीसदी योगदान उन पैसों का है जो विदेशों में काम करने वाले कामगार अपने घर भेजते हैं। 2023 में इसका अनुमानित मूल्य 11 अरब डॉलर था।
दरअसल, हिमालय की गोद में बसे इस देश में राजनीतिक उथल-पुथल, कमजोर अर्थव्यवस्था, बड़े पैमाने पर रोजगार से जुड़ी योजनाओं की कमी, और मानव संसाधन का सही तरीके से प्रबंधन न हो पाने की वजह से यहां के लोग रोजी-रोटी के लिए दूसरे देशों का रूख करते हैं।
राजनीतिक व्यवस्था, शिक्षा और तकनीक तक पहुंच के मामले में यह देश अपेक्षाकृत खुला और उदार है। श्रम विशेषज्ञ मीना पौडेल के मुताबिक, इन वजहों से नेपाल के लोग जागरूक वैश्विक नागरिक बन गए हैं और सरकार से उनकी अपेक्षाएं बढ़ गई हैं। वह आगे बताती हैं, वे लोग वैश्विक स्तर पर हो रहे विकास के बारे में जानते हैं, लेकिन वे इन सुविधाओं की तुलना नेपाल में मिलने वाली सुविधाओं से नहीं कर सकते।
अकुशल कामगारों के लिए आसपास कम नौकरियां
हाल के वर्षों में मलेशिया या खाड़ी देशों जैसे देशों ने प्रवासी मजदूरों के लिए मानदंड बढ़ा दिए हैं। पौडेल ने बताया, नौकरी देने वाले लोग या कंपनियां भी कुशल व्यक्ति की तलाश करने लगी हैं। इससे कम कुशल या अकुशल लोग अन्य विकल्प तलाशने के लिए मजबूर हो रहे हैं।
विदेशी कामगारों को आकर्षित करने के लिए टैक्स में छूट दे रहे ईयू के देश
वहीं, यूरोप के कई देशों ने अपने इमिग्रेशन कानूनों में ढील दी है। इससे विदेशी कामगारों के लिए वीजा हासिल करना आसान हो गया है, खासकर कृषि, हाउसकीपिंग, हॉस्पिटैलिटी और निर्माण कार्य जैसे क्षेत्रों में। साथ ही, यह भी माना जाता है कि यूरोप के देशों में कामगारों का शोषण कम होता है और उन्हें वहां ज्यादा आजादी भी मिलती है।
यूरोप में बेहतर जीवन के सपने को साकार करना
पिछले साल से जर्मनी अपने कुशल आप्रवासन कानून में बदलाव कर रहा है। इसके तहत, रोजगार की तलाश कर रहे तीसरे देश के नागरिकों के लिए 'अपॉरच्यूनिटी कार्ड' की योजना पेश की गई है।
जर्मनी में नौकरी पाने के सपने के साथ बिजय लिम्बू छह महीने पहले माल्टा पहुंचे थे। इससे पहले वह कतर में काम कर चुके हैं। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, मैं अपने कौशल को बेहतर बना रहा हूं और भाषा सीख रहा हूं, ताकि रेजिडेंस परमिट से जुड़ी शर्तें पूरी कर सकूं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि प्रवासियों का काम हमेशा अनिश्चित होता है।
नेपाली लेखक नरेंद्र भट्टाराई का नया घर पुर्तगाल इसका एक अच्छा उदाहरण है। हाल ही में हुए कानूनी बदलावों ने उन अप्रवासियों के लिए और भी बाधाएं खड़ी कर दी हैं जो इस देश में काम करना और बसना चाहते हैं। भट्टाराई कहते हैं कि वह पुर्तगाल में मानसिक और आर्थिक रूप से संतुष्ट हैं। इससे उन्हें एक बार फिर से लेखन के प्रति अपने जुनून को जगाने का मौका मिल रहा है। वह कहते हैं, मुझे लगता है कि मैं सही समय पर यूरोप आया हूं। (dw.com/hi)
-सचिन कुमार जैन
आप अपने परिवार के किसी सदस्य को उपचार के लिए कितने दिन अस्पताल में रखने की कल्पना कर सकते हैं?
संघर्ष। संघर्ष को कितना महिमा मंडित किया जाता है। क्या वास्तव में जिंदगी के संघर्ष से बड़ा कोई संघर्ष होता है? आज फिर एक संदेश आया। कोई शाम पांच बजे। संदेश अपने आप में जिंदगी की एक पूरी कहानी होते हैं। संदेश था - एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी सरकारी अस्पताल) में एक 25 वर्षीय युवक को एस डी पी यानी प्लेटलेट्स की जरूरत है। मैंने सहमति दी तो कुछ ही मिनटों में युवक के परिजन का फोन आ गया।
बेहद विनम्रता के साथ बात की गई। मैंने कहा कि कब आना है? उस व्यक्ति ने कहा - वैसे तो आज ही जरूरत है, लेकिन अगर आज न आ सकें तो कल आ जाइए। मैं उस युवक की बात सुनते हुए, वही हुआ जा रहा था। फिर मैं उसी समय यानी शाम साढ़े पांच बजे एम्स के लिए निकल गया। मुझे पता था कि एसडीपी को निकालने में दो घंटे का समय लग जाता है। खैर, यह कम महत्वपूर्ण बातें हैं।
जब मेरे खून की जांच हो रही थी, तब मैं राम बहोर साकेत से बात कर रहा था। रीवा के गंगेव के एक गांव के राम बहोर साकेत के छोटे भाई 25 साल के सुरेंद्र को ब्लड कैंसर है। ढाई तीन साल पहले सुरेंद्र को बार-बार बुखार आता था। गांव में ही इलाज करवाते रहे। किसे कल्पना थी कि यह बुखार ब्लड कैंसर के कारण हो रहा है?
फिर रीवा के जिला अस्पताल में जांच हुई और खून के कैंसर का पता चला। और उन्हें भोपाल एम्स के लिए रेफर कर दिया गया।
मैंने पूछा - कितने दिन से हैं यहां? यानी अस्पताल में।
राम बहोर साकेत ने जो कहा, वह हिला देने वाली बात थी। राम बहोर अपने छोटे भाई के इलाज के लिए 23 अगस्त 2023 से एम्स में थे। कल सुरेंद्र और उन्हें एम्स में रहते हुए एक साल हो जाएगा।
मैं इस बात पर आसानी से विश्वास ही नहीं कर पाया। उनके पिता निर्माण कारीगर हैं। मंझला भाई काम करता है, उससे घर चलता है और राम बाहोर का खर्चा भी। वे केवल सामाजिक रूप से ही वंचित नहीं थे, बल्कि आर्थिक रूप से भी संकट में थे। अपने परिचितों और रिश्तेदारों से आर्थिक मदद लेकर सुरेंद्र का इलाज करवा रहे हैं।
इलाज से कितनी उम्मीद बंधती है?
राम बहोर ने कहा - सुरेंद्र की बोन मैरो थेरेपी नहीं हो सकती है, क्योंकि अब उतना खून ही नहीं बचा है। उसके घुटने में संक्रमण हो गया है। मवाद भरा है और इस रहा है। उसके कानों से खून बहता है। इतना खून बहा है कि कान की हड्डियां गल गईं हैं। वह बोलने की कोशिश करता है, लेकिन बोल नहीं पाता है क्योंकि उसके फेंफड़ों में आक्सीजन नहीं है। सांस फूल जाती है।
सुरेंद्र की इस स्थिति के बाद भी राम बहोर एक साल से उसका इलाज करवा रहे हैं।
कितनी उम्मीद है?
उन्होंने कहा - जब तक शरीर में जान है, तब तक तो उम्मीद है ही। डाक्टर कर रहे हैं कि जैसे ही संक्रमण ठीक होगा, ज्यादा बेहतर इलाज कर सकेंगे। अभी तो संक्रमण ठीक करवाना है।
लगभग हर हफ्ते खून चढ़ाया जाता है। और प्लेटलेट्स की भी जरूरत होती है। वह अकेले भोपाल में रह कर एक साल से ये सब व्यवस्था कर रहे हैं। वो खुद अपने भाई को खून नहीं दे सकते हैं, लेकिन रक्तदान करते रहे हैं।
फिर धीरे से कहते हैं - अब तो मेरा खून भी रिजेक्ट हो जाता है क्योंकि हीमोग्लोबिन कम हो गया है। लेकिन यहां ब्लड बैंक के सभी लोग बहुत मदद करते हैं। अब तो यहीं रिश्तेदारी बन गई है।
दो घंटे में मैं अपनी नसों से खून निकलते, मशीन में जाते और प्लेटलेट्स निकाल कर वापस अपने शरीर में जाते देखता रहा। इस दौरान मुझसे कई बार पूछा गया कि कोई तकलीफ तो नहीं हो रही है? मुंह पर झुनझुनी तो नहीं है? राम बहोर को देखते हुए कुछ और महसूस ही नहीं हुआ।
जरा सोचिए कि अगर यह सरकारी अस्पताल न होता, तो क्या सुरेंद्र के इलाज की उम्मीद बनी रहती? राम बहोर किसके भरोसे रहते? वास्तव में मुझे समझ आया कि व्यवस्था ही उम्मीद का एक पाया होती है। कहां एक साल तक सुरेंद्र का इलाज होता? कहां से दवाएं आतीं? कहां से ब्लड और एस डी पी मिलता कहां जांचें होती? बस यही है लोक स्वास्थ्य व्यवस्था होने का मतलब। अगर एम्स न होता, तो क्या होता?
इंसान की संवेदनाओं और उम्मीदों को अथाह माना जा सकता है। उसके प्रेम का अहसास कितना विस्तार लिए हुए है।
-जुबैर अहमद
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार को यूक्रेन पहुंचे। वो यहां यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेंस्की से गर्मजोशी से मिले। पीएम मोदी और जेलेंस्की ने इस दौरान एक दूसरे को गले लगाया।
ये वैसा ही नजारा था जैसा पीएम मोदी ने छह हफ्ते पहले रूस के दौरे के दौरान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को गले लगाया था। इसको लेकर जेलेंस्की ने आपत्ति जताई थी।
जेलेंस्की ने कहा था, ‘आज रूस के मिसाइल हमले में 37 लोग मारे गए। इसमें तीन बच्चे भी शामिल थे। रूस ने यूक्रेन में बच्चों के सबसे बड़े अस्पताल पर हमला किया। एक ऐसे दिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता का दुनिया के सबसे ख़ूनी अपराधी से मॉस्को में गले लगाना शांति स्थापित करने की कोशिशों के लिए बड़ी निराशा की बात है।’
ऐसे में पीएम मोदी की इस यूक्रेन यात्रा को संतुलन साधने के तौर पर देखा जा रहा है। इसके बाद चर्चा हो रही है कि यूक्रेन और रूस के बीच जारी संघर्ष को लेकर मोदी और ज़ेलेंस्की में क्या बात हुई? इससे क्या हासिल हुआ?
पीएम मोदी और वोलोदिमीर जेलेंस्की मिले
पीएम नरेंद्र मोदी ने वोलोदिमीर जेलेंस्की को गले लगाते हुए फोटो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट की।
तस्वीर में पीएम मोदी यूक्रेन के राष्ट्रीय संग्रहालय में एक मल्टीमीडिया प्रदर्शनी का मुआयना करते हुए दिख रहे हैं।
पीएम मोदी ने कहा, ‘संघर्ष विशेष रूप से छोटे बच्चों के लिए विनाशकारी है। मेरी संवेदना उन बच्चों के परिवारों के साथ है जिन्होंने अपनी जान गंवाई। मैं प्रार्थना करता हूं कि उन्हें अपना दुख सहने की शक्ति मिले।’
मोदी ने जान गंवाने वाले बच्चों के सम्मान में उन्हें याद करते हुए वहां एक खिलौना रखा।
क्या हासिल हुआ?
पीएम मोदी ने बताया कि कीएव में जेलेंस्की से बहुत उपयोगी चर्चा हुई। भारत यूक्रेन के साथ आर्थिक संबंधों को गहरा करने के लिए उत्सुक है।
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘हमने कृषि, प्रौद्योगिकी, फार्मा और ऐसे अन्य क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ावा देने के तरीकों पर चर्चा की। हम सांस्कृतिक संबंधों को और मजबूत करने पर भी सहमत हुए।’
‘भारत हमेशा आपके साथ खड़ा रहेगा’
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जेलेंस्की से यूक्रेन और रूस के बीच जारी संघर्ष का जिक्र करते हुए कहा कि इसका समाधान बातचीत है।
मोदी ने कहा, ‘‘दोनों पक्षों को एक साथ बैठना चाहिए और उन्हें इस संकट से बाहर आने के रास्ते तलाशने होंगे। आज मैं यूक्रेन की धरती पर आपके साथ शांति और आगे बढऩे के मार्ग पर विशेष रूप से चर्चा करना चाहता हूं।’’
प्रधानमंत्री ने ज़ेलेंस्की को भरोसा दिलाते हुए कहा, ‘‘भारत, शांति के हर प्रयास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार है। मैं व्यक्तिगत रूप से इसमें योगदान दे सकता हूं तो मैं ऐसा ज़रूर करना चाहूंगा। एक मित्र के रूप में, मैं आपको इसका विश्वास दिलाता हूं।’’
उन्होंने कहा, ‘‘मैं आपको और पूरे विश्व समुदाय को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि यह भारत की प्रतिबद्धता है और हम मानते हैं कि संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान हमारे लिए सर्वोपरि है और हम इसका समर्थन करते हैं।’’
पीएम मोदी और वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की के बीच क्या चर्चा हुई?
पीएम मोदी ने एक वीडियो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट किया। इसमें वोलोदिमीर जेलेंस्की उनके सामने बैठे हुए हैं।
पीएम मोदी ने जेलेंस्की की मौजदूगी में कहा, हमारी पहली भूमिका मानवीय दृष्टिकोण की रही है। ऐसी संकट की घड़ी में बहुत सारी जरूरत रहती है। भारत ने मानवीय दृष्टिकोण को केंद्र में रखते हुए इसे पूरा करने का प्रयास किया है।’
मोदी ने कहा, ‘मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मानवीय दृष्टिकोण से जिस प्रकार की भी मदद की आवश्यकता होगी भारत हमेशा आपके साथ खड़ा रहेगा।’’
मोदी ने जेलेंस्की की मौजूदगी में रूस के राष्ट्रपति पुतिन का भी जिक्र किया।
पीएम मोदी ने व्लादिमीर पुतिन को लेकर क्या कहा?
पीएम मोदी ने रूस यात्रा के दौरान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से हुई वार्ता का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने पुतिन से कहा था कि यह युद्ध का समय नहीं है।
मोदी ने कहा, मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि किसी भी समस्या का समाधान कभी भी रणभूमि में नहीं होता है। समाधान केवल बातचीत, संवाद और कूटनीति के माध्यम से होता है और हमें समय बर्बाद किए बिना उस दिशा में आगे बढऩा चाहिए।’’
वोलोदिमीर जेलेंस्की ने क्या कहा?
पीएम मोदी के साथ अपनी बैठक पर वोलोदिमीर जेलेंस्की ने कहा कि बहुत अच्छी बैठक हुई, यह एक ऐतिहासिक बैठक है।
उन्होंने कहा कि पीएम मोदी के आने के लिए बहुत आभारी हूं। यह कुछ व्यावहारिक कदमों के साथ एक अच्छी शुरुआत है। उनके (पीएम मोदी) के (शांति पर) कोई विचार हैं तो हमें इस पर बात करने में खुशी होगी।
जेलेंस्की ने कहा, ‘पीएम मोदी पुतिन से ज़्यादा शांति चाहते हैं। समस्या यह है कि पुतिन इसे नहीं चाहते।’
भारत क्या भूमिका अदा कर सकता है?
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के यूरोपीय अध्ययन केंद्र की प्रोफेसर भास्वती सरकार ने संतुलन साधने के सवाल पर कहा कि हम ऐसा 2022 से कर रहे हैं।
उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा, रूस ने जब 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर हमला किया था तब से हम संतुलन कर रहे हैं। हमारा रूस से गहरा संबंध है और इसको हमें वैसे ही रखना है। यहां पर कोई तब्दीली नहीं है। हमारी एक दूसरे के प्रति काफी लंबे समय से प्रतिबद्धता है।’’
भास्वती सरकार ने कहा, यूरोप में हमारे जो पार्टनर हैं खासतौर पर अमेरिका। जिसके साथ हम अपने संबंध गहरे करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में भारत से कुछ उम्मीदें हैं।
युद्ध को रुकवाने में भारत की भूमिका होने के सवाल पर उन्होंने कहा ये सच है कि पीएम मोदी ही पुतिन को बोल पाए कि ये युद्ध का समय नहीं है। ये कोई यूरोपियन तो नहीं बोल पाए। पीएम मोदी बोल चुके हैं कि बात के बिना समाधान नहीं निकेलगा।
उन्होंने कहा कि युद्ध को रुकवाने के लिए कई लोग पहल कर रहे हैं। चीन ने भी ऐसा किया था। स्विट्जरलैंड में हुए ग्लोबल पीस समिट में भी हुआ था, लेकिन इसमें रूस ने भागादारी नहीं ली। लड़ाई करने वाले दोनों देशों के बिना बैठे कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा। दोनों को साथ लाने में भारत महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
वहीं, रूस मामलों के विशेषज्ञ और जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर राजन कुमार ने बीबीसी के दिनभर पॉडकास्ट में कहा कि ये पश्चिमी देशों के लिए संकेत जरूर है।
पीएम मोदी के दौरे के क्या मायने हैं?
मोदी का ये सांकेतिक दौरा था या इसके गहन मायने भी थे क्योंकि मोदी इसी साल मॉस्को भी गए थे। इसको लेकर प्रोफेसर राजन कुमार ने कहा, ये पश्चिमी देशों के लिए एक संकेत ज़रूर है कि भारत एक संतुलित विदेश नीति रखता है। ये एक साहस से भरा कूटनीतिक क़दम है।
उन्होंने कहा, ‘जब से यूक्रेन एक स्वतंत्र देश बना है, उसके बाद से यह इस स्तर की पहली यात्रा है। ये वक्त भी ऐसा है जब युद्ध के दौरान, कुछ इलाक़ों पर यूक्रेन के कब्जे का दावा है। ऐसा दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, पहली बार हुआ है। मोदी पहले रूस गए थे जिसके बाद, पश्चिमी देश नाराज हो गए थे।
प्रोफ़ेसर राजन कुमार ने कहा कि भारत क्वाड का सदस्य है और इसके बावजूद भी वो रूस का साथ देता है। इस यात्रा से एक तरह से यह बताने की कोशिश है कि भारत की विदेश नीति संतुलित है। ये एक तरफ संतुलन का प्रयास है तो दूसरी तरफ ‘पुल बांधने’ का प्रयास है, यानी ‘ब्रिजिंग रोल’ है।
उन्होंने कहा कि पहला प्रयास कि रूस और यूक्रेन को कैसे जोड़ें और दूसरा प्रयास कि कैसे भारत ‘ग्लोबल साउथ’ यानी ‘वैश्विक दक्षिण’ के प्रतिनिधि के रूप में, यूक्रेन को ग्लोबल साउथ से जोड़ सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि युद्ध का बड़ा प्रभाव ग्लोबल साउथ पर हुआ है। साथ ही प्रधानमंत्री ने इस दौरे पर भी यह भी कहा है कि यह 'युद्ध का नहीं बुद्ध का समय है', यानी यह दौरा कहीं ना कहीं शांति की कोशिश है।
रूस और यूक्रेन के बीच भारत की क्या भूमिका है?
रूस और यूक्रेन के बीच भारत की भूमिका क्या देखते हैं? इसको लेकर प्रोफेसर राजन कुमार ने कहा कि शीत युद्ध के बाद से यानी 1991 के बाद से अब तक भारत की ऐसी कोशिश नहीं रही कि वो मध्यस्थता की बात करे चाहे वो अफगानिस्तान हो, सीरिया हो या इराक हो।
उन्होंने कहा, भारत अगर दोनों पक्षों को सामने लाने की बात कर रहा है तो हम कह सकते हैं कि भारत की विदेश नीति में एक अहम परिवर्तन देख रहे हैं। जहां तक अभी की बात है। न तो अमेरिका और न ही रूस अभी युद्धविराम की बात कर रहा है।
राजन कुमार ने कहा, राजनीतिक माहौल भी अभी इस ढंग का नहीं है कि युद्धविराम की बात की जाए। भारत ने चीन या तुर्की की तरह न तो शांति प्रस्ताव की बात की है और न ही कोई प्लेटफॉर्म दिया है। अभी ये स्पष्ट नहीं है कि अगर मध्यस्थता की बात हो तो भारत किस तरह की भूमिका निभाएगा।
यूक्रेन के 1991 में स्वतंत्र होने के बाद यह भारतीय प्रधानमंत्री की देश की पहली यात्रा है। रूस ने 24 फरवरी, 2022 को यूक्रेन पर हमला किया था। तब से लेकर अभी तक दोनों देशों के बीच युद्ध जारी है।
फरवरी 2022 से जारी ये लड़ाई कब थमती है यह तो आने वाले समय ही बताएगा, लेकिन पीएम मोदी जेलेंस्की और पुतिन दोनों से बोल चुके हैं कि शांति ही समाधान है। (bbc.com/hindi)
-जेके कर
भ्रामक नामधारी दवायें स्वास्थ्य के लिये खतरा हैं. भ्रामक नामधारी दवाओं से हमारा तात्पर्य look-alike sound-alike (LASA DRUGS) से है. दरअसल, कुछ दवायें एक जैसा नाम वाली तथा एक जैसा दिखने वाली होती हैं जबकि इनमें दवायें अलग-अलग होती हैं. खबर है कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय इस पर नकेल कसने की तैयारी कर रहा है. यह एक देर से उठाया गया स्वागत योग्य कदम है. आइये सबसे पहले हम इन भ्रामक नामधारी दवाओं के बारे में जान लेते हैं, तब आपकी समझ में आयेगा कि यह कितनी खतरनाक हैं.
Olvance उच्च रक्तचाप की दवा olmesartan है वहीं, Oleanz मनोविकार की दवा olanzapine है. IMOX मनुष्यों को दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवा amoxicillin हैं वहीं, INIMOX पशुओं को दी जाने वाली इंजेक्शन amoxicillin and cloxacillin है. Medzol नामक ब्रांडनेम से दो अलग-अलग तरह की दवा उपलब्ध है एक में Midazolam है जो नींद को सामान्य करने के लिये तथा मिर्गी रोग को नियंत्रित करने के लिये दी जाती है वहीं, दूसरे ब्रांड में Pantoprazole है जो एसीडिटी तथा पेट के अल्सर में दी जाने वाली दवा है. वहीं इससे मिलते-जुलते नाम वाली Medzole में Metronidazole है जो बच्चों के पेट की दवा है.
PRONIM नाम से NIMESULIDE उपलब्ध है जो दर्द तथा बुखार की दवा है जबकि इससे मिलते-जुलते नाम की दवा PRONIL है जिसमें अवसाद की दवा FLUOXETINE है. CELIB नाम की दवा में दर्द की दवा CELECOXIB है जबकि CELIN में VITAMIN C है. ELTOCIN में एंटीबायोटिक ERYTHROMYCIN है तो ELTROXIN में हाइयोथायराइड की दवा THYROXINE है. ACEIN उच्च रक्तचाप की दवा ENALAPRIL है तो ACEM में एंटीबायोटिक CLARITHROMYCIN है.
यहां पर इस बात का उल्लेख करना गलत नहीं होगा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्थायें तथा लोग लंबे समय से इसके खिलाफ आवाज़ उठाते रहें हैं तथा सावधान करते रहें हैं. दिल्ली हाइकोर्ट ने साल 2022 में ड्रग कंट्रोलर जनरल आफ इंडिया को निर्देश दिया था कि एक सेन्ट्रल ड्रग डाटाबेस बनाया जाये जिसका उपयोग राज्यों के ड्रग कंट्रोलर कर सके. इस डाटाबेस में दिये नामों को देखकर ही किसी नई दवा के नाम की अुनमति प्रदान किया जाये.
खबरों के अनुसार केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय एक ऐसा पोर्टल लाने जा रहा है जिसमें सभी दवा निर्माताओं को अपने दवाओं का ब्रांडनेम तथा उसमें कौन सी दवा है उसकी जानकारी अपलोड करनी पड़ेगी. इसके बाद जो नाम पहले रजिस्टर्ड कराये गये थे उनको अनुमति दी जायेगी तथा बाद में उसी के समान नाम से जो अन्य दवा रजिस्टर्ड कराई गई थी उसे खारिज कर दिया जायेगा.
गौरतलब है कि हमारें छत्तीसगढ़ सहित देशभर में ज्यादातर चिकित्सक अपने हाथ से लिखकर ही दवाओं की पर्ची देते हैं इससे दवा दुकानदारों से गलती होने की संभावना बनी रहती है. हालांकि, कम्प्यूटर से लिखित पर्ची होने के बावजूद भी भ्रामक नामधारी दवा या look-alike sound-alike (LASA) का खतरा बना रहता है. जरूरत है कि जल्द के जल्द इन दवाओं को नियंत्रित तथा नियमित किया जाये ताकि मरीजों को सुरक्षा प्रदान की जा सके.
-अपूर्व गर्ग
प्रेमचंद उस महान उपन्यास को पूरा न पढ़ पाए ,इतने भावुक हो गए कि किताब हाथ से छूट गयी .
सोचिये उपन्यास सम्राट एक उपन्यास को पढ़ते -पढ़ते आंसुओं में डूब गए कितना महान उपन्यास होगा वो !
दरअसल वो उपन्यास वेश्यावृत्ति की दुनिया की दहला देने वाली तस्वीर कुछ ऐसे सामने रखता है जिसे पढ़ते हुए पाठक काँप ही जाए .
इसे पढ़ते हुए प्रेमचंद के बहते आंसू बताते हैं वो स्त्री के शोषण को लेकर कितने संवेदनशील थे .
स्त्री समस्या को लेकर विशेष रूप से प्रेमचंद ने सेवासदन , निर्मला और प्रतिज्ञा जैसे महान उपन्यास लिखे .
याद करिये प्रेमचंद की कहानी ' नैराश्यलीला ' में कहानी की पात्र कैलाशी अपने आक्रोश को किस तरह व्यक्त करती है :
"मैं अपने आत्मसम्मान की रक्षा आप कर सकती हूँ .मैं इसे अपना घोर अपमान समझती हूँ कि पग- पग पर मुझ पर शंका की जाय ,नित्य कोई चरवाहों की भांति मेरे पीछे लाठी लिए घूमता रहे कि किसी खेत में न जा पडूं .यह दशा मेरे लिए असह्य है "....
प्रेमचंद स्त्री समस्या को लेकर भावुक ,संवेदनशील ही नहीं मुखर थे .
बहरहाल , उस दिन प्रेमचंद जैनेन्द्र जी से मिलने गए और बोले -:
" भई जैनेन्द्र ये किताब powerful है .. कहीं -कहीं तो मुझसे पढ़ा ही नहीं गया .दिल इतना बेकाबू हो गया , आंसू रोकना मुश्किल हुआ ..... मुझसे आगे पढ़ा ही नहीं गया जैनेन्द्र , किताब हाथ से छूट गयी ..''
जैनेन्द्र जी बताते हैं कि-- :
''उस पुस्तक के उस प्रसंग का प्रेमचंद अनायास ही वर्णन करने लगे .मैं सुनता रहा .......प्रसंग बेहद मार्मिक था .
प्रेमचंद जी मानों अवश्य भाव से ,आप खोये से कहते जा रहे थे . सहसा मैं देखता हूँ वाक्य अधूरा रह गया .वाणी मूक हो गयी आँख उठाकर देखा --उनका चेहरा एकाएक मानों
राख की भांति सफ़ेद हो आया है . क्षण भर में सन्नाटा हो गया ........और पल बीते न बीते मैंने देखा , प्रेमचंद का सौम्य मुख एकाएक बिगड़ उठा है .
जैसे भीतर से कोई उसे मरोड़ रहा हो .जबड़े हिल आये ,मानों कोई भूचाल उन्हें हिला गया .......देखते -देखते उन आँखों से आंसू झर झर रहे थे ...लड़खड़ाती आवाज़ में बोले जैनेन्द्र ...आगे उनसे बोलै न गया ..''
वो महान उपन्यास जिसने हमारे उपन्यास सम्राट को रुला दिया वो था ''Aleksandr I. Kuprin का Yama: The Pit ''
प्रेमचंद ने जैनेन्द्र से उम्मीद करी कि वे इसका अनुवाद करें .जैनेन्द्र ने उन्हें आश्वस्त किया .जैनेन्द्र ने इस पर काम शुरू किया पर इस बीच चन्द्रभाल जौहरी ने इस काम को पूरा किया .वे इस उपन्यास का नामचकला रखना चाहते थे पर उनकी सोच थी कि 'भले आदमी नाम सुनकर छूने तक की हिम्मत न करते '.
चन्द्रभाल जौहरी ने इस इस उपन्यास का नाम 'गाड़ीवालों का कटरा' रखा .
चन्द्रभाल जौहरी के 'गाड़ीवालों का कटरा' आने के बाद जैनेन्द्र जी ने इस पर काम छोड़ दिया था पर प्रेमचंद को याद कर इस काम को 1931 में किये वायदे को 25 बरस बाद पूरा कर किया ,और पुस्तक का नाम रखा 'यामा '
चन्द्रभाल जौहरी ने'गाड़ीवालों का कटरा' में लिखा है 'दिल थाम कर पढ़िए '
जैनेंद्र ने 'यामा ' में लिखा है 'मूल पुस्तक के सम्बन्ध में बहुत विवाद रहा है ..... विवाद अब भी हो सकता है पर मुँह फेरना नैतिकता नहीं ..'
-जुबैर अहमद
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के पहले मंगलवार रात यूक्रेन की राजधानी कीएव में हर जगह जब सायरन बजे तो शहर थम सा गया।
सुरक्षा अलर्ट के बावजूद, एकेडमिक और भारत मामलों की विशेषज्ञ डॉ.ओलेना बोर्डिलोव्स्का बहुत साहस जुटाकर सुबह ऑफिस पहुंचती हैं, क्योंकि उनका बहुत व्यस्त दिन है।
वो कहती हैं, मैं शिकायत नहीं करना चाहती। लेकिन हम लोगों को बताना चाहते हैं कि अब हम बहुत थक गए हैं। हालांकि, यहां यही रूटीन है।
डॉ. ओलेना की थम सी गई जिंदगी, मॉस्को में रह रहे प्रोफेसर अनिल जनविजय की जिंदगी से बिल्कुल अलग है। अनिल जनविजय वहां 1982 से ही रह रहे हैं।
मुख्य रूप से उत्तर भारत के रहने वाले जनविजय मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं और वो ज़ोर देकर कहते हैं कि मॉस्को में जिंदगी बिल्कुल सामान्य है।
अपने आरामदेह ऑफिस में बैठे प्रोफेसर जनविजय ने कहा, जंग शुरू होने के बाद से मेरी जिंदगी में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है।
हमारी जिंदगी पर न तो जंग का कोई असर पड़ा है न तो पश्चिमी प्रतिबंधों का, सिवाय इसके कि कुछ इम्पोर्टेड सब्जियों के दाम बढ़ गए हैं।
हालांकि उनके दावे को पश्चिम के कई लोग खारिज कर सकते हैं, लेकिन दोनों शहरों में जंग के साये में चल रही जिंदगी की यही कहानी है, एक ऐसी जंग जिसके जल्द खत्म होने के कोई आसार नहीं दिखाई देते।
असल में, रूस के कुस्र्क इलाके में यूक्रेन की घुसपैठ के बाद यूक्रेन में बहुत से लोग ख़ुश हैं।
एक स्थानीय अखबार में अकादमिक और राजनीतिक टिप्पणीकार ओल्गा टोकारियुक ने लिखा, इसने लोगों में भरोसा बहाल किया है कि यूक्रेन जीत सकता है। साथ ही इसने कीएव के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व के प्रति भी भरोसा पैदा किया है, बावजूद कि जंग के मैदान में हाल में कोई खास सफलता नहीं मिली है।
ओल्गा टोकारियुक ने लिखा, यूक्रेन के अंदर बातचीत को लेकर बहुत कम इच्छा थी और उससे भी कम इस बात पर भरोसा था कि रूस संघर्ष विराम का इस्तेमाल, ख़ुद को हथियारबंद, संगठित और फिर से हमला करने के लिए नहीं करेगा।
इस पृष्ठभूमि में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कीएव का दौरा करने जा रहे हैं, जहाँ वो यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर जेलेंस्की से मुलाकात करेंगे।
कीएव जाने से पहले पीएम मोदी ने पोलैंड में भारतीय मूल के लोगों से मुलाकात की और उन्होंने सितंबर 2022 के अपने बयान को दुहराया कि ‘यह युद्ध का युग नहीं है।’ उन्होंने इलाके में युद्ध के शांतिपूर्ण समाधान के लिए काम करने का वादा किया।
कीएव में क्या है चर्चा
भारतीय मामलों की जानकार डॉ.ओलेना बोर्डिलोव्स्का कहती हैं कि ‘मोदी के कीएव दौरे को लेकर भारतीय मीडिया में चर्चा बहुत है, जो कि 1991 में यूक्रेन के स्वतंत्र होने के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री का पहला दौरा है।’ यूक्रेन के मीडिया में भी इस दौरे पर करीब से नजर रखी जा रही है।
कीएव में नेशनल इंस्टीट्यूट फोर स्ट्रैटिजिक स्टडीज में डिपार्टमेंट ऑफ़ न्यू चैलेंजेज की प्रमुख डॉ। ओलेना, भारतीय मामलों की जानी-मानी विद्वान हैं।
वो ठीक ठाक हिन्दी बोल लेती हैं। वो भारत का बहुत सम्मान करती हैं और उम्मीद करती हैं कि मोदी का दौरा शांति की कोशिशों की शुरुआत कर सकता है।
इस दौरे की व्यापक कवरेज हो रही है और बढ़-चढ़ कर दावा किया जा रहा है कि मोदी एक शांतिदूत या मध्यस्थ की भूमिका निभाने जा रहे हैं।
पिछले महीने 8-9 जुलाई को उनकी मॉस्को यात्रा के बाद यह दौरा हो रहा है।
प्रोफेसर अनिल जनविजय ने कहा कि लगता है कि ‘मॉस्को इसे लेकर उदासीन है।’
उन्होंने कहा, कोई प्रतिक्रिया नहीं है। मीडिया भी इसे नजरअंदाज कर रहा है।
हालांकि दोनों देशों में एक चीज़ कॉमन है- वो है युद्ध की पस्ती।
डॉ. ओलेना बोर्डिलोव्स्का कहती हैं कि यूक्रेन के लोग जंग से पूरी तरह ऊब चुके हैं।
वो कहती हैं कि दुनिया में बाकी लोगों के लिए, जंग तब शुरू हुई जब रूस ने फऱवरी 2022 में यूक्रेन पर आक्रमण की शुरुआत की थी। लेकिन यूक्रेन की जनता के लिए, यूक्रेन पर हमला फऱवरी 2014 में शुरू हुआ था, जब इसने क्राइमिया पर हमला किया और इसे अलग कर अपने में मिला लिया।
क्या मोदी की मध्यस्थता दोनों
पक्षों को स्वीकार होगी?
मौजूदा समय में, शायद बहुत कम ही वैश्विक नेता हैं, जिनका मॉस्को और कीएव दोनों में एक जैसा स्वागत होता है।
नेटो सहयोगी देश हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने पिछले महीने ही शांति मिशन के तहत दोनों राजधानियों का दौरा किया था। लेकिन यूरोप में ओरबान को यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की की बजाय रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के अधिक करीब देखा जाता है।
कुछ टिप्पणीकारों का कहना है कि शायद नरेंद्र मोदी खुद को उन कुछ चंद लोगों में शुमार कर सकते हैं, जिनका दोनों देशों में स्वागत होता है।
कई लोगों का कहना है कि इस दौरे का मकसद पश्चिम के साथ संबंधों में संतुलन लाना है क्योंकि इससे पहले मोदी के रूसी दौरे की काफ़ी आलोचना हुई थी लेकिन भारतीय अधिकारी इससे असहमत हैं।
यह दौरा शुरू होने से पहले भारत के विदेश मंत्रालय के सेक्रेटरी (पश्चिम) तन्मय लाल ने एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा था, मैं कहना चाहूंगा कि यह कोई ऐसी परिस्थिति नहीं है, जिसमें एक के साथ होने का मतलब दूसरे के खिलाफ होना है।
उन्होंने कहा, प्रधानमंत्री ने रूस की यात्रा की थी। कई विचारों का आदान प्रदान हुआ। पिछले एक साल में या उससे भी पहले प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति जेलेंस्की से कई बार मिल चुके हैं। अब वे फिर से यूक्रेन में मिलने जा रहे हैं। इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि ये स्वतंत्र और व्यापक संबंध है।
भारतीय मीडिया में जो हेडलाइंस हैं, उसके अनुसार, यह दौरा शांति योजना का रास्ता खोल सकता है।
एक शीर्षक में कहा गया है, ‘पीएम मोदी का दौरा क्यों शांति के लिए एक मील का पत्थर है।’
एक अन्य शीर्षक में पूछा गया है, ‘जंग ख़त्म करने में क्या भारत कोई भूमिका निभा सकता है?’
हालांकि राजनीतिक टिप्पणीकारों ने थोड़ा एहतियात बरतने की अपील की है और इस ओर ध्यान दिलाया है कि मोदी के कीएव के दौरे से, न तो यूक्रेन या रूस अपनी ओर से शांति की पहल शुरू करेंगे और न ही यह एक सद्भावना यात्रा से अधिक साबित होगा।
8-9 जुलाई को मॉस्को दौरे में भारतीय प्रधानमंत्री ने इस तरह का कोई शांति प्रस्ताव नहीं दिया था। उस समय राष्ट्रपति पुतिन के प्रवक्ता डी पेस्कोव ने भी इसकी पुष्टि की थी।
उन्होंने कहा था, यूक्रेन संघर्ष में मध्यस्थता को लेकर भारत की ओर से कोई शांति प्रस्ताव नहीं मिला है।
डॉ.ओलेना बोर्डिलोव्स्का का मानना है कि भारतीय प्रधानमंत्री उनके देश बिना किसी शांति योजना के आ रहे हैं, लेकिन वो फिर भी इंतज़ार करना चाहती हैं।
इस बात का जिक्र करते हुए कि यूक्रेन का दौरा करने वाले भारत के एकमात्र शीर्ष नेता थे राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, वो कहती हैं, इस दौरे को लेकर शोर शराबे के शांत होने तक मैं इंतजार करूंगी।
यूक्रेन दौरे का मकसद क्या है?
पीएम मोदी आखिर रूस के मॉस्को जाने के कऱीब छह हफ्ते बाद यूक्रेन के कीएव दौर पर क्यों जा रहे हैं?
पीएम मोदी का मॉस्को दौरा ऐसे समय हुआ था, जब उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) का सम्मेलन अमेरिका के वॉशिंगटन डीसी में होना था, उसी दिन रूसी लड़ाकू विमानों ने कीएव में स्थित बच्चों के अस्पताल को निशाना बनाया, जिसमें पांच बच्चों की जान गई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूस दौर को लेकर पश्चिमी देशों के नेताओं ने निराशा जाहिर की थी।
वहीं, पश्चिमी मीडिया ने तो मोदी और पुतिन के गले लगने की तस्वीर और बच्चों के अस्पताल पर किए गए हमले की फोटो को एक साथ दिखाया था।
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने भी इसको लेकर आलोचना की थी। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट में लिखा था, इससे बहुत ज़्यादा निराशा हुई। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता को एक ऐसे दिन पर मॉस्को में दुनिया के सबसे ख़ूनी अपराधी को गले लगाते देखना शांति प्रयासों के लिए बहुत बड़ा झटका है।
कइयों ने कहा कि पीएम मोदी यूक्रेन का दौरा कर संतुलन साधने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन विदेश मंत्रालय के अधिकारियों का कहना है कि भारत विदेश नीति में अपनी रणनीतिक स्वायत्तता के सिद्धांतों पर काम करता है।
डॉ. क्षितिज बाजपेयी लंदन में स्थित थिंक टैंक चैटम हाउस में एशिया पैसिफिक प्रोग्राम में दक्षिण एशिया के लिए रिसर्च फेलो हैं।
उन्होंने कहा, मुझे यक़ीन नहीं है कि मोदी कोई विशिष्ट शांति प्रस्ताव देंगे लेकिन कम से कम भारत, मॉस्को और कीएव के बीच संदेशों आदान-प्रदान के लिए एक माध्यम के रूप में काम कर सकता है।
उन्होंने कहा, भारत के मॉस्को और वॉशिंगटन डीसी दोनों के साथ अच्छे रिश्ते को देखते हुए, भारत-रूस और पश्चिमी देशों के बीच संवाद का बैक चैनल मुहैया कर सकता है।
इससे डॉ.ओलेना पूरी तरह से सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा, मैं भारत की विदेश नीति के बारे में जानती हूं। भारत के पास इस क्षेत्र में काम करने का ज़्यादा अनुभव नहीं है।
उन्होंने कहा, ये भारतीयों के लिए नया है लेकिन उनकी भूमिका स्वीकार्य होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत वैश्विक मंचों पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत साथ ही दावा करता है कि वो ग्लोबल साउथ की आवाज है। इसका मतलब है कि वो विभिन्न विचारों पर किसी तरह का असर डाल सकता है। लेकिन डॉ. क्षितिज बाजपेयी की राय इससे अलग है।
उन्होंने कहा, भारत पहले भी शांति कायम कराने में भूमिका निभा चुका है। जैसे कि कोरियाई युद्ध और फ्रेंच-इंडो चाइना युद्ध। भारत विदेश नीति में स्वायत्तता के कारण ऐसी भूमिका निभाने की अच्छी स्थिति में है। मोदी सरकार की ओर से भारत को ‘विश्व मित्र’ के तौर पर पेश भी किया गया है।
पीएम मोदी और यूक्रेन
डॉ. ओलेना ने कहा कि उन्हें मोदी की मॉस्को यात्रा और पुतिन के साथ उनकी निकटता के बारे में समझाने में कठिनाई हो रही थी।
उन्होंने कहा, मुझे अक्सर अपने लोगों को भारत की स्थिति समझानी पड़ती है क्योंकि वे (मॉस्को की) यात्रा से वास्तव में परेशान थे।
उन्होंने कहा, यहां मौजूद कई लोगों को लगता है कि भारत रूस के साथ अपने विशेष संबंधों और प्रतिबंध को नकार कर उससे सस्ते तेल की खऱीद के कारण रूस समर्थक है। भारत यूक्रेन समर्थक नहीं है। ऐसे में मुझे उन्हें यह समझाना होगा कि भारत सबसे पहले ‘भारतीय हितों का समर्थक’ है।
डॉ.ओलेना ने कहा, मुझे लगता है कि मोदी को यूक्रेन के लोगों को ये समझाने के लिए बहुत कुछ करना होगा कि भारत उनका सच्चा दोस्त है।
मॉस्को यूनिवर्सिटी में हिंदी पढ़ाने वाले और मीडिया वर्क करने के अलावा अनिल जनविजय सोवियत संघ के विघटन के बाद बने कई देशों का दौर भी देख चुके हैं।
वो मानते हैं कि रूसी भारत के सच्चे दोस्त हैं और भारत के प्रति उनके मन में बहुत गर्मजोशी है। लेकिन वो यूक्रेन और रूस के बीच शांतिदूत बनने की भारत की संभावना को ‘सरकार का हिमायती’ भारतीय मीडिया द्वारा खड़ी की गई फंतासी बताकर खारिज करते हैं।
अनिल जनविजय ने कहा, पुतिन ईमानदार मध्यस्थ के रूप में भारत पर भरोसा नहीं करेंगे। रूस जानता है कि मौजूदा स्थिति में भारत तटस्थ नहीं रह सकता है।
उन्होंने कहा कि रूस की लड़ाई नेटो के साथ है। ऐसे में नेटो जब तक इसमें शामिल नहीं होता और कोई प्रस्ताव नहीं देता तो समझौता नहीं होगा।
भारत और शांति
चीन और ब्राजील ने अपनी ओर से शांति प्रस्ताव दिए हैं। शांति बहाल किए जाने को लेकर मार्च 2022 में तुर्की ने रूस और यूक्रेन के बीच बैठकों की मेजबानी की थी। बाकियों ने भी कोशिशें कीं लेकिन अभी तक इसमें कोई सफलता नहीं मिली है। लेकिन मीडिया के शोर शराबे से दूर, भारत और यूक्रेन गंभीर बातचीत में शामिल हैं।
डॉ. ओलेना ने कहा, भारत पहले ही परमाणु मुद्दे पर बातचीत कर चुका है क्योंकि युद्ध के पहले साल में हालात काफी खतरनाक थे। भारत काला सागर अनाज समझौते में भी हिस्सा ले चुका है।
भारत ने बिना उकसावे के रूसी आक्रमण की खुलकर आलोचना नहीं की है लेकिन दोनों पक्षों से अपने मतभेदों को बातचीत और कूटनीति के ज़रिए हल करने का हमेशा आग्रह किया है।
डॉ. बाजपेयी ने कहा, हालांकि इस संघर्ष में रूस और यूक्रेन मुख्य पक्ष हैं, लेकिन ये स्पष्ट है कि ऐसे पक्ष भी हैं, जिनसे संघर्ष का स्थायी समाधान खोजने के लिए सलाह लेने की जरूरत होगी। (bbc.com/hindi)
-उमर आफरीदी-आजम खान
रावलपिंडी की अडयाला जेल में क़ैद पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के संस्थापक इमरान ख़ान एक नए चुनाव में हिस्सा लेने जा रहे हैं।
यह चुनाव राजनीतिक पद के लिए नहीं बल्कि एक यूनिवर्सिटी के चांसलर का है।
हालांकि ऐसी ख़बरें बहुत पहले से आ रही थीं कि इमरान ख़ान ऑक्सफ़ोर्ड चांसलर के चुनाव में हिस्सा लेने वाले हैं।
औपचारिक तौर पर उनकी ओर से बतौर उम्मीदवार आवेदन निर्धारित समय के आखिऱी दिन 18 अगस्त को जमा करवाया गया। इसकी घोषणा इमरान ख़ान के सलाहकार ज़ुल्फ़ी बुख़ारी ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ‘एक्स’ पर की।
ज़ुल्फ़ी बुख़ारी के अनुसार, इमरान ख़ान के निर्देशों के अनुसार, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के चांसलर के चुनाव के लिए उनका आवेदन जमा करवा दिया गया है। इस ऐतिहासिक अभियान में हमें आपके समर्थन की ज़रूरत है।
इमरान ख़ान के सलाहकार ज़ुल्फ़ी बुख़ारी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, इमरान ख़ान क्यों न उस चुनाव में हिस्सा लें? यह एक बेहद प्रतिष्ठित पद है।
ज़ुल्फ़ी बुख़ारी का कहना था, वह (इमरान ख़ान) अतीत में ब्रैडफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के चांसलर रह चुके हैं और उन्होंने यह अहम जि़म्मेदारी बड़ी ईमानदारी से निभाई। इसलिए वह इस पद के लिए सबसे ज़्यादा योग्य व्यक्ति हैं।
उनके केस ख़त्म हो रहे हैं। अगर वह चुनाव जीत जाते हैं तो वह इंशाल्लाह दिसंबर तक व्यक्तिगत तौर पर जि़म्मेदारियां संभाल लेंगे।
पीटीआई की ओर से इसकी जानकारी नहीं दी गई है कि इमरान ख़ान के इस फ़ैसले के पीछे मक़सद क्या है लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि अगर इमरान ख़ान चुने जाते हैं तो यह बड़ी बात होगी, जिसका राजनीतिक और कूटनीतिक असर होगा।
इमरान ख़ान का ख़ुद अपना क्या मक़सद हो सकता है और उनके चुने जाने की स्थिति में क्या राजनीतिक और कूटनीतिक प्रभाव हो सकते हैं? इन सवालों का जवाब जानने से पहले यह देखते हैं कि यह चुनाव कैसे होता है।
ऑक्सफ़ोर्ड चांसलर कैसे चुने जाते हैं?
इस पद पर कामयाब उम्मीदवारों की नियुक्ति 10 साल के लिए होती है लेकिन यह एक सेरेमोनियल पद है।
इस पद पर कोई तनख़्वाह और भत्ता नहीं मिलता लेकिन चांसलर पर किसी तरह की प्रशासनिक जि़म्मेदारी भी नहीं होती।
हालांकि, यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर की नियुक्ति, महत्वपूर्ण समारोहों की अध्यक्षता, फ़ंड जमा करने और स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व करने में चांसलर की अहम भूमिका है।
वह एक तरह से यूनिवर्सिटी का राजदूत होता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि ऑक्सफ़ोर्ड चांसलर के लिए ब्रिटेन में रहना ज़रूरी नहीं। हालांकि उसका सभी महत्वपूर्ण समारोहों में शामिल होना ज़रूरी है, जिसके लिए यात्रा भत्ता यूनिवर्सिटी अदा करती है।
नए चुनाव के लिए यूनिवर्सिटी की काउंसिल ‘चांसलर इलेक्शन कमिटी’ बनाती है, जिसका काम नियमों के अनुसार, चुनावी प्रक्रिया आयोजित करना और उसकी निगरानी करना होता है।
यह काउंसिल किसी भी तरह से इस प्रक्रिया को प्रभावित होने की कोशिश नहीं करती।
इमरान ख़ान के लिए इस मुक़ाबले में हिस्सा लेना वोटिंग सिस्टम में एक हालिया संशोधन के बाद संभव हुआ, जिसके अनुसार यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र और स्टाफ़ के मौजूदा और पूर्व सदस्य अब अपना वोट ऑनलाइन दे सकेंगे।
इस प्रक्रिया को कन्वोकेशन कहते हैं। इससे पहले उम्मीदवारों और वोटरों के लिए कन्वोकेशन में व्यक्तिगत तौर पर हाजिऱ होना ज़रूरी हुआ करता था।
यूनिवर्सिटी के अनुसार, अब दुनिया भर से ढाई लाख से अधिक योग्य वोटर चांसलर के चुनाव में हिस्सा ले सकेंगे।
चुनाव में हिस्सा लेने वाले उम्मीदवारों की अंतिम सूची अक्टूबर में प्रकाशित की जाएगी और वोटिंग की प्रक्रिया 28 अक्टूबर से शुरू होगी।
दस से कम उम्मीदवारों की स्थिति में चुनाव का केवल एक दौर में होगा। उम्मीदवारों की संख्या अधिक होने की स्थिति में चुनावी प्रक्रिया का दूसरा राउंड 18 नवंबर को शुरू होगा।
ख़ास बात यह है कि इस चुनाव में अभी पढ़ रहे स्टूडेंट्स, यूनिवर्सिटी कर्मचारी या किसी राजनीतिक पद के उम्मीदवार हिस्सा नहीं ले सकते।
चांसलर क्रिस्टोफऱ फ्ऱांसिस पैटन 2003 से इस पद पर बने हुए थे, जिन्होंने 31 जुलाई को इस्तीफ़ा दे दिया है।
अस्सी साल के लॉर्ड पैटन हॉन्ग कॉन्ग के आखऱिी गवर्नर रहे और उससे पहले ब्रिटेन की कंज़र्वेटिव पार्टी के चेयरमैन भी रह चुके हैं।
ऑक्सफ़ोर्ड के मशहूर पाकिस्तानी स्टूडेंट्स
इमरान ख़ान ने 1972 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के केबल कॉलेज में दाखि़ला लिया और 1975 में राजनीति, दर्शनशास्त्र और अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन की डिग्री ली।
इस दौरान उन्होंने क्रिकेट के मैदान में यूनिवर्सिटी के लिए कई पुरस्कार जीते। उसी दौरान बेनज़ीर भुट्टो भी ऑक्सफ़ोर्ड में शिक्षा प्राप्त कर रही थीं और इमरान ख़ान के अनुसार उनके बीच दोस्ती भी थी।
71 साल के इमरान ख़ान पाकिस्तान की उन पांच शखि़्सयतों में से एक हैं, जिनका जि़क्र ब्रिटेन की इस सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपनी ‘फ़ेमस ऑक्सोनियन्स’ की लिस्ट में शामिल किया है।
दूसरी चार शखि़्सयतों में पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान, पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिक़़ार अली भुट्टो, उनकी बेटी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो और पूर्व राष्ट्रपति फ़ारूक़ अहमद लेग़ारी हैं।
इस लिस्ट में उन मशहूर शखि़्सयतों के नाम शामिल हैं, जिन्होंने यहां से ग्रेजुएशन की या यहां पढ़ाया और किसी न किसी क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय शोहरत हासिल करके अपना नाम हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज करा लिया।
उनमें ब्रिटेन के 28 प्रधानमंत्री, कम से कम 30 अंतरराष्ट्रीय लीडर, 55 नोबेल पुरस्कार विजेता और 120 ओलंपिक मेडल जीतने वाले शामिल हैं।
इमरान ख़ान दिसंबर 2005 से नवंबर 2014 तक ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ ब्रैडफ़ोर्ड के चांसलर रहे हैं।
यूनिवर्सिटी की वेबसाइट के अनुसार, अपनी आठ साल की चांसलरशिप के दौरान उन्होंने यूनिवर्सिटी में नए इंस्टीट्यूट ऑफ़ कैंसर थेरैप्यूटिक्स की बुनियाद रखी।
इसके बाद से उस इंस्टीट्यूट और इमरान ख़ान के शौकत ख़ानम मेमोरियल हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर के बीच नज़दीकी संपर्क रहे हैं।
इमरान ख़ान ने जब इस पद से इस्तीफ़ा दिया तो उस समय यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर प्रोफ़ेसर ब्रायन कैंटर ने उनकी सेवाओं को सराहते हुए कहा था, वह यूनिवर्सिटी के लिए एक अद्भुत राजदूत और हमारे छात्रों के लिए ज़बर्दस्त रोल मॉडल रहे हैं।’
इमरान ख़ान के लिए यह चुनाव क्यों महत्वपूर्ण है?
इमरान ख़ान के समर्थकों की राय है कि अनुभव, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड से लंबे संबंध, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनकल्याण के काम और क्रिकेट की दुनिया में शोहरत उन्हें चांसलरशिप का एक मज़बूत उम्मीदवार बनाती है।
पाकिस्तान में राजनीतिक विवाद पर लिखी गई किताब ‘पॉलिटिकल कनफ़्िलक्ट इन पाकिस्तान’ के लेखक प्रोफ़ेसर डॉक्टर मोहम्मद वसीम ने बीबीसी को बताया कि ऑक्सफ़ोर्ड चांसलर एक मानद् पद समझा जाता है जो ऐसे लोगों को दिया जाता है, जो बहुत शोहरत रखते हैं।
उनके अनुसार, इससे पहले इमरान ख़ान एक ब्रिटिश यूनिवर्सिटी के चांसलर रह भी चुके हैं।
डॉक्टर वसीम के अनुसार, इमरान ख़ान के लिए पहले भी दो-तीन बार इस पद के लिए कोशिशें की जा चुकी हैं। इन हालात में अगर इमरान ख़ान को ऑक्सफ़ोर्ड जैसी यूनिवर्सिटी की चांसलरशिप मिल जाती है तो फिर यह उनके लिए बहुत हमदर्दी पैदा करेगी।’
एक सवाल के जवाब में उनका कहना था कि इमरान ख़ान अगर चुन लिए जाते हैं तो फिर किसी भी सरकार के लिए उन्हें रोकना ब्रिटेन विरोधी क़दम माना जाएगा।
डॉ वसीम के अनुसार इमरान ख़ान के लिए बाइज़्ज़त तौर पर यह देश से निकलने का भी एक अच्छा मौक़ा होगा।
पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव शमशाद अहमद ख़ान की राय में अगर पाकिस्तान सरकार ने इमरान ख़ान के चुने जाने के बाद भी उनका रास्ता रोकने की कोशिश की और उन्हें बाहर न जाने दिया तो इससे कूटनीतिक जटिलताएं पैदा हो सकती हैं।’
हालांकि डॉक्टर वसीम इस राय से सहमत नहीं है। उनके अनुसार पाकिस्तान और ब्रिटेन कभी एक दूसरे के अंदरूनी मामले को लेकर कूटनीतिक संबंधों को प्रभावित नहीं होने देंगे।
उनके अनुसार, इससे पहले अमेरिका और ब्रिटेन में इमरान ख़ान की रिहाई के बारे में प्रस्ताव भी पास हुए हैं मगर उन बातों का कूटनीतिक संबंधों पर असर नहीं पड़ा।’
हालांकि डॉक्टर वसीम इस बात से सहमत हैं कि ब्रिटेन में इमरान ख़ान की अच्छी शोहरत है और वह इस पद की दौड़ के लिए एक अहम उम्मीदवार माने जा रहे हैं।
पाकिस्तान के पूर्व राजदूत अब्दुल बासित ने बीबीसी को बताया, इमरान ख़ान अगर ऑक्सफ़ोर्ड के चांसलर बन जाते हैं तो उनके लिए इस रोल में काम जारी रखना आसान नहीं होगा क्योंकि अभी वह जेल में हैं और कई मुक़दमों का सामना कर रहे हैं।’
कूटनीतिक संबंधों के बारे में उनका कहना था कि ब्रिटेन किसी राजनीतिक नेता की वजह से कूटनीतिक संबंध पर असर नहीं आने देता। उनके अनुसार, सिविल सोसाइटी या जनता की हद तक इमरान ख़ान के पक्ष में सामने आना और बात है।
अब्दुल बासित के अनुसार, अमेरिका और ब्रिटेन समेत पश्चिमी देशों की सरकारों ने इमरान ख़ान की गिरफ़्तारी और उनके मुक़दमों के बारे में बहुत ध्यान नहीं दिया है।
उनकी राय में, इमरान ख़ान का भी बुनियादी मक़सद यही लगता है कि वह इस तरीक़े से राजनीतिक स्कोरिंग करना चाहते हैं और सबको यह बताना चाहते हैं कि जेल में रहकर भी वह इतने लोकप्रिय हैं कि दुनिया की एक बेहतरीन यूनिवर्सिटी ने उन्हें अपना चांसलर चुना है।’
लेकिन उनके अनुसार, अभी तो यह भी देखना है कि ऑक्सफ़ोर्ड के नियम क़ानून इस बात की इजाज़त देते हैं कि कोई सज़ायाफ़्ता शख़्स इसका चांसलर बन सके। यह अलग बहस है कि सज़ा सही है या ग़लत।’ (bbc.com/hindi)
भारत जब स्वतंत्र हुआ, उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए अनुसूचित जाति एवं जनजाति के वर्गों के लिए लोकसभा तथा विधान सभाओं में 10 वर्ष के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था ताकि उक्त संवर्ग के लोगों को भी उनकी जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा तथा विधान सभाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले लेकिन प्रथम 10 वर्षों की समाप्ति पर पुन: संविधान संशोधन द्वारा, उक्त अवधि को हर 10 वर्ष की समाप्ति पर आगामी 10 वर्षों के लिए बढ़ाया जाता रहा है और अब तक इसमें 7 बार वृद्धि की गई है।
पहली बार जब प्रावधान किया गया था, तब संविधान सभा के सदस्यों का यह मत रहा होगा कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के सर्वांगीण उत्थान के लिए यह प्रावधान आवश्यक है। लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसको बढ़ाया जाना राजनैतिक मजबूरी है।
सन् 1950 में जब यह प्रावधान किया गया था, तब उक्त जाति के लोगों की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति क्या थी और जब-जब इस अवधि में वृद्धि की गई है, तब-तब उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में क्या अंतर आया, कितनी प्रगति हुई, कितने लोगों की आर्थिक स्थिति में वृद्धि हुई, इसका कोई अध्ययन या अनुसंधान सरकारी स्तर पर हुआ होगा ऐसा मेरा मानना है और यदि उनके सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति में सुधार हुआ है तो इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि आरक्षण को किस सीमा तक, कितनी अवधि तक और किस स्वरूप में जारी रखना चाहिए और यदि कोई सुधार नहीं हुआ है तब तो उसे निरंतर जारी रखने में कोई दिक्कत नहीं है।
जब संविधान बना, उस समय अनुसूचित जाति एवं जनजाति में कौन-कौन सी जातियां शामिल होंगी, उसका उल्लेख एवं जाति को उक्त सूची में शामिल करने की प्रक्रिया का उल्?लेख, संविधान के अनुच्छेद 341 में कर दिया गया था।
जिस प्रकार लोकसभा एवं विधानसभाओं में उक्त जाति के लोगों को उनकी जनसंख्या के अनुरूप अवसर उपलब्ध कराने के लिए प्रावधान, संविधान में किया गया, ठीक उसी प्रकार अनुच्?छेद 15 (4) के तहत शासकीय सेवाओं में भी उन्हें पर्याप्त अवसर मिले इसलिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया गया। अनुसूचित जाति एवं जनजाति में वे जातियां शामिल की गई हैं, जो हजारों वर्षों में विभिन्न कारणों से सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से वंचित रहीं और इस कारण वे धीरे-धीरे विकास की ओर अग्रसर होने के बजाए पिछड़ती चली गई।
अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा, वर्ष 1979 में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, तब उन्होंने सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ों की पहचान करने हेतु ‘मंडल आयोग’ का गठन किया और मंडल आयोग की रिपोर्ट को विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने अगस्त, 1990 में लागू कर दिया। हालांकि संवैधानिक प्रावधान न होने के कारण लोकसभा एवं विधानसभाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए स्थान आरक्षित नहीं है लेकिन शासकीय सेवाओं में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया गया जो अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए पूर्व में आरक्षित सीमा के अतिरिक्त थी।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश को आजाद हुए 77 वर्ष हो गये हैं तो क्या जिन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है, उनके शैक्षणिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में सुधार हुआ है ?
संभवत: इसका उत्तर नहीं है क्योंकि आरक्षण का लाभ जाति को देखकर दिया जाता है न कि जिस व्यक्ति को आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है, उसके सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर को देखकर। हो यह रहा है कि आरक्षण के कारण जिन लोगों को उसका लाभ मिल चुका है, उन्हें ही या उनकी पीढिय़ों को ही लगातार इसका लाभ मिल रहा है और जो वास्तव में उपेक्षित या पिछड़े हैं, उनके स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है और यही कारण है कि अभी हाल ही में दिनांक 1 अगस्त, 2024 को उच्चतम न्यायालय की 7 जजों की संविधानपीठ ने 6:1 के बहुमत से अनुसूचित जाति एवं जनजाति आरक्षण में जातियों को विभिन्न श्रेणियों में विभक्त करने का अधिकार राज्यों को दे दिया। न्यायालय का यह भी मत था कि एक ही जाति आरक्षण का अधिक लाभ उठायेगी तो बाकी कमजोर जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा जबकि आरक्षण का मकसद वंचित वर्गों को आगे बढ़ाना है। अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति कोटे में क्रीमीलेयर लागू करने पर भी जोर दिया हालांकि उसका सभी राजनैतिक दलों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया है और अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सांसदों ने इस संबंध में प्रधानमंत्री जी से मुलाकात कर ज्ञापन सौंपा और प्रधानमंत्री जी ने भी इसे लागू न करने की घोषणा कर दी।
क्रीमीलेयर को लागू न करने के पीछे यह तर्क दिया कि संविधान में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के आरक्षण में क्रीमीलेयर का प्रावधान नहीं है। अब क्या केवल इस आधार पर कि संविधान में क्रीमीलेयर का प्रावधान नहीं है, आर्थिक रूप से अति वंचित दलितों के अधिकारों का हनन् नहीं होगा? संविधान में तो आरक्षण का प्रावधान भी केवल 10 वर्षों के लिए था फिर जब संविधान में संशोधन कर उसकी अवधि में वृद्धि की जा सकती है तो क्रीमीलेयर का प्रावधान शामिल करने में संसद को कौन रोक रहा है?
लेकिन इससे उन लोगों को अवसर नहीं मिलेगा जिन्हें आरक्षण के कारण बार बार अवसर मिलता रहता है और वे लोग पुन: वंचित रह जाते हैं जो वास्तव में आरक्षण के हकदार हैं।
कुल-मिलाकर जब तक न्यायालय के क्रीमीलेयर वाले फैसले के आधार पर जातियों के वर्गीकरण के फैसले को लागू नहीं किया जाता, तब तक अनुसूचित जाति एवं जनजाति में शामिल सभी जातियों का उत्थान संभव नहीं है। इसलिए यदि हम सभी का उत्थान चाहते हैं तो क्रीमीलेयर का प्रावधान लागू करना सामयिक एवं प्रासंगिक होगा और तभी डॉ भीमराव अंबेडकर का वह सपना साकार हो सकेगा कि प्रत्येक वंचित व्यक्ति को बराबरी का अवसर मिले। अन्यथा जिस प्रकार उपेक्षा के कारण अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग पिछड़े रह गये उसी प्रकार इन्ही जातियों के ऐसे लोग जिन्हें आगे बढऩे का अवसर नहीं मिला वे और भी पिछड़ते जाएँगे।
-चन्द्रशेखर गंगराड़े
पूर्व प्रमुख सचिव
छत्तीसगढ़ विधानसभा
- नासिरुद्दीन
अगर दो बालिग़ व्यक्ति अपने निजी दायरे में रज़ामंदी से किसी रिश्ते में हैं तो क्या यह गलत होगा?
अगर इनमें से एक शादीशुदा है या दोनों शादीशुदा हैं और शादी से अलग इनके रिश्ते हैं, तो क्या यह अपराध होगा? क्या ऐसे मामले में मर्द की ‘बेवफाई’ के लिए लडक़ी ही जि़म्मेदार होती है?
क्या इसकी सार्वजनिक तौर पर लानत-मलामत करने की इजाजत दी जा सकती है? क्या ऐसे मामले में हिंसा करना, उस हिंसा का वीडियो बनाना और उस वीडियो को सार्वजनिक करना सही है?
ऐसे कई सवाल बार-बार सामने आते हैं और पिछले दिनों सोशल मीडिया पर घूम रहे एक वीडियो को देखने के बाद जहन में उठते रहे हैं।
इसमें कुछ पुरुष और महिलाएँ एक मर्द और स्त्री को पकड़े हैं। उन पर चिल्ला रहे हैं। उनकी पिटाई कर रहे हैं।
पता चला कि जिन दो व्यक्तियों की पिटाई हो रही है, वे पुलिस विभाग से जुड़े हैं। मर्द शादीशुदा है। पिटाई करने वालों में उसकी पत्नी और उसके ससुराल के रिश्तेदार शामिल हैं।
ऐसा नहीं है कि इस तरह का यह कोई पहला वीडियो था या ऐसी कोई पहली घटना थी।
अगर इंटरनेट पर सर्च करें तो ऐसी अनेक घटनाएं मिल जाएंगी। इन सबका इस्तेमाल खबर के तौर पर मिल जाएगा। यह घटना चर्चा में ज्यादा रही क्योंकि दोनों पुलिस वाले हैं।
ऐसे मामले को देखने का कई नजरिया है। एक नज़रिया सामाजिक है तो दूसरा नैतिकता का है। तीसरा नज़रिया क़ानून का है। चौथा नज़रिया है कि सभ्य समाज में सार्वजनिक तौर पर ऐसे मामले को कैसे देखा जाना चाहिए।
समाज की नजर में
समाज की नजर में शादीशुदा व्यक्तियों का शादी से बाहर यौन रिश्ता गलत है। अनैतिक है। बेवफाई है। व्यभिचार है। जुर्म है। वैसे तो समाज ऐसे किसी भी यौन रिश्ते को सार्वजनिक तौर पर मंज़ूर नहीं करता, जो शादी के रिश्ते के बाहर हो। चाहे वह रिश्ता दो शादीशुदा व्यक्तियों के बीच हो या दोनों में से एक शादीशुदा हों या दोनों ही अविवाहित हों।
इसलिए वह शादी के रिश्ते में रह रहे व्यक्तियों का अन्य व्यक्तियों से आपसी रजामंदी से बनाए यौन रिश्ते को भी नामंजूर करता है। जरूरी नहीं कि ऐसा यौन रिश्ता बनाने वाले दोनों व्यक्ति शादीशुदा हों।
कुछ लोग इसे अनैतिक भी मानते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि नैतिकता का तकाज़ा होना चाहिए कि अगर किसी को ऐसे रिश्ते में रहना है तो वह अपने पहले के रिश्ते से अलग हो जाए।
हालाँकि, यह कहना आसान है। किसी भी रिश्ते से निकलना कठिन।
कानून की नजर में रिश्ता
भारतीय कानून में ‘व्यभिचार’ बहस का मुद्दा रहा है। पहले यह भारतीय दंड संहिता में धारा 497 के तहत आता था। इसे भेदभाव वाला और स्त्रियों के खिलाफ भी माना गया।
पुराने कानून के तहत होता यह था कि अगर कोई शादीशुदा स्त्री-पुरुष, अपनी शादियों से इतर रजामंदी से यौन रिश्ते में रहते थे तो यह व्यभिचार का अपराध था। यह अपराध भी सशर्त था।
इसके तहत पुरुष ही दोषी माना जा सकता था। स्त्री नहीं। यह अपराध भी तब माना जाता था, जब स्त्री का पति दूसरे पुरुष के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराए।
इसमें स्त्री के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं हो सकता था। अगर पति की सहमति से कोई दूसरा पुरुष स्त्री से संबंध बनाए तो वह व्यभिचार के अपराध के दायरे में नहीं आता था।
यही नहीं, अगर कोई शादीशुदा पुरुष किसी अविवाहित या ऐसी महिला से यौन संबंध बनाए, जिसका पति नहीं रहा, तो वह भी व्यभिचार के दायरे में नहीं आता था।
2018 में सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने ‘व्यभिचार’ को अपराध नहीं माना। इसे असंवैधानिक बताया और इस धारा को रद्द कर दिया।
कोर्ट के मुताबिक, इसे अपराध मानना सही नहीं है। यह स्त्री की गरिमा के खिलाफ है। स्त्री, पुरुष की जायदाद नहीं है। यह शादीशुदा जिंदगी की निजता में दखलंदाजी होगी। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि ‘व्यभिचार’ तलाक का आधार रहेगा।
भारतीय न्याय संहिता के तहत भी व्यभिचार यानी शादी से इतर यौन संबंध अपराध नहीं है। जब यह कानून बन रहा था तब जरूर मांग उठी थी कि इसे शामिल किया जाए और जेंडर निरपेक्ष बनाया जाए। यानी स्त्री-पुरुष दोनों पर मुकदमा दर्ज हो सके।
आखिरकार इसे शामिल नहीं किया गया।
सहमति को समझना जरूरी है
यौन रिश्ते में रजामंदी को समझना निहायत जरूरी है।
चाहे वह रिश्ता शादीशुदा दायरे में हो या उसके बाहर। अगर दो व्यक्ति बालिग हैं, तो उनके बीच रज़ामंदी से बनाया गया रिश्ता गलत नहीं हो सकताज् और असहमति से बनाया गया रिश्ता यानी जबरदस्ती बनाया गया रिश्ता गलत होगा। चाहे वह शादीशुदा रिश्ते में हो या उस दायरे से बाहर।
इसलिए ऐसे किसी मामले को जिसमें रजामंदी शामिल है, अपराध के तौर पर देखना या उसे अपराध की तरह निपटने का तरीका अपनाना सही नहीं है।
हमला लडक़ी पर ज़्यादा
यही नहीं, जब ऐसे मामले सामने आते हैं तो चर्चा के केन्द्र में लडक़ी होती है। उसे ही निशाना बनाया जाता है। उसे ही ऐसे रिश्ते के लिए जि़म्मेदार बनाया जाता है। पुरुष तो ‘बेचारा’ हो जाता है।
ज़्यादातर ऐसे मामलों में पत्नी ने और समाज ने पति को बेचारा माना और लडक़ी को जि़म्मेदार। यानी लडक़ी ने अपने ‘जाल’ में बेचारे मर्द को ‘फँसा’ लिया।
लडक़ी का चरित्रहनन भी होता है। कोई पूछ सकता है कि आखिर लडक़ी का अपराध क्या था?
ऐसे मामले पर प्रतिक्रिया कैसी हो
हालाँकि, ऐसे मामले पर बोलना दोधारी तलवार पर चलना है। आमतौर पर सामाजिक नज़रिया इसके खिलाफ में खड़ा होता है।
ऐसी घटनाओं पर बोलने को ऐसे रिश्तों की हिमायत के तौर पर देखा जा सकता है। मगर कई बार यह जोखिम उठाना जरूरी हो जाता है।
जिस तरह से सार्वजनिक तौर पर दोनों व्यक्तियों को पीटने, शर्मिंदा और बेइज़्ज़त करने का तरीका अपनाया गया, वह सभ्य समाज में नहीं होना चाहिए। यह भीड़ की सज़ा है। भीड़ कभी इंसाफ नहीं करती। यह एक संवेदनशील मुद्दे का अमानवीयकरण है।
यह किसी की निजता में दखलंदाजी भी है। जो लोग, इस मामले से सीधे नहीं जुड़े हैं, वे ऐसी घटनाओं का मजा ही लेते हैं। जैसे- दो लोग पिट रहे हैं और कुछ लोग खड़े होकर वीडियो बना रहे हैं।
इस घटना में भी जहाँ यह वीडियो साझा हो रहा था, उसके साथ की टिप्पणियाँ बताती हैं कि लोग मजा ले रहे थे। उनमें से किसी की दिलचस्पी इस बात पर नहीं थी कि किसी दुखी के दुख को कम करें।
हाँ, इससे किसी को बेइज़्जत करेंगे, यह सोच जरूर रही होगी।
कुछ लोगों को लग सकता है कि व्यभिचार का कानून रहता तो ऐसा न होता। वे भ्रम में हैं। पुराना कानून भी रहता तो भी वह महिला ‘व्यभिचार’ का मुकदमा दर्ज नहीं करा पाती।
क्योंकि वह कानून स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को मानता ही नहीं था। वह कानून स्त्री के खिलाफ था।
कुछ सवाल-जरूरी जवाब
अब सवाल है, सभ्य समाज में ऐसे रिश्ते को कैसे देखना चाहिए?
ऐसी स्थिति से कैसे निपटना चाहिए? क्या इंसाफ का जिम्मा भीड़ को ले लेना चाहिए? क्या किसी की निजता को भंग करने की इजाजत दी जा सकती है?
क्या पिटाई और सार्वजनिक निंदा से कुछ हासिल होने वाला है? क्या पिटाई या निंदा से वह पति लौट आएगा?
क्या उन दोनों के बीच के रिश्ते सामान्य हो पाएँगे? क्या वह मोहब्बत से रहने लगेंगे?
उस पत्नी को कैसे राहत मिलेगी? पत्नी के पास क्या रास्ते हैं? क्या ऐसे रिश्ते इकतरफ़ा होते हैं? क्या इसके लिए लडक़ी को दोषी ठहराया जा सकता है?
हमें ठहरकर इन सवालों पर तनिक सोचना चाहिए। वृहद समाज का नजरिया सही ही हो, यह जरूरी नहीं है। समाज बहुत सारे मामले में दकियानूसी, सामंती और पितृसत्तात्मक सोच रखता है।
रिश्तों के मामले में ऐसा ज़्यादा होता है। उसने कुछ रिश्तों की ही इजाजत दी है। कानून का नजरिया भी कई बार समाज के नजरिये को ही आगे बढ़ाता है।
मगर संविधान के मूल्यों के आधार पर तय कानून, ही हमारा नजरिया होना चाहिए। ऐसे मामले को देखने का तरीका भी इसी तरह निकलेगा। वीडियो बनाकर वायरल करने से टूटते रिश्ते नहीं जुड़ते।(bbc.com/hindi)
-रेहान फजल
पिछले दिनों बांग्लादेश के संस्थापक शेख़ मुजीब-उर-रहमान की मूर्ति गिराए जाने, उसको जूतों की माला पहनाए जाने की तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी।
ये वही शेख़ मुजीब थे, जिनके नेतृत्व में बांग्लादेश ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी।
मुजीब की मूर्ति को इस तरह नष्ट किया जाना काफ़ी चौंकाने वाला था क्योंकि बंगबंधु कहे जाने वाले शेख़ मुजीब को बांग्लादेश का राष्ट्रपिता माना जाता है।
लेकिन दुनिया में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, जब लोगों ने उन नेताओं की मूर्तियों को निशाना बनाया हो, जिन्हें किसी ज़माने में उन्होंने सिर-आँखों पर बैठाया था।
बग़दाद में सद्दाम हुसैन की मूर्ति गिराई गई
2003 में जब अमेरिकी टैंक बग़दाद में घुसे थे और उन्होंने सद्दाम हुसैन की सरकार को सत्ता से बेदखल किया था, तब चारों तरफ़ खुशी का माहौल था।
इराकी लोगों ने फिऱदौस स्कवायर में सद्दाम हुसैन की एक बड़ी प्रतिमा को गिराने की कोशिश की थी।
लेकिन जब उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली तो वहाँ पहुंचे अमेरिकी सैनिकों ने इसमें उनकी मदद की थी।
सद्दाम की 12 मीटर ऊँची ये प्रतिमा अप्रैल, 2002 में बनाई गई थी। अमेरिकी सैनिकों ने सद्दाम की मूर्ति की गर्दन में लोहे की ज़ंजीर बाँध कर उसे एम 88 बख़्तरबंद गाड़ी से खींचा था।
मूर्ति गिरते ही इराकी लोगों ने उसके टुकड़े जमा कर जूतों से पीटते हुए बग़दाद की सडक़ों पर घुमाया था। इस दृश्य को दुनिया के सभी टीवी चैनलों पर लाइव दिखाया गया था। इसको सद्दाम हुसैन की सत्ता समाप्त होने के प्रतीक के तौर पर दिखाया गया था।
इसकी तुलना 1956 की हंगरी में हुई क्रांति के प्रयास से की गई थी, जब वहाँ स्टालिन की मूर्ति को तोड़ा गया था।
कर्नल गद्दाफी की मूर्ति का सिर तोड़ा गया
इसी तरह सन् 2011 में लीबिया के तानाशाह कर्नल ग़द्दाफ़ी के ख़िलाफ़ विद्रोह के दौरान लोगों ने त्रिपोली में बाब अल अज़ीज़ीया कंपाउंड में घुसकर ग़द्दाफ़ी की मूर्ति का सिर तोड़ कर उसे पैरों से रौंद डाला था।
23 अगस्त को कंपाउंड के गार्ड्स ने विद्रोहियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था।
गद्दाफ़ी के मारे जाने के बाद ये कंपाउंड एक तरह का पर्यटक स्थल बन गया और हज़ारों लोग इसे देखने आने लगे।
यूक्रेन में लेनिन की मूर्ति को किया गया जमींदोज
28 सितंबर, 2014 में यूक्रेन में खारकीव में लगभग पाँच हज़ार प्रदर्शनकारियों ने रूसी क्रांतिकारी नेता व्लादिमीर लेनिन की मूर्ति को हथौड़ों से पीटकर ज़मींदोज कर दिया था। इस पूरी प्रक्रिया में चार घंटे लगे थे। ये मूर्ति 1963 में बनाई गई थी और इसको एलेक्ज़ेडर सिदोरेंको ने डिज़ाइन किया था।
मूर्ति गिराए जाने के बाद लोगों ने इसके टुकड़े याद के तौर पर जमा करने शुरू कर दिए थे।
वहाँ पर उन्होंने यूक्रेन का झंडा फहरा दिया था। इसके बाद पूरे देश में लेनिन की मूर्तियों को गिराने का सिलसिला शुरू हो गया था।
केजीबी के संस्थापक ज़ेरजि़स्की की मूर्ति हटाई गई
इसी तरह जब 1991 में रूस में राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को अपदस्थ करने के प्रयास विफल हो जाने के बाद मॉस्को के लुब्याँका स्कवॉयर पर सोवियत संघ की पहली गुप्त पुलिस चेका के संस्थापक फ़ेलिक्स ज़ेरजि़सकी की मूर्ति को हटा दिया गया था।
केजीबी का पुराना नाम ‘चेका’ था और उस पर हज़ारों लोगों के अपहरण करने, उन्हें यातना देने और जान से मारने के आरोप थे।
22 अगस्त, 1991 की शाम को हज़ारों लोग लुब्यांका स्कवायर पर केजीबी के भवन के सामने इक_ा हो गए।
उन्होंने ज़ेरजि़सकी की मूर्ति पर ‘हत्यारा’ शब्द लिख दिया। मूर्ति पर चढ़ कर उन्होंने उसे रस्सियों से बाँध दिया। उनका इरादा उसे ट्रक से खींच कर गिराने का था।
लेकिन उससे बगल के लुब्यांका मेट्रो स्टेशन की इमारत को खतरा पैदा हो गया।
तब मॉस्को सिटी काउंसिल के उपाध्यक्ष सरजेई स्टानकेविच ने भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था कि वो स्वयं मूर्ति को हटाने का बीड़ा उठाते हैं। इसके बाद इस मूर्ति को क्रेन की मदद से वहाँ से हटाकर ‘फॉलेन मौनुमेंट पार्क’ में रख दिया गया।
जॉर्ज तृतीय की लोहे की मूर्तियाँ तोड़ कर गोलियाँ बनाई गईं
अमेरिका की आज़ादी की लड़ाई के दौरान न्यूयॉर्क में ब्रिटेन के राजा जॉर्ज तृतीय की लोहे की मूर्ति भी गिराई गई थी। इसको आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे अमरीकियों ने ब्रिटिश अत्याचार का प्रतीक माना था।
बाद में इस मूर्ति को पिघला कर 42000 गोलियाँ बनाई गई थीं और उनका इस्तेमाल ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ किया गया था।
ब्रिटेन के वफादार कुछ लोगों ने उस मूर्ति के कुछ हिस्सों को बचाने के लिए उन्हें ज़मीन में गाड़ दिया था। आज भी उस मूर्ति के कुछ अवशेष खुदाई में कभी-कभी बाहर निकलते हैं।
मुसोलिनी का मूर्तियों का भी बुरा हश्र
सन् 1945 में जब इटली के तानाशाह मुसोलिनी का पतन हुआ तो उन्हें, उनके कुछ समर्थकों और उनकी गर्लफ्रेंड क्लारा पिटाची को गोली मार दी गई। उनके शवों को एक वैन में रखकर मिलान ले जाया गया, जहाँ एक खंभे से उल्टा लटका दिया गया।
इसके बाद कई महीनों तक मुसोलिनी और तानाशाही की प्रतीक स्मारकों, भवनों और मूर्तियों को ध्वस्त किया जाता रहा।
जॉर्ज पंचम की मूर्ति इंडिया गेट से हटाई गई
भारत जब 1947 में आज़ाद हुआ तो दिल्ली की कई जगहों पर अंग्रेज़ शासन से जुड़े लोगों की मूर्तियाँ थीं। उनमें से कुछ मूर्तियों को ब्रिटेन को वापस भेज दिया गया और कुछ को उत्तरी दिल्ली स्थित कोरोनेशन पार्क में स्थानांतरित कर दिया गया।
हटाई गई मूर्तियों में सबसे प्रमुख थी इंडिया गेट पर लगी जॉर्ज पंचम की 70 फ़ीट ऊँची मूर्ति।
1968 तक वो मूर्ति अपने पहले वाले स्थान पर मौजूद रही लेकिन फिर ये सोचा गया कि दिल्ली के इतने प्रमुख स्थान पर उस मूर्ति के रहने का कोई औचित्य नहीं है।
मूर्ति को नष्ट नहीं किया गया बल्कि उस स्थान पर रखा गया, जहाँ 1911 में उन्होंने दिल्ली दरबार में शिरकत की थी।
जॉर्ज पंचम की मूर्ति इंडिया गेट के पास जिस जगह पर कभी हुआ करती थी, उस जगह साल 2022 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित की गई।
हेती के तानाशाह डुवैलियर की मूर्ति भी तोड़ी गई
सन् 1971 में जब हेती के तानाशाह फ्राँसुआ डुवैलियर का निधन हुआ तो उन्हें काला कोट पहना कर शीशे के टॉप वाले ताबूत में दफऩाया गया।
उनके शव को पहले राष्ट्रीय क़ब्रगाह में दफऩाया गया और फिर वहाँ से स्थानांतरित कर उनके बेटे के बनाए ग्रैनडियोस म्यूजिय़म में दफऩाया गया।
मरने से पहले उन्होंने अपने 19 वर्षीय बेटे ज्यां क्लाउड डुवैलियर को उत्तराधिकारी घोषित किया था। जब 1986 में उनके बेटे का तख़्ता पलटा गया तो डुवैलियर की मूर्ति और समाधि को नाराज़ भीड़ ने तहस-नहस कर दिया।
जब उनकी क़ब्र खोदी गई तो उसमें डुवैलियर का ताबूत ग़ायब था। न्यूयॉर्क टाइम्स में ख़बर छपी कि देश छोडऩे से पहले उनके बेटे ने अपने पिता का ताबूत उखाड़ कर दूसरी जगह रखवा दिया था।
इथोपिया की राजधानी आदिस अबाबा में वहाँ की नगरपालिका के गैरेज में रूसी नेता लेनिन की मूर्ति पीठ के बल लेटी हुई है। उसके चारों तरफ़ मकड़ी के अनगिनत जाले और पेट्रोल के ख़ाली पीपे रखे हुए हैं।
बहुत कम लोग उस मूर्ति को देखने आते हैं और जो आते भी हैं, उनको वहाँ मौजूद कर्मचारी आगाह करते हैं कि लेनिन को जगाया न जाए।
लेनिन की मूर्ति न सिर्फ बड़ी है बल्कि भारी है। इसको नीचे गिराना काफी मशक्कत का काम था। रस्सियाँ उस मूर्ति को हिला तक नहीं सकी थीं, इसलिए उसे अपने स्थान से हटाने के लिए मशीनों का इस्तेमाल किया गया था।
नवंबर, 1989 में बर्लिन दीवार गिरने के बाद दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लेनिन की मूर्तियों को बार-बार ढहाया गया है। इसी तरह अल्बानिया में 40 सालों तक देश का नियंत्रण करने वाले एनवर होक्सा की कई मूर्तियों को भी ज़मींदोज़ किया गया था।
-अनघा पाठक
मेरे एक पुरुष दोस्त ने एक रात 11 बजे के बाद कहा, ‘चलो एक चक्कर लगाते हैं।’
दोस्त की पत्नी और मैंने, तब यही सोचा कि इसे क्या हो गया है, दिल्ली जैसे शहर में इतनी रात घूमने के लिए निकलना ठीक नहीं है।
मैं उन दोनों के घर के सामने वाली गली में रहती थी लेकिन मेरी कभी हिम्मत रात में अकेले घूमने की नहीं हुई। ख़ासकर अकेले रहते हुए।
तब मैंने सोचा कि मैंने जीवन में कितने अनुभवों को खोया है। एक बार मेरे दोस्तों ने मुंबई में घूमने की योजना बनाई थी।
सर्दियों की एक दोपहर को मेरे दोस्त नासिक से मुंबई के लिए निकल पड़े। काफी घूमे, खाना खाया। मरीन ड्राइव में रात में बैठकर समुद्र की लहरों को देखते रहे।
इतना ही नहीं रात के बाद सुबह में सूर्य को वहीं उगते देखा और उसके बाद लौट कर घर आए और आराम से सो गए।
आज, इतने वर्षों के बाद, जब भी यात्रा का विषय आता है, दोस्त उस यात्रा को लेकर खूब बातें करते हैं। वे याद करते हैं कि यह कितना समृद्ध अनुभव था।
लेकिन उस समूह की हम लड़कियों के पास कहने के लिए कुछ नहीं होता। हम उसमें शामिल नहीं थे। किसी दूसरे शहर की गलियों में पूरी रात लड़कियां कैसे घूमने निकल सकती थीं?
रात को लेकर पुरुषों के अनुभव अलग हैं
जब से कामकाजी जीवन शुरू हुआ तो मेरे पुरुष सहकर्मियों के पास रात को लेकर अपने अपने अनुभव थे। किसी को रात में शहर में भटकना पसंद है, उनके मुताबिक रात की नीरव शांति में वह शहर को अच्छे से देख पाते हैं।
जबकि दूसरे का कहना है कि उन्हें चांद और तारे देखना पसंद है। कुछ लोगों को रात के सन्नाटे में सोचने समझने का मौका भी मिलता है।
पुरुषों के पास रात को लेकर ढेरों अनुभव हैं।
कुछ लोग ब्रेकअप के बाद पूरी रात शहर में घूमते रहे, कुछ लोग गंगा (हम नासिकवासी गोदावरी को गंगा कहते हैं) पर चले गए और जीवन के सबसे कठिन क्षण में पूरी रात बैठे रहे।
रात को लेकर पुरुषों के अनुभव कितने अलग होते हैं। जबकि महिलाएं रात को सिफऱ् डर से जोडक़र देखती हैं।
तो जिसका जि़क्र मैं ऊपर कर रही थी, उस दोस्त के घर पर इसी विषय पर बातचीत शुरू हुई। उनकी पत्नी और मैं दोनों अलग-अलग राज्यों, छोटे शहरों से नौकरी के लिए दिल्ली आए हैं।
दिल्ली को लेकर हम दोनों का पहला अनुभव आज भी याद है। नई दिल्ली से मयूर विहार यानी पूर्वी दिल्ली की ओर जाते समय यमुना नदी को पार करने के वक्त सुनसान इलाका मिला था।
मोबाइल फ़ोन के लिए कोई नेटवर्क नहीं था। सडक़ के किनारे की घनी झाडिय़ां और सडक़ों पर पसरा सन्नाटा डराने वाला था।
अगर आप कैब से भी चल रहे हों तो यहां से गुजऱते हुए डर लगता है। जब भी मैं इस रास्ते से गुजऱती हूं तो यही सोचती हूं कि अगर कोई मुझे इस पुल से फेंक दे तो किसी को भी पता नहीं चलेगा।
पुरुष अनुमान भी नहीं लगा सकते कि रात होने के बाद हम लोगों में किन-किन बातों को लेकर डर सताने लगता है।
हमें देर रात तक दफ्तर में काम करने में डर लगता है। मेट्रो में देर रात सफर करने में डर लगता है। रात के दस बजे के बाद लिफ्ट के इस्तेमाल करने में डर लगता है।
महिलाएं रात को सिर्फ डर से जोडक़र देखती हैं
रात को लेकर मेरी सारी यादें डर की हैं।
मुझे याद है कि एक बार बातचीत में मेरी एक दोस्त ने कहा था कि मैं अगर अनजानी जगह पर किसी अजनबी से मिल रही हूं या बात कर रही हूं तो हमेशा ध्यान में यह होता है कि आस-पास की किन चीज़ों का इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए किया जा सकता है।
महिला के तौर पर हमारे अनुभव तो यही हैं कि रात पर हमारा कोई अधिकार नहीं है।
यही वजह है कि कोलकाता में एक महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के बाद ‘रिक्लेम द नाइट’ आंदोलन सुर्खियों में है।
इस आंदोलन का उद्देश्य यह है कि महिलाओं को रात में भी अधिकार है और उस समय उनकी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए।
कोलकाता में जब महिला आधी रात को सडक़ों पर निकलीं तो देश आजादी की वर्षगांठ मना रहा था। देश की आजादी के 77 साल बाद भी अगर महिलाओं को रात में चलने, सुरक्षित रहने की आज़ादी नहीं है तो कौन सा स्वतंत्रता दिवस मनाया जाए?
वैसे महिलाएं रात तो क्या दिन में भी घर से बाहर निकलती हैं तो इसका कोई न कोई कारण होता है। आपने कितनी महिलाओं को बगीचे में या सडक़ के किनारे चने खाते हुए भीड़ को आनंद लेते देखा है? हर जगह पुरुष ही नजर आते हैं।
महिलाओं को बाहर निकलने के लिए वजह चाहिए।
आप काम से बाहर निकल रही हैं?
क्या आप अपने बच्चे को स्कूल से लाने के लिए निकल रही हैं?
क्या आप कोई सामान खऱीदने निकल रही हैं?
क्या आप अस्पताल जा रही हैं?
ये वो सवाल हैं जो महिलाओं से पूछे जाते हैं।
महिलाओं से ये भी कहा जाता है कि काम ख़त्म करके जल्दी घर पहुंचना। महिलाएं सडक़ों पर चलते हुए नर्वस महसूस करती हैं।
वे या तो फोन पर बात कर रही होती हैं या फिर कानों में ईयरफोन लगाकर गर्दन झुकाकर चलती हैं। वे किसी से आंखें तक नहीं मिलातीं।
मुंबई में दस साल पहले महिलाओं के लिए व्हाई लोइटर आंदोलन शुरू करने वालों में से एक नेहा सिंह बताती हैं, ‘हर तरफ डर का वातावरण व्याप्त है।’
नेहा सिंह और उनके साथियों ने 2014 में मुंबई में यह आंदोलन शुरू किया था। उनका कहना है कि महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों की तरह समान अधिकार हैं, महिलाओं को रात में बाहर घूमने का पुरुषों की ही तरह समान ही अधिकार है।
पिछले 10 सालों से वह खुद अन्य महिलाओं के साथ मुंबई की सडक़ों पर घूम रही हैं।
वह बताती हैं, ‘हम यहां, वहां घूमते रहते हैं। बात करते हैं, हंसते हैं, खिलखिलाते हैं। जब थक जाते हैं तो सडक़ के किनारे बैठ जाते हैं। कई बार बुरे अनुभव भी होते हैं। पुलिस अक्सर रोकती है।’
‘वे सोचते हैं कि हम सेक्स वर्कर हैं। फिर हमसे काफी देर तक पूछताछ चलती है, हमें अपना आईडी कार्ड दिखाना पड़ता है और फिर बार-बार वही सवाल पूछा जाता है कि कोई काम नहीं है तो रात को बाहर क्यों घूम रहे हो।’
नेहा सिंह और उनके दोस्त ऐसा इसलिए करते हैं ताकि लोगों को, समाज को महिलाओं के सार्वजनिक स्थानों पर घूमने, रात में बाहर रहने की व्यवस्था की आदत हो जाए।
क्या दस साल में कुछ बदला है?
यह सवाल पूछने पर नेहा सिंह बताती हैं, ‘पुरुषों का व्यवहार, समाज की मानसिकता या व्यवस्था का दृष्टिकोण नहीं बदला है।’
‘अब तक महिलाओं को यही सिखाया जाता रहा है कि आपकी सुरक्षा आपकी जिम्मेदारी है, अगर आपके साथ कुछ भी गलत होता है तो यह आपकी गलती है। वे सवाल पूछते हैं जैसे कि आप क्या कर रहीं थीं, आपने क्या पहना था, क्या आपने दूसरों को उकसाया था।’
महिला कर्मचारियों के लिए विवादित ‘दिशा-निर्देश’
कोलकाता की घटना के बाद भी असम के सिलचर अस्पताल ने महिला कर्मचारियों के लिए ‘दिशा-निर्देश’ जारी किए। जिसमें कहा गया था, ‘उन्हें अंधेरे स्थानों, एकांत स्थानों पर जाने से बचना चाहिए, यदि बहुत आवश्यक न हो तो रात में छात्रावास या अन्य आवास न छोड़ें और यदि उन्हें रात में बाहर जाना है तो अपने वरिष्ठों को सूचित करें, अजनबियों के संपर्क से बचें। बाहर घूमते समय सावधान रहें और संयमित रहें ताकि किसी का ध्यान आप पर ना जाए।’
इन सभी निर्देशों का पालन महिला कर्मचारियों को करना होगा, लेकिन इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि पुरुष कर्मचारियों को महिला कर्मचारियों के साथ ठीक से व्यवहार करना चाहिए और उन्हें महिला सहकर्मियों को असुरक्षित महसूस नहीं करना चाहिए।
मूलत: इस बात का ध्यान क्यों नहीं रखा जाता कि पुरुष महिलाओं का यौन उत्पीडऩ न करें?
इस पर सोशल मीडिया पर हंगामा मचने के बाद इन गाइडलाइंस को वापस ले लिया गया।
दूसरी ओर, महिला अधिकार कार्यकर्ता यौन उत्पीडऩ की खबरें आने पर मीडिया में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा पर आपत्ति जताते हैं।
हम कहते हैं कि एक महिला के साथ 'बलात्कार' होता है, लेकिन हम यह नहीं कहते कि एक पुरुष ने बलात्कार किया है, किसी ने यह अपराध किया है, यह यूं ही नहीं हो गया।
शायद यह अच्छी बात है कि महिलाओं को अब यह एहसास हो रहा है कि इसमें उनकी ग़लती नहीं है और वे किसी और के अपराध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना स्वीकार नहीं करतीं।
नेहा सिंह ने बताया, ‘पिछले 10 वर्षों में एक बदलाव महसूस किया है। अब महिलाओं को एहसास हुआ है कि उनके साथ हुए यौन अपराधों में उनकी कोई गलती नहीं है। यह किसी और के द्वारा किया गया अपराध है। वे ख़ुद को जिम्मेदार नहीं मानती हैं। वे समाज और सरकार से पूछ रही हैं कि आपने हमारी सुरक्षा के लिए क्या किया?’
नेहा सिंह के मुताबिक यह सवाल महिलाएं पूछ तो रही हैं लेकिन डर बना हुआ है। वह कहती हैं, ‘एक तरफ आप कहते हैं कि 2024 में महिलाओं को समानता और आजादी मिल गई है, वहीं दूसरी तरफ़ हर दिन महिलाएं डर के साये में जी रही हैं।’
‘कोलकाता मामले के बाद लोग पूछ रहे हैं कि वह सेमिनार रूम में अकेली क्यों सोई थी? यह किस तरह की आजादी और समानता है?’
काम के लिए, नौकरी के लिए, मौज-मस्ती के लिए, चांद-तारे देखने के लिए, खाने के लिए, किसी भी कारण से, मेरे सहित सभी महिलाएँ रात में घूमने की आजादी चाहती हैं और इसके लिए वे सुरक्षा की गारंटी चाहती हैं।
महिला का स्थान घर में है?
महिला का स्थान घर में है, उसने अभी भी यह मानसिकता नहीं बदली है कि उसे बाहर नहीं जाना चाहिए। आज भी कहा जाता है कि महिलाएं घर में ही सुरक्षित रह सकती हैं।
‘लेकिन वास्तविक स्थिति क्या है?’ नेहा कहती हैं, ‘यौन उत्पीडऩ के अधिकांश मामले घर में होते हैं। ऐसा करने वाले रिश्तेदार, शिक्षक या फिर परिचित होते हैं। लेकिन आप यह कैसे कह सकते हैं कि घर के बाहर सब कुछ असुरक्षित है।’
जब नेहा और उसकी साथी महिलाएं रात में घूमती हैं, तो जो पुरुष उनका पीछा करते हैं, उन पर टिप्पणी करते हैं, वे सामान्य घरों से होते हैं, उनमें से सभी आपराधिक प्रवृत्ति के नहीं होते हैं। लेकिन फिर भी रात में महिलाओं को बाहर देखकर उन्हें परेशान करते हैं।
नेहा बताती हैं, ‘हम उन लोगों को रोकते हैं जो हमें परेशान करते हैं और उनसे बात करते हैं। उनसे कहते हैं कि जैसे अभी आप बाहर हो, वैसे ही हम भी बाहर हैं। हमें बात करने के बाद आपको पता चलता है कि इन लोगों ने कभी महिलाओं को रात में बाहर निकलते नहीं देखा है, इसलिए वे नहीं जानते कि ऐसी महिलाओं से कैसे पेश आना है, इसलिए वे सीटी बजाते हैं, शोर मचाते हैं, हमारे आसपास इक_ा होते हैं।’
लेकिन हर महिला के पास परेशान करने वाले व्यक्ति से संवाद करने का साहस और समय नहीं होगा। इतना ही नहीं इस बात की गारंटी भी नहीं होगी कि संवाद करने पर वह नुकसान नहीं पहुंचाएगा।
नेहा का कहना है कि हर बार जब यौन उत्पीडऩ की ऐसी घटनाएं होती रहेंगी तब महिलाएं सडक़ों पर उतरेंगी, इससे काम नहीं चलेगा।
अगर रात में सार्वजनिक स्थानों पर चलने और सुरक्षित रहने के अधिकार को सामान्य बनाना है, तो इस समय इन स्थानों पर महिलाओं की निरंतर मौजूदगी को सामान्य बनाना होगा। तभी सरकार, समाज और सिस्टम में बदलाव देखने को मिलेगा।
ऐसा नहीं होने पर महिलाओं के रात के साफ़ आसमान में चाँद देखने, ठंडी हवा महसूस करने या आधी रात को खाली सडक़ों पर फुटबॉल खेलने के सपने, हमेशा सपने ही रह जायेंगे। (bbc.com/hindi)
-सनियारा खान
आर जी कर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में स्वतंत्रता दिवस के कुछ ही दिन पहले एक महिला प्रशिक्षु डॉक्टर की पाशविक बलात्कार कर हत्या कर दी जाती है। और फिर उस बदनसीब के घर फोन कर ये कहा जाता है कि उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली है। क्यों? आनन फानन इस तरह का झूठ बोल कर अगर बात को घुमाने की कोशिश की गई, तो फिर यही लगना स्वाभाविक है कि अस्पताल वाले कुछ जानते हैं और किसी को बचाने को कोशिश कर रहे हैं। यह इस बात का भी संकेत देता है कि कोई खास इस घटना में शामिल है । अगर कोई मामूली इंसान इस केस में होता तो इस तरह की कोशिश होती ही नहीं। जिन बलात्कारियों के नाम सामने आने से किसी पार्टी को वोट बैंक लेकर चिन्तित होना पड़ता है, उन्हीं को बचाने की कोशिश की जाती है। अभी तक तो कई अन्य पार्टियां भी इस मामले में बदनाम थीं। लेकिन अब ये देख कर हैरानी हो रही है कि एक महिला मुख्यमंत्री भी इसी राह पर चल पड़ी हैं। और तो और बंगाल की मुखर महिला नेत्री वर्ग अभी तक जिस तरह संसद में गुंडागर्दी के खिलाफ़ बोल रही थी, अब उनका यूं अचानक खामोशी अख्तियार करना इसी बात का संकेत है कि हमाम में सब नंगे है। इससे भी शर्मनाक हरकत इन लोगों ने ये किया कि प्रतिवाद करने वाले डॉक्टरों के साथ गुंडों की तरह सुलूक किया गया।अब ये बात भी सामने आई है कि उस डॉक्टर का सामूहिक बलात्कार हुआ है। जिस संजय को पकड़ा गया है, शायद वह इस घटना से जुड़े जानवरों के झुंड में से शायद सब से छोटा जानवर है। लेकिन वह भी एक सेक्स एडिक्ट और पोर्नग्राफी की शौकीन आदमी है। और अचरज कि बात ये है कि इस आदमी का अस्पताल में बेरोकटोक आना जाना था। लगता है कि इस केस से जुड़े सभी बड़े बड़े जानवरों को छिपा दिया गया है। शक की गुंजाइश तो ज़रूर है! क्या अस्पताल के शीर्षस्थ लोग कुछ ऐसी बातों को दबाने में लगे हुए हैं, जिन बातों की बाहर आने पर अस्पताल की बदनामी होने का डर है? इस केस के तुरंत बाद अस्पताल के जिस सेमीनार हॉल में ये सब कुछ हुआ, उससे लगे हुए एक कमरे को रिनोवेशन के नाम पर तोडऩे और सेमीनार हॉल को भी तहस नहस करने की कोशिश हुई है। और तो और, इस सेमीनार हॉल में कोई सीसीटीवी कैमरा भी नहीं था। ये बात भी संदेह जनक है। अब अगर सीबीआई कुछ ढूंढ निकाल पाए तो बात अलग है। लेकिन लीपा पोती की गुंजाइश ज़्यादा है।
इस पूरे घटना क्रम में एक सवाल तो बनता है कि ये जो हम सभी एक दूसरे को आज़ादी के लिए मुबारकबाद दे रहे है, ये किस तरह की आज़ादी है? जहां आधी आबादी को हर समय खुद को बचा कर रखने के लिए सहम कर, संभल कर और एक एक कदम नाप कर चलना होता है, वहां क्या आज़ादी और कैसी आज़ादी? तो शायद हमें इस तरह कहना सही होगा कि उन आधी आबादियों को छोड़ कर बाकी सब को आज़ादी मुबारक हो! अभी अभी ये भी पता चला कि महिला डॉक्टर की बलात्कार होने की घटना के आस पास ही बिहार में चौदह साल की एक दलित बच्ची का अपहरण कर उसके साथ भी सामूहिक बलात्कार कर के उसकी हत्या कर दी गई। और हमें मालूम है कि बिहार के बारे में भी कोई कुछ नहीं कहना चाहेंगे।खबर ये भी है कि झारखंड की जमशेदपुर में एक नर्सरी की बच्ची के साथ स्कूल वैन में दुष्कर्म हुआ। ये सभी बातें जान कर यही कहना सही होगा कि इस समय सिफऱ् बलात्कारियों की पूरी आज़ादी चल रही है। अस्पताल के साथ साथ स्कूल, कॉलेज ,ऑफिस, बस, ट्रैन, सडक़ हर जगह चाहे औरत हो या फिर छोटी बच्ची ही क्यों न हो उनके सर के ऊपर हमेशा चील या गिद्ध मंडराते रहते हैं। और क्यों न मंडराए? हमारे यहां बलात्कारी को सजा दिलाने के लिए जितने लोग सडक़ पर उतरते हैं, उससे कई गुना अधिक लोग एक बलात्कारी को दी गई सजा के ख़िलाफ़ सडक़ पर उतर जाते हैं। यकीन न करने वाली बात तो ये भी है कि इसी देश में बलात्कारियों को फूलों की माला पहना कर स्वागत किया जाता है!फिर तो हमें ऐसा ही समाज मिलेगा और इसी तरह डर के साए में ही हम सभी को जीना होगा। अंत में असम की सिलचर मेडिकल कालेज में चस्पा किया गया एक असाधारण नोटिस के बारे में बात करना बेहद ज़रूरी है।
इस नोटिस में आदेश जारी किया गया है कि लड़कियां भेड़ बकरियों की तरह झुंड में चले ,रात को अकेले न निकले, बाड़े से बाहर न जाए, हंसे बोले नहीं,ठीक से बैठे, ठीक से चले, किसी का ध्यान न खींचे, चौकन्नी रहे ,बेहतर है कि हर वक़्त किसी न किसी की निगरानी में रहे... क्योंकि शिकारी कहीं भी हो सकता है और वह मौका पाते ही दबोच लेगा । ये अलग बात है कि जम कर विरोध होने के बाद असम के मुख्यमंत्री जी ने इस नोटिस को हटवा दिया। लेकिन अभी भी ये सवाल तो लाजि़म है कि हक़ीक़त में आज़ादी के लिए मुबारकबाद किसे दी जानी चाहिए?
-महमूद अल नग्गर
इसराइल और फलस्तीनी ग्रुप हमास के बीच युद्ध के कारण मध्य-पूर्व में तनाव बढ़ गया है।
अब इस संघर्ष में ईरान और इसके प्रॉक्सी देश भी शामिल हो गए हैं।
हालांकि ईरान ने इसराइल पर 7 अक्टूबर को हमास के हमले में अपनी संलिप्तता से साफ-साफ इंकार किया है लेकिन इसके साथ ही हमास के हमले के खिलाफ इसराइल के अभियान को समर्थन भी नहीं दिया है।
इसराइल ने हमास के हमले को इसराइल के लिए ‘डिवेसटेटिंग अर्थक्वैक’ यानी विनाशकारी भूकंप जैसा बताया है।
अभी तक ईरान इसराइल के साथ सीधे-सीधे किसी तरह के टकराव में शामिल नहीं रहा है। लेकिन इसराइल हमेशा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ईरान समर्थित समूहों के निशाने पर रहा है।
इन समूहों को जिसे ईरान ‘विरोध की धुरी’ (एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस) कहता रहा है उनमें लेबनान का हिज़बुल्लाह, यमन का हूती विद्रोही और ईराक़ के कई सशस्त्र समूह शामिल हैं।
इनमें से कई समूहों को अमेरिका, ब्रिटेन और कई देश आतंकी संगठन मानते हैं।
हिजबुल्लाह की भूमिका
गज़़ा की लड़ाई ने इसराइल और हिज़बुल्लाह के बीच तनाव को फिर से बढ़ा दिया है।
इसके बाद हिज़बुल्लाह ने ‘हमास के समर्थन में’ इसराइल के उत्तरी इलाकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया।
अक्टूबर 8 को हमास के हमलों के कुछ घंटे बाद ही हिजबुल्लाह ने भी इसराइली इलाके शेबा फाम्र्स पर हमला कर दिया।
इसके बाद तुरंत ही हिजबुल्लाह ने हमास के 7 अक्टूबर के हमलों को समर्थन का ऐलान कर दिया।
शेबा फाम्र्स पर हमले के बदले में इसराइली सेना ने भी जवाबी कारवाई में हिज़बुल्लाह टेंट्स को निशाना बनाया।
लेबनान की सेना ने इसराइली सेना की इस जवाबी कार्रवाई में लेबनानी नागरिकों के घायल होने की बात कही।
हूती विद्रोहियों का प्रवेश
गाजा की लड़ाई के एक महीने के अंदर ही यमन के हूती विद्रोही भी इसराइल के खिलाफ इस लड़ाई में शामिल हो गए।
14 नवंबर को हूती नेता अब्दुल मलिक ने साफ-साफ ऐलान कर दिया कि हूती इसराइली कंपनियों के जहाज़ को निशान बनाएगा।
बाद में हूती विद्रोहियों ने लाल सागर में विशेष रूप से बाब अल-मंडेब जलडमरूमध्य के पास इसराइल जाने वाले सभी जहाज़ों को निशाना बनाने का ऐलान कर दिया।
इन एलानों के बाद हुए हमलों का व्यापक प्रभाव विश्व व्यापार पर पड़ा। इसके कारण जहाजों को हजारों मील लंबे दूसरे रूट को अपनाना पड़ा।
2023 के दिसंबर में दो इसराइली जहाजों पर हमला करने का दावा हूती विद्रोहियों ने किया। हूती विद्रोहियों के अनुसार इन दो जहाज़ों ने उनकी नौसेना की चेतावनियों को इग्नोर किया था। इसके बाद एक जहाज जिसका मालिक एक इसराइली व्यापारी था उसे हूती विद्रोहियों ने अपने कब्ज़े में ले लिया था।
इस साल जनवरी में अदन की खाड़ी में एक ब्रिटिश तेल टैंकर पर हूती मिसाइल हमले के बाद अमेरिका ने यमन में हवाई हमला किया था।
हूती विद्रोहियों का दावा था कि अमेरिकी और ब्रिटिश एयरक्राफ्ट ने यमन के पश्चिमी प्रांत अल हुदैदाह में रास इस्सा तेल क्षेत्र को निशाना बनाया। जो कि इस क्षेत्र में समुद्री यातायात की सुरक्षा के लिए बनाए गए एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा था।
लेबनान में इसराइली हमले की शुरुआत
इसराइल ने लेबनान पर हवाई हमले तेज कर दिए।
2 जनवरी 2024 को बेरूत के शिया बहुल दक्षिणी उपनगर दहियेह में हवाई हमला कर हमास के उप प्रमुख और वेस्ट बैंक में हमास के नेता सालेह अल-अरौरी को मार दिया।
इसराइल के अनुसार हमास और हिजबुल्लाह के बीच सालेह अल-अरौरी एक अहम लिंक था।
कुछ ही दिनों बाद, हिजबुल्ला ने इसराइल के उत्तर में मेरोन एयरबेस पर लगभग 40 रॉकेट दागे जिसे अरौरी की हत्या के जवाब में ‘प्रारंभिक प्रतिक्रिया’ कहा।
8 जनवरी को फिर एक इसराइली हवाई हमले में हिजबुल्लाह के रदवान फोर्स के डिप्टी कमांडर विसाम अल-ताविल मारे गए। विसाम अल-ताविल को मेरोन एयरबेस पर हमले की साजिश रचने का आरोपी माना जाता है।
इसराइल में मारे गए सैनिकों
के स्पर्म कौन चाह रहा है?
जनवरी के अंत में, सीरियाई सीमा के समीप उत्तर-पूर्वी जॉर्डन में ‘टॉवर 22’ के रूप में जाने जाने वाले अमेरिकी सैन्य अड्डे पर ड्रोन हमले में तीन अमेरिकी सैनिक मारे गए थे और 34 अन्य घायल हो गए थे।
हालांकि जॉर्डन ने इस बात से साफ़ इनकार कर दिया की ये ड्रोन हमले जॉर्डन के इलाके में हुए थे। जॉर्डन के अनुसार ये हमले सीरिया की सीमा में हुए थे।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने हमले की निंदा करते हुए कहा कि सीरिया और इराक में सक्रिय ईरान समर्थित चरमपंथी आतंकवादी समूह इन हमलों में शामिल थे। बाइडन ने इन हमलों के लिए उन सभी जिम्मेदार समूहों को सबक सिखाने की क़सम भी खाई।
इस हमले की जि़म्मेदारी कताइब हिज़बुल्लाह और कुछ इराकी मिलिशिया ने ली। अमेरिका के अनुसार ये वही इराकी मिलिशिया हैं जो ईरान के इस्लामिक रिवोल्यूशन गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) के संरक्षण में काम करते हैं।
हालांकि इन मिलिशिया पर ईरान का कितना प्रभाव है इसके बारे में कुछ भी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता है।
ईरान ने भी इन हमलों के लिए जिम्मेदार समूहों का समर्थन करने से इनकार किया है।
ईरान का सीधा टकराव
एक तरफ जहां ईरान इसराइल के अस्तित्व को ही नकारता है वहीं इसराइल के साथ सीधे-सीधे टकराव से भी बचता रहा है।
अप्रैल के शुरुआत में इसराइल ने दमिश्क में ईरानी कॉनसुलेट पर हमला कर दिया जिसमें आईआरजीसी के कई अधिकारी भी थे। मृतकों में ब्रिगेडियर जनरल मोहम्मद रेजा जाहेदी भी थे।
उसी महीने के अंत में ईरान ने इसराइल पर अपने पहले सीधे हमले में ड्रोन और क्रूज़ मिसाइलों का इस्तेमाल किया। ईरान ने नेगेव में इसराइली एयर बेस को निशाने पर लेने का भी दावा किया था।
हालांकि इसराइली सेना ने कहा की अधिकतर मिसाइलों को इसराइली क्षेत्र में आने से पहले ही रोक लिया था। ईरानी एयर डिफेंस सिस्टम पर इसराइल का यह एक सीमित जवाबी हमला था। हालांकि इसराइल ने आधिकारिक तौर इस हमले की जि़म्मेदारी नहीं ली थी।
अलग-अलग इलाकों
में बढ़त खतरा
इस साल जून के अंत से शुरुआती जुलाई तक हिजबुल्लाह और इसराइल के बीच तनाव बहुत तेजी से बढ़ गए।
हिजबुल्लाह ने हमले तेज कर दिए और इनके कई सदस्य भी मारे भी गए।
7 जुलाई को हिज़बुल्लाह ने मेरॉन एयर बेस सहित उत्तरी इसराइल में ज़ोरदार रॉकेट हमला किया।
उसी महीने के अंत में इसराइल के कब्जे वाले गोलन हाइट्स में फुटबॉल खेल रहे 12 बच्चे और कई युवा रॉकेट स्ट्राइक में मारे गए।
हालांकि हिजबुल्लाह ने जि़म्मेदारी लेने से मना कर दिया लेकिन इसराइल ने लेबनान में हिजबुल्लाह के सात ठिकानों पर हवाई हमले के रूप में इसका जवाब दिया।
ईरान समर्थित हूती विद्रोहियों से इसराइल का सीधा टकराव जुलाई में हुआ जब इसराइल ने यमन में हूती विद्रोहियों के नियंत्रण वाले लाल सागर बंदरगाह पर बमबारी की।
इस हमले में नौ की मौत हुई और अस्सी से ज़्यादा घायल हो गए। यह हमला तेल अवीव में एक ड्रोन हमले में एक की मौत और आठ से ज़्यादा के घायल होने के ठीक एक दिन बाद हुआ था।
जुलाई में ही दो हत्याएं हुईं। पहली हिजबुल्लाह के मिलिटरी कमांडर फुअद शूकर की मौत बेरूत के दक्षिणी उपनगर में हवाई हमले में हुई तो दूसरी मौत कुछ ही घंटे बाद तेहरान में ईरान के नए राष्ट्रपति की ताजपोशी में शामिल होने गए हमास नेता इस्माइल हनिया की हुई।
हालांकि इसकी भी जि़म्मेदारी इसराइल ने नहीं ली।
इन घटनाओं के कारण चर्चाएँ और तेज़ हो गई हैं कि कहीं ये इसराइल और ईरान के बीच लंबे समय से चला आ रहा तनाव बड़े पैमाने पर सीधे टकराव का रूप न ले ले जिसका असर पूरे क्षेत्र में देखने को मिल सकता है। (bbc.com/hindi)
-अशोक पांडेय
हरियाणे के बलाली गाँव का नाम सुना होगा। वही फोगाट बहनों का गाँव! दिल्ली से एक सौ दस किलोमीटर दूर इस गाँव तक पहुँचने में गाड़ी से अमूमन दो-ढाई घंटे लगते हैं। रास्ते में झज्जर कस्बा पड़ता है जहाँ से बलाली कोई साठ किलोमीटर है।
बीते दिन इस पूरे रास्ते पर लोगों का सैलाब उमड़ आया कि विनेश फोगाट पेरिस से घर लौट रही थी। सब ने उसे देखना था, उसे आशीष देना था, उसका हौसला न टूटने देने को रास्ता गुलजार रखना था। इस सबके चलते विनेश को गाँव पहुँचने में बारह घंटे से ज्यादा लग गए।
ओलिम्पिक में जो हुआ उसकी कचोट पूरे देश को महसूस हुई लेकिन बलाली के लोगों की व्यथा अलग थी। विनेश की जीत के जो प्रत्यक्ष सामाजिक-राजनैतिक अर्थ निकलते उनका सीधा ताल्लुक एक बहुत बड़े समाज के आत्मगौरव से है। त्रासदी थी तो दिल तोडऩे वाली लेकिन बहुत उदार कलेजा रखने वाले हरियाणा के इस गाँव के लोगों ने एकमत हो कर कहा, ‘विनेश ही हमारा सोने का तमगा है!’
बहरहाल कल के दिन इस लडक़ी का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। उसके सम्मान में जगह-जगह तम्बू गाड़े गए, मंच बनाए गए, तकरीरें की गईं और विनेश को यह अहसास कराया गया कि उसकी उपलब्धि कितनी बड़ी थी।
शुरू में मैंने झज्जर कस्बे का नाम जान-बूझ कर लिखा था क्योंकि कल सुबह ही इसी झज्जर से एक प्रौढ़ आदमी अपने कन्धों पर तीस किलो की एक कांवड़ लेकर बलाली के लिए निकला। कांवड़ में देसी घी के दो कनस्तर बंधे हुए थे। झज्जर से बलाली पहुँचने में उसे दस घंटे से ज्यादा लगा। यह सारा घी विनेश के लिए था कि घी पहलवानों की खुराक का सबसे ज़रूरी हिस्सा होता है। और उसे कंधों पर लादकर पैदल ले जाया जाना था कि विनेश को अपनी उपलब्धि का उचित सम्मान किये जाने का अहसास हो।
विनेश फोगाट को अपनी बहन बताने वाले, अदम्य जिजीविषा वाले इस ज़बरदस्त इंसान का नाम परमजीत मलिक है। वही परमजीत मलिक जो एक ज़माने में भारतीय कुश्ती संघ के फिजियोथेरेपिस्ट के तौर पर काम कर रहे थे और जिन्हें सिर्फ इस गुनाह के लिए नौकरी से निकल दिया गया था कि उन्होंने पहलवान लड़कियों के साथ होने वाले शारीरिक उत्पीडऩ का खुला विरोध किया था। जब देश के पहलवान जंतर मंतर पर लम्बे धरने पर बैठे थे, परमजीत मलिक लगातार उनके साथ बने रहे।
आज जब अपने सबसे सगों के लिए राखी और उपहार तक ऑनलाइन भेज दिए जाने का रिवाज चल निकला है, परमजीत मलिक तीस किलो घी कन्धों पर लादे साठ किलोमीटर पैदल चलते हैं कि मुंहबोली बहन-बेटी की हिम्मत बढ़े, उसका सम्मान हो!
विनेश को ही नहीं, इस देश की हर बहन-बेटी को मोहब्बत के ऐसे मेडलों की ज़रूरत है!
(फोटो- मनदीप पूनिया के वीडियो से साभार)
-श्रुति कुशवाहा
यूँ तो शास्त्रों में 64 कलाएँ बताई गई हैं..लेकिन समय और तकनीक के साथ इनमें भी विस्तार होता जा रहा है। पिछले कुछ समय में जिस कला ने तेज़ी से अपना स्थान बनाया है वो है ‘ठेलना’।
ठेलना..आधुनिक युग में सोशल मीडिया की एक अद्भुत कला है। इसमें दक्ष होने के लिए कुछ गुण अत्यावश्यक है।
जातक को यदि इस कला में निपुण होना है तो कुछ टिप्स निम्नानुसार हैं:-
सबसे पहला और अनिवार्य गुण है ‘बेशर्मी’। आपमें ये माद्दा होना चाहिए कि आप बग़ैर संकोच कभी भी किसी के भी इनबॉक्स/मैसेंजर/वाट्सअप पर अपनी ‘तुकबंदी’ ठेल सकें।
आपको ‘मत चूको चौहान’ की तजऱ् पर काम करना है। चाहे दीवाली-होली-ईद-क्रिसमस हो अथवा स्वतंत्रता दिवस। या फिर कहीं बाढ़ आ जाए, आग लग जाए, कोई हादसा हो जाए या ऐसी ही अन्यान्य घटना। आपको अपने भीतर के ‘आशुकवि’ को सदैव सक्रिय रखना है।
यहाँ आपको गीता में श्रीकृष्ण के दिए उपदेश का पालन करना होगा। कर्म करो फल की चिंता मत करो। भले ही सामने वाला महीनों-सालों आपकी ‘ऐतिहासिक तुकबंदी’ को खोले तक नहीं, प्रतिक्रिया न दे, कोई ईमोजी तक न चेंपे..लेकिन आपको अपना कर्म करते जाना है।
ठेलने के बाद कई बार पुन: स्मरण कराए जाने की आवश्यकता होती है। अत: सामने वाले से अपनी रचना पढऩे/देखने, टिप्पणी करने और शेयर करने का आग्रह करते रहें।
एक अत्यावश्कता बात न भूलें..ष्शठ्ठह्यद्बह्यह्लद्गठ्ठष्4। जैसे आप सुबह उठकर नित्यक्रिया से निवृत्त होते हैं..’ठेलने’ को भी अपनी नित्यक्रिया का हिस्सा ही समझें। इसमें कोई कोताही नहीं होनी चाहिए, अन्यथा आपका हाज़मा खऱाब हो सकता है।
अब आती है बारी आपकी क्रिएटिविटी की। आप कितने रचनात्मक हैं..इसपर ‘ठेलने की कला’ की दक्षता निर्भर करती है।
साढ़े चौदह हज़ार साल पहले लिखी अपनी ‘तुकबंदी’ को नए फॉन्ट में, पोस्टर का रंग बदलकर, अपनी तस्वीर के साथ या तात्कालिक परिस्थितिनुसार उसका उपयोग करना ज़रूरी है। इस तरह आपकी ‘तुकबंदी’ भी ‘कालजयी’ रहेगी और ठेलने की कला में आप धीरे-धीरे निपुण होते जाएँगे।
ठेलने के लिए परिचय-अपरिचय का बंधन नहीं है। बस आपके पास सामने वाले का नंबर या मैंसेजर में ‘घुसने’ की सुविधा भर होनी चाहिए। इसके बाद आपका ‘परिचय’ आपकी कला स्वयं देगी।
आपने घबराना नहीं है। निराश नहीं होना है। हार नहीं मानना है।
भले लोग आपको ब्लॉक करते जाएँ, देखकर रास्ता बदल लें, मुँह बिचका लें। संभव है कि कुछेक अपशब्द भी सुनने पड़ जाएँ। लेकिन ये सब तो आपकी साधना का हिस्सा है। कला-मार्ग बेहद कठिन है। आपको अपनी जिजीविषा और निरंतरता को बाधित नहीं होने देना है।
इस तरह एक दिन देखेंगे कैसे आप ‘ठेलने’ की कला में सिद्धहस्त हो चुके हैं।
फिर भी अगर कुछ शंका शेष हो तो इस मैसेज को 101 जातकों को ठेलिए। आपका मनोरथ शीघ्र पूर्ण होगा।
जै बाबा ठेलननाथ की
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख मोहम्मद यूनुस के बीच शुक्रवार को फ़ोन पर बात हुई थी।
बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे हमले की ख़बरों के बीच दोनों नेताओं के बीच यह पहली बातचीत थी।
भारत के प्रधानमंत्री ने इस बातचीत के बाद एक्स पर लिखा था, ‘मेरे पास मोहम्मद यूनुस का फ़ोन आया। इस दौरान हम दोनों ने बांग्लादेश की मौजूदा स्थिति को लेकर बात की।’
प्रधानमंत्री ने कहा, ‘लोकतांत्रिक, स्थिर, शांतिपूर्ण और प्रगतिशील बांग्लादेश के लिए मैंने भारत का समर्थन दोहराया है। उन्होंने (मोहम्मद यूनुस) बांग्लादेश में हिंदुओं और सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का आश्वासन दिया है।’
क्या कहती है यूएन की रिपोर्ट
हालाँकि इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि मोहम्मद यूनुस ने इस बातचीत में हमले की ख़बरों को लेकर क्या कहा है।
इस बीच संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने भी 16 अगस्त यानी शुक्रवार को अपनी एक रिपोर्ट में बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हमले का जि़क्र किया है।
इसके मुताबिक़, ‘बांग्लादेश में हिंदू समेत अन्य अल्पसंख्यकों पर हमले की रिपोर्ट भी आई है। ख़ासकर देश में सरकार बदलने के बाद 5 और 6 अगस्त को हिंदुओं के घरों और संपत्ति पर हमले की रिपोर्ट है।’
यूएन की इस रिपोर्ट में बांग्लादेश के 27 जि़लों में ऐसे हमले और लूट की ख़बरें मिलने का जि़क्र है, जिसमें हिंदू मंदिरों को नुक़सान पहुँचाए जाने की भी बात कही गई है।इस रिपोर्ट में बांग्लादेश के खुलना में इस्कॉन मंदिर में आगजऩी करने का जि़क्र भी किया गया है।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने बांग्लादेश में मौजूदा हिंसा के दौर में सैकड़ों की संख्या में आम लोगों के मारे जाने, पुलिस थाने पर हमले का जि़क्र भी किया है।
बांग्लादेश में 5 अगस्त को शेख़ हसीना के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने और देश छोडऩे के बाद देश में नई अंतरिम सरकार का गठन हुआ है।
बांग्लादेश में जुलाई महीने से आरक्षण के ख़िलाफ़ शुरू हुए प्रदर्शनों में सैकड़ों लोगों की मौत हुई थी जबकि कई लोग घायल हुए थे।
शेख़ हसीना के देश छोडऩे के बाद बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय और उनके मंदिरों पर हमले की ख़बरें सामने आई हैं।
सोमवार को अंतरिम सरकार में गृह मामलों के सलाहकार सख़ावत हुसैन ने अल्पसंख्यकों से हाथ जोडक़र माफ़ी मांगी थी। मंगलवार को बांग्लादेश के प्रमुख सलाहकार मोहम्मद युनूस ढाका के विख्यात ढाकेश्वरी मंदिर पहुँचे थे।
यूनुस ने मोदी से क्या कहा
इस बीच शुक्रवार को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार में 8 सलाहकारों के विभागों का फिर से बंटवारा किया गया है।
बीबीसी बांग्ला सेवा के मुताबिक़ सख़ावत हुसैन को गृह मंत्रालय से हटा दिया गया है। उन्हें अब कपड़ा और जूट मंत्रालय की जि़म्मेदारी दी गई है।
शुक्रवार को हुई मोदी और यूनुस के बीच बातचीत में भारतीय पत्रकारों को बांग्लादेश पहुँचकर वहाँ के ज़मीनी हालात पर रिपोर्ट करने का जि़क्र भी हुआ है, ताकि मामले की पूरी हक़ीक़त सामने आ सके।
बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार प्रोफे़सर मोहम्मद यूनुस ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा है कि कुछ रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों पर हमले की ख़बरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है।
बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार के प्रेस विंग की ओर से यह भी बताया गया है कि भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने अंतरिम सरकार के प्रमुख के तौर पर कार्यभार संभालने के लिए यूनुस को बधाई भी दी है।
प्रेस विंग की तरफ़ से मीडिया को जानकारी दी गई कि जब मोदी ने सुरक्षा का मुद्दा उठाया तो मुख्य सलाहकार ने कहा कि उनकी सरकार अल्पसंख्यकों समेत देश के हर नागरिक की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
मोहम्मद यूनुस ने इस बातचीत के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद भी दिया। इससे पहले भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट था कि उन्हें मुहम्मद यूनुस का फोन आया था।
इस बातचीत में प्रोफे़सर यूनुस ने भारत के प्रधानमंत्री और भारत के आम लोगों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई भी दी।
मोदी ने कहा है कि प्रोफे़सर यूनुस का लंबा अनुभव और नेतृत्व बांग्लादेश के लोगों के लिए अच्छे नतीजे लाएगा।
बातचीत के दौरान मोहम्मद यूनुस ने कहा कि बांग्लादेश में हालात अब नियंत्रण में हैं और जनजीवन सामान्य हो रहा है।
यूनुस को भारत आने का न्यौता
भारतीय प्रधानमंत्री ने बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के प्रमुख को 17 अगस्त को नई दिल्ली में होने वाले तीसरे ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित भी किया।
यूनुस के प्रेस विंग के मुताबिक़ वो इस सम्मेलन में वर्चुअली शामिल होने के लिए सहमत हो गए हैं।
भारत 17 अगस्त को तीसरे वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ शिखर सम्?मेलन की मेज़बानी करेगा। भारत के विदेश मंत्रालय के मुताबिक़ इसमें पिछले सम्मेलनों में दुनिया की विभिन्न जटिल चुनौतियों पर हुई चर्चाओं को आगे बढ़ाया जाएगा।
इन चुनौतियों में संघर्ष, खाद्य और ऊर्जा सुरक्षा संकट और जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएँ शामिल हैं।
यूनुस ने इस बातचीन में बांग्लादेश में अंतरिम सरकार के बनने के पीछे छात्र आंदोलन को वजह बताया है।
प्रोफ़ेसर यूनुस ने छात्र आंदोलन को बांग्लादेश की दूसरी क्रांति बताया और कहा कि उनकी सरकार छात्रों की लोकतांत्रिक उम्मीदों को पूरा करेगी।
उन्होंने पूरे देश में हालात को सामान्य और प्रभावी बनाने की सरकार की प्रतिबद्धता को दोहराया है और हर नागरिक के मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने की बात की है।
बांग्लादेश में आरक्षण के ख़िलाफ़ चले प्रदर्शनों के बाद पांच अगस्त को शेख़ हसीना ने बांग्लादेश के प्रधानमंत्री का पद छोड़ दिया था। उसके बाद वे भारत आ गई थीं।
अब बांग्लादेश में एक अंतरिम सरकार है जिसके मुखिया मोहम्मद यूनुस हैं। यूनुस एक विख्यात अर्थशास्त्री हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से भी नवाज़ा गया है। (bbc.com/hindi)
बांग्लादेश में भारी उथल-पुथल के बीच पत्रकारों पर भी हमले हो रहे हैं. चटगांव प्रेस क्लब पर हुए एक हमले में 20 पत्रकारों के घायल होने की खबर है. कई पत्रकारों को नौकरी से भी निकाला जा रहा है.
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
बांग्लादेश की समाचार वेबसाइट 'डेली स्टार' के मुताबिक, 14 अगस्त को कुछ लोगों ने चटगांव प्रेस क्लब पर हमला कर दिया। हमलावर क्लब के मुख्य दरवाजे का ताला तोडक़र अंदर घुस गए, तोड़-फोड़ की और कई पत्रकारों के साथ मारपीट की। कम-से-कम 20 पत्रकार घायल हो गए।
क्लब के अध्यक्ष सलाहुद्दीन रेजा ने 'डेली स्टार' को बताया कि हमलावरों की संख्या 30 से 40 थी। उनके मुताबिक, हमलावरों का नेतृत्व बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) से जुड़े लोग कर रहे थे। बाद में सेना की एक टीम ने पत्रकारों को बचाया।
ढाका के धानमंडी में स्थित राष्ट्रीय स्मारक संग्रहालय सूना पड़ा हैढाका के धानमंडी में स्थित राष्ट्रीय स्मारक संग्रहालय सूना पड़ा है
बांग्लादेश में राष्ट्रीय शोक दिवस को रद्द कर दिए जाने को आने वाले समय के लिए एक बड़े संकेत के रूप में देखा जा रहा हैतस्वीर: ष्ठङ्ख
देश में कई हफ्तों से चल रहे हिंसा के दौर में इससे पहले भी कई पत्रकारों को निशाना बनाया गया है। अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (आरएसएफ) ने 9 अगस्त को ही एक बयान जारी कर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार से पत्रकारों की सुरक्षा करने की अपील की थी।
और बढ़ सकता है तनाव
आरएसएफ के मुताबिक उस समय तक हुए हमलों में पांच पत्रकारों की जान जा चुकी थी, 250 घायल हो गए थे और नौ टीवी चैनलों पर हमला हो चुका था। हालांकि उस समय आरएसएफ ने इन हमलों के लिए पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की पुलिस और समर्थकों को जिम्मेदार ठहराया था।
51 पत्रकारों की सूची
आरएसएफ का कहना था कि इन हमलों के साथ-साथ कोई भी ऐसा जवाबी हमला भी नहीं होना चाहिए, जिसमें हसीना से जुड़े होने के आरोपों का सामना कर रहे पत्रकारों को निशाना बनाना जाए।
देश में आंदोलन करने वाले छात्रों ने 'भेदभाव-विरोधी छात्र आंदोलन' के बैनर तले 51 पत्रकारों की एक सूची जारी की और मांग की कि इन्हें राष्ट्रीय प्रेस क्लब से बैन कर दिया जाए। उन्होंने मांग की कि इन पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए, क्योंकि इन लोगों ने छात्रों और जनता के खिलाफ हिंसा को भडक़ाया था।
बांग्लादेश में पत्रकारों पर हमले के विरोध में त्रिपुरा के अगरतला में भी प्रदर्शन हो रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, बीते दिन 10 मीडिया कंपनियों के पत्रकारों ने अगरतला प्रेस क्लब के सामने काल पट्टे पहन कर अपना विरोध प्रकट किया।
11 अगस्त को अगरतला प्रेस क्लब के अध्यक्ष जयंता भट्टाचार्य ने कहा था कि बांग्लादेश में कई पत्रकारों के नाम अरेस्ट वारंट भी जारी कर दिए गए हैं। बांग्लादेशी वेबसाइट बीडीन्यूज24 के मुताबिक, एकत्तोर टीवी नाम की मीडिया कंपनी ने दो वरिष्ठ पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया।
वेबसाइट के मुताबिक, इन दोनों पत्रकारों का नाम छात्र आंदोलन के संयोजक अब्दुल कादिर अब्दुल हनन मसूद द्वारा प्रेस क्लब को भेजी गई पत्रकारों की सूची में था। छात्र नेताओं ने इन पत्रकारों पर बैन लगाने की मांग की है।
राष्ट्रीय शोक दिवस रद्द
इस बीच देश में राष्ट्रीय शोक दिवस को लेकर भी काफी उथल-पुथल चल रही है। 15 अगस्त 1975 को ढाका में देश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान और उनके परिवार के कई सदस्यों की एक सैन्य तख्तापलट में हत्या कर दी गई थी।
बांग्लादेश में इस दिन को राष्ट्रीय शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है। ढाका के धानमंडी इलाके में मुजीबुर रहमान का पूर्व आवास है, जहां यह हत्याकांड हुआ था। बाद में शेख हसीना की सरकार ने इस आवास को बंगबंधु स्मारक संग्रहालय में बदल दिया और हर साल लोग यहां इकठ्ठा होकर श्रद्धांजलि देते हैं।
इस बार अंतरिम सरकार ने शोक दिवस ना मनाने का आदेश दिया है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, स्मारक के बाहर छात्र तैनात हैं जो आने-जाने वालों की जांच कर रहे हैं और यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि कहीं कोई वहां आकर श्रद्धांजलि ना दे दे।
इसी दिन ढाका के बनानी इलाके में रहमान के अलावा मारे गए बाकी 18 लोगों की कब्र पर भी बड़ी संख्या में लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं, लेकिन मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इस बार वहां भी कोई कार्यक्रम नहीं हो रहा है।
शेख हसीना के खिलाफ आपराधिक मामले
इस बीच शेख हसीना के खिलाफ हत्या के आरोपों में जांच शुरू कर दी गई है। जुलाई में देश में हुई हिंसा में मारे गए लोगों में से दो मृतकों के परिवारों ने पूर्व प्रधानमंत्री के खिलाफ हत्या के आरोप लगाए हैं। इनमें हसीना सरकार के कई मंत्रियों और अधिकारियों को भी आरोपी बनाया गया है। (डॉयचेवैले)
-चंदन कुमार जजवाड़े
भारत के 78वें स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को एक बार फिर से लाल कि़ले से देश को संबोधित किया।
इस साल उनका भाषण नए राजनीतिक माहौल में था। साल 2014 के बाद यह पहला मौक़ा है जब बीजेपी के पास अपना बहुमत नहीं हैं और केंद्र सरकार सहयोगी दलों के समर्थन पर टिकी है।
मोदी के भाषण में इस बात पर भी लोगों की नजऱ थी कि वो क्या बोलते हैं और क्या उनके भाषण में सहयोगी दलों के भरोसे प्रधानमंत्री बनने का दबाव नजऱ आता है।
लाल कि़ले पर झंडा फहराने के बाद पीएम मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत में ही देश के सैनिकों, किसानों और युवाओं को सलाम किया।
‘अपना नियंत्रण दिखाने की कोशिश’
पीएम मोदी ने कहा, ‘जब हम 40 करोड़ थे, तब हमने सफलतापूर्वक आज़ादी का सपना देखा। आज तो हम 140 करोड़ हैं। एक साथ मिलकर हम किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं।’
उन्होंने कहा, ‘आज़ादी के दीवानों ने हमें स्वतंत्रता की सांस लेने का सौभाग्य दिया है। ये देश उनका कजऱ्दार है। ऐसे हर महापुरुष के प्रति हम अपना श्रद्धाभाव व्यक्त करते हैं।’
मोदी ने अपने कऱीब 100 मिनट लंबे भाषण में महिला सुरक्षा का मुद्दा भी उठाया और युवाओं के लिए रोजग़ार के नए मौक़े देने का दावा भी किया।
लेकिन इन तमाम मुद्दों के बीच क्या प्रधानमंत्री के भाषण में '240 सीटों की बीजेपी' और सहयोगियों को असहज नहीं करने का कोई दबाव दिख रहा था?
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘पिछले दो महीने से संसद और बाक़ी जगहों पर देखकर ऐसा लग रहा था कि मोदी थोड़े कमज़ोर पड़ गए हैं। लेकिन लाल कि़ले से मोदी अपने पुराने अंदाज़ में बोला है। उनके भाषण में उत्साह और आक्रमण दोनों नजऱ आ रहा था।’
नीरजा चौधरी के मुताबिक़ मोदी ने अपनी पार्टी की उपलब्धियाँ भी गिनाई हैं और दूसरे देशों को भी संदेश देने की कोशिश की है। मोदी बताना चाहते हैं कि भारत की प्रगति दूसरे देशों के लिए ख़तरा नहीं है।
‘सेक्युलर सिविल कोड’
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, ‘मोदी जी ने साल 2024 की राजनीतिक परिस्थिति में जब उनके पास अपना पूर्ण बहुमत नहीं है, उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि सबकुछ उनके नियंत्रण में है और वो कठोर कदम उठाने से पीछे नहीं हटेंगे। ’
रशीद किदवई इस मामले में यूनिफॉर्म सिविल कोड का उदाहरण देते हैं, जिसके बारे में प्रधानमंत्री ने भी अपने भाषण में जि़क्र किया है।
प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में आरोप लगाया है कि जिस सिविल कोड को लेकर हम जी रहे हैं, वह एक प्रकार का सांप्रदायिक सिविल कोड है, भेदभाव करने वाला सिविल कोड है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में 'सेक्युलर सिविल कोड' की बात की है। उन्होंने इस मुद्दे पर देशभर में चर्चा और बहस की मांग भी की है।
रशीद किदवई कहते हैं, ‘मोदी जी ने कहा कि देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड होना चाहिए। लेकिन वो इसकी गहराई में नहीं गए कि इसे कैसे लागू करेंगे। उन्होंने केवल बीजेपी के एजेंडे को आगे करके उसकी बात की है।’
‘जो क़ानून देश को धर्म के आधार पर बांटते हैं जो ऊंच-नीच का कारण बन जाते हैं। ऐसे क़ानूनों का आधुनिक समाज में कई स्थान नहीं हो सकता है। इसलिए मैं कहूंगा कि समय की मांग है कि देश में एक सेक्युलर सिविल कोड हो।’
हालाँकि बीजेपी अब तक यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड की बात करती रही है। इसलिए ‘सेक्युलर सिवल कोड’ का जि़क्र छेडऩा एक नई बहस खड़े कर सकता है।
‘वन नेशन वन इलेक्शन’
रशीद किदवई के मुताबिक़, ‘प्रधानमंत्री यह धारना पेश करना चाहते हैं कि धर्म से जुड़े हुए जितने सिविल कोड हैं उनको मान्यता नहीं दी जाएगी और एक ऐसा सिविल कोड होगा जो धर्म पर आधारित नहीं होगा।
सिविल कोड को लेकर कई महिलाएँ और कुछ अन्य वर्ग सिविल मामलों से जुड़े क़ानूनों को लैंगिक भेदभाव से दूर रखने की मांग करते हैं। यानी ऐसा क़ानून जो पुरुषों और महिलाओं के लिए एक जैसा हो।
इसमें पैत्रिक संपत्ति या विरासत का हस्तांतरण, शादी-ब्याह और तलाक़ जैसे मामले शामिल हैं।
रशीद किदवई मानते हैं, ‘यह इतना आसान नहीं है क्योंकि धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं में रूढ़ीवाद का असर होता है। यह केवल इस्लाम में ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों में भी होता है। ऐसे क़ानून बनाने के लिए सरकार के पास प्रचंड बहुमत होना चाहिए।’
इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाषण में 'वन नेशन वन इलेक्शन' का जि़क्र किया है और इसके लिए देश से आगे आने की अपील की है।
भारत में केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले कुछ साल से लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने यानी 'वन नेशन वन इलेक्शन' की चर्चा कई बार की है।
हालाँकि पिछले कुछ समय इस मुद्दे पर बीजेपी या केंद्र सरकार में एक तरह की ख़ामोशी देखी जा रही थी।
‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के पीछे कई तरह के तर्क दिए जाते हैं कि इससे चुनावी ख़र्च कम होगा और देश के विकास कार्यों में तेज़ी आएगी।
दरअसल चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है।
आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है और इससे विकास के काम पर असर पड़ता है।
एक दिन में 87 रेप, भारत में बढ़ रहे हैं बलात्कार के मामले?
डॉक्टर जी: कैसी होती है औरतों के बीच पुरुष गाइनिकॉलजिस्ट की दुनिया?
रशीद किदवई कहते हैं, ‘अगर मोदी ऐसा मानते हैं तो इस साल लोकसभा चुनावों के समय बीजेपी शासित 20-22 राज्यों में भी विधानसभा चुनाव करा देते। यह एक अवसर था, लेकिन प्रधानमंत्री केवल ‘रेटोरिक’ या जुमले की तरह बात को दोहरा रहे हैं।
वो केवल लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। उनकी कोशिश केवल इसे चर्चा में रखने की है ताकि लोगों को लगे कि प्रधानमंत्री ऐसा चाहते हैं, लेकिन विपक्ष यह नहीं करने दे रहा है।
हालाँकि जानकार मानते हैं एक देश एक चुनाव कराने में कई व्यवहारिक समस्याएं हैं। इसके लिए सबसे ज़रूरी है कि देश के हर राज्य की विधानसभा एक साथ भंग हो जाए।
साल 1947 में आज़ादी के बाद भारत में नए संविधान के तहत देश में पहला आम चुनाव साल 1952 में हुआ था। देश में साल 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव एक साथ ही होते थे।
यह क्रम पहली बार उस वक़्त टूटा था जब केरल में साल 1957 के चुनाव में ईएमएस नंबूदरीबाद की वामपंथी सरकार बनी।
इस सरकार को उस वक़्त की केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाकर हटा दिया था। केरल में दोबारा साल 1960 में विधानसभा चुनाव कराए गए थे। उसके बाद अलग अलग वजहों से कई राज्यों की सरकारों के गिरने से यह क्रम टूट गया।
पीएम मोदी ने लाल कि़ले से कहा कि महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराध को गंभीरता से लिया जाना ज़रूरी है और दोषियों में डर पैदा करने की ज़रूरत है।
महिला सुरक्षा न्याय की मांग
पीएम ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों की जल्द जांच और दोषियों को जल्द से जल्द कड़ी सज़ा देने की मांग की ताकि समाज में भरोसा पैदा किया जा सके।
उन्होंने कहा, ‘मैं आज लाल कि़ले से अपनी पीड़ा व्यक्त करना चाहता हूं। हमें गंभीरता से सोचना होगा। हमारी माताओं, बहनों, बेटियों के प्रति जो अत्याचार हो रहे हैं, उसके प्रति जन सामान्य का आक्रोश है। इसे देश को, समाज को, हमारी राज्य सरकारों को गंभीरता से लेना होगा।’
नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘ख़ासकर कोलकाता वाले मामले को लेकर महिलाओं में आक्रोश है । इसके अलावा पेरिस ओलंपिक में विनेश फोगाट का मुद्दा भी देश में काफ़ी चर्चा में रहा है। महिलाओं में एक तरह की जागृति आई है और मोदी उसे समझ रहे हैं। इसलिए उनके भाषण में महिलाओं का काफ़ी जि़क्र था।’
हालाँकि भारत में लॉ एंड ऑर्डर राज्य का मुद्दा है और इसमें केंद्र सरकार की बहुत ज़्यादा भूमिका नहीं होती है।
प्रधानमंत्री ने किसी घटना का जि़क्र नहीं किया लेकिन फि़लहाल पश्चिम बंगाल के कोलकाता में एक डॉक्टर की हत्या और बलात्कार के मामले को लेकर देशभर में काफ़ी आक्रोश देखा जा रहा है।
रशीद किदवई कहते हैं, ‘अगर बीजेपी शासित राज्य प्रधानमंत्री की मांग पर चलें तो अन्य राज्यों पर भी इसका दबाव होगा। हमारे पास बीजेपी शासित राज्यों के सैंकड़ों मामले हैं, लेकिन प्रधानमंत्री का ऐसा कोई बयान नहीं आया जिससे लगे कि वो बहुत गंभीर हैं।’
रशीद कदवई मानते हैं कि प्रधानमंत्री के भाषण में जिस रिफॉर्म की बात की गई है वह सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसा कांग्रेस भी चाहती है और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उसने आर्थिक सुधार के कदम उठाए थे।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
ट्रंप शुरू से रिपब्लिकन पार्टी के इकलौते उम्मीदवार हैं जिन्होंने बहुत जोर शोर से चुनाव प्रचार शुरू किया था। उनके साथ दो बड़ी घटनाएं भी घटी। पहले उन्हें पिछले चुनाव में अनैतिक आचरण के कारण दोषी पाए जाने पर उनकी उम्मीदवारी निरस्त होती दिखी लेकिन इस मामले में अपील में वे मुक्त हो गए। दूसरी घटना उन पर जानलेवा हमले की हुई जिससे उनके लिए सहानुभूति पैदा हुई। वे अपने विरोधी डेमोक्रेट और वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन से काफी आगे निकलते दिखाई देने लगे थे। जो बाइडेन के बारे में पिछले कई महीनों से ऐसी खबरें आ रही थी जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ठीक नहीं बता रही थी, हालांकि बाइडेन ने इनका खंडन करते हुए कहा था कि ये विरोधियों द्वारा फैलाई जा रही अफवाह हैं। एक नाटकीय घटनाक्रम में अचानक जो बाइडेन ने राष्ट्रपति चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस लेकर अपनी डेप्युटी कमला हैरिस का नाम आगे कर ट्रंप के सामने कड़ी चुनौती पैदा कर दी है। पहले ना ना करते करते बाइडेन ने अंतत: अपनी हार भांपते हुए पार्टी हित में यह तय कर लिया कि ट्रंप को तगड़ी टक्कर देने के लिए किसी अन्य नेता को सामने लाना होगा। उन्होंने यह कहते हुए अपनी उप राष्ट्रपति कमला हैरिस का नाम आगे बढ़ाया है कि युवा पीढी को नेतृत्व सौंपना ही सर्वश्रेष्ठ है। बाइडेन और उनकी पार्टी का यह दांव ट्रंप के लिए मुसीबत खड़ी कर सकता है। अभी तक ट्रंप जो बाइडेन की नीतियों और एंटी इनकंबेंसी फैक्टर पर चुनाव प्रचार केंद्रित कर रहे थे। अब कमला हैरिस के मैदान में आने पर ट्रंप को अपनी रणनीति नए सिरे से तैयार करनी पड़ेगी।
कमला हैरिस के साथ कुछ सकारात्मक फैक्टर हैं। वह महिला हैं, अश्वेत हैं और इमिग्रेंट परिवार से आती हैं। उन्हें राष्ट्रपति चुनाव में उतरने वाली पहली अश्वेत महिला होने का गौरव प्राप्त है। उनके सामने ट्रंप को ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी । ट्रंप का इतिहास कई विवादों से घिरा रहा है। वे आपराधिक और विवादित मामलो में फंसते रहे हैं थे। इसके बरक्स कमला हैरिस तेजतरार अटॉर्नी रही हैं। वे कुशल वकील की तरह तर्कों के साथ ट्रंप को घेर सकती हैं। ट्रंप राष्ट्रीयता को उभारने में माहिर कलाकार हैं उन्होंने ईसाइयत को भी मुद्दा बनाया है।
वे बुजुर्ग जो बाइडेन की भुलक्कड़ प्रवृत्ति पर तंज कसते रहे हैं , अब उन्हें युवा हैरिस की काट के लिए नए तीर खोजने पड़ेंगे। कुल मिलाकर अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव रोमांचक मैच की तरह आगे बढ़ रहा है।बहरहाल अमेरिका विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र है जो पिछली एक सदी से निरंतर विकसित होता रहा है और नई नई सफलताओं के झंडे गाड़ते हुए मुसलसल आधुनिक विकास के शिखर पर सवार है। इस लिहाज से भारत जैसे विकसित होते लोकतंत्र को अपने बड़े भाई से काफी कुछ सीखने को मिल सकता है, मसलन जिस तरह से जो बाइडेन ने पार्टी हित में दूसरे कार्यकाल का लालच छोड़ते हुए अपनी पार्टी की युवा नेता को आगे कर दिया है, वैसा त्याग हमारे राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं को भी करना चाहिए जहां पचहत्तर पार वाले भी पार्टी हित में पीछे हटने के बजाय विद्रोह कर दल-बदल तक करने को तैयार रहते हैं।
अमेरिका का दूर का इतिहास भले ही क्रूर रहा है जिसमें श्वेत मालिकों ने अश्वेतों के साथ बहुत अन्याय और हिंसा की है लेकिन उसने अपनी गलतियों से काफी कुछ सीखा भी है। उन्होंने जर्मनी से निकाले गए यहूदियों को फलने-फूलने के अवसर दिए हैं जिन्होंने वर्तमान अमेरिका को विश्व का आर्थिक और वैज्ञानिक सिरमौर बनाया है।
इसी तरह अमेरिका ने भारत के उच्च शिक्षित वर्ग को भी फलने फूलने के खूब अवसर दिए हैं जिसने हमारी आरक्षण व्यवस्था और लाल फीताशाही के मकडज़ाल से परेशान होकर अमेरिका का रुख किया है। अमेरिका के बरक्स हमारे नेता वोटों की घटिया राजनीती के लिए धर्म और जातियों के पुराने झगड़ों को सुलझाने की बजाय बुरी तरह उलझाकर देश के विकास में नई नई बाधा खड़ी कर रहे हैं। काश वे अमेरिका से लोकतंत्र को विकसित करने की कला सीख सकें।


