विचार / लेख
-जाह्नवी मूले
पिछले दो दशक में सरकार और निजी संगठनों ने पहले की तुलना में अब खेल पर ज़्यादा धन खर्च करना शुरू किया है।
ओलंपिक में देश ने पहले की तुलना में कहीं अधिक मेडल भी जीते हैं लेकिन क्या इतना काफी है?
2004 के ओलंपिक में भारत ने सिर्फ एक मेडल जीता था लेकिन 2024 में ये आंकड़ा छह रहा।
एशियन गेम्स और एशियन पैरा गेम्स में भी भारत ने रिकॉर्ड स्तर पर मेडल जीते, ये सभी चीज़ें इस ओर इशारा करती हैं कि भारतीय खेल ने एक लंबी दूरी तय की है।
इस साल सरकार ने ‘युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय’ के लिए 3,443 करोड़ रुपए का बजट रखा।
वहीं, ‘गु्रप एम’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, निजी सेक्टर का खेल पर खर्च बढक़र 15,766 करोड़ रुपए हो गया। हालांकि इसमें से बड़ा हिस्सा तो क्रिकेट का ही रहा।
ओलंपिक खेलों के लिए मिलने वाली सहायता और सफलता ने युवा पीढ़ी के मन में खेल की दुनिया में जाने को लेकर महत्वाकांक्षाएं पैदा की हैं। ऐसी ही खिलाडिय़ों में से एक हैं अदिति स्वामी।
2023 में अदिति वल्र्ड चैंपियनशिप जीतने वाली पहली भारतीय और दुनिया में सबसे कम उम्र की आर्चर बनी थीं। उस समय उनकी उम्र महज 17 साल थी।
उन्होंने खेल की दुनिया में अपनी यात्रा के बारे में कहा, ‘मैं अच्छा कर पाई क्योंकि मुझे समय से स्कॉलरशिप मिल गई। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो खेल में करियर बनाना मुश्किल होता।’
स्कॉलरशिप जरूरी
अदिति ने नौ साल की उम्र से ही खेलना शुरू किया। वो सातारा में गन्ने के खेत में अस्थायी तौर पर बने रेंज में अभ्यास किया करती थीं। सातारा महाराष्ट्र में एक छोटा सा कस्बा है।
अदिति के पिता गोपीचंद एक स्कूल में शिक्षक हैं और उनकी मां शैला स्थानीय सरकारी कर्मचारी हैं। उन्हें हमेशा अदिति के लिए पैसे जुटाने में दिक्क़तें आती थीं और इसके लिए उन्होंने कर्ज भी लिए।
उन्होंने कहा, उसे हर 2-3 महीने पर तीर के नए सेट की ज़रूरत पड़ती और उसकी हाइट बढऩे के साथ ही धनुष भी बदलना पड़ता।
तीर का हर सेट कऱीब 40,000 रुपये का आता है और धनुष की क़ीमत 2-3 लाख रुपये की होती है। इसके बाद उसके खाने-पीने और यात्रा करने के खर्चे भी थे।
ऐसा कुछ वर्षों तक चलता रहा। 2022 में अदिति ने गुजरात में नेशनल गेम्स में गोल्ड मेडल जीता। इस जीत के बाद अदिति को भारत सरकार के ‘खेलो इंडिया’ स्कीम के तहत मासिक 10,000 रुपए की स्कॉलरशिप मिलने लगी और इसके अतिरिक्त इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन से 20,000 रुपये की मासिक स्कॉलरशिप भी मिलनी शुरू हुई।
इससे अदिति की काफी सहायता हुई। वो कहती हैं, ‘जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं, आपके ख़र्चे बढऩे शुरू होते हैं। परिवार हमेशा खेल के नए सामान खऱीद नहीं सकती। मैं ऐसे खिलाडिय़ों को जानती हूं जो अच्छे होने के बावजूद भी आगे नहीं बढ़ पाए क्योंकि उन्हें आर्थिक सहायता नहीं मिली।’
ये सिफऱ् अदिति की कहानी नहीं है। खेल की दुनिया में आपको ऐसी ढेरों कहानियां मिलेंगी।
जैसे कि ओलंपियन अविनाश साबले की कहानी, जिन्हें करियर के शुरुआती दिनों में मज़दूरी तक करनी पड़ी थी।
वहीं वल्र्ड चैंपियनशिप ब्रॉन्ज मेडलिस्ट बॉक्सर दीपक भोरिया को सही से भोजन नहीं मिलने की वजह से खेल को छोडऩे की नौबत आ गई थी।
इन सब के बाद भी ये डटे रहे। उन्होंने न केवल भारत के लिए मेडल जीते बल्कि भारतीय खेल में एक नई पटकथा भी लिखी।
खेल में भारत की बढ़ती धाक
सितंबर 2024 में दिल्ली में आयोजित ओलंपिक काउंसिल ऑफ़ एशिया की बैठक में शामिल होते हुए खेल मंत्री मनुसख मांडविया ने ‘ट्रेनिंग सुविधाओं में हुए सुधार, बेहतर कोचिंग और खिलाडिय़ों के लिए देश भर में बेहतर अवसरों’ का जिक्र किया।
देश में खेल के क्षेत्र में संभावनाओं का जि़क्र करते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि पेरिस ओलंपिक 2024 के मेडल टैली को देखते हुए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
भारत छह मेडल जीतकर 71वें स्थान पर रहा जबकि भारत जैसी ही बड़ी जनसंख्या वाला पड़ोसी देश चीन 91 मेडल जीतकर दूसरे स्थान पर रहा।
भारत का खेल पर प्रति व्यक्ति सरकारी खर्च चीन की तुलना 5 गुना कम है।
भारत के कई शीर्ष एथलीटों का प्रतिनिधित्व करने वाली स्पोर्ट्स मैनेजमेंट कंपनी ‘बेसलाइन वेंचर्स’ के तुहीन मिश्रा करते हैं, ‘विकासशील अर्थव्यवस्था में खेल को दूसरी आवश्यक चीज़ों की तुलना में प्राथमिकता नहीं दी जाती है। लेकिन जब जीडीपी एक स्तर तक पहुंच जाती है तो खेल बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है। भारत में हम यही देख रहे हैं और अगले 15-20 साल में इसके और बड़ा होने की संभावना है।’
ओलंपिक की तुलना में भारत ने पैरालंपिक्स में ज़्यादा मेडल जीते हैं। 2004 में भारत ने सिफऱ् दो मेडल जीते थे लेकिन 2024 में ये आंकड़ा बढक़र 29 हो गया। ये दर्शाता है कि भारत ने पैरालंपिक गेम्स में अपनी छाप छोड़ी है।
कइयों का कहना है कि ऐसा इसलिए संभव हो पाया क्योंकि विकलांगता को लेकर जागरूकता बढ़ी है और पैरा स्पोर्ट्स पर ज़्यादा से ज़्यादा काम करने की इच्छा दिखाई गई है।
फ़ंडिंग में सुधार
खेल में फंडिंग के लिहाज से देखें तो भारत में सबसे बड़ा बदलाव 2009-10 में दिखता है। दिल्ली ने कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन किया। भारत ने 38 गोल्ड समेत 101 मेडल जीते।
विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली में हुए इस आयोजन के बाद ओलंपिक खेलों को लेकर जागरूकता और दिलचस्पी बढ़ी और इसके साथ ही फ़ंडिंग भी बढ़ी।
2014 में टारगेट ओलंपिक पोडियम की शुरुआत हुई, जिसे टोप्स भी कहा जाता है। इसके बाद 2017-18 में खेलो इंडिया प्रोग्राम की शुरुआत हुई।
एक तरफ़ टोप्स जहां वैसे शीर्ष खिलाडिय़ों के लिए लक्षित था जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल के लिए लक्ष्य साध रहे हैं।
वहीं, खेलो इंडिया का लक्ष्य अगली पीढ़ी के टैलेंट को तैयार करना, पूर्व एथलीटों को सहयोग करना और ज़मीनी खेल संरचनाओं का विकास करना है।
मनसुख मांडविया ने संसद में बताया था कि खेलो इंडिया स्कीम के तहत 2781 खिलाडिय़ों को कोचिंग, सामान, चिकित्सकीय देखरेख और निजी खर्च के लिए मासिक राशि दी जा रही है।
ये योजनाएं बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत में किसी भी एथलीट के शुरुआती दिनों में सरकारी फंडिंग का बड़ महत्व होता है। भारत में सरकारी नौकरियों में भी एथलीट कोटा होता है ताकि इन खिलाडिय़ों के जीवन में आर्थिक स्थिरता इनके सक्रिय वर्षों के बाद भी बनी रहे।
मांडविया ने दावा किया कि 2014 की तुलना में खेल पर किया जा रहा खर्चा तीन गुना बढ़ा है। वो युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय के सालाना बजट का हवाला दे रहे थे।
पिछले वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि 2009-10 में कॉमनवेल्थ गेम्स की वजह से खेल पर होने वाले खर्च बढ़े थे। हाल के वर्षों में ये आंकड़े बढ़े हैं।
भारत में वार्षिक बजट में खेलों पर खर्च किए जाने को अनुपात में देखें तो, ये पिछले कुछ वर्षों से स्थिर बना हुआ है, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि फंडिंग के इस्तेमाल में सुधार हुआ है। इसके साथ ही राज्य सरकार भी अपने क्षेत्र में खेल के विकास में योगदान दे रही हैं। हालांकि अलग-अलग राज्यों में स्थिति अलग-अलग सी है। ये दर्शाता है कि हरियाणा कैसे दूसरे राज्यों की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन कर रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार सौरभ दुग्गल कहते हैं, ‘हरियाणा खेल पर काफ़ी पैसे खर्च करता है और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के लिए बड़ी पुरस्कार राशि, सरकारी नौकरियां और अवॉर्ड देता है, इसमें पैरा स्पोर्ट्स भी शामिल है। इससे खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के साथ ही खेल की संस्कृति भी बढ़ती है।’
निजी सेक्टर का योगदान
राइफ़ल शूटर दीपाली देशपांडे ने 2004 में एथेंस में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। वो 2024 पेरिस ओलंपिक में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाले स्वप्निल कुसाले की कोच भी रही हैं।
वो कहती हैं, ‘हमारे समय में कॉर्पोरेट से बहुत ज़्यादा फ़ंडिंग नहीं होती थी। कुछ लोगों को कभी-कभी सहयोग मिलता था लेकिन ज़रूरी सामान खऱीदने और बाकी चीज़ो का ख़र्च बहुत ज़्यादा था। लेकिन अब ये चीज़ें काफ़ी बदली हैं।’
2010 के कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद से गोल्ड क्वेस्ट, रिलायंस फ़ाउंडेशन, जेएसडब्ल्यू स्पोर्ट्स, गो स्पोर्ट्स समेत की अन्य एनजीओ और फ़ाउंडेशन आगे आए हैं।
ये सभी युवा खिलाडिय़ों के टैलेंट को उभारने में योगदान दे रहे हैं। अब ब्रांड्स भी खुद को टीम या छोटी उम्र से ही खिलाडिय़ों के साथ जोड़ रहे हैं।
तुहीन मिश्रा कहते हैं, ‘जब एक खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करता है तो स्पॉन्सर्स और उनके प्रयासों की भी बात होती है। खिलाड़ी की लोकप्रियता ब्रांड वैल्यू को बढ़ाते हैं, इससे कंपनियों को फ़ायदा पहुंचता है। इसलिए ज़्यादा से ज़्यादा ब्रांड खेल में सहयोग के लिए आ रहे हैं।’ हालांकि, इन सब के बीच इस फ़डिंग से महिला खिलाडिय़ों को कितना फ़ायदा हो रहा है, इस पर तुहीन कहते हैं, ‘उन्हें अब भी कम फ़ायदा पहुंच रहा है लेकिन निश्चित तौर पर स्थिति में सुधार है।’
‘अगर कॉर्पोरेट चश्मे से देखें तो ये प्रदर्शन पर निर्भर होता है। पिछले कुछ ओलंपिक में हमारी महिला खिलाडिय़ों ने बेहतर प्रदर्शन किया है चाहे वो पीवी सिंधू हों, मीराबाई चनू हों, लोवलिना हों या मनु भाकर। निश्चित तौर पर उन्होंने ध्यान खींचा है।’
पिछले 24 वर्षों में भारत ने ओलंपिक में जो 26 मेडल जीते हैं, उनमें से 10 महिला खिलाडिय़ों ने जीते हैं।
भारत में स्पोर्ट्स इंडस्ट्री का ख़र्च 1।9 अरब डॉलर पहुंचा
ग्रुप एम की ओर से जारी ‘इंडिया स्पोर्ट्स स्पॉन्सरशिप रिपोर्ट’ के अनुसार, अब अधिक महिलाएं खेल की दुनिया में आ रही हैं और उन्होंने कई धारणाओं को तोड़ा है।
इसमें कहा गया है कि महिला केंद्रित टूर्नामेंट ने खेल में महिला खिलाडिय़ों की संख्या को बढ़ाया है। इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि महज आठ सालों में, भारत में स्पोर्ट्स इंडस्ट्री पर ख़र्च 2016 के 94.1 करोड़ डॉलर से बढक़र 2023 में 1.9 अरब डॉलर हो चुका है।
हालांकि, यहां ये बात गौर करने वाली है कि इनमें से 87 प्रतिशत धन क्रिकेट में जाता है। ये देश का सबसे लोकप्रिय खेल है। इसका बड़ा हिस्सा आईपीएल का है। इसलिए कई लोग ये मानते हैं कि हमें स्पॉन्सरशिप से ऊपर देखने की ज़रूरत है।
एथलेटिक्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व ओलंपियन अदिल सुमरीवाला कहते हैं, ‘स्पॉन्सरशिप बहुत ज़्यादा प्रभावशाली नहीं है। हमें ज़्यादा निवेश की ज़रूरत है।’
वो तर्क देते हैं कि ज़्यादातर प्राइवेट फ़ंडर वापसी की उम्मीद में पैसे लगाते हैं। उनका कहना है कि ज़मीनी स्तर पर स्पोर्ट्स फ़ेडरेशनों के सुधार पर पैसे खर्च किये जाने चाहिए ताकि एक पूरा सिस्टम- कोच, मैनेजर, डॉक्टर, स्पोर्ट्स साइंटिस्ट, फिजिय़ो यहां तक कि वॉलंटियर्स का तैयार हो सके।
वो कहते हैं, ‘स्पॉन्सरिंग की तरह नहीं बल्कि 5-10 साल का लंबा सहयोग होना चाहिए जैसा कि ओडिशा ने हॉकी में इंवेस्ट करने की शुरुआत की।’
ये रुख़ धीरे-धीरे बदल रहा है। राष्ट्रीय खेल नीति के नए मसौदे भी प्रस्तावित क़दम हैं जैसे कि एक खिलाड़ी को गोद लें, एक जि़ले के खेल प्रोग्राम को गेद लें, एक वेन्यू को गोद लें।
सौरभ दुग्गल कहते हैं, ‘ये कहावत है -रेंगिए, चलिए और फिर दौडि़ए। हमने अभी चलना सीखा है, हमें बहुत कुछ करना है ताकि दौड़ सकें।’
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित) (bbc.com/hindi)