विचार / लेख

तपस्वी और दांपत्य जीवन
28-Jan-2025 2:54 PM
तपस्वी और दांपत्य जीवन

-ध्रुव गुप्त

आज हमारी शादी की सालगिरह है। बच्चे कल शाम तैयारी में लगे ही थे कि अर्द्धांगिनी के शाश्वत कटु वचन सुनकर मेरे मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। अगले ही दिन घर से भागकर सीधे हिमालय की किसी गुफा में अज्ञातवास का निश्चय करके सोया ही था कि सपने में एक तपस्वी प्रकट हुए। अधरों पर मुस्कान और आशीर्वाद में उठे हाथ। उन्हें देखकर मेरे हाथ स्वत: जुड़ गए।

अपनी व्यथा सुनाने के बाद मैंने कहा- संन्यास लेने का निश्चय किया है। मुझे शरण में ले लो, प्रभु ! दांपत्य की पीड़ा अब सही नहीं जाती।’

तपस्वी ने मुस्कुराकर मेरे माथे पर हाथ रखकर कहा -‘तुम्हारी व्यथा मैं समझ सकता हूं, वत्स ! इस नश्वर संसार में वैवाहिक जीवन वस्तुत: एक महासमर ही है। न सिर्फ तुम पुरुषों के लिए, बल्कि स्त्रियों के लिए भी। ऐसा महासमर जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों को अपनी स्वतंत्रता और उडऩे की अनंत इच्छाओं की आहुति देनी होती है। तुम्हारे इस बलिदान की पटकथा समाज ने पहले से लिख रखी है। तुम इस नाटक में अभिनेता मात्र हो। डरो नहीं। वैवाहिक जीवन में जो कुछ नष्ट होता है, वह असत्य, अनित्य, क्षणभंगुर है। शाश्वत केवल आत्मा है जो बार-बार वस्त्र बदलकर दांपत्य का सुख और दुख झेलने को इस धरा धाम पर अवतरित होती रहेगी। कभी स्त्री रूप में और कभी पुरुष रूप में। तुम्हारे वश में मात्र इतना है कि सुख और दुख, कलह और प्यार, शांति और अशांति, तानों और शब्दवाणों के बीच स्थितप्रज्ञ बनो। कठिन है, परंतु धीरे-धीरे स्वयं को नष्ट करने की प्रक्रिया में तुम्हें रस आने लगेगा।’

कुछ देर के लिए तपस्वी जी ने आंखें मूंद ली। संभवत: उन्हें अपने विगत दांपत्य की याद आई होगी। फिर उन्होंने बुझे स्वर में कहा- ‘संशय त्यागो और घर लौट जाओ ! जीवन में सुख, शांति, प्रेम और स्वतंत्रता ही सब कुछ नहीं है। इसी जीवन में हमें दुख, तनाव, अशांति, दासता, अवसाद, विडंबनाओं और मूर्खताओं के बारे में भी जान लेना चाहिए ! दुर्भाग्य से दांपत्य में किसी भी विधि से सामंजस्य नहीं बन सका तो मेरे पास आ जाना। साम्राज्य, ज्ञान, सत्ता या शांति के लिए पत्नियों का त्याग करने वाले असंख्य देवताओं, ऋषियों और राजपुरुषों के उदाहरण सामने है। मैं स्वयं भी उनमें से एक हूं।’

अभी नींद खुली तो देखा कि लंबी प्रतीक्षा के बाद बाहर मौसम की पहली बारिश हो रही है और मेरे भीतर पहली बार भय का नामोनिशान तक नहीं है। मेरे ज्ञानचक्षु खुल चुके हैं। मैंने सपने वाले तपस्वी को याद कर पहली बार बेगम को पुलिसिया स्टाइल में जोरदार सलाम ठोका और शादी की सालगिरह की बधाई दे डाली।

उनके होंठों पर मुस्कान देखकर मेरा यह निश्चय मजबूत हुआ है कि पत्नी रूपी संकट से अब और नहीं लडऩा। डरकर भागना भी नहीं। उसके आगे चुपचाप आत्मसमर्पण कर देने में ही दांपत्य का सुख है।


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