संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट फैसला भी दे सकता है, और इंसाफ भी कर सकता है...
20-Aug-2020 7:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रशांत भूषण पर सुप्रीम कोर्ट  फैसला भी दे सकता है, और इंसाफ भी कर सकता है...

देश के एक प्रमुख वकील और सार्वजनिक मुद्दों पर कई सरकारों, कई जजों के कटु आलोचक रहते आए प्रशांत भूषण के दो ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट उन्हें अदालत की अवमानना की सजा सुना रही है। दो दिन पहले इसी जगह हमने इस मुद्दे पर अपनी सोच खुलासे से सामने रखी थी, और आज उसे दुहराने का हमारा कोई इरादा नहीं है। इसलिए हम आज प्रशांत भूषण के समर्थन में कुछ लोगों के बयानों के कुछ हिस्से यहां दे रहे हैं, और खुद प्रशांत भूषण का आज सुप्रीम कोर्ट में दिया गया एक बयान भी दे रहे हैं क्योंकि इनसे अधिक हमारे पास दो दिन के भीतर लिखने के लिए और कुछ नहीं है। 

प्रशांत भूषण की जिन दो ट्वीट को अदालत ने अवमानना माना है, और उन्हें सजा का हकदार माना है उनमें उन्होंने लिखा था- जब इतिहासकार भारत के बीते 6 सालों को देखते हैं, तो पाते हैं कि कैसे बिना आपातकाल के देश में लोकतंत्र खत्म किया गया। इसमें वे (इतिहासकार) उच्चतम न्यायालय, खासकर चार पूर्व न्यायाधीशों की भूमिका पर सवाल उठाएंगे। 

दो दिन बाद अगली ट्वीट में प्रशांत भूषण ने मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबड़े की विदेशी मोटरसाइकिल पर बैठी फोटो पोस्ट की थी, और लिखा था- मुख्य न्यायाधीश ने कोरोना काल में अदालतों को बंद रखने का आदेश दिया था। 

सुप्रीम कोर्ट में आज प्रशांत भूषण को सजा देने पर चल रही बहस के दौरान प्रशांत भूषण ने एक लिखित बयान में महात्मा गांधी का जिक्र किया और कहा- बोलने में विफलता कर्तव्य का अपमान होगा। मुझे तकलीफ है कि मुझे अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया है, जिसकी महिमा मैंने एक दरबारी या जय-जयकार के रूप में नहीं, बल्कि 30 बरस से एक चौकीदार के रूप में बनाए रखने की कोशिश की है। मैं सदमे में हूं और इस बात से निराश हूं कि अदालत इस मामले में मेरे इरादों का कोई सुबूत दिए बिना इस निष्कर्ष पर पहुंची है। कोर्ट ने मुझे शिकायत की कापी नहीं दी, मुझे यह विश्वास करना मुश्किल है कि कोर्ट ने पाया कि मेरे ट्वीट ने इस संस्था की नींव को अस्थिर करने का प्रयास किया। लोकतंत्र में खुली आलोचना जरूरी है। हम ऐसे समय में रह रहे हैं जब संवैधानिक सिद्धांतों को सहेजना व्यक्तिगत निश्ंिचतता से अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिए। बोलने में असफल होना कर्तव्य का अपमान होगा। यह मेरे लिए बहुत ही बुरा होगा कि मैं अपनी प्रमाणित टिप्पणी के लिए माफी मांगता रहूं। 

प्रशांत भूषण ने महात्मा गांधी के बयान का जिक्र करते हुए कहा- ‘‘मैं दया की अपील नहीं करता हूं। मेरे प्रमाणित बयान के लिए कोर्ट की ओर से जो भी सजा मिलेगी, वह मुझे मंजूर है।’’ 

प्रशांत भूषण ने कहा- मेरे द्वारा किए गए ट्वीट देश के एक नागरिक के रूप में सच को सामने रखने की कोशिश है। अगर मैं इस मौके पर नहीं बोलूंगा तो मैं अपनी जिम्मेदारी को निभा पाने में नाकामयाब रहूंगा। मैं यहां पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की एक बात को रखना चाहूंगा। उन्होंने कहा था- मैं दया करने के लिए नहीं कहूंगा, मैं उदारता दिखाने के लिए नहीं कहूंगा, मैं अदालत द्वारा दी गई किसी भी सजा को स्वीकार करूंगा, और यही एक नागरिक का पहला कर्तव्य भी है। 

अदालत ने जब प्रशांत भूषण को अवमानना पर अदालत से माफी मांगने पर विचार करने के लिए दो दिन और देने की बात कही तो प्रशांत भूषण ने कहा- मैंने जो कुछ भी कहा है, वह बेहद सोच-समझकर और विचार करने के बाद ही कहा है। अगर अदालत मुझे समय देना चाहती है तो मैं इसका स्वागत करता हूं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसका कोई फायदा, इससे अदालत का समय ही बर्बाद होगा। इसकी बहुत संभावना नहीं है कि मैं अपना बयान बदलूंगा। 

इस मामले में देश के अलग-अलग राजनीतिक दलों के 21 नेताओं ने बयान जारी करके प्रशांत भूषण के प्रति समर्थन जताया है, और लिखा है- न्याय देने में आ रही दिक्कतों, और लोकतांत्रिक संस्थाओं में गिरावट को लेकर उनके दो ट्वीट पर अवमानना की कार्रवाई की गई। यह दुखद है कि माननीय न्यायालय ने यह जरूरी नहीं समझा कि रचनात्मक आलोचना और दुर्भावनापूर्ण बयान में अंतर करे। हम ऐसी एप्रोच के लिए वैध आधार नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि यह एक आम व्यक्ति के लिए अपनी नागरिकता के उस दायित्व को निभाने में बाधा खड़ी करेगा जो दायित्व हमारे लोकतांत्रिक गणतंत्र के बारे में तथ्यपरक अभिव्यक्ति देने के रूप में है। हमारा विश्वास है कि बोलने की आजादी की रक्षा की जाए, और इसको बढ़ावा दिया जाए क्योंकि हमारे युवा लोकतंत्र में अलग-अलग नजरिए की विविधता और सभी संस्थाओं के सार्थक होने के लिए मुस्तैदी जरूरी है। 

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इसके पहले बार एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने भी इस मामले में गहरी चिंता जताई थी, और मंगलवार को एक बयान जारी करके कहा था- जैसे यह अवमानना-कार्रवाई की गई है उससे अदालत की प्रतिष्ठा बने रहने से ज्यादा नुकसान पहुंचने की आशंका है। कुछ ट्वीट से सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता। जब कोर्ट ने इस मामले का संज्ञान लिया था तब हमने अपना पक्ष सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था, लेकिन गलती से सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री में इसे शामिल नहीं किया। हमारे बयान में बार के बोलने की ड्यूटी से जुड़ी धारा का भी उल्लेख था जिसमें कहा गया है- न्यायपालिका, न्यायिक अधिकारियों, व न्यायिक आचरण से संबंधित संस्थागत और संरचनात्मक मामलों पर टिप्पणी करना सामान्य रूप से न्याय प्रशासन और एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर भी वकीलों की ड्यूटी है। 

देश के पन्द्रह सौ से ज्यादा वकीलों ने प्रशांत भूषण के पक्ष में बयान जारी करके कहा है- सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले पर पुनर्विचार करे ताकि न्याय की हत्या न हो। अवमानना के डर से खामोश बार से सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता, और आखिरकार ताकत कम होगी। 

सुप्रीम कोर्ट की एक प्रमुख वकील इंदिरा जयसिंह ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि जस्टिस अरूण मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने प्रशांत भूषण के खिलाफ जो फैसला दिया है उस पर पुनर्विचार किया जाए। उन्होंने सुनवाई के लिए 32 जजों की एक पूरी अदालत की मांग की है। उन्होंने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अपने भाषण में कहा- अगर मैं अपने मन की बात कहती हूं, इसलिए मेरा अस्तित्व है, लेकिन अगर यह अधिकार खतरे में पड़ता है तो मेरा अस्तित्व भी नहीं बच पाएगा। एक अदालत जिसके पास जनहित याचिका की सुनवाई की शक्ति है, वह असंतोष के स्वरों को सुनने से खुद को नहीं रोक सकती। हमारा कर्तव्य है कि यदि हम न्यायालय को उसके रास्ते से भटकते हुए देखें, तो बोलें। नागरिक के रूप में हमारा कर्तव्य है कि हम जीवंत आलोचना करें। हमें स्वतंत्र रूप से बोलने की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही। सुप्रीम कोर्ट जनता का सहयोगी है, और एक भारतीय नागरिक का सार्वजनिक क्षेत्राधिकार सार्वजनिक है, इसलिए नागरिकों को असहमति का अधिकार है। अदालत यह दिखाने में विफल रही कि ट्वीट न्याय में हस्तक्षेप कैसे हो सकता है? फैसले में कहा गया है कि न्यायालय पर से जनता का विश्वास हिल जाएगा। क्या जनता से सलाह ली गई थी? क्या तीन जज ही जनता हैं? कई संपादकीय और बयान फैसले के खिलाफ आए हैं, और उनसे स्पष्ट है कि लोग बोलने की आजादी के हिमायती हैं। मैं सुप्रीम कोर्ट के 32 जजों की एक पूर्ण अदालत द्वारा फैसले पर पुनर्विचार पर अपील करती हूं, हम यह जानना चाहते हैं कि क्या यह (फैसला) पूरे न्यायालय का नजरिया है? 

अलग-अलग लोगों के बयानों के हिस्से ऊपर देने के साथ-साथ हम अपनी तरफ से आज यहां बस इतना लिखना चाहते हैं कि आज सुप्रीम कोर्ट के सामने दो विकल्प हैं, वह सजा पर फैसला भी दे सकता है, और वह इंसाफ भी कर सकता है। यह एक ऐतिहासिक मौका है, और आज इस बेंच में मौजूद तीन जजों के जाने के बाद भी लोकतंत्र और न्यायपालिका, हिन्दुस्तान का संविधान, और जनता की जिम्मेदारी, इन सब मुद्दों पर जमकर इतिहास लिखा जाएगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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