संपादकीय
बुराई पर अच्छाई का त्यौहार दशहरा कल आकर चला गया। दो-तीन दिनों से बारिश चल रही थी, और रावण के बन रहे पुतले जगह-जगह भीग गए थे, कई जगहों पर वे जल नहीं पाए, और उसे एक साल की लीज और मिल गई। लेकिन रावण से परे उन इंसानों को देखें जो कि रावण दहन के लिए हर बरस दशहरा मैदान जाते हैं, और अपने को राम की तरह समझते हैं, उनका हाल देखें, तो लगता है कि रावण के टुकड़े तो इन तमाम लोगों के भीतर भरे हुए हैं। अब आज एक अखबार के आधे पेज पर ही छत्तीसगढ़ की जो खबरें छपी हैं, उन्हें देखकर लगता है कि क्या सचमुच ही रावण को जलाने का कोई मतलब रहता है, या फिर इस फर्जीवाड़े के बाद भी लोगों के भीतर का रावण उनसे कई तरह की हिंसा करवाते रहता है। अब ऐसी चार बड़ी खबरों में से पहले किसे बताएं, और बाद में किसे, यह तय करना खासा मुश्किल लग रहा है।
छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर की खबर है कि पेट्रोल पंप पर काम करने वाली एक युवती को कल उसके ही एक पिछले प्रेमी ने आकर खुलेआम, दिनदहाड़े, चाकू से गोदकर मार डाला। वह उसके किसी और युवक से बात करने को लेकर खफा था। प्रेमसंबंधों के बीच चाकू चलने और कत्ल करने की घटनाएं इतनी हो रही हैं कि प्रेम के प्रतीक के रूप में दिल के लाल निशान की जगह चाकू का ही निशान बना देना चाहिए, उससे कुछ लोग सावधान तो होंगे। एक दूसरी घटना जांजगीर-चाम्पा की है जहां एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद एक महिला देर रात घर अकेले लौट रही थी, और तीन मोटरसाइकिलों पर वहां से निकलते नौजवानों ने उसे घर छोडऩे के बहाने बिठा लिया, और बाजार में एक जगह ले जाकर 7 लोगों ने बलात्कार किया। सारे के सारे गिरफ्तार हो गए हैं, और बलात्कार के मामलों में जिस तरह के सुबूत जुट जाते हैं, उससे इन्हें सजा होने की काफी गुंजाइश भी रहती है। रोज ऐसी खबरें अखबारों में आती हैं, लेकिन इन 7 नौजवानों का या तो खबरों को पढऩे से लेना-देना नहीं था, या फिर उन्हें सजा की कोई परवाह नहीं थी। तीसरी घटना दुर्ग जिले की है जहां दो सगे भाईयों ने उनके पिता से अलग रह रही अपनी माँ के लिव-इन-पार्टनर को पीट-पीटकर मार डाला। उनका माँ से इस संबंध को लेकर तनाव बने रहता था, और अब गिरफ्तार दोनों भाई बरसों के लिए जेल जाएंगे, यह तय है। चौथी घटना बिलासपुर जिले की है जहां भाई के मर जाने के बाद भाभी को पेंशन मिल रही थी, और भतीजी को एसईसीएल में अनुकम्पा नियुक्ति मिलने की प्रक्रिया चल रही थी। ऐसे में मृतक के भाई ने भाभी-भतीजी को मारने के लिए पांच लाख रूपए में दो लोगों को ठेका दिया, और 70 हजार रूपए एडवांस भी दिए। भाड़े के हत्यारों ने उनके घर में छुपकर ही माँ-बेटी पर हमला बोला, माँ मारी गई, भतीजी बुरी तरह जख्मी अस्पताल में है, और उनकी जगह अनुकम्पा नियुक्ति पाने के बजाय सुपारी देने वाला देवर भी हत्यारों सहित गिरफ्तार हो चुका है।
अब तो हत्या और बलात्कार सरीखे गंभीर अपराधों में मुजरिमों का बच निकलना कम होते जा रहा है, और अखबारों में हर दिन ऐसे कई जुर्म की खबरों के साथ-साथ कुछ दूसरे ताजा-ताजा जुर्मों में गिरफ्तारियों की खबरें भी छपती हैं। इसके बावजूद अगर लोग कई बरस की कैद लायक जुर्म करने से परहेज नहीं करते हैं, कतराते नहीं हैं, तो यह समझने की जरूरत है कि उनकी जिंदगी में इतनी तकलीफ का खतरा उठाने लायक कौन सी बात है? इसे कुछ दूसरे तरह से भी समझा जा सकता है कि क्या उनकी जिंदगी में ऐसा कोई सुख नहीं है, ऐसी किसी खुशी की संभावना नहीं है कि वे उसकी चाहत में कैद और जेल से दूर रहना चाहें? जिन लोगों की जिंदगी में उम्मीदें रहती हैं, संभावनाएं रहती हैं, वे अपने आपको बचाकर रखना चाहते हैं। लेकिन जिनकी जिंदगी अभावों से भरी रहती है, आगे भी जिन्हें कोई रौशनी नहीं दिखती, वैसे लोग कैद जैसे खतरों की परवाह नहीं करते। आज सभी तरह के गंभीर अपराधों के मुजरिमों को देखें, तो वे जिंदगी में अच्छे-भले बसे हुए लोग नहीं रहते, वे आमतौर पर बेरोजगार, नशेड़ी, गरीबी से गुजरते हुए लोग अधिक रहते हैं। जिस देश में जुर्म जितना अधिक है, वह देश संपन्नता, सफलता, और खुशहाली से उतनी ही दूरी वाला देश रहता है। किसी भी देश-प्रदेश को जुर्म के आंकड़ों से यह सबक भी लेना चाहिए कि उनकी आबादी का कौन सा तबका कैद से डर नहीं रहा है। जब आपके बीच के लोग कैद से न डरते हों, तो आपको उनसे डरना चाहिए, वे खतरनाक होते हैं, क्योंकि वे बेधडक़ हो चुके रहते हैं, कानून का उन्हें कोई खौफ नहीं रहता। कोई भी समाज तभी तक सुरक्षित रह सकता है जब तक उसके लोग परिवार को छोडक़र जेल जाने से डरते हों, जिन्हें जिंदगी में सुख की चीजों की या तो चाहत रहती है, या जिन्हें सुख हासिल रहता है। सुख अपने आपमें जुर्म से दूर रहने की एक बड़ी वजह रहती है क्योंकि लोग सुख की आजाद जिंदगी को छोडक़र कैद की तकलीफों में जाना नहीं चाहते। यही वजह है कि संपन्न तबकों के लोग जेलों में गिने-चुने दिखते हैं, और अधिकतर मुजरिम ऐसे रहते हैं जिनकी जेल की जिंदगी बाहर की जिंदगी के मुकाबले बहुत अधिक खराब नहीं रहती है।
हमारा यह मानना है कि किसी भी देश-प्रदेश की सरकार को गंभीर हिंसक अपराधों के पीछे की सामाजिक और पारिवारिक वजहों का विश्लेषण करते रहना चाहिए, और जानकार विशेषज्ञों की सलाह से समाज की स्थितियों को सुधारना भी चाहिए। हमारी यह सलाह अब शायद सेंचुरी पूरी करने को होगी कि किसी जिम्मेदार समाज-सरकार को अपने हिंसाभरे लोगों को जुर्म से रोकने के लिए परामर्श देने का इंतजाम करना चाहिए। मनोवैज्ञानिक विश्लेषकों, और परामर्शदाताओं की जरूरत समाज को ट्रैफिक पुलिस, दमकलकर्मी, बिजली मिस्त्री जैसी ही है। बस यही है कि इन लोगों का काम आंखों से दिखता है, और परामर्शदाता का काम दिल-दिमाग से जुड़ा रहता है जो कि दिखता नहीं है। अगर किसी सडक़ पर मौजूद लोगों में से 20 फीसदी के दिल-दिमाग में हिंसा भरी होने से सडक़ जाम हो सकता, तो सरकार ट्रैफिक पुलिस की तरह परामर्श-पुलिस तैनात कर देती। लेकिन अंग्रेजी में कहा जाता है- आऊट ऑफ साईट, आऊट ऑफ माइंड। जो नजरों से ओझल है, वह मानो है ही नहीं। लेकिन ऐसे रूख से समाज में खतरा बढ़ते चल रहा है। यह सिलसिला बदलना चाहिए। जिस तरह स्कूलों में शिक्षक हैं, नल चालू और बंद करने के लिए ऑपरेटर हैं, ठीक उसी तरह आबादी के एक अनुपात में परामर्शदाता रहने चाहिए, उन पर जो खर्च होगा, वह समाज में हिंसा से होने वाले नुकसान के मुकाबले कहीं भी अधिक नहीं होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


